YOG/DHYAN/SADHANA
Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat 03
Third Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है कि यदि मेरे कहे अनुसार प्रत्येक व्यक्ति निष्क्रिय ध्यान में चला जाए, तब तो दुनिया का काम बंद हो जाएगा, तब तो सारी क्रियाएं बंद हो जाएंगी, तब तो बहुत असुविधा होगी?
इस संबंध में पहली तो बात यह समझ लेनी जरूरी है कि क्रिया उतनी ही सफल और कुशल होती है जितना व्यक्ति अक्रिया में होता है। अक्रिया में जाने से क्रियाएं बंद नहीं होतीं, सिर्फ कर्ता मिट जाता है। क्रियाएं तो जारी रहती हैं, सिर्फ यह भाव मिट जाता है कि मैं करने वाला हूं। और इस भाव के मिटने से दुनिया में असुविधा नहीं होगी, बहुत सुविधा होगी। इसी भाव के कारण दुनिया में बहुत असुविधा है।
प्रत्येक को खयाल है कि मैं कर रहा हूं! कर तो हम बहुत कम रहे हैं, कर्ता बहुत बड़ा खड़ा कर लेते हैं! उन कर्ताओं में, उन अहंकारों में संघर्ष होता है। दुनिया में जितनी असुविधा है, वह अहंकारों के संघर्ष से पैदा होती है।
दूसरी बात, जितनी ही भीतर शांति होगी, निष्क्रिय चित्त होगा, मौन आत्मा होगी, उतनी ही वह मौन आत्मा शक्ति का स्रोत बन जाती है।
जितनी बेचैन, अहंकारग्रस्त, द्वंद्व से भरी, अशांत, तनावग्रस्त आत्मा होगी, उतनी ही शक्तिहीन हो जाती है।
हम शक्ति के पुंज नहीं हैं, क्योंकि हमारे द्वंद्व में, मन की चिंता में, अशांति में, अहंकार में हमारी सारी शक्ति व्यय हो जाती है। अगर कोई व्यक्ति भीतर बिलकुल निष्क्रिय और शांत हो जाए तो शक्ति का जलता हुआ अंगार बन जाएगा, शक्ति का रिजर्वायर होगा। इतनी शक्ति होगी उसके पास कि जिसका कोई हिसाब नहीं। और चूंकि उसके कर्ता का अहंकार भी मिट चुका होगा, इसलिए परमात्मा की सारी शक्ति उसकी शक्ति हो जाएगी। वह जो दीवाल है, वह हट गई, अब परमात्मा की या विश्र्व की सारी शक्ति उससे जुड़ गई है। इस शक्ति के साथ और समग्ररूपेण समर्पित वह व्यक्ति परमात्मा के हाथ में एक क्रिया का स्रोत बन जाएगा।
लेकिन तब उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कर रहा हूं, तब ऐसा ही लगेगा परमात्मा कर रहा है, परमात्मा करा रहा है। ऐसा ही लगेगा कि हो रहा है, मैं नहीं कर रहा हूं।
बैलगाड़ी को चलते देखा है हमने। चाक चलता है बैलगाड़ी का, लेकिन बीच में एक कील है जो खड़ी रहती है, चलती नहीं है। उस खड़ी हुई कील पर चलता हुआ चाक घूमता है। वह कील खड़ी है, इसलिए चाक घूम पाता है। अगर वह कील भी घूम जाए तो चाक गिर जाए। वह चाक उतनी ही कुशलता से घूमता है, जितनी दृढ़ता से कील खड़ी हो। ये दोनों उलटी बातें मालूम पड़ती हैं--खड़ी हुई कील, घूमता हुआ चाक!
जितना मनुष्य भीतर निष्क्रिय होता है, उतना ही उसके जीवन की सक्रियता का चक्र कुशलता से घूमने लगता है। भीतर आत्मा की कील खड़ी होती है और व्यक्तित्व की क्रिया का चाक घूमता है। लेकिन ऐसा नहीं लगता, कील ऐसा नहीं जानती कि मैं घूम रही हूं; कील जानती है, चाक घूम रहा है, मैं खड़ी हूं।
ध्यानस्थ व्यक्ति जानता है, मैं ठहरा हुआ हूं। मैं, वह जो अंतर्तम है, वह रुका है, वह नहीं चल रहा है। चलने का सारा प्रवाह बाहर है--चाक है, परिधि है, सरकमफ्रेंस है। वह जो सेंटर है, वह जो केंद्र है, वह मौन और चुप है।
जीवन में सबसे बड़ी कला यही है कि भीतर निष्क्रियता हो और बाहर क्रिया हो। और जीवन का सबसे बड़ा सार-सूत्र यह है कि जीवन परस्पर विरोधी चीजों से निर्मित है।
एक श्र्वास भीतर जाती है, तत्क्षण दूसरी श्र्वास बाहर जाती है। श्र्वास बाहर गई नहीं कि फिर भीतर चली जाती है। हम कभी नहीं कहते कि हम भीतर श्र्वास ले गए, अब हम बाहर न ले जाएंगे। अगर हम बाहर ले गए, तो भीतर कैसे ले जा सकेंगे। हम यह भी नहीं कहते कि बाहर श्वास चली गई, अब हम भीतर क्यों ले जाएं। जब बाहर निकल ही गई तो निकल ही जाने दो, अब बार-बार भीतर ले जाने की क्या जरूरत है। लेकिन श्र्वास बाहर जाती है और भीतर जाती है और इन दो विरोधी डाइमेन्शन में, दो विरोधी आयाम में हमारा जीवन है--बाहर और भीतर, बाहर और भीतर।
दिन भर हम जागते हैं, रात हम सो जाते हैं। हम यह नहीं कहते कि अगर हम सो गए तो सोना तो जागने से बिलकुल उलटा है, तो फिर हम जागेंगे कैसे? हम यह भी नहीं कहते कि हम जाग गए तो हम सोएंगे कैसे, जागना तो सोने से बिलकुल उलटा है।
जागना क्रिया है, सोना अक्रिया है।
लेकिन मजे की बात है, अगर रात भर ठीक से न सो पाए तो दूसरे दिन ठीक से जाग न पाएंगे। ठीक से जो सोता है, वह ठीक से जागता है। इसका मतलब हुआ: जो ठीक से निष्क्रिय हो जाता है रात में, दूसरे दिन सुबह उतना ही सक्रिय हो जाता है। और जो जितना सक्रिय होता है दिन में, उतनी गहरी निष्क्रियता में रात चला जाता है।
जीवन विरोधों पर खड़ा है, जीवन का सारा खेल विरोध पर है। दो विरोधों को मिल कर जीवन की सारी गति है।
तो जब मैं कह रहा हूं कि ध्यान की निष्क्रियता में चले जाएं तो उसका अर्थ यह नहीं है कि आप मर जाएंगे, कि आपकी क्रिया खो जाएगी। नहीं, कर्ता का अहंकार खो जाएगा। और जितने गहरे ध्यान में जाएंगे, उतनी ही गहरी क्रिया बाहर हो जाएगी। जितनी गहरी श्र्वास भीतर ले जाएंगे, उतनी ही गहरी श्र्वास बाहर जाएगी। भीतर की गहराई और बाहर की गहराई, हमेशा अनुपात में बराबर होती है।
जो जितनी निष्क्रियता में जा सकता है, वह उतना ही सक्रिय हो सकता है।
ये वृक्ष हम देखते हैं। ये वृक्ष जितने ऊपर दिखाई पड़ते हैं आपको, उतने ही गहरे नीचे इनकी जड़ें गई हुई हैं। जो वृक्ष आकाश की तरफ जितना ऊंचा गया है, उतना ही पाताल की तरफ उसे नीचे भी जाना पड़ा। आप कहेंगे, नीचे! नीचे और ऊंचा तो उलटे आयाम हैं! अगर नीचे चले गए तो फिर ऊपर कैसे जाएंगे? वृक्ष अगर कहे कि अगर मैं जड़ें नीचे ले गया तो फिर ऊपर कैसे जाऊंगा? मुझे ऊपर जाना है। तो मैं नीचे नहीं जाता हूं। तो फिर याद रखना, वह वृक्ष कभी ऊपर नहीं जा सकेगा। जितना वृक्ष नीचे जाता है, उतना ही ऊपर जा सकता है। जिस वृक्ष को आकाश छूना हो, उस वृक्ष को पाताल भी छूना पड़ता है।
जितना सक्रिय होना हो, उतना ही निष्क्रिय होना जरूरी है। एक ही फर्क पड़ेगा, कर्ता खो जाएगा। जितनी निष्क्रियता बढ़ेगी, जितना ध्यान बढ़ेगा, जितना मौन बढ़ेगा, उतना ही कर्ता मिट जाएगा। क्रिया तो रहेगी, कर्ता नहीं रहेगा।
और जब कर्ता नहीं होगा तो यह कहने का कारण नहीं होगा कि मैं कर रहा हूं। तब ऐसा ही लगेगा हो रहा है। जैसे पानी गिरता है, बिजली चमकती है, नदी बहती है, ऐसा ही सब हो रहा है, ऐसा प्रतीत होगा। ऐसी प्रतीति जिस व्यक्ति को हो जाती है, जानना कि वह व्यक्ति परमात्मा को समर्पित हो चुका है।
परमात्मा को समर्पण का इतना ही अर्थ है कि अपना कर्तापन खो गया। अब जो विराट क्रिया का जगत है, जो विराट सृजन चल रहा है, जो विराट गति चल रही है, उस गति के हम एक भाग और अंश हो गए हैं, उससे हम पृथक नहीं हैं।
इसलिए यह मत सोचें कि अगर मेरी बात मान कर सब निष्क्रिय हो जाएं तो क्या होगा। अगर मेरी बात मान कर कोई निष्क्रिय हो जाए तो जगत में इतनी क्रिया का जन्म होगा कि जिसका हमने अब तक कोई अनुभव नहीं किया है। आज तक भी जगत में वे ही लोग सक्रिय रहे हैं--कृष्ण जैसे लोग--कितनी क्रिया है! लेकिन भीतर सब मौन! भीतर जब मौन डगमगा जाता है, तो क्रिया में कुशलता नहीं बढ़ती, क्रिया अकुशल हो जाती है।
एक खलीफा था उमर। कुछ वर्षों से दुश्मन से युद्ध में लगा हुआ था। सात वर्ष हो गए थे, अनेक लड़ाइयां हुई थीं। कोई जीत नहीं हो सकी, कोई निर्णय नहीं हो सका। न उमर जीतता था, न दुश्मन जीतता था। आखिरी लड़ाई चल रही थी और ऐसा लगता था कि कुछ निर्णायक फैसला हो जाएगा। भरी दोपहर है, उमर का दांव सफल हो गया है। दुश्मन का घोड़ा गिर गया, दुश्मन जमीन पर गिर पड़ा। उमर ने छलांग लगाई अपने घोड़े से और उसकी छाती पर सवार हो गया। निकाला भाला, उसकी छाती में छेदने को है कि उस नीचे पड़े दुश्मन ने--मरता आदमी अंतिम कुछ भी कर सकता है--उमर के मुंह पर थूक दिया!
एक क्षण उमर का वह जो भाला उठा था छाती में जाने को, ठहर गया! उसके थूकते ही ठहर गया! फिर वापस भाला उसने अपने स्थान पर रख दिया! उठ कर खड़ा हो गया और अपने दुश्मन को कहा कि उठ आइए, फिर सुबह कल लड़ेंगे!
उसके दुश्मन ने कहा: पागल हो गए हो! सात वर्षों से इसी की खोज में तुम थे, ऐसे अवसर की। और इसी अवसर की खोज में मैं था। आज तुम्हें मौका मिला है, आज तुम छोड़ते हो मुझे! भाले को घुस जाने दो। क्या कारण हो गया छोड़ने का?
उमर ने कहा: छोड़ता हूं, क्योंकि एक संकल्प था, एक भाव था, एक योजना थी कि जब तक शांत हूं तभी तक लडूंगा। अशांत हो गया कि फिर नहीं लडूंगा। तुमने थूक दिया और मैं अशांत हो गया। भीतर डगमगा गया थोड़ा और मन हुआ कि भोंक दूं, तब फिर मुझे लगा कि अब लड़ाई व्यक्तिगत हो गई। अब ‘मैं’ आ गया। अब कर्ता आ गया। अब तक उसूल की लड़ाई थी, अब तक लड़ते थे सत्य के लिए। अब तक लड़ते थे जो ठीक था उसके लिए। अब तक मैं नहीं लड़ रहा था। अब तक एक विराट योजना का मैं एक अंग था। लेकिन तुमने थूका और ‘मैं’ मौजूद हो गया, वह बात खत्म हो गई! अब नहीं लड़ सकता हूं। कल सुबह फिर!
क्या मतलब हुआ इसका? फिर ऐसे आदमी से कोई लड़ता है? वह दुश्मन तो मित्र हो गया। वह तो पैरों पर गिर पड़ा। उसने कहा: मुझे पता भी नहीं कि तुम सात वर्षों से शांति से लड़ते थे! तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं था, वैमनस्य नहीं था, ईर्ष्या नहीं थी!
यह हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि ऐसा आदमी भी हो सकता है, जिसके भीतर क्रोध न हो, ईर्ष्या न हो, वैमनस्य न हो। यह हम सोच ही नहीं सकते कि ऐसा आदमी भी सक्रिय हो सकता है, जो निष्क्रिय हो। हमारे सोचने-समझने के ढंग बहुत गणित की लकीर पर चलते हैं। और जिंदगी गणित की लकीर पर नहीं चलती है। जिंदगी के गणित बहुत बेबूझ हैं, वहां एकदम सीधा-सीधा कुछ भी नहीं होता। वहां बड़ी उलटी चीजें होती हैं।
असल में जिंदगी की पूरी कीमिया, जिंदगी की पूरी केमिस्ट्री हीविरोध पर खड़ी है। वह देखा होगा किसी बड़े भवन पर गोल द्वार पर आर्च बना होता है, मेहराब बना होता है, वह मेहराब कैसे सम्हला होता है, कभी खयाल किया? दोनों तरफ की विरोधी ईंटें दबाव डालती हैं एक-दूसरे पर और मेहराब सम्हला रह जाता है। उस मेहराब में कोई नीचे से खंभा नहीं लगा हुआ है, लेकिन दोनों तरफ से आने वाली ईंटें दबाव डाल रही हैं। दोनों में विरोध पैदा किया है आर्किटेक्ट ने। और उस विरोध पर पूरे भवन को खड़ा किया हुआ है।
जिंदगी का पूरा भवन विरोध पर खड़ा है। नींद है, जागरण है; रात है, दिन है; क्रिया है, अक्रिया है; जन्म है, मृत्यु है। वह जन्म और मृत्यु भी जीवन के मेहराब के दो विरोधी छोर हैं, जिनके दबाव से जिंदगी खड़ी है। उधर जन्म है, इधर मौत है। दोनों उलटी चीजें हैं। हम कभी नहीं पूछते कि जो जन्मता है, वह मर कैसे जाता है! क्योंकि जन्म तो उलटा है और मौत बिलकुल उलटी है। लेकिन हम कहते हैं कि जो जन्मता है, वह मरेगा! क्योंकि जन्म एक छोर है, इससे उलटा छोर होना चाहिए, अन्यथा यह मेहराब न बनेगी जिंदगी की।
उजाला अंधेरे पर खड़ा है। अंधेरा न हो तो उजाला नहीं होगा। और रात दिन पर खड़ी है। दिन न हो तो रात न होगी। स्वास्थ्य बीमारी पर खड़ा है। सारी चीजें बहुत उलटी चीजों पर खड़ी हैं। सारी जिंदगी उलटे दबाव से बना हुआ मेहराब है। और इसलिए मैं कहता हूं: जो निष्क्रिय हो जाता है भीतर, वह बाहर बड़ी सक्रियता को उपलब्ध होता है।
लेकिन हमने ऐसे संन्यासी देखे हैं, जो निष्क्रिय हो गए और जिंदगी से भाग गए!
तो मेरा कहना है, ध्यान रखना, वे निष्क्रिय नहीं हुए। उन्होंने निष्क्रियता को भी ओढ़ा है। वे अगर निष्क्रिय हो जाते तो क्रिया से भाग नहीं जाते। क्रिया से सिर्फ वे ही भागते हैं, जो क्रिया से अधिक डरते हैं। क्रिया से वे ही भागते हैं, जिनकी निष्क्रियता झूठी है। जिनकी निष्क्रियता सच्ची है, उन्हें क्रिया का भय खत्म हो जाता है। क्रिया का तूफान चलता रहे और उनके भीतर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। लेकिन जो डरते हैं कि क्रिया चली और उनकी निष्क्रियता टूटी, उनकी निष्क्रियता थोथी है, सम्हाली गई है, थोपी गई है, कल्टीवेटेड है। और इस तरह के संन्यासियों ने दुनिया में एक गलत धारणा पैदा कर दी कि जो लोग शांत हो जाते हैं, वे जिंदगी से भाग जाते हैं।
ध्यान रहे, शांत आदमी कहीं नहीं भागता, सिर्फ अशांत भागते हैं।
अशांत डरते हैं, इसलिए भागते हैं। शांत आदमी को भागने का कारण ही नहीं रह जाता। शांत तो जहां भी खड़ा है, वहीं खड़ा रहता है, क्योंकि शांत को अब कोई कारण नहीं है जो अशांत कर सके। अब अशांति के तूफान चलते रहें, बवंडर बाहर और भीतर की शांति अपनी जगह खड़ी होगी।
बल्कि शांत आदमी ऐसे बवंडरों को निमंत्रण दे देगा, ऐसे बवंडरों को बुलाएगा, बुलावा दे आएगा कि आना, क्योंकि जब भीतर शांति हो और बाहर तूफान चलते हों तो इन दोनों के विरोध में जो पुलक, जो अनुभूति उपलब्ध होती है, वह और किसी क्षण में कभी उपलब्ध नहीं होती। इन दोनों के विरोध के बीच में जैसे अंधेरी रात में बिजली चमक जाए तो वह चमक भरे दिन में चमकी हुई बिजली की चमक से बहुत भिन्न है। ठीक वैसे ही शांत चित्त हो जहां और बाहर की अशांति चारों तरफ डोलती हो तो कोई अंतर नहीं पड़ता। बल्कि उस अशांति के बीच वह शांति और घनी और गहरी और प्रगाढ़ हो जाती है।
यह तो सोचना ही मत, इससे घबड़ाना भी मत।
एक दूसरे मित्र ने भी यही इसी संबंध में पूछा है।
उन्होंने पूछा है: भगवान, अगर लोग ध्यान में गहरे हो गए, शांत हो गए तो घर-गृहस्थी, परिवार, दुकान, धंधा इन सबका क्या होगा?
इन सबका अभी क्या हाल है? घर-गृहस्थी का, पत्नी का, बच्चों का, दुकान का, धंधे का अभी क्या हाल है? अभी कोई बहुत अच्छी हालत है? इससे भी बुरी हालत हो सकती है? लेकिन हम बड़े भयभीत होते हैं। इस नरक को जो हमने पैदा कर लिया है, कोई उसको परिवार कहता है, कोई धंधा कहता है, कोई कुछ और कहता है--इस पूरे नरक को भी! यह कहीं नरक ही न मिल जाए, इससे भी बड़ी घबड़ाहट होती है।
धंधा नहीं मिटेगा। और न पत्नी मिटेगी, और न परिवार मिटेगा। न बेटे और बेटियां मिट जाएंगी। लेकिन यह जो नरक हमने खड़ा किया है, यह जरूर मिट जाएगा।
लेकिन नये रूप प्रकट होंगे। किसी स्त्री को प्रेम करना एक बात है और पत्नी बना कर घर में बांध लें वह बिलकुल दूसरी बात है। घर में बांधने की चेष्टा ही इसलिए चलती है कि प्रेम नहीं है। प्रेम हो तो घर में बांधने की चेष्टा नहीं चल सकती। वह डर है कि अगर नहीं बांधा, तो और तो भीतरी कोई उपाय नहीं है जोड़ने वाला, तो बाहर से उपाय करने पड़ते हैं। समाज के सामने सात चक्कर लगाने पड़ते हैं और कानून की अदालत में जाकर रजिस्ट्री करवानी पड़ती है। क्योंकि और भीतर कोई जोड़ने वाला कुछ भी नहीं है तो बाहर के जोड़ उत्पन्न करने पड़ते हैं, फिर इनके ही सहारे जीना पड़ता है।
जिस दिन दुनिया में प्रेम होगा, उस दिन पति भी नहीं होगा, पत्नी भी नहीं होगी। पति और पत्नी प्रेम के न होने के कारण हैं।
प्रेम होगा तो पति-पत्नी बड़े बेहूदे शब्द हैं, ये बर्दाश्त योग्य नहीं हैं। इनसे कोई दुनिया अच्छी नहीं हो गई है, बहुत अगली, बहुत गंदी हो गई है, कुरूप हो गई है। मित्र होंगे--पति-पत्नी की क्या जरूरत है? मित्र होंगे, साथ रहने वाले सहयोगी होंगे, साथी होंगे, कंपेनियन होंगे--कानून की क्या जरूरत है? अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं तो बीच में कानून की क्या जरूरत है? कानून की जरूरत बताती है कि प्रेम संदिग्ध है। कानून के सहारे उसको रोकने की कोशिश की जाती है। प्रेम का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए कानून का सहारा लेना पड़ता है। जहां प्रेम संदिग्ध है, वहां कानून की जरूरत है। जहां प्रेम संदिग्ध नहीं है, वहां कानून की क्या जरूरत है?
