YOG/DHYAN/SADHANA
Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat 05
Fifth Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है कि क्रोध को हम जानते हैं, पहचानते हैं, लेकिन फिर भी क्रोध मिटता नहीं है। और सुबह आपने कहा कि यदि हम देख लें, जान लें, पहचान लें, तो क्रोध मिट जाना चाहिए।
इस संबंध में दो-तीन बातें समझनी हैं।
पहली तो बात यह कि क्रोध के विरोध में हमें इतनी बातें सिखाई गई हैं कि उन विरोधी बातों के कारण क्रोध को हम कभी भी सरलता से देखने में समर्थ नहीं हो पाते।
जिससे हमारा विरोध है, उसे देखना मुश्किल हो जाता है।
जिसके संबंध में हमने पहले से ही निर्णय ले रखा है कि वह पाप है, बुरा है, नरक का द्वार है, उसे हम देख कैसे सकेंगे? देखते ही हमारे भीतर विरोध दौड़ जाता है। विरोध के कारण हमारे और क्रोध के बीच में एक दीवाल खड़ी हो जाती है, वह दीवाल देखने नहीं देती।
आपने कभी अपने दुश्मन के चेहरे को गौर से देखा है? जिससे दुश्मनी है, उसे देखने का मन ही नहीं करता है। और फिर जिससे दुश्मनी है, उसे आप देखना भी चाहें तो नहीं देख सकते हैं। आप वही देख लेंगे, जो आपकी दुश्मनी ने मान रखा है। दुश्मन को देखना बहुत मुश्किल है, क्योंकि दुश्मन के संबंध में हमने निश्र्चित धारणा बना रखी है कि बुरा आदमी है। वह जो हमारी धारणा है, उसके ही हमें दर्शन हो जाएंगे। उसके नहीं, जो दुश्मन असलियत में है, जैसा है।
क्रोध के, काम के, लोभ के, भय के संबंध में हमें इतनी बातें सिखाई गई हैं कि हमारा पूरा चित्त धारणाओं से भर गया है।
क्रोध को हम नहीं जानते, क्रोध के संबंध की धारणा को ही जानते हैं। कांसेप्ट जो हमारा है, वही हम जानते हैं। हमने क्रोध को कभी आमने-सामने एनकाउंटर नहीं किया। हमने कभी उसे वैसा ही नहीं देखा, जैसा वह है। हमें बताया गया है। और जो हमें बताया गया है, वही हम देख लेते हैं।
तो पहली तो बात यह है कि अगर क्रोध को, लोभ को, सेक्स को देखना हो, तो उस संबंध में सारी सीखी धारणाओं को एकबारगी छोड़ देना आवश्यक है। निष्पक्ष मन लेकर जाना पड़ेगा। बड़ी मुश्किल होगी। क्रोध के संबंध में कैसे निष्पक्ष मन लें, सेक्स के संबंध में कैसे निष्पक्ष मन लें, वह तो जाहिर पाप हैं। सभी संतों ने, सभी महात्माओं ने, सभी महापुरुषों ने कहा है कि पाप हैं, बुरे हैं। उसके संबंध में निष्पक्ष कैसे हो जाएं? यह संत-महात्माओं की सारी शिक्षा निष्पक्ष नहीं होने देती। और जब तक निष्पक्ष नहीं होते तब तक दर्शन नहीं होगा। और जब तक दर्शन नहीं होता तब तक मुक्त होना असंभव है।
पहली बात है: निष्पक्ष मन से--क्रोध क्या है? लेकिन आप कहेंगे, हमें मालूम है कि क्रोध क्या है। हम जानते ही हैं। सब किताबों में लिखा है, सब शिक्षाएं कहती हैं कि क्रोध आग है, जहर है, नरक है--क्रोध मत करना। वह हम मानते हैं।
यह हमने मान रखा है क्रोध को बिना जाने! क्या यह अन्यायपूर्ण नहीं है? जैसे किसी आदमी को हमने कभी न देखा हो और उसके संबंध में हम कोई धारणा बना लें और फिर यह धारणा हम मजबूत करते चले जाएं। और अगर वह आदमी कभी हमारे सामने भी आ जाए तो भी फिर देखना मुश्किल हो जाएगा। धारणा हमारे और उस आदमी के बीच में खड़ी हो जाएगी एक चश्मे की तरह। और जो हमारी धारणा का रंग होगा, वही हमें दिखाई पड़ जाएगा।
यह खेल सूक्ष्म है। और इसलिए हम क्रोध के विरोध में तो बहुत बातें कहते हैं, लेकिन क्रोध से मुक्त नहीं हो पाते। हम मुक्त हो ही नहीं सकते। हम मुक्त हो ही नहीं सकते, क्योंकि हम क्रोध को जान ही नहीं पाते। जिसे हम जानते नहीं, उससे मुक्त कैसे हो सकते हैं?
तो मैं आपसे कहूंगा: आप कहते हैं कि क्रोध को मैं जानता हूं, आप नहीं जानते, क्रोध के संबंध में जो आपने सुन रखा है, वही आप जानते हैं, वही आप पहचानते हैं। क्रोध की सीधी और नग्न अवस्था बिना किसी धारणा के निष्पक्ष आपने नहीं जानी। उसे जानना जरूरी है।
तो पहली बात: मन की सारी वृत्तियों के संबंध में पूर्व-निर्धारित विचार छोड़ दें। और मन के भीतर इस तरह जाएं, जैसे हम एक अनजान दुनिया में जाते हों; जहां हम कुछ भी नहीं जानते, जहां सब अपरिचित है, अननोन है। हम एक भी चीज नहीं जानते हैं--मन के भीतर क्या है, क्या नहीं है! हम सिर्फ देखने जा रहे हैं, परिचित होने जा रहे हैं। फिर क्रोध दिखेगा, ऐसे ही जैसे रास्ते के किनारे किसी वृक्ष पर फूल खिला हो या किसी वृक्ष पर कांटे लगे हों। ऐसे ही रास्ते के किनारे चित्त में प्रवेश करते से क्रोध दिखेगा, घृणा दिखेगी, लोभ दिखेगा।
और आज सीधा मुकाबला होगा। आज हम बीच में कोई धारणा नहीं लिए हुए हैं। शास्त्र क्या कहता है, उससे हमें प्रयोजन नहीं। संत क्या कहते हैं, उससे हमें प्रयोजन नहीं। क्रोध मेरे पास है, मैं खुद क्यों न देख लूं। इसमें संतों से उधार सीखने की क्या जरूरत है? लेकिन हमारा पूरा दिमाग उधार और बारोड है। हमारे पास अपना कुछ भी नहीं। अपने पास ही जो है, उसकी पहचान भी अपनी नहीं। वह भी हम किसी और से पूछने जाते हैं।
रामकृष्ण एक दिन कहे। रामकृष्ण एक दिन बहुत हंसने लगे, बहुत लोग इकट्ठे थे। और कहने लगे: आज बहुत मजा हुआ। एक आदमी मुझसे मिलने आया था। उसके पड़ोस के मकान में रात आग लग गई थी। और मैंने उससे पूछा कि तेरे पड़ोस के मकान में सुना है, आग लगी थी? उसने कहा: नहीं। मैंने तो अखबार देखा, अखबार में तो कोई खबर नहीं है। पड़ोस के मकान में लगी आग, उसने सुबह अखबार में देखी! अखबार में तो कोई खबर नहीं है। नहीं लगी होगी आग। आग लगती तो अखबार में खबर होती।
तो रामकृष्ण कहते हैं कि उस आदमी से यह सुन कर मुझे बहुत ही हंसी आई। पड़ोस के मकान की आग भी उसने खुद न देखी, वह भी अखबार से उधार देखेगा!
पड़ोस का मकान फिर भी दूर है, लेकिन अपने भीतर जो है, वह भी हम, वह भी हम दूसरों से सीखने जाते हैं कि क्रोध कैसा है, प्रेम कैसा है, घृणा कैसी है! वह भी हम पूछते हैं शास्त्रों से! वे पुराने अखबार हैं, हजारों साल पहले के! वह आदमी तो फिर भी नया अखबार देखता था। आप देखते हैं... और जितना पुराना शास्त्र हो, हम कहते हैं, उतना ही श्रेष्ठ है। उतनी ही पुरानी खबर हम पढ़ने जाते हैं। और उसमें से हम जांच करेंगे, हमारे भीतर क्या है!
क्या हम सब सेकेंड हैंड आदमी हैं? सब पुराना माल है, कोई नया आदमी नहीं? क्या अपने भीतर जो है, उसे भी दूसरे से पूछने जाने की जरूरत है? लेकिन ऐसा ही हुआ है। पूरी मनुष्यता सेकेंड हैंड इसीलिए हो गई है। कोई आदमी मौलिक नहीं है। और जब भी कोई आदमी मौलिक होगा, तभी जिंदगी में क्रांति हो जाएगी; क्योंकि वह चीजों को जानेगा, वे क्या हैं।
हमने शब्द सीख रखे हैं। हम कहते है, क्रोध बुरा है। न हम क्रोध को जानते हैं, न हम बुरा क्या है, इसको जानते हैं। बस सीख रखे हैं शब्द, तोतों की तरह शब्द सीख रखे हैं और उन्हीं शब्दों पर हम जीते चले जाते हैं। अगर कोई अच्छे शब्द दे दिए जाएं क्रोध को, तो हो सकता है हम उसे बुरा कहना भी बंद कर दें। लोग कहते हैं, कुछ क्रोध ऐसे होते हैं, जो अच्छे होते हैं! फिर क्रोध में बुराई नहीं रह जाती।
राइचुअस, धार्मिक क्रोध भी होते हैं। और क्रोध कैसे धार्मिक हो सकता है? जहर भी धार्मिक हो सकता है! और नरक भी धार्मिक हो सकता है! लेकिन धर्मयुद्ध भी होते हैं। धार्मिक क्रोध भी होते हैं, धार्मिक हिंसा भी होती है। फिर हम शब्द नया दे देते हैं, और फिर हम लड़ जाते हैं, फिर हमें कोई फिकर नहीं रहती।
उन्नीस सौ बावन में वहां हिमालय की तराई में नीलगाय नाम के जानवर ने खेतों में बहुत नुकसान किया हुआ था। फिर पार्लियामेंट तक बात उठी कि क्या करें? तो लोगों ने कहा: गाय है, उसको गोली तो मारी नहीं जा सकती। और नाम ही है उसका नीलगाय। गाय वह नहीं है। लेकिन नाम में गाय जुड़ा हुआ है, तो धार्मिक उपद्रव, दंगे हो जाएंगे। तो एक समझदार सदस्य ने सलाह दी कि पहले उसका नाम नीलघोड़ा रख दिया जाए। फिर उसका नाम पार्लियामेंट ने नीलघोड़ा कर दिया। फिर उस नीलघोड़े को गोलियां मारी गईं और हिंदुस्तान में किसी शंकराचार्य ने नहीं कहा कि हमारी गाय को गोली मारते हो! वह नीलघोड़ा हो गई! वह बेचारी वही की वही रही। वह जो थी, वही रही, उसके नाम से कोई फर्क न पड़ा। लेकिन नीलघोड़े को गोली मारने से हिंदू धर्म को क्या नुकसान होने वाला है! नीलगाय को गोली लगती तो झंझट खड़ी हो सकती थी।
हम कुछ जानते हैं कि सिर्फ शब्द और लेबल से जीते हैं! बड़ी होशियारी की बात है। नाम बदल दें फिर सब खत्म हो जाता है।
क्रोध--बस एक नाम हमने सीख रखा है। हिंसा--एक नाम हमने सीख रखा है। लोभ--एक नाम हमने सीख रखा है। और उस नाम के साथ हजारों साल का प्रचार है। और हमारा मस्तिष्क सिर्फ प्रचार से जी रहा है। और यह आपको पता नहीं शायद, प्रचार के द्वारा कुछ भी सत्य मालूम पड़ने लगता है। जो भी प्रचारित किया जाए, वही सत्य मालूम पड़ने लगता है। और जब सत्य मालूम पड़ने लगता है, तो जो सत्य है, उसको देखना मुश्किल हो जाता है। प्रचार से बचना जरूरी है, अगर क्रोध को देखना हो, जानना हो, पहचानना हो।
तो प्रचार से वह जो प्रचारित, जो कंडिशनिंग, जो दिमाग पर संस्कार बिठाया गया है कि पाप है, बुरा है; पाप है, बुरा है, बस उसको दोहराए चले जा रहे हैं। फिर जैसे ही क्रोध आता है, तो क्रोध को तो जानते नहीं हैं, वह हमें पकड़ लेता है। क्रोध हम पर सवार हो जाता है। हम दुखी होते हैं। दूसरे को दुख दे लेते हैं। जब क्रोध चला जाता है तो वह तोतों की रटी बातें फिर पीछे लौट आती हैं और वह कहने लगती हैं: क्रोध बहुत बुरा है, क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध करके बहुत पाप किया। फिर हम कसम खाते हैं, पश्र्चात्ताप करते हैं कि अब नहीं करेंगे, अब नहीं करेंगे।
और हमें पता नहीं कि जिसको हम कह रहे हैं, नहीं करेंगे, उससे हमारी कोई पहचान नहीं है। जब वह आ जाएगा तो हम एकदम हार जाएंगे, क्योंकि जिसे हम पहचानते ही नहीं, उससे जीत कैसे संभव है? इसलिए रोज आदमी तय करता है, अब क्रोध नहीं करेंगे और रोज क्रोध करता है! रोज तय करता है, वही रोज करता है। फिर और जोर से तय करता है, फिर और जोर से कसम खाता है, संकल्प लेता है, भगवान के मंदिर में जाकर प्रण करता है, साधु-संन्यासियों के सामने प्रतिज्ञा और व्रत लेता है--और फिर, फिर वही होता है!
नहीं, ये व्रत और प्रतिज्ञाएं और ये संकल्प दो कौड़ी के हैं। इनसे कुछ होने वाला नहीं है। असली सवाल जिसे आप बदलना चाहते हैं, उससे आप परिचित हैं?
पहली बात है: सारी धारणाएं छोड़ दें। कौन कहता है क्रोध बुरा है? कौन कहता है लोभ बुरा है? कौन कहता है सेक्स बुरा है? हमें पता नहीं। है हमारे भीतर--हम जानेंगे, खुद ही जानेंगे। हम दूसरे से पूछने क्यों चले जाएं? और भीतर प्रवेश करें निष्पक्ष मन लेकर। लेकिन ऐसा मत सोचना...
ऐसा मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमने आपकी पद्धति से भी कोशिश की, लेकिन अभी तक छुटकारा नहीं हुआ!
मैं आपसे यह पूछता हूं कि छुटकारा चाहते क्यों हैं? छुटकारा चाहने में वह मानी हुई बात बैठी हुई है कि क्रोध बुरा है। मैं आपसे कहता हूं, जानिए, छुटकारा हो जाएगा। छुटकारा पाने के लिए अगर जानने गए तो निर्णय पहले से मौजूद है कि बुरा है और उससे छूटना है; फिर नहीं छुटकारा होगा।
वे कहते हैं: आपकी बात भी हम मान लेते हैं, लेकिन छुटकारा कब होगा?
आपने फिर मेरी बात समझी ही नहीं। छुटकारे की जो बात आप कहते हैं, वह दूसरों की माने हुए बैठे हैं कि बुरा है क्रोध, इसलिए छुटकारा चाहिए। फिर अगर मेरी बात सुनते तो कहते हैं, अच्छी बात है। अगर इस तरकीब से छुटकारा होता हो तो हम यह तरकीब भी करते हैं, लेकिन छुटकारा होगा कि नहीं? हम धारणा भी छोड़ने को राजी हैं, लेकिन छुटकारा होगा कि नहीं?
अब कैसी धारणा छोड़ रहे हैं आप! अगर धारणा छोड़ रहे हैं तो छुटकारे का सवाल समाप्त हो जाता है। हम जानने जाते हैं, क्या है। और जानने से जो होगा, वह होगा। जानने से छुटकारा होता है। छुटकारा पाने के लिए जान नहीं सकते हैं आप। छुटकारा पाने के लिए--जानने की प्रक्रिया में बाधा पड़ेगी, जान नहीं सकेंगे। क्योंकि जिससे छूटना है जल्दी, जिससे मुक्त होना है, उसे जानने की धीरज, जानने की सरलता कैसे हम बरत पाएंगे उसके साथ?
अगर कोई आदमी आपके घर आया है और आप चाहते हैं कि जल्दी चला जाए, जल्दी चला जाए। फिर आपने कभी खयाल किया है, न आप उसकी बात सुन पाते हैं। सुनते हैं, ऐसा दिखता है कि आप सुन रहे हैं, लेकिन भीतर चल रहा है कि यह आदमी कब जाए। हां-हूं भी करते हैं कि हां बिलकुल ठीक कह रहे हैं, आप जो कहते हैं, बिलकुल ठीक है। लेकिन भीतर यह होता है कि यह आदमी जल्दी चला जाए। भीतर कुछ नहीं सुनाई पड़ रहा है। न वह आदमी दिखाई पड़ रहा है। बार-बार घड़ी देख रहे हैं और लग रहा है कि यह आदमी, कितनी देर हो गई! कब चला जाए! और यह सारा चल रहा है और ऊपर से एक भाव चल रहा है कि हम देख रहे हैं, हम सुन रहे हैं, हम स्वागत कर रहे हैं--और भीतर? भीतर एक दीवाल खड़ी हो गई है, क्योंकि उस आदमी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। तो फिर कैसे उसको जान सकिएगा?
क्रोध को जानना है, सेक्स को जानना है, हिंसा को जानना है। छुटकारे का क्या सवाल है? जानेंगे, अगर अच्छे हुए तो छुटकारा क्यों पाएंगे? अगर अच्छे हुए तो फिर क्यों छुटकारा पाएंगे? अभी हम जानते नहीं, इसलिए पहले से निर्णय न करें कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है। जिसने सोचा, यह अच्छा है, यह बुरा है, वह बुराई से कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि अच्छा और बुरा वह दूसरे के अनुभव के आधार पर तय कर रहा है। और दूसरे के अनुभव के आधार पर पक्षपात तय कर रहा है।
और पक्षपात स्वयं का ज्ञान पैदा नहीं होने देते हैं। वह एक चक्र में पड़ रहा है, जिसमें पूरा जीवन नष्ट कर लेगा और कहीं भी नहीं पहुंच सकता है।
नहीं, जानना है। और जानने से मुक्ति आती है। वह बिलकुल गौण बात है, उसके लिए चिंता करने का सवाल नहीं है।
तो सारी धारणा छोड़ दें। क्रोध क्या है--तो मत कहें कि बुरा है, मत कहें कि अच्छा है, मत कहें कि मैं जानता हूं। इतना ही कहें कि मैं नहीं जानता हूं। मैं जानना चाहता हूं। इतनी सरलता से कि मैं नहीं जानता हूं और जानना चाहता हूं। अगर आपका मन तैयार है तो आप क्रोध को जान लेंगे। और जानते ही क्रोध से मुक्ति हो जाती है। जानने के बाद एक क्षण भी कोई बंधन नहीं है किसी बात का।
यह इतना ही है, ऐसा ही, जैसे एक मकान के भीतर मैं बैठा हूं और मैं कहूं कि मुझे दरवाजे से बाहर निकलना है। तो मैं कहूं कि आप आंख खोल कर गौर से देखिए दरवाजा कहां है। आपको दिख जाएगा और फिर आप निकल जाएंगे। वह आदमी कहे कि ठीक है, हमें दरवाजा दिख भी गया, तो भी हम निकलेंगे कैसे! और वह आदमी कहे, मुझे दरवाजा तो दिखाई पड़ता है, लेकिन मैं निकल नहीं पाता! निकलता हूं तो दीवाल से टकरा जाता हूं!
