YOG/DHYAN/SADHANA
Neti Neti Satya Ki Khoj 01
First Discourse from the series of 5 discourses - Neti Neti Satya Ki Khoj by Osho. These discourses were given in BHAVNAGAR during JAN 16-19 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक सम्राट ने जंगलों में गीत गाते एक पक्षी को बंद करवा लिया था। गीत गाना भी अपराध है, अगर आस-पास के लोग गलत हों। उस पक्षी को पता भी नहीं होगा कि गीत भी परतंत्रता बन सकता है। आकाश में उड़ते और वृक्षों पर बसेरा करने वाले उस पक्षी को यद्यपि सम्राट ने सोने के पिंजड़े में रखा था। उस पिंजड़े में हीरे-जवाहरात लगाए थे। करोड़ों रुपये का पिंजड़ा था वह।
लेकिन जिसने खुले आकाश की स्वतंत्रता जानी हो, उसके लिए सोने का क्या अर्थ है? हीरे-मोतियों का क्या अर्थ है? जिसने अपने पंखों से उड़ना जाना हो और जिसने सीमा-रहित आकाश में गीत गाए हों, उसके लिए पिंजड़ा चाहे सोने का हो, चाहे लोहे का, बराबर है।
वह पक्षी बहुत सिर पीट-पीट कर रोने लगा। लेकिन सम्राट और उसके महल के लोगों ने समझा कि वह अभी गीत गा रहा है। कुछ लोग सिर पीट कर रोते हैं, लेकिन जो नहीं जानते, वे यही समझते हैं कि गीत गाया जा रहा है।
वह पक्षी बहुत हैरान था, बहुत परेशान था। और धीरे-धीरे सबसे बड़ी परेशानी तो उसे यह मालूम होने लगी कि उसे डर हुआ, कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा कि पिंजड़े में बंद रहते-रहते मेरे पंख उड़ना भूल जाएं?
कारागृह और कोई बड़ा नुकसान नहीं कर सकता है, एक ही नुकसान कर सकता है कि पंख उड़ना भूल जाएं।
उस पक्षी को एक ही चिंता थी कि कहीं ऐसा न हो कि खुले आकाश के आनंद की स्मृति ही मुझे भूल जाए? फिर अगर पिंजड़े से मुक्त भी हो गया तो भी क्या होगा? क्योंकि स्वतंत्रता को केवल वे ही जानते हैं, जिनके प्राणों में स्वतंत्रता का अनुभव और आनंद है। अकेले स्वतंत्र होने से ही कोई स्वतंत्रता को नहीं जान लेता है। अकेले खुले आकाश में छूट जाने से ही कोई स्वतंत्र नहीं हो जाता है। उस पक्षी को डर था कि कहीं परतंत्र रहते-रहते परतंत्रता का मैं आदी न हो जाऊं। वह बहुत चिंता में था कि कैसे मुक्त हो सके।
एक दिन सुबह एक फकीर को गीत गाते उस पक्षी ने सुना। वह फकीर गीत गाता था: कि जिन्हें मुक्त होना हो, उनके लिए एक ही रास्ता है, वह रास्ता है: सत्य। जिन्हें स्वतंत्र होना हो, उनके लिए एक ही द्वार है, वह द्वार है: सत्य। और सत्य क्या है? उस फकीर ने अपने गीत में कहा: सत्य वह है, जो दिखाई पड़ता है। जैसा दिखाई पड़ता है, उसे वैसा ही देखना, वैसा ही जानना, वैसा ही जीने की कोशिश करना, वैसा ही अभिव्यक्त करना सत्य है। और जो सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। उसके गीत का यह अर्थ था।
सड़कों पर गाते गुजरता था। मनुष्यों ने तो नहीं सुना, लेकिन उस पक्षी ने सुन लिया। क्योंकि पक्षियों को भी अभी खुले आकाश का अनुभव है। मनुष्यों को तो खुले आकाश का सारा अनुभव भूल गया है। क्योंकि पक्षियों को भी अपने पंख उड़ने के लिए हैं, यह पता है। मनुष्य को तो पता ही नहीं कि उसके पास भी पंख हैं और वह भी उड़ सकता है किसी आकाश में। सुना तो मनुष्यों ने भी, लेकिन वे नहीं सुन पाए। सिर्फ सुनने से ही तो कोई नहीं सुन पाता है। अकेले सुनने से ही अगर आदमी सुन लेता होता तो अब तक सारे मनुष्य कभी के मुक्त हो गए होते।
महावीर भी चिल्लाते हैं, बुद्ध भी चिल्लाते हैं, क्राइस्ट भी चिल्लाते हैं, कृष्ण भी चिल्लाते हैं, सुनता कौन है?
वह फकीर गांव में चिल्लाता रहा--सुना एक पक्षी ने, आदमियों ने नहीं!
और उस पक्षी ने उसी दिन सत्य का एक छोटा सा प्रयोग किया।
सम्राट महल के भीतर था, कोई मिलने आया था। और पहरेदारों से सम्राट ने कहलवाया कि कह दो कि सम्राट घर पर नहीं है। उस पक्षी ने चिल्ला कर कहा कि नहीं, सम्राट घर पर है। और यह सम्राट ने ही कहलवाया है पहरेदारों से कि कह दो कि मैं घर पर नहीं हूं।
सम्राट तो बहुत नाराज हुआ।
सत्य से सभी लोग नाराज होते हैं। क्योंकि सभी लोग असत्य में जीते हैं। और वे जो सम्राट हैं--चाहे सत्ता के, चाहे धन के, चाहे धर्मों के, जिनके हाथ में किसी तरह की सत्ता है, वे तो सत्य से बहुत नाराज होते हैं। क्योंकि सत्ता हमेशा असत्य के सिंहासन पर विराजमान होती है। इसलिए सत्ताधिकारी सत्य को सूली पर चढ़ा देते हैं। क्योंकि सत्य अगर जीवित रहे तो सत्ताधिकारियों की सूली बन सकता है।
सम्राट ने कहा: इस पक्षी को तत्क्षण महल के बाहर कर दो।
महलों में सत्य का कहां निवास! वृक्षों पर बसेरा हो सकता है, लेकिन महलों में बसेरा सत्य के लिए बहुत कठिन है।
वह पक्षी निकाल कर बाहर कर दिया। लेकिन उस पक्षी को तो मन की मुराद मिल गई। वह आकाश में नाचने लगा। और उसने कहा: ठीक कहा था उस फकीर ने कि अगर मुक्त होना है तो सत्य एकमात्र द्वार है।
वह पक्षी तो नाचता था। लेकिन एक तोता एक वृक्ष पर बैठ कर रोने लगा और कहा: पागल पक्षी, तू नाचता है सोने के पिंजड़े को छोड़ कर! सौभाग्य से ये पिंजड़े मिलते हैं। ये सभी को नहीं मिलते। पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण मिलते हैं। हम तो तरसते थे उस पिंजड़े के लिए, लेकिन तू नासमझ है; पिंजड़ों में रहने की भी कला होती है।
पिंजड़े में रहने की पहली कला यह है कि मालिक जो कहे, वही कहना। यह मत सोचना कि वह सच है या झूठ। जिसने सोचा, वह फिर पिंजड़ों में नहीं रह सकता। क्योंकि विचार विद्रोह है, और जिसके जीवन में विचार का जन्म हो जाता है, वह परतंत्र नहीं रह सकता है।
तूने विचार क्यों किया पागल पक्षी? विचार करना बहुत खतरनाक है। समझदार लोग कभी विचार नहीं करते हैं। समझदार लोग अपने कारागृहों में रहते हैं और अपने कारागृह को ही भवन समझते हैं, मंदिर समझते हैं। अगर ज्यादा ही तकलीफ थी तो भीतर से अपने पिंजड़े के सींकचों को सजा लेना था। सजाया हुआ पिंजड़ा घर जैसा मालूम पड़ने लगता है। और ध्यान रहे, अनेक लोग पिंजड़ों को सजा कर घर समझते रहते हैं; क्योंकि उन्होंने सजा लिया है। लेकिन सजाने से पिंजड़े में कोई फर्क नहीं पड़ता।
उस पक्षी ने तो सुना ही नहीं, वह तो खुशी से नाच रहा था, उसके पंख हवाओं में तौल रहा था! खुले आकाश में आ गया था!
लेकिन उस तोते ने कहा कि अगर पिंजड़े में रहने का मजा लेना है तो तोतों से कला सीखो। हम वही कहते हैं, जो मालिक कहते हैं। हम कभी वह नहीं कहते, जो सच है। हम इसकी चिंता ही नहीं करते हैं कि सत्य क्या है। हम तो वही कहते हैं, जो मालिक कहता है--वही हम कहते हैं। मालिक क्या करता है, यह नहीं कहना है। अपनी आंख से देखना नहीं है, अपने विचार से सोचना नहीं है। मालिक की आंख से देखना और मालिक के विचार से सोचना। तोता यह सब चिल्लाता रहा। और खुले पिंजड़े में जहां से पक्षी छूट गया था, तोता जाकर भीतर बैठ गया। पिंजड़े को द्वारपाल ने बंद कर दिया।
वह तोता अब भी उस महल के पिंजड़े में है। वह वही कहता है, जो मालिक कहते हैं। वह सदा वहीं बंद रहेगा, क्योंकि मुक्त होने का एक ही रास्ता है--सत्य। और तोते और सब-कुछ बोलते हैं, लेकिन सत्य कभी नहीं बोलते।
और तोते तो ठीक ही हैं, आदमियों में भी तोतों की इतनी बड़ी तादाद है जिसका कोई हिसाब नहीं। ये तोते भी वही बोलते हैं, जो मालिक कहते हैं। हजारों-हजारों साल से, ये वही बोलते चले जाते हैं, जो मालिक कहते हैं।
शास्त्रों के नाम पर तोते बैठ गए हैं, संप्रदायों के नाम पर तोते बैठ गए हैं, मंदिरों के नाम पर तोते बैठ गए हैं। सारी दुनिया, सारी आदमियत तोतों की आवाज से परेशान है। उन्हीं की आवाज सुन-सुन कर हम सब भी धीरे-धीरे तोते हो जाते हैं। और हमें पता ही नहीं रहता कि एक खुला आकाश भी है, हमारे पास पंख भी हैं, आत्मा भी है, मुक्ति भी है।
अगर परतंत्रता में शांति से जीना हो तो कभी सत्य का नाम भी मत लेना। अगर परतंत्रता को ही जीवन समझना हो तो सत्य की तरफ कभी आंख मत उठाना। और अगर कोई आदमी सत्य की बातें करे तो उसे दुश्मन समझना, क्योंकि सत्य खतरनाक है, क्योंकि सत्य स्वतंत्रता की तरफ ले जाता है।
स्वतंत्रता में बड़ी असुरक्षा है। परतंत्रता में बड़ी सुरक्षा है।
कहां पिंजड़े की कितनी सुरक्षा है--न आंधी-पानी का कोई भय है, न आकाश में उठते हुए तूफानों का कोई डर है, न बरसते हुए बादल, न कड़कती हुई बिजलियां। नहीं, कोई भय नहीं है। पिंजड़े के भीतर आदमी बिलकुल सुरक्षित है।
खुले आकाश में बड़े भय हैं। छोटा सा पक्षी और इतना बड़ा आकाश! तूफान भी उठते हैं, वहां आंधियां भी आती हैं; कोई बचाने वाला भी नहीं, कोई सुरक्षा भी नहीं।
परतंत्रता बड़ी सुरक्षित है, परतंत्रता बड़ी सिक्योर्ड है; स्वतंत्रता बहुत असुरक्षित है, स्वतंत्रता बड़ी इनसिक्योरिटी है। इसीलिए तो अधिक लोग परतंत्र होने को राजी हो गए हैं।
सुरक्षा चाहते हैं तो अपने मन में पूछ लेना कि परतंत्रता चाहते हैं? अगर सुरक्षा चाहते हैं तो सत्य की बात भी मत करना। सुरक्षा चाहते हैं तो परतंत्रता ही ठीक है। राजनीति की परतंत्रता हो कि धर्म की; अर्थ की परतंत्रता हो कि शब्द की; जिसको सुरक्षा चाहिए उसे परतंत्रता ही ठीक है।
और हम तो यहां इन तीन दिनों में सत्य की खोज का विचार किए बैठे हैं। यह खोज उनके लिए नहीं है, जो सुरक्षित जीवन को सब-कुछ मान लेते हैं। यह खोज उनके लिए है, जिनसे प्राणों में असुरक्षित होने का भय नहीं है। यह खोज उनके लिए है, जो अपने उड़ने के पंखों को नहीं भूल गए हैं, और जो आकाश को नहीं भूल गए हैं, और जिनके प्राणों में कहीं कोई स्मृति चोट मारती रहती है कि तोड़ दो सब बंधन, तोड़ दो सब दीवालें, उड़ जाओ वहां, जहां कोई दीवाल नहीं है, जहां कोई बंधन नहीं है।
लेकिन कितने थोड़े लोग हैं ऐसे? लाख-लाख आंखों में झांको, कभी किसी एक आंख में स्वतंत्रता की प्यास दिखाई पड़ती है। लाख-लाख आदमियों के प्राणों को खटखटाओ, किसी एकाध प्राण से सत्य की कोई झनकार सुनाई पड़ती है।
सारी मनुष्यता को क्या हो गया है?
इस सारी मनुष्यता ने सुरक्षित होने को ही सब-कुछ मान लिया है। सुरक्षा ही हमारा धर्म है--बस किसी तरह सुरक्षित रह लें और जी लें और समाप्त हो जाएं!
मैंने सुना है, एक सम्राट ने एक महल बनाया था। और महल उसने इतना सुरक्षित बनाया था कि उस महल में किसी दुश्मन के आने की कोई संभावना न थी।
हम सब भी इसी तरह के महल जीवन में बनाते हैं, जिसमें कोई दुश्मन न आ सके। जिसमें हम बिलकुल सुरक्षित रह सकें। आखिर आदमी जीवन भर करता क्या है? धन किसलिए कमाता है? ताकि सुरक्षित हो जाए। पद किसलिए कमाता है? ताकि सुरक्षित हो जाए। यश किसलिए कमाता है? ताकि सुरक्षित हो जाए। ताकि जीवन में कोई भय न रह जाए, जीवन निर्भय हो जाए। लेकिन मजा यही है और रहस्य भी यही है कि जितनी सुरक्षा बढ़ती है, उतना ही भय बढ़ता चला जाता है।
उस सम्राट ने भी सब-कुछ जीत लिया था। अब एक ही डर रह गया था कि कभी कोई दुश्मन...क्योंकि जो भी दूसरों को जीतने निकलता है, वह दुश्मन बना लेता है। दूसरों को जीतने निकलने वाला आदमी धीरे-धीरे सबको दुश्मन बना लेता है। हां, जो दूसरों से हारने को तैयार है, वही केवल इस जगत में मित्र बना सकता है।
उसने सारी दुनिया को जीतना चाहा था तो सारी दुनिया दुश्मन हो गई थी। सारी दुनिया दुश्मन हो गई थी तो भय बढ़ गया था। भय बढ़ गया था तो सुरक्षा का आयोजन करना जरूरी था। उसने एक बड़ा महल बनाया। उस महल में केवल एक दरवाजा रखा, खिड़की भी नहीं, द्वार भी नहीं, कोई और कुछ रंध्र भी नहीं कि कहीं कोई दुश्मन भीतर न आ जाए। एक दरवाजा, बड़ा महल था और उस दरवाजे पर हजारों नंगी तलवारों का पहरा था।
पड़ोस का राजा उसके सुरक्षित महल को देखने आया। दूर-दूर तक खबर पहुंच गई थी। पड़ोस का राजा भी देख कर बहुत प्रभावित हुआ। और उसने कहा: बहुत आनंदित हुआ, मैं भी ऐसा ही महल जाकर शीघ्र बनवाता हूं। यह तो बिलकुल सुरक्षित है, इसमें तो कोई खतरा नहीं।
जब पड़ोस का राजा विदा ले रहा था, अपने रथ पर सवार हो रहा था और भवन का मालिक उसे विदा कर रहा था, तब फिर दुबारा उस पड़ोसी राजा ने कहा: बहुत खुश हुआ हूं तुम्हारी समझ-सूझ को देख कर, तुमने अदभुत बात कर ली है। कोई राजा कभी इतना सुरक्षित महल नहीं बना पाया है। मैं भी जल्दी जाकर ऐसा ही महल बनाता हूं। तभी सड़क के किनारे बैठा एक बूढ़ा भिखारी जोर से हंसने लगा। उस भवन के मालिक ने कहा: पागल, तू क्यों हंस रहा है? क्या बात है?
