YOG/DHYAN/SADHANA
Neti Neti Satya Ki Khoj 03
Third Discourse from the series of 5 discourses - Neti Neti Satya Ki Khoj by Osho. These discourses were given in BHAVNAGAR during JAN 16-19 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
मित्रों ने बहुत से प्रश्र्न पूछे हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं कि सत्य शब्दों से नहीं मिल सकता है, शास्त्रों से नहीं मिल सकता है, गुरुओं से नहीं मिल सकता है, तो फिर मैं स्वयं क्यों बोलता हूं?
क्योंकि मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिल सकेगा। मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिलेगा, इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। किसी के भी बोलने से सत्य नहीं मिल सकता है। एक कांटा पैर में लग गया हो तो दूसरे कांटे से लगे हुए कांटे को निकाला जा सकता है। लेकिन कांटे के निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ हो जाते हैं और फेंक देने के योग्य हो जाते हैं।
मैं जो बोल रहा हूं, उससे सत्य नहीं मिल सकता है। लेकिन जो दूसरे शब्द आपने पकड़ रखे हैं और समझ लिया है कि वह सत्य है, उन कांटों को मेरे बोलने के कांटों से निकाला जा सकता है। निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ हो जाते हैं और फेंक देने के योग्य।
मेरे शब्दों से सत्य नहीं मिलेगा, क्योंकि किसी के शब्दों से सत्य नहीं मिल सकता है। लेकिन शब्द शब्दों को छीन सकते हैं। और शब्द छिन जाएं, और मन खाली हो जाए, और मन के ऊपर शब्दों की कोई पकड़ न रह जाए, कोई क्लिंगिंग न रह जाए, तो मन स्वयं ही सत्य को उपलब्ध हो जाता है।
सत्य कहीं बाहर नहीं है। प्रत्येक के पास है, निकट है, स्वयं में है।
एक बार मन बाहर की तरफ देखना बंद कर दे तो सत्य को पा लेना कठिन नहीं है।
और जब तक कोई गुरुओं की तरफ देखता है, तब तक बाहर देखता है। जब तक कोई शास्त्रों की तरफ देखता है, तब तक बाहर देखता है। जब तक किन्हीं दूसरों के शब्दों को कोई पकड़ कर बैठता है, तब तक उसे वह उपलब्ध नहीं हो सकता, जो निःशब्द में और मौन में ही मिलता है। जिन्होंने सत्य को जाना है, उन्होंने बहुत प्रकार की चेष्टाएं की हैं कि वह सत्य आप तक प्रकट हो जाए, लेकिन आज तक यह संभव नहीं हो सका।
मैंने सुना है, एक महाकवि समुद्र के किनारे गया था। सुबह ही सुबह जब वह समुद्र के किनारे पहुंचा...आकाश से सूरज की रोशनी बरसती थी, ठंडी हवाएं सागर की लहरों से खेलती थीं। सागर की लहरों पर नाचती हुई उस रोशनी में वह खुद भी नाचने लगा रेत के तट पर। एकांत था, सुंदर सुबह थी, उसे स्मरण आने लगा अपनी प्रेयसी का, जो अस्पताल में बीमार पड़ी थी। और उसे खयाल आया, काश, आज इस सुंदर सुबह में वह भी यहां मौजूद होती। कवि था, उसकी आंख से आंसू बहने लगे...और फिर उसे खयाल आया, क्यों न मैं एक खूबसूरत पेटी लाऊं और उस पेटी में सुबह के छोटे से टुकड़े को भर कर भेज दूं अपनी प्रेयसी के पास।
वह बाजार से एक पेटी ले आया खूबसूरत और उसने आकर बड़े प्रेम से समुद्र के किनारे उस पेटी को खोला। सूरज की किरणों को, हवा को, सुबह के उस सुंदर छोटे से रूप को उस पेटी में बंद करके ताला बंद कर दिया। एक चिट्ठी लिखी और पेटी एक आदमी के सिर पर रख कर अपनी प्रेयसी के पास भेज दी।
उस पत्र में उसने लिखा कि सुबह के एक छोटे से खंड को तुम्हारे पास भेजता हूं। सूरज की किरणों को, समुद्र में नाचती हुई हवाओं को, सुबह के सुंदर एक छोटे से टुकड़े को, एक कतरे को तुम्हारे पास भेजता हूं। नहीं तुम आ सकती हो समुद्र के तट तक, बीमार हो, तो मैं ही समुद्र के तट की एक स्मृति को तुम्हारे पास भेजता हूं। नाच उठोगी जब इस पेटी को खोल कर देखोगी।
उस प्रेयसी को बहुत हैरानी हुई, पेटी में सुबह के टुकड़े कैसे भर कर भेजे जा सकते हैं! पत्र पहुंच गया, पेटी पहुंच गई। उसने पेटी खोली, उस पेटी के भीतर कुछ भी न था--न तो सूरज की किरणें थीं, न ठंडी हवाएं थीं, न कोई सुबह थी, वहां तो घुप्प अंधकार था। उस पेटी में तो कुछ भी न था।
समुद्र के किनारे जो दिखाई पड़ता है, उसे पेटियों में भर कर भेजने का कोई उपाय नहीं है। और परमात्मा के किनारे और सत्य के सागर के पास पहुंच कर जो अनुभव होता है, उसे तो शब्दों की पेटियों में भर कर भेजने का और भी उपाय नहीं। शब्द आ जाते हैं कोरे और खाली। वह जो किनारे पर जाना है, वह पीछे ही रह जाता है।
जो पहुंच जाते हैं सत्य के तट पर, उनके प्राणों में भी यह पीड़ा, यह प्यास पकड़ती होगी कि जो प्रियजन पीछे रह गए हैं, उन तक खबर पहुंचा दें। वे जो लंगड़ाते हुए रास्ते पर भटक गए हैं, उन तक खबर पहुंचा दें। वे जो नहीं आ पाए हैं यहां तक, उन तक भी थोड़ी सी खबर पहुंचा दें। वे शब्दों को पेटियों में भर कर हम तक भेजते हैं। गीता और कुरान और बाइबिल--किताबें पहुंच जाती हैं, शब्द पहुंच जाते हैं, पेटियां पहुंच जाती हैं; लेकिन जो उन्होंने भेजा था, वह वहीं रह जाता है, वह नहीं आता। उनकी करुणा तो प्रकट होती है, लेकिन शब्द आज तक कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हो पाए।
शब्द कभी भी समर्थ नहीं हो सकेंगे। अगर वह प्रेयसी उस पेटी को सिर पर रख कर नाचने लगे, तो हम कहेंगे, पागल है। और अगर वह प्रेयसी उस पेटी को देख कर यह समझ ले कि कुछ भेजने की कोशिश की गई थी, जो नहीं पहुंच सका है। पेटी को लात मार कर फेंक दे और दौड़ पड़े सागर की तरफ, तो एक दिन वहां पहुंच जाएगी--उसी सागर के किनारे, जहां सूरज की किरणें नाचती हैं और सुबह की ठंडी हवाएं बहती हैं और सागर की लहरों का नृत्य है। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब पेटी को लात मार कर फेंक दे और उस तरफ दौड़ पड़े, जहां से पेटी में लाने की कुछ कोशिश की थी, लेकिन नहीं ला पाए। और तभी वह प्रेयसी भी सागर के किनारे पहुंच सकती है।
शास्त्रों को फेंक कर जो उस तरफ दौड़ पड़ते हैं, जहां से शास्त्र आते हैं; वे वहां पहुंच जाते हैं, जहां सत्य का किनारा है, जहां सत्य का सागर है।
लेकिन हम उन पागलों की तरह हैं कि गीताओं को सिर पर रख कर नाचते रहते हैं और वहां नहीं पहुंच पाते, जिस किनारे से कृष्ण ने यह खबर भेजी हो। बाइबिल को सिर पर रख कर बैठ जाते हैं, छाती पर रख कर बैठ जाते हैं और उस किनारे तक नहीं पहुंच पाते, जहां से क्राइस्ट ने यह खबर भेजी है।
और क्राइस्ट और कृष्ण और महावीर और बुद्ध अगर कहीं भी होंगे तो सिर धुनकर रोते होंगे हमें देख कर कि पागलों को हमने खबर भेजी थी कि तुम सागर के किनारे आ जाना। वे हमारी खबर को लिए ही बैठे हैं, वे वहीं रुक गए हैं! और अगर उनका बस चले तो लौट कर हमसे किताबें छीन लें। लेकिन अगर कृष्ण भी आ जाएं और गीता छीनने लगें तो हम कृष्ण की गर्दन दबा देंगे कि हमसे गीता छीनते हो? गीता छिन जाएगी तो हमारे पास क्या रह जाएगा? ऐसा हुआ है।
दोस्तोवस्की ने एक किताब लिखी है रूस में। उस किताब का नाम है: ब्रदर्स कर्माझोव। उस अदभुत किताब में उसने यह लिखा है कि अठारह सौ वर्ष बाद जीसस क्राइस्ट को यह खयाल आया कि अठारह सौ साल पहले मैं पृथ्वी पर गया था, लेकिन तब मुझे मानने वाला एक भी आदमी नहीं था। तो जो लोग मेरे दुश्मन थे, उन्होंने मुझे सूली पर लटका दिया। अब मुझे जाना चाहिए जमीन पर। अब तो आधी जमीन मुझे मानती है। अब तो गांव-गांव में मेरे चर्च हैं, मेरे पुजारी हैं, क्रास लटकाए हुए मेरे पुरोहित हैं। जगह-जगह मेरा प्रचार है। जगह-जगह मेरा नाम है। ऐसी कौन सी जगह है, जहां जीसस का मंदिर न हो? और लाखों संन्यासी जीसस का नाम लेकर सारी पृथ्वी पर प्रचार करते हैं। तो जीसस ने सोचा कि अब मैं जाऊं। अब ठीक समय आ गया है। अब समय पक गया है। अब मेरा स्वागत हो सकेगा।
और एक दिन रविवार की सुबह जेरुसलम के गांव में ईसा उतर कर एक झाड़ के नीचे खड़े हो गए। चर्च से लोग वापस लौटते थे, सुबह की प्रार्थना पूरी करके। उन्होंने एक झाड़ के नीचे जीसस को खड़े देखा, वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा: यह कौन आदमी रंग-ढंग बना कर खड़ा हुआ है? यह कौन आदमी है, जो बिलकुल जीसस जैसा बन कर खड़ा हो गया है? कोई अभिनेता, कोई नाटक का अभिनेता मालूम होता है। उन्होंने भीड़ लगा ली और मजाक करने लगे। और जीसस से कहा कि मित्र, बिलकुल बन गए हो; बिलकुल ऐसे लगते हो जैसे जीसस क्राइस्ट हो।
जीसस ने कहा: बन गया हूं! मैं वही हूं!
लोग हंसने लगे। किसी ने पत्थर फेंका, किसी ने जूता फेंका और कहा कि बड़े पागल हो! भाग जाओ, हमारा पादरी आता है, अगर देख लेगा तो मुसीबत में पड़ जाओगे।
जीसस ने कहा: तुम्हारा पादरी कि मेरा पादरी? तुम मुझे पहचाने नहीं, मैं वही हूं, जिसकी तुम रोज सुबह प्रार्थना करते हो।
वे सब लोग खूब हंसने लगे। उन्होंने कहा कि तुम्हारी भलीभांति पूजा हो जाएगी, भाग जाओ।
लेकिन जीसस ने कहा: लोग नहीं पहचानते, कोई हर्ज नहीं, लेकिन मेरा पादरी तो मुझे पहचान लेगा, जो मेरे ही सुबह-शाम गीत गाता है। पादरी आया, तो जीसस की तो लोग मजाक उड़ा रहे थे, लोग पादरी के झुक-झुक कर पैर छूने लगे।
ऐसा ही हुआ है दुनिया में। भगवान आ जाए तो आदमी मजाक उड़ाएगा और भगवान की पूजा और धंधा करने वाले जो पुजारी हैं, उनके झुक-झुक कर लोग पैर छूते हैं। पादरी के लोग पैर छूने लगे।
जीसस ने कहा: बड़ा गजब है! बड़ा कमाल है! जो मेरे गीत गाता है, उसके पैर छूते हो, मेरी तरफ देखते भी नहीं!
लोगों ने कहा: चुप, अगर पादरी के सामने इस तरह की बातें कहीं तो हम बहुत अपमानित अनुभव करेंगे।
पादरी ने सिर ऊपर उठा कर देखा और कहा: यह कौन बदमाश आदमी यहां खड़ा हुआ है? इसे नीचे उतारो!
जीसस ने कहा: तुम भी मुझे नहीं पहचान रहे हो? तुम तो अपने गले पर मेरा क्रास लटकाए हुए हो। लेकिन जीसस को क्या खबर कि जीसस को जिस सूली पर लटकाया गया था, वह लकड़ी की सूली थी और पादरी सोने का क्रास लटकाए हुए है। सोने के कहीं क्रास हुए हैं दुनिया में? और क्रास पर आदमी लटकाया जाता है, क्रास कहीं गले में लटकाया जाता है?
उस पादरी ने कहा: यह आदमी कोई शैतान मालूम पड़ता है। हमारा जीसस एक बार आ चुका, अब उसके आने की कोई जरूरत नहीं है। उसका काम हम भलीभांति कर रहे हैं।
जीसस को पकड़ लिया गया और जाकर चर्च की एक कोठरी में बंद कर दिया।
जीसस तो बहुत हैरान हुए। कि यह तो वही काम फिर शुरू हो गया जो अठारह सौ साल पहले हुआ था! क्या मुझे फिर से सूली पर लटकाया जाएगा?
आधी रात पादरी आया, दरवाजा खोला, जीसस के पैरों पर गिर पड़ा और कहा कि महानुभाव, मैं आपको पहचान गया था। लेकिन बाजार में हम कभी आपको नहीं पहचान सकते। आपकी अब कोई जरूरत नहीं है। काम बिलकुल ठीक से चल रहा है। हमने दुकान अच्छी तरह जमा ली है। यू आर दि ओल्ड डिस्टर्बर। तुम तो पुराने गड़बड़ करने वाले हो। तुम आए तो फिर सब गड़बड़ कर दोगे। हम बामुश्किल जमा पाते हैं कि तुम वापस लौट-लौट कर आ जाते हो। तुम्हारे आने की कोई जरूरत नहीं है। हम तुम्हें बाजार में नहीं पहचान सकते हैं। अकेले में हमेशा पहचान होती है। आपकी कोई आवश्यकता नहीं है। और अगर गड़बड़ की, तो क्षमा करना, हमें वही व्यवहार करना पड़ेगा जो अठारह सौ साल पहले किया गया था।
कृष्ण के साथ भी यही होगा और महावीर के साथ भी यही होगा। और महावीर के साथ जैन यही करेंगे, और कृष्ण के साथ हिंदू यही करेंगे, और मोहम्मद के साथ मुसलमान यही करेंगे। जिनकी किताबों को पकड़ कर हम बैठे हैं, हमें पता नहीं कि वे सब हमसे किताबें छुड़ा देना चाहते हैं। और जिनके शब्दों को पकड़ कर हम बैठे हैं, उन सबने यह कहा है कि शब्दों को पकड़ कर मत रुक जाना। क्योंकि मैं तो वहां उपलब्ध होता हूं, जहां सब शब्द खो जाते हैं।
निःशब्द में, मौन में, जहां सब विचार खो जाते हैं, वहां सत्य की उपलब्धि है।
मेरे शब्दों से भी नहीं होगा। किसी के शब्दों से कभी नहीं होता है।
फिर मैं किसलिए बोल रहा हूं?
सिर्फ इसलिए कि आपसे शब्द छीन लूं। आपको शब्द देने के लिए नहीं, आपसे शब्द छीनने के लिए बोल रहा हूं। कांटे से जैसे कोई कांटे को निकाल ले और फिर दोनों कांटे व्यर्थ हो जाएं। अगर आपके मन में चुभे हुए शब्दों को मैं अपने शब्दों से खींच लूं, तो बात खत्म हो गई। आप उन शब्दों से भी मुक्त हो गए और मेरे शब्दों से भी। और वह जो शब्दों से खाली मन है, वही खाली मन प्रभु की यात्रा कर पाता है, सत्य की यात्रा कर पाता है। यह बड़े दुख की बात है, दुर्भाग्य की भी कि जो हमें छुड़ाने के लिए आते हैं, हम उन्हीं को पकड़ लेते हैं।
बुद्ध ने कहा था अपने भिक्षुओं को कि मेरी कोई मूर्ति मत बनाना। आज जमीन पर बुद्ध की जितनी मूर्तियां हैं, उतनी किसी दूसरे आदमी की नहीं। अकेले बुद्ध की इतनी मूर्तियां हैं, जितनी किसी दूसरे आदमी की नहीं। उर्दू में तो बुत शब्द बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। एक-एक मंदिर में दस-दस हजार बुद्ध की मूर्तियां हैं।
चीन में एक मंदिर है, दस हजार मूर्तियों वाला मंदिर। उसमें दस हजार बुद्ध की मूर्तियां हैं। और बुद्ध ने कहा था कि मेरी पूजा मत करना।
बड़े अजीब लोग हैं हम, जो हमसे कहे कि हमें मत पकड़ना, हम उसे और जोरों से पकड़ लेते हैं कि बहुत प्यारा आदमी है। कहीं भाग न जाए, कहीं छूट न जाए। यह जो हमारी आदत है--शब्दों को, व्यक्तियों को पकड़ लेने की, इस आदत ने हमें गुलाम बना दिया है। और अगर पुराने आदमी छूट जाते हैं तो हम नये पैदा कर लेते हैं। लेकिन हम छोड़ते नहीं।
अगर महावीर और बुद्ध थोड़े छूट गए हैं, कृष्ण और राम थोड़े दूर पड़ गए हैं, तो हम गांधी को पैदा कर लेंगे और गांधी को पकड़ लेंगे! लेकिन हमें पकड़ने को कोई न कोई चाहिए। हम खुद अपने पैरों पर खड़े नहीं होना चाहते। और मैं कहता हूं कि वही आदमी अपने को आदमी कहने का हकदार है, जो सबको छोड़ कर खुद को पकड़ कर खड़ा हो जाता है।
सबको जो छोड़ देता है, वही खुद को पकड़ सकता है।
और ध्यान रहे, जो दूसरों को पकड़ता है, उसकी अपने पर, स्वयं पर कोई श्रद्धा नहीं होती है। दूसरों को वही पकड़ता है, जो अपने प्रति अश्रद्धावान हो। खुद को जितना कमजोर पाता है, वह उतना दूसरों को पकड़ कर मजबूत अनुभव करना चाहता है। खुद के प्रति जो अश्रद्धा है, वही दूसरों के प्रति श्रद्धा बनती है।
जो आदमी खुद के प्रति श्रद्धावान है, वह आदमी किसी को भी नहीं पकड़ता है।
और मजे की बात है कि जो आदमी अपने को ही नहीं पकड़ पाता है, वह दूसरे को पकड़ सकता है? जिसका अपने पर कोई वश नहीं है, वह दूसरों को क्या वश में कर पाएगा? जिसे अपना ही सुराग, अपना ही कुछ पता नहीं है, वह महावीर और बुद्ध की धूल पर बने हुए चिह्नों को पकड़ कर बैठ जाए तो उसे क्या मिल जाएगा?
स्वयं पर श्रद्धा धर्म है, दूसरों पर श्रद्धा धर्म नहीं। और जो दूसरों पर श्रद्धा करता है, वह स्वयं पर अश्रद्धा करता है। स्वयं के पास परमात्मा ने वह सब दिया है, जो किसी और को दिया है। लेकिन हम उसे खोजेंगे तभी। स्वयं के पास वह सब है छिपे हुए अर्थों में, जो किसी के भी पास प्रकट कभी हुआ हो--किसी राम के पास, किसी बुद्ध के पास, किसी महावीर के पास, किसी गांधी के पास। जो भी प्रकट होता है, वह बीज-रूप में हर आदमी के पास छिपा हुआ है।
और जब मैं यह कहता हूं कि उन्हें छोड़ दो, तो मेरी उनसे कोई दुश्मनी नहीं है। जिनको मैं छोड़ने के लिए कहता हूं, उनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। उनसे क्या दुश्मनी हो सकती है? इतने प्यारे लोगों से क्या दुश्मनी हो सकती है? जब मैं कहता हूं, उन्हें छोड़ दो, तो उन्हें छोड़ने के लिए उनसे मेरी कोई बुराई नहीं है। कहता हूं, छोड़ दो, क्योंकि जब तक उन्हें पकड़े हो, तब तक अपने को पाना असंभव है। और जो अपने को नहीं पा सकता, वह आदमी कभी भी परमात्मा के मंदिर में प्रवेश का अधिकारी नहीं होता।
इसी संबंध में कुछ और मित्रों ने पूछा है कि मैं क्यों गांधी के खिलाफ कहता हूं कुछ?