तो हम कहेंगे, वह दरवाजा किसी की सुनी हुई खबर होगी कि यहां दरवाजा है। आपको नहीं दिखाई पड़ता है, नहीं तो फिर कैसे दीवाल से टकरा जाते? वह आदमी कहता है, मुझे दरवाजा तो मालूम है, लेकिन जब भी निकलता हूं, तभी दीवाल से टकराता हूं, दरवाजे से निकल कभी नहीं पाता। लेकिन दरवाजा मुझे मालूम है! तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, दरवाजा मालूम नहीं होगा, अन्यथा निकल गए होते, दीवाल से क्यों टकराते? सुना होगा कि यहां दरवाजा है। किसी से सुना होगा। वह सुनी हुई बात पकड़ ली है, इसलिए टकराहट होती है। और जिसे दरवाजा दिखाई पड़ता है, वह नहीं पूछता कि मैं कैसे निकलूं। दिखाई पड़ना और निकल जाना, एक ही साथ हो जाते हैं।
तो पहली बात है: अंतस-जीवन के तथ्यों का सीधा ज्ञान, उधार ज्ञान नहीं।
और इसलिए जब क्रोध आए... तो अभी हम क्या करते हैं? अगर मैं आप पर क्रोधित हो जाऊं, तो आप क्या करेंगे, पता है आपको? अगर मैं आपको गाली दूं और अपमानित करूं और मैं आप पर क्रोधित हो जाऊं तो आपके भीतर क्रोध जगेगा। उस क्रोध में आप क्या करेंगे, आपको पता है? आज तक आपने क्या किया है, आपको पता है? उस क्रोध में आप अपने को भूल जाएंगे और मेरे बाबत विचार करेंगे कि इस आदमी ने ऐसा क्यों कहा? यह आदमी बुरा है, इस आदमी से कैसे बदला लूं? जब आप क्रोध से भरेंगे तो आपका पूरा ध्यान मुझ पर चला जाएगा। और क्रोध आपके भीतर होगा और ध्यान मुझ पर होगा। आप क्रोध को जानने से वंचित रह जाएंगे, क्योंकि ध्यान मुझ पर है और क्रोध भीतर जल रहा है।
जब अब दुबारा क्रोध आए तो उसकी फिकर छोड़ दें, जिसने गाली दी है। अब तो भीतर पहुंच जाएं, कमरा बंद कर लें और भीतर झांकें। और बैठ जाएं, और वहां ध्यान ले जाएं जहां क्रोध है। जिसने क्रोधित किया है, उस पर हमारा ध्यान होता है। जो क्रोधित हो गया है, उस पर हमारा ध्यान नहीं होता है। इसलिए हम क्रोध को कभी नहीं जान पाते। आग यहां भीतर जलती है और नजरें हमारी वहां लगी होती हैं उस आदमी पर। और हम विचार कर रहे होते हैं कि क्या करें, कैसे बदला लें। सारा चित्त वहां है और यहां भीतर आग लगी है। इस हालत में कैसे आप जान पाएंगे?
एक युवक खेल रहा है हाकी। पैर में चोट लग गई है, खून बह रहा है। उसे पता नहीं है। जब तक वह खेल रहा है, उसे पता नहीं है। खून बह रहा है, पैर में चोट लग गई है, नाखून टूट गया है। दूसरों को खून बहता हुआ दिखाई पड़ रहा है। उसे पता नहीं है, उसका सारा ध्यान खेल पर लगा हुआ है। वहां ध्यान नहीं है उसका। खेल बंद होगा और उसे ध्यान आएगा कि अरे, यह तो पैर में चोट लग गई! कब से खून बह रहा है, कितना खून गिर गया है, लेकिन मुझे पता ही नहीं है?
पता हमें उन्हीं चीजों का होता है, जहां हमारा ध्यान होता है। पता का अर्थ है: जहां ध्यान है।
जब आपको क्रोध होता है तो आपका ध्यान कहां होता है? क्रोध पर होता है? अगर क्रोध पर होगा तो आप क्रोध को जान लेंगे। लेकिन क्रोध पर नहीं होता है। जिसने क्रोध को जगाया है, उस निमित्त पर होता है। उस व्यक्ति पर होता है जिसने क्रोध को जगाया है, हमारी आंखें वहां अटकी होती हैं। हो सकता है वह आदमी यहां न हो, वह अब लंदन में बैठा हो। लेकिन क्रोध हमारा उस पर होगा।
एक आदमी ने लंदन से आपको एक चिट्ठी लिख दी और गालियां लिख दीं। और आप चिट्ठी को फाड़ कर फेंक देंगे। और ध्यान लंदन के उस आदमी पर चला जाएगा। और यह जो आदमी भीतर बैठा है, जो क्रोध में जल रहा है, आग में भुन रहा है, इस पर ध्यान नहीं होगा! तो जहां ध्यान होगा, वहां पता चलेगा। जहां ध्यान नहीं है, वहां कैसे पता चलेगा?
लेकिन आप कहेंगे कि मैंने कई दफा क्रोध किया है, मुझे क्रोध का पता नहीं है? मुझे क्रोध का पूरा पता है, क्योंकि मैं जिंदगी भर क्रोध किया हूं। आपने जिंदगी भर क्रोध किया है, लेकिन हमेशा आपका ध्यान क्रोध के क्षण में वहां चला गया है, जहां क्रोध नहीं है। वहां से हट गया है, जहां क्रोध है। और इसलिए ध्यान और क्रोध का मिलन कभी नहीं हो पाया है।
जब क्रोध चला जाएगा, बह जाएगी आग, आप वापस लौट आएंगे उस लंदन के दुश्मन से, तब आप कहेंगे, अरे! मकान जल गया, जगह-जगह दीवालें गिर गईं, यह तो बहुत बुरा हुआ, यह तो पश्र्चात्ताप हो गया! अब मैं निर्णय करता हूं, अब कभी क्रोध नहीं करूंगा। फिर क्रोध आएगा और फिर यही दोहराएगी बात, फिर नजर वहां चली जाएगी, यहां क्रोध चूक जाएगा। नहीं; क्रोध पर करना है ध्यान, तब आप जान सकेंगे। जिस पर ध्यान होता है, उसे ही हम जान पाते हैं। लेकिन आप कहेंगे, क्रोध पर कैसे ध्यान करेंगे, क्योंकि क्रोध में तो हम होश में ही नहीं रहते। ध्यान-व्यान कौन करेगा। वहां तो हम बेहोश हो जाते हैं।
निश्र्चित ही अब तक ऐसा ही हुआ है। और इसलिए आप क्रोध को जान नहीं पाए। आपको सिर्फ क्रोध की स्मृति है, गए हुए क्रोध की। मरे हुए क्रोध की, अतीत के क्रोध की स्मृति है। वर्तमान के क्रोध को आपने कभी नहीं जाना। अतीत के क्रोध की स्मृति है, भविष्य के क्रोध के लिए निर्णय है और वर्तमान के क्रोध से कोई परिचय नहीं है। अतीत के क्रोध की स्मृति भर है, मेमोरी भर है कि हां ऐसा हुआ था और भविष्य में क्रोध नहीं करूंगा इसका संकल्प है। और वर्तमान क्रोध की कोई अनुभूति, वर्तमान क्रोध का कोई साक्षात्कार नहीं है। और वर्तमान क्रोध का साक्षात्कार हो जाए तो न अतीत की स्मृति की जरूरत है, न भविष्य की योजना की। वर्तमान में क्रोध को जो जान लेता है, उसकी हालत वैसी ही हो जाती है, जैसे आग लगे हुए मकान में आदमी की, वह छलांग लगा कर बाहर निकल जाता है। और जान लेता है कि यह आग मैं ही लगाता हूं अपने ही मकान में।
बुद्ध ने कहा है कि जब मैंने जाना तो मैंने पाया कि अदभुत हैं लोग, जो आदमी दूसरे की भूल पर क्रोध करता है वह अदभुत है! क्यों? तो बुद्ध ने कहा: अदभुत इसलिए कि भूल दूसरा करता है, दंड वह अपने को देता है। गाली मैं आपको दूं और क्रोधित आप होंगे। दंड कौन भोग रहा है? दंड आप भोग रहे हैं, गाली मैंने दी है।
क्रोध में जलते हम हैं, राख हम होते हैं, लेकिन ध्यान वहां नहीं होता। इसलिए धीरे-धीरे पूरी जिंदगी राख हो जाती है। और हमको भ्रम यह होता है कि हम जानते हैं। हम जानते नहीं--क्रोध की सिर्फ स्मृति है और क्रोध के संबंध में शास्त्रों में पढ़े हुए वचन हैं और हमारा कोई अनुभव नहीं है।
अब जब मैं कह रहा हूं कि जानें! तो अब जब क्रोध आ जाए तो उस आदमी को धन्यवाद दें, जिसने क्रोध पैदा करवा दिया। क्योंकि उसकी कृपा, उसने आत्म-निरीक्षण का एक मौका दिया; भीतर आग को जानने का एक अवसर दिया। उसको फौरन धन्यवाद दें कि मित्र धन्यवाद, और अब मैं जाता हूं, थोड़ा इस पर ध्यान करके वापस आकर बात करूंगा। द्वार बंद कर लें और देखें कि भीतर कौन उठ गया है, क्या उठ गया है, हाथ-पैर किस तरह कस रहे हैं। हाथ-पैर कसते हों, तो कसने दें; क्योंकि हाथ-पैर कसेंगे। हो सकता है कि क्रोध में, अंधेरे में, हवा में घूंसे चलें, चलने दें। द्वार बंद कर लें और देखें कि क्या-क्या होता है। अपनी पूरी पागल स्थिति को जानें और अपने पूरे पागलपन को पूरा प्रकट हो जाने दें अपने सामने। और तब आप पहली दफा अनुभव करेंगे कि क्या है यह क्रोध। यह आपने बाजार में किया होता--उस आदमी की गर्दन दबा ली होती, पत्थर उठा लिया होता रास्ते के किनारे दौड़ कर, अनर्गल बातें बकने लगते, आंख से खून बरसने लगता--यह सब हो जाने दें। द्वार बंद कर लें और यह सब होने दें--कि जो भी हो सकता है हो। और देखें भीतर से यह सब क्या हो रहा है। और जब पूरी आग, और पूरा मैडनेस, और पूरा पागलपन पकड़ेगा तब कंप जाएंगे भीतर कि यह है क्रोध। यह मैंने कई बार किया था, दूसरे लोगों ने क्या सोचा होगा!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, क्रोध संक्षिप्त रूप में आया हुआ पागलपन है, थोड़ी देर के लिए आया हुआ पागलपन है, क्षणिक पागलपन है। क्षण भर को आदमी उसी हालत में हो गया, जिस हालत में कुछ लोग सदा के लिए हो जाते हैं। क्रोध में जलते हुए आदमी में और पागल आदमी में मौलिक अंतर नहीं है। अंतर सिर्फ लंबाई का है। पागल आदमी स्थायी पागल है, क्रोधी आदमी अस्थायी पागल है।
आपने कभी देखा है? दूसरों ने आपको क्रोध में देखा है, इसलिए दूसरे कहते हैं कि यह बेचारा कितना पागल हो गया है, यह क्या कर रहा है? आपने कभी देखा है अपने को? तो कर लें द्वार बंद और अपनी पूरी हालत को देखें कि यह हो रहा है। और रोकें मत, पूरा प्रकट होने दें, जो हो रहा है। और उसका पूरा निरीक्षण, पूरा ऑब्जर्वेशन, तब आप पहली दफा परिचित होंगे, यह है क्रोध।
लेकिन ऐसा मत सोचना कि कोई क्या कहेगा--कहीं पत्नी न सुन ले! पत्नी बहुत दफा देख चुकी है आपके पागलपन को। और आप भी अपनी पत्नी के पागलपन से भलीभांति परिचित हैं। और बेटे भी आपको जानते हैं अच्छी तरह और आप भी बेटों को जानते हैं। किसी की कोई चिंता मत करना, बल्कि उनसे कह देना कि क्रोध पर निरीक्षण करता हूं और पागल हो जाता हूं कभी-कभी, उसको जानना चाहता हूं। हो सकता है जोर से आवाजें निकलने लगें, गाली निकलने लगे, दीवालों पर घूंसे पड़ने लगें आपके, पड़ने देना। एक दफा, एक बार पूरे क्रोध की पूरी नग्न स्थिति को देख लेना; उसके बाद दुबारा वह नहीं होगा, क्योंकि जब आप पूरी तरह परिचित होंगे--यह है स्थिति! आईना लगा लेना एक और उसमें देखते जाना कि क्या-क्या होता है! यह क्या हो रहा है?
और एक बार भी पूरा नग्न दर्शन भीतर का, क्रोध के पूरे वर्तुल का, पूरे बवंडर का हो जाए तो आप पहली दफा अनुभव करेंगे, क्या है क्रोध। और उसके बाद कसम लेने की जरूरत नहीं होगी कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। उसके बाद कोई आएगा और कहेगा कि अपनी जायदाद आपके नाम लिखता हूं, आप फिर से पागल हो जाइए एक मिनट के लिए। और कोई कहेगा, सारी दुनिया आपको देते हैं। तो आप कहेंगे, क्षमा करना, मैंने जान लिया कि क्या है क्रोध।
जो जान लिया वह मुक्त हो जाता है। और जो मैं क्रोध के लिए कह रहा हूं, वही सारी चीजों के लिए सच है--चाहे लोभ हो, चाहे सेक्स हो, चाहे कुछ भी हो।
जिंदगी में जो भी हमें पकड़े हुए है, उसको जानना है, और जानने से ही उसका रूपांतरण, जानने से ही उसका परिवर्तन है। ऐसा आपने जाना हो तो फिर दुबारा नहीं होगा।
लेकिन ऐसा हमने जाना नहीं है। बचपन से ही हमने दबाया है। छोटा सा बच्चा भी क्रोध करने लगे तो हम कहते हैं, शऽऽऽ...मां-बाप आंख का इशारा कर देते हैं, अभी नहीं! अभी दूसरा मौजूद है, कोई मेहमान घर में आया हुआ है, अभी नहीं! वह बेचारा पी जाता है। बचपन से ही पी रहे हैं क्रोध को, वह हमारी नस-नाड़ी में घुस गया है, सब तरफ फैल गया है। फिर जिंदगी भर पीते ही चले जाना है, कभी प्रकट ही नहीं किया।
अगर मेरा वश चले तो मैं आपको कहूं कि बच्चों को रोकना मत। जब बच्चे क्रोध में भर जाएं तो आईना सामने लाकर रख देना और कहना: करो जोर से और देखो कि तुम किस हालत में हो, क्या हो गया है तुम्हें--इसे तुम देखो! हम सब भी घर के लोग बैठ कर तुम्हारा निरीक्षण करेंगे, क्योंकि तुम्हारे निरीक्षण से हो सकता है हमको भी लाभ हो जाए। रोकना मत उसे!
सारी शिक्षा गलत है। पूरे व्यक्तित्व का, मनुष्य को बनाने का विज्ञान गलत है। इसलिए गलत आदमी पैदा होता है। अगर बचपन से बच्चे को उसके क्रोध की पूरी की पूरी झलक मिलनी शुरू हो जाए, जवान होते-होते वह क्रोध के बाहर होगा। वह इसी तरह क्रोध के बाहर हो जाएगा जिस तरह आज वह गंदगी के बाहर है। वह गंदे कपड़े नहीं पहनता, लेकिन गंदी आत्मा को पहने रहता है! यह कैसे संभव हो सकता था! यह संभव इसलिए हो सका है कि हमने कभी पहचानने नहीं दिया कि आत्मा की गंदगी क्या है? आत्मा की अग्लिनेस क्या है? कुरूपता क्या है? वह कभी सामने नहीं आई है। उसने कभी देखी नहीं है। सिर्फ दबा लिया है। और दबा कर उसने भीतर कर लिया है। ऊपर से मुस्कुराहट थोप ली है, भीतर से क्रोध जल रहा है। वह जलता रहा है, क्रोध बढ़ता रहा है, बढ़ता रहा है। वह उसके पूरे प्राणों को घेर लिया है।
आज हर आदमी एक ज्वालामुखी है, जिसमें चारों तरफ से वह किसी तरह अपने को सम्हाले हुए है। बस किसी तरह सम्हाले हुए है। सब भीतर न मालूम कितनी चीजें जल रही हैं, जो उसे धक्का देती हैं कि यह करो, यह करो। जरा रास्ते पर आप निकलते हैं, तब खयाल करना अपने मन पर, क्या-क्या करने का मन नहीं होता है! घर बैठे हैं, तब भी क्या-क्या करने का मन नहीं होता है! कितनी बार कितने लोगों की हत्या नहीं की है! कितनी बार जरा सी बात में किसी की गर्दन नहीं काट दी! बाहर नहीं काटी, नहीं तो यहां नहीं होते आप। भीतर काटी है, मन में काटी है। कितनी बार नहीं सोचा है कि जहर पिला दो इस आदमी को! वह किया या सोचा बराबर है, उसमें कोई फर्क नहीं है। कमजोर हैं, इसलिए कर नहीं सके। कायर हैं, इसलिए कर नहीं सके। कानून का डर है, इसलिए कर नहीं सके। लेकिन जहां कर सकते थे, वहां पूरी तरह से कर लिया है। कितनी दफे खुद की आत्महत्या नहीं कर ली है!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने जिंदगी में दो-चार बार अपने आप को खत्म करने का विचार न किया हो। खोजना ही मुश्किल है ऐसा आदमी, जिसने दस-पच्चीस दफा नहीं सोच लिया हो कि खत्म कर दो अपने को। ऐसा बेटा खोजना मुश्किल है, जो बाप को खत्म करने की बात न सोच लिया हो। ऐसा पति खोजना मुश्किल है, जिसने पत्नी की गर्दन कई दफे न दबा दी हो। वह सब चल रहा है भीतर, उसको कोई बाहर से कहता नहीं। इसलिए तो दुनिया सम्हली हुई है।
अगर भीतर के सब राज सब आदमी खोल दें तो आज पता चल जाए कि दुनिया की असली हालत क्या है। अगर पांच आदमी तय कर लें कि हम अपनी सब असली-असली बातें, जैसी होंगी, वैसी ही कह देंगे। तब आपको पता चलेगा कि दुनिया की हालत क्या है। दिन में पच्चीस दफा वह आदमी एक-दूसरे से आकर कहेंगे कि अभी मैंने तुम्हारी गर्दन में छुरा मारा। वह हम सब कर रहे हैं!
मैंने सुना है, नियाग्रा जलप्रपात के पास एक पत्थर पर ऐसी खबर है कि उस पत्थर पर खड़े होकर जो भी भाव किया जाए, वह पूरा हो जाता है। तो कई लोग जाकर वहां भाव करते हैं। एक जोड़ा वहां खड़ा हुआ है पति और पत्नी का। दोनों आंख बंद करके प्रयोग कर रहे हैं। एकदम पत्नी को चक्कर आया और पत्थर से नीचे नियाग्रा में गिर गई!
उस पति ने कहा: हे भगवान! मालूम होता है भाव पूरे हो जाते हैं! वह बेचारा यही भाव कर रहा था खड़े होकर कि कहीं ऐसा हो जाए कि पत्नी चक्कर खाए और नियाग्रा में गिर जाए।
यह हमारे भीतर है सब, इसको हम छिपाए हुए हैं, इस ज्वालामुखी पर बैठे हुए हैं। और फिर हम पूछने जाते हैं, ध्यान कैसे हो? भगवान का दर्शन कैसे हो? और नीचे देखते नहीं कि ज्वालामुखी पर बैठे हैं, जिसका पलवा पूरे वक्त हिल रहा है। नीचे से भापों के धक्के लग रहे हैं और पूछ रहे हैं कि ध्यान कैसे हो? शांति कैसे मिले? मोक्ष का रास्ता क्या है?
पहले इस ज्वालामुखी से निपटारा करिए, पहले इस ज्वालामुखी को जानिए, समझिए जो हम हैं। यह हमारी असलियत है। न भगवान से कोई लेना-देना है, न भगवान से कोई संबंध है, न सत्य से कोई मतलब है। हमारी यह जलती हुई आग, यह हमारा व्यक्तित्व असली सवाल है। और इसको हमने कभी देखा नहीं है और ज्वालामुखी इसलिए इकट्ठा हो गया है! बिना देखे दबाए चले गए हैं, दबाए चले गए हैं, दबाए चले गए हैं। बहुत इकट्ठा हो गया है। इससे मुक्त होने के लिए एक ही मार्ग है--और वह है ज्ञान का, वह है सत्य का। जो सत्य है, उसे जान लेना है उसकी परिपूर्णता में।
एक बहुत बड़े बुद्धिमान आदमी हैं। और बुद्धिमान आदमी बस किताबों से बुद्धिमान होते हैं। वे मेरे पास आए। बड़ी ख्याति है, हजारों लोग उनको मानते हैं। और ख्याति और हजारों लोगों के मानने से जितना अहित किसी व्यक्ति का होता है, उतना शायद ही किसी बात से होता हो। क्योंकि वे हजारों नासमझ मिल कर किसी को भी समझदार का भाव पैदा करवा देते हैं कि वह समझदार है। अब जरा बुढ़ापे में इधर वे आए हैं, तो थोड़ा डर पैदा हुआ है, क्योंकि सब समझदारी किताब की है, बातचीत की है। तो वे मुझसे कहने लगे कि मैं क्या करूं, कैसे शांत होऊं, कैसे ध्यान करूं?
