POLITICS & SOCIETY‎

Nari Aur Kranti 06

Sixth Discourse from the series of 6 discourses - Nari Aur Kranti by Osho.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


मैंने सुना है कि एक आदमी पर देवता नाराज हो गए। और नाराजगी में देवताओं ने उस आदमी को अभिशाप दिया कि आज से तेरी छाया खो जाएगी। धूप में भी चलेगा तो तेरी छाया नहीं बनेगी।
वह आदमी अपने मन में बहुत हंसा कि छाया खोने से मेरा क्या बिगड़ जाएगा? और देवता कैसे नासमझ हैं, अभिशाप भी दे रहे हैं तो छाया के खोने का दे रहे हैं!
वह समझ ही न सका कि छाया के खोने से क्या नुकसान हो सकता है। आप भी नहीं समझ सकेंगे कि छाया के खोने से क्या नुकसान है।
लेकिन जैसे ही वह आदमी अपने गांव में आया, उसे पता चला कि बहुत नुकसान हो गया। जिस आदमी ने भी देखा कि धूप में उसकी छाया नहीं बन रही है, वही आदमी उससे भयभीत हो गया। गांव में खबर फैल गई कि वह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया है, उसकी छाया नहीं बनती। ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि किसी आदमी की छाया न बने। उसके घर के लोगों ने द्वार बंद कर लिए, उसके मित्रों ने मुंह मोड़ लिया, उसकी पत्नी ने उसे पति मानने से इनकार कर दिया, उसके बच्चे भी उसे इनकार करने लगे। गांव में उसका जीना मुश्किल हो गया। और गांव के लोगों ने कहा कि तुम गांव के बाहर निकल जाओ। ऐसी बीमारी कभी किसी को नहीं हुई है आज तक कि उसकी छाया खो जाए। पता नहीं तुम कैसे अभाग्य के लक्षण हो। उस आदमी को वह गांव छोड़ देना पड़ा।
जब मैंने यह कहानी पढ़ी थी तो मैं बहुत हैरान हुआ कि क्या ऐसा हो सकता है कि किसी आदमी की छाया खो जाए? लेकिन जब नारियों के संबंध में मैं सोचता हूं तो मुझे पता चलता है कि उनके संबंध में मामला बिलकुल उलटा हो गया है। वे सिर्फ छाया रह गई हैं और उनकी आत्मा खो गई है।
नारी सिर्फ पुरुष की छाया रह गई है, उसके पास अपनी कोई आत्मा नहीं है। यह मैं पहली बात कहना चाहता हूं। सारे मुल्क में घूमता हूं। हजारों पुरुषों से मिलना होता है, हजारों स्त्रियों से भी मिलना होता है। लेकिन स्त्रियों में मां मिलती है, बहन मिलती है, बेटी मिलती है, नारी कहीं भी नहीं मिलती। मां है, पत्नी है, बेटी है, बहन है, लेकिन नारी? नारी कहीं भी नहीं है। स्त्री का कोई भी अस्तित्व है तो पुरुष से संबंधित होकर है, अपने में उसका कोई भी अस्तित्व नहीं है। अपनी उसकी कोई हैसियत नहीं है। अपना उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। चीन में तो हजारों वर्ष तक यह माना जाता रहा कि स्त्री के पास कोई आत्मा होती ही नहीं, और इसलिए चीन में स्त्री को मार डालने पर किसी तरह का अपराध नहीं था। क्योंकि जिसमें आत्मा ही न होती हो उसे मार डालने में हर्ज भी क्या हो सकता है? और अगर पति अपनी पत्नी को मार डाले तो वह जुर्म वैसा ही था जैसे कोई अपनी कुर्सी को तोड़ डाले, घर के फर्नीचर को तोड़ डाले; इससे बड़ा जुर्म नहीं था।
हिंदुस्तान में भी स्त्री को हम संपत्ति मानते रहे हैं। नारी-संपत्ति, स्त्री-संपत्ति शब्द का हम प्रयोग करते हैं। कन्या का दान कर देते हैं, जैसे कि कोई वस्तु किसी को दान में दी जा रही हो। स्त्री के व्यक्तित्व का अंगीकार ही नहीं हो सका है। और इस बात ने कि स्त्री सिर्फ छाया है, मनुष्य-जाति को जितने दुख दिए हैं, उतने किसी और बात ने नहीं दिए हैं। क्योंकि जिस स्त्री के पास आत्मा ही न हो वह स्त्री न तो स्वयं के लिए आनंद बन सकती है और न किसी और के लिए। जिसकी आत्मा ही खो गई हो वह एक दुख का ढेर होगी और उसके व्यक्तित्व के चारों तरफ दुख की किरणें ही फैलती रहेंगी, दुख का अंधेरा ही फैलता रहेगा। परिवार एक आनंद का फूल नहीं बन पाया, क्योंकि जिसकी आत्मा के खिलने से वह आनंद बन सकता था उसके पास आत्मा ही नहीं है। परिवार एक संस्था है मृत और मरी हुई, क्योंकि नारी है केंद्र और नारी के पास कोई व्यक्तित्व नहीं है।
मनुष्य-जाति बहुत से दुर्भाग्यों में से गुजरती रही है, उनमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य, बड़े से बड़ा दुर्भाग्य नारी की स्थिति है। किन्होंने यह स्थिति नारी की बना दी है? कौन है जिम्मेवार? इस संबंध में खोजबीन करने से बहुत अजीब नतीजे हाथ में आते हैं।
संतों से पूछिए, महात्माओं से पूछिए। वे कहेंगे, नारी? ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। उनमें वे गिनती करते हैं। नरक का द्वार है नारी, ऐसा संत और महात्मा कहते हैं। जिस देश में संतों, महात्माओं का जितना ज्यादा प्रभाव है, उस देश में नारी उतनी ही ज्यादा अपमानित है। धर्म ने नारी की यह स्थिति की है--जिस धर्म से हम परिचित हैं।
और बड़ा चमत्कार यह है कि जिस धर्म ने नारी की यह स्थिति की है, उस धर्म को टिकाने में सिवाय नारी के अब और कोई भी जिम्मेवार नहीं रह गया है। जिन महात्माओं ने नारी को नरक का द्वार कहा है, उन महात्माओं के पालन-पोषण का सारा जिम्मा नारी के ऊपर है। मंदिरों में जाकर देखिए, साधु-संन्यासियों के पास जाकर देखिए। एकाध पुरुष दिखाई पड़ेगा, दस-पंद्रह नारियां दिखाई पड़ेंगी। और वह एकाध पुरुष भी अपनी पत्नी के पीछे-पीछे चला आया होगा, और कोई कारण नहीं है।
संत कहते हैं कि नारी नरक का द्वार है।
अभी मैं बंबई था। कुछ लोगों ने मुझे आकर कहा कि एक संत के प्रवचन चलते हैं। इस देश में और कोई धंधा ही नहीं है सिवाय प्रवचन सुनने और देने के। हजारों साल से हम एक ही धंधा कर रहे हैं। और अब हम धीरे-धीरे यह भूल ही गए हैं कि और भी कोई काम किसी कौम के हाथ में हो सकता है। लाखों लोग उनको सुनने जाते हैं। जिन्होंने मुझे आकर खबर दी उन्होंने कहा कि आज एक बहुत अदभुत घटना घट गई। जहां थोड़े से बीस हजार लोग थे, आज पचास हजार लोग सुनने गए।
मैंने कहा, क्या हुआ?
उन्होंने कहा, एक स्त्री ने उन संत के पैर छू लिए। और संत ने सात दिन का उपवास किया है आत्म-शुद्धि के लिए। इसलिए संख्या बहुत बढ़ गई है। और संख्या किनकी बढ़ गई है? स्त्रियों की संख्या बढ़ गई है। स्त्रियां दीवानी होकर उस संत के दर्शन करने जा रही हैं जो कि स्त्री के छूने से अपवित्र हो गया है।
कोई पूछे इन संत को कि पैदा कहां से हुए थे? नौ महीने किसके पेट में रहे थे? खून किसका दौड़ता है तुम्हारी नसों में? हड्डियां किससे बनी हैं? मांस किससे पाया है?
