CHARANDAS

Nahin Sanjh Nahin Bhor 06

Sixth Discourse from the series of 10 discourses - Nahin Sanjh Nahin Bhor by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1977, Pune.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


पहला प्रश्न:
भगवान, सुनते हैं कि प्रभु की कृपा से ही प्रभु मिलते हैं। तो क्या प्रभु प्राप्ति के लिए मनुष्य का श्रम व्यर्थ है?
हां भी और नहीं भी। अंतिम अर्थों में मनुष्य का श्रम व्यर्थ है। अंतिम अर्थों में तो प्रसाद ही सार्थक है--प्रयास नहीं। क्योंकि अंतिम क्षण में अहंकार भी छोड़ना होगा; और अहंकार में ही चला जाता है श्रम का भाव। मैं कुछ करता हूं--यह ‘मैं’ की ही छाया है।
यात्रा तो शुरू होती है प्रयास से, अंत होता है प्रसाद पर। लेकिन शुरू, पहला कदम प्रयास से ही होगा। मनुष्य का श्रम उस दृष्टि से सार्थक है।
या ऐसा समझो; पूछते हो तुम: ‘प्रभु की कृपा से ही प्रभु मिलते हैं, तो क्या प्रभु प्राप्ति के लिए मनुष्य का श्रम व्यर्थ है?’
प्रभु की कृपा मनुष्य के श्रम से मिलती है; प्रभु, प्रभु-कृपा से मिलते हैं। लेकिन उनकी कृपा भी अर्जित करनी होगी। कृपा भी मुफ्त नहीं है; मूल्य चुकाना होगा। नहीं तो सभी को मिल जाती।
अगर श्रम के बिना परमात्मा मिलता होता, तो सभी को मिलना चाहिए। चरणदास, नानक और कबीर को ही क्यों? मीरा, सहजो और दया को ही क्यों? सभी को मिलना चाहिए।
अगर परमात्मा सिर्फ कृपा से मिलता है, तब तो बड़ा अन्याय हो रहा है। कुछ को मिलता है, कुछ को नहीं मिलता। तो जिनको मिलता है, उनसे कुछ भाई-भतीजावाद है; कुछ राजनीति है। जिनको नहीं मिलता, उनसे कुछ नाराजगी है? तो, तो कृपा दूषित हो जाएगी। कम से कम परमात्मा की कृपा को दूषित मत करो। उस पर दोषारोपण न लगाओ।
उसकी कृपा सभी को उपलब्ध है; जैसे वर्षा हो, जल बरसे। लेकिन तुमने अपनी मटकी उलटी रखी हो, और तुम्हारी मटकी खाली रह जाए, तो तुम कहो: मुझ पर कृपा न हुई।
कृपा तो होती थी। कृपा तो उलटी मटकी पर भी उतनी ही होती थी, जितनी सीधी मटकी पर होती थी। लेकिन सीधी मटकी भर गई और उलटी मटकी खाली रह गई।
इतना श्रम तो करो कि मटकी सीधी कर लो। हालांकि मटकी सीधी करने से ही भर न जाएगी।
इसीलिए कहता हूं: हां भी और नहीं भी। भरेगी तो तभी, जब वर्षा होगी। तुम कितनी ही सीधी मटकी रख कर बैठे रहो, वर्षा न होगी तो नहीं भरेगी।
मनुष्य का श्रम जरूरी है, अत्यंत जरूरी है--मटकी सीधी करने के लिए। फिर प्रभु की कृपा बरसती है; वह तो प्रसाद है।
तो मैं ऐसा कहना चाहूंगा कि मनुष्य के श्रम से प्रभु तो नहीं मिलते हैं; लेकिन प्रभु की कृपा मिलती है। और प्रभु-कृपा से प्रभु मिलते हैं।
तुम दो में से एक कोई भी चुनने को सदा राजी हो जाते हो। क्योंकि तर्क में बात एक ठीक बैठती है। जैनों ने चुन लिया है--श्रम, इसलिए जैन संस्कृति कहलाती है: श्रमण संस्कृति। श्रम से मिलेगा; कैसी कृपा? किसकी कृपा? कोई कृपा-निधान नहीं है। न कृपा है, न कृपावान है; आदमी का श्रम सब-कुछ है। यह आधी बात है। यह मटकी सीधी रख कर तुम बैठे रहो, बैठे रहो, बैठे रहो--जन्मों-जन्मों तक, यह भरेगी नहीं। और जब भरेगी, तो तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि सिर्फ सीधी रखने के कारण भर गई। तब कुछ और उतरा है; आकाश से अवतरण हुआ है। तब आकाश उतरा है; तब तुम्हारे भीतर शाश्वत की कोई किरण आई है।
हां, तुम्हारे श्रम ने इतना किया था कि द्वार खोल रखा था; किरण को अटकाया नहीं; दरवाजे पर रोका नहीं। किरण को आने दिया। तुमने इतना ही किया है कि रोका नहीं। रुकावट नहीं डाली।
मनुष्य का श्रम इतना ही कर सकता है कि प्रभु आए, तो रुकावट न डाले। खुला हो हृदय। यही मेरा मतलब--मटकी के सीधे होने से है।
स्वागत के लिए तत्पर हो। स्वच्छ हो कि प्रभु को आने योग्य लगे। मेहमान घर में आता है, तुम घर सजा लेते हो। प्रभु को बुलाओगे, इतना भी न करोगे कि हृदय थोड़ा सजाओ! थोड़ी सुरभि हो। थोड़ा संगीत हो। तुम्हारे हृदय में उसे अंगीकार करने की क्षमता हो, पात्रता हो।
बहुत बार प्रभु आता है और तुम वंचित रह जाते हो। रोज-रोज आता है और तुम वंचित रह जाते हो। क्योंकि तुम उसकी भाषा ही नहीं सीखे। तुमने उसके चेहरे को पहचानने के लिए कोई उपाय ही नहीं जुटाए। तुम उसके पद-चिह्नों को सुनते भी हो, अनसुना कर जाते हो। तुम्हारे कान व्यर्थ के शोरगुल से भरे हैं। तुम उलटी मटकी हो।
तो प्रयास इतना तो जरूरी है। आधी यात्रा तो प्रयास से ही होगी। आधी यात्रा के बाद अपूर्व घटना घटती है। तुम कुछ भी नहीं करते और कुछ होना शुरू हो जाता है।
तुमने ध्यान साध लिया। यह मटकी सीधी हो गई। अब इस ध्यान की सधी हुई अवस्था में बरसता है अनंत; तुम भरने लगते हो; तृप्ति उतरने लगती है।
तो एक तो जैन हैं, जो कहते हैं: सब श्रम से हो जाएगा। मैं उनसे आधी दूर तक राजी हूं। लेकिन आगे की यात्रा उनसे न हो पाएगी।
दूसरी तरफ भक्त हैं, हिंदू हैं, हिंदुओं के कुछ वर्ग हैं, जो मानते हैं कि सिर्फ उसके प्रसाद से, उसकी कृपा से होगा। आधी ही बात है। और अगर इन दोनों आधी बातों में चुनना हो, तो मैं तुमसे कहूंगा कि जैन की बात चुन लेना। क्योंकि वह यात्रा का पहला हिस्सा है। कम से कम आधी यात्रा तो हो जाएगी।
हिंदू विचार यात्रा का अंतिम हिस्सा है; उसको चुना तो यात्रा होने ही वाली नहीं। तुम मटकी कभी सीधी न करोगे; वर्षा होती रहेगी।
तो अगर कोई मुझसे कहे कि इन दोनों में ही चुनाव करना है, तो मैं कहूंगा कि जैन प्रक्रिया को चुन लेना; योग की प्रक्रिया को चुन लेना; श्रम को चुनना।
क्योंकि तुम अपना काम तो पूरा करो। फिर आधी यात्रा जो शेष है, वह परमात्मा का काम है।
तुम मानो या न मानो, अगर मटकी सीधी हो गई, तो परमात्मा आता ही है। परमात्मा यह थोड़े ही कहेगा कि तेरी मटकी तो सीधी है, लेकिन तेरी धारणा यह है कि प्रयास से ही होगा, तो तेरी धारणा के कारण मैं न आऊंगा। परमात्मा तुम्हारी धारणा की चिंता नहीं करता। तुम्हारी धारण करने की क्षमता की चिंता करता है।
तुम्हारी कुछ भी धारणा हो। तुमने आम के बीज बोए और तुम्हारी धारणा है कि ये नीम के बीज हैं। इससे क्या होता है? बीज आम के बोए, आम का वृक्ष निकलेगा। तुम्हारी धारणा के कारण तुम बीज आम के, नीम की बौरियों में न बदल सकोगे। और जब वृक्ष में फल लगेंगे, तो नीम नहीं लगेगी; आम ही लगेंगे। तुमने लाख सिर पटका हो और लाख माना हो, इससे क्या होगा?
इसलिए मैं कहता हूं: अगर हिंदू और जैन में चुनना हो, तो जैन को चुन लेना। हालांकि बात उतनी ही गलत है, जितनी हिंदू की; और उतनी ही सही है, जितनी हिंदू की। पचास-पचास प्रतिशत दोनों बातें सही और दोनों बातें गलत हैं।
लेकिन जैन धारणा में एक सुविधा है कि तुम भला नीम समझ कर बोओ, लेकिन बो तो आम ही रहे हो। स्वच्छ तो कर ही रहे हो हृदय को। मटकी तो सीधी हो ही रही है। जिस दिन हो जाएगी, जिस दिन तालमेल बैठ जाएगा, उसी दिन वर्षा हो जाएगी। तुम्हारी धारणा बाधा न डाल सकेगी।
लेकिन हिंदू धारणा खतरनाक हो सकती है। क्योंकि वह यात्रा का आखिरी हिस्सा है। वहां तुम अभी गए नहीं। उलटी मटकी लिए बैठे हो; और सोचते हो; कृपा से होगा!
तुम कृपा के हकदार हो? अधिकारी हो? तुमने कृपा पाने के लिए कुछ किया है? तुमने हाथ-पैर भी नहीं हिलाए।
लेकिन मैं यह कह नहीं रहा हूं कि दो में से एक को चुनना जरूरी है। मैं तो कहता हूं: दोनों एक साथ चुनो। दो में से एक को चुनना हो, तो मैंने कहा कि जैन विचार ज्यादा कारगर होगा। क्योंकि तुम जहां खड़े हो, वहां से जैन विचार का संबंध जुड़ जाएगा।
लेकिन दोनों में से चुनने की कोई जरूरत ही नहीं है। चुनाव की जरूरत ही नहीं है। दोनों संयुक्त स्वीकार करो।
थोड़ी दूर तुम चलो, थोड़ी दूर परमात्मा को चलने दो। उतनी दूर तो चलो, जितनी दूर तुम चल सकते हो। जितने दूर तुम चल सकते हो, उतना तो काम पूरा करो।
गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहता था कि तुम जितना कर सकते हो, जब तक तुम उसे पूरा न कर लो, तब तक कोई सहायता कहीं से भी न मिलेगी। हां, जब तुम जितना कर सकते थे, उसकी चरम अवस्था आ गई, तुम जो कर सकते थे, कर चुके; तुमने अपनी सारी शक्ति नियोजित कर दी; कुछ भी बचाया नहीं; तुम बिलकुल अपने को उंड़ेल दिए; उसी घड़ी में कोई हाथ बढ़ता है; उसी घड़ी में तुम्हारी जीवन-ऊर्जा नया रुख लेती है; नया दौर शुरू होता है। उसी क्षण तुम पाते हो कि अब मैं करने वाला नहीं; अब परमात्मा करने वाला है।
दोनों ही बातें साथ साध सको, तो अच्छा।
जैसा मैंने कहा, जैन विचार में एक सुविधा है कि वह यात्रा का पहला हिस्सा है; तो कम से कम मटकी सीधी करने तक तो ले जाएगा। लेकिन उसमें एक खतरा है; और खतरा है--अहंकार भाव का। इसलिए तुम जैन साधु को हिंदू साधु से ज्यादा पवित्र पाओगे, लेकिन ज्यादा अहंकारी भी।
जैन साधु को हिंदू साधु से ज्यादा अनुशासनबद्ध; ज्यादा नीति-नियम मर्यादा; ज्यादा शुद्ध, ज्यादा पवित्र; सब भांति निखरा हुआ पाओगे। लेकिन एक खतरा है। इस सारी शुद्धि के बीच अहंकार विराजमान है। जैन साधु को तुम अति अहंकारी पाओगे। हाथ जोड़ कर भी तुम्हें नमस्कार नहीं कर सकता है। कैसे तुम्हें करे; वह साधु है! और तुम साधारण गृहस्थ, संसारी। तुमको हाथ जोड़ कर नमस्कार करे? असंभव है--हाथ जोड़ना उसका।
जैन शास्त्र कहते नहीं कि साधु हाथ जोड़ कर नमस्कार करे। वह तुम्हें सिर्फ आशीर्वाद दे सकता है--नमस्कार नहीं कर सकता। लेकिन जो नमस्कार में न झुक सकता हो, उसके आशीर्वाद दो कौड़ी के हैं। जिसमें उतनी विनम्रता ही न हो, उसका आशीर्वाद कारगर न होगा; व्यर्थ चला जाएगा। बांझ है उसका आशीर्वाद। उसके आशीर्वाद में कोई फूल नहीं खिल सकते।
जैन साधु, साधु है; लेकिन साधु होने का बड़ा अहंकार है। हिंदू साधु, साधु नहीं है; लेकिन एक लाभ है वहां: अहंकार नहीं है।
आधा चुनोगे, तो खतरा भी है, लाभ भी है। जैन साधु अकड़ता चला जाता है। जितना उपवास करता है, जितना व्रत करता है, जितनी तपश्चर्या करता है, उतनी अकड़ गहरी होती जाती है; उतना मैं-भाव प्रगाढ़ होता चला जाता है।
यह मैं-भाव छोड़ना है एक दिन। इसको अगर बहुत प्रगाढ़ कर लिया, तो छोड़ोगे कैसे? यह मित्र नहीं है, यह शत्रु है--जिसको तुम पोषित कर रहे हो। यह जहर की जड़ों में पानी डाल रहे हो। इसे एक दिन छोड़ना है। यह पहले से ही याद रखो। इसे एक दिन छोड़ना है। लेकिन इसे तुम तभी छोड़ सकते हो, जब कोई चरण हों, जिनमें इसे रख सको। परमात्मा की कोई धारणा हो, उसके प्रसाद का कोई भरोसा हो। नहीं तो खुद को कैसे छोड़ोगे?