उस बूढ़े भिखारी ने कहा: मालिक, आज मौका आ गया तो मैं कह दूं--कई दिन से यहां रुका हूं कि कभी आप द्वार पर मिल जाएंगे तो आपसे कह दूंगा। एक भूल रह गई है इस महल में। और तो सब ठीक है, एक दरवाजा है, यही गलती है। इससे दुश्मन भीतर जा सकता है। आप भीतर हो जाएं और इस दरवाजे को भी चुनवा दें तो आप बिलकुल सुरक्षित हो जाएंगे। फिर कभी कोई दुश्मन भीतर प्रवेश नहीं कर सकता है।
उस सम्राट ने कहा: पागल, अगर मैं दरवाजे को भी चुनवा दूं और भीतर हो जाऊं तो यह महल नहीं कब्र हो जाएगी?
उस फकीर ने कहा: कब्र यह हो गया है, सिर्फ एक दरवाजा बचा है, उतनी ही कमी है कब्र होने में, उसको भी पूरा कर लें। एक दरवाजा है, दुश्मन घुस सकता है। दुश्मन नहीं तो कम से कम मौत, मौत तो इस दरवाजे से भीतर चली जाएगी। आप ऐसा करें कि भीतर हो जाएं, फिर मौत भी नहीं जा सकती।
लेकिन उस राजा ने कहा: जाने का सवाल नहीं, मौत के जाने के पहले मैं मर जाऊंगा।
उस फकीर ने कहा: तो फिर ठीक से समझ लें। जितने ज्यादा दरवाजे थे इस महल में, उतना ही जीवन था आपके पास। जितने दरवाजे कम हुए, उतना ही जीवन कम हो गया। अब एक दरवाजा बचा है, थोड़ा सा जीवन बचा है। इसको भी बंद कर दें, वह भी समाप्त हो जाएगा। इसलिए कहता हूं, एक भूल रह गई है इसमें।
और फिर वह जोर-जोर से हंसने लगा। कहने लगा: महाराज, कभी मेरे पास भी महल थे। फिर मैंने यह अनुभव किया कि महल कारागृह बन जाते हैं, तो धीरे-धीरे दरवाजे बड़े करता गया, सब दीवालें अलग करता गया। फिर यह खयाल आया कि चाहे कितने ही दरवाजे कम करूं, ज्यादा करूं, दीवालें तो रह ही जाएंगी। तो फिर मैं दीवालों के बाहर ही निकल आया। अब खुले आकाश में हूं और अब पूरी तरह जीवित हूं।
लेकिन हम सबने भी अपनी-अपनी सामर्थ्य से अपनी-अपनी दीवालें बना ली हैं। और वे जो दीवालें दिखती हैं--पत्थर और मिट्टी की दीवालें, वे इतनी खतरनाक नहीं हैं, क्योंकि दिखाई पड़ती हैं। और बारीक दीवालें हैं और सूक्ष्म दीवालें हैं। और पारदर्शी, ट्रांसपेरेंट, जो दिखाई नहीं भी पड़तीं, कांच की दीवालें हैं। विचार की दीवालें हैं, सिद्धांतों की, शास्त्रों की दीवालें हैं--वे बिलकुल दिखाई नहीं पड़तीं। वे हमने अपनी आत्मा के चारों तरफ खड़ी कर ली हैं, ताकि हम सुरक्षित अनुभव करें।
और जितनी ज्यादा ये दीवालें हमने अपनी आत्मा के पास इकट्ठी कर ली हैं, उतने ही हम सत्य के खुले आकाश से दूर हो गए हैं। फिर तड़फते हैं प्राण, छटपटाती है आत्मा। लेकिन जितनी छटपटाती है, उतनी ही हम दीवालें मजबूत करते चले जाते हैं। डर लगता है--कि शायद यह घबड़ाहट, यह छटपटाहट दीवालों की कमी के कारण तो नहीं है? दीवालों के कारण ही है।
आदमी की आत्मा जब तक परतंत्र है, तब तक कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकती है।
परतंत्रता के अतिरिक्त और कोई दुख नहीं है।
और ध्यान रहे, जो परतंत्रता दूसरा व्यक्ति आपके ऊपर थोपता है, वह परतंत्रता कभी वास्तविक नहीं होती। जो परतंत्रता दूसरा थोपता है, वह बाहर से ज्यादा नहीं होती है, वह आपके भीतर कभी नहीं पहुंचती। लेकिन जो परतंत्रता आप स्वयं स्वीकार कर लेते हैं, वह आपकी आत्मा तक प्रविष्ट हो जाती है। और हमने बहुत तरह की परतंत्रताएं स्वयं स्वीकार कर ली हैं।
किसने कहा आपसे कि आप हिंदू हैं? और किसने कहा आपसे कि आप मुसलमान हैं? और किसने कहा कि गांधी से बंध जाओ? और किसने कहा कि बुद्ध से बंध जाओ? और किसने कहा कि मार्क्स से बंध जाओ? किसने कहा है बंधने के लिए? नहीं, किसी ने नहीं, आप ही अपने हाथ से बंध गए हैं। कौन बांधता है गीता से? कौन बांधता है कुरान से? कौन बांधता है बाइबिल से? कोई नहीं, आप अपने आप ही बंध गए हैं।
कुछ गुलामियां हैं, जो दूसरे हम पर थोपते हैं। कुछ गुलामियां हैं, जो हम खुद स्वीकार कर लेते हैं। जो गुलामियां दूसरे हम पर थोपते हैं, वे हमारे शरीर से ज्यादा और गहराई तक नहीं जाती हैं। लेकिन जो गुलामियां हम स्वीकार कर लेते हैं, वे हमारी आत्मा तक को बांध लेती हैं। और ऐसे हम सब परतंत्र हैं।
इस परतंत्र चित्त को लेकर सत्य की खोज कैसे हो सकती है? इस बंधे हुए चित्त को लेकर यात्रा कैसे हो सकती है? इस सब तरफ से जंजीरों से भरे हुए प्राणों को लेकर कहां उठेंगे आकाश की तरफ? बहुत भारी जंजीरें हैं।
वृक्ष बंधे हैं जमीन से, क्योंकि उनकी जड़ें जमीन में हैं। आदमी चलते-फिरते मालूम पड़ते हैं, झूठ है यह चलना-फिरना, क्योंकि उनकी आत्मा की जड़ें वृक्षों से भी ज्यादा जमीन के भीतर घुसी हुई हैं। वह जमीन परंपरा की है, वह जमीन समाज की है। उस जमीन में हमारी आत्मा की जड़ें कसी हुई हैं। वहां से जब तक अपरूटेड, वहां से जब तक जड़ें न उखड़ आएं, जब तक वहां की जंजीरें न टूट जाएं, तब तक सत्य की कोई यात्रा नहीं हो सकती है।
सत्य की यात्रा के पहला सूत्र पर इसलिए आज आपसे बात करना चाहता हूं। और वह यह कि ठीक से यह अनुभव कर लेना कि हम एक गुलाम हैं। आदमी एक गुलाम है। किसका? अपनी ही मूढ़ता का, अपनी ही जड़ता का, अपने ही अज्ञान का, अपनी ही नासमझी का।
हम अपने ही कारण गुलाम हैं और यह गुलामी हमें बहुत स्पष्ट रूप से अनुभव हो जानी चाहिए, तो हम इसे तोड़ने के लिए भी कुछ कर सकते हैं।
सबसे अभागा गुलाम वह होता है, जिसे यह पता ही नहीं होता कि मैं गुलाम हूं। सबसे अभागा गुलाम वह होता है, जो समझता है कारागृह को अपना घर। सबसे बड़ा गुलाम वह होता है, जो जंजीरों को आभूषण समझ लेता है। क्योंकि जब जंजीर आभूषण समझ ली जाती है, तब उसे हम तोड़ते नहीं, सम्हालते हैं।
मैंने सुना है, एक जादूगर था और वह जादूगर भेड़ों को बेचने का काम करता था। भेड़ें पाल रखी थीं उसने, और उनको बेचता था, उनके मांस को बेचता था। उनकी हत्या करता...उन्हें खिला-पिला कर मोटा करता था, जब वे भेड़ें चरबी से भर जातीं, मांस से, तब उनको काट कर बेच देता था। लेकिन उसने सारी भेड़ों को बेहोश करके एक बात सिखा दी थी। वह बहुत होशियार आदमी रहा होगा। उसने उन सारी भेड़ों को बेहोश करके, हिप्नोटाइज करके एक बात सिखा दी थी कि तुम भेड़ नहीं हो, तुम शेर हो। तो वे सारी भेड़ें अपने को शेर समझती थीं। हालांकि दूसरी भेड़ों को हर भेड़ भेड़ समझती थी, खुद को शेर समझती थी। इसलिए दूसरी भेड़ें जब कटती थीं, तो वे अपने मन में सोचती थीं कि हम तो शेर हैं, हमारे कटने का तो कोई सवाल नहीं है। जो भेड़ हैं, वह कटते हैं, वह कट रहे हैं।
और इसलिए हर रोज भेड़ें कटती जाती थीं, लेकिन बाकी भेड़ों को जरा भी चिंता सवार नहीं होती थी। वे अपने को शेर ही समझती चली जाती थीं। जब उनकी कटने की बारी आती थी, तभी पता चलता था कि बुरा हुआ। लेकिन तब बहुत समय बीत चुका होता था, तब कुछ भी नहीं किया जा सकता था। भागने का वक्त निकल चुका था। अगर उन्हें दूसरी भेड़ों को कटते देख कर खयाल में आ गया होता कि हम भी भेड़ हैं, तो शायद वे भेड़ें भाग गई होतीं। उन्होंने बचाव का कोई उपाय कर लिया होता। लेकिन उनको यह भ्रम था कि हम शेर हैं।
जब भेड़ अपने को शेर समझ ले, तब उससे कमजोर भेड़ खोजनी दुनिया में बहुत मुश्किल है, क्योंकि उसे यह खयाल ही मिट गया कि मैं भेड़ हूं!
उस जादूगर से किसी ने कहा कि तुम्हारी भेड़ें भागती नहीं? उसने कहा: मैंने उनके साथ वही काम किया है, जो हर आदमी ने अपने साथ कर लिया है। जो हम नहीं हैं, वही हमने समझ लिया है। जो ये नहीं हैं, वही मैंने इनको समझा दिया है।
हर आदमी अपने को समझता है कि मैं स्वतंत्र हूं! इससे बड़ा झूठ और कुछ भी नहीं हो सकता। और जब तक आदमी यह समझता रहता है कि मैं स्वतंत्र हूं, मैं एक स्वतंत्र आत्मा हूं, तब तक, तब तक वह आदमी स्वतंत्रता की खोज में कुछ भी नहीं करेगा।
इसलिए पहला सत्य समझ लेना जरूरी है कि हम परतंत्र हैं। हम का मतलब पड़ोसी नहीं, हम का मतलब मैं। हम का मतलब यह नहीं कि और लोग जो मेरे आस-पास बैठे हों--वे नहीं, मैं।
मैं एक गुलाम हूं और इस गुलामी की जितनी पीड़ा है, उस पूरी पीड़ा को अनुभव करना जरूरी है। इस गुलामी के जितने आयाम हैं, जितने डाइमेन्शंस हैं, जितनी दिशाओं से यह गुलामी पकड़े हुए है, उन दिशाओं का भी अनुभव कर लेना जरूरी है। किस-किस रूप में यह गुलामी छाती पर सवार है, उसे समझ लेना जरूरी है। इस गुलामी की क्या-क्या कड़ियां हैं, वे देख लेना जरूरी है। जब तक हम इस आध्यात्मिक दासता से, स्प्रिचुअल स्लेवरी से पूरी तरह परिचित नहीं हो जाते, तब तक इसे तोड़ा नहीं जा सकता।
अगर कोई कैदी किसी कारागृह से भागना चाहे तो सबसे पहले क्या करेगा? सबसे पहले तो उसे यह समझना होगा कि मैं कैदी हूं, कारागृह में हूं। और दूसरी बात यह करनी पड़ेगी कि कारागृह की एक-एक दीवाल, एक-एक कोने से परिचित होना पड़ेगा, क्योंकि जिस कारागृह से निकलना हो, उससे बिना परिचित हुए कोई कभी नहीं निकल सकता है। जिस कारागृह से निकल जाना है, उस कारागृह का परिचय जरूरी है। उससे जो जितना ज्यादा परिचित होगा, उतनी ही आसानी से कारागृह के बाहर हो सकता है।
इसलिए कारागृह के मालिक कभी भी कैदी को कारागृह की दीवालों, कोनों से परिचित नहीं होने देते हैं। कारागृह से परिचित कैदी खतरनाक है। वह कभी भी कारागृह से बाहर हो सकता है। क्योंकि ज्ञान सदा मुक्त करता है। कारागृह का ज्ञान भी मुक्त करता है। इसलिए कारागृह से परिचित होना बहुत खतरनाक है मालिकों के लिए।
और कारागृह से अगर अपरिचित रखना हो कैदी को तो सबसे पहली तरकीब यह है कि उसे समझाओ कि यह कारागृह नहीं है, भगवान का मंदिर है। यह कारागृह है ही नहीं। और उसे समझाओ कि तुम कैदी नहीं हो, तुम तो एक स्वतंत्र व्यक्ति हो। और उसे समझाओ कि इतनी ही तो दुनिया है, जितनी इस दीवाल के भीतर दिखाई पड़ती है। इसके बाहर कोई दुनिया ही नहीं है। बाहर कोई दुनिया ही नहीं है, बस यही सब-कुछ है। और उसे समझाओ कि अगर तकलीफ होती है तो दीवालों को लीपो, पोतो, साफ करो। दीवालें गंदी हैं, इसलिए तकलीफ होती है। दीवालों को साफ-सुथरा करो--कारागृह की दीवालों को। और अगर तकलीफ होती है तो उसका मतलब है कि बगीचा लगाओ कारागृह के भीतर, फूल-फुलवारी लगाओ; सुगंध आने लगेगी, आनंद आने लगेगा। कारागृह को सजाओ--अगर तकलीफ है तो काराग्रह को सजा लो, क्योंकि यह कारागृह नहीं है, यह तो घर है।
और जो कैदी इन बातों को मान लेगा, वह कैदी कभी मुक्त हो सकता है? उसके मुक्त होने का सवाल ही समाप्त हो जाता है। और हमने ऐसी ही बातें मान ली हैं!
