QUESTION & ANSWER
Naye Manushya Ka Dharam 01
First Discourse from the series of 8 discourses - Naye Manushya Ka Dharam by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह का उदघाटन करते हुए मैं अत्यंत आनंदित हूं। युवकों के हाथ में भविष्य है आने वाली जो दुनिया बनेगी, उसे नई पीढ़ी को निर्मित करना है। ज्ञान के जो केंद्र हैं वे यदि नई पीढ़ी को ज्ञान के साथ ही साथ हृदय की और प्रेम की भी शिक्षा दे सकें तो शायद नये मनुष्य का निर्माण हो सके।
एक छोटी सी बात के संबंध में कह कर मैं अपनी चर्चा शुरू करूंगा।
बहुत पुरानी घटना है--एक गुरुकुल से तीन विद्यार्थी अपनी समस्त परीक्षाएं उत्तीर्ण करके वापस लौटते थे। लेकिन उनके गुरु ने पिछले वर्ष बार-बार कहा था कि तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है। उन्होंने बहुत बार पूछा कि वह कौन सी परीक्षा है? गुरु ने कहा: वह परीक्षा बिना बताए ही लिए जाने की है, उसे बताया नहीं जा सकता। और सारी परीक्षाएं तो बता कर ली जा सकती हैं, लेकिन जीवन की एक ऐसी परीक्षा भी है जो बिना बताए ही लेनी पड़ती है। समय पर तुम्हारी परीक्षा हो जाएगी, लेकिन स्मरण रहे, उस परीक्षा को बिना पास किए, बिना उत्तीर्ण हुए तुम उत्तीर्ण नहीं समझे जा सकोगे।
फिर उनकी सारी परिक्षाएं हो गईं, उन्हें परीक्षाओं में प्रमाण-पत्र भी मिल गए, फिर उनके विदा का दिन भी आ गया, दीक्षांत-समारोह भी हो गया और वे विद्यार्थी बार-बार सोचते रहे कि वह अंतिम परीक्षा कब होगी? अब तो अंतिम विदा का दिन भी आ गया। तीन विद्यार्थी जो उस विश्वविद्यालय की, उस गुरुकुल की सारी परिक्षाएं उत्तीर्ण कर चुके थे वे उस सांझ विदा भी हो गए। रास्ते में उन्होंने एक-दो बार सोचा भी, पूछा भी एक-दूसरे से कि एक परीक्षा शेष रह गई। गुरु बार-बार कहते थे एक परीक्षा लेनी है। लेकिन अब वह परीक्षा कब होगी, अब तो वे गुरुकुल से विदा भी ले चुके?
सूरज ढलने को था, गुरुकुल पीछे छूट गया, घना जंगल आगे था। वे तेजी से जंगल पार कर रहे थे ताकि शीघ्र गांव में पहुंच जाएं। एक झाड़ी के पास से निकलते समय पगडंडी पर दिखाई पड़ा बहुत से कांटे पड़े हैं, एक युवक जो आगे था छलांग लगा कर निकल गया। दूसरा युवक पगडंडी से नीचे उतर कर पार कर गया। लेकिन तीसरा युवक अपने सामान को, अपने ग्रंथों को नीचे रख कर कांटे बीनने लगा। उन दो युवकों ने उससे कहा: पागल हुए हो! समय खोने का मौका नहीं है, रात हुई जाती है, घना जंगल है, रास्ता भटक सकता है अंधेरे में, फिर गांव हमें जल्दी पहुंच जाना चाहिए। यह समय कांटे बीनने का नहीं है।
उस युवक ने कहा: इसीलिए कांटे बीन रहा हूं, क्योंकि सूरज ढला जाता है फि र रात हो जाएगी। हमारे पीछे जो भी पथिक आएगा उसे कांटे दिखाई नहीं पड़ सकेंगे। देखते हुए हम कांटों को बिना बीने निकल जाएं और रात होने को है पीछे कोई भी आएगा उसे फिर कांटे दिखाई नहीं पड़ेंगे, इसलिए मैं कांटे बीन लूं। तुम चलो मैं थोड़ा दौड़ कर तुम्हें मिला लूंगा। वह कांटे बीन ही रहा है, वे दोनों युवक चलने को हुए तभी वे तीनों हैरान रह गए पास की झाड़ी से उनका गुरु बाहर निकल आया। उस गुरु ने कहा: जो दो युवक आगे निकल गए हैं वे वापस लौट आएं। वे अंतिम परीक्षा में असफल हो गए हैं। जिसने कांटे बीने हैं वह जा सकता है, वह अंतिम परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गया है। उनके गुरु ने कहा: ज्ञान की परीक्षाएं अंतिम नहीं हैं; अंतिम परीक्षा तो प्रेम की है। और जो प्रेम को उपलब्ध नहीं होता उसका सब ज्ञान व्यर्थ हो जाता है।
नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह के इस उदघाटन में मैं यही प्रार्थना करूंगा कि यह विद्यालय केवल ज्ञान देने का माध्यम नहीं बनेगा बल्कि प्रेम देने का भी क्योंकि प्रेम की परीक्षा में जो उत्तीर्ण नहीं है, उसका सब ज्ञान व्यर्थ है। और जो प्रेम की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है, वह जो प्रेम के ढाई अक्षर भी सीख लेता है वह सारे ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है क्योंकि प्रेम प्रभु को उपलब्ध करने का द्वार है।
अब मैं जिन चर्चाओं का एक सिलसिला चला है उस संबंध में ही अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। मनुष्य को मैं एक बहुत गहरी नींद में सोया हुआ देखता हूं। आदमी बिल्कुल सोया हुआ है। रास्ते पर चलते हुए लोगों को देखता हूं तो ऐसा नहीं लगता है कि वे जाग कर चल रहे हैं। कोई अकेले में ही अपने से बात किए जाता है, किसी के होंठ कंपते हैं। कोई हाथों से इशारे कर रहा है, साथ उनके कोई भी नहीं है।
वे किससे बातें कर रहे हैं? शायद किसी सपने में, शायद वे किसी नींद में हैं। आदमी रात को ही नहीं सोता है दिन में भी सोया ही रहता है। आदमी की पूरी जिंदगी बिना जागे ही बीत जाती है। क्योंकि यदि मनुष्य जाग जाए तो चारों ओर परमात्मा के सिवाय उसे कोई भी दिखाई नहीं पड़ेगा। जागे हुए मनुष्य का अनुभव परमात्मा का अनुभव है, सोए हुए मनुष्य का अनुभव परमात्मा का अनुभव नहीं है।
जब कोई मुझसे पूछता है, ईश्वर है, तो मैं उससे पूछता हूं, यह प्रश्न इस बात की सूचना है कि तुम जागे हुए नहीं हो, सोए हुए हो। और जब तक तुम सोए हुए हो तब तक ईश्वर नहीं है। जैसे कोई उगे हुए सूरज के सामने भी आंखें बंद करके खड़ा हो और पूछता हो, सूरज है, तो उससे हम क्या कहेंगे? उससे हम सूरज के संबंध में कुछ कहेंगे या कि सोचेंगे कि इस आदमी ने आंखें बंद कर रखी हैं इसीलिए प्रश्न उठा है सूरज के संबंध में। सूरज भी मौजूद हो तो भी जो आदमी आंख बंद किए है वह अंधकार में होता है। सूरज उसके अंधकार को नहीं मिटा सकता।
परमात्मा प्रकाश की भांति ही निरंतर मौजूद है। जैसे मछलियां सागर में हैं वैसे ही हम परमात्मा में हैं। लेकिन निरंतर यह प्रश्न उठता है, परमात्मा है? निश्चित ही यह प्रश्न इस बात की सूचना है कि हमारी आंखें बंद हैं, हम सोए हुए हैं। सोए हुए होने का अर्थ है हम सपनों से घिरे हुए हैं, हमारा चित्त ड्रीम से, सपनों से घिरा हुआ है दिन-रात, रात तो घिरा ही होता है, दिन में भी घिरा होता है।
एक युवक न्यूयार्क की तरफ यात्रा कर रहा था। वह जिस ट्रेन में बैठा हुआ था उसके बगल की ही सीट पर एक वृद्धजनजी बैठे हुए थे। उस युवक ने थोड़ी देर बाद उनसे पूछा कि कितना समय हुआ होगा आपकी घड़ी में, आपकी घड़ी में कितना बजा है? उस वृद्ध ने उस युवक को नीचे से ऊपर तक देखा, उसके हाथ के बस्ते और सामान को देख कर लगता था वह किसी इंश्योरेंस कंपनी का एजेंट होगा, किसी बीमा कंपनी का एजेंट होगा। उस वृद्ध ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और फिर कहा महाशय, मैं आपको समय नहीं बता सकूंगा। युवक हैरान हुआ। उसने पूछा: आपके पास घड़ी नहीं है? उस वृद्ध ने कहा: घड़ी तो है लेकिन मैं आपको बताऊंगा कि समय कितना है, फिर बातचीत चल पड़ेगी। आप मुझसे पूछेंगे, आप कहां जा रहे हैं? मैं आपको कहूंगा, मैं न्यूयार्क जा रहा हूं। आप पूछेंगे, वहीं रहते हैं? फिर मजबूरी में मुझे बताना पड़ेगा अपने घर का पता और शायद शिष्टाचार में आपसे कहना पड़े कि आप भी न्यूयार्क चलते हैं कभी मेरे घर आइए। मेरी लड़की जवान है, जरूरी है घर आकर आपका उससे मिलन, मैत्री, परिचय हो जाएगा। आप उससे कहेंगे कहीं घूमने को चलने को, शायद वह जाने को राजी हो। और यह बात अंत में मैं जानता हूं कि आज नहीं कल आप प्रस्ताव करेंगे कि मैं आपकी युवा लड़की से विवाह करना चाहता हूं। और मैं आपसे निवेदन करता हूं मैं बीमा एजेंट बिलकुल भी पसंद नहीं करता हूं, उनको मैं दामाद नहीं बना सकता हूं।
वह युवक तो हैरान रह गया। उसने कहा: महाशय आप किन सपनों में खोए हुए हैं! मैं केवल पूछता हूं कि समय, कितना बजा है, कितना बजा है आपकी घड़ी में? और आप किन-किन नतीजों पर, किन-किन अनुमानों पर यात्रा कर गए?
हमें हंसी आती है इस वृद्ध आदमी पर लेकिन हम सब भी निरंतर ऐसे ही सपनों में, भविष्य में यात्रा करते रहते हैं। वर्तमान में हम में से कोई भी नहीं जीता है। या तो हम अतीत की स्मृतियों में खोए रहते हैं जो बीत गया उसकी याददास्तों में या जो नहीं आया उसकी आशाओं में, सपनों में। वर्तमान में कोई भी नहीं जीता है। या तो हम बीते हुए अतीत की स्मृतियों में खोए रहते हैं या न आए हुए भविष्य की कल्पनाओं में। यही नींद है, यही सपना है। जो वर्तमान में है, वह जागा हुआ होता है। जो अतीत में है, भविष्य में है वह सोया हुआ है।
यही अर्थ है निद्रा का आध्यात्मिक क्योंकि न तो अतीत की अब कोई सत्ता है, अतीत जा चुका। केवल स्मृतियां, केवल मेमोरीज् रह गईं हैं मन पर। उनकी अब कोई भी सत्ता नहीं, कोई भी अस्तित्व नहीं है। और भविष्य अभी आया नहीं है,आने को है। उसकी भी कोई सत्ता नहीं है। तो जिसका मन अतीत में और भविष्य में गतिमान होता हो वह जान ले कि वह सपनों में भटक रहा है सत्य में नहीं। सत्य तो वर्तमान में है जो मौजूद है उसी क्षण में न उसके पीछे न उसके आगे। वर्तमान के अतिरिक्त और किसी चीज की कोई सत्ता नहीं है, कोई अस्तित्व नहीं है। वर्तमान के अतिरिक्त सब असत्य है, सब असत्तावान है। हम उसी असत्तावान में उसी नॉन-एक्झिस्टेंसियल में वह जो नहीं है उसी में भटकते रहते हैं, यात्रा करते रहते हैं। यही सपना है, यही ड्रीमलैंड है इसी में हम सोए हुए हैं। रात ही हम सपना नहीं देखते दिन भर हम सपना देखते हैं। लेकिन दिन के काम में इतने उलझ जाते हैं कि भीतर चलते हुए सपनों का तांता हमें दिखाई नहीं पड़ता है, बस इतना ही फर्क जरा आंख बंद करें भीतर सपने उपलब्ध हो जाएंगे। जरा आंख बंद करके भीतर झांकें और पाएंगे सपनों की कतार वहां चल रही है।
रात आकाश में तारे होते हैं, दिन में, दिन में तारे दिखाई नहीं पड़ते। यह मत सोच लेना कि नहीं होते हैं। दिन में भी तारे अपनी ही जगह होते हैं सिर्फ दिखाई नहीं पड़ते। सूरज की रोशनी बीच में इतना बड़ा परदा खड़ा कर देती है कि दूर तारे दिखाई नहीं पड़ते, छिप जाते हैं रोशनी में; अंधेरे में नहीं, अंधेरे में तो दिखाई पड़ जाते हैं रोशनी में छिप जाते हैं। लेकिन अगर किसी गहरे कुएं में चले जाएं तो दिन में भी आकाश में तारे दिखाई पड़ सकते हैं, बीच में अंधेरे का परदा आ जाए तारे दिखाई पड़ने लगेंगे।
ऐसे ही रात मन में सपने चलते हैं यह मत सोचना कि दिन की रोशनी में सपने समाप्त हो जाते हैं इसलिए मैं जाग गया। केवल दिन की रोशनी में सपने दिखाई नहीं पड़ते जैसे दिन की रोशनी में तारे दिखाई नहीं पड़ते। सपने मौजूद हैं भीतर उनकी यात्रा चल रही है भीतर। आप बाहर काम भी कर रहे हैं भीतर सपने भी चल रहे हैं। जरा काम बंद करें और भीतर देखें तो पाएंगे भीतर कोई सपना मौजूद है। न मालूम कौन सी योजनाएं चल रही हैं, न मालूम कौन सी कल्पनाएं चल रही हैं, न मालूम अतीत के कौन से चित्र दोहर रहे हैं। भविष्य की कौन सी आशाएं बन रही हैं। भीतर एक सपनों की दुनिया मौजूद है। यह जो सपनों की दुनिया है भीतर यही मनुष्य की निद्रा है। और जब तक मनुष्य के भीतर सपने मौजूद हैं तब तक मनुष्य को सत्य का साक्षात नहीं हो सकता है। सत्य के साक्षात के लिए और कुछ नहीं केवल सपने खोने पड़ते हैं। सत्य के अनुभव के लिए और किसी चीज का त्याग नहीं करना पड़ता केवल सपनों का त्याग करना पड़ता है, केवल निद्रा को छोड़ देना होता है, जागना पड़ता है।
इसलिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं हम यह अनुभव करें, जानें पहचानें कि हम सोए हुए हैं। यद्यपि एकदम से यह ख्याल में नहीं आता कि सोए हुए होने का क्या अर्थ है?
