YOG/DHYAN/SADHANA

Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat 06

Sixth Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
जीवन में दो भ्रम हैं। दोनों ही बहुत सत्य मालूम होते हैं। एक भ्रम तो पदार्थ का है, मैटर का और दूसरा भ्रम अहंकार का है, ईगो का। एक भ्रम बाहर है, एक भ्रम भीतर है। दोनों भ्रम एक साथ ही जीते हैं और एक साथ ही मरते भी हैं। वे एक ही भ्रम के दो छोर हैं, एक ही इलूजन के।
पदार्थ दिखाई पड़ता है और खयाल में भी नहीं आता कि ऐसा भी हो सकता है कि पदार्थ न हो। बहुत ठोस मालूम होता है। पत्थर कितना ठोस है?
एक बहुत बड़ा विचारक जॉनसन, बर्कले के साथ घूमने निकला था। और बर्कले कहता था, बाहर जो भी दिखाई पड़ता है, सब भ्रम है। तो जॉनसन ने पत्थर उठा कर बर्कले के पैर पर पटक दिया। बर्कले पैर पकड़ कर बैठ गया। और बहुत चोट लग गई उसे, खून बहने लगा। जॉनसन ने कहा: यह पत्थर भ्रम है, जिससे चोट लगी और खून बहता है?
शायद जॉनसन ने सोचा होगा कि बहुत बड़ी दलील दे दी है उसने पत्थर के पक्ष में। लेकिन पत्थर भ्रम है। अब तो विज्ञान कहता है कि मैटर है ही नहीं--पदार्थ नहीं है।
बहुत पहले कुछ लोगों ने कहा था, पदार्थ माया है, इलूजन है। तब हंसी योग्य बात मालूम हुई होगी। पदार्थ और माया! पदार्थ ही तो सत्य है। जो दिखाई पड़ता है, वही तो सत्य है। आमतौर से हम कहते हैं, जो दिखाई पड़ता है, वही तो सत्य है। जो दिखाई नहीं पड़ता, वह सत्य कैसे हो सकता है? अब विज्ञान कहता है, जो दिखाई पड़ता है, वह बिलकुल सत्य नहीं है। पदार्थ--उसका ठोसपन, उसका होना, सभी असत्य है।
लेकिन कैसे हम मानें? पत्थर पैर पर गिरता है तो चोट लगती है। दीवाल से निकलने की कोशिश करें तो सिर टूट जाता है। इस दीवाल को सत्य कैसे न मानें, जिससे सिर टूट जाता हो? सिर जरूर टूट जाता है, फिर भी दीवाल जैसी दिखाई पड़ती है, वैसी नहीं है। हमें जो दिखाई पड़ रहा है बाहर का जगत--ये वृक्ष, आकाश में सूरज, यह पृथ्वी, ये पत्थर--यह चारों तरफ जो फैलाव है, इस फैलाव में हमें दिखाई पड़ता है--एक ठोसपन, एक पदार्थ, एक मैटीरियल!
लेकिन जैसे गहरी खोज की गई और पदार्थ तोड़ा गया तो पता चला, वहां सिर्फ ऊर्जा है, एनर्जी है, शक्ति है; पदार्थ नहीं है। पदार्थ अणुओं का जोड़ है; और अणु पदार्थ नहीं है। पदार्थ परमाणुओं का संग्रह है और परमाणु--परमाणु केवल ऊर्जा के कण हैं, शक्ति के कण हैं।
लेकिन फिर पदार्थ दिखाई कैसे पड़ता है? पदार्थ दिखाई पड़ता है ऊर्जा के कणों की तीव्र गति से, स्पीड से। एक पंखा है, उसमें तीन पंखुड़ियां हैं। पंखा रुका है, तो तीन पंखुड़ियां दिखाई पड़ती हैं। तेज चलता है पंखा, फिर पंखुड़ियां तीन नहीं दिखाई पड़ती हैं, फिर बीच की खाली जगह दिखाई नहीं पड़ती है, फिर पूरा घूमता हुआ एक वृत्त मालूम होता है। अगर बहुत तेज चले पंखा तो हमें दिखाई पड़ेगा कि टीन का एक गोल घेरा घूम रहा है, जो कि नहीं है! बीच की खाली जगह दिखना बंद हो जाएंगी--तीव्र गति होगी!
पदार्थ के जो अणु हैं, ऊर्जा के जो अणु हैं, वे इतनी तीव्र गति से घूम रहे हैं कि उनकी तीव्र गति के कारण ठोस होने का भ्रम पैदा होता है। उनके बीच की खाली जगह दिखाई नहीं पड़ती। खाली जगह ठोस हो जाती है। वे इतनी तेजी से घूम रहे हैं, उनकी गति बहुत तीव्र है, उनकी गति उतनी ही है जितनी सूरज की किरणों की गति है। सूरज की किरणें एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलती हैं। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की सीधी गति है सूरज की किरणों की। और वे अणु छोटी सी जगह में इसी गति से घूमते हैं, वे एक सेकेंड में कितने चक्कर लगा लेते होंगे एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की गति से?
छोटे-छोटे अणु! और अणु कितने छोटे हैं! अगर हम अपने बाल के किनारे परमाणुओं को खड़ा करें तो एक बाल की मोटाई में एक लाख परमाणु सीधे खड़े हो जाएंगे। इतने छोटे परमाणु हैं, इतनी छोटी उनकी परिधि है घूमने की। और परिधि की घूमने की गति एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड है। इसलिए ठोस दिखाई पड़ती हैं चीजें। कोई चीज ठोस नहीं है। पदार्थ बिलकुल भ्रम है।
एक भ्रम बाहर है और दूसरा इसी भ्रम का छोर भीतर है। भीतर दिखाई पड़ता है कि ‘मैं हूं’, ईगो। यह ‘मैं’ भी बिलकुल झूठ है। यह ‘मैं’ भी एकदम माया है, यह ‘मैं’ भी एकदम इलूजन है।
लेकिन आप कहेंगे, मान भी लें कि पदार्थ ऊर्जा का परिभ्रमण है, लेकिन यह ‘मैं’ कैसे झूठ है? मेरा जन्म नहीं हुआ? मैं बच्चा नहीं था? मैंने शिक्षा नहीं ली? मैं बड़ा नहीं हुआ? मैं आज जवान नहीं हूं? मैं कभी बीमार पड़ता हूं, कभी स्वस्थ होता हूं! फिर मैं अगर नहीं हूं तो यह सब कहां होता है? किस पर होता है? ये सारे अनुभव किस पर गुजरते हैं? मैं हूं। मेरी इज्जत है, मेरी प्रतिष्ठा है, मेरा मान है, मेरा सम्मान है, मेरा ज्ञान है, मेरा त्याग है! मैं नहीं हूं? अगर मैं ही नहीं हूं तो फिर तो सब मिट गया।
इस ‘मैं’ के भीतर भी अगर हम प्रवेश करें, जैसे वैज्ञानिक परमाणु के भीतर प्रवेश किया--पदार्थ के भीतर और उसने कहा कि मैटर नहीं है। ऐसे ही जब कोई व्यक्ति इस ‘मैं’ के भी भीतर प्रवेश करे और ‘मैं’ के परमाणुओं को जाने, तो उसे पता चलता है कि ‘मैं’ भी एक भ्रम है। ‘मैं’ के परमाणु क्या हैं?--अनुभव। जैसे पदार्थ के परमाणु हैं--विद्युतकण; ऐसे ‘मैं’ के परमाणु हैं--अनुभव के कण। वे अनुभव के कण इकट्ठे हो गए हैं और तेजी से घूम रहे हैं। उनकी तेज गति के कारण यह शक पैदा होता है, यह लगता है कि ‘मैं हूं।’
जैसे कि हम एक मशाल जला लें और तेजी से मशाल को घुमाएं तो एक फायर सर्किल बन जाएगा। दिखाई पड़ने लगेगा एक अग्नि का गोल घेरा। वह है नहीं कहीं भी। सिर्फ एक मशाल घूम रही है, लेकिन तेजी से घूम रही है और एक वृत्त बन रहा है। मशाल नहीं दिखेगी, वृत्त दिखाई पड़ेगा। मशाल रुक जाए तो दिखाई पड़ जाएगा--वृत्त झूठ था, वह फायर सर्किल झूठ था, वह अग्नि-वृत्त नहीं था, सिर्फ एक मशाल तेजी से घूमती थी।
जब कोई व्यक्ति भीतर प्रवेश करेगा तो पता चलेगा कि अनुभव के कण, स्मृतियों के कण, जो हो चुका है उसके कण इतनी तेजी से घूम रहे हैं कि उन तेजी से घूमते हुए कणों के कारण एक सर्किल पैदा होता है, एक वृत्त पैदा होता है, ईगो-सर्किल पैदा होता है और लगता है कि ‘मैं हूं!’ यह ‘मैं हूं’ लगता है इसलिए कि हम कहते हैं--मेरा जन्म हुआ!
लेकिन सच बात यह है कि मेरा जन्म नहीं हुआ। जन्म हुआ--मेरा कब हुआ? आपको पता है आपका जन्म कब हुआ? जन्म हुआ। आप बड़े हुए। लेकिन आप कहते हैं, मैं बड़ा हुआ! बड़े हुए, बड़े होने की क्रिया हुई। बीमारी आई। स्वास्थ्य आया। लेकिन हम प्रत्येक घटना के साथ जोड़ते हैं कि ‘मैं’ बीमार हुआ, ‘मुझे’ भूख लगी, ‘मैं’ स्वस्थ हुआ, ‘मैं’ गया!
