YOG/DHYAN/SADHANA

Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat 01

First Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Sambhavnaon Ki Aahat by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा राजमहल था। आधी रात उस राजमहल में आग लग गई। आंख वाले लोग बाहर निकल गए। एक अंधा आदमी भी उस राजमहल में था। वह द्वार-द्वार टटोलने लगा, बाहर निकलने का मार्ग खोजने लगा। लेकिन सभी द्वार बंद थे, सिर्फ एक द्वार खुला था। बंद द्वारों के पास हाथ फैला कर उसने खोज-बीन की, वे बंद थे, वह आगे बढ़ गया। हर बंद द्वार पर उसने श्रम किया, लेकिन द्वार बंद थे। आग बढ़ती चली गई, जीवन संकट में बढ़ता चला गया। अंततः वह उस द्वार के निकट पहुंचा जो खुला था। लेकिन दुर्भाग्य कि उस द्वार के पास उसके सिर पर खुजली आ गई। वह अपनी खुजली खुजलाने लगा और उस द्वार के आगे निकल गया। फिर बंद द्वार थे, फिर वह बंद द्वारों पर भटकने लगा।
अगर आप देख रहे होते उस आदमी को तो मन में क्या होता? कैसा अभागा था कि बंद द्वार पर श्रम किया, खुले द्वार पर चूक गया!
लेकिन यह किसी राजमहल में ही घटी घटना नहीं है। जीवन के महल में रोज ऐसा ही घटता है। पूरे जीवन के महल में अंधकार है और आग है। और एक ही द्वार खुला है और सब द्वार बंद हैं। और बंद द्वार पर हम सब इतना श्रम करते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं! और खुले द्वार के पास छोटी सी भूल और चूक जाते हैं। फिर बंद द्वार हैं। और ऐसा जन्म-जन्म में, जन्मों-जन्मों में होता है। धन का द्वार है, वह बंद द्वार है, वह जीवन के बाहर नहीं ले जाता। यश का द्वार है, वह बंद द्वार है, वह जीवन की आग के बाहर नहीं ले जाता और भीतर लाता है।
एक द्वार है जीवन के आग लगे भवन में--उस द्वार का नाम ‘ध्यान’ है। वह अकेला खुला द्वार है, जो जीवन की आग के बाहर ले जाता है।
लेकिन वहां सिर पर खुजली उठ आती है, पैर में कीड़ा काट लेता है और कुछ हो जाता है और आदमी चूक जाता है। फिर बंद द्वार हैं और फिर बंद द्वारों की भटकन है।
इस कहानी से आने वाले तीन दिनों की प्रारंभिक चर्चा मैं इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि आप ध्यान रखें, उस खुले द्वार के पास कोई छोटी सी चीज से चूक न जाएं। और यह भी ध्यान रखें कि ध्यान के अतिरिक्त और कोई खुला द्वार न कभी था, न है, न हो सकता है। जो भी जीवन की आग के बाहर गए हैं, वे उसी द्वार से गए हैं। और जो भी कभी जीवन की आग के बाहर जाएगा, वह उसी द्वार से ही जा सकता है।
शेष सब द्वार दिखाई पड़ते हैं कि द्वार हैं, लेकिन वे बंद हैं। धन भी मालूम पड़ता है कि जीवन की आग के बाहर ले जाएगा, अन्यथा कोई पागल तो नहीं है कि धन को इकट्ठा करता रहे! लगता है कि द्वार है, बस दिखता है कि द्वार है। द्वार नहीं है। बंद है। दीवाल भी दिखती तो अच्छा था, क्योंकि दीवाल से हम सिर फोड़ने की कोशिश नहीं करते। लेकिन बंद द्वार पर अधिक लोग श्रम करते हैं कि शायद खुल जाए। लेकिन धन का द्वार आज तक नहीं खुला, कितना ही श्रम करें। वह द्वार बाहर नहीं ले जाता और भीतर ले आता है।
ऐसे ही बहुत द्वार हैं--यश के, कीर्ति के, अहंकार के, पद के, प्रतिष्ठा के। वे कोई भी द्वार बाहर ले जाने वाले नहीं हैं। लेकिन जो लोग उन द्वारों पर खड़े हो जाते हैं, उन्हें देख कर पीछे जो उन द्वारों पर नहीं हैं उन्हें लगता है कि शायद अब वे निकल जाएंगे, अब वे निकल जाएंगे! जिसके पास बहुत धन है--निर्धन को देख कर लगता है कि शायद धनी अब निकल जाएगा जीवन की पीड़ा से, जीवन के दुख से, जीवन की आग से, जीवन के अंधकार से। जो यश की महिमा पर खड़े होते हैं--जो नहीं हैं यशस्वी वे पीछे रोते हैं और सोचते हैं कि बस अब यह व्यक्ति निकल जाएगा। जो खड़े होते हैं उन बंद द्वारों पर, वे भी ऐसा भाव करते हैं कि जैसे निकलने के करीब पहुंच गए हों।
एक और छोटी कहानी से उनकी आशा समझ लेनी जरूरी है।
एक अस्पताल है। उस अस्पताल में, जो ऐसे रोगी हैं, जिनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है, केवल उनको ही भर्ती किया जाता है। एक ही दरवाजा है, दरवाजे के पास लंबी दहलान है। लंबी दहलान पर मरीजों की खाटें हैं। नंबर एक की खाट पर जो मरीज है, वह कभी-कभी सुबह उठ कर कहता: अहा! कैसा सूरज निकला है! कैसे फूल खिले हैं! पक्षी कैसे गीत गा रहे हैं! और सारे लंबे वार्ड के मरीजों को कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। वहां कोई द्वार नहीं, कोई खिड़की नहीं। वे मन ही मन में जलते हैं कि यह मरीज कब मर जाए तो इसके नंबर एक की जगह पर हम पहुंच सकें।
फिर उस मरीज को हृदय का दौरा आया है और सारे वार्ड के मरीज प्रार्थना करते हैं भगवान से कि यह मर जाए तो इसकी जगह हमें मिल जाए। वहां से सूरज का दर्शन भी होता है, फूल भी खिलते हैं, पक्षी गीत भी गाते हैं, चांद भी दिखता है, तारे भी दिखते हैं। धन्य है वह, जो द्वार पर है। लेकिन वह आदमी बच जाता है और फिर सुबह उठ कर कहने लगता है: कितनी सुगंध आती है, कैसी सूरज की किरणें, कैसा आनंद है इस द्वार पर, खुला आकाश!
फिर दुबारा दौरा आता है उस आदमी को। फिर वे सब प्रार्थना करते हैं कि वह मर जाए तो शायद हमें जगह मिल सके।
बार-बार यह होता है, लेकिन वह मरीज मरता नहीं है। और बार-बार वह यही--जब ठीक हो जाता है तो फिर द्वार के बाहर झांक कर द्वार के सौंदर्य की बातें करता है।
सारे वार्ड के मरीज प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, जलन से भरे हैं। अंततः वह मरीज मर जाता है। तो सारे मरीज कोशिश करते हैं कि उन्हें पहली जगह मिल जाए। रिश्र्वत देकर, सेवा करके डॉक्टरों की किसी तरह कोई एक मरीज सफल हो जाता है और पहली खाट पर पहुंच जाता है। झांक कर बाहर देखता है, वहां भी दीवाल है, द्वार के बाहर परकोटे की दीवाल है! न वहां सूरज दिखाई पड़ता है, न वहां कोई फूल खिलते हैं, न वहां कभी चांद आता है, न कभी किरणें आती हैं! धक से रह जाती है तबीयत! लेकिन अब अगर यह कहे कि नहीं है कुछ, तो सारे वार्ड के मरीज कहेंगे, मूर्ख बन गया। देखता है दीवाल को और लौट कर मुस्कुराता है और कहता है, धन्य मेरे भाग्य, कैसा सूरज निकला है, कैसे फूल खिले हैं, कैसी सुगंध! और फिर सारे वार्ड के मरीज उसी चक्कर में परेशान हैं कि कब यह मर जाए, तो हमें जगह मिल जाए!
