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Naye Samaj Ki Khoj 03

Third Discourse from the series of 17 discourses - Naye Samaj Ki Khoj by Osho. These discourses were given in RAJKOT during MAR 06-09 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
‘नये समाज की खोज’, इस संबंध में तीन सूत्रों पर मैंने बात की है। आज चौथे सूत्र पर बात करूंगा और पीछे कुछ प्रश्नों के उत्तर।
मनुष्य का मन आज तक भय के ऊपर निर्मित किया गया है। सारी संस्कृति, सारा धर्म, जीवन के सारे मूल्य भय के ऊपर खड़े हुए हैं। जिसे हम भगवान कहते हैं, वह भी भगवान नहीं है, वह भी हमारे भय का ही भवन है। है कहीं कोई भगवान, लेकिन उसे पाने के लिए भय रास्ता नहीं है। उसे पाना हो तो भय से मुक्त हो जाना जरूरी है।
भय जीवन में जहर का असर करता है, विषाक्त कर देता है सब। लेकिन अब तक आदमी को डरा कर ही हमने ठीक करने की कोशिश की थी। आदमी तो ठीक नहीं हुआ, सिर्फ डर गया है।
मैंने सुना है, एक फकीर के पास एक औरत अपने बेटे को लेकर गई थी। उसने उस फकीर को कहा कि यह मेरा बेटा मेरी कुछ सुनता नहीं है, इसे आप थोड़ा डरा दें कि मेरी सुनने लगे। और यह आज्ञा का उल्लंघन करता है और छोटी-छोटी बातों में तर्क-वितर्क करता है। आप थोड़ा भयभीत कर दें ताकि यह ठीक हो जाए।
वह फकीर बहुत अदभुत आदमी था। जैसे ही उसने यह सुना, वह छलांग लगा कर खड़ा हो गया और जोर से उसने हाथ हिलाए, सिर हिलाया, जोर से चीख मारी। बेटा तो घबड़ा कर भाग गया। मां घबड़ा कर बेहोश हो गई। और जब मां बेहोश हो गई तो घबड़ा कर फकीर भी भाग गया। थोड़ी देर बाद जब मां होश में आई, तो फकीर वापस लौट कर अपने तख्त पर बैठ गया। फिर थोड़ी देर बाद पीछे से बेटा लौटा।
उसकी मां ने कहा कि यह आपने क्या किया? लड़का तब भी थर-थर कांप रहा था। फकीर की भी सांस चढ़ गई थी। स्त्री का भी चेहरा बिलकुल फीका हो गया था, जैसे खून चला गया हो। इतना डराने को न कहा था, उस स्त्री ने कहा। उस फकीर ने कहा, जब डराना शुरू होता है तो कहां रुकें, यह भी तो तय करना मुश्किल है। तो उस स्त्री ने कहा, बेटे को डराने को कहा था, मुझे तो डराने को नहीं। फकीर ने कहा, मैं तो बेटे को ही डरा रहा था, तू डर गई। और तू ही नहीं डर गई, जब तू बेहोश हुई तो मैं खुद ही डर कर भाग गया। उस फकीर ने कहा, जब भय आता है तो कौन डरेगा और कौन बचेगा, कहना बहुत मुश्किल है।
हजारों साल से आदमी को डरा कर ठीक करने की कोशिश चल रही है। उसमें सब डर गए हैं। उसमें वे डर गए हैं, जिन्हें डराने का आयोजन किया था। वे भी डर गए हैं, जिन्होंने डराए जाने के लिए आग्रह किया था। वे भी डर गए हैं, जिन्होंने डरने की व्यवस्था की थी। सब डर गए हैं। ऐसा नहीं है कि साधारण आदमी डर गया है। जिन्हें हम बहुत बड़े-बड़े लोग कहते हैं, वे भी डरे हुए लोग हैं। हां, डर के रूप थोड़े-बहुत भिन्न होंगे। जिनको हम बहुत निर्भीक और बहुत अभय लोग कहते हैं, वे भी डरे हुए लोग हैं, उनके डर की दिशा भर बदल जाती है।
बहुत संतों ने कहा है, किसी से मत डरना सिवाय परमात्मा को छोड़ कर।
लेकिन डर अगर परमात्मा का है तो भी डर है। और ध्यान रहे, किसी से भी डरना, सांप से डरना, बिच्छू से डरना उतना बुरा नहीं है, बुद्धिमानीपूर्वक है। लेकिन ईश्वर से डरना तो अत्यंत मूढ़तापूर्ण है। क्योंकि जिससे हम भयभीत हो जाते हैं उससे हमारा संबंध असंभव हो जाता है। भय कभी संबंध नहीं बनने देता। संबंध तो बनाता है प्रेम! और जहां भय है वहां प्रेम की कोई संभावना नहीं। जहां भय है वहां घृणा हो सकती है। अगर मैं आपसे डर जाऊं तो मैं आपको प्रेम नहीं कर सकता, सिर्फ घृणा कर सकता हूं। हां, प्रेम दिखा सकता हूं, लेकिन भीतर मेरे घृणा होगी।
इस दुनिया को नास्तिक बनाने में उन लोगों का हाथ है जिन्होंने कहा--ईश्वर से डरो! क्योंकि ईश्वर से डर का अंतिम परिणाम ईश्वर के प्रति घृणा का भाव है। और अंततः फिर जब घृणा बहुत बढ़ जाए तो आदमी इनकार कर देगा कि नहीं है ऐसा कोई ईश्वर! जिससे चौबीस घंटे डरना पड़े, उस ईश्वर को इनकार करना ही पड़ेगा।
आदमी ने धीरे-धीरे ईश्वर को इनकार किया। वह उसके इनकार के पीछे कारण ईश्वर नहीं है। ईश्वर की क्या गलती है कि कोई उसे इनकार करे! नहीं, उसका कारण ईश्वर के साथ जुड़ा हुआ भय है। हमने भय की ही प्रतिमा बना ली है और भगवान नाम दे दिया है। सारा धर्म डरा रहा है। नरक का भय दिया हुआ है, स्वर्ग के प्रलोभन दिए हुए हैं। पाप का दंड है, पुण्य के पुरस्कार हैं।
और ध्यान रहे, पुरस्कार भय का ही रूप है। एक आदमी को हम कहते हैं, गलती करोगे तो नरक में सड़ोगे। यह भी एक डर है। और यह भी एक डर है कि अगर ठीक न किया तो स्वर्ग चूक जाएगा। यह भी एक डर है। स्वर्ग है, नरक है; पाप है, पुण्य है; और सब आदमियों को डरा दिया है।
तो आत्मा सिकुड़ गई भय के कारण। आदमी कदम नहीं उठा पाता, जी नहीं पाता। क्योंकि भय इतना है कि जीए कैसे? और ऐसा नहीं है कि डराने वाले न डर गए हों। वे भी डर गए हैं। डर संक्रामक है। अगर मैं आपको डराऊं, तो बहुत ज्यादा देर नहीं लगेगी जब कि मैं खुद भी डर जाऊंगा। क्योंकि जब आप सब में भय संक्रामक हो जाएगा तो मैं बच कर कहां जाऊंगा? वह भय मुझे भी पकड़ लेगा।
साधु-संन्यासी सब डरे हुए हैं।
अभी एक युवक मेरे पास आया और वह बिलकुल थर-थर कांप रहा था। तीस साल उसकी उम्र होगी। वह बिलकुल थर-थर कांप रहा था। मैंने पूछा, क्या हुआ? उसने कहा कि मैं सोनगढ़ गया था। कानजी को सुनने गया था। वहां मैंने यह सुना कि अगर यह जन्म चूक गया मनुष्य का तो चौरासी कोटि योनियों में भटकना पड़ेगा। तीन महीने वहां रहा हूं। और मुझे बचपन से कनखजूरा से डर लगता है। तो मैं आपसे यह पूछने आया हूं कि कहीं मर कर कनखजूरा तो नहीं होना पड़ेगा?
तीन महीने निरंतर सुबह से शाम तक अगर यही सुनना पड़े कि मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है, बड़ी मुश्किल से मिला है। और अगर जरा चूक गए तो चौरासी कोटि योनियों की भटकन है, फिर कहीं दुबारा मनुष्य जन्म मिलेगा। तो किसी संवेदनशील व्यक्ति के मन में भय घुस जा सकता है, घबड़ाहट बैठ जा सकती है।
यूरोप में ईसाइयों के दो संप्रदाय थे। एक संप्रदाय का नाम था शेकर। वह संप्रदाय धीरे-धीरे खत्म हो गया। एक दूसरे संप्रदाय का नाम था क्वेकर। वह अभी भी जिंदा है। शेकर का और क्वेकर का मतलब यह था कि उनके गुरु जब प्रवचन देते थे, तो जो गुरु प्रवचन देते वक्त, सुनने वाले शेक करने लगते थे, कंपने लगते थे, इतना घबड़ा देते थे उनको नरक से--वह संप्रदाय शेकर था। और क्वेकर उससे भी बड़ा था। बड़ा यह कि जैसे कि भूकंप आ गया हो, इतना किसी को घबड़ा दें, अर्थक्वेक हो गया हो, तो क्वेकर। वह इतना कंप जाए आदमी। वेशली जब बोलता था, तो हाल में स्त्रियां बेहोश हो जाती थीं। इतना घबड़ा देता था। नरक के इतने स्पष्ट चित्र खींचता था।
और कुछ दिनों तक मंदिर-मस्जिदों में टंगे हुए थे चित्र, चर्चों में खुदे हुए थे--नरक में आग की लपटें और कढ़ाहे और उनमें जलते हुए लोग। और जब इनका चित्र ठीक से खींचा जाए और जब पूरे समाज में एक धारा बहती हो, तो एक साधारण, कमजोर आदमी को घबड़ा देना कोई कठिन है!
