JAGJIVAN
Nam Sumir Man Bavre 03
Third Discourse from the series of 10 discourses - Nam Sumir Man Bavre by Osho. These discourses were given during AUG 01-10 1978, Pune.
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हमारा देखि करै नहिं कोई।
जो कोई देखि हमारा करिहै, अंत फजीहति होई।।
जस हम चले चलै नहिं कोई, करी सो करै न सोई।
मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई।।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
हम आहन सतसंगी-बासी, सूरति रही समोई।।
कहा पुकारि बिचारि लेहु सुनि, बृथा सब्द नहिं होई।
जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले यहि जग कोई।।
कलि की रीति सुनहु रे भाई।
माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई।।
भूले फूले फिरत आय, पर केहुके हाथ न आई।
जो है जहां तहां ही है सो, अंतकाल चाले पछिताई।।
जहं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।
लेखा-जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक महिं जाई।।
बूड़हिं आपु और कहं बोरहिं, करि झूठी बहुतक बताई।
जगजीवन मन न्यारे रहिए, सत्तनाम तें रहु लय आई।।
पंडित, काह करै पंडिताई।
त्यागदे बहुत पढ़ब पोथी का, नाम जपहू चित लाई।।
यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई।
सुनि जो करै तरै पै छिन महं, जेहिं प्रतीति मन आई।।
पढ़ब पढ़ाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गंवाई।
एहि तैं भक्ति होत है नाहीं, परगट कहौं सुनाई।
सत्त कहत हौं बुरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई।
जगजीवन सत-मत तब पावैं, परमज्ञान अधिकाई।।
तुमहीं सो चित्त लागु है, जीवन कछु नाहीं।
मात पिता सुत बंधवा, कोउ संग न जाहीं।।
सिद्ध साध मुनि गंध्रवा मिलि माटी माहीं।
ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं।।
नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं।
जगजीवन बिनती करै, रहै तुम्हरी छांहीं।।
आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।
जब आपु में आपु समाय गए, तब आपु में आपु लह्यो अपनो।।
जब आपु में आपु लह्यो अपुनो, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो।
जब ज्ञान को भान प्रकास भयो, तब जगजीवन होय रह्यो सपनो।।
संतों के वचन तो हीरों की खदान हैं। लेकिन हीरों की खदान में भी कभी-कभी--और कभी-कभी ही--कोहनूर भी मिल जाते हैं। ऐसे तो सभी वचन प्यारे हैं, लेकिन कभी कोई वचन अपूर्व होता है।
आज का पहला सूत्र ऐसा ही अपूर्व है; कोहनूर जैसा है। समझोगे तो बहुत रस पाओगे। जी सके तो जीवन रूपांतरित हो जाएगा। एक महत कुंजी जगजीवनदास इस सूत्र में दे रहे हैं।
हमारा देखि करै नहिं कोई।
मनुष्य नकलची है। चार्ल्स डार्विन ठीक ही कहता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। और चाहे कारण ठीक हों या न हों, मगर एक मनोवैज्ञानिक कारण तो ठीक मालूम पड़ता ही है कि आदमी बंदरों जैसा ही नकलची है। शायद बंदर भी सीख लेते हों कुछ, आदमी नहीं सीखता। आदमी बस नकल ही करता है।
मैंने सुना है, एक आदमी टोपियां बेचता था बाजार में। एक दिन टोपियां बेच कर वापस लौटता था, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे विश्राम करने को रुका। ठंडी-ठंडी हवा, दिन भर का थका! झपकी लग गई। जब आंख खुली तो देखा, टोकरी का ढक्कन खुला पड़ा है और टोकरी के भीतर जितनी टोपियां थीं, सब नदारद हैं। हैरान हुआ, कहां गईं? चारों तरफ नजर डाली। ऊपर देखा, वृक्ष पर बहुत से बंदर बैठे थे। सब टोपियां लगाए बैठे थे, सब टोपियां ले गए थे। सब बिलकुल गांधीवादी हो गए थे। बड़ी जंच रही थीं टोपियां उन्हें; जैसे दिल्ली में लोगों को जंचती हैं!
घबड़ाया दुकानदार। अब क्या करे! एक ही टोपी बची थी सिर पर। उसे याद आया, बंदर नकलची होते हैं। उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। सारे बदंरों ने अपनी टोपियां निकाल कर फेंक दीं। उसने टोपियां इकट्ठी कर लीं, घर लौट गया।
फिर बहुत वर्षों बाद उसका बेटा वही काम करने लगा। बाप ने उसे बताया था कि खयाल रखना, कभी उस वृक्ष के नीचे--बरगद के वृक्ष के नीचे विश्राम करने मत रुकना। बंदरों का अड्डा है वहां। एक बार मेरी सारी टोपियां ले गए थे। फिर अगर कभी भूल-चूक से ऐसा तेरे जीवन में हो जाए तो सूत्र खयाल रखना, अपनी टोपी निकाल कर फेंक देना।
बेटा भी आया। और बरगद का झाड़ बड़ा प्यारा था। उसके नीचे बड़ी गहन छाया थी, शीतलता थी। थका-मांदा था। फिर सूत्र भी उसे मालूम था तो फिकर की कोई जरूरत भी न थी। टोकरी रख कर वह भी विश्राम करने लेट गया, नींद आ गई। और वही हुआ जो होना था। उठा तो टोकरी खाली थी। ऊपर देखा, सब बैठे थे--सब नेतागण टोपी लगाए हुए। हंसा। उसने कहा, मन में ही कहा कि पागलो, तुम्हें मालूम नहीं है कि मुझे सूत्र भी पता है। अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। एक बंदर नीचे उतरा और वह टोपी भी उठा कर ले गया।
बंदरों की भी यह दूसरी पीढ़ी थी। उनके बापदादे भी समझा गए थे कि अगर ऐसी भूल मत करना। एक बार हम कर चुके सोकर चुके।
बंदर भी सीख लेते हैं, पर आदमी शायद ही सीखता हो। आदमी नकल से जीता है।
महावीर को लोगों ने देखा कि नग्न हैं, लोग नग्न हो गए बिना समझे, बिना बूझे कि महावीर की नग्नता कोई आचरण नहीं है, अंतस्तल में पैदा हुई निर्दोषता का परिणाम है। तुम परिणाम का आरोपण कर सकते हो, अंतस्तल कहां से लाओगे?
नग्न खड़े होने से तुम निर्दोष हो जाओगे? हां, निर्दोष होने से कोई नग्न खड़ा हो जाए, वह बात दूसरी। क्रांति भीतर से बाहर की तरफ होती है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं होती।
ढाई हजार साल बीत गए महावीर को, अब भी कुछ लोग उसी नकल में नग्न हो जाते हैं। न तो उनमें महावीर की सुगंध मालूम होती है, न सौंदर्य मालूम होता है, न महावीर की महिमा, न प्रसाद; कुछ भी नहीं। बस नंगे खड़े हैं। तो नंगे तो बहुत आदिवासी हैं। नग्न होने से अगर कोई तीर्थंकर होता हो, नग्न होने से अगर कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता हो तो सारे आदिवासी कभी के हो गए होते। यह नग्नता सिर्फ नकल है।
महावीर ने उपवास किए--किए कहना ठीक नहीं, हुए। ऐसे रसविभोर हो जाते थे अंतर्लोक में कि भूल ही जाते भोजन की बात। दिन आते, चले जाते, सुबह होती, सांझ होती, उनकी डुबकी, लगी रहती समाधि में। लोगों ने देखा, महावीर उपवास करते हैं। उपवास हो रहे थे, लोगों ने देखा, उपवास करते हैं। लोग तो यही देखेंगे जो बाहर से दिखाई पड़ेगा।
और बाहर से केवल लक्षण दिखाई पड़ते हैं। बाहर से भीतर का अंतस्तल दिखाई नहीं पड़ सकता। महावीर का अंतस्तल कौन देखेगा? जो महावीर जैसा हो जाए। बुद्ध का अंतस्तल कौन देखेगा? जो बुद्ध जैसा हो जाए। बाहर से लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
देखा कि महावीर भोजन नहीं करते; कई दिन बीत जाते हैं। लोगों ने भी उपवास शुरू कर दिया। ढाई हजार साल बीत गए, लोग उपवास कर रहे हैं। और कोई भी यह नहीं सोचता कि उपवास से फिर तुम एक बार भी तो महावीर पैदा नहीं कर सके। ढाई हजार साल की कहानी तुम्हारी हार की, पराजय की कहानी है। फिर भी नकल जारी है। लोग सोचते हैं, शायद उपवास ठीक से नहीं कर पा रहे हैं इसलिए। जितना करना चाहिए उतना नहीं कर पा रहे हैं इसलिए चूक रहे हैं।
नहीं, इसलिए चूक रहे हो कि उपवास तो किसी और चीज की मौजूदगी का परिणाम है। दीया जले तो अंधकार दूर हो जाता है, लेकिन अंधकार दूर करने से दीया नहीं जलता; और न अंधकार दूर हो सकता है।
इसलिए यह आज का पहला सूत्र कोहिनूर जैसा है। इतनी साफ-साफ सीधी-सीधी बात इस तरह कभी नहीं कही गई थी।
हमारा देखि करै नहिं कोई।
जगजीवन कहते हैं, जैसा हम करते हैं वैसा तुम मत करना। हमारा देख कर करोगे, मुश्किल में पड़ोगे।
जो कोई देखि हमारा करि है, अंत फजीहति होई।
सिर्फ फजीहत होगी, और कुछ भी न पाओगे।
जस हम चले चलै नहिं कोई, करी सो करै न सोई।
जैसे हम चलते हैं वैसे मत चलना। जैसा हम करते हैं वैसा मत करना। क्योंकि जो हमें हो रहा है... जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है, वह केवल बाह्य लक्षण है। जड़ें भीतर हैं, फूल बाहर आए हैं। तुम फूलों को बिना जड़ों के न ला सकोगे। और अगर ले आए तो बाजार से खरीदे गए कागजी फूल होंगे। ऊपर से चिपका लेना, मगर कागजी फूल कागजी फूल हैं। इनसे न कोई महावीर बनता है, न बुद्ध, न मोहम्मद, न कृष्ण, न क्राइस्ट। इससे सिर्फ झूठे, थोथे, पाखंडी पैदा होते हैं।
पहले भीतर की जड़ें पैदा करो, पहले बीज बोओ। लेकिन लोग जल्दी में हैं। लोग कहते हैं, बीज बोएं, फिर प्रतीक्षा करें, फिर वर्षा के बादल जब आएंगे तब आएंगे, फिर वर्षा होगी--इतनी लंबी कौन प्रतीक्षा करे? फूल बाजार में मिलते हैं, हम ऊपर से क्यों न चिपका लें?
आचरण से बचना। अंतःकरण में क्रांति होती है। अंतःकरण में जड़ें हैं। आचरण तो केवल अंतःकरण में जो होता है, उसको बाहर तक लाता है। लेकिन लोग आचरण के पीछे ही चलते हैं। और जो स्वयं आचरण के पीछे चलते हैं वे दूसरों को भी समझाते हैं कि हम जैसा करते हैं वैसा करो। हमारे आचरण का अनुसरण करो।
तुम्हें जगजीवन के वचन बड़े हैरानी में डालेंगे। तुम्हारे तथाकथित साधु-संत यही कहते हैं: हमारे जैसा करो। हम जैसा करते हैं वैसा तुम करो। इतना न बन सके तो थोड़ा सही; ज्यादा न बन सके तो थोड़ा सही। दो मील न चल सको तो आधा मील सही, दस कदम सही। हमारे जितने व्रत न कर सको तो एकाध तो व्रत ले लो। हमारे जैसे लंबे उपवास न कर सको तो छोटे उपवास सही, मगर कुछ तो करो। हमारे जैसा करो। वे खुद भी नकल कर रहे हैं, वे तुम्हें भी नकल ही सिखा रहे हैं। नकलची नकल ही सिखा सकते हैं। बंदरों से और ज्यादा की आशा भी नहीं है।
जगजीवन का सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। ठीक इस ढंग से किसी ने कहा ही नहीं है। इतना सीधा-सीधा, साफ-साफ। गंवार आदमी थे, पढ़े-लिखे नहीं थे। बातों को उलझा कर कहने की आदत भी न थी। जैसा था वैसा कह दिया है। एक बात साफ दिखाई पड़ गई होगी कि लोग नकल करने लगे होंगे।
लोग नकल करने में बड़े कुशल हैं। और कभी-कभी तो इतनी कुशलता से नकल करते हैं कि मूल को भी मात दे दें; मूल भी हार जाए।
जो कोई देखि हमारा करिहै, अंत फजीहति होई।।
जस हम चले चलै नहिं कोई, करी सो करै न सोई।
मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई।।
जगजीवन कहते हैं: हम जो कहते हैं वह मानो। हम जो करते हैं, उसकी फिकर न करो अभी। क्योंकि हम जहां हैं, वहां जो हो रहा है, वहां तुम अभी नहीं हो। तुमने अभी वैसा किया तो तुम बुरी तरह गिरोगे; बड़ी फजीहत होगी।
मनुष्य के भीतर चेतना के कई तल हैं। जो व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो गया है उसे जीवन के छोटे-मोटे नियम, मर्यादाएं मानने की कोई जरूरत नहीं है। जो वृक्ष बादलों को छूने लगा है, अब उसे बचाने के लिए बागुड़ थोड़े ही लगानी पड़ती है! मगर जो पौधा अभी-अभी पैदा हुआ है, नये-नये पत्ते आए हैं, अगर इसको ऐसा ही छोड़ दिया बिना बागुड़ के, जानवर चर जाएंगे। यह बच नहीं सकेगा।
जब आदमी जवान हो जाता है तो अपने पैरों से चलता है। जब छोटा बच्चा होता है तब तो नहीं चल सकता। तब किसी के हाथ के सहारे की जरूरत होती है। तब तो घुटने के बल रेंगता है। हां, कोई हाथ का सहारा दे दे, एक-दो कदम चल लेता है। एक दिन चल पाएगा; अपने ही पैरों से चल पाएगा लेकिन अभी देर है। अभी थोड़ी तैयारी होनी जरूरी है। अभी देह को इस योग्य बनना है।
जैसी देह की योग्यता निर्मित होती है ऐसी ही आत्मा की योग्यता भी क्रमशः निर्मित होती है। जो पहुंच गए हैं समाधि में उन्हें न नियम की कोई जरूरत है, न मर्यादा की कोई जरूरत है। लेकिन जो नहीं पहुंचे हैं, अगर सब नियम और मर्यादा छोड़ देंगे तो कभी भी पहुंच नहीं पाएंगे। टूट ही जाएंगे। रास्ते में ही बिखर जाएंगे।
मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई।।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
जगजीवन कहते हैं कि हमारी तो तुम मत पूछो। क्योंकि हम तो अब ऐसी हालत में हैं कि जहां हम जानते हैं कि हम देह नहीं हैं।
हम तो देह धरे जग नाचब,...
अब तो हम जानते हैं कि हम और हैं, देह और है। अब तो हम नाच रहे हैं देह में। अब देह से हमारा कोई बंधन नहीं रह गया है। अब देह से हमारी कोई आसक्ति नहीं रह गई है। अब देह और हमारे बीच फासला पैदा हो गया है, तादात्म्य टूट गया है।
तो हम जो करें, वही तुम मत करने लगना। जब तक तुम्हारा देह से तादात्म्य है तब तक तुम वही मत करने लगना, अन्यथा तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। पहले तादात्म्य टूटने दो। और तादात्म्य टूटने की प्रक्रियाएं हैं। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि तादात्म्य टूटने के बाद जो व्यक्ति करता है अगर वही तादात्म्य रहते हुए करे तो तादात्म्य और मजबूत हो जाता है।
जनक के पास एक संन्यासी गया। पूछने गया था। उसके गुरु ने भेजा था कि जाकर ब्रह्मज्ञान ले आ। मन में बहुत सकुचाया भी, सोचा भी कि सम्राट के पास क्या ब्रह्मज्ञान होगा? लेकिन गुरु कहते हैं तो गया। देखा तो और भी चौंका। वहां तो महफिल जमी थी। शराब के दौर चल रहे थे, नर्तकियां नाच रहीं थीं। सम्राट मस्त बीच में बैठा था। संन्यासी के तो हाथ-पैर कंप गए। वह तो तत्क्षण भागना चाहता था लेकिन जनक ने कहा: जब आ ही गए तो रुको। कम से कम रात तो विश्राम करो। फिर तुम जो पूछने आए हो, वह बिना पूछे जाओ मत। सुबह उठ कर पूछ लेना।
दूर जंगल से थका-मांदा आया था तो सो गया रात। सुंदर बिस्तर--सुंदरतम; जीवन में देखा भी नहीं था ऐसा। दिन भर का थका-मांदा भी था, खूब गहरी नींद आनी थी मगर नींद आई ही नहीं। सुबह सम्राट ने पूछा कि कोई अड़चन तो नहीं हुई? नींद तो ठीक आई? उसने कहा: नींद कैसे आए? नींद आती कैसे? आपने भी खूब मजाक की। इतना सुंदर भवन, इतना सुंदर बिस्तर, इतना सुंदर भोजन! मैं थका-मांदा भी बहुत। गहरी नींद आनी ही थी। रोज आती है मगर आज नहीं आ सकी। यह आपने क्या मजाक किया? जब मैं सोया बिस्तर पर और मैंने ऊपर आंख की तो देखा एक नंगी तलवार कच्चे धागे से लटकी है। रात भर यही सोचता रहा कि पता नहीं यह तलवार कब गिर जाए, कब प्राण ले ले। डर के मारे नींद न लगी। सो नहीं पाया। पलक नहीं झपी।
सम्राट ने कहा: मेरी तरफ देखो। यह मेरा उत्तर है। मौत की तलवार मेरे ऊपर भी लटकी है। और मौत का मुझे प्रतिक्षण स्मरण है, इसलिए नर्तकियां नाचें, शराब का दौर चले, स्वर्ण-महल हों, वैभव-विलास हो, सब ठीक--लेकिन तलवार ऊपर लटकी है। वह तलवार मुझे भूलती नहीं। तुम जैसे सो नहीं पाए ऐसे ही मैं भी मूर्च्छित नहीं हो पाता हूं। मेरा होश जगा रहता है। ध्यान सधा रहता है।
तो देख कर मत लौट जाओ। बाहर से तुम देख कर लौट जाओगे, भूल हो जाएगी। मैं बैठा था वहां, फिर भी वहां था नहीं। दौर चलता था तो चलता था। मेरी मौजूदगी सिर्फ ऊपर-ऊपर थी। भीतर से मैं वहां मौजूद न था। भीतर से मैं कोसों दूर था। जैसे रात भर तुम बिस्तर पर थे और बिस्तर पर नहीं थे, सोने का सब आयोजन था और सो न पाए, ऐसे ही भोग का सब आयोजन है और भोग नहीं है। मैं अलिप्त हूं। मैं दूर-दूर हूं। मैं जल में कमलवत हूं। पानी से घिरा हूं लेकिन पानी की बूंद भी मुझे छूती नहीं है।
लेकिन क्या तुम सोचते हो यही स्थिति बाकी दरबारियों की भी थी? तो तुम गलती में पड़ जाओगे। हालांकि दरबारी भी वही कर रहे थे जो सम्राट कर रहा था। ऊपर-ऊपर दोनों एक जैसे थे, भीतर-भीतर बड़ा भेद था।
जगजीवन से मैं राजी हूं। इसे खूब गहरे बैठ जाने दो इस विचार को।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
हम तो नाच रहे हैं देह धरे। देह तो हमें वस्त्रों-जैसी हो गई है। हम बसे हैं देह में। हम मालिक हैं देह के। हम देह नहीं हैं।
और अब हमें इस संसार में कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता, सब अभेद हो गया है। मिट्टी और सोना एक जैसा है।
महाराष्ट्र में राका-बांका की बड़ी प्यारी कहानी है। एक फकीर हुआ, राका, बड़ा त्यागी। सब छोड़ दिया। संपत्ति थी बहुत, सब लात मार दी। पत्नी भी उसके साथ हो ली। पत्नियां इतनी आसानी से साथ नहीं हो जातीं, क्योंकि स्त्री का मोह पृथ्वी पर बहुत है। स्त्री पृथ्वी का रूप है--घर, जायदाद, मकान। इसलिए देखते हो न! पुरुष कमाता है धन, खरीदता है मकान, लेकिन स्त्री कहलाती है घरवाली। पुरुष को कोई घरवाला नहीं कहता। उनकी कोई गिनती ही नहीं। कमाए वह, खून-पसीना करे, मकान खरीदे, मगर खरीदते ही से स्त्री का हो जाता है--घरवाली। स्त्री की पकड़ स्थूल पर गहरी है।
