YOG/DHYAN/SADHANA
Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat 04
Fourth Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य का मन एक बोझ है--बोझ है अतीत का। लेकिन मनुष्य का मन एक तनाव भी है--तनाव है भविष्य का। अतीत के बोझ को हटा देने के लिए कल कुछ बातें की हैं। भविष्य के तनाव से मुक्त हो जाना भी उतना ही आवश्यक है। भविष्य भी बहुत बड़े तनाव की तरह मनुष्य के मन पर सदा मौजूद है। भविष्य का तनाव बहुत रूपों में हमारे मन को पकड़े है।
एक तो, हम आज जीते ही नहीं; हम सदा कल में जीते हैं। और कल में कोई भी नहीं जी सकता; जीना सदा आज है, अभी है।
एक सुबह युधिष्ठिर बैठे हैं अपने झोपड़े पर वनवास के दिनों में। और एक भिखारी ने भिक्षापात्र उनके सामने फैलाया है। युधिष्ठिर ने कहा: कल! कल ले लेना, कल आ जाना, कल दूंगा!
भीम बैठा हुआ सुनता था, वह जोर से हंसने लगा। पास में पड़े हुए घंटे को उठा कर बजाने लगा और गांव की तरफ भागने लगा।
युधिष्ठिर ने पूछा: क्या हुआ है तुझे, पागल हो गया?
भीम के कहा: पागल नहीं हुआ हूं। यह जान कर बहुत खुश हुआ हूं कि मेरे भाई ने कल कुछ करने का वायदा किया है। जाऊं गांव में खबर कर आऊं कि मेरे भाई ने समय को जीत लिया है, क्योंकि मैंने सुना नहीं है आज तक कि कल कोई भी कभी कुछ कर सका हो। तुमने कहा है, कल देंगे! जाऊं खबर कर आऊं गांव में, क्योंकि इतिहास में ऐसी घटना नहीं घटी है।
बहुत मजे की बात है। कल तो कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो भी किया जा सकता है--अभी और यहां; आज, इसी क्षण।
जिस कल की हम बात करते हैं, वह कल्पना के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। वह कभी नहीं आएगा। कल कभी नहीं आता है। जो आता है, वह आज है, अभी है।
लेकिन हमारा मन जीता है कल में। हम आज के जीने को कल पर पोस्टपोन करते हैं। जो अभी हो सकता है, उसे कल पर छोड़ते हैं। और कल कभी नहीं होगा। फिर यह कल की लंबी धारा, आने वाले कलों की लंबी कल्पना मन पर बैठती चली जाती है, मन को खींचती चली जाती है। इसका बोझ बहुत ज्यादा है, वह हमें पता नहीं है। हमें उन्हीं बोझों का पता चलता है, जिनके हम आदी नहीं होते हैं। और भविष्य के बोझ के हम पैदा होने के क्षण के साथ ही आदी हो जाते हैं। वह हमें पता ही नहीं चलता।
यूरी गागरिन पहली दफा जब अंतरिक्ष में गया पहला आदमी, तो उसने लिखा: पहली बार मुझे पता चला कि पृथ्वी पर कितना बोझ था, वह ग्रेविटेशन का! लेकिन हमें कुछ पता नहीं चलता। हम उसमें ही जन्मते हैं, उसमें ही बड़े होते हैं।
यूरी गागरिन जब लौट कर पृथ्वी पर आया तो लोगों ने उससे पूछा कि सबसे नया अनुभव क्या हुआ?
उसने कहा: सबसे नया अनुभव हुआ ग्रेविटेशन से मुक्त हो जाने का। शरीर निर्भार हो गया। समझ में नहीं पड़ा कि यही मेरा शरीर है। और यह भी समझ में नहीं पड़ा कि इतना बोझ इस शरीर पर पृथ्वी पर था, इतना खिंचाव इस शरीर पर था! शरीर हलका रुई की तरह हो गया, बॉडीलेसनेस, जैसे शरीर है ही नहीं, ऐसा अनुभव हुआ। हवा में जैसे ऊपर तैरने लगा शरीर। यान के छत से लग गया जाकर। कोई वजन न रहा। हाथ उठाओ तो मालूम न पड़े कि उठाया कि नहीं उठाया। सारा शरीर निर्भार हो गया।
लेकिन हमारे शरीर पर कितना बोझ है, वह हमें पता नहीं चलता, क्योंकि जमीन पर ही हम पैदा होते हैं, जमीन पर ही बड़े होते हैं, जमीन पर ही मर जाते हैं। वह बोझ लेकर ही पैदा होते हैं, लेकर ही मर जाते हैं। इसलिए पता नहीं चलता कि जमीन कितने जोर से खींचे हुए है। वह जिसको हम शरीर का वजन कहते हैं, वह शरीर का वजन नहीं है, जमीन की कशिश है। अगर दो सौ पौंड शरीर का वजन है तो शरीर का कोई वजन नहीं होता। वह जमीन खींच रही है इतनी ताकत से कि शरीर पर दो सौ पौंड का भार पड़ रहा है। लेकिन वह हम जीते हैं। हमें उसका कोई पता नहीं है, क्योंकि हम उसमें ही जन्मते हैं, उसमें ही आदत बन जाती है।
ऐसे ही भविष्य का तो और भी न मालूम कितना बड़ा बोझ है, कितनी कशिश है। जमीन से भी ज्यादा, लेकिन उसका हमें पता नहीं चलता। हम बचपन से ही कल में जीते हैं--आगे! आगे! आगे!
और यह कल में जीने की जो हमारी मनोवैज्ञानिक भूल है, इसे समझ लेना बहुत जरूरी है, तो शायद हम आने वाले कल से मुक्त हो जाएं। इसका यह मतलब नहीं है कि आने वाले कल से मुक्त हो जाने का यह मतलब नहीं है कि कल आपको कहीं जाना है तो आप उसकी कोई योजना नहीं करेंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि कल सुबह ट्रेन पकड़नी है तो आज रिजर्वेशन नहीं कराएंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि कल के लिए कोई जीवन की आयोजना, कोई प्लानिंग नहीं होगी। क्रोनोलॉजिकल टाइम तो है, समय तो है, लेकिन हमने एक मनोवैज्ञानिक समय भी ईजाद किया हुआ है, जो कहीं भी नहीं है।
जैसे एक आदमी क्रोधी है, हिंसक है। और वह आदमी कहता है, कल, परसों, कुछ वर्षों बाद, अगले जन्म में मैं अहिंसक हो जाऊंगा, शांत हो जाऊंगा। वह यह कहता है, हिंसक हूं, कोई फिकर नहीं है, लेकिन मैं चेष्टा करूंगा, श्रम करूंगा, प्रार्थना करूंगा, पूजा करूंगा, ध्यान करूंगा, साधना करूंगा, योग करूंगा; नीति का आचरण करूंगा, व्रत लूंगा, अहिंसक हो जाऊंगा! हिंसक है, लेकिन कल्पना करता है कि कल भविष्य में कभी अहिंसक हो जाएगा!
यह समझने जैसा है। जो आदमी हिंसक है, वह कुछ भी योजना करे, वह कोई भी व्रत ले, वह कोई भी धारणा करे, वह कोई भी ध्यान करे, वह आदमी कोई भी योग साधे, तप करे, तपश्र्चर्या करे--हिंसक आदमी जो कुछ भी करेगा, उससे कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता है। हिंसक ही करेगा न! व्रत भी हिंसक ही करेगा। उस व्रत के करने में भी उसकी हिंसा पूरी तरह मौजूद है। तपश्र्चर्या हिंसक ही करेगा, उस तप में भी उसकी हिंसा पूरी तरह मौजूद है।
कल तक वह दूसरों के शरीरों को सताता था, अब अपने शरीर को सताएगा। हिंसा पूरी तरह मौजूद है। कल तक वह रस लेता था किसी दूसरे की गर्दन दबाने में, अब वह अपनी ही गर्दन दबाने में रस लेगा। हिंसा मौजूद है। वह हिंसक ही कर रहा है। हिंसक जो कुछ भी करेगा उसमें हिंसा मजबूत होगी। वह कल अहिंसक नहीं होने वाला है। लेकिन आज की हिंसा भूलने में सहारा मिलेगा उसे कल की अहिंसा की कल्पना से; सोचेगा, कल अहिंसक हो जाऊंगा। तो वह जो हिंसा की पीड़ा है, वह जो हिंसा का दंश है, वह जो हिंसा का कांटा चुभ रहा है, वह हलका हो जाएगा। वह कहेगा, कोई फिकर नहीं, आज हूं कल अहिंसक हो जाऊंगा। वह कल की अहिंसा को सत्य मान लेगा, आज की हिंसा को झूठा कर लेगा; आज की हिंसा जारी रहेगी। वह कभी अहिंसक नहीं होगा। लेकिन कल अहिंसक हो जाऊंगा इस भाव से, हिंसा की जो पीड़ा होनी चाहिए, वह कम हो जाएगी। और हिंसा की पीड़ा जितनी कम हो जाएगी, उतना ही हिंसा से मुक्त होना असंभव है।
लेकिन वह कल की कल्पना करेगा! वह कहेगा, इस जन्म के बाद अगले जन्म में भगवान को पा लूंगा। वह कहेगा, मृत्यु के बाद मोक्ष चला जाऊंगा। वह टालता रहेगा इस तरह भविष्य पर और आज के तथ्य को नहीं देखेगा। इस बात को ठीक से जान लेना, जो लोग भी आज के तथ्य को नहीं देखना चाहते हैं, वे भविष्य की योजनाओं और कल्पनाओं में, अंधेरे में, धुएं में अपने को छिपा लेते हैं।
आज का तथ्य ही सत्य है। उसे छिपाना नहीं है। उसे भुलाना भी नहीं है। उसे विस्मरण भी नहीं करना है। उसे पूरी तरह जानना है। क्योंकि वह जानने से ही, सिर्फ जानने से ही बदलेगा। और बदलाहट का कोई उपाय नहीं है।
अगर चित्त में हिंसा है--और है। हिंदुस्तान कितने हजारों सालों से अहिंसा की बातें करता है, कितने हजारों साल से हमने अहिंसा के गीत गाए, अहिंसा के शास्त्र रचे हैं, अहिंसा-अहिंसा की हम बात करते रहे हैं और एक भी आदमी अहिंसक है? कोई एक आदमी अहिंसक नहीं है!
इधर बीस-पच्चीस-चालीस सालों से तो हम बहुत ही अहिंसा की बातें कर रहे हैं। लेकिन जब खुद पर मुसीबत आती है तो हम उतने ही हिंसक सिद्ध होते हैं, जितना कोई और। चीन ने देश पर हमला किया, फिर हमारी अहिंसा खो गई। पाकिस्तान के साथ मुठभेड़ हो, हमारी अहिंसा खो जाती है। फिर कोई अहिंसा की बात नहीं करता। फिर हम कहते हैं कि अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत है!
अहिंसा की रक्षा के लिए भी हिंसा की जरूरत पड़ती है तो अहिंसा बहुत नपुंसक है। ऐसी अहिंसा का क्या मतलब है जिसकी रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत पड़ती हो? और अहिंसा की रक्षा हिंसा से की जा सकती है? अगर अहिंसा की रक्षा हिंसा से की जा सकती है, तब तो फिर अमृत की सुरक्षा के लिए जहर का इंतजाम करना पड़ेगा, और प्रेम की रक्षा के लिए घृणा सीखनी पड़ेगी, और जिंदा रहने के लिए मरना पड़ेगा!
अहिंसा हमारी बातचीत है हजारों साल की और उससे सिर्फ एक बात घटी है कि हम अपनी हिंसा को देखना बंद कर दिए हैं। अहिंसा की बातों में हिंसा का तथ्य भूल गया है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
चित्त अशांत है तो हम कहेंगे, कल हम शांत हो जाएंगे। कुछ विधि का उपयोग करेंगे, किसी जप का उपयोग करेंगे और कल हम शांत हो जाएंगे। अशांत आज हैं और कल होंगे शांत! फिर कल भी आ जाएगा। कल तो आता नहीं, वह भी आज होगा। और फिर आप कहेंगे, आज अशांत हैं, कोई बात नहीं, कल शांत हो जाएंगे।
यह पोस्टपोनमेंट सेल्फ-डिसेप्शन है। यह स्थगितकरण आत्मवंचना है। कल पर छोड़ना और आज को देखने से बचना इतना बड़ा तनाव है कि फिर जिंदगी में कभी परिवर्तन नहीं होगा। सिर्फ तने ही रह जाएंगे, तनाव ही रह जाएगा। पीछे लौट कर देखें, जिंदगी में कितनी बार सोचा होगा, कल यह कर लेंगे, कल यह कर लेंगे--मनोवैज्ञानिक बात कह रहा हूं, मानसिक, भीतर आंतरिक--वह आज तक नहीं हुआ। वह कभी नहीं होगा। वह तरकीब तथ्यों को झुठलाने की है, उनको भूलने की है, विस्मरण की है, वह तरकीब फॉरगेटफुलनेस की है। और किसी तथ्य को भूलने से कभी उसको बदला नहीं जा सकता।
अगर हिंसा बदलनी है तो अहिंसा की बातचीत बंद कर दें। हिंसा को देखें। वह जो अभी है, उसे देखें, उसे पहचानें, उसे खोजेंवह क्या है। और जितना उसे जानेंगे, जितना पहचानेंगे, जितना उसको देखने में समर्थ हो जाएंगे, वह हिंसा का तथ्य उतना ही बदलना शुरू हो जाएगा--अभी और यहीं, कल नहीं।
अगर भीतर घृणा है, तो उसे देखें और पहचाने। और अगर भीतर चोर बैठा है, तो उसे देखें और पहचानें। यह मत कहें कि कल--कल मैं चोरी छोड़ दूंगा। अगर चोरी गलत हो गई है तो कल की बात क्यों करते हैं?
अभी सांप रास्ता काटता है तो आप ऐसा नहीं कहते कि कल मैं बच जाऊंगा। अभी छलांग लगाते हैं इसी वक्त, क्योंकि सांप सामने खड़ा है फन फैलाए हुए। तो आप यह नहीं कहते कि ठीक है, कोई बात नहीं, अभी खड़े रहो सांप, कल हम बच जाएंगे, कल हम छलांग लगाएंगे। सांप सामने खड़ा होता है तो आप अभी, इसी वक्त छलांग लगाते हैं। क्यों? क्योंकि सांप दिखाई पड़ता है। सांप पूरी तरह दिखाई पड़ता है। सांप के साथ मौत दिखाई पड़ती है। सांप का जहर दिखाई पड़ता है। एक छलांग में आप बाहर हो जाते हैं।
हिंसा सामने खड़ी है और आप कहते हैं, कल हम अहिंसक हो जाएंगे! तो फिर आपको हिंसा का जहर दिखाई नहीं पड़ता, हिंसा की मौत दिखाई नहीं पड़ती, हिंसा का पागलपन दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए आप कहते हैं, कल। अभी क्या जल्दी है, कल!
अभी घर में आग लगी हो, तब आप यह नहीं कहते कि कल बाहर निकल जाएंगे। तब आप कहते हैं, अभी इसी क्षण मुझे बाहर निकलना है। आप यह कहते भी नहीं कि इसी क्षण बाहर निकलना है; आप निकलना शुरू हो जाते हैं, आप निकल ही जाते हैं।
जिंदगी के तथ्य भी आग लगे होने से या सांप के तथ्यों से ज्यादा खतरनाक हैं। लेकिन कल की तरकीब से आप झुठला जाते हैं और उनको नहीं बदल पाते हैं।
जीवन की बदलाहट, जीवन की क्रांति, जीवन का रूपांतरण इस क्षण होगा, अभी होगा। कल कभी नहीं होगा।
लेकिन हमने एक आइडिया, एक विचार, एक प्रत्यय बनाया हुआ है कि कल--कल हम अहिंसक हो जाएंगे। और हम कल्पना कर लेते हैं कि कल हम अहिंसक हो गए। और आज की हिंसा भूल जाती है जो कि सत्य है और कल की अहिंसा जो कि बिलकुल झूठ है, वह हमें सच मालूम होने लगती है। फिर हम अहिंसक होने की कोशिश में भी लग जाते हैं। हिंसा तो मौजूद रहती है और अहिंसक होने की कोशिश में लग जाते हैं। घृणा मौजूद रहती है, प्रेम करने की कोशिश में लग जाते हैं।
एक फकीर के पास किसी आदमी ने जाकर कहा। वह फकीर कभी-कभी उस आदमी के द्वार पर भीख मांगने आता था। कई बार उसे भीख दी थी। एक दिन उसके झोपड़े पर जाकर कहा कि आज मैं भी भीख मांगने आया हूं। मेरे भीतर बहुत घृणा है। मेरे भीतर बहुत हिंसा है, बहुत क्रोध है। मेरे भीतर बहुत ईर्ष्या है, बहुत जलन है। मैं कैसे इससे छुटकारा पाऊं? मुझे कुछ रास्ता बता दें।
उस फकीर ने कहा: कल जब मैं भोजन मांगने आऊंगा तेरे द्वार पर, तभी रास्ता भी बता देंगे।
वह फकीर दूसरे दिन फिर भोजन मांगने आया। भिक्षा का पात्र उसने उस घर के सामने फैला दिया। वह आदमी आज बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाया था। आज उस फकीर को भिक्षा और ही ढंग से देनी थी। आज उससे कुछ लेना भी था। उसने बहुत मिठाइयां बनाई थीं। वह बहुत फल लाया था। वह सारे फल और मिठाइयां लेकर भिक्षा के पात्र में डालने आया तो देख कर हैरान हो गया कि भिक्षा के पात्र में तो कंकड़, पत्थर, गोबर पड़ा हुआ है! उसने हाथ रोक लिया। उसने कहा: महाशय, भिक्षु जी, इस पात्र में मैं कैसे ये मिठाइयां डालूं?
फकीर ने कहा: डाल दो, क्या हर्ज है?
उसने कहा: सब खराब हो जाएंगी। यह पात्र तो गंदा है।
तो उसने कहा: क्या करूं? उस संन्यासी ने कहा।
उस गृहस्थ ने कहा: पहले पात्र को धो लें।
संन्यासी ने पात्र धो लिया। फिर मिठाइयां दे दीं। और भिक्षु वापस लौटने लगा तो उसने कहा: और आपने मुझे कहा था कि कुछ मुझे भी कहेंगे।
उस संन्यासी ने कहा: मैंने कह दिया है। इस पात्र में गंदगी पड़ी है, तो तुम मिठाइयां डालने को तैयार नहीं हो! और भीतर हिंसा पड़ी है, तो अहिंसा कैसे डाली जा सकती है! और भीतर क्रोध है, तो क्षमा कैसे डाली जा सकती है! और तुम्हें यह दिखता है कि थोड़े से कंकड़, पत्थर, यह गोबर, सब मिठाइयों को खराब कर देंगे। लेकिन तुम्हें यह नहीं दिखता कि भीतर तुम्हारे सब पड़ा है और तुम उसी में भगवान तक को डालने की कोशिश कर रहे हो!
