CHARANDAS

Nahin Sanjh Nahin Bhor 02

Second Discourse from the series of 10 discourses - Nahin Sanjh Nahin Bhor by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1977, Pune.
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पहला प्रश्न:
भगवान, एक धारणा है कि परमात्मा मनुष्य की देह धर कर अवतरित होता है। और दूसरी धारणा है कि मनुष्य का आत्यंतिक विकास परमात्मा में होता है। इसमें से कौन सी धारणा सत्य के ज्यादा करीब है?
पहली बात, कोई भी धारणा सत्य के करीब नहीं होती। धारणा मात्र सत्य से दूर होती है।
सत्य ऐसा है कि किसी धारणा में समाता नहीं; समा जाए, तो सत्य नहीं। धारणा तो छोटा सा आंगन है--और सत्य है: विराट आकाश। न तो ‘इस’ आंगन में समाता है; न ‘उस’ आंगन में समाता है। ऐसा नहीं है कि झोपड़े के आंगन में नहीं समाता; राजमहल के आंगन में भी नहीं समाता। आंगन में ही नहीं समाता। जो समा जाए--आकाश ही नहीं; जो न समाए--वही आकाश है।
तो पहली तो बात: कोई धारणा सत्य के करीब नहीं होती। सभी धारणाएं सत्य की तरफ इशारे हैं। जैसे मैं अंगुली से चांद को दिखाऊं; कोई दूसरा किसी और उपाय से चांद को दिखाए; कोई तीसरा किसी और उपाय से चांद को दिखाए। लेकिन सब उपाय चांद से दूर हैं। कोई उपाय चांद नहीं है। मेरी अंगुली चांद नहीं है। और जो अंगुली को पकड़ लेगा, वह चांद से चूक जाएगा।
शब्द से सावधान रहना। धारणा तो शब्दों में होती है और सत्य मौन में। उनकी यात्रा विपरीत है।
शब्द से परिभाषा हो जाती है; लेकिन जिसे मौन में जाना जाता हो, उसकी परिभाषा शब्द से कैसे होगी? जिसे शब्द को छोड़ कर जाना जाता हो, उसे शब्द में तुम कैसे भरोगे? इसलिए न तो हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, किसी की धारणा सत्य नहीं है। धारणा सत्य होती ही नहीं।
अब तुम पूछते हो: ‘कौन सी धारणा करीब है?’
इसका मतलब यह हुआ कि कोई चीज सत्य के थोड़े ज्यादा करीब हो सकती है, कोई चीज सत्य से थोड़े ज्यादा दूर हो सकती है। इसका अर्थ हुआ कि एक झूठ सत्य के ज्यादा करीब हो सकता है; एक झूठ सत्य से ज्यादा दूर हो जाता है। लेकिन तब तो दो झूठों में फर्क हो जाएगा। और झूठों में फर्क नहीं होता। झूठ तो झूठ है।
या तो कोई चीज सत्य होती है या नहीं होती; करीब का सवाल ही नहीं है। करीब से करीब भी जो होगा, वह भी तो असत्य ही होगा! और सत्य आंशिक नहीं होता है; जब भी होता है पूर्ण होता है।
सत्य के टुकड़े नहीं हो सकते। तुम ऐसा नहीं कह सकते कि मेरे पास आधा सत्य है; कि मेरे पास पाव सत्य है; कि मेरे पास तो तोला भर है! सत्य के टुकड़े नहीं होते; सत्य अखंड है। टुकड़े नहीं होते; विभाजन नहीं होते।
तो एक धारणा पास, एक धारणा दूर, तो इसका अर्थ होगा: एक धारणा में सत्य थोड़ा ज्यादा और एक धारणा में सत्य थोड़ा कम! सत्य के खंड हो जाएंगे। और सत्य के खंड नहीं होते।
तो या तो सत्य होता है--या सत्य नहीं होता।
सभी धारणाएं असत्य हैं; उपयोगी हैं जरूर, लेकिन असत्य हैं। असत्य का भी उपयोग है। और कभी-कभी समझदार आदमी हो, तो असत्य का उपयोग भी सत्य की तरफ जाने में कर ले सकता है।
जैसे एक सूफी कहानी है। एक आदमी घर लौटा--बाजार से थका-मांदा और देखा: उसके घर में आग लग गई है। चार-दीवारी पर आग फैल गई है और उसके बच्चे भीतर खेल रहे हैं। स्वभावतः वह चिल्लाया कि ‘बच्चो, बाहर आ जाओ। छोटे बच्चे हैं, कोई पांच साल का, कोई चार साल का, कोई छह साल का। वह चिल्लाया कि बाहर आ जाओ; घर में आग लगी है।’ लेकिन बच्चे अपने खेल में मस्त हैं। उन्होंने बाप की सुनी-अनसुनी कर दी। बाप भीतर जा भी नहीं सकता; आग खतरनाक है। शायद लौट भी न पाए बाहर। बाहर से ही चिल्ला सकता है।
अब बाप क्या करे? उसे सूझी--उसे खयाल आया। बच्चों ने उससे कहा था कि जब बाजार से आओ, तो खिलौना-गाड़ी ले आना। तो वह चिल्लाया कि ‘अरे पागलो, कर क्या रहे हो! खिलौना-गाड़ी मैं ले आया हूं।’ ऐसा सुनते ही बच्चे भाग कर बाहर आ गए। बाप खिलौना-गाड़ी लाया नहीं है। यह बात सरासर झूठ थी। लेकिन झूठी खिलौना-गाड़ी ने बच्चों को आग से बचा लिया।
ऐसी ही धारणाएं हैं सब।
धारणा कोई भी सत्य नहीं है। जिन्होंने देखा कि तुम्हारे घर में आग लगी है--और तुम मशगूल हो खेलों में; और तुम अंधे हो, और तुम्हें आग की लपटें दिखाई नहीं पड़तीं; जिन्होंने देखा कि तुम्हारा घर धू-धू जल रहा है और तुम्हें पुकारना चाहा और तुम्हें बचाना चाहा, उन्होंने कुछ खिलौनों की बातें कहीं। उन्होंने उन खिलौनों की बातें कहीं, जिनमें तुम्हारा रस है; क्योंकि तुम उन्हीं के कारण बाहर आ सकोगे।
सत्य तो कहा नहीं जा सकता। और सत्य कहा भी जाए, तो तुम समझ न पाओगे। तुम जहां हो, वहां तो झूठ पर ही तुम्हारी सारी पकड़ है। तुम जहां हो, वहां तो झूठ की भाषा ही समझ में आती है! तुमसे तो झूठ ही बोलना होगा।
सारे सदगुरुओं ने अनुकंपा के कारण तुमसे बहुत सी झूठी बातें कही हैं। जैसे कि उस बाप ने कहा कि ‘खिलौना-गाड़ी ले आया हूं।’
फिर तुम ऐसे नासमझ हो, कि बजाय घर के बाहर निकलने के तुम इस पर विवाद करते हो! बुद्ध ने एक बात कही थी, और महावीर ने दूसरी, और चरणदास ने तीसरी। और जितने सदगुरु हुए, सबने अलग-अलग बात कही। सब अलग-अलग बच्चों से बोले। सभी बच्चों को अलग-अलग भाषा समझ में आती थी।
और तुम घर से तो बाहर नहीं निकलते... न बुद्ध की सुन कर निकलते; न महावीर की सुन कर निकलते; न चरणदास की। तुम घर से तो बाहर नहीं निकलते। तुमने एक और मजेदार खेल शुरू कर दिया कि इनमें कौन ठीक है? किसकी धारणा ठीक है?
धारणाएं किसी की भी ठीक नहीं हैं। धारणा ठीक होती ही नहीं है। ‘ठीक’ और ‘धारणा’ का क्या लेना-देना! इनका कोई मिलन नहीं होता। धारणाएं तो तुम्हें पुकारने को हैं; धारणाएं तो तुम्हें संबोधित करने को हैं; धारणाएं तो तुम्हें मकान के बाहर खींच लेने को हैं। मकान के बाहर आते ही तुम समझ जाओगे कि असली सवाल धारणा के सच होने का नहीं; असली सवाल तुम आग में जले जाते थे--तुम्हें बाहर बुला लेने का है।
ऐसा समझो कि तुमने कभी गुलाब के फूल न देखे हों; तुमने कभी कमल खिलते न देखे हों, तुम एक ऐसी दुनिया में रहे हो जहां कमल नहीं होते, जहां फूल नहीं होते, जहां फूल खिलते नहीं। तुमने हीरे-जवाहरात देखे हैं। तुम्हारी भाषा हीरे-जवाहरातों की है। मैं तुम्हें बुलाना चाहता हूं; कमल खिल गया है झील में; और मैं तुम्हें पुकारना चाहता हूं कि बाहर आ जाओ। सूरज निकला है। सुबह की ताजी हवा है। वृक्षों में गीत है। पक्षी उमंग से भरे हैं। मोर नाच रहे हैं। और कमल खिला है। और ऐसा कमल जो कभी-कभी खिलता है। लेकिन ‘कमल’ शब्द तो तुम समझ न पाओगे। कमल तुम्हारे जीवन में कभी खिला नहीं; तुम्हारे अनुभव में कभी खिला नहीं।
‘कमल’ शब्द मैं चिल्लाता रहूं; तुम सुनते भी रहोगे और कुछ अर्थ प्रकट न होगा। कमल, कमल चिल्लाने से सिर्फ मेरी नासमझी प्रकट होगी; तुम्हारे जीवन में कोई क्रांति घटित न होगी। अगर मुझे तुम्हें बुलाना है, तो मुझे तुम्हारी भाषा बोलनी होगी। मुझे कहना होगा, देखो, एक हीरा पड़ा है! और हीरा बिलकुल नहीं है। लेकिन मुझे तुम्हें बाहर बुलाना है कि तुम इस कमल को देख लो; कि तुम इस कमल को देख कर कमल की तरह खिल जाओ; कि ऐसी ही तुम्हारी सुवास हो; कि तुम भी नाच सको इस खुले सूरज के नीचे; कि तुम्हारे जीवन में भी पक्षियों का कलरव आ जाए; कि तुम्हारे जीवन में भी सौंदर्य हो, संगीत हो, प्रकृति का उल्हास हो। और तुम अपने बंद कमरे में बैठे हीरे-जवाहरात गिन रहे हो! कि चांदी के सिक्कों से अटके हो; कि अपनी तिजोड़ी पर पहरा दे रहे हो।
मुझे अगर तुम्हें बुलाना है, तो तुम्हारी भाषा बोलनी होगी। यद्यपि बाहर आकर तुम समझ जाओगे कि वह तो रही तरकीब; कमल खिला है। लेकिन फिर तुम नाराज न होओगे; तुम यह न कहोगे कि झूठ क्यों बोले आप? तुम अनुगृहीत होओगे।
जब शिष्य जान लेता है, तो जान लेता है कि गुरु जो बोला था, वह केवल उपाय था, विधि थी, धारणा थी; उसमें सत्य बिलकुल नहीं था। लेकिन गुरु बोला अनुकंपा से। उसकी अनुकंपा सत्य थी। तुम्हें बचाने का उसका भाव सत्य था; लेकिन मजबूरी थी; तुम भाषा और बोलते थे। और उस भाषा में सत्य अंटता नहीं था। इससे धारणाएं पैदा होती हैं।
तो पहली तो बात, कोई धारणा न तो सत्य के करीब होती, न सत्य से दूर होती। धारणा और सत्य का क्या लेना-देना? इशारे हैं। इशारे समझो और बाहर आ जाओ। इस विवाद में मत पड़ो कि कौन द्वार ठीक है। जिस द्वार से निकल सको, निकल आओ। इस झंझट में मत पड़ो कि कौन द्वार ठीक है। बाहर निकल आना ठीक है। द्वार के ठीक होने से क्या होता है!
घर में आग लगी हो, तो तुम सामने के द्वार से निकलो, कि पीछे के द्वार से निकलो, कि खिड़की से छलांग मारो, कि छत से कूद जाओ, कि सीढ़ी लगाओ, कि रस्सी लटकाओ, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये सब बातें ठीक हैं; कर लो, जो बन सके। जो पास हो, वही कर लो। जो निकट मिल जाए, वही कर लो। कुरान पड़ी हो पास, तो कुरान से निकल आओ। और वेद पड़ा हो पास, तो वेद से निकल आओ। जो मिल जाए निकट--चरणदास मिल जाएं, कि नानक मिल जाएं, कि कबीर, कि मीरा मिल जाए; जो पास मिल जाए, जो उपलब्ध हो--चूको मत। उसी को द्वार बना लो। बाहर आकर तुम पाओगे: एक ही सूरज है, और एक ही हवा है, और एक ही आकाश है। बुद्ध का, और महावीर का, और कृष्ण का, और क्राइस्ट का आकाश अलग-अलग नहीं है, यद्यपि उनकी पुकार अलग-अलग है; उनकी भाषा अलग-अलग है।
दूसरी बात: ये दो धारणाएं हैं; भारत में प्रचलित रही हैं। इन दो धारणाओं के आधार पर भारत में दो संस्कृतियां हैं--एक ब्राह्मण और एक श्रमण।
ब्राह्मण संस्कृति की धारणा है कि ब्रह्म का अवतरण होता है; कि परमात्मा उतरता है; जैसे कृष्ण उतरे, राम उतरे। अवतार का अर्थ होता है: अवतरण--जो उतरता है, जो ऊपर से नीचे आता है। यह धारणा बड़ी महत्वपूर्ण है। क्योंकि ऊपर और नीचे जुड़े हैं, अलग-थलग नहीं हैं, कटे-कटे नहीं हैं। जो ऊपर है, वही नीचे है। जो नीचे है, वही ऊपर है।
परमात्मा संसार से संयुक्त है; संसार के हृदय में धड़क रहा है; तुम्हारी श्वासों की श्वास है; दूर नहीं है; पास से भी पास है। और जब तुम पुकारोगे, और जब तुम्हारी पुकार सच होगी, प्रामाणिक होगी, तो उतरेगा। परमात्मा उतरता है। यह ब्राह्मण संस्कृति की धारणा है--कि परमात्मा उतरता है।
श्रमण संस्कृति--जैन और बौद्ध--उनकी धारणा है कि परमात्मा नीचे नहीं उतरता; आदमी की चेतना ही ऊपर चढ़ती है। ऊर्ध्वगमन होता है, अवतरण नहीं। तीर्थंकर अवतार नहीं हैं। महावीर कोई ऊपर से उतरे हुए परमात्मा नहीं हैं; नीचे से ऊपर गए, बढ़े, विकसित हुए, ऊर्ध्वगामी हुए, खिले। यह जो नीचे से विकास ऊपर की तरफ हो रहा है, यह जो गति नीचे से ऊपर की तरफ हो रही है, उस पर श्रमण-धारणा निर्धारित है।
मतलब वही है कि ऊपर और नीचे भिन्न नहीं हैं। ऊपर नीचे उतर सकता है, तो नीचे जो है वह ऊपर चढ़ सकता है। जुड़े हैं। एक ही सीढ़ी है। तुम उसी सीढ़ी से तो ऊपर जाते हो, उसी से नीचे भी आते हो। दो सीढ़ियां थोड़े ही रखनी पड़ती हैं कि एक ऊपर जाने के लिए और एक नीचे आने के लिए। एक ही सीढ़ी है।
और अगर परमात्मा नीचे आ सकता है, तो मनुष्य ऊपर जा सकता है। परमात्मा नीचे आता ही इसीलिए है कि मनुष्य को ऊपर ले जा सके। मनुष्य ऊपर जाता ही इसलिए है कि बिना ऊपर गए, बिना परमात्मा से मिले कोई संतोष नहीं है।
यह एक ही सीढ़ी है। और यह विवाद ऐसा ही है, जैसे आधा गिलास भरा रखा हो और तुम विवाद में पड़ जाओ कि आधा गिलास खाली है या आधा गिलास भरा है? दोनों बातें इशारा कर रही हैं। आधा गिलास खाली है ऐसा भी कहो, तो कुछ हर्ज नहीं है। आधा खाली है तब तुम यही तो कह रहे हो कि आधा भरा है। और जब तुम कहते हो: आधा भरा है, तब तुम क्या कह रहे हो? तब भी तो तुम यही कह रहे हो कि आधा खाली है। इसमें विवाद कहां है?
