POLITICS & SOCIETY
Naye Samaj Ki Khoj 11
Eleventh Discourse from the series of 17 discourses - Naye Samaj Ki Khoj by Osho. These discourses were given in RAJKOT during MAR 06-09 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य का इतिहास अशांति का और युद्धों का इतिहास रहा है। मनुष्य के अतीत की पूरी कथा दुख, पीड़ा, हिंसा और हत्या की कथा है।
आज ही यह कोई सवाल खड़ा नहीं हो गया है कि विश्व में शांति कैसे स्थापित हो, यह सवाल हमेशा से रहा है। यह सवाल आधुनिक नहीं है, यह मनुष्य का चिरंतन और सनातन का सवाल है। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध मनुष्य ने किए हैं। मनुष्य लड़ता ही रहा है। अब तक कोई शांति का समय नहीं जाना जा सका है! जो थोड़े-बहुत दिन के लिए शांति होती है वह भी शांति झूठी होती है। उस शांति में भी युद्ध की तैयारी चलती है। युद्ध के समय में हम लड़ते हैं और शांति के समय में हम आगे आने वाले युद्ध की तैयारी करते हैं।
एक छोटे से बच्चे से उसके एक पड़ोसी ने पूछा कि मैंने देखा है कि तुम एक छोटी सी पेटी में हमेशा पैसे इकट्ठे करते हो, ये पैसे तुम्हें किस बात के मिलते हैं और फिर इकट्ठा करके तुम क्या करते हो? तो उस बच्चे ने कहा, मुझे रोज रात को लीवर ठीक रखने की दवाई और तेल पीना पड़ता है। और जब मैं एक खुराक पी लेता हूं तो मुझे चार आने ईनाम के मिलते हैं, वह पैसे मैं पेटी में इकट्ठा करता हूं।
उस पड़ोसी ने पूछा कि फिर तुम उन इकट्ठे पैसों का क्या करते हो? उसने कहा, उनसे मेरे पिताजी फिर दवाई खरीद लेते हैं, फिर तेल खरीद लेते हैं। उन पैसों से पिताजी फिर लीवर ठीक करने की दवाई खरीद लेते हैं। पड़ोसी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, यह कैसा चक्कर हुआ!
हम थोड़े दिन शांति में रहते हैं, उस शांति में हम युद्ध का फिर इंतजाम कर लेते हैं। फिर हम युद्ध करते हैं। और युद्ध हम इसलिए करते हैं ताकि हम शांति पा सकें। और फिर हम जब शांत हो जाते हैं तो हम युद्ध की तैयारी करते हैं। युद्ध के समय हम मांग करते हैं कि शांति चाहिए और शांति के समय हमारी मांग चलती रहती है कि युद्ध चाहिए। बड़ी अदभुत, बड़े चक्कर की कथा है!
और अगर यह आज का कोई सवाल होता, अगर यह कोई कंटेम्प्रेरी सवाल होता, तो शायद आज की दुनिया में कोई भूल-चूक हम निकाल लेते और उसको ठीक कर लेते। यह सवाल हमेशा का है। यह कोई ऐसा नहीं है कि कोई यह कहने लगे कि दुनिया भौतिकवादी हो गई है इसलिए युद्ध हो रहे हैं। युद्ध हमेशा रहे हैं। चाहे राम का जमाना हो और चाहे कृष्ण का जमाना हो, चाहे राम-राज्य हो और चाहे कोई राज्य हो, युद्ध हमेशा रहे हैं। ये कोई भौतिकवाद के कारण युद्ध नहीं हो रहे हैं। या कोई कहता हो कि लोग ईश्वर पर अविश्वासी हो गए हैं, लोगों ने आत्मा-परमात्मा को मानना बंद कर दिया है इसलिए युद्ध हो रहे हैं, तो यह बात झूठी है, क्योंकि युद्ध हमेशा होते रहे हैं। और आत्मा और परमात्मा को मानने वाले लोग भी युद्ध करते रहे हैं।
इसलिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि यह समस्या सनातन है। अब तक की पूरी मनुष्यता का यह सवाल रहा है। यह आधुनिक प्रश्न नहीं है। और इसलिए जो इसे आधुनिक प्रश्न समझेगा वह इसका हल भी नहीं खोज सकता। यह बीमारी पुरानी है। और इसलिए मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में इस बीमारी का कारण खोजना जरूरी है। क्या कारण हो सकता है? युद्धों से सिवाय पीड़ा के कुछ भी उपलब्ध नहीं होता; फिर युद्धों में क्या कारण हो सकता है? कौन सा रस है आदमी को युद्ध के लिए, अशांति के लिए, हत्या के लिए, कौन सा आनंद है? दो-तीन बातें इस संबंध में समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात, एक सुबह टोकियो के हवाई अड्डे पर एक हवाई जहाज उड़ा। हवाई जहाज जब उड़ा तब उसके भीतर बैठे हुए यात्री तभी कुछ परेशान से हुए, क्योंकि हवाई जहाज बड़ा बेतरतीब भाग रहा था। फिर वह एकदम झटके के साथ ऊपर उठा। और जब वह ऊपर उठ गया तब उन्हें जोर से पायलट के कमरे से हंसने की आवाज सुनाई पड़ी। पायलट इतने जोर से हंस रहा था जिसका कोई हिसाब नहीं। एक यात्री ने पायलट के कमरे में झांका और पूछा कि इतने जोर से हंसने की बात क्या है? हंस-हंस कर लोट-पोट हुए जा रहे हो, मामला क्या है? उसने कहा, बड़ी मजाक हो गई है! मुझे एक पागलखाने में बंद कर दिया गया था, मैं वहां से निकल कर भाग खड़ा हुआ हूं। और मुझे यह जान कर हंसी आ रही है कि पागलखाने के अधिकारी बड़ी दिक्कत में पड़ गए होंगे। समझ भी न पा रहे होंगे कि मैं कहां निकल गया हूं! उन बेचारों के साथ बड़ी मजाक हो गई है!
उन हवाई जहाज के यात्रियों के साथ क्या हुआ होगा, आपको समझ में आता है? वह पायलट पागल है और पागलखाने से निकल भागा है, और हवाई जहाज लेकर उठ गया है ऊपर! और वह पागल यह कह रहा है कि पागलखाने के अधिकारियों के साथ बड़ी मजाक हो गई है। और उनका क्या हो रहा होगा, यह सोच कर वह हंसी से लोट-पोट हुआ जा रहा है।
पागलखाने के अधिकारियों को छोड़ दें एक तरफ, उस हवाई जहाज में बैठे हुए आदमियों का क्या हुआ होगा? उनके साथ तो और भी गहरी मजाक हो गई है!
आदमियत करीब-करीब इसी हालत में रही है आज तक। राजनीतिज्ञों के हाथ में समाज की पतवार है और राजनीतिज्ञ आज तक पागल आदमी रहा है, विक्षिप्त, न्यूरोटिक आदमी रहा है। दुनिया में लाख कोशिश करें हम शांति की, लेकिन जब तक राजनीतिक दिशा का आमूल परिवर्तन नहीं हो जाता है, दुनिया में कोई शांति स्थापित नहीं हो सकती। राजनीतिज्ञ बुनियादी रूप से पागल है। यह जो पोलिटीशियन है, यह कुछ बुनियादी रूप से विक्षिप्त है। इसका इलाज होना चाहिए और स्वस्थ राजनीतिज्ञ का जन्म होना चाहिए। अन्यथा कोई प्रार्थना, कोई सुझाव दुनिया में शांति नहीं ला सकता है। पागलों के हाथ में पतवार है समाज की! पागलों के हाथ में समाज की बागडोर है!
और राजनीतिज्ञ क्यों पागल है, यह समझ लेना जरूरी है। लेकिन हजारों साल से राजनीतिज्ञ की हम पूजा करते रहे हैं, इसलिए हमें समझना भी बहुत कठिन होगा कि राजनीतिज्ञ को पागल मैं क्यों कह रहा हूं। असल में दूसरे लोगों के ऊपर हावी हो जाने की इच्छा पागल मन का सबूत है। सबकी छाती पर सवार हो जाने की आकांक्षा विक्षिप्त मन का सबूत है। स्वस्थ आदमी न तो किसी का मालिक होना चाहता है और न किसी के सिर पर बैठना चाहता है।
दुनिया भर के सभी पागल दुनिया की अलग-अलग राजधानियों में इकट्ठे हो जाते हैं। और उन पागलों के हाथ में सारी ताकत है दुनिया की। थोड़ा पीछे लौट कर देखें--नादिर, चंगीज, तैमूरलंग, स्टैलिन या हिटलर या मुसोलिनी या तोजो या माओत्से तुंग--अगर दुनिया किसी भी दिन समझदार होगी तो क्या इन लोगों को पागल के अतिरिक्त कुछ और कहा जा सकेगा? हिटलर और मुसोलिनी को पागल के अतिरिक्त कुछ और कहा जा सकता है--या नेपोलियन और सिकंदर को? ये सारे पागल लोगों ने आज तक मनुष्य-जाति को आक्रांत कर रखा है। वे युद्ध में नहीं ले जाएंगे, तो शांति में कैसे ले जा सकते हैं?
राजनीतिज्ञ की आकांक्षा क्या है? राजनीतिज्ञ चाहता क्या है?
शक्ति चाहता है, पावर चाहता है, दूसरे लोगों की गर्दन पर मुट्ठी चाहता है। जितने लोगों के ऊपर वह सवार हो जाए, जितने लोगों की मालकियत उसके हाथ में आ जाए, उतनी उसे तृप्ति मिलती है। यह बहुत रुग्ण आकांक्षा है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के ऊपर मालिक हो जाए, यह बात ही खतरनाक है, यह बात ही अशोभन है। और इस तरह की जिसकी आकांक्षा है वह आदमी स्वस्थ नहीं है।
लेकिन जो आदमी जितने ज्यादा लोगों का मालिक हो जाता है, जितने बड़े पदों पर हो जाता है, हमारे सिर उसके चरणों में उतने ही झुक जाते हैं।
जब तक मनुष्य-जाति राजनीतिज्ञ के चरणों में झुकती रहेगी तब तक दुनिया में शांति की कोई आशा नहीं है, कोई संभावना नहीं है। अगर दुनिया को युद्ध से बचाना है तो दुनिया को राजनीतिज्ञ के संबंध में अपने मूल्य परिवर्तित कर लेने होंगे। जिनके कारण युद्ध खड़े होते हैं, जिनके कारण अशांति खड़ी होती है, जिनके कारण हिंसा खड़ी होती है, अगर उनका ही हम आदर करते चले जाएंगे तो युद्ध कैसे बंद हो सकते हैं? हमारी वैल्यूज गलत हैं, हमारा सम्मान गलत है। और हमारा सम्मान सिर्फ राजनीतिज्ञों को मिलता है, और किसी को भी नहीं। राजनीति का इतना आदर होने का कारण क्या है? जरूरत क्या है? अर्थ क्या है?
एक घर में एक रसोइया है। वह घर के खाने-पीने की फिकर करता है। बाजार से खाने का सामान खरीद कर लाता है, अच्छे से अच्छा खाना बना कर घर के लोगों को खिलाने की कोशिश करता है। ठीक है, वह रसोइया है और रसोइया का आदर उसे मिलना चाहिए। घर छोटा सा घर है। एक बड़ी होटल है, उसमें पांच सौ लोग रोज भोजन करते हैं। उसमें भी सबसे बड़ा रसोइया है, वह सबकी देख-भाल करता है, खाने की फिकर करता है। ठीक है, वह अच्छा खाना बनाता है, उसका आदर होना चाहिए। पूरे प्रांत में एक खाद्य मंत्री है, यह पूरे प्रांत का बड़ा रसोइया है। इसके पैरों में सिर झुकाने की जरूरत क्या है? एक रसोइये को जो आदर मिलना चाहिए वह इसको भी मिलना चाहिए। लेकिन इसके पीछे दीवाने हो जाने की और पागल हो जाने की कौन सी आवश्यकता है?
जिस दिन मनुष्य-जाति थोड़ी स्वस्थ होगी, प्रांत के खाद्य मंत्री को उतना ही आदर होगा जितना प्रांत के बड़े रसोइये को होना चाहिए, इससे ज्यादा की कोई भी जरूरत नहीं है। इससे ज्यादा बिलकुल गलत है। और यही बात दूसरे मंत्रियों के बाबत भी। एक स्वास्थ्य मंत्री को उतना आदर होना चाहिए जितना गांव के डाक्टर को होता है। ठीक है कि वह पूरे प्रांत की चिकित्सा और स्वास्थ्य का ध्यान रखता है। एक स्वच्छता के मंत्री का उतना ही आदर होना चाहिए जितना गांव के बड़े मेहतर का होता है। वह पूरे प्रांत का मेहतर है, वह पूरे प्रांत की स्वच्छता की फिकर करता है। उसको आदर मिलना चाहिए, क्योंकि वह एक काम कर रहा है।
लेकिन हमारा आदर तो सब तरह के प्रपोर्शन के बाहर चला गया है। वह प्रांत का सबसे बड़ा रसोइया अगर थोड़ा छींक दे तो सारे अखबारों में खबर छपनी चाहिए। उसकी जूती गुम जाए तो सारे अखबारों में फोटो छपना चाहिए। सारे मुल्क में चर्चा होनी चाहिए कि मंत्री महोदय की जूती गुम गई है, कि मंत्री महोदय के बच्चे को सर्दी हो गई है, कि मंत्री महोदय का चपरासी आज मोटर के नीचे आ गया है। यह सारा का सारा आदर राजनीतिज्ञ की दिशा में पागल लोगों को आकर्षित कर देता है। जो भी पागल महत्वाकांक्षी होते हैं, उनको एक ही दिशा मिल जाती है--कि चलो राजधानी! दिल्ली जाना चाहिए!
मैंने सुना है, बनारस का एक कुत्ता भी इसी तरह पागल हो गया था। आदमियों की देखा-देखी जानवर भी पागल हो जाते हैं। आदमियों के साथ रहते-रहते जानवरों में भी बुरी आदतें आ जाती हैं। एक कुत्ता एक नेता के घर में कुछ दिन तक निवास किया, उसका दिमाग खराब हो गया। वह नेता के साथ रहते-रहते और नेता की अखबार में फोटो देखते-देखते उसका भी मन होने लगा कि मेरी फोटो भी अखबार में होनी चाहिए। उसने गांव के दो-चार कुत्तों को जाकर कहा कि मुझे नेता बनाओ और मुझे दिल्ली भेजो!
कुत्ते हंसने लगे। कुत्तों ने कहा कि ये आदमियों की बुरी आदतें तुममें कब से आ गईं? उसने दस-पांच कुत्तों को कहा। लेकिन कुत्ते मजाक उड़ाने लगे कि इसका दिमाग खराब हो गया!
वह बड़ा परेशान हुआ। क्योंकि दिल्ली वह जाना चाहता था एक साधारण यात्री की हैसियत से नहीं, एक नेता की हैसियत से। और अगर कुत्ते उसको चुन कर भेज देते तो आदर होता उसका दिल्ली में, सम्मान होता। लेकिन कुत्ते हंसते हैं।
एक रात नेता जब गहरी नींद में सो रहा था उसका मालिक, तो वह नेता के पास गया और उसने कहा कि मेरे मालिक! मेरा दिल भी दिल्ली जाने का होता है, नेता बनने की तरकीब मुझे बता दो तो मैं भी दिल्ली पहुंच जाऊं। मैं कुत्तों से कहता हूं तो कुत्ते हंसते हैं।
नींद में उस नेता ने सुना और उस नेता ने कहा कि बेटे, अगर दिल्ली जाना है तो यह काम आसान नहीं है। इसकी कुछ तरकीबें हैं, इसके कुछ ट्रेड सीक्रेट हैं। हर कोई दिल्ली नहीं जा सकता। यह कोई मजाक नहीं है कि तुम समझे कि तुम दिल्ली पहुंच जाओगे! अरे दिल्ली जाना बड़ी कठिन यात्रा है! आदमी मोक्ष पहुंच जाए आसानी से, दिल्ली पहुंचना बहुत कठिन है। लेकिन अगर तू जाना ही चाहता है, तो तू कोई साधारण कुत्ता नहीं है, बड़े नेता का कुत्ता है, मेरा कुत्ता है, मैं तुझे तरकीब बताए देता हूं।
पहली तो बात, कुत्तों में जाकर यह खबर फैलाना शुरू करो कि कुत्तों की जाति खतरे में है। जैसा कुछ लोग कहते हैं इस्लाम खतरे में है, कोई कहता है हिंदू धर्म खतरे में है, कोई कहता है हिंदुस्तान खतरे में है, कोई कहता है चीन खतरे में है। राजनीति का पहला सूत्र है कि लोगों में खतरे की हवा पैदा करो। जाओ कुत्तों को समझाओ कि कुत्तों की जाति बड़े खतरे में है। म्युनिसिपल कमेटी का मेयर सोच रहा है कि कुत्तों को जहर की गोली दिलवा कर मरवा दिया जाए। कुत्तों के दुश्मन कुत्तों के पीछे पड़े हैं। जाओ कुत्तों में प्रचार करो।
उसने कहा, यह तो बात ठीक है। यह तो मुझे खयाल में नहीं था।
और फिर कुत्तों को समझाना कि मैंने यह संकल्प कर लिया है कि चाहे मेरी जान रहे या जाए, लेकिन मैं कुत्तों की जाति को बचा कर रहूंगा। यह भी समझाना।
अगर कुत्तों के छोटे-छोटे बच्चे मिल जाएं, कालेज में पढ़ने वाले पिल्ले मिल जाएं, तो उनसे कहना कि बच्चो, तुम्हारा भविष्य खतरे में है! तुमको नौकरी नहीं मिलेगी पढ़-लिख कर निकल आओगे तो भी! बड़े-बूढ़ों से ताकत छीननी जरूरी है, उन बच्चों को समझाना, पिल्लों को समझाना। और कहना कि मैंने कस्त कर लिया है कि मैं तो आने वाली पीढ़ी की सेवा करके रहूंगा, मैं तुम्हारा सेवक हूं। बच्चों को उलझाना बड़ों के खिलाफ।
अगर कुत्तों की स्त्रियां मिल जाएं तो उनसे कहना: देवियो, तुम्हें भी कुत्तों के बराबर समान अधिकार चाहिए। तुम पीछे मत रहो। ईक्वलिटी है; सारी दुनिया में स्त्रियों ने पुरुषों के बराबर अधिकार ले लिए। तुम कब तक पीछे पड़ी रहोगी! विद्रोह करो, क्रांति करो! मैं तो इस नारी-जाति का सेवक हूं, मैं सेवा करना चाहता हूं।
अगर गरीब कुत्ते मिल जाएं तो उनको अमीर कुत्तों के खिलाफ भड़काना, उनको कम्युनिज्म का पाठ पढ़ाना। और अगर अमीर कुत्ते मिल जाएं तो उनसे कहना कि आप सावधान रहो! गरीब कुत्ते बगावत करने को आमादा हो रहे हैं। लेकिन घबड़ाओ मत, जब तक मैं हूं तब तक मैं तुम्हारी इज्जत पर आंच नहीं आने दूंगा।
उस कुत्ते ने कहा, यह तो आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन अगर गरीब और अमीर कुत्ते दोनों एक साथ मिल जाएं तो उस वक्त मैं क्या कहूंगा?
