JAGJIVAN
Nam Sumir Man Bavre 04
Fourth Discourse from the series of 10 discourses - Nam Sumir Man Bavre by Osho. These discourses were given during AUG 01-10 1978, Pune.
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पहला प्रश्न: भगवान,
मेरे ख्वाबों के सहारे मेरी जन्नत के सितारे मेरी दुनिया, मेरे हमदम, ऐ मेरे दोस्त! मुझे हुआ क्या है? रोता हूं, गाता हूं, नाचता हूं, मौन रहता हूं। इतनी दूर हूं फिर भी तुम्हारा जादू मुझ पर छाया रहता है। तुमसे क्या मांगूं? तुमसे क्या कहूं? बस तुम ही तुम हो, और नहीं भी। ऐसा क्यों है?
पुरुषोत्तम! होना और न होना, है और नहीं, एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं, परिपूरक हैं। शून्य और पूर्ण, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक ऐसा तुम्हारे अनुभव में न आएगा, तब तक तुम बंटे रहोगे; तब तक तुम जीवन को और मृत्यु को एक-दूसरे का शत्रु मानते रहोगे। और जिसने मृत्यु और जीवन को विपरीत देखा, स्वभावतः जीवन से जकड़ा रहेगा, मृत्यु से डरा रहेगा। जब तुम्हें जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू दिखाई पड़ेंगे--एक ही लहर की तरंगें, उसी क्षण जीवन से मोह छूट जाता है; उसी क्षण वैराग्य का जन्म होता है।
शून्य और पूर्ण को एक करके जान लेना, देख लेना, पहचान लेना परम अनुभव है।
तुमने पूछा है: ‘बस तुम ही तुम हो, और नहीं भी।’
ऐसा ही होता है। ये दोनों बातें एक साथ ही घटती हैं। यदि तुम मेरी आसक्ति में पड़ जाओ... और ध्यान रखना: आसक्ति प्रेम नहीं है। आसक्ति है, जीवन का मोह। प्रेम है, जीवन और मृत्यु को एक ही जान लेने का बोध। तब तुम मेरी आसक्ति में पड़ जाओगे।
और सब आसक्तियां बांध लेती हैं; फिर गुरु की आसक्ति ही क्यों न हो, वह भी बांधेगी। सोने की जंजीर ही सही, लेकिन सोने की जंजीर भी उतना ही बांध लेगी, जितनी लोहे की जंजीर बांधती है। और शायद थोड़ी मजबूती से बांधेगी। क्योंकि लोहे की जंजीर को तो छोड़ने का मन भी होता है, सोने की जंजीर को तो लोग आभूषण समझ लेते हैं। कांटों के ताज तो उतार देने आसान हैं, फूलों के ताज कैसे उतारोगे?
जीवन का जो साधारण विस्तार है वह तो कंटकाकीर्ण है। वहां तो दुख भरपूर है। वहां तो यह चमत्कार है कि तुम कैसे उलझे रहते हो! लेकिन किसी सद्गुरु के प्रेम में पड़ गए तो वहां तो फूलों की सुवास ही सुवास है। अगर वह प्रेम आसक्ति बन जाए तो मुक्तिदायी नहीं होगा। इसलिए सदगुरु दोनों तरह से तुम्हारे भीतर प्रवेश करेगा--है की तरह और नहीं की तरह, पूर्ण की तरह और शून्य की तरह। कभी तुम पाओगे, तुम पूरे उससे भरे हो और कभी तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर कोई भी नहीं है, सिर्फ सन्नाटा है। ये दोनों बातें जब समतुल हो जाती हैं, एक वजन की हो जाती हैं, ये दोनों पलड़े तराजू के जब एक तौल पर आ जाते हैं, उसी क्षण आसक्ति विलीन हो जाती है, प्रेम का अनुभव होता है।
प्रेम बड़ी और बात है। प्रेम मुक्तिदायी है। जहां आसक्ति बांधती है, वहां प्रेम मुक्त करता है। प्रेम परम स्वतंत्रता है।
लेकिन इसके लिए बुद्धि के भेदों से ऊपर उठना होगा। यह बुद्धि प्रश्न उठा रही है। यह बुद्धि को अड़चन हो रही है कि मामला क्या है! ‘ऐसा भी लगता है कि आप हो, और ऐसा भी लगता है, आप नहीं हो।’ तो बुद्धि कहती है, दो में से कोई एक ही बात सच होगी। बुद्धि दोनों को साथ एक नहीं मान सकती। बुद्धि की प्रक्रिया ही यही है कि वह विपरीत को समाविष्ट नहीं कर सकती। इतनी बड़ी उसकी छाती नहीं है, बुद्धि बड़ी छोटी और ओछी है। बुद्धि कहती है दिन है तो फिर रात नहीं हो सकती। और रात है तो दिन नहीं हो सकता। बुद्धि से थोड़ा ऊपर उठो तो दिन और रात साथ-साथ हैं। दिन और रात एक ही पक्षी के दो पंख हैं। बुद्धि से ऊपर उठो अर्थात थोड़े दीवाने होओ, थोड़े पागल होओ।
रहे खिजां में तलाशे-बहार करते रहे
शबे-सियह से तलब हुस्ने-यार करते रहे
खयाले-यार, कभी जिक्रे-यार करते रहे
इसी मताअ पै हम रोजगार करते रहे
नहीं शिकायते-हिज्रां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्तए-दिल उस्तुवार करते रहे
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
हम उनमें तेरा, सिवा इंतजार करते रहे
उन्हीं के फैज से बाजारे-अक्ल रोशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
इस संसार में जो थोड़ी सी गरिमा है, गौरव है, सौंदर्य है, यह उन पागलों के कारण है, ‘जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे।’ जो कभी-कभी बुद्धि को छोड़ कर दीवाने होते रहे।
उन्हीं के फैज से बाजारे-अक्ल रोशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
उन्हीं की कृपा से, उन्हीं थोड़े दीवाने लोगों की कृपा से जीवन में रस बहता है और जीवन सत्य से बिलकुल उखड़ नहीं जाता। यहां बुद्धिमान तो बुद्धि की सीमाओं में घिर जाते हैं। यहां बुद्धि के ऊपर उठने का अर्थ होता है: सारी सीमाओं को तोड़ देना। बुद्धिमान कहता है, मैं आस्तिक हूं। बुद्धिमान कहता है, मैं नास्तिक हूं। धार्मिक कहता है, ईश्वर को कहो, है, तो भी है; ईश्वर को कहो, नहीं है, तो भी है। धार्मिक कहता है, कैसी आस्तिकता, कैसी नास्तिकता! होना भी उसका एक ढंग है, न होना भी उसका एक ढंग है। उपस्थिति भी उसकी है, अनुपस्थिति भी उसकी है। भाव भी उसका, अभाव भी उसका। हो, तो भी वही है; न हो, तो भी वही है।
रहे खिजां में तलाशे-बहार करते रहे
ऐसा दीवानापन चाहिए कि पतझड़ के दिनों में बहार को खोजने निकले कोई; अंधेरे में रोशनी की तलाश करे, मौत में जिंदगी को खोदे।
रहे खिजां में तलाशे-बहार करते रहे
जब पतझड़ आ गया हो, पत्ते झड़ गए हों, वृक्ष सूखे खड़े हों अस्थिपंजर, तब जो बहार की खोज करता है, ऐसा दीवाना ही परमात्मा को पा सकता है।
शबे-सियह से तलब हुस्ने-यार करते रहे
अंधेरे में जो प्यारे के चेहरे की खोज कर रहा है, गहन अंधकार में भी जो उसकी आभा को खोजता है।
खयाले-यार, कभी जिक्रे-यार करते रहे
कभी सोचता है, कभी बात करता है; मगर बात भी उस प्यारे की, सोचना भी उसी प्यारे का।
इसी मताअ पै हम रोजगार करते रहे
जिसकी सारी जिंदगी इसी एक ढंग में ढल गई होती है: उसी की याद। फूल दिखें तो उसकी याद और फूल खो जाएं तो उसकी याद।
नहीं शिकायते-हिज्रां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्तए-दिल उस्तुवार करते रहे
ऐसे ही उस प्यारे से प्रेम का संबंध गहरा होता है। ऐसे ही स्थायी और दृढ़ संबंध निश्चित रूप से निर्मित होते हैं।
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
जब कोई भी कारण नहीं होता है प्रतीक्षा करने का, आने की कोई संभावना नहीं होती, कोई संकेत भी नहीं होता...
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
हम उनमें तेरा, सिवा इंतजार करते रहे
हम उनमें भी तेरी याद करते रहे और तेरा इंतजार करते रहे। कोई कारण न था। तूने कोई खबर भी न भेजी थी। तेरे पगों की कोई ध्वनि भी सुनाई न पड़ती थी। सच तो यह है कि तू आएगा यह तो संभव ही नहीं था तू कभी नहीं आएगा इसके सारे प्रमाण मौजूद थे। न तू आया कभी, न तू कभी आएगा, इसके सब प्रमाण मौजूद थे; फिर भी--
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
हम उनमें तेरा, सिवा इंतजार करते रहे
उन्हीं के फैज से बाजारे-अक्ल रोशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
ऐसे थोड़े से पागलों के कारण जगत से धर्म विदा नहीं होता। ऐसे थोड़े से दुस्साहसियों के कारण परमात्मा का संबंध पृथ्वी से नहीं टूटता। ये दीवाने ही परमात्मा और पृथ्वी के बीच सेतु हैं।
बुद्धि से तो छुटकारा लेना होगा पुरुषोत्तम! छोड़ो यह फिकर। बड़े-बड़े विचारक, बड़े दार्शनिक इसी फिकर में उलझे और समाप्त हो गए हैं। कितना विवाद चला है! बौद्ध दार्शनिक कहते हैं, परमात्मा शून्य है; और वेदांती दार्शनिक कहते हैं, परमात्मा पूर्ण है। और विवाद चल रहा है सदियों से। दोनों को पता नहीं है। दार्शनिकों को कुछ पता नहीं है।
परमात्मा पूर्ण भी है और शून्य भी। उपनिषद ठीक कहते हैं। उपनिषद के वक्तव्य दार्शनिकों के वक्तव्य नहीं हैं, दीवानों के वक्तव्य हैं। परमात्मा पास भी है, दूर भी। बुद्ध ठीक कहते हैं: है भी, नहीं भी।
दोनों को एक साथ स्वीकार कर लो। और दोनों की स्वीकृति में ही बुद्धि की श्वासें टूट जाती हैं। और बुद्धि की श्वासें टूट जाएं तो आत्मा श्वास ले। बुद्धि बिखरे तो तुम संगठित हो जाओ। बुद्धि जाए तो तुम्हारा आगमन हो, पदार्पण हो।
तुम पूछते हो:
‘मेरे ख्वाबों के सहारे, मेरी जन्नत के सितारे
मेरी दुनिया, मेरे हमदम, ऐ मेरे दोस्त!
मुझे हुआ क्या है?’
बाहर मत पूछो। बाहर पूछे कि चूके। हो रहा है भीतर। आंखें बंद करो और डूबो; और स्वाद लो और पीओ। और तुम पहचान जाओगे कि क्या हो रहा है। क्योंकि ये बातें सिर्फ स्वाद से ही पहचानी जाती हैं।
मैंने ही कुछ न समझा, मेरी ही थीं खताएं
वो दिल की धड़कनों से देते रहे सदाएं
वहां से आवाज उठ रही है हृदय में। वहां कोई पुकार रहा है, वहां कोई खींच रहा है। तुम बाहर प्रश्न खड़े करोगे, उलझ जाओगे। वहीं से पूछो। जहां प्रश्न उठ रहा है, उसी प्रश्न में डुबकी मार जाओ; वहीं उत्तर छिपा है।
और तुम कहते हो कि ‘रोता हूं, गाता हूं, नाचता हूं, मौन रहता हूं। इतनी दूर हूं फिर भी तुम्हारा जादू मुझ पर छाया रहता है।’
दूरी से जादू का क्या लेना-देना? जादू दूरी मानता ही नहीं। प्रेम को दूरी का कोई पता ही नहीं है। प्रेम के लिए तो सभी कुछ पास ही है--पास से भी पास। प्रेम के लिए न कोई समय का अंतराल है, न कोई स्थान का अंतराल है। जहां प्रेमी बैठ जाता है, जब आंख बंद कर लेता है, तभी उसके भीतर की धारा गुनगुनाने लगती है।
रिंद जो जर्फ उठा लें वही कूजा बन जाए
जिस जगह बैठ कर पी लें वहीं मैखाना बने
जहां बैठ कर तुम परमात्मा की याद करोगे, वहीं मंदिर है; वहीं परमात्मा है; वहीं काबा, वहीं कैलाश। दूरी से कुछ प्रयोजन नहीं है। पास बैठ कर भी पास बैठना इतना आसान तो नहीं।
लोग बुद्ध के सामने बैठे रहे हैं और चूक गए हैं। बुद्ध के सामने बैठे रहे और ऐसी व्यर्थ की बातें पूछते रहे! ऐसी व्यर्थ की बातें... समय अपना गंवाया, बुद्ध का गंवाया। बुद्ध के सामने थे, आंख में आंख डाल लेनी थी, हाथ में हाथ ले लेना था, चरणों पर सिर रख देना था। थोड़ी देर को विस्मरण करते सब सोच-विचार। थोड़ी देर को निर्विचार होते। उसी निर्विचार में बुद्ध से भी जुड़ते और अपने से भी जुड़ते। क्योंकि जो जाग गया है वह वहीं है, जहां तुम भी जाग जाओगे तो पहुंच जाओ। जो जाग गया है वह वहीं है, जहां तुम्हारे भी अंतस्तल का केंद्र है। सोए-सोए हम अलग-अलग हैं, जाग कर हम सब एक हैं। नींद में भेद है, जागरण में अभेद है।
अच्छा हो रहा है। रोते हो, गाते हो, नाचते हो, कभी मौन। भयभीत न होना। भय लगता है, क्योंकि साधारणतः इस तरह की बातें की नहीं जातीं।
हमने तो आदमी को बिलकुल झूठा बना दिया है। न रोने के योग्य रखा है, न गाने के योग्य रखा है। आदमी हंसे तो भी कामचलाऊ, रोए तो भी कामचलाऊ। हंसता है तो भी ऊपर-ऊपर, रोता है तो भी ऊपर-ऊपर। आंसू भी झूठे, मुस्कुराहटें भी झूठी। हमने तो आदमी को ऐसा नियंत्रण सिखाया है कि अपने को दबा कर रखो। अपना कोई भावावेश प्रकट न हो जाए। हमने तो भाव को मार ही डाला है। हमने हृदय की धड़कनें बंद कर दी हैं।
इसलिए जब जीवन में पहली बार रोओगे, नाचोगे, गाओगे, भीतर भी भय लगेगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं! लोग क्या समझेंगे! लेकिन जब तक लड़खड़ाना न आ जाए, उसके मंदिर की यात्रा नहीं होती।
मैं फिदा लगजिश-ए-रफ्तार पे अपनी ऐ ‘शाद’
दूर से देख कर उसने मुझे पहचान लिया
जब कोई लड़खड़ाता हुआ आता है तभी परमात्मा पहचानता है कि आया कोई! कि आता है कोई मेरी तरफ!
सम्हले हुए लोग उसके लोग नहीं हैं। सम्हले हुए लोग अपने अहंकार से जी रहे हैं। सम्हले हुए लोग अपने नियंत्रण में हैं, अपने अनुशासन में हैं। उसके पास तो लड़खड़ा कर ही जाना होता है। और जब तुम पहचान लिए जाओगे तभी तुम धन्यवाद दोगे।
मैं फिदा लगजिश-ए-रफ्तार पे अपनी ऐ ‘शाद’
तब तुम कहोगे, धन्यभाग मेरा कि मैं लड़खड़ाया। धन्यभाग मेरा कि मेरे पैर डगमगाए। धन्यभाग मेरा कि मैं शराबी जैसा चला; नहीं तो पहचाना न जाता।
दूर से देख कर उसने मुझे पहचान लिया
रोना आ रहा है, गाना आ रहा है, नाचना आ रहा है--आने दो! बांहें फैला कर स्वागत करो, आलिंगन करो। भाव का उन्मेष हो रहा है। सहारा दो, सहयोग दो। किसी भी बाह्य कारण से रोकना मत।
और बाहर कारण ही कारण हैं रोकने के। क्योंकि हम मनुष्य की सरलता को स्वीकार नहीं करते हैं। हम तो मनुष्य को कपटी बनाते हैं। हम तो उसकी सहजता को अंगीकार नहीं करते। हम तो उसके आस-पास एक ढांचा बिठाते हैं। उस ढांचे को हम चरित्र कहते हैं, आचरण कहते हैं।
और जितना ढांचे में बंधा आदमी हो उतना ही समाज में सम्मानित होता है, पुरस्कृत होता है। मगर समाज से पुरस्कार ले लिया तो ध्यान रखना, परमात्मा के पुरस्कार से वंचित रह जाओगे। मिल गया तुम्हें तुम्हारा पुरस्कार, दे दिया समाज ने सम्मान, फूलमालाएं पहना दीं। ये हाथ झूठे हैं, इनके फूल झूठे हैं। ये फूल भी कुम्हला जाएंगे, ये हाथ भी कुम्हला जाएंगे। ये फूल भी मिट्टी हैं, ये हाथ भी मिट्टी हैं, यह सम्मान भी मिट्टी है। जब तक अमृत के हाथ तुम्हारे गले में वरमाला न डालें तब तक सब व्यर्थ है।
अब तो डूबो! यह जो हलकी-हलकी हवा आनी शुरू हुई है, इसे तूफान बनने दो।
न गरज किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तिरे जिक्र से, तिरी फिक्र से, तिरी याद से, तिरे नाम से
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं दुनिया के दुख देख कर बहुत रोता हूं। क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते?
प्रश्न से तुम्हारे ऐसा लगता है कि कम से कम तुम दुखी नहीं हो। दुनिया के दुख देख कर रोने का हक उसको है जो दुखी न हो। नहीं तो तुम्हारे रोने से और दुख बढ़ेगा, घटेगा थोड़े ही। और तुम्हारे रोने से किसी का दुख कटने वाला है? दुनिया सदा से दुखी है। इस सत्य को, चाहे यह सत्य कितना ही कड़वा क्यों न हो, स्वीकार करना ही होगा। दुनिया सदा दुखी रही है। दुनिया के दुख कभी समाप्त नहीं होंगे। व्यक्तियों के दुख समाप्त हुए हैं। व्यक्तियों के ही दुख समाप्त हो सकते हैं। हां, तुम चाहो तो तुम्हारा दुख समाप्त हो सकता है। तुम दूसरे का दुख कैसे समाप्त करोगे?
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लोगों को रोटी नहीं दी जा सकती, मकान नहीं दिए जा सकते। दिए जा सकते हैं, दिए जा रहे हैं, दिए गए हैं। लेकिन दुख फिर भी मिटते नहीं। सच तो यह है, दुख और बढ़ गए हैं। जहां लोगों को मकान मिल गए हैं, रोटी-रोजी मिल गई है, काम मिल गया है, धन मिल गया है, वहां दुख और बढ़ गए हैं, घटे नहीं हैं।
आज अमरीका जितना दुखी है, उतना इस पृथ्वी पर कोई देश दुखी नहीं है। हां, दुखों ने नया रूप ले लिया। शरीर के दुख नहीं रहे, अब मन के दुख हैं। और मन के दुख निश्चित ही शरीर के दुख से ज्यादा गहरे होते हैं। शरीर की गहराई ही क्या! गहराई तो मन की होती है। अमरीका में जितने लोग पागल होते हैं, उतने दुनिया के किसी देश में नहीं होते और अमरीका में जितने लोग आत्महत्या करते हैं, उतनी आत्महत्या दुनिया में कहीं नहीं की जाती। अमरीका में जितने विवाह टूटते हैं, उतने विवाह कहीं नहीं टूटते। अमरीका के मन पर जितना बोझ और चिंता है, उतनी किसी के मन पर नहीं है। और अमरीका भौतिक अर्थों में सबसे ज्यादा सुखी है। पृथ्वी पर पहली बार पूरे अब तक के इतिहास में एक देश समृद्ध हुआ है। मगर समृद्धि के साथ-साथ दुख की भी बाढ़ आ गई।
मेरे लेखे जब तक आदमी जाग्रत न हो तब तक वह कुछ भी करे, दुखी रहेगा। भूखा हो तो भूख से दुखी रहेगा और भरा पेट हो तो भरे पेट के कारण दुखी रहेगा।
जीसस के जीवन में एक कहानी है। ईसाइयों ने बाइबिल में नहीं रखी है। कहानी जरा खतरनाक है। लेकिन सूफी फकीरों ने बचा ली है। कहानी है कि जीसस एक गांव में प्रवेश करते हैं और उन्होंने देखा, एक आदमी शराब पीए नाली में पड़ा हुआ गंदी गालियां बक रहा है। समझाने वे झुके, उसके चेहरे से भयंकर बदबू उठ रही है। चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा। याद उन्हें आई। उन्होंने उस आदमी को हिलाया और कहा: मेरे भाई! जरा आंख खोल और मुझे देख। क्या तू मुझे भूल गया? क्या तुझे बिलकुल याद नहीं है कि मैं कौन हूं?
उस आदमी ने गौर से देखा और कहा: हां, याद है। और तुम्हारे ही कारण मैं दुख भोग रहा हूं। क्योंकि मैं बीमार था, बिस्तर से लगा था, तुमने मुझे स्वस्थ किया। तुमने छुआ और मैं स्वस्थ हो गया। अब मैं तुमसे पूछता हूं, इस स्वास्थ्य का क्या करूं? शराब न पीऊं तो और क्या करूं? बीमार था तो बिस्तर पर लगा था। शराब का खयाल ही नहीं उठता था। जब से स्वस्थ हुआ हूं तब से यह झंझट सिर पर पड़ी। तुम्हीं जिम्मेवार हो।
जीसस तो बहुत चौंके। ऐसा शायद उन्होंने पहले कभी सोचा भी न होगा। उदास थोड़े आगे बढ़े। उन्होंने एक और आदमी को एक वेश्या के पीछे भागते देखा। उसको रोका और कहा: मेरे भाई, परमात्मा ने आंखें इसलिए नहीं दी हैं। उस आदमी ने जीसस को देखा और कहा कि परमात्मा ने तो दी ही नहीं थीं। तुम्हीं हो जिम्मेवार। मैं अंधा था, तुमने मेरी आंखें छुईं और मुझे आंखें मिल गईं। अब मैं इन आंखों का क्या करूं, तुम्हीं बताओ। तुमने आंखें क्या दीं, तब से मैं स्त्रियों के पीछे भाग रहा हूं।
जीसस तो बहुत हैरान हो गए। वे तो फिर गांव में गए नहीं और आगे, उदास लौट आए। लौटते थे तो गांव के बाहर देखा, एक आदमी एक वृक्ष में रस्सी बांध कर फांसी लगाने का आयोजन कर रहा था। भागे, उसे रोका; कहा: यह तू क्या कर रहा है? इतना अमूल्य जीवन...! उस आदमी ने कहा: अब मेरे पास मत आना। मैं तो मर गया था, तुमने ही मुझे जिंदा किया। अब इस जिंदगी का मैं क्या करूं? जिंदगी बड़ी बोझ है। मुझे मर जाने दो। कृपा करके और चमत्कार मत दिखाओ। तुम्हारे चमत्कार दिखाने की वजह से हम मुसीबत में पड़ रहे हैं। तुम्हें चमत्कार दिखाना हो तो कहीं और दिखाओ। तुम मुझे बक्शो, मुझे क्षमा कर दो।
इस कहानी की अर्थवत्ता देखो। तुम्हारे पास आंखें हैं, करोगे क्या? तुम्हारे पास स्वास्थ्य है, करोगे क्या? तुम्हारे पास जीवन है, करोगे क्या? जब तक जागरण न हो तब तक आंखें होते हुए भी अंधे होओगे। और आंखें तुम्हें गड्ढों की तरफ ले जाएंगी। और जब तक जागरण न हो, स्वस्थ हुए तो पाप के अतिरिक्त कुछ करने को दिखाई नहीं पड़ेगा। स्वास्थ्य तुम्हें पाप में ले जाएगा। और जब तक जाग्रत न होओ तब तक जीवन भी व्यर्थ है; बोझ हो जाएगा। आत्मघात का तुम विचार करने लगोगे।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसने जिंदगी में दस-पांच बार आत्मघात का विचार न किया हो। तुम खुद ही अपने तरफ सोचना। दो-चार बार तुमने भी सोचा होगा कि क्या सार है, खतम करो। फिजूल रोज उठना, फिर वही धंधा, फिर वही झगड़ा, फिर वही उपद्रव, इसमें सार क्या है? क्यों न हम मर जाएं? क्या बिगड़ेगा मर जाने से? है भी तो नहीं हाथ में कुछ! खो भी क्या जाएगा? जीवन ऐसा रिक्त-रिक्त है कि मृत्यु और क्या छीन लेगी?