मुझे गांधी के खिलाफ कहने से क्या प्रयोजन है? गांधी जैसे आदमी हजारों वर्षों तक जमीन तपश्र्चर्या करती है, तब पैदा होते हैं। गांधी से मुझे क्या प्रयोजन? लेकिन आप गांधी को पकड़ने की दौड़ में पड़ गए हैं, इसलिए गांधी के खिलाफ भी कहता हूं, राम के खिलाफ भी कहता हूं, बुद्ध के और महावीर के खिलाफ भी कहता हूं। उनके खिलाफ नहीं, उनके प्रति भी मुझे कठोर होना पड़ता है। क्योंकि मुझे लगता है कि अब एक नई मूर्ति बन रही है और उसको लोगों ने पकड़ना शुरू कर दिया। पुरानी मूर्तियों से छुटकारा नहीं हो पाता और नई मूर्तियां निर्मित हो जाती हैं और आदमी की गुलामी जारी रहती है। मालिक बदल जाते हैं, गुलामी कायम रहती है।
कोई राम से मुक्त हो तो बुद्ध को पकड़ लेता है; बुद्ध से मुक्त हो तो क्राइस्ट को पकड़ लेता है; क्राइस्ट से छुटकारा हो तो मोहम्मद को पकड़ लेता है। पहले दूसरे को पकड़ लेता है, तब एक को छोड़ता है। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि सबको छोड़ दे और अपने पैरों पर खड़ा हो जाए।
जो आदमी सबको छोड़ कर, अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, वह भगवान का प्यारा हो जाता है। क्योंकि भगवान उसे चाहता है, जो किसी को पकड़े हुए नहीं है, जो अपने बल से खड़ा हुआ है।
मैंने सुनी है एक कहानी। एक फकीर था मुसलमान। वह रात सोया। रात उसने सपना देखा कि वह स्वर्ग में चला गया है। सपने में लोग स्वर्ग में ही जाते हैं। असलियत में तो नरक में चले जाएं, लेकिन सपने में कोई नरक में क्यों जाए? सपने में तो कम से कम स्वर्ग में जाना ही चाहिए। सपने में वह स्वर्ग चला गया। और देखता है कि स्वर्ग के रास्तों पर बड़ी भीड़-भाड़ है, लाखों लोगों की भीड़ है। उसने पूछा कि बात क्या है आज?
तो भीड़ के रास्ते चलते किसी आदमी ने कहा कि भगवान का जन्म-दिन है। उसका जलसा मनाया जा रहा है। तो उसने कहा, बड़े सौभाग्य मेरे, भगवान के बहुत दिन से दर्शन करने थे। यह मौका मिल गया। आज भगवान का जन्म-दिन है, अच्छे मौके पर मैं स्वर्ग आ गया। वह भी रास्ते के किनारे लाखों दर्शकों की भीड़ में खड़ा हो गया।
फिर एक घोड़े पर सवार, एक बहुत शानदार आदमी, उसके साथ लाखों लोग। वह झुक कर लोगों से पूछता है, क्या जो घोड़े पर सवार हैं, ये ही भगवान हैं? तो किसी ने कहा: नहीं, ये भगवान नहीं हैं, ये हजरत मोहम्मद और उनके पीछे उनको मानने वाले लोग। फिर वह भी जुलूस निकल गया।
फिर दूसरा जुलूस है और रथ पर सवार एक बहुत महिमाशाली व्यक्ति है। वह पूछता है, क्या ये भगवान हैं?
किसी ने कहा: नहीं, ये भगवान नहीं, ये राम हैं और राम के मानने वाले लोग उनके पीछे हैं।
फिर वैसे ही कृष्ण भी निकलते हैं और उनके मानने वाले लोग। और क्राइस्ट और बुद्ध और महावीर और जरथुस्त्र और कनफ्यूशियस और न मालूम कितने महिमाशाली लोग निकलते हैं और उनको मानने वाले लोग निकलते हैं।
आधी रात बीत जाती है, फिर धीरे-धीरे रास्ता सन्नाटा हो जाता है। फिर वह आदमी सोचता है कि अभी तक भगवान नहीं निकले! वे कब निकलेंगे?
और जब सारे लोग जाने के करीब हो गए हैं, रास्ता उजड़ने लगा है, कोई रास्ते पर ध्यान नहीं दे रहा है, तब एक बूढ़े से घोड़े पर एक बूढ़ा सा आदमी अकेला चला आ रहा है। उसके साथ कोई भी नहीं। वह हैरान होता है कि ये महाशय कौन हैं? जिनके साथ कोई भी नहीं। यह अपने आप ही घोड़े पर बैठ कर चले आ रहे हैं। आखिरी जाते हुए लोगों से वह पूछता है कि ये सज्जन कौन हैं बिलकुल अकेले? तो वह चलता हुआ आदमी कहता है कि हो न हो, यह भगवान होंगे। क्योंकि भगवान से अकेला और दुनिया में कोई भी नहीं है। वह जाकर भगवान को ही पूछता है, उस घोड़े पर बैठे हुए बूढ़े आदमी से कि महाशय, आप भगवान हैं? मैं बहुत हैरान हुआ! मोहम्मद के साथ बहुत लोग थे, क्राइस्ट के साथ बहुत लोग थे, राम के साथ बहुत लोग थे, सबके साथ बहुत लोग थे, आपके साथ कोई भी नहीं!
भगवान की आंखों से आंसू गिरने लगे और भगवान ने कहा: सारे लोग उन्हीं के बीच बंट गए हैं, कोई बचा ही नहीं जो मेरे साथ हो सके। कोई राम के साथ है, कोई कृष्ण के साथ है, मेरे साथ तो कोई भी नहीं है। और मेरे साथ वही हो सकता है, जो किसी के साथ न हो। मैं अकेला ही हूं।
घबड़ाहट में उस फकीर की नींद खुल गई। नींद खुल गई तो पाया, वह जमीन पर अपने झोपड़े में है। वह पास-पड़ोस में जाकर पूछने लगा कि मैंने एक बहुत ही दुखद सपना देखा है, बिलकुल झूठा सपना देखा है। मैंने यह देखा कि भगवान अकेला है। यह कैसे हो सकता है?
वह फकीर मुझे भी मिला और मैंने उससे कहा कि तूने सच्चा ही सपनो देखा है। भगवान से ज्यादा अकेला कोई भी नहीं है। क्योंकि जो हिंदू है, वह भगवान के साथ नहीं हो सकता। जो मुसलमान है, वह भगवान के साथ नहीं हो सकता। जो जैन है, वह भगवान के साथ नहीं हो सकता। जो कोई भी नहीं है, जिसका कोई विशेषण नहीं है, जो किसी का अनुयायी नहीं है, जो किसी का शिष्य नहीं, जो बिलकुल अकेला है।
जो बिलकुल नितांत अकेला है, वही केवल उस नितांत अकेले से जुड़ सकता है, जो भगवान है।
अकेले में, तनहाई में, लोनलीनेस में, बिलकुल अकेले में वह द्वार खुलता है, जो भगवान से जोड़ता है।
भीड़-भाड़ से भगवान का कोई संबंध नहीं। जब हम हिंदू होते हैं, तब हम एक भीड़ के हिस्से होते हैं। जब हम मुसलमान होते हैं, तब हम दूसरी भीड़ के हिस्से होते हैं। जब हम राम के पीछे चलते हैं, तब हम अपनी ही कल्पना के पीछे चलते हैं। और जब हम बुद्ध के पीछे चलते हैं, तब भी हम अपनी ही कल्पना के पीछे चलते हैं। सत्य से इसका कोई संबंध नहीं है।
तो जब मैं कहता हूं, छोड़ दें इन्हें, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि राम आदमी काम के नहीं हैं। बहुत काम के हैं, यही तो खतरा है, इसी से तो पकड़ पैदा हो जाती है। जब मैं कहता हूं, छोड़ दें इन्हें, तो मेरा मतलब यह है कि हाथ खाली चाहिए।
जब तक हम किसी को पकड़े हुए हैं, तब तक हाथ भरे हुए हैं। और भरे हुए हाथ परमात्मा के चरणों की तरफ नहीं बढ़ सकते। वहां खाली हाथ चाहिए, जिन हाथों में कोई भी न हो। और जब हाथ बिलकुल खाली होते हैं, तब परमात्मा का हाथ उपलब्ध होता है।
एक और छोटी सी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूं।
मैंने सुना है, कृष्ण एक दिन भोजन करने बैठे हैं और रुक्मणी उनकी थाली पर पंखा झलती है। एक-दो कौर ही उन्होंने खाए हैं और फिर थाली को सरका कर भागे हैं, एकदम दरवाजे की तरफ।
रुक्मणी ने कहा: आप पागल हो गए हैं! आधा खाना खाकर कहां भागते हैं?
लेकिन कृष्ण ने उत्तर भी नहीं दिया, वह तो भागते हुए द्वार पर चले गए। फिर द्वार पर ठिठक कर खड़े हो गए। फिर चुपचाप उदास वापस लौट कर, बैठ कर भोजन करने लगे।
रुक्मणी ने कहा: बहुत मुश्किल में डाल दिया मुझे। क्या ऐसी जरूरत आ गई थी कि इतनी तेजी से भागे? कौन सी दुर्घटना घट गई थी? कहां आग लग गई थी? और फिर बिना आग को बुझाए, दरवाजे से वापस भी लौट आए? क्या था? क्या हो गया था आपको?
कृष्ण ने कहा: सचमुच ही दुर्घटना हो गई थी। एक मेरा प्यारा, एक राजधानी से गुजर रहा है, एक फकीर, जिसका मेरे सिवाय और कोई भी नहीं। जिसका मेरे सिवाय और कोई भी नहीं! ऐसा मेरा एक प्यारा एक रास्ते से गुजर रहा है। कुछ लोग उसे पत्थर मार रहे हैं। उसके माथे से खून की धाराएं बह रही हैं। भीड़ उसे घेरे हुई खड़ी है। बहती हुई खून की धाराओं में भी चुपचाप खड़ा हंस रहा है वह। मेरी जरूरत पड़ गई थी कि मैं जाऊं, इसलिए मैं भागा।
रुक्मणी ने कहा: फिर आप द्वार से वापस कैसे लौट आए?
कृष्ण ने कहा: द्वार पर जब पहुंचा, फिर मेरी जरूरत न रह गई। उस फकीर ने अपने हाथ में पत्थर उठा लिया। अब वह खुद ही उत्तर दे रहा है। अब मेरी कोई जरूरत नहीं है। जब तक वह बेसहारा था, जब तक उसका कोई भी न था, जब तक वह बिलकुल अकेला था, तब तक मेरी जरूरत थी, तब तक उसके पूरे प्राण मुझे चुंबक की तरह खींच रहे थे। अब वह बेसहारा नहीं है, अब उसके हाथ में पत्थर है। उसने पत्थर का सहारा खोज लिया, अब उसके हाथ भरे हुए हैं। अब वह कमजोर नहीं है। अब उसके पास अपनी ताकत है, अब वह लड़ रहा है, अब मेरी कोई भी जरूरत नहीं है।
यह कहानी पता नहीं सच हो या झूठ। इसके सच और झूठ होने से कोई प्रयोजन भी नहीं। लेकिन एक बात मैं जानता हूं और वह बात मैं आपसे कहना चाहता हूं।
जब तक आपके हाथ भरे हैं, जब तक आपका मन भरा है, जब तक आप कोई सहारा पकड़े हुए हैं, तब तक परमात्मा का सहारा उपलब्ध नहीं होगा। उसका सहारा उसी क्षण उपलब्ध होता है, जब आदमी परिपूर्ण बेसहारा हो जाता है। टोटल हेल्पलेस, जब पूरी तरह बेसहारा होता है, तब उसका सहारा उपलब्ध होता है। लेकिन हम कोई न कोई सहारा पकड़ लेते हैं और वही सहारा बाधा बन जाता है।
तो जब मैं कहता हूं, छोड़ दें सबको, तो मेरा मतलब है कि बिलकुल बेसहारा हो जाएं, सब भांति बेसहारा हो जाएं। जिस दिन आदमी सब भांति बेसहारा हो जाता है, एक चुंबक बन जाता है और परमात्मा की सारी शक्तियां उसकी तरफ खिंचनी शुरू हो जाती हैं। लेकिन उस बेसहारा होने के लिए सारे शास्त्र, सारे गुरु, सारे नेता, वे सब जिनको हम पकड़ सकते हैं और सहारा बना सकते हैं, उन सबसे मुक्त हो जाना जरूरी है।
लेकिन मेरी बात को गलत मत समझ लेना। मेरी बात को रोज-रोज गलत समझा जाता है। जब मैं कहता हूं, छोड़ दें गांधी को, तो लोग समझते हैं कि मैं गांधी का दुश्मन हूं।
मैं आपसे छोड़ने को कह रहा हूं...और गांधी को नहीं, किसी को भी छोड़ने को कह रहा हूं। अगर मुझको भी पकड़ें, तो मैं कहूंगा, छोड़ दें, मुझे मत पकड़ना। तो फिर मैं मेरा ही दुश्मन हो गया। मैं छोड़ने को कह रहा हूं, मैं कह रहा हूं, अनक्लिंगिंग चाहिए, मुट्ठी खाली चाहिए, कोई पकड़ नहीं चाहिए।
अदभुत है वह घड़ी, जब एक आदमी सब छोड़ कर खड़ा हो जाता है। तब उसके जीवन में कैसी घटना घटती है, उसका हमें कोई भी पता नहीं है। तब उसके जीवन में पहली बार परमात्मा का आगमन होता है। तब पहली बार वे पगध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, जो सत्य की हैं। इसीलिए कहता हूं, छोड़ दें।
एक और मित्र ने पूछा है कि अगर सत्य शब्द से नहीं कहा जा सकता और शास्त्र में नहीं लिखा जा सकता, तो फिर क्या रास्ता है उसे कहने का?
उसे कहने का कोई भी रास्ता नहीं, उसे कहने की कोई जरूरत भी नहीं। उसे जानने की जरूरत है, कहने की नहीं। और जानने से भी ज्यादा वही हो जाने की जरूरत है। कहने का सवाल नहीं है कि हम उसे कहें। उसे जानने और अनुभव करने का सवाल है। कहने का क्या अर्थ?
एक फकीर था, शेख फरीद। वह तीर्थयात्रा पर निकला हुआ था। काशी के करीब से गुजरता था तो काशी के पास ही कबीर का आश्रम था, मगहर में। फरीद के साथियों ने कहा कि कितना अच्छा न होगा कि दो दिन के लिए कबीर के आश्रम पर हम रुक जाएं। आप दोनों की बातचीत होगी, हम आनंदित होंगे, हम सुन कर प्रफुल्लित होंगे। हमारे जीवन में तो अमृत की वर्षा हो जाएगी।
फरीद ने कहा: कहते हो तो रुक जाएंगे, लेकिन बातचीत! बातचीत शायद ही हो।
लेकिन मित्रों ने कहा: कबीर से आप बात नहीं करिएगा?
फरीद ने कहा: बात कबीर से करने की कोई जरूरत नहीं है। कबीर भी जानते हैं और मैं भी जानता हूं, बात क्या करेंगे?
कबीर के साथियों ने भी कबीर से कहा कि सुना है कि फरीद निकलता है पास से, क्या अच्छा न हो कि हम उसे निमंत्रित करें? और वह दो दिन हमारे पास रहे। आप दोनों की बातें होंगी तो हमारे तो भाग्य खुल जाएंगे। हम कुछ पकड़ लेंगे उस बातचीत से।
कबीर ने कहा: बातचीत बहुत मुश्किल है। जो बोलेगा वह मूर्ख सिद्ध होगा। फरीद को कहो तो बुला लो जरूर--बैठेंगे, हंसेंगे, गले मिलेंगे; कहोगे तो रो लेंगे, बोलेंगे नहीं। क्योंकि जो बोलेगा वही नासमझ सिद्ध होगा।
लेकिन लोगों ने कहा: बोलेंगे क्यों नहीं?
कबीर ने कहा कि तुम नहीं मानते हो तो बुला लो।
फरीद बुला लिया गया। कबीर गांव के बाहर उसके स्वागत को गया। दोनों गले मिले, देर तक गले मिले। आंखों से आंसू बहने लगे। दोनों मिल कर बैठ गए झाड़ के नीचे। दोनों के शिष्य घेर कर बैठे हैं कि शायद कुछ बात हो। लेकिन बात न हुई। एक दिन बीत गया और दूसरा दिन भी बीतने लगा, और फिर विदा का वक्त भी आ गया। और सारे शिष्य घबड़ा गए कि यह क्या मामला है, बोलते क्यों नहीं हो?
लेकिन वे दोनों हंसते थे और बोलते नहीं थे। फिर विदाई भी हो गई।
जैसे ही विदाई हुई, कबीर के शिष्यों ने कबीर को पकड़ लिया और फरीद के शिष्यों ने फरीद को कि यह क्या मामला है, बोले क्यों नहीं?
कबीर ने कहा: बोलते क्या? जो जानते हैं वह बोला नहीं जा सकता। और दूसरे जानने वाले के सामने बोल कर क्या तुम मुझे बुद्धू बनाना चाहते थे।
और फरीद ने कहा कि जो बोलता, वह मूर्ख सिद्ध होता।
लेकिन ये दोनों आदमी क्यों नहीं बोले?
सत्य जाना जा सकता है, बोला नहीं जा सकता।
लेकिन फरीद बोलता था, दूसरों के बीच। और कबीर भी बोलते थे। फिर वे क्या बोलते थे, अगर सत्य नहीं बोला जा सकता? वे सिर्फ इतना ही बोलते थे कि वे आपको भी यह कह सकें कि सत्य नहीं बोला जा सकता, सत्य नहीं दिया जा सकता, सत्य नहीं लिया जा सकता। वे आपको भी यह नकारात्मक खयाल दे सकें कि सत्य मिल सकता है, खोजा जा सकता है, लेकिन किसी से पाया नहीं जा सकता।
अगर इतना भी खयाल बोलने से आ सके, अगर इतनी भी बात स्मरण में आ जाए कि कोई एक ऐसी व्यक्तिगत खोज भी है, इंडिविजुअल, जिसमें दूसरा सहयोगी और साथी नहीं हो सकता। अगर इतना भी खयाल आ जाए कि एक ऐसी यात्रा भी है, जो अकेले ही करनी पड़ती है, तो शायद हम उस यात्रा पर निकल जाएं, वह इशारा पकड़ में आ जाए।
लेकिन हम तो उन पागलों की तरह हैं कि अगर मैं अंगुली उठा कर बताऊं कि वह रहा चांद आकाश में, तो आप मेरी अंगुली पकड़ लेंगे और कहेंगे यह है चांद! मैं चिल्ला कर कहूं कि अगुंली छोड़ दो मेरी; चांद वहां है, जहां अंगुली नहीं है। मैं बता रहा हूं सिर्फ अंगुली से उस तरफ--उस तरफ देखो। और आप कहोगे कि बड़ी प्यारी अंगुली है...ठीक है, हम समझ गए कि यही चांद है, लाइए आपकी अंगुली की पूजा करें!
जापान में एक मंदिर है, जहां एक अंगुली बनी हुई है मंदिर की मूर्ति की जगह। और बुद्ध का एक वचन नीचे लिखा हुआ है कि ‘मैं तुम्हें अंगुली दिखाता हूं कि तुम चांद को देख लो!’--और तुम मेरी अंगुली की पकड़ कर पूजा करते हो!
