YOG/DHYAN/SADHANA

Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat 07

Seventh Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक मित्र ने पूछा है:

भगवान, यदि हम पूछें: ‘मैं कौन हूं?’ तो पूछने वाला और प्रश्र्न, दोनों एक ही तो हैं, दोनों अलग नहीं हैं। जो प्रश्र्न बन कर खड़ा है, वही तो उत्तर बनेगा। और तब कैसे कभी जाना जा सकता है कि मैं कौन हूं?
सच है यह बात। जो पूछ रहा है, वही उत्तर भी है। लेकिन पूछने के कारण उत्तर का पता नहीं चल पा रहा है। पूछना है! पूछने से उत्तर नहीं मिलेगा, लेकिन पूछते रहें, पूछते रहें, पूछते जाएं, सब उत्तर व्यर्थ होते चले जाएंगे। अंततः जब कोई उत्तर नहीं बचेगा, तो प्रश्र्न भी व्यर्थ हो जाता है। और जब प्रश्र्न भी गिर जाता है--उत्तर तो मिलता ही नहीं--जब प्रश्र्न भी गिर जाता है और चित्त निष्प्रश्र्न होता है, तब हम उसे जान लेते हैं जो प्रश्र्न भी पूछता था और जो उत्तर भी है।
प्रश्र्न पूछने का प्रयोजन उत्तर खोज लेना नहीं है। प्रश्र्न पूछने का प्रयोजन: सब बंधे, सब सीखे उत्तरों को व्यर्थ कर देना है। और उस जगह पहुंच जाना है, जहां प्रश्र्न भी अंततः व्यर्थ हो जाता है।
प्रश्र्न जहां गिर जाता है, वहां ज्ञान है।
उत्तर जहां मिल जाता है, वहां ज्ञान नहीं है। प्रश्न जहां गिर जाता है, वहां ज्ञान है।
यह थोड़ी समझने जैसी बात है।
हम सोचते हैं कि ज्ञान है उत्तर का मिलना। और मैं आपसे कहता हूं: ज्ञान है प्रश्र्न का भी गिर जाना!
एक युवा खोजी बुद्ध के पास गया। और उसने जीवन भर में बहुत से प्रश्र्न खोजे थे, जिनके उत्तर नहीं थे। उसने जाकर वे प्रश्र्न बुद्ध के सामने रखे। और कहा: चाहता हूं इनके उत्तर।
बुद्ध ने कहा: पहले भी और किसी से ये प्रश्र्न पूछे हैं?
उस युवक ने कहा: बहुतों से पूछे हैं। तीस वर्ष इसी में श्रम किया है, अब तक आधी जिंदगी इसी में गंवाई है।
तो बुद्ध ने कहा: इतनों से पूछे उत्तर, मिला कोई उत्तर या नहीं? जिनसे पूछा था, उन्होंने उत्तर दिए या नहीं?
उस खोजी ने कहा: सबने उत्तर दिए।
बुद्ध ने कहा: उन्होंने उत्तर दिए, तुझे उत्तर मिला या नहीं?
उस व्यक्ति ने कहा: मुझे उत्तर मिल जाता तो मैं फिर आपसे पूछने नहीं आता। मुझे उत्तर नहीं मिला।
बुद्ध ने कहा: इतने लोगों से पूछने के बाद तुझे उत्तर नहीं मिला, फिर भी तू पूछे चला जा रहा है! तुझे यह खयाल नहीं आया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि पूछते-पूछते मिलेगा ही नहीं! मैं भी तुझे उत्तर दूंगा, उससे भी तुझे उत्तर नहीं मिलेगा, क्योंकि आज तक उत्तर देने से उत्तर मिला ही नहीं है।
फिर वह आदमी पूछने लगा: फिर मैं क्या करूं?
तो बुद्ध ने कहा: तू एक वर्ष यहां रुक जा और इतना शांत हो, इतना शांत हो कि प्रश्र्न भी गिर जाएं। और फिर वर्ष भर बाद, जब तेरा चित्त पूर्ण शांत हो, अगर तूने पूछा तो मैं उत्तर दूंगा, और तुझे उत्तर मिल जाएगा।
एक भिक्षु वृक्ष के नीचे बैठे सुनता था, जोर से खिलखिला कर हंसने लगा। उस नये आए आगंतुक ने पूछा: आप हंसते क्यों हैं?
उस भिक्षु ने कहा: धोखे में मत पड़ जाना। मैं भी कुछ वर्ष पहले बुद्ध के पास इसी तरह पूछने आया था। उन्होंने मुझसे कहा, एक वर्ष रुक जाओ और चुप हो जाओ। और फिर पूछना, फिर मैं उत्तर दूंगा। यह बड़े धोखे की बात है। तू इस बात में पड़ना मत, क्योंकि मैं जब चुप हो गया वर्ष भर बाद और ये मुझसे पूछने लगे, पूछना है, तो मेरे पास पूछने को ही कुछ नहीं था। मैंने पूछा नहीं, इन्होंने उत्तर नहीं दिए। मैं तुझसे कहता हूं, अगर पूछना हो तो अभी पूछ लेना, क्योंकि वर्ष भर बाद तेरे पास पूछने को ही नहीं होगा। और यह मेरे साथ ही नहीं हुआ है, यह सैकड़ों लोगों के साथ मैं रोज होते देखता हूं। वे आते हैं, पूछते हैं। बुद्ध कहते हैं, पहले चुप हो जाओ, फिर पूछना, फिर मैं उत्तर दूंगा। वे चुप ही हो जाते हैं, वे फिर पूछते ही नहीं। और बुद्ध के उत्तर का पता ही नहीं चलता है कि उत्तर क्या है!
बुद्ध ने कहा: मैं अपनी बात पर कायम रहूंगा। अगर वर्ष भर बाद तूने पूछा तो मैं उत्तर दूंगा। अब तू ही पूछने से इनकार कर दे तो मैं क्या कर सकता हूं!
वह आदमी रुक गया। उस आदमी का नाम मौलुंकपुत्त था। वर्ष भर बाद, ठीक वर्ष बीतने पर, बुद्ध ने उससे कहा: मौलुंक, खड़े हो जाओ, और पूछो।
वह मौलुंकपुत्त हंसने लगा और उसने कहा कि नहीं पूछना है। नहीं पूछना है!
बुद्ध ने कहा: लेकिन क्यों नहीं पूछना है?
उसने कहा: पूछने को कुछ बचा ही नहीं। मन इतना शांत हो गया है कि प्रश्र्न ही नहीं है। और अब मैं उत्तर की झंझट में पड़ने वाला नहीं हूं। जब प्रश्र्न ही नहीं है, तो उत्तर की झंझट कौन लेता है!
प्रश्र्न गिर जाते हैं एक दिन, वहीं उत्तर मिलता है। उत्तर मिलने से कभी भी उत्तर नहीं मिलता है।
सब उत्तर सीखे हुए होते हैं। सब उत्तर दूसरों के, उधार, किताब, शास्त्र के होते हैं। अपना उत्तर तो उसी दिन मिलता है, जिस दिन सब प्रश्र्न गिर जाते हैं। लेकिन वह उत्तर भी मिलता नहीं है, हम स्वयं ही उत्तर हो जाते हैं, जब सब प्रश्र्न गिर जाते हैं।
जैसे किसी आदमी को सन्निपात हो, बुखार चढ़ा हो, होश खो दिया हो और वह पूछता हो कि मेरी खाट आकाश में उड़ रही है--यह खाट पूरब की तरफ उड़ रही है कि पश्र्चिम की तरफ? आप उसे उत्तर देंगे कि आप भागेंगे वैद्य को बुलाने? आप बताएंगे कि उत्तर में उड़ती है खाट कि पश्र्चिम में?