लोग तो दुखी हैं, और लोग दुखी रहे हैं और लोग दुखी रहेंगे। क्योंकि सुख का अवतरण संपत्ति से नहीं होता। और मैं संपत्ति-विरोधी नहीं हूं, खयाल रखना। संपत्ति से सुविधा मिल सकती है। तो एक आदमी जिसके पास संपत्ति नहीं है, असुविधा में दुखी होता है। और जो आदमी जिसके पास संपत्ति है, वह, वह सुविधा में दुखी होता है। सुविधा दुख नहीं छीनती, सुविधा दुख के लिए और अच्छे अवसर दे देती है। वातानुकूलित भवन में, मगर रहोगे दुखी। महल में, संगमरमर के महल में, पर रहोगे दुखी। मखमली सेजों पर, पर रहोगे दुखी।
और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि सुविधा बुरी चीज है। सुविधा अपनी तरफ अपने तईं ठीक है लेकिन उससे दुख नहीं मिटता। सच तो यह है, जितनी सुविधा हो उतना दुख प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ता है। दुखी आदमी, सुविधा से हीन आदमी को फुर्सत ही नहीं मिलती दुख देखने की। जिनको हम सुखी कहते हैं, उनको ही फुरसत होती है दुख देखने की।
आदमी का दुख न सुविधा से मिटता है, न धन से मिटता, न पद से, न प्रतिष्ठा से। आदमी का दुख आत्म-जागरण से मिटता है।
तुम कहते हो: ‘मैं दुनिया के दुख देख कर बहुत रोता हूं।’
तुम्हें रोना हो तो मजे से रोओ, मगर रोने के लिए और अच्छे कारण खोज सकते तो। परमात्मा के लिए रोओ। और तुम्हारे रोने से क्या होगा? एक आदमी बीमार पड़ा है, मर रहा है, तुम उसके पास बैठे रो रहे हो, तुम सोचते हो इससे इलाज हो जाएगा? तुम्हारे रोने से वह और जल्दी मर जाएगा। और घबड़ा जाएगा। कोई पानी में डूब रहा है, तुम किनारे पर बैठे रो रहे हो। तुम क्या सोचते हो, तुम्हारे रोने से बच जाएगा? तुम्हें रोते देख कर और जल्दी आशा छोड़ देगा। तुम पर दया करके डूब ही जाएगा कि अब खत्म ही हो जाऊं, यह बेचारा नाहक रो रहा है। तुम्हारे रोने से क्या होना है?
तुम पूछते हो: ‘क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते?’
जरूर रोके जा सकते हैं। मगर किसी और के द्वारा नहीं। यही राजनीति और धर्म का भेद है। राजनीति सोचती है, दुख दूसरों के द्वारा रोके जा सकते हैं। इसलिए राजनीतिज्ञ सत्ता की तलाश करता है कि सत्ता में पहुंच जाए, ताकत हाथ में हो तो लोगों के दुख रोक देगा। इसलिए राजनीतिज्ञ क्रांति की भाषा में सोचता है। क्रांति हो जाए, समाज का अर्थतंत्र बदले, समाजवाद आए, साम्यवाद आए, ऐसा हो, वैसा हो, लोगों के दुख मिट जाएंगे। समाजवाद भी आ चुका, साम्यवाद भी आ चुका, कोई दुख मिटते नहीं। कहीं दुख मिटते नहीं।
धर्म की यही मूल भित्ति है, मूल भेद है कि दुख मिटता है आत्म-जागरण से। आत्म-जागरण कौन तुम्हें दे सकता है? तुम जागो। तुम ध्यान में उठो। तुम भक्ति में पगो तो दुख मिटेगा। तुम नाहक मत रोओ।
मत रोओ, कबीर
मत रोओ!
तुम ऐसा कवि-नबी
गिराता है जब आंसू
तब सदियों का दामन भीग उठा करता है
हर दाना नादान जीआ जो करता है, मरता है
पाटों में पड़ना,
रगड़ा खाना
हो जाना चूरा-धूरा
चलता आया,
और सदा चलता आएगा
और तुम्हारे आंसू से भी
कभी नहीं यह रुक पाएगा
मत रोओ, कबीर
मत रोओ!
किस अजाने की मर्जी पर दो पाटों के बीच पड़ा था
मुझे न साबित बच कर घिस-पिस जाना ही था
कालबद्ध मिट्टी था
मेरे वर्तमान को
भूत, भविष्य सबका
यह कर्ज चुकाना ही था
हर्ष-विषाद विमुक्त
नियति अपनी यह मैंने स्वीकारी है
और बड़ी चक्कियां हैं
और बड़ी चक्कियां
कि जिनमें है यह चक्की बस दाने-सी
मुझे पीसने-घिसने वाले
पाटों के भी
घिसने-पिसने की आने वाली बारी है
आगे भी यह क्रम जारी है
पर घिसना-पिसना अपने में अंत नहीं है
व्यर्थ नहीं है
इसके ऊपर इसका कोई अर्थ कहीं है
और न भी हो तो
इससे क्या फर्क पड़ेगा?
दाना किस गिनती में!
जिसे झगड़ना होगा
अंतिम चक्की के दो पाटों से झगड़ेगा
मत रोओ, कबीर
मत रोओ!
संसार तो दो चक्कियों के, दो पाटों के बीच है, पिस रहा है। कबीर ने कहा है कि देख कबीरा रोया। दो पाटों के बीच में लोगों को पिसते देख कर कबीर रोया।
और जब कबीर ने घर आकर यह पद कहा तो कबीर के बेटे कमाल ने उसके उत्तर में एक पद लिखा, जिसमें उसने लिखा कि आप ठीक कहते हैं कि दो पाटों के बीच जो भी पड़ गया वह पिस गया। लेकिन आपने एक बात ध्यान नहीं दी कि दो पाटों के बीच में जो कील है, उस कील से जो दाना लग गया, वह नहीं पिसा; वह बच गया।
वह बेटा कमाल का ही था इसीलिए तो कबीर ने उसको नाम कमाल दिया था। उस कमाल ने कहा कि इसलिए जिसने उस एक का सहारा पकड़ लिया, जिस पर सारी चक्कियां घूम रही हैं और जो बिना घूमा बीच में खड़ा है--चक्की के पाट भी कील के बिना थोड़े ही घूमेंगे। गाड़ी का चाक भी बिना कील के थोड़े ही घूमेगा। चाक घूमता है, कील खड़ी है। कील कभी नहीं घूमती। नहीं घूमती इसीलिए चाक घूम पाता है। कील भी घूम जाए तो गाड़ी गिर जाए। दो पाटों के बीच तो पिस गए दाने, लेकिन जिन्होंने बीच की कील का सहारा पकड़ लिया वे बच गए।
संसार में तो पिसोगे। संसार में दुख है। संसार दुख है। लेकिन अगर राम का सहारा पकड़ लिया, अगर राम के आसरे हो गए, अगर परिवर्तन में ही रहे तो पिसोगे। अगर शाश्वत का हाथ पकड़ लिया तो नहीं पिसोगे, बच जाओगे। दुख से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि उस एक को पकड़ लो, जो अनेक के बीच में मौजूद है। शाश्वत को पकड़ो, जो समय की धारा में छिपा है। नित्य को पकड़ो। अनित्य को पकड़ोगे तो दुख पाओगे।
दुख क्या है? कि अनित्य को हमने पकड़ा है। देह को मान लिया है कि मैं हूं, यह दुख है। फिर देह है तो जरा भी आएगी, जीर्ण भी होगी, शीर्ण भी होगी। आज जवान है, कल बूढ़ी होगी, परसों मरेगी भी। देह तो हजार दुख लाएगी। किसी स्त्री से प्रेम किया, किसी पुरुष से प्रेम किया, यह दुख लाएगा। क्योंकि हम सब अजनबी हैं यहां। कोई किसी का भी नहीं। जिसने जितना अपना मोह का विस्तार किया उतना ही पीड़ा में पड़ेगा। जिसने अहंकार से अपने को एक समझ लिया और प्रतिष्ठा चाही, पद चाहा, सम्मान चाहा, वह भी दुखी होगा।
यह दुख स्वाभाविक है। यह चक्की के पाटों के बीच में पड़ जाने के कारण है। उस एक का सहारा पकड़ो। उसको पकड़ते ही से सारे दुख विदा हो जाते हैं। ऐसा समझो कि दुख को हम अपनी भ्रांति के कारण पैदा कर रहे हैं। और कोई किसी दूसरे की भ्रांति नहीं मिटा सकता। तुम्हारे हाथ में यह बात नहीं है कि तुम दुनिया के दुख मिटा दो, लेकिन तुम्हारे हाथ में एक बात जरूर है कि तुम अपना दुख मिटा लो।
और इससे बड़ी और कोई सेवा नहीं हो सकती। अगर तुम अपना दुख मिटा लो तो तुमने दुनिया के एक हिस्से का दुख तो मिटाया। तुम भी तो दुनिया के एक हिस्से हो। अगर दुनिया में तीन अरब आदमी हैं और तुमने अपना दुख मिटा लिया तो एक दुखी आदमी कम हुआ। और इतना ही नहीं है, जब एक दीया जलता है आनंद का तो उसकी किरणें आस-पास के लोगों को भी आंदोलित करती हैं। और जब एक फूल खिलता है सुवासित होकर तो दूसरों के नासापुटों तक भी गंध जाती है। और जब कोई एक वीणा बजती है तो दूसरों के भीतर हृदय की सोई पड़ी वीणा के भी तार झंकृत हो जाते हैं।
बस, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। इसके अतिरिक्त तुम जो भी उपाय करोगे, वे उपाय तुम्हें राजनीति में ले जाएंगे। और उन उपायों से तुम दुनिया का दुख बढ़ाओगे, घटाओगे नहीं। क्योंकि राजनीति की सारी प्रक्रिया अहंकार की प्रक्रिया है।
इसलिए मैं तुमसे समाज सेवा की बात नहीं करता। मैं तुमसे कहता हूं, समाज सेवा हो जाएगी अपने से। तुम पहले स्वयं की सेवा तो कर लो। इसके पहले कि दूसरों के जीवन में रोशनी देने चलो, तुम्हारे भीतर रोशनी तो होनी चाहिए। उतनी शर्त तो पूरी करो। इसके पहले कि तुम चाहो कि लोगों के दुख मिट जाएं, तुम्हें अपना दुख तो मिटा लेना चाहिए। कम से कम इतना तो करो। तुम तो तुम्हारे बस में हो। तुम तो अपनी सुन सकते हो। दूसरों का क्या पता! सुनें न सुनें, मानें न मानें। कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं है। अगर उन्होंने दुखी ही रहने का तय किया है तो तुम क्या करोगे?
लेकिन मेरे देखे ऐसा है कि जो लोग दूसरों के दुख मिटाने में उत्सुक हो जाते हैं, यह एक मनोवैज्ञानिक चालबाजी है। यह अपने दुख न देखने का उपाय है। यह अपना साक्षात्कार न हो जाए इसके लिए बड़ा सुगम आयोजन है। दूसरों का दुख देखने लगे। अपने से आंख फेर ली। कहा कि अपने दुख में क्या रखा है! यहां लोग इतने दुखी हैं, पहले इनका दुख तो मिटाएं। इस तरह अपने को व्यस्त कर लिया। समाज सेवक सिर्फ अपने दुख की तरफ पीठ करने में लगे हैं, और कुछ भी नहीं।
मेरे पास आ जाते हैं समाज सेवक कभी-कभी। एक सज्जन हैं, वे पचास साल से आदिवासियों की सेवा कर रहे हैं बस्तर में। मुझे मिलने आए थे। बूढ़े हैं, अस्सी साल के करीब उनकी उमर है। कहने लगे: जीवन में बड़ी अशांति है, बड़ी बेचैनी है। कहा: पचास साल की समाज सेवा, और अशांति और बेचैनी तुम्हारी गई नहीं? तो तुमने पचास साल में न मालूम अपनी अशांति और बेचैनी से कितने लोगों को अशांत और बेचैन कर दिया होगा। तुम क्यों लोगों के पीछे पड़े हो?
उन्होंने कहा: मैंने कोई गलत काम तो नहीं किया। मैं तो आदिवासियों को शिक्षा होनी चाहिए इसके काम में लगा हूं। मैंने कहा: तुम जरा अपने विश्वविद्यालयों की हालत तो देख लो। जो शिक्षित हैं उनकी हालत तो देख लो। क्यों आदिवासियों के पीछे पड़े हो? शिक्षित कहां पहुंच गया है? तुम्हारे विश्वविद्यालय जितने उपद्रवों के अड्डे हैं, कहीं और उतने उपद्रवों के अड्डे नहीं हैं। जो शिक्षित हो गया है उसके जीवन में कौन सा आनंद है?
सच तो यह है कि शिक्षित महत्वाकांक्षी हो जाता है। महत्वाकांक्षी होने से दुख बढ़ जाता है। क्योंकि जितनी महत्वाकांक्षा है, वह पूरी तो हो नहीं सकती। शिक्षित होकर सभी लोग तो प्रधानमंत्री होना चाहते हैं। सभी लोग प्रधानमंत्री हो नहीं सकते। और जब वे देखते हैं कि ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे प्रधानमंत्री बन रहे हैं तो उनको और बड़ा दुख होता है कि हम पढ़े-लिखे बुद्धिमान लोग बैठे हैं, अंगूठा छाप लोग मंत्री बन रहे हैं, मुख्यमंत्री बन रहे हैं और हम पढ़े-लिखे लोग! बड़ा अन्याय हो रहा है। उनके चित्त की पीड़ा और बढ़ जाती है, विषाद बहुत बढ़ जाता है।
दुनिया में जितने उपद्रव लोग करते हैं, वे पढ़े-लिखे लोग हैं। क्यों? क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षा बड़ी है। और कोई भी चीज उसे तृप्त नहीं कर पाती। उन्हें कुछ भी मिल जाए, उन्हें सदा लगता है हमारी योग्यता से कम है। इसलिए उनके जीवन में कभी शांति हो नहीं सकती। असंतोष उनका स्वर रहेगा। असंतोष में भभकेंगे, धधकेंगे। असंतोष के अंगार ही उनके जीवन में रहेंगे, और कुछ भी न रहेगा। जहां फूल खिलने चाहिए थे संतोष के, वहां केवल असंतोष के अंगार ही होंगे।
तो मैंने उनसे पूछा कि तुम बेचारे आदिवासियों के पीछे क्यों पड़े हो? वे वैसे ही मस्त हैं। चाहे पेट पूरा न भरता हो, लेकिन रात गीत तो गाते हैं। चाहे तन पर बहुत कपड़े न हों, लेकिन बांसुरी तो बजाते हैं। और चाहे रहने के लिए सुंदर मकान न हों, घास-फूस के झोपड़े हों, लेकिन रात जब मस्त होकर नाचते हैं तो समृद्ध से समृद्ध आदमी को भी ईर्ष्या हो।
तुम क्यों उनके पीछे पड़े हो? तुम उन्हें इसी दौड़ में लगा दोगे न जिसमें सारी दुनिया लगी है? और तुम उन्हें भी बेचैन कर दोगे। तुम तो पढ़े-लिखे हो, तुम्हें चैन कहां है? अस्सी साल की उम्र में तुम मुझसे पूछने आए हो कि मेरे जीवन में चैन नहीं है, शांति नहीं है। और पचास साल तुम सेवा करते रहे। तो शायद पचास साल तुम इसी अशांति को छिपाने के लिए दूसरों पर नजर गड़ाए रहे। यह सेवा आत्म-विस्मरण है। यह एक तरह का नशा है, यह शराब है। इससे बचना।
राजनीति की शराब होती है, सेवा की शराब होती है। और ये शराबें ऐसी हैं कि किसी को पकड़ लें तो पता भी नहीं चलता। और फिर ये शराबें ऐसी हैं कि समाज इनका सम्मान करता है। लोग कहेंगे, महान समाज सेवक! सत्कार करो, हीरक जयंती मनाओ, स्मारक बनवाओ, स्मृति-ग्रंथ प्रकाशित करवाओ। और तुम वैसे के वैसे! तुम्हारे पचास साल व्यर्थ गए।
उन सज्जन ने मुझे कहा कि आप कहते हैं तो सोच आता है, मैं जवान था, विश्वविद्यालय से निकला ही था कि महात्मा गांधी के प्रभाव में आ गया। उन्होंने मुझसे कहा कि सेवा करो, सेवा ही धर्म है। तो मैं सेवा में लग गया।
पचास साल करके देख लिया, कुछ अक्ल आई? सेवा धर्म नहीं है, यद्यपि धर्म जरूर सेवा है। और इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है।
महात्मा गांधी ने कहा है: सेवा धर्म है। विनोबा भावे कहते हैं: सेवा धर्म है। मैं तुमसे कहता हूं: सेवा धर्म नहीं है, धर्म सेवा है। पर तब यात्रा बिलकुल भिन्न हो गई। पहले स्वयं के जीवन में धर्म का जागरण हो, फिर सेवा अपने आप हो जाती है; फिर तुम्हें करनी नहीं पड़ती। कोई चेष्टा नहीं, कोई आयोजन नहीं। तुम जहां बैठते हो, तुम जहां उठते हो, तुम जिनके साथ हो लेते हो उनके जीवन में तुम्हारी सुगंध व्यापने लगती है। तुम कोई उनकी गर्दन नहीं पकड़ लेते कि हम तुम्हें बदल कर रहेंगे।
खयाल रखना, दूसरों को बदलने वाले मत बनना। ये अक्सर बुरे लोग होते हैं जो दूसरों को बदलने में उत्सुक हो जाते हैं। जो किसी के पीछे पड़ जाते हैं कि हम तुम्हारा चरित्र ठीक करके रहेंगे। तुम हो कौन? तुम्हें किसने जिम्मा दिया है? यह दूसरे का चरित्र ठीक करने का तुमने ठेका कहां से लिया है? तुम अपनी फिकर ले लो। तुम अपनी तो निबेर लो। तुम सुंदर हो जाओ; फिर तुम्हारे सौंदर्य के प्रभाव में अगर कुछ होना होगा, हो जाएगा। जरूर होता है। तुम्हारे सौंदर्य की छाप जरूर पड़ेगी। कई लोगों पर तुम्हारे जीवन की छाया आएगी, लेकिन तब जोर-जबर्दस्ती नहीं होगी।
अक्सर दूसरों को बदलने वाले लोग जोर-जबर्दस्ती करते हैं। यह हिंसा का ही एक ढंग है। महात्माओं से सावधान रहना। महात्माओं से जरा बचना, क्योंकि महात्मा अक्सर हिंसक होते हैं। अहिंसा की बातें करते हैं, मगर उनकी अहिंसा की बात में भी हिंसा होती है।
जिंदगी बड़ी जटिल है। ऊपर से कुछ होता है, भीतर कुछ होता है। अगर तुम महात्मा गांधी की बात न मानते, वे उपवास करेंगे। यह उपवास क्या है? यह हिंसा है, यह धमकी है। यह इस बात की धमकी है कि मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानी। मगर यह तो बड़े मजे की बात हो गई। अगर कोई आदमी छुरा ले कर बैठ जाए, मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हें साफ दिखाई पड़ेगा कि यह आदमी तो बड़ा हिंसक है। छुरा है उपवास भी--सूक्ष्म है। एकदम नहीं मर जाएंगे, मरते-मरते मरेंगे। और एकदम मर जाएं तो ठीक भी है। तुम्हारी झंझट छूटे। ठीक है, रो-धो कर विदा कर आओ। मगर ये महीनों तुम्हारे पीछे रहेंगे। ये तुम्हें सोने न देंगे। रात तुम्हें नींद न आएगी कि बेचारा, मेरे पीछे मर रहा है।
कोई किसी के पीछे नहीं मर रहा है। लोग अपने-अपने अहंकार के लिए मर रहे हैं। यह आदमी इसलिए मर रहा है, यह कहता है, मेरी मानो। जो मैं कहता हूं, वह ठीक है। कोई कहता है, मेरी मानो नहीं तो तुम्हारी गर्दन काट दूंगा। एडोल्फ हिटलर जैसे लोग--कि हम ठीक हैं, मानते हो कि नहीं?
मैंने सुना है, एडोल्फ हिटलर ने अपने मंत्रियों की एक सभा ली। उसके बीस मंत्री थे। उसने खड़े होकर कहा: एक प्रस्ताव रखा कि यह प्रस्ताव है। और जो लोग भी इससे असहमत हों, वे अपने इस्तीफे दे दें। जो लोग भी इससे असहमत हों, वे अपना इस्तीफा दे दें। मामला खत्म करो।
कौन असहमत होगा? कैसे असहमत होगा? और इस्तीफे पर ही यह बात नहीं रुक जाएगी, जान का भी खतरा है फिर पीछे। यह खतरा कौन मोल ले? हिटलर कहता है: जो मेरे साथ हैं वे ठीक, जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा दुश्मन है। उसे मिटाना मेरा कर्तव्य है। मेरी नहीं मानते तो गर्दन कटवाने को राजी हो जाओ। यह एक ढंग हुआ।
महात्मा गांधी कहते हैं कि अगर मेरी नहीं मानते तो मैं खुद मर जाऊंगा। और महीनों तक मरता रहूंगा, घिसता रहूंगा। और तुमको भी सताता रहूंगा। भूत की तरह तुम्हारे पीछे पड़ा रहूंगा। न तुम सो सकोगे, न बैठ सकोगे। तुम खाना खाओगे तो भी विचार आएगा कि एक आदमी मेरे पीछे है। यह कोई नई तरकीब भी नहीं है। स्त्रियां इस तरकीब का उपयोग सदियों से करती रही हैं। महात्मा गांधी की कोई खोज नहीं है इसमें। यह स्त्रियों का बहुत पुराना हथियार है: नहीं खाना खाएंगे। फिर ठीक और सही का सवाल ही नहीं उठता। फिर जो नहीं खाना खा रहा है वही ठीक है। क्योंकि कौन झंझट बढ़ाए! उससे सार भी क्या है?