हम सब अंगुलियों की पूजा कर रहे हैं।
शब्द, शास्त्र और सब इशारे उस तरफ हैं, जहां न शास्त्र रह जाएगा, न शब्द रह जाएगा, न इशारे रह जाएंगे। लेकिन हम उन लोगों की तरह हैं, जैसे रास्ते के किनारे पत्थर लगा होता है और पत्थर पर तीर का निशान लगा होता है और लिखा होता है कि जूनागढ़ पचास मील। और कई समझदार उसी पत्थर को छाती से लगा कर बैठे हैं कि पहुंच गए जूनागढ़--लिखा है यहां कि जूनागढ़! यही पत्थर है जूनागढ़! उस पत्थर पर लिखा है कि जूनागढ़ बहुत दूर है।
इस पत्थर को पकड़ कर बैठ गए तो कभी नहीं पहुंचोगे। इस पत्थर को छोड़ो और आगे बढ़ जाओ और जहां तक पत्थर लगे हैं, छोड़ते ही चले जाना। और जहां पत्थर आ जाए--जिस पर लिखा हो जीरो जूनागढ़--समझ लेना कि आ गए, वहां जहां लिखा है जीरो, शून्य जूनागढ़। है एक पत्थर जूनागढ़ में कहीं होगा जहां लिखा होगा शून्य जूनागढ़। वह शून्य वाला पत्थर सार्थक है।
अगर कोई किताब मिल जाए, जिसमें लिखा हो शून्य; तो वह किताब धर्मशास्त्र हो सकती है। जहां तक शब्द हैं--वहां तक आगे, और आगे, और आगे। छोड़ते जाना है, छोड़ते जाना है...वहां पहुंच जाना है जहां फिर और आगे नहीं होता। लेकिन वहां शून्य है। सारे शब्दों का इशारा शून्य की तरफ है।
शून्य का अर्थ है: ध्यान।
शून्य का अर्थ है: समाधि।
शून्य का अर्थ है: सब छोड़ कर निपट ना-कुछ हो जाना। उस ना-कुछ से सब-कुछ मिलता है।
शून्य है द्वार पूर्ण का।
शब्द--शब्द नहीं हैं द्वार। शब्द हैं दीवाल, शून्य है द्वार। जो शब्द पर अटक जाते हैं, वे उसी दीवाल से सिर टकराते रहते हैं और नष्ट हो जाते हैं। जो शून्य के द्वार से प्रवेश करते हैं, वे प्रवेश कर जाते हैं।
कभी आपने देखा? आपके घर का दरवाजा शून्य है। कभी आपने यह खयाल किया, दीवाल भरी हुई है, दरवाजा खाली है। दरवाजा एक एंप्टीनेस है। कभी आपने खयाल किया कि घर में जो दरवाजे हैं, उन दरवाजों में कुछ भी नहीं है।
दरवाजे का मतलब क्या होता है? जहां कुछ भी नहीं है, जहां दीवाल नहीं है, पत्थर नहीं है, कुछ भी नहीं है, खाली जगह है। उस दरवाजे से आप निकलते हैं, जहां खाली जगह है। कभी दीवाल से नहीं निकलते, जहां भरा हुआ है सब-कुछ। वहां से निकलिएगा तो सिर फूट जाएगा, निकल नहीं पाएंगे। दरवाजे से निकलते हैं।
दरवाजे का क्या मतलब होता है? दरवाजे का मतलब: एंप्टीनेस, खाली जगह। मकान में सबसे कीमती चीज मालूम है, क्या है? दरवाजा है, जहां कुछ भी नहीं है। अगर किसी मकान में दरवाजा न हो तो मकान बेकार हो गया।
बर्तन में पानी भरते हैं आप, शायद आप सोचते होंगे कि बर्तन की जो दीवाल है, उसमें पानी भरते हैं, तो गलती में हैं। भीतर जो खाली जगह है, उसमें पानी भरते हैं। बर्तन क्या है? दीवाल की खाली जगह। वह जो बर्तन की दीवाल के भीतर खाली जगह है, मटके के भीतर, उसमें पानी भरता है। वह खाली जगह में, वह खाली जगह ही असली मटका है। वह जो दीवाल है, वह सिर्फ खाली जगह को घेरती है। वह दीवाल मटका नहीं है। बाजार से जो चार आने में आप खरीद लाते हैं, वह चार आने में आप दीवाल खरीद कर लाते हैं? लेकिन आपको पता नहीं, असली में आप भीतर की खाली जगह खरीद कर आ रहे हैं। वह खाली जगह में पानी भरिएगा। उस मटके में जो खाली जगह है, वही है असली चीज। मकान में जो दरवाजा है, वही है असली चीज।
और मन के भीतर भी जो शून्य है, वही है असली चीज।
जहां मन में शब्द हैं, वहीं दीवाल है; और जहां शून्य है, वहीं द्वार।
और हम तो मन को शब्दों से भर लेते हैं और जितने ज्यादा शब्द किसी आदमी के पास हों, हम कहते हैं, यह उतना ही बड़ा ज्ञानी है। उतना ही बड़ा दीन-हीन है वह आदमी। उसके पास सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। शब्द बहुत मन में हों तो हम कहते हैं, बहुत जानता है यह आदमी।
लेकिन जानते हैं वे, जिनके भीतर शब्द की दीवाल नहीं, शून्य का द्वार है। शब्द की दीवाल नहीं, शून्य का द्वार है। शब्द को छोड़ कर जानता है आदमी, शब्दों को पकड़ कर नहीं। यह उलटी बात मालूम पड़ती है। लेकिन यही है सत्य।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और कुछ लोगों ने बुद्ध से पूछा कि आपको क्या मिल गया ज्ञान में? तो बुद्ध ने कहा: मिला कुछ भी नहीं, जो सदा से मिला ही हुआ था, उसका भर पता चल गया। बुद्ध से उन्होंने पूछा कि क्या करके मिल गया? बुद्ध ने कहा: जब तक कुछ करता रहा, तब तक नहीं मिला। जब सब करना छोड़ दिया, तो मिल गया। वे लोग कहने लगे: आप बड़ी उलटी बातें कहते हैं।
बुद्ध ने कहा: जब तक कुछ करने की कोशिश करता था, तब तक मन में अशांति रही। क्योंकि करने से ही अशांति पैदा होती है। जब सब करना छोड़ दिया, करना ही छोड़ दिया, तो एकदम मन शांत हो गया और उसका पता चल गया, जो भीतर था।
शब्द भी अशांति है। जब तक शब्द भीतर घूमता है, तब तक चित्त अशांत रहेगा। जब सब शब्द शांत हो जाते हैं, भीतर कोई शब्द नहीं गूंजता; कोई गीता नहीं बोली जाती भीतर, कोई कुरान नहीं उठता; कोई महावीर, कोई बुद्ध की वाणी नहीं सुनाई पड़ती; सब खो जाता है, सब मौन हो जाता है।
उस क्षण में क्या होता है? उस क्षण में उसका पता चलता है, जो भीतर है, जो सदा से था, जिसे हमने कभी खोया नहीं, जिसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते हैं। वही है सत्य, जो न खोया जा सकता है, न कभी खोया गया है, जो हमारा वास्तविक होना है। लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं चलता, क्योंकि शब्दों की पर्त-पर्त हमने चारों तरफ इकट्ठी कर रखी हैं।
कभी प्याज को छील कर देखा है? जैसे प्याज पर्त-पर्त छीलते चले जाएं--एक प्याज की पर्त निकलती है और दूसरी आ जाती है, वह निकलती है और तीसरी आ जाती है--छीलते ही चले जाएं। ऐसे ही मन के भीतर शब्दों की पर्तें हैं। हजार-हजार पर्तें हैं, जन्मों-जन्मों की पर्तें हैं। एक-एक पर्त को छीलते चले जाएं, निकालते चले जाएं; जब तक पर्तें निकलती हों, तब तक उखाड़ते चले जाएं। फिर एक वक्त आएगा कि सब पर्तें निकल जाएंगी। फिर क्या बचेगा?
भीतर शून्य बच रहेगा। कुछ भी नहीं बचेगा। और जिस दिन सब पर्तें चली जाएंगी और जो शेष रह जाएगा...वही जो शेष रह जाता है, दि रिमेनिंग, वह जो पीछे शेष रह जाता है--वही सत्य है। जिसको आप निकाल कर फेंक नहीं सकते। बस, वही सत्य है; जिसे हटाया नहीं जा सकता, जो सबके बाद में भी शेष रह जाता है। सब हट जाए फिर भी शेष रह जाता है।
एक मकान में से हम सामान को निकालना शुरू कर दें, सारा फर्नीचर बाहर कर दें। दरवाजों से फोटुएं निकाल लें, कैलेंडर निकाल लें, खिड़कियों से सामान निकाल लें, बर्तन निकाल लें, सब चीजें बाहर निकाल दें। जब सब चीजें निकल जाएं, तब भी कुछ पीछे रह जाता है। तब पीछे क्या रह जाता है? खालीपन पीछे रह जाता है। वह खालीपन ही मकान है। पीछे कुछ रह जाता है--खाली मकान पीछे रह जाता है। वह खालीपन ही असली मकान है।
और हम उस खालीपन में चीजें भरते चले जाएं, तो हम इतनी चीजें भर दें कि भीतर जाना मुश्किल हो जाए, तो फिर मकान तो है, लेकिन भरा हुआ मकान, जिसमें प्रवेश भी नहीं पाया जा सकता।
मन भी एक मकान है, जिस मकान में हम शब्दों को भरते चले जाते हैं। शब्द इतने भर जाते हैं कि फिर मन के भीतर प्रवेश मुश्किल हो जाता है।
कभी अपने भीतर गए हैं? सिवाय शब्दों के वहां कुछ भी नहीं मिलेगा। भीतर जाएंगे और शब्द ही शब्द टकराते मिलेंगे। जैसे बाजार में चले जाएं और आदमी और आदमी मिलेंगे, वैसे अपने भीतर जाएं तो सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं मिलेगा। लेकिन इन शब्दों की भीड़ के कारण भीतर प्रवेश नहीं हो पाता।
जब इन सारे शब्दोंको कोई बाहर फेंक देता है, तब भी आप तो भीतर रह जाएंगे। आप तो शब्द नहीं हैं। आप तो कुछ और हैं। शब्द बाहर निकल जाएंगे, फिर भी आप तो बचेंगे। जब सारे शब्द फिंक जाएंगे, तब जो बच जाता है, उसका नाम ही आत्मा है। और जो उसे जान लेता है, वह सत्य को जान लेता है। और जो अपने भीतर जान लेता है, वह सबके भीतर जान लेता है। और जिसे एक बार उसका दर्शन हो जाता है, उसे फिर घड़ी-घड़ी सब जगह उसका ही दर्शन होने लगता है।
इसलिए मैं कहता हूं, शब्द से नहीं, शास्त्र से नहीं, शून्य से दरवाजा है। शून्य से प्रवेश करने की जरूरत है। इसलिए कहता हूं, छोड़ दें सब। छोड़ने पर जोर इसलिए है कि पीछे जो शेष रह जाएगा, जिसको छोड़ा नहीं जा सकता, जिसको छोड़ने का कोई उपाय नहीं है, वही आप हैं। और जिसको छोड़ा जा सकता है, वह आप नहीं हैं। जिसको छोड़ा जा सकता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं? जो भी मुझसे छीना जा सकता है, वह मैं नहीं हो सकता। जो मुझमें जोड़ा जा सकता है, वह मैं नहीं हो सकता। जो मुझमें न जोड़ा जा सकता है, न मुझसे अलग किया जा सकता है, वही मैं हूं। और उस होने का नाम ही सत्य है।
इसलिए इतना जोर देता हूं कि छोड़ दें सबको, छोड़ दें सारे शास्त्रों को। शास्त्र से दुश्मनी नहीं है, शास्त्र बेचारे से क्या दुश्मनी हो सकती है? किताबों से क्या दुश्मनी हो सकती है? कोई दिमाग खराब है मेरा कि किताबों से दुश्मनी करूं? किताबों से क्या दुश्मनी हो सकती है? व्यक्तियों से क्या दुश्मनी हो सकती है? दुश्मनी है एक बात से, वह जो आदमी अपने को भर लेता है, उससे दुश्मनी है। क्योंकि भरा हुआ आदमी, उसे जानने से वंचित रह जाता है, जो वह है। जो उसका वास्तविक होना है, उससे वह अपरिचित रह जाता है।
जापान में एक फकीर था, बोकोजू। उस फकीर से मिलने एक युनिवर्सिटी का प्रोफेसर आया। वह युनिवर्सिटी का प्रोफेसर बहुत बड़ा ज्ञानी था। बहुत शब्द थे उसके पास। बहुत शास्त्र उसने जाने थे। वह फकीर बोकोजू के झोपड़े पर गया। थका-मांदा, रास्ते की धूप में उसके चेहरे पर पसीना बह रहा है। वह गया भीतर। उसने बोकोजू को नमस्कार किया और माथे का पसीना पोंछा और कहा कि मैं यह जानने आया हूं कि सत्य क्या है?
बोकोजू ने कहा: सत्य क्या है, यह जानने यहां आने की क्या जरूरत थी? अगर सत्य होगा, तो तुम्हारे घर में भी होगा और नहीं होगा तो कहीं भी नहीं होगा। यहां किसलिए आए हो? सत्य का मैंने कोई ठेका ले रखा है? सत्य अगर होगा तो वहां भी होगा, जहां से तुम आ रहे हो। और अगर वहां नहीं है और वहां तुम्हें दिखाई नहीं पड़ा तो यहां तुम्हें कैसे दिखाई पड़ सकता है?
एक अंधा आदमी अपने घर से बाहर निकले और हजार मील चल कर किसी दूसरे के घर में जाए और कहे कि रोशनी कहां है? तो वह आदमी कहेगा, पागल, अगर आंखें थीं तो रोशनी वहां भी थी, जहां से तुम आ रहे हो! अगर आंखें नहीं हैं तो तुम दुनिया भर में घूमते रहो, रोशनी कहीं भी नहीं है। रोशनी वहां होती है, जहां आंखें होती हैं और जहां आंखें नहीं होतीं, वहां रोशनी नहीं होती, तुम कहीं भी चले जाओ।
उस फकीर ने कहा कि तुम्हें सत्य दिखाई पड़ता है? अगर दिखाई पड़ता होता तो वहीं दिखाई पड़ जाता, यहां आने की क्या जरूरत थी? तुम यहां तक आए, इससे पता चलता है कि तुम अंधे आदमी हो, तुम्हें सत्य दिखाई नहीं पड़ता। और इसलिए मैं भी क्या कर सकता हूं? एक ही बात कह सकता हूं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम्हारे ज्ञान ने तुम्हें अंधा बना दिया हो? तुम बहुत जानते हो, कहीं यही खतरा तो नहीं है? क्योंकि बहुत जानने वाले लोग बहुत खतरनाक होते हैं।
जिन्हें भी यह खयाल पैदा हो जाता है कि हम बहुत जानते हैं, वे बहुत खतरनाक हो जाते हैं।
क्योंकि बहुत जानने से बड़ा अज्ञान दुनिया में दूसरा नहीं है। क्योंकि जिन्हें ज्ञान पैदा होता है, वह तो उन लोगों को पैदा होता है, जो कहते हैं कि हम जानते ही नहीं, जानने का भ्रम ही छोड़ देते हैं।
बोकोजू ने कहा: मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि तेरी खोपड़ी शब्दों से बहुत भर गई है। और इसलिए तुझे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। फिर भी थोड़ी देर रुक, मैं थोड़ी चाय बना लाऊं, थका-मांदा मालूम पड़ता है तू, थोड़ी चाय पी ले, थोड़ा विश्राम कर ले, फिर कुछ बात करेंगे। और यह भी हो सकता है कि चाय पीने में बात भी हो जाए, और यह भी हो सकता है कि तूने जो पूछा है, वह चाय पीने में उसका उत्तर भी मिल जाए।
उस प्रोफेसर ने कहा: चाय पीने में और सत्य का उत्तर! आप कह क्या रहे हैं? मैं किस पागल के पास आ गया? मैंने व्यर्थ इस धूप में इतनी यात्रा की।
उस फकीर ने कहा: ठहर! इतनी जल्दी मत कर, मैं थोड़ी चाय बना लाऊं।
थका प्रोफेसर था, बैठा रहा। लेकिन खयाल तो उसका खत्म हो गया कि इस आदमी से कुछ जानने को मिल सकता है। क्योंकि जो आदमी कहता है कि चाय पीने से सत्य का पता चल जाएगा, उस आदमी से क्या मिल सकता है?
फकीर चाय बना कर ले आया। उसने बसी और कप, प्याली सम्हाल दिए प्रोफेसर के हाथ में और केटली से चाय ढाली। प्याली भर गई, लेकिन वह फकीर चाय ढालता चला गया। फिर नीचे का बर्तन भी भर गया, वह फकीर चाय ढालता ही चला गया। फिर चाय गिरने के करीब हो गई। तब वह प्रोफेसर चिल्लाया कि अब रुकिए भी! अब एक बूंद भर भी जगह मेरी प्याली में नहीं है।
उस फकीर ने कहा कि तुझे दिखाई पड़ता है कि बूंद भर भी जगह तेरी प्याली में नहीं है, तुझे दिखाई पड़ता है, और तुझे यह भी दिखाई पड़ता है कि जिस प्याली में बूंद भर भी जगह नहीं है, अब उसमें चाय भरने से गिर जाने का डर है। लेकिन तुझे कभी अपनी खोपड़ी में जगह दिखाई पड़ी? वहां भी सब शब्दों से भर गया है, जगह बिलकुल नहीं है। और अब तेरे पागल होने का वक्त करीब आ रहा है, अब वे शब्द जो तेरे भीतर भर गए हैं, वे बाहर गिरने शुरू हो जाएंगे।
आदमी पागल कब हो जाता है, पता है आपको? जब विचार इतने खोपड़ी में भर जाते हैं कि उनको सम्हाल नहीं पाता और वे बाहर गिरने लगते हैं। रास्ते पर चला जा रहा है और बोलने लगता है। जो नहीं सुनना चाहता, उसको पकड़ कर बोलने लगता है। रात सोता है और बोलता है। अकेले में बैठता है और बोलता है। जब शब्द इतने भर जाते हैं कि बाहर झड़ने लगते हैं तो आदमी को हम कहते हैं, पागल हो गया।
ऐसे थोड़े-बहुत पागल हम सभी होते हैं। क्योंकि अकेले बैठते हैं, तब भी अपने से बोलते ही रहते हैं। कुछ न कुछ जारी रहता है। भीतर खोपड़ी में काम चलता ही रहता है। वहां कभी विश्राम नहीं है। हम सब भी थोड़े-बहुत पागल है। पागल में और हममें कोई गुण का फर्क नहीं होता, सिर्फ मात्रा का फर्क होता है। थोड़ी मात्रा बढ़ जाए और हम भी पागल हो जाएं।
कभी अकेले कोने में बैठ जाएं, जाकर दस मिनट आंख बंद कर लें और दरवाजा लगा लेना भीतर से, ताला बंद कर लेना और एक कागज पर अपने मन में जो भी चलता हो उसको लिखना। दस मिनट तक ईमानदारी से, वही जो चलता हो। तो दस मिनट के बाद अपनी पत्नी को या अपने पति को या अपने निकटतम मित्र को भी वह कागज बताने की हिम्मत न होगी। क्योंकि वह कहेगा, यह तुमने लिखा? तुम्हारे भीतर चल रहा है यह? फिर चलो किसी डॉक्टर के पास इसी वक्त, यह तुम्हारी खोपड़ी के भीतर ये बातें चलती हैं!
दस मिनट अपने ही भीतर जो चल रहा है उसे कागज पर लिखें तो पता चल जाएगा कि वहां भीतर शब्द पागल हो गए हैं, वहां रुग्ण शब्द घूम रहे हैं चारों तरफ। किसी तरह अपने को सम्हाल कर हम काम चला रहे हैं। हम सब पागल हैं--सम्हले हुए पागल! अपने को सम्हाले हुए हैं और अपने पर कब्जा किए हुए हैं। और वह जो भीतर है, अगर जोर से बाहर निकल आए...।
किसी आदमी को शराब पिला दें और फिर देखें कि वह आदमी क्या बातें करना शुरू कर देता है! अभी जब तक शराब नहीं पी थी, तब तक राम-भजन कर रहा था, शराब पीते ही गाली बकना शुरू कर देता है। शराब क्या भजन को गाली में बदल सकती है? ऐसी कोई कीमिया शराब में है? शराब में कोई ऐसी केमिस्ट्री है कि भजन को गाली बना दे?