आप जानते हैं, खाट उड़ ही नहीं रही है, यह आदमी सन्निपात में है। इसको उत्तर की जरूरत नहीं है, उपचार की जरूरत है। लाएंगे वैद्य को बुला कर।
वह आदमी कहेगा, पहले मेरा उत्तर चाहिए--यह खाट पूरब में उड़ती है कि पश्र्चिम में? आप कहेंगे, ठहरो-ठहरो, अभी थोड़ी देर बाद उत्तर देंगे। थोड़ी चिकित्सा हो लेने दो, तुम थोड़े होश में आ जाओ, फिर पूछना। फिर हम उत्तर देंगे।
और उसकी चिकित्सा होती है, वह होश में आ जाता है। अब आप उससे कहते हैं कि पूछो, खाट कहां उड़ रही है, तो हम उत्तर देंगे। वह आदमी कहता है, खाट उड़ ही नहीं रही, पूछें हम क्यों! वह बात खत्म हो जाती है।
मनुष्य के सारे प्रश्र्न सन्निपात में पूछे गए प्रश्र्न हैं और सारी फिलॉसफी सन्निपात में लिखी गई है। सारे शास्त्र और सारा दर्शन और सारी हजार तरह की सिस्टम, सब सन्निपात में पूछे गए प्रश्र्नों के उत्तर हैं।
‘जानना’ वहां है, जहां कि सन्निपात मिट जाता है, पूछने का ज्वर, पूछने का ज्वर ही चला जाता है।
मैं कोई उत्तर नहीं दे रहा हूं। और न आपसे यह कह रहा हूं कि आप पूछें कि ‘मैं कौन हूं?’ कि आपको उत्तर मिल जाएगा। नहीं, इस तीव्र जिज्ञासा की आग में पूछते-पूछते-पूछते सब प्रश्र्न, सब उत्तर, सब गिर जाएंगे। अंत में रह जाएगा वही, जो है। और वही उत्तर है। लेकिन वह उत्तर आता नहीं है। आप ही बच रहते हैं, आप ही उत्तर हो जाते हैं।
अभी रुग्ण है चित्त, इसलिए आप प्रश्र्न हैं। चित्त होगा स्वस्थ, आप ही उत्तर होंगे। और उत्तर और प्रश्र्न का मिलन कभी नहीं होता, क्योंकि रुग्ण-चित्त और स्वस्थ-चित्त का मिलन नहीं होता। जब रुग्ण-चित्त चला जाता है, तब स्वस्थ-चित्त आता है। इसलिए जब तक कोई प्रश्र्न पूछता है, तब तक उत्तर नहीं है। और जब उत्तर आता है, तब प्रश्र्न बहुत पहले ही विदा हो गए होते हैं। इनका मिलन ही कभी नहीं हुआ।
यह ध्यान में रख लेना, उत्तर और प्रश्र्न इन दोनों का मिलन ही कभी नहीं हुआ। जब तक प्रश्र्न है भीतर, तब तक जानना उत्तर नहीं होगा। जिस दिन उत्तर होगा, उसके बहुत पहले प्रश्र्न जा चुका होगा।
यह जो जिज्ञासा, इंक्वायरी और खोज के लिए कहा जा रहा है, वह सिर्फ इसीलिए कि सब उत्तर गिर जाएं। सब उत्तर गिर जाएं, नेति-नेति हो जाए। नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं, नॉट दिस, नॉट दैट, सब गिर जाए, सब निषेध हो जाए, सब निगेट हो जाए। सब उत्तर गिर जाएं, फिर अकेला प्रश्र्न रह जाए--अकेला प्रश्र्न कैसे जीएगा? प्रश्र्न जीता है, उत्तर मिलते हैं इसलिए, यह कभी आपने ध्यान नहीं किया होगा! एक प्रश्र्न पूछिए, एक उत्तर दिया जाएगा। उस उत्तर के बाद दस प्रश्र्न खड़े हो जाएंगे! दस प्रश्र्नों के दस उत्तर और हजार प्रश्र्न खड़े हो जाएंगे! हर उत्तर नये प्रश्र्न खड़ा करेगा!
अगर गौर से देखा जाए तो पता चलेगा कि प्रश्र्न का भोजन उत्तर है, जब तक उत्तर मिलता है, प्रश्र्न नई संतति पैदा कर लेता है। वह नई संतान पैदा कर देता है। अब तक दुनिया में जितने उत्तर दिए गए, सबने नये प्रश्र्न खड़े किए हैं। कोई उत्तर उत्तर नहीं है।
जैसे अंडे से मुर्गी निकलती है और मुर्गी से फिर अंडे निकलते हैं, और फिर अंडों से मुर्गी निकलती है; ऐसा प्रश्र्न से उत्तर निकलता है, उत्तर से फिर प्रश्र्न निकलते हैं, प्रश्र्न से फिर उत्तर निकलते हैं! वह अंडे मुर्गी का संबंध प्रश्र्न और उत्तर का संबंध भी है। अंत नहीं आता! और जो उत्तर अंत नहीं लाता, वह उत्तर हो सकता है? खोज हमारी उसकी है जो अंतिम है, आत्यंतिक है, अल्टीमेट है, आखिरी है, जिसके आगे पूछने को नहीं बचता है।
लेकिन ऐसा उत्तर पूछने से नहीं आ सकता है। ऐसा उत्तर पूछना भी छूटने से आता है। लेकिन पूछना भी उन्हीं का छूट सकता है, जिन्होंने पूछा है। जिन्होंने पूछा ही नहीं, उनका छूटेगा क्या? इसलिए तीव्र जिज्ञासा चाहिए अपने भीतर कि हम पूछते जाएं--कौन हूं मैं? कौन हूं? कौन हूं? पूछते चले जाएं, पूछते चले जाएं। जल्दी से बीच-बीच में उत्तर आएंगे। मन कहेगा, अरे मालूम है कि कौन हो। उन उत्तरों को मत स्वीकार करना, क्योंकि उन उत्तरों को स्वीकार करने से प्रश्र्न कभी नहीं मरेगा, फिर नये प्रश्र्न खड़े हो जाएंगे। मन कहेगा, आत्मा हो तुम! और अगर स्वीकार कर लिया, तो मन पूछेगा, आत्मा मरती है कि नहीं? आत्मा कहां से आई? भगवान ने आत्मा क्यों बनाई? भगवान कौन है?
उत्तर फिर नये प्रश्र्न बनाते चले जाएंगे। नहीं, पूछना है उस सीमा तक। उत्तर तो स्वीकार ही नहीं करना है। सिर्फ कमजोर लोग उत्तर स्वीकार करते हैं, बलशाली लोग उत्तर स्वीकार नहीं करते, प्रश्र्न को पूछते चले जाते हैं। कमजोर और आलसी उत्तर स्वीकार करते हैं, क्योंकि उत्तर स्वीकार करने से, वे कहते हैं, अब खोज की कोई जरूरत नहीं। हमने मान लिया कि यही होगा। अब आगे और क्या पूछना है, बस खत्म करो।
लेकिन जो आत्यंतिक, अंतिम तक पूछने को राजी है, वह आखिर में सारे उत्तरों के ऊपर चला जाता है, और फिर अंत में प्रश्र्न के भी। जैसे हम एक दीया जलाएं। सांझ हमने दीया जलाया, दीये की बाती जलनी शुरू हुई। लेकिन बाती नहीं जलती, तेल जलता है। बाती पर तेल चढ़ता जाता है, तेल जलता जाता है। रात भर बाती तेल को जलाती है। फिर तेल जल जाता है, फिर बाती जलने लगती है। जब तेल खत्म हो जाता है, फिर बाती जलने लगती है। जिस बाती ने सारे तेल को जलाया, उसे पता भी नहीं होगा कि तेल को जला कर मैं अपनी मौत बुला रही हूं। जब तेल जल जाएगा तो फिर मुझे जलना पड़ेगा।
उस बाती को पता भी नहीं है कि मैं तेल को जला कर अपने ही मरने का आयोजन कर रही हूं। सुसाइडल है यह काम, आत्महत्या हो जाएगी, क्योंकि तेल जैसे ही खत्म हुआ, फिर बाती जलेगी। अभी बाती अपनी रक्षा कर रही है और तेल को जला रही है। रात भर तेल जल कर समाप्त हो जाएगा। दीया खाली हुआ, फिर बाती जलेगी और राख हो जाएगी। लेकिन बाती तब जलेगी जब तेल जल चुका होगा, और बाती तेल को जलाएगी और अंत में खुद जल जाएगी।
ठीक ऐसे ही प्रश्र्न पहले उत्तरों को गिराते हैं--यह भी उत्तर ठीक नहीं, यह भी उत्तर ठीक नहीं, यह भी उत्तर ठीक नहीं। लेकिन प्रश्र्न को पता नहीं है कि जब सभी उत्तर ठीक नहीं रह जाएंगे, आखिर में जब सभी उत्तर जल जाएंगे, तो ‘मैं’ बाती भी जलने के क्षण पर पहुंच जाऊंगी। आखिर में जब सब उत्तर गिर जाते हैं तो फिर प्रश्र्न किसके सहारे खड़ा रहे? वह प्रश्र्न भी गिर जाता है। पहले पता चलता है, उत्तर गलत हैं; फिर पता चलता है, प्रश्र्न भी व्यर्थ है! और जब न उत्तर रहते, न प्रश्न रहते, तो वही रह जाता है, जो है। और तभी उसका अनुभव है। इसलिए जिज्ञासा और खोज के लिए मैंने कहा।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं, क्रोध, लोभ इत्यादि पर कोई नियम, कोई नियंत्रण, कोई संकल्प, कोई व्रत नहीं लेना चाहिए--कि आज से मैं क्रोध नहीं करूंगा। तो उन्होंने पूछा है: एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि ऐसा संकल्प नहीं करना चाहिए और दूसरी तरफ आप कहते हैं कि संकल्प की शक्ति, विल-पावर होनी चाहिए।
इन दोनों बातों में उन्हें विरोध मालूम पड़ा। इसे समझना ठीक होगा।
पहली तो बात, जो आदमी कहता है कि आज से मैं क्रोध नहीं करूंगा, वह ऐसा क्यों कहता है? उसे पता है कि वह क्रोध करेगा, इसीलिए कहता है न? उसे मालूम है कि वह क्रोध करेगा, इसीलिए संकल्प लेता है। अगर उसे पता है कि कल से क्रोध होना ही नहीं है, तो वह व्रत नहीं लेगा।
आपने कभी कसम खाई है कि मैं आज से अब दीवाल से नहीं निकलूंगा, दरवाजे से ही निकलूंगा। आपने कभी कसम खाई नहीं, क्योंकि आप जानते हैं मैं दीवाल से कभी निकलता ही नहीं हूं। दरवाजे से निकलता हूं। और अगर एक आदमी मंदिर में खड़ा हुआ मिले जो कहे कि कल से मैंने अब बिलकुल पक्का कर लिया है कि चाहे कुछ भी हो जाए, दीवाल से नहीं निकलूंगा, तो आप सब चौंक कर देखेंगे, क्या यह आदमी दीवाल से निकलता रहा है? और कल भी इसको दीवाल से निकलने की आशा है, कल्पना है, आकांक्षा है?