तो हम बड़े डरते हैं। वह डर ठीक भी है एक अर्थ में, क्योंकि शांत हो जाएंगे तो बहुत घबड़ाहट लगती है कि यह सब जो नरक का जाल हमने बना रखा है, यह टूट जाएगा। यह टूटना चाहिए। लेकिन यह एक स्वर्ग बन सकता है। पति-पत्नी तो जाने चाहिए, मित्र बचने चाहिए। अभी हम धंधा कर रहे हैं, दुकान कर रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं, वह सब बोझ है, जबर्दस्ती है। और एक आदमी को जिंदगी भर चालीस साल तक रोज एक दफ्तर में सुबह से सांझ तक जबर्दस्ती बैठे रहना पड़ता है। अगर उसका दिमाग पत्थर न हो जाता हो तो कोई आश्र्चर्य है! एक काम, जो उसका मन नहीं है करने का, चालीस साल तक एक आदमी लगातार एक काम को करता है, जो करने का उसका एक क्षण को मन नहीं है। लेकिन करता है, करना पड़ता है।
तो चालीस साल अगर किसी मस्तिष्क पर इस तरह की नासमझी और ज्यादती गुजरे, तो वह आदमी मरने के बहुत पहले ही मर चुका होगा। उसके कोमल तंतु मस्तिष्क के टूट चुके होंगे। उसके हृदय ने बहुत पहले पंखुड़ियां बंद कर ली होंगी। उसके प्राण बहुत पहले मशीन हो गए होंगे। वह मशीन की तरह दफ्तर जाता है, आता है; दफ्तर आता है, जाता है--वह कर रहा है चालीस साल से! जैसे कि एक ट्रैक पर रेलगाड़ी दौड़ती रहती है, वैसे ही बेचारा दफ्तर से घर, दफ्तर से घर दौड़ता रहता है। यह शंटिंग उसकी होती रहती है, दफ्तर से घर, दफ्तर से घर। और इसको वह कहता है कि धंधा कर रहे हैं! कहीं शांत हो गए तो यह चला न जाए!
शांत होने से जिंदगी जरूर दूसरी होगी। जरूर काम काम नहीं रह जाएगा, आनंद हो जाएगा। और जब काम आनंद हो जाता है तो जिंदगी में और तरह के फूल खिलने शुरू होते हैं। लेकिन हम तो जानते नहीं किसी काम को, जो आनंद हो। हम तो सब काम जानते हैं। हम काम ही जानते हैं। काम और आनंद में कोई संबंध नहीं है। आनंद बात ही अलग है, काम बात ही अलग है।
अभी जो दुनिया हमने बनाई है, उसमें काम का आनंद से कोई संबंध नहीं है। इसलिए आदमी बर्बाद होता चला गया है। आदमी की सारी की सारी आत्मा डिटेरिओरेट हुई है, पतित हुई है; पतित हो रही है, होती चली जाएगी। धीरे-धीरे हम एक मशीन पर आदमी को पहुंचा दिए हैं।
नहीं, अगर चित्त शांत होगा तो काम बोझ नहीं रह जाएगा, काम आनंद हो जाएगा।
कबीर कप़ड़ा बुनता है। फिर शांत हो गया तो कपड़ा बुनना बंद नहीं हो गया, कपड़ा बुनना जारी रहा। लेकिन कपड़े की बुनावट बदल गई, कपड़े के बुनने का ढंग बदल गया। कपड़े को बुनने वाला आदमी बदल गया, कपड़े को बुनने की वृत्ति बदल गई, कपड़े को बुनने के समय का भाव बदल गया। अब कबीर बुनता भी है, नाचता भी है, गीत भी गाता है।
उसके मित्रों ने कहा: अब बंद कर दो, अब अच्छा नहीं लगता कि तुम जुलाहे का काम करो।
कबीर ने कहा कि अब जब मैं काम करने योग्य हुआ हूं, तब तुम कहते हो बंद कर दो! अब तक तो कभी काम किया ही नहीं था, सिर्फ बोझ ढोया था, अब आनंद हो गया है काम। अब यह जो बुन रहा हूं, यह तुम्हें पता नहीं, किसके लिए बुन रहा हूं। यह राम के लिए बुन रहा हूं।
लेकिन लोगों ने कहा: राम आएंगे कहां बाजार में खरीदने, उनको हुए बहुत वक्त हो गया है।
कबीर ने कहा: अब राम के सिवाय कोई दिखाई ही नहीं पड़ता! अब तो जो भी आ जाएगा, वह राम है! और जो भी मेरे कपड़े पहन लेगा, मैं धन्यभागी हुआ। और कैसे--भगवान की सेवा कैसे करूं?
तो कबीर बुनता है कपड़ा और भागता है बाजार की तरफ। और लोग पूछते हैं, कहां जा रहे हो? तो वह कहता है, राम की तलाश में जा रहा हूं। कपड़ा बना लिया, बहुत बढ़िया बनाया है, राम पहनेंगे तो खुश हो जाएंगे। और वह बाजार में चिल्लाता है कि राम, कपड़ा ले आया हूं, कोई राम को जरूरत हो तो ले जाए, बहुत अच्छा बनाया है।
अब यह बात और हो गई, अब यह काम और हो गया। अब इस काम में और उस काम को, जिसे हम करते रहे हैं, कोई संबंध नहीं है।
काम नहीं रुक जाएगा आदमी के शांत होने से--काम रूपांतरित होगा, ट्रांसफार्म होगा। काम एक खुशी हो जाएगी, काम एक आनंद हो जाएगा।
और अभी काम एक नरक है। अभी काम से किस तरह छूट जाएं, इसी की चिंता में हम रहते हैं। काम से किस तरह बच जाएं, इसी की चिंता में हम रहते हैं। और इसी काम के लिए बड़ी घबड़ाहट भी रहती है। कहीं यह काम-धाम सब बंद न हो जाए?
वह घबड़ाहट क्यों है?
वह इसीलिए है कि काम-धाम हम बंद करना चाहते हैं। वह बंद करने योग्य है। लेकिन मजबूरी है। रोटी चाहिए, कपड़े चाहिए--पत्नी है, बच्चे हैं। ये भी सब मजबूरियां हैं। उनको भी खिलाना है, उनके लिए भी मकान बनाना है। सब मजबूरियां हैं। पूरी जिंदगी मजबूरी है। वह एक पुलक नहीं, एक नृत्य नहीं।
जरूर शांत आदमी की जिंदगी और ढंग की होगी। तो वह भी जीएगा यहीं, लेकिन दूसरा आदमी हो जाएगा वह। वह भी काम करेगा, लेकिन उस काम करने में सब-कुछ बदल जाएगा। वह काम भी उसका प्रेम हो जाएगा। वह काम भी उसकी सेवा बन जाएगी। वह काम भी उसकी पूजा और प्रार्थना हो जाएगी।
मुझे ऐसा नहीं लगता कि शांत आदमी दुनिया में बढ़ेंगे तो दुकानें कम हो जाएंगी, शांत आदमी बढ़ेंगे तो दुकानें दुकानें नहीं रह जाएंगी। एक बात जरूर है, दुकानें तो कम नहीं होंगी, लेकिन शांत आदमी बढ़ जाएं तो मंदिर, मस्जिद, गुरु, संन्यासी, साधु ये कम हो जाएंगे। क्योंकि इनके पास अशांत आदमी जाते हैं। इनके पास कोई शांत आदमी किसलिए जाएगा। गुरुडम चली जाएगी। एक दुकान बंद हो जाएगी--गुरुओं की दुकान बंद हो जाएगी। और कोई दुकान बंद होने का कोई कारण नहीं है। मंदिर-मस्जिद जरूर बंद हो जाएंगे। उनमें फिर कोई नहीं जाएगा। क्योंकि जब पूरी जिंदगी मंदिर मालूम पड़ने लगे तो कौन मंदिरों में जाएगा। वह तो पूरी जिंदगी नरक मालूम पड़ती है तो गांव में एक मंदिर बनाते हैं।
वह गांव में मंदिर इस बात का सबूत है कि पूरा गांव मंदिर नहीं बन पाया। हम ऐसा समाज निर्मित नहीं कर पाए जहां पूरा गांव मंदिर होता। तो अपना मन समझाने को एक मंदिर बनाया हुआ है। गांव पूरा नरक है। उसमें एक मंदिर बना है। अब नरक में मंदिर बन सकता है? और नरक में रहने वाले मंदिर बना सकते हैं? और नरक में रहने वाले दान करके मंदिर खड़ा कर सकते हैं?
आखिर नरक के रहने वाले जो बनाएंगे, वह नरक ही होगा। तख्ती भर मंदिर की हो सकती है। नरक में रहने वाले लोग जो भी बनाएंगे वह नरक होगा। इसलिए हमारे मंदिर-मस्जिद भी सब नरक के स्थान हैं। हमारे तीर्थ सब नरक के स्थान हैं। हम बनाते हैं, और हम जो भी बनाते हैं, वह नरक हो जाता है। हम जो भी छूते हैं, वह नरक हो जाता है। जब हम अपने घर को भी स्वर्ग नहीं बना पाए, जब हम अपने बच्चे और पत्नी के संबंध को स्वर्ग नहीं बना पाए, तो हम ये सब नरक बनाने वाले लोग मिल कर एक मंदिर बना लेंगे गांव में? वह बनाएगा कौन उसे? हम ही बनाएंगे न? हमारी काली छाया उसको भी घेर लेगी।
नहीं, एक दिन ऐसा हो सकता है कि लोग शांत होते चले जाएं तो पूरा गांव मंदिर हो जाए। और जब कोई पूछे उस गांव में आकर कि मंदिर कहां है, तो हमें हैरानी हो जाएगी कि कहां बताएं, क्योंकि पूरा गांव ही मंदिर है।
पूरा गांव मंदिर हो सकता है, इसलिए मैं मंदिरों के खिलाफ हूं।
लेकिन हमें अब तक ऐसी बातें समझाई गई हैं कि जो आदमी शांत हो जाएगा--धंधा छोड़ देगा, पत्नी छोड़ देगा, बच्चे छोड़ देगा, भाग जाएगा। और भाग कर क्या करेगा फिर? फिर एक आश्रम बनाएगा, फिर शिष्याएं इकट्ठी करेगा, शिष्य इकट्ठे करेगा, बेटे-बेटियां जोड़ेगा, फिर एक नई दुकान, फिर एक नया घर बनाएगा। वह सब चलेगा।
आखिर भाग कर जाएगा कहां? यह आदमी जिस तरह का आदमी है, यह करेगा क्या? यह एक दुकान छोड़ेगा, दूसरी दुकान बनाएगा। यही आदमी बनाएगा न, आखिर यह जाएगा कहां? यह जंगल में जाएगा तो वहां दुकान करेगा।
आदमी बदलना है। और अब तक हमने स्थान बदलने की चेष्टा की है, आज तक। मनुष्य-जाति के इतिहास में हमने स्थान और परिस्थिति बदलने की फिकर की है। आदमी नहीं बदलता। आदमी नहीं बदलता और वह आदमी फिर जाकर दूसरी जगह फिर वही स्थिति बना लेता है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने अपने जीवन में, अमरीका में आठ विवाह किए। और पहले विवाह को करने के छह महीने बाद वह घबड़ा गया। छह महीने भी लंबा वक्त है, छह दिन में ही घबड़ाहट शुरू हो जाती है। छह महीने में वह घबड़ा गया और परेशान हो गया और उसने कहा, यह कहां की गलत औरत मिल गई! औरत ने सोचा होगा, कहां का गलत आदमी मिल गया!
फिर उसने तलाक दे दिया। फिर उसने दूसरी बार बहुत खोज-बीन करके विवाह किया, बहुत जांच-पड़ताल की। अब वह पहली ही दृष्टि में प्रेम में नहीं पड़ गया। पहली दफा भूल हो चुकी थी। अनुभवी था, उसने बहुत सोच-विचार करके, बहुत खोज-बीन करके विवाह किया।
लेकिन दो महीने बाद पाया कि यह औरत फिर वैसी औरत साबित हुई, जैसी पहली थी। वह बहुत परेशान हुआ, उसको भी तलाक दिया।
उसने आठ बार विवाह किए और आठवीं बार उसे यह समझ में आई कि हर बार विवाह तो मैं ही करता हूं। हर बार स्त्री तो मैं ही चुनता हूं। हर बार खोज तो मैं ही करता हूं। और मैं जैसा आदमी हूं--मैं फिर वही औरत ढूंढ लाता हूं, जैसी पहली थी!
यह आदमी, यह माइंड, आखिर यही चुनने जाएगा न बाजार में फिर। तो यह लाएगा कहां से? इसकी समझ, इसकी पसंद, इसकी पकड़ वही है। वह तो बदलती नहीं, वह फिर उसी औरत को पकड़ कर ले आता है।
जहां-जहां, जिन-जिन मुल्कों में तलाक विकसित हुए हैं, वहां एक अदभुत अनुभव हुआ। और वह अनुभव यह है कि हर बार आदमी फिर उसी तरह के संबंध जोड़ लेता है, जैसे उसने पहले जोड़े थे। इसलिए आप बहुत चिंतित मत होना कि हमारे यहां तलाक की सुविधा नहीं। तो आप कोई बहुत नुकसान में नहीं हैं। एक सा ही मामला है। वह स्त्री बदल जाती है, आदमी बदल जाता है। लेकिन फिर उसी तरह का आदमी खोज लाता है। वह खोजने वाला नहीं बदलता न! असली सवाल तो खोजने वाले की बदलाहट का है।
लेकिन हमेशा ऐसा हुआ है। तलाक वालों ने ऐसा किया नहीं है, संन्यासी भी यही करते हैं। एक घर छोड़ कर भाग जाते हैं लेकिन कभी नहीं पूछते कि मैं तो आदमी वही का वही हूं, मैं जा कहां रहा हूं, तो मैं जहां पहुंच जाऊंगा, मैं फिर न्यूक्लइस बन जाऊंगा, फिर वही चीज खड़ी कर लूंगा, जो मैं यहां से छोड़ कर गया था। नाम बदल जाएंगे, लेकिन फिर वही होगा। फिर वही होने वाला है। वह जो आदमी भाग कर जा रहा है, वह जिस तरह का मस्तिष्क है, जिस तरह का मन है उसके पास--वही मन तो फिर अपने चारों तरफ नया संसार रचेगा। वह फिर वहां वही बना लेगा। बचना मुश्किल है, अपने से बचना मुश्किल है, इसलिए भाग कर जाइएगा कहां?
तो मेरा कहना है, अब तक जो धर्म दुनिया में विकसित हुए, उन्होंने एस्केपिज्म सिखाया, भागना सिखाया, पलायन सिखाया, लेकिन परिवर्तन नहीं। और असली सवाल है कि आदमी बदले। और वह बदल ध्यान से आती है, शांति से आती है, भीतर शून्य और मौन से आती है। वह बदल आ जाए तो जिस घर में आप हैं, वह घर और तरह का घर हो जाएगा, क्योंकि उसको बनाने वाला आदमी बदल गया है, उस घर को और होना ही पड़ेगा।
महावीर के जीवन में बहुत अदभुत उल्लेख है। महावीर युवा हुए और उन्होंने अपनी मां को और अपने पिता को कहा कि अब मैं संन्यासी हो जाना चाहता हूं। तो महावीर की मां ने कहा कि मेरे जीते-जी दुबारा अब यह बात मेरे सामने मत रखना। यह हमारे सुनने के सामर्थ्य के बाहर है। यह मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि मेरा बेटा संन्यासी हो जाए। जब मैं मर जाऊं, तब तुम इस तरह की बात सोच सकते हो, उसके पहले नहीं।
महावीर बड़े अदभुत आदमी रहे होंगे। अगर और संन्यासियों से जाकर पूछें तो उनको हैरानी होगी कि कच्चे संन्यासी रहे होंगे। महावीर राजी हो गए, मां से बोले कि ठीक है।
हमको भी लगेगा कि यह आदमी कैसा है! अरे कहीं संन्यास ऐसे छोड़ा जाता है कि मां ने कह दिया तो! कहेंगे ही लोग! मां कहेगी, पत्नी कहेगी, बेटे कहेंगे, बाप कहेगा कि नहीं-नहीं, मत जाओ। ऐसे कहीं संन्यासी कोई हो सकता है? पहली तो बात यह कि संन्यासियों को पूछना नहीं चाहिए, चुपचाप भाग जाना चाहिए, क्योंकि पूछने का मतलब है, झंझट पड़ेगी। और फिर ऐसा मान लोगे तब तो संन्यास हो गया!
लेकिन महावीर मान गए! उन्होंने मां से कहा कि ठीक है। भाग्य की बात, दो साल बाद मां और पिता दोनों की मृत्यु हो गई। पिता को दफना कर लौटते थे तो अपने बड़े भाई से महावीर ने कहा--रास्ते में ही, अभी मरघट से लौटते हैं--रास्ते में कहा कि अब मैं संन्यासी हो जाऊं? क्योंकि मां और पिता का कहना था कि जब तक वे हैं, बात न करूं तो मैंने बात नहीं की।
भाई ने छाती पीट ली कि तुम पागल हो गए हो! हमारे ऊपर इतनी मुसीबत पड़ी है कि मां-बाप चल बसे और तुम्हें संन्यास की आज ही सूझी! मेरे जिंदा रहते बात मत करना! और महावीर राजी हो गए कि ठीक है।
अब ये भी कोई संन्यासी रहे होंगे। संन्यासियों से पूछें तो वे कहेंगे कि यह तो गड़बड़ आदमी है। यह संन्यासी नहीं है। लेकिन महावीर अदभुत आदमी थे, वे राजी हो गए। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीता, महावीर ने फिर नहीं कहा कि मुझे संन्यास लेना है। बात खत्म हो गई। भाई कहते हैं कि जब तक वे हैं, तो ठीक है।
लेकिन दो वर्ष बीतते-बीतते घर के लोगों को ऐसा लगा कि महावीर हैं तो घर में, लेकिन न के बराबर हैं। वे घर में नहीं हैं। वे थे और नहीं थे। और घर के लोगों को लगा कि उनकी मौजूदगी पता पड़नी ही बंद हो गई है। महीनों बीत जाते और ऐसा नहीं लगता कि वे घर में हैं। वे न किसी बात में दखल देते हैं, न वे कोई आग्रह करते हैं, न वे कोई मांग करते हैं। वे ऐसे हैं जैसे एक छाया की तरह चुपचाप--कब निकल जाते हैं घर के बाहर, कब घर के भीतर आ जाते हैं, कब सो जाते हैं, कब उठ जाते हैं--उनका होने न होने का कोई सवाल ही नहीं रहा।
घर के लोगों ने उनके बड़े भाई को कहा कि महावीर तो संन्यासी हो गया। भाई ने भी कहा कि मैं भी हैरान हूं, ऐसा लगता ही नहीं कि वह घर में है या नहीं। अब उसे रोकने से क्या फायदा? अब कोई मतलब नहीं रहा रोकने का। हम सोचते थे हमने रोक लिया है, लेकिन वह तो जा चुका है। तो घर भर के लोगों ने इकट्ठे होकर महावीर से कहा कि आप तो जा ही चुके हैं, तो अब हमें रोकने में कोई अर्थ नहीं है, अब आपकी जैसी मर्जी। और महावीर घर से चल पड़े!
यह महावीर जीवन भर भी न जाते, कि इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। यह घर से जाना, न-जाना बिलकुल गौण बात थी, इसमें कोई अर्थ न था। असली अर्थ अपने रूपांतरण का था, वह हो गया था। अब यह घर और बाहर बराबर थे।
महावीर को मानने वाले कहते हैं कि महावीर ने घर छोड़ा। सरासर झूठ कहते हैं। महावीर ने घर कभी छोड़ा ही नहीं। महावीर को घर छोड़ने के पहले, घर और बाहर सब बराबर हो गया था। घर के लोग कहते थे, रहो, तो रहते थे। घर के लोगों ने कहा, चले जाओ, तो चले गए। ऐसा हुआ।
महावीर को न जिद थी कि मैं जाऊं, न जिद थी कि मैं रहूं। ऐसा अनाग्रह का भाव था। ऐसे अनाग्रह का नाम ही अहिंसा है। यह भी हिंसा है कि मैं कहूं कि मैं जाऊंगा। और यह भी हिंसा है कि मैं कहूं कि मैं यहीं रहूंगा। यह आग्रह दबाव है, और महावीर ने सब दबाव छोड़ दिया, वे हवा की तरह हो गए। घर के लोगों को ही लगा कि अब बेकार क्यों रोकना है। वह है ही नहीं घर में। वह कभी का जा चुका है, सिर्फ शरीर रह गया है। आत्मा जा चुकी है। क्या फायदा है, अब हम क्यों बाधा बनें। उन्होंने कहा कि ठीक है, अब आप जाएं। तो वे चल पड़े!
यह है संन्यास, यह है व्यक्ति का रूपांतरण।
अब यह आदमी कहीं भी चला जाए--अब इसे वेश्या के घर में ठहरा दो तो दिक्कत नहीं है, क्योंकि अब इसे कहीं कठिनाई ही न रही। यह आदमी बदल गया है। यह आदमी स्थान नहीं बदल रहा है, यह आदमी ही बदल गया है!
