GORAKH
Mare He Jogi Maro 15
Fifteenth Discourse from the series of 20 discourses - Mare He Jogi Maro by Osho. These discourses were given during NOV 11-20 1978.
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हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।
जोगी आषै अलख कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।।
हिंदू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।
जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै, कोई करै हमारी आसा।
गोरष कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
बदंत गोरखनाथ आत्मां विचारत, ज्यूं जल दीसै चंदा।।
केता आवै केता जाइ। केता मांगै केता खाइ।
केता रुष-विरष तलि रहै। गोरख अनभै कासौं कहै।।
बिरला जाणंति भेदांनिभेद। बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
बिरला जाणंति अकथ कहाणी। बिरला जाणंति सुधि बुधि की बाणी।।
संन्यासी सोइ करै सब नास। गगन मंडल महि मांडै आस।
अनहद सूं मन उनमन रहै। सो संन्यासी अगम की कहै।।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै। पंचे पवण अपूठा आनै।
सदा सुचेत रहै दिन राति। सो दरवेस अलह की जाति।।
जीबिता बिछायबा मूंवां ओढिबा, कवहु न होइबा रोगी।
बरसवै दिन काया पलटिबा, यूं कोई कोई बिरला जोगी।।
गगन मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छाछि छाछि पंडिता पीवीं, सिधां माखण खाया।।
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
गगन में दमकते करोड़ों सितारे,
घड़ी भर चमककर छिपेंगे बिचारे;
रहा घूम कोई, रहा टूट कोई,
किसे लोचनों का सितारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं;
जलधि में कई द्वीप जो दिख रहे हैं,
सभी काल की धार से कट रहे हैं।
यहां भी हिलोरें, वहां भी हिलोरें,
बता दो, कहां मैं किनारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
अभी तृप्ति के पल, अभी प्यास के क्षण,
अभी अश्रु के तो अभी हास के क्षण!
मिला साथ विष का, सुधा का निमंत्रण,
मुझे आज किसने पुकारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
अभी फूलमाला अभी शूलमाला,
अभी स्वर्ग, नंदन, अभी नर्क-ज्वाला
अभी डोलियां हैं, अभी अर्थियां हैं,
बता दो, कहां मैं गुजारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
धरा घूमती है, गगन उड़ रहा है,
न जाने किधर यह जलधि बढ़ रहा है!
मुझे छोड़कर सांस तक जा रही है,
बता दो, किसे मैं दुलारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
मनुष्य की ऐसी ही दशा है। सब तरफ लहरें ही लहरें हैं, किनारे का कोई भी पता नहीं। पीछे भी लंबा मार्ग है, आगे भी लंबा मार्ग है; मंजिल का कोई ओर-छोर नहीं। कहां से आते हैं पता नहीं। कहां जा रहे हैं, पता नहीं। क्यों हैं पता नहीं। घर बनाएं भी तो कहां बनाएं, कैसे बनाएं? अपना ही पता न हो तो जिंदगी में शांति कैसे हो, सुख कैसे हो? स्वभाव का ही बोध न हो, तो आनंद की झलक कैसे मिले?
आनंद की झलक तो मिलती है, जब तुम्हारा जीवन स्वभाव के अनुकूल होता है। आनंद का इतना ही अर्थ समझना, जब तुम जगत के साथ एकछंद हो। जब तुम्हारा तार जगत के तारों के साथ लयबद्ध है, तब आनंद।
और दुख का भी यही अर्थ समझना, जब तुम्हारा तार अलग-अलग बजने लगे, जगत की वीणा से भिन्न-भिन्न, अपनी ढपली अपना राग हो जाये, तभी दुख पैदा हो जायेगा। जैसे ही छंद भंग हुआ, दुख हुआ। जैसे ही छंद फिर जुड़ा, सुख हुआ।
लेकिन इस छंदोबद्धता के लिए स्वयं से परिचय तो जरूरी है। और जिनका स्वयं से परिचय नहीं है, वे चले परमात्मा की खोज पर! दूर की खोज पर निकले हो, निकट का भी पता नहीं है! जिन्हें अपना भी बोध नहीं, वे विवाद कर रहे हैं कि ईश्वर कैसा है? कि हिंदुओं का ईश्वर सच है कि मुसलमानों का ईश्वर सच है, कि ईसाईयों का, कि यहूदियों का? ईश्वर के संबंध में विवाद चल रहा है। और जो निर्विवाद सत्य है तुम्हारा, उससे परिचय कब करोगे? और जो उसे जान लेता है वही परमात्मा को जान पाता है।
आत्मा को जाने बिना परमात्मा को जानने का न कभी कोई उपाय था, न है, न कभी कोई उपाय होगा। आत्मा द्वार है। और इस एक को तुम पहचान लो तो इस एक से ही सब को जानने की कुंजी मिल जाती है।
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो!
मधुवन की छवि का क्या कहना,
मधुवन में हैं अगणित कलियां!
संदेह नहीं, आकर्षक हैं
कुंजों की ये मादक गलियां!
कुंजों-कुंजों में क्यों घूमो?
कलिका-कलिका पर क्यों गूंजो?
उस एक कली को प्यार करो, जिस पर मधुमास निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो!
मत ‘प्यार’ कहो माटी के प्रति
जगने वाले आकर्षण को!
बरसात सुधा की मत समझो
दो क्षण के इस रसवर्षण को!
वह ‘रूप’ नहीं जिसके कारण
तृष्णा या आशा ही जागे,
वह रूप ‘रूप’ कहलाता है, जिस पर विश्वास निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो!
लाखों हैं ये आकाश-कुसुम,
किस-किस पर हाथ बढ़ाओगे?
अंबर की धुंधली गलियों में
कब तक आंखें भटकाओगे?
टिमटिम किरणों में क्यों भटको?
लाखों तारों में क्यों अटको?
उस एक चंद्रमा को पूजो, जिस पर आकाश निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो।
और किस पर हर सांस निछावर है? यह भीतर आती श्वास, यह बाहर जाती श्वास, किसके पांव पखार रही है? यह भीतर आती श्वास, यह बाहर जाती श्वास, प्रतिपल किसका वंदन उतार रही है? यह किसकी आरती हो रही है? इसी श्वास के साथ-साथ भीतर जाओ, तो मिल जायेगा वह जिसके चरणों पर यह श्वास जाकर निछावर हो रही है। इसी श्वास के साथ-साथ बाहर आओ और भीतर जाओ। इसी श्वास में सारी परिक्रमा है, इसी श्वास में सारे तीर्थ। क्योंकि इसी श्वास के मूल उदगम पर तुम विराजमान हो--तुम अपनी महिमा में, अपनी परम गरिमा में विराजमान हो।
और जहां श्वास निछावर हो रही है, वहां तुम बड़े चकित होकर पाओगे कि तुम तो हो, लेकिन तुम जैसे नहीं हो। तुम तो हो, लेकिन मैं का कोई भाव नहीं है। अस्तित्व है, परम शुद्ध अस्तित्व है, लेकिन मैं की कोई धारणा नहीं, कोई धुआं नहीं। निर्धूम ज्योति है वहां। मैं की छाया भी नहीं पड़ती।
इस स्वयं को पहचान लिया, तो तुमने सब को पहचान लिया। इस एक सूत्र को पकड़ लो, इसी के सहारे तुम पहुंच जाओगे अस्तित्व की गहनतम गहराइयों में। कहीं कोई और खोजने की आवश्यकता नहीं है। जो कहीं और खोजने गया, भटका, भूला, उलझा।
आज के सूत्र:
हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।
जोगी आषै अलष कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।।
हिंदू पूजता है राम को, मुसलमान पूजता है खुदा को। जोगी किसको पूजता है? अलख को। न राम को, न खुदा को। उसका कोई नाम नहीं है--न राम, न खुदा। सब नाम आदमी के दिये हुए हैं। वह तो विशेषण-शून्य है। वह तो निर्विकार है। वह तो निराकार है, अलख है। अलख--अर्थात, आंखों में भी पकड़ में न आये! कानों के सुनने में न आये। हाथों के छूने में न आये! इंद्रियातीत है। उसे राम कहें, तो छोटा हो जायेगा। उसे खुदा कहें, छोटा हो जायेगा। उसे शब्द दें, तो असत्य हो जायेगा।
जो सच्चा खोजी है, वह न तो हिंदू होता है न मुसलमान होता है; हो ही नहीं सकता। जो सच्चा खोजी है। उसे शब्द और शास्त्र और विशेषण और संप्रदाय नहीं बांध सकते हैं। न मुहम्मद मुसलमान हैं, न कृष्ण हिंदू हैं, न बुद्ध बौद्ध हैं और न जीसस ईसाई हैं--याद रखना! इस जगत में जिन्होंने जाना है, उनकी कोई जाति नहीं है।
गोरख ठीक कहते हैं: सो दरवेस अलह की जाति। वे तो अल्लाह की जाति के हो जाते हैं, उनकी फिर क्या जाति? अलह हमारा रंग, अलह हमारी जाति। फिर तो उनका रंग भी अल्लाह का है और जाति भी अल्लाह की। फिर वे हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं।
इस पृथ्वी पर संप्रदायों के कारण बड़ी अड़चन हुई, आदमी आदमी नहीं हो पाया है। और संप्रदायों की जड़ में क्या है? छोटे-छोटे शब्दों का उलझाव है। किसी ने राम कह दिया और झगड़ा शुरू हुआ।
बच्चा पैदा होता है, कोई नाम लेकर नहीं आता; शून्य आता है, अनाम आता है, अरूप आता है। फिर हम नाम थोप देते हैं उसके ऊपर। फिर नाम तुम जो चाहो थोप दो। तुम उसे रामप्रसाद कहो या खुदाबख्श, मतलब एक ही है। खुदाबख्श का मतलब रामप्रसाद होता है, रामप्रसाद का अर्थ खुदाबख्श होता है। मगर अगर रामप्रसाद कहा, तो हिंदू हो गया; अब यह मस्जिदें जलायेगा। और अगर खुदाबख्श कहा, तो यह मुसलमान हो गया; अब यह मूर्तियां तोड़ेगा। जरा-सा नाम दे दिया--और नाम तुमने दे दिया! और यह तो कोई नाम लेकर आया न था।
कोई हिंदू की तरह आता है? कोई मुसलमान की तरह आता है? अलह हमारी जाति--अल्लाह की तरह हम आते हैं, परमात्मा की तरह हम आते हैं, और फिर छोटे-छोटे नाम और छोटे-छोटे घेरे, छोटे-छोटे बांवड़े, फिर झगड़े और बड़े विवाद और बड़ी कलह...। और जो लोग कलह और विवाद करते हैं, सोचते हैं धार्मिक कृत्यों में लीन हैं!
मैं कल बहुत चौंका, खबर आयी पुलिस की तरफ से कि तीन हजार मुसलमान आश्रम पर हमला करने आ रहे हैं। मुसलमानों को क्या पड़ी है इस आश्रम पर हमला करने की? इकट्ठे भी हुए हैं! किसी ने अफवाह उड़ा दी है कि मैं मुसलमानों का दुश्मन हूं। किसी ने अफवाह उड़ा दी कि मैं मुहम्मद का दुश्मन हूं। बस, अफवाह काफी है। उपद्रव करने को जैसे हम तैयार ही बैठे हैं।
मैं अगर मुहम्मद का दुश्मन हूं तो फिर मुहम्मद का साथी कौन होगा? मैं मुसलमान नहीं हूं--उसी अर्थ में जिस अर्थ में मुहम्मद मुसलमान नहीं हैं। इत्ता तो पक्का है न, कि मुहम्मद मुसलमान नहीं थे। क्योंकि मुहम्मद जब पैदा हुए, तो इस्लाम धर्म था ही नहीं। मुहम्मद के बाद लोग मुसलमान हुए होंगे। जीसस तो ईसाई नहीं थे न, कैसे होते ईसाई? अभी तो ईसाइयत का जन्म भी नहीं हुआ था। और बुद्ध तो बौद्ध नहीं थे न? ऐसे ही मैं भी मुसलमान नहीं हूं मुहम्मद की भांति! और अगर मुहम्मद मुसलमान हैं तो मैं बड़े से बड़ा मुसलमान हूं! वैसे ही जैसे मैं हिंदू हूं, जैन हूं, बौद्ध हूं, यहूदी हूं।
जिसने जाना, सब धर्म उसके हैं और कोई धर्म उसका नहीं।
मगर उपद्रवी चित्त हैं--पंडित हैं, मौलवी हैं--जिनका सारा काम उपद्रव फैलाना है, आग लगाना है! किसी ने कह दिया होगा। अब ये आज के वचन हैं, अब ये फिर पहुंच जायेंगे मस्जिद तक। अब यह मेरा कोई कसूर भी नहीं है। अब यह गोरख कह रहे हैं, अब मैं करूं भी क्या? गोरख कहते हैं:
हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।
जोगी आषै अलख कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।
न वहां राम है, न वहां खुदा है--योगी उस अलख को पुकारता है। उसी अलख को हम पुकार रहे हैं। यह तो योगियों का जमघट है। यहां कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं, कोई ईसाई नहीं। अगर लोगों में थोड़ी समझ हो तो यह स्थान सबका प्यारा हो जाये। मगर लोग तो उल्टे हैं। न हम हिंदू हैं, इसलिए हिंदुओं के हम नहीं रहे; तो हिंदू यहां न आयेंगे, सकुचाएंगे। हम मुसलमान भी नहीं, तो मुसलमान भी सकुचायेगा; वह भी विरोधी हो जायेगा। ईसाई भी, यहूदी, जैन, बौद्ध। होना तो यह चाहिए था कि यह मंदिर उन सबका होता। है ही उन सबका, मगर उनकी नासमझियां हैं!
