YOG/DHYAN/SADHANA

Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat 02

Second Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
मनुष्य की तरफ देखने पर एक बहुत ही आश्र्चर्यजनक तथ्य दिखाई पड़ता है--वह यह कि मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व एक तनाव, एक खिंचाव, एक बोझ, एक टेंशन है। कौन सा बोझ है मनुष्य के चित्त पर? किस पत्थर के नीचे आदमी दबा है? सूरज की किरणों की तरफ देखें या वृक्षों के हरे पत्तों की तरफ या आकाश की तरफ आंखें उठाएं--कहीं कोई बोझ नहीं है, सब जगह निर्भार, कहीं कोई तनाव नहीं है। मनुष्य के मन पर एक तनाव है।
सुना है मैंने, एक तेजी से दौड़ती हुई ट्रेन के भीतर एक आदमी बैठा हुआ था। जो भी उस आदमी के करीब से निकलता था, हैरानी से और गौर से उसे देखता था। उसने काम ही ऐसा कर रखा था। वह अपना बिस्तर, अपनी पेटी अपने सिर पर रखे हुए था। कोई भी उससे पूछता कि यह क्या कर रहे हैं मित्र?
वह कुछ स्वयंसेवक किस्म का आदमी था। कुछ आदमी स्वयंसेवक किस्म के होते हैं। उन्हें यह खयाल होता है कि सब-कुछ स्वयं ही कर लेना है।
उसने कहा: मैं अपना बोझ अपने ही सिर पर रखता हूं। मैं गा़ड़ी पर क्यों बोझ रखूं?
वह खुद भी गाड़ी पर सवार है, अपने सिर पर बोझ रखे हुए। वह बोझ भी गाड़ी पर ही सवार है। लेकिन जिस बोझ को वह नीचे रख कर आराम से बैठ सकता था, उस बोझ को वह सिर पर रखे हुए है, इस खयाल से कि अपनी सेवा खुद ही करनी चाहिए। गाड़ी भाग रही है, वह उसको भी ले जा रही है और उसके बोझ को भी ले जा रही है, लेकिन वह अपने बोझ को सिर पर ही रखे हुए है।
सारा जीवन चल रहा है, सारा जीवन चलता रहा है, सारा जीवन चलता रहेगा, लेकिन हम सब अपने-अपने बोझ को अपने सिर पर रखे हुए बैठे हैं। जिसे हम नीचे उतार कर रख सकते हैं, उसे हमने सिर पर रखा हुआ है। और हम सबको भी वही खयाल है, जो उस भागती हुई गाड़ी में बैठे हुए आदमी का है कि अपना बोझ अगर मैं नहीं रखूंगा तो कौन रखेगा? लेकिन उसका बोझ प्रत्येक को दिखाई पड़ा कि वह अपने सिर पर लिए हुए है, क्योंकि वह दिखने वाला बोझ था। और हम जो बोझ लिए हुए हैं, वह दिखने वाला बोझ नहीं है।
ऐसे बोझ हैं, जो दिखाई पड़ते हैं, और जो दिखाई पड़ते हैं वे बोझ बहुत खतरनाक नहीं हैं, उन्हें उतार कर बहुत आसानी से नीचे रखा जा सकता है। लेकिन ऐसे बोझ भी हैं, जो दिखाई नहीं पड़ते हैं, वे भी हम रखे हुए हैं। और चूंकि वे दिखाई नहीं पड़ते दूसरों को भी और हमें भी, इसलिए जीवन भर हम उन्हें बढ़ाते ही चले जाते हैं, वे कभी कम नहीं होते।
बच्चे और बूढ़ों में अगर कोई अंतर है तो सिर्फ एक--बच्चों के ऊपर अभी कोई बोझ नहीं और बूढ़े जीवन भर का बोझ इकट्ठा कर लेंगे। बुढ़ापे का मतलब यह है इतने बोझ से दब जाना कि जीना असंभव हो जाए। शरीर तो बूढ़ा होगा, लेकिन मन अगर निर्बोझ हो तो आत्मा कभी भी बूढ़ी नहीं होती। और आत्मा अगर निर्बोझ हो तो मरते क्षण भी व्यक्ति वैसा ही बच्चा होता है, वैसा ही सरल, वैसा ही निर्दोष, वैसा ही इनोसेंट जैसा उस दिन था, जिस दिन पृथ्वी पर आया।
एक बाजार में बहुत भीड़ थी और जीसस उस बाजार में उस भीड़ के बीच खड़े थे। और किसी ने जीसस से पूछा: तुम स्वर्ग के राज्य की बातें करते हो, कौन होगा अधिकारी उस राज्य को पाने का? तो जीसस ने उठाया एक छोटे बच्चे को अपने कंधों पर और कहा: वे जो इस बच्चे की भांति होंगे!
लेकिन क्या मतलब है बच्चे की भांति होने का? जीसस ने यह नहीं कहा कि वे जो बच्चे होंगे, जीसस ने कहा: वे जो बच्चे की भांति होंगे।
बच्चे की भांति का अर्थ यह है कि जो उम्र में आगे चले गए हैं, लेकिन बोझ जिन्होंने नहीं लिया है, जो भीतर बच्चे की भांति हैं।
लेकिन बहुत अनजान बोझ है जो हम लिए बैठे हैं। और उन बोझों को लिए हुए अगर आप सोचते हों कि शांत हो जाएंगे, असंभव है। उन बोझों को लिए हुए सोचते हैं कि ध्यान के द्वार में प्रविष्ट हो जाएंगे, असंभव है। उन बोझों को किसी ने आपके ऊपर रखा नहीं है। आपको पता ही नहीं है कि आप ही रखते चले गए हैं। आज भी रखते चले जा रहे हैं, रोज रखते चले जाएंगे। वे बोझ इतने ज्यादा हो जाएंगे कि आप दब जाएंगे, बोझ ही रह जाएंगे। अंततः मरते-मरते आदमी तो कभी का मर चुका होता है, बोझ ही रह जाते हैं।
इन बोझों को थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
क्योंकि उस आदमी को जो गाड़ी में बैठ कर सिर पर पेटी-बिस्तर लिए हुए है, अगर यह पता चल जाए कि नासमझी कर रहा है, तो क्या उसे सिर से पेटी और बिस्तर को उतार देने में कोई कठिनाई होगी? क्या वह यह पूछेगा कि मैं कैसे उतारूं? उसे यह दिख भर जाए कि यह निहायत पागलपन है, फिर उतारने में देर नहीं लगेगी, वह उतार कर नीचे रख देगा।
चित्त के बोझ हमारी समझ में आ जाएं तो उन्हें उतार कर नीचे रख देने में जरा भी कठिनाई नहीं है। लेकिन हमें पता ही नहीं कि हम किस तरह के बोझ लिए हुए हैं! उन बोझों की थोड़ी सी झलक आज सुबह हमारे खयाल में आनी चाहिए।
पहली तो बात: जो बीत गया, उसे हम इकट्ठा किए हुए हैं। वह बीत चुका है, अब वह कहीं भी नहीं है, सिर्फ हमारी स्मृति को छोड़ कर। वह सब बह चुका है, अब वह कहीं खोजे से नहीं मिलेगा। लेकिन हमारी स्मृति में संगृहीत है। वह सारा का सारा पत्थर की तरह हमारे सिर पर बैठा हुआ है।
कल हुआ था कुछ, वह हो चुका। जैसे पानी पर पड़ी हुई रेखाएं बन भी नहीं पातीं और मिट जाती हैं, वैसे ही इस जीवन की सतह पर बनी हुई रेखाएं बन भी नहीं पाती हैं और मिट जाती हैं। इन वृक्षों को कुछ भी पता नहीं कल जो हुआ था, न आकाश को कुछ पता है, न सूरज को कुछ पता है; सिर्फ आदमी को पता है!
आदमी को जो कल हुआ था, वह उसको जकड़ कर बैठ गया है, उसे उसने पकड़ लिया है। कल किसी ने गाली दी थी और कल किसी ने प्रेम किया था। कल किसी ने सम्मान किया था और कल किसी ने अपमान किया था। और बीते हुए सारे कल अंतहीन हैं!
और हमें तो याद है सिर्फ इस जन्म का, लेकिन जो जानते हैं, वे कहेंगे, अंतहीन जन्मों की कथाएं स्मरण में भीतर बैठी हैं, उन सबका बोझ है! एक-एक आदमी पर अनंत जन्मों का बोझ है! अतीत का बोझ है। अतीत का पत्थर बनता चला गया है, वह हमारी छाती पर है, वह हमारे सिर पर है, उसके नीचे हम दबे हैं, इसलिए निर्भार नहीं हो पाते। यह समझ लेना जरूरी है कि जो बीत गया, वह बीत गया, अब वह कहीं भी नहीं है, अब उसे मैं क्यों ढो रहा हूं।
एक सुबह एक आदमी बुद्ध के ऊपर आकर बहुत क्रोधित हुआ था, बहुत गालियां दी थीं। फिर बुद्ध के ऊपर क्रोध में उसने थूक दिया था। बुद्ध ने चादर से उस थूक को पोंछ लिया और उस व्यक्ति से कहा: और कुछ कहना है?
