CHARANDAS
Nahin Sanjh Nahin Bhor 04
Fourth Discourse from the series of 10 discourses - Nahin Sanjh Nahin Bhor by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1977, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप अक्सर कहते हैं कि यह जगत एक प्रतिध्वनि बिंदु है, जहां से हमारे पास वही सब लौट आता है, जो हम उसे देते हैं। प्रेम को प्रेम मिलता है और घृणा को घृणा। यदि ऐसा ही है, तो क्यों बुद्ध और महावीर को यातनाएं दी गईं; क्यों ईसा और मंसूर की हत्या की गई? और क्यों यहां आपको झूठे लांछन, निंदा और गालियां मिल रही हैं? और क्या आप जैसों से बढ़ कर भी निश्छल प्रेम और आशीष देने वाले लोग इस जगत को मिल सकते हैं?
प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम और घृणा के प्रत्युत्तर में घृणा, यह जगत का सामान्य नियम है। लेकिन सदगुरु सामान्य नियम के भीतर नहीं, इसीलिए सदगुरु है। सामान्य नियम के भीतर नहीं है, क्योंकि संसार के भीतर नहीं है। संसार में होकर भी संसार के बाहर है। इसलिए जो नियम सामान्यतया काम करता है, वह नियम सदगुरु के लिए काम नहीं करेगा।
इसे समझो। यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। सदियों-सदियों में आदमी ने इस पर बहुत सोचा और विचारा है। ऐसा होना तो नहीं चाहिए।
जीसस से ज्यादा प्रेम और कौन देगा? और परिणाम में सूली हाथ लगती है। इसका तर्कयुक्त उत्तर साधारण बुद्धि के खयाल में नहीं आता। लेकिन भूल-चूक इसलिए हो जाती है कि तुम यह विस्मरण कर जाते हो कि सदगुरु किसी और जगत का वासी है; यहां अजनबी है। उसके जीने का ढंग, उसके होने की शैली, इस जगत की व्यवस्था में कहीं भी मेल नहीं खाती।
इस जगत का प्रेम क्या है? इस जगत का प्रेम है: दूसरे के अहंकार को तृप्त करो। जब तुम किसी स्त्री से कहते हो: तुझसे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं, तो स्त्री समझती है कि तुम प्रेम कर रहे हो। और जब कोई स्त्री तुम से कहती है कि तुम जैसा पुरुष न कभी हुआ; न कभी होगा; तुम बेमिसाल हो, तो पुरुष को लगता है: प्रेम। जहां भी तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है, वहां तुम्हें लगता है--प्रेम।
सदगुरु के साथ कठिनाई यही है कि तुम्हारे अहंकार को तृप्त नहीं करेगा। तुम्हारे अहंकार को खंडित करेगा, तोड़ेगा, मिटाएगा, नष्ट करेगा। इस जगत में तो घृणा करती है यह काम, जो सदगुरु का प्रेम करता है।
इस जगत में तो तुम्हें जो मिटाना चाहे, वह दुश्मन है। इस जगत में तो तुम्हें जो पोंछ डालना चाहे, वह शत्रु है।
इस जगत में घृणा का यही अर्थ होता है कि कोई तुम्हें मिटाने के पीछे प़़ड़ गया है। तुम्हें कोई बनाए तो प्रेम; तुम्हें कोई मिटाए तो घृणा। सदगुरु का प्रेम कुछ ऐसा है कि तुम्हें मिटा कर बनाता है। वह अनूठा है। पहले तुम्हें मिटाता है, तुम्हें खंड-खंड तोड़ देगा। तुम्हारे भवन की ईंट-ईंट गिरा देगा। जब तुम बिलकुल मिट जाओगे तो उसी से उठाएगा तुम्हें पुनः, तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। मृत्यु के माध्यम से तुम्हारा पुनर्जन्म होगा।
तो सदगुरु...। समझो; बहुत गहरा समझ सको तो ही पहचान पाओगे उसका प्रेम। थोड़े ही लोग उतना गहरा समझ सकते हैं, क्योंकि थोड़े ही लोग उतने गहरे हैं। अधिक लोग तो समझेंगे, यह दुश्मन आ गया।
तो जो तुम व्यवहार दुश्मन के साथ करते हो, वही तुम बुद्ध, महावीर, जीसस के साथ करोगे; वही तुम मेरे साथ करोगे। वही तुमने सदा किया है; वही तुम आगे भी करोगे।
और तुम पर नाराजगी भी जाहिर नहीं की जा सकती। तुम क्षम्य हो। तुम इससे अन्यथा कर भी नहीं सकते। तुमने जो प्रेम जाना है, उसने सदा तुम्हारे अहंकार की तृप्ति की है। तुमने जिसे घृणा समझा, वह वही थी, जिसने तुम्हें मिटाना चाहा।
सदगुरु आता है एक उपहार लेकर, जो बड़ा अनूठा है। ऐसा प्रेम लेकर आता है, जो तुम्हें घृणा जैसा मालूम पड़ेगा कि यह आदमी दुश्मन है। तुम्हें घृणा जैसा मालूम पड़ता है, इसलिए तुम उत्तर में घृणा देना शुरू कर देते हो। यह तुम्हारी भ्रांति से पैदा होता है।
लेकिन क्षम्य हो तुम। कसूर है तो सदगुरु का ही है। ऐसी अनूठी चीज लानी नहीं चाहिए! इसमें तुम्हारा क्या कसूर है? तुम्हारे जीवन-जीवन का अनुभव जिसे प्रेम कहता है, जिसे घृणा कहता है, सदगुरु कुछ लाता है जो तुम्हारी परिभाषा में नहीं बैठता। उसे तुम प्रेम नहीं कह सकते।
यह कैसा प्रेम कि तुम्हें मिटाने चला कोई! उसे तुम घृणा ही कह सकते हो। और घृणा का उत्तर तुम्हारे जगत के सामान्य नियम में घृणा ही है।
जीसस को सूली ऐसे ही नहीं दे दी। आदमी को जीसस ने बहुत नाराज कर दिया। सूली तो सिर्फ इस बात की सूचना है कि जिन लोगों के बीच जीसस उतरे, वे लोग समझ न पाए। वे इस जगत के थे, इस भूमि के थे, इस किनारे के थे। और जीसस कुछ उस किनारे की बात लाए, जो उनकी भाषा में नहीं आती; जो उनके अनुभव में मेल नहीं खाती। इसलिए तो जीसस ने मरते वक्त सूली पर कहा: हे प्रभु! इन सबको माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।
ये क्षमायोग्य हैं। इन पर नाराज मत हो जाना। इन्हें दंड नहीं मिलना चाहिए। ये वही कर रहे हैं, जो उनकी समझ के भीतर है। ये अपनी समझ से ठीक ही कर रहे हैं। अब इनकी समझ ही ठीक नहीं तो ये क्या करें! ये अबोध हैं। अगर इनसे गलती भी हो रही है तो गलती अबोध की है। अदालत भी माफ कर देती है अबोध को। छोटा बच्चा, दस साल का बच्चा अगर किसी की हत्या कर दे तो अदालत भी माफ कर देती है, क्योंकि अभी अबोध है; अभी बालिग नहीं। अभी इस पर जिम्मेवारी भी क्या डालनी!
और आदमी बालिग कहां है? आदमी की भीड़ अबोध है, बच्चों जैसी है, बचकानी है। समझ की एक भी किरण नहीं है।
तो जो सामान्य नियम है, वह बिलकुल सच है। तुम प्रेम दो, प्रेम मिलेगा। तुम घृणा दो, घृणा मिलेगी। लेकिन सदगुरु कुछ ऐसा प्रेम लाता है, जो बिलकुल अपरिचित है, अनजाना है। दिखाई तो जहर जैसा पड़ता है और है अमृत। पीओगे तब जानोगे कि अमृत है। देखोगे, तो लगेगा--जहर है। यही अड़चन है।
देखोगे तो लगेगा: यह आदमी हमें मिटाने चला; यह आदमी हमें पोंछने लगा। यह आदमी हमें खंडित कर रहा है। यह आदमी हमें तोड़ डालेगा। यह कहता है: समर्पण करो। यह कहता है: छोड़ो अहंकार। यह कहता है: छोड़ो ईर्ष्या; छोड़ो परिग्रह; छोड़ो हिंसा; छोड़ो आक्रमण। यह आदमी कहता है: इतना ही नहीं--छोड़ो विचार; छोड़ो मन; अ-मन हो जाओ। यह कुछ ऐसी शिक्षा दे रहा है कि जिसमें तुम बचोगे ही नहीं।
तुम चौंकते हो, तुम घबड़ाते हो, तुम अपनी रक्षा में लग जाते हो। तुम्हारी रक्षा में लगने से ही जीसस की फांसी, मंसूर की सूली पैदा होती है। ये तुम्हारी रक्षा के उपाय हैं। सच पूछो तो तुम जीसस को मारना चाहते हो, ऐसा नहीं। तुम सिर्फ अपने को बचाना चाहते हो।
और तुम्हें कुछ नहीं सूझता कि अगर यह आदमी मौजूद रहा तो हम अपने को कैसे बचाएंगे। यह आदमी बलशाली है। इस आदमी में कुछ अपूर्व आकर्षण है; इस आदमी में कुछ चुंबक है, जो खींचता है। कोई कशिश है, इसे मिटा दो अन्यथा खतरा है कि कहीं अपने विपरीत भी तुम इसकी कशिश में न पड़ जाओ, इसके आकर्षण से न खिंच जाओ।
तो तुम हजार तरह की लांछना करोगे, निंदा करोगे, आरोप लगाओगे। ये आरोप, लांछना, निंदा--ये तुम्हारी आत्म-रक्षा के उपाय हैं। यह तुम अपने चारों तरफ एक दुर्ग बना रहे हो। तुम अपने पास एक व्यवस्था कर रहे हो, ताकि मैं कभी इस आदमी के पास न जाऊं। इसे समझना।
अगर यह आदमी अच्छा है, तो फिर जाना पड़ेगा। अगर यह आदमी प्यारा है, तो फिर जाना पड़ेगा। अगर यह आदमी ईश्वरीय है, तो फिर जाना पड़ेगा। और गए, तो मिटना पड़ेगा। तो यह आदमी शैतान है। इसकी छाया न पड़े तुम पर।
मगर इसमें आकर्षण है। इसका आकर्षण खींच रहा है। इसका आकर्षण बुलावा दे रहा है। अगर तुमने बहुत मजबूत चीन की दीवाल अपने चारों तरफ खड़ी न कर ली, तो यह आकर्षण किसी अनजान क्षण में तुमको प्रभावित कर ले। किसी कोमल क्षण में तुम खिंच जाओ। कभी द्वार-झरोखा खुला हो और यह आदमी भीतर आ जाए, तो फिर लौटने का कोई उपाय न रहेगा। इसके पहले सब तरह से ईंटें चुन दो अपने चारों तरफ। वे ही ईंटें तुम महावीर को गालियां देकर अपने आस-पास चुनते हो। इतनी गालियां दे डालते हो कि तुम्हारे भीतर फिर जगह ही नहीं रह जाती कि इस आदमी के पास जाने का भाव भी उठे।
इसके आकर्षण को खंडित करने के लिए, तोड़ने के लिए तुम गालियों से इंतजाम करते हो। तुम झूठे लांछन लगाते हो। तुम निंदा फैलाते हो।
और तुम्हारे जैसे लोग बहुत हैं, जो तुम्हें साथ देंगे। वे तुमसे यह भी न पूछेंगे कि इस लांछन में सच्चाई कितनी है। वे तुमसे यह भी न पूछेंगे कि इस निंदा में सच्चाई कितनी है। वे तत्क्षण तुम्हारी निंदा को स्वीकार कर लेंगे।
तुमने यह कभी देखा, अगर तुम प्रशंसा करो, तो वे प्रमाण मांगते हैं। अगर तुम निंदा करो, तो वे प्रमाण नहीं मांगते। निंदा के लिए तो वे तत्पर हैं; हाथ पसारे, पलक-पांवड़े बिछाए, द्वार खोले, अभिनंदन लिखे, सुस्वागतम बांधे, सदा तैयार हैं।
तुम निंदा करो, वे स्वीकार करने को तैयार हैं। एक क्षण को भी संदेह न उठाएंगे। क्यों? क्योंकि वे भी चाहते हैं--अपने को बचाना; जैसे तुम अपने को बचाना चाहते हो।
निंदा बहुत घनी तुम्हारे आस-पास इकट्ठी तुमने कर ली किसी के प्रति, तो अब तुमने इंतजाम कर लिया। तुमने सेनाएं खड़ी कर लीं। तुमने पहरेदार बिठा दिए। अब तुम निश्चिंत अपने भीतर रह सकते हो। अब यह आदमी तुम्हारे लिए शैतान हो गया।
अगर यह आदमी शैतान नहीं है, तो फिर तुम कैसे अपने को रोकोगे? तुम कैसे अपने को बचाओगे किसी कोमल क्षण में? और वे कोमल क्षण सभी को आते हैं। कठोर से कठोर आदमी को आते हैं। किसी भाव की दशा में... और वैसी भाव की दशा सभी को आती है; निम्नतम आदमी को भी आती है। कभी-कभी मन आकाश में उड़ा-उड़ा होता है। कभी-कभी यह पृथ्वी बिलकुल व्यर्थ मालूम पड़ती है: कोई नये अर्थ की खोज शुरू होती है। कभी-कभी इस जीवन को देख कर लगता है: मैं क्या कर रहा हूं--सब असार है, बेसुर, व्यर्थ। तब कोई जीसस तुम्हें खींच लेगा। तब कोई बुद्ध तुम्हें बुला लेगा। तब तुम किसी सदगुरु के जाल में फंस जाओगे।
तुम्हारे भीतर ये भाव-क्षण आते हैं, इन भाव-क्षणों को रोकने के लिए तुम्हें सब तरह की गालियां जीसस को देनी पड़ेंगी। तुम्हें अपने तईं एक बात प्रमाणित कर लेनी होगी; अपने को सब तरह से तर्कों से समझा लेना होगा कि यह आदमी गलत है; भूल कर भी इसके पास मत जाना।
तो यह खयाल रखो कि आदमी अपनी रक्षा में निंदा करता है। सुकरात को जहर देने के पहले जिस अदालत ने जहर की आज्ञा दी, उस अदालत ने यह भी कहा... क्योंकि उन सबको लगता तो था भीतर से...।
जीसस को सूली देते वक्त तुम सोचते हो, जो लोग खड़े थे सूली देने, उनके मन में कोई शंका-शुबहा, कोई संदेह न उठा होगा? प्रश्न न जगा होगा कि हम क्या कर रहे हैं? यह ठीक है? यह उचित है? इसमें कहां तक औचित्य है?
सुकरात के साथ भी वही हुआ। जो आदमी न्यायाधीश था, उसके मन में बड़ा भाव उठने लगा। क्योंकि यह आदमी अनूठा तो जरूर है, भिन्न जरूर है, अद्वितीय जरूर है। लेकिन इसकी भ्रांति-भूल कहीं मालूम नहीं होती। अदालत में कुछ भी प्रमाणित नहीं हो सका है इसके खिलाफ। सिवाय एक बात के कि सारा एथेंस खिलाफ है। और कुछ प्रमाणित नहीं हुआ है। मगर अगर सभी लोग खिलाफ हैं; जूरी खिलाफ हैं; मेजिस्ट्रेट खिलाफ हैं; सारे नगर के प्रतिष्ठित लोग खिलाफ हैं, तो इसे सजा तो देनी ही होगी। न्यायाधीश रात भर सोचता रहा होगा। दूसरे दिन सुबह उसने सुकरात को जाकर कहा कि अगर तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ, तो तुम मुझे एक अपराध करने से बचा लोगे। एथेंस में रहोगे, तो मौत निश्चित है। मुझे सजा देनी होगी। कोई तुम्हारे पक्ष में नहीं है। एथेंस छोड़ दो।
सुकरात ने कहा: सत्य भगौड़ा नहीं होता। मौत आती हो, तो मौत ठीक है। लेकिन मैं अपने प्राण बचाने के लिए कहीं भागूंगा नहीं। और प्राण कितने दिन बचेंगे, यह तो मुझे बताओ! एक न एक दिन मरूंगा ही, ऐसे भी बूढ़ा हो गया हूं। आज आए मौत, कल आए मौत, परसों! मौत तो आने ही वाली है; निश्चित ही है, तो यह पलायन किस प्रयोजन से? मैं तो कहीं जाऊंगा नहीं। जीवन हो तो ठीक जीवन। मौत हो तो मौत। यहीं रहूंगा।
मजिस्ट्रेट को बात समझ में आई कि मौत तो आनी ही है। बात तो सुकरात ठीक ही कर रहा है। बात तो--मौत सामने खड़ी है, तो भी ठीक ही कह रहा है। तो उसने कहा: फिर तुम एक काम करो, यहीं रहो, लेकिन एक वचन दे दो अदालत को कि तुम लोगों को समझाना बंद कर दोगे। चुप रहो। इतने लोग हैं--आखिर गली-कूचे जा-जा कर लोगों को सत्य की शिक्षा देने की क्या जरूरत है? अपने घर में रहो। तुम्हारी सत्य की शिक्षा ने ही तुम्हें झंझट में डाला है। लोग झूठे हैं और तुम्हारा सत्य उन्हें अखरता है। और तुम जिससे बात करते हो, उसी को तुम देर-अबेर सिद्ध करवा देते हो कि वह झूठ है। वह झूठ उसे तिलमिला देता है। वह सिद्ध भी नहीं कर सकता कि सच है। तुम्हारी जैसी प्रतिभा नहीं, मेधा नहीं। तुम्हारी जैसी क्षमता नहीं, तुम्हारे जैसा अनुभव नहीं। वह सिद्ध भी नहीं कर सकता कि वह सच है। सिद्ध हो जाता है कि झूठ है। लेकिन उसके अहंकार को चोट लगती है; वह बदला लेना चाहता है। ये ही सारे लोग इकट्ठे हो गए हैं तुम्हारे खिलाफ। और उनकी भीड़ है। उनका बहुमत है। मैं कुछ भी न कर सकूंगा। तो तुम एक कसम खा लो कल अदालत में कि तुम अब सत्य का प्रचार करना बंद कर दोगे।
सुकरात ने कहा: फिर जीकर ही क्या करूंगा? फिर जीने से सार क्या? क्योंकि मेरे जीने का एक ही अर्थ है कि जो मैंने जाना है, उसे जना दूं। मेरे जीवन का कुल एक ही प्रयोजन है कि जिनकी आंखें अंधेरे से भरी हैं, उनमें थोड़ी सी रोशनी चमका दूं। अगर वही काम मैं नहीं कर सकता हूं तो फिर मर जाना ही बेहतर है। फिर जीने में कोई सार नहीं। और सुकरात ने कहा: मेरे मरने से शायद कुछ लोगों को सूझ आए, कुछ को समझ आए। जो जिंदा हालत में मेरे करीब न आ सके, शायद मर जाने के बाद मेरे करीब आएं। शायद जो जिंदा हालत में मुझसे न समझ सके, क्योंकि उनको बड़ी बेचैनी होती थी सामने आने में; मेरे मर जाने के बाद शायद मेरी मृत्यु ही उनमें जिज्ञासा जगा दे। तो तुम मुझे फांसी दो, चिंता न करो। लेकिन सुकरात के मन में कोई निंदा नहीं है; क्षमा का भाव है।
सुकरात को बात साफ-साफ है कि क्यों लोग नाराज हैं। अहंकार को चोट लगती है तो लोग नाराज न होंगे तो क्या होंगे? और सदगुरु का सारा काम इस पर निर्भर है कि तुम्हारे अहंकार को चोट दे। इसलिए जो नियम सामान्य है, वह नियम सदगुरु पर लागू नहीं होता।
तुमने पूछा है: ‘आप अक्सर कहते हैं कि यह जगत एक प्रतिध्वनि बिंदु है, जहां से हमारे पास वही सब लौट आता है जो हम उसे देते हैं। प्रेम को प्रेम मिलता है, घृणा को घृणा। यदि ऐसा ही है तो क्यों बुद्ध और महावीर को यातनाएं दी गईं? क्यों ईसा और मंसूर की हत्या की गई? और क्यों यहां आपको झूठे लांछन, निंदा और गालियां मिल रही हैं?’
ये सब अच्छे संकेत हैं। ये गालियां, लांछन, ये सब इस बात की खबरें हैं कि खबर लोगों तक पहुंचने लगी। ये इस बात की खबरें हैं कि लोग तिलमिलाने लगे। ये इस बात की खबरें हैं कि लोगों ने सोचना शुरू कर दिया। ये सूचक हैं कि लोग रक्षा का उपाय करने लगे। लोग रक्षा का उपाय ही तब करते हैं जब भयभीत हो जाते हैं, नहीं तो नहीं करते।
मुझे जितनी गालियां पड़ेंगी, जितने लांछन, जितनी झूठी बातें फैलाई जाएंगी, उतनी ही खुशी होगी, क्योंकि उतना ही काम फैलेगा।
सबसे बड़ा खतरा तो यह होगा कि लोग उपेक्षा कर जाएं। तो फिर मैं जो तुमसे कहना चाहता हूं, जो करना चाहता हूं, वह न हो सकेगा।
या तो तुम मुझसे प्रेम करो, तो कुछ हो सकता है। या मुझ से घृणा करो, तो कुछ हो सकता है। अगर उपेक्षा की, तो कुछ भी न हो सकेगा। क्योंकि घृणा भी एक तरह का संबंध है। प्रेम से विपरीत है माना, मगर है तो संबंध।
तुमने अक्सर देखा होगा: प्रेम घृणा में बदल जाता है। घृणा प्रेम में बदल जाती है। वे एक-दूसरे से विपरीत होते हुए भी एक-दूसरे के बहुत करीब हैं।
किसी को शत्रु बनाना हो, तो पहले मित्र बनाना पड़ता है। बिना मित्रता के शत्रुता पैदा नहीं हो सकती। फिर जो तुम्हारा शत्रु है, उससे तुम्हारा संबंध तो बन ही गया--विरोध का संबंध बना। लेकिन संबंध तो संबंध है। नाता तो जुड़ ही गया।
जिस आदमी ने मुझे गालियां देनी शुरू कर दीं, वह मुझ में उत्सुक तो हो ही गया। आज नहीं कल, देर-अबेर, सुबह नहीं सांझ, कभी गालियां देते-देते शायद उसे खयाल भी आएगा कि इन गालियों में कितनी सच्चाई है! गालियां देते-देते उसे यह भी तो खयाल आएगा कि मैं ये गालियां क्यों दे रहा हूं! इस आदमी ने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं। शायद इस आदमी को कभी मैंने देखा भी नहीं; मिला भी नहीं। कोई संबंध, पहचान भी नहीं।
झूठ झूठ ही है, तुम कितनी ही कुशलता से बोलो; तुम चाहे दूसरे को धोखे में भी डाल दो; पर अपने को कैसे धोखे में डालोगे! और कभी-कभी ऐसा होता है कि ज्यादा गाली दे दी, ज्यादा झूठ फैला दिया, जो कि स्वाभाविक है...।
हर चीज बढ़ती है। अगर तुमने झूठ बोलना शुरू किया, तो झूठ बढ़ता जाता है। एक सीमा पर जाकर अति हो जाती है। तुम्हीं इतने झूठ बोल जाते हो कि फिर तुम्हें ही शक होने लगता है कि मैं क्या कर रहा हूं! यह बात इतने दूर तक सच भी हो सकती है?
और जब तुम किसी के खिलाफ बहुत झूठ बोल चुके होते हो और बहुत निंदा कर चुके होते हो, तो तुम्हारे मन में उसके प्रति दया का भाव भी पैदा होता है। ये ब़ड़ी स्वाभाविक प्रक्रियाएं हैं। तुम्हारे मन में उसके प्रति थोड़ी दया भी आनी शुरू होती है कि अरे, बेचारा! उसी दया से रूपांतरण शुरू होगा।
घृणा प्रेम में बदल सकती है। घृणा निश्चित प्रेम में बदल सकती है। असली खतरा तो उनके लिए है, जो उपेक्षा कर जाते हैं। न जिन्हें घृणा है, न कोई प्रेम है, जो कहते हैं: हमें कुछ लेना-देना नहीं है। ये निरुत्सुक व्यक्ति न तो जीसस से कभी जुड़ पाएंगे, न बुद्ध से, न सुकरात से, न मुझसे।
जो प्रेम से मुझसे जुड़ गया है, वह तो मेरे बहुत करीब आ गया। वह तो इस अमृत का पूरा लाभ उठा लेगा। जो घृणा से जुड़ गया है, उसने भी कुछ कदम तो उठाए। आज घृणा है, कल प्रेम हो जाएगा। घृणा से जुड़ गया अर्थात मुझसे बचने की रक्षा करने लगा। मुझसे बचने की रक्षा करने लगा अर्थात उसे डर तो भीतर पैदा हो गया है कि यह आदमी मुझे खींच ले सकता है, इससे बचना चाहिए। अब कशमकश होगी। संभावना के बीज पड़ गए।
इसलिए मैं प्रसन्न हूं। जितनी निंदा हो, जितनी गालियां दी जाएं, जितने लांछन किए जाएं, जितनी अतिशयोक्ति की जाए--उतना शुभ है; उतने ज्यादा लोगों तक खबर पहुंचेगी।
कुछ लोग तो मेरे पास निंदा सुन कर ही आ जाते हैं कि चलो, देखें भी। जिस आदमी को इतनी गालियां दी जा रही हैं, मामला क्या है? इस बहाने ही आ जाते हैं। आकर रूपांतरित हो जाते हैं। आकर प्रेम में पड़ जाते हैं। आकर जिंदगी में क्रांति घट जाती है। इन लोगों को भी धन्यवाद देना चाहिए उनको, जिन्होंने गालियां दीं, अन्यथा वे न आ पाते।
तुम पूछते हो कि ‘बुद्ध, महावीर को यातनाएं दी गईं; क्यों?’