पुलिस ने खबर दी कि इस मोर्चे को रोकना जरूरी है, नहीं तो हम मुश्किल में पड़ जायेंगे। आज मुसलमान आयेंगे, कल ईसाई आ जायेंगे, परसों हिंदू आ जायेंगे; क्योंकि यह आश्रम तो किसी का भी नहीं है। यहां तो सभी हमला कर सकते हैं। यह बात भी जंची। होना तो यह था कि यह सभी के लिए प्रार्थना और ध्यान का और पूजा का स्थान बन जाता। मगर बीसवीं सदी में हम नाममात्र को हैं, हमारी असलियत अभी भी हजारों साल पुरानी पहाड़ों की गुफाओं में भटक रही है! हमारी आत्मा अभी भी आदिम है।
कृष्ण मुहम्मद संन्यासी हो गये, किसी ने पत्र लिख दिया: ‘गर्दन उतार लेंगे। तुमने इस्लाम धर्म के साथ विद्रोह कर दिया!’ अब कृष्ण मुहम्मद पहली दफा इस्लामी हुए हैं! पहली दफा इस्लाम का रंग चढ़ा। इस्लाम का अर्थ होता है: शांति। कृष्ण मुहम्मद पहली दफा मुसलमान हुए हैं, अगर मुसलमान का कोई भी अर्थ हो सकता हो। पहली दफा मोमिन हुए। पहली दफा आस्था आयी। अब तक मुसलमान थे लोगों की नजरों में, अब मुसलमान न रहे! संन्यासी होकर पहली दफा मुसलमान हुए हैं।
मगर पत्र आते हैं उनको कि ‘गर्दन उतार देंगे, सावधान! तुमने दगा कर दिया।’ किससे दगा कर दिया? कोई कृष्ण मुहम्मद के हृदय से भी तो पूछे! धर्म की पहली दफा थोड़ी-सी सुगंध मिली। धर्म का थोड़ा-सा उत्सव जीवन में आया। अब तक नाममात्र को मुसलमान थे, अब असलियत में मुसलमान हुए। अब ‘अलख’ को पुकारा।
मगर जो खुदा में उलझे हैं और जो राम में उलझे हैं, उनको अलख की पुकार समझ में नहीं आती। और ऐसा कोई हिंदू-मुसलमान के साथ ही नहीं है, सभी के साथ है। जैन यहां आते हैं, दूसरे जैन समझ लेते हैं कि गये काम से! सिक्ख यहां आकर संन्यासी हो जाते हैं तो मुझे पंजाब से पत्र लिखते हैं जाकर कि हम बड़ी मुश्किल में पड़े हैं, क्योंकि बाकी सिक्ख बड़ी झंझट डाल रहे हैं। वे तो कहते हैं कि तुम अगर सिक्ख हो, तो गैरिक वस्त्र छोड़ो; और अगर गैरिक वस्त्र पहनने हैं, तो फिर तुम सिक्ख नहीं हो; फिर हम बदला लेंगे।
कब आदमी में थोड़ी आदमियत आयेगी? कब हम समझेंगे मुहम्मद को, महावीर को, कृष्ण को, बुद्ध को, जीसस को? कब उनकी ऊंचाइयों, उनकी गहराइयों से हमारा नाता जुड़ेगा? कब तक हम क्षुद्र में ही डोलते रहेंगे? कब तक हम व्यर्थ के पंडितों--थोथे--जिनके हाथ में छाछ के सिवाय कुछ भी नहीं है...गोरख कहते हैं:
छाछि छाछि पंडिता पीवीं।
छाछ ही छाछ पी रहे हैं पंडित और उनके पास कुछ भी नहीं है--
सिधां माखण खाया।
मक्खन तो सिद्ध खा गये।
सिद्धों से पूछो धर्म का अर्थ। लेकिन सिद्धों का कोई धर्म नहीं होता, कोई मजहब नहीं होता। ये वचन एक अपूर्व सिद्ध के हैं, एक अपूर्व बुद्ध के हैं। समझपूर्वक गुनना, मनना।
हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।
दोनों ने परमात्मा का रूप बना लिया है, परमात्मा को आकार दे दिया है, परमात्मा को एक नाम दे दिया है। उसको विशेषण दे दिये हैं। उसको परिभाषा दे दी है। और जैसे ही परमात्मा की परिभाषा होती है, परमात्मा सीमित और संकुचित हो जाता है। और यही पाप है। परमात्मा को सीमित और संकुचित करना पाप है। न तो परमात्मा मंदिर में बंद हो सकता है, न मस्जिद में, न गिरजे में, न गुरुद्वारे में। परमात्मा तो विस्तीर्ण है--उतना ही, जितना यह अस्तित्व विस्तीर्ण है। परमात्मा तो सारे अस्तित्व पर फैला है; परमात्मा तो अस्तित्व का पर्यायवाची है।
लेकिन फिर उसे हम क्या कहें? गोरख कहते हैं: जोगी आषै अलष कौं। उसे हम अलख कहेंगे। यह प्यारा शब्द है! अलख का मतलब होता है: जो लखा न जा सके; अलक्ष्य, जिसका हम लक्ष्य न बना सकें। न तो आंख, न कान, न हाथ, कोई इंद्रिय जिस तक न पहुंच सके। मन भी जिस तक न पहुंच सके। जिस तक पहुंचना संभव ही न हो। जो लक्ष्य बन ही न सके।
फिर परमात्मा कैसे मिलता है? परमात्मा तक तुम्हें नहीं पहुंचना होता। जब तुम शांत हो जाते हो, मौन हो जाते हो, लीन हो जाते हो--प्रार्थना में, ध्यान में--तब परमात्मा तुम में उतर आता है। परमात्मा तुम तक पहुंचता है, तुम परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचते। सागर ही आता है बूंद में--सागर ही उतर आता है बूंद में! सागर तो तत्पर खड़ा है उतर आने को, मगर तुम द्वार-दरवाजे नहीं खोलते।
परमात्मा तो प्रतिपल चारों ओर से तुम्हारे भीतर बह जाने को आतुर है। सब ओर से तुम्हें घेर लेने को तैयार है, मगर तुमने अपने को ऐसा कस कर बंद किया है, रंध्र भी नहीं छोड़ी है, जरा-सा स्थान नहीं छोड़ा है। कोई मुसलमान की तरह अपने को बंद किये है, कोई हिंदू की तरह अपने को बंद किये है। और तुम सोच रहे हो कि तुम धार्मिक हो? धार्मिक वही है जो बंद नहीं है, जो निर्बंध है। धार्मिक वही है जो स्वच्छंद है। धार्मिक वही है जो संप्रदाय के अतीत है। धार्मिक वही है जिसके लिए सारा अस्तित्व मंदिर है, मस्जिद है, काबा है, कैलाश है।
जोगी आषै अलख कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।।
और वहां न तो राम पाया जाता है। धनुर्धारी राम नहीं मिलेंगे तुम्हें वहां...और न खुदा पाया जाता है। वहां कौन मिलता है? वहां शून्य आकाश मिलता है। वहां अस्तित्व की शुद्धता मिलती है। कोई अस्तित्ववान व्यक्ति नहीं मिलता। एक अनुभव मिलता है, एक प्रसाद, एक स्वाद! एक स्वाद, जो शाश्वत का है! एक स्वाद, जो समय में आबद्ध नहीं! उस स्वाद को जिसने चखा, उसी ने माखन चखा। वही सिद्ध हुआ।
हिंदू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।
हिंदू जाता है मंदिर और सोचता है मंदिर चले गये, परमात्मा का ध्यान कर लिया, घंटी बजायी, पूजा उतारी, थाल उतारा, मंदिर में रखी प्रतिमा पर दो फूल चढ़ाये, सिर झुकाया--काम पूरा हुआ। इतना सस्ता समझा है धर्म? ऐसे कहीं जीवन बदलता है? मंदिर की घंटियां बजाने से कहीं जीवन बदलेगा? पत्थरों की मूर्तियों के सामने सिर झुकाने से कहीं जीवन बदलेगा? काश, इतना आसान होता तो सारी पृथ्वी स्वर्ग हो गयी होती, कभी की स्वर्ग हो गयी होती! कितनी तो बार तुम मंदिर गये हो और खाली के खाली लौटे! कितनी बार मस्जिद गये हो, लेकर क्या आये हो? और कब तक यही करते रहोगे?
एक छोटी कहानी मैंने पढ़ी है। एक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एक चूहे पर प्रयोग कर रहा था। चूहे में बुद्धिमत्ता है या नहीं, इस संबंध में जानकारी के लिए कोशिश कर रहा था। उसने एक कठघरा बनाया। उसमें बारह छोटे-छोटे कमरे हैं। नौवें कमरे में उसने चूहे के खाने के लिए कुछ रख दिया और चूहे को कठघरे में छोड़ दिया। चूहा भागा इस कोने उस कोने, इस कमरे उस कमरे। और जब उसे नौवें कमरे में भोजन मिल गया, तो बड़ा मस्त हुआ। दोबारा जब चूहे को छोड़ा, तो वह सीधा नौवें कमरे की तरफ गया। और हर बार नौवें कमरे में उसे भोजन मिल गया, तो धीरे-धीरे उसकी आदत बन गयी। छोड़ो उसे कठघरे में, चला वह सीधे नौवें कमरे की तरफ। जब आदत मजबूत हो गयी तो मनोवैज्ञानिक ने नौवें कमरे में न रख कर मिठाइयां, तीसरे कमरे में रख दीं। चूहा गया नौवें कमरे में। बड़ा चकित हुआ। चारों तरफ देखा, चकराया--बात क्या हुई! इधर-उधर गया, फिर लौट कर नौवें कमरे में आया कि कुछ भूल-चूक तो नहीं हो गयी। तीसरी बार आया। फिर देखा कि नहीं, नौवें कमरे में कुछ भी नहीं है। खोजबीन की। तीसरे कमरे में पहुंच कर मिठाई पा ली। फिर तीसरे कमरे में जाने लगा।
उस वैज्ञानिक से किसी ने पूछा कि चूहे का अध्ययन करने से आदमी की बुद्धिमत्ता का कैसे पता चलेगा?
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: हां, चूहे और आदमी में बड़ा भेद है। चूहा एक ही बार जाकर समझ गया कि अब नौवें कमरे में मिठाई नहीं है; आदमी जिंदगी-भर न समझता। वह बार-बार नौवें में ही जाता, बार-बार नौवें में ही जाता...वह जाता ही रहता। और जितनी बार जाता उतनी ही जाने की आदत मजबूत होती जाती। चूहे और आदमी में इतना भेद है कि चूहा समझ गया कि अब नौवें में मिठाई नहीं है; आदमी कभी न समझता।
ठीक ऐसी दशा है तुम्हारे तथाकथित धार्मिकों की। मंदिर तुम कितने वर्षों से गये हो, कुछ पाया नहीं; फिर भी चले जाते हो आदतवश।...एक औपचारिकता, एक सामाजिक व्यवहार...जाना चाहिए इसलिए। मुझसे न मालूम कितने लोगों ने कहा है कि हम पूजा सुबह करते हैं, कुछ मिलता तो नहीं पूजा करने से, लेकिन न करें तो दिन-भर बेचैनी रहती है। लेकिन यह बेचैनी तो वैसी ही हुई जैसे कि तंबाकू खानेवाले को होती है, धूम्रपान करने वाले को होती है। अब कोई धूम्रपान करने से मिलता नहीं कुछ। क्या खाक मिलेगा! धुएं को भीतर ले गये, बाहर लाये, इससे क्या कुछ मिलने वाला है? कुछ खो भला जाये, मिलेगा क्या? लेकिन अगर न धुएं को बाहर-भीतर ले जाओ, तो बेचैनी मालूम होती है। आदत मजबूत हो गयी। तलफ लगती है।
तुम्हारी पूजा, तुम्हारे पाठ, तुम्हारे मंत्र कहीं तलफ तो नहीं हैं? क्योंकि अगर कुछ मिलता न हो, तो इतनी बुद्धिमत्ता होनी चाहिए कि कहीं और तलाशो, किसी और तरह तलाशो। कोई और मार्ग खोजो। बार-बार उसी कठघरे में जाने से क्या होगा? मगर लोग जिंदगी गुजार देते हैं। कोई गीता ही पढ़ रहा है तो जिंदगी-भर पढ़ता रहता है। और कोई कुरान पढ़ रहा है तो जिंदगी-भर पढ़ता रहता है। मिला है कुछ या नहीं? कभी एक बार सजग होकर सोचो।
हिंदू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।
जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।।
फिर जोगी क्या करता है? फिर योग का मार्ग क्या है? हजारों लोग मंदिरों में, हजारों लोग गिरजों में, हजारों लोग मस्जिदों में, लेकिन कहीं कुछ ज्योति तो दिखायी पड़ती नहीं। मंदिर-मस्जिद उलटे लड़वाते हैं; राजनीतियों के अड्डे बन गये हैं। वहां पहुंचकर कोई शांति की झलक तो दिखायी नहीं पड़ती, न ही कोई आनंदमग्न भाव जन्मता है, न उत्सव पैदा होता है। न पैरों में थिरक आती है, न प्राणों में पुलक। जीवन जैसा था वैसा का ही वैसा चलता रहता है।
जोगी ध्यावै परम पद!
इसलिए योगी मंदिर-मस्जिद का ध्यान नहीं करता, परम पद का ध्यान करता है। क्या है परम पद? कहां है परम पद? मंदिर भी बाहर, मस्जिद भी बाहर; परम पद तुम्हारे भीतर है। परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है। और तुम कहां खोज रहे हो बाहर? और जब तक तुम बाहर खोजते रहोगे, उसे तुम कभी पा न सकोगे।
सूफी फकीर स्त्री हुई: राबिया। उसके घर एक मेहमान था: फकीर हसन। सुबह थी, हसन बाहर आया। बड़ी सुंदर सुबह! सूरज ऊगा और पक्षी गीत गाते, और वृक्ष हरे, और वृक्षों पर फूल खिले, और आकाश में बड़े प्यारे रंग!...ऐसी प्यारी सुबह...और राबिया अब भी झोपड़े के भीतर है, तो हसन ने आवाज दी: राबिया, पागल राबिया! भीतर तू क्या करती है, बाहर आ। देख, परमात्मा ने कैसी सुंदर सुबह रची!
