YOG/DHYAN/SADHANA

Neti Neti Satya Ki Khoj 05

Fifth Discourse from the series of 5 discourses - Neti Neti Satya Ki Khoj by Osho. These discourses were given in BHAVNAGAR during JAN 16-19 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
सूर्य के प्रकाश में गिरनार के चमकते मंदिरों को अभी देख कर मैं आया। उन मंदिरों को देख कर मुझे खयाल आया, आत्मा के भी ऐसे ही गिरनार-शिखर हैं। आत्मा के उन शिखरों पर भी इनसे भी ज्यादा चमकते हुए मंदिर हैं। उन मंदिरों पर परमात्मा का और भी तीव्र प्रकाश है।
लेकिन हम तो बाहर के मंदिरों में ही भटके रह जाते हैं और भीतर के मंदिरों का कोई पता भी नहीं चल पाता। हम तो पत्थर के शिखरों में ही यात्रा करते हुए जीवन गंवा देते हैं। चेतना के शिखरों का कोई अनुभव ही नहीं हो पाता।
जैसे गिरनार के इस पर्वत पर चढ़ने वाली पगडंडियां हैं, ऐसी ही चेतना के शिखरों पर चढ़ने वाली पगडंडियां भी हैं। लेकिन एक फर्क है उन पगडंडियों में और इन पगडंडियों में। चेतना के जगत में कोई चरण-चिह्न नहीं बनते हैं। जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं तो कोई उनके चिह्न पीछे नहीं छूट जाते। पीछे आने वाले पक्षियों को, आगे उड़ गए पक्षियों के मार्ग पर चलने का कोई भी उपाय नहीं। प्रत्येक पक्षी को अपने ही मार्ग पर उड़ना होता है।
ऐसे ही सत्य के मार्ग पर कोई राजपथ नहीं बने हैं, कोई बंधे-बंधाए रास्ते नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही अपना रास्ता बनाना पड़ता है। चलने से ही वहां रास्ता बनता है। चलने के पहले वहां कोई भी रास्ता बना हुआ नहीं है। रास्ते अगर बने होते तो हम किसी का अनुगमन करके उन शिखरों पर पहुंच सकते। लेकिन वहां कोई रास्ता निर्मित ही नहीं होता। वहां आदमी चलता है और चरण-चिह्न मिट जाते हैं, पुंछ जाते हैं, आकाश में खो जाते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को अपना ही रास्ता खोजना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना ही रास्ता बनाना पड़ता है।
लेकिन फिर भी उन रास्तों के संबंध में कुछ इशारे किए जा सकते हैं। उन रास्तों के संबंध में कुछ संकेत किए जा सकते हैं। इस अंतिम चर्चा में उन संकेतों पर ही कुछ बात करनी है।
पहले सूत्र में कुछ बातें कही थीं, दूसरे सूत्र में, और आज तीसरे सूत्र पर आपसे बात करूंगा।
यह तीसरा सूत्र थोड़ा सांकेतिक है, सिंबालिक है। इसे थोड़ा समझना होगा।
इस संकेत की तरफ पहली बात: जिन लोगों को भी सत्य की यात्रा करनी है, उन्हें पहला संकेत समझ लेना है। और वह पहला संकेत यह है कि साधारणतः जिस जीवन को हम सत्य समझते हैं, वह जीवन सत्य नहीं है। और जब तक हम इस जीवन को सत्य समझे चले जाएंगे, तब तक जो सत्य है, उस दिशा में हमारी आंखें भी नहीं उठेंगी। जो जीवन हमें सत्य मालूम पड़ता है, जिन्हें सत्य की यात्रा करनी है, उन्हें इस जीवन को सपने की भांति समझना शुरू करना पड़ता है--यह पहला संकेत है।
यह जो हमारा बाहर का फैलाव है, यह जो जन्म से लेकर मृत्यु तक की लंबी यात्रा है--यह सत्य है या एक सपना है? इस संबंध में थोड़ा विचार करना जरूरी है।
साधारणतः हम इसे सत्य मान कर ही जीते हैं। लेकिन कभी हमने बहुत शायद विचार नहीं किया। रात हम सपना देखते हैं तो देखते समय सपना भी सत्य ही मालूम पड़ता है। कभी आपको सपने में ऐसा पता नहीं चला होगा कि जो आप देख रहे हैं, वह असत्य है। सपना भी सत्य ही मालूम होता है। बार-बार सपने देखते हैं, रोज-रोज सपने देखते हैं, जीवन भर सपने देखते हैं। फिर भी सपना देखते समय सत्य ही मालूम पड़ता है। यह स्मरण ही नहीं आता कि जो हम देख रहे हैं, वह भी असत्य हो सकता है।
जो लोग और बड़े सत्य के प्रति जागते हैं, वे कहते हैं कि हम जो आंख खोल कर दुनिया देख रहे हैं, वह दुनिया भी सपना है।
एक सम्राट का युवा पुत्र बीमार पड़ा। एक ही बेटा था उसका, वह मरणशय्या पर पड़ा था। चिकित्सकों ने कहा था कि बचने की कोई उम्मीद नहीं है। उस रात ही उसका दीया बुझ जाएगा, इसकी संभावना थी।
सम्राट रात भर जाग कर बैठा रहा। सुबह भोर होते-होते उसकी झपकी लग गई। सम्राट अपनी कुर्सी पर बैठा-बैठा ही पांच बजे के करीब सो गया। सोते ही भूल गया उस बेटे को, जो सामने खाट पर बीमार पड़ा था; उस महल को जिसमें बैठा था, उस राज्य को जिसका मालिक था।
एक सपना आना शुरू हुआ। उस सपने में उसने देखा कि सारी पृथ्वी का मैं मालिक हूं। बारह बेटे हैं उसके। बहुत सुंदर, स्वर्ण जैसी उनकी काया है, बहुत स्वस्थ, बहुत बुद्धिमान। सारी पृथ्वी पर फैला हुआ राज्य। स्वर्ण के महल हैं उसके पास, हीरे-जवाहरातों की सीढ़ियां हैं। वह अतीव आनंद में है।
और तभी इस बाहर लेटे हुए बेटे की श्वास टूट गई। पत्नी छाती पीट कर रोने लगी। रोने से नींद खुल गई सम्राट की। आंख खोल कर वह उठा। खो गए वे सपने के स्वर्ण-महल, खो गए वे बारह बेटे, खो गया वह चक्रवर्ती का बड़ा राज्य। देखा तो बाहर बेटा मर चुका है, पत्नी रोती है। लेकिन उसकी आंख में आंसू नहीं आए, ओंठों पर हंसी आ गई उस सम्राट के।
पत्नी कहने लगी: क्या तुम्हारा मन विक्षिप्त हो गया? क्या तुम पागल हो गए हो? बेटा मर गया है और तुम हंस रहे हो?
वह सम्राट कहने लगा: मुझे हंसी किसी और बात से आ रही है। मैं इस चिंता में पड़ गया हूं कि किन बेटों के लिए रोऊं? अभी-अभी बारह मेरे बेटे थे, स्वर्ण के महल थे, बड़ा राज्य था। तू रोई, मेरा सारा वह राज्य छिन गया, मेरे वे बेटे छिन गए। आंख खोलता हूं, तो वे सब खो गए हैं।
और यह बेटा, जब तक आंख बंद थी, खो गया था। मुझे याद भी नहीं था कि मेरा कोई बेटा है और जो बीमार पड़ा है। जब तक वे बारह बेटे थे, इस बेटे की मुझे कोई याद न थी। और अब जब यह बेटा दिखाई पड़ रहा है, तो वे बारह बेटे खो गए हैं। अब मैं सोचता हूं कि मैं किसके लिए रोऊं? उन बारह बेटों के लिए, उन स्वर्ण-महलों के लिए, उस बड़े राज्य के लिए या इस एक बेटे के लिए?