अब तक ऐसा तो उपाय नहीं हो सका कि संत पुरुषों के पेट में रह कर पैदा हो सके। लेकिन जिस स्त्री से मांस-मज्जा बनती है, हड्डी बनती है, जिसके खून से जीवन चलता है, नौ महीने तक जिसके शरीर का हिस्सा होकर आदमी रहता है, उसी स्त्री के छूने से वह अपवित्र हो जाता है! और स्त्री के अतिरिक्त तुम्हारे पास है क्या तुम्हारे शरीर में जो अपवित्र हो गए? और स्त्रियां ही भीड़ लगा कर पूजा करेंगी कि संत बहुत बड़ा संत है, स्त्री के छूने से अपवित्र हो जाता है।
मूढ़ता की भी कोई सीमा होती है! जहालत की भी कोई हद्द होती है!
किन्होंने स्त्री को अपमानित किया है और उसके व्यक्तित्व से आत्मा छीन ली है?
उन लोगों ने स्त्री को अपमानित किया है और उसकी आत्मा का हनन किया है, जो लोग इस जीवन, इस जगत, इस धरती के विरोध में हैं। और उनके विरोध में एक संगति है। जो लोग भी मानते हैं कि असली जीवन मरने के बाद शुरू होता है, जो लोग मानते हैं कि असली जीवन मोक्ष में शुरू होता है, स्वर्ग में शुरू होता है, जो लोग भी मानते हैं कि यह पृथ्वी पापपूर्ण है, यह जीवन असार है, जो लोग भी मानते हैं कि यह जीवन निंदित है, कंडेम्ड है, यह जीवन जीने के योग्य नहीं है, ऐसे सारे लोग नारी को गाली देंगे। क्योंकि इस जीवन को जो निंदित करते हैं वे नारी को भी निंदित करेंगे, क्योंकि यह जीवन नारी से ही निकलता और विकसित होता और प्रभावित होता है। इस जीवन का द्वार नारी है और इसलिए नारी नरक का द्वार है, क्योंकि इस जीवन को कुछ लोग नरक मानते हैं। जिन लोगों ने इस जीवन की निंदा की है, उन लोगों ने स्त्री को भी अपमानित किया है।
दुनिया में मुश्किल से कोई धर्म होगा जिसने स्त्री को कोई भी इज्जत दी हो। आपने मस्जिद में कभी स्त्री को जाते देखा है? स्त्री मस्जिद में नहीं जा सकती है। स्त्री मस्जिद में नहीं जा सकती? स्त्री मस्जिद में नहीं जा सकती, स्वर्ग में कैसे जा सकेगी? मुसलमान स्त्री आज तक मंदिर में प्रविष्ट नहीं हुई।
जैनों के हिसाब से कोई स्त्री मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है, पहले उसे पुरुष की तरह जन्म लेना पड़ेगा, फिर मोक्ष मिल सकता है। और इसकी एक बड़ी मजेदार घटना है। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर में एक तीर्थंकर स्त्री थी--मल्लीबाई। लेकिन दिगंबर जैन मानते हैं कि स्त्री का तो मोक्ष ही नहीं हो सकता, तो स्त्री तीर्थंकर कैसे हो सकती है? उन्होंने मल्लीबाई को बदल कर मल्लीनाथ कर लिया। वे कहते हैं, वह पुरुष है।
देखते हैं मजा! एक तीर्थंकर को स्त्री मानने के लिए तैयार नहीं हैं। स्त्री कैसे तीर्थंकर हो सकती है? तो वे जरूर पुरुष ही रहे होंगे। उनका नाम ही मल्लीनाथ कर लिया है मल्लीबाई से। अब कोई दिक्कत नहीं है। अब मल्लीनाथ जा सकते हैं मोक्ष में। मल्लीबाई नहीं जा सकती थी। नाम बदल लेने से काम हो गया।
उन्नीस सौ पचास के करीब वहां हिमालय की तराई में नीलगाय नाम का जो जानवर होता है, उसने खेतों को बहुत नुकसान पहुंचाया था। लेकिन नीलगाय को गोली नहीं मारी जा सकती, क्योंकि गाय जो लगा हुआ है उसमें, धार्मिक दिक्कत हो जाएगी। तो दिल्ली की संसद ने एक प्रस्ताव पास किया कि पहले नीलगाय का नाम नीलघोड़ा कर दो। फिर गोली मारी जा सकती है। नीलगाय का नाम नीलघोड़ा कर दिया गया और फिर उसे धुआंधार गोली मारी गई और हिंदुस्तान में किसी ने एतराज नहीं किया, क्योंकि नीलघोड़े को मारने में क्या दिक्कत है? वह नीलगाय को मारने में दिक्कत थी।
लेबल बदल कर भी काम चला लिया जाता है। बेचारे मल्लीबाई का लेबल बदल कर मल्लीनाथ कर दिया।
स्त्री की यह हैसियत उन लोगों ने विकृत की है जिन लोगों ने इस जीवन की हैसियत को विकृत किया है। यह तथ्य समझ लेना जरूरी है, तो ही नारी के जीवन में आने वाले भविष्य में कोई क्रांति हो सकती है और नारी को आत्मा मिल सकती है। जब तक पृथ्वी का जीवन भी स्वीकार योग्य नहीं बनता, जब तक यह जीवन भी अहोभाग्य नहीं बनता, जब तक इस जीवन को भी आनंद और इस जीवन को भी परमात्मा का प्रसाद मानने की क्षमता पैदा नहीं होती, तब तक नारी की आत्मा को वापस लौटाना मुश्किल है।
जब तक परलोक महत्वपूर्ण रहेगा, नारी अपमानित रहेगी। जब तक परलोक श्रेष्ठ रहेगा, तब तक नारी श्रेष्ठ नहीं हो सकती। परलोकवाद में और नारी के व्यक्तित्व में बुनियादी संघर्ष चल रहा है। और इसलिए परलोकवादी जो संत, साधु, महात्मा हैं, वे नारी के जन्मजात दुश्मन हैं। उनको लगता है कि नारी ही मनुष्य को उलझाती है--जन्म देती है, प्रेम में डालती है, वासना में बांधती है--और यह सारा का सारा जीवन का जो उपक्रम है, नारी चलाती है, नारी केंद्र है।
यह बात थोड़ी दूर तक सच है कि जीवन के केंद्र पर नारी है। लेकिन यह बात गलत है कि जीवन असार है। यह बात गलत है कि जीवन त्याज्य है। यह बात गलत है कि इस जीवन को लात मारने से कोई बड़ा जीवन उपलब्ध होता है। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन को ठीक से जीने से। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन की सम्यक अनुभूति से। बड़ा जीवन उपलब्ध होता है इसी जीवन को सीढ़ी बनाने से।
लेकिन अब तक दुनिया का कोई धर्म जीवन को अंगीकार नहीं कर पाया। दुनिया के सारे धर्म लाइफ निगेटिव हैं। वे जीवन का निषेध करते हैं, लाइफ अफरमेटिव नहीं हैं। और जब तक पृथ्वी पर लाइफ अफरमेशन का, जीवन स्वीकार का धर्म पैदा नहीं होता, तब तक नारी को आत्मा नहीं मिल सकती है। जीवन का जब तक निषेध चलेगा, नारी सम्मानित नहीं हो सकती है। जीवन का निषेध करने वाले लोगों ने नारी को अपमानित किया है और उसके व्यक्तित्व को दीन-हीन कर दिया है।
इसलिए पहली क्रांति नारी को करनी है तथाकथित धार्मिक लोगों, धर्मगुरुओं, धर्मों के खिलाफ। पहली क्रांति धर्मों के खिलाफ, और वह इस आधार पर कि इस जीवन की स्वीकृति होनी चाहिए, इस जीवन की धन्यता होनी चाहिए, इस जीवन का आनंद होना चाहिए; इस जीवन की दुश्मनी नहीं, शत्रुता नहीं।
लेकिन इस जीवन की धन्यता को स्वीकार करने के लिए हमें जीवन की सारी वैल्यूज, सारे सिद्धांत, सारे आधार बदल देने होंगे। क्योंकि अब तक हम मानते हैं--जो जीवन को छोड़ देता है वह आदमी श्रेष्ठ है, जो आदमी जीता है वह आदमी नहीं। और जीवन को छोड़ने का मतलब क्या होता है? संन्यासी जो भागते हैं, कहते हैं, घर छोड़ कर आ गए हैं। अगर उनके ‘घर’ में बहुत गौर करो तो घर का मतलब होगा स्त्री। घर का मतलब वैसे स्त्री ही होता है। वह स्त्री को छोड़ कर भागने वाला संन्यासी इतना आदृत हुआ है। वह क्यों आदृत हुआ है? स्त्री को छोड़ते ही लगता है, एक आदमी जीवन का विरोधी हो गया।
लेकिन जीवन को छोड़ने की इन लंबी परंपराओं ने जीवन की सारी जड़ों को विषाक्त कर दिया है। जीवन से सारा आनंद, सारा रस, सारा सौंदर्य छीन लिया है। जीवन को एक उदासी और एक दुख की कालिमा दे दी है। जीवन से सारी मुस्कुराहट छीन ली है। धर्म एक नृत्य करता हुआ धर्म नहीं रह गया, धर्म एक गीत गाता हुआ धर्म नहीं रह गया। धर्म उदास, चेहरे लटके हुए लोगों की, भागे हुए लोगों की एक लंबी कतार हो गई।
यह सारी की सारी कतार स्त्री के विरोध में है। इस देश में चूंकि जीवन विरोधी चिंतकों का बहुत प्रभाव रहा है...और जीवन के विरोध में कुछ लोग क्यों हो जाते हैं?