ऊपर और नीचे दो नहीं हैं। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि धारणाएं तो धारणाएं हैं। वास्तविक स्थिति इन धारणाओं में प्रकट नहीं होती। हम थोड़ा तीसरा उपाय करें। मैं तुम्हें अपनी धारणा दूं।
मेरी धारणा है कि यह आधी-आधी यात्रा है: आधा आदमी को ऊपर जाना पड़ता है; आधा परमात्मा नीचे आता है; तब मिलन होता है। यह यात्रा इकतरफा नहीं है। इकतरफा यात्रा की बात मुझे जंचती नहीं।
हिंदुओं की धारणा है: परमात्मा नीचे आता है। इसमें मनुष्य का अपमान हो गया। मनुष्य ऊपर नहीं जा सकता, इसमें मनुष्य की बड़ी दीनता हो गई, दुर्गति हो गई। तो मनुष्य केवल भिखारी है, प्रार्थी है; प्रार्थना करता रहे! पुकारता रहे! इसमें मनुष्य की गरिमा न रही। इसमें मनुष्य का अहोभाव न बचा। तुमने मनुष्य के सौंदर्य को नष्ट कर दिया।
जैन और बौद्धों ने मनुष्य की गरिमा को बचा लिया। लेकिन मनुष्य को तो बचा लिया, मनुष्य की गरिमा को प्रतिष्ठित कर दिया, पर परमात्मा की गरिमा नष्ट हो गई। उन्होंने कहा: मनुष्य ऊपर जा सकता है, यह मनुष्य की संभावना है। यह मनुष्य के भीतर छिपा हुआ बीज है कि तुम परमात्मा हो सकते हो। यही तो घोषणा महावीर की--कि आत्मा परमात्मा हो सकती है। कहीं और कोई दूसरा परमात्मा नहीं है। ‘अप्पा सो परमप्पा’--यह जो तुम्हारे भीतर छिपा हुआ है, यही खिल जाए, तो परमात्मा हो जाता है। परमात्मा कोई और नहीं; अन्य नहीं, भिन्न नहीं है।
बीज तुम्हारे भीतर है, अंकुरित हो जाए, वृक्ष बन जाए, फूल खिल जाए--यही परमात्मा है। परमात्मा तुम्हारा ही विकसिततम रूप है, तुम्हारा आत्यंतिक रूप है। कहीं जाना नहीं है--खिलना है--प्रफुल्लित होना है, विकसित होना है।
तो जैन और बौद्धों ने मनुष्य को तो बहुत गरिमा दे दी--परमात्मा का पद दे दिया। मनुष्य से ऊपर कुछ भी न बचा। चंडीदास ने कहा है: ‘साबार ऊपर मानुस सत्य, ताहार ऊपर नाहीं।’ सबसे ऊपर सत्य है मनुष्य का, उसके ऊपर कोई और सत्य नहीं। सुंदर है बात, लेकिन परमात्मा की गरिमा नष्ट हो गई।
तुम तो नीचे से ऊपर जाते हो, लेकिन अकेली हो गई यात्रा। कोई ऊपर से नीचे नहीं आता। अस्तित्व की कोई करुणा तुम पर नहीं बरसती। अस्तित्व का तुम्हें कोई सहारा नहीं मिलता। तुम्हारी यात्रा बड़ी अकेली, निर्जन की हो गई। तुम्हारी यात्रा में संग-साथ न रहा; भक्ति की संभावना न रही।
इसलिए जैन और बौद्ध भक्ति-शून्य पंथ हैं। और जहां भक्ति शून्य हो जाती है, वहां से रंग उड़ जाते हैं; सब धूसर-धूसर हो जाता है। वहां गीत नहीं पैदा होते, मृदंग नहीं बजती, वहां झांझ नहीं बजती। वहां घूंघर नहीं बांधे जाते। वहां सौंदर्य तिरोहित हो जाता है।
परमात्मा है ही नहीं; आदमी को अकेला अपना विकास कर लेना है! मिलन की कोई संभावना नहीं; कहीं मिलने को कोई है ही नहीं। इसलिए प्रेम-शून्य हो गया। तो तुम जैन और बौद्ध साधु को, संन्यासी को सूखा पाओगे। उसके हृदय में कोई गुंजन नहीं है। खाली पाओगे, रिक्त पाओगे। मरघट जैसा पाओगे।
तो जैन धर्म जैसा धर्म सूख गया। इसीलिए फैला नहीं; फैल नहीं सकता। उत्सव का उपाय नहीं है। मिलन नहीं, तो उत्सव कहां? जैन लाख उपाय करें, तो भी रास तो नहीं रचा सकते। कृष्ण और गोपियां नृत्य तो नहीं कर सकतीं। कृष्ण कोई हैं ही नहीं।
रामकृष्ण से किसी ने पूछा कि ज्ञानी तो कहते हैं कि आदमी ही भगवान हो जाता है, फिर भक्त क्यों जोर देते हैं कि हे प्रभु, हमें पास तो ले ले, मगर एक ही मत बना लेना।
पता है रामकृष्ण ने क्या कहा? रामकृष्ण ने कहा: ऐसा है--मिश्री हो जाना अच्छा है, लेकिन मिश्री का स्वाद उससे भी अच्छा है। मिश्री हो जाना अच्छा है, लेकिन फिर मिश्री का स्वाद न मिलेगा। मिश्री खुद ही हो गए, तो अब स्वाद लेने वाला कहां बचा! तो रामकृष्ण ने कहा: भक्त कहता है: हम मिश्री का स्वाद लेंगे; हमें परमात्मा नहीं होना है; हम परमात्मा के चरण पकड़ेंगे। हम मिश्री का स्वाद लेंगे।
तो भक्ति में तो एक संभावना है स्वाद की। ज्ञान बिलकुल बेस्वाद है। जैन शास्त्र बेस्वाद हो गए; उनसे काव्य खो गया। उनमें गणित तो पूरा है; व्याकरण बहुत स्पष्ट है, लेकिन काव्य नहीं है। और जहां काव्य नहीं है, वहां जीवन में फिर रस नहीं रह जाता; रसधार नहीं बहती।
तो मनुष्य को तो बहुत गरिमा दे दी, लेकिन परमात्मा के खो जाने से मनुष्य के उत्सव की संभावना खो गई। तो मीरा नाच सकती है; महावीर तो नंगे खड़े रह जाते हैं; नाच नहीं सकते। नाचें किसलिए! नाचने का कोई उपाय नहीं है। महावीर एकाकी रह जाते हैं; अकेले रह जाते हैं।
यह आकस्मिक नहीं है कि महावीर ने उस परम अवस्था को ‘कैवल्य’ कहा है। कैवल्य का अर्थ है: अकेले--बिलकुल अकेले; निपट अकेले; शाश्वत के लिए अकेले। वहां फिर कैसे तो लय उठे; कैसे गीत जगे!
तो मनुष्य को गरिमा दी, लेकिन मनुष्य सूखा छूट गया।
हिंदुओं ने मनुष्य को उतनी गरिमा नहीं दी--परमात्मा को गरिमा दी। मनुष्य अपमानित हुआ; वह बात बुरी हो गई। लेकिन परमात्मा उतरता है; तुम्हें लेने आता है; तुम्हें खोजने आता है। तुम अंधेरे में छोड़ नहीं दिए गए हो; कोई रख वाला है; कोई गड़रिया है, वह तुम्हें अंधेरे में खोजेगा। तुम्हें सिर्फ अपने पर ही निर्भर नहीं होना है; तुम उस पर भी भरोसा कर सकते हो। श्रद्धा का उपाय है। आशा है।
तुम कितने ही पाप में पड़ गए हो, तो भी वह आएगा। जितने ज्यादा पाप में पड़ गए हो, उतने जल्दी आएगा। इसलिए गीता में कृष्ण कहते हैं: जब धर्म नष्ट हो जाता है, सब तरफ अंधेरी रात हो जाती है, तब मैं आता हूं--संभवामि युगे युगे--युग-युग में आता रहूंगा। जब भी कठिन होगा, तभी आ जाऊंगा। तुम अकेले नहीं हो; मेरा हाथ बढ़ेगा और तुम्हें खोज लेगा।
जैसा छोटा बच्चा, ऐसा आदमी है। जानता है कि मां कहीं आस-पास ही होगी। पुकारूंगा, रोऊंगा--दौड़ी चली आएगी। एकदम अकेला नहीं हूं; असहाय नहीं हूं।
तो यद्यपि मनुष्य को उतनी गरिमा तो नहीं मिली, जितनी जैनों ने दी, लेकिन परमात्मा का आसरा मिला; भरोसा रहा। तुम अकेले नहीं छूट गए। और तुम्हीं परमात्मा को नहीं खोज रहे हो; परमात्मा तुम्हें भी खोज रहा है। आग दोनों तरफ से लगी है। यह तुम्हारा दिल ही उसके लिए नहीं तड़प रहा है; उसका दिल भी तुम्हारे लिए तड़प रहा है। यह बच्चा ही मां को नहीं पुकार रहा है; मां भी अहर्निश इसकी याद कर रही है। गहरी से गहरी नींद में भी सोई होती है, तब भी उसे बच्चे की याद होती है। तूफान आ जाए, आंधियां उठें, बवंडर हो, आकाश में बादल गरजें, बिजलियां चमकें--मां की नींद नहीं खुलती। और बच्चा जरा कुनमुनाए और उसकी नींद खुल जाती है! एक सतत स्मरण--बच्चे का--बना है।
तो याद एक ही तरफ होती तो बड़ी अधूरी होती। वह प्रेम कुछ बहुत मजे का नहीं होता।
तो अवतार की धारणा मनुष्य को उतनी गरिमा नहीं देती निश्चित, लेकिन मुनष्य के जीवन को उत्सव देती है।
मेरे देखे दोनों एक साथ हो सकते हैं, तो क्यों अधूरा-अधूरा करना! कोई कहता है: गिलास आधा खाली है। कोई कहता है: गिलास आधा भरा है। मैं कहता हूं: गिलास आधा खाली और आधा भरा है।
आदमी खोजता है; बिना खोजे परमात्मा नहीं मिलता। और आदमी जब खोज लेता है, पा लेता है, तो परमात्मा ही हो जाता है, यह भी सच है। लेकिन जिससे हम जन्में हैं, जिस स्रोत से हम आए हैं, वह भी हमें खोज रहा है। एक कदम तुम चलते हो, एक कदम परमात्मा तुम्हारी तरफ चलता है।
तुम्हारे भीतर परमात्मा तभी उतरता है, जब तुम पात्रता अर्जित कर लेते हो; जब तुम पात्र हो जाते हो।
तो मैं तुमसे कहता हूं: जब तक पात्र न हो जाओ, तब तक श्रमण संस्कृति का सहारा लेकर चलो। बिलकुल ठीक है--जब तक पात्र न हो जाओ। लेकिन जिस दिन पात्र हो जाओ, उस दिन ब्राह्मण हो जाना। उस दिन परमात्मा उतरेगा तुम्हारे भीतर। तो फिर नाचना; तो फिर थाप देना; तो फिर मृदंग उठा लेना। फिर यह मत कहना कि अकेला हूं।
अकेले तुम नहीं हो। सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ है। परमात्मा तुम्हारे साथ है--इसका इतना ही अर्थ होता है कि ये वृक्ष, यह चांद, ये तारे, यह सूरज, ये नदी-पहाड़--ये सब तुम्हारे साथ हैं। यह हमारा घर है। यहां हम अजनबी नहीं हैं। यहां हम बिना बुलाए मेहमान नहीं हैं। हम इसी अस्तित्व से उठे हैं और एक दिन इसी में लीन हो जाएंगे। हम इसी की तरंग हैं--इसी सागर की। हम इसी की किरण हैं; इसी सूरज की। हम इसी के फूल हैं--इसी वृक्ष के। तो जड़ें कितनी ही दूर क्यों न हों... और फूल को दिखाई भी नहीं पड़ती हैं जड़ें; और फूल खोजने भी चले, तो शायद पता नहीं लगा पाएगा कि जड़ें कहां हैं। जड़ें तो दूर--अंधेरे में छिपी हैं। लेकिन फिर भी, फूल को पता हो या न पता हो, जड़ें ही उसे सम्हाले हैं और प्रतिपल रस-धार बहा रही हैं। जड़ों में ही उसका जीवन है।
अदृश्य जो है, वहीं हमारा जीवन है। उस अदृश्य का नाम परमात्मा है। परमात्मा का कुछ ऐसा मतलब नहीं होता कि कोई आदमी ऊपर बैठा है, जो चला रहा है सारे संसार को। नहीं; यह जो अदृश्य जीवन की जड़ है, यह जो जीवन का अदृश्य स्रोत है, जहां से सब उठता है और जिसमें सब लीन हो जाता है, उसके लिए हमने प्यार का एक नाम खोजा--परमात्मा।
दोनों बातों पर मैं जोर देता हूं--एक-साथ जोर देता हूं। मैं ब्राह्मण और श्रमण एक साथ हूं। और ये दो ही संस्कृतियां हैं दुनिया में। इन दो में ही सब बांटे जा सकते हैं। मुसलमान, ईसाई, यहूदी--ये सब ब्राह्मण संस्कृतियां हैं, उनमें कुछ भेद नहीं है। वही परमात्मा की धारणा है। वही अवतरण का भाव है।
पहले तो तुम्हें पात्र बनना है। पात्र बनने तक तुम यही कोशिश करो कि मैं ऊपर उठूं; तो ही तुम पात्र बन सकोगे। अब खतरे समझो।
जैन और बौद्धों ने मनुष्य को गरिमा तो दे दी, लेकिन खतरा भी हो गया। खतरा क्या हो गया? कि अकेले ही अपने से जाना है। आशा एकदम मद्धिम हो जाएगी। यह ऐसा ही है, जैसे अपने ही हाथों से अपने जूते के बंध पकड़ कर खुद को उठाने की कोशिश। अपने ही हाथों से जाना है!