सोचें थोड़ा उस सुबह को। आप गए हैं बुद्ध के पास थूकने को। और बुद्ध जैसे लोगों के ऊपर थूकने का बहुत लोगों का मन होता है। क्योंकि बुद्ध जैसे लोग बहुत लोगों के लिए अपमानजनक सिद्ध होते हैं।
बुद्ध तो किसी का अपमान नहीं करते हैं, लेकिन उनका होना ही बहुत से लोगों के लिए पीड़ा और अपमान का कारण हो जाता है, क्योंकि बुद्ध जैसे व्यक्ति का खड़ा होना ही हमारे छोटे होने का सबूत हो जाता है। बुद्ध जैसे व्यक्ति का प्रकाशित होना ही हमारे अंधकार को दिखाने लगता है। बुद्ध जैसे व्यक्ति के भीतर से बहती करुणा, हमारे भीतर क्रोध और अहंकार को बहुत घबड़ाने लगती है। बुद्ध का व्यक्तित्व हमारे व्यक्तित्व की हीनता को जाहिर करने लगता है। हम क्रोधित हो जाते हैं तो बुद्ध पर थूकने का मन होता है। बिलकुल स्वाभाविक है।
कोई आदमी गया है और बुद्ध पर उसने जाकर थूक दिया है... समझ लें कि आप ही गए हैं, और बुद्ध ने थूक को पोंछ लिया है, जैसे कुछ भी न हुआ हो। और क्या हो गया है! और बुद्ध ने पूछा है, और कुछ कहना है?
पास में बैठा हुआ भिक्षु आनंद बहुत क्रोधित हो उठा और कहने लगा: आप क्या कहते हैं, ‘कुछ कहना है!’ वह आदमी थूक रहा है! और हम आपकी वजह से सिर्फ चुप हैं, अन्यथा हमारे प्राणों में आग लग गई है कि यह क्या किया है इस आदमी ने! आप पर और थूकता है कोई, और आप यह कह रहे हैं कि और कुछ कहना है?
बुद्ध ने कहा: जहां तक मैं समझता हूं, इस आदमी के मन में इतना क्रोध है कि शब्दों में कहने में असमर्थ है, इसलिए थूक कर कहता है। थूकना भी एक भाषा है, एक ढंग है, एक विधि है।
और कभी जब हम न कह पाते हों कुछ, शब्द असमर्थ हो जाते हों, तो फिर इस तरह से कहते हैं। किसी का प्रेम बहुत बढ़ जाता है तो गले से लगा लेता है। अब गले से लगा लेने से कोई मतलब नहीं है, लेकिन प्रेम के लिए शब्द नहीं मिलते। और कोई क्राध से भर जाता है तो सिर पर चोट कर देता है--शब्द नहीं मिलते। और कोई आदर से भर जाता है तो पैरों पर सिर रख देता है--शब्द नहीं मिलते।
बुद्ध ने कहा: शब्द नहीं खोज पा रहा है वह आदमी। भाषा कमजोर है, इसलिए कुछ कहता है। मैं समझा। और कुछ कहना है मित्र? आप होते उस जगह--क्या कहने को बच गया था?
वह आदमी वापस लौट गया है। उसकी आंखों में आंसू भरे हैं, रात भर सो नहीं सका। दूसरे दिन क्षमा मांगने आया और बुद्ध से कहने लगा पैरों को पकड़ कर, आंसू गिरा कर: मुझे क्षमा कर दें!
बुद्ध ने कहा: देखते हो आनंद, अब भी यह आदमी कुछ कहना चाह रहा है और शब्द नहीं मिल रहे हैं तो आंख से आंसू गिराता है, पैर पकड़ लेता है। आदमी की भाषा, आनंद, बहुत कमजोर है।
और उस आदमी से कहा: मित्र, किस बात की क्षमा मांगते हो? उस कल की जो जा चुका! किससे क्षमा मांगते हो--मुझसे? मैं दूसरा आदमी हूं--बह गई, गंगा में बहुत धारा बह गई है, बहुत पानी बह गया है।
कल तुम सुबह जिस गंगा के पास गए थे, अब वही गंगा वहां नहीं है। और आज तुम जाओ और क्षमा मांगो तो गंगा कहेगी, किससे मांगते हो क्षमा? बह गया पानी वह जिससे तुम कल मिल गए थे। अब वह कहां हूं मैं जो कल था। न वृक्षों में पत्ते वही हैं, न आकाश में बादल वही हैं, न सूरज की किरणें वही हैं, कोई भी तो वही नहीं है, सब तो बह गया, सब तो बदल गया। किससे क्षमा मांगते हो?
लेकिन पागल हो तुम, तुम नहीं बह पाए, तुम वहीं अटके, रुके हो। कल सुबह जो थूक गए थे, वहीं खड़े हो। बुद्ध ने कहा: मैं कैसे क्षमा करूं, मैं तो कल नहीं था। जो था, अब वह मैं नहीं हूं।
सिर्फ मरी हुई चीजें वही होती हैं, जो कल थीं। जिंदा चीजें रोज बदल जाती हैं। जीवन का मतलब है: बदल जाना। मरे होने का मतलब है: न बदलना।
सुबह फूल खिलता है, उसी के नीचे एक पत्थर पड़ा है, वह पत्थर मन में हंसता होगा उन लोगों को देख कर, जो फूल की प्रशंसा करते हैं। क्योंकि वह कहता होगा कि पागल हो गए हो, अभी खिल भी नहीं पाया है, दोपहर मुर्झा जाएगा, सांझ गिर जाएगा। मुझे देखो, मैं सुबह भी वही हूं, दोपहर भी वही हूं, सांझ भी वही हूं।
सिर्फ जो मरा हुआ है, वह वही होता है, जो था। असल में मरा हुआ अतीत में होता है, मरे हुए का कोई वर्तमान नहीं होता। अतीत का मतलब है: मरा हुआ। मरे हुए का मतलब है: दि पास्ट, बीत गया। सिर्फ अतीत नहीं बदलता है, वर्तमान प्रतिक्षण बदलता चला जाता है।
जो बदलता है, उसका नाम वर्तमान है। जो ठहरता नहीं, जो बदलता ही चला जाता है, उसी का नाम जीवन है।
लेकिन स्मृति बदलती नहीं, ठहर जाती है। हम जीवन हैं और हमारे सिर पर स्मृति का बोझ है, जो नहीं बदलती। हम तो फूल की तरह हैं और स्मृति पत्थर की तरह है, जैसे एक फूल को पत्थर के नीचे दबा दिया हो, इससे आदमी विकृत हो जाता है।
आदमी तो फूल है, जिंदगी तो फूल है। स्मृति एक पत्थर की भांति उस फूल को दबाए हुए है। सोचें, एक फूल पत्थर के नीचे दबा हो तो कैसे प्राण हो जाएंगे! वैसे आदमी की चेतना स्मृति के पत्थर के नीचे दब कर--परेशान, पीड़ित और तनाव से भर जाती है।
ध्यान में प्रवेश होता है उनका, जो स्मृति के पत्थर को हटा देते हैं।
लेकिन हम तो सम्हालते हैं। हम तो कहते हैं, पता है कि मैं कल कौन था? आदमी कभी एम एल ए रहा हो तो भी अपने पैड पर लिखे रहता है: भूतपूर्व एम एल ए! एक्स मिनिस्टर! वह जो एक्स है, वह पीछा नहीं छोड़ता। कभी थे, ठीक है, बात बह गई। गंगा का पानी बह गया। जो था, वह अब नहीं है। आप यहां आए थे सुबह, वही वापस नहीं लौटेंगे। घंटे भर में सब बह जाएगा।
जैसे सांझ कोई एक दीया जलाए और सुबह जाकर कहे कि अब मैं उसी दीये को बुझाता हूं, जिसे सांझ जलाया था। तो गलत कहता है कि सही कहता है? हमें लगेगा सही कहता है, वही दीया बुझाता है, जो सांझ जलाया था। लेकिन कहां है वह दीया अब, जो सांझ जलाया था? वह ज्योति तो प्रतिक्षण बदलती चली गई है, वह ज्योति तो धुआं होती चली गई, नई ज्योति आती चली गई है। रात भर दीया बदला। रात भर दीया बदलता रहा, रात भर धारा ज्योति की बहती रही, नई ज्योति, नई ज्योति, नई ज्योति आती चली गई। इतनी तेजी से हुआ यह परिवर्तन। पुरानी ज्योति गई नहीं कि नई आ गई। कि बीच का फासला हमें दिखा नहीं। हमने समझा कि वही जल रही है, वही जल रही है। सांझ जो दीया जलाया, सुबह कोई बुझा सकता है? सांझ जो दीया जलाया, वह तो सांझ ही बुझ गया और बह गया। दूसरे दीये जलते चले गए। एक श्रृंखला थी परिवर्तन की। सुबह जिस दीये को बुझाते हैं, वह बिलकुल और है। जिसे कभी नहीं जलाया था, उसे बुझाते हैं। श्रृंखला है, तेज धारा है, इसलिए पता नहीं चलता।
जो आदमी पैदा होता था, वही मरता है? आप जो पैदा हुए थे, वही हैं? वही मरेंगे?
