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Nari Aur Kranti 05

Fifth Discourse from the series of 6 discourses - Nari Aur Kranti by Osho.
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मे रे प्रिय आत्मन्‌!
‘नारी और क्रांति’, इस संबंध में बोलने का सोचता हूं, तो पहले यही खयाल आता है कि नारी कहां है? नारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। मां का अस्तित्व है, बहन का अस्तित्व है, बेटी का अस्तित्व है, पत्नी का अस्तित्व है, नारी का कोई भी अस्तित्व नहीं है। नारी जैसा कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। नारी की अपनी कोई अलग पहचान नहीं है। नारी का अस्तित्व उतना ही है जिस मात्रा में वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष का संबंध ही उसका अस्तित्व है। उसकी अपनी कोई आत्मा नहीं है।
यह बहुत आश्चर्यजनक है! लेकिन यह कड़वा सत्य है कि नारी का अस्तित्व उसी मात्रा और उसी अनुपात में होता है, जिस अनुपात में वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष से संबंधित नहीं हो तो ऐसी नारी का कोई अस्तित्व नहीं है। और नारी का अस्तित्व ही न हो तो क्रांति की क्या बात करनी है?
इसलिए पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि नारी अब तक अपने अस्तित्व को भी--अपने अस्तित्व को--स्थापित नहीं कर पाई है। उसका अस्तित्व पुरुष के अस्तित्व में लीन है। पुरुष का एक हिस्सा है उसका अस्तित्व।
बर्नार्ड शा ने एक छोटी सी किताब लिखी। उस किताब का नाम बहुत अजीब है और जब पहली दफे वह किताब प्रकाशित हुई तो सारे लोग हैरान हुए। उस किताब का नाम है: इंटेलिजेंट वीमेन्स गाइड टु सोशलिज्म। बुद्धिमान स्त्री के लिए समाजवाद की पथ-प्रदर्शिका।
लोग बड़े हैरान हुए। लोगों ने पूछा कि स्त्री के लिए? क्या समाजवाद का पथ-प्रदर्शन स्त्री के लिए ही जरूरी है, पुरुष के लिए नहीं? आपको नाम रखना चाहिए था: इंटेलिजेंट मेन्स गाइड टु सोशलिज्म।
बर्नार्ड शा ने कहा कि मेन्स लिखने से स्त्रियां उसमें सम्मिलित हो जाती हैं, लेकिन वीमेन्स लिखने से पुरुष उसमें सम्मिलित नहीं होते? यह बड़ी हैरानी की बात है। बर्नार्ड शा ने कहा, अगर हम कहें मनुष्य, तो स्त्रियां सम्मिलित हैं। और अगर हम कहें नारी, तो फिर मनुष्य सम्मिलित नहीं है, पुरुष सम्मिलित नहीं है?
स्त्री पुरुष की छाया से ज्यादा अस्तित्व नहीं जुटा पाई है। इसलिए जहां पुरुष होता है, स्त्री वहां है। लेकिन जहां छाया होती है वहां थोड़े ही पुरुष को होने की जरूरत है!
स्त्री का विवाह हो, तो वह श्रीमती हो जाती है, मिसेज हो जाती है, पुरुष के नाम की छाया रह जाती है, मिसेज फलानी हो जाती है। लेकिन इससे उलटा नहीं होता कि स्त्री के नाम पर पुरुष बदल जाता हो। अगर चंद्रकांत मेहता नाम है पुरुष का, तो स्त्री का कुछ भी नाम हो, वह श्रीमती चंद्रकांत मेहता हो जाती है। लेकिन अगर स्त्री का नाम चंद्रकला मेहता है तो ऐसा नहीं होता कि पति श्रीमान चंद्रकला मेहता हो जाते हों। ऐसा नहीं होता। ऐसे होने की जरूरत नहीं पड़ती है, क्योंकि स्त्री छाया है, उसका कोई अपना अस्तित्व थोड़े ही है।
शास्त्र कहते हैं, जब स्त्री बालपन में हो तो पिता उसकी रक्षा करे; जवान हो, पति रक्षा करे; बूढ़ी हो जाए, बेटा रक्षा करे। सब पुरुष उसकी रक्षा करे, क्योंकि उसका कोई अपना अस्तित्व नहीं है। रक्षितत्व तो ही वह है, अन्यथा नहीं है।
यह क्या मूढ़ता है? स्त्री अब तक अपने अस्तित्व की घोषणा ही नहीं कर पाई है। इसलिए पहला क्रांति का सूत्र तो यह है कि स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा करे। वह है। उसका अपना होना है--पुरुष से बहुत पृथक, बहुत भिन्न। उसके होने का आयाम, उसके होने की दिशा और डायमेंशन बहुत अलग है। वह पुरुष की छाया नहीं है, उसका अपनी हैसियत से भी होना है।
और यह भी ध्यान रहे, जब तक स्त्री अपने अस्तित्व की स्पष्ट घोषणा नहीं करती है, तब तक उसे आत्मा उपलब्ध नहीं हो सकती है, तब तक वह छाया ही रहेगी।
मैंने सुना है कि जर्मनी में ऐसी एक कथा है, कि एक आदमी पर देवता नाराज हो गए और उन्होंने उसे अभिशाप दे दिया कि आज से तेरी छाया खो जाएगी, आज से तेरी छाया नहीं बनेगी। तू धूप में चलेगा तो तेरी कोई छाया नहीं बनेगी, कोई शैडो नहीं बनेगी।
उस आदमी ने कहा, इससे मेरा क्या बिगड़ जाएगा? यह तुम अभिशाप देते हो, ठीक है, लेकिन मेरा हर्ज क्या हो जाएगा इससे?
देवताओं ने कहा, वह तुझे पीछे पता चलेगा।
और घर आते ही उस आदमी को पता चला कि बहुत मुश्किल हो गई। जैसे ही लोगों को पता चला कि उसकी छाया नहीं बनती है, लोगों ने उसका साथ छोड़ दिया। पत्नी ने उससे हाथ जोड़ लिए कि क्षमा करो! बेटों ने कहा, माफ करो! गांव के लोगों ने कहा, दूर रहो! यह आदमी खतरनाक है, इसकी छाया नहीं बनती।
धीरे-धीरे गांव में वह एक अछूत हो गया, घर के लोग भी दरवाजा बंद करने लगे, मित्र रास्ता छोड़ कर जाने लगे, लोगों ने पहचानना बंद कर दिया। आखिर सारे गांव की पंचायत ने कहा, इस आदमी को निकाल बाहर करो। इस आदमी को कोई महारोग लग गया है, इसकी छाया नहीं बनती, ऐसा कभी सुना है? आखिर गांव के लोगों ने उसे कोढ़ी की तरह गांव के बाहर निकाल दिया। वह आदमी बहुत चिल्लाया कि मेरी छाया मिट गई है तो हर्ज क्या है? लेकिन लोगों ने कहा कि छाया मिट गई, इसका मतलब है कि कोई न कोई महारोग तेरे पीछे लग गया। वह बहुत चिल्लाने लगा कि मैं तो पूरा का पूरा हूं, मेरी छाया भर मिट गई है। लेकिन किसी ने उसकी सुनी नहीं।
पता नहीं ऐसा कभी हुआ या नहीं, लेकिन स्त्री के मामले में बिलकुल उलटी बात हो गई। उसकी आत्मा तो मिट गई है, वह सिर्फ छाया रह गई है। और छाया मिटने से एक आदमी इतनी मुसीबत में पड़ गया हो तो अगर नारियों की पूरी जाति की जाति की आत्मा मिट गई हो और वे सिर्फ छाया रह गई हों, तो उनकी कठिनाई का अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है।
लेकिन पुरुषों को कोई चिंता क्या हो सकती है कि वे अंदाज लगाएं उस कठिनाई का? उन्हें जरूरत भी क्या हो सकती है? पुरुषों के यह हित में है कि स्त्री की कोई आत्मा न हो। क्योंकि जिनका भी हमें शोषण करना होता है, अगर उनके पास आत्मा हो तो विद्रोह का डर होता है। पुरुष की जाति हजारों वर्षों से नारी का वर्गीय शोषण कर रही है। उसके यह हित में है कि नारी के पास कोई व्यक्तित्व, कोई आत्मा न हो। क्योंकि जिस दिन नारी के पास अपनी आत्मा होगी, उसी दिन बगावत की यात्रा शुरू हो जाएगी, विद्रोह शुरू हो जाएगा।
गरीब और अमीर के बीच जो शोषण है, उससे भी ज्यादा खतरनाक, उससे भी ज्यादा लंबा शोषण पुरुष और नारी के बीच है। पुरुष नहीं चाहेगा। और नारियों के पास कोई आत्मा नहीं है कि वे सोचें भी, विचारें भी, बगावत का कोई स्वर वहां से पैदा हो। आत्मा ही खो गई है। लेकिन यह घटना घटे इतना लंबा समय हो गया है कि अब किसी को पता भी नहीं चलता कि यह घटना घट चुकी है। यह याद में भी नहीं आता। हम जीए चले जाते हैं।
जैसे हजारों वर्षों तक शूद्रों को समझा दिया था कि तुम शूद्र हो, तो हजारों वर्षों तक धीरे-धीरे वे भूल ही गए कि वे आदमी हैं। वैसी ही स्थिति स्त्री के साथ हो गई है। वह सिर्फ छाया है पुरुष की, पुरुष के पीछे होने में उसका हित है, पुरुष से भिन्न और पृथक खड़े होने में उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि क्या बिना आत्मा के भी नारी के जीवन में कोई आनंद, कोई मुक्ति, कोई सृजनात्मकता, कोई अभिव्यक्ति, उसके जीवन में कोई सुगंध हो सकती है?