और राबिया खिलखिला कर हंसी। उसकी हंसी सुनना; अगर तुम्हें सुनायी पड़ जाये, तुम्हारी जिंदगी बदल जाये। राबिया अभी भी हंस रही है। राबिया की हंसी ऐसी नहीं है कि जो समाप्त हो जाये। राबिया उन थोड़ी-सी स्त्रियों में से एक है, जिनकी गणना बुद्ध, महावीर, मोहम्मद कृष्ण के साथ की जानी चाहिए। थोड़ी-सी स्त्रियों में से एक है। राबिया खिलखिला कर हंसी। हसन तो चौंक गया, खिलखिलाहट उसकी बड़ी दीवानी थी। और उसने कहा: पागल हसन! तू ही भीतर आ। मुझे मालूम है कि सुबह सुंदर है। मैंने बहुत सुबहें देखी हैं। उसकी प्रकृति बड़ी प्यारी है! उसकी सृष्टि बड़ी अदभुत है, अलौकिक है! मगर जिसने उसे देख लिया, उसके लिए तो उसकी प्रकृति बिलकुल फीकी हो जाती है। तू चित्र ही देख रहा है, मैं चित्रकार को देख रही हूं। तू काव्य ही सुन रहा है, मैं कवि के सामने खड़ी हूं। तूने सिर्फ प्रतिध्वनि सुनी है, मैं मूलस्रोत को सुन रही हूं। तू ही भीतर आ! मुझे बाहर मत बुला, मैं बाहर बहुत रह चुकी। तू भी बाहर बहुत रह चुका, अब भीतर आ।
बात तो छोटी-सी थी। हसन ने तो किसी और ही मतलब से कही थी। लेकिन सिद्ध पुरुषों की यही खूबी है कि छोटी-छोटी बातों को बड़े-बड़े अर्थ दे देते हैं। छोटी-छोटी बातें उनके हाथ का स्पर्श पा कर स्वर्णिम हो जाती हैं। उसने तो ऐसे ही पुकारा था कि राबिया, तू भीतर क्या करती है? सुबह, बड़ी सुंदर सुबह है, बाहर आ। राबिया ने बात बदल दी। राबिया ने इस छोटी-सी घटना को एक आध्यात्मिक उत्प्रेरणा बना दी। उसने कहा: नहीं हसन, तू ही भीतर आ, क्योंकि मैं भीतर उस मालिक को देख रही हूं, जिसने बाहर की सुबह बनायी है।
जिसने भीतर छिपे मालिक को देख लिया, सब मंदिर मिल गये, सब मस्जिदें मिल गयीं। फिर तुम जहां हो वहीं मंदिर है, वहीं मस्जिद है। मगर नाराज हो जायेंगे लोग। लोग नाराज हो जाते हैं। लोग सत्य की बातों से बड़े नाराज हो जाते हैं। क्योंकि मैंने कह दिया कि जहां तुम बैठे हो अगर तुम शांत हो, मौन हो, आनंदित हो, तो वहीं काबा है--बस मौलवी नाराज हो गये!...काबा! काबा पवित्र स्थल है। मैं तुम से फिर कहता हूं: जहां ध्यानी बैठ जाता है वहीं काबा है। उसे कहीं और जाने की जरूरत नहीं।
मंसूर अलहिल्लाज को जब ज्ञान उत्पन्न हुआ, तो उसके भीतर से अनलहक की आवाज उठने लगी--मैं परमात्मा हूं! अंधे लोग क्षमा नहीं कर सकते ऐसी बात। अंधे भी बड़े जिद्दी हैं। सदियां बीत गयीं, आंखवाले आते रहे और जाते रहे, मगर अंधे भी बड़े जिद्दी हैं। सदियां बीत गयीं। दीये जलते रहे, लेकिन अंधे बुझाते रहे। अमृत आता रहा, लेकिन अंधे इंकार करते रहे। आंख का उपचार हो सकता था, लेकिन अंधे भागते रहे उपचार से।
मंसूर ने आवाज दी: अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक, मैं ईश्वर हूं! अब यह एक मुसलमान देश में इस तरह की बात कहनी बड़ी खतरनाक है। मंसूर के गुरु ने कहा कि मंसूर, इस तरह की बात मत कर। मुझे भी मालूम है। मेरे भीतर भी यह आवाज उठी थी, लेकिन दबा गया। क्योंकि नाहक उपद्रव क्यों खड़ा करना, पी गया। तू भी पी जा।
गुरु ने कहा, तो मंसूर ने कहा: आप कहते हैं तो ऐसा ही करूंगा। लेकिन फिर जब भी ध्यान में बैठे तब फिर आवाज, वही पुकार--अनलहक!
गुरु जुन्नैद ने कहा कि सुन, तू वचन भी दे देता है और तोड़ देता है।
मंसूर ने कहा: मैं नहीं तोड़ता वचन। जब तक मेरा वश रहता है, जब तक मैं रहता हूं तब तक वचन का पालन करता हूं। लेकिन एक ऐसी घड़ी आती है जब मैं नहीं रहता। फिर कौन वचन का पालन करे? फिर वही पुकारता है अनलहक, मैं क्या करूं? उसने तो वचन दिया नहीं, वचन मैं देता हूं। इसलिए जहां तक मेरी सामर्थ्य है, वहां तक दबाये रखता हूं। लेकिन जब मेरी सामर्थ्य छूट जाती है, जब मैं ही नहीं होता, परमात्मा मेरे भीतर से बोल उठता है, तो फिर कुछ किया नहीं जा सकता।
जुन्नैद ने कोई उपाय न देख कर...क्योंकि मौलवियों तक खबरें पहुंचने लगीं। और मौलवी ये खबरें ले जाने लगे राजदरबार तक कि यह मंसूर काफिर हो गया है। जैसे कृष्ण मुहम्मद काफिर हो गये न, राधा मोहम्मद काफिर हो गयी--ऐसे ही मंसूर काफिर हो गया! लोग खबरें ले जाने लगे। जुन्नैद को प्रेम था मंसूर से। जुन्नैद ने कहा: तू एक काम कर, तू कुछ दिन के लिये तीर्थयात्रा पर चला जा। जा काबा की यात्रा कर आ। यात्रा भी हो जायेगी और वहां तू खूब रास्ते में, एकांत में, जंगल में, रेगिस्तानों में चिल्ला लेना जितना चिल्लाना हो: अनलहक! क्योंकि रेगिस्तान इतना नासमझ नहीं है जितने लोग! पत्थर-पहाड़ इतने मूढ़ नहीं हैं जितने लोग! वे तेरी बात समझेंगे। तू जा, और एक बार तीर्थयात्रा कर आ।
यह सिर्फ बहाना था कि एक साल, दो साल के लिए...क्योंकि उन दिनों हज की यात्रा पर जाना वर्षों का काम था। पैदल जाना, लंबी यात्रा। लौटना हो भी कि न हो। जंगल और पहाड़ और रेगिस्तान और नदियां और बीमारियां और हजार उपद्रव थे...जंगली जानवर। दो-चार वर्ष बात टल जायेगी। फिर लौटेगा, तब तक शायद शांत भी हो जाये। अभी नयी-नयी घटना घटी है, अभी ताजा-ताजा परमात्मा बोला है, इसलिए रोकने में असमर्थ है। इस बीच थोड़ी क्षमता भी बढ़ जायेगी।
गुरु ने कहा, तो मंसूर ने झुक कर नमस्कार किया और कहा: आप कहते हैं तो यह चला यात्रा को। अभी कर आता हूं काबा, हज।
गुरु तो बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन प्रसन्नता ज्यादा देर न टिकी, क्योंकि मंसूर उठा और अपने गुरु के सात चक्कर लगाये और आ कर बैठ गया। और उसने कहा। यह हो गयी यात्रा। तुम मेरे काबा, तुम मेरे तीर्थ! और कहां जाना है, तुम्हें छोड़ कर कहां जाना है?
जरूर मुसलमान नाराज हो गये होंगे। देहधारी मनुष्य को काबा कहना! अनलहक की घोषणा करना! मैं परमात्मा हूं, ऐसी घोषणा करना! मंसूर को सूली दी। मंसूर के हाथ-पैर काट डाले।
सदियां बीत गयीं, लेकिन बात नहीं बदलती! अभी भी वे कृष्ण मुहम्मद को पत्र लिखते हैं कि गर्दन काट देंगे। आदमी कभी बदलेगा या नहीं बदलेगा? यहां ध्यान करने वाले लोगों पर हमला कर देंगे, कि गर्दनें काट देंगे। आदमी कभी बदलेगा या नहीं बदलेगा?
न तो मंदिर में है परमात्मा, न मस्जिद में है; परमात्मा तुम्हारे भीतर है। और जिसने उसे वहां नहीं पाया, उसे कहीं भी नहीं पा सकेगा। और जिसने उसे वहां पाया, वह सब जगह पा लेगा।
जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै...।
और इसलिए अड़चनें खड़ी होंगी। कोई निंदा करेगा, कोई वंदन करेगा। ज्ञानी को यह अड़चन सदा होगी: कोई निंदा करेगा, कोई प्रशंसा करेगा। कोई न्यंदै कोई व्यंदै। और वंदन करने वाले तो थोड़े होंगे, निंदन करने वाले बहुत होंगे। सौ में से निन्यानबे तो गालियां देंगे; कोई एक-आध, कोई एक-आध माई का लाल, कोई एक-आध विरला, कोई एक-आध हिम्मतवर प्रशंसा करेगा।
प्रशंसा तो वही कर सकता है, जिसे थोड़ी झलक मिली है; एक-आध किरण सही, न मिला हो सूरज; एक-आध बूंद सही, न मिला हो सागर। जरा-सी सुगंध ही आयी हो, लेकिन नासापुट तक पहुंची हो, वही वंदन कर सकेगा।
तो वंदन करने वाला तो कभी कोई एक-आध होगा, निंदा करने वाले बहुत होंगे। ध्यानी को, योगी को, खोजी को स्मरण रखना चाहिए: गालियां बहुत मिलेंगी, फूल-हार कभी-कभी।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै, कोई करै हमारी आसा।
और कुछ लोग सोचते हैं कि हम से कुछ मिल जायेगा, इसलिए प्रशंसा करते हैं। वह प्रशंसा भी सच्ची नहीं है फिर। उन विरले लोगों में भी जो प्रशंसा करते हैं, उनमें से कुछ इसलिए करते हैं अधिक कि कुछ मिल जायेगा, कि योगी से कुछ चमत्कार हो जायेगा। किसी को बेटा नहीं है। किसी को नौकरी नहीं है। किसी को कोई बीमारी है। किसी को कुछ है, किसी को कुछ है, जीवन की हजार अड़चनें हैं। तो जो नमस्कार करने भी आते हैं ध्यानी को, सिद्ध को, बुद्ध को, वे भी बुद्ध को नमस्कार करने नहीं आते। वे भी इस आशा में आते हैं कि शायद अपनी कोई कामना पूरी हो जाये। वे कल्पवृक्ष की तलाश में हैं, बुद्धत्व की तलाश में नहीं। वे सोचते हैं बुद्ध के पास शायद उनके आशीर्वाद से, जो हम अपने ही प्रयास से नहीं कर पाये हैं, उनके प्रसाद से हो जाये।
कोई करै हमारी आसा।
लेकिन जिन्होंने जाना है, वे तुम्हें ऐसा आशीर्वाद नहीं दे सकते जो तुम्हें और संसार में उलझा दे। उन्होंने स्वयं ही सारी आशाएं छोड़ दी हैं। वे तुम्हारी आशाओं को पूरा करने का कारण नहीं बन सकते। जिस बात को उन्होंने ही गलत जान कर छोड़ दिया है, वही गलत वे तुम्हें नहीं दे सकते। जिसे उन्होंने ही बंधन माना है, वे कैसे तुम्हें आभूषण बना कर बंधनों को दे देंगे। वे जंजीरें हैं। उनके पास तुम जाओगे, तो वे तुम से कहेंगे कि तुम भी छोड़ दो सब आशा।
इस जगत में सब आशा व्यर्थ है, क्योंकि यह आशा सिर्फ भटकाती है--भ्रमजाल है, मृगमाया! ये सोने के जो मृग दिखायी पड़ते हैं, ये कहीं होते नहीं। और तुम तो तुम, राम तक धोखे में आ जाते हैं! सोने का मृग! चले तलाश पर। रावण के कारण राम ने सीता नहीं खोई, सोने के मृग के कारण खोई। सोने के मृग की तलाश में चल पड़े। और जो बाहर निकल जाता है सोने के मृग की तलाश में, उसके भीतर की सीता खो जाती है। यह तो प्रतीक-कथा है। यह तो प्यारी कथा है। राम चले खोजने बाहर, भीतर की सीता खो गयी, आत्मा खो गयी।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै, कोई करै हमारी आसा।
गोरख कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।।
और गोरख कहते हैं, ठीक से सुन लो, समझ लो। हम तो खरी बात कह रहे हैं कि हमारे रास्ते पर आशा आती ही नहीं। हमारे रास्ते पर तो परम निराशा में ही कोई उतरता है।
परम निराशा को समझना। निराशा का अर्थ होता है: इस जगत में न कुछ मिला है, न मिल सकता है। सब स्वप्न-जाल है। बस स्वप्न ही स्वप्न है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं, पास जाने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता।
गोरख कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।
यह तो पंथ ही उनका है, जो उदासीन हो गये हैं; जिन्होंने देख ली सब आशाएं और सब आशाएं उघाड़ कर पहचान लीं और भीतर कुछ भी नहीं पाया। यह रास्ता उनका है। इस रास्ते पर वे ही गतिमान होते हैं। संसार जिनके लिए व्यर्थ हो गया है, वे ही तो भीतर की यात्रा पर निकलते हैं। उनके पास तुम किसी आशा के कारण मत जाना।
मुझे सपने दिखाओ मत
कि सपने टूट जाते हैं,
न अपनापन दिखाओ तुम
कि अपने छूट जाते हैं!
न खो जाना रसीली तान में
कल फूल कहते थे--
भ्रमर हमका रसीले गीत
गाकर लूट जाते हैं!
कहानी सिंधु-मंथन की
यही फिर-फिर जताती है,
सुधा लेकर हलाहल के
पिलाये घूंट जाते हैं!