रामकृष्ण कहते थे: ‘तू व्यर्थ ही पतवार उठाता है। पाल क्यों नहीं खोलता? जब उसकी हवाएं तुझे उस पार ले जाने को बिलकुल तत्पर हैं, तो तू व्यर्थ ही पतवार उठाता है।’ यही फर्क है।
श्रम यानी पतवार। नाव खुद ही खेनी पड़ेगी; पतवार उठा कर चलानी पड़ेगी।
पाल यानी समर्पण; वह ले जाएगा। उसकी हवा ले जाने को तैयार है। खोल दो पाल; पतवार रख लो सामने सम्हाल कर; इसकी कोई जरूरत नहीं है। हवा खुद ही ले जाने को तैयार है--बिना तुम्हारे श्रम के।
मेरी दृष्टि में तुम दोनों का अगर संयोग बना सको, तो सोने में सुगंध है।
साधना इस तरह शुरू करो कि जैसे सभी कुछ तुम्हारे श्रम पर निर्भर है। और भीतर अंतर-धारा यह भी चलती रहे कि मेरे किए क्या होगा? मेरे किए क्षुद्र ही हो सकता है। मेरी क्षमता कितनी? मेरी योग्यता कितनी? मेरे हाथ की पहुंच कितनी? मेरे किए क्षुद्र ही हो सकता है। तो जो मैं कर सकता हूं, करूंगा। लेकिन इससे अकडूंगा नहीं। जानता यही रहूंगा कि यह सब मैं कर रहा हूं, ताकि तेरी कृपा मिल जाए। क्योंकि असली घटना तो तेरी कृपा से होगी।
मनुष्य का श्रम शुभ प्रारंभ है, लेकिन शुभ अंत नहीं। इसलिए तुम चलो श्रम से, प्रयास से, प्रयत्न से, साधनासे; पहुंचो--प्रसाद पर।
बस, तुम्हारा घड़ा सीधा हो जाए, और वर्षा तो हो ही रही है। वर्षा एक क्षण को नहीं रुकती। ऐसा नहीं है कि परमात्मा ‘कभी’ बरसता है। तुम्हें कभी मिलता है, यह दूसरी बात है। बरसता सदा है।
समझो: जब चरणदास हुए, तब परमात्मा बरस रहा था। लेकिन चरणदास की मटकी भर गई; तुम्हारी न भरी। तुम उलटी रखे बैठे थे। बुद्ध हुए; परमात्मा बरसता था। बुद्ध की मटकी भर गई। तुम चूक गए। तुम शायद बुद्ध के पास ही बैठे होते, तो भी चूक जाते। वर्षा तो हो रही थी; नहीं तो बुद्ध की मटकी कैसे भरी? लेकिन तुमने यह ध्यान ही नहीं दिया कि मेरी मटकी उलटी रखी है।
इतनी तैयारी करनी होगी: मटकी सीधी रखो। मटकी को थोड़ा साफ भी करो; उसमें गंदगी न हो, नहीं तो शुद्ध जल भी बरस कर गंदा हो जाएगा। उसमें छिद्र न हों, इसकी फिकर करो; छिद्र भरो। नहीं तो शुद्ध जल भी बरसेगा, बरसता लगेगा भी, भरता भी लगेगा, लेकिन तुम उपयोग न कर पाओेगे। इधर भरा--उधर बह जाएगा। आया-आया हाथ--और खो जाएगा।
ये सभी घटनाएं घटती हैं। कुछ लोग उलटी मटकी की तरह हैं; उन पर बरसता रहता है और वे भरते नहीं। उन्हें पता ही नहीं चलता। इनको लोग कहते हैं: चिकने घड़े। दूसरे ऐसे हैं, जिनकी मटकी तो सीधी रखी है, लेकिन हजार छेद वाली है। भरता भी लगता है, दिखता भी है कि भर रहा है। लेकिन जब भी पाओेगे: खाली की खाली। प्यास कभी तृप्त नहीं होती। प्यास बनी ही रहती है। और कठिनाई हो जाती है।
पानी न मिलता हो और प्यास रहे, तो समझ में आता है। पानी मिलता है, भरता लगता है, फिर भी प्यास नहीं बुझती।
और कुछ ऐसे भी हैं, कि छिद्र भी नहीं हैं घड़े में। घड़े सीधे भी रखे हैं, लेकिन गंदगी से भरे हैं। हजार तरह की व्यर्थ वासनाएं, हजार तरह के रोग व्याधियां, हजार तरह के कीड़े-मकोड़े, जन्मों-जन्मों के कूड़ा-करकट से भरे संस्कार--वे सब भरे रखे हैं।
घड़ा सीधा है, छिद्रवाला नहीं है, लेकिन आकंठ भरा है। पहले तो पानी को भीतर जाने का उपाय नहीं; घड़ा भरा ही है। अब और भरने की जगह नहीं।
या कुछ ऐसे लोग भी हैं कि घड़ा पूरा नहीं भरा है, लेकिन गंदगी इतनी घड़े की दीवालों से लगी पड़ी है, कि पानी चला भी जाता है और भर भी जाता है; लेकिन भरते ही अशुद्ध हो जाता है।
तुमने देखा। सांप को, कहते हैं--दूध पिलाओ, तो जहर हो जाता है। वही दूध बच्चा पीता है, जीवन बनता है। वही दूध सांप पीता है और जहर हो जाता है!
हम सब एक सा ही भोजन करते हैं। तुमने खयाल किया। लेकिन क्रोधी में भोजन क्रोध बन जाता है। प्रेमी में प्रेम बन जाता है। ज्ञानी में ज्ञान बन जाता है। भक्त में भक्ति बन जाता है।
भोजन हम सब एक सा ही करते हैं। कोई चरणदास ने कोई दूसरा भोजन न किया था, जो तुम कर रहे हो। लेकिन परम भक्ति बन कर निकला। किसी में वही भोजन हत्यारा बन जाता है; खूनी बन जाता है।
तो हम लेते तो भीतर एक सी जैसी चीजें हैं, लेकिन भीतर उनमें अंतर हो जाता है। क्योंकि भीतर हमारी कैसी दशा है, वह उन्हें रूपांतरित कर देती है।
जिस बरतन में जहर भरा रहा हो, अब चाहे जहर न भी हो, लेकिन जिसकी दीवालें जहर सोख गई हों, उसमें पानी जाएगा, तो जहर ही हो जाएगा।
क्या तुम्हारे भीतर जाता है, इससे कुछ सिद्ध नहीं होता है। क्या तुम्हारे बाहर आता है, इससे सिद्ध होता है।
जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि तुम क्या अपने भीतर ले जाते हो, उससे कुछ सिद्ध नहीं होता। तुम्हारे बाहर क्या आता है, उससे ही सब प्रमाण मिलते हैं।
भीतर तो सभी लोग शुद्ध हवा ले जाते हैं, लेकिन जब बाहर निकालते हैं, तो किसी के जीवन में सुवास आती है, और किसी में बास आती है; और किसी में दुर्गंध आती है। तुम्हारे भीतर रूपांतरण हो जाता है।
परमात्मा तुम्हारे भीतर भी जाता है, लेकिन अक्सर शैतान बन कर प्रकट होता है।
जीवन तो एक ही है। तुम उस जीवन के साथ क्या करोगे, इस पर सब निर्भर है।
मेरी अगर सुनते हो, तो मैं तुमसे कहूंगा: प्रभु प्राप्ति मिलती है--उसकी कृपा से। लेकिन उसकी कृपा मिलती है--तुम्हारे श्रम से।
साधना के प्राथमिक चरणों में श्रमण बनो। और साधना के अंतिम चरणों में ब्राह्मण बन जाना। और तुम चूकोगे नहीं।
साधना के प्रथम चरणों में ब्राह्मण बन गए--चूक गए। और साधना के अंतिम चरणों में जैन बने रहने की जिद की, श्रमण बने रहने की जिद की, तो चूके।
इस समन्वय को ही मैं परिपूर्ण धर्म कहता हूं।
अभी जीवन
कम-ज्यादा छंद है
कम-ज्यादा सांसों का,
किसी नियम से घटना-बढ़ना
छाती का कम-ज्यादा, मगर धड़कते रहना
बंद भी आंखों का जलना, सपनों में लहर-लहर
उड़ना विचारों का
हिलना हाथ-पांवों का
अभी सब छंद है कम-ज्यादा
जानता हूं संगीत हो जाएगा जीवन
जब शरीर से छूटेगा यह
कंठ से छूटे स्वर की तरह
धड़कनें बदल जाएंगी मूर्च्छना में
सांसें हो जाएंगी लय
प्रलय की नदी में
तरंगें पैदा करेंगे, डाले गए हाड़
सरसराते हुए किनारे के वन के साथ
गूंजूंगा मैं वर्षा में, तूफान में
अभी जीवन छंद है
जानता हूं
शरीर से छूट कर संगीत हो जाएगा यह।
जब तक तुम अपने से बंधे हो, तब तक छंद बंधा है। तब तक ऐसा समझो कि वीणा में संगीत बंधा है। अभी किसी ने मुक्त नहीं किया। जब तक तुम अपने ‘मैं’ से घिरे हो, तब तक संगीत तारों में पड़ा है। तब तक तुम एक बंद छंद हो। फिर किसी ने तार छेड़े। कोई कुशल अंगुलियां तारों से जूझीं, खेलीं? रास रचाया। तार में पड़ा हुआ, सोया हुआ छंद जागा, मुक्त हुआ। छंद को पंख लगे। छंद संगीत बना। दूर आकाश में व्याप्त हो गया।
अभी तुम्हारा परमात्मा ‘मैं’ के पत्थरों के नीचे दबे हुए झरने जैसा है। अहंकार उसे अवरुद्ध किए है। जैसे ही अहंकार छूटा, जैसे ही मैं-भाव गया, वैसे ही तुम पाओगे: छंद मुक्त हुआ, स्वच्छंद हुआ। अब उसकी कोई सीमा न रही। ससीम--असीम हुआ। क्षुद्र--विराट हुआ। पदार्थ--परमात्मा हुआ।
अभी जीवन छंद है
जानता हूं
शरीर से छूट कर संगीत हो जाएगा यह।
प्रयास से तो तुम अपने में ही बंद रहोगे। हां, शुद्ध हो जाओगे। प्रसाद से कारा टूटेगी। कारागृह की दीवालें ढहेंगी; कैदी मुक्त होगा। और तब छंद संगीत होगा; तब सीमा नहीं रहेगी। और असीम के बिना कोई शांति नहीं है। असीम में ही शांति है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, भक्ति में नाम-स्मरण की महिमा बहुत है। नाम-स्मरण के प्रसंग में ही यह लोकप्रिय पद है: ‘राम-नाम रटते रहो, जब लगि घट में प्रान। कबहूं तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान।।’ दीनदयाल जल्दी क्यों नहीं सुनते हैं?
तुम्हें बहुत बार ऐसा शक होगा कि दीनदयाल बहरे हैं--बज्र बहरे हैं। ऐसा नहीं है।
पहली तो बात: तुम सुनने योग्य कुछ कहते ही नहीं। तुम जो कहते हो, वह सुना जाए, इस योग्य नहीं। तुम कहते ही क्या हो?
