POLITICS & SOCIETY‎

Nari Aur Kranti 03

Third Discourse from the series of 6 discourses - Nari Aur Kranti by Osho.
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प्रिय बहनो!
मैं अत्यंत आनंदित हूं। अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। जीवन में बहुत लोग इतनी नासमझी, इतने अज्ञान, इतने भूल भरे ढंग से जीते हैं कि न तो उन्हें जीवन के आनंद का अनुभव हो पाता है और न वे उस संगीत से परिचित हो पाते हैं जो उनकी हृदय की वीणा पर बज सकता था, और न वे उन फूलों की सुगंध को ही उपलब्ध होते हैं जो कि उनके प्राणों को सुवासित कर सकती थी। बहुत कम लोग, बहुत थोड़े से लोग, करोड़ों और अरबों लोगों में कोई एकाध जीवन के अर्थ और अभिप्राय को उपलब्ध होता है।
आज की इस चर्चा में तुम सबसे मैं इस संबंध में ही थोड़ी बात कहूं कि तुम्हारा जीवन कैसे उस कला को, उस आर्ट को सीख सके कि तुम्हारे जीवन में वैसा दुर्भाग्य फलित न हो जो कि अधिक लोगों का भाग्य बनता है। अभी तुम्हारे जीवन का प्रारंभ और शुरुआत है। कोई ठीक-ठीक बीज, कोई ठीक दिशा तुम्हारे जीवन को मिले, तो संभव है कि जो सबके साथ होता है वह तुम्हारे साथ न हो। और तुम्हारे भीतर जीवन अपनी परिपूर्णता में, अपने पूरे संगीत में विकसित हो सके। इसके पहले कि मैं कुछ उस संबंध में तुमसे कहूं, एक छोटी सी घटना कहूंगा, ताकि उससे बात शुरू हो सके।
माओत्से तुंग ने अपने बचपन का एक छोटा सा संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है, मैं छोटा था, तो अपने बचपन की एक ही बात मुझे सबसे ज्यादा याद आती है और वह बात यह है कि मेरी मां की एक बहुत ही अदभुत बगिया थी। उसकी बगिया में जैसे फूल खिलते थे उन्हें दूर-दूर के गांव के लोग देखने आते थे। उसके फूलों की बड़ी प्रशंसा होती थी। और अपने बुढ़ापे में उसका वही आनंद था--उसके फूल, उसकी बगिया। लेकिन एक बार वह बीमार पड़ गई और वह इतनी ज्यादा बीमार पड़ गई कि पौधों की फिकर करना संभव न रहा। वह अपनी बीमारी से उतनी दुखी न थी जितनी इस बात से कि उसके फूल कुम्हलाए जाते हैं और उसके पौधे, जिनको उसने खून सींच-सींच कर बड़ा किया था, उनके मरने का समय करीब आ गया। वह अपनी बीमारी से चिंतित न थी, लेकिन फूलों के उजड़ने से बहुत चिंतित और परेशान थी।
तो माओ ने उससे कहा कि घबड़ाओ मत, मैं तुम्हारे फूलों की फिकर कर लूंगा। और सुबह से सांझ तक माओ उस बगिया को सम्हालने में लगा रहा। लेकिन दो-चार दिन बीते, उसकी सारी चेष्टाएं ऐसी मालूम पड़ीं जैसे व्यर्थ जा रही हैं। बगिया उजड़ती ही चली गई, फूल कुम्हलाते चले गए, पत्ते सूखने लगे और पौधे मृतप्राय हो गए। पंद्रह दिन बीतते-बीतते बगिया बिलकुल उजाड़ हो गई, उसकी कलियां कुम्हला गईं, फूल पैदा होने बंद हो गए। मां थोड़ी ठीक हुई तो बाहर आई और बगिया में जाकर उसने देखा तो उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। माओ भी रोने लगा और उसने कहा, मैंने एक-एक फूल को चूमा, एक-एक फूल को पानी से नहलाया, एक-एक पत्ते को पोंछा और उसकी धूल झाड़ी। पंद्रह दिन से मैं पागल हो गया हूं, न मैं सो रहा हूं, न ठीक से खा रहा हूं। लेकिन न मालूम क्या हुआ है कि फूल कुम्हलाते जाते हैं और बगिया उजड़ती जाती है।
उसकी मां ने कहा, पागल, आंख से आंसू पोंछ ले! समझ गई कहां भूल हो गई है। तू यह भूल गया और शायद तुझे पता भी नहीं है कि फूलों के प्राण फूलों में नहीं होते, जड़ों में होते हैं। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, फूल दिखाई पड़ते हैं, पत्ते दिखाई पड़ते हैं। जड़ें जमीन के भीतर छिपी होती हैं।
जो फूलों की फिकर करेगा और जड़ों को भूल जाएगा, उसके फूल तो कुम्हला ही जाएंगे, उसकी जड़ें भी सूख जाएंगी। लेकिन जो जड़ों की फिकर करेगा उसके फूल तो अपने आप पैदा हो जाएंगे, उसके पौधे तो अपने आप ठीक हो जाएंगे, जीवंत हो जाएंगे।
जड़ों में होते हैं प्राण, लेकिन जड़ें दिखाई नहीं पड़ती हैं। और जो दिखाई पड़ते हैं--फूल, पत्ते, फल--उनमें कोई प्राण नहीं होते। जो दिखाई पड़ता है, उसके प्राण उसमें होते हैं जो दिखाई नहीं पड़ता।
यह छोटी सी घटना मैंने इसलिए कही ताकि मैं तुमसे यह भी कह सकूं कि जीवन के संबंध में भी यही सच है। जीवन में जो दिखाई पड़ता है उसके प्राण किन्हीं ऐसे रहस्यपूर्ण स्रोतों में छिपे होते हैं जो दिखाई नहीं पड़ते। जड़ों की भांति जीवन भी अपने प्राण बहुत अदृश्य, बहुत अदृश्य स्थानों में छिपाए हुए है।
मनुष्य का शरीर दिखाई पड़ता है, लेकिन शरीर के प्राण उस आत्मा में होते हैं जो दिखाई नहीं पड़ती। मनुष्य का जीवन बाहर की तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ता है--उसके कामों में, उसकी चर्या में--लेकिन उसकी चर्या और उसके काम और उसके बाहर के जीवन का सारा फैलाव उसकी उस आत्मा में छिपा होता है जो अदृश्य है और दिखाई नहीं पड़ती।
माओ ने जो भूल की थी, वह भूल दुनिया में अधिकतम लोग जीवन के साथ भी करते हैं। वे यह भूल जाते हैं, वे फूल और पत्तों को, जीवन के फूल और पत्तों को सम्हालने में समाप्त हो जाते हैं और जीवन कुम्हला जाता है और नष्ट हो जाता है। उन्हें खयाल नहीं आ पाता इस बात का कि वे जड़ों को पानी दें।
तो भीतर के जीवन को जो पानी देता है उसके बाहर के जीवन में बहुत फूल लगते हैं। लेकिन जो भीतर के जीवन को भूल जाता है उसके बाहर के जीवन में कोई फूल कभी नहीं लग पाते हैं। वह चाहे कितना ही श्रम करे, दौड़े, मेहनत करे, लेकिन बाहर के जीवन के साथ किया गया श्रम व्यर्थ है, जब तक कि भीतर की जड़ों को सम्हालने की समझ और कला उपलब्ध नहीं हो जाती। उस भीतर के जीवन में ही जड़ें हैं।
लेकिन न तो हमारी शिक्षा का उससे कोई संबंध है, न हमारी सभ्यता का। न हमारे संस्कार, न हमारा समाज, न हमारे मां-बाप इस बात की फिकर में हैं कि भीतर जो आत्मा है उससे हमारा कोई संबंध हो जाए। इसका ही यह परिणाम हुआ है कि हम बहुत महंगी शिक्षा दे रहे हैं बच्चों को, बच्चियों को; उन्हें अच्छे वस्त्र दे रहे हैं, अच्छा भोजन दे रहे हैं; उनके जीवन के लिए सारी सुविधाएं जुटा रहे हैं। लेकिन अंत में आदमी बिलकुल कुम्हलाया हुआ मालूम पड़ता है। उसके जीवन से कोई सुगंध नहीं निकलती और उलटे दुर्गंध निकलती है। उसके जीवन में फूल तो नहीं मालूम पड़ते, बल्कि फूलों की जगह शायद कांटे ही कांटे रह जाते हैं। उसके जीवन में कोई आनंद की ध्वनि तो नहीं पैदा होती, बल्कि दुख की अंधेरी रात घिर आती है। तो हमारा यह सारा श्रम, हमारी शिक्षा, हमारे विद्यापीठ, हमारे संस्कार किस अर्थ के हैं? किस काम के हैं?
और जब गलत आदमी पैदा होता है तो गलत आदमी खुद ही गलत नहीं होता, वह अपने आसपास की सारी हवा को भी गलत कर देता है। और तब एक ऐसी दुनिया बन गई है जो बहुत दुख से भरी है, बहुत पीड़ा से, उसमें कोई आनंद का पता भी नहीं है।
तुमने सुना होगा लोगों को कहते और तुमने अपनी किताबों में भी ऐसे गीत पढ़े होंगे और ऐसी बातें सुनी होंगी, और तुम भी जैसे-जैसे बड़ी होती जाओगी तुम्हें इस बात का अनुभव होगा, इस बात का अनुभव होगा कि बचपन में जो सुख और आनंद था, वह बाद के दिनों में निरंतर कम होता जाता है। बूढ़े लोगों से पूछो! वे कहेंगे, बचपन में बहुत आनंद था और उसके बाद फिर कोई आनंद नहीं। और उनका मन होता है कि वे वापस बच्चे हो जाएं, फिर लौट जाएं बचपन में।
लेकिन जिंदगी में पीछे लौटना तो असंभव है। लेकिन यह बात कि लोग कहते हैं कि बचपन बहुत आनंद का काल है, क्या अर्थ रखती है?