और मुझे हंसी इसलिए आ गई है कि कहीं दोनों ही सपने तो नहीं हैं--एक आंख बंद का सपना और एक खुली आंख का सपना? क्योंकि जब तक आंख बंद थी यह भूल गया था और जब आंख खुली है तो वह जो आंख बंद में दिखाई पड़ा था वह भूल गया।
एक सपना है जो हम आंख बंद करके देखते हैं और एक सपना है जो हम आंख खोल कर देखते हैं। लेकिन वे दोनों ही सपने हैं।
च्वांगत्सु चीन में हुआ एक फकीर। सदा लोगों ने उसे हंसते ही देखा था, कभी उदास नहीं देखा। एक दिन सुबह उठा और उदास बैठ गया झोपड़े के बाहर। उसके मित्र आए, उसके प्रियजन आए और वे पूछने लगे, आपको कभी उदास नहीं देखा। चाहे आकाश में कितनी ही घनघोर अंधेरी छाई हो और चाहे जीवन पर कितने ही दुखदायी बादल छाए हों, आपके ओंठों पर सदा मुस्कुराहट देखी है। आज आप उदास क्यों हैं? चिंतित क्यों हैं?
वह च्वांगत्सु कहने लगा: आज सचमुच मैं एक ऐसी उलझन में पड़ गया हूं, जिसका कोई हल सूझे नहीं सूझता है।
लोगों ने कहा: हम तो अपनी समस्याएं लेकर आते हैं आपके पास और सभी समस्याओं के समाधान हो जाते हैं। आपको भी कोई समस्या आ गई! क्या है वह समस्या?
च्वांगत्सु ने कहा: बताऊंगा जरूर, लेकिन तुम भी हल न कर सकोगे। और मैं सोचता हूं कि शायद अब इस पूरे जीवन वह हल नहीं हो सकेगी।
रात मैंने एक सपना देखा है। उस सपने में मैंने देखा कि मैं एक बगीचे में तितली हो गया हूं और फूलों-फूलों पर उड़ता फिर रहा हूं।
लोगों ने कहा: इसमें ऐसी कौन सी बड़ी समस्या है? आदमी सपने में कुछ भी हो सकता है।
च्वांगत्सु ने कहा: मामला यही होता तो ठीक था। लेकिन जब मैं जागा तो मेरे मन में एक प्रश्र्न पैदा हो गया कि अगर च्वांगत्सु नाम का आदमी सपने में तितली हो सकता है तो कहीं अब ऐसा तो नहीं है कि तितली सो गई हो और सपना देखती हो कि च्वांगत्सु हो गई है! मैं सुबह से परेशान हूं। अगर आदमी सपने में तितली हो सकता है, तो तितली भी तो सपने में आदमी हो सकती है। और अब मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि मैं तितली हूं, जो सपना देख रही है आदमी होने का या कि मैं आदमी था, जिसने सपना देखा तितली होने का। और अब यह कौन तय करेगा? मैं बहुत मुश्किल में पड़ गया हूं। शायद यह कभी तय नहीं हो सकेगा।
च्वांगत्सु ठीक कहता है, जो हम बाहर देखते हैं, वह भी एक खुली आंख का सपना तो नहीं है? क्योंकि आंख बंद होते ही वह मिट जाता है और खो जाता है और विलीन हो जाता है। आंख बंद होते ही हम किसी दूसरी दुनिया में हो जाते हैं। और आंख खोल कर भी जो हम देखते हैं, उसका मूल्य सपने से ज्यादा नहीं मालूम होता।
आपने जिंदगी जी ली है--किसी ने पंद्रह वर्ष, किसी ने चालीस वर्ष, किसी ने पचास वर्ष। अगर आज लौट कर पीछे की तरफ देखें कि उन पचास वर्षों में जो भी हुआ था, वह सच में हुआ था या एक सपने में हुआ था? तो क्या फर्क मालूम पड़ेगा? पीछे लौट कर देखने पर क्या फर्क मालूम पड़ेगा? जो भी हुआ था--जो सम्मान मिला था, जो अपमान मिला था--वह एक सपने में मिला था या सत्य में मिला था?
मरते क्षण आदमी को क्या फर्क पड़ता है कि जो जिंदगी उसने जी थी, वह एक कहानी थी जो उसने सपने में देखी या सच में ही वह जिंदगी घटी थी?
इस जमीन पर कितने लोग रह चुके हैं हमसे पहले। हम जहां बैठे हैं, उसके कण-कण में न मालूम कितने लोगों की मिट्टी समाई है, न मालूम कितने लोगों की राख है। पूरी जमीन एक बड़ा श्मशान है, जिस पर न मालूम कितने अरबों-अरबों लोग रहे हैं और मिट गएहैं। आज उनके होने और न होने से क्या फर्क पड़ता है? वे जब रहे होंगे, तब उन्हें जिंदगी मालूम पड़ी होगी कि बहुत सच्ची है। न जिंदगी रही उनकी, न वे रहे आज, सब मिट्टी में खो गए हैं।
आज हम जिंदा बैठे हैं, कल हम भी खो जाएंगे। आज से हजार वर्ष बाद हमारी राख पर लोगों के पैर चलते होंगे। तो जो जिंदगी आखिर में राख हो जाती हो, उस जिंदगी के सच होने का कितना अर्थ है? जो जिंदगी अंततः खो जाती हो, उस जिंदगी का कितना मूल्य है?
जिस च्वांगत्सु की मैंने बात कही, वही च्वांगत्सु एक बार एक गांव से निकलता था। रात का वक्त था। गांव के बाहर आया तो एक मरघट पर एक खोपड़ी पड़ी थी आदमी की, वह उसके पैर से टकरा गई। और कोई आदमी होता तो जोर से लात मार कर उस खोपड़ी को अलग कर दिया होता। समझता कि अपशकुन हो गया, कहां बीच में खोपड़ी आ गई।
लेकिन च्वांगत्सु तो बहुत अदभुत आदमी था। उसने उस खोपड़ी को उठा कर सिर से लगा लिया और बहुत-बहुत क्षमा मांगने लगा कि क्षमा कर दो मुझे, भूल से मेरा पैर लग गया; अंधेरा है, रात है, मैं देख नहीं पाया कि आप भी यहां हैं।
अब वह खोपड़ी थी आदमी की, मरे हुए आदमी की, न मालूम वह आदमी कब मर गया था।
च्वांगत्सु के मित्र उससे कहने लगे: क्या पागलपन करते हो? किससे क्षमा मांग रहे हो?
च्वांगत्सु ने कहा: वह तो थोड़े समय के फर्क की बात है, अगर यह आदमी जिंदा होता तो आज मेरी मुसीबत हो जाती।
लेकिन वे लोग कहने लगे: अब यह आदमी जिंदा नहीं है।
च्वांगत्सु ने कहा: तुम्हें पता नहीं है, यह छोटे लोगों का मरघट नहीं है, यह गांव के बड़े लोगों का मरघट है।
मरघट भी अलग-अलग होते हैं: गरीब आदमियों के अलग, अमीर आदमियों के अलग। जिंदगी में तो फर्क रहते हैं, मरने पर भी फर्क कायम रखते हैं!
च्वांगत्सु ने कहा: यह किसी बड़े आदमी की खोपड़ी है, किसी साधारण आदमी की खोपड़ी नहीं है। अगर यह आदमी आज होता तो मेरी मुसीबत हो जाती।
लेकिन वे लोग कहने लगे: अब यह नहीं है तो मुसीबत का सवाल क्या है?
च्वांगत्सु ने कहा कि नहीं, क्षमा तो मुझे मांगनी ही चाहिए, और भी कई कारणों से मैं इससे क्षमा मांगता हूं और इस खोपड़ी को अपने साथ ही रखूंगा।
उस खोपड़ी को वह अपने साथ ले गया और रोज सुबह उठ कर उससे क्षमा मांगने लगा। मित्रों ने बहुत समझाया कि पागल हो जाओगे इस खोपड़ी को अपने पास रख कर। क्षमा मांगने की जरूरत क्या है?