तो पहली तो बात: बुद्ध महावीर ने नहीं समझा ऐसा कि यह यातना है; तुम्हारी तरफ से तुम्हें लगता है कि यातना दी गई। बुद्ध और महावीर की तरफ से भी देखो। वहां से कुछ यातना का प्रश्न नहीं है। बुद्ध और महावीर जिस चैतन्य की दशा में जीते हैं, वहां कैसी यातना? वहां तुम बुद्ध के शरीर को अगर पत्थरों से बिछा देते हो, तो भी बुद्ध को जरा भी चोट नहीं लगती। शरीर टूट जाए, लहूलुहान हो जाए, बुद्ध को चोट नहीं लगती। क्योंकि बुद्ध का बुद्धत्व ही यही है कि मैं शरीर नहीं हूं।
जीसस को तुम सूली पर लटका देते हो। जीसस को सूली नहीं लगती। क्योंकि जीसस का जीसस होना ही यही है कि मैं अमृतधर्मा हूं; अमृतस्य पुत्रः--जैसा वेद के ऋषि कहते हैं।
मंसूर के जब हाथ-पैर काटे गए, तो मंसूर खिल-खिला कर हंसा। भीड़ जो खड़ी थी, वह भी चौंक गई। भीड़ में से किसी ने पूछा कि मंसूर क्या तुम पागल हो गए हो? हाथ-पैर काटे जा रहे हैं और तुम हंस रहे हो?
तो मंसूर ने कहा: हंसूं न तो क्या करूं! क्योंकि तुम सोच रहे हो, तुम मेरे हाथ-पैर काट रहे हो। तुम मुझे छू भी नहीं पा रहे हो। जिस शरीर को तुम काट रहे हो, उस शरीर को तो समय हुआ, मैं छोड़ चुका। जिस घर को तुम गिरा रहे हो, उसमें मंसूर न मालूम कितने वर्षों से रहा ही नहीं। और तुम सोच रहे हो कि तुम मंसूर को गिरा रहे हो! हंसूं न तो क्या करूं? तुम्हारी नासमझी पर बड़ी हंसी आती है।
और उसके चेहरे पर ऐसे आनंद का भाव था मरते वक्त--कि उसका गुरु, मंसूर का गुरु भी भीड़ में खड़ा था--जुन्नैद। जुन्नैद ने पूछा कि मंसूर तेरे चेहरे पर ऐसे आनंद का भाव! कारण? तो मंसूर ने कहा: कारण! यही कि मैं ईश्वर से कह रहा हूं कि तू किसी भी शक्ल में आ, मुझे धोखा न दे सकेगा। मैं तुझे पहचान ही लूंगा। आज तू हत्यारे की शक्ल में आया है! मगर तू मुझे धोखा न दे सकेगा। मैं तुझे पहचान ही लूंगा। जब पहचान हो गई तो हो गई। तू किसी भी शक्ल में आ, तुझे पहचान लूंगा। यह तू मेरी आखिरी परीक्षा ले रहा है!--कि देखें, मंसूर पहचान पाता है कि नहीं।
फूल में तो पहचान लिया था मंसूर ने; गुलाब का फूल खिला था। पक्षियों के गीत में पहचान लिया था; बड़े प्यारे थे गीत। आकाश में घूमते हुए शुभ्र बादलों में पहचान लिया था; बड़े अनूठे थे बादल। सूरज की किरणों में पहचान लिया था। चांद-तारों में पहचान लिया था। सागर की लहरों में पहचान लिया था। बच्चों की किलकारी में पहचान लिया था। यह तो ठीक था। यह तो प्रभु का सौम्य रूप था। यह रुद्र रूप! स्वयं मंसूर को मिटाने ख़ड़ा है प्रभु। इसमें पहचानता है या नहीं? यह तांडव रूप--इसमें पहचानता है या नहीं?
मंसूर कहता है, कि मैं तुझे इसमें भी पहचानता हूं। तू मुझे धोखा न दे सकेगा। तू किसी शक्ल में आ, मैं तुझे पहचान ही लूंगा। क्योंकि मैं तुझे पहचान चुका हूं।
तो पहली तो बात: बुद्ध, महावीर, मंसूर, जीसस, सुकरात को कोई यातना नहीं मिली। तुमने दी जरूर। लेकिन तुम्हारे देने से क्या होता है! लेने वालों ने ली ही नहीं।
तुम मुझे गाली दे जाओ। तुम्हारी गाली मुझ तक नहीं पहुंचती तब तक, जब तक मैं न लूं। तुमने दी, तुम्हारी मर्जी, तुम अपने मालिक हो। तुम अपने ओठों से गाली बनाओ, इसका तुम्हें हक है। लेकिन मैं उसे लूं या न लूं, अपने हृदय में रखूं या न रखूं, इसकी मालकियत मेरी है। मैं तुमसे कह सकता हूं: धन्यवाद, नहीं लेते। तब तुम्हें अपनी गाली वापस ले जानी पड़ेगी। तब तुम्हारी गाली तुम्हीं पर वापस गिर जाएगी। तब तुम्हीं अपनी गाली के वजन में दब जाओगे। तब तुम्हीं को यह बोझ ढोना पड़ेगा।
तो यातना लोगों ने दी जरूर मगर उन्हें मिली नहीं।
और अंतिम बात: उन्होंने इस यातना को भी आनंद में परिणत किया। यही तो कला है, कीमिया है। सदगुरु की सारी कला यही है कि वह जहर को अमृत बना ले; वह रात को दिन बना ले; अंधेरे को रोशनी बना ले; मृत्यु को जीवन बना ले; शून्य को पूर्ण बना ले, यही तो उसकी सारी कला है। सदगुरु का अर्थ क्या है?
बढ़ती चली गई उमर हर एक घूंट पर।
हमने पिया है विष भी इतनी कमाल से।।
वह इतने कमाल से जहर को भी पीए कि जहर भी जीवन को बढ़ाने वाला हो; जीवन का सहयोगी हो जाए।
और तुम्हारी यातना देने से कुछ नुकसान नहीं हुआ। जीसस को तुमने सूली न दी होती, तो दुनिया जीसस को कभी का भूल गई होती। सूली की वजह से याद रखना पड़ा। जीसस को दी गई सूली। आदमियत की छाती में सूली की तरह चुभ गई; जीसस को भूलना मुश्किल हो गया। कैसे भूलोगे? ये तुम्हारे हाथ खून से सने हैं। इन्हें धोने का कोई उपाय नहीं है। इन पर जीसस का खून है।
जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, उन्होंने मनुष्य-जाति के इतिहास में एक क्रांति खड़ी कर दी। देखते हो: जीसस के नाम से हम तौलते हैं समय को--जीसस-पूर्व और जीसस-पश्चात। जीसस समय को दो हिस्सों में तोड़ देते हैं। जीसस के पहले की बात और जीसस के बाद की बात अलग हो जाती है; इतिहास दो हिस्सों में टूट जाता है।
इस बढ़ई के बेटे में ऐसा कुछ भी न था, जिसकी वजह से इतिहास दो हिस्सों में टूटता। इससे बड़े-बड़े ज्ञानी हुए थे, मगर इतिहास दो हिस्सों में नहीं टूटा किसी से। आज आधी दुनिया ईसाई है।
काश! महावीर को भी तुमने सूली दी होती, तो कहानी दूसरी होती। फिर महावीर को भूलना मुश्किल हो जाता। फिर महावीर की याददाश्त तुम्हारा पीछा करती, तुम्हारे चारों तरफ डोलती। इतना जघन्य अपराध करने के बाद तुम कैसे अपने को क्षमा कर पाते!
जीसस के चरणों में इतने अधिक लोग क्यों झुके? तुमने कभी सोचा? इसलिए झुके कि अपराध-भाव पैदा हुआ: सूली दी इस आदमी को।
ऐसे प्यारे आदमी को सूली दी, तो कुछ करना होगा। हाथ पर लगे लहू के दाग धोने होंगे। वस्त्रों पर पड़ गए खून के छींटे साफ करने होंगे। झुकना पड़ेगा इस आदमी के चरणों में।
जीसस को दी गई सूली जीसस को यातना नहीं थी--पहली बात। और जीसस के काम को पूरा करने में सहयोगी बनी--दूसरी बात। तुमने किसी मर्जी से दी हो, तुम्हारी मर्जी से क्या लेना-देना है?
जीसस जैसे लोग जहर को भी इस कमाल से पीते हैं कि अमृत बन जाए। सूली मंदिर बन गई। सूली सिंहासन बन गई। जीसस विराजमान हो गए जिस सिंहासन पर, उस पर कोई दूसरा विराजमान नहीं हो सका है। और तुमने ही अपने हाथों भूल कर ली। असल में तुम जो भी करोगे भूल ही करोगे।
जीसस का इतना क्रांतिकारी प्रभाव मनुष्य-जाति पर पड़ा।
मुसलमानों ने मंसूर को सूली दे दी और उसी सूली के साथ...। बड़े सूफी हुए हैं मुसलमानों में; बड़ी ऊंचाई के लोग हुए, सब फीके पड़ गए। मंसूर का नाम उभर कर आ गया। मंसूर अलग चमकने लगा आकाश पर। मोहम्मद के बाद अगर किसी का नाम दुनिया जानती है, तो मंसूर का। बड़े फकीर हुए; बड़े पहुंचे हुए सिद्धपुरुष हुए, लेकिन खो गए।
तुम्हारी सूली ने मंसूर को बचा लिया। तुम्हारी सूली ने लोगों की आंखों में मंसूर को गहरा बिठा दिया; लोगों के हृदयों में पहुंचा दिया। मंसूर की आवाज आज भी अर्थ रखती है। औरों के तो नाम भी खो गए।
तो ऐसी भी कथा है कि जीसस ने खुद अपनी सूली का इंतजाम करवाया। यह कथा महत्वपूर्ण है, सिर्फ इसलिए कि जीसस जो संदेश दुनिया को दे जाना चाहते हैं, वह सूली के साथ सीलबंद हो जाए। जो संदेश दुनिया को छोड़ जाना चाहते हैं; उस पर सील-मुहर लग जाए; वह सदा के लिए टिके--ऐसा इंतजाम कर जाएं।
तो ऐसी कहानी है फकीरों में कि जीसस ने अपनी सूली का इंतजाम खुद ही करवाया। और जुदास ने जीसस को धोखा नहीं दिया था, केवल जीसस की आज्ञा का पालन किया था। जिसने जीसस को दुश्मनों के हाथों में दे दिया।
ऐसा भी एक सूत्र है जो कहता है कि जुदास ने जीसस को धोखा नहीं दिया है। जीसस ने जुदास की आखिरी परीक्षा ली समर्पण की, कि जीसस ने जुदास को कहा कि आज रात तू दुश्मन को खबर कर दे कि मैं कहां हूं और मुझे पकड़ा दे। अगर तूने सब मुझ पर छोड़ दिया है, समर्पण तेरा पूरा है, तो तू यह भी करेगा।
गुरु अगर शिष्य से कहे कि मेरी गर्दन उतार दे; अगर तेरा समर्पण पूरा है, तो तू यह भी करेगा। अगर तू ना-नुच करे, तू कहे: यह मैं कैसे कर सकता हूं, तो फिर तू अभी शेष है।
जिस रात जीसस ने ऐसा जुदास को कहा होगा, जुदास पर क्या गुजरी होगी! अपने गुरु को दुश्मनों के हाथ में दे दे। बड़ा डांवाडोल हुआ होगा; बड़ा सोचा-विचारा होगा। लेकिन अंततः पाया होगा कि जब गुरु कहता है, तो चाहे यह कितना ही कष्टपूर्ण हो, लेकिन करना होगा।
जुदास ने जीसस को दुश्मनों के हाथ में दे दिया।
और तुम्हें पता है, ईसाइयों ने जुदास की कथा नहीं लिखी ज्यादा, क्योंकि उन्होंने तो एक बात मान ही ली--ऊपर-ऊपर से बात मान ली कि जुदास धोखा दे गया। इसलिए पश्चिम के मुल्कों में ‘जुदास’ शब्द धोखेबाज और गद्दार का प्रतीक हो गया। उसका अर्थ ही गद्दार हो गया। लेकिन जुदास की कथा खोजने जैसी है।
जिस दिन जीसस को सूली लगी, दूसरे दिन जुदास ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। खोजने जैसी बात है कि क्या हुआ? जुदास ने क्यों...! अगर उसने धोखा ही दिया था, अगर उसने गद्दारी ही की थी, तब तो वह प्रसन्न होता। लेकिन उसने आत्मघात क्यों कर लिया? संभावना है इस बात की कि उसने केवल गुरु की आज्ञा का पालन किया था--और अपने खिलाफ पालन किया था। और जीसस को सूली पर लटके देख कर उसने सोचा होगा: अब मेरे लिए क्या बचा! उसने अपने को मार डाला हो।
इस बात की बहुत संभावना है कि जीसस ने खुद ही आयोजन किया हो। न भी किया हो खुद आयोजन, तो भी इस आयोजन से प्रसन्न तो हुए ही होंगे। इससे काम फैलेगा; संदेश टिकेगा--हजारों-हजारों वर्ष तक। यह बात लोगों के कान में गूंजती रहेगी।
मौत किसी भी चीज के साथ जुड़ जाए, तो महत्वपूर्ण हो जाती है बात, क्योंकि मौत के पार फिर कुछ भी नहीं, मौत आखिरी है! और जिस चीज के साथ मौत जुड़ जाए, वह भी आखिरी हो जाती है।
तो न तो सदगुरुओं ने समझा है कि उनको यातना मिली, न उन्होंने यह समझा है कि कुछ बुरा हुआ, न वे नाराज हैं। मगर सामान्य नियम का अतिक्रमण जरूर सदगुरु के जीवन में होता है।
‘सभी सदगुरुओं ने कहा है कि प्रेम दो और प्रेम मिलेगा, घृणा दो और घृणा मिलेगी। और फिर भी सभी सदगुरुओं को घृणा मिली।’
तो यह सूत्र समझ लेना।
सदगुरु इस जगत के नियम के बाहर है; इस जगत के बाहर है। वह यहां एक नये ढंग के प्रेम को लाता है। वह प्रेम नहीं, जो तुम्हारे अहंकार को फुसलाता है। वह प्रेम नहीं, जो तुम्हारी बीमारी और तुम्हारे घावों को भी सजाता है। वह प्रेम नहीं, जो तुम्हें बदलता ही नहीं; तुम जैसे हो वैसा ही तुम्हें रखता है। वह प्रेम नहीं जो तुम्हें और अंधेरे गड्ढों में गिराता है। बल्कि वह प्रेम जो तुम्हें निखारता है; तुम्हारे हृदय में चुभे कांटों को निकालता है। पीड़ा भी होती है तो तुम नाराज भी होते हो। और अंततः अहंकार के कांटे को भी निकाल लेता है। और बड़ी भयंकर पीड़ा से तुम्हें गुजरना होता है। क्योंकि वह मृत्यु की पीड़ा है--असली मृत्यु की।
जिसको तुम मृत्यु कहते हो, वह तो छोटी मृत्यु है, क्योंकि शरीर ही मरता है; अहंकार जिंदा रहता है, फिर पैदा होता है। गुरु के सान्निध्य में जो मृत्यु घटती है, वह महामृत्यु है, क्योंकि फिर तुम्हारे पैदा होने का ही उपाय समाप्त हो गया। फिर तुम्हारा आवागमन न होगा। तुम्हारा अहंकार इस तरह खींच लिया गया है कि आने का सेतु ही टूट गया। फिर तुम इस दुनिया में वापस न लौट सकोगे।
तो जो गुरु तुम्हारे साथ इतना बड़ा ऑपरेशन करे, उससे अगर कभी-कभार तुम नाराज हो जाओ, क्रोधित हो जाओ, भागो; स्वाभाविक है।
तुमने देखा, बच्चे के पैर में कांटा गड़ा हो, और मां कांटे को निकालना चाहे, तो बच्चा चिल्लाता है; नाराज होता है; मां को मारता है, क्योंकि कांटा निकालने में दर्द देता है। और बच्चे की अभी इतनी समझ कहां कि अगर कांटा ज्यादा देर पैर में रह गया, तो नासूर बनेगा, बीमारी बढ़ जाएगी। इसे निकालना ही होगा। और निकालने में जो पीड़ा होती है, वह तो क्षण भर की है, फिर सुख ही सुख है। मगर वह पीड़ा तो है।
बच्चे को फोड़ा हुआ हो, मवाद भर गई हो और मां उसके मवाद को निकालती है, तो बच्चा चीख मारता है; रोता-चिल्लाता है। यह मां सदा के लिए दुश्मन मालूम होती है कि इससे कभी ठीक काम नहीं होता। जो भी करेगी--परेशान करने का, कष्ट देने का काम करेगी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कोई बच्चा अपनी मां को माफ नहीं कर पाता। कैसे करे माफ! इतनी तकलीफें उसने दी हैं।
गुरजिएफ तो कहता था: जब तक तुम अपने मां-बाप को माफ न कर सको, मेरे पास आना ही मत। पहले तुम अपने मां-बाप को माफ करो। क्यों? उसने अपने दरवाजे पर लिख रखा था कि अगर अपने मां-बाप को माफ न किया हो, तो मेरा दरवाजा तुम्हारे लिए बंद है। क्यों? मां-बाप को माफ करने का क्या संबंध? तुमने कभी सोचा भी नहीं होगा।
सारी संस्कृतियां, सारे समाज लोगों को समझाते हैं: मां-बाप का आदर करो। क्यों? क्योंकि ऐसा न समझाया जाए, तो बच्चे मां-बाप की हत्या कर देंगे। डर है। स्वभावतः जीवन की प्रक्रिया ऐसी है कि मां-बाप को बच्चे को हजार बार नाराज करना होता है। बच्चा सांप से खेलना चाहता है और मां को उसे खींचना होता है। बच्चा आग की तरफ जाना चाहता है और मां को उसे रोकना होता है। हजार मौके आते हैं, जब बच्चे को इनकार करना, इनकार करना, इनकार करना; बच्चे को बार-बार लगता है कि किन दुश्मनों के हाथ में पड़ गया हूं। जो भी मैं करना चाहता हूं वही गलत है! हर चीज गलत है! मेरे मन की किसी भी भावना का कोई सम्मान नहीं। अपमान ही अपमान है।
छोटा बच्चा सोचने लगता है कि ठहरो, मुझे बड़ा होने दो। मैं तुम्हें मजा चखाऊंगा। जब मेरे हाथ में ताकत होगी, तब मैं तुम्हें बताऊंगा।
और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जब मां-बाप बूढ़े हो जाते हैं और बेटे के हाथ में ताकत होती है, तो बेटे अक्सर मां-बाप को सताते हैं। यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है; यह बचपन का बदला है; अनजाना है।
और इसलिए सारे समाज समझाते हैं कि मां-बाप का आदर करो। अगर न समझाओ तो खतरा होगा। तो इस बात को खूब-खूब बिठालना पड़ता है कि आदर करो। मां-बाप का आदर जगत में सबसे बड़ी बात है। उनके चरण छुओ। यह विपरीत बात बिठालनी प़ड़ती है क्योंकि खतरा भीतर छिपा बैठा है। अगर उसके विपरीत कुछ आयोजन न किया गया तो कठिनाई हो जाएगी।
पश्चिम के मुल्कों में चूंकि आदर का इतना आयोजन नहीं है, इसलिए बच्चों में और उनके मां-बाप में कभी अच्छे संबंध नहीं रह पाते। क्योंकि आदर का कोई बहुत इंतजाम नहीं किया गया, औषधि का इंतजाम नहीं किया गया। बीमारी तो मौजूद है और औैषधि बिलकुल नहीं है।
गुरजिएफ ठीक कहता था। वह कहता था: पहले अपने मां-बाप को माफ करो। क्योंकि अगर तुम उन्हीं को माफ नहीं कर पाए, और उन्होंने तुम्हारी जिंदगी की छोटी-मोटी तकलीफें तुम्हें दी हैं तो तुम मुझे कैसे माफ करोगे? क्योंकि मैं जिंदगी की आखिरी तकलीफ तुम्हें देने जा रहा हूं। तुम पहले मां-बाप को माफ करके आओ।
सबूत दो कि अब तुम्हारे मन में मां-बाप के प्रति कोई विरोध नहीं है। तुमने समझ ली बात कि उनकी मजबूरी थी। वे तुम्हारे हित के लिए ही तुम्हें पीड़ा देते थे। कभी कांटा निकाला था; कभी घाव दबा कर मवाद निकाली थी। कभी जबर्दस्ती रात सोने को कहा था। कभी सुबह जबर्दस्ती नींद से उठाया था। वह सब मजबूरी थी। कभी भोजन तुम करना चाहते थे, नहीं करने दिया था। कभी तुम मिठाई खाना चाहते थे और मिठाई छीन ली थी। कभी तुम स्वादिष्ट भोजन करने के दीवाने थे और तुम्हें केवल शाक-सब्जी दी थी। वह सारी की सारी बातें इकट्ठी तुम्हारे भीतर पड़ी हैं। वे छोटे-मोटे काम थे।
गुरुजिएफ ठीक कहता है कि मैं तुम्हारी जिंदगी में आखिरी खतरा लाऊंगा। तुम्हारे अहंकार को छीन लूंगा। अगर तुम मां-बाप को माफ न कर सके तो तुम मुझे कैसे माफ करोगे?
इसलिए पूरब में हम कहते है कि मां-बाप का ऋण तो चुकाया भी जा सकता है; गुरु का ऋण कैसे चुकाओगे! क्योंकि मां-बाप का ऋण छोटा-मोटा है; गुरु का ऋण तो चुकाने का कोई भी उपाय नहीं है।
गुरु तुम्हारे जीवन में अमृत की वर्षा लाता है। लेकिन उसके पहले तैयारी करनी होती है। घास-पात उखाड़ना होता है। कंकड़-पत्थर हटाने होते हैं। भूमि तैयार करनी होती है। उस भूमि के तैयार करने में जो कष्ट होते हैं, उससे लोग नाराज होते हैं। और जो लोग उस कष्ट से गुजरने से डरते हैं, वे दूर ही रह कर निंदा, लांछन और न मालूम कितने तरह के उपायों में उलझ जाते हैं। वे बचाव कर रहे हैं कि इस आदमी के पास हमें न जाना पड़े।
अंतिम बात: ‘और क्या आप जैसों से भी बढ़ कर निश्छल प्रेम और आशीष देने वाले लोग इस जगत को मिल सकते हैं?’
जब भी इस जगत को कोई आशीष देगा, तो यह जगत नाराज होगा। जब भी इस जगत को कोई करुणा देगा, यह जगत नाराज होगा। जब भी इस जगत में कोई रूपांतरण लाने वाला प्रेम लाएगा, क्रांति लाने वाला प्रेम लाएगा, यह जगत नाराज होगा।
और फिर तुम्हें याद दिला दूं: यह स्वाभाविक है। इसलिए सदगुरुओं का उपयोग बहुत थोड़े से लोग कर पाते हैं, थोड़े से हिम्मतवर लोग। भीड़-भाड़ उनका उपयोग नहीं कर पाती। बहुत थोड़े से लोग ही सदगुरुओं की कीमिया से गुजरते हैं, रूपांतरित होते हैं। वे थोड़े से चुने हुए लोग ही पृथ्वी के नमक हैं, उन्हीं के कारण पृथ्वी में थोड़ी शोभा है। थोड़े फूल खिलते हैं; थोड़ी सुवास उठती है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या सतत साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के परम स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता है? औैर जब सिर्फ साक्षीभाव रह जाए, तो उससे भी कैसे मुक्त हुआ जाए?
पूछते हो: ‘क्या सतत साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के परम स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता है?’