मैं जो बात कर रहा हूं शांति की, मौन की, ध्यान की, वह व्यक्ति के रूपांतरण की कीमिया और प्रक्रिया की बात है, उससे सब-कुछ बदल जाएगा।
उस बदले हुए आदमी के आस-पास का सब बदल जाएगा, क्योंकि उसकी देखने की दृष्टि बदल जाएगी। वह करेगा काम; चलेगा, उठेगा, बैठेगा! नहीं, लेकिन अब वह दूसरा आदमी हो गया। इसलिए उस पुराने आदमी ने जो दुनिया बनाई थी, यह उस दुनिया में नहीं जीएगा, यह नई दुनिया बनाएगा। इसकी मौजूदगी--नई दुनिया का निर्माण शुरू हो जाएगा। यह आदमी दुकान पर भी बैठ सकता है, क्या कठिनाई है!
और जब तक ऐसे आदमी दुकान पर नहीं बैठेंगे, तब तक दुनिया स्वर्ग नहीं बन सकती। यह आदमी पिता हो सकता है, यह आदमी भाई हो सकता है, बेटा हो सकता है। इस तरह का व्यक्तित्व पत्नी हो सकता है, मां हो सकता है। लेकिन जब तक इस तरह के लोग मां, बेटे, पत्नी और बाप नहीं बनेंगे, तब तक दुनिया स्वर्ग नहीं हो सकती।
हमने काफी उपद्रव मचा रखा है। हम अशांत हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि हम उपद्रव मचाएंगे। अशांत आदमी दुनिया बसाए हुए हैं! अशांत आदमी विवाह कर रहे हैं! अशांत आदमी अदालतें चला रहे हैं! अशांत आदमी राष्ट्रों के मालिक बने हैं!
घरों में पति थोड़े ही हैं, राष्ट्रपति भी हैं! सब चल रहा है रोग, बिलकुल रोग चल रहा है। और कोई स्त्री इनकार नहीं करती कि हम राष्ट्रपति को बर्दाश्त नहीं करेंगे। कोई स्त्री कुछ कहती नहीं। हालांकि कोई स्त्री अगर बनेगी और राष्ट्रपत्नी कहा जाए तो राजी नहीं होगी। राजी नहीं होगी बिलकुल, कि हम राष्ट्रपत्नी नहीं कहला सकते। वह तो किसी दिन अगर बनी स्त्री तो उसको राष्ट्रपति ही कहना पड़ेगा। राष्ट्रपत्नी कहलाने को कोई स्त्री राजी नहीं होगी। लेकिन राष्ट्रपति के लिए कोई स्त्री नाराज नहीं होती कि राष्ट्रपति कैसे बना हुआ है! पुरुषों का हक है दुनिया में, इसलिए सब चल रहा है--इसलिए चल जाता है।
हम रोगग्रस्त, अशांत लोगों ने जो जगत बनाया है, वह जगत बदल जाए, उतना ही अच्छा है। लेकिन वह जगत बदलेगा ही ऐसे कि वह रोगग्रस्त व्यक्ति बदले, अन्यथा फिर हम उसी तरह का जगत बना लेंगे। ऐसे ही हुआ है।
रूस ने बदलाहट की और कुछ बदलाहट न हुई। ऊपरी बदलाहट हुई, भीतरी कोई बदलाहट न हुई, क्योंकि वही रोगग्रस्त व्यक्तियों ने बदलाहट की। फिर वे ही रोगग्रस्त व्यक्ति ऊपर बैठ गए। फिर वही सबका सब सिलसिला वही शुरू हो गया, जो था। पुरानी हालत बदली, धनी और गरीब के बीच का फासला कम हुआ, लेकिन नये फासले खड़े हो गए--सत्ताधिकारी के और गैर-सत्ताधिकारी का फासला उतना ही हो गया, जितना फासला गरीब का और अमीर का था। जो कल मालिक था, वह आज मैनेजर हो गया। तो नाम बदल गए, बात वही रही!
लेकिन हम नाम बदल लेने को बहुत काम समझ लेते हैं! कोई अपना गृहस्थाश्रम छोड़ कर आश्रम बना लेता है जाकर, तो हम कहते हैं कि बदलाहट हो गई! नाम सिर्फ बदलता है, कहीं कुछ बदला नहीं है। घर की जगह आश्रम लिख दिया और बदलाहट हो गई!
पर हमारी बुद्धि ऐसी ही चीजों पर अटकती है। चीजें ऐसे ही हम बदल लेते हैं। एक आदमी सफेद कपड़े पहने है, तो हम कहते हैं गृहस्थ है। और उसने कल गेरुवे वस्त्र पहन लिए, तो हमने कहा स्वामी जी, संन्यासी हो गए। हम बिलकुल पागल हैं, हमें कुछ बुद्धि में थोड़ा भी कुछ नहीं सूझता है कि हम यह क्या कर रहे हैं, हम यह क्या खेल रचा रहे हैं! एक आदमी ने गेरुवे वस्त्र पहन लिए, वह संन्यासी हो गया!
पहली तो बात यह है कि जो आदमी वस्त्र बदलने को संन्यास समझता है, वह ईडियट है, स्टुपिड है, जड़ है। बुद्धि नाम की चीज उसके पास नहीं है। क्योंकि बदलना ही था तो कपड़े बदलने की सूझी उसे! इससे ज्यादा व्यर्थ बात बदलने की और कुछ हो नहीं सकती। यह उसको सूझी, वह तो जड़बुद्धि है। और हम जड़बुद्धि हैं कि उसकी सूझ को हम भी नमस्कार कर रहे हैं कि यह बहुत--बहुत बड़ा महान कार्य किया तुमने--कि तुमने गेरुवे वस्त्र पहन लिए! हम चीजें बदल रहे हैं, नाम बदल रहे हैं, स्थान बदल रहे हैं, यह सब हम कर रहे हैं। लेकिन वह जो व्यक्ति है भीतर, उसे बदलने की कोई चिंता नहीं है! उसको बदलने का द्वार ध्यान है।
ध्यान पर एक-दो प्रश्न और, संक्षिप्त। फिर हम रात के ध्यान के लिए बैठेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान कोई विधि नहीं है क्या? कोई मेथड?
इसे थोड़ा समझना जरूरी है।
ध्यान कोई विधि नहीं है। हमारी भाषा की तकलीफ है बहुत ज्यादा। हमारी भाषा के साथ बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो भाषा हमने विकसित की है, वह बहुत कामचलाऊ बातों के लिए की है, वह ध्यान जैसी बातों के लिए नहीं की है।
तो ऐसा लगता है कि ध्यान भी कोई विधि है। ध्यान कोई विधि नहीं है। विधि तो हमेशा क्रिया की होती है। कोई क्रिया करनी हो तो उसका मेथड होता है, विधि होती है। अब अक्रिया की विधि कैसे हो सकती है! सब विधियों का छोड़ देना--अक्रिया की कोई विधि नहीं हो सकती। क्रियाओं की विधि हो सकती है--ऐसे करो, ऐसे करो, ऐसे करो। लेकिन जहां न-करने का सवाल है, वहां विधि कैसे होगी! इसलिए ध्यान कोई विधि नहीं है। और इसलिए यह भी मत पूछें कि ध्यान की कितनी विधियां होती हैं। और यह भी मत पूछें कि ध्यान के कितने प्रकार होते हैं। और यह भी मत पूछें कि फलां गुरु एक तरह की विधि सिखाते हैं और फलां गुरु दूसरे तरह की विधि सिखाते हैं। गुरुओं को रहना है तो विधियां सिखानी पड़ेंगी। उसकी वजह से ध्यान में गति नहीं होती, उसकी वजह से गुरुडम मजबूत होती है।
ध्यान की कोई विधि नहीं है। ध्यान तो विधि-शून्यता है।
इस बात को चूंकि मैंने कल भी कहा--अक्रिया है, नो-एक्शन है। वहां कुछ करना नहीं है, सब करना छोड़ देना है।
करना छोड़ देना है! जैसे मैं यह मुट्ठी बांधे हुए हूं, और कोई मुझसे पूछे कि मुट्ठी खोलने की विधि क्या है? तो पूछता तो ठीक है, लेकिन मैं उससे कहूंगा कि मुट्ठी बांधने की विधि थी, खोलने की कोई विधि नहीं होती। वह जो बांधने की विधि कर रहा हूं, वह भर न करूं, और मुट्ठी खुल जाएगी। मुट्ठी खुलने की कोई विधि नहीं होती, बांधने की विधि होती है। बांधना एक क्रिया है, खुलना क्रिया नहीं है। खुला हुआ हाथ स्वभाव है, हाथ अपने आप खुला हुआ है। बांधते हम हैं, बांधना हमारा काम है। खुला होना हाथ की स्वभाव-दशा है। हम न बांधेंगे हाथ खुल जाएगा।
इस वृक्ष की शाखा को हम नीचे पकड़ कर खींच लें और फिर कोई मुझसे पूछे कि इसको इसकी जगह पर वापस पहुंचाने की कोई विधि है? तो हम उससे कहेंगे, कोई विधि नहीं है। आप कृपा करके इसको रोकने की जो विधि कर रहे हैं, वह भर न करें। आप छोड़ दें, यह अपनी जगह पहुंच जाएगी।
यह बेचैन है शाखा अपनी जगह पहुंचने को। यह चिल्ला रही है कि मुझे छोड़ दो, मैं अपनी जगह पहुंच जाऊं। और आप उसे पकड़े हुए हैं खींच कर। खींच कर पकड़ना एक विधि है, छोड़ना कोई विधि नहीं है। हालांकि भाषा में छोड़ना भी क्रिया मालूम पड़ती है, लेकिन छोड़ना क्रिया नहीं है। छोड़ने का मतलब है कि जो पकड़ने की क्रिया आप करते थे, अब नहीं कर रहे हैं। छोड़ना हो गया। छोड़ना निगेटिव है, छोड़ना पाजिटिव नहीं है। पकड़ना पाजिटिव है। पकड़ने में आपको कुछ करना पड़ा है। छोड़ने में आपको कुछ करना नहीं है, बल्कि जो आप कर रहे थे, वह भी नहीं करना है और शाखा अपनी जगह पहुंच जाएगी। प्रत्येक चीज अपने स्वभाव में पहुंचने को आतुर है। प्रत्येक चीज अपने स्वभाव में होना चाहती है।
अगर ध्यान से समझें तो धर्म की जो प्यास है दुनिया में, उसका और कोई कारण नहीं है। धर्म की प्यास का अर्थ है: प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव में जाने को आतुर है। और जब तक दुनिया अपने स्वभाव में नहीं पहुंचती, तब तक धर्म की जरूरत बनी रहेगी। जिस दिन लोग स्वभाव में पहुंच गए, धर्म बेमानी हो जाएगा। धर्म की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी।
हम अपने स्वभाव से च्युत हैं, हम अपने स्वभाव से कहीं इधर-उधर भटक रहे हैं और इसलिए बेचैनी है एक। यह जो अशांति है, वह यही है कि हम अपने स्वभाव में नहीं हैं। वह हम वही नहीं हैं जो हम होने को हैं। हमें कहीं कुछ खींचा-ताना गया है। हम कहीं खिंचे हुए हैं। हम वहां नहीं हैं, जैसे होकर हम एट ई़ज, सरल हो जाएंगे।
यह शाखा को देखें। अपनी जगह होकर कैसी शांत हो गई। इसे जरा खींचें और बेचैनी इसकी सारे रग-रेशों में दौड़ जाएगी, इसका स्नायु-स्नायु खिंच जाएगा। सारे वृक्ष के प्राण कंपकंपाने लगेंगे। दूसरी शाखाएं भी हिलने लगेंगी, इसको अपनी जगह से खींचेंगे--पूरे वृक्ष के प्राण कठिनाई में पड़ जाएंगे। जड़ों तक खबर पहुंच जाएगी कि कुछ गड़बड़ हो गई है, कहीं कुछ खिंचाव, कहीं कोई तनाव है। लेकिन छोड़ दें, शाखा अपनी जगह पहुंच जाएगी; वृक्ष निश्चिंत हो जाएगा, मौन हो जाएगा, ठहर जाएगा। अपने में पहुंच गया।
हम सब खिंचे हुए शाखाओं के लोग हैं, अलग-अलग तरफ खिंचे जा रहे हैं। सब एक-दूसरे को खींच रहे हैं। वह जिनको हम संबंधी कहते हैं, उनसे एक ही संबंध है हमारा--एक-दूसरे की शाखाएं खींचो। संबंधी का मतलब, रिलेशनशिप इतनी हमारी है कि एक-दूसरे को खींचो सब तरफ से। बाप बेटे को खींच रहा है, बेटे बाप को खींच रहे हैं, सब एक-दूसरे को खींच रहे हैं। यह जो खिंचा हुआ पूरा का पूरा समाज है, इसमें हम सब एक-दूसरे को च्युत कर रहे हैं अपनी जगह से। हम खुद भी च्युत हैं और इसलिए इतनी अशांति, इतना तनाव, इतना टेंशन, इतनी एंग्जायटी है, इतनी चिंता है।
ध्यान का मतलब है: अपने स्वभाव में होना, अपने में होना, अपने घर लौट आना। यह बड़ी कठिनाई की बात है।
मैंने सुना है, एक आदमी एक दिन शराब पी लिया बाजार में जाकर। शराब पीकर लौटा अपने घर। किसी तरह टटोलता हुआ घर पहुंच गया, लेकिन नशे में था। घर पहचान में नहीं आता था, तो वह सीढ़ियों पर बैठ कर चिल्लाने लगा जोर-जोर से कि कोई मुझे मेरे घर पहुंचा दो! पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए, उसे हिलाने लगे, कहने लगे कि क्या हो गया, पागल हो गए हो, घर में बैठे हुए हो! पर वह आदमी चिल्लाने लगा--मुझे व्यर्थ मत समझाओ, मुझे मेरे घर पहुंचा दो, मेरी मां मेरी राह देखती होगी। नींद खुली मां की आधी रात, दरवाजा खोल कर बाहर आई, उसके सिर पर हाथ रख कर उससे कहने लगी, बेटा, घर के भीतर चल, तुझे हो क्या गया है!
वह कहने लगा, बूढ़ी, कोई मुझे मेरे घर पहुंचा दे। मेरी मां मेरा रास्ता देखती होगी। मेरा घर कहां है? मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
अब गांव में सेवक तरह के लोग भी होते हैं, कोई सेवक भी थे गांव में, वे एक गाड़ी ले आए। उन्होंने कहा: बैठ जा इस पर, हम पहुंचा देंगे।
पड़ोस के दूसरे लोगों ने कहा: पागल, अगर गाड़ी में बैठा तो घर से दूर निकल जाएगा; क्योंकि घर पर तू मौजूद है; अब तू कहीं भी गया तो घर से दूर चला जाएगा। तू कहीं जाना ही मत, किसी नेता के चक्कर में मत पड़ना, किसी गुरु के चक्कर में मत पड़ना, किसी गाड़ी वाले की बातों में मत आ जाना। कि उसकी गाड़ी में बैठ जाए, अन्यथा और दूर निकल जाएगा। तू अपने घर पर ही है, तुझे कहीं जाना नहीं है, तुझे सिर्फ होश में आना है। तुझे कहीं जाना नहीं है, तुझे सिर्फ होश में आना है! तू होश में आ जाएगा तू पाएगा तू अपने घर में है।
हम खिंचे भी नहीं हैं वस्तुतः, सिर्फ बेहोशी में खिंचे हुए का खयाल है। होश आ जाए, हम पाएंगे, हम अपनी जगह हैं। हम वहीं हैं, जहां हम हैं। और जैसे ही यह पता चलता है कि हम अपने घर में हैं, एक शांति सारे जीवन में छा जाती है।
इस संबंध में एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि सब अपने स्वभाव के अनुसार करें--तो चोर चोरी करेगा, हत्यारा हत्या करेगा, बेईमान बेईमानी करेगा! आपकी बात मान लेंगे तो सब दुनिया में नीति, धर्म, अनुशासन सब गड़बड़ हो जाएगा।
अभी पता ही नहीं है आपको कि चोर का स्वभाव चोरी करना नहीं है। यह कभी सोचा? चोर चोरी करता है, स्वभाव में न होने के कारण। हत्यारा हत्या करता है, स्वभाव में न होने के कारण। स्वभाव में किसी ने न तो कभी चोरी की है और न कभी किसी ने हत्या की है। स्वभाव में ही कोई व्यक्ति धर्म में जीता है। अगर चोर अपने स्वभाव में चला जाए तो चोरी नहीं कर पाएगा, क्योंकि चोरी करने के लिए स्वभाव के बाहर जाना जरूरी है। और स्वभाव तो पुकार-पुकार कर भीतर से कहता है--मत कर, मत कर।
लेकिन वह कहता है, नहीं, करूंगा! चोरी करना पड़ती है। चोरी कर्म है। चोरी करता है। वह कर्ता का भाव है कि मैं कर रहा हूं।
लेकिन जैसे ही यह भाव चला गया कि मैं करने वाला नहीं हूं, फिर चोरी कर सकते हैं आप? जैसे ही यह भाव चला गया कि करने वाला परमात्मा है, फिर चोरी कर सकते हैं आप? और अगर फिर चोरी की, तो मैं कहता हूं कि वह चोरी भी धर्म होगी, क्योंकि फिर चोरी की ही नहीं जा सकती।
हमें पता ही नहीं है कि जो भी बुरा होता है... बुरे का अर्थ ही इतना होता है कि स्वभाव के प्रतिकूल। बुरे का और कोई अर्थ नहीं होता। बुरे का अर्थ होता है: जो मेरे स्वभाव के प्रतिकूल है। और जो स्वभाव के प्रतिकूल है, वह दुख लाता है। इसलिए बुरा दुख लाता है। बुरे से दुख का और कोई संबंध नहीं है। क्योंकि मेरे स्वभाव के प्रतिकूल है, इसलिए दुख लाता है। मुझे खींचना पड़ता है।
एक आदमी चोरी करता है। चोरी उसे खींचती है। चौबीस घंटे वह खिंचा हुआ होता है। चोरी करके कोई निश्चिंत हो सकता है? चोरी करके कोई शांत हो सकता है? हत्या करके कोई विश्राम कर सकता है? वह चित्त खिंचेगा। पहले भी खिंचेगा, पीछे भी खिंचेगा। चित्त पूरा तन जाएगा। स्वभाव के बाहर जाना पड़ेगा।
पाप की परिभाषा मेरी दृष्टि में इतनी ही है कि जो स्वभाव के बाहर है, विपरीत है, प्रतिकूल है, वही पाप है।
पुण्य का इतना ही अर्थ है कि जो स्वभाव में रहते हुए हो जाता है, वही पुण्य है।
जो स्वभाव के बाहर जाकर करना पड़ता है, वह पाप है। तो अगर ऐसा भी कोई पुण्य आप करते हों, जिसमें स्वभाव के बाहर जाना पड़ता हो तो वह पाप है। अगर एक मंदिर के बनाने में चिंता आती हो चित्त पर तो पाप है। अगर किसी की सेवा करने में दमन करना पड़ता हो, जबर्दस्ती करनी पड़ती हो तो वह पाप है। जो सहज होता हो, स्वभाव से होता हो, वही पुण्य है।
यह जिन मित्र ने पूछा है, ऐसे ठीक ही पूछा है, क्योंकि हम सबके भीतर चोर बैठा हुआ है। और हमें ऐसा डर लगता है कि अगर छोड़ दिया शिथिल, तो अभी चोरी न कर लें!
उन्होंने पूछा हुआ है कि अगर सब अपने स्वभाव के अनुसार छोड़ दें तो पर-स्त्री को चाहने वाला पर-स्त्री के पीछे पड़ जाएगा।
वे समझे नहीं स्वभाव का अर्थ। जहां स्वभाव है, वहां पर-स्त्री तो दूर, अपनी स्त्री के पीछे पड़ना भी मुश्किल है। पीछे पड़ना ही मुश्किल है किसी के। वहां अपनी स्त्री भी पर-स्त्री के बराबर ही हो गई है। और ध्यान रहे, जब तक अपनी स्त्री अपनी मालूम हो रही है, तब तक पर-स्त्री का पीछा जारी रहेगा। वह जो डिस्ंिटक्शन है, वह जो कहता है कि यह मेरी है और वह मेरी नहीं है!