उसने कहा, तू पागल है, उस वक्त सर्वोदय की बात शुरू कर देना कि हम तो सबका उदय चाहते हैं। हम गरीब का भी उदय चाहते हैं, हम अमीर का भी उदय चाहते हैं। हम चोर का भी उदय चाहते हैं, हम साहूकार का भी उदय चाहते हैं। हम बीमार का भी उदय चाहते हैं, हम डाक्टर का भी उदय चाहते हैं। हम तो सबका उदय चाहते हैं, हम तो सबका भला चाहते हैं। यह आखिरी तरकीब है, अगर सभी मौजूद हों तो सर्वोदय की बात करना और एक-एक मौजूद हो तो उसके उदय की बात करना।
वह कुत्ता तो एकदम हैरान हो गया! उसने सोचा कि इतनी सी तरकीब थी, हम नाहक परेशान होते थे। वह कुत्ता भागा और उसने उसी रात काम शुरू कर दिया।
नींद में बेचारे नेता से ये बातें निकल गईं। नेता कुछ कच्चा रहा होगा; नहीं तो असली पक्के नेता नींद में भी सच्ची बातें नहीं बोलते।
उस कुत्ते ने प्रचार शुरू कर दिया। काशी के कुत्तों में हड़कंप मच गया, आंदोलन शुरू हो गया। कुत्ते घबड़ा गए। उनकी जान खतरे में है! भयभीत हो गए, डरने लगे। तब वे सब उससे प्रार्थना करने लगे कि हमें बचाओ! अब तुम ही हमारे नेता हो; तुम दिल्ली चले जाओ हम सबके प्रतिनिधि बन कर। वह कुत्ता बहुत मना करने लगा। उसने टोपी पहननी शुरू कर दी खादी की। वह हाथ जोड़ने लगा और वह कहने लगा कि नहीं, मैं दिल्ली क्या करूंगा? मैं तो जनता का सेवक हूं, मुझे दिल्ली जाने से क्या मतलब? लेकिन जितना ही वह इनकार करने लगा, कुत्ते उसके पीछे पड़ने लगे, उसकी प्रार्थना करने लगे, गले में मालाएं पहनाने लगे और कहा कि तुम्हें दिल्ली जाना ही पड़ेगा! आखिर मजबूरी में वह बेचारा राजी हो गया। जैसे कि सभी नेता मजबूरी में दिल्ली जाने को राजी हो जाते हैं, वह भी राजी हो गया।
कुत्तों ने दिल्ली के कुत्तों को खबर की कि हमारा नेता आ रहा है, चुना हुआ नेता है, इसके स्वागत का ठीक-ठीक इंतजाम करना। दिल्ली के कुत्ते बहुत खुश हुए। आदमियों के नेताओं का स्वागत करते-करते वे भी बहुत ऊब चुके थे। उन्होंने कहा, अपना ही नेता आता है, यह बड़ी खुशी की बात है। उन्होंने कहा, बेफिकर रहो! हम यहां सर्किट हाउस में सब व्यवस्था, रिजर्वेशन वगैरह करवा रखते हैं। लेकिन तुम कब तक आ पाओगे?
खबर गई कि एक महीना लग जाएगा। कुत्ता बेचारा, पैदल ही चलने का खयाल था। उसे अभी पता नहीं था कि आदमियों के वाहन का उपयोग करे तो जल्दी पहुंच सकता है। वह पैदल ही उसने दिल्ली की यात्रा की।
दिल्ली के कुत्ते बड़े हैरान हो गए, वह महीने भर की बजाय सात दिन में ही दिल्ली पहुंच गया! दिल्ली के कुत्तों ने कहा, तुमने तो चकित कर दिया हमें। आदमियों के नेताओं को जिंदगी बीत जाती है तब दिल्ली पहुंच पाते हैं, तुम सात दिन में दिल्ली आ गए!
उस कुत्ते ने कहा, कुछ मत पूछो, जो मुझ पर बीती वह मैं ही जानता हूं। और अब मुझको पता चला! मैं जब काशी छोड़ा तो काशी के कुत्तों ने मुझे गांव के बाहर तक छोड़ दिया। दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए, उन्होंने मुझे ठहरने नहीं दिया। वे दूसरे गांव तक छोड़ भी नहीं पाए थे कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए। दिल्ली तक मेरे पीछे किसी न किसी गांव के कुत्ते लगे रहे। वे अपने गांव की सीमा तक छोड़ कर लौट भी नहीं पाते थे कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरा पीछा करते थे। मैं जान बचाते हुए किसी तरह भागा हुआ चला आया हूं। बीच में विश्राम बिलकुल नहीं किया, इसलिए सात दिन में पहुंच गया हूं। लेकिन ज्यादा बातचीत मत करो, मेरी सांस अटकती है और मेरे प्राण घबड़ा रहे हैं, मैं मरने के करीब मालूम हो रहा हूं।
दिल्ली के कुत्तों ने कहा, बिलकुल मत घबड़ाओ, दिल्ली में नेता आकर अक्सर मर जाते हैं। यह दिल्ली बहुत से नेताओं की कब्र है। यह हजारों साल से कब्र बनी हुई है। यहां नेता आया और मरा। यहां से फिर जिंदा बहुत मुश्किल से कोई नेता लौटता है।
वह कुत्ता यह कहते-कहते मर गया।
पता नहीं उस कुत्ते के पीछे फिर और क्या-क्या मामले हुए। लेकिन चाहे कुत्ते को दिल्ली पहुंचना हो, चाहे आदमी को, तरकीबें एक ही हैं, रास्ता एक ही है। और पागलपन के अतिरिक्त किसी आदमी को सत्ता का, पावर का; शक्ति को, पद को पाने की तीव्र आकांक्षा पैदा नहीं होती है।
यह मैं क्यों कह रहा हूं कि यह तीव्र आकांक्षा पागलपन से पैदा होती है?
स्वस्थ आदमी अपने होने में आनंदित होता है। स्वस्थ आदमी को अपने होने में ही आनंद होता है। अस्वस्थ, रुग्ण आदमी को अपने होने में कोई आनंद नहीं होता। जिस आदमी को अपने होने में आनंद होता है उसी को स्वस्थ कहते हैं, जो स्वयं में स्थित है उसे स्वस्थ कहते हैं। जिस आदमी को अपने में कोई आनंद नहीं होता वह दूसरे लोगों को दुख देकर, पीड़ा देकर आनंदित होने की कोशिश करता है। वह दूसरों को सता कर, दूसरों को टार्चर करके सुखी होने की कोशिश करता है। जितने लोगों को वह सता पाता है, उतना ही उसको लगता है कि मैं कुछ कर रहा हूं, मैं कुछ हूं। पागल आदमी दूसरों को सताने का सुख खोजता है।
और दूसरों को सताना हो, तो एक आदमी अगर पति हो जाए तो क्या करेगा, ज्यादा से ज्यादा पत्नी को सता सकता है। या पत्नी अगर पागल हो जाए, सताने के लिए इच्छुक हो जाए तो क्या कर सकती है, ज्यादा से ज्यादा पति को सता सकती है। बहुत से बहुत अगर भाग्य से या बच्चों के दुर्भाग्य से घर में बच्चे पैदा हो जाएं तो दोनों मिल कर बच्चों को सता सकते हैं, और क्या कर सकते हैं! इतने से मन नहीं भरता है तो एक आदमी बड़ी भीड़ को सताने की कोशिश में लग जाता है। फिर वह राजनीतिज्ञ हुए बिना कोई चारा नहीं है। बड़ी भीड़ केवल राजनीतिज्ञ के कब्जे में होती है।
तो जितने लोगों को दूसरों को सताने की, दूसरों को पीड़ा देने की, दूसरों के प्रति सैडिस्ट, टार्चर करने की प्रवृत्ति होती है, वे सारे लोग राजधानियों की तरफ यात्राएं शुरू कर देते हैं। यह हिंदुस्तान में ही नहीं होता, सारी दुनिया में ऐसा होता है। मास्को में ऐसा होता है, और वाशिंगटन में ऐसा होता है, और पेकिंग में ऐसा होता है, और लंदन में भी ऐसा होता है, और पेरिस में भी ऐसा होता है, और दिल्ली में भी ऐसा होता है। दुनिया भर के सभी महत्वाकांक्षी रुग्ण लोग राजधानियों में इकट्ठे हो जाते हैं। फिर उनमें जो सबसे ज्यादा पागल होता है वह प्रधान हो जाता है, क्योंकि सबसे मजबूत पागल छोटे पागलों पर कब्जा कर लेता है। और इसलिए दुनिया तीन हजार वर्षों से युद्धों में से गुजर रही है। इस दुनिया में शांति नहीं हो सकती! कैसे शांति हो सकती है इन लोगों के हाथ में? इनका मूल्य ही इस बात में है कि युद्ध होता रहे।
हिटलर ने लिखा है--बड़े नेता युद्ध से पैदा होते हैं। हिटलर ने लिखा है कि बड़े नेता युद्ध से पैदा होते हैं। युद्ध नहीं होता तो नेता बड़ा हो ही नहीं पाता। जब युद्ध होता है तो नेता बड़ा हो जाता है, क्योंकि जब युद्ध होता है तो खतरा पैदा हो जाता है। खतरा पैदा हो जाता है तो सारी जनता हाथ जोड़ कर नेता के चरणों में खड़ी हो जाती है कि तुम ही हमें बचाओ! अब तुम ही भगवान हो! तुम्हारे बिना हमें कौन बचाएगा! और नेता बड़ा होता चला जाता है।
तो हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि अगर असली खतरा न हो, अगर असली युद्ध न हो, तो जिसे नेता बनना है, जिसे लीडर बनना है, उसे नकली खतरे पैदा कर लेने चाहिए, नकली युद्ध पैदा कर लेना चाहिए।
वियतनाम और कोरिया में सब नकली युद्ध चल रहे हैं। जिनकी कोई जरूरत नहीं, जिनका कोई प्रयोजन नहीं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच नकली लड़ाइयां चल रही हैं। जिनका कोई मतलब नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। हिंदुस्तान और चीन के बीच भी सब वही मामला है।
लेकिन बड़ा नेता हो नहीं सकता कोई...माओ बड़ा नेता नहीं हो सकता अगर वह युद्ध न चलाए रखे। युद्ध चलेंगे तो माओ बड़ा नेता हो जाएगा। अगर पिछले दस साल में चीन ने शरारतें न की होतीं, माओ का नाम भी आपको पता नहीं चलता। अगर हिटलर ने दूसरा महायुद्ध खड़ा नहीं किया होता तो हिटलर का नाम भी आपको पता नहीं चलता। चंगीज खां ने अगर लोगों की हत्याएं न की होतीं तो चंगीज खां का नाम कैसे आपको पता चलता? अगर तैमूरलंग ने राजधानियों में जाकर बच्चों की गर्दनें न काटी होतीं...। तैमूरलंग जिस राजधानी में जाता, दस हजार बच्चों की गर्दनें कटवा लेता, भालों में छिदवा लेता, और उसका जुलूस निकलता तो दस हजार बच्चों की गर्दनें भालों में छिदी हुई आगे चलतीं। लोग पूछते कि तैमूर, यह तुम क्या कर रहे हो? बच्चों को किसलिए काट रहे हो? तैमूर कहता, ताकि यह मुल्क याद रखे कि तैमूर कभी यहां आया था।
यह तैमूर को अगर मैं पागल कहता हूं तो आप नाराज मत हो जाना, यह पागल है।
हिटलर ने एक बहुत सुंदर स्त्री की चमड़ी निकलवा कर अपने टेबल लैंप का कवर बनवा लिया था। क्योंकि हिटलर के टेबल लैंप का कवर कोई साधारण कागज का, चमड़े का, प्लास्टिक का नहीं बन सकता है। एक सुंदर जिंदा स्त्री को, उसकी चमड़ी खिंचवा कर, उसका टेबल लैंप का कवर बनवा लिया था। अगर इस हिटलर को मैं पागल कहता हूं तो आप नाराज न हों।
अकेले हिटलर ने पांच सौ यहूदी रोज के हिसाब से हत्या की। हिटलर ने अपनी जिंदगी में पचास लाख यहूदियों की हत्या की। पांच सौ यहूदी रोज मारने का धार्मिक नियम था उसका--व्रत। रोज पांच सौ यहूदी मारने ही हैं। फिर एक-एक यहूदी को मारना बहुत महंगा पड़ने लगा; क्योंकि पांच सौ यहूदी मारना, फिर उनकी लाशें फिंकवाना, फिर उनका इंतजाम करना, यह बहुत महंगा पड़ने लगा। तो उसने गैस चैंबर्स बनवाए, बिजली की भट्टियां बनवाईं। जिनमें पांच सौ आदमियों को बंद कर दो, बटन दबाओ, वे राख हो जाएंगे। न उनकी लाश फेंकनी पड़ेगी, न उनको मारना पड़ेगा, न गोली खर्च करनी पड़ेगी, न सिपाही लगेंगे। सारे जर्मनी में उसने गैस चैंबर्स बनवाए और पचास लाख यहूदियों को आग लगा कर जलवा दिया।
स्टैलिन ने अपने वक्त में साठ लाख लोगों की हत्या की रूस में।
अगर मैं इनको पागल कहता हूं तो नाराज न हों। जिन लोगों को आपने पागलखानों में बंद कर रखा है वे इनके मुकाबले बच्चे भी नहीं हैं, इनके मुकाबले कुछ भी नहीं हैं। इनके मुकाबले उनका पागलपन ना-कुछ है। ये सारे पागल जब तक हुकूमत करेंगे दुनिया में, तब तक कैसे शांति हो सकती है!
पुराने दिनों में ज्यादा खतरा नहीं था, इन पागलों के हाथ में बहुत ताकत नहीं थी। अब इनके हाथ में बहुत ताकत है। अब इनके पास एटम बम हैं, इनके पास हाइड्रोजन बम हैं। इनके पास अनूठी ताकत हाथ में आ गई है। अब ये मनुष्य-जाति को छोड़ेंगे नहीं, ये जरूर एक तरह की शांति दुनिया में ला देंगे--मरघट की शांति! कोई न बचे और सब शांत हो जाए!