लोग आते हैं, वे पूछते हैं, भगवान को कैसे पाएं? वे यह कहते नहीं कि अपने पात्र को कैसे साफ करें! वे कहते हैं, भगवान को कैसे पाएं? वे कहते हैं, प्रार्थना कैसे करें? वे यह नहीं कहते कि यह घृणा और यह क्रोध...!
जीवन के तथ्यों को हम देखते नहीं, जो अभी हैं। और उन सत्यों को चाहना चाहते हैं, जो कभी होंगे। वे कभी भी नहीं होंगे। और मन एक खिंचाव में पड़ जाएगा। क्रोध भीतर होगा और प्रार्थना की चेष्टा चलेगी। यह कितना असंभव तनाव है। क्रोध करने वाला चित्त कैसे प्रार्थना कर सकता है? वह प्रार्थना में भी क्रोध से भरा रहेगा।
घरों में देखें, लोग जो प्रार्थना करते हैं उनको, वे प्रार्थना भी कर रहे हैं और चारों तरफ देख रहे हैं कि कब क्रोध का अवसर मिल जाए। वे पूजा भी कर रहे हैं और क्रोध की प्रतीक्षा भी कर रहे हैं कि कब क्रोध करें। पूजा और प्रार्थना करने वाले लोग अक्सर क्रोधी हो जाते हैं। और उसका कारण है, अकारण नहीं है। भीतर तो क्रोध है, ऊपर से प्रार्थना की कोशिश चल रही है। भीतर जो है, वही सच है।
ऊपर जो चल रहा है, वह सच नहीं है। वह झूठा है। लेकिन भविष्य की आशा है कि कभी प्रार्थना पूरी हो जाएगी, कभी क्रोध खत्म हो जाएगा। क्रोध कभी खत्म नहीं होगा। क्रोध को किसी प्रोसेस, किसी प्रक्रिया के द्वारा कभी खत्म नहीं किया जा सकता। क्रोध को, घृणा को, हिंसा को--जो भी हमारे भीतर गलत है, उसको कभी भी हम धीरे-धीरे, धीरे-धीरे कभी दूर नहीं कर सकते।
जिंदगी में जो फर्क होते हैं वे क्रांतियां हैं, वे परिवर्तन नहीं हैं।
अगर आपको अपने भीतर की हिंसा दिखाई पड़ जाए तो इसी क्षण एक जंप, एक छलांग हो जाएगी, जैसे सांप को देख कर हो जाती है। आप हिंसा के बाहर हो जाएंगे।
और यह कल कभी नहीं होगा। यह क्रमिक नहीं है, यह ग्रेजुअल नहीं है। यह ठीक से समझ लें। कि जिंदगी में जो भी होता है वह क्रांति है, रिवोल्यूशन है। वह ग्रेजुअल ग्रोथ नहीं है। वह ऐसा नहीं है कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे हम सब ठीक कर लेंगे। कौन करेगा धीरे-धीरे ठीक? और जितनी देर आप ठीक करेंगे, उतनी देर हिंसा मौजूद रहेगी। वह और मजबूत होती चली जाएगी।
एक आदमी एक बीज बो देता है। बीज प्रतिक्षण बड़ा हो रहा है। वह आदमी कहता है कि धीरे-धीरे हम इस वृक्ष को उखाड़ कर फेंक देंगे। और तब तक पानी भी डाल रहा है, तब तक खाद भी डाल रहा है, क्योंकि वह कहता है कि धीरे-धीरे, बाद में, कभी हम इसे उखाड़ कर फेंक देंगे! तब तक पानी भी डालेगा, खाद भी डालेगा। वह बीज बड़ा हो रहा है, वह अंकुर बड़ा हो रहा है, वह वृक्ष बड़ा हो रहा है। वह वृक्ष मजबूत होता चला जा रहा है। वह आदमी कहता है कि कभी आगे, कल, परसों हम इसे उखाड़ कर फेंक देंगे। और इस बीच वह पानी भी डाल रहा है, खाद भी डाल रहा है और वृक्ष मजबूत होता चला जा रहा है। उसकी जड़ें जमीन को पकड़ती चली जा रही हैं। और वह कहता है, कल, कल, फिर आगे!
और इस देश में तो जहां हमें पुनर्जन्मों की बहुत लंबी बात बताई गई है, वहां हम कहते हैं, अभी भी क्या जल्दी है! अगले जन्म में, उसके आगे!
हिंदुस्तान के पास भविष्य की सबसे बड़ी योजना है। जितनी दुनिया के किसी मुल्क के पास नहीं है। हमारे लिए समय की कमी ही नहीं है। हम कहते हैं, अनंत-अनंत जन्म हैं, अनंत-अनंत आगे भी जन्म हैं। गलत नहीं कहते हैं हम, जिन्होंने कहा है, उन्होंने जान कर कहा है। लेकिन जिन्होंने सुन लिया है, उनके लिए घातक हुआ है। उनके लिए हितकर सिद्ध नहीं हुआ है। उनके लिए नुकसान पहुंचा है। क्योंकि उन्होंने कहा कि ठीक है, फिर क्या जल्दी है। फिर आज करने की जल्दी क्या है। अगर यह जन्म भी खो गया तो हर्ज क्या है। आगे और जन्म हैं।
हिंदुस्तान के पास भविष्य का सबसे लंबा विस्तार है। और इसलिए हिंदुस्तान का वर्तमान सबसे ज्यादा निकृष्ट और नीचा हो गया है। भविष्य का इतना बड़ा विस्तार है कि उसकी वजह से वर्तमान को बदलने की कोई जरूरत नहीं रह गई है।
और ध्यान रहे, जो भी होना है, वह अभी होना है, यहां होना है, इसी क्षण होना है, क्योंकि जिंदगी एक छलांग है।
जब हमें कोई चीज दिखाई पड़ती है, हम एकदम बदल जाते हैं। फिर ऐसा नहीं होता, फिर ऐसा नहीं होता कि हम धीरे-धीरे बदलेंगे।
धीरे-धीरे बदलने की बात हमारे मोह को प्रकट करती है कि हम बदलना नहीं चाहते हैं। इसलिए हम कहते हैं, धीरे-धीरे बदलेंगे। और बदलना हम क्यों नहीं चाहते हैं? क्योंकि हमने देखा ही नहीं इस तथ्य को कि भीतर क्या है! अगर आपको पता चल जाए कि भीतर कैंसर है, तब आप यह नहीं कहते कि धीरे-धीरे। आप अभी भागते हैं, कहते हैं, इसी वक्त कुछ करना पड़ेगा!
लेकिन कैंसर कुछ भी नहीं है। हिंसा और भी बड़ा कैंसर है, क्रोध और भी बड़ा कैंसर है, घृणा और भी बड़ा कैंसर है। कैंसर सिर्फ शरीर को खाता है। घृणा, हिंसा और क्रोध तो पूरी आत्मा को खा जाते हैं। लेकिन वे हमें दिखाई नहीं पड़ते! हमने उन्हें कभी देखा ही नहीं है। हम उन्हें देखने से बचते हैं। जब भी देखने का मौका आ जाए, हम इधर-उधर देखने लगते हैं, हम किनारे देखने लगते हैं, सीधा नहीं देखते हैं।
और हमने ऐसी तरकीबें निकाली हैं अपने को झुठलाने की, भुलाने की, प्रवंचना की। अगर भीतर क्रोध भी हो, तो हम कहते हैं, यह क्रोध तो दूसरे को सुधारने के लिए है। अगर भीतर हिंसा हो, तो हम कहते हैं, अगर हिंसा नहीं होगी तो लोग समझेंगे कि हम कायर हैं, कमजोर हैं। अगर भीतर ईर्ष्या हो, तो हम कहेंगे, अगर ईर्ष्या नहीं होगी तो प्रतिस्पर्धा कैसे होगी! प्रतिस्पर्धा नहीं होगी तो विकास कैसे होगा! हम अपने भीतर के सब जहर, सब रोगों की सुरक्षा के लिए बहुत आयोजन किए हुए हैं, बहुत दलीलें इकट्ठी कर ली हैं हमने। हम अपने भीतर की सब बुराई की रक्षा करते हैं और फिर कहते हैं कि धीरे-धीरे बदलेंगे! वह धीरे-धीरे बदलना भी न बदलने की तैयारी है।
जो आदमी कहता है कि धीरे-धीरे बदलेंगे, वह नहीं बदलना चाहता है।
उसे शायद पता भी नहीं है कि जो है भीतर वह कितना रुग्ण, कितना बीमार, कितना कुरूप, कितना गंदा है। वह क्या है भीतर जो हमारे सब भरा हुआ है? लेकिन हम शास्त्रों में पढ़ लेते हैं कि भीतर तो परमात्मा का निवास है, भीतर तो आत्मा है। उस भीतर का हमें कोई पता ही नहीं है, जहां आत्मा है और जहां परमात्मा है।
अगर हम भीतर जाएंगे तो मिलेगी घृणा, आत्मा नहीं। अगर हम भीतर जाएंगे तो मिलेगा क्रोध, आत्मा नहीं। अगर भीतर जाएंगे तो मिलेगी ईर्ष्या, मिलेंगे सब तरह के जहर, धुआं, आत्मा नहीं। वह आत्मा किताब में लिखी है कि आत्मा है भीतर। जब ये सब भीतर नहीं होंगे, तब वह मिलेगा, जो आत्मा है, जो परमात्मा है। लेकिन अभी तो ये हैं, अभी ये हैं और इनको हम देखने से बचना चाहते हैं। हम कहते हैं, देखने की क्या जरूरत है, धीरे-धीरे हम बदल लेंगे।
आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम अपने भीतर वह जो सब कुरूप है, उसका साक्षात्कार है। जो कुरूप है भीतर उसका साक्षात्कार आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम है। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जो उसे देख लेता है जो भीतर है, उसी क्षण बदलाहट शुरू हो जाती है। एक क्षण रुकना नहीं पड़ता। एक क्षण रुकना नहीं पड़ता, देखा और बदलाहट शुरू हो जाती है। निरीक्षण की, ऑब्जर्वेशन की, देखने की, अवेयरनेस की इतनी बड़ी क्षमता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है।
क्रांति का एक ही सूत्र है: भीतर जो है, उसके प्रति जाग जाना।
लेकिन हम तो भविष्य के प्रति जागे हुए हैं। जो है, उसके प्रति नहीं जागे हुए हैं। हम चूके हुए हैं उस बिंदु से जहां हम हैं। और भागे हुए हैं वहां जहां हम नहीं हैं। भागते रहते हैं, भागते रहते हैं जहां हम नहीं हैं। और जहां हम हैं, वहां हम आंख भी नहीं डाल कर देखते कि कहां हम हैं, हम क्या हैं!
और अच्छे-अच्छे सिद्धांतों की बातें हैं, वे हमें कंठस्थ हो गई हैं, उनको हम दोहराए चले जाते हैं। और हर चीज के लिए हमने जस्टिफिकेशन, हर चीज को न्याययुक्त ठहराने की व्यवस्था कर ली है। हम कहते हैं हिंसा है, क्योंकि पिछले जन्म में बुरे काम किए थे, इसलिए उनकी हिंसा बाकी रह गई है। वह तो भोगनी पड़ेगी। क्रोध है, क्योंकि पीछे जो किया था, वह क्रोध पैदा कर गया है। जो हमारे भीतर है, उसके लिए हम दलीलें खोजते हैं कि वह क्यों है। दलीलें खोज कर हम निश्र्चिंत हो जाते हैं। व्याख्या, एक्सप्लेनेशन निश्चिंत कर देता है कि ठीक है।
हमें पता चल गया है कि क्यों है। और हम फिर पूछते हैं इसको मिटाएं कैसे? तो हमें विधियां बताने वाले लोग हैं। वे कहते हैं कि अगर क्रोध को मिटाना है तो क्षमाभाव ग्रहण करो। अगर सेक्स को मिटाना है ब्रह्मचर्य का व्रत लो। अगर हिंसा मिटानी है अहिंसा का पालन करो। इससे ज्यादा खतरनाक शिक्षा न हो सकती है, न है। यह सबसे ज्यादा खतरनाक बात है जिसने मनुष्य को पतित किया है। क्योंकि वे हिंसक को समझाते हैं कि तुम अहिंसा का भाव ग्रहण करो।
अब हिंसक अहिंसा का भाव कैसे ग्रहण कर सकता है? यह इंपॉसिबिलिटी है, यह असंभावना है। हिंसक कैसे अहिंसा का भाव ग्रहण कर सकता है, यह कभी आपने सोचा? क्रोधी कैसे क्षमा की धारणा कर सकता है, यह कभी आपने सोचा? और कामी कैसे ब्रह्मचर्य का व्रत ले सकता है, यह कभी आपने सोचा? हालांकि कामी ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं, और हिंसक अहिंसा का व्रत ग्रहण करते हैं, और लोभी अलोभ की बात करते हैं, आसक्त अनासक्ति के नियम लेते हैं। और हम कभी सोचते नहीं कि यह क्या हो रहा है?
इससे सिर्फ तनाव पैदा होता है। वे जो हैं उसमें और जो होना चाहते हैं उसमें तनाव पैदा होता है। वह तनाव मस्तिष्क की सारी शक्तियों को, प्राणों की सारी ऊर्जा को नष्ट करता है, और कुछ भी नहीं करता।
हर आदमी तना हुआ है, क्योंकि हर आदमी जो है, उसे देखने को राजी नहीं है। और जो नहीं है, वह होने की कोशिश कर रहा है। हर आदमी तना हुआ है, क्योंकि वह जो है, उसे देखता नहीं। और जो नहीं है, उसे होने की चेष्टा में संलग्न है। कितना तनाव पैदा नहीं हो जाएगा? इसी तनाव में मनुष्य की सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। फिर मनुष्य शक्ति का एक अंबार नहीं रह जाता, फिर उसके पास कुछ भी शक्ति नहीं होती।
और एक दुष्परिणाम और घटित होता है कि जब बार-बार सोचता है कि यह हो जाऊं, यह हो जाऊं और बार-बार पाता है कि नहीं हो पाता, तब आत्मविश्र्वास क्षीण होता चला जाता है।
मैं कलकत्ता था। एक बहुत अदभुत वृद्ध आदमी ने--जो चल बसे, उनसे मैं यह बात कर रहा था। उन्होंने खड़े होकर सभा में यह कहा कि मैंने अपनी जिंदगी में चार बार ब्रह्मचर्य का व्रत लिया। सुनने वालों ने सोचा कि बहुत गजब का काम किया, चार बार जीवन में व्रत लिया!
लेकिन वह बूढ़ा हंसने लगा और उस बूढ़े ने कहा कि समझ लो चार बार लेना पड़ा, उसका मतलब क्या होता है? और पांचवीं बार नहीं लिया तो यह मत समझना कि व्रत पूरा हो गया। पांचवीं बार नहीं लिया, क्योंकि समझ में आ गया कि व्रत पूरा नहीं हो सकता है। और चार बार व्रत के असफल होने से जो आत्मग्लानि पैदा हुई वह अलग, जो आत्महीनता पैदा हुई वह अलग, जो अपने पर विश्र्वास खो गया कि मैं कुछ कर सकता हूं वह अलग।
दुनिया में नियम और व्रत देने वाले लोगों ने मनुष्य की आत्मा को हीन ग्लानि से भर दिया है। एक-एक आदमी की आत्मा ग्लानि से भर गई है। उसे लगता है कि मुझसे कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि कितनी बार व्रत लिया और कुछ भी नहीं होता है। हर बार हार जाता हूं तो हारने की धारणा मजबूत हो जाती है। हिंसा नहीं छूटती, सेक्स नहीं छूटता। लेकिन सेक्स नहीं छूट सकता है, यह व्रत लेने वाले को बार-बार व्रत लेने से स्पष्ट हो जाता है।
और तब वह सोचता है कि अगर महावीर का छूट गया होगा तो वे तीर्थंकर थे। अगर कृष्ण का छूट गया होगा तो वे भगवान के अवतार थे। हम साधारण आदमी हैं, यह हमारे वश की बात नहीं है। फिर वह सोचता है कि पिछले जन्मों के दुष्कर्म होंगे, उनके कारण नहीं छूटता। फिर वह सोचता है कि भविष्य में कोशिश करते रहेंगे, करते रहेंगे, तो जन्मों-जन्मों में छूटने वाली चीज है, धीरे-धीरे छूट जाएगी। और इस तरह आदमी जैसा है, वैसा ही रह जाता है, उसके जीवन में कोई क्रांति नहीं हो पाती।
नहीं, सब छूट सकता है--इसी क्षण। लेकिन कल कभी नहीं छूट सकता है। फिर क्या करें?
तो पहली तो बात है कल के छोड़ने की धारणा से छुटकारा चाहिए। यह खयाल ही भूल जाएं कि कल कुछ हो सकता है, क्योंकि आप अभी हैं--समय अभी है, घृणा अभी है। कल की बात क्यों करते हैं? और कल भी आप ही होंगे--यही घृणा होगी, यही समय होगा। फिर कल क्या करेंगे? कल कुछ नया हो जाने वाला है?
आज से आप कल और कमजोर होंगे। और आज से कल घृणा और मजबूत होगी। क्योंकि एक दिन घृणा ने और यात्रा कर ली होगी, और एक दिन घृणा ने आपको और कमजोर कर दिया होगा। कल आप कमजोर होंगे। आपका क्रोध कल और भी मजबूत होगा, क्योंकि कल तक क्रोध ने और यात्रा कर ली होगी, और जड़ें फैला दी होंगी। कल तक क्रोध कई बार हो चुका होगा। फिर कल आप कहेंगे कि फिर आगे, कल करूंगा!
और यह यात्रा जारी रहेगी। मरते वक्त आप क्रोधी मरेंगे, कामी मरेंगे, हिंसक मरेंगे। फिर आप सोचेंगे, अगले जन्म में होगा! अगले जन्म में आप और कमजोर हो जाएंगे। भविष्य आपको मजबूत नहीं कर देगा। भविष्य आपको कमजोर करता चला जाएगा, क्योंकि जिन चीजों से आप कमजोर हो रहे हैं, उनकी यात्रा जारी रहेगी।
अगर टूटना है कुछ तो आज टूटेगा, कल नहीं। अगर बदलना है कुछ तो अभी, कल नहीं।
लेकिन बदलने की चेष्टा से भी कुछ नहीं बदला जाता है, क्योंकि बदलने की चेष्टा आप करते हैं। आप, जो कि हिंसक हैं, क्रोधी हैं--कैसे अहिंसक हो जाएंगे? फिर क्या किया जा सकता है? न कल बदला जा सकता है--और मैं कह रहा हूं कि न बदला जा सकता है। फिर क्या किया जा सकता है?