साक्षीभाव ही तो ध्यान है। ध्यान और साक्षीभाव दो नहीं हैं। ध्यान की सारी प्रक्रियाएं साक्षीभाव में ही ले जाने वाले द्वार हैं।
ध्यान के दो अंग समझ लो; वहीं कहीं भूल हो रही है।
ध्यान का जो पहला अंग है, ध्यान तो है ही नहीं। वह तो नाममात्र को ध्यान है। वह तो सिर्फ तैयारी है ध्यान की।
जैसा मैंने अभी तुमसे कहा कि कोई माली बगीचा बना रहा है। तुमने देखा उसे। वह घास-पात उखाड़ रहा है, पत्थर हटा रहा है; जमीन खोद रहा है। खाद ला रहा है। जमीन साफ-सुथरी पड़ी है, एक पौधा नहीं बचा। एक पौधा नहीं है वहां। और तुम उससे पूछते हो: क्या कर रहे हो? तो माली कहता है कि बगीचा लगा रहा हूं। तुम कहोगे: यह कैसा बगीचा? एक पौधा दिखाई नहीं पड़ता? बल्कि पहले कुछ थे--घास-पात उगा हुआ था; वह भी तुमने निकाल दिया। यह कैसा बगीचा लगा रहे हो? तो वह कहेगा: यह बगीचा लगाने की तैयारी है। अभी बगीचा लगा नहीं। अभी तो बगीचा लग सके, इसमें जो-जो बाधाएं हैं, वे अलग कर रहा हूं। मगर बाधाएं अलग करना भी है तो प्रक्रिया का अंग।
ध्यान की जो भी प्रक्रियाएं हैं--वह सिर्फ बाधा को अलग करना है, जैसे ही बाधा अलग हो गई, भूमि तैयार हो गई, फिर तो साक्षीभाव ही ध्यान है। साक्षीभाव ही वास्तविक ध्यान है।
जैसे तुम सक्रिय ध्यान करते हो। श्वास के द्वारा तुम शरीर की ऊर्जा को जगाते हो। श्वास के आघात-प्रत्याघात से तुम शरीर में पड़ी हुई ऊर्जा की पर्तों को सक्रिय करते हो। श्वास के आंदोलन से तुम्हारे शरीर में जो जड़ता छा गई है और शक्ति के प्रवाह अवरुद्ध हो गए हैं, उनको तुम तोड़ते हो--अवरोधों को, ताकि तुम्हारा पूरा शरीर ऊर्जा की एक ज्वलंत लपट बन जाए।
जब यह ऊर्जा की लपट घनी हो जाती है तुम्हारे भीतर, तो दूसरे चरण में तुम रेचन करते हो। क्योंकि जैसे ही ऊर्जा प्रवाहित होनी शुरू होती है, जो-जो ऊर्जा के बीच में बाधा बन रहा है, उसे फेंकने की जरूरत आ जाती है; उसे अपने से बाहर फेंकना जरूरी है; तो रेचन करते हो।
रेचन घास-पात उखाड़ना है। ऊर्जा जगी--रेचन हुआ। फिर तुम ‘हू’ मंत्र का उच्चार शुरू करते हो। अब शरीर तैयार है; शरीर की बाधाएं हट गईं; अब मन पर चोट की जा सकती है। अब मन सोया है, उसको भी सक्रिय किया जा सकता है। ‘हू’ ध्वनि के द्वारा या ‘ओम’ ध्वनि के द्वारा या कोई भी ध्वनि का उपयोग किया जा सकता है। तुम अपने भीतर ध्वनि तरंगें पैदा करते हो। क्योंकि मन ध्वनि का ही एक रूप है। विचार ध्वनि का ही एक रूप है। ध्वनि की तरंगों से तुम विचारों को फेंकते हो; मन को सक्रिय करते हो।
फिर चौथे चरण में तुम शांत, मूर्तिवत खड़े रह जाते हो। तीन चरण केवल तैयारी थे, चौथे चरण में तुम साक्षीमात्र रह जाते हो।
पहला चरण शरीर पर चोट करता था। दूसरा चरण शरीर और मन के बीच में जो बाधाएं थीं, उन पर चोट करता था। तीसरा चरण मन पर चोट करता था। चौथे चरण में तुम अपने घर आ गए। सिर्फ आत्मा है; सिर्फ बोध है; सिर्फ साक्षी है।
ये चार चरण ध्यान के हैं और पांचवां चरण तो उत्सव है। वह जो साक्षी क्षण भर को जगा, जरा सी देर को झरोखा खुला, दूर आकाश दिखा, बादल दिखा, चांद-तारे दिखे, जरा क्षण भर को सौंदर्य की वर्षा हुई, तो उसके लिए तो धन्यवाद दोगे न!
तो पांचवां चरण तो कोई चरण नहीं है, केवल धन्यवाद है, केवल अनुग्रह का भाव है; अभिनंदन है कि हे प्रभु! तेरी कृपा अपार है।
लेकिन इन सारी प्रक्रियाओं के बीच जो ध्यान का मौलिक अर्थ है, वह साक्षी है।
और तुम पूछते हो: ‘क्या साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के...।’
तुम ध्यान से डरे हुए मालूम पड़ते हो। तुम यह कह रहे हो कि क्या बगीचा लगाया जा सकता है--बिना घास-पात उखाड़े! मुझे कुछ अड़चन नहीं है। लगाओ। लेकिन तुम्हारे गुलाब कभी बहुत बड़े न हो पाएंगे; घास-पात उन्हें खा जाएगा। तुम्हारे गुलाबों में फूल बड़े छोटे आएंगे, बड़े गरीब फूल होंगे, बड़े दीन फूल होंगे। और जल्दी ही नष्ट हो जाएंगे। क्योंकि घास-पात की बढ़ने की क्षमता अपार है। असत्य बड़ा उत्पादक है। और जहां असत्य की भीड़-भाड़ हो, वहां सत्य खो जाता है।
ऐसा ही समझो कि जैसे बहुत शोरगुल मचा हो, वहां तुम अपना एकतारा बजा रहे हो। तो उस नकारखाने में तूती की आवाज कहां सुनाई पड़ेगी? कोई ऐसी जगह खोजो, जहां सन्नाटा हो, तो वहां तुम अपना एकतारा बजाओ। वहां कुछ सुनाई पड़ेगा।
भूमि तैयार करो। ध्यान भूमि की तैयारी है, लक्ष्य तो साक्षी ही है। मगर अनेक लोगों को डर है ध्यान करने में, और डर ही यही है कि कुछ करना पड़ेगा। साक्षीभाव को कई लोग तैयार हो जाते हैं, क्योंकि कुछ करना नहीं है।
लेकिन तुमसे साक्षी होगा भी नहीं। तुम बैठे रहोगे आंख बंद कर के, और विचार चलते रहेंगे; और तुम विचारों में खोए रहोगे। घास-पात उगती रहेगी और गुलाब मुरझाते रहेंगे।
साक्षी की तैयारी तो करो। हर चीज की तैयारी करनी होती है। सम्यकरूपेण तैयारी न हो, तो तुम सीधी छलांग नहीं लगा सकोगे। यद्यपि सिद्धांततः यह सही है कि अकेला साक्षी होना काफी है।
अगर तुम सोचते हो कि तुम साक्षी होने में सफल हो जाओगे--बिना ध्यान के--तो मेरा आशीर्वाद। तुम करो।
सिद्धांततः यह बात सही है कि साक्षी पर्याप्त है; मगर सिद्धांततः ही सही है, व्यवहारतः सही नहीं है। व्यावहारिक रूप से तो अड़चनों-बाधाओं-विरोधों को तोड़ देना अत्यंत आवश्यक है।
मगर उतनी मेहनत तुम्हें करनी नहीं है। मेहनत से लोग डरे हुए हैं। कुछ श्रम नहीं करना चाहते। मुफ्त कुछ मिल जाए! तो साक्षीभाव जंचता है कि इसमें कुछ करना नहीं है। बैठ गए आंख बंद करके। और आंख बंद करके कुछ होने वाला नहीं है। आंख बंद करके तुम्हारे सामने वही संसार मौजूद रहेगा, जो आंख खोल कर था। कोई फर्क न पड़ेगा। वही तस्वीरें चलेंगी। वही वासनाएं उठेंगी। वही विचार आंदोलन देंगे।
कृष्णमूर्ति की सारी शिक्षा साक्षीभाव की है। लेकिन चालीस वर्ष की शिक्षाओं के बाद कितने लोग साक्षीभाव को उपलब्ध हुए? लोग सुन-सुन कर कृष्णमूर्ति को, बातचीत करने में खूब कुशल हो गए हैं।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, उनको सुनने वाले, वे कहते हैं: ध्यान से क्या सार! मैं भी उनसे कहता हूं: कोई सार नहीं है। साक्षीभाव काफी है। पर वे कहते हैं कि सुनते-सुनते हम समझ तो गए, लेकिन होता नहीं है! तो मैंने कहा: अब तुम्हारी मर्जी। ध्यान में तुम कहते हो: क्या सार है? नाचने-कूदने, श्वास लेने, प्राणायाम, प्रत्याहार, यम-नियम से क्या होगा?--तुम कहते हो।
कृष्णमूर्ति को सुन-सुन कर उनको बात बैठ गई कि योग व्यर्थ है, कि साधना व्यर्थ है। मगर साक्षीभाव हो तो नहीं रहा है। अगर बात समझ में आ गई तो होनी भी तो चाहिए। वे कहते हैं: यह तो हमारी भी मजबूरी है। बौद्धिक रूप से समझ में आ गई है, मगर हो नहीं रहा है!
यह तो बड़ी अड़चन हो गई। अब अड़चन यह हो गई कि ध्यान करने की उनकी तैयारी भी नहीं रही। अब तो ध्यान के विपरीत उनका मन है। तर्क उन्होंने सब जुटा लिए--ध्यान के विरोध में। और साक्षी बन नहीं रहा है। यह फांसी लग गई।
अगर उनसे कहो: ध्यान करो तो वे सब तरह के तर्क देने को तैयार हैं कि ध्यान से क्या सार है? क्रिया से क्या होगा? असली चीज तो साक्षी है। द्रष्टा मात्र हो जाना है।
मैं उनसे कहता हूं कि बिलकुल ठीक कहते हो तुम। मगर हो क्यों नहीं जाते हो?
वहीं अ़ड़चन है। साक्षी हो नहीं सकते। साक्षी की बात ठीक तर्कयुक्त मालूम होती है। और ध्यान कर नहीं सकते, क्योंकि एक बात मन में बैठ गई कि तैयारी की क्या जरूरत है; साक्षी तो भीतर बैठा ही है। बस, उस तरफ आंख फेरनी है। मगर आंख भी फेरोगे तो गर्दन घुमानी पड़ेगी और गर्दन में लकवा खा गया है। तो थोड़ी मालिश, मसा़ज, थोड़ी औषधि, ताकि गर्दन थोड़ी मुड़ सके। जन्मों-जन्मों से बाहर देख रहे हो तो गर्दन भीतर नहीं मुड़ती। जन्मों-जन्मों से बाहर देख रहे हो तो आंख भीतर नहीं जाती।
यह बात तो बिलकुल सीधी सी है कि भीतर चले जाओ। सब वहां है। मगर भीतर चले कैसे जाओ? बाहर रहने की आदत हो गई है। बाहर ही रहना जीवन का अर्थ हो गया है। भीतर जाने का दरवाजा भी भूल गया है। भीतर की तरफ आंख भी नहीं मुड़ती, हाथ भी नहीं फैलते।
तो मैं तो तुमसे यह कहूंगा: साक्षी से सधता हो तो शुभ है। लेकिन व्यर्थ की सैद्धांतिक बातों में मत उलझ जाना। व्यावहारिक यही है कि तुम क्रम से चलो।
क्रिया से शुरू करो--और अक्रिया में जाओ। ध्यान से शुरू करो--और समाधि में जाओ। उथले-उथले जल से शुरू करो, फिर धीरे-धीरे गहराई में जाओ। फिर अतल गहराइयों में जाओ। जल्दी मत करो। आहिस्ता-आहिस्ता, क्रम-क्रम से...।
मगर तुम जल्दी में मालूम पड़ते हो।
प्रश्न बड़ा अदभुत है: ‘क्या सतत साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के परम स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता है?’ और उसके बाद पूछा है कि ‘और जब सिर्फ साक्षीभाव रह जाए, तो उससे भी कैसे मुक्त हुआ जाए?’
बड़ी जल्दी है! अभी साक्षीभाव हुआ भी नहीं। अभी हुआ ध्यान भी नहीं है। अभी ध्यान हुआ नहीं है, सैद्धांतिक रूप से मन में यह खयाल बैठ गया है कि साक्षीभाव सध जाए--बिना ही ध्यान के, तो अच्छा। सध जाता, तो तुम प्रश्न पूछे नहीं होते। सधा नहीं है। मगर आगे जा रही है बात और।
‘फिर साक्षीभाव अगर सध जाए--बिना ध्यान के--तो उससे कैसे मुक्त हुआ जाए?’
इतनी जल्दबाजी नहीं। ऐसी छलांगें लोगे तो हाथ-पैर तोड़ लोगे। ऐसी छलांगों का परिणाम अक्सर पागलपन होता है।
क्रम से चलो। व्यवस्था से चलो। जल्दी कुछ है भी नहीं, धैर्य से चलो। प्रतीक्षा से चलो।
धैर्य और प्रतीक्षा श्रद्धा के अनिवार्य अंग हैं। यह अधैर्य है। और यह लोभ है। और बिना कुछ किए पा लेने की आकांक्षा बेईमानी है। पहले ध्यान नहीं करना; वह छोड़ा। अब साक्षी हो गया; अभी हुआ नहीं है, मगर मन में खयाल कर लिया कि साक्षी हो गया; अब इससे कैसे छूटें?
साक्षी से छूटने की कोई जरूरत पड़ती ही नहीं। जिस दिन साक्षी परिपूर्ण हो जाता है, साक्षी विसर्जित हो जाता है--अपने आप। करने की बात वहां नहीं है। करने की बात साक्षी के पहले है। इसलिए ध्यान किया जा सकता है।
ध्यान करने का अंतिम निचोड़ होता है: साक्षी। फिर साक्षी के बाद तो कर्ता बचता ही नहीं! साक्षी का मतलब ही यह होता है कि अब द्रष्टा ही बचा; कर्ता बचा नहीं। इसलिए तुम यह कैसे पूछ सकते हो, संगतरूप से, कि अब हम क्या करें कि साक्षी से छुटकारा हो जाए!
कर्ता तो गया, तभी तो साक्षी आया। अब तो कृत्य का कोई उपाय नहीं है। लेकिन साक्षी अपने से चला जाता है। उसके पीछे राज है।
जैसे दीया तुमने जलाया; तो पहले तो तेल जलता है। फिर जब तेल जल जाएगा, तो बाती जलने लगती है। फिर जब बाती पूरी जल जाएगी, तो ज्योति बुझ जाएगी। बुझानी नहीं पड़ेगी। क्या जरूरत बुझाने की, अपने से हो जाएगा। हां, अगर तेल हो, तो बुझानी पड़ेगी। अगर तेल भरा है, तो ज्योति अपने से नहीं बुझेगी, क्योंकि तेल ज्योति को जलाए जाएगा। तो तुम्हें बुझाने की प्रक्रिया करनी पड़ेगी।
लेकिन तेल जल गया; अब बाती बची। अब बाती कितनी देर जल सकती है? तेल तो बचा नहीं है, इसलिए अब बाती अपने आप जलने लगेगी। जिस अग्नि ने तेल को जला दिया, वह अग्नि अब बाती को जला देगी। और आखिरी घटना: वही अग्नि अब अपना आत्मघात कर लेगी। जब बाती भी जल गई तो अग्नि तिरोहित हो जाएगी।
ध्यान से तेल जलता है। साक्षी की अवस्था बाती की अवस्था है। तो तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता; एक दिन तुम पाते हो: साक्षी का आविर्भाव हुआ। बड़ी शांति उतरती है; अपूर्व शांति उतरती है। बड़ा सुख बरसता है--महा सुख। स्वर्ग तुम्हारे चारों तरफ निर्मित हो जाता है। तुम्हारे जीवन में पुण्य की गंध आ जाती है। पाप तिरोहित हो गया; वह तेल के साथ गया। संसार नहीं बचा। अब तुम एक स्वर्गीय दशा में होते हो।
पर जब तेल नहीं बचा, तो बाती कितनी देर बचेगी? थोड़ी ही देर में तुम पाओगे: एक लपट उठी। साक्षी का भाव खूब गहन हुआ। जैसे कि बुझने के पहले बाती में लपक उठती है; और मरने के पहले आदमी में लपक उठती है; ऐसे ही तुम्हारे भीतर अहंकार के बिलकुल बुझ जाने के पहले एक लपक उठती है, लपट उठती है--आखिरी झलक। खूब गहन साक्षी हो जाएगा। सारी बाती जलने लगी। तेल तो बचा नहीं; अब बाती पूरी जल रही है। रोशनी एकदम फैल जाएगी। तुम भीतर बड़ा सुख; बड़ा स्वर्ग पाओगे। और तब बाती भी गई।
नरक चला गया तेल के साथ; स्वर्ग चला जाएगा बाती के साथ। पाप गया तेल के साथ; पुण्य चला जाएगा बाती के साथ। फिर जो बचता है, उसको हमने मोक्ष कहा है। इसलिए नया शब्द खोजा उसके लिए। स्वर्ग नहीं कहा। स्वर्ग उसको क्या कहना!
पहले दुख गया, सुख बचा। फिर सुख भी गया। और जब सुख-दुख दोनों चले जाते हैं, तो बच जाता है जो, उसी को हमने आनंद कहा है। वह तीसरी दशा है।
‘आनंद’ जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। ‘मोक्ष’ जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। स्वर्ग और नरक अरबी में हैं, अंग्रजी में हैं, फ्रेंच में हैं, इटालियन में हैं, जर्मन में हैं। लेकिन मोक्ष जैसा कोई शब्द नहीं है। निर्वाण जैसा कोई शब्द नहीं है।
तीसरा शब्द हमारे पास है। क्योंकि हमने आत्यंतिक दशा भी जानी। मिट जाने की वह आखिरी दशा भी जानी।
इसलिए ईसाई फकीर जब खोज करता है, तो स्वर्ग की खोज करता है। लेकिन अगर तुम पूर्वीय मनीषी से पूछोगे तो वह कहेगा: स्वर्ग की भी क्या खोज! खोज ही करनी हो तो मोक्ष की करो--जहां स्वर्ग भी न रहे। समझना।
जब तक सुख है, तब तक दुख छाया की तरह मौजूद रहेगा। जब तक रोशनी है, तब तक अंधेरा रोशनी की परिभाषा करेगा। दीया जल रहा है तो कमरे में रोशनी है। लेकिन एक किनारा है, जहां अंधेरा खड़ा है। अंधेरा तो मिटना ही चाहिए, रोशनी भी मिट जानी चाहिए। दुख तो मिटना ही चाहिए, सुख भी मिट जाना चाहिए। उस दशा को हमने परम-दशा कहा है, परमात्म-दशा कहा है। वही स्थिति है: भगवत्ता की, भगवान की।
उसी व्यक्ति को हमने भगवान कहा है, जिसका दुख गया; सुख गया। जिसका द्वंद्व गया। जो द्वंद्वातीत हुआ।
तो तुम्हें कुछ करना ही है अभी तो ध्यान करो। तुम विचार कर रहे हो: साक्षी कैसे छोड़ें? करने का काम पहले निपटा लो। वह तुमने नहीं निपटाया तो पीछे तुम्हें दिक्कत देगा। वह बची रहेगी वासना--करने की। वह अभी बची है।
अब तुम पूछ रहे हो कि ‘साक्षी रह जाएगा, फिर क्या करें? उससे छुटकारा कैसे हो?’
यह करने की वासना मत बचाए रखो। यह तेल मत बचाए रखो। यह तेल जाने दो। यह ध्यान में ही निपटा लो। जितना उछलना-कूदना है--उछल लो, कूद लो। करने का जो भाव है, उसे ध्यान में पूरा कर लो। करने की जरा भी वासना न रह जाए। जरा भी वासना रह गई, तेल बचा रहा, तो फिर बाती अपने से न बुझेगी।
और खयाल रखना, अगर तुमने बाती बुझाई, तो फिर लौट कर आना पड़ेगा; क्योंकि बुझाते समय तुम तो बचोगे ना; बुझाने वाला बचेगा। जब बाती अपने से बुझती है, तो फिर लौट कर नहीं आती। उसको बुद्ध ने कहा है: वैसी चेतना अनागामी हो जाती है; उसके लौट कर आने का उपाय नहीं बचा। उसका आवागमन समाप्त हो जाता है।
तुमने बुझाया, तो तुम्हारी वासना अभी बची है। नहीं तो तुम किसलिए बुझा रहे हो? बुझाने की जरूरत क्या है? क्या प्रयोजन है? जब बुझेगी, बुझ जाएगी।
लेकिन तुम्हारे मन में वासना करने की है; और रहेगी, जब तक तुम ध्यान में उसका निकास न कर लो।
इसलिए मैं कहता हूं: ध्यान को जितना सक्रिय बना सको, उतना अच्छा।
मुझसे लोग पूछते हैं कि ‘आप सक्रिय ध्यान की इतनी ज्यादा प्रस्तावना क्यों करते हैं?’ मैं इसलिए करता हूं कि सक्रियता निकल जाए। क्योंकि साक्षी तो निष्क्रिय होगा।
अगर तुम ध्यान में निष्क्रिय होकर बैठ गए, तो तुम्हारी सक्रियता लपटी रहेगी भीतर, तुम्हारी चेतना में; तेल की तरह मौजूद रहेगी; और उस परम घटना को न घटने देगी, उस अपूर्व सौंदर्य से तुम वंचित रह जाओगे। वह जो ज्योति का अपने आप बुझ जाना है; बिना बुझाए, बिना बुझाने वाले को बुलाए, बिना किसी कृत्य के, बिना किसी कर्ता के, बिना किसी आकांक्षा के, वह जो ज्योति का अपने से शून्य में लीन हो जाना है--अपने से, अपने आप--उस घटना से तुम वंचित हो जाओगे। और वही घटना निर्वाण है।
इसलिए बुद्ध ने निर्वाण शब्द दिया। ‘निर्वाण’ शब्द का अर्थ ही होता है: ज्योति का बुझ जाना। दीये के बुझ जाने का नाम निर्वाण है।
इसलिए मेरा जोर है कि तुम जितनी सक्रियता से ध्यान कर सको, उतना अच्छा; ताकि सक्रियता की, कर्ता की वासना क्षीण हो जाए। साक्षी बचे, कर्ता का भाव जरा भी न बचे। कर लिया, जो करना था। दौड़ चुके, जितना दौड़ना था।
थका लो अपने को, तो साक्षी में तुम शांत होकर बैठ जाओगे। और साक्षी में तुम पूर्ण शांत होकर बैठ गए, जरा भी कर्म की वासना न रही--कि यह करूं, वह करूं; ऐसा करूं, वैसा करूं, तो तेल गया। फिर तुम निश्चिंत रहो। यह बाती अपने से जल जाएगी।
और जिस दिन बाती अपने से जल कर तिरोहित होती है शून्य में, उस दिन परम घटता है; उस दिन सच्चिदानंद घटता है; उस दिन--समाधि।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, विचारों पर नियंत्रण कैसे हो?
नियंत्रण की जरूरत क्या है? नियंता बनना अहंकार ही है। विचार तुम्हारे नहीं हैं; तुम उनके मालिक क्यों बनना चाहते हो?
विचार आते हैं, चले जाते हैं। ठहरते हैं क्षण भर तुममें, विदा हो जाते हैं। तुम सराय हो, विचार अतिथि हैं, मेहमान हैं। तुम मेजबान हो। मेहमानों की गर्दन पकड़ कर नियंत्रण करने की जरूरत क्या है?
नियंत्रण करने की चेष्टा में ही लोग विक्षिप्त हो जाते हैं।
विचार के तुम मालिक न बन सकोगे। हां, एक मालकियत आती है जरूर, लेकिन वह विचार की मालकियत नहीं है। वह मालकियत इस सत्य को जान लेने से पैदा होती है कि विचार से मेरा क्या लेना-देना। आए--गए। राह पर चलती हुई भीड़ है। यह ट्रेन की आवाज, यह उड़ता हवाई जहाज, यह रास्ते पर कार का हॉर्न, यह बच्चे का चिल्लाना, यह कुत्ते का भौंकना, जैसे ये सारी चीजें घट रही हैं, वैसा ही विचार भी घट रहा है--मुझसे बाहर।
विचार तुम्हारे भीतर नहीं है। तुम्हारे सिर में जरूर है, लेकिन तुम्हारे भीतर नहीं है। क्योंकि तुम तो सिर के भीतर हो। तुम विचार के पीछे हो। विचार तुम्हारी आंख के सामने घूम रहा है। आंख बंद करो, तुम देखोगे: विचार को घूमते। तो तुम तो विचार से अलग और पृथक हो। तुम तो साक्षी हो। नियंत्रण क्या करना है?
अनेक लोगों को यह भ्रांति सवार होती है--और तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी तुम्हें यही समझाते रहते हैं कि मन पर नियंत्रण करो; मन पर काबू करो।
मन पर काबू करना ऐसा ही पागलपन है, जैसे कोई पारे पर मुट्ठी बांधे; और पारा छितर जाए और सारे फर्श पर फैल जाए। और जितना तुम पकड़ने जाओ, उतना पारा टूटने लगे। और जितना तुम झपटो, उतनी मुश्किल में पड़ो।
विचार पर नियंत्रण करने की व्यर्थता में मत पड़ना। मैं नहीं सिखाता--विचार पर नियंत्रण। मैं तो विचार का जागरण, विचार के प्रति जागरण।
अबाबीलों से मेरे आवारा विचार
न जाने किन प्रदेशों से आते हैं।
मेरी छत के शहतीरों में तिनके सजाते हैं।
मैं चाहता हूं वे यहीं बस जाएं,
मैं उन्हें पाल लूं मन के पिंजड़े में सहेज सम्हाल लूं।
जब चाहूं--वहां से उतार लूं,
अपने कुछ एकांत क्षण उनके साथ गुजार लूं।
पर वे नहीं रुकते उड़ जाते हैं।
सिर्फ उनकी आमद के मटमैले निशान
उनकी याद दिलाते हैं।
मन को और भी उदास बनाते हैं।
अबाबीलों से मेरे आवारा विचार
ये न जाने किधर से आते हैं।
और कहां उड़ जाते हैं!