तुम जब राम-राम रटते हो, तब राम से तुम्हें क्या लेना-देना? तुम्हारा काम कुछ और ही होता है। राम तो बहाना होता है। किसी को अदालत में मुकदमा जीतना है; किसी को चुनाव लड़ना है। किसी को कुछ... किसी को दुश्मन को नष्ट करना है। किसी को किसी स्त्री को प्रेम-पाश में बांधना है। कोई धन के पीछे दीवाना है। कोई लॉटरी में आशा लगाए बैठा है।
राम-नाम तुम जपते हो लेकिन थोथा; मतलब कुछ और है। लॉटरी मिल जाए; नौकरी लग जाए; मुकदमा जीत जाएं; पत्नी बीमार है, ठीक हो जाए। ये तुम्हारे प्रयोजन हैं। ये प्रयोजन ही अटका देते हैं।
परमात्मा बहरा नहीं है। कोई चिल्लाने की जरूरत भी नहीं है। तुमने अगर मौन में भी उसका स्मरण किया, तो भी सुन लेगा। पहुंच ही जाएगी बात, क्योंकि तुम्हारे हृदय से जुड़ा ही है। तुम्हारे हृदय में अगर वस्तुतः कुछ बात उठेगी, जरूर पहुंच जाएगी। मगर ये बातें पहुंचाने योग्य भी नहीं हैं।
तुम कूड़ा-करकट अपनी प्रार्थना में इतना जोड़ देते हो कि प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंच पाती। इतनी बोझिल हो जाती है। उड़ने के लिए भार-रहितता चाहिए। जब तुम पहाड़ पर चढ़ते हो, तो बोझ कम करना पड़ता है। जितनी ऊंचाई आने लगती है, उतना बोझ कम करना पड़ता है।
जब एडमंड हिलेरी एवरेस्ट पर पहुंचा, तो उसके पास कुछ भी नहीं था। आखिरी घड़ी में उसने अपना कोट भी उतार कर डाल दिया था--कुछ फीट पहले। अपना कैमरा भी छोड़ा। अपना सब सामान धीरे-धीरे छोड़ता गया। क्योंकि जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, वैसे-वैसे छोटा सा बोझ भी भारी होने लगता है। निर्भार ही पहुंच सका गौरीशंकर पर। कैमरा तक उतार कर रख दिया कुछ क्षणों पहले। वह भी बोझिल हो गया। ऐसी ही यात्रा प्रार्थना की है।
प्रार्थना में अगर कुछ वासना है, तो बोझ है। वासना नहीं है, तो निर्बोझ है। निर्वासना-प्रार्थना तत्क्षण पहुंच जाती है। जरा भी देर नहीं होती।
तुम प्रबल
मन में भरो सुख विमल चाहो तो
तुम विमल
मन में भरो दुख प्रबल चाहो तो
तुम तरल चाहे तरलता दो
तुम सरल चाहे सरलता दो
सोच कर मेरी जरूरत
दो तुम्हें जो चाहिए
कान मेरी मूढ़ मांगों पर
न देना
मूढ़ मांगों की
खड़ी है एक सेना
तान कर शर
हे प्रखर!

जो जानते हैं, वे कहेंगे:
सोच कर मेरी जरूरत,
दो तुम्हें जो चाहिए
और कान मेरी मूढ़ मांगों पर
न देना
मूढ़ मांगों की
खड़ी है एक सेना
तान कर शर
हे प्रखर!
प्रार्थना तब पूरी होती है, जब तुम इस बात के प्रति सजग हो जाते हो कि तुम मेरी मांगों पर ध्यान मत देना। मेरी मांगें तो गलत होंगी, क्योंकि मैं गलत हूं।
मैं ठीक मांगूंगा कैसे? अभी मैं ठीक नहीं हूं। मेरे भ्रांत, अज्ञान से भरे हृदय से ठीक मांग उठेगी कैसे? इसलिए हे प्रभु, वही देना, जो तुम देना चाहो। मेरी मूढ़ मांगों पर ध्यान ही मत देना, क्योंकि मैं तो कुछ गलत मांगता रहूंगा।
जैसे छोटा बच्चा कुछ भी मांगता रहता है। तुम सभी मांगों पर ध्यान तो नहीं देते। बच्चा बीमार है, गला अवरुद्ध है। डिप्थेरिया हुआ है, और आइस्क्रीम मांग रहा है। तो तुम बच्चे की बात पर ध्यान तो नहीं देते। तुम समझा-बुझा कर टालते हो कि अभी आइस्क्रीम कहां! अभी रात आइस्क्रीम कहां मिलेगी? कल सुबह, रुक, कल दोपहर को फिर इंतजाम करेंगे। अच्छी आइस्क्रीम लाएंगे। हजार बहाने करते हो।
बच्चे की हर मांग तो नहीं मानी जा सकती। बच्चा तो कुछ भी मांग सकता है।
एक मां अपने बेटे से बात कर रही है। नया बच्चा आने को है; नौ महीने पूरे हो गए हैं। और मां अपने बेटे को तैयार कर रही है। नया अतिथि घर में आएगा, बेटे को तैयार कर लेना जरूरी है। छोटा बच्चा... उससे वह कह रही है: तुम्हें बहुत खुश होना चाहिए। तुम्हारा नया भाई आ रहा है। परमात्मा के घर से नया भाई आ रहा है!
लेकिन बच्चा कुछ उदास है और कुछ खिन्न है और मां पूछती है: बात क्या है? तू खिन्न और उदास क्यों है? तुझे नये भाई के आने से कोई प्रसन्नता नहीं होती है? वह बोला कि नहीं, क्योंकि मैं रोज प्रार्थना करता हूं भगवान से कि इस बार भाई न मिले। एक छोटा घोड़ा भेज। मालूम होता है, मेरी प्रार्थना सुनी नहीं गई। अब भाई-वाई नहीं चाहिए। मुझे एक घोड़ा चाहिए। और वह अपनी मां से कहता है: अगर तुझे ज्यादा तकलीफ न हो, तो घोड़ा ही... अभी भी कुछ बन सके, तो कोशिश कर।
बच्चों की मांग बच्चों की मांग है। हमारी मांगें भी बच्चों से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं। और बच्चों की मांगें तो निर्दोष हैं। हमारी मांगें, निर्दोष भी नहीं हैं। बड़ी चालबाज, बड़ी चालाक... इन मांगों के कारण ही प्रार्थना नहीं पहुंचती। दीनदयाल बहरे नहीं हैं।
मांग से मुक्त करो प्रार्थना को।
तुम देखो: ‘प्रार्थना’ शब्द का अर्थ ही मांगना हो गया है। मांगने वाले को हम ‘प्रार्थी’ कहने लगे। क्योंकि हम वह प्रार्थना भूल ही गए, जो मांग के बिना होती है, हमारी तो सभी मांगें प्रार्थना में समा जाती हैं। हमारी सारी प्रार्थनाएं बस, मांग के ही बहाने होती हैं। हम तो प्रार्थना करते ही नहीं, जब मांगने को कुछ भी नहीं होता।
एक छोटे बच्चे से उसका पादरी पूछ रहा था कि तुम रात प्रार्थना कर के सोते हो? उसने कहा: हां। और उसने पूछा कि सुबह भी उठ कर प्रार्थना करते हो? उसने कहा: नहीं।
तो पादरी ने पूछा: बात क्या है? जब रात प्रार्थना करते हो; सुबह क्यों नहीं करते? तो उसने कहा: रात अंधेरे में मुझे डर लगता है। सुबह उजाले में मुझे डर लगता ही नहीं। अकारण सुबह किसलिए प्रार्थना करनी? रात का अंधेरा भयभीत करता है।
एक छोटा बच्चा दूसरे बच्चे से पूछ रहा है कि तुम भोजन करते समय प्रार्थना करते हो या नहीं? हमारे घर में तो हम प्रार्थना करते हैं। दूसरा बच्चा बोला: नहीं; मेरी मां अच्छा भोजन पकाती है। प्रार्थना करने की कोई जरूरत ही नहीं है। भोजन के पहले प्रार्थना का मतलब एक ही हो सकता है कि हे प्रभु, बचाओ...! मगर मेरी मां अच्छा भोजन तैयार करती है। अब तक हमें प्रार्थना करने की जरूरत नहीं पड़ी।
तुम्हारी प्रार्थनाएं क्या हैं? तुम्हारी शिकायतें हैं कि ऐसा होना चाहिए था और ऐसा क्यों हो गया?
इमर्सन का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि ‘मैंने हजारों आदमियों की प्रार्थनाएं सुनीं और जांचीं और मैंने एक ही बात पाई कि हर आदमी एक ही प्रार्थना करता है, कि हे प्रभु, दो और दो चार क्यों होते हैं?’ बड़ा अजीब निष्कर्ष है। इमर्सन कहता है कि लोग यही प्रार्थना करते हैं परमात्मा से कि हे प्रभु, दो और दो चार क्यों होते हैं?
तुमने किसी को गाली दी और उसने तुम्हारा अपमान किया। यह दो और दो चार वाला मामला है। और तुम प्रार्थना कर रहे हो कि उसने मेरा अपमान क्यों किया? तुम्हें यह दिखाई नहीं पड़ता कि तुमने गाली दी। तुमने किसी को चोट पहुंचाई, यह तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ती। चोट उत्तर में आई, वही दिखाई पड़ता है। और तुम कहते हो कि ये दो और दो चार क्यों हुए! यह चोट मुझे क्यों मिली? मैंने तो कुछ बुरा नहीं किया; मैं दुख क्यों भोग रहा हूं? लेकिन बिना बुरा किए दुख कभी किसी ने भोगा है?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: हमने कोई पाप नहीं किया। हम दुख क्यों भोग रहे हैं? मैं उनसे कहता हूं कि यह तो सवाल ही नहीं, क्योंकि मुझे तुम्हारे पाप की कथा कुछ भी पता नहीं। तुमसे मैं इतना ही कह सकता हूं कि अगर दुख भोग रहे हो, तो खोज-बीन करना, जरूर कुछ किया होगा। क्योंकि दो और दो चार ही होते हैं। हां, यह हो सकता है कि तुमने उसे पाप न माना हो। तुम्हारे मानने, न मानने से क्या होता है? यह हो सकता है कि तुमने उसे पुण्य मान कर ही किया हो, यह भी हो सकता है। लेकिन तुम्हारे मानने, न मानने से क्या होता है? जीवन का गणित अपनी धारा में बहता है।
जहां तुम दुख पाओ, पाना कि पाप किया गया है। दुख प्रमाण है--पाप का। जहां तुम सुख पाओ, पाना कि पुण्य किया गया है। सुख प्रमाण है--पुण्य का। दो और दो चार।
लेकिन दो और दो चार से हम राजी नहीं हैं। हम कहते हैं: मैं कितना ही पाप करूं, लेकिन मुझे सुख मिलना चाहिए।
तुमने देखा, लोग अपने लिए और दूसरों के लिए अलग-अलग तर्क रखते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा था। कुछ बात हो रही थी। बेटे ने पूछा कि पिताजी फलां आदमी कांगे्रेस छोड़ कर जनता पार्टी में आ गया है। (मुल्ला नसरुद्दीन खुद जनतापार्टी में सम्मिलित हो गए हैं।) उसको आप क्या कहते हैं? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: क्या कहते हैं? उस आदमी को समझ आ गई, बुद्धि आ गई। वह आदमी बुद्धिमान है। उसको होश आ गया। और उसके बेटे ने कहा: और परसों एक आदमी जनता पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में सम्मिलित हो गया, तब आप क्या कह रहे थे पिताजी? तो मुल्ला ने कहा: हां, वह गद्दार है।
जब दूसरे की पार्टी से कोई अपनी पार्टी में आता है, तो उसको समझ आ गई; और जब अपनी पार्टी से कोई दूसरी पार्टी में जाता है, तो वह गद्दार है! हमारे तर्क अपने लिए और दूसरे के लिए अलग हैं।
कोई हिंदू अगर ईसाई हो जाए, तो तुम कहते हो: गद्दार। और अगर कोई ईसाई हिंदू हो जाए, तो आर्यसमाज जुलूस निकालता है कि देखो, कितना... अपूर्व घटना घटी है। दोनों हालत में एक ही बात हुई।
हिंदू ईसाई हो जाता है, तो ईसाई मिशनरी कहता है कि तुम अब ठीक रास्ते पर आ गए। और ईसाई हिंदू हो जाता है, तो वह कहता है: तुम भ्रष्ट हुए, पतित हुए। धर्म से पतित हो गए। भटकोगे, सड़ोगे नरक में। हमारे नियम अलग-अलग हैं।
अगर तुम सफल होते हो, तो तुम इसलिए सफल होते हो कि तुम पात्र हो। और अगर दूसरा सफल होता है, तो चालबाज है।
एक महिला मेरे पास आती थी अपने बेटे को लेकर। और वह कहती थी कि इस बेटे के पीछे स्कूल के शिक्षक पड़े हैं। हर साल फेल कर देते हैं। फिर एक साल संयोग से वह पास हो गया। फिर वह नहीं आई, तो मुझे उसके घर जाना पड़ा।
मैंने पूछा कि मामला क्या है? तेरा बेटा और पास हो गया? उसने कहा: क्यों न हो! मैंने कहा: किसी को रिश्वत खिलाई? उसने कहा: आप बात कैसी कर रहे हैं! मेरा बेटा जैसा बेटा खोजना मुश्किल है। वह प्रतिभाशाली है। रिश्वत खिलाने की जरूरत नहीं है।
इसके पहले वह मुझे यही बताती थी सदा आकर कि फलाने का बेटा पास हुआ, उसने रिश्वत खिलाई। फलाने का बेटा पास हुआ, वह उसके शिक्षक का रिश्तेदार है।