आपने सुनी होगी ईसप की एक छोटी सी कहानी।
एक लोमड़ी एक बगीचे से गुजरती है। अंगूरों के गुच्छे लगे हैं। वह छलांग लगाती है उन गुच्छों को पाने के लिए। लेकिन गुच्छे दूर हैं और हाथ उसके नहीं पहुंच पाते। बहुत कोशिश करती है। तभी चारों तरफ देखती है कि कुछ खरगोश एक झाड़ी में से झांक कर देख रहे हैं। फिर वह खड़ी हो जाती है और शान से रास्ते पर वापस लौटने लगती है। वे खरगोश उससे पूछते हैं, देवी, अंगूर कैसे थे? वह देवी कहती है, अंगूर? अंगूर खट्टे थे, खाने योग्य नहीं थे, इसलिए मैंने छोड़ दिए।
लोमड़ी यह नहीं कहती कि अंगूर पाए नहीं जा सके; लोमड़ी यह नहीं कहती कि मेरी छलांग छोटी थी; लोमड़ी यह नहीं कहती कि अंगूर मुझे मिल ही नहीं सके, चखने का सवाल नहीं उठा। लेकिन अहंकार भीतर से कहता है कि नहीं, अंगूर तो मैं पा लेती, लेकिन वे खट्टे थे इसलिए छोड़ दिए हैं।
जो लोग जीवन के रस को उपलब्ध नहीं कर पाते, वे बजाय यह कहने के कि हमें जीवन जीने की कला नहीं आती, यही कहना पसंद करते हैं कि जीवन असार है, जीवन खट्टा है, जीवन पाने योग्य नहीं है। जितने लोग जीवन को पाने में, जीवन के सत्य को अनुभव करने में असमर्थ हो जाते हैं, वे सारे लोग जीवन विरोधी हो जाते हैं। और इन जीवन विरोधी लोगों ने सारे लोगों के चित्त को विकृत करने, परवर्ट करने का काम किया है। और उन्होंने ऐसी बातें समझाई हैं कि धीरे-धीरे बच्चा पैदा नहीं होता, और उसके दिमाग में हम जीवन की दुश्मनी की बातें भरना शुरू कर देते हैं।
मैं भावनगर था। तेरह-चौदह वर्ष की एक लड़की मेरे पास आई और कहने लगी कि यह जीवन तो बेकार है। आवागमन से छुटकारा कैसे हो, इसका कोई मार्ग बताइए!
तेरह-चौदह साल का बच्चा जिस देश में पूछने लगे कि आवागमन से छुटकारा चाहिए, उस देश का भविष्य कभी भी सुंदर नहीं हो सकता। जिसमें जीवन में आने के पहले जीवन से भागने के भाव पैदा होने लगते हों, उस देश की शिक्षाएं खतरनाक हैं। उस देश के समझाने वाले लोग घातक हैं। वह देश आत्मघात की तैयारियां कर रहा है। छोटे से बच्चे अभी खिल भी नहीं पाए, अभी उनके फूलों में कलियां भी विकसित नहीं हो पाईं, अभी वे पूछने लगे कि मुरझाएं कैसे, मरें कैसे, मोक्ष कैसे जाएं। हम मरना सिखाते रहे हैं या जीना सिखाते रहे हैं?
जब तक हम मरना सिखाते रहेंगे और जब तक धर्म स्युसाइडल होगा, आत्मघाती होगा, तब तक नारी का सम्मान नहीं हो सकता है। जिस दिन जीवन को जीने की कला बनेगा धर्म, जिस दिन हम जीवन के जीने को ही, जीवन के जीने की ठीक विधि को ही, जीवन को जीने की कला और आर्ट को ही धर्म कहेंगे, उस दिन नारी सम्मानपूर्ण रीति से स्वीकृत हो सकती है।
लेकिन कोई पूछ सकता है कि हिंदुस्तान में जहां धर्म का इतना प्रभाव है नारी अपमानित हुई, तो पश्चिम में, यूरोप में, अमेरिका में, जहां धर्म का इतना प्रभाव नहीं है वहां नारी की क्या स्थिति है?
वहां भी नारी अपमानित है, लेकिन दूसरे ढंग से।
हिंदुस्तान में नारी का एक ही उपयोग है कि जिसको स्वर्ग या मोक्ष जाना हो, वह नारी को छोड़ कर भागे। ऐसा निगेटिव उपयोग है। नारी का एक ही उपयोग है और वह यह कि जिसको मोक्ष जाना हो, नारी को छोड़ कर भागे। हिंदुस्तान ने नारी को छोड़ कर आदर दिया है। ठीक इससे दूसरी एक्सट्रीम पश्चिम में पैदा हुई है। और वह यह है कि नारी का एक ही उपयोग है कि उसका भोग किया जाए। वहां भी नारी को आत्मा नहीं मिल सकी है। यहां नारी का उपयोग है कि उसका त्याग किया जाए; पश्चिम में उसका उपयोग है कि भोग किया जाए।
लेकिन नारी न त्याग के लिए बनी है और न नारी भोग के लिए बनी है। नारी का अपना कोई अस्तित्व भी है त्याग और भोग से पृथक, उसकी अपनी कोई गरिमा भी है, अपनी कोई आत्मा भी है।
पश्चिम एक अति पर है कि नारी भोग्य है, उसे भोग लेना है और फेंक देना है, इससे ज्यादा उसका कोई उपयोग नहीं है। पश्चिम में भी नारी की आत्मा नहीं उठ पाई है ऊपर। पश्चिम में नारी का उपयोग भी एक शोषण है और पूरब में भी शोषण है। इसलिए दुनिया में कहीं भी नारी नहीं पैदा हो पाई है। नारी को आत्मा का विकास करने का कोई मौका नहीं मिल पाया है। एक तरफ धर्मगुरुओं ने नारी को अपमानित किया है, दूसरी तरफ धर्म के विरोधी लोगों ने नारी को दूसरी दिशा से अपमानित किया है। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि पुरुष नारी को अपमानित करने को तत्पर है, वह उसको अंगीकार और स्वीकार नहीं करना चाहता।
और बड़ी हैरानी की बात है, बाप अपनी बेटी से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पति अपनी पत्नी से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। बेटे अपनी मां से कहते हैं कि हम तुझे प्रेम करते हैं। लेकिन यह प्रेम बड़ा अजीब है पुरुषों का कि नारी को व्यक्तित्व नहीं दे पाया हजारों साल के प्रेम के बाद भी। यह प्रेम कैसा है जो दूसरे व्यक्ति को आत्मा नहीं दे पाता? यह प्रेम कैसा है जो दूसरे की गर्दन जकड़ लेता है, लेकिन उसको मुक्त नहीं कर पाता? जो प्रेम बांधता है वह प्रेम नहीं है, जो प्रेम मुक्त करता है वही प्रेम है। प्रेम अगर मुक्त न कर सके तो फिर प्रेम में और घृणा में अंतर क्या है?