तो मैंने उनसे कहा: पहले तो एक काम कर लें। एक महीने के लिए एकांत में चले जाएं और रेचन कर लें, रिलीज हो जाने दें। एक महीने में चिल्लाने का मन हो तो चिल्लाएं, नाचने का मन हो तो नाचें, गाली देने का मन हो तो गाली दें, पत्थर फेंकने का मन हो तो पत्थर फेंकें। एक महीने अपने को बिलकुल छोड़ दें। जो होता हो, होने दें। फिर एक महीने बाद आएं।
उन्होंने कहा: एक महीने बाद फिर मैं आऊंगा ही नहीं। क्यों? उन्होंने कहा: मैं तो पागल हो चुका होऊंगा, क्योंकि आप जो कह रहे हैं, वह सब मेरे भीतर है। और अगर मैंने जारी किया तो रोकूंगा कैसे? फिर रुकना मुश्किल है। और मैं यह नहीं कर सकता हूं। इससे मैं डरता हूं। मुझे तो शांत होने की तरकीब बताएं!
शांत होने की कोई तरकीब नहीं होती। सिर्फ अशांत होने की तरकीबें होती हैं। और अशांत होने की तरकीब समझ में आ जाए तो आदमी शांत हो जाता है। शांत होने के लिए और कुछ भी नहीं करना पड़ता। अशांत होने की तरकीबों के हम बड़े अभ्यासी हैं और उनका सबका भार इकट्ठा हो गया है। और ज्ञानी भी हैं साथ में, क्योंकि हमको पता है क्रोध बुरा है, काम बुरा है, फलां बुरा है। सब हमको पता है। सब अच्छी बातें पता हैं। और अच्छी बातें और उनका पता होना, नरक का रास्ता बनाती हैं।
नहीं, सच में हमें पता नहीं है। तो यह मैंने कहा, इसे प्रयोग करके देखें। अगर क्रोध हो तो क्रोध की दिशा में, लोभ हो तो लोभ की दिशा में, काम हो तो काम की दिशा में पूरा प्रयोग करके देखें और पूरा मेडिटेट करके देखें, पूरा ध्यान करके देखें। सारी स्थिति को निकाल लें, उघाड़ लें, सारे नंगेपन को जाहिर कर लें और देखें। और एक बार जिस दिन आप पोर-पोर अपने शरीर के और अपने मन के और अपनी आत्मा के रोएं-रोएं तक जो छिपा है, उसकी पूरी नग्नता में देख लेंगे, उस दिन के बाद दुबारा नहीं है वह बात। वह दुबारा नहीं पाई जाएगी।
जिसने जान लिया है, वह मुक्त हो गया है। और नहीं मुक्त है, तो जानना कि नहीं जाना है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि सुबह मैंने कहा कि सीता के पैर के गहने लक्ष्मण को दिखाई पड़े और कोई गहने दिखाई नहीं पड़े, तो विनोबा ने जो व्याख्या की है कि लक्ष्मण नैष्ठिक ब्रह्मचारी है, ब्रह्मचर्य की साधना करता है, इसलिए सीता के चेहरे की तरफ नहीं देखता है। तो मैंने कहा कि यह व्याख्या गलत है और यह लक्ष्मण का सम्मान नहीं है, अपमान है। क्योंकि इससे पता चलता है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी बिलकुल नहीं है, अन्यथा सीता के चेहरे की तरफ देखने से डरता नहीं। तो उन मित्र ने पूछा है कि अगर विनोबा की व्याख्या गलत है तो आपकी क्या व्याख्या है? लक्ष्मण को पैर के गहने ही क्यों दिखाई पड़े?
दो-तीन कारण हैं। एक तो कारण यह है कि लक्ष्मण रोज सुबह सीता के पैर पड़ता था। सीधी-सीधी बात है। उससे ज्यादा कुछ उलझाव नहीं है। रोज-रोज पैर पड़ता था सीता के, वे पैर के गहने उसे रोज-रोज दिखाई पड़े होंगे। वह उनको पहचानता होगा। सीता के शरीर के दूसरे गहनों पर उसकी कभी नजर नहीं गई। इसका कारण यह नहीं है कि वह ब्रह्मचारी था। इसका कुल कारण इतना है कि अगर स्त्री सुंदर हो तो उसके गहनों पर नजर जाती ही नहीं। सिर्फ स्त्री कुरूप हो तो उसके गहनों पर नजर जाती है। और कुरूप स्त्री को ही गहना पहनने का शौक भी होता है। सुंदर स्त्री को होता भी नहीं। वह सौंदर्य की कमी-पूर्ति होती है।
सीता जैसी सुंदर स्त्री दुनिया में मुश्किल से कभी होती हैं। उस जमाने के दो सबसे अदभुत आदमी राम और रावण उसको प्रेम करते थे। उससे ज्यादा महिमामंडित, उससे ज्यादा सुंदर स्त्री खोजनी बहुत मुश्किल है। और सीता का चेहरा दिखे और किसी को उसके गले का हार दिखे तो वह सुनार होगा, लक्ष्मण नहीं। सीता जैसी सुंदर और अदभुत स्त्री को देख कर गहने दिखाई पड़ सकते हैं?
वह दिखाई नहीं पड़े होंगे। उसका कारण यह नहीं है कि कोई ब्रह्मचारी है। उसका कारण यह नहीं कि ब्रह्मचारी नहीं है। लक्ष्मण ब्रह्मचारी था। लेकिन ब्रह्मचर्य इतना भयभीत, क्लीव नहीं होता; इतना कमजोर नहीं होता कि चेहरे की तरफ देखने से डर जाए। और ऐसा ब्रह्मचर्य बिलकुल झूठा होता है। सीता के चेहरे को बहुत देखा होगा उसने, लेकिन गहने दिखाई पड़ने--यह ऐसे ही है, जैसे कि सड़क पर आप निकलते हैं तो आपके जूते को सिवाय चमार के और कोई नहीं देखता। और आप सोच रहे हों कि दूसरे भी आपके जूते देख कर बहुत प्रभावित हो रहे होंगे तो आप गलती में हैं। सिवाय चमारों के कोई प्रभावित नहीं होगा।
वह जूता दिखता चमार को है। सच तो यह है कि चमार शक्ल-सूरत देखते ही नहीं, सिर्फ जूते ही देखते हैं। और जूते ही देखते रहते हैं दिन-रात सड़कों पर और जूतों से आदमियों को भी पहचान लेते हैं। अपने-अपने मापदंड हैं। चमार जूता देख कर पहचान लेता है कि आदमी मिनिस्टर है, कि हार गया कि जीत गया! वह जूता सब बता देता है! जूते की हालत सब बता देती है कि आदमी के खीसे में कुछ है कि नहीं है। जूता बता देता है कि आदमी सड़क पर चलता है कि हवाई जहाज में उड़ता है। जूता बता देता है कि किसका जूता है, वह आदमी कैसा होगा! वह चमार जूतों को देख लेता है और आदमी को पहचान लेता है! लेकिन चमारों के सिवाय जूतों को कोई नहीं देखता, तो ऐसा मत समझना कि चमार बड़े ब्रह्मचारी होते हैं इसलिए सिर्फ जूता ही देखते हैं, चेहरा नहीं देखते।
वह लक्ष्मण को गहना पैर का सिर्फ इसलिए याद रह गया कि रोज-रोज सिर रखा होगा उन पैरों पर। रोज-रोज निरंतर, वे गहने उसकी नजर में रोज-रोज आ गए होंगे, वे खयाल में थे। फिर सीता जैसी सुंदर स्त्री के गहने किसी को याद नहीं रह सकते; लक्ष्मण को ही नहीं, किसी को भी नहीं रह सकते। वह इसी वजह से राम को भी याद नहीं थे। राम तो ब्रह्मचारी नहीं थे। उनको क्यों याद नहीं थे? उन्होंने तो चेहरा देखा होगा सीता का, लेकिन उनको भी याद नहीं थे।
सच तो यह है कि जहां चेहरे का सौंदर्य होता है, वहां कौन गहने के सौंदर्य को देखने जाता है। दुनिया जितनी सुंदर होती चली जाएगी, उतने गहने विसर्जित होते चले जाएंगे। गहने कुरूपता का लक्षण हैं। आदमी अपने को सजाता तब है, जब जानता है, अनुभव करता है कि कहीं कुछ कमी रह गई है; नहीं तो नहीं सजाता है, फिर सीधा ही खड़ा हो जाता है।
महावीर जैसे लोग बहुत सुंदर लोग थे, इसलिए नंगे खड़े हो गए। फिर कपड़े-वपड़े पहनने की भी जरूरत न रही। यह यह मत समझना कि त्यागी, तपस्वी हैं। महावीर जैसी सुंदर काया दुनिया में मुश्किल से होती है। तो उतनी सुंदर काया पर कपड़े लगाना नासमझी है। उतनी सुंदर काया को कपड़े से ढांकना गलती है।
कपड़े से उस काया को ढांकना पड़ता है हिसाब से कि काया की सारी कुरूपता कपड़ों में ढंक जाए। और काया के सिर्फ वे हिस्से दिखाई पड़ते रहें, जो कुरूप नहीं हैं। और तब काया के सौंदर्य का एक भ्रम पैदा होता है।
महावीर अदभुत सुंदर आदमी रहे होंगे। वे कपड़े खोल कर नग्न खड़े हो गए होंगे। उस नग्नता में भी वे अप्रतिम रहे होंगे। और वे इतने सुंदर थे कि उनकी नग्नता किसी को भी दिखाई नहीं पड़ी होगी। उस सौंदर्य के सामने कौन नग्नता को देखेगा।
तो मैं नहीं मानता हूं कि इससे ब्रह्मचर्य वगैरह का कोई भी संबंध है। लेकिन विनोबा जी और उस तरह के लोगों को इसमें ब्रह्मचर्य दिखाई पड़ सकता है, क्योंकि ये सारे लोग ऐसा सोचते हैं कि आंखें बंद कर लेने का नाम ब्रह्मचर्य है! भाग जाने का नाम ब्रह्मचर्य है! स्त्री और पुरुष के बीच फासला बनाने का नाम ब्रह्मचर्य है! यह ब्रह्मचर्य नहीं है। ब्रह्मचर्य बहुत सतेज... इतना निर्वीर्य नहीं होता है।
ब्रह्मचर्य बहुत सतेज होता है। सतेज होता है, शक्तिशाली होता है, ऊर्जस्वी होता है। जहां ब्रह्मचर्य है, वहां चोरी नहीं होती, भागना नहीं होता।
जो ब्रह्मचारी स्त्री से भागता हो, वह बहुत कमजोर है, ब्रह्मचारी बिलकुल नहीं है। कामुकता कमजोर होती है, ब्रह्मचर्य तो बहुत वीर्यवान होता है। वह भागेगा नहीं, वह डरेगा नहीं। डरने का सवाल नहीं है वहां कोई! तो मैं वैसा नहीं मानता। और व्याख्या करने जैसी कोई खास बात नहीं है। मुझे इतना ही लगता है जो मैंने कहा, इससे भिन्न, इससे ज्यादा कुछ मामला नहीं है।
एक मित्र पूछा है कि आप जिस साधना की बात करते हैं, उससे स्वयं की ऊंचाई तो पाई जा सकती है, लेकिन उससे दूसरों का कल्याण कैसे होगा?
हमें यह पता ही नहीं है कि स्वयं की ऊंचाई से बड़ा और दूसरे का कोई कल्याण नहीं है। और जो आदमी स्वयं ऊंचा नहीं है, वह दूसरे का कल्याण कैसे कर सकता है? हां, कल्याण के नाम पर अकल्याण जरूर कर सकता है। और अक्सर समाज-सेवक, समीज-सुधारक, तथाकथित क्रांतिकारी, रिफॉर्मिस्ट, वे सब के सब अकल्याण करते हैं, कल्याण नहीं होता। क्योंकि खुद की कोई ऊंचाई नहीं है तो दूसरे की ऊंचाई कैसे आप ला सकते हैं?
सच तो यह है कि खुद की ऊंचाई विकसित हो तो उस ऊंचाई के साथ आस-पास की सारी हवाएं ऊंची उठने लगती हैं। खुद की ऊंचाई विकसित हो तो उस ऊंचाई की किरणें चारों तरफ फैलने लगती हैं और दूसरों को ऊंचा उठाने लगती हैं।
खुद की ऊंचाई विकसित हो तो आप कुछ और न करें, सिर्फ खुद की ऊंचाई विकसित करते चले जाएं तो भी आप दुनिया का इतना मंगल करते हैं जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। इसलिए यह मत सोचें कि जिस साधना की बात मैं कर रहा हूं उससे खुद की ऊंचाई भर बढ़ जाएगी, तो दूसरों का और कल्याण?
दूसरों का क्या कल्याण करना है आपको? एक तो दूसरे के कल्याण करने की बात में ही बहुत ही गहरा अहंकार छिपा हुआ है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे का क्या कल्याण करना है आपको? दूसरे का कल्याण आप कर सकते हैं? अपना ही कल्याण कितना मुश्किल है। लेकिन अपने कल्याण से बचने के लिए कई लोग दूसरे के कल्याण में लग जाते हैं! क्योंकि वह झंझट का काम मालूम पड़ता है अपना कल्याण! वह जरा कठिन, कठोर रास्ता मालूम पड़ता है। दूसरे का कल्याण बिलकुल सरल मालूम पड़ता है।
और दूसरे के कल्याण में सबसे बड़ी फायदे की बात यह है कि अगर परिणाम न निकले तो दूसरा जिम्मेवार होगा! हम तो कल्याण करते ही रहे। हम तो तब तक पद्मश्री और भारतरत्न हो ही गए। वह दूसरे का नहीं हुआ कल्याण तो जिम्मेवार है वह। और अपना कल्याण करो तो बड़ी मुश्किल है अगर सफल न हों। एक तो पद्मश्री वगैरह मिलते नहीं खुद के कल्याण करने वालों को। और दूसरी कठिनाई यह है कि असफल हो जाओ तो असफलता अपने ही ऊपर आती है। दूसरे का कल्याण बहुत सुविधापूर्ण है। और ध्यान रहे, दूसरे के कल्याण में चित्त की हिंसा को बड़ा आनंद मिलता है। असल में दूसरे को बदलने, दूसरे को बनाने में चित्त की हिंसा को बड़ा रस आता है!
चित्त की हिंसा के बड़े अदभुत रूप हैं। जब बाप बेटे से कहता है कि मैं जैसा कहता हूं, वैसा ही करो, क्योंकि यही ठीक है, इसी में तुम्हारा कल्याण है। तो वह कभी सोचता भी नहीं है कि वह जो कह रहा है, न तो उसे कल्याण की फिकर है, न उसे इस बात की फिकर है कि क्या ठीक है। उसे फिकर इस बात की है कि जो मैं कहता हूं, वह माना जाता है कि नहीं माना जाता है। बहुत बुनियाद में उसका रस इस बात का है कि मेरा लड़का मेरी मानता है कि नहीं मानता है! उसे मनवाने के वह सब उपाय करेगा, वह सब तरह की व्यवस्था करेगा कि वह मान जाए, क्योंकि दूसरे व्यक्ति को अपने ढांचे में ढालने में जो मजा आता है, वह मजा हिंसा का मजा है, वह दूसरे व्यक्ति को मिटाने का मजा है।
गुरुओं को जो मजा आता है शिष्यों को मिटाने में, उसमें और कोई अर्थ नहीं है। उसमें सिर्फ एक अर्थ है कि एक दूसरे आदमी को हमने मिट्टी का लोंदा सिद्ध कर दिया। हम उसको बनाने में लगे हैं। हम जैसा बनाएंगे, वैसा वह बनेगा। इसलिए गुरु एक से कपड़े पहना देते हैं। कतार खड़ी कर देते हैं नकली आदमियों की, एक से ढोंग सिखा देते हैं और यह व्यवस्था करते हैं कि इतने आदमी हमने बना दिए!
कौन बनाने वाला है, कौन किसको बना सकता है? जो बनने को राजी हो जाते हैं, वे कमजोर, डरे हुए लोग हैं। और जो बनाने को राजी हो जाते हैं, वे एग्रेसिव, आक्रामक और खतरनाक लोग हैं। ये खतरनाक लोग कहते हैं, हम बनाएंगे! और डरे हुए लोग राजी हो जाते हैं कि ठीक है भई, हम तो अपने को बना नहीं सकते हैं। यह आदमी कहता है, चलो तुम हमें बना दो! हम तुम्हारे पैर पकड़ लेते हैं!
दुनिया को गुरुओं ने और शिष्यों ने जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना किसी और ने नहीं पहुंचाया है। क्योंकि जो आदमी किसी दूसरे के हाथ से बनने को राजी होता है, उस आदमी ने अपनी आत्मा खो दी। क्योंकि उस आदमी ने यह कह दिया कि मैं व्यक्ति होने का अधिकार खोता हूं! अब मैं दूसरे के हाथ में कठपुतली बनने को तैयार हूं! उस आदमी को परमात्मा ने मौका दिया था कि तू ‘तू’ होना और वह किसी गुरु के चरण पकड़ कर कुछ ‘और’ होने में लग गया है और खुद होने की कोशिश उसने बंद कर दी है!
धार्मिक आदमी वह है, जो स्वयं होने की कोशिश में लगा है। वे सारे लोग अधार्मिक हैं, जो किसी और जैसे होने की कोशिश में लगे हैं। अधार्मिक आदमी गुरु बनाएगा, अधार्मिक आदमी शिष्य बनेगा। धार्मिक आदमी न गुरु बनता है और न शिष्य बनता है। क्योंकि धार्मिक आदमी कहता है: परमात्मा ने एक मौका मुझे खुद होने का दिया है, वह मैं होना चाहता हूं। आप कृपा करें गुरुजन, आप जरा दूर रहें। मैं वही होना चाहता हूं, जो भगवान ने मुझे मौका दिया है।
कोई फिकर नहीं छोटा सा फूल! आप कहते हैं कमल हो जाएंगे। कृपा है आपकी। जो कमल हो सकते हैं वे हो जाएं। मैं घास का फूल हूं। मैं घास का फूल ही होना चाहता हूं। लेकिन लोभ पकड़ लेता है कि चलो हम भी कमल का फूल हो जाएं। और लोभ में आदमी वह भी खो देता है जो हो सकता था। शिष्य लोभ में पीछे चलते हैं, गुरु अहंकार में आगे चलते हैं और इसके अतिरिक्त उनके बीच कोई संबंध नहीं होता है।
शिष्य लोभ में होते हैं, ग्रीड में होते हैं कि गुरु हमें ऐसा बना देगा। गुरु दावा देता है कि हम ऐसा बना देंगे। और गुरु को मजा होता है बनाने का, कल्याण करने का!
भूल कर किसी का कल्याण मत करना, क्योंकि कल्याण नहीं होता है, सिर्फ टार्चर होता है। जिस आदमी के कल्याण के पीछे आप पड़ गए, उसकी मुसीबत हो गई। और बड़ी कठिनाई यह है कि अब वह कुछ कह भी नहीं सकता, क्योंकि आप उसी के हित में कार्य कर रहे हैं।
तो किसी को अगर पूरी तरह सताना हो तो बंदूक से वह सताने का मजा नहीं आता, क्योंकि बंदूक से आदमी मर ही जाता है, सताने का पूरा मजा नहीं आता। पूरा मजा इसमें आता है कि उस आदमी को बनाओ, बदलो! जिंदा भी रखो और जिंदा भी मत रहने दो! मरा हुआ कर दो और मरने भी मत दो, बस उसको बदलते रहो!