ऐसे धर्म हैं जो कहते हैं कि नारी के लिए मोक्ष नहीं है। यह तो आपको पता ही होगा कि मस्जिद में नारी के लिए प्रवेश नहीं है। मस्जिद में नारी के लिए प्रवेश नहीं है। आश्चर्यजनक है! मस्जिद सिर्फ पुरुषों के लिए है? नारी की छाया भी मस्जिद के भीतर नहीं पड़ी है। मोक्ष में नारी के लिए प्रवेश नहीं है; ऐसे धर्म हैं। ऐसे धर्म हैं जो घोषणा करते हैं: नारी नरक का द्वार है। ऐसे धर्म हैं जिनके श्रेष्ठतम शास्त्र भी नारी के लिए अभद्रतम शब्दों का उपयोग करते हैं। और भी आश्चर्य की बात है कि जिन धर्मों ने, जिन धर्मगुरुओं ने, जिन साधु-संन्यासियों और महात्माओं ने नारी को आत्मा मिलने में सबसे ज्यादा बाधा दी है, नारी अजीब पागल है, उन साधु-संन्यासियों और महात्माओं को पालने का सारा ठेका नारियों ने ले रखा है।
ये मंदिर और मस्जिद नारी के ऊपर चलते हैं। साधु और संन्यासी नारी के शोषण पर जीते हैं और उनकी ही सारी की सारी करतूत और लंबा षड्‌यंत्र है कि नारी को अस्तित्व नहीं मिल पाता। जो रोज-रोज घोषणा करते हैं कि नारी नरक का द्वार है, नारी उन्हीं के चरणों में--दूर से, पास से छू तो नहीं सकती, क्योंकि छूने की मनाही है--दूर से नमस्कार करती रहती है, भीड़ लगाए रहती है।
अभी मैं बंबई था। एक महिला ने मुझे आकर कहा कि एक संन्यासी का, एक महात्मा का प्रवचन चलता है। हजारों लोग सुनने इकट्ठे होते हैं, लेकिन कोई नारी उनका पैर नहीं छू सकती। लेकिन एक दिन एक नारी ने भूल से उनका पैर छू दिया। महात्मा ने सात दिन का उपवास किया प्रायश्चित्त में। और इस प्रायश्चित्त का परिणाम यह हुआ कि नारियों की, लाखों नारियों की संख्या उनके दर्शन करने के लिए इकट्ठी हो गई कि बहुत बड़े महात्मा हैं।
बेवकूफी की भी कोई सीमाएं होती हैं! एक नारी को नहीं जाना चाहिए था फिर वहां। और नारी को विरोध करना चाहिए था कि वहां कोई भी नहीं जाएगा। लेकिन नारी बड़ी प्रसन्न हुई होगी कि बड़ा पवित्र आदमी है यह। नारी को छूने से सात दिन का उपवास करके प्रायश्चित्त करता है, महान आत्मा है यह।
नारियों के मन में भी यह खयाल पैदा कर दिया है पुरुषों ने कि वे अपवित्र हैं, और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया है, उसे वे मान कर बैठ गई हैं।
कितने आश्चर्य की बात है, ये जो महात्मा जिनके पैर छूने से सात दिन का इन्होंने उपवास किया, ये एक नारी के पेट में नौ महीने रहे होंगे, और अगर अपवित्र होना है तो हो चुके होंगे। अब बचना बहुत मुश्किल है अपवित्रता से। और एक नारी की गोद में बरसों बैठे रहे होंगे--खून उसका है, मांस उसका है, हड्डी उसकी है, मज्जा उसकी है, सारा व्यक्तित्व उसका है--और उसी के छूने से ये सात दिन का इन्हें उपवास करना पड़ता है, क्योंकि वह नरक का द्वार है।
साधु-संन्यासियों से मुक्त होने की जरूरत है नारी को। और जब तक वह साधु-संन्यासियों के खिलाफ उसकी सीधी बगावत नहीं होती और वह यह घोषणा नहीं करती कि नारी को नरक कहने वाले लोगों को कोई सम्मान नहीं मिल सकता है, नारी को अपवित्र कहने वाले लोगों के लिए कोई आदर नहीं मिल सकता है--सीधा विद्रोह और बगावत चाहिए--तो नारी की आत्मा की यात्रा की पहली सीढ़ी पूरी होगी।
जिन-जिन देशों में धर्मों का जितना ज्यादा प्रभाव है, उन-उन देशों में नारी उतनी ही ज्यादा अपमानित और अनादृत है। यह बड़ी हैरानी की बात है! धर्म का प्रभाव जितना कम हो रहा है, नारी का सम्मान उतना बढ़ रहा है। धर्म का जितना ज्यादा प्रभाव, नारी का उतना अपमान। यह कैसा धर्म है? होना तो उलटा चाहिए कि धर्म का प्रभाव बढ़े तो सबका सम्मान बढ़े, सबकी गरिमा बढ़े।
लेकिन अब तक धर्म ने जो रुख अख्तियार किया था वह नारी विरोधी रुख था। क्यों था यह नारी विरोधी रुख? ये नारी के खिलाफ पांच हजार वर्षों की आवाजें क्यों हैं?
कुछ कारण हैं। ये आवाजें नारी के खिलाफ नहीं हैं, ये पुरुषों की आवाजें अपने ही भीतर छिपे हुए नारी के आकर्षण के विरोध में हैं। वह जो भीतर कामवासना है, वह जो नारी की पुकार करती है और नारी के प्रति आकर्षित होती है। जो लोग भी घर-द्वार छोड़ कर भाग जाते हैं, उनके चित्त में वह पुकार और जोर से गुहार मचाने लगती है। उनको नारी और खींचने लगती है, और आकर्षित करने लगती है। वह उनके भीतर जो नारी का आकर्षण है, वे उसको गाली देते हैं कि नरक का द्वार है यह। बचें हम, यह नरक हमारे पीछे पड़ा हुआ है।
कोई नारी उनके पीछे नहीं पड़ी हुई है। उनकी अपनी ही दमित वासना, उनका अपना ही सप्रेस्ड सेक्स, जिसको उन्होंने जबरदस्ती दबा लिया है, उन्हें परेशान कर रहा है। और उस परेशानी का बदला वे नारी को गालियां देकर ले रहे हैं।
यह गालियों का इतना लंबा इतिहास हो गया, इतनी लंबी शोभा-यात्रा हो गई है गालियों की कि धीरे-धीरे नारियों ने भी स्वीकार कर लिया है कि ऐसा ही होगा। ये जो कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे।
महात्माओं ने, संतों ने, तथाकथित अच्छे कहे जाने वाले लोगों ने नारी की आत्मा को प्रकट नहीं होने दिया है। और नारी इन सारे अच्छे लोगों के पालन-पोषण का आधार रही है। साधु-संन्यासियों के पास जाइए, एक आदमी दिखाई पड़ेगा तो चार नारियां दिखाई पड़ेंगी। और वह एक आदमी भी अपनी पत्नी के पीछे चला आया होगा, असली कारण यह होगा, और कोई कारण नहीं होगा। वह भी अपने आप नहीं चला आया होगा।
धर्म के सारे अड्डे नारियां चला रही हैं और धर्म के अड्डे नारियों के खिलाफ जहर उगलने के माध्यम बने हुए हैं। कौन इसके खिलाफ विद्रोह करेगा? अगर नारियों को इसका खयाल नहीं आता तो कौन लड़ेगा इसके खिलाफ?