जब एक आदमी कहता है कि मैं कल से क्रोध नहीं करूंगा, तब वह आदमी जानता है कि कल मैं क्रोध करने वाला हूं, उसी के खिलाफ तो संकल्प लेता है! संकल्प किसके खिलाफ ले रहा है? किसी दूसरे के खिलाफ? नियंत्रण, व्रत, नियम सब अपने ही खिलाफ तो लिए जाते हैं! मुझे पता है, मैं कल भी क्रोध करूंगा। भलीभांति पता है। और जितने जोर से मुझे पक्का विश्र्वास है कि कल क्रोध करूंगा, उतना ही पक्का, उतने ही जोर से मैं कसम खाता हूं कि कल नहीं करूंगा क्रोध! किसके खिलाफ कर रहा हूं यह आयोजन? अपने ही खिलाफ!
और अपने खिलाफ जो आयोजन होता है, उसमें व्यक्तित्व टूट जाता है दो हिस्सों में। एक व्यक्तित्व कहता है कि नहीं करूंगा और दूसरा व्यक्तित्व कहता है कि करूंगा! अब इसको भी थोड़ा ध्यान से समझ लेना कि मैं क्रोध करूंगा, यह संकल्प आपने कभी लिया था पहले जिंदगी में? कभी आपने यह व्रत लिया था कि मैं क्रोध करूंगा?
यह आपने कभी नहीं लिया था, यह नैसर्गिक है। और यह आप ले रहे हैं कि मैं क्रोध नहीं करूंगा, यह नैसर्गिक नहीं है, यह कृत्रिम है, यह आर्टिफिशियल है। जो नैसर्गिक है, वह मजबूत सिद्ध होगा। जो कृत्रिम है, वह मजबूत सिद्ध नहीं हो सकता। नैसर्गिक और कृत्रिम की जब लड़ाई होगी तो कृत्रिम हारेगा और नैसर्गिक जीतेगा। आप अपने को दो हिस्सों में तोड़ रहे हैं। आपका निसर्ग, आपकी प्रकृति खुद कह रही है कि करेंगे क्रोध और आप, सीखी हुई बुद्धि, आपका कांशस माइंड, चेतन चित्त कह रहा है कि नहीं, अब हम क्रोध नहीं करेंगे!
आपको पता नहीं है कि प्रकृति बहुत बलवान है और आपके ये संकल्प बहुत ना-कुछ हैं, ना-कुछ। इनका कोई मूल्य नहीं है। कल जब क्रोध का झंझावात आएगा, सब संकल्प, सब व्रत पता नहीं कहां उड़ जाएंगे सूखे पत्तों की तरह। जैसे एक सूखा पत्ता जमीन पर पड़ा है। अभी हवा नहीं चल रही है और वह सूखा पत्ता कहता है कि कसम खाते हैं, अब नहीं उड़ेंगे। अब कसम खाते हैं कि कल से चाहे कुछ भी हो जाए, उड़ेंगे नहीं। एक सूखा पत्ता सड़क पर पड़ा हुआ कसम खा रहा है। अभी हवा नहीं चल रही है। पत्ते को पक्का लग रहा है कि ठीक है, जमीन पर पड़े हैं, कसम खाते हैं कि अब नहीं उड़ेंगे। लेकिन पत्ता कसम क्यों खा रहा है कि नहीं उड़ेंगे?
पत्ते को पुराने अनुभव हैं कि जब भी हवा चली है, उड़ना पड़ा है। उन्हीं के खिलाफ कसम खा रहा है। लेकिन कसम पत्ता खा रहा है। और पत्ते को पता नहीं है कि सूखा पत्ता है, उसकी ताकत कितनी है! और जब प्रकृति का झंझावात और आंधी उठेगी और हवाएं चलेंगी, तब कहां इसकी कसम रहेगी। सूखे पत्ते की कोई कसम का मूल्य होने वाला है? जब आएगी हवा, पत्ता उड़ने लगेगा। जब हवा चली जाएगी, पत्ता गिर जाएगा। फिर पछताएगा, फिर मन में कहेगा कि नहीं, आज टूट गया; लेकिन कल से अब पक्का करते हैं। कल चलेंगे किसी संन्यासी के पास, किसी मुनि के पास और जाकर हाथ जोड़ कर मंदिर में प्रार्थना करके कसम खा लें कि अब नहीं, अब हम अणुव्रत लेते हैं कि अब नहीं उड़ेंगे। इस पत्ते का क्या मतलब है?
जिस चेतन मन से हम ये सारी बातें कर रहे हैं, उसकी ताकत क्या है? वह जो अचेतन प्रकृति हमारे भीतर खड़ी है--ताकत है उसकी? आपके व्रत का आपको नींद में पता भी नहीं रह जाएगा। अभी आपने कसम खा ली कि कल से क्रोध नहीं करेंगे। और आज आप रात सो गए, आपको नींद में व्रत का पता होगा? आप तो होंगे, लेकिन व्रत का पता नहीं होगा। नींद में क्यों पता नहीं होगा? क्योंकि जिस मन ने कसम खाई थी, वह बहुत छोटा सा मन है, वह सो चुका है। और जिस मन ने कसम नहीं खाई है, वह बहुत बड़ा मन है। वह अभी नींद में भी जागा हुआ है। नींद में भी क्रोध चलेगा, नींद में भी छुरा मारा जाएगा, नींद में भी हत्या होगी।
मनुष्य की प्रकृति के रूपांतरण का सवाल है, मनुष्य के निर्णय का नहीं।
और प्रकृति बड़ी है, निर्णय हमेशा कमजोर है।
तो मैं कहता हूं: निर्णय मत लेना। समझो, समझना प्रकृति को कि क्या है मेरी प्रकृति? क्रोध क्या है? और जिस दिन प्रकृति की पूरी समझ आ जाएगी--प्रकृति की समझ प्रकृति से ज्यादा शक्तिशाली है, क्योंकि समझ भी प्रकृति का गहनतम और गहरे से गहरा रूप है। समझ भी प्रकृति है। वह आपकी चीज नहीं है समझ भी। वह भी प्रकृति से ही जन्मती है और विकसित होती है और फैलती है।
जो व्यक्ति अपने चित्त की पूरी प्रकृति को समझ लेता है, जागरूक हो जाता है, पूरे चित्त को पहचान लेता है, वह कसम नहीं खाता है। वह यह नहीं कहता कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। वह यह कहता है कि क्रोध गया, अब क्रोध कैसे करूंगा! अगर मौका आ जाएगा तो अब क्रोध कैसे करूंगा! जो आदमी अपने भीतर क्रोध को समझ लेता है, वह यह कहेगा कि अब बड़ी मुश्किल हो गई--कल अगर मौका आ गया तो क्रोध कैसे करूंगा! क्योंकि समझने के बाद क्रोध करना असंभव है। वह ऐसे ही है, जैसे जानते हुए गड्ढे में गिरना। आंखें खुली होते हुए कांटों में चले जाना, वह वैसा ही है। आंखें खुले हुए दीवाल से टकराना, वह वैसा ही है। जानना है, संकल्प नहीं लेना है।
फिर उन्होंने पूछा है: ‘लेकिन आप कहते हैं, संकल्प-शक्ति चाहिए? तो उसका क्या मतलब है?’