वे जो राष्ट्रपतियों की जगह खड़े हैं, ऐसे ही बंद दरवाजों पर खड़े हैं--जहां आगे न कोई सूरज है, न कोई रोशनी है, न कोई फूल है। वे जो धन के दरवाजों पर खड़े हैं, ऐसे ही दरवाजों पर खड़े हैं जहां दीवाल है--लेकिन पीछे लौट कर वे कहते हैं, बहुत फूल खिले हैं, सूरज निकला है, चांद निकला है, पक्षी गीत गा रहे हैं! अगर वे यह न कहें तो मूढ़ समझे जाएंगे।
लेकिन कभी-कभी उन द्वारों से भी कुछ लोग लौट पड़ते हैं हिम्मतवर, साहसी और कह देते हैं, नहीं है कुछ। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध लौट आता है उस द्वार से और कहता है, भूल थी, प्रतिस्पर्धा थी; नहीं है कुछ, वहां कुछ भी नहीं है।
लेकिन नासमझ अपनी नासमझी को भी स्वीकार करने को राजी नहीं होते और उनका यह दंभ हजारों लोगों को पागल बनाए रखता है कि कब हम वहां पहुंच जाएं। लेकिन सब द्वार बंद हैं। एक द्वार खुला है, और वह ध्यान का द्वार है। और मजे की बात है कि वे सब द्वार बंद हैं जो बाहर की तरफ खुलते मालूम पड़ते हैं। वह द्वार खुला है जो भीतर की तरफ खुलता मालूम पड़ता है।
ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है, धन का द्वार बाहर की तरफ खुलता है।
बाहर की तरफ खुलने वाले सब द्वार धोखे के साबित हुए हैं। कोई द्वार जो बाहर की तरफ खुलता है, खुलता ही नहीं है, बंद ही है। असल में बाहर की तरफ सिर्फ दीवाल है, वहां कुछ है ही नहीं खुलने को। खुलता है वह द्वार जो भीतर की तरफ खुलता है। लेकिन उस द्वार के पास से हम निकल जाते हैं: कोई छोटी सी बात और सब चूक जाता है।
इन तीन दिनों में उसी भीतर के द्वार परथोड़ा श्रम करने के लिए आप सबको निमंत्रित किया है।
भीतरी यात्रा में कठिनाई प्रारंभ हो जाती है, क्योंकि हमें बाहर जाने की जन्म-जन्मांतरों से आदत है। उस रास्ते से हम भलीभांति परिचित हैं, वह पहचाना, जाना-माना है, वहां कोई भूल-चूक का डर नहीं है। एक यात्रा बिलकुल अपरिचित है, वह जो भीतर की तरफ जाती है। और ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है। उस द्वार पर--स्वामी राम मजाक में कहते थे--उस द्वार पर लिखा है ‘पुल।’ उस द्वार नहीं लिखा ‘पुश।’ उस द्वार पर लिखा है: खींचो भीतर की तरफ, मत धकाओ बाहर की तरफ। बाहर की तरफ धकाने से वह और बंद हो जाता है।
वह द्वार खुलता ही नहीं बाहर की तरफ। उस पर लिखा है ‘पुल।’ और हम जो बाहर के दरवाजों के आदी हैं, अगर भीतर के दरवाजे पर भी पहुंच जाते हैं तो वहां भी ‘पुश’ किए चले जाते हैं। आदत हमारी बाहर की तरफ है।
इस भीतर के दरवाजे की जो यात्रा है, वह यात्रा अपने आप में कठिन नहीं है। कठिन है सिर्फ इस कारण कि हमारी आदत बाहर की है। और आदतें इतनी खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं कि हमें पता ही नहीं चलता। हम अपनी आदत के अनुसार चलते चले जाते हैं। हम सब आदत में ही जीते हैं और हमारी सारी आदत बाहर की तरफ है। और यही कठिनाई है, अन्यथा कोई कठिनाई नहीं है भीतर की तरफ जाने में।
लेकिन वहां जाने का हमारा कोई अनुभव नहीं है, अनुभव सब बाहर के हैं। उन्हीं दरवाजों से टकराने के हैं जो खुलते ही नहीं हैं। और तब हम एक दरवाजे से ऊब कर दूसरे दरवाजे को ठोकने लगते हैं। दूसरे से ऊब कर तीसरे को ठोकने लगते हैं। हजारों दरवाजे हैं उस महल में। लेकिन एक दरवाजा चूक जाता है। और सिर्फ कुल कारण इतना है कि हमारे सारे व्यक्तित्व की पकड़ बाहर की तरफ है। और आदतें इतनी खतरनाक होती हैं, आदतें इतनी मजबूत और यांत्रिक हो जाती हैं कि हमें पता भी नहीं चलता।
रास्ते पर आप चल रहे हैं। आपको पता भी नहीं कि आपके दोनों हाथ क्यों हिल रहे हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि दस लाख वर्ष पहले आदमी के जो पूर्वज थे, वे चारों हाथ-पैर से चलते थे। बहुत बाद में आदमी दो पैर से खड़ा हुआ। वह जो चार हाथ-पैर से चलने की आदत है, वह अब तक पीछा पकड़े हुए है। अब चलते तो दो पैर से हैं, लेकिन साथ में दोनों हाथ भी हिलते हैं--बाएं पैर के साथ दायां हाथ हिलता है, दाएं पैर के साथ बायां हाथ हिलता है। इनसे चलने में कोई सहायता नहीं मिलती है, इनसे चलने का कोई संबंध नहीं है। लेकिन दस लाख साल पहले जो आदमी की आदत थी, वह पीछा कर रही है, वह पीछा किए चली जा रही है, वह जड़-आदत अपना काम जारी रखे हुए है।
कभी आपने खयाल नहीं किया होगा कि जब हमारे हाथ हिलते हैं तो हम दस लाख साल पुराने आदमी की खबर दे रहे हैं, जो चार हाथ-पैर से चलता था। वह आदत कायम रह गई। शरीर को पता ही नहीं चला अब तक कि आदमी दो पैर से चलने लगा है। शरीर को पता ही नहीं है, शरीर दस लाख साल पुरानी आदत में ही जी रहा है।
मनुष्य साधारणतः आदत में जीता है और आदत को तोड़ना कठिनाई मालूम पड़ती है। हमारी भी सब आदतें हैं, जो ध्यान में बाधा बनती हैं।
ध्यान में और कोई बाधा नहीं है, सिर्फ हमारी आदतों के अतिरिक्त।
अगर हम अपनी आदतों को समझ लें और उनसे मुक्त होने का थोड़ा सा भी प्रयास करें तो ध्यान में ऐसी गति हो जाती है, इतनी सरलता से जैसे झरने के ऊपर से कोई पत्थर हटा ले और झरना बह जाए। जैसे कोई पत्थर को टकरा दे और आग जल जाए। इतनी ही सरलता से ध्यान में प्रवेश हो जाता है। लेकिन हमारी आदतें प्रतिकूल हैं। थोड़ा सा इन आदतों के संबंध में प्राथमिक रूप से समझें, फिर कल से हम इनकी गहराइयों में उतरने की कोशिश करेंगे।
हमारी एक आदत है सदा कुछ न कुछ करते रहने की। ध्यान में इससे खतरनाक और विपरीत कोई आदत नहीं हो सकती है।
ध्यान है न-करना। ध्यान है नॉन-डूइंग। ध्यान है कुछ भी न करना।
और हमारी आदत है कुछ न कुछ करने की! हम कुछ भी, खाली भी बैठे हों, तो कुछ न कुछ करते हैं! जिस आदमी को हम कहते हैं कि यह कुछ भी नहीं कर रहा है, उसकी भी खोपड़ी में हम झांकें तो पता चलेगा कि वह बहुत कुछ कर रहा है। आदमी अनऑक्युपाइड होता ही नहीं, अव्यस्त, खाली होता ही नहीं। जो आदमी खाली हो जाए, वह परमात्मा से भर जाता है।
खाली होने की कला ही ध्यान है।
और हम जानते हैं भरे होने की कला, किसी भी तरह भरे होने की। अगर कुछ भी नहीं तो आदमी रेडियो खोलेगा, अखबार उठाएगा, चारों तरफ झांक कर देखेगा कि कोई मिल जाए और उससे बात करे। कुछ भी नहीं होगा...
मैं एक ट्रेन में सफर कर रहा था। मेरे डिब्बे में एक सज्जन और थे। तो मैं तो आमतौर से सफर में सोया ही रहता हूं। जैसे ही कमरे के अंदर गया कि मैं सो गया। वे सज्जन बड़े बेचैन दिखाई पड़े, क्योंकि वे इच्छा में होंगे कि मैं जागूं तो वे कुछ बात करें। फिर कोई आठ घंटे बाद मैं उठा, तो वे बिलकुल तैयार थे। उनकी तैयारी देख कर मैंने फिर आंख बंद कर ली। तो वे बहुत बेचैन हो गए। फिर मैं आंख बंद किए खयाल करता रहा कि वे क्या कर रहे हैं। वह कल से जो अखबार लिए थे, उसको कई बार पढ़ चुके थे, उसको उन्होंने फिर से पढ़ना शुरू किया। वह अखबार पढ़ चुके थे बहुत, उन्होंने फिर पढ़ना शुरू किया, फिर उसे नीचे पटक दिया।
मैं आंख बंद किए उनको बीच-बीच में देख लेता हूं कि वे क्या कर रहे हैं। उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही है, वे खिड़की खोलते हैं, फिर खिड़की बंद कर देते हैं, फिर सूटकेस से कुछ निकालते हैं, फिर अंदर कर देते हैं, फिर बाथरूम में जाते हैं, फिर बाहर आ जाते हैं।
फिर मुझे हंसी आ गई। तो उन्होंने कहा: आप क्यों हंसते हैं? और आप अजीब आदमी हैं कि चौदह घंटे होने आए, सोचा था कि कोई आ गया तो थोड़ा साथ होगा और आप हैं कि आंख ही बंद किए हुए पड़े हैं और मेरी जान घबड़ाई जा रही है! आप नहीं भी होते तो भी एक राहत थी कि चलो अकेले हैं।
मैंने कहा कि मैं भी अनुभव कर रहा हूं और बहुत आनंद ले रहा हूं, आपके काम देख रहा हूं। ये खिड़कियां आप क्यों बार-बार खोलते हैं? या तो खोलना है तो खोल लीजिए, बंद करना है तो बंद कर दीजिए। यह सूटकेस से आप क्या निकालते हैं बार-बार और अंदर रखते हैं?