लेकिन इतना आग्रहपूर्ण होकर जब तुम दूसरे को बदलते हो तो तुम उसकी गर्दन पर शिकंजा कस रहे हो; तुम फांसी लगा रहे हो। यह सेवा नहीं है। और इसी तरह के सेवक काफी हैं। इस देश में तो बहुत हैं। इस देश में तो सेवक ही सेवक हैं। थोड़े ही दिनों में इस देश में मुश्किल हो जाएगी कि एक-एक आदमी के पीछे कई-कई सेवक पड़े हुए हैं। क्योंकि सेवक ज्यादा हो जाएंगे सेवा करवाने वाले कम रह जाएंगे। आखिर कहां इतने कोढ़ी खोजोगे? दबा रहे पैर! मालिश कर रहे हैं। कोढ़ी कह भी रहा है कि मेरी बहुत मालिश हो चुकी है दिन भर से। अब मुझे छोड़ो, मुझे कुछ और भी करने दो। मगर यह कैसे हो सकता है? सेवा करनी ही है।
सेवा का भाव ही एक भ्रांत धारणा पर खड़ा है। तुम इसके पहले सेवा की बात सोचो, सोच लेना कि मैं अभी कहां हूं, क्या हूं। मेरी अपनी अंतर्दशा कैसी है। पहले बुद्ध बनो। पहले जगो। पहले प्रीति का सागर बनो, फिर उस सागर से अपने आप तरंगें उठेंगी, लहरें उठेंगी। न मालूम कितने लोग डूबेंगे! मगर तुम्हें डुबाना न पड़ेगा तुम्हें एक-एक के पीछे दौड़ना नहीं पड़ेगा। लोग अपने से आकर डूबें, तब मजा है।
तुम लोगों को बदलना चाहो, तब मजा नहीं है; लोग बदलें, तब मजा है। तुम अनुशासन थोपो, उनको भयभीत करो कि नरक में सड़ाए जाओगे अगर हमारी बात नहीं मानी; या स्वर्ग का पुरस्कार मिलेगा अगर हमारी बात मानी। ये सब धोखे-धड़ियां हैं। न कहीं कोई नरक है, न कहीं कोई स्वर्ग है। यह सिर्फ चालबाजों की ईजाद है--उन चालबाजों की, जो आदमी की गर्दन से हाथ अलग नहीं करना चाहते। वे तुम्हें भयभीत करते हैं और तुम्हें लोभी भी बनाते हैं।
सच्चा धार्मिक व्यक्ति न तो तुम्हें भय देता है, न तुम्हें लोभ देता है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति अपने जीवन को तुम्हारे सामने खोल देता है। अगर उसमें से तुम्हें कुछ चुनना हो, चुन लो। चुन लो तो धन्यवाद, न चुनो तो धन्यवाद।
तुम चिंता न करो दूसरे लोगों के दुखों की। तुम अपना दुख मिटा लो। तुम रोओ मत। और रोना ही हो तो परमात्मा के लिए रोओ, विरह में रोओ। तो तुम्हारा रोना भी तुम्हें ऊपर की तरफ ले जाएगा, उड़ान देगा, ऊंचाई देगा। तुम्हारे आंसू तब बहुमूल्य हो जाएंगे। उन्हें परमात्मा के चरणों पर चढ़ाओ। और मैं तुमसे कहता हूं, एक दिन ऐसी घटना घटेगी कि तुम्हारे भीतर उतर आएगा कुछ अज्ञात से। और तब तुम्हारे आस-पास बहुत कुछ घटना शुरू हो जाएगा। वह अपने से घटता है। तुम उसकी चिंता ही नहीं लेना। तुम अकड़ना भी मत कि देखो, मेरे पास इतनी घटनाएं घट रही हैं; नहीं तो उसी वक्त रुक जाएगा। अहंकार आया कि परमात्मा गया। अहंकार गया कि परमात्मा आया।
यह भी अहंकार है कि मैं दूसरों के दुख मिटाऊंगा। मैं कौन हूं? अगर परमात्मा नहीं मिटा पा रहा है तो मैं कैसे मिटाऊंगा? कितने अवतार, कितने तीर्थंकर, कितने पैगंबर आए और गए; अगर नहीं मिटा पाए हैं आदमी का दुख तो मैं कैसे मिटाऊंगा? छोड़ो यह पागलपन। छोड़ो ये व्यर्थ की बातें।
कोई किसी का दुख नहीं मिटा सकता लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपना दुख जरूर मिटा सकता है। जो हो सकता है, वही कर लो पहले, फिर जो नहीं हो सकता है, वह भी होना शुरू हो जाता है। संभव को सम्हाल लो, असंभव भी सम्हलता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं, प्रेम परमात्मा है, लेकिन मैं तो प्रेम से ऐसा जला बैठा हूं कि प्रेम शब्द से ही चिढ़ हो गई है। मुझे मार्ग-दर्शन दें।
प्रेम शब्द से न चिढ़ो। यह हो सकता है कि तुमने जो प्रेम समझा था, वह प्रेम ही नहीं था। उससे ही तुम जले बैठे हो। और यह भी मैं जानता हूं कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है।
तो तुम्हें प्रेम शब्द सुन कर पीड़ा उठ आती होगी, चोट लग जाती होगी। तुम्हारे घाव हरे हो जाते होंगे। फिर से तुम्हें अपनी पुरानी याददाश्तें उभर आती होंगी। लेकिन मैं उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं।
मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उस प्रेम का तो तुम्हें अभी पता ही नहीं है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, वह तो कभी असफल होता ही नहीं। और मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उसमें अगर कोई जल जाए तो निखर कर कुंदन बन जाता है, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उसमें जल कर कोई जलता नहीं, और जीवंत हो जाता है। व्यर्थ जल जाता है, सार्थक निखर आता है।
लेकिन मैं तुम्हारी तकलीफ भी समझता हूं। बहुतों की तकलीफ यही है। इसलिए तो प्रेम जैसा प्यारा शब्द, बहुमूल्य शब्द अपना अर्थ खो दिया है--जैसे हीरा कीचड़ में गिर गया हो।
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
कौन से शहर में होता है कहां होता है
स्वभावतः तुमने तो जिसको प्रेम करके जाना था, उसमें सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं पाया; पीड़ा के सिवाय कुछ हाथ न लगा। तुमने तो सोचा था कि प्रेम करेंगे तो जीवन में बसंत आएगा। प्रेम ही पतझड़ लाया। प्रेम न करते तो ही भले थे। प्रेम ने सिर्फ नये-नये नरक बनाए।
और ऐसा ही नहीं है कि जो प्रेम में हारते हैं उनके लिए ही नरक और दुख होता है, जो जीतते हैं उनके लिए भी नरक और दुख होता है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं--तुम जो चाहो वह न मिले: एक; और दूसरा, तुम जो चाहो वह मिल जाए। और दूसरा दुख मैं कहता हूं, पहले से बड़ा है।
क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में; कि करता सवारी बादलों की; कि चांद-तारों से बातें होतीं; कि खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं। काश, लैला मिल जाती!
मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे हैं कि मजनू धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।
जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।
रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है, और जैसे ही पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।
बाहर हम जिसे तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।
किस-दर्जा दिलशिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम जिंदगी में फिर कोई अरमां न कर सके
एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।
दिल की वीरानी का क्या मजकूर है
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया
और इतनी दफे लूट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया है और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो।
मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।
तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अदभुत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया है, हरि। हरि का अर्थ होता है: लुटेरा--जो लूट ले, हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। हरण कर ले।
लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूब कर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब तुम से मैं कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी हैं।
मेरी मायूस मोहब्बत की हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है अहसास के पैमाने में
तुम्हारा प्रेम तो सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।
इश्क का कोई नतीजा नहीं जुज दर्दो-अलम
लाख तदबीर किया कीजे हासिल है वही
लेकिन संसार के दुख का हासिल ही यही है कि दुख ही हाथ आता है।
इश्क का कोई नतीजा नहीं जुज दर्दो-अलम
दुख और दर्द के सिवाय कुछ भी नतीजा नहीं है।
लाख तदबीर किया कीजे हासिल है वही
यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़ो, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंततः तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवाय कुछ भी हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!
लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम उपयोग करते हो। अगर मैं ऐसे शब्द उपयोग करूं जो तुम उपयोग नहीं करते तो बात ही न हो सकेगी। और अगर ऐसे शब्द उपयोग करता हूं जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।
जैसे ही तुमने सुना शब्द ‘प्रेम’, कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं, उनका सब सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मों वाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिनने यह प्रेम किया, उन सबने यही कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।
दूर से आए थे साकी सुन कर मैखाने को हम
पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम
मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे।
दूर से आए थे साकी सुन कर मैखाने को हम
मधुशाला की खबर सुन कर कहां से तुम्हारा आना हुआ जरा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो।
पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम
यहां एक घूंट भी न मिला। चुल्लू भर भी प्यास बुझाने को मदिरा न मिली। एक पैमाना भी न मिला।
मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते ही तरसते चले। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है, भरपूर जाता है।
मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोल कर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, वह अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है, वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।
तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते ही रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।
मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जहां तुम परमात्मा से कुछ मांगते नहीं; कुछ भी नहीं। सिर्फ कहते हो, मुझे अंगीकार कर लो। मुझे स्वीकार कर लो। मुझे चरणों में पड़ा रहने दो। यह मेरा हृदय किसी कीमत का नहीं है, किसी काम का भी नहीं है, मगर चढ़ाता हूं तुम्हारे चरणों में। और कुछ मेरे पास है भी नहीं। और चढ़ा रहा हूं, तो भी इसी भाव से चढ़ा रहा हूं: ‘त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत।’ तेरी ही चीज है, तुझी को वापस लौटा रहा हूं। मेरा इसमें कुछ है भी नहीं। देने का सवाल भी नहीं है, देने की अकड़ भी नहीं है। मगर तुझे और तेरे चरणों में रखते ही इस हृदय को शांति मिलती है, आनंद मिलता है, रस मिलता है। जो खंड टूट गया था अपने मूल से, फिर जुड़ जाता है। जो वृक्ष उखड़ गया था जमीन से, उसको फिर जड़ें मिल जाती हैं; फिर हरा हो जाता है, फिर रसधार बहती है, फिर फूल खिलते हैं, फिर पक्षी गीत गाते हैं, फिर चांद-तारों से मिलन होता है।
परमात्मा से प्रेम का अर्थ है कि मैं इस समग्र अस्तित्व के साथ अपने को जोड़ता हूं। मैं इससे अलग-अलग नहीं जीऊंगा, अपने को भिन्न नहीं मानूंगा। अपने को पृथकमान कर नहीं अपनी जीवन-व्यवस्था बनाऊंगा। मैं इसके साथ एक हूं। इसकी जो नियति है वही मेरी नियति है। मेरा कोई अलग निजी लक्ष्य नहीं है। मैं इस धारा के साथ बहूंगा, तैरूंगा भी नहीं। यह जहां ले जाए! यह डुबा दे तो डूब जाऊंगा। ऐसा समर्पण परमात्म-प्रेम का सूत्र है। खाली मत जाना।
मैकशों ने पीके तोड़े जाम-ए-मय
हाय वो सागर जो रक्खे रह गए
ऐसे ही रखे मत रह जाना। पी लो जीवन का रस। तोड़ चलो ये प्यालियां। और उसकी नजर एक बार तुम पर पड़ जाए, और तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।
लाखों में इन्तिखाब के काबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया
जरा रखो उसके चरणों में। जरा झुको। एक नजर उसकी पड़ जाए, एक किरण उसकी पड़ जाए और तुम रूपांतरित हुए। लोहा सोना हुआ। मिट्टी में अमृत के फूल खिल जाते हैं।
आखिरी जाम में क्या बात थी ऐसी साकी
हो गया पी के जो खामोश वो खामोश रहा
यहां तुमने बहुत तरह के जाम पीए। आखिरी जाम--उसकी मैं बात कर रहा हूं।
आखिरी जाम में क्या बात थी ऐसी साकी
हो गया पी के जो खामोश वो खामोश रहा
उसको पी लोगे तो एक गहन सन्नाटा हो जाएगा। सब शांत, सब शून्य, सब मौन। भीतर कोई विचार की तरंग भी न उठेगी। उसी निस्तरंग चित्त को समाधि कहा है। उसी निस्तरंग चित्त में बोध होता है, मैं कौन हूं।
मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं, तुम किसी और ही प्रेम की बात सुन रहे हो। मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ सुनते हो। यह स्वाभाविक है शुरू-शुरू में। धीरे-धीरे बैठते-बैठते मेरे शब्द मेरे अर्थों में तुम्हें समझ में आने लगेंगे। सत्संग का यही प्रयोजन है। आज नहीं समझ में आया, कल समझ में आएगा; कल नहीं तो परसों। सुनते-सुनते...। कब तक तुम जिद करोगे अपने ही अर्थ की? धीरे-धीरे एक नये अर्थ का आविर्भाव होने लगेगा।
मेरे पास बैठ कर तुम्हें एक नई भाषा सीखनी है। एक नई अर्थव्यवस्था सीखनी है। एक नई भाव-भंगिमा, जीवन की एक नई मुद्रा! तुम्हारे ही शब्दों का उपयोग करूंगा लेकिन उन पर अर्थों की नई कलम लगाऊंगा। इसलिए जब भी तुम्हें मेरे किसी शब्द से अड़चन हो तो खयाल रखना, अड़चन का कारण तुम्हारा अर्थ होगा, मेरा शब्द नहीं। तुम यह भी कोशिश करना कि मेरा अर्थ क्या है। तुम अपने अर्थों को एक तरफ सरका कर रख दो। तुम तत्परता दिखाओ मेरे अर्थ को पकड़ने की। और तत्परता दिखाई तो घटना निश्चित घटने वाली है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं बहुत से प्रश्न पूछना चाहता हूं किंतु फिर रुक जाता हूं, क्योंकि वे सब व्यर्थ मालूम होते हैं। क्या सभी प्रश्न व्यर्थ हैं?
प्रश्न भी व्यर्थ हैं, उत्तर भी व्यर्थ हैं। होना है निष्प्रश्न। पहुंचना है ऐसी जगह, जहां न प्रश्न बचे न उत्तर बचे। क्योंकि प्रश्न भी विचार है और उत्तर भी विचार है। होना है शून्य। होना है निःशब्द। वहां न कोई प्रश्न उठेगा न कोई विचार उठेगा, न कोई उत्तर पर पकड़ रह जाएगी। ऐसी दशा में ही साक्षात्कार होता है।
इसलिए समाधि न तो हिंदू होती है, न तो मुसलमान होती है, न ईसाई होती है। विचार हिंदू होते हैं, ईसाई होते हैं, मुसलमान होते हैं; हजार ढंग के होते हैं। विचार सब ढंग-ढंग के होते हैं। समाधि का तो एक ही रंग होता है--शून्यता। हिंदू भी चुप हो जाएगा तो वहीं पहुंच जाएगा जहां मुसलमान चुप होकर पहुंचेगा। स्त्री चुप होगी तो वहीं पहुंच जाएगी जहां पुरुष चुप होकर पहुंचेगा। लेकिन अगर बोलेंगे तो भेद पड़ जाएंगे; तो भिन्नता आ जाएगी।
अच्छा ही होता है कि तुम्हें दिखाई पड़ जाता है कि सारे प्रश्न व्यर्थ हैं। फिर भी उठते हैं। प्रश्न ऐसे ही मन में लगते हैं जैसे पत्ते वृक्षों में लगते हैं। मन का स्वभाव है प्रश्न करना। मन प्रश्नों के सहारे जिंदा रहता है। मन को उत्तर में उत्सुकता नहीं है, खयाल रखना। ध्यान रखना, मन को उत्तर से कुछ लेना ही नहीं है। मन तो उत्तर से भी नये दस प्रश्न खड़े करने को उत्सुक है; इसलिए उत्तर भी मांगता है। एक प्रश्न पूछता है, उत्तर मिले, उत्तर में से दस नये प्रश्न खड़े कर देता है।
पूछेगा, परमात्मा ने बनाया जगत को? सच में परमात्मा ने जगत को बनाया? और ऐसा लगता है कि बड़ी श्रद्धा से, बड़ी निष्ठा से पूछ रहा है। कहो कि हां, परमात्मा ने जगत को बनाया। और दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं: क्यों बनाया? फिर ऐसा ही क्यों बनाया? फिर इतना दुख क्यों बनाया? यह कैसा अन्याय हो रहा है? फिर कोई गरीब और अमीर क्यों बनाया? फिर कोई सुखी और दुखी; और कोई सोने की चम्मच मुंह में ले कर पैदा हो रहा है और कोई दाने-दाने को मोहताज है। फिर ऐसा क्यों किया? फिर पाप क्यों बनाया जगत में? फिर आदमी को ऐसा क्यों बनाया कि वह पाप कर सके? फिर उसे पुण्य ही करने की क्षमता क्यों न दी?
अब उठना शुरू हुआ। अब कोई अंत नहीं होगा। इसलिए बुद्ध जैसे ज्ञानी ने पहले ही प्रश्न पर रोक देना चाहा। पूछो बुद्ध से: ईश्वर है? बुद्ध कहते हैं: यह प्रश्न किसी काम का नहीं है। इससे न निर्वाण होगा, न समाधि लगेगी, न शांति मिलेगी। इससे तुम्हारे चित्त की चिकित्सा नहीं हो सकती। इसे हटाओ। यह किसी काम का नहीं है। बुद्ध जानते हैं कि इसका उत्तर दिया कि तुम दस प्रश्न ले आओगे। प्रश्नों की संतति बढ़ती ही चली जाती है।
प्रश्न मन उठाता क्यों है? यह असली प्रश्न से बचने की तरकीब है। असली प्रश्न तो एक है: मैं कौन हूं? मगर वह मन नहीं उठाता। वह कहता है: संसार क्या है? संसार में दुख क्यों है? संसार को किसने बनाया? क्यों बनाया? अंत क्या है? लक्ष्य क्या है? हजार प्रश्न उठाता है। एक प्रश्न नहीं उठाता कि मैं कौन हूं।
महर्षि रमण के पास जब भी कोई जाता था, कोई भी प्रश्न ले कर जाए, वे कहते: छोड़ो यह, असली प्रश्न पूछो। लोगों की समझ में ही न आता कि असली प्रश्न क्या है। लोग पूछते: आप ही बता दें, असली प्रश्न क्या है? तो वह तो एक ही प्रश्न था असली--मैं कौन हूं? तो लोग कहते: चलो, यह ही पूछते हैं कि मैं कौन हूं? तो वे कहते: मुझसे मत पूछो। असली प्रश्न दूसरे से नहीं पूछा जा सकता। आंखें बंद करो और दोहराओ भीतर कि मैं कौन हूं?
झूठे प्रश्न दूसरे से पूछे जा सकते हैं। झूठे ही हैं, किसी से भी पूछ लिए। असली प्रश्न तो अपने से ही पूछा जा सकता है। अपने ही अंतर्तम में गुंजाना होता है। अपने ही भीतर, और भीतर, और भीतर, खोदते जाना होता है।
एक सवाल है कि क्या खयाल है सच
और क्या झूठ है वास्तव
एक और सवाल है
कि क्या बवाल है बर्दाश्त करना
और क्या चोट पहुंचाना
खत्म करना है बवालों को
एक और सवाल है
कि पहले और दूसरे सवालों में से
कौन सा है पहला
क्या ये दोनों ही सवाल
न पहले हैं न दूसरे हैं?
ये सवाल ही नहीं हैं
हमारी कमजोरी है,
हमारी बेईमानी है,
हमारी चोरी है
किस बात की चोरी? हम असली सवाल को छिपा रहे हैं धुआं उठा कर। हजार सवालों का जाल खड़ा करके हम असली सवाल को भुला रहे हैं। हम अपने को उलझा रखना चाहते हैं, ताकि असली सवाल न पूछना पड़े। असली सवाल पीड़ादायी है। भाले की तरह चुभेगा छाती में, जब पूछोगे, मैं कौन हूं?
क्योंकि तुमने तो मान ही लिया है कि तुम्हें पता है। हरेक मान कर बैठा है कि मुझे पता है कि मैं कौन हूं। यह भी कोई पूछने की बात है? तुम तो जानते ही हो तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना। और क्या चाहिए? तुम्हें पता है तुम गोरे हो कि काले हो; हिंदू हो कि मुसलमान हो; हिंदुस्तानी कि पाकिस्तानी। तुम्हें सब पता है तुम्हारे पिता का नाम, पिता के पिता का नाम, तुम्हारा घर, सब तुम्हें पता है। तुम्हारा धंधा, तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा, सब तुम्हें पता है; और क्या चाहिए?
और इसमें से कुछ भी तुम नहीं हो। न तो तुम्हारी शिक्षा तुम हो, न तुम्हारी दीक्षा तुम हो, न तुम्हारी संस्कृति, न तुम्हारी सभ्यता, न तुम्हारा समाज। तुम इस सबसे अतीत हो, इस सबके पार हो। तुम शुद्ध चैतन्य हो। तुम सच्चिदानंद हो। उसे किसी विशेषण में बांधा नहीं जा सकता। तुम तो दर्पण हो। इस दर्पण में जो प्रतिबिंब बनते हैं, वे प्रतिबिंब तुम नहीं हो। और जितनी चीजों को तुमने समझ रखा है कि यह मैं हूं, ये सब प्रतिबिंब हैं। अभी दर्पण की तुम्हें पहचान नहीं ही आई। जब तुम दर्पण को जानोगे, पहचानोगे, चकित हो जाओगे; विमुग्ध हो जाओगे। ऐसे रस में डूबोगे कि फिर कभी उसके बाहर न आ सकोगे।
प्रश्न तो सब व्यर्थ हैं, सिर्फ एक प्रश्न को छोड़ कर। और उत्तर भी सभी व्यर्थ हैं, सिर्फ एक उत्तर को छोड़ कर। लेकिन वह प्रश्न औैर वह उत्तर तुम्हारे भीतर घटना है। बाहर से कोई उत्तर नहीं मिल सकता। मैं कह रहा हूं कि सच्चिदानंद हो तुम, लेकिन इससे क्या होगा? तुमने सुन भी लिया, हुआ क्या?
परसों रात फ्रांस से आई एक महिला को मैं कुछ कह रहा था। दुखी थी, उदास थी। कह रही थी कि कभी-कभी सुख भी होता है लेकिन अधिकतर तो मैं उदास ही रहती हूं। कभी-कभी ठीक लगता है, बस कभी-कभी। ज्यादातर तो सब ऐसा व्यर्थ लगता है। मैं क्या करूं? तो उसे मैंने कहा कि मैं तुझे एक सूफी कहानी कहता हूं। मैंने कहानी शुरू की थी, दो ही पंक्तियां कही थीं कि उसने कहा कि यह कहानी मुझे मालूम है। मैंने कहा: अगर यह कहानी तुझे मालूम है, सच में तुझे मालूम है तो फिर उदास क्यों है? वह थोड़ी चौंकी, क्योंकि कहानी मालूम होने से उदास होने का क्या संबंध हो सकता है?
तो फिर मैंने कहा, तू फिर से सुन। तुझे कहानी मालूम नहीं है। तूने सुनी होगी, पढ़ी होगी, लेकिन कहानी को जीना पड़ेगा। पढ़ने और सुनने से क्या होगा? कहानी तो छोटी सी है, विख्यात है। तुममें से भी बहुतों को पता होगी। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, पता तभी होगी जब तुम जीओगे।
कहानी मैं उससे कह रहा था कि एक सम्राट ने अपने स्वर्णकार को बुलाया, सुनार को बुलाया और कहा: मेरे लिए एक सोने का छल्ला बना। और उसमें एक ऐसी पंक्ति लिख दे जो मुझे हर घड़ी में काम आए। दुख हो तो काम आए, सुख हो तो काम आए। सुनार ने छल्ला तो बनाया, सुंदर छल्ला बनाया हीरा-जड़ा, लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ा था कि ऐसा वचन कैसे लिखूं उसमें जो हर वक्त काम आए? कुछ भी लिखूंगा, वह किसी समय काम आ सकता है, किसी खास घड़ी में, किसी संदर्भ में। लेकिन हर घड़ी में, जीवन के हर संदर्भ में काम आए ऐसा वचन कहां से लिखूं, कैसे लिखूं?