एक डाक्टर के घर में एक महिला सुबह-सुबह अपने बच्चे को लेकर पहुंच गई थी। महिला तो अपनी बीमारी के संबंध में बातें करने लगी और बच्चा जो था वह डाक्टर की प्रयोगशाला में घुस गया। डाक्टर डरा-डरा महिला से बातें कर रहा है, बच्चे की अंदर से आवाजें आ रही हैं। कहीं कोई बोतल गिर रही है, कहीं कोई कुर्सी गिर रही है, कहीं किसी किताब के फाड़े जाने की आवाज आ रही है। डाक्टर बेचैन है, लेकिन महिला जरा भी चिंतित नहीं है उसके बच्चे की ये आवाजें सुन कर।
लेकिन जब बहुत जोर से अलमारी गिरी और कई शीशियां टूट गईं, तब उस महिला ने कहा कि मालूम होता है मुन्ना भीतर घुस गया है।
महिलाओं की यही खूबियां हैं, उनके मुन्ना क्या करते हैं उनको पता ही नहीं चलता। और किसी दूसरे के घर में करते हों तब तो बिलकुल पता नहीं चलता कि उनके मुन्ना क्या कर रहे हैं।
उसने कहा, मालूम होता है मुन्ना भीतर चला गया है। कोई खतरा तो नहीं है? कोई अशांति, कोई गड़बड़ तो नहीं कर रहा है? डाक्टर ने कहा, अब आप बेफिकर रहें, मुन्ना बहुत ही जल्दी उस अलमारी के पास पहुंच जाएगा जहां जहर की बोतलें रखी हैं। बहुत जल्दी शांति हो जाएगी। अब घबड़ाएं मत, आप बैठी रहें। वह महिला घबड़ाई और अंदर भागी, लेकिन तब तक मुन्ना ने एक जहर की बोतल पी ली थी और मुन्ना समाप्त हो गया था।
आदमी की हालत भी यहां आ गई है। ये राजनीतिक मुन्ना बिलकुल जहर की बोतल के करीब पहुंच गए हैं। ये अकेले पीकर मर जाते तो कोई खतरा नहीं था, इनके साथ पूरी आदमियत को भी मरना पड़ेगा। अब तक तो ठीक था कि थोड़ी-वोड़ी बोतलें तोड़ रहे थे, रजिस्टर फाड़ रहे थे, ठीक था, लेकिन अब ये बिलकुल जहर की बोतल के पास पहुंच गए हैं। जिस दिन से एटम बम के करीब पहुंच गया है राजनीतिक का हाथ, उस दिन से आदमियत को शांत करने की एक सुविधा उन्हें मिल गई है, बिलकुल शांति आ जाएगी। मुन्ना बहुत जल्दी शांत हो जाएंगे, क्योंकि वे जहर की बोतल के पास पहुंच गए हैं। लेकिन उनके साथ पूरी आदमियत को शांत हो जाना पड़ेगा। और यह वह शांति नहीं होगी जिसकी हजारों वर्ष से हमने कामना की है और सपने देखे हैं। यह वह शांति नहीं होगी जिसमें फूल होंगे, सुगंध होगी। यह वह शांति नहीं होगी जिसमें गीत होंगे, नृत्य होंगे। यह वह शांति होगी जैसी कब्रिस्तान पर होती है, जैसी मरघट पर होती है, सब सन्नाटा होता है, क्योंकि वहां कोई मौजूद ही नहीं होता।
बड़ी ताकत आदमी के हाथ में लग गई है, इसलिए खतरा पैदा हो गया है। अगर इन पागल राजनीतिज्ञों के हाथ में यह ताकत बनी रहती है तो दुनिया की बहुत आशा नहीं है कि दस-पच्चीस वर्ष से भी ज्यादा बच सकेगी यह पृथ्वी। दस-पच्चीस वर्ष बच जाना भी बिलकुल सांयोगिक है, चमत्कार है।
पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। एक उदजन बम चालीस हजार वर्गमील में समस्त जीवन को नष्ट करता है। और साधारण रूप से नष्ट नहीं करता, असाधारण रूप से नष्ट करता है। और आदमियों को नष्ट नहीं करता, कीड़ों को, मकोड़ों को, छोटे-छोटे पतिंगों को, पौधों को, सबको नष्ट करता है। जीवन मात्र को नष्ट करता है।
घर में हम पानी गर्म करते हैं, और पानी उबलने लगता है, सौ डिग्री पर जाकर पानी भाप बनने लगता है। सौ डिग्री की गर्मी में किसी को हम डाल दें तो उसके मन को क्या होगा? कैसा आनंद आएगा उसे? कैसी कविताएं सुनाई पड़ेंगी? कैसे सुख के झरने फूटेंगे उसके भीतर? लेकिन सौ डिग्री की गर्मी कोई गर्मी नहीं है। पंद्रह सौ डिग्री की गर्मी पर लोहा पिघल कर पानी हो जाता है, पंद्रह सौ डिग्री पर लोहा पिघल कर पानी की तरह बहने लगता है। अगर उस पानी में हम किसी को डाल दें तो क्या होगा? लेकिन पंद्रह सौ डिग्री गर्मी भी कोई गर्मी नहीं है, पच्चीस सौ डिग्री गर्मी पर लोहा भी भाप बन कर उड़ने लगता है। पच्चीस सौ डिग्री गर्मी आपके घर में जला दी जाए तो क्या होगा? लेकिन पच्चीस सौ डिग्री गर्मी भी कोई गर्मी नहीं है, एक उदजन बम के विस्फोट से जो गर्मी होती है वह होती है दस करोड़ डिग्री। दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा होती है एक उदजन बम के विस्फोट से, और उसका क्षेत्र होता है चालीस हजार वर्गमील।
ऐसे पचास हजार उदजन बम, ये सीधे-सादे दिखते हुए, दिन-रात मुस्कुराहट में फोटो उतरवाते हुए राजनीतिज्ञों के हाथ में ये उदजन बम हैं। और इन उदजन बमों का ये क्या करेंगे? इनका क्या परिणाम होगा? क्या होगा इस दुनिया का? यह जमीन छोटी है। जितनी बड़ी ताकत अणु बमों की हमारे पास है उसके लिए यह जमीन बहुत छोटी है। इस तरह की सात पृथ्वियों को नष्ट करने में हम समर्थ हो गए हैं। आदमियों की संख्या छोटी है। अभी कुल तीन, साढ़े तीन अरब तो आदमियों की संख्या है। हमने पच्चीस अरब आदमियों को मारने का इंतजाम कर रखा है।
कोई पूछे इनसे कि इतना बड़ा इंतजाम क्यों किया? ये कहेंगे कि कोई भूल-चूक करना ठीक नहीं है। मान लो एक आदमी एक दफा में न मरे तो हम दुबारा मारेंगे, तिबारा मारेंगे, सात बार मारने का हमने इंतजाम कर रखा है। हालांकि एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, अब तक ऐसा हुआ नहीं कि किसी आदमी को दुबारा मारना पड़ा हो। लेकिन फिर भी भूल-चूक नहीं होनी चाहिए, गणितज्ञ हैं, समझदार हैं, कैलकुलेट करते हैं, उन्होंने सब हिसाब लगा लिया। उन्होंने कहा, एक-एक आदमी को सात-सात दफे मारने का इंतजाम कर लो, कोई बच न जाए।
तो हमारे पास अतिरिक्त शक्ति है हत्या और विनाश की। और वह किसके हाथ में है? वह उनके हाथ में है जिनका मन न तो प्रेम से भरा है, जिनका मन न तो आनंद से भरा है, जिनका मन न तो शांत है, जो रुग्ण हैं, अस्वस्थ हैं, विक्षिप्त हैं। इन विक्षिप्त राजनीतिज्ञों के हाथ में छुरे थे तभी इन्होंने काफी गजब के काम किए, तलवारें थीं तभी काफी गजब के काम किए, छोटी-मोटी बंदूकें थीं तभी इन्होंने दुनिया को रौंद डाला। अब तो इनके पास ऐसी ताकत है कि ये क्या कर सकते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं।
युद्ध नहीं रुक सकते, अगर राजनीतिज्ञ जैसा है वह वैसा ही बना रहेगा। राजनीतिज्ञ का मूल्य समाप्त होना चाहिए। उसकी प्रतिष्ठा शून्य हो जानी चाहिए। वह एक कार्यकारी की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, एक रसोइये की, एक मेहतर की, एक डाक्टर की, एक दुकानदार की, बस इससे ज्यादा सम्मान राजनीतिज्ञ को देना खतरनाक है। क्योंकि सम्मान के कारण ही पागल लोग राजनीतिज्ञ होने को उत्सुक होते हैं। वे जो एंबीशस लोग हैं वे इसीलिए उत्सुक होते हैं कि यहां आदर मिलेगा, यहां ताकत मिलेगी, यहां सम्मान मिलेगा। दुनिया को अगर युद्धों से बचाना है तो राजनीति का मूल्य एकदम क्षीण हो जाना चाहिए, डिवैल्युएशन हो जाना चाहिए।
एक गांव में, रोम में एक बार ऐसा हुआ कि रोम की नारियों ने ऐसे कपड़े, इतने भोंडे कपड़े ईजाद कर लिए, इतने अश्लील कपड़े ईजाद कर लिए कि उन नारियों की तरफ देखना भी अत्यंत कुरूप, अत्यंत अरुचिपूर्ण हो गया, अत्यंत अशिष्ट हो गया। लेकिन दौड़ पैदा हो गई। वे नारियां नग्न भी खड़ी हो जाएं तो उनको देखना इतना अशिष्ट नहीं होता, जितना उन्होंने ईजाद कपड़े कर लिए थे।
सम्राट बहुत हैरान हो गया रोम का कि क्या करे क्या न करे! आखिर उसने अपने वजीरों से सलाह ली कि मैं क्या करूं? वजीरों ने कहा कि जो नारी इस तरह के कपड़े पहने उस पर सौ रुपये जुर्माना कर दिए जाएं। राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि इस तरह के कपड़े फलां तिथि से जो भी नारी पहने दिखाई पड़ेगी, उस पर सौ रुपये का जुर्माना होगा।
राजा सोचता था कि जुर्माने से नारियां डर जाएंगी। नारियां जुर्मानों से क्यों डरने लगीं! नारियों में उलटी दौड़ शुरू हो गई। जिस नारी का जुर्माना हो जाता वह दूसरों के ऊपर गौर से देखती और कहती, मेरा तीन बार जुर्माना हो गया! जिसका सात बार हो गया वह कहती, तेरा क्या हुआ, मेरा तो सात बार जुर्माना हो गया! वह जुर्माना प्रतिष्ठा बन गया। गरीब औरतें अपने पतियों से कहने लगीं, दुर्भाग्य कि हमारी शादी तुम्हारे साथ हुई, एक भी बार जुर्माना नहीं हो रहा है हमारा! हमारा जुर्माना कब होगा यह बताओ? कपड़े लाओ, हमारा जुर्माना हो। जो जितनी अमीर महिलाएं थीं वे रोज जुर्माना देने लगीं। नगर में प्रतिष्ठा हो गई कि फलानी स्त्री का इतनी बार जुर्माना हो गया, वह इतने धनी की पत्नी है। यह धन की प्रतिष्ठा हो गई कि कौन कितना जुर्माना चुका सकता है।
तीन महीने के भीतर तो गांव पागल हो गया। गरीब की औरतें भी बेचारी पहन कर निकल आईं। क्योंकि अब क्या करें, नहीं तो दुनिया कहती कि तुम गरीब हो? औरतें एक-दूसरे से पूछने लगीं, तुम्हारा अभी जुर्माना नहीं हुआ? फलानी पड़ोसन का अब तक एक भी दफा जुर्माना नहीं हुआ, बेचारी बड़ी गरीब है। टेलरों की दुकान पर तख्तियां लग गईं कि यहां वे कपड़े बनाए जाते हैं जिन पर निश्चित जुर्माना होता है।
राजा तो बहुत घबड़ा गया, उसने कहा कि यह क्या पागलपन हुआ! उसने एक फकीर को जाकर पूछा कि यह क्या पागलपन हुआ! हमने तो रोकने के लिए लगाया था। उस फकीर ने कहा कि एक काम करो, नगर में पर्चा बंटवा दो, जगह-जगह तख्ती लगवा दो कि इस तरह के जो कपड़े पहनने वाली वेश्याएं हैं उन पर कोई भी जुर्माना नहीं होगा, वेश्याओं को स्वतंत्रता दी जाती है। गांव में तख्ती लगा दी गई कि इस तरह के कपड़े वेश्याएं पहन सकती हैं, उनको स्वतंत्रता दी जाती है, उनका अब कोई जुर्माना नहीं होगा। तीसरे दिन गांव से कपड़े नदारद हो गए। क्योंकि कोई भी स्त्री वेश्या कहलाने को राजी नहीं थी, कपड़ों की प्रतिष्ठा शून्य हो गई।
एक हाईस्कूल के पास...एक बड़े राजपथ के किनारे एक हाईस्कूल था। लड़कियों का हाईस्कूल था। लड़कियां बीच सड़क से सड़क पार करती थीं स्कूल में आते-जाते, वह बहुत खतरनाक था, ट्रैफिक ज्यादा था वहां। प्रिंसिपल ने बहुत समझाने की कोशिश की कि यहां से मत निकलो, चौरस्ते पर जाओ--चौरस्ता थोड़ी दूर था--वहां से रास्ता पार करो, बीच में से रास्ता पार मत करो। लेकिन लड़कियां सुनती नहीं थीं। रोज खतरे होने लगे, एक्सीडेंट होने लगे। लेकिन लड़कियां वहीं से पार करती थीं।
फिर उस प्रिंसिपल ने एक मनोवैज्ञानिक को पूछा कि मैं क्या करूं? उसने एक तख्ती बना कर दे दी। कहा, इस तख्ती को वहां लगा दो। उस तख्ती पर लिखा हुआ था: कैटिल क्रासिंग; यह जानवरों को पार करने की जगह है। बस लड़कियों ने वहां से पार करना बंद कर दिया। वे चौरस्ते पर जाकर पार करने लगीं। क्योंकि वहां से गाय-भैंसों के निकलने का रास्ता लिखा हुआ है, वहां से जो भी निकले, लोग समझें कि गाय-भैंसें जा रही हैं।
मूल्य गिरना चाहिए किसी चीज का। राजनीति की तरफ पागल और एंबीशस लोगों की जाने की आकांक्षा कम हो, इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिज्ञ का मूल्य कम किया जाए, राजनीतिज्ञ को सम्मान और आदर कम किया जाए। न तो अखबारों में इतनी तस्वीरों की जरूरत है, न अखबारों में इतने उनके भाषणों की जरूरत है, न अखबारों में उनके उपद्रवों की इतनी जरूरत है, न मुल्क भर में उनकी इतनी चर्चा की जरूरत है। राजनीतिज्ञ से वैसे ही देशों को सावधान हो जाना चाहिए जनता को, जैसे बीमारियों से लोग सावधान होते हैं। अपने बच्चों को दिखा देना चाहिए कि सम्हल कर अंदर आ जाओ घर के, नेता जी निकल रहे हैं वहां से। कहीं नेता जी की सभा हो रही हो तो घर के लोगों को दरवाजे बंद कर लेने चाहिए, घर के भीतर आ जाओ, नेता जी की सभा हो रही है। नेता से बचाने की जरूरत है, राजनीतिज्ञ से बचाने की जरूरत है।
पहली बात है: राजनीतिज्ञ का मूल्य गिर जाना चाहिए।
बुद्ध एक गांव में गए एक बार। भिखारी थे वे तो। गांव के सम्राट ने सुना कि बुद्ध आ रहे हैं। उसने अपने वजीर से पूछा कि क्या मुझे भी बुद्ध के स्वागत करने के लिए जाना पड़ेगा? क्या यह उचित होगा?
वजीर ने कहा, आप यह पूछते हैं, यही सुन कर मुझे आश्चर्य होता है। जिसने सारे धन-वैभव को दो कौड़ी का समझा, जिसने स्वर्ण को मिट्टी समझा, जिसने प्रतिष्ठा को कीमत नहीं दी, जिसने राजपदों को मूल्य नहीं दिया, वह जब गांव में आ रहा हो तो सभी को उसके स्वागत के लिए जाना चाहिए। आपको भी जाना चाहिए, ताकि लोगों को यह पता चले कि असली सम्मान, असली आदर पद का नहीं है, असली सम्मान विनम्रता का है। असली सम्मान अहंकार का नहीं है, असली सम्मान निर-अहंकार का है। आपको जाना चाहिए।
राजा ने अपनी पत्नी से पूछा कि वजीर कहता है कि मैं जाऊं, लेकिन क्या यह उचित होगा? मैं एक सम्राट और एक भिखारी के स्वागत के लिए जाऊं?
उसकी रानी ने कहा, तुम्हें शर्म आनी चाहिए कि तुम उसे भिखारी कहते हो! भिखारी हम हैं, चौबीस घंटे मांग रहे हैं कि और मिल जाए, और मिल जाए, और मिल जाए। वह भिखारी नहीं है, वह सम्राट है! उसने मांगना छोड़ दिया! वह कुछ भी नहीं मांगता कि मुझे मिल जाए, उसकी सब मांग समाप्त हो गई। उस सम्राट के स्वागत के लिए हम सब भिखारियों को जाना चाहिए।
वह सम्राट स्वागत के लिए गया।
एक दुनिया पैदा होनी चाहिए जिसमें उन सम्राटों का आदर हो जिनके पास कुछ भी नहीं है, बजाय उन सम्राटों के जिनके पास पद हैं, प्रतिष्ठाएं हैं।
राजनीतिज्ञ को आदर देना पूरे देश के चित्त को विक्षिप्त करने की दिशा देनी है, पूरी मनुष्यता को पागल करने की दिशा देनी है। क्योंकि तब बच्चों का मन भी वहीं आकर्षित होता है, वहीं दौड़ता है।
राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, फिर वे राष्ट्रपति हो गए, तो सारे हिंदुस्तान में शिक्षकों ने समारोह मनाना शुरू कर दिया, शिक्षक-दिवस। भूल से मैं दिल्ली में था और मुझे भी कुछ शिक्षकों ने बुला लिया। मैं उनके बीच गया और मैंने उनसे कहा कि मैं हैरान हूं, एक शिक्षक राजनीतिज्ञ हो जाए तो इसमें शिक्षक-दिवस मनाने की कौन सी बात है? इसमें शिक्षक का कौन सा सम्मान है? यह शिक्षक का अपमान है कि एक शिक्षक ने शिक्षक होने में आनंद नहीं समझा और राजनीतिज्ञ होने की तरफ गया। जिस दिन कोई राष्ट्रपति शिक्षक हो जाए किसी स्कूल में आकर और कहे कि मुझे राष्ट्रपति नहीं होना, मैं शिक्षक होना चाहता हूं, उस दिन शिक्षक-दिवस मनाना। अभी शिक्षक-दिवस मनाने की कोई भी जरूरत नहीं है। जिस दिन एक राष्ट्रपति कहे कि मैं स्कूल में शिक्षक होना चाहता हूं, उस दिन तो शिक्षक का सम्मान होगा। लेकिन स्कूल का शिक्षक कहे कि हमको मिनिस्टर होना है, हमको राष्ट्रपति होना है, तो इसमें शिक्षक का कौन सा सम्मान है? इसमें राजनायक का सम्मान है, राष्ट्रपति का सम्मान है, शिक्षक का कोई भी सम्मान नहीं है।
जब एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाता है और हम सम्मान देते हैं, तो दूसरे शिक्षक भी पागल हो जाते हैं कि हम भी कुछ हो जाएं, न सही तो मिनिस्टर ही हो जाएं, न सही मिनिस्टर तो डिप्टी मिनिस्टर हो जाएं, अगर इतना भी न हो सके तो कम से कम डिप्टी डायरेक्टर हो जाएं या डायरेक्टर हो जाएं, कुछ न कुछ तो हो जाएं, क्योंकि हमारे अग्रज जो थे, हमारे जो आगे के थे वे राष्ट्रपति तक हो गए। एक शिक्षक राष्ट्रपति हो गए, अब दूसरे शिक्षक राष्ट्रपति हो गए, अब सारे शिक्षक चक्कर काट रहे हैं मुल्क में कि तीसरा भी शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए।
यह पागलपन जब हम पैदा करेंगे राजनायक को सम्मान देकर, तो दुनिया में कभी भी--कभी भी--शांति नहीं हो सकती। क्योंकि एंबीशस आदमी लड़ना चाहता है, महत्वाकांक्षी लड़ना चाहता है, शांत नहीं होना चाहता। शांत हो जाएगा तो महत्वाकांक्षा मर जाएगी।
इसलिए पहली बात तो यह कहना चाहता हूं कि जितना सम्मान दुनिया में राजनीतिज्ञ को दिया जा रहा है वह एकदम विलीन हो जाना चाहिए। अगर मनुष्यों को थोड़ी भी समझ हो तो राजनीतिज्ञ के सम्मान से मुक्त हो जाना जरूरी है, अगर युद्धों से बचना हो और दुनिया में कोई शांति स्थापित करनी हो। जिस दिन राजनीतिज्ञ का सम्मान नहीं होगा, जिस दिन राजनीतिज्ञ को ऐसा लगेगा कि अगर मैं लोगों को युद्ध में ले गया तो लोग कहेंगे, चलो, नीचे वापस उतरो, तुम्हें युद्ध में ले जाने का कोई हक नहीं है किसी को! उस दिन दुनिया में युद्ध बंद हो जाएंगे। अभी राजनीतिज्ञ जितना किसी मुल्क को युद्ध में ले जाता है, उतना उसको आदर मिलता है, मुल्क पागल होकर उसको आदर देता है कि यह असली नेता है, यह हमारा बचाने वाला है, यह हमारा सेवियर है, यह हमारा रक्षक है। पहली बात!