और ध्यान रहे, जो मेरा नहीं है, उस पर कब्जा करने की हमेशा कामना बनी रहेगी। यह हो ही नहीं सकता कि जो मेरा नहीं है, इसका पता है हमें, और हमारे मन में उसकी मालकियत का खयाल पैदा न हो। जो मेरा है, उसकी मालकियत का खयाल भूल जाता है, उसकी मालकियत मिल गई है। जो मेरा नहीं है, उसकी मालकियत पुकारती है कि इस पर और कब्जा कर लो! इस पर और कब्जा कर लो! वह पर-स्त्री इसलिए पर-स्त्री है कि इधर एक अपनी स्त्री भी है। वह अपनी स्त्री की वजह से पर-स्त्री है दूसरी। इस पर कब्जा मिल गया है, इसलिए अपनी है। उस पर कब्जा नहीं मिला है, इसलिए पराई है।
और जिस पर कब्जा नहीं मिला है, मन कहेगा, इस पर भी कब्जा करो। दूसरे की कार दिखाई पड़ती है उस पर, दूसरे का मकान दिखाई पड़ता है उस पर, दूसरे की इज्जत दिखाई पड़ती है उस पर; दूसरे का पद, दूसरे का ज्ञान, दूसरे का त्याग दिखाई पड़ता है, इस सब पर कब्जा करो। जो भी दूसरे का है, वह भी मेरा होना चाहिए। ऐसा कुछ भी न बचे, जो मेरा नहीं है।
लेकिन वह पर-स्त्री किसी दूसरे की है, वह भी पहरा दिए हुए खड़ा है। और फिर यह भी डर है कि अगर मैंने दूसरे की स्त्री की तरफ देखा, तो मेरी स्त्री की तरफ कोई देखेगा फिर मैं क्या करूंगा? ये सब भय हैं और इन सब भयों को बांध कर आदमी खड़ा हुआ है, जकड़ा हुआ खड़ा है और चिल्ला रहा है कि पर-स्त्री की तरफ देखना पाप है। और क्यों चिल्ला रहा है? और क्यों साधु-संत समझा रहे हैं कि दूसरे की स्त्री को देखना पाप है? क्योंकि सबको पता है कि सब दूसरे की स्त्री को देख रहे हैं।
यह ध्यान रहे, जब तक अपनी-स्त्री जैसा खयाल है, तब तक पर-स्त्री पीछा करेगी। जब तक कोई कहता है कि मेरा धन है यह, तब तक वह आदमी चोर रहेगा, क्योंकि मेरे धन के दावे में ही चोरी छिपी है।
जिंदगी का रूपांतरण बहुत और बात है। वहां अपना-पराया मिट जाता है, जैसे ही कोई अपने स्वभाव में आता है।
एक बहुत अदभुत घटना मैंने सुनी है। वाचस्पति मिश्र एक अदभुत आदमी हुआ। उसकी शादी हुई। शादी हुई कहना मुश्किल है, क्योंकि उसने कुछ की नहीं, घर के लोगों ने कर दी। और कुछ अदभुत लोग होते हैं। घर के लोगों ने कहा: चलोगे, शादी करोगे? उसने कहा: जैसी मर्जी!
रामकृष्ण के साथ ऐसा हुआ। रामकृष्ण के घर के लोग समझते थे कि शायद रामकृष्ण शादी नहीं करेंगे। फिर मां ने बहुत डरते-डरते पूछा कि रामकृष्ण शादी करोगे? रामकृष्ण ने कहा: जरूर करेंगे! बरात जाएगी! घोड़े पर बैठेंगे! मां भी चौंकी, कि इस लड़के से आशा थी कि इनकार करेगा!
मां-बाप को भी बड़ा मजा आता है जब बेटे इनकार करते हैं--नहीं शादी करेंगे! बहुत मजा आता है। समझाते-बुझाते हैं, लेकिन भीतर बहुत मन में रस आता है कि यह हुआ बेटा अच्छा पैदा। समझाते-बुझाते हैं, कोशिश करते हैं, बहुत रस आता है लेकिन, कि यह है, चरित्रवान है, कहता है नहीं करेंगे!
रामकृष्ण ने कहा: घोड़े पर बैठने मिलेगा तो करेंगे! भोला, एकदम भोला। इसे शादी-वादी से कुछ मतलब न था। घोड़े पर बैठने में मजा आ जाएगा...!
वैसे ही वाचस्पति से घर के लोगों ने पूछा, डरे हुए थे वे, क्योंकि वह आदमी ऐसा था कि क्या करेगा। दिन-रात किसी और ही लोक में खोया हुआ था। घर के लोगों ने कहा: शादी करोगे? उसने कहा: जैसी मर्जी। अगर सबको मजा आता हो तो हो।
शादी हो गई। पत्नी को ले आया गया घर। फिर बारह साल बीत गए और वाचस्पति अपने काम में लग गया। वह भूल ही गया कि पत्नी घर आ गई है।
समझा काम खत्म हो गया, घर वालों को मजा आ गया। बरात गई, आई, सब हो गया। फिर वह पत्नी को भूल ही गया कि पत्नी घर में है!
ऐसी घटना शायद दुनिया में कभी नहीं घटी। और पत्नी भी अदभुत रही होगी। वाचस्पति से कम मूल्य की नहीं। उसने एक बार जाकर उसे छेड़ा भी नहीं कि मैं घर में बैठी हूं, मुझे किसलिए ले आए हो। उसने जाना कि जो इस तरह खोया है किसी दूर अज्ञात में, उसे बाधा दूं तो फिर मेरा प्रेम बहुत कच्चा है। वह प्रतीक्षा करती रही अंधेरे में बैठ कर बारह वर्ष! जागती थी वह रात-रात भर, वाचस्पति लिखता रहता! वह कुछ किताब लिख रहा था, वह कुछ उपनिषदों पर भाष्य लिख रहा था, ब्रह्मसूत्र की टीका लिख रहा था। वह बहुत काम कर रहा था, वह खोया था किसी दूर के लोक में। पत्नी छाया की तरह उसकी सेवा करती थी।
बारह वर्ष बाद--वाचस्पति ने तय किया था, वह जो किताब लिख रहा था--ब्रह्मसूत्र का जो भाष्य--वह पूरा हो जाएगा जिस दिन, उसी दिन वह घर छोड़ देगा! वह ब्रह्मसूत्र का भाष्य पूरा होने को है। आखिरी पन्ना वह लिख रहा है कि दीया बुझ गया। उसकी पत्नी तो छाया की तरह उसकी सेवा करती थी। वह आई और उसने दीया जलाया। पहली दफा वाचस्पति ने उस जले हुए दीये में उसका हाथ देखा और उसने कहा: तू कौन है? इतनी आधी रात हुई, तू कौन यहां?
उसकी पत्नी ने कहा: धन्यभाग मेरे कि आज पूछा तो! बारह वर्ष से प्रतीक्षा थी, कभी पूछेंगे तो निवेदन कर दूंगी कि कौन हूं! बारह वर्ष पहले, शायद आप भूल गए होंगे, विवाह करके मुझे घर ले आए थे। तब से प्रतीक्षा करती हूं।
वाचस्पति रोने लगा। उसने कहा: यह तो बड़ी देर हो गई। पागल, तूने बीच में क्यों न कहा? क्योंकि मैंने तो तय किया है कि यह किताब पूरी हो जाएगी--यह किताब पूरी हो गई है, और कल सुबह सूरज उगा और मैं चला जाने को हूं। तूने पहले क्यों न कहा?
उसकी पत्नी ने कहा: लेकिन कुछ भी देर नहीं हुई। आपने इतनी चिंता जाहिर की मेरे लिए--कि तूने देर कर दी, और आज सुबह मैं चला जाने को हूं, तूने पहले क्यों न कहा--मुझे सब मिल गया और चाहिए भी क्या था?
तो उस पत्नी की स्मृति में किताब का नाम ‘भामती’ रखा। भामती पत्नी का नाम था। और भामती का कोई संबंध नहीं है ब्रह्मसूत्र की टीका से, लेकिन किताब का नाम ‘भामती’ रखा उसकी याद में जो बारह साल पीछे चुपचाप...!
अब ऐसे आदमी को पर-स्त्री दिखाई पड़ सकती है? इधर बारह साल अपनी स्त्री दिखाई नहीं पड़ी! अपनी स्त्री न हो, तो पर-स्त्री कहां है? ऐसे आदमी को स्त्री भी दिखाई पड़ सकती है?
हां, दिखाई तो पड़ेंगे ही लोग, आंख में तस्वीरें बनेंगी। वही दिखाई पड़ना नहीं है। ऐसे आदमी को क्या दिखाई पड़ता है! ऐसा आदमी अपने स्वभाव में जीता है।
ऐसा ही रामकृष्ण का। रामकृष्ण गए--तो बड़े नये कपड़े पहने हैं, लड़की को देखने जा रहे हैं। बहुत सज-संवर कर तैयार हो गए हैं। बार-बार आकर बाहर पूछते हैं, कब चलना है, कितनी देर है! और बहुत खुश हैं कि आज नये कपड़े मिल गए हैं और तीन रुपये भी मां ने उनके खीसे में डाल दिए हैं, वह उनको भी बार-बार गिन कर अंदर रख लेते हैं! ऐसा कभी नहीं हुआ था। वे बहुत ही खुश हैं।
फिर वे गए हैं उस लड़की को देखने। फिर वे थाली पर बैठे हैं। वह लड़की परोसने आई है। उन्होंने तीन रुपये निकाल उसके पैर पर रख कर उसके पैर पड़ लिए!
तो सब घर के लोग कहने लगे: पागल, यह क्या कर लिया?
तो उन्होंने कहा: बिलकुल मेरी मां जैसी है--उतनी ही भोली, उतनी ही सरल! मेरी मां हो गई!
उन्होंने कहा: यह तेरी पत्नी है, तेरी मां नहीं हो सकती।
तो उन्होंने कहा: पत्नी का तो मुझे पता नहीं कैसी होती है, लेकिन मां का मुझे पता है। और यह मेरी मां तो हो ही गई। अब जो होगा होगा! फिर वह स्त्री मां ही रही जिंदगी भर!
अब ऐसे आदमी की अपनी ही पत्नी नहीं होती तो दूसरे की पत्नी दिख सकती है? और अपनी ही पत्नी में मां दिख गई तो अब किस स्त्री में मां नहीं दिखेगी? ठीक ही ऐसे लोग स्वभाव में जीते हैं।
और वे मित्र पूछते हैं कि अगर स्वभाव में चले गए और पराई स्त्री की चाह मन में है, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। पराई स्त्री के पीछे चले जाएंगे।
स्वभाव में भर चले जाइए, फिर किसी के पीछे नहीं जाएंगे। स्वभाव में जाने का मतलब है: अपने पीछे चले जाना। और जो अपने पीछे चला जाता है, वह फिर किसी के पीछे नहीं जाता।
वह जब तक हम अपने पीछे नहीं गए हैं, तभी तक दूसरे के पीछे भटकते हैं--छायाओं के पीछे। कि लगता है इसके पीछे जाने से कुछ मिल जाएगा। उसके पीछे जाने से कुछ मिल जाएगा। इसलिए दूसरों के पीछे भटकते हैं!
और जब अपने ही पीछे जाकर कोई पा लेता है तो फिर क्यों जाएगा किसी के पीछे? वह तो जब तक नहीं मिला है हमें, तब तक भटकन है। और जब मिल गए, खुद को खुद ही मिल गया, फिर किसके पीछे किसको जाना है। वह सब जाना-आना, वह सारी दौड़-धूप; वह चोरी, पाप और हत्या, और पर-स्त्री; वे सब के सब विभाव हैं, वे हमारे स्वभाव के बाहर घटने वाली घटनाएं हैं।
इसलिए यह मत कहें कि अगर स्वभाव में आ गए तो बड़ी अव्यवस्था फैल जाएगी। अव्यवस्था फैली हुई है। स्वभाव में आ जाएं तो व्यवस्था आ जाएगी। लेकिन वह ऐसी व्यवस्था नहीं होगी, जिसे ऊपर से आयोजित करना पड़ता है। वह कोई ऐसी डिसिप्लिन नहीं होगी, वह कोई ऐसा अनुशासन नहीं होगा, जिसे ऊपर से थोपना पड़ता है। वह भीतर से आया हुआ होगा। अब रामकृष्ण को ऐसा समझना नहीं पड़ा कि यह मेरी मां है, ऐसा दिखा।
हम भी अपने बच्चों को समझाते हैं कि दूसरे की मां-बहिन को अपनी मां-बहिन समझना। अब समझने का मामला कभी सच हो सकता है? जब हम कहते हैं, समझना, तो उसका मतलब साफ है कि जो समझना नहीं है, वह पहले समझ चुके हैं और अब यह समझना पड़ेगा!
कभी आप नहीं समझाते किसी को कि दूसरे की पत्नी को अपनी पत्नी समझना--वह नहीं समझाते! क्योंकि वह हम समझते ही हैं। समझाना यह पड़ता है कि मां समझना, क्योंकि जो हम नहीं समझते, वह हमें समझाना पड़ता है। सचाइयां और हैं जो हम समझते हैं, झूठ हम ऊपर से थोपते हैं कि ऐसा समझना!
और ऐसी समझावन की जो डिसिप्लिन है, वह डिसिप्लिन कोई डिसिप्लिन है, कोई अनुशासन है! सरासर मिथ्या और झूठ है। और उसी मिथ्या पर खड़ा हुआ समाज है। और उसका ही हम गौरव गान किए चले जाते हैं कि बड़ी संस्कृति है, बड़ी सभ्यता है! और सब इसी तरह के झूठों पर खड़ी हुई सभ्यता है।
हम कहते हैं कि हमारी सभ्यता बहुत ऊंची है! हम दूसरे की पत्नी को... दूसरे की मां-बहिन को अपनी मां-बहिन समझते हैं! समझने की बात हमेशा झूठी होती है। दिखाई पड़ना चाहिए। वह किसी के समझाने का सवाल नहीं होना चाहिए। दिखना चाहिए। और जब दिखता है, तब तो एक अनुशासन भीतर से आता है। एक इनर डिसिप्लिन पैदा होती है। वह भीतर से चली आती है। उसे पैदा नहीं करना पड़ता है।
स्वभाव में जीने वाले व्यक्ति का एक अनुशासन होता है, जो आंतरिक होता है। और हम नहीं पहचान पाते अक्सर, क्योंकि हम सिर्फ उसी अनुशासन को पहचानते हैं, जो ऊपर से थोपा जाता है। हम झूठ के इतने आदी हो गए हैं कि हम सत्य को देख भी नहीं पाते, पहचान भी नहीं पाते।
अनेक बार हमें स्वभाव में लीन व्यक्ति बेबूझ मालूम पड़ सकता है। क्योंकि हम जो समझते हैं वह समझता नहीं वैसा। उसे कुछ दिखाई पड़ता है। और जो दिखाई पड़ता है उसके अनुसार वह जीता है।
कुछ और प्रश्न रह गए, वह कल रात हम बात करेंगे।
अब रात्रि के ध्यान के लिए बैठना है।
दो-तीन बातें समझ लें। पहली बात: समर्पण उतना ही गहरा हो सकता है जितना हम शरीर को, श्वास को, मन को पूर्ण शिथिलता में छोड़ दें। उतना ही फ्लोटिंग, उतना ही बहाव पैदा हो सकता है। अगर हम अकड़े बैठे हैं, तने बैठे हैं, तो फिर यह अकड़, यह तनाव, यह स्ट्रेन जो है शरीर पर यही हमें रोक लेगा।
तो रात के इस प्रयोग में सब काफी फासले पर बैठें कि शरीर अगर शिथिल होकर गिर जाए तो उसे गिरने देना है। फिर हम प्रकाश भी बुझा देंगे, ताकि आपको यह चिंता न रह जाए कि कोई देख रहा है। सब काफी फासले पर बैठें, ताकि शरीर को इतना ढीला छोड़ा जा सके कि अगर वह गिर जाए तो गिरने की जगह हो। गिरने की अपनी जगह देख लें कि आस-पास अगर शरीर गिरेगा तो जगह होनी चाहिए।
और बातचीत जरा भी न करें। चुपचाप हट जाएं। और जिसको जगह न दिखाई पड़े वह दूसरे की प्रतीक्षा न करे खुद उठ कर बाहर चला जाए। और जरा भी बात नहीं। जल्दी! अगर आप पास बैठे हैं और कोई आपके ऊपर गिर जाए तो परेशान न हों, उसको गिर जाने दें।
हट जाएं, थोड़ा फासला कर लें। हां, थोड़े फासले पर बैठें, क्योंकि कोई भी आपके ऊपर गिर गया तो आपको परेशानी हो जाएगी। इसलिए हट जाएं। हूं, जल्दी बैठ जाएं, ताकि मैं दो-तीन बातें समझा दूं और फिर हम ध्यान के लिए बैठें। हां, जिनको भी ठीक से गहराई से करना है चुपचाप बाहर हो जाएं।
पहली बात, अभी ध्यान के शुरू होने के पहले प्रकाश हम बुझा देंगे, ताकि घनघोर अंधेरा हो जाए। अंधेरे में जितना समर्पण हो सकता है उसका कोई मुकाबला नहीं है। क्योंकि रात तो समर्पण का समय ही है। और रात तो खो जाने का, सो जाने का, मिट जाने का समय ही है। वह रात तो विश्राम का वक्त है। सब तरफ अंधेरा हो जाएगा। उस घुप घनघोर अंधकार में हमें बिलकुल अपने को छोड़ देना है। जैसे अंधकार के सागर में हम अपने को छोड़ दिए।
आंख बंद कर लेंगे, फिर शरीर को शिथिल छोड़ेंगे। और थोड़ी देर तक मैं सुझाव दूंगा कि आपका शरीर शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है। तो मेरे साथ आपको अनुभव करना है कि शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है। जितना आप अनुभव करेंगे, उतना ही शरीर शिथिल हो जाएगा। शरीर गिरने लगेगा, आगे झुक सकता है, पीछे झुक सकता है, कहीं भी झुकता हो, आप मत रोकना, आप गिरने देना जहां जाए गिर जाए। इससे भी मत घबड़ाना कि गिर जाए तो चोट लग जाएगी। चोट लगती है जब शरीर अकड़ा हो। अगर शरीर बिलकुल शिथिल हो तो कभी चोट नहीं लगती है। कोई चोट नहीं लगेगी।
फिर मैं दो-तीन मिनट के बाद सुझाव दूंगा कि श्वास धीमी हो रही है। आपको धीमी करनी नहीं है सिर्फ भाव करना है कि श्वास धीमी होती जा रही है, धीमी होती जा रही है। श्वास धीमी हो जाएगी।
फिर मैं कहूंगा, मन शांत हो रहा है, फिर मन शांत हो जाएगा।
फिर दस मिनट के लिए मैं कहूंगा, अब खो जाएं। फिर जो भी होता रहे, होने दें। फिर जो भी हो, हो। हवाएं चलें, पक्षी चिल्लाएं, आवाज हो, श्वास चले, भीतर कोई विचार चले, चुपचाप देखते रहें। जो भी हो, हो। उस घने अंधकार में बिलकुल लीन हो जाएं।
अब आप बैठ जाएं। आंख बंद कर लें।
(प्रकाश को बुझा दें, बिलकुल लाइट बंद कर दें।)
हां, आंख बंद कर लें, जैसा अंधकार बाहर है भीतर भी हो जाए। आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ें, बिलकुल ढीला छोड़ दें। अब मैं सुझाव देता हूं मेरे साथ अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है...और एक-एक सुझाव के साथ शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ते जाएं...झुके, झुके; गिरे, गिर जाए, अपनी तरफ से कोई रुकावट नहीं है, कोई रोक नहीं है। सुझाव दें: शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें...छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें, अंधकार में छोड़ दें, खो जाएं...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है...छोड़ दें, इस अंधकार में बिलकुल छोड़ दें अपने को...छोड़ दें...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो रही है...अंधकार में बिलकुल खो गए हैं...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...छोड़ दें, श्वास को भी बिलकुल शिथिल छोड़ दें। श्वास शांत हो गई है...श्वास शांत हो गई है...।
मन भी शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...छोड़ दें, भीतर मन पर भी सारी पकड़ छोड़ दें। मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...इस अंधेरी और शांत रात्रि में बिलकुल मिट जाएं। दस मिनट के लिए एक हो जाएं--रात से, वृक्षों से, तारों से, हवाओं से, आकाश से, बिलकुल एक हो जाएं पृथ्वी से, मिट जाएं। आप नहीं हैं। आप बिलकुल नहीं हैं। सब शांत और शून्य हो गया। दस मिनट के लिए सब शून्य हो गया। बस जानते रहें, जो भी हो रहा है जानते रहें--आवाज सुनाई पड़े, सुनते रहें...जानते रहें...बस जानते रहें...और सब खो जाएगा, सिर्फ जानना ही शेष रह जाता है।
अब दस मिनट के लिए बिलकुल मौन शांत हो जाएं।
कितनी अदभुत रात! मन शांत हो गया है...आवाज झींगुरों की सुनाई पड़ रही है...मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया है...मन शांत हो गया है...छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें...हम मिट गए, हम बिलकुल मिट गए।
मन शांत हो रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन शून्य होता जा रहा है...देखें, भीतर देखें, मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...इस रात के साथ बिलकुल एक हो जाएं...मन शांत हो गया है...।
मन शांत हो गया है...रात के साथ बिलकुल एक हो जाएं...एक...एक...रात्रि के साथ बिलकुल एक हो जाएं।
मन कितना शांत हो गया--रात के साथ एक, वृक्षों के साथ एक, अंधेरे के साथ एक। हम बिलकुल मिट गए, जैसे बूंद सागर में खो जाए।
मन शांत हो गया है...देखें, भीतर देखें, कितना सन्नाटा, कितना मौन है, कितना शून्य! और गहरे, और गहरे...बिलकुल, बिलकुल छोड़ दें...सब छोड़ दें...मिट जाएं...।
सब ठहर गया, भीतर सब रुक गया, एक शून्यमात्र, सब शून्य हो गया है...।
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ और गहराई बढ़ेगी, शांति बढ़ेगी, शून्य बढ़ेगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...बाहर देखें, बाहर भी बहुत शांति है। भीतर भी शांति है, बाहर भी। धीरे-धीरे आंख खोलें और देखें: वृक्षों को, रात को, तारों को, कितनी शांति है। बाहर और भीतर की शांति को मिल जाने दें। आंख खोलें और देखें...एक-दो मिनट आंख खोल कर चुपचाप देखते रहें...।
(प्रकाश जला दें।)
हमारी रात की बैठक पूरी हुई।
एक मित्र ने पूछा है कि यदि मेरे कहे अनुसार प्रत्येक व्यक्ति निष्क्रिय ध्यान में चला जाए, तब तो दुनिया का काम बंद हो जाएगा, तब तो सारी क्रियाएं बंद हो जाएंगी, तब तो बहुत असुविधा होगी?