च्वांगत्सु कहने लगा: कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह है कि यह बड़े आदमी की खोपड़ी है।
लेकिन मित्र कहने लगे: सब खोपड़ियां मिट्टी में मिल जाती हैं--छोटे आदमी की भी और बड़े आदमी की भी।
और मिट्टी कोई फर्क नहीं करती है कि कौन बड़ा था, कौन छोटा था। और जब छोटे और बड़े सभी मिट्टी में मिल जाते हैं, तो छोटे होना और बड़े होना कहीं एक सपना तो नहीं है जो मिट्टी सब सपनों को मिटा देती है और एक सा कर देती है? छोटा और बड़ा होना कोई असलियत नहीं मालूम होती, किसी सपने का खयाल मालूम होता है।
च्वांगत्सु कहने लगा: मैं इसलिए इसे अपने पास रखता हूं कि अपनी खोपड़ी को भी याद करता रहूं कि आज नहीं कल किसी मरघट पर पड़ी रहेगी। चलते-फिरते लोगों की ठोकर लगेगी और फिर मैं कुछ भी न कर सकूंगा। जब आखिर में यही हो जाना है तो आज ही मेरे सिर में अगर किसी का पैर लग जाए तो नाराज होने की जरूरत क्या है? जब यह हो ही जाना है, तो यह हो ही गया है।
जो जानते हैं, वे कहेंगे कि जो हो ही जाना है, वह हो ही गया है। अगर जिंदगी मिट जानी है, तो मिटी ही हुई है। और अगर जिंदगी मिट्टी में गिर जानी है, तो मिट्टी में गिरी ही हुई है। यह थोड़ी देर का ख्वाब है, थोड़ी देर का सपना है कि लगता है कि सब ठीक है।
अगर हम थोड़ा विस्तार से जीवन को देखेंगे तो हम पाएंगे सभी कुछ खो जाता है, सभी कुछ मिट्टी हो जाता है। और जहां सभी कुछ मिट्टी हो जाता हो, वहां सत्य मानने का कितना कारण है?
लेकिन हम कहेंगे कि सपना तो क्षण भर का होता है रात में, जिंदगी तो सत्तर-अस्सी वर्ष, सौ वर्ष की होती है। लेकिन अगर और थोड़ी आंखें खोल कर हम देखें तो इस विराट जगत में सौ वर्ष भी क्षण भर से ज्यादा नहीं मालूम होते। इस पृथ्वी को बने कोई चार अरब वर्ष हो चुके हैं। इस सूरज को बने कोई छह अरब वर्ष हो चुके हैं, लेकिन यह सूरज दुनिया में सबसे नया अतिथि है। वे जो और तारे हैं, वे इससे बहुत पुराने हैं। यह सूरज सबसे नया है, छह अरब वर्ष, यह बहुत नया मेहमान है। वे जो और तारे हैं, उनकी संख्या लगाना बहुत मुश्किल है कि वे कितने पुराने हैं।
इस विराट समय के प्रवाह में सौ वर्ष का क्या अर्थ होता है? कोई भी अर्थ नहीं होता। कहीं चांद-तारों को पता भी नहीं चलता कि सौ वर्ष कब बीत गए। सौ वर्ष ऐसे ही बीत जाते हैं, जैसे घड़ी की टिक-टिक बीत जाती है, हमारे क्षण बीत जाते हैं। इस विराट जीवन की धारा में सौ वर्ष की कितनी लंबाई है? कोई भी लंबाई नहीं है शायद।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा। वह आदमी बहुत कंजूस था। उसने जीवन भर पैसे ही इकट्ठे किए थे। मरते वक्त उसने एक किताब पढ़ी थी और उस किताब में लिखा हुआ था कि स्वर्ग में पहुंचने पर वहां की एक-एक कौड़ी भी अरबों-खरबों रुपयों की होती है। वह आदमी तो जिंदगी भर रुपये ही इकट्ठे करता रहा था। मरते वक्त भी यही सोचता मरा कि अगर स्वर्ग में एक कौड़ी भी मिल जाए तो गजब हो जाए। क्योंकि अरबों-खरबों की होती है। जैसे ही उसकी आंख स्वर्ग में खुली, उसने कौड़ी खोजनी शुरू कर दी। देवताओं ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हैं?
उसने कहा कि मैं एक कौड़ी चाहता हूं, सिर्फ एक कौड़ी। मैंने सुना है, अरबों-खरबों की होती है एक कौड़ी स्वर्ग की।
उन देवताओं ने कहा: ठहरो, एक क्षण ठहरो, हम तुम्हें दे देंगे।
एक क्षण की जगह, घंटों बीतने लगे, दिन बीतने लगे तो उसने कहा कि महाशय, वह एक क्षण कब बीतेगा?
तो उन देवताओं ने कहा कि तुम्हें खयाल नहीं, जिस स्वर्ग में एक कौड़ी अरबों-खरबों की होती है, वहां एक क्षण भी अरबों-खरबों वर्षों का होता है। एक क्षण रुको, अभी दे देंगे।
वहां पैमाने, जीवन के पैमाने बहुत बड़े हैं। अंतहीन पैमानों में सौ वर्षों का क्या अर्थ है? कितना अंतहीन पैमाना है, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। कब से समय चल रहा है! कब तक समय चलेगा!
बर्ट्रेंड रसल ने एक छोटी सी कहानी लिखी है। उसने लिखा है कि एक चर्च का एक पादरी एक रात सोया और उसने स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग के द्वार पर पहुंच गया है। लेकिन द्वार इतना बड़ा है कि उसके ओर-छोर का कोई पता नहीं चलता। वह सिर ऊपर उठा कर देखता है, देखता है, देखता है--लेकिन उसका कोई अंत नहीं है। वह उस द्वार पर जोर-जोर से थपकी देता है।
लेकिन उतने बड़े द्वार पर उस छोटे से आदमी की थपकियों की क्या आवाज पैदा होगी? उस अंतहीन सन्नाटे में कोई आवाज पैदा नहीं होती। वह सिर पटक-पटक कर मर जाता है और बहुत दुखी होता है। क्योंकि सदा उसने यही सोचा था कि मैं तो भगवान की दिन-रात पूजा और प्रार्थना करता हूं। जब मैं जाऊंगा तो भगवान मुझे द्वार पर ही हाथ फैलाए हुए आलिंगन करने को तैयार मिलेंगे। यहां दरवाजा ही बंद है। और यहां इतने जोर से पीटता है वह, लेकिन कोई आवाज नहीं होती, क्योंकि दरवाजा इतना बड़ा है।
बहुत चिल्लाने, बहुत शोरगुल मचाने पर एक खिड़की दरवाजे में से खुलती है और कोई झांकता है। लेकिन वह पादरी घबड़ा जाता है और द्वार की संध में सरक जाता है। क्योंकि वे आंखें इतनी तेज हैं, और एक-दो आंखें नहीं हैं, हजार-हजार आंखें हैं। वे इतनी तेज हैं कि वह घबड़ा जाता है और चिल्ला कर कहता है, कृपा करके भीतर हो जाइए और वहीं से बात करिए, देखिए मत। एक-एक आंख एक-एक सूरज मालूम पड़ती है। वह कहता है, हे भगवान, आपके दर्शन हो गए, बड़ी कृपा हुई।
लेकिन वह जो आदमी झांकता है द्वार से, वह कहता है, मैं भगवान नहीं हूं, यहां का द्वारपाल हूं। और तुम कहां छिप गए हो, मुझे दिखाई नहीं पड़ते? कितने छोटे आदमी हो, कहां से आ गए हो? वह जो हजार-हजार आंखों वाला आदमी है, उसको भी वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता है, इतना छोटा है। उस पादरी के मन में बड़ी दीनता मालूम होती है कि मैं सोचता था भगवान द्वार पर मिलेंगे, यह तो केवल द्वार का चपरासी है।
वह पादरी कहता है कि आपको पता नहीं कि मैं आने वाला था?
उस द्वारपाल ने कहा कि तुम जैसा जीव-जंतु पहली बार ही देखा गया, अनंतकाल में यहां। कहां से आए हो?
उसने कहा कि पृथ्वी से आ रहा हूं।
उस द्वारपाल ने कहा: यह नाम कभी सुना नहीं है, यह पृथ्वी कहां है?