लेकिन अगर हम एक-एक अनुभव के भीतर प्रवेश करें तो पता चलेगा घटनाएं घटी हैं। लेकिन हमारी सारी भाषा भ्रांत है। हम कहते हैं, आकाश में बिजली चमकी! भाषा से ऐसी भूल पैदा होती है कि बिजली कोई अलग चीज है और चमकना कोई अलग चीज है। बिजली चमकी। हम कहते हैं, बिजली है, जो चमकी। लेकिन विज्ञान कहेगा, बिजली चमकी यह गलत है। चमकने का नाम बिजली है। बिजली कभी नहीं चमकी है। जो चमका है, उसी को हम बिजली कहते हैं। चमकना और बिजली एक ही चीज के दो नाम हैं। दो चीजें नहीं हैं कि बिजली कहीं अलग है और चमकना कहीं अलग है।
आप कहते हैं, मैं गया। अगर भीतर प्रवेश करेंगे तो पाएंगे, जाना हुआ है, मैं नहीं गया हूं। मैं और जाना एक ही चीज के दो नाम हैं। लेकिन हमारी भाषा कहती है कि मैं गया!
हम कहते हैं, मुझे प्यास लगी। सच बात यह है कि प्यास लगी। और प्यास लगते वक्त मैं और प्यास दो चीजें नहीं थे। मैं ही प्यास था।
लेकिन भाषा दो में तोड़ देती है। वह कहती है, मुझे प्यास लगी। हम कहते हैं, मुझे दुख हो रहा है। अगर हम बहुत गौर से देखेंगे तो सिर्फ दुख हो रहा है। दुख हो रहा है, यही ‘मैं हूं।’ लेकिन भाषा दो हिस्सों में तोड़ देती है। भाषा कहती है, मुझे दुख हो रहा है।
भाषा का जो हमारा निर्माण है उसमें ‘मैं’ निर्मित होता चला जाता है। मैं कहीं भी नहीं है, लेकिन यह निर्माण बचपन से लेकर जीवन भर चलता है। और एक ‘मैं’ का इलूजन, एक असत्य धीरे-धीरे पुंजीभूत हो जाता है, खड़ा हो जाता है, ठोस हो जाता है। और इसी ठोस ‘मैं’ का बोझ हमारे ऊपर सर्वाधिक है।
मैंने दो बोझों की बात की आपसे: अतीत का बोझ और भविष्य का बोझ। और अंतिम बोझ है: ‘मैं’ का बोझ, ‘अहंकार’ का बोझ।
यह अहंकार का बोझ, जब तक चित्त पर है, तब तक हम सत्य में प्रवेश नहीं पा सकते; क्योंकि यह है असत्य, यह है झूठ।
कभी अपने भीतर प्रवेश करें। अब हमारी सारी भाषा गड़बड़ है! जब हम कहेंगे, अपने भीतर, तो वह ‘मैं’ मजबूत होता है। कहना चाहिए, भीतर! लेकिन भीतर से भी वह ‘मैं’ मजबूत होता है, लगता है कि भीतर ‘मैं हूं’ और बाहर ‘मैं नहीं हूं!’
अब सच्चाई यह है कि ‘बाहर’ और ‘भीतर’ दोनों शब्द झूठे हैं। ऐसी दो चीजें नहीं हैं कि कुछ बाहर और कुछ भीतर है। एक ही चीज फैली है बाहर और भीतर। बाहर और भीतर दो चीजें नहीं हैं। बाहर और भीतर एक ही चीज के फैलाव हैं, एक ही चीज का एक्सटेंशन है। वही भीतर है, वही बाहर है। लेकिन हमारे देखने में ऐसा लगता है कि भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है।
हम कहते हैं, बाहर कुछ भी नहीं है, भीतर सब-कुछ है! हम कहते हैं, बाहर छोड़ो, भीतर जाओ! उस सबसे ‘मैं’ मजबूत होता है। लेकिन बहुत गौर से देखें--क्या है बाहर, क्या है भीतर? कौन सी चीज भीतर है और कौन सी चीज बाहर है? श्र्वास भीतर है कि बाहर? तो हमें पता चलेगा, श्वास बाहर भी है और भीतर भी। श्र्वास बाहर भी जाती है और भीतर भी जाती है। श्र्वास कहां है? श्र्वास बाहर और भीतर का जोड़ है, सेतु है।
यह सूरज हमसे बाहर है या भीतर? सूरज की गर्मी हमें भीतर पूरे वक्त मिल रही है। हम उसी से जी रहे हैं। सूरज बाहर है या भीतर, सूरज मेरा हिस्सा है या मुझसे अलग है? अगर सूरज बुझ जाए तो मैं भी बुझ जाऊंगा कि नहीं बुझ जाऊंगा? अगर सूरज बुझ जाए, हम सब यहीं बुझ जाएंगे। तो फिर सूरज बाहर था या भीतर था?
ये वृक्ष बाहर हैं कि भीतर? हम कहेंगे, निश्चित ही बाहर हैं। वृक्ष हमसे बाहर दिखाई पड़ रहे हैं। दिखाई पड़ रहे हैं, यह सच है। लेकिन कभी आपने खयाल किया, गेहूं आप कहां से ले आए? वृक्षों से। भोजन कहां से ले आए? वृक्षों से। वृक्ष पूरे वक्त आपके लिए भोजन तैयार कर रहे हैं। आप मिट्टी नहीं खा सकते हैं, लेकिन गेहूं बो देते हैं। गेहूं मिट्टी खाता है। पौधा बड़ा होता है, एक गेहूं की जगह हजार गेहूं लग जाते हैं। वह सब मिट्टी से खींचा है उस गेहूं ने। उस गेहूं ने सूरज की किरणें पी ली हैं। उस गेहूं में वह सारी प्रक्रिया हो गई कि अब इस प्रक्रिया के द्वारा गेहूं आपके शरीर का हिस्सा बन सकता है। अब यह गेहूं आपके भीतर जाएगा, आपका खून बनेगा, आपकी हड्डी बनेगा, आपका मांस बनेगा।
अगर सारे पौधे भोजन बनाना बंद कर दें, आप एक क्षण भी जीएंगे? आप इसी क्षण विदा हो जाएंगे। तो पौधे आपके बाहर हैं या भीतर? या उसी जीवन की बड़ी प्रक्रिया के हिस्से हैं, जिस जीवन की प्रक्रिया के आप भी एक हिस्से हैं। वही जीवन की प्रक्रिया एक तरफ गेहूं पैदा कर रही है और एक तरफ आपको पैदा कर रही है। फिर वही गेहूं आपको पोषण दे रहा है। और कल आप फिर गिर जाएंगे और फिर मिट्टी में मिल जाएंगे!
तो आप, मिट्टी और आप अलग-अलग हैं? उसी मिट्टी से पैदा होते हैं, उसी मिट्टी में विदा हो जाते हैं। उसी मिट्टी से जीते हैं, फिर वही मिट्टी बन जाते हैं। कितनी बार पौधे बन चुके हैं आप, और कितनी बार पौधे आदमी बन चुके हैं। और कितनी बार आदमी फिर मिट्टी बन चुका है, फिर पौधा बन चुका है! ये किसी एकही वृत्त के हिस्से हैं या अलग-अलग हैं? क्या है बाहर और क्या है भीतर?
जो बाहर है, वह प्रतिक्षण भीतर जा रहा है; जो भीतर है, वह प्रतिक्षण बाहर जा रहा है।
बाहर और भीतर एक ही जीवन-ऊर्जा की लहरें हैं। जब भीतर की तरफ लहर आती है तो हम कहते हैं ‘मैं’ और जब बाहर की तरफ जाती है तो हम कहते हैं ‘तू।’ लेकिन ‘तू’ और ‘मैं’ एक ही जीवन-ऊर्जा की लहर के दो छोर हैं।
यह दिखाई पड़ना जरूरी है कि यह ‘मैं’ भ्रम है। यह भीतर का भाव भी भ्रम है। और जब तक यह न दिखाई पड़ जाए, तब तक बोझ से मुक्ति नहीं हो सकती। क्योंकि जब तक मैं मानता हूं मैं हूं अलग, भिन्न, पृथक, तब तक एक बोझ रहेगा। क्योंकि तब तक एक संघर्ष रहेगा शेष से जो मैं नहीं है। ‘मैं’ का संघर्ष है ‘न-मैं’ से, ‘आई’ का संघर्ष है ‘नो-आई’ से; जब तक मैं मैं हूं, तू तू है, तब तक संघर्ष जारी रहेगा। जब तक वृक्ष अलग हैं, मैं अलग हूं; सूरज अलग है, मैं अलग हूं, तब तक एक अंतर्द्वंद्व जारी रहेगा। वह द्वंद्व ही मनुष्य के ऊपर सबसे बड़ा बोझ है, क्योंकि संघर्ष में शांति कहां, कांफ्लिक्ट में, द्वंद्व में शांति कहां?
हम लड़ रहे हैं प्रतिक्षण। सबसे लड़ रहे हैं चारों तरफ। और लड़ने का बिंदु यह भ्रम है कि मैं अलग हूं। अगर यह ज्ञात हो जाए कि मैं अलग नहीं हूं, मैं इसी विराट जीवन-प्रक्रिया का एक अंग हूं, तो किससे है लड़ना, किससे है संघर्ष, कौन है शत्रु?