पहली तो बात हमें यह स्मरण ही नहीं कि हम कारागृह में बंद हैं। जन्म के बाद मृत्यु तक हम न मालूम कितने तरह के कारागृहों में बंद हैं। सब तरफ दीवालें हैं, लेकिन दीवालें कारागृह की नहीं हैं। जब एक हिंदू कहता है कि मैं हिंदू हूं, जब एक मुसलमान कहता है कि मैं मुसलमान हूं, तो वह इस तरह नहीं कहता कि मैं मुसलमान की दीवाल के भीतर बंद हूं। वह अकड़ से कहता है कि जैसे मुसलमान होना, हिंदू होना, जैन होना कोई बड़ी कीमत की बात है। जब एक आदमी कहता है मैं भारतीय हूं और एक आदमी कहता है मैं चीनी हूं, तो बहुत अकड़ से कहता है। उसे पता ही नहीं कि ये भी दीवालें हैं और रोकती हैं बड़ी मनुष्यता से मिलने से।
जो भी चीज रोकती है, वह दीवाल है।
अगर मैं आपसे मिलने से रुकता हूं तो जो भी चीज बीच में खड़ी है, वह दीवाल है। हिंदू-मुसलमानों के बीच कोई रोकता है तो दीवाल है। हिंदुस्तानी और चीनी के बीच अगर कोई रोकता है तो दीवाल है। अगर शूद्र और ब्राह्मण के बीच मिलने में बाधा पड़ती है तो कोई दीवाल है--चाहे व दिखाई पड़ती हो कि न दिखाई पड़ती हो। जहां भी बीच में मिलन में कोई चीज आड़े आती है वहां दीवाल है।
और आदमी-आदमी के आस-पास कितनी दीवालें हैं, कितनी तरह की दीवालें हैं! लेकिन वे दीवालें ट्रांसपेरेंट हैं, कांच की दीवालें हैं, उनके आर-पार दिखाई पड़ता है, तो हमें शक नहीं होता कि दीवाल बीच में है। पत्थर की दीवाल के आर-पार दिखाई नहीं पड़ता। हिंदू और मुसलमान की दीवाल के आर-पार दिखाई पड़ता है। उस दिखाई पड़ने के कारण खयाल होता है कि कोई दीवाल बीच में नहीं है। इसीलिए पारदर्शी दीवलें बड़ी खतरनाक हैं। उनके आर-पार दिखाई भी पड़ता है, लेकिन हाथ नहीं बढ़ा सकते। हिंदू की तरफ से मुसलमान की तरफ कहीं हाथ बढ़ सकता है? बीच में दीवाल आ जाएगी, हाथ यहीं मुड़ कर वापस लौट आएगा। शूद्र का और ब्राह्मण के बीच कोई मिलन हो सकता है? कोई मिलन वहां नहीं है।
लेकिन यह हमें खयाल में नहीं आता कि ये हमारे कारागृह हैं। सिद्धांतों की दीवालें हैं। हमें खयाल ही नहीं है कि हर आदमी अपने-अपने सिद्धांतों में बंद होकर बैठ जाता है, फिर उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
रूस में वे समझाते हैं कि ईश्र्वर नहीं है। वहां का बच्चा यही सुन कर बड़ा होता है कि ईश्र्वर नहीं है। उसकी आत्मा के चारों तरफ एक लक्ष्मण-रेखा खिंच जाती है--ईश्र्वर नहीं है। अब वह इसी लक्ष्मण-रेखा के भीतर जीवन भर जीएगा--ईश्र्वर नहीं है। और जब भी दुनिया को देखेगा तो इसी घेरे के भीतर से देखेगा कि ईश्र्वर नहीं है। अब इस घेरे को लेकर ही वह चलेगा।
ये जो बाहर के कारागृह हैं, इनके भीतर आपको बंद होना पड़ता है, इनको लेकर आप नहीं चल सकते हैं। ये जो आत्मा के कारागृह हैं, ये बहुत अदभुत हैं। आप जहां भी जाइए, ये आपके चारों तरफ चलते हैं, ये आपके साथ ही चलते हैं।
अब जिस आदमी के दिमाग में यह खयाल बैठ गया कि ईश्र्वर नहीं है, अब यह आदमी इसी खयाल की दीवाल में बंद जिंदगी भर जीएगा। इसे कहीं भी ईश्र्वर दिखाई नहीं पड़ सकता है, क्योंकि आदमी को वही दिखाई पड़ सकता है जो देखने की उसकी तैयारी हो। और इस आदमी की देखने की तैयारी कुंठित हो गई, बंद हो गई, इस आदमी ने तय कर लिया कि ईश्र्वर नहीं है। अब इसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
लेकिन आप कहेंगे कि इससे तो हम बेहतर हैं, जो मानते हैं कि ईश्र्वर है। हम भी उतनी ही बदतर हालत में हैं। क्योंकि जिस आदमी ने यह तय कर लिया कि ईश्र्वर है, अब वह फिर कभी आंख उठा कर खोज-बीन नहीं करेगा कि वह कहां है! मान कर बैठ गया कि है और खत्म हो गया। अब वह समझ रहा कि है, बात खत्म हो गई। अब और क्या करना है?
जिसने मान लिया कि है, वह ‘है’ में बंद हो जाता है। जिसने मान लिया कि नहीं है, वह ‘नहीं है’ में बंद हो जाता है। एक नास्तिकता में बंद हो जाता है, एक आस्तिकता में बंद हो जाता है। दोनों की अपनी खोल हैं।
लेकिन सत्य की खोज वह आदमी करता है, जो कहता है, मैं खोल क्यों बनाऊं? मुझे अभी पता ही नहीं है कि ‘है’ या ‘नहीं।’ मैं कोई खोल नहीं बनाता। मैं बिना खोल के, बिना दीवाल के खोज करूंगा। मुझे पता नहीं है। इसलिए मैं किसी सिद्धांत को अपने साथ जकड़ने को राजी नहीं हूं। किसी भी तरह का सिद्धांत आदमी को बांध लेता है और सत्य की खोज मुश्किल हो जाती है।
एक फकीर एक गांव में ठहरा हुआ था। उस गांव के लोगों ने उस फकीर को कहा कि तुम आकर हमें नहीं बताओगे क्या कि ईश्र्वर है या नहीं? उस फकीर ने कहा: ईश्र्वर! ईश्र्वर से तुम्हें क्या प्रयोजन हो सकता है? अपना काम करो।
ईश्र्वर से किसी को भी कोई प्रयोजन नहीं है। अगर ईश्र्वर से कोई प्रयोजन होता तो यह दुनिया बिलकुल दूसरी दुनिया होती। यह ऐसी दुनिया नहीं हो सकती--इतनी कुरूप, इतनी गंदी, इतनी बेहूदी! जहां ईश्र्वर से हमारा प्रयोजन होता, हमने यह सारी दुनिया और तरह की कर ली होती। लेकिन ईश्वर से हमें कोई प्रयोजन नहीं है। वे जो मंदिरों में बैठे हैं, उन्हें भी नहीं है। वे जो पुजारी और साधु और संन्यासियों का गिरोह और जत्था खड़ा हुआ है, उन्हें भी नहीं है। वे जो लोग नारियल फोड़ रहे हैं दीवालों के सामने, पत्थरों के सामने, उन्हें भी नहीं है। अगर ईश्र्वर से हमें मतलब होता तो यह दुनिया बिलकुल दूसरी हो गई होती। क्योंकि ईश्र्वर से मतलब रखने वाली दुनिया इतनी गंदी और कुरूप नहीं हो सकती।
उस फकीर ने कहा: क्या मतलब है तुम्हें ईश्र्वर से? अपना काम-धाम देखो, बेकार समय मत गंवाओ।
लेकिन वे लोग नहीं माने। उन्होंने कहा: आज छुट्टी का दिन है और आप जरूर चलें।
फकीर ने कहा: अब मैं समझा, चूंकि छुट्टी का दिन है, इसलिए ईश्र्वर की फिकर करने आए हो!
छुट्टी के दिन ही लोग ईश्र्वर की फिकर करते हैं। क्योंकि जब कोई काम नहीं होता और आदमी से बेकाम नहीं बैठे रहा जाता तो कुछ न कुछ करता है। ईश्र्वर के लिए कुछ करता है। बेकाम आदमी कुछ न कुछ करता है--माला ही फेरता है।
उस फकीर ने कहा: अच्छा, छुट्टी का दिन है, तब ठीक है, मैं चलता हूं। लेकिन...लेकिन ईश्र्वर के संबंध में कहूंगा क्या? क्योंकि ईश्र्वर के संबंध में तो आज तक कुछ भी नहीं कहा जा सका। जिन्होंने कहा है, उन्होंने गलती की। जो जानते थे, वे चुप रह गए। अब मैं मूर्ख बनूंगा, अगर मैं कुछ कहूं। क्योंकि उससे सिद्ध होगा कि मैं नहीं जानता हूं। और तुम कहते हो कि कुछ कहो। खैर, मैं चलता हूं।
वह मस्जिद में गया। उस गांव के लोगों ने बड़ी भीड़ इकट्ठी कर ली। भीड़ को देख कर बड़ा भ्रम पैदा होता है। ईश्र्वर को समझने के लिए भीड़ इकट्ठी हो जाए तो भ्रम पैदा होता है कि लोग ईश्र्वर को समझना चाहते हैं।
उस फकीर ने कहा: इतने लोग ईश्र्वर में उत्सुक हैं तो मैं एक प्रश्र्न पूछ लूं पहले, तुम ईश्र्वर को मानते हो? ईश्र्वर है?
सारे गांव के लोगों ने हाथ उठा दिए ऊपर कि हम ईश्र्वर को मानते हैं ईश्र्वर है।
उस फकीर ने कहा: फिर बात खत्म। जब तुम्हें पता ही है, तो मेरे बोलने की अब कोई जरूरत नहीं। मैं वापस जाता हूं!
गांव के लोग मुश्किल में पड़ गए। अब कुछ उपाय भी न था। कह चुके थे, जानते तो नहीं थे। लेकिन कह चुके थे कि जानते हैं, हाथ हिला दिया था। अब एकदम इनकार करेंगे तो ठीक भी नहीं है।
कौन जानता है? आप जानते हैं? लेकिन अगर कोई पूछेगा, ईश्र्वर है? तो आप भी हाथ उठा देंगे। ये हाथ झूठ हैं। और जो आदमी ईश्र्वर के सामने तक झूठ बोलता है, उसकी जिंदगी में अब सच का कोई उपाय नहीं हो सकता। जो ईश्र्वर के लिए तक झूठी गवाही दे सकता है कि हां, मैं जानता हूं, ईश्र्वर है! और उसे कोई भी पता नहीं। उसकी जिंदगी में कहीं कोई किरण नहीं उतरी ईश्र्वर की। उसकी जिंदगी में कहीं कोई चिराग नहीं जला ईश्र्वर का। उसकी जिंदगी में कभी कोई प्रार्थना नहीं आई ईश्र्वर की। उसकी जिंदगी में कभी कोई फूल नहीं खिला ईश्र्वर का और वह कहता है कि हां, ईश्र्वर है! और कभी भीतर नहीं देखता कि मैं सरासर झूठ बोल रहा हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है!
बाप बेटों से झूठ बोल रहे हैं। गुरु शिष्यों से झूठ बोल रहे हैं। धर्मगुरु अनुयायियों से झूठ बोल रहे हैं। और उन्हें कुछ भी पता नहीं कि वह है या नहीं। किसकी बात कर रहे हो? उनको अगर जोर से हिला दो तो उनका सब ईश्र्वर बिखर जाएगा। भीतर से कहीं कोई आवाज न आएगी कि वह है। शायद जब वे आपसे कह रहे हैं कि है, तभी उनके भीतर कोई कह रहा है कि अजीब बात कर रहे हो, पता तो तुम्हें बिलकुल नहीं है।
उस फकीर ने कहा: जब तुम्हें पता ही है, तो बात खत्म हो गई। लेकिन मैं हैरान हूं, इस गांव में ईश्र्वर को जानने वाले इतने लोग हैं, तो यह गांव दूसरी तरह का हो जाना चाहिए था! लेकिन तुम्हारा गांव वैसा ही है, जैसे मैंने दूसरे गांव देखे।
गांव के लोग बहुत चिंतित हुए। उन्होंने कहा: अब क्या करें? उन्होंने कहा: अगली बार फिर हम चलें। अगले शुक्रवार को उन्होंने फिर फकीर के पैर पकड़ लिए और कहा: आप चलें और ईश्र्वर को समझाएं।
उसने कहा: लेकिन मैं पिछली बार गया था और तुमने कहा था कि ईश्र्वर को तुम जानते हो। बात खत्म हो गई, अब उसके आगे बताने को कुछ भी नहीं बचता। जो ईश्र्वर को ही जान लेता है, उसके आगे जानने को कुछ बचता है फिर?
उन लोगों ने कहा: महाशय, वे दूसरे लोग रहे होंगे। हम गांव के दूसरे लोग हैं। आप चलिए और हमें समझाइए। हमें कुछ भी पता नहीं। ईश्र्वर को हम मानते ही नहीं।
उस फकीर ने कहा: धन्यवाद, तेरा परमात्मा! ये वही के वही लोग हैं। शक्लें मेरी पहचानी हुई हैं। लेकिन ये बदल रहे हैं!
असल में धार्मिक आदमी के बदलने में देर नहीं लगती। धार्मिक आदमी से ज्यादा बेईमान आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। वह जरा में बदल सकता है। दुकान पर वह कुछ और होता है, मंदिर में कुछ और हो जाता है। मंदिर में कुछ और होता है, बाहर निकलते ही कुछ और हो जाता है।
बदलने की कला सीखनी हो तो उन लोगों से सीखो जो मंदिर जाते हैं। क्षण भर में उनकी आत्मा दूसरी कर लेते हैं वे! फिल्मों के अभिनेता भी इतने कुशल नहीं हैं, क्योंकि वे भी सिर्फ चेहरा बदल पाते हैं, कपड़े, रंग-रोगन। लेकिन मंदिरों में जाने वाले लोग आत्मा तक को बदल लेते हैं। दुकान पर वही आदमी, उसकी आंखों में झांको, कुछ और मालूम पड़ेगा। वही आदमी मंदिर में जब माला फेर रहा हो, तब देखो तो मालूम पड़ेगा कि यह आदमी कोई और ही है। फिर घड़ी भर बाद वह आदमी दूसरा आदमी हो जाता है।
वह जो घड़ी भर पहले कुरान पढ़ रहा था मस्जिद में, इस्लाम खतरे में देख कर किसी कि छाती में छुरा भोंक सकता है। वह जो घड़ी भर पहले गीता पढ़ रहा था, घड़ी भर बाद हिंदू धर्म के लिए किसी के मकान में आग लगा सकता है। धार्मिक आदमी के बदल जाने में देर नहीं लगती। और जब तक ऐसे बदल जाने वाले आदमी दुनिया में धार्मिक समझे जाते रहेंगे, तब तक दुनिया से अधर्म नहीं मिट सकता।
उस फकीर ने कहा: धन्यवाद है भगवान! बदल गए ये लोग! ठीक है! जब दूसरे ही हैं, तो मैं चलूंगा। वह गया। वह मस्जिद में खड़ा हुआ और उसने कहा कि दोस्तो, मैं फिर वही सवाल पूछता हूं, क्योंकि दूसरे लोग आज आए हुए हैं। हालांकि सब चेहरे मुझे पहचाने हुए मालूम पड़ रहे हैं। क्या ईश्र्वर है?
उस मस्जिद के लोगों ने कहा: नहीं है, ईश्र्वर बिलकुल नहीं है। ईश्र्वर को हम न मानते हैं, न जानते हैं। अब आप बोलिए।
उस फकीर ने कहा: बात खत्म हो गई। जब है ही नहीं, तो उसके संबंध में बात भी क्या करनी है? प्रयोजन क्या है अब बात करने का? किसके संबंध में पूछते हो मित्रो? जो है ही नहीं उसके संबंध में? कौन ईश्र्वर? कैसा ईश्र्वर?
मस्जिद के लोगों ने कहा: यह तो मुसीबत हो गई। इस आदमी से पार पाना कठिन है।
उसने कहा: जाओ अपने घर। अब कभी भूल कर यहां मस्जिद मत आना। किसलिए आते हो यहां? जो है ही नहीं, उसकी खोज करने? और तुम्हारी खोज पूरी हो गई, क्योंकि तुम्हें पता चल गया कि वह नहीं है। खोज पूरी हो गई, तुमने जान लिया कि वह नहीं है। अब बात खत्म हो गई। अब कोई आगे यात्रा नहीं। मुझे क्षमा कर दो, मैं जाता हूं!