ये उड़ते हुए पक्षी हैं आकाश के; ये तरंगे हैं आकाश में घूमती हुईं; इन्हें आने दो, जाने दो। इनके जाने से उदास मत बनो। इनके आने से परेशान मत होओ। तटस्थ भाव से इनका आना-जाना देखो।
जैसे कोई नदी के किनारे बैठा हो और नदी का बहना देखे, ऐसे तुम विचार की सरिता को बहते देखो--किनारे बैठ कर।
बुद्ध के जीवन में बड़ी प्यारी कथा है। मुझे उसमें सदा से रस रहा है। बुद्ध एक जंगल से गुजरते हैं। उन्हें प्यास लग आई है। बूढ़े हो गए हैं बुद्ध। आखिरी दिनों की बात है; मरने के कुछ छह महीने पहले की।
बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं; आनंद से कहते हैं: आनंद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। मुझसे और चला न जा सकेगा। पीछे हम एक झरना छोड़ आए हैं, तू वापस जा, यह मेरा भिक्षापात्र ले जा और जल भर ला।
आनंद पीछे लौट कर गया। लेकिन जो झरना वे पीछे छो़ड़ आए थे; वह बिलकुल गंदा, मटमैला हो गया था। अभी-अभी बैलगाड़ियां उससे गुजर गई थीं। तो सारा कीचड़-कबाड़ पत्ते ऊपर उठ आए थे। पानी बिलकुल गंदा हो गया था। पीने योग्य तो बिलकुल ही नहीं था। और बुद्ध के लिए यह गंदा पानी आनंद ले जाए, यह संभव नहीं था। वह वापस लौट आया। उसने कहा कि मैं आगे जाता हूं। कोई नदी खोजूंगा। वह झरना तो बड़ा गंदा हो गया। उससे आदमी निकल गए, बैलगाड़ियां निकल गईं। बैलों ने पानी पीया, घोड़ों ने पानी पीया। वह तो बिलकुल गंदा हो गया। वह पानी आपके लायक नहीं। बुद्ध ने कहा: तू व्यर्थ परेशान न हो। फिर से जा। वही पानी ले आ।
बुद्ध कहें तो इनकार भी न कर सका आनंद। फिर गया और बड़ा हैरान हुआ। पानी फिर स्वच्छ हो गया था। पत्ते फिर बह गए थे। धूल-धवांस नीचे बैठ गई थी।
बुद्ध ने आनंद से इतना ही कहा था कि अगर अब भी पानी गंदा हो तो तू किनारे बैठ जाना; थोड़ी प्रतीक्षा करना।
आनंद बैठ गया किनारे। थोड़े बहुत आखिरी कण धूल के तैरते होंगे, वे भी बह गए। पानी एकदम स्फटिक जैसा शुद्ध-साफ हो गया। तब वह जल भर कर आया।
वह नाचता हुआ आया। उसने बुद्ध के चरणों में सिर रखा और उसने कहा: आपने बड़ा गहरा संदेश दे दिया। आज मुझे सूत्र हाथ लग गया। यही सूत्र मैं मन के साथ भी उपयोग कर लूंगा। आज मेरे मन में एक बड़ी बात साफ हो गई। आपकी बड़ी अनुकंपा जो आपने मुझे वापस भेजा। मैं जाने को तैयार भी नहीं था। लेकिन क्रांति हो गई है--उस तट पर बैठे-बैठे।
उस झरने के पास बैठे-बैठे एक बात समझ में आ गई कि अगर मैं उतर जाऊं जल में...। अगर आपने न कहा होता, तो मैंने उतर कर शुद्ध करने की कोशिश की होती और उसी में सब अशुद्ध हो गया होता। मेरे उतरते ही से और कीचड़ उठ आई होती। आपने ठीक कह दिया था कि किनारे बैठ जाना और प्रतीक्षा करना। कुछ करना मत; बस देखते रहना। अपने से झरना शुद्ध हो जाएगा। ऐसा ही मैं अपने मन के साथ भी कर लूंगा। मन में भी मैं उतर-उतर जाता हूं। मन को भी नियंत्रण में लाने की कोशिश करने लगता हूं। उसी कोशिश में मन मेरे हाथ से छिटक-छिटक जाता है। आज जैसे यह जल का झरना शांत हो गया, निर्मल हो गया, ऐसे ही मेरे मन का झरना भी मैं शांत और निर्मल कर लूंगा।
बुद्ध ने कहा: इसीलिए तुझे वापस भेजा था। सदगुरु प्रत्येक स्थिति का उपयोग कर लेते हैं। यही जागरण तुझे आ जाए; यही बोध, यही बीज तेरे भीतर अंकुरित हो जाए, इसीलिए तुझे वापस भेजा था। ठीक किया आनंद। शुभ किया आनंद। तू समझ गया। तूने समझदारी की। यही राज है।
मन पर नियंत्रण करने का सोचो ही मत। मन के किनारे बैठना सीखो। क्या लेना-देना है; अच्छे विचार आते हों तो भी तुम्हारा कुछ नहीं है। और बुरे विचार आते हों तो भी तुम्हारा कुछ नहीं है। बुरों को भी आने दो; अच्छों को भी आने दो। बुरों को भी जाने दो; अच्छों को भी जाने दो। अपने से आते हैं; अपने से चले जाते हैं। तुम्हारा क्या ले जाते हैं! तुम बैठो। तुम जाग कर देखते रहो।
तुम सिर्फ देखो; तुम निर्णय न करो। तुम मूल्यांकन न करो। तुम न्यायाधीश न बनो। न तो कहो: अच्छा; न कहो: बुरा। न तो कहो: अच्छे को पकड़ कर रख लूं--संजो लूं, संवार लूं। न बुरे को धक्का दो। तुम इस धक्का-मुक्की में पड़ो ही मत।
इसलिए समस्त ज्ञानियों ने यह सूत्र कहा है। विचारों का निर्णय मत करो कि कौन अच्छा, कौन बुरा। और विचारों में चुनाव मत करो कि कौन पकड़ने जैसा और कौन छोड़ देने जैसा। यही साक्षी का अर्थ है।
अंतिम प्रश्न:
भगवान, आपके पास जो नहीं आता, वह तो क्षमा का पात्र है, क्योंकि वह नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है। किंतु आपके पास होकर भी मेरे अनुभव में आपकी बातें नहीं उतर रही हैं। आपकी बातें मन के तल पर तो पकड़ में आती हैं, लेकिन अनुभव में नहीं उतरतीं। यही मेरी पीड़ा है। कृपया मार्गदर्शन करें।
मैं जो कहता हूं, उसे सुन लेने मात्र से, समझ लेने मात्र से तो अनुभव में नहीं उतरना होगा। कुछ करो। मैं जो कहता हूं, उसके अनुसार कुछ चलो। मैं जो कहता हूं, उसको केवल बौद्धिक संपदा मत बनाओ। नहीं तो कैसे अनुभव से संबंध जुड़ेगा?
मैं गीत गाता हूं--सरिताओं के, सरोवरों के। तुम सुन लेते हो। तुम गीत भी कंठस्थ कर लेते हो। तुम कहते हो: गीत बड़े प्यारे हैं। तुम भी गीत गुनगुनाने लगते हो--सरिताओं के, सरोवरों के। लेकिन इससे प्यास तो न बुझेगी।
गीतों के सरिता-सरोवर प्यास को बुझा नहीं सकते। और ऐसा भी नहीं कि गीतों के सरिता-सरोवर बिलकुल व्यर्थ हैं। उनकी सार्थकता यही है कि वे तुम्हारी प्यास को और भड़काएं ताकि तुम असली सरोवरों की खोज में निकलो।
मैं यह जो गीत गाता हूं--सरिता-सरोवरों के--वह इसीलिए ताकि तुम्हारे हृदय में श्रद्धा उमगे कि हां, सरिता-सरोवर हैं, पाए जा सकते हैं। ताकि तुम मेरी आंख में आंख डाल कर देख सको कि हां, सरिता-सरोवर हैं; ताकि तुम मेरा हाथ हाथ में लेकर देख सको कि हां, कोई संभावना है कि हम भी तृप्त हो जाएं, कि तृप्ति घटती है; कि ऐसी भी दशा है परितोष की, जहां कुछ पाने को नहीं रहता; कहीं जाने को नहीं रहता; कि ऐसा भी होता है, ऐसा चमत्कार भी होता है जगत में--कि आदमी निर्वासना होता है। और उसी निर्वासना में मोक्ष की वर्षा होती है।
मैं गीत गाता हूं--सरिता-सरोवरों के, इसलिए नहीं कि तुम गीत कंठस्थ कर लो और तुम भी उन्हें गुनगुनाओ। बल्कि इसलिए ताकि तुम्हें भरोसा आए; तुम्हारे पैर में बल आए; तुम खोज पर निकल सको।
लंबी यात्रा है। जंगल-पहाड़ों से गुजरना होगा। हजार तरह के पत्थर-पहाड़ों को पार करना होगा। और हजार तरह की बाधाएं तुम्हारे भीतर हैं, जो तुम्हें तोड़नी होंगी। यात्रा दुर्गम है। मगर अगर भरोसा हो कि सरोवर है तो तुम यात्रा पूरी कर लोगे। अगर भरोसा न हो कि सरोवर है तो तुम चलोगे ही कैसे! पहला ही कदम कैसे उठाओगे?
गीतों का अर्थ इतना ही है कि तुम्हें भरोसा आ जाए कि सरोवर हैं।
और भरोसा काफी नहीं है। भरोसा सरोवर नहीं बन सकता। सरोवर खोजना होगा। तो मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं।
तुम कहते हो: ‘आपके पास जो नहीं आता, वह क्षमा का पात्र है। क्योंकि वह नहीं जानता है कि वह क्या कर रहा है। किंतु आपके पास होकर भी, आपका संन्यासी होकर भी मेरे अनुभव में आपकी बातें नहीं उतर रही हैं। आपकी बातें मन के तल पर तो पकड़ में आती हैं, लेकिन अनुभव में नहीं उतरतीं। यही मेरी पीड़ा है।’
बात सुन कर ही अनुभव कैसे होगा? बात सुन कर आकांक्षा जग सकती है, प्यास जग सकती है।
वही है तुम्हारी पीड़ा। उस पीड़ा को तुम दुख मत समझो। यही मैं चाहता हूं कि मेरी बात सुन-सुन कर धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर ऐसी पीड़ा जगे, ऐसा स्पष्ट होने लगे--कि बात सुनने से क्या होगा! धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर एक बवंडर उठे, एक आंधी उठे कि अब कुछ करना होगा, अब कहीं जाना होगा।
यही है पीड़ा और मैं इस पीड़ा को शांत करने की जरा भी चेष्टा न करूंगा। क्योंकि यह पीड़ा शांत हो गई तो तुम फिर वहीं के वहीं रह जाओगे--जहां तुम हो।
यह पीड़ा तो बलवती हो; यह पीड़ा तो घनी हो; यह पीड़ा तो दंश बने; यह तो तुम्हारी छाती में चुभा हुआ छुरा हो जाए। यह तो तुम जब तक सरोवर पर न पहुंच जाओ, तब तक बढ़ती ही रहे--आग की लपट बन जाए। तुम्हें जलाए। तुम्हें भस्म कर दे।
इसलिए तो मैंने कहा कि सदगुरु से लोग नाराज होते हैं। तुम जाते हो सांत्वना की तलाश में और सदगुरु सत्य देना चाहता है--सांत्वना नहीं।
अब जिन मित्र ने पूछा है, उनकी आकांक्षा यह भी हो सकती है कि मैं कुछ सांत्वना दूं, कि मैं कहूं: घबड़ाओ मत, सुनते-सुनते सब हो जाएगा। कि घबड़ाओ मत, जब समय आएगा तब सब हो जाएगा। कि घबड़ाओ मत, हर चीज का मौसम है। जल्दी घड़ी आती है। प्रभु-प्रसाद से सब हो जाएगा। कि मेरे आशीर्वाद से सब हो जाएगा; घबड़ाओ मत।
अगर तुम सांत्वना खोजते हो तो मैं तुम्हें सांत्वना नहीं दे सकता हूं। तो तुम गलत आदमी के पास आ गए। मैं तुम्हारी मलहम-पट्टी नहीं करूंगा। मैं तुम्हारे घाव को छिपाऊंगा नहीं, दबाऊंगा नहीं, फूलों से सजाऊंगा नहीं। मैं तुम्हारे घाव को और उघाडूंगा और कुरेदूंगा। मैं तुम्हारे घाव को और गहरा करूंगा--कि घाव गहरा होते-होते तुम्हारे हृदय तक पहुंच जाए कि घाव इतनी पीड़ा देने लगे कि तुम्हें उठना ही पड़े, कि तुम्हें चलना ही पड़े, कि तुम्हें खोजना ही पड़े। कि घाव की पीड़ा इतनी हो जाए कि पहाड़-पर्वतों को लांघने की पीड़ा उतनी बड़ी न मालूम पड़े; तभी यात्रा शुरू होगी।
प्यास की पीड़ा इतनी हो जाए कि अगर पूरा मरुस्थल भी पार करना हो, तो भी तुम पार करने की तैयारी दिखाओ। तुम्हारे पास जो कुछ है, सब देने की भी जरूरत पड़ जाए, तो तुम दे दो। जिस दिन पीड़ा इतनी हो जाए...।
सिकंदर भारत आया; उसने एक फकीर से पूछा कि मैं दुनिया का सम्राट हूं; मैं मस्त रहूं, यह तो बात समझ में आती है। तुम किसलिए मस्त हो रहे हो?
वह फकीर नाच रहा था नदी के किनारे। नग्न था। खंजीरा बजा रहा था। उसकी मस्ती देख कर सिकंदर ईर्ष्या से भर गया होगा। ऐसी मस्ती तो सिकंदर में भी न थी, हालांकि सारे जगत का राज्य उसका था। और इस आदमी के पास कुछ भी न था। शायद यह खंजरी भी इसकी अपनी न हो। इसके पास एक भिक्षापात्र भी नहीं था। मगर इसके चेहरे पर एक रौनक थी। इसकी आंखों में एक ज्योति थी। कोई दीया जल रहा था इसके भीतर। वह बिलकुल साफ था। वह अंधे को भी दिख जाए, ऐसा साफ था। तभी तो सिकंदर को दिख सका। सिकंदर से बड़ा अंधा कहां खोजोगे!
वह संगीत कुछ ऐसा था कि बहरे को भी सुनाई पड़ जाए। तब तो सिकंदर को सुनाई पड़ सका। सिकंदर से बड़ा बहरा कहां खोजोगे!
सिकंदर ने पूछा: तू किसलिए आनंदित हो रहा है? तू मुझे ईर्ष्या से भरता है। तेरे पास कुछ भी नहीं है; आनंद का कारण क्या है? मेरे पास सब है और मैं आनंदित नहीं हूं!
उस फकीर ने कहा: तुम्हारे पास सब? बड़ी बेबूझ बात कहते हो; उलटबांसी कहते हो। मैं तुम से यह पूछता हूं: सिकंदर! अगर तुम मरुस्थल में खो जाओ और घनी प्यास लगे, और मौत करीब मालूम होने लगे, और तुम गिर जाओ और घसिटने लगो, और मैं तुम्हारे पास खड़ा हो जाऊं आ कर। एक गिलास के पानी के लिए मैं तुमसे कहूं: क्या कीमत चुका सकते हो? तुम कितना दोगे?
सिकंदर ने कहा: एक गिलास...! उस हालत में, आधा साम्राज्य दे दूंगा। फकीर ने कहा: हम ऐसे सस्ते में बेचने वाले नहीं हैं। तुम और क्या दे सकोगे?
सिकंदर ने कहा: अगर मजबूरी की ऐसी हालत आ जाए, तो मैं पूरा सामाज्य दे दूंगा। अगर मर रहा हूं मरुस्थल में, पानी के बिना, तो पूरा साम्राज्य दे दूंगा।
तो उस फकीर ने कहा: यह तो बड़ा अजीब सा साम्राज्य हुआ, एक गिलास पानी में चला जाएगा! इसलिए हमने इसको नहीं खोजा। जो एक गिलास पानी में खो जाए, वह हमने नहीं खोजा; हमने तो सरोवर खोजा। अनंत सरोवर खोजा--कि पीओ और पिलाओ और कभी खाली न हो।
यह भी कोई बात है। तेरे पास कुछ भी नहीं सिकंदर। यह तूने कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया है।
उस फकीर की बात उसके हृदय में चुभी रह गई। और सिकंदर ऐसी ही हालत में मरा। संयोग की बात, ऐसी ही हालत में मरा। जैसे एक गिलास पानी को कोई तड़फ जाए मरुस्थल में।
लौटता था जब हिंदुस्तान से वापस, तो अपनी राजधानी से केवल चौबीस घंटे के फासले पर रह गया था और भयंकर रूप से बीमार हो गया। और चिकित्सकों ने कह दिया कि बचने का कोई उपाय नहीं है। उसने कहा कि मैं अपना सब देने को तैयार हूं, मगर चौबीस घंटे मुझे बचा लो--सिर्फ चौबीस घंटे क्योंकि मैंने अपनी मां को वचन दिया है। जब मैं घर से आ रहा था तो उसने कहा था: लौट आना। मैंने वचन दिया है और मैं अपने वचन का धनी हूं। मैं अपना वचन पूरा करना चाहता हूं। मैं जाकर घर मर जाऊं, कोई फिकर नहीं। लेकिन एक दफा घर पहुंच जाऊं। मेरी मां मुझे देख ले कि मैं लौट आया। मैंने वचन दिया है कि मैं लौट कर आऊंगा। हर हालत में लौट कर आऊंगा।
पर उसके चिकित्सकों ने कहा: हम मजबूर हैं। हम क्या कर सकते हैं! घर पहुंचना हो नहीं सकता। आप पल दो पल के मेहमान हैं।
तब सिकंदर को अगर उस फकीर की याद आई हो तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। जिसने कहा था: एक गिलास पानी के लिए सारा, सब चला जाएगा। चौबीस घंटे के लिए सब देने को तैयार था। और इसी राज्य के लिए सारी जिंदगी गंवा दी! जरा सोचो; हिसाब कैसा है! इसी राज्य के लिए सारी जिंदगी गंवा दी और वह राज्य चौबीस घंटे नहीं खरीद सकता! इससे बड़ी और मूढ़ता क्या होगी? तो मैं तुम्हारी पीड़ा को सांत्वना की मलहम-पट्टी नहीं दूंगा। यहां जो सांत्वना में सोए पड़े हैं, वे अभागे हैं। यहां तो धन्यभागी हैं वे ही जिनको भीतर पीड़ा उठ रही है और जिनको यह बात समझ में आ रही है कि यहां सब असार है। राख ही राख है। जिनको यह दिखाई पड़ने लगा है। यहां क्या रखा है; राख ही राख है ।
तुम्हारी पीड़ा को मैं सुलगाऊंगा; तुम्हारी पीड़ा इतनी बड़ी हो जाए कि तुम उस पीड़ा के कारण बड़े से बड़े पहाड़ भी लांघने को तैयार हो जाओ, तो ही पहुंच सकोगे। नहीं तो पहुंचना असंभव है।
और मेरी बातें सुन-सुन कर अगर पहुंचना होता, तब तो बड़ी सस्ती बात होती। किसकी बात सुन कर कौन कब पहुंचा है?
कुछ करो। कुछ चलो। उठो। पैर बढ़ाओ।
परमात्मा संभव है, लेकिन तुम चलोगे तो ही। और परमात्मा भी तुम्हारी तरफ बढ़ेगा, लेकिन तुम चलोगे तो ही। तुम पुकारोगे तो ही वह आएगा।
मिलन होता है, लेकिन मिलन उन्हीं का होता है जो उसे खोजते हुए दर-दर भटकते हैं। असली दरवाजे पर आने के पहले हजारों गलत दरवाजों पर चोट करनी पड़ती है। ठीक जगह पहुंचने के पहले हजारों बार गड्ढों में गिरना पड़ता है।
जो चलते हैं, उनसे भूल-चूक होती है। जो चलते हैं, वे भटकते भी हैं। जो चलते हैं, उनको कांटे भी गड़ते हैं। जो चलते हैं, वे चोट भी खाते हैं।
चलना अगर मुफ्त में होता होता, सुविधा से होता होता तो सभी लोग चलते। चूंकि चलना सुविधा से नहीं होता, इसलिए अधिक लोग अपने-अपने घरों में बैठे हैं, कोई चल नहीं रहा है।
लेकिन गति के बिना उस परम की उपलब्धि नहीं है।
और मजा यह है कि तुम क्षुद्र बातों के लिए खूब चल रहे हो। अगर दिल्ली जाना हो, तो तुम कितनी ही यात्रा करने को तैयार हो! कैसी ही यात्रा करनी पड़े, कितनी ही मुसीबतें हों, तुम दिल्ली जाने को तैयार हो। जेल जाना पड़े कि जूते खाने पड़ें, मगर तुम दिल्ली जाने को तैयार हो। हर हालत में दिल्ली जाने को तैयार हो। अगर एक बड़ा मकान बनाना हो, तो तुम सब-कुछ करने को तैयार हो। व्यर्थ को करने के लिए तुम्हारी कितनी आतुरता है! और सार्थक को? सार्थक तो तुम कहते हो कि सुन कर मिल जाए तो अच्छा। लोग कहते हैं: सुन कर ही...।
मेरे पास एक मित्र आते हैं। वर्षों से मुझे सुनते हैं। ध्यान नहीं करते। मैंने उनसे पूछा: ध्यान कब करोगे? वे कहते हैं: आपको सुन कर ही इतना आनंद मिलता है! आपको सुन-सुन कर ही हो जाएगा। फिर आपका आशीर्वाद है; और क्या चाहिए।
अब यह आदमी अपने को धोखा दे रहा है। निश्चित सुनने का एक आनंद हो सकता है। शब्द में भी एक रस हो सकता है, एक संगीत हो सकता है, एक लय हो सकती है। पर जरा यह तो सोचो कि जब शब्द में इतना रस है तो जिस आत्म-दशा से वे शब्द आते हैं उसमें कितना रस न होगा!
हां, कभी-कभी शब्द में भी स्वाद होता है। कोई नीबू का नाम ले दे तो तुम्हारे मुंह में लार बहने लगती है। कभी-कभी शब्द में भी रस होता है। मगर वह लार नीबू का असली स्वाद तो नहीं है। कल्पना मात्र है। भ्रांति मात्र है।
परमात्मा का असली स्वाद लेने के लिए उठो और चलो। ध्यान करो। यात्री बनो। दांव पर लगाना होगा। जुआरी हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता है।
मैं तुमसे कह रहा हूं
कहना शुरू कर दिया है
तौला नहीं है इसका छंद
सिर्फ खोल कर हवा में प्राण भर दिया है
मैं कह रहा हूं
तुम्हें सुनना चाहिए
फूल जो तुम्हारे लिए खिलाए जा रहे हैं
उनमें से तुम्हें
कुछ न कुछ चुनना चाहिए
आओ, सुनो
और चुनो
मैं तुमसे
कह रहा हूं।
लेकिन यह फूल चुनोगे नहीं? इनमें से कुछ को तो चुनो। इनमें से कुछ को तो जीवन बनाओ! इनमें से कुछ तुम्हारा आचरण बने; कुछ तुम्हारी श्वासों में तैर जाएं; कुछ तुम्हारे प्राणों में उतर जाएं; कुछ तुम्हारे हृदय की धड़कन बन जाएं तो ही, तो ही पीड़ा से एक दिन मुक्ति होगी।
अभी तो पीड़ा बढ़ेगी; सुन-सुन कर पीड़ा बढ़ेगी। जितना सुनोगे, उतनी पीड़ा बढ़ेगी। और उस पीड़ा को धन्यभाग समझो कि वह बढ़ती जाए। एक दिन ऐसी घ़ड़ी आ जाएगी कि पीड़ा इतनी होगी कि तुम बैठे न रह सकोगे। कुछ करना अनिवार्य हो जाएगा।
तुम सुनते हो। संन्यासी भी हो गए हो। साफ है--खोज की आकांक्षा है। थोड़ा और दांव लगाओ। मेरे आशीष से ही हो जाएगा--ऐसा सोच कर मत बैठे रहना। आशीर्वाद बड़े सहयोगी हैं; मगर सहयोगी हैं।
तुम कुछ करोगे, तो आशीर्वाद तुम्हारे लिए साथी हो जाते हैं। तुम कुछ न करोगे, तो आशीर्वाद व्यर्थ हैं।
बीज हो भूमि पर तो खाद सहयोगी है। बीज ही न हो भूमि में, तो खाद क्या करेगी?