और दूसरी बात--यह तो बहुत मूल्यवान है कि राजनीति का अवमूल्यन हो तो विश्व-शांति हो सकती है, नहीं तो कभी नहीं हो सकती--और दूसरी बात, अकेली राजनीति के अवमूल्यन से कुछ भी नहीं हो सकता, दूसरी बात भी इतनी ही जरूरी है। और वह यह है कि अब तक दुनिया में अच्छे आदमी को, भले आदमी को, साधु व्यक्ति को हमने जीवन से भागने की सलाह दी है कि तुम जीवन से भागो, दूर हट जाओ। अच्छे लोग जीवन से हट जाते हैं, बुरे लोग जीवन को चलाने वाले हो जाते हैं। अच्छे लोग जगह खाली कर देते हैं, बुरे लोग जगहों पर कब्जा कर लेते हैं। साधु भाग जाते हैं, असाधु डट कर बैठ जाते हैं। वे भागते नहीं, वे कहते हैं, हम नहीं भागेंगे, हम यहीं बैठेंगे। अच्छा आदमी भागता रहा, बुरा आदमी ठहर गया वहीं। बुरे आदमियों के हाथों में सत्ता पहुंचने का एकमात्र कारण है कि अच्छा आदमी सत्ता के, शक्ति के, जीवन में मूल्यवान समस्त स्थानों को छोड़ कर भाग जाता है।
इसके दुष्परिणाम होने स्वाभाविक हैं। बुरे आदमी के हाथ में जब भी ताकत होगी तब युद्ध होंगे, अशांति होगी। शक्ति होनी चाहिए अच्छे आदमी के हाथ में, जीवन की बागडोर होनी चाहिए स्वस्थ साधु-चरित्र व्यक्ति के हाथ में। लेकिन यह कैसे हो सकता है? कोई साधु-चरित्र व्यक्ति आपसे आकर नहीं कहेगा कि मुझको वोट दीजिए, मैं अच्छा आदमी हूं। यह कैसे हो सकता है? सारी दुनिया में जो लोग अपने ही अहंकार का प्रचार करने में समर्थ हैं, वे लोग आपसे आकर कहते हैं--वोट दीजिए, हमें पद पर पहुंचना है, मैं अच्छा आदमी हूं, दूसरा आदमी बुरा है। और ये लोग इकट्ठे होते चले जाते हैं, यह ताकत इकट्ठी करते चले जाते हैं। अच्छा आदमी तो आपके पास आकर नहीं कहेगा।
इस बात को कसौटी समझ लें कि जब कोई आदमी आकर कहे कि मैं अच्छा आदमी हूं, यह बुरे आदमी का लक्षण है। जब कोई आदमी कहे कि मुझे वोट दें, यह बेईमान और चालाक आदमी का लक्षण है। सारी दुनिया में मनुष्य को यह समझ लेना है कि अच्छे आदमी के हाथ में अगर ताकत देनी है, तो वह आपके पास आकर नहीं कहेगा। आपको उसके पास जाकर कहना होगा कि हमारा आग्रह स्वीकार करें और यह थोड़ा सा काम है, इसको आप करें, यह काम हम आपके हाथ में देना चाहते हैं।
दुनिया भर में अच्छे आदमी के हाथ में काम देने की जरूरत पड़ गई है। तो बुरा आदमी अपने आप पीछे हट सकता है। लेकिन अच्छे आदमी ढोल बजा कर आपके घरों के सामने आकर हाथ नहीं जोड़ेंगे कि आप हमें वोट दें, आप हमें पहुंचाएं। अच्छे आदमी को तो पहुंचाना कठिन है, उसके हाथ में तो ताकत देने के लिए उसे राजी करना कठिन है। यही खतरा हो गया, बुरे आदमी को इससे सुअवसर मिल गया है। अच्छा आदमी जाता नहीं, बुरा आदमी सामने खड़ा हो जाता है, शोरगुल मचाने लगता है।
फिर मजा यह है कि दो बुरे आदमी शोरगुल मचाने लगते हैं। अब आप दोनों में से किसी को भी चुन लें, वे सब चचेरे भाई हैं, वे सब कज़िन ब्रदर्स हैं। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहे आप अ को चुन लें, चाहे आप ब को, चाहे आप कांग्रेसी को, चाहे आप जनसंघी को, चाहे आप सोशलिस्ट को, चाहे कम्युनिस्ट को, वे सभी चचेरे भाई हैं, वे सभी वे लोग हैं जो सत्ता के दीवाने हैं। वे आपके पास आकर चिल्लाते हैं कि हमको वोट दो! दूसरा कहता है, हमको वोट दो! आप उन्हीं में से चुनाव कर लेते हैं और भूल हो जाती है।
सारी जनता में, सारे जगत में लोकमानस तैयार किया जाना चाहिए कि वह खोजे कि कौन लोग हैं जो जीवन को चला सकते हैं और जीवन को दिशा दे सकते हैं। उनको पकड़े, उनसे प्रार्थना करे--वे राजी नहीं होंगे, वे हाथ जोड़ेंगे, वे क्षमा मांगेंगे कि हमको क्षमा कर दें, हम जहां हैं वहां भले हैं--लेकिन अच्छे लोगों को उनकी कुटियों से, उनके झोपड़ों से, उनके जंगलों से निकाल कर लाना होगा। अच्छे लोगों के हाथ में ताकत पहुंचानी होगी। तो दुनिया बच सकती है, नहीं तो दुनिया नहीं बच सकती। चाहे राजनीतिज्ञ कितनी ही कांफ्रेंसेस करें, कितने ही यू एन ओ बनाएं, कितने ही चिल्लाएं कि शांति चाहिए! शांति चाहिए! सब चिल्लाएं वे, इससे कुछ भी नहीं हो सकता; पागल पायलट के हाथ में हवाई जहाज चल रहा है और हम सब उसमें बैठे हुए हैं।
दूसरी बात है: अच्छे आदमी के हाथ में पहुंचानी है जीवन की दिशा। और अगर यह जीवन की दिशा पहुंचाई जा सके तो विश्व-शांति आज स्थापित हो सकती है! इसके लिए कल तक ठहरने की भी कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन हजारों वर्ष से यह उपक्रम चल रहा है कि भला आदमी छोड़ कर भाग जाता है। और भला आदमी आपसे आकर कहता नहीं कि मैं कुछ करूं या मैं कहीं जाऊं, वह चुपचाप एक कोने में सरक जाता है। वह पीछे खड़ा हो जाता है। उसे मतलब भी नहीं, उसे प्रयोजन भी नहीं है कि वह आगे खड़ा हो। बुरे आदमी बन-ठन कर, ठीक नेता के कपड़े पहन कर आगे खड़े हो जाते हैं। मुस्कुराने लगते हैं, जैसा कि नेता मुस्कुराते हैं। हाथ जोड़ने लगते हैं, जैसा कि नेता हाथ जोड़ते हैं। और भोली जनता, सीधे-सादे लोग, वे उनकी मुस्कुराहट के धोखे में आ जाते हैं, उनके कपड़ों के धोखे में आ जाते हैं। उन्हें पता नहीं है कि सफेद कपड़े काले हृदयों को छिपाने के काम में लाए जाते हैं। उन्हें पता नहीं है कि मुस्कुराहटें भीतर के
बुरे इरादों को छिपाने का काम करती हैं। उन्हें पता नहीं है कि जुड़े हुए हाथ किसी बड़े अहंकार को छिपाने की और ओट देने की तरकीबें हैं। लेकिन यह चलता है, यह चलता रहा है। और अगर यह आगे भी चलता रहा तो मैं तो नहीं देखता हूं कि कोई रास्ता है कि विश्व-शांति कैसे हो सकती है।
सारे जगत में लोकचेतना, लोकमानस, सामान्य मनुष्य की जो समझ और बूझ है, उसको जगाना जरूरी है, उसको बताना जरूरी है कि क्या करे वह। राजनीतिज्ञ का सम्मान विलीन करे, भले लोगों से आग्रह करे कि वे जीवन के हाथ मजबूत करें, जीवन की बागडोर अपने हाथ में लें। ऐसे लोग जिन्हें ताकत की कोई आकांक्षा नहीं, उनके हाथ में ही ताकत सुरक्षित हो सकती है। ऐसे लोग जिन्हें शक्ति का कोई मूल्य नहीं, उनके हाथ में ही शक्ति उपयोगी, सदुपयोगी हो सकती है। ऐसे लोग जिन्हें किन्हीं के ऊपर बैठने की कोई कामना नहीं, वे ही लोग ऊपर बिठाने के योग्य हो सकते हैं। अच्छे लोगों के हाथ में जगत देना जरूरी है, अन्यथा जगत नहीं बच सकता है, अन्यथा बचने की कोई संभावना नहीं है। ये दो बातें हैं।
और तीसरी बात आपसे मुझे कहनी है।
दो बातें--राजनीतिज्ञ का मूल्य कम, भले आदमी को जीवन की दिशा में संलग्न करने की जरूरत है, उसे भागने से बचाने की जरूरत है। और तीसरी बात, तीसरी बात आपको भी अपने मन को राजनीति की जो मूढ़ता है और जो चक्कर है उससे ऊपर उठाने की जरूरत है। क्योंकि हम सब छोटे-मोटे अर्थों में छोटे-मोटे राजनीतिज्ञ हैं। जितनी दूर तक हमारी ताकत चलती है, वहां हम भी बादशाह हैं, वहां हम भी राजनीति चलाते हैं। एक-एक आदमी अगर अपने-अपने छोटे घेरे में राजनीति चलाएगा, तो छोटे-छोटे घेरे में कलह होगी, संघर्ष होगा। छोटे-छोटे घेरे में कांफ्लिक्ट होगी, छोटे-छोटे घेरे में हिंसा होगी। और यही सारी हिंसा मिल कर फिर बड़े युद्धों में परिवर्तित हो जाती है।
तो तीसरी बात आपसे निजी कहनी है कि आपकी जिंदगी में जितनी पॉलिटिक्स हो, जितनी राजनीति हो...क्योंकि राजनीति का मतलब बेईमानी, राजनीति का मतलब चालाकी, राजनीति का मतलब पाखंड, राजनीति का मतलब उलटे-सीधे रास्तों से गलत चेहरों के द्वारा काम करना, सीधा और साफ नहीं। तो एक-एक आदमी को सीधे-साफ चेहरे से, जैसा वह है--बिना वस्त्रों के, बिना ओट के--अपने को सीधा-साफ, सीधे रास्तों से जीवन में संयुक्त होना और प्रकट होने की कोशिश करनी चाहिए। एक-एक आदमी को अपने जीवन से राजनीति हटा देनी चाहिए। तो बड़े पैमाने पर सारे जगत से राजनीति हट सकती है।
मैंने जो दो बातें कहीं, उनसे आपको ऐसा लगेगा--वे तो मैंने दूसरों के लिए कहीं, आपके लिए क्या? और दूसरों की बुराई सुनना तो बहुत आनंदपूर्ण होता है। बहुत मजा आता है कि यह दिल्ली के लोगों की बात हो रही है। लेकिन आप भी एक छोटी सी दिल्ली बना कर बैठे हैं, इसका आपको पता नहीं होता। कि यह मिनिस्टरों की बात हो रही है। और आप भी मौका पाते से मिनिस्टर हो जाते हैं, इसका आपको पता नहीं चलता। मौका पाते ही आप भी उतनी ही चालाकी, उतनी ही कनिंगनेस में उतर जाते हैं, इसका आपको पता नहीं चलता।
अपने नौकर के साथ आप क्या करते हैं? अपने बच्चे के साथ आप क्या करते हैं? अपनी पत्नी के साथ आप क्या करते हैं? आप क्या कर रहे हैं उनके साथ जो आपसे ताकत में छोटे हैं और जिनके ऊपर आपकी ताकत है? आप जो कर रहे हैं वह वही है जो राजनीतिज्ञ और बड़े पैमाने पर कर रहा है। तो एक-एक आदमी को अपनी जिंदगी में राजनीति से मुक्त होना चाहिए।
अंत में, राजनीति का सीधा अर्थ है: महत्वाकांक्षा, एंबीशन।
और धर्म का अर्थ है: गैर-महत्वाकांक्षा, नॉन-एंबीशन।
राजनीतिज्ञ जीता है--किसी से आगे निकल जाऊं। धार्मिक जीता है--अपने से आगे निकल जाऊं। राजनीतिज्ञ कहता है, मुझे दूसरों के आगे जाना है। धार्मिक कहता है, मुझे अपने से आगे जाना है, मुझे दूसरे से क्या प्रयोजन! मैं जहां आज हूं, कल वहीं न रह जाऊं, अपने से आगे निकल जाऊं, अपने को ट्रांसेंड कर जाऊं। जो मैंने आज जाना है, कल और ज्यादा जानूं। जो मैंने आज जीया है, वह मैं कल और ज्यादा जीऊं। जितनी गहराई मुझे आज मिली, कल मैं और गहरा हो जाऊं। जितनी ऊंचाई मैंने आज पाई, कल मैं और ऊंचा हो जाऊं--अपने से, किसी दूसरे से इसकी कोई तुलना नहीं, कोई संघर्ष नहीं, कोई स्पर्धा नहीं। दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं--राजनीतिज्ञ और धार्मिक। दुनिया में दो ही तरह के माइंड्स हैं--पोलिटिकल और रिलीजस। तो आप अपने भीतर खोजते रहें कि आप भी तो पोलिटिकल माइंड नहीं हैं? आप भी तो राजनीतिज्ञ नहीं हैं?
आपके भीतर जो राजनीतिज्ञ है उसे धार्मिक बनाना है; और सारे जगत से राजनीति का मूल्य कम करना है; और सारे जगत में साधु, सरल, सीधे, साफ लोगों के हाथ में जीवन की दिशा और बागडोर देनी है। अगर ये तीन काम हो सकते हैं तो विश्व-शांति इतनी आसान है जितनी और कोई चीज आसान नहीं है। और अगर ये तीन काम नहीं हो सकते हैं तो सपने छोड़ दें विश्व-शांति के! युद्ध चलेंगे, युद्ध होंगे और शायद अंतिम युद्ध होगा जिसके आगे फिर कोई युद्ध नहीं होंगे।
एक अंतिम बात, और अपनी चर्चा मैं पूरी करूंगा। अलबर्ट आइंस्टीन मर कर स्वर्ग पहुंच गया। तो खबर सुनी होगी न आपने कि वह पहुंच गया स्वर्ग, मर गया अलबर्ट आइंस्टीन। उसी ने तो अणु-बम की सारी ईजाद की, वह बूढ़ा दार्शनिक, वैज्ञानिक बड़ा अदभुत था। भगवान उसका रास्ता देखते थे कि यह बूढ़ा आ जाए तो इससे पूछ लें कि सब क्या हाल है जमीन का। उन्होंने पूछा आइंस्टीन को कि क्या हाल हैं दुनिया के? मैं सुनता हूं कि तीसरा महायुद्ध होने वाला है, मेरे प्राण कंपे जाते हैं, नींद हराम हो गई है। सोने की टिकिया भी लेता हूं रात को तो भी नींद नहीं आती है। मुश्किल में पड़ गया हूं। कुछ समझ नहीं पड़ता कि क्या होगा। मैं पागल तो नहीं हो जाऊंगा?
आइंस्टीन ने कहा, क्यों घबड़ाते हैं? हम लोग सोते हैं मजे से जमीन पर, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? तीसरे महायुद्ध में क्या होगा, आइंस्टीन ने कहा, बताना मुश्किल है। लेकिन चौथे में क्या होगा, वह मैं बता सकता हूं।
ईश्वर तो बहुत हैरान हो गया! उसने कहा, तीसरे का तुम नहीं बता सकते हो और चौथे का! क्या चौथे का बता सकते हो?
आइंस्टीन ने कहा, तीसरे के बाबत कुछ भी कहना मुश्किल है, लेकिन चौथे के बाबत एक बात निश्चित कही जा सकती है कि चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा!