उसका मतलब ही यह है कि जितना आप संकल्प लोगे, उतनी ही संकल्प-शक्ति क्षीण होती है। संकल्प-शक्ति विकसित नहीं होती है संकल्प लेने से। असल में जब सब संकल्प-विकल्प गिर जाते हैं, तब मनुष्य के भीतर संकल्प-शक्ति शुद्ध होती है, तब उसे संकल्प लेना नहीं पड़ता। संकल्प शक्ति होती है उसके भीतर। और जो भी उसके पूरे प्राण चाहते हैं, वह हो जाता है, उसको निर्णय नहीं लेने पड़ते हैं कि ऐसा हो, ऐसा मैं करूं। उसका पूरा प्राण--जो वह चाहता है, वह हो जाता है। उसके भीतर, संकल्प का अर्थ है: जिसके भीतर विकल्प नहीं रह गए। संकल्प उसके भीतर पैदा होता है, जिसके भीतर विकल्प नहीं रह गए।
जिस आदमी के चित्त में विकल्प उठते ही नहीं, उसके भीतर संकल्प है।
विकल्पों के विदा होने पर संकल्प रह जाता है।
संकल्प का मतलब है: वही ऊर्जा, वही शक्ति, जो परमात्मा की है। वही काम करने लगती है।
फिर आदमी ऐसा नहीं कहता है कि मैं ऐसा करूंगा। वह पाता है कि ऐसा हो रहा है। वैसा आदमी च्वाइस भी नहीं करता, चुनाव भी नहीं करता। वह यह नहीं कहता कि मैं यह छोड़ता हूं और यह करता हूं। उसके पूरे प्राणों को जो ठीक लगता है, वह वही करता है। चुनाव भी नहीं करता। वह यह भी नहीं कहता कि मैं फलां चीज छोड़ता हूं। क्योंकि हम छोड़ते उसी चीज को हैं, जिसके पीछे हमारा कोई लगाव होता है।
जब एक आदमी कहता है कि मैं बाएं जाऊं कि दाएं, चौरस्ते पर खड़े होकर सोचता है कि बाएं जाऊं कि दाएं, तब उसके भीतर जो निर्णय होता है वह माइनारिटी-मैजॉरिटी का निर्णय है, डेमोक्रेटिक निर्णय है। पचास-इक्यावन परसेंट दिमाग कहता है कि चलो, बाएं चले चलो; उनचास परसेंट दिमाग कहता है कि दाएं चलो। फिर वह बाएं चला जाता है, क्योंकि इक्यानवे प्रतिशत दिमाग ने कहा कि बाएं चलो। दस-पच्चीस कदम गया है कि लगता है कहीं भूल तो नहीं हो गई--दो परसेंट दिमाग नीचे गिर जाता है। उनचास परसेंट कहने लगता है कि गलती हुई जा रही है, उसी पर चलते तो बहुत अच्छा था! यह आदमी डोलता है। यह कभी तय नहीं कर पाता।
ऐसे लोग तक हैं कि घर में ताला लगा कर निकलते हैं, दस कदम के बाद खयाल आता है कि फिर से लौट कर देख लें ताला ठीक लगा है कि नहीं। क्योंकि दिमाग कहता है, पता नहीं देखा था कि नहीं देखा था? एक हिस्सा कहता है कि देखा तो था। लेकिन दूसरा हिस्सा कहता है संदिग्ध है, चलो लौट कर देख लें। लेकिन वह आदमी यह नहीं जानता कि लौट कर देख कर फिर दस कदम बाद यही हालत हो जाएगी। कुछ लोग जिंदगी भर लौट-लौट कर ताले ही देखते रहते हैं। और निरंतर विकल्प करते रहते हैं--यह करूं, यह करूं, ईदर-ऑर, उनके दिमाग में यही चलता रहता है।
एक बहुत बड़ा विचारक था, कीर्कगार्ड। वह जिस गांव में रहता था, उस गांव के लोगों ने उसका नाम ‘ईदर-ऑर’ रख छोड़ा था। क्योंकि अक्सर लोग उसको देखते थे, वह चौरस्ते पर खड़ा है और सोच रहा है कि इस रास्ते जाऊं कि इस रास्ते जाऊं! उसने एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम ‘ईदर-ऑर’ है, यह या वह। और सारा गांव चिल्लाता था, वह ईदर-ऑर जा रहे हैं--हर छोटी चीज में।
एक लड़की से प्रेम हुआ। और ईदर-ऑर खड़ा हो गया कि शादी करूं कि न करूं! दस साल तक सोचता रहा। तब तक लड़की की शादी हो गई, उसके लड़के-बच्चे शादी योग्य हो गए। तब उसको पक्का कर पाया कि कर लेना चाहिए। फिर वह गया। लेकिन तब तक पता चला कि लड़की का तो विवाह भी हो चुका, उसके बच्चे भी बड़े हो चुके। तुम बहुत देर करके आए, तुम रहे कहां? उसने कहा: मैं हिसाब लगाता रहा कि करना चाहिए कि नहीं करना चाहिए!
यह जो मस्तिष्क है, विकल्प से भरा हुआ मस्तिष्क, जो हमेशा कहता है--यह या वह। और हमेशा डोलता है, दोनों तरफ डोलता है। हर वक्त डोलता रहता है, हर चीज में डोलता रहता है। कमीज तक पहनता है आदमी, तो एक निकालता है, फिर उसको रखता है; फिर दूसरी निकालता है, फिर पहन कर आईने के सामने खड़ा होता है, फिर उसे भी निकालता है। वह ‘ईदर-ऑर’ पूरे वक्त दिमाग को खाए जा रहा है। ऐसा आदमी कैसे संकल्प को उपलब्ध हो सकता है?
पति बाहर हॉर्न बजा रहा है और पत्नी साड़ियां बदलती चली जा रही है। और वह हॉर्न बजा रहा है कि गाड़ी चूके जाते हैं। लेकिन पत्नी कहती है, सवाल गाड़ी का थोड़े ही है, स्टेशन पर इतने लोग होंगे, साड़ी का सवाल है असली! और वहां तय नहीं हो पा रहा है, क्योंकि बहुत साड़ियां हैं पेटी में--नीचे से ऊपर तक। वह तय नहीं हो पा रहा है कि कौन सी साड़ी! वह ईदर-ऑर है दिमाग में--हर छोटी चीज पर!
अगर आदमी यह तय कर ले कि मैं पक्का निर्णय करके ही कुछ करूंगा, तो आदमी जिंदगी भर कुछ नहीं करेगा, क्योंकि पक्का निर्णय होने वाला नहीं है। कुछ हिस्सा भीतर का कहता रहेगा कि वह भी कर लो, शायद वह ठीक हो। वह तो मौत आपसे पूछती नहीं आकर कि आप मरना चाहते हैं कि नहीं? नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाए। आदमी अधूरे मुर्दे पड़े रहें वर्षों, सैकड़ों वर्षों तक और तय न कर पाएं कि मरना है कि नहीं। वह तो मौत आई, वह पूछती नहीं और ले जाती है। सिर्फ मौत आपको कोई विकल्प नहीं देती है। और इसीलिए मौत का सबसे ज्यादा डर लगता है, क्योंकि हमसे पूछती ही नहीं। इसलिए हम उससे भयभीत रहते हैं, क्योंकि वह हमसे पूछती नहीं कि आपको क्या करना है।
मैंने सुना है, एक लकड़हारा लकड़ियां काट कर लौटता था, और रोज-रोज कई बार कहता था, हे भगवान, मुझे तू मार डाल, उठाले दुनिया से। यह क्या लकड़ी ढो-ढो कर जिंदगी खराब हो गई! जिंदगी भर यही करता रहूंगा? आज भी लकड़ी ढोकर चला है--सिर पर भार है, पसीना चू रहा है, बूढ़ा आदमी है, एक जगह आकर लकड़ियों का गट्ठा नीचे टेक कर उसने कहा कि हे भगवान, अब तो उठा ले, अब मुझे रहने की कोई जरूरत नहीं।
भाग्य की बात कि मौत उस रास्ते से गुजरती थी। उसने सुन ली। उसने कहा, यह बेचारा बहुत दिन से बुलाता है, चलो इसको ले ही चलो। वह मौत उसके पास आई और उसने कहा: मैं आ गई।
उस लकड़हारे कहा: तू कौन है?