अगर एक पति अपनी पत्नी को प्रेम करता है, तो इस प्रेम का एक ही अर्थ होगा कि पहले इसे आत्मा, इसे व्यक्तित्व, इसकी अपनी इंडिपेंडेंट इंडिविजुअलिटी पैदा करने में सहयोगी बने। और जब यह एक व्यक्ति होगी, तभी प्रेम का कोई अर्थ है। हम जिसे प्रेम करते हैं उसे व्यक्ति बनाना चाहते हैं। लेकिन पुरुष ने आज तक नारी को व्यक्ति नहीं बनने दिया है, बल्कि वह व्यक्ति न बन जाए, इसकी सारी कोशिश की है।
हजारों वर्ष तक नारी को शिक्षा नहीं मिलने दी, क्योंकि शिक्षा एक व्यक्तित्व देती है। तो शिक्षा को रोक रखा कि नारी को शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है। नारी को शिक्षा वर्जित रखी हजारों साल तक, क्योंकि शिक्षा जैसे ही मिलेगी, नारी में विचार पैदा होंगे। विचार विद्रोह लाते हैं, विद्रोह व्यक्तित्व लाता है। नारी को अशिक्षित रखने की साजिश जारी रही। फिर किसी भांति नारी ने अगर थोड़ी-बहुत शिक्षा लेनी शुरू की, तो एक नई साजिश शुरू हुई कि नारी को ठीक पुरुष जैसी शिक्षा दे दो। नारी को पुरुष जैसी शिक्षा देने से भी नारी की आत्मा प्रकट नहीं होती। वह नंबर दो का पुरुष बन जाती है, कार्बनकॉपी बन जाती है। अब सारी दुनिया में नारी को शिक्षा देने के लिए पुरुष मजबूरन राजी हुआ है, लेकिन उस राजी में एक नई साजिश शुरू हुई कि जो पुरुष की शिक्षा है वही नारी को दे दो।
नारी के पास अपना व्यक्तित्व है, पुरुष से बहुत भिन्न, बहुत अलग आयाम, बहुत अलग डायमेंशन है उसके व्यक्तित्व का। उसके मनस का बहुत अलग रूप है। उसके मनस की दिशा बहुत भिन्न है। वह ठीक पुरुष जैसी नहीं है। और यही तो कारण है कि पुरुष और उसमें जो भेद है, जो भिन्नता है, वही उनके बीच आकर्षण का कारण है। वे बिलकुल दो उलटे ध्रुव हैं। और जिस दिन...स्त्री को या तो शिक्षा मत दो, तब वह गुलाम बन जाती है, तब वह पंगु हो जाती है। और अगर मजबूरी में शिक्षा देनी पड़े, तो उसे ठीक पुरुषों जैसी शिक्षा दे दो, ताकि वह नंबर दो का पुरुष बन जाए, कार्बन कापी हो जाए और व्यर्थ हो जाए।
हिंदुस्तान में नारी दास है, पश्चिम में नारी कार्बन कापी है। और कार्बन कापी की भी अपनी कोई आत्मा नहीं होती। स्त्री को खतम करने के लिए एक उपाय यह था कि शिक्षा मत दो, दूसरा उपाय यह है कि वही शिक्षा दे दो जो तुम पुरुष को दे रहे हो। तब वह पुरुष जैसी क्लर्क बन जाएगी, पुरुष जैसी पाइलट बन जाएगी, पुरुष जैसी फौज का जवान बन जाएगी। वह सब बन जाएगी, लेकिन एक बात पक्की है कि पुरुष जैसा होने में वह स्त्री नहीं रह जाएगी, नारी नहीं रह जाएगी। और आज पश्चिम में यह दुर्घटना दिखाई पड़नी शुरू हो गई है।
पूरब में स्त्री स्त्री नहीं है, सिर्फ दासी है। वह जो स्त्रियां लिखती हैं न प्रेम-पत्र, तो नीचे लिखती हैं--आपकी दासी। और जिसको लिखती हैं वे बड़े प्रसन्न होते हैं, पति परमेश्वर वगैरह जो होते हैं। और उनको खयाल भी नहीं आता कि जिसको हमने दासी लिखने को मजबूर कर दिया है, जो हमारे सामने मुकाबले पर खड़ी नहीं रह गई है, उससे प्रेम पाने का आनंद कभी भी नहीं मिल सकता। प्रेम पाने का आनंद उनके साथ है जो समकक्ष हैं, उनके साथ कभी नहीं है जो हमसे नीचे हैं। क्योंकि जो हमसे नीचे हैं उनसे प्रेम डिमांड किया जा सकता है, मांगा जा सकता है, लिया जा सकता है।
और ध्यान रहे, प्रेम मांग कर कभी भी नहीं मिलता है। प्रेम मिलता है तो बिना मांगे मिलता है। प्रेम मांग कर कभी नहीं मिलता। और प्रेम देने के लिए मजबूर कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन स्त्री को आज तक यही समझाया गया है कि वह प्रेम दे। पति परमेश्वर है, उसको प्रेम देना ही चाहिए।
प्रेम कोई कर्तव्य नहीं है कि करना चाहिए। जो प्रेम करना पड़ता है, वह तत्काल प्रेम नहीं रह जाता, तत्क्षण प्रेम नहीं रह जाता। इसलिए जहां गुलामी है वहां प्रेम कभी भी नहीं हो सकता। गुलाम कभी प्रेम नहीं करते। गुलाम भयभीत होते हैं, प्रेम नहीं करते।
पत्नियां भयभीत हैं पतियों से। और पत्नियां जब तक भयभीत हैं तब तक उनसे प्रेम नहीं मिल सकता है। और जब पत्नियों से प्रेम नहीं मिलता है तो पुरुष खोजता है प्रेम को कहीं और--वेश्याओं में खोजता है, बाजारों में खोजता है। और उसे पता नहीं कि जब पत्नी से प्रेम नहीं मिलता तो वेश्या से कैसे प्रेम मिल सकता है? हालांकि उसकी बुद्धि वही है। वह पत्नी में और वेश्या में बुनियादी फर्क नहीं मानता है। पत्नी स्थायी वेश्या है, जिसको सदा के लिए खरीद लाया है। बिना प्रेम के जिसे खरीद लाया गया है उसमें और एक रात के लिए स्त्री को खरीदने में बुनियादी फर्क नहीं है। फर्क सिर्फ डिग्री का है, मात्रा का है, एक रात के लिए खरीदा है कि पूरी जिंदगी के लिए खरीदा है।
जब तक पुरुष बिना प्रेम के एक स्त्री को घर में बांध लाता है, तब तक प्रेम की कोई संभावना नहीं है। और फिर जिंदगी भर कोशिश करो कि हम प्रेम करते हैं, वह दिखावा रहेगा, बातचीत रहेगी। ऊपर से कहेंगे कि हम प्रेम करते हैं, प्रेम के पत्र भी लिखे जाएंगे, भीतर कहीं भी प्रेम नहीं होगा।
पूछें पति अपने मनों से: कभी अपनी पत्नियों
को प्रेम किया है? पूछें पत्नियां अपने मन से: कभी प्रेम किया है? जिनको हम कहते हैं कि हम प्रेम करते हैं। कि वह सब बातचीत हो गई है? अगर हमने प्रेम किया होता तो घरों की ऐसी स्थिति होती जैसी आज है--चौबीस घंटे कलह की, संघर्ष की, वैमनस्य की? घरों का यह रूप होता? यह कुरूपता, यह अग्लीनेस होती घरों में? यह परिवारों की हालत होती कि आज हर आदमी परिवार से भाग जाने को आतुर होता है?