जागा जा सकता है। जो स्थिति है अभी, यहीं, उसके प्रति पूरी तरह जागा जा सकता है।
क्या है मेरे भीतर? एक-एक पल, रोआं-रोआं अहंकार से भरा हुआ है। उठना, बैठना अहंकार से भरा हुआ है। आंख के इशारों में घृणा है, हिंसा है; हाथ के उठने में हिंसा है, घृणा है। चलते हैं तो हिंसा है, घृणा है। जिंदगी की पूरी-पूरी व्यवस्था में वह सब छिपा है, जो कभी-कभी प्रकट होता है। हम सोचते हैं कि कभी-कभी मुझे क्रोध आता है! ऐसी भूल में मत पड़ना। क्रोध सदा रहता है, कभी-कभी प्रकट होता है। जो नहीं है, वह प्रकट कैसे हो जाएगा?
एक बिजली के तार में बिजली दौड़ रही है। बटन दबाते हैं तो बल्ब जल जाता है, बटन नहीं दबाते तो बल्ब बुझा रहता है। लेकिन बिजली दौड़ रही है। बटन दबेगा तभी तो बल्ब जलेगा--बजली अगर दौड़ती होगी। अगर नहीं दौड़ती होगी तो बल्ब क्या जलेगा--बटन कोई कितना ही दबाए?
अगर मुझे कोई आकर गाली दे दे और भीतर क्रोध की करंट दौड़ न रही हो तो क्रोध निकलेगा कहां से? वह देता रहे गाली, बटन दबाता रहे, लेकिन भीतर अगर करंट दौड़ रही है तो बल्ब जल जाएगा। लेकिन हम सोचेंगे कि कभी-कभी क्रोध होता है! कभी-कभी क्रोध नहीं होता है। क्रोध प्रतिपल है, पूरे वक्त है। घृणा कभी-कभी नहीं होती, वह मौजूद है। वह बिलकुल मौजूद है पूरे वक्त। हिंसा पूरे क्षण मौजूद है।
हम हिंसा ही हैं, क्रोध ही हैं, घृणा ही हैं--और इसको जानना पड़ेगा, इसको पहचानना पड़ेगा, इसको भीतर खोजना पड़ेगा, इसके पूरे के पूरे दर्शन करने पड़ेंगे। और यह अभी, यह दर्शन तो अभी करने पड़ेंगे; क्योंकि हम भी मौजूद हैं, वह सब भी मौजूद है जिसका दर्शन करना है। तो कल का क्या सवाल है? खोलें अपने भीतर और अपने को पूरी तरह देखें कि यह मैं हूं।
और जैसे ही यह दिखाई पड़ जाए कि यह मैं हूं--आप हैरान हो जाएंगे कि बदलाहट शुरू हो गई। वह आपको करनी नहीं पड़ी। वह बदलाहट वैसे ही हो जाती है, जैसे सांप रास्ते पर खड़ा है और आप छलांग लगा जाते हैं। एक क्षण भी नहीं लगता छलांग लगाने में! सोचना भी नहीं पड़ता! अपने भीतर भी नहीं सोचना पड़ता कि मैं बचूं। छलांग हो जाती है।
तथ्य दिखता है सांप का और छलांग लग जाती है। अगर घृणा का पूरा तथ्य दिखाई पड़ जाए, आप उसी क्षण घृणा के बाहर हो जाएंगे--उसी क्षण। न कोई पिछले जन्म रोकेंगे, न पिछले कर्म रोकेंगे। कोई रोकने वाला नहीं है। लेकिन दर्शन हो जाए तथ्य का--नग्न तथ्य का। वह जो नेकेड फैक्ट है हमारे भीतर जिंदगी का, वह दिख जाए, छलांग हो जाती है।
इसलिए पहली बात मैंने कही: अतीत का बोझ छोड़ दें और भविष्य की मानसिक योजना कि मैं यह हो जाऊंगा, मैं यह हो जाऊंगा। नहीं, जो हम हैं, उसे जानना है; जो मैं हूं, उसे जानना है। बहुत कष्टपूर्ण है, नहीं तो, नहीं तो हम भविष्य की योजना ही न करते। बहुत कष्टपूर्ण है, जो मैं हूं, उसे जानना, क्योंकि वह बहुत कुरूप है। वह बहुत कुरूप है, जो मैं हूं।
मैंने सुना है, एक स्त्री थी वह कभी दर्पण के सामने नहीं आती थी। और अगर कोई उसके सामने दर्पण ले आए तो वह दर्पण तोड़ डालती थी, क्योंकि वह कहती थी कि दर्पण बड़े गंदे हैं। इन दर्पणों के कारण मैं कुरूप दिखाई पड़ने लगती हूं। वह कुरूप थी! लेकिन जब तक दर्पण सामने नहीं आता था, तब तक तो कुरूप नहीं थी; तब तक तो वह सुंदर थी, क्योंकि तब तक कल्पना की बात थी। दर्पण सामने उसे बताता था वह क्या है। और दर्पण सामने नहीं होता था तो वह सुंदर थी, क्योंकि अपनी कल्पना में थी। फिर कोई देखने का तो सवाल न था। तो वह दर्पण देखती ही नहीं थी, वह दर्पण तोड़ डालती थी और वह मानती यह थी कि दर्पण के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं! क्योंकि जब तक दर्पण नहीं होता, मैं सुंदर होती हूं! वह औरत पागल रही होगी।
लेकिन हम सब भी वैसे ही पागल हैं। हम सब भी उसे देखने से बचते हैं, जो हम हैं। और उसे देखने से बचने के लिए हमने भी कल्पना में एक इमेज बना रखी है। हर आदमी ने अपनी एक प्रतिमा बना रखी है कि मैं यह हूं। वह प्रतिमा बिलकुल झूठी है। वह प्रतिमा वही नहीं है, जो हम हैं। बल्कि जो हम हैं, उसे छिपाने के लिए हमने प्रतिमा बना रखी है कि हम यह हैं।
हर आदमी अपने को कुछ और समझता है, जो वह है। और आप इस पर सोचेंगे तो यह बहुत साफ दिखाई पड़ जाएगा कि जो मैं हूं, वह मैं कभी नहीं हूं। कभी स्वीकार भी नहीं करता कि मैं यह हूं! बल्कि लड़ता हूं, अगर कोई स्वीकार कराने के लिए मजबूर करे तो झगड़ा करूंगा, लडूंगा, अपनी प्रतिमा को बचाने की कोशिश करूंगा कि नहीं, मैं यही हूं।
लेकिन ध्यान रहे, ये सारी प्रतिमाएं मेरे व्यक्तित्व को रूपांतरित होने से रोकेंगी। ये क्रांति में नहीं जाने देंगी, ये बदलने नहीं देंगी। एक नये आदमी का भीतर जन्म नहीं हो सकेगा। क्योंकि मैंने अगर एक झूठी प्रतिमा बना रखी है, तो मैं उसी प्रतिमा को मान कर जीता रहूंगा। और जो मैं हूं, वह कुछ और ही हूं, उसका मुझे पता भी नहीं चलेगा। हम भूल ही गए हैं, हमने अपने को इतना भीतर दबाया हुआ है कि हम पहचान भी नहीं पाते कि हम क्या हैं। फिर हम नये-नये वस्त्रों में, नये-नये मुखौटों में, नई-नई ऊपर से ओढ़ कर ओढ़नियां, छिपा लेते हैं उसे, जो हम हैं। लेकिन वही है, इसका दर्शन कठिन है।
मेरी दृष्टि में स्वयं की जो स्थिति है, उसको देखने से बड़ी और कोई तपश्र्चर्या नहीं है। धूप में खड़ा होना बहुत आसान है, भूखा बैठ जाना भी बहुत आसान है। और अगर भूखे रहने की आदत डाल ली जाए, तब तो खाना खाना कहीं ज्यादा कठिन है, भूखा रहना ही फिर ज्यादा आसान है। नग्न खड़े हो जाना भी बहुत आसान है। ये सब थोड़ी सी बातें हैं, जो कोई भी कर सकता है। इसमें तपश्र्चर्या का कोई भी संबंध नहीं है। असली तपश्र्चर्या--मैं जैसा हूं, उसे जानने से शुरू होती है, क्योंकि असली कष्ट वहीं से शुरू होते हैं, जैसा मैं हूं।
हम सब समझते हैं कि हम सत्य बोलते हैं। और हम सब अगर कोई झूठ बोलता हो तो भारी निंदा करते हैं। और हम हैरान होते हैं कि इतना अच्छा आदमी इतनी छोटी सी बात पर झूठ बोल गया! लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि हमारा सारा व्यक्तित्व झूठ से खड़ा हुआ है। हम चौबीस घंटे झूठ हैं। झूठ न केवल बोल रहे हैं, झूठ जी रहे हैं। और यहां तक हालत पहुंच गई है कि हमें पता भी नहीं चलता कि हम झूठ बोल रहे हैं!
मेरे एक अध्यापक थे। मैंने कई बार ऐसा अनुभव किया कि किसी भी किताब का नाम लिया जाए और वे जरूर कहते थे कि मैंने पढ़ी है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई किताब ऐसी हो, जो उन्होंने न पढ़ी हो। फिर मुझे शक हुआ। मैं एक दिन गया और मैंने एक ऐसी किताब का नाम लिया, जो है ही नहीं। और वे बोले, मैंने पढ़ी है! लेकिन कोई पंद्रह-बीस साल पहले पढ़ी है। अब मुझे उसका खयाल नहीं है, लेकिन किताब मैंने पढ़ी है! कौन सी बात थी... अब उनको झूठ बोलने से कोई फायदा भी न था। लेकिन श
ायद उन्हें पता भी नहीं है, शायद उन्हें खयाल भी नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं! आदत का हिस्सा हो गया है। आदत का हिस्सा हो गया है! सहज बोल रहे हैं। बड़ी सहजता से बोल रहे हैं। उन्हें कहीं खयाल भी नहीं है कि यह जो मैं बोल रहा हूं--क्या प्रयोजन है?
एक आदमी झूठ बोलता हो, कुछ लाभ होता हो तो भी समझ में आता है। हम ऐसे झूठ भी चौबीस घंटे बोल रहे हैं, जिनसे कोई लाभ भी नहीं है। लेकिन नहीं; हमारा व्यक्तित्व ही, जिसको कहें झूठ हो गया है, वह झूठ बोल रहा है, वह बोलता चला जा रहा है। यह जो ऐसा जो झूठ है, इसे पहचानेंगे तो मन को बड़ी पीड़ा होगी। वह जो हमने अपनी सत्य बोलने वाले की एक प्रतिमा बना रखी है, एकदम खंड-खंड होकर नीचे गिर जाएगी। गिर जानी चाहिए।
वह जिसको भी आत्यंतिक सत्य की खोज है और जिसको भी जान लेना है कि क्या है गहरे से गहरा जीवन का सत्य, जिसको भी पहचान लेना है उसे जिसे परमात्मा कहें, जिसे भी मुक्त हो जाना है--उसे सबसे पहले अपनी झूठी प्रतिमा को तोड़ना पड़ता है। अपने ही हाथों से अपनी ही मूर्ति का भंजन करना होता है।
कितनी हिंसा है! खयाल ही नहीं रहा है कि कितनी हिंसा है! हम सोचते हैं कि शायद हिंसा का मतलब यह है कि किसी आदमी की छाती में छुरा मार दो तो हिंसा हो गई। शब्द छुरे मार सकते हैं, आंख का इशारा छुरा मार सकता है।
जब आप अपने नौकर को देखते हैं, तब आपने खयाल किया, वह आंख वही नहीं होती है, जब आप अपने मित्र को देखते हैं तब होती है। मित्र को जब आप देखते हैं तो आंख वही नहीं होती है, जब आप नौकर को देखते हैं तो आंख दूसरी होती है। नौकर को देखते वक्त आंख में हिंसा होती है। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म हिंसा है, वह हमें खयाल में भी नहीं आती।
हम सोचते हैं, पानी छान कर पी लेते हैं, हम अहिंसक हो गए! हम सोचते हैं कि हम रात खाना नहीं खाते, अहिंसक हो गए! हम सोचते हैं, हम मांसाहार नहीं करते, हम अहिंसक हो गए! हम मछली नहीं खाते, हम अहिंसक हो गए! ठीक है। हिंसा इतनी ही होती तो ठीक था। हिंसा बहुत गहरी है, हिंसा बहुत-बहुत रोएं-रोएं में समा गई है। आदमी चलता है तो पता चल सकता है कि आदमी हिंसक है कि नहीं। उसकी चाल में हिंसा हो सकती है, उसके उठने-बैठने में हिंसा हो सकती है, उसके माथे की बलों में हिंसा हो सकती है और उसे पता भी नहीं होगा! वह सब उसमें जीते-जीते इतना पक गया है कि उसे पता भी नहीं चलेगा कि वह किस तरह की हिंसाएं कर रहा है! वह हंस सकता है और हंसने में हिंसा हो सकती है। वह किसी का व्यंग्य कर सकता है और व्यंग्य में हिंसा हो सकती है। वह मजाक कर सकता है और मजाक में हिंसा हो सकती है।
वायलेंट माइंड का सवाल है। अगर भीतर हिंसक चित्त है, तो हम जो भी करेंगे, उसमें हिंसा होगी।
यह भी हो सकता है, वह आदमी सारी दुनिया से छूट कर भाग जाए, वह जंगल में अकेला बैठ जाए, तो भी हिंसा जारी रहेगी। हिंसा हमारे व्यक्तित्व के भीतरी रसों का सवाल है। वह हमारे भीतरी केमिस्ट्री का सवाल है। और उसको पहचानना पड़ेगा। कि हम उठते-बैठते, बात करते, चीत करते, चलते, सोते हिंसक तो नहीं हैं?
महावीर एक ही करवट सोते थे। महावीर ने सोते में करवट नहीं बदली। बुद्ध एक करवट सोते थे। आनंद उनका भिक्षु वर्षों तक उनके साथ सोया। वह बहुत हैरान हुआ कि वे रात में करवट क्यों नहीं बदलते! एक दिन आनंद ने बुद्ध को पूछा कि बड़े आश्र्चर्य की बात हैआप रात भर करवट नहीं बदलते? मैं कल पूरी रात जाग कर देखता रहा कि आप करवट बदलते हैं कि नहीं, पर आपने जहां हाथ रखा, रखा; जहां पैर रखा, रखा! फिर आप रात भर वैसे ही सोए रहे!
बुद्ध ने कहा: अकारण करवट बदलने में हिंसा हो सकती है। कोई कीड़ा-मकोड़ा आ गया हो, पीछे विश्राम करता हो, सो गया हो, रात के अंधेरे में करवट बदलूं, अकारण--क्या जरूरत है? जीवन में एक बार करवट बदली थी और तब खयाल आया कि बिना करवट बदले भी सोना हो सकता है तो क्यों बदलूं!
तो आनंद ने पूछा: क्या होश से सोते हैं पूरी रात, होश रखते हैं? क्योंकि हमसे तो करवट बदल जाती है, हम बदलते थोड़े ही हैं।
बुद्ध ने कहा: नहीं, होश से नहीं, मन जितना शांत हो गया है, उतनी करवट बदलनी कम हो गई है।
आप हैरान होंगे, मन जितना अशांत होगा, रात उतनी करवट ज्यादा बदली जाएगी। वह जो करवट बदलना है, वह वायलेंट माइंड का हिस्सा है। एक अशांत आदमी बैठेगा तो बैठे टांग हिलाता रहेगा। कोई पूछे कि ये टांगें किसलिए हिल रही हैं? यह क्या हो गया है टांगों को? कुर्सी पर बैठे हैं, लेकिन टांगें क्यों हिलती हैं? भीतर वायलेंस है, वह वायलेंस कंपा रही है, वह टांगों को हिला रही है।
अब यह टांगों के हिलने में वायलेंस हो सकती है, हिंसा हो सकती है। तो किसी की छाती में छुरा मार कर ही पता नहीं चलता। वह तो हमारे पूरे व्यक्तित्व की अंतर-धारा पहचाननी पड़ेगी कि ये पैर क्यों हिल रहे हैं अकारण? ये पैर क्यों हिलते हैं?
जैसे-जैसे आदमी शांत होगा, उसका शरीर भी शांत होता चला जाएगा, उसके कंपन कम हो जाएंगे, क्योंकि कंपन भीतर की हिंसा से पैदा होते हैं।
यह व्यक्तित्व की एक-एक पर्त को उघाड़ कर देखना होगा। जैसा व्यक्तित्व है, उसे पहचानना होगा।
रास्ते पर आप जा रहे हैं, दो आदमी लड़ रहे हैं, आप खड़े होकर देख रहे हैं। आपने कभी भी नहीं सोचा होगा कि यह हिंसा है। दो आदमी लड़ रहे हैं, आप खड़े होकर क्यों देख रहे हैं? आपको खड़े होकर देखने में रस आ रहा है कि नहीं? और अगर झगड़ा ऐसे ही खत्म हो जाए, बिना मार-पीट हुए, तो आप थोड़े से दुखी लौटेंगे कि नहीं? कि व्यर्थ ही खड़े रहे, कुछ निकला नहीं! थोड़ा सा मन उदास होकर लौटेगा। और अगर तेजी से झगड़ा हो जाए, छुरेबाजी हो जाए और लहू बह जाए तो आप थोड़े से हलके होकर लौटेंगे। मन थोड़ा निश्र्चिंत हो गया होगा। ऐसा लगेगा कि कुछ हुआ, कुछ देखा।
आखिर ये फिल्में, डिटेक्टिव फिल्में, और खूनी और हत्याओं की कहानियां क्यों पढ़ी जाती हैं? ये हिंसक चित्त के कारण। जितना दुनिया में हिंसक चित्त बढ़ता चला जाएगा, उतना हिंसक चित्र, हिंसक कथाएं रस देती हैं। क्यों? क्योंकि हिंसक कथा को देखते-देखते आप भूल जाते हैं कि आप कथा के हिस्से नहीं हैं--आप कथा के हिस्से हो जाते हैं! अगर आप एक जासूसी फिल्म देख रहे हैं तो आप भूल जाते हैं, किसी के साथ आइडेंटिटी हो जाती है आपकी! नायक के साथ आप एक हो जाते हैं। आप देखेंगे कि जब नायक घोड़े पर भागा जा रहा है तेजी से तो आप भी कुर्सी पर अकड़ कर बैठ गए हैं। झुके हुए नहीं रह गए हैं। आप क्यों अकड़ कर बैठ गए हैं? यह आपकी रीढ़ को क्या हो गया? यह आकस्मिक नहीं है, यह भीतर की हिंसा है। आप भी किसी घोड़े पर इसी तरह बैठ कर, इसी गति से यात्रा करना चाहते हैं। किसी की छाती में इसी तरह भाला भोंकना चाहते हैं, वह भोंक नहीं सके हैं आप, कहानी में देख कर रस ले रहे हैं, तृप्ति कर रहे हैं।
वहां स्पेन में भैंसों के साथ आदमियों को लड़ाया जाता है। लाखों लोग देखने इकट्ठे होते हैं। भारी धूप है, आग बरस रही है और घंटों वे बैठे हुए हैं कि भैंसे से एक आदमी लड़ रहा है। और भैंसे के सींग उसकी छाती में घुस गए हैं और लाखों लोग उत्सुकता और आतुरता से उसके गिरते हुए खून को देख रहे हैं! इनको क्या हो गया है? इन आदमियों को क्या हो गया है? कुश्ती देखने हजारों-लाखों लोग इकट्ठे होते हैं, किसलिए? भीतर की हिंसा को रस मिलता है।
यह रस पहचानना पड़ेगा, तो हमें अपनी प्रतिमा का पता चलेगा कि प्रतिमा कैसी है? यह हम कैसे आदमी हैं? यह हमारे भीतर क्या हो रहा है?