उसने कहा: मैं मौत हूं, तुम बहुत दिन से बुलाते थे, आज रास्ते पर ही मिल गए, मैं जा रही थी दूसरी जगह, चलो तुम्हें ले चलती हूं।
उस बूढ़े ने कहा: मर गए! हमने कब सोचा था! उसने कहा कि थोड़ा ठहर, मैंने तुझे बुलाया जरूर, लेकिन बुलाया इसलिए कि रास्ते पर कोई दिखाई नहीं पड़ता था। यह गट्ठा जो मैं उठा रहा हूं, उठवा कर रखवा दे मेरे सिर पर। और कोई काम नहीं है, सिर्फ यह गट्ठा मेरे सिर पर रख दे। और अब भूल हो गई, आइंदा ऐसी बात नहीं करूंगा। मैंने तो इसको सिर्फ उठवाने के लिए बुलाया, रास्ते पर कोई दिखता नहीं।
वह हमारा जो चित्त है, वह चित्त की चंचलता का और कोई अर्थ नहीं है। चित्त की चंचलता का एक ही अर्थ है कि चित्त हमेशा ‘ईदर-ऑर’ में सोचता है--‘यह या वह!’ और दोनों पर डोलता है। ऐसा डोलने वाला चित्त विकल्प चित्त कहलाता है--विकल्पवान।
जब चित्त ऐसी दशा में पहुंचता है, जहां यह-वह दोनों समाप्त हो जाते हैं। जो है वही, परिपूर्ण, टोटल, इंटिग्रेटेड। एक ही प्राण का उत्तर होता है कि यह। और इसमें कोई विरोधी स्वर नहीं होता। उस दिन चित्त संकल्पवान होता है।
संकल्प उन्हें उपलब्ध होता है, जो विकल्प से मुक्त हो जाते हैं।
लेकिन आप कहते हो कि मैं सिगरेट छोड़ कर रहूंगा, मैं कसम खाता हूं कि सिगरेट नहीं पीऊंगा। आप विकल्प खड़े कर रहे हैं। एक मन कह रहा है कि सिगरेट पीऊंगा, उसी के खिलाफ आप दूसरा विकल्प कर रहे हैं कि नहीं पीऊंगा। आप विकल्प खड़े कर रहे हैं। आपकी संकल्प-शक्ति कम होगी, बढ़ेगी नहीं। आप यह मत समझना कि इस तरह संकल्प-शक्ति बढ़ जाएगी। इसी तरह संकल्प-शक्ति क्षीण होगी, क्योंकि रोज-रोज आप कसम लेंगे, रोज-रोज कसम टूटेगी। और अंततः आप पाएंगे कि सारा व्यक्तित्व टूट गया है।
संकल्प का अर्थ है: जहां विकल्प नहीं है, जहां कोई ऑल्टरनेटिव नहीं है, जहां एक ही स्वर उठता है कि बस यही।
बंगाल में बुत्तौजी एक बहुत बड़ा व्याकरण का ज्ञाता हुआ। उसके बाप ने उससे, जब उसकी साठवीं वर्षगांठ थी, उससे कहा कि अब तू कब तक अपने इस व्याकरण में उलझा रहेगा? इस गोरखधंधे को छोड़, अब भगवान का स्मरण कर।
उस बेटे ने--साठ वर्ष का बूढ़ा तो वह भी था, बाप अस्सी साल का होगा--उस बूढ़े बेटे ने कहा: करूंगा एक दिन स्मरण, एक बार; बार-बार नहीं! क्योंकि बार-बार स्मरण का मतलब क्या है? तुम्हें मैं देख रहा हूं वर्षों से, सुबह से शाम तक भगवान का स्मरण करते हो! कुछ हुआ तो नहीं!
और तुम बड़े अजीब हो! तुमने जब पहली दफा स्मरण किया था, जब पहली दफा ही नहीं हुआ तो उसी-उसी स्मरण को बार-बार करने से फायदा क्या है? जब होना था तो पहली बार ही हो गया होता। वही तो कर रहे हो न दुबारा फिर? तिबारा वही कर रहे हो? जब पहली बार ही नहीं हुआ--करने वाले भी तुम हो, स्मरण भी वही है, और रोज-रोज वही कर रहे हो और नहीं हो रहा, फिर भी किए चले जा रहे हो--इससे क्या फायदा? एक बार करूंगा। एक बार सिर्फ। फिर दुबारा नहीं करूंगा।
पांच साल बाद उसकी पैंसठवीं वर्षगांठ। वह पैंसठ वर्ष का बूढ़ा उठा। अपने पिता के चरण छुए और कहा कि मैं मंदिर जा रहा हूं। शायद आज स्मरण का दिन आ गया, आपके चरण छूता हूं।
बाप ने कहा: चरण छूने की क्या बात है? अभी तो लौट आओगे।
उसने कहा: लौटना मुश्किल है, क्योंकि जा रहा हूं।
बाप ने कहा: मतलब क्या है तेरा?
उसने कहा: मतलब साफ है। जब मंदिर जा रहा हूं तो घर कैसे लौटूंगा?
बाप ने कहा: पागल हो गया! मैं रोज लौटता हूं। कोई मंदिर जाने से लौटने में कोई बाधा पड़ती है?
तो उस बेटे ने कहा: आप मंदिर गए ही नहीं। नहीं तो लौटते कैसे?
बाप हंसा कि पागल है! कभी तो गया नहीं मंदिर, आज जा रहा है और क्या बातें करता है!
लेकिन घड़ी भर बाद गांव के लोगों ने दौड़ कर खबर दी कि तुम्हारा लड़का मरा हुआ पड़ा है मंदिर में।
बाप ने कहा: यह क्या हो गया!
वह सारा का सारा गांव इकट्ठा हो गया। मंदिर के पुजारी ने कहा: न मालूम क्या, आज पहली दफे तो आया यह, हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ और इसने कहा कि बस एक बार पुकारता हूं, और सुनता हो सुन ले। नहीं सुनता हो बात खत्म। फिर दुबारा मैं तेरी तरफ लौट कर देखूंगा भी नहीं। और इसने बस एक बार आंख बंद की है और इसकी श्र्वास जो बाहर गई तो पीछे नहीं लौटी।
इसको कहते हैं संकल्प। संकल्प का मतलब क्या होता है? संकल्प का मतलब है: इंटिग्रेटेड माइंड, पूरा का पूरा, टोटल, समग्र। चित्त जब कोई एक स्वर से भरता है, तब संकल्प की स्थिति है। और संकल्प जो चाहता है, वह वही हो जाता है। संकल्प के लिए कोई बाधा नहीं है जगत में।
लेकिन संकल्प है कहां! हम तो विकल्पों में जीते हैं। और एक विकल्प को पकड़ते हैं दूसरे के खिलाफ और कहते हैं कि मैं संकल्प कर रहा हूं! यह संकल्प नहीं है।
तो दूसरी बात, इन छोटी-छोटी बातों को लेकर अपने मन को खंड-खंड में मत तोड़ना। क्योंकि खंडित मन कमजोर मन है। जितने खंड टूट जाएंगे, मन उतना ही अशक्त और निर्वीर्य हो जाता है। मन चाहिए अखंड। अखंड चित्त ही वह विराट अखंड से जुड़ने में समर्थ हो पाता है।
लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि मैं कहता हूं, क्रोध करो। कि जो भी करना है, करो। क्योंकि संकल्प करना नहीं, व्रत लेना नहीं। ...