आशीर्वाद तो खाद की तरह हैं। बीज तुम्हारे चाहिए; मेरा आशीर्वाद तुम्हें सदा उपलब्ध है। लेकिन बीज तो तुम्हारा ही चाहिए। बुद्धपुरुष राह दिखाते हैं, चलना तो तुम्हें ही पड़ता है।
आज इतना ही।
भगवान, आप अक्सर कहते हैं कि यह जगत एक प्रतिध्वनि बिंदु है, जहां से हमारे पास वही सब लौट आता है, जो हम उसे देते हैं। प्रेम को प्रेम मिलता है और घृणा को घृणा। यदि ऐसा ही है, तो क्यों बुद्ध और महावीर को यातनाएं दी गईं; क्यों ईसा और मंसूर की हत्या की गई? और क्यों यहां आपको झूठे लांछन, निंदा और गालियां मिल रही हैं? और क्या आप जैसों से बढ़ कर भी निश्छल प्रेम और आशीष देने वाले लोग इस जगत को मिल सकते हैं?
प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम और घृणा के प्रत्युत्तर में घृणा, यह जगत का सामान्य नियम है। लेकिन सदगुरु सामान्य नियम के भीतर नहीं, इसीलिए सदगुरु है। सामान्य नियम के भीतर नहीं है, क्योंकि संसार के भीतर नहीं है। संसार में होकर भी संसार के बाहर है। इसलिए जो नियम सामान्यतया काम करता है, वह नियम सदगुरु के लिए काम नहीं करेगा।
इसे समझो। यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। सदियों-सदियों में आदमी ने इस पर बहुत सोचा और विचारा है। ऐसा होना तो नहीं चाहिए।
जीसस से ज्यादा प्रेम और कौन देगा? और परिणाम में सूली हाथ लगती है। इसका तर्कयुक्त उत्तर साधारण बुद्धि के खयाल में नहीं आता। लेकिन भूल-चूक इसलिए हो जाती है कि तुम यह विस्मरण कर जाते हो कि सदगुरु किसी और जगत का वासी है; यहां अजनबी है। उसके जीने का ढंग, उसके होने की शैली, इस जगत की व्यवस्था में कहीं भी मेल नहीं खाती।
इस जगत का प्रेम क्या है? इस जगत का प्रेम है: दूसरे के अहंकार को तृप्त करो। जब तुम किसी स्त्री से कहते हो: तुझसे ज्यादा सुंदर और कोई भी नहीं, तो स्त्री समझती है कि तुम प्रेम कर रहे हो। और जब कोई स्त्री तुम से कहती है कि तुम जैसा पुरुष न कभी हुआ; न कभी होगा; तुम बेमिसाल हो, तो पुरुष को लगता है: प्रेम। जहां भी तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है, वहां तुम्हें लगता है--प्रेम।
सदगुरु के साथ कठिनाई यही है कि तुम्हारे अहंकार को तृप्त नहीं करेगा। तुम्हारे अहंकार को खंडित करेगा, तोड़ेगा, मिटाएगा, नष्ट करेगा। इस जगत में तो घृणा करती है यह काम, जो सदगुरु का प्रेम करता है।
इस जगत में तो तुम्हें जो मिटाना चाहे, वह दुश्मन है। इस जगत में तो तुम्हें जो पोंछ डालना चाहे, वह शत्रु है।
इस जगत में घृणा का यही अर्थ होता है कि कोई तुम्हें मिटाने के पीछे प़़ड़ गया है। तुम्हें कोई बनाए तो प्रेम; तुम्हें कोई मिटाए तो घृणा। सदगुरु का प्रेम कुछ ऐसा है कि तुम्हें मिटा कर बनाता है। वह अनूठा है। पहले तुम्हें मिटाता है, तुम्हें खंड-खंड तोड़ देगा। तुम्हारे भवन की ईंट-ईंट गिरा देगा। जब तुम बिलकुल मिट जाओगे तो उसी से उठाएगा तुम्हें पुनः, तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। मृत्यु के माध्यम से तुम्हारा पुनर्जन्म होगा।
तो सदगुरु...। समझो; बहुत गहरा समझ सको तो ही पहचान पाओगे उसका प्रेम। थोड़े ही लोग उतना गहरा समझ सकते हैं, क्योंकि थोड़े ही लोग उतने गहरे हैं। अधिक लोग तो समझेंगे, यह दुश्मन आ गया।
तो जो तुम व्यवहार दुश्मन के साथ करते हो, वही तुम बुद्ध, महावीर, जीसस के साथ करोगे; वही तुम मेरे साथ करोगे। वही तुमने सदा किया है; वही तुम आगे भी करोगे।
और तुम पर नाराजगी भी जाहिर नहीं की जा सकती। तुम क्षम्य हो। तुम इससे अन्यथा कर भी नहीं सकते। तुमने जो प्रेम जाना है, उसने सदा तुम्हारे अहंकार की तृप्ति की है। तुमने जिसे घृणा समझा, वह वही थी, जिसने तुम्हें मिटाना चाहा।
सदगुरु आता है एक उपहार लेकर, जो बड़ा अनूठा है। ऐसा प्रेम लेकर आता है, जो तुम्हें घृणा जैसा मालूम पड़ेगा कि यह आदमी दुश्मन है। तुम्हें घृणा जैसा मालूम पड़ता है, इसलिए तुम उत्तर में घृणा देना शुरू कर देते हो। यह तुम्हारी भ्रांति से पैदा होता है।
लेकिन क्षम्य हो तुम। कसूर है तो सदगुरु का ही है। ऐसी अनूठी चीज लानी नहीं चाहिए! इसमें तुम्हारा क्या कसूर है? तुम्हारे जीवन-जीवन का अनुभव जिसे प्रेम कहता है, जिसे घृणा कहता है, सदगुरु कुछ लाता है जो तुम्हारी परिभाषा में नहीं बैठता। उसे तुम प्रेम नहीं कह सकते।
यह कैसा प्रेम कि तुम्हें मिटाने चला कोई! उसे तुम घृणा ही कह सकते हो। और घृणा का उत्तर तुम्हारे जगत के सामान्य नियम में घृणा ही है।
जीसस को सूली ऐसे ही नहीं दे दी। आदमी को जीसस ने बहुत नाराज कर दिया। सूली तो सिर्फ इस बात की सूचना है कि जिन लोगों के बीच जीसस उतरे, वे लोग समझ न पाए। वे इस जगत के थे, इस भूमि के थे, इस किनारे के थे। और जीसस कुछ उस किनारे की बात लाए, जो उनकी भाषा में नहीं आती; जो उनके अनुभव में मेल नहीं खाती। इसलिए तो जीसस ने मरते वक्त सूली पर कहा: हे प्रभु! इन सबको माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।
ये क्षमायोग्य हैं। इन पर नाराज मत हो जाना। इन्हें दंड नहीं मिलना चाहिए। ये वही कर रहे हैं, जो उनकी समझ के भीतर है। ये अपनी समझ से ठीक ही कर रहे हैं। अब इनकी समझ ही ठीक नहीं तो ये क्या करें! ये अबोध हैं। अगर इनसे गलती भी हो रही है तो गलती अबोध की है। अदालत भी माफ कर देती है अबोध को। छोटा बच्चा, दस साल का बच्चा अगर किसी की हत्या कर दे तो अदालत भी माफ कर देती है, क्योंकि अभी अबोध है; अभी बालिग नहीं। अभी इस पर जिम्मेवारी भी क्या डालनी!
और आदमी बालिग कहां है? आदमी की भीड़ अबोध है, बच्चों जैसी है, बचकानी है। समझ की एक भी किरण नहीं है।
तो जो सामान्य नियम है, वह बिलकुल सच है। तुम प्रेम दो, प्रेम मिलेगा। तुम घृणा दो, घृणा मिलेगी। लेकिन सदगुरु कुछ ऐसा प्रेम लाता है, जो बिलकुल अपरिचित है, अनजाना है। दिखाई तो जहर जैसा पड़ता है और है अमृत। पीओगे तब जानोगे कि अमृत है। देखोगे, तो लगेगा--जहर है। यही अड़चन है।
देखोगे तो लगेगा: यह आदमी हमें मिटाने चला; यह आदमी हमें पोंछने लगा। यह आदमी हमें खंडित कर रहा है। यह आदमी हमें तोड़ डालेगा। यह कहता है: समर्पण करो। यह कहता है: छोड़ो अहंकार। यह कहता है: छोड़ो ईर्ष्या; छोड़ो परिग्रह; छोड़ो हिंसा; छोड़ो आक्रमण। यह आदमी कहता है: इतना ही नहीं--छोड़ो विचार; छोड़ो मन; अ-मन हो जाओ। यह कुछ ऐसी शिक्षा दे रहा है कि जिसमें तुम बचोगे ही नहीं।
तुम चौंकते हो, तुम घबड़ाते हो, तुम अपनी रक्षा में लग जाते हो। तुम्हारी रक्षा में लगने से ही जीसस की फांसी, मंसूर की सूली पैदा होती है। ये तुम्हारी रक्षा के उपाय हैं। सच पूछो तो तुम जीसस को मारना चाहते हो, ऐसा नहीं। तुम सिर्फ अपने को बचाना चाहते हो।
और तुम्हें कुछ नहीं सूझता कि अगर यह आदमी मौजूद रहा तो हम अपने को कैसे बचाएंगे। यह आदमी बलशाली है। इस आदमी में कुछ अपूर्व आकर्षण है; इस आदमी में कुछ चुंबक है, जो खींचता है। कोई कशिश है, इसे मिटा दो अन्यथा खतरा है कि कहीं अपने विपरीत भी तुम इसकी कशिश में न पड़ जाओ, इसके आकर्षण से न खिंच जाओ।
तो तुम हजार तरह की लांछना करोगे, निंदा करोगे, आरोप लगाओगे। ये आरोप, लांछना, निंदा--ये तुम्हारी आत्म-रक्षा के उपाय हैं। यह तुम अपने चारों तरफ एक दुर्ग बना रहे हो। तुम अपने पास एक व्यवस्था कर रहे हो, ताकि मैं कभी इस आदमी के पास न जाऊं। इसे समझना।
अगर यह आदमी अच्छा है, तो फिर जाना पड़ेगा। अगर यह आदमी प्यारा है, तो फिर जाना पड़ेगा। अगर यह आदमी ईश्वरीय है, तो फिर जाना पड़ेगा। और गए, तो मिटना पड़ेगा। तो यह आदमी शैतान है। इसकी छाया न पड़े तुम पर।
मगर इसमें आकर्षण है। इसका आकर्षण खींच रहा है। इसका आकर्षण बुलावा दे रहा है। अगर तुमने बहुत मजबूत चीन की दीवाल अपने चारों तरफ खड़ी न कर ली, तो यह आकर्षण किसी अनजान क्षण में तुमको प्रभावित कर ले। किसी कोमल क्षण में तुम खिंच जाओ। कभी द्वार-झरोखा खुला हो और यह आदमी भीतर आ जाए, तो फिर लौटने का कोई उपाय न रहेगा। इसके पहले सब तरह से ईंटें चुन दो अपने चारों तरफ। वे ही ईंटें तुम महावीर को गालियां देकर अपने आस-पास चुनते हो। इतनी गालियां दे डालते हो कि तुम्हारे भीतर फिर जगह ही नहीं रह जाती कि इस आदमी के पास जाने का भाव भी उठे।
इसके आकर्षण को खंडित करने के लिए, तोड़ने के लिए तुम गालियों से इंतजाम करते हो। तुम झूठे लांछन लगाते हो। तुम निंदा फैलाते हो।
और तुम्हारे जैसे लोग बहुत हैं, जो तुम्हें साथ देंगे। वे तुमसे यह भी न पूछेंगे कि इस लांछन में सच्चाई कितनी है। वे तुमसे यह भी न पूछेंगे कि इस निंदा में सच्चाई कितनी है। वे तत्क्षण तुम्हारी निंदा को स्वीकार कर लेंगे।
तुमने यह कभी देखा, अगर तुम प्रशंसा करो, तो वे प्रमाण मांगते हैं। अगर तुम निंदा करो, तो वे प्रमाण नहीं मांगते। निंदा के लिए तो वे तत्पर हैं; हाथ पसारे, पलक-पांवड़े बिछाए, द्वार खोले, अभिनंदन लिखे, सुस्वागतम बांधे, सदा तैयार हैं।
तुम निंदा करो, वे स्वीकार करने को तैयार हैं। एक क्षण को भी संदेह न उठाएंगे। क्यों? क्योंकि वे भी चाहते हैं--अपने को बचाना; जैसे तुम अपने को बचाना चाहते हो।
निंदा बहुत घनी तुम्हारे आस-पास इकट्ठी तुमने कर ली किसी के प्रति, तो अब तुमने इंतजाम कर लिया। तुमने सेनाएं खड़ी कर लीं। तुमने पहरेदार बिठा दिए। अब तुम निश्चिंत अपने भीतर रह सकते हो। अब यह आदमी तुम्हारे लिए शैतान हो गया।
अगर यह आदमी शैतान नहीं है, तो फिर तुम कैसे अपने को रोकोगे? तुम कैसे अपने को बचाओगे किसी कोमल क्षण में? और वे कोमल क्षण सभी को आते हैं। कठोर से कठोर आदमी को आते हैं। किसी भाव की दशा में... और वैसी भाव की दशा सभी को आती है; निम्नतम आदमी को भी आती है। कभी-कभी मन आकाश में उड़ा-उड़ा होता है। कभी-कभी यह पृथ्वी बिलकुल व्यर्थ मालूम पड़ती है: कोई नये अर्थ की खोज शुरू होती है। कभी-कभी इस जीवन को देख कर लगता है: मैं क्या कर रहा हूं--सब असार है, बेसुर, व्यर्थ। तब कोई जीसस तुम्हें खींच लेगा। तब कोई बुद्ध तुम्हें बुला लेगा। तब तुम किसी सदगुरु के जाल में फंस जाओगे।
तुम्हारे भीतर ये भाव-क्षण आते हैं, इन भाव-क्षणों को रोकने के लिए तुम्हें सब तरह की गालियां जीसस को देनी पड़ेंगी। तुम्हें अपने तईं एक बात प्रमाणित कर लेनी होगी; अपने को सब तरह से तर्कों से समझा लेना होगा कि यह आदमी गलत है; भूल कर भी इसके पास मत जाना।
तो यह खयाल रखो कि आदमी अपनी रक्षा में निंदा करता है। सुकरात को जहर देने के पहले जिस अदालत ने जहर की आज्ञा दी, उस अदालत ने यह भी कहा... क्योंकि उन सबको लगता तो था भीतर से...।
जीसस को सूली देते वक्त तुम सोचते हो, जो लोग खड़े थे सूली देने, उनके मन में कोई शंका-शुबहा, कोई संदेह न उठा होगा? प्रश्न न जगा होगा कि हम क्या कर रहे हैं? यह ठीक है? यह उचित है? इसमें कहां तक औचित्य है?
सुकरात के साथ भी वही हुआ। जो आदमी न्यायाधीश था, उसके मन में बड़ा भाव उठने लगा। क्योंकि यह आदमी अनूठा तो जरूर है, भिन्न जरूर है, अद्वितीय जरूर है। लेकिन इसकी भ्रांति-भूल कहीं मालूम नहीं होती। अदालत में कुछ भी प्रमाणित नहीं हो सका है इसके खिलाफ। सिवाय एक बात के कि सारा एथेंस खिलाफ है। और कुछ प्रमाणित नहीं हुआ है। मगर अगर सभी लोग खिलाफ हैं; जूरी खिलाफ हैं; मेजिस्ट्रेट खिलाफ हैं; सारे नगर के प्रतिष्ठित लोग खिलाफ हैं, तो इसे सजा तो देनी ही होगी। न्यायाधीश रात भर सोचता रहा होगा। दूसरे दिन सुबह उसने सुकरात को जाकर कहा कि अगर तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ, तो तुम मुझे एक अपराध करने से बचा लोगे। एथेंस में रहोगे, तो मौत निश्चित है। मुझे सजा देनी होगी। कोई तुम्हारे पक्ष में नहीं है। एथेंस छोड़ दो।
सुकरात ने कहा: सत्य भगौड़ा नहीं होता। मौत आती हो, तो मौत ठीक है। लेकिन मैं अपने प्राण बचाने के लिए कहीं भागूंगा नहीं। और प्राण कितने दिन बचेंगे, यह तो मुझे बताओ! एक न एक दिन मरूंगा ही, ऐसे भी बूढ़ा हो गया हूं। आज आए मौत, कल आए मौत, परसों! मौत तो आने ही वाली है; निश्चित ही है, तो यह पलायन किस प्रयोजन से? मैं तो कहीं जाऊंगा नहीं। जीवन हो तो ठीक जीवन। मौत हो तो मौत। यहीं रहूंगा।
मजिस्ट्रेट को बात समझ में आई कि मौत तो आनी ही है। बात तो सुकरात ठीक ही कर रहा है। बात तो--मौत सामने खड़ी है, तो भी ठीक ही कह रहा है। तो उसने कहा: फिर तुम एक काम करो, यहीं रहो, लेकिन एक वचन दे दो अदालत को कि तुम लोगों को समझाना बंद कर दोगे। चुप रहो। इतने लोग हैं--आखिर गली-कूचे जा-जा कर लोगों को सत्य की शिक्षा देने की क्या जरूरत है? अपने घर में रहो। तुम्हारी सत्य की शिक्षा ने ही तुम्हें झंझट में डाला है। लोग झूठे हैं और तुम्हारा सत्य उन्हें अखरता है। और तुम जिससे बात करते हो, उसी को तुम देर-अबेर सिद्ध करवा देते हो कि वह झूठ है। वह झूठ उसे तिलमिला देता है। वह सिद्ध भी नहीं कर सकता कि सच है। तुम्हारी जैसी प्रतिभा नहीं, मेधा नहीं। तुम्हारी जैसी क्षमता नहीं, तुम्हारे जैसा अनुभव नहीं। वह सिद्ध भी नहीं कर सकता कि वह सच है। सिद्ध हो जाता है कि झूठ है। लेकिन उसके अहंकार को चोट लगती है; वह बदला लेना चाहता है। ये ही सारे लोग इकट्ठे हो गए हैं तुम्हारे खिलाफ। और उनकी भीड़ है। उनका बहुमत है। मैं कुछ भी न कर सकूंगा। तो तुम एक कसम खा लो कल अदालत में कि तुम अब सत्य का प्रचार करना बंद कर दोगे।
सुकरात ने कहा: फिर जीकर ही क्या करूंगा? फिर जीने से सार क्या? क्योंकि मेरे जीने का एक ही अर्थ है कि जो मैंने जाना है, उसे जना दूं। मेरे जीवन का कुल एक ही प्रयोजन है कि जिनकी आंखें अंधेरे से भरी हैं, उनमें थोड़ी सी रोशनी चमका दूं। अगर वही काम मैं नहीं कर सकता हूं तो फिर मर जाना ही बेहतर है। फिर जीने में कोई सार नहीं। और सुकरात ने कहा: मेरे मरने से शायद कुछ लोगों को सूझ आए, कुछ को समझ आए। जो जिंदा हालत में मेरे करीब न आ सके, शायद मर जाने के बाद मेरे करीब आएं। शायद जो जिंदा हालत में मुझसे न समझ सके, क्योंकि उनको बड़ी बेचैनी होती थी सामने आने में; मेरे मर जाने के बाद शायद मेरी मृत्यु ही उनमें जिज्ञासा जगा दे। तो तुम मुझे फांसी दो, चिंता न करो। लेकिन सुकरात के मन में कोई निंदा नहीं है; क्षमा का भाव है।
सुकरात को बात साफ-साफ है कि क्यों लोग नाराज हैं। अहंकार को चोट लगती है तो लोग नाराज न होंगे तो क्या होंगे? और सदगुरु का सारा काम इस पर निर्भर है कि तुम्हारे अहंकार को चोट दे। इसलिए जो नियम सामान्य है, वह नियम सदगुरु पर लागू नहीं होता।
तुमने पूछा है: ‘आप अक्सर कहते हैं कि यह जगत एक प्रतिध्वनि बिंदु है, जहां से हमारे पास वही सब लौट आता है जो हम उसे देते हैं। प्रेम को प्रेम मिलता है, घृणा को घृणा। यदि ऐसा ही है तो क्यों बुद्ध और महावीर को यातनाएं दी गईं? क्यों ईसा और मंसूर की हत्या की गई? और क्यों यहां आपको झूठे लांछन, निंदा और गालियां मिल रही हैं?’
ये सब अच्छे संकेत हैं। ये गालियां, लांछन, ये सब इस बात की खबरें हैं कि खबर लोगों तक पहुंचने लगी। ये इस बात की खबरें हैं कि लोग तिलमिलाने लगे। ये इस बात की खबरें हैं कि लोगों ने सोचना शुरू कर दिया। ये सूचक हैं कि लोग रक्षा का उपाय करने लगे। लोग रक्षा का उपाय ही तब करते हैं जब भयभीत हो जाते हैं, नहीं तो नहीं करते।
मुझे जितनी गालियां पड़ेंगी, जितने लांछन, जितनी झूठी बातें फैलाई जाएंगी, उतनी ही खुशी होगी, क्योंकि उतना ही काम फैलेगा।
सबसे बड़ा खतरा तो यह होगा कि लोग उपेक्षा कर जाएं। तो फिर मैं जो तुमसे कहना चाहता हूं, जो करना चाहता हूं, वह न हो सकेगा।
या तो तुम मुझसे प्रेम करो, तो कुछ हो सकता है। या मुझ से घृणा करो, तो कुछ हो सकता है। अगर उपेक्षा की, तो कुछ भी न हो सकेगा। क्योंकि घृणा भी एक तरह का संबंध है। प्रेम से विपरीत है माना, मगर है तो संबंध।
तुमने अक्सर देखा होगा: प्रेम घृणा में बदल जाता है। घृणा प्रेम में बदल जाती है। वे एक-दूसरे से विपरीत होते हुए भी एक-दूसरे के बहुत करीब हैं।
किसी को शत्रु बनाना हो, तो पहले मित्र बनाना पड़ता है। बिना मित्रता के शत्रुता पैदा नहीं हो सकती। फिर जो तुम्हारा शत्रु है, उससे तुम्हारा संबंध तो बन ही गया--विरोध का संबंध बना। लेकिन संबंध तो संबंध है। नाता तो जुड़ ही गया।
जिस आदमी ने मुझे गालियां देनी शुरू कर दीं, वह मुझ में उत्सुक तो हो ही गया। आज नहीं कल, देर-अबेर, सुबह नहीं सांझ, कभी गालियां देते-देते शायद उसे खयाल भी आएगा कि इन गालियों में कितनी सच्चाई है! गालियां देते-देते उसे यह भी तो खयाल आएगा कि मैं ये गालियां क्यों दे रहा हूं! इस आदमी ने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं। शायद इस आदमी को कभी मैंने देखा भी नहीं; मिला भी नहीं। कोई संबंध, पहचान भी नहीं।
झूठ झूठ ही है, तुम कितनी ही कुशलता से बोलो; तुम चाहे दूसरे को धोखे में भी डाल दो; पर अपने को कैसे धोखे में डालोगे! और कभी-कभी ऐसा होता है कि ज्यादा गाली दे दी, ज्यादा झूठ फैला दिया, जो कि स्वाभाविक है...।
हर चीज बढ़ती है। अगर तुमने झूठ बोलना शुरू किया, तो झूठ बढ़ता जाता है। एक सीमा पर जाकर अति हो जाती है। तुम्हीं इतने झूठ बोल जाते हो कि फिर तुम्हें ही शक होने लगता है कि मैं क्या कर रहा हूं! यह बात इतने दूर तक सच भी हो सकती है?
और जब तुम किसी के खिलाफ बहुत झूठ बोल चुके होते हो और बहुत निंदा कर चुके होते हो, तो तुम्हारे मन में उसके प्रति दया का भाव भी पैदा होता है। ये ब़ड़ी स्वाभाविक प्रक्रियाएं हैं। तुम्हारे मन में उसके प्रति थोड़ी दया भी आनी शुरू होती है कि अरे, बेचारा! उसी दया से रूपांतरण शुरू होगा।
घृणा प्रेम में बदल सकती है। घृणा निश्चित प्रेम में बदल सकती है। असली खतरा तो उनके लिए है, जो उपेक्षा कर जाते हैं। न जिन्हें घृणा है, न कोई प्रेम है, जो कहते हैं: हमें कुछ लेना-देना नहीं है। ये निरुत्सुक व्यक्ति न तो जीसस से कभी जुड़ पाएंगे, न बुद्ध से, न सुकरात से, न मुझसे।
जो प्रेम से मुझसे जुड़ गया है, वह तो मेरे बहुत करीब आ गया। वह तो इस अमृत का पूरा लाभ उठा लेगा। जो घृणा से जुड़ गया है, उसने भी कुछ कदम तो उठाए। आज घृणा है, कल प्रेम हो जाएगा। घृणा से जुड़ गया अर्थात मुझसे बचने की रक्षा करने लगा। मुझसे बचने की रक्षा करने लगा अर्थात उसे डर तो भीतर पैदा हो गया है कि यह आदमी मुझे खींच ले सकता है, इससे बचना चाहिए। अब कशमकश होगी। संभावना के बीज पड़ गए।
इसलिए मैं प्रसन्न हूं। जितनी निंदा हो, जितनी गालियां दी जाएं, जितने लांछन किए जाएं, जितनी अतिशयोक्ति की जाए--उतना शुभ है; उतने ज्यादा लोगों तक खबर पहुंचेगी।
कुछ लोग तो मेरे पास निंदा सुन कर ही आ जाते हैं कि चलो, देखें भी। जिस आदमी को इतनी गालियां दी जा रही हैं, मामला क्या है? इस बहाने ही आ जाते हैं। आकर रूपांतरित हो जाते हैं। आकर प्रेम में पड़ जाते हैं। आकर जिंदगी में क्रांति घट जाती है। इन लोगों को भी धन्यवाद देना चाहिए उनको, जिन्होंने गालियां दीं, अन्यथा वे न आ पाते।
तुम पूछते हो कि ‘बुद्ध, महावीर को यातनाएं दी गईं; क्यों?’