तब उसकी श्र्वासें सरक गईं, हृदय की धड़कन उसकी बंद होने लगी! जब पृथ्वी का ही नाम नहीं सुना तो पृथ्वी पर ईसाई धर्म का नाम कहां से सुना होगा? और ईसाई धर्म के भी कैथोलिक संप्रदाय का कहां नाम सुना होगा? और कैथोलिक संप्रदाय का भी फलां-फलां गांव के चर्च का इसको क्या पता होगा? और चर्च के पुजारी का कहां...कहां हिसाब होगा, जब यह कहता है पृथ्वी का नाम पहली बार सुना गया है?...कहां है यह पृथ्वी?
तो वह पुजारी कहता है कि सौर-परिवार है, सूरज का परिवार है, उसमें पृथ्वी एक ग्रह है।
वह द्वारपाल कहता है, तुम्हें कुछ अंदाज नहीं, कितने अनंत सूरज हैं? कौन सा सूरज? नंबर क्या है? इंडेक्स नंबर क्या है तुम्हारे सूरज का? शायद तुम नंबर बता सको अपने सूरज का तो कुछ खोज-बीन की जा सकती है कि तुम किस सौर-परिवार से आते हो?
उसने कहा: नंबर! हम तो एक ही सूरज जानते हैं।
फिर भी उसने कहा: कोशिश की जाएगी। खोज-बीन की जाएगी। खोज-बीन करने से शायद पता चल जाए। लेकिन बहुत कठिन है पता लगना।
घबड़ाहट में उस पादरी की नींद खुल जाती है। वह पसीने से तर-बतर है। और उसको पहली दफा पता चलता है कि जिस विराट जगत में वह है, वहां कहां पृथ्वी का कोई ठिकाना?
यह पृथ्वी कितनी छोटी है, लेकिन हमें कितनी बड़ी मालूम पड़ती है। इस पृथ्वी से सूरज साठ हजार गुना बड़ा है और सूरज बहुत छोटा ग्रह है। वे जो तारे हमें दिखाई पड़ते हैं आकाश में, वे सूरज से बहुत बड़े-बड़े हैं, लेकिन छोटे दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि फासला बहुत ज्यादा है। इस सूरज से किरण को आने में पृथ्वी तक दस मिनट लग जाते हैं। और किरण की यात्रा बहुत तेज है। सूरज की किरण चलती है एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की गति से सूरज की किरण चलती है। सूरज से किरण के आने में दस मिनट लग जाते हैं।
सूरज बहुत दूर है, लेकिन बहुत दूर नहीं है। सूरज के बाद जो सबसे निकट का तारा है, उसकी किरण को पहुंचने में पृथ्वी तक चार वर्ष लग जाते हैं। एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलने वाली किरण चार वर्षों में पृथ्वी पर पहुंच पाती है। और वह निकटतम तारा है।
और दूर के तारे हैं--जिनसे सौ वर्ष लगते हैं, दो सौ वर्ष लगते हैं, हजार वर्ष लगते हैं, करोड़ वर्ष लगते हैं, अरब वर्ष लगते हैं। ऐसे तारे हैं कि जिनकी चली हुई किरण अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुंची। और उस समय चली थी जब पृथ्वी बन रही थी, चार अरब वर्ष पहले। उसके आगे भी तारे हैं, वैज्ञानिक कहते हैं, जिनकी किरण कभी भी नहीं पहुंचेगी।
इतने बड़े इस विस्तार के जगत में पृथ्वी का मूल्य क्या है? और इस पृथ्वी पर हमारा मूल्य क्या है? लेकिन हम अपना कुछ मूल्य मान कर जीते हैं। वह जितना हम मूल्य मानते हैं, उतने ही हम अशांत होते है। जितना हम मूल्य मानते हैं, उतने ही हम परेशान होते हैं। जितना हम मूल्य मानते हैं, उतने ही हम पीड़ित होते हैं। और जितना हम मूल्य मान कर अशांत हो जाते हैं, उतना ही सत्य के दर्शन की संभावना क्षीण और कम हो जाती है।
सत्य का दर्शन उन्हें हो सकता है, जो शांत हों।
और शांत होने का पहला सूत्र है कि जिस जीवन को सत्य समझ रहे हैं, उसे सत्य मत समझना, उसे सपने से ज्यादा मूल्य मत देना।
जिस दिन जीवन सपना मालूम पड़ता है, उसी दिन चित्त शांत हो जाता है।
जब तक जीवन सत्य मालूम पड़ेगा, तब तक चित्त शांत नहीं हो सकता है, तब तक छोटी-छोटी चीज का बहुत मूल्य है हमें। हम तो सपने को सत्य मान कर परेशान हो जाते हैं। रात में एक आदमी सपने में भूत देख लेता है, आंख खुल जाती है, लेकिन छाती धड़कती रहती है। आंख खुल गई है, नींद खुल गई है, लेकिन वह सपना इतना सच मालूम पड़ा था कि अभी भी प्राण धक-धक घबड़ा रहे हैं।
हम तो नाटक को भी सच मान लेते हैं। सिनेमागृह में जाकर देखें लोगों को, न मालूम कितने लोग आंसू पोंछ रहे हैं रूमालों से। वह पर्दे पर कुछ भी नहीं चल रहा है सिवाय बिजली की धारा के, सिवाय नाचती हुई विद्युत के वहां कुछ भी नहीं है पर्दे पर। और मालूम है भलीभांति कि कोरा पर्दा है पीछे। उस कोरे पर्दे पर जो विद्युत की किरणें दौड़ रही हैं और चित्र बन रहे हैं। कोई रो रहा है, कोई हंस रहा है, कोई घबड़ा रहा है। हम तो नाटक को भी सच मान लेते हैं।
और सत्य की खोज का पहला सूत्र है कि जिसे हम सच कहते हैं, उसे भी नाटक जानना, तो आदमी सत्य को उपलब्ध हो सकता है।
बंगाल के एक बहुत बड़े विचारक थे, ईश्र्वरचंद्र विद्यासागर। एक नाटक को देखने गए। नाटक में एक अभिनेता है, जो एक स्त्री के पीछे बहुत बुरी तरह से पड़ा हुआ है। वह स्त्री को सब तरह से परेशान कर रहा है। आखिर एक एकांत रात्रि में उसने स्त्री के घर में कूद कर उस स्त्री को पकड़ लिया।
विद्यासागर के बर्दाश्त के बाहर हो गया। वे भूल गए कि यह नाटक है। जूता निकाल कर मंच पर कूद पड़े और उस आदमी को लगे जूता मारने। सारे देखने वाले दंग रह गए कि यह क्या हो रहा है?
लेकिन उस अभिनेता ने क्या किया? उसने विद्यासागर का जूता अपने हाथ में ले लिया, जूते को नमस्कार किया और जनता से कहा: इतना बड़ा पुरस्कार मेरे जीवन में मुझे कभी नहीं मिला! मेरे अभिनय को कोई इतना सत्य समझ लेगा, वह भी विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी; यह मैंने कभी सोचा नहीं था! मेरा अभिनय इतना सत्य हो सकता है--मैं धन्य हो गया, इस जूते को मैं सम्हाल कर रखूंगा! मुझे बहुत इनामें मिली हैं, लेकिन इतनी बड़ी इनाम मुझे क
भी भी नहीं मिली!
विद्यासागर तो बहुत झेंपे होंगे। जाकर अपनी जगह पर बैठ गए। बाद में लोगों से कहा कि बड़ी हैरानी की बात है। वह नाटक मुझे सच मालूम पड़ गया, मैं भूल ही गया कि जो देख रहा हूं वह केवल नाटक है!
अगर नाटक भी सच मालूम पड़े तो आदमी अशांत हो जाता है और अगर जीवन नाटक मालूम पड़ने लगे तो आदमी शांत हो जाता है। जीवन जितना सपना मालूम पड़ने लगे आदमी उतना ही शांत हो जाता है, क्योंकि सपने में अशांत होने का कारण क्या है? तब अगर गरीबी आती है तो सपना है और अमीरी आती है तो सपना है। तब बीमारी आती है तो सपना है और स्वास्थ्य आता है तो सपना है। तब सम्मान मिलता है तो सपना है और अपमान मिलता है तो सपना है। तब अशांत और पीड़ित और परेशान और टेंस होने का कारण क्या है?