उन्होंने कहा: कुछ भी नहीं कर रहा हूं। आप ठीक पहचान गए, मैं किसी भी तरह से कुछ करने की कोशिश कर रहा हूं, क्योंकि बिना किए मन बहुत घबड़ाता है। और सोएं भी कब तक?
आप भी अपने बाबत सोचेंगे तो ऐसी ही हालत पाएंगे, कुछ न कुछ। अगर तीन महीने आपके लिए सब-कुछ व्यवस्था कर दी जाए और कहें कि खाली बैठे रहें तीन महीने। आप कहेंगे, छत से कूद पड़ेंगे, फांसी लगा लेंगे। तीन महीने कह रहे हैं आप? तीन घंटे बहुत मुश्किल हैं!
कारागृहों में जो लोग बंद किए जाते हैं, उन्हें तकलीफ कारागृह की नहीं होती है। असली तकलीफ बेकाम हो जाने की होती है। इसलिए तो कारागृह में लोग गीता पर टीका लिखते हैं, गीता-रहस्य लिखते हैं, न मालूम क्या-क्या करते हैं। कोई न कोई काम चाहिए। तो कारागृह में जो लोग चले जाते हैं--किताबें पढ़ते हैं, किताबें लिखते हैं। कोई न कोई काम, खाली, खाली होना बहुत मुश्किल है।
और जो खाली नहीं हो सकता, वह ध्यान में नहीं जा सकता।
ध्यान के नाम पर भी लोग काम करते हैं। कोई माला फेरता है, कोई राम-राम जपता है, कोई आसन करता है, कोई शीर्षासन करता है। ध्यान के नाम पर भी कुछ करते हैं लोग, और ध्यान का करने से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि जब तक आप करते हैं, तब तक मन तनाव से भरा होता है।
जब आप कुछ भी नहीं करते, तब मन की झील बिलकुल मौन हो जाती है।
जब तक आप कुछ करते हैं, तब तक मन की झील पर तरंगें उठती रहती हैं। जब आप कुछ भी नहीं करते तो झील सो जाती है, शांत हो जाती है। उसी शांति से द्वार खुलता है। जब तक आप कुछ करते हैं, तब तक पुशिंग, धक्के जारी हैं। आप कुछ कर रहे हैं।
ध्यान रहे, करना मात्र बाहर ले जाने का दरवाजा है, न-करना भीतर जाने का।
अदभुत है यह बात। अगर कोई एक क्षण को भी ‘न-करने’ की हालत में रह जाए, तो पा लिया सब जो पाने जैसा है। खुल गए वे द्वार, जो सच में ही खुल सकते हैं सिर्फ। और पहुंच गए हम वहां, जहां जीवन की संपदा है। एक क्षण को भी न-करने से आदमी वहां पहुंच जाता है, जहां जन्मों-जन्मों तक करने पर कोई नहीं पहुंचता।
करने से आप सदा दूसरे तक पहुंच सकते हैं, करने से अपने तक नहीं पहुंच सकते। अगर आपके पास मुझे आना हो तो चलना पड़ेगा, क्योंकि आपके और मेरे बीच में फासला है। अगर नहीं चलूंगा तो फासला पूरा नहीं होगा। लेकिन मुझे मुझ तक ही जाना हो तो चलने की कहां जरूरत है--क्योंकि वहां कोई फासला नहीं है।
अगर दूसरे तक जाना है तो चलना जरूरी है। अपने तक जाना है तो रुक जाना जरूरी है।
अगर कुछ और पाना है तो कुछ करना जरूरी है। अगर खुद को ही पाना है तो करना जरूरी नहीं है। क्योंकि मैं हूं, मुझे करके पाने का कोई सवाल नहीं है। मैं हूं ही। जो है ही, उसे कुछ करके नहीं पाया जा सकता। जो नहीं है, उसे कुछ करके पाना होता है। अगर धन पाना है तो कुछ करना पड़ेगा, न-करने से धन नहीं मिल जाएगा। अगर यश पाना है तो कुछ करना पड़ेगा, न-कुछ करने से यश नहीं मिल जाएगा।
लेकिन अगर स्वयं को पाना है तो कुछ भी किया तो भटक जाइएगा, क्योंकि वह है, वह है ही। जब आपको लग रहा है कि नहीं मिला है, तब भी वह है। उसे कुछ करके पाने का सवाल नहीं है, उसे न-करके पाना होगा। और यह राज की बात ठीक से समझ लेनी चाहिए। दुनिया की सब चीजें करके पाई जाती हैं, सिर्फ स्वयं को न-करके पाया जाता है।
धर्म न-करने से उपलब्ध होता है, अधर्म करने से उपलब्ध होता है।
इसलिए कुछ भी करिए, अधर्म होगा। कुछ भी करिए, अधर्म होगा। मंदिर बनाइए तो अधर्म होगा, और धर्मशाला बनाइए तो अधर्म होगा, कुछ भी करिए, क्योंकि करना ही बाहर से जोड़ता है।
लेकिन एक बार न-करने की हालत मिल जाए तो वह मिल जाता है, जो धर्म है।
और यह और मजे की बात है कि जो न-करने को जान लेता है, फिर वह कर्ता है तो भी अकर्ता बना रहता है। फिर वह कुछ भी करता रहे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
महावीर भी चलते हैं, भोजन भी मांगते हैं, बोलते भी हैं, सोते भी हैं, उठते भी हैं, सब करते हैं; लेकिन अकर्ता बने रहते हैं, अब करने से कोई संबंध नहीं रहा।
अब करना ऐसे है, जैसे कोई अभिनेता किसी नाटक में काम कर रहा हो। वह सब करता है। और भीतर? भीतर कुछ भी नहीं करता है। वह राम बनता है और सीता के खो जाने पर छाती पीट कर रोता है। और भीतर? न वह छाती पीटता है, न वह रोता है। वह रावण बन जाता है और लंका के लिए लड़ता है और लंका-वंका जल जाती है और रात घर आकर मजे से सो जाता है। वह भीतर? भीतर कुछ नहीं छूता, अभिनय रह जाता है बाहर।
इसीलिए कृष्ण के चरित्र को हम चरित्र नहीं कहते हैं, कृष्ण के चरित्र को कहते हैं लीला। सबके चरित्र को चरित्र कह देते हैं। राम के चरित्र को चरित्र कहते हैं, लेकिन कृष्ण के चरित्र को चरित्र नहीं कहते हैं। और लीला और चरित्र में कुछ फर्क है। लीला का मतलब है: अभिनय। इसलिए कृष्ण जैसा अनूठा आदमी खोजना दुनिया में मुश्किल है। वह सब तरह के काम कर लेता है, क्योंकि उसे चरित्र का सवाल नहीं है। उसके लिए सब मामला लीला का है, वह किसी नाटक का हिस्सा है, इससे ज्यादा नहीं है। तो वह ऐसे काम कर लेता है, जिसकी हम कभी कल्पना नहीं कर सकते। कि दस औरतें मिल कर नाच रही हैं तो उनके बीच में खड़े होकर नाच लेता है। तो हमारी कल्पना के बाहर हो जाता है, यह आदमी क्या कर रहा है!