गांव के लोगों ने कहा: क्या करना पड़ेगा? इस आदमी से सुनना जरूरी है। जरूर कोई राज अपने भीतर छिपाए है। यह आदमी कोई साधारण आदमी नहीं है। क्योंकि साधारण आदमी तो बोलने को आतुर रहता है। आप मौका दो और वह बोलेगा। और यह आदमी बोलने के मौके छोड़ कर भाग जाता है। अजीब है, जरूर कुछ बात होगी, कुछ राज है, कहीं कोई मिस्ट्री, कहीं कोई रहस्य है।
फिर तीसरे शुक्रवार उन्होंने जाकर प्रार्थना की कि चलिए हमारी मस्जिद में। लेकिन उसने कहा कि मैं दो बार हो आया हूं और बात खत्म हो चुकी है। उन मस्जिद के लोगों ने कहा: आज तीसरा मामला है, आप चलिए। हम तीसरा उत्तर देने की तैयारी करके आए हैं।
उस फकीर ने कहा कि जो आदमी तैयारी करके उत्तर देता है, उसके उत्तर हमेशा झूठ होते हैं। उत्तर भी कहीं तैयार करने पड़ते हैं? तैयार करने का मतलब है कि उत्तर मालूम नहीं हैं। जिसे मालूम है, वह तैयार नहीं करता। और जिसे मालूम नहीं है, वह तैयार कर लेता है।
और ध्यान रहे, जिन-जिन बातों के उत्तर आपने तैयार किए हैं, उन-उन बातों के उत्तर सब झूठे हैं। जिंदगी में उत्तर आते हैं, तब सच होते हैं। तैयार किए हुए उत्तर कभी सच नहीं होते। सत्य कभी तैयार नहीं किया जा सकता। सत्य आता है, झूठ तैयार किया जाता है। जो हम तैयार करते हैं, वह झूठ होता है। जो आता है, वह सत्य होता है। सत्य, आदमी तैयार नहीं करता है।
आदमी जो भी तैयार करता है, सब झूठ होता है। इसीलिए दुनिया के सारे शास्त्र, दुनिया के सारे संप्रदाय, दुनिया के सारे सिद्धांत, जो आदमी ने बनाए हैं, वे सब झूठ हैं। आदमी सत्य को नहीं बना सकता है।
सत्य तब आता है, जब आदमी का यह भ्रम टूट जाता है कि मैं सत्य को बना सकता हूं। और जब आदमी सब बनाए हुए झूठों को छोड़ देता है, तो सत्य तत्क्षण उत्तर आता है।
उस फकीर ने कहा कि तुमने तैयार किया है उत्तर, तब तो वह निश्र्चित ही झूठ होगा। उस उत्तर को बिना सुने मैं कह सकता हूं कि वह झूठ है। लेकिन अब मैं चलूंगा।
वह तीसरी बार गया। उस गांव के लोग भी बड़े होशियार रहे होंगे। लेकिन होशियारी कभी-कभी महंगी पड़ती है--यह पता नहीं। होशियारी उन चीजों के मामले में बहुत महंगी पड़ जाती है, जहां होशियारी से काम नहीं चलता, जहां सादगी से, सरलता से काम चलता है। सत्य के जगत में होशियारी नहीं काम करती, कनिंगनेस, क्लेवरनेस काम नहीं करती। सत्य की दुनिया में सरलता काम करती है। वहां वे जीत जाते हैं जो सरल हैं और वे हार जाते हैं जो होशियार हैं।
पर गांव के लोग बड़े होशियार थे। उन्होंने बड़ी तैयारी की बात की थी। उन्होंने कहा, आज तो फकीर को फांस ही लेना है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि फकीरों को फांसना मुश्किल है। क्योंकि फकीर का मतलब यह है कि जिसने सब फंसने के रास्ते तोड़ दिए हैं। और उन्हें यह भी पता नहीं कि दूसरे को फांसने में अक्सर आदमी खुद फंस जाता है।
खैर, वह फकीर पहुंच गया और उसने कहा कि दोस्तो, फिर वही सवाल--ईश्र्वर है या नहीं है?
आधी मस्जिद के लोगों ने हाथ उठाए और कहा कि ईश्र्वर है और आधी मस्जिद के लोगों ने हाथ उठाए और कहा कि ईश्र्वर नहीं है। अब हम दोनों उत्तर देते हैं। अब आप बोलिए।
उस फकीर ने हाथ जोड़े आकाश की तरफ और कहा: भगवान, बड़ा मजा है इस गांव में! और कहा: पागलो, जब तुम आधों को पता है कि है और आधों को पता नहीं है, तो आधे उनको बता दें--जिनको पता है वे उनको बता दें जिनको पता नहीं है। तुम मुझे बीच में क्यों ले आते हो? मेरी बीच में क्या जरूरत है? जब इस मस्जिद में दोनों तरह के लोग मौजूद हैं तो आपस में तुम निपटारा करो। मैं जाता हूं।
उस गांव के लोग फिर चौथी बार उस फकीर के पास नहीं गए। चौथा उत्तर खोजने की उन्होंने बहुत कोशिश की, लेकिन चौथा उत्तर नहीं मिल सका। असल में तीन ही उत्तर हो सकते हैं--हां, ना या दोनों। चौथा कोई उत्तर नहीं हो सकता। चौथा क्या उत्तर हो सकता है? तीन ही उत्तर हो सकते हैं।
वह फकीर बहुत दिन रुका रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि शायद वे फिर आएं, लेकिन वे नहीं आए। बाद में किसी ने उस फकीर से पूछा कि क्यों रुके हो यहां?
उसने कहा: मैं रास्ता देखता हूं कि शायद वे चौथी बार आएं, लेकिन वे नहीं आए।
उस आदमी ने कहा: चौथी बार हम कैसे आएं? चौथा उत्तर ही नहीं सूझता है। हम क्या उत्तर देंगे, जब तुम बोलोगे?
उस फकीर ने कहा: अगर मैं बताऊंगा वह उत्तर तो वह भी बेकार हो जाएगा। क्योंकि तुम्हारे लिए फिर वह सीखा हुआ उत्तर हो जाएगा।
उस फकीर ने बाद में अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मैं राह देखता रहा कि शायद उस गांव के लोग आएं और मुझे ले जाएं। और मैं जब सवाल पूछूं, तब वे चुप रह जाएं और कोई भी उत्तर न दें। अगर वे कोई भी उत्तर न दें, तो फिर मुझे बोलना पड़ेगा, क्योंकि उनके उत्तर की चुप्पी बताएगी कि वे खोजने वाले लोग हैं। उन्होंने पहले से कुछ मान नहीं रखा है। वे यात्रा करने के लिए तैयार हैं, वे जा सकते हैं जानने के लिए, उन्होंने कुछ भी मान नहीं रखा है। जिसने मान रखा है, वह जानने की यात्रा पर कभी भी नहीं निकलता है। जिसकी कोई बिलीफ है, जिसका कोई विश्र्वास है, वह कभी सत्य की खोज पर नहीं जाता है।
इसलिए पहली बात आपसे यह कहना चाहता हूं: सत्य की खोज पर वे जाते हैं, जो सिद्धांतों के कारागृह को तोड़ने में समर्थ हो जाते हैं।
हम सब सिद्धांतों में बंधे हुए लोग हैं, शब्दों में बंधे हुए लोग हैं, हम सब शास्त्रों में बंधे हुए लोग हैं--सत्य हमारे लिए नहीं हो सकता है। और ये शास्त्र बड़े सोने के हैं और इन शास्त्रों में बड़े हीरे-मोती भरे हैं। पिंजड़े सोने के भी हो सकते हैं और पिंजड़ों में हीरे-मोती भी लगे हो सकते हैं। लेकिन कोई पिंजड़ा इसलिए कम पिंजड़ा नहीं हो जाता कि वह सोने का है, बल्कि और खतरनाक हो जाता है। क्योंकि लोहे के पिंजड़े को तो तोड़ने का मन होता है, सोने के पिंजड़े को बचाने की इच्छा होती है।
कारागृह में बंधा हुआ चित्त--हम अपने ही हाथ से अपने को बांधे हुए हैं।
यह पहली बात जान लेनी जरूरी है कि जब तक हम इससे मुक्त न हो जाएं, तब तक सत्य की तरफ हमारी आंख नहीं उठ सकती। तब हम वही नहीं देख सकते, जो है। तब तक हम वही देखने की कोशिश करते रहेंगे, जो हम चाहते हैं कि हो। और जब तक हम चाहते हैं कि कुछ हो, तब तक हम वही नहीं जान सकते हैं, जो है। जब तक हमारी यह इच्छा है कि सत्य ऐसा होना चाहिए, तब तक हम सत्य के ऊपर अपनी इच्छा को थोपते चले जाएंगे। जब तक हम कहेंगे कि भगवान ऐसा होना चाहिए--बांसुरी बजाता हुआ, कि धनुषबाण लिए हुए, तब तक हम अपनी ही कल्पना को भगवान पर थोपने की चेष्टा जारी रखेंगे।
और यह हो सकता है कि हमें धनुर्धारी भगवान के दर्शन हो जाएं; और यह भी हो सकता है कि बांसुरी बजाता हुआ कृष्ण दिखाई पड़े; और यह भी हो सकता है कि सूली पर लटके हुए जीसस की हमें तस्वीर दिखाई पड़ जाए। लेकिन ये सब तस्वीरें हमारे ही मन की तस्वीरें होंगी। इनका सत्य से कोई दूर का भी संबंध नहीं है। यह हमारी ही कल्पना का जाल होगा, यह हमारा ही प्रोजेक्शन होगा। यह हमारी ही इच्छा का खेल होगा। यह हमारा ही सपना होगा। और इस सपने को जो सत्य समझ लेता है, फिर तो सत्य से मिलने के उसके मौके ही समाप्त हो जाते हैं।
नहीं, सत्य को तो केवल वे ही जान सकते हैं, जिनकी आत्मा पर कोई सिद्धांत का आग्रह नहीं है। कोई आग्रह नहीं है जिनके मन पर कि यह होना चाहिए। जो कहते हैं, जो भी होगा, हम उसे जानने को तैयार हैं। और उसक ी जानने की तैयारी में हम अपनी सारी जंजीरें खोने को भी तैयार हैं।
और बड़े मजे की बात है, सत्य कहता है कि सिर्फ जंजीरें खो दो और मैं तुम्हें मिल जाऊंगा। सत्य कुछ और नहीं मांगता। सत्य कुछ और नहीं मांगता, सिर्फ जंजीरें मांगता है कि अपनी जंजीरें खो दो और मैं तुम्हें मिल जाऊंगा।
लेकिन हम जंजीरें खोने को ही तैयार नहीं हैं। जंजीरों से भी मोह हो जाता है। और पुरानी जंजीरें हों तो बहुत मोह हो जाता है। बापदादे दे गए हों जंजीरों को तो बहुत मोह हो जाता है। और जंजीरें बेटों को दे जाते हैं बाप, फिर बेटे अपने बेटों को सम्हलवा देते हैं। आदमी मर जाते हैं। जंजीरें पीढ़ी दर पीढ़ी चलती चली जाती हैं। हजारों-हजारों, लाखों-लाखों साल पुरानी जंजीरें हैं। हम भूल ही गए हैं कि हम उनसे बंधे हैं।
लेकिन यह ध्यान में रख लेना आज, पहले सूत्र के लिए जरूरी है: जब तक आपके मन में कोई भी एक सिद्धांत--चाहे आस्तिक का, चाहे नास्तिक का; चाहे कम्युनिस्ट का; चाहे हिंदू का, चाहे मुसलमान का; चाहे ईसाई का--जब तक कोई भी सिद्धांत आपको पकड़े हुए है और आप कहते हैं कि मैं इस सिद्धांत को सही मानता हूं, तब तक आपको सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। क्योंकि सत्य के दर्शन के पहले किसी सिद्धांत का सही होने का क्या अर्थ होता है?
जब तक सत्य मुझे नहीं मिला, तब तक मैं कैसे कहूं कि कौन सा शास्त्र सत्य है? अगर मेरी तस्वीर आपने देखी हो और मुझे भी देखा हो तो आप कह सकते हैं कि मेरी कौन सी तस्वीर सच है। लेकिन अगर आपने मुझे न देखा हो और आपके सामने हजार तस्वीरें रख दी जाएं तो क्या आप बता सकते हैं कि इसमें कौन सी तस्वीर सच है? मुझे देखा हो तो आप बता सकते हैं कि तस्वीर कौन सी सच है। लेकिन मुझे न देखा हो तो आप कैसे बता सकते हैं कि कौन सी तस्वीर सच है? फिर आप जिस तस्वीर को भी सच बताएंगे, आप झूठ की यात्रा पर चल रहे हैं।
कौन शास्त्र सत्य है? कैसे पता चलेगा आपको, जब तक आपको सत्य का पता नहीं? कौन सिद्धांत सत्य है? कैसे पता चलेगा? कौन तीर्थंकर? कौन अवतार? कौन ईश्र्वर का पुत्र सत्य है? कैसे पता चलेगा, जब तक आपको सत्य का पता न हो?
सत्य का पता नहीं है और सिद्धांत के सत्य होने का पता चल गया? सत्य का पता नहीं है और शास्त्र के सत्य होने का पता चल गया? फिर हम झूठ से बंध गए। और जो झूठ से बंध गया जो आदमी, इसको अब सत्य पता नहीं चल सकता है।
पहला सूत्र: अपने मन की जंजीरों को गौर से देखना--सिद्धांत की। और अगर हिम्मत जुटा सकें...और यह मजे की बात है कि अगर जंजीर दिखाई पड़ जाए, तो हिम्मत जुटाने में बहुत ताकत नहीं लगानी पड़ती। जंजीर दिखाई नहीं पड़ती, इसलिए हिम्मत जुटाना मुश्किल होता है। एक बार पता चल जाए कि यह रही मेरी गुलामी, तो अपनी गुलामी को कोई बर्दाश्त करने को कभी राजी नहीं होता। फिर उसे तोड़ना आसान हो जाता है।
हम तोड़ने के सूत्रों पर बात करेंगे। लेकिन आज इतना ही आप सोचते हुए जाना कि आप भी गुलाम तो नहीं हैं? आपका मन भी कैद तो नहीं है? आपने भी दीवालें तो नहीं बना रखी हैं? और आपका मन भी कुछ सत्य मान कर तो नहीं बैठ गया है? अगर बैठ गया है तो सचेत हो जाना जरूरी है। अगर बैठ गया है तो खड़े हो जाना जरूरी है। अगर कहीं बंधन पकड़ लिए हैं तो उनको छोड़ देना जरूरी है।
और एक बार आदमी हिम्मत जुटा ले तो इतनी बड़ी शक्ति भीतर पैदा होती है। एक बार साहस जुटा ले तो इतनी बड़ी आत्मा का जन्म होता है। और एक बार तय कर ले तो फिर कोई ताकत उसे गुलाम नहीं रख सकती। और जिस आदमी की आंखें आकाश की तरफ उठनी शुरू हो जाती हैं, खुले आकाश की तरफ, उस आदमी के निकट परमात्मा का आना शुरू हो जाता है।
परमात्मा है खुले आकाश की भांति। जो अपने पंखों को खोल कर उसमें उड़ते हैं, वे जरूर उसे उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन बंधे हुए, पिंजड़ों में बंद लोग उस तक नहीं पहुंच पाते।
क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगता कि हमारे पंख हैं या नहीं? क्या कभी आपके प्राणों में ऐसी प्यास नहीं जगती कि मैं मुक्त हो जाऊं? क्या कभी आपको गुलामी दिखाई नहीं पड़ती है? इन्हीं प्रश्र्नों के साथ आज की अपनी पहली बात मैं पूरी करता हूं। यही पूछते अपने से जाना और सोते समय यही पूछना बार-बार कि मैं भी एक गुलाम तो नहीं हूं? और अगर गुलाम हूं तो क्या मैं अपने ही हाथों से गुलाम होने को राजी हूं?