और तुम जानते हो कि तुम्हारे हाथों से क्या हुआ है। धन पाना चाहा, वह भी न मिला; पद पाना चाहा, वह भी न मिला; सब तरफ हार लिखी है, विषाद लिखा है; और इतनी बड़ी मंजिल--परमात्मा को पाना है! जहां गए, वहीं हारे; जो चाहा, वही नहीं हुआ; अब अचानक तुम परमात्मा होने की सोच रहे हो! इतनी हार लेकर मन में, इतना विषाद, इतनी असफलता लेकर हिम्मत जुटा सकोगे--परमात्मा को खोजने की, सत्य को खोजने की?--जिसका न कुछ अता, न कुछ पता। है भी या नहीं भी है? खोज सकोगे? कठिन दिखता है। और अकेले; और कोई सहारा नहीं! और महावीर कहते हैं: अशरण भाव, किसी की शरण जाना मत, क्योंकि शरण कहां है! अपने को स्वंय उठाना है--स्वावलंबन।
मगर इतना भरोसा है तुम्हें अपने पर? क्षुद्र भी तो पूरा नहीं हुआ, विराट को कैसे पूरा करोगे? यह खतरा--एक।
दूसरा खतरा: अगर तुम उन विरले लोगों में एक हो, जिद्दियों में एक हो, हठियों में एक हो कि लग ही गए--कुछ भी हो; और कोशिश करते रहे, करते रहे; निखारते रहे--जीवन को, आचरण को और धीरे-धीरे जीवन में संतत्व की गंध आने लगी। लंबे संघर्ष से आएगी। खूब पीसे जाओगे, तब सुगंध उठेगी। अगर लगे रहे...।
लंबी यात्रा है; और अकेले! कोई मार्गदर्शक भी नहीं; कोई ऊपर से बुलाने वाला भी नहीं; ऊपर से कोई हाथ नहीं, जिसके सहारे तुम बढ़ जाओ। कोई तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा है वहां; तुम अकेले ही जा रहे हो अंधेरे में, अनजान में, अपरिचित में--बिना नक्शे के, बिना सहारे के। अस्तित्व के विपरीत जा रहे हो; संघर्ष कर रहे हो; अस्तित्व से सहारा नहीं मांग रहे हो। अगर कभी विरला कोई आदमी इस तरह के संतत्व की स्थिति को उपलब्ध हो जाता है, तो दूसरा खतरा: अहंकार का जन्म होता है। इसलिए तुम जैन मुनियों को जितना अहंकारी पाओगे, उतना मुसलमान फकीरों को नहीं।
जैन मुनि में बड़ी अकड़ होगी। दूसरा खतरा। अपने ही से किया है; किसी का सहारा नहीं लिया है, तो अहंकार जन्मता है।
तो महावीर ने गरिमा तो दे दी, लेकिन साथ खतरे आ गए।
ब्राह्मण के खतरे भी समझ लो। इस बात का सहारा है कि परमात्मा है। लेकिन खतरा यह है कि तुम आलसी हो जाओ। करना क्या है! जब उसकी मर्जी होगी, उठा लेगा। जब चाहेगा, तभी होगा। उसकी बिना मर्जी के तो पत्ता भी नहीं हिलता, तो तुम्हारे किए क्या होना है!
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
तो ब्राह्मण संस्कृति का खतरा है कि तुम आलसी हो जाओ। यह हिंदुस्तान ऐसे ही आलसी नहीं हो गया है; इसमें हिंदुओं का हाथ है। ये हिंदू ऐसे ही गरीब नहीं रह गए हैं; इसमें हिंदू-विचार की छाया है।
यह आकस्मिक नहीं है कि जैन सब धनी हो गए और हिंदू गरीब रह गए हैं। वही पकड़--खुद ही करना है। परमात्मा को भी पाना है, तो खुद पाना है। और धन पाना है, तो भी खुद पाना है। इसलिए जैन धन की दौड़ में हिंदू से आगे निकल गया। भरोसा किसी का करना नहीं है; भाग्य कुछ साथ देने वाला नहीं है; न तकदीर कुछ काम आएगी न तदबीर।
हिंदू कहता है: जब परमात्मा तक भाग्य से मिलता है, प्रसाद से मिलता है, तो और सब भी प्रसाद से मिलेगा। तो हिंदू को धन भी खोजना हो, तो वह जाता है, किसी साधु का आशीर्वाद लेने; ज्योतिषी को देखता है; हाथ दिखलाता है; जन्म-कुंडली पढ़वाता है; चेष्टा में नहीं लगता।
तो बड़ी कीमत की बात थी कि परमात्मा का सहारा है; लेकिन खतरे समझ लेना। खतरा यह है कि आलसी हो जाओ।
खोजे-खोजे नहीं मिलता, तो बिना खोजे कैसे मिलेगा? खोजे-खोजे हार जाता है आदमी, और तुम बैठे हो: ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम’--तुम कहते हो: जब उसकी मर्जी होगी; जब होगी, तब होगा। हमारे किए क्या होगा? हम क्षुद्र क्या कर पाएंगे!
तो एक खतरा तो आलस्य। और आलस्य हो, तो पहुंच ही न पाओ। और दूसरा खतरा--कि जब भी कुछ गलत हो, तब परमात्मा को जिम्मेवार ठहराओ; क्योंकि उसकी बिना मर्जी के कुछ होता नहीं। अच्छा हो, तो उसकी मर्जी से होता है; बुरा हो तो उसकी मर्जी से होता है। बुराई भी होती रहे, तो हिंदू-मन उसे बदलने को तैयार नहीं होता। परमात्मा ही कर रहा है, तो हम क्या करेंगे! बीमारी है, तो ठीक है। मौत है, तो ठीक है। बच्चे पैदा होते जा रहे हैं, संख्या बढ़ती जा रही है, तो हम क्या करें! परमात्मा की ही मर्जी है, तो हो रहा है!
युद्ध हो, तो ठीक है। जो हो, ठीक है। और जिम्मेवारी ईश्वर की है। तो एक तरह का अनुत्तरदायित्व पैदा होता है। पहला दोष: आलस्य। दूसरा दोष: उत्तरदायित्व की हीनता। ऐसा नहीं लगता कि हम जिम्मेवार हैं। हम क्या करें!
एक आदमी मेरे पास आया और बोला कि कुछ मेरा इंतजाम करवाइए। आपके इतने भक्त हैं, किसी को भी कह दीजिए, तो मेरा इंतजाम हो जाए। अब मैं क्या करूं--मेरे बारह बच्चे हैं!
यह तुझसे कहा किसने? इन लोगों ने तो कहा नहीं था कि तुम बारह बच्चे पैदा करो। और तेरहवां क्यों नहीं है?
उसने कहा: तेरहवां आ रहा है। अब मैं बिलकुल गरीब हूं। मरा जा रहा हूं।
मगर उसको जरा भी यह भाव नहीं है कि मेरा कोई इसमें उत्तरदायित्व है। वह बोला: मैं इसमें क्या कर सकता हूं! प्रभु की मर्जी। जब परमात्मा दे रहा है, तो मैं क्या करूं?
जब वही देने वाला है, तो सारी जिम्मेवारी उसकी है; तुम बिलकुल गैर-जिम्मेवाराना तरीके से जी सकते हो।
अभी तुमने देखा: इंदिरा गांधी की हार में असली कारण सिवाय नसबंदी के और कुछ भी नहीं है। बाकी सब झूठी बकवास है। असली कारण सिर्फ इतना ही है कि हिंदू-मन को बड़ी चोट लग गई; मुसलमान-मन को बड़ी चोट लग गई कि बच्चों पर नियंत्रण करना होगा--बच्चे, जो कि परमात्मा भेजता है! बच्चे, जो कि कभी नहीं रोके गए, उनको रोकना पड़ेगा?
असली चोट... संतति-नियमन के लिए इंदिरा ने जो मेहनत की, उसका फल भोगा। उसको यह बात समझ में न आई कि हिंदू-मन इसे बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। और जो सत्ता में आ गए हैं, वे बहुत मौलिक रूप से हिंदू हैं, जनसंघी हैं, संघी हैं। न तो यह चुनाव तय करता है कि इंदिरा की अधिनायकशाही के खिलाफ लोगों ने वोट दिए। लोगों को अधिनायकशाही इत्यादि से कोई मतलब नहीं है। लोगों को सिर्फ एक बात पर चोट पड़ गई कि हजारों साल की उनकी धारणा थी कि परमात्मा देने वाला है, वही फिकर करता है; उस धारणा को चोट पड़ गई।
और मजे की बात यह है कि इन तीस वर्षों में अगर कोई एकाध बात इस देश में राज्य ने ठीक की थी, तो वह नसबंदी थी। उसी की वजह से इंदिरा मात खाई। तुम चौंकोगे यह जान कर: कुछ ठीक करने की कोशिश में मात खाई; कुछ ठीक करने की हिम्मत में मात खाई।
अब समझ लो कि तीस-चालीस साल तक कोई दूसरा आदमी ठीक करने की कोशिश नहीं कर सकेगा। अब तीस-चालीस साल के लिए कोई आदमी हिम्मत नहीं कर सकेगा कि कुछ ठीक करे।
एक ठीक बात थी कि लोग उत्तरदायी बनें। और लोग सदियों से अनुत्तरदायी रहे हैं, तो आसान नहीं है उत्तरदायी बनाना; उनके दिल को चोट लगेगी। उनको लगेगा, उनके साथ जबर्दस्ती की जा रही है; उनकी स्वतंत्रता छीनी जा रही है।
एक संभावना थी--संतति-नियमन के द्वारा--कि इस देश की गरीबी थोड़ी कम हो जाएगी। वह संभावना समाप्त हो गई। और जिनके हाथ में राज्य चला गया है, अब वे तो हिम्मत कर ही नहीं सकते हैं--क्योंकि जिस वजह से राज्य उनके हाथ में आया है, अब वही तो हिम्मत वे कर ही नहीं सकते; वह भूल तो अब हो ही नहीं सकती; उसी भूल का तो उन्होंने फायदा उठाया है। इसलिए देश को भयंकर हानि उठानी पड़ेगी। पछताएगा यह देश कभी।
कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि लोकमत गलत से इतना आग्रहग्रस्त होता है कि उसे बदलने की कोशिश में लोकमत विरोध में हो जाता है। अब जिनके हाथ में ताकत गई है, वह प्रतिक्रियावादियों का समूह है, जमात है। अब उनसे कुछ होने की संभावना नहीं है। अब वे कुछ करने का विचार भी नहीं कर सकते।
यह जो ब्राह्मण-धारणा है, कि सारा दायित्व परमात्मा का है--यह पहले तो तुम्हें बना देती है आलसी; और दूसरा: सारा उत्तरदायित्व उसका है इसलिए उत्तरदायित्वहीन...। यह इसका खतरा है।
मेरी धारणा... और खयाल रखना, धारणा ही है; उसको सत्य मत मान लेना। मेरा इशारा ऐसा है कि तुम्हें आधी यात्रा तो पात्र बनने में खर्च करनी पड़ेगी। परमात्मा जरूर उतरता है, लेकिन उसी में उतरेगा न, जो योग्य है। हर किसी में तो नहीं उतरता। राम में उतरता है, कि कृष्ण में उतरता है। हर किसी में तो नहीं उतरता। ऐसे ही अंधाधुंध तो नहीं उतरता।
ऐसा ही समझो कि वर्षा हो रही है और तुम अपना घड़ा उलटा रखे बैठे हो। तो होती रहे वर्षा, बरसता रहे परमात्मा, तुम्हारे घड़े में नहीं आएगा। तुम घड़ा उलटा रखे बैठे हो! कम से कम घड़ा तो सीधा रखो। फिर घड़ा सीधा भी रखा हो और छिद्र वाला हो, तो बरसेगा भी और फिर भी बह जाएगा। और घड़ा छिद्रवाला भी न हो और सीधा भी रखा हो, लेकिन गंदा हो, तो बरसेगा तो शुद्ध न रह जाएगा।
तो कुछ शर्तें तुम्हें पूरी करनी पड़ेंगी: घड़ा सीधा हो--तुम्हारी ग्राहकता खुली हो। शिष्यत्व का इतना ही अर्थ होता है कि तुम्हारा घड़ा सीधा है--ग्राहकता खुली है; तुम्हारे द्वार-दरवाजे बंद नहीं हैं। तुम पक्षपात से दबे नहीं हो। तुम्हारा चित्त शांत है। तुम लेने को तैयार हो; तुम गर्भ-जैसे हो; तो जीवन प्रवेश करता है।
फिर तुममें कोई छिद्र नहीं हैं। वे जो मन के हजार-हजार छिद्र हैं, मन जो हजार-हजार दिशाओं में दौड़ाता रहता है, वे छिद्र तुमने त्याग दिए हैं; मन निर्विचार हुआ है, तो छिद्र-शून्य हो जाता है। निर्विचार होते ही मन में छेद नहीं रह जाते। फिर जो आएगा, वह तुममें रुकेगा, ठहरेगा, थमेगा--बह नहीं जाएगा।
फिर तीसरी बात, कि तुमने अपनी वासनाओं को समझा है, पहचाना है। समझ और पहचान के कारण तुम्हारी वासनाएं तिरोहित हो गई हैं। नहीं तो वासनाओं की गंदगी भीतर भरी है।
अब अक्सर यहां ऐसा हो जाता है। लोग चौंक जाते हैं कभी। एक मित्र ने आकर कहा कि जब भी मैं ध्यान करता हूं, तब बड़ा आनंद आता है और बड़ी ऊर्जा भी जगती हुई मालूम पड़ती है; लेकिन साथ ही कामवासना भी बड़े जोर से जगती है।
यह समझने की बात है। उनकी बेचैनी भी ठीक है। कामवासना को दबा कर बैठे हैं। तो साधारणतः तो दबी रहती है; उसकी छाती पर बैठे हैं! लेकिन जब ध्यान में थोड़े शिथिल होते हैं, विश्राम में होते हैं; सब छोड़ देते हैं नियंत्रण; नृत्य में लीन होते हैं; और परमात्मा की थोड़ी सी ऊर्जा उतरनी शुरू होती है, थोड़ा हलका कंपन आता है, तो उस कंपन का जो स्वाभाविक परिणाम होना चाहिए, वह न होकर एक अस्वाभाविक परिणाम होता है कि कामवासना प्रगाढ़ हो जाती है। वह कामवासना भीतर पड़ी थी; घड़े में काली स्याही रखी थी; वर्षा से शुद्ध पानी गिरा, स्फटिक मणि जैसा था साफ; तुमने देखा था गिरते और घड़े में भीतर गया और काला रंग हो गया! अब तुम कहते हो, यह क्या हुआ! पानी तो शुद्ध आया था! लेकिन तुम्हारा घड़ा भी शुद्ध था या नहीं?