तो राका थोड़ा चिंतित था कि पत्नी साथ जाएगी कि नहीं, लेकिन बड़ा हैरान हुआ। पत्नी ने तो एक बार भी इनकार नहीं किया। जब सब लुटा रहा था धन-दौलत तो पत्नी खड़ी देखती रही। जब चला तो वह भी पीछे हो ली। उसने पूछा: तू भी आती है? उसने कहा: मैं भी आती हूं। यह झंझट मिटी, अच्छा हुआ। उपद्रव ही था व्यर्थ का।
राका को तो भरोसा ही न आया। उसने तो कभी सोचा ही न था। कोई पति सोचता ही नहीं कि उसकी पत्नी कभी इतनी ज्ञानवान होगी। दोनों फिर जंगल से लकड़ी काटते, बेच देते, उसी से भोजन मिल जाता, काम चला लेते।
एक दिन बेमौसम तीन दिन तक पानी गिर गया तो लकड़ी काटने जा न पाए। तीनों दिन भूखे रहना पड़ा। चौथे दिन थके-मांदे, भूखे-प्यासे लकड़ी काटने गए। काट कर लौटते थे, राका आगे था। उसने देखा कि रास्ते के किनारे किसी राहगीर की सोने की अशर्फियों से भरी थैली गिर गई है। कोई घुड़सवार... घोड़े के टाप के निशान हैं। अभी धूल भी हवा में है। अभी-अभी गुजरा होगा। उसकी स्वर्ण-अशर्फियों की थैली गिर गई है।
राका के मन में हुआ कि मैं तो त्यागी हूं। मैंने तो जान-बूझ कर त्यागा है, सोच-समझ कर त्यागा है। मेरी पत्नी तो सिर्फ मेरे पीछे चली आई है शायद मोहवश। शायद पति को नहीं छोड़ सकी है। शायद मेरे कारण। शायद अब और कोई उपाय नहीं है। शायद अकेली नहीं रह सकी है। पता नहीं किस कारण मेरे साथ चली आई है। कहीं उसका मन लोभ में न आ जाए। स्त्री स्त्री है। कहीं मन पकड़ने का न हो जाए। और इतनी अशर्फियां! फिर तीन दिन के हम भूखे भी हैं। सोचने लगे कि इनको बचा कर रख लो। कभी पानी गिरे, अड़चन हो, लकड़ियां न काटी जा सकें, बीमारी आ जाए तो काम पड़ेंगी। तो इसे से जल्दी छिपा दूं।
तो वह पास के ही एक गड्ढे में सारी अशर्फियों को डाल कर उस पर मिट्टी पूर रहा था। जब वह मिट्टी पूर ही रहा था कि पत्नी भी आ गई। पत्नी ने पूछा: क्या करते हैं आप? सच बोलने की कसम खाई थी इसलिए झूठ भी न बोल सका। कहा कि अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। तूने पूछा तो मुझे कहना पड़ेगा। बहुत सी स्वर्ण-अशर्फियों से भरी हुई एक थैली पड़ी थी। किसी राहगीर की गिर गई है। कोई घुड़सवार अभी-अभी भूल गया है। यह सोच कर कि कहीं तेरे मन में मोह न आ जाए... मैं तो त्यागी हूं; सर्वत्यागी! मेरे लिए तो मिट्टी और सोना बराबर है। मगर तू... तेरा मुझे अभी भी भरोसा नहीं है। तू आ गई है मेरे साथ, लेकिन पता नहीं किस हेतु से आ गई है। शायद यह भी मेरे प्रति आसक्ति हो कि सुख में साथ रहे, दुख में भी साथ रहेंगे। जीवन-मरण का साथ है, इस कारण आ गई हो। डर कर कि कहीं तेरा मन डोल न जाए; फिर तीन दिन की भूख! सोच कर कि रख लो उठा कर।
तो मैं अशर्फियों के ऊपर मिट्टी डाल कर छिपा रहा हूं।
उसकी पत्नी खिलखिला कर हंसने लगी और उसने कहा: हद हो गई। तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है? मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो, शर्म नहीं आती? उस दिन से उसकी स्त्री का नाम हो गया बांका। राका तो उसका नाम था पति का; उस दिन से उसका नाम हो गया बांका। बांकी औरत रही होगी। अदभुत स्त्री रही होगी। कहा: मिट्टी पर मिट्टी डालते शर्म नहीं आती? कुछ तो शर्माओ! कुछ तो लज्जा खाओ! यह क्या बेशर्मी कर रहे हो? तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है! तो तुम किस भ्रांति में पड़े हो कि तुमने सब छोड़ दिया? छोड़ने का मतलब ही होता है, जब भेद ही दिखाई न पड़े।
अब तुम फर्क समझो। एक तो ऐसी समाधि की दशा है जहां भेद दिखाई नहीं पड़ता। सब बराबर है। और एक ऐसी दशा है जहां भेद तो साफ-साफ दिखाई पड़ता है, चेष्टा करके हम त्याग देते हैं। तो अड़चन आएगी। तो तुम्हारे भीतर द्वंद्व आएगा, पाखंड आएगा। तुम मिथ्या हो जाओगे।
ऐसे मिथ्या न हो जाओ इसलिए जगजीवन का यह सूत्र है कि मैं तुमसे जो कहूं वह करो, ताकि धीरे-धीरे, सीढ़ी-सीढ़ी तुम्हें चढ़ाऊं; ताकि इंच-इंच तुम्हें रूपांतरित करूं। एक दिन ऐसी घड़ी जरूर आ जाएगी कि जो मैं करता हूं वही तुम भी करोगे लेकिन नकल के कारण नहीं, तुम्हारे भीतर से बहाव होगा। तुम्हारा अपना फूल खिलेगा। तुम्हारी अपनी सुगंध उठेगी।
धर्म के जगत में नकल की बहुत सुविधा है, क्योंकि नकल सस्ती है। ज्यादा अड़चन नहीं मालूम होती। बुद्ध जिस ढंग से चलते हैं, तुम भी चल सकते हो। क्या अड़चन है? थोड़ा अभ्यास करना पड़ेगा।
लाओत्सु ने कहा है कि ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे प्रत्येक कदम पर खतरा है--इतना सावधान! ज्ञानी ऐसे चलता है सावधान, जैसे कोई ठंड के दिनों में, गहरी ठंड के दिनों में बर्फीली नदी से गुजरता हो। एक-एक पांव सोच-सोच कर रखता है। ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे चारों तरफ दुश्मन तीर साधे बैठे हों--कब कहां से तीर लग जाए, इतना सावधान चलता है। जैसे शिकारियों के भय से कोई हिरन जंगल में सावधान चलता है।
मगर यह सावधानी भीतर से आ रही है, होश से आ रही है, सजगता से आ रही है। तुम यह सावधानी बाहर से भी सीख सकते हो। तुम बिलकुल पैर सम्हाल-सम्हाल कर रख सकते हो। मगर क्या तुम्हारे पैर सम्हाल-सम्हाल कर रखने से तुम्हारे भीतर जागरूकता पैदा हो जाएगी? पैर सम्हाल कर रखना तुम्हारी आदत हो जाएगी, अभ्यास हो जाएगा। भीतर की नींद अछूती बनी रहेगी; जैसी थी वैसी ही बनी रहेगी।
जो भी करना है, भीतर से बाहर की तरफ करना है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं करना है।
महावीर को भीतर अभेद का बोध हुआ, अहिंसा जन्मी। उनके पीछे चलने वाले अहिंसा को साधते हैं और सोचते हैं कि अभेद का जन्म हो जाएगा। पागल हुए हो? इतना सस्ता है जीवन के सत्य को पा लेना? महावीर ने जरूर फूंक-फूंक कर कदम रखे कि कहीं कोई चींटी न मर जाए। महावीर के पीछे चलने वाले भी फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं कि कहीं कोई चींटी न मर जाए। लेकिन दोनों में बड़ा भेद है। एक से कृत्य और भेद जमीन-आसमान का है।
महावीर इसलिए पैर सम्हाल-सम्हाल कर रखते हैं कि चींटी में भी मैं ही हूं। अपने पर ही कैसे पैर रखूं? अपने को ही कैसे कष्ट दूं? जैसे कोई अपने ही हाथ से अपने गाल पर चांटा मारे, ऐसा पागलपन है महावीर के लिए। क्योंकि एक का ही वास है। एक ही आत्मा सब में व्यापक है।
लेकिन जब जैन मुनि--तथाकथित जैन मुनि पैर सम्हाल कर रखता है, चींटी न मर जाए; तुम सोचते हो उसका कारण वही है? नहीं, वह डर रहा है कहीं चींटी मर गई तो नरक जाना पड़े। वह नरक से बचने की कोशिश में लगा हुआ है। उसकी फिकर अपनी है। चींटी से क्या लेना-देना है? भाड़ में जाए चींटी। कल की मरती, आज मर जाए। मगर इतना ही भर उसे खयाल रखना है कहीं मेरा नरक, कहीं मैं झंझट में न पड़ जाऊं। मेरा नरक बच जाए, मेरा स्वर्ग निश्चित हो जाए।
यह तो अहंकार, लोभ--उसी की यात्रा चल रही है। यह तो महत्वाकांक्षा का ही खेल चल रहा है। यह तो राजनीति का ही विस्तार है। इस दुनिया से उस दुनिया तक फैल गई राजनीति। चींटी को बचाने में चींटी को बचाने से कोई प्रयोजन नहीं है। चींटी को बचाने में अभेद का कोई भाव नहीं है। अपना नरक बचाना है। कंप रहा है, डर रहा है। डर के मारे सम्हल कर कदम रख रहा है।
महावीर डर के मारे सम्हल कर कदम नहीं रख रहे हैं, प्रेम के कारण। और प्रेम और भय में कितना फर्क है थोड़ा सोचो तो! उलटे हैं एक-दूसरे से। भय तो प्रेम से बिलकुल उलटा है। कृत्य एक से मालूम पड़ते हैं, कारण बिलकुल विपरीत हैं। जिससे तुम भयभीत हो उसके कारण तुम्हारी आत्मा विस्तीर्ण नहीं होगी। सिकुड़ोगे तुम। इसलिए तथाकथित जैन मुनि सिकुड़ गए हैं; बिलकुल सिकुड़ गए हैं, विस्तार नहीं हुआ है। और धर्म तो विस्तार है। आत्मा फैलनी चाहिए। जितने डर जाओगे उतने सिकुड़ जाओगे। जितना प्रेम बढ़ेगा उतने फैलते जाओगे। एक दिन प्रेम इतना विराट हो जाता है कि सारे जगत को अपने भीतर समा लेता है; आकाश जैसा हो जाता है।
महावीर को ऐसा ही प्रेम उपलब्ध हुआ। उस प्रेम से अहिंसा जन्मी। अहिंसा से समाधि पैदा नहीं होती, समाधि से अहिंसा पैदा होती है। और यही सूत्र जीवन के सारे नियमों के संबंध में सच है।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
हम आहन सतसंगी-बासी, सूरति रही समोई।।
तुम हमारी देख-देख कर मत करो, जगजीवन कहते हैं, हमें तो सत्संग मिल गया, तुम्हें अभी कहां मिला? हमें तो गुरु मिल गया, तुम्हें अभी कहां मिला? हमारे ऊपर तो गुरु बरसा है, उसका प्रसाद आया है। हमने तो अपने को गुरु के चरणों में रख दिया। हम सत्संग के वासी हो गए। हमारे भीतर अहंकार नहीं बचा; तभी तो प्रसाद मिला।
बुल्लेशाह के हाथ रखते ही जगजीवन के सिर पर, ज्योति जगमगा उठी। कोई रुकावट ही न पाई। द्वार-दरवाजे खुले थे। दीया बिलकुल पास सरक आया बुल्लेशाह के, तो बुझा दीया भी जल गया।
हम आहन सतसंगी-बासी,...
हम तो हैं सत्संग के बासी। हमें तो मिल गया सत्य का संग-साथ। उस संग-साथ के कारण हमारे जीवन में क्रांति हुई है।
...सूरति रही समोई।
समाधि जग गई है, स्मरण पैदा हुआ है। परमात्मा का बोध जगा है, दीया जला है।
अब हमारे जीवन में जो हो रहा है ऐसा ही तुम मत करना, नहीं तो तुम झूठे हो जाओगे, तुम थोथे हो जाओगे। तुम प्रवंचक हो जाओगे।
जरा सोचो! जैसे किसी आदमी को लॉटरी मिल गई और वह नाच रहा है। और तुम भी उसकी देखा-देखी नाचने लगे। तुम क्या सोचते हो, नाचने से तुम्हें लॉटरी मिल जाएगी? और तुम वैसे ही नाचो बिलकुल जैसा वह नाच रहा है, तो भी उसके भीतर कुछ है जो तुम्हारे भीतर नहीं है। उसके भीतर एक आनंदभाव है--लॉटरी मिल गई। तुम्हें तो कुछ मिला नहीं। तुम तो शायद इसलिए नाच रहे हो कि देखो, यह आदमी नाचने से कितना आनंदित हो रहा है! हम भी नाचें, हम भी आनंदित हों।
बस वहीं चूक हो रही है। गणित वहीं भूल से भर रहा है। यह आदमी आनंदित है इसलिए नाच पैदा हो रहा है।
लॉटरी का तो मैंने उदाहरण दिया। समाधि तो परम धन है। लॉटरी की तो बात कही ताकि तुम्हारी समझ में आ जाए। समाधि तो तुम्हारे लिए कोरा शब्द है। सुरति तो तुमने सुना है। क्या है क्या नहीं, पता नहीं।
इस जगत की सारी संपदाएं व्यर्थ हैं सुरति के सामने। जिसे प्रभु का स्मरण आ गया उसको सब मिल गया। मिल गए सारे साम्राज्य। हो गया सम्राट।
...सूरति रही समोई।
कहा पुकारि बिचारि लेहु सुनि,...
इसलिए पुकार कर कहते हैं, खूब विचार कर सुन लो।
...बृथा शब्द नहिं होई।
हम जो कह रहे हैं ये शब्द ऐसे ही नहीं हैं।
जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले यहि जग कोई।
बहुत मुश्किल से कभी किसी के जीवन में ऐसी विरल घटना घटती है--समाधि का उतरना। लेकिन जब यह घटना घटती है तो आचरण तत्क्षण रूपांतरित हो जाता है। जीवन आभापूर्ण हो जाता है।
फिर ऐसे आदमी के लिए न कुछ बुरा है, न कुछ भला है। वह मिट्टी भी छुए तो सोना हो जाती है। वह जो भी करे, शुभ है। उससे अशुभ होता ही नहीं। जिसके भीतर समाधि आ गई उससे अशुभ होता ही नहीं। उसके लिए कोई मर्यादा नहीं रह जाती। इसलिए हमने परम संन्यास की दशा को परमहंस कहा है। उसके लिए कोई मर्यादा नहीं है। लेकिन परमहंस का अनुसरण मत करना। उसका आचरण देख कर अनुसरण मत करना।
ऐसा समझो, तुम चिकित्सक के पास जाते हो तो तुम यह थोड़े ही देखते हो कि चिकित्सक क्या करता है, वही मैं करूं। चिकित्सक जो तुम्हें प्रिस्क्रिप्शन देता है, चिकित्सक जो तुम्हें लिख कर दे देता है कि ये-ये दवाएं लो, इस-इस तरह से लो, यह भोजन करो--ऐसा उपचार की व्यवस्था बना देता है। तुम उसके अनुसार चलते हो। तुम यह नहीं देखते कि चिकित्सक को देखें, यह क्या करता है; कि हर रविवार को गोल्फ खेलने जाता है तो हम भी जाएं। तो तुम मरोगे, मुश्किल में पड़ोगे। कि यह घुड़सवारी करता है तो हम भी करें। कि यह रात देर तक क्लब-घर में बैठ कर ताश खेलता है तो हम भी खेलें। देखो कैसा स्वस्थ है!
तुम चिकित्सक का अनुसरण मत करना, चिकित्सक की कही बात का अनुसरण करना। क्योंकि तुम्हारी बीमारी अलग है, तुम्हारा रोग अलग है।
गुरु का आचरण देख कर अगर तुम चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि प्रत्येक शिष्य जो गुरु के पास आता है, अलग-अलग बीमारी ले कर आता है। गुरु तो एक है, शिष्य अनेक हैं। प्रत्येक अलग-अलग बीमारी लाया है। गुरु जो कहे, वही मान कर चलना।
और इसलिए कई बार तुम्हें बड़ी अड़चन होती है। मेरे पास तो रोज ऐसी घटना घटती है। कभी तो एक ही सांझ में ऐसा हो जाता है कि मुझे दो आदमियों को विपरीत सलाहें देनी पड़ती हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं क्योंकि लोग यह सोचते हैं कि एक सलाह सभी के काम आनी चाहिए। जिंदगी इतनी आसान नहीं। जिंदगी बड़ी जटिल है और बड़ी सूक्ष्म है। एक व्यक्ति को मुझे एक बात कहनी पड़ती है, दूसरे व्यक्ति को दूसरी बात कहनी पड़ती है।
अभी कुछ दिन पहले एक भारतीय मित्र ने कहा कि कामवासना से परेशान हूं; बुरी तरह परेशान हूं। उम्र भी काफी हो गई है। पचास साल उम्र हो गई है। घबड़ाने भी लगे हैं कि अब कब इससे छुटकारा होगा? और जीवन भर छुटकारे की कोशिश की है। जन्म से जैन हैं। जैन मुनियों, साधु-संतों का सत्संग करते रहे हैं। उनकी ही बातचीत सुन-सुन कर शादी भी नहीं की। सब तरह से अपनी वासना को दबा रखा है। वह दबी हुई वासना रग-रग में समा गई है, रोएं-रोएं में बैठ गई है। अब घबड़ा रहे हैं। अब जरा उम्र भी ढलने लगी है।
जब आदमी में ताकत होती है जवानी की तब वासना को दबाना भी आसान होता है। जब ताकत कम होने लगती है, तो वासना को दबाना मुश्किल हो जाता है। लोग अक्सर सोचते हैं कि जवानी अगर एक दफे निकल गई तो फिर तो सब शांति हो जाएगी। गलत खयाल में हो तुम। जिस दिन जवानी निकल जाएगी उस दिन तुम और मुश्किल में पड़ोगे, क्योंकि फिर दबाने की ताकत भी नहीं रह जाएगी। और वासना प्रज्वलित बैठी होगी।
उन मित्र को मुझे कहना पड़ा कि दबाने का दुष्परिणाम हुआ है। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, दबाओ मत। वे तो घबड़ा गए, पसीना-पसीना हो गए कि दबाऊं नहीं--अब? नहीं, अब कैसे? पचास साल की प्रतिष्ठा भी है कि बड़े त्यागी-व्रती। आप कैसी बात कर रहे हैं।
फिर मैंने कहा, मर्जी तुम्हारी। यह जारी रहेगा मरते दम तक। मरते वक्त, तुम्हें जो आखिरी खयाल रहेगा मरते वक्त, वह वासना का ही रहेगा। क्योंकि वही तुम्हारे भीतर सबसे प्रबल बात है। तुम लाख उपाय करो कि नमोकार की याद रह जाए मरते वक्त, नहीं रहेगी। स्त्रियां ही दिखाई पड़ेंगी।
अक्सर ऐसा हो जाता है... अब तक मेरे जीवन में ऐसा अनुभव नहीं आया, लाखों लोगों ने मुझसे सवाल पूछे हैं, प्रश्न पूछे हैं, सलाहें ली हैं, एक भी भारतीय ने ऐसा सवाल नहीं पूछा जैसा पश्चिम से आए हुए लोग पूछते हैं। रोग अलग-अलग हो गए हैं। भारतीयों का प्रश्न यही होता है कि वासना से कैसे छुटकारा हो? क्योंकि वासना को दमन करने की प्रक्रियाएं सिखाई गई हैं या लोगों ने सीख ली हैं। पश्चिम से जरूर कभी-कभी कुछ लोग आ जाते हैं जो बिलकुल उलटा प्रश्न पूछते हैं, जिसको भारतीय सुन कर चौंकेगा।
उसी रात जिस दिन ये सज्जन पूछ रहे थे: वासना से कैसे छुटकारा हो, पचास साल की उम्र में, बत्तीस-तैंतीस साल की युवती ने पूछा--फ्रांस से आई है--कि मेरी वासना बिलकुल समाप्त हो गई है। यह कैसे जगे? क्योंकि पश्चिम में यह खयाल है कि जिस दिन वासना खत्म हो गई, जीवन खत्म हो गया। और रखा क्या है जीवन में? फ्रायड की शिक्षा का यह मूल आधार है कि जीवन यानी कामवासना। जिस दिन कामवासना चली गई उस दिन तुम्हारा जीवन थोथा है। चली कारतूस! किसी काम की नहीं है। फिर व्यर्थ है जीना।
तो स्वभावतः उस युवती के मन में बड़ी घबड़ाहट है। उतनी ही घबड़ाहट, जितनी भारतीय के मन में है कि वासना से कैसे छुटकारा हो? युवती पूछ रही है कि इस वासना को मैं कैसे प्रज्वलित करूं? मुझे रस ही नहीं आता। मुझे पुरुषों में कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। मुझे सपना भी नहीं आता। मैं चाहती हूं कोशिश करके किसी के प्रेम में पड़ जाऊं, मगर वह सब कोशिश ही कोशिश रहती है। उसमें कोई सार नहीं है। प्रेम करने की मुझे वृत्ति ही नहीं पैदा होती। मुझे बचाओ! मैं इसीलिए फ्रांस से आई हूं कि किसी तरह यह मेरी मरती हुई जीवन-ऊर्जा फिर से प्रज्वलित हो जाए। नहीं तो मैं करूंगी क्या? अभी मेरी उम्र केवल तैंतीस वर्ष है। अभी कम से कम पचास साल मुझे और जीना है। ये पचास साल बस ऐसे ही जीने पड़ेंगे--अर्थहीन?