युद्ध करने के लिए अंततः आदमियों की जरूरत पड़ती है, बिना आदमियों के युद्ध कैसे हो सकता है। और तीसरे के बाद किसी आदमी के बचने की कोई संभावना नहीं है। जैसी चल रही है यह दिशा आज तक, अगर यह ऐसी ही चलती है तो बूढ़ा आइंस्टीन बिलकुल ठीक कहता है, चौथा महायुद्ध नहीं होगा। शांति हो जाएगी जगत में। शायद बड़ी शांति हो जाएगी, चांद-तारे बड़ी शांति अनुभव करेंगे। आदमी ने बड़ा शोरगुल मचा रखा है। शायद फिर वृक्ष पैदा हो जाएंगे, उनमें फूल खिलेंगे और वृक्ष बड़ी शांति अनुभव करेंगे। क्योंकि आदमियों ने बड़ा उपद्रव और शोरगुल मचा रखा है। पहाड़ों की चट्टानें और बर्फ की चट्टानें और नदी और झरने बहेंगे, लेकिन बड़ी शांति अनुभव करेंगे। आदमी ने बहुत अशांति मचा रखी है। एक शांति दुनिया में आएगी, लेकिन वह शांति आदमी अनुभव नहीं कर सकेगा। आदमी को छोड़ कर और सब उसका अनुभव कर सकते हैं।
आदमी को अगर शांत होना है तो आदमी को कुछ पाजिटिवली, कुछ विधायक रूप से करना होगा, परिवर्तन करना होगा अपने जीवन के ढंग में, अपने तौर-तरीके में। आज तक उसने जिस भांति जीवन को संचालित किया है, वह जीवन का संचालन रुग्ण था, विक्षिप्त था, पागल था।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
इन बातों को आपने इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
मनुष्य का इतिहास अशांति का और युद्धों का इतिहास रहा है। मनुष्य के अतीत की पूरी कथा दुख, पीड़ा, हिंसा और हत्या की कथा है।
आज ही यह कोई सवाल खड़ा नहीं हो गया है कि विश्व में शांति कैसे स्थापित हो, यह सवाल हमेशा से रहा है। यह सवाल आधुनिक नहीं है, यह मनुष्य का चिरंतन और सनातन का सवाल है। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध मनुष्य ने किए हैं। मनुष्य लड़ता ही रहा है। अब तक कोई शांति का समय नहीं जाना जा सका है! जो थोड़े-बहुत दिन के लिए शांति होती है वह भी शांति झूठी होती है। उस शांति में भी युद्ध की तैयारी चलती है। युद्ध के समय में हम लड़ते हैं और शांति के समय में हम आगे आने वाले युद्ध की तैयारी करते हैं।
एक छोटे से बच्चे से उसके एक पड़ोसी ने पूछा कि मैंने देखा है कि तुम एक छोटी सी पेटी में हमेशा पैसे इकट्ठे करते हो, ये पैसे तुम्हें किस बात के मिलते हैं और फिर इकट्ठा करके तुम क्या करते हो? तो उस बच्चे ने कहा, मुझे रोज रात को लीवर ठीक रखने की दवाई और तेल पीना पड़ता है। और जब मैं एक खुराक पी लेता हूं तो मुझे चार आने ईनाम के मिलते हैं, वह पैसे मैं पेटी में इकट्ठा करता हूं।
उस पड़ोसी ने पूछा कि फिर तुम उन इकट्ठे पैसों का क्या करते हो? उसने कहा, उनसे मेरे पिताजी फिर दवाई खरीद लेते हैं, फिर तेल खरीद लेते हैं। उन पैसों से पिताजी फिर लीवर ठीक करने की दवाई खरीद लेते हैं। पड़ोसी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, यह कैसा चक्कर हुआ!
हम थोड़े दिन शांति में रहते हैं, उस शांति में हम युद्ध का फिर इंतजाम कर लेते हैं। फिर हम युद्ध करते हैं। और युद्ध हम इसलिए करते हैं ताकि हम शांति पा सकें। और फिर हम जब शांत हो जाते हैं तो हम युद्ध की तैयारी करते हैं। युद्ध के समय हम मांग करते हैं कि शांति चाहिए और शांति के समय हमारी मांग चलती रहती है कि युद्ध चाहिए। बड़ी अदभुत, बड़े चक्कर की कथा है!
और अगर यह आज का कोई सवाल होता, अगर यह कोई कंटेम्प्रेरी सवाल होता, तो शायद आज की दुनिया में कोई भूल-चूक हम निकाल लेते और उसको ठीक कर लेते। यह सवाल हमेशा का है। यह कोई ऐसा नहीं है कि कोई यह कहने लगे कि दुनिया भौतिकवादी हो गई है इसलिए युद्ध हो रहे हैं। युद्ध हमेशा रहे हैं। चाहे राम का जमाना हो और चाहे कृष्ण का जमाना हो, चाहे राम-राज्य हो और चाहे कोई राज्य हो, युद्ध हमेशा रहे हैं। ये कोई भौतिकवाद के कारण युद्ध नहीं हो रहे हैं। या कोई कहता हो कि लोग ईश्वर पर अविश्वासी हो गए हैं, लोगों ने आत्मा-परमात्मा को मानना बंद कर दिया है इसलिए युद्ध हो रहे हैं, तो यह बात झूठी है, क्योंकि युद्ध हमेशा होते रहे हैं। और आत्मा और परमात्मा को मानने वाले लोग भी युद्ध करते रहे हैं।
इसलिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि यह समस्या सनातन है। अब तक की पूरी मनुष्यता का यह सवाल रहा है। यह आधुनिक प्रश्न नहीं है। और इसलिए जो इसे आधुनिक प्रश्न समझेगा वह इसका हल भी नहीं खोज सकता। यह बीमारी पुरानी है। और इसलिए मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में इस बीमारी का कारण खोजना जरूरी है। क्या कारण हो सकता है? युद्धों से सिवाय पीड़ा के कुछ भी उपलब्ध नहीं होता; फिर युद्धों में क्या कारण हो सकता है? कौन सा रस है आदमी को युद्ध के लिए, अशांति के लिए, हत्या के लिए, कौन सा आनंद है? दो-तीन बातें इस संबंध में समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात, एक सुबह टोकियो के हवाई अड्डे पर एक हवाई जहाज उड़ा। हवाई जहाज जब उड़ा तब उसके भीतर बैठे हुए यात्री तभी कुछ परेशान से हुए, क्योंकि हवाई जहाज बड़ा बेतरतीब भाग रहा था। फिर वह एकदम झटके के साथ ऊपर उठा। और जब वह ऊपर उठ गया तब उन्हें जोर से पायलट के कमरे से हंसने की आवाज सुनाई पड़ी। पायलट इतने जोर से हंस रहा था जिसका कोई हिसाब नहीं। एक यात्री ने पायलट के कमरे में झांका और पूछा कि इतने जोर से हंसने की बात क्या है? हंस-हंस कर लोट-पोट हुए जा रहे हो, मामला क्या है? उसने कहा, बड़ी मजाक हो गई है! मुझे एक पागलखाने में बंद कर दिया गया था, मैं वहां से निकल कर भाग खड़ा हुआ हूं। और मुझे यह जान कर हंसी आ रही है कि पागलखाने के अधिकारी बड़ी दिक्कत में पड़ गए होंगे। समझ भी न पा रहे होंगे कि मैं कहां निकल गया हूं! उन बेचारों के साथ बड़ी मजाक हो गई है!
उन हवाई जहाज के यात्रियों के साथ क्या हुआ होगा, आपको समझ में आता है? वह पायलट पागल है और पागलखाने से निकल भागा है, और हवाई जहाज लेकर उठ गया है ऊपर! और वह पागल यह कह रहा है कि पागलखाने के अधिकारियों के साथ बड़ी मजाक हो गई है। और उनका क्या हो रहा होगा, यह सोच कर वह हंसी से लोट-पोट हुआ जा रहा है।
पागलखाने के अधिकारियों को छोड़ दें एक तरफ, उस हवाई जहाज में बैठे हुए आदमियों का क्या हुआ होगा? उनके साथ तो और भी गहरी मजाक हो गई है!
आदमियत करीब-करीब इसी हालत में रही है आज तक। राजनीतिज्ञों के हाथ में समाज की पतवार है और राजनीतिज्ञ आज तक पागल आदमी रहा है, विक्षिप्त, न्यूरोटिक आदमी रहा है। दुनिया में लाख कोशिश करें हम शांति की, लेकिन जब तक राजनीतिक दिशा का आमूल परिवर्तन नहीं हो जाता है, दुनिया में कोई शांति स्थापित नहीं हो सकती। राजनीतिज्ञ बुनियादी रूप से पागल है। यह जो पोलिटीशियन है, यह कुछ बुनियादी रूप से विक्षिप्त है। इसका इलाज होना चाहिए और स्वस्थ राजनीतिज्ञ का जन्म होना चाहिए। अन्यथा कोई प्रार्थना, कोई सुझाव दुनिया में शांति नहीं ला सकता है। पागलों के हाथ में पतवार है समाज की! पागलों के हाथ में समाज की बागडोर है!
और राजनीतिज्ञ क्यों पागल है, यह समझ लेना जरूरी है। लेकिन हजारों साल से राजनीतिज्ञ की हम पूजा करते रहे हैं, इसलिए हमें समझना भी बहुत कठिन होगा कि राजनीतिज्ञ को पागल मैं क्यों कह रहा हूं। असल में दूसरे लोगों के ऊपर हावी हो जाने की इच्छा पागल मन का सबूत है। सबकी छाती पर सवार हो जाने की आकांक्षा विक्षिप्त मन का सबूत है। स्वस्थ आदमी न तो किसी का मालिक होना चाहता है और न किसी के सिर पर बैठना चाहता है।
दुनिया भर के सभी पागल दुनिया की अलग-अलग राजधानियों में इकट्ठे हो जाते हैं। और उन पागलों के हाथ में सारी ताकत है दुनिया की। थोड़ा पीछे लौट कर देखें--नादिर, चंगीज, तैमूरलंग, स्टैलिन या हिटलर या मुसोलिनी या तोजो या माओत्से तुंग--अगर दुनिया किसी भी दिन समझदार होगी तो क्या इन लोगों को पागल के अतिरिक्त कुछ और कहा जा सकेगा? हिटलर और मुसोलिनी को पागल के अतिरिक्त कुछ और कहा जा सकता है--या नेपोलियन और सिकंदर को? ये सारे पागल लोगों ने आज तक मनुष्य-जाति को आक्रांत कर रखा है। वे युद्ध में नहीं ले जाएंगे, तो शांति में कैसे ले जा सकते हैं?
राजनीतिज्ञ की आकांक्षा क्या है? राजनीतिज्ञ चाहता क्या है?
शक्ति चाहता है, पावर चाहता है, दूसरे लोगों की गर्दन पर मुट्ठी चाहता है। जितने लोगों के ऊपर वह सवार हो जाए, जितने लोगों की मालकियत उसके हाथ में आ जाए, उतनी उसे तृप्ति मिलती है। यह बहुत रुग्ण आकांक्षा है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के ऊपर मालिक हो जाए, यह बात ही खतरनाक है, यह बात ही अशोभन है। और इस तरह की जिसकी आकांक्षा है वह आदमी स्वस्थ नहीं है।
लेकिन जो आदमी जितने ज्यादा लोगों का मालिक हो जाता है, जितने बड़े पदों पर हो जाता है, हमारे सिर उसके चरणों में उतने ही झुक जाते हैं।
जब तक मनुष्य-जाति राजनीतिज्ञ के चरणों में झुकती रहेगी तब तक दुनिया में शांति की कोई आशा नहीं है, कोई संभावना नहीं है। अगर दुनिया को युद्ध से बचाना है तो दुनिया को राजनीतिज्ञ के संबंध में अपने मूल्य परिवर्तित कर लेने होंगे। जिनके कारण युद्ध खड़े होते हैं, जिनके कारण अशांति खड़ी होती है, जिनके कारण हिंसा खड़ी होती है, अगर उनका ही हम आदर करते चले जाएंगे तो युद्ध कैसे बंद हो सकते हैं? हमारी वैल्यूज गलत हैं, हमारा सम्मान गलत है। और हमारा सम्मान सिर्फ राजनीतिज्ञों को मिलता है, और किसी को भी नहीं। राजनीति का इतना आदर होने का कारण क्या है? जरूरत क्या है? अर्थ क्या है?
एक घर में एक रसोइया है। वह घर के खाने-पीने की फिकर करता है। बाजार से खाने का सामान खरीद कर लाता है, अच्छे से अच्छा खाना बना कर घर के लोगों को खिलाने की कोशिश करता है। ठीक है, वह रसोइया है और रसोइया का आदर उसे मिलना चाहिए। घर छोटा सा घर है। एक बड़ी होटल है, उसमें पांच सौ लोग रोज भोजन करते हैं। उसमें भी सबसे बड़ा रसोइया है, वह सबकी देख-भाल करता है, खाने की फिकर करता है। ठीक है, वह अच्छा खाना बनाता है, उसका आदर होना चाहिए। पूरे प्रांत में एक खाद्य मंत्री है, यह पूरे प्रांत का बड़ा रसोइया है। इसके पैरों में सिर झुकाने की जरूरत क्या है? एक रसोइये को जो आदर मिलना चाहिए वह इसको भी मिलना चाहिए। लेकिन इसके पीछे दीवाने हो जाने की और पागल हो जाने की कौन सी आवश्यकता है?
जिस दिन मनुष्य-जाति थोड़ी स्वस्थ होगी, प्रांत के खाद्य मंत्री को उतना ही आदर होगा जितना प्रांत के बड़े रसोइये को होना चाहिए, इससे ज्यादा की कोई भी जरूरत नहीं है। इससे ज्यादा बिलकुल गलत है। और यही बात दूसरे मंत्रियों के बाबत भी। एक स्वास्थ्य मंत्री को उतना आदर होना चाहिए जितना गांव के डाक्टर को होता है। ठीक है कि वह पूरे प्रांत की चिकित्सा और स्वास्थ्य का ध्यान रखता है। एक स्वच्छता के मंत्री का उतना ही आदर होना चाहिए जितना गांव के बड़े मेहतर का होता है। वह पूरे प्रांत का मेहतर है, वह पूरे प्रांत की स्वच्छता की फिकर करता है। उसको आदर मिलना चाहिए, क्योंकि वह एक काम कर रहा है।
लेकिन हमारा आदर तो सब तरह के प्रपोर्शन के बाहर चला गया है। वह प्रांत का सबसे बड़ा रसोइया अगर थोड़ा छींक दे तो सारे अखबारों में खबर छपनी चाहिए। उसकी जूती गुम जाए तो सारे अखबारों में फोटो छपना चाहिए। सारे मुल्क में चर्चा होनी चाहिए कि मंत्री महोदय की जूती गुम गई है, कि मंत्री महोदय के बच्चे को सर्दी हो गई है, कि मंत्री महोदय का चपरासी आज मोटर के नीचे आ गया है। यह सारा का सारा आदर राजनीतिज्ञ की दिशा में पागल लोगों को आकर्षित कर देता है। जो भी पागल महत्वाकांक्षी होते हैं, उनको एक ही दिशा मिल जाती है--कि चलो राजधानी! दिल्ली जाना चाहिए!
मैंने सुना है, बनारस का एक कुत्ता भी इसी तरह पागल हो गया था। आदमियों की देखा-देखी जानवर भी पागल हो जाते हैं। आदमियों के साथ रहते-रहते जानवरों में भी बुरी आदतें आ जाती हैं। एक कुत्ता एक नेता के घर में कुछ दिन तक निवास किया, उसका दिमाग खराब हो गया। वह नेता के साथ रहते-रहते और नेता की अखबार में फोटो देखते-देखते उसका भी मन होने लगा कि मेरी फोटो भी अखबार में होनी चाहिए। उसने गांव के दो-चार कुत्तों को जाकर कहा कि मुझे नेता बनाओ और मुझे दिल्ली भेजो!
कुत्ते हंसने लगे। कुत्तों ने कहा कि ये आदमियों की बुरी आदतें तुममें कब से आ गईं? उसने दस-पांच कुत्तों को कहा। लेकिन कुत्ते मजाक उड़ाने लगे कि इसका दिमाग खराब हो गया!
वह बड़ा परेशान हुआ। क्योंकि दिल्ली वह जाना चाहता था एक साधारण यात्री की हैसियत से नहीं, एक नेता की हैसियत से। और अगर कुत्ते उसको चुन कर भेज देते तो आदर होता उसका दिल्ली में, सम्मान होता। लेकिन कुत्ते हंसते हैं।
एक रात नेता जब गहरी नींद में सो रहा था उसका मालिक, तो वह नेता के पास गया और उसने कहा कि मेरे मालिक! मेरा दिल भी दिल्ली जाने का होता है, नेता बनने की तरकीब मुझे बता दो तो मैं भी दिल्ली पहुंच जाऊं। मैं कुत्तों से कहता हूं तो कुत्ते हंसते हैं।
नींद में उस नेता ने सुना और उस नेता ने कहा कि बेटे, अगर दिल्ली जाना है तो यह काम आसान नहीं है। इसकी कुछ तरकीबें हैं, इसके कुछ ट्रेड सीक्रेट हैं। हर कोई दिल्ली नहीं जा सकता। यह कोई मजाक नहीं है कि तुम समझे कि तुम दिल्ली पहुंच जाओगे! अरे दिल्ली जाना बड़ी कठिन यात्रा है! आदमी मोक्ष पहुंच जाए आसानी से, दिल्ली पहुंचना बहुत कठिन है। लेकिन अगर तू जाना ही चाहता है, तो तू कोई साधारण कुत्ता नहीं है, बड़े नेता का कुत्ता है, मेरा कुत्ता है, मैं तुझे तरकीब बताए देता हूं।
पहली तो बात, कुत्तों में जाकर यह खबर फैलाना शुरू करो कि कुत्तों की जाति खतरे में है। जैसा कुछ लोग कहते हैं इस्लाम खतरे में है, कोई कहता है हिंदू धर्म खतरे में है, कोई कहता है हिंदुस्तान खतरे में है, कोई कहता है चीन खतरे में है। राजनीति का पहला सूत्र है कि लोगों में खतरे की हवा पैदा करो। जाओ कुत्तों को समझाओ कि कुत्तों की जाति बड़े खतरे में है। म्युनिसिपल कमेटी का मेयर सोच रहा है कि कुत्तों को जहर की गोली दिलवा कर मरवा दिया जाए। कुत्तों के दुश्मन कुत्तों के पीछे पड़े हैं। जाओ कुत्तों में प्रचार करो।
उसने कहा, यह तो बात ठीक है। यह तो मुझे खयाल में नहीं था।
और फिर कुत्तों को समझाना कि मैंने यह संकल्प कर लिया है कि चाहे मेरी जान रहे या जाए, लेकिन मैं कुत्तों की जाति को बचा कर रहूंगा। यह भी समझाना।
अगर कुत्तों के छोटे-छोटे बच्चे मिल जाएं, कालेज में पढ़ने वाले पिल्ले मिल जाएं, तो उनसे कहना कि बच्चो, तुम्हारा भविष्य खतरे में है! तुमको नौकरी नहीं मिलेगी पढ़-लिख कर निकल आओगे तो भी! बड़े-बूढ़ों से ताकत छीननी जरूरी है, उन बच्चों को समझाना, पिल्लों को समझाना। और कहना कि मैंने कस्त कर लिया है कि मैं तो आने वाली पीढ़ी की सेवा करके रहूंगा, मैं तुम्हारा सेवक हूं। बच्चों को उलझाना बड़ों के खिलाफ।
अगर कुत्तों की स्त्रियां मिल जाएं तो उनसे कहना: देवियो, तुम्हें भी कुत्तों के बराबर समान अधिकार चाहिए। तुम पीछे मत रहो। ईक्वलिटी है; सारी दुनिया में स्त्रियों ने पुरुषों के बराबर अधिकार ले लिए। तुम कब तक पीछे पड़ी रहोगी! विद्रोह करो, क्रांति करो! मैं तो इस नारी-जाति का सेवक हूं, मैं सेवा करना चाहता हूं।
अगर गरीब कुत्ते मिल जाएं तो उनको अमीर कुत्तों के खिलाफ भड़काना, उनको कम्युनिज्म का पाठ पढ़ाना। और अगर अमीर कुत्ते मिल जाएं तो उनसे कहना कि आप सावधान रहो! गरीब कुत्ते बगावत करने को आमादा हो रहे हैं। लेकिन घबड़ाओ मत, जब तक मैं हूं तब तक मैं तुम्हारी इज्जत पर आंच नहीं आने दूंगा।
उस कुत्ते ने कहा, यह तो आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन अगर गरीब और अमीर कुत्ते दोनों एक साथ मिल जाएं तो उस वक्त मैं क्या कहूंगा?