तो अक्सर ऐसा हो जाएगा कि ध्यान तुम्हारे भीतर जाकर वासना बन जाएगा, तब तुम चौंकोगे; तुम बेचैन होओगे। क्योंकि यह तो तुम कुछ और करने चले थे; तुम चाहते थे--वासना से मुक्त हो जाऊं और यह उलटी वासना बढ़ रही है! यह क्या हुआ! कहां चूक हो गई?
वासना को दबा कर बैठोगे, तो घड़े में पड़ी रहेगी।
मुझसे लोगों ने कई बार आकर कहा है कि जब से हम ध्यान करने लगे हैं, तब से हमारा क्रोध ज्यादा हो गया है। चौंकना पड़ता है उनको, क्योंकि वे सोचते रहे सदा कि ध्यान बढ़ेगा, तो क्रोध कम होगा। लेकिन क्रोध अगर तुम भीतर दबाए बैठे हो, तो ध्यान क्या करेगा! ध्यान तो केवल ऊर्जा देता है; ध्यान तो केवल शक्ति देता है। अब क्या शक्ति का तुम्हारे भीतर परिणमन होगा, यह तुम्हारे भीतर की स्थितियों पर निर्भर है। तुमने काला रंग भरा था, तो तुम्हारे घड़े में काली स्याही हो जाएगी। और किसी ने लाल रंग भरा था, तो उसके घड़े में लाल स्याही हो जाएगी और किसी के घड़े में नीला रंग भरा था, तो उसके घड़े में नीले रंग की स्याही फैल जाएगी। अलग-अलग घड़ों में अलग-अलग रंग लगे थे, तो अलग-अलग रंग हो जाएंगे जल के। उसी घड़े में जल का रंग नहीं बदलेगा, जिसमें कुछ भी दबा नहीं पड़ा है। इसलिए मैं दमन के खिलाफ हूं। इसलिए मैं कहता हूं: कुछ भूल कर दबाना मत। जी लेना। समझपूर्वक जी लेना।
कामवासना हो, तो उसे जी लो--दबाओ मत; उसमें उतर जाओ। साक्षीभाव से जाओ, ताकि धीरे-धीरे तुम्हें दिखाई पड़ जाए कि व्यर्थ है; कुछ भी नहीं है, राख ही राख है। जिस दिन ऐसा तुम्हारे अनुभव में आ जाएगा कि राख ही राख है, फिर कुछ दबा न रहा। वासना को देख भी लिया, पहचान भी लिया; उसी पहचान में छुटकारा हो गया। ऐसे ही क्रोध, ऐसे ही घृणा, ऐसे ही मोह, मद, मत्सर, ऐसे ही जीवन की सारी विकृतियां जाननी हैं; जान कर विसर्जित करनी हैं; तो घड़ा शुद्ध होगा, छिद्रहीन होगा, सीधा होगा।
शिष्यत्व चाहिए; निर्विचार भाव-दशा चाहिए; संगृहीत वासना से छुटकारा चाहिए। इन तीन पात्रताओं के होते ही परमात्मा तुममें उतर आएगा।
आधी यात्रा तुम करो; आधी परमात्मा करता है। तुम पात्र बनो, परमात्मा उसे भर देता है।
तो मेरे हिसाब से तुम तीर्थंकर बनो, तो अवतार तुम्हारे भीतर आ जाता है।
ये दोनों धारणाएं मूल्यवान हैं। और अगर तुम दोनों धारणाओं को एक साथ ले लो, तो उनके खतरों से बच जाओगे। इसलिए मैं इन दोनों को जोड़ रहा हूं। अगर तुम दोनों को एक साथ ले लो, तो खतरों से बच जाओगे।
अगर आधी यात्रा तुम्हारे वश में है, तो तुम आलस्य से नहीं बैठे रह सकते। कुछ तो तुम्हें करना है। कुछ तुम करोगे, तो कुछ परमात्मा करेगा। शर्त तुम्हें पूरी कर
नी है। परमात्मा बेशर्त नहीं उतर आएगा। तुमने शर्त पूरी की होगी, तो उतरेगा। तुम अर्जित कर लिए होओगे पात्रता, तो उतरेगा। इसलिए आलस्य नहीं आ सकता। और उत्तरदायित्व तुम परमात्मा पर तब तक नहीं छोड़ सकते, जब तक कि शुद्ध नहीं हो गए हो। और शुद्ध हो जाने के बाद छोड़ने की जरूरत नहीं रह जाती, वह उतर ही आता है। एक क्षण की भी देर नहीं होती; पल का भी अंतर नहीं होता; आंख नहीं झपकती; इतना भी समय नहीं जाता।
और अगर तुम्हें यात्रा करनी है आधे तक, और सिर्फ आधे तक ही तुम्हें यात्रा करनी है, तो तुम्हारे भीतर अहंकार भी पैदा नहीं होगा, जो कि जैन मुनि को पैदा होता है। क्योंकि तुम कहोगे कि आधे तक ही अपनी सामर्थ्य है। यात्रा का आधा हिस्सा ही हम करते हैं; असली तो बाद में उसकी कृपा से पूरा होता है, प्रसाद से पूरा होता है। हम तो घड़ा ही साफ करते हैं। घड़ा साफ करने से कोई जल थोड़े ही पैदा होता है। हम तो घड़ा भर साफ करते हैं; वह तो साधारण सी बात है। असली घटना तो प्रसाद से घटती है।
प्रयास से घड़ा साफ होता है--वह आधी बात। घड़ा साफ करके बैठे हैं--इसमें अकड़ भी क्या है! वर्षा तो उसकी अनुकंपा की होगी--तब घड़ा भरेगा, तब प्यास बुझेगी, तब कंठ तृप्त होगा।
तो प्रसाद का भाव बना रहे, तो अहंकार पैदा नहीं होता। और जब घटना घटेगी, तो उत्सव भी जन्मेगा। फिर तुम गुनगुना सकोगे, नाच सकोगे, प्रफुल्लित हो सकोगे। उसके हाथ में हाथ डाल कर आनंदित हो सकोगे। परमात्मा का आलिंगन कर सकोगे। मिलन होगा।
तो तुम्हारा अंतिम क्षण--जीवन की उपलब्धि का--रूखा-सूखा नहीं रह जाएगा। खूब फूल खिलेंगे; हजार-हजार फूल खिलेंगे।
तो मैं तुमसे कहूं: आधी यात्रा तीर्थंकर-जैसी और आधी यात्रा अवतार-जैसी। क्योंकि पात्र आधा भरा है और आधा खाली है। तुम आधे हो, आधा परमात्मा है। तुम दोनों मिल कर पूरे हो जाओगे। जहां आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है, वहां पूर्णता घटती है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, ध्यान या मौन के क्षणों में मेरे कानों पर नगाड़े जैसी मीठी ध्वनि होने लगती है। कल के प्रवचन में जैसे ही मैंने ‘अनाहत’ और ‘भूकंप’ शब्द सुने कि मेरे कानों पर वही आवाज बजने लगी और मेरे शरीर में भूकंप आ गया। प्रवचन से निकलते ही मैं दहाड़ मार कर रोने लगा और देर तक यह अवस्था बनी रही। भगवान, क्या बताने की अनुकंपा करेंगे कि यह क्या है?
बजाय जानने के, इसे जीओ, क्योंकि उसी से ‘जानना’ आएगा। शुभ हो रहा है, इतना भरोसा रखो। सुंदर हो रहा है, ऐसी आस्था रखो। घबड़ाना मत; घबड़ाहट आएगी; क्योंकि कुछ अनहोना घटता है, तो घबड़ाहट आती है।
भले-चंगे बैठे थे; एक शब्द कान में पड़ा: ‘अनाहत’ और कुछ होने लगा! तो डर पैदा होता है कि एक शब्द के पड़ जाने से ऐसा क्या हो सकता है कि मैं कंपूं, कि मैं डोलूं, कि मेरी आंख से आंसू बहने लगें, कि मेरे कानों में कोई नाद गूंजने लगे! कहीं मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूं? ऐसा भय पैदा होता है। इस भय को मत लाना।
नाद तो भीतर बज ही रहा है; वह नाद तो निरंतर बज रहा है; सिर्फ हमारे कान बाहर की आवाजों से भरे हैं, इसलिए उस नाद को नहीं सुन पाते हैं।
शुभ हो रहा है कि किसी-किसी घड़ी में तुम अंतर्मुखी हो जाते हो और भीतर का नाद सुनाई पड़ने लगता है। मीठा है नाद; अमृत का है नाद; उसे सुनो; और जब उसे सुनोगे, तो बहुत डोलोगे भी; बड़ा कंप आ जाएगा। क्योंकि सारी ऊर्जा भीतर नाचने लगेगी। उससे भी घबड़ाहट होती है, क्योंकि हमें सिखाया गया है: जीवन ऐसा कि जिसमें नृत्य न हो। हमें जीवन सिखाया गया है: ऐसे जैसे मुर्दा, जड़ आदमी हो जाना है। हमेशा अपने को नियंत्रण में रखना है। कभी नियंत्रण के बाहर नहीं जाना है। काठ की तरह, लकड़ी की तरह सूखे-सूखे।
तो जब पहली दफा कंपन उठेगा, और तुम्हारी मुर्दा जैसी देह में, लाश जैसी देह में फिर प्राणों का संचार होगा, तो भय लगेगा कि यह क्या हो रहा है! जीवन आ रहा है, मगर भय लगेगा कि यह क्या हो रहा है।
भयभीत मत होना। यही मेरे पास होने का अर्थ है कि मैं तुम्हें सहारा दे सकूं; कि मैं तुम्हें भरोसा दे सकूं; कि तुम जब घबड़ाने लगो, तो तुम्हें आश्वस्त कर सकूं।
इस नाद को सुनो; इस नाद में डूबो, इस नाद में लीन हो जाओ। ऐसे डुबकी लगाओ कि नाद ही बचे, तुम न बचो।
और आंसू भी बहेंगे, उससे भी मत भय लेना। क्योंकि उसके साथ भी हमें गलत बातें सिखाई गई हैं। हमारे मन में एक धारणा बैठ गई है कि आंसू आते ही तब हैं, जब कुछ गलत हो रहा हो; दुखी है आदमी; परेशान है आदमी; चिंतित है आदमी; कोई मर गया; कोई बड़ी विपदा टूट पड़ी; कोई पहाड़ सिर पर आ गिरा!--तो आदमी रोता है। यह भी हमारी गलत धारणा है।
आंसुओं का कोई संबंध अनिवार्य रूप से दुख से नहीं है। आंसू सुख के भी होते हैं। आंसू प्रेम के भी होते हैं। आंसू सुंदर चांद को उगते देख कर भी आ सकते हैं। आंसू एक पक्षी का गीत सुन कर भी बह सकते हैं। आंसू एक बच्चे की खिलखिलाहट सुन कर भी आ सकते हैं। आंसू दुख के भी होते हैं, आंसू सुख के भी होते हैं। आंसू क्रोध में भी आ जाते हैं। आंसू कभी-कभी शांत दशा में भी आ जाते हैं। और आंसू आनंद में भी आते हैं।
तो आंसू बहुत तरह के हैं; आंसू आंसू में भेद हैं। लेकिन एक बात समझ लेने की है कि आंसू तभी आते हैं, जब कोई भी भाव-दशा इतनी घनी हो जाती है कि तुम उसे सम्हाल नहीं पाते। दुख हो कि क्रोध, कि प्रेम, कि सौंदर्य, कि सुख, कि आनंद, कोई भी चीज जब इतनी हो जाती है कि तुम्हारे हृदय में नहीं समाती, ऊपर से बहने लगती है, बाढ़ आ जाती है, वही बाढ़ आंसुओं से बहती है।
कोई मर गया--कोई प्रियजन मर गया; इतना दुख है कि तुम उसे सम्हाल नहीं पाते; आंखें उसे बहा देती हैं। आंसुओं के बाद तुम्हें हलकापन लगेगा। दो-चार दिन रो लेने के बाद तुम स्वस्थ हो जाओगे। रोकना मत; दुख के आंसू भी मत रोकना। क्योंकि रोक लोगे, तो घाव रह जाएंगे; नासूर बन जाएंगे। वे ही नासूर कभी कैंसर में बदल जाते हैं।
जब सौंदर्य को देख कर आंसू बहें, तब भी मत रोकना। यह सहज काव्य है, जो तुम्हारे भीतर पैदा हो रहा है। यह जीवन का महाकाव्य है। और जब सुख की घड़ी इतनी घनी हो जाए कि तुम सम्हाल न सको--उसे भी मत सम्हालना, अन्यथा वह भी बोझिल हो जाएगी। उसे भी बह जाने देना।
और अंतिम तरह के आंसू तब आते हैं, जब भीतर आनंद घटता है; जब परमात्मा पास-पास मालूम होता है; जब उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। तब तुम भरोसा ही नहीं कर पाते कि इतना आनंद और मुझे घट सकता है!--मुझ अपात्र को! मुझ ना-कुछ को! मुझ पापी को? मुझको घट सकता है--इतना अपूर्व आनंद? संतों को घटा हो; बुद्ध-महावीरों को घटा हो। मुझको घट सकता है! भरोसा नहीं आता।
पुलक इतनी गहन हो जाती है कि सब तरफ से बहने लगती है। उस घड़ी में भी आंसू आएंगे।