लेकिन सोचा यह गया था कि इसी डर से हम आदमी को नैतिक बना लेंगे, धार्मिक बना लेंगे, अच्छा बना लेंगे। आदमी अच्छा नहीं बना, धार्मिक नहीं बना, नैतिक नहीं बना, सिर्फ भयभीत हो गया। और भय स्वयं बड़े से बड़ा अधर्म है। भय से बड़ा कोई भी अधर्म नहीं है। सारे मनुष्य की चेतना भय से भर गई है। उसकी वजह से पंगु हो गई, क्रिपिल्ड हो गई, लकवा लग गया, सब पैरालाइज्ड हो गया। आदमी का मस्तिष्क, बुद्धि, सब कुंठित हो गई। पुराना मनुष्य भय पर खड़ा है।
अगर नये मनुष्य को जन्म देना हो तो भय के सब जाल तोड़ देने पड़ेंगे। और समझना पड़ेगा कि सब भय घातक हैं।
इसका यह मतलब नहीं है कि बस हार्न बजा रही हो और आप निर्भय होकर सामने खड़े हो जाएं। मैं यह नहीं कह रहा हूं। वह भय बिलकुल ही विवेकयुक्त है। भय नहीं है, बुद्धिमानी है। लेकिन एक आदमी सोच रहा है कि चौरासी कोटि योनियों में भटकना पड़ेगा। यह भय मानसिक है, काल्पनिक है, सिर्फ व्यवस्थागत है, किन्हीं लोगों का सिखाया हुआ है।
कितने नरक हैं? कोई गुरु कहता है, सात नरक हैं। कोई गुरु कहता है, तीन नरक हैं। कोई गुरु कहता है, एक नरक है। मक्खली गोशाल था महावीर के समय। वह कहता था, इन गुरुओं को कुछ भी पता नहीं; ये अभी आगे गहराई तक नहीं गए। सात सौ नरक हैं!
और एक के बाद एक नरकों के भय हैं, एक से एक खतरनाक नरक हैं। और आदमी को सब तरह से डराने का इंतजाम किया है। सोचा यह था कि भय से हम आदमी को अच्छा बना लेंगे। आज भी यही सोचा जाता है। आज भी बाप बेटे को डराता है, सोचता है अच्छा बना लेंगे। आज भी सरकार जनता को डराती है, सोचती है अच्छा बना लेंगे। आज भी हम चोर को डराते हैं कि हम अच्छा बना लेंगे।
लेकिन डर से क्या अच्छा हुआ? चोर कम हुए? बेईमानी कम हुई?
कारागृह रोज बढ़ते जाते हैं, चोर रोज बढ़ते जाते हैं। कोई कमी नहीं हुई, अदालतों ने कोई फर्क नहीं लाया, पुलिस से कोई अंतर नहीं पड़ता, कानून कुछ डरा नहीं पाता। भगवान थक गया, स्वर्ग-नरक सब थक गए; आदमी रोज बिगड़ता ही चला गया।
इस सत्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि भय से आदमी नहीं बदला जा सका। और भयभीत और हो गया, यह और मुसीबत हो गई। यह भयभीत आदमी और भी मुश्किल की बात हो गया। क्योंकि भय खुद ही एक बहुत बड़ी अनैतिकता है।
भय से मुक्त होना जरूरी है। मानसिक, साइकोलॉजिकल फियर्स, वे भय जो हमारे मन में हमको पकड़े रहते हैं। अभी एक व्यक्ति दोपहर में आज मेरे पास आए। उन्होंने कहा, मरने के बाद क्या होगा?
अब मरने के बाद का जिस आदमी को विचार उठने लगे कि मरने के बाद क्या होगा, वह आदमी एक अर्थों में मर चुका है। उस आदमी के हाथ से जिंदगी निकल गई। अगर जिंदा है आदमी, अभी जिंदा है, तो वह अभी जीएगा। और कहेगा, जब मौत आएगी तब मौत को देख लेंगे, अभी तो मौत आई नहीं।
सुकरात मर रहा था, उसके मित्र रो रहे थे। उसने कहा, रोओ मत। उसके मित्रों ने कहा, हम कैसे न रोएं, मौत द्वार पर खड़ी है! थोड़ी देर बाद आपको जहर दे दिया जाएगा। आप घबड़ा नहीं रहे हैं?
सुकरात ने कहा कि मेरे सामने दो ही विकल्प हैं। या तो मैं मर ही जाऊंगा बिलकुल। और अगर बिलकुल ही मर गया, जैसा कि नास्तिक कहते हैं, अगर बिलकुल ही मर गया तो डरने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि डरने वाला न बचेगा। और या फिर जैसा कि आस्तिक कहते हैं कि आत्मा नहीं मरेगी, मैं नहीं मरूंगा, शरीर ही मरेगा। अगर शरीर ही मरेगा और सुकरात मैं बच ही जाऊंगा, तब तो डर की कोई जरूरत ही नहीं। बहरहाल, सुकरात ने कहा, दो में से एक ही कोई बात हो सकती है। इसलिए डर की कोई भी जरूरत नहीं। या तो बच ही जाऊंगा या मर ही जाऊंगा। बच जाऊंगा, तब डर की कोई जरूरत नहीं है। और मर ही जाऊंगा, तब तो डर की बिलकुल ही जरूरत नहीं है। क्योंकि डरने वाला ही नहीं बचेगा, डराएगा कौन? डरेंगे कैसे?
सुकरात बुद्धिमानी की बात कह रहा है। वह यह कह रहा है कि मृत्यु के बाद क्या है, यह मर कर देख लेना, बचो तो देख लेना। न बचो तो देखने का कोई सवाल ही नहीं है।
लेकिन आदमी जिंदा है और वह पूछ रहा है कि मरने के बाद क्या होगा?
इस पूछने वाले आदमी के भीतर जिंदगी राख हो गई है। यह पूछने वाला आदमी अब मरने की तैयारी कर रहा है, जीने की नहीं। यह पूछने वाला आदमी किसी न किसी गहरे अर्थों में रुग्ण हो गया है।
सिग्मंड फ्रायड ने अपनी एक किताब में एक छोटा सा वाक्य लिखा है जो सभी धािर्मक लोगों को ठीक से समझ लेना चाहिए। सिग्मंड फ्रायड ने लिखा है कि जब भी कोई आदमी धर्मगुरुओं के पास पूछने जाता है कि मृत्यु क्या है? पुनर्जन्म क्या है? आगे क्या है? तो समझ लेना चाहिए कि इस आदमी को मानसिक रूप से रुग्णता आ गई।
यह बात ठीक है। यह बात इसलिए ठीक है कि जब तक हम स्वस्थ हैं तब तक हम बीमारी के संबंध में पूछने नहीं जाते। और अगर कोई स्वस्थ आदमी डाक्टर के पास चला जाए और कहे कि जरा जांच कर लें, कोई बीमारी तो नहीं हो गई है! तो समझना कि बीमारी से भी बड़ी बीमारी हो गई है। अब डाक्टर इसका इलाज भी नहीं कर पाएगा।
जब हम आनंद में होते हैं तो हम कभी नहीं पूछते, कभी नहीं पूछते कि जीवन क्यों है। लेकिन जब हम दुख में होते हैं तो हम पूछना शुरू कर देते हैं कि जीवन क्यों है? जीवन का अर्थ क्या है? जब आप आनंद में होते हैं तब आप यह नहीं पूछते कि आनंद का प्रयोजन क्या है। लेकिन जब दुख में होते हैं तब जरूर पूछते हैं कि दुख का क्या प्रयोजन है? जीवन में दुख क्यों है? क्यों, भविष्य के क्यों, जीवन के चरम अर्थ के संबंध में पूछे गए क्यों, रुग्ण चित्त की खबर देते हैं।
भय--बहुत तरह के भय--जो मानसिक हैं, हमें चारों तरफ से दबाए हुए हैं। उन्हें हमें पहचान लेना पड़ेगा। उन्हें हम बिना पहचाने छोड़ भी न सकेंगे। जिस भय को हम पहचान लेंगे वह छूट जाएगा। क्योंकि अगर दिखाई पड़ जाए कि यह भय बिलकुल ही व्यर्थ है, इस भय का कोई भी अर्थ नहीं, तो उसके रहने का कोई कारण नहीं रह जाता।