शराब कुछ भी नहीं कर सकती। शराब सिर्फ एक काम कर सकती है कि जब तक वह आदमी शराब नहीं पीए हुआ था, गालियां उसके भीतर चल रही थीं, भजन ऊपर से कह रहा था, अपने को सम्हाले हुए था। शराब ने वह सम्हालना खत्म कर दिया, हाथ-पैर ढीले हो गए, अब वह ताकत नहीं रही सम्हालने की। तो जो असलियत थी, वह भीतर से बाहर आनी शुरू हो गई।
सज्जन आदमी भी भीतर सज्जन नहीं है। वह भजन जो ऊपर से जोर-जोर से कह रहा है, वह भी भीतर कुछ और कह रहा है, भीतर कुछ और चल रहा है। भीतर एक पागल मस्तिष्क दौड़ रहा है। यह जो शब्दों का पागलपन है...।
उस फकीर ने कहा कि तुम्हारी खोपड़ी में इतने शब्द भरे हैं कि अब सत्य को जाने के लिए जगह भी है? सत्य को भी प्रवेश के लिए जगह चाहिए। प्याली में तुम्हें दिखाई पड़ता है कि अब जगह भर गई, लेकिन अपने मन में कभी देखा कि वहां जगह कब की भर चुकी है, कई जन्मों पहले भर चुकी है और अब ओवर क्राउडिंग है! अब सब ऊपर से भरता चला जा रहा है, अब जगह वहां नहीं है। अब सब अतिरिक्त वहां भरता चला जा रहा है। वह अतिरिक्त जितना बढ़ता जा रहा है, उतना ही आदमी रुग्ण, अस्वस्थ होता चला जा रहा है। उतना ही आदमी का सत्य से संबंध टूटता चला जा रहा है।
अगर सत्य से संबंधित होना है तो यह भीतर की भीड़ को बाहर कर देना जरूरी है। यह भीतर शब्दों का जो जमघट, जमाव है, इससे छूट जाना, मुक्त हो जाना जरूरी है। लेकिन हम तो कहते हैं कि शब्द ज्ञान है। तो फिर कैसे इससे छूटेंगे?
जब तक हम शब्द को ज्ञान समझते हैं, तब तक हम शब्द से नहीं छूट सकते हैं। जिस दिन हम समझेंगे कि शब्द ज्ञान नहीं है, बल्कि शब्द के कारण ही हम अपने अज्ञान को छिपाए हुए बैठे हैं। शब्द झूठा ज्ञान है, शब्द सूडो नालेज है। शब्द ज्ञान नहीं है। जिस दिन हमें यह पता चलेगा, उस दिन हम शब्द को फेंक सकेंगे। और जिस दिन शब्द फिंक जाता है, भीतर एक क्रांति घटित हो जाती है, एक एक्सप्लोजन हो जाता है, एक नई दुनिया खुल जाती है, एक नया द्वार खुल जाता है।
एक छोटी सी कहानी, उससे मैं समझाऊं।
एक बहुत पुराना साम्राज्य, उस साम्राज्य के बड़े वजीर की मृत्यु हो गई थी। उस राज्य का यह नियम था कि वह देश भर में जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान आदमी होता, उसी को वजीर बनाते थे। तो उन्होंने सारे देश में परीक्षाएं लीं और तीन आदमी चुने गए, जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान सिद्ध हुए थे। फिर उन तीनों को राजधानी बुलाया गया, अंतिम परीक्षा के लिए। और अंतिम परीक्षा में जो जीत जाएगा, वही राजा का बड़ा वजीर हो जाएगा।
वे तीनों राजधानी आए। वे तीनों चिंतित रहे होंगे, पता नहीं क्या परीक्षा होगी? जैसा कि परीक्षार्थी चिंतित होते हैं। उन्होंने आकर राजधानी में जो भी मिला, उससे पूछा कि कुछ पता है?
और मुश्किल हो गई। राजधानी में सभी को पता था कि क्या परीक्षा होगी। सारे गांव को मालूम था। सारे गांव ने कहा: परीक्षा! परीक्षा तो बहुत दिन पहले से तय है। राजा ने एक मकान बनाया है और उस मकान में एक कक्ष बनाया है। उस कक्ष पर उसने एक ताला लगाया है। वह ताला गणित की एक पहेली है। उस ताले की कोई चाबी नहीं है। उस ताले पर गणित के अंक लिखे हुए हैं। और जो उस गणित को हल कर लेगा, वह ताले को खोलने में समर्थ हो जाएगा। तुम तीनों को उस भवन में बंद किया जाने वाला है। जो सबसे पहले दरवाजे को खोल कर बाहर आएगा, वही राजा का वजीर हो जाएगा। वे तीनों घबड़ा गए होंगे।
एक उनमें से सीधा अपने निवास स्थान पर जाकर सो गया। उन दो मित्रों ने समझा कि उसने दिखता है कि परीक्षा देने का खयाल छोड़ दिया। वे दोनों भागे बाजार की तरफ। रात भर का सवाल था, कल सुबह परीक्षा हो जाएगी। उन्हें तालों के संबंध में कोई जानकारी न थी। न तो वे चोर थे कि तालों के संबंध में जानते हों, न ही वे कोई तालों को सुधारने वाले कारीगर थे, न वे कोई इंजीनियर थे। और न वे कोई नेता थे, जो सभी चीजों के बाबत में जानते हैं। वे कोई भी नहीं थे। वे बहुत परेशानी में पड़ गए कि हम तालों को कैसे खोलेंगे?
उन्होंने जाकर दुकानदारों से पूछा, जो तालों के दुकानदार थे। उन्होंने गणित के विद्वानों से पूछा। उन्होंने इंजीनियरों से जाकर सलाह ली। उन्होंने बड़ी किताबें इकट्ठी कर लीं पहेलियों के ऊपर। वे रात भर किताबों को कंठस्थ करते रहे, सवाल हल करते रहे। जिंदगी का सवाल था, उन्होंने कहा, आज सोना उचित नहीं है। एक रात नहीं भी सोए तो क्या हर्ज है?
परीक्षार्थी सभी इसी तरह सोचते हैं: एक रात नहीं सोएं तो क्या हर्जा है? लेकिन सुबह उनको पता चला कि बहुत हर्जा हो गया है। रात भर पढ़ने के कारण जो थोड़ा-बहुत वे जानते थे, वह भी गड़बड़ हो चुका था। सुबह अगर उनसे कोई पूछता कि दो और दो कितने होते हैं, तो वे चौंक कर खड़े हो जाते। एकदम से नहीं कह सकते थे कि चार होते हैं। क्योंकि दिमाग रात भर में अस्त-व्यस्त हो गया था। न मालूम कैसी-कैसी पहेलियां हल की थीं। यही तो होता है परीक्षार्थियों का। परीक्षा के बाहर जिन सवालों को वे हल कर सकते हैं, परीक्षा में हल नहीं कर पाते हैं।
तीसरा मित्र जो रात भर सोया रहा था, सुबह होते ही उठ आया। हाथ-मुंह धोकर उन दोनों के साथ हो लिया। वे तीनों राजमहल पहुंचे। अफवाह सच थी। सम्राट ने उन्हें एक भवन में बंद कर दिया और कहा कि इस ताले को खोल कर जो बाहर आ जाएगा--इसकी कोई चाबी नहीं है, यह गणित की एक पहेली है। गणित के अंक ताले के ऊपर खुद हुऐ हैं, हल करने की कोशिश करो--जो बाहर निकल आएगा सबसे पहले, वही बुद्धिमान सिद्ध होगा और उसी को मैं वजीर बना दूंगा। मैं बाहर प्रतीक्षा करता हूं।
वे तीनों भीतर गए। जो आदमी रात भर सोया रहा था, वह फिर आंखें बंद करके एक कोने में बैठ गया। उसके दो मित्रों ने कहा: इस पागल को क्या हो गया है! कहीं आंखें बंद करने से दुनिया के सवाल हल हुए हैं? शायद इसका दिमाग खराब हो गया है। वे दोनों मित्र जो होशियार थे, जो सोचते थे कि उनका दिमाग ठीक है, वे किताबें अपने कपड़ों के भीतर छिपा लाए थे। उन्होंने जल्दी से किताबें बाहर निकालीं और अपने सवाल हल करने फिर शुरू कर दिए।
परीक्षार्थी ऐसा न समझें कि आजकल के परीक्षार्थी ही होशियार होते हैं। पहले जमाने में भी आदमी इसी तरह के बेईमान थे। बेईमानी बड़ी प्राचीन है, वेदों से भी ज्यादा प्राचीन बेईमानी है। सब किताबें नई हैं। बेईमानी की किताब बहुत पुरानी है।
उन्होंने जल्दी से किताबें बाहर निकाल लीं। दरवाजा बंद हो चुका था। वे फिर सवाल हल करने लगे। वह आदमी आधा घंटे तक, तीसरे नंबर का आदमी, आंख बंद किए बैठा रहा। फिर उठा चुपचाप, जैसे उसके पैरों में भी आवाज न हो। उन दो मित्रों को भी पता नहीं चला। वह उठा, दरवाजे पर गया, दरवाजे को धक्का दिया, दरवाजा अटका हुआ था, उस पर कोई ताला लगा ही नहीं था, वह बाहर निकल गया।
सम्राट भीतर आया और उसने कहा कि दोनों बंद कर दो अपनी किताबें। जिस आदमी को निकलना था, वह निकल चुका है। उन दोनों ने चौंक कर देखा। उन्होंने कहा: यह आदमी कैसे निकल सकता है? इसने कुछ भी नहीं किया निकलने के लिए।
सम्राट ने कहा कि यहां कुछ करने की जरूरत ही न थी। दरवाजा सिर्फ अटका हुआ था। और हम यह जानना चाहते थे कि तुम तीनों में जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान होगा, वह सबसे पहले यह देखेगा कि दरवाजा बंद है या नहीं। इसके पहले कि तुम सवाल हल करो, पहले यह तो जान लेना चाहिए कि सवाल है भी या नहीं?
समस्या हो तो उसका समाधान हो सकता है। और अगर समस्या न हो तो उसका समाधान कैसे हो सकता है? समस्या को पहले जान लेना जरूरी है।
इस आदमी ने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। इसने सबसे पहले यह देखना चाहा कि समस्या है या नहीं? दरवाजा अटका था, यह बाहर निकल गया है। यह बुद्धिमान आदमी का पहला लक्षण है।
पर वे दोनों पूछने लगे कि तुमने किया क्या? उस आदमी ने कहा: मैंने कुछ भी नहीं किया। क्योंकि मैंने सोचा कि मैं जो भी जानता हूं, उससे कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि सवाल बिलकुल नया है, जिसको मैं बिलकुल नहीं जानता हूं। अब तक जो भी मैंने सीखा है, उससे इस सवाल का कोई भी संबंध नहीं है। जो मेरा ज्ञान है, वह बेकाम है, तो फिर मैं क्या करूं?
तो फिर मैंने सोचा कि उचित यही है कि मैं अपने ज्ञान की फिकर छोड़ दूं, और मौन और शांत होकर बैठ जाऊं। और देखूं, क्या मेरे मौन से भी उत्तर आ सकता है? क्या मैं शांति से भी कुछ उत्तर खोज सकता हूं? क्योंकि मैंने सोचा कि मैं जितना उत्तर खोजने की कोशिश करूंगा, उतना ही अशांत हो जाऊंगा। और जितना अशांत हो जाऊंगा, उतना ही सवाल का हल करना मुश्किल हो जाएगा। सवाल नया है और मेरे पास सब उत्तर पुराने हैं। पुराना उत्तर काम नहीं आ सकता है। इसलिए मैंने कहा, पुराने उत्तर की फिकर छोड़ दो। मैं चुपचाप बैठ कर देखूं कि क्या कोई नया उत्तर आ सकता है? मैंने अपना सारा ज्ञान छोड़ दिया। जितने मेरे पास शब्द थे, मैंने कहा, क्षमा करो, विदा हो जाओ। मैं अब बिना शब्द के चुपचाप थोड़ी देर बैठना चाहता हूं।
और मैं हैरान हो गया। जब मैं पूरी तरह मौन बैठा, कोई मेरे भीतर बोला कि उठ कर देख, दरवाजा खुला है, दरवाजा बंद नहीं है। मैं उठा, और दरवाजा खुला था, मैं बाहर निकल गया। यह मैंने नहीं खोजा है। मैंने सब खोज बंद कर ली थी। यह उत्तर आया है। यह उत्तर मेरा नहीं है, यह उत्तर परमात्मा का ही हो सकता है।
तुम अपने उत्तर खोज रहे थे। इसलिए परमात्मा के उत्तर मिलने का कोई सवाल न था। मैंने अपनी फिकर छोड़ दी। मैं उसके उत्तर की प्रतीक्षा करता था। मैं सिर्फ प्रतीक्षा करता रहा कि अगर कोई उत्तर हो तो आ जाए। और अगर किसी का उत्तर सुनना हो ऊपर का, तो फिर अपनी सारी बातचीत, अपने सारे शब्द खो देना जरूरी हैं। क्योंकि जब तक अपना शोरगुल भीतर चलता हो, तब तक कोई उत्तर नहीं सुनाई पड़ सकता है।
जिन लोगों ने परमात्मा की आवाज सुनी है, वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने अपनी आवाज खो दी है। जिन लोगों ने परमात्मा के सत्य को जाना है, वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने अपने सीखे हुए शब्दों को मौन कर दिया है। जिन लोगों ने परमात्मा की किताब खोली है, वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने आदमियों की सारी किताबों पर आंखें बंद कर ली हैं। और वे लोग परमात्मा की तरफ आंखें उठा पाए हैं, जिन लोगों ने आदमिओं के पीछे चलना बंद कर दिया है।
मौन और शून्य में और शांति में उसका द्वार है। वह हम सबके निकट है। शायद वह हमें रोज पुकारता है, प्रतिपल हमारे द्वार पर दस्तक देता है।
लेकिन हम सुनने को मौजूद कहां हैं? हम इतने शब्दों में खोए हैं कि उसकी शांत आवाज हमें कहां सुनाई पड़ सकेगी? हम इतने डूबे हुए हैं अपनी ही बातों में कि हमें उसकी वाणी का कैसे पता चल सकता है? इसलिए मैं जोर देकर बार-बार कहता हूं--छोड़ दें सब शब्द और हो जाएं निःशब्द। एक बार देखें, एक बार मौन होकर देखें कि क्या हो सकता है? बहुत दिन तक शब्दों में रह कर देखा है, एक बार निःशब्द होने का भी प्रयोग करके देखें। इस निःशब्द होने के प्रयोग को ही मैं ध्यान कहता हूं।
एक दो मिनट इस ध्यान के संबंध में समझाऊं। फिर हम ध्यान के लिए दस मिनट बैठेंगे और विदा हो जाएंगे।
क्योंकि जो मैंने कहा है, वह मेरे कहने से आपकी समझ में नहीं आ सकता। लेकिन यह हो सकता है कि मेरे कहने से आपको कुछ खयाल आ जाए, कोई प्यास जग जाए और आप दस मिनट को जरा चुप होकर, मौन होकर देखें।
उस आदमी का खयाल करें, जो उस कमरे में जाकर बैठ गया चुपचाप। क्या किया होगा उसने? वह आदमी क्या किया उतनी देर? उतनी देर उसने अपने सारे शब्दों को छोड़ दिया और फिकर की चुप हो जाने की, साइलेंट हो जाने की, मौन हो जाने की। और जब वह परिपूर्ण मौन हो गया तो उसे कुछ उत्तर मिला--जो उत्तर उसका अपना नहीं था; जो कहीं ऊपर से आया था, गहराई से आया था, जो परमात्मा का था।
हम भी दस मिनट इस शांत रात में चुप होने की कोशिश करें। यह हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। चूंकि हमने कभी कोई प्रयोग ही नहीं किया है, इसलिए नहीं हुआ है। लेकिन जो कभी नहीं हुआ है, वह आज हो सकता है। जो आज नहीं हुआ है, वह कल हो सकता है। संभावना हमेशा शेष है। जो थोड़ा सा श्रम करते हैं, उनकी संभावना वास्तविक बन जाती है।
क्या करेंगे दस मिनट के लिए हम यहां? देखते हैं, रात चारों तरफ बिलकुल शांत है--वृक्ष शांत हैं, चांद-तारे शांत हैं, हवाएं शांत हैं। क्या इनके साथ दस मिनट के लिए हम भी शांत होकर चुप नहीं बैठ सकते हैं?
बड़ी कठिनाई होगी, क्योंकि भीतर वह शब्दों का जाल है, वह चलता ही रहेगा, वह सोचता रहेगा कि दस मिनट कब खत्म हो जाएं। वह बार-बार आंख खोल कर देखेगा कि पड़ोसी आदमी क्या कर रहे हैं? वह जो भीतर शब्दों का जाल है, वह जो भीतर टुच्चा दिमाग है, वह जो छोटा सा शैलो माइंड है, वह उथला मन इसी तरह की बातों में दस मिनट गंवा देगा। वह चुप नहीं होगा।
नहीं, लेकिन वह चुप किया जा सकता है, अगर हम थोड़ा होशपूर्वक प्रयोग करें। क्या करेंगे, जिससे वह चुप हो जाए?
एक ही रास्ता है दुनिया में चुप होने का। एक ही रास्ता है, कभी कोई दूसरा रास्ता नहीं है--और वह रास्ता है साक्षीभाव का। जो आदमी दस मिनट के लिए भी अगर साक्षी होकर बैठ जाए--एक विटनेस...।
यह रात है हमारे चारों तरफ, ये लोग हैं हमारे चारों तरफ--कोई बच्चा आवाज करेगा, कोई पक्षी शोर करेगा, रास्ते पर कोई गाड़ी गुजरेगी, हवाएं पत्तों को हिला देंगी। चारों तरफ कुछ होगा। अगर आप दस मिनट अपने भीतर सिर्फ एक भाव लेकर बैठ जाएं कि मैं एक दर्शक हूं, एक द्रष्टा हूं। मैं सिर्फ चुपचाप देखता रहूंगा। जो हो रहा है, उसको अनुभव करता रहूंगा। मैं अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करूंगा, सिर्फ देखता रहूंगा। जैसे कोई आदमी नदी के किनारे खड़ा हो जाए और नदी को बहता हुआ देखे। जैसे कोई आदमी आकाश के नीचे खड़ा हो जाए आकाश में चलते हुए बादलों को देखे, उड़ते हुए पक्षियों की कतार देखे। जैसे कोई आदमी बाजार में खड़ा हो जाए--और इस तरह बाजार में खड़ा हो जाए, जैसे किसी नाटक में खड़ा है और बाजार में चलती हुई दुकानों को और चलते हुए लोगों को इस तरह देखे, जैसे फिल्म के पर्दे पर चीजें चलती हों।
सिर्फ देखता रह जाए और कुछ भी न करे तो एक बड़ी अदभुत घटना घटती है। अगर आप सिर्फ देखते रह जाएं चुपचाप तो भीतर एक शांति होनी शुरू हो आती है, शब्द खोने शुरू हो जाते हैं।
साक्षीभाव शब्दों की मृत्यु बन जाता है।
तो दस मिनट हम साक्षी का एक प्रयोग करेंगे। उस प्रयोग के दो-तीन छोटे से सूत्र हैं।
पहली तो बात है कि जब हम अभी प्रयोग के लिए बैठेंगे तो शरीर को बिलकुल आराम में ढीला छोड़ कर बैठना है, जैसे शरीर में कोई प्राण ही न हों, कोई तनाव शरीर पर न हो, कोई स्ट्रेन न हो।
दूसरी बात, आंखों को बंद कर लेंगे। बंद करने में भी आंखों पर कोई जोर न पड़े। धीरे से आंखों की पलकें ढीली छोड़ देंगे। फिर बिजली बुझा दी जाएगी, अंधेरा हो जाएगा। चांद का प्रकाश है, धीमी सी उसकी रोशनी नीचे गिरती रहेगी। उस चांद की रोशनी में आंख बंद किए हम दस मिनट के लिए, सिर्फ दस मिनट के लिए हम चुपचाप साक्षी बन कर रह जाएंगे।
हम कुछ भी नहीं करेंगे। हम बैठे हैं एक नाटक में, एक भागीदार हैं। हम सिर्फ चुपचाप सुन रहे हैं, जो सुनाई पड़ रहा है। जो अनुभव हो रहा है, वह अनुभव कर रहे हैं। भीतर विचार चलेंगे तो उनको भी चुपचाप देखते रहेंगे कि वे चल रहे हैं, हम देख रहे हैं। हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। जो चलता है, उसे चलने देना है।
चुपचाप दस मिनट देखने पर हैरानी होगी--जितना सन्नाटा बाहर है, उतना ही सन्नाटा भीतर भी पैदा हो जाएगा। एक बार भी, एक क्षण को भी अगर भीतर सब मौन हो जाए तो एक नई दुनिया में कदम उठ जाता है। यह तो प्रयोग के लिए हम करेंगे यहां।
अगर किसी को प्रीतिकर लगे और किसी को लगे कि कुछ हो सकता है तो वह दस मिनट रोज रात सोने के पहले करता रहे। तीन महीने में वह हैरान हो जाएगा। दस मिनट की चोट तीन महीने में भीतर एक द्वार खोल देगी। उससे कुछ नई दुनिया की शुरुआत मालूम होने लगेगी। वह अपने भीतर एक नये आदमी से परिचित हो जाएगा, जिससे वह कभी भी परिचित नहीं रहा।
मित्रों ने बहुत से प्रश्र्न पूछे हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं कि सत्य शब्दों से नहीं मिल सकता है, शास्त्रों से नहीं मिल सकता है, गुरुओं से नहीं मिल सकता है, तो फिर मैं स्वयं क्यों बोलता हूं?