इस संबंध में पहली तो बात यह समझ लेनी जरूरी है कि क्रिया उतनी ही सफल और कुशल होती है जितना व्यक्ति अक्रिया में होता है। अक्रिया में जाने से क्रियाएं बंद नहीं होतीं, सिर्फ कर्ता मिट जाता है। क्रियाएं तो जारी रहती हैं, सिर्फ यह भाव मिट जाता है कि मैं करने वाला हूं। और इस भाव के मिटने से दुनिया में असुविधा नहीं होगी, बहुत सुविधा होगी। इसी भाव के कारण दुनिया में बहुत असुविधा है।
प्रत्येक को खयाल है कि मैं कर रहा हूं! कर तो हम बहुत कम रहे हैं, कर्ता बहुत बड़ा खड़ा कर लेते हैं! उन कर्ताओं में, उन अहंकारों में संघर्ष होता है। दुनिया में जितनी असुविधा है, वह अहंकारों के संघर्ष से पैदा होती है।
दूसरी बात, जितनी ही भीतर शांति होगी, निष्क्रिय चित्त होगा, मौन आत्मा होगी, उतनी ही वह मौन आत्मा शक्ति का स्रोत बन जाती है।
जितनी बेचैन, अहंकारग्रस्त, द्वंद्व से भरी, अशांत, तनावग्रस्त आत्मा होगी, उतनी ही शक्तिहीन हो जाती है।
हम शक्ति के पुंज नहीं हैं, क्योंकि हमारे द्वंद्व में, मन की चिंता में, अशांति में, अहंकार में हमारी सारी शक्ति व्यय हो जाती है। अगर कोई व्यक्ति भीतर बिलकुल निष्क्रिय और शांत हो जाए तो शक्ति का जलता हुआ अंगार बन जाएगा, शक्ति का रिजर्वायर होगा। इतनी शक्ति होगी उसके पास कि जिसका कोई हिसाब नहीं। और चूंकि उसके कर्ता का अहंकार भी मिट चुका होगा, इसलिए परमात्मा की सारी शक्ति उसकी शक्ति हो जाएगी। वह जो दीवाल है, वह हट गई, अब परमात्मा की या विश्र्व की सारी शक्ति उससे जुड़ गई है। इस शक्ति के साथ और समग्ररूपेण समर्पित वह व्यक्ति परमात्मा के हाथ में एक क्रिया का स्रोत बन जाएगा।
लेकिन तब उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कर रहा हूं, तब ऐसा ही लगेगा परमात्मा कर रहा है, परमात्मा करा रहा है। ऐसा ही लगेगा कि हो रहा है, मैं नहीं कर रहा हूं।
बैलगाड़ी को चलते देखा है हमने। चाक चलता है बैलगाड़ी का, लेकिन बीच में एक कील है जो खड़ी रहती है, चलती नहीं है। उस खड़ी हुई कील पर चलता हुआ चाक घूमता है। वह कील खड़ी है, इसलिए चाक घूम पाता है। अगर वह कील भी घूम जाए तो चाक गिर जाए। वह चाक उतनी ही कुशलता से घूमता है, जितनी दृढ़ता से कील खड़ी हो। ये दोनों उलटी बातें मालूम पड़ती हैं--खड़ी हुई कील, घूमता हुआ चाक!
जितना मनुष्य भीतर निष्क्रिय होता है, उतना ही उसके जीवन की सक्रियता का चक्र कुशलता से घूमने लगता है। भीतर आत्मा की कील खड़ी होती है और व्यक्तित्व की क्रिया का चाक घूमता है। लेकिन ऐसा नहीं लगता, कील ऐसा नहीं जानती कि मैं घूम रही हूं; कील जानती है, चाक घूम रहा है, मैं खड़ी हूं।
ध्यानस्थ व्यक्ति जानता है, मैं ठहरा हुआ हूं। मैं, वह जो अंतर्तम है, वह रुका है, वह नहीं चल रहा है। चलने का सारा प्रवाह बाहर है--चाक है, परिधि है, सरकमफ्रेंस है। वह जो सेंटर है, वह जो केंद्र है, वह मौन और चुप है।
जीवन में सबसे बड़ी कला यही है कि भीतर निष्क्रियता हो और बाहर क्रिया हो। और जीवन का सबसे बड़ा सार-सूत्र यह है कि जीवन परस्पर विरोधी चीजों से निर्मित है।
एक श्र्वास भीतर जाती है, तत्क्षण दूसरी श्र्वास बाहर जाती है। श्र्वास बाहर गई नहीं कि फिर भीतर चली जाती है। हम कभी नहीं कहते कि हम भीतर श्र्वास ले गए, अब हम बाहर न ले जाएंगे। अगर हम बाहर ले गए, तो भीतर कैसे ले जा सकेंगे। हम यह भी नहीं कहते कि बाहर श्वास चली गई, अब हम भीतर क्यों ले जाएं। जब बाहर निकल ही गई तो निकल ही जाने दो, अब बार-बार भीतर ले जाने की क्या जरूरत है। लेकिन श्र्वास बाहर जाती है और भीतर जाती है और इन दो विरोधी डाइमेन्शन में, दो विरोधी आयाम में हमारा जीवन है--बाहर और भीतर, बाहर और भीतर।
दिन भर हम जागते हैं, रात हम सो जाते हैं। हम यह नहीं कहते कि अगर हम सो गए तो सोना तो जागने से बिलकुल उलटा है, तो फिर हम जागेंगे कैसे? हम यह भी नहीं कहते कि हम जाग गए तो हम सोएंगे कैसे, जागना तो सोने से बिलकुल उलटा है।
जागना क्रिया है, सोना अक्रिया है।
लेकिन मजे की बात है, अगर रात भर ठीक से न सो पाए तो दूसरे दिन ठीक से जाग न पाएंगे। ठीक से जो सोता है, वह ठीक से जागता है। इसका मतलब हुआ: जो ठीक से निष्क्रिय हो जाता है रात में, दूसरे दिन सुबह उतना ही सक्रिय हो जाता है। और जो जितना सक्रिय होता है दिन में, उतनी गहरी निष्क्रियता में रात चला जाता है।
जीवन विरोधों पर खड़ा है, जीवन का सारा खेल विरोध पर है। दो विरोधों को मिल कर जीवन की सारी गति है।
तो जब मैं कह रहा हूं कि ध्यान की निष्क्रियता में चले जाएं तो उसका अर्थ यह नहीं है कि आप मर जाएंगे, कि आपकी क्रिया खो जाएगी। नहीं, कर्ता का अहंकार खो जाएगा। और जितने गहरे ध्यान में जाएंगे, उतनी ही गहरी क्रिया बाहर हो जाएगी। जितनी गहरी श्र्वास भीतर ले जाएंगे, उतनी ही गहरी श्र्वास बाहर जाएगी। भीतर की गहराई और बाहर की गहराई, हमेशा अनुपात में बराबर होती है।
जो जितनी निष्क्रियता में जा सकता है, वह उतना ही सक्रिय हो सकता है।
ये वृक्ष हम देखते हैं। ये वृक्ष जितने ऊपर दिखाई पड़ते हैं आपको, उतने ही गहरे नीचे इनकी जड़ें गई हुई हैं। जो वृक्ष आकाश की तरफ जितना ऊंचा गया है, उतना ही पाताल की तरफ उसे नीचे भी जाना पड़ा। आप कहेंगे, नीचे! नीचे और ऊंचा तो उलटे आयाम हैं! अगर नीचे चले गए तो फिर ऊपर कैसे जाएंगे? वृक्ष अगर कहे कि अगर मैं जड़ें नीचे ले गया तो फिर ऊपर कैसे जाऊंगा? मुझे ऊपर जाना है। तो मैं नीचे नहीं जाता हूं। तो फिर याद रखना, वह वृक्ष कभी ऊपर नहीं जा सकेगा। जितना वृक्ष नीचे जाता है, उतना ही ऊपर जा सकता है। जिस वृक्ष को आकाश छूना हो, उस वृक्ष को पाताल भी छूना पड़ता है।
जितना सक्रिय होना हो, उतना ही निष्क्रिय होना जरूरी है। एक ही फर्क पड़ेगा, कर्ता खो जाएगा। जितनी निष्क्रियता बढ़ेगी, जितना ध्यान बढ़ेगा, जितना मौन बढ़ेगा, उतना ही कर्ता मिट जाएगा। क्रिया तो रहेगी, कर्ता नहीं रहेगा।
और जब कर्ता नहीं होगा तो यह कहने का कारण नहीं होगा कि मैं कर रहा हूं। तब ऐसा ही लगेगा हो रहा है। जैसे पानी गिरता है, बिजली चमकती है, नदी बहती है, ऐसा ही सब हो रहा है, ऐसा प्रतीत होगा। ऐसी प्रतीति जिस व्यक्ति को हो जाती है, जानना कि वह व्यक्ति परमात्मा को समर्पित हो चुका है।
परमात्मा को समर्पण का इतना ही अर्थ है कि अपना कर्तापन खो गया। अब जो विराट क्रिया का जगत है, जो विराट सृजन चल रहा है, जो विराट गति चल रही है, उस गति के हम एक भाग और अंश हो गए हैं, उससे हम पृथक नहीं हैं।
इसलिए यह मत सोचें कि अगर मेरी बात मान कर सब निष्क्रिय हो जाएं तो क्या होगा। अगर मेरी बात मान कर कोई निष्क्रिय हो जाए तो जगत में इतनी क्रिया का जन्म होगा कि जिसका हमने अब तक कोई अनुभव नहीं किया है। आज तक भी जगत में वे ही लोग सक्रिय रहे हैं--कृष्ण जैसे लोग--कितनी क्रिया है! लेकिन भीतर सब मौन! भीतर जब मौन डगमगा जाता है, तो क्रिया में कुशलता नहीं बढ़ती, क्रिया अकुशल हो जाती है।
एक खलीफा था उमर। कुछ वर्षों से दुश्मन से युद्ध में लगा हुआ था। सात वर्ष हो गए थे, अनेक लड़ाइयां हुई थीं। कोई जीत नहीं हो सकी, कोई निर्णय नहीं हो सका। न उमर जीतता था, न दुश्मन जीतता था। आखिरी लड़ाई चल रही थी और ऐसा लगता था कि कुछ निर्णायक फैसला हो जाएगा। भरी दोपहर है, उमर का दांव सफल हो गया है। दुश्मन का घोड़ा गिर गया, दुश्मन जमीन पर गिर पड़ा। उमर ने छलांग लगाई अपने घोड़े से और उसकी छाती पर सवार हो गया। निकाला भाला, उसकी छाती में छेदने को है कि उस नीचे पड़े दुश्मन ने--मरता आदमी अंतिम कुछ भी कर सकता है--उमर के मुंह पर थूक दिया!
एक क्षण उमर का वह जो भाला उठा था छाती में जाने को, ठहर गया! उसके थूकते ही ठहर गया! फिर वापस भाला उसने अपने स्थान पर रख दिया! उठ कर खड़ा हो गया और अपने दुश्मन को कहा कि उठ आइए, फिर सुबह कल लड़ेंगे!
उसके दुश्मन ने कहा: पागल हो गए हो! सात वर्षों से इसी की खोज में तुम थे, ऐसे अवसर की। और इसी अवसर की खोज में मैं था। आज तुम्हें मौका मिला है, आज तुम छोड़ते हो मुझे! भाले को घुस जाने दो। क्या कारण हो गया छोड़ने का?
उमर ने कहा: छोड़ता हूं, क्योंकि एक संकल्प था, एक भाव था, एक योजना थी कि जब तक शांत हूं तभी तक लडूंगा। अशांत हो गया कि फिर नहीं लडूंगा। तुमने थूक दिया और मैं अशांत हो गया। भीतर डगमगा गया थोड़ा और मन हुआ कि भोंक दूं, तब फिर मुझे लगा कि अब लड़ाई व्यक्तिगत हो गई। अब ‘मैं’ आ गया। अब कर्ता आ गया। अब तक उसूल की लड़ाई थी, अब तक लड़ते थे सत्य के लिए। अब तक लड़ते थे जो ठीक था उसके लिए। अब तक मैं नहीं लड़ रहा था। अब तक एक विराट योजना का मैं एक अंग था। लेकिन तुमने थूका और ‘मैं’ मौजूद हो गया, वह बात खत्म हो गई! अब नहीं लड़ सकता हूं। कल सुबह फिर!
क्या मतलब हुआ इसका? फिर ऐसे आदमी से कोई लड़ता है? वह दुश्मन तो मित्र हो गया। वह तो पैरों पर गिर पड़ा। उसने कहा: मुझे पता भी नहीं कि तुम सात वर्षों से शांति से लड़ते थे! तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं था, वैमनस्य नहीं था, ईर्ष्या नहीं थी!
यह हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि ऐसा आदमी भी हो सकता है, जिसके भीतर क्रोध न हो, ईर्ष्या न हो, वैमनस्य न हो। यह हम सोच ही नहीं सकते कि ऐसा आदमी भी सक्रिय हो सकता है, जो निष्क्रिय हो। हमारे सोचने-समझने के ढंग बहुत गणित की लकीर पर चलते हैं। और जिंदगी गणित की लकीर पर नहीं चलती है। जिंदगी के गणित बहुत बेबूझ हैं, वहां एकदम सीधा-सीधा कुछ भी नहीं होता। वहां बड़ी उलटी चीजें होती हैं।
असल में जिंदगी की पूरी कीमिया, जिंदगी की पूरी केमिस्ट्री हीविरोध पर खड़ी है। वह देखा होगा किसी बड़े भवन पर गोल द्वार पर आर्च बना होता है, मेहराब बना होता है, वह मेहराब कैसे सम्हला होता है, कभी खयाल किया? दोनों तरफ की विरोधी ईंटें दबाव डालती हैं एक-दूसरे पर और मेहराब सम्हला रह जाता है। उस मेहराब में कोई नीचे से खंभा नहीं लगा हुआ है, लेकिन दोनों तरफ से आने वाली ईंटें दबाव डाल रही हैं। दोनों में विरोध पैदा किया है आर्किटेक्ट ने। और उस विरोध पर पूरे भवन को खड़ा किया हुआ है।
जिंदगी का पूरा भवन विरोध पर खड़ा है। नींद है, जागरण है; रात है, दिन है; क्रिया है, अक्रिया है; जन्म है, मृत्यु है। वह जन्म और मृत्यु भी जीवन के मेहराब के दो विरोधी छोर हैं, जिनके दबाव से जिंदगी खड़ी है। उधर जन्म है, इधर मौत है। दोनों उलटी चीजें हैं। हम कभी नहीं पूछते कि जो जन्मता है, वह मर कैसे जाता है! क्योंकि जन्म तो उलटा है और मौत बिलकुल उलटी है। लेकिन हम कहते हैं कि जो जन्मता है, वह मरेगा! क्योंकि जन्म एक छोर है, इससे उलटा छोर होना चाहिए, अन्यथा यह मेहराब न बनेगी जिंदगी की।
उजाला अंधेरे पर खड़ा है। अंधेरा न हो तो उजाला नहीं होगा। और रात दिन पर खड़ी है। दिन न हो तो रात न होगी। स्वास्थ्य बीमारी पर खड़ा है। सारी चीजें बहुत उलटी चीजों पर खड़ी हैं। सारी जिंदगी उलटे दबाव से बना हुआ मेहराब है। और इसलिए मैं कहता हूं: जो निष्क्रिय हो जाता है भीतर, वह बाहर बड़ी सक्रियता को उपलब्ध होता है।
लेकिन हमने ऐसे संन्यासी देखे हैं, जो निष्क्रिय हो गए और जिंदगी से भाग गए!
तो मेरा कहना है, ध्यान रखना, वे निष्क्रिय नहीं हुए। उन्होंने निष्क्रियता को भी ओढ़ा है। वे अगर निष्क्रिय हो जाते तो क्रिया से भाग नहीं जाते। क्रिया से सिर्फ वे ही भागते हैं, जो क्रिया से अधिक डरते हैं। क्रिया से वे ही भागते हैं, जिनकी निष्क्रियता झूठी है। जिनकी निष्क्रियता सच्ची है, उन्हें क्रिया का भय खत्म हो जाता है। क्रिया का तूफान चलता रहे और उनके भीतर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। लेकिन जो डरते हैं कि क्रिया चली और उनकी निष्क्रियता टूटी, उनकी निष्क्रियता थोथी है, सम्हाली गई है, थोपी गई है, कल्टीवेटेड है। और इस तरह के संन्यासियों ने दुनिया में एक गलत धारणा पैदा कर दी कि जो लोग शांत हो जाते हैं, वे जिंदगी से भाग जाते हैं।
ध्यान रहे, शांत आदमी कहीं नहीं भागता, सिर्फ अशांत भागते हैं।
अशांत डरते हैं, इसलिए भागते हैं। शांत आदमी को भागने का कारण ही नहीं रह जाता। शांत तो जहां भी खड़ा है, वहीं खड़ा रहता है, क्योंकि शांत को अब कोई कारण नहीं है जो अशांत कर सके। अब अशांति के तूफान चलते रहें, बवंडर बाहर और भीतर की शांति अपनी जगह खड़ी होगी।
बल्कि शांत आदमी ऐसे बवंडरों को निमंत्रण दे देगा, ऐसे बवंडरों को बुलाएगा, बुलावा दे आएगा कि आना, क्योंकि जब भीतर शांति हो और बाहर तूफान चलते हों तो इन दोनों के विरोध में जो पुलक, जो अनुभूति उपलब्ध होती है, वह और किसी क्षण में कभी उपलब्ध नहीं होती। इन दोनों के विरोध के बीच में जैसे अंधेरी रात में बिजली चमक जाए तो वह चमक भरे दिन में चमकी हुई बिजली की चमक से बहुत भिन्न है। ठीक वैसे ही शांत चित्त हो जहां और बाहर की अशांति चारों तरफ डोलती हो तो कोई अंतर नहीं पड़ता। बल्कि उस अशांति के बीच वह शांति और घनी और गहरी और प्रगाढ़ हो जाती है।
यह तो सोचना ही मत, इससे घबड़ाना भी मत।
एक दूसरे मित्र ने भी यही इसी संबंध में पूछा है।
उन्होंने पूछा है: भगवान, अगर लोग ध्यान में गहरे हो गए, शांत हो गए तो घर-गृहस्थी, परिवार, दुकान, धंधा इन सबका क्या होगा?
इन सबका अभी क्या हाल है? घर-गृहस्थी का, पत्नी का, बच्चों का, दुकान का, धंधे का अभी क्या हाल है? अभी कोई बहुत अच्छी हालत है? इससे भी बुरी हालत हो सकती है? लेकिन हम बड़े भयभीत होते हैं। इस नरक को जो हमने पैदा कर लिया है, कोई उसको परिवार कहता है, कोई धंधा कहता है, कोई कुछ और कहता है--इस पूरे नरक को भी! यह कहीं नरक ही न मिल जाए, इससे भी बड़ी घबड़ाहट होती है।
धंधा नहीं मिटेगा। और न पत्नी मिटेगी, और न परिवार मिटेगा। न बेटे और बेटियां मिट जाएंगी। लेकिन यह जो नरक हमने खड़ा किया है, यह जरूर मिट जाएगा।
लेकिन नये रूप प्रकट होंगे। किसी स्त्री को प्रेम करना एक बात है और पत्नी बना कर घर में बांध लें वह बिलकुल दूसरी बात है। घर में बांधने की चेष्टा ही इसलिए चलती है कि प्रेम नहीं है। प्रेम हो तो घर में बांधने की चेष्टा नहीं चल सकती। वह डर है कि अगर नहीं बांधा, तो और तो भीतरी कोई उपाय नहीं है जोड़ने वाला, तो बाहर से उपाय करने पड़ते हैं। समाज के सामने सात चक्कर लगाने पड़ते हैं और कानून की अदालत में जाकर रजिस्ट्री करवानी पड़ती है। क्योंकि और भीतर कोई जोड़ने वाला कुछ भी नहीं है तो बाहर के जोड़ उत्पन्न करने पड़ते हैं, फिर इनके ही सहारे जीना पड़ता है।
जिस दिन दुनिया में प्रेम होगा, उस दिन पति भी नहीं होगा, पत्नी भी नहीं होगी। पति और पत्नी प्रेम के न होने के कारण हैं।
प्रेम होगा तो पति-पत्नी बड़े बेहूदे शब्द हैं, ये बर्दाश्त योग्य नहीं हैं। इनसे कोई दुनिया अच्छी नहीं हो गई है, बहुत अगली, बहुत गंदी हो गई है, कुरूप हो गई है। मित्र होंगे--पति-पत्नी की क्या जरूरत है? मित्र होंगे, साथ रहने वाले सहयोगी होंगे, साथी होंगे, कंपेनियन होंगे--कानून की क्या जरूरत है? अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं तो बीच में कानून की क्या जरूरत है? कानून की जरूरत बताती है कि प्रेम संदिग्ध है। कानून के सहारे उसको रोकने की कोशिश की जाती है। प्रेम का कोई भरोसा नहीं है, इसलिए कानून का सहारा लेना पड़ता है। जहां प्रेम संदिग्ध है, वहां कानून की जरूरत है। जहां प्रेम संदिग्ध नहीं है, वहां कानून की क्या जरूरत है?