फिर यह सारा विराट जीवन एक है।
ऐसा ही समझें कि अगर मेरे हाथ को खयाल पैदा हो जाए कि मैं अलग हूं। और मेरी आंख को खयाल पैदा हो जाए कि मैं अलग हूं। और आंख लड़ने लगे हाथ से, पेट लड़ने लगे सिर से, हाथ लड़ने लगे पैर से, तो क्या गति होगी उस व्यक्तित्व की, उस शरीर की? सारा व्यक्तित्व विघटित हो जाएगा। सारा व्यक्तित्व अंतर्द्वंद्व और संघर्ष में नष्ट हो जाएगा। सारा व्यक्तित्व एक कलह और एक कांफ्लिक्ट बन जाएगा। फिर जीवन आनंद नहीं हो सकता उस शरीर में। लेकिन नहीं, आंख जुड़ी है पैर से, हाथ जुड़े हैं सिर से, पेट जुड़ा है, सब जुड़ा है। और सबके भीतर एक सहयोग एक कोऑपरेशन, एक अंतर्संबंध, एक अंतर-ऐक्य। भीतर सब एक है। आंख और पैर का अंगूठा अलग-अलग नहीं, दोनों एक ही जीवन-प्रक्रिया के हिस्से हैं। गौर से देखेंगे, समझेंगे, पहचानेंगे तो समस्त जीवन एक ही प्रक्रिया मालूम होगी।
और जिस दिन ऐसा मालूम होता है कि समस्त जीवन एक ही प्रक्रिया है, उसी दिन ईश्र्वर का अनुभव हो जाता है। ईश्र्वर का और कोई अर्थ नहीं है। ईश्र्वर का अर्थ है: सब एक है। ईश्र्वर का अर्थ है: अनेक नहीं हैं। ईश्र्वर का अर्थ है: खंड-खंड नहीं हैं। सब अखंड है। और वह अखंड का इकट्ठा जीवन है।
लेकिन हमने उस अखंड से अपने को अलग तोड़ा हुआ है। और भक्त भी कहता है कि मैं अलग हूं! भक्त कहता है, हे भगवान, मुझ पर दया करना! वह कहता है कि मैं अलग हूं। तू दया करने वाला है, मैं दया पाने वाला हूं। तू पतित पावन है, मैं पतित हूं। लेकिन भक्त भी कहता है, मैं अलग हूं। भक्त भी कहता है कि मेरा उद्धार करना!
किससे कह रहे हो? तुम वही हो जिससे कह रहे हो! किससे मांग रहे हो भीख? तुम जिससे भीख मांग रहे हो, वही हो! वहां कोई भी नहीं है और सुनने को। क्योंकि मांगने वाला ही पाने वाला है। देने वाला ही लेने वाला है। वहां दो नहीं हैं। लेकिन सारे भक्त हाथ जोड़े खड़े हैं--किसके सामने?
और इसलिए मैं कहता हूं, सारे भक्त नास्तिक हैं। किसी भक्त को ईश्र्वर का कोई पता नहीं है। किससे हाथ जोड़ रहे हो? हाथ जोड़ने का मतलब है कि कोई दूसरा है। और जहां दूसरा है, वहीं सब उपद्रव शुरू हो गया। वहां हमने तोड़ लिया अपने को। किससे कर रहे हो प्रार्थना? किसके चरणों में हाथ जोड़ कर सिर टेक कर पड़े हो? कौन है वहां दूसरा?
कोई भी नहीं है। जीवन एक अंतहीन विस्तार है एक ही ऊर्जा का, एक ही जीवन-शक्ति का। लेकिन भक्त भी कहता है कि भगवान अलग है! भगवान को पाने की मैं कोशिश कर रहा हूं! भगवान को पाने की कोशिश भ्रम है। भ्रम इसलिए है कि भगवान को पाने की कोशिश में यह माना हुआ है कि मैं हूं और मैं भगवान को पाऊंगा!
नहीं, धर्म नहीं मानता, नहीं जानता ऐसा कि कोई और है। धर्म का ज्ञान, धर्म का जानना यह है कि ‘मैं नहीं हूं।’ और तब सब एक हो जाता है।
फिर किससे करनी है प्रार्थना? फिर अपने ही हाथ को अपने ही सिर के प्रति जोड़े हुए हैं! अपने ही पैरों पर अपना ही सिर रखे हुए हैं! एब्सर्डिटी है सारी प्रार्थना, सारी पूजा, सारी अर्चना--एकदम ही मूढ़तापूर्ण है, क्योंकि किससे कर रहे हैं यह?
वह जो मौलिक भ्रम है, वह जो ओरिजिनल इलूजन है वह कायम है कि दूसरा अलग है और मैं अलग हूं! भीतर वह जो छोर है बाहर का एक, उसमें प्रवेश करके खोजें--‘मैं हूं’? जाएं और खोजें कि ‘मैं कहां हूं?’ और एक-एक जगह पूछें कि मैं यह हूं? मैं शरीर हूं?
हम कहेंगे, साधक पूछते हैं। साधक पूछते हैं, मैं शरीर हूं? और उत्तर उनके पास तैयार है, वे कहते हैं, मैं शरीर नहीं हूं! वह उत्तर कहीं से आता नहीं, वह किताब से पढ़ा हुआ है। उत्तर पहले से मालूम है, पूछते पीछे हैं। पूछना झूठ है। उत्तर पहले से मालूम है, जैसा कि बच्चे नकल करते हैं। गणित करने के पहले किताब उलटा कर देख लेते हैं कि उत्तर क्या है। उत्तर पहले से मालूम है, फिर गणित कर रहे हैं।
ऐसा ही धार्मिक लोग करते हैं। उत्तर पहले से पक्का उन्हें पता है कि हम आत्मा हैं। फिर अपने से पूछ रहे हैं कि मैं शरीर हूं? और फिर खुद ही कह रहे हैं कि मैं शरीर नहीं हूं। क्या पागलपन है! किससे पूछ रहे हो? किसको उत्तर दे रहे हो?
और जब पूछना ही शुरू किया है तो फिर अंत तक पूछो, फिर इतनी जल्दी मत रुक जाओ। फिर पूछो कि मैं शरीर हूं? और उत्तर किताब से मत लाओ, क्योंकि किताब से आया हुआ उत्तर आपके लिए झूठा होगा। वह किसी के लिए सच होगा, जिसे मिला था। आपको किताब से मिला है। आपको नहीं मिला है। आपको नहीं आया है आपसे।
पूछो, मैं शरीर हूं? पूछो, मैं मन हूं? लेकिन यहीं मत रुक जाओ। जो रुक जाता है, वह पूछता ही नहीं। फिर यह भी पूछो, मैं आत्मा हूं? और हर जगह उत्तर मिलेगा, नहीं। शरीर पर भी मिलेगा, मन पर भी मिलेगा, आत्मा पर भी मिलेगा। असल में जो भी हम पूछ सकते हैं, वही उत्तर मिलेगा--यह मैं नहीं हूं। पूछते चले जाओ, खोजते चले जाओ और आखिर में, अंत में पाओगे कि मैं हूं ही नहीं। उत्तर मिलेगा ही नहीं। अंततः पता चलेगा कि मैं हूं ही नहीं। सब हैं, मैं नहीं हूं।
जैसे कोई प्याज को छीलना शुरू करे, एक पर्त निकाल ले। पूछे, अब प्याज कहां है? यह पर्त तो प्याज नहीं है। फेंक दी, फिर दूसरी पर्त निकाली। यह भी प्याज नहीं है। और प्याज, और प्याज, और खोजता चला जाए और एक-एक पर्त को फेंकता चला जाए। आखिर में क्या मिलेगा? आखिर में शून्य मिलेगा और पता चलेगा प्याज है ही नहीं, सब पर्त ही पर्त थी।
ऐसे ही अगर कोई खोजता चला जाए तो पर्त ही पर्त मिलेगी और ‘मैं’ कहीं भी नहीं मिलेगा। अंततः सब पर्तें शांत हो जाएंगी और मैं का भाव भी शांत हो जाएगा। लेकिन जहां ‘मैं’ शांत हो जाता है, वहां ‘मैं’ तो नहीं मिलता, सब मिल जाता है!
पूछो, मैं कौन हूं? और आखिर में पता चलेगा मैं हूं ही नहीं। और तब जिसका पता चलेगा--वही है। उसका ही नाम सत्य है, उसी का नाम परमात्मा है। लेकिन जो कहता है, मैं आत्मा हूं, वह परमात्मा को कभी नहीं जान पाता, क्योंकि वह यह मान कर चल रहा है कि मैं हूं। वह जिसको हम आत्मवादी कहते हैं, वह भी परमात्मवादी नहीं है। क्योंकि आत्मवादी कहता है, ‘मैं हूं।’ और वह जिद उसकी कायम है कि मैं अलग हूं! वह कहता है, मुझे मोक्ष चाहिए! और वह कहता है, मोक्ष में भी ‘मैं’ रहूंगा!
सब छोड़ने को राजी हो जाता है आत्मवादी, लेकिन ‘मैं’ को छोड़ने को राजी नहीं है। वह कहता है, धन मैं छोड़ दूंगा। वह कहता है, मकान मैं छोड़ दूंगा। वह कहता है, पत्नी-बच्चे मैं छोड़ दूंगा। वह कहता है, संसार मैं छोड़ दूंगा। यहां तक कि वह कहता है, देह मैं छोड़ दूंगा, मर जाऊंगा, संथारा ले लूंगा। लेकिन वह यह कहता है कि ‘मैं’ को मैं नहीं छोडूंगा! मैं बचूंगा! मैं मोक्ष में रहूंगा! मैं परिपूर्ण शांति और आनंद को मोक्ष में अनुभव करूंगा! लेकिन मैं? मैं बचूंगा!