तो आंसू आंसू में भेद है। इसलिए हमेशा ऐसा मत सोचना कि आंसू आ रहे हैं, तो कुछ गड़बड़ है, कुछ गलती है, कोई चूक है। और धीरे-धीरे तुम पहचानने लगोगे कि आंसू का स्वाद अलग है। तुम जानोगे कि कब आंसू शांति से बहे, कब आंसू दुख से, कब सुख से, कब आनंद से बहे।
जो आंसू तुम्हें बहे, वे आनंद के आंसू हैं; उनमें बहो; उन्हें बहने दो। वे आंसू तुम्हें शुद्ध करेंगे, निखारेंगे। वे आंसू तुम्हें नहलाएंगे; वे आंसू तुम्हारे हृदय को पखारेंगे। उन्हीं आंसुओं से धीरे-धीरे तुम्हारी सारी कलुषता, कलमष बह जाएगा। सारी धूल बहा ले जाएंगे। तुम निर्मल हो जाओगे। उसी निर्मल दशा में परमात्मा अवतरित होता है। उस निर्मल दशा में तुम तीर्थंकर हो गए, तुम उठ गए वहां तक, जहां तक आदमी उठ सकता था। तुम कर लिए, जो आदमी कर सकता था। तुमने अपना सब दांव पर लगा दिया; कुछ छोड़ा नहीं।
खयाल रखना, जब तक तुमने कुछ बचा रखा है और दांव पर नहीं लगाया है, तब तक अवतरण नहीं होता। जब तुमने सब दांव पर लगा दिया और कुछ भी नहीं बचाया, उसी क्षण अवतरण होता है। मनुष्य का प्रयास जहां पूरा हो जाता है, वहीं से प्रसाद की वर्षा है।
तर्कों के सारे अवगुंठन
बन जाते ढाके की मलमल
उठ-उठ बैठूं, देखूं इक टक
चल कर जाऊं, दरवाजे तक
तर्कों के सारे अवगुंठन
बन जाते ढाके की मलमल
भीतर खग-कुल अस्फुट बोले
अर्थहीन कुछ कंपन घोले
मन का खोया-सा कोलाहल
उभर गया फैला कर हलचल
सुधियां जागीं, तार हिल गए
संयम बंधन स्वतः खुल गए
तन-मन आकुल, उत्तप्त दिवस
टपके जीवन-हिम पिघल पिघल।
इन आंसुओं को बहने देना।
सुधियां जागीं, तार हिल गए
रोकना मत, नियंत्रण मत करना; अन्यथा एक अपूर्व, अमूल्य अवसर आते-आते चूक जाएगा; हाथ लगते-लगते चूक जाएगा।
सुधियां जागीं, तार हिल गए
संयम बंधन स्वतः खुल गए
तन-मन आकुल, उत्तप्त दिवस
टपके जीवन-हिम पिघल पिघल।
बहने देना। ये तुम्हारे आंसू तुम्हारे जीवन के हिम के पिघलने से आ रहे हैं। यह जीवन-हिम पिघल-पिघल कर टपक रहा है। इससे सुंदर और कोई अर्चना नहीं। प्रभु के चरणों में चढ़ाने को इससे सुंदर और कोई फूल नहीं। जो तुम्हारी आंखों में लगते हैं, वे ही फूल सर्वाधिक सुंदर हैं। उन्हें चढ़ाओ।
भक्त ने रो-रो कर पाया है। मगर रोने में दुख नहीं है। रोने में बड़ी प्रार्थना है, बड़ी पूजा है। भक्त के रोने में बड़ी सुगंध है। बड़ा मनावा है, बुलावा है, प्रतीक्षा है।
सुनो--भीतर जो नाद उठ रहा है। गुनो--भीतर जो नाद उठ रहा है। उसमें डूबो।
सुधियां जागीं, तार हिल गए
संयम बंधन स्वतः खुल गए।
जब सुधियां जागने लगें... यह सोई हुई सुधि है। यह अपने घर की याद है। यह अपने बिछड़े प्रेमी की याद है। यह परम प्रिय की याद है। यह जो नाद तुम्हारे भीतर तुम्हें सुनाई पड़ता है, ये उसके ही पैरों में बंधे घूंघर हैं।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा: राख ही राख है, इस ढेर में क्या रखा है! फिर क्या बात है कि इस राख के ढेर पर ही अरबों लोग अपनी पूरी जिंदगी गुजार देते हैं?
इस आशा में कि शायद राख में कोई हीरा दबा हो, इस आशा में कि जब लाखों लोग इस राख में खोज रहे हैं, तो जरूर वहां कुछ होगा। सभी का यही खयाल है।
तुमने कहानी सुनी है न, एक सम्राट ने अपने द्वार पर एक बड़ी हौज बनवाई और आज्ञा दी कि राजधानी में सभी लोग एक-एक मटकी दूध लाकर हौज में डाल जाएं। लेकिन दूसरे दिन सुबह जब देखा, तो हौज में पानी भरा था! हजारों मटकियां दूध आना चाहिए था, एक मटकी भी नहीं आया था। पूछा अपने वजीर से कि हुआ क्या? वजीर ने कहा: आदमी का सीधा सा तर्क है; हर आदमी ने सोचा: इतनी हजारों मटकियों दूध में मेरी एक मटकी पानी का क्या पता चलेगा! मगर सभी ने ऐसा सोचा। तो दूध तो आया नहीं, पानी ही पानी आया है।
वजीर ने कहा: अब मैं आपसे क्या छिपाऊं; मैं खुद ही एक मटकी पानी डाल गया हूं!
सम्राट ने कहा: अब तुम कहते ही हो, तो अब तुमसे मैं क्या छिपाऊं; मैंने भी एक मटकी पानी...!
आदमी के तर्क हैं। बच्चा पैदा होता है; देखता है--सभी लोग अपनी-अपनी राख के ढेर पर बैठे कुरेद रहे हैं! बाप भी, मां भी, प्रियजन-परिजन भी, और समाज-समूह--सारी दुनिया राख के ढेर पर बैठी है। सब राख में कुरेद रहे हैं! बच्चा सीखे तो सीखे कहां से? तुमसे ही सीखेगा न; तुम्हारा ही अनुसरण करेगा न! तुम्हीं तो उसके शिक्षक हो। तुम सबको ढेर पर बैठे देख कर वह भी बैठ जाता है। वह भी अपनी खोज शुरू कर देता है। और उसको भी खयाल आता है कि जब करोड़ों-करोड़ों लोग राख के ढेर पर खोज रहे हैं, तो जरूर संपदा यहां गड़ी होगी। इतने लोग भूल में हो भी कैसे सकते हैं!
भीड़ बड़ी बलशाली मालूम होती है। इतने लोग गलत तो नहीं हो सकते?
अक्सर बात उलटी है। इतने लोग सही कैसे हो सकते हैं--यह पूछना चाहिए। इतने लोग--और सही हो सकते हैं? तो फिर सत्य सभी के पास होता। भीड़ कभी सच नहीं हो सकती। सत्य को कभी विरला इक्का-दुक्का आदमी उपलब्ध होता है। भीड़ तो सदा ही गलत होती है।
मगर भीड़ चारों तरफ है। भीड़ से ही संक्रमण होता है--विचारों का। स्कूल हैं, कॉलेज हैं, विश्वविद्यालय हैं, सभी सिखाते हैं कि इसी राख के ढेर में सोना गड़ा है, हीरे पड़े हैं, कोहिनूर दबे हैं। खोजो। सब तरफ महत्वाकांक्षा सिखाई जाती है। सब तरफ लोभ सिखाया जाता है। सब तरफ अहंकार की पूजा-प्रतिष्ठा सिखाई जाती है।
मां-बाप सिखा रहे हैं, शिक्षक सिखा रहे हैं। तुम्हारे तथाकथित गुरु--पंडित-पुरोहित, राजनेता सिखा रहे हैं। एक ही स्वर चल रहा है। इसमें आश्चर्य तो यही है कि कभी-कभी कोई इक्का-दुक्का आदमी, कोई कबीर, कोई नानक, कोई चरणदास निकल भागता है। आश्चर्य यही है।
तुम्हें देख कर कुछ आश्चर्य नहीं होता मुझे कि अरबों लोग क्यों राख के ढेर पर पड़े हैं। आश्चर्य होता है कि चरणदास कैसे भाग गए! उन्नीस वर्ष की उम्र में, यह कैसे संभव हुआ? इसने कैसे अपने को बचा लिया इतने प्रभावों से, दुष्प्रभावों से? यह कैसे निकल गुजरा इस जेलखाने से! जहां से निकलने की कोई जगह ही नहीं है!
मुझे जिंदगी की दुआ देने वाले
हंसी आ रही है तेरी सादगी पर।
एक दिन तुम्हें ऐसा अनुभव होगा। बुजुर्ग हैं, वे तुम्हें दुआ देते हैं कि सौ साल जीओ। कोई यह फिकर ही नहीं करता कि सौ साल जीने की दुआ किसलिए दे रहे हो! सौ साल जीओ, कि हजार साल जीओ, बस राख के ही ढेर को कुरेदते रहोगे; करोगे क्या!
यह भी कोई दुआ हुई? लंबा जीने से क्या अर्थ है? दुआ ऐसी कुछ होनी चाहिए कि ऐसे जीओ कि सत्य जान लो। चाहे दो दिन जीओ, चाहे एक दिन जीओ, इससे क्या फर्क पड़ता है। सौ साल राख के ढेर को खोदते रहे, इससे क्या होना है!
एक क्षण जीओ, मगर प्रभु में जीओ।
मुझे जिंदगी की दुआ देने वाले
हंसी आ रही है तेरी सादगी पर।
लेकिन वे लोग जो तुम्हें जिंदगी की दुआ देते हैं, वे खुद ही जिंदगी के मोह में पड़े हैं। कोई बूढ़ा आदमी कहता है कि बेटे, सौ साल जीओ। असल में वह यह कह रहा है कि जीना हम भी सौ साल चाहते हैं। हम तो नहीं जी पाए; हमारे बुजुर्गों की दुआ तो काम नहीं कर पाई; पर शायद हमारी दुआ काम कर जाए! फिर काम करे या न करे, कम से कम हम अपनी तो शुभाकांक्षा तुम्हें देते हैं।
मगर जिंदगी से क्या होगा? जिंदगी अपने आप में मूल्यवान नहीं है। जिंदगी में क्या उपलब्ध होता है, जिंदगी कहां पहुंचाती है, जिंदगी का सार-निचोड़ क्या है? परमात्मा लग जाए हाथ, तो ही कुछ मिला। परमात्मा हाथ न लगे, तो कितने ही जीयो--जीते रहो; धक्के खा रहे हो। एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर गिरते, चोटें खाते, लहूलुहान होते गुजरते रहोगे। ऐसे ही जिंदगी चलती रही है।
फिर जब इस राख में खोदते-खोदते तुम्हें कुछ नहीं मिलता--मिलने को वहां कुछ है नहीं--तो आदमी एक ढेर से दूसरे ढेर पर जाता है। सोचता है: इस ढेर में नहीं है। यह सीधा तर्क है। इस ढेर में कुछ नहीं है; चलो, दूसरे ढेर पर खोजें।
एक आदमी धन खोजता है; फिर एक दिन धन पा लेता है और पाता है कि कुछ भी नहीं मिला, तो सारा धन लगा कर चुनाव में खड़ा हो जाता है--कि चलो, प्रधानमंत्री हो जाएं; दूसरा ढेर खोजें! जो आदमी प्रधानमंत्री हो गया है, वह प्रधानमंत्री होकर पाता है: कुछ नहीं मिला। वह सोचता है कि चलो, दो-तीन साल या जितनी देर का मामला है, जितना बना सको पैसा बना लो। वह दस-पचास करोड़ रुपया इधर-उधर से खींचतान कर उस पर बैठ जाता है।
यह तुम देखते हो, यह रोज हो रहा है। लोग पैसा खर्च करके सत्ता में जाते हैं; सत्ता में पहुंच कर पैसा इकट्ठा करने लगते हैं! यह बड़ी हैरानी की बात है। पैसा ही इकट्ठा करना था, तो था ही। उसको खर्च काहे के लिए किया? मगर वह ढेर खोद कर देख लिया; वहां कुछ मिला नहीं। तो सब दांव पर लगा दिया; शायद पद में कुछ हो! फिर पद पाकर देख लिया; वहां कुछ नहीं मिला: फिर घबड़ाहट में जल्दी से पैसा इकट्ठा कर लिया। या कुछ और करो; कहीं न कहीं खोजते रहो। लोग बदलते रहते हैं--पहलू बदलते रहते हैं--करवट बदलते रहते हैं। मगर हर बार जो ढेर तुम्हारे चारों तरफ लगे हैं, वे राख के ही हैं।
फिर यहां तक भी घटना घट जाती है कि आदमी ने पद देख लिया, धन देख लिया, प्रतिष्ठा देख ली, नाम देख लिया, यश देख लिया--सब देख लिया, मगर कहीं कुछ न मिला; अब वह कहता है कि मोक्ष मिल जाए, स्वर्ग मिल जाए। मगर स्वर्ग की आकांक्षा में उसकी जरा झांक कर देखना; वह वही चीजें मांग रहा है, जो यहां मांगता था। स्वर्ग में भी स्वर्ण के महल हों; और स्वर्ग में भी सुंदर अप्सराएं हों, हूरें हों, गिलमें हों। और स्वर्ग में भी शराब के चश्में बहते हों!