वह पागल हुआ जा रहा था। फिर उसे याद आया, एक फकीर गांव में आया है, उससे पूछ लें। फकीर के पास गया, फकीर ने कहा: इसमें कुछ खास बात नहीं है। तू जा और इतना लिख दे: ‘दिस टू विल पास। यह भी बीत जाएगा।’ और सम्राट को कह देना कि जब भी कोई भी घड़ी हो और तुम परेशान हो, खुश हो, दुखी हो, इस छल्ले में लिखे वचन को पढ़ लेना; वह काम पड़ेगा।
और वह काम पड़ा। सम्राट कुछ ही दिनों बाद एक युद्ध में हार गया और उसे भागना पड़ा। दुश्मन पीछे है, वह एक पहाड़ में जाकर छिप गया है, थर-थर कांप रहा है। घोड़ों की टाप सुनाई पड़ रही है। बड़ा दुखी है, जीवन मिट्टी हो गया। क्या सपने देखे थे, क्या से क्या हो गया। सोचता था, राज्य बड़ा होगा, इसलिए युद्ध में उतरा था। राज्य अपना था, वह भी गया। जो हाथ का था, वह भी गया उसको पाने में जो हाथ में नहीं था। बड़ा उदास था, बड़ा चिंतित था। कैसी भूल कर ली! तभी उसे याद आई छल्ले की। वचन पढ़ा। वचन था कि ‘यह भी बीत जाएगा।’ मन एकदम हलका हो गया। जैसे बंद कमरे के किवाड़ किसी ने खोल दिए। सूरज की रोशनी भीतर आ गई, ताजी हवा का झोंका भीतर आ गया। मंत्र की तरह! जैसे अमृत बरसा--‘यह भी बीत जाएगा।’
वह शांत होकर बैठ गया। वह भूल ही गया थोड़ी देर में कि घोड़ों की टाप कब सुनाई पड़नी बंद हो गई, दुश्मन कब दूर निकल गए! बड़ी देर बाद उसे याद आई कि अब तक पहुंचे नहीं! और तीन दिन बाद उसकी फौजें फिर इकट्ठी हो गईं, उन्होंने फिर हमला किया, वह जीत गया। वापस अपनी राजधानी में विजेता की तरह लौटा। बड़ा अकड़ा था। फूल फेंके जा रहे थे, दुदुंभी बजाई जा रही थी। भारी शोभा-यात्रा थी। तभी अकड़ के उस क्षण में उसे अपना हीरा चमकता हुआ दिखाई पड़ा अंगूठी का। उसने फिर वह वचन पढ़ा: ‘यह भी बीत जाएगा।’ और चित्त फिर हलका हो गया। जैसे कोई द्वार खुला, रोशनी भर गई। वह जो अहंकार पकड़ रहा था कि देखो मैं! ऐसा विजेता था कभी पृथ्वी पर? इतिहास में लिखा जाएगा नाम स्वर्ण अक्षरों में, उड़ गया, जैसे सुबह सूरज उगे और घास पर पड़ी ओस की बूंद उड़ जाए, ऐसा वह अहंकार उड़ गया। हलका हो गया, फिर वही शांति आ गई।
मैं उस महिला को कह रहा था यह कहानी। मैंने आधी ही कही थी, उसने कहा कि मुझे यह कहानी मालूम है। मैंने कहा: नहीं मालूम। उसने कहा: मुझे मालूम है। मैंने कहा: नहीं मालूम है। अगर मालूम है तो जो तूने प्रश्न उठाया, वह उठाना नहीं था। दुख आता है, जानो कि बीत जाएगा। यहां सभी बीत जाता है। सुख आता है, बीत जाता है। न दुख में टूटो, न सुख में अकड़ो। न दुख में उदास हो जाओ, न सुख में फूल जाओ, कुप्पा हो जाओ। सब आता है, सब जाता है। पानी की धार है, गंगा बहती रहती है।
यहां कुछ थिर नहीं। यहां साक्षी के अतिरिक्त और कुछ भी थिर नहीं है। यहां देखने वाला भर बचता है, और सब बीत जाता है। सुख भी बीत जाता है, दुख भी बीत जाता है। लेकिन जो दुख को जानता है, सुख को जानता है, वह जानने वाला कभी नहीं बीतता। वह अनबीता, सदा थिर। उसी की तलाश करनी है। उसको ही जिस दिन पहचान लोगे, जानना कि उत्तर मिला इस प्रश्न का कि मैं कौन हूं। और यही एकमात्र सार्थक प्रश्न है और यही एकमात्र सार्थक खोज है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आप जो अमृत पिला रहे हैं उसे पीने से बहुत डरता हूं। क्या कारण होगा? क्यों डरता हूं? और मैं क्या करूं?
अमृत तुम कहते हो, तुम्हें अभी दिखाई नहीं पड़ा होगा; नहीं तो पी जाते। अमृत दिखाई पड़ जाए, अनुभव में आ जाए तो पीने से कोई रुकता नहीं; न भयभीत होता है। अमृत पीने से कोई भयभीत होगा?
नहीं, मैं कहता हूं कि अमृत है। तुम सुनते हो और मेरी मान लेते हो। मगर तुम्हें अमृत मालूम होता नहीं। और जब तक तुम्हें मालूम न होगा, तब तक तुम कैसे पीओगे? और तुम्हें मालूम हो जाएगा तो एक क्षण न लगेगा, तत्क्षण पी जाओगे। फिर कौन देरी करेगा? फिर एक क्षण न रुकोगे। क्योंकि एक क्षण का भी क्या भरोसा है?
तो पहली तो बात स्मरण कर लो: मेरे कहने के कारण कोई सत्य सत्य नहीं होता, तुम्हारी अनुभूति ही उसे सत्य का प्रमाण देगी। तुम्हें उसका गवाह होना पड़ेगा। तुम्हें कैसे पता चलेगा कि जो मैं कह रहा हूं, अमृत है? अभी तो तुम पीने में भी डर रहे हो। पीओ तो ही पता चलेगा न? अभी तुम्हें स्वाद का भी पता कहां है? अभी तुमने शब्द सुने हैं। अभी शब्दों का अर्थ तुम्हारे प्राणों पर नहीं फैला है। अभी तुमने दीये की बातें सुनी हैं। बातें सुन-सुन कर तुम मोहित भी हो गए, लेकिन तुम कहते हो, रोशनी क्यों नहीं होती? दीया जलाओगे तब रोशनी होगी। दीये की बात करने से रोशनी नहीं होती।
मैं जानता हूं कि अमृत है, मगर मेरे जानने से क्या होगा? मेरे जानने से मैंने पीआ। तुम्हारे जानने से तुम पीओगे। कैसे तुम जान पाओगे? क्या उपाय करो जिससे तुम जान पाओ?
अगर ठीक यात्रा शुरू करनी हो तो यहां से शुरू करो: पहले तो तुम जो पी रहे हो, वह देखो कि क्या है! वह जहर है। सम्यक यात्रा शुरू होगी। पहले तो तुम जो पी रहे हो, उसको गौर से देखो कि वह क्या है। तुम्हारे जीवन में दुख, पीड़ा, विषाद, संताप के अतिरिक्त और क्या है? तुम्हारे जीवन में विषाक्त धुएं के अतिरिक्त और क्या है? तुम्हारी दम घुटी जा रही है। तुम सूली पर चढ़े हुए हो। तुम अपने जीवन के जहर को ठीक से देख लो--तुम्हारा क्रोध, तुम्हारा मोह, तुम्हारा लोभ, तुम्हारा अहंकार, तुम्हारा द्वेष, तुम्हारा काम, तुम्हारी स्पर्धा, सब जहर है। तुमने जो अब तक पीआ है, वह जहर है।
ऐसी तुम्हारी प्रतीति पहले होनी चाहिए। और इसको करने में कोई कठिनाई नहीं है। तुम्हारा अनुभव कह रहा है कि जहर है। अगर तुम्हारा अनुभव न कहता तो तुम मेरे पास आते क्यों? तुम तलाश क्यों करते? तुम खोजते क्यों?
एक मित्र आए। बूढ़े संन्यासी हैं। हिमालय से आए थे। कहने लगे: आपका नाम सुन कर आया। संन्यास लिए तो तीस, पैंतीस साल हो गए। मैंने उनसे पूछा: कुछ मिला? कहने लगे: हां मिला; मिला क्यों नहीं? लेकिन मैंने कहा: जिस ढंग से आप कहते हो कि ‘मिला, मिला क्यों नहीं’, उसमें मुझे शक मालूम होता है। थोड़े झिझके, तिलमिलाए। कहा कि नहीं, नहीं, मिला। पूरा न भी मिला हो, अभी पूर्ण समाधि न भी मिली हो, निर्विकल्प समाधि न भी मिली हो लेकिन थोड़ी-थोड़ी सविकल्प समाधि का अनुभव तो होता है।
फिर मैंने कहा: यहां क्यों आए? क्योंकि अगर समाधि का थोड़ा भी अनुभव हो जाए तो सीढ़ी मिल गई। पहला सोपान मिल गया तो सीढ़ी मिल गई। अब उसके आगे दूसरा सोपान और तीसरा, और चढ़ते चले जाओ। मैं कुछ भी न कहूंगा आपसे, क्योंकि आपको तो मिल ही गया है। मुझे उनसे बात करने दो जिनको अभी नहीं मिला है। वे कहने लगे कि नहीं, नहीं, मैं बड़े दूर से आया हूं। तो फिर मैंने कहा: सच्ची बात कहो कि मिला नहीं है। सोच लो थोड़ी देर। मगर तुम सच बोलोगे तो ही बात शुरू मैं करूंगा। नहीं तो बात शुरू करना व्यर्थ है। तुम्हें अगर मिल ही गया हो तो बात ही खतम हो गई, धन्यभागी हो। मैं खुश हूं कि तुम्हें मिल गया। अगर न मिला हो तो मैं कुछ सहारा दूं। तब वे कुछ झेंपे से बोले कि नहीं, मिला तो नहीं है। कुछ भी नहीं मिला। फिर मैंने कहा: क्यों कह रहे थे कि मिल गया?
मैं समझता हूं अड़चन। तीस-पैंतीस साल किसी ने गंवाए हों किसी काम में तो अहंकार जुड़ जाता है। फिर यह कहने में कि तीस-पैंतीस साल मैं बुद्धू की तरह भटकता रहा हिमालय में, मूढ़ की तरह समय गंवाता रहा, अच्छा नहीं लगता। आदमी अपने को बचाता है। कहता है, कुछ-कुछ मिला।
लेकिन ध्यान रखना: समाधि खंड-खंड में मिलती ही नहीं। ऐसी थोड़े ही कि मिल गई आधा सेर, फिर और आधा सेर, फिर मिलती रही, फिर पसेरी, फिर मन, फिर मन भर! ऐसी नहीं मिलती है समाधि। समाधि के टुकड़े होते ही नहीं। समाधि अखंड मिलती है। या तो मिलती है या नहीं मिलती। तो जो कहे, थोड़ी-थोड़ी मिल रही है, समझ लेना कि मिल नहीं रही है, थोड़ी-थोड़ी कह कर वह यह कह रहा है कि अब मुझे बिलकुल मूढ़ तो मत कहो। जो भी मैं कर रहा हूं उससे कुछ मुझे मिला है, मगर जितना चाहिए उतना नहीं मिला।
तुम जरा गौर से देखो कि तुम्हारे जीवन में जो तुमने पाया है, वह जहर है या अमृत है? अगर अमृत है तो मेरे आशीर्वाद! फिर तुम यहां परेशान न होओ। अगर जहर है तो फिर यात्रा शुरू हो सकती है। क्योंकि जिसने जहर को जहर की तरह देख लिया, आधा काम पूरा हुआ। अमृत की तरफ आधी यात्रा हो गई। अंधेरे को अंधेरे की तरह देख लेना, प्रकाश को प्रकाश की तरह देखने के लिए पहला कदम है। मैं अज्ञानी हूं, यह दिखाई पड़ जाए तो ज्ञान की पहली किरण फूटी। मुझे पता नहीं है, इतना पता चल जाए तो शुरुआत हो गई। तीर्थयात्रा शुरू हुई। पहला कदम उठा।
और पहला कदम ही कठिन है। फिर दूसरा कदम तो आसान है क्योंकि वह भी पहले ही जैसा होता है। फिर तीसरा भी आसान है, वह भी पहले ही जैसा होता है। फिर तो सब कदम आसान हैं।
तुम कहते हो: ‘आप जो पिला रहे हैं, अमृत है। लेकिन मैं पीने में डरता हूं।’
तुम्हारे लिए अभी अमृत नहीं है। तुम तो जो पी रहे हो उसको समझते हो, कीमती है। और डर इसलिए रहे हो कि अगर मेरी बातें पीं तो तुम जो पी रहे हो, कहीं वह चूक न जाए। तुम दौड़ रहे हो पद की लालसा में। अब तुम्हें डर लगता है, अगर मेरी बातें सुनीं, और यह संन्यास कहीं छा गया तुम्हारे मन पर तो फिर क्या करोगे?
एक मित्र बिहार से आए। और बिहारी तो जरा खास ही ढंग के लोग हैं दुनिया में। इस देश की सारी राजनीति वे ही चलाते हैं। सब उपद्रव वहीं से शुरू होते हैं। कोई भी उपद्रव शुरू करवाना हो--बिहार! कहीं और से शुरू हो ही नहीं सकता। कहने लगे: संन्यास तो लेना है मगर एक बात की आज्ञा चाहता हूं कि संन्यास के बाद भी मैं अपनी राजनीति बंद नहीं करूंगा। चुनाव तो लडूंगा। इसकी आज्ञा चाहता हूं। मैंने उनसे कहा, तुम संन्यास का अर्थ भी नहीं समझे। अगर तुम यह आज्ञा चाहते हो तो तुम्हें संन्यास की कोई प्रतीति नहीं है कि तुम क्या मांग रहे हो। संन्यास का अर्थ ही यह है कि अब मैं महत्वाकांक्षा की दौड़ से हटता हूं। अब पद में मुझे रस नहीं है। अब परमात्मा में मुझे रस है। अब धन की मेरी आकांक्षा नहीं है, ध्यान की मेरी आकांक्षा है। अब मैं दूसरों से आगे निकल जाऊं, इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। अब मैं अपने भीतर कैसे पहुंच जाऊं, यही मेरी चिंता है।
तुम कहते हो कि संन्यास भी ले लूं और आज्ञा भी दे दें कि मैं राजनीति में रहूं। तो मैंने कहा, तुम पहले राजनीति में रह आओ कुछ दिन और। और पीओ। जब जहर का और अनुभव गहरा हो जाए तब लौट आना। अभी संन्यास की तैयारी नहीं है।
डर क्यों पैदा होता है? डर इसलिए पैदा होता है कि तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ हैं, उनमें चोट पड़ेगी। तुम अगर धन कमाने के पीछे दीवाने हो और मेरी बात तुमने ठीक से सुनी, समझी, उसमें डूबे, तुम्हारी पकड़ छूट जाएगी धन पर से। तुम्हारी प्रतिस्पर्धा, तुम्हारी हिंसा, सब छूट जाएगी। तुम थोड़े सरल हो जाओगे। अभी तुम दूसरों को लूटते थे, डर यही है कि कहीं दूसरे तुम्हें न लूट लें। इससे भय हो रहा है।
अमृत तो तुम पीना चाहते हो, मगर अपने को अछूता रख कर पीना चाहते हो। तुम चाहते हो, मैं जैसा हूं वैसा का वैसा रहूं और यह अमृत भी मिल जाए। यह असंभव है। फिर भी, यह प्रश्न तुमने तीसरी बार पूछा है। तो आते तो तुम हो। लगता है, बच भी अब सकते नहीं। शायद बचने की सीमा जो थी, उसको तुम पार कर गए।
साकी मेरे खलूस की शिद्दत तो देखना
फिर आ गया हूं गर्दिशे-दौरां को टाल कर
तुम आ जाते हो संसार का चक्कर छोड़-छाड़ कर फिर-फिर। जरूर कुछ न कुछ होना शुरू हुआ है--अंधेरे में सही, अचेतन में सही, मगर कहीं कोई चोट पड़ने लगी है। कहीं कोई नाद उठने लगा है। कोई तार छिड़ा है। अब तुम बच नहीं पाते। इसीलिए प्रश्न भी उठा है। किसी न किसी दिन पी ही जाओगे, घबड़ाओ मत। एकाध दिन जल्दी से घबड़ाहट में ही पी जाओगे।
मय-सी हसीन चीज को और वाकई हराम
मैं कसरते-शकूक से घबरा के पी गया
ऐसे ही विचार करते-करते-करते एकाध दिन सोचोगे, कब तक, कब तक? और एक भी बूंद तुम्हारे कंठ के गले उतर गई तो फिर तो पूरा सागर ही पीना होगा। फिर कम से काम नहीं चलता।
मेरा तो निमंत्रण है, पी लो। भय को एक तरफ रखो। जिस चीज का भय लगता हो वह कर ही लो। वही भय से मिटने का उपाय होता है। अगर अंधेरे से भय लगता है, अंधेरे में चले ही जाओ। बैठ जाओ दूर जंगल में जाकर झाड़ के नीचे। जो होना हो हो जाए। थोड़ी देर में तुम्हें मजा आने लगेगा अंधेरे में। बड़ा सन्नाटा, बड़ी शांति। थोड़ी देर में भय भी बैठ जाएगा। थोड़ी देर में आकाश के तारे दिखाई पड़ने लगेंगे। झींगुरों की आवाज सुनाई पड़ने लगेगी। थोड़ी देर में रात का सन्नाटा और तुम्हारा प्राण साथ-साथ डोलने लगेंगे।
‘आरजू’ जाम लो झिझक कैसी!
पी लो और दहशते-गुनाह गई
मगर पीए बिना जाती नहीं। दहशते-गुनाह--अपराध का भाव बना रहता है। वह भी है। मेरे पास तुम आते हो तो मैं किसी पिटे-पिटाए धर्म का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह एक क्रांतिकारी उदघोष है। मेरे साथ जुड़ना और बहुत जगहों से टूट जाना हो जाएगा। मुझसे जुड़े तो जिस मंदिर में तुम कल तक गए थे, उस मंदिर में जाना मुश्किल होने लगेगा। जिस मस्जिद में कल तक तुमने इबादत की थी, उस मस्जिद के लोग ही तुम्हारे लिए द्वार बंद कर देंगे।
पंजाब से मुझे कुछ पत्र आए हैं। कुछ सिक्ख संन्यासियों ने लिखा है कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, क्योंकि गुरुद्वारे में हमें आने नहीं दिया जाता। वे कहते हैं, तुम चुनाव कर लो। अगर तुम्हें सिक्ख रहना है तो सिक्ख, और अगर तुम्हें ये गैरिक वस्त्र पहनने हैं और यह संन्यास स्वीकार करना है तो तुम जाओ जहां तुम्हें जाना है, मगर गुरुद्वारे मत आओ।
वे गुरुद्वारे में आने से जो रोक रहे हैं उन बेचारों को पता भी नहीं है कि सिक्ख शब्द का मतलब क्या होता है। उसका मतलब होता है, शिष्य। शिष्य का बिगड़ा हुआ रूप है सिक्ख। अब ये बेचारे शिष्य हो गए हैं, वे उनको गुरुद्वारे में नहीं आने देते। इनको गुरु मिल गया है, इनको गुरुद्वारा छूटा जा रहा है। और गुरुद्वारे का मतलब ही केवल इतना होता है कि गुरु द्वार है; और कुछ मतलब नहीं होता।
बड़ी मुश्किल है। तुम्हें अड़चनें आएंगी। जो धर्म मैं तुम्हें दे रहा हूं, यह एक विद्रोही पुकार है, एक चुनौती है। तुम जिस धर्म के अब तक आदी रहे हो--सत्यनारायण की कथा और हनुमान जी का चालीसा इत्यादि, उससे इसका कुछ लेना-देना नहीं है। वे सब तो सांत्वनाएं हैं। उनसे तुम बदले नहीं जाते। वे तो तुम्हारे ही मन के बचाव के उपाय हैं। मैं तुम्हें जो दे रहा हूं, वह तुम्हारे मन को नष्ट ही करेगा। और मन नष्ट हो तो ही तुम्हारे भीतर आत्मा जगमगाए। यह मन का पर्दा हटे तो आत्मा प्रकट हो, अभिव्यक्ति हो।
पी ही लो! भय छोड़ कर पी लो।
एक जाम आखिरी तो पीना है और साकी
अब दस्ते-शौक कांपें या पैर लड़खड़ाएं।
हाथ भी कंपते हों तो फिकर छोड़ो। पैर भी लड़खड़ाते हों तो फिकर छोड़ो। एक दफा पी कर ही देख लो, फिर तय कर लेना कि और आगे पीना कि नहीं पीना। जिनने पी है उन्होंने फिर पीने के ही लिए तय किया है।
और पहली दफे तो हाथ कंपते हैं। डर लगता ही है। क्योंकि सारा अतीत एक, और एक नया काम करने चले। अतीत एक तरफ खींचता है--अतीत वजनी है। और फिर कल के लिए मत छोड़ो। मैं कहता हूं, आज ही पी लो।
साकिया यां चल रहा है चलचलाओ
जब तलक बस चले, सागर चले
कब कौन चल पड़ेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। आज हो कल पता नहीं हो न हो। कल का क्या भरोसा!
साकिया यां चल रहा है चलचलाओ
जब तलक बस चले, सागर चले
इसलिए जब तक बन सके, पी लो। यह सागर मैं लिए तुम्हारे सामने खड़ा हूं, पी लो। भय को उतार कर पी लो। एक बार तो भय हटा कर पीना ही पड़ेगा। बिना पीए भय मिटेगा नहीं।
तुम्हारी हालत वही है जैसे कोई आदमी कहे कि मुझे तैरना सीखना है, लेकिन पानी में मैं तभी उतरूंगा जब तैरना सीख लूं। बिना तैरना सीखे मैं पानी में उतरता नहीं। मुझे डर लगता है। यह आदमी तैरना कैसे सीखेगा? यह कभी नहीं सीखेगा। अब कोई ऐसा थोड़े ही कि गद्दे तकिए लगा कर और पड़े हैं कमरे में और तैरना सीख रहे हैं। पानी में उतरना पड़ेगा। उथले में उतरो, मत जाओ गहरे में एकदम। इसीलिए कहता हूं, एकाध घूंट पीओ।
बहार जाम-ब-कफ झूमती हुई आई
शिकस्त-ए-तौबा न करते तो और क्या करते
और इतने जोर से तुम्हें पुकार रहा हूं, चारों तरफ से घेर कर तुम्हें पुकार रहा हूं।
बहार जाम-ब-कफ झूमती हुई आई
शिकस्त-ए-तौबा न करते तो और क्या करते
ऐसी घड़ी में तो पुरानी कसमें छोड़ो, पुरानी आदतें छोड़ो।
भय सभी को पकड़ता है, तुम्हीं को नहीं। भय स्वाभाविक है। भय मन की आदत है। इसीलिए तो महावीर ने अभय को धर्म की पहली शर्त कहा है। अभय हो तो ही कोई नई दिशा में कदम उठा सकता है। और यह तो बड़ी नई दिशा है। धर्म सदा ही नई दिशा है। धर्म कभी पुराना पड़ता ही नहीं। और जो पुराना पड़ जाता है वह धर्म नहीं है, परंपरा है। धर्म तो रोज नये-नये अवतरण लेता है। रोज नये रूप में आकाश से उतरता है। नये गीत गाता है। धर्म पुराने गीत नहीं दोहराता। धर्म रोज नये गीत उठाता है और परंपरा पुराने गीत गाती है। और हम पुराने गीतों के आदी हो जाते हैं तो फिर नया गीत हमारे कंठ से नहीं उतरता।
मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि लगाव तुम्हारा बन गया है। भागने का उपाय नहीं है। लौट जाने की संभावना नहीं है। अब पी ही लो। और पीकर ही तुम जानोगे कि यह अमृत है। और इसे पीकर ही तुम जानोगे कि तुम जिन मंदिरों में गए थे और जिन मस्जिदों में गए थे, वह सब ऊपर-ऊपर था। इसे पी कर तुम पहली दफे मंदिर में पहुंचोगे, मस्जिद में पहुंचोगे। इसे पी कर तुम जहां बैठ जाओगे वहीं तीर्थ बन जाता है।
आज इतना ही।
मेरे ख्वाबों के सहारे मेरी जन्नत के सितारे मेरी दुनिया, मेरे हमदम, ऐ मेरे दोस्त! मुझे हुआ क्या है? रोता हूं, गाता हूं, नाचता हूं, मौन रहता हूं। इतनी दूर हूं फिर भी तुम्हारा जादू मुझ पर छाया रहता है। तुमसे क्या मांगूं? तुमसे क्या कहूं? बस तुम ही तुम हो, और नहीं भी। ऐसा क्यों है?
