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Naye Samaj Ki Khoj 15

Fifteenth Discourse from the series of 17 discourses - Naye Samaj Ki Khoj by Osho. These discourses were given in RAJKOT during MAR 06-09 1970.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं है।)
कुछ निहित स्वार्थ पीछे नुकसान करते होंगे। लेकिन फिर भी अच्छा हुआ। बहुत लोगों को उत्सुक कर दिया। अब मैं जा रहा हूं तो ज्यादा लोग मुझे सुन रहे हैं, ज्यादा लोग पूछ रहे हैं। यह अच्छा हुआ।

भगवान, गुजरात समाचार में भी, आपने तो पढ़ा होगा, दो-तीन महीने तक बहुत अच्छी तरह से फेवर में और अगेंस्ट में चर्चाएं चलती रही हैं।
बहुत अच्छा है। अच्छा है, एक लिहाज से तो अच्छा है। लोकमानस प्रबुद्ध हो तो अच्छा है।

भगवान, प्रवचन में आपका इतना प्रचार नहीं हुआ, जितना यह अखबार वालों ने प्रचार कर दिया। और अभी आप जहां जाते होंगे, वहां ज्यादा आदमी न आते होंगे, उसमें से कुछ लोग ही सिर्फ आते होंगे।
जरूर! लेकिन अच्छा हुआ, उससे बुरा नहीं हुआ है। विरोध से कभी भी कुछ बुरा नहीं होता। अगर बात गलत हो तो विरोध से खत्म हो जाती है और अगर बात में कोई बल हो तो विरोध से और मजबूत हो जाती है। दोनों हालत में फायदा होता है। अगर जो मैं कह रहा हूं वह गलत है, तो विरोध से वह टूट जाएगा। टूट जाना चाहिए! और अगर उसमें कुछ भी सही है, तो विरोध से और मजबूत होकर बाहर निकल आएगा। इसलिए विरोध से कभी कोई नुकसान नहीं होता।

भगवान, तीन-चार महीने में आपका अनुभव क्या है? आपने जो दो बात बताई अभी--कि विरोध से टूट जाता है और विरोध से प्रचार भी होता है, तो आपका अनुभव चार महीने में क्या हुआ, यह भी बताइए।
कुछ भी नहीं टूटा, कुछ भी नहीं टूटा, कुछ भी नहीं टूट सकता है।

और मजबूत हुआ है?
हां, जरूर, जरूर!

प्रतिभा का कोई खंडन नहीं हो सका।
नहीं, कुछ नहीं। प्रतिमा का खंडन हो जाता है, प्रतिभा का कोई कुछ नहीं कर सकता।

जूनागढ़ में जब आप पहले आए थे तो जो लोग आपके पास थे, वे शायद आज नहीं दिखाई पड़ते। वह क्यों?
कुछ दो-चार लोग, इससे ज्यादा नहीं।

वे दो-चार कोई मामूली आदमी थे?
मेरे लिए सब मामूली हैं। मैं व्यक्ति-व्यक्ति में मूल्य नहीं मानता हूं। और इसलिए और मामूली कहता हूं, क्योंकि वे नहीं दिखाई पड़ते; अगर वे दिखाई पड़ते तो इतने मामूली साबित नहीं होते। अगर मुझसे विरोध भी हो गया हो, तो भी दिखाई पड़ने में तो हर्जा नहीं है। और मुझसे विरोध हो गया हो तब तो मुझे और भी सुनने को आना जरूरी है। मुझसे पूछ लें, मुझसे चर्चा कर लें, मेरा विरोध करने को आना जरूरी है। भाग जाना मामूली होने का लक्षण है।
फिर दो-चार लोग चले जाते हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। ये जो दो-चार लोग हैं, होता क्या है--मुझे तो गांव-गांव में यह तकलीफ होती है--मुझे पहली बार जो लोग बुलाते हैं, न मालूम उनके मन में मेरा इमेज होता है कुछ, उस हिसाब से बुलाते हैं। सुनने के बाद मैं वैसा आदमी साबित हो भी सकता हूं, नहीं भी हो सकता। नहीं हो सकता तो वे तो चले जाने वाले हैं। और मैं उनको ध्यान में रख कर कुछ कर सकता नहीं हूं; कि वे रुकें, इसलिए कुछ नहीं कर सकता हूं। न मैं यह ध्यान में रख सकता हूं कि आपको क्या प्रीतिकर लगता है, वह मैं बोलूं। न यह ध्यान में रख सकता हूं कि आपको रोकने के खयाल से बोलूं। मुझे तो जो ठीक लगता है वह मैं बोले चला जाऊंगा। कौन रुकता है, नहीं रुकता है, यह बिलकुल गौण बात है।
लेकिन मेरी समझ यह है कि वे जो छोड़ कर चले भी गए हों दो-चार लोग, वे साल भर के भीतर वापस लौट आएंगे, वे जा नहीं सकते। इसलिए मैं सोचता हूं कि नहीं जा सकते हैं कि अगर थोड़ा-बहुत भी सोचते हैं, थोड़ा-बहुत भी बुद्धि का उपयोग करते हैं, तो जाने का कोई कारण नहीं है।
जैसे अभी हुआ बड़ौदा में। बड़ौदा में...सभी जगह वही हुआ...कुछ मित्रों ने मुझे आकर कहा कि जो लोग, दो-चार लोग नहीं आ रहे हैं, वे भी टेप से सुन रहे हैं, वे भी घर में बैठ कर खबर पूछ रहे हैं। और मित्रों ने मुझे आकर कहा कि आप फिकर मत करिए, वे छह महीने के भीतर वापस लौट आएंगे, वे जा नहीं सकते।
अगर बात में कोई बल है और कोई सच्चाई है, तो लौट आना चाहिए। और नहीं है बल, तो बिलकुल नहीं लौटना चाहिए। कोई सवाल भी नहीं है।
और रह गई बात यह, हमारे मुल्क में तो, हमारे मुल्क में कुछ ऐसा दुर्भाग्य है कि जो लोग बोलते हैं, सोचते हैं, वे पहले सुनने वाले की तरफ देखते हैं कि उसे क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है। तो जरूर भीड़ बढ़ाई जा सकती है, अगर मैं आपके मन की बात कहता रहूं। लेकिन उसके कहने का कोई उपयोग भी नहीं है, मूल्य भी नहीं है।

भगवान, वही बात है जो भीड़ जानती है, आप कहते हैं। वह आप उसके लिए नहीं बोलते। लेकिन लोग आज ऐसा बोल रहे हैं कि गांधी के विरुद्ध, कांग्रेस के विरुद्ध, ऐसी कुछ बात आती है तो लोगों को अच्छी लगती है, इसीलिए इतनी भीड़ हो जाती है।
हो सकती है, वह हो सकती है। लेकिन अगर वह इसलिए होती है तो वह छंट जाएगी। क्योंकि मैं कोई गांधी और कांग्रेस के खिलाफ ही नहीं बोलता, मैं तो मार्क्स के खिलाफ भी बोलता हूं और लेनिन के खिलाफ भी बोलता हूं। अब सवाल यह है कि अगर कल मेरे पास कोई आदमी आता है...

लेनिन और मार्क्स को जाने दें आप!
मेरी आप बात नहीं समझ रहे हैं। मेरी आप बात समझिए! कल मेरे पास जो लोग थे, अगर वे इस कारण थे कि मैं गांधी के पक्ष में बोलूंगा, और नहीं बोला हूं पक्ष में तो वे हट गए हैं। आज जो मेरे पास आएगा, अगर वह इस कारण आ रहा होगा, तो कल मैं कुछ बोलूंगा वह हट जाएगा। मेरे पास तो वही रुक सकता है जिसकी सत्य की कोई तलाश है।

इसलिए जो भीड़ है वह वास्तविक नहीं है। सुनने वाले दिलचस्पी वाले होते हैं, ये तो सिर्फ गर्दन ही हिलाते हैं।
कई तरह के लोग होते हैं सुनने वाले, उसमें सब तरह के लोग हैं। उसमें कोई सोच-विचार कर सुनता है, कोई कुतूहल के लिए आता है, कोई सिर्फ भीड़ को देख कर आता है कि दूसरे लोग जा रहे हैं इसलिए जा रहे हैं। तो सब तरह के लोग वहां हैं।

इसलिए मैं कह रहा हूं कि इट इज़ नॉट ए प्वाइंटर दैट दि आइडियालॉजी ऑर दि थीम दैट यू आर कनवेइंग, आर हैविंग ए ईको, आर हैविंग एक्सेप्टेंस।
न, यह तो सवाल ही नहीं है। यह तो मैं कहता ही नहीं हूं कि वह एक्सेप्ट की जाए। यह तो मैं कहता ही नहीं हूं।

नहीं, इसीलिए कि आपने कहा कि जो लोग आज नहीं आए, वे कल वापस लौटेंगे।
मेरा कुल कहना इतना है, मेरा कुल कहना इतना है कि मेरी तो चेष्टा ही इतनी है कि विचार शुरू हो। मेरी यह चेष्टा ही नहीं है कि जो मैं कहता हूं वह स्वीकृत हो जाए।

हां, विचार शुरू हो गया और वे रुक गए।
कोई हर्जा नहीं है। तो विचार शुरू नहीं हुआ है। यानी मेरा कहना यह है कि अगर विचार शुरू हुआ हो...।

अगर आपकी बात सुने तो ही विचार शुरू होता है?
ऐसा भी नहीं कहता, ऐसा भी नहीं कहता। लेकिन मैं जो कह रहा हूं अगर उसके विरोध में भी उनके मन में खयाल आया है, तो भी रुकने का कोई कारण नहीं है। रुकने का मतलब यह है कि मुझे सुनने से रुक जाना विचार का लक्षण नहीं है।
हां, अगर मेरी बात ही फिजूल हो गई हो और सुनने योग्य ही न रही हो, तो समझ में आता है। लेकिन मेरी बात फिजूल नहीं हो गई है, वे मेरी बात पर विचार कर रहे हैं, चर्चा कर रहे हैं, बैठ कर बात कर रहे हैं, मेरे खिलाफ लिख रहे हैं। बात मेरी फिजूल हो गई हो तो खत्म हो गई बात, फिर कोई मतलब नहीं है। लेकिन मेरी बात सार्थक मालूम पड़ रही है उन्हें, और अगर सुनने से रुकते हैं, तो इसको मैं विचार का लक्षण नहीं कह सकता हूं। यानी मेरी बात ही फिजूल हो गई, तो खत्म हो गई बात, अब उसका कोई सवाल ही नहीं रहा। फिर मेरे खिलाफ भी कहने का कोई सवाल नहीं रहा।
लेकिन मेरे खिलाफ कहे जाते हों, बात करते हों, मेरी सभा न हो सके इसका उपाय करते हों, तो मेरी बात पर सोच रहे हैं। मेरी बात को सार्थक तो मानते हैं, गलत भला मानते हों, उसमें अर्थ तो मालूम होता है। और मेरा कहना है कि इसलिए बहुत देर वह सोच-विचार जारी है, और जारी है तो अच्छा है। इसी को मैं शुभ मानता हूं।
मेरी यह भी दृष्टि नहीं है कि जो मैं कहूं वह स्वीकृत होना चाहिए। वह तो मेरा मानना ही नहीं है। मेरा कहना है कि किसी की बात स्वीकार करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए; चिंतन हो, मनन हो, सोच-विचार हो, इतना काफी है। मैं तो सिर्फ एक जंपिंग-बोर्ड भी बन जाऊं सोचने के लिए तो भी काफी है, बात खत्म हो गई, इससे ज्यादा कुछ मतलब का नहीं है।
इधर तो मैं यह हैरान हुआ हूं जान कर कि गांधी के प्रशंसक भी जो हैं, वे भी गांधी पर मुल्क में कोई ऊहापोह पैदा नहीं करवा पाते, कोई विचार पैदा नहीं करवा पाते। प्रशंसा करने से कोई विचार तो पैदा नहीं हो जाता या मूर्ति बनाने से कोई विचार पैदा नहीं हो जाता।