तो हम बड़े डरते हैं। वह डर ठीक भी है एक अर्थ में, क्योंकि शांत हो जाएंगे तो बहुत घबड़ाहट लगती है कि यह सब जो नरक का जाल हमने बना रखा है, यह टूट जाएगा। यह टूटना चाहिए। लेकिन यह एक स्वर्ग बन सकता है। पति-पत्नी तो जाने चाहिए, मित्र बचने चाहिए। अभी हम धंधा कर रहे हैं, दुकान कर रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं, वह सब बोझ है, जबर्दस्ती है। और एक आदमी को जिंदगी भर चालीस साल तक रोज एक दफ्तर में सुबह से सांझ तक जबर्दस्ती बैठे रहना पड़ता है। अगर उसका दिमाग पत्थर न हो जाता हो तो कोई आश्र्चर्य है! एक काम, जो उसका मन नहीं है करने का, चालीस साल तक एक आदमी लगातार एक काम को करता है, जो करने का उसका एक क्षण को मन नहीं है। लेकिन करता है, करना पड़ता है।
तो चालीस साल अगर किसी मस्तिष्क पर इस तरह की नासमझी और ज्यादती गुजरे, तो वह आदमी मरने के बहुत पहले ही मर चुका होगा। उसके कोमल तंतु मस्तिष्क के टूट चुके होंगे। उसके हृदय ने बहुत पहले पंखुड़ियां बंद कर ली होंगी। उसके प्राण बहुत पहले मशीन हो गए होंगे। वह मशीन की तरह दफ्तर जाता है, आता है; दफ्तर आता है, जाता है--वह कर रहा है चालीस साल से! जैसे कि एक ट्रैक पर रेलगाड़ी दौड़ती रहती है, वैसे ही बेचारा दफ्तर से घर, दफ्तर से घर दौड़ता रहता है। यह शंटिंग उसकी होती रहती है, दफ्तर से घर, दफ्तर से घर। और इसको वह कहता है कि धंधा कर रहे हैं! कहीं शांत हो गए तो यह चला न जाए!
शांत होने से जिंदगी जरूर दूसरी होगी। जरूर काम काम नहीं रह जाएगा, आनंद हो जाएगा। और जब काम आनंद हो जाता है तो जिंदगी में और तरह के फूल खिलने शुरू होते हैं। लेकिन हम तो जानते नहीं किसी काम को, जो आनंद हो। हम तो सब काम जानते हैं। हम काम ही जानते हैं। काम और आनंद में कोई संबंध नहीं है। आनंद बात ही अलग है, काम बात ही अलग है।
अभी जो दुनिया हमने बनाई है, उसमें काम का आनंद से कोई संबंध नहीं है। इसलिए आदमी बर्बाद होता चला गया है। आदमी की सारी की सारी आत्मा डिटेरिओरेट हुई है, पतित हुई है; पतित हो रही है, होती चली जाएगी। धीरे-धीरे हम एक मशीन पर आदमी को पहुंचा दिए हैं।
नहीं, अगर चित्त शांत होगा तो काम बोझ नहीं रह जाएगा, काम आनंद हो जाएगा।
कबीर कप़ड़ा बुनता है। फिर शांत हो गया तो कपड़ा बुनना बंद नहीं हो गया, कपड़ा बुनना जारी रहा। लेकिन कपड़े की बुनावट बदल गई, कपड़े के बुनने का ढंग बदल गया। कपड़े को बुनने वाला आदमी बदल गया, कपड़े को बुनने की वृत्ति बदल गई, कपड़े को बुनने के समय का भाव बदल गया। अब कबीर बुनता भी है, नाचता भी है, गीत भी गाता है।
उसके मित्रों ने कहा: अब बंद कर दो, अब अच्छा नहीं लगता कि तुम जुलाहे का काम करो।
कबीर ने कहा कि अब जब मैं काम करने योग्य हुआ हूं, तब तुम कहते हो बंद कर दो! अब तक तो कभी काम किया ही नहीं था, सिर्फ बोझ ढोया था, अब आनंद हो गया है काम। अब यह जो बुन रहा हूं, यह तुम्हें पता नहीं, किसके लिए बुन रहा हूं। यह राम के लिए बुन रहा हूं।
लेकिन लोगों ने कहा: राम आएंगे कहां बाजार में खरीदने, उनको हुए बहुत वक्त हो गया है।
कबीर ने कहा: अब राम के सिवाय कोई दिखाई ही नहीं पड़ता! अब तो जो भी आ जाएगा, वह राम है! और जो भी मेरे कपड़े पहन लेगा, मैं धन्यभागी हुआ। और कैसे--भगवान की सेवा कैसे करूं?
तो कबीर बुनता है कपड़ा और भागता है बाजार की तरफ। और लोग पूछते हैं, कहां जा रहे हो? तो वह कहता है, राम की तलाश में जा रहा हूं। कपड़ा बना लिया, बहुत बढ़िया बनाया है, राम पहनेंगे तो खुश हो जाएंगे। और वह बाजार में चिल्लाता है कि राम, कपड़ा ले आया हूं, कोई राम को जरूरत हो तो ले जाए, बहुत अच्छा बनाया है।
अब यह बात और हो गई, अब यह काम और हो गया। अब इस काम में और उस काम को, जिसे हम करते रहे हैं, कोई संबंध नहीं है।
काम नहीं रुक जाएगा आदमी के शांत होने से--काम रूपांतरित होगा, ट्रांसफार्म होगा। काम एक खुशी हो जाएगी, काम एक आनंद हो जाएगा।
और अभी काम एक नरक है। अभी काम से किस तरह छूट जाएं, इसी की चिंता में हम रहते हैं। काम से किस तरह बच जाएं, इसी की चिंता में हम रहते हैं। और इसी काम के लिए बड़ी घबड़ाहट भी रहती है। कहीं यह काम-धाम सब बंद न हो जाए?
वह घबड़ाहट क्यों है?
वह इसीलिए है कि काम-धाम हम बंद करना चाहते हैं। वह बंद करने योग्य है। लेकिन मजबूरी है। रोटी चाहिए, कपड़े चाहिए--पत्नी है, बच्चे हैं। ये भी सब मजबूरियां हैं। उनको भी खिलाना है, उनके लिए भी मकान बनाना है। सब मजबूरियां हैं। पूरी जिंदगी मजबूरी है। वह एक पुलक नहीं, एक नृत्य नहीं।
जरूर शांत आदमी की जिंदगी और ढंग की होगी। तो वह भी जीएगा यहीं, लेकिन दूसरा आदमी हो जाएगा वह। वह भी काम करेगा, लेकिन उस काम करने में सब-कुछ बदल जाएगा। वह काम भी उसका प्रेम हो जाएगा। वह काम भी उसकी सेवा बन जाएगी। वह काम भी उसकी पूजा और प्रार्थना हो जाएगी।
मुझे ऐसा नहीं लगता कि शांत आदमी दुनिया में बढ़ेंगे तो दुकानें कम हो जाएंगी, शांत आदमी बढ़ेंगे तो दुकानें दुकानें नहीं रह जाएंगी। एक बात जरूर है, दुकानें तो कम नहीं होंगी, लेकिन शांत आदमी बढ़ जाएं तो मंदिर, मस्जिद, गुरु, संन्यासी, साधु ये कम हो जाएंगे। क्योंकि इनके पास अशांत आदमी जाते हैं। इनके पास कोई शांत आदमी किसलिए जाएगा। गुरुडम चली जाएगी। एक दुकान बंद हो जाएगी--गुरुओं की दुकान बंद हो जाएगी। और कोई दुकान बंद होने का कोई कारण नहीं है। मंदिर-मस्जिद जरूर बंद हो जाएंगे। उनमें फिर कोई नहीं जाएगा। क्योंकि जब पूरी जिंदगी मंदिर मालूम पड़ने लगे तो कौन मंदिरों में जाएगा। वह तो पूरी जिंदगी नरक मालूम पड़ती है तो गांव में एक मंदिर बनाते हैं।
वह गांव में मंदिर इस बात का सबूत है कि पूरा गांव मंदिर नहीं बन पाया। हम ऐसा समाज निर्मित नहीं कर पाए जहां पूरा गांव मंदिर होता। तो अपना मन समझाने को एक मंदिर बनाया हुआ है। गांव पूरा नरक है। उसमें एक मंदिर बना है। अब नरक में मंदिर बन सकता है? और नरक में रहने वाले मंदिर बना सकते हैं? और नरक में रहने वाले दान करके मंदिर खड़ा कर सकते हैं?
आखिर नरक के रहने वाले जो बनाएंगे, वह नरक ही होगा। तख्ती भर मंदिर की हो सकती है। नरक में रहने वाले लोग जो भी बनाएंगे वह नरक होगा। इसलिए हमारे मंदिर-मस्जिद भी सब नरक के स्थान हैं। हमारे तीर्थ सब नरक के स्थान हैं। हम बनाते हैं, और हम जो भी बनाते हैं, वह नरक हो जाता है। हम जो भी छूते हैं, वह नरक हो जाता है। जब हम अपने घर को भी स्वर्ग नहीं बना पाए, जब हम अपने बच्चे और पत्नी के संबंध को स्वर्ग नहीं बना पाए, तो हम ये सब नरक बनाने वाले लोग मिल कर एक मंदिर बना लेंगे गांव में? वह बनाएगा कौन उसे? हम ही बनाएंगे न? हमारी काली छाया उसको भी घेर लेगी।
नहीं, एक दिन ऐसा हो सकता है कि लोग शांत होते चले जाएं तो पूरा गांव मंदिर हो जाए। और जब कोई पूछे उस गांव में आकर कि मंदिर कहां है, तो हमें हैरानी हो जाएगी कि कहां बताएं, क्योंकि पूरा गांव ही मंदिर है।
पूरा गांव मंदिर हो सकता है, इसलिए मैं मंदिरों के खिलाफ हूं।
लेकिन हमें अब तक ऐसी बातें समझाई गई हैं कि जो आदमी शांत हो जाएगा--धंधा छोड़ देगा, पत्नी छोड़ देगा, बच्चे छोड़ देगा, भाग जाएगा। और भाग कर क्या करेगा फिर? फिर एक आश्रम बनाएगा, फिर शिष्याएं इकट्ठी करेगा, शिष्य इकट्ठे करेगा, बेटे-बेटियां जोड़ेगा, फिर एक नई दुकान, फिर एक नया घर बनाएगा। वह सब चलेगा।
आखिर भाग कर जाएगा कहां? यह आदमी जिस तरह का आदमी है, यह करेगा क्या? यह एक दुकान छोड़ेगा, दूसरी दुकान बनाएगा। यही आदमी बनाएगा न, आखिर यह जाएगा कहां? यह जंगल में जाएगा तो वहां दुकान करेगा।
आदमी बदलना है। और अब तक हमने स्थान बदलने की चेष्टा की है, आज तक। मनुष्य-जाति के इतिहास में हमने स्थान और परिस्थिति बदलने की फिकर की है। आदमी नहीं बदलता। आदमी नहीं बदलता और वह आदमी फिर जाकर दूसरी जगह फिर वही स्थिति बना लेता है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने अपने जीवन में, अमरीका में आठ विवाह किए। और पहले विवाह को करने के छह महीने बाद वह घबड़ा गया। छह महीने भी लंबा वक्त है, छह दिन में ही घबड़ाहट शुरू हो जाती है। छह महीने में वह घबड़ा गया और परेशान हो गया और उसने कहा, यह कहां की गलत औरत मिल गई! औरत ने सोचा होगा, कहां का गलत आदमी मिल गया!
फिर उसने तलाक दे दिया। फिर उसने दूसरी बार बहुत खोज-बीन करके विवाह किया, बहुत जांच-पड़ताल की। अब वह पहली ही दृष्टि में प्रेम में नहीं पड़ गया। पहली दफा भूल हो चुकी थी। अनुभवी था, उसने बहुत सोच-विचार करके, बहुत खोज-बीन करके विवाह किया।
लेकिन दो महीने बाद पाया कि यह औरत फिर वैसी औरत साबित हुई, जैसी पहली थी। वह बहुत परेशान हुआ, उसको भी तलाक दिया।
उसने आठ बार विवाह किए और आठवीं बार उसे यह समझ में आई कि हर बार विवाह तो मैं ही करता हूं। हर बार स्त्री तो मैं ही चुनता हूं। हर बार खोज तो मैं ही करता हूं। और मैं जैसा आदमी हूं--मैं फिर वही औरत ढूंढ लाता हूं, जैसी पहली थी!
यह आदमी, यह माइंड, आखिर यही चुनने जाएगा न बाजार में फिर। तो यह लाएगा कहां से? इसकी समझ, इसकी पसंद, इसकी पकड़ वही है। वह तो बदलती नहीं, वह फिर उसी औरत को पकड़ कर ले आता है।
जहां-जहां, जिन-जिन मुल्कों में तलाक विकसित हुए हैं, वहां एक अदभुत अनुभव हुआ। और वह अनुभव यह है कि हर बार आदमी फिर उसी तरह के संबंध जोड़ लेता है, जैसे उसने पहले जोड़े थे। इसलिए आप बहुत चिंतित मत होना कि हमारे यहां तलाक की सुविधा नहीं। तो आप कोई बहुत नुकसान में नहीं हैं। एक सा ही मामला है। वह स्त्री बदल जाती है, आदमी बदल जाता है। लेकिन फिर उसी तरह का आदमी खोज लाता है। वह खोजने वाला नहीं बदलता न! असली सवाल तो खोजने वाले की बदलाहट का है।
लेकिन हमेशा ऐसा हुआ है। तलाक वालों ने ऐसा किया नहीं है, संन्यासी भी यही करते हैं। एक घर छोड़ कर भाग जाते हैं लेकिन कभी नहीं पूछते कि मैं तो आदमी वही का वही हूं, मैं जा कहां रहा हूं, तो मैं जहां पहुंच जाऊंगा, मैं फिर न्यूक्लइस बन जाऊंगा, फिर वही चीज खड़ी कर लूंगा, जो मैं यहां से छोड़ कर गया था। नाम बदल जाएंगे, लेकिन फिर वही होगा। फिर वही होने वाला है। वह जो आदमी भाग कर जा रहा है, वह जिस तरह का मस्तिष्क है, जिस तरह का मन है उसके पास--वही मन तो फिर अपने चारों तरफ नया संसार रचेगा। वह फिर वहां वही बना लेगा। बचना मुश्किल है, अपने से बचना मुश्किल है, इसलिए भाग कर जाइएगा कहां?
तो मेरा कहना है, अब तक जो धर्म दुनिया में विकसित हुए, उन्होंने एस्केपिज्म सिखाया, भागना सिखाया, पलायन सिखाया, लेकिन परिवर्तन नहीं। और असली सवाल है कि आदमी बदले। और वह बदल ध्यान से आती है, शांति से आती है, भीतर शून्य और मौन से आती है। वह बदल आ जाए तो जिस घर में आप हैं, वह घर और तरह का घर हो जाएगा, क्योंकि उसको बनाने वाला आदमी बदल गया है, उस घर को और होना ही पड़ेगा।
महावीर के जीवन में बहुत अदभुत उल्लेख है। महावीर युवा हुए और उन्होंने अपनी मां को और अपने पिता को कहा कि अब मैं संन्यासी हो जाना चाहता हूं। तो महावीर की मां ने कहा कि मेरे जीते-जी दुबारा अब यह बात मेरे सामने मत रखना। यह हमारे सुनने के सामर्थ्य के बाहर है। यह मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि मेरा बेटा संन्यासी हो जाए। जब मैं मर जाऊं, तब तुम इस तरह की बात सोच सकते हो, उसके पहले नहीं।
महावीर बड़े अदभुत आदमी रहे होंगे। अगर और संन्यासियों से जाकर पूछें तो उनको हैरानी होगी कि कच्चे संन्यासी रहे होंगे। महावीर राजी हो गए, मां से बोले कि ठीक है।
हमको भी लगेगा कि यह आदमी कैसा है! अरे कहीं संन्यास ऐसे छोड़ा जाता है कि मां ने कह दिया तो! कहेंगे ही लोग! मां कहेगी, पत्नी कहेगी, बेटे कहेंगे, बाप कहेगा कि नहीं-नहीं, मत जाओ। ऐसे कहीं संन्यासी कोई हो सकता है? पहली तो बात यह कि संन्यासियों को पूछना नहीं चाहिए, चुपचाप भाग जाना चाहिए, क्योंकि पूछने का मतलब है, झंझट पड़ेगी। और फिर ऐसा मान लोगे तब तो संन्यास हो गया!
लेकिन महावीर मान गए! उन्होंने मां से कहा कि ठीक है। भाग्य की बात, दो साल बाद मां और पिता दोनों की मृत्यु हो गई। पिता को दफना कर लौटते थे तो अपने बड़े भाई से महावीर ने कहा--रास्ते में ही, अभी मरघट से लौटते हैं--रास्ते में कहा कि अब मैं संन्यासी हो जाऊं? क्योंकि मां और पिता का कहना था कि जब तक वे हैं, बात न करूं तो मैंने बात नहीं की।
भाई ने छाती पीट ली कि तुम पागल हो गए हो! हमारे ऊपर इतनी मुसीबत पड़ी है कि मां-बाप चल बसे और तुम्हें संन्यास की आज ही सूझी! मेरे जिंदा रहते बात मत करना! और महावीर राजी हो गए कि ठीक है।
अब ये भी कोई संन्यासी रहे होंगे। संन्यासियों से पूछें तो वे कहेंगे कि यह तो गड़बड़ आदमी है। यह संन्यासी नहीं है। लेकिन महावीर अदभुत आदमी थे, वे राजी हो गए। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीता, महावीर ने फिर नहीं कहा कि मुझे संन्यास लेना है। बात खत्म हो गई। भाई कहते हैं कि जब तक वे हैं, तो ठीक है।
लेकिन दो वर्ष बीतते-बीतते घर के लोगों को ऐसा लगा कि महावीर हैं तो घर में, लेकिन न के बराबर हैं। वे घर में नहीं हैं। वे थे और नहीं थे। और घर के लोगों को लगा कि उनकी मौजूदगी पता पड़नी ही बंद हो गई है। महीनों बीत जाते और ऐसा नहीं लगता कि वे घर में हैं। वे न किसी बात में दखल देते हैं, न वे कोई आग्रह करते हैं, न वे कोई मांग करते हैं। वे ऐसे हैं जैसे एक छाया की तरह चुपचाप--कब निकल जाते हैं घर के बाहर, कब घर के भीतर आ जाते हैं, कब सो जाते हैं, कब उठ जाते हैं--उनका होने न होने का कोई सवाल ही नहीं रहा।
घर के लोगों ने उनके बड़े भाई को कहा कि महावीर तो संन्यासी हो गया। भाई ने भी कहा कि मैं भी हैरान हूं, ऐसा लगता ही नहीं कि वह घर में है या नहीं। अब उसे रोकने से क्या फायदा? अब कोई मतलब नहीं रहा रोकने का। हम सोचते थे हमने रोक लिया है, लेकिन वह तो जा चुका है। तो घर भर के लोगों ने इकट्ठे होकर महावीर से कहा कि आप तो जा ही चुके हैं, तो अब हमें रोकने में कोई अर्थ नहीं है, अब आपकी जैसी मर्जी। और महावीर घर से चल पड़े!
यह महावीर जीवन भर भी न जाते, कि इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। यह घर से जाना, न-जाना बिलकुल गौण बात थी, इसमें कोई अर्थ न था। असली अर्थ अपने रूपांतरण का था, वह हो गया था। अब यह घर और बाहर बराबर थे।
महावीर को मानने वाले कहते हैं कि महावीर ने घर छोड़ा। सरासर झूठ कहते हैं। महावीर ने घर कभी छोड़ा ही नहीं। महावीर को घर छोड़ने के पहले, घर और बाहर सब बराबर हो गया था। घर के लोग कहते थे, रहो, तो रहते थे। घर के लोगों ने कहा, चले जाओ, तो चले गए। ऐसा हुआ।
महावीर को न जिद थी कि मैं जाऊं, न जिद थी कि मैं रहूं। ऐसा अनाग्रह का भाव था। ऐसे अनाग्रह का नाम ही अहिंसा है। यह भी हिंसा है कि मैं कहूं कि मैं जाऊंगा। और यह भी हिंसा है कि मैं कहूं कि मैं यहीं रहूंगा। यह आग्रह दबाव है, और महावीर ने सब दबाव छोड़ दिया, वे हवा की तरह हो गए। घर के लोगों को ही लगा कि अब बेकार क्यों रोकना है। वह है ही नहीं घर में। वह कभी का जा चुका है, सिर्फ शरीर रह गया है। आत्मा जा चुकी है। क्या फायदा है, अब हम क्यों बाधा बनें। उन्होंने कहा कि ठीक है, अब आप जाएं। तो वे चल पड़े!
यह है संन्यास, यह है व्यक्ति का रूपांतरण।
अब यह आदमी कहीं भी चला जाए--अब इसे वेश्या के घर में ठहरा दो तो दिक्कत नहीं है, क्योंकि अब इसे कहीं कठिनाई ही न रही। यह आदमी बदल गया है। यह आदमी स्थान नहीं बदल रहा है, यह आदमी ही बदल गया है!