साधु-संन्यासी यही समझाते हैं पूरे मुल्क में कि मैं लोगों को क्रोध करने, वासना में उतरने, इन सबके लिए प्रेरित कर रहा हूं। कि मैं लोगों से कहता हूं, व्रत मत लो, नियम मत लो और जो ठीक लगे करो। मैंने कभी नहीं कहा है। मैं यह कह रहा हूं कि व्रत और नियम लेने के बाद तुम क्रोध ही करते रहोगे, काम में ही उलझे रहोगे। व्रत और नियम से कभी कोई क्रोध, काम, लोभ से मुक्त नहीं हुआ है।
मैं यह कह रहा हूं कि व्रत मत लो। क्रोध को, काम को समझो। समझते ही मुक्त हो जाओगे। समझ से ही कभी कोई मुक्त हुआ है। नियम सिर्फ नासमझ लेते हैं। समझदार आदमी कभी नियम नहीं लेता, समझ को विकसित करता है। समझ नियम बन जाती है। नियम नहीं लेना पड़ता। सिर्फ जड़बुद्धि, मंदबुद्धि व्रत लेते हैं। बुद्धिमान कभी व्रत नहीं लेता। क्योंकि बुद्धिमानी स्वयं व्रत है। बुद्धिमानी के लिए अलग से व्रत नहीं लेने पड़ते। बुद्धिमानी स्वयं संयम है। बुद्धिमान को संयम की, नियम की कसमें नहीं खानी पड़ती हैं।
धर्म के नाम पर मंदबुद्धिता का प्रयोग चल रहा है। और जो आदमी व्रत लेता है, कसम खाता है, संकल्प करता है कि ऐसा नहीं करूंगा, ऐसा करूंगा; ऐसा आदमी अपने मस्तिष्क को, अपनी बुद्धि को निरंतर और मंद और मंद करने की दिशा में ले जाता है। अगर बिलकुल ही जड़ता पानी हो तो नियम, व्रत इत्यादि बड़े सहयोगी हैं।
अगर सारा गौरव खोना हो विवेक का, बुद्धि का सारा प्रकाश खोना हो, अगर वह ऊर्जा, वह गरिमा, जो मनुष्य के भीतर छिपी है विवेक की, अंडरस्टैंडिंग की, वह सब नष्ट करनी हो तो व्रत लेना, संयम लेना, नियम लेना।
और ध्यान रखना, संयम, नियम और व्रत कभी भी संयमी नहीं बना सकेंगे, न नियमी बना सकेंगे, न व्रती बना सकेंगे।
यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। लेकिन हमें यही दिखाई पड़ता है चारों तरफ। महावीर को देखें, बुद्ध को देखें, या जीसस को या कृष्ण को, तो ऐसा मालूम पड़ता है कि बड़े नियम के आदमी हैं। नियम के आदमी बिलकुल नहीं हैं। महावीर से ज्यादा बिना नियम का आदमी खोजना मुश्किल है।
लेकिन हम कहेंगे, महावीर तो इंच-इंच नियम का पालन करते हैं। बुद्ध इंच-इंच नियम का पालन करते हैं। हर रोज पांच बजे सुबह उठते हैं ब्रह्ममुहूर्त में, तो हमको भी कसम खानी चाहिए कि रोज पांच बजे ब्रह्ममुहूर्त में उठेंगे।
लेकिन कभी आपको पता है, महावीर ब्रह्ममुहूर्त में उठने की कसम नहीं खाए हैं। महावीर इतने गहरे सोते हैं कि ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाते हैं। ब्रह्ममुहूर्त में उठने की कोई कसम उन्होंने नहीं ली है। लेकिन इतना गहरा सोते हैं कि ब्रह्ममुहूर्त तक नींद पूरी हो जाती है और उठ जाते हैं।
और आप खाओगे कसम कि हम पांच बजे उठेंगे। वह कसम पांच बजे उठा देगी, लेकिन दिन भर सोया हुआ रखेगी। दिन भर झपकियां आती रहेंगी। क्योंकि महावीर की नींद कहां है आपके पास। महावीर की नींद हो तो ब्रह्ममुहूर्त में नींद खुलती है। और महावीर की नींद न हो तो ब्रह्ममुहूर्त में नींद खोलनी पड़ती है। और वह खोलनी पड़ी नींद झूठी है। और उससे बेहतर है कि सो जाना, सात बजे ही उठना। कोई हर्जा नहीं है सात बजे उठने में। कम से कम दिन भर जागे हुए तो होंगे।
मैं चाहता हूं कि पांच बजे नींद खुले, लेकिन कसम मत खाना। कैसे पांच बजे नींद खुले, इसकी समझ विकसित होनी चाहिए। और नींद पांच बजे खुल जाए अपने आप। जो नींद अपने आप खुलती है, वही नींद सम्यक है। जिस नींद को खोलना पड़ता है, वह नींद गड़बड़ हो जाती है, विकृत हो जाती है। लेकिन एक आदमी कसम खा लेता है कि हम तो तीन बजे उठेंगे!
एक पंजाबी महिला मेरे पास आई और उसने मुझसे कहा कि किसी भांति मेरे पति को थोड़ा कम धार्मिक बनाइए। मैंने कहा: क्या हो गया? वह मेरे पास आई, क्योंकि लोग जानते हैं कि मैं लोगों को कम धार्मिक बनाता हूं। उसने कहा: किसी तरह थोड़ा इनका रिलीजन कम हो जाए तो हम पर बड़ी कृपा होगी। हमारा पूरा घर पागल हुआ जा रहा है।
और एक घर में एक आदमी धार्मिक हो जाए तो पूरा घर पागल होने लगता है! तथाकथित धार्मिक अगर एक आदमी हो गया घर में, तो पूरे घर का दुर्भाग्य समझो। क्योंकि पूरे घर को दिक्कत में डाल देगा। उसके नियम, उपवास, व्रत का ऐसा चक्कर चलेगा कि उस घर में शांति से रहना किसी का भी संभव नहीं है। तो मैंने पूछा: क्या तकलीफ क्या है तुम्हें?
तो उसने कहा कि वे दो बजे रात उठते हैं, और जपुजी का पाठ करते हैं इतने जोर-जोर से कि मोहल्ले तक के लोग हमसे आकर कहते हैं कि हमारी नींद हराम कर डाली। और घर में न बच्चे सो सकते हैं, न हम सो सकते हैं। दिन भर बच्चों को स्कूल में नींद आती है, क्योंकि इनके जपुजी के मारे मुसीबत हो गई है। आप मेरे पति को समझा दें, थोड़ा कम धार्मिक हो जाएं तो हम पर बड़ी कृपा होगी।
उनके पति को मैंने बुलाया। मैंने पूछा: कब उठते हो? उन्होंने कहा कि दो बजे सुबह! और वे बड़ी प्रसन्नता से मुझसे आकर बोले कि आप तो मेरी बात को शाबाशी देंगे। मेरी पत्नी जान खाए जा रही है। लेकिन यह तो सदा होता रहा है, धार्मिक पुरुषों की पत्नियां हमेशा पीछे खींचती हैं। पत्नियां जो हैं संसार की तरफ लाती हैं न लोगों को भगवान की तरफ से। तो उसने कहा: यह तो होता ही रहा है, मैं सुनने वाला नहीं हूं। दो बजे उठता हूं और कोई बुरा काम तो करता नहीं हूं, जपुजी का पाठ करता हूं।
मैंने कहा: धीरे करते हो कि जोर से?
उन्होंने कहा: मैं तो जोर से ही करता हूं, क्योंकि पत्नी, बच्चे सबको अनायास लाभ हो जाता है। वही तो अनायास कई लोग लाभ दे रहे हैं। माइक, लाउड-स्पीकर लगा कर अखंड रामायण चलाते हैं, अखंड राम-नाम चलाते हैं! वे सारे मोहल्ले वालों को रात भर राम-नाम का फायदा देते हैं। सारा मोहल्ला गाली देता है। बच्चे परीक्षाओं में फेल हो जाते हैं। और वे अपने राम-नाम को अखंड चला रहे हैं, वे सबका कल्याण कर रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि तुम तो माइक लगा कर जपुजी का पाठ करो तो उसमें मोहल्ले वालों को भी बहुत फायदा होगा! लेकिन एक बात ध्यान रखना, आजकल जो लोग माइक लगा कर अखंड रामायण वगैरह करते हैं, सबको नरक जाना पड़ता है, क्योंकि इतने लोगों को तकलीफ पहुंचा देते हैं। मैंने उनसे कहा कि थोड़ा समझो, यह क्या पागलपन मचा रखा है? फिर दिन भर क्या हालत है?