पुरुषोत्तम! होना और न होना, है और नहीं, एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं, परिपूरक हैं। शून्य और पूर्ण, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक ऐसा तुम्हारे अनुभव में न आएगा, तब तक तुम बंटे रहोगे; तब तक तुम जीवन को और मृत्यु को एक-दूसरे का शत्रु मानते रहोगे। और जिसने मृत्यु और जीवन को विपरीत देखा, स्वभावतः जीवन से जकड़ा रहेगा, मृत्यु से डरा रहेगा। जब तुम्हें जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू दिखाई पड़ेंगे--एक ही लहर की तरंगें, उसी क्षण जीवन से मोह छूट जाता है; उसी क्षण वैराग्य का जन्म होता है।
शून्य और पूर्ण को एक करके जान लेना, देख लेना, पहचान लेना परम अनुभव है।
तुमने पूछा है: ‘बस तुम ही तुम हो, और नहीं भी।’
ऐसा ही होता है। ये दोनों बातें एक साथ ही घटती हैं। यदि तुम मेरी आसक्ति में पड़ जाओ... और ध्यान रखना: आसक्ति प्रेम नहीं है। आसक्ति है, जीवन का मोह। प्रेम है, जीवन और मृत्यु को एक ही जान लेने का बोध। तब तुम मेरी आसक्ति में पड़ जाओगे।
और सब आसक्तियां बांध लेती हैं; फिर गुरु की आसक्ति ही क्यों न हो, वह भी बांधेगी। सोने की जंजीर ही सही, लेकिन सोने की जंजीर भी उतना ही बांध लेगी, जितनी लोहे की जंजीर बांधती है। और शायद थोड़ी मजबूती से बांधेगी। क्योंकि लोहे की जंजीर को तो छोड़ने का मन भी होता है, सोने की जंजीर को तो लोग आभूषण समझ लेते हैं। कांटों के ताज तो उतार देने आसान हैं, फूलों के ताज कैसे उतारोगे?
जीवन का जो साधारण विस्तार है वह तो कंटकाकीर्ण है। वहां तो दुख भरपूर है। वहां तो यह चमत्कार है कि तुम कैसे उलझे रहते हो! लेकिन किसी सद्गुरु के प्रेम में पड़ गए तो वहां तो फूलों की सुवास ही सुवास है। अगर वह प्रेम आसक्ति बन जाए तो मुक्तिदायी नहीं होगा। इसलिए सदगुरु दोनों तरह से तुम्हारे भीतर प्रवेश करेगा--है की तरह और नहीं की तरह, पूर्ण की तरह और शून्य की तरह। कभी तुम पाओगे, तुम पूरे उससे भरे हो और कभी तुम पाओगे, तुम्हारे भीतर कोई भी नहीं है, सिर्फ सन्नाटा है। ये दोनों बातें जब समतुल हो जाती हैं, एक वजन की हो जाती हैं, ये दोनों पलड़े तराजू के जब एक तौल पर आ जाते हैं, उसी क्षण आसक्ति विलीन हो जाती है, प्रेम का अनुभव होता है।
प्रेम बड़ी और बात है। प्रेम मुक्तिदायी है। जहां आसक्ति बांधती है, वहां प्रेम मुक्त करता है। प्रेम परम स्वतंत्रता है।
लेकिन इसके लिए बुद्धि के भेदों से ऊपर उठना होगा। यह बुद्धि प्रश्न उठा रही है। यह बुद्धि को अड़चन हो रही है कि मामला क्या है! ‘ऐसा भी लगता है कि आप हो, और ऐसा भी लगता है, आप नहीं हो।’ तो बुद्धि कहती है, दो में से कोई एक ही बात सच होगी। बुद्धि दोनों को साथ एक नहीं मान सकती। बुद्धि की प्रक्रिया ही यही है कि वह विपरीत को समाविष्ट नहीं कर सकती। इतनी बड़ी उसकी छाती नहीं है, बुद्धि बड़ी छोटी और ओछी है। बुद्धि कहती है दिन है तो फिर रात नहीं हो सकती। और रात है तो दिन नहीं हो सकता। बुद्धि से थोड़ा ऊपर उठो तो दिन और रात साथ-साथ हैं। दिन और रात एक ही पक्षी के दो पंख हैं। बुद्धि से ऊपर उठो अर्थात थोड़े दीवाने होओ, थोड़े पागल होओ।
रहे खिजां में तलाशे-बहार करते रहे
शबे-सियह से तलब हुस्ने-यार करते रहे
खयाले-यार, कभी जिक्रे-यार करते रहे
इसी मताअ पै हम रोजगार करते रहे
नहीं शिकायते-हिज्रां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्तए-दिल उस्तुवार करते रहे
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
हम उनमें तेरा, सिवा इंतजार करते रहे
उन्हीं के फैज से बाजारे-अक्ल रोशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
इस संसार में जो थोड़ी सी गरिमा है, गौरव है, सौंदर्य है, यह उन पागलों के कारण है, ‘जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे।’ जो कभी-कभी बुद्धि को छोड़ कर दीवाने होते रहे।
उन्हीं के फैज से बाजारे-अक्ल रोशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
उन्हीं की कृपा से, उन्हीं थोड़े दीवाने लोगों की कृपा से जीवन में रस बहता है और जीवन सत्य से बिलकुल उखड़ नहीं जाता। यहां बुद्धिमान तो बुद्धि की सीमाओं में घिर जाते हैं। यहां बुद्धि के ऊपर उठने का अर्थ होता है: सारी सीमाओं को तोड़ देना। बुद्धिमान कहता है, मैं आस्तिक हूं। बुद्धिमान कहता है, मैं नास्तिक हूं। धार्मिक कहता है, ईश्वर को कहो, है, तो भी है; ईश्वर को कहो, नहीं है, तो भी है। धार्मिक कहता है, कैसी आस्तिकता, कैसी नास्तिकता! होना भी उसका एक ढंग है, न होना भी उसका एक ढंग है। उपस्थिति भी उसकी है, अनुपस्थिति भी उसकी है। भाव भी उसका, अभाव भी उसका। हो, तो भी वही है; न हो, तो भी वही है।
रहे खिजां में तलाशे-बहार करते रहे
ऐसा दीवानापन चाहिए कि पतझड़ के दिनों में बहार को खोजने निकले कोई; अंधेरे में रोशनी की तलाश करे, मौत में जिंदगी को खोदे।
रहे खिजां में तलाशे-बहार करते रहे
जब पतझड़ आ गया हो, पत्ते झड़ गए हों, वृक्ष सूखे खड़े हों अस्थिपंजर, तब जो बहार की खोज करता है, ऐसा दीवाना ही परमात्मा को पा सकता है।
शबे-सियह से तलब हुस्ने-यार करते रहे
अंधेरे में जो प्यारे के चेहरे की खोज कर रहा है, गहन अंधकार में भी जो उसकी आभा को खोजता है।
खयाले-यार, कभी जिक्रे-यार करते रहे
कभी सोचता है, कभी बात करता है; मगर बात भी उस प्यारे की, सोचना भी उसी प्यारे का।
इसी मताअ पै हम रोजगार करते रहे
जिसकी सारी जिंदगी इसी एक ढंग में ढल गई होती है: उसी की याद। फूल दिखें तो उसकी याद और फूल खो जाएं तो उसकी याद।
नहीं शिकायते-हिज्रां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्तए-दिल उस्तुवार करते रहे
ऐसे ही उस प्यारे से प्रेम का संबंध गहरा होता है। ऐसे ही स्थायी और दृढ़ संबंध निश्चित रूप से निर्मित होते हैं।
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
जब कोई भी कारण नहीं होता है प्रतीक्षा करने का, आने की कोई संभावना नहीं होती, कोई संकेत भी नहीं होता...
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
हम उनमें तेरा, सिवा इंतजार करते रहे
हम उनमें भी तेरी याद करते रहे और तेरा इंतजार करते रहे। कोई कारण न था। तूने कोई खबर भी न भेजी थी। तेरे पगों की कोई ध्वनि भी सुनाई न पड़ती थी। सच तो यह है कि तू आएगा यह तो संभव ही नहीं था तू कभी नहीं आएगा इसके सारे प्रमाण मौजूद थे। न तू आया कभी, न तू कभी आएगा, इसके सब प्रमाण मौजूद थे; फिर भी--
वे दिन कि कोई भी जब वजहे-इंतजार न थी
हम उनमें तेरा, सिवा इंतजार करते रहे
उन्हीं के फैज से बाजारे-अक्ल रोशन है
जो गाह-गाह जुनूं इख्तियार करते रहे
ऐसे थोड़े से पागलों के कारण जगत से धर्म विदा नहीं होता। ऐसे थोड़े से दुस्साहसियों के कारण परमात्मा का संबंध पृथ्वी से नहीं टूटता। ये दीवाने ही परमात्मा और पृथ्वी के बीच सेतु हैं।
बुद्धि से तो छुटकारा लेना होगा पुरुषोत्तम! छोड़ो यह फिकर। बड़े-बड़े विचारक, बड़े दार्शनिक इसी फिकर में उलझे और समाप्त हो गए हैं। कितना विवाद चला है! बौद्ध दार्शनिक कहते हैं, परमात्मा शून्य है; और वेदांती दार्शनिक कहते हैं, परमात्मा पूर्ण है। और विवाद चल रहा है सदियों से। दोनों को पता नहीं है। दार्शनिकों को कुछ पता नहीं है।
परमात्मा पूर्ण भी है और शून्य भी। उपनिषद ठीक कहते हैं। उपनिषद के वक्तव्य दार्शनिकों के वक्तव्य नहीं हैं, दीवानों के वक्तव्य हैं। परमात्मा पास भी है, दूर भी। बुद्ध ठीक कहते हैं: है भी, नहीं भी।
दोनों को एक साथ स्वीकार कर लो। और दोनों की स्वीकृति में ही बुद्धि की श्वासें टूट जाती हैं। और बुद्धि की श्वासें टूट जाएं तो आत्मा श्वास ले। बुद्धि बिखरे तो तुम संगठित हो जाओ। बुद्धि जाए तो तुम्हारा आगमन हो, पदार्पण हो।
तुम पूछते हो:
‘मेरे ख्वाबों के सहारे, मेरी जन्नत के सितारे
मेरी दुनिया, मेरे हमदम, ऐ मेरे दोस्त!
मुझे हुआ क्या है?’
बाहर मत पूछो। बाहर पूछे कि चूके। हो रहा है भीतर। आंखें बंद करो और डूबो; और स्वाद लो और पीओ। और तुम पहचान जाओगे कि क्या हो रहा है। क्योंकि ये बातें सिर्फ स्वाद से ही पहचानी जाती हैं।
मैंने ही कुछ न समझा, मेरी ही थीं खताएं
वो दिल की धड़कनों से देते रहे सदाएं
वहां से आवाज उठ रही है हृदय में। वहां कोई पुकार रहा है, वहां कोई खींच रहा है। तुम बाहर प्रश्न खड़े करोगे, उलझ जाओगे। वहीं से पूछो। जहां प्रश्न उठ रहा है, उसी प्रश्न में डुबकी मार जाओ; वहीं उत्तर छिपा है।
और तुम कहते हो कि ‘रोता हूं, गाता हूं, नाचता हूं, मौन रहता हूं। इतनी दूर हूं फिर भी तुम्हारा जादू मुझ पर छाया रहता है।’
दूरी से जादू का क्या लेना-देना? जादू दूरी मानता ही नहीं। प्रेम को दूरी का कोई पता ही नहीं है। प्रेम के लिए तो सभी कुछ पास ही है--पास से भी पास। प्रेम के लिए न कोई समय का अंतराल है, न कोई स्थान का अंतराल है। जहां प्रेमी बैठ जाता है, जब आंख बंद कर लेता है, तभी उसके भीतर की धारा गुनगुनाने लगती है।
रिंद जो जर्फ उठा लें वही कूजा बन जाए
जिस जगह बैठ कर पी लें वहीं मैखाना बने
जहां बैठ कर तुम परमात्मा की याद करोगे, वहीं मंदिर है; वहीं परमात्मा है; वहीं काबा, वहीं कैलाश। दूरी से कुछ प्रयोजन नहीं है। पास बैठ कर भी पास बैठना इतना आसान तो नहीं।
लोग बुद्ध के सामने बैठे रहे हैं और चूक गए हैं। बुद्ध के सामने बैठे रहे और ऐसी व्यर्थ की बातें पूछते रहे! ऐसी व्यर्थ की बातें... समय अपना गंवाया, बुद्ध का गंवाया। बुद्ध के सामने थे, आंख में आंख डाल लेनी थी, हाथ में हाथ ले लेना था, चरणों पर सिर रख देना था। थोड़ी देर को विस्मरण करते सब सोच-विचार। थोड़ी देर को निर्विचार होते। उसी निर्विचार में बुद्ध से भी जुड़ते और अपने से भी जुड़ते। क्योंकि जो जाग गया है वह वहीं है, जहां तुम भी जाग जाओगे तो पहुंच जाओ। जो जाग गया है वह वहीं है, जहां तुम्हारे भी अंतस्तल का केंद्र है। सोए-सोए हम अलग-अलग हैं, जाग कर हम सब एक हैं। नींद में भेद है, जागरण में अभेद है।
अच्छा हो रहा है। रोते हो, गाते हो, नाचते हो, कभी मौन। भयभीत न होना। भय लगता है, क्योंकि साधारणतः इस तरह की बातें की नहीं जातीं।
हमने तो आदमी को बिलकुल झूठा बना दिया है। न रोने के योग्य रखा है, न गाने के योग्य रखा है। आदमी हंसे तो भी कामचलाऊ, रोए तो भी कामचलाऊ। हंसता है तो भी ऊपर-ऊपर, रोता है तो भी ऊपर-ऊपर। आंसू भी झूठे, मुस्कुराहटें भी झूठी। हमने तो आदमी को ऐसा नियंत्रण सिखाया है कि अपने को दबा कर रखो। अपना कोई भावावेश प्रकट न हो जाए। हमने तो भाव को मार ही डाला है। हमने हृदय की धड़कनें बंद कर दी हैं।
इसलिए जब जीवन में पहली बार रोओगे, नाचोगे, गाओगे, भीतर भी भय लगेगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं! लोग क्या समझेंगे! लेकिन जब तक लड़खड़ाना न आ जाए, उसके मंदिर की यात्रा नहीं होती।
मैं फिदा लगजिश-ए-रफ्तार पे अपनी ऐ ‘शाद’
दूर से देख कर उसने मुझे पहचान लिया
जब कोई लड़खड़ाता हुआ आता है तभी परमात्मा पहचानता है कि आया कोई! कि आता है कोई मेरी तरफ!
सम्हले हुए लोग उसके लोग नहीं हैं। सम्हले हुए लोग अपने अहंकार से जी रहे हैं। सम्हले हुए लोग अपने नियंत्रण में हैं, अपने अनुशासन में हैं। उसके पास तो लड़खड़ा कर ही जाना होता है। और जब तुम पहचान लिए जाओगे तभी तुम धन्यवाद दोगे।
मैं फिदा लगजिश-ए-रफ्तार पे अपनी ऐ ‘शाद’
तब तुम कहोगे, धन्यभाग मेरा कि मैं लड़खड़ाया। धन्यभाग मेरा कि मेरे पैर डगमगाए। धन्यभाग मेरा कि मैं शराबी जैसा चला; नहीं तो पहचाना न जाता।
दूर से देख कर उसने मुझे पहचान लिया
रोना आ रहा है, गाना आ रहा है, नाचना आ रहा है--आने दो! बांहें फैला कर स्वागत करो, आलिंगन करो। भाव का उन्मेष हो रहा है। सहारा दो, सहयोग दो। किसी भी बाह्य कारण से रोकना मत।
और बाहर कारण ही कारण हैं रोकने के। क्योंकि हम मनुष्य की सरलता को स्वीकार नहीं करते हैं। हम तो मनुष्य को कपटी बनाते हैं। हम तो उसकी सहजता को अंगीकार नहीं करते। हम तो उसके आस-पास एक ढांचा बिठाते हैं। उस ढांचे को हम चरित्र कहते हैं, आचरण कहते हैं।
और जितना ढांचे में बंधा आदमी हो उतना ही समाज में सम्मानित होता है, पुरस्कृत होता है। मगर समाज से पुरस्कार ले लिया तो ध्यान रखना, परमात्मा के पुरस्कार से वंचित रह जाओगे। मिल गया तुम्हें तुम्हारा पुरस्कार, दे दिया समाज ने सम्मान, फूलमालाएं पहना दीं। ये हाथ झूठे हैं, इनके फूल झूठे हैं। ये फूल भी कुम्हला जाएंगे, ये हाथ भी कुम्हला जाएंगे। ये फूल भी मिट्टी हैं, ये हाथ भी मिट्टी हैं, यह सम्मान भी मिट्टी है। जब तक अमृत के हाथ तुम्हारे गले में वरमाला न डालें तब तक सब व्यर्थ है।
अब तो डूबो! यह जो हलकी-हलकी हवा आनी शुरू हुई है, इसे तूफान बनने दो।
न गरज किसी से न वास्ता, मुझे काम अपने ही काम से
तिरे जिक्र से, तिरी फिक्र से, तिरी याद से, तिरे नाम से
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं दुनिया के दुख देख कर बहुत रोता हूं। क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते?
प्रश्न से तुम्हारे ऐसा लगता है कि कम से कम तुम दुखी नहीं हो। दुनिया के दुख देख कर रोने का हक उसको है जो दुखी न हो। नहीं तो तुम्हारे रोने से और दुख बढ़ेगा, घटेगा थोड़े ही। और तुम्हारे रोने से किसी का दुख कटने वाला है? दुनिया सदा से दुखी है। इस सत्य को, चाहे यह सत्य कितना ही कड़वा क्यों न हो, स्वीकार करना ही होगा। दुनिया सदा दुखी रही है। दुनिया के दुख कभी समाप्त नहीं होंगे। व्यक्तियों के दुख समाप्त हुए हैं। व्यक्तियों के ही दुख समाप्त हो सकते हैं। हां, तुम चाहो तो तुम्हारा दुख समाप्त हो सकता है। तुम दूसरे का दुख कैसे समाप्त करोगे?
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लोगों को रोटी नहीं दी जा सकती, मकान नहीं दिए जा सकते। दिए जा सकते हैं, दिए जा रहे हैं, दिए गए हैं। लेकिन दुख फिर भी मिटते नहीं। सच तो यह है, दुख और बढ़ गए हैं। जहां लोगों को मकान मिल गए हैं, रोटी-रोजी मिल गई है, काम मिल गया है, धन मिल गया है, वहां दुख और बढ़ गए हैं, घटे नहीं हैं।
आज अमरीका जितना दुखी है, उतना इस पृथ्वी पर कोई देश दुखी नहीं है। हां, दुखों ने नया रूप ले लिया। शरीर के दुख नहीं रहे, अब मन के दुख हैं। और मन के दुख निश्चित ही शरीर के दुख से ज्यादा गहरे होते हैं। शरीर की गहराई ही क्या! गहराई तो मन की होती है। अमरीका में जितने लोग पागल होते हैं, उतने दुनिया के किसी देश में नहीं होते और अमरीका में जितने लोग आत्महत्या करते हैं, उतनी आत्महत्या दुनिया में कहीं नहीं की जाती। अमरीका में जितने विवाह टूटते हैं, उतने विवाह कहीं नहीं टूटते। अमरीका के मन पर जितना बोझ और चिंता है, उतनी किसी के मन पर नहीं है। और अमरीका भौतिक अर्थों में सबसे ज्यादा सुखी है। पृथ्वी पर पहली बार पूरे अब तक के इतिहास में एक देश समृद्ध हुआ है। मगर समृद्धि के साथ-साथ दुख की भी बाढ़ आ गई।
मेरे लेखे जब तक आदमी जाग्रत न हो तब तक वह कुछ भी करे, दुखी रहेगा। भूखा हो तो भूख से दुखी रहेगा और भरा पेट हो तो भरे पेट के कारण दुखी रहेगा।
जीसस के जीवन में एक कहानी है। ईसाइयों ने बाइबिल में नहीं रखी है। कहानी जरा खतरनाक है। लेकिन सूफी फकीरों ने बचा ली है। कहानी है कि जीसस एक गांव में प्रवेश करते हैं और उन्होंने देखा, एक आदमी शराब पीए नाली में पड़ा हुआ गंदी गालियां बक रहा है। समझाने वे झुके, उसके चेहरे से भयंकर बदबू उठ रही है। चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा। याद उन्हें आई। उन्होंने उस आदमी को हिलाया और कहा: मेरे भाई! जरा आंख खोल और मुझे देख। क्या तू मुझे भूल गया? क्या तुझे बिलकुल याद नहीं है कि मैं कौन हूं?
उस आदमी ने गौर से देखा और कहा: हां, याद है। और तुम्हारे ही कारण मैं दुख भोग रहा हूं। क्योंकि मैं बीमार था, बिस्तर से लगा था, तुमने मुझे स्वस्थ किया। तुमने छुआ और मैं स्वस्थ हो गया। अब मैं तुमसे पूछता हूं, इस स्वास्थ्य का क्या करूं? शराब न पीऊं तो और क्या करूं? बीमार था तो बिस्तर पर लगा था। शराब का खयाल ही नहीं उठता था। जब से स्वस्थ हुआ हूं तब से यह झंझट सिर पर पड़ी। तुम्हीं जिम्मेवार हो।
जीसस तो बहुत चौंके। ऐसा शायद उन्होंने पहले कभी सोचा भी न होगा। उदास थोड़े आगे बढ़े। उन्होंने एक और आदमी को एक वेश्या के पीछे भागते देखा। उसको रोका और कहा: मेरे भाई, परमात्मा ने आंखें इसलिए नहीं दी हैं। उस आदमी ने जीसस को देखा और कहा कि परमात्मा ने तो दी ही नहीं थीं। तुम्हीं हो जिम्मेवार। मैं अंधा था, तुमने मेरी आंखें छुईं और मुझे आंखें मिल गईं। अब मैं इन आंखों का क्या करूं, तुम्हीं बताओ। तुमने आंखें क्या दीं, तब से मैं स्त्रियों के पीछे भाग रहा हूं।
जीसस तो बहुत हैरान हो गए। वे तो फिर गांव में गए नहीं और आगे, उदास लौट आए। लौटते थे तो गांव के बाहर देखा, एक आदमी एक वृक्ष में रस्सी बांध कर फांसी लगाने का आयोजन कर रहा था। भागे, उसे रोका; कहा: यह तू क्या कर रहा है? इतना अमूल्य जीवन...! उस आदमी ने कहा: अब मेरे पास मत आना। मैं तो मर गया था, तुमने ही मुझे जिंदा किया। अब इस जिंदगी का मैं क्या करूं? जिंदगी बड़ी बोझ है। मुझे मर जाने दो। कृपा करके और चमत्कार मत दिखाओ। तुम्हारे चमत्कार दिखाने की वजह से हम मुसीबत में पड़ रहे हैं। तुम्हें चमत्कार दिखाना हो तो कहीं और दिखाओ। तुम मुझे बक्शो, मुझे क्षमा कर दो।
इस कहानी की अर्थवत्ता देखो। तुम्हारे पास आंखें हैं, करोगे क्या? तुम्हारे पास स्वास्थ्य है, करोगे क्या? तुम्हारे पास जीवन है, करोगे क्या? जब तक जागरण न हो तब तक आंखें होते हुए भी अंधे होओगे। और आंखें तुम्हें गड्ढों की तरफ ले जाएंगी। और जब तक जागरण न हो, स्वस्थ हुए तो पाप के अतिरिक्त कुछ करने को दिखाई नहीं पड़ेगा। स्वास्थ्य तुम्हें पाप में ले जाएगा। और जब तक जाग्रत न होओ तब तक जीवन भी व्यर्थ है; बोझ हो जाएगा। आत्मघात का तुम विचार करने लगोगे।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसने जिंदगी में दस-पांच बार आत्मघात का विचार न किया हो। तुम खुद ही अपने तरफ सोचना। दो-चार बार तुमने भी सोचा होगा कि क्या सार है, खतम करो। फिजूल रोज उठना, फिर वही धंधा, फिर वही झगड़ा, फिर वही उपद्रव, इसमें सार क्या है? क्यों न हम मर जाएं? क्या बिगड़ेगा मर जाने से? है भी तो नहीं हाथ में कुछ! खो भी क्या जाएगा? जीवन ऐसा रिक्त-रिक्त है कि मृत्यु और क्या छीन लेगी?