ज्योति बदलती चली गई, सब बदलता चला गया। एक बहाव है जिंदगी, लेकिन उस बहाव ने जो भी जाना, उस बहाव पर जो भी अंकन हुए, उस बहाव ने जो भी देखा, वह सब स्मृति इकट्ठी करती चली गई। जीवन की धारा है आगे की तरफ, स्मृति की पकड़ है पीछे की तरफ। स्मृति रुक जाती है अतीत पर। जीवन भागता है आगे, और आगे--अनजान, अज्ञात में। और स्मृति? स्मृति रुकती है ज्ञात पर। स्मृति है नोन, वह जो ज्ञात है। और जीवन है अननोन, वह जो अज्ञात है।
और ज्ञात और अज्ञात के बीच जो खिंचाव है, वह मनुष्य का तनाव है, वह टेंशन है। वह तनाव जब तक न उतरे, तब तक जीवन के द्वार में हम प्रवेश नहीं पा सकते। यह मत पूछें कि वह कैसे हम उतारें, समझ लेना जरूरी है, और समझ लिया जाए ठीक से तो उतर जाता है। क्योंकि कोई दिखने वाला बोझ थोड़े ही है कि जिसे सिर से उतारना है। वह समझने की बात है। वह बस समझ लेने की बात है। वह साफ-साफ देख लेने की बात है। वह अंडरस्टैंडिंग हो, दिखाई पड़ जाए, बात खत्म हो गई। आप देखें अपनी तरफ, कितनी स्मृतियों को इकट्ठा किए बैठे हैं, क्या प्रयोजन है उन स्मृतियों का? क्या अर्थ है उन स्मृतियों का?
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप यह भूल जाएं कि किस होटल के किस कमरे में ठहरे हैं। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप भूल जाएं कि आपको किस गांव वापस लौटना है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह कामचलाऊ स्मृति है, जिसका कोई बोझ नहीं है।
स्मृतियां दूसरी हैं साइकोलॉजिकल, मानसिक। अगर कल मैंने आपको गाली दी थी तो क्या आज आप मुझसे मिल सकेंगे उस गाली को बिना बीच में लिए? क्या यह संभव होगा कि आप मुझसे मिलें और मैं जो कल जैसा आपको दिखाई पड़ा था, वह तस्वीर बीच में न आए, वह इमेज बीच में न बने? अगर यह हो सकता है, तो आप एक जिंदा आदमी हैं, जिसके मन पर बोझ नहीं है। और अगर यह नहीं हो सकता, तो फिर बहुत कठिनाई है।
अभी एक मित्र मिले और उन्होंने कहा, आपकी रात बातें सुनीं और पहले की और इन बातों में थोड़ा विरोध मालूम पड़ा! लेकिन पहले की बातों को किसलिए पकड़ कर बैठे हैं? वह सब बह गया। और अगर पहले की बातों को पकड़ कर बैठे हैं, तो जो मैं अभी कह रहा हूं वह न आप सुन पाएंगे, न समझ पाएंगे। फिर विरोध दिखाई पड़ेगा, क्योंकि आप सुन ही नहीं पाए, समझ ही नहीं पाए। और मैं कहता हूं, जो मैं कह रहा हूं, उसे अगर ठीक से समझ लें तो कभी कोई विरोध नहीं दिखाई पड़ेगा। लेकिन वह पीछे का पकड़े हुए है मन को कि कभी यह कहा था। न उसको सुना होगा कभी, क्योंकि तब पीछे का और कुछ पकड़े रहा होगा। मेरा नहीं तो कृष्ण का, बुद्ध का, महावीर का; गीता का, कुरान का पकड़े रहा होगा।
पीछे की तरफ स्मृति भागती रहती है और जीवन आगे की तरफ भागता रहता है। इन दोनों में मेल नहीं हो पाता। जैसे एक ही बैलगाड़ी में हमने दोनों तरफ बैल जोत दिए हों और वह दोनों तरफ बैल भागे चले जा रहे हैं! स्मृति के बैल पीछे की तरफ, जीवन की धारा के बैल आगे की तरफ। और वह बैलगाड़ी तकलीफ में पड़ गई है, और वह पूरे वक्त मुश्किल में है।
और पीछे के बैल मजबूत हैं, क्योंकि जीवन भर का बल उन्हें मिला है। वे जो अतीत के बैल हैं, स्मृति के बैल, मजबूत हैं, क्योंकि जीवन भर की ताकत उन्हें मिली है। मुर्दा हैं, लेकिन मजबूत हैं; पत्थर हैं, लेकिन वजनी हैं।
और आगे की जीवन की धारा बहुत कोमल है। अभी होने को है, जैसे छोटा सा अंकुर निकलता है बीज से, कमजोर, कोमल, डेलिकेट। अभी जरा सा पत्थर उस पर रख दो तो मर जाएगा।
ऐसी भविष्य की जीवन-धारा बहुत डेलिकेट, बहुत कोमल, बहुत नाजुक। और अतीत के बैल बहुत मजबूत, वे पीछे की तरफ गाड़ी को खींचते रहते हैं। गाड़ी पीछे जा नहीं सकती, सिर्फ आप खींच सकते हैं। और तब जिंदगी रुक जाती है, ठहर जाती है, धारा नहीं रह जाती है, एक बांध बन जाता है, एक सरोवर बन जाता है। फिर हम सड़ते हैं, बोझ से मरते हैं। इसलिए आदमी की आंख में वह बात नहीं दिखाई पड़ती, जो एक झील में दिखाई पड़ती है। आदमी की आंख में वह बात भी नहीं दिखाई पड़ती, जो एक गाय की आंख में दिखाई पड़ जाए। आदमी की गति में वह बात नहीं दिखाई पड़ती, जो एक हिरन की गति में दिखाई पड़ती है। आदमी की जिंदगी में वैसी फ्लॉवरिंग नहीं दिखाई पड़ती, वैसी चीजें खिलती नहीं दिखाई पड़तीं जैसी पौधे में दिखाई पड़ती हैं। और आदमी भी इस प्रकृति का उतना ही हिस्सा है जितने पशु हैं, जितने पौधे हैं, जितने पक्षी हैं, जितने चांद-तारे हैं।
लेकिन आदमी को तोड़ने वाली कौन सी बात है? वह अतीत का बोझ एक भारी दीवाल की तरह खड़े होकर आदमी को जीवन से तोड़ रहा है। यह बात समझ लेनी जरूरी है कि जो हो चुका, वह हो चुका। उसे मैं क्यों ढो रहा हूं, उसे विदा कर दें।
एक फकीर खोजता हुआ निकला था, सत्य की खोज में। फिर वह एक संन्यासी के आश्रम में रुका। उस संन्यासी से मिला और उसने कहा कि मैं सत्य की खोज में आया हूं। जानना चाहता हूं कि जीवन का सत्य क्या है? जिस संन्यासी से उसने यह पूछा, उस संन्यासी ने कहा: ये बातें पीछे हो जाएंगी। कहां से आते हो?
उस आदमी ने कहा: मैं पेकिंग से आता हूं।
उस संन्यासी ने कहा: पेकिंग में चावल के क्या दाम चल रहे हैं?