एक मित्र मेरे सारे विश्व का भ्रमण करके वापस लौटे थे। वे एक कवि थे और एक चित्रकार भी, वे दुनिया की सुंदरतम चीजों को देखने गए थे। जब वे गए थे तब भी मैंने उनसे कहा था, मत जाओ व्यर्थ क्योंकि जो बाहर सौंदर्य को देखने जाता है उसे अभी सौंदर्य का पता भी नहीं है। लेकिन नहीं वे माने। वे यात्राएं करके वापस लौटे वर्षों बाद, मेरे पास फिर रुके। उस दिन पूर्णिमा की रात थी और उन्हें मैं नर्मदा के तट पर ले गया, संगमरमर की चट्टानों पर। नाव में आधी रात को निर्जन एकांत में उनके साथ में मैं दो घंटे था। वे उन दो घंटों में निरंतर स्विटजरलैंड की झीलों की बात करते रहे, कश्मीर की झीलों की बातें करते रहे, लेकिन नर्मदा की वे चट्टानें न तो उन्हें दिखाई पड़ीं, न उन्होंने देखीं। न तो वह पूर्णिमा का चांद उन्हें दिखाई पड़ा न वह बरसती हुई चांदनी उन्हें अनुभव हुई। वे स्विटजरलैंड में रहे, मैं नर्मदा पर रहा; दोनों के बीच बड़ा फासला था। फिर हम लौटे तो वे कहने लगे, बहुत धन्यवाद आप बहुत सुंदर जगह ले गए थे! मैंने उनसे कहा क्षमा करें ले तो गया था लेकिन आप पहुंच नहीं सके। और मैं वहां जाकर बहुत-बहुत पछताया। आए तो दो थे लेकिन पहुंच मैं अकेला ही सका। आप मेरे साथ वहां नहीं थे और इसलिए व्यर्थ ही मत कहें कि सुंदर जगह थी। जिसे देखा ही नहीं जिससे निकटता ही अनुभव नहीं की उसके सौंदर्य का क्या पता चला होगा आपको! उन दो घंटों में एक बार भी जो मौजूद था उससे आपका कोई संपर्क कोई संस्पर्श न हो सका। लेकिन जो मौजूद नहीं था स्विटजरलैंड और कश्मीर अतीत की स्मृतियां, उनमें आप खोए रहे। आप सपने में थे आप मेरे साथ नहीं थे। और मैं उनसे निवेदन किया कि अगर बुरा न मानें तो मैं यह कहना चाहूंगा कि जैसा आपको दो घंटों में मैंने जाना मैं मान ले सकता हूं कि स्विटजरलैंड में भी जब आप रहे होंगे तब आप कहीं और रहे होंगे। वे झीलें भी आपने नहीं देखी होंगी।
सपने में जीते हैं, जहां हैं वहां नहीं जीते, जहां नहीं हैं वहां जीते हैं। जब भोजन करने घर बैठे होते हैं, तब आपको पता न हो, आप दफ्तर में होंगे। जब दफ्तर में होते हैं, तब हो सकता है कि भोजन-गृह में हों। जब मंदिर में वह बैठे हों, जरूरी नहीं है कि मंदिर में हों, सिनेमा-गृह में हो सकते हैं। सिनेमा-गृह में बैठे हों, हो सकता है मंदिर में गीता सुनते हों। कुछ नहीं कहा जा सकता। आदमी वहां नहीं है जहां है, क्योंकि आदमी अगर वहां हो जाए जहां है तो जीवन में जो भी छिपा हुआ है वह सब प्रकट हो जाता है।
जीवन को जानने की कुंजी वर्तमान में जीना है। जीवन को जानने की कुंजी वह जो प्रजेंट है, जो उपस्थित है उसमें समग्ररूपेण चेतना को उपस्थित कर देना है। हम अनुपस्थित हैं प्रतिपल अनुपस्थित हैं और ऐसे ही सोए-सोए जीए चले जाते हैं और फिर पूछते हैं जीवन का आनंद अनुभव नहीं होता जीवन का पता सोए हुए आदमी को चल सकता है?
राजस्थान के एक गांव में एक फकीर एक रात आकर रुका था। उस गांव के लोग जैसा हमेशा संन्यासियों को सुनने इकट्ठे होते थे। उसको सुनने भी इकट्ठे हो गए। गांव का जो सबसे बड़ा धनपति था आसो जी वह भी सभी के सामने सभा में बैठा हुआ था। फकीर ने बोलना शुरू किया था और आसो जी की नींद लग गई। क्योंकि वे दिन भर के थके-मांदे, दुकान पर काम करते। और ऐसे भी जिन लोगों को नींद नहीं आती वे धर्म सभाओं में जरूर जाते हैं। क्योंकि कई डाक्टर ऐसी सलाह देते हैं कि नींद लाने की सबसे अच्छी दवा धर्मकथा सुनना है। आसो जी भी इस तरकीब को मानते थे। वे जाकर धर्मकथा सुनते थे। रोज ही वहां जो थोड़ी बहुत नींद आ जाती हो आ जाती हो। रात भर तो धन की पूंजी की व्यवस्था जुटाने में नींद नहीं आ पाती थी। उस दिन भी वे जाकर वहां सो गए थे। और गांव में कोई भी इस बात को एतराज नहीं करता था। क्यों? कौन जाग कर कभी धर्मकथा सुनता है?
और जो संन्यासी भी बोलने आते थे वे भी क्यों यह कहते आसो जी से कि तुम सोते हो। क्योंकि किसी को यह कहना कि तुम सोए हुए हो उसके मन को बड़ी चोट पहुंचाना है, वह नाराज हो जाएगा। और आज तक संन्यासी धनपति को नाराज नहीं कर सके, इसीलिए धर्म नष्ट हुआ है। संन्यासी और धर्मगुरु धनपति को प्रसन्न करते हैं, नाराज नहीं। एक सांठ-गांठ है, एक समझौता है। धनपति धार्मिक लोगों की बात से सुरक्षित बना रहता है और धार्मिक लोगों के धन से धर्मगुरु सुरक्षित बना रहता है। लेकिन यह संन्यासी कुछ अनूठा होगा, शायद सच में संन्यासी होगा, इसने बीच में बोलना बंद कर दिया और चिल्ला कर कहा: आसो जी सोते हो? दूसरे संन्यासी तो कहते थे, आसो जी ध्यानमग्न होकर सुनते हैं। और आसो जी यह सुन कर बहुत प्रसन्न होते थे। इस आदमी ने कहा: आसो जी सोते हो। आसो जी की नींद खुली, उन्होंने झांक कर चारों तरफ देखा और कहा: नहीं-नहीं, कौन कहता है? मैं तो ध्यानमग्न होकर सुनता था, आप बोलें। उस फकीर ने फिर बोलना शुरू कर दिया। कभी कोई सोया हुआ आदमी मानने को राजी नहीं होता कि मैं सोता हूं क्योंकि अगर वह मानने को राजी हो जाए तो जागरण की शुरुआत, जागरण का प्रारंभ हो जाता है। इसलिए नींद समझाती है कि मानना मत कि तुम सोते हो क्योंकि अगर मान लिया कि मैं सोता हूं तो जागने का उपक्रम शुरू हो ही जाएगा। इसलिए नींद कहती है कभी मानना मत कि तुम सोए हो, दुनिया सोती होगी तुम तो जागते हो। आसो जी ने कहा: नहीं-नहीं, कौन कहता है मैं सोता हूं? मैं तो ध्यान से सुनता था। आप शुरू करें, आपको रुकने की जरूरत नहीं।
फकीर ने बोलना शुरू किया। थोड़ी देर में आसो जी फिर सो गए। सोए हुए आदमी की बातों का कोई भरोसा? सोए हुए आदमी के आश्वासन का कोई बल है? सोए हुए आदमी की बात का कोई अर्थ है? आसो जी फिर सो गए। वह फकीर भी एक ही रहा होगा। उसने फिर बोलना बीच में बंद कर दिया और फिर चिल्लाया, आसो जी सोते हो? अब आसो जी को गुस्सा आ गया। यह आदमी इतने जोर से कहता है, पूरा गांव सुन लेगा, और ऐसी बातें पूरा गांव जान ले यह उचित नहीं है। और यह आदमी इतने जोर से कहता है कि हो सकता है कि भगवान भी सुन लें और पीछे मुश्किल पड़े कि तुम धर्मकथा में सोते थे! आसो जी ने भी जोर से कहा: माफ करिए, आप अपना बोलना जारी रखें, मैं सो नहीं रहा हूं, कौन कहता है मैं सोता हूं? बार बार रोकने की जरूरत नहीं है, मैं तो ध्यानमग्न होकर सुनता हूं।
फकीर ने फिर बोलना शुरू किया, आसो जी फिर सो गए। लेकिन फकीर भी एक ही था, वह मानने को राजी नहीं था। अब की बार उसने तीसरी बार कहा, लेकिन थोड़े शब्दों को बदल लिया, और आसो जी इसीलिए भूल में पड़ गए। दो बार उसने कहा था, आसो जी, सोते हो, और आसो जी इनकार कर दिए थे। तीसरी बार उसने कहा: आसो जी, जीते हो? नींद में आसो जी ने समझा, पुराना ही प्रश्न फिर है। उन्होंने कहा: नहीं-नहीं, कौन कहता है? उस फकीर ने कहा: इस बार अब किसी के कहने की कोई जरूरत नहीं है। आप इस बार उलझ गए। इस बार मैंने पूछा ही नहीं कि सोते हो। मैंने पूछा है: जीते हो? और सबूत मिल गया कि आप सोते थे, नहीं तो जीने को इनकार नहीं कर सकते थे। और फिर उस फकीर ने कहा: ठीक भी है यह, जो आदमी सोता है वह जीता भी नहीं। सोने और जीने का क्या संबंध? जीने और जागने का संबंध हो सकता है। सोने और जागने, सोने और जीने इन दोनों का कोई संबंध नहीं।
इसीलिए तो हमें जीवन का कोई पता नहीं चल पाता है कि जीवन क्या है। हमें नहीं अनुभव हो पाता कि सत्य क्या है, हम नहीं जान पाते कि यह चारों तरफ व्याप्त ऊर्जा यह परमात्मा, यह प्रभु क्या है, यह अस्तित्व क्या है। हम सोए हुए अपनी नींद में घिरे हुए, चारों तरफ नींद के दरवाजों में बंद, नींद की दीवालों में बंद, हमसे जीवन का कोई संबंध नहीं हो पाता। इसलिए धर्म यदि कुछ है तो मेरी दृष्टि में जागने की प्रक्रिया है। धर्म न तो पूजा है न प्रार्थना क्योंकि सोए हुए आदमी की न पूजा का कोई अर्थ है और न प्रार्थना का। धर्म न शास्त्रों को जान लेना है न सिद्धांतों को सीख लेना क्योंकि सोए हुए आदमी के शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने का क्या अर्थ है? धर्म तो है जागरण की प्रक्रिया। धर्म तो है जागरण का सूत्र। धर्म तो है एक अवेकनिंग, भीतर जो सोया है उसे जगा लेने की विधि। उस संबंध में ही थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है कि भीतर जो सोया है वह कैसे जाग जाए। भीतर जो सपने चलते हैं वे कैसे विसर्जित हो जाएं। भीतर जो अतीत और भविष्य की ऊहा चलती है वह कैसे विलीन हो जाए। मैं कैसे उस क्षण में खड़ा हो जाऊं जिसमें मैं हूं क्योंकि वही एक क्षण है, उसी क्षण से प्रवेश मिल सकता है, उसमें जो अस्तित्व है। लेकिन उसके अतिरिक्त कहीं और कोई द्वार नहीं है। तो मैं क्षण में कैसे मौजूद हो जाऊं। और धर्म के नाम पर हम जो उपाय करते हैं, वे क्षण में जगाते नहीं वर्तमान में बल्कि और सुलाने की विधियां हैं।
एक आदमी बैठ कर राम-राम जपता है, ओम-ओम जपता है। एक आदमी अल्लाह-अल्लाह करता है। नमोकार पढ़ता है, कोई और मंत्र, कोई और शब्द। क्या आपको पता है बहुत बार दोहराने से शब्द नींद लाने की विधि बन जाते हैं। क्या आपको पता है रिपीटेशन, किसी शब्द की पुनरुक्ति आत्म-सम्मोहन की, खुद को सुला लेने की विधि है। शायद आपको पता नहीं और पता भी हो तो शायद आपको खयाल नहीं। एक मां को अपने बच्चे को सुलाना होता है तो वह कहती है, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। वह इसी एक कड़ी को, इसी एक लोरी को दोहराए चले जाती है--राजा बेटा सो जा। थोड़ी देर में राजा बेटा सो जाता है। मां सोचती होगी, मेरे मधुर कंठ के कारण सो गया तो गलती में है। राजा बेटा बोर्डम की वजह से, ऊब की वजह से एक ही शब्द को बार-बार दोहराने की वजह से सो गए हैं। राजा बेटा तो क्या राजा बेटा के राजा बाप को भी सुलाने की विधि यही है। उससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। एक ही शब्द की पुनरुक्ति चित्त को ऊब से भर देती है, बोर्डम से भर देती है। एक ही शब्द को बार-बार दोहराने से चित्त का रस उस शब्द में खो जाता है। चित्त का रस है नये के प्रति नवीन के प्रति जितना नवीन होता है चित्त उतना जागता है। जो परिचित है उसको बार-बार दोहराने से चित्त रस खो देता है, रुचि खो देता है। और फिर उससे बचने के लिए एक ही रास्ता रह जाता है अब राजा बेटा को सुला रहे हैं आप। राजा बेटा भाग जा नहीं सकते कहीं और आप कहे जाते हैं, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, तो राजा बेटा इस ऊब से बचने के लिए क्या करें? सिवाय इसके कि नींद में चले जाएं और आपसे बचने का कोई उपाय नहीं है।
आप चाहे खुद बैठ कर राम-राम, राम-राम, राम-राम, राम-राम दोहराते रहें, बार-बार दोहराया गया शब्द ऊब पैदा कर देता है, परेशानी पैदा कर देता है। फिर मन को बचने की सेल्फ-डिफेंस में आत्म-रक्षा में मन को बचने के लिए नींद में चला जाना पड़ता है। एक हलकी तंद्रा पैदा हो जाती है। उसी तंद्रा को आप समझ लेते होंगे शांति, उसी निद्रा को आप समझ लेते होंगे मन शांत हो गया। उस निद्रा के बाद थोड़ा सा अच्छा लगेगा, थोड़ी राहत जैसी नींद के बाद लगती है तो आप सोचते होंगे कि मैं धार्मिक हो गया हूं।
धर्म इतना सस्ता नहीं है, धर्म नींद का उपाय नहीं है। एक आदमी भजन-कीर्तन में अपने सोने की व्यवस्था कर सकता है। संगीत सुलाने की विधियों में से बहुत कीमती विधि है।
लखनऊ में एक बार ऐसा हुआ एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ आया। लेकिन संगीतज्ञ बड़ा अनूठा था। वाजिद अली उन दिनों नवाब था। वाजिद अली तो जाहिर पागल नवाब था। ऐसे तो बहुत कम नवाब हुए जो पागल न हों। आमतौर से पागल होना, नवाब होना एक ही बात का मतलब रखते हैं। क्योंकि जो पागल नहीं हैं वे नवाब होना नहीं चाहते हैं। तो वाजिद अली तो पागल था ही। खबर मिली, एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ आया है। लेकिन उसकी एक शर्त है: वह वीणा तो बजाएगा,
वह गीत तो गाएगा, लेकिन एक शर्त उसकी बड़ी अनूठी है, कि कोई सिर उसकी वीणा बजाते समय हिलना नहीं चाहिए। अगर कोई सिर हिला, वह पहले से ही पाबंदी और शर्त बांध लेता है कि सिर नहीं हिल सकेगा।
वाजिद अली ने कहा: कोई फिकर नहीं है। जाओ, उसको कहो कि सिर हिलने की क्या जरूरत है, सिर हिलेगा, हम सिर कटवा देंगे।
गांव में खबर कर दी गई कि संगीत का रात्रि बड़ा कार्यक्रम होगा, बहुत बड़ा वीणावादक आया है, लेकिन जो लोग सुनने आएं एक बात खयाल रख कर आएं--अपने सिर कटवाने की तैयारी। सिर नहीं हिलना चाहिए, सिर हिलेगा तो सिर अलग कर दिया जाएगा। जिसे आना हो आए, जिसे न आना हो न आए। बहुत लोग आते उसे सुनने लेकिन सबके आने का सवाल न रहा। उस गांव में जो बहुत संयमी होंगे, वे ही सुनने आए। कोई सौ-पचास आदमी सुनने आए। और वे भी आ कर ऐसे बैठ गए जैसे योगासन कर रहे हों। कोई सिर कहीं धोखे से भी हिल जाए, संगीत के कारण नहीं किसी और वजह से, कोई मक्खी आ जाए तो मुश्किल हो जाए। वह आदमी, नवाब ने चारों तरफ नंगी तलवारें लिए आदमी खड़े कर दिए थे कि खयाल रखना, किस आदमी का सिर हिलता है।