लेकिन बड़े मजे की बात है, असली संपत्ति ‘मैं’ है, धन असली संपत्ति नहीं है। और धन में जो मजा है, वह ‘मैं’ के मजबूत होने का मजा है और कोई मजा नहीं है। मेरे पास कुछ है, इसका जो मजा है, वह मेरे ‘मैं’ को मजबूत करने का मजा है! आपके पास एक बड़ा मकान है तो उसी अनुपात में आपके पास बड़ा ‘मैं’ होगा। छोटा मकान है, ‘मैं’ छोटा हो जाएगा। छोटे मकान से तकलीफ नहीं होती, तकलीफ ‘मैं’ के छोटे हो जाने से होती है। अगर आप एक बड़ी कुर्सी पर सवार हैं तो आपके पास एक बड़ा ‘मैं’ है। कुर्सी से नीचे उतार दिए गए, छोटा ‘मैं’ हो गया। तकलीफ कुर्सी से नहीं होती। बड़े तख्त पर बैठने से कौन सा सुख मिलता होगा? लेकिन बड़े तख्त पर बैठने से ‘मैं’ बड़ा हो जाता है।
वह ‘मैं’ बिलकुल काल्पनिक है। बड़े तख्त का सहारा लेकर बड़ा हो जाता है। बड़े धन का सहारा लेकर बड़ा हो जाता है। बड़े पद का सहारा लेकर बड़ा हो जाता है। और हम कहते हैं, पद छोड़ दो, धन छोड़ दो। लेकिन वह ‘मैं’ बहुत होशियार है। वह छोड़ने से भी बड़ा हो जाता है। वह कहता है, ‘मैंने’ धन छोड़ दिया! देखो ‘मैंने’ मिनिस्टरी को लात मार दी, ‘मैंने’ पद छोड़ दिया! मैंने सब छोड़ दिया। लेकिन वह ‘मैं’ कहता है, ‘मैंने’ सब छोड़ दिया! वह फिर नई शक्लों में खड़ा हो जाता है। इसलिए धन छोड़ना आसान है, क्योंकि धन छोड़ने से ‘मैं’ मरता नहीं और मजबूत होता है। धन को तो चोर भी चुरा सकते हैं, लेकिन त्याग को कोई नहीं चुरा सकता। इसलिए अगर तिजोरी ही मजबूत बनानी हो, तो त्याग की तिजोरी बनानी चाहिए। लोहे की तिजोरियां चोरी जाती हैं, टूट जाती हैं। चोर भी बहुत होशियार हैं।
संन्यासी के अहंकार भर की चोरी नहीं हो सकती। गृहस्थ के अहंकार की चोरी हो सकती है, गृहस्थ नासमझ है। संन्यासी होशियार है, ज्यादा कनिंग, ज्यादा चालाक है। वह ऐसा ‘मैं’ मजबूत कर रहा है, जिसको कोई चुरा नहीं सकता। उसके ‘मैं’ को आप कैसे चुराइएगा? अगर आप उसके कपड़े छीन कर ले जाओ, वह कहेगा, हमने कपड़े भी त्याग दिए। चलो यह झंझट भी मिटी, कपड़े भी अब नहीं रहे। अब हम और भी मुक्त हो गए। अब वह ‘मैं’ और मजबूत हो गया--वह कहता है, मैंने कपड़े भी छोड़ दिए!
गृहस्थ नासमझ अहंकारी है, संन्यासी समझदार अहंकारी है।
इसलिए गृहस्थ की जब नासमझी टूटती है तो वह भी संन्यासी होना शुरू हो जाता है। उसको समझ में आ जाता है कि हम कहां के पागलपन में पड़े हैं! इसमें कोई सार नहीं है। धन चोरी चला जाता है। सरकार बदल जाए, सब गड़बड़ हो जाता है। कम्युनिज्म आ जाए, सब गड़बड़ हो जाता है।
संन्यासी से कोई कुछ नहीं छीन सकता है। उसके पास कुछ है ही नहीं जिसको छीनोगे। उसके पास शुद्ध ‘मैं’ बच गया है, जिसके पास अब कुछ भी नहीं है छोड़ने को। लेकिन असली सवाल है ‘मैं’ के छोड़ने का। न धन छोड़ने का सवाल है, न मकान छोड़ने का, न पद छोड़ने का। सवाल है ‘मैं’ छोड़ने का। लेकिन वह तो मोक्ष की खोज करने वाला भी नहीं छोड़ता! वह कहता है, ‘मैं’ तो रहूंगा, शुद्ध रूप में रहूंगा! शरीर छूट जाएगा, लेकिन मैं रहूंगा! मन छूट जाएगा, मैं रहूंगा! वासना छूट जाएगी, मैं रहूंगा!
यह बहुत अदभुत बात है। कि जो सबसे ज्यादा भ्रामक है, उसी को बचाने की चेष्टा चलती है। नहीं, जब तक ‘मैं’ है, तब तक कुछ नहीं छूटता। जिस दिन ‘मैं’ छूट जाता
है, उसी दिन कुछ छूटता है। और जिस दिन ‘मैं’ छूट जाता है, उस दिन मोक्ष है। ‘मैं’ का कोई भी मोक्ष नहीं है, ‘मैं’ से मुक्ति का नाम मोक्ष है। ‘मैं’ की कोई मुक्ति नहीं होती कि मैं मुक्त हो जाऊंगा। मुक्त होने का मतलब कि ‘मैं’ तो मरा, ‘मैं’ तो गया। मुक्ति में कोई ‘मैं’ नहीं बच रहता है।
मुक्ति का अर्थ है: परमात्म-जीवन। जहां मैं नहीं रहा, समग्र की सत्ता रह गई है। मैं सबके साथ एक--और एकमय हूं। मुझे होना नहीं है, सिर्फ जानना है कि सत्य क्या है। क्या मैं अलग हूं? क्या मैं पृथक हूं? क्या पृथक होकर एक क्षण भी जीया जा सकता है? क्या जीवन का पृथक होना संभव है? क्या एक व्यक्ति को हम एक कैप्सूल में बंद कर दें, सब तरफ से तोड़ दें, वह जीएगा? एक क्षण भी जीएगा?
जीवन अंतर्संबंध है, इंटररिलेशनशिप है। जीवन विराट अंतर्संबंध है।
सोचें कि एक व्यक्ति को हमने बंद कर दिया एक वैक्यूम कैप्सूल में, एक शून्य डिब्बे में बंद कर दिया। उसका कोई संबंध नहीं रहा दुनिया से। वह एक क्षण भी जी सकता है वहां? एक क्षण भी हो सकता है वहां? वह नहीं होगा, नहीं हो सकता।
लेकिन हम सबने अहंकार का कैप्सूल बनाया हुआ है। और उस अहंकार में हम सब अलग-अलग खड़े हो गए हैं और कहते हैं ‘मैं हूं!’ यद्यपि हम जुड़े हैं। लेकिन फिर भी हम कहते हैं कि ‘मैं हूं’ अलग और पृथक!
जीवन है संयुक्त। अहंकार है वियुक्त।
अहंकार की खोज करनी जरूरी है कि कहीं यह भ्रम तो नहीं है? कभी एकांत में बैठ कर देखा है भीतर की तरफ--कहां है अहंकार, कहां हूं मैं? पूछते चले जाएं--यह हूं मैं? और उत्तर आएगा, नहीं। नेति-नेति उत्तर आएगा--नहीं, नहीं, यह भी नहीं हूं।
लेकिन अगर किताब से उत्तर सीख लिया तो उत्तर आएगा--हां! शरीर तो नहीं हूं, लेकिन आत्मा हूं! आत्मा तो नहीं हूं, लेकिन परमात्मा हूं! उत्तर अगर सीखा हुआ है तो व्यर्थ हो जाएगा।
सिर्फ पूछें--इंक्वायरी चाहिए, अन्वेषण चाहिए कि यह हूं मैं? और फौरन पता चलेगा कि मैं यह नहीं हो सकता। हाथ मैं नहीं हो सकता हूं, क्योंकि मैं तो हाथ को जान रहा हूं, पहचान रहा हूं। शरीर हूं मैं? शरीर मैं नहीं हो सकता हूं, क्योंकि शरीर को मैं पहचान रहा हूं, शरीर को मैं जान रहा हूं। जिसको मैं जान रहा हूं, वही मैं नहीं हो सकता हूं, मैं जानने वाला हूं। तो फिर और पूछें--विचार हूं मैं? विचारों को भी मैं जान रहा हूं। मन हूं मैं? मन को भी मैं जान रहा हूं। पूछते चलें, पूछते चलें। आत्मा हूं मैं? असल में जिसको भी हम पूछ सकते हैं, यह हूं मैं? वही हम नहीं होंगे। और पूछते-पूछते वह घड़ी आएगी कि पता चलेगा कि अब तो पूछने को कुछ नहीं बचा कि क्या हूं मैं। पूछने को ही नहीं बचा कि क्या हूं मैं। और उत्तर भी नहीं मिला! उत्तर भी खो जाएगा, पूछने की वृत्ति भी खो जाएगी, साथ ही ‘मैं’ भी खो जाएगा।
तब शेष रह जाएगी एक अनंत शांति, तब शेष रह जाएगा अनंत मौन। न वहां प्रश्र्न है, न वहां उत्तर है। तब शेष रह जाएगा अनंत विस्तार। तब शेष रह जाएगा जीवन और जीवन का स्पंदन। और तब दिखाई पड़ेगा, यह वृक्ष भी मैं हूं, यह शरीर भी मैं हूं, यह चांद भी मैं हूं, यह तारा भी मैं हूं। वह जो सामने दूसरी आंखें दिखाई पड़ रही हैं, उनसे भी मैं ही झांक रहा हूं। मैं ही बोल रहा हूं और वह जो सुन रहा हूं, वह भी मैं हूं। मैं ही बोल रहा हूं, दूसरे कोने से मैं ही सुन रहा हूं। वह जिसको मैं प्रेम कर रहा हूं, वह भी मैं हूं। और वह जो प्रेम कर रहा है, वह भी मैं हूं।
जिस दिन दिखाई पड़ेगा, ‘मैं नहीं हूं’, उसी दिन एक क्रांति हो जाएगी। और दिखाई पड़ेगा, ‘मैं ही हूं।’ ये दोनों बातों का एक ही अर्थ है। चाहे यह कहें कि मैं नहीं हूं, सब है। और चाहे यह कहें, कुछ भी नहीं है, मैं ही हूं। ये दोनों एक ही बातें हैं। इन दोनों का एक ही अर्थ है कि जीवन है, जीवन का अंतहीन अनंत विस्तार है। ऊर्जा का सागर है, एक एनर्जी है, जो स्पंदित हो रही है अनंत-अनंत रूपों में। लेकिन एक का ही स्पंदन है। और जब तक यह बोध स्पष्ट न हो जाए, तब तक बोझ से मुक्ति नहीं हो सकती।
अहंकार सबसे बड़ा बोझ है।
लाओत्सु के पास एक आदमी गया और उस आदमी ने पूछा कि मैं मोक्ष चाहता हूं। लाओत्सु हंसने लगा। उसने कहा: पागल, तू मोक्ष चाहता है, तू? उसने कहा: हां मैं, मैं मोक्ष चाहता हूं, मैं मोक्ष को कैसे पाऊं?