क्योंकि मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिल सकेगा। मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिलेगा, इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। किसी के भी बोलने से सत्य नहीं मिल सकता है। एक कांटा पैर में लग गया हो तो दूसरे कांटे से लगे हुए कांटे को निकाला जा सकता है। लेकिन कांटे के निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ हो जाते हैं और फेंक देने के योग्य हो जाते हैं।
मैं जो बोल रहा हूं, उससे सत्य नहीं मिल सकता है। लेकिन जो दूसरे शब्द आपने पकड़ रखे हैं और समझ लिया है कि वह सत्य है, उन कांटों को मेरे बोलने के कांटों से निकाला जा सकता है। निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ हो जाते हैं और फेंक देने के योग्य।
मेरे शब्दों से सत्य नहीं मिलेगा, क्योंकि किसी के शब्दों से सत्य नहीं मिल सकता है। लेकिन शब्द शब्दों को छीन सकते हैं। और शब्द छिन जाएं, और मन खाली हो जाए, और मन के ऊपर शब्दों की कोई पकड़ न रह जाए, कोई क्लिंगिंग न रह जाए, तो मन स्वयं ही सत्य को उपलब्ध हो जाता है।
सत्य कहीं बाहर नहीं है। प्रत्येक के पास है, निकट है, स्वयं में है।
एक बार मन बाहर की तरफ देखना बंद कर दे तो सत्य को पा लेना कठिन नहीं है।
और जब तक कोई गुरुओं की तरफ देखता है, तब तक बाहर देखता है। जब तक कोई शास्त्रों की तरफ देखता है, तब तक बाहर देखता है। जब तक किन्हीं दूसरों के शब्दों को कोई पकड़ कर बैठता है, तब तक उसे वह उपलब्ध नहीं हो सकता, जो निःशब्द में और मौन में ही मिलता है। जिन्होंने सत्य को जाना है, उन्होंने बहुत प्रकार की चेष्टाएं की हैं कि वह सत्य आप तक प्रकट हो जाए, लेकिन आज तक यह संभव नहीं हो सका।
मैंने सुना है, एक महाकवि समुद्र के किनारे गया था। सुबह ही सुबह जब वह समुद्र के किनारे पहुंचा...आकाश से सूरज की रोशनी बरसती थी, ठंडी हवाएं सागर की लहरों से खेलती थीं। सागर की लहरों पर नाचती हुई उस रोशनी में वह खुद भी नाचने लगा रेत के तट पर। एकांत था, सुंदर सुबह थी, उसे स्मरण आने लगा अपनी प्रेयसी का, जो अस्पताल में बीमार पड़ी थी। और उसे खयाल आया, काश, आज इस सुंदर सुबह में वह भी यहां मौजूद होती। कवि था, उसकी आंख से आंसू बहने लगे...और फिर उसे खयाल आया, क्यों न मैं एक खूबसूरत पेटी लाऊं और उस पेटी में सुबह के छोटे से टुकड़े को भर कर भेज दूं अपनी प्रेयसी के पास।
वह बाजार से एक पेटी ले आया खूबसूरत और उसने आकर बड़े प्रेम से समुद्र के किनारे उस पेटी को खोला। सूरज की किरणों को, हवा को, सुबह के उस सुंदर छोटे से रूप को उस पेटी में बंद करके ताला बंद कर दिया। एक चिट्ठी लिखी और पेटी एक आदमी के सिर पर रख कर अपनी प्रेयसी के पास भेज दी।
उस पत्र में उसने लिखा कि सुबह के एक छोटे से खंड को तुम्हारे पास भेजता हूं। सूरज की किरणों को, समुद्र में नाचती हुई हवाओं को, सुबह के सुंदर एक छोटे से टुकड़े को, एक कतरे को तुम्हारे पास भेजता हूं। नहीं तुम आ सकती हो समुद्र के तट तक, बीमार हो, तो मैं ही समुद्र के तट की एक स्मृति को तुम्हारे पास भेजता हूं। नाच उठोगी जब इस पेटी को खोल कर देखोगी।
उस प्रेयसी को बहुत हैरानी हुई, पेटी में सुबह के टुकड़े कैसे भर कर भेजे जा सकते हैं! पत्र पहुंच गया, पेटी पहुंच गई। उसने पेटी खोली, उस पेटी के भीतर कुछ भी न था--न तो सूरज की किरणें थीं, न ठंडी हवाएं थीं, न कोई सुबह थी, वहां तो घुप्प अंधकार था। उस पेटी में तो कुछ भी न था।
समुद्र के किनारे जो दिखाई पड़ता है, उसे पेटियों में भर कर भेजने का कोई उपाय नहीं है। और परमात्मा के किनारे और सत्य के सागर के पास पहुंच कर जो अनुभव होता है, उसे तो शब्दों की पेटियों में भर कर भेजने का और भी उपाय नहीं। शब्द आ जाते हैं कोरे और खाली। वह जो किनारे पर जाना है, वह पीछे ही रह जाता है।
जो पहुंच जाते हैं सत्य के तट पर, उनके प्राणों में भी यह पीड़ा, यह प्यास पकड़ती होगी कि जो प्रियजन पीछे रह गए हैं, उन तक खबर पहुंचा दें। वे जो लंगड़ाते हुए रास्ते पर भटक गए हैं, उन तक खबर पहुंचा दें। वे जो नहीं आ पाए हैं यहां तक, उन तक भी थोड़ी सी खबर पहुंचा दें। वे शब्दों को पेटियों में भर कर हम तक भेजते हैं। गीता और कुरान और बाइबिल--किताबें पहुंच जाती हैं, शब्द पहुंच जाते हैं, पेटियां पहुंच जाती हैं; लेकिन जो उन्होंने भेजा था, वह वहीं रह जाता है, वह नहीं आता। उनकी करुणा तो प्रकट होती है, लेकिन शब्द आज तक कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हो पाए।
शब्द कभी भी समर्थ नहीं हो सकेंगे। अगर वह प्रेयसी उस पेटी को सिर पर रख कर नाचने लगे, तो हम कहेंगे, पागल है। और अगर वह प्रेयसी उस पेटी को देख कर यह समझ ले कि कुछ भेजने की कोशिश की गई थी, जो नहीं पहुंच सका है। पेटी को लात मार कर फेंक दे और दौड़ पड़े सागर की तरफ, तो एक दिन वहां पहुंच जाएगी--उसी सागर के किनारे, जहां सूरज की किरणें नाचती हैं और सुबह की ठंडी हवाएं बहती हैं और सागर की लहरों का नृत्य है। लेकिन यह तभी हो सकता है, जब पेटी को लात मार कर फेंक दे और उस तरफ दौड़ पड़े, जहां से पेटी में लाने की कुछ कोशिश की थी, लेकिन नहीं ला पाए। और तभी वह प्रेयसी भी सागर के किनारे पहुंच सकती है।
शास्त्रों को फेंक कर जो उस तरफ दौड़ पड़ते हैं, जहां से शास्त्र आते हैं; वे वहां पहुंच जाते हैं, जहां सत्य का किनारा है, जहां सत्य का सागर है।
लेकिन हम उन पागलों की तरह हैं कि गीताओं को सिर पर रख कर नाचते रहते हैं और वहां नहीं पहुंच पाते, जिस किनारे से कृष्ण ने यह खबर भेजी हो। बाइबिल को सिर पर रख कर बैठ जाते हैं, छाती पर रख कर बैठ जाते हैं और उस किनारे तक नहीं पहुंच पाते, जहां से क्राइस्ट ने यह खबर भेजी है।
और क्राइस्ट और कृष्ण और महावीर और बुद्ध अगर कहीं भी होंगे तो सिर धुनकर रोते होंगे हमें देख कर कि पागलों को हमने खबर भेजी थी कि तुम सागर के किनारे आ जाना। वे हमारी खबर को लिए ही बैठे हैं, वे वहीं रुक गए हैं! और अगर उनका बस चले तो लौट कर हमसे किताबें छीन लें। लेकिन अगर कृष्ण भी आ जाएं और गीता छीनने लगें तो हम कृष्ण की गर्दन दबा देंगे कि हमसे गीता छीनते हो? गीता छिन जाएगी तो हमारे पास क्या रह जाएगा? ऐसा हुआ है।
दोस्तोवस्की ने एक किताब लिखी है रूस में। उस किताब का नाम है: ब्रदर्स कर्माझोव। उस अदभुत किताब में उसने यह लिखा है कि अठारह सौ वर्ष बाद जीसस क्राइस्ट को यह खयाल आया कि अठारह सौ साल पहले मैं पृथ्वी पर गया था, लेकिन तब मुझे मानने वाला एक भी आदमी नहीं था। तो जो लोग मेरे दुश्मन थे, उन्होंने मुझे सूली पर लटका दिया। अब मुझे जाना चाहिए जमीन पर। अब तो आधी जमीन मुझे मानती है। अब तो गांव-गांव में मेरे चर्च हैं, मेरे पुजारी हैं, क्रास लटकाए हुए मेरे पुरोहित हैं। जगह-जगह मेरा प्रचार है। जगह-जगह मेरा नाम है। ऐसी कौन सी जगह है, जहां जीसस का मंदिर न हो? और लाखों संन्यासी जीसस का नाम लेकर सारी पृथ्वी पर प्रचार करते हैं। तो जीसस ने सोचा कि अब मैं जाऊं। अब ठीक समय आ गया है। अब समय पक गया है। अब मेरा स्वागत हो सकेगा।
और एक दिन रविवार की सुबह जेरुसलम के गांव में ईसा उतर कर एक झाड़ के नीचे खड़े हो गए। चर्च से लोग वापस लौटते थे, सुबह की प्रार्थना पूरी करके। उन्होंने एक झाड़ के नीचे जीसस को खड़े देखा, वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा: यह कौन आदमी रंग-ढंग बना कर खड़ा हुआ है? यह कौन आदमी है, जो बिलकुल जीसस जैसा बन कर खड़ा हो गया है? कोई अभिनेता, कोई नाटक का अभिनेता मालूम होता है। उन्होंने भीड़ लगा ली और मजाक करने लगे। और जीसस से कहा कि मित्र, बिलकुल बन गए हो; बिलकुल ऐसे लगते हो जैसे जीसस क्राइस्ट हो।
जीसस ने कहा: बन गया हूं! मैं वही हूं!
लोग हंसने लगे। किसी ने पत्थर फेंका, किसी ने जूता फेंका और कहा कि बड़े पागल हो! भाग जाओ, हमारा पादरी आता है, अगर देख लेगा तो मुसीबत में पड़ जाओगे।
जीसस ने कहा: तुम्हारा पादरी कि मेरा पादरी? तुम मुझे पहचाने नहीं, मैं वही हूं, जिसकी तुम रोज सुबह प्रार्थना करते हो।
वे सब लोग खूब हंसने लगे। उन्होंने कहा कि तुम्हारी भलीभांति पूजा हो जाएगी, भाग जाओ।
लेकिन जीसस ने कहा: लोग नहीं पहचानते, कोई हर्ज नहीं, लेकिन मेरा पादरी तो मुझे पहचान लेगा, जो मेरे ही सुबह-शाम गीत गाता है। पादरी आया, तो जीसस की तो लोग मजाक उड़ा रहे थे, लोग पादरी के झुक-झुक कर पैर छूने लगे।
ऐसा ही हुआ है दुनिया में। भगवान आ जाए तो आदमी मजाक उड़ाएगा और भगवान की पूजा और धंधा करने वाले जो पुजारी हैं, उनके झुक-झुक कर लोग पैर छूते हैं। पादरी के लोग पैर छूने लगे।
जीसस ने कहा: बड़ा गजब है! बड़ा कमाल है! जो मेरे गीत गाता है, उसके पैर छूते हो, मेरी तरफ देखते भी नहीं!
लोगों ने कहा: चुप, अगर पादरी के सामने इस तरह की बातें कहीं तो हम बहुत अपमानित अनुभव करेंगे।
पादरी ने सिर ऊपर उठा कर देखा और कहा: यह कौन बदमाश आदमी यहां खड़ा हुआ है? इसे नीचे उतारो!
जीसस ने कहा: तुम भी मुझे नहीं पहचान रहे हो? तुम तो अपने गले पर मेरा क्रास लटकाए हुए हो। लेकिन जीसस को क्या खबर कि जीसस को जिस सूली पर लटकाया गया था, वह लकड़ी की सूली थी और पादरी सोने का क्रास लटकाए हुए है। सोने के कहीं क्रास हुए हैं दुनिया में? और क्रास पर आदमी लटकाया जाता है, क्रास कहीं गले में लटकाया जाता है?
उस पादरी ने कहा: यह आदमी कोई शैतान मालूम पड़ता है। हमारा जीसस एक बार आ चुका, अब उसके आने की कोई जरूरत नहीं है। उसका काम हम भलीभांति कर रहे हैं।
जीसस को पकड़ लिया गया और जाकर चर्च की एक कोठरी में बंद कर दिया।
जीसस तो बहुत हैरान हुए। कि यह तो वही काम फिर शुरू हो गया जो अठारह सौ साल पहले हुआ था! क्या मुझे फिर से सूली पर लटकाया जाएगा?
आधी रात पादरी आया, दरवाजा खोला, जीसस के पैरों पर गिर पड़ा और कहा कि महानुभाव, मैं आपको पहचान गया था। लेकिन बाजार में हम कभी आपको नहीं पहचान सकते। आपकी अब कोई जरूरत नहीं है। काम बिलकुल ठीक से चल रहा है। हमने दुकान अच्छी तरह जमा ली है। यू आर दि ओल्ड डिस्टर्बर। तुम तो पुराने गड़बड़ करने वाले हो। तुम आए तो फिर सब गड़बड़ कर दोगे। हम बामुश्किल जमा पाते हैं कि तुम वापस लौट-लौट कर आ जाते हो। तुम्हारे आने की कोई जरूरत नहीं है। हम तुम्हें बाजार में नहीं पहचान सकते हैं। अकेले में हमेशा पहचान होती है। आपकी कोई आवश्यकता नहीं है। और अगर गड़बड़ की, तो क्षमा करना, हमें वही व्यवहार करना पड़ेगा जो अठारह सौ साल पहले किया गया था।
कृष्ण के साथ भी यही होगा और महावीर के साथ भी यही होगा। और महावीर के साथ जैन यही करेंगे, और कृष्ण के साथ हिंदू यही करेंगे, और मोहम्मद के साथ मुसलमान यही करेंगे। जिनकी किताबों को पकड़ कर हम बैठे हैं, हमें पता नहीं कि वे सब हमसे किताबें छुड़ा देना चाहते हैं। और जिनके शब्दों को पकड़ कर हम बैठे हैं, उन सबने यह कहा है कि शब्दों को पकड़ कर मत रुक जाना। क्योंकि मैं तो वहां उपलब्ध होता हूं, जहां सब शब्द खो जाते हैं।
निःशब्द में, मौन में, जहां सब विचार खो जाते हैं, वहां सत्य की उपलब्धि है।
मेरे शब्दों से भी नहीं होगा। किसी के शब्दों से कभी नहीं होता है।
फिर मैं किसलिए बोल रहा हूं?
सिर्फ इसलिए कि आपसे शब्द छीन लूं। आपको शब्द देने के लिए नहीं, आपसे शब्द छीनने के लिए बोल रहा हूं। कांटे से जैसे कोई कांटे को निकाल ले और फिर दोनों कांटे व्यर्थ हो जाएं। अगर आपके मन में चुभे हुए शब्दों को मैं अपने शब्दों से खींच लूं, तो बात खत्म हो गई। आप उन शब्दों से भी मुक्त हो गए और मेरे शब्दों से भी। और वह जो शब्दों से खाली मन है, वही खाली मन प्रभु की यात्रा कर पाता है, सत्य की यात्रा कर पाता है। यह बड़े दुख की बात है, दुर्भाग्य की भी कि जो हमें छुड़ाने के लिए आते हैं, हम उन्हीं को पकड़ लेते हैं।
बुद्ध ने कहा था अपने भिक्षुओं को कि मेरी कोई मूर्ति मत बनाना। आज जमीन पर बुद्ध की जितनी मूर्तियां हैं, उतनी किसी दूसरे आदमी की नहीं। अकेले बुद्ध की इतनी मूर्तियां हैं, जितनी किसी दूसरे आदमी की नहीं। उर्दू में तो बुत शब्द बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। एक-एक मंदिर में दस-दस हजार बुद्ध की मूर्तियां हैं।
चीन में एक मंदिर है, दस हजार मूर्तियों वाला मंदिर। उसमें दस हजार बुद्ध की मूर्तियां हैं। और बुद्ध ने कहा था कि मेरी पूजा मत करना।
बड़े अजीब लोग हैं हम, जो हमसे कहे कि हमें मत पकड़ना, हम उसे और जोरों से पकड़ लेते हैं कि बहुत प्यारा आदमी है। कहीं भाग न जाए, कहीं छूट न जाए। यह जो हमारी आदत है--शब्दों को, व्यक्तियों को पकड़ लेने की, इस आदत ने हमें गुलाम बना दिया है। और अगर पुराने आदमी छूट जाते हैं तो हम नये पैदा कर लेते हैं। लेकिन हम छोड़ते नहीं।
अगर महावीर और बुद्ध थोड़े छूट गए हैं, कृष्ण और राम थोड़े दूर पड़ गए हैं, तो हम गांधी को पैदा कर लेंगे और गांधी को पकड़ लेंगे! लेकिन हमें पकड़ने को कोई न कोई चाहिए। हम खुद अपने पैरों पर खड़े नहीं होना चाहते। और मैं कहता हूं कि वही आदमी अपने को आदमी कहने का हकदार है, जो सबको छोड़ कर खुद को पकड़ कर खड़ा हो जाता है।
सबको जो छोड़ देता है, वही खुद को पकड़ सकता है।
और ध्यान रहे, जो दूसरों को पकड़ता है, उसकी अपने पर, स्वयं पर कोई श्रद्धा नहीं होती है। दूसरों को वही पकड़ता है, जो अपने प्रति अश्रद्धावान हो। खुद को जितना कमजोर पाता है, वह उतना दूसरों को पकड़ कर मजबूत अनुभव करना चाहता है। खुद के प्रति जो अश्रद्धा है, वही दूसरों के प्रति श्रद्धा बनती है।
जो आदमी खुद के प्रति श्रद्धावान है, वह आदमी किसी को भी नहीं पकड़ता है।
और मजे की बात है कि जो आदमी अपने को ही नहीं पकड़ पाता है, वह दूसरे को पकड़ सकता है? जिसका अपने पर कोई वश नहीं है, वह दूसरों को क्या वश में कर पाएगा? जिसे अपना ही सुराग, अपना ही कुछ पता नहीं है, वह महावीर और बुद्ध की धूल पर बने हुए चिह्नों को पकड़ कर बैठ जाए तो उसे क्या मिल जाएगा?
स्वयं पर श्रद्धा धर्म है, दूसरों पर श्रद्धा धर्म नहीं। और जो दूसरों पर श्रद्धा करता है, वह स्वयं पर अश्रद्धा करता है। स्वयं के पास परमात्मा ने वह सब दिया है, जो किसी और को दिया है। लेकिन हम उसे खोजेंगे तभी। स्वयं के पास वह सब है छिपे हुए अर्थों में, जो किसी के भी पास प्रकट कभी हुआ हो--किसी राम के पास, किसी बुद्ध के पास, किसी महावीर के पास, किसी गांधी के पास। जो भी प्रकट होता है, वह बीज-रूप में हर आदमी के पास छिपा हुआ है।
और जब मैं यह कहता हूं कि उन्हें छोड़ दो, तो मेरी उनसे कोई दुश्मनी नहीं है। जिनको मैं छोड़ने के लिए कहता हूं, उनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। उनसे क्या दुश्मनी हो सकती है? इतने प्यारे लोगों से क्या दुश्मनी हो सकती है? जब मैं कहता हूं, उन्हें छोड़ दो, तो उन्हें छोड़ने के लिए उनसे मेरी कोई बुराई नहीं है। कहता हूं, छोड़ दो, क्योंकि जब तक उन्हें पकड़े हो, तब तक अपने को पाना असंभव है। और जो अपने को नहीं पा सकता, वह आदमी कभी भी परमात्मा के मंदिर में प्रवेश का अधिकारी नहीं होता।
इसी संबंध में कुछ और मित्रों ने पूछा है कि मैं क्यों गांधी के खिलाफ कहता हूं कुछ?