दो घंटे, तीन घंटे बीत गए, लोग पत्थर की मूर्तियां बने बैठे हैं, कोई सिर हिलता ही नहीं। लेकिन तीन घंटे के बाद रात जब गहरी होने लगी और संगीत जब गहरा उतरने लगा, तो कुछ सिर हिलने शुरू हो गए। नवाब के आदमी तैयार थे, उन्होंने निशान लगा लिए कौन-कौन आदमी हिल रहे हैं। सभा जब पूरी हुई, बीस आदमी पकड़े गए जिनके सिर हिले थे। नवाब ने उनसे कहा: पागलो, तुम्हें पता नहीं कि सिर कट जाएंगे, तुम्हे खबर नहीं मिली? उन लोगों ने कहा: हमें पूरी खबर थी, लेकिन जब तक हम जागे हुए थे तभी तक तो खबर काम कर सकती थी, जब तक हमें होश रहा तब तक हम सम्हाले रहे, लेकिन जब होश ही न रहा तो सम्हालता कौन? सिर हमने नहीं हिलाए, हिले होंगे। हमारा कोई कसूर नहीं है, हमारा कोई हाथ नहीं है। वैसे कटवाना हो कटवा दें। लेकिन शर्त यह थी कि हम सिर न हिलाएंगे तो हमने सिर नहीं हिलाए, लेकिन जब नींद लग गई होगी, तब हमें पता नहीं कि फिर क्या हुआ।
तो संगीत में चाहें तो अपने को सुला लें--शराब में, सेक्स में। सब सोने की विधियां हैं।
आदमी जागने से डरता है, सोना अच्छा लगता है। क्यों? इसलिए कि सोने में न तो अपना पता रह जाता है, न किसी और का। न किसी दुख का बोध रह जाता है, न किसी चिंता का। न कोई पीड़ा, न कोई समस्या। इसीलिए तो शराब का इतना प्रभाव है सारी दुनिया में। और शराब का प्रभाव रोज-रोज बढ़ता जाता है, कम नहीं होता, क्योंकि आदमी भूलना चाहता है दुख को, पीड़ा को, चिंता को, समस्या को--जीवन को भूलना चाहता है। खयाल न रह जाए कि यह सब है। इसलिए अपने को बेहोश करना चाहता है। और जो चीज भी बेहोश करने में सहयोगी हो जाती है आदमी उसको बहुत पसंद करता है। बेहोशी के प्रति बड़ा प्रेम, बड़ा लगाव है। और धर्म, धर्म बेहोशी से बिलकुल उलटी चीज है। धर्म बेहोशी नहीं, होश है। इसलिए धर्म के नाम पर जो हजारों सोने की विधियां चल रही हैं उनको मैं धर्म नहीं कहता हूं। वे सब इंटाक्सिकेंट ही हैं। वे सब शराब के रूपांतर हैं। वे सब नशे की दवाइयां, अफीमें हैं। आदमी जहां भी अपनी चेतना को क्षीण करना चाहता है, जहां अपनी चेतना को डुबाना चाहता है, जहां अपनी कांशसनेस को खोना चाहता है, वहीं वह आदमी बेहोशी, नींद में, तंद्रा में जाने की कोशिश कर रहा है। वह आदमी असल में यह कह रहा है कि मैं जीना नहीं चाहता, मैं मरना चाहता हूं। वह आदमी एक तरह की धीमी सुसाइड में, एक ग्रेजुअल सुसाइड में, एक धीमी आत्महत्या में लगा हुआ है।
धर्म बिलकुल दूसरी बात है। बिलकुल उलटी बात। धर्म है जागरण का प्रयास। धर्म है पूरी तरह चेतना को एक्सपेंशन, चेतना को और विस्तार। भीतर जितनी अचेतना है, उसको नष्ट करने की आकांक्षा। और भीतर पूरा चित्त कांसस हो जाए, पूरा चित्त चेतन हो जाए, भीतर कोई अंधेरे का सोता हुआ कोना न रह जाए, भीतर सब प्रकाशित हो जाए। यह कैसे हो सकता है, एक छोटी सी घटना से मैं समझाने की कोशिश करूं।
एक सम्राट अपने राजकुमार को धर्म में दीक्षित करना चाहता था। उसने सारे देश में खबर पहुंचवाई कि मेरे युवक राजपुत्र को कौन धर्म में दीक्षित कर सकेगा? एक बूढ़े आदमी की खबर मिली। एक अस्सी वर्ष का बूढ़ा किसी जंगल में है, उसका दावा है कि वह आपके पुत्र को धर्म में दीक्षित कर सकता है। लेकिन उसकी बड़ी शर्तें हैं। उसकी पहली शर्त तो यह है कि धर्म की दीक्षा में धर्म की कोई शिक्षा वह न देगा। वह शिक्षा देगा किसी और बात की। और राजपुत्र को उसके इशारों पर ही चलना होगा। और कितने दिन में यह शिक्षा पूरी होगी इसके लिए कोई सीमा नहीं बांधी जा सकती। कितना भी समय लग सकता है। और अधूरी शिक्षा छोड़ कर राजकुमार वापस नहीं आ सकेगा। ये सारी शर्तें सम्राट ने मंजूर कर लीं और राजकुमार उस वृद्ध गुरु के पास भेज दिया गया।
उस वृद्ध गुरु ने उस राजकुमार को कहा कल सुबह से तेरी शिक्षा का पहला पाठ शुरू होगा और पहला पाठ यह है कि मैं कल सुबह किसी भी समय तेरे ऊपर लकड़ी की तलवार से हमला शुरू करूंगा। कल सुबह से ये हमले शुरू होंगे और दिन में किसी भी समय जाने-अनजाने मैं तेरे ऊपर हमला करूंगा तू हमेशा सावधान रहना रक्षा के लिए यह ढाल सम्हाल। राजकुमार ने कहा: मैं धर्म सीखने आया हूं तलवार सीखने नहीं। उसके गुरु ने कहा: यह तुझे जानने की जरूरत नहीं कि तू क्या सीखने आया है, यह मुझे जानने की जरूरत है कि क्या सिखाना है। धर्म की ही यह शिक्षा है लेकिन मेरा रास्ता कुछ ऐसा ही है यह बाद में ही पता चल सकेगा कि धर्म तक तू पहुंचा कि नहीं पहुंचा। मैं तो तुझे तलवार चलाना ही सिखाऊंगा। क्योंकि मेरे जीवन भर का अनुभव यह है कि खतरे में ही मनुष्य जागता है। खतरा नहीं होता तो कोई आदमी जागता नहीं। तो मैं खतरे पैदा करूंगा ताकि तू जाग सके।
उस बूढ़े गुरु ने कहा कि मेरे गुरु ने मुझे बहुत सी बातें सिखाई थीं। और एक बार वे वृक्षों पर चढ़ना मुझे सिखाते थे। एक सौ फीट ऊंचे वृक्ष पर मुझे उन्होंने चढ़ाया था। पहली ही बार मेरे हाथ-पैर कंपे जाते थे। और जब मैं सौ फीट ऊपर था वृक्ष की ऊपरी शाखा पर, तब वे मेरे गुरु नीचे चुपचाप आंख बंद किए बैठे रहे थे। फिर जब मैं वापस उतरने लगा और जमीन से कोई आठ-दस फीट दूर रह गया था, तब वे एकदम से उठे और चिल्लाए, बेटा सम्हल कर उतरना! मैं बहुत हैरान हुआ कि यह आदमी पागल है! जब मैं सौ फीट ऊपर था, जहां खतरा था, और जहां से पैर चूकता तो जीवन का कोई पता नहीं चलता, वहां तो यह आंख बंद किया बैठा रहा यह बूढ़ा और अब जब मैं जमीन के करीब आ गया आठ-दस फीट, जहां से गिर भी पडूं तो कोई खतरा नहीं है, वहां यह चिल्ला रहा है कि बेटा, सावधान! होशियारी से! होश से उतरना! नीचे उतर कर मैंने अपने गुरु को कहा कि आप पागल तो नहीं हैं? जब मैं सौ फीट ऊपर था तब आप चुपचाप बैठे रहे और जब मैं दस फीट करीब आ गया था, तब आपने कहा, सावधान, सम्हल के। उस बूढ़े गुरु ने मुझसे कहा था कि बेटे, सौ फीट ऊपर तो तू इतने खतरे में था कि किसी को सावधान करने की जरूरत न थी, तू खुद ही सावधान था। जहां खतरा है वहां तो चेतना खुद ही सावधान होती है, जागी हुई होती है, वहां नींद की फुर्सत नहीं होती। वहां नींद को एफर्ड नहीं किया जा सकता, वहां नींद की सुविधा नहीं है। जब तू सौ फीट ऊपर था, तो उस बूढ़े गुरु ने मुझसे पूछा था कि तू बता कि तब तेरे मन में कौन से विचार चलते थे? तब मैंने कहा था, वहां कोई विचार नहीं थे। वहां तो सावधानी इतनी थी कि विचार में खोना मतलब नींद में जाना। वहां कोई विचार नहीं था, मन बिलकुल शांत था, बिलकुल साइलेंट था, सिर्फ होश था। एक-एक चीज, एक-एक श्वास का मुझे पता चल रहा था। एक-एक पत्ता हिलता था, तो मुझे पता चल रहा था। वहां कोई विचार नहीं था, न कोई पीछे था, न आगे। मैं तो वहां केवल वर्तमान में था। वह जो स्थिति थी वहीं मैं था, इसके आगे-पीछे जरा भी मन यहां-वहां जाता तो खतरा हो सकता था, चूक हो सकती थी।
तो उस बूढ़े गुरु ने कहा था, लेकिन इसीलिए मैं आंख बंद किएनीचे बैठा रहा। अभी कोई खतरा नहीं है, क्योंकि खतरा है इसलिए तू सावधान है। फिर मैंने देखा कि जैसे-जैसे तू नीचे उतरने लगा, मैंने पाया कि अब तेरी सावधानी विलीन हो रही है। दस फीट आकर मुझे लगा कि अब नींद ने तुझे पकड़ लिया। उस युवक ने कहा: आप ठीक कहते हैं। जैसे ही मैं करीब आने लगा, मैंने कहा, अब कोई खतरा नहीं है, मैं निश्चिंत हो गया, सावधानी खत्म हो गई थी।
उस बूढ़े ने कहा था कि हमेशा मैंने हजारों लोगों को वृक्षों पर चढ़ना सिखाया। ऊपर की शाखाओं से कभी कोई नहीं गिरता, जो भी गिरता है नीचे की शाखाओं से गिरता है। शिखरों से कभी कोई नहीं गिरा। खाईयों और गड्डों में लोग गिर जाते हैं और खो जाते हैं। समतल भूमि पर लोग गिर पड़ते हैं। कठिनाइयों में कभी कोई नहीं गिरता। सुविधा में लोग सो जाते हैं। इनसिक्योरिटी में, असुविधा में, असुरक्षा में जागे रहते हैं।
तो उस बूढ़े ने इस राजकुमार को कहा कि मेरे पास अब तू आ गया है तो मैं सब असुविधा पैदा करूंगा, सब खतरे पैदा करूंगा, सब डेंजर खड़े करूंगा ताकि तू सो न पाए। और एक बार तुझे जागने का अनुभव हो जाए तो फिर दुनिया में कोई कितनी ही कोशिश करे तू खुद भी सोना न चाहेगा।
दूसरे दिन से पाठ शुरू हो गया। बड़ा अजीब पाठ था। राजकुमार किताब पढ़ रहा है, पीछे से हमला हो जाएगा। वह राजकुमार भोजन कर रहा है और पीछे से उसकी हड्डी पर लकड़ी की तलवार आ पड़ेगी। सात दिन में उसकी हड्डियां-हड्डियां दुखने लगीं। लेकिन रोज-रोज उसे अनुभव हुआ कि उसके भीतर अलर्टनेस, सावधानी बढ़ती जाती है। क्योंकि चौबीस घंटे उसे चौकन्ना रहना पड़ता है। कभी भी हमला हो सकता है, किसी भी क्षण। कुछ पता नहीं है, पहले से कोई सूचना नहीं मिलती। वह बुहारी लगा रहा है गुरु की झोपड़ी में और पीछे से आकर हमला हो गया है। वह खाना खा रहा है, हमला हो गया है। वह किताब उठाने जा रहा है, हमला हो गया है। कुछ नहीं कहा जा सकता है कब हमला हो जाए।
तीन महीने बीतते-बीतते हमला करना लेकिन मुश्किल हो गया। हमला होता है और उसके हाथ, उसका मन इतना सजग है कि तत्काल हमले से रक्षा कर लेता है। तीन महीने बीतते-बीतते उसने अनुभव किया कि कोई एक अजीब बात उसके भीतर पैदा हो रही है, विचार कम होते जा रहे हैं और जागरूकता बढ़ती जा रही है। और स्मरण रखें, जितने ज्यादा विचार होंगे उतनी जागरूकता कम होगी। जितनी जागरूकता ज्यादा होगी उतने विचार कम होंगे। विचार और जागरूकता, थॉट्स और अवेयरनेस विरोधी बातें हैं, ये दोनों एक साथ नहीं होती हैं।
उसका चित्त विचारों से क्षीण और कम होता जा रहा है, उसका चित्त सावधानी से भरता जा रहा है। वह पूरे वक्त एक होश से, अमूर्च्छित जागा हुआ है। तीन महीने होने पर उसके गुरु ने कहा: तेरा पाठ, पहला पाठ पूरा हो गया है। कल से तेरा दूसरा पाठ शुरू होगा। उस युवक ने कहा: दूसरा पाठ कौन सा है? गुरु ने कहा: कल से अब मैं नींद में भी हमला करूंगा। तू सोया हुआ है और हमला हो जाएगा। उस युवक ने कहा: जागने में फिर भी गनीमत थी, लेकिन नींद में? मैं सोया हुआ हूं और आप हमला कर देंगे, तो मुझे कैसे पता चलेगा कि आप हमला कर रहे हैं? नींद में मैं कैसे सावधान रहूंगा? उस बूढ़े ने कहा: घ
बड़ा मत, जल्दी मत कर। जितना चैलेंज खड़ा हो, जितनी चुनौती खड़ी हो, चेतना उतनी ही जागती है। चैलेंज चाहिए। नींद में भी जागती है।
एक मां का बच्चा बीमार पड़ा है। ऊपर आकाश में बादल गरजते रहें उसे पता नहीं चलता, रास्तों पर रथ निकलते रहें उसे पता नहीं चलता। उसका बच्चा जरा सा रो दे, जरा सा करवट बदल ले, उसका हाथ उठ जाता है, उसे पता चल जाता है। नींद में भी उसकी चेतना का कोई कोना स्मरण रखे हुए है कि बच्चा बीमार है। नींद में भी कोई जागा हुआ हिस्सा है मन का। रात हम सब यहां सो जाएं और फिर कोई आकर चिल्लाए, राम! तो किसी को सुनाई नहीं पड़ेगा लेकिन जिसका नाम राम है वह कहेगा कौन है, कौन बुला रहा है। नींद में भी चित्त का कोई हिस्सा जानता है कि मेरा नाम राम है। नींद में भी कोई जागा हुआ है, कोई कोना, कोई पार्ट, कोई अंश और सब सो रहे हैं। सबको पता नहीं चलता कि राम को बुलाया गया है। लेकिन राम को पता चल जाता है कि मुझे पुकारा गया है। वह नींद में कहता है, कौन है, गड़बड़ मत करो, सोने दो।
तो उस बूढ़े ने कहा: घबड़ाओ मत, मैं तो चुनौती खड़ी करूंगा ताकि तुम्हारी चेतना को आखिरी दम तक जगाया जा सके। अब कल से नींद में हमला शुरू हो जाएगा। अब तुम अपनी फिकर तुम करना। मजबूरी थी बीच से भागा नहीं जा सकता था। और इधर तीन महीने में एक अनुभव भी हुआ था, बड़ा अदभुत। उस युवक ने सोचा और थोड़ी चोटें सही। अदभुत अनुभव हुआ था इन तीन महीनों में उसके चित्त ने एक बहुत अजीब शांति जानी थी जिसे वह कभी नहीं जानता था। उसकी अंतर्दृष्टि गहरी हुई थी, जितनी उसने कभी नहीं जानी थी, उसकी चिंता विलीन हो गई थी, उसके मन की समस्याएं खत्म हो गई थीं। उसके मन में तो सिर्फ एक जागने का भाव भर अवशिष्ठ रह गया था।
रात भी हमला शुरू हो गया। रात वह सो रहा है और लकड़ी की तलवार से हमला हो जाएगा। फिर सात-आठ दिन में उसकी हड्डियां दुखने लगीं। जगह-जगह चोट लेकिन रोज-रोज नींद में भी उसे अनुभव होने लगा कि कोई खयाल रखे हुए हैं कि कहीं हमला न हो जाए। नींद में भी मन का कोई कोना जान रहा है कि हमला हो सकता है। नींद में भी एक हिस्सा जागा हुआ रहने लगा। तीन महीने पूरे होते-होते दूसरा पाठ भी पूरा हो गया। नींद में भी उसके हाथ हमले से रक्षा करने लगे। उसके गुरु ने कहा: दूसरा पाठ पूरा हो गया और तू दूसरे पाठ में भी उत्तीर्ण हुआ। कल से तीसरा पाठ शुरू होगा। उस युवक ने कहा: अब तीसरा पाठ और क्या हो सकता है! जागना, सोना दोनों में हमला हो गया। उसके गुरु ने कहा: कल से असली तलवार से हमला शुरू होगा। अभी लकड़ी की तलवार थी। अब चुनौती असली खड़ी होगी। अभी चुनौती नकली थी। अभी हड्डी पर चोट लगती थी अब प्राण भी लिए जा सकते हैं। अब प्राणों तक तलवार छिद सकती है। एक दफा चूकना और जिंदगी खोना हो जाएगा। कल से असली तलवार आती है।