मैंने उससे कहा कि जो तुझे हुआ है, यह फ्रांस में ही हो सकता था और कहां हो सकता है? जहां वासना को खुले रूप से स्वीकार कर लिया गया हो, जहां वासना के प्रति किसी तरह का दुर्भाव न हो, वहां वासना समाप्त हो जाती है। ये उलटी बातें हैं। जिस चीज को भी तुम जी लेते हो वह मिट जाती है और जिसको तुम अनजिया छोड़ देते हो वह जिंदा रहती है; वह पुकार करती है, मांग करती है। भारतीय की वासना मरते दम तक नहीं छूटती।
पश्चिम में अनेक युवक-युवतियों के सामने सवाल खड़ा हुआ है। तुम यह जान कर हैरान होओगे कि पश्चिम के मनोवैज्ञानिक के पास रोज लोग आते हैं, जिनका प्रश्न यही है कि हमारी वासना मरी जा रही है। अब हमें रस नहीं है स्त्री-पुरुषों में कोई। हम क्या करें? और पश्चिम में नई-नई विधियां खोजी जाती हैं कि कैसे रस को फिर से जगाया जाए! कैसे पुनरुज्जीवित किया जाए! नई-नई दवाएं खोजी जाती हैं। ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जिस वर्ष कोई नई दवा की घोषणा नहीं होती, कि इसको लेने से वासना फिर जीवित हो जाएगी।
क्या कारण होगा? जो भी चीज समझ में आ जाएगी, देख लोगे, भोग लोगे, जान लोगे उसका रस समाप्त हो जाएगा। जो भी चीज नहीं जानोगे, नहीं भोगोगे, नहीं देखोगे उसका रस बना रहेगा, रुका रहेगा, अटका रहेगा। अनुभव मुक्ति है। और सच्चा त्याग भोग की प्रक्रियाओं का अंतिम परिणाम है।
मोक्ष संसार से गुजर कर ही उपलब्ध होता है। संसार राह है मोक्ष की। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है, मोक्ष का मार्ग है। इसी से चल कर आदमी मोक्ष तक पहुंचता है। पदार्थ की सीढ़ियों पर चढ़-चढ़ कर परमात्मा के मंदिर तक पहुंचना होता है।
अब जब दो तरह के लोग दो बातें पूछेंगे तो मुझे अलग-अलग सुझाव देने पड़ेंगे दोनों को। भिन्न-भिन्न सुझाव देने पड़ेंगे। मुझे उस फ्रेंच युवती से कहना पड़ा कि अच्छा ही हुआ कि तू झंझट के बाहर हो गई। अगर तू भारत में पैदा होती, तू अपने को सौभाग्यशाली समझती। तू धन्यभागी समझती; जन्मों-जन्मों के पुण्यों का फल समझती कि वासना समाप्त हो गई। तू नाचती, आनंदित होती कि चलो, एक उपद्रव समाप्त हुआ। अब मेरी सारी जीवन-ऊर्जा प्रभु की तलाश में लग सकेगी, प्रार्थना बन सकेगी, पूजा बन सकेगी। अब मैं सारे जीवन को ध्यान में ढाल सकूंगी। तू आनंदित होती। यह तो बहुत अच्छा हुआ।
वे भारतीय मित्र भी बैठे सुन रहे हैं। वे तो बड़े चौंके। क्योंकि उनसे मैंने कहा है कि किसी तरह... अभी भी बिगड़ा नहीं है कुछ। अभी भी थोड़े-बहुत वासना के अनुभव से गुजर जाओ। और इस युवती से मैं कह रहा हूं कि तू धन्यभागी है।
अब अगर उनको लगे दोनों को कि मैं विरोधाभासी बातें कह रहा हूं तो आश्चर्य तो नहीं। लेकिन जरा भी विरोधाभास नहीं है। दोनों का रोग अलग है। एक का रोग दमन है, उसे दमन के बाहर लाना है। एक का रोग भोग की आकांक्षा है, उसे भोग की आकांक्षा से बाहर लाना है।
यह मैंने तुम्हें उदाहरण के लिए कहा। प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग रोग हैं, भिन्न-भिन्न रोग हैं। उनके भिन्न-भिन्न उपाय हैं, इलाज हैं।
इसलिए ठीक कहते हैं जगजीवन कि जो मैं कहूं, वह सुनना। मैं क्या करता हूं उसे करने की कोई जरूरत नहीं है। उसे किया तो बड़ी फजीहत होगी।
जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले यहि जग कोई।
बहुत विरल है सहज स्मरण, सहज समाधि। लेकिन जब घट जाती है सहज समाधि किसी को तो तुम उसके आचरण का अनुसरण मत करने लगना। क्योंकि जो उसके लिए सहज है वह तुम्हारे लिए सहज नहीं होगा। उसके जीवन में तो एक रोशनी आ गई। उस रोशनी के अनुसार उसे दिखाई पड़ने लगा। उसके जीवन में तो तादात्म्य टूट गया है देह से। अब वह देह नहीं है। अब वह संसार में है और संसार में नहीं है। वह संसार में है, संसार उसके भीतर नहीं है। उसकी दशा बड़ी अनूठी है। सम्मान करना। उसके चरणों में झुकना। उसके पास उठना-बैठना। उसकी सुनना। उसकी मानना। उसकी बात मान कर जीवन में प्रयोग करना। उसके आनंद-भाव से एक ही बात सीखना कि ऐसा आनंद-भाव एक दिन तुम्हें भी हो सके।
लेकिन यह हो सकेगा तभी, जब तुम उसकी मान कर चलोगे। यह मत सोचने लगना कि हम भी इसी तरह जीने लगें जैसे यह आदमी जी रहा है; नहीं तो तुम अभिनय में पड़ जाओगे। और इस जगत में धर्म के नाम पर बहुत अभिनय हो रहा है इसलिए सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
इब्तिदा से आज तक ‘नातिक’ की है यह सरगुजश्त
पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है
‘पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है’--साधक के जीवन में बड़े पड़ाव आते हैं। पहले चुप हो जाना पड़ता है, बिलकुल चुप हो जाना पड़ता है। फिर हुआ दीवाना--फिर उस चुप्पी से एक शराब पैदा होती है, भीतर एक मस्ती पैदा होती है। बाहर से कोई नशा नहीं करना पड़ता, भीतर ही नशा सघन होने लगता है।
पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है
और फिर ऐसी घड़ी आ जाती है कि बेहोश हो जाता है। और बेहोशी भी कैसी? बेहोशी भी ऐसी कि जिसके भीतर होश का दीया जलता है। बाहर से दुनिया कहे बेहोश, और भीतर वह परम होश में होता है।
रामकृष्ण बेहोश होकर गिर पड़ते थे--घंटों! कभी-कभी तो दिनों बेहोशी में पड़े रहते थे। चिकित्सक तो कहते थे कि यह एक तरह का हिस्टीरिया है, एक तरह की मिर्गी। लेकिन रामकृष्ण हंसते थे। वे कहते थे कि बाहर से भला मेरा शरीर जड़ हो जाता हो, लेकिन भीतर तो मैं इतने होश से भरा होता हूं जितना और कभी नहीं भरा होता। जब वे होश में आते हमारे हिसाब से, बाहर के हिसाब से, जब उनकी बेहोशी टूटती, होश में आते तो वे जो पहली बात कहते वह यही कहते कि फिर बेहोशी में भेज दिया? वापस बुला लो। होश में वापस बुला लो। क्यों मुझे फिर धक्के दे कर बेहोशी में भेज रहे हो? और इधर सारे लोग समझ रहे थे कि वे होश में आ रहे हैं। और वे कहते हैं, मुझे फिर क्यों बेहोशी में भेजा? क्यों मुझे संसार में फिर डाल रहे हो। मुझे भीतर आ जाने दो। चिकित्सक तो कहेगा कि हिस्टीरिया है। लेकिन जानने वाले कहते हैं यह परमहंस की अवस्था है। लेकिन नकल मत करना।
एक झेन फकीर ने अपने शिष्य को ध्यान करने के लिए कहा था। झेन फकीर ध्यान के लिए कुछ पहेली देते हैं कि इस पहेली पर विचार करो, इसका उत्तर ले कर आओ। और जो भी उत्तर ले कर आता है शिष्य, वह कह देता है कि ‘नहीं, और खोजो; नहीं, और खोजो। दिन आए, महीने आए, वर्ष आए-गए--थक गया शिष्य। जो भी उत्तर ले जाए--नहीं!
उसने जरा दूसरे पुराने शिष्यों से पूछा कि भाई, यह मामला क्या है? उन्होंने कहा, यह होता है। फिर इससे छुटकारा क्या है? एक शिष्य ने कहा कि मेरा तो इस तरह छुटकारा हुआ था सात साल के बाद, कि एक दिन जब उन्होंने मुझसे पूछा तो मैं बस एकदम बेहोश हो गया। गिर पड़ा। उन्होंने गले लगा लिया और मुझे कहा कि बस ठीक है, उत्तर मिल गया।
तो उसने कहा: भलेमानस! मुझे बताया क्यों नहीं? पहले ही बता दिया होता! आज जाता, अभी जाता। गया और गुरु के चरण छुए और गुरु ने जैसे ही पूछा, उत्तर? वह जल्दी चारों खाने चित्त होकर बेहोश हो गया। गुरु ने कहा: बिलकुल ठीक, लेकिन उत्तर का क्या हुआ? तो उसने एक आंख खोल कर कहा कि उत्तर? यह उत्तर नहीं है?
गुरु ने कहा: देखो, बेहोशी में कोई बोलता नहीं; और न ही बेहोशी में कोई एक आंख खोलता है। उठो और भागो यहां से। उत्तर के खोजने में लगो। इस तरह दूसरों के द्वारा बताए गए उत्तरों से काम न चलेगा। यह कोई बेहोशी थोड़े ही है। और किसने तुझे यह कहा है, मुझे याद आ गया। मगर उसकी बेहोशी सच्ची थी। वह बेहोश हुआ नहीं था, बस मेरे देखते ही, आंख में आंख डालते ही घटना घट गई थी। वह डुबकी मार गया था। तूने तो मुझे खूब चौंकाया। मैंने पूछा: उत्तर क्या है? तू जल्दी से चित्त! और बड़ी व्यवस्था से लेटा कि चोट वगैरह भी न लग जाए। क्योंकि जब आदमी व्यवस्था से लेटता है तो देख लिया आगे-पीछे और जल्दी से लेट गया कि कोई सिर में चोट न लग जाए, कोई... और बिलकुल पड़ा रह गया शांत।
तुम्हारा धार्मिक आचरण करीब-करीब इस आदमी जैसा आचरण है। कुछ बातें हैं जो केवल अनुभव से जानी जाती हैं, किसी के कहने से नहीं जानी जातीं।
ये शबाब के फसाने जो मैं दिल से सुन रहा हूं
अगर और कोई कहता तो न ऐतबार होता
किसी छोटे बच्चे को कहो कि जवानी में जो रस, जो स्वप्न, जो प्रेम, प्रीति जगती है उसकी बात किसी बच्चे से कहो, उसे भरोसा नहीं आएगा। वह कहेगा, क्या बातें कर रहे हो?
ये शबाब के फसाने जो मैं दिल से सुन रहा हूं
अगर और कोई कहता तो न ऐतबार होता
कभी भरोसा नहीं हो सकता था किसी और के कहने से। जब तक तुम अपने दिल से न सुनो। फिर चाहे वे जवानी के फसाने हों और चाहे परमात्मा की याद हो, भीतर से सुनी जाए तभी सार्थक होती है।
कलि की रीति सुनहु रे भाई।
लेकिन कलियुग की अपनी रीति है। लोग सचाई तो भूल ही गए हैं, सत्य तो भूल ही गए हैं। सतयुग तो उनके जीवन से जैसे तिरोहित हो गया है।
कलि की रीति सुनहु रे भाई।
माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई।।
यह सारा जगत परमात्मा का है, यह सब-कुछ उसका है। और कलियुग की रीत देखो। हर आदमी कह रहा है, मेरा-मेरा। न जमीन तुम्हारी है; जमीन तुम ले न आए थे, और न ले जाओगे। न पति तुम्हारा है, न पत्नी तुम्हारी, न बेटे तुम्हारे।
शायद दुनिया में एक अकेली भाषा है एस्किमो की, जिसमें एक सच्चाई प्रकट होती है। अगर तुम किसी एस्किमो के साथ उसके बेटे को जाते देखो और तुम उससे पूछो कि यह लड़का कौन है, तो सिर्फ अकेली एस्किमो की भाषा ऐसी है कि उसमें यह नहीं कहा जाता कि यह मेरा बेटा है, मैं इसका बाप हूं। उसमें कहा जाता है, यह लड़का हमारे घर रहता है, हमारे साथ रहता है। यह लड़का कहां से आया? तो कहा जाता है, परमात्मा के यहां से आया, परमात्मा ने भेजा है। हम इसके रखवाले हैं।
दीन-दरिद्र एस्किमो जरूर बड़ी गहरी बात कह रहे हैं। हम इसके रखवाले हैं। परमात्मा ने भेजा है। यह लड़का हमारे साथ रहता है, हमारे घर में रहता है। हम इसकी देखभाल करते हैं। मगर यह नहीं कहते वे कि यह हमारा बेटा है। हमारा क्या!
न जमीन हमारी है, न धन हमारा है, न पद हमारा है। कुछ भी हमारा नहीं है। हम एक दिन खाली हाथ आए हैं, और एक दिन खाली हाथ चले जाएंगे। न हम कुछ लाते हैं, न हम कुछ ले जाते हैं, मगर बीच में हम कितना शोरगुल मचाते हैं। उसी शोरगुल का नाम संसार है।
माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई।।
भूले फूले फिरत आय, पर केहुके हाथ न आई।
जो है जहां तहां ही है सो, अंतकाल चाले पछिताई।।
फिर पीछे पछताओगे। जो जहां है वहीं पड़ा रह जाएगा। जो जैसा है वैसा ही पड़ा रह जाएगा। अंतिम समय बहुत पछताओगे। इस के पहले जागो, समझो: मेरा कुछ भी नहीं है, सब उसका है। मैं भी उसका हूं। यह बोध उठने लगे तो तुम्हारे जीवन में धर्म की पहली किरण उतरी।
जहुं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।
और तुम तो ऐसे हो कि जहां राम की चर्चा चल रही हो, जहां नाम का रस बह रहा हो वहां भी जाकर और दूसरी बातें चलाना चाहते हो। लोग मंदिरों में जाकर न मालूम क्या-क्या बातें करते हैं!
एक बार एक सभा में मुझे जाने का मौका मिला, फिर उसके बाद मैं किसी सभा में नहीं गया। कृष्णाष्टमी थी और पंजाबी और सिंधियों की सभा थी। सब सज-धज कर आए थे। सिंधियों का तो कोई मुकाबला ही नहीं है इसमें। चाहे स्नान करें चाहे न करें, मगर कपड़े तो रेशमी...! स्त्रियां तो बहुत सज-धज कर आई थीं। ऐसे दिनों की प्रतीक्षा ही करती हैं स्त्रियां, नहीं तो दिखाओ कब--कपड़े-लत्ते, गहने? बड़ा रंगीन समां था।
मैं तो बड़ा चकित हुआ। मुझसे पहले जो बोल रहे थे सज्जन, वे एक पीठ के शंकराचार्य हैं। मैं तो बड़ा हैरान हुआ। ऐसा चमत्कार मैंने देखा ही नहीं था। सब लोग गपशप में लगे हैं, वे बोल रहे हैं। सब लोग गपशप में लगे हैं। यहां तक कि औरतें पीठ किए बैठी हैं बोलने वाले की तरफ! क्योंकि बातचीत चल रही है दूसरों से, ऐसे झुंड-झुंड बनाए हुए हैं। और जमाने भर की चर्चा चल रही है। उसी दिन मुझे यह राज समझ में आया कि धार्मिक सभाओं में बीच-बीच में क्यों बोलना पड़ता है: बोल सियापति रामचंद्र की जय! उस दिन मुझे रहस्य समझ में आया कि क्यों बीच-बीच में... कोई कारण समझ में नहीं आता। इसको अचानक... उतनी देर के लिए कम से कम लोग चुप हो जाते हैं। एकाध-दो मिनट चुप रहते हैं, उतनी देर में जो कुछ बोलने वाले को बोलना हो, बोल दे। वे फिर अपनी चर्चा शुरू कर देते हैं।
मैंने तो हाथ जोड़ लिए। मैंने उनसे कहा कि मैं चला, इस सभा ही से नहीं चला, सब सभाओं से गया। अब कहीं बोलने नहीं जाऊंगा। कोई प्रयोजन किसी को नहीं है।
इसलिए मैं नये लोगों को सामने बैठने भी नहीं देना चाहता। उन्हें हैरानी भी होती है, दुख भी होता है मगर मजबूरी है। मैं सामने अपने उन लोगों को देखना चाहता हूं जो सच में पी रहे हैं। जो यहां यूं ही नहीं चले आए हैं किसी कुतूहलवश या किसी अखबार के प्रतिनिधि की तरह नहीं चले आए हैं--उनका कोई प्रयोजन नहीं है यहां। क्या हो रहा है, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। उन्हें कुछ व्यर्थ की बातें इकट्ठी कर लेनी हैं।
तब से मैंने बोलने जाना बंद कर दिया, क्योंकि क्या प्रयोजन है? किससे बोलना है? सुन कोई रहा ही नहीं है। अब उनसे ही बोलता हूं जो सुनने को राजी हैं। और सुनने को ही नहीं, उसके अनुसार जीवन को रूपांतरित करने को राजी हैं।
लेकिन लोग ऐसे हैं, जगजीवनदास कहते हैं, जैसी सभा में मैं गया, ऐसी किसी सभा में गए होंगे, तभी ऐसी अनुभव की बात लिखी है--
जहुं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।
लेखा-जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक महिं जाई।।
और वहां भी बैठ कर लेखा-जोखा करते हैं। बैठे हैं धार्मिक सभा में और स्त्रियां एक-दूसरे से पूछने लगती हैं: साड़ी के दाम कितने हैं? यह मैंने सुना है अपने कानों से, इसलिए कहता हूं। कहां से खरीदी? पोत तक देख लेती हैं एक-दूसरे की साड़ी का बैठे-बैठे। जगजीवनदास बड़े अनुभवी आदमी हैं। देखा होगा, देवियां एक-दूसरे की साड़ी का पोत देख रही हैं। कहां से खरीदी? कितने में मिली? एक-दूसरे के गहने देख लेती हैं। नजर ही व्यर्थ पर अटकी है।
लेखा-जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक महिं जाई।
यह ‘अघोर’ शब्द समझने जैसा है। जगजीवनदास पढ़े-लिखे आदमी नहीं हैं। कहना चाहते हैं, घोर; कह गए हैं, अघोर। कारण है उसके पीछे। घोर नरक में पड़ेंगे--कहना चाहते हैं वे यह।
लेकिन शब्दों के भी इतिहास होते हैं। अघोर का मतलब होता है, सरल, सहज। तुम भी चौंकोगे। तुम तो किसी गंदे आदमी को कहते हो--अघोरी। भूल कर मत कहना--अघोरी! तुम गलत शब्द का उपयोग कर रहे हो। लेकिन उसके पीछे कहानी जुड़ गई है। अघोर का अर्थ होता है: सीधा-सादा, सरल; जिसके जीवन में जटिलता है ही नहीं। छोटे बच्चे जैसा--अघोर का अर्थ होता है।
अघोर बड़ा कीमती शब्द है। जब पहले-पहल चला था अघोरपंथ, तो उसका मतलब यह था कि सरल जीवन, सहज जीवन। साधो सहज समाधि भली! मगर फिर लोग नकलची पैदा हुए। फिर लोगों ने कहा, साधो सहज समाधि भली? तो उन्होंने कहा, ठीक है, तो जो हमें करना है वह भी करेंगे और दावा भी करेंगे कि यह तो सहज जीवन जी रहे हैं। तो शराब भी पीएंगे, जुआ भी खेलेंगे और जब कोई कहेगा कुछ, तो कहेंगे: साधो सहज समाधि भली! सभी कुछ करेंगे, क्योंकि सहज जीवन में सभी आ गया, कुछ बचा नहीं। वेश्यालय भी जाएंगे और कहेंगे: साधो सहज समाधि भली!
तो वह जो अघोर जैसा प्यारा शब्द था, वह धीरे-धीरे विकृत हुआ। क्योंकि लोग जो अपने को अघोरी मानते थे, वे धीरे-धीरे सब विकृत तरह के काम करने लगे। नशा भी करेंगे, गांजा भी पीएंगे, शराब भी पीएंगे, गंदगी में पड़े रहेंगे। क्योंकि वे तो अघोरपंथी हैं। फिर धीरे-धीरे शब्द का अर्थ बदला। फिर अर्थ उलटा ही हो गया। फिर अब जो आदमी गंदा रहता है, व्यर्थ का जीवन जीता है, उलझा जीवन जीता है--न नहाता, न धोता, जिससे बास उठती है, जिसके खाने-पीने का कोई हिसाब नहीं; कुछ भी खा-पी ले, मांस-मछली सब चले, पंच मकार जिसके जीवन की चर्या हो जाए, उसको लोग कहने लगे: अघोरी।
अघोरी शब्द विकृत हो गया। प्यारा शब्द था, बुरी तरह गिरा। शिखर पर था, गिरा और नीचे गड्ढे में गंदा हो गया। कीचड़ में पड़ गया। उसी अर्थ में जगजीवनदास ने प्रयोग कर दिया है लेकिन उनका प्रयोजन है: घोर।
ऐसा कुछ एक शब्द के साथ नहीं, बहुत शब्दों के साथ होता है। जैसे तुम्हारे समझाने के लिए मैं कहूं: बाबू। बाबू जगजीवनराम! अब उनको पता नहीं कि बाबू का मतलब क्या होता है। कि बाबू राजेंद्रप्रसाद! मालूम नहीं कि बाबू का मतलब होता क्या है।
जब पहली दफा अंग्रेज भारत आए तो उनका पहला संपर्क बंगालियों से हुआ, इसलिए बंगाली बाबू। जितना बाबू बंगाली होता है उतना कोई दूसरा नहीं होता बाबू; समझे? वह पहली दफा अंग्रेजों ने बाबू बंगाली को कहा। और कहा क्यों बाबू? क्योंकि उससे बदबू आती है। बू का मतलब होता है: बदबू। और बा का मतलब होता है: सहित--जिससे बास आती हो। मछली खाओगे तो बास तो आएगी ही। बंगालियों के मुंह से मछली की बास आती थी। अंग्रेज उनको कहने लगे, बाबू। बंगाली बाबू हो गए।
लेकिन फिर धीरे-धीरे क्या हुआ कि जो-जो अंग्रेजों के करीब थे... बाबू ही लोग उनके करीब थे। उनके क्लर्क, उनके नौकर-चाकर--वे ही उनके करीब थे। जो मालिक के जितना करीब था वह उतना ही महत्वपूर्ण हो गया। अंग्रेजों के बाद महत्वपूर्ण नंबर दो पर बाबू हो गए। बाबू जगजीवनराम! अब कोई सोचता ही नहीं कि बाबू गाली है। किसी से भूल कर बाबूजी मत कहना! लेकिन लोग उसको सम्मान से उपयोग कर रहे हैं।
अघोर सम्मानजनक शब्द था, गाली हो गया। बाबू गाली है, सम्मानजनक हो गया। शब्दों की भी बड़ी कथाएं हैं। उनके भी दिन चढ़ाव के, उतार के होते हैं; दुर्दिन, सुदिन सब आते हैं।
बूड़हिं आपु और कहं बोरहिं, करि झूठी बहुतक बताई।
कह रहे हैं ये जो अघोरी हैं--ये बाबू लोग!--ये खुद तो डूबेंगे ही, ये दूसरों को भी डुबाएंगे। क्योंकि ये बकवास करने में भी कुशल हो जाते हैं सुन-सुन कर। ये ज्ञानियों की बातें सुन कर करते नहीं हैं, कि उन बातों को जीवन में करें। ज्ञानियों की बातें सुन कर ये ग्रामोफोन रिकॉर्ड हो जाते हैं। ये उनको दोहराने लगते हैं। ये खुद तो डूबेंगे ही, डूबे ही हैं, ये दूसरों को भी ले डूबेंगे। ‘आप डुबंते पांडे लै डूबे जजमान!’