लाओत्सु ने कहा: पहले समझ कर आ कि ‘मैं’ है? अगर हो तो मैं मुक्त करने का रास्ता बता दूंगा। पहले जा, खोज कर आ कि ‘मैं’ है। अगर ‘मैं’ हो तो मैं मुक्त होने का रास्ता बता दूं। और अगर ‘मैं’ ही न हो, तो किसको मुक्त करने का रास्ता मैं बताऊंगा!
वह आदमी वापस गया। वर्षों बाद वापस लौटा, चरणों पर सिर रख दिया। लाओत्सु ने पूछा: खोज लिया ‘मैं?’
उस आदमी ने कहा: आपने भी क्या आश्र्चर्यजनक बात कही। ‘मैं’ को खोजने गया, मैं खो गया!
तो लाओत्सु ने कहा: मोक्ष का इरादा?
उसने कहा: बात ही खत्म हो गई। मैं ही नहीं हूं तो मुक्त किसको होना है! और जब मैं ही नहीं हूं तो मुक्त हो गया। क्योंकि मैं ही बंधन था।
लेकिन हम सब मोक्ष खोज रहे हैं। हम कहते हैं, मुझे शांत होना है। ध्यान रहे, जब तक ‘मैं’ है, तब तक शांति नहीं हो सकती। लेकिन हम पूछते हैं, मैं शांत कैसे हो जाऊं? हम पूछते हैं, मैं शांत कैसे हो जाऊं?
यह ऐसे ही है, जैसे कैंसर पूछे कि मैं स्वस्थ कैसे हो जाऊं? अगर कैंसर आ जाए और आपसे पूछे, टी. बी. आ जाए और आपसे पूछे कि मैं स्वस्थ कैसे हो जाऊं? तो हम उससे कहेंगे कि तू ही तो बीमारी है। इसलिए तू स्वस्थ नहीं हो सकती, तू न रहे तो स्वास्थ्य आ जाएगा। कैंसर स्वस्थ नहीं हो सकता, कैंसर का न होना स्वस्थ होना होगा।
‘मैं’ कभी शांत नहीं हो सकता। लेकिन हम सब ‘मैं’ को शांत करने में पड़े हैं। हम कहते हैं, दुनिया से हमें कोई मतलब नहीं, मैं कैसे शांत हो जाऊं! और ‘मैं’ ही अशांति है, ‘मैं’ ही द्वंद्व है, ‘मैं’ ही कष्ट है, ‘मैं’ ही बंधन है। और हम पूछते हैं, मैं मुक्त कैसे हो जाऊं?
और बताने वाले लोग हैं, वे कहते हैं, जप करो, तप करो, उपवास करो और मुक्त हो जाओगे! और वह ‘मैं’ कहता है, अच्छी बात! अब मैं उपवास करूंगा। और ‘मैं’ उपवास करता है। और उपवास करने के बाद ‘मैं’ बाजार में आता है और कहता है, मैंने इतने उपवास किए, मैंने इतनी जाप की! एक लाख माला फेर चुका हूं! मैंने राम-राम लिख कर हजारों किताबें भर दीं!
मैं एक गांव में गया। वहां एक मंदिर बनाया हुआ है--राम मंदिर। उस मंदिर में एक ही काम है। उसमें हजारों पुस्तकें हैं। और हर आदमी वहां बैठ कर राम-राम, राम-राम लिखता रहता है किताबों में। और वे किताबें रखते जाते हैं। ऐसा वे कहते हैं, हमारे पास करोड़ों राम-नाम हैं उस मंदिर में। और सारे मुल्क से हजारों लोग लिख-लिख कर राम-राम, राम-राम भेजते रहते हैं और वहां किताबें इकट्ठी होती जाती हैं।
और हर आदमी हिसाब रखता है कि मैंने कितने लाख राम लिख दिए, मैंने कितने लाख नाम ले लिए, मैंने कितनी मालाएं फेर लीं, मैंने कितने उपवास किए! वह ‘मैं’ बड़ा प्रसन्न होता है! वह मैं कहता है कि चलो, ठीक है। मैं को भरने के नये उपाय मिल गए। वह मैं पहले गिनती करता था कि मेरी तिजोरी में कितने रुपये हैं! अब वह मैं कहता है, मेरी तिजोरी में कितने नाम, कितने राम हैं मेरी तिजोरी में! वह पहले कहता था कि मेरे पास कितने मंजिल का मकान है। अब वह मैं कहता है, मेरे पास कितने मंजिल का उपवास है, मैंने कितने उपवास किए, मंजिल-दर-मंजिल उपवास हैं मेरे! अब वह मैं कहता है, मैंने यह-यह छोड़ दिया, मैंने यह-यह कर लिया! मैंने इतने नमोकार पढ़ डाले, मैंने इतनी नमाज पढ़ ली, मैंने यह किया, मैंने वह किया! और वह मैं नये मकान बनाना शुरू कर देता है। और फिर वह मैं कहता है, मुझे मोक्ष चाहिए! मोक्ष कहां है, मोक्ष कैसे मिलेगा!
यह बुनियादी भ्रम है, जिससे साधक भटक जाता है। मैं भटकाता है और कोई नहीं भटकाता। फिर वह मैं न मालूम कितने नये उपाय खोजता है। इस मैं को समझना जरूरी है कि जिसे हम शांत करना चाहते हैं कहीं वही तो अशांति नहीं है?
कभी आपने खयाल किया, अशांति क्या है? अगर ‘मैं’ इस वक्त छूट जाए तो कौन सी अशांति है? एक क्षण को सोचा कभी यह कि अगर ‘मैं नहीं हूं’, फिर क्या अशांति है? कभी यह भी सोचा कि मेरी अशांति के पैदा होने में मेरी ‘ईगो’ के अतिरिक्त, मेरे ‘मैं’ के अतिरिक्त और कोई कारण है?
एक आदमी ने रास्ते पर नमस्कार नहीं किया और मन अशांत हो जाता है। और एक आदमी ने ऐसी आंख से देख लिया कि मन अशांत हो जाता है। और एक आदमी ने कह दिया कि तुम कुछ भी नहीं हो और मन अशांत हो जाता है। और बेटे ने आज्ञा नहीं मानी और बाप अशांत हो गया। और पति पत्नी की आज्ञा अनुसार नहीं चला और पत्नी अशांत हो गई।
कभी सोचा कि अशांति का कारण क्या है? अशांति का कारण पति का मान कर न चलना है? अशांति का कारण बेटे का बाप की बात न मानना है? या अशांति का कारण बाप का ‘मैं’ है, पत्नी का ‘मैं’ है, बेटे का ‘मैं’ है? कौन है अशांति का कारण? कौन कर रहा है अशांत किसी को?
वह मेरा ‘मैं।’ वह कहता है, मेरा नहीं माना, ‘मैं’ बाप हूं। वह ‘मैं’ बाप बना बैठा है, वह ‘मैं’ मां बना बैठा है, वह ‘मैं’ पति बना बैठा है। वह कहता है, ‘मैं।’ उसने हजार शक्लें बना रखी हैं। वह जगह-जगह से पुकार कर कह रहा है कि मेरी तृप्ति होनी चाहिए, जो ‘मैं’ कहूं!
यह जो ‘मैं’ का सारा का सारा जाल है, यही अशांति है। फिर जब अशांति बहुत बढ़ जाती है, जब अशांति बेबूझ हो जाती है, जब अशांति को सहना असंभव हो जाता है, वह असहनीय हो, तो वह ‘मैं’ पूछता है कि शांति कैसे मिले? फिर वह ‘मैं’ शांति की तलाश में जाता है। ‘मैं’ शांति की तलाश में जाता है। ‘मैं’ जाता है शांति की खोज में, गुरुओं के चरण पकड़ता है और कहता है, हमें शांति का रास्ता बताइए, हम शांत होना चाहते हैं! ‘मैं’ शांत होना चाहता हूं!
और गुरु हैं, उनके पास भी अपना ‘मैं’ है। नहीं तो, ‘मैं’ न हो तो कोई गुरु बन कर बैठेगा? तो वे कहते हैं, आओ, हम शांति देंगे! और जो कहता है, ‘मैं’ शांति दूंगा, उस बेचारे के पास खुद ही शांति नहीं हो सकती, क्योंकि जहां ‘मैं’ है वहां शांति कैसे होगी? वह कहता है, मैं शांति दूंगा, आओ!
वह अशांत ‘मैं’ उसके आस-पास इकट्ठे होते हैं। ऐसे संप्रदाय खड़े होते हैं, गुरुडम खड़ी होती है, आश्रम खड़े होते हैं, पंथ चलते हैं। सब ‘मैं’ का उपद्रव है।
गुरु भी ‘मैं’ का उपद्रव है, शिष्य भी।
और शिष्य बड़े गुरु खोजता है और सिद्ध कर लेना चाहता है कि गुरु पक्का बड़ा है कि नहीं! क्योंकि बड़े गुरु के साथ बड़े शिष्य का ‘बड़ा मैं’ मजबूत होता है। उसको लगता है कि ‘मैं’ कोई साधारण गुरु का चेला नहीं हूं, ‘बड़े गुरु’ का चेला हूं, ‘बड़ा चेला’ हूं! इधर ‘मैं’ मजबूत होता है।
अगर उससे कहो कि तुम्हारा महावीर कोई बड़ा गुरु नहीं है, तुम्हारा बुद्ध कोई बड़ा गुरु नहीं है, यह तुम्हारा महात्मा आधा महात्मा है, तो उसको पीड़ा लगती है। उसको पीड़ा इससे नहीं लगती है कि महावीर को कोई चोट पहुंच गई तो उसको पीड़ा लगती है। उसको पीड़ा लगती है--‘मेरा गुरु!’ ‘मेरा गुरु’ कमजोर गुरु है! ‘आधा गुरु’ है! कभी नहीं हो सकता। ‘मेरा गुरु’ हमेशा ‘पूरा गुरु’ है! ‘मेरा गुरु’ तीर्थंकर है, ‘मेरा गुरु’ अवतार है, ‘मेरा गुरु’ भगवान है! तो फिर कहता है, तलवारें चल जाएंगी!