आंदोलन नहीं चलता है।
हां, आंदोलन नहीं चलता है। मेरा यह कहना ही नहीं है कि गांधी को, गलत हैं, ऐसा मान लेने की जरूरत है। मेरा कुल कहना इतना है कि गांधी विचारणीय हैं और विचार का सब तरफ से हमला होना चाहिए।

लेकिन आपने स्टार्ट किया निगेटिव एप्रोच से। ऐसा क्यों?
विचार तो हमेशा निगेटिव एप्रोच से ही शुरू होते हैं, पाजिटिव एप्रोच से कभी शुरू नहीं होते।

वाज़ इट इंटेनशली शॉक थेरेपी?
हां, बिलकुल मेरी तरफ से इंटेनशनल है, बिलकुल इंटेनशनल है। हां, मुझे तो खयाल है कि क्या होगा।

तो जो लोग नहीं आते वे शायद समझते हैं कि आप इंटेनशली कर रहे हैं। आप इंटेनशली यह काम शुरू किया है, ऐसा कोई भी लोग मानते हैं?
कुछ लोग हैं जो ऐसा मानते हैं।

जस्ट टु मेक पीपुल थिंक, शॉक थेरेपी, समथिंग डिफरेंट। जस्ट टु ब्रेक लिथॉर्जी। बट व्हाय गांधी?
हां, गांधी को क्यों चुना, यह पूछा जा सकता है। दो-तीन कारणों से। एक तो गांधी निकटतम हैं इस मुल्क के लिए।

गुजरात के लिए कि सारे हिंदुस्तान के लिए?
सारे हिंदुस्तान के लिए ही! गुजरात के लिए और भी ज्यादा। और सारे हिंदुस्तान के लिए निकटतम हैं। फिर अभी भी हमारे और उनके बीच बहुत फासला नहीं हुआ। अभी जो पीढ़ी उनके निकट जीयी थी, वह अभी जिंदा है। और हिंदुस्तान के लिए मेरा मानना है कि भविष्य में जो भी निर्णय लेने हैं, वे निर्णय किसी न किसी रूप में गांधी पर विचार करके ही लेने होंगे--चाहे पक्ष में, चाहे विपक्ष में। गांधी हिंदुस्तान के आने वाले सौ वर्षों में महत्वपूर्ण रहेंगे, ऐसी मेरी समझ है--चाहे पक्ष में, चाहे विपक्ष में, यह दूसरी बात है। और इसलिए गांधी पर बहुत निश्चित रूप से विचार किया जाना चाहिए।
एक तो यह था कारण।
फिर मुझे ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान में ही नहीं, हिंदुस्तान के बाहर भी गांधी पर चिंतन और विचार शुरू हुआ है। बल्कि कभी ऐसा भी लगता है कि हिंदुस्तान से कहीं ज्यादा बाहर लोग सोच रहे हैं, विचार कर रहे हैं। और इस मुल्क में तो चिंतन जैसे बंद है, कोई चिंतन नहीं है। तो गांधी तो सिर्फ शुरुआत के लिए! मेरा तो कहना है, महावीर और बुद्ध पर भी चिंतन वापस जगाने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन उनके और हमारे बीच बहुत फासला है। वह फासला इतना ज्यादा है कि बहुत खींच कर भी महावीर पर चिंतन लाना मुश्किल है।
लेकिन मुझे लगता है कि अगर गांधी की अहिंसा पर विचार शुरू हो, तो कल महावीर की अहिंसा पर भी विचार करने के लिए हवा पैदा की जा सकती है। लेकिन गांधी की अहिंसा पर ही विचार न होता हो, तो महावीर की अहिंसा पर विचार करना बहुत मुश्किल मामला हो जाता है।
तो गांधी पर जानते हुए शुरू किया हूं, क्योंकि वे हमारे निकट हैं, चोट भी लग सकती है हमारे मन को उनके ऊपर बात करने से। लेकिन आश्चर्य यह है कि जो लोग गांधी को प्रेम करते हैं, वे भी गांधी पर विचार किया जाए इसके लिए उत्सुक और तैयार नहीं हैं। शायद भयभीत हैं, या प्रेम बहुत कमजोर है, या ऐसा डर है कि कहीं विचार से गांधी की प्रतिमा को नुकसान न पहुंच जाए।
मुझे ऐसा नहीं लगता। मुझे ऐसा लगता है कि गांधी का व्यक्तित्व इतना महिमाशाली है कि किसी तरह के विचार से उस प्रतिमा को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा, बल्कि विचार से वह प्रतिमा और निखरेगी, और साफ होगी, ज्यादा स्पष्ट होगी, ज्यादा बहुमूल्य हो जाएगी।
और इधर कुछ थोड़े गांधीवादियों ने जरूर मुझे पत्र लिखे। कुछ गांधीवादी मित्रों ने मुझे आकर कहा भी कि हम चाहे आपसे राजी न हों, लेकिन इस बात से हम खुश हुए हैं कि एक हवा बात करने के लिए बनी। लेकिन बहुत कम, न के बराबर। आमतौर से तो हो यह गया है कि गांधी के पीछे जो वर्ग खड़ा हुआ, उसके अब इतने निहित स्वार्थ हैं कि अब गांधी पर विचार वगैरह करने की उसकी तैयारी नहीं है। गांधी का शोषण करने की तैयारी है। गांधी के नाम से जितना फायदा मिल सकता हो, उतना लेने की तैयारी है।

दि रिवर्स इज़ नाट ट्रू?
जरूरी नहीं है।

क्योंकि गांधी के खिलाफ बोलने से भी आज फायदा मिलता है।
बिलकुल हो सकता है, बिलकुल हो सकता है। गांधी के खिलाफ बोलने से भी...।

यू मे नाट अट्रैक्ट आडियंस इफ यू स्पीक ऑन सम डिफरेंट सब्जेक्ट। बट इफ यू स्पीक अगेंस्ट गांधी, यू मे फाइंड क्राउड्‌स एंड क्राउड्‌स--हू मे नाट बी योर फालोअर, हू मे नाट बिलीव इन योर फिलासफी, हू मे नाट बिलीव इन योर आइडियालॉजी।
हां-हां, मैं समझा। यह बिलकुल हो सकता है, यह बिलकुल हो सकता है।

इसलिए क्या ऐसा है कि आप, जो शॉक थेरेपी है उसमें कुछ और बात कहना चाहते हैं, लेकिन गांधी का नाम लेकर आडियंस, गांधी के विरुद्ध बात करने से आडियंस क्रिएट करते हों, अट्रैक्ट करते हों, ऐसा ही है?
अगर गांधी के ही खिलाफ अकेला बोल रहा होता, तो ऐसा हो सकता था। मैं और बहुत सी चीजों के खिलाफ बोल रहा हूं। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न?

देअर इज़ नाट ओनली वन प्वाइंट, बट देअर आर टू थिंग्स। वन इज़ टु अट्रैक्ट आडियंस। दैट इज़ व्हाई यू आर आलवेज--दिस इज़ व्हाट इज़ बीइंग सेड टुडे ऑर बिलीव्ड--यू आर आलवेज टाकिंग सरटेन थिंग्स व्हिच विल अट्रैक्ट पीपुल टुवर्ड्‌स यू, एंड देन यू ट्राई टु इनफिल्टरेट इनटु देअर माइंड्‌स दि अदर आइडियाज। गांधी एंड सेक्स एंड अदर थिंग्स आर ओनली दि प्वाइंट्‌स टु अट्रैक्ट आडियंसेस।
हां-हां, यह हो सकता है, यह हो सकता है। कोई चाहे तो ऐसा भी कर सकता है। लेकिन मजा यह है कि आडियंस को अट्रैक्ट करने का मुझे कोई भी प्रयोजन नहीं है। न तो मैं कोई दल बना रहा हूं, न कोई संप्रदाय बना रहा हूं, न किसी को सदस्य बना रहा हूं, न किसी को शिष्य बना रहा हूं।

दैट मे बी फालोड बाइ समबडी एल्स। दैट पार्ट ऑफ वर्क मे बी कैरीड आउट बाइ समबडी एल्स, आफ्टर सम टाइम।
मैं जब तक हूं, तब तक तो किसी को नहीं चलाने दूंगा।

दैट हैज आलवेज हैपेंड इन इंडिया।
हां, यह हमेशा होता है, यह हमेशा होता है। और यह नहीं होना चाहिए, यह मेरी चेष्टा है और यह मेरे आंदोलन का हिस्सा भी है कि यह नहीं होना चाहिए। मेरे जानते हुए नहीं होने दूंगा, नहीं होने दूंगा। क्योंकि मेरी दृष्टि यह है कि जैसे ही किसी विचार के पीछे अनुयायी खड़े हुए कि वैसे ही विचार विकृत होना शुरू हो जाता है और शोषित होना शुरू हो जाता है। जैसे ही किसी विचार के पीछे दल, संप्रदाय संगठित हुआ, आर्गनाइजेशन हुआ, वैसे ही विचार के निहित स्वार्थ शुरू हो जाते हैं। और विचार मर जाता है, उसी वक्त समाप्त हो जाता है। और फिर विचार की जगह स्वार्थ काम करने शुरू कर देते हैं।
तो मेरी यह भी दृष्टि है कि विचार कभी भी संगठित रूप नहीं लेने चाहिए; विचार हमेशा एक असंगठित प्रक्रिया होनी चाहिए।

संगठित रूप नहीं होना चाहिए।
नहीं होना चाहिए।

इट शुड नाट बी ए कंटिन्युअस प्रोसेस ऑफ थिंकिंग।
न-न, प्रोसेस तो होनी चाहिए। आर्गनाइज्ड, और उसके पीछे अनुयायियों और संस्थाओं का इस्टैब्लिशमेंट, और शिष्यों की संख्या, वह सब नहीं होनी चाहिए। वह जैसे ही हुई कि फिर विचार शोषक होना शुरू हो जाता है। ये हिंदू या मुसलमान, या जैन और ईसाई, या गांधी और मार्क्स, ये सारे के सारे विचार शोषक सिद्ध होते हैं अंततः। क्योंकि जैसे ही विचार संगठित हुआ कि शोषण उसके पीछे आया।
आने वाली दुनिया में ऐसा होना चाहिए कि विचार संगठित न हो। विचार की प्रक्रिया तो कंटिन्युअस हो, लेकिन जैसे मैंने एक बात आपसे कही और आप उसके पक्ष-विपक्ष में सोचते हैं, तो कंटिन्युटी शुरू हो गई, लेकिन न तो आप मुझसे बंधते हैं, और न आप मुझसे संगठित होते हैं, न आपसे मेरा कोई संबंध बनता है।
समझ लीजिए कि जूनागढ़ में दस हजार लोग मुझे सुन रहे हैं, तो अगर इन दस हजार लोगों को मैं बांधने की कोशिश करूं तब तो आडियंस को अट्रैक्ट करने का कोई अर्थ हो सकता है।
मेरा मतलब आप समझे न? मैं इनसे बात कह देता हूं, और मेरे लिए मामला खत्म हो गया। मैं अपने रास्ते पर चला जाता हूं, ये अपने रास्ते पर चले जाते हैं। मुझे पता भी नहीं कि कौन था सुनने वाला, कौन था नहीं सुनने वाला। विचार की कंटिन्युटी रहेगी कि जो मैंने उनसे कहा, वे उस पर सोचेंगे पक्ष या विपक्ष में; कुछ निर्णय लेंगे, नहीं लेंगे; वह विचार उनके भीतर चलेगा। लेकिन जो कंटिन्युटी हुई, उससे अब मैं कोई संबंध नहीं रखता हूं किसी तरह का; उनको न संगठित करता हूं, उनको न इकट्ठा करता हूं।
इसलिए आडियंस को अट्रैक्ट भर करने का कोई प्रयोजन नहीं हो सकता। प्रयोजन तभी हो सकता है जब उस इकट्ठी भीड़ का हम कोई फायदा उठाना चाहते हों, कोई राजनैतिक दल बनाना चाहते हों, कोई धार्मिक संप्रदाय बनाना चाहते हों, तब तो आडियंस को अट्रैक्ट करने का अर्थ हो सकता है।