कोई किसी का कल्याण नहीं कर सकता है--न मां बेटे का कर सकती है और न बाप बेटे का कर सकता है। कल्याण प्रत्येक व्यक्ति अपना कर ले, पर्याप्त है।
और जब कोई व्यक्ति अपना कल्याण करता है, अपने जीवन को ऊंचाइयों पर ले जाता है तो उसके चारों तरफ के जीवन अचानक, अनायास उन ऊंचाइयों की प्रेरणा से भर जाते हैं। यह प्रेरणा दी गई नहीं होती है, यह प्रेरणा अनायास वितरित होती है। यह ऐसे ही है, जैसे कि रास्ते के किनारे एक फूल खिल जाता है तो फिर वह चिल्लाता नहीं है कि आओ और मुझे देखो। राह से जो भी निकलता है, सुगंध छू जाती है। फूल पर आंखें टिक जाती हैं, क्षण भर को, क्षण भर को आदमी के हृदय में भी फूल खिल जाता है। वह जो राह के किनारे रुक जाता है, उसके मन में भी फूल खिल जाता है।
एक बड़ा वृक्ष है, उसकी घनी छाया, राह चलता आदमी उसके नीचे रुक जाता है। छाया बुलाती नहीं है कि आ जाओ, छाया कहती नहीं है कि तुम्हारा कल्याण करूंगी। छाया बस है। कोई राह निकलता है और वह रुक जाता है। जैसे-जैसे व्यक्ति के भीतर की आत्मा का वृक्ष बड़ा होता है, एक बहुत अनजान छाया उसके चारों तरफ पड़ने लगती है, राहगीर उसके नीचे रुक जाते हैं, चले जाते हैं। न राहगीर कभी धन्यवाद देता है छाया को, न वृक्ष को कि धन्यवाद। और न वृक्ष कहता है कि देखो, जा रहे हो, दक्षिणा देते जाओ। बात खत्म हो गई है। वृक्ष को आनंद मिल गया है कि कोई उसके नीचे रुका। यह भी बड़ा सौभाग्य है।
जैसे व्यक्ति के भीतर का वृक्ष बड़ा होता है, वह आत्मा का वृक्ष, उसमें शाखाएं और फूल आने शुरू होते हैं, उसके नीचे बहुत लोग विश्राम करते हैं। लेकिन वह कोई गुरु नहीं बन जाता, उसे धन्यवाद की अपेक्षा भी नहीं होती कि कोई धन्यवाद भी दे जाएगा। वह तो अनुगृहीत होता है।
ध्यान रहे, वह आदमी अनुगृहीत होता है कि आपने कृपा की और दो क्षण उसके पास विश्राम किया। कौन कब किसके पास विश्राम करता है? आपने मौका दिया कि उस वृक्ष को भी पता चला कि उसकी छाया काम में आ गई है, तो धन्यवाद!
जब किसी व्यक्ति की आत्मा ऊंची उठती है तो धन्यवाद उनसे नहीं मांगता है, वे जो उसके नीचे ठहर गए होते हैं कभी। बल्कि धन्यवाद उन्हें देता है, क्योंकि उन्होंने मौका दिया। उसको आनंद दिया, उसके पास ठहरने का अनुग्रह किया।
खुद की ऊंचाई जितनी बढ़ती है, उस ऊंचाई के आकस्मिक परिणाम आने शुरू हो जाते हैं, लेकिन वे सुनियोजित नहीं होते हैं, अनायास होते रहते हैं।
कभी भी कोई राह चलते भी कोई आदमी मिल जाए, जिसके भीतर प्रेम की वीणा बजती हो, वह कुछ भी न बोले तो भी आपके भीतर कुछ हर्क-फर्क, कुछ हेर-फेर होना शुरू हो जाएगा।
अमरीका में एक अदभुत आदमी था। वह इस पर कुछ प्रयोग करता था कि बिना कहे भी भाव संवेदित होते हैं। एक अभिनेता उससे मिलने आया था और उस अभिनेता से उसने कहा कि बिना कहे भी भाव का संवेदन होता है। उस अभिनेता ने कहा: बिना कहे बहुत मुश्किल है। बिना कहे कैसे, कुछ कहना पड़ेगा! अगर क्रोध प्रकट करना है तो मुट्ठी बांधनी पड़ेगी, आंख खींचनी पड़ेगी, गाली देनी पड़ेगी। कुछ शब्द बोलने पड़ेंगे, कुछ करना पड़ेगा!
लेकिन, उसने कहा: नहीं, आंख भी बंद रखो, हाथ भी मत बांधो, बोलो भी मत, लेकिन सिर्फ भीतर क्रोध से भर जाओ तो भी पड़ोस तक क्रोध की किरणें पहुंचती हैं।
उस अभिनेता ने कहा: मुझे विश्र्वास नहीं पड़ता।
तभी फोन की घंटी बजी और वह अपने ऑफिस में चला गया। अभिनेता कमरे में अकेला रह गया। आधा घंटे तक फोन पर वह कुछ जरूरी बात करता रहा। आधा घंटे बाद वापस लौटा तो एकदम खड़ा हो गया चौंक कर!
उसने उस अभिनेता से कहा: मालूम होता है, आप मुझ पर नाराज हो गए हैं--क्या बात है? मैंने तो आपसे कुछ कहा नहीं है।
उस अभिनेता ने कहा: नहीं, मैं नाराज नहीं हुआ, लेकिन आधा घंटा मैं प्रयोग कर रहा था, आप पर क्रोधित होने का। और आप जो कहते हैं, मालूम होता है ठीक है। पूरा कमरा जैसे क्रोध से भर गया। क्रोध की तरंगें--जैसे पानी में हम पत्थर फेंक दें, तरंगें उठती हैं और दूर तक फैलती चली जाती हैं! यहां तो हम पत्थर पटकेंगे और मीलों दूर तक वे तरंगें फैलती चली जाएंगी!
ऐसा ही मनोआकाश है। ऐसा ही हमारे मन का भी एक जगत है। और वह मन का जगत संयुक्त है, वह कलेक्टिव है, वह समष्टिगत है। वह फैला हुआ है। और जब एक आदमी उसमें जोर से क्रोध का पत्थर डालता है तो उसकी किरणें, उसकी हवाएं चारों तरफ फैलती चली जाती हैं। और फिर जितने लोग भी क्रोध के प्रति रिसेप्टिव होते हैं, संवेदनशील होते हैं, उनके चित्त में भी क्रोध की किरणें पहुंच जाती हैं। उनके भीतर का क्रोध भी हिलने लगता है, कंपने लगता है।
अगर कभी कोई व्यक्ति बहुत प्रेम से भरा होता है तो उसके चारों तरफ प्रेम की घटनाएं घटने लगती हैं। अगर कभी कोई व्यक्ति परिपूर्ण शांत होता है तो उसके आस-पास शांति की किरणें फैलने लगती हैं।
लेकिन यह आकस्मिक हो जाता है। अभी भी हो रहा है, हर वक्त हो रहा है। जब आप अशांत हैं, तब भी हो रहा है। कभी आप प्रयोग करके देखना इस बात को। कि अगर आप बहुत अशांत हैं, तो एक चौबीस घंटे प्रयोग करके देखना--कि चौबीस घंटे अशांत से अशांत होते चला जाना। लेकिन किसी से कहना मत कि मैं अशांत हूं। कोई भाव प्रकट मत करना। और आप चौबीस घंटे में अनुभव करेंगे कि जो आदमी भी आपके पास आएगा, वह अशांत हो जाएगा।
आप इससे उलटा करके देखना। कभी चौबीस घंटे इस तरह शांत हो जाना कि जैसे कोई जीवन में अशांति नहीं है, सब तनाव छोड़ दिया है। और चौबीस घंटे ऐसे जीना कि जैसे जिंदगी में कुछ चिंता नहीं, दुख नहीं, पीड़ा नहीं; कोई अशांति नहीं। पूरे वक्त शांति से भरे रहना; कुछ कहना मत, एक शांति के अंबार बन जाना। और जो भी आदमी आएगा, और आप चौबीस घंटे में हैरान होंगे जान कर कि जो भी आया है, उसने शांति प्रकट की है!
लेकिन हमें इसका कोई साफ-साफ बोध नहीं है, क्योंकि हमें भीतर के जगत के किन्हीं भी, किन्हीं भी आयामों का कोई अनुभव नहीं है, कोई खबर नहीं है। हमें पता ही नहीं है कि हम सब जो सोचते हैं, जो करते हैं, जो मन में भाव लेते हैं, उस सबके परिणाम चारों तरफ होते चले जाते हैं।
जब कोई आदमी भीतर ऊंचाई पर उठता है तो वह ऐसी लहरें पैदा करने लगता है, जो दूसरों को ऊंचाई पर ले जाने का कारण हो जाती हैं।
आप अगर ऊंचे उठते हैं साधना से तो इस चिंता में मत पड़िए कि इससे दूसरों के कल्याण का क्या होगा। इसके अतिरिक्त कल्याण के लिए हम कोई हवा कभी पैदा कर ही नहीं सकते हैं।
दूसरे का कल्याण नहीं करना है, अपना मंगल साध लेना है।
उस सधे हुए मंगल के साथ दूसरों के मंगल के सधने का अवसर उपस्थित होता है।
वह भी आप नहीं कर देते, वह उपस्थित हो जाता है। वह आपके वश की बात नहीं है, वह उपस्थित हो जाता है। अगर दुनिया में सारे लोग दूसरे के कल्याण करने में लग जाएं, जैसा कि आजकल लगे हुए हैं--सारी दुनिया में वेलफेयर का काम चल रहा है। हर आदमी एक-दूसरे का कल्याण कर रहा है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का कल्याण कर रहा है। एक जाति दूसरी जाति का कल्याण कर रही है। सभ्य लोग आदिवासियों का कल्याण कर रहे हैं। ऊपर के वर्ण के लोग नीचे के वर्णों का कल्याण कर रहे हैं। पुरुष स्त्रियों का कल्याण कर रहे हैं। सब कल्याण में लगे हुए हैं। और देखें दुनिया की हालत कैसी है! कल्याण बढ़ता जा रहा है और कल्याण का कोई भी पता नहीं है! नहीं, इस तरह नहीं होगा कुछ। विपरीत है मार्ग बिलकुल।
प्रत्येक को लग जाना है अपने कल्याण में और उसी कल्याण में लगने के परिणाम में उसके व्यक्तित्व में, उसके मन में, उसकी चेतना में, उसके शरीर में, उसके कामों में वह सब प्रकट होना शुरू हो जाएगा जिससे कल्याण का अवसर उपस्थित होता है। वह अनायास हो जाता है, उसका पता भी नहीं चलता।
कोई आदमी किसी का कल्याण करने जाए तो समझना कि वह आदमी खतरनाक है। वह किसी न किसी आदमी को सताने का उपाय खोज रहा है। कल्याण उनसे होता है, जिन्हें पता भी नहीं है।
एक फकीर था, उस फकीर के चित्त में अदभुत घटनाएं घटीं। वह उस लोक में पहुंच गया, जहां कभी कोई सौभाग्यशाली पहुंचता है। वह वहां पहुंच गया है, जहां अमृत, जहां आलोक है। फिर अचानक जब वह वहां पहुंच गया तो कहानी कहती है कि देवताओं ने उससे कहा कि हम बहुत खुश हुए, हम तुझे कुछ वरदान देना चाहते हैं।
उस फकीर ने कहा: लेकिन अब मैं क्या मांगूं, क्योंकि अब तो मेरी मांग ही मिट गई। वह मिल गया, जिसको मिलने पर मांग नहीं रह जाती, धन्यवाद! मैं लेकिन कुछ मांगता नहीं--आपकी कृपा कि आपने मांगने के लिए कहा। लेकिन देवता पीछे पड़ गए।
देवता उन्हीं के पीछे पड़ जाते हैं, जो कहते हैं, हमें नहीं चाहिए! जो कहते हैं, हमें चाहिए, उनके पीछे भूत-प्रेत भी नहीं पड़ते हैं!
वह कहने लगा: मुझे चाहिए नहीं, क्योंकि जो मुझे चाहिए, वह मुझे मिल गया है।
लेकिन देवताओं ने कहा कि नहीं, यह तो हमारा अपमान हो जाएगा। हमसे कोई मांगने आता है, तब हम नहीं देते। हम खुद देने आए हैं।
उस फकीर ने कहा: अगर अपमान हो जाएगा तो फिर जो भी तुम देना चाहो दे दो। मैं उसे अंगीकार कर लूंगा।
तो उन देवताओं ने कहा कि तुम दूसरों का कल्याण करो, ऐसी सामर्थ्य दे दें?
उस फकीर ने कहा: क्षमा करना! दूसरों का कल्याण करने वाले लोगों को मैं भलीभांति जानता हूं। उन्होंने दुनिया में बहुत अकल्याण कर दिया है। यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा।
देवताओं ने कहा कि नहीं, यह काम तुमसे हो सकेगा, क्योंकि तुम उस जगह आ गए हो, जहां दूसरों का कल्याण हो सकता है।
उस फकीर ने कहा: वह तो ठीक है, लेकिन मुझे कोई दूसरा ही नहीं दिखाई पड़ता, तो मैं किसका कल्याण खोजने जाऊंगा! नहीं, यह काम बहुत दुष्कर है, कठिन है। यह मुझसे मत करवाएं।
तो देवताओं ने कहा: हम ऐसा कर देते हैं कि तुम जहां से निकलो, तुम्हारी छाया जिन पर पड़ जाए, उनका कल्याण हो जाए।
उसने कहा: यह तो ठीक है, लेकिन इतना ही ध्यान रहे कि छाया जब मेरे पीछे पड़ती हो तो मुझे पता न चले कि किसका कल्याण हो गया। मुझे पता चल जाए तो मुझे भी नुकसान हो सकता है, क्योंकि यह अहंकार आ जाए कि देखो, मैंने यह कर दिया। तो छाया करे, लेकिन मुझे कोई इसमें पता भी न चले। यह होता रहे।
फिर वह फकीर जहां से निकलता, कहानी कहती है कि फूल सूखे होते, उसकी छाया पड़ जाती तो वे खिल जाते। रास्ते पर मुर्झाए हुए पौधे होते, वे हरे जाते। बीमार पर छाया पड़ जाती, वह स्वस्थ हो जाता। अंधे को आंख हो जाती, बहरे को कान मिल जाते--कहानी कहती है, जहां उसकी छाया पड़ जाती! लेकिन उस फकीर को कभी पता नहीं चला, क्योंकि उस फकीर से कभी कुछ नहीं हुआ। वह तो छाया पीछे करती रही। वह पीछे छाया से होता रहा।
यह कहानी का मुझे पता नहीं। लेकिन इस जगत में जितने लोगों से भी कल्याण हुआ है, वह सदा उनकी छाया से होता है; उनसे नहीं होता है। और जितने लोग कहते हैं, हम कल्याण करते हैं, ये सारे लोग अकल्याण करते हैं। इनसे कोई कल्याण नहीं होता है।
इसलिए उठें ऊंचे, जाएं उन गहराइयों में, उन ऊंचाइयों पर जहां प्रभु का प्रकाश है। उन शिखरों की यात्रा करें, जहां वह सूरज है--जो हम घाटियों में, अंधेरों में रहने वाले लोगों को दिखाई नहीं पड़ता। और जिस दिन वह रोशनी भीतर भर जाएगी, आप भी एक छोटे दीये हो जाएंगे।
और उस दीये से भी किरणें फैलने लगेंगी, और बहुत से बुझे दीयों को प्रेरणा देंगी जगने की। बहुत से लोगों के जीवन के रास्ते पर फूल बिछा देंगी, बहुत से लोगों के भटके हुए मार्ग मंदिर की तरफ आ जाएंगे, बहुत से लोगों के प्राण प्रभु की तरफ प्यासे हो उठेंगे, बहुत से लोगों के जीवन में दुख और पीड़ा क्षीण होगी, बहुत से लोगों के जीवन में शांति के राज्य का द्वार खुलेगा। लेकिन वह आपकी छाया से हो जाएगा, उसका आपको पता भी नहीं पड़ेगा।
जब से दुनिया में कांशस सर्विस, सचेतन सेवा शुरू हुई है, तब से बहुत अहित हो रहा है। फिर वापस वह अचेतन सेवा, जो सहज हो जाती है, जिसका कोई पता नहीं चलता, उसकी पुनर्स्थापना जरूरी हो गई है।
कुछ और प्रश्न रह गए हैं, कल रात उन पर बात करेंगे।
अभी रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
तो थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएं। जल्दी ही अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। कहीं भी बैठ जाएं।
शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें। फिर प्रकाश बुझा दिया जाएगा, घनघोर अंधकार हो जाएगा। उस अंधकार में बिलकुल लीन हो जाना है। जैसे हम भी एक हो गए, रात के साथ एक हो गए।
थोड़ी देर तक मैं सुझाव दूंगा, आपका शरीर शिथिल हो रहा है, तब तक शरीर को शिथिल छोड़ते जाना है। फिर श्वास शिथिल हो रही है, श्वास को धीमा छोड़ देना है। फिर मन शांत हो गया है, फिर मन को भी शांत छोड़ देना है। फिर दस मिनट के लिए रात के साथ एक होकर हम रह जाएंगे।
झींगुर बोलते रहेंगे, कोई पक्षी आवाज करेगा, हवाएं चलेंगी, पत्ते उड़ेंगे, उनको चुपचाप जानते रहेंगे। बस सिर्फ जानने वाले रह जाएंगे। और जैसे-जैसे जानने का भाव गहरा होता है वैसे-वैसे मन शांत होता चला जाता है। अंततः जानते-जानते मन शून्य हो जाता है। वही शून्य द्वार है। वही खुला द्वार है। उससे ही प्रवेश होता है वहां--उन ऊंचाइयों की जिनकी हमने बात की है।
शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें, शरीर ढीला छोड़ दें।
अब मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ते जाएं शरीर को। जब मैं कह रहा हूं, शरीर शिथिल हो रहा है, तो अनुभव करें कि पूरा शरीर शिथिल होता जा रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें बिलकुल, जैसे शरीर में कोई प्राण न रह गया हो। शरीर झुके, झुक जाए; गिरे, गिर जाए। बिलकुल छोड़ दें जैसे हमारी कोई ताकत शरीर पर नहीं है, शरीर प्रकृति का एक हिस्सा है, हमारा नहीं है। छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें...छोड़ दें...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास भी छोड़ दें, श्वास भी शिथिल हो रही है। श्वास शिथिल हो रही है...श्वास धीमी-धीमी शिथिल होती जा रही है...श्वास शिथिल हो रही है...श्वास शिथिल हो रही है...छोड़ दें...श्वास भी शिथिल हो गई है...।
मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...छोड़ दें...मन को भी छोड़ दें...अब इस अंधेरी रात के साथ एक हो जाएं। वृक्षों के साथ, अंधेरे के साथ, आकाश के साथ एक हो जाएं।
अपने को छोड़ दें, जैसे बूंद सागर में खो जाती है। दस मिनट के लिए अब बिलकुल मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं।
श्वास चलेगी, धड़कन होगी, कोई पक्षी बोलेगा, कोई आवाज होगी, चुपचाप सुनते रहें। जैसे शून्य में आवाजें गूंजती हैं, हम सिर्फ सुन रहे हैं, जान रहे हैं, सिर्फ द्रष्टा हैं, साक्षी हैं। दस मिनट के लिए साक्षी हो जाएं। जैसे-जैसे साक्षीभाव बढ़ेगा, मन शांत होता चला जाएगा। और धीरे-धीरे वह द्वार खुल जाएगा जो ऊपर ले जाता है मन के, बियांड माइंड।
अब दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। आप छोड़ दें अपने को बिलकुल।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...मिट जाएं...शरीर को छोड़ दें...स्वयं को छोड़ दें...रात के साथ एक हो जाएं...छोड़ दें...छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...मिट जाएं जैसे हैं ही नहीं।
बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं। मिट जाएं...बिलकुल छोड़ दें...छोड़ दें...छोड़ दें...अंधकार के साथ एक हो जाएं, रात के साथ एक हो जाएं, मिट जाएं...बिलकुल छोड़ दें...छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं।
छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल मिट जाएं जैसे हैं ही नहीं। रात के साथ एक हो जाएं। ये झींगुर हमारे भीतर बोल रहे हैं। ये आवाजें भी हमारे भीतर हैं। हम अलग नहीं हैं। बिलकुल एक हो जाएं, मिट जाएं...छोड़ दें...बाहर और भीतर अलग-अलग नहीं हैं। बाहर भी भीतर है। भीतर भी बाहर है। सब एक हैं। छोड़ दें...मिट जाएं...बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ गहरी शांति मालूम होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ बहुत शांति मालूम होगी। सब शांत हो गया है। बाहर भी सब शांत है। भीतर भी सब शांत है। सब मौन, सब शून्य।
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...फिर उतने ही आहिस्ता-आहिस्ता आंख खोलें...देखें, सब शांत है, बाहर भी भीतर भी। धीरे-धीरे आंख खोलें और अंधेरे में दो मिनट देखते हुए बैठे रहें...देखें, बाहर सब कैसा शांत है! आंख खोलें, देखें, बाहर देखें, बाहर और भीतर सब एक है।
(प्रकाश जला दें।)
एक मित्र ने पूछा है कि क्रोध को हम जानते हैं, पहचानते हैं, लेकिन फिर भी क्रोध मिटता नहीं है। और सुबह आपने कहा कि यदि हम देख लें, जान लें, पहचान लें, तो क्रोध मिट जाना चाहिए।
इस संबंध में दो-तीन बातें समझनी हैं।
पहली तो बात यह कि क्रोध के विरोध में हमें इतनी बातें सिखाई गई हैं कि उन विरोधी बातों के कारण क्रोध को हम कभी भी सरलता से देखने में समर्थ नहीं हो पाते।
जिससे हमारा विरोध है, उसे देखना मुश्किल हो जाता है।
जिसके संबंध में हमने पहले से ही निर्णय ले रखा है कि वह पाप है, बुरा है, नरक का द्वार है, उसे हम देख कैसे सकेंगे? देखते ही हमारे भीतर विरोध दौड़ जाता है। विरोध के कारण हमारे और क्रोध के बीच में एक दीवाल खड़ी हो जाती है, वह दीवाल देखने नहीं देती।
आपने कभी अपने दुश्मन के चेहरे को गौर से देखा है? जिससे दुश्मनी है, उसे देखने का मन ही नहीं करता है। और फिर जिससे दुश्मनी है, उसे आप देखना भी चाहें तो नहीं देख सकते हैं। आप वही देख लेंगे, जो आपकी दुश्मनी ने मान रखा है। दुश्मन को देखना बहुत मुश्किल है, क्योंकि दुश्मन के संबंध में हमने निश्र्चित धारणा बना रखी है कि बुरा आदमी है। वह जो हमारी धारणा है, उसके ही हमें दर्शन हो जाएंगे। उसके नहीं, जो दुश्मन असलियत में है, जैसा है।
क्रोध के, काम के, लोभ के, भय के संबंध में हमें इतनी बातें सिखाई गई हैं कि हमारा पूरा चित्त धारणाओं से भर गया है।
क्रोध को हम नहीं जानते, क्रोध के संबंध की धारणा को ही जानते हैं। कांसेप्ट जो हमारा है, वही हम जानते हैं। हमने क्रोध को कभी आमने-सामने एनकाउंटर नहीं किया। हमने कभी उसे वैसा ही नहीं देखा, जैसा वह है। हमें बताया गया है। और जो हमें बताया गया है, वही हम देख लेते हैं।
तो पहली तो बात यह है कि अगर क्रोध को, लोभ को, सेक्स को देखना हो, तो उस संबंध में सारी सीखी धारणाओं को एकबारगी छोड़ देना आवश्यक है। निष्पक्ष मन लेकर जाना पड़ेगा। बड़ी मुश्किल होगी। क्रोध के संबंध में कैसे निष्पक्ष मन लें, सेक्स के संबंध में कैसे निष्पक्ष मन लें, वह तो जाहिर पाप हैं। सभी संतों ने, सभी महात्माओं ने, सभी महापुरुषों ने कहा है कि पाप हैं, बुरे हैं। उसके संबंध में निष्पक्ष कैसे हो जाएं? यह संत-महात्माओं की सारी शिक्षा निष्पक्ष नहीं होने देती। और जब तक निष्पक्ष नहीं होते तब तक दर्शन नहीं होगा। और जब तक दर्शन नहीं होता तब तक मुक्त होना असंभव है।
पहली बात है: निष्पक्ष मन से--क्रोध क्या है? लेकिन आप कहेंगे, हमें मालूम है कि क्रोध क्या है। हम जानते ही हैं। सब किताबों में लिखा है, सब शिक्षाएं कहती हैं कि क्रोध आग है, जहर है, नरक है--क्रोध मत करना। वह हम मानते हैं।
यह हमने मान रखा है क्रोध को बिना जाने! क्या यह अन्यायपूर्ण नहीं है? जैसे किसी आदमी को हमने कभी न देखा हो और उसके संबंध में हम कोई धारणा बना लें और फिर यह धारणा हम मजबूत करते चले जाएं। और अगर वह आदमी कभी हमारे सामने भी आ जाए तो भी फिर देखना मुश्किल हो जाएगा। धारणा हमारे और उस आदमी के बीच में खड़ी हो जाएगी एक चश्मे की तरह। और जो हमारी धारणा का रंग होगा, वही हमें दिखाई पड़ जाएगा।
यह खेल सूक्ष्म है। और इसलिए हम क्रोध के विरोध में तो बहुत बातें कहते हैं, लेकिन क्रोध से मुक्त नहीं हो पाते। हम मुक्त हो ही नहीं सकते। हम मुक्त हो ही नहीं सकते, क्योंकि हम क्रोध को जान ही नहीं पाते। जिसे हम जानते नहीं, उससे मुक्त कैसे हो सकते हैं?