जगजीवन मन न्यारे रहिए, सत्तनाम तें रहु लय लाई।
जगजीवन कहते हैं कि मेरे शिष्यो, अगर तुम्हें पहुंचना हो परमात्मा तक तो इस तरह की बातों से सावधान रहना। मन से अपने को न्यारा करना है। अगर मैंने तुमसे जो कहा, इन्हीं बातों को तुमने कहना सीख लिया तो तुम्हारा मन से और जोड़ हो गया। मन को तो शून्य करना है। शून्य होगा तो ही तुम न्यारे हो पाओगे। इस बात को ठीक से समझो।
शरीर, मन, आत्मा, इन तीन में शरीर तो सत्य है, आत्मा सत्य है, मन तो केवल सेतु है, दोनों को जोड़ने वाला है। जितना मन भरा हुआ होगा विचारों से उतना ही ज्यादा जोड़ होगा आत्मा और शरीर में। जितना मन विचारों से खाली होगा, उतना ही जोड़ टूट गया। अगर मन बिलकुल निर्विचार हो जाए तो जोड़ समाप्त हो गया। रस्सी गिर गई। फिर शरीर अलग है, आत्मा अलग है। और वही न्यारे होने का अर्थ है।
और जिसने जान लिया कि शरीर अलग, आत्मा अलग--फिर बात ही और है। ‘हम तो देह धरे जग नाचब।’ फिर तुम नाचो जग में। फिर तुम अछूते ही हो। फिर तुम्हें जगत की कोई चीज छू नहीं सकती। लेकिन उसके पहले यह क्रांति घट जानी चाहिए, मन की मृत्यु घट जानी चाहिए। मन की मृत्यु घटे इसलिए कहते हैं--
पंडित, काह करै पंडिताई।
कह रहे हैं, सुन-सुन कर पंडित मत हो जाओ। शास्त्र पढ़ कर भी लोग पंडित हो जाते हैं, शास्ता के पास बैठ कर भी लोग पंडित हो जाते हैं।
पंडित, काह करै पंडिताई।
त्यागदे बहुत पढ़ब पोथी का, नाम जपहु चित लाई।।
हो चुका बहुत पोथी के साथ सिर-फोड़ी! अब बंद करो। इस पोथी ने कहीं किसी को भेजा नहीं है, न यह पहुंचा सकती है। फिर पोथी क्या है--वेद या कुरान या बाइबल, फर्क नहीं पड़ता। शब्दों से बहुत हो चुका संबंध! अब निःशब्द से संबंध जोड़ो। विचार में बहुत जी लिए और बहुत भटक भी लिए। विचार ही तो आवागमन है। यही तो बार-बार संसार में ले आया है। विचार के ही मार्ग से तो तुम बार-बार गर्भ में उतरे हो। और विचार के ही तो सब रूप हैं--सारी वासनाएं, सारी कल्पनाएं, सारी इच्छाएं, एष्णाएं, तृष्णाएं, सब विचार की ही तरंगें हैं।
त्यागदे बहुत पढ़ब पोथी का, नाम जपहु चित लाई।
अब तो एक बात को ही चित्त में रख कि प्रभु का स्मरण जगे। अब पोथी को छोड़। अब भीतर की पोथी को पढ़। परमात्मा ने प्रत्येक के भीतर वेद रख छोड़ा है। तुम बाहर के वेद में उलझे रहोगे, तुम्हारा वेद अनबोला रहेगा। तुम बाहर के वेद को छोड़ दोगे, तुम्हारा वेद गुंजरित हो उठेगा, गुंजायमान हो जाएगा। तुम्हारे भीतर से उठेगा नाद। और ऐसा नाद कि सब संगीत उसके सामने फीके हैं।
यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई।
अब तक तुम जो करते रहे हो, यह तो बाहरी जगत का आचरण है। जगजीवन कहते हैं: मैं तुम्हें बहुत जोर से कह देना चाहता हूं, चिल्ला कर कह देना चाहता हूं, गोहरा कर कह देना चाहता हूं--
यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई।
तुम्हारा आचरण भी बाहरी, तुम्हारे विचार भी बाहरी। तुमने आचरण नकल से सीख लिया, विचार भी तुमने दूसरों से उधार ले लिए, स्मृति में भर लिए। न तो विचार तुम्हारे अपने हैं, न आचरण तुम्हारा अपना है। तुम दरिद्र इसीलिए तो हो कि तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है। निजता की कोई संपदा नहीं है। तुम कब अपनी समाधि खोजोगे? कब तुम अपने मौलिक स्वरूप को पहचानोगे? परमात्मा की याद लाओ अब।
शबे-फुर्कत में याद उस बेखबर की बार-बार आई
भुलाना हमने भी चाहा मगर बेइख्तियार आई
ऐसी याद आनी चाहिए कि भुलाना भी चाहो तो भुला न सको। लेकिन पंडित तो सिर्फ तोतों की तरह दोहराता है।
बेदिलों की हस्ती क्या, जीते हैं न मरते हैं
ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है
पंडित तो केवल थोथे शब्दों में जीता है। न तो उसके शब्दों में होश, न उसके शब्दों में बेहोशी। न उसके शब्दों में मस्ती, नाच, रंग। न उसके शब्दों में अर्थ, जीवन, मौलिकता। उसके शब्द तो सड़ी हुई लाशें हैं। सदियों-सदियों की सड़ी हुई लाशें। पंडित तो मुर्दा घर में रहता है। और मुर्दों के साथ ज्यादा रहोगे तो मुर्दा हो जाओगे। संग-साथ महंगा पड़ता है। जिंदों की दोस्ती खोजो। सदगुरुओं का सत्संग--जहां अभी जीवित झरना बह रहा हो। और वहां भी चूक सकते हो, खयाल रखना, अगर शब्द ही पकड़ कर गए।
थी, मगर, इतनी रायगां भी न थी
आज कुछ जिंदगी से खो बैठे
तेरे दर तक पहुंच कर लौट आए
इश्क की आबरू डुबो बैठे
लोग तो ऐसे हैं कि जिंदा गुरु के पास जाकर भी खाली के खाली लौट आते हैं।
तेरे दर तक पहुंच कर लौट आए
इश्क की आबरू डुबो बैठे
ऐसा तुम मत करना; प्रेम की आबरू मत डुबो देना। जब कहीं कोई जीवंत धारा मिल जाए तो प्रेम में डूबना, डुबकी लगा देना। दरवाजे से लौट मत आना। बहुत लौट जाते हैं। क्योंकि कम ही लोगों की हिम्मत है प्रेम के जगत में उतरने की। और उतनी सी ही बात है। वही प्रेम का छोटा सा धागा अगर हो, जरा सी भी प्रेम की बूंद हो तो सागर हो जाती है बढ़ते-बढ़ते। जरा सा बीज हो तो बड़ा वृक्ष हो जाता है बढ़ते-बढ़ते।
जज्बा-ए-इश्क सलामत है तो इंशा-अल्ला
कच्चे धागे में चले आएंगे सरकार बंधे
वह जो प्रेम का छोटा सा कच्चा धागा है ‘जज्बा-ए-इश्क’--वह जो प्रेम की भावना है, बस उतनी सी छोटी सी भावना परमात्मा को भी खींच ले आती है। मगर पंडित उससे ही बच जाता है।
यहां भी पंडित आ जाते हैं और इश्क की आबरू डुबा जाते हैं। कभी-कभी कोई पंडित आता है कि इश्क की आबरू नहीं डुबाता।
कल किसी ने मुझे पत्र लिखा है कि ‘मैं स्वयं भी पंडित हूं, पंडिताई ही करता हूं। आप पंडित के खिलाफ इतना बोलते हैं। पहले तो मुझे चोट लगती थी, अब मुझे समझ में भी आ रही है बात कि यह तो मेरे जीवन की भी बात है। क्योंकि मैं जिंदगी भर से तोतों की तरह शब्दों को दोहरा रहा हूं। मुझे भी कुछ नहीं हुआ। आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं।’
ऐसा व्यक्ति प्रेम की लाज बचा सकता है।
फकीहे-शहर से मैं का जवाज क्या पूछो
कि चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं
नवाए-मुर्ग को कहते हैं अब जियाने-चमन
खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं
पंडितों से तुम पूछोगे तो बड़ी झंझट में पड़ोगे।
फकीहे-शहर से मैं का जवाज क्या पूछो
पंडित से मत पूछना कि शराब, बेहोशी, मस्ती में डूबना उचित है या अनुचित?
कि चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं
शराब की तो बात ही छोड़ो, पियक्कड़ों की तो बात ही छोड़ो, यह तो चांद से गिरती चांदनी का जो रस है, जो सुधा बरसती है--‘कि चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं।’ ये तो केवल शब्दों को मानते हैं। जहां जीवंत कुछ है--नाच पैदा हो सके कि मस्ती पैदा हो सके कि कोई घूंघर पैरों में बांध सके कि कोई बांसुरी बजा सके, वहां तो ये घबड़ा जाते हैं।
चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं
नवाए-मुर्ग को कहते हैं अब जियाने-चमन
पक्षियों का कलरव है, उसको कहते हैं कि इससे बगीचे को नुकसान पहुंचता है।
खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं
फूल न खिले इसे इंतजाम कहते हैं। अगर महाराष्ट्र की भाषा में समझो तो बंदोबस्त। ‘खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं।’ पुलिस का बंदोबस्त! एक फूल न खिल पाए कहीं।
फूलों से डरते हैं क्योंकि खुद भी खिले नहीं हैं। जो खुद नहीं खिला है वह फूलों को भी मुर्झा डालेगा, काट डालेगा, गिरा देगा, क्योंकि हर फूल से उसे ईर्ष्या होगी। और जिसके भीतर का चांद नहीं उगा है वह बाहर के चांद के सौंदर्य को भी न देख पाएगा। और जिसके भीतर, भीतर नाच पैदा नहीं हुआ है, रंग नहीं जन्मा है उसे बाहर के सब रंग, सब सौंदर्य, सब उत्सव निंदा योग्य मालूम पड़ेंगे।
एक तो ऐसे पंडित हैं। ये तो इश्क की आबरू डुबा देते हैं। लेकिन कभी कोई पंडित ऐसा भी होता है जो इश्क की आबरू बचा लेता है। कल जिसने मुझे पत्र लिखा है, ऐसा ही पंडित होगा। ऐसे पंडित को देख कर कहना होता है--
दिल में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं
जैसे बिछुड़े हुए काबे में सनम आते हैं
रक्से-मै तेज करो साज की लै तेज करो
सूए-मैखाना सफीराने-हरम आते हैं
--कि नाच की गति बढ़ाओ, कि साज की गति बढ़ाओ कि आज काबे के नमाजी शराबघर में आ रहे हैं।
रक्से-मै तेज करो साज की लै तेज करो
सूए-मैखाना सफीराने-हरम आते हैं
स्वागत है! पांडित्य को जो छोड़ सके उसका मंदिर में स्वागत है। उसका ही स्वागत है। और मंदिरों में पंडितों ने कब्जा कर लिया है, जो कि मंदिर के दुश्मन हैं; जानी दुश्मन हैं।
सुनि जो करै तरै पै छिन महं, जेहिं प्रतीति मन आई।
जगजीवन कहते हैं कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं, छोटी सी ही बात है, कुछ बहुत बड़ी बात नहीं है। कुछ बहुत जाल नहीं फैला रहा हूं। जरा सी बात कह रहा हूं, और वह है: ‘जेहिं प्रतीति मन आई।’ मन में प्रेम ले आओ--बस इतना ही कर लो।
पढ़ब पढ़ाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गंवाई।
पढ़ने-पढ़ाने से यह प्रेम की पीड़ा पैदा नहीं होगी। इससे प्राण नहीं बिंधेंगे। ये पढ़ने-पढ़ाने के तीर तुम्हारे हृदय को नहीं छेद पाएंगे।
पढ़ब पढ़ाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गंवाई।
एहि तैं भक्ति होत है नाहीं, परगट कहौं सुनाई।।
और तुमसे सीधी-सीधी बात कह देता हूं, इस तरह भक्ति न कभी प्रकट हुई है न हो सकती है।
सत्त कहत हौं बुरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई।
जगजीवन सत-मत तब पावैं, परमज्ञान अधिकाई।।
जब तुम्हारे भीतर परमात्मा का नाद अपने आप उठने लगेगा, तुम्हें जपना न पड़ेगा, अजपा होगा तभी जानना कि कुछ हुआ। जब तक तुम तोते की तरह रटते रहो भीतर, तब तक समझना अभी कुछ भी नहीं हुआ।
सत्त कहत हौं बुरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई।
जगजीवन सत-मत तब पावैं, परमज्ञान अधिकाई।।
फिर तो रोज-रोज अधिक से अधिक ज्ञान बढ़ता चला जाता है। एक ज्ञान है जो किताबों से मिलता है, उसको जानकारी समझो। और एक ज्ञान है जो भीतर उतरने से उपजता है; उसे ही ज्ञान समझो। पंडिताई से बचो ताकि प्रज्ञावान हो सको।
तुमहीं सो चित लागु है, जीवन कछु नाहीं।
मात पिता सुत बंधवा, कोउ संग न जाहीं।।
सब छूट जाएंगे। कोई साथ जाने को नहीं है।
मंजिले-इश्क पे तनहा पहुंचे कोई मंजिल साथ न थी
थक-थक कर इस राह में आखिर इक-इक साथी छूट गया
सिद्ध साध मुनि गंध्रवा मिलि माटी माहीं।
ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं।।
नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं।
जगजीवन कहते हैं: ‘सिद्ध साध मुनि गंध्रवा’... सिद्ध, बड़े-बड़े सिद्ध, बड़े चमत्कारी लोग--कि हाथ से भभूत निकाल दें, कि स्विटजरलैंड की बनी घड़ियां निकाल दें; बड़े-बड़े सिद्ध लोग, बड़े-बड़े साधु--उपवास, व्रत, त्याग--बड़े मुनि कि बिलकुल न बोलें, हालांकि हाथ से इशारे करें; मुंह से बिलकुल न बोलें, लिख-लिख कर बतावें ऐसे बड़े-बड़े मुनि; गंधर्व: स्वर्ग के संगीतज्ञ, ये सब भी मिट्टी में मिल जाते हैं।
ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं।
ब्रह्मा-विष्णु-महेश की भी कोई गिनती नहीं है। वे भी मिट्टी में मिल जाते हैं।
नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं।
--तो आदमी की तो कहां हम गिनती करें, कहां लेखा करें! सब मिट्टी में मिल जाएगा।
जगजीवन बिनती करै, रहै तुम्हरी छांहीं।
और मजा यह है कि जिसको तुम तलाश रहे हो, तुम्हारी छाया की तरह तुम्हारे पीछे चल रहा है। जगजीवन कहते हैं: मैं विनती करता हूं, जरा लौट कर तो देखो! जिसको तुम खोज रहे हो वह तुम्हारी छाया है। जिसे तुम खोज रहे हो वह तुम्हारे भीतर बैठा है।
लेकिन तुम बाहर खोज रहे हो और भटक रहे हो। भटकते रहो बाहर जन्मों-जन्मों तक। बार-बार मिट्टी में गिरोगे, बार-बार मिट्टी से उठोगे और गिरोगे। मिट्टी उठती रहेगी, गिरती रहेगी। ये मिट्टी की लहरें हैं जिनको तुम अपना जीवन कह रहे हो। जीवन तो सिर्फ एक है: मिट्टी के पार तुम्हारे भीतर जो है उसे पहचान लो। मृण्मय में चिन्मय की पहचान जीवन का प्रारंभ है।
आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।
और एक बार जो तुम्हें छाया की तरह तुम्हारे पीछे चल रहा है, सदा तुम्हारे साथ है, सदा तुम्हारे भीतर मौजूद है उससे पहचान हो जाए तो--‘आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।’ वैसा व्यक्ति तत्क्षण आनंद के सागर में बस जाता है। फिर उसको तन की कोई पीड़ा नहीं रह जाती। देह से उसका संबंध ही छूट जाता है। देह रहे तो और देह जाए तो; लेकिन भीतर फासला हो जाता है।
सूफी फकीर फरीद के पास लोग आते थे। कोई कुछ चढ़ा जाता, कोई कुछ चढ़ा जाता। एक दिन एक आदमी आया, उसने दो नारियल चढ़ाए और फरीद से पूछा: एक प्रश्न है मेरे मन में। मैंने सुना है कि मंसूर को जब फांसी दी गई... तुम तो फकीर हो, तुम तो सूफी हो, तुम्हीं उत्तर दे सकोगे, तुम तो मंसूर जैसे हो। जब मंसूर को फांसी दी गई तो वह हंसता रहा। उसकी गर्दन काटी गई, उसकी हंसी फूटती ही रही। यह कैसे हो सकता है? जरा सा कांटा चुभ जाता है तो आदमी रोता है। हाथ जल जाता है तो आदमी रोता है। उसके अंग-अंग काटे गए, यह कैसे हो सकता है?
फरीद ने एक नारियल उठाया और जमीन पर पटका। वह कच्चा नारियल था। नारियल तो टूट गया, लेकिन भीतर की गरी भी टूट गई। फिर उसने दूसरा नारियल पटका। वह पक्का नारियल था, पका नारियल था। नारियल तो टूट गया मगर गरी भीतर की साबित रह गई। उसने कहा: देखो! यह रहे तुम, यह रहा मंसूर। तुम कच्चे नारियल हो। गरी अभी जुड़ी हुई है खोल से। खोल टूटेगी, गरी भी टूट जाएगी। तुम्हारी आत्मा शरीर से जुड़ी है। शरीर टूटेगा, आत्मा भी टूटने लगेगी इसलिए रोओगे, चिल्लाओगे, परेशान होओगे। यह रहा मंसूर--यह सूखा नारियल। इसकी गरी खोल से अलग हो गई है। खोल टूट जाएगी, गरी का क्या बनता-बिगड़ता है! गरी जैसी है वैसी।
आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।
जब आपु में आपु समाय गए, तब आपु में आपु लह्यो अपनो।।
और जब तुम अपने भीतर जाओगे तभी तुम पाओगे, जिसकी तलाश करते थे, वह तुम्हीं हो। जिसकी खोज थी, खोजने वाले में छिपा है। मजिंल दूर नहीं है, यात्री के प्राणों में मौजूद है; तुम्हारी श्वास-श्वास में बसी है। तुम्हारे हृदय की धड़कन में ही मोक्ष का निवास है।
जब आपु में आपु समाय गए, तब आपु में आपु लह्यो अपनो।
जब आपु में आपु लह्यो अपनो, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो।
‘जब आपु में आपु लह्यो अपुनो, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो।’--तब तो फिर जाप करना नहीं पड़ता, होने लगता है; होता ही रहता है--सतत, अहर्निश! स्मरण करना नहीं पड़ता। दूरी ही न रही। परमात्मा में और उसके प्रेमी में दूरी न रही। भक्त और भगवान एक हो गया। अब क्या स्मरण करना, किसका स्मरण करना? अब कौन स्मरण करे?
जब ज्ञान को भान प्रकास भयो, तब जगजीवन होय रह्यो सपनो।
और जब भीतर यह रोशनी होती है, जब अपने से मिलन होता है और प्रकाश जन्मता है तब सारा जगत सपना हो जाता है। जगत माया है, यह कोई सिद्धांत नहीं, यह तो प्रकाश जिनका जग गया उनका अनुभव है। यह कोई दार्शनिक प्रत्यय नहीं है कि जगत माया है, यह अस्तित्वगत अनुभव है।
ये सूत्र बड़े प्यारे हैं। इन सूत्रों को सुन कर सिर्फ समझ कर मत रह जाना। इन सूत्रों को समझ कर दूसरों को मत समझाने लगना, अन्यथा तुम पंडित हो जाओगे; चूक जाओगे।
तेरे दर तक पहुंच कर लौट आए
इश्क की आबरू डुबो बैठे
ये सूत्र तुम्हारे श्वास-श्वास में रम जाएं। ये तुम्हारा जीवन बन जाएं तो तुम भी वहां पहुंच सकते हो, जहां बुद्ध पहुंचे, मीरा पहुंची, रामकृष्ण पहुंचे, रमण पहुंचे। जहां कोई भी कभी पहुंचा है, तुम भी पहुंच सकते हो।
वह परम धन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, आओ! वह परम प्यारा तुम्हें पुकार रहा है, आओ!