आर आल दीज थिंग्स नाट स्यूडो प्रिपरेशंस फार दैट?
न, मेरी दृष्टि में नहीं। क्योंकि मैं तो अभी से उसके खिलाफ हूं। वह तो चारों तरफ मित्र मुझे मिलते हैं कि संगठन करिए, व्यवस्था बनाइए। मैं तो उसके खिलाफ हूं, उसको तोड़ने के खिलाफ हूं। न ही कोई संगठन बनाना चाहता हूं, न ही कोई व्यवस्था देना चाहता हूं। और चाहता हूं कि जितनी व्यवस्थाएं बनी हैं वे भी टूट जानी चाहिए, तो मेरी दृष्टि है कि विचार मुक्त होगा और मनुष्य-जाति ज्यादा विचारपूर्ण होगी।

बिल्डिंग ऑफ ट्रेडीशन इज़ आलवेज बैड?
आलवेज बैड।

एंड ट्रेडीशनल आइडियाज आर आल्सो...।
ट्रेडीशन ऐज सच, ट्रेडीशन ऐज सच।

फिर भी आप आपके विचार-आंदोलन को शुरू करने के लिए, लोग उसको ग्रहण करें इसके लिए हिप्नोटिज्म का प्रयोग तो करते ही हैं।
जरा भी नहीं। वह भी एक झूठी बात है।

डू यू बिलीव दैट ट्रेडीशनल आइडियाज आर आलवेज फाल्स ऑर बैड?
हां, जैसे ही ट्रेडीशन बनता है कोई विचार, वैसे ही गलत शुरू हो जाता है।

इट इज़ हार्ड टु एक्सेप्ट दैट।
हां, यह दूसरी बात है, यह दूसरी बात है। मैं चाहता नहीं कि आप एक्सेप्ट करें। यह सवाल नहीं है।

राइट फ्राम शॉपनहार टु...
हां, जैसे ही कोई विचार ट्रेडीशन बनता है, जैसे ही कोई विचार ट्रेडीशन बनता है, वैसे ही डेड हो जाता है। और फिर हम उसे विचार करके नहीं मानते, ट्रेडीशन के कारण मानते चले जाते हैं। तब फिर वह डेड फोसिल की तरह हमारे दिमाग पर सवार रहता है।

ट्रेडीशन बिकम्स स्टैगनेंट एंड डेड बट देअर मे बी सम आइडियाज फार आल टाइम्स, इटरनल।
कोई विचार सनातन नहीं होता। और नहीं हो सकता है। निर्विचार अनुभव सनातन हो सकता है।

यू मे काल इट ट्रुथ।
हां, तो वह जो ट्रुथ है वह विचार नहीं है। यह जिसको ट्रुथ हम कहते हैं, जिसको सत्य कहते हैं, वह विचार नहीं है, वह एक अनुभव है। और उसको विचार में कभी बांधा भी नहीं जा सकता। जो विचार में हम बांधते हैं, वे हमेशा सामयिक होते हैं, कंटेम्प्रेरी होते हैं। एक परिस्थिति में उनका अर्थ होता है, फिर...

आल्सो रिगार्डिंग दि आइडियाज इन दि उपनिषद ऑर इन दि गीता?
सारी चीजों के बाबत, सारी चीजों के बाबत। जो भी हम कह सकते हैं, जो भी शब्द में बांधा जा सकता है, वह कभी भी इटरनल नहीं हो सकता।

यस्टरडे ओनली यू सेड दैट दे कैन बिकम माइल स्टोन्स! लाइफ ऑफ माइन, गीता एंड आल दैट।
हां, इसको थोड़ा सोचें तो निगेटिव अर्थों में मैं यह कहता हूं। यानी यह मैं कहता हूं कि ट्रेडीशन का एक ही अर्थ है कि आप सदा उसको छोड़ कर आगे बढ़ें। ट्रेडीशन का एक ही अर्थ है कि उसको छोड़ कर आप सदा आगे बढ़ें। मेरा मतलब आप समझे न? मेरा मतलब यह हुआ कि उसका एक ही अर्थ है कि सदा उसको छोड़ कर आगे बढ़ें। और जितना छोड़ कर उसको आप आगे बढ़ते हैं, उतना ही आपकी पहुंच नॉन ट्रेडीशनल है, एंटी ट्रेडीशनल है।

बट इन गीता एंड आल उपनिषद, यू हैव टु एंटर इनटु दि आइडियाज देमसेल्व्स, दि ट्रुथ देमसेल्व्स। यू हैव नाट टु लीव देम, ऐज यू से।
आइडिया और ट्रुथ अलग-अलग चीजें हैं।

दि आइडियाज एक्सप्रेस्ड बाइ गीता एंड उपनिषद आर ट्रू।
वह तो, वह तो गीता को जो पकड़ने वाला है, वह कहेगा। कुरान को पकड़ने वाला दूसरी बात कहेगा। महावीर को पकड़ने वाला तीसरी बात कहेगा। वह तो आप पकड़ते हैं जिस विचार को, उसको कहते हैं यह सत्य है। वह सत्य है या नहीं, यह सवाल नहीं है। जिसको आप पकड़ लेते हैं, उसको आप कहते हैं यह सत्य है।

हम पकड़ते हैं इसलिए वह सत्य नहीं होता। वह सत्य है इसलिए हम पकड़ते हैं।
यह आपको कैसे पता चलता है? आप हिंदू घर में पैदा हुए...।

जैसे कि आपको पता चला कि यह असत्य है। ट्रेडीशनल सब चीज असत्य है।
मेरा कहना जो है, मेरा कहना जो है वह कुल इतना है कि जैसे ही कृष्ण को सत्य का अनुभव होगा, यह मैं कहता हूं, लेकिन कृष्ण जैसे ही कहेंगे उस अनुभव को, वह अनुभव सत्य नहीं रह गया, सिर्फ शब्द हो गया। और वह शब्द हम पकड़ कर बैठ जाते हैं। और जितनी जोर से हम पकड़ते हैं, उतना ही खतरनाक हो जाता है। उसे हम जितनी शीघ्रता से छोड़ सकें उतना हम अपने सत्य के समझने में...

मेरा मतलब यह है कि आप उस सत्य का अनुभव तब ही करेंगे जब आप उसका एक्सपीरिएंस, नेचुरल रियलाइजेशन करेंगे, तब। देन दि सिस्टम इज़ मियर आइडिया।
हां-हां, वे हैं ही, वे हैं ही। वे मियर आइडियाज ही हैं, जब तक आपको अनुभव नहीं होता अपना। और मेरा जोर है व्यक्तिगत सत्य के अनुभव पर।

दे कैन नाट बी डिसमिस्ड ऐज यूजलेस देन।
यूजलेस का मेरा मतलब आप नहीं समझे। यूजलेस का मेरा मतलब यह है कि उनको आप ट्रुथ मत समझ लेना, बस इतना मतलब है यूजलेस का। वे आइडियाज हैं।

वर्ड्‌स बाइ देमसेल्व्स आर नाट ट्रुथ।
हां, इतना ही हमें खयाल में रहे तो बात पूरी हो गई। और उतना खयाल में नहीं रह जाता टे्रडीशनल माइंड को, वह शब्दों को ही सत्य समझ कर पकड़ कर बैठ जाता है। उसके लिए गीता ही सत्य हो जाती है। फिर वह गीता की पूजा कर रहा है, गीता को सिर पर रख कर बैठा है।

इफ वन ट्राइज टु एंटर इनटु दि एक्सपीरिएंस ऑफ दोज ट्रुथ्स...।
आप किसी दूसरे के एक्सपीरिएंस में कभी एंटर नहीं कर सकते। आप सदा अपने ही एक्सपीरिएंस में एंटर कर सकते हैं। उसका कोई रास्ता ही नहीं है।

नेचुरली दैट इज़ इटरनल। इट इज़ मेन्ट फॉर आल एंड नाट वन--दिस ट्रुथ।
यह जैसे आप किसके बाबत कह रहे हैं? ट्रुथ तो होता ही नहीं किताब में, सिर्फ शब्द होते हैं।

जैसे कि आत्मा का जो किया गया है वेदों में, उपनिषदों में, गीता में...।
और बुद्ध ने खंडन किया है पूरा का पूरा। कौन है इटरनल--कृष्ण कि बुद्ध?

ही माइट हैव यूज्ड अनादर टर्मिनालॉजी...।
मेरा मतलब यह है, मेरा कुल कहना इतना है कि ये जो सब डिवाइसेस हैं कुछ बात कहने की, इन डिवाइसेस को पकड़ लेने से खतरा हो जाता है।

आई अंडरस्टैंड, देन यू आर राइट दैट एक्सपीरिएंस इज़ दि मेन थिंग एंड वर्ड्‌स आर नाट वेरी इंपॉरटेंट।
हां, इतना ही खयाल में रहे, उसके लिए सारी इंफेसिस और जोर है। उतना ही खयाल में रहे। उतना खयाल में रहे तो ट्रेडीशन अर्थपूर्ण है। क्योंकि फिर हम उस पर विचार करते हैं, क्रिटिसाइज करते हैं और आगे बढ़ते हैं। ट्रेडीशन का एक ही उपयोग है कि उससे आगे बढ़ा जा सके। कल तक जो हो चुका है उसका एक ही उपयोग है कि वह हमें आने वाले कल तक आगे बढ़ा सके।

आइडियाज आर आलवेज इवाल्विंग।
यही तो मुश्किल है, आइडियाज इवाल्विंग में ट्रुथ कैसे इवाल्व हो सकता है?

यू मे काल देम आइडियाज दैट वे।
यह कहने का सवाल नहीं है, ट्रुथ का मतलब ही यह है कि अब जो इवाल्व नहीं हो सकता।

दैट इज़ रिलेटिव।
ट्रुथ का मतलब ही यह है कि जो परफेक्ट है, जो पूर्ण है, अब उसमें कोई विकास नहीं होगा।

ट्रुथ, दैट इज़ इवाल्विंग।
ट्रुथ को जब आप कहेंगे इवाल्विंग, तो उसका मतलब हुआ कि उसमें अनट्रुथ मिला हुआ है, नहीं तो इवाल्व क्या होगा!

लिमिटेशन ऑन दैट। फॉर दैट इज़ पर्सनल ट्रुथ, दैट इज़ इवाल्विंग।
जैसे ही हम कहेंगे कि सत्य विकास कर रहा है, तो उसका मतलब हुआ उसमें असत्य मिला हुआ है। नहीं तो विकास कैसे होगा? और सत्य में असत्य कभी भी मिला हुआ नहीं हो सकता है। यह कुछ मामला ऐसा है कि सत्य या तो सत्य होता है या नहीं सत्य होता है। इन दोनों के बीच में उपाय नहीं है कि सत्य में असत्य मिला हो। इसलिए सत्य कभी भी इवाल्विंग नहीं है, हमेशा एब्सोल्यूट है!
हां, हम इवाल्विंग हैं, हम सत्य की तरफ इवाल्व कर सकते हैं।
एक आदमी है, वह मील भर दूर से एक चीज को देखता है। एक खंभा गड़ा हुआ है, उसको देखता है मील भर दूर से। उसको दिखाई पड़ता है कि कोई आदमी खड़ा हुआ है।
अभी भी आदमी नहीं खड़ा हुआ है, खंभा ही गड़ा हुआ है, उसे दिखाई पड़ता है कि आदमी खड़ा हुआ है। वह आधा मील आगे बढ़ कर देखता है, उसे पता चलता है कि नहीं, आदमी नहीं है, यह तो कोई वृक्ष मालूम होता है। और आधा मील चल कर पता चलता है कि यह तो वृक्ष भी नहीं है, आदमी भी नहीं है, एक खंभा गड़ा हुआ है।
तीन स्थितियां हुईं। इन तीनों स्थितियों में सत्य में कोई फर्क नहीं पड़ा, जो था वही है। लेकिन यह जो आदमी इवाल्व हुआ, इसका माइंड जो इवाल्व हुआ, इसका माइंड करीब आया, इसमें फर्क पड़े। माइंड में एवोल्यूशन होती है, ट्रुथ में कोई एवोल्यूशन नहीं होती। और जिस दिन माइंड पूरी तरह इवाल्व हो जाता है, उस दिन वह ट्रुथ को जान लेता है। और जब तक इवाल्व नहीं होता, नहीं जान पाता। हमारा आइडिया इवाल्व हो सकता है ट्रुथ के बाबत, लेकिन ट्रुथ में कोई एवोल्यूशन नहीं होता।

पुनर्जन्म के बाबत आपका क्या विचार है? डॉक्ट्रिन ऑफ दि रि-बर्थ।
डॉक्ट्रिन्स से मुझे नफरत है--डॉक्ट्रिन ऐज सच। सिद्धांतों से मुझे नफरत है।

क्या पुनर्जन्म है?
इसको अगर अनुभव की तरह पूछें, सिद्धांत की तरह नहीं, तो मेरा कहना है कि आप पूछना क्यों चाहते हैं कि पुनर्जन्म है? हमें जीवन का भी पता नहीं है, अभी जो जीवन है उसका भी पता नहीं है कि वह क्या है, और हम पूछते हैं कि पहले जीवन था या नहीं? आगे जीवन होगा या नहीं? और जो जीवन अभी हमारे भीतर है, उसका भी हमें पता नहीं है कि वह क्या है, और है भी या नहीं! इसको थोड़ा समझ लेना जरूरी है। हमारे मन में यह खयाल क्यों उठता है कि हम पहले भी थे, आगे भी होंगे? और यह खयाल क्यों नहीं उठता कि अभी हम क्या हैं?