बेचारे महावीर को चले ढाई हजार साल हो गए, मोहम्मद को मरे चौदह सौ साल हो गए, जीसस को मरे जमाना गुजर गया। उनकी मिट्टी बहुत पहले राख में मिल गई। वे बहुत पहले खो चुके उसमें, जो सबमें है। अब लेकिन तलवार चलाने वाला पीछे खड़ा है। वह कहता है, हम तलवार चला देंगे, अगर मोहम्मद को कुछ कहा। क्यों भाई, तुम्हें क्या तकलीफ होती है?
अगर मोहम्मद छोटे होते हैं तो इस बेचारे का ‘मैं’ छोटा होता है। यह मुसलमान है। और मुसलमान के ‘मैं’ का मजा तभी तक है, तब तक मोहम्मद ‘बड़े’ हैं। यह जैन है। इस जैन का मजा तभी तक है, जब तक महावीर ‘तीर्थंकर’ हैं। अगर पता चल जाए कि महावीर ‘तीर्थंकर’ नहीं हैं, इसके बेचारे का ‘मैं’ मरा। फिर यह किस छोटे गुरु को पकड़ कर चल रहा था। गया, सब खो गया। इसको जो पीड़ा होती है, वह इसके ‘मैं’ की पीड़ा है।
यह खयाल से समझ लेना। जगत की सारी अशांति ‘मैं’ की अशांति है। सारी अशांति मैं की अशांति है, मैं के अतिरिक्त और कोई अशांति नहीं है।
लेकिन मजा, मजा देखें कि वह ‘मैं’ कहता है कि ‘मुझे’ शांत होना है! यह आखिरी तरकीब है ‘मैं’ की। फिर वह शांत होने के बहाने भी करता है। आंख बंद करके बैठ जाता है, आसन लगा लेता है और कहता है कि मैं शांत हो रहा हूं। और बीच-बीच में आंख खोल कर देखता रहता है कि कोई देखने वाला निकला कि नहीं। देखा किसी ने कि नहीं--कि कितनी शांति से हम आसन लगाए बैठे हुए हैं। मंदिर में बड़ी देर से बैठे हुए हैं--और भी आराधक आए कि नहीं, गांव में खबर पहुंची कि नहीं। वह ‘मैं’ देख रहा है आंख खोल-खोल कर कि कौन कितना मानता है। वह ‘मैं’ बीच-बीच में झांक कर देख लेता है कि ‘मैं’ जब इतनी साधना कर रहा हूं तो जनता को पता चल रहा है कि नहीं? किस-किस को खबर मिल रही है? लोग आने शुरू हो गए हैं कि नहीं?
एक संन्यासी के आश्रम में मैं गया था। एक बड़े मजे की बात देखी, सभी आश्रमों में वैसी मजे की बात होती है। संन्यासी एक बहुत बड़े तख्त पर विराजमान हैं। उस तख्त के नीचे एक छोटा तख्त है, उस पर एक दूसरे संन्यासी विराजमान हैं। उस तख्त के नीचे और एक छोटी सी तख्त है, उस पर एक तीसरे संन्यासी विराजमान हैं।
मैं गया, उन संन्यासी ने मुझसे कहा कि आप जानते हैं, बगल में कौन बैठा हुआ है?
मैंने कहा: मैं नहीं जानता, आप बताने की कृपा करें।
उन्होंने कहा: आपको पता नहीं, यह आदमी हाई कोर्ट का जज था, संन्यासी हो गया है। सब छोड़ दिया है, बहुत विनम्र है। देखते हैं, यह कभी मेरे बराबर आसन पर भी नहीं बैठता है, आसन छोटा रखता है।
मैंने कहा: महाराज, वह आपसे तो आसन छोटा रखे हुए है, लेकिन आपके मरने की प्रतीक्षा कर रहा है, क्योंकि उसके भी नीचे एक तीसरा बैठा हुआ है। वह उससे बड़ा आसन रखे हुए है। और आप मरे कि वह इस आसन पर बैठेगा, और वह जो नंबर की सीढ़ी लगी हुई है, वह दूसरा आदमी उसके आसन पर बैठेगा। हाइरेरकी चल रही है। इसमें भी सब पद हैं, प्रतिष्ठाएं हैं।
और इस आदमी को क्यों मजा आ रहा है कि एक हाई कोर्टजज को नीचे बिठाल दिया है। अब बताने की क्या जरूरत है कि हाई कोर्ट जज है। अब नहीं रहा तो मामला खत्म हो गया। जब हाई कोर्ट में जज ही नहीं रहा अब। अब गेरुआ वस्त्र पहन कर संन्यासी हो गया तो अब कैसा जज है?
लेकिन अब यह बताता है, यह बताता है कि यह आदमी हाई कोर्ट का जज था, यह कोई साधारण आदमी नहीं है। यह जो मुझसे नीचे बैठा है, यह कोई साधारण आदमी नहीं है। लेकिन इसको बताता क्यों है? यह बताता इसलिए है कि मैं किसी साधारण आदमी से ऊपर नहीं बैठा हुआ हूं, हाई कोर्ट का जज बैठा हुआ है नीचे। अपने हाथ में हाई कोर्ट के जज भी संन्यासी हो गए हैं। इधर मैं ऊंचा बैठा हुआ हूं। और यह आदमी विनम्र है। क्यों? क्योंकि मेरे बराबर नहीं बैठता। लेकिन यह आदमी विनम्र है और आप क्या हैं? और आपको इसमें मजा आ रहा है कि मेरे बराबर नहीं बैठता! आप बड़े खुश हो रहे हैं!
गुरु के पैर तो बहुत बार छुए हैं। एकाध दफा पैर जरा उनके सिर से लगा कर देखना, तब असलियत पता चलेगी कि मामला क्या है। तब गुरु गर्दन पकड़ लेगा, तब पता चलेगा कि वहां भी ‘मैं’ बैठा हुआ है। पैर छुओ तो वह तृप्त होता है। पैर मत छुओ तो नाराज हो जाता है। और अगर सिर से पैर लगा दो तो पागल हो उठेगा। और वह तो पागल होगा, उसके शिष्य भी पागल हो उठेंगे, क्योंकि उनके गुरु को...! सारा का सारा जाल पूरे ‘मैं’ का है।
और इस ‘मैं’ के जाल के धार्मिक रूप भी हैं, अधार्मिक रूप भी हैं; राजनैतिक रूप भी हैं, सांस्कृतिक रूप भी हैं, साहित्यिक रूप भी हैं, कलात्मक रूप भी हैं। हजार-हजार रास्तों से वह ‘मैं’ आदमी को पकड़े है।
इसे पहचानना पड़ेगा, इसे भीतर खोजना पड़ेगा। इसकी इंच-इंच तलाश करनी पड़ेगी कि यह कहां-कहां बैठा है। और जहां-जहां आप पहुंच जाएंगे, जहां-जहां आपकी दृष्टि पहुंच जाएगी, वहीं-वहीं से यह तिरोहित हो जाएगा। जहां-जहां आप देख लेंगेकि यहां-यहां बैठा हुआ है, वहीं-वहीं से विलीन होता चला जाएगा। खोजें, और भीतर एक इंच न छोड़ें, जहां खोज नहीं की है। सारे इंच-इंच खोज डालें भीतर और आखिर में आप पाएंगे, वह कहीं भी नहीं है।
जैसे कोई दीया लेकर किसी अंधेरे घर में जाए और अंधेरे को खोजने लगे और दीया ले जाए और देखे कोने-कोने में अंधेरा कहां है। जहां-जहां दीया जाएगा, वहीं-वहीं अंधेरा नहीं होगा। आखिर में वह घर के बाहर आकर कहेगा, अंधेरा नहीं है। मैंने दीया ले जाकर भीतर देखा, वह कहीं भी नहीं था। लेकिन दीया मत ले जाएं भीतर तो अंधेरा है और दीया ले जाएं तो नहीं है।
जब तक हमने खोज नहीं की, तब तक ‘मैं’ है। जब हम खोजेंगे, तब वह नहीं होगा।
इसलिए ‘मैं’ को बदलने से बचें, ‘मैं’ की बदलाहट से बचें। ‘मैं’ बदलने के लिए हमेशा तैयार है। वह कहता है कि इस शक्ल में पसंद नहीं रहा, चलो दूसरी शक्ल में मैं राजी हूं। तुम कहते हो, धन में अब मुझे मजा नहीं आता, चलो अब मैं त्याग में राजी हूं। तुम कहते हो, पाप करने में अब मजा नहीं आता, अब अहंकार की तृप्ति नहीं होती, चलो हम पुण्य करने को राजी हैं। तुम कहते हो कि शराबघर में जाने में अब मेरे अहंकार को तृप्ति नहीं मिलती...।
और ध्यान रखें, शराब पीने वाला और सिगरेट पीने वाला और सब--भीतर एक तृप्ति कर रहे हैं! छोटा बच्चा भी अकड़ कर सिगरेट पीना चाहता है, क्योंकि वह देखता है कि जितने लोग सिगरेट पीते हैं अकड़ कर, अहंकार मालूम पड़ता है। छोटे बच्चे सिगरेट सिगरेट के लिए नहीं पीते हैं। सिर्फ पीते हैं--कि सिगरेट पीने से बड़प्पन मिलता है। लगता है कि हां हम भी कुछ हैं! हम भी कोई साधारण नहीं हैं। वह जो सिगरेट पीने में जो रस है, सिगरेट का नहीं है, ‘मैं’ का रस है।
धुएं में क्या रस हो सकता है? पागलपन के सिवाय कुछ भी नहीं है। एक आदमी धुआं भीतर ले जाए और बाहर निकाले! यह क्या कर रहे हो? धुआं भीतर-बाहर किसलिए कर रहे हो? क्या हो गया है तुम्हारे दिमाग को? लेकिन चूंकि सारी दुनिया पागल है, इसलिए कोई किसी से नहीं कहता कि यह कर क्या रहे हो? यह हो क्या गया है, धुआं बाहर-भीतर क्यों करते हो? इससे खांसी आ सकती है। तकलीफ हो सकती है। रस तो कुछ भी नहीं है।
लेकिन रस है और रस बिलकुल दूसरा है। इसलिए जब कोई किसी सिगरेट पीने वाले को समझाता है कि स्वास्थ्य खराब हो जाएगा, इसका कोई असर नहीं होता। क्योंकि रस है ही नहीं इसमें। रस बिलकुल दूसरा है। रस यह है कि सिगरेट पीने वाला एक अकड़ में आ जाता है। ‘मैं’ को लगता है कि हां मैं कुछ हूं। फिर सिगरेट के भी ब्रांड हैं, वे सब ‘मैं’ के ब्रांड हैं। सस्ती सिगरेट गरीब आदमी का ‘मैं’ पीता है। फिर अमीर आदमी का ‘मैं’ है और वह ऐसी सिगरेट पीता है जिसको बहुत थोड़े लोग पी सकते हैं। फिर वह उसको बार-बार भी नहीं पीता, वह हाथ में लगा कर सिर्फ धुआं उड़ाता रहता है। उसको बार-बार पीने की जरूरत भी नहीं है, वह इतनी कीमती सिगरेट को ऐसे ही उड़ा देता है। वह सब ‘मैं’ है। वह एक कश लेता है और फेंक देता है। उसको पीने का सवाल नहीं है असली में, असली सवाल दिखाने का है, असली सवाल यह है कि देखो।
यह जो सारा का सारा हमारा जाल है--चाहे हम सिगरेट पीते हों, और चाहे हम शराबघर जाते हों, और चाहे हम कपड़े पहनते हों, उस सबके पीछे असलियत बहुत दूसरी हो गई है। वह सारे के पीछे ‘मैं’ काम कर रहा है। इसकी खोज करनी पड़ेगी, इसकी पहचान करनी पड़ेगी कि यह कहां-कहां मुझे पकड़े हुए है। मैं कहीं ‘मैं’ के आधार पर ही तो नहीं जी रहा हूं?