लेकिन हमने क्या किया है? हम पहचान नहीं पाते, हम नये-नये नाम दे देते हैं। और नाम हमारे धोखे के हैं। हम इतनी ज्यादा चालाकी में जीए हैं हजारों वर्षों में कि उस चालाकी ने बहुत अजीब हालत कर दी है। उसने चीजों पर ठीक-ठीक नाम नहीं रहने दिए। हर डब्बे पर नाम बदल दिया है। अंदर कुछ और है, ऊपर नाम कुछ और है। इसलिए खोज भी बहुत मुश्किल हो गई है कि कौन सी चीज कहां है।
अब एक आदमी को हम कहते हैं--यह बहुत अच्छा आदमी है। और सौ अच्छे आदमियों में से अट्ठानबे अच्छे आदमी अच्छे नहीं होते, सिर्फ भीरु होते हैं, सिर्फ डरे हुए लोग होते हैं और डर की वजह से अच्छे मालूम होते हैं। लेकिन हम कहेंगे कि मैं बहुत अच्छा आदमी हूं, मैं कभी चोरी नहीं करता। लेकिन अगर मैं थोड़ी जांच-पड़ताल करूं तो पता चलेगा कि चोरी तो मैं भी करना चाहता हूं, लेकिन भय मुझे रोक लेता है। तब मैं अच्छा आदमी नहीं हूं, भयभीत आदमी हूं। लेकिन हम लेबल बदल देंगे। हमें पता ही नहीं चलता।
एक आदमी कहता है, मैं बिलकुल ईमानदार आदमी हूं। उसे थोड़ी जांच-पड़ताल करनी चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह बेईमान है और भयभीत है। बेईमान + भय, बस ईमानदार आदमी हो गया।
लेकिन यह ईमानदार की परिभाषा हुई? अगर कल उसे पता चल जाए कि एक दिन के लिए सब कानून उठा लिए गए और सब पुलिसवालों को छुट्टी दे दी गई और एक दिन के लिए कोई अदालत नहीं है। तब उस आदमी को देखें। वह जो ईमानदार था उसकी सारी ईमानदारी चली गई। वह अब ईमानदार नहीं है। अच्छा आदमी इसीलिए कमजोर है। अक्सर ऐसा होता है कि अच्छा आदमी कमजोरी की वजह से अच्छा आदमी होता है।
और इससे उलटा भी होता है कि बुरा आदमी अक्सर ताकत की वजह से बुरा हो जाता है। क्योंकि उसे अच्छाई की दुनिया में ताकत दिखाने का मौका नहीं मिलता। वहां सब तरह के कमजोर लोगों की भीड़ इकट्ठी होती है, उसे वहां कोई ताकत दिखाने का मौका नहीं होता, ताकतवर आदमी बुरा हो जाता है।
घर में दो बच्चे अगर हों और एक बच्चा बिलकुल गोबर-गणेश हो, तो मां-बाप कहेंगे--बहुत अच्छा है, आज्ञाकारी है। और बच्चा अगर थोड़ा शक्तिशाली हो, बुद्धिमान हो, तो कहेंगे--बिलकुल बिगड़ता जा रहा है, आज्ञा का उल्लंघन करता है, हम जो कहते हैं मानता नहीं। लेकिन समझना जरूरी है कि गोबर-गणेश होना अच्छा होना नहीं है। हालांकि गोबर-गणेश होने से आज्ञाकारी हो जाता है आदमी।
हमने लेबल बदल कर लगाए हुए हैं। इसलिए जहां भय है वहां भी हम पकड़ नहीं पाते कि यह भय है। जहां हिंसा है, हिंसा पकड़ में नहीं आती। जहां घृणा है, घृणा पकड़ में नहीं आती। जहां प्रेम नहीं है, वहां पकड़ में नहीं आता। सब तरफ धोखा हो गया है। आदमी ने अपने भीतर की जो व्यवस्था की है, उसमें सब जगह गलत नाम लगा दिए हैं।
मुझे एक घटना याद आती है। एक संन्यासी एक गांव में प्रवचन करता था। थोड़े से लोग, बूढ़ी स्त्रियां, बूढ़े आदमी और उनके साथ छोटे बच्चे सुनने आते थे। जब वह बोल रहा था, एक छोटे बच्चे ने अपनी मां से जोर से कहा कि मां, मुझे पेशाब लगी है! तो और स्त्रियां हंसने लगीं, संन्यासी को भी बुरा लगा। संन्यासी ने उस स्त्री को अपने पास बुला कर कहा कि बेटे को थोड़ा समझा दो! अगर ऐसा कभी हो तो कुछ और कह दिया करे, ताकि तुम समझ जाओ, लेकिन बाकी लोग न समझ पाएं। तो उसने कहा, क्या कहें? तो उस संन्यासी ने कहा कि उसको समझा दो कि जब पेशाब लगे तो कह दिए कि मां, मुझे गाना गाना है। इसमें किसी को पता भी नहीं चलेगा। कोड-लैंग्वेज बना लो, तुम समझ जाओगी। और ये इस तरह की बातें हैं कि यह बच्चा है, इसका क्या किया जा सकता है। उसकी मां को भी बात समझ में आ गई। उसने जाकर बेटे को समझा दिया। दो-चार दिन बेटे ने भूल की, फिर वह समझ गया।
साल भर बाद संन्यासी उस स्त्री के घर में मेहमान हुआ। कहीं शादी थी, स्त्री शादी में गई और अपने बेटे को संन्यासी के पास सुला गई कि आप सुला रखना, मैं लौट कर आती हूं। कोई ग्यारह बजे उस बेटे ने संन्यासी को हिलाया और उसने कहा, स्वामी जी, गाना गाना है! स्वामी जी ने कहा, दिन भर का थका-मांदा, मुझे गाना नहीं सुनना; तू सो जा, आधी रात को गाना नहीं गाया जाता। उस लड़के ने कहा कि नहीं, बहुत जोर से गाना है। स्वामी ने कहा, अपने मन को थोड़ा सम्हालो, इच्छा पर काबू रखो, सुबह गा लेना। उस लड़के ने कहा, सुबह फिर से गाएंगे, लेकिन अभी तो गाना ही है। स्वामी ने कहा, बड़ी मुसीबत है, मुझे नींद आ रही है, तुझे गाना गाना है। उसने कहा कि बिलकुल मुझे गाना है। फिर भी स्वामी ने कहा कि थोड़ा...सुबह गा लेना भई! अभी तुम सो जाओ, मैं दिन भर का थका यात्रा से आया हूं, अभी मुझे सोने दो। तो उस लड़के ने कहा कि आप सोइए, लेकिन मुझे गाना गाने से क्यों रोकते हैं? स्वामी ने कहा, अगर तू गाना गाएगा तो मैं सोऊंगा कैसे? शांत होकर सो जा चुपचाप!
लड़का थोड़ा डर गया, थोड़ी देर चुप रहा। फिर उसने धीरे से कहा कि नहीं, स्वामी जी, शांत नहीं हुआ जाता, गाना गाना ही पड़ेगा। तो स्वामी ने कहा, ज्यादा जोर से मत बोल, कान में धीरे-धीरे गा दे।
सारी जिंदगी अस्तव्यस्त है, क्योंकि नाम बदले हुए हैं। पहचान में नहीं आता कि कहां क्या रखा हुआ है। मन के भीतर, अपने मन के भीतर जो हमने लेबल बदले हुए हैं, अपने को भी धोखा देने के लिए, दूसरों को भी धोखा देने के लिए। इसलिए आदमी एक पहेली हो गया है। आदमी पहेली है नहीं, आदमी एक सीधी किताब है; आदमी बिलकुल साफ सुथरी-किताब है। लेकिन वह बिलकुल पहेली हो गई, क्योंकि हमने जिस चीज को जो कहना है वह कहना बंद कर दिया है, हम कुछ और कहते हैं, हम कुछ बात ही और कहते हैं। कहने में अच्छी लगती होगी, लेकिन तथ्यों को झुठला जाती है। तो सब फैक्ट जो है वह फिक्शन हो गया है।
इसलिए अगर आप अपने भीतर जाएंगे तो आप ठीक से न पहचान पाएंगे कि मैं कब भयभीत हूं। क्योंकि भय को आप कुछ और कहते होंगे, आपकी अपनी कोड-लैंग्वेज है, हर आदमी की अपनी है।
अब एक आदमी मंदिर में हाथ जोड़ कर, घुटने टेक कर भगवान के सामने खड़ा है। वह कहेगा, मैं प्रार्थना कर रहा हूं। घुटने टेकने का प्रार्थना से क्या संबंध हो सकता है?
घुटने टेकना भय है, प्रार्थना का कोई संबंध नहीं है। घुटने टेकने से प्रार्थना का क्या संबंध है?