जो अखबार जितनी हत्याओं की, आत्महत्याओं की, स्त्रियों को भगाने की खबरें छापता हो, वह उतना ही ज्यादा बिकता है। कौन पढ़ता है इसे? जो लोग पढ़ते हैं, उनके भीतर की किसी हिंसा को, किसी बात को रस-उपलब्धि होती है। वे इसको पढ़ कर सुखी होते हैं, कहीं उन्हें कुछ आनंद आता है। यह आनंद हिंसा है। और इसे पहचानना पड़ेगा। और ये तथ्य हैं। और किसी भविष्य में आप अहिंसक नहीं हो जाने वाले हैं। इन तथ्यों को आज और यहीं देखना पड़ेगा।
गांधी जी के आश्रम में एक दिन सुबह रामायण की कथा पढ़ी जाती थी। और एक प्रसंग आया--एक बहुत अदभुत प्रसंग है--प्रसंग आया कि सीता को रावण चुरा कर ले गया है, तो सीता अपने हाथ के, पैर के, अपने गले के जो आभूषण थे, वे फेंकती गई, ताकि पीछे राम खोजने आएं तो उन्हें रास्ते का पता हो सके कि सीता किस रास्ते से ले जाई गई है। फिर राम आए और उन्हें वे आभूषण मिल गए।
लेकिन राम तो आभूषण नहीं पहचान सके। तो उन्होंने लक्ष्मण को कहा कि ये आभूषण तुझे पहचान में आते हों, ये सीता के ही हैं? क्योंकि मैं तो कभी देख ही नहीं पाया, मैंने तो खयाल ही नहीं किया।
तो लक्ष्मण ने कहा: मैं सिर्फ पैर के आभूषण पहचान सकता हूं, क्योंकि मैंने पैर के ऊपर कभी आंख उठा कर नहीं देखा।
तो गांधी जी ने कहा: यह बड़ी हैरानी की बात है कि लक्ष्मण इतने दिन साथ था। तीनों थे अकेले--राम थे, सीता थी, लक्ष्मण थे। तीनों ही वर्षों जंगल में साथ हैं। और लक्ष्मण ने कभी आंख उठा कर नहीं देखा! यह बड़ी हैरानी की बात है! इसका क्या मतलब?
तो विनोबा ने कहा: इसका मतलब है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी था और वह ऊपर आंख उठा कर उसने नहीं देखा। उसने सिर्फ पैर ही देखे।
और गांधी जी तृप्त हुए और उन्होंने कहा कि विनोबा की व्याख्या अदभुत है और बिलकुल सही है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं: यह विनोबा की व्याख्या एकदम गलत है। और अगर यह व्याख्या सही है तो लक्ष्मण एकदम ही व्यभिचारी चित्त का आदमी था, अगर यह व्याख्या सही है। क्योंकि लक्ष्मण सीता को भी देखने में डरे, यह ब्रह्मचर्य का सबूत नहीं हो सकता। सीता को भी देखने में डरे, यह ब्रह्मचर्य का सबूत नहीं हो सकता! यह व्यभिचारी चित्त का सबूत तो हो सकता है। लक्ष्मण ब्रह्मचर्य की स्थिति में हो तो सीता को देखने न-देखने में क्या फर्क पड़ता है? और ऐसे नजर नीचे ही नीचे रखनी पड़े पैर ही पैर पर, वर्षों तक, और नजर ऊपर जाने में डर लगे, तो रोकनी पड़े, और नियम रखना पड़े कि नजर पैर पर ही रखनी है। यह बहुत घबड़ाए हुए चित्त का लक्षण है। विनोबा ने लक्ष्मण की प्रशंसा नहीं की--इससे बड़ी कोई निंदा नहीं हो सकती।
लेकिन गांधी और विनोबा को वह बात जंची। वह जंची उनको इसलिए नहीं कि वह बात सही है, वह जंची इसलिए कि उनके ब्रह्मचर्य की धारणा यही है।
यह ब्रह्मचर्य नहीं है, यह अबह्मचारी चित्त का लक्षण हुआ। यह हमें पहचानना पड़ेगा, यह हमें अपने भीतर खोज करनी पड़ेगी। किसी स्त्री के चेहरे को हम इसलिए भी देख सकते हैं कि भीतर काम है, वासना है। और किसी स्त्री के चेहरे को देखने से हम आंख इसलिए भी बचा सकते हैं कि भीतर काम है और वासना है। अगर भीतर काम और वासना नहीं है तो न चेहरे को देखने की कोई विशेष चेष्टा होती है, न न-देखने की कोई विशेष चेष्टा होती है। देखने की या न देखने की विशेष चेष्टा भीतर के काम का सबूत है। विशेष चेष्टा--भीतर काम का सबूत है।
सहज आप वृक्ष को देख लेते हैं, ऊपर भी देखते हैं, नीचे भी देखते हैं। और अगर वृक्ष सुंदर होता है तो आप कहते हैं, अहा, बहुत सुंदर है! लेकिन कोई नहीं कहता है कि यह आदमी कामी है। फूल है, खिला है, आप देख लेते हैं, अपने रास्ते पर बढ़ जाते हैं और कहते हैं, बहुत सुंदर हैं, लेकिन कोई नहीं कहता कि यह आदमी कामी है। और अगर एक स्त्री का चेहरा बहुत सुंदर है और आप देखते हैं, देखते हैं आगे बढ़ जाते हैं और कहते हैं, बहुत सुंदर हैं, तो लोग कहेंगे कि यह आदमी कामी है!
यह आश्र्चर्यजनक बात है। अगर एक पुरुष का चेहरा सुंदर है और एक स्त्री खड़े होकर देखती है और कहती है, सुंदर है, तो हम कहेंगे, यह स्त्री कामी है! अगर सरलता जीवन में हो तो जैसे फूल सुंदर है, जैसे चांद सुंदर है, वैसे आदमी के चेहरे भी सुंदर होते हैं। स्त्री के चेहरे भी सुंदर होते हैं। आंखें भी सुंदर होती हैं। और जिस दिन दुनिया अच्छी होगी और भली होगी, उस दिन हम किसी अजनबी को रास्ते पर रोक कर कह सकेंगे कि बहुत सुंदर आंखें हैं तुम्हारी, बहुत आनंद हुआ। नमस्कार!
लेकिन आज अगर किसी को ऐसा रोक कर कहें तो झगड़ा भी हो सकता है, क्योंकि चित्त कामुक है! वह चित्त सेक्सुअल है! वह चीजों को सेक्स सिंबल में ही लेता है! अगर किसी स्त्री को रोक कर कह दें कि बहुत सुंदर आंखें हैं, बहुत खुश हुआ, तो झंझट हो जाएगी, क्योंकि स्त्री पूछेगी, तुम मेरे कौन हो--भाई हो, पति हो, मेरे बेटे हो, कौन हो? पहले यह सिद्ध करो। अगर यह कोई भी नहीं हो तो अजनबी राह चलते तुमने मेरी आंखों के सौंदर्य की बात कैसे की है? ब्रह्मचारी को पैर पर नजर रखनी चाहिए। तुमने आंखें देखी ही कैसे?
लेकिन हमें पता नहीं है कि पूरी सभ्यता कामुक है। और हमारे सारे प्रतिमान कामुकता के हैं। और हम पहचान भी नहीं पाते। और जब हम इस तरह की व्याख्याएं कर लेते हैं तो कामुकता को जानना मुश्किल हो जाता है।
नहीं, भीतर एक-एक पर्त उघाड़ कर देखनी पड़ेगी कि मैं जो कर रहा हूं, जो सोच रहा हूं, जो जी रहा हूं, वह क्या है? अपनी नग्नता में वह सीधा और सच क्या है? वह सीधा और सच जो है, अगर देखा जा सके तो उससे तत्क्षण छुटकारा हो सकता है।
धर्म क्रांति है, धर्म विकास नहीं है। लेकिन क्रांति होती है तथ्य के दर्शन से।
इसलिए आज की इस बैठक में मैंने आपसे यह कहा: मत सोचें कि कल आप ऐसे हो जाएंगे। आज क्या हैं, उसे देखें। भविष्य के तनाव को बिलकुल छोड़ दें। वह बिकमिंग का खयाल कि मैं यह हो जाऊंगा, बिलकुल छोड़ दें। जो हैं, उसे जानें।
और आश्र्चर्य की घटना घटती है कि जो हैं, उसे जानते ही जो गलत है वह विसर्जित हो जाता है, जो श्रेष्ठ है वह प्रकट हो जाता है। जो हैं, उसे जानते ही, और भीतर, और भीतर प्रवेश शुरू हो जाता है, क्योंकि निकृष्ट गिरने लगता है, व्यर्थ गिरने लगता है, कुरूप विसर्जित होने लगता है; सुंदर खिलने लगता है, शिव प्रकट होने लगता है, सत्य की निकटता बढ़ने लगती है। और एक दिन वह जो वस्तुतः हम हैं भीतर, वह प्रकट हो जाता है। एक दिन का मेरा मतलब कल से नहीं; एक दिन से मेरा मतलब--अभी, यहीं, इसी क्षण। जितनी तीव्रता होगी तथ्य को जानने की, सत्य के हम उतने ही निकट पहुंच जाते हैं।
लेकिन हमारे मन की जो आदत है, वह कहेगी, आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। हम इसका प्रयोग करेंगे, बस बात खत्म हो गई, वहीं सब व्यर्थ हो गया। आपका मन कह रहा होगा कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, करेंगे। करेंगे नहीं; करना है--अभी, आज, यहीं। सारा जोर मेरा इस क्षण पर है, क्योंकि इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है। जो होगा, वह इस क्षण में ही हो सकता है। नहीं करना हो, तो फिर कल के क्षण की बात सोची जा सकती है। नहीं करना हो तो सोचना चाहिए, कल करेंगे। जो भी न करना हो उसे कल पर टाल देना चाहिए, जो भी करना हो--उसे अभी।
यह अगर हम अतीत के बोझ से और भविष्य की योजना से मुक्त हो जाएं तो जीवन बदल जाता है। ऐसा जीवन, जिस पर अतीत का बोझ नहीं, भविष्य का तनाव नहीं, ऐसे जीवन को मैं भागवत जीवन, डिवाइन लाइफ कहता हूं। ऐसा जीवन भगवान को उपलब्ध हो जाता है।
इन्हें, यह जो मैंने कहा, इन्हें आप इस तरह मत सोचना कि मैं जो कह रहा हूं, वह ठीक है या गलत है; वह किस किताब में लिखा है या नहीं लिखा है। इन्हें आप इस तरह मत सोचना, क्योंकि इस तरह सोचने से कोई भी अर्थ, प्रयोजन नहीं है। इन्हें आप इस तरह सोचना कि जो मैंने कहा है, वह आपके भीतर सही है या गलत।
इस तरह सोचना, इस दिशा में सोचना कि मेरे भीतर यह सही है या गलत। इस तरह मत सोचना, अभी जैसे मैंने गांधी की बात कही, या विनोबा की बात कही। न मुझे विनोबा से कोई मतलब, न गांधी से कोई मतलब। इस तरह मत सोचना कि गांधी ने ऐसा क्यों कहा, कहा कि नहीं कहा; या दूसरी बात कही विनोबा ने, कुछ और मतलब रहा होगा। इससे कोई लेना-देना नहीं है, न विनोबा से कुछ लेना, न गांधी से। सवाल यह है कि जब आप किसी स्त्री के पैर पर ही आंख रखें और ऊपर आंख उठाने की हिम्मत न पड़े तो खोज करना कि बात क्या है? तो खोज करना कि मामला क्या है? मैं डरा हुआ क्यों हूं? यह आंख ऊपर सरलता से क्यों नहीं उठती? उससे संबंध है।
और जब रास्ते पर रुक जाएं आप, और किसी को लड़ते देखें तो उस वक्त देखना कि चित्त कोई प्रसन्नता अनुभव कर रहा है? चित्त चाहता है कि झगड़ा हो जाए? ठीक से हो जाए? अपने पर खोजना, अपने पर देखना। तो जो मैं कह रहा हूं, उसका कोई परिणाम हो सकता है। और वह क्रांति आ सकती है, जिस दिशा के लिए सारी चेष्टा है।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएं। चुपचाप बिना बात किए। धूप से हट आएं। तकलीफ न हो, कहीं छाया में हो जाएं। हूं, बिना बात किए जल्दी से बैठ जाएं।
शरीर को एकदम शांत और शिथिल छोड़ दें। आंख आहिस्ता से बंद कर लें। दस मिनट के लिए बिलकुल मिट जाना है, प्रकृति के साथ एक हो जाना है। इन वृक्षों के, धूप के, हवाओं के साथ एक हो जाना है। और फिर जो भी चारों तरफ होता रहे, उसे चुपचाप जानते रहना है--सिर्फ एक द्रष्टा, एक साक्षी की भांति। कुछ करना नहीं है, भीतर कुछ भी नहीं करना है, जो हो रहा है उसे जानते रहना है, देखते रहना है। आवाज सुनाई पड़े, सुनते रहना है। जो भी हो--धूप आंख पर पड़े, उसे जानते रहना है। हम एक हिस्सा हैं इन दरख्तों के, इस जमीन के, इस आकाश के, इस धूप के, इस हवा के, हम एक हिस्सा हैं, हम अलग नहीं हैं। और हमें कुछ भी नहीं करना है, जो भी हो रहा है, वह परमात्मा कर रहा है। वह हो रहा है। हमें सिर्फ जानना है, सिर्फ देखना है। क्या हो रहा है--भीतर-बाहर जो भी हो रहा है, उसे जानते रहना है। भीतर कोई विचार चलें, उन्हें जानते रहना है; श्वास चले, उसे जानते रहना है; हृदय की धड़कन सुनाई पड़ने लगे, उसे जानते रहना है; कोई पक्षी की आवाज आए, उसे जानना है; कोई बच्चा रोने लगे, उसे जानना है। बस ‘जानने’ का एक बिंदु हम रह जाएंगे।
अब शरीर को शिथिल छोड़ दें। आंख बंद कर ली है। दस मिनट के लिए मिट जाएं।
हम नहीं हैं, एक हिस्सा हो गए समस्त का। और जानते रहें--हवाएं चलेंगी, जानते रहें; आवाज आएगी, जानते रहें। और जानते-जानते ही मन शांत होता चला जाएगा...जानते-जानते ही मन शांत होता चला जाता है...।
देखें...अनुभव करें...जानें और मन शांत होता चला जाएगा...मन धीरे-धीरे शांत होता चला जाएगा...जैसे-जैसे आप जागेंगे भीतर वैसे-वैसे मन शांत होता चला जाएगा...। सोया मन अशांत होता है, जागा मन शांत होता है। जागें, पूरे जागरूक साक्षी बन कर अनुभव करते रहें।
अब दस मिनट के लिए अनुभव करें, जो भी है, जैसा भी है।
(एक साधक का जोर-जोर से रोना....)
बस जागे हुए देखते रहें, अनुभव करते रहें, जो भी होता हो होने दें। छोड़ दें अपने को, बिलकुल एक हो जाएं। जो भी होता हो, हो। जागे रहें, जागे रहें...बिलकुल छोड़ दें, जैसे हैं ही नहीं, मिट जाएं, जो भी होता हो होने दें। मन धीरे-धीरे शांत होता चला जाएगा...।
मन शांत होता चला जाएगा...मन शांत होता चला जाएगा...मन शांत होता चला जाएगा...जानते रहें, जानते रहें...बस जागे हुए जान रहे हैं, कुछ करना नहीं है, अपने को बिलकुल छोड़ दें, जो भी होता हो होने दें। आंसू बह जाएं, बह जाएं; रोना आ जाए, आ जाए; शरीर गिर जाए, गिर जाए, अपने को बिलकुल छोड़ दें...सिर्फ जानते रहें, जो भी हो रहा है, जानते रहें...बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं। जो भी हो रहा है, हो रहा है, हम सिर्फ जान रहे हैं। मन शांत होता जाएगा...मन शांत होता जाएगा...मन बिलकुल शांत हो जाएगा...।
मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...जागे हुए, होश से भरे हुए बैठे रहें। होश, जागरण, भीतर साक्षी बने रहें जो भी हो रहा है। बाहर-भीतर जो भी है जानते रहें और अपने को बिलकुल छोड़ दें...और गहरे में, और गहरे में...मन शांत होता जाएगा...मन शांत होता चला जाएगा...।
मन शांत होता जा रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन गहरी शांति में उतरता जा रहा है...।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...जो भी हो हो...मन शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...बिलकुल छोड़ दें, शरीर को बिलकुल छोड़ दें--गिरे गिर जाए, कोई भीतर नियत्रंण न रखें; आंसू आते हों आ जाएं, उससे हलका हो जाएगा, बहुत कुछ बह जाएगा जो बंधा है, उसे छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें।
मन शांत हो गया है...मन शांत होता जा रहा है...मन बिलकुल शांत हो जाएगा, भीतर एक शून्य आ जाएगा। धूप है, हवाएं हैं, वृक्ष हैं, पक्षियों की आवाज है, लेकिन हम, हम मिट गए हैं। एक शांति, एक शून्य भीतर पैदा हो जाएगा। मन शांत हो गया है...।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ और भी शांति आती मालूम होगी। दो-चार गहरी श्वास लें...फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...जैसी शांति भीतर है वैसी बाहर भी है। धीरे-धीरे आंख खोलें...।
चार बजे मौन के लिए हम मिलेंगे। तो चार बजे जब यहां आएं, उसके आधा घंटे पहले से ही चुप होने की कोशिश करें, मौन होने की कोशिश करें। बात बंद कर दें। कम कर दें। स्नान करके आ सकें तो अच्छा। कपड़े बदल कर आ जाएं। फिर चुपचाप यहां बैठ जाएं। उस घंटे भर में किसी को भी लगे कि मेरे पास आना है, वह दो मिनट के लिए मेरे पास आ जाए, फिर चुपचाप अपनी जगह चला जाए।
सुबह की बैठक हमारी पूरी हुई।
मनुष्य का मन एक बोझ है--बोझ है अतीत का। लेकिन मनुष्य का मन एक तनाव भी है--तनाव है भविष्य का। अतीत के बोझ को हटा देने के लिए कल कुछ बातें की हैं। भविष्य के तनाव से मुक्त हो जाना भी उतना ही आवश्यक है। भविष्य भी बहुत बड़े तनाव की तरह मनुष्य के मन पर सदा मौजूद है। भविष्य का तनाव बहुत रूपों में हमारे मन को पकड़े है।
एक तो, हम आज जीते ही नहीं; हम सदा कल में जीते हैं। और कल में कोई भी नहीं जी सकता; जीना सदा आज है, अभी है।
एक सुबह युधिष्ठिर बैठे हैं अपने झोपड़े पर वनवास के दिनों में। और एक भिखारी ने भिक्षापात्र उनके सामने फैलाया है। युधिष्ठिर ने कहा: कल! कल ले लेना, कल आ जाना, कल दूंगा!