उस युवक ने कहा: ठीक है, मैं तैयार हूं, अब क्योंकि सवाल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तलवार असली है कि नकली है। अगर नकली तलवार के प्रति मैं सावधान होता हूं और रक्षा कर लेता हूं तो असली तलवार के प्रति भी रक्षा हो जाएगी। अब मैं निश्चिंत हूं, अब मैं घबड़ाया हुआ नहीं हूं।
दूसरे दिन से असली तलवार का हमला शुरू हो गया। वह युवक प्राणों की बाजी पर खड़ा है। किसी भी क्षण, किसी भी क्षण मौत खड़ी हो सकती है। ऐसी स्थिति में कोई सो सकता है? सपने देख सकता है? कोई अतीत और भविष्य में जा सकता है? एक क्षण भी यहां वहां चित्त का जाना जीवन का अंत हो जाएगा।
तीन महीने बीतने को आ गए असली तलवार ने उसके भीतर असली चेतना को भी जगा दिया। तीन महीने पूरे होते थे शायद एक दिन और बचा था और गुरु ने उससे कहा: एक दिन और है और तेरी परीक्षा पूरी हो जाएगी। फिर अंतिम पाठ रह जाएगा चौथा पाठ। और वह चौथा पाठ मैं तुझे जल्दी ही सिखा दूंगा, क्योंकि तीन पाठ जो जान लेता है उसे चौथे पाठ को जानने में देर नहीं लगती।
आखिरी दिन शेष था वह युवक एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था और उसका गुरु दूर सौ फीट के फासले पर दूसरे वृक्ष के नीचे बैठ कर कोई किताब पढ़ता था। अस्सी वर्ष का बूढ़ा उसकी पीठ युवक की तरफ थी। युवक के मन में एक खयाल आया कि यह बूढ़ा चौबीस घंटे मुझे चेतावनी, सजग, चुनौती में रखता है। यह खुद भी इतना सावधान है या नहीं आज मैं भी क्यों न इसके पीछे से हमला करके देखूं। मैं भी तो देखूं उस पर हमला करके कि यह खुद भी इतना सावधान है या नहीं, जितना मुझे सावधान रहने को कहता है। यह उसने सोचा ही था कि वह बूढ़ा गुरु वहां से चिल्लाया कि बेटा, ऐसा मत करना। युवक बहुत हैरान हो गया! उसने कहा कि मैंने अभी कुछ किया नहीं, केवल सोचा था, आप क्या कहते हैं? उस बूढ़े ने कहा: मैं बूढ़ा आदमी हूं ऐसा मत कर बैठना। पर उस युवक ने कहा: आप कैसे कहते हैं? मैंने केवल सोचा। उस बूढ़े ने कहा: तू थोड़ी देर और ठहर जा, चौथा पाठ पूरा हो जाने दे। जब चित्त पूरा सावधान होता है तो दूसरे के विचारों की पगध्वनियां भी सुनाई पड़ने लगती हैं। और जिस दिन दूसरों के विचारों की पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगती हैं उसी दिन चित्त उस संवेदना को उपलब्ध हो जाता है जिसमें परमात्मा की पगध्वनियां भी सुनाई पड़ती हैं।
वैसा जागरूक चित्त ही परमात्मा को अनुभव कर पाता है। सोए हुए लोग नहीं जागे हुए लोग, प्रत्येक को इतना ही जागने का प्रश्न है। आरडुअस है, तपश्चर्यापूर्ण है। तपश्चर्या का मतलब नहीं कि आप उपवासे बैठ जाएं। तपश्चर्या का मतलब नहीं कि आप सिर के बल शीर्षासन लगा कर खड़े हो जाएं। ये बातें तो किसी सर्कस में भरती होना हो तो ठीक हैं। परमात्मा को जानने से किसी सर्कस के नट होने की जरूरत नहीं है। लेकिन आर्डुअस है, तपश्चर्यापूर्ण है जागने की चेष्ठा। और चौबीस घंटे उठने से सोने तक, सोने से जागने तक चित्त जागा हुआ रहे, होश भरा हुआ रहे, कैसे ये होगा? कौन तलवार लेकर पीछे आपके पड़ेगा? आपको खुद ही पड़ जाना पड़ेगा। और सच्चाई तो यह है कि अगर हमें पता हो तो मौत चौबीस घंटे हमारे पीछे तलवार लेकर पड़ी हुई है।
इसलिए बहुत पुराने दिनों में मृत्यु को ही गुरु और आचार्य कहा जाता था। वह जो नचिकेता यम के पास पहुंच गया था, उस कथा को कथा ही मत समझ लेना। जब भी किसी नचिकेता को जीवन सत्य को जानना होता है तो मृत्यु के पास पहुंचना पड़ता है। मृत्यु के निकट ही मृत्यु के खतरे में ही, मृत्यु की वह जो असुरक्षा है, वह जो मृत्यु की तलवार है उसके बोध से ही भीतर सावधानी और जागरूकता पैदा होती है।
तो अंतिम बात आज की सुबह की आपसे कहूं और वह यह कि जिसे धार्मिक होना है उसे मृत्यु के प्रति सचेत सावधान होना पड़ेगा। उसे जानना होगा प्रति क्षण मौत घेरे खड़ी है। प्रति क्षण मौत पकड़े खड़ी है, किसी भी क्षण मौत की तलवार ले जाएगी। इसलिए निद्रा का मौका और सुविधा नहीं है। अगर मौत ऐसी प्रति क्षण निकट मालूम होने लगे जो कि सच्चाई है जिसको हम जान कर छिपाए रहते हैं, जिसको हम जान कर आंखों पर परदा डाले रहते हैं कि मौत दिखाई न पड़ जाए। मरघट को गांव के बाहर बनाते हैं। अगर दुनिया समझदार होगी तो गांव के बीच चौरस्ते पर मरघट बनाएगी ताकि हर बच्चा रोज-रोज जानता रहे कि मौत है, निरंतर मौत है। हम तो मौत को छिपाते हैं। घर के बाहर कोई अरथी निकलती है, बच्चों को भीतर का दरवाजा लगाते हैं कि अंदर आ जाओ, कोई मर गया है।
ऐसे जिंदगी भर हम मौत से अपने को छिपाए रखते हैं। झूठी है यह बात। मौत को जानना है, पहचानना है।
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात पूरी करूं।
एक संन्यासी के पास एक युवक एक दिन सुबह आया और उस युवक ने उनके पैर छूकर कहा कि मेरे मन में बहुत बार विचार उठता है, आप इतने पवित्र मालूम होते हैं, फूल जैसे पवित्र, आप इतने सुगंधित मालूम होते हैं, धूप जैसे सुगंधित, आप इतने प्रकाशित मालूम होते हैं, दीये जैसे आलोकित, मेरे मन में हमेशा यह उठता है कि कहीं यह सब ऊपर ही ऊपर न हो, भीतर शायद पाप उठता हो, भीतर शायद दुर्गंध भी हो। हमेशा भीड़भाड़ होती है, मैं पूछ नहीं पाता। आज अकेले में मिल गए हैं आप, मैं पूछता हूं कि यह जो इतनी सुगंध और आनंदित आप बाहर से दिखाई पड़ते हैं, ऐसा भीतर भी है या नहीं?
उस संन्यासी ने कहा: तुम पूछते हो बड़ा सुंदर प्रश्न और मैं उत्तर जरूर दूंगा। लेकिन उसके पहले एक और जरूरी बात मुझे तुमसे कहनी है, कहीं भूल न जाऊं। कल भी मैं भूल गया था। और अगर दो-चार दिन भूल गया तो फिर बताने की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। इसलिए पहले बता दूं। कल अचानक तुम्हारे हाथ पर मेरी दृष्टि पड़ गई, देखा तुम्हारी उम्र की रेखा समाप्त हो गई है। सात दिन और बस सातवें दिन सूरज ढलेगा और तुम भी ढल जाओगे। यह मैं बता दूं, कल मुझे खयाल आया था, फिर दूसरी बातचीत में खो गया, नहीं बता पाया। आज तुम फिर प्रश्न पूछते हो। पहले मैं यह बता दूं, अब तुम पूछो, क्या पूछते हो?
उस युवक ने कहा: मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने आपसे कुछ पूछा। अभी मैं घर जाता हूं। फिर मौका मिला तो मैं आऊंगा। उस संन्यासी ने कहा: रुको भी, इतनी जल्दी क्या? सात दिन पड़े हैं, बहुत समय है। उस युवक ने कहा: माफ करिए। उसके हाथ कंप रहे थे। अभी वह आया था तो उसके पैरों में सिकंदर का बल था, अभी लौटता था तो एक मरा हुआ आदमी। सीढ़ियां उतरता था तो सहारे की जरूरत पड़ गई थी। वह युवक बूढ़ा हो गया था। रास्ते पर डगमगाता हुआ घर पहुंचा, पूरा घर भी नहीं पहुंच पाया, सीढ़ियों के पास ही गिर पड़ा। उठा कर लोगों ने घर पहुंचाया। बिस्तर से लग गया। सात दिन, केवल सात दिन मौत एकदम पास मालूम पड़ने लगी। हाथ हिलाओ तो मौत से छू जाए, निकट सब तरफ।
आस-पड़ोस में जिनसे झगड़े चलते थे और जिनके साथ सुप्रीम कोर्ट तक जाने के इरादे थे, वे सब बदल गए। उन्हें बुला कर उनसे क्षमा मांग ली, उनके पैर छू लिए। क्षमा कर देना। झगड़े जीवन के थे, मौत से फिर क्या झगड़ा रह जाता है। उपद्रव जीवन के साथ थे, जब मौत ही आ गई तब किससे क्या उपद्रव रह जाता है। शत्रुताएं जीवन के खयाल से थीं, जिसको मौत दिख जाती है फिर उसका कोई शत्रु रह जाता है? माफी मांग ली, पैर छू लिए। क्षमा कर दिया गया। सात दिन बीते, रोज मौत करीब आने लगी, रोज मौत करीब आने लगी। घर उदास हो गया, अंधेरे में डूब गया, मित्र-परिजन इकट्ठे हो गए। सातवें दिन सूरज डूबने के घड़ी भर पहले वह संन्यासी उस घर में पहुंचा। घर रोता था, उदास, सन्नाटा, जैसे मरघट हो। वह भीतर गया। उसने उस व्यक्ति को जाकर हिलाया। सूख कर हड्डी हो गया था वह युवक। पहचानना कठिन था कि यही वह आदमी है जो सात दिन पहले था। सब सपने डूब गए थे उसके। सब नावें कागज की सिद्ध हुई थीं। सब भवन राख के ढह गए थे। खाली पड़ा था, जैसे मर ही चुका हो। लेकिन एक और अजीब बात थी, चेहरे पर बड़ी रौनक थी, आंखें बड़ी शांत थीं, बड़ी गहरी थीं। युवक को हिलाया, उसने आंख खोली, जैसे किसी दूसरे लोक से लौटा हो। और संन्यासी ने पूछा: एक प्रश्न पूछने आया हूं, सात दिन मन में कोई पाप उठा?
उस युवक ने कहा: क्या बातें करते हैं आप? मौत इतने करीब हो तो पाप उठने के लिए जगह कहां? फासला कहां? डिस्टेंस कहां? इधर मैं था और मौत थी, बीच में कोई और न उठा न उठने की सुविधा थी, न समय था, न अंतराल था उठने का।
सात दिन क्या सोचते रहे?
उस युवक ने कहा: क्या आप सोचते हैं,
मौत सामने हो तो कुछ सोचा जा सकता है? सोचना खो गया।
फिर क्या करते रहे?
उस युवक ने कहा: पहली दफा जिंदगी में कुछ नहीं कर रहा था। सात दिन कुछ भी नहीं किया। लेकिन जब कुछ भी नहीं किया, कोई विचार न रहे, कोई पाप न रहा, कोई योजना, कोई कल्पना, कोई सपना न रहा, तो मैंने पा लिया उसको जो मैं हूं। आपकी बड़ी कृपा। आपकी बड़ी कृपा कि मृत्यु से मुझे मिला दिया। क्योंकि मृत्यु के निकट रह कर मैं उसको जान गया जिसकी कोई मृत्यु नहीं है, जो अमृत है।
वह संन्यासी हंसने लगा और उसने कहा: घबड़ाओ मत, मौत तुम्हारी अभी आई नहीं, केवल तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। सात दिन बाद मृत्यु दिखती हो या सत्तर वर्ष बाद, जिसको दिख जाती है उसके भीतर सब-कुछ बदल जाता है। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया। अभी मरने का कोई सवाल ही नहीं है। हाथ की रेखा अभी बहुत लंबी है, उठ आओ।
लेकिन उस युवक ने कहा: अब आपको बताने की जरूरत नहीं कि मृत्यु नहीं होगी, अब मैं खुद ही जानता हूं। मृत्यु की कोई संभावना ही नहीं है। इधर मृत्यु से घिर कर मैंने उसे जाना जो अमृत है।
स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों को हम पढ़ाते हैं, काला तख्ता बना देते हैं, फिर सफेद ख़िड़या से उस पर लिखते हैं, तो दिखाई पड़ता है। सफेद दीवाल पर लिखेंगे, तो दिखाई नहीं पड़ेगा। काले तख्ते की पृष्ठभूमि में सफेद रेखाएं उभर आती हैं। जो मृत्यु को ठीक से अनुभव करता है, तो मृत्यु की काली चादर पर फिर जो सफेद रेखाएं अमृत की हैं वे दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। अमृत तो भीतर छिपा है लेकिन जब तक हम मृत्यु की पृष्ठभूमि उसे न देंगे, तब तक वह दिखाई नहीं पड़ सकता। मृत्यु की काली छाया के बीच अमृत की विद्युत चमक उठती, दिखाई पड़ने लगती है।
तो धार्मिक व्यक्ति वह है जो मृत्यु के साथ जीना शुरू कर देता है। उसके भीतर खतरा खड़ा हो गया। उसे तलवार मिल गई, उसे गुरु उपलब्ध हो गया। मृत्यु के अतिरिक्त और कोई गुरु नहीं है। और फिर उस खतरे में भीतर सावधानी पैदा होनी शुरू हो जाती है। इसी सावधानी के निरंतर बढ़ते किसी दिन, किसी क्षण में, किसी सौभाग्य के क्षण में जीवन के बादल हट जाते हैं और सूरज का दर्शन हो जाता है जो परमात्मा है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और भीतर बैठे परमात्मा को अंत में प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह का उदघाटन करते हुए मैं अत्यंत आनंदित हूं। युवकों के हाथ में भविष्य है आने वाली जो दुनिया बनेगी, उसे नई पीढ़ी को निर्मित करना है। ज्ञान के जो केंद्र हैं वे यदि नई पीढ़ी को ज्ञान के साथ ही साथ हृदय की और प्रेम की भी शिक्षा दे सकें तो शायद नये मनुष्य का निर्माण हो सके।
एक छोटी सी बात के संबंध में कह कर मैं अपनी चर्चा शुरू करूंगा।
बहुत पुरानी घटना है--एक गुरुकुल से तीन विद्यार्थी अपनी समस्त परीक्षाएं उत्तीर्ण करके वापस लौटते थे। लेकिन उनके गुरु ने पिछले वर्ष बार-बार कहा था कि तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है। उन्होंने बहुत बार पूछा कि वह कौन सी परीक्षा है? गुरु ने कहा: वह परीक्षा बिना बताए ही लिए जाने की है, उसे बताया नहीं जा सकता। और सारी परीक्षाएं तो बता कर ली जा सकती हैं, लेकिन जीवन की एक ऐसी परीक्षा भी है जो बिना बताए ही लेनी पड़ती है। समय पर तुम्हारी परीक्षा हो जाएगी, लेकिन स्मरण रहे, उस परीक्षा को बिना पास किए, बिना उत्तीर्ण हुए तुम उत्तीर्ण नहीं समझे जा सकोगे।
फिर उनकी सारी परिक्षाएं हो गईं, उन्हें परीक्षाओं में प्रमाण-पत्र भी मिल गए, फिर उनके विदा का दिन भी आ गया, दीक्षांत-समारोह भी हो गया और वे विद्यार्थी बार-बार सोचते रहे कि वह अंतिम परीक्षा कब होगी? अब तो अंतिम विदा का दिन भी आ गया। तीन विद्यार्थी जो उस विश्वविद्यालय की, उस गुरुकुल की सारी परिक्षाएं उत्तीर्ण कर चुके थे वे उस सांझ विदा भी हो गए। रास्ते में उन्होंने एक-दो बार सोचा भी, पूछा भी एक-दूसरे से कि एक परीक्षा शेष रह गई। गुरु बार-बार कहते थे एक परीक्षा लेनी है। लेकिन अब वह परीक्षा कब होगी, अब तो वे गुरुकुल से विदा भी ले चुके?