आदमी का पागलपन सोचते हो...! यहां जिन चीजों में कुछ नहीं मिला, उनको ही वह स्वर्ग में भी मांग रहा है। फिर ढेरी पकड़ ली! अब धर्म का नाम है--इस ढेर का नाम धर्म, मंदिर-मस्जिद, पंडित-पुरोहित। मगर कुछ बात इसमें भी होने वाली नहीं है। तुम फिर भी वही खोज रहे हो। समझ कुछ आई नहीं।
समझ जिसको आती है, वह बाहर खोजना बंद कर देता है। संसार में ही नहीं, स्वर्ग में भी खोजना व्यर्थ हो गया--बाहर की खोज ही व्यर्थ हो गई। समझ आती है, तो आदमी भीतर लौटता है। वह कहता है: पहले मैं यह तो जान लूं कि मैं कौन हूं। मैं उसे तृप्त करने चला हूं, जिसका स्वभाव मुझे पता नहीं है। पहले स्वभाव तो पहचान लूं। और मजा ऐसा कि उस स्वभाव को पहचानते-पहचानते ही तृप्ति हो जाती है।
जिस हीरे को तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर है; तुम ही हो वह हीरा, जिसे तुम खोजने चले हो।
कुज-ए-तहनाई में देता हूं दिलासे क्या-क्या।
दिल-ए-बेताब को मैं और दिल-ए-बेताब मुझे।।
यहां तो तुम दिलासे ही देते रहते हो। एक जगह नहीं मिला, तो फिर दिलासा दिया कि दूसरी जगह मिल जाएगा। इस घर में नहीं मिला, तो दूसरे घर में मिल जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन के घर में एक रात चोर घुसा। मुल्ला जल्दी से लालटेन जला कर उसके पीछे हो लिया। चोर बहुत घबड़ाया। उसने और घरों में चोरी की थी; कई मौके ऐसे खतरे के आ गए थे, जब मालिक जग गया था। मगर लालटेन लेकर कोई उसके साथ हो जाए, और लालटेन बताने लगे...! वह थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा कि नसरुद्दीन, तुम होश में हो? मैं चोर हूं और तुम मुझे लालटेन दिखा रहे हो! अरे, पुलिस को चिल्लाओ। उसने कहा: पुलिस को चिल्लाने से क्या फायदा? एक मौका जिंदगी में मिला है। मैं तीस साल से इस मकान में खोज रहा हूं, कुछ नहीं मिला। शायद तुम्हारे भाग्य से मिल जाए। आधा-आधा कर लेंगे। इसलिए लालटेन लेकर तुम्हारे साथ चल रहा हूं। तुम खोजो। बड़ा स्वागत। आए, अच्छा किया। और आते रहना।
खोजते हो, मिलता नहीं है, तो फिर क्या करो?--दिलासे! स्वर्ग में मिलेगा--यहां नहीं मिला। शायद इस गांव में नहीं मिला, दूसरे गांव में मिलेगा। शायद इस काम में नहीं मिला, दूसरे काम में मिलेगा। शायद इस पत्नी में नहीं मिला, दूसरी पत्नी में मिलेगा। शायद इस बेटे में नहीं मिला, दूसरे बेटे में मिलेगा। मगर कहीं मिलेगा; बाहर मिलेगा।
संसार का अर्थ होता है: बाहर मिलेगा, इस बात की भ्रांति।
राख ही राख है; बाहर राख ही राख है। हीरा भीतर है। हीरा तुम हो। हीरा तुम्हारी चेतना है। हीरा तुम्हारा साक्षीभाव है।
और जितने जल्दी जाग जाओ, उतना अच्छा, क्योंकि कई बार ऐसा हो जाता है कि जीवन हाथ से निकल जाता है और तुम जागते ही नहीं। मौत द्वार पर खड़ी हो जाती है और तुम राख में ही कुरेदते रहते हो!
अभी गैर-दिलचस्प हो जाएंगे हम
अभी तुम कहोगे
कि बेकार है गुफ्तगू का बहाना
अभी मैं कहूंगा
कि बेकार है कारोबारे जमाना।
अभी तुम जबां पर
सुलगती हुई रेत का जायका चंद लम्हों में महसूस करने लगोगे
अभी मैं जबां पर
कोई खूबसूरत फरिश्ता सिफत नाम तन्हाइयों में नहीं ला सकूंगा
अभी जिहन बीमार हो जाएंगे सब
अभी ख्वाब लाचार हो जाएंगे सब
फलक तक पहुंचते हुए हाथ बेकार हो जाएंगे सब
भले या बुरे हम अभी हैं सलामत
अभी टूटने को है, लेकिन कयामत
अगर मर्गे-एहसासे की आरजू आखिरी कद्र ठहरी
अभी एक बेजान माजी के सेहरा में खो जाएंगे हम
अभी गैर-दिलचस्प हो जाएंगे हम।
मौत किसी भी क्षण पकड़ लेगी और तुम्हारे जीवन का सारा राग-रंग खो जाएगा। अभी दिलचस्प बहुत हो तुम। अभी जिंदगी में बड़ा रस है। अभी बड़े रंजित हो। अभी बड़े उत्सुक होकर खोज में लगे हो कि यह पा लूं, कि वह पा लूं।
अभी गैर-दिलचस्प हो जाएंगे हम।
यह ज्यादा देर चलेगी नहीं बात। मौत आएगी और तुम बिलकुल गैर-दिलचस्प हो जाओगे। जिनने तुम्हें चाहा था, वे ही तुम्हें मरघट पहुंचा आएंगे। जिनने तुम्हें सजाया था, वे ही तुम्हें अरथी पर चढ़ा देंगे। जिनने तुम्हें चाहा था, हजार चाहतें तुमसे बांधी थीं--वे ही तुम्हें चिता पर चढ़ाने में न झिझकेंगे।
अभी गैर-दिलचस्प हो जाएंगे हम
अभी तुम कहोगे
कि बेकार है गुफ्तगू का बहाना
अभी मैं कहूंगा
कि बेकार है कारोबारे जमाना।
मगर अगर मौत आई और तब तुम्हें यह समझ में आया, तो बहुत देर हो गई। फिर तो आना पड़ेगा, फिर से आना पड़ेगा पाठ लेने; इसी विद्यालय में वापस लौट आना पड़ेगा। फिर जन्मोगे; फिर पड़ोगे गर्भ की कारागृह में; फिर नौ महीने गर्भ की गंदगी--गर्भ का नरक। फिर बढ़ोगे; फिर महत्वाकांक्षा; फिर राख की ढेरियों पर बैठे हुए लोग; फिर वही शिक्षण; फिर वही दौड़! क्या आशा है कि फिर जागोगे--अगर अभी नहीं जागते? क्योंकि जितनी देर तुम नहीं जागते, उतना ही न जागने की आदत मजबूत होती जा रही है। एक-एक पल बीतता है और तुम्हारी संभावना कम होती है, क्योंकि आदतें मजबूत होती हैं; गलत आदतें मजबूत होती हैं।
अभी तुम जबां पर
सुलगती हुई रेत का जायका चंद लम्हों में महसूस करने
लगोगे
ज्यादा देर न लगेगी। जल्दी ही तुम पाओगे कि जिस राख की मैं बात कर रहा हूं, कह रहा हूं--राख ही राख है, वे तुम्हारे ओंठों पर होगी, वह तुम्हारी जबान पर होगी। जल्दी ही--
अभी तुम जबां पर
सुलगती हुई रेत का जायका चंद लम्हों में महसूस करने
लगोगे
थोड़े ही क्षण हैं हाथ में; जल्दी ही मुंह राख से भर जाएगा। सुलगती हुई रेत का जायका, स्वाद जल्दी ही तुम्हारे प्राणों में फैल जाएगा।
अभी मैं जबां पर
कोई खूबसूरत फरिश्ता सिफत नाम तनहाइयों में नहीं
ला सकूंगा
और अभी जो इतनी सुंदर तस्वीरें दिखाई पड़ रही हैं, चारों तरफ सुंदर लोग, सुंदर स्त्रियां, सुंदर पुरुष--यह सारे जगत का सौंदर्य का सपना, जैसे ही गिरोगे जमीन पर, श्वास रुकेगी, फिर इस सौंदर्य की बात भी न उठा सकोगे। मगर तब बहुत देर हो जाएगी।
अभी जिहन बीमार हो जाएंगे सब
मौत उसी दिन आ गई, जिस दिन तुम पैदा हुए हो। मौत उसी दिन से चलने लगी तुम्हारे संग-साथ, जिस दिन तुम पैदा हुए हो। मौत तुम्हारी छाया है।
अभी जिहन बीमार हो जाएंगे सब
ये दिल-दिमाग जल्दी ही बीमार हो जाएंगे।
अभी ख्वाब लाचार हो जाएंगे सब
ये सारी महत्वाकांक्षाएं और सपने--ऐसा हो जाऊं, वैसा हो जाऊं; यह कर लूं, वैसा कर लू--ये सब जल्दी ही गिर जाएंगे।
अभी ख्वाब लाचार हो जाएंगे सब
फलक तक पहुंचते हुए हाथ बेकार हो जाएंगे सब
ये छोटे-छोटे हाथ जो तुम आकाश तक फैलाए खड़े हो--चांद-तारों को पकड़ने के लिए।
फलक तक पहुंचते हुए हाथ बेकार हो जाएंगे सब
भले या बुरे हम अभी हैं सलामत
अभी जैसे भी हो--कम से कम हो। इस होने का उपयोग कर लो। इस जीवन की घड़ी को ऐसा ही मत जाने दो। कल की प्रतीक्षा न करो। कल मौत है; आज ही है जीवन; अभी है जीवन।
भले या बुरे हम अभी हैं सलामत
अभी टूटने को है, लेकिन कयामत
लेकिन मौत टूटेगी, विनाश होगा।
अगर मर्गे-एहसासे की आरजू आखिरी कद्र ठहरी
अगर इस जीवन में आखिरी मूल्य मौत ही हाथ लगती है, तो इस जीवन का क्या मूल्य! इसलिए तुमसे कहता हूं: राख ही राख है सब।
जहां मौत ही आती है अंततः वहां राख ही राख हो सकती है। अंतिम--सबूत है। मौत निष्पत्ति है जीवन की। तो सारी दौड़-धूप, आपा-धापी बस, मौत में ले आती है।
अगर मर्गे-एहसासे की आरजू आखिरी कद्र ठहरी
अभी एक बेजान माजी के सहरा में खो जाएंगे हम
ज्यादा देर न लगेगी। अभी हम हैं, अभी अतीत हो जाएंगे।
अभी एक बेजान माजी के सहरा में खो जाएंगे हम
अतीत के मरुस्थल में खो जाएंगी हमारी कहानियां, हमारी जीवन-कथाएं।
कितने लोग रहे इस जमीन पर! निशान भी तो नहीं छूट जाते हैं; चिह्न भी तो नहीं छूट जाते हैं। समय की रेत पर जो हमारे पैर के चिह्न बनते हैं, बनते ही मिटने लगते हैं। कुछ भी तो नहीं रह जाता।
तुम जहां बैठे हो, यहां कितने-कितने लोग नहीं बैठ चुके होंगे--अनंत-अनंत काल में! उनकी कोई याद नहीं, कोई चिह्न नहीं। आज तुम ऐसे बैठे हो, जैसे तुम सदा से यहां बैठे थे--कि तुम सदा यहां बैठे रहोगे! जिन घरों में तुम रह रहे हो, उनमें कितने लोग नहीं रह चुके! जमीन का हर टुकड़ा हजारों बार कब्र बन चुका है। बस्तियां बसी हैं, मरघट हो गईं। मरघट फिर बस गए और बस्तियां हो गईं।
एक सूफी फकीर हुआ, इब्राहीम। पहले तो बादशाह था, लेकिन एक छोटी सी घटना घटी और उतर गया सिंहासन से।
एक फकीर द्वार पर खड़ा था एक दिन, भीख मांगने आया था। भीख भी अजीब सी मांग रहा था। द्वारपाल से कह रहा था कि भोजन भी दे दो और रात मुझे ठहरना भी है, तो इस सराय में ठहर जाने दो। द्वारपाल ने कहा: यह सराय नहीं है महानुभाव! होश में आओ, यह राजा का महल है। अगर राजा को पता चल गया, तो झंझट में पड़ जाओगे। वह आदमी खतरनाक है; उसके मकान को सराय कहना अपमानजनक है।
लेकिन वह भिखमंगा बोला: जा भी जा। मुझे धोखा न दे सकेगा। सराय, सराय है।
सम्राट ने सुन लिया यह। जरा हैरान हुआ कि आदमी कैसा है! कहा कि बुलाओ उसे भीतर। नाराज भी हुआ। कहा: इसे तू सराय कह रहा है? धर्मशाला समझ रहा है? यह मेरा निवास है! यह राजमहल है! तुझे दिखाई नहीं पड़ता? अंधा है? आंख का अंधा है?
वह फकीर मगर एक ही था। उसने आंख में आंख डाल लीं इब्राहीम के और कहा: आंख का अंधा मुझे कहते हो! आंख के अंधे तुम हो। क्योंकि मैं पहले भी आया था और तब मैंने इसी सिंहासन पर इसी अकड़ से दूसरे आदमी को बैठे देखा। उसने कहा: वे मेरे पिता थे। और उस फकीर ने कहा: उसके पहले भी मैं आया था और तब मैंने एक तीसरे आदमी को इसी अकड़ से, इसी अंधेपन से इसी जगह बैठे देखा था! और यही बकवास...! इब्राहीम ने कहा: वे मेरे दादा थे। वह फकीर पूछने लगा: वे कहां हैं?