आज इतना ही।
जो कोई देखि हमारा करिहै, अंत फजीहति होई।।
जस हम चले चलै नहिं कोई, करी सो करै न सोई।
मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई।।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
हम आहन सतसंगी-बासी, सूरति रही समोई।।
कहा पुकारि बिचारि लेहु सुनि, बृथा सब्द नहिं होई।
जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले यहि जग कोई।।
कलि की रीति सुनहु रे भाई।
माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई।।
भूले फूले फिरत आय, पर केहुके हाथ न आई।
जो है जहां तहां ही है सो, अंतकाल चाले पछिताई।।
जहं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।
लेखा-जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक महिं जाई।।
बूड़हिं आपु और कहं बोरहिं, करि झूठी बहुतक बताई।
जगजीवन मन न्यारे रहिए, सत्तनाम तें रहु लय आई।।
पंडित, काह करै पंडिताई।
त्यागदे बहुत पढ़ब पोथी का, नाम जपहू चित लाई।।
यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई।
सुनि जो करै तरै पै छिन महं, जेहिं प्रतीति मन आई।।
पढ़ब पढ़ाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गंवाई।
एहि तैं भक्ति होत है नाहीं, परगट कहौं सुनाई।
सत्त कहत हौं बुरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई।
जगजीवन सत-मत तब पावैं, परमज्ञान अधिकाई।।
तुमहीं सो चित्त लागु है, जीवन कछु नाहीं।
मात पिता सुत बंधवा, कोउ संग न जाहीं।।
सिद्ध साध मुनि गंध्रवा मिलि माटी माहीं।
ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं।।
नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं।
जगजीवन बिनती करै, रहै तुम्हरी छांहीं।।
आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।
जब आपु में आपु समाय गए, तब आपु में आपु लह्यो अपनो।।
जब आपु में आपु लह्यो अपुनो, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो।
जब ज्ञान को भान प्रकास भयो, तब जगजीवन होय रह्यो सपनो।।
संतों के वचन तो हीरों की खदान हैं। लेकिन हीरों की खदान में भी कभी-कभी--और कभी-कभी ही--कोहनूर भी मिल जाते हैं। ऐसे तो सभी वचन प्यारे हैं, लेकिन कभी कोई वचन अपूर्व होता है।
आज का पहला सूत्र ऐसा ही अपूर्व है; कोहनूर जैसा है। समझोगे तो बहुत रस पाओगे। जी सके तो जीवन रूपांतरित हो जाएगा। एक महत कुंजी जगजीवनदास इस सूत्र में दे रहे हैं।
हमारा देखि करै नहिं कोई।
मनुष्य नकलची है। चार्ल्स डार्विन ठीक ही कहता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। और चाहे कारण ठीक हों या न हों, मगर एक मनोवैज्ञानिक कारण तो ठीक मालूम पड़ता ही है कि आदमी बंदरों जैसा ही नकलची है। शायद बंदर भी सीख लेते हों कुछ, आदमी नहीं सीखता। आदमी बस नकल ही करता है।
मैंने सुना है, एक आदमी टोपियां बेचता था बाजार में। एक दिन टोपियां बेच कर वापस लौटता था, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे विश्राम करने को रुका। ठंडी-ठंडी हवा, दिन भर का थका! झपकी लग गई। जब आंख खुली तो देखा, टोकरी का ढक्कन खुला पड़ा है और टोकरी के भीतर जितनी टोपियां थीं, सब नदारद हैं। हैरान हुआ, कहां गईं? चारों तरफ नजर डाली। ऊपर देखा, वृक्ष पर बहुत से बंदर बैठे थे। सब टोपियां लगाए बैठे थे, सब टोपियां ले गए थे। सब बिलकुल गांधीवादी हो गए थे। बड़ी जंच रही थीं टोपियां उन्हें; जैसे दिल्ली में लोगों को जंचती हैं!
घबड़ाया दुकानदार। अब क्या करे! एक ही टोपी बची थी सिर पर। उसे याद आया, बंदर नकलची होते हैं। उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। सारे बदंरों ने अपनी टोपियां निकाल कर फेंक दीं। उसने टोपियां इकट्ठी कर लीं, घर लौट गया।
फिर बहुत वर्षों बाद उसका बेटा वही काम करने लगा। बाप ने उसे बताया था कि खयाल रखना, कभी उस वृक्ष के नीचे--बरगद के वृक्ष के नीचे विश्राम करने मत रुकना। बंदरों का अड्डा है वहां। एक बार मेरी सारी टोपियां ले गए थे। फिर अगर कभी भूल-चूक से ऐसा तेरे जीवन में हो जाए तो सूत्र खयाल रखना, अपनी टोपी निकाल कर फेंक देना।
बेटा भी आया। और बरगद का झाड़ बड़ा प्यारा था। उसके नीचे बड़ी गहन छाया थी, शीतलता थी। थका-मांदा था। फिर सूत्र भी उसे मालूम था तो फिकर की कोई जरूरत भी न थी। टोकरी रख कर वह भी विश्राम करने लेट गया, नींद आ गई। और वही हुआ जो होना था। उठा तो टोकरी खाली थी। ऊपर देखा, सब बैठे थे--सब नेतागण टोपी लगाए हुए। हंसा। उसने कहा, मन में ही कहा कि पागलो, तुम्हें मालूम नहीं है कि मुझे सूत्र भी पता है। अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। एक बंदर नीचे उतरा और वह टोपी भी उठा कर ले गया।
बंदरों की भी यह दूसरी पीढ़ी थी। उनके बापदादे भी समझा गए थे कि अगर ऐसी भूल मत करना। एक बार हम कर चुके सोकर चुके।
बंदर भी सीख लेते हैं, पर आदमी शायद ही सीखता हो। आदमी नकल से जीता है।
महावीर को लोगों ने देखा कि नग्न हैं, लोग नग्न हो गए बिना समझे, बिना बूझे कि महावीर की नग्नता कोई आचरण नहीं है, अंतस्तल में पैदा हुई निर्दोषता का परिणाम है। तुम परिणाम का आरोपण कर सकते हो, अंतस्तल कहां से लाओगे?
नग्न खड़े होने से तुम निर्दोष हो जाओगे? हां, निर्दोष होने से कोई नग्न खड़ा हो जाए, वह बात दूसरी। क्रांति भीतर से बाहर की तरफ होती है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं होती।
ढाई हजार साल बीत गए महावीर को, अब भी कुछ लोग उसी नकल में नग्न हो जाते हैं। न तो उनमें महावीर की सुगंध मालूम होती है, न सौंदर्य मालूम होता है, न महावीर की महिमा, न प्रसाद; कुछ भी नहीं। बस नंगे खड़े हैं। तो नंगे तो बहुत आदिवासी हैं। नग्न होने से अगर कोई तीर्थंकर होता हो, नग्न होने से अगर कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता हो तो सारे आदिवासी कभी के हो गए होते। यह नग्नता सिर्फ नकल है।
महावीर ने उपवास किए--किए कहना ठीक नहीं, हुए। ऐसे रसविभोर हो जाते थे अंतर्लोक में कि भूल ही जाते भोजन की बात। दिन आते, चले जाते, सुबह होती, सांझ होती, उनकी डुबकी, लगी रहती समाधि में। लोगों ने देखा, महावीर उपवास करते हैं। उपवास हो रहे थे, लोगों ने देखा, उपवास करते हैं। लोग तो यही देखेंगे जो बाहर से दिखाई पड़ेगा।
और बाहर से केवल लक्षण दिखाई पड़ते हैं। बाहर से भीतर का अंतस्तल दिखाई नहीं पड़ सकता। महावीर का अंतस्तल कौन देखेगा? जो महावीर जैसा हो जाए। बुद्ध का अंतस्तल कौन देखेगा? जो बुद्ध जैसा हो जाए। बाहर से लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
देखा कि महावीर भोजन नहीं करते; कई दिन बीत जाते हैं। लोगों ने भी उपवास शुरू कर दिया। ढाई हजार साल बीत गए, लोग उपवास कर रहे हैं। और कोई भी यह नहीं सोचता कि उपवास से फिर तुम एक बार भी तो महावीर पैदा नहीं कर सके। ढाई हजार साल की कहानी तुम्हारी हार की, पराजय की कहानी है। फिर भी नकल जारी है। लोग सोचते हैं, शायद उपवास ठीक से नहीं कर पा रहे हैं इसलिए। जितना करना चाहिए उतना नहीं कर पा रहे हैं इसलिए चूक रहे हैं।
नहीं, इसलिए चूक रहे हो कि उपवास तो किसी और चीज की मौजूदगी का परिणाम है। दीया जले तो अंधकार दूर हो जाता है, लेकिन अंधकार दूर करने से दीया नहीं जलता; और न अंधकार दूर हो सकता है।
इसलिए यह आज का पहला सूत्र कोहिनूर जैसा है। इतनी साफ-साफ सीधी-सीधी बात इस तरह कभी नहीं कही गई थी।
हमारा देखि करै नहिं कोई।
जगजीवन कहते हैं, जैसा हम करते हैं वैसा तुम मत करना। हमारा देख कर करोगे, मुश्किल में पड़ोगे।
जो कोई देखि हमारा करि है, अंत फजीहति होई।
सिर्फ फजीहत होगी, और कुछ भी न पाओगे।
जस हम चले चलै नहिं कोई, करी सो करै न सोई।
जैसे हम चलते हैं वैसे मत चलना। जैसा हम करते हैं वैसा मत करना। क्योंकि जो हमें हो रहा है... जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है, वह केवल बाह्य लक्षण है। जड़ें भीतर हैं, फूल बाहर आए हैं। तुम फूलों को बिना जड़ों के न ला सकोगे। और अगर ले आए तो बाजार से खरीदे गए कागजी फूल होंगे। ऊपर से चिपका लेना, मगर कागजी फूल कागजी फूल हैं। इनसे न कोई महावीर बनता है, न बुद्ध, न मोहम्मद, न कृष्ण, न क्राइस्ट। इससे सिर्फ झूठे, थोथे, पाखंडी पैदा होते हैं।
पहले भीतर की जड़ें पैदा करो, पहले बीज बोओ। लेकिन लोग जल्दी में हैं। लोग कहते हैं, बीज बोएं, फिर प्रतीक्षा करें, फिर वर्षा के बादल जब आएंगे तब आएंगे, फिर वर्षा होगी--इतनी लंबी कौन प्रतीक्षा करे? फूल बाजार में मिलते हैं, हम ऊपर से क्यों न चिपका लें?
आचरण से बचना। अंतःकरण में क्रांति होती है। अंतःकरण में जड़ें हैं। आचरण तो केवल अंतःकरण में जो होता है, उसको बाहर तक लाता है। लेकिन लोग आचरण के पीछे ही चलते हैं। और जो स्वयं आचरण के पीछे चलते हैं वे दूसरों को भी समझाते हैं कि हम जैसा करते हैं वैसा करो। हमारे आचरण का अनुसरण करो।
तुम्हें जगजीवन के वचन बड़े हैरानी में डालेंगे। तुम्हारे तथाकथित साधु-संत यही कहते हैं: हमारे जैसा करो। हम जैसा करते हैं वैसा तुम करो। इतना न बन सके तो थोड़ा सही; ज्यादा न बन सके तो थोड़ा सही। दो मील न चल सको तो आधा मील सही, दस कदम सही। हमारे जितने व्रत न कर सको तो एकाध तो व्रत ले लो। हमारे जैसे लंबे उपवास न कर सको तो छोटे उपवास सही, मगर कुछ तो करो। हमारे जैसा करो। वे खुद भी नकल कर रहे हैं, वे तुम्हें भी नकल ही सिखा रहे हैं। नकलची नकल ही सिखा सकते हैं। बंदरों से और ज्यादा की आशा भी नहीं है।
जगजीवन का सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। ठीक इस ढंग से किसी ने कहा ही नहीं है। इतना सीधा-सीधा, साफ-साफ। गंवार आदमी थे, पढ़े-लिखे नहीं थे। बातों को उलझा कर कहने की आदत भी न थी। जैसा था वैसा कह दिया है। एक बात साफ दिखाई पड़ गई होगी कि लोग नकल करने लगे होंगे।
लोग नकल करने में बड़े कुशल हैं। और कभी-कभी तो इतनी कुशलता से नकल करते हैं कि मूल को भी मात दे दें; मूल भी हार जाए।
जो कोई देखि हमारा करिहै, अंत फजीहति होई।।
जस हम चले चलै नहिं कोई, करी सो करै न सोई।
मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई।।
जगजीवन कहते हैं: हम जो कहते हैं वह मानो। हम जो करते हैं, उसकी फिकर न करो अभी। क्योंकि हम जहां हैं, वहां जो हो रहा है, वहां तुम अभी नहीं हो। तुमने अभी वैसा किया तो तुम बुरी तरह गिरोगे; बड़ी फजीहत होगी।
मनुष्य के भीतर चेतना के कई तल हैं। जो व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो गया है उसे जीवन के छोटे-मोटे नियम, मर्यादाएं मानने की कोई जरूरत नहीं है। जो वृक्ष बादलों को छूने लगा है, अब उसे बचाने के लिए बागुड़ थोड़े ही लगानी पड़ती है! मगर जो पौधा अभी-अभी पैदा हुआ है, नये-नये पत्ते आए हैं, अगर इसको ऐसा ही छोड़ दिया बिना बागुड़ के, जानवर चर जाएंगे। यह बच नहीं सकेगा।
जब आदमी जवान हो जाता है तो अपने पैरों से चलता है। जब छोटा बच्चा होता है तब तो नहीं चल सकता। तब किसी के हाथ के सहारे की जरूरत होती है। तब तो घुटने के बल रेंगता है। हां, कोई हाथ का सहारा दे दे, एक-दो कदम चल लेता है। एक दिन चल पाएगा; अपने ही पैरों से चल पाएगा लेकिन अभी देर है। अभी थोड़ी तैयारी होनी जरूरी है। अभी देह को इस योग्य बनना है।
जैसी देह की योग्यता निर्मित होती है ऐसी ही आत्मा की योग्यता भी क्रमशः निर्मित होती है। जो पहुंच गए हैं समाधि में उन्हें न नियम की कोई जरूरत है, न मर्यादा की कोई जरूरत है। लेकिन जो नहीं पहुंचे हैं, अगर सब नियम और मर्यादा छोड़ देंगे तो कभी भी पहुंच नहीं पाएंगे। टूट ही जाएंगे। रास्ते में ही बिखर जाएंगे।
मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई।।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
जगजीवन कहते हैं कि हमारी तो तुम मत पूछो। क्योंकि हम तो अब ऐसी हालत में हैं कि जहां हम जानते हैं कि हम देह नहीं हैं।
हम तो देह धरे जग नाचब,...
अब तो हम जानते हैं कि हम और हैं, देह और है। अब तो हम नाच रहे हैं देह में। अब देह से हमारा कोई बंधन नहीं रह गया है। अब देह से हमारी कोई आसक्ति नहीं रह गई है। अब देह और हमारे बीच फासला पैदा हो गया है, तादात्म्य टूट गया है।
तो हम जो करें, वही तुम मत करने लगना। जब तक तुम्हारा देह से तादात्म्य है तब तक तुम वही मत करने लगना, अन्यथा तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। पहले तादात्म्य टूटने दो। और तादात्म्य टूटने की प्रक्रियाएं हैं। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि तादात्म्य टूटने के बाद जो व्यक्ति करता है अगर वही तादात्म्य रहते हुए करे तो तादात्म्य और मजबूत हो जाता है।
जनक के पास एक संन्यासी गया। पूछने गया था। उसके गुरु ने भेजा था कि जाकर ब्रह्मज्ञान ले आ। मन में बहुत सकुचाया भी, सोचा भी कि सम्राट के पास क्या ब्रह्मज्ञान होगा? लेकिन गुरु कहते हैं तो गया। देखा तो और भी चौंका। वहां तो महफिल जमी थी। शराब के दौर चल रहे थे, नर्तकियां नाच रहीं थीं। सम्राट मस्त बीच में बैठा था। संन्यासी के तो हाथ-पैर कंप गए। वह तो तत्क्षण भागना चाहता था लेकिन जनक ने कहा: जब आ ही गए तो रुको। कम से कम रात तो विश्राम करो। फिर तुम जो पूछने आए हो, वह बिना पूछे जाओ मत। सुबह उठ कर पूछ लेना।
दूर जंगल से थका-मांदा आया था तो सो गया रात। सुंदर बिस्तर--सुंदरतम; जीवन में देखा भी नहीं था ऐसा। दिन भर का थका-मांदा भी था, खूब गहरी नींद आनी थी मगर नींद आई ही नहीं। सुबह सम्राट ने पूछा कि कोई अड़चन तो नहीं हुई? नींद तो ठीक आई? उसने कहा: नींद कैसे आए? नींद आती कैसे? आपने भी खूब मजाक की। इतना सुंदर भवन, इतना सुंदर बिस्तर, इतना सुंदर भोजन! मैं थका-मांदा भी बहुत। गहरी नींद आनी ही थी। रोज आती है मगर आज नहीं आ सकी। यह आपने क्या मजाक किया? जब मैं सोया बिस्तर पर और मैंने ऊपर आंख की तो देखा एक नंगी तलवार कच्चे धागे से लटकी है। रात भर यही सोचता रहा कि पता नहीं यह तलवार कब गिर जाए, कब प्राण ले ले। डर के मारे नींद न लगी। सो नहीं पाया। पलक नहीं झपी।
सम्राट ने कहा: मेरी तरफ देखो। यह मेरा उत्तर है। मौत की तलवार मेरे ऊपर भी लटकी है। और मौत का मुझे प्रतिक्षण स्मरण है, इसलिए नर्तकियां नाचें, शराब का दौर चले, स्वर्ण-महल हों, वैभव-विलास हो, सब ठीक--लेकिन तलवार ऊपर लटकी है। वह तलवार मुझे भूलती नहीं। तुम जैसे सो नहीं पाए ऐसे ही मैं भी मूर्च्छित नहीं हो पाता हूं। मेरा होश जगा रहता है। ध्यान सधा रहता है।
तो देख कर मत लौट जाओ। बाहर से तुम देख कर लौट जाओगे, भूल हो जाएगी। मैं बैठा था वहां, फिर भी वहां था नहीं। दौर चलता था तो चलता था। मेरी मौजूदगी सिर्फ ऊपर-ऊपर थी। भीतर से मैं वहां मौजूद न था। भीतर से मैं कोसों दूर था। जैसे रात भर तुम बिस्तर पर थे और बिस्तर पर नहीं थे, सोने का सब आयोजन था और सो न पाए, ऐसे ही भोग का सब आयोजन है और भोग नहीं है। मैं अलिप्त हूं। मैं दूर-दूर हूं। मैं जल में कमलवत हूं। पानी से घिरा हूं लेकिन पानी की बूंद भी मुझे छूती नहीं है।
लेकिन क्या तुम सोचते हो यही स्थिति बाकी दरबारियों की भी थी? तो तुम गलती में पड़ जाओगे। हालांकि दरबारी भी वही कर रहे थे जो सम्राट कर रहा था। ऊपर-ऊपर दोनों एक जैसे थे, भीतर-भीतर बड़ा भेद था।
जगजीवन से मैं राजी हूं। इसे खूब गहरे बैठ जाने दो इस विचार को।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
हम तो नाच रहे हैं देह धरे। देह तो हमें वस्त्रों-जैसी हो गई है। हम बसे हैं देह में। हम मालिक हैं देह के। हम देह नहीं हैं।
और अब हमें इस संसार में कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता, सब अभेद हो गया है। मिट्टी और सोना एक जैसा है।
महाराष्ट्र में राका-बांका की बड़ी प्यारी कहानी है। एक फकीर हुआ, राका, बड़ा त्यागी। सब छोड़ दिया। संपत्ति थी बहुत, सब लात मार दी। पत्नी भी उसके साथ हो ली। पत्नियां इतनी आसानी से साथ नहीं हो जातीं, क्योंकि स्त्री का मोह पृथ्वी पर बहुत है। स्त्री पृथ्वी का रूप है--घर, जायदाद, मकान। इसलिए देखते हो न! पुरुष कमाता है धन, खरीदता है मकान, लेकिन स्त्री कहलाती है घरवाली। पुरुष को कोई घरवाला नहीं कहता। उनकी कोई गिनती ही नहीं। कमाए वह, खून-पसीना करे, मकान खरीदे, मगर खरीदते ही से स्त्री का हो जाता है--घरवाली। स्त्री की पकड़ स्थूल पर गहरी है।