अगर ‘मैं’ के आधार पर जी रहे हैं तो अशांति ही संभव है, शांति संभव नहीं है। और हम जी रहे हैं, हम उसी आधार पर जी रहे हैं। इसकी खोज करनी जरूरी है, इसकी इंक्वायरी जरूरी है। इसके भीतर जासूसी करनी पड़ेगी, इसके भीतर जाना पड़ेगा, इसका पीछा करना पड़ेगा कि कहां-कहां, कहां-कहां यह छिपा है। जन्मों-जन्मों से वह पकड़े हुए है।
और जब उसकी पहचान पूरी होती है, जब वह रिकग्नाइज कर लिया जाता है, जब पहचान लिया जाता है कि यह रहा ‘मैं’; और जब रत्ती-रत्ती पहचान हो जाती है, और कण-कण और सूक्ष्म से सूक्ष्म उसकी तरंगें पहचान में आ जाती हैं तो वह विदा होने लगता है, वह विलीन होने लगता है। एक घड़ी आती है कि ‘मैं’ विदा हो जाता है। ‘मैं’ के साथ ही आत्मा विदा हो जाती है। तब जो शेष रह जाता है... तब क्या शेष रह जाता है, दि रिमेनिंग, तब क्या शेष रह जाता है--वही शेष सत्य है, वही शेष शांति है, वही शेष आनंद है। उसे कोई भी नाम दो--सत्य कहो, मोक्ष कहो, परमात्मा कहो, नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई भी नाम कहो, सब नाम सत्य हैं उसके लिए। कोई भी नाम काम दे देगा। और कोई भी नाम न दो, तब भी चल जाएगा। लेकिन इधर ‘मैं’ का मिटना जरूरी है।
विज्ञान तो पहुंच गया पदार्थ के मिटने पर। इधर धर्म को भी पहुंचना पड़ेगा--मैं, आत्मा, इसके मिटने पर। जब दोनों मिट जाएंगे--पदार्थ भी और आत्मा भी, तब जो शेष रह जाएगा, वह तरंगायित, वह सागर। वही सागर एक तरफ ‘पदार्थ’ की तरह ठोस होकर दिखाई पड़ रहा है, वही सागर दूसरी तरफ ‘मैं’ की तरह ठोस होकर दिखाई पड़ रहा है।
और वह सागर ठोस नहीं है, वह जीवंत तरंगों का सागर है। जिस दिन यह लगेगा, उस दिन रास्ते पर चलते में ऐसा नहीं मालूम पड़ेगा, मैं चल रहा हूं; लगेगा, ऊर्जा जा रही है। ऐसा नहीं लगेगा, मैं बोल रहा हूं; लगेगा, ऊर्जा बोल रही है, वही बोल रहा है।
इसलिए वेद के, उपनिषद के ऋषि अगर यह कह सके कि हम नहीं बोलते, उसी की वाणी है, तो उसका कारण यह नहीं था--कि वे दावा कर रहे थे कि हम जो बोलते हैं, वह ईश्वर ही है--उसका कुल कारण इतना था कि वे यह कह रहे थे कि हम हैं ही नहीं, बोल कैसे सकते हैं! वही बोल रहा है, वही चल रहा है, वही खा रहा है, वही पी रहा है, वही उठ रहा है, वही जी रहा है, वही जा रहा है, वही जन्मता है, वही मरता है--हम हैं ही नहीं।
और अगर यह बोध स्पष्ट होता चला जाए तो कैसी अशांति है फिर, कैसा दुख है। फिर कैसी मृत्यु, फिर कैसा अज्ञान, फिर कैसा अंधकार है। फिर सब गया! व्यक्ति मिट जाए, सब मिट जाता है, जो भी दुखपूर्ण है, जो भी पीड़ापूर्ण है। और हम सब? हम सब ‘मैं’ की गठरी बने हुए हैं!
मैंने सुना है, बंगाल के गांव में एक छोटा सा लोकनाट्य, एक लोकनाटिका है। उस लोकनाट्य में एक आदमी भगवान के मंदिर पर वृंदावन पहुंचा है। वृंदावन के मंदिर में वह प्रवेश करने लगा। उसके हाथ में कुछ नहीं है, उसके पास कोई गठरीनहीं है। जूते उसने बाहर छोड़ दिए, छड़ी उसने बाहर छोड़ दी। लेकिन द्वारपाल उसे रोकता है कि ठहरो, ठहरो! सामान बाहर रख कर आओ!
वह आदमी कहता है: लेकिन सामान तो मैं बाहर रख आया हूं, हाथ देखते नहीं खाली हैं? जूते बाहर छोड़ दिए, हाथ की लकड़ी भी बाहर छोड़ दी। मैं बिलकुल खाली हूं। मुझे जाने दें। मैं भगवान की प्रार्थना को आया हूं।
वह द्वारपाल कहता है: ऐसे नहीं, सब सामान बाहर रख आओ!
वह कहता है: आप पागल हो गए हैं, सामान है कहां?
वह द्वारपाल कहता है: जो सामान तुम बाहर रख आए, उसे ले भी आओ तो कोई हर्जा नहीं है। लेकिन यह जो ‘मैं’ कि ‘मैं’ भीतर जाऊंगा? ‘मैं’ भगवान के दर्शन करूंगा, ‘मैं’ पूजा करूंगा! इस ‘मैं’ को बाहर रख आओ, क्योंकि इस ‘मैं’ को लेकर आज तक कोई भी भगवान के मंदिर में प्रविष्ट नहीं हुआ है।
लेकिन वह आदमी कहता है: जो सामान दिखाई पड़ता था, वह तो मैं रख आया, अब यह ‘मैं’ को, इसको कैसे निकाल कर रख दूं?
तो द्वारपाल कहता है: जाओ खोजो। अगर न पा सको तो आ जाना। क्योंकि रख दिया फिर बाहर, अगर नहीं मिला तो। और मिल जाए, तो रख आना।
रूमी का एक गीत है कि एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर जाकर दरवाजा खटखटाता है। पीछे से आवाज आती है: कौन है? कौन हो तुम?
और वह कहता है: मैं हूं, पहचानी नहीं तू? आवाज नहीं पहचानी? पैर के कदम नहीं पहचानी? मैं हूं तेरा प्रेमी।
और भीतर सन्नाटा हो जाता है। वह फिर बहुत दरवाजा पीटता है, जैसे घर में कोई है नहीं ऐसा गुपचुप।
वह चिल्लाता है कि क्या हो गया तुझे, बोलती क्यों नहीं? द्वार क्यों नहीं खोलती? मैं आया हूं तेरा प्रेमी।
भीतर से फिर इतनी ही आवाज आती है कि प्रेम के घर में दो नहीं समा सकते। इधर मैं पहले से ही ‘मैं’ हूं। और तुम एक ‘मैं’ और आ गए, तो बड़ी मुश्किल होगी।
और सब जानते हैं कि प्रेम के घरों में दो-दो ‘मैं’ समा गए हैं, और बहुत मुश्किल हो रही है। हर प्रेम के घर में दो-दो ‘मैं’ बैठे हैं, और वहां चल रहा है--नरक पैदा हो रहा है।
उसने कहा: एक ‘मैं’ हूं, अब दूसरे ‘मैं’ की इस घर में जगह नहीं है। अभी तुम लौट जाओ। और उसने यह भी कहा जाते वक्त, ध्यान रखना कि जो प्रेम कहता है ‘मैं’, वह प्रेम कैसे हो सकता है?
वह प्रेमी वापस लौट गया। फिर वर्ष-वर्ष बीते। फिर वह लौटा--न मालूम कितनी बरसातें, कितनी धूप, कितनी रातें, चांद, अंधेरा, सब गुजरा।
वह आया, फिर उस द्वार पर दस्तक दी। फिर पीछे से पूछा गया: कौन हो तुम?