भीम बैठा हुआ सुनता था, वह जोर से हंसने लगा। पास में पड़े हुए घंटे को उठा कर बजाने लगा और गांव की तरफ भागने लगा।
युधिष्ठिर ने पूछा: क्या हुआ है तुझे, पागल हो गया?
भीम के कहा: पागल नहीं हुआ हूं। यह जान कर बहुत खुश हुआ हूं कि मेरे भाई ने कल कुछ करने का वायदा किया है। जाऊं गांव में खबर कर आऊं कि मेरे भाई ने समय को जीत लिया है, क्योंकि मैंने सुना नहीं है आज तक कि कल कोई भी कभी कुछ कर सका हो। तुमने कहा है, कल देंगे! जाऊं खबर कर आऊं गांव में, क्योंकि इतिहास में ऐसी घटना नहीं घटी है।
बहुत मजे की बात है। कल तो कुछ भी नहीं किया जा सकता। जो भी किया जा सकता है--अभी और यहां; आज, इसी क्षण।
जिस कल की हम बात करते हैं, वह कल्पना के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। वह कभी नहीं आएगा। कल कभी नहीं आता है। जो आता है, वह आज है, अभी है।
लेकिन हमारा मन जीता है कल में। हम आज के जीने को कल पर पोस्टपोन करते हैं। जो अभी हो सकता है, उसे कल पर छोड़ते हैं। और कल कभी नहीं होगा। फिर यह कल की लंबी धारा, आने वाले कलों की लंबी कल्पना मन पर बैठती चली जाती है, मन को खींचती चली जाती है। इसका बोझ बहुत ज्यादा है, वह हमें पता नहीं है। हमें उन्हीं बोझों का पता चलता है, जिनके हम आदी नहीं होते हैं। और भविष्य के बोझ के हम पैदा होने के क्षण के साथ ही आदी हो जाते हैं। वह हमें पता ही नहीं चलता।
यूरी गागरिन पहली दफा जब अंतरिक्ष में गया पहला आदमी, तो उसने लिखा: पहली बार मुझे पता चला कि पृथ्वी पर कितना बोझ था, वह ग्रेविटेशन का! लेकिन हमें कुछ पता नहीं चलता। हम उसमें ही जन्मते हैं, उसमें ही बड़े होते हैं।
यूरी गागरिन जब लौट कर पृथ्वी पर आया तो लोगों ने उससे पूछा कि सबसे नया अनुभव क्या हुआ?
उसने कहा: सबसे नया अनुभव हुआ ग्रेविटेशन से मुक्त हो जाने का। शरीर निर्भार हो गया। समझ में नहीं पड़ा कि यही मेरा शरीर है। और यह भी समझ में नहीं पड़ा कि इतना बोझ इस शरीर पर पृथ्वी पर था, इतना खिंचाव इस शरीर पर था! शरीर हलका रुई की तरह हो गया, बॉडीलेसनेस, जैसे शरीर है ही नहीं, ऐसा अनुभव हुआ। हवा में जैसे ऊपर तैरने लगा शरीर। यान के छत से लग गया जाकर। कोई वजन न रहा। हाथ उठाओ तो मालूम न पड़े कि उठाया कि नहीं उठाया। सारा शरीर निर्भार हो गया।
लेकिन हमारे शरीर पर कितना बोझ है, वह हमें पता नहीं चलता, क्योंकि जमीन पर ही हम पैदा होते हैं, जमीन पर ही बड़े होते हैं, जमीन पर ही मर जाते हैं। वह बोझ लेकर ही पैदा होते हैं, लेकर ही मर जाते हैं। इसलिए पता नहीं चलता कि जमीन कितने जोर से खींचे हुए है। वह जिसको हम शरीर का वजन कहते हैं, वह शरीर का वजन नहीं है, जमीन की कशिश है। अगर दो सौ पौंड शरीर का वजन है तो शरीर का कोई वजन नहीं होता। वह जमीन खींच रही है इतनी ताकत से कि शरीर पर दो सौ पौंड का भार पड़ रहा है। लेकिन वह हम जीते हैं। हमें उसका कोई पता नहीं है, क्योंकि हम उसमें ही जन्मते हैं, उसमें ही आदत बन जाती है।
ऐसे ही भविष्य का तो और भी न मालूम कितना बड़ा बोझ है, कितनी कशिश है। जमीन से भी ज्यादा, लेकिन उसका हमें पता नहीं चलता। हम बचपन से ही कल में जीते हैं--आगे! आगे! आगे!
और यह कल में जीने की जो हमारी मनोवैज्ञानिक भूल है, इसे समझ लेना बहुत जरूरी है, तो शायद हम आने वाले कल से मुक्त हो जाएं। इसका यह मतलब नहीं है कि आने वाले कल से मुक्त हो जाने का यह मतलब नहीं है कि कल आपको कहीं जाना है तो आप उसकी कोई योजना नहीं करेंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि कल सुबह ट्रेन पकड़नी है तो आज रिजर्वेशन नहीं कराएंगे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि कल के लिए कोई जीवन की आयोजना, कोई प्लानिंग नहीं होगी। क्रोनोलॉजिकल टाइम तो है, समय तो है, लेकिन हमने एक मनोवैज्ञानिक समय भी ईजाद किया हुआ है, जो कहीं भी नहीं है।
जैसे एक आदमी क्रोधी है, हिंसक है। और वह आदमी कहता है, कल, परसों, कुछ वर्षों बाद, अगले जन्म में मैं अहिंसक हो जाऊंगा, शांत हो जाऊंगा। वह यह कहता है, हिंसक हूं, कोई फिकर नहीं है, लेकिन मैं चेष्टा करूंगा, श्रम करूंगा, प्रार्थना करूंगा, पूजा करूंगा, ध्यान करूंगा, साधना करूंगा, योग करूंगा; नीति का आचरण करूंगा, व्रत लूंगा, अहिंसक हो जाऊंगा! हिंसक है, लेकिन कल्पना करता है कि कल भविष्य में कभी अहिंसक हो जाएगा!
यह समझने जैसा है। जो आदमी हिंसक है, वह कुछ भी योजना करे, वह कोई भी व्रत ले, वह कोई भी धारणा करे, वह कोई भी ध्यान करे, वह आदमी कोई भी योग साधे, तप करे, तपश्र्चर्या करे--हिंसक आदमी जो कुछ भी करेगा, उससे कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता है। हिंसक ही करेगा न! व्रत भी हिंसक ही करेगा। उस व्रत के करने में भी उसकी हिंसा पूरी तरह मौजूद है। तपश्र्चर्या हिंसक ही करेगा, उस तप में भी उसकी हिंसा पूरी तरह मौजूद है।
कल तक वह दूसरों के शरीरों को सताता था, अब अपने शरीर को सताएगा। हिंसा पूरी तरह मौजूद है। कल तक वह रस लेता था किसी दूसरे की गर्दन दबाने में, अब वह अपनी ही गर्दन दबाने में रस लेगा। हिंसा मौजूद है। वह हिंसक ही कर रहा है। हिंसक जो कुछ भी करेगा उसमें हिंसा मजबूत होगी। वह कल अहिंसक नहीं होने वाला है। लेकिन आज की हिंसा भूलने में सहारा मिलेगा उसे कल की अहिंसा की कल्पना से; सोचेगा, कल अहिंसक हो जाऊंगा। तो वह जो हिंसा की पीड़ा है, वह जो हिंसा का दंश है, वह जो हिंसा का कांटा चुभ रहा है, वह हलका हो जाएगा। वह कहेगा, कोई फिकर नहीं, आज हूं कल अहिंसक हो जाऊंगा। वह कल की अहिंसा को सत्य मान लेगा, आज की हिंसा को झूठा कर लेगा; आज की हिंसा जारी रहेगी। वह कभी अहिंसक नहीं होगा। लेकिन कल अहिंसक हो जाऊंगा इस भाव से, हिंसा की जो पीड़ा होनी चाहिए, वह कम हो जाएगी। और हिंसा की पीड़ा जितनी कम हो जाएगी, उतना ही हिंसा से मुक्त होना असंभव है।
लेकिन वह कल की कल्पना करेगा! वह कहेगा, इस जन्म के बाद अगले जन्म में भगवान को पा लूंगा। वह कहेगा, मृत्यु के बाद मोक्ष चला जाऊंगा। वह टालता रहेगा इस तरह भविष्य पर और आज के तथ्य को नहीं देखेगा। इस बात को ठीक से जान लेना, जो लोग भी आज के तथ्य को नहीं देखना चाहते हैं, वे भविष्य की योजनाओं और कल्पनाओं में, अंधेरे में, धुएं में अपने को छिपा लेते हैं।
आज का तथ्य ही सत्य है। उसे छिपाना नहीं है। उसे भुलाना भी नहीं है। उसे विस्मरण भी नहीं करना है। उसे पूरी तरह जानना है। क्योंकि वह जानने से ही, सिर्फ जानने से ही बदलेगा। और बदलाहट का कोई उपाय नहीं है।
अगर चित्त में हिंसा है--और है। हिंदुस्तान कितने हजारों सालों से अहिंसा की बातें करता है, कितने हजारों साल से हमने अहिंसा के गीत गाए, अहिंसा के शास्त्र रचे हैं, अहिंसा-अहिंसा की हम बात करते रहे हैं और एक भी आदमी अहिंसक है? कोई एक आदमी अहिंसक नहीं है!
इधर बीस-पच्चीस-चालीस सालों से तो हम बहुत ही अहिंसा की बातें कर रहे हैं। लेकिन जब खुद पर मुसीबत आती है तो हम उतने ही हिंसक सिद्ध होते हैं, जितना कोई और। चीन ने देश पर हमला किया, फिर हमारी अहिंसा खो गई। पाकिस्तान के साथ मुठभेड़ हो, हमारी अहिंसा खो जाती है। फिर कोई अहिंसा की बात नहीं करता। फिर हम कहते हैं कि अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत है!
अहिंसा की रक्षा के लिए भी हिंसा की जरूरत पड़ती है तो अहिंसा बहुत नपुंसक है। ऐसी अहिंसा का क्या मतलब है जिसकी रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत पड़ती हो? और अहिंसा की रक्षा हिंसा से की जा सकती है? अगर अहिंसा की रक्षा हिंसा से की जा सकती है, तब तो फिर अमृत की सुरक्षा के लिए जहर का इंतजाम करना पड़ेगा, और प्रेम की रक्षा के लिए घृणा सीखनी पड़ेगी, और जिंदा रहने के लिए मरना पड़ेगा!
अहिंसा हमारी बातचीत है हजारों साल की और उससे सिर्फ एक बात घटी है कि हम अपनी हिंसा को देखना बंद कर दिए हैं। अहिंसा की बातों में हिंसा का तथ्य भूल गया है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
चित्त अशांत है तो हम कहेंगे, कल हम शांत हो जाएंगे। कुछ विधि का उपयोग करेंगे, किसी जप का उपयोग करेंगे और कल हम शांत हो जाएंगे। अशांत आज हैं और कल होंगे शांत! फिर कल भी आ जाएगा। कल तो आता नहीं, वह भी आज होगा। और फिर आप कहेंगे, आज अशांत हैं, कोई बात नहीं, कल शांत हो जाएंगे।
यह पोस्टपोनमेंट सेल्फ-डिसेप्शन है। यह स्थगितकरण आत्मवंचना है। कल पर छोड़ना और आज को देखने से बचना इतना बड़ा तनाव है कि फिर जिंदगी में कभी परिवर्तन नहीं होगा। सिर्फ तने ही रह जाएंगे, तनाव ही रह जाएगा। पीछे लौट कर देखें, जिंदगी में कितनी बार सोचा होगा, कल यह कर लेंगे, कल यह कर लेंगे--मनोवैज्ञानिक बात कह रहा हूं, मानसिक, भीतर आंतरिक--वह आज तक नहीं हुआ। वह कभी नहीं होगा। वह तरकीब तथ्यों को झुठलाने की है, उनको भूलने की है, विस्मरण की है, वह तरकीब फॉरगेटफुलनेस की है। और किसी तथ्य को भूलने से कभी उसको बदला नहीं जा सकता।
अगर हिंसा बदलनी है तो अहिंसा की बातचीत बंद कर दें। हिंसा को देखें। वह जो अभी है, उसे देखें, उसे पहचानें, उसे खोजेंवह क्या है। और जितना उसे जानेंगे, जितना पहचानेंगे, जितना उसको देखने में समर्थ हो जाएंगे, वह हिंसा का तथ्य उतना ही बदलना शुरू हो जाएगा--अभी और यहीं, कल नहीं।
अगर भीतर घृणा है, तो उसे देखें और पहचाने। और अगर भीतर चोर बैठा है, तो उसे देखें और पहचानें। यह मत कहें कि कल--कल मैं चोरी छोड़ दूंगा। अगर चोरी गलत हो गई है तो कल की बात क्यों करते हैं?
अभी सांप रास्ता काटता है तो आप ऐसा नहीं कहते कि कल मैं बच जाऊंगा। अभी छलांग लगाते हैं इसी वक्त, क्योंकि सांप सामने खड़ा है फन फैलाए हुए। तो आप यह नहीं कहते कि ठीक है, कोई बात नहीं, अभी खड़े रहो सांप, कल हम बच जाएंगे, कल हम छलांग लगाएंगे। सांप सामने खड़ा होता है तो आप अभी, इसी वक्त छलांग लगाते हैं। क्यों? क्योंकि सांप दिखाई पड़ता है। सांप पूरी तरह दिखाई पड़ता है। सांप के साथ मौत दिखाई पड़ती है। सांप का जहर दिखाई पड़ता है। एक छलांग में आप बाहर हो जाते हैं।
हिंसा सामने खड़ी है और आप कहते हैं, कल हम अहिंसक हो जाएंगे! तो फिर आपको हिंसा का जहर दिखाई नहीं पड़ता, हिंसा की मौत दिखाई नहीं पड़ती, हिंसा का पागलपन दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए आप कहते हैं, कल। अभी क्या जल्दी है, कल!
अभी घर में आग लगी हो, तब आप यह नहीं कहते कि कल बाहर निकल जाएंगे। तब आप कहते हैं, अभी इसी क्षण मुझे बाहर निकलना है। आप यह कहते भी नहीं कि इसी क्षण बाहर निकलना है; आप निकलना शुरू हो जाते हैं, आप निकल ही जाते हैं।
जिंदगी के तथ्य भी आग लगे होने से या सांप के तथ्यों से ज्यादा खतरनाक हैं। लेकिन कल की तरकीब से आप झुठला जाते हैं और उनको नहीं बदल पाते हैं।
जीवन की बदलाहट, जीवन की क्रांति, जीवन का रूपांतरण इस क्षण होगा, अभी होगा। कल कभी नहीं होगा।
लेकिन हमने एक आइडिया, एक विचार, एक प्रत्यय बनाया हुआ है कि कल--कल हम अहिंसक हो जाएंगे। और हम कल्पना कर लेते हैं कि कल हम अहिंसक हो गए। और आज की हिंसा भूल जाती है जो कि सत्य है और कल की अहिंसा जो कि बिलकुल झूठ है, वह हमें सच मालूम होने लगती है। फिर हम अहिंसक होने की कोशिश में भी लग जाते हैं। हिंसा तो मौजूद रहती है और अहिंसक होने की कोशिश में लग जाते हैं। घृणा मौजूद रहती है, प्रेम करने की कोशिश में लग जाते हैं।
एक फकीर के पास किसी आदमी ने जाकर कहा। वह फकीर कभी-कभी उस आदमी के द्वार पर भीख मांगने आता था। कई बार उसे भीख दी थी। एक दिन उसके झोपड़े पर जाकर कहा कि आज मैं भी भीख मांगने आया हूं। मेरे भीतर बहुत घृणा है। मेरे भीतर बहुत हिंसा है, बहुत क्रोध है। मेरे भीतर बहुत ईर्ष्या है, बहुत जलन है। मैं कैसे इससे छुटकारा पाऊं? मुझे कुछ रास्ता बता दें।
उस फकीर ने कहा: कल जब मैं भोजन मांगने आऊंगा तेरे द्वार पर, तभी रास्ता भी बता देंगे।
वह फकीर दूसरे दिन फिर भोजन मांगने आया। भिक्षा का पात्र उसने उस घर के सामने फैला दिया। वह आदमी आज बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाया था। आज उस फकीर को भिक्षा और ही ढंग से देनी थी। आज उससे कुछ लेना भी था। उसने बहुत मिठाइयां बनाई थीं। वह बहुत फल लाया था। वह सारे फल और मिठाइयां लेकर भिक्षा के पात्र में डालने आया तो देख कर हैरान हो गया कि भिक्षा के पात्र में तो कंकड़, पत्थर, गोबर पड़ा हुआ है! उसने हाथ रोक लिया। उसने कहा: महाशय, भिक्षु जी, इस पात्र में मैं कैसे ये मिठाइयां डालूं?
फकीर ने कहा: डाल दो, क्या हर्ज है?
उसने कहा: सब खराब हो जाएंगी। यह पात्र तो गंदा है।
तो उसने कहा: क्या करूं? उस संन्यासी ने कहा।
उस गृहस्थ ने कहा: पहले पात्र को धो लें।
संन्यासी ने पात्र धो लिया। फिर मिठाइयां दे दीं। और भिक्षु वापस लौटने लगा तो उसने कहा: और आपने मुझे कहा था कि कुछ मुझे भी कहेंगे।
उस संन्यासी ने कहा: मैंने कह दिया है। इस पात्र में गंदगी पड़ी है, तो तुम मिठाइयां डालने को तैयार नहीं हो! और भीतर हिंसा पड़ी है, तो अहिंसा कैसे डाली जा सकती है! और भीतर क्रोध है, तो क्षमा कैसे डाली जा सकती है! और तुम्हें यह दिखता है कि थोड़े से कंकड़, पत्थर, यह गोबर, सब मिठाइयों को खराब कर देंगे। लेकिन तुम्हें यह नहीं दिखता कि भीतर तुम्हारे सब पड़ा है और तुम उसी में भगवान तक को डालने की कोशिश कर रहे हो!