अगर साधु-संन्यासियों की बातें सुनिए जाकर मंदिरों में, तो अजीब मालूम होता है। उन्हें नारियों से बड़ा लगाव मालूम होता है। वे निरंतर उनके खिलाफ कुछ न कुछ कहते चले जाते हैं। उनके कपड़ों की भी चिंता करते हैं मंदिरों में बैठे हुए साधु कि वे कैसे कपड़े पहन रही हैं; उनके लिपस्टिक की भी चिंता करते हैं कि वे कैसा लिपस्टिक लगा रही हैं; उनकी जूतों की एड़ियों के माप भी नाप कर रखते हैं कि कितने ऊंचे जूते पहन रही हैं। साधु-संन्यासियों को इनसे क्या प्रयोजन है? यह आकर्षण क्या है?
यह सप्रेस्ड सेक्सुअलिटी है। ये भाग गए हैं लोग जिंदगी छोड़ कर और वासना को जबरदस्ती दबा लिया है। अब वह दबी हुई वासना नये-नये रूपों में पुकार कर रही है। इनकी आंखों में नारी घूम रही है। और वह नारी लग रही है कि कहीं इनका स्वर्ग न छीन ले, कहीं इनका मोक्ष न छिन जाए, कहीं इनका परमात्मा न छिन जाए। तो वे नारी के खिलाफ कहे चले जा रहे हैं।
यह मैं क्यों कह रहा हूं? मैं इसलिए कह रहा हूं कि जब तक दुनिया में सप्रेस्ड सेक्सुअलिटी, जब तक दुनिया में दमित यौन की परंपराएं कायम हैं, जब तक आदमी को नैतिकता के नाम पर वासना का दमन सिखाया जा रहा है, तब तक नारी सम्मानित नहीं हो सकती। यह बहुत अजीब सा लगेगा, लेकिन यह समझ लेना जरूरी है। जब तक यौन को, सेक्स को हम सामान्य जीवन का स्वस्थ हिस्सा स्वीकार नहीं करते हैं, तब तक नारी सम्मानित नहीं हो सकती। वह जो सेक्स का कंडेमनेशन है, वह जो निंदा है वासना की, वही निंदा अंततः नारी की निंदा बन गई है।
पहली बात, नारी का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। और उसे अस्तित्व की अगर घोषणा करनी हो तो उसे कहना चाहिए कि मैं मैं हूं--किसी की पत्नी नहीं; वह पत्नी होना गौण है। मैं मैं हूं--किसी की मां नहीं; मां होना गौण है। मैं मैं हूं--किसी की बहन नहीं; बहन होना गौण है। वह मेरा अस्तित्व नहीं है, मेरे अस्तित्व के अनंत संबंधों में से एक संबंध है। वह संबंध है, रिलेशनशिप है, वह मैं नहीं हूं। यह स्पष्ट भाव आने वाली पीढ़ी की एक-एक लड़की में, एक-एक युवती में, एक-एक नारी में होना चाहिए--मेरा भी अपना अस्तित्व है।
यह कितनी हैरानी की बात है कि नारियों की संख्या पुरुषों से ज्यादा है पृथ्वी पर, लेकिन नारी इतनी भयभीत! रास्तों पर निकलना मुश्किल, बिना रक्षक पहरेदार के रास्तों पर चलना मुश्किल! नारियों की संख्या पुरुषों से ज्यादा है पृथ्वी पर, और नारियां अगर एक बार तय कर लें तो यह असंभव है कि एक पत्थर फेंका जा सके उनके ऊपर, एक कंकड़ फेंका जा सके, कि एक आवाज कसी जा सके।
लेकिन नारियों के पास कोई भाव नहीं, कोई आत्मा नहीं। कंकड़-पत्थर उन पर फेंके जाएंगे, गालियां उन्हें दी जाएंगी, रास्तों पर अपमानजनक शब्द फेंके जाएंगे और इसका कुल परिणाम क्या होगा कि वे घर आकर पुरुष की रक्षा की शरण खोजेंगी। अगली बार वे अपने पति को लेकर साथ निकलेंगी--अपने बेटे को, अपने भाई को। वे जो सड़क पर पुरुष उन्हें परेशान कर रहे हैं, उन पुरुषों से परेशानी से बचने के लिए दूसरे पुरुषों का सहारा लेंगी। तो यह दासता कभी खत्म होने वाली नहीं है, यह दासता जारी रहेगी।
अगर पुरुष बाहर परेशान कर रहा है तो यह पुरुष वही है जो घर में बैठा हुआ है, यह दूसरा पुरुष नहीं है। क्योंकि वह जिसने आप पर पत्थर फेंका है सड़क पर और गाली कसी है वह भी किसी का भाई है और किसी का पति है। और आपका भाई और आपका पति भी किसी के साथ यही रास्ते पर कर रहा होगा, इसको ध्यान रखना जरूरी है। यह सवाल एक पुरुष का नहीं है, यह पुरुष कर रहा है! और इसलिए सवाल पुरुष के हाथ रक्षा मांगने का नहीं है। जितनी रक्षा मांगी जाती है उतना व्यक्तित्व कमजोर होता चला जाता है।
नारी को रक्षा मांगनी बंद कर देनी चाहिए। उचित है कि गाली सह ले, उचित है कि पत्थर सह ले। लेकिन पुरुष की रक्षा से इनकार कर देना चाहिए। तो नारी की शक्ति, नारी का बल जगेगा और असंभव हो जाएगा बीस साल के भीतर कि सड़क पर उसका अपमान किया जा सके।
लेकिन नहीं, पुरुष की रक्षा मांगती है नारी। और हमें पता ही नहीं कि रक्षा मांगने वाले सदा गुलाम हो जाते हैं। जो रक्षा मांगेगा वह गुलाम हो जाएगा। जिसकी रक्षा मांगेगा उसी का गुलाम हो जाएगा। यह सवाल एक पुरुष, दो पुरुष, अ और ब का नहीं है, यह सवाल पुरुष की वृत्ति का है। इसलिए पुरुष से ही रक्षा मांगनी दुश्मन की ही शरण में जाना है। यह नारी को समझ लेना चाहिए कि उसे अपनी रक्षा करनी है। और रक्षा किस बात से करनी है? यह जो इतना उपद्रव चारों तरफ पैदा होता है, इसका कारण क्या है? यह जो पुरुष इतना पागल मालूम पड़ता है...
मुझे न मालूम कितनी महिलाएं आकर कहती हैं कि सड़कों पर निकलना, जीना मुश्किल हो गया है। एक बूढ़ी स्त्री भी निकले तो छोटे-छोटे बच्चे भी अपमानजनक शब्द उसकी तरफ फेंकते हुए दिखाई पड़ते हैं। जीना मुश्किल हो गया है।...
और नारियां लौट कर जब यह पाएंगी कि अभद्र हो रहा है, किसी ने पत्थर फेंका है, किसी ने गाली दी है, किसी ने अपमानजनक गीत गा दिया है, तो वे आकर जो उपाय करेंगी, उन्हें पता नहीं कि वे ही उपाय इन बीमारियों के जन्मदाता हैं।
नारियां घर में आकर कहेंगी कि अब लड़के और लड़कियों को साथ पढ़ाना ठीक नहीं है। अब अपनी बच्चियों को बच्चों से दूर रखो, अब दीवालें बड़ी उठाओ, पर्दे लंबे गिराओ। और उन्हें पता नहीं कि जितनी दीवालें उठाओगे, जितने पर्दे गिराओगे, उतनी ही मुसीबत बढ़ती चली जाएगी। दीवालों के कारण ही पत्थर फेंके जा रहे हैं। दीवालों के कारण ही, बड़े पर्दों के कारण ही पत्थर फेंके जा रहे हैं। पुरुष और नारी के बीच जो यह सड़कों पर, रास्तों पर अभद्रता हो रही है, शास्त्रों में, किताबों में, सिनेमा में जो अभद्रता हो रही है, उस अभद्रता का बुनियादी कारण यह है कि स्त्री और पुरुष के बीच भारी फासला पैदा किया गया। यह फासला खत्म होना चाहिए तो स्त्री और पुरुष के बीच भद्रता के संबंध शुरू हो सकते हैं। यह फासला बिलकुल खत्म होना चाहिए। यह जितना फासला है उतना ही आकर्षण बढ़ता है।
मैं अभी पटना में एक कालेज में बोलने गया लड़कियों के। गंगा के किनारे वह कालेज है, पीछे शानदार गंगा बहती है। लेकिन उस कालेज की इतनी बड़ी दीवाल उठा ली है कि वहां से कोई पता ही नहीं चलता कि पीछे कोई गंगा है। मैंने पूछा, यह क्या पागलपन है? इतनी अदभुत गंगा के किनारे कालेज बना कर यह दीवाल पहाड़ की तरह क्यों उठा ली है? उनकी प्रिंसिपल ने कहा कि उठानी ही पड़ेगी, क्योंकि लड़के छोटी दीवाल थी तो वहां से युवक खड़े होकर भीतर झांकते थे।
मैंने कहा, युवक भीतर झांकते थे तो उन्हें बुला लेना था कि वे देख जाएं लड़कियों को ठीक से, ताकि दुबारा उनको झांकने की जरूरत न पड़े। इतनी बड़ी दीवाल उठाने से कोई फर्क पड़ा है?