तो मैंने कहा कि कुछ रिश्तेदारी है शिक्षकों से? उसने कहा: आप बातें कैसी कर रहे हैं। मेरा बेटा बुद्धिमान है।
दूसरों के बेटे जब पास होते हैं, तो रिश्वत। जब किसी और को नौकरी लगती है, तो तुम्हें शक होता है कि कुछ दाल में काला है। जब तुम्हारी नौकरी लगती है, तब तो यह होना ही था। सच तो यह है कि तुम्हारे योग्य अभी भी पद तुम्हें नहीं मिला।
ऐसी व्यवस्था है हमारे चित्त की। और इस चित्त के ही आधार पर हमारी प्रार्थनाएं निर्मित होती हैं।
इमर्सन ठीक कहता है कि मैंने हजारों प्रार्थनाएं सुनीं, और मैंने एक ही निष्कर्ष पाया कि लोग परमात्मा से कह रहे हैं कि हे प्रभु, दो और दो चार क्यों होते हैं? वे दो और दो पांच करना चाहते थे। कि दो और दो तीन करना चाहते थे। वे कुछ और करना चाहते थे, और वैसा नहीं हुआ। तुम्हारे मन में अक्सर यह होता है।
अगर तुम धनी हो जाओ, तो तुम कहते हो: पुण्यों का फल। और दूसरा धनी हो जाए, तो बेईमान, चोर, बदमाश, लुच्चा, काला-बाजारी, कि तस्करी करने वाला, कि राजनेता--कुछ न कुछ गड़बड़, कुछ न कुछ डकैत इसमें है।
तुम जब धनी हो जाते हो, तो यह पुण्यों का फल, यह बापदादों की कमाई है। यह तुम्हें ठीक वही मिल रहा है, जो मिलना ही था।
इसी आधार पर आदमी जीता है। और यह आधार जब तक तुम्हारा है, तब तक परमात्मा तक तुम्हारी आवाज न पहुंचेगी।
उस तक आवाज पहुंचे, इसके लिए तुम्हें अपना आधार बदलना होगा। आधार बदलते ही तुम संयुक्त हो जाओगे। जैसे कभी तुमने देखा कि रेडियो पर तुम स्टेशन लगाते हो। जब तक ठीक-ठीक न लग जाए, तब तक आवाज ठीक-ठीक सुनाई नहीं पड़ती। ठीक जब निर्वासना तुम्हारे भीतर हो जाती है, प्रार्थना वासना से शून्य हो जाती है, तो ठीक जगह सुई आ गई, ठीक तरंग पर आ गई। वहीं से परमात्मा से तुम्हारा संबंध जुड़ता है। उसके पहले न जुड़ सकता है, न जुड़ना उचित है, न जुड़ना चाहिए।
प्रार्थना मांग-शून्य हो। प्रार्थना दिखावा न हो। तुम प्रार्थना भी दिखावे के लिए करते हो। अगर मंदिर में बहुत लोग आए हों, तो तुम्हारी आरती देर तक चलती रहती है। अगर कोई न आया हो, तो मिनटों में तुरत-फरत खत्म हो जाती है प्रार्थना।
प्रार्थना एकांत में हो, दिखावे के लिए न हो; प्रदर्शन न हो। प्रार्थना ऐसी हो कि परमात्मा को ही सुनाई पड़े; किसी और को सुनाई न पड़े। किसी और को सुनाने की जरूरत भी नहीं है। यह परमात्मा और तुम्हारे बीच की वार्ता है।
ऐसे करना प्रार्थना को गुपचुप, कानों-कान खबर न पड़े। लेकिन नहीं; लोग लाउड स्पीकर लगा कर करते हैं। कहते हैं: अखंड पाठ कर रहे हैं! कि सत्यनारायण की कथा कर रहे हैं! तुम करो, मगर लाउड स्पीकर किसलिए लगाए हो? यह मोहल्ले वालों को सताने का क्यों उपाय किया है? इनको नहीं सुनना है राम नाम। तुम क्यों इनको परेशान कर रहे हो? इनको सोने दो। नहीं, लेकिन धर्म लोग मुफ्त बांट रहे हैं। खुद प्रार्थना कर लो। परमात्मा बहरा नहीं है। लाउड स्पीकर लगाने की जरूरत नहीं है। कबीर ने कहा है--देख कर एक मुसलमान को, जोर से अजान करते--कि क्या तेरा परमात्मा बहरा हुआ है? बहरा हुआ खुदाय?
तो लेकिन कबीर को पता नहीं था कि अब हालत और बिगड़ गई है। अब लाउड स्पीकर भी उपलब्ध है लोगों को। अगर परमात्मा कहीं होगा, तो पगला रहा होगा; पागल हो रहा होगा।
मैंने सुना है, एक बार एक आदमी मरा, जो बड़ा भक्त था। भक्त जैसे होते हैं--ऐसा भक्त। राम-राम जपता रहता था। माला फेरता रहता था। राम-नाम की चदरिया ओढ़े रहता था।
वह मरा तो उसको नरक की तरफ ले जाने लगे देवदूत। उसने कहा: यह क्या कर रहे हो? और उसके दो-चार दिन पहले ही उसके सामने एक आदमी मर गया था; उसके मकान के ही सामने रहता था। कभी मंदिर नहीं गया। कभी राम-नाम नहीं लिया। बल्कि यह आदमी जोर-जोर से राम-नाम जपता था, तो वह बाधा डालता था आकर कि भई, हमको सोने दो; इतने जोर से मत जपो। तो यह सोचता था: यह पापी है।
उसने पूछा: मुझे नरक ले जा रहे हो? उस आदमी का क्या हुआ, जो मेरे सामने मरा? उसको ले गए होते नरक। वह कहां है? उन्होंने कहा: वह तो स्वर्ग में है।
तब तो उसे बहुत परेशानी हो गई। उसने कहा: फिर मुझे परमात्मा से शिकायत करनी है। अन्याय हो रहा है। हम तो सोचते थे, जमीन पर ही चल रहा है अन्याय; यहां भी चल रहा है! यह तो हद्द हो गई। कुछ भूल-चूक हो गई या तो। दफ्तर की कुछ भूल होगी। मुझे स्वर्ग लाना होगा; तुम उसको ले गए। और उसको नरक ले जाना होगा।
उसने प्रभु के सामने जाकर कहा कि यह माजरा क्या है? वह बड़ा नाराज था कि मैं जिंदगी भर राम-राम जपा--जागते-सोते, उठते-बैठते धुन लगाए रखी--अखंड। कई दफा माइक भी लगा कर किया था। पड़ोस के लोगों को भी धर्म को बांटता था। और यह आदमी तो हमेशा धर्म-विरोधी था; यह मुझे रुकावट डालता था; यह पुलिस में तक शिकायत करता था। इसको स्वर्ग?
परमात्मा ने कहा: इसीलिए कि तूने मुझे बहुत सताया। तूने मुझे सोने भी न दिया। आधी रात को भी राम-राम, राम-राम! तुझे ही सोना है? हमको भी सोना है। तू मेरी खोपड़ी खा गया। इसीलिए तुझे नरक। यह आदमी सज्जन है। इसने न माइक लगाया, न अखंड जाप किए। न किसी और को सताया--न मुझे कभी। इससे मुझे कोई शिकायत ही नहीं है। यह आदमी था भी कि नहीं, इसका भी मुझे पता नहीं चलने दिया। यह आदमी गुपचुप जीआ है।
मुझे यह कहानी अर्थपूर्ण मालूम पड़ती है। परमात्मा से जो प्रार्थना है, गुपचुप हो। शोरगुल मचाने की जरूरत नहीं है।
एक बादल पराग का है
तुम्हारा अकेलापन
जो बरसेगा अगर पूरे मन से
तो गंध उठेगी वैसी
जैसी जेठ की तपी धरती से उठती है
आषाढ़ के बरसे
रुके रहो प्रार्थना में रत
कि अकेलेपन का यह पराग-घन
धाराहत करे
तुम्हारे मन का तप्त विस्तार
फूटे हरीतिमा
उमड़ें नदियां
एक बादल पराग का है
तुम्हारा अकेलापन।
यह तुम्हारा अकेलापन सुगंध से भरा हुआ बादल है।
एक बादल पराग का है
तुम्हारा अकेलापन।
इसी अकेलेपन में प्रार्थना को गूंजने दो। इस एकांत मौन में, शब्द की भी जरूरत नहीं है। प्रार्थना भाव है--झुके होने का भाव; उसके चरणों में पड़े होने का भाव।
शब्द की भी जरूरत नहीं है। क्योंकि परमात्मा को शब्द से क्या लेना-देना। तुम्हारी भाषा उसकी समझ में आएगी भी नहीं।
क्या तुम सोचते हो? संस्कृत बोलोगे, तो समझ में आएगी? कि अरबी बोलोगे, तो समझ में आएगी? कि लेटिन, कि ग्रीक? कौन सी भाषा बोलोगे उससे, जो उसे समझ में आएगी?
तीन सौ भाषाएं हैं जमीन पर। कौन सी भाषा उसकी भाषा है! हालांकि हर भाषा का मानने वाला सोचता है कि मेरी भाषा उसकी।
संस्कृत के पंडित कहते हैं: संस्कृत देववाणी है, आर्षवाणी है। वही अरबी के मानने वाले कहते हैं; नहीं तो कुरान क्यों उतरती अरबी में। वही हिब्रू के मानने वाले कहते हैं; नहीं तो जीसस के वचन क्यों उतरते हिब्रू में। वही सारी दुनिया के भाषा के बोलने वाले मानते हैं।
मैंने सुना है, एक जर्मन और एक अंग्रेज जनरल दूसरे महायुद्ध के हार जाने पर बात कर रहे थे। जर्मन जनरल ने अंग्रेज जनरल से पूछा कि हमारी समझ में नहीं आता है। हमारे पास तुमसे अच्छे साधन थे। जर्मनी के पास ज्यादा यांत्रिक कुशलता थी। हमारे पास तुमसे ज्यादा मजबूत जवान थे। हमारे पास तुमसे ज्यादा उत्साह था। हमारे पास तुमसे बड़ा नेता था, जादूगर नेता था हमारा; उसमें चमत्कार था। फिर भी हम हार गए?
अंग्रेज जनरल हंसा। उसने कहा: इसके पीछे कारण हैं। हम जब भी युद्ध में जाते थे, तो पहले प्रार्थना करते थे। वही हमारा राज है। प्रार्थना के बिना हम कभी गए नहीं युद्ध में।
जर्मन बोला: यह तुम क्या कह रहे हो? प्रार्थना तो हम भी करते थे! अंग्रेज हंसा, उसने कहा: तुम करते होओगे। लेकिन जर्मन भाषा भगवान समझता भी है?
अंग्रेज सोचते हैं: अंग्रेजी के सिवाय कोई भाषा दुनिया में नहीं है। तुम करते रहे होओगे प्रार्थना, यह मानते हैं हम। लेकिन किसने कब सुना है कि भगवान जर्मन बोलता है? इसीलिए चूक गए।
सच तो यह है कि भगवान कोई भाषा नहीं बोलता।
भाषा आदमी की ईजाद है; व्यावहारिक है। भाषा का अस्तित्व से कुछ संबंध नहीं है।
प्रार्थना भाषा में नहीं होती, भाव में होती है। प्रार्थना तुम्हारे हृदय की दशा है--समर्पण की, झुके होने की, विनम्र होने की। भाषा का सवाल ही नहीं।
कहना क्या है? सच तो यह है कि बड़े प्रार्थना करने वालों ने कहा है कि प्रार्थना में भक्त नहीं बोलता; भगवान बोलता है; भक्त सुनता है।
तुम क्या बोलोगे? उसे बोलने दो। तुम गुप्पी साधो; तुम चुप्पी साधो। तुम बिलकुल शांत हो जाओ, ताकि वह बोले; फुसफुसाए भी, तो तुम्हें सुनाई पड़ जाए।
एक बादल पराग का है
तुम्हारा अकेलापन।
एक गंध का बादल है अगर मौका दो, तो तुम्हारा जीवन सुगंध से भर जाए।
जो बरसेगा अगर पूरे मन से
तो गंध उठेगी वैसी
जैसी जेठ की तपी धरती में उठती है
आषाढ़ के बरसे
रुके रहो प्रार्थना में रत
कि अकेलेपन का यह पराग-घन
धाराहत करे
तुम्हारे मन का तप्त विस्तार
फूटे हरीतिमा
उमड़ें नदियां
एक बादल पराग का है
तुम्हारा अकेलापन।
पूछते हो तुम कि ‘भक्ति में नाम-स्मरण की महिमा बहुत है।’
निश्चित बड़ी महिमा है, लेकिन नाम-स्मरण शब्द में ‘नाम’ पर बहुत जोर मत देना; ‘स्मरण’ पर जोर देना। ‘नाम’ पर जोर दिया गया है; स्मरण की बात ही लोग भूल गए।
राम-राम की रटंत से तुम तोते बन जाओगे। स्मरण पर जोर देना। स्मरण बात ही और है। स्मरण भाषा से गहरी बात है।
तुम जब किसी को प्रेम करते हो, तो उसकी एक स्मृति तुम्हारे आस-पास छाई रहती है--एक आभामंडल की भांति। जैसे वृक्ष के पास एक शीतलता छाई होती है। या फूल के पास गंध छाई होती है। या दीये के पास ज्योति छाई होती है। कुछ करना नहीं होता; कुछ प्रयास नहीं करना होता; उसे बांध-बांध कर लाना नहीं होता। राम-राम, राम-राम रटना नहीं होता। तुम भूलते नहीं कि प्रभु है।
रटने का सवाल नहीं है। भूलते नहीं कि प्रभु है। कि तुम किसी की आंख में आंख डाल कर देखते हो और तुम्हें प्रभु की याद आ जाती है। कि तुम झरने में झांकते हो, प्रभु की याद आ जाती है। कि तुम आकाश में उगते पहले तारे को देखते हो, प्रभु की याद आ जाती है।
ऐसा नहीं कि तुम रटन करते हो--राम-राम। बल्कि ऐसा कि तुम जहां भी जाते हो, जो भी करते हो, वहीं तुम्हें अहर्निश उसका भाव उठ आता है।
एक सुंदर स्त्री देखते हो; सौंदर्य ‘उसकी’ याद बन जाता है। अभी भी होता है कुछ। सुंदर स्त्री को देख कर वासना जगती है--प्रार्थना नहीं जगती। फर्क क्या है?