लेकिन कृष्ण कहते हैं, यह है लीला, इधर कोई चरित्र नहीं है। हम कुछ कर ही नहीं रहे हैं। भीतर ‘न-करना’ कायम है, बाहर सब ‘करना’ चल रहा है।
चरित्र एक दिन लीला बन जाए, उसी दिन से धर्म शुरू होता है। जब तक चरित्र बना रहे, तब तक हम अधर्म के हिस्से होते हैं। और चरित्र लीला उसी दिन बनता है, जिस दिन भीतर हम अकर्ता को अनुभव कर लेते हैं, जो बिना किए कुछ करने से मिलता है।
ध्यान इसलिए करना नहीं है और हमारी आदत है करने की। हम कुछ भी पूछें तो हम करने की आदत में हैं। जब कोई हमसे कहे, कहां जा रहे हो, तो हम यह भी कह सकते हैं कि ध्यान करने जा रहे हैं। हमारी आदत! वह हम ध्यान को भी जब कहेंगे, तो कहेंगे, ध्यान ‘करना’ है। लेकिन हमें पता ही नहीं कि ध्यान का करने से कोई भी संबंध नहीं है। ध्यान ‘न-करना’ है।
जापान में एक फकीर था और उसका एक छोटा सा आश्रम था। उसके आश्रम की बड़ी ख्याति थी। और खुद सम्राट जापान का उसके आश्रम को देखने गया। और वह फकीर आश्रम के एक-एक झोपड़े के सामने ले जाकर बताने लगा कि यहां भिक्षु स्नान करते हैं, यहां भिक्षु भोजन करते हैं, यहां भिक्षु विश्राम करते हैं। और सारे झोपड़ों में घूम आने के बाद--बीच में एक बड़ा भवन था--सम्राट बार-बार पूछने लगा उससे कि ठीक है, झोपड़ों में नहाते हैं--इस भवन में क्या करते हैं?
वह उस भवन की बात ही न करे, जैसे वह भवन है ही नहीं! फिर सम्राट घूम कर वापस द्वार पर आ गया और वह जो बड़ा भवन था बीच में उसकी उसने बात भी नहीं उठाई उस भिक्षु ने।
सम्राट क्रोध से भर गया। द्वार पर अपने घोड़े पर बैठते हुए उसने कहा कि या तो तुम पागल हो या पागल मैं हूं। तुम्हारा आश्रम देखने आया था, तुमने मुझे झोपड़े दिखाए कि यहां भिक्षु खाना बनाते हैं, यहां स्नान करते हैं--क्या जरूरत है इनको दिखाने की? और वह जो बड़ा भवन बीच में खड़ा है, मैं तुमसे पच्चीस बार पूछा कि यहां क्या करते हैं और तुम ऐसे बहरे हो जाते हो कि जैसे तुमने सुना ही नहीं!
वह भिक्षु फिर भी हंसने लगा। उसने कहा: नमस्कार!
सम्राट ने कहा: तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता है कि मैं पूछता हूं, उस भवन में क्या करते हैं?
उस भिक्षु ने कहा: माफ करिए, आप गलत प्रश्र्न पूछते हैं तो मैं उत्तर कैसे दूं, क्योंकि उत्तर गलत प्रश्र्न का देने से गलत ही हो जाता है। आप प्रश्र्न ही गलत पूछते हैं। उस भवन में हम कुछ भी नहीं करते हैं। आप पूछते हैं, वहां क्या करते हैं, तो मैं समझ गया कि यह आदमी करने की भाषा समझता है। तो मैंने आपको दिखाया कि यहां स्नान करते हैं, यहां भोजन करते हैं। मैं समझ गया कि यह आदमी करने की भाषा समझने वाला आदमी है। यह न-करने की भाषा नहीं समझ सकता। वहां हम कुछ भी नहीं करते हैं और तुम पूछते हो कि वहां क्या करते हैं! तो मैं चुप रह जाता हूं कि अब मैं क्या कहूं।
तो सम्राट ने कहा: कुछ भी नहीं करते! कुछ तो करते होंगे? यह बनाया किसलिए है?
उसने कहा: आप माफ करिए। फिर आप कभी आना। वहां सच में ही हम कुछ नहीं करते। बनाया जरूर है। और अगर मैं आपसे कहूं तो शायद आप नहीं समझ पाएंगे। वह हमारा ध्यान-भवन है, मेडिटेशन हॉल है।
तो सम्राट ने कहा: ठीक है, तो यह क्यों नहीं कहते कि ध्यान करते हैं?
उस फकीर ने कहा: यही मुश्किल है। स्नान किया जा सकता है, भोजन किया जा सकता है, व्यायाम किया जा सकता है, ध्यान नहीं किया जा सकता।
‘न-करने’ का नाम ध्यान है।
हम भी स्नान करने की भाषा समझते हैं। तो हम सोचते हैं कि ध्यान करना भी कोई एक क्रिया होगी। कई नासमझ तो यह भी समझाते हैं कि वह भीतरी स्नान है, आत्मिक स्नान है। जैसी शीतलता नहाने से मिलती है, वैसी शीतलता ध्यान से भी मिलती है। लेकिन करने की भाषा में जब तक आप समझेंगे, आप नहीं समझ पाएंगे, क्योंकि करने की भाषा की आदत ही बाधा है।
तो इन तीन दिनों में इस बात पर खूब खयाल रख लेना कि जो वह ध्यान करना जिसे कह रहे हैं, वह न-करना है। उस वक्त कुछ भी नहीं करना है। सब करना छोड़ देना है। सिर्फ रह जाना है। यह हमें खयाल में नहीं आता। हम रास्ते पर चलते हैं, वह चलना हुआ; भोजन करते हैं, वह भोजन करना हुआ; सोते हैं, वह सोना हुआ; बैठते हैं, वह बैठना हुआ; उठते हैं, वह उठना हुआ--ये सब क्रियाएं हुईं। इन सारी क्रियाओं को करने वाला भीतर कोई है।
जब हम क्रिया कर सकते हैं तो अक्रिया क्यों नहीं कर सकते हैं? अगर मैं हाथ खोल सकता हूं तो हाथ बंद क्यों नहीं कर सकता? अगर मैं आंख खोल सकता हूं तो आंख बंद क्यों नहीं कर सकता? जो भी हम कर सकते हैं, उससे उलटा भी हो सकता है।
अब तक हमने जीवन में करने की ही एकमात्र दिशा जानी है, न-करने की हमने कोई दिशा नहीं जानी। तो हमें पता ही नहीं! जब हम कहते हैं किसी से प्रेम की बात, तो भी हम उससे कहते हैं कि मैं प्रेम करता हूं! हालांकि जिनको भी कभी प्रेम का अनुभव हुआ होगा, उन्हें पता है कि प्रेम किया नहीं जाता। वह क्रिया नहीं है।
आप प्रेम कर ही नहीं सकते। या करें कोशिश--आधा घड़ी किसी को पास बिठाल लें और प्रेम करने की कोशिश करें। तो आधा घड़ी में सिर पच जाएगा, उसका भी और आपका भी। और पता चलेगा कि नहीं, किया नहीं जा सकता।
प्रेम घटता है। प्रेम होता है, किया नहीं जा सकता।
लेकिन हम तो प्रेम को भी करने की भाषा में सोचते हैं। हमारी करने की आदत इतनी मजबूत हो गई है कि हम जो भी सोच सकते हैं, वह करने की भाषा में ही सोच सकते हैं। हम तो यह भी कहते हुए सुने जाते हैं कि श्र्वास लेते हैं। हालांकि आपने कभी श्र्वास नहीं ली अपने जीवन में अभी तक और न कभी आप ले सकते हैं। श्र्वास चलती है। और अगर आप श्र्वास लेते होते फिर तो मरना मुश्किल हो जाता, मौत दरवाजे पर खड़ी हो जाती और आप कहते कि खड़ी रहो, हम तो श्र्वास ले रहे हैं, हम श्र्वास लेते रहेंगे। लेकिन हमें पता है, मौत द्वार पर आ जाए--फिर श्र्वास-वास लेते नहीं; गई, गई। आई तो आई, नहीं आई तो नहीं आई। श्र्वास किसी आदमी ने कभी नहीं ली। लेकिन हम ब्रीदिंग को भी क्रिया बनाए हुए हैं। कहते हम ऐसे ही हैं, जैसे कि श्र्वास-प्रश्र्वास भी एक क्रिया है। क्रिया नहीं है, एक घटना है। हम नहीं कर रहे हैं उसे, हो रही है।