तो मैं आपसे कहूंगा: आप कहते हैं कि क्रोध को मैं जानता हूं, आप नहीं जानते, क्रोध के संबंध में जो आपने सुन रखा है, वही आप जानते हैं, वही आप पहचानते हैं। क्रोध की सीधी और नग्न अवस्था बिना किसी धारणा के निष्पक्ष आपने नहीं जानी। उसे जानना जरूरी है।
तो पहली बात: मन की सारी वृत्तियों के संबंध में पूर्व-निर्धारित विचार छोड़ दें। और मन के भीतर इस तरह जाएं, जैसे हम एक अनजान दुनिया में जाते हों; जहां हम कुछ भी नहीं जानते, जहां सब अपरिचित है, अननोन है। हम एक भी चीज नहीं जानते हैं--मन के भीतर क्या है, क्या नहीं है! हम सिर्फ देखने जा रहे हैं, परिचित होने जा रहे हैं। फिर क्रोध दिखेगा, ऐसे ही जैसे रास्ते के किनारे किसी वृक्ष पर फूल खिला हो या किसी वृक्ष पर कांटे लगे हों। ऐसे ही रास्ते के किनारे चित्त में प्रवेश करते से क्रोध दिखेगा, घृणा दिखेगी, लोभ दिखेगा।
और आज सीधा मुकाबला होगा। आज हम बीच में कोई धारणा नहीं लिए हुए हैं। शास्त्र क्या कहता है, उससे हमें प्रयोजन नहीं। संत क्या कहते हैं, उससे हमें प्रयोजन नहीं। क्रोध मेरे पास है, मैं खुद क्यों न देख लूं। इसमें संतों से उधार सीखने की क्या जरूरत है? लेकिन हमारा पूरा दिमाग उधार और बारोड है। हमारे पास अपना कुछ भी नहीं। अपने पास ही जो है, उसकी पहचान भी अपनी नहीं। वह भी हम किसी और से पूछने जाते हैं।
रामकृष्ण एक दिन कहे। रामकृष्ण एक दिन बहुत हंसने लगे, बहुत लोग इकट्ठे थे। और कहने लगे: आज बहुत मजा हुआ। एक आदमी मुझसे मिलने आया था। उसके पड़ोस के मकान में रात आग लग गई थी। और मैंने उससे पूछा कि तेरे पड़ोस के मकान में सुना है, आग लगी थी? उसने कहा: नहीं। मैंने तो अखबार देखा, अखबार में तो कोई खबर नहीं है। पड़ोस के मकान में लगी आग, उसने सुबह अखबार में देखी! अखबार में तो कोई खबर नहीं है। नहीं लगी होगी आग। आग लगती तो अखबार में खबर होती।
तो रामकृष्ण कहते हैं कि उस आदमी से यह सुन कर मुझे बहुत ही हंसी आई। पड़ोस के मकान की आग भी उसने खुद न देखी, वह भी अखबार से उधार देखेगा!
पड़ोस का मकान फिर भी दूर है, लेकिन अपने भीतर जो है, वह भी हम, वह भी हम दूसरों से सीखने जाते हैं कि क्रोध कैसा है, प्रेम कैसा है, घृणा कैसी है! वह भी हम पूछते हैं शास्त्रों से! वे पुराने अखबार हैं, हजारों साल पहले के! वह आदमी तो फिर भी नया अखबार देखता था। आप देखते हैं... और जितना पुराना शास्त्र हो, हम कहते हैं, उतना ही श्रेष्ठ है। उतनी ही पुरानी खबर हम पढ़ने जाते हैं। और उसमें से हम जांच करेंगे, हमारे भीतर क्या है!
क्या हम सब सेकेंड हैंड आदमी हैं? सब पुराना माल है, कोई नया आदमी नहीं? क्या अपने भीतर जो है, उसे भी दूसरे से पूछने जाने की जरूरत है? लेकिन ऐसा ही हुआ है। पूरी मनुष्यता सेकेंड हैंड इसीलिए हो गई है। कोई आदमी मौलिक नहीं है। और जब भी कोई आदमी मौलिक होगा, तभी जिंदगी में क्रांति हो जाएगी; क्योंकि वह चीजों को जानेगा, वे क्या हैं।
हमने शब्द सीख रखे हैं। हम कहते है, क्रोध बुरा है। न हम क्रोध को जानते हैं, न हम बुरा क्या है, इसको जानते हैं। बस सीख रखे हैं शब्द, तोतों की तरह शब्द सीख रखे हैं और उन्हीं शब्दों पर हम जीते चले जाते हैं। अगर कोई अच्छे शब्द दे दिए जाएं क्रोध को, तो हो सकता है हम उसे बुरा कहना भी बंद कर दें। लोग कहते हैं, कुछ क्रोध ऐसे होते हैं, जो अच्छे होते हैं! फिर क्रोध में बुराई नहीं रह जाती।
राइचुअस, धार्मिक क्रोध भी होते हैं। और क्रोध कैसे धार्मिक हो सकता है? जहर भी धार्मिक हो सकता है! और नरक भी धार्मिक हो सकता है! लेकिन धर्मयुद्ध भी होते हैं। धार्मिक क्रोध भी होते हैं, धार्मिक हिंसा भी होती है। फिर हम शब्द नया दे देते हैं, और फिर हम लड़ जाते हैं, फिर हमें कोई फिकर नहीं रहती।
उन्नीस सौ बावन में वहां हिमालय की तराई में नीलगाय नाम के जानवर ने खेतों में बहुत नुकसान किया हुआ था। फिर पार्लियामेंट तक बात उठी कि क्या करें? तो लोगों ने कहा: गाय है, उसको गोली तो मारी नहीं जा सकती। और नाम ही है उसका नीलगाय। गाय वह नहीं है। लेकिन नाम में गाय जुड़ा हुआ है, तो धार्मिक उपद्रव, दंगे हो जाएंगे। तो एक समझदार सदस्य ने सलाह दी कि पहले उसका नाम नीलघोड़ा रख दिया जाए। फिर उसका नाम पार्लियामेंट ने नीलघोड़ा कर दिया। फिर उस नीलघोड़े को गोलियां मारी गईं और हिंदुस्तान में किसी शंकराचार्य ने नहीं कहा कि हमारी गाय को गोली मारते हो! वह नीलघोड़ा हो गई! वह बेचारी वही की वही रही। वह जो थी, वही रही, उसके नाम से कोई फर्क न पड़ा। लेकिन नीलघोड़े को गोली मारने से हिंदू धर्म को क्या नुकसान होने वाला है! नीलगाय को गोली लगती तो झंझट खड़ी हो सकती थी।
हम कुछ जानते हैं कि सिर्फ शब्द और लेबल से जीते हैं! बड़ी होशियारी की बात है। नाम बदल दें फिर सब खत्म हो जाता है।
क्रोध--बस एक नाम हमने सीख रखा है। हिंसा--एक नाम हमने सीख रखा है। लोभ--एक नाम हमने सीख रखा है। और उस नाम के साथ हजारों साल का प्रचार है। और हमारा मस्तिष्क सिर्फ प्रचार से जी रहा है। और यह आपको पता नहीं शायद, प्रचार के द्वारा कुछ भी सत्य मालूम पड़ने लगता है। जो भी प्रचारित किया जाए, वही सत्य मालूम पड़ने लगता है। और जब सत्य मालूम पड़ने लगता है, तो जो सत्य है, उसको देखना मुश्किल हो जाता है। प्रचार से बचना जरूरी है, अगर क्रोध को देखना हो, जानना हो, पहचानना हो।
तो प्रचार से वह जो प्रचारित, जो कंडिशनिंग, जो दिमाग पर संस्कार बिठाया गया है कि पाप है, बुरा है; पाप है, बुरा है, बस उसको दोहराए चले जा रहे हैं। फिर जैसे ही क्रोध आता है, तो क्रोध को तो जानते नहीं हैं, वह हमें पकड़ लेता है। क्रोध हम पर सवार हो जाता है। हम दुखी होते हैं। दूसरे को दुख दे लेते हैं। जब क्रोध चला जाता है तो वह तोतों की रटी बातें फिर पीछे लौट आती हैं और वह कहने लगती हैं: क्रोध बहुत बुरा है, क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध करके बहुत पाप किया। फिर हम कसम खाते हैं, पश्र्चात्ताप करते हैं कि अब नहीं करेंगे, अब नहीं करेंगे।
और हमें पता नहीं कि जिसको हम कह रहे हैं, नहीं करेंगे, उससे हमारी कोई पहचान नहीं है। जब वह आ जाएगा तो हम एकदम हार जाएंगे, क्योंकि जिसे हम पहचानते ही नहीं, उससे जीत कैसे संभव है? इसलिए रोज आदमी तय करता है, अब क्रोध नहीं करेंगे और रोज क्रोध करता है! रोज तय करता है, वही रोज करता है। फिर और जोर से तय करता है, फिर और जोर से कसम खाता है, संकल्प लेता है, भगवान के मंदिर में जाकर प्रण करता है, साधु-संन्यासियों के सामने प्रतिज्ञा और व्रत लेता है--और फिर, फिर वही होता है!
नहीं, ये व्रत और प्रतिज्ञाएं और ये संकल्प दो कौड़ी के हैं। इनसे कुछ होने वाला नहीं है। असली सवाल जिसे आप बदलना चाहते हैं, उससे आप परिचित हैं?
पहली बात है: सारी धारणाएं छोड़ दें। कौन कहता है क्रोध बुरा है? कौन कहता है लोभ बुरा है? कौन कहता है सेक्स बुरा है? हमें पता नहीं। है हमारे भीतर--हम जानेंगे, खुद ही जानेंगे। हम दूसरे से पूछने क्यों चले जाएं? और भीतर प्रवेश करें निष्पक्ष मन लेकर। लेकिन ऐसा मत सोचना...
ऐसा मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमने आपकी पद्धति से भी कोशिश की, लेकिन अभी तक छुटकारा नहीं हुआ!
मैं आपसे यह पूछता हूं कि छुटकारा चाहते क्यों हैं? छुटकारा चाहने में वह मानी हुई बात बैठी हुई है कि क्रोध बुरा है। मैं आपसे कहता हूं, जानिए, छुटकारा हो जाएगा। छुटकारा पाने के लिए अगर जानने गए तो निर्णय पहले से मौजूद है कि बुरा है और उससे छूटना है; फिर नहीं छुटकारा होगा।
वे कहते हैं: आपकी बात भी हम मान लेते हैं, लेकिन छुटकारा कब होगा?
आपने फिर मेरी बात समझी ही नहीं। छुटकारे की जो बात आप कहते हैं, वह दूसरों की माने हुए बैठे हैं कि बुरा है क्रोध, इसलिए छुटकारा चाहिए। फिर अगर मेरी बात सुनते तो कहते हैं, अच्छी बात है। अगर इस तरकीब से छुटकारा होता हो तो हम यह तरकीब भी करते हैं, लेकिन छुटकारा होगा कि नहीं? हम धारणा भी छोड़ने को राजी हैं, लेकिन छुटकारा होगा कि नहीं?
अब कैसी धारणा छोड़ रहे हैं आप! अगर धारणा छोड़ रहे हैं तो छुटकारे का सवाल समाप्त हो जाता है। हम जानने जाते हैं, क्या है। और जानने से जो होगा, वह होगा। जानने से छुटकारा होता है। छुटकारा पाने के लिए जान नहीं सकते हैं आप। छुटकारा पाने के लिए--जानने की प्रक्रिया में बाधा पड़ेगी, जान नहीं सकेंगे। क्योंकि जिससे छूटना है जल्दी, जिससे मुक्त होना है, उसे जानने की धीरज, जानने की सरलता कैसे हम बरत पाएंगे उसके साथ?
अगर कोई आदमी आपके घर आया है और आप चाहते हैं कि जल्दी चला जाए, जल्दी चला जाए। फिर आपने कभी खयाल किया है, न आप उसकी बात सुन पाते हैं। सुनते हैं, ऐसा दिखता है कि आप सुन रहे हैं, लेकिन भीतर चल रहा है कि यह आदमी कब जाए। हां-हूं भी करते हैं कि हां बिलकुल ठीक कह रहे हैं, आप जो कहते हैं, बिलकुल ठीक है। लेकिन भीतर यह होता है कि यह आदमी जल्दी चला जाए। भीतर कुछ नहीं सुनाई पड़ रहा है। न वह आदमी दिखाई पड़ रहा है। बार-बार घड़ी देख रहे हैं और लग रहा है कि यह आदमी, कितनी देर हो गई! कब चला जाए! और यह सारा चल रहा है और ऊपर से एक भाव चल रहा है कि हम देख रहे हैं, हम सुन रहे हैं, हम स्वागत कर रहे हैं--और भीतर? भीतर एक दीवाल खड़ी हो गई है, क्योंकि उस आदमी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। तो फिर कैसे उसको जान सकिएगा?
क्रोध को जानना है, सेक्स को जानना है, हिंसा को जानना है। छुटकारे का क्या सवाल है? जानेंगे, अगर अच्छे हुए तो छुटकारा क्यों पाएंगे? अगर अच्छे हुए तो फिर क्यों छुटकारा पाएंगे? अभी हम जानते नहीं, इसलिए पहले से निर्णय न करें कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है। जिसने सोचा, यह अच्छा है, यह बुरा है, वह बुराई से कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि अच्छा और बुरा वह दूसरे के अनुभव के आधार पर तय कर रहा है। और दूसरे के अनुभव के आधार पर पक्षपात तय कर रहा है।
और पक्षपात स्वयं का ज्ञान पैदा नहीं होने देते हैं। वह एक चक्र में पड़ रहा है, जिसमें पूरा जीवन नष्ट कर लेगा और कहीं भी नहीं पहुंच सकता है।
नहीं, जानना है। और जानने से मुक्ति आती है। वह बिलकुल गौण बात है, उसके लिए चिंता करने का सवाल नहीं है।
तो सारी धारणा छोड़ दें। क्रोध क्या है--तो मत कहें कि बुरा है, मत कहें कि अच्छा है, मत कहें कि मैं जानता हूं। इतना ही कहें कि मैं नहीं जानता हूं। मैं जानना चाहता हूं। इतनी सरलता से कि मैं नहीं जानता हूं और जानना चाहता हूं। अगर आपका मन तैयार है तो आप क्रोध को जान लेंगे। और जानते ही क्रोध से मुक्ति हो जाती है। जानने के बाद एक क्षण भी कोई बंधन नहीं है किसी बात का।
यह इतना ही है, ऐसा ही, जैसे एक मकान के भीतर मैं बैठा हूं और मैं कहूं कि मुझे दरवाजे से बाहर निकलना है। तो मैं कहूं कि आप आंख खोल कर गौर से देखिए दरवाजा कहां है। आपको दिख जाएगा और फिर आप निकल जाएंगे। वह आदमी कहे कि ठीक है, हमें दरवाजा दिख भी गया, तो भी हम निकलेंगे कैसे! और वह आदमी कहे, मुझे दरवाजा तो दिखाई पड़ता है, लेकिन मैं निकल नहीं पाता! निकलता हूं तो दीवाल से टकरा जाता हूं!