मुझे कल रात रो-रो कर
बताया एक बच्चे ने--
घरौंदे मत बना लेना,
घरौंदे फूट जाते हैं!
किनारे कह रहे थे--
लौटकर आती नहीं लहरें,
वचन सौ-सौ मिले हों, पर
निकल सब झूठ जाते हैं!
छिपाकर चंद्रमा को,
सिंधु से काली घटा बोली--
छटा के देवता ये
अर्चना से रूठ जाते हैं!
यहां सब सपने ही सपने हैं। जिसको यह दिखायी पड़ गया कि बाहर कुछ भी नहीं है, वही अंतर की खोज पर निकलता है। बाहर से हारा हुआ ही भीतर जाता है। हारे को हरिनाम! इसलिए हार बड़ा सौभाग्य है, जीत बड़ी महंगी पड़ती है। इस दुनिया में जो सफल हो जाते हैं, वे चूक जाते हैं। इस दुनिया में सफल होना महंगा सौदा है। धन मिल गया, पद मिल गया, प्रतिष्ठा मिल गयी, इतरा गये, अकड़ गये, मदमस्त हो गये--चूक गये।
धन्य हैं वे जो हार जाते हैं; जिन्हें न पद न प्रतिष्ठा न सफलता--कुछ भी नहीं मिलता। धन्य हैं वे, अगर समझ पायें तो। अगर अपनी धन्यता को पहचान पायें तो। अगर देख पायें कि कुछ भी नहीं मिलता। सब घरौंदे फूट जाते हैं। जिनको ऐसा दिखायी पड़ जाये, उनके जीवन में क्रांति का अपूर्व क्षण आ गया।
गोरख कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
बदंत गोरखनाथ आत्मां विचारत, ज्यूं जल दीसै चंदा।।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा...।
इन खेलों में मत पड़ जाना कि लगा कर बैठ गये आसन, कि हिलेंगे नहीं, कि बैठेंगे पत्थर की मूरत की तरह। इन खेलों में मत पड़ जाना। देह का आसन जमा कर बैठ गये, इससे कुछ भी न होगा। ये तो सर्कसी बातें हैं।
पवण निरोधिबा...।
यह भी मत सोच लेना कि श्वास को भीतर रोक लेते हैं आधा-आधा घंटे, कि जमीन में सो जाते हैं दिन-दिन के लिए, ऊपर से मिट्टी डलवा लेते हैं, फिर जिंदा निकल आते हैं। इन सब खेलों में मत उलझना। यह प्रश्न न तो देह का है, न श्वास का है; जो देह के और श्वास के पार है, उसका है। देह को सम्हाल लो, तो घंटों बैठे रह सकते हो एक ही आसन में। श्वास को सम्हाल लो तो श्वास को रोककर रह सकते हो। पर खयाल रखना, ये व्यर्थ की ही बातें हैं। इनसे कुछ हाथ लगेगा नहीं।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
इससे तुम्हें कुछ लाभ होंगे, सम्मान मिलेगा बहुत। लोग कहेंगे: अहा, महायोगी, सिद्धपुरुष! लोग सम्मान देंगे।
यह दुनिया बड़ी अजीब है। यहां असली बुद्धों को अपमान मिलता है, यहां नकली बुद्धों को सम्मान मिल जाता है। यहां मंसूर जैसे प्यारे आदमी को तो सूली लग जाती है। और अगर कोई रास्ते पर आ कर, कोई बाजीगर जमीन में गड़ कर खड़ा हो जाये, एक हाथ ऊपर निकाल कर सिर तक अपने को खपा ले, फिर देखो कैसी भीड़ लगती है, कैसा सम्मान शुरू होता है! और कभी उस आदमी को गौर से देखा, जो चौबीस घंटे जमीन में गड़ा रहता है? बाहर निकाल कर कभी उसके पास बैठे? उसके पास कोई सत्य की सुगंध पायी? उसके पास कोई तरंग उठी? नहीं, इस सबकी किसी को चिंता ही नहीं है? लोग तो अचंभों में रस लेते हैं।
बुद्धपुरुष तो सीधे-सरल होते हैं, अत्यंत सामान्य होते हैं। उल्टे-सीधे कामों में उन्हें क्या रस हो सकता है? कोई बुद्ध कांटों की सेज बिछा कर लेटेगा? किसलिए? कोई प्रदर्शनी करनी है? लेकिन कोई कांटों की सेज बिछाकर लेट जाये, तो चले तुम। किसी ने मुंह में भाला भोंक लिया, चले तुम, चली भीड़, मूढ़ों की जमात इकट्ठी हुई! असल में तुम्हारी भीड़ जहां भी इकट्ठी होती हो, समझ लेना कि कुछ-न-कुछ गलत हो रहा होगा; नहीं तो इतनी भीड़ इकट्ठी नहीं हो सकती थी।
एक अदभुत फकीर थे: महात्मा भगवानदीन। उनके साथ एक बार मैं यात्रा पर था। वे बड़े प्यारे व्यक्ति थे। मगर अगर सभा में कभी बोलते और कोई ताली बजा देता, तो बड़े उदास हो जाते। एक-दो बार मैंने यह देखा कि तालियां बजती हैं, तो वे बड़े उदास हो जाते हैं। तो मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है, जब लोग तालियां बजाते हैं आप उदास क्यों हो जाते हैं? तो उन्होंने कहा कि जब लोग तालियां बजाते हैं, तब मुझे पक्का हो जाता है कि मैंने जरूर कोई गलत बात कही होगी; नहीं तो लोग और तालियां बजायें? लोग तो गलत को ही पकड़ पाते हैं। तो लोगों की तालियां बजीं कि मेरे चित्त में तत्काल खटका लगता है कि जरूर कुछ-न-कुछ बात गलत हो गयी। कुछ ऐसा कह दिया जो लोगों की समझ में आ गया--और समझ में ही उनके गलत आता है। प्रशंसा कर रहे हैं तो जरूर कुछ मुझ से भूल हो गयी। ये वे ही तो लोग हैं, जो सत्य को सुन कर पत्थर मारते हैं। ये सत्य को सुन कर तालियां कैसे बजायेंगे।
मुझे उस बूढ़े फकीर की बात जमी। यह बात सच है। ये वे ही लोग हैं जिन्होंने बुद्ध को पत्थर मारे, महावीर के कानों में सींकचे ठोक दिये; जिन्होंने मुहम्मद को जिंदगी-भर शांति से न बैठने दिया। ये वे ही लोग हैं, जो मुहम्मद का पीछा करते रहे एक गांव से दूसरे गांव। मुहम्मद की जान हमेशा खतरे में बनाये रखी जिन्होंने, ये वे ही लोग हैं। मगर अब मुहम्मद की पूजा कर रहे हैं। अब महावीर की पूजा कर रहे हैं। अब बुद्ध का आराधन चल रहा है। पश्चात्ताप कर रहे हो, प्रायश्चित कर रहे हो? जो दुर्व्यवहार किया था उसके लिए अब रो रहे हो?
मगर तुम अब भी वही करोगे। तुम अब भी वही कर रहे हो। अब भी अगर कोई बुद्ध खड़ा होगा, तुम्हारा व्यवहार तत्क्षण पुराना का पुराना हो जायेगा। तुमने कुछ सीखा नहीं है सदियों में। तुम जैसे सीखोगे ही नहीं। जैसे तुमने जिद्द कर रखी है न सीखने की।
आसण बैसिबा पवन निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
तो धंधा तो खूब चल सकता है, सम्मान भी खूब मिलेगा। अगर आसन मार कर बैठ गये और श्वास रोक ली, तो बहुत तुम्हारा सम्मान करनेवाले मिल जायेंगे, बहुत तुम्हारी पूजा करनेवाले मिल जायेंगे।
एक गांव में मैं गया। किसी ने मुझे कहा कि गांव में एक बड़े फकीर आये हुए हैं। मैंने पूछा, कौन?
उनका नाम है: खड़ेश्री बाबा।
मैंने कहा: यह भी खूब नाम है, बात क्या है?
तो उन्होंने कहा: वे खड़े हैं दस साल से; बैठते ही नहीं!
पड़ोस में ही थे। सुबह जब मैं घूमने निकला, तो दिखाई पड़ गये, एक झाड़ के नीचे खड़े थे। झाड़ से एक झूला लटका रखा था। झूले पर हाथ टेके...क्योंकि नींद तो आयेगी ही रात, गिर न पड़ जायें। और दो शिष्य रात साथ लगे रहते थे; वे दिन-भर सोते थे शिष्य, और रात-भर उनको सम्हाले रखते थे कि वे गिर न जायें। लेटना तो है ही नहीं। उनके पैर सूज गये। दस साल कोई खड़ा रहेगा! सारा शरीर तो सूख गया, पैर हाथी-पांव हो गये। यह रुग्ण मनुष्य अकारण कष्ट झेल रहा है। मगर पूजा चल रही है! कीर्तन चल रहा है--सुबह सांझ रात, चौबीस घंटे!
मैंने लोगों से पूछा कि जरा इनकी आंखों में भी तो देखो, इनके चेहरे पर भी देखो! न कोई प्रतिभा का लक्षण है, न कोई शांति है, न कोई प्रसाद है, न कोई काव्य झरता मालूम होता है। सिर्फ ये मोटे पांव, ये हाथी-पांव...। तुम इनकी पूजा किये जा रहे हो! पर वे बोले कि देखिये तो चमत्कार, दस साल हो गए! दस साल नहीं, दस सदियां हो जाएं तो भी क्या होगा? कोई मूढ़ दस साल तक खड़ा रहे, इससे प्रज्ञावान हो जायेगा? मूढ़ता और घनी हो जायेगी। मूढ़ता और मजबूत हो जायेगी।
आसन बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
बदंत गोरखनाथ आत्मां विचारत...।
कहते हैं गोरख: करना हो तो एक ही बात करना, वह जो भीतर छिपा है उसका विचार करना। मैं कौन हूं, इस विचार में उतरना।
…ज्यों जल दीसै चंदा!
और अगर तुम उस तक पहुंच गये, तो जैसे जल में चंद्रमा दिखायी पड़ता है, ऐसे ही अपने भीतर परमात्मा की झलक मिल जायेगी।
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
माना, यमुना के तट पर आज उदासी,
माना, उजड़ा-उजड़ा-सा है वृंदावन;
माना, पनघट वीरान पड़ा बरसों से,
हर ओर दिखाई देता है सूनापन!
उर में मुरली की तान बसा कर देखो--
सूनेपन में भी रास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
प्रियतम को दूर बताकर तुम रोते हो,
तुमने शायद तन को ही प्यार किया है,
मन की समीपता को न कभी पहचाना,
अपराध न यह अब तक स्वीकार किया है!
मन में छलिया का रूप बसाकर देखो--
छलना में भी विश्वास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
कागज के फूल चढ़ाते हो प्रतिमा पर?
तुम पूजा को खिलवार समझ बैठे हो!
प्यासे मृग-से दीवाने बने हुए हो,
बालू को ही जलधार समझ बैठे हो!
तन से जो कोसों दूर दिखाई देता,
मन में खोजो तो पास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मुधमास दिखाई देगा!
मंजिल तो न्यौछावर होने आयेगी,
बहके-बहके चरणों की चाल संभालो;
मनुहार करो मत चांद-सितारों की तुम,
केवल अपने उर को आकाश बना लो!
मीरा जैसा संकल्प संजोकर देखो,
विष में अमृत का वास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
आकाश बनो। निर्विचार बनो। मौन बनो। भीतर जगो; भीतर जाग कर देखो। एक ही प्रश्न है सार्थक पूछने जैसा--मैं कौन हूं? पूछे जाओ, पूछे जाओ, पूछे जाओ...तीर की तरह चुभने दो इस प्रश्न को--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और बहुत उत्तर राह में आयेंगे, कोई उत्तर स्वीकार न करना। एक किनारे से कुरान बोलेगा कि तुम कौन हो। कह देना कि चुप! एक तरफ से गीता बोलेगी कि तुम कौन हो। कह देना कि चुप। एक तरफ से वेद बोलेंगे, धम्मपद बोलेगा। कह देना, चुप। सुनना ही मत शास्त्रों की। और ऐसा नहीं कि शास्त्र गलत कहते हैं। शास्त्र बिलकुल सही कहते हैं। मगर तुम शास्त्र की सुनना मत; अन्यथा तुम अपनी सुनने से वंचित रह जाओगे। तुम तो चले जाना भीतर और भीतर...और इंकार करते जाना थोथे ज्ञान को, जो तुमने सीख लिया बाहर से--पंडित से, मौलवी से, पुरोहित से। कह देना नहीं, मुझे जानना है। मुझे स्वयं ही जानना है। मैं अपना ही जानूंगा तो मानूंगा, अन्यथा कुछ न मानूंगा।
हटा देना सब शास्त्र। चले जाना भीतर। हो जाना बिना शास्त्र के, बिना विचार के। एक ऐसी घड़ी आयेगी, प्रश्न ही गूंजता रह जायेगा, कोई उत्तर न उठेगा। मैं कौन हूं?...और कोई उत्तर न आयेगा। समझना, आधी यात्रा पूरी हो गयी, अब सब उत्तर गिर गए। बासे, सिखाए गए पढ़ाए गए, तोतों की तरह रटे गये...ग्रामोफोन रिकॉर्ड सब छूट गए पीछे। अब सिर्फ तुम्हारा प्रश्न बचा है--मैं कौन हूं? यह आधी यात्रा। एक कदम पूरा हो गया--और बड़ा कदम पूरा हो गया! असली कदम पूरा हो गया। दूसरा कदम तो बहुत आसान है।
अब पूछते जाना: मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और तुम चकित हो जाओगे, एक घड़ी आयेगी, प्रश्न भी छूट जायेगा। ऐसा सन्नाटा खिंचेगा कि प्रश्न भी बनाये न बनेगा। चाहोगे भी पूछना, तो न पूछ सकोगे। पहले उत्तर गिर जायेंगे--बासे, सिखाये, शास्त्रों से पढ़े। फिर प्रश्न गिर जायेगा। और जहां न प्रश्न है न उत्तर है, वहीं उत्तर है! अब प्रश्न भी नहीं कि मैं कौन हूं! लेकिन तुम जागोगे और देखोगे। तीर जगा गया। तीर छिद गया हृदय में। उसकी पीड़ा तुम्हें चौंका गयी, उठा गयी, तोड़ गई तंद्रा, छूट गयी नींद, हो गयी सुबह। और तब तुम आंख खोल कर देखना। तब तुम चकित हो जाओगे; यह जगत उसी का जगत है! इसके पत्ते-पत्ते पर उसी की छाप है! इसके कण-कण पर उसी का हस्ताक्षर है!