नहीं, आपने कल बताया कि जन्मों-जन्मों से यह मन भर रहा है...।
मेरी बात सुनिए। मैं जो कह रहा हूं, मैं जो कह रहा हूं, जरूरी है जानना यह कि अभी जो जीवन मेरे भीतर है वह क्या है, उसे मैं जान लूं। उसे जो जान लेता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि जीवन पहले भी था और बाद में भी होगा। तब यह सिद्धांत नहीं होता। और जीवन का हमें कोई पता न हो तो फिर रि-बर्थ और इनकारनेशन और फलां-ढिकां, वे सब सिद्धांत हैं। और वे सिद्धांत किसी मतलब के नहीं हैं। वे सिद्धांत बड़े खतरनाक हैं। वे खतरनाक इसलिए हैं कि उन सिद्धांतों के द्वारा केवल हम अपनी मृत्यु के भय को कम करते हैं, और कुछ भी नहीं करते। फिर मन में यह विश्वास हो जाता है कि मरना नहीं पड़ेगा; बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। और इसलिए जो समाज जितना ज्यादा पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानता है, उतना ही मृत्यु से भयभीत समाज होता है। अब हिंदुस्तान में जितने मौत से डरने वाले लोग हैं, जमीन पर और कहीं भी नहीं होंगे। और यहीं पुनर्जन्म को मानने वाले लोग भी सबसे ज्यादा हैं।
तो हमारी जो जिज्ञासा है, वह कहीं सिर्फ मृत्यु के भय से बचने की जिज्ञासा तो नहीं है? क्यों पूछना चाहते हैं कि पीछे जन्म था? क्या वजह है? क्यों जानना चाहते हैं? इसकी उत्सुकता क्या है?
इसकी उत्सुकता कुल इतनी है कि कहीं हम मर तो नहीं जाएंगे, मिट तो नहीं जाएंगे, इसका कोई विश्वास दिला दे। कोई पक्का निर्णय दे दे कि नहीं, मरोगे नहीं, जिंदा रहोगे। तो हम निश्चिंत हो जाएं।
यह मरने का भय, फियर ऑफ डेथ ही काम करता रहता है। इसमें मुझे उत्सुकता नहीं है। मेरी उत्सुकता इसमें है कि अगर जीवन की खोज की आकांक्षा है, तो पहले तो इस जीवन को खोजने की कोशिश करें जो भीतर है। और इसका पता चलते ही कि यह जीवन क्या है, आपको यह भी पता चल जाता है कि यह जीवन क्या था और क्या होगा। वह इसका अनिवार्य परिणाम होता है।
पुनर्जन्म सिद्धांत नहीं है, किन्हीं लोगों की अनुभूति है। और आपकी भी अनुभूति बने तो ही सार्थक है और सिद्धांत बने तो बिलकुल व्यर्थ है। दोनों में फर्क समझते हैं न आप? सिद्धांत की तरह व्यर्थ है। उससे कोई मतलब नहीं है सिद्धांत को पकड़ कर दोहराने से। उससे तो अच्छा है कि किसी सिद्धांत में अपने को न बांधें। क्योंकि सिद्धांत आपको खोज में ले नहीं जाते, बल्कि रोकते हैं। अगर यह मन को पक्का हो गया कि पुनर्जन्म है, तो आप किसी खोज-वोज में नहीं जाते, बात खत्म हो गई। बल्कि वह जो मृत्यु का भय था, वह भी खत्म हो गया। और मृत्यु के भय के कारण जो जीवन में परिवर्तन भी हो सकते थे, वे भी खत्म हो गए। और एक डेडनेस पैदा हो जाती है।

मृत्यु का भय इतना आवश्यक है?
नहीं-नहीं, आवश्यक नहीं है, है! मैं नहीं कह रहा कि रखिए।

अगर मृत्यु का भय चला जाए...।
चला जाना चाहिए! आवश्यक यही है कि चला जाए। लेकिन वह जाएगा तभी जब आपको जीवन का अनुभव हो, नहीं तो वह नहीं जाने वाला है। मृत्यु का जो भय है, वह हमारे भीतर जो जीवन की धारा है, उसका अनुभव न होने के कारण है। एक बार हमें अनुभव हो जाए कि मैं जीवन हूं, तो मृत्यु का भय खत्म हो गया। क्योंकि साथ ही यह भी अनुभव हो जाएगा कि अब मेरी कोई मृत्यु नहीं हो सकती। वह जीवन का अनुभव नहीं है हमें, इसीलिए मृत्यु का भय पकड़े हुए है और जैसे ही जीवन का अनुभव होगा, मृत्यु का भय विलीन हो जाएगा। मृत्यु का भय सिर्फ अज्ञान है, वह जीवन का अज्ञान है।
हम क्या करते हैं, जीवन को जानने की फिकर किए बिना, हम सिर्फ इस भय से बचने के लिए पुनर्जन्म के सिद्धांत को पकड़ने लगते हैं--कि नहीं, आगे भी जीवन है; मरना है ही नहीं, आत्मा अमर है। यह पकड़ कर हम मृत्यु के भय को कम कर रहे हैं सिर्फ। इससे कम होगा नहीं, सिर्फ भीतर दब जाएगा।

नहीं, मृत्यु का भय नहीं। जीवन को जानने के लिए क्या यह जरूरी नहीं है कि मैं पहले कौन था? उसका पास्ट क्या है?
यह आप जीवन को जान कर ही जान सकते हैं। और सिद्धांतों से जानने का कोई रास्ता नहीं है।

इट इज़ सेड दैट यू हैव रिवाइज्ड योर स्टैंड, इंप्रूव्ड योर स्टैंड रिगार्डिंग योर...।
नहीं, जरा भी नहीं। मैं जो कहा हूं, वही कह रहा हूं।

व्हेन पीपुल रिफ्रेन टु योर आइडियाज, यू जस्ट रिवाइज्ड...।
जरा भी नहीं। मैंने जो कहा, वही कह रहा हूं। लेकिन इंप्रूवमेंट मालूम पड़ सकता है, क्योंकि मुझे रिपोर्ट करने में इंप्रूवमेंट हुआ है। जो मैंने पहली बार कहा था, वही कह रहा हूं। फर्क सिर्फ इतना पड़ा है कि वह पहली बार जो मैं कहा था, उसमें से कुछ हिस्से छोड़ कर रिपोर्ट किए गए थे। जो हिस्से छोड़ दिए गए थे...

जस्ट टेकेन आउट ऑफ कांटेक्स्ट।
हां, आउट ऑफ कांटेक्स्ट। इसलिए एक इंप्रेशन पैदा हुआ था। जैसे कि मैंने कहा कि अगर हम चरखा, तकली, इस तरह की चीजों को आगे भी मानते चलते चले जाते हैं, तो देश का आत्मघात हो जाएगा, देश की हत्या हो जाएगी। अखबारों ने रिपोर्ट किया कि मैं गांधी जी को देश का हत्यारा कहता हूं।
इस तरह का अर्थ दिया जा सकता है। क्योंकि मैंने कहा कि गांधीजी ने जोर दिया है चरखे पर, तकली पर, आदिम उपायों पर--यह मैं आगे कहा, पीछे और कुछ बातें कहा। उसके बाद किसी ने मुझे पूछा कि आगे अगर ये चीजें चलती हैं तो क्या परिणाम होगा? मैंने कहा, देश का आत्मघात हो जाएगा।

यू आर नॉट ड्राइविंग एट दैट पॉइंट?
न-न, बिलकुल भी नहीं, बिलकुल भी नहीं। लेकिन उसका अर्थ ऐसा लिया जा सकता है। और वह अर्थ लेकर बड़े हेडिंग्स में अखबारों ने छाप दिया कि मैं गांधी को देश का हत्यारा कहता हूं।

नहीं, ऐसा अर्थ निकल सकता है।
बिलकुल निकाला जा सकता है। अर्थ क्या निकालना चाहते हैं, वह तो फिर बहुत आसान है।

एंड यू वांट टु ट्राइ क्रिएट विक्रांति--सो मेनी पीपुल शुड थिंक ऑन दैट।
हां-हां, बिलकुल ही। इसमें कोई हर्जा नहीं है।

वाज़ इट नाट ए सूडो थिंग? यू स्पोक समथिंग इन वन कांटेक्स्ट, दि अदर थिंग इन अदर कांटेक्स्ट, यू सेड ओनली वन कांटेक्स्ट वाज़ गिवेन, सेकेंड हाफ वाज़ नॉट गिवेन...।
हां-हां, यह मिस इंटरप्रिटेशन था।

मिस इंटरप्रिटेशन था?
बिलकुल मिस इंटरप्रिटेशन था।

लेकिन उसमें मिस इंटरप्रिटेशन नहीं, उसके अंदर कोई ऐसा इरादा ही था?
यह मैं नहीं कह सकता हूं। क्योंकि इरादों का पता लगाना बड़ा मुश्किल है। क्योंकि पीछे रिपोर्ट किया...