इब्राहीम को बड़ी चोट लगी। बात तो साफ हो गई। दो आदमी यहां थे, अब नहीं हैं। वह फकीर कहने लगा: मैं कल जब दुबारा आऊंगा--फिर कभी--तुम मिलोगे? इसलिए इसको सराय कहता हूं, नाराज क्यों होते हो! यहां लोग ठहरते हैं, चले जाते हैं। सराय का और क्या मतलब होता है? तुम्हारे दादा रहे; वे सोचते थे उनका मकान है। फिर तुम्हारे बाप रहे; वे सोचते थे उनका मकान है। अब तुम रह रहे हो; तुम सोचते हो तुम्हारा मकान है! कल तुम्हारा बेटा यही कहेगा और बेटों के बेटे यही कहेंगे। यह सिलसिला कब तक जारी रहेगा? आंख के अंधे तुम हो कि मैं हूं?
चोट लग गई। इब्राहीम भी अदभुत आदमी रहा होगा; उतर गया सिंहासन से। उसने कहा: तू ठहर सराय में। मैं चला। जब सराय ही है, तो अब यहां रुकना ठीक नहीं।
फकीर तो ठहर गया और सम्राट निकल गया महल से। फिर तो वह गांव के बाहर...। बल्ख का राजा था वह; बल्ख के गांव के बाहर रहने लगा एक वृक्ष के नीचे। और अक्सर ऐसा हो जाता था कि लोग उससे पूछते थे--राहगीर, यात्री, कारवां के लोग...। क्योंकि वह जहां, जिस झाड़ के नीचे बैठा था, वहां से दो रास्ते जाते थे।
लोग पूछते थे: बस्ती का रास्ता कौन सा है? तो वह बता देता कि बाएं जाना। भूल कर दाएं मत जाना। दाएं का रास्ता मरघट जाता है। बायां रास्ता बस्ती जाता है। और घंटे, दो घंटे में बाएं रास्ते से लोग लौट कर आते--बड़े नाराज और क्रोधित, क्योंकि वह मरघट का रास्ता था। कभी-कभी तो लोग मारने-पीटने पर उतारू हो जाते कि तुम देखने में सीधे-साधे मालूम पड़ते हो, तुम हम अजनबी यात्रियों को परेशान क्यों किए? लेकिन इब्राहीम कहता: तो फिर ऐसा मालूम होता है कि हमारी-तुम्हारी भाषा अलग। क्योंकि तुम जिसको बस्ती कहते हो, उसको मैंने इसलिए छोड़ दिया कि वहां लोग सिर्फ मरते हैं और कुछ नहीं होता। मरघट है। सभी मरने की कतार में खड़े हैं, उसको तुम बस्ती कहते हो? बस्ती कैसे कहना, बसा तो वहां कोई भी नहीं है, बसा वहां कोई भी नहीं रहेगा!
मेरे गुरु ने इसी तरह मुझे जगाया था; कहा था कि तेरा घर नहीं, सराय है। उसी दिन मैं समझ गया कि बस्ती जिसको लोग कहते हैं, वह बस्ती नहीं, मरघट है। हर आदमी मरने को है! कतार में खड़े हैं लोग। कतार आगे बढ़ रही है। एक मरा कि तुम थोड़े और आगे सरके। दूसरा मरा कि तुम थोड़े और आगे सरके। बस मौत के पास पहुंचते जा रहे हो। इसको बस्ती कैसे कहो! बसा कोई भी नहीं है। बस कभी कोई सका नहीं है। इसको बस्ती कैसे कहो? और मरघट को मैं इसलिए बस्ती कहता हूं--इब्राहीम कहता, कि वहां जो बस गया सो बस गया। फिर कभी उसको लौटते नहीं देखा। जो समा गया मरघट में, समा गया। बस गया--सो बस गया। वह शाश्वत बस्ती है। तो हमारी-तुम्हारी भाषा में कुछ भूल हो गई। क्षमा करना।
यह इब्राहीम जो कह रहा है, इसे ध्यान रखो। आज हाथ में है।
अभी गैर-दिलचस्प हो जाएंगे हम
ज्यादा देर न लगेगी। उसके पहले जागो। उसके पहले समझो।
चेत सको, तो चेतो। उसी चेतना में रूपांतरण है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, मन कभी-कभी निर्लिप्त सा मालूम देता है, लेकिन क्षण भर। और उस क्षण आनंद और प्रसन्नता का अनुभव होता है। थोड़ी कृपा और करो, ताकि मैं निर्लिप्त हो जाऊं; क्योंकि क्षण भर की निर्लिप्तता स्वप्नवत है।
पहली बात: लोभ से न भरो। ध्यान में लोभ को मत लाओ, नहीं तो ध्यान नष्ट हो जाएगा; जो क्षण भर मिल रहा है, वह भी खो जाएगा। अगर क्षण भर में मिल रहा है जो, उसे भी गंवाना हो, तो लोभ को ले आना।
यह मैं यहां रोज देखता हूं। जब ध्यान की घटना घटनी शुरू होती है, स्वभावतः लोभ जगता है। लोभ तो पड़ा ही है भीतर। लोभ कोई धन का ही थोड़े होता है, ध्यान का भी होता है। लोभ तो लोभ है; किस चीज का, इससे कोई संबंध नहीं है।
लोभ का मतलब है: और ज्यादा। धन हो, तो और ज्यादा। पद हो, तो और ज्यादा। प्रतिष्ठा हो, तो और ज्यादा। जो भी हो, वह और ज्यादा। यही लोभ पड़ा है--तुम्हारी मटकी में। इस लोभ को बाहर विदा करो। अन्यथा जब ध्यान आएगा, तो बस यह लोभ कहेगा--और ज्यादा। क्षण भर में क्या होगा! शाश्वत चाहिए।
अब थोड़ा समझो। एक बार में एक ही क्षण तो मिलता है। दो क्षण तो साथ कभी मिलते नहीं। अगर एक क्षण में भी शांत होना आ गया, तो और क्या चाहिए! सारा जीवन शांत हो जाएगा। एक क्षण में शांत होना आ गया, तो तुम्हारे हाथ में कला आ गई। मगर यह लोभ कहेगा कि एक क्षण की शांति से क्या होता है!
एक-एक कदम चल कर आदमी हजारों मील की यात्रा पूरी कर लेता है। कोई हजारों कदम एक साथ तो चल भी नहीं सकता। दो कदम भी एक साथ नहीं चल सकते। चलते तो तब हो, जब एक कदम चलते हो।
एक क्षण मिलता है एक बार में। जब एक चला जाता है हाथ से, तब दूसरा आता है। तुम्हें एक क्षण को ध्यान में रंगने की कला आ गई, धन्यभागी हो। अब लोभ को मत जगाओ, नहीं तो लोभ इस क्षण को भी नष्ट कर देगा।
अब तुम कहते हो: ‘क्षण भर की निर्लिप्तता स्वप्नवत है।’
यह तुम्हारा लोभ कह रहा है। तुम्हारी मांग पैदा होने लगी।
जब ध्यान की घटना घटनी शुरू होती है, तो पहले तो क्षण में ही घटेगी; क्षण का ही द्वार खुलेगा; क्षण के ही झरोखे से पहले झांकोगे।
अब जब क्षण का झरोखा खुले, तो दो बातें संभव हैं। एक तो यह कि तुम धन्यवाद दो परमात्मा को--कि हे प्रभु, मैं इतना भी योग्य न था, तूने क्षण भर को खिड़की खोली, इतना भी बहुत है। मेरी पात्रता इतनी भी न थी। यह तेरे प्रसाद से ही हुआ होगा; यह तेरी अनुकंपा से हुआ होगा, क्योंकि तू रहीम है, रहमान है, इसलिए हुआ होगा। तू करुणावान है, इसलिए हुआ होगा। मेरी योग्यता से तो कुछ भी नहीं हुआ। एक तो यह भाव है। यह भक्त का भाव है।
भक्त कहता है कि नहीं, नहीं, मैं भरोसा नहीं कर पाता कि तू और ध्यान की झलक मुझे देगा! मैं तो पापी; मैं तो दीन-हीन; मैं तो बुरे से बुरा। भला मुझमें क्या है! मैं तो बुरा खोजने जाता हूं, तो मुझसे बुरा मुझे कोई नहीं मिलता। और भला खोजने जाता हूं, तो सभी मुझसे भले मुझे मिलते हैं। मुझ पर तेरी कृपा! मुझ अंतिम पर तेरी कृपा? जरूर तेरा, तेरा प्रेम, तेरी अनुकंपा है। अकारण तू मुझ पर बरस रहा है।
यह अगर भाव रहे, तो ध्यान बढ़ेगा। गहरा होगा, क्योंकि इसमें लोभ नहीं है। इसमें विनय है; इसमें निर्वासना है। जितना मिला, उसके लिए धन्यवाद है। उतना ही क्या कम है! उसे स्वप्नवत मत कहो।
क्षण भर भी जो ध्यान मिलता है, वह भी स्वप्न नहीं। और सौ वर्ष की भी जो जिंदगी है, वह भी स्वप्न है। ध्यान तो सत्य ही है--क्षण भर मिले, कि शाश्वत मिले। और जिंदगी तो स्वप्न ही है--क्षण भर रहे, कि सदा रहे; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
समय की मात्रा से सत्य और असत्य का कोई संबंध नहीं है।
अनुग्रह को जगाओ; लोभ को विदा करो।
और दूसरी उपाय की व्यवस्था यह है कि जैसे ही ध्यान आता है, तुम कहते हो: और चाहिए; इतने से क्या होगा!
एक सज्जन मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे कहा... पढ़े-लिखे हैं; एक राजनेता हैं। किसी राज्य में मिनिस्टर हैं। मुझसे कहा कि मुझे नींद नहीं आती। मैं सिर्फ इसलिए आया हूं कि मुझे किसी तरह कोई विधि बता दें, जिससे नींद आ जाए। दवाएं ले-ले कर मैं थक गया। और दवाएं कोई काम नहीं करतीं; एकाध-दो दिन काम करती हैं, फिर उनकी मात्रा बढ़ाओ। फिर अगर ज्यादा दवा ले लेता हूं, तो दिन भर सुस्ती बनी रहती है। तो फिर सुस्ती मिटाने के लिए दवा लेनी पड़ती है! फिर सुस्ती मिटाने की ज्यादा दवा ले लो, तो रात नींद नहीं आती। तो मैं एक चक्कर में पड़ गया हूं, इससे बाहर निकलना नहीं हो पा रहा है। तो अब मैं क्या करूं?
उन्होंने कहा कि मुझे न परमात्मा में कोई उत्सुकता है, न मैं ध्यान की कोई खोज कर रहा हूं। मुझे सिर्फ नींद आ जाए, बस, इतना आप कर दें।
मैंने उनसे कहा कि आप निश्चित हैं कि और तो मांग नहीं करेंगे? सिर्फ नींद आ जाए। उन्होंने कहा कि बिलकुल लिख कर दे सकता हूं। उन्हें पता भी नहीं था कि कमरे में टेप-रिकॉर्डर पड़ा था और वह सब रिकॉर्ड होता रहा। उन्होंने कसम खाकर कहा कि मुझे नींद से अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहिए।
उन्हें मैंने ध्यान के कुछ प्रयोग करने को कहे। कहा कि आप एक महीने भर बाद आकर कहें।
महीने भर बाद वे आए। मैंने पूछा: कैसे हैं? वे उदास थे; कहा कि ठीक है; नींद तो आने लगी; और कुछ भी नहीं हुआ! मैंने कहा: आपको याद है, महीने भर पहले आप क्या कह गए थे? बोले: क्या कह गया था?
मैंने टेप बुलवाया। सुना; उनको भरोसा न आया एकदम से कि उन्होंने यह कहा था। फिर याद आया कि कहा तो मैंने ही था। मैं क्षमा चाहता हूं, मगर नींद से ही क्या होगा?
तुम देखते: आदमी का मन कैसा है! जो मिल जाए, वही व्यर्थ हो जाता है। न मिले तो सार्थक, मिल जाए तो व्यर्थ हो जाता है, मिलते ही व्यर्थ हो जाता है--मन की यह तरकीब है। मन हमेशा अभाव जिसका है, उसकी मांग करता रहता है।
अभी तुम्हें क्षण भर को ध्यान उतरना शुरू हुआ है; तुम धन्यभागी हो। कितने लोग हैं इस पृथ्वी पर जिनको क्षण भर भी मिलता है? ध्यान मिलता कहां है! सम्राटों को नहीं मिलता; समृद्धों को नहीं मिलता; तुम्हारे तथाकथित त्यागी, साधु-मुनियों को नहीं मिलता। मुझे न मालूम कितने साधु और महात्माओं ने कहा है कि ध्यान नहीं लगता!
सब त्याग दिया है; उपवास करते हैं; सब तरह से शरीर को कष्ट देते हैं, तपश्चर्या करते हैं--और ध्यान नहीं लगता। और तुम्हें क्षण भर को लग गया! तुम कहते हो: स्वप्नवत है। धन्यवाद दो; अहोभाव में जीओ। क्षण बढ़ेगा; अपने आप बढ़ता जाएगा।
लेकिन अगर तुमने कहा: और चाहिए, इतने से क्या होगा! इसमें क्या रखा है; क्षण भर को मिला तो क्या रखा है?...
और मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं कि जब क्षण भर को मिलता है, तो स्वभावतः और पाने की आकांक्षा पैदा होती है। मैं यह नहीं कह रहा कि अस्वाभाविक है। मगर खतरनाक है यह भाव; स्वाभाविक है और खतरनाक है। बिलकुल स्वाभाविक है। जिसको स्वाद लगता है, वही तो मांगेगा।
तुम प्यासे थे; पानी कभी मिला नहीं था। तो प्यास का ही पता था। फिर एक बूंद तुम्हारे कंठ में पड़ी। जरा सी तृप्ति उतरी। क्षण भर को तृप्ति लहरा गई कंठ में। अब स्वभावतः तुम कहोगे कि एक बूंद से क्या होगा? इतने से क्या होगा? कम से कम कंठ भर तो मिले! प्यास बुझे, ऐसा तो मिले। यह तो प्यास और जग गई!