यह देखने में बहुत अच्छी मालूम पड़ती है। यह बात बहुत गलत और बहुत खतरनाक है। इस बात का यह मतलब है कि बचपन के बाद जिंदगी रोज ज्यादा से ज्यादा दुखी होती चली जाती है। होना तो चाहिए था उलटा, होना तो यह चाहिए था कि बचपन के बाद जिंदगी रोज-रोज ज्यादा खुशी और आनंद से भरती जाती। क्योंकि बचपन तो है शुरुआत, बुढ़ापे के अंतिम दिन सर्वाधिक आनंद के और शांति के और संगीत के दिन होने चाहिए थे। क्योंकि जीवन विकसित हो रहा है। अगर जीवन विकसित हो रहा है तो बचपन तो शुरुआत है, प्रारंभ है; बुढ़ापा पूर्णता है। तो बुढ़ापे में आनंद, बुढ़ापे में उपलब्धि, बुढ़ापे में ऐसा लगना चाहिए था कि हम जीवन जीए और हमने कुछ पाया।
लेकिन लगता है यह कि बूढ़ा आदमी कहता है कि बचपन के दिन बहुत अच्छे थे। इसका मतलब? इसका मतलब साफ है, उस आदमी के जीवन की दिशा ठीक से नहीं चली। वह जीवन की कला को नहीं जान पाया। वह जीवन कैसे विकसित हो, इसके रहस्य को नहीं समझ पाया। वह उन सूत्रों को नहीं पहचान पाया जिनके द्वारा जीवन निर्मित होता, कुछ उपलब्ध होता, कोई संपदा मिलती।
लेकिन यह सबके साथ सच है। तुम अभी छोटी हो, लेकिन तुम्हें अभी भी इस बात की खबर मिलनी शुरू हो गई होगी कि बचपन के दिन अच्छे थे। अगर तुमको ऐसा लगने लगा हो तो तुम समझ लेना कि तुम्हारी जिंदगी गलत रास्तों पर चलनी शुरू हो गई। खुशी बढ़ती जानी चाहिए जीवन के साथ, आनंद बढ़ता जाना चाहिए। रोज-रोज लगना चाहिए कि कल--कल कुछ भी न था, आज जो है उसके सामने। हर दिन जब आए नया दिन तो वह और बड़ी खुशी, और बड़ा संगीत, और बड़ा सौभाग्य लेकर आना चाहिए। तभी तुम समझना कि तुम्हारा जीवन ठीक दिशा में चल रहा है। नहीं तो जीवन तो एक पतन हो गया। बचपन में थी खुशी और बुढ़ापे में दुख, तो जीवन तो एक पतन हो गया, विकास नहीं; नीचे गिरना हो गया, ऊपर उठना नहीं। यह तो बड़ी आश्चर्य की बात है! और यह इतनी आश्चर्य की बात भी हमें दिखाई नहीं पड़ती है!
तो पहली बात, जीवन केवल उनको मिलता है, जीवन के आनंद को केवल वे ही उपलब्ध होते हैं, जो जीवन की कला को, आर्ट ऑफ लिविंग को सीख पाते हैं। तो ही, तो ही सार्थकता मिलती है। और नहीं तो सब व्यर्थ हो जाता है। मनुष्य पैदा तो बहुत होते हैं, लेकिन जीवन को बहुत थोड़े से लोग जान पाते हैं।
कौन से रास्ते हैं जिनसे जीवन जाना जा सके और पाया जा सके?
पहली बात, बिलकुल आधार में, बुनियाद में जो बात जाननी जरूरी है वह यह जो मैंने जड़ों के संबंध में कही। जीवन की कला, सबसे पहले जीवन की जड़ों को जानने की कला है। यह जानना जरूरी है कि मेरे जीवन का केंद्र कहां है? जहां से प्राण शक्ति पाते हैं, वह कहां है? वह बाहर है या भीतर? वह मेरा शरीर है या शरीर से भी कोई और गहरी चीज? कहां से मेरा जीवन प्राण पाता है? कहां से शक्ति पाता है? कहां से मेरे जीवन का सारा का सारा आधार है?
निश्चित ही जैसा मैंने कहा, अगर हम किसी वृक्ष के पास जाएं, तो जड़ें दिखाई नहीं पड़ती हैं, जड़ें तो जमीन के भीतर छिपी होती हैं। क्यों छिपी होती हैं जमीन के भीतर, कभी सोचा? जमीन के भीतर इसलिए छिपी होती हैं कि जीवन का जो भी काम है, जीवन की जो भी प्रक्रिया है, जीवन की जो भी रहस्यपूर्ण विकास की गति है, वह सब मौन, शांत, एकांत में कार्य करती है। अगर हम किसी आदमी को दस-पांच दिन न सोने दें, वह पागल हो जाएगा। क्यों? क्योंकि जीवन की जो भी गति थी, स्वास्थ्य का जो भी क्रम था, वह सब नींद में काम करता था। जब आदमी सोया हुआ था तब उसके सारे प्राण काम में संलग्न हो जाते थे। एक आदमी को हम जगाए रखें पंद्रह दिन तक, वह पागल हो जाएगा। और ज्यादा दिन जगाए रखें, वह मर भी जा सकता है, आत्महत्या भी कर ले सकता है।
चीन में पुराने दिनों में आदमी को सजा देते थे, तो सबसे बड़ी सजा यही थी कि उसको सोने न दिया जाए, उसे जगाए रखा जाए। दो सिपाही खड़े रहेंगे चौबीस घंटे और उसको जगाते रहेंगे, उसको खीलियों से छेदते रहेंगे ताकि वह सो न पाए। और दो-चार दिन के भीतर ही वह इतनी असह पीड़ा अनुभव करने लगता था, चिल्लाने लगता था, पागल हो जाता था, सिर दीवालों से फोड़ने लगता था। मौत से भी ज्यादा पीड़ा उसे झेलनी पड़ती थी। क्या हो गई तकलीफ? तकलीफ यह हो गई कि जीवन की शक्तियां जो काम करती थीं, जिनसे रोज-रोज ताकत मिलती थी, जिनसे रोज-रोज बल मिलता था, रोज-रोज थकान मिट जाती थी, वह काम करना उन्होंने बंद कर दिया। क्योंकि उनके काम करने के लिए जरूरी था कि सब मौन हो जाए, शांत हो जाए, चुप हो जाए, सब सो जाए। उस अंधेरे में, उस मौन में, उस साइलेंस में वे शक्तियां अपना काम करती हैं।
बच्चा मां के पेट में बड़ा होता है, दिखाई नहीं पड़ता, अदृश्य। जड़ें जमीन के भीतर छिपी होती हैं, दिखाई नहीं पड़तीं और काम करती रहती हैं। हमारे शरीर में चौबीस घंटे जीवन काम कर रहा है, हमें पता भी नहीं चलता। खून बह रहा है, हड्डियां बन रही हैं, मांस बन रहा है। तुमने खाना खा लिया है, वह अंधेरे में जाकर पच रहा है, खून बन रहा है, मांस बन रहा है। सारा जीवन अंधेरे में मौन काम कर रहा है। एक-एक आदमी के शरीर के भीतर इतनी बड़ी फैक्ट्री काम कर रही है कि अगर वह शोरगुल करे तो दुनिया में जीना मुश्किल हो जाए।
अब तक आदमी कोई फैक्ट्री नहीं बना सका जिसमें रोटी से खून बन सके; जिसमें हम रोटी डालें और खून तैयार हो जाए; जिसमें हम घास डालें और दूध बन जाए; जिसमें हम कुछ चीजें डाल दें और हड्डियां तैयार हो जाएं। अब तक हम तैयार नहीं कर पाए। हम नहीं तैयार कर पाएंगे। क्योंकि जो भी हम तैयार करेंगे वह इतना ऊपर और साफ होगा और जिंदगी के काम के लिए इतना चुप, इतना मौन, इतनी सीक्रेसी चाहिए, इतनी गुप्तता चाहिए कि उसका किसी को पता भी न चले।
तुम्हें शायद यह भी पता नहीं कि सारे जगत में तुम्हें जहां भी जीवन काम करता हुआ दिखाई पड़ रहा है--उसे चाहे जीवन कहो, चाहे परमात्मा कहो--वह बिलकुल मौन और अंधेरे में खड़ा हुआ काम कर रहा है। लोग कहते हैं, परमात्मा कहां है? वे परमात्मा को सामने देखना चाहते हैं।
छोड़ दें परमात्मा को; पूछें किसी से: जीवन कहां है? तो जीवन भी कहीं खोजने से न मिलेगा; जीवन भी मौन जड़ों में अंधेरे में काम कर रहा है चुपचाप। उसी जीवन से सारे पौधे पैदा होते हैं, पशु और पक्षी और मनुष्य और चांद और तारे, उसी जीवन की अंधेरे में छिपी हुई प्रक्रियाओं से सब कुछ पैदा हो रहा है।
लेकिन नासमझी में यह हो सकता है कि हम मान लें कि जो दरख्त दिखाई पड़ रहा है ऊपर जमीन के वही सच है, भीतर छिपी हुई जड़ें हैं ही नहीं, क्योंकि दिखाई नहीं पड़तीं। जो नहीं दिखाई पड़ता वह नहीं है। अगर यह तर्क हमारे खयाल में हो--जो हम सबके खयाल में है--जो दिखाई पड़ता है वह है, जो नहीं दिखाई पड़ता वह नहीं है। अगर यह खयाल हमारे ऊपर आ जाए तो फिर हम जड़ों की फिक्र छोड़ देंगे। पौधों की, पत्तों की फिक्र करेंगे, शाखाओं की फिक्र करेंगे। क्या यह पौधा बहुत दिन जीएगा? और अगर जीएगा भी तो रोज-रोज कुम्हलाता जाएगा, रोज-रोज इसकी हरियाली कम होती जाएगी, रोज-रोज इसमें फूल आने कम होते चले जाएंगे। एक दिन यह पौधा मर जाएगा।
अगर पौधा कुम्हलाने लगेगा तो हम समझ जाएंगे कि कोई भूल हो रही है। लेकिन आदमी रोज-रोज कुम्हलाता जाता है और हम नहीं समझ पाते कि कोई भूल हो रही है। और आदमी रोज-रोज दुखी और उदास होता चला जाता है और हम नहीं पहचान पाते कि कोई भूल हो रही है।