एक आदमी पत्थर की मूर्ति में सिर रखे हुए पड़ा है।
किसी मूर्ति के पैर पर सिर रख कर पड़े रहने में कौन सी प्रार्थना है? नहीं, भय है। और वह बहुत पुराना भय का प्रतीक है। पुराने सम्राट, पुराने सेनापति लोगों को पैर में झुकने के लिए मजबूर करते थे। उस मजबूरी के कई कारण थे। पहला कारण तो यह था कि जो आदमी पैर में झुकता था वह आदमी नीचे पड़ जाता था और नीचे पड़ते वक्त सम्राट या सेनापति ठीक से देख लेता था कि वह कोई खतरनाक आदमी नहीं है, छुरा नहीं छिपाए हुए है, बंदूक नहीं रखे हुए है, तलवार नहीं दबाए हुए है। तो हर आदमी को--आदमी सीधा खड़ा रहे तो पक्का पता नहीं चलता कि वह क्या छिपाए हुए है--उसके झुकाने का इंतजाम किया गया था। वह एक मिलिट्री सीक्रेट था बहुत पुराने दिनों में कि हर आदमी को झुकाओ, राजा के सामने झुकाओ, ताकि झुकने से फौरन पता चल जाए कि कोई तलवार या कोई ऐसी चीज तो नहीं छिपा रखी है जो कि उस राजा को खतरा कर दे। इसलिए दोनों हाथ उठाओ।
अगर आपने हिटलर के कनसनट्रेशन कैंप की तस्वीरें देखी हों--नहीं देखी हों तो देखनी चाहिए--अगर तस्वीरें देखी हों तो देख कर आप हैरान हो जाएंगे! सब कैदियों को नंगा कर दिया जाता जब वे कनसनट्रेशन कैंप में ले जाए जाते और सबको दोनों हाथ ऊपर उठा कर जाना पड़ता। छोटा सा बच्चा भी जाएगा तो दोनों हाथ ऊपर उठा कर जाना पड़ता। ताकि दिखाई पड़ जाए कि हाथ खाली हैं, कोई तलवार, कोई बंदूक हाथ में नहीं है, कोई उपद्रव नहीं, कोई बम गोला नहीं है।
तो राजाओं के सामने, सेनापतियों के सामने, लुटेरों के सामने, हत्यारों के सामने आदमी जब जाता तो उसे दूर से ही हाथ जोड़ कर--ताकि उसके दोनों हाथ खाली हैं, यह साफ पता चल जाए--उसको जाना पड़ता। लौटते वक्त उसको उलटा ही लौटना पड़ता था। ताकि आंख राजा के सामने रहे, वह लौट कर कुछ गड़बड़ न कर सके, पीठ पीछे रहे। तो उसको लौट कर उलटा ही लौटना पड़ता।
ये सब भय के इंतजाम थे। इन भय के इंतजामों का उपयोग आदमी भगवान के मंदिर के सामने भी कर रहा है। वह प्रार्थना नहीं है, वह सिर्फ भयभीत है, वह सिर्फ डरा हुआ है। लेकिन भय को अगर हम प्रार्थना कहें तो फिर खत्म हो गई बात। वह चिल्ला रहा है कि मैं पतित हूं, तुम पावन हो! मैं दीन हूं, तुम महान हो! यह सब, यह सारा का सारा जो वह कह रहा है, ये उसके भीतर जो भय के कीड़े सरक रहे हैं उनकी आवाजें हैं। लेकिन इसको वह प्रार्थना कह रहा है। लेबल बदल दिया, कोड लैंग्वेज शुरू हो गई। अब कभी पता नहीं चलेगा कि यह आदमी क्या कर रहा है। घुटने पर टिका हुआ आदमी, पैरों में गिरा हुआ आदमी, छाती पीटता हुआ आदमी, कराहता-चिल्लाता हुआ आदमी भय का सबूत है। लेकिन भय का नाम प्रार्थना है। और किसी शब्दकोश में नहीं लिखा हुआ है कि भय का मतलब प्रार्थना है, प्रार्थना का मतलब भय है। इसलिए जब आप खोजने जाएंगे, आप न खोज पाएंगे कि मैं डर रहा हूं।
मेरे एक मित्र हैं, मेरे साथ घूमने जाते थे। नये-नये मेरे साथ घूमने जाने लगे थे। सुबह मैं निकलता, वे भी पड़ोस में रहते थे, मेरे साथ हो लेते। जो भी मंदिर दिखता, वे हाथ से नमस्कार करते जाते। कोई मड़िया दिखती, हाथ जोड़ते। कोई पीपल का झाड़ आ जाता, हाथ जोड़ते। मैंने कहा, यह तुम क्या करते रहते हो? उन्होंने कहा कि पीपल देव रहते हैं इसमें, उधर हनुमान जी रहते हैं, उधर वे रहते हैं। तो मैंने कहा कि वे रहते होंगे, तुम क्यों परेशान हो? उन्होंने कहा कि आप क्या बात करते हैं! हनुमान जी के मंदिर से बिना हाथ जोड़े निकल जाएं? अगर वे नाराज हो जाएं! नहीं-नहीं, यह ठीक नहीं है।
मैंने उन्हें बहुत समझाया। समझने से उनकी बुद्धि को तो समझ में आ गया, लेकिन भय तो बुद्धि से भी गहरा है। उस भय को समझ में नहीं आया। तो अब वे बड़े मुझसे बचने लगे, वे सुबह मेरे साथ घूमने न जाएं। मैं उनकी तलाश करने लगा। मैं रोज उनके दरवाजे पर पांच बजे खड़ा हो जाता कि चलिए! और वे बड़े डरते हुए निकलते। वे जितने हनुमान जी से डरते थे उससे ज्यादा मुझसे डरने लगे। कभी कहते कि तबीयत खराब है, कभी कुछ कहते। लेकिन मैं कहता कि मैं बैठा हूं, आप तैयार हो लें, ऐसी क्या बात है।
उनको लेकर मैं एक दिन निकला। और वे मुझसे कह चुके थे कि यह बात भय की है, हाथ जोड़ने में कोई सार नहीं; पीपल क्या बिगाड़ लेगा! तो पीपल के पास से निकल गए, सौ कदम निकल गए, अब उनका भय बढ़ता गया। सौ कदम के बाद उन्होंने कहा कि माफ करिए, अब मैं दोहरे डर में पड़ गया; एक आपका डर सता रहा है, एक वह पीपल को मैं बिना नमस्कार किए चला आया। मुझे क्षमा करिए, मैं जाकर हाथ जोड़ आऊं। नहीं तो मेरा दिन भर खराब हो जाएगा, मुझे यही लगा रहेगा कि आज जिंदगी में पहली दफा पीपल को बिना हाथ जोड़े निकल गया, पता नहीं पीपल का देवता नाराज हो जाए!
लेकिन वह समझता यही है कि वह आदमी धार्मिक है। और गांव के आस-पास के लोग भी समझते हैं कि यह आदमी बड़ा धार्मिक है। लेकिन वह आदमी भयभीत है।
चीजों को ठीक-ठीक नाम से जानना जरूरी है, नहीं तो आत्म-विश्लेषण कभी भी नहीं हो पाता। कभी नहीं हो पाता।
एक पति अपने घर लौटता है और आते से ही पत्नी से कहने लगता है कि तुझसे ज्यादा सुंदर कोई स्त्री नहीं है, तुझे मैं इतना प्रेम करता हूं, तेरे बिना एक दिन जी नहीं सकता।
अगर उसके भीतर वह गौर करे तो यह प्रेम नहीं है, भय है। वह रास्ते से तैयारी करके आ रहा है--आज क्या-क्या कहना है। घर तक तैयारी करता चला आ रहा है। क्योंकि पत्नी पता नहीं टूट पड़े, आते से ही पूछे--इतनी देर कहां लगाई? तो उसके पहले ही वह अपनी बातें शुरू कर देता है, इसके पहले कि वह कुछ कहे अपनी बात शुरू कर देता है। लेकिन इसको वह कहेगा प्रेम है। जिस दिन पति कोई अपराध कर ले पत्नी के प्रति उस दिन बाजार से साड़ी खरीद लाएगा। पत्नी भी समझेगी कि प्रेम है यह। लेकिन जिस दिन पति साड़ी लाए उस दिन थोड़ा सचेत हो जाना चाहिए, कुछ मामला गड़बड़ है। वह कुछ भयभीत है, वह कुछ डरा हुआ है, वह इंतजाम कर रहा है, वह रिश्वत दे रहा है।
ऐसा नहीं है कि हम आफिसरों को और सरकारी मिनिस्टरों को ही रिश्वत दे रहे हैं। बाप बेटे को रिश्वत दे रहा है, बेटे बाप को रिश्वत दे रहे हैं। चौबीस घंटे रिश्वत चल रही है। बाप घर आता है, चाकलेट खरीद ला रहा है। वह रिश्वत है। लेकिन वह देख नहीं रहा, वह कहेगा यह कि मैं अपने बेटे को बहुत प्रेम करता हूं। हालांकि वह बेटे को सिर्फ चुप करना चाहता है कि बकवास बंद करो, मुझे अखबार पढ़ने दो, यह चाकलेट लो, तुम जाओ बाहर।
मैं आपसे यह कह रहा हूं कि जिंदगी में जो जो है, उसे हमें वैसा ही देख लेना बहुत जरूरी है, अन्यथा हम कभी भी अपनी जिंदगी में कोई रूपांतरण नहीं ला सकेंगे। क्या है, उसे वैसा देख लेना चाहिए। नहीं है प्रेम तो जानना चाहिए कि नहीं है प्रेम। उचित है, कह दो कि नहीं है कोई प्रेम, मेरा मन बिलकुल सूखा रेगिस्तान है, इसमें कोई प्रेम नहीं उठता। यह ज्यादा प्रेमपूर्ण होगा, यह ज्यादा करुणापूर्ण होगा। पत्नी भी समझ सकेगी इस बात को।
लेकिन पत्नी भी धोखा देगी, पति भी धोखा देगा, बेटा भी धोखा देगा, मां भी धोखा देगी, सब धोखा दिए चले जाएंगे और कोई भी नहीं ठीक से चीजों को पकड़ेगा।
मेरी समझ यह है कि अगर किसी आदमी को यह समझ में आ जाए कि मैं एक सूखा रेगिस्तान हूं, मेरे भीतर प्रेम का कोई झरना नहीं है, तो बहुत दिन नहीं हैं, उस आदमी में प्रेम का झरना फूट सकता है। लेकिन यह पता ही न चले, सूखा रेगिस्तान समझता रहे कि मैं एक हरा-भरा झरना हूं, तो फिर बहुत मुश्किल है, फिर कभी कुछ पता नहीं चलेगा।
भय को पहचानना जरूरी है उसके समस्त रूपों में। उसके सारे रूपों में, सारी वंचनाओं में, सारे डिसेप्शंस में उसको पहचानना जरूरी है कि वह कहां-कहां खड़ा है। गीता को लात लग गई है, अब आप सिर झुका कर हाथ जोड़ रहे हैं। भय है कुछ! किताब को लगी हुई लात न कोई अर्थ रखती है, न किताब को लगाया गया सिर कोई अर्थ रखता है। किताब बस सिर्फ किताब है। लेकिन मन भयभीत है, मन भयभीत है। अगर पुट्ठा उलट कर देखें और नीचे देखें कि अरे, गीता नहीं है! ऊपर का कवर गीता का है, अंदर फिल्मी मैगजीन रखी है। फिर आप निश्चिंत अकड़ से चलने लगेंगे कि कोई बात नहीं।