उसने कहा: अब तो मैं नहीं हूं, तू ही है। और रूमी की कविता कहती है कि द्वार खुल गए!
लेकिन रूमी को मरे बहुत दिन हो गए। कई दफा मन होता है, जाकर कब्र से उठा कर उससे कहूं, कविता तुमने आधे में रोक दी। यह कविता पूरी नहीं हुई। क्योंकि अब भी उसने कहा, मैं नहीं हूं, तू ही है! लेकिन जिसका ‘मैं’ मिट जाता है, उसका ‘तू’ भी मिट जाता है। क्योंकि ‘तू’ तभी तक दिखाई पड़ता है, जब तक ‘मैं’ हो। तो वह कहने लगा कि ‘मैं’ नहीं हूं! लेकिन अगर तुम नहीं हो तो अब कहने वाला भी कौन है कि मैं नहीं हूं? और अगर तुम नहीं हो तब तुम यह कैसे कहते हो कि ‘तू’ ही है। रूमी ने जल्दी दरवाजा खोल दिया!
मैं राजी नहीं दरवाजा खोलने को। मैं तो कहता हूं, फिर वह प्रेमिका चुप हो गई। और उसने कहा, अभी लौट जाओ, क्योंकि जब तक ‘तू’ है, तब तक ‘मैं’ कैसे मिट सकता है? लेकिन तब आगे कविता को बढ़ाना बड़ा मुश्किल है। और शायद इसीलिए रूमी डर गया हो, कविता उसने रोक दी। आगे कविता बढ़ानी बहुत मुश्किल है, क्योंकि कविता के बढ़ने के लिए भी दो चाहिए।
सब नाटक के लिए कम से कम दो तो चाहिए। और जब एक ही रह जाए तो कैसी कविता। और जब एक ही रह जाए तो कैसा आना। और जब एक ही रह जाए तो किसके द्वार पर दस्तक? फिर कौन पूछेगा, कौन उत्तर देगा?
फिर मैं कहता हूं, कविता लेकिन आगे बढ़ती है। वह प्रेमी फिर चला जाता है। फिर वर्षा आती है, फिर धूप; फिर वर्षा, फिर धूप। लेकिन वह फिर कभी नहीं लौटता, क्योंकि लौटने वाला ही नहीं रह गया है। लेकिन तब वह तो नहीं लौटता, लेकिन जिसकी तलाश थी, वह खुद ही उसके पास पहुंच जाती है। क्योंकि जब मैं ही मिट गया तो फिर रुकने की बात ही क्या रह गई। फिर तो प्रेम बहा चला आता है।
इसलिए मैं कहता हूं, आप कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते। लेकिन परमात्मा आप तक आ जाएगा उस दिन, जिस दिन आप नहीं हैं। आज तक कोई आदमी ईश्र्वर तक नहीं पहुंचा है और न पहुंच सकता है। और आज तक कोई आदमी मोक्ष तक नहीं पहुंचा है और न पहुंच सकता है। जिस दिन आदमी मिट जाता है, मोक्ष आ जाता है, परमात्मा आ जाता है। वह आया ही हुआ है। इस ‘मैं’ के कारण दिखाई नहीं पड़ता है। वह मौजूद ही है। वह चारों तरफ खड़ा है, वही है। लेकिन इस ‘मैं’ के कारण दिखाई नहीं पड़ता है। यह ‘मैं’ एकमात्र अंधापन है, एकमात्र ब्लाइंडनेस है। और यह ‘मैं’ चला जाए, आंख खुल जाती है, वही है। इस अनुभव में ही जीवन की सार्थकता और धन्यता उपलब्ध होती है। इस अनुभव में ही वह घड़ी आती है, जो आनंद की है। वह घड़ी, जिसमें फिर दुख का सवाल नहीं, क्योंकि गया वह। वह गांठ ही चली गई, जो दुखती थी। वह ग्रंथि चली गई, जो दुखती थी। वह मैं की जो ग्रंथि थी, वह जो ईगो-कांप्लेक्स था, वही दुखता था, वही चला गया। अब कैसा दुख, अब कैसी पीड़ा, अब कैसी मृत्यु?
क्योंकि वह ‘मैं’ ही था, जो मरता था। जो है, वह तो कभी नहीं मरा है। जो है, वह कभी मरता ही नहीं है। वह ‘मैं’ ही बार-बार जन्मता है और बार-बार मरता है। इसलिए भूल कर भी यह मत कहना कि कभी आत्मा का पुनर्जन्म होता है, आत्मा का कोई पुनर्जन्म नहीं है। सिर्फ ‘मैं’ बार-बार जन्मता है और मरता है। सब पुनर्जन्म ईगो के हैं।
और जिस दिन ‘मैं’ नहीं, उस दिन कोई पुनर्जन्म नहीं। सिर्फ जीवन है। फिर न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। फिर अंतहीन अनादि जीवन है। उस अनादि जीवन का नाम परमात्मा है; उसका नाम मोक्ष है, वही सत्य है।
हम असत्य हैं, और इसलिए हम उस सत्य को नहीं पाते हैं। इस असत्य को खोजें, इस असत्य को लेकर उस सत्य की खोज नहीं की जा सकती है। इस असत्य को खोजें। खोज से यह असत्य मिट जाएगा, गिर जाएगा, शून्य हो जाएगा। इसके शून्य होते ही सत्य प्रकट हो जाता है।
‘मैं’ को मिटाना है। ‘मैं’ को मिटते हुए जानना है। ऐसा जानना है कि ‘मैं’ मिट जाए।
और जहां ‘मैं’ नहीं है, वहीं ध्यान है, वहीं द्वार है।
जिस द्वार से हमने बात शुरू की थी, वहां बहुत बंद द्वार हैं। एक खुला द्वार है। सब द्वार जो बंद हैं, ‘मैं’ के द्वार हैं। और एक खुला द्वार जो है, वह ‘न-मैं’, वह ‘नो-आई’ का द्वार है, वही ध्यान है। ध्यान यानी जहां आप नहीं हैं। गैर-ध्यान यानी जहां आप हैं। अपने को, अपने को स्वयं को, आत्मा को, अहंकार को, अस्मिता को सबको विदा दे देनी है। लेकिन विदा आप नहीं दे सकते हैं; खोजेंगे और पाएंगे कि नहीं हैं, तो विदा हो जाती है।
अब हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
एक दस मिनट के लिए जो मैंने कहा है, उसे करें। थोड़े-थोड़े फासले पर हट जाएं। कोई किसी को छूता हुआ न हो। बातचीत न करें। बैठ जाएं, कहीं भी बैठ जाएं। सब जगह बराबर है जब मिटने की तैयारी हो। कहीं भी बैठ जाएं।
आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर को शिथिल छोड़ दें, आंख बंद कर लें।
और क्या कहना है--मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं। इस सारे विस्तार के साथ एक हो जाएं। यह जो पक्षी बोल रहा है, ये जो हवाएं हैं, यह सूरज की रोशनी है, यही मैं हूं। इस सबके साथ एक हूं। छोड़ दें अपने को, बिलकुल मिट जाएं, जैसे नहीं हैं।
(एक साधक का जोर-जोर से रोना...)
हां, किसी की चिंता कोई न ले, जिसको जो होता है होने दें। आप अपनी फिकर करें। अपने को मिटाएं। किसी को रोना आएगा, आएगा। छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें। जो भी आवाज सुनाई पड़े, सुनते रहें। जो भी आवाज सुनाई पड़े, सुनते रहें--कोई पक्षी बोले, कोई रोने लगे। वह जो रो रहा है, वह भी आप हैं। वह जो पक्षी की आवाज है, वह भी आप हैं। सारी चीजों को स्वीकार कर लें।
सब सुनते रहें, सब जानते रहें। एक ही बात स्पष्ट होती चली जाए भीतर कि मैं नहीं हूं। छोड़ दें...बिलकुल अपने को छोड़ दें शिथिल...जो भी हो रहा है, जो भी है, उसके साथ एक हो जाएं। धीरे-धीरे मन शांत होता चला जाएगा...धीरे-धीरे मन शांत होता चला जाएगा...एक दस मिनट के लिए बिलकुल मिट जाएं।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...जैसे मिट गए हैं और सारी प्रकृति के साथ एक हो गए हैं। जो भी चारों तरफ वातावरण है उसके साथ एक हो जाएं। जैसे स्वयं मिट गए हैं और समस्त के साथ एक हो गए हैं। फिर न कोई चिंता है, न कोई पीड़ा, न कोई आसक्ति। छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...।
एक हो जाएं--पक्षियों की आवाज, सूरज की किरणें, छाया, वृक्ष, यह सब जो चारों तरफ है, हम उसके साथ एक हैं, अलग नहीं हैं। हम भी वही हैं। इसे भीतर देखें और समझें कि हम जुड़े हैं, अलग नहीं हैं। जैसे-जैसे यह जोड़ दिखाई पड़ेगा, वैसे-वैसे मन शांत हो जाएगा। जैसे-जैसे मैं मिटेगा, वैसे-वैसे सब शांत हो जाएगा।
मिट जाएं...बिलकुल मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं...मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं...इस चारों तरफ फैले हुए सब-कुछ के साथ एक हो जाएं। फिर देखें कि मन कैसा शांत और शून्य होता चला जाता है। हम अलग नहीं हैं।
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ समस्त के साथ जुड़ा हुआ अनुभव करें। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...श्वास जोड़े है समस्त से। प्रत्येक श्वास के साथ अनुभव करें, बाहर से जुड़े हैं, सबसे जुड़े हैं।
फिर आहिस्ता-आहिस्ता आंख खोलें...आंख खोल कर देखें कि बाहर और भीतर सब एक है। बाहर और भीतर के बीच कोई फासला नहीं है। जो बाहर है वही भीतर है। जो भीतर है वही बाहर है। धीरे-धीरे आंख खोलें...दो मिनट देखें, जो बाहर दिखाई पड़ रहा है क्या वह भीतर का ही विस्तार नहीं है?

हमारी सुबह की बैठक समाप्त हुई।

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