वह जो फकीर था, वह कहने लगा: महाशय, पेकिंग में जरूर चावल के कुछ दाम चल रहे होंगे, लेकिन मैं पेकिंग छोड़ चुका हूं। और जहां से मैं छोड़ चुका हूं, वहां लौट कर नहीं देखता हूं। जिन रास्तों से मैं गुजर जाता हूं, उन्हें भूल जाता हूं, क्योंकि मुझे और आगे के रास्ते पार करने हैं। और अगर आंखें पिछले रास्तों से भरी रहें तो आगे के रास्ते फिर धुंधले दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि आंखें एक समय में एक ही बात देख सकती हैं--या तो पीछे के रास्ते या आगे के रास्ते। होंगे पेकिंग में कुछ भाव, लेकिन मैं पेकिंग में नहीं हूं।
वह संन्यासी हंसा, उसने कहा: मैंने जान कर पूछा था, अगर तुम पेकिंग में चावल के भाव बता देते तो फिर मैं सत्य की तुमसे बात नहीं करता। ठीक है, अब तुमसे कुछ बातें हो सकती हैं; क्योंकि सत्य केवल उन्हीं के अनुभव में आ सकता है जो अतीत से मुक्त हो जाते हैं।
लेकिन हमें तो पेकिंग में चावल के भाव बहुत अच्छी तरह याद हैं! आदमी बचपन की बताता है कि इतने सेर दूध बिकता था, इतना घी मिलता था, इतना यह होता था! यह सिर्फ बताता नहीं है, ये उसके चित्त पर बोझ की तरह बैठे हैं! तो जिंदगी जो आज है, उसे देखने में बाधा पड़ती है, क्योंकि जिंदगी जो कल थी, उसने इतने जोर से मन को पकड़ लिया है।
कभी आपने खयाल किया है, मन दो तरह से काम कर सकता है--एक तो फोटो-प्लेट की तरह। कैमरे में फोटो-प्लेट हम लगाते हैं, बहुत सेंसिटिव होती है, बहुत संवेदनशील होती है। लेकिन बस एक फोटो निकाल कर व्यर्थ हो जाती है। एक फोटो पकड़ लिया, फोटो-प्लेट खराब हो गई। फिर अब दूसरी फोटो नहीं पकड़ी जा सकती उस पर। मर गई। जिंदा न रही अब।
एक दर्पण भी होता है, दर्पण पर एक तस्वीर बनती है। जब सामने कोई होता है तो दर्पण उसकी पूरी तस्वीर बना देता है। फिर वह विदा हो जाता है, तस्वीर भी विदा हो जाती है। दर्पण फिर खाली हो जाता है। फिर कोई दूसरा सामने आता है, दर्पण फिर तस्वीर बनाता है। फिर दर्पण यह नहीं कहता कि मैं बना चुका एक तस्वीर, अब मैं दूसरी नहीं बनाऊंगा। दर्पण तस्वीर पकड़ता नहीं है। दर्पण मरता नहीं तस्वीर पकड़ कर। दर्पण जिंदा बना रहता है। तस्वीर आती है, जाती है; बीत जाती है।
जो लोग स्मृति में जीने लगते हैं, वे लोग अपने चित्त का फोटो-प्लेट की तरह उपयोग कर रहे हैं। जहां एक के ऊपर दूसरी तस्वीरें इकट्ठी होती चली गई हैं। वहां विदा नहीं होती तस्वीरें। मन खाली नहीं होता। फिर-फिर तस्वीरों पर तस्वीरें बैठती चली गई हैं, बोझ होता चला गया है।
लेकिन जो लोग ध्यान की दुनिया में गति करना चाहते हैं, वे मन का मिरर लाइक, दर्पण की तरह उपयोग करते हैं। मन पर आती हैं चीजें, बीत जाती हैं। आप मुझे दिखते हैं तो ठीक है, आप नहीं दिखते तो गए। फिर आप कहीं भी नहीं हैं। जिस स्टेशन पर सवार होता हूं, लोगों से नमस्कार हो गई। फिर वे गए, फिर वह स्टेशन भी गया। वे दुनिया में है भी नहीं, इससे भी कोई मतलब न रहा। फिर आगे और दुनिया है, आगे और लोग हैं। उनकी तस्वीर बनानी है तो पिछली तस्वीरों को विदा हो जाना चाहिए, अन्यथा फिर नये के साथ न्याय नहीं हो सकता है।
पुराने के साथ जो बहुत ज्यादा पकड़ हो तो नये के साथ न्याय नहीं हो सकता। अतीत के साथ बहुत जकड़ हो तो फिर वर्तमान के साथ न्याय कैसे हो सकता है? और बीते कल से जो बंध गया, वह आज में जीएगा कैसे? अभी कैसे जीएगा? इस क्षण कैसे जीएगा? यह क्षण तो कभी भी नहीं था, यह पहली बार आया है। और हमारे मन भरे हैं तस्वीरों से। अतीत का बोझ हमारे चित्त को, चित्त के दर्पण को धूमिल कर देता है।
एक व्यक्ति एक संन्यासी के आश्रम में दीक्षित हुआ। वर्षों तक साधा उसने, लेकिन नहीं पा सका, वह जो पाने की इच्छा थी। फिर उसने अपने गुरु को कहा: वर्ष-वर्ष बीत गए, वह तो नहीं मिला जिसे खोजने आया था। अब मैं कहां जाऊं?
तो उसके गुरु ने कहा कि एक सराय है नगर के बाहर, कुछ दिन वहां जाकर रह, सराय का वह जो मालिक है, वह जो रखवाला है सराय का, उसे ठीक से समझ, शायद जो यहां नहीं मिल सका, वह वहां मिल जाए।
वह युवा संन्यासी उस सराय में गया। आशा तो नहीं थी, क्योंकि एक बड़े संन्यासी से कुछ न मिला तो एक सराय के रखवाले से क्या मिलेगा? गया, लेकिन कहा था गुरु ने तो चला गया।
सांझ जाकर जब वहां पहुंचा तो सराय का मालिक बर्तन साफ कर रहा था। दिन भर भोजन लोगों ने किया था, यात्री ठहरे और गए थे। उसने बर्तन साफ किए। कमरों में बुहारी लगाई। द्वार झाड़े। फिर वह देखता रहा। फिर उसने कहा कि मेरे गुरु ने आपके पास कुछ सीखने को भेजा है।
वह पहरेदार, वह सराय का मालिक कहने लगा: मेरे पास सीखने को क्या है! लेकिन आए हो, तो ठहरो। मैं कुछ सिखा नहीं सकता। तुम कुछ सीख सको तो बात दूसरी है। और दुनिया में कोई किसी को कुछ नहीं सिखा सकता। कोई सीख सके, तो बात दूसरी है।
लेकिन उसने कहा: जो आदमी कहता है, मैं कुछ सिखा नहीं सकता, उससे सीखने को क्या मिलने को है? लेकिन फिर भी आ गया है तो कम से कम रात रुक जाए और कम से कम एक दिन तो देख ले कि यह आदमी क्या करता है?
दूसरे दिन सुबह से फिर वह देखता रहा। वह आदमी दिन भर लोगों की सेवाएं करता रहा। एक मेहमान आया, दूसरा मेहमान गया, तीसरा मेहमान आया। किसी के घोड़े बंधे, किसी के ऊंट ठहरे, किसी की गाड़ी बंधी। वह दिन भर काम करता रहा। भोजन देता रहा। सांझ फिर बर्तन मलता था।
फिर उसने कहा कि अब मैं जाऊं? क्योंकि मुझे कुछ सीखने जैसा नहीं दिखाई पड़ता। दिन भर लोग आए, गए, वह मैंने देखा। तुमने सेवा की, वह मैंने देखा। तुमने बर्तन धोए, तुमने मकान साफ किया, वह मैंने देखा। सब मैंने देख लिया। सिर्फ मुझे पता नहीं कि तुम सुबह उठे, कब उठे, वह मुझे पता नहीं। उस वक्त तुमने क्या किया, वह तुम मुझे और बता दो। सुबह उठ कर तुमने क्या किया?
उसने कहा: कुछ भी नहीं किया। रात जिन बर्तनों को साफ करके रख दिया था, उन पर थोड़ी धूल जम गई रात भर में, सुबह उन्हें फिर साफ किया।
उस आदमी ने कहा: अच्छा पागल है मेरा गुरु! किस आदमी के पास भेज दिया, जहां सीखने को कुछ भी नहीं! जो बर्तन साफ करना, मकान साफ करना, लोगों की सेवा करना--इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानता!
वह वापस लौट गया अपने गुरु के पास, कहा: कहां मुझे भेज दिया? वहां मैंने कुछ भी नहीं पाया।
तो उसके गुरु ने कहा: अब तुम कहीं भी कुछ नहीं पा सकोगे। क्योंकि वह पाने वाला चित्त ही तुम्हारे पास नहीं है। मैंने तुम्हें जहां भेजा था, जान कर भेजा था। क्योंकि मुझे वहीं मिला था। एक रात मैं भी उस सराय में ठहरा था।
मैंने उस आदमी को देखा कि एक मेहमान के साथ भी उसने वही व्यवहार किया, जो दूसरे मेहमान के साथ! मैंने देखा कि एक आदमी आया, तो जैसे वही आदमी उसके लिए दुनिया में सब-कुछ हो गया! जैसे दुनिया मिट गई, वही आदमी सब-कुछ हो गया! वह उसकी इस तरह सेवा करने लगा, जैसे जीवन भर से उसी की सेवा करता हो! फिर वह आदमी चला गया तो उसने लौट कर भी रास्ते पर नहीं देखा कि वह आदमी जा चुका है! दूसरा आ गया था, उसकी सेवा करने लगा!
मैंने देखा कि वह आदमी दर्पण की तरह है। उसके चित्त पर कोई तस्वीर बनती नहीं। हजारों मेहमान आए और गए; वह सराय है, वहां कोई आता है और जाता है। लेकिन सराय का वह जो मालिक है, अदभुत है। वह किसी को पकड़ नहीं लेता। कोई पकड़ता नहीं, कोई जकड़ता नहीं। जब कोई सामने होता है तो ऐसे लगता है, जैसे इसका बड़ा प्रेम है! जीवन भर इसी को, इसी को पकड़े बैठा रहेगा। जब कोई चला जाता है, तो वह लौट कर भी नहीं देखता! वे जो उसे छोड़ कर जाते हैं, वे लौट-लौट कर देखते हैं, उस सराय के मालिक को? तूने देखा नहीं, वह दर्पण जैसा आदमी है? तूने उससे कुछ पूछा नहीं?
उसने कहा: मैंने पूछा था कि सुबह उठ कर तुमने क्या किया? क्योंकि बाकी सब तो मैंने देख लिया था। सुबह का मुझे पता नहीं था। तो उसने सिर्फ इतना ही कहा कि मैंने रात जो बर्तन रख दिए थे साफ करके, उन पर थोड़ी धूल जम गई थी, उन्हें सुबह फिर साफ कर लिया।
वह फकीर, वह गुरु हंसने लगा। उसने कहा: पागल, उसने ठीक कहा। रात भी चित्त पर सपनों की धूल जम जाती है, रात भर सपने चलते हैं। सांझ साफ करके भी सो जाओ तो सपने चलते हैं। उनकी भी धूल जम जाती है। सुबह उसको भी साफ कर लिया, यही उसने कहा है।
चित्त एक दर्पण है। और चित्त एक दर्पण हो जाए, तो बस, सब हो गया।
लेकिन चित्त पर तो हम धूल इकट्ठी करते हैं। इस धूल को समझ लेना जरूरी है। और यह उतर जाती है। अतीत का बोझ है, अतीत को जाने दें। क्या प्रयोजन है उसे बांध कर रखने का? क्या अर्थ है? कौन सी सार्थकता है उसके साथ बंधे रह जाने में? लेकिन हमें दिखाई ही नहीं पड़ता!