लोग आते हैं, वे पूछते हैं, भगवान को कैसे पाएं? वे यह कहते नहीं कि अपने पात्र को कैसे साफ करें! वे कहते हैं, भगवान को कैसे पाएं? वे कहते हैं, प्रार्थना कैसे करें? वे यह नहीं कहते कि यह घृणा और यह क्रोध...!
जीवन के तथ्यों को हम देखते नहीं, जो अभी हैं। और उन सत्यों को चाहना चाहते हैं, जो कभी होंगे। वे कभी भी नहीं होंगे। और मन एक खिंचाव में पड़ जाएगा। क्रोध भीतर होगा और प्रार्थना की चेष्टा चलेगी। यह कितना असंभव तनाव है। क्रोध करने वाला चित्त कैसे प्रार्थना कर सकता है? वह प्रार्थना में भी क्रोध से भरा रहेगा।
घरों में देखें, लोग जो प्रार्थना करते हैं उनको, वे प्रार्थना भी कर रहे हैं और चारों तरफ देख रहे हैं कि कब क्रोध का अवसर मिल जाए। वे पूजा भी कर रहे हैं और क्रोध की प्रतीक्षा भी कर रहे हैं कि कब क्रोध करें। पूजा और प्रार्थना करने वाले लोग अक्सर क्रोधी हो जाते हैं। और उसका कारण है, अकारण नहीं है। भीतर तो क्रोध है, ऊपर से प्रार्थना की कोशिश चल रही है। भीतर जो है, वही सच है।
ऊपर जो चल रहा है, वह सच नहीं है। वह झूठा है। लेकिन भविष्य की आशा है कि कभी प्रार्थना पूरी हो जाएगी, कभी क्रोध खत्म हो जाएगा। क्रोध कभी खत्म नहीं होगा। क्रोध को किसी प्रोसेस, किसी प्रक्रिया के द्वारा कभी खत्म नहीं किया जा सकता। क्रोध को, घृणा को, हिंसा को--जो भी हमारे भीतर गलत है, उसको कभी भी हम धीरे-धीरे, धीरे-धीरे कभी दूर नहीं कर सकते।
जिंदगी में जो फर्क होते हैं वे क्रांतियां हैं, वे परिवर्तन नहीं हैं।
अगर आपको अपने भीतर की हिंसा दिखाई पड़ जाए तो इसी क्षण एक जंप, एक छलांग हो जाएगी, जैसे सांप को देख कर हो जाती है। आप हिंसा के बाहर हो जाएंगे।
और यह कल कभी नहीं होगा। यह क्रमिक नहीं है, यह ग्रेजुअल नहीं है। यह ठीक से समझ लें। कि जिंदगी में जो भी होता है वह क्रांति है, रिवोल्यूशन है। वह ग्रेजुअल ग्रोथ नहीं है। वह ऐसा नहीं है कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, धीरे-धीरे हम सब ठीक कर लेंगे। कौन करेगा धीरे-धीरे ठीक? और जितनी देर आप ठीक करेंगे, उतनी देर हिंसा मौजूद रहेगी। वह और मजबूत होती चली जाएगी।
एक आदमी एक बीज बो देता है। बीज प्रतिक्षण बड़ा हो रहा है। वह आदमी कहता है कि धीरे-धीरे हम इस वृक्ष को उखाड़ कर फेंक देंगे। और तब तक पानी भी डाल रहा है, तब तक खाद भी डाल रहा है, क्योंकि वह कहता है कि धीरे-धीरे, बाद में, कभी हम इसे उखाड़ कर फेंक देंगे! तब तक पानी भी डालेगा, खाद भी डालेगा। वह बीज बड़ा हो रहा है, वह अंकुर बड़ा हो रहा है, वह वृक्ष बड़ा हो रहा है। वह वृक्ष मजबूत होता चला जा रहा है। वह आदमी कहता है कि कभी आगे, कल, परसों हम इसे उखाड़ कर फेंक देंगे। और इस बीच वह पानी भी डाल रहा है, खाद भी डाल रहा है और वृक्ष मजबूत होता चला जा रहा है। उसकी जड़ें जमीन को पकड़ती चली जा रही हैं। और वह कहता है, कल, कल, फिर आगे!
और इस देश में तो जहां हमें पुनर्जन्मों की बहुत लंबी बात बताई गई है, वहां हम कहते हैं, अभी भी क्या जल्दी है! अगले जन्म में, उसके आगे!
हिंदुस्तान के पास भविष्य की सबसे बड़ी योजना है। जितनी दुनिया के किसी मुल्क के पास नहीं है। हमारे लिए समय की कमी ही नहीं है। हम कहते हैं, अनंत-अनंत जन्म हैं, अनंत-अनंत आगे भी जन्म हैं। गलत नहीं कहते हैं हम, जिन्होंने कहा है, उन्होंने जान कर कहा है। लेकिन जिन्होंने सुन लिया है, उनके लिए घातक हुआ है। उनके लिए हितकर सिद्ध नहीं हुआ है। उनके लिए नुकसान पहुंचा है। क्योंकि उन्होंने कहा कि ठीक है, फिर क्या जल्दी है। फिर आज करने की जल्दी क्या है। अगर यह जन्म भी खो गया तो हर्ज क्या है। आगे और जन्म हैं।
हिंदुस्तान के पास भविष्य का सबसे लंबा विस्तार है। और इसलिए हिंदुस्तान का वर्तमान सबसे ज्यादा निकृष्ट और नीचा हो गया है। भविष्य का इतना बड़ा विस्तार है कि उसकी वजह से वर्तमान को बदलने की कोई जरूरत नहीं रह गई है।
और ध्यान रहे, जो भी होना है, वह अभी होना है, यहां होना है, इसी क्षण होना है, क्योंकि जिंदगी एक छलांग है।
जब हमें कोई चीज दिखाई पड़ती है, हम एकदम बदल जाते हैं। फिर ऐसा नहीं होता, फिर ऐसा नहीं होता कि हम धीरे-धीरे बदलेंगे।
धीरे-धीरे बदलने की बात हमारे मोह को प्रकट करती है कि हम बदलना नहीं चाहते हैं। इसलिए हम कहते हैं, धीरे-धीरे बदलेंगे। और बदलना हम क्यों नहीं चाहते हैं? क्योंकि हमने देखा ही नहीं इस तथ्य को कि भीतर क्या है! अगर आपको पता चल जाए कि भीतर कैंसर है, तब आप यह नहीं कहते कि धीरे-धीरे। आप अभी भागते हैं, कहते हैं, इसी वक्त कुछ करना पड़ेगा!
लेकिन कैंसर कुछ भी नहीं है। हिंसा और भी बड़ा कैंसर है, क्रोध और भी बड़ा कैंसर है, घृणा और भी बड़ा कैंसर है। कैंसर सिर्फ शरीर को खाता है। घृणा, हिंसा और क्रोध तो पूरी आत्मा को खा जाते हैं। लेकिन वे हमें दिखाई नहीं पड़ते! हमने उन्हें कभी देखा ही नहीं है। हम उन्हें देखने से बचते हैं। जब भी देखने का मौका आ जाए, हम इधर-उधर देखने लगते हैं, हम किनारे देखने लगते हैं, सीधा नहीं देखते हैं।
और हमने ऐसी तरकीबें निकाली हैं अपने को झुठलाने की, भुलाने की, प्रवंचना की। अगर भीतर क्रोध भी हो, तो हम कहते हैं, यह क्रोध तो दूसरे को सुधारने के लिए है। अगर भीतर हिंसा हो, तो हम कहते हैं, अगर हिंसा नहीं होगी तो लोग समझेंगे कि हम कायर हैं, कमजोर हैं। अगर भीतर ईर्ष्या हो, तो हम कहेंगे, अगर ईर्ष्या नहीं होगी तो प्रतिस्पर्धा कैसे होगी! प्रतिस्पर्धा नहीं होगी तो विकास कैसे होगा! हम अपने भीतर के सब जहर, सब रोगों की सुरक्षा के लिए बहुत आयोजन किए हुए हैं, बहुत दलीलें इकट्ठी कर ली हैं हमने। हम अपने भीतर की सब बुराई की रक्षा करते हैं और फिर कहते हैं कि धीरे-धीरे बदलेंगे! वह धीरे-धीरे बदलना भी न बदलने की तैयारी है।
जो आदमी कहता है कि धीरे-धीरे बदलेंगे, वह नहीं बदलना चाहता है।
उसे शायद पता भी नहीं है कि जो है भीतर वह कितना रुग्ण, कितना बीमार, कितना कुरूप, कितना गंदा है। वह क्या है भीतर जो हमारे सब भरा हुआ है? लेकिन हम शास्त्रों में पढ़ लेते हैं कि भीतर तो परमात्मा का निवास है, भीतर तो आत्मा है। उस भीतर का हमें कोई पता ही नहीं है, जहां आत्मा है और जहां परमात्मा है।
अगर हम भीतर जाएंगे तो मिलेगी घृणा, आत्मा नहीं। अगर हम भीतर जाएंगे तो मिलेगा क्रोध, आत्मा नहीं। अगर भीतर जाएंगे तो मिलेगी ईर्ष्या, मिलेंगे सब तरह के जहर, धुआं, आत्मा नहीं। वह आत्मा किताब में लिखी है कि आत्मा है भीतर। जब ये सब भीतर नहीं होंगे, तब वह मिलेगा, जो आत्मा है, जो परमात्मा है। लेकिन अभी तो ये हैं, अभी ये हैं और इनको हम देखने से बचना चाहते हैं। हम कहते हैं, देखने की क्या जरूरत है, धीरे-धीरे हम बदल लेंगे।
आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम अपने भीतर वह जो सब कुरूप है, उसका साक्षात्कार है। जो कुरूप है भीतर उसका साक्षात्कार आत्म-साक्षात्कार का पहला कदम है। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जो उसे देख लेता है जो भीतर है, उसी क्षण बदलाहट शुरू हो जाती है। एक क्षण रुकना नहीं पड़ता। एक क्षण रुकना नहीं पड़ता, देखा और बदलाहट शुरू हो जाती है। निरीक्षण की, ऑब्जर्वेशन की, देखने की, अवेयरनेस की इतनी बड़ी क्षमता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है।
क्रांति का एक ही सूत्र है: भीतर जो है, उसके प्रति जाग जाना।
लेकिन हम तो भविष्य के प्रति जागे हुए हैं। जो है, उसके प्रति नहीं जागे हुए हैं। हम चूके हुए हैं उस बिंदु से जहां हम हैं। और भागे हुए हैं वहां जहां हम नहीं हैं। भागते रहते हैं, भागते रहते हैं जहां हम नहीं हैं। और जहां हम हैं, वहां हम आंख भी नहीं डाल कर देखते कि कहां हम हैं, हम क्या हैं!
और अच्छे-अच्छे सिद्धांतों की बातें हैं, वे हमें कंठस्थ हो गई हैं, उनको हम दोहराए चले जाते हैं। और हर चीज के लिए हमने जस्टिफिकेशन, हर चीज को न्याययुक्त ठहराने की व्यवस्था कर ली है। हम कहते हैं हिंसा है, क्योंकि पिछले जन्म में बुरे काम किए थे, इसलिए उनकी हिंसा बाकी रह गई है। वह तो भोगनी पड़ेगी। क्रोध है, क्योंकि पीछे जो किया था, वह क्रोध पैदा कर गया है। जो हमारे भीतर है, उसके लिए हम दलीलें खोजते हैं कि वह क्यों है। दलीलें खोज कर हम निश्र्चिंत हो जाते हैं। व्याख्या, एक्सप्लेनेशन निश्चिंत कर देता है कि ठीक है।
हमें पता चल गया है कि क्यों है। और हम फिर पूछते हैं इसको मिटाएं कैसे? तो हमें विधियां बताने वाले लोग हैं। वे कहते हैं कि अगर क्रोध को मिटाना है तो क्षमाभाव ग्रहण करो। अगर सेक्स को मिटाना है ब्रह्मचर्य का व्रत लो। अगर हिंसा मिटानी है अहिंसा का पालन करो। इससे ज्यादा खतरनाक शिक्षा न हो सकती है, न है। यह सबसे ज्यादा खतरनाक बात है जिसने मनुष्य को पतित किया है। क्योंकि वे हिंसक को समझाते हैं कि तुम अहिंसा का भाव ग्रहण करो।
अब हिंसक अहिंसा का भाव कैसे ग्रहण कर सकता है? यह इंपॉसिबिलिटी है, यह असंभावना है। हिंसक कैसे अहिंसा का भाव ग्रहण कर सकता है, यह कभी आपने सोचा? क्रोधी कैसे क्षमा की धारणा कर सकता है, यह कभी आपने सोचा? और कामी कैसे ब्रह्मचर्य का व्रत ले सकता है, यह कभी आपने सोचा? हालांकि कामी ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं, और हिंसक अहिंसा का व्रत ग्रहण करते हैं, और लोभी अलोभ की बात करते हैं, आसक्त अनासक्ति के नियम लेते हैं। और हम कभी सोचते नहीं कि यह क्या हो रहा है?
इससे सिर्फ तनाव पैदा होता है। वे जो हैं उसमें और जो होना चाहते हैं उसमें तनाव पैदा होता है। वह तनाव मस्तिष्क की सारी शक्तियों को, प्राणों की सारी ऊर्जा को नष्ट करता है, और कुछ भी नहीं करता।
हर आदमी तना हुआ है, क्योंकि हर आदमी जो है, उसे देखने को राजी नहीं है। और जो नहीं है, वह होने की कोशिश कर रहा है। हर आदमी तना हुआ है, क्योंकि वह जो है, उसे देखता नहीं। और जो नहीं है, उसे होने की चेष्टा में संलग्न है। कितना तनाव पैदा नहीं हो जाएगा? इसी तनाव में मनुष्य की सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। फिर मनुष्य शक्ति का एक अंबार नहीं रह जाता, फिर उसके पास कुछ भी शक्ति नहीं होती।
और एक दुष्परिणाम और घटित होता है कि जब बार-बार सोचता है कि यह हो जाऊं, यह हो जाऊं और बार-बार पाता है कि नहीं हो पाता, तब आत्मविश्र्वास क्षीण होता चला जाता है।
मैं कलकत्ता था। एक बहुत अदभुत वृद्ध आदमी ने--जो चल बसे, उनसे मैं यह बात कर रहा था। उन्होंने खड़े होकर सभा में यह कहा कि मैंने अपनी जिंदगी में चार बार ब्रह्मचर्य का व्रत लिया। सुनने वालों ने सोचा कि बहुत गजब का काम किया, चार बार जीवन में व्रत लिया!
लेकिन वह बूढ़ा हंसने लगा और उस बूढ़े ने कहा कि समझ लो चार बार लेना पड़ा, उसका मतलब क्या होता है? और पांचवीं बार नहीं लिया तो यह मत समझना कि व्रत पूरा हो गया। पांचवीं बार नहीं लिया, क्योंकि समझ में आ गया कि व्रत पूरा नहीं हो सकता है। और चार बार व्रत के असफल होने से जो आत्मग्लानि पैदा हुई वह अलग, जो आत्महीनता पैदा हुई वह अलग, जो अपने पर विश्र्वास खो गया कि मैं कुछ कर सकता हूं वह अलग।
दुनिया में नियम और व्रत देने वाले लोगों ने मनुष्य की आत्मा को हीन ग्लानि से भर दिया है। एक-एक आदमी की आत्मा ग्लानि से भर गई है। उसे लगता है कि मुझसे कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि कितनी बार व्रत लिया और कुछ भी नहीं होता है। हर बार हार जाता हूं तो हारने की धारणा मजबूत हो जाती है। हिंसा नहीं छूटती, सेक्स नहीं छूटता। लेकिन सेक्स नहीं छूट सकता है, यह व्रत लेने वाले को बार-बार व्रत लेने से स्पष्ट हो जाता है।
और तब वह सोचता है कि अगर महावीर का छूट गया होगा तो वे तीर्थंकर थे। अगर कृष्ण का छूट गया होगा तो वे भगवान के अवतार थे। हम साधारण आदमी हैं, यह हमारे वश की बात नहीं है। फिर वह सोचता है कि पिछले जन्मों के दुष्कर्म होंगे, उनके कारण नहीं छूटता। फिर वह सोचता है कि भविष्य में कोशिश करते रहेंगे, करते रहेंगे, तो जन्मों-जन्मों में छूटने वाली चीज है, धीरे-धीरे छूट जाएगी। और इस तरह आदमी जैसा है, वैसा ही रह जाता है, उसके जीवन में कोई क्रांति नहीं हो पाती।
नहीं, सब छूट सकता है--इसी क्षण। लेकिन कल कभी नहीं छूट सकता है। फिर क्या करें?
तो पहली तो बात है कल के छोड़ने की धारणा से छुटकारा चाहिए। यह खयाल ही भूल जाएं कि कल कुछ हो सकता है, क्योंकि आप अभी हैं--समय अभी है, घृणा अभी है। कल की बात क्यों करते हैं? और कल भी आप ही होंगे--यही घृणा होगी, यही समय होगा। फिर कल क्या करेंगे? कल कुछ नया हो जाने वाला है?
आज से आप कल और कमजोर होंगे। और आज से कल घृणा और मजबूत होगी। क्योंकि एक दिन घृणा ने और यात्रा कर ली होगी, और एक दिन घृणा ने आपको और कमजोर कर दिया होगा। कल आप कमजोर होंगे। आपका क्रोध कल और भी मजबूत होगा, क्योंकि कल तक क्रोध ने और यात्रा कर ली होगी, और जड़ें फैला दी होंगी। कल तक क्रोध कई बार हो चुका होगा। फिर कल आप कहेंगे कि फिर आगे, कल करूंगा!
और यह यात्रा जारी रहेगी। मरते वक्त आप क्रोधी मरेंगे, कामी मरेंगे, हिंसक मरेंगे। फिर आप सोचेंगे, अगले जन्म में होगा! अगले जन्म में आप और कमजोर हो जाएंगे। भविष्य आपको मजबूत नहीं कर देगा। भविष्य आपको कमजोर करता चला जाएगा, क्योंकि जिन चीजों से आप कमजोर हो रहे हैं, उनकी यात्रा जारी रहेगी।
अगर टूटना है कुछ तो आज टूटेगा, कल नहीं। अगर बदलना है कुछ तो अभी, कल नहीं।
लेकिन बदलने की चेष्टा से भी कुछ नहीं बदला जाता है, क्योंकि बदलने की चेष्टा आप करते हैं। आप, जो कि हिंसक हैं, क्रोधी हैं--कैसे अहिंसक हो जाएंगे? फिर क्या किया जा सकता है? न कल बदला जा सकता है--और मैं कह रहा हूं कि न बदला जा सकता है। फिर क्या किया जा सकता है?