मैं कुछ दिन तक युनिवर्सिटी में था। युनिवर्सिटी की कक्षाएं तो साढ़े बारह बजे शुरू होती थीं, लेकिन प्रोफेसर्स साढ़े दस बजे आकर कॉमन रूम में बैठ जाते। मैं बहुत हैरान हुआ कि आप इतने जल्दी क्यों आ जाते हैं? उन्होंने कहा, किसी तरह घर से बच जाएं, बस इसकी कोशिश में। तीन बजे युनिवर्सिटी की क्लासेज खतम हैं, लेकिन प्रोफेसर्स पांच बजे तक बैठे हैं, जब तक चपरासी दरवाजा बंद नहीं करे। क्यों बैठे हैं आप यहां? घर वह पत्नी रास्ता देख रही है।
पति और पत्नियों के बीच संबंध प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी होगा, प्रेम का नहीं है। प्रेम की बातचीत है, निपट बातचीत है। और बातचीत से भरने की कोशिश चलती है, लेकिन बातचीत से जिंदगी नहीं भरती। और तब एक बेचैनी शुरू होती है और वह बेचैनी सारे जीवन को रुग्ण कर देती है। प्रेम के बिना कोई भी आदमी अधूरा रह जाता है--स्त्रियां भी और पुरुष भी। और सारी मनुष्य-जाति अधूरी है, उसके भीतर कुछ कमी है जो पूरी नहीं हो पाती। जीवन भर दौड़ कर भी प्रेम नहीं मिल पाता।
प्रेम नहीं मिल सकता है इस भांति। प्रेम मिलता है समकक्ष से। और जब तक स्त्री पुरुष के समकक्ष नहीं होती, तब तक स्त्री से प्रेम नहीं मिल सकता है। और अच्छा होगा कि स्त्रियां यह कह दें कि जब तक हम दासी हैं, तब तक हमसे प्रेम लिया जा सकता है, लेकिन हम दे नहीं सकते हैं। और यह उचित होगा।
लेकिन पति परमात्मा बहुत प्रसन्न होते हैं यह जान कर कि पत्नी उनकी दासी है। और उन्हें कभी खयाल नहीं है कि जिसको आपने दासी बना लिया, उससे मनुष्यता खो गई, वह मनुष्य नहीं रहा। पूरब की हालत है दासियों की और पश्चिम की हालत? पश्चिम की हालत और भी बदतर हो गई है। पश्चिम की स्त्री और भी खिलवाड़ का साधन हो गई है। जब दिल आए, स्त्री को बदला जा सकता है।
अमेरिका में कोई चालीस प्रतिशत तलाक हैं। और ये तलाक चालीस प्रतिशत असलियत को जाहिर नहीं करते। कुछ लोग हिम्मतवर नहीं हैं इसलिए तलाक नहीं दे पाते हैं, लेकिन तलाक का चिंतन दिन-रात चलता है। सौ वर्षों के भीतर अमेरिका में शायद सौ प्रतिशत तलाक हो जाएंगे। शादी की और शायद पहले से ही तलाक का इंतजाम रखना पड़ेगा।
एक स्त्री ने, मैंने सुना है कि अट्ठाइस पति बदले। और जब उसने अट्ठाइसवां पति बदला तो सात या आठ दिन बाद पता चला कि ये सज्जन एक बार पहले भी पति रह चुके हैं। इतने जल्दी-जल्दी बदला कि कुछ खयाल में नहीं रहा होगा। एक जिंदगी में अट्ठाइस पति बदलने पर कहां स्मरण रह जाएगा कि एक आदमी पहले भी एक बार पति रह चुका है। यह तो सारा का सारा जीवन खिलवाड़ हो गया। इस जीवन में न कोई गरिमा रही, न कोई स्थायित्व रहा। इस जीवन में न कोई सौरभ रहा, इस जीवन में न कोई प्रेम रहा। इस जीवन में सिर्फ कामुकता रह गई और कामुकता के उपाय रह गए।
पूरब में स्त्री दासी होकर गुलाम हो गई है, उसने अर्थ खो दिया। पश्चिम में वह हाथों का खिलवाड़ हो गई है और अर्थ खो रही है। क्या ऐसा ही चलता रहेगा या कोई क्रांति होगी और स्त्री की आत्मा प्रकट होगी?
स्त्री की आत्मा प्रकट होने के लिए दो बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं।
पहली बात: स्त्री को दासी नहीं रहना है।
और दूसरी बात: स्त्री को पुरुष का खिलवाड़ भी नहीं बनना है।
अगर इन दो बातों से बचा जा सके तो नारी का व्यक्तित्व पैदा हो सकता है। और इन दोनों बातों से बचा जा सकता है। आज मौका आ गया है बचने का, बचने की सुविधा भी है। स्त्री शिक्षित हो रही है। लेकिन शिक्षित होने के साथ स्त्री को सारी दुनिया में एक आंदोलन चलाना चाहिए कि हम पुरुष जैसी शिक्षा लेने को राजी नहीं हैं।
यह शायद आपको खयाल न हो कि हम जिस तरह की शिक्षा लेते हैं, हमारा व्यक्तित्व धीरे-धीरे उसी तरह का बन जाता है। शायद आपको यह भी खयाल न हो कि हम जिस तरह के आदमी बनते हैं उसमें नब्बे प्रतिशत शिक्षा के कारण बनते हैं।
कोई बीस साल पहले बंगाल के जंगल में दो बच्चे पकड़े गए थे, जो भेड़ियों ने पाल लिए थे। उन बच्चों की उम्र दस-बारह वर्ष थी। जब वे बच्चे लाए गए तो वे बारह वर्ष के बच्चे आदमी के बच्चे नहीं कहे जा सकते थे, क्योंकि न तो वे दो पैर से खड़े हो सकते थे, न बोल सकते थे। वे भेड़ियों जैसे चार हाथ-पैर से भागते थे और भेड़ियों जैसे हमला भी करते थे और कच्चा मांस खा जाते थे।
फिर अभी उत्तर प्रदेश में तीन वर्ष पहले एक लड़के को पकड़ा गया जिसकी चौदह वर्ष उम्र थी। वह भी भेड़ियों ने पाल लिया था। चौदह साल का लड़का भी दोनों पैरों से खड़ा नहीं हो सकता था। छह महीने मसाज कर-करके बामुश्किल उन सज्जन को दोनों पैरों पर खड़ा किया जा सका। और साल भर मेहनत करने पर एक शब्द बोलना सिखाया जा सका। उनका नाम रख लिया था राम, तो एक साल मेहनत करने पर वे ‘राम’ बोल देते थे, यह उनकी कुल भाषा थी।
चौदह साल भेड़ियों के पास रहने पर आदमी भेड़िया हो जाता है। तो हम जो आदमी हैं वह आदमी के पास रहने की वजह से हैं। हम जो सीखते हैं, हम जो जिंदगी से सीखते हैं, वही हमें बनाता है। अगर स्त्रियों को पुरुषों जैसी शिक्षा दी गई तो स्त्रियों में पुरुष जैसे भाव प्रकट होने बिलकुल स्वाभाविक हैं। पश्चिम में यह होना शुरू हुआ है। पश्चिम की स्त्री का जो लालित्य है, उसका जो सौंदर्य है, उसका जो अपना होना है, वह क्षीण होता चला जा रहा है। पश्चिम की स्त्री का जो व्यक्तित्व है वह धीरे-धीरे पुरुष के जैसा बनता चला जा रहा है। अगर स्त्रियों को कवायद करवाई जाए, घोड़ों पर बिठाया जाए, गणित सिखाया जाए, फिजिक्स सिखाई जाए, तो धीरे-धीरे उनके भीतर कुछ सुकुमार तत्व है, जो मर जाता है, जो मर ही जाएगा।
मैं एक आश्रम में गया था। उस आश्रम में वे लड़कियों को ठीक लड़कों जैसा ही रखते हैं। बड़ी मेहनत करते हैं, उनको वैसे ही कपड़े पहनाते हैं, कवायद करवाते हैं, पानी में तैराते हैं, घोड़ों पर बिठाते हैं। मैं एक बात देख कर दंग रह गया कि उन लड़कियों के व्यक्तित्व में ठीक लड़कों जैसी पेशियां, मांसपेशियां, ठीक लड़कों जैसी मसल्स और एक बड़ा आश्चर्य कि करीब-करीब तीस प्रतिशत लड़कियों के ओंठों पर बालों का आना, मूंछ का आना।
अगर ठीक लड़कों जैसी कवायद करवाई जाए तो ठीक लड़कों जैसी ग्रंथियां शरीर की काम करना शुरू कर देती हैं। और लड़कियों का जो व्यक्तित्व है वह विलीन हो जाता है, उसकी जगह लड़कों का व्यक्तित्व आ जाता है।
लेकिन पुरुष इससे भी बहुत खुश होता है। आपने सुना होगा न, हम गीत गाते हैं: खूब लड़ी मर्दानी, झांसी वाली रानी थी। अगर कोई स्त्री मर्दों जैसा व्यवहार करे तो हम कहते हैं कि बड़ी शान की बात है। और कोई पुरुष अगर स्त्रियों जैसा व्यवहार करे तो कोई नहीं कहता कि बड़ी शान की बात है। स्त्री को मर्द बनाने में बड़ी शान मालूम पड़ती है, लेकिन अगर कोई आदमी स्त्रियों जैसा व्यवहार करे तो लोग कहेंगे: छी! वह आदमी नामर्द है। उसको कोई नहीं कहेगा कि स्त्रियों जैसा शानदार आदमी! कोई नहीं कहेगा।
लेकिन यह बड़ी अजीब बात है। अगर एक स्त्री पुरुषों जैसी होकर शानदार हो जाती है, उसकी मूर्ति बनानी पड़ती है और कवियों को गीत लिखने पड़ते हैं, तो एक पुरुष अगर स्त्रियों जैसा हो जाए तो किसी कवि को गीत लिखने चाहिए, किसी को मूर्ति भी बनानी चाहिए। लेकिन इसमें मामला क्या है?