उन्होंने कहा, कोई फर्क नहीं पड़ा, वे नसेनी लगा कर भी चढ़ जाते हैं। और गंगा में नाव से पार करके इस तरफ आ जाते हैं।
मैंने कहा, वे आएंगे, तुम जितनी बड़ी दीवाल उठाओगी उतना ही आकर्षण बढ़ता चला जाएगा। बड़ी दीवाल बड़ा निमंत्रण बनेगी। बड़ी दीवाल दूर से बुलाएगी कि आओ, दीवाल के भीतर कुछ है। इससे पागलपन पैदा होता है।
बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि जब मैं छोटा था, विक्टोरियन एज़ चलती थी यूरोप में, तो स्त्रियों के पैर का अंगूठा भी दिखना वर्जित था, इतना बड़ा घाघरा पहनना पड़ता था कि वह जमीन को छूता रहे ताकि पैर भी न दिखाई पड़े। बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि अगर कभी किसी स्त्री का अंगूठा दिख जाता था तो प्राणों में बिजली दौड़ जाती थी। और उसने लिखा है कि अब, अब स्त्रियां करीब-करीब जांघें उघाड़ी घूम रही हैं यूरोप में, लेकिन कोई बिजली नहीं दौड़ती।
वह जो नाखून भी छिपाया, तो नाखून भी आकर्षक हो जाएगा। और छिपाने वाले तो अदभुत लोग हैं। मोरक्को में मुसलमान हवा है, औरतें तो बुर्का डालती ही हैं, मुर्गी तक को बुर्का पहनाते हैं कि मुर्गा न देख ले। ऐसे पागलों के हाथ में मनुष्य की संस्कृति पड़ी हुई है। मुर्गे भी दीवालें चढ़ जाते होंगे। मुर्गे भी पत्थर फेंकते होंगे मोरक्को में, और मुर्गे भी गालियां बकते होंगे मोरक्को में।
यह जो आदमी कुछ बातें बिलकुल नहीं समझ पाता। जितना हम फासला पैदा करेंगे उतनी जुगुत्त्सा बढ़ती है। जितनी हम दूरी पैदा करेंगे उतना पास आने का भाव बढ़ता है। और जब सम्यक रास्ते न हों उन्हें पास आने के...कोई रास्ता नहीं है। हिंदुस्तान में स्त्री-पुरुष के बीच कोई दोस्ती हो सकती है? कोई दोस्ती नहीं हो सकती। हिंदुस्तान में स्त्री-पुरुष के बीच दोस्ती जैसा सवाल ही नहीं उठता। आप पति हो सकते हैं, बाप हो सकते हैं, बेटे हो सकते हैं, भाई हो सकते हैं। लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि स्त्री से मेरी दोस्ती है। कैसी अभद्र, कैसी असंस्कृत स्थिति है कि एक पुरुष और एक स्त्री के बीच दोस्ती जैसी अदभुत चीज भी संभव नहीं है।
इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि स्त्री से सिवाय सेक्सुअली संबंधित होने के और कोई उपाय नहीं है। अगर आप बाप हैं उसके तो आप संबंधित हो सकते हैं; बेटे हैं तो संबंधित हो सकते हैं; भाई हैं तो संबंधित हो सकते हैं। ये सारे के सारे काम संबंध हैं। लेकिन स्त्री से बिना सेक्स के, बिना काम के भारत में कोई संबंध नहीं हो सकता। और अगर आप कहेंगे कि मेरी दोस्ती है फलां स्त्री से, तो लोग बहुत चौंक कर देखेंगे कि दोस्ती? फ्रेंडशिप? यह हो ही नहीं सकती। कुछ गड़बड़ होगी! दोस्ती असंभव है।
स्त्री और पुरुष के बीच दोस्ती नहीं हो सकती! यह क्या पागलपन है? यह क्या स्थिति है? यह क्या बेहूदगी है?
लेकिन नहीं हो सकती। क्योंकि हमने फासले इतने दूर खड़े कर दिए हैं। और इन फासलों के कारण सारी विकृति पैदा हुई है। इन फासलों के कारण जो एक स्वस्थ, एक सामान्य, एक नार्मल बिहेवियर चाहिए, वह सबका सब एबनार्मल, असाधारण, रुग्ण हो गया है, वह सब बीमार हो गया है। इन सब कारणों से स्त्री को व्यक्तित्व नहीं मिल पा रहा है। इसकी घोषणा आवश्यक है।
स्त्रियों के आंदोलन जरूरी हैं, बड़े व्यापक आंदोलन जरूरी हैं कि वे पुरुषों से रक्षा मांगनी बंद कर दें। और पुरुषों के शास्त्रों से सावधान हो जाएं। क्योंकि सारे शास्त्र पुरुषों के लिखे हुए हैं। स्त्रियों का लिखा हुआ तो कोई शास्त्र नहीं है, सारे शास्त्र पुरुषों के हैं। इसलिए पुरुषों ने जो भी लिखा है वह वर्गीय दृष्टिकोण है। उसमें स्त्रियों की तरफ कोई ध्यान नहीं रखा गया।
पुरुषों के शास्त्र कहते हैं, स्त्री विधवा हो तो उसका विवाह नहीं हो सकता, यह पाप है। लेकिन वे शास्त्र यह नहीं कहते कि पुरुष विधुर हो जाए तो उसका विवाह नहीं होना चाहिए। बड़े
होशियार लोग, बड़े कनिंग और चालाक लोग मालूम पड़ते हैं। स्त्री विधवा हो जाती है तो उसका विवाह असंभव है, लेकिन पुरुष? पुरुष कितने ही विवाह कर सकता है। क्यों? यह भेद क्यों?
पुरुष की ईर्ष्या, जेलेसी। मरता हुआ पति यह कह जा रहा है कि मरने के पहले तो तुम मेरी संपत्ति थीं ही, अपनी पत्नी से, मरने के बाद भी तुम मेरी संपत्ति हो, किसी और की संपत्ति नहीं हो सकती हो। यह पजेशन मेरे मरने के बाद भी कायम रहेगा। स्त्री एक संपत्ति है। हमारे मुल्क में तो हम शब्द ही उपयोग करते हैं: स्त्री-संपत्ति। स्त्री एक संपत्ति है, फर्नीचर की तरह।
चीन में तो, जिस तरह अपनी कुर्सी तोड़ने का किसी को हक है, आज से पचास साल पहले अगर कोई अपनी पत्नी की टांगें तोड़ दे तो अदालत में मुकदमा नहीं चल सकता था। क्योंकि चीन में--चीन ने बड़ी अच्छी बात कही, चीन ने बड़ी सच्ची बात कही--चीन की यह मान्यता थी कि स्त्रियों में आत्मा होती ही नहीं है। इसलिए स्त्रियों को मारने से कोई हिंसा ही नहीं होती। आत्मा सिर्फ पुरुषों में होती है। और जो स्त्री मेरी है अगर, पत्नी है मेरी, तो उसे मारने का हकदार मैं हूं। अगर मैं उसकी गर्दन तोड़ दूं तो मुझ पर कोई मुकदमा नहीं चल सकता। वह पत्नी मेरी थी, वह मेरी संपत्ति थी।
इसलिए मैंने कहा, फर्नीचर से ज्यादा नहीं है। अपनी कुर्सी तोड़ने का हक तो रहता है, कोई अदालत मुकदमा तो नहीं चला सकती कि आपने अपनी कुर्सी की टांग क्यों तोड़ी? हमारी कुर्सी है, हम जो चाहे करें। चीन में हक नहीं था। पुरुष, पति अपनी पत्नी की हत्या कर सकता था, लेकिन मुकदमा नहीं चल सकता था--अभी पचास साल पहले तक!