सुंदर स्त्री को देख कर तुम्हें सोचना थोड़े ही पड़ता है, याद थोड़े ही करना पड़ता है कि स्त्री बहुत सुंदर है। जाग, हे मेरी वासना, जाग। कितनी सुंदर स्त्री जा रही है; तू यहां पड़ी क्या कर रही है--जाग। ऐसा तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता।
सुंदर स्त्री देखी कि उधर वासना जगी। देखी नहीं कि जगी। देखते ही जगी, तुम्हें कुछ याद नहीं करनी पड़ती। तुम्हें कुछ भी नहीं करना पड़ता। यह सुंदर देह गुजरी पास से कि तुम्हारे भीतर कुछ कंप जाता है।
सुंदर स्त्री को देख कर प्रार्थना भी ऐसे ही जग सकती है, जैसे वासना जगती है। भक्त को यही होता है।
सुंदर स्त्री को देखता है--वासना से भरा आदमी, तो सौंदर्य तो भूल जाता है, देह याद रह जाती है। भक्त देखता है सौंदर्य को; सौंदर्य तो भूल जाता है, आत्मा याद रह जाती है।
स्त्री सुंदर है--ऐसा सोचते ही तुम्हें केवल स्त्री की देह, और देह की वासना याद में आती है। भक्त को स्त्री सुंदर है--ऐसा देखते ही, खयाल में आते ही, परमात्मा की सुध आ जाती है। क्योंकि सभी सौंदर्य उसका है।
सत्यम्‌ शिवम्‌ सुंदरम्‌। जो भी सत्य है--वही है। और जो भी शिव है--वही है। और जो भी सुंदर है--वही है।
इस सुन्दर स्त्री को देख कर स्त्री की देह पर तो दृष्टि नहीं जाती; उस परम सौंदर्य की याद आ जाती है। जैसे चांद को झील में देखा हो और चांद की याद आ जाए। ऐसे इस सौंदर्य में भी उसी की झलक है।
सब सौंदर्य उसका है। कुरूप होगा कुछ, तो मनुष्य का होगा। और असत्य होगा कुछ, तो मनुष्य का होगा। तुमने कभी इस पर विचार किया?
अगर पृथ्वी पर मनुष्य जाति एकदम समाप्त हो जाए, या हटा ली जाए, तो पृथ्वी पर सत्य तो इतना ही रहेगा, जितना है; असत्य बिलकुल नहीं रहेगा। सौंदर्य तो इतना ही रहेगा, जितना है; कुरूपता नहीं रह जाएगी। पुण्य तो ऐसा ही रहेगा, जैसा है; पाप नहीं रह जाएगा। पक्षी गीत गाएंगे; वृक्षों में फूल खिलेंगे; चांद निकलेगा; सूरज उगेगा--सब ऐसा ही होगा। अपूर्व शांति और अपूर्व सौंदर्य और अपूर्व सत्य होगा। सिर्फ आदमी जो कुरूपता पैदा करता है, वह खो जाएगी। आदमी जो असत्य पैदा करता है, वह खो जाएगा। आदमी जो झूठें बनाता है, वे खो जाएंगी। आदमी के बनाए हुए झूठ विदा हो जाएंगे। आदमी झूठ का आविष्कारक है।
भक्त देखता है सौंदर्य को--चाहे स्त्री में हो, चाहे पुरुष में, चाहे वृक्ष में, चाहे पहाड़ में, चाहे बादल में। सूरज की किरणों का जाल बुना हो... जहां सौंदर्य को देखता है, तत्क्षण उसका हृदय गदगद हो जाता है। आंख से आंसू बहने लगते हैं। याद आ गई उसे; सुध आ गई उसे। इसका अर्थ है: स्मरण।
तो नाम-स्मरण में अगर तुमने ‘नाम’ पर जोर दिया, तो भूल हो जाएगी। ‘स्मरण’ पर जोर देना--तो भूल न होगी।
नाम-स्मरण की महिमा निश्चित है। और यह पद भी प्यारा है:
राम-नाम रटते रहो, जब लगि घट में प्रान।
कबहूं तो दीनदयाल के, भनक पड़ेगी कान।।
यह जो राम की सुध बनी रहे--बनी रहे। घबड़ा मत जाना कि दो-चार दिन याद की, अभी तक कुछ नहीं हुआ! अधैर्य मत करना। अधैर्य किया, तो चूक जाओगे। इसलिए कहते हैं: ‘जब लगि घट में प्रान।’ जब तक तुमसे हो सके, जब तक श्वास आती रहे, जाती रहे, तब तक सुध बनी रहे। आखिरी क्षण तक सुध बनी रहे। डूबते-डूबते उसी की याद बनी रहे। उसी की याद में डूबना।
उसी की याद में रात सोना। उसी की याद में सुबह उठना। उसी की याद दिन में बार-बार झरोखे की तरह खुल जाए। उसी की गंध दिन में बार-बार तुम्हारे भीतर बस जाए।
ऐसे जीवन में जीते-जीते, मरते क्षण में भी ‘जब लगि घट में प्रान’ उसी की याद बनी रहे। इधर तुम मरने लगो, मगर याद से हाथ न छूटे; उसकी सुध और प्रगाढ़ होने लगे। इधर देह छूटने लगे, तो स्वभावतः उसकी याद और घनी होगी। क्योंकि देह के कारण सब धुंधला-धुंधला है। देह के कारण चीजें पारदर्शी नहीं हैं।
देह में रहते-रहते, तो कभी-कभी झलक मिलती है। ऐसा ही समझो कि कांच है और उस पर परदों पर परदे पड़े हैं। कभी-कभी कोई किरण परदों को पार कर के आ जाती है--धुंधली-धुंधली सी--तुम्हारे अंधकार में। परदे हट जाते हैं, तो रोशन हो जाएगा सब।
जब आदमी मरता है, तो अगर भोगी मरता हो, तो सिर्फ घबड़ाता है, सिर्फ कंपता है, सिर्फ रोता-चिल्लाता है कि बचाओ; कि थोड़ी देर और जी लूं। उसका मोह, उसकी वासना अधूरी रह गई है। वह इस किनारे को और जोर से पकड़ लेता है। उसी पकड़ने में मृत्यु का अपूर्व क्षण चूक जाता है।
योगी मरता है--स्वागत से। वह कहता है: प्रभु लेने आए हैं। इतने दिन दूर रखा, अब पास बुलाते हैं। अब तक कहां परदेश में भटका, अब अपने घर जाता हूं। अब तक इस किनारे पर भिखमंगे की तरह जीआ, अब अपने साम्राज्य में लौटता हूं--जहां मैं सम्राट हूं। अब तक पदार्थ में उलझा था, अब पदार्थ से मुक्त होता हूं। अब शुद्ध होता हूं।
योगी आह्लादित हो जाता है। और परमात्मा की घनी याद आने लगती है। अब शरीर की बाधा भी न रही। शरीर की बाधा के कारण तो कभी-कभी क्षण भर को झलक मिलती है।
श्लथ पथ पर
तड़ित गति रथ पर
तत्पर तुम दिखे-दिखे
रंग तुम्हें आंके जब तक
लेखनी लिखे-लिखे
तब तक तुम चले गए
सब-कुछ बदल गया
श्लथ सूने
पथ के पांवों को छूते ही
चुक गया रंगों का रूप
तड़ित गति रथ के
पीछे पड़ कर
सिहर गई शब्दों की धूप
अनूप कुछ नहीं रहा
सूनेपन के सिवा,
सूने मन के सिवा!
इस शरीर में बंधे-बंधे तो, ऐसा है जैसे आंख पर पत्थर बंधा हो, इसमें तो कभी-कभी पत्थर सरक जाता थोड़ा। तुम्हारे बड़े प्रयास से परदा थोड़ा हिल जाता है और जरा सी झलक मिलती है।
श्लथ पथ पर
तड़ित गति रथ पर
जैसे कोई बिजली की कौंध पर सवार होकर निकल गया हो।
तड़ित गति रथ पर
तत्पर तुम दिखे-दिखे
बस, तुम दिखे ही दिखे थे--कि गए! पकड़ भी नहीं पाता। लगता था कि आए-आए; और ये गए! बस, बिजली की कौंध हो जाता है परमात्मा।
रंग तुम्हें आंके जब तक
लेखनी लिखे-लिखे
तब तक तुम चले गए
सब-कुछ बदल गया
जब तक कि लेखनी उठाऊं, बांधू तुम्हें शब्दों में, जब तक कि तूलिका उठाऊं; रंग डालूं तुम्हारा चित्र, तुम्हारा रूप, लेकिन तब तक तो तुम जा चुके।
इसके पहले कि मन समझ पाए, कि क्या हो रहा है, सब बदल जाता है।
श्लथ सूने
पथ के पांवों को छूते ही
चुक गया रंगों का रूप
तड़ित-गति रथ के
पीछे पड़ कर
सिहर गई शब्दों की धूप
अनूप कुछ नहीं रहा
सूनेपन के सिवा
सूने मन के सिवा!
और जब भी ऐसी घटना घटेगी, बिजली की कौंध की तरह, परमात्मा एक क्षण भर को झलकेगा, फिर पीछे बड़ा सूनापन रह जाएगा।
अनूप कुछ नहीं रहा
सूनेपन के सिवा
सूने मन के सिवा!
फिर तुम्हें पहली दफा मालूम होगा कि जीवन कितना सूना है। इसके पहले तो तुम खोए-खोए थे। कुछ याद न थी। कुछ पहचान न थी। रोशनी जानी न थी, तो अंधेरा अंधेरा है--ऐसा पता भी न चलता था। फिर जरा सी रोशनी देखी। सपने जैसी आई और गई! लेकिन एक बार रोशनी देख ली, तो अब अंधेरा बहुत काटेगा। अब अंधेरा जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
इधर रोज ऐसा होता है। जिनको भी ध्यान में झलक मिल जाती है, फिर उनकी पीड़ा की यात्रा शुरू होती है। तब उन्हें पता चलता है कि अब तक जिसे जीवन समझा था, जीवन था ही नहीं। और अब तक जिसे रोशनी समझे थे, वह अंधेरा था। और अब तक जिसको समझा था अपना होना, वह मिट्टी की देह थी। राख ही राख है...!