सूरज ढलने को था, गुरुकुल पीछे छूट गया, घना जंगल आगे था। वे तेजी से जंगल पार कर रहे थे ताकि शीघ्र गांव में पहुंच जाएं। एक झाड़ी के पास से निकलते समय पगडंडी पर दिखाई पड़ा बहुत से कांटे पड़े हैं, एक युवक जो आगे था छलांग लगा कर निकल गया। दूसरा युवक पगडंडी से नीचे उतर कर पार कर गया। लेकिन तीसरा युवक अपने सामान को, अपने ग्रंथों को नीचे रख कर कांटे बीनने लगा। उन दो युवकों ने उससे कहा: पागल हुए हो! समय खोने का मौका नहीं है, रात हुई जाती है, घना जंगल है, रास्ता भटक सकता है अंधेरे में, फिर गांव हमें जल्दी पहुंच जाना चाहिए। यह समय कांटे बीनने का नहीं है।
उस युवक ने कहा: इसीलिए कांटे बीन रहा हूं, क्योंकि सूरज ढला जाता है फि र रात हो जाएगी। हमारे पीछे जो भी पथिक आएगा उसे कांटे दिखाई नहीं पड़ सकेंगे। देखते हुए हम कांटों को बिना बीने निकल जाएं और रात होने को है पीछे कोई भी आएगा उसे फिर कांटे दिखाई नहीं पड़ेंगे, इसलिए मैं कांटे बीन लूं। तुम चलो मैं थोड़ा दौड़ कर तुम्हें मिला लूंगा। वह कांटे बीन ही रहा है, वे दोनों युवक चलने को हुए तभी वे तीनों हैरान रह गए पास की झाड़ी से उनका गुरु बाहर निकल आया। उस गुरु ने कहा: जो दो युवक आगे निकल गए हैं वे वापस लौट आएं। वे अंतिम परीक्षा में असफल हो गए हैं। जिसने कांटे बीने हैं वह जा सकता है, वह अंतिम परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गया है। उनके गुरु ने कहा: ज्ञान की परीक्षाएं अंतिम नहीं हैं; अंतिम परीक्षा तो प्रेम की है। और जो प्रेम को उपलब्ध नहीं होता उसका सब ज्ञान व्यर्थ हो जाता है।
नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह के इस उदघाटन में मैं यही प्रार्थना करूंगा कि यह विद्यालय केवल ज्ञान देने का माध्यम नहीं बनेगा बल्कि प्रेम देने का भी क्योंकि प्रेम की परीक्षा में जो उत्तीर्ण नहीं है, उसका सब ज्ञान व्यर्थ है। और जो प्रेम की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है, वह जो प्रेम के ढाई अक्षर भी सीख लेता है वह सारे ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है क्योंकि प्रेम प्रभु को उपलब्ध करने का द्वार है।
अब मैं जिन चर्चाओं का एक सिलसिला चला है उस संबंध में ही अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। मनुष्य को मैं एक बहुत गहरी नींद में सोया हुआ देखता हूं। आदमी बिल्कुल सोया हुआ है। रास्ते पर चलते हुए लोगों को देखता हूं तो ऐसा नहीं लगता है कि वे जाग कर चल रहे हैं। कोई अकेले में ही अपने से बात किए जाता है, किसी के होंठ कंपते हैं। कोई हाथों से इशारे कर रहा है, साथ उनके कोई भी नहीं है।
वे किससे बातें कर रहे हैं? शायद किसी सपने में, शायद वे किसी नींद में हैं। आदमी रात को ही नहीं सोता है दिन में भी सोया ही रहता है। आदमी की पूरी जिंदगी बिना जागे ही बीत जाती है। क्योंकि यदि मनुष्य जाग जाए तो चारों ओर परमात्मा के सिवाय उसे कोई भी दिखाई नहीं पड़ेगा। जागे हुए मनुष्य का अनुभव परमात्मा का अनुभव है, सोए हुए मनुष्य का अनुभव परमात्मा का अनुभव नहीं है।
जब कोई मुझसे पूछता है, ईश्वर है, तो मैं उससे पूछता हूं, यह प्रश्न इस बात की सूचना है कि तुम जागे हुए नहीं हो, सोए हुए हो। और जब तक तुम सोए हुए हो तब तक ईश्वर नहीं है। जैसे कोई उगे हुए सूरज के सामने भी आंखें बंद करके खड़ा हो और पूछता हो, सूरज है, तो उससे हम क्या कहेंगे? उससे हम सूरज के संबंध में कुछ कहेंगे या कि सोचेंगे कि इस आदमी ने आंखें बंद कर रखी हैं इसीलिए प्रश्न उठा है सूरज के संबंध में। सूरज भी मौजूद हो तो भी जो आदमी आंख बंद किए है वह अंधकार में होता है। सूरज उसके अंधकार को नहीं मिटा सकता।
परमात्मा प्रकाश की भांति ही निरंतर मौजूद है। जैसे मछलियां सागर में हैं वैसे ही हम परमात्मा में हैं। लेकिन निरंतर यह प्रश्न उठता है, परमात्मा है? निश्चित ही यह प्रश्न इस बात की सूचना है कि हमारी आंखें बंद हैं, हम सोए हुए हैं। सोए हुए होने का अर्थ है हम सपनों से घिरे हुए हैं, हमारा चित्त ड्रीम से, सपनों से घिरा हुआ है दिन-रात, रात तो घिरा ही होता है, दिन में भी घिरा होता है।
एक युवक न्यूयार्क की तरफ यात्रा कर रहा था। वह जिस ट्रेन में बैठा हुआ था उसके बगल की ही सीट पर एक वृद्धजनजी बैठे हुए थे। उस युवक ने थोड़ी देर बाद उनसे पूछा कि कितना समय हुआ होगा आपकी घड़ी में, आपकी घड़ी में कितना बजा है? उस वृद्ध ने उस युवक को नीचे से ऊपर तक देखा, उसके हाथ के बस्ते और सामान को देख कर लगता था वह किसी इंश्योरेंस कंपनी का एजेंट होगा, किसी बीमा कंपनी का एजेंट होगा। उस वृद्ध ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और फिर कहा महाशय, मैं आपको समय नहीं बता सकूंगा। युवक हैरान हुआ। उसने पूछा: आपके पास घड़ी नहीं है? उस वृद्ध ने कहा: घड़ी तो है लेकिन मैं आपको बताऊंगा कि समय कितना है, फिर बातचीत चल पड़ेगी। आप मुझसे पूछेंगे, आप कहां जा रहे हैं? मैं आपको कहूंगा, मैं न्यूयार्क जा रहा हूं। आप पूछेंगे, वहीं रहते हैं? फिर मजबूरी में मुझे बताना पड़ेगा अपने घर का पता और शायद शिष्टाचार में आपसे कहना पड़े कि आप भी न्यूयार्क चलते हैं कभी मेरे घर आइए। मेरी लड़की जवान है, जरूरी है घर आकर आपका उससे मिलन, मैत्री, परिचय हो जाएगा। आप उससे कहेंगे कहीं घूमने को चलने को, शायद वह जाने को राजी हो। और यह बात अंत में मैं जानता हूं कि आज नहीं कल आप प्रस्ताव करेंगे कि मैं आपकी युवा लड़की से विवाह करना चाहता हूं। और मैं आपसे निवेदन करता हूं मैं बीमा एजेंट बिलकुल भी पसंद नहीं करता हूं, उनको मैं दामाद नहीं बना सकता हूं।
वह युवक तो हैरान रह गया। उसने कहा: महाशय आप किन सपनों में खोए हुए हैं! मैं केवल पूछता हूं कि समय, कितना बजा है, कितना बजा है आपकी घड़ी में? और आप किन-किन नतीजों पर, किन-किन अनुमानों पर यात्रा कर गए?
हमें हंसी आती है इस वृद्ध आदमी पर लेकिन हम सब भी निरंतर ऐसे ही सपनों में, भविष्य में यात्रा करते रहते हैं। वर्तमान में हम में से कोई भी नहीं जीता है। या तो हम अतीत की स्मृतियों में खोए रहते हैं जो बीत गया उसकी याददास्तों में या जो नहीं आया उसकी आशाओं में, सपनों में। वर्तमान में कोई भी नहीं जीता है। या तो हम बीते हुए अतीत की स्मृतियों में खोए रहते हैं या न आए हुए भविष्य की कल्पनाओं में। यही नींद है, यही सपना है। जो वर्तमान में है, वह जागा हुआ होता है। जो अतीत में है, भविष्य में है वह सोया हुआ है।
यही अर्थ है निद्रा का आध्यात्मिक क्योंकि न तो अतीत की अब कोई सत्ता है, अतीत जा चुका। केवल स्मृतियां, केवल मेमोरीज् रह गईं हैं मन पर। उनकी अब कोई भी सत्ता नहीं, कोई भी अस्तित्व नहीं है। और भविष्य अभी आया नहीं है,आने को है। उसकी भी कोई सत्ता नहीं है। तो जिसका मन अतीत में और भविष्य में गतिमान होता हो वह जान ले कि वह सपनों में भटक रहा है सत्य में नहीं। सत्य तो वर्तमान में है जो मौजूद है उसी क्षण में न उसके पीछे न उसके आगे। वर्तमान के अतिरिक्त और किसी चीज की कोई सत्ता नहीं है, कोई अस्तित्व नहीं है। वर्तमान के अतिरिक्त सब असत्य है, सब असत्तावान है। हम उसी असत्तावान में उसी नॉन-एक्झिस्टेंसियल में वह जो नहीं है उसी में भटकते रहते हैं, यात्रा करते रहते हैं। यही सपना है, यही ड्रीमलैंड है इसी में हम सोए हुए हैं। रात ही हम सपना नहीं देखते दिन भर हम सपना देखते हैं। लेकिन दिन के काम में इतने उलझ जाते हैं कि भीतर चलते हुए सपनों का तांता हमें दिखाई नहीं पड़ता है, बस इतना ही फर्क जरा आंख बंद करें भीतर सपने उपलब्ध हो जाएंगे। जरा आंख बंद करके भीतर झांकें और पाएंगे सपनों की कतार वहां चल रही है।
रात आकाश में तारे होते हैं, दिन में, दिन में तारे दिखाई नहीं पड़ते। यह मत सोच लेना कि नहीं होते हैं। दिन में भी तारे अपनी ही जगह होते हैं सिर्फ दिखाई नहीं पड़ते। सूरज की रोशनी बीच में इतना बड़ा परदा खड़ा कर देती है कि दूर तारे दिखाई नहीं पड़ते, छिप जाते हैं रोशनी में; अंधेरे में नहीं, अंधेरे में तो दिखाई पड़ जाते हैं रोशनी में छिप जाते हैं। लेकिन अगर किसी गहरे कुएं में चले जाएं तो दिन में भी आकाश में तारे दिखाई पड़ सकते हैं, बीच में अंधेरे का परदा आ जाए तारे दिखाई पड़ने लगेंगे।
ऐसे ही रात मन में सपने चलते हैं यह मत सोचना कि दिन की रोशनी में सपने समाप्त हो जाते हैं इसलिए मैं जाग गया। केवल दिन की रोशनी में सपने दिखाई नहीं पड़ते जैसे दिन की रोशनी में तारे दिखाई नहीं पड़ते। सपने मौजूद हैं भीतर उनकी यात्रा चल रही है भीतर। आप बाहर काम भी कर रहे हैं भीतर सपने भी चल रहे हैं। जरा काम बंद करें और भीतर देखें तो पाएंगे भीतर कोई सपना मौजूद है। न मालूम कौन सी योजनाएं चल रही हैं, न मालूम कौन सी कल्पनाएं चल रही हैं, न मालूम अतीत के कौन से चित्र दोहर रहे हैं। भविष्य की कौन सी आशाएं बन रही हैं। भीतर एक सपनों की दुनिया मौजूद है। यह जो सपनों की दुनिया है भीतर यही मनुष्य की निद्रा है। और जब तक मनुष्य के भीतर सपने मौजूद हैं तब तक मनुष्य को सत्य का साक्षात नहीं हो सकता है। सत्य के साक्षात के लिए और कुछ नहीं केवल सपने खोने पड़ते हैं। सत्य के अनुभव के लिए और किसी चीज का त्याग नहीं करना पड़ता केवल सपनों का त्याग करना पड़ता है, केवल निद्रा को छोड़ देना होता है, जागना पड़ता है।
इसलिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं हम यह अनुभव करें, जानें पहचानें कि हम सोए हुए हैं। यद्यपि एकदम से यह ख्याल में नहीं आता कि सोए हुए होने का क्या अर्थ है?