स्त्री संपत्ति है, संपत्ति की तरह उससे हम व्यवहार कर रहे हैं। और इसलिए मरता हुआ पति निश्चित कर लेना चाहता है कि मेरे मरने के बाद मेरी पत्नी किसी और की पत्नी तो नहीं हो जाएगी। जो संपत्ति है वह मेरी ही होनी चाहिए।
लेकिन यह बहुत बाद में व्यवस्था करनी पड़ी, बहुत समय तक तो पति अपनी पत्नी को अपने साथ ही लेकर मर जाता था। सती हो जाना जरूरी था स्त्री को। जब पति मर गया तो उसके होने की जरूरत क्या है अब? उसके होने की जरूरत खत्म हो गई। उसका अपना कोई होना ही नहीं है। पति था तो वह थी; अब पति नहीं है तो वह भी नहीं है।
और अगर पुरुषों के उन शास्त्रकारों से पूछा जाए कि क्यों नारी को अपने पति की चिता पर मर जाना चाहिए? तो वे कहेंगे कि नारी इतना प्रेम करती है कि वह पति के बिना जिंदा नहीं रह सकती। लेकिन किसी पुरुष ने अब तक अपनी पत्नी को इतना प्रेम नहीं किया कि वह उसकी चिता पर सती हो जाता? नहीं, वह नहीं हुआ। उसका सवाल ही उठाना फिजूल है। एक पुरुष अपनी पत्नी की चिता पर सवार होकर नहीं मर गया है, लेकिन लाखों स्त्रियों को उनके पतियों की चिताओं पर सवार करके जला दिया गया। जलाने की व्यवस्था भी बड़ी तरकीब से करनी पड़ती थी। क्योंकि जिंदा, जिंदा स्त्री को जलाना, जिंदा व्यक्ति को...थोड़ा सोचें, आपका हाथ आग में पड़ जाए तो कैसा होता है? एक जिंदा स्त्री को, उसको आग में झोंकना। बहुत इंतजाम करना पड़ता था, रिचुअल, पूरा इंतजाम किया था, जिसमें कि तकलीफ ज्यादा पता न चले।
एक तो पति मर गया है किसी का और सारा पड़ोस और गांव के पंडित और पुजारी...दुष्टता के बहुत रूप हैं, सज्जनों की शक्ल में भी दुष्टता बहुत बार प्रकट होती है। असल में तो वहीं से प्रकट होती है तभी बहुत दिन तक चलती है। अगर असज्जन के रूप में दुष्टता प्रकट हो तो ज्यादा देर नहीं चलती। लेकिन अगर सज्जन के वेश में दुष्टता प्रकट हो तो हजारों साल चल जाती है।
पंडित, पुजारी, गांव के साधु-संत, गांव के सज्जन, जिसका पति मर गया, उसकी लाश पड़ी है, उस रोती छाती पटती स्त्री से पूछेंगे: तुम सती होना चाहती हो? जिसका प्रेम मर गया हो, उसके मन में स्वभावतः खयाल उठते हैं कि मर जाऊं। महीने दो महीने में, साल छह महीने में यह घाव भर जाएगा। लेकिन अभी इस क्षण में, जब कि उसका प्रेमी मर गया हो, उससे पूछा जा रहा है कि तुम उसके साथ मरना चाहती हो?
और अगर वह इनकार कर दे तो वह जीने से बदतर हालत हो जाएगी, क्योंकि सारे गांव में खबर हो जाएगी कि वह अ-सती है, दुराचारिणी है, उसका पति से प्रेम नहीं था। पति मर गया और वह कहती है कि मैं नहीं मरना चाहती हूं, मैं जीना चाहती हूं। जीना भी पाप है पति के बिना।
तो इनकार करना तो बहुत महंगा पड़ जाएगा। और इनकार करने का खयाल भी नहीं आ सकता है मरे हुए पति की लाश के सामने। वह हां भर देगी, हां भरवा लिया जाएगा। और चिता पर जैसे चढ़ाएंगे उसको, जिंदा स्त्री को आग की लपटों में डालेंगे--भागेगी वह, चिल्लाएगी, चीखेगी। उसका दुष्परिणाम न हो, गांव में खबर न हो, लोगों को पता न चले, तो भारी घी डाला जाएगा कि इतना धुआं हो जाए कि किसी को दिखाई न पड़े कि वह स्त्री को क्या हो रहा है। चारों तरफ पुजारी जलती हुई मशालें लेकर खड़े होंगे उस धुएं में कि अगर वह निकल कर भागने लगे तो मशालों से उसे वापस गिरा दिया जाए। जिंदा आदमी को आग में जलाना आसान मामला नहीं है। और इतना ढोल-ढमाल पीटा जाएगा, इतना ध्यान-कीर्तन किया जाएगा इतने जोर-जोर से कि उस मरती-चीखती आवाजें उसकी सुनाई न पड़ें किसी को।
यह सारा रिचुअल है। और इसमें हमने लाखों स्त्रियों को जलाया। और स्त्रियों ने कोई आवाज न उठाई! और उससे भी बदतर यह हुआ कि सती की प्रथा किसी तरह गई तो विधवा की प्रथा आ गई उसकी जगह। एक क्षण में मर जाना इतना बुरा नहीं था जितना फिर जीवन भर प्रेम के बिना जीना और मरना बुरा है, वह और भी बदतर है। लेकिन यह सब स्त्रियों के लिए है। क्योंकि शास्त्रकार सभी पुरुष हैं, उन्हें खयाल भी नहीं आता कि यह सब क्या हो रहा है।
लेकिन स्त्री को इसको इनकार करना चाहिए, इसका विरोध करना चाहिए। उसे घोषणा करनी चाहिए कि वह अपने जीवन का नियमन अपनी तरफ से करेगी। वह पुरुष शास्त्रकारों से पूछने नहीं जाएगी अब आगे कि हमें क्या करना है और कैसे जीना है।
लेकिन जब तक उसके साथ संपत्ति का व्यवहार हो रहा है, तब तक यह दासता की कथा अवरुद्ध नहीं हो सकती। और संपत्ति का व्यवहार होने का सीक्रेट क्या है? तरकीब क्या है? टेक्नीक क्या है? वह मैं आपसे कहना चाहता हूं। जब तक स्त्रियां बिना प्रेम के विवाह करने को राजी होती रहेंगी, तब तक वे संपत्ति से ज्यादा नहीं हो सकती हैं। जब तक स्त्रियां बिना प्रेम के विवाह करने को राजी होती रहेंगी, जब तक कन्यादान चलता रहेगा... दान चल रहा है कन्या का! वही कुर्सी, फर्नीचर का मामला है, दान हो रहा है। पिता दान कर रहे हैं कन्याओं का। जब तक स्त्री अरेंज मैरिज के लिए राजी होती रहेगी कि बाप-भाई विवाह की व्यवस्था करें और एक ऐसे आदमी से विवाह कर दें जिसे न उसने जाना, न पहचाना, न जिसे चाहा, न जिसे प्रेम किया, न जिसके लिए उसके हृदय में गीत उठे, न जिसके प्राणों में उसके लिए संगीत फैला, उस आदमी के साथ बंधने को जब तक स्त्री राजी होती रहेगी, जब तक दुनिया में प्रेम के बिना विवाह होता रहेगा, तब तक स्त्री की हैसियत संपत्ति से ज्यादा नहीं हो सकती है।
इसलिए दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि अगर स्त्रियां अपनी आत्मा खोजना चाहती हैं, उन्हें स्पष्ट यह समझ लेना चाहिए कि बिना प्रेम के, बिना विवाह के रह जाना बेहतर है, लेकिन बिना प्रेम के विवाह करना पाप है, अपराध है। बिना प्रेम के विवाह कैसी असंभव बात है!