एक मित्र हैं, उनके घर मैं ठहरा था। आज से कोई सात साल पहले किसी युवती से प्रेम था, उसे विवाह कर लाए थे। उनसे मेरी बात हो रही थी। मैंने उनसे अचानक पूछा कि आज तुम्हारी पत्नी कौन सी साड़ी पहने हुए है, बता सकोगे?
वे कहने लगे: कौन सी साड़ी पहने हुए है! नहीं, खयाल नहीं किया। दिन भर पत्नी घर में है, दिन भर उन्होंने देखा है। लेकिन वह कौन सी साड़ी पहने हुए है, वह खयाल में नहीं है!
पड़ोस की पत्नी कौन सी साड़ी पहने हुए है, यह खयाल में हो सकता है। वह अपनी पत्नी को देखने की जरूरत नहीं रह गई। उसको एक दफा देख लिया था, वह सात साल पहले। तब से वही तस्वीर काम कर रही है। सात साल में वह स्त्री रोज बदलती चली गई है, रोज नई होती चली गई है, लेकिन फिर उसे नहीं देखा गया! माइंडजो है, फोटो-प्लेट की तरह काम कर रहा है।
मैंने उनसे पूछा: क्या तुम यह बता सकते हो कि जब तुमने पहली दफा इस लड़की को देखा था, तब यह कौन सी साड़ी पहने हुई थी?
वे कहने लगे: वह तस्वीर बिलकुल जिंदा है। वह मैं बता सकता हूं, उसने क्या-क्या पहन रखा था पहली बार, जब मैंने उसे देखा था। लेकिन वह सात साल पहले की बात है। वह सात साल पहले की तस्वीर बिलकुल जिंदा है। और जब मैंने उन्हें याद दिलाया, तो उनके चेहरे की रोशनी बदल गई। वे कुछ सोच में पड़ गए और खयाल में पड़ गए और कहने लगे, उसने ये-ये कपड़े पहन रखे थे। उसकी चप्पल भी बता सकते थे वे। उसके कान में उसने क्या पहन रखा था, वह भी बता सकते थे। लेकिन आज वह क्या पहने हुए है, उसका उन्हें कोई भी पता नहीं है!
आपको भी पता नहीं होगा, क्योंकि आज तो आपने देखा ही नहीं है। देख लिया था एक दफे, वह तस्वीर बैठ गई है वहीं। उसी से रोज काम चला लेते हैं।
और इसीलिए तो रोज झंझट होती है। रोज जो झंझट है, वह झंझट इस बात की है कि पत्नी भी बदल गई, पति भी बदल गया! लेकिन पत्नी भी समझ रही है कि सात साल पहले जो आदमी मिला था, वही वैसा ही होना चाहिए! पत्नी को पति भी समझ रहा है--वही सात साल पहले की मांग चल रही है।
रोज कलह है, क्योंकि रोज कोई किसी को नहीं देख रहा है कि बदलाहट हो गई है!
सब-कुछ बदल गया, धारा बह गई। गंगा में बहुत पानी बह गया। मांग जारी है। वह पत्नी यह कह रही है कि पहले दिन तुमने जिस भांति मुझे प्रेम किया था, वह तुम आज मुझे प्रेम क्यों नहीं करते हो? वह तस्वीर जिंदा है, उसी से तौल चल रही है। वह आदमी जा चुका। अब यह बिलकुल दूसरा आदमी है। यह वही आदमी नहीं है। लेकिन दोनों ठहरे हैं अपनी पुरानी स्मृति पर। हम सब वहीं ठहरे हुए हैं।
हम सब वहीं ठहरे हुए हैं! बेटा जवान हो जाता है। बाप को कभी पता नहीं चलता कि बेटा जवान हो गया है! वह वहीं ठहरा हुआ है, जब बेटा छोटा सा था। वह उसके साथ वही बातें किए चला जा रहा है, जो अपने छोटे बेटे से की थी! वह अब भी उसको मारने के लिए तैयार है। बेटे की समझ के बाहर है, क्योंकि बेटे को लगता है कि वह जवान हो गया है। बाप को लगता है कि कैसा जवान, वह बेटा ही है।
चीजें बढ़ गई हैं, बदल गई हैं, लेकिन बाप पुरानी तस्वीर पर रुका हुआ है। हम सब पीछे रुके हुए हैं। सब चीजें बदल जाती हैं। सब चीजें पीछे रुकी मालूम होती हैं हमें।
मां है, उसका बेटा नई शादी कर लाया है। उसको पता नहीं है कि लड़का जवान हो गया, अब वह किसी एक स्त्री के प्रेम में गिरेगा। मां अपनी पुरानी ही मांग जारी किए हुए है! वह समझती है कि बेटा अब भी आए, उसकी गोद में सिर रखे। अब भी आए, उससे गले मिल ले। उसकी समझ के बाहर है कि वह किसी और स्त्री की गोद में सिर रखे। किसी और स्त्री को गले लगाए। यह उसकी समझ के बिलकुल बाहर है।
इसलिए सास और बहू की नहीं बन पा रही है। वह सब पीछे रुकी है। मां रुकी हुई है अपने बेटे के साथ, जब वह छोटा सा था। वह अब भी चाहती है कि वह आज्ञा दे, तो वही वह करे। जहां वह कहे, बैठो, वहां बैठे। जहां वह कहे, जाओ, वहां जाए। जहां वह रोके, वहां रुके। उसे पता नहीं कि बेटा बड़ा हो गया है। गंगा का पानी बहुत बह गया। अब दूसरा आदमी है वहां। वही नहीं, जो उसकी गोद में लेटा था। वही नहीं, जो उसके पेट में रहा था। वह अब भी वही बातें कर रही हैं कि मैंने तुझे नौ महीने पेट में रखा था!
माताओं से पूछो, वे अब भी बेटों से कह रही हैं कि हमने तुम्हें नौ महीने पेट में रखा था। हमने इतने कष्ट सहे थे और तुम हमारे साथ यह कर रहे हो! उसे पता नहीं कि जिसको उसने पेट में रखा था, वह कोई और था। यह आदमी कोई और है। यह था ही नहीं कभी। यह बिलकुल नया है। यह बिलकुल दूसरा है। यह जिंदगी की धारा, यह जिंदगी की ज्योति कहीं और ले आई है। यह वह दीया नहीं है जो उसने पेट में जलाया था। वह ज्योति बदलती चली गई, बदलती चली गई है। यह बिलकुल दूसरा आदमी है। लेकिन हम तो नये को नहीं देख पाते, वह पुराना हमारे चित्त को पकड़े हुए है।
सारी दुनिया का एक ही कष्ट है, आदमियत की एक ही उलझन है--चाहे वह पति की हो, चाहे पत्नी की, चाहे मां की, चाहे बेटे की, चाहे दो मित्रों की; जिंदगी का एक ही उलझाव है कि हम सब पीछे रुक जाते हैं। आगे हम जाते ही नहीं! कोई कहीं रुक जाता है, कोई कहीं रुक जाता है, कोई कहीं रुक जाता है। हम वहां नहीं हैं, जहां हम हैं। हम बहुत पहले कहीं रुक गए हैं। और जहां हम रुक गए हैं, वहीं कठिनाई शुरू हो गई है। हमें होना चाहिए वहां, जहां हम हैं। फिर ध्यान में बाधा नहीं होती।
हमें होना चाहिए दर्पण की भांति असंग, चीजें बनें और मिट जाएं। असंग। असंग का मतलब अनासक्ति मत समझ लेना। असंग का अर्थ अनअटैच्ड नहीं है। असंग का अर्थ--असंग का अर्थ बहुत अदभुत है।
असंग का अर्थ है: पूरी तरह जुड़े हुए और फिर भी नहीं जुड़े हुए।
जब किसी को प्रेम करें, तो पूरा प्रेम करना, उस क्षण में वही रह जाए, जिसे प्रेम किया है। और जितना प्रेम कर सकें, पूरा कर लेना, टोटल, क्योंकि जितना पूरा हो सकेगा उतना ही मुक्त हो सकेंगे। जितना अधूरा रह जाएगा, उतना ही अटका रह जाएगा। उतना पीछा करेगा। फिर लौट-लौट कर पीछे की याद आएगी: उसे और प्रेम कर लेते, और प्रेम दे देते, और प्रेम ले लेते। पूरा कर लेना, जब प्रेम करें--प्रेम के क्षण में। और फिर पार हो जाना, क्योंकि जिंदगी कहीं नहीं रुकती। सब चीजें पार हो जाती हैं। फिर जब दुबारा वह सामने आ जाए तो फिर प्रेम जग जाएगा, और वह विदा हो जाएगा। तो मन खाली हो जाएगा और दर्पण बन जाएगा।
मन रोज-रोज खाली हो जाए और दर्पण बन जाए तो आदमी ने पा लिया जिंदगी का राज, पा लिया उसने परमात्मा का राज।
परमात्मा रुका हुआ नहीं है। इसीलिए तो रोज नई चीजें पैदा कर पाता है। नहीं तो रामचंद्र जी को ही पैदा करता चला जाए रोज-रोज, कृष्ण भगवान को ही पैदा करता चला जाए, आपको पैदा ही नहीं करता वह कभी। क्योंकि आप बिलकुल नये हैं। वह तो पुरानी तस्वीरें ही पैदा करे कि देखो एक राम पैदा कर लिया, अब इसी को...। जैसे फोर्ड की कारें होती हैं, बस रोज वही कार निकलती चली आती है! लाख कारें एक सी निकल आती हैं!