वह जो हमारे भीतर से भीतर जो बैठा हुआ है, उसे करने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह है। और वह सदा से है। और उसके मिटने का भी कोई उपाय नहीं है। वह सदा होगा। उसका होना अगर जानना है तो करने से मुक्त हुए बिना जानना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जब तक हम करने में उलझे होते हैं, तब तक होने का पता नहीं चलता। करना यानी डूइंग और होना यानी बीइंग। जो आदमी डूइंग में उलझा हुआ है, उसको पता नहीं चलता कि क्या है भीतर, कौन है भीतर। जब सारी क्रिया छूट जाती है, एक क्षण को भी, सिर्फ होना रह जाता है--जैसे हवाएं चल रही हैं और वृक्ष है, पत्ते हिल रहे हैं। लेकिन वृक्ष पत्ते हिला नहीं रहा है; हवाएं चल रही हैं, वृक्ष के पत्ते हिल रहे हैं; श्र्वास चल रही है--यह सब हो रहा है।
ध्यान की अवस्था का मतलब है: होने में छूट जाएं। जो हो रहा है, होने दें। विचार भी चल रहे हैं, तो चलने दें। आप कौन हैं रोकने वाले? जो हो रहा है होने दें। लेट इट बी। जो भी हो रहा है--पत्ते हिल रहे हैं, हवा चल रही है, आकाश में तारे निकले हैं; कोई बच्चा रो रहा है, कोई पक्षी चिल्ला रहा है; भीतर विचार चल रहे हैं, धड़कन चल रही है, श्र्वास चल रही है, खून बह रहा है--सब चल रहा है। इस सब चलने को होने दें। आप कुछ भी न करें, आप बस रह जाएं। अगर एक क्षण को भी--यह एक क्षण का स्पंदन भी अनुभव हो जाए रह जाने का--तो ध्यान में गति हो गई। वह जो भीतर खुलने वाला द्वार है, वह खुल गया। उसकी एक झलक मिल जाए, फिर कठिनाई नहीं है, फिर हम पहचान गए रास्ता, फिर तो हम जा सकेंगे और गहरे, और गहरे, और गहरे।
तो करने की आदत से थोड़ा सावधान होना चाहिए। यहां भूल कर भी कोई यह सोच कर न आए कि हम ध्यान करने जा रहे हैं।
कल सुबह से हम बैठेंगे ध्यान के लिए।
अब बैठेंगे, वह भी क्रिया है; करेंगे, वह भी क्रिया है; आएंगे, जाएंगे, वह भी क्रिया है।
आदमी की सारी भाषा क्रिया है और परमात्मा की भाषा अक्रिया है।
परमात्मा कुछ भी नहीं कर रहा है। वे जो लोग कहते हैं कि परमात्मा ने दुनिया को बनाया है, निहायत नासमझ हैं, क्योंकि वे अपनी भाषा में सोच रहे हैं--करने की भाषा में--कि परमात्मा ने दुनिया बनाई, जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है।
कुम्हार घड़ा बनाता है, परमात्मा ने दुनिया कभी नहीं बनाई। परमात्मा से दुनिया बन रही है। यह कोई कांशस एक्ट नहीं है। यह कोई क्रिया नहीं है परमात्मा की कि बैठा है कहीं और दुनिया बना रहा है। दुनिया बन रही है। यह बनने की घटना घट रही है। कोई बना नहीं रहा कहीं बैठ कर। जैसे आप श्र्वास ले रहे हैं, बस ऐसे ही सारा जीवन का प्रवाह चल रहा है। करने का भ्रम सिर्फ आदमी को पैदा हो गया है! न पक्षियों को यह भ्रम है, न पौधों को यह भ्रम है, न आकाश के बादलों को यह भ्रम है, न चांद-तारों को यह भ्रम है; किसी को यह भ्रम नहीं है। आदमी को यह भ्रम है कि हम करते हैं और यह करने का भ्रम जीवन पर पत्थर की तरह बैठ जाता है।
इससे बड़ा कोई झूठ नहीं है कि हम करते हैं। सब होता है। और जिस व्यक्ति को ध्यान में जाना है, उसे ठीक से समझ लेना चाहिए कि सब हो रहा है। तो यह भी कोशिश मत करें कि मैं शांत हो जाऊं, क्योंकि शांत होने की कोशिश से ज्यादा अशांत करने वाली दुनिया में और कोई चीज नहीं है। यह भी कोशिश मत करें कि मैं पवित्र हो जाऊं। यह भी कोशिश मत करें कि मैं भगवान को उपलब्ध हो जाऊं। आपकी कोई कोशिश कारगर नहीं होगी। उस दिशा में कोई कोशिश कारगर नहीं होती है। वहां कोई एफर्ट नहीं चलता। वहां कोई प्रयत्न नहीं चलता। वहां कोई प्रयास नहीं चलता। वहां तो वे पहुंच जाते हैं, जो कुछ भी नहीं करते। वे पहुंच जाते हैं जो कुछ भी नहीं करते! जिनका यह भ्रम ही छूट जाता है कि हम कुछ कर सकते हैं।
तो इन आने वाले तीन दिनों में इस बात पर बहुत ध्यानपूर्वक इसका बोध--इस बोध को जितना गहरा होने देंगे उतना ध्यान में परिणाम होगा।
ध्यान के लिए हम सुबह बैठेंगे, रात बैठेंगे और तीन दिन उसी द्वार पर मेहनत करनी है--वहीं। लेकिन चौबीस घंटे आप यहां होंगे तीन दिन। तो इन तीन दिनों में यह दरवाजा चूक न जाए, उसके लिए खयाल रखें। चौबीस घंटे बोध रखें कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं, हो रहा है। चल रहा हूं, तो समझें कि चल रहा हूं, यह हो रही है क्रिया। श्र्वास ले रहा हूं, तो यह हो रहा है। भूख लगी है, तो हो रही है। प्यास लगी है, तो हो रही है।
तीन दिन सतत इस बात का स्मरण रहे कि चीजें हो रही हैं। मैं कर नहीं रहा हूं। आप हैरान हो जाएंगे, इतनी विश्राम की दशा चित्त को उपलब्ध हो जाएगी, इतना शांत हो जाएगा सब, इतना ठहर जाएगा भीतर कुछ, इतनी गहराई पैदा होगी, जो कभी नहीं खयाल में आई थी कि इतनी गहराई भी हो सकती है। और वह द्वार... फिर ध्यान के लिए हम बैठेंगे तो उसमें वह झलक शीघ्रता और गति से पैदा हो जाएगी।
लेकिन चौबीस घंटे जो भी हो रहा है, उसको इस तरह लें कि वह हो रहा है। और सच में वह हो ही रहा है। वही है सत्य। कभी आपने भूख लगाई है आज तक? कभी नींद ला सके हैं आप? वह सब हो रहा है। कभी एकाध दिन नींद लाने की कोशिश करें--तो उस रात नींद नहीं आएगी जिस रात आप नींद लाने की कोशिश करेंगे! जिनको नींद नहीं आती, उनका यही कारण है कुल जमा कि वे नींद लाने की कोशिश में बुरी तरह दीवाने हैं। अब नींद लाने की कोशिश से नींद आ सकती है कभी? सब कोशिश नींद को तोड़ देगी, क्योंकि नींद विश्राम है और कोशिश श्रम है। कहीं भूख लग सकती है लगाने से, कि प्यास लग सकती है, कि प्रेम जग सकता है, कि श्र्वास चल सकती है? कुछ भी नहीं।
जिंदगी का जो भी गहरा है वह चुपचाप हो रहा है, वह अपने आप हो रहा है। फूल खिल रहे हैं अपने आप, कोई गुलाब फूल खिला नहीं रहा है। और कोई गुलाब का अगर दिमाग खराब हो जाए और फूल खिलाने लगे, तो फिर समझ लेना कि उसमें फूल नहीं खिलेंगे। फूल खिलते हैं।
पूरी जिंदगी सहज एक धारा है, सिर्फ आदमी के दिमाग को छोड़ कर। वहां एक जिच पैदा हो गई है। वहां एक पत्थर खड़ा हो गया है। और वह पत्थर ने सारी अटकलें डाल दी हैं। वह पत्थर यह खड़ा हो गया है कि हम कर रहे हैं! तो हम ध्यान भी करते हैं, प्रार्थना भी करते हैं! और यह सब करने में लग जाते हैं और सब उलझ जाता है। कहीं भी हम भीतर नहीं पहुंच पाते हैं।