सारा तनाव इसलिए पैदा होता है कि जीवन हमें बहुत सच्चा मालूम पड़ता है, बहुत यथार्थ मालूम पड़ता है। जीवन बिलकुल अयथार्थ है। जीवन बिलकुल नाटक है। और जितनी यह बात स्पष्ट होने लगे, उतना ही भीतर चित्त शांत होना शुरू हो जाता है। अशांत होने के कारण ही विलीन हो जाते हैं।
जापान के एक गांव में एक फकीर ठहरा हुआ था। बहुत सुंदर युवक, बड़ी कीर्ति थी उस गांव में उसकी। सारे लोग उसे सम्मान देते, आदर देते। लेकिन एक दिन स्थिति बदल गई। सारे गांव के लोग उसके विरोध में हो गए। सारा गांव उसके झोपड़े पर टूट पड़ा। लोगों ने जाकर पत्थर फेंके। उसके झोपड़े में आग लगा दी।
वह आदमी पूछने लगा, वह फकीर पूछने लगा: बात क्या है? मामला क्या है?
तो लोगों ने जाकर एक छोटे से बच्चे को उसकी गोद में पटक दिया और कहा कि मामला पूछते हो? गांव की एक लड़की को बच्चा पैदा हुआ है। यह बच्चा तुम्हारा है। उस लड़की ने कहा है कि इस बच्चे के बाप तुम हो। और हमसे बड़ी भूल हुई, जो हमने तुम्हें सम्मान दिया। और हमसे बड़ी भूल हुई, जो हमने तुम्हारे लिए झोपड़ा बनाया और गांव में रहने की व्यवस्था की। तुम ऐसे चरित्रहीन सिद्ध होओगे, यह हमने कभी सोचा भी न था। यह बेटा तुम्हारा है।
वह बेटा रोने लगा था। वह फकीर उस बेटे को चुप कराने लगा। और उसने उन लोगों से कहा: इ़ज इट सो? ऐसा मामला है कि बेटा मेरा है? अब जब तुम कहते हो तो ठीक ही कहते हाओगे।
वे लोग गालियां देकर, झोपड़े में आग लगा कर, उस फकीर के सामान को फेंककर वापस लौट गए।
दोपहर होने पर वह फकीर गांव में भिक्षा के लिए निकला उस बेटे को लेकर। शायद दुनिया के किसी गांव में कभी कोई फकीर इस भांति भिक्षा मांगने नहीं निकला होगा। वह छोटा सा बेटा रो रहा है। वह फकीर एक-एक घर के सामने भीख मांगता है, लोग द्वार बंद कर देते हैं। कौन उसे भीख देगा?
सारे गांव में भटक कर...लोग चारों तरफ से भीड़ लगाए हुए हैं, लोग गालियां बक रहे हैं, अपमानजनक शब्द बोल रहे हैं, लोग पत्थर फेंक रहे हैं। वह उस छोटे बच्चे को बचाता हुआ उस घर के सामने पहुंचा, जिस घर की बेटी का वह बेटा है। वह उस घर के सामने भी चिल्लाता है कि मुझे खाना न मिले, समझ में आ सकता है, लेकिन इस छोटे से बच्चे को दूध तो मिल जाए। और मेरा कसूर हो सकता है, लेकिन इस छोटे से बच्चे का तो कोई भी कसूर नहीं है।
भीड़ वहां दरवाजे पर खड़ी है। वह जिस लड़की का बेटा है, उसका हृदय पिघल जाता है, वह अपने बाप के पैर पकड़ लेती है और कहती है, मुझसे भूल हो गई। मैंने झूठ ही उस फकीर का नाम ले दिया, उस फकीर को तो मैं जानती भी नहीं। उस बेटे का बाप दूसरा है। उसी को बचाने के लिए मैंने फकीर का नाम ले दिया था। मैंने सोचा था थोड़ी-बहुत गाली-गलौज करके आप वापस लौट आएंगे, बात यहां तक बढ़ जाएगी, यह मैंने नहीं सोचा था, मुझे क्षमा कर दें।
बाप तो हैरान हो गया! आकर फकीर के पैर पड़ने लगा। उसके हाथ से उस छोटे बच्चे को छीनने लगा।
उस फकीर ने पूछा कि बात क्या है? मेरे बेटे को छीनते क्यों हो?
उस बाप ने कहा: आपका बेटा नहीं है, यह हमसे भूल हो गई। यह बेटा आपका नहीं, यह किसी और का है।
उस फकीर ने कहा: इ़ज इट सो? बेटा मेरा नहीं है? क्या कहते हो! सुबह तो तुम्हीं कहते थे कि तुम्हारा है।
वे सारे गांव के लोग कहने लगे कि तुम पागल कैसे हो! तुमने सुबह ही क्यों नहीं कहा कि बेटा मेरा नहीं है?
उस फकीर ने कहा: क्या फर्क पड़ता है, इस सपने में कि बेटा किसका है? क्या फर्क पड़ता है? किसी न किसी का होगा। और जब तुम इतने सारे लोग कहते हो तो ठीक ही कहते होओगे। और इससे क्या फर्क पड़ता है? एक झोपड़ा तुमने जला ही दिया था, एक आदमी को गालियां दे ही चुके थे। और अगर मैं कहता कि मेरा नहीं है, तो एक झोपड़ा और जलाते, एक और दूसरे आदमी को गालियां देते। और क्या फर्क पड़ता?
पर वे लोग कहने लगे कि तुम्हें अपने सम्मान की फिकर नहीं है?
उस फकीर ने कहा कि जिस दिन से यह दिखाई पड़ गया कि बाहर जो है, वह एक सपना है, उस दिन से सम्मान और अपमान में कोई फर्क नहीं रह गया, उस दिन से सब बराबर है। सपने में सम्मान और अपमान में क्या फर्क हो सकता है? हां, असलियत हो तो फर्क हो सकता है। असलियत न हो तो क्या फर्क हो सकता है?
नेपोलियन हार गया था। और हारे हुए नेपोलियन को सेंट हेलेना नाम के एक छोटे से द्वीप में बंद कर दिया था। नेपोलियन था बादशाह, विजय का यात्री। फिर हार गया और एक छोटे से द्वीप पर साधारण कैदी की तरह बंद कर दिया गया।
दूसरे दिन सुबह ही घूमने निकला है द्वीप पर, उसके साथ उसका डॉक्टर है। वे दोनों एक छोटी सी पगडंडी से निकल रहे हैं, एक खेत के बीच में से। एक औरत, एक घास वाली औरत, घसियारिन अपने सिर पर घास का बोझ लिए हुए पगडंडी पर आती है। नेपोलियन का साथी डॉक्टर चिल्ला कर कहता है, घास वाली औरत, रास्ते से हट जा! तुझे पता नहीं कि कौन आ रहा है! नेपोलियन आ रहा है!
नेपोलियन अपने डॉक्टर मित्र का हाथ पकड़ कर नीचे खींचता है और कहता है, पागल, सपना बदल गया। वे दिन गए, जब हम लोगों से कहते थे, हट जाओ, नेपोलियन आ रहा है। अब हमें हट जाना चाहिए। नेपोलियन ने कहा: सपना बदल गया प्यारे! हट जाओ रास्ते से। वे जमाने गए, जब हम पहाड़ को कहते थे, हट जाओ और पहाड़ को हटना पड़ता था। अब तो घास वाली औरत के लिए भी हमको हट जाना चाहिए।
लेकिन नेपोलियन बड़ी समझ की बात कह रहा है। वह यह कह रहा है कि सपना बदल गया। वह यह कह रहा है कि सपना बदल गया, वह बात बदल गई! अब एक दूसरा सपना चल रहा है।
लेकिन डॉक्टर बहुत दुखी हो जाता है, यह बात देख कर कि नेपोलियन को हटना पड़ा। नेपोलियन हंस रहा है। क्योंकि जिस आदमी को सपना मालूम पड़ रहा हो, उसके लिए रोने का कारण क्या रह गया?