और अक्सर ऐसा होता है कि घरों में गीता के कवर के भीतर जो किताबें रखी हैं, वे गीता नहीं हैं, अक्सर यह होता है। क्योंकि गीता कौन पढ़ना चाहता है! जो पढ़ना चाहता है उसे कोई पढ़ने नहीं देता। तो गीता का कवर काम देता है। गीता का कवर, भीतर कुछ और है। उसको पढ़ रहे हैं आनंद से। अगर किसी को गीता बहुत आनंदित पढ़ते देखें तो थोड़ा पास चले जाना, इतना आनंदित हो रहा है, कवर के भीतर कुछ और होने का डर है।
मैंने सुना है, एक शब्दकोश बेचने वाला एक एजेंट एक घर के सामने गया है और उसने उसकी गृहिणी को कहा है कि मैं यह डिक्शनरी बेचता हूं, बहुत अच्छी है, आप खरीद लें। उस गृहिणी ने कहा, हमारे पास डिक्शनरी है--बचाव के लिए--कोई हमें जरूरत नहीं है। उसने कहा, कहां है डिक्शनरी? तो उसने, गृहिणी ने दूर टेबल पर रखी एक किताब बताई। उस एजेंट ने कहा, क्षमा करिए, वह डिक्शनरी नहीं है, वह धर्मग्रंथ मालूम होता है। उस स्त्री ने कहा कि हद हो गई बात! धर्मग्रंथ तुम कैसे इतनी दूर से पहचान रहे हो? न तो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है यहां से, न तुम पढ़ सकते हो; तुम कैसे पहचानते हो कि धर्मग्रंथ है? मैं कहती हूं कि वह डिक्शनरी ही है। उस आदमी ने कहा कि मैं कहता हूं वह धर्मग्रंथ है। उस स्त्री ने कहा, लेकिन पहचानते कैसे हो? उसने कहा, उस पर जमी हुई धूल सब खबर दे रही है। डिक्शनरी पर इतनी धूल नहीं जम सकती है; बच्चे उलटते-पलटते रहेंगे। वह धर्मग्रंथ है जिसको कोई कभी नहीं उलटता-पलटता, उस पर धूल जम गई है। वह धूल बता रही है कि वह डिक्शनरी नहीं है।
सच में ही वह डिक्शनरी नहीं थी, वह धर्मग्रंथ ही था।
लेकिन हमें चीजें जैसी हैं, हम जहां हैं, हम जो हैं, उसे पहचानने में बड़ी पीड़ा होती है, बहुत दर्द होता है, बहुत कष्ट होता है। उस कष्ट की वजह से हम धोखा दिए जाते हैं। किसी और को? किसी और को धोखा देने का कोई अर्थ नहीं है, न कोई बड़ी हानि है। अपने को ही धोखा देना सबसे बड़ी हानि है। आदमी अपने को कुछ और समझे जाता है।

एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, आपने कहा कि अपने भीतर का नरक देखना चाहिए, हिंसा देखनी चाहिए। मैंने देखने की कोशिश की, तो फिर मुझे बहुत इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स, बहुत हीनता का भाव आ रहा है।
आएगा। आने का कारण यह नहीं है कि आप हीन हैं, आने का कारण यह है कि आपने अब तक सुपिरिआरिटी कांप्लेक्स को पाला होगा। आपने समझा होगा कि मैं कुछ हूं। इसलिए आ रहा है। आप तो जो हैं वह हैं, लेकिन आपने अपने को कुछ और समझा होगा। और जब आप भीतर खोजने गए तो आपने पाया वहां तो कुछ और है।
जब दो आदमी मिलते हैं तो दो आदमी नहीं मिलते, छह आदमी मिलते हैं। अगर मेरी आपसे मुलाकात हो तो उस कमरे में हम दो होंगे दिखाई पड़ने को, लेकिन ऐसे छह आदमी होंगे। एक तो मैं जो हूं, और एक मैं जो अपने को मैं समझता हूं, और एक वह मैं जो आप मुझको समझते हैं। और ऐसे ही तीन आप। वहां छह की मुलाकात होती है। और वे जो असली मैं हैं, सबसे पीछे खड़े रहेंगे; और वे जो नकली चार हैं, बीच में बातचीत चलाएंगे, लड़ाई-झगड़ा करेंगे, सब कुछ होगा।
तो अगर आप अपने भीतर खोजने जाएंगे तो कई प्रतिमाएं गिर जाएंगी जो आपने सोची थीं कि मैं हूं। आप भीतर पाएंगे कि कहां हूं मैं!
एक बाप समझता है कि मैं अपने बेटे को बहुत प्रेम करता हूं, बहुत प्रेम करता हूं। इतना प्रेम मैंने कभी नहीं किया। मैं प्रेम करता हूं इसीलिए उसे कालेज में पढ़ा रहा हूं, खून-पसीना एक कर रहा हूं, भूखा रह रहा हूं और उसे कालेज में पढ़ा रहा हूं। उसे मुझे पढ़ा कर शिक्षित करना है, उसे मुझे बहुत बड़े ओहदे पर पहुंचाना है। वह कहता है, मैं अपने लड़के को बहुत प्रेम करता हूं।
लेकिन अगर वह अपने भीतर खोजने जाएगा तो आश्चर्य नहीं कि वह पाए--लड़के से उसे कोई भी प्रेम नहीं है। वह अहंकारी, महत्वाकांक्षी, एंबिशस आदमी है। जो-जो महत्वाकांक्षाएं खुद पूरी नहीं कर पाया, वह अपने लड़के के ऊपर थोप कर पूरी करना चाहता है। जब उसे यह दिखाई पड़ेगा तो घबड़ाहट होगी, उसे लगेगा कि मैं कैसा बाप हूं! तब बड़ी इनफिरिआरिटी पकड़ेगी कि यह क्या मामला है? तब उसे ऐसा लगेगा कि यह क्या बात है? ऐसा नहीं हो सकता! मैं तो अपने बेटे को प्रेम करता हूं, इसीलिए तो खून-पसीना एक कर रहा हूं।
अगर दुनिया अपने बेटों को प्रेम करती होती और खून-पसीना बेटों के प्रेम के लिए एक करती होती, तो दुनिया बहुत दूसरी हो जाती। फिर कौन अपने बेटों को युद्धों पर लड़ने भेजता? कैसे युद्ध होते? फिर कौन अपने बेटों को हिंदू-मुसलमानों के झगड़े में कटवाता? कैसे दंगे होते?
नहीं, फिर असंभव हो जाती यह बात। लेकिन कोई बाप अपने बेटे को प्रेम कहां करता है! बाप करता है अपने अहंकार को प्रेम। छोटे-मोटे बाप ही नहीं, जिनको हम बड़े-बड़े बाप कहते हैं, वे भी।
गांधी जी जैसे बड़े बाप अपने बेटों को बिगाड़ने का कारण बन सकते हैं। बड़ा बेटा मुसलमान बना, गांधी जी की वजह से। बड़ा बेटा मांसाहारी बना, गांधी जी की अति सिद्धांतवादिता के कारण। बड़ा बेटा शराब पीने लगा, बड़े बेटे ने सारी जिंदगी बर्बाद कर दी। क्योंकि गांधी ने इतने जोर से सिद्धांत थोपे, इतने जोर से अच्छा आदमी बनाना चाहा उस बेटे को, उसको सब तरफ से गिरफ्त में लेकर अच्छा करने की ऐसी तेज कोशिश की कि उस बेटे को वह अच्छा होना परतंत्रता मालूम होने लगी, उसको तोड़ कर भाग जाना जरूरी हो गया। और फिर बाप ने जब अहंकार अपना थोपा हो, तो बेटा उस अहंकार को तोड़ने के लिए अपने अहंकार को दिखाने लगा।
फिर वह मुसलमान हो गया। फिर वह हरिदास मौलवी हो गया। और बंबई में गांधी जी को पहुंचाने लोग आए थे, तो एक तरफ लोग जय लगा रहे थे महात्मा गांधी की, तब अचानक एक नई आवाज सुनाई पड़ी, दस-पच्चीस मुसलमान आवाज लगा रहे थे--मौलाना अब्दुल्ला गांधी जिंदाबाद! मौलाना अब्दुल्ला गांधी हो गया वह, उसने भी जय लगवा ली।
जबलपुर के पास कटनी एक स्टेशन से गांधी गुजरते थे। भीड़ थी, जोर से लोग नारे लगा रहे थे--महात्मा गांधी की जय! अचानक भीड़ में एक आदमी चिल्लाया कि बंद करो यह बकवास! तो गांधी जी भी चौंक गए, कस्तूरबा भी भीतर थीं, उन्होंने भी खिड़की से झांक कर देखा कि कौन है यह? उसने कहा कि बंद करो यह बकवास! यह बात सच नहीं है। बोलो माता कस्तूरबा की जय!
लोगों ने कहा कि कौन है भई यह? तो लोगों को पता चला कि वह हरिदास गांधी है। और उसने कहा कि यह झूठ बात है। गांधी नहीं, माता कस्तूरबा! क्योंकि मैंने अगर कहीं प्रेम पाया है तो इसमें, इनमें नहीं पाया। इनमें सिद्धांत मजबूत है, प्रेम बिलकुल नहीं है।
अब यह बड़ा मुश्किल है। और यह बड़ा आसान भी है एक लिहाज से। हरिदास गांधी के जो व्यक्ति पिता न हो सके, वह राष्ट्रपिता हो सकता है। बहुत आसान है, राष्ट्रपिता होना बहुत आसान है, क्योंकि असली बेटा कहीं भी नहीं होता। असली बेटे के साथ बाप होना बहुत मुश्किल मामला है।
लेकिन हमारे सबके अपने अहंकार हैं। अच्छे आदमी का भी अपना अहंकार होता है। वह कहता है, मेरा बेटा अच्छा होना चाहिए! अच्छे बेटे से मतलब नहीं है, बेटे के अच्छे होने से मतलब नहीं है--मेरा बेटा! मेरा बेटा अच्छा होना चाहिए! मेरे ‘मैं’ के बरदाश्त के बाहर है कि मेरा बेटा कल और बुरा हो जाए। तो बाप अपने बेटे से कहते हैं: कुल का ध्यान रखना! अपने बाप की इज्जत का खयाल रखना! परंपरा, वंश, संस्कृति, सबका ध्यान रखना! कुर्बान हो जाना तुम, लेकिन वंश की इज्जत, नाम मेरा, वह बचे! बेटे की कोई फिकर नहीं है।
यह जो, इस सबको खोजना पड़ेगा, तो बहुत घबड़ाहट होगी, बहुत बेचैनी मन में लगेगी। लगेगा कि यह क्या बात है? तो इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स मालूम होगा। वह जो मित्र ने पूछा है, ठीक पूछते हैं वे कि अगर हम भीतर खोजने जाएंगे तो ऐसा लगेगा कि यह क्या है?