यह मैं समझता हूं। यह स्वाभाविक है।
कभी-कभी तुमने देखा होगा: रात रास्ते से गुजरते हो अंधेरे में। अंधेरा है, लेकिन फिर भी तुम्हें दिखाई पड़ता है; कुछ-कुछ दिखाई पड़ता है। थोड़ी देर अंधेरे में रहते हो, तो अंधेरे में भी दिखाई पड़ता है। फिर एक तेज कार पास से गुजर गई। उसके प्रकाश की दमदमाती रोशनी तुम्हारी आंखों पर पड़ी और कार गुजर गई। उसके बाद अचानक तुम लड़खड़ा जाते हो। अब कुछ नहीं दिखाई पड़ता। वह जो रोशनी आंख में पड़ गई क्षण भर को, उसकी वजह से अब अंधेरा और भी अंधेरा मालूम होता है।
तो मैं जानता हूं कि क्षण भर को जब ध्यान उतरता है, तो यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि फिर संसार बिलकुल ही व्यर्थ मालूम होता है। अभी तक कंकड़-पत्थर बीनते रहे, फिर एक छोटा सा हीरा हाथ लग गया। मगर हीरा न हाथ लगा कि मुश्किल आई, मुसीबत आई; अब कंकड़-पत्थर बीनने में कुछ रस न रहेगा। अब तो यह होगा कि हीरे ही हीरे मिलें। यह स्वाभाविक है।
फिर वही रात है, वीराने-ए-दिल है, मैं हूं
तुम न मिल कर जो बिछुड़तीं तो बहुत आसां था
जीस्त के अजनबी रस्तों से गुजरना मेरा
तुमने बदला जो न होता मेरा मैयारे-नजर
कोई मुश्किल न था, दुनिया में बहलना मेरा
अपनी तन्हाई का दर्द आज कहां से लाऊं
किससे फरियाद करूं? किससे मुदावा चाहूं
भूल तक भी न सकूं, जिसको भुलाना चाहूं
ऐ मेरी वहशते दिल! तू ही बता क्या चाहूं
रंगे-रुखसार, गुलो लाला में कब तक ढूंढूं
लब समझ कर तेरे, शोलों को कहां तक चूमूं
मरमरी जिस्म के एहसास में खोया खोया
चांदनी रात में बेवजह कहां तक घूमूं
तेरे अनफास की खुश्बू से मुअत्तर है जो दिल
महकते-लाला-ओ-गुल से वो कहां बहलेगा
जिसने कल तक तेरे खिलते हुए लब देखे थे
आज कलियों के चटकने से कहां बहलेगा
एक कौंधा-सा जो लपका था मेरी आंखों में
फिर अंधेरे के सिवा कुछ नजर न आया मुझे
एक सितारा-सा जो टूटा था मेरी रातों में
मौजिजा फिर कोई आंखों ने दिखाया न मुझे
फिर वही रात है, वीरानी-ए-दिल है, मैं हूं।
प्रेम का क्षण अनुभव में आ जाए, तो कठिनाई हो जाती है। तो फिर क्या कहना, प्रार्थना का क्षण जब अनुभव में आता है, कितनी कठिनाई न हो जाएगी!
जिसने प्रेम नहीं जाना, उसके जीवन में एक तरह की सुविधा होती है। जिसने प्रेम जाना ही नहीं, उसके जीवन में ज्यादा अड़चन नहीं होती। इसीलिए तो लोगों ने सदियों से--समझदारों ने, तथाकथित समझदारों ने--आदमी के जीवन से प्रेम हटा दिया और विवाह का आयोजन किया। प्रेम का जान लेना खतरनाक हो जाता है। विवाह मद्धिम-मद्धिम बात है; कोई लपट नहीं। विवाह व्यवस्था है, कोई बिजली की कौंध नहीं। विवाह में सुविधा है।
पश्चिम ने अभी खतरा मोल ले लिया है--प्रेम-विवाह। प्रेम-विवाह खतरनाक बात है। खतरनाक इसलिए कि प्रेम में इतनी ऊंचाइयां दिखाई पड़ जाती हैं कि फिर उनसे नीचे उतरने का मन नहीं होता। और आदमी ज्यादा देर ऊंचाइयों पर रह नहीं सकता। आदमी का मन इतना अस्थिर है कि वह जो दो-चार दिन की प्रेम में देखी ऊंचाई, फिर वह चाहता है कि ऐसी ऊंचाई रोज रहे। फिर वह मांग करता है कि ऐसी ऊंचाई सदा मिले। उसने जो सौंदर्य की थोड़ी सी झलक देख ली, वह जो हनीमून देख लिया, वह जो सुहागरात थी, उसमें जो उसने मौज देख ली, अब वह मांगता है--रोज वैसी सुहागरात हो। हर रात सुहागरात नहीं हो सकती। फिर मन बड़ा बेचैन हो जाता है।
अगर प्रेम आएगा, तो विवाह जाएगा; इसलिए पश्चिम से विवाह जा रहा है। पश्चिम में विवाह बच नहीं सकता। एक तिहाई अनुपात में लोग तलाक कर रहे हैं। विवाह विदा हो रहा है। जो तलाक नहीं कर रहे हैं, उन्होंने भी पीछे के रास्ते खोज लिए हैं। लेकिन विवाह समाप्त है। विवाह का कोई भविष्य नहीं है।
प्रेम आया कि विवाह गया। क्या खतरा प्रेम ले आता है? प्रेम तुम्हें एक झलक दिखा देता है आसमान की, फिर जमीन पर चलना मुश्किल हो जाता है। फिर तुम मांग करने लगते हो। और तुम्हारा मन कहता है: और चाहिए, और बड़ा आसमान, और बड़ी ऊंचाई, और गहरा अनुभव। फिर वह नहीं मिलता। जब नहीं मिलता, तो खोजो कहीं और--किसी और स्त्री में; किसी और पुरुष में।
यह गीत खयाल में रखना:
फिर वही रात है, वीरानी-ए-दिल है, मैं हूं
तुम न मिल कर जो बिछुड़तीं तो बहुत आसां था
बड़ा आसान था।...
तुम न मिल कर जो बिछुड़तीं तो बहुत आसां था
जीस्त के अजनबी रस्तों से गुजरना मेरा
जिंदगी के ये अजनबी रास्ते गुजार देता। न जानता सुख को, न दुख की पहचान होती। न जानता प्रेम को, न प्रेम की कमी खलती। न देखे होते फूल, न कांटों की मौजूदगी खलती।
जीस्त के अजनबी रस्तों से गुजरना मेरा
तुम न मिल कर जो बिछुड़तीं तो बहुत आसां था
तुमने बदला जो न होता मेरा मैयारे-नजर
लेकिन तुमने मेरी दृष्टि बदल दी; मेरा मैयारे-नजर बदल दिया।
तुमने बदला जो न होता मेरा मैयारे-नजर
कोई मुश्किल न था, दुनिया में बहलना मेरा
बहला लेता--धन में, पद में, प्रतिष्ठा में। लेकिन यह प्रेम मुश्किल कर गया। अब ऐसा होता है कि वही पुराना एकाकीपन लौट आए, तो अच्छा।
अपनी तन्हाई का दर्द आज कहां से लाऊं
वही अच्छा था; वह दुख अच्छा था, जब सुख से कोई पहचान न हुई थी। वह संसार अच्छा था, जब संन्यास की कोई झलक न मिली थी। कम से कम बसे तो थे। फिर तो उखड़े-उखड़े हो गए। फिर तो यहां कुछ सार न रहा और जहां सार है, वहां की शर्त यह है कि मांग मत करना, अनुग्रह के भाव से चलना।
किससे फरियाद करूं? किससे मुदावा चाहूं?
अब किससे शिकायत करूं, किससे प्रार्थना करूं? और कौन मेरा उपचार करे? ‘किससे मुदावा चाहूं?’
भूल तक भी न सकूं, जिसको भुलाना चाहूं
एक बार हो जाए, तो फिर भुलाना भी संभव नहीं है।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। वह जो क्षण भर को ध्यान उतरा है, अब तुम भुला न सकोगे। अब तुम्हारी जिंदगी में वही तो सबसे मूल्यवान है। वही शिखर एक प्रकाश स्तंभ की भांति अब तुम्हें आलोकित रखेगा। अब उसकी स्मृति जा न सकेगी।
भूल तक भी न सकूं, जिसको भुलाना चाहूं
ऐ मेरी बहशते दिल तू ही बता क्या चाहूं
रंगे-रुखसार, गुलो लाला में कब तक ढूंढूं
और अब जिसने प्रेम की झलक देख ली, अब फूल फीके मालूम पड़ते हैं। जिसने प्यारे की झलक देख ली, अब गुलाब और कमल भी मुकाबला करते नहीं मालूम पड़ते; अब चांद-तारे भी रोशन नहीं मालूम होते।
रंगे-रुखसार,...
तेरा चेहरा क्या देख लिया।...
...गुलो लाला में कब तक ढूंढूं।
अब फूलों में ढूंढने जाता हूं, मगर मिलता नहीं।
लब समझ कर तेरे, शोलों को कहां तक चूमूं
और जब तेरे ओंठ जान लिए, तो अब अंगारों पर ओंठ रखते हुए जी घबड़ाता है।
मरमरी जिस्म के एहसास में खोया-खोया
और तेरी संगमरमर जैसी बनी देह को देख लिया, तेरी देह को जाना।
मरमरी जिस्म के एहसास में खोया-खोया
चांदनी रातों में बेवजह कहां तक घूमूं
अब बहुत घूमता हूं चांदनी रातों में, लेकिन अब चांदनी भी मन को भर नहीं पाती।
तेरे अनफास की खुशबू से मुअत्तर है जो दिल
तेरे श्वास की खुशबू भर गई।
तेरे अनफास की खुशबू से मुअत्तर है जो दिल
महकते-लाला-ओ-गुल से वो कहां बहलेगा
माना कि फूल खिले हैं--बहुत फूल खिले हैं, मगर इनसे अब बहलने वाला नहीं।
जिसने कल तक तेरे खिलते हुए लब देखे थे
जिसने तेरे ओंठों के फूल देखे।...
आज कलियों के चटकने से कहां बहलेगा
एक कौंधा-सा जो लपका था मेरी आंखों में
एक बिजली कौंध गई प्रेम की।
एक कौंधा-सा जो लपका था मेरी आंखों में
फिर अंधेरे के सिवा कुछ नजर आया न मुझे
इक सितारा-सा जो टूटा था मेरी रातों में
मौजिजा फिर कोई आंखों ने दिखाया न मुझे
वह एक सितारा जो टूटा था प्रेम का, फिर उसके बाद आंखों ने कोई चमत्कार नहीं देखा और न कोई चमत्कार दिखाया। अब बस, उसी एक याद पर सब अटका रह गया है।
फिर वही रात है, वीराने-ए-दिल है, मैं हूं
और वीरानी पहले से भी ज्यादा होगी; और रात पहले से भी ज्यादा अंधेरी होगी।
इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं... तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है, सभी के काम का है। जिसने एक बार ध्यान का क्षण जान लिया, क्षण भर को भी, उसकी अड़चन मेरी समझ में है।
इसलिए मैं यह नहीं कहता कि कुछ अप्राकृतिक तुम्हारी मांग है। स्वाभाविक तुम्हारी मांग है। लेकिन याद रखो: वही मांग बाधा बन जाएगी। तुम्हें प्राकृतिक मांग से ऊपर उठना होगा।
ध्यान प्रकृति के ऊपर उठने का ही नाम है। प्राकृतिक मन कहेगा: और मिले, और मिले। ‘और मिले, और मिले’ ऐसा चाहा, तो जो मिला, वह भी खो जाएगा। याद रह जाएगी; धुंधली सी याद रह जाएगी; प्राणों में चुभा एक कांटा सा रह जाएगा; मगर ध्यान खो जाएगा। क्योंकि ध्यान और लोभ का मिलन नहीं होता। वासना और ध्यान का मिलन नहीं होता।
मांगो ही मत। मिला है, इसके लिए धन्यवाद दो। जो मिला है, इसके लिए अनुग्रह करो, नाचो, उत्सव मनाओ। इसलिए मेरी प्रत्येक ध्यान की विधि का अंतिम चरण धन्यवाद है, अनुग्रह का भाव है, अहोभाव है।
उत्सव मनाओ; समारोह करो; नाच कर धन्यवाद दो।
जितना मिला, उतना भी तुम्हारी पात्रता से ज्यादा है; उसमें भी प्रसाद है।
और तुम चकित होओगे--रोज-रोज तुम्हारा प्रसाद बढ़ता जाएगा। जैसे-जैसे तुम्हारा अनुग्रह का भाव बढ़ेगा, वैसे-वैसे तुम पर प्रसाद की वर्षा बढ़ती चली जाएगी।
परमात्मा मांगे से नहीं मिलता; धन्यवाद देने से मिलता है।
चाह का नाम जब आता है, बिगड़ जाते हो।
वह तरीका तो बता दो तुम्हें चाहें क्योंकर।
‘चाह का नाम आता है, बिगड़ जाते हो।’ परमात्मा को चाह में मत बांधो। क्योंकि जिसको तुमने चाह में बांधा, वहीं से दुख पाओगे। चाह दुख लाती है।
परमात्मा को चाह में मत बांधो; परमात्मा को अनुग्रह में मुक्त करो। चाह के बंधन न फैलाओ। अनुग्रह की आजादी। यही कहो कि इतना दिया, यही बहुत। और ज्यादा क्या मांग सकता हूं! और ज्यादा क्या चाह सकता हूं! और तुम कल चकित होकर पाओगे: और ज्यादा मिला है। तब भी ध्यान रखना।
धीरे-धीरे तुम्हें यह राज समझ में आ जाएगा कि कुछ बातें हैं, जो मांगे से नहीं मिलतीं। कुछ बातें हैं, जो मांगे से खो जाती हैं। जिस दिन यह समझ लोगे, उस दिन तुम्हारे हाथ में कुंजी है। उस कुंजी से परमात्मा का अंतिम द्वार भी खुल जाता है।

आज इतना ही।

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