लोग तो दुखी हैं, और लोग दुखी रहे हैं और लोग दुखी रहेंगे। क्योंकि सुख का अवतरण संपत्ति से नहीं होता। और मैं संपत्ति-विरोधी नहीं हूं, खयाल रखना। संपत्ति से सुविधा मिल सकती है। तो एक आदमी जिसके पास संपत्ति नहीं है, असुविधा में दुखी होता है। और जो आदमी जिसके पास संपत्ति है, वह, वह सुविधा में दुखी होता है। सुविधा दुख नहीं छीनती, सुविधा दुख के लिए और अच्छे अवसर दे देती है। वातानुकूलित भवन में, मगर रहोगे दुखी। महल में, संगमरमर के महल में, पर रहोगे दुखी। मखमली सेजों पर, पर रहोगे दुखी।
और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि सुविधा बुरी चीज है। सुविधा अपनी तरफ अपने तईं ठीक है लेकिन उससे दुख नहीं मिटता। सच तो यह है, जितनी सुविधा हो उतना दुख प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ता है। दुखी आदमी, सुविधा से हीन आदमी को फुर्सत ही नहीं मिलती दुख देखने की। जिनको हम सुखी कहते हैं, उनको ही फुरसत होती है दुख देखने की।
आदमी का दुख न सुविधा से मिटता है, न धन से मिटता, न पद से, न प्रतिष्ठा से। आदमी का दुख आत्म-जागरण से मिटता है।
तुम कहते हो: ‘मैं दुनिया के दुख देख कर बहुत रोता हूं।’
तुम्हें रोना हो तो मजे से रोओ, मगर रोने के लिए और अच्छे कारण खोज सकते तो। परमात्मा के लिए रोओ। और तुम्हारे रोने से क्या होगा? एक आदमी बीमार पड़ा है, मर रहा है, तुम उसके पास बैठे रो रहे हो, तुम सोचते हो इससे इलाज हो जाएगा? तुम्हारे रोने से वह और जल्दी मर जाएगा। और घबड़ा जाएगा। कोई पानी में डूब रहा है, तुम किनारे पर बैठे रो रहे हो। तुम क्या सोचते हो, तुम्हारे रोने से बच जाएगा? तुम्हें रोते देख कर और जल्दी आशा छोड़ देगा। तुम पर दया करके डूब ही जाएगा कि अब खत्म ही हो जाऊं, यह बेचारा नाहक रो रहा है। तुम्हारे रोने से क्या होना है?
तुम पूछते हो: ‘क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते?’
जरूर रोके जा सकते हैं। मगर किसी और के द्वारा नहीं। यही राजनीति और धर्म का भेद है। राजनीति सोचती है, दुख दूसरों के द्वारा रोके जा सकते हैं। इसलिए राजनीतिज्ञ सत्ता की तलाश करता है कि सत्ता में पहुंच जाए, ताकत हाथ में हो तो लोगों के दुख रोक देगा। इसलिए राजनीतिज्ञ क्रांति की भाषा में सोचता है। क्रांति हो जाए, समाज का अर्थतंत्र बदले, समाजवाद आए, साम्यवाद आए, ऐसा हो, वैसा हो, लोगों के दुख मिट जाएंगे। समाजवाद भी आ चुका, साम्यवाद भी आ चुका, कोई दुख मिटते नहीं। कहीं दुख मिटते नहीं।
धर्म की यही मूल भित्ति है, मूल भेद है कि दुख मिटता है आत्म-जागरण से। आत्म-जागरण कौन तुम्हें दे सकता है? तुम जागो। तुम ध्यान में उठो। तुम भक्ति में पगो तो दुख मिटेगा। तुम नाहक मत रोओ।
मत रोओ, कबीर
मत रोओ!
तुम ऐसा कवि-नबी
गिराता है जब आंसू
तब सदियों का दामन भीग उठा करता है
हर दाना नादान जीआ जो करता है, मरता है
पाटों में पड़ना,
रगड़ा खाना
हो जाना चूरा-धूरा
चलता आया,
और सदा चलता आएगा
और तुम्हारे आंसू से भी
कभी नहीं यह रुक पाएगा
मत रोओ, कबीर
मत रोओ!
किस अजाने की मर्जी पर दो पाटों के बीच पड़ा था
मुझे न साबित बच कर घिस-पिस जाना ही था
कालबद्ध मिट्टी था
मेरे वर्तमान को
भूत, भविष्य सबका
यह कर्ज चुकाना ही था
हर्ष-विषाद विमुक्त
नियति अपनी यह मैंने स्वीकारी है
और बड़ी चक्कियां हैं
और बड़ी चक्कियां
कि जिनमें है यह चक्की बस दाने-सी
मुझे पीसने-घिसने वाले
पाटों के भी
घिसने-पिसने की आने वाली बारी है
आगे भी यह क्रम जारी है
पर घिसना-पिसना अपने में अंत नहीं है
व्यर्थ नहीं है
इसके ऊपर इसका कोई अर्थ कहीं है
और न भी हो तो
इससे क्या फर्क पड़ेगा?
दाना किस गिनती में!
जिसे झगड़ना होगा
अंतिम चक्की के दो पाटों से झगड़ेगा
मत रोओ, कबीर
मत रोओ!
संसार तो दो चक्कियों के, दो पाटों के बीच है, पिस रहा है। कबीर ने कहा है कि देख कबीरा रोया। दो पाटों के बीच में लोगों को पिसते देख कर कबीर रोया।
और जब कबीर ने घर आकर यह पद कहा तो कबीर के बेटे कमाल ने उसके उत्तर में एक पद लिखा, जिसमें उसने लिखा कि आप ठीक कहते हैं कि दो पाटों के बीच जो भी पड़ गया वह पिस गया। लेकिन आपने एक बात ध्यान नहीं दी कि दो पाटों के बीच में जो कील है, उस कील से जो दाना लग गया, वह नहीं पिसा; वह बच गया।
वह बेटा कमाल का ही था इसीलिए तो कबीर ने उसको नाम कमाल दिया था। उस कमाल ने कहा कि इसलिए जिसने उस एक का सहारा पकड़ लिया, जिस पर सारी चक्कियां घूम रही हैं और जो बिना घूमा बीच में खड़ा है--चक्की के पाट भी कील के बिना थोड़े ही घूमेंगे। गाड़ी का चाक भी बिना कील के थोड़े ही घूमेगा। चाक घूमता है, कील खड़ी है। कील कभी नहीं घूमती। नहीं घूमती इसीलिए चाक घूम पाता है। कील भी घूम जाए तो गाड़ी गिर जाए। दो पाटों के बीच तो पिस गए दाने, लेकिन जिन्होंने बीच की कील का सहारा पकड़ लिया वे बच गए।
संसार में तो पिसोगे। संसार में दुख है। संसार दुख है। लेकिन अगर राम का सहारा पकड़ लिया, अगर राम के आसरे हो गए, अगर परिवर्तन में ही रहे तो पिसोगे। अगर शाश्वत का हाथ पकड़ लिया तो नहीं पिसोगे, बच जाओगे। दुख से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि उस एक को पकड़ लो, जो अनेक के बीच में मौजूद है। शाश्वत को पकड़ो, जो समय की धारा में छिपा है। नित्य को पकड़ो। अनित्य को पकड़ोगे तो दुख पाओगे।
दुख क्या है? कि अनित्य को हमने पकड़ा है। देह को मान लिया है कि मैं हूं, यह दुख है। फिर देह है तो जरा भी आएगी, जीर्ण भी होगी, शीर्ण भी होगी। आज जवान है, कल बूढ़ी होगी, परसों मरेगी भी। देह तो हजार दुख लाएगी। किसी स्त्री से प्रेम किया, किसी पुरुष से प्रेम किया, यह दुख लाएगा। क्योंकि हम सब अजनबी हैं यहां। कोई किसी का भी नहीं। जिसने जितना अपना मोह का विस्तार किया उतना ही पीड़ा में पड़ेगा। जिसने अहंकार से अपने को एक समझ लिया और प्रतिष्ठा चाही, पद चाहा, सम्मान चाहा, वह भी दुखी होगा।
यह दुख स्वाभाविक है। यह चक्की के पाटों के बीच में पड़ जाने के कारण है। उस एक का सहारा पकड़ो। उसको पकड़ते ही से सारे दुख विदा हो जाते हैं। ऐसा समझो कि दुख को हम अपनी भ्रांति के कारण पैदा कर रहे हैं। और कोई किसी दूसरे की भ्रांति नहीं मिटा सकता। तुम्हारे हाथ में यह बात नहीं है कि तुम दुनिया के दुख मिटा दो, लेकिन तुम्हारे हाथ में एक बात जरूर है कि तुम अपना दुख मिटा लो।
और इससे बड़ी और कोई सेवा नहीं हो सकती। अगर तुम अपना दुख मिटा लो तो तुमने दुनिया के एक हिस्से का दुख तो मिटाया। तुम भी तो दुनिया के एक हिस्से हो। अगर दुनिया में तीन अरब आदमी हैं और तुमने अपना दुख मिटा लिया तो एक दुखी आदमी कम हुआ। और इतना ही नहीं है, जब एक दीया जलता है आनंद का तो उसकी किरणें आस-पास के लोगों को भी आंदोलित करती हैं। और जब एक फूल खिलता है सुवासित होकर तो दूसरों के नासापुटों तक भी गंध जाती है। और जब कोई एक वीणा बजती है तो दूसरों के भीतर हृदय की सोई पड़ी वीणा के भी तार झंकृत हो जाते हैं।
बस, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। इसके अतिरिक्त तुम जो भी उपाय करोगे, वे उपाय तुम्हें राजनीति में ले जाएंगे। और उन उपायों से तुम दुनिया का दुख बढ़ाओगे, घटाओगे नहीं। क्योंकि राजनीति की सारी प्रक्रिया अहंकार की प्रक्रिया है।
इसलिए मैं तुमसे समाज सेवा की बात नहीं करता। मैं तुमसे कहता हूं, समाज सेवा हो जाएगी अपने से। तुम पहले स्वयं की सेवा तो कर लो। इसके पहले कि दूसरों के जीवन में रोशनी देने चलो, तुम्हारे भीतर रोशनी तो होनी चाहिए। उतनी शर्त तो पूरी करो। इसके पहले कि तुम चाहो कि लोगों के दुख मिट जाएं, तुम्हें अपना दुख तो मिटा लेना चाहिए। कम से कम इतना तो करो। तुम तो तुम्हारे बस में हो। तुम तो अपनी सुन सकते हो। दूसरों का क्या पता! सुनें न सुनें, मानें न मानें। कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं है। अगर उन्होंने दुखी ही रहने का तय किया है तो तुम क्या करोगे?
लेकिन मेरे देखे ऐसा है कि जो लोग दूसरों के दुख मिटाने में उत्सुक हो जाते हैं, यह एक मनोवैज्ञानिक चालबाजी है। यह अपने दुख न देखने का उपाय है। यह अपना साक्षात्कार न हो जाए इसके लिए बड़ा सुगम आयोजन है। दूसरों का दुख देखने लगे। अपने से आंख फेर ली। कहा कि अपने दुख में क्या रखा है! यहां लोग इतने दुखी हैं, पहले इनका दुख तो मिटाएं। इस तरह अपने को व्यस्त कर लिया। समाज सेवक सिर्फ अपने दुख की तरफ पीठ करने में लगे हैं, और कुछ भी नहीं।
मेरे पास आ जाते हैं समाज सेवक कभी-कभी। एक सज्जन हैं, वे पचास साल से आदिवासियों की सेवा कर रहे हैं बस्तर में। मुझे मिलने आए थे। बूढ़े हैं, अस्सी साल के करीब उनकी उमर है। कहने लगे: जीवन में बड़ी अशांति है, बड़ी बेचैनी है। कहा: पचास साल की समाज सेवा, और अशांति और बेचैनी तुम्हारी गई नहीं? तो तुमने पचास साल में न मालूम अपनी अशांति और बेचैनी से कितने लोगों को अशांत और बेचैन कर दिया होगा। तुम क्यों लोगों के पीछे पड़े हो?
उन्होंने कहा: मैंने कोई गलत काम तो नहीं किया। मैं तो आदिवासियों को शिक्षा होनी चाहिए इसके काम में लगा हूं। मैंने कहा: तुम जरा अपने विश्वविद्यालयों की हालत तो देख लो। जो शिक्षित हैं उनकी हालत तो देख लो। क्यों आदिवासियों के पीछे पड़े हो? शिक्षित कहां पहुंच गया है? तुम्हारे विश्वविद्यालय जितने उपद्रवों के अड्डे हैं, कहीं और उतने उपद्रवों के अड्डे नहीं हैं। जो शिक्षित हो गया है उसके जीवन में कौन सा आनंद है?
सच तो यह है कि शिक्षित महत्वाकांक्षी हो जाता है। महत्वाकांक्षी होने से दुख बढ़ जाता है। क्योंकि जितनी महत्वाकांक्षा है, वह पूरी तो हो नहीं सकती। शिक्षित होकर सभी लोग तो प्रधानमंत्री होना चाहते हैं। सभी लोग प्रधानमंत्री हो नहीं सकते। और जब वे देखते हैं कि ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे प्रधानमंत्री बन रहे हैं तो उनको और बड़ा दुख होता है कि हम पढ़े-लिखे बुद्धिमान लोग बैठे हैं, अंगूठा छाप लोग मंत्री बन रहे हैं, मुख्यमंत्री बन रहे हैं और हम पढ़े-लिखे लोग! बड़ा अन्याय हो रहा है। उनके चित्त की पीड़ा और बढ़ जाती है, विषाद बहुत बढ़ जाता है।
दुनिया में जितने उपद्रव लोग करते हैं, वे पढ़े-लिखे लोग हैं। क्यों? क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षा बड़ी है। और कोई भी चीज उसे तृप्त नहीं कर पाती। उन्हें कुछ भी मिल जाए, उन्हें सदा लगता है हमारी योग्यता से कम है। इसलिए उनके जीवन में कभी शांति हो नहीं सकती। असंतोष उनका स्वर रहेगा। असंतोष में भभकेंगे, धधकेंगे। असंतोष के अंगार ही उनके जीवन में रहेंगे, और कुछ भी न रहेगा। जहां फूल खिलने चाहिए थे संतोष के, वहां केवल असंतोष के अंगार ही होंगे।
तो मैंने उनसे पूछा कि तुम बेचारे आदिवासियों के पीछे क्यों पड़े हो? वे वैसे ही मस्त हैं। चाहे पेट पूरा न भरता हो, लेकिन रात गीत तो गाते हैं। चाहे तन पर बहुत कपड़े न हों, लेकिन बांसुरी तो बजाते हैं। और चाहे रहने के लिए सुंदर मकान न हों, घास-फूस के झोपड़े हों, लेकिन रात जब मस्त होकर नाचते हैं तो समृद्ध से समृद्ध आदमी को भी ईर्ष्या हो।
तुम क्यों उनके पीछे पड़े हो? तुम उन्हें इसी दौड़ में लगा दोगे न जिसमें सारी दुनिया लगी है? और तुम उन्हें भी बेचैन कर दोगे। तुम तो पढ़े-लिखे हो, तुम्हें चैन कहां है? अस्सी साल की उम्र में तुम मुझसे पूछने आए हो कि मेरे जीवन में चैन नहीं है, शांति नहीं है। और पचास साल तुम सेवा करते रहे। तो शायद पचास साल तुम इसी अशांति को छिपाने के लिए दूसरों पर नजर गड़ाए रहे। यह सेवा आत्म-विस्मरण है। यह एक तरह का नशा है, यह शराब है। इससे बचना।
राजनीति की शराब होती है, सेवा की शराब होती है। और ये शराबें ऐसी हैं कि किसी को पकड़ लें तो पता भी नहीं चलता। और फिर ये शराबें ऐसी हैं कि समाज इनका सम्मान करता है। लोग कहेंगे, महान समाज सेवक! सत्कार करो, हीरक जयंती मनाओ, स्मारक बनवाओ, स्मृति-ग्रंथ प्रकाशित करवाओ। और तुम वैसे के वैसे! तुम्हारे पचास साल व्यर्थ गए।
उन सज्जन ने मुझे कहा कि आप कहते हैं तो सोच आता है, मैं जवान था, विश्वविद्यालय से निकला ही था कि महात्मा गांधी के प्रभाव में आ गया। उन्होंने मुझसे कहा कि सेवा करो, सेवा ही धर्म है। तो मैं सेवा में लग गया।
पचास साल करके देख लिया, कुछ अक्ल आई? सेवा धर्म नहीं है, यद्यपि धर्म जरूर सेवा है। और इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है।
महात्मा गांधी ने कहा है: सेवा धर्म है। विनोबा भावे कहते हैं: सेवा धर्म है। मैं तुमसे कहता हूं: सेवा धर्म नहीं है, धर्म सेवा है। पर तब यात्रा बिलकुल भिन्न हो गई। पहले स्वयं के जीवन में धर्म का जागरण हो, फिर सेवा अपने आप हो जाती है; फिर तुम्हें करनी नहीं पड़ती। कोई चेष्टा नहीं, कोई आयोजन नहीं। तुम जहां बैठते हो, तुम जहां उठते हो, तुम जिनके साथ हो लेते हो उनके जीवन में तुम्हारी सुगंध व्यापने लगती है। तुम कोई उनकी गर्दन नहीं पकड़ लेते कि हम तुम्हें बदल कर रहेंगे।
खयाल रखना, दूसरों को बदलने वाले मत बनना। ये अक्सर बुरे लोग होते हैं जो दूसरों को बदलने में उत्सुक हो जाते हैं। जो किसी के पीछे पड़ जाते हैं कि हम तुम्हारा चरित्र ठीक करके रहेंगे। तुम हो कौन? तुम्हें किसने जिम्मा दिया है? यह दूसरे का चरित्र ठीक करने का तुमने ठेका कहां से लिया है? तुम अपनी फिकर ले लो। तुम अपनी तो निबेर लो। तुम सुंदर हो जाओ; फिर तुम्हारे सौंदर्य के प्रभाव में अगर कुछ होना होगा, हो जाएगा। जरूर होता है। तुम्हारे सौंदर्य की छाप जरूर पड़ेगी। कई लोगों पर तुम्हारे जीवन की छाया आएगी, लेकिन तब जोर-जबर्दस्ती नहीं होगी।
अक्सर दूसरों को बदलने वाले लोग जोर-जबर्दस्ती करते हैं। यह हिंसा का ही एक ढंग है। महात्माओं से सावधान रहना। महात्माओं से जरा बचना, क्योंकि महात्मा अक्सर हिंसक होते हैं। अहिंसा की बातें करते हैं, मगर उनकी अहिंसा की बात में भी हिंसा होती है।
जिंदगी बड़ी जटिल है। ऊपर से कुछ होता है, भीतर कुछ होता है। अगर तुम महात्मा गांधी की बात न मानते, वे उपवास करेंगे। यह उपवास क्या है? यह हिंसा है, यह धमकी है। यह इस बात की धमकी है कि मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानी। मगर यह तो बड़े मजे की बात हो गई। अगर कोई आदमी छुरा ले कर बैठ जाए, मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हें साफ दिखाई पड़ेगा कि यह आदमी तो बड़ा हिंसक है। छुरा है उपवास भी--सूक्ष्म है। एकदम नहीं मर जाएंगे, मरते-मरते मरेंगे। और एकदम मर जाएं तो ठीक भी है। तुम्हारी झंझट छूटे। ठीक है, रो-धो कर विदा कर आओ। मगर ये महीनों तुम्हारे पीछे रहेंगे। ये तुम्हें सोने न देंगे। रात तुम्हें नींद न आएगी कि बेचारा, मेरे पीछे मर रहा है।
कोई किसी के पीछे नहीं मर रहा है। लोग अपने-अपने अहंकार के लिए मर रहे हैं। यह आदमी इसलिए मर रहा है, यह कहता है, मेरी मानो। जो मैं कहता हूं, वह ठीक है। कोई कहता है, मेरी मानो नहीं तो तुम्हारी गर्दन काट दूंगा। एडोल्फ हिटलर जैसे लोग--कि हम ठीक हैं, मानते हो कि नहीं?
मैंने सुना है, एडोल्फ हिटलर ने अपने मंत्रियों की एक सभा ली। उसके बीस मंत्री थे। उसने खड़े होकर कहा: एक प्रस्ताव रखा कि यह प्रस्ताव है। और जो लोग भी इससे असहमत हों, वे अपने इस्तीफे दे दें। जो लोग भी इससे असहमत हों, वे अपना इस्तीफा दे दें। मामला खत्म करो।
कौन असहमत होगा? कैसे असहमत होगा? और इस्तीफे पर ही यह बात नहीं रुक जाएगी, जान का भी खतरा है फिर पीछे। यह खतरा कौन मोल ले? हिटलर कहता है: जो मेरे साथ हैं वे ठीक, जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा दुश्मन है। उसे मिटाना मेरा कर्तव्य है। मेरी नहीं मानते तो गर्दन कटवाने को राजी हो जाओ। यह एक ढंग हुआ।
महात्मा गांधी कहते हैं कि अगर मेरी नहीं मानते तो मैं खुद मर जाऊंगा। और महीनों तक मरता रहूंगा, घिसता रहूंगा। और तुमको भी सताता रहूंगा। भूत की तरह तुम्हारे पीछे पड़ा रहूंगा। न तुम सो सकोगे, न बैठ सकोगे। तुम खाना खाओगे तो भी विचार आएगा कि एक आदमी मेरे पीछे है। यह कोई नई तरकीब भी नहीं है। स्त्रियां इस तरकीब का उपयोग सदियों से करती रही हैं। महात्मा गांधी की कोई खोज नहीं है इसमें। यह स्त्रियों का बहुत पुराना हथियार है: नहीं खाना खाएंगे। फिर ठीक और सही का सवाल ही नहीं उठता। फिर जो नहीं खाना खा रहा है वही ठीक है। क्योंकि कौन झंझट बढ़ाए! उससे सार भी क्या है?