तो पहली तो बात: बुद्ध महावीर ने नहीं समझा ऐसा कि यह यातना है; तुम्हारी तरफ से तुम्हें लगता है कि यातना दी गई। बुद्ध और महावीर की तरफ से भी देखो। वहां से कुछ यातना का प्रश्न नहीं है। बुद्ध और महावीर जिस चैतन्य की दशा में जीते हैं, वहां कैसी यातना? वहां तुम बुद्ध के शरीर को अगर पत्थरों से बिछा देते हो, तो भी बुद्ध को जरा भी चोट नहीं लगती। शरीर टूट जाए, लहूलुहान हो जाए, बुद्ध को चोट नहीं लगती। क्योंकि बुद्ध का बुद्धत्व ही यही है कि मैं शरीर नहीं हूं।
जीसस को तुम सूली पर लटका देते हो। जीसस को सूली नहीं लगती। क्योंकि जीसस का जीसस होना ही यही है कि मैं अमृतधर्मा हूं; अमृतस्य पुत्रः--जैसा वेद के ऋषि कहते हैं।
मंसूर के जब हाथ-पैर काटे गए, तो मंसूर खिल-खिला कर हंसा। भीड़ जो खड़ी थी, वह भी चौंक गई। भीड़ में से किसी ने पूछा कि मंसूर क्या तुम पागल हो गए हो? हाथ-पैर काटे जा रहे हैं और तुम हंस रहे हो?
तो मंसूर ने कहा: हंसूं न तो क्या करूं! क्योंकि तुम सोच रहे हो, तुम मेरे हाथ-पैर काट रहे हो। तुम मुझे छू भी नहीं पा रहे हो। जिस शरीर को तुम काट रहे हो, उस शरीर को तो समय हुआ, मैं छोड़ चुका। जिस घर को तुम गिरा रहे हो, उसमें मंसूर न मालूम कितने वर्षों से रहा ही नहीं। और तुम सोच रहे हो कि तुम मंसूर को गिरा रहे हो! हंसूं न तो क्या करूं? तुम्हारी नासमझी पर बड़ी हंसी आती है।
और उसके चेहरे पर ऐसे आनंद का भाव था मरते वक्त--कि उसका गुरु, मंसूर का गुरु भी भीड़ में खड़ा था--जुन्नैद। जुन्नैद ने पूछा कि मंसूर तेरे चेहरे पर ऐसे आनंद का भाव! कारण? तो मंसूर ने कहा: कारण! यही कि मैं ईश्वर से कह रहा हूं कि तू किसी भी शक्ल में आ, मुझे धोखा न दे सकेगा। मैं तुझे पहचान ही लूंगा। आज तू हत्यारे की शक्ल में आया है! मगर तू मुझे धोखा न दे सकेगा। मैं तुझे पहचान ही लूंगा। जब पहचान हो गई तो हो गई। तू किसी भी शक्ल में आ, तुझे पहचान लूंगा। यह तू मेरी आखिरी परीक्षा ले रहा है!--कि देखें, मंसूर पहचान पाता है कि नहीं।
फूल में तो पहचान लिया था मंसूर ने; गुलाब का फूल खिला था। पक्षियों के गीत में पहचान लिया था; बड़े प्यारे थे गीत। आकाश में घूमते हुए शुभ्र बादलों में पहचान लिया था; बड़े अनूठे थे बादल। सूरज की किरणों में पहचान लिया था। चांद-तारों में पहचान लिया था। सागर की लहरों में पहचान लिया था। बच्चों की किलकारी में पहचान लिया था। यह तो ठीक था। यह तो प्रभु का सौम्य रूप था। यह रुद्र रूप! स्वयं मंसूर को मिटाने ख़ड़ा है प्रभु। इसमें पहचानता है या नहीं? यह तांडव रूप--इसमें पहचानता है या नहीं?
मंसूर कहता है, कि मैं तुझे इसमें भी पहचानता हूं। तू मुझे धोखा न दे सकेगा। तू किसी शक्ल में आ, मैं तुझे पहचान ही लूंगा। क्योंकि मैं तुझे पहचान चुका हूं।
तो पहली तो बात: बुद्ध, महावीर, मंसूर, जीसस, सुकरात को कोई यातना नहीं मिली। तुमने दी जरूर। लेकिन तुम्हारे देने से क्या होता है! लेने वालों ने ली ही नहीं।
तुम मुझे गाली दे जाओ। तुम्हारी गाली मुझ तक नहीं पहुंचती तब तक, जब तक मैं न लूं। तुमने दी, तुम्हारी मर्जी, तुम अपने मालिक हो। तुम अपने ओठों से गाली बनाओ, इसका तुम्हें हक है। लेकिन मैं उसे लूं या न लूं, अपने हृदय में रखूं या न रखूं, इसकी मालकियत मेरी है। मैं तुमसे कह सकता हूं: धन्यवाद, नहीं लेते। तब तुम्हें अपनी गाली वापस ले जानी पड़ेगी। तब तुम्हारी गाली तुम्हीं पर वापस गिर जाएगी। तब तुम्हीं अपनी गाली के वजन में दब जाओगे। तब तुम्हीं को यह बोझ ढोना पड़ेगा।
तो यातना लोगों ने दी जरूर मगर उन्हें मिली नहीं।
और अंतिम बात: उन्होंने इस यातना को भी आनंद में परिणत किया। यही तो कला है, कीमिया है। सदगुरु की सारी कला यही है कि वह जहर को अमृत बना ले; वह रात को दिन बना ले; अंधेरे को रोशनी बना ले; मृत्यु को जीवन बना ले; शून्य को पूर्ण बना ले, यही तो उसकी सारी कला है। सदगुरु का अर्थ क्या है?
बढ़ती चली गई उमर हर एक घूंट पर।
हमने पिया है विष भी इतनी कमाल से।।
वह इतने कमाल से जहर को भी पीए कि जहर भी जीवन को बढ़ाने वाला हो; जीवन का सहयोगी हो जाए।
और तुम्हारी यातना देने से कुछ नुकसान नहीं हुआ। जीसस को तुमने सूली न दी होती, तो दुनिया जीसस को कभी का भूल गई होती। सूली की वजह से याद रखना पड़ा। जीसस को दी गई सूली। आदमियत की छाती में सूली की तरह चुभ गई; जीसस को भूलना मुश्किल हो गया। कैसे भूलोगे? ये तुम्हारे हाथ खून से सने हैं। इन्हें धोने का कोई उपाय नहीं है। इन पर जीसस का खून है।
जिन लोगों ने जीसस को सूली दी, उन्होंने मनुष्य-जाति के इतिहास में एक क्रांति खड़ी कर दी। देखते हो: जीसस के नाम से हम तौलते हैं समय को--जीसस-पूर्व और जीसस-पश्चात। जीसस समय को दो हिस्सों में तोड़ देते हैं। जीसस के पहले की बात और जीसस के बाद की बात अलग हो जाती है; इतिहास दो हिस्सों में टूट जाता है।
इस बढ़ई के बेटे में ऐसा कुछ भी न था, जिसकी वजह से इतिहास दो हिस्सों में टूटता। इससे बड़े-बड़े ज्ञानी हुए थे, मगर इतिहास दो हिस्सों में नहीं टूटा किसी से। आज आधी दुनिया ईसाई है।
काश! महावीर को भी तुमने सूली दी होती, तो कहानी दूसरी होती। फिर महावीर को भूलना मुश्किल हो जाता। फिर महावीर की याददाश्त तुम्हारा पीछा करती, तुम्हारे चारों तरफ डोलती। इतना जघन्य अपराध करने के बाद तुम कैसे अपने को क्षमा कर पाते!
जीसस के चरणों में इतने अधिक लोग क्यों झुके? तुमने कभी सोचा? इसलिए झुके कि अपराध-भाव पैदा हुआ: सूली दी इस आदमी को।
ऐसे प्यारे आदमी को सूली दी, तो कुछ करना होगा। हाथ पर लगे लहू के दाग धोने होंगे। वस्त्रों पर पड़ गए खून के छींटे साफ करने होंगे। झुकना पड़ेगा इस आदमी के चरणों में।
जीसस को दी गई सूली जीसस को यातना नहीं थी--पहली बात। और जीसस के काम को पूरा करने में सहयोगी बनी--दूसरी बात। तुमने किसी मर्जी से दी हो, तुम्हारी मर्जी से क्या लेना-देना है?
जीसस जैसे लोग जहर को भी इस कमाल से पीते हैं कि अमृत बन जाए। सूली मंदिर बन गई। सूली सिंहासन बन गई। जीसस विराजमान हो गए जिस सिंहासन पर, उस पर कोई दूसरा विराजमान नहीं हो सका है। और तुमने ही अपने हाथों भूल कर ली। असल में तुम जो भी करोगे भूल ही करोगे।
जीसस का इतना क्रांतिकारी प्रभाव मनुष्य-जाति पर पड़ा।
मुसलमानों ने मंसूर को सूली दे दी और उसी सूली के साथ...। बड़े सूफी हुए हैं मुसलमानों में; बड़ी ऊंचाई के लोग हुए, सब फीके पड़ गए। मंसूर का नाम उभर कर आ गया। मंसूर अलग चमकने लगा आकाश पर। मोहम्मद के बाद अगर किसी का नाम दुनिया जानती है, तो मंसूर का। बड़े फकीर हुए; बड़े पहुंचे हुए सिद्धपुरुष हुए, लेकिन खो गए।
तुम्हारी सूली ने मंसूर को बचा लिया। तुम्हारी सूली ने लोगों की आंखों में मंसूर को गहरा बिठा दिया; लोगों के हृदयों में पहुंचा दिया। मंसूर की आवाज आज भी अर्थ रखती है। औरों के तो नाम भी खो गए।
तो ऐसी भी कथा है कि जीसस ने खुद अपनी सूली का इंतजाम करवाया। यह कथा महत्वपूर्ण है, सिर्फ इसलिए कि जीसस जो संदेश दुनिया को दे जाना चाहते हैं, वह सूली के साथ सीलबंद हो जाए। जो संदेश दुनिया को छोड़ जाना चाहते हैं; उस पर सील-मुहर लग जाए; वह सदा के लिए टिके--ऐसा इंतजाम कर जाएं।
तो ऐसी कहानी है फकीरों में कि जीसस ने अपनी सूली का इंतजाम खुद ही करवाया। और जुदास ने जीसस को धोखा नहीं दिया था, केवल जीसस की आज्ञा का पालन किया था। जिसने जीसस को दुश्मनों के हाथों में दे दिया।
ऐसा भी एक सूत्र है जो कहता है कि जुदास ने जीसस को धोखा नहीं दिया है। जीसस ने जुदास की आखिरी परीक्षा ली समर्पण की, कि जीसस ने जुदास को कहा कि आज रात तू दुश्मन को खबर कर दे कि मैं कहां हूं और मुझे पकड़ा दे। अगर तूने सब मुझ पर छोड़ दिया है, समर्पण तेरा पूरा है, तो तू यह भी करेगा।
गुरु अगर शिष्य से कहे कि मेरी गर्दन उतार दे; अगर तेरा समर्पण पूरा है, तो तू यह भी करेगा। अगर तू ना-नुच करे, तू कहे: यह मैं कैसे कर सकता हूं, तो फिर तू अभी शेष है।
जिस रात जीसस ने ऐसा जुदास को कहा होगा, जुदास पर क्या गुजरी होगी! अपने गुरु को दुश्मनों के हाथ में दे दे। बड़ा डांवाडोल हुआ होगा; बड़ा सोचा-विचारा होगा। लेकिन अंततः पाया होगा कि जब गुरु कहता है, तो चाहे यह कितना ही कष्टपूर्ण हो, लेकिन करना होगा।
जुदास ने जीसस को दुश्मनों के हाथ में दे दिया।
और तुम्हें पता है, ईसाइयों ने जुदास की कथा नहीं लिखी ज्यादा, क्योंकि उन्होंने तो एक बात मान ही ली--ऊपर-ऊपर से बात मान ली कि जुदास धोखा दे गया। इसलिए पश्चिम के मुल्कों में ‘जुदास’ शब्द धोखेबाज और गद्दार का प्रतीक हो गया। उसका अर्थ ही गद्दार हो गया। लेकिन जुदास की कथा खोजने जैसी है।
जिस दिन जीसस को सूली लगी, दूसरे दिन जुदास ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। खोजने जैसी बात है कि क्या हुआ? जुदास ने क्यों...! अगर उसने धोखा ही दिया था, अगर उसने गद्दारी ही की थी, तब तो वह प्रसन्न होता। लेकिन उसने आत्मघात क्यों कर लिया? संभावना है इस बात की कि उसने केवल गुरु की आज्ञा का पालन किया था--और अपने खिलाफ पालन किया था। और जीसस को सूली पर लटके देख कर उसने सोचा होगा: अब मेरे लिए क्या बचा! उसने अपने को मार डाला हो।
इस बात की बहुत संभावना है कि जीसस ने खुद ही आयोजन किया हो। न भी किया हो खुद आयोजन, तो भी इस आयोजन से प्रसन्न तो हुए ही होंगे। इससे काम फैलेगा; संदेश टिकेगा--हजारों-हजारों वर्ष तक। यह बात लोगों के कान में गूंजती रहेगी।
मौत किसी भी चीज के साथ जुड़ जाए, तो महत्वपूर्ण हो जाती है बात, क्योंकि मौत के पार फिर कुछ भी नहीं, मौत आखिरी है! और जिस चीज के साथ मौत जुड़ जाए, वह भी आखिरी हो जाती है।
तो न तो सदगुरुओं ने समझा है कि उनको यातना मिली, न उन्होंने यह समझा है कि कुछ बुरा हुआ, न वे नाराज हैं। मगर सामान्य नियम का अतिक्रमण जरूर सदगुरु के जीवन में होता है।
‘सभी सदगुरुओं ने कहा है कि प्रेम दो और प्रेम मिलेगा, घृणा दो और घृणा मिलेगी। और फिर भी सभी सदगुरुओं को घृणा मिली।’
तो यह सूत्र समझ लेना।
सदगुरु इस जगत के नियम के बाहर है; इस जगत के बाहर है। वह यहां एक नये ढंग के प्रेम को लाता है। वह प्रेम नहीं, जो तुम्हारे अहंकार को फुसलाता है। वह प्रेम नहीं, जो तुम्हारी बीमारी और तुम्हारे घावों को भी सजाता है। वह प्रेम नहीं, जो तुम्हें बदलता ही नहीं; तुम जैसे हो वैसा ही तुम्हें रखता है। वह प्रेम नहीं जो तुम्हें और अंधेरे गड्ढों में गिराता है। बल्कि वह प्रेम जो तुम्हें निखारता है; तुम्हारे हृदय में चुभे कांटों को निकालता है। पीड़ा भी होती है तो तुम नाराज भी होते हो। और अंततः अहंकार के कांटे को भी निकाल लेता है। और बड़ी भयंकर पीड़ा से तुम्हें गुजरना होता है। क्योंकि वह मृत्यु की पीड़ा है--असली मृत्यु की।
जिसको तुम मृत्यु कहते हो, वह तो छोटी मृत्यु है, क्योंकि शरीर ही मरता है; अहंकार जिंदा रहता है, फिर पैदा होता है। गुरु के सान्निध्य में जो मृत्यु घटती है, वह महामृत्यु है, क्योंकि फिर तुम्हारे पैदा होने का ही उपाय समाप्त हो गया। फिर तुम्हारा आवागमन न होगा। तुम्हारा अहंकार इस तरह खींच लिया गया है कि आने का सेतु ही टूट गया। फिर तुम इस दुनिया में वापस न लौट सकोगे।
तो जो गुरु तुम्हारे साथ इतना बड़ा ऑपरेशन करे, उससे अगर कभी-कभार तुम नाराज हो जाओ, क्रोधित हो जाओ, भागो; स्वाभाविक है।
तुमने देखा, बच्चे के पैर में कांटा गड़ा हो, और मां कांटे को निकालना चाहे, तो बच्चा चिल्लाता है; नाराज होता है; मां को मारता है, क्योंकि कांटा निकालने में दर्द देता है। और बच्चे की अभी इतनी समझ कहां कि अगर कांटा ज्यादा देर पैर में रह गया, तो नासूर बनेगा, बीमारी बढ़ जाएगी। इसे निकालना ही होगा। और निकालने में जो पीड़ा होती है, वह तो क्षण भर की है, फिर सुख ही सुख है। मगर वह पीड़ा तो है।
बच्चे को फोड़ा हुआ हो, मवाद भर गई हो और मां उसके मवाद को निकालती है, तो बच्चा चीख मारता है; रोता-चिल्लाता है। यह मां सदा के लिए दुश्मन मालूम होती है कि इससे कभी ठीक काम नहीं होता। जो भी करेगी--परेशान करने का, कष्ट देने का काम करेगी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कोई बच्चा अपनी मां को माफ नहीं कर पाता। कैसे करे माफ! इतनी तकलीफें उसने दी हैं।
गुरजिएफ तो कहता था: जब तक तुम अपने मां-बाप को माफ न कर सको, मेरे पास आना ही मत। पहले तुम अपने मां-बाप को माफ करो। क्यों? उसने अपने दरवाजे पर लिख रखा था कि अगर अपने मां-बाप को माफ न किया हो, तो मेरा दरवाजा तुम्हारे लिए बंद है। क्यों? मां-बाप को माफ करने का क्या संबंध? तुमने कभी सोचा भी नहीं होगा।
सारी संस्कृतियां, सारे समाज लोगों को समझाते हैं: मां-बाप का आदर करो। क्यों? क्योंकि ऐसा न समझाया जाए, तो बच्चे मां-बाप की हत्या कर देंगे। डर है। स्वभावतः जीवन की प्रक्रिया ऐसी है कि मां-बाप को बच्चे को हजार बार नाराज करना होता है। बच्चा सांप से खेलना चाहता है और मां को उसे खींचना होता है। बच्चा आग की तरफ जाना चाहता है और मां को उसे रोकना होता है। हजार मौके आते हैं, जब बच्चे को इनकार करना, इनकार करना, इनकार करना; बच्चे को बार-बार लगता है कि किन दुश्मनों के हाथ में पड़ गया हूं। जो भी मैं करना चाहता हूं वही गलत है! हर चीज गलत है! मेरे मन की किसी भी भावना का कोई सम्मान नहीं। अपमान ही अपमान है।
छोटा बच्चा सोचने लगता है कि ठहरो, मुझे बड़ा होने दो। मैं तुम्हें मजा चखाऊंगा। जब मेरे हाथ में ताकत होगी, तब मैं तुम्हें बताऊंगा।
और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जब मां-बाप बूढ़े हो जाते हैं और बेटे के हाथ में ताकत होती है, तो बेटे अक्सर मां-बाप को सताते हैं। यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है; यह बचपन का बदला है; अनजाना है।
और इसलिए सारे समाज समझाते हैं कि मां-बाप का आदर करो। अगर न समझाओ तो खतरा होगा। तो इस बात को खूब-खूब बिठालना पड़ता है कि आदर करो। मां-बाप का आदर जगत में सबसे बड़ी बात है। उनके चरण छुओ। यह विपरीत बात बिठालनी प़ड़ती है क्योंकि खतरा भीतर छिपा बैठा है। अगर उसके विपरीत कुछ आयोजन न किया गया तो कठिनाई हो जाएगी।
पश्चिम के मुल्कों में चूंकि आदर का इतना आयोजन नहीं है, इसलिए बच्चों में और उनके मां-बाप में कभी अच्छे संबंध नहीं रह पाते। क्योंकि आदर का कोई बहुत इंतजाम नहीं किया गया, औषधि का इंतजाम नहीं किया गया। बीमारी तो मौजूद है और औैषधि बिलकुल नहीं है।
गुरजिएफ ठीक कहता था। वह कहता था: पहले अपने मां-बाप को माफ करो। क्योंकि अगर तुम उन्हीं को माफ नहीं कर पाए, और उन्होंने तुम्हारी जिंदगी की छोटी-मोटी तकलीफें तुम्हें दी हैं तो तुम मुझे कैसे माफ करोगे? क्योंकि मैं जिंदगी की आखिरी तकलीफ तुम्हें देने जा रहा हूं। तुम पहले मां-बाप को माफ करके आओ।
सबूत दो कि अब तुम्हारे मन में मां-बाप के प्रति कोई विरोध नहीं है। तुमने समझ ली बात कि उनकी मजबूरी थी। वे तुम्हारे हित के लिए ही तुम्हें पीड़ा देते थे। कभी कांटा निकाला था; कभी घाव दबा कर मवाद निकाली थी। कभी जबर्दस्ती रात सोने को कहा था। कभी सुबह जबर्दस्ती नींद से उठाया था। वह सब मजबूरी थी। कभी भोजन तुम करना चाहते थे, नहीं करने दिया था। कभी तुम मिठाई खाना चाहते थे और मिठाई छीन ली थी। कभी तुम स्वादिष्ट भोजन करने के दीवाने थे और तुम्हें केवल शाक-सब्जी दी थी। वह सारी की सारी बातें इकट्ठी तुम्हारे भीतर पड़ी हैं। वे छोटे-मोटे काम थे।
गुरुजिएफ ठीक कहता है कि मैं तुम्हारी जिंदगी में आखिरी खतरा लाऊंगा। तुम्हारे अहंकार को छीन लूंगा। अगर तुम मां-बाप को माफ न कर सके तो तुम मुझे कैसे माफ करोगे?
इसलिए पूरब में हम कहते है कि मां-बाप का ऋण तो चुकाया भी जा सकता है; गुरु का ऋण कैसे चुकाओगे! क्योंकि मां-बाप का ऋण छोटा-मोटा है; गुरु का ऋण तो चुकाने का कोई भी उपाय नहीं है।
गुरु तुम्हारे जीवन में अमृत की वर्षा लाता है। लेकिन उसके पहले तैयारी करनी होती है। घास-पात उखाड़ना होता है। कंकड़-पत्थर हटाने होते हैं। भूमि तैयार करनी होती है। उस भूमि के तैयार करने में जो कष्ट होते हैं, उससे लोग नाराज होते हैं। और जो लोग उस कष्ट से गुजरने से डरते हैं, वे दूर ही रह कर निंदा, लांछन और न मालूम कितने तरह के उपायों में उलझ जाते हैं। वे बचाव कर रहे हैं कि इस आदमी के पास हमें न जाना पड़े।
अंतिम बात: ‘और क्या आप जैसों से भी बढ़ कर निश्छल प्रेम और आशीष देने वाले लोग इस जगत को मिल सकते हैं?’
जब भी इस जगत को कोई आशीष देगा, तो यह जगत नाराज होगा। जब भी इस जगत को कोई करुणा देगा, यह जगत नाराज होगा। जब भी इस जगत में कोई रूपांतरण लाने वाला प्रेम लाएगा, क्रांति लाने वाला प्रेम लाएगा, यह जगत नाराज होगा।
और फिर तुम्हें याद दिला दूं: यह स्वाभाविक है। इसलिए सदगुरुओं का उपयोग बहुत थोड़े से लोग कर पाते हैं, थोड़े से हिम्मतवर लोग। भीड़-भाड़ उनका उपयोग नहीं कर पाती। बहुत थोड़े से लोग ही सदगुरुओं की कीमिया से गुजरते हैं, रूपांतरित होते हैं। वे थोड़े से चुने हुए लोग ही पृथ्वी के नमक हैं, उन्हीं के कारण पृथ्वी में थोड़ी शोभा है। थोड़े फूल खिलते हैं; थोड़ी सुवास उठती है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या सतत साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के परम स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता है? औैर जब सिर्फ साक्षीभाव रह जाए, तो उससे भी कैसे मुक्त हुआ जाए?
पूछते हो: ‘क्या सतत साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के परम स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता है?’