फिर कल सुबह दूसरे सूत्र पर आपसे मैं बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एक सम्राट ने जंगलों में गीत गाते एक पक्षी को बंद करवा लिया था। गीत गाना भी अपराध है, अगर आस-पास के लोग गलत हों। उस पक्षी को पता भी नहीं होगा कि गीत भी परतंत्रता बन सकता है। आकाश में उड़ते और वृक्षों पर बसेरा करने वाले उस पक्षी को यद्यपि सम्राट ने सोने के पिंजड़े में रखा था। उस पिंजड़े में हीरे-जवाहरात लगाए थे। करोड़ों रुपये का पिंजड़ा था वह।
लेकिन जिसने खुले आकाश की स्वतंत्रता जानी हो, उसके लिए सोने का क्या अर्थ है? हीरे-मोतियों का क्या अर्थ है? जिसने अपने पंखों से उड़ना जाना हो और जिसने सीमा-रहित आकाश में गीत गाए हों, उसके लिए पिंजड़ा चाहे सोने का हो, चाहे लोहे का, बराबर है।
वह पक्षी बहुत सिर पीट-पीट कर रोने लगा। लेकिन सम्राट और उसके महल के लोगों ने समझा कि वह अभी गीत गा रहा है। कुछ लोग सिर पीट कर रोते हैं, लेकिन जो नहीं जानते, वे यही समझते हैं कि गीत गाया जा रहा है।
वह पक्षी बहुत हैरान था, बहुत परेशान था। और धीरे-धीरे सबसे बड़ी परेशानी तो उसे यह मालूम होने लगी कि उसे डर हुआ, कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा कि पिंजड़े में बंद रहते-रहते मेरे पंख उड़ना भूल जाएं?
कारागृह और कोई बड़ा नुकसान नहीं कर सकता है, एक ही नुकसान कर सकता है कि पंख उड़ना भूल जाएं।
उस पक्षी को एक ही चिंता थी कि कहीं ऐसा न हो कि खुले आकाश के आनंद की स्मृति ही मुझे भूल जाए? फिर अगर पिंजड़े से मुक्त भी हो गया तो भी क्या होगा? क्योंकि स्वतंत्रता को केवल वे ही जानते हैं, जिनके प्राणों में स्वतंत्रता का अनुभव और आनंद है। अकेले स्वतंत्र होने से ही कोई स्वतंत्रता को नहीं जान लेता है। अकेले खुले आकाश में छूट जाने से ही कोई स्वतंत्र नहीं हो जाता है। उस पक्षी को डर था कि कहीं परतंत्र रहते-रहते परतंत्रता का मैं आदी न हो जाऊं। वह बहुत चिंता में था कि कैसे मुक्त हो सके।
एक दिन सुबह एक फकीर को गीत गाते उस पक्षी ने सुना। वह फकीर गीत गाता था: कि जिन्हें मुक्त होना हो, उनके लिए एक ही रास्ता है, वह रास्ता है: सत्य। जिन्हें स्वतंत्र होना हो, उनके लिए एक ही द्वार है, वह द्वार है: सत्य। और सत्य क्या है? उस फकीर ने अपने गीत में कहा: सत्य वह है, जो दिखाई पड़ता है। जैसा दिखाई पड़ता है, उसे वैसा ही देखना, वैसा ही जानना, वैसा ही जीने की कोशिश करना, वैसा ही अभिव्यक्त करना सत्य है। और जो सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। उसके गीत का यह अर्थ था।
सड़कों पर गाते गुजरता था। मनुष्यों ने तो नहीं सुना, लेकिन उस पक्षी ने सुन लिया। क्योंकि पक्षियों को भी अभी खुले आकाश का अनुभव है। मनुष्यों को तो खुले आकाश का सारा अनुभव भूल गया है। क्योंकि पक्षियों को भी अपने पंख उड़ने के लिए हैं, यह पता है। मनुष्य को तो पता ही नहीं कि उसके पास भी पंख हैं और वह भी उड़ सकता है किसी आकाश में। सुना तो मनुष्यों ने भी, लेकिन वे नहीं सुन पाए। सिर्फ सुनने से ही तो कोई नहीं सुन पाता है। अकेले सुनने से ही अगर आदमी सुन लेता होता तो अब तक सारे मनुष्य कभी के मुक्त हो गए होते।
महावीर भी चिल्लाते हैं, बुद्ध भी चिल्लाते हैं, क्राइस्ट भी चिल्लाते हैं, कृष्ण भी चिल्लाते हैं, सुनता कौन है?
वह फकीर गांव में चिल्लाता रहा--सुना एक पक्षी ने, आदमियों ने नहीं!
और उस पक्षी ने उसी दिन सत्य का एक छोटा सा प्रयोग किया।
सम्राट महल के भीतर था, कोई मिलने आया था। और पहरेदारों से सम्राट ने कहलवाया कि कह दो कि सम्राट घर पर नहीं है। उस पक्षी ने चिल्ला कर कहा कि नहीं, सम्राट घर पर है। और यह सम्राट ने ही कहलवाया है पहरेदारों से कि कह दो कि मैं घर पर नहीं हूं।
सम्राट तो बहुत नाराज हुआ।
सत्य से सभी लोग नाराज होते हैं। क्योंकि सभी लोग असत्य में जीते हैं। और वे जो सम्राट हैं--चाहे सत्ता के, चाहे धन के, चाहे धर्मों के, जिनके हाथ में किसी तरह की सत्ता है, वे तो सत्य से बहुत नाराज होते हैं। क्योंकि सत्ता हमेशा असत्य के सिंहासन पर विराजमान होती है। इसलिए सत्ताधिकारी सत्य को सूली पर चढ़ा देते हैं। क्योंकि सत्य अगर जीवित रहे तो सत्ताधिकारियों की सूली बन सकता है।
सम्राट ने कहा: इस पक्षी को तत्क्षण महल के बाहर कर दो।
महलों में सत्य का कहां निवास! वृक्षों पर बसेरा हो सकता है, लेकिन महलों में बसेरा सत्य के लिए बहुत कठिन है।
वह पक्षी निकाल कर बाहर कर दिया। लेकिन उस पक्षी को तो मन की मुराद मिल गई। वह आकाश में नाचने लगा। और उसने कहा: ठीक कहा था उस फकीर ने कि अगर मुक्त होना है तो सत्य एकमात्र द्वार है।
वह पक्षी तो नाचता था। लेकिन एक तोता एक वृक्ष पर बैठ कर रोने लगा और कहा: पागल पक्षी, तू नाचता है सोने के पिंजड़े को छोड़ कर! सौभाग्य से ये पिंजड़े मिलते हैं। ये सभी को नहीं मिलते। पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण मिलते हैं। हम तो तरसते थे उस पिंजड़े के लिए, लेकिन तू नासमझ है; पिंजड़ों में रहने की भी कला होती है।
पिंजड़े में रहने की पहली कला यह है कि मालिक जो कहे, वही कहना। यह मत सोचना कि वह सच है या झूठ। जिसने सोचा, वह फिर पिंजड़ों में नहीं रह सकता। क्योंकि विचार विद्रोह है, और जिसके जीवन में विचार का जन्म हो जाता है, वह परतंत्र नहीं रह सकता है।
तूने विचार क्यों किया पागल पक्षी? विचार करना बहुत खतरनाक है। समझदार लोग कभी विचार नहीं करते हैं। समझदार लोग अपने कारागृहों में रहते हैं और अपने कारागृह को ही भवन समझते हैं, मंदिर समझते हैं। अगर ज्यादा ही तकलीफ थी तो भीतर से अपने पिंजड़े के सींकचों को सजा लेना था। सजाया हुआ पिंजड़ा घर जैसा मालूम पड़ने लगता है। और ध्यान रहे, अनेक लोग पिंजड़ों को सजा कर घर समझते रहते हैं; क्योंकि उन्होंने सजा लिया है। लेकिन सजाने से पिंजड़े में कोई फर्क नहीं पड़ता।
उस पक्षी ने तो सुना ही नहीं, वह तो खुशी से नाच रहा था, उसके पंख हवाओं में तौल रहा था! खुले आकाश में आ गया था!
लेकिन उस तोते ने कहा कि अगर पिंजड़े में रहने का मजा लेना है तो तोतों से कला सीखो। हम वही कहते हैं, जो मालिक कहते हैं। हम कभी वह नहीं कहते, जो सच है। हम इसकी चिंता ही नहीं करते हैं कि सत्य क्या है। हम तो वही कहते हैं, जो मालिक कहता है--वही हम कहते हैं। मालिक क्या करता है, यह नहीं कहना है। अपनी आंख से देखना नहीं है, अपने विचार से सोचना नहीं है। मालिक की आंख से देखना और मालिक के विचार से सोचना। तोता यह सब चिल्लाता रहा। और खुले पिंजड़े में जहां से पक्षी छूट गया था, तोता जाकर भीतर बैठ गया। पिंजड़े को द्वारपाल ने बंद कर दिया।
वह तोता अब भी उस महल के पिंजड़े में है। वह वही कहता है, जो मालिक कहते हैं। वह सदा वहीं बंद रहेगा, क्योंकि मुक्त होने का एक ही रास्ता है--सत्य। और तोते और सब-कुछ बोलते हैं, लेकिन सत्य कभी नहीं बोलते।
और तोते तो ठीक ही हैं, आदमियों में भी तोतों की इतनी बड़ी तादाद है जिसका कोई हिसाब नहीं। ये तोते भी वही बोलते हैं, जो मालिक कहते हैं। हजारों-हजारों साल से, ये वही बोलते चले जाते हैं, जो मालिक कहते हैं।
शास्त्रों के नाम पर तोते बैठ गए हैं, संप्रदायों के नाम पर तोते बैठ गए हैं, मंदिरों के नाम पर तोते बैठ गए हैं। सारी दुनिया, सारी आदमियत तोतों की आवाज से परेशान है। उन्हीं की आवाज सुन-सुन कर हम सब भी धीरे-धीरे तोते हो जाते हैं। और हमें पता ही नहीं रहता कि एक खुला आकाश भी है, हमारे पास पंख भी हैं, आत्मा भी है, मुक्ति भी है।
अगर परतंत्रता में शांति से जीना हो तो कभी सत्य का नाम भी मत लेना। अगर परतंत्रता को ही जीवन समझना हो तो सत्य की तरफ कभी आंख मत उठाना। और अगर कोई आदमी सत्य की बातें करे तो उसे दुश्मन समझना, क्योंकि सत्य खतरनाक है, क्योंकि सत्य स्वतंत्रता की तरफ ले जाता है।
स्वतंत्रता में बड़ी असुरक्षा है। परतंत्रता में बड़ी सुरक्षा है।
कहां पिंजड़े की कितनी सुरक्षा है--न आंधी-पानी का कोई भय है, न आकाश में उठते हुए तूफानों का कोई डर है, न बरसते हुए बादल, न कड़कती हुई बिजलियां। नहीं, कोई भय नहीं है। पिंजड़े के भीतर आदमी बिलकुल सुरक्षित है।
खुले आकाश में बड़े भय हैं। छोटा सा पक्षी और इतना बड़ा आकाश! तूफान भी उठते हैं, वहां आंधियां भी आती हैं; कोई बचाने वाला भी नहीं, कोई सुरक्षा भी नहीं।
परतंत्रता बड़ी सुरक्षित है, परतंत्रता बड़ी सिक्योर्ड है; स्वतंत्रता बहुत असुरक्षित है, स्वतंत्रता बड़ी इनसिक्योरिटी है। इसीलिए तो अधिक लोग परतंत्र होने को राजी हो गए हैं।
सुरक्षा चाहते हैं तो अपने मन में पूछ लेना कि परतंत्रता चाहते हैं? अगर सुरक्षा चाहते हैं तो सत्य की बात भी मत करना। सुरक्षा चाहते हैं तो परतंत्रता ही ठीक है। राजनीति की परतंत्रता हो कि धर्म की; अर्थ की परतंत्रता हो कि शब्द की; जिसको सुरक्षा चाहिए उसे परतंत्रता ही ठीक है।
और हम तो यहां इन तीन दिनों में सत्य की खोज का विचार किए बैठे हैं। यह खोज उनके लिए नहीं है, जो सुरक्षित जीवन को सब-कुछ मान लेते हैं। यह खोज उनके लिए है, जिनसे प्राणों में असुरक्षित होने का भय नहीं है। यह खोज उनके लिए है, जो अपने उड़ने के पंखों को नहीं भूल गए हैं, और जो आकाश को नहीं भूल गए हैं, और जिनके प्राणों में कहीं कोई स्मृति चोट मारती रहती है कि तोड़ दो सब बंधन, तोड़ दो सब दीवालें, उड़ जाओ वहां, जहां कोई दीवाल नहीं है, जहां कोई बंधन नहीं है।
लेकिन कितने थोड़े लोग हैं ऐसे? लाख-लाख आंखों में झांको, कभी किसी एक आंख में स्वतंत्रता की प्यास दिखाई पड़ती है। लाख-लाख आदमियों के प्राणों को खटखटाओ, किसी एकाध प्राण से सत्य की कोई झनकार सुनाई पड़ती है।
सारी मनुष्यता को क्या हो गया है?
इस सारी मनुष्यता ने सुरक्षित होने को ही सब-कुछ मान लिया है। सुरक्षा ही हमारा धर्म है--बस किसी तरह सुरक्षित रह लें और जी लें और समाप्त हो जाएं!
मैंने सुना है, एक सम्राट ने एक महल बनाया था। और महल उसने इतना सुरक्षित बनाया था कि उस महल में किसी दुश्मन के आने की कोई संभावना न थी।
हम सब भी इसी तरह के महल जीवन में बनाते हैं, जिसमें कोई दुश्मन न आ सके। जिसमें हम बिलकुल सुरक्षित रह सकें। आखिर आदमी जीवन भर करता क्या है? धन किसलिए कमाता है? ताकि सुरक्षित हो जाए। पद किसलिए कमाता है? ताकि सुरक्षित हो जाए। यश किसलिए कमाता है? ताकि सुरक्षित हो जाए। ताकि जीवन में कोई भय न रह जाए, जीवन निर्भय हो जाए। लेकिन मजा यही है और रहस्य भी यही है कि जितनी सुरक्षा बढ़ती है, उतना ही भय बढ़ता चला जाता है।
उस सम्राट ने भी सब-कुछ जीत लिया था। अब एक ही डर रह गया था कि कभी कोई दुश्मन...क्योंकि जो भी दूसरों को जीतने निकलता है, वह दुश्मन बना लेता है। दूसरों को जीतने निकलने वाला आदमी धीरे-धीरे सबको दुश्मन बना लेता है। हां, जो दूसरों से हारने को तैयार है, वही केवल इस जगत में मित्र बना सकता है।
उसने सारी दुनिया को जीतना चाहा था तो सारी दुनिया दुश्मन हो गई थी। सारी दुनिया दुश्मन हो गई थी तो भय बढ़ गया था। भय बढ़ गया था तो सुरक्षा का आयोजन करना जरूरी था। उसने एक बड़ा महल बनाया। उस महल में केवल एक दरवाजा रखा, खिड़की भी नहीं, द्वार भी नहीं, कोई और कुछ रंध्र भी नहीं कि कहीं कोई दुश्मन भीतर न आ जाए। एक दरवाजा, बड़ा महल था और उस दरवाजे पर हजारों नंगी तलवारों का पहरा था।
पड़ोस का राजा उसके सुरक्षित महल को देखने आया। दूर-दूर तक खबर पहुंच गई थी। पड़ोस का राजा भी देख कर बहुत प्रभावित हुआ। और उसने कहा: बहुत आनंदित हुआ, मैं भी ऐसा ही महल जाकर शीघ्र बनवाता हूं। यह तो बिलकुल सुरक्षित है, इसमें तो कोई खतरा नहीं।
जब पड़ोस का राजा विदा ले रहा था, अपने रथ पर सवार हो रहा था और भवन का मालिक उसे विदा कर रहा था, तब फिर दुबारा उस पड़ोसी राजा ने कहा: बहुत खुश हुआ हूं तुम्हारी समझ-सूझ को देख कर, तुमने अदभुत बात कर ली है। कोई राजा कभी इतना सुरक्षित महल नहीं बना पाया है। मैं भी जल्दी जाकर ऐसा ही महल बनाता हूं। तभी सड़क के किनारे बैठा एक बूढ़ा भिखारी जोर से हंसने लगा। उस भवन के मालिक ने कहा: पागल, तू क्यों हंस रहा है? क्या बात है?