मुझे गांधी के खिलाफ कहने से क्या प्रयोजन है? गांधी जैसे आदमी हजारों वर्षों तक जमीन तपश्र्चर्या करती है, तब पैदा होते हैं। गांधी से मुझे क्या प्रयोजन? लेकिन आप गांधी को पकड़ने की दौड़ में पड़ गए हैं, इसलिए गांधी के खिलाफ भी कहता हूं, राम के खिलाफ भी कहता हूं, बुद्ध के और महावीर के खिलाफ भी कहता हूं। उनके खिलाफ नहीं, उनके प्रति भी मुझे कठोर होना पड़ता है। क्योंकि मुझे लगता है कि अब एक नई मूर्ति बन रही है और उसको लोगों ने पकड़ना शुरू कर दिया। पुरानी मूर्तियों से छुटकारा नहीं हो पाता और नई मूर्तियां निर्मित हो जाती हैं और आदमी की गुलामी जारी रहती है। मालिक बदल जाते हैं, गुलामी कायम रहती है।
कोई राम से मुक्त हो तो बुद्ध को पकड़ लेता है; बुद्ध से मुक्त हो तो क्राइस्ट को पकड़ लेता है; क्राइस्ट से छुटकारा हो तो मोहम्मद को पकड़ लेता है। पहले दूसरे को पकड़ लेता है, तब एक को छोड़ता है। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि सबको छोड़ दे और अपने पैरों पर खड़ा हो जाए।
जो आदमी सबको छोड़ कर, अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है, वह भगवान का प्यारा हो जाता है। क्योंकि भगवान उसे चाहता है, जो किसी को पकड़े हुए नहीं है, जो अपने बल से खड़ा हुआ है।
मैंने सुनी है एक कहानी। एक फकीर था मुसलमान। वह रात सोया। रात उसने सपना देखा कि वह स्वर्ग में चला गया है। सपने में लोग स्वर्ग में ही जाते हैं। असलियत में तो नरक में चले जाएं, लेकिन सपने में कोई नरक में क्यों जाए? सपने में तो कम से कम स्वर्ग में जाना ही चाहिए। सपने में वह स्वर्ग चला गया। और देखता है कि स्वर्ग के रास्तों पर बड़ी भीड़-भाड़ है, लाखों लोगों की भीड़ है। उसने पूछा कि बात क्या है आज?
तो भीड़ के रास्ते चलते किसी आदमी ने कहा कि भगवान का जन्म-दिन है। उसका जलसा मनाया जा रहा है। तो उसने कहा, बड़े सौभाग्य मेरे, भगवान के बहुत दिन से दर्शन करने थे। यह मौका मिल गया। आज भगवान का जन्म-दिन है, अच्छे मौके पर मैं स्वर्ग आ गया। वह भी रास्ते के किनारे लाखों दर्शकों की भीड़ में खड़ा हो गया।
फिर एक घोड़े पर सवार, एक बहुत शानदार आदमी, उसके साथ लाखों लोग। वह झुक कर लोगों से पूछता है, क्या जो घोड़े पर सवार हैं, ये ही भगवान हैं? तो किसी ने कहा: नहीं, ये भगवान नहीं हैं, ये हजरत मोहम्मद और उनके पीछे उनको मानने वाले लोग। फिर वह भी जुलूस निकल गया।
फिर दूसरा जुलूस है और रथ पर सवार एक बहुत महिमाशाली व्यक्ति है। वह पूछता है, क्या ये भगवान हैं?
किसी ने कहा: नहीं, ये भगवान नहीं, ये राम हैं और राम के मानने वाले लोग उनके पीछे हैं।
फिर वैसे ही कृष्ण भी निकलते हैं और उनके मानने वाले लोग। और क्राइस्ट और बुद्ध और महावीर और जरथुस्त्र और कनफ्यूशियस और न मालूम कितने महिमाशाली लोग निकलते हैं और उनको मानने वाले लोग निकलते हैं।
आधी रात बीत जाती है, फिर धीरे-धीरे रास्ता सन्नाटा हो जाता है। फिर वह आदमी सोचता है कि अभी तक भगवान नहीं निकले! वे कब निकलेंगे?
और जब सारे लोग जाने के करीब हो गए हैं, रास्ता उजड़ने लगा है, कोई रास्ते पर ध्यान नहीं दे रहा है, तब एक बूढ़े से घोड़े पर एक बूढ़ा सा आदमी अकेला चला आ रहा है। उसके साथ कोई भी नहीं। वह हैरान होता है कि ये महाशय कौन हैं? जिनके साथ कोई भी नहीं। यह अपने आप ही घोड़े पर बैठ कर चले आ रहे हैं। आखिरी जाते हुए लोगों से वह पूछता है कि ये सज्जन कौन हैं बिलकुल अकेले? तो वह चलता हुआ आदमी कहता है कि हो न हो, यह भगवान होंगे। क्योंकि भगवान से अकेला और दुनिया में कोई भी नहीं है। वह जाकर भगवान को ही पूछता है, उस घोड़े पर बैठे हुए बूढ़े आदमी से कि महाशय, आप भगवान हैं? मैं बहुत हैरान हुआ! मोहम्मद के साथ बहुत लोग थे, क्राइस्ट के साथ बहुत लोग थे, राम के साथ बहुत लोग थे, सबके साथ बहुत लोग थे, आपके साथ कोई भी नहीं!
भगवान की आंखों से आंसू गिरने लगे और भगवान ने कहा: सारे लोग उन्हीं के बीच बंट गए हैं, कोई बचा ही नहीं जो मेरे साथ हो सके। कोई राम के साथ है, कोई कृष्ण के साथ है, मेरे साथ तो कोई भी नहीं है। और मेरे साथ वही हो सकता है, जो किसी के साथ न हो। मैं अकेला ही हूं।
घबड़ाहट में उस फकीर की नींद खुल गई। नींद खुल गई तो पाया, वह जमीन पर अपने झोपड़े में है। वह पास-पड़ोस में जाकर पूछने लगा कि मैंने एक बहुत ही दुखद सपना देखा है, बिलकुल झूठा सपना देखा है। मैंने यह देखा कि भगवान अकेला है। यह कैसे हो सकता है?
वह फकीर मुझे भी मिला और मैंने उससे कहा कि तूने सच्चा ही सपनो देखा है। भगवान से ज्यादा अकेला कोई भी नहीं है। क्योंकि जो हिंदू है, वह भगवान के साथ नहीं हो सकता। जो मुसलमान है, वह भगवान के साथ नहीं हो सकता। जो जैन है, वह भगवान के साथ नहीं हो सकता। जो कोई भी नहीं है, जिसका कोई विशेषण नहीं है, जो किसी का अनुयायी नहीं है, जो किसी का शिष्य नहीं, जो बिलकुल अकेला है।
जो बिलकुल नितांत अकेला है, वही केवल उस नितांत अकेले से जुड़ सकता है, जो भगवान है।
अकेले में, तनहाई में, लोनलीनेस में, बिलकुल अकेले में वह द्वार खुलता है, जो भगवान से जोड़ता है।
भीड़-भाड़ से भगवान का कोई संबंध नहीं। जब हम हिंदू होते हैं, तब हम एक भीड़ के हिस्से होते हैं। जब हम मुसलमान होते हैं, तब हम दूसरी भीड़ के हिस्से होते हैं। जब हम राम के पीछे चलते हैं, तब हम अपनी ही कल्पना के पीछे चलते हैं। और जब हम बुद्ध के पीछे चलते हैं, तब भी हम अपनी ही कल्पना के पीछे चलते हैं। सत्य से इसका कोई संबंध नहीं है।
तो जब मैं कहता हूं, छोड़ दें इन्हें, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि राम आदमी काम के नहीं हैं। बहुत काम के हैं, यही तो खतरा है, इसी से तो पकड़ पैदा हो जाती है। जब मैं कहता हूं, छोड़ दें इन्हें, तो मेरा मतलब यह है कि हाथ खाली चाहिए।
जब तक हम किसी को पकड़े हुए हैं, तब तक हाथ भरे हुए हैं। और भरे हुए हाथ परमात्मा के चरणों की तरफ नहीं बढ़ सकते। वहां खाली हाथ चाहिए, जिन हाथों में कोई भी न हो। और जब हाथ बिलकुल खाली होते हैं, तब परमात्मा का हाथ उपलब्ध होता है।
एक और छोटी सी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूं।
मैंने सुना है, कृष्ण एक दिन भोजन करने बैठे हैं और रुक्मणी उनकी थाली पर पंखा झलती है। एक-दो कौर ही उन्होंने खाए हैं और फिर थाली को सरका कर भागे हैं, एकदम दरवाजे की तरफ।
रुक्मणी ने कहा: आप पागल हो गए हैं! आधा खाना खाकर कहां भागते हैं?
लेकिन कृष्ण ने उत्तर भी नहीं दिया, वह तो भागते हुए द्वार पर चले गए। फिर द्वार पर ठिठक कर खड़े हो गए। फिर चुपचाप उदास वापस लौट कर, बैठ कर भोजन करने लगे।
रुक्मणी ने कहा: बहुत मुश्किल में डाल दिया मुझे। क्या ऐसी जरूरत आ गई थी कि इतनी तेजी से भागे? कौन सी दुर्घटना घट गई थी? कहां आग लग गई थी? और फिर बिना आग को बुझाए, दरवाजे से वापस भी लौट आए? क्या था? क्या हो गया था आपको?
कृष्ण ने कहा: सचमुच ही दुर्घटना हो गई थी। एक मेरा प्यारा, एक राजधानी से गुजर रहा है, एक फकीर, जिसका मेरे सिवाय और कोई भी नहीं। जिसका मेरे सिवाय और कोई भी नहीं! ऐसा मेरा एक प्यारा एक रास्ते से गुजर रहा है। कुछ लोग उसे पत्थर मार रहे हैं। उसके माथे से खून की धाराएं बह रही हैं। भीड़ उसे घेरे हुई खड़ी है। बहती हुई खून की धाराओं में भी चुपचाप खड़ा हंस रहा है वह। मेरी जरूरत पड़ गई थी कि मैं जाऊं, इसलिए मैं भागा।
रुक्मणी ने कहा: फिर आप द्वार से वापस कैसे लौट आए?
कृष्ण ने कहा: द्वार पर जब पहुंचा, फिर मेरी जरूरत न रह गई। उस फकीर ने अपने हाथ में पत्थर उठा लिया। अब वह खुद ही उत्तर दे रहा है। अब मेरी कोई जरूरत नहीं है। जब तक वह बेसहारा था, जब तक उसका कोई भी न था, जब तक वह बिलकुल अकेला था, तब तक मेरी जरूरत थी, तब तक उसके पूरे प्राण मुझे चुंबक की तरह खींच रहे थे। अब वह बेसहारा नहीं है, अब उसके हाथ में पत्थर है। उसने पत्थर का सहारा खोज लिया, अब उसके हाथ भरे हुए हैं। अब वह कमजोर नहीं है। अब उसके पास अपनी ताकत है, अब वह लड़ रहा है, अब मेरी कोई भी जरूरत नहीं है।
यह कहानी पता नहीं सच हो या झूठ। इसके सच और झूठ होने से कोई प्रयोजन भी नहीं। लेकिन एक बात मैं जानता हूं और वह बात मैं आपसे कहना चाहता हूं।
जब तक आपके हाथ भरे हैं, जब तक आपका मन भरा है, जब तक आप कोई सहारा पकड़े हुए हैं, तब तक परमात्मा का सहारा उपलब्ध नहीं होगा। उसका सहारा उसी क्षण उपलब्ध होता है, जब आदमी परिपूर्ण बेसहारा हो जाता है। टोटल हेल्पलेस, जब पूरी तरह बेसहारा होता है, तब उसका सहारा उपलब्ध होता है। लेकिन हम कोई न कोई सहारा पकड़ लेते हैं और वही सहारा बाधा बन जाता है।
तो जब मैं कहता हूं, छोड़ दें सबको, तो मेरा मतलब है कि बिलकुल बेसहारा हो जाएं, सब भांति बेसहारा हो जाएं। जिस दिन आदमी सब भांति बेसहारा हो जाता है, एक चुंबक बन जाता है और परमात्मा की सारी शक्तियां उसकी तरफ खिंचनी शुरू हो जाती हैं। लेकिन उस बेसहारा होने के लिए सारे शास्त्र, सारे गुरु, सारे नेता, वे सब जिनको हम पकड़ सकते हैं और सहारा बना सकते हैं, उन सबसे मुक्त हो जाना जरूरी है।
लेकिन मेरी बात को गलत मत समझ लेना। मेरी बात को रोज-रोज गलत समझा जाता है। जब मैं कहता हूं, छोड़ दें गांधी को, तो लोग समझते हैं कि मैं गांधी का दुश्मन हूं।
मैं आपसे छोड़ने को कह रहा हूं...और गांधी को नहीं, किसी को भी छोड़ने को कह रहा हूं। अगर मुझको भी पकड़ें, तो मैं कहूंगा, छोड़ दें, मुझे मत पकड़ना। तो फिर मैं मेरा ही दुश्मन हो गया। मैं छोड़ने को कह रहा हूं, मैं कह रहा हूं, अनक्लिंगिंग चाहिए, मुट्ठी खाली चाहिए, कोई पकड़ नहीं चाहिए।
अदभुत है वह घड़ी, जब एक आदमी सब छोड़ कर खड़ा हो जाता है। तब उसके जीवन में कैसी घटना घटती है, उसका हमें कोई भी पता नहीं है। तब उसके जीवन में पहली बार परमात्मा का आगमन होता है। तब पहली बार वे पगध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, जो सत्य की हैं। इसीलिए कहता हूं, छोड़ दें।
एक और मित्र ने पूछा है कि अगर सत्य शब्द से नहीं कहा जा सकता और शास्त्र में नहीं लिखा जा सकता, तो फिर क्या रास्ता है उसे कहने का?
उसे कहने का कोई भी रास्ता नहीं, उसे कहने की कोई जरूरत भी नहीं। उसे जानने की जरूरत है, कहने की नहीं। और जानने से भी ज्यादा वही हो जाने की जरूरत है। कहने का सवाल नहीं है कि हम उसे कहें। उसे जानने और अनुभव करने का सवाल है। कहने का क्या अर्थ?
एक फकीर था, शेख फरीद। वह तीर्थयात्रा पर निकला हुआ था। काशी के करीब से गुजरता था तो काशी के पास ही कबीर का आश्रम था, मगहर में। फरीद के साथियों ने कहा कि कितना अच्छा न होगा कि दो दिन के लिए कबीर के आश्रम पर हम रुक जाएं। आप दोनों की बातचीत होगी, हम आनंदित होंगे, हम सुन कर प्रफुल्लित होंगे। हमारे जीवन में तो अमृत की वर्षा हो जाएगी।
फरीद ने कहा: कहते हो तो रुक जाएंगे, लेकिन बातचीत! बातचीत शायद ही हो।
लेकिन मित्रों ने कहा: कबीर से आप बात नहीं करिएगा?
फरीद ने कहा: बात कबीर से करने की कोई जरूरत नहीं है। कबीर भी जानते हैं और मैं भी जानता हूं, बात क्या करेंगे?
कबीर के साथियों ने भी कबीर से कहा कि सुना है कि फरीद निकलता है पास से, क्या अच्छा न हो कि हम उसे निमंत्रित करें? और वह दो दिन हमारे पास रहे। आप दोनों की बातें होंगी तो हमारे तो भाग्य खुल जाएंगे। हम कुछ पकड़ लेंगे उस बातचीत से।
कबीर ने कहा: बातचीत बहुत मुश्किल है। जो बोलेगा वह मूर्ख सिद्ध होगा। फरीद को कहो तो बुला लो जरूर--बैठेंगे, हंसेंगे, गले मिलेंगे; कहोगे तो रो लेंगे, बोलेंगे नहीं। क्योंकि जो बोलेगा वही नासमझ सिद्ध होगा।
लेकिन लोगों ने कहा: बोलेंगे क्यों नहीं?
कबीर ने कहा कि तुम नहीं मानते हो तो बुला लो।
फरीद बुला लिया गया। कबीर गांव के बाहर उसके स्वागत को गया। दोनों गले मिले, देर तक गले मिले। आंखों से आंसू बहने लगे। दोनों मिल कर बैठ गए झाड़ के नीचे। दोनों के शिष्य घेर कर बैठे हैं कि शायद कुछ बात हो। लेकिन बात न हुई। एक दिन बीत गया और दूसरा दिन भी बीतने लगा, और फिर विदा का वक्त भी आ गया। और सारे शिष्य घबड़ा गए कि यह क्या मामला है, बोलते क्यों नहीं हो?
लेकिन वे दोनों हंसते थे और बोलते नहीं थे। फिर विदाई भी हो गई।
जैसे ही विदाई हुई, कबीर के शिष्यों ने कबीर को पकड़ लिया और फरीद के शिष्यों ने फरीद को कि यह क्या मामला है, बोले क्यों नहीं?
कबीर ने कहा: बोलते क्या? जो जानते हैं वह बोला नहीं जा सकता। और दूसरे जानने वाले के सामने बोल कर क्या तुम मुझे बुद्धू बनाना चाहते थे।
और फरीद ने कहा कि जो बोलता, वह मूर्ख सिद्ध होता।
लेकिन ये दोनों आदमी क्यों नहीं बोले?
सत्य जाना जा सकता है, बोला नहीं जा सकता।
लेकिन फरीद बोलता था, दूसरों के बीच। और कबीर भी बोलते थे। फिर वे क्या बोलते थे, अगर सत्य नहीं बोला जा सकता? वे सिर्फ इतना ही बोलते थे कि वे आपको भी यह कह सकें कि सत्य नहीं बोला जा सकता, सत्य नहीं दिया जा सकता, सत्य नहीं लिया जा सकता। वे आपको भी यह नकारात्मक खयाल दे सकें कि सत्य मिल सकता है, खोजा जा सकता है, लेकिन किसी से पाया नहीं जा सकता।
अगर इतना भी खयाल बोलने से आ सके, अगर इतनी भी बात स्मरण में आ जाए कि कोई एक ऐसी व्यक्तिगत खोज भी है, इंडिविजुअल, जिसमें दूसरा सहयोगी और साथी नहीं हो सकता। अगर इतना भी खयाल आ जाए कि एक ऐसी यात्रा भी है, जो अकेले ही करनी पड़ती है, तो शायद हम उस यात्रा पर निकल जाएं, वह इशारा पकड़ में आ जाए।
लेकिन हम तो उन पागलों की तरह हैं कि अगर मैं अंगुली उठा कर बताऊं कि वह रहा चांद आकाश में, तो आप मेरी अंगुली पकड़ लेंगे और कहेंगे यह है चांद! मैं चिल्ला कर कहूं कि अगुंली छोड़ दो मेरी; चांद वहां है, जहां अंगुली नहीं है। मैं बता रहा हूं सिर्फ अंगुली से उस तरफ--उस तरफ देखो। और आप कहोगे कि बड़ी प्यारी अंगुली है...ठीक है, हम समझ गए कि यही चांद है, लाइए आपकी अंगुली की पूजा करें!
जापान में एक मंदिर है, जहां एक अंगुली बनी हुई है मंदिर की मूर्ति की जगह। और बुद्ध का एक वचन नीचे लिखा हुआ है कि ‘मैं तुम्हें अंगुली दिखाता हूं कि तुम चांद को देख लो!’--और तुम मेरी अंगुली की पकड़ कर पूजा करते हो!