लेकिन इतना आग्रहपूर्ण होकर जब तुम दूसरे को बदलते हो तो तुम उसकी गर्दन पर शिकंजा कस रहे हो; तुम फांसी लगा रहे हो। यह सेवा नहीं है। और इसी तरह के सेवक काफी हैं। इस देश में तो बहुत हैं। इस देश में तो सेवक ही सेवक हैं। थोड़े ही दिनों में इस देश में मुश्किल हो जाएगी कि एक-एक आदमी के पीछे कई-कई सेवक पड़े हुए हैं। क्योंकि सेवक ज्यादा हो जाएंगे सेवा करवाने वाले कम रह जाएंगे। आखिर कहां इतने कोढ़ी खोजोगे? दबा रहे पैर! मालिश कर रहे हैं। कोढ़ी कह भी रहा है कि मेरी बहुत मालिश हो चुकी है दिन भर से। अब मुझे छोड़ो, मुझे कुछ और भी करने दो। मगर यह कैसे हो सकता है? सेवा करनी ही है।
सेवा का भाव ही एक भ्रांत धारणा पर खड़ा है। तुम इसके पहले सेवा की बात सोचो, सोच लेना कि मैं अभी कहां हूं, क्या हूं। मेरी अपनी अंतर्दशा कैसी है। पहले बुद्ध बनो। पहले जगो। पहले प्रीति का सागर बनो, फिर उस सागर से अपने आप तरंगें उठेंगी, लहरें उठेंगी। न मालूम कितने लोग डूबेंगे! मगर तुम्हें डुबाना न पड़ेगा तुम्हें एक-एक के पीछे दौड़ना नहीं पड़ेगा। लोग अपने से आकर डूबें, तब मजा है।
तुम लोगों को बदलना चाहो, तब मजा नहीं है; लोग बदलें, तब मजा है। तुम अनुशासन थोपो, उनको भयभीत करो कि नरक में सड़ाए जाओगे अगर हमारी बात नहीं मानी; या स्वर्ग का पुरस्कार मिलेगा अगर हमारी बात मानी। ये सब धोखे-धड़ियां हैं। न कहीं कोई नरक है, न कहीं कोई स्वर्ग है। यह सिर्फ चालबाजों की ईजाद है--उन चालबाजों की, जो आदमी की गर्दन से हाथ अलग नहीं करना चाहते। वे तुम्हें भयभीत करते हैं और तुम्हें लोभी भी बनाते हैं।
सच्चा धार्मिक व्यक्ति न तो तुम्हें भय देता है, न तुम्हें लोभ देता है। सच्चा धार्मिक व्यक्ति अपने जीवन को तुम्हारे सामने खोल देता है। अगर उसमें से तुम्हें कुछ चुनना हो, चुन लो। चुन लो तो धन्यवाद, न चुनो तो धन्यवाद।
तुम चिंता न करो दूसरे लोगों के दुखों की। तुम अपना दुख मिटा लो। तुम रोओ मत। और रोना ही हो तो परमात्मा के लिए रोओ, विरह में रोओ। तो तुम्हारा रोना भी तुम्हें ऊपर की तरफ ले जाएगा, उड़ान देगा, ऊंचाई देगा। तुम्हारे आंसू तब बहुमूल्य हो जाएंगे। उन्हें परमात्मा के चरणों पर चढ़ाओ। और मैं तुमसे कहता हूं, एक दिन ऐसी घटना घटेगी कि तुम्हारे भीतर उतर आएगा कुछ अज्ञात से। और तब तुम्हारे आस-पास बहुत कुछ घटना शुरू हो जाएगा। वह अपने से घटता है। तुम उसकी चिंता ही नहीं लेना। तुम अकड़ना भी मत कि देखो, मेरे पास इतनी घटनाएं घट रही हैं; नहीं तो उसी वक्त रुक जाएगा। अहंकार आया कि परमात्मा गया। अहंकार गया कि परमात्मा आया।
यह भी अहंकार है कि मैं दूसरों के दुख मिटाऊंगा। मैं कौन हूं? अगर परमात्मा नहीं मिटा पा रहा है तो मैं कैसे मिटाऊंगा? कितने अवतार, कितने तीर्थंकर, कितने पैगंबर आए और गए; अगर नहीं मिटा पाए हैं आदमी का दुख तो मैं कैसे मिटाऊंगा? छोड़ो यह पागलपन। छोड़ो ये व्यर्थ की बातें।
कोई किसी का दुख नहीं मिटा सकता लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपना दुख जरूर मिटा सकता है। जो हो सकता है, वही कर लो पहले, फिर जो नहीं हो सकता है, वह भी होना शुरू हो जाता है। संभव को सम्हाल लो, असंभव भी सम्हलता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं, प्रेम परमात्मा है, लेकिन मैं तो प्रेम से ऐसा जला बैठा हूं कि प्रेम शब्द से ही चिढ़ हो गई है। मुझे मार्ग-दर्शन दें।
प्रेम शब्द से न चिढ़ो। यह हो सकता है कि तुमने जो प्रेम समझा था, वह प्रेम ही नहीं था। उससे ही तुम जले बैठे हो। और यह भी मैं जानता हूं कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है।
तो तुम्हें प्रेम शब्द सुन कर पीड़ा उठ आती होगी, चोट लग जाती होगी। तुम्हारे घाव हरे हो जाते होंगे। फिर से तुम्हें अपनी पुरानी याददाश्तें उभर आती होंगी। लेकिन मैं उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं।
मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उस प्रेम का तो तुम्हें अभी पता ही नहीं है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, वह तो कभी असफल होता ही नहीं। और मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उसमें अगर कोई जल जाए तो निखर कर कुंदन बन जाता है, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उसमें जल कर कोई जलता नहीं, और जीवंत हो जाता है। व्यर्थ जल जाता है, सार्थक निखर आता है।
लेकिन मैं तुम्हारी तकलीफ भी समझता हूं। बहुतों की तकलीफ यही है। इसलिए तो प्रेम जैसा प्यारा शब्द, बहुमूल्य शब्द अपना अर्थ खो दिया है--जैसे हीरा कीचड़ में गिर गया हो।
लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है
कौन से शहर में होता है कहां होता है
स्वभावतः तुमने तो जिसको प्रेम करके जाना था, उसमें सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं पाया; पीड़ा के सिवाय कुछ हाथ न लगा। तुमने तो सोचा था कि प्रेम करेंगे तो जीवन में बसंत आएगा। प्रेम ही पतझड़ लाया। प्रेम न करते तो ही भले थे। प्रेम ने सिर्फ नये-नये नरक बनाए।
और ऐसा ही नहीं है कि जो प्रेम में हारते हैं उनके लिए ही नरक और दुख होता है, जो जीतते हैं उनके लिए भी नरक और दुख होता है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं--तुम जो चाहो वह न मिले: एक; और दूसरा, तुम जो चाहो वह मिल जाए। और दूसरा दुख मैं कहता हूं, पहले से बड़ा है।
क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में; कि करता सवारी बादलों की; कि चांद-तारों से बातें होतीं; कि खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं। काश, लैला मिल जाती!
मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे हैं कि मजनू धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।
जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।
रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है, और जैसे ही पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।
बाहर हम जिसे तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।
किस-दर्जा दिलशिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम जिंदगी में फिर कोई अरमां न कर सके
एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।
दिल की वीरानी का क्या मजकूर है
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया
और इतनी दफे लूट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया है और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो।
मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।
तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अदभुत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया है, हरि। हरि का अर्थ होता है: लुटेरा--जो लूट ले, हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। हरण कर ले।
लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूब कर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब तुम से मैं कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी हैं।
मेरी मायूस मोहब्बत की हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है अहसास के पैमाने में
तुम्हारा प्रेम तो सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।
इश्क का कोई नतीजा नहीं जुज दर्दो-अलम
लाख तदबीर किया कीजे हासिल है वही
लेकिन संसार के दुख का हासिल ही यही है कि दुख ही हाथ आता है।
इश्क का कोई नतीजा नहीं जुज दर्दो-अलम
दुख और दर्द के सिवाय कुछ भी नतीजा नहीं है।
लाख तदबीर किया कीजे हासिल है वही
यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़ो, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंततः तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवाय कुछ भी हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!
लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम उपयोग करते हो। अगर मैं ऐसे शब्द उपयोग करूं जो तुम उपयोग नहीं करते तो बात ही न हो सकेगी। और अगर ऐसे शब्द उपयोग करता हूं जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।
जैसे ही तुमने सुना शब्द ‘प्रेम’, कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं, उनका सब सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मों वाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिनने यह प्रेम किया, उन सबने यही कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।
दूर से आए थे साकी सुन कर मैखाने को हम
पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम
मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे।
दूर से आए थे साकी सुन कर मैखाने को हम
मधुशाला की खबर सुन कर कहां से तुम्हारा आना हुआ जरा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो।
पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम
यहां एक घूंट भी न मिला। चुल्लू भर भी प्यास बुझाने को मदिरा न मिली। एक पैमाना भी न मिला।
मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते ही तरसते चले। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है, भरपूर जाता है।
मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोल कर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, वह अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है, वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।
तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते ही रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।
मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जहां तुम परमात्मा से कुछ मांगते नहीं; कुछ भी नहीं। सिर्फ कहते हो, मुझे अंगीकार कर लो। मुझे स्वीकार कर लो। मुझे चरणों में पड़ा रहने दो। यह मेरा हृदय किसी कीमत का नहीं है, किसी काम का भी नहीं है, मगर चढ़ाता हूं तुम्हारे चरणों में। और कुछ मेरे पास है भी नहीं। और चढ़ा रहा हूं, तो भी इसी भाव से चढ़ा रहा हूं: ‘त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत।’ तेरी ही चीज है, तुझी को वापस लौटा रहा हूं। मेरा इसमें कुछ है भी नहीं। देने का सवाल भी नहीं है, देने की अकड़ भी नहीं है। मगर तुझे और तेरे चरणों में रखते ही इस हृदय को शांति मिलती है, आनंद मिलता है, रस मिलता है। जो खंड टूट गया था अपने मूल से, फिर जुड़ जाता है। जो वृक्ष उखड़ गया था जमीन से, उसको फिर जड़ें मिल जाती हैं; फिर हरा हो जाता है, फिर रसधार बहती है, फिर फूल खिलते हैं, फिर पक्षी गीत गाते हैं, फिर चांद-तारों से मिलन होता है।
परमात्मा से प्रेम का अर्थ है कि मैं इस समग्र अस्तित्व के साथ अपने को जोड़ता हूं। मैं इससे अलग-अलग नहीं जीऊंगा, अपने को भिन्न नहीं मानूंगा। अपने को पृथकमान कर नहीं अपनी जीवन-व्यवस्था बनाऊंगा। मैं इसके साथ एक हूं। इसकी जो नियति है वही मेरी नियति है। मेरा कोई अलग निजी लक्ष्य नहीं है। मैं इस धारा के साथ बहूंगा, तैरूंगा भी नहीं। यह जहां ले जाए! यह डुबा दे तो डूब जाऊंगा। ऐसा समर्पण परमात्म-प्रेम का सूत्र है। खाली मत जाना।
मैकशों ने पीके तोड़े जाम-ए-मय
हाय वो सागर जो रक्खे रह गए
ऐसे ही रखे मत रह जाना। पी लो जीवन का रस। तोड़ चलो ये प्यालियां। और उसकी नजर एक बार तुम पर पड़ जाए, और तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।
लाखों में इन्तिखाब के काबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया
जरा रखो उसके चरणों में। जरा झुको। एक नजर उसकी पड़ जाए, एक किरण उसकी पड़ जाए और तुम रूपांतरित हुए। लोहा सोना हुआ। मिट्टी में अमृत के फूल खिल जाते हैं।
आखिरी जाम में क्या बात थी ऐसी साकी
हो गया पी के जो खामोश वो खामोश रहा
यहां तुमने बहुत तरह के जाम पीए। आखिरी जाम--उसकी मैं बात कर रहा हूं।
आखिरी जाम में क्या बात थी ऐसी साकी
हो गया पी के जो खामोश वो खामोश रहा
उसको पी लोगे तो एक गहन सन्नाटा हो जाएगा। सब शांत, सब शून्य, सब मौन। भीतर कोई विचार की तरंग भी न उठेगी। उसी निस्तरंग चित्त को समाधि कहा है। उसी निस्तरंग चित्त में बोध होता है, मैं कौन हूं।
मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं, तुम किसी और ही प्रेम की बात सुन रहे हो। मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ सुनते हो। यह स्वाभाविक है शुरू-शुरू में। धीरे-धीरे बैठते-बैठते मेरे शब्द मेरे अर्थों में तुम्हें समझ में आने लगेंगे। सत्संग का यही प्रयोजन है। आज नहीं समझ में आया, कल समझ में आएगा; कल नहीं तो परसों। सुनते-सुनते...। कब तक तुम जिद करोगे अपने ही अर्थ की? धीरे-धीरे एक नये अर्थ का आविर्भाव होने लगेगा।
मेरे पास बैठ कर तुम्हें एक नई भाषा सीखनी है। एक नई अर्थव्यवस्था सीखनी है। एक नई भाव-भंगिमा, जीवन की एक नई मुद्रा! तुम्हारे ही शब्दों का उपयोग करूंगा लेकिन उन पर अर्थों की नई कलम लगाऊंगा। इसलिए जब भी तुम्हें मेरे किसी शब्द से अड़चन हो तो खयाल रखना, अड़चन का कारण तुम्हारा अर्थ होगा, मेरा शब्द नहीं। तुम यह भी कोशिश करना कि मेरा अर्थ क्या है। तुम अपने अर्थों को एक तरफ सरका कर रख दो। तुम तत्परता दिखाओ मेरे अर्थ को पकड़ने की। और तत्परता दिखाई तो घटना निश्चित घटने वाली है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं बहुत से प्रश्न पूछना चाहता हूं किंतु फिर रुक जाता हूं, क्योंकि वे सब व्यर्थ मालूम होते हैं। क्या सभी प्रश्न व्यर्थ हैं?
प्रश्न भी व्यर्थ हैं, उत्तर भी व्यर्थ हैं। होना है निष्प्रश्न। पहुंचना है ऐसी जगह, जहां न प्रश्न बचे न उत्तर बचे। क्योंकि प्रश्न भी विचार है और उत्तर भी विचार है। होना है शून्य। होना है निःशब्द। वहां न कोई प्रश्न उठेगा न कोई विचार उठेगा, न कोई उत्तर पर पकड़ रह जाएगी। ऐसी दशा में ही साक्षात्कार होता है।
इसलिए समाधि न तो हिंदू होती है, न तो मुसलमान होती है, न ईसाई होती है। विचार हिंदू होते हैं, ईसाई होते हैं, मुसलमान होते हैं; हजार ढंग के होते हैं। विचार सब ढंग-ढंग के होते हैं। समाधि का तो एक ही रंग होता है--शून्यता। हिंदू भी चुप हो जाएगा तो वहीं पहुंच जाएगा जहां मुसलमान चुप होकर पहुंचेगा। स्त्री चुप होगी तो वहीं पहुंच जाएगी जहां पुरुष चुप होकर पहुंचेगा। लेकिन अगर बोलेंगे तो भेद पड़ जाएंगे; तो भिन्नता आ जाएगी।
अच्छा ही होता है कि तुम्हें दिखाई पड़ जाता है कि सारे प्रश्न व्यर्थ हैं। फिर भी उठते हैं। प्रश्न ऐसे ही मन में लगते हैं जैसे पत्ते वृक्षों में लगते हैं। मन का स्वभाव है प्रश्न करना। मन प्रश्नों के सहारे जिंदा रहता है। मन को उत्तर में उत्सुकता नहीं है, खयाल रखना। ध्यान रखना, मन को उत्तर से कुछ लेना ही नहीं है। मन तो उत्तर से भी नये दस प्रश्न खड़े करने को उत्सुक है; इसलिए उत्तर भी मांगता है। एक प्रश्न पूछता है, उत्तर मिले, उत्तर में से दस नये प्रश्न खड़े कर देता है।
पूछेगा, परमात्मा ने बनाया जगत को? सच में परमात्मा ने जगत को बनाया? और ऐसा लगता है कि बड़ी श्रद्धा से, बड़ी निष्ठा से पूछ रहा है। कहो कि हां, परमात्मा ने जगत को बनाया। और दस प्रश्न खड़े हो जाते हैं: क्यों बनाया? फिर ऐसा ही क्यों बनाया? फिर इतना दुख क्यों बनाया? यह कैसा अन्याय हो रहा है? फिर कोई गरीब और अमीर क्यों बनाया? फिर कोई सुखी और दुखी; और कोई सोने की चम्मच मुंह में ले कर पैदा हो रहा है और कोई दाने-दाने को मोहताज है। फिर ऐसा क्यों किया? फिर पाप क्यों बनाया जगत में? फिर आदमी को ऐसा क्यों बनाया कि वह पाप कर सके? फिर उसे पुण्य ही करने की क्षमता क्यों न दी?
अब उठना शुरू हुआ। अब कोई अंत नहीं होगा। इसलिए बुद्ध जैसे ज्ञानी ने पहले ही प्रश्न पर रोक देना चाहा। पूछो बुद्ध से: ईश्वर है? बुद्ध कहते हैं: यह प्रश्न किसी काम का नहीं है। इससे न निर्वाण होगा, न समाधि लगेगी, न शांति मिलेगी। इससे तुम्हारे चित्त की चिकित्सा नहीं हो सकती। इसे हटाओ। यह किसी काम का नहीं है। बुद्ध जानते हैं कि इसका उत्तर दिया कि तुम दस प्रश्न ले आओगे। प्रश्नों की संतति बढ़ती ही चली जाती है।
प्रश्न मन उठाता क्यों है? यह असली प्रश्न से बचने की तरकीब है। असली प्रश्न तो एक है: मैं कौन हूं? मगर वह मन नहीं उठाता। वह कहता है: संसार क्या है? संसार में दुख क्यों है? संसार को किसने बनाया? क्यों बनाया? अंत क्या है? लक्ष्य क्या है? हजार प्रश्न उठाता है। एक प्रश्न नहीं उठाता कि मैं कौन हूं।
महर्षि रमण के पास जब भी कोई जाता था, कोई भी प्रश्न ले कर जाए, वे कहते: छोड़ो यह, असली प्रश्न पूछो। लोगों की समझ में ही न आता कि असली प्रश्न क्या है। लोग पूछते: आप ही बता दें, असली प्रश्न क्या है? तो वह तो एक ही प्रश्न था असली--मैं कौन हूं? तो लोग कहते: चलो, यह ही पूछते हैं कि मैं कौन हूं? तो वे कहते: मुझसे मत पूछो। असली प्रश्न दूसरे से नहीं पूछा जा सकता। आंखें बंद करो और दोहराओ भीतर कि मैं कौन हूं?
झूठे प्रश्न दूसरे से पूछे जा सकते हैं। झूठे ही हैं, किसी से भी पूछ लिए। असली प्रश्न तो अपने से ही पूछा जा सकता है। अपने ही अंतर्तम में गुंजाना होता है। अपने ही भीतर, और भीतर, और भीतर, खोदते जाना होता है।
एक सवाल है कि क्या खयाल है सच
और क्या झूठ है वास्तव
एक और सवाल है
कि क्या बवाल है बर्दाश्त करना
और क्या चोट पहुंचाना
खत्म करना है बवालों को
एक और सवाल है
कि पहले और दूसरे सवालों में से
कौन सा है पहला
क्या ये दोनों ही सवाल
न पहले हैं न दूसरे हैं?
ये सवाल ही नहीं हैं
हमारी कमजोरी है,
हमारी बेईमानी है,
हमारी चोरी है
किस बात की चोरी? हम असली सवाल को छिपा रहे हैं धुआं उठा कर। हजार सवालों का जाल खड़ा करके हम असली सवाल को भुला रहे हैं। हम अपने को उलझा रखना चाहते हैं, ताकि असली सवाल न पूछना पड़े। असली सवाल पीड़ादायी है। भाले की तरह चुभेगा छाती में, जब पूछोगे, मैं कौन हूं?
क्योंकि तुमने तो मान ही लिया है कि तुम्हें पता है। हरेक मान कर बैठा है कि मुझे पता है कि मैं कौन हूं। यह भी कोई पूछने की बात है? तुम तो जानते ही हो तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना। और क्या चाहिए? तुम्हें पता है तुम गोरे हो कि काले हो; हिंदू हो कि मुसलमान हो; हिंदुस्तानी कि पाकिस्तानी। तुम्हें सब पता है तुम्हारे पिता का नाम, पिता के पिता का नाम, तुम्हारा घर, सब तुम्हें पता है। तुम्हारा धंधा, तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा, सब तुम्हें पता है; और क्या चाहिए?
और इसमें से कुछ भी तुम नहीं हो। न तो तुम्हारी शिक्षा तुम हो, न तुम्हारी दीक्षा तुम हो, न तुम्हारी संस्कृति, न तुम्हारी सभ्यता, न तुम्हारा समाज। तुम इस सबसे अतीत हो, इस सबके पार हो। तुम शुद्ध चैतन्य हो। तुम सच्चिदानंद हो। उसे किसी विशेषण में बांधा नहीं जा सकता। तुम तो दर्पण हो। इस दर्पण में जो प्रतिबिंब बनते हैं, वे प्रतिबिंब तुम नहीं हो। और जितनी चीजों को तुमने समझ रखा है कि यह मैं हूं, ये सब प्रतिबिंब हैं। अभी दर्पण की तुम्हें पहचान नहीं ही आई। जब तुम दर्पण को जानोगे, पहचानोगे, चकित हो जाओगे; विमुग्ध हो जाओगे। ऐसे रस में डूबोगे कि फिर कभी उसके बाहर न आ सकोगे।
प्रश्न तो सब व्यर्थ हैं, सिर्फ एक प्रश्न को छोड़ कर। और उत्तर भी सभी व्यर्थ हैं, सिर्फ एक उत्तर को छोड़ कर। लेकिन वह प्रश्न औैर वह उत्तर तुम्हारे भीतर घटना है। बाहर से कोई उत्तर नहीं मिल सकता। मैं कह रहा हूं कि सच्चिदानंद हो तुम, लेकिन इससे क्या होगा? तुमने सुन भी लिया, हुआ क्या?
परसों रात फ्रांस से आई एक महिला को मैं कुछ कह रहा था। दुखी थी, उदास थी। कह रही थी कि कभी-कभी सुख भी होता है लेकिन अधिकतर तो मैं उदास ही रहती हूं। कभी-कभी ठीक लगता है, बस कभी-कभी। ज्यादातर तो सब ऐसा व्यर्थ लगता है। मैं क्या करूं? तो उसे मैंने कहा कि मैं तुझे एक सूफी कहानी कहता हूं। मैंने कहानी शुरू की थी, दो ही पंक्तियां कही थीं कि उसने कहा कि यह कहानी मुझे मालूम है। मैंने कहा: अगर यह कहानी तुझे मालूम है, सच में तुझे मालूम है तो फिर उदास क्यों है? वह थोड़ी चौंकी, क्योंकि कहानी मालूम होने से उदास होने का क्या संबंध हो सकता है?
तो फिर मैंने कहा, तू फिर से सुन। तुझे कहानी मालूम नहीं है। तूने सुनी होगी, पढ़ी होगी, लेकिन कहानी को जीना पड़ेगा। पढ़ने और सुनने से क्या होगा? कहानी तो छोटी सी है, विख्यात है। तुममें से भी बहुतों को पता होगी। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, पता तभी होगी जब तुम जीओगे।
कहानी मैं उससे कह रहा था कि एक सम्राट ने अपने स्वर्णकार को बुलाया, सुनार को बुलाया और कहा: मेरे लिए एक सोने का छल्ला बना। और उसमें एक ऐसी पंक्ति लिख दे जो मुझे हर घड़ी में काम आए। दुख हो तो काम आए, सुख हो तो काम आए। सुनार ने छल्ला तो बनाया, सुंदर छल्ला बनाया हीरा-जड़ा, लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ा था कि ऐसा वचन कैसे लिखूं उसमें जो हर वक्त काम आए? कुछ भी लिखूंगा, वह किसी समय काम आ सकता है, किसी खास घड़ी में, किसी संदर्भ में। लेकिन हर घड़ी में, जीवन के हर संदर्भ में काम आए ऐसा वचन कहां से लिखूं, कैसे लिखूं?