और फिर गीता पढ़ना। फिर कुरान गुनगुनाना। और तुम हैरान हो जाओगे, जो तुमने जाना है, वही कुरान है। जो तुमने जाना है वही गीता है। अब गीता और कुरान और धम्मपद और बाइबिल, सब तुम्हारे गवाह हो गये। मेरी ये बातें पंडितों को, मौलवियों को बड़ा कष्ट दे जाती हैं। और मैं यह कह रहा हूं कि तुम असली कुरान कैसे पाओ, तुम्हारे भीतर असली कुरान की आयत कैसे उठे। मैं तुम्हें असली कुरान खोजने की कुंजी दे रहा हूं। मगर जो कुरान रटकर बैठा है उसे तो अड़चन लगेगी। वह तो कहेगा कि मैंने कहा, कुरान की आवाज आये तो मत सुनना; कह देना चुप रहो। यह तो अपमान हो गया कुरान का। समझोगे या नहीं समझोगे?
मुझ से ज्यादा किसी ने प्रेम किया होगा कुरान को, उपनिषद को, गीता को, बाइबिल को? मुझसे ज्यादा किसी ने स्मरण किया है मुहम्मद का, महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का? लेकिन फिर भी मैं तुम से कहता हूं: राह पर जब तुम्हें बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट और मुहम्मद मिलें, हटा देना; कहना, हट जाओ मार्ग से; रास्ता दो। मुझे जाने दो। मुझे रोको मत, मुझे अटकाओ मत। मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंच जाने दो। मैं तुम्हें भी तभी जान पाऊंगा जब मैं अपने पर पहुंच गया हूं। उसके पहले तुम बासे हो, उधार हो। उसके पहले मैं तुम्हें खाक समझूंगा! तुम कुछ कहोगे, मैं कुछ और समझूंगा। तुम सत्य कहोगे, मैं शब्द पकड़ लूंगा। जब तक तुम्हारी जैसी ही भाव-दशा मेरी न हो जाये।
जैसे मुहम्मद के निर्जन निवास में पहाड़ पर एक दिन कुरान उतरी...। जैसी दशा मुहम्मद की उस दिन थी जिसमें कुरान उतरी, जब तक तुम्हारी न हो जाये, तब तक तुम कुरान को न जान पाओगे। गीता को जानना हो, तो कृष्ण जैसा चित्त चाहिए। अर्जुन भी हो गये, तो भी न जान पाओगे। अर्जुन, देखो कितना विवाद कर रहा है कृष्ण से; नहीं समझ पा रहा है। अर्जुन इतने निकट है, इतना मित्र, संगी-साथी है बचपन का। एक-दूसरे के साथ खेले हैं। एक-दूसरे के साथ मिले-जुले हैं, मैत्री है; मगर फिर भी अर्जुन नहीं समझ पा रहा है। कृष्ण कुछ कहते हैं, अर्जुन कुछ पूछे चला जाता है।
तुम कैसे समझोगे--तुम जो इतने दूर हो? हजारों सालों का फासला है तुम्हारे और कृष्ण के बीच--भाषा का, भाव का, विचार का, संस्कार का, संस्कृति का, समाज का, इतना लंबा फासला...। अर्जुन नहीं समझ पा रहा है, तुम कैसे समझ पाओगे? नहीं, तुम कुछ का कुछ समझ लोगे।
कृष्ण-चेतना तुम्हारे भीतर पैदा हो, तो ही तुम गीता समझ पाओगे। और मुहम्मद जैसा भाव तुम्हारे भीतर हो, तो तुम्हारे भीतर भी कुरान उतरेगी। कोई मुहम्मद पर ही परमात्मा की विशेष कृपा थोड़े ही है। परमात्मा किसी पर विशेष कृपा नहीं करता; उसकी अनुकंपा समान है। सब पर एक जैसी बरस रही है। जो खाली हैं वे भर जाते हैं, जो भरे हैं वे खाली रह जाते हैं--बस इतना ही खयाल रखना। वर्षा होती है पहाड़ों पर भी, लेकिन पहाड़ खाली रह जाते हैं, क्योंकि भरे हैं। झीलों में भी वर्षा होती है, लेकिन झीलें भर जाती हैं, क्योंकि खाली हैं।
शून्य हो जाओ पहले तो भर जाओगे। मगर तुम्हारा कुरान, तुम्हारी गीता, तुम्हारी बाइबिल, तुम्हारे वेद भरे हैं। तुम पहाड़ बने बैठे हो--ज्ञान के पहाड़! उसी से तुम अज्ञानी हो। हटाओ इन पहाड़ों को। इन पहाड़ों की ओट में अपने अज्ञान को छिपाओ मत। अपने अज्ञान को नग्न करो, निर्वस्त्र करो। खोल दो उसके सामने अपने सारे घावों को। खाली हो तो खाली सही; जैसे भी हो उसके हो। सूने हो, शून्य हो, शून्य सही; जैसे भी हो उसके हो। अपने शून्य पात्र को उसके सामने कर दो। और तुम तत्क्षण भर जाओगे उसकी रोशनी से। और वही रोशनी प्रमाण बन जायेगी सारे शास्त्रों का। उसी रोशनी में तुम्हारे भीतर शास्त्र का जन्म शुरू हो जायेगा।
शास्त्र तो रोज पैदा होते हैं; जब भी कोई ध्यान को उपलब्ध होता है तभी शास्त्र पैदा हो जाते हैं। जैसे गंगोत्री से गंगा निकलती है, ऐसे समाधि से शास्त्र निकलते हैं।
केता आवै केता जाइ। केता मांगै केता खाइ।
केता रुष-बिरष तलि रहै। गोरख अनभै कासौं कहै।।
गोरख कहते हैं: कई आते हैं और कई जाते हैं। मगर मुश्किल से कोई एक-आध ऐसा आता है जो टिक रहे। यहां भी कई आते हैं कई जाते हैं। केता आवै केता जाइ। और जो आ कर चला जाता है वह सोचता है वहां कुछ भी नहीं था, इसलिए चले आये...। लेने की क्षमता न थी। खुलने की हिम्मत न थी। अज्ञान को स्वीकार करने की तत्परता न थी। नग्न होने, उघड़ने का साहस न जुटा सके, इसलिए पलायन कर गये। मगर सोच कर यही जाता है जाने वाला कि यहां क्या है? यहां कुछ नहीं, कहीं और चलें।
केता आवै केता जाइ।
ऐसा गोरख ने भी देखा होगा। न मालूम कितने लोग आये, न मालूम कितने लोग गये।
केता मांगै केता खाइ।
बहुत से मांगते हैं ज्ञान की भीख, मगर बहुत कम हैं जो उसे खाते हैं और पचाते हैं। और जब तक ज्ञान पचाया न जाये, जब तक खून-मांस-मज्जा न बने, तब तक कुछ भी न होगा। लोग ज्ञान को ऐसे ही भर लेते हैं खोपड़ी में, जैसे कोई बिना पचाये भोजन को अपने पेट में डालता जाये। इससे तो रोग पैदा होगा, उपाधि लगेगी, व्याधि लगेगी। इससे निरोगता न आयेगी।
जैसे भोजन बे-पचा पेट में पड़ा रहे तो जहर है, ऐसे ही ज्ञान बे-पचा मस्तिष्क में पड़ा रहे तो जहर है। ऐसे ही जहर से पंडित और मौलवी पैदा होते हैं। ज्ञानी बनना हो तो खयाल रखना: पाचन की शक्ति जगानी होगी। परमात्मा को पचाने की क्षमता चाहिए। ध्यान में ही यह हो सकेगा। भीतर ध्यान का आकाश होगा; तो ही तुम परमात्मा को अपने में समाविष्ट करने में सफल हो पाओगे।
केता आवै केता जाइ। केता मांगै केता खाइ।
कितने मांगते हैं, मगर पचा कौन पाता है? कितने पूछते हैं, लेकिन उत्तर को ग्रहण कौन करता है!
केता रुष-विरष तलि रहै।
गोरख के पास लोग आते होंगे। कुछ रुक भी जाते होंगे। बैठ गये वृक्षों के नीचे, जैसे इस देश में चलते थे पुराने दिनों में योगी; अब भी...बैठ गये वृक्ष के नीचे। कुछ दिन रहे। धूनी तापी, चिलम पी। कुछ उल्टा-सीधा, इरछा-तिरछा योग साधा। कुछ मान-सम्मान पाया। आगे बढ़ गये।
गौरख अनभै कासौं कहै।
गोरख कहते हैं कि कहना चाहता हूं। मिल गया मुझे। मगर किससे कहूं? लोग टिकते नहीं; आते हैं चले जाते हैं। कोई पूछता भी है, तो थोथा प्रश्न होता है जिज्ञासु का, कुतूहल से भरा हुआ; मुमुक्षा का नहीं। किसको उत्तर दूं? कुछ आते हैं, जो अपनी मान-मर्यादा पाने के चक्कर में हैं। वृक्ष के नीचे बैठे। आसन जमाया। धूनी रमायी। दो दिन रहे, आगे बढ़े। कुछ हैं जो धंधे में लगे हैं।
गौरख अनभै कासौं कहै।
यह पीड़ा सभी ज्ञानियों की रही। मिल गया है, देना चाहते हैं, बांटना चाहते हैं। सत्य बंटना चाहता है। मगर किसको दो? पात्र नहीं मिलते। किसको दो, कोई लेने को तैयार नहीं है। लोग व्यर्थ को लेने को आतुर हैं, कचरा-कूड़ा लेने को आतुर हैं। लेकिन सत्य को लेने को कोई आतुर नहीं है। क्योंकि महंगा सौदा है, सत्य को लेने का अर्थ होता है: मरना पड़ेगा। तुम मरोगे तो सत्य ले सकोगे।
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मरि गोरख दीठा।।
ले तो सकेगा सत्य को वही जो मिटने को तैयार है; जो कहता है कि मैं अपनी कीमत जीवन से भी देने के लिए तैयार हूं; यह मेरा जीवन जाये तो जाये, सत्य लेकिन मुझे चाहिए। ऐसी जिसकी त्वरा है, ऐसी ज्वलंत जिसकी अभीप्सा है, ऐसी जिसकी प्यास है--बस वही पा सकेगा।
तो अनभै कासौं कहै। मुझे मिल गया, गोरख कहते हैं, अभय ज्ञान। मुझे मिल गया वह ज्ञान जहां मृत्यु नहीं घटती, इसलिए जहां कोई भय नहीं। मैंने जान लिया वह, जो अमृत है। बांटना चाहता हूं। यह भरा हुआ कलश लेकर घूम रहा हूं कि कोई ले ले। मगर लेने वाले नहीं मिलते हैं।
बिरला जाणंति भेदांनिभेद। बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
बिरला जाणंति अकथ कहाणी। बिरला जाणंति सुधि बुधि की वाणी।।
बहुत विरले हैं--गोरख कहते हैं--जिनको भेद है कि क्या व्यर्थ है और क्या सार्थक है। सार और असार में जिन्हें भेद है, ऐसे बहुत विरले हैं। वे ही ले सकेंगे। जो धन के पीछे दीवाने हैं, वे ध्यान न ले सकेंगे। उन्हें अभी पता ही नहीं कि कौन-सी बात सार्थक है, कौन-सी व्यर्थ है। जो पद के पीछे दीवाने हैं, वे प्रार्थना न ले सकेंगे। अभी तो कचरा जोड़ने में लगे हैं। अभी तो राह के किनारे कंकड़ बीन रहे हैं। अभी तुम उनको कहोगे भी कि आओ हमारे साथ, हीरे की खदानों पर ले चलें; वे जाने को राजी नहीं होंगे। उन्हें हीरों का कुछ पता ही नहीं है। हीरे होते भी हैं, इसका पता नहीं है। उन्होंने तो कंकड़-पत्थर को ही हीरा मान लिया है।
बिरला जाणंति भेदांनिभेद। बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
ये जो पक्ष-विपक्ष हैं, ये दोनों छेदवाले हैं--ऐसा विरलों को ही पता है। जीवन का सत्य पक्ष-विपक्ष में बंटने से नहीं मिलता, कि तुमने यह वाद मान लिया या वह वाद मान लिया, तुमने यह शास्त्र मान लिया कि वह शास्त्र मान लिया; कि तुम हिंदू हो गये कि मुसलमान हो गये। पक्ष-विपक्ष में बंटने से सत्य नहीं मिलता। सत्य तो निष्पक्ष को मिलता है।
इसलिए मैं तुम से बार-बार कहता हूं कि जो धार्मिक है वह किसी संप्रदाय का हिस्सा नहीं हो सकता। धार्मिक होने की शर्त ही यही है कि निष्पक्ष हो जाये। खोजी रहे, खुला रहे। फिर जहां से भी पुकार आ जाये उसी तरफ चल पड़े। फिर यह सोच-विचार न करे कि किससे लूं और किससे न लूं। नहीं तो जैन जाता है केवल जैन मुनि के पास, चाहे जैन मुनि के पास हो या न हो। अगर हिंदू को मिल गया है, तो भी जैन वहां न जायेगा। मुसलमान जाता है अपने फकीर के पास, चाहे वहां हो चाहे न हो। अगर किसी जैन मुनि को मिल गया है तो मुसलमान नहीं जाता। और ऐसी ही औरों की गति है। ये पक्षों के कारण, सत्य यहां मिल भी जाता है लोगों को, तो भी तुम नहीं उपलब्ध कर पाते। तुम अटके रह जाते हो।
निष्पक्ष बनो।
बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
इस पक्ष में उस पक्ष में, सब तरफ छेद ही छेद हैं। पक्ष मात्र में छेद है। निष्पक्ष हो जाओ, तो तुम निष्छिद्र हो जाओ। और जो निष्छिद्र है, वही सत्य को झेल सकेगा। उसमें वर्षा होगी अमृत की, तो उसका पात्र भर जायेगा।
बिरला जाणंति अकथ कहाणी।
और बहुत कम हैं जो उसको जान पाते हैं, जो नहीं कहा जा सकता। अब जो कहा नहीं जा सकता, वह लिखा भी नहीं जा सकता। जो बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, उसे कैसे जानोगे शास्त्र से? उसे कैसे समझोगे पंडित से? उसे जानने के लिए तो उसके पास बैठना होगा जिसने जान लिया हो। उसके पास बैठते-बैठते चमत्कार घटता है। सत्संग में जानना होगा उसे।
सत्संग इस जगत का सब से बड़ा चमत्कार है। सत्संग छूत की बीमारी है--संक्रामक है। जिसने जान लिया है, उसके पास बैठते-बैठते रोग उसको भी लग जाता है, जिसने नहीं जाना। जानने का रोग, ध्यान का रोग, मस्ती का रोग--अगर रोग कहना चाहो; कहना तो नहीं चाहिए। कहना चाहिए संक्रामक स्वास्थ्य। उसका स्वास्थ्य लग जाता है। उसकी स्व-स्थिति तुम्हें भी लग जाती है। तुम्हारे भीतर भी भनक होने लगती है।
गुरु के पास बैठ कर उसके तार में तार मिलाना। गुरु के पास बैठ कर उसके छंद में लीन होना। गुरु के पास बैठ कर उसके शून्य को पीना। गुरु के पास बैठ कर उसकी उपस्थिति में डूबना। अगर होगा, तो बस इसी तरह होता है, और किसी तरह नहीं होता। बुझे दीये को हम जले दीये के पास ले जाते हैं--पास और पास और पास...।
एक ऐसी घड़ी आती है जहां तत्क्षण जले दीये से बुझे दीये पर ज्योति छलांग लगा जाती है। मगर पास लाना पड़ता है। तुम मील भर दूर रखो बुझे दीये को जले दीये से, तो घटना नहीं घटेगी। आधा मील दूर रखो तो भी नहीं घटेगी। एक गज दूर रखो तो भी नहीं घटेगी। एक फीट दूर रखो तो नहीं घटेगी। सरकाते जाओ, सरकाते जाओ, सरकाते जाओ...छह इंच पर भी नहीं घटेगी, चार इंच पर भी नहीं घटेगी। लेकिन एक घड़ी आती है, इंच या आधा इंच की दूरी और पाव इंच की दूरी...और बस...जो होना था हो गया। एक क्षण में छलांग लग जाती है। सत्संग का यही अर्थ है: ज्योति से ज्योति जले!