एक भूल हो रही है, हम आदमी की जड़ों को भूल गए हैं। हम आदमी के भीतर जो अदृश्य जीवन की शक्तियां हैं उनका हमें कोई स्मरण नहीं, उनका हमें विस्मरण हो गया है, उनकी हमें कोई याद नहीं है।
जीवन की कला में, जीवन की जड़ों को खोजना पहली बात है। निश्चित ही जड़ें भीतर हैं, क्योंकि वहीं से सब विकसित होता है। हमारा प्रेम कहां से विकसित होता है, कभी तुमने सोचा? हमारा चिंतन कहां से जन्मता है, तुमने कभी सोचा? हमारी सारी शक्ति कहां से आती है, कभी तुमने खयाल किया? भीतर से! एक दिन अचानक हमारे भीतर विचार का जन्म होता है, प्रेम का जन्म होता है। हमारे भीतर से कुछ उठता है और बाहर की तरफ फैलता चला जाता है। जीवन भीतर से बाहर की तरफ है।
लेकिन हमारी सारी शिक्षा, हमारा सारा समाज, हमारी सारी संस्कृति बाहर से भीतर की तरफ है। हम क्या कर रहे हैं अपने विद्यापीठों में, अपने स्कूलों में? कुछ ज्ञान बाहर से भीतर डाल रहे हैं। कुछ बातें सिखा रहे हैं, सीख लो। बाहर से डाली जा रही हैं बातें और भीतर हम उन्हें इकट्ठा कर रहे हैं।
यह ज्ञान झूठा है, यह ज्ञान जीवन की तरफ नहीं ले जा सकता। हां, इस ज्ञान से नौकरी मिल सकती है; इस ज्ञान से आजीविका चल सकती है; इस ज्ञान से वस्त्र मिल सकते हैं और अच्छा मकान मिल सकता है। इस ज्ञान से बाहर की कुछ चीजें मिल सकती हैं, क्योंकि यह ज्ञान बाहर से आया हुआ है। लेकिन इस ज्ञान से भीतर की जड़ें नहीं मिल सकतीं, मनुष्य की आत्मा नहीं मिल सकती। क्योंकि उसे जानने के लिए उस ज्ञान का भी जन्म होना चाहिए जो भीतर से आता है। इसलिए आदमी एक तरह की बहुत असंतुलित दशा में खड़ा हो गया है। उसका जड़ों से संबंध टूट गया है, वह अपनी ही रूट्‌स से टूटा हुआ है, अपनी ही जड़ों से उसका कोई वास्ता नहीं है।
क्या करें? कैसे हम अपनी जड़ों को खोज पाएं?
और अपनी जड़ों को खोज लेना ही आत्मा को खोज लेना है। धर्म का यदि कोई अर्थ है तो यही कि व्यक्ति अपनी आत्मा को कैसे खोज ले। और आत्मा से मतलब है जीवन की जड़ें, जहां से हमारे जीवन के पौधे में सारी शाखाएं निकलती हैं, उस जगह को हम कैसे खोज लें। और अगर हम उसे खोज पाएं तो हमारा आनंद प्रतिदिन बढ़ता चला जाएगा, और हमारे जीवन की हरियाली बढ़ती चली जाएगी, और हमारी खुशी बढ़ती चली जाएगी। मृत्यु के क्षण में जाकर हम परिपूर्ण जीवन तक पहुंच जाने चाहिए। मरते वक्त आदमी उतना आनंदित होना चाहिए जितना कभी न था।
बच्चा पैदा होते से रोता है। अगर न रोए तो मां-बाप फिकर करते हैं उसे जल्दी से रुला देने की। क्योंकि जो बच्चा नहीं रोया है पैदा होते से, शायद वह बच्चा जी नहीं सकेगा। क्योंकि मां से टूट गया, जहां एकदम शांति थी और एकदम मौन था और सब सुख था, वहां से टूट कर जो बच्चा नहीं रो रहा है, वह बच्चा या तो बीमार है, उसकी चेतना क्षीण है, या मर ही चुका है, या जल्दी मर जाएगा। तो उसे जल्दी से रुलाने की कोशिश की जाती है कि वह रोए। बचपन का पहला क्षण रोने से शुरू होता है, मृत्यु का अंतिम क्षण हंसने पर पूरा होना चाहिए। अगर बच्चा रोने से शुरू नहीं करता तो बीमार है, गलत है, मर जाएगा, बचेगा नहीं। और अगर बूढ़ा आदमी हंसते हुए नहीं मरता तो समझना चाहिए वह भी मरा हुआ जीया, वह भी जीवित नहीं था। जन्म की शुरुआत है रुदन, मृत्यु की पूर्णता होनी चाहिए परिपूर्ण हंसी पर।
एक फकीर दिन-रात हंसा करता था। लोगों ने कभी उसकी आंख में आंसू नहीं देखे, कभी पीड़ा नहीं देखी, कभी उदासी नहीं देखी। फिर उसके मरने का दिन करीब आ गया। और उसने अपने मित्रों को इकट्ठा किया, जो बहुत थे। क्योंकि जो आदमी जीवन भर हंसा है उसके मित्रों की कोई कमी रह जाएगी! जो आदमी जिंदगी में रोया है उसके शत्रु तो होंगे, मित्र उसके नहीं हो सकते। क्योंकि मित्रता का सेतु तो हंसना है, रोने से तो हम लोगों से टूट जाते हैं। रोते हुए आदमी का कौन मित्र होना चाहता है? हम अपनी ही उदासी से परेशान हैं, और एक उदास आदमी को मित्र बनाएंगे तो बोझ और बढ़ जाएगा। रोते हुए आदमियों से कौन संबंध जोड़ना चाहता है? दुखी और उदास और पीड़ित आदमियों को कौन अपने हृदय के निकट लेना चाहता है?
इसीलिए दुनिया में मैत्री कम होती जाती है, प्रेम कम होता जाता है। क्योंकि हर आदमी उदास और दुखी है, फिर चाहे वह पत्नी हो किसी की या पति हो, या मित्र हो, या पिता हो, या पुत्र हो, सब उदास हैं। इसलिए जीवन से मित्रता की सारी सुगंध चली गई, प्रेम का सारा आनंद चला गया।
वह आदमी जीवन भर हंसता रहा था, जो भी उसके निकट आया था उसका मित्र हो गया था। तुमने कभी हंसते हुए फूलों से शत्रुता की है? कांटों का कोई शत्रु हो सकता है, लेकिन फूलों का कौन होगा शत्रु? और जो आदमी जीवन में आनंदित है वह उस फूल की भांति हो जाता है जिसकी सुगंध सभी को प्रेम में बांध लेती है। उस आदमी के सभी मित्र थे। जब उसके मरने की खबर उड़ी तो लाखों लोग उस छोटे से गांव में इकट्ठे होने लगे। और वह सुबह आ गई जब उसने कहा था कि मेरी श्वासें समाप्त हो जाएंगी।
और शायद तुम्हें यह भी मैं कह दूं कि जो आदमी दुख में जीता है, वह मृत्यु से इतना डरा रहता है, इसी कारण उसे अपनी मृत्यु का कोई पता नहीं चल पाता। लेकिन जो परिपूर्ण आनंद में जीता है उसे क्रमशः दिखाई पड़ने लगता है कि अब उसके डूबने का और विदा होने का क्षण आ गया है। जैसे नदी जब सागर में गिरने लगती है तो उसे दिखाई पड़ जाता है कि आ गया सागर सामने। ऐसे ही जो आदमी आनंद में जीता है वह जानता है उस क्षण को कि कब, कब उसकी श्वासें बिखर जाएंगी और अनंत में लीन हो जाएंगी और कब उसके प्राण महाप्राण से जुड़ जाएंगे, कब उसकी नदी सागर में गिर जाएगी। उसे दिखने लगता है। क्योंकि जो आनंदित है, डरा हुआ नहीं है, उसकी आंखें खुली होती हैं। जो डरा हुआ है, भयभीत है, दुख से भरा है, उसकी आंखें बंद होती हैं। इसलिए सबसे बड़ी चीज जो दिखाई पड़ जानी चाहिए थी, अपनी जीवन सरिता की, परमात्मा के महासागर में मिलने की जो घड़ी, वह भी उसे दिखाई नहीं पड़ती। बंद आंखें कुछ भी नहीं देख सकतीं। और आंखें आंसुओं से बंद हो जाती हैं, दुख से बंद हो जाती हैं।
तो वह आदमी को खबर हो गई कि कल सुबह विलीन हो जाएगा। बहुत मित्र उसके इकट्ठे हो गए। उसने उन सारे मित्रों को कहा, मेरे मित्रो, मेरी एक प्रार्थना है। मैंने जीवन भर तुमसे कुछ भी नहीं चाहा, कोई आकांक्षा नहीं की, फिर भी तुमने मुझे बहुत कुछ दिया। मैंने तुमसे मांगा नहीं था, लेकिन मेरी झोली हमेशा भरी रही।
सच तो यह है, जो मांगता है उसकी झोली हमेशा खाली रह जाती है, जो नहीं मांगता उसकी झोली भर जाती है। जो नहीं मांगता उसे देने का मन होता है, जो मांगता है उससे बच जाने की इच्छा होती है। इसलिए जीवन में वे लोग बहुत पा जाते हैं जो नहीं मांगते, और वे लोग भिखारी रह जाते हैं जो मांगते हैं। स्मरण रखना इस बात को, जो चीज चाहनी हो उसे मांगना मत।
तो उसने कभी नहीं चाहा था, बहुत उसे मिला था। उसने अपने मित्रों से कहा, बहुत तुमने मुझे दिया बिना मांगे, अब एक बात मैं मांगता हूं अंतिम, यह मुझे दे देना। मैं मर जाऊं तो मेरे वस्त्र मत बदलना, मैं जो वस्त्र पहन कर मरूं, उनको ही पहना कर तुम मुझे दफना देना। रही स्नान करने की बात...उस मुल्क में भी, जहां की यह घटना है, आदमी मर जाता था तो उसे स्नान करवाते थे...उस आदमी ने कहा, मैं खुद स्नान किए लेता हूं, ताकि तुम्हें स्नान करवाने की तकलीफ न उठानी पड़े, और मेरे कपड़े मत बदलना।