नहीं-नहीं, आपका इरादा!
न-न, मेरा कोई इरादा नहीं था। मेरा कोई इरादा नहीं था। मुझे पता भी नहीं था। वह जब छपा तभी मुझे पता चला कि यह भी इसका अर्थ हो सकता है।

बट यू डिड वांट टु गिव सम शॉक।
मैं तो बिलकुल ही शॉक देना चाहता हूं। लेकिन शॉक का मतलब यह नहीं कि जो शॉक मैंने नहीं दिए हैं वे भी मेरे नाम से थोप दिए जाएं। वह तो मैं बिलकुल नहीं देना चाहता।

अच्छा, अब हिप्नोटिज्म के बारे में भी आया है। वह आपने कहा कि जवाहर भी ऐसा कर रहा था, हिटलर भी कर रहा था और मैं भी कर रहा हूं। वह सच्ची रिपोर्टिंग है?
वह बिलकुल ही गड़बड़ है।

तो आपने क्या कहा था?
मैं कुल इतना कहा, मैं कुल किसी प्रसंग में यह कहा कि मनुष्य-जाति पर जिन लोगों का बहुत प्रभाव पड़ा है, उसमें बहुत तरह के लोग हैं। उसमें जान कर भी लोगों को सम्मोहित करने वाले लोग हैं, अनजाने भी लोग जिनसे सम्मोहित हो जाते हैं ऐसे लोग हैं। जैसे मैंने कहा हिटलर। हिटलर तो जान कर सम्मोहित कर रहा था। सारी व्यवस्था थी पूरी की पूरी। अपनी आत्मकथा में लिखता भी है, उल्लेख भी करता है। सलाह भी लेता था कि कैसे मनुष्य ज्यादा से ज्यादा प्रभावित हो सके। अगर सभा भी करता, तो सारे हाल में प्रकाश बुझा दिया जाता, सिर्फ प्रकाश हिटलर के ऊपर होता। सारे भवन में अंधकार होता जैसा सिनेमागृह में होता है और तेज जलते हुए प्रकाश हिटलर के ऊपर होते। ताकि कोई आदमी हाल में किसी और को देख न सके, पूरे वक्त हिटलर को देखने की मजबूरी हो जाए।
मंच इतना ऊंचा बनाता कि आंख की पलक जो है, जैसा कि हिप्नोटिस्ट कहते हैं, वे कहते हैं कि एक विशेष कोण पर अगर आंख को ऊंचा रखा जाए, तो पांच-सात मिनट में आदमी सजेस्टिबल हो जाता है। अगर आंख नीची हो तो आदमी उतना सजेस्टिबल नहीं होता, उसको उतनी जल्दी सम्मोहित नहीं किया जा सकता। अगर बहुत देर तक आंख ऊपर रखी जाए तो आदमी सजेस्टिबल हो जाता है। आंख के सारे स्नायु भीतर शिथिल हो जाते हैं और उनके शिथिल हो जाने से तर्क की क्षमता कम हो जाती है। तो जो भी उससे कहा जाए, उसको मान लेने की प्रवृत्ति ज्यादा होती है, इनकार करने की प्रवृत्ति कम होती है।

थकावट के कारण?
थकावट के कारण। तो हिटलर मंच इतना ऊंचा बनाएगा, जिससे कि आंख उस कोण पर थक जाए। यह तो पूरा नियोजित था। तो मैंने कहा कि हिटलर जैसे लोग तो नियोजित सम्मोहन का प्रयोग करते हैं। नेहरू नियोजित सम्मोहन का प्रयोग नहीं कर रहे, लेकिन लोग सम्मोहित हो रहे हैं। नेहरू को पता भी नहीं कि वे सम्मोहित कर रहे हैं, लेकिन लोग सम्मोहित हो रहे हैं। यह जो सम्मोहित होना है, यह...अब इससे हुआ क्या कि उन्होंने इन दोनों बातों को जोड़ कर कि मैं नेहरू, हिटलर को एक ही तरह का आदमी कहता हूं।

नहीं, आपके बारे में।
हां, और यह जो मजे की बात है कि मेरे बाबत तो कोई बात ही नहीं थी। मेरे बाबत तो कुछ पूछा ही नहीं गया था, मेरे बाबत कोई बात भी नहीं कही थी। मेरे बाबत तो जो...एक पत्रकार हैं, वे मेरे साथ यात्रा कर रहे थे ट्रेन में। उन्होंने मुझे कहा कि मुझे बहुत तकलीफें हैं। और मुझे किसी ने कहा है कि अगर मैक्सकोली को मैं मिलूं, तो शायद हिप्नोटिज्म से मुझे फायदा हो सकता है। पत्रकार को तकलीफें थीं। तो उन्होंने कहा कि मुझे किसी ने कहा है कि अगर मैक्सकोली को मिलूं तो फायदा हो सकता है। आपका क्या कहना है?
मैंने कहा कि फायदा हो सकता है। क्योंकि अगर तकलीफें आपकी काल्पनिक हैं तो हिप्नोटिज्म से दूर हो सकती हैं, उनसे मैंने कहा। तो उन्होंने कहा कि आप यह मानते हैं कि मुझको फायदा हो सकता है? मैंने कहा, बिलकुल फायदा हो सकता है। उन्होंने मुझसे कहा कि अगर मैं आपके पास आ जाऊं, तो आप कुछ हिप्नोटाइज करके मुझे फायदा पहुंचा सकते हैं?
मैंने कहा, मेरे पास वक्त नहीं है। लेकिन अगर वक्त हो तो आपको फायदा पहुंचाया जा सकता है--एक ही शर्त पर कि आपकी जो तकलीफें हैं, वे काल्पनिक हों। अगर तकलीफें असली हैं तो उसमें कुछ फायदा नहीं पहुंचाया जा सकता।
तो उन्होंने मुझसे पूछा कि आप इसमें विश्वास करते हैं कि इससे फायदा पहुंच सकता है? मैंने कहा, बिलकुल पहुंच सकता है, क्योंकि वह तो बिलकुल साइंस की बात है। अगर आपकी तकलीफ काल्पनिक है, तो आपको सुझाव देने से फायदा पहुंचाया जा सकता है।
जैसे एक आदमी के सिर में दर्द है। सिर में दर्द वास्तविक भी हो सकता है। अगर वास्तविक हो तो हिप्नोटिज्म से कोई फायदा नहीं हो सकता। लेकिन सिर में दर्द काल्पनिक भी हो सकता है। और अगर काल्पनिक है तो उस आदमी को मूर्च्छित करके सुझाव दिया जा सकता है कि दर्द खत्म हो गया। और दर्द खत्म हो जाएगा, क्योंकि वह था ही नहीं।
उन सज्जन से मैंने कहा कि आपको फायदा पहुंच सकता है। आपको बहुत तकलीफ है और आपको लगता है कि डाक्टर कहते हैं कि आपको कोई तकलीफ है नहीं, तो आप मैक्सकोली से मिल लें। और अगर संभव हो, अगर मुझे कभी वक्त हो, तो दो-तीन दिन के लिए मेरे पास आ जाएं।
उन सज्जन ने जाकर कहा कि मैं भी हिप्नोटाइज करता हूं। मैं भी हिप्नोटिज्म में विश्वास करता हूं। और मेरा कहना यह है कि मैं हिप्नोटिज्म से फायदा भी पहुंचा सकता हूं। ये सारी की सारी बातें रिपोर्ट की हैं। अब यह बिलकुल पर्सनल बातचीत थी, जिसमें उनकी बीमारी के लिए मैंने कहा था।

और आप अपनी आयोजित सभा में हिप्नोटिज्म भी करते हैं, ऐसा भी कहा।
ये सब बिलकुल बातें झूठी हैं, सारी की सारी झूठी बातें हैं। हां, वे किस तरह चलीं। यह जो सारी बात हुई, यह उन सज्जन से मेरी बात हुई थी जिन्होंने रिपोर्ट किया, फिर उन्होंने सबको जोड़ा।
जो लोग ध्यान करने बैठते हैं, ध्यान की स्थिति में कुछ घटनाएं घटनी शुरू होती हैं। जैसे अगर किसी व्यक्ति के मन में बहुत दिन का कोई रुदन रुका हो, रोना रुका हो, जो उसने सप्रेस किया हो, तो ध्यान की रिलैक्स हालत में आंख से आंसू बहने शुरू हो जाएंगे। रोना भी आ सकता है, हंसना भी आ सकता है, शरीर कंप भी सकता है, वह सारी स्थितियां हो सकती हैं।
वह सारे पत्रकारों ने वहां नारगोल के कैंप में देखा था कि कुछ लोगों को रोना आ जाता है, कोई किसी का शरीर कंपने लगता है। वह सब, उस दिन मेरी जो व्यक्तिगत उनसे बात हुई, उस बात को और इन सबको जोड़ कर यह नतीजा निकाला कि मैं भी लोगों को हिप्नोटाइज करता हूं। उससे उनको सारी ये बातें पैदा हो जाती हैं।

दिस टाइम आई हैव नॉट सीन अरेंजमेंट्‌स ऑफ योर मीटिंग। लास्ट टाइम व्हेन देअर वाज़ ए मीटिंग देअर आई हैव सीन एक्चुअली दैट योर प्लेटफार्म वाज़ क्वाइट एट हाइट, रेज्ड प्लेटफार्म। एंड व्हेन एवरीबडी, यू आस्क देम टु गो फॉर प्रेयर ऑर समथिंग, आल लाइट्‌स वर पुट ऑफ एक्सेप्ट दि लाइट ऑन योर हेड।
नहीं, नहीं, नहीं। वह रह गई होगी। हां, वह कुछ गलती हो सकती है। लेकिन प्रकाश तो सारे ही बुझा देने को मैं कहता हूं।

नहीं मैं इसलिए कहा, आपने कहा कि वह अपने मुंह पर, हिटलर, वह प्रकाश रखता था। क्योंकि जो लोग आंख अगर खुली रखते हैं...।
मैं समझ गया, मैं समझ गया आपकी बात। हो सकता है, वह हो सकता है। लेकिन वहां तो जो हम रात को ध्यान के लिए बैठते हैं, तो सारे लोगों की आंख बंद करवा देते हैं। तो मेरे सिर पर अगर लाइट रहा भी हो, तो किसी मतलब का नहीं है।

आंख बंद करने की तो आप बात करते हो न! वे लोग बंद करते हैं कि नहीं, यह किसको मालूम।
यह मैं समझ गया, यह मैं समझ गया। वह अगर प्रकाश रहा भी होगा तो मेरी आयोजना से नहीं, क्योंकि मैं तो चाहता हूं कि सारे प्रकाश बुझा देने चाहिए।

हमने जो हिप्नोटिज्म का पढ़ा और जो व्यवस्था यहां देखी थी, इसलिए ही सब...।
हां, इसी तरह सब जुड़ जाता है, यह सब जुड़ सकता है, यह खयाल में जुड़ सकता है। अब मंच, मैंने कहा कि मंच ऊपर बनाया जा सकता है हिप्नोटाइज करने के लिए, और बोलने के लिए भी मंच ऊपर बनाना पड़ेगा। ये तो और बातें हैं न! आखिर बोलना पड़ेगा, तो मेरा मंच नीचे अगर बना दें तो आप मुझे नहीं देख सकोगे।

इफ इट इज़ एट ए पर्टिकुलर हाइट ओनली।
हां, अगर उसकी आयोजना की जाए और एक पर्टिकुलर हाइट पर रखा जाए, तो उसके परिणाम हिप्नोटिक होते हैं। और ये अनजाने भी हो सकते हैं। यही मैंने कहा था कि हिटलर जान कर कर रहा है। नेहरू को कुछ पता भी नहीं है, लेकिन अनजाने में ये हो सकते हैं। और फिर यह जो मास हिप्नोसिस है, वह चाहे जान कर हो रही हो, चाहे अनजाने हो रही हो, वह माइंड को एक तरह का नुकसान पहुंचाती है। क्योंकि वह जो माइंड है, उसकी वह विचार करने की क्षमता कम करती है।
अब मैं तो बिलकुल उलटा आदमी हूं, क्योंकि मैं यह कह रहा हूं कि विचार करने की क्षमता बढ़नी चाहिए। मेरी चेष्टा यह है कि आदमी जितना क्रिटिकल और जितना विचारपूर्ण हो सके, उतना मूल्यवान है। तो मैं तो हिप्नोसिस के पक्ष में कैसे हो सकता हूं? लेकिन उनसे जो मैं बात किया था, वह बिलकुल थेरेपी की तरह बात किया था।

सिंगल इंडिविजुअल की तरह।
सिंगल इंडिविजुअल की तरह उनसे कहा था कि अगर आपकी बीमारियां मानसिक, काल्पनिक हैं, तो हिप्नोसिस से फायदा हो सकता है। वह साइंटिफिक बात है, उससे फायदा पहुंचाया जा सकता है। उन्होंने यह समझा कि मैं यह कहता हूं कि मैं जो हिप्नोटिज्म करता हूं उससे तो फायदा पहुंचता है और दूसरे जो करते हैं उससे नुकसान पहुंचता है। ये सारी की सारी बातें हैं। इन सारी चीजों को जोड़ कर इस भांति पेश किया जा सकता है।
अब जैसे यह आपको दिखाई पड़ गया कि बल्ब जला हुआ है, मुझे पता भी नहीं। अब इसको खयाल में रखा जा सकता है। और कल मैं जब कहूं कि हिटलर अपने ऊपर प्रकाश रखता था, तो ये दोनों बातें जोड़ी जा सकती हैं। ये बिलकुल जोड़ी जा सकती हैं, इसमें कोई शक नहीं।