यह अकथ है सत्य, कहा नहीं जा सकता। लेकिन ज्योति से ज्योति जलाई जा सकती है।
बिरला जाणंति सुधि बुधि की वाणी।
इसीलिए जो सिद्ध हो गये, जो बुद्ध हो गये, उनकी वाणी को बहुत विरले समझ पाते हैं, क्योंकि वे बोलते क्या हैं? जो नहीं बोला जा सकता, उसको कैसे बोलेंगे? फिर बुद्ध क्यों बोलते हैं? सारे बुद्ध बोलते रहे हैं। बोलते हैं तुम्हें पुकारने को कि पास आ जाओ। बोलने से सत्य नहीं मिल सकता। लेकिन बोलने के कारण तुम पास आते जाओगे। यह पुकार है कि और सरक आओ, और थोड़ा, और थोड़ा, और थोड़ा...। सरकते-सरकते एक क्षण ज्योति छलांग लगा जाती है।
संन्यासी सोइ करै सब नास। गगन मंडल महि मांडै आस।
अनहद सूं मन उनमन रहै। सो संन्यासी अगम की कहै।।
सत्संग में संन्यास का जन्म होता है। संन्यास का अर्थ होता है: सम्यक न्यास। जो व्यर्थ है, उसे परिपूर्ण रूप से छोड़ देना। संन्यास का अर्थ संसार छोड़ देना नहीं है; संन्यास का अर्थ व्यर्थ पर पकड़ छोड़ देना है और सार्थक के लिए उन्मुख हो जाना है, सार्थक के लिए तत्पर हो जाना है, ग्राहक हो जाना है।
संन्यासी सोइ करै सब नास।
जो सर्वन्यास कर दे--जो सब भांति व्यर्थ को छोड़ दे, वही संन्यासी। जो सत्संग में सब छोड़ने को राजी हो जाये, वही संन्यासी।
गगन मंडल महि मांडै आस।
वह कोई ऐसी छोटी-मोटी आसन लगाने में नहीं पड़ता--शीर्षासन और सर्वांगासन और पद्मासन और सिद्धासन, और इस सब के उपद्रव में नहीं पड़ता है। वह तो एक ही आसन लगाता है--शून्य में आसन लगाता है। गगन मंडल महि मांडै आस। गगन मंडल का अर्थ होता है: भीतर का आकाश। भीतर के शून्य में आसन जमाता है। वहां निर्विचार हो कर बैठ रहता है।
अनहद सूं मन उनमन रहै।
वहीं बैठकर शून्य में डूबता है।
शून्य में डूबना उनमन होना है। उनमन यानी मन के पार होना है--अमन होना है। और तब अनहद का नाद सुनायी पड़ता है। तब परम संगीत--ओंकार, अनहद बजने लगता है। वहीं से उठे वेद, वहीं से उठे उपनिषद, वहीं से कुरान; वहीं से जीसस के, बुद्ध के, महावीर के वचन। वे सब अनहद से उठे हैं।
अनहद सूं मन उनमन रहै। सो संन्यासी अगम की कहै।
और फिर जो वहां पहुंच गया है, वह अगम की कहने लगता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है; जिसको पार पाने का कोई उपाय नहीं है; जिसकी कोई थाह नहीं है--अथाह और अगम है; जिसमें डूबो तो डूबते ही चले जाओ और कभी थाह न मिले।
लेकिन जो अपने भीतर के अनहद को सुन लिया है, वह उस अगम की खबर ले आता है। वह अपने व्यक्तित्व से अगम की तरंगें विकीर्णित करने लगता है। वह जिसे छू दे, उसे अगम का स्वाद मिले। वह जिसे अपनी छाती से लगा ले, उसे अगम ने छाती से लगा लिया। मगर ऐसे व्यक्ति की छाती से लगने के लिए तुम्हारे पास बड़ी छाती चाहिए, बड़ा खुला हृदय चाहिए। संकीर्णताएं होंगी तो यह अपूर्व घटना नहीं घट पायेगी।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै।
क्या प्यारी परिभाषा की! कहा, दरवेस कौन? वही जो दर की जाने, जिसे घर का पता चल गया। जिसे दरवाजा मिल गया। जिसे परमात्मा का द्वार मिल गया।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै।
जिसे अपना घर मिल गया। जिसकी तलाश थी, जिसकी खोज थी, पहुंच गये वहां। परम स्थान आ गया।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै। पंचे पवण अपूठा आनै।
और जिसने अपनी पांचों इंद्रियों को उल्टा लिया है। आंख अब उसकी बाहर नहीं देखती, भीतर देखती है; और कान अब उसके बाहर नहीं सुनते, भीतर सुनते हैं। क्योंकि भीतर अनहद का नाद हो रहा है। और भीतर अरूप का रूप दिखाई पड़ रहा है। अब उसके नासापुट बाहर की गंध नहीं लेते, भीतर की गंध लेते हैं, क्योंकि वहां सुगंधों की सुगंध है--गंधराज! वहां परमात्मा की सुवास है। अब उसकी सारी इंद्रियां भीतर की तरफ उन्मुख हो गयी हैं। इस को ही पतंजलि ने प्रत्याहार कहा है।
पंचे पवण अपूठा आनै!
जिसने अपनी पांचों इंद्रियों की ज्योति को भीतर की तरफ मोड़ लिया है। जिसने पांचों इंद्रियों से बाहर जाने की यात्रा बंद कर दी; जो भीतर लौट आया।
सदा सुचेत रहै दिन राति।
ऐसा व्यक्ति चौबीस घंटे सावधान होता है, सचेत होता है, जागरूक होता है।
सदा सुचैत रहै दिन राति।
दिन में ही नहीं--रात में भी। तुम तो दिन में भी सोये हुए हो, वह रात में भी जागा होता है।
कृष्ण ने कहा न, योगी रात को भी सोता नहीं। जो सब के लिए रात्रि है, उसके लिए वह भी जागरण है। या निशा सर्वभूतायां तस्यां जागति संयमी। वही संयमी है, वही साधु है, वही संन्यासी है--जो रात में भी जागा होता है।
क्या अर्थ है इसका? शरीर तो सो जाता है, लेकिन भीतर एक भाव, एक बोध, एक अनुस्मरण बना रहता है। भीतर भान बना रहता है। नींद में भी भान की यह जो दशा है, यह परम सिद्धि है। जिसे यह मिल गयी, वह मृत्यु में भी जागा हुआ जायेगा। क्योंकि तुम तो नींद में भी जागे हुए नहीं जा सकते तो मृत्यु में कैसे जागे हुए जाओगे? मृत्यु तो महानिद्रा है। और निद्रा छोटी-सी मृत्यु है। तो नींद में जागना होगा। जो नींद में जाग कर सो सकता है, जागा-जागा सो सकता है, उसने कला सीख ली। उसके हाथ कुंजी आ गयी। अब वह मरेगा, तो भी जागा हुआ जायेगा।
जो जाग कर मर जाता है, उसका फिर पुनर्जन्म नहीं है। वह फिर नहीं लौटता क्षुद्र में। वह फिर विराट में ही तिरता है। उस अवस्था का नाम निर्वाण, मोक्ष, या सूफी फकीर जिसको फना कहते हैं।
जीबिता बिछायबां मूंवां ओढिबा, कवहु न होइबा रोगी।
बरसवै दिन काया पलटिबा, यूं कोई कोई बिरला जोगी।।
जीबिता बिछायबां...
ऐसा व्यक्ति प्राण का तो बिछौना बना लेता है, जब रात सोता है।
मूंवां ओढिबा,...
शरीर का ओढ़ना बना लेता है, जब रात सोता है।
प्राण का बिछौना, शरीर का ओढ़ना--और इन दोनों के बीच में दुबका जागा पड़ा रहता है।
जीबिता बिछायबां मूंवां ओढिबा, कवहु न होइबा रोगी।
और ऐसा व्यक्ति, जिसने इस शाश्वत को जान लिया, फिर किसी तरह की सांसारिक वासनाओं, तृष्णाओं, रोगों में, व्याधियों में नहीं उलझता। फिर उसे कोई तृष्णा, कोई वासना नहीं पकड़ सकती। रोग का अर्थ समझ लेना। रोग का यह अर्थ नहीं होता कि ऐसा व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता। शरीर तो रोग का घर है। वह तो किसी का भी होगा तो रोगी होगा।
परम ज्ञानी महावीर की मृत्यु पेट की बीमारी से हुई। छह महीने तक अंतिम दिनों में पेट के रोग से अत्यंत पीड़ित रहे। बुद्ध की मृत्यु विषाक्त भोजन के कारण हुई। तो कोई विष बुद्ध के शरीर में जायेगा, तो यह सोच कर बुद्ध को क्षमा नहीं कर देगा कि जाने भी दो यह दो बुद्धपुरुष की देह है। देह तो देह है। देह तो मिट्टी है।
रोग का अर्थ कुछ और है। ज्ञानी रोग कहते हैं वासना को। और स्वास्थ्य कहते हैं निर्वासना को।
जो रात के अंधरे में भी, तंद्रा के घेरे में भी, प्राणों का बिछौना करके, शरीर का ओढ़ना करके, दोनों के बीच आत्मवान बना जाग्रत है, उसके लिए फिर कोई वासना नहीं पकड़ सकती। क्योंकि वासना मूर्च्छा में पकड़ती है। वासना मूर्च्छा का ही विस्तार है।
इसलिए ज्ञानियों ने, बुद्ध ने, महावीर ने, बहाऊद्दीन ने, जुन्नैद ने, मंसूर ने, रमण ने, कृष्णमूर्ति ने एक ही बात बार-बार कही है: जाग कर जीयो, होशपूर्वक जीयो। क्योंकि जितना होश सम्हल जायेगा, उतना ही रोग विदा हो जायेगा। होश से भरा हुआ आदमी क्रोध नहीं कर सकता। करता भी हो, तो नाटक ही होगा, अभिनय ही होगा। जीसस ने कोड़ा उठा लिया था मंदिर में जा कर और मंदिर में ब्याज का धंधा करनेवाले लोगों के तख्ते उलट दिये थे, खदेड़ कर उन्हें बाहर कर दिया था। मगर मैं तुम से कहता हूं, वह अभिनय ही था। जीसस जैसा व्यक्ति क्रुद्ध नहीं हो सकता; हां, क्रोध का अभिनय करना चाहे, तो बराबर कर सकता है। और इतनी कुशलता से कर सकता है जितनी कुशलता से कोई और न कर सकेगा।
जीबिता बिछायबा मूंवां ओढिबा, कवहू न होइबा रोगी।
बरसवै दिन काया पलटिबा...।
फिर प्रतीक्षा करना। जाग जाना और प्रतीक्षा करना। बरस दिन में, आज नहीं कल, कल नहीं तो परसों, कभी-न-कभी...
बरसवै दिन काया पलटिबा!...