उसने स्नान कर लिया, उसने कपड़े पहन लिए, और वह लेट रहा, और उसने हाथ जोड़ कर अपने मित्रों से विदा ले ली। उसकी आंखों में बड़ी चमक थी, उसके चेहरे पर बड़ी रौनक थी, उसके ओंठों पर बड़े गीत थे; जैसे वह किसी बड़े मिलन को जाता हो; जैसे मृत्यु नहीं, कोई बहुत प्रियजन से मिलने की यात्रा करता हो। वह चल बसा। उसने चाहा था इसलिए उसके कपड़े न बदले गए। लोग रोने लगे, और उदास और दुखी हो गए और आंसुओं से भरे हुए उसे वे मरघट की तरफ ले गए। जब उसे चिता पर चढ़ाया, आंख में आंसू थे, हृदय में आह थी, लेकिन जैसे ही उसकी लाश चिता पर चढ़ी, थोड़ी देर में उस मरघट पर जुड़े हुए वे लाखों लोग हंसने लगे।
क्या हो गया? मरघट पर कभी कोई हंसा है? लेकिन वह आदमी बड़ा गजब का होगा,
उसने अपने वस्त्रों में फुलझड़ी और पटाखे छिपा रखे थे। आग लग गई चिता में, फुलझड़ियां फूटने लगीं, पटाखे आवाज करने लगे। लोग हंसने लगे। और लोगों ने कहा, धन्य था वह व्यक्ति, जीया तो हंसता हुआ, मरा तो हंसता हुआ। और हम उसे विदा रोते हुए न दें इसलिए वह फुलझड़ी और पटाखे भी अपने साथ रख कर सो गया, ताकि हम हंसते हुए उसे विदा दें।
जीवन अगर ठीक-ठीक हो, तो न केवल वह आदमी हंसता हुआ जीएगा, बल्कि उसके जीवन के करीब जो आएंगे वे भी हंसेंगे और खुशी से भर जाएंगे। न केवल वह हंसता हुआ जीएगा, बल्कि हंसता हुआ मरेगा। और उसकी मृत्यु भी एक बड़ी पवित्रता और प्रेम की घटना होगी और उसकी मृत्यु भी एक मंगल वर्षा की तरह जीवन पर छा जाएगी।
लेकिन मृत्यु हमारी मंगल वर्षा करे, यह तो बहुत दूर, हमारा जीवन ही मंगल वर्षा नहीं कर पाता। यह तो दूर कि हमारी मृत्यु भी लोगों के लिए आनंद की वर्षा बन जाए, हमारा जीवन ही लोगों के लिए आनंद नहीं बन पाता। हमारा जीवन भी दूसरों को दुख देता है। हम जिस ढंग से जीते हैं उस ढंग से हम हरेक को दुख देते हैं जो हमारे निकट आता है। असल में हम गलत जीते हैं, इसलिए हम दुख देंगे ही।
तो पहली बात जाननी जरूरी है: जीवन का ठीक-ठीक विकास निरंतर आनंद की ओर है। पर वह तभी हो सकता है...पौधे का विकास निरंतर हरियाली, फूल और फल की ओर है। लेकिन वह तभी हो सकता है जब जड़ों से संबंध हो और जड़ों का खयाल हो, फिकर हो, जड़ों को पानी मिले। हमें जड़ों का खयाल नहीं है। तो मैं जड़ों की याद दिलाना चाहता हूं। और जड़ों की याद से मेरा मतलब है आत्मा की याद।
किन सूत्रों से तुम्हें यह याद आ सकेगी?
पहला सूत्र: हमेशा इस बात का ध्यान रखना कि जिसे अपनी आत्मा को, जड़ों को, आनंद को, मुक्ति को, जो भी जीवन में सुंदर और सत्य है उसे पाना हो, उसे भीतर से बाहर की ओर जीना है, बाहर से भीतर की ओर नहीं। भीतर से बाहर की ओर जीना है, बाहर से भीतर की ओर नहीं।
यह बात थोड़ी कठिन है। मैं समझाऊं तो शायद तुम्हारी समझ में आ सके।
हम अभी जैसा जीते हैं, बाहर से भीतर की ओर जीते हैं। बाहर से भीतर की ओर जीने का सूत्र है--अनुकरण, दूसरों का अनुकरण। बाहर से भीतर की ओर जीने का सूत्र है--अनुकरण, दूसरों का अनुकरण। हम बच्चों को सिखाते हैं--राम जैसे बन जाओ, बुद्ध जैसे बन जाओ, गांधी जैसे बन जाओ। यह बाहर से भीतर की तरफ जीने की तरकीब हुई। यह गलत बात है। जो बाहर से भीतर की तरफ जीएगा, धीरे-धीरे उसकी आत्मा खो जाएगी। क्योंकि आत्मा का जन्म और आत्मा का विकास तो भीतर से बाहर की तरफ जीने से होता है।
बाहर से भीतर की तरफ जीने का सूत्र है--अनुकरण। भीतर से बाहर की तरफ जीने का सूत्र है--व्यक्तित्व, इंडिविजुअलिटी। किसी के पीछे मत जाना कभी, किसी का अनुकरण मत करना, किसी के जैसे बनने की कोशिश मत करना। क्योंकि जो किसी और जैसा बनने की कोशिश करता है वह और जैसा तो बन नहीं पाता, बन नहीं सकता, लेकिन हां, जो बन सकता था, उसके बनने से वंचित रह जाता है।
जैसे किसी बगिया में हम जाएं और चमेली के फूलों से कहें कि तुम गुलाब के फूल बन जाओ और गुलाब के फूलों से कहें कि तुम जुही के फूल बन जाओ।
पहली तो बात यह है कि फूल इतने नासमझ नहीं हैं कि हमारी बात मान लेंगे, लेकिन आदमी इतना नासमझ है कि बातें मान लेता है। फिर भी कोई फूल नासमझ हो और मान ले और चमेली यह कोशिश करने लगे कि मैं गुलाब का फूल हो जाऊं, तो क्या होगा? चमेली गुलाब का फूल हो सकती है? उसकी जड़ों में गुलाब नहीं है, तो उसकी शाखाओं पर गुलाब कैसे हो जाएगा? उसकी जड़ों में तो चमेली छिपी है और वह कोशिश करेगी गुलाब होने की। और गुलाब होने की कोशिश में अनिवार्य रूप से चमेली होने को दमन करेगी, सप्रेस करेगी कि कहीं मैं चमेली न हो जाऊं, मुझे गुलाब होना है। तो मैं चमेली न हो जाऊं, इसको दबाएगी, दबाएगी, और गुलाब होने की कोशिश करेगी। गुलाब तो हो नहीं सकती, क्योंकि वह उसकी जड़ में नहीं; और चमेली वह हो नहीं पाएगी, क्योंकि चमेली होने को खुद दबा लेगी। उसमें फूल नहीं लगेंगे। और जब फूल न लगेंगे तो उसके प्राण इतने तड़फड़ा जाएंगे, इतने आकुल हो उठेंगे कि वह सब तरफ से कुरूप और अग्ली हो जाएगी, सब तरफ से विकृत हो जाएगी, उसके जीवन का सारा सौंदर्य खो जाएगा।
और जब वह न हो पाएगी गुलाब, तो कितनी दीनता और कितनी हीनता उसके मन में भर जाएगी! कितनी इनफीरिआरिटी भर जाएगी! वह उस बगिया में ऐसा लगने लगेगी कि दुर्भाग्य वाली है। पता नहीं पिछले जन्मों के कर्मों के कारण यह दुर्भाग्य हो गया है या क्या हो गया! वह सोचेगी अपने को कि मेरा कोई दुर्भाग्य है इसलिए मुझमें फूल नहीं खिलते। और जब दूसरों में फूल खिलेंगे तो उसके मन में ईर्ष्या भर जाएगी, जेलेसी भर जाएगी, जलन भर जाएगी। हो सकता है उसका बस चले तो वह दूसरों के फूलों को खिलने के पहले गिरा देगी। उसका बस चले तो दूसरों की जड़ों में वह जहर छिड़क देगी। ताकि अगर मुझमें फूल नहीं खिलते तो किसी में भी फूल न खिल पाएं। तब यह तो कहा जा सके कि फूल खिलते ही नहीं, इसमें मेरा क्या कसूर है! यह उस चमेली की हालत हो जाएगी।
यही हम में से बहुत आदमियों की हालत हो गई है। क्योंकि हमसे कहा जाता है--राम जैसे बन जाओ, बुद्ध जैसे बन जाओ। और पता नहीं हमारे भीतर क्या छिपा हो! और हम किसी और जैसे बनने की कोशिश में लग जाएंगे तो एक बात तय है--जो हमारे भीतर छिपा था वह छिपा ही रह जाएगा, उसके प्रकट होने के द्वार बंद हो जाएंगे। और जो छिपा था वही थी हमारी जड़, वही थी हमारी आत्मा, वही था हमारा व्यक्तित्व। उसकी हत्या हो गई। हत्या नहीं, उसकी हमने आत्महत्या कर ली, अपने हाथ से उसे मार डाला।
हम सब आत्महंता हैं। सारी जमीन पर अधिकतम लोग आत्महंता हैं, अपनी हत्या करने वाले लोग हैं। क्योंकि हम सब अपने खिलाफ लड़ते हैं और किसी और जैसा होने की कोशिश करते हैं। आज तक वह शुभ दिन नहीं आ सका कि हम अपने बच्चों से कह सकें कि तुम अपने जैसे बन जाना, और किसी जैसे नहीं। जो तुम्हारे भीतर छिपा हो उसे विकसित करना।
और क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में एक जैसे दो आदमी कभी नहीं होते! हो भी नहीं सकते। राम को हुए कितने हजार वर्ष हो गए, दूसरा राम कहां है? कितने लोगों ने कोशिश नहीं की, लेकिन दूसरा राम कहां है? बुद्ध को हुए कितना समय हुआ, लेकिन दूसरा बुद्ध कहां है? क्राइस्ट को हुए कितना समय हुआ, लेकिन दूसरा क्राइस्ट कहां है? क्यों नहीं हो सका कोई दूसरा क्राइस्ट?