उस बूढ़े भिखारी ने कहा: मालिक, आज मौका आ गया तो मैं कह दूं--कई दिन से यहां रुका हूं कि कभी आप द्वार पर मिल जाएंगे तो आपसे कह दूंगा। एक भूल रह गई है इस महल में। और तो सब ठीक है, एक दरवाजा है, यही गलती है। इससे दुश्मन भीतर जा सकता है। आप भीतर हो जाएं और इस दरवाजे को भी चुनवा दें तो आप बिलकुल सुरक्षित हो जाएंगे। फिर कभी कोई दुश्मन भीतर प्रवेश नहीं कर सकता है।
उस सम्राट ने कहा: पागल, अगर मैं दरवाजे को भी चुनवा दूं और भीतर हो जाऊं तो यह महल नहीं कब्र हो जाएगी?
उस फकीर ने कहा: कब्र यह हो गया है, सिर्फ एक दरवाजा बचा है, उतनी ही कमी है कब्र होने में, उसको भी पूरा कर लें। एक दरवाजा है, दुश्मन घुस सकता है। दुश्मन नहीं तो कम से कम मौत, मौत तो इस दरवाजे से भीतर चली जाएगी। आप ऐसा करें कि भीतर हो जाएं, फिर मौत भी नहीं जा सकती।
लेकिन उस राजा ने कहा: जाने का सवाल नहीं, मौत के जाने के पहले मैं मर जाऊंगा।
उस फकीर ने कहा: तो फिर ठीक से समझ लें। जितने ज्यादा दरवाजे थे इस महल में, उतना ही जीवन था आपके पास। जितने दरवाजे कम हुए, उतना ही जीवन कम हो गया। अब एक दरवाजा बचा है, थोड़ा सा जीवन बचा है। इसको भी बंद कर दें, वह भी समाप्त हो जाएगा। इसलिए कहता हूं, एक भूल रह गई है इसमें।
और फिर वह जोर-जोर से हंसने लगा। कहने लगा: महाराज, कभी मेरे पास भी महल थे। फिर मैंने यह अनुभव किया कि महल कारागृह बन जाते हैं, तो धीरे-धीरे दरवाजे बड़े करता गया, सब दीवालें अलग करता गया। फिर यह खयाल आया कि चाहे कितने ही दरवाजे कम करूं, ज्यादा करूं, दीवालें तो रह ही जाएंगी। तो फिर मैं दीवालों के बाहर ही निकल आया। अब खुले आकाश में हूं और अब पूरी तरह जीवित हूं।
लेकिन हम सबने भी अपनी-अपनी सामर्थ्य से अपनी-अपनी दीवालें बना ली हैं। और वे जो दीवालें दिखती हैं--पत्थर और मिट्टी की दीवालें, वे इतनी खतरनाक नहीं हैं, क्योंकि दिखाई पड़ती हैं। और बारीक दीवालें हैं और सूक्ष्म दीवालें हैं। और पारदर्शी, ट्रांसपेरेंट, जो दिखाई नहीं भी पड़तीं, कांच की दीवालें हैं। विचार की दीवालें हैं, सिद्धांतों की, शास्त्रों की दीवालें हैं--वे बिलकुल दिखाई नहीं पड़तीं। वे हमने अपनी आत्मा के चारों तरफ खड़ी कर ली हैं, ताकि हम सुरक्षित अनुभव करें।
और जितनी ज्यादा ये दीवालें हमने अपनी आत्मा के पास इकट्ठी कर ली हैं, उतने ही हम सत्य के खुले आकाश से दूर हो गए हैं। फिर तड़फते हैं प्राण, छटपटाती है आत्मा। लेकिन जितनी छटपटाती है, उतनी ही हम दीवालें मजबूत करते चले जाते हैं। डर लगता है--कि शायद यह घबड़ाहट, यह छटपटाहट दीवालों की कमी के कारण तो नहीं है? दीवालों के कारण ही है।
आदमी की आत्मा जब तक परतंत्र है, तब तक कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकती है।
परतंत्रता के अतिरिक्त और कोई दुख नहीं है।
और ध्यान रहे, जो परतंत्रता दूसरा व्यक्ति आपके ऊपर थोपता है, वह परतंत्रता कभी वास्तविक नहीं होती। जो परतंत्रता दूसरा थोपता है, वह बाहर से ज्यादा नहीं होती है, वह आपके भीतर कभी नहीं पहुंचती। लेकिन जो परतंत्रता आप स्वयं स्वीकार कर लेते हैं, वह आपकी आत्मा तक प्रविष्ट हो जाती है। और हमने बहुत तरह की परतंत्रताएं स्वयं स्वीकार कर ली हैं।
किसने कहा आपसे कि आप हिंदू हैं? और किसने कहा आपसे कि आप मुसलमान हैं? और किसने कहा कि गांधी से बंध जाओ? और किसने कहा कि बुद्ध से बंध जाओ? और किसने कहा कि मार्क्स से बंध जाओ? किसने कहा है बंधने के लिए? नहीं, किसी ने नहीं, आप ही अपने हाथ से बंध गए हैं। कौन बांधता है गीता से? कौन बांधता है कुरान से? कौन बांधता है बाइबिल से? कोई नहीं, आप अपने आप ही बंध गए हैं।
कुछ गुलामियां हैं, जो दूसरे हम पर थोपते हैं। कुछ गुलामियां हैं, जो हम खुद स्वीकार कर लेते हैं। जो गुलामियां दूसरे हम पर थोपते हैं, वे हमारे शरीर से ज्यादा और गहराई तक नहीं जाती हैं। लेकिन जो गुलामियां हम स्वीकार कर लेते हैं, वे हमारी आत्मा तक को बांध लेती हैं। और ऐसे हम सब परतंत्र हैं।
इस परतंत्र चित्त को लेकर सत्य की खोज कैसे हो सकती है? इस बंधे हुए चित्त को लेकर यात्रा कैसे हो सकती है? इस सब तरफ से जंजीरों से भरे हुए प्राणों को लेकर कहां उठेंगे आकाश की तरफ? बहुत भारी जंजीरें हैं।
वृक्ष बंधे हैं जमीन से, क्योंकि उनकी जड़ें जमीन में हैं। आदमी चलते-फिरते मालूम पड़ते हैं, झूठ है यह चलना-फिरना, क्योंकि उनकी आत्मा की जड़ें वृक्षों से भी ज्यादा जमीन के भीतर घुसी हुई हैं। वह जमीन परंपरा की है, वह जमीन समाज की है। उस जमीन में हमारी आत्मा की जड़ें कसी हुई हैं। वहां से जब तक अपरूटेड, वहां से जब तक जड़ें न उखड़ आएं, जब तक वहां की जंजीरें न टूट जाएं, तब तक सत्य की कोई यात्रा नहीं हो सकती है।
सत्य की यात्रा के पहला सूत्र पर इसलिए आज आपसे बात करना चाहता हूं। और वह यह कि ठीक से यह अनुभव कर लेना कि हम एक गुलाम हैं। आदमी एक गुलाम है। किसका? अपनी ही मूढ़ता का, अपनी ही जड़ता का, अपने ही अज्ञान का, अपनी ही नासमझी का।
हम अपने ही कारण गुलाम हैं और यह गुलामी हमें बहुत स्पष्ट रूप से अनुभव हो जानी चाहिए, तो हम इसे तोड़ने के लिए भी कुछ कर सकते हैं।
सबसे अभागा गुलाम वह होता है, जिसे यह पता ही नहीं होता कि मैं गुलाम हूं। सबसे अभागा गुलाम वह होता है, जो समझता है कारागृह को अपना घर। सबसे बड़ा गुलाम वह होता है, जो जंजीरों को आभूषण समझ लेता है। क्योंकि जब जंजीर आभूषण समझ ली जाती है, तब उसे हम तोड़ते नहीं, सम्हालते हैं।
मैंने सुना है, एक जादूगर था और वह जादूगर भेड़ों को बेचने का काम करता था। भेड़ें पाल रखी थीं उसने, और उनको बेचता था, उनके मांस को बेचता था। उनकी हत्या करता...उन्हें खिला-पिला कर मोटा करता था, जब वे भेड़ें चरबी से भर जातीं, मांस से, तब उनको काट कर बेच देता था। लेकिन उसने सारी भेड़ों को बेहोश करके एक बात सिखा दी थी। वह बहुत होशियार आदमी रहा होगा। उसने उन सारी भेड़ों को बेहोश करके, हिप्नोटाइज करके एक बात सिखा दी थी कि तुम भेड़ नहीं हो, तुम शेर हो। तो वे सारी भेड़ें अपने को शेर समझती थीं। हालांकि दूसरी भेड़ों को हर भेड़ भेड़ समझती थी, खुद को शेर समझती थी। इसलिए दूसरी भेड़ें जब कटती थीं, तो वे अपने मन में सोचती थीं कि हम तो शेर हैं, हमारे कटने का तो कोई सवाल नहीं है। जो भेड़ हैं, वह कटते हैं, वह कट रहे हैं।
और इसलिए हर रोज भेड़ें कटती जाती थीं, लेकिन बाकी भेड़ों को जरा भी चिंता सवार नहीं होती थी। वे अपने को शेर ही समझती चली जाती थीं। जब उनकी कटने की बारी आती थी, तभी पता चलता था कि बुरा हुआ। लेकिन तब बहुत समय बीत चुका होता था, तब कुछ भी नहीं किया जा सकता था। भागने का वक्त निकल चुका था। अगर उन्हें दूसरी भेड़ों को कटते देख कर खयाल में आ गया होता कि हम भी भेड़ हैं, तो शायद वे भेड़ें भाग गई होतीं। उन्होंने बचाव का कोई उपाय कर लिया होता। लेकिन उनको यह भ्रम था कि हम शेर हैं।
जब भेड़ अपने को शेर समझ ले, तब उससे कमजोर भेड़ खोजनी दुनिया में बहुत मुश्किल है, क्योंकि उसे यह खयाल ही मिट गया कि मैं भेड़ हूं!
उस जादूगर से किसी ने कहा कि तुम्हारी भेड़ें भागती नहीं? उसने कहा: मैंने उनके साथ वही काम किया है, जो हर आदमी ने अपने साथ कर लिया है। जो हम नहीं हैं, वही हमने समझ लिया है। जो ये नहीं हैं, वही मैंने इनको समझा दिया है।
हर आदमी अपने को समझता है कि मैं स्वतंत्र हूं! इससे बड़ा झूठ और कुछ भी नहीं हो सकता। और जब तक आदमी यह समझता रहता है कि मैं स्वतंत्र हूं, मैं एक स्वतंत्र आत्मा हूं, तब तक, तब तक वह आदमी स्वतंत्रता की खोज में कुछ भी नहीं करेगा।
इसलिए पहला सत्य समझ लेना जरूरी है कि हम परतंत्र हैं। हम का मतलब पड़ोसी नहीं, हम का मतलब मैं। हम का मतलब यह नहीं कि और लोग जो मेरे आस-पास बैठे हों--वे नहीं, मैं।
मैं एक गुलाम हूं और इस गुलामी की जितनी पीड़ा है, उस पूरी पीड़ा को अनुभव करना जरूरी है। इस गुलामी के जितने आयाम हैं, जितने डाइमेन्शंस हैं, जितनी दिशाओं से यह गुलामी पकड़े हुए है, उन दिशाओं का भी अनुभव कर लेना जरूरी है। किस-किस रूप में यह गुलामी छाती पर सवार है, उसे समझ लेना जरूरी है। इस गुलामी की क्या-क्या कड़ियां हैं, वे देख लेना जरूरी है। जब तक हम इस आध्यात्मिक दासता से, स्प्रिचुअल स्लेवरी से पूरी तरह परिचित नहीं हो जाते, तब तक इसे तोड़ा नहीं जा सकता।
अगर कोई कैदी किसी कारागृह से भागना चाहे तो सबसे पहले क्या करेगा? सबसे पहले तो उसे यह समझना होगा कि मैं कैदी हूं, कारागृह में हूं। और दूसरी बात यह करनी पड़ेगी कि कारागृह की एक-एक दीवाल, एक-एक कोने से परिचित होना पड़ेगा, क्योंकि जिस कारागृह से निकलना हो, उससे बिना परिचित हुए कोई कभी नहीं निकल सकता है। जिस कारागृह से निकल जाना है, उस कारागृह का परिचय जरूरी है। उससे जो जितना ज्यादा परिचित होगा, उतनी ही आसानी से कारागृह के बाहर हो सकता है।
इसलिए कारागृह के मालिक कभी भी कैदी को कारागृह की दीवालों, कोनों से परिचित नहीं होने देते हैं। कारागृह से परिचित कैदी खतरनाक है। वह कभी भी कारागृह से बाहर हो सकता है। क्योंकि ज्ञान सदा मुक्त करता है। कारागृह का ज्ञान भी मुक्त करता है। इसलिए कारागृह से परिचित होना बहुत खतरनाक है मालिकों के लिए।
और कारागृह से अगर अपरिचित रखना हो कैदी को तो सबसे पहली तरकीब यह है कि उसे समझाओ कि यह कारागृह नहीं है, भगवान का मंदिर है। यह कारागृह है ही नहीं। और उसे समझाओ कि तुम कैदी नहीं हो, तुम तो एक स्वतंत्र व्यक्ति हो। और उसे समझाओ कि इतनी ही तो दुनिया है, जितनी इस दीवाल के भीतर दिखाई पड़ती है। इसके बाहर कोई दुनिया ही नहीं है। बाहर कोई दुनिया ही नहीं है, बस यही सब-कुछ है। और उसे समझाओ कि अगर तकलीफ होती है तो दीवालों को लीपो, पोतो, साफ करो। दीवालें गंदी हैं, इसलिए तकलीफ होती है। दीवालों को साफ-सुथरा करो--कारागृह की दीवालों को। और अगर तकलीफ होती है तो उसका मतलब है कि बगीचा लगाओ कारागृह के भीतर, फूल-फुलवारी लगाओ; सुगंध आने लगेगी, आनंद आने लगेगा। कारागृह को सजाओ--अगर तकलीफ है तो काराग्रह को सजा लो, क्योंकि यह कारागृह नहीं है, यह तो घर है।
और जो कैदी इन बातों को मान लेगा, वह कैदी कभी मुक्त हो सकता है? उसके मुक्त होने का सवाल ही समाप्त हो जाता है। और हमने ऐसी ही बातें मान ली हैं!