लेकिन जो असंभव है वही संभव हो गया है। बिना प्रेम के एक व्यक्ति के साथ बंध जाना कैसी अशोभन बात है! बिना प्रेम के एक व्यक्ति के साथ जीवन भर जीने की चेष्टा करनी, कितनी यांत्रिक बात है! लेकिन हमें पता ही नहीं चलता। हम सोचते हैं--विवाह पहले हो जाएगा, फिर धीरे-धीरे प्रेम आ जाएगा।
धीरे-धीरे प्रेम नहीं आएगा, धीरे-धीरे कलह आएगी, जो कि हर घर में दिखाई पड़ती है। चौबीस घंटे कलह चलेगी। लेकिन समाज का इंतजाम ऐसा है कि कितने ही लड़ो, भाग नहीं सकते हो लड़ाई से, वहीं लड़ाई जारी रखो।
मैंने सुना है, एक घर में एक छोटी बच्ची और एक छोटा लड़का, दोनों जोर से लड़ रहे थे। उनकी मां ने उन्हें डांटा और चिल्लाया कि क्यों लड़ते हो? कितनी दफे मना किया है कि लड़ो मत! उस बेटी ने कहा, हम लड़ नहीं रहे हैं, वी आर प्लेइंग मम्मी एंड डैडी। हम तो मम्मी और डैडी का खेल कर रहे हैं, हम लड़ नहीं रहे हैं।
वह दिन-रात चल रहा है न मम्मी-डैडी का खेल, बच्चे देख रहे हैं। क्या खेल चल रहा है प्रेम के नाम पर! एक लंबी कलह चल रही है। हर आदमी उबा हुआ है। लेकिन कुछ फिक्र नहीं की जा रही है कि वह ऊब कहां से पैदा होती है। इसी ऊब में बच्चे पैदा होते चले जाते हैं, उनकी कतार इकट्ठी होती चली जाती है। इस कलह और ऊब में जो बच्चे पैदा होते हैं वे कभी भी मनुष्य-जाति के श्रेष्ठ नमूने नहीं हो सकते। श्रेष्ठ नमूने बहुत गहरे प्रेम से पैदा होते हैं। लेकिन प्रेम कहां है?
ज्योतिषी इंतजाम करते हैं कि दो आदमियों की शादी होनी चाहिए कि नहीं। ज्योतिषी इंतजाम करते हैं! ज्योतिषी क्या इंतजाम कर सकते हैं? जन्मपत्रियां मिलाई जाती हैं कि दो आदमी ठीक गुजारेंगे कि नहीं। तो जरा जन्मपत्रियां मिलाने वालों की हालतें तो देख लो! जिनके विवाह हो गए हैं उनका हिसाब तो लगा लो कि वे कैसा गुजार रहे हैं! इस मुल्क में तो सबकी जन्मपत्री मिला कर ही होता है, तो यहां तो हम हिसाब लगा ही सकते हैं कि जन्मपत्री के मिलाने का क्या परिणाम हुआ है। जिंदगी नरक हो गई है। लेकिन कोई बोध नहीं है, कोई होश नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं।
विवाह नहीं हो सकता शुभ, जब तक कि प्रेम से ही निष्पन्न न होता हो। प्रेम ही जब जुड़ने को आतुर होता हो, उसके बिना सब विवाह अनैतिक है।
लेकिन हमारी हालतें उलटी हैं। अगर दो व्यक्तियों में प्रेम हो तो उनके संबंध को हम अनैतिक कहेंगे। और दो व्यक्तियों को दो ब्राह्मण पत्रे मिला कर बांध देते हैं, और इनके संबंध को हम नैतिक कहते हैं! अगर एक युवक और युवती में प्रेम हो और उनको बच्चा पैदा हो जाए तो हम कहेंगे इल्लीगल है, नाजायज है। प्रेम से पैदा हुआ बच्चा इल्लीगल है, नाजायज है। और जिन दो व्यक्तियों के बीच कोई भी प्रेम नहीं है और विवाह से पैदा हुआ बच्चा लीगल है और जायज है। अजीब बात है। सिर्फ प्रेम से पैदा हुए बच्चे जायज हैं, विवाह से पैदा हुए बच्चे जायज नहीं हैं। अकेले विवाह से पैदा हुए सब बच्चे नाजायज हैं।
लेकिन अभी तो यही चल रहा है, अभी तो कथा यही है। कब बदलेंगे हम इसे? बहुत समय पक गया कि अगर आदमी की जिंदगी को थोड़े सुधार देने हैं, और अगर आदमी की जिंदगी में थोड़ी सुगंध और संगीत लाना है, अगर आदमी की जिंदगी में प्रेम के फूल खिलाने हैं, तो विवाह बंद होना चाहिए इस तरह का, जो प्रेम के बिना निष्पन्न हो जाता है। अच्छा होगा यह कि दुनिया में बहुत लोग अविवाहित हों, उससे उतना हर्जा नहीं है। लेकिन दुनिया में गलत ढंग से विवाहित लोग बहुत खतरनाक हैं।
स्त्री को अपनी स्वतंत्रता की खोज में प्रेम के अतिरिक्त किसी भी तरह...आने वाली बच्चियों को, आने वाली भविष्य की स्त्रियों को, आने वाले नारी के नये-नये रूपों को यह मन में बहुत साफ होना चाहिए कि प्रेम है, तो पीछे विवाह है; प्रेम नहीं है, तो विवाह नहीं है। अगर नहीं है प्रेम, तो विवाह की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम आएगा, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
लेकिन जो समाज है आज वह तो प्रेम का दुश्मन है। वह प्रेम को आने नहीं देता। वह क्यों नहीं आने देता प्रेम को? वह इसलिए नहीं आने देता कि अगर प्रेम पहले आ जाएगा तो यह आयोजित विवाह का क्या होगा? जहां प्रेम आ जाएगा तो फिर आयोजित विवाह नहीं चल सकते हैं। और आयोजित विवाह चलाना है। इसलिए बच्चे और बच्चियों को दूर रखो, फासले पर रखो, उनके बीच दीवालें खड़ी करो, बंदूक लगाए हुए पहरेदार खड़े कर दो। रोको उन्हें कि कहीं प्रेम न हो जाए। प्रेम की सब जगह हत्या करो।
और जब प्रेम की हत्या की जाएगी तो मनुष्य के नैसर्गिक जीवन की हत्या हो जाती है। प्रेम की हत्या के साथ ही स्त्री की हत्या हो जाती है। क्योंकि स्त्री अगर कुछ है तो प्रेम की एक प्यास है। स्त्री अगर कुछ है तो प्रेम की एक पुकार है। स्त्री अगर कुछ है तो प्रेम का एक बीज है। और जहां प्रेम की हत्या हो जाती है वहीं स्त्री की आत्मा समाप्त हो जाती है। जिस दिन दुनिया में प्रेम स्वीकृत होगा, सम्मानित और आदृत होगा, उसी दिन स्त्री सम्मानित, स्वीकृत और आदृत हो सकती है। स्त्री की आत्मा की घोषणा में प्रेम की घोषणा अत्यंत अनिवार्य है।
जो मांएं हैं, जिनकी उम्र हो चुकी, जिनकी बच्चियां अब बड़ी हो रही हैं, वे ध्यान रखें कि उनकी बच्चियों के विवाह न किए जाएं जब तक कि प्रेम उनके जीवन में फूल न लाने लगे।
लेकिन प्रेम से तो हम डरते हैं। युवकों और युवतियों को मिलने मत देना, क्योंकि हमें डर है कि कहीं उनके मिलने से अनीति न फैल जाए। जैसे कि आज अनीति कुछ कम है दुनिया में, अनीति कुछ कम है समाज में। अनीति न फैल जाए!
मैं एक कालेज में था। कालेज के कॉरिडोर से निकलता था एक दिन। मेरे प्रिंसिपल जो थे उस कालेज के, वे एक लड़के को बहुत जोर से अपने आफिस में डांट लगाए चले जा रहे थे। आवाज सुन कर मैं भीतर गया, कुछ प्रेम की बात मालूम पड़ती थी और मैंने सोचा कि शायद मेरी जरूरत पड़ जाए। मैं भीतर गया, देखा कि उसे डांट रहे हैं। मुझे देख कर उन्होंने कहा कि आप आ गए अच्छा हुआ, जरा इसे समझाइए। इस नासमझ ने एक लड़की को प्रेम-पत्र लिखा है।
मैंने कहा, नासमझ? यह प्रेम-पत्र अब कब लिखेगा अगर अभी नहीं लिखेगा! इसका कसूर क्या है?