उसने कहा, तू पागल है, उस वक्त सर्वोदय की बात शुरू कर देना कि हम तो सबका उदय चाहते हैं। हम गरीब का भी उदय चाहते हैं, हम अमीर का भी उदय चाहते हैं। हम चोर का भी उदय चाहते हैं, हम साहूकार का भी उदय चाहते हैं। हम बीमार का भी उदय चाहते हैं, हम डाक्टर का भी उदय चाहते हैं। हम तो सबका उदय चाहते हैं, हम तो सबका भला चाहते हैं। यह आखिरी तरकीब है, अगर सभी मौजूद हों तो सर्वोदय की बात करना और एक-एक मौजूद हो तो उसके उदय की बात करना।
वह कुत्ता तो एकदम हैरान हो गया! उसने सोचा कि इतनी सी तरकीब थी, हम नाहक परेशान होते थे। वह कुत्ता भागा और उसने उसी रात काम शुरू कर दिया।
नींद में बेचारे नेता से ये बातें निकल गईं। नेता कुछ कच्चा रहा होगा; नहीं तो असली पक्के नेता नींद में भी सच्ची बातें नहीं बोलते।
उस कुत्ते ने प्रचार शुरू कर दिया। काशी के कुत्तों में हड़कंप मच गया, आंदोलन शुरू हो गया। कुत्ते घबड़ा गए। उनकी जान खतरे में है! भयभीत हो गए, डरने लगे। तब वे सब उससे प्रार्थना करने लगे कि हमें बचाओ! अब तुम ही हमारे नेता हो; तुम दिल्ली चले जाओ हम सबके प्रतिनिधि बन कर। वह कुत्ता बहुत मना करने लगा। उसने टोपी पहननी शुरू कर दी खादी की। वह हाथ जोड़ने लगा और वह कहने लगा कि नहीं, मैं दिल्ली क्या करूंगा? मैं तो जनता का सेवक हूं, मुझे दिल्ली जाने से क्या मतलब? लेकिन जितना ही वह इनकार करने लगा, कुत्ते उसके पीछे पड़ने लगे, उसकी प्रार्थना करने लगे, गले में मालाएं पहनाने लगे और कहा कि तुम्हें दिल्ली जाना ही पड़ेगा! आखिर मजबूरी में वह बेचारा राजी हो गया। जैसे कि सभी नेता मजबूरी में दिल्ली जाने को राजी हो जाते हैं, वह भी राजी हो गया।
कुत्तों ने दिल्ली के कुत्तों को खबर की कि हमारा नेता आ रहा है, चुना हुआ नेता है, इसके स्वागत का ठीक-ठीक इंतजाम करना। दिल्ली के कुत्ते बहुत खुश हुए। आदमियों के नेताओं का स्वागत करते-करते वे भी बहुत ऊब चुके थे। उन्होंने कहा, अपना ही नेता आता है, यह बड़ी खुशी की बात है। उन्होंने कहा, बेफिकर रहो! हम यहां सर्किट हाउस में सब व्यवस्था, रिजर्वेशन वगैरह करवा रखते हैं। लेकिन तुम कब तक आ पाओगे?
खबर गई कि एक महीना लग जाएगा। कुत्ता बेचारा, पैदल ही चलने का खयाल था। उसे अभी पता नहीं था कि आदमियों के वाहन का उपयोग करे तो जल्दी पहुंच सकता है। वह पैदल ही उसने दिल्ली की यात्रा की।
दिल्ली के कुत्ते बड़े हैरान हो गए, वह महीने भर की बजाय सात दिन में ही दिल्ली पहुंच गया! दिल्ली के कुत्तों ने कहा, तुमने तो चकित कर दिया हमें। आदमियों के नेताओं को जिंदगी बीत जाती है तब दिल्ली पहुंच पाते हैं, तुम सात दिन में दिल्ली आ गए!
उस कुत्ते ने कहा, कुछ मत पूछो, जो मुझ पर बीती वह मैं ही जानता हूं। और अब मुझको पता चला! मैं जब काशी छोड़ा तो काशी के कुत्तों ने मुझे गांव के बाहर तक छोड़ दिया। दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए, उन्होंने मुझे ठहरने नहीं दिया। वे दूसरे गांव तक छोड़ भी नहीं पाए थे कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए। दिल्ली तक मेरे पीछे किसी न किसी गांव के कुत्ते लगे रहे। वे अपने गांव की सीमा तक छोड़ कर लौट भी नहीं पाते थे कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरा पीछा करते थे। मैं जान बचाते हुए किसी तरह भागा हुआ चला आया हूं। बीच में विश्राम बिलकुल नहीं किया, इसलिए सात दिन में पहुंच गया हूं। लेकिन ज्यादा बातचीत मत करो, मेरी सांस अटकती है और मेरे प्राण घबड़ा रहे हैं, मैं मरने के करीब मालूम हो रहा हूं।
दिल्ली के कुत्तों ने कहा, बिलकुल मत घबड़ाओ, दिल्ली में नेता आकर अक्सर मर जाते हैं। यह दिल्ली बहुत से नेताओं की कब्र है। यह हजारों साल से कब्र बनी हुई है। यहां नेता आया और मरा। यहां से फिर जिंदा बहुत मुश्किल से कोई नेता लौटता है।
वह कुत्ता यह कहते-कहते मर गया।
पता नहीं उस कुत्ते के पीछे फिर और क्या-क्या मामले हुए। लेकिन चाहे कुत्ते को दिल्ली पहुंचना हो, चाहे आदमी को, तरकीबें एक ही हैं, रास्ता एक ही है। और पागलपन के अतिरिक्त किसी आदमी को सत्ता का, पावर का; शक्ति को, पद को पाने की तीव्र आकांक्षा पैदा नहीं होती है।
यह मैं क्यों कह रहा हूं कि यह तीव्र आकांक्षा पागलपन से पैदा होती है?
स्वस्थ आदमी अपने होने में आनंदित होता है। स्वस्थ आदमी को अपने होने में ही आनंद होता है। अस्वस्थ, रुग्ण आदमी को अपने होने में कोई आनंद नहीं होता। जिस आदमी को अपने होने में आनंद होता है उसी को स्वस्थ कहते हैं, जो स्वयं में स्थित है उसे स्वस्थ कहते हैं। जिस आदमी को अपने में कोई आनंद नहीं होता वह दूसरे लोगों को दुख देकर, पीड़ा देकर आनंदित होने की कोशिश करता है। वह दूसरों को सता कर, दूसरों को टार्चर करके सुखी होने की कोशिश करता है। जितने लोगों को वह सता पाता है, उतना ही उसको लगता है कि मैं कुछ कर रहा हूं, मैं कुछ हूं। पागल आदमी दूसरों को सताने का सुख खोजता है।
और दूसरों को सताना हो, तो एक आदमी अगर पति हो जाए तो क्या करेगा, ज्यादा से ज्यादा पत्नी को सता सकता है। या पत्नी अगर पागल हो जाए, सताने के लिए इच्छुक हो जाए तो क्या कर सकती है, ज्यादा से ज्यादा पति को सता सकती है। बहुत से बहुत अगर भाग्य से या बच्चों के दुर्भाग्य से घर में बच्चे पैदा हो जाएं तो दोनों मिल कर बच्चों को सता सकते हैं, और क्या कर सकते हैं! इतने से मन नहीं भरता है तो एक आदमी बड़ी भीड़ को सताने की कोशिश में लग जाता है। फिर वह राजनीतिज्ञ हुए बिना कोई चारा नहीं है। बड़ी भीड़ केवल राजनीतिज्ञ के कब्जे में होती है।
तो जितने लोगों को दूसरों को सताने की, दूसरों को पीड़ा देने की, दूसरों के प्रति सैडिस्ट, टार्चर करने की प्रवृत्ति होती है, वे सारे लोग राजधानियों की तरफ यात्राएं शुरू कर देते हैं। यह हिंदुस्तान में ही नहीं होता, सारी दुनिया में ऐसा होता है। मास्को में ऐसा होता है, और वाशिंगटन में ऐसा होता है, और पेकिंग में ऐसा होता है, और लंदन में भी ऐसा होता है, और पेरिस में भी ऐसा होता है, और दिल्ली में भी ऐसा होता है। दुनिया भर के सभी महत्वाकांक्षी रुग्ण लोग राजधानियों में इकट्ठे हो जाते हैं। फिर उनमें जो सबसे ज्यादा पागल होता है वह प्रधान हो जाता है, क्योंकि सबसे मजबूत पागल छोटे पागलों पर कब्जा कर लेता है। और इसलिए दुनिया तीन हजार वर्षों से युद्धों में से गुजर रही है। इस दुनिया में शांति नहीं हो सकती! कैसे शांति हो सकती है इन लोगों के हाथ में? इनका मूल्य ही इस बात में है कि युद्ध होता रहे।
हिटलर ने लिखा है--बड़े नेता युद्ध से पैदा होते हैं। हिटलर ने लिखा है कि बड़े नेता युद्ध से पैदा होते हैं। युद्ध नहीं होता तो नेता बड़ा हो ही नहीं पाता। जब युद्ध होता है तो नेता बड़ा हो जाता है, क्योंकि जब युद्ध होता है तो खतरा पैदा हो जाता है। खतरा पैदा हो जाता है तो सारी जनता हाथ जोड़ कर नेता के चरणों में खड़ी हो जाती है कि तुम ही हमें बचाओ! अब तुम ही भगवान हो! तुम्हारे बिना हमें कौन बचाएगा! और नेता बड़ा होता चला जाता है।
तो हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि अगर असली खतरा न हो, अगर असली युद्ध न हो, तो जिसे नेता बनना है, जिसे लीडर बनना है, उसे नकली खतरे पैदा कर लेने चाहिए, नकली युद्ध पैदा कर लेना चाहिए।
वियतनाम और कोरिया में सब नकली युद्ध चल रहे हैं। जिनकी कोई जरूरत नहीं, जिनका कोई प्रयोजन नहीं। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच नकली लड़ाइयां चल रही हैं। जिनका कोई मतलब नहीं, कोई प्रयोजन नहीं। हिंदुस्तान और चीन के बीच भी सब वही मामला है।
लेकिन बड़ा नेता हो नहीं सकता कोई...माओ बड़ा नेता नहीं हो सकता अगर वह युद्ध न चलाए रखे। युद्ध चलेंगे तो माओ बड़ा नेता हो जाएगा। अगर पिछले दस साल में चीन ने शरारतें न की होतीं, माओ का नाम भी आपको पता नहीं चलता। अगर हिटलर ने दूसरा महायुद्ध खड़ा नहीं किया होता तो हिटलर का नाम भी आपको पता नहीं चलता। चंगीज खां ने अगर लोगों की हत्याएं न की होतीं तो चंगीज खां का नाम कैसे आपको पता चलता? अगर तैमूरलंग ने राजधानियों में जाकर बच्चों की गर्दनें न काटी होतीं...। तैमूरलंग जिस राजधानी में जाता, दस हजार बच्चों की गर्दनें कटवा लेता, भालों में छिदवा लेता, और उसका जुलूस निकलता तो दस हजार बच्चों की गर्दनें भालों में छिदी हुई आगे चलतीं। लोग पूछते कि तैमूर, यह तुम क्या कर रहे हो? बच्चों को किसलिए काट रहे हो? तैमूर कहता, ताकि यह मुल्क याद रखे कि तैमूर कभी यहां आया था।
यह तैमूर को अगर मैं पागल कहता हूं तो आप नाराज मत हो जाना, यह पागल है।
हिटलर ने एक बहुत सुंदर स्त्री की चमड़ी निकलवा कर अपने टेबल लैंप का कवर बनवा लिया था। क्योंकि हिटलर के टेबल लैंप का कवर कोई साधारण कागज का, चमड़े का, प्लास्टिक का नहीं बन सकता है। एक सुंदर जिंदा स्त्री को, उसकी चमड़ी खिंचवा कर, उसका टेबल लैंप का कवर बनवा लिया था। अगर इस हिटलर को मैं पागल कहता हूं तो आप नाराज न हों।
अकेले हिटलर ने पांच सौ यहूदी रोज के हिसाब से हत्या की। हिटलर ने अपनी जिंदगी में पचास लाख यहूदियों की हत्या की। पांच सौ यहूदी रोज मारने का धार्मिक नियम था उसका--व्रत। रोज पांच सौ यहूदी मारने ही हैं। फिर एक-एक यहूदी को मारना बहुत महंगा पड़ने लगा; क्योंकि पांच सौ यहूदी मारना, फिर उनकी लाशें फिंकवाना, फिर उनका इंतजाम करना, यह बहुत महंगा पड़ने लगा। तो उसने गैस चैंबर्स बनवाए, बिजली की भट्टियां बनवाईं। जिनमें पांच सौ आदमियों को बंद कर दो, बटन दबाओ, वे राख हो जाएंगे। न उनकी लाश फेंकनी पड़ेगी, न उनको मारना पड़ेगा, न गोली खर्च करनी पड़ेगी, न सिपाही लगेंगे। सारे जर्मनी में उसने गैस चैंबर्स बनवाए और पचास लाख यहूदियों को आग लगा कर जलवा दिया।
स्टैलिन ने अपने वक्त में साठ लाख लोगों की हत्या की रूस में।
अगर मैं इनको पागल कहता हूं तो नाराज न हों। जिन लोगों को आपने पागलखानों में बंद कर रखा है वे इनके मुकाबले बच्चे भी नहीं हैं, इनके मुकाबले कुछ भी नहीं हैं। इनके मुकाबले उनका पागलपन ना-कुछ है। ये सारे पागल जब तक हुकूमत करेंगे दुनिया में, तब तक कैसे शांति हो सकती है!
पुराने दिनों में ज्यादा खतरा नहीं था, इन पागलों के हाथ में बहुत ताकत नहीं थी। अब इनके हाथ में बहुत ताकत है। अब इनके पास एटम बम हैं, इनके पास हाइड्रोजन बम हैं। इनके पास अनूठी ताकत हाथ में आ गई है। अब ये मनुष्य-जाति को छोड़ेंगे नहीं, ये जरूर एक तरह की शांति दुनिया में ला देंगे--मरघट की शांति! कोई न बचे और सब शांत हो जाए!