इन तीन दिनों में नहीं हम कुछ कर रहे हैं, बस हैं। इसका भाव जितना गहरा हो सके।
अभी यहां से जाते वक्त भी, चलते वक्त ऐसा ही अनुभव करना कि चलना हो रहा है। होटल की तरफ आप जा नहीं रहे हैं, जाना हो रहा है। आपका सारा व्यक्तित्व जा रहा है। सोने के लिए बिस्तर पर जा रहा है, आपका सारा व्यक्तित्व--आप नहीं ले जा रहे हैं।
यह उतनी ही प्राकृतिक घटना है, जैसे हवा चली हो और पत्ते हिल रहे हों। इसी तरह आप दिन भर में थक गए हैं और शरीर का रोआं-रोआं मांग कर रहा है कि बस, बस, अब बस। वह पूरा शरीर मांग कर रहा है, सो जाओ। वह आपकी मांग नहीं है, यह उतनी ही प्राकृतिक मांग है, जैसे कोई कली फूल बन रही हो, जैसे कोई पत्ता सूख गया हो और हवा में गिर गया हो। यह उतनी ही प्राकृतिक घटना है, यह उतनी ही सहज घटना है। जब पेट में भूख लगती है तो कोई आप नहीं कुछ कर रहे हैं, वह सब प्राकृतिक हो रहा है। यह उतनी ही जैसे कि पानी गर्म हो जाए और भाप बन कर उड़ने लगे, तो हम यह थोड़े ही कहेंगे कि पानी भाप बन कर उड़ रहा है। हम कहते हैं कि पानी भाप बन गया है।
जिंदगी के जो नियम चारों तरफ हैं, वे ही नियम हम पर भी हैं। हम जिंदगी में कोई अपवाद नहीं हैं। आदमी प्रकृति का एक हिस्सा है। और जो व्यक्ति यह समझ लेगा कि हम प्रकृति के एक हिस्से हैं, वह इसी वक्त ध्यान में जा सकता है--इसी क्षण। क्योंकि तब यह खयाल मिट गया है कि कुछ हमें करना है। तब चीजें होंगी।
ध्यान आएगा, आप ला नहीं सकते हैं।
और ध्यान आए, और उस द्वार से आप चूक न जाएं तो उसके लिए कुछ स्मरण रख लेना है।
पहला: यह कर्तृत्व का, करने का, डूअर का खयाल बिलकुल जाने दें। अगर कभी ध्यान की दुनिया में प्रवेश करना है, तो मैं कुछ कर सकता हूं, यह खयाल जाने दें। इन तीन दिनों में स्मरण रखें। और बहुत अदभुत अनुभव होंगे। अगर चलते वक्त आपको यह खयाल आ जाए कि मैं चल नहीं रहा हूं, यह चलाने की क्रिया उसी तरह हो रही है जैसे चांद चल रहा है, पृथ्वी चल रही है, तारे चल रहे हैं। ठीक यह उसी तरह चलने की क्रिया हो रही है।
यह ‘मैं’ चल नहीं रहा हूं; यह सारा का सारा जगत जैसे चल रहा है, उसी चलने में मेरा चलना भी एक हिस्सा है। तो आप एकदम चौंक कर, कुछ नया ही अनुभव करेंगे, जो आपने कभी अनुभव नहीं किया था। आप पहली दफा पाएंगे कि यह तो कुछ और ही बात हो गई--कोई दूसरा आदमी खड़ा है, आप नहीं हैं। खाना खाते वक्त खाने की क्रिया हो रही है, स्नान करते वक्त स्नान की क्रिया हो रही है।
चीजें हो रही हैं, आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
अनायास एक गहरी शांति चारों तरफ घेर लेगी, भीतर एक सन्नाटा छा जाएगा। और इन तीन दिनों में कोई कारण नहीं है कि जिस द्वार से हम आमतौर से बच कर निकल जाते हैं, उस द्वार पर हम रुक जाएं। वह द्वार हमें दिख जाए, हम बाहर हो जाएंगे। यह हो सकता है, यह हुआ है, यह किसी को भी हो सकता है। और इसके लिए कोई विशेष पात्रता नहीं चाहिए। इसके लिए कोई विशेष पात्रता नहीं चाहिए! बस एक मिटने की पात्रता चाहिए।
वह जो होने का खयाल बहुत ज्यादा है कि ‘मैं’ हूं। वही बाधा डालता है और कोई बाधा नहीं डालता है। न कोई पाप रोकता है किसी को, न कोई पुण्य किसी को पहुंचाता है। पाप भी रोकता है, क्योंकि पापी का खयाल है कि मैं कर रहा हूं। और पुण्य भी रोकता है, क्योंकि पुण्यात्मा का खयाल है कि मैं कर रहा हूं। अगर पापी का यह खयाल मिट जाए कि मैंने किया और पापी भी अगर यह जान ले कि हुआ तो पापी भी इसी वक्त पहुंच जाएगा--इसी क्षण। और पुण्यात्मा को अगर पता चल जाए कि हुआ, तो पुण्यात्मा भी इसी क्षण पहुंच जाएगा।
न पाप रोकता है, न पुण्य पहुंचाता है। ‘मैं कर रहा हूं’--यह अस्मिता, यह अहंकार भर रोकता है।
पापी को भी यही रोकता है, पुण्यात्मा को भी यही रोकता है। वह कर्तृत्व का खयाल रोकता है। और हम कर्तृत्व के खयाल से इतने भरे हैं कि हमें लगता है कि अगर हम थोड़ी देर कुछ न करेंगे तो मिट ही न जाएंगे, मर ही न जाएंगे, वेजिटेट न करने लगेंगे अगर हम कुछ न करेंगे थोड़ी देर।
लेकिन बिना कुछ किए कितना बड़ा संसार चल रहा है; बिना कुछ किए कितना विराट आयोजन चल रहा है! बिना कुछ खबर दिए, बिना कोई इशारा किए कितने तारे चल रहे हैं! कितनी पृथ्वियां होंगी तारों में, कितना जीवन होगा--अंतहीन है! कुछ पता नहीं! इतना सब चल रहा है बिना किसी के कुछ किए!
अगर भगवान कुछ करता तो भूल-चूकें भी होतीं। करने में भूल-चूकें होती हैं। कभी भगवान की नींद भी लग जाती, दो तारे टकरा जाते, कभी गलत सूचना मिल जाती, डिरेलमेंट हो जाता, न मालूम क्या-क्या होता! लेकिन भगवान कुछ नहीं कर रहा, इसलिए कोई गलती नहीं होती। न-करने में गलती हो कैसे सकती है? चीजें हो रही हैं, चीजों का एक सहज स्वभाव है, उससे हो रही हैं।
धर्म का अर्थ है: स्वभाव। और स्वभाव का अर्थ है: जो होता है, किया नहीं जाता।
ध्यान स्वभाव में ले जाने का द्वार है। और इसलिए ध्यान, करने से नहीं होता है। इसलिए जहां-जहां लोग सिखाते हैं कि माला फेरो, ध्यान हो जाएगा; राम-राम जपो, ध्यान हो जाएगा; ओम जपो, ध्यान हो जाएगा; गायत्री पढ़ो, ध्यान हो जाएगा--उन्हें किसी को भी कुछ पता नहीं कि ध्यान का मतलब क्या है।
ध्यान कुछ भी करने से नहीं होता। ध्यान न-करने से होता है। कुछ न करो और ध्यान हो जाएगा।
कुछ कर रहे हैं हम, इसलिए ध्यान नहीं हो पा रहा है। कुछ कर रहे हैं और उस करने में उलझे हैं, इसलिए ध्यान नहीं हो पा रहा है।
बुद्ध के जीवन की घटना बहुत अदभुत है। बुद्ध ने छह वर्ष तक कठिन तपश्र्चर्या की। जो भी किया जा सकता था, वह बुद्ध ने किया। उपवास किए, शरीर को दमन किया। और ऐसी शरीर की हालत हो गई कि नदी में नहाने उतरे थे तो घाट पकड़ कर चढ़ने की हिम्मत न रही। तो एक जड़ को पकड़ कर लटक गए, बेहोशी आ गई। इतनी भी ताकत न थी शरीर में। छह वर्ष जो भी किया जा सकता था, सब किया। और मजा यह है कि छह वर्ष में कुछ भी नहीं मिला। कुछ मिला ही नहीं, कुछ कौड़ी भर कुछ भी नहीं मिला बुद्ध को। फिर उस नदी में नहाते वक्त, निरंजना में नहाते वक्त बेहोशी आ गई, कमजोरी के कारण।