नहीं, इसमें मामला है: पुरुष मूल्य है, स्त्री मूल्य नहीं है। स्त्री अस्वीकार योग्य है, पुरुष स्वीकार योग्य है। पुरुष श्रेष्ठ है, स्त्री निकृष्ट है। और इसलिए पुरुष जैसा कोई स्त्री व्यवहार करे तो हम खुश होते हैं।
स्त्रियों को पुरुष अपनी शक्ल में ढालने की कोशिश में लगा है, क्योंकि स्त्रियां कहती हैं कि हमें तुम्हारे समकक्ष होना है। वह कहता है, हम तुम्हें समकक्ष बना देंगे। हम तुम्हें ठीक अपने जैसा बना देंगे। पश्चिम के कपड़े आप देखते हैं? स्त्री और पुरुष के कपड़ों में साम्यता आती जा रही है। धीरे-धीरे स्त्री के कपड़े विलीन हो रहे हैं, वे पुरुष के कपड़े ही होते जा रहे हैं।
मैंने एक घटना सुनी है कि एक जगह टिकट खरीदने के लिए किसी सर्कस का क्यू लगा हुआ था। एक आदमी ने सामने खड़े हुए एक सज्जन को पूछा कि आप देखते हैं, वह नंबर एक पर जो लड़का खड़ा हुआ है, वह कैसे अजीब से कपड़े पहने हुए है! उन सामने वाले सज्जन ने कहा, महाशय, वह लड़का नहीं है, वह मेरी लड़की है। उन्होंने कहा, माफ करिए, हमें पता नहीं था कि आपकी लड़की है। तो आप उसके बाप हैं? उन सज्जन ने कहा, माफ करिए, आप समझे नहीं; मैं उसकी मां हूं।
यह हम स्त्रियों को ठीक पुरुषों जैसे कपड़े, पुरुषों जैसा व्यक्तित्व, उनके पुरुषों जैसे बाल, हम स्त्रियों को पुरुषों की कार्बन कापी बना कर उनको आत्मा नहीं दे सकते हैं।
स्त्री का अपना साइक है, उसका अपना चित्त है, उसका अपना मानस है। वह मानस बहुत भिन्न है। वह पुरुष से बहुत भिन्न है। पुरुष के मानस के मूल-सूत्र, आर्च टाइप अलग हैं; स्त्री के मानस के मूल-सूत्र अलग हैं। स्त्री के सोचने का ढंग अलग है। स्त्री के जीने का ढंग भी अलग है। स्त्री के चित्त के काम करने की प्रक्रिया भी अलग है। स्त्री का सारा व्यक्तित्व अलग है। और उस अलग व्यक्तित्व के लिए अलग तरह की शिक्षा, अलग तरह का प्रशिक्षण...उस स्त्री की आत्मा प्रकट हो सके, उसके लिए सब कुछ अलग तरह का चाहिए। हमें पता नहीं होता कि छोटी-छोटी चीजें कितना प्रभावित करती हैं।
आपको शायद खयाल नहीं होगा। अगर आप चुस्त कपड़े पहने हुए हैं और अगर आप सीढ़ियां चढ़ रहे हैं तो आप दो-दो सीढ़ियां एक साथ चढ़ जाएंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा कि दो-दो सीढ़ियां सिर्फ चुस्त कपड़े पहनने की वजह से चढ़ रहे हैं आप। अगर ढीले कपड़े पहने हुए हैं तो आप दो-दो सीढ़ियां कभी एक साथ नहीं चढ़ेंगे। आप आहिस्ता से चढ़ेंगे। वे कपड़े आपको चुस्ती भी ला सकते हैं, शिथिलता भी ला सकते हैं। कैसे कपड़े आप पहनते हैं, पीछे पूरा व्यक्तित्व उससे निर्मित होता है। आप कैसे चलते हैं, कैसे उठते हैं, क्या पढ़ते हैं, क्या सोचते हैं, सब कुछ निर्मित होता है।
एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था, हेरोडोटस। वह एक बार...उसने सबसे पहले एवरेज का सिद्धांत खोज लिया था। उसी ने सबसे पहले पता लगाया था औसत के सिद्धांत का। वह अपनी पत्नी को लेकर पिकनिक पर गया हुआ था। बीच में एक छोटा नाला पड़ता था। हेरोडोटस के पांच-छह बच्चे थे, पत्नी थी। वे नाले पर से गुजरने लगे तो पत्नी ने कहा कि जरा देख लो, एक-एक बच्चे को सम्हाल कर निकाल दो। हेरोडोटस ने कहा, रुक जा, बच्चों को सम्हालने की जरूरत नहीं। मैं बच्चों की औसत ऊंचाई और नाले की औसत गहराई नापे लेता हूं।
हेरोडोटस ने बच्चों को नाप लिया। गहराई नाप ली। कोई बच्चा बड़ा था, कोई छोटा था। कहीं नाला गहरा था, कहीं उथला था। औसत बच्चों की ऊंचाई औसत गहराई से ज्यादा थी। गणित में मामला हल हो गया। हेरोडोटस ने कहा, बिलकुल बेफिक्र रहो, कोई बच्चा कभी नहीं डूब सकता, औसत बच्चे औसत गहराई से ऊंचे हैं।
गणितज्ञ और अर्थशास्त्री इसी तरह सोचते हैं। सारा मुल्क डूब जाए, वे अपना औसत लगाते रहते हैं। औसत सब ठीक है।
हेरोडोटस आगे चल पड़ा, बच्चे बीच में चले, पत्नी पीछे चली। पत्नी को गणित पर भरोसा नहीं हो रहा था। स्त्रियों को गणित पर कभी भी भरोसा नहीं होता। हो भी नहीं सकता। उनका चित्त गणित की तरह काम नहीं करता है। वह डरी हुई थी, अपने बच्चों को सम्हाले थी। आखिर एक बच्चा डुबकियां खाने लगा। वह चिल्लाई हेरोडोटस को--कि यह बच्चा डूब रहा है! लेकिन हेरोडोटस को बच्चा डूबता नहीं दिखाई पड़ा। हेरोडोटस भागा नदी के किनारे जहां रेत पर उसने हिसाब किया था। उसने कहा, यह कैसे हो सकता है! हिसाब में क्या कोई गलती रह गई? हेरोडोटस भागा उस किनारे पर। पत्नी ने किसी तरह बच्चे को बचाया और कहा कि तुम पागल हो? हिसाब पीछे देख लेते, बच्चे को पहले बचाना जरूरी था।
लेकिन पुरुष को गणित ज्यादा अर्थपूर्ण है, हृदय उतना अर्थपूर्ण नहीं। यह जो दुनिया बनाई है, पुरुष ने बनाई है, इसलिए दुनिया में हृदय बहुत कम है, गणित बहुत ज्यादा है। इसमें गणित ही गणित है। इसलिए पुरुष ने जो दुनिया बनाई है, उसमें मिलिटरी में आदमियों के नाम नहीं होते, उसमें अंक होते हैं, नंबर्स होते हैं। ग्यारह नंबर! अब कोई आदमी ग्यारह नंबर होता है? आदमी मर गया। वह आदमी किसी का बाप था, वह आदमी किसी का पति था, वह आदमी किसी का बेटा था, वह आदमी किसी का भाई था, वह आदमी किसी का दोस्त था। मिलिटरी में खबर देते हैं वे: ग्यारह नंबर गिर गया। ग्यारह नंबर न किसी का बाप होता है, ग्यारह नंबर न किसी का बेटा होता है, ग्यारह नंबर न किसी का पति होता है, ग्यारह नंबर सिर्फ नंबर है। नंबरों के कहीं पति और पत्नियां हुए हैं! वह ग्यारह नंबर गिर गया। अखबार में खबर आती है: ग्यारह नंबर गिर गया मिलिटरी का। कुछ भी नहीं छूता कहीं। नंबर के गिरने से कहीं कुछ बनता-बिगड़ता है।