एक डाक्टर के घर में एक महिला सुबह-सुबह अपने बच्चे को लेकर पहुंच गई थी। महिला तो अपनी बीमारी के संबंध में बातें करने लगी और बच्चा जो था वह डाक्टर की प्रयोगशाला में घुस गया। डाक्टर डरा-डरा महिला से बातें कर रहा है, बच्चे की अंदर से आवाजें आ रही हैं। कहीं कोई बोतल गिर रही है, कहीं कोई कुर्सी गिर रही है, कहीं किसी किताब के फाड़े जाने की आवाज आ रही है। डाक्टर बेचैन है, लेकिन महिला जरा भी चिंतित नहीं है उसके बच्चे की ये आवाजें सुन कर।
लेकिन जब बहुत जोर से अलमारी गिरी और कई शीशियां टूट गईं, तब उस महिला ने कहा कि मालूम होता है मुन्ना भीतर घुस गया है।
महिलाओं की यही खूबियां हैं, उनके मुन्ना क्या करते हैं उनको पता ही नहीं चलता। और किसी दूसरे के घर में करते हों तब तो बिलकुल पता नहीं चलता कि उनके मुन्ना क्या कर रहे हैं।
उसने कहा, मालूम होता है मुन्ना भीतर चला गया है। कोई खतरा तो नहीं है? कोई अशांति, कोई गड़बड़ तो नहीं कर रहा है? डाक्टर ने कहा, अब आप बेफिकर रहें, मुन्ना बहुत ही जल्दी उस अलमारी के पास पहुंच जाएगा जहां जहर की बोतलें रखी हैं। बहुत जल्दी शांति हो जाएगी। अब घबड़ाएं मत, आप बैठी रहें। वह महिला घबड़ाई और अंदर भागी, लेकिन तब तक मुन्ना ने एक जहर की बोतल पी ली थी और मुन्ना समाप्त हो गया था।
आदमी की हालत भी यहां आ गई है। ये राजनीतिक मुन्ना बिलकुल जहर की बोतल के करीब पहुंच गए हैं। ये अकेले पीकर मर जाते तो कोई खतरा नहीं था, इनके साथ पूरी आदमियत को भी मरना पड़ेगा। अब तक तो ठीक था कि थोड़ी-वोड़ी बोतलें तोड़ रहे थे, रजिस्टर फाड़ रहे थे, ठीक था, लेकिन अब ये बिलकुल जहर की बोतल के पास पहुंच गए हैं। जिस दिन से एटम बम के करीब पहुंच गया है राजनीतिक का हाथ, उस दिन से आदमियत को शांत करने की एक सुविधा उन्हें मिल गई है, बिलकुल शांति आ जाएगी। मुन्ना बहुत जल्दी शांत हो जाएंगे, क्योंकि वे जहर की बोतल के पास पहुंच गए हैं। लेकिन उनके साथ पूरी आदमियत को शांत हो जाना पड़ेगा। और यह वह शांति नहीं होगी जिसकी हजारों वर्ष से हमने कामना की है और सपने देखे हैं। यह वह शांति नहीं होगी जिसमें फूल होंगे, सुगंध होगी। यह वह शांति नहीं होगी जिसमें गीत होंगे, नृत्य होंगे। यह वह शांति होगी जैसी कब्रिस्तान पर होती है, जैसी मरघट पर होती है, सब सन्नाटा होता है, क्योंकि वहां कोई मौजूद ही नहीं होता।
बड़ी ताकत आदमी के हाथ में लग गई है, इसलिए खतरा पैदा हो गया है। अगर इन पागल राजनीतिज्ञों के हाथ में यह ताकत बनी रहती है तो दुनिया की बहुत आशा नहीं है कि दस-पच्चीस वर्ष से भी ज्यादा बच सकेगी यह पृथ्वी। दस-पच्चीस वर्ष बच जाना भी बिलकुल सांयोगिक है, चमत्कार है।
पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। एक उदजन बम चालीस हजार वर्गमील में समस्त जीवन को नष्ट करता है। और साधारण रूप से नष्ट नहीं करता, असाधारण रूप से नष्ट करता है। और आदमियों को नष्ट नहीं करता, कीड़ों को, मकोड़ों को, छोटे-छोटे पतिंगों को, पौधों को, सबको नष्ट करता है। जीवन मात्र को नष्ट करता है।
घर में हम पानी गर्म करते हैं, और पानी उबलने लगता है, सौ डिग्री पर जाकर पानी भाप बनने लगता है। सौ डिग्री की गर्मी में किसी को हम डाल दें तो उसके मन को क्या होगा? कैसा आनंद आएगा उसे? कैसी कविताएं सुनाई पड़ेंगी? कैसे सुख के झरने फूटेंगे उसके भीतर? लेकिन सौ डिग्री की गर्मी कोई गर्मी नहीं है। पंद्रह सौ डिग्री की गर्मी पर लोहा पिघल कर पानी हो जाता है, पंद्रह सौ डिग्री पर लोहा पिघल कर पानी की तरह बहने लगता है। अगर उस पानी में हम किसी को डाल दें तो क्या होगा? लेकिन पंद्रह सौ डिग्री गर्मी भी कोई गर्मी नहीं है, पच्चीस सौ डिग्री गर्मी पर लोहा भी भाप बन कर उड़ने लगता है। पच्चीस सौ डिग्री गर्मी आपके घर में जला दी जाए तो क्या होगा? लेकिन पच्चीस सौ डिग्री गर्मी भी कोई गर्मी नहीं है, एक उदजन बम के विस्फोट से जो गर्मी होती है वह होती है दस करोड़ डिग्री। दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा होती है एक उदजन बम के विस्फोट से, और उसका क्षेत्र होता है चालीस हजार वर्गमील।
ऐसे पचास हजार उदजन बम, ये सीधे-सादे दिखते हुए, दिन-रात मुस्कुराहट में फोटो उतरवाते हुए राजनीतिज्ञों के हाथ में ये उदजन बम हैं। और इन उदजन बमों का ये क्या करेंगे? इनका क्या परिणाम होगा? क्या होगा इस दुनिया का? यह जमीन छोटी है। जितनी बड़ी ताकत अणु बमों की हमारे पास है उसके लिए यह जमीन बहुत छोटी है। इस तरह की सात पृथ्वियों को नष्ट करने में हम समर्थ हो गए हैं। आदमियों की संख्या छोटी है। अभी कुल तीन, साढ़े तीन अरब तो आदमियों की संख्या है। हमने पच्चीस अरब आदमियों को मारने का इंतजाम कर रखा है।
कोई पूछे इनसे कि इतना बड़ा इंतजाम क्यों किया? ये कहेंगे कि कोई भूल-चूक करना ठीक नहीं है। मान लो एक आदमी एक दफा में न मरे तो हम दुबारा मारेंगे, तिबारा मारेंगे, सात बार मारने का हमने इंतजाम कर रखा है। हालांकि एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, अब तक ऐसा हुआ नहीं कि किसी आदमी को दुबारा मारना पड़ा हो। लेकिन फिर भी भूल-चूक नहीं होनी चाहिए, गणितज्ञ हैं, समझदार हैं, कैलकुलेट करते हैं, उन्होंने सब हिसाब लगा लिया। उन्होंने कहा, एक-एक आदमी को सात-सात दफे मारने का इंतजाम कर लो, कोई बच न जाए।
तो हमारे पास अतिरिक्त शक्ति है हत्या और विनाश की। और वह किसके हाथ में है? वह उनके हाथ में है जिनका मन न तो प्रेम से भरा है, जिनका मन न तो आनंद से भरा है, जिनका मन न तो शांत है, जो रुग्ण हैं, अस्वस्थ हैं, विक्षिप्त हैं। इन विक्षिप्त राजनीतिज्ञों के हाथ में छुरे थे तभी इन्होंने काफी गजब के काम किए, तलवारें थीं तभी काफी गजब के काम किए, छोटी-मोटी बंदूकें थीं तभी इन्होंने दुनिया को रौंद डाला। अब तो इनके पास ऐसी ताकत है कि ये क्या कर सकते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं।
युद्ध नहीं रुक सकते, अगर राजनीतिज्ञ जैसा है वह वैसा ही बना रहेगा। राजनीतिज्ञ का मूल्य समाप्त होना चाहिए। उसकी प्रतिष्ठा शून्य हो जानी चाहिए। वह एक कार्यकारी की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, एक रसोइये की, एक मेहतर की, एक डाक्टर की, एक दुकानदार की, बस इससे ज्यादा सम्मान राजनीतिज्ञ को देना खतरनाक है। क्योंकि सम्मान के कारण ही पागल लोग राजनीतिज्ञ होने को उत्सुक होते हैं। वे जो एंबीशस लोग हैं वे इसीलिए उत्सुक होते हैं कि यहां आदर मिलेगा, यहां ताकत मिलेगी, यहां सम्मान मिलेगा। दुनिया को अगर युद्धों से बचाना है तो राजनीति का मूल्य एकदम क्षीण हो जाना चाहिए, डिवैल्युएशन हो जाना चाहिए।
एक गांव में, रोम में एक बार ऐसा हुआ कि रोम की नारियों ने ऐसे कपड़े, इतने भोंडे कपड़े ईजाद कर लिए, इतने अश्लील कपड़े ईजाद कर लिए कि उन नारियों की तरफ देखना भी अत्यंत कुरूप, अत्यंत अरुचिपूर्ण हो गया, अत्यंत अशिष्ट हो गया। लेकिन दौड़ पैदा हो गई। वे नारियां नग्न भी खड़ी हो जाएं तो उनको देखना इतना अशिष्ट नहीं होता, जितना उन्होंने ईजाद कपड़े कर लिए थे।
सम्राट बहुत हैरान हो गया रोम का कि क्या करे क्या न करे! आखिर उसने अपने वजीरों से सलाह ली कि मैं क्या करूं? वजीरों ने कहा कि जो नारी इस तरह के कपड़े पहने उस पर सौ रुपये जुर्माना कर दिए जाएं। राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि इस तरह के कपड़े फलां तिथि से जो भी नारी पहने दिखाई पड़ेगी, उस पर सौ रुपये का जुर्माना होगा।
राजा सोचता था कि जुर्माने से नारियां डर जाएंगी। नारियां जुर्मानों से क्यों डरने लगीं! नारियों में उलटी दौड़ शुरू हो गई। जिस नारी का जुर्माना हो जाता वह दूसरों के ऊपर गौर से देखती और कहती, मेरा तीन बार जुर्माना हो गया! जिसका सात बार हो गया वह कहती, तेरा क्या हुआ, मेरा तो सात बार जुर्माना हो गया! वह जुर्माना प्रतिष्ठा बन गया। गरीब औरतें अपने पतियों से कहने लगीं, दुर्भाग्य कि हमारी शादी तुम्हारे साथ हुई, एक भी बार जुर्माना नहीं हो रहा है हमारा! हमारा जुर्माना कब होगा यह बताओ? कपड़े लाओ, हमारा जुर्माना हो। जो जितनी अमीर महिलाएं थीं वे रोज जुर्माना देने लगीं। नगर में प्रतिष्ठा हो गई कि फलानी स्त्री का इतनी बार जुर्माना हो गया, वह इतने धनी की पत्नी है। यह धन की प्रतिष्ठा हो गई कि कौन कितना जुर्माना चुका सकता है।
तीन महीने के भीतर तो गांव पागल हो गया। गरीब की औरतें भी बेचारी पहन कर निकल आईं। क्योंकि अब क्या करें, नहीं तो दुनिया कहती कि तुम गरीब हो? औरतें एक-दूसरे से पूछने लगीं, तुम्हारा अभी जुर्माना नहीं हुआ? फलानी पड़ोसन का अब तक एक भी दफा जुर्माना नहीं हुआ, बेचारी बड़ी गरीब है। टेलरों की दुकान पर तख्तियां लग गईं कि यहां वे कपड़े बनाए जाते हैं जिन पर निश्चित जुर्माना होता है।
राजा तो बहुत घबड़ा गया, उसने कहा कि यह क्या पागलपन हुआ! उसने एक फकीर को जाकर पूछा कि यह क्या पागलपन हुआ! हमने तो रोकने के लिए लगाया था। उस फकीर ने कहा कि एक काम करो, नगर में पर्चा बंटवा दो, जगह-जगह तख्ती लगवा दो कि इस तरह के जो कपड़े पहनने वाली वेश्याएं हैं उन पर कोई भी जुर्माना नहीं होगा, वेश्याओं को स्वतंत्रता दी जाती है। गांव में तख्ती लगा दी गई कि इस तरह के कपड़े वेश्याएं पहन सकती हैं, उनको स्वतंत्रता दी जाती है, उनका अब कोई जुर्माना नहीं होगा। तीसरे दिन गांव से कपड़े नदारद हो गए। क्योंकि कोई भी स्त्री वेश्या कहलाने को राजी नहीं थी, कपड़ों की प्रतिष्ठा शून्य हो गई।
एक हाईस्कूल के पास...एक बड़े राजपथ के किनारे एक हाईस्कूल था। लड़कियों का हाईस्कूल था। लड़कियां बीच सड़क से सड़क पार करती थीं स्कूल में आते-जाते, वह बहुत खतरनाक था, ट्रैफिक ज्यादा था वहां। प्रिंसिपल ने बहुत समझाने की कोशिश की कि यहां से मत निकलो, चौरस्ते पर जाओ--चौरस्ता थोड़ी दूर था--वहां से रास्ता पार करो, बीच में से रास्ता पार मत करो। लेकिन लड़कियां सुनती नहीं थीं। रोज खतरे होने लगे, एक्सीडेंट होने लगे। लेकिन लड़कियां वहीं से पार करती थीं।
फिर उस प्रिंसिपल ने एक मनोवैज्ञानिक को पूछा कि मैं क्या करूं? उसने एक तख्ती बना कर दे दी। कहा, इस तख्ती को वहां लगा दो। उस तख्ती पर लिखा हुआ था: कैटिल क्रासिंग; यह जानवरों को पार करने की जगह है। बस लड़कियों ने वहां से पार करना बंद कर दिया। वे चौरस्ते पर जाकर पार करने लगीं। क्योंकि वहां से गाय-भैंसों के निकलने का रास्ता लिखा हुआ है, वहां से जो भी निकले, लोग समझें कि गाय-भैंसें जा रही हैं।
मूल्य गिरना चाहिए किसी चीज का। राजनीति की तरफ पागल और एंबीशस लोगों की जाने की आकांक्षा कम हो, इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिज्ञ का मूल्य कम किया जाए, राजनीतिज्ञ को सम्मान और आदर कम किया जाए। न तो अखबारों में इतनी तस्वीरों की जरूरत है, न अखबारों में इतने उनके भाषणों की जरूरत है, न अखबारों में उनके उपद्रवों की इतनी जरूरत है, न मुल्क भर में उनकी इतनी चर्चा की जरूरत है। राजनीतिज्ञ से वैसे ही देशों को सावधान हो जाना चाहिए जनता को, जैसे बीमारियों से लोग सावधान होते हैं। अपने बच्चों को दिखा देना चाहिए कि सम्हल कर अंदर आ जाओ घर के, नेता जी निकल रहे हैं वहां से। कहीं नेता जी की सभा हो रही हो तो घर के लोगों को दरवाजे बंद कर लेने चाहिए, घर के भीतर आ जाओ, नेता जी की सभा हो रही है। नेता से बचाने की जरूरत है, राजनीतिज्ञ से बचाने की जरूरत है।
पहली बात है: राजनीतिज्ञ का मूल्य गिर जाना चाहिए।
बुद्ध एक गांव में गए एक बार। भिखारी थे वे तो। गांव के सम्राट ने सुना कि बुद्ध आ रहे हैं। उसने अपने वजीर से पूछा कि क्या मुझे भी बुद्ध के स्वागत करने के लिए जाना पड़ेगा? क्या यह उचित होगा?
वजीर ने कहा, आप यह पूछते हैं, यही सुन कर मुझे आश्चर्य होता है। जिसने सारे धन-वैभव को दो कौड़ी का समझा, जिसने स्वर्ण को मिट्टी समझा, जिसने प्रतिष्ठा को कीमत नहीं दी, जिसने राजपदों को मूल्य नहीं दिया, वह जब गांव में आ रहा हो तो सभी को उसके स्वागत के लिए जाना चाहिए। आपको भी जाना चाहिए, ताकि लोगों को यह पता चले कि असली सम्मान, असली आदर पद का नहीं है, असली सम्मान विनम्रता का है। असली सम्मान अहंकार का नहीं है, असली सम्मान निर-अहंकार का है। आपको जाना चाहिए।
राजा ने अपनी पत्नी से पूछा कि वजीर कहता है कि मैं जाऊं, लेकिन क्या यह उचित होगा? मैं एक सम्राट और एक भिखारी के स्वागत के लिए जाऊं?
उसकी रानी ने कहा, तुम्हें शर्म आनी चाहिए कि तुम उसे भिखारी कहते हो! भिखारी हम हैं, चौबीस घंटे मांग रहे हैं कि और मिल जाए, और मिल जाए, और मिल जाए। वह भिखारी नहीं है, वह सम्राट है! उसने मांगना छोड़ दिया! वह कुछ भी नहीं मांगता कि मुझे मिल जाए, उसकी सब मांग समाप्त हो गई। उस सम्राट के स्वागत के लिए हम सब भिखारियों को जाना चाहिए।
वह सम्राट स्वागत के लिए गया।
एक दुनिया पैदा होनी चाहिए जिसमें उन सम्राटों का आदर हो जिनके पास कुछ भी नहीं है, बजाय उन सम्राटों के जिनके पास पद हैं, प्रतिष्ठाएं हैं।
राजनीतिज्ञ को आदर देना पूरे देश के चित्त को विक्षिप्त करने की दिशा देनी है, पूरी मनुष्यता को पागल करने की दिशा देनी है। क्योंकि तब बच्चों का मन भी वहीं आकर्षित होता है, वहीं दौड़ता है।
राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, फिर वे राष्ट्रपति हो गए, तो सारे हिंदुस्तान में शिक्षकों ने समारोह मनाना शुरू कर दिया, शिक्षक-दिवस। भूल से मैं दिल्ली में था और मुझे भी कुछ शिक्षकों ने बुला लिया। मैं उनके बीच गया और मैंने उनसे कहा कि मैं हैरान हूं, एक शिक्षक राजनीतिज्ञ हो जाए तो इसमें शिक्षक-दिवस मनाने की कौन सी बात है? इसमें शिक्षक का कौन सा सम्मान है? यह शिक्षक का अपमान है कि एक शिक्षक ने शिक्षक होने में आनंद नहीं समझा और राजनीतिज्ञ होने की तरफ गया। जिस दिन कोई राष्ट्रपति शिक्षक हो जाए किसी स्कूल में आकर और कहे कि मुझे राष्ट्रपति नहीं होना, मैं शिक्षक होना चाहता हूं, उस दिन शिक्षक-दिवस मनाना। अभी शिक्षक-दिवस मनाने की कोई भी जरूरत नहीं है। जिस दिन एक राष्ट्रपति कहे कि मैं स्कूल में शिक्षक होना चाहता हूं, उस दिन तो शिक्षक का सम्मान होगा। लेकिन स्कूल का शिक्षक कहे कि हमको मिनिस्टर होना है, हमको राष्ट्रपति होना है, तो इसमें शिक्षक का कौन सा सम्मान है? इसमें राजनायक का सम्मान है, राष्ट्रपति का सम्मान है, शिक्षक का कोई भी सम्मान नहीं है।
जब एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाता है और हम सम्मान देते हैं, तो दूसरे शिक्षक भी पागल हो जाते हैं कि हम भी कुछ हो जाएं, न सही तो मिनिस्टर ही हो जाएं, न सही मिनिस्टर तो डिप्टी मिनिस्टर हो जाएं, अगर इतना भी न हो सके तो कम से कम डिप्टी डायरेक्टर हो जाएं या डायरेक्टर हो जाएं, कुछ न कुछ तो हो जाएं, क्योंकि हमारे अग्रज जो थे, हमारे जो आगे के थे वे राष्ट्रपति तक हो गए। एक शिक्षक राष्ट्रपति हो गए, अब दूसरे शिक्षक राष्ट्रपति हो गए, अब सारे शिक्षक चक्कर काट रहे हैं मुल्क में कि तीसरा भी शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए।
यह पागलपन जब हम पैदा करेंगे राजनायक को सम्मान देकर, तो दुनिया में कभी भी--कभी भी--शांति नहीं हो सकती। क्योंकि एंबीशस आदमी लड़ना चाहता है, महत्वाकांक्षी लड़ना चाहता है, शांत नहीं होना चाहता। शांत हो जाएगा तो महत्वाकांक्षा मर जाएगी।
इसलिए पहली बात तो यह कहना चाहता हूं कि जितना सम्मान दुनिया में राजनीतिज्ञ को दिया जा रहा है वह एकदम विलीन हो जाना चाहिए। अगर मनुष्यों को थोड़ी भी समझ हो तो राजनीतिज्ञ के सम्मान से मुक्त हो जाना जरूरी है, अगर युद्धों से बचना हो और दुनिया में कोई शांति स्थापित करनी हो। जिस दिन राजनीतिज्ञ का सम्मान नहीं होगा, जिस दिन राजनीतिज्ञ को ऐसा लगेगा कि अगर मैं लोगों को युद्ध में ले गया तो लोग कहेंगे, चलो, नीचे वापस उतरो, तुम्हें युद्ध में ले जाने का कोई हक नहीं है किसी को! उस दिन दुनिया में युद्ध बंद हो जाएंगे। अभी राजनीतिज्ञ जितना किसी मुल्क को युद्ध में ले जाता है, उतना उसको आदर मिलता है, मुल्क पागल होकर उसको आदर देता है कि यह असली नेता है, यह हमारा बचाने वाला है, यह हमारा सेवियर है, यह हमारा रक्षक है। पहली बात!