यह स्पष्टता नहीं हुई थी तो ऐसा ही था।
सहज ही, बिलकुल सहज जुड़ सकता है। मैं तो हिप्नोटिक सारे मेथड्‌स के विरोध में हूं, सिर्फ थेरेपी को छोड़ कर।

थेरेपी को छोड़ कर।
थेरेपी को छोड़ कर। आदमी को किसी भी तरह से, सिवाय उसके तर्क को प्रभावित किए और किसी भी तरह से प्रभावित करना, उसकी आत्मा को नुकसान पहुंचाना है। क्योंकि तब हम उसकी आत्मा को मौका नहीं देते, हम उसको पीछे से पकड़ लेते हैं तरकीब से। और वह जो तरकीब से पकड़ना है वह उसकी आत्मा को गुलाम बनाना है। थेरेपी की तरह छोड़ कर हिप्नोटिज्म के सारे के सारे प्रयोग मनुष्य को नुकसान पहुंचाने वाले हैं।
अभी तो वे बहुत तरकीबें कर रहे हैं ईजाद। अभी मैंने पढ़ा कि अमेरिका में एडवरटाइजमेंट के लिए वे एक नया प्रयोग कर रहे हैं।
अभी तो फिल्मों में एडवरटाइज करते हैं, तो अमेरिका में विरोध बढ़ता जा रहा है इसका, कि आप एडवरटाइज नहीं कर सकते हैं इस तरह। क्योंकि इस तरह आप हमारे साइक को प्रभावित करते हैं। हम फिल्म देखने जाएं, तो लक्स टायलेट साबुन खरीदिए! अखबार पढ़ें, तो लक्स टायलेट साबुन खरीदिए! तो आप हमारे दिमाग को इस तरह सजेस्ट करते हैं। और धीरे-धीरे लक्स टायलेट हमको पकड़ जाती है, हम बाजार में खरीद लेते हैं। तो आप हमारी बुद्धि को प्रभावित नहीं करते हैं, आप सजेस्ट करते हैं; और हमको नुकसान पहुंचाते हैं। आप गलत साबुन भी पकड़ा सकते हैं। यह जनता के साथ अत्याचार है। इसकी हवा अमेरिका में पैदा होनी शुरू हो रही है। तो अब इससे बचने के लिए क्या किया जा सकता है! इस पर तो कानून भी अमेरिका में दस साल के भीतर बन जाएगा कि आप इस तरह प्रभावित नहीं कर सकते हैं। क्योंकि यह नाजायज तरीका है एक तरह से।

ऐसा कानून अपने जो प्रीचर्स हैं उनके प्रति भी नहीं आ जाना चाहिए?
आना चाहिए कभी न कभी, आना चाहिए। क्योंकि आदमी के तर्क को प्रभावित किए बिना और जितनी तरकीबें हैं, वे सब आदमी को नुकसान तो पहुंचाती ही हैं।
तो अब उन्होंने एक तरकीब ईजाद की है, कि जैसे आप फिल्म देख रहे हैं, तो आपको अब सीधा पर्दे पर लक्स टायलेट न दिखाई जाएगी। फिल्म चल रही है, और बीच चलती फिल्म में, बहुत थोड़े सेकेंड को लक्स का एडवरटाइजमेंट निकलेगा। वह आपको दिखाई भी नहीं पड़ेगा कांशसली। यानी वह तो बहुत ही, अगर दस हजार लोग बैठे हैं, तो मुश्किल से दस लोग पकड़ पाएंगे कि वहां बीच में लक्स का एडवरटाइजमेंट भी निकल गया। लेकिन आपका जो सब-कांशस माइंड है, उस पर उसका इंपैक्ट पड़ जाएगा।
और अभी उन्होंने इस पर प्रयोग करके पाया कि यह काम कर जाएगा। और वह और भी खतरनाक है। क्योंकि आपको पढ़ने में भी नहीं दिखाई पड़ेगा कि लक्स टायलेट! वह सिर्फ निकल जाएगा एक झटके में। और उसका जो इंपैक्ट है निगेटिव, वह आपके माइंड पर छूट जाएगा। बाजार में जब आप जाएंगे तो आपको खयाल आएगा कि लक्स खरीद लेनी चाहिए। और वह आपके सब-कांशस माइंड से होगा।

यह तो उससे भी ज्यादा खतरनाक है!
यह खतरनाक है। यह मैं कह रहा हूं, यह मैं कह रहा हूं कि हिप्नोटिज्म कई तरह के खतरनाक रास्तों पर कई सुझाव दे रहा है। स्टैलिन ने उपयोग किया खुले आम। हिटलर तो खुले आम उपयोग करता था। सारी दुनिया का विज्ञापनबाज उसका पूरा उपयोग करता है, पूरा उपयोग करता है। राजनीतिक उपयोग करता है। धर्मगुरु बहुत दिन से उपयोग करता रहा है। सबसे पहले उसी ने उपयोग किया है। बाकी लोग पीछे धीरे-धीरे उपयोग किए हैं, वह सब उपयोग करता रहा है। अब यह सारा का सारा उपयोग मनुष्य की आत्मा को मुक्त नहीं होने देता।
तो मैं तो बुनियादी रूप से विरोध में हूं। मेरा कहना यह है कि हिप्नोटिज्म के बाबत सबको जानकारी दी जानी चाहिए, ताकि प्रत्येक आदमी सचेत रह सके कि उसे हिप्नोटाइज करके प्रभावित तो नहीं किया जा रहा है! मैं तो इसके पक्ष में हूं। और वह सारा अखबार यह चर्चा करता है कि मैं हिप्नोटिज्म के पक्ष में हूं और हिप्नोटाइज करता हूं।

अच्छा जैसे यह आपने हिप्नोटिज्म के बारे में क्या सच बात थी वह बताई, उसी तरह से अभी तक दूसरी ऐसी कौन सी चीज आपके विरुद्ध प्रोपेगेंडा हुआ कि जिसमें आप मानते नहीं हों और प्रेस वालों ने प्रोपेगेंडा किया?
करीब-करीब ऐसा हुआ है, कुछ बातों को तोड़ कर...जैसे सेक्स के बाबत जो मैं कहा हूं। जैसे मैंने कहा कि मेरा मानना यह है कि कम से कम सात वर्ष तक छोटे बच्चों को घरों में वस्त्र पहनाने पर आग्रह नहीं किया जाना चाहिए। वे जितनी देर नंगे खेल सकें खेलें। घर के बाहर जाएं, कपड़े पहन लें। और चौदह वर्ष तक के बच्चों को भी घर में, बाथरूम में, अगर वे नंगे नहाना चाहें, घर के आंगन में आकर नंगे कपड़े बदलना चाहें, तो उन पर बहुत जोर नहीं दिया जाना चाहिए। क्योंकि मेरी समझ यह है कि बच्चे जितने एक-दूसरे के शरीर से परिचित हो जाएं, उनके जीवन में शरीर के प्रति आकर्षण उतना ही कम और क्षीण हो जाता है।
अब इस बात को तोड़-मरोड़ कर ऐसा पेश किया गया है कि मैं तेरह-चौदह वर्ष के बच्चों को सड़कों पर नंगा घुमाना चाहता हूं। इसे तोड़-मरोड़ कर जो शक्ल दी जाती है वह शक्ल यह है कि मैं कुछ इसके पक्ष में हूं कि न्यूडिस्ट क्लब हों, मैं इसके पक्ष में हूं कि लोग नंगे सड़कों पर घूमें, यह उसको शक्ल दी जाती है।
मेरा कुल कहना इतना था कि मनुष्य के मन में जीवन भर जो एक-दूसरे को नंगा देखने की तीव्र आकांक्षा है--उसकी वजह से अश्लील पोस्टर पैदा होता है, अश्लील कहानी बनती है, अश्लील फिल्म बनती है। और हम अगर अश्लील कहानी और फिल्म को बंद करना चाहें, तो इससे कुछ बंद होने वाला नहीं है, जब तक कि वह मन की जो हमारी जिज्ञासा है उसको क्षीण करने के कोई उपाय न हों। और उसको क्षीण करने का सर्वाधिक श्रेष्ठतम उपाय यह है कि बच्चों की जिज्ञासा, स्त्री और पुरुषों के शरीर देखने की, इतनी सहज तृप्त हो जानी चाहिए कि बाद में वह प्राणों को खींच कर तृप्ति की नई मांग न करे।
अब उसको तोड़-मरोड़ कर शक्ल देने की कोशिश की गई और उसके खिलाफ, और पक्ष और विपक्ष, वह सारी बात चलाई गई। तो चीजों को थोड़ा सा शक्ल देने से...मैंने कहा है और मैं मानता हूं कि बच्चों को हम जितनी देर तक, जितनी देर तक उनको कांशस न बनाएं बॉडी के लिए, नंगेपन के प्रति कांशस न बनाएं, उतना हितकर है।

जिज्ञासा एक बात होती है, और जो चौदह और पंद्रह साल के बाद जो अर्ज होती है, वह दूसरी बात है।
बिलकुल दूसरी बात है, यह तो मना नहीं करता हूं। वह जो अर्ज है, वह अर्ज बिलकुल रहेगी; लेकिन वह अर्ज नार्मल होगी। अभी वह एबनार्मल हो गई है। अब जैसे एक लड़का एक लड़की को देख कर, पंद्रह या सोलह साल का लड़का या बीस साल का लड़का एक लड़की को देख कर मोहित हो जाए, आकर्षित हो जाए, यह समझ में आता है। लेकिन उस लड़की को पत्थर मारे और एसिड फेंक दे, यह एबनार्मल हो गया। वह उसको प्रेम-पत्र लिख दे, यह भी समझ में आता है, यह बिलकुल नार्मल है। यह बिलकुल नार्मल है। लेकिन वह एसिड फेंक दे उसके ऊपर और पत्थर मार दे, यह बिलकुल एबनार्मल है।
यह जो हमारा जितना, जैसा व्यक्तित्व है आज, उसमें नार्मल अर्ज तो बहुत कम रह गई है, एबनार्मल आब्सेशंस बहुत ज्यादा हैं।
अब मैं तो कालेज में बहुत दिन था, तो मैं देख कर दंग रह गया कि यह सब क्या हो रहा है! यानी हालत ऐसी हो गई है, एक लड़की का निकलना मुश्किल हो गया है कैंपस में से। वह निकल रही है तो मतलब बिलकुल ही विक्टिम है एक तरह की, शिकार है, चारों तरफ...
और यह सारी चीज सबको ज्ञात है। लेकिन इसको सबको बरदाश्त किया जा रहा है। इसकी कोई फिकर नहीं कि इसको तोड़ने के लिए क्या किया जाए।

इज़ इट नॉट ड्यू टु एनवाइरनमेंट?
हां, एनवाइरनमेंट है। और एनवाइरनमेंट को ही तोड़ने के लिए तो मैं सारी बात कर रहा हूं। यानी मेरा कहना यह है कि जितना सेक्स सप्रेसिव एनवाइरनमेंट होगा, उतनी एबनार्मलिटी पैदा होगी।

सेक्स को एनवाइरनमेंट से--ऐसी बात मैं नहीं कह रहा हूं। एनवाइरनमेंट को तो दूसरी बात कहते हैं। जो साहित्य हो, जो फिल्म हो, वह सब एनवाइरनमेंट है।
वह सब क्यों पैदा होती है--साहित्य और फिल्म? वह साहित्य और फिल्म इसलिए पैदा होती है कि माइंड डिमांड करता है। नहीं तो वह पैदा नहीं होती।