एक बार वह रोशनी की जरा सी झलक क्या आ जाती है, जीवन में तुलना पैदा होती है। फिर बड़ी पीड़ा होती है। उसी को भक्तों ने विरह की पीड़ा कहा है।
जान कर ही तो विरह होगा। अनुभव से ही तो विरह होगा। एक बार स्वाद ले लिया, तब तो विरह होगा।
जो आदमी जिंदगी भर गंदी नालियों का पानी ही पीता रहा, उसे कुछ अड़चन न होगी। लेकिन एक बार उसे मानसरोवर का जल मिल जाए, स्वच्छ जल, अभी-अभी पहाड़ों से उतरा, अभी-अभी पिघली बर्फ, अभी-अभी ताजा जल, जिसमें धूल का कण भी नहीं--ऐसे पहाड़ों से उतरते झरने का जल उसे मिल जाए, फिर अड़चन हो जाएगी। फिर नाली का जल पीना मुश्किल हो जाएगा। अब उसके पास तुलना का आधार है। अब उसे पता है कि जल कैसा होना चाहिए।
जिसने प्रभु की झलक पा ली--एक क्षण को--बड़ा सूनापन आ जाएगा। जिंदगी एकदम कांटों से भरी दिखाई पड़ने लगेगी। कल तक इन्हीं कांटों को फूल समझा था। फूल जानते नहीं थे, तो समझने में कोई अड़चन न थी। अब फूल जान लिया, अब कांटों को फूल मानना मुश्किल है।
लेकिन शरीर के साथ तो बस ऐसी झलकें ही मिलती हैं।
मृत्यु के क्षण में जब शरीर छूट रहा होता है, तब पूरा द्वार खुलता है। किरण नहीं आती, पूरा सूरज तुम्हारे भीतर उतरता है। लेकिन अगर तुम स्मरण से भरे हो, तो ही मृत्यु का यह क्षण अमृत का अनुभव बनेगा।
तुम जीवन में भी चूक जाते हो, फिर मृत्यु में भी चूक जाते हो। भक्त न तो जीवन में चूकता है, न मृत्यु में चूकता। भक्त चूकता ही नहीं।
भक्त ऐसी कुशलता से जीता है, कि यहां भी उसे प्रभु की याद ही बनी रहती है। हर चीज से उसी की याद आती है। और मरते क्षण में तो प्रभु की पूरी की पूरी वर्षा हो जाती है।
इसलिए यह पद तो ठीक है। याद करते रहो, सुध करते रहो। ‘जब लगि घट में प्रान।’
‘कबहूं तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान।’और धैर्य रखो। अनंत प्रतीक्षा हो--कि कभी तो पड़ेगी। हम पुकारे चले जाएंगे। हम गुनगुनाए चले जाएंगे। हम नाचते ही रहेंगे। कभी तो होगा? कभी तो तालमेल बैठ जाएगा? कभी तो ऐसी घड़ी होगी हमारी, कि हम जो, जिस भाव-दशा में पुकारेंगे, वह भाव-दशा परमात्मा से संबंधित हो सकेगी।
हजार बार करेंगे, एक बार तो तीर ठीक जगह लग जाएगा? अंधेरे में ही तीर फेंके चले जाओ।
टटोलना ही है, संसार में, लेकिन टटोलते-टटोलते द्वार मिल जाता है। और अंधेरे में तीर मारते-मारते भी तीर लग जाता है। तीर लगेगा ही--देर-अबेर की बात हो सकती है। थक कर बैठ मत जाना। अधैर्य में डूब मत जाना।
तो भक्ति का एक अनिवार्य अंग है--प्रतीक्षा की क्षमता।
तीन शब्द याद रखो: प्यास, प्रार्थना, प्रतीक्षा।
परमात्मा केवल शाब्दिक बातचीत न हो--प्यास हो। ऐसी हो कि उसके बिना मर जाएंगे। विरह हो। ऐसी हो कि जीवन-मरण का प्रश्न बने। फिर प्रार्थना मांग-रहित, मांग-शून्य। सिर्फ आह्लाद, सिर्फ आनंद की अभिव्यक्ति, सिर्फ धन्यवाद, अनुग्रह का भाव और फिर प्रतीक्षा। और प्रतीक्षा सबसे महत्वपूर्ण है, सबसे अंत में है। क्योंकि हमारा मन बड़ी जल्दी मांग करता है।
हमारा मन कहता है: जल्दी कुछ हो जाए।
यहां मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ‘तीन दिन रुकेंगे; कुछ होगा कि नहीं?’
तीन दिन रुकेंगे! बड़ी कृपा की।
‘तीन दिन रुकने आए। कुछ होगा कि नहीं।’
तुम सोचते हो: तुम क्या कह रहे हो? तुम सोचते हो: तुम क्या सोच रहे हो? तुमने परमात्मा को क्या समझा है? तुम जैसे बड़ी कृपा कर रहे हो परमात्मा पर--कि तीन दिन ध्यान करेंगे! ऐसी चित्त की दशा में तो कभी कुछ नहीं होगा।
तो मैं ऐसे लोगों से कहता हूं: तुम तीन दिन खराब न करो। वापस जाओ। वहीं संसार में कुछ और चांदी के ठीकरे जोड़ लोगे। तीन दिन खराब न करो। दुकान बंद रखोगे, नुकसान होगा और फिर पछताओगे कि तीन दिन में परमात्मा न मिला और इतने की हानि कर बैठे। इतनी देर तो अपने व्यवसाय में लगाते, तो कुछ हाथ लगता; कुछ लाभ होता!
यह तो दीवानों का रास्ता है। यह तो जुआरियों की गैल है। यहां तो सब दांव पर लगाने वालों का काम है और उनका काम है, जो कहते हैं: आज हो, तो ठीक। कल हो, तो ठीक। परसों हो, तो ठीक। इस जन्म में हो, तो ठीक। अगले जन्म में हो, तो ठीक। कभी हो, तो ठीक। और कभी न भी हो, तो भी ठीक। जो कहते हैं कि प्रार्थना में ही इतना आनंद है, अब और क्या चाहिए? ध्यान में ही इतना आनंद है, अब और क्या चाहिए? इतनी ही क्या उसकी कम कृपा है कि हमें ध्यान की तरफ मोड़ दिया? कि हम प्रार्थना में संलग्न हो गए! और क्या चाहिए?
ऐसों को जल्दी हो जाता है। तीन दिन की भी जरूरत नहीं लगे। ऐसा भी हो जाता है कि तीन क्षण में हो जाए; कि तीन पल भी न लगे, कि आंख झपके और हो जाए।
ऐसी प्रतीक्षा गहन हो, तो इसी क्षण हो सकता है। यह बड़ा विरोधाभासी वक्तव्य होगा।
जितनी जल्दी करोगे, उतनी देर लग जाएगी। और जितनी प्रतीक्षा कर सकोगे, उतनी जल्दी हो जाएगा।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, चरणदास जी कहते हैं--सभी ज्ञानी शायद यही कहते हैं--कि परमात्मा एकरस है। वहां न सांझ है, न भोर; न मृत्यु है, न जन्म; न सुख, न दुख। फिर वहां है क्या? यह एकरस क्या है?
जीवन में द्वंद्व है। जीवन में सब जगह द्वंद्व है। प्रेम है, तो घृणा है। पाप है, तो पुण्य है। दिन है, तो रात है। जन्म है, तो मृत्यु है। जीवन में सब जगह द्वंद्व है। जीवन चलता ही द्वंद्व से है। जीवन द्वंद्वात्मक है।
यहां जीवन बिना मृत्यु के नहीं हो सकता; यहां सांझ कैसे होगी--बिना भोर के? यहां भोर कैसे होगी--बिना सांझ के? यहां सफलता कैसे होगी, अगर विफलता न होती हो? और अगर दुख न होता हो, तो सुख कैसे होगा?
यहां सब चीजें अपने विपरीत से बंधी हैं। और इसीलिए यहां कोई कितना ही सुखी हो जाए, सुखी नहीं हो पाता, क्योंकि दुख उसके पीछे आता है; साथ-साथ आता है। दुख और सुख जुड़वां भाई हैं। और जुड़वां ही नहीं, जुड़े ही हुए हैं। एक ही देह है उनकी। शायद चेहरे दो होंगे, मगर देह एक है।
यहां नाम मिलता है, तो बदनामी मिलती है। यहां प्रतिष्ठा मिलती है, तो अप्रतिष्ठा साथ आ जाती है। यहां सिंहासन मिला, तो जल्दी धूल-धूसरित भी होना पड़ेगा।
ऐसा जीवन का सत्य है। इस सत्य को जो साक्षीभाव से देखने में सफल हो जाता है, जो चुनाव नहीं करता, जो निर्विकल्प हो जाता है, जो कहता है: दुख आए तो ठीक, सुख आए तो ठीक। वे दोनों एक ही हैं, जुड़े ही हैं। चुनना क्या है?...
दुख आता है, तो दुखी नहीं होता जो; और सुख आता है, तो सुखी नहीं होता जो; उस आदमी के जीवन में एकरसता पैदा होती है। फिर उसको कैसे बांटोगे? दुख में दुखी नहीं होता, सुख में सुखी नहीं होता। सम्मान में सम्मानित नहीं होता, अपमान में अपमानित नहीं होता। इसी को साक्षीभाव कहा है।
यह जो साक्षीभाव है, यह धीरे-धीरे द्वंद्व के बाहर हो जाता है, क्योंकि द्वंद्व में उलझता ही नहीं। जब दुख आता है, तब वह जानता है, कि यह सब सुख का ही दूसरा चेहरा है। और सुख आता है, तब भी जानता है कि यह दुख का दूसरा चेहरा है। न यहां कुछ पकड़ने को है, न यहां कुछ छोड़ने को है। यहां चुनाव करना ही व्यर्थ है।
चुनाव किया कि फंसे। चुनाव किया कि संसार में उतरे। चुनाव संसार है। इसलिए विकल्प में संसार है और निर्विकल्प में समाधि।
निर्विकल्प का अर्थ है: अब मैं चुनता ही नहीं; देखता रहता हूं।
सुबह आई--देखते रहे। सांझ आई--देखते रहे। क्या लेना-देना है? सुबह-सांझ की जो लीला चलती है--देखते रहे, देखते-देखते, देखते-देखते एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि तुम एकरस हो जाते हो। तुम्हारे भीतर द्वंद्व समाप्त हो जाता है।
उसी एकरसता में परमात्मा से मिलन है। क्योंकि परमात्मा द्वंद्व के अतीत है।
यह जो चरणदास कहते हैं--और सभी ज्ञानी कहते हैं--कि परमात्मा एकरस है।
एकरस का अर्थ होता है: न तो जन्मा है, न कभी मरेगा। एकरस का अर्थ होता है: न वहां दुख है, न वहां सुख है। इसलिए हमने एक नया शब्द गढ़ा--आनंद। वहां आनंद है।
भूल कर भी आनंद को सुख का पर्यायवाची मत समझना। आनंद में सुख दुख दोनों का अभाव है। आनंद में उत्तेजना नहीं है। आनंद शांतिस्वरूपता है। सब शांत हो गया। सब तरंगें खो गईं। कोई तरंग नहीं उठती। मन निस्तरंग हो गया। निस्तरंग होते ही मन नहीं हो गया।
सब दौड़-धूप गई; सब आपा-धापी गई। इस परम विश्रांति की अवस्था को हम ईश्र्वर की दशा कहते हैं।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है--कहीं बैठा हुआ। याद रखना। परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपी हुई साक्षी की क्षमता है। तुम एकरस हो सकते हो, तुम ऐसी दशा में पहुंच सकते हो, जहां न भोर है, न सांझ। नहीं सांझ नहीं भोर। जहां समय ही नहीं है।
फ्रेंच क्रांति के समय एक अपूर्व घटना घटी। और लोग बड़े विचार में रहे। मनोवैज्ञानिक बड़ा चिंतन करते रहे कि यह क्यों हुआ? ऐसा कैसे हुआ? किस कारण हुआ?
क्रांति हुई, तो पेरिस के नगर में बहुत सी घड़ियां थीं--चर्च के टॉवर पर, स्कूल, कॉलेज, युनिवर्सिटी में... लोगों ने बंदूकें ले-ले कर उन घड़ियों को छेद दिया गोलियों से। और घड़ियां नष्ट कर दीं।
स्वभावतः प्रश्न उठना शुरू हुआ कि लोग घड़ियों के खिलाफ क्यों हैं? आखिर घड़ी से क्या लेना-देना है? सारे पेरिस नगर की घड़ियां क्यों तोड़ डालीं? विशेषकर घड़ियां ही क्यों?
और तब एक संदेह मनोवैज्ञानिकों को उठना शुरू हुआ कि शायद लोग समय से पीड़ित हैं। शायद समय की पीड़ा के कारण ही घड़ियां तोड़ दी गई हैं। यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। समय से लोग निश्चित पीड़ित हैं।
‘नहीं सांझ नहीं भोर’ का अर्थ होता है: जहां समय नहीं। घड़ी टूट गई। जहां शाश्वतता है, नित्यता है। जहां न कुछ पैदा होता है, न मरता है। जहां अनंत का निवास है--अनादि का, अनंत का। इस दशा का नाम एकरसता है।
असल में ऐसा कहना कि परमात्मा एकरस है, भूल भरा है। अगर तुम मुझसे पूछो, तो मैं कहूंगा: एकरसता का नाम परमात्मा है। या परमात्मा और एकरसता एक ही अवस्था की सूचना देने वाले शब्द हैं।
एकरस होने लगो और तुम परमात्मा होने लगोगे। द्वंद्व में रहो--और संसारी। और एकरस होने लगो कि संन्यासी।
इसलिए मैं कहता हूं: संन्यासी को कहीं जाने की जरूरत नहीं। अपने ही भीतर जाने की जरूरत है। कोई बहिर्यात्रा नहीं करनी है। तुम्हारे ही अंतस्तल में वह जगह है, जहां सब एकरस हो जाता है। जरा इसका उपयोग करो।
कोई गाली दे जाए, तब शांतभाव से स्वीकार कर लो कि ठीक है। कोई गले में गजरा पहना जाए, उसे भी शांत भाव से स्वीकार कर लो कि ठीक है। न गजरे को बहुत मूल्य दो, न गजरे के कारण बहुत दीवाने हो जाओ; और न गाली के कारण बहुत विक्षुब्ध।
शुरू-शुरू अड़चन होगी। शुरू-शुरू बेचैनी होगी, क्योंकि पुरानी आदतें हैं, जन्मों-जन्मों की आदते हैं कि गाली दे दी। हालांकि गाली से तुम बेचैन नहीं हो रहे हो। गाली अगर किसी और भाषा में दी गई होती, जो तुम नहीं समझते थे, तो जरा भी बेचैन नहीं होते।
तो गाली से तुम बेचैन नहीं हो रहे हो। गाली है--इस भाव से बेचैन हो रहे हो। गाली है; मेरा अपमान किया गया है--इस कारण बेचैन हो रहे हो।
लेकिन ‘मेरा अपमान किया गया है’--इससे क्यों बेचैन होते हो? क्योंकि कहीं मान की चाह छिपी है। नहीं तो अपमान से क्या बिगड़ता है।
मान की चाह है और कोई मान नहीं दे रहा है; मान के विपरीत अपमान दे रहा है, तो बेचैनी होती है। गजरे की चाह है, और गाली मिल रही है, तो बेचैनी होती है।
जरा जागो, जरा इन द्वंद्वों को ठीक से देखो। देने दो। गाली देने वाले का मन है; अगर उसको गाली देने में मजा आ रहा है, तो देने दो। तुम्हारा क्या बिगड़ता है! उसके ओंठ एक खास ढंग से हिल रहे हैं, कुछ आवाजें कर रहा है; करने दो। क्या तुम्हारा बनता-बिगड़ता है! उसके ओठों के इतने गुलाम क्यों? उसके शब्दों के इतने गुलाम क्यों?