पहली तो बात हमें यह स्मरण ही नहीं कि हम कारागृह में बंद हैं। जन्म के बाद मृत्यु तक हम न मालूम कितने तरह के कारागृहों में बंद हैं। सब तरफ दीवालें हैं, लेकिन दीवालें कारागृह की नहीं हैं। जब एक हिंदू कहता है कि मैं हिंदू हूं, जब एक मुसलमान कहता है कि मैं मुसलमान हूं, तो वह इस तरह नहीं कहता कि मैं मुसलमान की दीवाल के भीतर बंद हूं। वह अकड़ से कहता है कि जैसे मुसलमान होना, हिंदू होना, जैन होना कोई बड़ी कीमत की बात है। जब एक आदमी कहता है मैं भारतीय हूं और एक आदमी कहता है मैं चीनी हूं, तो बहुत अकड़ से कहता है। उसे पता ही नहीं कि ये भी दीवालें हैं और रोकती हैं बड़ी मनुष्यता से मिलने से।
जो भी चीज रोकती है, वह दीवाल है।
अगर मैं आपसे मिलने से रुकता हूं तो जो भी चीज बीच में खड़ी है, वह दीवाल है। हिंदू-मुसलमानों के बीच कोई रोकता है तो दीवाल है। हिंदुस्तानी और चीनी के बीच अगर कोई रोकता है तो दीवाल है। अगर शूद्र और ब्राह्मण के बीच मिलने में बाधा पड़ती है तो कोई दीवाल है--चाहे व दिखाई पड़ती हो कि न दिखाई पड़ती हो। जहां भी बीच में मिलन में कोई चीज आड़े आती है वहां दीवाल है।
और आदमी-आदमी के आस-पास कितनी दीवालें हैं, कितनी तरह की दीवालें हैं! लेकिन वे दीवालें ट्रांसपेरेंट हैं, कांच की दीवालें हैं, उनके आर-पार दिखाई पड़ता है, तो हमें शक नहीं होता कि दीवाल बीच में है। पत्थर की दीवाल के आर-पार दिखाई नहीं पड़ता। हिंदू और मुसलमान की दीवाल के आर-पार दिखाई पड़ता है। उस दिखाई पड़ने के कारण खयाल होता है कि कोई दीवाल बीच में नहीं है। इसीलिए पारदर्शी दीवलें बड़ी खतरनाक हैं। उनके आर-पार दिखाई भी पड़ता है, लेकिन हाथ नहीं बढ़ा सकते। हिंदू की तरफ से मुसलमान की तरफ कहीं हाथ बढ़ सकता है? बीच में दीवाल आ जाएगी, हाथ यहीं मुड़ कर वापस लौट आएगा। शूद्र का और ब्राह्मण के बीच कोई मिलन हो सकता है? कोई मिलन वहां नहीं है।
लेकिन यह हमें खयाल में नहीं आता कि ये हमारे कारागृह हैं। सिद्धांतों की दीवालें हैं। हमें खयाल ही नहीं है कि हर आदमी अपने-अपने सिद्धांतों में बंद होकर बैठ जाता है, फिर उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
रूस में वे समझाते हैं कि ईश्र्वर नहीं है। वहां का बच्चा यही सुन कर बड़ा होता है कि ईश्र्वर नहीं है। उसकी आत्मा के चारों तरफ एक लक्ष्मण-रेखा खिंच जाती है--ईश्र्वर नहीं है। अब वह इसी लक्ष्मण-रेखा के भीतर जीवन भर जीएगा--ईश्र्वर नहीं है। और जब भी दुनिया को देखेगा तो इसी घेरे के भीतर से देखेगा कि ईश्र्वर नहीं है। अब इस घेरे को लेकर ही वह चलेगा।
ये जो बाहर के कारागृह हैं, इनके भीतर आपको बंद होना पड़ता है, इनको लेकर आप नहीं चल सकते हैं। ये जो आत्मा के कारागृह हैं, ये बहुत अदभुत हैं। आप जहां भी जाइए, ये आपके चारों तरफ चलते हैं, ये आपके साथ ही चलते हैं।
अब जिस आदमी के दिमाग में यह खयाल बैठ गया कि ईश्र्वर नहीं है, अब यह आदमी इसी खयाल की दीवाल में बंद जिंदगी भर जीएगा। इसे कहीं भी ईश्र्वर दिखाई नहीं पड़ सकता है, क्योंकि आदमी को वही दिखाई पड़ सकता है जो देखने की उसकी तैयारी हो। और इस आदमी की देखने की तैयारी कुंठित हो गई, बंद हो गई, इस आदमी ने तय कर लिया कि ईश्र्वर नहीं है। अब इसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा।
लेकिन आप कहेंगे कि इससे तो हम बेहतर हैं, जो मानते हैं कि ईश्र्वर है। हम भी उतनी ही बदतर हालत में हैं। क्योंकि जिस आदमी ने यह तय कर लिया कि ईश्र्वर है, अब वह फिर कभी आंख उठा कर खोज-बीन नहीं करेगा कि वह कहां है! मान कर बैठ गया कि है और खत्म हो गया। अब वह समझ रहा कि है, बात खत्म हो गई। अब और क्या करना है?
जिसने मान लिया कि है, वह ‘है’ में बंद हो जाता है। जिसने मान लिया कि नहीं है, वह ‘नहीं है’ में बंद हो जाता है। एक नास्तिकता में बंद हो जाता है, एक आस्तिकता में बंद हो जाता है। दोनों की अपनी खोल हैं।
लेकिन सत्य की खोज वह आदमी करता है, जो कहता है, मैं खोल क्यों बनाऊं? मुझे अभी पता ही नहीं है कि ‘है’ या ‘नहीं।’ मैं कोई खोल नहीं बनाता। मैं बिना खोल के, बिना दीवाल के खोज करूंगा। मुझे पता नहीं है। इसलिए मैं किसी सिद्धांत को अपने साथ जकड़ने को राजी नहीं हूं। किसी भी तरह का सिद्धांत आदमी को बांध लेता है और सत्य की खोज मुश्किल हो जाती है।
एक फकीर एक गांव में ठहरा हुआ था। उस गांव के लोगों ने उस फकीर को कहा कि तुम आकर हमें नहीं बताओगे क्या कि ईश्र्वर है या नहीं? उस फकीर ने कहा: ईश्र्वर! ईश्र्वर से तुम्हें क्या प्रयोजन हो सकता है? अपना काम करो।
ईश्र्वर से किसी को भी कोई प्रयोजन नहीं है। अगर ईश्र्वर से कोई प्रयोजन होता तो यह दुनिया बिलकुल दूसरी दुनिया होती। यह ऐसी दुनिया नहीं हो सकती--इतनी कुरूप, इतनी गंदी, इतनी बेहूदी! जहां ईश्र्वर से हमारा प्रयोजन होता, हमने यह सारी दुनिया और तरह की कर ली होती। लेकिन ईश्वर से हमें कोई प्रयोजन नहीं है। वे जो मंदिरों में बैठे हैं, उन्हें भी नहीं है। वे जो पुजारी और साधु और संन्यासियों का गिरोह और जत्था खड़ा हुआ है, उन्हें भी नहीं है। वे जो लोग नारियल फोड़ रहे हैं दीवालों के सामने, पत्थरों के सामने, उन्हें भी नहीं है। अगर ईश्र्वर से हमें मतलब होता तो यह दुनिया बिलकुल दूसरी हो गई होती। क्योंकि ईश्र्वर से मतलब रखने वाली दुनिया इतनी गंदी और कुरूप नहीं हो सकती।
उस फकीर ने कहा: क्या मतलब है तुम्हें ईश्र्वर से? अपना काम-धाम देखो, बेकार समय मत गंवाओ।
लेकिन वे लोग नहीं माने। उन्होंने कहा: आज छुट्टी का दिन है और आप जरूर चलें।
फकीर ने कहा: अब मैं समझा, चूंकि छुट्टी का दिन है, इसलिए ईश्र्वर की फिकर करने आए हो!
छुट्टी के दिन ही लोग ईश्र्वर की फिकर करते हैं। क्योंकि जब कोई काम नहीं होता और आदमी से बेकाम नहीं बैठे रहा जाता तो कुछ न कुछ करता है। ईश्र्वर के लिए कुछ करता है। बेकाम आदमी कुछ न कुछ करता है--माला ही फेरता है।
उस फकीर ने कहा: अच्छा, छुट्टी का दिन है, तब ठीक है, मैं चलता हूं। लेकिन...लेकिन ईश्र्वर के संबंध में कहूंगा क्या? क्योंकि ईश्र्वर के संबंध में तो आज तक कुछ भी नहीं कहा जा सका। जिन्होंने कहा है, उन्होंने गलती की। जो जानते थे, वे चुप रह गए। अब मैं मूर्ख बनूंगा, अगर मैं कुछ कहूं। क्योंकि उससे सिद्ध होगा कि मैं नहीं जानता हूं। और तुम कहते हो कि कुछ कहो। खैर, मैं चलता हूं।
वह मस्जिद में गया। उस गांव के लोगों ने बड़ी भीड़ इकट्ठी कर ली। भीड़ को देख कर बड़ा भ्रम पैदा होता है। ईश्र्वर को समझने के लिए भीड़ इकट्ठी हो जाए तो भ्रम पैदा होता है कि लोग ईश्र्वर को समझना चाहते हैं।
उस फकीर ने कहा: इतने लोग ईश्र्वर में उत्सुक हैं तो मैं एक प्रश्र्न पूछ लूं पहले, तुम ईश्र्वर को मानते हो? ईश्र्वर है?
सारे गांव के लोगों ने हाथ उठा दिए ऊपर कि हम ईश्र्वर को मानते हैं ईश्र्वर है।
उस फकीर ने कहा: फिर बात खत्म। जब तुम्हें पता ही है, तो मेरे बोलने की अब कोई जरूरत नहीं। मैं वापस जाता हूं!
गांव के लोग मुश्किल में पड़ गए। अब कुछ उपाय भी न था। कह चुके थे, जानते तो नहीं थे। लेकिन कह चुके थे कि जानते हैं, हाथ हिला दिया था। अब एकदम इनकार करेंगे तो ठीक भी नहीं है।
कौन जानता है? आप जानते हैं? लेकिन अगर कोई पूछेगा, ईश्र्वर है? तो आप भी हाथ उठा देंगे। ये हाथ झूठ हैं। और जो आदमी ईश्र्वर के सामने तक झूठ बोलता है, उसकी जिंदगी में अब सच का कोई उपाय नहीं हो सकता। जो ईश्र्वर के लिए तक झूठी गवाही दे सकता है कि हां, मैं जानता हूं, ईश्र्वर है! और उसे कोई भी पता नहीं। उसकी जिंदगी में कहीं कोई किरण नहीं उतरी ईश्र्वर की। उसकी जिंदगी में कहीं कोई चिराग नहीं जला ईश्र्वर का। उसकी जिंदगी में कभी कोई प्रार्थना नहीं आई ईश्र्वर की। उसकी जिंदगी में कभी कोई फूल नहीं खिला ईश्र्वर का और वह कहता है कि हां, ईश्र्वर है! और कभी भीतर नहीं देखता कि मैं सरासर झूठ बोल रहा हूं, मुझे कुछ भी पता नहीं है!
बाप बेटों से झूठ बोल रहे हैं। गुरु शिष्यों से झूठ बोल रहे हैं। धर्मगुरु अनुयायियों से झूठ बोल रहे हैं। और उन्हें कुछ भी पता नहीं कि वह है या नहीं। किसकी बात कर रहे हो? उनको अगर जोर से हिला दो तो उनका सब ईश्र्वर बिखर जाएगा। भीतर से कहीं कोई आवाज न आएगी कि वह है। शायद जब वे आपसे कह रहे हैं कि है, तभी उनके भीतर कोई कह रहा है कि अजीब बात कर रहे हो, पता तो तुम्हें बिलकुल नहीं है।
उस फकीर ने कहा: जब तुम्हें पता ही है, तो बात खत्म हो गई। लेकिन मैं हैरान हूं, इस गांव में ईश्र्वर को जानने वाले इतने लोग हैं, तो यह गांव दूसरी तरह का हो जाना चाहिए था! लेकिन तुम्हारा गांव वैसा ही है, जैसे मैंने दूसरे गांव देखे।
गांव के लोग बहुत चिंतित हुए। उन्होंने कहा: अब क्या करें? उन्होंने कहा: अगली बार फिर हम चलें। अगले शुक्रवार को उन्होंने फिर फकीर के पैर पकड़ लिए और कहा: आप चलें और ईश्र्वर को समझाएं।
उसने कहा: लेकिन मैं पिछली बार गया था और तुमने कहा था कि ईश्र्वर को तुम जानते हो। बात खत्म हो गई, अब उसके आगे बताने को कुछ भी नहीं बचता। जो ईश्र्वर को ही जान लेता है, उसके आगे जानने को कुछ बचता है फिर?
उन लोगों ने कहा: महाशय, वे दूसरे लोग रहे होंगे। हम गांव के दूसरे लोग हैं। आप चलिए और हमें समझाइए। हमें कुछ भी पता नहीं। ईश्र्वर को हम मानते ही नहीं।
उस फकीर ने कहा: धन्यवाद, तेरा परमात्मा! ये वही के वही लोग हैं। शक्लें मेरी पहचानी हुई हैं। लेकिन ये बदल रहे हैं!
असल में धार्मिक आदमी के बदलने में देर नहीं लगती। धार्मिक आदमी से ज्यादा बेईमान आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। वह जरा में बदल सकता है। दुकान पर वह कुछ और होता है, मंदिर में कुछ और हो जाता है। मंदिर में कुछ और होता है, बाहर निकलते ही कुछ और हो जाता है।
बदलने की कला सीखनी हो तो उन लोगों से सीखो जो मंदिर जाते हैं। क्षण भर में उनकी आत्मा दूसरी कर लेते हैं वे! फिल्मों के अभिनेता भी इतने कुशल नहीं हैं, क्योंकि वे भी सिर्फ चेहरा बदल पाते हैं, कपड़े, रंग-रोगन। लेकिन मंदिरों में जाने वाले लोग आत्मा तक को बदल लेते हैं। दुकान पर वही आदमी, उसकी आंखों में झांको, कुछ और मालूम पड़ेगा। वही आदमी मंदिर में जब माला फेर रहा हो, तब देखो तो मालूम पड़ेगा कि यह आदमी कोई और ही है। फिर घड़ी भर बाद वह आदमी दूसरा आदमी हो जाता है।
वह जो घड़ी भर पहले कुरान पढ़ रहा था मस्जिद में, इस्लाम खतरे में देख कर किसी कि छाती में छुरा भोंक सकता है। वह जो घड़ी भर पहले गीता पढ़ रहा था, घड़ी भर बाद हिंदू धर्म के लिए किसी के मकान में आग लगा सकता है। धार्मिक आदमी के बदल जाने में देर नहीं लगती। और जब तक ऐसे बदल जाने वाले आदमी दुनिया में धार्मिक समझे जाते रहेंगे, तब तक दुनिया से अधर्म नहीं मिट सकता।
उस फकीर ने कहा: धन्यवाद है भगवान! बदल गए ये लोग! ठीक है! जब दूसरे ही हैं, तो मैं चलूंगा। वह गया। वह मस्जिद में खड़ा हुआ और उसने कहा कि दोस्तो, मैं फिर वही सवाल पूछता हूं, क्योंकि दूसरे लोग आज आए हुए हैं। हालांकि सब चेहरे मुझे पहचाने हुए मालूम पड़ रहे हैं। क्या ईश्र्वर है?
उस मस्जिद के लोगों ने कहा: नहीं है, ईश्र्वर बिलकुल नहीं है। ईश्र्वर को हम न मानते हैं, न जानते हैं। अब आप बोलिए।
उस फकीर ने कहा: बात खत्म हो गई। जब है ही नहीं, तो उसके संबंध में बात भी क्या करनी है? प्रयोजन क्या है अब बात करने का? किसके संबंध में पूछते हो मित्रो? जो है ही नहीं उसके संबंध में? कौन ईश्र्वर? कैसा ईश्र्वर?
मस्जिद के लोगों ने कहा: यह तो मुसीबत हो गई। इस आदमी से पार पाना कठिन है।
उसने कहा: जाओ अपने घर। अब कभी भूल कर यहां मस्जिद मत आना। किसलिए आते हो यहां? जो है ही नहीं, उसकी खोज करने? और तुम्हारी खोज पूरी हो गई, क्योंकि तुम्हें पता चल गया कि वह नहीं है। खोज पूरी हो गई, तुमने जान लिया कि वह नहीं है। अब बात खत्म हो गई। अब कोई आगे यात्रा नहीं। मुझे क्षमा कर दो, मैं जाता हूं!