वे बोले कि मैं इसको समझा रहा हूं कि हर लड़की को अपनी बहन समझना चाहिए! और यह कहता है कि मैं मानता हूं, लेकिन यह झूठ बोल रहा है।
उस लड़के ने कहा, मैं तो हर लड़की को अपनी बहन ही मानता हूं, मैंने कभी कोई प्रेम-पत्र नहीं लिखा। न मालूम किसने लिख दिया है। न मालूम आप किसके धोखे में मुझको पकड़ लिए हैं। मैंने नहीं लिखा है। मैं तो हर लड़की को बहन ही समझता हूं।
वे मुझसे कहने लगे कि समझाइए! यह झूठ बोल रहा है।
मैंने उनसे कहा, यह झूठ बोल रहा है, यह आप कैसे कहते हैं? कहीं यह तो नहीं है कि आप पचास साल के हो गए, अभी भी हर लड़की को बहन समझना मुश्किल है। इसलिए यह इस उम्र में कैसे बहन समझता होगा, यह तो नहीं है कारण?
वे बहुत घबड़ा गए। उस लड़के से कहा, तुम बाहर जाओ, फिर हम बात करेंगे।
मैंने कहा, मैं उसे बाहर नहीं जाने दूंगा, उसका मौजूद रहना जरूरी है, उसके सामने ही बात होनी चाहिए। और मैं उस लड़के से कहा कि अगर तुम यह कहते हो कि तुमने सच में ही कभी प्रेम-पत्र नहीं लिखा, तो तुम निकम्मे मालूम पड़ते हो, तुम्हारी जिंदगी खराब हो जाएगी, तुममें कुछ गड़बड़ है, तुम स्वस्थ सामान्य नहीं हो। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि इस उम्र में तुम पत्र लिखो। इसलिए सवाल यह नहीं है कि पत्र मत लिखो, सवाल यह है कि गलत पत्र मत लिखना, ठीक पत्र लिखना।
और प्रिंसिपल का काम यह होना चाहिए कि वह लड़के को कहे कि तुमने प्रेम-पत्र तो लिखा, लेकिन यह तुम्हारे योग्य नहीं है, तुमने इसमें गालियां लिखी हैं। प्रेम-पत्र में गालियां लिखनी पड़ती हैं?
लेकिन नहीं, प्रिंसिपल पहरेदार बने हुए हैं कालेजों में, पुलिस कांस्टेबल की तरह खड़े हुए हैं। अध्यापक का काम लड़के और लड़कियों को क्लास के दो हिस्सों में बिठाल कर बीच में संतरी की तरह परेड लगाना है, यह अध्यापक का काम है। और मां-बाप की भी कुल चिंता इतनी है कि कहीं प्रेम न हो जाए। यह क्या हो रहा है?
और जब इतनी रुकावट डाली जाएगी, तो ध्यान रहे, अगर प्रेम के पैदा होने का समय बीत गया, तो प्रेम फिर कभी पैदा नहीं होगा। हर चीज का एक समय है। फूल के मौसम हैं, कली खिलने का वक्त है। प्रेम का भी एक समय है। अगर वह प्रेम का समय व्यतीत हो गया पहरेदारी में और दस-पांच साल बीत गए उस समय के जब कि बीज अंकुरित होता और प्रेम फैलता, उसकी पंखुड़ियां खिलतीं, तो ध्यान रहे, वह फूल अब पूरा कभी नहीं खिल सकेगा और जिंदगी भर के लिए प्रेम-शून्य जीवन हाथ में रह जाएगा।
यह बहुत बड़ा अपराध मनुष्य के साथ हो रहा है। इस देश में तो बहुत तीव्रता से हो रहा है। ध्यान रहे, प्रेम के भी खिलने का वक्त है, मौसम है। उस वक्त उसे पूरी सुविधा मिलनी चाहिए, उस वक्त उसे पूरी समझदारी मिलनी चाहिए, उस समय पूरा का पूरा उसे मौका मिलना चाहिए कि वह खिले।
लेकिन सब पहरे पर खड़े हो जाएंगे उसे न खिलने देने के लिए। और फिर हम चिल्ला कर कहेंगे कि दुनिया में प्रेम बहुत कम मालूम पड़ता है।
कम रहेगा! प्रेम को पैदा ही मत होने दो, बीज को अंकुरित मत होने दो, कली को फूल मत बनने दो, पौधे के पत्ते काट डालो, शाखाएं काट डालो और फिर कहो कि दुनिया में फूल बहुत कम मालूम होते हैं। दुनिया में प्रेम कम है, क्योंकि प्रेम को विकास की जो सुविधा चाहिए वह हम नहीं दे रहे हैं।
लेकिन पुरुष को प्रेम से बहुत मतलब नहीं है, यह ध्यान रहे। इसलिए मैं नारियों से यह कह रहा हूं। पुरुष को प्रेम से बहुत मतलब नहीं है। पुरुष के लिए जिंदगी के बहुत से कामों में प्रेम भी एक काम है। चौबीस घंटे में आधा घंटा प्रेम करने के लिए उसे मौका मिल जाए, पर्याप्त है; साढ़े तेईस घंटे उसे जरूरत नहीं है। पुरुष के लिए प्रेम बहुत से कामों में एक काम है; स्त्री के लिए प्रेम ही एकमात्र काम है, बहुत से कामों में एक काम नहीं है वह। स्त्री का पूरा व्यक्तित्व प्रेम है। उसके जीवन में प्रेम हो तो सारे काम निकल आएंगे उस प्रेम से। पुरुष के लिए प्रेम एक काम है। इसलिए पुरुष को प्रेम की बहुत चिंता नहीं है। पुरुष की आकांक्षाएं दूसरी हैं। पुरुष के हृदय में ज्यादा गहरी आकांक्षा महत्वाकांक्षा, एंबीशन है--यश की, पद की, प्रतिष्ठा की। वह सारे प्रेम को छोड़ सकता है यश के लिए, पद के लिए, प्रतिष्ठा के लिए। अगर उसको महात्मा बनना है तो वह प्रेम को छोड़ सकता है, लात मार सकता है। क्योंकि महात्मा बनने में जो आदर मिलेगा वह कहां प्रेम में है वह रस! अगर उसको नेता बनना है, शहीद बनना है, प्रेम को लात मार सकता है। क्योंकि जो इज्जत और आदर मिलेगा, जो फोटो लग जाएंगे घर-घर और सड़क-सड़क पर मूर्तियां खड़ी हो जाएंगी, वह कहां प्रेम में हो सकती हैं!
पुरुष अहंकार के केंद्र पर जीता है। और अहंकार की प्रेम से दुश्मनी है, संबंध नहीं है। जब पुरुष के भीतर अहंकार मरता है तो उसके जीवन में प्रेम की शुरुआत होती है। स्त्री का व्यक्तित्व अहंकार के केंद्र पर नहीं जीता; स्त्री का व्यक्तित्व प्रेम के केंद्र पर जीता है। और स्त्री के अगर व्यक्तित्व में प्रेम की संभावना क्षीण हो जाए, तो स्त्री का जीवन एक बोर्डम, एक मीनिंगलेसनेस, एक अर्थहीनता हो जाता है। सारी स्त्रियों का जीवन अर्थहीन हो गया है, क्योंकि पुरुष ने समाज को निर्मित किया है और उसने ऐसा समाज निर्मित किया है जिसमें अहंकार की तृप्ति की सुविधा है, प्रेम की तृप्ति की सुविधा नहीं है।
यह नारियों के सामने है सवाल कि वे एक ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश करें...और वे बना सकती हैं, क्योंकि बेटे उनके हैं, बेटियां उनकी हैं...वे चाहें तो एक ऐसी दुनिया बना सकती हैं जहां प्रेम के बिना विवाह नहीं होगा, वे एक ऐसी दुनिया बना सकती हैं जहां कि आने वाले बेटे और बेटियों के लिए प्रेम की सारी सुविधा होगी।
इसका मतलब यह नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि बेटे और बेटियों को बेलगाम छोड़ दिया जाए कि वे कुछ भी करें। नहीं; बेटे और बेटियों को इतना शिक्षित किया जाए, सेक्स के संबंध में, प्रेम के संबंध में इतनी बुद्धिमत्ता उनको दी जाए कि जब वे जवान हों तो वे समझ सकें कि क्या करना उचित है और क्या करना उचित नहीं है।
मेरे एक मित्र स्वीडन गए हुए थे। जवान आदमी हैं, शादी हो गई है, बड़े नीतिवादी हैं। स्वीडन के जिस घर में वे ठहरे, उस घर में बाप था, उसकी अकेली बेटी थी। मां की मृत्यु हो गई थी दो वर्ष पहले। वह बेटी भारत के लिए बड़ी दीवानी थी, उसने भारत के संबंध में बहुत किताबें पढ़ रखी थीं। जवान लड़की थी। रात को जब वे मित्र सोने गए अपने कमरे में, तो उस जवान लड़की ने आकर कहा कि आप दो ही दिन ठहरेंगे यहां, और मैं तो भारत के लिए इतनी दीवानी हूं और आप पहले भारतीय हैं जिनसे मेरा मिलना हुआ, तो मैं रात को भी आपको छोड़ना नहीं चाहती, मैं इसी कमरे में सो जाना चाहती हूं।
मित्र तो बहुत घबड़ा गए, जैसा कि भारतीय आदमी घबड़ा जाएगा। उन्होंने कहा कि इसी कमरे में, अकेले में, तुम भी यहीं सो जाओगी!