यह पुरुष की दुनिया है, जिसमें गणित से सारा हिसाब लगा रखा है। इस दुनिया में स्त्री का कोई हाथ नहीं है, अन्यथा यह दुनिया बहुत दूसरी तरह की होती। यहां गणित कम महत्वपूर्ण होता, हृदय ज्यादा महत्वपूर्ण होता। यहां गणित का हिसाब कम होता, प्रेम का हिसाब ज्यादा होता। लेकिन वह नहीं हो सका है, क्योंकि स्त्री के पास कोई आत्मा नहीं है। इसलिए स्त्री का कोई कंट्रिब्यूशन भी नहीं है इस संस्कृति के लिए, सभ्यता के लिए।
और यह आदमी की बनाई हुई गणित की संस्कृति मरने के करीब पहुंच गई है। अगर इस संस्कृति को बचाना है तो स्त्री को व्यक्तित्व देना जरूरी है। और स्त्री को व्यक्तित्व देने का अर्थ है: उसे पुरुष जैसा नहीं, स्त्री के ही अनुकूल क्या उचित हो सकता है, उसकी शिक्षा, उसका प्रशिक्षण; उसके व्यक्तित्व का सारा का सारा उसका ही ढंग, ताकि एक नारी उपलब्ध हो सके। और वह नारी अगर उपलब्ध हो सकती है तो हम मनुष्य-जाति के जीवन में बहुत आनंद जोड़ सकते हैं। क्योंकि वह नारी न मालूम कितने अर्थों में जीवन का केंद्र है।
जोड ने लिखी है एक किताब और उस किताब में उसने लिखा है कि जब मैं पैदा हुआ, तो पश्चिम में होम्स थे, घर थे। और अब जब मैं मरने के करीब हूं, तो पश्चिम में सिर्फ हाउसेज रह गए हैं, होम बिलकुल नहीं। सिर्फ मकान रह गए हैं, घर कोई भी नहीं।
किसी ने जोड को पूछा कि तुम्हारा मतलब क्या है? होम और हाउस में फर्क क्या करते हो?
जोड ने कहा कि जिस हाउस में एक नारी होती है उसको मैं होम कहता हूं और जिस हाउस में नारी नहीं होती वह होटल हो जाता है, मकान हो जाता है।
और पश्चिम में नारी खो गई है। पूरब में है ही नहीं। यह मत सोच लेना कि यहां है। यहां है ही नहीं। दासियों से घर नहीं बनते। लेकिन क्या किया जा सकता है?
दो-तीन संक्षिप्त बातें और मैं अपनी बात पूरी करूंगा।
पहली बात, नारी को पुरुष से पृथक व्यक्तित्व उपलब्ध करना है। न उसे पुरुष का गुलाम रहना है और न पुरुष का अनुकरण करना है। नारी को अपने व्यक्तित्व की खोज करनी है। और उसे स्पष्ट यह घोषणा कर देनी है कि हम स्त्री हैं और स्त्री ही रहेंगे और स्त्री ही होना चाहते हैं। क्योंकि ध्यान रहे, हम जो होने को पैदा हुए हैं, जब वही हो जाते हैं, तभी हम आनंदित होते हैं। हम अन्यथा कुछ भी हो जाएं, हम कभी आनंदित नहीं होते हैं। गुलाब का फूल खिल जाए और गुलाब बन जाए तो आनंदित होता है। घास का फूल खिल जाए और फूल बन जाए तो आनंदित होता है। घास का फूल गुलाब बनने की कोशिश करने लगे कि फिर मुश्किल शुरू हो गई, फिर कभी आनंद नहीं होगा।
नारी को नारी ही होना है। और नारी को अपने व्यक्तित्व का सम्मान सीखना चाहिए। उसे अपने व्यक्तित्व का सत्कार सीखना चाहिए। और उसके व्यक्तित्व को चोट करने वाले जितने गिरोह हैं, चाहे वे साधुओं के हों, चाहे संतों के, उन सारे गिरोहों के खिलाफ नारी को बुनियादी रूप से खड़ा हो जाना चाहिए। नारी जब तक खड़ी नहीं हो जाती, तब तक उन गिरोहों की साजिश जारी रहेगी।
और दूसरी बात, अब नारी शिक्षित हो रही है, उसे अपनी पृथक, अपने योग्य शिक्षा की मांग करनी चाहिए। ठीक पुरुषों जैसी शिक्षा की नहीं।
इसका यह मतलब नहीं है कि पुरुष और स्त्रियां अलग-अलग पढ़ें। पढ़ें एक ही जगह, रहें एक ही साथ। एक ही हॉस्टल में लड़के और लड़कियां रहने चाहिए, क्योंकि लड़कियों और लड़कों के बीच कोई दुश्मनी और दीवाल खड़ी करने की जरूरत नहीं है, वे साथ रहें। लेकिन पुरुष पुरुष बने, स्त्री स्त्री बने। और एक ही संस्था में, एक ही जगह उनके अपने व्यक्तित्व को पाने की व्यवस्था का आयोजन होना चाहिए।
और ध्यान रखना जरूरी है कि पुरुष ने जो सभ्यता विकसित की है वह एकदम तर्क की, गणित की, यंत्र की व्यवस्था है। उसमें हार्दिक कुछ भी नहीं है, उसमें हार्दिक है ही नहीं। उस हार्दिक दान को लाने के लिए स्त्री को बहुत मेहनत करनी है कि वह हृदय भी दे सके इस संस्कृति को। नहीं तो पुरुष एटम बम बनाएगा, हाइड्रोजन बम बनाएगा और सुपर बम बनाएगा। और पुरुष बनाता चला जा रहा है। और उसकी समझ के बाहर हो गया है कि अब क्या करें। और वह इनको बनाता चला जाएगा और यह भी हो सकता है कि वह सारी मनुष्य-जाति को खत्म कर ले। अगर स्त्री ने हृदय नहीं दिया संस्कृति को तो यह संस्कृति बहुत दिन चलने वाली नहीं है। पुरुष उसे आखिरी चरम सीमा पर ले आया है, जहां वह खत्म होने के करीब है।
आइंस्टीन को किसी ने पूछा था मरने के कोई आठ दिन पहले कि आप बता सकते हैं कि तीसरे महायुद्ध में क्या होगा?
आइंस्टीन ने कहा, तीसरे की बात ही मत करो, बताना बहुत मुश्किल है, आदमी का कोई भरोसा नहीं। लेकिन चौथे के बाबत मैं कुछ बता सकता हूं।
वे लोग बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, जब तीसरे के बाबत नहीं बता सकते, चौथे के बाबत क्या बता सकते हैं?