मैं जो बात कर रहा हूं शांति की, मौन की, ध्यान की, वह व्यक्ति के रूपांतरण की कीमिया और प्रक्रिया की बात है, उससे सब-कुछ बदल जाएगा।
उस बदले हुए आदमी के आस-पास का सब बदल जाएगा, क्योंकि उसकी देखने की दृष्टि बदल जाएगी। वह करेगा काम; चलेगा, उठेगा, बैठेगा! नहीं, लेकिन अब वह दूसरा आदमी हो गया। इसलिए उस पुराने आदमी ने जो दुनिया बनाई थी, यह उस दुनिया में नहीं जीएगा, यह नई दुनिया बनाएगा। इसकी मौजूदगी--नई दुनिया का निर्माण शुरू हो जाएगा। यह आदमी दुकान पर भी बैठ सकता है, क्या कठिनाई है!
और जब तक ऐसे आदमी दुकान पर नहीं बैठेंगे, तब तक दुनिया स्वर्ग नहीं बन सकती। यह आदमी पिता हो सकता है, यह आदमी भाई हो सकता है, बेटा हो सकता है। इस तरह का व्यक्तित्व पत्नी हो सकता है, मां हो सकता है। लेकिन जब तक इस तरह के लोग मां, बेटे, पत्नी और बाप नहीं बनेंगे, तब तक दुनिया स्वर्ग नहीं हो सकती।
हमने काफी उपद्रव मचा रखा है। हम अशांत हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि हम उपद्रव मचाएंगे। अशांत आदमी दुनिया बसाए हुए हैं! अशांत आदमी विवाह कर रहे हैं! अशांत आदमी अदालतें चला रहे हैं! अशांत आदमी राष्ट्रों के मालिक बने हैं!
घरों में पति थोड़े ही हैं, राष्ट्रपति भी हैं! सब चल रहा है रोग, बिलकुल रोग चल रहा है। और कोई स्त्री इनकार नहीं करती कि हम राष्ट्रपति को बर्दाश्त नहीं करेंगे। कोई स्त्री कुछ कहती नहीं। हालांकि कोई स्त्री अगर बनेगी और राष्ट्रपत्नी कहा जाए तो राजी नहीं होगी। राजी नहीं होगी बिलकुल, कि हम राष्ट्रपत्नी नहीं कहला सकते। वह तो किसी दिन अगर बनी स्त्री तो उसको राष्ट्रपति ही कहना पड़ेगा। राष्ट्रपत्नी कहलाने को कोई स्त्री राजी नहीं होगी। लेकिन राष्ट्रपति के लिए कोई स्त्री नाराज नहीं होती कि राष्ट्रपति कैसे बना हुआ है! पुरुषों का हक है दुनिया में, इसलिए सब चल रहा है--इसलिए चल जाता है।
हम रोगग्रस्त, अशांत लोगों ने जो जगत बनाया है, वह जगत बदल जाए, उतना ही अच्छा है। लेकिन वह जगत बदलेगा ही ऐसे कि वह रोगग्रस्त व्यक्ति बदले, अन्यथा फिर हम उसी तरह का जगत बना लेंगे। ऐसे ही हुआ है।
रूस ने बदलाहट की और कुछ बदलाहट न हुई। ऊपरी बदलाहट हुई, भीतरी कोई बदलाहट न हुई, क्योंकि वही रोगग्रस्त व्यक्तियों ने बदलाहट की। फिर वे ही रोगग्रस्त व्यक्ति ऊपर बैठ गए। फिर वही सबका सब सिलसिला वही शुरू हो गया, जो था। पुरानी हालत बदली, धनी और गरीब के बीच का फासला कम हुआ, लेकिन नये फासले खड़े हो गए--सत्ताधिकारी के और गैर-सत्ताधिकारी का फासला उतना ही हो गया, जितना फासला गरीब का और अमीर का था। जो कल मालिक था, वह आज मैनेजर हो गया। तो नाम बदल गए, बात वही रही!
लेकिन हम नाम बदल लेने को बहुत काम समझ लेते हैं! कोई अपना गृहस्थाश्रम छोड़ कर आश्रम बना लेता है जाकर, तो हम कहते हैं कि बदलाहट हो गई! नाम सिर्फ बदलता है, कहीं कुछ बदला नहीं है। घर की जगह आश्रम लिख दिया और बदलाहट हो गई!
पर हमारी बुद्धि ऐसी ही चीजों पर अटकती है। चीजें ऐसे ही हम बदल लेते हैं। एक आदमी सफेद कपड़े पहने है, तो हम कहते हैं गृहस्थ है। और उसने कल गेरुवे वस्त्र पहन लिए, तो हमने कहा स्वामी जी, संन्यासी हो गए। हम बिलकुल पागल हैं, हमें कुछ बुद्धि में थोड़ा भी कुछ नहीं सूझता है कि हम यह क्या कर रहे हैं, हम यह क्या खेल रचा रहे हैं! एक आदमी ने गेरुवे वस्त्र पहन लिए, वह संन्यासी हो गया!
पहली तो बात यह है कि जो आदमी वस्त्र बदलने को संन्यास समझता है, वह ईडियट है, स्टुपिड है, जड़ है। बुद्धि नाम की चीज उसके पास नहीं है। क्योंकि बदलना ही था तो कपड़े बदलने की सूझी उसे! इससे ज्यादा व्यर्थ बात बदलने की और कुछ हो नहीं सकती। यह उसको सूझी, वह तो जड़बुद्धि है। और हम जड़बुद्धि हैं कि उसकी सूझ को हम भी नमस्कार कर रहे हैं कि यह बहुत--बहुत बड़ा महान कार्य किया तुमने--कि तुमने गेरुवे वस्त्र पहन लिए! हम चीजें बदल रहे हैं, नाम बदल रहे हैं, स्थान बदल रहे हैं, यह सब हम कर रहे हैं। लेकिन वह जो व्यक्ति है भीतर, उसे बदलने की कोई चिंता नहीं है! उसको बदलने का द्वार ध्यान है।
ध्यान पर एक-दो प्रश्न और, संक्षिप्त। फिर हम रात के ध्यान के लिए बैठेंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान कोई विधि नहीं है क्या? कोई मेथड?
इसे थोड़ा समझना जरूरी है।
ध्यान कोई विधि नहीं है। हमारी भाषा की तकलीफ है बहुत ज्यादा। हमारी भाषा के साथ बहुत मुश्किल है। क्योंकि जो भाषा हमने विकसित की है, वह बहुत कामचलाऊ बातों के लिए की है, वह ध्यान जैसी बातों के लिए नहीं की है।
तो ऐसा लगता है कि ध्यान भी कोई विधि है। ध्यान कोई विधि नहीं है। विधि तो हमेशा क्रिया की होती है। कोई क्रिया करनी हो तो उसका मेथड होता है, विधि होती है। अब अक्रिया की विधि कैसे हो सकती है! सब विधियों का छोड़ देना--अक्रिया की कोई विधि नहीं हो सकती। क्रियाओं की विधि हो सकती है--ऐसे करो, ऐसे करो, ऐसे करो। लेकिन जहां न-करने का सवाल है, वहां विधि कैसे होगी! इसलिए ध्यान कोई विधि नहीं है। और इसलिए यह भी मत पूछें कि ध्यान की कितनी विधियां होती हैं। और यह भी मत पूछें कि ध्यान के कितने प्रकार होते हैं। और यह भी मत पूछें कि फलां गुरु एक तरह की विधि सिखाते हैं और फलां गुरु दूसरे तरह की विधि सिखाते हैं। गुरुओं को रहना है तो विधियां सिखानी पड़ेंगी। उसकी वजह से ध्यान में गति नहीं होती, उसकी वजह से गुरुडम मजबूत होती है।
ध्यान की कोई विधि नहीं है। ध्यान तो विधि-शून्यता है।
इस बात को चूंकि मैंने कल भी कहा--अक्रिया है, नो-एक्शन है। वहां कुछ करना नहीं है, सब करना छोड़ देना है।
करना छोड़ देना है! जैसे मैं यह मुट्ठी बांधे हुए हूं, और कोई मुझसे पूछे कि मुट्ठी खोलने की विधि क्या है? तो पूछता तो ठीक है, लेकिन मैं उससे कहूंगा कि मुट्ठी बांधने की विधि थी, खोलने की कोई विधि नहीं होती। वह जो बांधने की विधि कर रहा हूं, वह भर न करूं, और मुट्ठी खुल जाएगी। मुट्ठी खुलने की कोई विधि नहीं होती, बांधने की विधि होती है। बांधना एक क्रिया है, खुलना क्रिया नहीं है। खुला हुआ हाथ स्वभाव है, हाथ अपने आप खुला हुआ है। बांधते हम हैं, बांधना हमारा काम है। खुला होना हाथ की स्वभाव-दशा है। हम न बांधेंगे हाथ खुल जाएगा।
इस वृक्ष की शाखा को हम नीचे पकड़ कर खींच लें और फिर कोई मुझसे पूछे कि इसको इसकी जगह पर वापस पहुंचाने की कोई विधि है? तो हम उससे कहेंगे, कोई विधि नहीं है। आप कृपा करके इसको रोकने की जो विधि कर रहे हैं, वह भर न करें। आप छोड़ दें, यह अपनी जगह पहुंच जाएगी।
यह बेचैन है शाखा अपनी जगह पहुंचने को। यह चिल्ला रही है कि मुझे छोड़ दो, मैं अपनी जगह पहुंच जाऊं। और आप उसे पकड़े हुए हैं खींच कर। खींच कर पकड़ना एक विधि है, छोड़ना कोई विधि नहीं है। हालांकि भाषा में छोड़ना भी क्रिया मालूम पड़ती है, लेकिन छोड़ना क्रिया नहीं है। छोड़ने का मतलब है कि जो पकड़ने की क्रिया आप करते थे, अब नहीं कर रहे हैं। छोड़ना हो गया। छोड़ना निगेटिव है, छोड़ना पाजिटिव नहीं है। पकड़ना पाजिटिव है। पकड़ने में आपको कुछ करना पड़ा है। छोड़ने में आपको कुछ करना नहीं है, बल्कि जो आप कर रहे थे, वह भी नहीं करना है और शाखा अपनी जगह पहुंच जाएगी। प्रत्येक चीज अपने स्वभाव में पहुंचने को आतुर है। प्रत्येक चीज अपने स्वभाव में होना चाहती है।
अगर ध्यान से समझें तो धर्म की जो प्यास है दुनिया में, उसका और कोई कारण नहीं है। धर्म की प्यास का अर्थ है: प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव में जाने को आतुर है। और जब तक दुनिया अपने स्वभाव में नहीं पहुंचती, तब तक धर्म की जरूरत बनी रहेगी। जिस दिन लोग स्वभाव में पहुंच गए, धर्म बेमानी हो जाएगा। धर्म की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी।
हम अपने स्वभाव से च्युत हैं, हम अपने स्वभाव से कहीं इधर-उधर भटक रहे हैं और इसलिए बेचैनी है एक। यह जो अशांति है, वह यही है कि हम अपने स्वभाव में नहीं हैं। वह हम वही नहीं हैं जो हम होने को हैं। हमें कहीं कुछ खींचा-ताना गया है। हम कहीं खिंचे हुए हैं। हम वहां नहीं हैं, जैसे होकर हम एट ई़ज, सरल हो जाएंगे।
यह शाखा को देखें। अपनी जगह होकर कैसी शांत हो गई। इसे जरा खींचें और बेचैनी इसकी सारे रग-रेशों में दौड़ जाएगी, इसका स्नायु-स्नायु खिंच जाएगा। सारे वृक्ष के प्राण कंपकंपाने लगेंगे। दूसरी शाखाएं भी हिलने लगेंगी, इसको अपनी जगह से खींचेंगे--पूरे वृक्ष के प्राण कठिनाई में पड़ जाएंगे। जड़ों तक खबर पहुंच जाएगी कि कुछ गड़बड़ हो गई है, कहीं कुछ खिंचाव, कहीं कोई तनाव है। लेकिन छोड़ दें, शाखा अपनी जगह पहुंच जाएगी; वृक्ष निश्चिंत हो जाएगा, मौन हो जाएगा, ठहर जाएगा। अपने में पहुंच गया।
हम सब खिंचे हुए शाखाओं के लोग हैं, अलग-अलग तरफ खिंचे जा रहे हैं। सब एक-दूसरे को खींच रहे हैं। वह जिनको हम संबंधी कहते हैं, उनसे एक ही संबंध है हमारा--एक-दूसरे की शाखाएं खींचो। संबंधी का मतलब, रिलेशनशिप इतनी हमारी है कि एक-दूसरे को खींचो सब तरफ से। बाप बेटे को खींच रहा है, बेटे बाप को खींच रहे हैं, सब एक-दूसरे को खींच रहे हैं। यह जो खिंचा हुआ पूरा का पूरा समाज है, इसमें हम सब एक-दूसरे को च्युत कर रहे हैं अपनी जगह से। हम खुद भी च्युत हैं और इसलिए इतनी अशांति, इतना तनाव, इतना टेंशन, इतनी एंग्जायटी है, इतनी चिंता है।
ध्यान का मतलब है: अपने स्वभाव में होना, अपने में होना, अपने घर लौट आना। यह बड़ी कठिनाई की बात है।
मैंने सुना है, एक आदमी एक दिन शराब पी लिया बाजार में जाकर। शराब पीकर लौटा अपने घर। किसी तरह टटोलता हुआ घर पहुंच गया, लेकिन नशे में था। घर पहचान में नहीं आता था, तो वह सीढ़ियों पर बैठ कर चिल्लाने लगा जोर-जोर से कि कोई मुझे मेरे घर पहुंचा दो! पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए, उसे हिलाने लगे, कहने लगे कि क्या हो गया, पागल हो गए हो, घर में बैठे हुए हो! पर वह आदमी चिल्लाने लगा--मुझे व्यर्थ मत समझाओ, मुझे मेरे घर पहुंचा दो, मेरी मां मेरी राह देखती होगी। नींद खुली मां की आधी रात, दरवाजा खोल कर बाहर आई, उसके सिर पर हाथ रख कर उससे कहने लगी, बेटा, घर के भीतर चल, तुझे हो क्या गया है!
वह कहने लगा, बूढ़ी, कोई मुझे मेरे घर पहुंचा दे। मेरी मां मेरा रास्ता देखती होगी। मेरा घर कहां है? मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
अब गांव में सेवक तरह के लोग भी होते हैं, कोई सेवक भी थे गांव में, वे एक गाड़ी ले आए। उन्होंने कहा: बैठ जा इस पर, हम पहुंचा देंगे।
पड़ोस के दूसरे लोगों ने कहा: पागल, अगर गाड़ी में बैठा तो घर से दूर निकल जाएगा; क्योंकि घर पर तू मौजूद है; अब तू कहीं भी गया तो घर से दूर चला जाएगा। तू कहीं जाना ही मत, किसी नेता के चक्कर में मत पड़ना, किसी गुरु के चक्कर में मत पड़ना, किसी गाड़ी वाले की बातों में मत आ जाना। कि उसकी गाड़ी में बैठ जाए, अन्यथा और दूर निकल जाएगा। तू अपने घर पर ही है, तुझे कहीं जाना नहीं है, तुझे सिर्फ होश में आना है। तुझे कहीं जाना नहीं है, तुझे सिर्फ होश में आना है! तू होश में आ जाएगा तू पाएगा तू अपने घर में है।
हम खिंचे भी नहीं हैं वस्तुतः, सिर्फ बेहोशी में खिंचे हुए का खयाल है। होश आ जाए, हम पाएंगे, हम अपनी जगह हैं। हम वहीं हैं, जहां हम हैं। और जैसे ही यह पता चलता है कि हम अपने घर में हैं, एक शांति सारे जीवन में छा जाती है।
इस संबंध में एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि सब अपने स्वभाव के अनुसार करें--तो चोर चोरी करेगा, हत्यारा हत्या करेगा, बेईमान बेईमानी करेगा! आपकी बात मान लेंगे तो सब दुनिया में नीति, धर्म, अनुशासन सब गड़बड़ हो जाएगा।
अभी पता ही नहीं है आपको कि चोर का स्वभाव चोरी करना नहीं है। यह कभी सोचा? चोर चोरी करता है, स्वभाव में न होने के कारण। हत्यारा हत्या करता है, स्वभाव में न होने के कारण। स्वभाव में किसी ने न तो कभी चोरी की है और न कभी किसी ने हत्या की है। स्वभाव में ही कोई व्यक्ति धर्म में जीता है। अगर चोर अपने स्वभाव में चला जाए तो चोरी नहीं कर पाएगा, क्योंकि चोरी करने के लिए स्वभाव के बाहर जाना जरूरी है। और स्वभाव तो पुकार-पुकार कर भीतर से कहता है--मत कर, मत कर।
लेकिन वह कहता है, नहीं, करूंगा! चोरी करना पड़ती है। चोरी कर्म है। चोरी करता है। वह कर्ता का भाव है कि मैं कर रहा हूं।
लेकिन जैसे ही यह भाव चला गया कि मैं करने वाला नहीं हूं, फिर चोरी कर सकते हैं आप? जैसे ही यह भाव चला गया कि करने वाला परमात्मा है, फिर चोरी कर सकते हैं आप? और अगर फिर चोरी की, तो मैं कहता हूं कि वह चोरी भी धर्म होगी, क्योंकि फिर चोरी की ही नहीं जा सकती।
हमें पता ही नहीं है कि जो भी बुरा होता है... बुरे का अर्थ ही इतना होता है कि स्वभाव के प्रतिकूल। बुरे का और कोई अर्थ नहीं होता। बुरे का अर्थ होता है: जो मेरे स्वभाव के प्रतिकूल है। और जो स्वभाव के प्रतिकूल है, वह दुख लाता है। इसलिए बुरा दुख लाता है। बुरे से दुख का और कोई संबंध नहीं है। क्योंकि मेरे स्वभाव के प्रतिकूल है, इसलिए दुख लाता है। मुझे खींचना पड़ता है।
एक आदमी चोरी करता है। चोरी उसे खींचती है। चौबीस घंटे वह खिंचा हुआ होता है। चोरी करके कोई निश्चिंत हो सकता है? चोरी करके कोई शांत हो सकता है? हत्या करके कोई विश्राम कर सकता है? वह चित्त खिंचेगा। पहले भी खिंचेगा, पीछे भी खिंचेगा। चित्त पूरा तन जाएगा। स्वभाव के बाहर जाना पड़ेगा।
पाप की परिभाषा मेरी दृष्टि में इतनी ही है कि जो स्वभाव के बाहर है, विपरीत है, प्रतिकूल है, वही पाप है।
पुण्य का इतना ही अर्थ है कि जो स्वभाव में रहते हुए हो जाता है, वही पुण्य है।
जो स्वभाव के बाहर जाकर करना पड़ता है, वह पाप है। तो अगर ऐसा भी कोई पुण्य आप करते हों, जिसमें स्वभाव के बाहर जाना पड़ता हो तो वह पाप है। अगर एक मंदिर के बनाने में चिंता आती हो चित्त पर तो पाप है। अगर किसी की सेवा करने में दमन करना पड़ता हो, जबर्दस्ती करनी पड़ती हो तो वह पाप है। जो सहज होता हो, स्वभाव से होता हो, वही पुण्य है।
यह जिन मित्र ने पूछा है, ऐसे ठीक ही पूछा है, क्योंकि हम सबके भीतर चोर बैठा हुआ है। और हमें ऐसा डर लगता है कि अगर छोड़ दिया शिथिल, तो अभी चोरी न कर लें!
उन्होंने पूछा हुआ है कि अगर सब अपने स्वभाव के अनुसार छोड़ दें तो पर-स्त्री को चाहने वाला पर-स्त्री के पीछे पड़ जाएगा।
वे समझे नहीं स्वभाव का अर्थ। जहां स्वभाव है, वहां पर-स्त्री तो दूर, अपनी स्त्री के पीछे पड़ना भी मुश्किल है। पीछे पड़ना ही मुश्किल है किसी के। वहां अपनी स्त्री भी पर-स्त्री के बराबर ही हो गई है। और ध्यान रहे, जब तक अपनी स्त्री अपनी मालूम हो रही है, तब तक पर-स्त्री का पीछा जारी रहेगा। वह जो डिस्ंिटक्शन है, वह जो कहता है कि यह मेरी है और वह मेरी नहीं है!