फिर किसी को मौज आ गई; वे गजरा बना लाए। माली होंगे या कुछ फूल मिल गए होंगे। वे तुम्हारे गले में डाल रहे हैं। उनको मजा आ रहा है। लेने दो मजा। उनको भी देखते रहो।
और दोनों में कोशिश इस बात की रहे कि मैं एकरस रहूं।
शुरू-शुरू में अड़चन होगी। तार मिलाए-मिलाए भी छिटक-छिटक जाएंगे। साज बिठाते-बिठाते बैठता है। होते-होते होती है यह बात। लेकिन धीरे-धीरे तुम पाओगे: कुछ-कुछ होने लगी। अब गाली उतनी पीड़ा नहीं देती। और गजरा उतना सुख नहीं देता।
धीरे-धीरे मात्रा बदलती जाएगी, बदलती जाएगी, एक दिन क्रांति घटती है। एक दिन तुम अचानक पाते हो: गाली दे गया कोई--और तुम्हारे भीतर कंपन भी न हुआ। और गजरा पहना गया कोई--और तुम्हारे भीतर अहंकार ने सिर न उठाया बस, उस दिन तुम जानोगे एकरसता क्या है। पहला स्वाद मिला। इसी मार्ग पर आगे बढ़ते-बढ़ते तुम परमात्मा हो जाओगे।
एकरसता परमात्म-भाव है। दो में टूटना--संसार; एक में हो जाना--परमात्मा। अनेक में भटकना--संसार; एक में डुबकी लगा जाना--परमात्मा।
जैसे ही रात घिरती है
और फिरती है दुहाई तारकेश की
अविशेष हर चीज खूबसूरत हो जाती है
रूप का जादू
सख्त धूप के तख्तों पर
फूंक सी मार देता है
कुछ की कुछ बन जाती हैं चीजें
चांदी का हो जाता है हर कोई पत्ता
हर कोई गली पुखराज की
पातहीन डालियां और तने
लगते हैं शोभा के बने
अच्छा लगता है जी को
कटे-छंटे आकारों का एकाकार हो जाना
आकाश का पहाड़ों में
पहाड़ों का आकाश में खो जाना।
तुमने देखा कभी: जरा से रूपांतरण से कितना रूपांतरण हो जाता है! दिन में दुनिया उतनी सुंदर नहीं लगती। रात उतरती है; चांद उतरता है; तारे भर जाते हैं और देखा तुमने: कितना अंतर हो जाता है?
वही चट्टान जो दिन में साधारण लगती थी, रात में इतनी रूपवान हो जाती है। पूर्णिमा के चांद में, कैसा सौंदर्य--जमा हुआ सौंदर्य हो जाती है! वही पानी का डबरा, जो दिन में सिर्फ गंदगी जैसा मालूम होता था, रात चांद को झलकाने लगता है। चांद की किरणें उस गंदे डबरे पर खेलने लगती हैं। वह ऐसा लगता है, जैसे स्वर्गीय हो।
साधारण से वृक्ष अपूर्व रूप से भर जाते हैं। साधारण से स्त्री-पुरुष संगमरमर की मूर्तियां मालूम होने लगते हैं।
जैसे ही रात घिरती है
और फिरती है दुहाई तारकेश की
अविशेष हर चीज खूबसूरत हो जाती है
रूप का जादू
सख्त धूप के तख्तों पर
फूंक सी मार देता है
कुछ की कुछ बन जाती हैं चीजें
चांदी का हो जाता है हर कोई पत्ता
हर कोई गली पुखराज की
पातहीन डालियां और तने
लगते हैं शोभा के बने
अच्छा लगता है जी को
कटे-छंटे आकारों का एकाकार हो जाना
आकाश का पहाड़ों में
पहाड़ों का आकाश में खो जाना।
यह जो चांद के साथ सौंदर्य आता है, इसका राज क्या है? इसका राज है--सीमाएं बिखर जाती हैं। चीजें एक-दूसरे में मिलने लगती हैं--एकाकार हो जाती हैं। थोड़ी एकरसता की झलक उतरती है। सूरज चीजों को कटे-छंटे आकारों में बांट देता है। और चांद कटे-छंटे आकारों को एकाकार में डुबा देता है।
लेकिन वह कुछ भी नहीं है--उस भीतर की एकाकारता की तुलना में, जब तुम्हारी चेतना का चांद उगता है और सारा जगत एकाकार हो जाता है।
अच्छा लगता है जी को
कटे-छंटे आकारों का एकाकार हो जाना
आकाश का पहाड़ों में
पहाड़ों का आकाश में खो जाना।
जब तुम्हारे भीतर एकरस की बाढ़ आती है, कोई सीमाएं शेष नहीं रह जातीं। सभी सीमाएं असीम में लीन हो जाती हैं, तब तुम जानना: परमात्मा की पहली झलक मिली। सत्यम्‌ सौंदर्य की पहली किरण उतरी।
इस एकरसता को चाहे समाधि कहो, चाहे निर्वाण कहो, चाहे मोक्ष कहो, चाहे परमात्मा कहो--ये सब नामों के भेद हैं।
सारे धर्म एकरसता की ही बात करते हैं। सारे ज्ञानी एकरसता के ही गीत गाते हैं।
इसलिए मैं तुमसे कहूंगा कि परमात्मा, मोक्ष, निर्वाण--इन शब्दों की झंझट में न पड़ कर तुम एकरसता की तलाश में लग जाओ।
और यह तलाश अचुनाव की प्रक्रिया से होती है। जिसको कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं--च्वाइसलेस अवेरनेस--चुनावरहित चैतन्य। चुनो मत। बस, जागे रहो। यह तुम्हारे भीतर अभी भी मौजूद है; इस क्षण भी मौजूद है। यही तुम्हारा वास्तविक स्वभाव है; यही तुम्हारा स्वरूप है। द्वंद्व बाहर है; निर्द्वंद्व भीतर है।
आकाश में बादल उठते हैं, लेकिन बादलों से आकाश छिन्न-भिन्न नहीं होता। आकाश में बादल उठते हैं, तो भी आकाश तो अभिन्न, अखंड, जैसा था, वैसा ही बना रहता है। बादल आते हैं, जाते हैं, आकाश का रूप नहीं बदलता। ऐसे ही तुम्हारे भीतर की एकरसता है, इसमें विचारों के बादल उठते हैं, वासनाओं के बादल उठते हैं, कामनाओं के बादल उठते हैं; संसार, शरीर, हजार यात्राएं, लेकिन तुम्हारे भीतर की एकरसता का आकाश सदा वैसा का वैसा, सदा निर्दोष, सदा कुंआरा, उसके कुंआरेपन में कोई अंतर नहीं पड़ता।
आकाश कभी गंदा होता है? हालांकि कितनी धूल-धवांस उठती है। कितने अंधड़-तूफान उठते हैं! और कितने काले बादल छा जाते हैं कभी, कि सूरज दिखाई नहीं पड़ता और आकाश का कोई पता नहीं चलता। फिर भी आकाश अविच्छिन्न रूप से वैसा का वैसा बना रहता है।
आकाश को कलुषित करने का कोई उपाय नहीं है।
आसमान खुद हवा बन कर
नहीं बहता जैसे
हवा उसमें बहती है
ऐसे जीवन भी
खुद नहीं बन जाता मौत
मौत उसमें रहती है
कहीं पहले से
और सिर उठाती है फिर
वक्त पा कर
आसमान में चुप पड़ी हुई
हवा की तरह
आसमान खुद
हवा बन कर नहीं बहता।
हवा चलती है, बादल उड़ते हैं, धूल उड़ती है। संसार बनते और बिगड़ते हैं, लेकिन यह सब आसमान के भीतर होता रहता है। और आसमान में कुछ भी नहीं होता। ऐसा ही तुम्हारे भीतर का अंतर-आकाश है। जन्म आता, मृत्यु आती; सब आता, सब होता, फिर भी तुम दूर खड़े साक्षी हो।
इस साक्षीभाव में जगो। यह साक्षीभाव ही तुम्हें एकरसता का अर्थ बताएगा। क्योंकि अर्थ अनुभव के बिना नहीं है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, प्रश्न पूछने की इच्छा भी है और साथ ही आपके द्वारा फटकारे जाने का डर भी। ओशो का संन्यासी कैसा हो? हंसता, गाता और नाचता हुआ या रूठा-सा--या जैसा हो, वैसा ही? कृपया साधक व संन्यासी का भेद भी स्पष्ट करें।
पूछा है: स्वामी माधव भारती ने!
प्रश्न पूछने की इच्छा हो, तो पूछ ही लेना; फटकारे जाने से भयभीत न होना! और फटकारता तुम्हें तभी हूं, जब देखता हूं कि तुम्हारे भीतर कुछ संभावना है।
हर किसी को नहीं फटकारता हूं। उसी को फटकारता हूं, जिसमें दिखाई पड़ता है कि चोट करने से कुछ झरना बहेगा।
सभी पत्थर मूर्तियों के लिए नहीं चुने जाते। और मूर्ति के लिए जो पत्थर चुना जाता है, उस पर छेनी भी पड़ती है, हथौड़ी भी पड़ती है, कांट-छांट भी करनी होती है।
तो तुम्हें फटकारता तभी हूं, जब लगता है कि कुछ है, जो निखर सकता है।
तो फटकार के कारण तुम न तो भयभीत होना, न दुखी होना। सौभाग्य अनुभव करना कि मैंने तुम्हें फटकारा।
अब तुम नाहक ही डरे हुए हो, क्योंकि तुम्हारे प्रश्न में ऐसी कोई भी बात नहीं, जिसके कारण तुम्हें फटकारा जाए। प्रश्न बहुत साफ-सीधा है। अच्छा है। सोचने जैसा है।
‘ओशो का संन्यासी कैसा हो? हंसता, गाता और नाचता हुआ या रूठा-सा--या जैसा हो, वैसा ही?’
मैं तुम्हें कोई ढांचा नहीं देना चाहता, क्योंकि सभी ढांचे परतंत्रता बन जाते हैं। मैं तुम्हें कोई अनुशासन भी नहीं देना चाहता। क्योंकि सभी अनुशासन अंततः तुम्हारी आत्मा में अवरोध बनेंगे।
मैं चाहता हूं: तुम्हारी आत्मा स्वतंत्रता से जीए, होश से जीए, बोध से जीए।
अगर मैं तुमसे कहूं कि मेरे संन्यासी को हंसता-गाता ही होना चाहिए, और फिर कभी रोने का क्षण आ जाए, तब क्या करोगे?
अभी ऐसा हुआ। मेरे एक पुराने जाने-माने परिचित थे--हरिकिशनदास अग्रवाल; वे चले बसे। उनके साले मेरे संन्यासी हैं: चमनलाल। वे वहां रोए भी, नाचे भी। लोगों ने समझा: पागल हुए। अगर रोते हो, तो नाचते क्यों हो? बहन के पति मर गए हैं; यह कोई नाचने की बात है? और अगर नाचते हो, तो रोते क्यों हो? और अगर रोते हो, तो नाचते क्यों हो?
वे मुझसे आकर पूछने लगे: मैं क्या करता? मुझे दोनों साथ-साथ हो रहे थे! नाच भी रहा था, प्रफुल्लित भी था, आनंदित भी था। क्योंकि आपने समझाया और मेरी समझ में आ गया कि मृत्यु में हम कुछ खोते नहीं। तो वह बात मेरी सुध में थी और फिर भी आंख से आंसू बह रहे थे। क्योंकि देखता अपनी बहन को--विधवा हो गई, अकेली हो गई, तो आंख से आंसू भी आ रहे थे!