जागा जा सकता है। जो स्थिति है अभी, यहीं, उसके प्रति पूरी तरह जागा जा सकता है।
क्या है मेरे भीतर? एक-एक पल, रोआं-रोआं अहंकार से भरा हुआ है। उठना, बैठना अहंकार से भरा हुआ है। आंख के इशारों में घृणा है, हिंसा है; हाथ के उठने में हिंसा है, घृणा है। चलते हैं तो हिंसा है, घृणा है। जिंदगी की पूरी-पूरी व्यवस्था में वह सब छिपा है, जो कभी-कभी प्रकट होता है। हम सोचते हैं कि कभी-कभी मुझे क्रोध आता है! ऐसी भूल में मत पड़ना। क्रोध सदा रहता है, कभी-कभी प्रकट होता है। जो नहीं है, वह प्रकट कैसे हो जाएगा?
एक बिजली के तार में बिजली दौड़ रही है। बटन दबाते हैं तो बल्ब जल जाता है, बटन नहीं दबाते तो बल्ब बुझा रहता है। लेकिन बिजली दौड़ रही है। बटन दबेगा तभी तो बल्ब जलेगा--बजली अगर दौड़ती होगी। अगर नहीं दौड़ती होगी तो बल्ब क्या जलेगा--बटन कोई कितना ही दबाए?
अगर मुझे कोई आकर गाली दे दे और भीतर क्रोध की करंट दौड़ न रही हो तो क्रोध निकलेगा कहां से? वह देता रहे गाली, बटन दबाता रहे, लेकिन भीतर अगर करंट दौड़ रही है तो बल्ब जल जाएगा। लेकिन हम सोचेंगे कि कभी-कभी क्रोध होता है! कभी-कभी क्रोध नहीं होता है। क्रोध प्रतिपल है, पूरे वक्त है। घृणा कभी-कभी नहीं होती, वह मौजूद है। वह बिलकुल मौजूद है पूरे वक्त। हिंसा पूरे क्षण मौजूद है।
हम हिंसा ही हैं, क्रोध ही हैं, घृणा ही हैं--और इसको जानना पड़ेगा, इसको पहचानना पड़ेगा, इसको भीतर खोजना पड़ेगा, इसके पूरे के पूरे दर्शन करने पड़ेंगे। और यह अभी, यह दर्शन तो अभी करने पड़ेंगे; क्योंकि हम भी मौजूद हैं, वह सब भी मौजूद है जिसका दर्शन करना है। तो कल का क्या सवाल है? खोलें अपने भीतर और अपने को पूरी तरह देखें कि यह मैं हूं।
और जैसे ही यह दिखाई पड़ जाए कि यह मैं हूं--आप हैरान हो जाएंगे कि बदलाहट शुरू हो गई। वह आपको करनी नहीं पड़ी। वह बदलाहट वैसे ही हो जाती है, जैसे सांप रास्ते पर खड़ा है और आप छलांग लगा जाते हैं। एक क्षण भी नहीं लगता छलांग लगाने में! सोचना भी नहीं पड़ता! अपने भीतर भी नहीं सोचना पड़ता कि मैं बचूं। छलांग हो जाती है।
तथ्य दिखता है सांप का और छलांग लग जाती है। अगर घृणा का पूरा तथ्य दिखाई पड़ जाए, आप उसी क्षण घृणा के बाहर हो जाएंगे--उसी क्षण। न कोई पिछले जन्म रोकेंगे, न पिछले कर्म रोकेंगे। कोई रोकने वाला नहीं है। लेकिन दर्शन हो जाए तथ्य का--नग्न तथ्य का। वह जो नेकेड फैक्ट है हमारे भीतर जिंदगी का, वह दिख जाए, छलांग हो जाती है।
इसलिए पहली बात मैंने कही: अतीत का बोझ छोड़ दें और भविष्य की मानसिक योजना कि मैं यह हो जाऊंगा, मैं यह हो जाऊंगा। नहीं, जो हम हैं, उसे जानना है; जो मैं हूं, उसे जानना है। बहुत कष्टपूर्ण है, नहीं तो, नहीं तो हम भविष्य की योजना ही न करते। बहुत कष्टपूर्ण है, जो मैं हूं, उसे जानना, क्योंकि वह बहुत कुरूप है। वह बहुत कुरूप है, जो मैं हूं।
मैंने सुना है, एक स्त्री थी वह कभी दर्पण के सामने नहीं आती थी। और अगर कोई उसके सामने दर्पण ले आए तो वह दर्पण तोड़ डालती थी, क्योंकि वह कहती थी कि दर्पण बड़े गंदे हैं। इन दर्पणों के कारण मैं कुरूप दिखाई पड़ने लगती हूं। वह कुरूप थी! लेकिन जब तक दर्पण सामने नहीं आता था, तब तक तो कुरूप नहीं थी; तब तक तो वह सुंदर थी, क्योंकि तब तक कल्पना की बात थी। दर्पण सामने उसे बताता था वह क्या है। और दर्पण सामने नहीं होता था तो वह सुंदर थी, क्योंकि अपनी कल्पना में थी। फिर कोई देखने का तो सवाल न था। तो वह दर्पण देखती ही नहीं थी, वह दर्पण तोड़ डालती थी और वह मानती यह थी कि दर्पण के कारण मैं कुरूप हो जाती हूं! क्योंकि जब तक दर्पण नहीं होता, मैं सुंदर होती हूं! वह औरत पागल रही होगी।
लेकिन हम सब भी वैसे ही पागल हैं। हम सब भी उसे देखने से बचते हैं, जो हम हैं। और उसे देखने से बचने के लिए हमने भी कल्पना में एक इमेज बना रखी है। हर आदमी ने अपनी एक प्रतिमा बना रखी है कि मैं यह हूं। वह प्रतिमा बिलकुल झूठी है। वह प्रतिमा वही नहीं है, जो हम हैं। बल्कि जो हम हैं, उसे छिपाने के लिए हमने प्रतिमा बना रखी है कि हम यह हैं।
हर आदमी अपने को कुछ और समझता है, जो वह है। और आप इस पर सोचेंगे तो यह बहुत साफ दिखाई पड़ जाएगा कि जो मैं हूं, वह मैं कभी नहीं हूं। कभी स्वीकार भी नहीं करता कि मैं यह हूं! बल्कि लड़ता हूं, अगर कोई स्वीकार कराने के लिए मजबूर करे तो झगड़ा करूंगा, लडूंगा, अपनी प्रतिमा को बचाने की कोशिश करूंगा कि नहीं, मैं यही हूं।
लेकिन ध्यान रहे, ये सारी प्रतिमाएं मेरे व्यक्तित्व को रूपांतरित होने से रोकेंगी। ये क्रांति में नहीं जाने देंगी, ये बदलने नहीं देंगी। एक नये आदमी का भीतर जन्म नहीं हो सकेगा। क्योंकि मैंने अगर एक झूठी प्रतिमा बना रखी है, तो मैं उसी प्रतिमा को मान कर जीता रहूंगा। और जो मैं हूं, वह कुछ और ही हूं, उसका मुझे पता भी नहीं चलेगा। हम भूल ही गए हैं, हमने अपने को इतना भीतर दबाया हुआ है कि हम पहचान भी नहीं पाते कि हम क्या हैं। फिर हम नये-नये वस्त्रों में, नये-नये मुखौटों में, नई-नई ऊपर से ओढ़ कर ओढ़नियां, छिपा लेते हैं उसे, जो हम हैं। लेकिन वही है, इसका दर्शन कठिन है।
मेरी दृष्टि में स्वयं की जो स्थिति है, उसको देखने से बड़ी और कोई तपश्र्चर्या नहीं है। धूप में खड़ा होना बहुत आसान है, भूखा बैठ जाना भी बहुत आसान है। और अगर भूखे रहने की आदत डाल ली जाए, तब तो खाना खाना कहीं ज्यादा कठिन है, भूखा रहना ही फिर ज्यादा आसान है। नग्न खड़े हो जाना भी बहुत आसान है। ये सब थोड़ी सी बातें हैं, जो कोई भी कर सकता है। इसमें तपश्र्चर्या का कोई भी संबंध नहीं है। असली तपश्र्चर्या--मैं जैसा हूं, उसे जानने से शुरू होती है, क्योंकि असली कष्ट वहीं से शुरू होते हैं, जैसा मैं हूं।
हम सब समझते हैं कि हम सत्य बोलते हैं। और हम सब अगर कोई झूठ बोलता हो तो भारी निंदा करते हैं। और हम हैरान होते हैं कि इतना अच्छा आदमी इतनी छोटी सी बात पर झूठ बोल गया! लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि हमारा सारा व्यक्तित्व झूठ से खड़ा हुआ है। हम चौबीस घंटे झूठ हैं। झूठ न केवल बोल रहे हैं, झूठ जी रहे हैं। और यहां तक हालत पहुंच गई है कि हमें पता भी नहीं चलता कि हम झूठ बोल रहे हैं!
मेरे एक अध्यापक थे। मैंने कई बार ऐसा अनुभव किया कि किसी भी किताब का नाम लिया जाए और वे जरूर कहते थे कि मैंने पढ़ी है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई किताब ऐसी हो, जो उन्होंने न पढ़ी हो। फिर मुझे शक हुआ। मैं एक दिन गया और मैंने एक ऐसी किताब का नाम लिया, जो है ही नहीं। और वे बोले, मैंने पढ़ी है! लेकिन कोई पंद्रह-बीस साल पहले पढ़ी है। अब मुझे उसका खयाल नहीं है, लेकिन किताब मैंने पढ़ी है! कौन सी बात थी... अब उनको झूठ बोलने से कोई फायदा भी न था। लेकिन श
ायद उन्हें पता भी नहीं है, शायद उन्हें खयाल भी नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं! आदत का हिस्सा हो गया है। आदत का हिस्सा हो गया है! सहज बोल रहे हैं। बड़ी सहजता से बोल रहे हैं। उन्हें कहीं खयाल भी नहीं है कि यह जो मैं बोल रहा हूं--क्या प्रयोजन है?
एक आदमी झूठ बोलता हो, कुछ लाभ होता हो तो भी समझ में आता है। हम ऐसे झूठ भी चौबीस घंटे बोल रहे हैं, जिनसे कोई लाभ भी नहीं है। लेकिन नहीं; हमारा व्यक्तित्व ही, जिसको कहें झूठ हो गया है, वह झूठ बोल रहा है, वह बोलता चला जा रहा है। यह जो ऐसा जो झूठ है, इसे पहचानेंगे तो मन को बड़ी पीड़ा होगी। वह जो हमने अपनी सत्य बोलने वाले की एक प्रतिमा बना रखी है, एकदम खंड-खंड होकर नीचे गिर जाएगी। गिर जानी चाहिए।
वह जिसको भी आत्यंतिक सत्य की खोज है और जिसको भी जान लेना है कि क्या है गहरे से गहरा जीवन का सत्य, जिसको भी पहचान लेना है उसे जिसे परमात्मा कहें, जिसे भी मुक्त हो जाना है--उसे सबसे पहले अपनी झूठी प्रतिमा को तोड़ना पड़ता है। अपने ही हाथों से अपनी ही मूर्ति का भंजन करना होता है।
कितनी हिंसा है! खयाल ही नहीं रहा है कि कितनी हिंसा है! हम सोचते हैं कि शायद हिंसा का मतलब यह है कि किसी आदमी की छाती में छुरा मार दो तो हिंसा हो गई। शब्द छुरे मार सकते हैं, आंख का इशारा छुरा मार सकता है।
जब आप अपने नौकर को देखते हैं, तब आपने खयाल किया, वह आंख वही नहीं होती है, जब आप अपने मित्र को देखते हैं तब होती है। मित्र को जब आप देखते हैं तो आंख वही नहीं होती है, जब आप नौकर को देखते हैं तो आंख दूसरी होती है। नौकर को देखते वक्त आंख में हिंसा होती है। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म हिंसा है, वह हमें खयाल में भी नहीं आती।
हम सोचते हैं, पानी छान कर पी लेते हैं, हम अहिंसक हो गए! हम सोचते हैं कि हम रात खाना नहीं खाते, अहिंसक हो गए! हम सोचते हैं, हम मांसाहार नहीं करते, हम अहिंसक हो गए! हम मछली नहीं खाते, हम अहिंसक हो गए! ठीक है। हिंसा इतनी ही होती तो ठीक था। हिंसा बहुत गहरी है, हिंसा बहुत-बहुत रोएं-रोएं में समा गई है। आदमी चलता है तो पता चल सकता है कि आदमी हिंसक है कि नहीं। उसकी चाल में हिंसा हो सकती है, उसके उठने-बैठने में हिंसा हो सकती है, उसके माथे की बलों में हिंसा हो सकती है और उसे पता भी नहीं होगा! वह सब उसमें जीते-जीते इतना पक गया है कि उसे पता भी नहीं चलेगा कि वह किस तरह की हिंसाएं कर रहा है! वह हंस सकता है और हंसने में हिंसा हो सकती है। वह किसी का व्यंग्य कर सकता है और व्यंग्य में हिंसा हो सकती है। वह मजाक कर सकता है और मजाक में हिंसा हो सकती है।
वायलेंट माइंड का सवाल है। अगर भीतर हिंसक चित्त है, तो हम जो भी करेंगे, उसमें हिंसा होगी।
यह भी हो सकता है, वह आदमी सारी दुनिया से छूट कर भाग जाए, वह जंगल में अकेला बैठ जाए, तो भी हिंसा जारी रहेगी। हिंसा हमारे व्यक्तित्व के भीतरी रसों का सवाल है। वह हमारे भीतरी केमिस्ट्री का सवाल है। और उसको पहचानना पड़ेगा। कि हम उठते-बैठते, बात करते, चीत करते, चलते, सोते हिंसक तो नहीं हैं?
महावीर एक ही करवट सोते थे। महावीर ने सोते में करवट नहीं बदली। बुद्ध एक करवट सोते थे। आनंद उनका भिक्षु वर्षों तक उनके साथ सोया। वह बहुत हैरान हुआ कि वे रात में करवट क्यों नहीं बदलते! एक दिन आनंद ने बुद्ध को पूछा कि बड़े आश्र्चर्य की बात हैआप रात भर करवट नहीं बदलते? मैं कल पूरी रात जाग कर देखता रहा कि आप करवट बदलते हैं कि नहीं, पर आपने जहां हाथ रखा, रखा; जहां पैर रखा, रखा! फिर आप रात भर वैसे ही सोए रहे!
बुद्ध ने कहा: अकारण करवट बदलने में हिंसा हो सकती है। कोई कीड़ा-मकोड़ा आ गया हो, पीछे विश्राम करता हो, सो गया हो, रात के अंधेरे में करवट बदलूं, अकारण--क्या जरूरत है? जीवन में एक बार करवट बदली थी और तब खयाल आया कि बिना करवट बदले भी सोना हो सकता है तो क्यों बदलूं!
तो आनंद ने पूछा: क्या होश से सोते हैं पूरी रात, होश रखते हैं? क्योंकि हमसे तो करवट बदल जाती है, हम बदलते थोड़े ही हैं।
बुद्ध ने कहा: नहीं, होश से नहीं, मन जितना शांत हो गया है, उतनी करवट बदलनी कम हो गई है।
आप हैरान होंगे, मन जितना अशांत होगा, रात उतनी करवट ज्यादा बदली जाएगी। वह जो करवट बदलना है, वह वायलेंट माइंड का हिस्सा है। एक अशांत आदमी बैठेगा तो बैठे टांग हिलाता रहेगा। कोई पूछे कि ये टांगें किसलिए हिल रही हैं? यह क्या हो गया है टांगों को? कुर्सी पर बैठे हैं, लेकिन टांगें क्यों हिलती हैं? भीतर वायलेंस है, वह वायलेंस कंपा रही है, वह टांगों को हिला रही है।
अब यह टांगों के हिलने में वायलेंस हो सकती है, हिंसा हो सकती है। तो किसी की छाती में छुरा मार कर ही पता नहीं चलता। वह तो हमारे पूरे व्यक्तित्व की अंतर-धारा पहचाननी पड़ेगी कि ये पैर क्यों हिल रहे हैं अकारण? ये पैर क्यों हिलते हैं?
जैसे-जैसे आदमी शांत होगा, उसका शरीर भी शांत होता चला जाएगा, उसके कंपन कम हो जाएंगे, क्योंकि कंपन भीतर की हिंसा से पैदा होते हैं।
यह व्यक्तित्व की एक-एक पर्त को उघाड़ कर देखना होगा। जैसा व्यक्तित्व है, उसे पहचानना होगा।
रास्ते पर आप जा रहे हैं, दो आदमी लड़ रहे हैं, आप खड़े होकर देख रहे हैं। आपने कभी भी नहीं सोचा होगा कि यह हिंसा है। दो आदमी लड़ रहे हैं, आप खड़े होकर क्यों देख रहे हैं? आपको खड़े होकर देखने में रस आ रहा है कि नहीं? और अगर झगड़ा ऐसे ही खत्म हो जाए, बिना मार-पीट हुए, तो आप थोड़े से दुखी लौटेंगे कि नहीं? कि व्यर्थ ही खड़े रहे, कुछ निकला नहीं! थोड़ा सा मन उदास होकर लौटेगा। और अगर तेजी से झगड़ा हो जाए, छुरेबाजी हो जाए और लहू बह जाए तो आप थोड़े से हलके होकर लौटेंगे। मन थोड़ा निश्र्चिंत हो गया होगा। ऐसा लगेगा कि कुछ हुआ, कुछ देखा।
आखिर ये फिल्में, डिटेक्टिव फिल्में, और खूनी और हत्याओं की कहानियां क्यों पढ़ी जाती हैं? ये हिंसक चित्त के कारण। जितना दुनिया में हिंसक चित्त बढ़ता चला जाएगा, उतना हिंसक चित्र, हिंसक कथाएं रस देती हैं। क्यों? क्योंकि हिंसक कथा को देखते-देखते आप भूल जाते हैं कि आप कथा के हिस्से नहीं हैं--आप कथा के हिस्से हो जाते हैं! अगर आप एक जासूसी फिल्म देख रहे हैं तो आप भूल जाते हैं, किसी के साथ आइडेंटिटी हो जाती है आपकी! नायक के साथ आप एक हो जाते हैं। आप देखेंगे कि जब नायक घोड़े पर भागा जा रहा है तेजी से तो आप भी कुर्सी पर अकड़ कर बैठ गए हैं। झुके हुए नहीं रह गए हैं। आप क्यों अकड़ कर बैठ गए हैं? यह आपकी रीढ़ को क्या हो गया? यह आकस्मिक नहीं है, यह भीतर की हिंसा है। आप भी किसी घोड़े पर इसी तरह बैठ कर, इसी गति से यात्रा करना चाहते हैं। किसी की छाती में इसी तरह भाला भोंकना चाहते हैं, वह भोंक नहीं सके हैं आप, कहानी में देख कर रस ले रहे हैं, तृप्ति कर रहे हैं।
वहां स्पेन में भैंसों के साथ आदमियों को लड़ाया जाता है। लाखों लोग देखने इकट्ठे होते हैं। भारी धूप है, आग बरस रही है और घंटों वे बैठे हुए हैं कि भैंसे से एक आदमी लड़ रहा है। और भैंसे के सींग उसकी छाती में घुस गए हैं और लाखों लोग उत्सुकता और आतुरता से उसके गिरते हुए खून को देख रहे हैं! इनको क्या हो गया है? इन आदमियों को क्या हो गया है? कुश्ती देखने हजारों-लाखों लोग इकट्ठे होते हैं, किसलिए? भीतर की हिंसा को रस मिलता है।
यह रस पहचानना पड़ेगा, तो हमें अपनी प्रतिमा का पता चलेगा कि प्रतिमा कैसी है? यह हम कैसे आदमी हैं? यह हमारे भीतर क्या हो रहा है?