एक मित्र मेरे सारे विश्व का भ्रमण करके वापस लौटे थे। वे एक कवि थे और एक चित्रकार भी, वे दुनिया की सुंदरतम चीजों को देखने गए थे। जब वे गए थे तब भी मैंने उनसे कहा था, मत जाओ व्यर्थ क्योंकि जो बाहर सौंदर्य को देखने जाता है उसे अभी सौंदर्य का पता भी नहीं है। लेकिन नहीं वे माने। वे यात्राएं करके वापस लौटे वर्षों बाद, मेरे पास फिर रुके। उस दिन पूर्णिमा की रात थी और उन्हें मैं नर्मदा के तट पर ले गया, संगमरमर की चट्टानों पर। नाव में आधी रात को निर्जन एकांत में उनके साथ में मैं दो घंटे था। वे उन दो घंटों में निरंतर स्विटजरलैंड की झीलों की बात करते रहे, कश्मीर की झीलों की बातें करते रहे, लेकिन नर्मदा की वे चट्टानें न तो उन्हें दिखाई पड़ीं, न उन्होंने देखीं। न तो वह पूर्णिमा का चांद उन्हें दिखाई पड़ा न वह बरसती हुई चांदनी उन्हें अनुभव हुई। वे स्विटजरलैंड में रहे, मैं नर्मदा पर रहा; दोनों के बीच बड़ा फासला था। फिर हम लौटे तो वे कहने लगे, बहुत धन्यवाद आप बहुत सुंदर जगह ले गए थे! मैंने उनसे कहा क्षमा करें ले तो गया था लेकिन आप पहुंच नहीं सके। और मैं वहां जाकर बहुत-बहुत पछताया। आए तो दो थे लेकिन पहुंच मैं अकेला ही सका। आप मेरे साथ वहां नहीं थे और इसलिए व्यर्थ ही मत कहें कि सुंदर जगह थी। जिसे देखा ही नहीं जिससे निकटता ही अनुभव नहीं की उसके सौंदर्य का क्या पता चला होगा आपको! उन दो घंटों में एक बार भी जो मौजूद था उससे आपका कोई संपर्क कोई संस्पर्श न हो सका। लेकिन जो मौजूद नहीं था स्विटजरलैंड और कश्मीर अतीत की स्मृतियां, उनमें आप खोए रहे। आप सपने में थे आप मेरे साथ नहीं थे। और मैं उनसे निवेदन किया कि अगर बुरा न मानें तो मैं यह कहना चाहूंगा कि जैसा आपको दो घंटों में मैंने जाना मैं मान ले सकता हूं कि स्विटजरलैंड में भी जब आप रहे होंगे तब आप कहीं और रहे होंगे। वे झीलें भी आपने नहीं देखी होंगी।
सपने में जीते हैं, जहां हैं वहां नहीं जीते, जहां नहीं हैं वहां जीते हैं। जब भोजन करने घर बैठे होते हैं, तब आपको पता न हो, आप दफ्तर में होंगे। जब दफ्तर में होते हैं, तब हो सकता है कि भोजन-गृह में हों। जब मंदिर में वह बैठे हों, जरूरी नहीं है कि मंदिर में हों, सिनेमा-गृह में हो सकते हैं। सिनेमा-गृह में बैठे हों, हो सकता है मंदिर में गीता सुनते हों। कुछ नहीं कहा जा सकता। आदमी वहां नहीं है जहां है, क्योंकि आदमी अगर वहां हो जाए जहां है तो जीवन में जो भी छिपा हुआ है वह सब प्रकट हो जाता है।
जीवन को जानने की कुंजी वर्तमान में जीना है। जीवन को जानने की कुंजी वह जो प्रजेंट है, जो उपस्थित है उसमें समग्ररूपेण चेतना को उपस्थित कर देना है। हम अनुपस्थित हैं प्रतिपल अनुपस्थित हैं और ऐसे ही सोए-सोए जीए चले जाते हैं और फिर पूछते हैं जीवन का आनंद अनुभव नहीं होता जीवन का पता सोए हुए आदमी को चल सकता है?
राजस्थान के एक गांव में एक फकीर एक रात आकर रुका था। उस गांव के लोग जैसा हमेशा संन्यासियों को सुनने इकट्ठे होते थे। उसको सुनने भी इकट्ठे हो गए। गांव का जो सबसे बड़ा धनपति था आसो जी वह भी सभी के सामने सभा में बैठा हुआ था। फकीर ने बोलना शुरू किया था और आसो जी की नींद लग गई। क्योंकि वे दिन भर के थके-मांदे, दुकान पर काम करते। और ऐसे भी जिन लोगों को नींद नहीं आती वे धर्म सभाओं में जरूर जाते हैं। क्योंकि कई डाक्टर ऐसी सलाह देते हैं कि नींद लाने की सबसे अच्छी दवा धर्मकथा सुनना है। आसो जी भी इस तरकीब को मानते थे। वे जाकर धर्मकथा सुनते थे। रोज ही वहां जो थोड़ी बहुत नींद आ जाती हो आ जाती हो। रात भर तो धन की पूंजी की व्यवस्था जुटाने में नींद नहीं आ पाती थी। उस दिन भी वे जाकर वहां सो गए थे। और गांव में कोई भी इस बात को एतराज नहीं करता था। क्यों? कौन जाग कर कभी धर्मकथा सुनता है?
और जो संन्यासी भी बोलने आते थे वे भी क्यों यह कहते आसो जी से कि तुम सोते हो। क्योंकि किसी को यह कहना कि तुम सोए हुए हो उसके मन को बड़ी चोट पहुंचाना है, वह नाराज हो जाएगा। और आज तक संन्यासी धनपति को नाराज नहीं कर सके, इसीलिए धर्म नष्ट हुआ है। संन्यासी और धर्मगुरु धनपति को प्रसन्न करते हैं, नाराज नहीं। एक सांठ-गांठ है, एक समझौता है। धनपति धार्मिक लोगों की बात से सुरक्षित बना रहता है और धार्मिक लोगों के धन से धर्मगुरु सुरक्षित बना रहता है। लेकिन यह संन्यासी कुछ अनूठा होगा, शायद सच में संन्यासी होगा, इसने बीच में बोलना बंद कर दिया और चिल्ला कर कहा: आसो जी सोते हो? दूसरे संन्यासी तो कहते थे, आसो जी ध्यानमग्न होकर सुनते हैं। और आसो जी यह सुन कर बहुत प्रसन्न होते थे। इस आदमी ने कहा: आसो जी सोते हो। आसो जी की नींद खुली, उन्होंने झांक कर चारों तरफ देखा और कहा: नहीं-नहीं, कौन कहता है? मैं तो ध्यानमग्न होकर सुनता था, आप बोलें। उस फकीर ने फिर बोलना शुरू कर दिया। कभी कोई सोया हुआ आदमी मानने को राजी नहीं होता कि मैं सोता हूं क्योंकि अगर वह मानने को राजी हो जाए तो जागरण की शुरुआत, जागरण का प्रारंभ हो जाता है। इसलिए नींद समझाती है कि मानना मत कि तुम सोते हो क्योंकि अगर मान लिया कि मैं सोता हूं तो जागने का उपक्रम शुरू हो ही जाएगा। इसलिए नींद कहती है कभी मानना मत कि तुम सोए हो, दुनिया सोती होगी तुम तो जागते हो। आसो जी ने कहा: नहीं-नहीं, कौन कहता है मैं सोता हूं? मैं तो ध्यान से सुनता था। आप शुरू करें, आपको रुकने की जरूरत नहीं।
फकीर ने बोलना शुरू किया। थोड़ी देर में आसो जी फिर सो गए। सोए हुए आदमी की बातों का कोई भरोसा? सोए हुए आदमी के आश्वासन का कोई बल है? सोए हुए आदमी की बात का कोई अर्थ है? आसो जी फिर सो गए। वह फकीर भी एक ही रहा होगा। उसने फिर बोलना बीच में बंद कर दिया और फिर चिल्लाया, आसो जी सोते हो? अब आसो जी को गुस्सा आ गया। यह आदमी इतने जोर से कहता है, पूरा गांव सुन लेगा, और ऐसी बातें पूरा गांव जान ले यह उचित नहीं है। और यह आदमी इतने जोर से कहता है कि हो सकता है कि भगवान भी सुन लें और पीछे मुश्किल पड़े कि तुम धर्मकथा में सोते थे! आसो जी ने भी जोर से कहा: माफ करिए, आप अपना बोलना जारी रखें, मैं सो नहीं रहा हूं, कौन कहता है मैं सोता हूं? बार बार रोकने की जरूरत नहीं है, मैं तो ध्यानमग्न होकर सुनता हूं।
फकीर ने फिर बोलना शुरू किया, आसो जी फिर सो गए। लेकिन फकीर भी एक ही था, वह मानने को राजी नहीं था। अब की बार उसने तीसरी बार कहा, लेकिन थोड़े शब्दों को बदल लिया, और आसो जी इसीलिए भूल में पड़ गए। दो बार उसने कहा था, आसो जी, सोते हो, और आसो जी इनकार कर दिए थे। तीसरी बार उसने कहा: आसो जी, जीते हो? नींद में आसो जी ने समझा, पुराना ही प्रश्न फिर है। उन्होंने कहा: नहीं-नहीं, कौन कहता है? उस फकीर ने कहा: इस बार अब किसी के कहने की कोई जरूरत नहीं है। आप इस बार उलझ गए। इस बार मैंने पूछा ही नहीं कि सोते हो। मैंने पूछा है: जीते हो? और सबूत मिल गया कि आप सोते थे, नहीं तो जीने को इनकार नहीं कर सकते थे। और फिर उस फकीर ने कहा: ठीक भी है यह, जो आदमी सोता है वह जीता भी नहीं। सोने और जीने का क्या संबंध? जीने और जागने का संबंध हो सकता है। सोने और जागने, सोने और जीने इन दोनों का कोई संबंध नहीं।
इसीलिए तो हमें जीवन का कोई पता नहीं चल पाता है कि जीवन क्या है। हमें नहीं अनुभव हो पाता कि सत्य क्या है, हम नहीं जान पाते कि यह चारों तरफ व्याप्त ऊर्जा यह परमात्मा, यह प्रभु क्या है, यह अस्तित्व क्या है। हम सोए हुए अपनी नींद में घिरे हुए, चारों तरफ नींद के दरवाजों में बंद, नींद की दीवालों में बंद, हमसे जीवन का कोई संबंध नहीं हो पाता। इसलिए धर्म यदि कुछ है तो मेरी दृष्टि में जागने की प्रक्रिया है। धर्म न तो पूजा है न प्रार्थना क्योंकि सोए हुए आदमी की न पूजा का कोई अर्थ है और न प्रार्थना का। धर्म न शास्त्रों को जान लेना है न सिद्धांतों को सीख लेना क्योंकि सोए हुए आदमी के शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने का क्या अर्थ है? धर्म तो है जागरण की प्रक्रिया। धर्म तो है जागरण का सूत्र। धर्म तो है एक अवेकनिंग, भीतर जो सोया है उसे जगा लेने की विधि। उस संबंध में ही थोड़ी बात समझ लेनी जरूरी है कि भीतर जो सोया है वह कैसे जाग जाए। भीतर जो सपने चलते हैं वे कैसे विसर्जित हो जाएं। भीतर जो अतीत और भविष्य की ऊहा चलती है वह कैसे विलीन हो जाए। मैं कैसे उस क्षण में खड़ा हो जाऊं जिसमें मैं हूं क्योंकि वही एक क्षण है, उसी क्षण से प्रवेश मिल सकता है, उसमें जो अस्तित्व है। लेकिन उसके अतिरिक्त कहीं और कोई द्वार नहीं है। तो मैं क्षण में कैसे मौजूद हो जाऊं। और धर्म के नाम पर हम जो उपाय करते हैं, वे क्षण में जगाते नहीं वर्तमान में बल्कि और सुलाने की विधियां हैं।
एक आदमी बैठ कर राम-राम जपता है, ओम-ओम जपता है। एक आदमी अल्लाह-अल्लाह करता है। नमोकार पढ़ता है, कोई और मंत्र, कोई और शब्द। क्या आपको पता है बहुत बार दोहराने से शब्द नींद लाने की विधि बन जाते हैं। क्या आपको पता है रिपीटेशन, किसी शब्द की पुनरुक्ति आत्म-सम्मोहन की, खुद को सुला लेने की विधि है। शायद आपको पता नहीं और पता भी हो तो शायद आपको खयाल नहीं। एक मां को अपने बच्चे को सुलाना होता है तो वह कहती है, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। वह इसी एक कड़ी को, इसी एक लोरी को दोहराए चले जाती है--राजा बेटा सो जा। थोड़ी देर में राजा बेटा सो जाता है। मां सोचती होगी, मेरे मधुर कंठ के कारण सो गया तो गलती में है। राजा बेटा बोर्डम की वजह से, ऊब की वजह से एक ही शब्द को बार-बार दोहराने की वजह से सो गए हैं। राजा बेटा तो क्या राजा बेटा के राजा बाप को भी सुलाने की विधि यही है। उससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता। एक ही शब्द की पुनरुक्ति चित्त को ऊब से भर देती है, बोर्डम से भर देती है। एक ही शब्द को बार-बार दोहराने से चित्त का रस उस शब्द में खो जाता है। चित्त का रस है नये के प्रति नवीन के प्रति जितना नवीन होता है चित्त उतना जागता है। जो परिचित है उसको बार-बार दोहराने से चित्त रस खो देता है, रुचि खो देता है। और फिर उससे बचने के लिए एक ही रास्ता रह जाता है अब राजा बेटा को सुला रहे हैं आप। राजा बेटा भाग जा नहीं सकते कहीं और आप कहे जाते हैं, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, तो राजा बेटा इस ऊब से बचने के लिए क्या करें? सिवाय इसके कि नींद में चले जाएं और आपसे बचने का कोई उपाय नहीं है।
आप चाहे खुद बैठ कर राम-राम, राम-राम, राम-राम, राम-राम दोहराते रहें, बार-बार दोहराया गया शब्द ऊब पैदा कर देता है, परेशानी पैदा कर देता है। फिर मन को बचने की सेल्फ-डिफेंस में आत्म-रक्षा में मन को बचने के लिए नींद में चला जाना पड़ता है। एक हलकी तंद्रा पैदा हो जाती है। उसी तंद्रा को आप समझ लेते होंगे शांति, उसी निद्रा को आप समझ लेते होंगे मन शांत हो गया। उस निद्रा के बाद थोड़ा सा अच्छा लगेगा, थोड़ी राहत जैसी नींद के बाद लगती है तो आप सोचते होंगे कि मैं धार्मिक हो गया हूं।
धर्म इतना सस्ता नहीं है, धर्म नींद का उपाय नहीं है। एक आदमी भजन-कीर्तन में अपने सोने की व्यवस्था कर सकता है। संगीत सुलाने की विधियों में से बहुत कीमती विधि है।
लखनऊ में एक बार ऐसा हुआ एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ आया। लेकिन संगीतज्ञ बड़ा अनूठा था। वाजिद अली उन दिनों नवाब था। वाजिद अली तो जाहिर पागल नवाब था। ऐसे तो बहुत कम नवाब हुए जो पागल न हों। आमतौर से पागल होना, नवाब होना एक ही बात का मतलब रखते हैं। क्योंकि जो पागल नहीं हैं वे नवाब होना नहीं चाहते हैं। तो वाजिद अली तो पागल था ही। खबर मिली, एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ आया है। लेकिन उसकी एक शर्त है: वह वीणा तो बजाएगा,
वह गीत तो गाएगा, लेकिन एक शर्त उसकी बड़ी अनूठी है, कि कोई सिर उसकी वीणा बजाते समय हिलना नहीं चाहिए। अगर कोई सिर हिला, वह पहले से ही पाबंदी और शर्त बांध लेता है कि सिर नहीं हिल सकेगा।
वाजिद अली ने कहा: कोई फिकर नहीं है। जाओ, उसको कहो कि सिर हिलने की क्या जरूरत है, सिर हिलेगा, हम सिर कटवा देंगे।