गांव के लोगों ने कहा: क्या करना पड़ेगा? इस आदमी से सुनना जरूरी है। जरूर कोई राज अपने भीतर छिपाए है। यह आदमी कोई साधारण आदमी नहीं है। क्योंकि साधारण आदमी तो बोलने को आतुर रहता है। आप मौका दो और वह बोलेगा। और यह आदमी बोलने के मौके छोड़ कर भाग जाता है। अजीब है, जरूर कुछ बात होगी, कुछ राज है, कहीं कोई मिस्ट्री, कहीं कोई रहस्य है।
फिर तीसरे शुक्रवार उन्होंने जाकर प्रार्थना की कि चलिए हमारी मस्जिद में। लेकिन उसने कहा कि मैं दो बार हो आया हूं और बात खत्म हो चुकी है। उन मस्जिद के लोगों ने कहा: आज तीसरा मामला है, आप चलिए। हम तीसरा उत्तर देने की तैयारी करके आए हैं।
उस फकीर ने कहा कि जो आदमी तैयारी करके उत्तर देता है, उसके उत्तर हमेशा झूठ होते हैं। उत्तर भी कहीं तैयार करने पड़ते हैं? तैयार करने का मतलब है कि उत्तर मालूम नहीं हैं। जिसे मालूम है, वह तैयार नहीं करता। और जिसे मालूम नहीं है, वह तैयार कर लेता है।
और ध्यान रहे, जिन-जिन बातों के उत्तर आपने तैयार किए हैं, उन-उन बातों के उत्तर सब झूठे हैं। जिंदगी में उत्तर आते हैं, तब सच होते हैं। तैयार किए हुए उत्तर कभी सच नहीं होते। सत्य कभी तैयार नहीं किया जा सकता। सत्य आता है, झूठ तैयार किया जाता है। जो हम तैयार करते हैं, वह झूठ होता है। जो आता है, वह सत्य होता है। सत्य, आदमी तैयार नहीं करता है।
आदमी जो भी तैयार करता है, सब झूठ होता है। इसीलिए दुनिया के सारे शास्त्र, दुनिया के सारे संप्रदाय, दुनिया के सारे सिद्धांत, जो आदमी ने बनाए हैं, वे सब झूठ हैं। आदमी सत्य को नहीं बना सकता है।
सत्य तब आता है, जब आदमी का यह भ्रम टूट जाता है कि मैं सत्य को बना सकता हूं। और जब आदमी सब बनाए हुए झूठों को छोड़ देता है, तो सत्य तत्क्षण उत्तर आता है।
उस फकीर ने कहा कि तुमने तैयार किया है उत्तर, तब तो वह निश्र्चित ही झूठ होगा। उस उत्तर को बिना सुने मैं कह सकता हूं कि वह झूठ है। लेकिन अब मैं चलूंगा।
वह तीसरी बार गया। उस गांव के लोग भी बड़े होशियार रहे होंगे। लेकिन होशियारी कभी-कभी महंगी पड़ती है--यह पता नहीं। होशियारी उन चीजों के मामले में बहुत महंगी पड़ जाती है, जहां होशियारी से काम नहीं चलता, जहां सादगी से, सरलता से काम चलता है। सत्य के जगत में होशियारी नहीं काम करती, कनिंगनेस, क्लेवरनेस काम नहीं करती। सत्य की दुनिया में सरलता काम करती है। वहां वे जीत जाते हैं जो सरल हैं और वे हार जाते हैं जो होशियार हैं।
पर गांव के लोग बड़े होशियार थे। उन्होंने बड़ी तैयारी की बात की थी। उन्होंने कहा, आज तो फकीर को फांस ही लेना है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि फकीरों को फांसना मुश्किल है। क्योंकि फकीर का मतलब यह है कि जिसने सब फंसने के रास्ते तोड़ दिए हैं। और उन्हें यह भी पता नहीं कि दूसरे को फांसने में अक्सर आदमी खुद फंस जाता है।
खैर, वह फकीर पहुंच गया और उसने कहा कि दोस्तो, फिर वही सवाल--ईश्र्वर है या नहीं है?
आधी मस्जिद के लोगों ने हाथ उठाए और कहा कि ईश्र्वर है और आधी मस्जिद के लोगों ने हाथ उठाए और कहा कि ईश्र्वर नहीं है। अब हम दोनों उत्तर देते हैं। अब आप बोलिए।
उस फकीर ने हाथ जोड़े आकाश की तरफ और कहा: भगवान, बड़ा मजा है इस गांव में! और कहा: पागलो, जब तुम आधों को पता है कि है और आधों को पता नहीं है, तो आधे उनको बता दें--जिनको पता है वे उनको बता दें जिनको पता नहीं है। तुम मुझे बीच में क्यों ले आते हो? मेरी बीच में क्या जरूरत है? जब इस मस्जिद में दोनों तरह के लोग मौजूद हैं तो आपस में तुम निपटारा करो। मैं जाता हूं।
उस गांव के लोग फिर चौथी बार उस फकीर के पास नहीं गए। चौथा उत्तर खोजने की उन्होंने बहुत कोशिश की, लेकिन चौथा उत्तर नहीं मिल सका। असल में तीन ही उत्तर हो सकते हैं--हां, ना या दोनों। चौथा कोई उत्तर नहीं हो सकता। चौथा क्या उत्तर हो सकता है? तीन ही उत्तर हो सकते हैं।
वह फकीर बहुत दिन रुका रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि शायद वे फिर आएं, लेकिन वे नहीं आए। बाद में किसी ने उस फकीर से पूछा कि क्यों रुके हो यहां?
उसने कहा: मैं रास्ता देखता हूं कि शायद वे चौथी बार आएं, लेकिन वे नहीं आए।
उस आदमी ने कहा: चौथी बार हम कैसे आएं? चौथा उत्तर ही नहीं सूझता है। हम क्या उत्तर देंगे, जब तुम बोलोगे?
उस फकीर ने कहा: अगर मैं बताऊंगा वह उत्तर तो वह भी बेकार हो जाएगा। क्योंकि तुम्हारे लिए फिर वह सीखा हुआ उत्तर हो जाएगा।
उस फकीर ने बाद में अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मैं राह देखता रहा कि शायद उस गांव के लोग आएं और मुझे ले जाएं। और मैं जब सवाल पूछूं, तब वे चुप रह जाएं और कोई भी उत्तर न दें। अगर वे कोई भी उत्तर न दें, तो फिर मुझे बोलना पड़ेगा, क्योंकि उनके उत्तर की चुप्पी बताएगी कि वे खोजने वाले लोग हैं। उन्होंने पहले से कुछ मान नहीं रखा है। वे यात्रा करने के लिए तैयार हैं, वे जा सकते हैं जानने के लिए, उन्होंने कुछ भी मान नहीं रखा है। जिसने मान रखा है, वह जानने की यात्रा पर कभी भी नहीं निकलता है। जिसकी कोई बिलीफ है, जिसका कोई विश्र्वास है, वह कभी सत्य की खोज पर नहीं जाता है।
इसलिए पहली बात आपसे यह कहना चाहता हूं: सत्य की खोज पर वे जाते हैं, जो सिद्धांतों के कारागृह को तोड़ने में समर्थ हो जाते हैं।
हम सब सिद्धांतों में बंधे हुए लोग हैं, शब्दों में बंधे हुए लोग हैं, हम सब शास्त्रों में बंधे हुए लोग हैं--सत्य हमारे लिए नहीं हो सकता है। और ये शास्त्र बड़े सोने के हैं और इन शास्त्रों में बड़े हीरे-मोती भरे हैं। पिंजड़े सोने के भी हो सकते हैं और पिंजड़ों में हीरे-मोती भी लगे हो सकते हैं। लेकिन कोई पिंजड़ा इसलिए कम पिंजड़ा नहीं हो जाता कि वह सोने का है, बल्कि और खतरनाक हो जाता है। क्योंकि लोहे के पिंजड़े को तो तोड़ने का मन होता है, सोने के पिंजड़े को बचाने की इच्छा होती है।
कारागृह में बंधा हुआ चित्त--हम अपने ही हाथ से अपने को बांधे हुए हैं।
यह पहली बात जान लेनी जरूरी है कि जब तक हम इससे मुक्त न हो जाएं, तब तक सत्य की तरफ हमारी आंख नहीं उठ सकती। तब हम वही नहीं देख सकते, जो है। तब तक हम वही देखने की कोशिश करते रहेंगे, जो हम चाहते हैं कि हो। और जब तक हम चाहते हैं कि कुछ हो, तब तक हम वही नहीं जान सकते हैं, जो है। जब तक हमारी यह इच्छा है कि सत्य ऐसा होना चाहिए, तब तक हम सत्य के ऊपर अपनी इच्छा को थोपते चले जाएंगे। जब तक हम कहेंगे कि भगवान ऐसा होना चाहिए--बांसुरी बजाता हुआ, कि धनुषबाण लिए हुए, तब तक हम अपनी ही कल्पना को भगवान पर थोपने की चेष्टा जारी रखेंगे।
और यह हो सकता है कि हमें धनुर्धारी भगवान के दर्शन हो जाएं; और यह भी हो सकता है कि बांसुरी बजाता हुआ कृष्ण दिखाई पड़े; और यह भी हो सकता है कि सूली पर लटके हुए जीसस की हमें तस्वीर दिखाई पड़ जाए। लेकिन ये सब तस्वीरें हमारे ही मन की तस्वीरें होंगी। इनका सत्य से कोई दूर का भी संबंध नहीं है। यह हमारी ही कल्पना का जाल होगा, यह हमारा ही प्रोजेक्शन होगा। यह हमारी ही इच्छा का खेल होगा। यह हमारा ही सपना होगा। और इस सपने को जो सत्य समझ लेता है, फिर तो सत्य से मिलने के उसके मौके ही समाप्त हो जाते हैं।
नहीं, सत्य को तो केवल वे ही जान सकते हैं, जिनकी आत्मा पर कोई सिद्धांत का आग्रह नहीं है। कोई आग्रह नहीं है जिनके मन पर कि यह होना चाहिए। जो कहते हैं, जो भी होगा, हम उसे जानने को तैयार हैं। और उसक ी जानने की तैयारी में हम अपनी सारी जंजीरें खोने को भी तैयार हैं।
और बड़े मजे की बात है, सत्य कहता है कि सिर्फ जंजीरें खो दो और मैं तुम्हें मिल जाऊंगा। सत्य कुछ और नहीं मांगता। सत्य कुछ और नहीं मांगता, सिर्फ जंजीरें मांगता है कि अपनी जंजीरें खो दो और मैं तुम्हें मिल जाऊंगा।
लेकिन हम जंजीरें खोने को ही तैयार नहीं हैं। जंजीरों से भी मोह हो जाता है। और पुरानी जंजीरें हों तो बहुत मोह हो जाता है। बापदादे दे गए हों जंजीरों को तो बहुत मोह हो जाता है। और जंजीरें बेटों को दे जाते हैं बाप, फिर बेटे अपने बेटों को सम्हलवा देते हैं। आदमी मर जाते हैं। जंजीरें पीढ़ी दर पीढ़ी चलती चली जाती हैं। हजारों-हजारों, लाखों-लाखों साल पुरानी जंजीरें हैं। हम भूल ही गए हैं कि हम उनसे बंधे हैं।
लेकिन यह ध्यान में रख लेना आज, पहले सूत्र के लिए जरूरी है: जब तक आपके मन में कोई भी एक सिद्धांत--चाहे आस्तिक का, चाहे नास्तिक का; चाहे कम्युनिस्ट का; चाहे हिंदू का, चाहे मुसलमान का; चाहे ईसाई का--जब तक कोई भी सिद्धांत आपको पकड़े हुए है और आप कहते हैं कि मैं इस सिद्धांत को सही मानता हूं, तब तक आपको सत्य का दर्शन नहीं हो सकता। क्योंकि सत्य के दर्शन के पहले किसी सिद्धांत का सही होने का क्या अर्थ होता है?
जब तक सत्य मुझे नहीं मिला, तब तक मैं कैसे कहूं कि कौन सा शास्त्र सत्य है? अगर मेरी तस्वीर आपने देखी हो और मुझे भी देखा हो तो आप कह सकते हैं कि मेरी कौन सी तस्वीर सच है। लेकिन अगर आपने मुझे न देखा हो और आपके सामने हजार तस्वीरें रख दी जाएं तो क्या आप बता सकते हैं कि इसमें कौन सी तस्वीर सच है? मुझे देखा हो तो आप बता सकते हैं कि तस्वीर कौन सी सच है। लेकिन मुझे न देखा हो तो आप कैसे बता सकते हैं कि कौन सी तस्वीर सच है? फिर आप जिस तस्वीर को भी सच बताएंगे, आप झूठ की यात्रा पर चल रहे हैं।
कौन शास्त्र सत्य है? कैसे पता चलेगा आपको, जब तक आपको सत्य का पता नहीं? कौन सिद्धांत सत्य है? कैसे पता चलेगा? कौन तीर्थंकर? कौन अवतार? कौन ईश्र्वर का पुत्र सत्य है? कैसे पता चलेगा, जब तक आपको सत्य का पता न हो?
सत्य का पता नहीं है और सिद्धांत के सत्य होने का पता चल गया? सत्य का पता नहीं है और शास्त्र के सत्य होने का पता चल गया? फिर हम झूठ से बंध गए। और जो झूठ से बंध गया जो आदमी, इसको अब सत्य पता नहीं चल सकता है।
पहला सूत्र: अपने मन की जंजीरों को गौर से देखना--सिद्धांत की। और अगर हिम्मत जुटा सकें...और यह मजे की बात है कि अगर जंजीर दिखाई पड़ जाए, तो हिम्मत जुटाने में बहुत ताकत नहीं लगानी पड़ती। जंजीर दिखाई नहीं पड़ती, इसलिए हिम्मत जुटाना मुश्किल होता है। एक बार पता चल जाए कि यह रही मेरी गुलामी, तो अपनी गुलामी को कोई बर्दाश्त करने को कभी राजी नहीं होता। फिर उसे तोड़ना आसान हो जाता है।
हम तोड़ने के सूत्रों पर बात करेंगे। लेकिन आज इतना ही आप सोचते हुए जाना कि आप भी गुलाम तो नहीं हैं? आपका मन भी कैद तो नहीं है? आपने भी दीवालें तो नहीं बना रखी हैं? और आपका मन भी कुछ सत्य मान कर तो नहीं बैठ गया है? अगर बैठ गया है तो सचेत हो जाना जरूरी है। अगर बैठ गया है तो खड़े हो जाना जरूरी है। अगर कहीं बंधन पकड़ लिए हैं तो उनको छोड़ देना जरूरी है।
और एक बार आदमी हिम्मत जुटा ले तो इतनी बड़ी शक्ति भीतर पैदा होती है। एक बार साहस जुटा ले तो इतनी बड़ी आत्मा का जन्म होता है। और एक बार तय कर ले तो फिर कोई ताकत उसे गुलाम नहीं रख सकती। और जिस आदमी की आंखें आकाश की तरफ उठनी शुरू हो जाती हैं, खुले आकाश की तरफ, उस आदमी के निकट परमात्मा का आना शुरू हो जाता है।
परमात्मा है खुले आकाश की भांति। जो अपने पंखों को खोल कर उसमें उड़ते हैं, वे जरूर उसे उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन बंधे हुए, पिंजड़ों में बंद लोग उस तक नहीं पहुंच पाते।
क्या आपको कभी ऐसा नहीं लगता कि हमारे पंख हैं या नहीं? क्या कभी आपके प्राणों में ऐसी प्यास नहीं जगती कि मैं मुक्त हो जाऊं? क्या कभी आपको गुलामी दिखाई नहीं पड़ती है? इन्हीं प्रश्र्नों के साथ आज की अपनी पहली बात मैं पूरी करता हूं। यही पूछते अपने से जाना और सोते समय यही पूछना बार-बार कि मैं भी एक गुलाम तो नहीं हूं? और अगर गुलाम हूं तो क्या मैं अपने ही हाथों से गुलाम होने को राजी हूं?
फिर कल सुबह दूसरे सूत्र पर आपसे मैं बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।