असल में हर आदमी अनूठा है, अद्वितीय है, बेजोड़ है, यूनीक है। आदमी तो दूर, तुम एक जैसे दो पत्थर भी खोज कर नहीं ला सकती हो। तुम एक बड़े भारी दरख्त पर दो पत्ते भी ठीक एक जैसे नहीं खोज सकती हो। पत्तों का भी अपना व्यक्तित्व है, कंकड़ों का भी अपना व्यक्तित्व है, हर चीज की अपनी इंडिविजुअलिटी है, आदमी को छोड़ कर। क्योंकि आदमी दूसरे जैसे होने की कोशिश में अपने व्यक्तित्व को पोंछ बैठा, मिटा बैठा। उसने अपने हाथ से अपनी शक्ल पर रंग पोत लिया है। वह डरा हुआ है कि कहीं मैं अलग न हो जाऊं! और हमारी पूरी संस्कृति यह सिखा रही है कि दूसरे जैसे हो जाओ। जैसे दूसरे लोग कपड़े पहनते हैं वैसे कपड़े तुम भी पहनना; जैसे दूसरे लोग चलते हैं, तुम भी चलना; जैसे दूसरे लोग बाल बनाते हैं, तुम भी बनाना।
यहां तक तो बात फिर भी ठीक थी...ठीक तो नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे हम दूसरों जैसे होने की इतनी आदत में पड़ जाते हैं कि आदमी का व्यक्तित्व खो जाता है। उसका अनूठापन, उसका अपनापन खो जाता है। और उस अनूठेपन में ही उसकी आत्मा थी।
मैं तुमसे कहता हूं, दूसरों जैसे होने से बचना, भीड़ से बचना; हमेशा इस कोशिश में मत रहना कि मैं दूसरों जैसा रहूं। दूसरों जैसे रहने में तुम्हारे अपने व्यक्तित्व में जो भी खूबियां थीं वे पैदा नहीं हो पाएंगी। और यह बात कपड़ों तक ही सीमित नहीं है, यह बात पूरी आत्मा तक प्रविष्ट हो जाती है। तुम अपने व्यक्तित्व को खोजने की कोशिश करना। तुम पैदा हुई हो तो जरूर परमात्मा ने चाहा है कि कोई नया व्यक्ति पैदा हो, जरूर तुम्हारे भीतर कोई खजाना छिपा दिया है जो प्रकट हो जाए, जरूर तुम्हारे भीतर कोई फूल की पोटेंशियलिटी है, कोई चीज छिपी है, जो अभिव्यक्त होना चाहती है। दूसरे जैसे होने की कोशिश में वह पड़ी रह जाएगी, वह खजाना दबा रह जाएगा।
इसलिए दुनिया में आदमियत रोज-रोज कम होती जाती है। क्योंकि हममें यह साहस नहीं है कि हम कह सकें कि मैं खुद होने को पैदा हुआ हूं। मैं दूसरा जैसा होने से इनकार करता हूं। यह विद्रोह और यह साहस होना चाहिए हर बच्चे में। और जो मां-बाप उस बच्चे को प्रेम करते हैं और जो गुरु उस बच्चे को प्रेम करते हैं, उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि वह बच्चा बगावती हो जाए, रिबेलियस हो जाए। वह कनफर्मिस्ट न हो, वह जैसे दूसरे लोग हैं वैसे होने की कोशिश में न पड़ जाए। यह गुरु का सबसे बड़ा कर्तव्य है और शिक्षालय का कि वह हर बच्चे का जो अनूठा व्यक्तित्व है उसको बताता रहे कि तू अनूठा है। अपने अनूठेपन को खोज, उसे विकसित कर। दूसरों की छाया से बच, दूसरों जैसे होने की आकांक्षा से बच। डर मत।
हममें डर है, अकेले खड़े होने में डर है। इसलिए तो हम सब एक जैसे कपड़े पहन लेते हैं, एक जैसे बाल बना लेते हैं, एक जैसे गहने खरीद लेते हैं, एक जैसे जूते खरीद लेते हैं। धीरे-धीरे हम इतने डर जाते हैं कि अलग खड़े होने में एक डर है। भीड़ के साथ खड़े होने में अच्छा लगता है। क्योंकि कोई डर नहीं, जैसे सब हैं वैसे हम हैं, उनमें हम खो जाते हैं। लेकिन अनूठे होने में, अपने जैसे होने में एक भय है। कहीं भीड़ नाराज न हो जाए! कहीं भीड़ इनकार न करने लगे! कहीं भीड़ यह न कहने लगे कि यह आदमी ठीक नहीं है!
और भीड़ ऐसा कहेगी और अब तक कहती रही है। क्राइस्ट को सूली पर चढ़ा देती है भीड़, क्योंकि क्राइस्ट अलग तरह का आदमी है। भीड़ जिस मंदिर में जाती है, क्राइस्ट कहता है कि गलत है उस मंदिर में जाना; तो यह आदमी अलग तरह का है। भीड़ जिस किताब को पूजती है, क्राइस्ट कहता है कि गलत है वह किताब। भीड़ कहती है, जो आदमी एक चांटा मारे, दो चांटे तुम उसको मार देना। जो तुम्हारी एक आंख फोड़े, तुम दोनों फोड़ देना। और क्राइस्ट कहते हैं कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा उसके सामने कर देना। यह आदमी अलग हो गया, यह भीड़ की भाषा में नहीं बोल रहा है। भीड़ गुस्से में आ जाएगी, क्रोध से भर जाएगी। हत्या कर दो ऐसे आदमी की जो अलग है! क्योंकि यह अलग आदमी भीड़ की सत्ता को इनकार करता है। गांधी को हम गोली मार देते हैं, क्योंकि गांधी भीड़ का हिस्सा नहीं है। गांधी अपनी तरह का आदमी है। सुकरात को हम जहर पिला देते हैं, क्योंकि सुकरात भीड़ का हिस्सा नहीं है।
लेकिन क्या तुम्हें पता है, दुनिया में जिन लोगों की जिंदगी में भी फूल खिले हैं वे कोई भी भीड़ के हिस्से नहीं थे। जमीन पर जब भी कोई आदमी पूरा आदमी बना है तो वह भीड़ का हिस्सा नहीं था। वह हमेशा अनूठा था, अपने जैसा था, उसकी कोई जोड़ नहीं थी। इसलिए अगर तुम्हें भी अपने जीवन के फूल खिलाने हों तो खयाल रखना, भीड़ से बचना और अपने जैसे होना, डरना मत। और अगर हमारे सारे बच्चे इस बात को समझ जाएं तो फिर भीड़ उन्हें परेशान भी न कर सकेगी। क्योंकि भीड़ कौन बनाता है? हम ही तो भीड़ बनाते हैं। अगर यहां चालीस या पचास ल
ड़कियां बैठी हैं, वे सब मिल कर भीड़ बनाती हैं। और अगर वे सब अपने-अपने व्यक्तित्व को अनूठे रास्तों पर ले जाना शुरू कर दें तो भीड़ कहां है फिर? फिर एक-एक आदमी है, भीड़ नहीं। फिर भीड़ का कोई भय न रह जाएगा। हम ही भीड़ बनाते हैं, हम ही भय पैदा कर देते हैं, फिर हम ही को डरना पड़ता है, फिर हम ही उस भीड़ में दब जाते हैं और परेशान हो जाते हैं।
तो पहला सूत्र है अपनी जड़ें खोजने का: अनुकरण मत करना, अपने व्यक्तित्व को खोजना।
अपने व्यक्तित्व की खोज में बड़ा साहस चाहिए, करेज चाहिए, हिम्मत चाहिए। और इसलिए जितना ज्यादा तुम साहस करोगी, जितनी ज्यादा हिम्मत करोगी, उतनी ही तुम्हारी आत्मा बली होती चली जाएगी, बलवान होती चली जाएगी। जिंदगी फूलों का रास्ता नहीं है, एक बड़ी लड़ाई है। सब तरफ जो लोग हैं, उनका जो ढांचा है, उस ढांचे से बचने की लड़ाई है जिंदगी।
एक युवक एक विश्वविद्यालय से शिक्षा लेकर वापस लौटा था। इमर्सन जिस गांव में रहता था उसी गांव का वह लड़का था। उस लड़के के स्वागत में--उस गांव का वह पहला लड़का था जिसने ऊंची से ऊंची शिक्षा पाई थी--उसके स्वागत में एक समारोह हुआ, और बूढ़े इमर्सन को लोगों ने कहा कि वह भी दो शब्द आशीर्वाद के कहे।
इमर्सन ने क्या कहा? उसे अपने मन पर खोद कर रख लेना।
इमर्सन ने कहा, मैं इस लड़के की तारीफ करता हूं। इसलिए नहीं कि यह शिक्षा की सबसे बड़ी उपाधि लेकर लौटा है, बल्कि इसलिए कि विश्वविद्यालय से, विश्वविद्यालय की शिक्षा से गुजरने के बावजूद भी यह अपने व्यक्तित्व को बचा कर घर आ गया है। इसमें अपना व्यक्तित्व है, विश्वविद्यालय इसके व्यक्तित्व को नष्ट नहीं कर पाया। यह सामान्यजन नहीं हो गया, यह अपनी खूबियों को बचा कर आ गया।