तो हम कहेंगे, वह दरवाजा किसी की सुनी हुई खबर होगी कि यहां दरवाजा है। आपको नहीं दिखाई पड़ता है, नहीं तो फिर कैसे दीवाल से टकरा जाते? वह आदमी कहता है, मुझे दरवाजा तो मालूम है, लेकिन जब भी निकलता हूं, तभी दीवाल से टकराता हूं, दरवाजे से निकल कभी नहीं पाता। लेकिन दरवाजा मुझे मालूम है! तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, दरवाजा मालूम नहीं होगा, अन्यथा निकल गए होते, दीवाल से क्यों टकराते? सुना होगा कि यहां दरवाजा है। किसी से सुना होगा। वह सुनी हुई बात पकड़ ली है, इसलिए टकराहट होती है। और जिसे दरवाजा दिखाई पड़ता है, वह नहीं पूछता कि मैं कैसे निकलूं। दिखाई पड़ना और निकल जाना, एक ही साथ हो जाते हैं।
तो पहली बात है: अंतस-जीवन के तथ्यों का सीधा ज्ञान, उधार ज्ञान नहीं।
और इसलिए जब क्रोध आए... तो अभी हम क्या करते हैं? अगर मैं आप पर क्रोधित हो जाऊं, तो आप क्या करेंगे, पता है आपको? अगर मैं आपको गाली दूं और अपमानित करूं और मैं आप पर क्रोधित हो जाऊं तो आपके भीतर क्रोध जगेगा। उस क्रोध में आप क्या करेंगे, आपको पता है? आज तक आपने क्या किया है, आपको पता है? उस क्रोध में आप अपने को भूल जाएंगे और मेरे बाबत विचार करेंगे कि इस आदमी ने ऐसा क्यों कहा? यह आदमी बुरा है, इस आदमी से कैसे बदला लूं? जब आप क्रोध से भरेंगे तो आपका पूरा ध्यान मुझ पर चला जाएगा। और क्रोध आपके भीतर होगा और ध्यान मुझ पर होगा। आप क्रोध को जानने से वंचित रह जाएंगे, क्योंकि ध्यान मुझ पर है और क्रोध भीतर जल रहा है।
जब अब दुबारा क्रोध आए तो उसकी फिकर छोड़ दें, जिसने गाली दी है। अब तो भीतर पहुंच जाएं, कमरा बंद कर लें और भीतर झांकें। और बैठ जाएं, और वहां ध्यान ले जाएं जहां क्रोध है। जिसने क्रोधित किया है, उस पर हमारा ध्यान होता है। जो क्रोधित हो गया है, उस पर हमारा ध्यान नहीं होता है। इसलिए हम क्रोध को कभी नहीं जान पाते। आग यहां भीतर जलती है और नजरें हमारी वहां लगी होती हैं उस आदमी पर। और हम विचार कर रहे होते हैं कि क्या करें, कैसे बदला लें। सारा चित्त वहां है और यहां भीतर आग लगी है। इस हालत में कैसे आप जान पाएंगे?
एक युवक खेल रहा है हाकी। पैर में चोट लग गई है, खून बह रहा है। उसे पता नहीं है। जब तक वह खेल रहा है, उसे पता नहीं है। खून बह रहा है, पैर में चोट लग गई है, नाखून टूट गया है। दूसरों को खून बहता हुआ दिखाई पड़ रहा है। उसे पता नहीं है, उसका सारा ध्यान खेल पर लगा हुआ है। वहां ध्यान नहीं है उसका। खेल बंद होगा और उसे ध्यान आएगा कि अरे, यह तो पैर में चोट लग गई! कब से खून बह रहा है, कितना खून गिर गया है, लेकिन मुझे पता ही नहीं है?
पता हमें उन्हीं चीजों का होता है, जहां हमारा ध्यान होता है। पता का अर्थ है: जहां ध्यान है।
जब आपको क्रोध होता है तो आपका ध्यान कहां होता है? क्रोध पर होता है? अगर क्रोध पर होगा तो आप क्रोध को जान लेंगे। लेकिन क्रोध पर नहीं होता है। जिसने क्रोध को जगाया है, उस निमित्त पर होता है। उस व्यक्ति पर होता है जिसने क्रोध को जगाया है, हमारी आंखें वहां अटकी होती हैं। हो सकता है वह आदमी यहां न हो, वह अब लंदन में बैठा हो। लेकिन क्रोध हमारा उस पर होगा।
एक आदमी ने लंदन से आपको एक चिट्ठी लिख दी और गालियां लिख दीं। और आप चिट्ठी को फाड़ कर फेंक देंगे। और ध्यान लंदन के उस आदमी पर चला जाएगा। और यह जो आदमी भीतर बैठा है, जो क्रोध में जल रहा है, आग में भुन रहा है, इस पर ध्यान नहीं होगा! तो जहां ध्यान होगा, वहां पता चलेगा। जहां ध्यान नहीं है, वहां कैसे पता चलेगा?
लेकिन आप कहेंगे कि मैंने कई दफा क्रोध किया है, मुझे क्रोध का पता नहीं है? मुझे क्रोध का पूरा पता है, क्योंकि मैं जिंदगी भर क्रोध किया हूं। आपने जिंदगी भर क्रोध किया है, लेकिन हमेशा आपका ध्यान क्रोध के क्षण में वहां चला गया है, जहां क्रोध नहीं है। वहां से हट गया है, जहां क्रोध है। और इसलिए ध्यान और क्रोध का मिलन कभी नहीं हो पाया है।
जब क्रोध चला जाएगा, बह जाएगी आग, आप वापस लौट आएंगे उस लंदन के दुश्मन से, तब आप कहेंगे, अरे! मकान जल गया, जगह-जगह दीवालें गिर गईं, यह तो बहुत बुरा हुआ, यह तो पश्र्चात्ताप हो गया! अब मैं निर्णय करता हूं, अब कभी क्रोध नहीं करूंगा। फिर क्रोध आएगा और फिर यही दोहराएगी बात, फिर नजर वहां चली जाएगी, यहां क्रोध चूक जाएगा। नहीं; क्रोध पर करना है ध्यान, तब आप जान सकेंगे। जिस पर ध्यान होता है, उसे ही हम जान पाते हैं। लेकिन आप कहेंगे, क्रोध पर कैसे ध्यान करेंगे, क्योंकि क्रोध में तो हम होश में ही नहीं रहते। ध्यान-व्यान कौन करेगा। वहां तो हम बेहोश हो जाते हैं।
निश्र्चित ही अब तक ऐसा ही हुआ है। और इसलिए आप क्रोध को जान नहीं पाए। आपको सिर्फ क्रोध की स्मृति है, गए हुए क्रोध की। मरे हुए क्रोध की, अतीत के क्रोध की स्मृति है। वर्तमान के क्रोध को आपने कभी नहीं जाना। अतीत के क्रोध की स्मृति है, भविष्य के क्रोध के लिए निर्णय है और वर्तमान के क्रोध से कोई परिचय नहीं है। अतीत के क्रोध की स्मृति भर है, मेमोरी भर है कि हां ऐसा हुआ था और भविष्य में क्रोध नहीं करूंगा इसका संकल्प है। और वर्तमान क्रोध की कोई अनुभूति, वर्तमान क्रोध का कोई साक्षात्कार नहीं है। और वर्तमान क्रोध का साक्षात्कार हो जाए तो न अतीत की स्मृति की जरूरत है, न भविष्य की योजना की। वर्तमान में क्रोध को जो जान लेता है, उसकी हालत वैसी ही हो जाती है, जैसे आग लगे हुए मकान में आदमी की, वह छलांग लगा कर बाहर निकल जाता है। और जान लेता है कि यह आग मैं ही लगाता हूं अपने ही मकान में।
बुद्ध ने कहा है कि जब मैंने जाना तो मैंने पाया कि अदभुत हैं लोग, जो आदमी दूसरे की भूल पर क्रोध करता है वह अदभुत है! क्यों? तो बुद्ध ने कहा: अदभुत इसलिए कि भूल दूसरा करता है, दंड वह अपने को देता है। गाली मैं आपको दूं और क्रोधित आप होंगे। दंड कौन भोग रहा है? दंड आप भोग रहे हैं, गाली मैंने दी है।
क्रोध में जलते हम हैं, राख हम होते हैं, लेकिन ध्यान वहां नहीं होता। इसलिए धीरे-धीरे पूरी जिंदगी राख हो जाती है। और हमको भ्रम यह होता है कि हम जानते हैं। हम जानते नहीं--क्रोध की सिर्फ स्मृति है और क्रोध के संबंध में शास्त्रों में पढ़े हुए वचन हैं और हमारा कोई अनुभव नहीं है।
अब जब मैं कह रहा हूं कि जानें! तो अब जब क्रोध आ जाए तो उस आदमी को धन्यवाद दें, जिसने क्रोध पैदा करवा दिया। क्योंकि उसकी कृपा, उसने आत्म-निरीक्षण का एक मौका दिया; भीतर आग को जानने का एक अवसर दिया। उसको फौरन धन्यवाद दें कि मित्र धन्यवाद, और अब मैं जाता हूं, थोड़ा इस पर ध्यान करके वापस आकर बात करूंगा। द्वार बंद कर लें और देखें कि भीतर कौन उठ गया है, क्या उठ गया है, हाथ-पैर किस तरह कस रहे हैं। हाथ-पैर कसते हों, तो कसने दें; क्योंकि हाथ-पैर कसेंगे। हो सकता है कि क्रोध में, अंधेरे में, हवा में घूंसे चलें, चलने दें। द्वार बंद कर लें और देखें कि क्या-क्या होता है। अपनी पूरी पागल स्थिति को जानें और अपने पूरे पागलपन को पूरा प्रकट हो जाने दें अपने सामने। और तब आप पहली दफा अनुभव करेंगे कि क्या है यह क्रोध। यह आपने बाजार में किया होता--उस आदमी की गर्दन दबा ली होती, पत्थर उठा लिया होता रास्ते के किनारे दौड़ कर, अनर्गल बातें बकने लगते, आंख से खून बरसने लगता--यह सब हो जाने दें। द्वार बंद कर लें और यह सब होने दें--कि जो भी हो सकता है हो। और देखें भीतर से यह सब क्या हो रहा है। और जब पूरी आग, और पूरा मैडनेस, और पूरा पागलपन पकड़ेगा तब कंप जाएंगे भीतर कि यह है क्रोध। यह मैंने कई बार किया था, दूसरे लोगों ने क्या सोचा होगा!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, क्रोध संक्षिप्त रूप में आया हुआ पागलपन है, थोड़ी देर के लिए आया हुआ पागलपन है, क्षणिक पागलपन है। क्षण भर को आदमी उसी हालत में हो गया, जिस हालत में कुछ लोग सदा के लिए हो जाते हैं। क्रोध में जलते हुए आदमी में और पागल आदमी में मौलिक अंतर नहीं है। अंतर सिर्फ लंबाई का है। पागल आदमी स्थायी पागल है, क्रोधी आदमी अस्थायी पागल है।
आपने कभी देखा है? दूसरों ने आपको क्रोध में देखा है, इसलिए दूसरे कहते हैं कि यह बेचारा कितना पागल हो गया है, यह क्या कर रहा है? आपने कभी देखा है अपने को? तो कर लें द्वार बंद और अपनी पूरी हालत को देखें कि यह हो रहा है। और रोकें मत, पूरा प्रकट होने दें, जो हो रहा है। और उसका पूरा निरीक्षण, पूरा ऑब्जर्वेशन, तब आप पहली दफा परिचित होंगे, यह है क्रोध।
लेकिन ऐसा मत सोचना कि कोई क्या कहेगा--कहीं पत्नी न सुन ले! पत्नी बहुत दफा देख चुकी है आपके पागलपन को। और आप भी अपनी पत्नी के पागलपन से भलीभांति परिचित हैं। और बेटे भी आपको जानते हैं अच्छी तरह और आप भी बेटों को जानते हैं। किसी की कोई चिंता मत करना, बल्कि उनसे कह देना कि क्रोध पर निरीक्षण करता हूं और पागल हो जाता हूं कभी-कभी, उसको जानना चाहता हूं। हो सकता है जोर से आवाजें निकलने लगें, गाली निकलने लगे, दीवालों पर घूंसे पड़ने लगें आपके, पड़ने देना। एक दफा, एक बार पूरे क्रोध की पूरी नग्न स्थिति को देख लेना; उसके बाद दुबारा वह नहीं होगा, क्योंकि जब आप पूरी तरह परिचित होंगे--यह है स्थिति! आईना लगा लेना एक और उसमें देखते जाना कि क्या-क्या होता है! यह क्या हो रहा है?
और एक बार भी पूरा नग्न दर्शन भीतर का, क्रोध के पूरे वर्तुल का, पूरे बवंडर का हो जाए तो आप पहली दफा अनुभव करेंगे, क्या है क्रोध। और उसके बाद कसम लेने की जरूरत नहीं होगी कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा। उसके बाद कोई आएगा और कहेगा कि अपनी जायदाद आपके नाम लिखता हूं, आप फिर से पागल हो जाइए एक मिनट के लिए। और कोई कहेगा, सारी दुनिया आपको देते हैं। तो आप कहेंगे, क्षमा करना, मैंने जान लिया कि क्या है क्रोध।
जो जान लिया वह मुक्त हो जाता है। और जो मैं क्रोध के लिए कह रहा हूं, वही सारी चीजों के लिए सच है--चाहे लोभ हो, चाहे सेक्स हो, चाहे कुछ भी हो।
जिंदगी में जो भी हमें पकड़े हुए है, उसको जानना है, और जानने से ही उसका रूपांतरण, जानने से ही उसका परिवर्तन है। ऐसा आपने जाना हो तो फिर दुबारा नहीं होगा।
लेकिन ऐसा हमने जाना नहीं है। बचपन से ही हमने दबाया है। छोटा सा बच्चा भी क्रोध करने लगे तो हम कहते हैं, शऽऽऽ...मां-बाप आंख का इशारा कर देते हैं, अभी नहीं! अभी दूसरा मौजूद है, कोई मेहमान घर में आया हुआ है, अभी नहीं! वह बेचारा पी जाता है। बचपन से ही पी रहे हैं क्रोध को, वह हमारी नस-नाड़ी में घुस गया है, सब तरफ फैल गया है। फिर जिंदगी भर पीते ही चले जाना है, कभी प्रकट ही नहीं किया।
अगर मेरा वश चले तो मैं आपको कहूं कि बच्चों को रोकना मत। जब बच्चे क्रोध में भर जाएं तो आईना सामने लाकर रख देना और कहना: करो जोर से और देखो कि तुम किस हालत में हो, क्या हो गया है तुम्हें--इसे तुम देखो! हम सब भी घर के लोग बैठ कर तुम्हारा निरीक्षण करेंगे, क्योंकि तुम्हारे निरीक्षण से हो सकता है हमको भी लाभ हो जाए। रोकना मत उसे!
सारी शिक्षा गलत है। पूरे व्यक्तित्व का, मनुष्य को बनाने का विज्ञान गलत है। इसलिए गलत आदमी पैदा होता है। अगर बचपन से बच्चे को उसके क्रोध की पूरी की पूरी झलक मिलनी शुरू हो जाए, जवान होते-होते वह क्रोध के बाहर होगा। वह इसी तरह क्रोध के बाहर हो जाएगा जिस तरह आज वह गंदगी के बाहर है। वह गंदे कपड़े नहीं पहनता, लेकिन गंदी आत्मा को पहने रहता है! यह कैसे संभव हो सकता था! यह संभव इसलिए हो सका है कि हमने कभी पहचानने नहीं दिया कि आत्मा की गंदगी क्या है? आत्मा की अग्लिनेस क्या है? कुरूपता क्या है? वह कभी सामने नहीं आई है। उसने कभी देखी नहीं है। सिर्फ दबा लिया है। और दबा कर उसने भीतर कर लिया है। ऊपर से मुस्कुराहट थोप ली है, भीतर से क्रोध जल रहा है। वह जलता रहा है, क्रोध बढ़ता रहा है, बढ़ता रहा है। वह उसके पूरे प्राणों को घेर लिया है।
आज हर आदमी एक ज्वालामुखी है, जिसमें चारों तरफ से वह किसी तरह अपने को सम्हाले हुए है। बस किसी तरह सम्हाले हुए है। सब भीतर न मालूम कितनी चीजें जल रही हैं, जो उसे धक्का देती हैं कि यह करो, यह करो। जरा रास्ते पर आप निकलते हैं, तब खयाल करना अपने मन पर, क्या-क्या करने का मन नहीं होता है! घर बैठे हैं, तब भी क्या-क्या करने का मन नहीं होता है! कितनी बार कितने लोगों की हत्या नहीं की है! कितनी बार जरा सी बात में किसी की गर्दन नहीं काट दी! बाहर नहीं काटी, नहीं तो यहां नहीं होते आप। भीतर काटी है, मन में काटी है। कितनी बार नहीं सोचा है कि जहर पिला दो इस आदमी को! वह किया या सोचा बराबर है, उसमें कोई फर्क नहीं है। कमजोर हैं, इसलिए कर नहीं सके। कायर हैं, इसलिए कर नहीं सके। कानून का डर है, इसलिए कर नहीं सके। लेकिन जहां कर सकते थे, वहां पूरी तरह से कर लिया है। कितनी दफे खुद की आत्महत्या नहीं कर ली है!
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने जिंदगी में दो-चार बार अपने आप को खत्म करने का विचार न किया हो। खोजना ही मुश्किल है ऐसा आदमी, जिसने दस-पच्चीस दफा नहीं सोच लिया हो कि खत्म कर दो अपने को। ऐसा बेटा खोजना मुश्किल है, जो बाप को खत्म करने की बात न सोच लिया हो। ऐसा पति खोजना मुश्किल है, जिसने पत्नी की गर्दन कई दफे न दबा दी हो। वह सब चल रहा है भीतर, उसको कोई बाहर से कहता नहीं। इसलिए तो दुनिया सम्हली हुई है।
अगर भीतर के सब राज सब आदमी खोल दें तो आज पता चल जाए कि दुनिया की असली हालत क्या है। अगर पांच आदमी तय कर लें कि हम अपनी सब असली-असली बातें, जैसी होंगी, वैसी ही कह देंगे। तब आपको पता चलेगा कि दुनिया की हालत क्या है। दिन में पच्चीस दफा वह आदमी एक-दूसरे से आकर कहेंगे कि अभी मैंने तुम्हारी गर्दन में छुरा मारा। वह हम सब कर रहे हैं!
मैंने सुना है, नियाग्रा जलप्रपात के पास एक पत्थर पर ऐसी खबर है कि उस पत्थर पर खड़े होकर जो भी भाव किया जाए, वह पूरा हो जाता है। तो कई लोग जाकर वहां भाव करते हैं। एक जोड़ा वहां खड़ा हुआ है पति और पत्नी का। दोनों आंख बंद करके प्रयोग कर रहे हैं। एकदम पत्नी को चक्कर आया और पत्थर से नीचे नियाग्रा में गिर गई!
उस पति ने कहा: हे भगवान! मालूम होता है भाव पूरे हो जाते हैं! वह बेचारा यही भाव कर रहा था खड़े होकर कि कहीं ऐसा हो जाए कि पत्नी चक्कर खाए और नियाग्रा में गिर जाए।
यह हमारे भीतर है सब, इसको हम छिपाए हुए हैं, इस ज्वालामुखी पर बैठे हुए हैं। और फिर हम पूछने जाते हैं, ध्यान कैसे हो? भगवान का दर्शन कैसे हो? और नीचे देखते नहीं कि ज्वालामुखी पर बैठे हैं, जिसका पलवा पूरे वक्त हिल रहा है। नीचे से भापों के धक्के लग रहे हैं और पूछ रहे हैं कि ध्यान कैसे हो? शांति कैसे मिले? मोक्ष का रास्ता क्या है?
पहले इस ज्वालामुखी से निपटारा करिए, पहले इस ज्वालामुखी को जानिए, समझिए जो हम हैं। यह हमारी असलियत है। न भगवान से कोई लेना-देना है, न भगवान से कोई संबंध है, न सत्य से कोई मतलब है। हमारी यह जलती हुई आग, यह हमारा व्यक्तित्व असली सवाल है। और इसको हमने कभी देखा नहीं है और ज्वालामुखी इसलिए इकट्ठा हो गया है! बिना देखे दबाए चले गए हैं, दबाए चले गए हैं, दबाए चले गए हैं। बहुत इकट्ठा हो गया है। इससे मुक्त होने के लिए एक ही मार्ग है--और वह है ज्ञान का, वह है सत्य का। जो सत्य है, उसे जान लेना है उसकी परिपूर्णता में।
एक बहुत बड़े बुद्धिमान आदमी हैं। और बुद्धिमान आदमी बस किताबों से बुद्धिमान होते हैं। वे मेरे पास आए। बड़ी ख्याति है, हजारों लोग उनको मानते हैं। और ख्याति और हजारों लोगों के मानने से जितना अहित किसी व्यक्ति का होता है, उतना शायद ही किसी बात से होता हो। क्योंकि वे हजारों नासमझ मिल कर किसी को भी समझदार का भाव पैदा करवा देते हैं कि वह समझदार है। अब जरा बुढ़ापे में इधर वे आए हैं, तो थोड़ा डर पैदा हुआ है, क्योंकि सब समझदारी किताब की है, बातचीत की है। तो वे मुझसे कहने लगे कि मैं क्या करूं, कैसे शांत होऊं, कैसे ध्यान करूं?