गांव में खबर कर दी गई कि संगीत का रात्रि बड़ा कार्यक्रम होगा, बहुत बड़ा वीणावादक आया है, लेकिन जो लोग सुनने आएं एक बात खयाल रख कर आएं--अपने सिर कटवाने की तैयारी। सिर नहीं हिलना चाहिए, सिर हिलेगा तो सिर अलग कर दिया जाएगा। जिसे आना हो आए, जिसे न आना हो न आए। बहुत लोग आते उसे सुनने लेकिन सबके आने का सवाल न रहा। उस गांव में जो बहुत संयमी होंगे, वे ही सुनने आए। कोई सौ-पचास आदमी सुनने आए। और वे भी आ कर ऐसे बैठ गए जैसे योगासन कर रहे हों। कोई सिर कहीं धोखे से भी हिल जाए, संगीत के कारण नहीं किसी और वजह से, कोई मक्खी आ जाए तो मुश्किल हो जाए। वह आदमी, नवाब ने चारों तरफ नंगी तलवारें लिए आदमी खड़े कर दिए थे कि खयाल रखना, किस आदमी का सिर हिलता है।
दो घंटे, तीन घंटे बीत गए, लोग पत्थर की मूर्तियां बने बैठे हैं, कोई सिर हिलता ही नहीं। लेकिन तीन घंटे के बाद रात जब गहरी होने लगी और संगीत जब गहरा उतरने लगा, तो कुछ सिर हिलने शुरू हो गए। नवाब के आदमी तैयार थे, उन्होंने निशान लगा लिए कौन-कौन आदमी हिल रहे हैं। सभा जब पूरी हुई, बीस आदमी पकड़े गए जिनके सिर हिले थे। नवाब ने उनसे कहा: पागलो, तुम्हें पता नहीं कि सिर कट जाएंगे, तुम्हे खबर नहीं मिली? उन लोगों ने कहा: हमें पूरी खबर थी, लेकिन जब तक हम जागे हुए थे तभी तक तो खबर काम कर सकती थी, जब तक हमें होश रहा तब तक हम सम्हाले रहे, लेकिन जब होश ही न रहा तो सम्हालता कौन? सिर हमने नहीं हिलाए, हिले होंगे। हमारा कोई कसूर नहीं है, हमारा कोई हाथ नहीं है। वैसे कटवाना हो कटवा दें। लेकिन शर्त यह थी कि हम सिर न हिलाएंगे तो हमने सिर नहीं हिलाए, लेकिन जब नींद लग गई होगी, तब हमें पता नहीं कि फिर क्या हुआ।
तो संगीत में चाहें तो अपने को सुला लें--शराब में, सेक्स में। सब सोने की विधियां हैं।
आदमी जागने से डरता है, सोना अच्छा लगता है। क्यों? इसलिए कि सोने में न तो अपना पता रह जाता है, न किसी और का। न किसी दुख का बोध रह जाता है, न किसी चिंता का। न कोई पीड़ा, न कोई समस्या। इसीलिए तो शराब का इतना प्रभाव है सारी दुनिया में। और शराब का प्रभाव रोज-रोज बढ़ता जाता है, कम नहीं होता, क्योंकि आदमी भूलना चाहता है दुख को, पीड़ा को, चिंता को, समस्या को--जीवन को भूलना चाहता है। खयाल न रह जाए कि यह सब है। इसलिए अपने को बेहोश करना चाहता है। और जो चीज भी बेहोश करने में सहयोगी हो जाती है आदमी उसको बहुत पसंद करता है। बेहोशी के प्रति बड़ा प्रेम, बड़ा लगाव है। और धर्म, धर्म बेहोशी से बिलकुल उलटी चीज है। धर्म बेहोशी नहीं, होश है। इसलिए धर्म के नाम पर जो हजारों सोने की विधियां चल रही हैं उनको मैं धर्म नहीं कहता हूं। वे सब इंटाक्सिकेंट ही हैं। वे सब शराब के रूपांतर हैं। वे सब नशे की दवाइयां, अफीमें हैं। आदमी जहां भी अपनी चेतना को क्षीण करना चाहता है, जहां अपनी चेतना को डुबाना चाहता है, जहां अपनी कांशसनेस को खोना चाहता है, वहीं वह आदमी बेहोशी, नींद में, तंद्रा में जाने की कोशिश कर रहा है। वह आदमी असल में यह कह रहा है कि मैं जीना नहीं चाहता, मैं मरना चाहता हूं। वह आदमी एक तरह की धीमी सुसाइड में, एक ग्रेजुअल सुसाइड में, एक धीमी आत्महत्या में लगा हुआ है।
धर्म बिलकुल दूसरी बात है। बिलकुल उलटी बात। धर्म है जागरण का प्रयास। धर्म है पूरी तरह चेतना को एक्सपेंशन, चेतना को और विस्तार। भीतर जितनी अचेतना है, उसको नष्ट करने की आकांक्षा। और भीतर पूरा चित्त कांसस हो जाए, पूरा चित्त चेतन हो जाए, भीतर कोई अंधेरे का सोता हुआ कोना न रह जाए, भीतर सब प्रकाशित हो जाए। यह कैसे हो सकता है, एक छोटी सी घटना से मैं समझाने की कोशिश करूं।
एक सम्राट अपने राजकुमार को धर्म में दीक्षित करना चाहता था। उसने सारे देश में खबर पहुंचवाई कि मेरे युवक राजपुत्र को कौन धर्म में दीक्षित कर सकेगा? एक बूढ़े आदमी की खबर मिली। एक अस्सी वर्ष का बूढ़ा किसी जंगल में है, उसका दावा है कि वह आपके पुत्र को धर्म में दीक्षित कर सकता है। लेकिन उसकी बड़ी शर्तें हैं। उसकी पहली शर्त तो यह है कि धर्म की दीक्षा में धर्म की कोई शिक्षा वह न देगा। वह शिक्षा देगा किसी और बात की। और राजपुत्र को उसके इशारों पर ही चलना होगा। और कितने दिन में यह शिक्षा पूरी होगी इसके लिए कोई सीमा नहीं बांधी जा सकती। कितना भी समय लग सकता है। और अधूरी शिक्षा छोड़ कर राजकुमार वापस नहीं आ सकेगा। ये सारी शर्तें सम्राट ने मंजूर कर लीं और राजकुमार उस वृद्ध गुरु के पास भेज दिया गया।
उस वृद्ध गुरु ने उस राजकुमार को कहा कल सुबह से तेरी शिक्षा का पहला पाठ शुरू होगा और पहला पाठ यह है कि मैं कल सुबह किसी भी समय तेरे ऊपर लकड़ी की तलवार से हमला शुरू करूंगा। कल सुबह से ये हमले शुरू होंगे और दिन में किसी भी समय जाने-अनजाने मैं तेरे ऊपर हमला करूंगा तू हमेशा सावधान रहना रक्षा के लिए यह ढाल सम्हाल। राजकुमार ने कहा: मैं धर्म सीखने आया हूं तलवार सीखने नहीं। उसके गुरु ने कहा: यह तुझे जानने की जरूरत नहीं कि तू क्या सीखने आया है, यह मुझे जानने की जरूरत है कि क्या सिखाना है। धर्म की ही यह शिक्षा है लेकिन मेरा रास्ता कुछ ऐसा ही है यह बाद में ही पता चल सकेगा कि धर्म तक तू पहुंचा कि नहीं पहुंचा। मैं तो तुझे तलवार चलाना ही सिखाऊंगा। क्योंकि मेरे जीवन भर का अनुभव यह है कि खतरे में ही मनुष्य जागता है। खतरा नहीं होता तो कोई आदमी जागता नहीं। तो मैं खतरे पैदा करूंगा ताकि तू जाग सके।
उस बूढ़े गुरु ने कहा कि मेरे गुरु ने मुझे बहुत सी बातें सिखाई थीं। और एक बार वे वृक्षों पर चढ़ना मुझे सिखाते थे। एक सौ फीट ऊंचे वृक्ष पर मुझे उन्होंने चढ़ाया था। पहली ही बार मेरे हाथ-पैर कंपे जाते थे। और जब मैं सौ फीट ऊपर था वृक्ष की ऊपरी शाखा पर, तब वे मेरे गुरु नीचे चुपचाप आंख बंद किए बैठे रहे थे। फिर जब मैं वापस उतरने लगा और जमीन से कोई आठ-दस फीट दूर रह गया था, तब वे एकदम से उठे और चिल्लाए, बेटा सम्हल कर उतरना! मैं बहुत हैरान हुआ कि यह आदमी पागल है! जब मैं सौ फीट ऊपर था, जहां खतरा था, और जहां से पैर चूकता तो जीवन का कोई पता नहीं चलता, वहां तो यह आंख बंद किया बैठा रहा यह बूढ़ा और अब जब मैं जमीन के करीब आ गया आठ-दस फीट, जहां से गिर भी पडूं तो कोई खतरा नहीं है, वहां यह चिल्ला रहा है कि बेटा, सावधान! होशियारी से! होश से उतरना! नीचे उतर कर मैंने अपने गुरु को कहा कि आप पागल तो नहीं हैं? जब मैं सौ फीट ऊपर था तब आप चुपचाप बैठे रहे और जब मैं दस फीट करीब आ गया था, तब आपने कहा, सावधान, सम्हल के। उस बूढ़े गुरु ने मुझसे कहा था कि बेटे, सौ फीट ऊपर तो तू इतने खतरे में था कि किसी को सावधान करने की जरूरत न थी, तू खुद ही सावधान था। जहां खतरा है वहां तो चेतना खुद ही सावधान होती है, जागी हुई होती है, वहां नींद की फुर्सत नहीं होती। वहां नींद को एफर्ड नहीं किया जा सकता, वहां नींद की सुविधा नहीं है। जब तू सौ फीट ऊपर था, तो उस बूढ़े गुरु ने मुझसे पूछा था कि तू बता कि तब तेरे मन में कौन से विचार चलते थे? तब मैंने कहा था, वहां कोई विचार नहीं थे। वहां तो सावधानी इतनी थी कि विचार में खोना मतलब नींद में जाना। वहां कोई विचार नहीं था, मन बिलकुल शांत था, बिलकुल साइलेंट था, सिर्फ होश था। एक-एक चीज, एक-एक श्वास का मुझे पता चल रहा था। एक-एक पत्ता हिलता था, तो मुझे पता चल रहा था। वहां कोई विचार नहीं था, न कोई पीछे था, न आगे। मैं तो वहां केवल वर्तमान में था। वह जो स्थिति थी वहीं मैं था, इसके आगे-पीछे जरा भी मन यहां-वहां जाता तो खतरा हो सकता था, चूक हो सकती थी।
तो उस बूढ़े गुरु ने कहा था, लेकिन इसीलिए मैं आंख बंद किएनीचे बैठा रहा। अभी कोई खतरा नहीं है, क्योंकि खतरा है इसलिए तू सावधान है। फिर मैंने देखा कि जैसे-जैसे तू नीचे उतरने लगा, मैंने पाया कि अब तेरी सावधानी विलीन हो रही है। दस फीट आकर मुझे लगा कि अब नींद ने तुझे पकड़ लिया। उस युवक ने कहा: आप ठीक कहते हैं। जैसे ही मैं करीब आने लगा, मैंने कहा, अब कोई खतरा नहीं है, मैं निश्चिंत हो गया, सावधानी खत्म हो गई थी।
उस बूढ़े ने कहा था कि हमेशा मैंने हजारों लोगों को वृक्षों पर चढ़ना सिखाया। ऊपर की शाखाओं से कभी कोई नहीं गिरता, जो भी गिरता है नीचे की शाखाओं से गिरता है। शिखरों से कभी कोई नहीं गिरा। खाईयों और गड्डों में लोग गिर जाते हैं और खो जाते हैं। समतल भूमि पर लोग गिर पड़ते हैं। कठिनाइयों में कभी कोई नहीं गिरता। सुविधा में लोग सो जाते हैं। इनसिक्योरिटी में, असुविधा में, असुरक्षा में जागे रहते हैं।
तो उस बूढ़े ने इस राजकुमार को कहा कि मेरे पास अब तू आ गया है तो मैं सब असुविधा पैदा करूंगा, सब खतरे पैदा करूंगा, सब डेंजर खड़े करूंगा ताकि तू सो न पाए। और एक बार तुझे जागने का अनुभव हो जाए तो फिर दुनिया में कोई कितनी ही कोशिश करे तू खुद भी सोना न चाहेगा।
दूसरे दिन से पाठ शुरू हो गया। बड़ा अजीब पाठ था। राजकुमार किताब पढ़ रहा है, पीछे से हमला हो जाएगा। वह राजकुमार भोजन कर रहा है और पीछे से उसकी हड्डी पर लकड़ी की तलवार आ पड़ेगी। सात दिन में उसकी हड्डियां-हड्डियां दुखने लगीं। लेकिन रोज-रोज उसे अनुभव हुआ कि उसके भीतर अलर्टनेस, सावधानी बढ़ती जाती है। क्योंकि चौबीस घंटे उसे चौकन्ना रहना पड़ता है। कभी भी हमला हो सकता है, किसी भी क्षण। कुछ पता नहीं है, पहले से कोई सूचना नहीं मिलती। वह बुहारी लगा रहा है गुरु की झोपड़ी में और पीछे से आकर हमला हो गया है। वह खाना खा रहा है, हमला हो गया है। वह किताब उठाने जा रहा है, हमला हो गया है। कुछ नहीं कहा जा सकता है कब हमला हो जाए।
तीन महीने बीतते-बीतते हमला करना लेकिन मुश्किल हो गया। हमला होता है और उसके हाथ, उसका मन इतना सजग है कि तत्काल हमले से रक्षा कर लेता है। तीन महीने बीतते-बीतते उसने अनुभव किया कि कोई एक अजीब बात उसके भीतर पैदा हो रही है, विचार कम होते जा रहे हैं और जागरूकता बढ़ती जा रही है। और स्मरण रखें, जितने ज्यादा विचार होंगे उतनी जागरूकता कम होगी। जितनी जागरूकता ज्यादा होगी उतने विचार कम होंगे। विचार और जागरूकता, थॉट्स और अवेयरनेस विरोधी बातें हैं, ये दोनों एक साथ नहीं होती हैं।
उसका चित्त विचारों से क्षीण और कम होता जा रहा है, उसका चित्त सावधानी से भरता जा रहा है। वह पूरे वक्त एक होश से, अमूर्च्छित जागा हुआ है। तीन महीने होने पर उसके गुरु ने कहा: तेरा पाठ, पहला पाठ पूरा हो गया है। कल से तेरा दूसरा पाठ शुरू होगा। उस युवक ने कहा: दूसरा पाठ कौन सा है? गुरु ने कहा: कल से अब मैं नींद में भी हमला करूंगा। तू सोया हुआ है और हमला हो जाएगा। उस युवक ने कहा: जागने में फिर भी गनीमत थी, लेकिन नींद में? मैं सोया हुआ हूं और आप हमला कर देंगे, तो मुझे कैसे पता चलेगा कि आप हमला कर रहे हैं? नींद में मैं कैसे सावधान रहूंगा? उस बूढ़े ने कहा: घ
बड़ा मत, जल्दी मत कर। जितना चैलेंज खड़ा हो, जितनी चुनौती खड़ी हो, चेतना उतनी ही जागती है। चैलेंज चाहिए। नींद में भी जागती है।
एक मां का बच्चा बीमार पड़ा है। ऊपर आकाश में बादल गरजते रहें उसे पता नहीं चलता, रास्तों पर रथ निकलते रहें उसे पता नहीं चलता। उसका बच्चा जरा सा रो दे, जरा सा करवट बदल ले, उसका हाथ उठ जाता है, उसे पता चल जाता है। नींद में भी उसकी चेतना का कोई कोना स्मरण रखे हुए है कि बच्चा बीमार है। नींद में भी कोई जागा हुआ हिस्सा है मन का। रात हम सब यहां सो जाएं और फिर कोई आकर चिल्लाए, राम! तो किसी को सुनाई नहीं पड़ेगा लेकिन जिसका नाम राम है वह कहेगा कौन है, कौन बुला रहा है। नींद में भी चित्त का कोई हिस्सा जानता है कि मेरा नाम राम है। नींद में भी कोई जागा हुआ है, कोई कोना, कोई पार्ट, कोई अंश और सब सो रहे हैं। सबको पता नहीं चलता कि राम को बुलाया गया है। लेकिन राम को पता चल जाता है कि मुझे पुकारा गया है। वह नींद में कहता है, कौन है, गड़बड़ मत करो, सोने दो।
तो उस बूढ़े ने कहा: घबड़ाओ मत, मैं तो चुनौती खड़ी करूंगा ताकि तुम्हारी चेतना को आखिरी दम तक जगाया जा सके। अब कल से नींद में हमला शुरू हो जाएगा। अब तुम अपनी फिकर तुम करना। मजबूरी थी बीच से भागा नहीं जा सकता था। और इधर तीन महीने में एक अनुभव भी हुआ था, बड़ा अदभुत। उस युवक ने सोचा और थोड़ी चोटें सही। अदभुत अनुभव हुआ था इन तीन महीनों में उसके चित्त ने एक बहुत अजीब शांति जानी थी जिसे वह कभी नहीं जानता था। उसकी अंतर्दृष्टि गहरी हुई थी, जितनी उसने कभी नहीं जानी थी, उसकी चिंता विलीन हो गई थी, उसके मन की समस्याएं खत्म हो गई थीं। उसके मन में तो सिर्फ एक जागने का भाव भर अवशिष्ठ रह गया था।