नेपोलियन हार कर भी वही है, जो जीत कर था। और नेपोलियन ने यह कह कर कि सब सपना है, एक अदभुत सत्य की गवाही दे दी।
जिंदगी अगर बाहर सपना दिखाई पड़ना शुरू हो जाए, तो भीतर आदमी शांत होना शुरू हो जाता है।
फिर हार और जीत में फर्क क्या है? फिर हार भी वही है, जीत भी वही है। फिर सम्मान भी वही है, अपमान भी वही है। फिर जीवन भी वही है, मृत्यु भी वही है। फिर कैसी अशांति? फिर कैसा तनाव? फिर व्यक्तित्व के भीतर एक गंभीर शांति का अवतरण हो जाता है। वही शांति पगडंडी है उन शिखरों की जहां सत्य के मंदिर हैं।
शांति की पगडंडी से आदमी सत्य के शिखरों तक पहुंचता है। और शांति की पगडंडी पर वही चल सकते हैं, जिनको जीवन सपना दिखाई पड़ता है। जिन्हें जीवन एक सत्य, एक ठोस सत्य मालूम होता है, वे कभी शांति के मार्गों पर नहीं चल सकते, यह पहली बात।
इससे ही जुड़ी हुई दूसरी बात, जिस आदमी को जीवन सपना दिखाई पड़ने लगेगा, उस आदमी का व्यवहार क्या होगा? जिस आदमी को जिंदगी अयथार्थ मालूम होने लगेगी, वह आदमी जीएगा कैसे? उसके जीवन का सूत्र क्या होगा? सपने के साथ हम क्या करते हैं? सपने को देखते हैं, और तो कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
जिस आदमी को पूरी जिंदगी सपना दिखाई पड़ने लगेगी, वह एक द्रष्टा हो जाएगा, वह एक साक्षी हो जाएगा। वह देखेगा और कुछ भी नहीं करेगा। जिंदगी जैसी होगी, उसे देखता चला जाएगा।
सपना है भाव और साक्षी है परिणति। सपना है आधार और साक्षी है उस पर उठा हुआ भवन।
जब कोई आदमी जीवन को सपना जान लेता है तो फिर एक साक्षी रह जाता है, एक द्रष्टा रह जाता है। फिर एक देखने वाले से ज्यादा उसका मूल्य और अर्थ नहीं होता। फिर वह जीवन में ऐसे जीता है, जैसे एक दर्शक। और जब कोई आदमी दर्शक की भांति जीवन में जीना शुरू कर देता है, तब उसके जीवन में एक क्रांति हो जाती है। उस क्रांति का नाम ही धार्मिक क्रांति है। वह धर्म की क्रांति शास्त्रों के पढ़ने से नहीं होती, साक्षी बनने से होती है। वह धर्म की क्रांति पिटे-पिटाए सूत्रों को कंठस्थ करने से नहीं होती, जीवन में साक्षी के जन्म हो जाने से हो जाती है। और जो आदमी साक्षी की तरह जीने लगता है, वह चढ़ जाता है उन शिखरों पर, जहां सत्य का दर्शन होना निश्र्चित है।
तो दूसरा सूत्र है साक्षीभाव। जीवन में ऐसे जीना है, जैसे एक दर्शक। जैसे जीवन के बड़े पर्दे पर एक कहानी चल रही है और हम देख रहे हैं। एक दिन भर के लिए प्रयोग करके देखें और जिंदगी दूसरी हो जाएगी। एक दिन तय कर लें कि सुबह छह बजे से शाम छह बजे तक इस तरह जीएंगे, जैसे एक दर्शक। और जिंदगी को ऐसा देखेंगे, जैसे कहानी एक पर्दे पर चलती हुई। और पहले ही दिन जिंदगी में कुछ नया होना शुरू हो जाएगा।
आज ही करके देखें, एक छोटा सा प्रयोग करके देखें कि जिंदगी को ऐसे देखेंगे, जैसे बड़े कैनवास पर, एक बड़े पर्दे पर कहानी चलती हो और हम सिर्फ दर्शक होंगे। सिर्फ एक दिन के लिए प्रयोग करके देखें। और उस प्रयोग के बाद आप दुबारा वही आदमी कभी नहीं हो सकेंगे, जो आप थे। उस प्रयोग के बाद आप आदमी ही दूसरे हो जाएंगे।
साक्षी होने का छोटा सा प्रयोग करके देखें। देखें आज घर जाकर और जब पत्नी गाली देने लगे या पति गर्दन दबाने लगे, तब इस तरह देखें कि जैसे कोई साक्षी देख रहा है। और जब रास्ते पर चलते हुए लोग दिखाई पड़ें, दुकानें चलती हुई दिखाई पड़ें, दफ्तर की दुनिया हो; तब खयाल रखें, जैसे किसी नाटक में प्रवेश कर गए और चारों तरफ एक नाटक चल रहा है। एक दिन भर इसका स्मरण रख कर देखें और आप कल दूसरे आदमी हो जाएंगे।
दिन तो बहुत बड़ा है, एक घंटे भी कोई आदमी साक्षी होने का प्रयोग करके देखे, उसकी जिंदगी में एक मोड़ आ जाएगा, एक टर्निंग आ जाएगी। वह आदमी फिर वही कभी नहीं हो सकेगा, जो एक घंटे पहले था। क्योंकि उस एक घंटे में जो उसे दिखाई पड़ेगा, वह हैरान कर देने वाला हो जाएगा। और उस एक घंटे में उसके भीतर जो परिवर्तन होगा, जो ट्रांसफार्मेशन होगा, जो कीमिया ही बदल जाएगी; वह उसके भीतर चेतना के नये बिंदुओं को जन्म दे देगी।
एक घंटे के लिए ऐसे देखें कि अगर पत्नी गालियां दे रही है, अगर मालिक गालियां दे रहा है, तो ऐसे देखें कि जैसे आप सिर्फ एक नाटक देख रहे हों। फिर देखें कि क्या होता है? सिवाय हंसने के और कुछ भी नहीं होगा। सिवाय हंसने के और कुछ भी नहीं होगा! भीतर एक हंसी फैल जाएगी और चित्त एकदम हलका हो जाएगा।
और कल यही गाली बहुत भारी पड़ गई होती पत्थर की तरह, छाती पर पत्थर बन कर बैठ गई होती। इस गाली ने भीतर जहर पैदा कर दिया होता। इस गाली ने भीतर प्राणों को मथ डाला होता। इस गाली ने भीतर जाकर जीवन को एक संकट, एक
अशांति पैदा कर दी होती। जिंदगी एक प्रतिक्रिया बन जाती, एक रिएक्शन बन जाता। जिंदगी एक तूफान और एक आंधी हो जाती।
वही गाली आज आएगी और इधर भीतर अगर साक्षी है तो गाली ऐसे ही बुझ जाएगी, जैसे अंगारा पानी में पड़ कर बुझ जाए और राख हो जाए। और आप देखते रह जाएंगे। और तब हैरानी होगी कि यही गाली कल पीड़ित करती थी और आज, आज क्या हो गया है? यही बात कल बहुत कष्ट देती थी और आज, आज क्या हो गया है? आज आप बदल गए हैं।
दुनिया वही है, दुनिया हमेशा वही है, सिर्फ आदमी बदल जाते हैं। और जब आदमी बदल जाता है तो दुनिया बदल जाती है।
पहला सूत्र है: जीवन एक सपना है।
दूसरा सूत्र है: उस सपने में एक साक्षी की तरह जीना है।
साधना के यही दो सूत्र हैं। जीवन एक सपना है और सपने में एक साक्षी की तरह जीना है। और जो आदमी सपने में साक्षी की तरह जीना शुरू कर देता है, उसकी जिंदगी में क्या हो जाता है, इसे शब्दों में कहना मुश्किल है। इसे तो केवल करके ही जाना जा सकता है। इसे तो प्रयोग करके एक्सपेरिमेंट्‌स से ही पकड़ा जा सकता है और पहचाना जा सकता है कि क्या हो जाता है? वह थोड़ा सा प्रयोग करें और देखें।
मंदिरों में जाने की फिकर छोड़ दें। जिंदगी ही मंदिर बन जाती है, अगर साक्षी बन कर खड़े हो जाएं। पहाड़ों पर, हिमालय पर जाने की चिंता छोड़ दें। वह जिंदगी यहीं इसी क्षण तीर्थ बन जाती है, अगर साक्षी बन जाएं।
जो आदमी जहां साक्षी बन जाएगा, वहीं तीर्थ शुरू हो गया, वहीं एक नई घटना शुरू हो गई।
सुकरात मरने के करीब था, उसे जहर दिया जा रहा है। बाहर जहर पीसा जा रहा है। सुकरात लेटा हुआ है। उसके मित्र सब रो रहे हैं। और सुकरात उनसे पूछता है कि तुम रोते क्यों हो?