उन्होंने कहा: दिन भर, तामसी प्रवृत्ति है मेरी, इसलिए दिन भर नींद आती है! अब दो बजे रात जगोगे। और दिन में नींद आएगी, तो शास्त्रों में लिखा है कि जिसको दिन में नींद आती है, वह तामसी प्रवृत्ति का होता है। तो मेरी तामसी प्रवृत्ति है और उससे ही लड़ रहा हूं। आज नहीं कल जीत जाऊंगा। और काफी तो मैंने काबू पा लिया है।
यह जो इस तरह के नियम लेने वाले लोग हैं, वे किसी भी चीज के नियम लेंगे। उससे वे अपने को भी नुकसान पहुंचाएंगे, पास-पड़ोस में भी सबको नुकसान पहुंचाएंगे।
नियम नहीं लिए जाते, समझ होनी चाहिए।
और समझ विकसित हो तो जरूर समझ विकसित होगी तो आदमी ठीक समय पर उठेगा, ठीक समय पर सोएगा; ठीक खाएगा, ठीक पीएगा; ठीक बोलेगा, ठीक चलेगा, बैठेगा। लेकिन समझ से। यह उसकी समझ से आया हुआ अनुशासन होगा, यह थोपा हुआ अनुशासन नहीं होगा।
लेकिन हम थोपे हुए अनुशासन को ही अब तक मानते रहे हैं। और उसी ने सारी मनुष्य-जाति को विकृत, कुरूप, अपंग, भटका हुआ कर दिया है।
नहीं, ऊपर से थोपा हुआ कोई अनुशासन नहीं चाहिए। समझ से, भीतर से आया हुआ अनुशासन चाहिए। वह अनुशासन बहुत और तरह का है। उसमें उतना ही फर्क होता है, जैसे कोई बाजार से कागज के फूल खरीद लाए और किसी के घर में गुलाब के फूल खिले। बाजार में भी गुलाब के फूल कागज के मिल जाते हैं, वे अच्छे भी होते हैं--कई कारणों से। एक तो अच्छाई उनकी यह होती है कि उनमें कांटे नहीं होते हैं, दूसरी अच्छाई यह होती है कि वे मुर्झाते नहीं, तीसरी अच्छाई यह होती है कि कितने ही दिन रखे रहो, जिंदगी भर रखे रहो, वे वैसे ही बने रहते हैं! लेकिन एक ही भर उनमें खराबी होती है, वे कागज होते हैं, फूल नहीं होते हैं।
फिर असली फूल होता है, वह असली फूल भीतर से आता है, पौधे के भीतर से आता है। जमीन की गहराइयों से आता है, जड़ों से आता है। अनजान, अज्ञात लोक से आता है और प्रकट होता है, खिलता है। वह भीतर से आया हुआ फूल है। कागज के फूल ऊपर से लाए गए, लगाए गए फूल हैं।
नियम और व्रत लेने वाले लोग कागजी किस्म के लोग हैं, जापानी किस्म के, ऊपर से सब लगाया हुआ है उनके, भीतर से कुछ भी नहीं आया उनके। सब बाजार से खरीद लाए हैं, और उसको ऊपर से चिपका लिया है और बैठ गए हैं। भीतर उनके कुछ भी नहीं है।
मैं बात कर रहा हूं उस धर्म की जो भीतर से फूल की ही तरह आए और सारे व्यक्तित्व में खिल जाए। वे फूल और हैं, लेकिन उन फूलों को लाने में श्रम करना पड़ता है। श्रम इस अर्थ में कि बहुत सी नासमझी छोड़नी पड़ती है, बहुत सा अज्ञान तोड़ना पड़ता है, बहुत सी व्यक्तित्व की पर्तों की खोज करनी पड़ती है, भीतर जाना पड़ता है, उघाड़ना पड़ता है, अपने को नग्न करना पड़ता है। इतनी मेहनत उठानी पड़ती है।
कागज के फूलों में कोई दिक्कत नहीं है। वे बाजार में मिल जाते हैं, उनको ले आओ और लगा लो।
मंदिरों में व्रत लिए जाते हैं, कसमें खाई जाती हैं। वहां चले जाओ, कसमें खा लो, व्रत ले लो, लेकिन उनसे एक झूठा आदमी पैदा होता है, सच्चा आदमी पैदा नहीं होता।
इस पृथ्वी पर जो इतना असत्य है, इतना झूठ, इतना पाखंड, इतनी हिपोक्रेसी है; उसका कुल कारण इतना है कि लोगों ने ऊपर से धर्म को थोपा है, वह भीतर से नहीं आया है। और जब भीतर से न आए तो बड़ी तकलीफ होती है और बड़ी पीड़ा होती है।
एक साधु मेरे पास मेहमान हुए। दो-चार दिन मेरे करीब रहे तो मुझसे परिचित हो गए तो मेरे प्रति वे सरल और साफ हो गए। और मुझसे कहने लगे कि आपसे मैं अपने हृदय की कुछ सच्ची बातें कह सकता हूं, जो मैंने कभी किसी से नहीं कहीं। और आप मेरी कुछ सहायता करें तो मेरा बड़ा लाभ हो।
मैंने कहा: क्या मैं कर सकता हूं, बोलो।
उन्होंने कहा: सबसे पहला तो यह कि मुझे सिनेमा देखना है।
मैं भी बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा: मतलब?
उन्होंने कहा: जब मैं नौ साल का था, तब मेरे पिता ने मुझे दीक्षा दिलवा दी। मेरे पिता भी दीक्षित हो गए। और वे इसलिए दीक्षित हुए कि मेरी मां मर गई। मेरी मां मरने की वजह से पिता बेकार हो गए और वे दीक्षित हो गए। घर में मैं अकेला नौ साल का बच्चा था, तो उन्होंने मुझको भी दीक्षा दिलवा दी। मैं नौ साल का था तब से मुझे दीक्षा मिल गई। मेरी बुद्धि नौ ही साल पर अटकी हुई है, उससे आगे विकसित नहीं हुई है।
कैसे विकसित होगी? दीक्षित आदमी की बुद्धि कभी विकसित नहीं होती। क्योंकि विकास के लिए चाहिए अनुभव, विकास के लिए चाहिए विराट अनुभव। दीक्षित आदमी का कोई अनुभव नहीं होता, बंधा हुआ अनुभव होता है, एक घेरे में जीता है। अब नौ साल का बच्चा, उसने कभी फिल्म नहीं देखी, सिनेमा नहीं देखा। अब वह हो गया ज्ञानी, वह हो गया मुनि, वह अपने हाथ में कमंडल और पट्टी-वट्टी बांध कर घूमने लगा। वह लोगों को आत्मा और मोक्ष का ज्ञान देने लगा। अब भीतर उसके अटकाव यहां है कि जब भी टॉकीज के सामने से निकलता है, वहां भीड़ लगी देखता है। उसके मन में होता है, भीतर पता नहीं क्या होता है। भीतर कुछ तो होता होगा! इतने लोग भीड़ लगाए हुए हैं खिड़कियों पर। टिकटें नहीं मिल रही हैं लोगों को। भीतर होता क्या है?
वह आपको अंदाज नहीं हो सकता है--उस बेचारे की तकलीफ। क्योंकि आप भीतर हो आए हैं। आपको पता नहीं हो सकता कि नौ साल में जो दीक्षित हो गया है, उसकी तकलीफ क्या हो सकती है। वह कितनी मुश्किल में पड़ा होगा।
उसने मुझे कहा कि मेरी बड़ी मुसीबत हो गई है। मैं रहता तो मंदिरों में हूं, लेकिन मेरा चित्त टॉकीजों के पास घूमता है कि वहां भीतर?... ये बातें आपके करने योग्य हैं, तो मैं तो मोक्ष की बातें ही कर सकता हूं। वही करता हूं। और देखना मुझे फिल्म है। तो एक दफे कोई तरकीब से आप मुझे दिखा दें।
मैंने एक मित्र को बुलाया। पड़ोस में एक मित्र थे। मैंने उनको कहा कि इनको आप जाकर फिल्म दिखा लाइए।
उन्होंने कहा: मैं हाथ जोड़ता हूं। मैं इनको ले जाऊंगा और किसी ने मुझे देख लिया कि मैं एक साधु को फिल्म दिखाने लाया हूं, तो ये तो ठीक ही हैं, मेरी भी मरम्मत हो सकती है इसमें। मैं नहीं इस झंझट में पड़ता हूं। बहुत उनको समझाया, तो वे बोले कि फिर मैं कंटोनमेंट एरिया में अंग्रेजी फिल्म की एक टॉकीज है, वहां ले जा सकता हूं। क्योंकि वहां जैनी वगैरह नहीं होते हैं। ये जैनियों के गुरु हैं। तो वहां अंग्रेजी फिल्म दिखा सकता हूं। बस्ती में नहीं ले जा सकता इनको। लेकिन वे मुनि अंग्रेजी नहीं जानते हैं। वे कहने लगे, अंग्रेजी तो मैं जानता नहीं।
तो फिर मैंने कहा: ये तो अंग्रेजी फिल्म ही दिखा सकते हैं। यह उनसे मैंने कहा कि ये हिंदी-चित्र दिखाने को राजी नहीं हैं। आप अंग्रेजी नहीं समझते हैं। क्या किया जा सकता है। फिर आप मत जाइए। पर वे बोले: कोई हर्ज नहीं, भाषा नहीं समझूंगा, लेकिन देख तो लूंगा कि क्या है। चले गए।
नौ वर्ष में व्रत दिलवा दिया जिंदगी के प्रति आंख बंद रखने का। उससे जिंदगी मिट नहीं जाती, उससे जिंदगी और आकर्षक हो जाती है। मन और-और, मन और-और जोर से पुकार करने लगता है कि यह जानूं, यह जानूं, यह जानूं!