लेकिन भगवान कुछ अनूठा मालूम होता है। जीवन कुछ अनूठा मालूम होता है। सब नया होता है वहां। वहां कुछ पुराना नहीं है। जो पौधा एक दफा पैदा हुआ, फिर दुबारा नहीं होगा। एक जैसे दो पत्ते नहीं खोजे जा सकते। एक जैसे दो पत्थर नहीं खोजे जा सकते। एक जैसे दो आदमी नहीं खोजे जा सकते।
आप यूनिक हैं; किसी दिन यह पता चलेगा कि अनूठा हूं मैं। कोई मेरे जैसा न कभी था, न कभी होगा। उस दिन कितन
ा अनुग्रह मन में, कितना ग्रेटिट्यूड मालूम होगा। मैं अनूठा हूं इस अंतहीन जगत में! अनंत-अनंत लोग पैदा हुए हैं, लेकिन मैं कभी नहीं! और अनंत-अनंत लोग पैदा होंगे, लेकिन मैं फिर कभी नहीं!
एक-एक आदमी अनूठा है। कितनी अनुकंपा है। पुनरुक्ति नहीं हैं आप। आप दोहराए नहीं गए हैं, आप रिपीटिशन नहीं हैं। बस आप बिलकुल आप हैं।
ईश्र्वर ने इतना सम्मान दिया है एक-एक आदमी को, जिसका कोई हिसाब नहीं। इस सम्मान के बदले में हम कुछ भी नहीं चुका सकते। कोई उपाय नहीं है इस सम्मान को चुकाने का। एक-एक आदमी को बनाया अद्वितीय! एक-एक पत्ते को बनाया अद्वितीय! एक-एक फूल को बनाया अद्वितीय! अद्वितीयता छाई हुई है सब तरफ।
लेकिन हम--हम अपने को पुराना करने पर लगे हुए हैं! हम अपने को नया नहीं होने देते! हम कहते हैं, मैं तो वही हूं, जो कल था। हम तो कहते हैं, मैं वही हूं, जो परसों था। हम तो कहते हैं, मैं वहीं हूं, जो सदा था। मैं वही हूं, मैं बिलकुल कंसिस्टेंट हूं, मैं बिलकुल संगत हूं। मैं वही हूं, जो कल था, मैं परसों था, मैं नरसों था, मैं वही हूं।
हम अपने को पुराना करने पर लगे हैं और भगवान हमें नया करने पर लगा है! इससे विरोध पैदा हो गया है। इस विरोध से तनाव है, बोझ है, परेशानी है। नहीं, पुराना तो नहीं हुआ जा सकता, नया ही हुआ जा सकता है।
और फिर क्यों पीछे की तरफ पड़े हुए हैं, क्यों नहीं नये हो जाते, क्यों नहीं खुल जाते उसके लिए जो है! और बंद हो जाते उसके लिए जो न हो चुका है, नहीं हो चुका है?
मर जाएं अतीत के प्रति। जो अतीत के प्रति मरता है, वही वर्तमान में जीता है।
जो अतीत के प्रति नहीं मर सकता, वह वर्तमान में नहीं जी सकता।
और जीवन अभी है। जीवन वर्तमान में है। हियर एंड नाउ। अभी और यहीं।
अतीत के प्रति मर जाना, ध्यान की अदभुत प्रक्रिया है। यहां हम आए हैं, तीन दिन के लिए तो कम से कम एक प्रयोग करें कि मर जाएं अतीत के प्रति, भूल जाएं उसको जो आप थे, और जानें उसको जो आप हैं। और ये दोनों चीजें बिलकुल अलग हैं। जो आप थे, वह आप नहीं हैं। और जो आप हैं, वह आप कभी नहीं थे। मर जाएं अतीत के प्रति, डाइंग टु दि पास्ट, वही रहस्य है, वही सीक्रेट है। अतीत के प्रति प्रतिपल मरते चले जाएं, एक-एक क्षण मरते चले जाएं। जो बीत गया बीत गया; जो है, वह है। और उस ‘है’ में पूरे जागें। उस ‘है’ में पूरे जीएं, तो बोझ हट जाएगा।
मत बोझ रखें सिर पर, ट्रेन में बैठे हैं और ट्रेन लिए चली जा रही है। अपने सिर पर आप किसलिए रखे हुए हैं? उसे उतार कर नीचे रख दें। इतना बड़ा सब चल रहा है, आप ही क्यों इस फिकर में पड़े हुए हैं कि मैं इस बोझ को नहीं ढोऊंगा तो पता नहीं दुनिया का क्या हो जाएगा।
मैंने सुना है, वे जो छिपकलियां मकानों पर उलटी लटकी रहती हैं, उनको यही खयाल है कि मकान उन्हीं के सहारे थमा हुआ है। अगर वे हट गईं तो मकान गिर जाएगा। पूछ लेना किसी छिपकली से, वे यही कहती पाई जाती हैं कि अगर हम हट गए तो मकान गिर जाएगा।
सुना है मुर्गों को, वे यही समझते हैं कि सुबह हम बांग देते हैं, इसलिए सूरज उगता है।
एक गांव में एक आदमी था। और उसके पास, एक ही मुर्गा था उस गांव में, उसी आदमी के पास। गांव के लोगों से उसका झगड़ा हो गया। उसने कहा कि मरो, हम अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव में चले जाएंगे। याद रखना, सूरज भी नहीं उगेगा इस गांव में।
वह आदमी अपने मुर्गे को लेकर चला गया दूसरे गांव। और दूसरे गांव में उसके मुर्गे ने बांग दी। सूरज उगा, उसने कहा कि अब सिर पीटते होंगे। सूरज इस गांव में उग आया। अब रोएंगे, अब पछताएंगे कि मुझसे झगड़ा करके मुसीबत ले ली। सूरज इस गांव में उग रहा है; जहां मेरा मुर्गा बांग देता है, वहां सूरज उगता है!
हम सब भी इसी खयाल के लोग हैं। सारी दुनिया को उठाए हुए हैं अपने सिर पर। हर आदमी को यह खयाल है कि अगर मैं नहीं रहा तो न मालूम क्या हो जाएगा। कुछ भी नहीं होता। कुछ भी नहीं होगा। कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिलेगा। कितने लोग रहे हैं पृथ्वी पर? आज नहीं हैं। क्या हो गया? सबको यही भ्रम रहता है! सभी यह भ्रम पालते हैं, बहुत बोझ लेकर चलते हैं अपने होने का। अपने होने का बोझ लेकर जो चलता है, वह ‘होने’ को नहीं जान सकेगा। ‘होने’ को जानने के लिए निर्बोझ होना जरूरी है।
इसलिए पहला बोझ है अतीत का, उसे जाने दें।
दूसरा बोझ है इस बात का कि जैसे मैं ही सारी दुनिया को चला रहा हूं। हर आदमी को यही खयाल है कि मैं सारी दुनिया को चला रहा हूं। हर आदमी अपने को सेंटर माने हुए है। सारी दुनिया उसी कील पर चल रही है।
कोई भी सेंटर नहीं है। कोई भी केंद्र नहीं है। कोई भी दुनिया को नहीं चला रहा है। दुनिया चल रही है और उसमें हम चल रहे हैं। ट्रेन भाग रही है, उसमें हम बैठे हुए हैं। लेकिन यह खयाल कि मैं चला रहा हूं, पीछा नहीं छोड़ता, पीछा ही नहीं छोड़ता है!
मैंने एक पुरानी कहानी सुनी है, कि एक आदमी रोज-रोज भगवान के मंदिर में जाकर प्रार्थना करता था कि मुझे मोक्ष चाहिए, मुझे मुक्ति चाहिए। एक दिन भगवान घबड़ा गया। उस मंदिर के भगवान घबड़ा गए होंगे, आखिर भगवान भी मंदिरों के घबड़ा जाते हैं। तो भगवान प्रकट हो गए और उन्होंने कहा कि तुझे मुक्ति चाहिए तो अभी ले ले।
उस आदमी ने कहा: अभी, एकदम! अभी कैसे ले सकता हूं? अभी मेरा बच्चा छोटा है। वह जरा जवान हो जाए, उसकी मैं शादी कर लूं।
भगवान ने कहा: तू इतने दिन से मुझे परेशान किए हुए है कि मोक्ष चाहिए, मोक्ष चाहिए!
उसने कहा कि वह चाहिए जरूर मुझे, लेकिन ठीक अभी नहीं चाहिए! आगे चाहिए! आप मुझे आश्र्वासन दे दें। जरा लड़का बड़ा हो जाए, उसकी शादी कर लूं, क्योंकि मेरे बिना कौन उसकी शादी करेगा?