साक्षीभाव ही तो ध्यान है। ध्यान और साक्षीभाव दो नहीं हैं। ध्यान की सारी प्रक्रियाएं साक्षीभाव में ही ले जाने वाले द्वार हैं।
ध्यान के दो अंग समझ लो; वहीं कहीं भूल हो रही है।
ध्यान का जो पहला अंग है, ध्यान तो है ही नहीं। वह तो नाममात्र को ध्यान है। वह तो सिर्फ तैयारी है ध्यान की।
जैसा मैंने अभी तुमसे कहा कि कोई माली बगीचा बना रहा है। तुमने देखा उसे। वह घास-पात उखाड़ रहा है, पत्थर हटा रहा है; जमीन खोद रहा है। खाद ला रहा है। जमीन साफ-सुथरी पड़ी है, एक पौधा नहीं बचा। एक पौधा नहीं है वहां। और तुम उससे पूछते हो: क्या कर रहे हो? तो माली कहता है कि बगीचा लगा रहा हूं। तुम कहोगे: यह कैसा बगीचा? एक पौधा दिखाई नहीं पड़ता? बल्कि पहले कुछ थे--घास-पात उगा हुआ था; वह भी तुमने निकाल दिया। यह कैसा बगीचा लगा रहे हो? तो वह कहेगा: यह बगीचा लगाने की तैयारी है। अभी बगीचा लगा नहीं। अभी तो बगीचा लग सके, इसमें जो-जो बाधाएं हैं, वे अलग कर रहा हूं। मगर बाधाएं अलग करना भी है तो प्रक्रिया का अंग।
ध्यान की जो भी प्रक्रियाएं हैं--वह सिर्फ बाधा को अलग करना है, जैसे ही बाधा अलग हो गई, भूमि तैयार हो गई, फिर तो साक्षीभाव ही ध्यान है। साक्षीभाव ही वास्तविक ध्यान है।
जैसे तुम सक्रिय ध्यान करते हो। श्वास के द्वारा तुम शरीर की ऊर्जा को जगाते हो। श्वास के आघात-प्रत्याघात से तुम शरीर में पड़ी हुई ऊर्जा की पर्तों को सक्रिय करते हो। श्वास के आंदोलन से तुम्हारे शरीर में जो जड़ता छा गई है और शक्ति के प्रवाह अवरुद्ध हो गए हैं, उनको तुम तोड़ते हो--अवरोधों को, ताकि तुम्हारा पूरा शरीर ऊर्जा की एक ज्वलंत लपट बन जाए।
जब यह ऊर्जा की लपट घनी हो जाती है तुम्हारे भीतर, तो दूसरे चरण में तुम रेचन करते हो। क्योंकि जैसे ही ऊर्जा प्रवाहित होनी शुरू होती है, जो-जो ऊर्जा के बीच में बाधा बन रहा है, उसे फेंकने की जरूरत आ जाती है; उसे अपने से बाहर फेंकना जरूरी है; तो रेचन करते हो।
रेचन घास-पात उखाड़ना है। ऊर्जा जगी--रेचन हुआ। फिर तुम ‘हू’ मंत्र का उच्चार शुरू करते हो। अब शरीर तैयार है; शरीर की बाधाएं हट गईं; अब मन पर चोट की जा सकती है। अब मन सोया है, उसको भी सक्रिय किया जा सकता है। ‘हू’ ध्वनि के द्वारा या ‘ओम’ ध्वनि के द्वारा या कोई भी ध्वनि का उपयोग किया जा सकता है। तुम अपने भीतर ध्वनि तरंगें पैदा करते हो। क्योंकि मन ध्वनि का ही एक रूप है। विचार ध्वनि का ही एक रूप है। ध्वनि की तरंगों से तुम विचारों को फेंकते हो; मन को सक्रिय करते हो।
फिर चौथे चरण में तुम शांत, मूर्तिवत खड़े रह जाते हो। तीन चरण केवल तैयारी थे, चौथे चरण में तुम साक्षीमात्र रह जाते हो।
पहला चरण शरीर पर चोट करता था। दूसरा चरण शरीर और मन के बीच में जो बाधाएं थीं, उन पर चोट करता था। तीसरा चरण मन पर चोट करता था। चौथे चरण में तुम अपने घर आ गए। सिर्फ आत्मा है; सिर्फ बोध है; सिर्फ साक्षी है।
ये चार चरण ध्यान के हैं और पांचवां चरण तो उत्सव है। वह जो साक्षी क्षण भर को जगा, जरा सी देर को झरोखा खुला, दूर आकाश दिखा, बादल दिखा, चांद-तारे दिखे, जरा क्षण भर को सौंदर्य की वर्षा हुई, तो उसके लिए तो धन्यवाद दोगे न!
तो पांचवां चरण तो कोई चरण नहीं है, केवल धन्यवाद है, केवल अनुग्रह का भाव है; अभिनंदन है कि हे प्रभु! तेरी कृपा अपार है।
लेकिन इन सारी प्रक्रियाओं के बीच जो ध्यान का मौलिक अर्थ है, वह साक्षी है।
और तुम पूछते हो: ‘क्या साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के...।’
तुम ध्यान से डरे हुए मालूम पड़ते हो। तुम यह कह रहे हो कि क्या बगीचा लगाया जा सकता है--बिना घास-पात उखाड़े! मुझे कुछ अड़चन नहीं है। लगाओ। लेकिन तुम्हारे गुलाब कभी बहुत बड़े न हो पाएंगे; घास-पात उन्हें खा जाएगा। तुम्हारे गुलाबों में फूल बड़े छोटे आएंगे, बड़े गरीब फूल होंगे, बड़े दीन फूल होंगे। और जल्दी ही नष्ट हो जाएंगे। क्योंकि घास-पात की बढ़ने की क्षमता अपार है। असत्य बड़ा उत्पादक है। और जहां असत्य की भीड़-भाड़ हो, वहां सत्य खो जाता है।
ऐसा ही समझो कि जैसे बहुत शोरगुल मचा हो, वहां तुम अपना एकतारा बजा रहे हो। तो उस नकारखाने में तूती की आवाज कहां सुनाई पड़ेगी? कोई ऐसी जगह खोजो, जहां सन्नाटा हो, तो वहां तुम अपना एकतारा बजाओ। वहां कुछ सुनाई पड़ेगा।
भूमि तैयार करो। ध्यान भूमि की तैयारी है, लक्ष्य तो साक्षी ही है। मगर अनेक लोगों को डर है ध्यान करने में, और डर ही यही है कि कुछ करना पड़ेगा। साक्षीभाव को कई लोग तैयार हो जाते हैं, क्योंकि कुछ करना नहीं है।
लेकिन तुमसे साक्षी होगा भी नहीं। तुम बैठे रहोगे आंख बंद कर के, और विचार चलते रहेंगे; और तुम विचारों में खोए रहोगे। घास-पात उगती रहेगी और गुलाब मुरझाते रहेंगे।
साक्षी की तैयारी तो करो। हर चीज की तैयारी करनी होती है। सम्यकरूपेण तैयारी न हो, तो तुम सीधी छलांग नहीं लगा सकोगे। यद्यपि सिद्धांततः यह सही है कि अकेला साक्षी होना काफी है।
अगर तुम सोचते हो कि तुम साक्षी होने में सफल हो जाओगे--बिना ध्यान के--तो मेरा आशीर्वाद। तुम करो।
सिद्धांततः यह बात सही है कि साक्षी पर्याप्त है; मगर सिद्धांततः ही सही है, व्यवहारतः सही नहीं है। व्यावहारिक रूप से तो अड़चनों-बाधाओं-विरोधों को तोड़ देना अत्यंत आवश्यक है।
मगर उतनी मेहनत तुम्हें करनी नहीं है। मेहनत से लोग डरे हुए हैं। कुछ श्रम नहीं करना चाहते। मुफ्त कुछ मिल जाए! तो साक्षीभाव जंचता है कि इसमें कुछ करना नहीं है। बैठ गए आंख बंद करके। और आंख बंद करके कुछ होने वाला नहीं है। आंख बंद करके तुम्हारे सामने वही संसार मौजूद रहेगा, जो आंख खोल कर था। कोई फर्क न पड़ेगा। वही तस्वीरें चलेंगी। वही वासनाएं उठेंगी। वही विचार आंदोलन देंगे।
कृष्णमूर्ति की सारी शिक्षा साक्षीभाव की है। लेकिन चालीस वर्ष की शिक्षाओं के बाद कितने लोग साक्षीभाव को उपलब्ध हुए? लोग सुन-सुन कर कृष्णमूर्ति को, बातचीत करने में खूब कुशल हो गए हैं।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, उनको सुनने वाले, वे कहते हैं: ध्यान से क्या सार! मैं भी उनसे कहता हूं: कोई सार नहीं है। साक्षीभाव काफी है। पर वे कहते हैं कि सुनते-सुनते हम समझ तो गए, लेकिन होता नहीं है! तो मैंने कहा: अब तुम्हारी मर्जी। ध्यान में तुम कहते हो: क्या सार है? नाचने-कूदने, श्वास लेने, प्राणायाम, प्रत्याहार, यम-नियम से क्या होगा?--तुम कहते हो।
कृष्णमूर्ति को सुन-सुन कर उनको बात बैठ गई कि योग व्यर्थ है, कि साधना व्यर्थ है। मगर साक्षीभाव हो तो नहीं रहा है। अगर बात समझ में आ गई तो होनी भी तो चाहिए। वे कहते हैं: यह तो हमारी भी मजबूरी है। बौद्धिक रूप से समझ में आ गई है, मगर हो नहीं रहा है!
यह तो बड़ी अड़चन हो गई। अब अड़चन यह हो गई कि ध्यान करने की उनकी तैयारी भी नहीं रही। अब तो ध्यान के विपरीत उनका मन है। तर्क उन्होंने सब जुटा लिए--ध्यान के विरोध में। और साक्षी बन नहीं रहा है। यह फांसी लग गई।
अगर उनसे कहो: ध्यान करो तो वे सब तरह के तर्क देने को तैयार हैं कि ध्यान से क्या सार है? क्रिया से क्या होगा? असली चीज तो साक्षी है। द्रष्टा मात्र हो जाना है।
मैं उनसे कहता हूं कि बिलकुल ठीक कहते हो तुम। मगर हो क्यों नहीं जाते हो?
वहीं अ़ड़चन है। साक्षी हो नहीं सकते। साक्षी की बात ठीक तर्कयुक्त मालूम होती है। और ध्यान कर नहीं सकते, क्योंकि एक बात मन में बैठ गई कि तैयारी की क्या जरूरत है; साक्षी तो भीतर बैठा ही है। बस, उस तरफ आंख फेरनी है। मगर आंख भी फेरोगे तो गर्दन घुमानी पड़ेगी और गर्दन में लकवा खा गया है। तो थोड़ी मालिश, मसा़ज, थोड़ी औषधि, ताकि गर्दन थोड़ी मुड़ सके। जन्मों-जन्मों से बाहर देख रहे हो तो गर्दन भीतर नहीं मुड़ती। जन्मों-जन्मों से बाहर देख रहे हो तो आंख भीतर नहीं जाती।
यह बात तो बिलकुल सीधी सी है कि भीतर चले जाओ। सब वहां है। मगर भीतर चले कैसे जाओ? बाहर रहने की आदत हो गई है। बाहर ही रहना जीवन का अर्थ हो गया है। भीतर जाने का दरवाजा भी भूल गया है। भीतर की तरफ आंख भी नहीं मुड़ती, हाथ भी नहीं फैलते।
तो मैं तो तुमसे यह कहूंगा: साक्षी से सधता हो तो शुभ है। लेकिन व्यर्थ की सैद्धांतिक बातों में मत उलझ जाना। व्यावहारिक यही है कि तुम क्रम से चलो।
क्रिया से शुरू करो--और अक्रिया में जाओ। ध्यान से शुरू करो--और समाधि में जाओ। उथले-उथले जल से शुरू करो, फिर धीरे-धीरे गहराई में जाओ। फिर अतल गहराइयों में जाओ। जल्दी मत करो। आहिस्ता-आहिस्ता, क्रम-क्रम से...।
मगर तुम जल्दी में मालूम पड़ते हो।
प्रश्न बड़ा अदभुत है: ‘क्या सतत साक्षीभाव के द्वारा और बिना ध्यान के परम स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ जा सकता है?’ और उसके बाद पूछा है कि ‘और जब सिर्फ साक्षीभाव रह जाए, तो उससे भी कैसे मुक्त हुआ जाए?’
बड़ी जल्दी है! अभी साक्षीभाव हुआ भी नहीं। अभी हुआ ध्यान भी नहीं है। अभी ध्यान हुआ नहीं है, सैद्धांतिक रूप से मन में यह खयाल बैठ गया है कि साक्षीभाव सध जाए--बिना ही ध्यान के, तो अच्छा। सध जाता, तो तुम प्रश्न पूछे नहीं होते। सधा नहीं है। मगर आगे जा रही है बात और।
‘फिर साक्षीभाव अगर सध जाए--बिना ध्यान के--तो उससे कैसे मुक्त हुआ जाए?’
इतनी जल्दबाजी नहीं। ऐसी छलांगें लोगे तो हाथ-पैर तोड़ लोगे। ऐसी छलांगों का परिणाम अक्सर पागलपन होता है।
क्रम से चलो। व्यवस्था से चलो। जल्दी कुछ है भी नहीं, धैर्य से चलो। प्रतीक्षा से चलो।
धैर्य और प्रतीक्षा श्रद्धा के अनिवार्य अंग हैं। यह अधैर्य है। और यह लोभ है। और बिना कुछ किए पा लेने की आकांक्षा बेईमानी है। पहले ध्यान नहीं करना; वह छोड़ा। अब साक्षी हो गया; अभी हुआ नहीं है, मगर मन में खयाल कर लिया कि साक्षी हो गया; अब इससे कैसे छूटें?
साक्षी से छूटने की कोई जरूरत पड़ती ही नहीं। जिस दिन साक्षी परिपूर्ण हो जाता है, साक्षी विसर्जित हो जाता है--अपने आप। करने की बात वहां नहीं है। करने की बात साक्षी के पहले है। इसलिए ध्यान किया जा सकता है।
ध्यान करने का अंतिम निचोड़ होता है: साक्षी। फिर साक्षी के बाद तो कर्ता बचता ही नहीं! साक्षी का मतलब ही यह होता है कि अब द्रष्टा ही बचा; कर्ता बचा नहीं। इसलिए तुम यह कैसे पूछ सकते हो, संगतरूप से, कि अब हम क्या करें कि साक्षी से छुटकारा हो जाए!
कर्ता तो गया, तभी तो साक्षी आया। अब तो कृत्य का कोई उपाय नहीं है। लेकिन साक्षी अपने से चला जाता है। उसके पीछे राज है।
जैसे दीया तुमने जलाया; तो पहले तो तेल जलता है। फिर जब तेल जल जाएगा, तो बाती जलने लगती है। फिर जब बाती पूरी जल जाएगी, तो ज्योति बुझ जाएगी। बुझानी नहीं पड़ेगी। क्या जरूरत बुझाने की, अपने से हो जाएगा। हां, अगर तेल हो, तो बुझानी पड़ेगी। अगर तेल भरा है, तो ज्योति अपने से नहीं बुझेगी, क्योंकि तेल ज्योति को जलाए जाएगा। तो तुम्हें बुझाने की प्रक्रिया करनी पड़ेगी।
लेकिन तेल जल गया; अब बाती बची। अब बाती कितनी देर जल सकती है? तेल तो बचा नहीं है, इसलिए अब बाती अपने आप जलने लगेगी। जिस अग्नि ने तेल को जला दिया, वह अग्नि अब बाती को जला देगी। और आखिरी घटना: वही अग्नि अब अपना आत्मघात कर लेगी। जब बाती भी जल गई तो अग्नि तिरोहित हो जाएगी।
ध्यान से तेल जलता है। साक्षी की अवस्था बाती की अवस्था है। तो तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता; एक दिन तुम पाते हो: साक्षी का आविर्भाव हुआ। बड़ी शांति उतरती है; अपूर्व शांति उतरती है। बड़ा सुख बरसता है--महा सुख। स्वर्ग तुम्हारे चारों तरफ निर्मित हो जाता है। तुम्हारे जीवन में पुण्य की गंध आ जाती है। पाप तिरोहित हो गया; वह तेल के साथ गया। संसार नहीं बचा। अब तुम एक स्वर्गीय दशा में होते हो।
पर जब तेल नहीं बचा, तो बाती कितनी देर बचेगी? थोड़ी ही देर में तुम पाओगे: एक लपट उठी। साक्षी का भाव खूब गहन हुआ। जैसे कि बुझने के पहले बाती में लपक उठती है; और मरने के पहले आदमी में लपक उठती है; ऐसे ही तुम्हारे भीतर अहंकार के बिलकुल बुझ जाने के पहले एक लपक उठती है, लपट उठती है--आखिरी झलक। खूब गहन साक्षी हो जाएगा। सारी बाती जलने लगी। तेल तो बचा नहीं; अब बाती पूरी जल रही है। रोशनी एकदम फैल जाएगी। तुम भीतर बड़ा सुख; बड़ा स्वर्ग पाओगे। और तब बाती भी गई।
नरक चला गया तेल के साथ; स्वर्ग चला जाएगा बाती के साथ। पाप गया तेल के साथ; पुण्य चला जाएगा बाती के साथ। फिर जो बचता है, उसको हमने मोक्ष कहा है। इसलिए नया शब्द खोजा उसके लिए। स्वर्ग नहीं कहा। स्वर्ग उसको क्या कहना!
पहले दुख गया, सुख बचा। फिर सुख भी गया। और जब सुख-दुख दोनों चले जाते हैं, तो बच जाता है जो, उसी को हमने आनंद कहा है। वह तीसरी दशा है।
‘आनंद’ जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। ‘मोक्ष’ जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। स्वर्ग और नरक अरबी में हैं, अंग्रजी में हैं, फ्रेंच में हैं, इटालियन में हैं, जर्मन में हैं। लेकिन मोक्ष जैसा कोई शब्द नहीं है। निर्वाण जैसा कोई शब्द नहीं है।
तीसरा शब्द हमारे पास है। क्योंकि हमने आत्यंतिक दशा भी जानी। मिट जाने की वह आखिरी दशा भी जानी।
इसलिए ईसाई फकीर जब खोज करता है, तो स्वर्ग की खोज करता है। लेकिन अगर तुम पूर्वीय मनीषी से पूछोगे तो वह कहेगा: स्वर्ग की भी क्या खोज! खोज ही करनी हो तो मोक्ष की करो--जहां स्वर्ग भी न रहे। समझना।
जब तक सुख है, तब तक दुख छाया की तरह मौजूद रहेगा। जब तक रोशनी है, तब तक अंधेरा रोशनी की परिभाषा करेगा। दीया जल रहा है तो कमरे में रोशनी है। लेकिन एक किनारा है, जहां अंधेरा खड़ा है। अंधेरा तो मिटना ही चाहिए, रोशनी भी मिट जानी चाहिए। दुख तो मिटना ही चाहिए, सुख भी मिट जाना चाहिए। उस दशा को हमने परम-दशा कहा है, परमात्म-दशा कहा है। वही स्थिति है: भगवत्ता की, भगवान की।
उसी व्यक्ति को हमने भगवान कहा है, जिसका दुख गया; सुख गया। जिसका द्वंद्व गया। जो द्वंद्वातीत हुआ।
तो तुम्हें कुछ करना ही है अभी तो ध्यान करो। तुम विचार कर रहे हो: साक्षी कैसे छोड़ें? करने का काम पहले निपटा लो। वह तुमने नहीं निपटाया तो पीछे तुम्हें दिक्कत देगा। वह बची रहेगी वासना--करने की। वह अभी बची है।
अब तुम पूछ रहे हो कि ‘साक्षी रह जाएगा, फिर क्या करें? उससे छुटकारा कैसे हो?’
यह करने की वासना मत बचाए रखो। यह तेल मत बचाए रखो। यह तेल जाने दो। यह ध्यान में ही निपटा लो। जितना उछलना-कूदना है--उछल लो, कूद लो। करने का जो भाव है, उसे ध्यान में पूरा कर लो। करने की जरा भी वासना न रह जाए। जरा भी वासना रह गई, तेल बचा रहा, तो फिर बाती अपने से न बुझेगी।
और खयाल रखना, अगर तुमने बाती बुझाई, तो फिर लौट कर आना पड़ेगा; क्योंकि बुझाते समय तुम तो बचोगे ना; बुझाने वाला बचेगा। जब बाती अपने से बुझती है, तो फिर लौट कर नहीं आती। उसको बुद्ध ने कहा है: वैसी चेतना अनागामी हो जाती है; उसके लौट कर आने का उपाय नहीं बचा। उसका आवागमन समाप्त हो जाता है।
तुमने बुझाया, तो तुम्हारी वासना अभी बची है। नहीं तो तुम किसलिए बुझा रहे हो? बुझाने की जरूरत क्या है? क्या प्रयोजन है? जब बुझेगी, बुझ जाएगी।
लेकिन तुम्हारे मन में वासना करने की है; और रहेगी, जब तक तुम ध्यान में उसका निकास न कर लो।
इसलिए मैं कहता हूं: ध्यान को जितना सक्रिय बना सको, उतना अच्छा।
मुझसे लोग पूछते हैं कि ‘आप सक्रिय ध्यान की इतनी ज्यादा प्रस्तावना क्यों करते हैं?’ मैं इसलिए करता हूं कि सक्रियता निकल जाए। क्योंकि साक्षी तो निष्क्रिय होगा।
अगर तुम ध्यान में निष्क्रिय होकर बैठ गए, तो तुम्हारी सक्रियता लपटी रहेगी भीतर, तुम्हारी चेतना में; तेल की तरह मौजूद रहेगी; और उस परम घटना को न घटने देगी, उस अपूर्व सौंदर्य से तुम वंचित रह जाओगे। वह जो ज्योति का अपने आप बुझ जाना है; बिना बुझाए, बिना बुझाने वाले को बुलाए, बिना किसी कृत्य के, बिना किसी कर्ता के, बिना किसी आकांक्षा के, वह जो ज्योति का अपने से शून्य में लीन हो जाना है--अपने से, अपने आप--उस घटना से तुम वंचित हो जाओगे। और वही घटना निर्वाण है।
इसलिए बुद्ध ने निर्वाण शब्द दिया। ‘निर्वाण’ शब्द का अर्थ ही होता है: ज्योति का बुझ जाना। दीये के बुझ जाने का नाम निर्वाण है।
इसलिए मेरा जोर है कि तुम जितनी सक्रियता से ध्यान कर सको, उतना अच्छा; ताकि सक्रियता की, कर्ता की वासना क्षीण हो जाए। साक्षी बचे, कर्ता का भाव जरा भी न बचे। कर लिया, जो करना था। दौड़ चुके, जितना दौड़ना था।
थका लो अपने को, तो साक्षी में तुम शांत होकर बैठ जाओगे। और साक्षी में तुम पूर्ण शांत होकर बैठ गए, जरा भी कर्म की वासना न रही--कि यह करूं, वह करूं; ऐसा करूं, वैसा करूं, तो तेल गया। फिर तुम निश्चिंत रहो। यह बाती अपने से जल जाएगी।
और जिस दिन बाती अपने से जल कर तिरोहित होती है शून्य में, उस दिन परम घटता है; उस दिन सच्चिदानंद घटता है; उस दिन--समाधि।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, विचारों पर नियंत्रण कैसे हो?
नियंत्रण की जरूरत क्या है? नियंता बनना अहंकार ही है। विचार तुम्हारे नहीं हैं; तुम उनके मालिक क्यों बनना चाहते हो?
विचार आते हैं, चले जाते हैं। ठहरते हैं क्षण भर तुममें, विदा हो जाते हैं। तुम सराय हो, विचार अतिथि हैं, मेहमान हैं। तुम मेजबान हो। मेहमानों की गर्दन पकड़ कर नियंत्रण करने की जरूरत क्या है?
नियंत्रण करने की चेष्टा में ही लोग विक्षिप्त हो जाते हैं।
विचार के तुम मालिक न बन सकोगे। हां, एक मालकियत आती है जरूर, लेकिन वह विचार की मालकियत नहीं है। वह मालकियत इस सत्य को जान लेने से पैदा होती है कि विचार से मेरा क्या लेना-देना। आए--गए। राह पर चलती हुई भीड़ है। यह ट्रेन की आवाज, यह उड़ता हवाई जहाज, यह रास्ते पर कार का हॉर्न, यह बच्चे का चिल्लाना, यह कुत्ते का भौंकना, जैसे ये सारी चीजें घट रही हैं, वैसा ही विचार भी घट रहा है--मुझसे बाहर।
विचार तुम्हारे भीतर नहीं है। तुम्हारे सिर में जरूर है, लेकिन तुम्हारे भीतर नहीं है। क्योंकि तुम तो सिर के भीतर हो। तुम विचार के पीछे हो। विचार तुम्हारी आंख के सामने घूम रहा है। आंख बंद करो, तुम देखोगे: विचार को घूमते। तो तुम तो विचार से अलग और पृथक हो। तुम तो साक्षी हो। नियंत्रण क्या करना है?
अनेक लोगों को यह भ्रांति सवार होती है--और तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी तुम्हें यही समझाते रहते हैं कि मन पर नियंत्रण करो; मन पर काबू करो।
मन पर काबू करना ऐसा ही पागलपन है, जैसे कोई पारे पर मुट्ठी बांधे; और पारा छितर जाए और सारे फर्श पर फैल जाए। और जितना तुम पकड़ने जाओ, उतना पारा टूटने लगे। और जितना तुम झपटो, उतनी मुश्किल में पड़ो।
विचार पर नियंत्रण करने की व्यर्थता में मत पड़ना। मैं नहीं सिखाता--विचार पर नियंत्रण। मैं तो विचार का जागरण, विचार के प्रति जागरण।
अबाबीलों से मेरे आवारा विचार
न जाने किन प्रदेशों से आते हैं।
मेरी छत के शहतीरों में तिनके सजाते हैं।
मैं चाहता हूं वे यहीं बस जाएं,
मैं उन्हें पाल लूं मन के पिंजड़े में सहेज सम्हाल लूं।
जब चाहूं--वहां से उतार लूं,
अपने कुछ एकांत क्षण उनके साथ गुजार लूं।
पर वे नहीं रुकते उड़ जाते हैं।
सिर्फ उनकी आमद के मटमैले निशान
उनकी याद दिलाते हैं।
मन को और भी उदास बनाते हैं।
अबाबीलों से मेरे आवारा विचार
ये न जाने किधर से आते हैं।
और कहां उड़ जाते हैं!