व्रत भूल कर मत लेना। व्रत से समझ विकसित नहीं होती है, कुंठित होती है।
दीक्षा कभी भूल कर मत लेना। दीक्षा से आदमी मंदबुद्धि होता है।
समझ को स्वीकार करना। समझ से एक दिन नियम आते हैं फूलों की तरह। समझ से अंततः संन्यास भी आता है फूलों की तरह। तब वह संन्यास बिलकुल दूसरा होता है। यह वर्दीधारियों का संन्यास नहीं होता। वर्दीधारी संन्यासी में और वर्दीधारी मिलिट्री के सैनिक में कोई फर्क नहीं है। सब सीखा हुआ है ऊपर से। लेफ्ट-राइट करने वाले लोग हैं, इससे ज्यादा कोई मूल्य नहीं है। लिया हुआ संन्यास झूठा होगा। संन्यास आना चाहिए।
जीवन की समझ से धीरे-धीरे संन्यास आता है।
सारा व्यक्तित्व बदल जाता है। उस बदले हुए व्यक्तित्व के लिए सारी जो बातें मैंने कही हैं, उसके लिए एक सहज, एक सहज फ्लावरिंग, एक सहज खिल जाना व्यक्तित्व का चाहिए। थोपा हुआ, जबर्दस्ती, खींचा-ताना, चेष्टा से लाया हुआ, डर और भय और प्रलोभन के मार्ग से बिठाया हुआ इस तरह का कोई भी ढांचा मनुष्य के हित में नहीं है, मनुष्य की हत्या करता है।
और बहुत से प्रश्र्न रह गए हैं, उन पर तो बात संभव नहीं हो पाएगी। जिन मित्रों के प्रश्र्न छूट गए हों, वे भी जिन प्रश्र्नों के मैंने उत्तर दिए हैं, अगर उन्हें उन्होंने गौर से सुना होगा, समझा होगा, तो उन्हें ऐसा नहीं लगेगा कि उनके प्रश्र्न छूट गए हैं।
लेकिन हमारे मन में बड़ा मुश्किल होता है। जो आदमी प्रश्र्न पूछता है, उसे प्रश्र्न से ज्यादा इस बात का खयाल होता है कि मेरा प्रश्र्न! तो मैं इधर से निकलता हूं तो मुझे रास्ते में याद दिला देते हैं कि और तो सब ठीक है, लेकिन मेरे प्रश्र्न का क्या हुआ! वह प्रश्र्न उतना मूल्यवान नहीं है। वह मैंने पूछा है, उसका उत्तर जरूरी है!
जो सारभूत प्रश्र्न थे, जो सबके प्रश्र्नों में समान थे। जो मुझे लगे कि आपकी साधना में उपयोगी होंगे, उनके मैंने उत्तर दिए हैं। कुछ और भी प्रश्र्न उपयोगी हो सकते थे, लेकिन वे समय के अभाव में संभव नहीं हैं। तो जिनके प्रश्र्नों के उत्तर न मिल पाए हों, वे अपने प्रश्र्नों को सम्हाल कर रखेंगे, ताकि दुबारा कभी उनके उत्तर मिल सकें। हालांकि लोग प्रश्र्न भी भूल जाते हैं, क्योंकि प्रश्र्न भी उधार होते हैं, वे भी अपने नहीं होते हैं। ऐसा मैं रोज-रोज अनुभव करता हूं।
एक आदमी आता है मेरे पास और वह पूछता है कि आत्मा के संबंध में कुछ बताइए?
और मैं देखता हूं कि इस बेचारे को आत्मा से क्या मतलब होगा! आत्मा से किसी का क्या मतलब हो सकता है?
तो मैं उससे पूछता हूं, कैसी तबीयत है, क्या हाल है, कैसा काम चलता है? बस दो मिनट दूसरी बात करता हूं। फिर वह घंटे भर बैठता है, फिर वह हजार बातें करता है, फिर वह चला जाता है।
फिर भूल कर दुबारा याद नहीं दिलाता कि वह आत्मा का क्या हुआ! वह बात गई। वह कहीं उसके भीतर से आई हुई बात नहीं थी कि उसे पूछने से कोई संबंध था बहुत। पूछना था, पूछ लिया। सुना था, खयाल आ गया। मन में हवा उड़ गई, खयाल आया कि चलो आत्मा के संबंध में पूछें। लेकिन कहीं कोई सिंसियरिटी, कहीं कोई बहुत गहरा लगाव नहीं था, कि उस पर कोई अटकाव भी नहीं था। लेकिन अगर किन्हीं का अटकाव हो और उनके प्रश्न छूट गए हों तो फिर...।
अब हम आज रात के अंतिम ध्यान के लिए बैठेंगे।
तो अंतिम ध्यान है, इसलिए थोड़ी-थोड़ी जगह बना लें। और परिपूर्ण मन से खोने की तैयारी करें। बिना बातचीत किए। हवा को बिगाड़ें मत। चुपचाप हट जाएं। कहीं भी चुपचाप बिना बात किए बैठ जाएं।
शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। शरीर को ऐसा रखें जैसे है ही नहीं, जैसे रुई का फोहा हो जाए हलका, निर्भार, नहीं है; उसका पता ही न चले कि वह है भी। और हमारे हाथ में है, हम छोड़ दें तो वह ऐसा हो जाता है कि नहीं है। फिर आंख बंद कर लें। धीमे से आंख बंद कर लें। अब प्रकाश बुझा दिया जाएगा। अंधकार में, पूर्ण अंधकार में अपने को बिलकुल लीन कर लेना
है एक। इस रात के साथ एक हो जाना है। वृक्षों के साथ, हवाओं के साथ। हम रहें ही न। जैसे सागर में एक लहर होती है, सागर के साथ एक, अलग दिखती है, लेकिन एक है। ऐसे ही बिलकुल अपने को खो देना है इस विराट सागर में जीवन के। और जितना हम खोएंगे उतना ही पाएंगे। जितने हम मिटेंगे उतने ही हो जाएंगे। जितना हम डूब जाएंगे उतने ही किनारे पर पहुंच जाएंगे।
(अब प्रकाश बुझा दें।)
शरीर को ढीला छोड़ें। मैं सुझाव देता हूं उसके अनुसार शरीर को ढीले से ढीला छोड़ते जाएं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें, जैसे है ही नहीं--शरीर जैसे है ही नहीं।
श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...अनुभव करें, श्वास शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...छोड़ दें...श्वास को भी बिलकुल ढीला छोड़ दें...।
मन भी शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...छोड़ दें, मन को भी छोड़ दें...सब छोड़ दें, सब बिलकुल छोड़ दें, जैसे मिट गए। और दस मिनट के लिए इस रात के साथ एक हो जाएं। हवाओं की आवाज सुनाई पड़े, तो जानें कि मैं ही हवा हूं। झींगुरों की आवाज सुनाई पड़े, तो जानें कि हमारे भीतर ही आवाज है। यह रात भी हमारे भीतर है, ये चांद-तारे भी। हम सब एक हैं। दस मिनट के लिए बिलकुल एक हो जाएं।
अब मैं चुप हो जाऊंगा। बिलकुल अपने को छोड़ दें और दस मिनट के लिए मिट जाएं।
छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं। छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...इस रात के साथ एक हो जाएं...इस सन्नाटे के साथ एक हो जाएं, जैसे हैं ही नहीं। छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...इस रात के साथ एक हो जाएं...बिलकुल एक हो जाएं, जैसे हैं ही नहीं...मिट गए, जैसे हैं ही नहीं...सन्नाटा है, रात है, झींगुरों की आवाज है और हम मिट गए हैं, हम एक हो गए हैं।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...डूब जाएं, रात के इस अंधकार से एक हो जाएं, रात ही हो जाएं। छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...अपने पर सारी पकड़ छोड़ दें।
बिलकुल मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं। छोड़ दें...सब छोड़ दें...सारी पकड़ छोड़ दें, अपने को छोड़ दें, एक हो जाएं, रात के साथ एक हो जाएं और मन बिलकुल शांत हो जाएगा...।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...हवाओं के साथ, रात के साथ एक हो जाएं। उड़ जाएं हवाओं में। खो जाएं रात में। अलग नहीं हैं, पृथक नहीं हैं। हम अलग नहीं हैं, पृथक नहीं हैं। बस एक हो गए हैं। अपने और सबके बीच की दीवाल गिरा दें, एक हो जाएं, एक हो जाएं और मन शांत हो जाएगा...और मन परिपूर्ण शांत हो जाएगा...।
हम तो मिट गए, रात ही रह गई, जैसे हम हैं ही नहीं। मन बिलकुल शांत हो जाएगा...मन शांत हो जाएगा...मन शांत हो जाएगा...मन शांत हो जाएगा...।
सब ठहर गया, सब मिट गया। समय ठहर गया, सब ठहर गया। बिलकुल छोड़ दें...।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ अनुभव करें, सब जुड़ा है। हम बाहर से जुड़े हैं; न कुछ बाहर है, न कुछ भीतर है, सब एक है।
धीरे-धीरे गहरी श्वास लें...हम जुड़े हैं; बाहर-भीतर कुछ भी नहीं है, एक ही है। फिर धीरे-धीरे आंख खोलें और देखें इस अंधकार को, बाहर भी सब शांत है, भीतर भी सब शांत है। दोनों के बीच कोई दीवाल नहीं है। खोलें आंख को, देखें आकाश को, देखें वृक्षों को, सब एक है, बाहर-भीतर कोई फासला नहीं है।

(प्रकाश जला दें।)
हमारी अंतिम बैठक पूरी हुई।

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