तो उन मित्रों ने कहा: हम रोएं न तो और क्या करें? तुम मरने के करीब हो।
तो सुकरात ने कहा: पागलो, वह तो मैं जिस दिन जन्मा था, उसी दिन रो लेना था, क्योंकि जब जन्म शुरू हुआ, तभी मौत शुरू हो गई थी। अब तुम इतनी देर करके रोते हो? वह तो जब मैं जन्मा, तभी मरना शुरू हो गया था।
जब कहानी शुरू होती है, तभी उसका अंत भी आ जाता है। जब पर्दे पर फिल्म शुरू होती है, तभी जान लेना चाहिए कि समाप्ति भी आएगी। वह दि एंड भी बहुत जल्दी आ जाने वाला है, वह अंत प्रारंभ में ही छिपा हुआ है।
पागलो, सुकरात ने कहा: वह तो हम जन्मे थे, तभी हमने समझ लिया था कि मर गए, बात वहीं खत्म हो गई थी। अब क्यों रोते हो? और सुकरात ने कहा कि अगर रोना ही है तो अपने लिए रोना, मेरे लिए तुम क्यों रोते हो, जब मैं ही नहीं रो रहा हूं?
सुकरात ने कहा कि जाओ, जल्दी से देखो, वह जहर तैयार हुआ कि नहीं? सुकरात खुद उठ कर बाहर गया। उस जहर पीसने वाले से कहने लगा कि समय हुआ जा रहा है, छह बजे जहर देना है, अभी तक जहर तैयार नहीं हुआ?
वह जहर पीसने वाला कहने लगा कि मैंने बहुत लोगों को जहर दिया, तुम जैसा पागल आदमी नहीं देखा! हम चाहते हैं कि थोड़ी देर लगा लें, तुम थोड़ी देर और जिंदा रह लो, थोड़ी देर और श्र्वासें ले लो। इतनी जल्दी क्या है मरने की?
सुकरात कहने लगा: जल्दी कुछ भी नहीं है। लेकिन जिंदगी बहुत देख चुके, मौत को भी देख लेने का इरादा है! जिंदगी का सपना बहुत देख चुके, अब यह नई कहानी मौत की भी देख लेना चाहते हैं। इसलिए बड़ी उत्सुकता है कि जल्दी अब यह फिल्म खत्म हो और नई फिल्म शुरू हो, नया नाटक शुरू हो। इसलिए हम जल्दी पूछते हैं कि जल्दी करो।
सुकरात को जहर दे दिया गया। वह आदमी इस तरह जहर पी लिया, जैसे किसी और आदमी को जहर दिया गया हो। जहर पीता रहा और बातें करता रहा। जहर पीकर लेट गया और कहने लगा कि मेरे पैर ठंडे हो रहे हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि पैर ठंडे हुए जा रहे हैं।
मित्रों ने कहा कि पैर ठंडे हुए जा रहे हैं, तुम्हीं ठंडे हुए जा रहे हो!
सुकरात ने कहा कि मैं ठंडा कैसे हो सकता हूं? मैं तो जान रहा हूं कि पैर ठंडे हो रहे हैं। मैं तो अब भी वही हूं। फिर उसने कहा कि मेरे घुटनों तक जहर छा गया, अब मेरी कमर तक, हाथ-पैर ऐसे हो गए हैं जैसे हों ही न। मुझे पता नहीं चल रहा है।
लोगों ने कहा: क्या बातें कर रहे हो? तुम्हीं ठंडे हुए जा रहे हो।
सुकरात ने कहा कि मैं तो पूरी तरह वही का वही हूं, जो जहर देने के पहले था। हां, इतना मालूम पड़ रहा है कि हाथ-पैर ठंडे हुए जा रहे हैं। हाथ-पैर जा रहे हैं। यह हाथ-पैर वाली कहानी खत्म हुई जाती है। अब शायद कोई दूसरी कहानी शुरू होगी। मैं तो वही हूं! मैं तो अब भी देख रहा हूं!
जिंदगी भर जिसने देखा हो, वह मौत को भी देख सकता है। और जो मौत को भी देख सकता है, उसकी मौत कैसे हो सकती है?
जिसने साक्षी का भाव साध लिया, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
स्वामी राम अमरीका गए। वह बड़े अजीब आदमी थे। दुनिया में कुछ थोड़े से अजीब आदमी कभी-कभी पैदा हो जाते हैं। इसलिए दुनिया में थोड़ी रौनक है। स्वामी राम बहुत ही अजीब आदमी थे। अगर कोई उनको गाली दे देता तो वह खड़े होकर हंसने लगते और मित्रों को जाकर कहते कि आज बाजार में राम को खूब गालियां पड़ीं।
लोग कहते राम को! आपको नहीं?
स्वामी राम कहते कि मुझको? मुझको लोग जानते ही नहीं, गालियां कैसे देंगे? राम को जानते हैं, राम को गालियां देते हैं। और जब राम को गालियां पड़ रही थीं, तब हम भीतर बैठ कर हंस रहे थे मन ही मन में कि अच्छा है बेटा, खूब गालियां पड़ रही हैं!
एक गांव में राम गया था...स्वामी राम कहते हैं, एक गांव में राम गया था। गिर पड़ा एक गड्ढे में। हम खूब हंसे, हमने कहा कि अच्छे गिरे। अरे, बिना देख कर चलोगे तो गिरोगे ही। लोग कहते कि आप किसके बाबत बातें करते हैं? तो वे कहते, इस राम के बाबत बातें करता हूं।
और आप कौन हैं?