हम सब अंगुलियों की पूजा कर रहे हैं।
शब्द, शास्त्र और सब इशारे उस तरफ हैं, जहां न शास्त्र रह जाएगा, न शब्द रह जाएगा, न इशारे रह जाएंगे। लेकिन हम उन लोगों की तरह हैं, जैसे रास्ते के किनारे पत्थर लगा होता है और पत्थर पर तीर का निशान लगा होता है और लिखा होता है कि जूनागढ़ पचास मील। और कई समझदार उसी पत्थर को छाती से लगा कर बैठे हैं कि पहुंच गए जूनागढ़--लिखा है यहां कि जूनागढ़! यही पत्थर है जूनागढ़! उस पत्थर पर लिखा है कि जूनागढ़ बहुत दूर है।
इस पत्थर को पकड़ कर बैठ गए तो कभी नहीं पहुंचोगे। इस पत्थर को छोड़ो और आगे बढ़ जाओ और जहां तक पत्थर लगे हैं, छोड़ते ही चले जाना। और जहां पत्थर आ जाए--जिस पर लिखा हो जीरो जूनागढ़--समझ लेना कि आ गए, वहां जहां लिखा है जीरो, शून्य जूनागढ़। है एक पत्थर जूनागढ़ में कहीं होगा जहां लिखा होगा शून्य जूनागढ़। वह शून्य वाला पत्थर सार्थक है।
अगर कोई किताब मिल जाए, जिसमें लिखा हो शून्य; तो वह किताब धर्मशास्त्र हो सकती है। जहां तक शब्द हैं--वहां तक आगे, और आगे, और आगे। छोड़ते जाना है, छोड़ते जाना है...वहां पहुंच जाना है जहां फिर और आगे नहीं होता। लेकिन वहां शून्य है। सारे शब्दों का इशारा शून्य की तरफ है।
शून्य का अर्थ है: ध्यान।
शून्य का अर्थ है: समाधि।
शून्य का अर्थ है: सब छोड़ कर निपट ना-कुछ हो जाना। उस ना-कुछ से सब-कुछ मिलता है।
शून्य है द्वार पूर्ण का।
शब्द--शब्द नहीं हैं द्वार। शब्द हैं दीवाल, शून्य है द्वार। जो शब्द पर अटक जाते हैं, वे उसी दीवाल से सिर टकराते रहते हैं और नष्ट हो जाते हैं। जो शून्य के द्वार से प्रवेश करते हैं, वे प्रवेश कर जाते हैं।
कभी आपने देखा? आपके घर का दरवाजा शून्य है। कभी आपने यह खयाल किया, दीवाल भरी हुई है, दरवाजा खाली है। दरवाजा एक एंप्टीनेस है। कभी आपने खयाल किया कि घर में जो दरवाजे हैं, उन दरवाजों में कुछ भी नहीं है।
दरवाजे का मतलब क्या होता है? जहां कुछ भी नहीं है, जहां दीवाल नहीं है, पत्थर नहीं है, कुछ भी नहीं है, खाली जगह है। उस दरवाजे से आप निकलते हैं, जहां खाली जगह है। कभी दीवाल से नहीं निकलते, जहां भरा हुआ है सब-कुछ। वहां से निकलिएगा तो सिर फूट जाएगा, निकल नहीं पाएंगे। दरवाजे से निकलते हैं।
दरवाजे का क्या मतलब होता है? दरवाजे का मतलब: एंप्टीनेस, खाली जगह। मकान में सबसे कीमती चीज मालूम है, क्या है? दरवाजा है, जहां कुछ भी नहीं है। अगर किसी मकान में दरवाजा न हो तो मकान बेकार हो गया।
बर्तन में पानी भरते हैं आप, शायद आप सोचते होंगे कि बर्तन की जो दीवाल है, उसमें पानी भरते हैं, तो गलती में हैं। भीतर जो खाली जगह है, उसमें पानी भरते हैं। बर्तन क्या है? दीवाल की खाली जगह। वह जो बर्तन की दीवाल के भीतर खाली जगह है, मटके के भीतर, उसमें पानी भरता है। वह खाली जगह में, वह खाली जगह ही असली मटका है। वह जो दीवाल है, वह सिर्फ खाली जगह को घेरती है। वह दीवाल मटका नहीं है। बाजार से जो चार आने में आप खरीद लाते हैं, वह चार आने में आप दीवाल खरीद कर लाते हैं? लेकिन आपको पता नहीं, असली में आप भीतर की खाली जगह खरीद कर आ रहे हैं। वह खाली जगह में पानी भरिएगा। उस मटके में जो खाली जगह है, वही है असली चीज। मकान में जो दरवाजा है, वही है असली चीज।
और मन के भीतर भी जो शून्य है, वही है असली चीज।
जहां मन में शब्द हैं, वहीं दीवाल है; और जहां शून्य है, वहीं द्वार।
और हम तो मन को शब्दों से भर लेते हैं और जितने ज्यादा शब्द किसी आदमी के पास हों, हम कहते हैं, यह उतना ही बड़ा ज्ञानी है। उतना ही बड़ा दीन-हीन है वह आदमी। उसके पास सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं है। शब्द बहुत मन में हों तो हम कहते हैं, बहुत जानता है यह आदमी।
लेकिन जानते हैं वे, जिनके भीतर शब्द की दीवाल नहीं, शून्य का द्वार है। शब्द की दीवाल नहीं, शून्य का द्वार है। शब्द को छोड़ कर जानता है आदमी, शब्दों को पकड़ कर नहीं। यह उलटी बात मालूम पड़ती है। लेकिन यही है सत्य।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और कुछ लोगों ने बुद्ध से पूछा कि आपको क्या मिल गया ज्ञान में? तो बुद्ध ने कहा: मिला कुछ भी नहीं, जो सदा से मिला ही हुआ था, उसका भर पता चल गया। बुद्ध से उन्होंने पूछा कि क्या करके मिल गया? बुद्ध ने कहा: जब तक कुछ करता रहा, तब तक नहीं मिला। जब सब करना छोड़ दिया, तो मिल गया। वे लोग कहने लगे: आप बड़ी उलटी बातें कहते हैं।
बुद्ध ने कहा: जब तक कुछ करने की कोशिश करता था, तब तक मन में अशांति रही। क्योंकि करने से ही अशांति पैदा होती है। जब सब करना छोड़ दिया, करना ही छोड़ दिया, तो एकदम मन शांत हो गया और उसका पता चल गया, जो भीतर था।
शब्द भी अशांति है। जब तक शब्द भीतर घूमता है, तब तक चित्त अशांत रहेगा। जब सब शब्द शांत हो जाते हैं, भीतर कोई शब्द नहीं गूंजता; कोई गीता नहीं बोली जाती भीतर, कोई कुरान नहीं उठता; कोई महावीर, कोई बुद्ध की वाणी नहीं सुनाई पड़ती; सब खो जाता है, सब मौन हो जाता है।
उस क्षण में क्या होता है? उस क्षण में उसका पता चलता है, जो भीतर है, जो सदा से था, जिसे हमने कभी खोया नहीं, जिसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते हैं। वही है सत्य, जो न खोया जा सकता है, न कभी खोया गया है, जो हमारा वास्तविक होना है। लेकिन उसका हमें कोई पता नहीं चलता, क्योंकि शब्दों की पर्त-पर्त हमने चारों तरफ इकट्ठी कर रखी हैं।
कभी प्याज को छील कर देखा है? जैसे प्याज पर्त-पर्त छीलते चले जाएं--एक प्याज की पर्त निकलती है और दूसरी आ जाती है, वह निकलती है और तीसरी आ जाती है--छीलते ही चले जाएं। ऐसे ही मन के भीतर शब्दों की पर्तें हैं। हजार-हजार पर्तें हैं, जन्मों-जन्मों की पर्तें हैं। एक-एक पर्त को छीलते चले जाएं, निकालते चले जाएं; जब तक पर्तें निकलती हों, तब तक उखाड़ते चले जाएं। फिर एक वक्त आएगा कि सब पर्तें निकल जाएंगी। फिर क्या बचेगा?
भीतर शून्य बच रहेगा। कुछ भी नहीं बचेगा। और जिस दिन सब पर्तें चली जाएंगी और जो शेष रह जाएगा...वही जो शेष रह जाता है, दि रिमेनिंग, वह जो पीछे शेष रह जाता है--वही सत्य है। जिसको आप निकाल कर फेंक नहीं सकते। बस, वही सत्य है; जिसे हटाया नहीं जा सकता, जो सबके बाद में भी शेष रह जाता है। सब हट जाए फिर भी शेष रह जाता है।
एक मकान में से हम सामान को निकालना शुरू कर दें, सारा फर्नीचर बाहर कर दें। दरवाजों से फोटुएं निकाल लें, कैलेंडर निकाल लें, खिड़कियों से सामान निकाल लें, बर्तन निकाल लें, सब चीजें बाहर निकाल दें। जब सब चीजें निकल जाएं, तब भी कुछ पीछे रह जाता है। तब पीछे क्या रह जाता है? खालीपन पीछे रह जाता है। वह खालीपन ही मकान है। पीछे कुछ रह जाता है--खाली मकान पीछे रह जाता है। वह खालीपन ही असली मकान है।
और हम उस खालीपन में चीजें भरते चले जाएं, तो हम इतनी चीजें भर दें कि भीतर जाना मुश्किल हो जाए, तो फिर मकान तो है, लेकिन भरा हुआ मकान, जिसमें प्रवेश भी नहीं पाया जा सकता।
मन भी एक मकान है, जिस मकान में हम शब्दों को भरते चले जाते हैं। शब्द इतने भर जाते हैं कि फिर मन के भीतर प्रवेश मुश्किल हो जाता है।
कभी अपने भीतर गए हैं? सिवाय शब्दों के वहां कुछ भी नहीं मिलेगा। भीतर जाएंगे और शब्द ही शब्द टकराते मिलेंगे। जैसे बाजार में चले जाएं और आदमी और आदमी मिलेंगे, वैसे अपने भीतर जाएं तो सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं मिलेगा। लेकिन इन शब्दों की भीड़ के कारण भीतर प्रवेश नहीं हो पाता।
जब इन सारे शब्दोंको कोई बाहर फेंक देता है, तब भी आप तो भीतर रह जाएंगे। आप तो शब्द नहीं हैं। आप तो कुछ और हैं। शब्द बाहर निकल जाएंगे, फिर भी आप तो बचेंगे। जब सारे शब्द फिंक जाएंगे, तब जो बच जाता है, उसका नाम ही आत्मा है। और जो उसे जान लेता है, वह सत्य को जान लेता है। और जो अपने भीतर जान लेता है, वह सबके भीतर जान लेता है। और जिसे एक बार उसका दर्शन हो जाता है, उसे फिर घड़ी-घड़ी सब जगह उसका ही दर्शन होने लगता है।
इसलिए मैं कहता हूं, शब्द से नहीं, शास्त्र से नहीं, शून्य से दरवाजा है। शून्य से प्रवेश करने की जरूरत है। इसलिए कहता हूं, छोड़ दें सब। छोड़ने पर जोर इसलिए है कि पीछे जो शेष रह जाएगा, जिसको छोड़ा नहीं जा सकता, जिसको छोड़ने का कोई उपाय नहीं है, वही आप हैं। और जिसको छोड़ा जा सकता है, वह आप नहीं हैं। जिसको छोड़ा जा सकता है, वह मैं कैसे हो सकता हूं? जो भी मुझसे छीना जा सकता है, वह मैं नहीं हो सकता। जो मुझमें जोड़ा जा सकता है, वह मैं नहीं हो सकता। जो मुझमें न जोड़ा जा सकता है, न मुझसे अलग किया जा सकता है, वही मैं हूं। और उस होने का नाम ही सत्य है।
इसलिए इतना जोर देता हूं कि छोड़ दें सबको, छोड़ दें सारे शास्त्रों को। शास्त्र से दुश्मनी नहीं है, शास्त्र बेचारे से क्या दुश्मनी हो सकती है? किताबों से क्या दुश्मनी हो सकती है? कोई दिमाग खराब है मेरा कि किताबों से दुश्मनी करूं? किताबों से क्या दुश्मनी हो सकती है? व्यक्तियों से क्या दुश्मनी हो सकती है? दुश्मनी है एक बात से, वह जो आदमी अपने को भर लेता है, उससे दुश्मनी है। क्योंकि भरा हुआ आदमी, उसे जानने से वंचित रह जाता है, जो वह है। जो उसका वास्तविक होना है, उससे वह अपरिचित रह जाता है।
जापान में एक फकीर था, बोकोजू। उस फकीर से मिलने एक युनिवर्सिटी का प्रोफेसर आया। वह युनिवर्सिटी का प्रोफेसर बहुत बड़ा ज्ञानी था। बहुत शब्द थे उसके पास। बहुत शास्त्र उसने जाने थे। वह फकीर बोकोजू के झोपड़े पर गया। थका-मांदा, रास्ते की धूप में उसके चेहरे पर पसीना बह रहा है। वह गया भीतर। उसने बोकोजू को नमस्कार किया और माथे का पसीना पोंछा और कहा कि मैं यह जानने आया हूं कि सत्य क्या है?
बोकोजू ने कहा: सत्य क्या है, यह जानने यहां आने की क्या जरूरत थी? अगर सत्य होगा, तो तुम्हारे घर में भी होगा और नहीं होगा तो कहीं भी नहीं होगा। यहां किसलिए आए हो? सत्य का मैंने कोई ठेका ले रखा है? सत्य अगर होगा तो वहां भी होगा, जहां से तुम आ रहे हो। और अगर वहां नहीं है और वहां तुम्हें दिखाई नहीं पड़ा तो यहां तुम्हें कैसे दिखाई पड़ सकता है?
एक अंधा आदमी अपने घर से बाहर निकले और हजार मील चल कर किसी दूसरे के घर में जाए और कहे कि रोशनी कहां है? तो वह आदमी कहेगा, पागल, अगर आंखें थीं तो रोशनी वहां भी थी, जहां से तुम आ रहे हो! अगर आंखें नहीं हैं तो तुम दुनिया भर में घूमते रहो, रोशनी कहीं भी नहीं है। रोशनी वहां होती है, जहां आंखें होती हैं और जहां आंखें नहीं होतीं, वहां रोशनी नहीं होती, तुम कहीं भी चले जाओ।
उस फकीर ने कहा कि तुम्हें सत्य दिखाई पड़ता है? अगर दिखाई पड़ता होता तो वहीं दिखाई पड़ जाता, यहां आने की क्या जरूरत थी? तुम यहां तक आए, इससे पता चलता है कि तुम अंधे आदमी हो, तुम्हें सत्य दिखाई नहीं पड़ता। और इसलिए मैं भी क्या कर सकता हूं? एक ही बात कह सकता हूं कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम्हारे ज्ञान ने तुम्हें अंधा बना दिया हो? तुम बहुत जानते हो, कहीं यही खतरा तो नहीं है? क्योंकि बहुत जानने वाले लोग बहुत खतरनाक होते हैं।
जिन्हें भी यह खयाल पैदा हो जाता है कि हम बहुत जानते हैं, वे बहुत खतरनाक हो जाते हैं।
क्योंकि बहुत जानने से बड़ा अज्ञान दुनिया में दूसरा नहीं है। क्योंकि जिन्हें ज्ञान पैदा होता है, वह तो उन लोगों को पैदा होता है, जो कहते हैं कि हम जानते ही नहीं, जानने का भ्रम ही छोड़ देते हैं।
बोकोजू ने कहा: मुझे ऐसा मालूम पड़ता है कि तेरी खोपड़ी शब्दों से बहुत भर गई है। और इसलिए तुझे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। फिर भी थोड़ी देर रुक, मैं थोड़ी चाय बना लाऊं, थका-मांदा मालूम पड़ता है तू, थोड़ी चाय पी ले, थोड़ा विश्राम कर ले, फिर कुछ बात करेंगे। और यह भी हो सकता है कि चाय पीने में बात भी हो जाए, और यह भी हो सकता है कि तूने जो पूछा है, वह चाय पीने में उसका उत्तर भी मिल जाए।
उस प्रोफेसर ने कहा: चाय पीने में और सत्य का उत्तर! आप कह क्या रहे हैं? मैं किस पागल के पास आ गया? मैंने व्यर्थ इस धूप में इतनी यात्रा की।
उस फकीर ने कहा: ठहर! इतनी जल्दी मत कर, मैं थोड़ी चाय बना लाऊं।
थका प्रोफेसर था, बैठा रहा। लेकिन खयाल तो उसका खत्म हो गया कि इस आदमी से कुछ जानने को मिल सकता है। क्योंकि जो आदमी कहता है कि चाय पीने से सत्य का पता चल जाएगा, उस आदमी से क्या मिल सकता है?
फकीर चाय बना कर ले आया। उसने बसी और कप, प्याली सम्हाल दिए प्रोफेसर के हाथ में और केटली से चाय ढाली। प्याली भर गई, लेकिन वह फकीर चाय ढालता चला गया। फिर नीचे का बर्तन भी भर गया, वह फकीर चाय ढालता ही चला गया। फिर चाय गिरने के करीब हो गई। तब वह प्रोफेसर चिल्लाया कि अब रुकिए भी! अब एक बूंद भर भी जगह मेरी प्याली में नहीं है।
उस फकीर ने कहा कि तुझे दिखाई पड़ता है कि बूंद भर भी जगह तेरी प्याली में नहीं है, तुझे दिखाई पड़ता है, और तुझे यह भी दिखाई पड़ता है कि जिस प्याली में बूंद भर भी जगह नहीं है, अब उसमें चाय भरने से गिर जाने का डर है। लेकिन तुझे कभी अपनी खोपड़ी में जगह दिखाई पड़ी? वहां भी सब शब्दों से भर गया है, जगह बिलकुल नहीं है। और अब तेरे पागल होने का वक्त करीब आ रहा है, अब वे शब्द जो तेरे भीतर भर गए हैं, वे बाहर गिरने शुरू हो जाएंगे।
आदमी पागल कब हो जाता है, पता है आपको? जब विचार इतने खोपड़ी में भर जाते हैं कि उनको सम्हाल नहीं पाता और वे बाहर गिरने लगते हैं। रास्ते पर चला जा रहा है और बोलने लगता है। जो नहीं सुनना चाहता, उसको पकड़ कर बोलने लगता है। रात सोता है और बोलता है। अकेले में बैठता है और बोलता है। जब शब्द इतने भर जाते हैं कि बाहर झड़ने लगते हैं तो आदमी को हम कहते हैं, पागल हो गया।
ऐसे थोड़े-बहुत पागल हम सभी होते हैं। क्योंकि अकेले बैठते हैं, तब भी अपने से बोलते ही रहते हैं। कुछ न कुछ जारी रहता है। भीतर खोपड़ी में काम चलता ही रहता है। वहां कभी विश्राम नहीं है। हम सब भी थोड़े-बहुत पागल है। पागल में और हममें कोई गुण का फर्क नहीं होता, सिर्फ मात्रा का फर्क होता है। थोड़ी मात्रा बढ़ जाए और हम भी पागल हो जाएं।
कभी अकेले कोने में बैठ जाएं, जाकर दस मिनट आंख बंद कर लें और दरवाजा लगा लेना भीतर से, ताला बंद कर लेना और एक कागज पर अपने मन में जो भी चलता हो उसको लिखना। दस मिनट तक ईमानदारी से, वही जो चलता हो। तो दस मिनट के बाद अपनी पत्नी को या अपने पति को या अपने निकटतम मित्र को भी वह कागज बताने की हिम्मत न होगी। क्योंकि वह कहेगा, यह तुमने लिखा? तुम्हारे भीतर चल रहा है यह? फिर चलो किसी डॉक्टर के पास इसी वक्त, यह तुम्हारी खोपड़ी के भीतर ये बातें चलती हैं!
दस मिनट अपने ही भीतर जो चल रहा है उसे कागज पर लिखें तो पता चल जाएगा कि वहां भीतर शब्द पागल हो गए हैं, वहां रुग्ण शब्द घूम रहे हैं चारों तरफ। किसी तरह अपने को सम्हाल कर हम काम चला रहे हैं। हम सब पागल हैं--सम्हले हुए पागल! अपने को सम्हाले हुए हैं और अपने पर कब्जा किए हुए हैं। और वह जो भीतर है, अगर जोर से बाहर निकल आए...।
किसी आदमी को शराब पिला दें और फिर देखें कि वह आदमी क्या बातें करना शुरू कर देता है! अभी जब तक शराब नहीं पी थी, तब तक राम-भजन कर रहा था, शराब पीते ही गाली बकना शुरू कर देता है। शराब क्या भजन को गाली में बदल सकती है? ऐसी कोई कीमिया शराब में है? शराब में कोई ऐसी केमिस्ट्री है कि भजन को गाली बना दे?