वह पागल हुआ जा रहा था। फिर उसे याद आया, एक फकीर गांव में आया है, उससे पूछ लें। फकीर के पास गया, फकीर ने कहा: इसमें कुछ खास बात नहीं है। तू जा और इतना लिख दे: ‘दिस टू विल पास। यह भी बीत जाएगा।’ और सम्राट को कह देना कि जब भी कोई भी घड़ी हो और तुम परेशान हो, खुश हो, दुखी हो, इस छल्ले में लिखे वचन को पढ़ लेना; वह काम पड़ेगा।
और वह काम पड़ा। सम्राट कुछ ही दिनों बाद एक युद्ध में हार गया और उसे भागना पड़ा। दुश्मन पीछे है, वह एक पहाड़ में जाकर छिप गया है, थर-थर कांप रहा है। घोड़ों की टाप सुनाई पड़ रही है। बड़ा दुखी है, जीवन मिट्टी हो गया। क्या सपने देखे थे, क्या से क्या हो गया। सोचता था, राज्य बड़ा होगा, इसलिए युद्ध में उतरा था। राज्य अपना था, वह भी गया। जो हाथ का था, वह भी गया उसको पाने में जो हाथ में नहीं था। बड़ा उदास था, बड़ा चिंतित था। कैसी भूल कर ली! तभी उसे याद आई छल्ले की। वचन पढ़ा। वचन था कि ‘यह भी बीत जाएगा।’ मन एकदम हलका हो गया। जैसे बंद कमरे के किवाड़ किसी ने खोल दिए। सूरज की रोशनी भीतर आ गई, ताजी हवा का झोंका भीतर आ गया। मंत्र की तरह! जैसे अमृत बरसा--‘यह भी बीत जाएगा।’
वह शांत होकर बैठ गया। वह भूल ही गया थोड़ी देर में कि घोड़ों की टाप कब सुनाई पड़नी बंद हो गई, दुश्मन कब दूर निकल गए! बड़ी देर बाद उसे याद आई कि अब तक पहुंचे नहीं! और तीन दिन बाद उसकी फौजें फिर इकट्ठी हो गईं, उन्होंने फिर हमला किया, वह जीत गया। वापस अपनी राजधानी में विजेता की तरह लौटा। बड़ा अकड़ा था। फूल फेंके जा रहे थे, दुदुंभी बजाई जा रही थी। भारी शोभा-यात्रा थी। तभी अकड़ के उस क्षण में उसे अपना हीरा चमकता हुआ दिखाई पड़ा अंगूठी का। उसने फिर वह वचन पढ़ा: ‘यह भी बीत जाएगा।’ और चित्त फिर हलका हो गया। जैसे कोई द्वार खुला, रोशनी भर गई। वह जो अहंकार पकड़ रहा था कि देखो मैं! ऐसा विजेता था कभी पृथ्वी पर? इतिहास में लिखा जाएगा नाम स्वर्ण अक्षरों में, उड़ गया, जैसे सुबह सूरज उगे और घास पर पड़ी ओस की बूंद उड़ जाए, ऐसा वह अहंकार उड़ गया। हलका हो गया, फिर वही शांति आ गई।
मैं उस महिला को कह रहा था यह कहानी। मैंने आधी ही कही थी, उसने कहा कि मुझे यह कहानी मालूम है। मैंने कहा: नहीं मालूम। उसने कहा: मुझे मालूम है। मैंने कहा: नहीं मालूम है। अगर मालूम है तो जो तूने प्रश्न उठाया, वह उठाना नहीं था। दुख आता है, जानो कि बीत जाएगा। यहां सभी बीत जाता है। सुख आता है, बीत जाता है। न दुख में टूटो, न सुख में अकड़ो। न दुख में उदास हो जाओ, न सुख में फूल जाओ, कुप्पा हो जाओ। सब आता है, सब जाता है। पानी की धार है, गंगा बहती रहती है।
यहां कुछ थिर नहीं। यहां साक्षी के अतिरिक्त और कुछ भी थिर नहीं है। यहां देखने वाला भर बचता है, और सब बीत जाता है। सुख भी बीत जाता है, दुख भी बीत जाता है। लेकिन जो दुख को जानता है, सुख को जानता है, वह जानने वाला कभी नहीं बीतता। वह अनबीता, सदा थिर। उसी की तलाश करनी है। उसको ही जिस दिन पहचान लोगे, जानना कि उत्तर मिला इस प्रश्न का कि मैं कौन हूं। और यही एकमात्र सार्थक प्रश्न है और यही एकमात्र सार्थक खोज है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आप जो अमृत पिला रहे हैं उसे पीने से बहुत डरता हूं। क्या कारण होगा? क्यों डरता हूं? और मैं क्या करूं?
अमृत तुम कहते हो, तुम्हें अभी दिखाई नहीं पड़ा होगा; नहीं तो पी जाते। अमृत दिखाई पड़ जाए, अनुभव में आ जाए तो पीने से कोई रुकता नहीं; न भयभीत होता है। अमृत पीने से कोई भयभीत होगा?
नहीं, मैं कहता हूं कि अमृत है। तुम सुनते हो और मेरी मान लेते हो। मगर तुम्हें अमृत मालूम होता नहीं। और जब तक तुम्हें मालूम न होगा, तब तक तुम कैसे पीओगे? और तुम्हें मालूम हो जाएगा तो एक क्षण न लगेगा, तत्क्षण पी जाओगे। फिर कौन देरी करेगा? फिर एक क्षण न रुकोगे। क्योंकि एक क्षण का भी क्या भरोसा है?
तो पहली तो बात स्मरण कर लो: मेरे कहने के कारण कोई सत्य सत्य नहीं होता, तुम्हारी अनुभूति ही उसे सत्य का प्रमाण देगी। तुम्हें उसका गवाह होना पड़ेगा। तुम्हें कैसे पता चलेगा कि जो मैं कह रहा हूं, अमृत है? अभी तो तुम पीने में भी डर रहे हो। पीओ तो ही पता चलेगा न? अभी तुम्हें स्वाद का भी पता कहां है? अभी तुमने शब्द सुने हैं। अभी शब्दों का अर्थ तुम्हारे प्राणों पर नहीं फैला है। अभी तुमने दीये की बातें सुनी हैं। बातें सुन-सुन कर तुम मोहित भी हो गए, लेकिन तुम कहते हो, रोशनी क्यों नहीं होती? दीया जलाओगे तब रोशनी होगी। दीये की बात करने से रोशनी नहीं होती।
मैं जानता हूं कि अमृत है, मगर मेरे जानने से क्या होगा? मेरे जानने से मैंने पीआ। तुम्हारे जानने से तुम पीओगे। कैसे तुम जान पाओगे? क्या उपाय करो जिससे तुम जान पाओ?
अगर ठीक यात्रा शुरू करनी हो तो यहां से शुरू करो: पहले तो तुम जो पी रहे हो, वह देखो कि क्या है! वह जहर है। सम्यक यात्रा शुरू होगी। पहले तो तुम जो पी रहे हो, उसको गौर से देखो कि वह क्या है। तुम्हारे जीवन में दुख, पीड़ा, विषाद, संताप के अतिरिक्त और क्या है? तुम्हारे जीवन में विषाक्त धुएं के अतिरिक्त और क्या है? तुम्हारी दम घुटी जा रही है। तुम सूली पर चढ़े हुए हो। तुम अपने जीवन के जहर को ठीक से देख लो--तुम्हारा क्रोध, तुम्हारा मोह, तुम्हारा लोभ, तुम्हारा अहंकार, तुम्हारा द्वेष, तुम्हारा काम, तुम्हारी स्पर्धा, सब जहर है। तुमने जो अब तक पीआ है, वह जहर है।
ऐसी तुम्हारी प्रतीति पहले होनी चाहिए। और इसको करने में कोई कठिनाई नहीं है। तुम्हारा अनुभव कह रहा है कि जहर है। अगर तुम्हारा अनुभव न कहता तो तुम मेरे पास आते क्यों? तुम तलाश क्यों करते? तुम खोजते क्यों?
एक मित्र आए। बूढ़े संन्यासी हैं। हिमालय से आए थे। कहने लगे: आपका नाम सुन कर आया। संन्यास लिए तो तीस, पैंतीस साल हो गए। मैंने उनसे पूछा: कुछ मिला? कहने लगे: हां मिला; मिला क्यों नहीं? लेकिन मैंने कहा: जिस ढंग से आप कहते हो कि ‘मिला, मिला क्यों नहीं’, उसमें मुझे शक मालूम होता है। थोड़े झिझके, तिलमिलाए। कहा कि नहीं, नहीं, मिला। पूरा न भी मिला हो, अभी पूर्ण समाधि न भी मिली हो, निर्विकल्प समाधि न भी मिली हो लेकिन थोड़ी-थोड़ी सविकल्प समाधि का अनुभव तो होता है।
फिर मैंने कहा: यहां क्यों आए? क्योंकि अगर समाधि का थोड़ा भी अनुभव हो जाए तो सीढ़ी मिल गई। पहला सोपान मिल गया तो सीढ़ी मिल गई। अब उसके आगे दूसरा सोपान और तीसरा, और चढ़ते चले जाओ। मैं कुछ भी न कहूंगा आपसे, क्योंकि आपको तो मिल ही गया है। मुझे उनसे बात करने दो जिनको अभी नहीं मिला है। वे कहने लगे कि नहीं, नहीं, मैं बड़े दूर से आया हूं। तो फिर मैंने कहा: सच्ची बात कहो कि मिला नहीं है। सोच लो थोड़ी देर। मगर तुम सच बोलोगे तो ही बात शुरू मैं करूंगा। नहीं तो बात शुरू करना व्यर्थ है। तुम्हें अगर मिल ही गया हो तो बात ही खतम हो गई, धन्यभागी हो। मैं खुश हूं कि तुम्हें मिल गया। अगर न मिला हो तो मैं कुछ सहारा दूं। तब वे कुछ झेंपे से बोले कि नहीं, मिला तो नहीं है। कुछ भी नहीं मिला। फिर मैंने कहा: क्यों कह रहे थे कि मिल गया?
मैं समझता हूं अड़चन। तीस-पैंतीस साल किसी ने गंवाए हों किसी काम में तो अहंकार जुड़ जाता है। फिर यह कहने में कि तीस-पैंतीस साल मैं बुद्धू की तरह भटकता रहा हिमालय में, मूढ़ की तरह समय गंवाता रहा, अच्छा नहीं लगता। आदमी अपने को बचाता है। कहता है, कुछ-कुछ मिला।
लेकिन ध्यान रखना: समाधि खंड-खंड में मिलती ही नहीं। ऐसी थोड़े ही कि मिल गई आधा सेर, फिर और आधा सेर, फिर मिलती रही, फिर पसेरी, फिर मन, फिर मन भर! ऐसी नहीं मिलती है समाधि। समाधि के टुकड़े होते ही नहीं। समाधि अखंड मिलती है। या तो मिलती है या नहीं मिलती। तो जो कहे, थोड़ी-थोड़ी मिल रही है, समझ लेना कि मिल नहीं रही है, थोड़ी-थोड़ी कह कर वह यह कह रहा है कि अब मुझे बिलकुल मूढ़ तो मत कहो। जो भी मैं कर रहा हूं उससे कुछ मुझे मिला है, मगर जितना चाहिए उतना नहीं मिला।
तुम जरा गौर से देखो कि तुम्हारे जीवन में जो तुमने पाया है, वह जहर है या अमृत है? अगर अमृत है तो मेरे आशीर्वाद! फिर तुम यहां परेशान न होओ। अगर जहर है तो फिर यात्रा शुरू हो सकती है। क्योंकि जिसने जहर को जहर की तरह देख लिया, आधा काम पूरा हुआ। अमृत की तरफ आधी यात्रा हो गई। अंधेरे को अंधेरे की तरह देख लेना, प्रकाश को प्रकाश की तरह देखने के लिए पहला कदम है। मैं अज्ञानी हूं, यह दिखाई पड़ जाए तो ज्ञान की पहली किरण फूटी। मुझे पता नहीं है, इतना पता चल जाए तो शुरुआत हो गई। तीर्थयात्रा शुरू हुई। पहला कदम उठा।
और पहला कदम ही कठिन है। फिर दूसरा कदम तो आसान है क्योंकि वह भी पहले ही जैसा होता है। फिर तीसरा भी आसान है, वह भी पहले ही जैसा होता है। फिर तो सब कदम आसान हैं।
तुम कहते हो: ‘आप जो पिला रहे हैं, अमृत है। लेकिन मैं पीने में डरता हूं।’
तुम्हारे लिए अभी अमृत नहीं है। तुम तो जो पी रहे हो उसको समझते हो, कीमती है। और डर इसलिए रहे हो कि अगर मेरी बातें पीं तो तुम जो पी रहे हो, कहीं वह चूक न जाए। तुम दौड़ रहे हो पद की लालसा में। अब तुम्हें डर लगता है, अगर मेरी बातें सुनीं, और यह संन्यास कहीं छा गया तुम्हारे मन पर तो फिर क्या करोगे?
एक मित्र बिहार से आए। और बिहारी तो जरा खास ही ढंग के लोग हैं दुनिया में। इस देश की सारी राजनीति वे ही चलाते हैं। सब उपद्रव वहीं से शुरू होते हैं। कोई भी उपद्रव शुरू करवाना हो--बिहार! कहीं और से शुरू हो ही नहीं सकता। कहने लगे: संन्यास तो लेना है मगर एक बात की आज्ञा चाहता हूं कि संन्यास के बाद भी मैं अपनी राजनीति बंद नहीं करूंगा। चुनाव तो लडूंगा। इसकी आज्ञा चाहता हूं। मैंने उनसे कहा, तुम संन्यास का अर्थ भी नहीं समझे। अगर तुम यह आज्ञा चाहते हो तो तुम्हें संन्यास की कोई प्रतीति नहीं है कि तुम क्या मांग रहे हो। संन्यास का अर्थ ही यह है कि अब मैं महत्वाकांक्षा की दौड़ से हटता हूं। अब पद में मुझे रस नहीं है। अब परमात्मा में मुझे रस है। अब धन की मेरी आकांक्षा नहीं है, ध्यान की मेरी आकांक्षा है। अब मैं दूसरों से आगे निकल जाऊं, इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। अब मैं अपने भीतर कैसे पहुंच जाऊं, यही मेरी चिंता है।
तुम कहते हो कि संन्यास भी ले लूं और आज्ञा भी दे दें कि मैं राजनीति में रहूं। तो मैंने कहा, तुम पहले राजनीति में रह आओ कुछ दिन और। और पीओ। जब जहर का और अनुभव गहरा हो जाए तब लौट आना। अभी संन्यास की तैयारी नहीं है।
डर क्यों पैदा होता है? डर इसलिए पैदा होता है कि तुम्हारे न्यस्त स्वार्थ हैं, उनमें चोट पड़ेगी। तुम अगर धन कमाने के पीछे दीवाने हो और मेरी बात तुमने ठीक से सुनी, समझी, उसमें डूबे, तुम्हारी पकड़ छूट जाएगी धन पर से। तुम्हारी प्रतिस्पर्धा, तुम्हारी हिंसा, सब छूट जाएगी। तुम थोड़े सरल हो जाओगे। अभी तुम दूसरों को लूटते थे, डर यही है कि कहीं दूसरे तुम्हें न लूट लें। इससे भय हो रहा है।
अमृत तो तुम पीना चाहते हो, मगर अपने को अछूता रख कर पीना चाहते हो। तुम चाहते हो, मैं जैसा हूं वैसा का वैसा रहूं और यह अमृत भी मिल जाए। यह असंभव है। फिर भी, यह प्रश्न तुमने तीसरी बार पूछा है। तो आते तो तुम हो। लगता है, बच भी अब सकते नहीं। शायद बचने की सीमा जो थी, उसको तुम पार कर गए।
साकी मेरे खलूस की शिद्दत तो देखना
फिर आ गया हूं गर्दिशे-दौरां को टाल कर
तुम आ जाते हो संसार का चक्कर छोड़-छाड़ कर फिर-फिर। जरूर कुछ न कुछ होना शुरू हुआ है--अंधेरे में सही, अचेतन में सही, मगर कहीं कोई चोट पड़ने लगी है। कहीं कोई नाद उठने लगा है। कोई तार छिड़ा है। अब तुम बच नहीं पाते। इसीलिए प्रश्न भी उठा है। किसी न किसी दिन पी ही जाओगे, घबड़ाओ मत। एकाध दिन जल्दी से घबड़ाहट में ही पी जाओगे।
मय-सी हसीन चीज को और वाकई हराम
मैं कसरते-शकूक से घबरा के पी गया
ऐसे ही विचार करते-करते-करते एकाध दिन सोचोगे, कब तक, कब तक? और एक भी बूंद तुम्हारे कंठ के गले उतर गई तो फिर तो पूरा सागर ही पीना होगा। फिर कम से काम नहीं चलता।
मेरा तो निमंत्रण है, पी लो। भय को एक तरफ रखो। जिस चीज का भय लगता हो वह कर ही लो। वही भय से मिटने का उपाय होता है। अगर अंधेरे से भय लगता है, अंधेरे में चले ही जाओ। बैठ जाओ दूर जंगल में जाकर झाड़ के नीचे। जो होना हो हो जाए। थोड़ी देर में तुम्हें मजा आने लगेगा अंधेरे में। बड़ा सन्नाटा, बड़ी शांति। थोड़ी देर में भय भी बैठ जाएगा। थोड़ी देर में आकाश के तारे दिखाई पड़ने लगेंगे। झींगुरों की आवाज सुनाई पड़ने लगेगी। थोड़ी देर में रात का सन्नाटा और तुम्हारा प्राण साथ-साथ डोलने लगेंगे।
‘आरजू’ जाम लो झिझक कैसी!
पी लो और दहशते-गुनाह गई
मगर पीए बिना जाती नहीं। दहशते-गुनाह--अपराध का भाव बना रहता है। वह भी है। मेरे पास तुम आते हो तो मैं किसी पिटे-पिटाए धर्म का पक्षपाती नहीं हूं। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, वह एक क्रांतिकारी उदघोष है। मेरे साथ जुड़ना और बहुत जगहों से टूट जाना हो जाएगा। मुझसे जुड़े तो जिस मंदिर में तुम कल तक गए थे, उस मंदिर में जाना मुश्किल होने लगेगा। जिस मस्जिद में कल तक तुमने इबादत की थी, उस मस्जिद के लोग ही तुम्हारे लिए द्वार बंद कर देंगे।
पंजाब से मुझे कुछ पत्र आए हैं। कुछ सिक्ख संन्यासियों ने लिखा है कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं, क्योंकि गुरुद्वारे में हमें आने नहीं दिया जाता। वे कहते हैं, तुम चुनाव कर लो। अगर तुम्हें सिक्ख रहना है तो सिक्ख, और अगर तुम्हें ये गैरिक वस्त्र पहनने हैं और यह संन्यास स्वीकार करना है तो तुम जाओ जहां तुम्हें जाना है, मगर गुरुद्वारे मत आओ।
वे गुरुद्वारे में आने से जो रोक रहे हैं उन बेचारों को पता भी नहीं है कि सिक्ख शब्द का मतलब क्या होता है। उसका मतलब होता है, शिष्य। शिष्य का बिगड़ा हुआ रूप है सिक्ख। अब ये बेचारे शिष्य हो गए हैं, वे उनको गुरुद्वारे में नहीं आने देते। इनको गुरु मिल गया है, इनको गुरुद्वारा छूटा जा रहा है। और गुरुद्वारे का मतलब ही केवल इतना होता है कि गुरु द्वार है; और कुछ मतलब नहीं होता।
बड़ी मुश्किल है। तुम्हें अड़चनें आएंगी। जो धर्म मैं तुम्हें दे रहा हूं, यह एक विद्रोही पुकार है, एक चुनौती है। तुम जिस धर्म के अब तक आदी रहे हो--सत्यनारायण की कथा और हनुमान जी का चालीसा इत्यादि, उससे इसका कुछ लेना-देना नहीं है। वे सब तो सांत्वनाएं हैं। उनसे तुम बदले नहीं जाते। वे तो तुम्हारे ही मन के बचाव के उपाय हैं। मैं तुम्हें जो दे रहा हूं, वह तुम्हारे मन को नष्ट ही करेगा। और मन नष्ट हो तो ही तुम्हारे भीतर आत्मा जगमगाए। यह मन का पर्दा हटे तो आत्मा प्रकट हो, अभिव्यक्ति हो।
पी ही लो! भय छोड़ कर पी लो।
एक जाम आखिरी तो पीना है और साकी
अब दस्ते-शौक कांपें या पैर लड़खड़ाएं।
हाथ भी कंपते हों तो फिकर छोड़ो। पैर भी लड़खड़ाते हों तो फिकर छोड़ो। एक दफा पी कर ही देख लो, फिर तय कर लेना कि और आगे पीना कि नहीं पीना। जिनने पी है उन्होंने फिर पीने के ही लिए तय किया है।
और पहली दफे तो हाथ कंपते हैं। डर लगता ही है। क्योंकि सारा अतीत एक, और एक नया काम करने चले। अतीत एक तरफ खींचता है--अतीत वजनी है। और फिर कल के लिए मत छोड़ो। मैं कहता हूं, आज ही पी लो।
साकिया यां चल रहा है चलचलाओ
जब तलक बस चले, सागर चले
कब कौन चल पड़ेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। आज हो कल पता नहीं हो न हो। कल का क्या भरोसा!
साकिया यां चल रहा है चलचलाओ
जब तलक बस चले, सागर चले
इसलिए जब तक बन सके, पी लो। यह सागर मैं लिए तुम्हारे सामने खड़ा हूं, पी लो। भय को उतार कर पी लो। एक बार तो भय हटा कर पीना ही पड़ेगा। बिना पीए भय मिटेगा नहीं।
तुम्हारी हालत वही है जैसे कोई आदमी कहे कि मुझे तैरना सीखना है, लेकिन पानी में मैं तभी उतरूंगा जब तैरना सीख लूं। बिना तैरना सीखे मैं पानी में उतरता नहीं। मुझे डर लगता है। यह आदमी तैरना कैसे सीखेगा? यह कभी नहीं सीखेगा। अब कोई ऐसा थोड़े ही कि गद्दे तकिए लगा कर और पड़े हैं कमरे में और तैरना सीख रहे हैं। पानी में उतरना पड़ेगा। उथले में उतरो, मत जाओ गहरे में एकदम। इसीलिए कहता हूं, एकाध घूंट पीओ।
बहार जाम-ब-कफ झूमती हुई आई
शिकस्त-ए-तौबा न करते तो और क्या करते
और इतने जोर से तुम्हें पुकार रहा हूं, चारों तरफ से घेर कर तुम्हें पुकार रहा हूं।
बहार जाम-ब-कफ झूमती हुई आई
शिकस्त-ए-तौबा न करते तो और क्या करते
ऐसी घड़ी में तो पुरानी कसमें छोड़ो, पुरानी आदतें छोड़ो।
भय सभी को पकड़ता है, तुम्हीं को नहीं। भय स्वाभाविक है। भय मन की आदत है। इसीलिए तो महावीर ने अभय को धर्म की पहली शर्त कहा है। अभय हो तो ही कोई नई दिशा में कदम उठा सकता है। और यह तो बड़ी नई दिशा है। धर्म सदा ही नई दिशा है। धर्म कभी पुराना पड़ता ही नहीं। और जो पुराना पड़ जाता है वह धर्म नहीं है, परंपरा है। धर्म तो रोज नये-नये अवतरण लेता है। रोज नये रूप में आकाश से उतरता है। नये गीत गाता है। धर्म पुराने गीत नहीं दोहराता। धर्म रोज नये गीत उठाता है और परंपरा पुराने गीत गाती है। और हम पुराने गीतों के आदी हो जाते हैं तो फिर नया गीत हमारे कंठ से नहीं उतरता।
मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि लगाव तुम्हारा बन गया है। भागने का उपाय नहीं है। लौट जाने की संभावना नहीं है। अब पी ही लो। और पीकर ही तुम जानोगे कि यह अमृत है। और इसे पीकर ही तुम जानोगे कि तुम जिन मंदिरों में गए थे और जिन मस्जिदों में गए थे, वह सब ऊपर-ऊपर था। इसे पी कर तुम पहली दफे मंदिर में पहुंचोगे, मस्जिद में पहुंचोगे। इसे पी कर तुम जहां बैठ जाओगे वहीं तीर्थ बन जाता है।
आज इतना ही।