जो अखबार जितनी हत्याओं की, आत्महत्याओं की, स्त्रियों को भगाने की खबरें छापता हो, वह उतना ही ज्यादा बिकता है। कौन पढ़ता है इसे? जो लोग पढ़ते हैं, उनके भीतर की किसी हिंसा को, किसी बात को रस-उपलब्धि होती है। वे इसको पढ़ कर सुखी होते हैं, कहीं उन्हें कुछ आनंद आता है। यह आनंद हिंसा है। और इसे पहचानना पड़ेगा। और ये तथ्य हैं। और किसी भविष्य में आप अहिंसक नहीं हो जाने वाले हैं। इन तथ्यों को आज और यहीं देखना पड़ेगा।
गांधी जी के आश्रम में एक दिन सुबह रामायण की कथा पढ़ी जाती थी। और एक प्रसंग आया--एक बहुत अदभुत प्रसंग है--प्रसंग आया कि सीता को रावण चुरा कर ले गया है, तो सीता अपने हाथ के, पैर के, अपने गले के जो आभूषण थे, वे फेंकती गई, ताकि पीछे राम खोजने आएं तो उन्हें रास्ते का पता हो सके कि सीता किस रास्ते से ले जाई गई है। फिर राम आए और उन्हें वे आभूषण मिल गए।
लेकिन राम तो आभूषण नहीं पहचान सके। तो उन्होंने लक्ष्मण को कहा कि ये आभूषण तुझे पहचान में आते हों, ये सीता के ही हैं? क्योंकि मैं तो कभी देख ही नहीं पाया, मैंने तो खयाल ही नहीं किया।
तो लक्ष्मण ने कहा: मैं सिर्फ पैर के आभूषण पहचान सकता हूं, क्योंकि मैंने पैर के ऊपर कभी आंख उठा कर नहीं देखा।
तो गांधी जी ने कहा: यह बड़ी हैरानी की बात है कि लक्ष्मण इतने दिन साथ था। तीनों थे अकेले--राम थे, सीता थी, लक्ष्मण थे। तीनों ही वर्षों जंगल में साथ हैं। और लक्ष्मण ने कभी आंख उठा कर नहीं देखा! यह बड़ी हैरानी की बात है! इसका क्या मतलब?
तो विनोबा ने कहा: इसका मतलब है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी था और वह ऊपर आंख उठा कर उसने नहीं देखा। उसने सिर्फ पैर ही देखे।
और गांधी जी तृप्त हुए और उन्होंने कहा कि विनोबा की व्याख्या अदभुत है और बिलकुल सही है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं: यह विनोबा की व्याख्या एकदम गलत है। और अगर यह व्याख्या सही है तो लक्ष्मण एकदम ही व्यभिचारी चित्त का आदमी था, अगर यह व्याख्या सही है। क्योंकि लक्ष्मण सीता को भी देखने में डरे, यह ब्रह्मचर्य का सबूत नहीं हो सकता। सीता को भी देखने में डरे, यह ब्रह्मचर्य का सबूत नहीं हो सकता! यह व्यभिचारी चित्त का सबूत तो हो सकता है। लक्ष्मण ब्रह्मचर्य की स्थिति में हो तो सीता को देखने न-देखने में क्या फर्क पड़ता है? और ऐसे नजर नीचे ही नीचे रखनी पड़े पैर ही पैर पर, वर्षों तक, और नजर ऊपर जाने में डर लगे, तो रोकनी पड़े, और नियम रखना पड़े कि नजर पैर पर ही रखनी है। यह बहुत घबड़ाए हुए चित्त का लक्षण है। विनोबा ने लक्ष्मण की प्रशंसा नहीं की--इससे बड़ी कोई निंदा नहीं हो सकती।
लेकिन गांधी और विनोबा को वह बात जंची। वह जंची उनको इसलिए नहीं कि वह बात सही है, वह जंची इसलिए कि उनके ब्रह्मचर्य की धारणा यही है।
यह ब्रह्मचर्य नहीं है, यह अबह्मचारी चित्त का लक्षण हुआ। यह हमें पहचानना पड़ेगा, यह हमें अपने भीतर खोज करनी पड़ेगी। किसी स्त्री के चेहरे को हम इसलिए भी देख सकते हैं कि भीतर काम है, वासना है। और किसी स्त्री के चेहरे को देखने से हम आंख इसलिए भी बचा सकते हैं कि भीतर काम है और वासना है। अगर भीतर काम और वासना नहीं है तो न चेहरे को देखने की कोई विशेष चेष्टा होती है, न न-देखने की कोई विशेष चेष्टा होती है। देखने की या न देखने की विशेष चेष्टा भीतर के काम का सबूत है। विशेष चेष्टा--भीतर काम का सबूत है।
सहज आप वृक्ष को देख लेते हैं, ऊपर भी देखते हैं, नीचे भी देखते हैं। और अगर वृक्ष सुंदर होता है तो आप कहते हैं, अहा, बहुत सुंदर है! लेकिन कोई नहीं कहता है कि यह आदमी कामी है। फूल है, खिला है, आप देख लेते हैं, अपने रास्ते पर बढ़ जाते हैं और कहते हैं, बहुत सुंदर हैं, लेकिन कोई नहीं कहता कि यह आदमी कामी है। और अगर एक स्त्री का चेहरा बहुत सुंदर है और आप देखते हैं, देखते हैं आगे बढ़ जाते हैं और कहते हैं, बहुत सुंदर हैं, तो लोग कहेंगे कि यह आदमी कामी है!
यह आश्र्चर्यजनक बात है। अगर एक पुरुष का चेहरा सुंदर है और एक स्त्री खड़े होकर देखती है और कहती है, सुंदर है, तो हम कहेंगे, यह स्त्री कामी है! अगर सरलता जीवन में हो तो जैसे फूल सुंदर है, जैसे चांद सुंदर है, वैसे आदमी के चेहरे भी सुंदर होते हैं। स्त्री के चेहरे भी सुंदर होते हैं। आंखें भी सुंदर होती हैं। और जिस दिन दुनिया अच्छी होगी और भली होगी, उस दिन हम किसी अजनबी को रास्ते पर रोक कर कह सकेंगे कि बहुत सुंदर आंखें हैं तुम्हारी, बहुत आनंद हुआ। नमस्कार!
लेकिन आज अगर किसी को ऐसा रोक कर कहें तो झगड़ा भी हो सकता है, क्योंकि चित्त कामुक है! वह चित्त सेक्सुअल है! वह चीजों को सेक्स सिंबल में ही लेता है! अगर किसी स्त्री को रोक कर कह दें कि बहुत सुंदर आंखें हैं, बहुत खुश हुआ, तो झंझट हो जाएगी, क्योंकि स्त्री पूछेगी, तुम मेरे कौन हो--भाई हो, पति हो, मेरे बेटे हो, कौन हो? पहले यह सिद्ध करो। अगर यह कोई भी नहीं हो तो अजनबी राह चलते तुमने मेरी आंखों के सौंदर्य की बात कैसे की है? ब्रह्मचारी को पैर पर नजर रखनी चाहिए। तुमने आंखें देखी ही कैसे?
लेकिन हमें पता नहीं है कि पूरी सभ्यता कामुक है। और हमारे सारे प्रतिमान कामुकता के हैं। और हम पहचान भी नहीं पाते। और जब हम इस तरह की व्याख्याएं कर लेते हैं तो कामुकता को जानना मुश्किल हो जाता है।
नहीं, भीतर एक-एक पर्त उघाड़ कर देखनी पड़ेगी कि मैं जो कर रहा हूं, जो सोच रहा हूं, जो जी रहा हूं, वह क्या है? अपनी नग्नता में वह सीधा और सच क्या है? वह सीधा और सच जो है, अगर देखा जा सके तो उससे तत्क्षण छुटकारा हो सकता है।
धर्म क्रांति है, धर्म विकास नहीं है। लेकिन क्रांति होती है तथ्य के दर्शन से।
इसलिए आज की इस बैठक में मैंने आपसे यह कहा: मत सोचें कि कल आप ऐसे हो जाएंगे। आज क्या हैं, उसे देखें। भविष्य के तनाव को बिलकुल छोड़ दें। वह बिकमिंग का खयाल कि मैं यह हो जाऊंगा, बिलकुल छोड़ दें। जो हैं, उसे जानें।
और आश्र्चर्य की घटना घटती है कि जो हैं, उसे जानते ही जो गलत है वह विसर्जित हो जाता है, जो श्रेष्ठ है वह प्रकट हो जाता है। जो हैं, उसे जानते ही, और भीतर, और भीतर प्रवेश शुरू हो जाता है, क्योंकि निकृष्ट गिरने लगता है, व्यर्थ गिरने लगता है, कुरूप विसर्जित होने लगता है; सुंदर खिलने लगता है, शिव प्रकट होने लगता है, सत्य की निकटता बढ़ने लगती है। और एक दिन वह जो वस्तुतः हम हैं भीतर, वह प्रकट हो जाता है। एक दिन का मेरा मतलब कल से नहीं; एक दिन से मेरा मतलब--अभी, यहीं, इसी क्षण। जितनी तीव्रता होगी तथ्य को जानने की, सत्य के हम उतने ही निकट पहुंच जाते हैं।
लेकिन हमारे मन की जो आदत है, वह कहेगी, आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। हम इसका प्रयोग करेंगे, बस बात खत्म हो गई, वहीं सब व्यर्थ हो गया। आपका मन कह रहा होगा कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, करेंगे। करेंगे नहीं; करना है--अभी, आज, यहीं। सारा जोर मेरा इस क्षण पर है, क्योंकि इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है। जो होगा, वह इस क्षण में ही हो सकता है। नहीं करना हो, तो फिर कल के क्षण की बात सोची जा सकती है। नहीं करना हो तो सोचना चाहिए, कल करेंगे। जो भी न करना हो उसे कल पर टाल देना चाहिए, जो भी करना हो--उसे अभी।
यह अगर हम अतीत के बोझ से और भविष्य की योजना से मुक्त हो जाएं तो जीवन बदल जाता है। ऐसा जीवन, जिस पर अतीत का बोझ नहीं, भविष्य का तनाव नहीं, ऐसे जीवन को मैं भागवत जीवन, डिवाइन लाइफ कहता हूं। ऐसा जीवन भगवान को उपलब्ध हो जाता है।
इन्हें, यह जो मैंने कहा, इन्हें आप इस तरह मत सोचना कि मैं जो कह रहा हूं, वह ठीक है या गलत है; वह किस किताब में लिखा है या नहीं लिखा है। इन्हें आप इस तरह मत सोचना, क्योंकि इस तरह सोचने से कोई भी अर्थ, प्रयोजन नहीं है। इन्हें आप इस तरह सोचना कि जो मैंने कहा है, वह आपके भीतर सही है या गलत।
इस तरह सोचना, इस दिशा में सोचना कि मेरे भीतर यह सही है या गलत। इस तरह मत सोचना, अभी जैसे मैंने गांधी की बात कही, या विनोबा की बात कही। न मुझे विनोबा से कोई मतलब, न गांधी से कोई मतलब। इस तरह मत सोचना कि गांधी ने ऐसा क्यों कहा, कहा कि नहीं कहा; या दूसरी बात कही विनोबा ने, कुछ और मतलब रहा होगा। इससे कोई लेना-देना नहीं है, न विनोबा से कुछ लेना, न गांधी से। सवाल यह है कि जब आप किसी स्त्री के पैर पर ही आंख रखें और ऊपर आंख उठाने की हिम्मत न पड़े तो खोज करना कि बात क्या है? तो खोज करना कि मामला क्या है? मैं डरा हुआ क्यों हूं? यह आंख ऊपर सरलता से क्यों नहीं उठती? उससे संबंध है।
और जब रास्ते पर रुक जाएं आप, और किसी को लड़ते देखें तो उस वक्त देखना कि चित्त कोई प्रसन्नता अनुभव कर रहा है? चित्त चाहता है कि झगड़ा हो जाए? ठीक से हो जाए? अपने पर खोजना, अपने पर देखना। तो जो मैं कह रहा हूं, उसका कोई परिणाम हो सकता है। और वह क्रांति आ सकती है, जिस दिशा के लिए सारी चेष्टा है।
अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।
थोड़े-थोड़े फासले पर हो जाएं। चुपचाप बिना बात किए। धूप से हट आएं। तकलीफ न हो, कहीं छाया में हो जाएं। हूं, बिना बात किए जल्दी से बैठ जाएं।
शरीर को एकदम शांत और शिथिल छोड़ दें। आंख आहिस्ता से बंद कर लें। दस मिनट के लिए बिलकुल मिट जाना है, प्रकृति के साथ एक हो जाना है। इन वृक्षों के, धूप के, हवाओं के साथ एक हो जाना है। और फिर जो भी चारों तरफ होता रहे, उसे चुपचाप जानते रहना है--सिर्फ एक द्रष्टा, एक साक्षी की भांति। कुछ करना नहीं है, भीतर कुछ भी नहीं करना है, जो हो रहा है उसे जानते रहना है, देखते रहना है। आवाज सुनाई पड़े, सुनते रहना है। जो भी हो--धूप आंख पर पड़े, उसे जानते रहना है। हम एक हिस्सा हैं इन दरख्तों के, इस जमीन के, इस आकाश के, इस धूप के, इस हवा के, हम एक हिस्सा हैं, हम अलग नहीं हैं। और हमें कुछ भी नहीं करना है, जो भी हो रहा है, वह परमात्मा कर रहा है। वह हो रहा है। हमें सिर्फ जानना है, सिर्फ देखना है। क्या हो रहा है--भीतर-बाहर जो भी हो रहा है, उसे जानते रहना है। भीतर कोई विचार चलें, उन्हें जानते रहना है; श्वास चले, उसे जानते रहना है; हृदय की धड़कन सुनाई पड़ने लगे, उसे जानते रहना है; कोई पक्षी की आवाज आए, उसे जानना है; कोई बच्चा रोने लगे, उसे जानना है। बस ‘जानने’ का एक बिंदु हम रह जाएंगे।
अब शरीर को शिथिल छोड़ दें। आंख बंद कर ली है। दस मिनट के लिए मिट जाएं।
हम नहीं हैं, एक हिस्सा हो गए समस्त का। और जानते रहें--हवाएं चलेंगी, जानते रहें; आवाज आएगी, जानते रहें। और जानते-जानते ही मन शांत होता चला जाएगा...जानते-जानते ही मन शांत होता चला जाता है...।
देखें...अनुभव करें...जानें और मन शांत होता चला जाएगा...मन धीरे-धीरे शांत होता चला जाएगा...जैसे-जैसे आप जागेंगे भीतर वैसे-वैसे मन शांत होता चला जाएगा...। सोया मन अशांत होता है, जागा मन शांत होता है। जागें, पूरे जागरूक साक्षी बन कर अनुभव करते रहें।
अब दस मिनट के लिए अनुभव करें, जो भी है, जैसा भी है।
(एक साधक का जोर-जोर से रोना....)
बस जागे हुए देखते रहें, अनुभव करते रहें, जो भी होता हो होने दें। छोड़ दें अपने को, बिलकुल एक हो जाएं। जो भी होता हो, हो। जागे रहें, जागे रहें...बिलकुल छोड़ दें, जैसे हैं ही नहीं, मिट जाएं, जो भी होता हो होने दें। मन धीरे-धीरे शांत होता चला जाएगा...।
मन शांत होता चला जाएगा...मन शांत होता चला जाएगा...मन शांत होता चला जाएगा...जानते रहें, जानते रहें...बस जागे हुए जान रहे हैं, कुछ करना नहीं है, अपने को बिलकुल छोड़ दें, जो भी होता हो होने दें। आंसू बह जाएं, बह जाएं; रोना आ जाए, आ जाए; शरीर गिर जाए, गिर जाए, अपने को बिलकुल छोड़ दें...सिर्फ जानते रहें, जो भी हो रहा है, जानते रहें...बिलकुल छोड़ दें जैसे हैं ही नहीं। जो भी हो रहा है, हो रहा है, हम सिर्फ जान रहे हैं। मन शांत होता जाएगा...मन शांत होता जाएगा...मन बिलकुल शांत हो जाएगा...।
मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...जागे हुए, होश से भरे हुए बैठे रहें। होश, जागरण, भीतर साक्षी बने रहें जो भी हो रहा है। बाहर-भीतर जो भी है जानते रहें और अपने को बिलकुल छोड़ दें...और गहरे में, और गहरे में...मन शांत होता जाएगा...मन शांत होता चला जाएगा...।
मन शांत होता जा रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन गहरी शांति में उतरता जा रहा है...।
छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...जो भी हो हो...मन शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...बिलकुल छोड़ दें, शरीर को बिलकुल छोड़ दें--गिरे गिर जाए, कोई भीतर नियत्रंण न रखें; आंसू आते हों आ जाएं, उससे हलका हो जाएगा, बहुत कुछ बह जाएगा जो बंधा है, उसे छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें।
मन शांत हो गया है...मन शांत होता जा रहा है...मन बिलकुल शांत हो जाएगा, भीतर एक शून्य आ जाएगा। धूप है, हवाएं हैं, वृक्ष हैं, पक्षियों की आवाज है, लेकिन हम, हम मिट गए हैं। एक शांति, एक शून्य भीतर पैदा हो जाएगा। मन शांत हो गया है...।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ और भी शांति आती मालूम होगी। दो-चार गहरी श्वास लें...फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...जैसी शांति भीतर है वैसी बाहर भी है। धीरे-धीरे आंख खोलें...।
चार बजे मौन के लिए हम मिलेंगे। तो चार बजे जब यहां आएं, उसके आधा घंटे पहले से ही चुप होने की कोशिश करें, मौन होने की कोशिश करें। बात बंद कर दें। कम कर दें। स्नान करके आ सकें तो अच्छा। कपड़े बदल कर आ जाएं। फिर चुपचाप यहां बैठ जाएं। उस घंटे भर में किसी को भी लगे कि मेरे पास आना है, वह दो मिनट के लिए मेरे पास आ जाए, फिर चुपचाप अपनी जगह चला जाए।
सुबह की बैठक हमारी पूरी हुई।