शराब कुछ भी नहीं कर सकती। शराब सिर्फ एक काम कर सकती है कि जब तक वह आदमी शराब नहीं पीए हुआ था, गालियां उसके भीतर चल रही थीं, भजन ऊपर से कह रहा था, अपने को सम्हाले हुए था। शराब ने वह सम्हालना खत्म कर दिया, हाथ-पैर ढीले हो गए, अब वह ताकत नहीं रही सम्हालने की। तो जो असलियत थी, वह भीतर से बाहर आनी शुरू हो गई।
सज्जन आदमी भी भीतर सज्जन नहीं है। वह भजन जो ऊपर से जोर-जोर से कह रहा है, वह भी भीतर कुछ और कह रहा है, भीतर कुछ और चल रहा है। भीतर एक पागल मस्तिष्क दौड़ रहा है। यह जो शब्दों का पागलपन है...।
उस फकीर ने कहा कि तुम्हारी खोपड़ी में इतने शब्द भरे हैं कि अब सत्य को जाने के लिए जगह भी है? सत्य को भी प्रवेश के लिए जगह चाहिए। प्याली में तुम्हें दिखाई पड़ता है कि अब जगह भर गई, लेकिन अपने मन में कभी देखा कि वहां जगह कब की भर चुकी है, कई जन्मों पहले भर चुकी है और अब ओवर क्राउडिंग है! अब सब ऊपर से भरता चला जा रहा है, अब जगह वहां नहीं है। अब सब अतिरिक्त वहां भरता चला जा रहा है। वह अतिरिक्त जितना बढ़ता जा रहा है, उतना ही आदमी रुग्ण, अस्वस्थ होता चला जा रहा है। उतना ही आदमी का सत्य से संबंध टूटता चला जा रहा है।
अगर सत्य से संबंधित होना है तो यह भीतर की भीड़ को बाहर कर देना जरूरी है। यह भीतर शब्दों का जो जमघट, जमाव है, इससे छूट जाना, मुक्त हो जाना जरूरी है। लेकिन हम तो कहते हैं कि शब्द ज्ञान है। तो फिर कैसे इससे छूटेंगे?
जब तक हम शब्द को ज्ञान समझते हैं, तब तक हम शब्द से नहीं छूट सकते हैं। जिस दिन हम समझेंगे कि शब्द ज्ञान नहीं है, बल्कि शब्द के कारण ही हम अपने अज्ञान को छिपाए हुए बैठे हैं। शब्द झूठा ज्ञान है, शब्द सूडो नालेज है। शब्द ज्ञान नहीं है। जिस दिन हमें यह पता चलेगा, उस दिन हम शब्द को फेंक सकेंगे। और जिस दिन शब्द फिंक जाता है, भीतर एक क्रांति घटित हो जाती है, एक एक्सप्लोजन हो जाता है, एक नई दुनिया खुल जाती है, एक नया द्वार खुल जाता है।
एक छोटी सी कहानी, उससे मैं समझाऊं।
एक बहुत पुराना साम्राज्य, उस साम्राज्य के बड़े वजीर की मृत्यु हो गई थी। उस राज्य का यह नियम था कि वह देश भर में जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान आदमी होता, उसी को वजीर बनाते थे। तो उन्होंने सारे देश में परीक्षाएं लीं और तीन आदमी चुने गए, जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान सिद्ध हुए थे। फिर उन तीनों को राजधानी बुलाया गया, अंतिम परीक्षा के लिए। और अंतिम परीक्षा में जो जीत जाएगा, वही राजा का बड़ा वजीर हो जाएगा।
वे तीनों राजधानी आए। वे तीनों चिंतित रहे होंगे, पता नहीं क्या परीक्षा होगी? जैसा कि परीक्षार्थी चिंतित होते हैं। उन्होंने आकर राजधानी में जो भी मिला, उससे पूछा कि कुछ पता है?
और मुश्किल हो गई। राजधानी में सभी को पता था कि क्या परीक्षा होगी। सारे गांव को मालूम था। सारे गांव ने कहा: परीक्षा! परीक्षा तो बहुत दिन पहले से तय है। राजा ने एक मकान बनाया है और उस मकान में एक कक्ष बनाया है। उस कक्ष पर उसने एक ताला लगाया है। वह ताला गणित की एक पहेली है। उस ताले की कोई चाबी नहीं है। उस ताले पर गणित के अंक लिखे हुए हैं। और जो उस गणित को हल कर लेगा, वह ताले को खोलने में समर्थ हो जाएगा। तुम तीनों को उस भवन में बंद किया जाने वाला है। जो सबसे पहले दरवाजे को खोल कर बाहर आएगा, वही राजा का वजीर हो जाएगा। वे तीनों घबड़ा गए होंगे।
एक उनमें से सीधा अपने निवास स्थान पर जाकर सो गया। उन दो मित्रों ने समझा कि उसने दिखता है कि परीक्षा देने का खयाल छोड़ दिया। वे दोनों भागे बाजार की तरफ। रात भर का सवाल था, कल सुबह परीक्षा हो जाएगी। उन्हें तालों के संबंध में कोई जानकारी न थी। न तो वे चोर थे कि तालों के संबंध में जानते हों, न ही वे कोई तालों को सुधारने वाले कारीगर थे, न वे कोई इंजीनियर थे। और न वे कोई नेता थे, जो सभी चीजों के बाबत में जानते हैं। वे कोई भी नहीं थे। वे बहुत परेशानी में पड़ गए कि हम तालों को कैसे खोलेंगे?
उन्होंने जाकर दुकानदारों से पूछा, जो तालों के दुकानदार थे। उन्होंने गणित के विद्वानों से पूछा। उन्होंने इंजीनियरों से जाकर सलाह ली। उन्होंने बड़ी किताबें इकट्ठी कर लीं पहेलियों के ऊपर। वे रात भर किताबों को कंठस्थ करते रहे, सवाल हल करते रहे। जिंदगी का सवाल था, उन्होंने कहा, आज सोना उचित नहीं है। एक रात नहीं भी सोए तो क्या हर्ज है?
परीक्षार्थी सभी इसी तरह सोचते हैं: एक रात नहीं सोएं तो क्या हर्जा है? लेकिन सुबह उनको पता चला कि बहुत हर्जा हो गया है। रात भर पढ़ने के कारण जो थोड़ा-बहुत वे जानते थे, वह भी गड़बड़ हो चुका था। सुबह अगर उनसे कोई पूछता कि दो और दो कितने होते हैं, तो वे चौंक कर खड़े हो जाते। एकदम से नहीं कह सकते थे कि चार होते हैं। क्योंकि दिमाग रात भर में अस्त-व्यस्त हो गया था। न मालूम कैसी-कैसी पहेलियां हल की थीं। यही तो होता है परीक्षार्थियों का। परीक्षा के बाहर जिन सवालों को वे हल कर सकते हैं, परीक्षा में हल नहीं कर पाते हैं।
तीसरा मित्र जो रात भर सोया रहा था, सुबह होते ही उठ आया। हाथ-मुंह धोकर उन दोनों के साथ हो लिया। वे तीनों राजमहल पहुंचे। अफवाह सच थी। सम्राट ने उन्हें एक भवन में बंद कर दिया और कहा कि इस ताले को खोल कर जो बाहर आ जाएगा--इसकी कोई चाबी नहीं है, यह गणित की एक पहेली है। गणित के अंक ताले के ऊपर खुद हुऐ हैं, हल करने की कोशिश करो--जो बाहर निकल आएगा सबसे पहले, वही बुद्धिमान सिद्ध होगा और उसी को मैं वजीर बना दूंगा। मैं बाहर प्रतीक्षा करता हूं।
वे तीनों भीतर गए। जो आदमी रात भर सोया रहा था, वह फिर आंखें बंद करके एक कोने में बैठ गया। उसके दो मित्रों ने कहा: इस पागल को क्या हो गया है! कहीं आंखें बंद करने से दुनिया के सवाल हल हुए हैं? शायद इसका दिमाग खराब हो गया है। वे दोनों मित्र जो होशियार थे, जो सोचते थे कि उनका दिमाग ठीक है, वे किताबें अपने कपड़ों के भीतर छिपा लाए थे। उन्होंने जल्दी से किताबें बाहर निकालीं और अपने सवाल हल करने फिर शुरू कर दिए।
परीक्षार्थी ऐसा न समझें कि आजकल के परीक्षार्थी ही होशियार होते हैं। पहले जमाने में भी आदमी इसी तरह के बेईमान थे। बेईमानी बड़ी प्राचीन है, वेदों से भी ज्यादा प्राचीन बेईमानी है। सब किताबें नई हैं। बेईमानी की किताब बहुत पुरानी है।
उन्होंने जल्दी से किताबें बाहर निकाल लीं। दरवाजा बंद हो चुका था। वे फिर सवाल हल करने लगे। वह आदमी आधा घंटे तक, तीसरे नंबर का आदमी, आंख बंद किए बैठा रहा। फिर उठा चुपचाप, जैसे उसके पैरों में भी आवाज न हो। उन दो मित्रों को भी पता नहीं चला। वह उठा, दरवाजे पर गया, दरवाजे को धक्का दिया, दरवाजा अटका हुआ था, उस पर कोई ताला लगा ही नहीं था, वह बाहर निकल गया।
सम्राट भीतर आया और उसने कहा कि दोनों बंद कर दो अपनी किताबें। जिस आदमी को निकलना था, वह निकल चुका है। उन दोनों ने चौंक कर देखा। उन्होंने कहा: यह आदमी कैसे निकल सकता है? इसने कुछ भी नहीं किया निकलने के लिए।
सम्राट ने कहा कि यहां कुछ करने की जरूरत ही न थी। दरवाजा सिर्फ अटका हुआ था। और हम यह जानना चाहते थे कि तुम तीनों में जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान होगा, वह सबसे पहले यह देखेगा कि दरवाजा बंद है या नहीं। इसके पहले कि तुम सवाल हल करो, पहले यह तो जान लेना चाहिए कि सवाल है भी या नहीं?
समस्या हो तो उसका समाधान हो सकता है। और अगर समस्या न हो तो उसका समाधान कैसे हो सकता है? समस्या को पहले जान लेना जरूरी है।
इस आदमी ने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। इसने सबसे पहले यह देखना चाहा कि समस्या है या नहीं? दरवाजा अटका था, यह बाहर निकल गया है। यह बुद्धिमान आदमी का पहला लक्षण है।
पर वे दोनों पूछने लगे कि तुमने किया क्या? उस आदमी ने कहा: मैंने कुछ भी नहीं किया। क्योंकि मैंने सोचा कि मैं जो भी जानता हूं, उससे कुछ भी नहीं हो सकता है। क्योंकि सवाल बिलकुल नया है, जिसको मैं बिलकुल नहीं जानता हूं। अब तक जो भी मैंने सीखा है, उससे इस सवाल का कोई भी संबंध नहीं है। जो मेरा ज्ञान है, वह बेकाम है, तो फिर मैं क्या करूं?
तो फिर मैंने सोचा कि उचित यही है कि मैं अपने ज्ञान की फिकर छोड़ दूं, और मौन और शांत होकर बैठ जाऊं। और देखूं, क्या मेरे मौन से भी उत्तर आ सकता है? क्या मैं शांति से भी कुछ उत्तर खोज सकता हूं? क्योंकि मैंने सोचा कि मैं जितना उत्तर खोजने की कोशिश करूंगा, उतना ही अशांत हो जाऊंगा। और जितना अशांत हो जाऊंगा, उतना ही सवाल का हल करना मुश्किल हो जाएगा। सवाल नया है और मेरे पास सब उत्तर पुराने हैं। पुराना उत्तर काम नहीं आ सकता है। इसलिए मैंने कहा, पुराने उत्तर की फिकर छोड़ दो। मैं चुपचाप बैठ कर देखूं कि क्या कोई नया उत्तर आ सकता है? मैंने अपना सारा ज्ञान छोड़ दिया। जितने मेरे पास शब्द थे, मैंने कहा, क्षमा करो, विदा हो जाओ। मैं अब बिना शब्द के चुपचाप थोड़ी देर बैठना चाहता हूं।
और मैं हैरान हो गया। जब मैं पूरी तरह मौन बैठा, कोई मेरे भीतर बोला कि उठ कर देख, दरवाजा खुला है, दरवाजा बंद नहीं है। मैं उठा, और दरवाजा खुला था, मैं बाहर निकल गया। यह मैंने नहीं खोजा है। मैंने सब खोज बंद कर ली थी। यह उत्तर आया है। यह उत्तर मेरा नहीं है, यह उत्तर परमात्मा का ही हो सकता है।
तुम अपने उत्तर खोज रहे थे। इसलिए परमात्मा के उत्तर मिलने का कोई सवाल न था। मैंने अपनी फिकर छोड़ दी। मैं उसके उत्तर की प्रतीक्षा करता था। मैं सिर्फ प्रतीक्षा करता रहा कि अगर कोई उत्तर हो तो आ जाए। और अगर किसी का उत्तर सुनना हो ऊपर का, तो फिर अपनी सारी बातचीत, अपने सारे शब्द खो देना जरूरी हैं। क्योंकि जब तक अपना शोरगुल भीतर चलता हो, तब तक कोई उत्तर नहीं सुनाई पड़ सकता है।
जिन लोगों ने परमात्मा की आवाज सुनी है, वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने अपनी आवाज खो दी है। जिन लोगों ने परमात्मा के सत्य को जाना है, वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने अपने सीखे हुए शब्दों को मौन कर दिया है। जिन लोगों ने परमात्मा की किताब खोली है, वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने आदमियों की सारी किताबों पर आंखें बंद कर ली हैं। और वे लोग परमात्मा की तरफ आंखें उठा पाए हैं, जिन लोगों ने आदमिओं के पीछे चलना बंद कर दिया है।
मौन और शून्य में और शांति में उसका द्वार है। वह हम सबके निकट है। शायद वह हमें रोज पुकारता है, प्रतिपल हमारे द्वार पर दस्तक देता है।
लेकिन हम सुनने को मौजूद कहां हैं? हम इतने शब्दों में खोए हैं कि उसकी शांत आवाज हमें कहां सुनाई पड़ सकेगी? हम इतने डूबे हुए हैं अपनी ही बातों में कि हमें उसकी वाणी का कैसे पता चल सकता है? इसलिए मैं जोर देकर बार-बार कहता हूं--छोड़ दें सब शब्द और हो जाएं निःशब्द। एक बार देखें, एक बार मौन होकर देखें कि क्या हो सकता है? बहुत दिन तक शब्दों में रह कर देखा है, एक बार निःशब्द होने का भी प्रयोग करके देखें। इस निःशब्द होने के प्रयोग को ही मैं ध्यान कहता हूं।
एक दो मिनट इस ध्यान के संबंध में समझाऊं। फिर हम ध्यान के लिए दस मिनट बैठेंगे और विदा हो जाएंगे।
क्योंकि जो मैंने कहा है, वह मेरे कहने से आपकी समझ में नहीं आ सकता। लेकिन यह हो सकता है कि मेरे कहने से आपको कुछ खयाल आ जाए, कोई प्यास जग जाए और आप दस मिनट को जरा चुप होकर, मौन होकर देखें।
उस आदमी का खयाल करें, जो उस कमरे में जाकर बैठ गया चुपचाप। क्या किया होगा उसने? वह आदमी क्या किया उतनी देर? उतनी देर उसने अपने सारे शब्दों को छोड़ दिया और फिकर की चुप हो जाने की, साइलेंट हो जाने की, मौन हो जाने की। और जब वह परिपूर्ण मौन हो गया तो उसे कुछ उत्तर मिला--जो उत्तर उसका अपना नहीं था; जो कहीं ऊपर से आया था, गहराई से आया था, जो परमात्मा का था।
हम भी दस मिनट इस शांत रात में चुप होने की कोशिश करें। यह हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। चूंकि हमने कभी कोई प्रयोग ही नहीं किया है, इसलिए नहीं हुआ है। लेकिन जो कभी नहीं हुआ है, वह आज हो सकता है। जो आज नहीं हुआ है, वह कल हो सकता है। संभावना हमेशा शेष है। जो थोड़ा सा श्रम करते हैं, उनकी संभावना वास्तविक बन जाती है।
क्या करेंगे दस मिनट के लिए हम यहां? देखते हैं, रात चारों तरफ बिलकुल शांत है--वृक्ष शांत हैं, चांद-तारे शांत हैं, हवाएं शांत हैं। क्या इनके साथ दस मिनट के लिए हम भी शांत होकर चुप नहीं बैठ सकते हैं?
बड़ी कठिनाई होगी, क्योंकि भीतर वह शब्दों का जाल है, वह चलता ही रहेगा, वह सोचता रहेगा कि दस मिनट कब खत्म हो जाएं। वह बार-बार आंख खोल कर देखेगा कि पड़ोसी आदमी क्या कर रहे हैं? वह जो भीतर शब्दों का जाल है, वह जो भीतर टुच्चा दिमाग है, वह जो छोटा सा शैलो माइंड है, वह उथला मन इसी तरह की बातों में दस मिनट गंवा देगा। वह चुप नहीं होगा।
नहीं, लेकिन वह चुप किया जा सकता है, अगर हम थोड़ा होशपूर्वक प्रयोग करें। क्या करेंगे, जिससे वह चुप हो जाए?
एक ही रास्ता है दुनिया में चुप होने का। एक ही रास्ता है, कभी कोई दूसरा रास्ता नहीं है--और वह रास्ता है साक्षीभाव का। जो आदमी दस मिनट के लिए भी अगर साक्षी होकर बैठ जाए--एक विटनेस...।
यह रात है हमारे चारों तरफ, ये लोग हैं हमारे चारों तरफ--कोई बच्चा आवाज करेगा, कोई पक्षी शोर करेगा, रास्ते पर कोई गाड़ी गुजरेगी, हवाएं पत्तों को हिला देंगी। चारों तरफ कुछ होगा। अगर आप दस मिनट अपने भीतर सिर्फ एक भाव लेकर बैठ जाएं कि मैं एक दर्शक हूं, एक द्रष्टा हूं। मैं सिर्फ चुपचाप देखता रहूंगा। जो हो रहा है, उसको अनुभव करता रहूंगा। मैं अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करूंगा, सिर्फ देखता रहूंगा। जैसे कोई आदमी नदी के किनारे खड़ा हो जाए और नदी को बहता हुआ देखे। जैसे कोई आदमी आकाश के नीचे खड़ा हो जाए आकाश में चलते हुए बादलों को देखे, उड़ते हुए पक्षियों की कतार देखे। जैसे कोई आदमी बाजार में खड़ा हो जाए--और इस तरह बाजार में खड़ा हो जाए, जैसे किसी नाटक में खड़ा है और बाजार में चलती हुई दुकानों को और चलते हुए लोगों को इस तरह देखे, जैसे फिल्म के पर्दे पर चीजें चलती हों।
सिर्फ देखता रह जाए और कुछ भी न करे तो एक बड़ी अदभुत घटना घटती है। अगर आप सिर्फ देखते रह जाएं चुपचाप तो भीतर एक शांति होनी शुरू हो आती है, शब्द खोने शुरू हो जाते हैं।
साक्षीभाव शब्दों की मृत्यु बन जाता है।
तो दस मिनट हम साक्षी का एक प्रयोग करेंगे। उस प्रयोग के दो-तीन छोटे से सूत्र हैं।
पहली तो बात है कि जब हम अभी प्रयोग के लिए बैठेंगे तो शरीर को बिलकुल आराम में ढीला छोड़ कर बैठना है, जैसे शरीर में कोई प्राण ही न हों, कोई तनाव शरीर पर न हो, कोई स्ट्रेन न हो।
दूसरी बात, आंखों को बंद कर लेंगे। बंद करने में भी आंखों पर कोई जोर न पड़े। धीरे से आंखों की पलकें ढीली छोड़ देंगे। फिर बिजली बुझा दी जाएगी, अंधेरा हो जाएगा। चांद का प्रकाश है, धीमी सी उसकी रोशनी नीचे गिरती रहेगी। उस चांद की रोशनी में आंख बंद किए हम दस मिनट के लिए, सिर्फ दस मिनट के लिए हम चुपचाप साक्षी बन कर रह जाएंगे।
हम कुछ भी नहीं करेंगे। हम बैठे हैं एक नाटक में, एक भागीदार हैं। हम सिर्फ चुपचाप सुन रहे हैं, जो सुनाई पड़ रहा है। जो अनुभव हो रहा है, वह अनुभव कर रहे हैं। भीतर विचार चलेंगे तो उनको भी चुपचाप देखते रहेंगे कि वे चल रहे हैं, हम देख रहे हैं। हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। जो चलता है, उसे चलने देना है।
चुपचाप दस मिनट देखने पर हैरानी होगी--जितना सन्नाटा बाहर है, उतना ही सन्नाटा भीतर भी पैदा हो जाएगा। एक बार भी, एक क्षण को भी अगर भीतर सब मौन हो जाए तो एक नई दुनिया में कदम उठ जाता है। यह तो प्रयोग के लिए हम करेंगे यहां।
अगर किसी को प्रीतिकर लगे और किसी को लगे कि कुछ हो सकता है तो वह दस मिनट रोज रात सोने के पहले करता रहे। तीन महीने में वह हैरान हो जाएगा। दस मिनट की चोट तीन महीने में भीतर एक द्वार खोल देगी। उससे कुछ नई दुनिया की शुरुआत मालूम होने लगेगी। वह अपने भीतर एक नये आदमी से परिचित हो जाएगा, जिससे वह कभी भी परिचित नहीं रहा।