तो राका थोड़ा चिंतित था कि पत्नी साथ जाएगी कि नहीं, लेकिन बड़ा हैरान हुआ। पत्नी ने तो एक बार भी इनकार नहीं किया। जब सब लुटा रहा था धन-दौलत तो पत्नी खड़ी देखती रही। जब चला तो वह भी पीछे हो ली। उसने पूछा: तू भी आती है? उसने कहा: मैं भी आती हूं। यह झंझट मिटी, अच्छा हुआ। उपद्रव ही था व्यर्थ का।
राका को तो भरोसा ही न आया। उसने तो कभी सोचा ही न था। कोई पति सोचता ही नहीं कि उसकी पत्नी कभी इतनी ज्ञानवान होगी। दोनों फिर जंगल से लकड़ी काटते, बेच देते, उसी से भोजन मिल जाता, काम चला लेते।
एक दिन बेमौसम तीन दिन तक पानी गिर गया तो लकड़ी काटने जा न पाए। तीनों दिन भूखे रहना पड़ा। चौथे दिन थके-मांदे, भूखे-प्यासे लकड़ी काटने गए। काट कर लौटते थे, राका आगे था। उसने देखा कि रास्ते के किनारे किसी राहगीर की सोने की अशर्फियों से भरी थैली गिर गई है। कोई घुड़सवार... घोड़े के टाप के निशान हैं। अभी धूल भी हवा में है। अभी-अभी गुजरा होगा। उसकी स्वर्ण-अशर्फियों की थैली गिर गई है।
राका के मन में हुआ कि मैं तो त्यागी हूं। मैंने तो जान-बूझ कर त्यागा है, सोच-समझ कर त्यागा है। मेरी पत्नी तो सिर्फ मेरे पीछे चली आई है शायद मोहवश। शायद पति को नहीं छोड़ सकी है। शायद मेरे कारण। शायद अब और कोई उपाय नहीं है। शायद अकेली नहीं रह सकी है। पता नहीं किस कारण मेरे साथ चली आई है। कहीं उसका मन लोभ में न आ जाए। स्त्री स्त्री है। कहीं मन पकड़ने का न हो जाए। और इतनी अशर्फियां! फिर तीन दिन के हम भूखे भी हैं। सोचने लगे कि इनको बचा कर रख लो। कभी पानी गिरे, अड़चन हो, लकड़ियां न काटी जा सकें, बीमारी आ जाए तो काम पड़ेंगी। तो इसे से जल्दी छिपा दूं।
तो वह पास के ही एक गड्ढे में सारी अशर्फियों को डाल कर उस पर मिट्टी पूर रहा था। जब वह मिट्टी पूर ही रहा था कि पत्नी भी आ गई। पत्नी ने पूछा: क्या करते हैं आप? सच बोलने की कसम खाई थी इसलिए झूठ भी न बोल सका। कहा कि अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। तूने पूछा तो मुझे कहना पड़ेगा। बहुत सी स्वर्ण-अशर्फियों से भरी हुई एक थैली पड़ी थी। किसी राहगीर की गिर गई है। कोई घुड़सवार अभी-अभी भूल गया है। यह सोच कर कि कहीं तेरे मन में मोह न आ जाए... मैं तो त्यागी हूं; सर्वत्यागी! मेरे लिए तो मिट्टी और सोना बराबर है। मगर तू... तेरा मुझे अभी भी भरोसा नहीं है। तू आ गई है मेरे साथ, लेकिन पता नहीं किस हेतु से आ गई है। शायद यह भी मेरे प्रति आसक्ति हो कि सुख में साथ रहे, दुख में भी साथ रहेंगे। जीवन-मरण का साथ है, इस कारण आ गई हो। डर कर कि कहीं तेरा मन डोल न जाए; फिर तीन दिन की भूख! सोच कर कि रख लो उठा कर।
तो मैं अशर्फियों के ऊपर मिट्टी डाल कर छिपा रहा हूं।
उसकी पत्नी खिलखिला कर हंसने लगी और उसने कहा: हद हो गई। तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है? मिट्टी पर मिट्टी डाल रहे हो, शर्म नहीं आती? उस दिन से उसकी स्त्री का नाम हो गया बांका। राका तो उसका नाम था पति का; उस दिन से उसका नाम हो गया बांका। बांकी औरत रही होगी। अदभुत स्त्री रही होगी। कहा: मिट्टी पर मिट्टी डालते शर्म नहीं आती? कुछ तो शर्माओ! कुछ तो लज्जा खाओ! यह क्या बेशर्मी कर रहे हो? तो तुम्हें अभी सोने और मिट्टी में फर्क दिखाई पड़ता है! तो तुम किस भ्रांति में पड़े हो कि तुमने सब छोड़ दिया? छोड़ने का मतलब ही होता है, जब भेद ही दिखाई न पड़े।
अब तुम फर्क समझो। एक तो ऐसी समाधि की दशा है जहां भेद दिखाई नहीं पड़ता। सब बराबर है। और एक ऐसी दशा है जहां भेद तो साफ-साफ दिखाई पड़ता है, चेष्टा करके हम त्याग देते हैं। तो अड़चन आएगी। तो तुम्हारे भीतर द्वंद्व आएगा, पाखंड आएगा। तुम मिथ्या हो जाओगे।
ऐसे मिथ्या न हो जाओ इसलिए जगजीवन का यह सूत्र है कि मैं तुमसे जो कहूं वह करो, ताकि धीरे-धीरे, सीढ़ी-सीढ़ी तुम्हें चढ़ाऊं; ताकि इंच-इंच तुम्हें रूपांतरित करूं। एक दिन ऐसी घड़ी जरूर आ जाएगी कि जो मैं करता हूं वही तुम भी करोगे लेकिन नकल के कारण नहीं, तुम्हारे भीतर से बहाव होगा। तुम्हारा अपना फूल खिलेगा। तुम्हारी अपनी सुगंध उठेगी।
धर्म के जगत में नकल की बहुत सुविधा है, क्योंकि नकल सस्ती है। ज्यादा अड़चन नहीं मालूम होती। बुद्ध जिस ढंग से चलते हैं, तुम भी चल सकते हो। क्या अड़चन है? थोड़ा अभ्यास करना पड़ेगा।
लाओत्सु ने कहा है कि ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे प्रत्येक कदम पर खतरा है--इतना सावधान! ज्ञानी ऐसे चलता है सावधान, जैसे कोई ठंड के दिनों में, गहरी ठंड के दिनों में बर्फीली नदी से गुजरता हो। एक-एक पांव सोच-सोच कर रखता है। ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे चारों तरफ दुश्मन तीर साधे बैठे हों--कब कहां से तीर लग जाए, इतना सावधान चलता है। जैसे शिकारियों के भय से कोई हिरन जंगल में सावधान चलता है।
मगर यह सावधानी भीतर से आ रही है, होश से आ रही है, सजगता से आ रही है। तुम यह सावधानी बाहर से भी सीख सकते हो। तुम बिलकुल पैर सम्हाल-सम्हाल कर रख सकते हो। मगर क्या तुम्हारे पैर सम्हाल-सम्हाल कर रखने से तुम्हारे भीतर जागरूकता पैदा हो जाएगी? पैर सम्हाल कर रखना तुम्हारी आदत हो जाएगी, अभ्यास हो जाएगा। भीतर की नींद अछूती बनी रहेगी; जैसी थी वैसी ही बनी रहेगी।
जो भी करना है, भीतर से बाहर की तरफ करना है, बाहर से भीतर की तरफ नहीं करना है।
महावीर को भीतर अभेद का बोध हुआ, अहिंसा जन्मी। उनके पीछे चलने वाले अहिंसा को साधते हैं और सोचते हैं कि अभेद का जन्म हो जाएगा। पागल हुए हो? इतना सस्ता है जीवन के सत्य को पा लेना? महावीर ने जरूर फूंक-फूंक कर कदम रखे कि कहीं कोई चींटी न मर जाए। महावीर के पीछे चलने वाले भी फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं कि कहीं कोई चींटी न मर जाए। लेकिन दोनों में बड़ा भेद है। एक से कृत्य और भेद जमीन-आसमान का है।
महावीर इसलिए पैर सम्हाल-सम्हाल कर रखते हैं कि चींटी में भी मैं ही हूं। अपने पर ही कैसे पैर रखूं? अपने को ही कैसे कष्ट दूं? जैसे कोई अपने ही हाथ से अपने गाल पर चांटा मारे, ऐसा पागलपन है महावीर के लिए। क्योंकि एक का ही वास है। एक ही आत्मा सब में व्यापक है।
लेकिन जब जैन मुनि--तथाकथित जैन मुनि पैर सम्हाल कर रखता है, चींटी न मर जाए; तुम सोचते हो उसका कारण वही है? नहीं, वह डर रहा है कहीं चींटी मर गई तो नरक जाना पड़े। वह नरक से बचने की कोशिश में लगा हुआ है। उसकी फिकर अपनी है। चींटी से क्या लेना-देना है? भाड़ में जाए चींटी। कल की मरती, आज मर जाए। मगर इतना ही भर उसे खयाल रखना है कहीं मेरा नरक, कहीं मैं झंझट में न पड़ जाऊं। मेरा नरक बच जाए, मेरा स्वर्ग निश्चित हो जाए।
यह तो अहंकार, लोभ--उसी की यात्रा चल रही है। यह तो महत्वाकांक्षा का ही खेल चल रहा है। यह तो राजनीति का ही विस्तार है। इस दुनिया से उस दुनिया तक फैल गई राजनीति। चींटी को बचाने में चींटी को बचाने से कोई प्रयोजन नहीं है। चींटी को बचाने में अभेद का कोई भाव नहीं है। अपना नरक बचाना है। कंप रहा है, डर रहा है। डर के मारे सम्हल कर कदम रख रहा है।
महावीर डर के मारे सम्हल कर कदम नहीं रख रहे हैं, प्रेम के कारण। और प्रेम और भय में कितना फर्क है थोड़ा सोचो तो! उलटे हैं एक-दूसरे से। भय तो प्रेम से बिलकुल उलटा है। कृत्य एक से मालूम पड़ते हैं, कारण बिलकुल विपरीत हैं। जिससे तुम भयभीत हो उसके कारण तुम्हारी आत्मा विस्तीर्ण नहीं होगी। सिकुड़ोगे तुम। इसलिए तथाकथित जैन मुनि सिकुड़ गए हैं; बिलकुल सिकुड़ गए हैं, विस्तार नहीं हुआ है। और धर्म तो विस्तार है। आत्मा फैलनी चाहिए। जितने डर जाओगे उतने सिकुड़ जाओगे। जितना प्रेम बढ़ेगा उतने फैलते जाओगे। एक दिन प्रेम इतना विराट हो जाता है कि सारे जगत को अपने भीतर समा लेता है; आकाश जैसा हो जाता है।
महावीर को ऐसा ही प्रेम उपलब्ध हुआ। उस प्रेम से अहिंसा जन्मी। अहिंसा से समाधि पैदा नहीं होती, समाधि से अहिंसा पैदा होती है। और यही सूत्र जीवन के सारे नियमों के संबंध में सच है।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
हम आहन सतसंगी-बासी, सूरति रही समोई।।
तुम हमारी देख-देख कर मत करो, जगजीवन कहते हैं, हमें तो सत्संग मिल गया, तुम्हें अभी कहां मिला? हमें तो गुरु मिल गया, तुम्हें अभी कहां मिला? हमारे ऊपर तो गुरु बरसा है, उसका प्रसाद आया है। हमने तो अपने को गुरु के चरणों में रख दिया। हम सत्संग के वासी हो गए। हमारे भीतर अहंकार नहीं बचा; तभी तो प्रसाद मिला।
बुल्लेशाह के हाथ रखते ही जगजीवन के सिर पर, ज्योति जगमगा उठी। कोई रुकावट ही न पाई। द्वार-दरवाजे खुले थे। दीया बिलकुल पास सरक आया बुल्लेशाह के, तो बुझा दीया भी जल गया।
हम आहन सतसंगी-बासी,...
हम तो हैं सत्संग के बासी। हमें तो मिल गया सत्य का संग-साथ। उस संग-साथ के कारण हमारे जीवन में क्रांति हुई है।
...सूरति रही समोई।
समाधि जग गई है, स्मरण पैदा हुआ है। परमात्मा का बोध जगा है, दीया जला है।
अब हमारे जीवन में जो हो रहा है ऐसा ही तुम मत करना, नहीं तो तुम झूठे हो जाओगे, तुम थोथे हो जाओगे। तुम प्रवंचक हो जाओगे।
जरा सोचो! जैसे किसी आदमी को लॉटरी मिल गई और वह नाच रहा है। और तुम भी उसकी देखा-देखी नाचने लगे। तुम क्या सोचते हो, नाचने से तुम्हें लॉटरी मिल जाएगी? और तुम वैसे ही नाचो बिलकुल जैसा वह नाच रहा है, तो भी उसके भीतर कुछ है जो तुम्हारे भीतर नहीं है। उसके भीतर एक आनंदभाव है--लॉटरी मिल गई। तुम्हें तो कुछ मिला नहीं। तुम तो शायद इसलिए नाच रहे हो कि देखो, यह आदमी नाचने से कितना आनंदित हो रहा है! हम भी नाचें, हम भी आनंदित हों।
बस वहीं चूक हो रही है। गणित वहीं भूल से भर रहा है। यह आदमी आनंदित है इसलिए नाच पैदा हो रहा है।
लॉटरी का तो मैंने उदाहरण दिया। समाधि तो परम धन है। लॉटरी की तो बात कही ताकि तुम्हारी समझ में आ जाए। समाधि तो तुम्हारे लिए कोरा शब्द है। सुरति तो तुमने सुना है। क्या है क्या नहीं, पता नहीं।
इस जगत की सारी संपदाएं व्यर्थ हैं सुरति के सामने। जिसे प्रभु का स्मरण आ गया उसको सब मिल गया। मिल गए सारे साम्राज्य। हो गया सम्राट।
...सूरति रही समोई।
कहा पुकारि बिचारि लेहु सुनि,...
इसलिए पुकार कर कहते हैं, खूब विचार कर सुन लो।
...बृथा शब्द नहिं होई।
हम जो कह रहे हैं ये शब्द ऐसे ही नहीं हैं।
जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले यहि जग कोई।
बहुत मुश्किल से कभी किसी के जीवन में ऐसी विरल घटना घटती है--समाधि का उतरना। लेकिन जब यह घटना घटती है तो आचरण तत्क्षण रूपांतरित हो जाता है। जीवन आभापूर्ण हो जाता है।
फिर ऐसे आदमी के लिए न कुछ बुरा है, न कुछ भला है। वह मिट्टी भी छुए तो सोना हो जाती है। वह जो भी करे, शुभ है। उससे अशुभ होता ही नहीं। जिसके भीतर समाधि आ गई उससे अशुभ होता ही नहीं। उसके लिए कोई मर्यादा नहीं रह जाती। इसलिए हमने परम संन्यास की दशा को परमहंस कहा है। उसके लिए कोई मर्यादा नहीं है। लेकिन परमहंस का अनुसरण मत करना। उसका आचरण देख कर अनुसरण मत करना।
ऐसा समझो, तुम चिकित्सक के पास जाते हो तो तुम यह थोड़े ही देखते हो कि चिकित्सक क्या करता है, वही मैं करूं। चिकित्सक जो तुम्हें प्रिस्क्रिप्शन देता है, चिकित्सक जो तुम्हें लिख कर दे देता है कि ये-ये दवाएं लो, इस-इस तरह से लो, यह भोजन करो--ऐसा उपचार की व्यवस्था बना देता है। तुम उसके अनुसार चलते हो। तुम यह नहीं देखते कि चिकित्सक को देखें, यह क्या करता है; कि हर रविवार को गोल्फ खेलने जाता है तो हम भी जाएं। तो तुम मरोगे, मुश्किल में पड़ोगे। कि यह घुड़सवारी करता है तो हम भी करें। कि यह रात देर तक क्लब-घर में बैठ कर ताश खेलता है तो हम भी खेलें। देखो कैसा स्वस्थ है!
तुम चिकित्सक का अनुसरण मत करना, चिकित्सक की कही बात का अनुसरण करना। क्योंकि तुम्हारी बीमारी अलग है, तुम्हारा रोग अलग है।
गुरु का आचरण देख कर अगर तुम चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि प्रत्येक शिष्य जो गुरु के पास आता है, अलग-अलग बीमारी ले कर आता है। गुरु तो एक है, शिष्य अनेक हैं। प्रत्येक अलग-अलग बीमारी लाया है। गुरु जो कहे, वही मान कर चलना।
और इसलिए कई बार तुम्हें बड़ी अड़चन होती है। मेरे पास तो रोज ऐसी घटना घटती है। कभी तो एक ही सांझ में ऐसा हो जाता है कि मुझे दो आदमियों को विपरीत सलाहें देनी पड़ती हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं क्योंकि लोग यह सोचते हैं कि एक सलाह सभी के काम आनी चाहिए। जिंदगी इतनी आसान नहीं। जिंदगी बड़ी जटिल है और बड़ी सूक्ष्म है। एक व्यक्ति को मुझे एक बात कहनी पड़ती है, दूसरे व्यक्ति को दूसरी बात कहनी पड़ती है।
अभी कुछ दिन पहले एक भारतीय मित्र ने कहा कि कामवासना से परेशान हूं; बुरी तरह परेशान हूं। उम्र भी काफी हो गई है। पचास साल उम्र हो गई है। घबड़ाने भी लगे हैं कि अब कब इससे छुटकारा होगा? और जीवन भर छुटकारे की कोशिश की है। जन्म से जैन हैं। जैन मुनियों, साधु-संतों का सत्संग करते रहे हैं। उनकी ही बातचीत सुन-सुन कर शादी भी नहीं की। सब तरह से अपनी वासना को दबा रखा है। वह दबी हुई वासना रग-रग में समा गई है, रोएं-रोएं में बैठ गई है। अब घबड़ा रहे हैं। अब जरा उम्र भी ढलने लगी है।
जब आदमी में ताकत होती है जवानी की तब वासना को दबाना भी आसान होता है। जब ताकत कम होने लगती है, तो वासना को दबाना मुश्किल हो जाता है। लोग अक्सर सोचते हैं कि जवानी अगर एक दफे निकल गई तो फिर तो सब शांति हो जाएगी। गलत खयाल में हो तुम। जिस दिन जवानी निकल जाएगी उस दिन तुम और मुश्किल में पड़ोगे, क्योंकि फिर दबाने की ताकत भी नहीं रह जाएगी। और वासना प्रज्वलित बैठी होगी।
उन मित्र को मुझे कहना पड़ा कि दबाने का दुष्परिणाम हुआ है। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, दबाओ मत। वे तो घबड़ा गए, पसीना-पसीना हो गए कि दबाऊं नहीं--अब? नहीं, अब कैसे? पचास साल की प्रतिष्ठा भी है कि बड़े त्यागी-व्रती। आप कैसी बात कर रहे हैं।
फिर मैंने कहा, मर्जी तुम्हारी। यह जारी रहेगा मरते दम तक। मरते वक्त, तुम्हें जो आखिरी खयाल रहेगा मरते वक्त, वह वासना का ही रहेगा। क्योंकि वही तुम्हारे भीतर सबसे प्रबल बात है। तुम लाख उपाय करो कि नमोकार की याद रह जाए मरते वक्त, नहीं रहेगी। स्त्रियां ही दिखाई पड़ेंगी।
अक्सर ऐसा हो जाता है... अब तक मेरे जीवन में ऐसा अनुभव नहीं आया, लाखों लोगों ने मुझसे सवाल पूछे हैं, प्रश्न पूछे हैं, सलाहें ली हैं, एक भी भारतीय ने ऐसा सवाल नहीं पूछा जैसा पश्चिम से आए हुए लोग पूछते हैं। रोग अलग-अलग हो गए हैं। भारतीयों का प्रश्न यही होता है कि वासना से कैसे छुटकारा हो? क्योंकि वासना को दमन करने की प्रक्रियाएं सिखाई गई हैं या लोगों ने सीख ली हैं। पश्चिम से जरूर कभी-कभी कुछ लोग आ जाते हैं जो बिलकुल उलटा प्रश्न पूछते हैं, जिसको भारतीय सुन कर चौंकेगा।
उसी रात जिस दिन ये सज्जन पूछ रहे थे: वासना से कैसे छुटकारा हो, पचास साल की उम्र में, बत्तीस-तैंतीस साल की युवती ने पूछा--फ्रांस से आई है--कि मेरी वासना बिलकुल समाप्त हो गई है। यह कैसे जगे? क्योंकि पश्चिम में यह खयाल है कि जिस दिन वासना खत्म हो गई, जीवन खत्म हो गया। और रखा क्या है जीवन में? फ्रायड की शिक्षा का यह मूल आधार है कि जीवन यानी कामवासना। जिस दिन कामवासना चली गई उस दिन तुम्हारा जीवन थोथा है। चली कारतूस! किसी काम की नहीं है। फिर व्यर्थ है जीना।
तो स्वभावतः उस युवती के मन में बड़ी घबड़ाहट है। उतनी ही घबड़ाहट, जितनी भारतीय के मन में है कि वासना से कैसे छुटकारा हो? युवती पूछ रही है कि इस वासना को मैं कैसे प्रज्वलित करूं? मुझे रस ही नहीं आता। मुझे पुरुषों में कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। मुझे सपना भी नहीं आता। मैं चाहती हूं कोशिश करके किसी के प्रेम में पड़ जाऊं, मगर वह सब कोशिश ही कोशिश रहती है। उसमें कोई सार नहीं है। प्रेम करने की मुझे वृत्ति ही नहीं पैदा होती। मुझे बचाओ! मैं इसीलिए फ्रांस से आई हूं कि किसी तरह यह मेरी मरती हुई जीवन-ऊर्जा फिर से प्रज्वलित हो जाए। नहीं तो मैं करूंगी क्या? अभी मेरी उम्र केवल तैंतीस वर्ष है। अभी कम से कम पचास साल मुझे और जीना है। ये पचास साल बस ऐसे ही जीने पड़ेंगे--अर्थहीन?