तो वे कहते: मैं तो सिर्फ देखने वाला हूं। यह राम पर कहानी चल रही है, हम देख रहे हैं। राम की जिंदगी है, हम देख रहे हैं।
यह जो देखने की बात है, यह जो देखने की तरकीब है, यह जो देखने की टेक्नीक है, जिंदगी के प्रति साक्षी हो जाने की यह जो कला है, यह धर्म का सारभूत रहस्य है।
देखें जिंदगी को एक साक्षी होकर और तब एक नई जिंदगी की शुरुआत हो जाती है। वह नई शुरुआत सत्य पर ले जाती है। उस सत्य पर जिसका न कभी कोई जन्म हुआ। उस सत्य पर जिसकी न कभी कोई मृत्यु होती है। उस सत्य पर जो कहानी नहीं है। उस सत्य पर जो सपना नहीं है। लेकिन अगर हम इस सपने में और कहानी में ही खोए रहें, तो शायद उसका हमें कभी भी पता नहीं चलता।
बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं, जो जीवन के सत्य को जान पाते हैं। अधिक लोग जीवन के सपने में ही जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं।
सपने से जागना है, ताकि सत्य उपलब्ध हो सके।
और कहानी से जागना है, नाटक से जागना है, अभिनय से जागना है, ताकि वह जाना जा सके जो अभिनय नहीं है, जो नाटक नहीं है, जो कहानी नहीं है। उसका नाम ही आत्मा है, उसका नाम ही परमात्मा है। चाहे कोई उसे सत्य कहे या कोई और नाम दे दे, और उसको जानते ही आदमी मुक्त हो जाता है। क्योंकि सब बंधन सपने के बंधन हैं।
कोई बंधन सच्चा बंधन नहीं है। सब बंधन सपने के बंधन हैं। सब बंधन झूठे बंधन हैं। एक बार यह दिखाई पड़ जाए तो पता चलता है कि मैं तो मुक्त ही था, मैं तो सदा से ही मुक्त हूं। और यह जो प्रतीति है, यह कितने अनंत आनंदों से भर देती है, यह कितने आलोक से भर देती है, उसकी कोई गणना करनी कठिन है। इम्मेजरेबल, उसको नापने का कोई उपाय नहीं, उसे शब्दों में कहने का भी कोई उपाय नहीं, उसको अभिव्यक्ति देने का भी कोई मार्ग नहीं, उसे तो बस जाना जा सकता है और जीया जा सकता है।
उस जीने की दिशा में ये दो सूत्र बहुत याद रखने की जरूरत है: जीवन एक सपना है और हम एक साक्षी हैं। इसका थोड़ा प्रयोग करके ही देखा जा सकता है कि क्या परिणाम होते हैं। देखें, प्रयोग करके देखें और समझें। और जब तक उस प्रयोग को नहीं करते हैं, तब तक और कुछ भी करते रहें, सत्य का कोई पता कभी नहीं चल सकता है।
सत्य का कभी कोई पता नहीं चल सकता है और कुछ भी करने से--न माला फेरने से, न राम-राम जपने से, न गीता पढ़ने से, न कुरान पढ़ने से, न मंदिरों में पूजा-आराधना करने से। नहीं, और किसी तरह से सत्य का कोई पता न कभी चला है और न चल सकता है। सिर्फ वे ही जान पाते हैं जो है उसे, जो जाग जाते हैं, साक्षी हो जाते हैं। और साक्षी होते ही...साक्षी होते ही सब बदल जाता है, सब नया हो जाता है।
लेकिन यह बात प्रयोग की है। और यह बात कोई दूसरा आपके लिए नहीं कर सकता, आपको ही अपने लिए करनी पड़ेगी। यह रास्ता कोई दूसरा आपके लिए नहीं चल सकता। गिरनार के पहाड़ पर तो डोली में बैठ कर भी जाया जा सकता है, लेकिन इन सत्यों के शिखरों पर डोली में बैठ कर जाने का कोई उपाय नहीं है। वहां कोई डोलियां उपलब्ध नहीं हैं और न कोई कहार जो आपको चढ़ा कर ले जाएं। वहां अपने ही पैरों पर भरोसा करना पड़ता है। किसी दूसरे के पैर साथ नहीं दे सकते। और वहां कोई बंधा हुआ रास्ता भी नहीं है। वहां चलने से ही रास्ता बनता है।
जितना हम चलते हैं साक्षी की तरफ, उतना ही रास्ता निर्मित हो जाता है। और एक बार थोड़ा सा भी द्वार खुल जाए साक्षी का, तो फिर बहुत कुछ और नहीं करना पड़ता। वह थोड़ा सा द्वार ही पुकारता है और खींचता है और आदमी खिंचता चला जाता है।
जैसे कोई आदमी छत पर से कूदना चाहे, छत पर से कूद जाए और फिर पूछे कि अब मैं क्या करूं जमीन तक पहुंचने के लिए? तो हम कहेंगे कि अब कुछ भी करने की जरूरत नहीं, तुम कूद गए, अब बाकी काम जमीन कर लेगी। अब जमीन खींच लेगी, उसकी कशिश, उसका गुरुत्वाकर्षण, ग्रेविटेशन खींच लेगा। तुम छत पर से कूद गए बस, अब तुम्हारा काम खत्म, अब जमीन काम कर लेगी।
एक बार आदमी साक्षी में कूद जाए, फिर उसे खुद कुछ नहीं करना पड़ता। वह परमात्मा की जो कशिश है, वह जो ग्रेविटेशन है, वह जो परमात्मा का जो गुरुत्वाकर्षण है, वह काम पूरा कर लेता है। जब तक हम सपने में खड़े हुए हैं, तब तक वह काम नहीं करता। जैसे ही हम सपने को तोड़ते हैं और कूदते हैं, वैसे ही परमात्मा खींचना शुरू कर देता है।
आदमी एक कदम चले परमात्मा की तरफ और परमात्मा हजार कदम चलता है। हम जरा से बढ़ें, वह बहुत हजार कदम बढ़ जाता है। हम जरा सा उसको पुकारें और उसकी पुकार हमारी तरफ हजार गुनी होकर शुरू हो जाती है।
लेकिन हम जरा सा भी अपने सपने से नहीं हटते हैं, बल्कि हम तो अपने सपने को मजबूत करते चले जाते हैं। कहीं सपना टूट न जाए, तो चारों तरफ से पत्थर की दीवाल बना कर सपनों को सुरक्षित करते हैं। छोटा सपना देखने वाला बड़ा सपना देखना चाहता है। छोटा मिनिस्टर बड़ा मिनिस्टर होना चाहता है। वह जरा बड़ा सपना देखना चाहता है। छोटा झोपड़े वाला महल वाला सपना देखना चाहता है। झोपड़े का सपना जरा दुखद सपना है। महल का सपना जरा सुखद सपना है।
सभी दुखद सपने देखने वाले सुखद सपने देखना चाहते हैं। छोटे सपने देखने वाले बड़े सपने देखना चाहते हैं। जूनागढ़ में सपना देखने वाले दिल्ली में सोकर सपना देखना चाहते हैं। लेकिन सपने को देखते चले जाना चाहते हैं और मजबूत करते चले जाना चाहते हैं।
सपना जितना मजबूत होता है, उतने ही हम सत्य से दूर होते चले जाते हैं। सपने को तोड़ना है, मजबूत नहीं करना है। और हम सब सपने को मजबूत करने के सब उपाय करते हैं। और अगर कोई दूसरा हमारे सपने को तोड़ना चाहे तो भी हम नाराज हो जाते हैं।
इंग्लैंड के एक बहुत बड़े डॉक्टर ने एक किताब लिखी है कैनेथ वाकर ने और कि
ताब एक फकीर को समर्पित की है। और समर्पण में, डेडिकेशन में जो शब्द लिखे हैं, वे मुझे बहुत प्यारे लगे। डेडिकेशन में, समर्पण में उसने लिखा है उस फकीर के लिए, गुरजिएफ के लिए वह समर्पण किया है। लिखा है: टु जॉर्ज गुरजिएफ, दि डिस्टर्बर ऑफ माई स्लीप; जॉर्ज गुरजिएफ के लिए समर्पित, उस आदमी के लिए जिसने मेरी नींद तोड़ दी।
नींद तोड़ने वाले लोग हैं कुछ, लेकिन नींद तोड़ने वाला कभी प्रीतिकर नहीं मालूम पड़ता। नींद तोड़ने वाला बहुत दुश्मन मालूम पड़ता है। चूंकि हम अपने सपने में खोए हैं, नींद में देख रहे हैं। कोई आकर हमें झकझोरता है और जगाता है। तबीयत होती है कि मना करो इसे, रोको इसे। सपना हम देख रहे हैं, क्यों तोड़ते हो हमारी नींद को? क्यों तोड़ते हो हमारे सपनों को?
और इसलिए दुनिया में सपने तोड़ने वाले लोग कभी भी प्रीतिकर नहीं मालूम हुए। न बुद्ध, न सुकरात, न जीसस, कोई कभी प्रीतिकर नहीं मालूम पड़ता। हम अपने सपनों में खोए हैं। ये नासमझ लोग आकर जगाते हैं और हिलाते हैं और सपना तोड़ देते हैं!
लेकिन जिन्होंने सपने के बाहर की दुनिया देख ली है, उनके प्राणों में ऐसा लगता है कि काश, तुम भी अपनी नींद के बाहर आ जाओ और उसे जान लो, जो सत्य है। क्योंकि जिन्होंने सत्य नहीं जाना, उन्होंने जीवन भी नहीं जाना। और जिन्होंने सत्य नहीं जाना, उन्होंने केवल नींद में गंवा दिया अवसर को, उन्होंने केवल मूर्च्छा में खो दिया सब-कुछ।
वे जो सोते हैं, खो देते हैं। और वे जो जागते हैं, केवल वे ही उपलब्ध कर पाते हैं जीवन की संपदा को, जीवन के सौंदर्य को, जीवन के शिवत्व को।
ये दो छोटे सूत्र स्मरण रखना आप: जीवन एक सपना है और मनुष्य को बनना है एक साक्षी। क्योंकि जैसे ही वह साक्षी बना, सपना टूट जाता है। और सपना टूटा, तब जो शेष रह जाता है, वही सत्य है।
सत्य की खोज के लिए ये थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए दस मिनट बैठेंगे और फिर विदा होंगे।
ध्यान का अर्थ भी वही है--साक्षी।

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