भगवान वापस चले गए। फिर उस लड़के की शादी हो गई। वह शादी करके लौटा था घर और रात अपने कमरे में सोया था, कि भगवान प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि अब तेरे लड़के की शादी हो गई।
उसने कहा कि आप भी बड़ी जल्दी मचाए हुए हैं! कम से कम उसका बच्चा हो जाए, मैं थोड़ा बच्चे को खिला लूं। उसका बच्चा होगा तो कौन खिलाएगा? अभी लड़का नासमझ है। बहू नासमझ है। घर में कोई अनुभवी नहीं है। मेरे बिना कैसे बच्चा बड़ा होगा। जरा बच्चा उसका बड़ा हो जाए, मैं बिलकुल तैयार हूं।
भगवान वापस चले गए। निराश नहीं हुए, लेकिन आशा बांधे रखी कि शायद...। फिर उसके लड़के का लड़का भी हो गया और वह लड़का बड़ा भी हो गया। फिर देखा कि अब तो वह लड़का स्कूल पढ़ने जाने लगा। भगवान फिर आए।
उस बुड्ढे ने कहा: आप क्या मेरे बिलकुल पीछे ही पड़ गए हो! अब वह लड़का स्कूल जाने लगा है। पढ़-लिख ले, उसकी शादी कर दूं, तो सब निपट जाए। उसकी शादी हुई कि फिर मैं चलूंगा।
भगवान ने कहा: लेकिन मामला बहुत मुश्किल है। क्योंकि फिर सर्कल शुरू हो जाएगा। उसकी शादी हुई, फिर उसका लड़का होगा।
तो उस बूढ़े ने कहा: तो फिर क्षमा करिए, फिर वह मोक्ष अभी रहने दीजिए। जब मैं ही आऊं, आपको आने की जरूरत नहीं है। मैं ही आकर बता दूंगा कि अब मुझे मोक्ष चाहिए।
हम सबको यह खयाल है कि हम चला रहे हैं! और क्यों है यह खयाल? यह इसलिए नहीं है कि हम चला रहे हैं। यह इसलिए है कि हम चला रहे हैं, इसमें बड़ा मजा आता है। लगता है कि हम कुछ हैं। यह हमारे अहंकार का पोषण है कि हम चला रहे हैं। मैं चला रहा हूं, इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। सच्चाई यह नहीं है कि मैं चला रहा हूं। सच्चाई सिर्फ इतनी है कि मैं चला रहा हूं, इस खयाल से ‘मैं’ मजबूत होता है। और जितना ‘मैं’ मजबूत होता है उतना ही ध्यान में प्रवेश असंभव है। ‘मैं’ बोझ है।
तो दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है कि आप कुछ चला नहीं रहे हैं। एक बड़ी चलती हुई दुनिया के आप सिर्फ एक हिस्से हैं। एक बहुत बड़ी दुनिया के, एक बहुत बड़े जगत के, एक बहुत बड़े कॉ़जमॉस के, एक बहुत बड़े चलते हुए ब्रह्मांड के, एक बहुत बड़ी गति के आप सिर्फ एक हिस्से हैं।
अगर यह हाथ मेरा जानता हो, तो यह हाथ समझता होगा कि मैं उठ रहा हूं। जरूर समझता होगा, लेकिन इसे पता नहीं कि एक बड़े शरीर का हिस्सा है। यह हाथ अगर जानता होगा तो सोचता होगा कि मैं उठा। ये आंखें अगर जानती होंगी तो सोचती होंगी कि हम देख रही हैं। लेकिन आंखों को पता नहीं कि आंखें नहीं देख रही हैं, एक बड़े शरीर का हिस्सा हैं। अगर मेरे पेट को पता होगा तो वह सोचता होगा कि मैं खून बना रहा हूं, भोजन पचा रहा हूं। लेकिन पेट कुछ भी नहीं पचा रहा है, पेट एक बड़े शरीर का हिस्सा है।
यह जिंदगी इकट्ठी है। यह सारा जगत इकट्ठा है। इस इकट्ठे में हम टुकड़ों की तरह काम कर रहे हैं। लेकिन हमको यह खयाल है कि हम कर रहे हैं! और इससे मुसीबत हो गई है। सब हो रहा है, हम उसके एक हिस्से हैं। अगर सूरज--दस करोड़ मील दूर है, वह ठंडा हो जाए, तो हम यहीं ठंडे हो जाएंगे, इसी वक्त। हमें पता ही नहीं चलेगा कि सूरज कब ठंडा हो गया है। क्योंकि पता होने के लिए भी तो हमें होना चाहिए। सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुए। तब हमें पता चलेगा कि सूरज भी चला रहा था। वह सूरज चल रहा था, उसके साथ हम चल रहे थे। हमारे हृदय की धड़कन उस सूरज की धड़कन से जुड़ी थी। और कौन जाने कोई और दूर के बड़े सूरज सूरज को चलाते होंगे।
क्योंकि जिंदगी एक अंतर्संबंध है, सब जुड़ा हुआ है। उस सब जुड़े में यह खयाल पैदा हो जाना कि मैं कर रहा हूं, मैं चला रहा हूं, बोझ लेना है। व्यर्थ बोझ लेना है। चलती गाड़ी में क्यों अपना पेटी और बिस्तर सिर पर रख कर बैठ गए हैं? उसे नीचे रख दें। जिंदगी चल रही है और हम भी उसमें चल रहे हैं। हम चला नहीं रहे हैं। वृहत्‌ है गति, उस गति के हम सिर्फ एक अणु मात्र हैं। ऐसी जो भाव-दशा हो, उस भाव-दशा में समर्पण हो जाता है। और समर्पण, सरेंडर किया नहीं जाता। बस यह समझ पैदा हो जाए, तो सरेंडर हो जाता है।
समर्पण ही ध्यान है।
कुछ लोग कहते हैं कि मैं जाकर भगवान को समर्पण कर दूंगा। वह कर दूंगा की भाषा समर्पण कभी नहीं कर सकती, क्योंकि अगर आपने कहा कि मैं समर्पण कर दूंगा, तो आपने समर्पण को भी एक कृत्य बना लिया, एक एक्ट बना लिया। एक्ट कभी समर्पण नहीं हो सकता। एक आदमी कहता है कि मैंने जाकर भगवान के चरणों में सब समर्पण कर दिया। यह कभी कुछ नहीं हुआ, क्योंकि वह कहता है, ‘मैंने’ कर दिया! वह चाहे तो कल कह दे, अच्छा वापस ले लिया। समर्पण कभी वापस लिया नहीं जा सकता। इसलिए समर्पण कभी किया भी नहीं जा सकता। समर्पण हो जाता है। समझ का परिणाम है।
अगर हम समझें जीवन की व्यवस्था को तो समर्पण हो जाएगा। वह हमें करना नहीं पड़ेगा। और वह हो जाए तो ध्यान शुरू हो जाता है।
ये दो-तीन बातें कहीं। एक तो अतीत के बोझ को समझें। उसे व्यर्थ न उठाएं। दूसरा, ‘मैं’ कह रहा हूं, वह कर्ता का बोझ, उसे समझें। चीजें हो रही हैं, हम कर नहीं रहे हैं।
और चीजों का कितना विराट जाल है होने का। उसके ओर-छोर का भी हमें कोई पता नहीं है। पता हो भी नहीं सकता कभी। उस सब होने की विराट व्यवस्था में अपने को छोड़ दें, लेट-गो। भूल जाएं करना, भूल जाएं कर्तृत्व, भूल जाएं कर्ता, रह जाए वही, जो है।
और बस तब, तब कुछ हो जाएगा। वह हो जाना, हमें ‘वहां’ पहुंचा देता है, जहां हम हैं। जहां से हम कभी नहीं हटे, जहां से हम कभी डिगे नहीं, जहां से हम कहीं गए नहीं। लेकिन उस तक पहुंचने के लिए ‘करने की’, ‘होने की’ सारी बोझ-स्थिति से मुक्त हो जाना जरूरी है।
अब हम प्रयोग करेंगे ध्यान का।
यह सारी बात समझ लेंगे। कुछ करना नहीं है फिर, थोड़ी देर के लिए, दस मिनट के लिए हम सिर्फ रह जाएंगे।
मैं कुछ बोलूंगा नहीं उस दस मिनट में। पहले ही कुछ बातें कह देता हूं। जैसे वृक्ष हैं, पक्षियों की आवाजें हैं, आकाश है, सूरज की किरणें हैं। इसी तरह हम भी रह जाएंगे। बस रह जाएंगे कि पड़े हैं--हैं, कुछ कर नहीं रहे हैं। विचार चलते रहें, चलते रहें; न चलें, न चलें। देखते रहेंगे चुपचाप, सुनते रहेंगे चुपचाप। आवाज सुनाई पड़ेगी।
थोड़े दूर-दूर बैठ जाएं। कहीं भी, वृक्षों की छाया में चलें जाएं। कुछ यहीं सामने होना जरूरी नहीं है। कहीं भी बैठ जाएं। बातचीत कोई जरा भी न करे। चुपचाप हट जाएं। जरा भी बातचीत न करें। चुपचाप हट जाएं। और कहीं भी बैठ जाएं, जहां मौज हो वहां बैठ जाएं। कहीं भी बैठ जाएं, वृक्षों की छाया में, कहीं भी। कपड़े-वपड़े की फिकर न करें, बस बैठ जाएं।
बैठ जाइए। दो-तीन बातें समझ लें। बैठ कर शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ देना है, जैसे शरीर में कोई प्राण ही न हों। क्योंकि जब बड़े विराट का हिस्सा हो जाना है तो अपनी सारी अकड़ छोड़ देनी चाहिए। अकड़--वह शरीर पर अकड़ भी हमारे भीतर के मन की अकड़ का हिस्सा है। अकड़ छोड़ दें। समर्पण--हम हैं ही नहीं जैसे। एक हिस्सा हो गए इस बड़ी प्रकृति का, इन वृक्षों का, इस जमीन का, इस आकाश का, इस हवा का, इन किरणों का। हम भी एक हिस्सा हैं। हम अलग से नहीं हैं।
छोड़ दें अपने को। बिलकुल ढीला छोड़ दें। जैसे कोई प्राण ही नहीं हैं। हो सकता है दस मिनट में शरीर गिर जाए, तो उसकी फिकर न करें। गिर जाए तो गिर जाने दें। झुक जाए तो झुक जाने दें। अपनी तरफ से छोड़ दें। हमें कुछ भी नहीं करना है। जो होगा, होगा। हो सकता है शरीर कंपने लगे, तो कंपता रहे। हो सकता है आंसू बहने लगें, तो बहते रहें। हमें कुछ भी नहीं करना है। जो होगा हम देखते रहेंगे, जानते रहेंगे और चुपचाप बैठे रहेंगे। गिर जाएंगे तो गिर जाएंगे। अगर शरीर गिरता हो तो रोकना नहीं है। कुछ भी अपनी तरफ से नहीं करना है। जो हो जाए हो जाने देना है। और दस मिनट...