मैंने उससे कहा कि जो तुझे हुआ है, यह फ्रांस में ही हो सकता था और कहां हो सकता है? जहां वासना को खुले रूप से स्वीकार कर लिया गया हो, जहां वासना के प्रति किसी तरह का दुर्भाव न हो, वहां वासना समाप्त हो जाती है। ये उलटी बातें हैं। जिस चीज को भी तुम जी लेते हो वह मिट जाती है और जिसको तुम अनजिया छोड़ देते हो वह जिंदा रहती है; वह पुकार करती है, मांग करती है। भारतीय की वासना मरते दम तक नहीं छूटती।
पश्चिम में अनेक युवक-युवतियों के सामने सवाल खड़ा हुआ है। तुम यह जान कर हैरान होओगे कि पश्चिम के मनोवैज्ञानिक के पास रोज लोग आते हैं, जिनका प्रश्न यही है कि हमारी वासना मरी जा रही है। अब हमें रस नहीं है स्त्री-पुरुषों में कोई। हम क्या करें? और पश्चिम में नई-नई विधियां खोजी जाती हैं कि कैसे रस को फिर से जगाया जाए! कैसे पुनरुज्जीवित किया जाए! नई-नई दवाएं खोजी जाती हैं। ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जिस वर्ष कोई नई दवा की घोषणा नहीं होती, कि इसको लेने से वासना फिर जीवित हो जाएगी।
क्या कारण होगा? जो भी चीज समझ में आ जाएगी, देख लोगे, भोग लोगे, जान लोगे उसका रस समाप्त हो जाएगा। जो भी चीज नहीं जानोगे, नहीं भोगोगे, नहीं देखोगे उसका रस बना रहेगा, रुका रहेगा, अटका रहेगा। अनुभव मुक्ति है। और सच्चा त्याग भोग की प्रक्रियाओं का अंतिम परिणाम है।
मोक्ष संसार से गुजर कर ही उपलब्ध होता है। संसार राह है मोक्ष की। संसार मोक्ष के विपरीत नहीं है, मोक्ष का मार्ग है। इसी से चल कर आदमी मोक्ष तक पहुंचता है। पदार्थ की सीढ़ियों पर चढ़-चढ़ कर परमात्मा के मंदिर तक पहुंचना होता है।
अब जब दो तरह के लोग दो बातें पूछेंगे तो मुझे अलग-अलग सुझाव देने पड़ेंगे दोनों को। भिन्न-भिन्न सुझाव देने पड़ेंगे। मुझे उस फ्रेंच युवती से कहना पड़ा कि अच्छा ही हुआ कि तू झंझट के बाहर हो गई। अगर तू भारत में पैदा होती, तू अपने को सौभाग्यशाली समझती। तू धन्यभागी समझती; जन्मों-जन्मों के पुण्यों का फल समझती कि वासना समाप्त हो गई। तू नाचती, आनंदित होती कि चलो, एक उपद्रव समाप्त हुआ। अब मेरी सारी जीवन-ऊर्जा प्रभु की तलाश में लग सकेगी, प्रार्थना बन सकेगी, पूजा बन सकेगी। अब मैं सारे जीवन को ध्यान में ढाल सकूंगी। तू आनंदित होती। यह तो बहुत अच्छा हुआ।
वे भारतीय मित्र भी बैठे सुन रहे हैं। वे तो बड़े चौंके। क्योंकि उनसे मैंने कहा है कि किसी तरह... अभी भी बिगड़ा नहीं है कुछ। अभी भी थोड़े-बहुत वासना के अनुभव से गुजर जाओ। और इस युवती से मैं कह रहा हूं कि तू धन्यभागी है।
अब अगर उनको लगे दोनों को कि मैं विरोधाभासी बातें कह रहा हूं तो आश्चर्य तो नहीं। लेकिन जरा भी विरोधाभास नहीं है। दोनों का रोग अलग है। एक का रोग दमन है, उसे दमन के बाहर लाना है। एक का रोग भोग की आकांक्षा है, उसे भोग की आकांक्षा से बाहर लाना है।
यह मैंने तुम्हें उदाहरण के लिए कहा। प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग रोग हैं, भिन्न-भिन्न रोग हैं। उनके भिन्न-भिन्न उपाय हैं, इलाज हैं।
इसलिए ठीक कहते हैं जगजीवन कि जो मैं कहूं, वह सुनना। मैं क्या करता हूं उसे करने की कोई जरूरत नहीं है। उसे किया तो बड़ी फजीहत होगी।
जगजीवनदास सहज मन सुमिरन, बिरले यहि जग कोई।
बहुत विरल है सहज स्मरण, सहज समाधि। लेकिन जब घट जाती है सहज समाधि किसी को तो तुम उसके आचरण का अनुसरण मत करने लगना। क्योंकि जो उसके लिए सहज है वह तुम्हारे लिए सहज नहीं होगा। उसके जीवन में तो एक रोशनी आ गई। उस रोशनी के अनुसार उसे दिखाई पड़ने लगा। उसके जीवन में तो तादात्म्य टूट गया है देह से। अब वह देह नहीं है। अब वह संसार में है और संसार में नहीं है। वह संसार में है, संसार उसके भीतर नहीं है। उसकी दशा बड़ी अनूठी है। सम्मान करना। उसके चरणों में झुकना। उसके पास उठना-बैठना। उसकी सुनना। उसकी मानना। उसकी बात मान कर जीवन में प्रयोग करना। उसके आनंद-भाव से एक ही बात सीखना कि ऐसा आनंद-भाव एक दिन तुम्हें भी हो सके।
लेकिन यह हो सकेगा तभी, जब तुम उसकी मान कर चलोगे। यह मत सोचने लगना कि हम भी इसी तरह जीने लगें जैसे यह आदमी जी रहा है; नहीं तो तुम अभिनय में पड़ जाओगे। और इस जगत में धर्म के नाम पर बहुत अभिनय हो रहा है इसलिए सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
इब्तिदा से आज तक ‘नातिक’ की है यह सरगुजश्त
पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है
‘पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है’--साधक के जीवन में बड़े पड़ाव आते हैं। पहले चुप हो जाना पड़ता है, बिलकुल चुप हो जाना पड़ता है। फिर हुआ दीवाना--फिर उस चुप्पी से एक शराब पैदा होती है, भीतर एक मस्ती पैदा होती है। बाहर से कोई नशा नहीं करना पड़ता, भीतर ही नशा सघन होने लगता है।
पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है
और फिर ऐसी घड़ी आ जाती है कि बेहोश हो जाता है। और बेहोशी भी कैसी? बेहोशी भी ऐसी कि जिसके भीतर होश का दीया जलता है। बाहर से दुनिया कहे बेहोश, और भीतर वह परम होश में होता है।
रामकृष्ण बेहोश होकर गिर पड़ते थे--घंटों! कभी-कभी तो दिनों बेहोशी में पड़े रहते थे। चिकित्सक तो कहते थे कि यह एक तरह का हिस्टीरिया है, एक तरह की मिर्गी। लेकिन रामकृष्ण हंसते थे। वे कहते थे कि बाहर से भला मेरा शरीर जड़ हो जाता हो, लेकिन भीतर तो मैं इतने होश से भरा होता हूं जितना और कभी नहीं भरा होता। जब वे होश में आते हमारे हिसाब से, बाहर के हिसाब से, जब उनकी बेहोशी टूटती, होश में आते तो वे जो पहली बात कहते वह यही कहते कि फिर बेहोशी में भेज दिया? वापस बुला लो। होश में वापस बुला लो। क्यों मुझे फिर धक्के दे कर बेहोशी में भेज रहे हो? और इधर सारे लोग समझ रहे थे कि वे होश में आ रहे हैं। और वे कहते हैं, मुझे फिर क्यों बेहोशी में भेजा? क्यों मुझे संसार में फिर डाल रहे हो। मुझे भीतर आ जाने दो। चिकित्सक तो कहेगा कि हिस्टीरिया है। लेकिन जानने वाले कहते हैं यह परमहंस की अवस्था है। लेकिन नकल मत करना।
एक झेन फकीर ने अपने शिष्य को ध्यान करने के लिए कहा था। झेन फकीर ध्यान के लिए कुछ पहेली देते हैं कि इस पहेली पर विचार करो, इसका उत्तर ले कर आओ। और जो भी उत्तर ले कर आता है शिष्य, वह कह देता है कि ‘नहीं, और खोजो; नहीं, और खोजो। दिन आए, महीने आए, वर्ष आए-गए--थक गया शिष्य। जो भी उत्तर ले जाए--नहीं!
उसने जरा दूसरे पुराने शिष्यों से पूछा कि भाई, यह मामला क्या है? उन्होंने कहा, यह होता है। फिर इससे छुटकारा क्या है? एक शिष्य ने कहा कि मेरा तो इस तरह छुटकारा हुआ था सात साल के बाद, कि एक दिन जब उन्होंने मुझसे पूछा तो मैं बस एकदम बेहोश हो गया। गिर पड़ा। उन्होंने गले लगा लिया और मुझे कहा कि बस ठीक है, उत्तर मिल गया।
तो उसने कहा: भलेमानस! मुझे बताया क्यों नहीं? पहले ही बता दिया होता! आज जाता, अभी जाता। गया और गुरु के चरण छुए और गुरु ने जैसे ही पूछा, उत्तर? वह जल्दी चारों खाने चित्त होकर बेहोश हो गया। गुरु ने कहा: बिलकुल ठीक, लेकिन उत्तर का क्या हुआ? तो उसने एक आंख खोल कर कहा कि उत्तर? यह उत्तर नहीं है?
गुरु ने कहा: देखो, बेहोशी में कोई बोलता नहीं; और न ही बेहोशी में कोई एक आंख खोलता है। उठो और भागो यहां से। उत्तर के खोजने में लगो। इस तरह दूसरों के द्वारा बताए गए उत्तरों से काम न चलेगा। यह कोई बेहोशी थोड़े ही है। और किसने तुझे यह कहा है, मुझे याद आ गया। मगर उसकी बेहोशी सच्ची थी। वह बेहोश हुआ नहीं था, बस मेरे देखते ही, आंख में आंख डालते ही घटना घट गई थी। वह डुबकी मार गया था। तूने तो मुझे खूब चौंकाया। मैंने पूछा: उत्तर क्या है? तू जल्दी से चित्त! और बड़ी व्यवस्था से लेटा कि चोट वगैरह भी न लग जाए। क्योंकि जब आदमी व्यवस्था से लेटता है तो देख लिया आगे-पीछे और जल्दी से लेट गया कि कोई सिर में चोट न लग जाए, कोई... और बिलकुल पड़ा रह गया शांत।
तुम्हारा धार्मिक आचरण करीब-करीब इस आदमी जैसा आचरण है। कुछ बातें हैं जो केवल अनुभव से जानी जाती हैं, किसी के कहने से नहीं जानी जातीं।
ये शबाब के फसाने जो मैं दिल से सुन रहा हूं
अगर और कोई कहता तो न ऐतबार होता
किसी छोटे बच्चे को कहो कि जवानी में जो रस, जो स्वप्न, जो प्रेम, प्रीति जगती है उसकी बात किसी बच्चे से कहो, उसे भरोसा नहीं आएगा। वह कहेगा, क्या बातें कर रहे हो?
ये शबाब के फसाने जो मैं दिल से सुन रहा हूं
अगर और कोई कहता तो न ऐतबार होता
कभी भरोसा नहीं हो सकता था किसी और के कहने से। जब तक तुम अपने दिल से न सुनो। फिर चाहे वे जवानी के फसाने हों और चाहे परमात्मा की याद हो, भीतर से सुनी जाए तभी सार्थक होती है।
कलि की रीति सुनहु रे भाई।
लेकिन कलियुग की अपनी रीति है। लोग सचाई तो भूल ही गए हैं, सत्य तो भूल ही गए हैं। सतयुग तो उनके जीवन से जैसे तिरोहित हो गया है।
कलि की रीति सुनहु रे भाई।
माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई।।
यह सारा जगत परमात्मा का है, यह सब-कुछ उसका है। और कलियुग की रीत देखो। हर आदमी कह रहा है, मेरा-मेरा। न जमीन तुम्हारी है; जमीन तुम ले न आए थे, और न ले जाओगे। न पति तुम्हारा है, न पत्नी तुम्हारी, न बेटे तुम्हारे।
शायद दुनिया में एक अकेली भाषा है एस्किमो की, जिसमें एक सच्चाई प्रकट होती है। अगर तुम किसी एस्किमो के साथ उसके बेटे को जाते देखो और तुम उससे पूछो कि यह लड़का कौन है, तो सिर्फ अकेली एस्किमो की भाषा ऐसी है कि उसमें यह नहीं कहा जाता कि यह मेरा बेटा है, मैं इसका बाप हूं। उसमें कहा जाता है, यह लड़का हमारे घर रहता है, हमारे साथ रहता है। यह लड़का कहां से आया? तो कहा जाता है, परमात्मा के यहां से आया, परमात्मा ने भेजा है। हम इसके रखवाले हैं।
दीन-दरिद्र एस्किमो जरूर बड़ी गहरी बात कह रहे हैं। हम इसके रखवाले हैं। परमात्मा ने भेजा है। यह लड़का हमारे साथ रहता है, हमारे घर में रहता है। हम इसकी देखभाल करते हैं। मगर यह नहीं कहते वे कि यह हमारा बेटा है। हमारा क्या!
न जमीन हमारी है, न धन हमारा है, न पद हमारा है। कुछ भी हमारा नहीं है। हम एक दिन खाली हाथ आए हैं, और एक दिन खाली हाथ चले जाएंगे। न हम कुछ लाते हैं, न हम कुछ ले जाते हैं, मगर बीच में हम कितना शोरगुल मचाते हैं। उसी शोरगुल का नाम संसार है।
माया यह सब है साईं की, आपुनि सब केहु गाई।।
भूले फूले फिरत आय, पर केहुके हाथ न आई।
जो है जहां तहां ही है सो, अंतकाल चाले पछिताई।।
फिर पीछे पछताओगे। जो जहां है वहीं पड़ा रह जाएगा। जो जैसा है वैसा ही पड़ा रह जाएगा। अंतिम समय बहुत पछताओगे। इस के पहले जागो, समझो: मेरा कुछ भी नहीं है, सब उसका है। मैं भी उसका हूं। यह बोध उठने लगे तो तुम्हारे जीवन में धर्म की पहली किरण उतरी।
जहुं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।
और तुम तो ऐसे हो कि जहां राम की चर्चा चल रही हो, जहां नाम का रस बह रहा हो वहां भी जाकर और दूसरी बातें चलाना चाहते हो। लोग मंदिरों में जाकर न मालूम क्या-क्या बातें करते हैं!
एक बार एक सभा में मुझे जाने का मौका मिला, फिर उसके बाद मैं किसी सभा में नहीं गया। कृष्णाष्टमी थी और पंजाबी और सिंधियों की सभा थी। सब सज-धज कर आए थे। सिंधियों का तो कोई मुकाबला ही नहीं है इसमें। चाहे स्नान करें चाहे न करें, मगर कपड़े तो रेशमी...! स्त्रियां तो बहुत सज-धज कर आई थीं। ऐसे दिनों की प्रतीक्षा ही करती हैं स्त्रियां, नहीं तो दिखाओ कब--कपड़े-लत्ते, गहने? बड़ा रंगीन समां था।
मैं तो बड़ा चकित हुआ। मुझसे पहले जो बोल रहे थे सज्जन, वे एक पीठ के शंकराचार्य हैं। मैं तो बड़ा हैरान हुआ। ऐसा चमत्कार मैंने देखा ही नहीं था। सब लोग गपशप में लगे हैं, वे बोल रहे हैं। सब लोग गपशप में लगे हैं। यहां तक कि औरतें पीठ किए बैठी हैं बोलने वाले की तरफ! क्योंकि बातचीत चल रही है दूसरों से, ऐसे झुंड-झुंड बनाए हुए हैं। और जमाने भर की चर्चा चल रही है। उसी दिन मुझे यह राज समझ में आया कि धार्मिक सभाओं में बीच-बीच में क्यों बोलना पड़ता है: बोल सियापति रामचंद्र की जय! उस दिन मुझे रहस्य समझ में आया कि क्यों बीच-बीच में... कोई कारण समझ में नहीं आता। इसको अचानक... उतनी देर के लिए कम से कम लोग चुप हो जाते हैं। एकाध-दो मिनट चुप रहते हैं, उतनी देर में जो कुछ बोलने वाले को बोलना हो, बोल दे। वे फिर अपनी चर्चा शुरू कर देते हैं।
मैंने तो हाथ जोड़ लिए। मैंने उनसे कहा कि मैं चला, इस सभा ही से नहीं चला, सब सभाओं से गया। अब कहीं बोलने नहीं जाऊंगा। कोई प्रयोजन किसी को नहीं है।
इसलिए मैं नये लोगों को सामने बैठने भी नहीं देना चाहता। उन्हें हैरानी भी होती है, दुख भी होता है मगर मजबूरी है। मैं सामने अपने उन लोगों को देखना चाहता हूं जो सच में पी रहे हैं। जो यहां यूं ही नहीं चले आए हैं किसी कुतूहलवश या किसी अखबार के प्रतिनिधि की तरह नहीं चले आए हैं--उनका कोई प्रयोजन नहीं है यहां। क्या हो रहा है, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। उन्हें कुछ व्यर्थ की बातें इकट्ठी कर लेनी हैं।
तब से मैंने बोलने जाना बंद कर दिया, क्योंकि क्या प्रयोजन है? किससे बोलना है? सुन कोई रहा ही नहीं है। अब उनसे ही बोलता हूं जो सुनने को राजी हैं। और सुनने को ही नहीं, उसके अनुसार जीवन को रूपांतरित करने को राजी हैं।
लेकिन लोग ऐसे हैं, जगजीवनदास कहते हैं, जैसी सभा में मैं गया, ऐसी किसी सभा में गए होंगे, तभी ऐसी अनुभव की बात लिखी है--
जहुं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।
लेखा-जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक महिं जाई।।
और वहां भी बैठ कर लेखा-जोखा करते हैं। बैठे हैं धार्मिक सभा में और स्त्रियां एक-दूसरे से पूछने लगती हैं: साड़ी के दाम कितने हैं? यह मैंने सुना है अपने कानों से, इसलिए कहता हूं। कहां से खरीदी? पोत तक देख लेती हैं एक-दूसरे की साड़ी का बैठे-बैठे। जगजीवनदास बड़े अनुभवी आदमी हैं। देखा होगा, देवियां एक-दूसरे की साड़ी का पोत देख रही हैं। कहां से खरीदी? कितने में मिली? एक-दूसरे के गहने देख लेती हैं। नजर ही व्यर्थ पर अटकी है।
लेखा-जोखा करहिं दाम का, पड़े अघोर नरक महिं जाई।
यह ‘अघोर’ शब्द समझने जैसा है। जगजीवनदास पढ़े-लिखे आदमी नहीं हैं। कहना चाहते हैं, घोर; कह गए हैं, अघोर। कारण है उसके पीछे। घोर नरक में पड़ेंगे--कहना चाहते हैं वे यह।
लेकिन शब्दों के भी इतिहास होते हैं। अघोर का मतलब होता है, सरल, सहज। तुम भी चौंकोगे। तुम तो किसी गंदे आदमी को कहते हो--अघोरी। भूल कर मत कहना--अघोरी! तुम गलत शब्द का उपयोग कर रहे हो। लेकिन उसके पीछे कहानी जुड़ गई है। अघोर का अर्थ होता है: सीधा-सादा, सरल; जिसके जीवन में जटिलता है ही नहीं। छोटे बच्चे जैसा--अघोर का अर्थ होता है।
अघोर बड़ा कीमती शब्द है। जब पहले-पहल चला था अघोरपंथ, तो उसका मतलब यह था कि सरल जीवन, सहज जीवन। साधो सहज समाधि भली! मगर फिर लोग नकलची पैदा हुए। फिर लोगों ने कहा, साधो सहज समाधि भली? तो उन्होंने कहा, ठीक है, तो जो हमें करना है वह भी करेंगे और दावा भी करेंगे कि यह तो सहज जीवन जी रहे हैं। तो शराब भी पीएंगे, जुआ भी खेलेंगे और जब कोई कहेगा कुछ, तो कहेंगे: साधो सहज समाधि भली! सभी कुछ करेंगे, क्योंकि सहज जीवन में सभी आ गया, कुछ बचा नहीं। वेश्यालय भी जाएंगे और कहेंगे: साधो सहज समाधि भली!
तो वह जो अघोर जैसा प्यारा शब्द था, वह धीरे-धीरे विकृत हुआ। क्योंकि लोग जो अपने को अघोरी मानते थे, वे धीरे-धीरे सब विकृत तरह के काम करने लगे। नशा भी करेंगे, गांजा भी पीएंगे, शराब भी पीएंगे, गंदगी में पड़े रहेंगे। क्योंकि वे तो अघोरपंथी हैं। फिर धीरे-धीरे शब्द का अर्थ बदला। फिर अर्थ उलटा ही हो गया। फिर अब जो आदमी गंदा रहता है, व्यर्थ का जीवन जीता है, उलझा जीवन जीता है--न नहाता, न धोता, जिससे बास उठती है, जिसके खाने-पीने का कोई हिसाब नहीं; कुछ भी खा-पी ले, मांस-मछली सब चले, पंच मकार जिसके जीवन की चर्या हो जाए, उसको लोग कहने लगे: अघोरी।
अघोरी शब्द विकृत हो गया। प्यारा शब्द था, बुरी तरह गिरा। शिखर पर था, गिरा और नीचे गड्ढे में गंदा हो गया। कीचड़ में पड़ गया। उसी अर्थ में जगजीवनदास ने प्रयोग कर दिया है लेकिन उनका प्रयोजन है: घोर।
ऐसा कुछ एक शब्द के साथ नहीं, बहुत शब्दों के साथ होता है। जैसे तुम्हारे समझाने के लिए मैं कहूं: बाबू। बाबू जगजीवनराम! अब उनको पता नहीं कि बाबू का मतलब क्या होता है। कि बाबू राजेंद्रप्रसाद! मालूम नहीं कि बाबू का मतलब होता क्या है।
जब पहली दफा अंग्रेज भारत आए तो उनका पहला संपर्क बंगालियों से हुआ, इसलिए बंगाली बाबू। जितना बाबू बंगाली होता है उतना कोई दूसरा नहीं होता बाबू; समझे? वह पहली दफा अंग्रेजों ने बाबू बंगाली को कहा। और कहा क्यों बाबू? क्योंकि उससे बदबू आती है। बू का मतलब होता है: बदबू। और बा का मतलब होता है: सहित--जिससे बास आती हो। मछली खाओगे तो बास तो आएगी ही। बंगालियों के मुंह से मछली की बास आती थी। अंग्रेज उनको कहने लगे, बाबू। बंगाली बाबू हो गए।
लेकिन फिर धीरे-धीरे क्या हुआ कि जो-जो अंग्रेजों के करीब थे... बाबू ही लोग उनके करीब थे। उनके क्लर्क, उनके नौकर-चाकर--वे ही उनके करीब थे। जो मालिक के जितना करीब था वह उतना ही महत्वपूर्ण हो गया। अंग्रेजों के बाद महत्वपूर्ण नंबर दो पर बाबू हो गए। बाबू जगजीवनराम! अब कोई सोचता ही नहीं कि बाबू गाली है। किसी से भूल कर बाबूजी मत कहना! लेकिन लोग उसको सम्मान से उपयोग कर रहे हैं।
अघोर सम्मानजनक शब्द था, गाली हो गया। बाबू गाली है, सम्मानजनक हो गया। शब्दों की भी बड़ी कथाएं हैं। उनके भी दिन चढ़ाव के, उतार के होते हैं; दुर्दिन, सुदिन सब आते हैं।
बूड़हिं आपु और कहं बोरहिं, करि झूठी बहुतक बताई।
कह रहे हैं ये जो अघोरी हैं--ये बाबू लोग!--ये खुद तो डूबेंगे ही, ये दूसरों को भी डुबाएंगे। क्योंकि ये बकवास करने में भी कुशल हो जाते हैं सुन-सुन कर। ये ज्ञानियों की बातें सुन कर करते नहीं हैं, कि उन बातों को जीवन में करें। ज्ञानियों की बातें सुन कर ये ग्रामोफोन रिकॉर्ड हो जाते हैं। ये उनको दोहराने लगते हैं। ये खुद तो डूबेंगे ही, डूबे ही हैं, ये दूसरों को भी ले डूबेंगे। ‘आप डुबंते पांडे लै डूबे जजमान!’