नहीं, वह माइंड डिमांड ऐसा ही करता है क्या?
माइंड इसलिए डिमांड करता है कि आपने सप्रेस किया हुआ है, नहीं तो माइंड डिमांड नहीं करेगा।
जैसे मैं आपको उदाहरण के लिए कहूं, मैं आपको उदाहरण के लिए कहूं। बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है अपनी आत्मकथा में कि जब मैं छोटा था, तो इंग्लैंड में स्त्रियों के पैर के अंगूठे देखना भी बहुत मुश्किल था; घाघरा ऐसा पहना जाता था कि जमीन को छूता रहे। तो अगर स्त्री का कभी पैर का अंगूठा भी दिख जाता था तो काम-उत्तेजना पैदा हो जाती थी। और वह लिखता है कि अब नब्बे वर्ष की उम्र में, अब मैं देखता हूं कि स्त्रियां जांघों तक नंगी घूम रही हैं, और उनको जांघों तक देख कर भी वह काम-उत्तेजना लोगों में पैदा नहीं होती जो आज से अस्सी साल पहले, सत्तर साल पहले, अंगूठा देख कर पैदा हो जाती थी। तो मुझे हैरानी होती है कि बात क्या है? मामला क्या है?
वह अंगूठे तक को छिपाया गया था, तो अंगूठा तक आकर्षण का कारण बन गया था। जितना हम छिपाते हैं, जितना हम रोकते हैं, उतना आकर्षण बढ़ता चला जाता है। और वह जितना आकर्षण बढ़ता है, फिर उसको देखने की इच्छा बढ़ती है। फिर देखने के लिए हमें दूसरे रास्ते निकालने पड़ते हैं। फिर हम फिल्म में देखेंगे; फिर किताब छपवाएंगे, उसमें देखेंगे; फिर गंदी तस्वीर बनाएंगे, उसमें देखेंगे। और हम लोगों से कहेंगे कि गंदी तस्वीरें और फिल्मों की वजह से वातावरण बिगड़ रहा है।
मेरा कहना है कि वातावरण बिगड़ा है इसलिए गंदी फिल्म और तस्वीर पैदा होती है। नहीं-नहीं, वातावरण बेसिक नहीं है, वातावरण बेसिक नहीं है। अगर आप जाकर एक आदिवासी को एक नंगी औरत की तस्वीर दिखलाएं, तो वह उसमें कोई ज्यादा उत्सुकता नहीं लेगा--जितनी आप उत्सुकता लेंगे। क्योंकि उसकी समझ के बाहर है कि इसमें उत्सुकता लेने जैसा है क्या? स्त्रियां नंगी घूम रही हैं।
यह मैंने उदाहरण के लिए कहा तो अखबारों ने छापा कि मैं सारी दुनिया को आदिवासी बनाना चाहता हूं। मैं विकृत करने का उदाहरण दे रहा हूं। मैं किसी को आदिवासी नहीं बनाना चाहता। कुल जमा इतना कहा था कि एक आदिवासी के माइंड को देख कर हमें यह खयाल में आना चाहिए कि अगर स्त्रियां नग्न हैं आदिवासी समाज में, तो स्त्रियों की नंगी तस्वीर देखने के लिए आदिवासी की कोई उत्सुकता नहीं है।

भगवान, जो प्रिमिटिव आइडियालॉजी का प्रिमिटिव आइडिया था, तो फिर वह तो स्टैगनेंसी आ गई। आदमी है तो आज तो पेपर क्लोथ्स भी आ गए हैं। इस तरह की बात होती है कि पेपर क्लोथ्स आ गए हैं, बारिश आ गई तो क्या होगा! लेकिन जो प्रिमिटिव डेज के आदिवासी की बात थी, तो आदिवासी के दिलों में कुछ ऐसी बात नहीं पैदा होती थी आज तक, क्योंकि उसमें कोई छिपाने की कोई बात नहीं थी, वे ऐसे ही नंगे घूमते हैं आज भी। तो जो सोसाइटी में दो हजार साल, पांच हजार साल, दस हजार साल तक का यह जो क्रांति की है, यह जो व्यवहार किया है, उसमें कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आता है? वह पहले का ही आइडिया आपने रखने की हिमायत की।
नहीं, मैं यह भी नहीं कह रहा हूं, मैं यह भी नहीं कह रहा हूं। मैं जो कह रहा हूं वह सिर्फ आपको एक उदाहरण दे रहा हूं। यह कह नहीं रहा हूं कि वैसा हो जाना चाहिए, वह आइडिया रखना चाहिए। कुल कह इतना रहा हूं, कुल कह इतना रहा हूं कि आदिवासी के दिमाग में सेक्स का वैसा आब्सेशन नहीं है। क्यों नहीं है? उसके लिए नंगी तस्वीर में क्यों आकर्षण नहीं है? हमें क्यों बहुत आकर्षण है?
हमें इतना आकर्षण इसीलिए है कि शरीर को देखने की बच्चे की जो सहज जिज्ञासा है, उसको हमने कुंठित किया है, रोका है, दबाया है। वह दबी हुई इच्छा दूसरे-दूसरे रास्तों से नंगे शरीर को देखने के लिए मार्ग खोजती है। और ये मार्ग ज्यादा खतरनाक हैं। क्योंकि वह जो सीधा शरीर देखना है--अब यह हैरानी की बात है--अगर आप सीधा नग्न शरीर देख लें तो बात खत्म हो जाती है। और नंगी तस्वीर देखें तो बात खत्म नहीं होती। नंगी तस्वीर बहुत लुभावनी है, सीधे शरीर से बहुत ज्यादा। क्योंकि नंगी तस्वीर बनाई गई है पूरे के पूरे आपके माइंड को खींचने और आकर्षित करने को। शरीर एक मामला है, पर्टिकुलर आप क्या-क्या चाहते हैं, वह सब उसमें उभारा गया है। वह सब उसमें दिखाया गया है। उस सबको खींचने के लिए आपको वह तैयार की गई है। तो वह जो नंगी तस्वीर है वह ज्यादा नंगी है, नंगे आदमी के बजाय। नंगा आदमी इतना नंगा कभी भी नहीं है।
तो मेरा कहना यह नहीं है कि आप आदिवासी हो जाएं, मेरा कहना यह है कि यह सिर्फ समझने की बात जरूरी है कि क्या हम अपने बच्चों को इस तरह बड़ा कर सकते हैं कि शरीर के प्रति वे ज्यादा स्वस्थ, सामान्य हों। और मेरा अपना समझना है कि वे बच्चे इस तरह विकसित किए जा सकते हैं कि ज्यादा स्वस्थ और सामान्य हों। और उनके सामान्य और स्वस्थ होने के लिए जरूरी है कि हम बच्चों के मन में बचपन से ही शरीर की बहुत ज्यादा कांशसनेस न भर दें।
अभी एक छोटा सा बच्चा, तीन साल का बच्चा, और वह घर में नंगा आ जाए तो शीऽऽऽ! चलो, जल्दी से कपड़े पहनो!
उस बच्चे को भी ऐसा लग जाता है कि यह नंगा होना कोई भारी पाप हो गया। शरीर के प्रति वह भी भयभीत हो गया; वह भी डर गया। शरीर के प्रति उसे अभी कुछ भी पता नहीं था, अभी उसे कोई मतलब न था शरीर से; अभी वह नंगा खड़ा हो सकता था, उसे खयाल भी न था। हमने उसको भर दिया भय से, हमने डरा दिया उसे। वह जो हमारा माइंड है, हमने उस बच्चे में आरोपित करना शुरू कर दिया।
मेरा कहना यह है कि बच्चे, जितनी दूर तक सेक्स मैच्योरिटी नहीं आती, उतने दूर तक शरीर के बाबत उनको सामान्य-स्वस्थ दृष्टि होनी चाहिए और हमें उन्हें भयभीत नहीं करना चाहिए।

क्लोदिंग जो है, बच्चे को जो पहनाते हैं, वह सिर्फ सेक्स के लिए ही है?
न, न, न। सिर्फ सेक्स के लिए नहीं है। सिर्फ सेक्स के लिए हो गया है लेकिन। अगर आप शरीर को ढंकने के लिए...

वी आर एक्चुअली लुकिंग फ्रॉम दैट एंगल। एक्चुअली लुकिंग टुडे फ्रॉम दैट एंगल।
हां-हां, वही कारण हो गया है। बच्चे को आप कपड़े पहनाते हैं सर्दी-जुकाम के लिए और धूप के लिए, कोई मना नहीं करता। लेकिन उसमें जो सेक्सुअलिटी है हमारे कपड़ों को पहनाने में...।

ऐसा नहीं भी तो हो सकता है।
यह तो आप एक-एक घर में जाकर अनुभव करके देखें, तो आपको पता चलेगा कि आप कपड़े सिर्फ इसलिए नहीं पहना रहे हैं कि वे धूप में बचा लेंगे, आप इसलिए नहीं पहना रहे हैं कि सर्दी में बचा लेंगे, कपड़े आप इसलिए पहना रहे हैं--इसलिए भी पहना रहे हैं, ज्यादा इसलिए ही पहना रहे हैं--कि वे शरीर के नंगेपन को छिपाएं, शरीर को ढांकें, शरीर प्रकट न हो जाए। और शरीर के नंगेपन के प्रति एक भय जो हमारे मन में बैठा हुआ है, वह भय हम बच्चों पर थोप देते हैं। वह भय फिर पीछे काम करता है और ऑब्सेशन बनता है।
तो मेरा कहना कुल इतना है, और फिर मैं यह भी नहीं कहता कि जो मैं कहता हूं वह मान लिया जाए, मेरा कुल कहना इतना है कि इन सारे जीवन के मसलों पर चिंतन और विचार होना जरूरी है।
अब विनोबा जी कहते हैं कि पोस्टर मत लगाओ नंगे।
वे पोस्टर नहीं रुक सकते, वे लगेंगे। क्योंकि आदमी नंगा पोस्टर देखना चाहता है। तुम दीवार पर नहीं लगाओगे, बाजार में बिकेगा, किताब में छप कर बिकेगा। वह बिकेगा, वह रुक नहीं सकता। वह नंगा पोस्टर उसी दिन बंद होगा, जिस दिन आदमी, खुद आदमी के भीतर नंगेपन का जो भय है और घबड़ाहट है...।

वह कहीं न कहीं से निकलेगी।
हां, वही मैं कह रहा हूं कि वह हमारी ट्रेनिंग जो बचपन से है, वह ट्रेनिंग हमें पूरी बदल देनी पड़ेगी। बर्ट्रेंड रसल ने एक स्कूल खोला इंग्लैंड में...

वही मैं बात कह रहा हूं कि पोस्टर जो होता है, वह कोई नंगे बालक की तस्वीर होती है तो लोगों का आकर्षण नहीं होता है।
हां, वह नहीं होगा न। वह तो ठीक है, वह तो नहीं होगा। वह तो नहीं होगा। और आप बालकों को भी अगर बिलकुल ढांक-ढांक कर रखते हैं तो बालकों तक को नंगा देखने का आकर्षण पैदा होना शुरू हो जाता है। बालकों तक, छोटी बच्चियों तक के साथ व्यभिचार के मामले हैं; ऐसी बच्चियों के साथ, पांच साल और छह वर्ष की बच्चियों के साथ। और यह तो हद एबनार्मलिटी की बात है कि यह क्या हो रहा है? यह यहां तक पैदा हो सकता है। अगर हम रोकते ही चले गए तो इसका अंतिम परिणाम यह होने वाला है।
अभी जो न्यूडिस्ट क्लब यूरोप और अमेरिका में बनने शुरू हुए हैं, उनके अनुभव बहुत रिवीलिंग हैं। मैंने दो-चार किताबें उठा कर देखीं, जिनमें उन लोगों ने अनुभव लिखे हैं जो न्यूडिस्ट क्लब में गए हैं। और उनके अनुभव बहुत अदभुत हैं।
पहला अनुभव तो यह है कि पहले तो उन्होंने सोचा था कि बहुत ही आनंदपूर्ण होगा जहां सारी स्त्रियां और पुरुष नंगे होंगे। और देख कर बड़ी खुशी होगी। और शायद हम देखते ही रह जाएंगे, फिर कभी आंख नहीं हटाएंगे। लेकिन उन्होंने कहा कि पंद्रह मिनट के बाद बात भूल गई, पंद्रह मिनट के बाद बात भूल गई और व्यर्थ हो गई, कि लोग नंगे हैं, ठीक है, बात खत्म हो गई। बल्कि एक आदमी ने लिखा कि मैंने उन स्त्रियों को नंगा देखा न्यूडिस्ट क्लब में, तब मुझे वे उतनी आकर्षक नहीं लगीं; और जब वे कपड़े पहन रही थीं आकर बाहर निकलने के लिए, तब मुझे ज्यादा आकर्षक लगीं। वे जो कपड़े पहनते वक्त ज्यादा आकर्षक लगीं, वे नंगे होते वक्त आकर्षक नहीं थीं।
असल में नंगे शरीर में क्या हो सकता है आकर्षण का? आकर्षण कल्टीवेटेड है, हमने पैदा किया है बहुत तरकीबों से। और जितना निषेध किया है, उतना पैदा होता चला गया है।