ये उड़ते हुए पक्षी हैं आकाश के; ये तरंगे हैं आकाश में घूमती हुईं; इन्हें आने दो, जाने दो। इनके जाने से उदास मत बनो। इनके आने से परेशान मत होओ। तटस्थ भाव से इनका आना-जाना देखो।
जैसे कोई नदी के किनारे बैठा हो और नदी का बहना देखे, ऐसे तुम विचार की सरिता को बहते देखो--किनारे बैठ कर।
बुद्ध के जीवन में बड़ी प्यारी कथा है। मुझे उसमें सदा से रस रहा है। बुद्ध एक जंगल से गुजरते हैं। उन्हें प्यास लग आई है। बूढ़े हो गए हैं बुद्ध। आखिरी दिनों की बात है; मरने के कुछ छह महीने पहले की।
बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं; आनंद से कहते हैं: आनंद, मुझे बड़ी प्यास लगी है। मुझसे और चला न जा सकेगा। पीछे हम एक झरना छोड़ आए हैं, तू वापस जा, यह मेरा भिक्षापात्र ले जा और जल भर ला।
आनंद पीछे लौट कर गया। लेकिन जो झरना वे पीछे छो़ड़ आए थे; वह बिलकुल गंदा, मटमैला हो गया था। अभी-अभी बैलगाड़ियां उससे गुजर गई थीं। तो सारा कीचड़-कबाड़ पत्ते ऊपर उठ आए थे। पानी बिलकुल गंदा हो गया था। पीने योग्य तो बिलकुल ही नहीं था। और बुद्ध के लिए यह गंदा पानी आनंद ले जाए, यह संभव नहीं था। वह वापस लौट आया। उसने कहा कि मैं आगे जाता हूं। कोई नदी खोजूंगा। वह झरना तो बड़ा गंदा हो गया। उससे आदमी निकल गए, बैलगाड़ियां निकल गईं। बैलों ने पानी पीया, घोड़ों ने पानी पीया। वह तो बिलकुल गंदा हो गया। वह पानी आपके लायक नहीं। बुद्ध ने कहा: तू व्यर्थ परेशान न हो। फिर से जा। वही पानी ले आ।
बुद्ध कहें तो इनकार भी न कर सका आनंद। फिर गया और बड़ा हैरान हुआ। पानी फिर स्वच्छ हो गया था। पत्ते फिर बह गए थे। धूल-धवांस नीचे बैठ गई थी।
बुद्ध ने आनंद से इतना ही कहा था कि अगर अब भी पानी गंदा हो तो तू किनारे बैठ जाना; थोड़ी प्रतीक्षा करना।
आनंद बैठ गया किनारे। थोड़े बहुत आखिरी कण धूल के तैरते होंगे, वे भी बह गए। पानी एकदम स्फटिक जैसा शुद्ध-साफ हो गया। तब वह जल भर कर आया।
वह नाचता हुआ आया। उसने बुद्ध के चरणों में सिर रखा और उसने कहा: आपने बड़ा गहरा संदेश दे दिया। आज मुझे सूत्र हाथ लग गया। यही सूत्र मैं मन के साथ भी उपयोग कर लूंगा। आज मेरे मन में एक बड़ी बात साफ हो गई। आपकी बड़ी अनुकंपा जो आपने मुझे वापस भेजा। मैं जाने को तैयार भी नहीं था। लेकिन क्रांति हो गई है--उस तट पर बैठे-बैठे।
उस झरने के पास बैठे-बैठे एक बात समझ में आ गई कि अगर मैं उतर जाऊं जल में...। अगर आपने न कहा होता, तो मैंने उतर कर शुद्ध करने की कोशिश की होती और उसी में सब अशुद्ध हो गया होता। मेरे उतरते ही से और कीचड़ उठ आई होती। आपने ठीक कह दिया था कि किनारे बैठ जाना और प्रतीक्षा करना। कुछ करना मत; बस देखते रहना। अपने से झरना शुद्ध हो जाएगा। ऐसा ही मैं अपने मन के साथ भी कर लूंगा। मन में भी मैं उतर-उतर जाता हूं। मन को भी नियंत्रण में लाने की कोशिश करने लगता हूं। उसी कोशिश में मन मेरे हाथ से छिटक-छिटक जाता है। आज जैसे यह जल का झरना शांत हो गया, निर्मल हो गया, ऐसे ही मेरे मन का झरना भी मैं शांत और निर्मल कर लूंगा।
बुद्ध ने कहा: इसीलिए तुझे वापस भेजा था। सदगुरु प्रत्येक स्थिति का उपयोग कर लेते हैं। यही जागरण तुझे आ जाए; यही बोध, यही बीज तेरे भीतर अंकुरित हो जाए, इसीलिए तुझे वापस भेजा था। ठीक किया आनंद। शुभ किया आनंद। तू समझ गया। तूने समझदारी की। यही राज है।
मन पर नियंत्रण करने का सोचो ही मत। मन के किनारे बैठना सीखो। क्या लेना-देना है; अच्छे विचार आते हों तो भी तुम्हारा कुछ नहीं है। और बुरे विचार आते हों तो भी तुम्हारा कुछ नहीं है। बुरों को भी आने दो; अच्छों को भी आने दो। बुरों को भी जाने दो; अच्छों को भी जाने दो। अपने से आते हैं; अपने से चले जाते हैं। तुम्हारा क्या ले जाते हैं! तुम बैठो। तुम जाग कर देखते रहो।
तुम सिर्फ देखो; तुम निर्णय न करो। तुम मूल्यांकन न करो। तुम न्यायाधीश न बनो। न तो कहो: अच्छा; न कहो: बुरा। न तो कहो: अच्छे को पकड़ कर रख लूं--संजो लूं, संवार लूं। न बुरे को धक्का दो। तुम इस धक्का-मुक्की में पड़ो ही मत।
इसलिए समस्त ज्ञानियों ने यह सूत्र कहा है। विचारों का निर्णय मत करो कि कौन अच्छा, कौन बुरा। और विचारों में चुनाव मत करो कि कौन पकड़ने जैसा और कौन छोड़ देने जैसा। यही साक्षी का अर्थ है।
अंतिम प्रश्न:
भगवान, आपके पास जो नहीं आता, वह तो क्षमा का पात्र है, क्योंकि वह नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है। किंतु आपके पास होकर भी मेरे अनुभव में आपकी बातें नहीं उतर रही हैं। आपकी बातें मन के तल पर तो पकड़ में आती हैं, लेकिन अनुभव में नहीं उतरतीं। यही मेरी पीड़ा है। कृपया मार्गदर्शन करें।
मैं जो कहता हूं, उसे सुन लेने मात्र से, समझ लेने मात्र से तो अनुभव में नहीं उतरना होगा। कुछ करो। मैं जो कहता हूं, उसके अनुसार कुछ चलो। मैं जो कहता हूं, उसको केवल बौद्धिक संपदा मत बनाओ। नहीं तो कैसे अनुभव से संबंध जुड़ेगा?
मैं गीत गाता हूं--सरिताओं के, सरोवरों के। तुम सुन लेते हो। तुम गीत भी कंठस्थ कर लेते हो। तुम कहते हो: गीत बड़े प्यारे हैं। तुम भी गीत गुनगुनाने लगते हो--सरिताओं के, सरोवरों के। लेकिन इससे प्यास तो न बुझेगी।
गीतों के सरिता-सरोवर प्यास को बुझा नहीं सकते। और ऐसा भी नहीं कि गीतों के सरिता-सरोवर बिलकुल व्यर्थ हैं। उनकी सार्थकता यही है कि वे तुम्हारी प्यास को और भड़काएं ताकि तुम असली सरोवरों की खोज में निकलो।
मैं यह जो गीत गाता हूं--सरिता-सरोवरों के--वह इसीलिए ताकि तुम्हारे हृदय में श्रद्धा उमगे कि हां, सरिता-सरोवर हैं, पाए जा सकते हैं। ताकि तुम मेरी आंख में आंख डाल कर देख सको कि हां, सरिता-सरोवर हैं; ताकि तुम मेरा हाथ हाथ में लेकर देख सको कि हां, कोई संभावना है कि हम भी तृप्त हो जाएं, कि तृप्ति घटती है; कि ऐसी भी दशा है परितोष की, जहां कुछ पाने को नहीं रहता; कहीं जाने को नहीं रहता; कि ऐसा भी होता है, ऐसा चमत्कार भी होता है जगत में--कि आदमी निर्वासना होता है। और उसी निर्वासना में मोक्ष की वर्षा होती है।
मैं गीत गाता हूं--सरिता-सरोवरों के, इसलिए नहीं कि तुम गीत कंठस्थ कर लो और तुम भी उन्हें गुनगुनाओ। बल्कि इसलिए ताकि तुम्हें भरोसा आए; तुम्हारे पैर में बल आए; तुम खोज पर निकल सको।
लंबी यात्रा है। जंगल-पहाड़ों से गुजरना होगा। हजार तरह के पत्थर-पहाड़ों को पार करना होगा। और हजार तरह की बाधाएं तुम्हारे भीतर हैं, जो तुम्हें तोड़नी होंगी। यात्रा दुर्गम है। मगर अगर भरोसा हो कि सरोवर है तो तुम यात्रा पूरी कर लोगे। अगर भरोसा न हो कि सरोवर है तो तुम चलोगे ही कैसे! पहला ही कदम कैसे उठाओगे?
गीतों का अर्थ इतना ही है कि तुम्हें भरोसा आ जाए कि सरोवर हैं।
और भरोसा काफी नहीं है। भरोसा सरोवर नहीं बन सकता। सरोवर खोजना होगा। तो मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं।
तुम कहते हो: ‘आपके पास जो नहीं आता, वह क्षमा का पात्र है। क्योंकि वह नहीं जानता है कि वह क्या कर रहा है। किंतु आपके पास होकर भी, आपका संन्यासी होकर भी मेरे अनुभव में आपकी बातें नहीं उतर रही हैं। आपकी बातें मन के तल पर तो पकड़ में आती हैं, लेकिन अनुभव में नहीं उतरतीं। यही मेरी पीड़ा है।’
बात सुन कर ही अनुभव कैसे होगा? बात सुन कर आकांक्षा जग सकती है, प्यास जग सकती है।
वही है तुम्हारी पीड़ा। उस पीड़ा को तुम दुख मत समझो। यही मैं चाहता हूं कि मेरी बात सुन-सुन कर धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर ऐसी पीड़ा जगे, ऐसा स्पष्ट होने लगे--कि बात सुनने से क्या होगा! धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर एक बवंडर उठे, एक आंधी उठे कि अब कुछ करना होगा, अब कहीं जाना होगा।
यही है पीड़ा और मैं इस पीड़ा को शांत करने की जरा भी चेष्टा न करूंगा। क्योंकि यह पीड़ा शांत हो गई तो तुम फिर वहीं के वहीं रह जाओगे--जहां तुम हो।
यह पीड़ा तो बलवती हो; यह पीड़ा तो घनी हो; यह पीड़ा तो दंश बने; यह तो तुम्हारी छाती में चुभा हुआ छुरा हो जाए। यह तो तुम जब तक सरोवर पर न पहुंच जाओ, तब तक बढ़ती ही रहे--आग की लपट बन जाए। तुम्हें जलाए। तुम्हें भस्म कर दे।
इसलिए तो मैंने कहा कि सदगुरु से लोग नाराज होते हैं। तुम जाते हो सांत्वना की तलाश में और सदगुरु सत्य देना चाहता है--सांत्वना नहीं।
अब जिन मित्र ने पूछा है, उनकी आकांक्षा यह भी हो सकती है कि मैं कुछ सांत्वना दूं, कि मैं कहूं: घबड़ाओ मत, सुनते-सुनते सब हो जाएगा। कि घबड़ाओ मत, जब समय आएगा तब सब हो जाएगा। कि घबड़ाओ मत, हर चीज का मौसम है। जल्दी घड़ी आती है। प्रभु-प्रसाद से सब हो जाएगा। कि मेरे आशीर्वाद से सब हो जाएगा; घबड़ाओ मत।
अगर तुम सांत्वना खोजते हो तो मैं तुम्हें सांत्वना नहीं दे सकता हूं। तो तुम गलत आदमी के पास आ गए। मैं तुम्हारी मलहम-पट्टी नहीं करूंगा। मैं तुम्हारे घाव को छिपाऊंगा नहीं, दबाऊंगा नहीं, फूलों से सजाऊंगा नहीं। मैं तुम्हारे घाव को और उघाडूंगा और कुरेदूंगा। मैं तुम्हारे घाव को और गहरा करूंगा--कि घाव गहरा होते-होते तुम्हारे हृदय तक पहुंच जाए कि घाव इतनी पीड़ा देने लगे कि तुम्हें उठना ही पड़े, कि तुम्हें चलना ही पड़े, कि तुम्हें खोजना ही पड़े। कि घाव की पीड़ा इतनी हो जाए कि पहाड़-पर्वतों को लांघने की पीड़ा उतनी बड़ी न मालूम पड़े; तभी यात्रा शुरू होगी।
प्यास की पीड़ा इतनी हो जाए कि अगर पूरा मरुस्थल भी पार करना हो, तो भी तुम पार करने की तैयारी दिखाओ। तुम्हारे पास जो कुछ है, सब देने की भी जरूरत पड़ जाए, तो तुम दे दो। जिस दिन पीड़ा इतनी हो जाए...।
सिकंदर भारत आया; उसने एक फकीर से पूछा कि मैं दुनिया का सम्राट हूं; मैं मस्त रहूं, यह तो बात समझ में आती है। तुम किसलिए मस्त हो रहे हो?
वह फकीर नाच रहा था नदी के किनारे। नग्न था। खंजीरा बजा रहा था। उसकी मस्ती देख कर सिकंदर ईर्ष्या से भर गया होगा। ऐसी मस्ती तो सिकंदर में भी न थी, हालांकि सारे जगत का राज्य उसका था। और इस आदमी के पास कुछ भी न था। शायद यह खंजरी भी इसकी अपनी न हो। इसके पास एक भिक्षापात्र भी नहीं था। मगर इसके चेहरे पर एक रौनक थी। इसकी आंखों में एक ज्योति थी। कोई दीया जल रहा था इसके भीतर। वह बिलकुल साफ था। वह अंधे को भी दिख जाए, ऐसा साफ था। तभी तो सिकंदर को दिख सका। सिकंदर से बड़ा अंधा कहां खोजोगे!
वह संगीत कुछ ऐसा था कि बहरे को भी सुनाई पड़ जाए। तब तो सिकंदर को सुनाई पड़ सका। सिकंदर से बड़ा बहरा कहां खोजोगे!
सिकंदर ने पूछा: तू किसलिए आनंदित हो रहा है? तू मुझे ईर्ष्या से भरता है। तेरे पास कुछ भी नहीं है; आनंद का कारण क्या है? मेरे पास सब है और मैं आनंदित नहीं हूं!
उस फकीर ने कहा: तुम्हारे पास सब? बड़ी बेबूझ बात कहते हो; उलटबांसी कहते हो। मैं तुम से यह पूछता हूं: सिकंदर! अगर तुम मरुस्थल में खो जाओ और घनी प्यास लगे, और मौत करीब मालूम होने लगे, और तुम गिर जाओ और घसिटने लगो, और मैं तुम्हारे पास खड़ा हो जाऊं आ कर। एक गिलास के पानी के लिए मैं तुमसे कहूं: क्या कीमत चुका सकते हो? तुम कितना दोगे?
सिकंदर ने कहा: एक गिलास...! उस हालत में, आधा साम्राज्य दे दूंगा। फकीर ने कहा: हम ऐसे सस्ते में बेचने वाले नहीं हैं। तुम और क्या दे सकोगे?
सिकंदर ने कहा: अगर मजबूरी की ऐसी हालत आ जाए, तो मैं पूरा सामाज्य दे दूंगा। अगर मर रहा हूं मरुस्थल में, पानी के बिना, तो पूरा साम्राज्य दे दूंगा।
तो उस फकीर ने कहा: यह तो बड़ा अजीब सा साम्राज्य हुआ, एक गिलास पानी में चला जाएगा! इसलिए हमने इसको नहीं खोजा। जो एक गिलास पानी में खो जाए, वह हमने नहीं खोजा; हमने तो सरोवर खोजा। अनंत सरोवर खोजा--कि पीओ और पिलाओ और कभी खाली न हो।
यह भी कोई बात है। तेरे पास कुछ भी नहीं सिकंदर। यह तूने कूड़ा-करकट इकट्ठा कर लिया है।
उस फकीर की बात उसके हृदय में चुभी रह गई। और सिकंदर ऐसी ही हालत में मरा। संयोग की बात, ऐसी ही हालत में मरा। जैसे एक गिलास पानी को कोई तड़फ जाए मरुस्थल में।
लौटता था जब हिंदुस्तान से वापस, तो अपनी राजधानी से केवल चौबीस घंटे के फासले पर रह गया था और भयंकर रूप से बीमार हो गया। और चिकित्सकों ने कह दिया कि बचने का कोई उपाय नहीं है। उसने कहा कि मैं अपना सब देने को तैयार हूं, मगर चौबीस घंटे मुझे बचा लो--सिर्फ चौबीस घंटे क्योंकि मैंने अपनी मां को वचन दिया है। जब मैं घर से आ रहा था तो उसने कहा था: लौट आना। मैंने वचन दिया है और मैं अपने वचन का धनी हूं। मैं अपना वचन पूरा करना चाहता हूं। मैं जाकर घर मर जाऊं, कोई फिकर नहीं। लेकिन एक दफा घर पहुंच जाऊं। मेरी मां मुझे देख ले कि मैं लौट आया। मैंने वचन दिया है कि मैं लौट कर आऊंगा। हर हालत में लौट कर आऊंगा।
पर उसके चिकित्सकों ने कहा: हम मजबूर हैं। हम क्या कर सकते हैं! घर पहुंचना हो नहीं सकता। आप पल दो पल के मेहमान हैं।
तब सिकंदर को अगर उस फकीर की याद आई हो तो कुछ आश्चर्य तो नहीं। जिसने कहा था: एक गिलास पानी के लिए सारा, सब चला जाएगा। चौबीस घंटे के लिए सब देने को तैयार था। और इसी राज्य के लिए सारी जिंदगी गंवा दी! जरा सोचो; हिसाब कैसा है! इसी राज्य के लिए सारी जिंदगी गंवा दी और वह राज्य चौबीस घंटे नहीं खरीद सकता! इससे बड़ी और मूढ़ता क्या होगी? तो मैं तुम्हारी पीड़ा को सांत्वना की मलहम-पट्टी नहीं दूंगा। यहां जो सांत्वना में सोए पड़े हैं, वे अभागे हैं। यहां तो धन्यभागी हैं वे ही जिनको भीतर पीड़ा उठ रही है और जिनको यह बात समझ में आ रही है कि यहां सब असार है। राख ही राख है। जिनको यह दिखाई पड़ने लगा है। यहां क्या रखा है; राख ही राख है ।
तुम्हारी पीड़ा को मैं सुलगाऊंगा; तुम्हारी पीड़ा इतनी बड़ी हो जाए कि तुम उस पीड़ा के कारण बड़े से बड़े पहाड़ भी लांघने को तैयार हो जाओ, तो ही पहुंच सकोगे। नहीं तो पहुंचना असंभव है।
और मेरी बातें सुन-सुन कर अगर पहुंचना होता, तब तो बड़ी सस्ती बात होती। किसकी बात सुन कर कौन कब पहुंचा है?
कुछ करो। कुछ चलो। उठो। पैर बढ़ाओ।
परमात्मा संभव है, लेकिन तुम चलोगे तो ही। और परमात्मा भी तुम्हारी तरफ बढ़ेगा, लेकिन तुम चलोगे तो ही। तुम पुकारोगे तो ही वह आएगा।
मिलन होता है, लेकिन मिलन उन्हीं का होता है जो उसे खोजते हुए दर-दर भटकते हैं। असली दरवाजे पर आने के पहले हजारों गलत दरवाजों पर चोट करनी पड़ती है। ठीक जगह पहुंचने के पहले हजारों बार गड्ढों में गिरना पड़ता है।
जो चलते हैं, उनसे भूल-चूक होती है। जो चलते हैं, वे भटकते भी हैं। जो चलते हैं, उनको कांटे भी गड़ते हैं। जो चलते हैं, वे चोट भी खाते हैं।
चलना अगर मुफ्त में होता होता, सुविधा से होता होता तो सभी लोग चलते। चूंकि चलना सुविधा से नहीं होता, इसलिए अधिक लोग अपने-अपने घरों में बैठे हैं, कोई चल नहीं रहा है।
लेकिन गति के बिना उस परम की उपलब्धि नहीं है।
और मजा यह है कि तुम क्षुद्र बातों के लिए खूब चल रहे हो। अगर दिल्ली जाना हो, तो तुम कितनी ही यात्रा करने को तैयार हो! कैसी ही यात्रा करनी पड़े, कितनी ही मुसीबतें हों, तुम दिल्ली जाने को तैयार हो। जेल जाना पड़े कि जूते खाने पड़ें, मगर तुम दिल्ली जाने को तैयार हो। हर हालत में दिल्ली जाने को तैयार हो। अगर एक बड़ा मकान बनाना हो, तो तुम सब-कुछ करने को तैयार हो। व्यर्थ को करने के लिए तुम्हारी कितनी आतुरता है! और सार्थक को? सार्थक तो तुम कहते हो कि सुन कर मिल जाए तो अच्छा। लोग कहते हैं: सुन कर ही...।
मेरे पास एक मित्र आते हैं। वर्षों से मुझे सुनते हैं। ध्यान नहीं करते। मैंने उनसे पूछा: ध्यान कब करोगे? वे कहते हैं: आपको सुन कर ही इतना आनंद मिलता है! आपको सुन-सुन कर ही हो जाएगा। फिर आपका आशीर्वाद है; और क्या चाहिए।
अब यह आदमी अपने को धोखा दे रहा है। निश्चित सुनने का एक आनंद हो सकता है। शब्द में भी एक रस हो सकता है, एक संगीत हो सकता है, एक लय हो सकती है। पर जरा यह तो सोचो कि जब शब्द में इतना रस है तो जिस आत्म-दशा से वे शब्द आते हैं उसमें कितना रस न होगा!
हां, कभी-कभी शब्द में भी स्वाद होता है। कोई नीबू का नाम ले दे तो तुम्हारे मुंह में लार बहने लगती है। कभी-कभी शब्द में भी रस होता है। मगर वह लार नीबू का असली स्वाद तो नहीं है। कल्पना मात्र है। भ्रांति मात्र है।
परमात्मा का असली स्वाद लेने के लिए उठो और चलो। ध्यान करो। यात्री बनो। दांव पर लगाना होगा। जुआरी हुए बिना कुछ भी नहीं हो सकता है।
मैं तुमसे कह रहा हूं
कहना शुरू कर दिया है
तौला नहीं है इसका छंद
सिर्फ खोल कर हवा में प्राण भर दिया है
मैं कह रहा हूं
तुम्हें सुनना चाहिए
फूल जो तुम्हारे लिए खिलाए जा रहे हैं
उनमें से तुम्हें
कुछ न कुछ चुनना चाहिए
आओ, सुनो
और चुनो
मैं तुमसे
कह रहा हूं।
लेकिन यह फूल चुनोगे नहीं? इनमें से कुछ को तो चुनो। इनमें से कुछ को तो जीवन बनाओ! इनमें से कुछ तुम्हारा आचरण बने; कुछ तुम्हारी श्वासों में तैर जाएं; कुछ तुम्हारे प्राणों में उतर जाएं; कुछ तुम्हारे हृदय की धड़कन बन जाएं तो ही, तो ही पीड़ा से एक दिन मुक्ति होगी।
अभी तो पीड़ा बढ़ेगी; सुन-सुन कर पीड़ा बढ़ेगी। जितना सुनोगे, उतनी पीड़ा बढ़ेगी। और उस पीड़ा को धन्यभाग समझो कि वह बढ़ती जाए। एक दिन ऐसी घ़ड़ी आ जाएगी कि पीड़ा इतनी होगी कि तुम बैठे न रह सकोगे। कुछ करना अनिवार्य हो जाएगा।
तुम सुनते हो। संन्यासी भी हो गए हो। साफ है--खोज की आकांक्षा है। थोड़ा और दांव लगाओ। मेरे आशीष से ही हो जाएगा--ऐसा सोच कर मत बैठे रहना। आशीर्वाद बड़े सहयोगी हैं; मगर सहयोगी हैं।
तुम कुछ करोगे, तो आशीर्वाद तुम्हारे लिए साथी हो जाते हैं। तुम कुछ न करोगे, तो आशीर्वाद व्यर्थ हैं।
बीज हो भूमि पर तो खाद सहयोगी है। बीज ही न हो भूमि में, तो खाद क्या करेगी?
आशीर्वाद तो खाद की तरह हैं। बीज तुम्हारे चाहिए; मेरा आशीर्वाद तुम्हें सदा उपलब्ध है। लेकिन बीज तो तुम्हारा ही चाहिए। बुद्धपुरुष राह दिखाते हैं, चलना तो तुम्हें ही पड़ता है।
आज इतना ही।