जगजीवन मन न्यारे रहिए, सत्तनाम तें रहु लय लाई।
जगजीवन कहते हैं कि मेरे शिष्यो, अगर तुम्हें पहुंचना हो परमात्मा तक तो इस तरह की बातों से सावधान रहना। मन से अपने को न्यारा करना है। अगर मैंने तुमसे जो कहा, इन्हीं बातों को तुमने कहना सीख लिया तो तुम्हारा मन से और जोड़ हो गया। मन को तो शून्य करना है। शून्य होगा तो ही तुम न्यारे हो पाओगे। इस बात को ठीक से समझो।
शरीर, मन, आत्मा, इन तीन में शरीर तो सत्य है, आत्मा सत्य है, मन तो केवल सेतु है, दोनों को जोड़ने वाला है। जितना मन भरा हुआ होगा विचारों से उतना ही ज्यादा जोड़ होगा आत्मा और शरीर में। जितना मन विचारों से खाली होगा, उतना ही जोड़ टूट गया। अगर मन बिलकुल निर्विचार हो जाए तो जोड़ समाप्त हो गया। रस्सी गिर गई। फिर शरीर अलग है, आत्मा अलग है। और वही न्यारे होने का अर्थ है।
और जिसने जान लिया कि शरीर अलग, आत्मा अलग--फिर बात ही और है। ‘हम तो देह धरे जग नाचब।’ फिर तुम नाचो जग में। फिर तुम अछूते ही हो। फिर तुम्हें जगत की कोई चीज छू नहीं सकती। लेकिन उसके पहले यह क्रांति घट जानी चाहिए, मन की मृत्यु घट जानी चाहिए। मन की मृत्यु घटे इसलिए कहते हैं--
पंडित, काह करै पंडिताई।
कह रहे हैं, सुन-सुन कर पंडित मत हो जाओ। शास्त्र पढ़ कर भी लोग पंडित हो जाते हैं, शास्ता के पास बैठ कर भी लोग पंडित हो जाते हैं।
पंडित, काह करै पंडिताई।
त्यागदे बहुत पढ़ब पोथी का, नाम जपहु चित लाई।।
हो चुका बहुत पोथी के साथ सिर-फोड़ी! अब बंद करो। इस पोथी ने कहीं किसी को भेजा नहीं है, न यह पहुंचा सकती है। फिर पोथी क्या है--वेद या कुरान या बाइबल, फर्क नहीं पड़ता। शब्दों से बहुत हो चुका संबंध! अब निःशब्द से संबंध जोड़ो। विचार में बहुत जी लिए और बहुत भटक भी लिए। विचार ही तो आवागमन है। यही तो बार-बार संसार में ले आया है। विचार के ही मार्ग से तो तुम बार-बार गर्भ में उतरे हो। और विचार के ही तो सब रूप हैं--सारी वासनाएं, सारी कल्पनाएं, सारी इच्छाएं, एष्णाएं, तृष्णाएं, सब विचार की ही तरंगें हैं।
त्यागदे बहुत पढ़ब पोथी का, नाम जपहु चित लाई।
अब तो एक बात को ही चित्त में रख कि प्रभु का स्मरण जगे। अब पोथी को छोड़। अब भीतर की पोथी को पढ़। परमात्मा ने प्रत्येक के भीतर वेद रख छोड़ा है। तुम बाहर के वेद में उलझे रहोगे, तुम्हारा वेद अनबोला रहेगा। तुम बाहर के वेद को छोड़ दोगे, तुम्हारा वेद गुंजरित हो उठेगा, गुंजायमान हो जाएगा। तुम्हारे भीतर से उठेगा नाद। और ऐसा नाद कि सब संगीत उसके सामने फीके हैं।
यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई।
अब तक तुम जो करते रहे हो, यह तो बाहरी जगत का आचरण है। जगजीवन कहते हैं: मैं तुम्हें बहुत जोर से कह देना चाहता हूं, चिल्ला कर कह देना चाहता हूं, गोहरा कर कह देना चाहता हूं--
यह तो चार विचार जगत का, कहे देत गोहराई।
तुम्हारा आचरण भी बाहरी, तुम्हारे विचार भी बाहरी। तुमने आचरण नकल से सीख लिया, विचार भी तुमने दूसरों से उधार ले लिए, स्मृति में भर लिए। न तो विचार तुम्हारे अपने हैं, न आचरण तुम्हारा अपना है। तुम दरिद्र इसीलिए तो हो कि तुम्हारा अपना कुछ भी नहीं है। निजता की कोई संपदा नहीं है। तुम कब अपनी समाधि खोजोगे? कब तुम अपने मौलिक स्वरूप को पहचानोगे? परमात्मा की याद लाओ अब।
शबे-फुर्कत में याद उस बेखबर की बार-बार आई
भुलाना हमने भी चाहा मगर बेइख्तियार आई
ऐसी याद आनी चाहिए कि भुलाना भी चाहो तो भुला न सको। लेकिन पंडित तो सिर्फ तोतों की तरह दोहराता है।
बेदिलों की हस्ती क्या, जीते हैं न मरते हैं
ख्वाब है न बेदारी, होश है न मस्ती है
पंडित तो केवल थोथे शब्दों में जीता है। न तो उसके शब्दों में होश, न उसके शब्दों में बेहोशी। न उसके शब्दों में मस्ती, नाच, रंग। न उसके शब्दों में अर्थ, जीवन, मौलिकता। उसके शब्द तो सड़ी हुई लाशें हैं। सदियों-सदियों की सड़ी हुई लाशें। पंडित तो मुर्दा घर में रहता है। और मुर्दों के साथ ज्यादा रहोगे तो मुर्दा हो जाओगे। संग-साथ महंगा पड़ता है। जिंदों की दोस्ती खोजो। सदगुरुओं का सत्संग--जहां अभी जीवित झरना बह रहा हो। और वहां भी चूक सकते हो, खयाल रखना, अगर शब्द ही पकड़ कर गए।
थी, मगर, इतनी रायगां भी न थी
आज कुछ जिंदगी से खो बैठे
तेरे दर तक पहुंच कर लौट आए
इश्क की आबरू डुबो बैठे
लोग तो ऐसे हैं कि जिंदा गुरु के पास जाकर भी खाली के खाली लौट आते हैं।
तेरे दर तक पहुंच कर लौट आए
इश्क की आबरू डुबो बैठे
ऐसा तुम मत करना; प्रेम की आबरू मत डुबो देना। जब कहीं कोई जीवंत धारा मिल जाए तो प्रेम में डूबना, डुबकी लगा देना। दरवाजे से लौट मत आना। बहुत लौट जाते हैं। क्योंकि कम ही लोगों की हिम्मत है प्रेम के जगत में उतरने की। और उतनी सी ही बात है। वही प्रेम का छोटा सा धागा अगर हो, जरा सी भी प्रेम की बूंद हो तो सागर हो जाती है बढ़ते-बढ़ते। जरा सा बीज हो तो बड़ा वृक्ष हो जाता है बढ़ते-बढ़ते।
जज्बा-ए-इश्क सलामत है तो इंशा-अल्ला
कच्चे धागे में चले आएंगे सरकार बंधे
वह जो प्रेम का छोटा सा कच्चा धागा है ‘जज्बा-ए-इश्क’--वह जो प्रेम की भावना है, बस उतनी सी छोटी सी भावना परमात्मा को भी खींच ले आती है। मगर पंडित उससे ही बच जाता है।
यहां भी पंडित आ जाते हैं और इश्क की आबरू डुबा जाते हैं। कभी-कभी कोई पंडित आता है कि इश्क की आबरू नहीं डुबाता।
कल किसी ने मुझे पत्र लिखा है कि ‘मैं स्वयं भी पंडित हूं, पंडिताई ही करता हूं। आप पंडित के खिलाफ इतना बोलते हैं। पहले तो मुझे चोट लगती थी, अब मुझे समझ में भी आ रही है बात कि यह तो मेरे जीवन की भी बात है। क्योंकि मैं जिंदगी भर से तोतों की तरह शब्दों को दोहरा रहा हूं। मुझे भी कुछ नहीं हुआ। आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं।’
ऐसा व्यक्ति प्रेम की लाज बचा सकता है।
फकीहे-शहर से मैं का जवाज क्या पूछो
कि चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं
नवाए-मुर्ग को कहते हैं अब जियाने-चमन
खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं
पंडितों से तुम पूछोगे तो बड़ी झंझट में पड़ोगे।
फकीहे-शहर से मैं का जवाज क्या पूछो
पंडित से मत पूछना कि शराब, बेहोशी, मस्ती में डूबना उचित है या अनुचित?
कि चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं
शराब की तो बात ही छोड़ो, पियक्कड़ों की तो बात ही छोड़ो, यह तो चांद से गिरती चांदनी का जो रस है, जो सुधा बरसती है--‘कि चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं।’ ये तो केवल शब्दों को मानते हैं। जहां जीवंत कुछ है--नाच पैदा हो सके कि मस्ती पैदा हो सके कि कोई घूंघर पैरों में बांध सके कि कोई बांसुरी बजा सके, वहां तो ये घबड़ा जाते हैं।
चांदनी को भी हजरत हराम कहते हैं
नवाए-मुर्ग को कहते हैं अब जियाने-चमन
पक्षियों का कलरव है, उसको कहते हैं कि इससे बगीचे को नुकसान पहुंचता है।
खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं
फूल न खिले इसे इंतजाम कहते हैं। अगर महाराष्ट्र की भाषा में समझो तो बंदोबस्त। ‘खिले न फूल इसे इंतजाम कहते हैं।’ पुलिस का बंदोबस्त! एक फूल न खिल पाए कहीं।
फूलों से डरते हैं क्योंकि खुद भी खिले नहीं हैं। जो खुद नहीं खिला है वह फूलों को भी मुर्झा डालेगा, काट डालेगा, गिरा देगा, क्योंकि हर फूल से उसे ईर्ष्या होगी। और जिसके भीतर का चांद नहीं उगा है वह बाहर के चांद के सौंदर्य को भी न देख पाएगा। और जिसके भीतर, भीतर नाच पैदा नहीं हुआ है, रंग नहीं जन्मा है उसे बाहर के सब रंग, सब सौंदर्य, सब उत्सव निंदा योग्य मालूम पड़ेंगे।
एक तो ऐसे पंडित हैं। ये तो इश्क की आबरू डुबा देते हैं। लेकिन कभी कोई पंडित ऐसा भी होता है जो इश्क की आबरू बचा लेता है। कल जिसने मुझे पत्र लिखा है, ऐसा ही पंडित होगा। ऐसे पंडित को देख कर कहना होता है--
दिल में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते हैं
जैसे बिछुड़े हुए काबे में सनम आते हैं
रक्से-मै तेज करो साज की लै तेज करो
सूए-मैखाना सफीराने-हरम आते हैं
--कि नाच की गति बढ़ाओ, कि साज की गति बढ़ाओ कि आज काबे के नमाजी शराबघर में आ रहे हैं।
रक्से-मै तेज करो साज की लै तेज करो
सूए-मैखाना सफीराने-हरम आते हैं
स्वागत है! पांडित्य को जो छोड़ सके उसका मंदिर में स्वागत है। उसका ही स्वागत है। और मंदिरों में पंडितों ने कब्जा कर लिया है, जो कि मंदिर के दुश्मन हैं; जानी दुश्मन हैं।
सुनि जो करै तरै पै छिन महं, जेहिं प्रतीति मन आई।
जगजीवन कहते हैं कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं, छोटी सी ही बात है, कुछ बहुत बड़ी बात नहीं है। कुछ बहुत जाल नहीं फैला रहा हूं। जरा सी बात कह रहा हूं, और वह है: ‘जेहिं प्रतीति मन आई।’ मन में प्रेम ले आओ--बस इतना ही कर लो।
पढ़ब पढ़ाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गंवाई।
पढ़ने-पढ़ाने से यह प्रेम की पीड़ा पैदा नहीं होगी। इससे प्राण नहीं बिंधेंगे। ये पढ़ने-पढ़ाने के तीर तुम्हारे हृदय को नहीं छेद पाएंगे।
पढ़ब पढ़ाउब बेधत नाहीं, बकि दिनरैन गंवाई।
एहि तैं भक्ति होत है नाहीं, परगट कहौं सुनाई।।
और तुमसे सीधी-सीधी बात कह देता हूं, इस तरह भक्ति न कभी प्रकट हुई है न हो सकती है।
सत्त कहत हौं बुरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई।
जगजीवन सत-मत तब पावैं, परमज्ञान अधिकाई।।
जब तुम्हारे भीतर परमात्मा का नाद अपने आप उठने लगेगा, तुम्हें जपना न पड़ेगा, अजपा होगा तभी जानना कि कुछ हुआ। जब तक तुम तोते की तरह रटते रहो भीतर, तब तक समझना अभी कुछ भी नहीं हुआ।
सत्त कहत हौं बुरा न मानौ, आजपा जपै जो जाई।
जगजीवन सत-मत तब पावैं, परमज्ञान अधिकाई।।
फिर तो रोज-रोज अधिक से अधिक ज्ञान बढ़ता चला जाता है। एक ज्ञान है जो किताबों से मिलता है, उसको जानकारी समझो। और एक ज्ञान है जो भीतर उतरने से उपजता है; उसे ही ज्ञान समझो। पंडिताई से बचो ताकि प्रज्ञावान हो सको।
तुमहीं सो चित लागु है, जीवन कछु नाहीं।
मात पिता सुत बंधवा, कोउ संग न जाहीं।।
सब छूट जाएंगे। कोई साथ जाने को नहीं है।
मंजिले-इश्क पे तनहा पहुंचे कोई मंजिल साथ न थी
थक-थक कर इस राह में आखिर इक-इक साथी छूट गया
सिद्ध साध मुनि गंध्रवा मिलि माटी माहीं।
ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं।।
नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं।
जगजीवन कहते हैं: ‘सिद्ध साध मुनि गंध्रवा’... सिद्ध, बड़े-बड़े सिद्ध, बड़े चमत्कारी लोग--कि हाथ से भभूत निकाल दें, कि स्विटजरलैंड की बनी घड़ियां निकाल दें; बड़े-बड़े सिद्ध लोग, बड़े-बड़े साधु--उपवास, व्रत, त्याग--बड़े मुनि कि बिलकुल न बोलें, हालांकि हाथ से इशारे करें; मुंह से बिलकुल न बोलें, लिख-लिख कर बतावें ऐसे बड़े-बड़े मुनि; गंधर्व: स्वर्ग के संगीतज्ञ, ये सब भी मिट्टी में मिल जाते हैं।
ब्रह्मा बिस्नु महेश्वरा, गनि आवत नाहीं।
ब्रह्मा-विष्णु-महेश की भी कोई गिनती नहीं है। वे भी मिट्टी में मिल जाते हैं।
नर केतानि को बापुरा, केहि लेखे माहीं।
--तो आदमी की तो कहां हम गिनती करें, कहां लेखा करें! सब मिट्टी में मिल जाएगा।
जगजीवन बिनती करै, रहै तुम्हरी छांहीं।
और मजा यह है कि जिसको तुम तलाश रहे हो, तुम्हारी छाया की तरह तुम्हारे पीछे चल रहा है। जगजीवन कहते हैं: मैं विनती करता हूं, जरा लौट कर तो देखो! जिसको तुम खोज रहे हो वह तुम्हारी छाया है। जिसे तुम खोज रहे हो वह तुम्हारे भीतर बैठा है।
लेकिन तुम बाहर खोज रहे हो और भटक रहे हो। भटकते रहो बाहर जन्मों-जन्मों तक। बार-बार मिट्टी में गिरोगे, बार-बार मिट्टी से उठोगे और गिरोगे। मिट्टी उठती रहेगी, गिरती रहेगी। ये मिट्टी की लहरें हैं जिनको तुम अपना जीवन कह रहे हो। जीवन तो सिर्फ एक है: मिट्टी के पार तुम्हारे भीतर जो है उसे पहचान लो। मृण्मय में चिन्मय की पहचान जीवन का प्रारंभ है।
आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।
और एक बार जो तुम्हें छाया की तरह तुम्हारे पीछे चल रहा है, सदा तुम्हारे साथ है, सदा तुम्हारे भीतर मौजूद है उससे पहचान हो जाए तो--‘आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।’ वैसा व्यक्ति तत्क्षण आनंद के सागर में बस जाता है। फिर उसको तन की कोई पीड़ा नहीं रह जाती। देह से उसका संबंध ही छूट जाता है। देह रहे तो और देह जाए तो; लेकिन भीतर फासला हो जाता है।
सूफी फकीर फरीद के पास लोग आते थे। कोई कुछ चढ़ा जाता, कोई कुछ चढ़ा जाता। एक दिन एक आदमी आया, उसने दो नारियल चढ़ाए और फरीद से पूछा: एक प्रश्न है मेरे मन में। मैंने सुना है कि मंसूर को जब फांसी दी गई... तुम तो फकीर हो, तुम तो सूफी हो, तुम्हीं उत्तर दे सकोगे, तुम तो मंसूर जैसे हो। जब मंसूर को फांसी दी गई तो वह हंसता रहा। उसकी गर्दन काटी गई, उसकी हंसी फूटती ही रही। यह कैसे हो सकता है? जरा सा कांटा चुभ जाता है तो आदमी रोता है। हाथ जल जाता है तो आदमी रोता है। उसके अंग-अंग काटे गए, यह कैसे हो सकता है?
फरीद ने एक नारियल उठाया और जमीन पर पटका। वह कच्चा नारियल था। नारियल तो टूट गया, लेकिन भीतर की गरी भी टूट गई। फिर उसने दूसरा नारियल पटका। वह पक्का नारियल था, पका नारियल था। नारियल तो टूट गया मगर गरी भीतर की साबित रह गई। उसने कहा: देखो! यह रहे तुम, यह रहा मंसूर। तुम कच्चे नारियल हो। गरी अभी जुड़ी हुई है खोल से। खोल टूटेगी, गरी भी टूट जाएगी। तुम्हारी आत्मा शरीर से जुड़ी है। शरीर टूटेगा, आत्मा भी टूटने लगेगी इसलिए रोओगे, चिल्लाओगे, परेशान होओगे। यह रहा मंसूर--यह सूखा नारियल। इसकी गरी खोल से अलग हो गई है। खोल टूट जाएगी, गरी का क्या बनता-बिगड़ता है! गरी जैसी है वैसी।
आनंद के सिंध में आनि बसे, तिनको न रह्यो तन को तपनो।
जब आपु में आपु समाय गए, तब आपु में आपु लह्यो अपनो।।
और जब तुम अपने भीतर जाओगे तभी तुम पाओगे, जिसकी तलाश करते थे, वह तुम्हीं हो। जिसकी खोज थी, खोजने वाले में छिपा है। मजिंल दूर नहीं है, यात्री के प्राणों में मौजूद है; तुम्हारी श्वास-श्वास में बसी है। तुम्हारे हृदय की धड़कन में ही मोक्ष का निवास है।
जब आपु में आपु समाय गए, तब आपु में आपु लह्यो अपनो।
जब आपु में आपु लह्यो अपनो, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो।
‘जब आपु में आपु लह्यो अपुनो, तब अपनो हो जाय रह्यो जपनो।’--तब तो फिर जाप करना नहीं पड़ता, होने लगता है; होता ही रहता है--सतत, अहर्निश! स्मरण करना नहीं पड़ता। दूरी ही न रही। परमात्मा में और उसके प्रेमी में दूरी न रही। भक्त और भगवान एक हो गया। अब क्या स्मरण करना, किसका स्मरण करना? अब कौन स्मरण करे?
जब ज्ञान को भान प्रकास भयो, तब जगजीवन होय रह्यो सपनो।
और जब भीतर यह रोशनी होती है, जब अपने से मिलन होता है और प्रकाश जन्मता है तब सारा जगत सपना हो जाता है। जगत माया है, यह कोई सिद्धांत नहीं, यह तो प्रकाश जिनका जग गया उनका अनुभव है। यह कोई दार्शनिक प्रत्यय नहीं है कि जगत माया है, यह अस्तित्वगत अनुभव है।
ये सूत्र बड़े प्यारे हैं। इन सूत्रों को सुन कर सिर्फ समझ कर मत रह जाना। इन सूत्रों को समझ कर दूसरों को मत समझाने लगना, अन्यथा तुम पंडित हो जाओगे; चूक जाओगे।
तेरे दर तक पहुंच कर लौट आए
इश्क की आबरू डुबो बैठे
ये सूत्र तुम्हारे श्वास-श्वास में रम जाएं। ये तुम्हारा जीवन बन जाएं तो तुम भी वहां पहुंच सकते हो, जहां बुद्ध पहुंचे, मीरा पहुंची, रामकृष्ण पहुंचे, रमण पहुंचे। जहां कोई भी कभी पहुंचा है, तुम भी पहुंच सकते हो।
वह परम धन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, आओ! वह परम प्यारा तुम्हें पुकार रहा है, आओ!
आज इतना ही।