अभी मैं एक घर में ठहरा था। वक्त हो गया है, मुझे सभा में जाना है। जो मुझे ले जाने वाले मित्र हैं, वे बार-बार भीतर जाते हैं, बार-बार बाहर आते हैं। मैंने उनसे कहा कि वक्त हो गया, बड़ी देर हो गई। वे कहते हैं, जरा पत्नी साड़ी नहीं पहन पा रही है। फिर भीतर जाते हैं, फिर बाहर आते हैं। फिर मैं भीतर गया। तो मैंने उनकी पत्नी को कहा, आप जल्दी साड़ी पहनिए। उसने कहा, मैं तो जल्दी पहन लूं, लेकिन वे ही फिर कहते हैं कि नहीं, यह बदलो, यह पहनो, यह बदलो! वह मेरे पति की वजह से मुश्किल है। तो मैंने कहा कि तू क्या सोचती है, पति तेरी साड़ी बदलने में इतनी उत्सुकता लेते हैं! तो उस स्त्री ने कहा कि मुझे बहुत प्रेम करते होंगे। पति बहुत प्रसन्न हुए। मैंने उन पति से पूछा कि सच बताइए, प्रेम की वजह से साड़ी इतनी ज्यादा बदलवा रहे हैं? कि मेरी औरत बाजार में एक एक्जिबिशन बन कर निकले, एक प्रदर्शनी, कि लोग देखें कि किसकी औरत है? तो ये गहने अपनी औरत को पहनाए हैं कि बाजार में जो आंखें देखेंगी उनको? किसको पहनाए हैं ये गहने?
तो पति खुद साधारण कपड़े पहन ले, उसको फिकर नहीं है; लेकिन पत्नी को वह हीरे की अंगूठी पहना देगा। यह मत सोचना कि पत्नी से प्रेम है। क्योंकि प्रेम से हीरे का क्या संबंध है? संबंध कुछ और है। वह बाजार में दिखाई पड़ना चाहिए कि किसकी औरत है यह? वह हीरे की अंगूठी बताएगी कि फलां आदमी की पत्नी है। इस अंगूठी में वह फलां आदमी की चमक जारी रहेगी।
अगर पति इसको देखेगा कि मैंने कभी अपनी पत्नी को वस्त्र पहनाए ही नहीं, मैंने सदा बाजार की आंखों का ध्यान रखा, मैंने सदा अपने अहंकार को साड़ियां पहनाईं और गहने पहनाए, तो तकलीफ भीतर शुरू हो जाएगी। उसे लगेगा कि यह तो बहुत गड़बड़ बात है। मैं कैसा आदमी हूं?
लेकिन ऐसे आदमी हम हैं। और सत्य को जानना जरूरी है, अगर कोई रूपांतरण अपेक्षित है। पहचान लेना जरूरी है ठीक से कि यह रही बात।
तो वे जो मित्र कहते हैं कि हीनता का भाव मालूम होता है...।
मालूम होने दें। वही सच है, तो उसे मालूम होने दें। जल्दी से फिर अपने अहंकार के भाव को थोप मत देना कि अरे, इस कहां की झंझट में मैं पड़ गया! वही ठीक था कि हम ब्रह्म हैं, हम यह हैं, हम वह हैं, वही ठीक था। यह मैं कहां की खोज में चला गया! क्रोध, हिंसा को खोजने मैं कहां चला गया!
नहीं लेकिन, मैं आपसे कहता हूं, अगर कभी ब्रह्म होना जानना हो, तो इस क्रोध और हिंसा को ठीक से पहचान लेना। यह हीनता है तो है, तथ्य है। अगर मेरी एक ही आंख है तो एक ही आंख है। अगर अंधा हूं तो अंधा हूं। लेकिन अगर अंधा यह समझ ले कि मैं कैसे यह स्वीकार करूं कि मैं अंधा हूं? मैं तो दोनों आंखें मान कर चलूंगा! फिर गड्ढे में गिरना बहुत निश्चित है। जान लेना जरूरी है, जो है। जो है उसे जान लेने से परिवर्तन हो सकता है।
और फिर एक बात और सोच लेने जैसी है कि इनफिरिआरिटी दो तरह की हो सकती है, हीनता का भाव दो तरह का हो सकता है। एक तो यह जो मैंने कारण बताया कि हमने अपनी एक प्रतिमा बना रखी है बहुत सुंदर।
मैंने सुना है, एक स्त्री आईना नहीं देखती थी। अजीब स्त्री रही होगी! ऐसे आमतौर से स्त्रियां आईना देखना पसंद करती हैं, और कुछ पसंद ही नहीं करतीं। स्त्री बहुत अजीब रही होगी, वह आईना देखना पसंद नहीं करती थी। कारण था, वह स्त्री कुरूप थी। लेकिन वह अपने को सुंदर मानती थी। आईना देखने में कुरूपता दिखती थी, तो वह आईना अलग रख देती थी। फिर उसने यह कहना शुरू कर दिया कि आजकल ठीक आईने बनते ही नहीं। क्योंकि वह स्त्री सुंदर थी, वह अपने को सुंदर मानती थी। वह आईने फोड़ देती थी कि आईने सब बेकार हो गए हैं, अब आईने अच्छे बनते ही नहीं। क्योंकि वह आईने में दिखाई पड़ती थी।
तो एक तो हीनता का वह भाव हो सकता है जो आपने प्रतिमा बना ली हो, मैंने अपनी प्रतिमा बना ली हो एक कि मैं ऐसा आदमी हूं, फिर उस प्रतिमा से नीचे दिखाई पड़े मुझे सत्य तो हीनता मालूम पड़े। यह हीनता मालूम पड़े, ठीक है। इसमें हर्ज नहीं है, क्योंकि यह सच्चाई के करीब है, जो मैं हूं वह मुझे मालूम पड़ जाना चाहिए। तुलना क्यों कर रहे हैं उस प्रतिमा से जो आप हैं ही नहीं! तुलना की वजह से हीनता पैदा हो रही है। जो आप हैं, वह हैं।
अगर मैं सोचता था कि मेरी दो आंखें हैं, और खोज-बीन से पता चला कि एक ही आंख है, तो तुलना का कहां सवाल है? तो मैं सोच रहा हूं कि दो थीं और अब एक है, तो बड़ी हीनता मालूम हो रही है। लेकिन दो थीं ही नहीं, एक ही है, तुलना किससे कर रहे हैं? अगर ऐसी हीनता मालूम पड़े तब तो बहुत जल्दी चली जाएगी, क्योंकि आप पाएंगे यही तथ्य है।
लेकिन एक तरह की और हीनता है कि आप दूसरे से तौलते हैं। आप देखते हैं पड़ोस का आदमी तो बिलकुल मुस्कुराता रहता है और मैं बड़ा उदास रहता हूं, इससे तौलते हैं आप। तो फिर हीनता का चक्कर लंबा हो जाएगा। क्योंकि आपको पड़ोसी आदमी के भीतर का कुछ भी पता नहीं है कि पड़ोसी आदमी के भीतर क्या है। हो सकता है, पड़ोसी आदमी इसीलिए हंसता हो कि उदासी पता न चल जाए। अधिक लोग इसीलिए हंसते हैं कि उदासी पता न चल जाए, हंसते रहते हैं। दूसरे को भी धोखा देते हैं, अपने को भी धोखा देते हैं कि भीतर की उदासी न छलक जाए! दूसरे आदमी के भीतर का हमें पता नहीं, उसकी ऊपर की शक्ल दिखाई पड़ती है।
एक आदमी अकड़ कर शान से चलता है, तो हम सोचते हैं बड़ा बहादुर होगा। असल में डरे हुए लोग ही अकड़ कर चलते हैं। नहीं तो अकड़ कर चलने की कोई जरूरत नहीं है। अकड़ कर कोई चलता हो तो भीतर डरा हुआ आदमी है।
मैं एक स्कूल में पढ़ता था। मेरे एक शिक्षक थे। वे पहले ही दिन आए, तो उन्होंने सोचा... आमतौर से शिक्षक सोचते हैं कि पहले दिन ही ठीक से रोब-दाब कायम कर देना चाहिए बच्चों पर। तो उन्होंने आते ही से कहा कि मैं किसी से कभी डरता नहीं हूं। और जो भी मुझसे उलझेगा वह मुश्किल में पड़ जाएगा। यहां तक कि अंधेरी रात में मैं मरघट पर चला जाता हूं।
मैं तो छोटा ही था। मैंने उनसे खड़े होकर कहा कि आप जो कह रहे हैं इससे पता चलता है कि आप बहुत डरे हुए आदमी हैं। इसकी बताने की जरूरत क्या है कि आप मरघट पर अकेले चले जाते हैं? चले जाते हैं, बड़ा अच्छा है, सभी अकेले जाएंगे; आप अभी जाने लगे, कुछ लोग पीछे जाएंगे। इसमें बताने की क्या बात है? जब आप बता रहे हैं कि मरघट पर अकेला चला जाता हूं, तो मैं पक्का मानता हूं आप मरघट पर अकेले नहीं जा सकते। यह जो आपको लग रहा है कि बड़ी बहादुरी का काम कर रहा हूं, यह बहादुरी का काम लग ही इसलिए रहा है कि कमजोर आदमी हैं, भयभीत आदमी हैं। इसमें कौन सी बहादुरी है कि मरघट पर अकेले चले जाते हैं? इसको आप याद क्यों कर रहे हैं? और आते ही से आपने यह कहा कि मैं बहुत खतरनाक आदमी हूं, मुझसे सब डरना। उससे आपका डर पता चलता है, और कुछ भी पता नहीं चलता।
हम दूसरे के चेहरे को भी नहीं पहचान पाते न, क्योंकि हम अपने चेहरे पर भी धोखे में पड़ गए हैं। दूसरे के चेहरे पर तो और भी धोखे में पड़ गए हैं। वहां भी बहुत दूसरी लैंग्वेज लिखी है, चेहरे पर दूसरी भाषा लिखी है। भीतर कुछ और है, चेहरे पर भाषा कुछ और है। क्योंकि चेहरा हमें लोगों को दिखाने के लिए बनाना पड़ता है। वह हमारा शो-केस है, वह हमारी असली स्थिति नहीं है। वह हमारा ड्राइंगरूम है, वह हमारा घर नहीं है। इसलिए ड्राइंगरूम के भीतर किसी के जाना अशिष्टता है। ड्राइंगरूम में ही रुकना चाहिए, भीतर कभी नहीं झांकना चाहिए। क्योंकि ड्राइंगरूम में बेचारे ने किसी तरह टीम-टाम कर ली है। कहीं से सोफा ले आया है, कहीं से चद्दर ले आया है, कहीं से फोटो लटका ली है। ड्राइंगरूम में उसने किसी तरह एक चेहरा बना लिया है बाहर की दुनिया के लिए। उस बाहर की दुनिया को वहीं ड्राइंगरूम से विदा कर देता है।
ठीक वैसे ही ड्राइंगरूम हमारे चेहरे में भी हैं, शो-केसेस हैं। एक चेहरा हमने बना रखा है जिससे हम दुनिया में काम चलाते हैं। वे हमारे असली चेहरे नहीं हैं। लेकिन वे ही चेहरे हमें दिखाई पड़ते हैं, इससे बहुत कठिनाई हो जाती है। और फिर हम उससे तुलना कर लेते हैं, तो फिर हीनता का भाव लगता है। लगता है--फलां आदमी कितना महान है! फलां आदमी कितना सज्जन है! फलां आदमी कितना संत है! और हम--हम कैसे पापी! क्योंकि भीतर अपने देखते हैं तो दिखाई पड़ता है।