हमारी सारी शिक्षा मास-प्रोडक्शन है, भीड़ के लिए है, व्यक्ति के लिए बिलकुल नहीं है। तो इसलिए पंद्रह साल इस फैक्ट्री में से गुजरने पर बहुत स्वाभाविक है कि आदमी आदमी न रह जाए, भीड़ का एक अंक रह जाए। जैसा मिलिटरी में होता है। कोई आदमी मरता है तो वे यह नहीं कहते कि रामलाल मर गया; वे कहते हैं, नंबर तीन मर गया।
तुम सोचो, जब हम कहें कि रामलाल की मृत्यु हो गई, तो ऐसा लगता है कोई आदमी मर गया; और हम कहें नंबर तीन गिर गया, तो कुछ पता नहीं चलता। कितने नंबर गिर जाते हैं, कोई पता नहीं चलता।
तो मिलिटरी में नंबर रख लिए हैं, ताकि आदमी मरने का कोई पता न चले। वे कहते हैं, आज पंद्रह नंबर खत्म हो गए। पंद्रह आदमी मर गए, तो चोट लगती है मन पर। लेकिन पंद्रह नंबर खत्म हो गए, क्या फर्क पड़ता है? पंद्रह नंबर की जगह दूसरे पंद्रह नंबर लिख जाएंगे। तो सारी दुनिया में मिलिटरी में आदमी का कोई नाम नहीं होता। क्योंकि नाम से इंडिविजुअलिटी होती है, नाम से एक आदमी अलग हो जाता है। तो नंबर होते हैं, नंबर से कोई अलग नहीं होता।
मिलिटरी में एक जैसे कपड़े होते हैं, एक जैसे जूते होते हैं, एक जैसी टोपी होती है। अगर हजार मिलिटरी के आदमी खड़े हैं तो उनमें कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ता, हजार सैनिक दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरों में कोई व्यक्तित्व नहीं रह जाता। फिर उनको सुबह से सांझ तक--बाएं घूमो, दाएं घूमो, लेफ्ट टर्न, राइट टर्न--ऐसी बेवकूफियां करवाई जाती हैं जिनका कोई मतलब नहीं है। लेकिन एक गहरा मतलब है। जब एक हजार आदमियों को कहा जाता है--बाएं घूमो! और वह पूरी कतार एक साथ बाएं घूमती है, तो धीरे-धीरे व्यक्ति का बोध खत्म हो जाता है, कतार का बोध रह जाता है, पूरी कतार का बोध! इसीलिए मिलिटरी में सख्त होती है यह बात कि जब सब घूम रहे हैं, कोई अगर खड़ा रह जाए तो उसे सजा मिलेगी। क्योंकि उसने व्यक्तित्व की घोषणा की, वह पंक्ति से अलग उसने होने की हिम्मत की। गलत है यह आदमी, इसको सजा मिलेगी। पंक्ति के साथ घूमो! पंक्ति घूमती है बाएं तो तुम घूम जाओ और आज्ञा का उल्लंघन मत करो।
इसलिए मिलिटरी में रहते-रहते आदमी का मस्तिष्क और व्यक्तित्व दोनों समाप्त हो जाते हैं। तभी तो मिलिटरी का आदमी इतनी हिंसा कर पाता है, हत्या कर पाता है। अगर उसमें समझ हो, व्यक्तित्व हो, इतनी हत्या नहीं कर सकता।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया, उससे पीछे किसी ने पूछा कि तुम्हें कुछ लगा नहीं कि तुम क्या कर रहे हो यह? एक लाख आदमी मर जाएंगे तुम्हारे बम गिराने से! क्या तुम में इतनी हिम्मत न आई कि तुम कह देते अपने जनरल को कि मैं नहीं गिराऊंगा? चाहे मुझे गोली मार दो, एक ही मरूंगा मैं। एक लाख आदमी मारने का मैं...
उसने कहा, यह सवाल ही नहीं उठा। आर्डर इज़ आर्डर! आज्ञा आज्ञा है! मुझे तो आदत है। बाएं घूमो! तो मैं बाएं घूमता हूं। दाएं घूमो! तो मैं दाएं घूमता हूं। उन्होंने कहा यह बम गिराओ! मुझे खयाल ही नहीं आया कि क्या मतलब है इसका। मैंने जाकर बम गिराया और मैं लौट आया।
तुम सोच सकते हो, एक आदमी को यह खयाल भी न आए कि इसका क्या परिणाम होगा! एक लाख लोग, छोटे-छोटे बच्चे जो अभी स्कूल से घर लौटे थे, स्त्रियां जो अपने घर में बच्चों के लिए भोजन तैयार कर रही थीं, पुरुष जो अपने दफ्तरों से वापस आ रहे थे, किसी को खयाल भी न था कि जीवन की अंतिम घड़ी आ गई। वे एक लाख लोग थोड़े ही क्षणों में राख हो गए। और उस आदमी को, जिसने गिराया था, न खयाल आया, न विचार आया।
विचार आता, अगर उसके पास अपनी आत्मा होती। विचार आता, अगर उसके पास अपना व्यक्तित्व होता। खयाल आता उसे और अगर उसमें थोड़ी भी मनुष्यता होती तो वह कहता: गोली मार दो मुझे, लेकिन मैं यह नहीं गिराता।
लेकिन नहीं, दस साल लेफ्ट-राइट करते-करते, एक से कपड़े पहने हुए, पंक्ति में घूमते-घूमते वह भूल गया कि मैं भी हूं। कोई सवाल न रहा उसके होने का।
धीरे-धीरे दुनिया में, जैसा मिलिटरी कैंप में होता है, पूरी दुनिया में, पूरे समाज में हुआ जा रहा है। हमको पता भी नहीं चल रहा कि हम भी एक बड़े मिलिटरी कैंप के हिस्से होते जा रहे हैं। हम सब भी सैनिकों की भांति होते जा रहे हैं। एक से कपड़े, एक सी शिक्षा, एक सा उठना और बैठना, एक सी कवायद, सब एक सा। फिर धीरे-धीरे वह जो अनूठी आत्मा है वह कैसे विकसित हो? वह नहीं होगी।
इसलिए पहला सूत्र है: अनुकरण मत करना। दूसरों से हमेशा उनके जैसा होने की कोशिश मत करना, बल्कि खोजना अपने जैसा होने का कोई कारण, कोई रास्ता। लेकिन यह तुम तभी खोज पाओगे जब दूसरा सूत्र भी समझ लो। वह दूसरा सूत्र है: विचार।
पहला सूत्र है: व्यक्तित्व। विरोधी सूत्र है: अनुकरण।
दूसरा सूत्र है: विचार। विरोधी सूत्र है: श्रद्धा, विश्वास।
तो जो भी तुमसे कहा जाए उस पर आंख बंद करके कभी विश्वास मत करना। नहीं तो तुम अनुकरण करने में अपने आप पड़ जाओगे। उस पर विचार करना, सोचना। और चाहे दुनिया का बड़े से बड़ा आदमी कहता हो, खुद भगवान उतर कर कहता हो कि यह ठीक है, तो भी तुम शक करना और कहना कि मैं सोचूंगा। मैं सोचूं, मुझे ठीक लगे, तो मैं स्वीकार करूं, नहीं तो मैं स्वीकार करने को नहीं हूं।
जिन कौमों के बच्चों ने विचार किया, वहां विज्ञान का जन्म हो गया। जिन कौमों के बच्चों ने विश्वास किया, वहां कोई विज्ञान पैदा नहीं हो सका। हमारी कौम के बच्चे विश्वास करते रहे, उन्होंने विचार नहीं किया, इसलिए इस मुल्क में कोई विज्ञान विकसित नहीं हुआ । दूसरी कौमें चांद-तारों पर पहुंच गईं, हम बैलगाड़ी से आगे नहीं हैं। हम आगे हो भी नहीं सकते। हैरानी है यही कि जिस आदमी ने सबसे पहले बैलगाड़ी बनाई होगी, वह भी बड़ा विद्रोही रहा होगा। नहीं तो पैदल ही चलना काफी था। और जिस पहले आदमी ने सबसे पहले चार पैर की जगह दो पैर से खड़ा हुआ होगा, वह भी बड़ा रिबेलियस रहा होगा। नहीं तो चार ही पैर से चलना ठीक था। और जो बंदर पहली दफा चारों पैर से छोड़ कर दो पैर से खड़ा हुआ होगा, तुम्हें पता है, बाकी बंदरों ने उसकी हत्या कर दी होगी। उन्होंने कहा होगा: यह बड़ा विद्रोही मालूम होता है, बड़ा इंकलाबी मालूम होता है। हम सब चार पैर से चलते हैं, इसको यह सूझी दो पैर से चलने की!