शरीर बिलकुल हड्डियां रह गया था। तो खयाल आया बुद्ध को, उस बेहोश होते हुए क्षण में: कि नदी पार नहीं कर सकता हूं और भवसागर पार करने की कोशिश कर रहा हूं! कैसे होगा? नदी का पार करना भी मुश्किल हो गया है। तो छह वर्ष जो भी किया था, प्रतीत हुआ व्यर्थ गया। कुछ सार नहीं पाया, कुछ मिला नहीं। तो उस दिन थक कर सब छोड़ दिया। निकल कर नदी के पार किनारे एक वृक्ष के नीचे बैठे थे, तो एक लड़की ने, सुजाता ने खीर दी। वह बुद्ध को नहीं दी थी खीर। उसने कुछ मनौती मानी थी उस झाड़ के देवता के लिए। और जब सांझ वहां आई तो बुद्ध को देख कर वह समझी कि देवता प्रसन्न हुआ है और झाड़ से निकला है। बुद्ध दूसरे दिन कभी वह आई होती तो उपवासे रहते। आज उन्होंने सब छोड़ दिया है। भूख लगी थी।
भूख लगानी थोड़े ही पड़ती है। उपवास करना पड़ता है। भूख लगती है। ध्यान रहे, उपवास करना पड़ता है। और करने में कभी धर्म नहीं हो सकता है, क्योंकि करना हमारा किया हुआ है। उससे अहंकार मजबूत होता है। इसलिए उपवास करने वाले अखबारों में खबर छपाते हैं कि फलाने महाराज ने इतने उपवास किए। लेकिन फलाने महाराज को इतनी भूख लगी है इसको छपाने की तो कोई जरूरत नहीं, क्योंकि भूख लगती है। उसमें महाराज के करने जैसा कुछ भी नहीं है, वह अपने आप आती है। वह भगवान से आती है। इसलिए भूख का कोई हिसाब नहीं रखता है, उपवास का हिसाब रखना पड़ता है। वह हमारा किया हुआ धन है।
तो उस दिन तो बुद्ध ने करना छोड़ दिया था। थक गए थे। और कहा, छह वर्ष बहुत कर लिया। अब कुछ नहीं करना है। वृक्ष के नीचे बैठे थे, भूख लगी थी। उस लड़की ने कहा कि लाई हूं खीर। पेट ने कहा कि लो--तो बुद्ध ने खीर ले ली।
यह पहला मौका था, जब उन्होंने भोजन के साथ सरल व्यवहार किया। सरल व्यवहार भोजन के साथ भी नहीं होता है, उसमें भी कठिनाई है। कौन लाया! सुजाता तो शूद्र थी, बुद्ध ने नहीं पूछा कौन लाया, क्योंकि भूख बिलकुल नहीं जानती कि शूद्र ने बनाया कि ब्राह्मण ने बनाया। वह सिर्फ आदमी का अहंकार जानता है--किसने बनाया! कौन लाया! क्या है! वह तो कुछ, भूख तो कुछ जानती नहीं। भूख के लिए न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र है। भूख के लिए भोजन चाहिए।
बुद्ध ने पूछा ही नहीं कि तू कौन है! सुजाता नाम था उसका। उससे ही पता चल जाता है कि वह शूद्र थी, नहीं तो सुजाता नाम नहीं रखती। हमेशा हमारे सब नाम उलटे होते हैं न। जो हम नहीं होते, उसको नाम में बताने की कोशिश करते हैं। वह अच्छी जाति से पैदा नहीं हुई थी, इसलिए सुजाता नाम रहा होगा। अच्छी जाति वाला आदमी काहे के लिए सुजाता नाम रखेगा। वह जो भीतर है, उसको छिपाने की कोशिश चलती है।
नहीं पूछा बुद्ध ने। भूख लगी थी, कहा, ठीक है, भोजन कर लिया। फिर नींद आई, सो गए।
यह नींद के साथ भी पहला सदव्यवहार था। इसके पहले इतनी देर सोना चाहिए और इतने वक्त सोना चाहिए और इतने वक्त उठना चाहिए, ये सब नियम-उपनियम थे।
आज नींद आई तो बुद्ध सो गए। आज उन्होंने नहीं कहा कि अभी नहीं, अभी मेरा समय नहीं हुआ। और अभी सो जाऊंगा तो फिर ज्यादा नींद हो जाएगी।
साधु-संन्यासियों के नियम होते हैं। इसलिए साधु-संन्यासी कभी कहीं नहीं पहुंचते। नियम वाला आदमी कहीं पहुंच ही नहीं सकता, क्योंकि नियम वाला आदमी आदतें बनाता है।
स्वभाव के नियम होते हैं अपने। उसको हमें नहीं जानना पड़ता। जब नींद आई तो शरीर कह रहा है, प्राण कह रहे हैं, सो जाओ। और जब जागने का वक्त आएगा तो शरीर कहेगा, प्राण कहेंगे, उठ आओ। न अपनी तरफ से सोना, न अपनी तरफ से जागना। और तब वह नींद उपलब्ध होगी जो परमात्मा की है। जब शरीर कहे, भोजन कर लो, तो कर लेना। जब भूख कहे, खा लो, तो खा लेना; जब भूख कहे, नहीं, तो रुक जाना। तब वह भूख मिलेगी जो परमात्मा की है।
नहीं तो फिर हमारी अपनी कृत्रिम, आर्टिफिशियल भूखें भी हैं। जो कि हम घड़ी में देख कर कि ठीक दस बज गए, समय हो गया भोजन का। वह हमारी भूख है। अगर घड़ी किसी ने एक घंटा पीछे कर दी और आपको पता न हो तो आपको जब दस बजेंगे तब भूख लग जाएगी। हालांकि अभी नौ बजे हैं या ग्यारह बज गए हैं। वह घड़ी देख कर भूख चलती है। यह भूख हमारी है!
तो बुद्ध को नींद आई, सो गए। आज उन्होंने सब छोड़ दिया था। सब, जो किया था, सब छोड़ दिया। आज उन्होंने तय कर लिया था कि अब कुछ करूंगा ही नहीं, छह साल बहुत कर लिया, ठीक, नहीं करने से होता। उन्हें पता भी नहीं था कि जो करने से नहीं हुआ, वह नहीं करने से हो सकता है--यह उन्हें पता भी नहीं था। उस रात वे सो गए, नींद आई। सुबह पांच बजे के करीब नींद खुली, आंख खुली, आखिरी तारे डूबने के करीब थे आकाश में। वे उसी वृक्ष के नीचे पड़े उन डूबते हुए तारों को देखते रहे--एक-एक तारा डूबता गया। सन्नाटा सुबह का, रात की गहरी नींद। सब करने का खयाल छोड़ दिया, कुछ करने को न बचा।
राजा थे, वह तो छोड़ चुके थे छह साल पहले। वह सब धन, यश की दौड़ तो छह साल पहले छोड़ दी थी। फिर नई दौड़ पकड़ ली थी मोक्ष की, निर्वाण की। आज वह भी छूट गई। अब करने को कुछ भी नहीं था। बिलकुल अनऑक्युपाइड, अनइंप्लाइड--जिसको कहना चाहिए बिलकुल बेकार। यह जो बेकार है, वह कोई बेकार नहीं है, क्योंकि कुछ न कुछ करता है।
बुद्ध उस दिन बिलकुल बेकार थे, एब्सल्यूट अनइंप्लाइमेंट, पूर्ण बेकार जिसको कहना चाहिए--न कोई राज्य था, न कोई धन था, न कोई यश था, न कोई धर्म था, न कोई मोक्ष था, न कोई परमात्मा था, न कोई आत्मा थी। कुछ पाना नहीं था। कुछ नहीं था। खाली बैठे थे।
वह आखिरी तारा डूबा और बुद्ध खड़े हो गए और वह मिल गया! जो छह साल कोशिश करने से नहीं मिला था!
और जब लोग पूछने आए कि कैसे मिला? तो बुद्ध ने कहा: यह मत पूछो कि कैसे मिला। क्योंकि ‘कैसे’ तो बहुत कोशिश की, नहीं मिला। आज कैसे मिला, कहना मुश्किल है, क्योंकि मैंने कुछ किया ही नहीं था। आज मैं था ही नहीं--आज तो मैं था ही नहीं, क्योंकि मैं कुछ कर ही नहीं रहा था, लेकिन हो गया। और तब बुद्ध बाद में कहने लगे: करने से नहीं मिलेगा, न-करने से मिलता है।
जब भी मिला है, न-करने से मिला है।
लेकिन बुद्ध को समझने वाले कोशिश करते हैं, तो वे देखते हैं कि क्या-क्या किया बुद्ध ने। वह जो छह साल किया, वही उनके भिक्षु कर रहे हैं। और वह जो आखिरी रात नहीं किया था, वह तो पकड़ में नहीं आता। क्योंकि ‘न-करने’ का क्या मतलब?