लेकिन जिनको आप संत कहते हैं अगर उनके भी भीतर उतरने का कोई उपाय हो, तो शायद आप हैरान हों कि वे भी इसी परेशानी में पड़े हैं।
मैंने सुना है, एक गांव में एक बार एक बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई। पहली दुर्घटना तो यह हुई कि एक संन्यासी और एक वेश्या आमने-सामने रहते थे। आमने-सामने संन्यासी-वेश्या का रहना! लेकिन दिखता हो ऊपर से दुर्घटना, भीतर से बहुत तर्कसंगत है। संन्यासी और वेश्या का बड़ा निकट रिश्ता है, बहुत गहरा संबंध है। संन्यासी और वेश्या सामने रहे तो आश्चर्य न था कुछ! लेकिन सबसे बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ कि दोनों एक ही दिन मर गए। और बड़ा आश्चर्य यह हुआ कि जब देवता उन्हें लेने आए, तो उन देवताओं ने देखा कि आर्डर में कुछ गलती है। वह जो लेने के लिए उनके पास आर्डर मिला था, आज्ञा मिली थी, उसमें कुछ गलती है। क्योंकि लिखा था आज्ञा-पत्र में कि संन्यासी को नरक ले जाओ और वेश्या को स्वर्ग ले आओ। उन्होंने सोचा कि कुछ आफिस में भूल हो गई। और जब से हिंदुस्तानी सब नेता स्वर्गीय होने लगे हैं तब से सब वहां भी आफिस गड़बड़ हो गए हैं। वहां भी सब अस्तव्यस्त हो गया है, कुछ पक्का पता चलता नहीं कहां क्या हो रहा है।
वे वापस लौटे, उन्होंने जाकर अपने प्रधान को कहा सुपरिनटेनडेंट को कि यह क्या मामला है? कुछ गलती हो गई। संन्यासी मर गया है, उसको आर्डर मिला है कि नरक ले जाओ। और वेश्या मर गई है, आज्ञा मिली है कि स्वर्ग ले आओ। हम वापस लौट आए हैं। जल्दी से ठीक कर दें, कुछ भूल हो गई है।
उस सुपरिनटेनडेंट ने कहा कि तुम जरा नये-नये काम पर आए हो, तुम्हें कुछ पता नहीं, ऐसा सदा से होता रहा है। यह भूल आर्डर की नहीं है, यह भूल दुनिया में समझदारी की है। संन्यासी को अक्सर हमें नरक भेजना पड़ता है और वेश्या को अक्सर स्वर्ग!
उन्होंने कहा, पागल हो गए हो? क्या कह रहे हैं आप! यह कैसा नियम! यह कैसी उलटी बात! यह कैसे हो सकता है?
तो उस प्रधान ने कहा, तुम समझ लो, क्योंकि आगे तुमसे भूल न हो, इस तरह बार-बार होगा। कारण साफ है। वेश्या जब भी संन्यासी के मंदिर में घंटी की आवाज सुनती थी, तो रोती थी अपने कमरे के भीतर बैठ कर कि कब होगा वह धन्य दिन जब मैं भी भगवान के मंदिर में प्रार्थना कर सकूं! जब संन्यासी बाहर निकलता था, शांत, गेरुआ वस्त्रों में, सुबह के सूरज जैसा, तो वेश्या रोती थी, दूर से हाथ जोड़ती थी कि कब होगा वह दिन जब इतनी ही शांत मैं हो सकूं! ऐसे ही गैरिक वस्त्र, ऐसे ही आभापूर्ण वस्त्र, ऐसी ही आभापूर्ण आत्मा मेरी भी हो सके! जब संन्यासी आंखें नीची करके चलता था, तो वेश्या सोचती थी--कब मेरी आंखें भी थिर हो जाएंगी! कब यह चंचलता मिटेगी! कब होगा वह दिन! परमात्मा, कब होगा वह दिन! वह दिन-रात रोती थी, दिन-रात रोती थी और आकांक्षा करती थी एक ही कि कब उसके जीवन में भी धर्म हो, संन्यास हो।
और जब वेश्या के घर में नूपुर बजते और वीणा पर तार छिड़ते और वेश्या का नृत्य होता और रंगीन लोग आते और कहकहे की आवाजें उठतीं, तब संन्यासी छाती पीटता था कि बड़ी भूल हो गई। पता नहीं वहां कैसा आनंद लूटा जा रहा है! एक हम ही फंस गए, एक हम ही चूक गए। वहां पता नहीं क्या होता होगा! तब वह वेश्या के घर के चक्कर लगाता था। लेकिन हिम्मत भी न जुटा पाता था कि खिड़की से झांक ले, इतनी हिम्मत भी न जुटती थी। अगर कभी कोई देखने लगता तो नजर नीची करके, फिर वही शांत भाव बना कर, फिर वही पवित्र बन कर वापस अपने मंदिर में चला जाता था। ऐसा बहुत रात होता था। रात-रात संन्यासी सो न पाता था। झपकी लगती थी, वेश्या दिखाई पड़ती थी। सपना आता था, लगता था वेश्या दरवाजा खटखटा रही है।
तो उसने कहा, ले आओ संन्यासी को नरक, वेश्या को स्वर्ग, हम कुछ कर नहीं सकते। संन्यासी मन से वेश्या के साथ रहा, वेश्या मन से संन्यासी के साथ थी। इसलिए नियम तो यहां मन पर लागू होते हैं, शरीर का यहां कोई हिसाब नहीं रखा जाता। शरीर के हिसाब दुनिया में चलते होंगे, यहां तो मन के हिसाब चलते हैं। तुम जाओ, भूल नहीं हुई। और आइंदा इस तरह जल्दी वापस मत लौट आना। हां, कभी ऐसा हो कि संन्यासी को स्वर्ग आने की आज्ञा मिले और वेश्या को नरक ले जाने की, तो एक दफे लौट कर पूछ जाना, तब भूल हो सकती है।
अगर पड़ोसी को देख कर आप तुलना करेंगे तो शायद हीनता का भाव भीतर प्रवेश कर जाए। लेकिन किसी से तुलना मत करना, क्योंकि किसी का चेहरा हम नहीं जानते। और जानते हों तब भी तुलना की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं मैं हूं, आप आप हैं। तुलना की जरूरत क्या है? तुलना बहुत घातक है। तुलना बिलकुल ही घातक है। तुलना से कोई प्रयोजन नहीं है।
एक वृक्ष छोटा है, एक वृक्ष बड़ा है। एक वृक्ष पर पीले फूल हैं, एक पर लाल फूल हैं। तुलना की क्या जरूरत है? मैं मैं हूं, आप आप हैं। हम सब अलग-अलग हैं, पृथक-पृथक हैं, बेजोड़ हैं, अद्वितीय हैं, एक-एक का अपना व्यक्तित्व है। और परमात्मा ने प्रत्येक को उसका अपना व्यक्तित्व दिया है; तुलना मत करना! देखना ही मत कि कौन क्या है। देखना यह कि मैं कौन हूं। और अगर मैं तुलना न करूं, तो फिर मैं बुद्धू हूं कि बुद्धिमान हूं? अगर मैं तुलना न करूं, तो मैं सुंदर हूं कि कुरूप हूं? अगर मैं पड़ोसी से न तौलूं, तो मैं कमजोर हूं, ताकतवर हूं? तब मैं कोई भी नहीं हूं। फिर मैं वही हूं जो हूं।
तुलना उपद्रव खड़ा करती है। अगर मैंने तौला किसी से तो फिर मैं सुंदर बन जाऊंगा; सुंदर बनूंगा तो अहंकार मजबूत होगा। तौला किसी से तो कुरूप दिखाई पडूंगा; कुरूप होऊंगा तो हीनता दिखाई पड़ेगी, दीन मालूम पडूंगा। तौला किसी से तो लगेगा कि वह बहुत बुद्धिमान है, बहुत ज्ञानी है, मैं अज्ञानी हूं, तो रोऊंगा। तौला किसी से तो लगा कि मैं बहुत ज्ञानी हूं, तो अकड़ जाऊंगा। लेकिन तुलना कभी मुझे न जानने देगी कि मैं क्या हूं, वह सदा दूसरे से अटका कर मुझे उलझाती रहेगी।
नहीं, तुलना की कोई भी जरूरत नहीं है। मैं सीधा अपने को देखूं, जो मैं हूं। जो मैं हूं वह मैं अपने को देखूं; तुलना न करूं। तुलना करना ही व्यर्थ है। तो तब--तब फिर मैं न दीन हूं, न मैं हीन हूं; न मैं महान हूं, न मैं क्षुद्र हूं; न मैं पुण्यात्मा हूं, न मैं पापी हूं। तब तो जो मैं हूं, मैं हूं। भयभीत हूं, घृणा से भरा हूं, हिंसा से भरा हूं, प्रेम से भरा हूं या अहिंसा से भरा हूं--जो भी हूं, हूं।
और जब इस तरह हम तथ्य को देखेंगे, तो तथ्य की बड़ी शक्ति है, तथ्य से बड़ा शक्तिशाली और कुछ भी नहीं है। जिस दिन मैं अपने तथ्य को देखता हूं, वह जो फैक्ट है मेरा, अगर मैं उसे पूरा पहचान लूं, सब लेबल अलग कर दूं, सब धोखे अलग कर दूं और पकड़ लूं उसको कि यह रहा मेरा भय, मैं भयभीत आदमी हूं, अगर यह मुझे साफ दिखाई पड़ जाए तो तत्काल परिवर्तन शुरू हो जाएगा। क्योंकि कोई भी भयभीत नहीं रहना चाहता। और मजे की बात यह है--जिसने यह पकड़ लिया और समझ लिया कि मैं भयभीत आदमी हूं, यह भी अभय का एक कदम है। क्योंकि अपने को भयभीत जानना बहुत बड़ी हिम्मत की बात है, छोटी हिम्मत की बात नहीं है।
यह जान लेना कि यह रहा पाप--और मैं पाप हूं--बहुत बड़ी हिम्मत की बात है। क्योंकि मैं जैसा हूं उसे वैसा ही जान लेना बड़ा दुस्साहस है, बड़ा एडवेंचर है। छाती दुखेगी, चारों तरफ से मन करेगा कि नहीं, मैं ऐसा नहीं हूं, बचने की कोशिश चलेगी। लेकिन अगर मैंने कोई कोशिश न की और जान लिया कि ऐसा मैं हूं! इस तथ्य को पहचान लेना पहला कदम है जीवन के रूपांतरण का।
और जैसे ही इस तथ्य को पहचाना, फिर इस तथ्य के साथ रहना। भागना मत, उपाय मत करना कि मैं भयभीत हूं, तो मैं ताकतवर कैसे हो जाऊं? मैं भयभीत हूं, तो मैं कौन सा ताबीज खरीदूं कि मेरा भय चला जाए? मैं भयभीत हूं, तो मैं किस गुरु को पकडूं कि निर्भय हो जाऊं?