और ध्यान रहे, जो मेरा नहीं है, उस पर कब्जा करने की हमेशा कामना बनी रहेगी। यह हो ही नहीं सकता कि जो मेरा नहीं है, इसका पता है हमें, और हमारे मन में उसकी मालकियत का खयाल पैदा न हो। जो मेरा है, उसकी मालकियत का खयाल भूल जाता है, उसकी मालकियत मिल गई है। जो मेरा नहीं है, उसकी मालकियत पुकारती है कि इस पर और कब्जा कर लो! इस पर और कब्जा कर लो! वह पर-स्त्री इसलिए पर-स्त्री है कि इधर एक अपनी स्त्री भी है। वह अपनी स्त्री की वजह से पर-स्त्री है दूसरी। इस पर कब्जा मिल गया है, इसलिए अपनी है। उस पर कब्जा नहीं मिला है, इसलिए पराई है।
और जिस पर कब्जा नहीं मिला है, मन कहेगा, इस पर भी कब्जा करो। दूसरे की कार दिखाई पड़ती है उस पर, दूसरे का मकान दिखाई पड़ता है उस पर, दूसरे की इज्जत दिखाई पड़ती है उस पर; दूसरे का पद, दूसरे का ज्ञान, दूसरे का त्याग दिखाई पड़ता है, इस सब पर कब्जा करो। जो भी दूसरे का है, वह भी मेरा होना चाहिए। ऐसा कुछ भी न बचे, जो मेरा नहीं है।
लेकिन वह पर-स्त्री किसी दूसरे की है, वह भी पहरा दिए हुए खड़ा है। और फिर यह भी डर है कि अगर मैंने दूसरे की स्त्री की तरफ देखा, तो मेरी स्त्री की तरफ कोई देखेगा फिर मैं क्या करूंगा? ये सब भय हैं और इन सब भयों को बांध कर आदमी खड़ा हुआ है, जकड़ा हुआ खड़ा है और चिल्ला रहा है कि पर-स्त्री की तरफ देखना पाप है। और क्यों चिल्ला रहा है? और क्यों साधु-संत समझा रहे हैं कि दूसरे की स्त्री को देखना पाप है? क्योंकि सबको पता है कि सब दूसरे की स्त्री को देख रहे हैं।
यह ध्यान रहे, जब तक अपनी-स्त्री जैसा खयाल है, तब तक पर-स्त्री पीछा करेगी। जब तक कोई कहता है कि मेरा धन है यह, तब तक वह आदमी चोर रहेगा, क्योंकि मेरे धन के दावे में ही चोरी छिपी है।
जिंदगी का रूपांतरण बहुत और बात है। वहां अपना-पराया मिट जाता है, जैसे ही कोई अपने स्वभाव में आता है।
एक बहुत अदभुत घटना मैंने सुनी है। वाचस्पति मिश्र एक अदभुत आदमी हुआ। उसकी शादी हुई। शादी हुई कहना मुश्किल है, क्योंकि उसने कुछ की नहीं, घर के लोगों ने कर दी। और कुछ अदभुत लोग होते हैं। घर के लोगों ने कहा: चलोगे, शादी करोगे? उसने कहा: जैसी मर्जी!
रामकृष्ण के साथ ऐसा हुआ। रामकृष्ण के घर के लोग समझते थे कि शायद रामकृष्ण शादी नहीं करेंगे। फिर मां ने बहुत डरते-डरते पूछा कि रामकृष्ण शादी करोगे? रामकृष्ण ने कहा: जरूर करेंगे! बरात जाएगी! घोड़े पर बैठेंगे! मां भी चौंकी, कि इस लड़के से आशा थी कि इनकार करेगा!
मां-बाप को भी बड़ा मजा आता है जब बेटे इनकार करते हैं--नहीं शादी करेंगे! बहुत मजा आता है। समझाते-बुझाते हैं, लेकिन भीतर बहुत मन में रस आता है कि यह हुआ बेटा अच्छा पैदा। समझाते-बुझाते हैं, कोशिश करते हैं, बहुत रस आता है लेकिन, कि यह है, चरित्रवान है, कहता है नहीं करेंगे!
रामकृष्ण ने कहा: घोड़े पर बैठने मिलेगा तो करेंगे! भोला, एकदम भोला। इसे शादी-वादी से कुछ मतलब न था। घोड़े पर बैठने में मजा आ जाएगा...!
वैसे ही वाचस्पति से घर के लोगों ने पूछा, डरे हुए थे वे, क्योंकि वह आदमी ऐसा था कि क्या करेगा। दिन-रात किसी और ही लोक में खोया हुआ था। घर के लोगों ने कहा: शादी करोगे? उसने कहा: जैसी मर्जी। अगर सबको मजा आता हो तो हो।
शादी हो गई। पत्नी को ले आया गया घर। फिर बारह साल बीत गए और वाचस्पति अपने काम में लग गया। वह भूल ही गया कि पत्नी घर आ गई है।
समझा काम खत्म हो गया, घर वालों को मजा आ गया। बरात गई, आई, सब हो गया। फिर वह पत्नी को भूल ही गया कि पत्नी घर में है!
ऐसी घटना शायद दुनिया में कभी नहीं घटी। और पत्नी भी अदभुत रही होगी। वाचस्पति से कम मूल्य की नहीं। उसने एक बार जाकर उसे छेड़ा भी नहीं कि मैं घर में बैठी हूं, मुझे किसलिए ले आए हो। उसने जाना कि जो इस तरह खोया है किसी दूर अज्ञात में, उसे बाधा दूं तो फिर मेरा प्रेम बहुत कच्चा है। वह प्रतीक्षा करती रही अंधेरे में बैठ कर बारह वर्ष! जागती थी वह रात-रात भर, वाचस्पति लिखता रहता! वह कुछ किताब लिख रहा था, वह कुछ उपनिषदों पर भाष्य लिख रहा था, ब्रह्मसूत्र की टीका लिख रहा था। वह बहुत काम कर रहा था, वह खोया था किसी दूर के लोक में। पत्नी छाया की तरह उसकी सेवा करती थी।
बारह वर्ष बाद--वाचस्पति ने तय किया था, वह जो किताब लिख रहा था--ब्रह्मसूत्र का जो भाष्य--वह पूरा हो जाएगा जिस दिन, उसी दिन वह घर छोड़ देगा! वह ब्रह्मसूत्र का भाष्य पूरा होने को है। आखिरी पन्ना वह लिख रहा है कि दीया बुझ गया। उसकी पत्नी तो छाया की तरह उसकी सेवा करती थी। वह आई और उसने दीया जलाया। पहली दफा वाचस्पति ने उस जले हुए दीये में उसका हाथ देखा और उसने कहा: तू कौन है? इतनी आधी रात हुई, तू कौन यहां?
उसकी पत्नी ने कहा: धन्यभाग मेरे कि आज पूछा तो! बारह वर्ष से प्रतीक्षा थी, कभी पूछेंगे तो निवेदन कर दूंगी कि कौन हूं! बारह वर्ष पहले, शायद आप भूल गए होंगे, विवाह करके मुझे घर ले आए थे। तब से प्रतीक्षा करती हूं।
वाचस्पति रोने लगा। उसने कहा: यह तो बड़ी देर हो गई। पागल, तूने बीच में क्यों न कहा? क्योंकि मैंने तो तय किया है कि यह किताब पूरी हो जाएगी--यह किताब पूरी हो गई है, और कल सुबह सूरज उगा और मैं चला जाने को हूं। तूने पहले क्यों न कहा?
उसकी पत्नी ने कहा: लेकिन कुछ भी देर नहीं हुई। आपने इतनी चिंता जाहिर की मेरे लिए--कि तूने देर कर दी, और आज सुबह मैं चला जाने को हूं, तूने पहले क्यों न कहा--मुझे सब मिल गया और चाहिए भी क्या था?
तो उस पत्नी की स्मृति में किताब का नाम ‘भामती’ रखा। भामती पत्नी का नाम था। और भामती का कोई संबंध नहीं है ब्रह्मसूत्र की टीका से, लेकिन किताब का नाम ‘भामती’ रखा उसकी याद में जो बारह साल पीछे चुपचाप...!
अब ऐसे आदमी को पर-स्त्री दिखाई पड़ सकती है? इधर बारह साल अपनी स्त्री दिखाई नहीं पड़ी! अपनी स्त्री न हो, तो पर-स्त्री कहां है? ऐसे आदमी को स्त्री भी दिखाई पड़ सकती है?
हां, दिखाई तो पड़ेंगे ही लोग, आंख में तस्वीरें बनेंगी। वही दिखाई पड़ना नहीं है। ऐसे आदमी को क्या दिखाई पड़ता है! ऐसा आदमी अपने स्वभाव में जीता है।
ऐसा ही रामकृष्ण का। रामकृष्ण गए--तो बड़े नये कपड़े पहने हैं, लड़की को देखने जा रहे हैं। बहुत सज-संवर कर तैयार हो गए हैं। बार-बार आकर बाहर पूछते हैं, कब चलना है, कितनी देर है! और बहुत खुश हैं कि आज नये कपड़े मिल गए हैं और तीन रुपये भी मां ने उनके खीसे में डाल दिए हैं, वह उनको भी बार-बार गिन कर अंदर रख लेते हैं! ऐसा कभी नहीं हुआ था। वे बहुत ही खुश हैं।
फिर वे गए हैं उस लड़की को देखने। फिर वे थाली पर बैठे हैं। वह लड़की परोसने आई है। उन्होंने तीन रुपये निकाल उसके पैर पर रख कर उसके पैर पड़ लिए!
तो सब घर के लोग कहने लगे: पागल, यह क्या कर लिया?
तो उन्होंने कहा: बिलकुल मेरी मां जैसी है--उतनी ही भोली, उतनी ही सरल! मेरी मां हो गई!
उन्होंने कहा: यह तेरी पत्नी है, तेरी मां नहीं हो सकती।
तो उन्होंने कहा: पत्नी का तो मुझे पता नहीं कैसी होती है, लेकिन मां का मुझे पता है। और यह मेरी मां तो हो ही गई। अब जो होगा होगा! फिर वह स्त्री मां ही रही जिंदगी भर!
अब ऐसे आदमी की अपनी ही पत्नी नहीं होती तो दूसरे की पत्नी दिख सकती है? और अपनी ही पत्नी में मां दिख गई तो अब किस स्त्री में मां नहीं दिखेगी? ठीक ही ऐसे लोग स्वभाव में जीते हैं।
और वे मित्र पूछते हैं कि अगर स्वभाव में चले गए और पराई स्त्री की चाह मन में है, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। पराई स्त्री के पीछे चले जाएंगे।
स्वभाव में भर चले जाइए, फिर किसी के पीछे नहीं जाएंगे। स्वभाव में जाने का मतलब है: अपने पीछे चले जाना। और जो अपने पीछे चला जाता है, वह फिर किसी के पीछे नहीं जाता।
वह जब तक हम अपने पीछे नहीं गए हैं, तभी तक दूसरे के पीछे भटकते हैं--छायाओं के पीछे। कि लगता है इसके पीछे जाने से कुछ मिल जाएगा। उसके पीछे जाने से कुछ मिल जाएगा। इसलिए दूसरों के पीछे भटकते हैं!
और जब अपने ही पीछे जाकर कोई पा लेता है तो फिर क्यों जाएगा किसी के पीछे? वह तो जब तक नहीं मिला है हमें, तब तक भटकन है। और जब मिल गए, खुद को खुद ही मिल गया, फिर किसके पीछे किसको जाना है। वह सब जाना-आना, वह सारी दौड़-धूप; वह चोरी, पाप और हत्या, और पर-स्त्री; वे सब के सब विभाव हैं, वे हमारे स्वभाव के बाहर घटने वाली घटनाएं हैं।
इसलिए यह मत कहें कि अगर स्वभाव में आ गए तो बड़ी अव्यवस्था फैल जाएगी। अव्यवस्था फैली हुई है। स्वभाव में आ जाएं तो व्यवस्था आ जाएगी। लेकिन वह ऐसी व्यवस्था नहीं होगी, जिसे ऊपर से आयोजित करना पड़ता है। वह कोई ऐसी डिसिप्लिन नहीं होगी, वह कोई ऐसा अनुशासन नहीं होगा, जिसे ऊपर से थोपना पड़ता है। वह भीतर से आया हुआ होगा। अब रामकृष्ण को ऐसा समझना नहीं पड़ा कि यह मेरी मां है, ऐसा दिखा।
हम भी अपने बच्चों को समझाते हैं कि दूसरे की मां-बहिन को अपनी मां-बहिन समझना। अब समझने का मामला कभी सच हो सकता है? जब हम कहते हैं, समझना, तो उसका मतलब साफ है कि जो समझना नहीं है, वह पहले समझ चुके हैं और अब यह समझना पड़ेगा!
कभी आप नहीं समझाते किसी को कि दूसरे की पत्नी को अपनी पत्नी समझना--वह नहीं समझाते! क्योंकि वह हम समझते ही हैं। समझाना यह पड़ता है कि मां समझना, क्योंकि जो हम नहीं समझते, वह हमें समझाना पड़ता है। सचाइयां और हैं जो हम समझते हैं, झूठ हम ऊपर से थोपते हैं कि ऐसा समझना!
और ऐसी समझावन की जो डिसिप्लिन है, वह डिसिप्लिन कोई डिसिप्लिन है, कोई अनुशासन है! सरासर मिथ्या और झूठ है। और उसी मिथ्या पर खड़ा हुआ समाज है। और उसका ही हम गौरव गान किए चले जाते हैं कि बड़ी संस्कृति है, बड़ी सभ्यता है! और सब इसी तरह के झूठों पर खड़ी हुई सभ्यता है।
हम कहते हैं कि हमारी सभ्यता बहुत ऊंची है! हम दूसरे की पत्नी को... दूसरे की मां-बहिन को अपनी मां-बहिन समझते हैं! समझने की बात हमेशा झूठी होती है। दिखाई पड़ना चाहिए। वह किसी के समझाने का सवाल नहीं होना चाहिए। दिखना चाहिए। और जब दिखता है, तब तो एक अनुशासन भीतर से आता है। एक इनर डिसिप्लिन पैदा होती है। वह भीतर से चली आती है। उसे पैदा नहीं करना पड़ता है।
स्वभाव में जीने वाले व्यक्ति का एक अनुशासन होता है, जो आंतरिक होता है। और हम नहीं पहचान पाते अक्सर, क्योंकि हम सिर्फ उसी अनुशासन को पहचानते हैं, जो ऊपर से थोपा जाता है। हम झूठ के इतने आदी हो गए हैं कि हम सत्य को देख भी नहीं पाते, पहचान भी नहीं पाते।
अनेक बार हमें स्वभाव में लीन व्यक्ति बेबूझ मालूम पड़ सकता है। क्योंकि हम जो समझते हैं वह समझता नहीं वैसा। उसे कुछ दिखाई पड़ता है। और जो दिखाई पड़ता है उसके अनुसार वह जीता है।
कुछ और प्रश्न रह गए, वह कल रात हम बात करेंगे।
अब रात्रि के ध्यान के लिए बैठना है।
दो-तीन बातें समझ लें। पहली बात: समर्पण उतना ही गहरा हो सकता है जितना हम शरीर को, श्वास को, मन को पूर्ण शिथिलता में छोड़ दें। उतना ही फ्लोटिंग, उतना ही बहाव पैदा हो सकता है। अगर हम अकड़े बैठे हैं, तने बैठे हैं, तो फिर यह अकड़, यह तनाव, यह स्ट्रेन जो है शरीर पर यही हमें रोक लेगा।
तो रात के इस प्रयोग में सब काफी फासले पर बैठें कि शरीर अगर शिथिल होकर गिर जाए तो उसे गिरने देना है। फिर हम प्रकाश भी बुझा देंगे, ताकि आपको यह चिंता न रह जाए कि कोई देख रहा है। सब काफी फासले पर बैठें, ताकि शरीर को इतना ढीला छोड़ा जा सके कि अगर वह गिर जाए तो गिरने की जगह हो। गिरने की अपनी जगह देख लें कि आस-पास अगर शरीर गिरेगा तो जगह होनी चाहिए।
और बातचीत जरा भी न करें। चुपचाप हट जाएं। और जिसको जगह न दिखाई पड़े वह दूसरे की प्रतीक्षा न करे खुद उठ कर बाहर चला जाए। और जरा भी बात नहीं। जल्दी! अगर आप पास बैठे हैं और कोई आपके ऊपर गिर जाए तो परेशान न हों, उसको गिर जाने दें।
हट जाएं, थोड़ा फासला कर लें। हां, थोड़े फासले पर बैठें, क्योंकि कोई भी आपके ऊपर गिर गया तो आपको परेशानी हो जाएगी। इसलिए हट जाएं। हूं, जल्दी बैठ जाएं, ताकि मैं दो-तीन बातें समझा दूं और फिर हम ध्यान के लिए बैठें। हां, जिनको भी ठीक से गहराई से करना है चुपचाप बाहर हो जाएं।
पहली बात, अभी ध्यान के शुरू होने के पहले प्रकाश हम बुझा देंगे, ताकि घनघोर अंधेरा हो जाए। अंधेरे में जितना समर्पण हो सकता है उसका कोई मुकाबला नहीं है। क्योंकि रात तो समर्पण का समय ही है। और रात तो खो जाने का, सो जाने का, मिट जाने का समय ही है। वह रात तो विश्राम का वक्त है। सब तरफ अंधेरा हो जाएगा। उस घुप घनघोर अंधकार में हमें बिलकुल अपने को छोड़ देना है। जैसे अंधकार के सागर में हम अपने को छोड़ दिए।
आंख बंद कर लेंगे, फिर शरीर को शिथिल छोड़ेंगे। और थोड़ी देर तक मैं सुझाव दूंगा कि आपका शरीर शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है, शिथिल हो रहा है। तो मेरे साथ आपको अनुभव करना है कि शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है। जितना आप अनुभव करेंगे, उतना ही शरीर शिथिल हो जाएगा। शरीर गिरने लगेगा, आगे झुक सकता है, पीछे झुक सकता है, कहीं भी झुकता हो, आप मत रोकना, आप गिरने देना जहां जाए गिर जाए। इससे भी मत घबड़ाना कि गिर जाए तो चोट लग जाएगी। चोट लगती है जब शरीर अकड़ा हो। अगर शरीर बिलकुल शिथिल हो तो कभी चोट नहीं लगती है। कोई चोट नहीं लगेगी।
फिर मैं दो-तीन मिनट के बाद सुझाव दूंगा कि श्वास धीमी हो रही है। आपको धीमी करनी नहीं है सिर्फ भाव करना है कि श्वास धीमी होती जा रही है, धीमी होती जा रही है। श्वास धीमी हो जाएगी।
फिर मैं कहूंगा, मन शांत हो रहा है, फिर मन शांत हो जाएगा।
फिर दस मिनट के लिए मैं कहूंगा, अब खो जाएं। फिर जो भी होता रहे, होने दें। फिर जो भी हो, हो। हवाएं चलें, पक्षी चिल्लाएं, आवाज हो, श्वास चले, भीतर कोई विचार चले, चुपचाप देखते रहें। जो भी हो, हो। उस घने अंधकार में बिलकुल लीन हो जाएं।
अब आप बैठ जाएं। आंख बंद कर लें।
(प्रकाश को बुझा दें, बिलकुल लाइट बंद कर दें।)
हां, आंख बंद कर लें, जैसा अंधकार बाहर है भीतर भी हो जाए। आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ें, बिलकुल ढीला छोड़ दें। अब मैं सुझाव देता हूं मेरे साथ अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है...और एक-एक सुझाव के साथ शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ते जाएं...झुके, झुके; गिरे, गिर जाए, अपनी तरफ से कोई रुकावट नहीं है, कोई रोक नहीं है। सुझाव दें: शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें...छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें, अंधकार में छोड़ दें, खो जाएं...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है...छोड़ दें, इस अंधकार में बिलकुल छोड़ दें अपने को...छोड़ दें...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो रही है...अंधकार में बिलकुल खो गए हैं...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...छोड़ दें, श्वास को भी बिलकुल शिथिल छोड़ दें। श्वास शांत हो गई है...श्वास शांत हो गई है...।
मन भी शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...छोड़ दें, भीतर मन पर भी सारी पकड़ छोड़ दें। मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...इस अंधेरी और शांत रात्रि में बिलकुल मिट जाएं। दस मिनट के लिए एक हो जाएं--रात से, वृक्षों से, तारों से, हवाओं से, आकाश से, बिलकुल एक हो जाएं पृथ्वी से, मिट जाएं। आप नहीं हैं। आप बिलकुल नहीं हैं। सब शांत और शून्य हो गया। दस मिनट के लिए सब शून्य हो गया। बस जानते रहें, जो भी हो रहा है जानते रहें--आवाज सुनाई पड़े, सुनते रहें...जानते रहें...बस जानते रहें...और सब खो जाएगा, सिर्फ जानना ही शेष रह जाता है।
अब दस मिनट के लिए बिलकुल मौन शांत हो जाएं।
कितनी अदभुत रात! मन शांत हो गया है...आवाज झींगुरों की सुनाई पड़ रही है...मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया है...मन शांत हो गया है...छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें...हम मिट गए, हम बिलकुल मिट गए।
मन शांत हो रहा है...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन शून्य होता जा रहा है...देखें, भीतर देखें, मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...इस रात के साथ बिलकुल एक हो जाएं...मन शांत हो गया है...।
मन शांत हो गया है...रात के साथ बिलकुल एक हो जाएं...एक...एक...रात्रि के साथ बिलकुल एक हो जाएं।
मन कितना शांत हो गया--रात के साथ एक, वृक्षों के साथ एक, अंधेरे के साथ एक। हम बिलकुल मिट गए, जैसे बूंद सागर में खो जाए।
मन शांत हो गया है...देखें, भीतर देखें, कितना सन्नाटा, कितना मौन है, कितना शून्य! और गहरे, और गहरे...बिलकुल, बिलकुल छोड़ दें...सब छोड़ दें...मिट जाएं...।
सब ठहर गया, भीतर सब रुक गया, एक शून्यमात्र, सब शून्य हो गया है...।
धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ और गहराई बढ़ेगी, शांति बढ़ेगी, शून्य बढ़ेगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...फिर धीरे-धीरे आंख खोलें...बाहर देखें, बाहर भी बहुत शांति है। भीतर भी शांति है, बाहर भी। धीरे-धीरे आंख खोलें और देखें: वृक्षों को, रात को, तारों को, कितनी शांति है। बाहर और भीतर की शांति को मिल जाने दें। आंख खोलें और देखें...एक-दो मिनट आंख खोल कर चुपचाप देखते रहें...।
(प्रकाश जला दें।)
हमारी रात की बैठक पूरी हुई।