चारों तरफ पक्षी बोलते रहेंगे, हवाएं बहती रहेंगी, उनकी आवाज सुनाई पड़ेगी, हवाएं शरीर को छूएंगी, वृक्ष के पत्तों में आवाजें होंगी, वह चुपचाप सुनते रहेंगे। सब हो रहा है, हम भी इसके एक हिस्से हो गए हैं। हम हैं ही नहीं। हम अलग से नहीं हैं। इस जमीन के, इस आकाश के, सूरज की किरणों के, इन सबके हम भी एक भाग हैं, एक अंश हैं। हम अलग से नहीं हैं। फिर जो भी हो होने दें--रोना आ जाए, आंसू बहें, शरीर कंपने लगे, गिर जाए। हम हैं ही नहीं।
अब आंख आहिस्ता से बंद कर लें। जोर से नहीं, कोई जोर न पड़े। धीरे से आंख ढीली छोड़ दें, पलक छोड़ दें, बंद हो जाने दें। पलक बंद हो जाने दें।
आंख बंद हो गई। शरीर को ढीला छोड़ें, बिलकुल ढीला छोड़ दें--गिरे गिर जाए; रहे रहे; न रहे न रहे। बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे कोई प्राण ही नहीं हैं। ताकि हम एक हिस्सा हो जाएं। हमारी अकड़ चली जानी चाहिए। हम अलग नहीं हैं। और फिर कुछ कोशिश नहीं करनी है। जो होगा, होगा। उसे हम चुपचाप देखते रहेंगे, बस देखते रहेंगे।
ठीक! आंख बंद हो गई। शरीर ढीला छोड़ दिया। बिलकुल ढीला छोड़ दें। जरा भी रेसिस्टेंस नहीं, रुकावट नहीं। हो सकता है दस मिनट में गिर जाए तो गिर जाए। बिलकुल ढीला...ढीला...ढीला...एकदम रिलैक्स छोड़ दें, बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे हम हैं ही नहीं।
अब कुछ भी करना नहीं है। अब कुछ भी नहीं करना है। अब बिलकुल जानते रहना है, जो हो रहा है हो रहा है, हम भी हैं। देखें, वह पक्षी बोल रहा है, पत्तों की आवाज, हवाएं, सूरज की किरणें--बस हम भी हैं। कुछ करना नहीं है, बस हम भी हैं। जस्ट टु बी, बस हैं।
ठीक! अब दस मिनट के लिए मैं चुप हुआ जाता हूं। जो भी हो, हो। बस दस मिनट के लिए चुप हो जाएं। मिट जाएं। समर्पण, छोड़ दें सब।
छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें, आप हैं ही नहीं। सब हैं, आप नहीं हैं। बिलकुल मिट जाएं...छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल बह जाएं...सब हैं, आप नहीं हैं। मिट जाएं, बिलकुल मिट जाएं, हैं ही नहीं। हवाएं हैं, सूरज है, वृक्ष हैं। श्वास चल रही है, विचार चल रहे हैं। सब हैं, आप नहीं हैं। छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें, जैसे हैं ही नहीं। मिट जाएं और पा लें। खुल जाता है द्वार।
छोड़ दें...समर्पण...बिलकुल समर्पण, हैं ही नहीं। जो भी हो हो। कुछ करना नहीं है। जानते रहें, जानते रहें, जो भी हो रहा है--पक्षियों की आवाज है, पत्तों की आवाज है, हवाओं की आवाज है। धड़कन चल रही है, श्वास चल रही है। जो भी हो रहा है हो रहा है, हम सिर्फ जान रहे हैं, बस जान रहे हैं, कुछ कर नहीं रहे हैं।
बिलकुल छोड़ दें...मिट जाएं...हैं ही नहीं। बस जानते रहें, होश से भरे जानते रहें। पक्षियों की आवाज सुनाई पड़ रही है, खुद की श्वास मालूम पड़ेगी, धड़कन मालूम पड़ेगी...मन धीरे-धीरे मौन होता चला जाएगा...मन धीरे-धीरे बिलकुल मौन हो जाएगा...मन शांत हो जाएगा...।
छोड़ दें...छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें... बिलकुल छोड़ दें, जैसे हैं ही नहीं। शरीर एकदम शिथिल हो जाएगा...मन शांत हो जाएगा...श्वास धीमी चलने लगेगी...शरीर शिथिल हो जाएगा...मन शांत हो जाएगा...।
मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन बिलकुल शांत, निर्भार हो गया है, जैसे कोई बोझ न रहा। मन शांत होता चला जा रहा है... छोड़ दें...छोड़ दें... देखें, द्वार को चूक न जाएं। छोड़ दें...बिलकुल छोड़ दें...।
मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत होता जा रहा है...मन एक दर्पण की भांति हो गया है। पक्षी की आवाज गूंजेगी, खो जाएगी, फिर सन्नाटा हो जाएगा। मन शांत हो गया है...मन शांत हो गया है...।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ मन और भी शांत हो जाएगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ मन और भी शांत हो जाएगा। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें...प्रत्येक श्वास के साथ मन और भी शांत हो जाएगा।
फिर बहुत धीरे-धीरे आंख खोलें...बहुत धीरे-धीरे आंख खोलें...आंखें दर्पण की भांति हैं, जो बाहर है वह दिखाई पड़ेगा। धीरे-धीरे आंख खोलें...धीरे-धीरे आंख खोलें...एक-दो मिनट आंख खोल कर चुपचाप बैठे रहें...जो बाहर है, उसे देखें। जो अभी और यहीं है, उसे देखें। जो दिखाई पड़ रहा है, उसे चुपचाप देखें...कुछ सोचें नहीं, बस देखें...धीरे-धीरे आंख खोलें...धीरे-धीरे आंख खोल लें...देखें एक दर्पण की तरह...एक-दो मिनट चुपचाप देखते रहें...।
दोपहर को साढ़े तीन बजे एक घंटा मौन के लिए हम यहां इकट्ठे होंगे। उस समय कोई बात नहीं होगी। न मैं कुछ बोलूंगा, न ही आप बात करते आएंगे। इसलिए दो-तीन बातें उस समय के लिए समझ लें।
पहली तो बात यह है, साढ़े तीन से साढ़े चार यहीं मौन में बैठेंगे। उस मौन की तैयारी पहले से ही करके आएं। अच्छा हो कि स्नान करके आएं। कपड़े बदल कर आएं। ताजे और हलके होकर आएं। और साढ़े तीन बजे यहां मौन के लिए आना है, तो उसके आधा घंटे पहले से ही बातचीत बंद कर दें, ताकि यहां आते-आते मन मौन के लिए बिलकुल तैयार हो जाए। फिर एक घंटा वृक्षों के पास जहां भी जिसको बैठना हो चुपचाप बैठ जाएगा। एक घंटा हम मौन में ही बैठे रहेंगे।
दोनों सभाओं में मैं बात करूंगा। मौन में भी बात करूंगा। जो परिपूर्ण मौन हो जाएंगे, उन्हें कुछ समझ में आ सकता है। मौन में भी बोला जा सकता है। लेकिन एक घंटा मौन होकर प्रतीक्षा करनी है कि क्या हो सकता है। और एक घंटा फिर कुछ भी बात नहीं है, कोई सूचना नहीं है। चुपचाप बैठे रहेंगे घंटे भर और घंटे भर के बाद उठ जाएंगे।
उस मौन के समय में किसी को भी ऐसा लगे कि मेरे पास आकर दो मिनट उसे बैठना है--लगे, अपनी तरफ से नहीं, तो चुपचाप मेरे पास आकर दो मिनट बैठ जाएगा। फिर उठ कर चला जाएगा। लेकिन लगे तो ही आना है, अपनी तरफ से सोच कर किसी को नहीं आना है। साढ़े तीन बजे!

सुबह की हमारी बैठक पूरी हुई।

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