बरस, दिन में एक दिन वह परम घड़ी आ जायेगी, वह पुनीत क्षण आ जायेगा कि काया पलट जायेगी। पूरी काया पलट जायेगी। अभी सब बाहर की तरफ है, फिर सब भीतर की तरफ हो जायेगा। अभी सारी ऊर्जा बाहर दौड़ी जा रही है, तुम बिखरे जा रहे हो। फिर ठीक उल्टी प्रक्रिया हो जायेगी। सब केंद्र पर लौट आयेगा।
ऐसा समझो कि जैसे बीज, बीज की सारी ऊर्जा केंद्र पर है। फिर बीज टूटा, वृक्ष बना, फैला, शाखाएं निकलीं, पत्ते निकले, दूर-दूर आकाश में फूल खिले--यह फैलाव हुआ। फिर वृक्ष वापस लौटा। फिर सिकुड़ा। अपने भीतर आया। अंतर्मुखी हुआ। ऊर्जा फिर बीज बन गयी।
बीज हम प्रथम में थे और बीज हमें फिर अंतिम में हो जाना है। यह जो फैलाव है, संसार है, यह बीच की घड़ी है।
योगी फिर बीज हो जाता है, वृक्ष खो जाता है। बाहर फैलती हुई शाखाएं, अब बाहर नहीं फैलतीं। बाहर दौड़ती हुई इंद्रियां अब बाहर नहीं दौड़तीं। अब अंतर्गमन हो जाता है। सारी ऊर्जा अपने पर ही आ जाती हैं। अब पंखुड़ियां खुलती नहीं, अपने में बंद हो जाती हैं। सब अपने में लीन हो जाता है।
संसार है विस्तार, फैलाव, परिधि की तरफ दौड़--एक्सप्लोजन। ध्यान है, समाधि है--इनप्लोजन, केंद्र की तरफ लौटना, प्रत्याहार, प्रतिक्रमण--अपने घर आ जाना।
बरसवै दिन काया पलटिबा...।
प्रतीक्षा करना जाग कर; आज नहीं कल, कल नहीं परसों, बरस दिन में सब रूपांतरण हो जायेगा। मिट्टी की काया है तुम्हारी अभी, सोने की हो जायेगी। मरणधर्मा है काया तुम्हारी अभी, अमृत की हो जायेगी। समय की है तुम्हारी काया अभी, शाश्वत की हो जायेगी।
…यूं कोई बिरला जोगी।
ऐसा कभी-कभी किसी व्यक्ति को हो पाता है। हो सब को सकता है। होना सभी को चाहिए। सभी का अधिकार है। मगर मांगते नहीं अधिकार हम अपना।
गगन-मंडल में गाय बियाई...!
और उस शून्य आकाश में--गगन-मंडल--वह जो भीतर का शून्य आकाश है, उस में गाय बियाई। बड़ा प्यारा वचन है! उस में गाय ने जन्म दिया।
गगन-मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
शास्त्र में उसी ब्याई हुई गाय के दही को जमाया गया।
कागद दही जमाया।
उसी से कुरान बनती है। उसी से वेद। उसी से उपनिषद। उसी से धम्मपद।
गगन-मंडल में गाय बियाई!...
लेकिन घटना घटी है शून्य में। लेकिन उस शून्य को संसार तक लाने के लिए और कोई उपाय नहीं है कि उस का दही जमाया जाये कागज पर। तो शब्दों में उसका दही जमाया, सिद्धांतों में उसका दही जमाया। मगर खयाल रखना, जो मीठा था, खट्टा हो गया जमते ही। जब तक नहीं बोला था, तब तक सत्य सत्य था; बोला, असत्य हो गया।
इसलिए लाओत्सु ने कहा है: सत्य बोले नहीं, कि असत्य हुआ नहीं। बोलो और असत्य हुआ। जो मीठा था, खट्टा हो गया। जो शब्द के बाहर था, तो विराट था, अपार था; शब्द में आते ही संकीर्ण हो गया, छोटा हो गया।
गगन-मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छाछि छाछि पंडिता पीवीं...।
और वे जो पंडित हैं--मौलवी, पंडित, पुरोहित--वे छाछ छाछ पी रहे हैं। दही में से भी। दही भी पूरा नहीं लेते वे। वे दही की भी छाछ बना रहे हैं। शास्त्र को भी जैसा शास्त्र ने कहा है वैसा नहीं समझते; उसकी व्याख्या करते हैं; उसकी टीका करते हैं पहले। पहले अपने मतलब का मतलब निकालते हैं। जो अपने से बैठ जाये, ऐसा अर्थ खोजते हैं। अपने अनुकूल अर्थ बनाते हैं।
एक तो सत्य को बोला, उसी वक्त सत्य खट्टा हो गया। जब पंडित शास्त्र को समझता है, शब्द को समझता है, उस पर व्याख्या के नये अर्थ आरोपित कर देता है। अब तो दही भी न रहा, छाछ ही हो गयी। इस पंडित की व्याख्या में मक्खन भी खो गया।
…सिधां माखण खाया।
सिर्फ सिद्ध पुरुष ही पहचान पायेंगे शास्त्रों के मक्खन को। शास्त्र को दो तरह के लोग पढ़ते हैं--एक ज्ञानी और एक ध्यानी। जब ज्ञानी पढ़ता है, छाछ हाथ लगती है। जब ध्यानी पढ़ता है, मक्खन हाथ लगता है। शास्त्र को जानने का उपाय ज्ञान नहीं है, ध्यान है। शास्त्र को जानने का उपाय शब्द की व्याख्या नहीं है, निःशब्द की यात्रा है। जितने तुम शून्य हो जाओगे, उतने ही शास्त्र का सम्यक अर्थ तुम्हारे सामने प्रगट होगा।
गगन-मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छाछि छाछि पंडिता पीवीं, सिधां माखण खाया।
और जो माखन खा लेते हैं, उनके जीवन में क्रांति घटती है--ऐसी क्रांति, कि सब कुछ रसमय हो जाता है।
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
जब-जब अपना चित्र बनाया
तब-तब ध्यान तुम्हारा आया!
मन में कौंध गई बिजली-सी
छवि का इंद्रधनुष मुसकाया!
सुख की एक घटा-सी छाई,
भीग गया जीवन आंगन-सा,
घूम गई कूंची दीवानी, हर रेखा मतवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
मेरा रूप तुम्हारा निकला,
मेरा रंग तुम्हारा निकला,
जो अपनी मुद्रा समझी थी,
वह तो ढंग तुम्हारा निकला!
धूप और छाया का मिश्रण
यौवन का प्रतिबिंब बन गया,
होश समझ बैठा था जिसको, वह रंगीन खुमारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली।
मैंने बार-बार झुंझलाकर
रंग बदले, आकृतियां बदलीं,
जो नव आकृतियां अंकित कीं
वे भी प्राण! तुम्हारी निकलीं!
अपनी प्यास दिखाने मैंने
रेगिस्तान बनाना चाहा,
पर तसवीर हुई जब पूरी, फागुन की फुलवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
तुम से भिन्न कहां जग मेरा?
तुम से भिन्न कहां गति मेरी?
तुम से भिन्न स्वयं को समझा,
बहक गई कितनी मति मेरी!
मेरी शक्ति तुम्हीं से संचित,
मेरी कला तुम्हीं से प्रेरित,
जिसको मैं अपनी जय समझा, वह तो तुम से हारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
एक बार शून्य का स्वाद मिल जाये, फिर सब उसी का है। उठो, बैठो--पूजा। सोओ, जागो--परिक्रमा। खाओ, पीयो--सेवा। जो करो, जैसा करो उस सभी में प्रार्थना का रंग और ढंग। और जो दिखाई पड़े, उसी की छवि। फिर मंदिर में भी वही, मस्जिद में भी वही। फिर गुरुद्वारे में भी वही, गिरजे में भी वही। पत्थर में भी वही, पहाड़ों में भी वही। चांद-तारों में भी वही। एक बार अपने भीतर पहचान हो जाये...।
उस पहचान के लिए ही तुम्हें निमंत्रित कर लिया है। तुम आ भी गये हो। उनमें से मत होना जो आते हैं और चले जाते हैं। उन विरलों में से बनो जो रुक जाते हैं, ठहर जाते हैं। और जमा लो शून्य में आसन। वही मैं तुम्हें सिखा रहा हूं। रम जाओ गगन मंडल में। और तुम्हारे भीतर से अमृत की धार बहेगी। वह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वरूपसिद्ध अधिकार है। मांगो अपने अधिकार को। उसे बिना मांगे मत मर जाना। उसे सिद्ध करना है। जो उसे बिना सिद्ध किये मर जाता है, वह व्यर्थ ही जीया।
व्यर्थ मत जीना। तुम्हारे जीवन में आनंद के बड़े फूल खिल सकते हैं। और सब तुम पर निर्भर है। और बड़े उपाय की जरूरत नहीं है; थोड़ी-सी समझ की जरूरत है। पहाड़ जैसा उपाय नहीं करना है, रत्ती-भर जैसी समझ काम आ जाती है। यह कोई तलवार का काम नहीं है; सुई से काम हो जायेगा। सुई जैसी समझ, बारीक समझ पर्याप्त है। बरसता है एक दिन वह।
बज उठी मुरलिया पावस की!
विहंसे वन, उपवन,
दिक-दिगंत,
हुलसे मानव, पशु,
वन-विहंग
लू के झोंके
अब नहीं रहे,
शोले सोये,
रवि-किरणों के!
बज उठी मुरलिया पावस की!
कजरारे बादल
डोल रहे,
घन-घन मृदंग-से
बोल रहे,
नर्तन चम-चम
करती चपला!
क्या मदिर, मधुरतम
समा बंधा!
बज उठी मुरलिया पावस की!
मृदु झड़ी लगी,
संगीत छिड़ा,
रिमझिम-रिमझिम,
लय-ताल-बद्ध!
पुरवाई के
हर झोंके में
उल्लास अपरिमित
तैर रहा!
नभ से
धरती तक
जग-जीवन
नैसर्गिक रस में
डूब रहा!
बज उठी मुरलिया पावस की!
आज इतना ही।
जोगी आषै अलख कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।।
हिंदू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।
जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै, कोई करै हमारी आसा।
गोरष कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
बदंत गोरखनाथ आत्मां विचारत, ज्यूं जल दीसै चंदा।।
केता आवै केता जाइ। केता मांगै केता खाइ।
केता रुष-विरष तलि रहै। गोरख अनभै कासौं कहै।।
बिरला जाणंति भेदांनिभेद। बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
बिरला जाणंति अकथ कहाणी। बिरला जाणंति सुधि बुधि की बाणी।।
संन्यासी सोइ करै सब नास। गगन मंडल महि मांडै आस।
अनहद सूं मन उनमन रहै। सो संन्यासी अगम की कहै।।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै। पंचे पवण अपूठा आनै।
सदा सुचेत रहै दिन राति। सो दरवेस अलह की जाति।।
जीबिता बिछायबा मूंवां ओढिबा, कवहु न होइबा रोगी।
बरसवै दिन काया पलटिबा, यूं कोई कोई बिरला जोगी।।
गगन मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छाछि छाछि पंडिता पीवीं, सिधां माखण खाया।।
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
गगन में दमकते करोड़ों सितारे,
घड़ी भर चमककर छिपेंगे बिचारे;
रहा घूम कोई, रहा टूट कोई,
किसे लोचनों का सितारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं;
जलधि में कई द्वीप जो दिख रहे हैं,
सभी काल की धार से कट रहे हैं।
यहां भी हिलोरें, वहां भी हिलोरें,
बता दो, कहां मैं किनारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
अभी तृप्ति के पल, अभी प्यास के क्षण,
अभी अश्रु के तो अभी हास के क्षण!
मिला साथ विष का, सुधा का निमंत्रण,
मुझे आज किसने पुकारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
अभी फूलमाला अभी शूलमाला,
अभी स्वर्ग, नंदन, अभी नर्क-ज्वाला
अभी डोलियां हैं, अभी अर्थियां हैं,
बता दो, कहां मैं गुजारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
धरा घूमती है, गगन उड़ रहा है,
न जाने किधर यह जलधि बढ़ रहा है!
मुझे छोड़कर सांस तक जा रही है,
बता दो, किसे मैं दुलारा समझ लूं?
किसे जिंदगी का सहारा समझ लूं?
मनुष्य की ऐसी ही दशा है। सब तरफ लहरें ही लहरें हैं, किनारे का कोई भी पता नहीं। पीछे भी लंबा मार्ग है, आगे भी लंबा मार्ग है; मंजिल का कोई ओर-छोर नहीं। कहां से आते हैं पता नहीं। कहां जा रहे हैं, पता नहीं। क्यों हैं पता नहीं। घर बनाएं भी तो कहां बनाएं, कैसे बनाएं? अपना ही पता न हो तो जिंदगी में शांति कैसे हो, सुख कैसे हो? स्वभाव का ही बोध न हो, तो आनंद की झलक कैसे मिले?
आनंद की झलक तो मिलती है, जब तुम्हारा जीवन स्वभाव के अनुकूल होता है। आनंद का इतना ही अर्थ समझना, जब तुम जगत के साथ एकछंद हो। जब तुम्हारा तार जगत के तारों के साथ लयबद्ध है, तब आनंद।
और दुख का भी यही अर्थ समझना, जब तुम्हारा तार अलग-अलग बजने लगे, जगत की वीणा से भिन्न-भिन्न, अपनी ढपली अपना राग हो जाये, तभी दुख पैदा हो जायेगा। जैसे ही छंद भंग हुआ, दुख हुआ। जैसे ही छंद फिर जुड़ा, सुख हुआ।
लेकिन इस छंदोबद्धता के लिए स्वयं से परिचय तो जरूरी है। और जिनका स्वयं से परिचय नहीं है, वे चले परमात्मा की खोज पर! दूर की खोज पर निकले हो, निकट का भी पता नहीं है! जिन्हें अपना भी बोध नहीं, वे विवाद कर रहे हैं कि ईश्वर कैसा है? कि हिंदुओं का ईश्वर सच है कि मुसलमानों का ईश्वर सच है, कि ईसाईयों का, कि यहूदियों का? ईश्वर के संबंध में विवाद चल रहा है। और जो निर्विवाद सत्य है तुम्हारा, उससे परिचय कब करोगे? और जो उसे जान लेता है वही परमात्मा को जान पाता है।
आत्मा को जाने बिना परमात्मा को जानने का न कभी कोई उपाय था, न है, न कभी कोई उपाय होगा। आत्मा द्वार है। और इस एक को तुम पहचान लो तो इस एक से ही सब को जानने की कुंजी मिल जाती है।
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो!