वे मुझसे पूछ रहे थे आकर कि मैं क्या करता? और लोग कहने लगे: यह विरोधाभासी बात है। अगर नाचना है, हंसना है, तो नाचो और हंसो। अगर रोना है, तो रोओ। यह विरोध क्यों कर रहे हो?
मैंने उनसे कहा: तुमने जो किया, वही ठीक था। जो हो--सहजता से--उसे होने देना। जाग कर उसे देखना और होने देना। अगर तुम रोक लेते नाचने को, क्योंकि रोने के साथ संगति बिठानी है, तो कुछ दमन होता। और दमन बुरा है। अगर तुम नाचने के कारण रोना रोक लेते, क्योंकि नाचने के साथ रोने की संगति नहीं बैठती, तर्कयुक्त नहीं मालूम होता, तो भी दमन होता। वे आंसू अटके रह जाते तुम्हारी आंखों में, उससे तुम्हारी आंखें धुंधली हो जातीं; उससे तुम्हारी दृष्टि खराब होती। उससे बात अटक जाती। तुमने बिलकुल ठीक किया; आत्मा के लिए नाचे और गाए; शरीर के लिए रोए। और तुमने लोगों की न सुनी, वह अच्छा किया।
अपने भीतर की सुनो। अपनी गुनो। कोई दूसरा निर्णायक नहीं है।
एक झेन फकीर मरा; उसका प्रमुख शिष्य रोने लगा। प्रमुख शिष्य की बड़ी ख्याति थी। लोग सोचते थे; वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है। उसे रोते देख कर लोगों को भरोसा न आया।
उन्होंने कहा: तुम और रोते हो? तुम और रोते हो? तुम तो हमें समझाते थे कि शरीर कुछ भी नहीं है। राख ही राख है। और तुम रोते हो? तुम्हें तो पता होना चाहिए कि गुरु मरा, तो कुछ भी नहीं मरा। आत्मा अमर है।
उस फकीर ने कहा: मुझे पता है कि आत्मा अमर है। लेकिन नासमझो, आत्मा के लिए रो कौन रहा है? यह शरीर भी बड़ा प्यारा था। यह परमात्मा ने जो शरीर धारण किया था, फिर दुबारा ऐसा शरीर देखने न मिलेगा। यह बड़ी स्वर्ण काया थी। यह अपूर्व घटना थी। यह घर भी प्यारा था। इस घर में रहने वाला आदमी भी प्यारा था। घर में रहने वाला आदमी तो रहेगा, शाश्वत है। लेकिन घर गिर रहा है। मैं घर के लिए रो रहा हूं।
लोगों ने कहा: लेकिन लोगों को शक होगा तुम्हारे बुद्धत्व पर! लोग सोचते थे: तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए।
उसने कहा: छोड़ो लोगों की फिकर। वे जानें। मुझे बुद्ध मानें या न मानें, इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मैं उनके बुद्धत्व की धारणा के कारण अस्वाभाविक नहीं हो सकता हूं। जो स्वाभाविक है...
तो मैं तुमसे कहूंगा: हंसो, गाओ--स्वाभाविक हो। नाचो--स्वाभाविक हो। रोओ--स्वाभाविक हो।
आंसू भी अपूर्व सौंदर्य के प्रतीक हो जाते हैं अगर स्वाभाविक हों। और कभी-कभी रूठे-से भी रहो--अगर स्वाभाविक हो।
जैसा होता हो, वैसा ही होने दो। तुम इतना ही स्मरण रखो, तो मेरे संन्यासी हो--कि जैसा होता हो, होने दो। और पीछे खड़े तुम साक्षी रहो, देखते रहो--कि यह हो रहा है। हंसी भी है, आंसू भी हैं। नाच भी रहा हूं, रो भी रहा हूं। रूठा-सा भी हूं, संसार में भी खड़ा हूं।
जो होता हो, उसे जाग कर देखते रहो।
और तुमने पूछा है: ‘कृपया साधक व संन्यासी का भेद स्पष्ट करें।’
इस भेद को स्पष्ट करने के लिए तुम्हें ये सात शब्द समझने चाहिए।
पहला: कुतूहल। कुछ लोग हैं, जो कुतूहली हैं। पूछते हैं, ईश्वर है या नहीं? लेकिन इसमें उन्हें कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं है। पूछने को पूछ लिया। जैसे छोटे बच्चे पूछते हैं। कुछ भी पूछ लेते हैं। अगर उत्तर न दो मिनट भर, तो वे भूल-भाल गए। मिनट भर बाद तुम अगर उत्तर दो, तो वे कहेंगे: किस बात का उत्तर दे रहे हो! हमने पूछा कब?
ऐसे लोग मेरे पास आ जाते हैं। अगर ईश्वर की बात करते हैं, तो मैं देखता हूं, उनकी आंखों में सिर्फ कुतूहल है, तो मैं कुछ और बात पूछ लेता हूं। पूछता हूं: आपकी पत्नी कैसी है? बच्चे कैसे हैं? वे भूल गए; ईश्वर वगैरह छोड़ दिया। पत्नी-बच्चे की बात करने लगे। फिर वे घंटे भर बैठे रहे, तो फिर दुबारा नहीं पूछते ईश्वर की बात। वह तो जैसे बातचीत चलाने के लिए पूछ लिया था। अब मेरे पास आए थे, तो और क्या पूछें? ईश्वर की ही बात उठा ली--शिष्टाचारवश, कुतूहलवश। मगर इसका कोई मूल्य नहीं है।
तो पहली तो दशा है: कुतूहल की। अगर इस पर ही रुक गए, तो कोई मूल्य नहीं है। अगर इससे आगे बढ़े तो सीढ़ी बनती है।
क्योंकि इससे भी नीची दशाएं हैं।
ऐसे लोग हैं, जिनको कुतूहल भी पैदा नहीं होता। वे बिलकुल ही जड़ हैं। उनके मन में प्रश्न ही नहीं उठता कि जीवन का अर्थ क्या है? कि ईश्वर क्या है? आत्मा क्या है? हम किसलिए हैं? ये बातें नहीं उठती हैं। अगर उनसे तुम ये बातें करो, तो वे कहें: कहां की बकवास कर रहे हो? अरे कुछ काम की बात करो! काम की बात यानी अखबार की बात। काम की बात यानी पास-पड़ोस में किसका झगड़ा हो गया; कौन की स्त्री किसके साथ भाग गई? किसने कितना पैसा बना लिया? काम की बात यानी इस तरह की व्यर्थ कोई बात करो। कहां की बातें छेड़ दीं--ईश्वर, आत्मा!
उनसे तो बेहतर है वह, जिसमें कुतूहल पैदा हुआ--क्यूरिआसिटी। मगर कोई बहुत बड़ी अवस्था नहीं है--कुतूहल की। कुतूहल के आधार पर तुम कहीं जा न सकोगे। हालांकि यह पहली सीढ़ी है।
अगर इससे आगे बढ़ो, तो जिज्ञासा पैदा होती है।
जिज्ञासा का अर्थ होता है: ऐसे ही नहीं पूछ लिया; मन में वस्तुतः प्रश्न उठा है। मन में एक प्रश्न-चिह्न बन कर खड़ा हो गया है, जो उत्तर मांगता है। यह कुतूहल से बेहतर।
जिज्ञासु विद्यार्थी बन जाता है। कुतूहली तो विद्यार्थी भी नहीं बनता। उसमें तो हवा के झोंके की तरह प्रश्न आते हैं, चले जाते हैं। विद्यार्थी बनने के लिए तो प्रश्न का सातत्य चाहिए। कुछ टिके प्रश्न, कुछ देर टिके, तो कुछ काम शुरू हो।
तो जिज्ञासा से व्यक्ति विद्यार्थी बनता है। मगर जिज्ञासा भी कुछ बहुत दूर नहीं ले जाती।
शास्त्र पढ़ लोगे, विश्वविद्यालय से उपाधि ले आओगे। बस कूड़ा-करकट इकट्ठा होगा। इससे ज्ञान पैदा नहीं होगा।
तीसरी बात है: मुमुक्षा। मुमुक्षा से आदमी शिष्य बनता है। विद्यार्थी नहीं; शिष्य। सिर्फ विद्या की खोज नहीं करता, सिर्फ शास्त्रों में नहीं तलाशता। जीवंत गुरु को तलाशता है। मुमुक्षा पैदा हुई।
मुमुक्षा का अर्थ होता है: जिज्ञासा सिर्फ जिज्ञासा नहीं है, जीवन-मरण का सवाल है। कुछ दांव पर लगाने की तैयारी है।
मुमुक्षा से असली यात्रा शुरू होती है। जीवन लगाने की तैयारी है। अभी जीवन लगाया नहीं है।
चौथा शब्द है: साधक, साधना; जिसने मुमुक्षा के आगे कदम उठाया। जो अब दांव पर लगाता है जीवन को, वह साधक है। उसने कुछ करना शुरू किया।
ध्यान के संबंध में शास्त्र में पढ़ा--तो जिज्ञासा। ध्यान के संबंध में ऐसे ही चलते-चलते कुछ प्रश्न पूछ लिया--तो कुतूहल। ध्यान के संबंध में जीवित गुरु के चरणों में जाकर समझने की चेष्टा की--तो मुमुक्षा। और ध्यान शुरू किया करना--तो साधक बना आदमी; साधना शुरू हुई।
पांचवां शब्द है: संन्यास--संन्यासी। जब साधक के जीवन में फल आने लगते हैं; जब उसे लगता है कि कुछ-कुछ अनुभव मिलने लगे। अब थोड़ा-थोड़ा दांव लगाना जरूरी नहीं; अब पूरा ही दांव लगाना उचित है।
पहले तो आदमी थोड़े-थोड़े दांव लगाता है। दस रुपये का नोट दांव पर लगाया और देखा कि बीस हो गए। फिर बीस का लगाया। देखा कि चालीस हो गए। ऐसा कुछ लगा-लगा कर देखता है। फिर वह देखता है कि हां, कुछ हो सकता है; होता है। सब लगा दिया--तो संन्यास।
साधक के बाद की अवस्था है--संन्यास। और संन्यास के बाद की अवस्था है--सिद्ध।
जब सब दांव पर लगा दिया, तो संन्यास। और दांव पर लगाने से जब मिला--तो सिद्ध। फल लगा; सिद्धि हुई।
और सातवीं अवस्था है--बुद्ध। वह सिद्ध के बाद की अवस्था है। उस अवस्था का अर्थ होता है: जो अपने को मिला, वह दूसरे को बांटने लगे।
सिद्ध पर भी कुछ लोग रुक जाते हैं। सभी सिद्ध बुद्ध नहीं होते। पा लिया।
जैसा कबीर ने कहा है:
हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको बार-बार क्यों खोले।
कबीर कहते हैं: हीरा मिल गया है, जल्दी से अपनी गांठ में बांधा और भागे। अब इसको बार-बार क्या खोलना? किसको दिखलाना? यह सिद्ध की दशा। इसको जैनों ने केवली अवस्था कहा है। बुद्ध ने इस अवस्था को अर्हत अवस्था कहा है। पहुंच गए। बात खत्म हो गई।
सिद्ध पर यात्रा पूरी हो जाती है। सिद्ध का अर्थ ही होता है: सिद्धि हो गई; यात्रा पूरी हो गई।
लेकिन एक और अवस्था है--इससे भी ऊपर--बुद्ध की। बोध देने लगे। खुद जाग गए, अब सोयों को जगाने लगे। जैनों ने इस अवस्था को तीर्थंकर की अवस्था कहा है। बुद्ध ने इस अवस्था को बोधिसत्व की अवस्था कहा है। हिंदू इस अवस्था को सदगुरु की अवस्था कहते हैं।
ये सात शब्द समझना। कुतूहल से चलना है और बुद्धत्व तक पहुंचना है। सिद्ध पर भी रुके, तो थोड़ी कमी रह गई। अपने तईं तो पूरे हो गए; ध्यान तो पूरा हो गया, लेकिन करुणा न फैली।
तो सिद्ध की अवस्था ऐसी है, जैसे फूल तो खिला, लेकिन फूल निर्गंध था, उसमें कोई वास न थी। फूल तो खिल गया, लेकिन गंध न उड़ी आकाश में।
बुद्ध की अवस्था का अर्थ है: फूल खिला, हवाओं पर गंध सवार हुई, चली यात्रा को। जो भी नासापुट लेने को तैयार होंगे, उन्हीं में प्रवेश करेगी, उन्हीं की सोई हुई आत्मा को जगाएगी।
बुद्ध का अर्थ है: हम तो पहुंच गए, जो अभी अंधेरे में टटोल रहे हैं, उनके लिए हाथ बढ़ाएंगे।
कुतूहल से चलना और बुद्ध तक पहुंचना। और ये सब पड़ाव हैं बीच के।और सूत्र इस यात्रा का, जैसा मैंने तुमसे कहा: जो सहज हो--होने देना। और साक्षी बने रहना। सहज में बाधा मत डालना--और साक्षी का सूत्र भूलना मत। निश्चित पहुंच जाओगे; फिर कोई बाधा नहीं है।

आज इतना ही।

Spread the love