लेकिन वही बंदर जो दो पैर से चला, सारी मनुष्यता के विकास का केंद्र हो गया, प्राथमिक बिंदु हो गया।
हमेशा जिन्होंने विद्रोह किया है, उन्होंने विकास किया है। लेकिन विद्रोह तब होता है जब विचार हो। जो लोग विश्वास करने के आदी हो जाते हैं उनमें विचार पैदा नहीं होता।
तुमको सिखाया जाएगा--विश्वास करो। तुम्हारे मां-बाप तुमसे कहेंगे--अगर तुम हिंदू घर में पैदा हुए हो तो तुम हिंदू हो। तुम शक करना इस बात पर--कि आदमी हिंदू और मुसलमान कैसे हो सकता है? आदमी तो आदमी है। बच्चा पैदा होता है, उस पर कहीं नहीं लिखा होता कि यह जैन है, कि बौद्ध है, कि हिंदू है, कि मुसलमान है, कहीं नहीं लिखा होता। ये मां-बाप लेकिन समझाएंगे कि तुम मुसलमान हो, हिंदू हो, फलां हो। और उसी के साथ तुमको वे सब जहर भी सिखा देंगे जो वे खुद जानते हैं। वे सिखा देंगे कि अगर तुम हिंदू हो तो मुसलमान तुम्हारा दुश्मन है। और इसके पहले कि तुम्हारे जीवन में सोच-विचार आए, तुम मुसलमान के दुश्मन हो जाओगे--ईसाई के, हिंदू के दुश्मन हो जाओगे। और यह दुश्मनी मनुष्य को इतना परेशान कर रही है जिसका कोई हिसाब नहीं।
लेकिन तुम अगर विचार करो तो तुम्हारे मन में यह खयाल आएगा कि बच्चे तो बच्चे की तरह पैदा होते हैं। एक मुसलमान का बच्चा और एक हिंदू का बच्चा साथ रखा जाए तो उनमें कोई कल पता चल सकेगा कि यह अलग धर्म का है, यह अलग धर्म का? नहीं! कल वे एक-दूसरे की हत्या कर सकेंगे? नहीं! कल वे मस्जिद में आग लगा सकेंगे? हिंदुस्तान और पाकिस्तान बना सकेंगे? नहीं, वे बच्चे इस तरह की बेवकूफियां नहीं करेंगे।
लेकिन जिन पीढ़ियों ने ये बेवकूफियां की हैं, वे पीढ़ियां तुम्हें अपनी नासमझियां भी सिखाने की कोशिश करेंगी। और वे तुमसे कहेंगी--विश्वास करो हमारी बात पर।
इसलिए अगर तुम्हें कभी अपने जीवन में अपनी आत्मा खोजनी हो तो विश्वास मत करना। संदेह में मर जाना बेहतर है, लेकिन विश्वास में जीना बेहतर नहीं है। क्योंकि जो संदेह करता है, शक करता है, डाउट करता है, उसके भीतर विचार की ताकत जगनी शुरू हो जाती है। और जो विश्वास करता है उसके भीतर विचार की ताकत पैदा ही नहीं होती। जो विश्वास करता है, विचार की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए तुम विश्वास मत करना।
तुम्हें पता है, हिंदुस्तान में स्त्रियों को हमने हजारों साल तक समझाया कि तुम्हारा पति मर जाए तो तुम भी उसके साथ चिता में मर जाना। करोड़ों स्त्रियों को हमने आग में भून दिया। उन किसी स्त्री ने भी यह शक न किया कि जब स्त्री मरती है तो पुरुष उसके साथ आग में क्यों नहीं कूद जाते? उन्होंने विश्वास कर लिया कि पुरुष यह जो कहता है, ठीक कह रहा है, कि पति जब मर जाए तो पत्नी को मर जाना चाहिए उसके साथ, यह उसका कर्तव्य है। लेकिन किसी स्त्री ने भारत में यह शक न किया कि ये पुरुष क्यों नहीं मरते जब उनकी पत्नी मर जाती है? यह इनका कर्तव्य और धर्म नहीं है? स्त्रियां मरती रहीं। और स्त्रियां जब विश्वास कर लेती हैं तो बहुत खतरनाक हो जाता है, क्योंकि उनका विश्वास उनके बच्चों में भी वे प्रवेश करवा देती हैं।
आज हिंदुस्तान में करोड़ों विधवाएं हैं। लेकिन स्त्रियां शायद पूरी तरह से अभी भी शक नहीं कर रही हैं कि यह क्या पागलपन है? उनके जीवन को ऐसा नरक बनाने की क्या जरूरत है?
हिंदुस्तान में करोड़ों लोगों को हमने शूद्र बना कर इतना सताया है जिसका कोई हिसाब नहीं। लेकिन हमारे बच्चों ने कभी नहीं सोचा कि हम आदमियों के साथ यह क्या कर रहे हैं?
और हमारे बड़े से बड़े महापुरुष भी ऐसी नासमझी की बातें लिख गए हैं कि हैरानी होती है। वे लिख गए हैं कि अगर कोई शूद्र वेद के वचन पढ़ता हुआ मिल जाए, तो उसके कान में शीशा पिघलवा कर भरवा देना। और ऐसी घटनाएं घटी हैं कि शूद्रों के कान में उबलता हुआ शीशा भर दिया गया और वे मर गए। और इस मुल्क ने शक न किया कि यह क्या हो रहा है? यह क्या पागलपन है? यह क्या नासमझी है?
शक इसलिए नहीं किया कि बच्चों को शक करना सिखाया ही नहीं गया है, डाउट करना सिखाया ही नहीं गया है। कहा गया है--स्वीकार करो; विश्वास करो; जो कुछ कहा जाता है, विश्वास करो। और मां-बाप तुमसे कहेंगे कि हमारा अनुभव है, हमारी उम्र ज्यादा है, हमने जिंदगी देखी है, इसलिए हमारी बात मानो।
लेकिन तुम बहुत सोचना और विचारना। किसी की उम्र ज्यादा होने से उसकी बात सच नहीं हो जाती। सच्चाई तो यह है कि अगर उम्र ज्यादा हो जाए और आदमी समझदार हो तो वह अपने बच्चों से कभी यह न कहेगा कि हमारी उम्र ज्यादा है इसलिए हमारी बात मानो। बल्कि वह यही कहेगा कि जिंदगी भर में खोजने के बाद हमको यही दिखाई पड़ता है कि हम खुद भी कुछ नहीं जानते, हम खुद अज्ञानी हैं। हमको पता नहीं, ईश्वर है या नहीं। हमको पता नहीं, मरने के बाद आदमी बचता है या नहीं। हमको पता नहीं कि जिस मंदिर में जिस मूर्ति को हम पूजते हैं वह पाखंड है कि धर्म है। हमें कुछ पता नहीं। वह अपने बच्चों से यह कहेगा।
यहां तो शिक्षक भी मौजूद हैं, आपकी शिक्षिकाएं मौजूद हैं, उनसे मैं कहूंगा, बच्चों को विश्वास मत सिखाना, बल्कि विचार सिखाना। अगर एक नई दुनिया पैदा करनी है, अगर एक नये तरह का आदमी पैदा करना है, अगर एक ऐसी दुनिया पैदा करनी है जिसमें अलग-अलग जातियां न हों, शूद्र और ब्राह्मण न हों, गोरे और काले का भेद न हो; जिसमें गरीब और अमीर मिट सके, जिसमें पाकिस्तान-हिंदुस्तान और चीन जैसी सीमाएं न हों; जिसमें सारी दुनिया इकट्ठी हो, पूरी मनुष्य-जाति, और एक-दूसरे के प्रति प्रेम से भरी हो और सारी मनुष्य-जाति इकट्ठी कोशिश कर रही हो जीवन में ज्यादा से ज्यादा आनंद, सौंदर्य और संगीत को विकसित करने के लिए, तो फिर विचार सिखाना होगा, विश्वास नहीं।
और खुद तुम जब विचार करोगी, संदेह करोगी, तो तुम्हारे भीतर ताकत पैदा होगी। क्योंकि सब ताकत चैलेंज और चुनौती से पैदा होती है। अगर हम अपने पैरों को आराम से घर में बिठाए हुए बैठे रहें, तो वर्ष दो वर्ष में पैर चलने की ताकत खो देंगे। क्योंकि चैलेंज नहीं मिलेगा उनको चलने का, चुनौती नहीं मिलेगी, तो उनकी ताकत सो जाएगी। लेकिन जो आदमी अपने पैरों को दौड़ाएगा, कसरत करेगा, चलेगा, उसके पैर शक्तिशाली से शक्तिशाली होते चले जाएंगे। क्योंकि जब उनको चुनौती मिलेगी, तो सोई हुई ताकत जगेगी। अगर तुम अपनी आंखें बंद करके बैठ जाओ तो धीरे-धीरे आंखें अंधी हो जाएंगी।
इसी तरह, जो लोग विचार नहीं करते उनकी विचार की शक्ति खो जाती है। फिर वे अंधे की तरह दूसरों के कंधे पर हाथ रख कर चलने के आदी हो जाते हैं। और तब कोई भी शैतान और कोई भी चालाक अपना कंधा तुम्हारे सामने कर देगा और कहेगा चलो। और तुम उसके कंधे पर हाथ रख कर चलने लगोगी।
हिटलर ने जर्मनी में लोगों को सिखाया--यहूदियों की हत्या कर दो, क्योंकि यहूदियों के पाप के कारण हमारा मुल्क विकास नहीं कर रहा है। बिलकुल ही अजीब, नासमझी से भरी हुई बात है। लेकिन जर्मन कौम विश्वास करने की आदी थी। हिटलर ने जब जोर-जोर से चिल्ला कर कहा कि मानो, यही सच है! रेडियो ने यही कहा, अखबार ने यही कहा, किताबों ने यही कहा। तो मान लिया जर्मनी के लोगों ने कि यहूदियों की हत्या करनी जरूरी है। तीस लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई, पांच सौ यहूदी रोज मारे जाने लगे।