और दूसरी बात--यह तो बहुत मूल्यवान है कि राजनीति का अवमूल्यन हो तो विश्व-शांति हो सकती है, नहीं तो कभी नहीं हो सकती--और दूसरी बात, अकेली राजनीति के अवमूल्यन से कुछ भी नहीं हो सकता, दूसरी बात भी इतनी ही जरूरी है। और वह यह है कि अब तक दुनिया में अच्छे आदमी को, भले आदमी को, साधु व्यक्ति को हमने जीवन से भागने की सलाह दी है कि तुम जीवन से भागो, दूर हट जाओ। अच्छे लोग जीवन से हट जाते हैं, बुरे लोग जीवन को चलाने वाले हो जाते हैं। अच्छे लोग जगह खाली कर देते हैं, बुरे लोग जगहों पर कब्जा कर लेते हैं। साधु भाग जाते हैं, असाधु डट कर बैठ जाते हैं। वे भागते नहीं, वे कहते हैं, हम नहीं भागेंगे, हम यहीं बैठेंगे। अच्छा आदमी भागता रहा, बुरा आदमी ठहर गया वहीं। बुरे आदमियों के हाथों में सत्ता पहुंचने का एकमात्र कारण है कि अच्छा आदमी सत्ता के, शक्ति के, जीवन में मूल्यवान समस्त स्थानों को छोड़ कर भाग जाता है।
इसके दुष्परिणाम होने स्वाभाविक हैं। बुरे आदमी के हाथ में जब भी ताकत होगी तब युद्ध होंगे, अशांति होगी। शक्ति होनी चाहिए अच्छे आदमी के हाथ में, जीवन की बागडोर होनी चाहिए स्वस्थ साधु-चरित्र व्यक्ति के हाथ में। लेकिन यह कैसे हो सकता है? कोई साधु-चरित्र व्यक्ति आपसे आकर नहीं कहेगा कि मुझको वोट दीजिए, मैं अच्छा आदमी हूं। यह कैसे हो सकता है? सारी दुनिया में जो लोग अपने ही अहंकार का प्रचार करने में समर्थ हैं, वे लोग आपसे आकर कहते हैं--वोट दीजिए, हमें पद पर पहुंचना है, मैं अच्छा आदमी हूं, दूसरा आदमी बुरा है। और ये लोग इकट्ठे होते चले जाते हैं, यह ताकत इकट्ठी करते चले जाते हैं। अच्छा आदमी तो आपके पास आकर नहीं कहेगा।
इस बात को कसौटी समझ लें कि जब कोई आदमी आकर कहे कि मैं अच्छा आदमी हूं, यह बुरे आदमी का लक्षण है। जब कोई आदमी कहे कि मुझे वोट दें, यह बेईमान और चालाक आदमी का लक्षण है। सारी दुनिया में मनुष्य को यह समझ लेना है कि अच्छे आदमी के हाथ में अगर ताकत देनी है, तो वह आपके पास आकर नहीं कहेगा। आपको उसके पास जाकर कहना होगा कि हमारा आग्रह स्वीकार करें और यह थोड़ा सा काम है, इसको आप करें, यह काम हम आपके हाथ में देना चाहते हैं।
दुनिया भर में अच्छे आदमी के हाथ में काम देने की जरूरत पड़ गई है। तो बुरा आदमी अपने आप पीछे हट सकता है। लेकिन अच्छे आदमी ढोल बजा कर आपके घरों के सामने आकर हाथ नहीं जोड़ेंगे कि आप हमें वोट दें, आप हमें पहुंचाएं। अच्छे आदमी को तो पहुंचाना कठिन है, उसके हाथ में तो ताकत देने के लिए उसे राजी करना कठिन है। यही खतरा हो गया, बुरे आदमी को इससे सुअवसर मिल गया है। अच्छा आदमी जाता नहीं, बुरा आदमी सामने खड़ा हो जाता है, शोरगुल मचाने लगता है।
फिर मजा यह है कि दो बुरे आदमी शोरगुल मचाने लगते हैं। अब आप दोनों में से किसी को भी चुन लें, वे सब चचेरे भाई हैं, वे सब कज़िन ब्रदर्स हैं। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहे आप अ को चुन लें, चाहे आप ब को, चाहे आप कांग्रेसी को, चाहे आप जनसंघी को, चाहे आप सोशलिस्ट को, चाहे कम्युनिस्ट को, वे सभी चचेरे भाई हैं, वे सभी वे लोग हैं जो सत्ता के दीवाने हैं। वे आपके पास आकर चिल्लाते हैं कि हमको वोट दो! दूसरा कहता है, हमको वोट दो! आप उन्हीं में से चुनाव कर लेते हैं और भूल हो जाती है।
सारी जनता में, सारे जगत में लोकमानस तैयार किया जाना चाहिए कि वह खोजे कि कौन लोग हैं जो जीवन को चला सकते हैं और जीवन को दिशा दे सकते हैं। उनको पकड़े, उनसे प्रार्थना करे--वे राजी नहीं होंगे, वे हाथ जोड़ेंगे, वे क्षमा मांगेंगे कि हमको क्षमा कर दें, हम जहां हैं वहां भले हैं--लेकिन अच्छे लोगों को उनकी कुटियों से, उनके झोपड़ों से, उनके जंगलों से निकाल कर लाना होगा। अच्छे लोगों के हाथ में ताकत पहुंचानी होगी। तो दुनिया बच सकती है, नहीं तो दुनिया नहीं बच सकती। चाहे राजनीतिज्ञ कितनी ही कांफ्रेंसेस करें, कितने ही यू एन ओ बनाएं, कितने ही चिल्लाएं कि शांति चाहिए! शांति चाहिए! सब चिल्लाएं वे, इससे कुछ भी नहीं हो सकता; पागल पायलट के हाथ में हवाई जहाज चल रहा है और हम सब उसमें बैठे हुए हैं।
दूसरी बात है: अच्छे आदमी के हाथ में पहुंचानी है जीवन की दिशा। और अगर यह जीवन की दिशा पहुंचाई जा सके तो विश्व-शांति आज स्थापित हो सकती है! इसके लिए कल तक ठहरने की भी कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन हजारों वर्ष से यह उपक्रम चल रहा है कि भला आदमी छोड़ कर भाग जाता है। और भला आदमी आपसे आकर कहता नहीं कि मैं कुछ करूं या मैं कहीं जाऊं, वह चुपचाप एक कोने में सरक जाता है। वह पीछे खड़ा हो जाता है। उसे मतलब भी नहीं, उसे प्रयोजन भी नहीं है कि वह आगे खड़ा हो। बुरे आदमी बन-ठन कर, ठीक नेता के कपड़े पहन कर आगे खड़े हो जाते हैं। मुस्कुराने लगते हैं, जैसा कि नेता मुस्कुराते हैं। हाथ जोड़ने लगते हैं, जैसा कि नेता हाथ जोड़ते हैं। और भोली जनता, सीधे-सादे लोग, वे उनकी मुस्कुराहट के धोखे में आ जाते हैं, उनके कपड़ों के धोखे में आ जाते हैं। उन्हें पता नहीं है कि सफेद कपड़े काले हृदयों को छिपाने के काम में लाए जाते हैं। उन्हें पता नहीं है कि मुस्कुराहटें भीतर के
बुरे इरादों को छिपाने का काम करती हैं। उन्हें पता नहीं है कि जुड़े हुए हाथ किसी बड़े अहंकार को छिपाने की और ओट देने की तरकीबें हैं। लेकिन यह चलता है, यह चलता रहा है। और अगर यह आगे भी चलता रहा तो मैं तो नहीं देखता हूं कि कोई रास्ता है कि विश्व-शांति कैसे हो सकती है।
सारे जगत में लोकचेतना, लोकमानस, सामान्य मनुष्य की जो समझ और बूझ है, उसको जगाना जरूरी है, उसको बताना जरूरी है कि क्या करे वह। राजनीतिज्ञ का सम्मान विलीन करे, भले लोगों से आग्रह करे कि वे जीवन के हाथ मजबूत करें, जीवन की बागडोर अपने हाथ में लें। ऐसे लोग जिन्हें ताकत की कोई आकांक्षा नहीं, उनके हाथ में ही ताकत सुरक्षित हो सकती है। ऐसे लोग जिन्हें शक्ति का कोई मूल्य नहीं, उनके हाथ में ही शक्ति उपयोगी, सदुपयोगी हो सकती है। ऐसे लोग जिन्हें किन्हीं के ऊपर बैठने की कोई कामना नहीं, वे ही लोग ऊपर बिठाने के योग्य हो सकते हैं। अच्छे लोगों के हाथ में जगत देना जरूरी है, अन्यथा जगत नहीं बच सकता है, अन्यथा बचने की कोई संभावना नहीं है। ये दो बातें हैं।
और तीसरी बात आपसे मुझे कहनी है।
दो बातें--राजनीतिज्ञ का मूल्य कम, भले आदमी को जीवन की दिशा में संलग्न करने की जरूरत है, उसे भागने से बचाने की जरूरत है। और तीसरी बात, तीसरी बात आपको भी अपने मन को राजनीति की जो मूढ़ता है और जो चक्कर है उससे ऊपर उठाने की जरूरत है। क्योंकि हम सब छोटे-मोटे अर्थों में छोटे-मोटे राजनीतिज्ञ हैं। जितनी दूर तक हमारी ताकत चलती है, वहां हम भी बादशाह हैं, वहां हम भी राजनीति चलाते हैं। एक-एक आदमी अगर अपने-अपने छोटे घेरे में राजनीति चलाएगा, तो छोटे-छोटे घेरे में कलह होगी, संघर्ष होगा। छोटे-छोटे घेरे में कांफ्लिक्ट होगी, छोटे-छोटे घेरे में हिंसा होगी। और यही सारी हिंसा मिल कर फिर बड़े युद्धों में परिवर्तित हो जाती है।
तो तीसरी बात आपसे निजी कहनी है कि आपकी जिंदगी में जितनी पॉलिटिक्स हो, जितनी राजनीति हो...क्योंकि राजनीति का मतलब बेईमानी, राजनीति का मतलब चालाकी, राजनीति का मतलब पाखंड, राजनीति का मतलब उलटे-सीधे रास्तों से गलत चेहरों के द्वारा काम करना, सीधा और साफ नहीं। तो एक-एक आदमी को सीधे-साफ चेहरे से, जैसा वह है--बिना वस्त्रों के, बिना ओट के--अपने को सीधा-साफ, सीधे रास्तों से जीवन में संयुक्त होना और प्रकट होने की कोशिश करनी चाहिए। एक-एक आदमी को अपने जीवन से राजनीति हटा देनी चाहिए। तो बड़े पैमाने पर सारे जगत से राजनीति हट सकती है।
मैंने जो दो बातें कहीं, उनसे आपको ऐसा लगेगा--वे तो मैंने दूसरों के लिए कहीं, आपके लिए क्या? और दूसरों की बुराई सुनना तो बहुत आनंदपूर्ण होता है। बहुत मजा आता है कि यह दिल्ली के लोगों की बात हो रही है। लेकिन आप भी एक छोटी सी दिल्ली बना कर बैठे हैं, इसका आपको पता नहीं होता। कि यह मिनिस्टरों की बात हो रही है। और आप भी मौका पाते से मिनिस्टर हो जाते हैं, इसका आपको पता नहीं चलता। मौका पाते ही आप भी उतनी ही चालाकी, उतनी ही कनिंगनेस में उतर जाते हैं, इसका आपको पता नहीं चलता।
अपने नौकर के साथ आप क्या करते हैं? अपने बच्चे के साथ आप क्या करते हैं? अपनी पत्नी के साथ आप क्या करते हैं? आप क्या कर रहे हैं उनके साथ जो आपसे ताकत में छोटे हैं और जिनके ऊपर आपकी ताकत है? आप जो कर रहे हैं वह वही है जो राजनीतिज्ञ और बड़े पैमाने पर कर रहा है। तो एक-एक आदमी को अपनी जिंदगी में राजनीति से मुक्त होना चाहिए।
अंत में, राजनीति का सीधा अर्थ है: महत्वाकांक्षा, एंबीशन।
और धर्म का अर्थ है: गैर-महत्वाकांक्षा, नॉन-एंबीशन।
राजनीतिज्ञ जीता है--किसी से आगे निकल जाऊं। धार्मिक जीता है--अपने से आगे निकल जाऊं। राजनीतिज्ञ कहता है, मुझे दूसरों के आगे जाना है। धार्मिक कहता है, मुझे अपने से आगे जाना है, मुझे दूसरे से क्या प्रयोजन! मैं जहां आज हूं, कल वहीं न रह जाऊं, अपने से आगे निकल जाऊं, अपने को ट्रांसेंड कर जाऊं। जो मैंने आज जाना है, कल और ज्यादा जानूं। जो मैंने आज जीया है, वह मैं कल और ज्यादा जीऊं। जितनी गहराई मुझे आज मिली, कल मैं और गहरा हो जाऊं। जितनी ऊंचाई मैंने आज पाई, कल मैं और ऊंचा हो जाऊं--अपने से, किसी दूसरे से इसकी कोई तुलना नहीं, कोई संघर्ष नहीं, कोई स्पर्धा नहीं। दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं--राजनीतिज्ञ और धार्मिक। दुनिया में दो ही तरह के माइंड्स हैं--पोलिटिकल और रिलीजस। तो आप अपने भीतर खोजते रहें कि आप भी तो पोलिटिकल माइंड नहीं हैं? आप भी तो राजनीतिज्ञ नहीं हैं?
आपके भीतर जो राजनीतिज्ञ है उसे धार्मिक बनाना है; और सारे जगत से राजनीति का मूल्य कम करना है; और सारे जगत में साधु, सरल, सीधे, साफ लोगों के हाथ में जीवन की दिशा और बागडोर देनी है। अगर ये तीन काम हो सकते हैं तो विश्व-शांति इतनी आसान है जितनी और कोई चीज आसान नहीं है। और अगर ये तीन काम नहीं हो सकते हैं तो सपने छोड़ दें विश्व-शांति के! युद्ध चलेंगे, युद्ध होंगे और शायद अंतिम युद्ध होगा जिसके आगे फिर कोई युद्ध नहीं होंगे।
एक अंतिम बात, और अपनी चर्चा मैं पूरी करूंगा। अलबर्ट आइंस्टीन मर कर स्वर्ग पहुंच गया। तो खबर सुनी होगी न आपने कि वह पहुंच गया स्वर्ग, मर गया अलबर्ट आइंस्टीन। उसी ने तो अणु-बम की सारी ईजाद की, वह बूढ़ा दार्शनिक, वैज्ञानिक बड़ा अदभुत था। भगवान उसका रास्ता देखते थे कि यह बूढ़ा आ जाए तो इससे पूछ लें कि सब क्या हाल है जमीन का। उन्होंने पूछा आइंस्टीन को कि क्या हाल हैं दुनिया के? मैं सुनता हूं कि तीसरा महायुद्ध होने वाला है, मेरे प्राण कंपे जाते हैं, नींद हराम हो गई है। सोने की टिकिया भी लेता हूं रात को तो भी नींद नहीं आती है। मुश्किल में पड़ गया हूं। कुछ समझ नहीं पड़ता कि क्या होगा। मैं पागल तो नहीं हो जाऊंगा?
आइंस्टीन ने कहा, क्यों घबड़ाते हैं? हम लोग सोते हैं मजे से जमीन पर, आप क्यों परेशान हो रहे हैं? तीसरे महायुद्ध में क्या होगा, आइंस्टीन ने कहा, बताना मुश्किल है। लेकिन चौथे में क्या होगा, वह मैं बता सकता हूं।
ईश्वर तो बहुत हैरान हो गया! उसने कहा, तीसरे का तुम नहीं बता सकते हो और चौथे का! क्या चौथे का बता सकते हो?
आइंस्टीन ने कहा, तीसरे के बाबत कुछ भी कहना मुश्किल है, लेकिन चौथे के बाबत एक बात निश्चित कही जा सकती है कि चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा!
युद्ध करने के लिए अंततः आदमियों की जरूरत पड़ती है, बिना आदमियों के युद्ध कैसे हो सकता है। और तीसरे के बाद किसी आदमी के बचने की कोई संभावना नहीं है। जैसी चल रही है यह दिशा आज तक, अगर यह ऐसी ही चलती है तो बूढ़ा आइंस्टीन बिलकुल ठीक कहता है, चौथा महायुद्ध नहीं होगा। शांति हो जाएगी जगत में। शायद बड़ी शांति हो जाएगी, चांद-तारे बड़ी शांति अनुभव करेंगे। आदमी ने बड़ा शोरगुल मचा रखा है। शायद फिर वृक्ष पैदा हो जाएंगे, उनमें फूल खिलेंगे और वृक्ष बड़ी शांति अनुभव करेंगे। क्योंकि आदमियों ने बड़ा उपद्रव और शोरगुल मचा रखा है। पहाड़ों की चट्टानें और बर्फ की चट्टानें और नदी और झरने बहेंगे, लेकिन बड़ी शांति अनुभव करेंगे। आदमी ने बहुत अशांति मचा रखी है। एक शांति दुनिया में आएगी, लेकिन वह शांति आदमी अनुभव नहीं कर सकेगा। आदमी को छोड़ कर और सब उसका अनुभव कर सकते हैं।
आदमी को अगर शांत होना है तो आदमी को कुछ पाजिटिवली, कुछ विधायक रूप से करना होगा, परिवर्तन करना होगा अपने जीवन के ढंग में, अपने तौर-तरीके में। आज तक उसने जिस भांति जीवन को संचालित किया है, वह जीवन का संचालन रुग्ण था, विक्षिप्त था, पागल था।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
इन बातों को आपने इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।