उसने कहा, हां, इसमें क्या हर्जा है? आप किससे डर रहे हैं?
उन्होंने कहा, डर नहीं रहा हूं, लेकिन पुरुष और स्त्री एक ही कमरे में अकेले!
उस लड़की ने कहा, आप आदमी कैसे हैं! आप आदमी कैसे हैं, आप इतने घबड़ा क्यों गए हैं?
लेकिन उस लड़की को समझना मुश्किल पड़ा होगा कि भारत का कोई भी पुरुष इसी तरह घबड़ा जाता। यह घबड़ाहट स्त्री से नहीं है। यह भीतर छिपी हुई जो दमित वासना है, उससे घबड़ाहट है।
वह लड़की सो गई। उन मित्र ने मुझे कहा कि दो रात मैं ठीक से सो नहीं पाया। मुझे यह खयाल बना ही रहा कि एक लड़की भी यहां सो रही है।
अजीब पागल हो! तुम अपनी जगह सो जाते, उसे अपनी जगह सो जाने देते। तुम्हें परेशानी क्या बनी रही?
दो दिन बाद जब विदा होने लगे, तो उन्होंने उस लड़की के बाप को एकांत में कहा कि आप कुछ खयाल नहीं रखते! मैं तो ठीक हूं, लेकिन किसी भी अनजान पुरुष के साथ आपने अपनी लड़की को कमरे में सो जाने दिया, आपने कोई एतराज नहीं किया।
उसके पिता ने कहा, अब मैं कब तक एतराज करूंगा? लड़की बाईस साल की हो गई। वह सब समझती है, सोचती है। जिंदगी उसके हाथ में है। अगर इस उम्र में भी उसको कुछ समझ नहीं है तो फिर अनुभव से ही सीखना पड़ेगा, फिर और समझ आएगी कैसे? और मैं कब तक उसकी पहरेदारी करूंगा? मैंने बाईस साल की जवान उसे बना दिया, उसे सब तरह की शिक्षा दे दी, सब तरह की समझ दे दी। अब वह अपनी नौका को खेने के योग्य हो गई है, अब वह जानती है, उसे जो करना है वह करे। अपने व्यक्तित्व को विकसित करने का हमने सारा ज्ञान उसे दे दिया। अब वह जिंदगी के रास्ते पर चले। आखिर कब तक बागुड़ लगा कर हम खड़े रहेंगे!
लेकिन यह हमारी समझ के बाहर है। मां-बाप का एक ही काम है कि वे लड़के-लड़कियों की रक्षा करते रहें। उनकी जिंदगी बेचारों की इसी में नष्ट हो जाती है। और लड़के-लड़कियों की इसमें नष्ट हो जाती है कि जब चारों तरफ चौबीस घंटे पहरा हो, तो लड़के और लड़कियां चोर और बेईमान हो जाते हैं, गलत और अंधेरे और पीछे के रास्ते पकड़ लेते हैं।
नहीं; अगर नारियों को यह स्पष्ट खयाल हो जाए कि उनके व्यक्तित्व की प्रेम असली आवाज है, तो आने वाली बच्चियों के व्यक्तित्व में प्रेम की पूरी संभावना को विकसित करने में मां को सहयोगी, मित्र और साथी बनना चाहिए। और यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रेम के बाद ही विवाह आए, प्रेम के पहले नहीं। जिस दिन प्रेम के पीछे विवाह आएगा, उसी दिन नारी को अपनी आत्मा मिल जाएगी। प्रेम से ही उसे आत्मा मिल सकती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं, इस आशा में कि एक क्रांति नारी के व्यक्तित्व में उपस्थित हो। अगर यह क्रांति उपस्थित नहीं होती है, तो नारी को जो अनुदान देना चाहिए मनुष्य की सभ्यता के लिए, वह नहीं दे पाती है। और नारी के जीवन में जो प्रफुल्लता, शांति और आनंद होना चाहिए, वह उसे उपलब्ध नहीं हो पाता है। और नारी का आनंद बहुत अर्थपूर्ण है, क्योंकि वह घर का केंद्र है। अगर घर का केंद्र उदास, दीन-हीन, थका हुआ, हारा हुआ है, तो सारा घर, सारा परिवार, जो उसकी परिधि पर घूमता है, वह सब दीन-हीन, उदास और हारा हुआ हो जाएगा।
एक हंसती हुई, मुस्कुराती हुई नारी जिस घर में है, जिसके कदमों में प्रेम के गीत हैं, जिसके चलने में झंकार है, जिसके दिल में खुशी है, जिसे जीने का एक आनंद मिल रहा है, जिसकी श्वास-श्वास प्रेम से भरी है, ऐसी नारी जिस घर के केंद्र पर है, उस सारे घर में एक नई सुवास, एक नया संगीत पैदा हो जाएगा। और एक घर का सवाल नहीं है; यह प्रत्येक घर का सवाल है। अगर प्रत्येक घर में यह संभव हो सके, तो एक समाज पैदा होगा--जो शांत हो, आनंदित हो, प्रफुल्लित हो।
आज समाज न आनंदित है, न शांत है, न प्रफुल्लित है। एकदम उदास, टूटा हुआ। हम ऐसे जी रहे हैं जैसे जीना एक मजबूरी है। सार्त्र ने एक शब्द का प्रयोग किया है, उसने प्रयोग किया है कि हम इस तरह जी रहे हैं--कंडेम्ड टु लिव, जबरदस्ती हमको जिलाया जा रहा है। जैसे किसी मकान में हमको भेज दिया है, जिसमें एंट्रेंस का दरवाजा तो हमको मालूम था, निकलने का दरवाजा मालूम नहीं है। भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं--एक्जिट कहां है? और हिंदुस्तान में तो हर आदमी पूछ रहा है--एक्जिट कहां है? साधु-संन्यासियों के पैर पकड़ कर पूछ रहा है--महाराज, आवागमन से छुटकारा कैसे होगा, यह बताइए! जीवन से कैसे मुक्त हो जाऊं? मोक्ष कहां है?
जीवन अगर आनंदपूर्ण हो तो जीवन ही मोक्ष बन जाता है। जीवन अगर आनंदपूर्ण हो तो जीवन ही परमात्मा बन जाता है। और जीवन के अतिरिक्त न कोई परमात्मा है और न कोई मोक्ष है। इस क्षण और अभी जो जीवन है, जो उसे पूरे आनंद से जीता है, इसी क्षण परमात्मा का साक्षात उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन इस बड़ी क्रांति में, कि यह मनुष्य का समाज परमात्मा के निकट पहुंचे, नारी बहुत अर्थों में सहयोगी हो सकती है। उस क्रांति के ये थोड़े से सूत्र मैंने कहे। नारी को अपनी आत्मा और अपने अस्तित्व की घोषणा करनी है। नारी को संपत्ति होने से इनकार करना है। नारी को पुरुष के द्वारा बनाए गए विधानों को वर्गीय घोषित करना है और उसे निर्मित करना है कि वह क्या विधान अपने लिए खड़ा करे। नारी को प्रेम के अतिरिक्त जीवन की सारी व्यवस्था को अनैतिक स्वीकार करना है। प्रेम ही नैतिकता का मूल मंत्र है। अगर यह इतना हो सके तो एक नई नारी का जन्म हो सकता है।
मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं। नहीं कहता हूं कि मेरी बातें मान लेना; कोई जरूरत नहीं है मेरी बातें मान लेने की। लेकिन इतना ही निवेदन है कि मैंने जो कहा, उसे बहुत शांत मन से, निष्पक्ष मन से सोचने की कोशिश करना। हो सकता है कुछ एकाध बात भी उसमें सही हो। और अगर सही बात दिखाई पड़ जाए तो उसके परिणाम जीवन में आने शुरू हो जाते हैं।

परमात्मा करे कि नारी को उसकी आत्मा मिल सके, इस कामना के साथ अपनी बात पूरी करता हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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