बट फॉर कंटिन्युएशन ऑफ दि वर्ल्ड, दिस आकर्षण इज़ ए नेसेसरी थिंग ऑर नॉट?
आकर्षण स्वस्थ बिलकुल जरूरी है, बिलकुल जरूरी है। अस्वस्थ नहीं, अनहेल्दी नहीं, बीमार नहीं। एक स्त्री एक पुरुष में आकर्षित हो, यह समझ में आने वाली बात है। एक पुरुष एक स्त्री में आकर्षित हो, यह समझ में आने वाली बात है। लेकिन आकर्षण स्वस्थ हो, शुभ हो, सुंदर के प्रति हो, जीवन को ऊंचाइयों की तरफ ले जाने वाला आकर्षण हो, तो समझ में आता है। लेकिन जो हमारा आकर्षण है वह जीवन को नीचाइयों की तरफ ले जाने वाला है, ऊंचाइयों की तरफ ले जाने वाला नहीं है।
कुछ मामले हुए हैं मरी हुई स्त्रियों के साथ व्यभिचार के, जिनको कब्रों में से निकाल कर व्यभिचार किया गया। इस आकर्षण को शुभ नहीं कहा जा सकता और न स्वस्थ कहा जा सकता है। यह पागलपन है, मैडनेस है बिलकुल। एक स्त्री मर गई हो, और उसके ताबूत में से उसकी लाश को निकाल कर उसके साथ व्यभिचार किया जाए। यह जो आदमी कर रहे हैं, इन आदमियों को हमें सोचना पड़ेगा कि कुछ मामला क्या हो गया है? इनको क्या हो गया है? मेरा मतलब यह है...।

इट इज़ सो स्ट्रेंज!
हां! यानी यह जो मामला है न, यह मामला थोड़ा सोचने जैसा है कि यह मैडनेस की बात हो गई, अब यह आकर्षण नहीं रहा।

शारीरिक आकर्षण नहीं होना चाहिए!
न-न, मैं यह नहीं कह रहा। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि यह आकर्षण...यह भी आकर्षण है न!

लेकिन परवर्शन है।
हां, परवर्शन है न! तो यही मेरा कहना है कि आकर्षण तो रहे, लेकिन शुभ हो, परवर्टेड न हो; स्वस्थ हो, जीवन को ऊंचा ले जाने वाला हो, समझ में आता है। हम एक-दूसरे के शरीर में भी आकर्षित हों, यह भी समझ में आता है। लेकिन यह आकर्षण रुग्ण और बीमार नहीं होना चाहिए।
और अभी सारा आकर्षण रुग्ण और बीमार है। एकदम रुग्ण और बीमार है। अभी आकर्षण हमारा स्वस्थ नहीं है। और यह जो रुग्ण स्थिति है, इस रुग्ण स्थिति को तोड़ने के लिए कुछ न कुछ किया जाना चाहिए। और करने में जरूरी यह होगा कि हम जितना व्यक्ति को जीवन की सच्चाइयों से परिचित कराते हुए आगे बढ़ाएं, उतना अच्छा है। जीवन की सच्चाई जितनी ज्ञात हो, उतना आदमी स्वस्थ होता है। और जीवन की सच्चाइयां जितनी छिपाई जाएं, उतना आदमी अस्वस्थ होता है।
बच्चे सीखेंगे वे सारी बातें, जो आप उनसे छिपा रहे हैं। अच्छा हो कि आप न छिपाएं, अच्छा हो कि उनको साफ सुव्यवस्था से समझाएं। सेक्स की पूरी शिक्षा दी जाए, सेक्सोलॉजी की पूरी शिक्षा दी जाए।

सेक्स नॉलेज विल बी देअर। बट व्हाट इज़ दि यूज ऑफ रिमेनिंग अनड्रेस्ड?
यह मैं नहीं कह रहा हूं। आप इससे घबड़ा क्यों रहे हैं?

नहीं, घबड़ा तो नहीं रहा हूं। मैं यह जानना चाहता हूं।
मैं यह भी नहीं कहता हूं कि अनड्रेस्ड रहें। मेरा कहना है कि ड्रेस्ड और अनड्रेस्ड का वह जो बहुत पागल मोह है, वह क्षीण हो जाना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि कोई नंगे घूमते हुए जाएं आप कहीं। लेकिन अगर एक आदमी नंगा बैठ कर अपने घर में नहाना चाहता है, एक बच्चा अपने घर में नंगा नहाना चाहता है, तो सारा का सारा घर पागल नहीं हो जाना चाहिए कि यह क्या हो रहा है!

भगवान, लेकिन हिंदुस्तान में तो हालत ऐसी है कि करीब साठ से सत्तर प्रतिशत तक लोगों को तो कपड़े पहनने को भी नहीं मिलते हैं। उनके बच्चे तो ऐसे ही घूमते हैं। फिर भी यही वातावरण पैदा होता है।
न, न, न। कहां! यह कहते भर हैं हम। कपड़े भला पहनने को नहीं मिलते, चिथड़े ही मिलते होंगे, लेकिन चिथड़ों से भी हम वही काम कर लेते हैं जो कोई आदमी बड़े से बड़े कीमती कपड़ों से करता होगा। माइंड के करने का सवाल है। कपड़े भी नहीं मिल रहे हैं, कपड़े भी नहीं हैं, लेकिन हम काम वही कर लेते हैं। और फिर भी मैं आपसे कहूंगा कि देहात के बच्चों में वह आकर्षण नहीं है, जो आपके शहर के बच्चे में होगा। देहात का बच्चा ज्यादा स्वस्थ है।

दैट इज़ फॉर डीसेंट लुकिंग। पैरेंट्‌स फील दैट दि चिल्ड्रेन शुड लुक डीसेंट, एंड दैट्‌स व्हाई दे आस्क, नॉट फॉर सेक्स रीजन्स।
वह डीसेंट...सेक्स भी आपके लिए इनडीसेंसी है एक। आज जो सेक्स की हालत है न, वह भी इनडीसेंसी है। अगर एक बच्चा आपसे सेक्स का कोई सवाल पूछता है, तो आप रोकेंगे उसे कि इनडीसेंट है यह सवाल! यह मत पूछो सबके सामने! यह बात मत पूछो, चुप रहो! डीसेंसी के लिए आपकी धारणा बहुत कुछ सेक्सुअल है।

इंडिविजुअली, आई विल नॉट ऑब्जेक्ट। आई बीइंग ए डाक्टर, आई विल आंसर दि क्वेश्चन।
मैं आपका नहीं कह रहा हूं। हां, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। हां, मैं चाहता हूं कि सभी आंसर दें। और सभी डाक्टर नहीं हैं। और उन सब तक यह खबर पहुंचानी है कि वे सब ये जवाब दे सकें, वे सब स्वस्थ उत्तर दे सकें, तो शुभ हो सकता है। लेकिन इन चीजों को बिगाड़ा जा सकता है। जो मैं कह रहा था, वह मैं यह कह रहा था कि इन सारी चीजों को बिगाड़ा जा सकता है।

आप रसेल की और उसके स्कूल की बात कर रहे थे अभी।
हां, रसेल ने एक स्कूल खोला इंग्लैंड में। इंग्लैंड में भी नहीं चलाया जा सका वह स्कूल। क्योंकि उस स्कूल में यह कोशिश की कि बच्चे स्कूल के ग्राउंड पर नंगे खेल सकें, स्कूल के स्विमिंग-पूल में नंगे नहा सकें। तो इंग्लैंड जैसे मुल्क में भी उस स्कूल को चलाना मुश्किल हो गया। हालांकि जो थोड़े से बच्चे उस स्कूल में पढ़े और लिखे--जो थोड़े से बच्चे, कोई तीस-चालीस बच्चे बर्ट्रेंड रसल को मिले, फिर स्कूल को तो जबरदस्ती पब्लिक ओपिनियन के दबाव में बंद करना पड़ा, क्योंकि बरदाश्त के बाहर हो गया--जो बच्चे भी उसके भीतर पले, कोई पांच-सात साल वह स्कूल चलता रहा, तो जिन लोगों ने भी जाकर उन बच्चों के पास रहे, उन्होंने कहा कि वे बच्चे बहुत ही स्वस्थ थे, कई अर्थों में स्वस्थ थे। जो हमको पागलपन पकड़े हुए थे, उनको बिलकुल भी नहीं थे। वे ज्यादा सहज और साफ थे।
वे होंगे ही! मेरा कुल कहना इतना है कि जिंदगी की कोई भी सच्चाई छिपाने से लाभ नहीं है। जिंदगी की सच्चाई छिपाने से नुकसान है। क्योंकि सच्चाई को उघाड़ने की कोशिश जारी रहेगी। जिंदगी जितनी साफ-सुथरी और सीधी-सीधी हो, कम छिपाई गई हो, उतना ज्यादा आदमी स्वस्थ हो सकता है।

भगवान, इफ यू डोंट माइंड, जस्ट वन मोर क्वेश्चन। आप आपके व्याख्यान वगैरह में विवेक और सत्य और विचार की ओर ज्यादा जोर दे रहे हैं। तो आदमी के विकास में श्रद्धा, भक्ति, प्रेम के स्थान के बारे में आप क्या कहते हैं?
बहुत स्थान है उनका, बहुत स्थान है। लेकिन मेरी दृष्टि में उनका स्थान परिणाम की तरह है। जैसे अगर कोई आदमी जीवन में विवेक से जीए, तो एक दिन श्रद्धा को उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन वह श्रद्धा विवेक-विरोधी नहीं होगी, वह विवेक से ही आएगी। और जिसको आप श्रद्धा कहते हैं, वह विवेक-विरोधी है। वह बिना विवेक के पहले ही आ जाती है। मैं उसके विरोध में हूं। जो श्रद्धा बिना विवेक के और विवेक के विरोध की तरह आ जाती है, मैं उसके विरोध में हूं। वह अंधापन है। मेरा मानना है कि अगर आदमी विवेक से जीए, तो भी उसके जीवन में एक श्रद्धा आएगी। लेकिन वह विवेक का ही फल होगी, वह उसके विचार की ही निष्पत्ति होगी।
भक्ति का हम सारा का सारा बात करते हैं, लेकिन जो भक्ति अंधी है और विश्वास पर खड़ी है, उसका मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है। मेरी दृष्टि में विचार करने वाला व्यक्ति भी जीवन में प्रेम को उपलब्ध होता है और विचार करने वाला व्यक्ति भी एक दिन उस जगह पहुंच सकता है जहां सारे जीवन के प्रति उसके भीतर से प्रेम बहने लगे, उस भक्ति को मैं भक्ति कहूंगा।
लेकिन अंधी भक्ति के मैं विरोध में हूं। विवेक के पहले जो विश्वास आ जाता है, मैं उसके विरोध में हूं। विवेक से ही जो आता होगा, उसकी बात अलग है, उसके मैं विरोध में नहीं हूं। और आना भी विवेक से ही चाहिए। अगर आपकी कोई श्रद्धा भी है, तो भी विवेक के ही आधार पर खड़ी होनी चाहिए। यानी उसके लिए भी आपके विवेक का ही बल होना चाहिए। मैं उसके विरोध में नहीं हूं। लेकिन जो चलता है उसके बिलकुल विरोध में हूं, क्योंकि वह बिलकुल विवेक-विरोधी है, बुद्धि-विरोधी है।

भगवान, विवेक का अर्थ आप क्या करते हैं?

विचार की शुद्धतम हो क्षमता।

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