हैरानी होती है हमें! जिन्ना ने मुसलमानों को कह दिया--इस्लाम खतरे में है। और मुसलमान राजी हो गए कि इस्लाम खतरे में है। और हिंदुस्तान में लाखों लोगों की हत्या हो गई, जमीन कट गई--पाकिस्तान बन गया, हिंदुस्तान बन गया।
कोई कुछ कह दे! लेकिन जो हम आदी हैं विश्वास करने के, हम मानने को राजी हो जाएंगे कि ठीक है। बच्चों को सिखाना है विचार करना, ताकि कल कोई जिन्ना, कल कोई हिटलर, कोई मुसोलिनी, कोई स्टैलिन इन बच्चों को बर्बाद न कर सके और इनसे कुछ ऐसा काम न करवा सके जो अब तक करवाया जाता रहा है।
पांच हजार सालों में पंद्रह हजार युद्ध लड़े गए। पंद्रह हजार युद्ध! और पंद्रह हजार युद्धों में क्या हुआ है उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। यह तभी बंद हो सकता है जब हम विचार करना सिखाएं।
विचार सीखो और लड़ना सीखो, डरो मत। मां-बाप से बहुत सी बातों में लड़ना होगा, क्योंकि मां-बाप ने जो दुनिया बनाई वह गलत थी। शिक्षकों से लड़ना होगा, क्योंकि उन्होंने जो दुनिया बनाई वह गलत थी। अगर उन्होंने फिर तुमको भी वैसे ही राजी कर लिया जैसे वे हैं, तो फिर रिपीटीशन होगा, वही दुनिया फिर दोहर जाएगी, फिर एक नई दुनिया पैदा नहीं हो सकेगी। इसलिए जो तुम्हें प्रेम करते हैं, वे तुमसे कहेंगे कि लड़ो। वे तुमसे यह कहेंगे कि हमसे लड़ो और विचार करो, संदेह करो। और जब तुम्हें दिखाई पड़ जाए कि कोई चीज सच है तभी स्वीकार करना, नहीं तो मत करना। इस भांति तुम्हारे भीतर व्यक्तित्व विकसित होगा, आत्मा विकसित होगी। इस भांति तुम्हारा भीतर से बाहर की तरफ जीना शुरू हो जाएगा। और तब तुम्हारे जीवन में आत्मा से संबंध हो सकता है।
अनुकरण नहीं, व्यक्तित्व; विश्वास नहीं, विचार। ये दो छोटे से सूत्र इस चर्चा में मैंने तुमसे कहे। अगर इन दो सूत्रों को तुम सोच सको और तुम्हारे खयाल में आ जाएं...क्योंकि मेरी बात पर विश्वास मत करना। क्योंकि मैं तो शिक्षक हो गया; यहां तुमसे इतनी बातें कर रहा हूं तो शिक्षक हो गया। और मैं खुद भी दूसरी पीढ़ी का हो गया, तुम तो उसके बाद की पीढ़ी हो। मेरी बात पर विश्वास मत कर लेना। हो सकता है मेरी सब बातें गलत हों, मैंने जो कहा वह सब गलत हो। तो तुम विश्वास मत कर लेना। सोचना, लड़ने की कोशिश करना। मैंने जो कहा है, मन में उसका विरोध करना, संदेह करना, तोड़ना, तर्क करना। और अगर तुम्हारे सारे तर्क और विचार करने के बाद तुम्हें कोई चीज ठीक दिखाई पड़ जाएगी, वह तुम्हारी जिंदगी को बदल देगी। तुम और तरह के जीवन के रास्ते पर गति करने लगोगी। और अगर हिम्मत से कोई, साहस से कोई अपने जीवन पर प्रयोग करता चला जाए, व्यक्तित्व को निखारता चला जाए, तो जैसे पत्थर से मूर्तियां बन जाती हैं, ऐसे ही हमारे सामान्य जीवन से एक विशिष्ट जीवन का जन्म हो जाता है।
सभी पत्थर एक जैसे हैं, लेकिन एक कारीगर एक पत्थर को उठा लेता है और छैनी से, हथौड़ी से उसको तोड़ने लगता है, किनारे गिराने लगता है, और धीरे-धीरे उस पत्थर से एक खूबसूरत मूर्ति निखर आती है। सबकी जिंदगी एक पत्थर की भांति है, लेकिन जो अपनी जिंदगी पर कारीगर बन जाता है, और छैनी उठा लेता है और तोड़ने लगता है, जो गलत है उसे अलग करने लगता है और जो ठीक है उसे विकसित करने लगता है, धीरे-धीरे उसका जीवन एक मूर्ति बन जाता है। और वह मूर्ति बन जाना ही और उसको बना लेने की व्यवस्था को ही मैंने जीवन की कला कहा।
इस जीवन की कला के दो सूत्र तुमसे कहे और एक आधार बताया। उनको मैं फिर से दोहरा दूं। आधार तो यह है कि जीवन की जड़ें अदृश्य हैं। जो ऊपर दिखाई पड़ता है वह असली जीवन नहीं है, वे केवल फूल-पत्ते हैं। भीतर हैं जड़ें। तो हमेशा भीतर की जड़ों का खयाल रखना, खोजना। और उस भीतर की जड़ों को खोजने और विकसित करने के दो सूत्र मैंने तुमसे कहे। किसी के पीछे मत जाना, कभी किसी को फालो मत करना, कभी किसी को नेता स्वीकार मत करना, कभी किसी को गुरु मत बनाना। खोजना, जीना, सीखना, सब तरफ से सीखना, लेकिन किसी के अंधेपन में पीछे मत चलना। क्योंकि नेताओं ने दुनिया को इतने गड्ढे में पहुंचा दिया है कि अगर तुम आगे भी किसी के पीछे चले तो दुनिया हो सकता है उस बड़े गड्ढे में पहुंच जाए जिसको वे तीसरा महायुद्ध कहते हैं और उसमें सब खत्म हो जाए। किसी के फालोअर मत बनना, अनुयायी मत बनना। अपने को खोजना, अपने को खड़ा करना। और विश्वास मत करना; क्योंकि विश्वास किया तो अनुयायी बन जाओगे, अनुकरण करने लगोगे; विचार करना। और जो जितना ज्यादा विचार करता है उतनी ही बड़ी मनुष्यता उसके भीतर विकसित होती है।
एक छोटी सी अंतिम बात और मैं अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
एक छोटे से स्कूल में एक अध्यापक ने बच्चों से पूछा कि एक मकान के बाहर छोटी सी बागुड़ में, छोटे से घेरे में, फेंसिंग के भीतर बारह भेड़ें बंद हैं। अगर उनमें से छह भेड़ें छलांग लगा कर बाहर निकल जाएं तो पीछे कितनी भेड़ें बचेंगी?
एक छोटे से बच्चे ने हाथ हिलाया। शिक्षक ने पूछा, कितनी?
उसने कहा, बिलकुल भी नहीं!
शिक्षक ने कहा, गलत! तुम्हें इतनी भी समझ नहीं आती? मैंने कहा बारह भेड़ें बंद हैं, छह बाहर निकल जाएं, पीछे कितनी बचेंगी?
उस बच्चे ने कहा, गणित तो मुझे ज्यादा नहीं आता, लेकिन भेड़ों को मैं अच्छी तरह जानता हूं। भेड़ें मेरे घर में हैं। अगर छह भेड़ें कूद गईं, छह तो बहुत ज्यादा हो गईं, अगर एक भेड़ कूद गई तो बाकी ग्यारह भी कूद जाएंगी, पीछे कोई नहीं बचेगा।
भेड़ें अनुगमन करती हैं, एक-दूसरे के पीछे चलती हैं, कनफर्मिस्ट होती हैं। आदमी भेड़ नहीं है। आदमियत किसी के पीछे नहीं चलती, अपना रास्ता बनाती है और चलती है। वही है गौरव मनुष्य का कि अपना रास्ता बनाओ और चलो। पिटे-पिटाए रास्तों पर कमजोर और काहिल और सुस्त लोग चलते हैं। जिनके भीतर थोड़ा भी बल है, वे अपना रास्ता बनाते हैं और उस पर चलते हैं। और उसी चलने से वे एक दिन वहां पहुंचते हैं जहां उन्हें उनकी आत्मा का अनुभव हो। उनके भीतर जो छिपा था वह प्रकट हो जाता है और उसे वे जानते हैं। वही प्रकटीकरण परमात्मा है।
तो तुम भेड़ मत बनना, आदमी बनना, इसके लिए मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं।
भेड़ बनना हो, बड़ी सरल बात है, कठिन नहीं। आदमी बनना हो, बड़ी कठिन, बहुत आरडुअस, बहुत श्रम-साध्य बात है। फिर तुम्हारी मर्जी! भेड़ बनना हो तो तुम बन सकती हो। सारा समाज, सारी शिक्षा यही कोशिश कर रही है कि बन जाओ। सारे पोलिटीशियन, सारे राजनीतिज्ञ, सारे नेता कोशिश कर रहे हैं कि भेड़ बन जाओ। इसलिए भेड़ बनने में तुम्हें कोई तकलीफ न होगी; सारा समाज तुम्हें बनाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन अगर आदमी तुम्हें बनना है तो तुम्हीं को मेहनत करनी पड़ेगी, किसी दूसरे का सहारा नहीं है। कोई दूसरा तुम्हें सहारा देने को नहीं है।
लेकिन अगर तुम्हारे भीतर थोड़ी भी चेतना हो, थोड़ा भी जीवन हो, तो तुम्हारे पूरे प्राण इनकार करेंगे कि भेड़ हम नहीं बनना चाहते। अगर मैं अभी पूछूं कि तुममें से कितने भेड़ बनना चाहते हैं, तो एक भी हाथ ऊपर नहीं उठेगा। कि उठ सकता है? नहीं, तुम्हारे प्राण इनकार करेंगे कि भेड़ हम नहीं बनना चाहते। पर इतना काफी नहीं है, आदमी बनने की कोशिश भी करना। वह कोशिश कैसे हो सकती है, उसकी थोड़ी सी बातें, दो सूत्र मैंने तुमसे कहे।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम अंत में स्वीकार करें।

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