आइंस्टीन ने कहा, एक बात पक्की है, चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा। क्योंकि तीसरे के बाद आदमी के बचने की कोई उम्मीद नहीं।
आदमी अंतिम जगह आ गया है। पुरुष की सभ्यता कगार पर आ गई है। स्त्री का मुक्त होना जरूरी है। स्त्री के जीवन में क्रांति होनी जरूरी है ताकि स्त्री स्वयं को भी बचा सके और मनुष्य की पूरी सभ्यता को भी बचा सके। यह स्त्री के ऊपर इतना बड़ा दायित्व है जो स्त्री के ऊपर कभी भी नहीं था। अगर स्त्री अपनी पूरी हार्दिकता, अपने पूरे प्रेम, अपने पूरे संगीत, अपने पूरे काव्य, अपने व्यक्तित्व के पूरे फूलों को लेकर जगत पर छा जाए, तो युद्ध आज बंद हो सकते हैं। लेकिन पुरुष जब तक हावी है दुनिया पर, तब तक युद्ध बंद नहीं हो सकते। वह पुरुष के भीतर युद्ध छिपा हुआ है।
लेकिन स्त्रियां भी अजीब हैं! पुरुष युद्ध करते हैं, वे टीके लगा कर उनको युद्धों में भेजती हैं! शायद स्त्रियों को पता ही नहीं कि वे क्या कर रही हैं। वे पुरुष के हाथ में सब तरह से खिलौना हैं। पाकिस्तान की मां अपने बेटे के तिलक करती है कि जाओ और हिंदुस्तान के बेटे की हत्या करो। और हिंदुस्तान की मां अपने बेटे के तिलक करती है और कहती है कि जाओ पाकिस्तान के बेटे की हत्या करो। और दोनों को खयाल नहीं आता कि दोनों बेटे किसी मां के बेटे होंगे।
अगर दुनिया की स्त्रियां यह तय कर लें कि कल से युद्ध नहीं होने देना है, तो कैसे युद्ध हो सकता है? युद्ध असंभव है। लेकिन स्त्रियों को पता ही नहीं। और स्त्रियों को यह भी पता नहीं कि पुरुष के दिमाग से युद्ध का मिटना बहुत मुश्किल है। पुरुष के दिमाग में एक तनाव है और उस तनाव के बहुत गहरे कारण हैं। उसके कारण बायोलाजिकल हैं, उसके कारण जैविक हैं, उसके कारण बहुत गहरे हैं, उनका पता लगना मुश्किल है। थोड़ा सा एक कारण आपको जरूर कहना चाहूंगा, ताकि बुनियादी बात खयाल में आ जाए।
मां के पेट में जैसे ही बच्चा निर्मित होता है, तो चौबीस सेल मां से मिलते हैं और चौबीस सेल पिता से मिलते हैं। पिता के सेल्स में दो तरह के सेल होते हैं, एक में चौबीस सेल होते हैं और एक में तेईस सेल होते हैं। अगर तेईस सेल वाला अणु मां के चौबीस सेल वाले अणु से मिलता है तो पुरुष का जन्म होता है। पुरुष के हिस्से में सैंतालीस सेल होते हैं और स्त्री के हिस्से में अड़तालीस सेल होते हैं। स्त्री का जो व्यक्तित्व है वह सिमिट्रीकल है, पहली ही बुनियाद से। उसके दोनों तत्व बराबर हैं चौबीस-चौबीस।
बायोलाजी कहती है कि स्त्री में जो सुघड़ता, जो सौंदर्य, जो अनुपात, जो प्रपोर्शन है वह उन चौबीस-चौबीस के समान अनुपात होने के कारण है। और पुरुष में एक इनर टेंशन है, उसमें एक तरफ चौबीस अणु हैं, दूसरी तरफ तेईस अणु हैं। उसका तराजू थोड़ा नीचा-ऊपर है। उसके भीतर एक बेचैनी है, वह बेचैनी जिंदगी भर उसको बेचैन रखती है और तनाव से भरा रखती है। वह कुछ न कुछ उपद्रव करने में लगा रहता है; वह कुछ न कुछ करता ही रहेगा। पुरुष के भीतर बायोलाजिकल टेंशन है। और उस टेंशन की वजह से पुरुष युद्ध से कभी मुक्त नहीं हो सकता। वह किसी न किसी तरह के युद्ध जारी रखेगा। अगर हाथ-पैर से लड़ने का मौका नहीं मिलेगा तो वह विवाद से लड़ेगा, लेकिन कुछ जारी रहेगा। अगर पुरुष के हाथ में ही सभ्यता है पूरी की पूरी, तो दुनिया से युद्ध बंद नहीं हो सकते, हिंसा बंद नहीं हो सकती।
पुरुषों में भी कुछ लोगों ने हिंसा के बंद करने की बात की है। जैसे बुद्ध ने, जैसे महावीर ने, जैसे गांधी ने। तो शायद आपको पता नहीं होगा कि जर्मनी के एक विचारक फ्रेड्रिक नीत्शे ने क्या कहा है। नीत्शे ने कहा है कि बुद्ध और जीसस स्त्रैण मालूम होते हैं। ये पुरुष नहीं मालूम होते। और वह बात ठीक कह रहा है, क्योंकि वह यह कह रहा है कि पुरुष में तो लड़ना बुनियादी है। उसकी बात थोड़ी दूर तक ठीक है। वह ठीक कह रहा है। और हो सकता है कि बुद्ध और जीसस में, व्यक्तित्व में इतना समानुपात है कि उनका व्यक्तित्व करीब-करीब स्त्रियों के व्यक्तित्व के करीब आ गया हो। गांधी को तो किसी ने लिखा है कि वे मेरी मां हैं। बराबर लिख सकते हैं। ‘गांधी: माई मदर’ किसी ने किताब लिखी है। लिख सकते हैं, गांधी में भी वह व्यक्तित्व स्त्री के करीब आ गया है।
यह बड़ी अदभुत बात है कि आज तक दुनिया में जितने महापुरुष पैदा हुए हैं, उन महापुरुषों का व्यक्तित्व धीरे-धीरे स्त्री के करीब आ जाता है। क्योंकि जैसे ही वे हार्दिक होते हैं, वे स्त्री के करीब आने लगते हैं।
यह भी जान कर आपको हैरानी होगी कि महावीर या बुद्ध या राम और कृष्ण को आपने दाढ़ी-मूंछ नहीं देखी होगी। आपने कभी खयाल किया कि यह मामला क्या है? कभी आपने सोची यह बात? उसके पीछे कारण है। मूर्तिकार ने बहुत सोच कर यह बात निर्मित की है। उनका सारा व्यक्तित्व स्त्री के इतने करीब आ गया होगा कि दाढ़ी-मूंछ बनानी उचित नहीं मालूम पड़ी होगी। उसे अलग कर देना उचित मालूम पड़ा होगा। व्यक्तित्व इतना समानुपात हो गया होगा।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं।
एक क्रांति की जरूरत है सारे जगत में। और सबसे बड़ी क्रांति की। वह क्रांति न आर्थिक है, वह क्रांति न राजनैतिक है। वह क्रांति है: सेक्सुअल रेवोल्यूशन, वह है ये जो मनुष्य के काम-संबंध हैं और ये जो मनुष्य के काम-केंद्र हैं: स्त्री और पुरुष, इ
नके बीच इनके संबंधों, अंतर्संबंधों में एक क्रांति। स्त्री को पुरुष के बराबर, लेकिन पुरुष जैसा नहीं, पुरुष के समान, लेकिन पुरुष के जैसा नहीं, पुरुष के बराबर, लेकिन पुरुष होने जैसा नहीं, ऐसा व्यक्तित्व उपलब्ध होना चाहिए। ऐसी शिक्षा जो उसके स्त्रैण को, उसके स्त्रीत्व को विकसित करे, उसे नारी बनाए। और नारी की अपनी एक आत्मा--संबंधों से अलग, उसकी अपनी एक हैसियत। और यह हैसियत उसे तभी मिलेगी जब वह धर्मों के पुराने जाल को तोड़े और पश्चिम के भोग के नये जाल को तोड़े और एक नई दिशा में श्रम करे। और उस दिशा में वह न दासी बनने को तैयार हो, न पुरुष की अनुचर बनने को तैयार हो। अगर इन दो कुएं और खाई से स्त्री बच सकती है तो नारी के जगत में एक क्रांति सुनिश्चित हो सकती है। और यह क्रांति हो तो मनुष्य का बड़ा सौभाग्य होगा। इसके द्वारा पूरी सभ्यता भी बच सकती है। पूरी सभ्यता हार्दिक हो सकती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। जरूरी नहीं कि मेरी बातें सब ठीक हों। गलत हो सकती हैं। इसलिए सोचना मेरी बातों पर। हो सकता है कोई बात सोचने से ठीक मालूम पड़े। और अगर ठीक मालूम पड़े, तो यह दायित्व हो जाएगा, उस सीख के अनुसार थोड़े प्रयोग करना। नारी को अपने जीवन में न तो भोग बनाना, न नारी को अपने जीवन में दासी बनाना--अगर पुरुष हैं आप। और अगर आप नारी हैं तो दासी बनने को राजी मत होना और पुरुष का अनुकरण मत करना। एक आग चाहिए जो बदल दे इस जिंदगी के पुराने सारे ढांचे को, तो हम एक नये मनुष्य को पैदा कर सकते हैं।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

Spread the love