नहीं, लिव विद दि फैक्ट। वह जो है तथ्य उसके साथ जीना, जानना कि मैं भयभीत हूं, जानना कि मैं घृणा से भरा हूं, जानना कि मैं क्रोधी हूं, और रहना इसके साथ; क्योंकि भागने का कोई उपाय नहीं है, यही मैं हूं। और अगर एक आदमी एक दिन भी अपने तथ्य के साथ रह ले, तो उसे अपने भीतर के पूरे नरक का बोध होगा, अपने पूरे तथ्य उसे दिखाई पड़ेंगे। और उसे लगेगा नरक कहीं जमीन में, पाताल में नहीं, यहां मेरे भीतर है।

एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, कभी आप कहते हैं, भीतर नरक है। कभी आप कहते हैं, भीतर आत्मा है। कभी आप कहते हैं, सबके भीतर बैठे परमात्मा को नमस्कार! हम क्या समझें?
ठीक पूछते हैं वे। भीतर बहुत बड़ी घटना है। लेकिन सबसे पहले नरक है। और जिस दिन नरक को कोई देख लेगा, पहचान लेगा पूरी तरह, तत्क्षण नरक से छलांग लगा कर बाहर हो जाएगा। आत्मा शुरू हो जाएगी, नरक से जिसने छलांग लगा ली, उसको आत्मा का दर्शन शुरू होगा। और आत्मा से भी जो छलांग लगा लेगा उसे परमात्मा का दर्शन शुरू होगा। कुछ लोग नरक पर ही रुक जाते हैं। कुछ लोग नरक पर भी नहीं जाते, उसके बाहर ही घूमते रहते हैं। लेकिन यह यात्रा करनी पड़ेगी, नरक पर जाना पड़ेगा, ताकि हम छलांग लगा सकें। और आत्मा पर रुक जाते हैं कुछ लोग; उन्हें लगता है कि बस ठीक है, नरक से छलांग लग गई, मैंने जान लिया कि मैं कौन हूं, बस अब यात्रा खत्म हो गई।
अभी यात्रा खत्म नहीं हो गई; अभी बूंद ने सिर्फ बूंद होना पहचाना, अभी बूंद को सागर होना भी पहचानना है। क्योंकि जब तक बूंद सागर न हो जाए तब तक बूंद परेशानी में रहेगी; जब तक बूंद सागर न हो जाए तब तक बूंद सीमित रहेगी; जब तक बूंद सागर न हो जाए तब तक बूंद का बहुत सूक्ष्म अहंकार मौजूद रहेगा।
तो अंतिम छलांग शून्य में है, जहां सब खो जाता है--आत्मा भी! मेरा होना भी! तब फिर उसका ही होना रह जाता है--जो अस्तित्व है--जो है। और उस ‘है’ को जब कोई जानता है, उस ‘है’ के साथ जब कोई जीता है, उस ‘है’ के साथ जब कोई लीन होता है, तब समय के बाहर कालातीत, तब मृत्यु के बाहर अमृत, और तब अंधकार के बाहर अनंत आलोक का जगत शुरू हो जाता है।
समस्त धर्म ने यही चाहा है, लेकिन हो नहीं सका। समस्त प्राणों की यही प्यास है, लेकिन हो नहीं सका। हम भी यही चाहते हैं, सब यही चाहते हैं। लेकिन चाहने ही से यह न होगा; सिर्फ चाहने से ही कुछ भी न होगा; कुछ करना पड़ेगा। भीतर की यह कठिन यात्रा पूरी करनी पड़ेगी। और कठिनाई सबसे बड़ी पहले कदम पर है। वह जो नरक है, उसको ही देखने पर है। हम उसी से बच कर, उस नरक को लीपने-पोतने लगते हैं। जहां लपट दिखाई पड़ती है, वहां चार फूल प्लास्टिक के लाकर बाहर से लगा देते हैं; और कहते हैं, लपट को दबाओ।
पंडित नेहरू इलाहाबाद आए थे, मैं उन दिनों इलाहाबाद था। जिस रास्ते से वे गुजरने वाले थे, उस रास्ते के एक मकान में मैं ठहरा हुआ था। उस रास्ते के सामने ही एक गंदा नाला था। अब पंडित नेहरू वहां से निकल रहे हैं, तो क्या किया जाए?
तो जिन लोगों की नरकों और नालियों को सदा की दबाने की आदत है, वे होशियार हैं। उन्होंने फौरन कई गमले लाकर उस नाले में रख दिए। गमले, बड़े-बड़े गमले लाकर रख दिए, पाम के गमले पूरे नाले पर रख दिए, बड़े रंगीन फूल लाकर सड़क के किनारे लगा दिए, पूरे नाले को ढंक दिया फूलों से। पंडित नेहरू निकले, बड़े खुश हुए होंगे--फूल ही फूल हैं। नीचे नाला बह रहा था।
सब तरफ नाले बह रहे हैं, ऊपर से फूल लगाए हुए हैं, ऊपर से फूल सजा दिए हैं।
ठीक है लेकिन, सड़क पर किसी नाले को फूल से ढांक दो, हर्ज भी ज्यादा नहीं। लेकिन भीतर के नालों को फूल से ढांक दिया तो बहुत हर्ज है। और हम भीतर वही ढांके हुए हैं।
उनको एक-एक फूल को उखाड़ कर नीचे देख लें, वहां नरक है। तो जहां घृणा है, वहां हम कहते हैं कि मैं कभी घृणा नहीं करता, मैं तो बड़ा प्रेमी आदमी हूं। कभी-कभी घृणा हो जाती है भूल-चूक से, ऐसे तो मैं चौबीस घंटे प्रेम करता हूं। घृणा भूल-चूक से हो जाती है।
हालत उलटी है--चौबीस घंटे घृणा है, प्रेम भूल-चूक से हो जाता है। हालत बिलकुल उलटी है। वह हालत ऐसी है--नाला असली है, कभी-कभार नाले के किनारे कोई एकाध फूल खिल जाता है। कोई बीज पड़ जाता है, फूल खिल जाता है। लेकिन नाला अकड़ कर कहता है, मैं तो फूल ही फूल हूं। यह नाला तो कभी-कभी हो जाता हूं, ऐसे तो फूल ही फूल हूं। ऐसे ही हम हैं। चौबीस घंटे में शायद एक क्षण को भी कभी प्रेम का फूल खिलता हो; लेकिन हम मानते यह हैं कि हम प्रेम हैं। और जब क्रोध और घृणा चौबीस घंटे चलते हैं तो हम मानते हैं कि ये कभी-कभी हो जाते हैं।
व्यक्ति को अपने तथ्य को जानना व्यक्ति के जीवन में क्रांति की शुरुआत है। और सबसे गहरा तथ्य है भय का! भय को ठीक से जान लेना और उसके साथ जीना! जिस दिन भय की लपटें पूरी दिखाई पड़ेंगी, व्यक्ति छलांग लगा कर बाहर हो जाता है।
अंतिम सूत्र पर कल रात बात करूंगा, और जो प्रश्न रह गए हैं, उन पर भी।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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