तो मैंने उनसे कहा: पहले तो एक काम कर लें। एक महीने के लिए एकांत में चले जाएं और रेचन कर लें, रिलीज हो जाने दें। एक महीने में चिल्लाने का मन हो तो चिल्लाएं, नाचने का मन हो तो नाचें, गाली देने का मन हो तो गाली दें, पत्थर फेंकने का मन हो तो पत्थर फेंकें। एक महीने अपने को बिलकुल छोड़ दें। जो होता हो, होने दें। फिर एक महीने बाद आएं।
उन्होंने कहा: एक महीने बाद फिर मैं आऊंगा ही नहीं। क्यों? उन्होंने कहा: मैं तो पागल हो चुका होऊंगा, क्योंकि आप जो कह रहे हैं, वह सब मेरे भीतर है। और अगर मैंने जारी किया तो रोकूंगा कैसे? फिर रुकना मुश्किल है। और मैं यह नहीं कर सकता हूं। इससे मैं डरता हूं। मुझे तो शांत होने की तरकीब बताएं!
शांत होने की कोई तरकीब नहीं होती। सिर्फ अशांत होने की तरकीबें होती हैं। और अशांत होने की तरकीब समझ में आ जाए तो आदमी शांत हो जाता है। शांत होने के लिए और कुछ भी नहीं करना पड़ता। अशांत होने की तरकीबों के हम बड़े अभ्यासी हैं और उनका सबका भार इकट्ठा हो गया है। और ज्ञानी भी हैं साथ में, क्योंकि हमको पता है क्रोध बुरा है, काम बुरा है, फलां बुरा है। सब हमको पता है। सब अच्छी बातें पता हैं। और अच्छी बातें और उनका पता होना, नरक का रास्ता बनाती हैं।
नहीं, सच में हमें पता नहीं है। तो यह मैंने कहा, इसे प्रयोग करके देखें। अगर क्रोध हो तो क्रोध की दिशा में, लोभ हो तो लोभ की दिशा में, काम हो तो काम की दिशा में पूरा प्रयोग करके देखें और पूरा मेडिटेट करके देखें, पूरा ध्यान करके देखें। सारी स्थिति को निकाल लें, उघाड़ लें, सारे नंगेपन को जाहिर कर लें और देखें। और एक बार जिस दिन आप पोर-पोर अपने शरीर के और अपने मन के और अपनी आत्मा के रोएं-रोएं तक जो छिपा है, उसकी पूरी नग्नता में देख लेंगे, उस दिन के बाद दुबारा नहीं है वह बात। वह दुबारा नहीं पाई जाएगी।
जिसने जान लिया है, वह मुक्त हो गया है। और नहीं मुक्त है, तो जानना कि नहीं जाना है।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि सुबह मैंने कहा कि सीता के पैर के गहने लक्ष्मण को दिखाई पड़े और कोई गहने दिखाई नहीं पड़े, तो विनोबा ने जो व्याख्या की है कि लक्ष्मण नैष्ठिक ब्रह्मचारी है, ब्रह्मचर्य की साधना करता है, इसलिए सीता के चेहरे की तरफ नहीं देखता है। तो मैंने कहा कि यह व्याख्या गलत है और यह लक्ष्मण का सम्मान नहीं है, अपमान है। क्योंकि इससे पता चलता है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी बिलकुल नहीं है, अन्यथा सीता के चेहरे की तरफ देखने से डरता नहीं। तो उन मित्र ने पूछा है कि अगर विनोबा की व्याख्या गलत है तो आपकी क्या व्याख्या है? लक्ष्मण को पैर के गहने ही क्यों दिखाई पड़े?
दो-तीन कारण हैं। एक तो कारण यह है कि लक्ष्मण रोज सुबह सीता के पैर पड़ता था। सीधी-सीधी बात है। उससे ज्यादा कुछ उलझाव नहीं है। रोज-रोज पैर पड़ता था सीता के, वे पैर के गहने उसे रोज-रोज दिखाई पड़े होंगे। वह उनको पहचानता होगा। सीता के शरीर के दूसरे गहनों पर उसकी कभी नजर नहीं गई। इसका कारण यह नहीं है कि वह ब्रह्मचारी था। इसका कुल कारण इतना है कि अगर स्त्री सुंदर हो तो उसके गहनों पर नजर जाती ही नहीं। सिर्फ स्त्री कुरूप हो तो उसके गहनों पर नजर जाती है। और कुरूप स्त्री को ही गहना पहनने का शौक भी होता है। सुंदर स्त्री को होता भी नहीं। वह सौंदर्य की कमी-पूर्ति होती है।
सीता जैसी सुंदर स्त्री दुनिया में मुश्किल से कभी होती हैं। उस जमाने के दो सबसे अदभुत आदमी राम और रावण उसको प्रेम करते थे। उससे ज्यादा महिमामंडित, उससे ज्यादा सुंदर स्त्री खोजनी बहुत मुश्किल है। और सीता का चेहरा दिखे और किसी को उसके गले का हार दिखे तो वह सुनार होगा, लक्ष्मण नहीं। सीता जैसी सुंदर और अदभुत स्त्री को देख कर गहने दिखाई पड़ सकते हैं?
वह दिखाई नहीं पड़े होंगे। उसका कारण यह नहीं है कि कोई ब्रह्मचारी है। उसका कारण यह नहीं कि ब्रह्मचारी नहीं है। लक्ष्मण ब्रह्मचारी था। लेकिन ब्रह्मचर्य इतना भयभीत, क्लीव नहीं होता; इतना कमजोर नहीं होता कि चेहरे की तरफ देखने से डर जाए। और ऐसा ब्रह्मचर्य बिलकुल झूठा होता है। सीता के चेहरे को बहुत देखा होगा उसने, लेकिन गहने दिखाई पड़ने--यह ऐसे ही है, जैसे कि सड़क पर आप निकलते हैं तो आपके जूते को सिवाय चमार के और कोई नहीं देखता। और आप सोच रहे हों कि दूसरे भी आपके जूते देख कर बहुत प्रभावित हो रहे होंगे तो आप गलती में हैं। सिवाय चमारों के कोई प्रभावित नहीं होगा।
वह जूता दिखता चमार को है। सच तो यह है कि चमार शक्ल-सूरत देखते ही नहीं, सिर्फ जूते ही देखते हैं। और जूते ही देखते रहते हैं दिन-रात सड़कों पर और जूतों से आदमियों को भी पहचान लेते हैं। अपने-अपने मापदंड हैं। चमार जूता देख कर पहचान लेता है कि आदमी मिनिस्टर है, कि हार गया कि जीत गया! वह जूता सब बता देता है! जूते की हालत सब बता देती है कि आदमी के खीसे में कुछ है कि नहीं है। जूता बता देता है कि आदमी सड़क पर चलता है कि हवाई जहाज में उड़ता है। जूता बता देता है कि किसका जूता है, वह आदमी कैसा होगा! वह चमार जूतों को देख लेता है और आदमी को पहचान लेता है! लेकिन चमारों के सिवाय जूतों को कोई नहीं देखता, तो ऐसा मत समझना कि चमार बड़े ब्रह्मचारी होते हैं इसलिए सिर्फ जूता ही देखते हैं, चेहरा नहीं देखते।
वह लक्ष्मण को गहना पैर का सिर्फ इसलिए याद रह गया कि रोज-रोज सिर रखा होगा उन पैरों पर। रोज-रोज निरंतर, वे गहने उसकी नजर में रोज-रोज आ गए होंगे, वे खयाल में थे। फिर सीता जैसी सुंदर स्त्री के गहने किसी को याद नहीं रह सकते; लक्ष्मण को ही नहीं, किसी को भी नहीं रह सकते। वह इसी वजह से राम को भी याद नहीं थे। राम तो ब्रह्मचारी नहीं थे। उनको क्यों याद नहीं थे? उन्होंने तो चेहरा देखा होगा सीता का, लेकिन उनको भी याद नहीं थे।
सच तो यह है कि जहां चेहरे का सौंदर्य होता है, वहां कौन गहने के सौंदर्य को देखने जाता है। दुनिया जितनी सुंदर होती चली जाएगी, उतने गहने विसर्जित होते चले जाएंगे। गहने कुरूपता का लक्षण हैं। आदमी अपने को सजाता तब है, जब जानता है, अनुभव करता है कि कहीं कुछ कमी रह गई है; नहीं तो नहीं सजाता है, फिर सीधा ही खड़ा हो जाता है।
महावीर जैसे लोग बहुत सुंदर लोग थे, इसलिए नंगे खड़े हो गए। फिर कपड़े-वपड़े पहनने की भी जरूरत न रही। यह यह मत समझना कि त्यागी, तपस्वी हैं। महावीर जैसी सुंदर काया दुनिया में मुश्किल से होती है। तो उतनी सुंदर काया पर कपड़े लगाना नासमझी है। उतनी सुंदर काया को कपड़े से ढांकना गलती है।
कपड़े से उस काया को ढांकना पड़ता है हिसाब से कि काया की सारी कुरूपता कपड़ों में ढंक जाए। और काया के सिर्फ वे हिस्से दिखाई पड़ते रहें, जो कुरूप नहीं हैं। और तब काया के सौंदर्य का एक भ्रम पैदा होता है।
महावीर अदभुत सुंदर आदमी रहे होंगे। वे कपड़े खोल कर नग्न खड़े हो गए होंगे। उस नग्नता में भी वे अप्रतिम रहे होंगे। और वे इतने सुंदर थे कि उनकी नग्नता किसी को भी दिखाई नहीं पड़ी होगी। उस सौंदर्य के सामने कौन नग्नता को देखेगा।
तो मैं नहीं मानता हूं कि इससे ब्रह्मचर्य वगैरह का कोई भी संबंध है। लेकिन विनोबा जी और उस तरह के लोगों को इसमें ब्रह्मचर्य दिखाई पड़ सकता है, क्योंकि ये सारे लोग ऐसा सोचते हैं कि आंखें बंद कर लेने का नाम ब्रह्मचर्य है! भाग जाने का नाम ब्रह्मचर्य है! स्त्री और पुरुष के बीच फासला बनाने का नाम ब्रह्मचर्य है! यह ब्रह्मचर्य नहीं है। ब्रह्मचर्य बहुत सतेज... इतना निर्वीर्य नहीं होता है।
ब्रह्मचर्य बहुत सतेज होता है। सतेज होता है, शक्तिशाली होता है, ऊर्जस्वी होता है। जहां ब्रह्मचर्य है, वहां चोरी नहीं होती, भागना नहीं होता।
जो ब्रह्मचारी स्त्री से भागता हो, वह बहुत कमजोर है, ब्रह्मचारी बिलकुल नहीं है। कामुकता कमजोर होती है, ब्रह्मचर्य तो बहुत वीर्यवान होता है। वह भागेगा नहीं, वह डरेगा नहीं। डरने का सवाल नहीं है वहां कोई! तो मैं वैसा नहीं मानता। और व्याख्या करने जैसी कोई खास बात नहीं है। मुझे इतना ही लगता है जो मैंने कहा, इससे भिन्न, इससे ज्यादा कुछ मामला नहीं है।
एक मित्र पूछा है कि आप जिस साधना की बात करते हैं, उससे स्वयं की ऊंचाई तो पाई जा सकती है, लेकिन उससे दूसरों का कल्याण कैसे होगा?
हमें यह पता ही नहीं है कि स्वयं की ऊंचाई से बड़ा और दूसरे का कोई कल्याण नहीं है। और जो आदमी स्वयं ऊंचा नहीं है, वह दूसरे का कल्याण कैसे कर सकता है? हां, कल्याण के नाम पर अकल्याण जरूर कर सकता है। और अक्सर समाज-सेवक, समीज-सुधारक, तथाकथित क्रांतिकारी, रिफॉर्मिस्ट, वे सब के सब अकल्याण करते हैं, कल्याण नहीं होता। क्योंकि खुद की कोई ऊंचाई नहीं है तो दूसरे की ऊंचाई कैसे आप ला सकते हैं?
सच तो यह है कि खुद की ऊंचाई विकसित हो तो उस ऊंचाई के साथ आस-पास की सारी हवाएं ऊंची उठने लगती हैं। खुद की ऊंचाई विकसित हो तो उस ऊंचाई की किरणें चारों तरफ फैलने लगती हैं और दूसरों को ऊंचा उठाने लगती हैं।
खुद की ऊंचाई विकसित हो तो आप कुछ और न करें, सिर्फ खुद की ऊंचाई विकसित करते चले जाएं तो भी आप दुनिया का इतना मंगल करते हैं जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। इसलिए यह मत सोचें कि जिस साधना की बात मैं कर रहा हूं उससे खुद की ऊंचाई भर बढ़ जाएगी, तो दूसरों का और कल्याण?
दूसरों का क्या कल्याण करना है आपको? एक तो दूसरे के कल्याण करने की बात में ही बहुत ही गहरा अहंकार छिपा हुआ है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे का क्या कल्याण करना है आपको? दूसरे का कल्याण आप कर सकते हैं? अपना ही कल्याण कितना मुश्किल है। लेकिन अपने कल्याण से बचने के लिए कई लोग दूसरे के कल्याण में लग जाते हैं! क्योंकि वह झंझट का काम मालूम पड़ता है अपना कल्याण! वह जरा कठिन, कठोर रास्ता मालूम पड़ता है। दूसरे का कल्याण बिलकुल सरल मालूम पड़ता है।
और दूसरे के कल्याण में सबसे बड़ी फायदे की बात यह है कि अगर परिणाम न निकले तो दूसरा जिम्मेवार होगा! हम तो कल्याण करते ही रहे। हम तो तब तक पद्मश्री और भारतरत्न हो ही गए। वह दूसरे का नहीं हुआ कल्याण तो जिम्मेवार है वह। और अपना कल्याण करो तो बड़ी मुश्किल है अगर सफल न हों। एक तो पद्मश्री वगैरह मिलते नहीं खुद के कल्याण करने वालों को। और दूसरी कठिनाई यह है कि असफल हो जाओ तो असफलता अपने ही ऊपर आती है। दूसरे का कल्याण बहुत सुविधापूर्ण है। और ध्यान रहे, दूसरे के कल्याण में चित्त की हिंसा को बड़ा आनंद मिलता है। असल में दूसरे को बदलने, दूसरे को बनाने में चित्त की हिंसा को बड़ा रस आता है!
चित्त की हिंसा के बड़े अदभुत रूप हैं। जब बाप बेटे से कहता है कि मैं जैसा कहता हूं, वैसा ही करो, क्योंकि यही ठीक है, इसी में तुम्हारा कल्याण है। तो वह कभी सोचता भी नहीं है कि वह जो कह रहा है, न तो उसे कल्याण की फिकर है, न उसे इस बात की फिकर है कि क्या ठीक है। उसे फिकर इस बात की है कि जो मैं कहता हूं, वह माना जाता है कि नहीं माना जाता है। बहुत बुनियाद में उसका रस इस बात का है कि मेरा लड़का मेरी मानता है कि नहीं मानता है! उसे मनवाने के वह सब उपाय करेगा, वह सब तरह की व्यवस्था करेगा कि वह मान जाए, क्योंकि दूसरे व्यक्ति को अपने ढांचे में ढालने में जो मजा आता है, वह मजा हिंसा का मजा है, वह दूसरे व्यक्ति को मिटाने का मजा है।
गुरुओं को जो मजा आता है शिष्यों को मिटाने में, उसमें और कोई अर्थ नहीं है। उसमें सिर्फ एक अर्थ है कि एक दूसरे आदमी को हमने मिट्टी का लोंदा सिद्ध कर दिया। हम उसको बनाने में लगे हैं। हम जैसा बनाएंगे, वैसा वह बनेगा। इसलिए गुरु एक से कपड़े पहना देते हैं। कतार खड़ी कर देते हैं नकली आदमियों की, एक से ढोंग सिखा देते हैं और यह व्यवस्था करते हैं कि इतने आदमी हमने बना दिए!
कौन बनाने वाला है, कौन किसको बना सकता है? जो बनने को राजी हो जाते हैं, वे कमजोर, डरे हुए लोग हैं। और जो बनाने को राजी हो जाते हैं, वे एग्रेसिव, आक्रामक और खतरनाक लोग हैं। ये खतरनाक लोग कहते हैं, हम बनाएंगे! और डरे हुए लोग राजी हो जाते हैं कि ठीक है भई, हम तो अपने को बना नहीं सकते हैं। यह आदमी कहता है, चलो तुम हमें बना दो! हम तुम्हारे पैर पकड़ लेते हैं!
दुनिया को गुरुओं ने और शिष्यों ने जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना किसी और ने नहीं पहुंचाया है। क्योंकि जो आदमी किसी दूसरे के हाथ से बनने को राजी होता है, उस आदमी ने अपनी आत्मा खो दी। क्योंकि उस आदमी ने यह कह दिया कि मैं व्यक्ति होने का अधिकार खोता हूं! अब मैं दूसरे के हाथ में कठपुतली बनने को तैयार हूं! उस आदमी को परमात्मा ने मौका दिया था कि तू ‘तू’ होना और वह किसी गुरु के चरण पकड़ कर कुछ ‘और’ होने में लग गया है और खुद होने की कोशिश उसने बंद कर दी है!
धार्मिक आदमी वह है, जो स्वयं होने की कोशिश में लगा है। वे सारे लोग अधार्मिक हैं, जो किसी और जैसे होने की कोशिश में लगे हैं। अधार्मिक आदमी गुरु बनाएगा, अधार्मिक आदमी शिष्य बनेगा। धार्मिक आदमी न गुरु बनता है और न शिष्य बनता है। क्योंकि धार्मिक आदमी कहता है: परमात्मा ने एक मौका मुझे खुद होने का दिया है, वह मैं होना चाहता हूं। आप कृपा करें गुरुजन, आप जरा दूर रहें। मैं वही होना चाहता हूं, जो भगवान ने मुझे मौका दिया है।
कोई फिकर नहीं छोटा सा फूल! आप कहते हैं कमल हो जाएंगे। कृपा है आपकी। जो कमल हो सकते हैं वे हो जाएं। मैं घास का फूल हूं। मैं घास का फूल ही होना चाहता हूं। लेकिन लोभ पकड़ लेता है कि चलो हम भी कमल का फूल हो जाएं। और लोभ में आदमी वह भी खो देता है जो हो सकता था। शिष्य लोभ में पीछे चलते हैं, गुरु अहंकार में आगे चलते हैं और इसके अतिरिक्त उनके बीच कोई संबंध नहीं होता है।
शिष्य लोभ में होते हैं, ग्रीड में होते हैं कि गुरु हमें ऐसा बना देगा। गुरु दावा देता है कि हम ऐसा बना देंगे। और गुरु को मजा होता है बनाने का, कल्याण करने का!
भूल कर किसी का कल्याण मत करना, क्योंकि कल्याण नहीं होता है, सिर्फ टार्चर होता है। जिस आदमी के कल्याण के पीछे आप पड़ गए, उसकी मुसीबत हो गई। और बड़ी कठिनाई यह है कि अब वह कुछ कह भी नहीं सकता, क्योंकि आप उसी के हित में कार्य कर रहे हैं।
तो किसी को अगर पूरी तरह सताना हो तो बंदूक से वह सताने का मजा नहीं आता, क्योंकि बंदूक से आदमी मर ही जाता है, सताने का पूरा मजा नहीं आता। पूरा मजा इसमें आता है कि उस आदमी को बनाओ, बदलो! जिंदा भी रखो और जिंदा भी मत रहने दो! मरा हुआ कर दो और मरने भी मत दो, बस उसको बदलते रहो!