तो वह छह साल जो किया था, वह चल रहा है सारी दुनिया में। उपवास किए थे, यह किया था, वह किया था। लेकिन वह बात चूक गई। जो हुई थी घटना, वह न-करने में हुई थी। वह करने में कभी हुई नहीं थी। चाहे छह साल करो और चाहे छह लाख साल करो, करने में वह कभी नहीं होती है। वह हमेशा न-करने में होती है, क्योंकि जो भीतर है, वह तो है ही। तुम करने में उलझे हो, तो वह दिखाई नहीं पड़ता। करना छूट गया, तुम बिलकुल खाली हो, उसके दर्शन हो जाते हैं।
इतना ही सरल है। लेकिन कठिन बहुत, क्योंकि हमारी आदत करने की है।
तो इन तीन दिनों में न-करने की ओर कदम उठाना, करने का खयाल ही छोड़ देना। कुछ करना ही मत, तीन दिनों में जो हो, होने देना। जब भूख लगे तब खाना खा लेना, जब नींद आए तब सो जाना। अपनी तरफ से बोलना भी मत, अपनी तरफ से मौन भी मत होना। जब बोलने का मन हो बोल लेना, जब मौन का मन हो मौन हो जाना। जब मौन का मन हो तो चाहे सारी दुनिया कहे कि बोलो तो मत बोलना। और जब बोलने का मन हो तो अगर कोई भी न बोलता हो तो जाकर दरख्तों से बोल लेना। जो हो, उसे होने देना। अपने को ऐसे छोड़ देना जैसे सूखा पत्ता हवाओं में छोड़ देता है--हवाएं पूरब जाती हैं, पत्ता पूरब चला जाता है; हवाएं पश्र्चिम जाती हैं, पत्ता पश्र्चिम चला जाता है; हवाएं आकाश में उठा देती हैं, पत्ता ऊपर उठ जाता है; हवाएं नीचे गिरा देती हैं, पत्ता नीचे गिर जाता है।
लाओत्सु से किसी ने पूछा: तूने कैसे पाया? उसने कहा: मैं सूखा पत्ता हो गया। हवाएं जहां ले जाने लगीं, हमने कहा, चलो। हमने अपनी जिद छोड़ दी कि इधर जाएंगे। हवाएं जहां जाने लगीं, हमने कहा, वहीं चलेंगे। और जैसे ही हमने छोड़ दी जिद, वैसे ही हमने पा लिया।
एफर्ट से नहीं, एफर्टलेसनेस से। प्रयत्न से नहीं, निष्प्रयत्न से। कर्म से नहीं, अकर्म से। चेष्टा से नहीं, निश्र्चेष्टा से। दौड़ने से नहीं, रुकने से। खोजने से नहीं, खड़े हो जाने से।
तो इन तीन दिन... तो धीरे-धीरे आखिरी तारे डूबते चले जाएंगे, फिर आखिरी तारा भी डूब जाएगा और मौन सन्नाटा रह जाएगा। फिर यहां तो हम विधिवत बैठेंगे। और विधि बड़ी गड़बड़ चीज है, उससे कोई संबंध नहीं है। यहां तो ठीक वक्त बैठेंगे, मीटिंग होगी, ध्यान करेंगे। वह ध्यान उतने काम का नहीं होगा। कभी मन हो जाए, अभी रात यहां से जाओ और मन हो जाए तो मत जाना बिस्तर पर, बैठ जाना किसी वृक्ष के नीचे घंटे-दो घंटे, रात भर भी तो क्या बिगड़ सकता है।
एक रात सुकरात पकड़ा गया, रात भर एक झाड़ के नीचे था। घर भर के लोग परेशान हो गए कि सुकरात कहां है? सब जगह खोजा। मित्रों के घर में खोजा, मित्रों के घर में नहीं था। उन्होंने कहा: आज सुकरात दिन भर से दिखाई नहीं पड़ा, हम खुद भी चिंतित हैं कि वह कहां है? बाजारों में खोजा। लेकिन दुकानें बंद होने के करीब आ गई थीं। सुकरात कहीं भी नहीं था। फिर तो बहुत घबड़ा गए, रात भर लोग जगते रहे कि सुकरात गया कहां?
सुबह-सुबह किसी ने खबर दी कि वह एक वृक्ष के नीचे खड़ा है और उसकी आंखें ठहर गई हैं। उसकी पलक झपकती नहीं और वह आकाश को देख रहा है। और हमें डर लगता है कि उसको छूना भी कि नहीं, क्योंकि वह ऐसी हालत में खड़ा है रात भर से।
घर के लोग गए। उसे देखा लोगों ने और लोग चुपचाप बैठ गए। किसी की हिम्मत न पड़ी कि उसके पास जाकर उसे हिलाएं, क्योंकि वह इतना शांत था।
अगर बहुत शांत आदमी के पास अशांत आदमी भी जाए तो बैठ जाता है।
फिर सुकरात हिला-डुला। सुबह हो गई, सूरज निकल आया, फिर वह घर की तरफ चल पड़ा, तो वे लोग चिल्लाए कि तुम हमें देख भी नहीं रहे हो, हम कब से तुम्हारे यहां बैठे हैं, और तुम कर क्या रहे थे? क्या हो गया तुम्हें?
सुकरात ने कहा: किया तो बहुत, रात न-करने की बात हो गई। किया तो जिंदगी भर। कल रात न-करने की बात हो गई। कल आकर खड़ा हुआ था झाड़ के नीचे और बस फिर पता नहीं क्या हुआ, क्योंकि फिर मैंने कुछ नहीं किया। लेकिन जो करने से नहीं हो सका था, आज रात हो गया।
कभी जाएं और मन हो जाए तो झाड़ के नीचे बैठ जाएं। बैठें--सोते बहुत हैं, वक्त पर रोज सोते हैं, सब होता है। वह सब होता है, वह छोड़ दें। इन तीन दिन के लिए हवा, पानी जैसे, सूखे पत्ते जैसे...। तो यहां शायद बैठने में जो न हो सके--क्योंकि यहां तो नियम से आकर बैठिएगा, वक्त पर बैठिएगा, वक्त पर खत्म हो जाएगा। तो कहीं भी बैठ जाएं--सुबह, रात, दोपहर। और इस तरह जीएं तीन दिन कि जैसे कोई आदमी पानी में बह रहा हो--तैर नहीं रहा हो! ध्यान रहे, तैरना नहीं है।
पानी में एक आदमी तैरता है, तैरने में उसे कुछ करना पड़ता है। वह कहता है, उस किनारे मुझे पहुंचना है, तो वह तैर कर पहुंचने की कोशिश करता है। एक दूसरा आदमी कूद जाता है और बहता है, फ्लोटिंग, तैरता नहीं। वह कहता है, नदी जहां ले जाए, हम राजी हैं। हम नहीं हैं, अब नदी ही जहां ले जाए--बहता है। इन तीन दिनों में बहने की फिकर रखें।
रोज तो जिंदगी में हम तैरने की फिकर करते हैं, तैर रहे हैं! किसी को दिल्ली की तरफ तैरना है, वह अपना तैरता चला जा रहा है। किसी को कहीं और तरफ तैरना है, वह वहां तैरता चला जा रहा है। हम जिंदगी में तैरते हैं। तैरना हमारी आदत है। तैरना एक काम है।
बहना--तैरना नहीं। इन तीन दिनों में फ्लोटिंग। एकदम हलका; उड़े जा रहे हैं। और जिंदगी में कुछ बोझ नहीं है, तो उस दरवाजे पर चूक नहीं पाएंगे--जहां खुजली आ जाती है और आदमी आगे निकल जाता है।
फुटकर-फुटकर सूत्रों पर तीन दिनों में बात करेंगे। जो भी आपके प्रश्न हों, वे लिख कर दे देंगे, तो रात उनकी बात कर लेंगे। और सुबह इसी तरह की बात कुछ करूंगा। कोई सूत्र की बात नहीं करूंगा, कोई नियम की बात नहीं करूंगा। ऐसी कुछ बात करूंगा शायद खयाल में आ जाए कुछ और फ्लोटिंग, वह बहना हो जाए। वह हो सकता है। जब हवाएं कर रही हैं तो हम क्यों नहीं कर सकते! और जब पानी के झरने कर रहे हैं तो हम बदनसीब, हम नहीं कर सकेंगे! और जब चांद-तारे कर रहे हैं तो हमने क्या बिगाड़ा है! और जब आदमी को छोड़ कर सब-कुछ कर रहा है, तो हमसे क्यों नहीं होगा! होगा, निश्चित ही होगा। लेकिन आप मत करना, होने देना, तो निश्चित हो जाता है, यह पहली बात।
फिर कल सुबह से बात करेंगे।
भगवान करे, इतनी दूर आप आए, तो उस यात्रा में भी आप चले जाएं जहां आप नहीं जा सकते हैं; लेकिन अपने को छोड़ दें, तो जाना हो सकता है।
कल सुबह से ध्यान के लिए भी बैठेंगे।
पर तैयारी पूरे वक्त, चौबीस घंटे आपको करनी चाहिए। वे जो तैयार होंगे, उन्हें ही हो सकेगा। नहीं तो चूकने में देर नहीं लगती। दरवाजे तो बहुत हैं, पर दरवाजा एक ही खुला है। और उस पर से जरा चूक गए कि फिर बहुत दरवाजे हैं, फिर उनमें भटकते रहिए। फिर पता नहीं कब उस दरवाजे पर फिर आना होगा। कौन जानता है, होगा भी कि नहीं होगा इस जन्म में, यह भी कोई नहीं जानता। और चूकने के रास्ते इतने अदभुत हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं है। चूकने की तरकीबें इतनी हैं हमारी कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। जरा सी बात से हम चूक सकते हैं। तो आ ही गए हैं, दरवाजे पर ही खड़े हैं, तो न चूक पाएं इस तरफ ध्यान रखना जरूरी है।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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