रात भी हमला शुरू हो गया। रात वह सो रहा है और लकड़ी की तलवार से हमला हो जाएगा। फिर सात-आठ दिन में उसकी हड्डियां दुखने लगीं। जगह-जगह चोट लेकिन रोज-रोज नींद में भी उसे अनुभव होने लगा कि कोई खयाल रखे हुए हैं कि कहीं हमला न हो जाए। नींद में भी मन का कोई कोना जान रहा है कि हमला हो सकता है। नींद में भी एक हिस्सा जागा हुआ रहने लगा। तीन महीने पूरे होते-होते दूसरा पाठ भी पूरा हो गया। नींद में भी उसके हाथ हमले से रक्षा करने लगे। उसके गुरु ने कहा: दूसरा पाठ पूरा हो गया और तू दूसरे पाठ में भी उत्तीर्ण हुआ। कल से तीसरा पाठ शुरू होगा। उस युवक ने कहा: अब तीसरा पाठ और क्या हो सकता है! जागना, सोना दोनों में हमला हो गया। उसके गुरु ने कहा: कल से असली तलवार से हमला शुरू होगा। अभी लकड़ी की तलवार थी। अब चुनौती असली खड़ी होगी। अभी चुनौती नकली थी। अभी हड्डी पर चोट लगती थी अब प्राण भी लिए जा सकते हैं। अब प्राणों तक तलवार छिद सकती है। एक दफा चूकना और जिंदगी खोना हो जाएगा। कल से असली तलवार आती है।
उस युवक ने कहा: ठीक है, मैं तैयार हूं, अब क्योंकि सवाल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तलवार असली है कि नकली है। अगर नकली तलवार के प्रति मैं सावधान होता हूं और रक्षा कर लेता हूं तो असली तलवार के प्रति भी रक्षा हो जाएगी। अब मैं निश्चिंत हूं, अब मैं घबड़ाया हुआ नहीं हूं।
दूसरे दिन से असली तलवार का हमला शुरू हो गया। वह युवक प्राणों की बाजी पर खड़ा है। किसी भी क्षण, किसी भी क्षण मौत खड़ी हो सकती है। ऐसी स्थिति में कोई सो सकता है? सपने देख सकता है? कोई अतीत और भविष्य में जा सकता है? एक क्षण भी यहां वहां चित्त का जाना जीवन का अंत हो जाएगा।
तीन महीने बीतने को आ गए असली तलवार ने उसके भीतर असली चेतना को भी जगा दिया। तीन महीने पूरे होते थे शायद एक दिन और बचा था और गुरु ने उससे कहा: एक दिन और है और तेरी परीक्षा पूरी हो जाएगी। फिर अंतिम पाठ रह जाएगा चौथा पाठ। और वह चौथा पाठ मैं तुझे जल्दी ही सिखा दूंगा, क्योंकि तीन पाठ जो जान लेता है उसे चौथे पाठ को जानने में देर नहीं लगती।
आखिरी दिन शेष था वह युवक एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था और उसका गुरु दूर सौ फीट के फासले पर दूसरे वृक्ष के नीचे बैठ कर कोई किताब पढ़ता था। अस्सी वर्ष का बूढ़ा उसकी पीठ युवक की तरफ थी। युवक के मन में एक खयाल आया कि यह बूढ़ा चौबीस घंटे मुझे चेतावनी, सजग, चुनौती में रखता है। यह खुद भी इतना सावधान है या नहीं आज मैं भी क्यों न इसके पीछे से हमला करके देखूं। मैं भी तो देखूं उस पर हमला करके कि यह खुद भी इतना सावधान है या नहीं, जितना मुझे सावधान रहने को कहता है। यह उसने सोचा ही था कि वह बूढ़ा गुरु वहां से चिल्लाया कि बेटा, ऐसा मत करना। युवक बहुत हैरान हो गया! उसने कहा कि मैंने अभी कुछ किया नहीं, केवल सोचा था, आप क्या कहते हैं? उस बूढ़े ने कहा: मैं बूढ़ा आदमी हूं ऐसा मत कर बैठना। पर उस युवक ने कहा: आप कैसे कहते हैं? मैंने केवल सोचा। उस बूढ़े ने कहा: तू थोड़ी देर और ठहर जा, चौथा पाठ पूरा हो जाने दे। जब चित्त पूरा सावधान होता है तो दूसरे के विचारों की पगध्वनियां भी सुनाई पड़ने लगती हैं। और जिस दिन दूसरों के विचारों की पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगती हैं उसी दिन चित्त उस संवेदना को उपलब्ध हो जाता है जिसमें परमात्मा की पगध्वनियां भी सुनाई पड़ती हैं।
वैसा जागरूक चित्त ही परमात्मा को अनुभव कर पाता है। सोए हुए लोग नहीं जागे हुए लोग, प्रत्येक को इतना ही जागने का प्रश्न है। आरडुअस है, तपश्चर्यापूर्ण है। तपश्चर्या का मतलब नहीं कि आप उपवासे बैठ जाएं। तपश्चर्या का मतलब नहीं कि आप सिर के बल शीर्षासन लगा कर खड़े हो जाएं। ये बातें तो किसी सर्कस में भरती होना हो तो ठीक हैं। परमात्मा को जानने से किसी सर्कस के नट होने की जरूरत नहीं है। लेकिन आर्डुअस है, तपश्चर्यापूर्ण है जागने की चेष्ठा। और चौबीस घंटे उठने से सोने तक, सोने से जागने तक चित्त जागा हुआ रहे, होश भरा हुआ रहे, कैसे ये होगा? कौन तलवार लेकर पीछे आपके पड़ेगा? आपको खुद ही पड़ जाना पड़ेगा। और सच्चाई तो यह है कि अगर हमें पता हो तो मौत चौबीस घंटे हमारे पीछे तलवार लेकर पड़ी हुई है।
इसलिए बहुत पुराने दिनों में मृत्यु को ही गुरु और आचार्य कहा जाता था। वह जो नचिकेता यम के पास पहुंच गया था, उस कथा को कथा ही मत समझ लेना। जब भी किसी नचिकेता को जीवन सत्य को जानना होता है तो मृत्यु के पास पहुंचना पड़ता है। मृत्यु के निकट ही मृत्यु के खतरे में ही, मृत्यु की वह जो असुरक्षा है, वह जो मृत्यु की तलवार है उसके बोध से ही भीतर सावधानी और जागरूकता पैदा होती है।
तो अंतिम बात आज की सुबह की आपसे कहूं और वह यह कि जिसे धार्मिक होना है उसे मृत्यु के प्रति सचेत सावधान होना पड़ेगा। उसे जानना होगा प्रति क्षण मौत घेरे खड़ी है। प्रति क्षण मौत पकड़े खड़ी है, किसी भी क्षण मौत की तलवार ले जाएगी। इसलिए निद्रा का मौका और सुविधा नहीं है। अगर मौत ऐसी प्रति क्षण निकट मालूम होने लगे जो कि सच्चाई है जिसको हम जान कर छिपाए रहते हैं, जिसको हम जान कर आंखों पर परदा डाले रहते हैं कि मौत दिखाई न पड़ जाए। मरघट को गांव के बाहर बनाते हैं। अगर दुनिया समझदार होगी तो गांव के बीच चौरस्ते पर मरघट बनाएगी ताकि हर बच्चा रोज-रोज जानता रहे कि मौत है, निरंतर मौत है। हम तो मौत को छिपाते हैं। घर के बाहर कोई अरथी निकलती है, बच्चों को भीतर का दरवाजा लगाते हैं कि अंदर आ जाओ, कोई मर गया है।
ऐसे जिंदगी भर हम मौत से अपने को छिपाए रखते हैं। झूठी है यह बात। मौत को जानना है, पहचानना है।
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात पूरी करूं।
एक संन्यासी के पास एक युवक एक दिन सुबह आया और उस युवक ने उनके पैर छूकर कहा कि मेरे मन में बहुत बार विचार उठता है, आप इतने पवित्र मालूम होते हैं, फूल जैसे पवित्र, आप इतने सुगंधित मालूम होते हैं, धूप जैसे सुगंधित, आप इतने प्रकाशित मालूम होते हैं, दीये जैसे आलोकित, मेरे मन में हमेशा यह उठता है कि कहीं यह सब ऊपर ही ऊपर न हो, भीतर शायद पाप उठता हो, भीतर शायद दुर्गंध भी हो। हमेशा भीड़भाड़ होती है, मैं पूछ नहीं पाता। आज अकेले में मिल गए हैं आप, मैं पूछता हूं कि यह जो इतनी सुगंध और आनंदित आप बाहर से दिखाई पड़ते हैं, ऐसा भीतर भी है या नहीं?
उस संन्यासी ने कहा: तुम पूछते हो बड़ा सुंदर प्रश्न और मैं उत्तर जरूर दूंगा। लेकिन उसके पहले एक और जरूरी बात मुझे तुमसे कहनी है, कहीं भूल न जाऊं। कल भी मैं भूल गया था। और अगर दो-चार दिन भूल गया तो फिर बताने की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। इसलिए पहले बता दूं। कल अचानक तुम्हारे हाथ पर मेरी दृष्टि पड़ गई, देखा तुम्हारी उम्र की रेखा समाप्त हो गई है। सात दिन और बस सातवें दिन सूरज ढलेगा और तुम भी ढल जाओगे। यह मैं बता दूं, कल मुझे खयाल आया था, फिर दूसरी बातचीत में खो गया, नहीं बता पाया। आज तुम फिर प्रश्न पूछते हो। पहले मैं यह बता दूं, अब तुम पूछो, क्या पूछते हो?
उस युवक ने कहा: मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने आपसे कुछ पूछा। अभी मैं घर जाता हूं। फिर मौका मिला तो मैं आऊंगा। उस संन्यासी ने कहा: रुको भी, इतनी जल्दी क्या? सात दिन पड़े हैं, बहुत समय है। उस युवक ने कहा: माफ करिए। उसके हाथ कंप रहे थे। अभी वह आया था तो उसके पैरों में सिकंदर का बल था, अभी लौटता था तो एक मरा हुआ आदमी। सीढ़ियां उतरता था तो सहारे की जरूरत पड़ गई थी। वह युवक बूढ़ा हो गया था। रास्ते पर डगमगाता हुआ घर पहुंचा, पूरा घर भी नहीं पहुंच पाया, सीढ़ियों के पास ही गिर पड़ा। उठा कर लोगों ने घर पहुंचाया। बिस्तर से लग गया। सात दिन, केवल सात दिन मौत एकदम पास मालूम पड़ने लगी। हाथ हिलाओ तो मौत से छू जाए, निकट सब तरफ।
आस-पड़ोस में जिनसे झगड़े चलते थे और जिनके साथ सुप्रीम कोर्ट तक जाने के इरादे थे, वे सब बदल गए। उन्हें बुला कर उनसे क्षमा मांग ली, उनके पैर छू लिए। क्षमा कर देना। झगड़े जीवन के थे, मौत से फिर क्या झगड़ा रह जाता है। उपद्रव जीवन के साथ थे, जब मौत ही आ गई तब किससे क्या उपद्रव रह जाता है। शत्रुताएं जीवन के खयाल से थीं, जिसको मौत दिख जाती है फिर उसका कोई शत्रु रह जाता है? माफी मांग ली, पैर छू लिए। क्षमा कर दिया गया। सात दिन बीते, रोज मौत करीब आने लगी, रोज मौत करीब आने लगी। घर उदास हो गया, अंधेरे में डूब गया, मित्र-परिजन इकट्ठे हो गए। सातवें दिन सूरज डूबने के घड़ी भर पहले वह संन्यासी उस घर में पहुंचा। घर रोता था, उदास, सन्नाटा, जैसे मरघट हो। वह भीतर गया। उसने उस व्यक्ति को जाकर हिलाया। सूख कर हड्डी हो गया था वह युवक। पहचानना कठिन था कि यही वह आदमी है जो सात दिन पहले था। सब सपने डूब गए थे उसके। सब नावें कागज की सिद्ध हुई थीं। सब भवन राख के ढह गए थे। खाली पड़ा था, जैसे मर ही चुका हो। लेकिन एक और अजीब बात थी, चेहरे पर बड़ी रौनक थी, आंखें बड़ी शांत थीं, बड़ी गहरी थीं। युवक को हिलाया, उसने आंख खोली, जैसे किसी दूसरे लोक से लौटा हो। और संन्यासी ने पूछा: एक प्रश्न पूछने आया हूं, सात दिन मन में कोई पाप उठा?
उस युवक ने कहा: क्या बातें करते हैं आप? मौत इतने करीब हो तो पाप उठने के लिए जगह कहां? फासला कहां? डिस्टेंस कहां? इधर मैं था और मौत थी, बीच में कोई और न उठा न उठने की सुविधा थी, न समय था, न अंतराल था उठने का।
सात दिन क्या सोचते रहे?
उस युवक ने कहा: क्या आप सोचते हैं,
मौत सामने हो तो कुछ सोचा जा सकता है? सोचना खो गया।
फिर क्या करते रहे?
उस युवक ने कहा: पहली दफा जिंदगी में कुछ नहीं कर रहा था। सात दिन कुछ भी नहीं किया। लेकिन जब कुछ भी नहीं किया, कोई विचार न रहे, कोई पाप न रहा, कोई योजना, कोई कल्पना, कोई सपना न रहा, तो मैंने पा लिया उसको जो मैं हूं। आपकी बड़ी कृपा। आपकी बड़ी कृपा कि मृत्यु से मुझे मिला दिया। क्योंकि मृत्यु के निकट रह कर मैं उसको जान गया जिसकी कोई मृत्यु नहीं है, जो अमृत है।
वह संन्यासी हंसने लगा और उसने कहा: घबड़ाओ मत, मौत तुम्हारी अभी आई नहीं, केवल तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। सात दिन बाद मृत्यु दिखती हो या सत्तर वर्ष बाद, जिसको दिख जाती है उसके भीतर सब-कुछ बदल जाता है। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया। अभी मरने का कोई सवाल ही नहीं है। हाथ की रेखा अभी बहुत लंबी है, उठ आओ।
लेकिन उस युवक ने कहा: अब आपको बताने की जरूरत नहीं कि मृत्यु नहीं होगी, अब मैं खुद ही जानता हूं। मृत्यु की कोई संभावना ही नहीं है। इधर मृत्यु से घिर कर मैंने उसे जाना जो अमृत है।
स्कूलों में छोटे-छोटे बच्चों को हम पढ़ाते हैं, काला तख्ता बना देते हैं, फिर सफेद ख़िड़या से उस पर लिखते हैं, तो दिखाई पड़ता है। सफेद दीवाल पर लिखेंगे, तो दिखाई नहीं पड़ेगा। काले तख्ते की पृष्ठभूमि में सफेद रेखाएं उभर आती हैं। जो मृत्यु को ठीक से अनुभव करता है, तो मृत्यु की काली चादर पर फिर जो सफेद रेखाएं अमृत की हैं वे दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं। अमृत तो भीतर छिपा है लेकिन जब तक हम मृत्यु की पृष्ठभूमि उसे न देंगे, तब तक वह दिखाई नहीं पड़ सकता। मृत्यु की काली छाया के बीच अमृत की विद्युत चमक उठती, दिखाई पड़ने लगती है।
तो धार्मिक व्यक्ति वह है जो मृत्यु के साथ जीना शुरू कर देता है। उसके भीतर खतरा खड़ा हो गया। उसे तलवार मिल गई, उसे गुरु उपलब्ध हो गया। मृत्यु के अतिरिक्त और कोई गुरु नहीं है। और फिर उस खतरे में भीतर सावधानी पैदा होनी शुरू हो जाती है। इसी सावधानी के निरंतर बढ़ते किसी दिन, किसी क्षण में, किसी सौभाग्य के क्षण में जीवन के बादल हट जाते हैं और सूरज का दर्शन हो जाता है जो परमात्मा है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और भीतर बैठे परमात्मा को अंत में प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।