कोई किसी का कल्याण नहीं कर सकता है--न मां बेटे का कर सकती है और न बाप बेटे का कर सकता है। कल्याण प्रत्येक व्यक्ति अपना कर ले, पर्याप्त है।
और जब कोई व्यक्ति अपना कल्याण करता है, अपने जीवन को ऊंचाइयों पर ले जाता है तो उसके चारों तरफ के जीवन अचानक, अनायास उन ऊंचाइयों की प्रेरणा से भर जाते हैं। यह प्रेरणा दी गई नहीं होती है, यह प्रेरणा अनायास वितरित होती है। यह ऐसे ही है, जैसे कि रास्ते के किनारे एक फूल खिल जाता है तो फिर वह चिल्लाता नहीं है कि आओ और मुझे देखो। राह से जो भी निकलता है, सुगंध छू जाती है। फूल पर आंखें टिक जाती हैं, क्षण भर को, क्षण भर को आदमी के हृदय में भी फूल खिल जाता है। वह जो राह के किनारे रुक जाता है, उसके मन में भी फूल खिल जाता है।
एक बड़ा वृक्ष है, उसकी घनी छाया, राह चलता आदमी उसके नीचे रुक जाता है। छाया बुलाती नहीं है कि आ जाओ, छाया कहती नहीं है कि तुम्हारा कल्याण करूंगी। छाया बस है। कोई राह निकलता है और वह रुक जाता है। जैसे-जैसे व्यक्ति के भीतर की आत्मा का वृक्ष बड़ा होता है, एक बहुत अनजान छाया उसके चारों तरफ पड़ने लगती है, राहगीर उसके नीचे रुक जाते हैं, चले जाते हैं। न राहगीर कभी धन्यवाद देता है छाया को, न वृक्ष को कि धन्यवाद। और न वृक्ष कहता है कि देखो, जा रहे हो, दक्षिणा देते जाओ। बात खत्म हो गई है। वृक्ष को आनंद मिल गया है कि कोई उसके नीचे रुका। यह भी बड़ा सौभाग्य है।
जैसे व्यक्ति के भीतर का वृक्ष बड़ा होता है, वह आत्मा का वृक्ष, उसमें शाखाएं और फूल आने शुरू होते हैं, उसके नीचे बहुत लोग विश्राम करते हैं। लेकिन वह कोई गुरु नहीं बन जाता, उसे धन्यवाद की अपेक्षा भी नहीं होती कि कोई धन्यवाद भी दे जाएगा। वह तो अनुगृहीत होता है।
ध्यान रहे, वह आदमी अनुगृहीत होता है कि आपने कृपा की और दो क्षण उसके पास विश्राम किया। कौन कब किसके पास विश्राम करता है? आपने मौका दिया कि उस वृक्ष को भी पता चला कि उसकी छाया काम में आ गई है, तो धन्यवाद!
जब किसी व्यक्ति की आत्मा ऊंची उठती है तो धन्यवाद उनसे नहीं मांगता है, वे जो उसके नीचे ठहर गए होते हैं कभी। बल्कि धन्यवाद उन्हें देता है, क्योंकि उन्होंने मौका दिया। उसको आनंद दिया, उसके पास ठहरने का अनुग्रह किया।
खुद की ऊंचाई जितनी बढ़ती है, उस ऊंचाई के आकस्मिक परिणाम आने शुरू हो जाते हैं, लेकिन वे सुनियोजित नहीं होते हैं, अनायास होते रहते हैं।
कभी भी कोई राह चलते भी कोई आदमी मिल जाए, जिसके भीतर प्रेम की वीणा बजती हो, वह कुछ भी न बोले तो भी आपके भीतर कुछ हर्क-फर्क, कुछ हेर-फेर होना शुरू हो जाएगा।
अमरीका में एक अदभुत आदमी था। वह इस पर कुछ प्रयोग करता था कि बिना कहे भी भाव संवेदित होते हैं। एक अभिनेता उससे मिलने आया था और उस अभिनेता से उसने कहा कि बिना कहे भी भाव का संवेदन होता है। उस अभिनेता ने कहा: बिना कहे बहुत मुश्किल है। बिना कहे कैसे, कुछ कहना पड़ेगा! अगर क्रोध प्रकट करना है तो मुट्ठी बांधनी पड़ेगी, आंख खींचनी पड़ेगी, गाली देनी पड़ेगी। कुछ शब्द बोलने पड़ेंगे, कुछ करना पड़ेगा!
लेकिन, उसने कहा: नहीं, आंख भी बंद रखो, हाथ भी मत बांधो, बोलो भी मत, लेकिन सिर्फ भीतर क्रोध से भर जाओ तो भी पड़ोस तक क्रोध की किरणें पहुंचती हैं।
उस अभिनेता ने कहा: मुझे विश्र्वास नहीं पड़ता।
तभी फोन की घंटी बजी और वह अपने ऑफिस में चला गया। अभिनेता कमरे में अकेला रह गया। आधा घंटे तक फोन पर वह कुछ जरूरी बात करता रहा। आधा घंटे बाद वापस लौटा तो एकदम खड़ा हो गया चौंक कर!
उसने उस अभिनेता से कहा: मालूम होता है, आप मुझ पर नाराज हो गए हैं--क्या बात है? मैंने तो आपसे कुछ कहा नहीं है।
उस अभिनेता ने कहा: नहीं, मैं नाराज नहीं हुआ, लेकिन आधा घंटा मैं प्रयोग कर रहा था, आप पर क्रोधित होने का। और आप जो कहते हैं, मालूम होता है ठीक है। पूरा कमरा जैसे क्रोध से भर गया। क्रोध की तरंगें--जैसे पानी में हम पत्थर फेंक दें, तरंगें उठती हैं और दूर तक फैलती चली जाती हैं! यहां तो हम पत्थर पटकेंगे और मीलों दूर तक वे तरंगें फैलती चली जाएंगी!
ऐसा ही मनोआकाश है। ऐसा ही हमारे मन का भी एक जगत है। और वह मन का जगत संयुक्त है, वह कलेक्टिव है, वह समष्टिगत है। वह फैला हुआ है। और जब एक आदमी उसमें जोर से क्रोध का पत्थर डालता है तो उसकी किरणें, उसकी हवाएं चारों तरफ फैलती चली जाती हैं। और फिर जितने लोग भी क्रोध के प्रति रिसेप्टिव होते हैं, संवेदनशील होते हैं, उनके चित्त में भी क्रोध की किरणें पहुंच जाती हैं। उनके भीतर का क्रोध भी हिलने लगता है, कंपने लगता है।
अगर कभी कोई व्यक्ति बहुत प्रेम से भरा होता है तो उसके चारों तरफ प्रेम की घटनाएं घटने लगती हैं। अगर कभी कोई व्यक्ति परिपूर्ण शांत होता है तो उसके आस-पास शांति की किरणें फैलने लगती हैं।
लेकिन यह आकस्मिक हो जाता है। अभी भी हो रहा है, हर वक्त हो रहा है। जब आप अशांत हैं, तब भी हो रहा है। कभी आप प्रयोग करके देखना इस बात को। कि अगर आप बहुत अशांत हैं, तो एक चौबीस घंटे प्रयोग करके देखना--कि चौबीस घंटे अशांत से अशांत होते चला जाना। लेकिन किसी से कहना मत कि मैं अशांत हूं। कोई भाव प्रकट मत करना। और आप चौबीस घंटे में अनुभव करेंगे कि जो आदमी भी आपके पास आएगा, वह अशांत हो जाएगा।
आप इससे उलटा करके देखना। कभी चौबीस घंटे इस तरह शांत हो जाना कि जैसे कोई जीवन में अशांति नहीं है, सब तनाव छोड़ दिया है। और चौबीस घंटे ऐसे जीना कि जैसे जिंदगी में कुछ चिंता नहीं, दुख नहीं, पीड़ा नहीं; कोई अशांति नहीं। पूरे वक्त शांति से भरे रहना; कुछ कहना मत, एक शांति के अंबार बन जाना। और जो भी आदमी आएगा, और आप चौबीस घंटे में हैरान होंगे जान कर कि जो भी आया है, उसने शांति प्रकट की है!
लेकिन हमें इसका कोई साफ-साफ बोध नहीं है, क्योंकि हमें भीतर के जगत के किन्हीं भी, किन्हीं भी आयामों का कोई अनुभव नहीं है, कोई खबर नहीं है। हमें पता ही नहीं है कि हम सब जो सोचते हैं, जो करते हैं, जो मन में भाव लेते हैं, उस सबके परिणाम चारों तरफ होते चले जाते हैं।
जब कोई आदमी भीतर ऊंचाई पर उठता है तो वह ऐसी लहरें पैदा करने लगता है, जो दूसरों को ऊंचाई पर ले जाने का कारण हो जाती हैं।
आप अगर ऊंचे उठते हैं साधना से तो इस चिंता में मत पड़िए कि इससे दूसरों के कल्याण का क्या होगा। इसके अतिरिक्त कल्याण के लिए हम कोई हवा कभी पैदा कर ही नहीं सकते हैं।
दूसरे का कल्याण नहीं करना है, अपना मंगल साध लेना है।
उस सधे हुए मंगल के साथ दूसरों के मंगल के सधने का अवसर उपस्थित होता है।
वह भी आप नहीं कर देते, वह उपस्थित हो जाता है। वह आपके वश की बात नहीं है, वह उपस्थित हो जाता है। अगर दुनिया में सारे लोग दूसरे के कल्याण करने में लग जाएं, जैसा कि आजकल लगे हुए हैं--सारी दुनिया में वेलफेयर का काम चल रहा है। हर आदमी एक-दूसरे का कल्याण कर रहा है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का कल्याण कर रहा है। एक जाति दूसरी जाति का कल्याण कर रही है। सभ्य लोग आदिवासियों का कल्याण कर रहे हैं। ऊपर के वर्ण के लोग नीचे के वर्णों का कल्याण कर रहे हैं। पुरुष स्त्रियों का कल्याण कर रहे हैं। सब कल्याण में लगे हुए हैं। और देखें दुनिया की हालत कैसी है! कल्याण बढ़ता जा रहा है और कल्याण का कोई भी पता नहीं है! नहीं, इस तरह नहीं होगा कुछ। विपरीत है मार्ग बिलकुल।
प्रत्येक को लग जाना है अपने कल्याण में और उसी कल्याण में लगने के परिणाम में उसके व्यक्तित्व में, उसके मन में, उसकी चेतना में, उसके शरीर में, उसके कामों में वह सब प्रकट होना शुरू हो जाएगा जिससे कल्याण का अवसर उपस्थित होता है। वह अनायास हो जाता है, उसका पता भी नहीं चलता।
कोई आदमी किसी का कल्याण करने जाए तो समझना कि वह आदमी खतरनाक है। वह किसी न किसी आदमी को सताने का उपाय खोज रहा है। कल्याण उनसे होता है, जिन्हें पता भी नहीं है।
एक फकीर था, उस फकीर के चित्त में अदभुत घटनाएं घटीं। वह उस लोक में पहुंच गया, जहां कभी कोई सौभाग्यशाली पहुंचता है। वह वहां पहुंच गया है, जहां अमृत, जहां आलोक है। फिर अचानक जब वह वहां पहुंच गया तो कहानी कहती है कि देवताओं ने उससे कहा कि हम बहुत खुश हुए, हम तुझे कुछ वरदान देना चाहते हैं।
उस फकीर ने कहा: लेकिन अब मैं क्या मांगूं, क्योंकि अब तो मेरी मांग ही मिट गई। वह मिल गया, जिसको मिलने पर मांग नहीं रह जाती, धन्यवाद! मैं लेकिन कुछ मांगता नहीं--आपकी कृपा कि आपने मांगने के लिए कहा। लेकिन देवता पीछे पड़ गए।
देवता उन्हीं के पीछे पड़ जाते हैं, जो कहते हैं, हमें नहीं चाहिए! जो कहते हैं, हमें चाहिए, उनके पीछे भूत-प्रेत भी नहीं पड़ते हैं!
वह कहने लगा: मुझे चाहिए नहीं, क्योंकि जो मुझे चाहिए, वह मुझे मिल गया है।
लेकिन देवताओं ने कहा कि नहीं, यह तो हमारा अपमान हो जाएगा। हमसे कोई मांगने आता है, तब हम नहीं देते। हम खुद देने आए हैं।
उस फकीर ने कहा: अगर अपमान हो जाएगा तो फिर जो भी तुम देना चाहो दे दो। मैं उसे अंगीकार कर लूंगा।
तो उन देवताओं ने कहा कि तुम दूसरों का कल्याण करो, ऐसी सामर्थ्य दे दें?
उस फकीर ने कहा: क्षमा करना! दूसरों का कल्याण करने वाले लोगों को मैं भलीभांति जानता हूं। उन्होंने दुनिया में बहुत अकल्याण कर दिया है। यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा।
देवताओं ने कहा कि नहीं, यह काम तुमसे हो सकेगा, क्योंकि तुम उस जगह आ गए हो, जहां दूसरों का कल्याण हो सकता है।
उस फकीर ने कहा: वह तो ठीक है, लेकिन मुझे कोई दूसरा ही नहीं दिखाई पड़ता, तो मैं किसका कल्याण खोजने जाऊंगा! नहीं, यह काम बहुत दुष्कर है, कठिन है। यह मुझसे मत करवाएं।
तो देवताओं ने कहा: हम ऐसा कर देते हैं कि तुम जहां से निकलो, तुम्हारी छाया जिन पर पड़ जाए, उनका कल्याण हो जाए।
उसने कहा: यह तो ठीक है, लेकिन इतना ही ध्यान रहे कि छाया जब मेरे पीछे पड़ती हो तो मुझे पता न चले कि किसका कल्याण हो गया। मुझे पता चल जाए तो मुझे भी नुकसान हो सकता है, क्योंकि यह अहंकार आ जाए कि देखो, मैंने यह कर दिया। तो छाया करे, लेकिन मुझे कोई इसमें पता भी न चले। यह होता रहे।
फिर वह फकीर जहां से निकलता, कहानी कहती है कि फूल सूखे होते, उसकी छाया पड़ जाती तो वे खिल जाते। रास्ते पर मुर्झाए हुए पौधे होते, वे हरे जाते। बीमार पर छाया पड़ जाती, वह स्वस्थ हो जाता। अंधे को आंख हो जाती, बहरे को कान मिल जाते--कहानी कहती है, जहां उसकी छाया पड़ जाती! लेकिन उस फकीर को कभी पता नहीं चला, क्योंकि उस फकीर से कभी कुछ नहीं हुआ। वह तो छाया पीछे करती रही। वह पीछे छाया से होता रहा।
यह कहानी का मुझे पता नहीं। लेकिन इस जगत में जितने लोगों से भी कल्याण हुआ है, वह सदा उनकी छाया से होता है; उनसे नहीं होता है। और जितने लोग कहते हैं, हम कल्याण करते हैं, ये सारे लोग अकल्याण करते हैं। इनसे कोई कल्याण नहीं होता है।
इसलिए उठें ऊंचे, जाएं उन गहराइयों में, उन ऊंचाइयों पर जहां प्रभु का प्रकाश है। उन शिखरों की यात्रा करें, जहां वह सूरज है--जो हम घाटियों में, अंधेरों में रहने वाले लोगों को दिखाई नहीं पड़ता। और जिस दिन वह रोशनी भीतर भर जाएगी, आप भी एक छोटे दीये हो जाएंगे।
और उस दीये से भी किरणें फैलने लगेंगी, और बहुत से बुझे दीयों को प्रेरणा देंगी जगने की। बहुत से लोगों के जीवन के रास्ते पर फूल बिछा देंगी, बहुत से लोगों के भटके हुए मार्ग मंदिर की तरफ आ जाएंगे, बहुत से लोगों के प्राण प्रभु की तरफ प्यासे हो उठेंगे, बहुत से लोगों के जीवन में दुख और पीड़ा क्षीण होगी, बहुत से लोगों के जीवन में शांति के राज्य का द्वार खुलेगा। लेकिन वह आपकी छाया से हो जाएगा, उसका आपको पता भी नहीं पड़ेगा।
जब से दुनिया में कांशस सर्विस, सचेतन सेवा शुरू हुई है, तब से बहुत अहित हो रहा है। फिर वापस वह अचेतन सेवा, जो सहज हो जाती है, जिसका कोई पता नहीं चलता, उसकी पुनर्स्थापना जरूरी हो गई है।
कुछ और प्रश्न रह गए हैं, कल रात उन पर बात करेंगे।
अभी रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
तो थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएं। जल्दी ही अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। अपनी-अपनी जगह बैठ जाएं। कहीं भी बैठ जाएं।
शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें। फिर प्रकाश बुझा दिया जाएगा, घनघोर अंधकार हो जाएगा। उस अंधकार में बिलकुल लीन हो जाना है। जैसे हम भी एक हो गए, रात के साथ एक हो गए।
थोड़ी देर तक मैं सुझाव दूंगा, आपका शरीर शिथिल हो रहा है, तब तक शरीर को शिथिल छोड़ते जाना है। फिर श्वास शिथिल हो रही है, श्वास को धीमा छोड़ देना है। फिर मन शांत हो गया है, फिर मन को भी शांत छोड़ देना है। फिर दस मिनट के लिए रात के साथ एक होकर हम रह जाएंगे।
झींगुर बोलते रहेंगे, कोई पक्षी आवाज करेगा, हवाएं चलेंगी, पत्ते उड़ेंगे, उनको चुपचाप जानते रहेंगे। बस सिर्फ जानने वाले रह जाएंगे। और जैसे-जैसे जानने का भाव गहरा होता है वैसे-वैसे मन शांत होता चला जाता है। अंततः जानते-जानते मन शून्य हो जाता है। वही शून्य द्वार है। वही खुला द्वार है। उससे ही प्रवेश होता है वहां--उन ऊंचाइयों की जिनकी हमने बात की है।
शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें, शरीर ढीला छोड़ दें।
अब मैं सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ते जाएं शरीर को। जब मैं कह रहा हूं, शरीर शिथिल हो रहा है, तो अनुभव करें कि पूरा शरीर शिथिल होता जा रहा है। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें बिलकुल, जैसे शरीर में कोई प्राण न रह गया हो। शरीर झुके, झुक जाए; गिरे, गिर जाए। बिलकुल छोड़ दें जैसे हमारी कोई ताकत शरीर पर नहीं है, शरीर प्रकृति का एक हिस्सा है, हमारा नहीं है। छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें...छोड़ दें...शरीर शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास भी छोड़ दें, श्वास भी शिथिल हो रही है। श्वास शिथिल हो रही है...श्वास धीमी-धीमी शिथिल होती जा रही है...श्वास शिथिल हो रही है...श्वास शिथिल हो रही है...छोड़ दें...श्वास भी शिथिल हो गई है...।
मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...छोड़ दें...मन को भी छोड़ दें...अब इस अंधेरी रात के साथ एक हो जाएं। वृक्षों के साथ, अंधेरे के साथ, आकाश के साथ एक हो जाएं।
अपने को छोड़ दें, जैसे बूंद सागर में खो जाती है। दस मिनट के लिए अब बिलकुल मिट जाएं, जैसे हैं ही नहीं।
श्वास चलेगी, धड़कन होगी, कोई पक्षी बोलेगा, कोई आवाज होगी, चुपचाप सुनते रहें। जैसे शून्य में आवाजें गूंजती हैं, हम सिर्फ सुन रहे हैं, जान रहे हैं, सिर्फ द्रष्टा हैं, साक्षी हैं। दस मिनट के लिए साक्षी हो जाएं। जैसे-जैसे साक्षीभाव बढ़ेगा, मन शांत होता चला जाएगा। और धीरे-धीरे वह द्वार खुल जाएगा जो ऊपर ले जाता है मन के, बियांड माइंड।
अब दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। आप छोड़ दें अपने को बिलकुल।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...मिट जाएं...शरीर को छोड़ दें...स्वयं को छोड़ दें...रात के साथ एक हो जाएं...छोड़ दें...छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...मिट जाएं जैसे हैं ही नहीं।
बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं। मिट जाएं...बिलकुल छोड़ दें...छोड़ दें...छोड़ दें...अंधकार के साथ एक हो जाएं, रात के साथ एक हो जाएं, मिट जाएं...बिलकुल छोड़ दें...छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं।
छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल मिट जाएं जैसे हैं ही नहीं। रात के साथ एक हो जाएं। ये झींगुर हमारे भीतर बोल रहे हैं। ये आवाजें भी हमारे भीतर हैं। हम अलग नहीं हैं। बिलकुल एक हो जाएं, मिट जाएं...छोड़ दें...बाहर और भीतर अलग-अलग नहीं हैं। बाहर भी भीतर है। भीतर भी बाहर है। सब एक हैं। छोड़ दें...मिट जाएं...बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ गहरी शांति मालूम होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ बहुत शांति मालूम होगी। सब शांत हो गया है। बाहर भी सब शांत है। भीतर भी सब शांत है। सब मौन, सब शून्य।
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...फिर उतने ही आहिस्ता-आहिस्ता आंख खोलें...देखें, सब शांत है, बाहर भी भीतर भी। धीरे-धीरे आंख खोलें और अंधेरे में दो मिनट देखते हुए बैठे रहें...देखें, बाहर सब कैसा शांत है! आंख खोलें, देखें, बाहर देखें, बाहर और भीतर सब एक है।
(प्रकाश जला दें।)