मधुवन की छवि का क्या कहना,
मधुवन में हैं अगणित कलियां!
संदेह नहीं, आकर्षक हैं
कुंजों की ये मादक गलियां!
कुंजों-कुंजों में क्यों घूमो?
कलिका-कलिका पर क्यों गूंजो?
उस एक कली को प्यार करो, जिस पर मधुमास निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो!
मत ‘प्यार’ कहो माटी के प्रति
जगने वाले आकर्षण को!
बरसात सुधा की मत समझो
दो क्षण के इस रसवर्षण को!
वह ‘रूप’ नहीं जिसके कारण
तृष्णा या आशा ही जागे,
वह रूप ‘रूप’ कहलाता है, जिस पर विश्वास निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो!
लाखों हैं ये आकाश-कुसुम,
किस-किस पर हाथ बढ़ाओगे?
अंबर की धुंधली गलियों में
कब तक आंखें भटकाओगे?
टिमटिम किरणों में क्यों भटको?
लाखों तारों में क्यों अटको?
उस एक चंद्रमा को पूजो, जिस पर आकाश निछावर हो!
उसको प्राणों का प्राण कहो, जिस पर हर सांस निछावर हो।
और किस पर हर सांस निछावर है? यह भीतर आती श्वास, यह बाहर जाती श्वास, किसके पांव पखार रही है? यह भीतर आती श्वास, यह बाहर जाती श्वास, प्रतिपल किसका वंदन उतार रही है? यह किसकी आरती हो रही है? इसी श्वास के साथ-साथ भीतर जाओ, तो मिल जायेगा वह जिसके चरणों पर यह श्वास जाकर निछावर हो रही है। इसी श्वास के साथ-साथ बाहर आओ और भीतर जाओ। इसी श्वास में सारी परिक्रमा है, इसी श्वास में सारे तीर्थ। क्योंकि इसी श्वास के मूल उदगम पर तुम विराजमान हो--तुम अपनी महिमा में, अपनी परम गरिमा में विराजमान हो।
और जहां श्वास निछावर हो रही है, वहां तुम बड़े चकित होकर पाओगे कि तुम तो हो, लेकिन तुम जैसे नहीं हो। तुम तो हो, लेकिन मैं का कोई भाव नहीं है। अस्तित्व है, परम शुद्ध अस्तित्व है, लेकिन मैं की कोई धारणा नहीं, कोई धुआं नहीं। निर्धूम ज्योति है वहां। मैं की छाया भी नहीं पड़ती।
इस स्वयं को पहचान लिया, तो तुमने सब को पहचान लिया। इस एक सूत्र को पकड़ लो, इसी के सहारे तुम पहुंच जाओगे अस्तित्व की गहनतम गहराइयों में। कहीं कोई और खोजने की आवश्यकता नहीं है। जो कहीं और खोजने गया, भटका, भूला, उलझा।
आज के सूत्र:
हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।
जोगी आषै अलष कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।।
हिंदू पूजता है राम को, मुसलमान पूजता है खुदा को। जोगी किसको पूजता है? अलख को। न राम को, न खुदा को। उसका कोई नाम नहीं है--न राम, न खुदा। सब नाम आदमी के दिये हुए हैं। वह तो विशेषण-शून्य है। वह तो निर्विकार है। वह तो निराकार है, अलख है। अलख--अर्थात, आंखों में भी पकड़ में न आये! कानों के सुनने में न आये। हाथों के छूने में न आये! इंद्रियातीत है। उसे राम कहें, तो छोटा हो जायेगा। उसे खुदा कहें, छोटा हो जायेगा। उसे शब्द दें, तो असत्य हो जायेगा।
जो सच्चा खोजी है, वह न तो हिंदू होता है न मुसलमान होता है; हो ही नहीं सकता। जो सच्चा खोजी है। उसे शब्द और शास्त्र और विशेषण और संप्रदाय नहीं बांध सकते हैं। न मुहम्मद मुसलमान हैं, न कृष्ण हिंदू हैं, न बुद्ध बौद्ध हैं और न जीसस ईसाई हैं--याद रखना! इस जगत में जिन्होंने जाना है, उनकी कोई जाति नहीं है।
गोरख ठीक कहते हैं: सो दरवेस अलह की जाति। वे तो अल्लाह की जाति के हो जाते हैं, उनकी फिर क्या जाति? अलह हमारा रंग, अलह हमारी जाति। फिर तो उनका रंग भी अल्लाह का है और जाति भी अल्लाह की। फिर वे हिंदू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं।
इस पृथ्वी पर संप्रदायों के कारण बड़ी अड़चन हुई, आदमी आदमी नहीं हो पाया है। और संप्रदायों की जड़ में क्या है? छोटे-छोटे शब्दों का उलझाव है। किसी ने राम कह दिया और झगड़ा शुरू हुआ।
बच्चा पैदा होता है, कोई नाम लेकर नहीं आता; शून्य आता है, अनाम आता है, अरूप आता है। फिर हम नाम थोप देते हैं उसके ऊपर। फिर नाम तुम जो चाहो थोप दो। तुम उसे रामप्रसाद कहो या खुदाबख्श, मतलब एक ही है। खुदाबख्श का मतलब रामप्रसाद होता है, रामप्रसाद का अर्थ खुदाबख्श होता है। मगर अगर रामप्रसाद कहा, तो हिंदू हो गया; अब यह मस्जिदें जलायेगा। और अगर खुदाबख्श कहा, तो यह मुसलमान हो गया; अब यह मूर्तियां तोड़ेगा। जरा-सा नाम दे दिया--और नाम तुमने दे दिया! और यह तो कोई नाम लेकर आया न था।
कोई हिंदू की तरह आता है? कोई मुसलमान की तरह आता है? अलह हमारी जाति--अल्लाह की तरह हम आते हैं, परमात्मा की तरह हम आते हैं, और फिर छोटे-छोटे नाम और छोटे-छोटे घेरे, छोटे-छोटे बांवड़े, फिर झगड़े और बड़े विवाद और बड़ी कलह...। और जो लोग कलह और विवाद करते हैं, सोचते हैं धार्मिक कृत्यों में लीन हैं!
मैं कल बहुत चौंका, खबर आयी पुलिस की तरफ से कि तीन हजार मुसलमान आश्रम पर हमला करने आ रहे हैं। मुसलमानों को क्या पड़ी है इस आश्रम पर हमला करने की? इकट्ठे भी हुए हैं! किसी ने अफवाह उड़ा दी है कि मैं मुसलमानों का दुश्मन हूं। किसी ने अफवाह उड़ा दी कि मैं मुहम्मद का दुश्मन हूं। बस, अफवाह काफी है। उपद्रव करने को जैसे हम तैयार ही बैठे हैं।
मैं अगर मुहम्मद का दुश्मन हूं तो फिर मुहम्मद का साथी कौन होगा? मैं मुसलमान नहीं हूं--उसी अर्थ में जिस अर्थ में मुहम्मद मुसलमान नहीं हैं। इत्ता तो पक्का है न, कि मुहम्मद मुसलमान नहीं थे। क्योंकि मुहम्मद जब पैदा हुए, तो इस्लाम धर्म था ही नहीं। मुहम्मद के बाद लोग मुसलमान हुए होंगे। जीसस तो ईसाई नहीं थे न, कैसे होते ईसाई? अभी तो ईसाइयत का जन्म भी नहीं हुआ था। और बुद्ध तो बौद्ध नहीं थे न? ऐसे ही मैं भी मुसलमान नहीं हूं मुहम्मद की भांति! और अगर मुहम्मद मुसलमान हैं तो मैं बड़े से बड़ा मुसलमान हूं! वैसे ही जैसे मैं हिंदू हूं, जैन हूं, बौद्ध हूं, यहूदी हूं।
जिसने जाना, सब धर्म उसके हैं और कोई धर्म उसका नहीं।
मगर उपद्रवी चित्त हैं--पंडित हैं, मौलवी हैं--जिनका सारा काम उपद्रव फैलाना है, आग लगाना है! किसी ने कह दिया होगा। अब ये आज के वचन हैं, अब ये फिर पहुंच जायेंगे मस्जिद तक। अब यह मेरा कोई कसूर भी नहीं है। अब यह गोरख कह रहे हैं, अब मैं करूं भी क्या? गोरख कहते हैं:
हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।
जोगी आषै अलख कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।
न वहां राम है, न वहां खुदा है--योगी उस अलख को पुकारता है। उसी अलख को हम पुकार रहे हैं। यह तो योगियों का जमघट है। यहां कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं, कोई ईसाई नहीं। अगर लोगों में थोड़ी समझ हो तो यह स्थान सबका प्यारा हो जाये। मगर लोग तो उल्टे हैं। न हम हिंदू हैं, इसलिए हिंदुओं के हम नहीं रहे; तो हिंदू यहां न आयेंगे, सकुचाएंगे। हम मुसलमान भी नहीं, तो मुसलमान भी सकुचायेगा; वह भी विरोधी हो जायेगा। ईसाई भी, यहूदी, जैन, बौद्ध। होना तो यह चाहिए था कि यह मंदिर उन सबका होता। है ही उन सबका, मगर उनकी नासमझियां हैं!
पुलिस ने खबर दी कि इस मोर्चे को रोकना जरूरी है, नहीं तो हम मुश्किल में पड़ जायेंगे। आज मुसलमान आयेंगे, कल ईसाई आ जायेंगे, परसों हिंदू आ जायेंगे; क्योंकि यह आश्रम तो किसी का भी नहीं है। यहां तो सभी हमला कर सकते हैं। यह बात भी जंची। होना तो यह था कि यह सभी के लिए प्रार्थना और ध्यान का और पूजा का स्थान बन जाता। मगर बीसवीं सदी में हम नाममात्र को हैं, हमारी असलियत अभी भी हजारों साल पुरानी पहाड़ों की गुफाओं में भटक रही है! हमारी आत्मा अभी भी आदिम है।
कृष्ण मुहम्मद संन्यासी हो गये, किसी ने पत्र लिख दिया: ‘गर्दन उतार लेंगे। तुमने इस्लाम धर्म के साथ विद्रोह कर दिया!’ अब कृष्ण मुहम्मद पहली दफा इस्लामी हुए हैं! पहली दफा इस्लाम का रंग चढ़ा। इस्लाम का अर्थ होता है: शांति। कृष्ण मुहम्मद पहली दफा मुसलमान हुए हैं, अगर मुसलमान का कोई भी अर्थ हो सकता हो। पहली दफा मोमिन हुए। पहली दफा आस्था आयी। अब तक मुसलमान थे लोगों की नजरों में, अब मुसलमान न रहे! संन्यासी होकर पहली दफा मुसलमान हुए हैं।
मगर पत्र आते हैं उनको कि ‘गर्दन उतार देंगे, सावधान! तुमने दगा कर दिया।’ किससे दगा कर दिया? कोई कृष्ण मुहम्मद के हृदय से भी तो पूछे! धर्म की पहली दफा थोड़ी-सी सुगंध मिली। धर्म का थोड़ा-सा उत्सव जीवन में आया। अब तक नाममात्र को मुसलमान थे, अब असलियत में मुसलमान हुए। अब ‘अलख’ को पुकारा।
मगर जो खुदा में उलझे हैं और जो राम में उलझे हैं, उनको अलख की पुकार समझ में नहीं आती। और ऐसा कोई हिंदू-मुसलमान के साथ ही नहीं है, सभी के साथ है। जैन यहां आते हैं, दूसरे जैन समझ लेते हैं कि गये काम से! सिक्ख यहां आकर संन्यासी हो जाते हैं तो मुझे पंजाब से पत्र लिखते हैं जाकर कि हम बड़ी मुश्किल में पड़े हैं, क्योंकि बाकी सिक्ख बड़ी झंझट डाल रहे हैं। वे तो कहते हैं कि तुम अगर सिक्ख हो, तो गैरिक वस्त्र छोड़ो; और अगर गैरिक वस्त्र पहनने हैं, तो फिर तुम सिक्ख नहीं हो; फिर हम बदला लेंगे।
कब आदमी में थोड़ी आदमियत आयेगी? कब हम समझेंगे मुहम्मद को, महावीर को, कृष्ण को, बुद्ध को, जीसस को? कब उनकी ऊंचाइयों, उनकी गहराइयों से हमारा नाता जुड़ेगा? कब तक हम क्षुद्र में ही डोलते रहेंगे? कब तक हम व्यर्थ के पंडितों--थोथे--जिनके हाथ में छाछ के सिवाय कुछ भी नहीं है...गोरख कहते हैं:
छाछि छाछि पंडिता पीवीं।
छाछ ही छाछ पी रहे हैं पंडित और उनके पास कुछ भी नहीं है--
सिधां माखण खाया।
मक्खन तो सिद्ध खा गये।
सिद्धों से पूछो धर्म का अर्थ। लेकिन सिद्धों का कोई धर्म नहीं होता, कोई मजहब नहीं होता। ये वचन एक अपूर्व सिद्ध के हैं, एक अपूर्व बुद्ध के हैं। समझपूर्वक गुनना, मनना।
हिंदू आषै राम कौं, मुसलमान षुदाइ।
दोनों ने परमात्मा का रूप बना लिया है, परमात्मा को आकार दे दिया है, परमात्मा को एक नाम दे दिया है। उसको विशेषण दे दिये हैं। उसको परिभाषा दे दी है। और जैसे ही परमात्मा की परिभाषा होती है, परमात्मा सीमित और संकुचित हो जाता है। और यही पाप है। परमात्मा को सीमित और संकुचित करना पाप है। न तो परमात्मा मंदिर में बंद हो सकता है, न मस्जिद में, न गिरजे में, न गुरुद्वारे में। परमात्मा तो विस्तीर्ण है--उतना ही, जितना यह अस्तित्व विस्तीर्ण है। परमात्मा तो सारे अस्तित्व पर फैला है; परमात्मा तो अस्तित्व का पर्यायवाची है।
लेकिन फिर उसे हम क्या कहें? गोरख कहते हैं: जोगी आषै अलष कौं। उसे हम अलख कहेंगे। यह प्यारा शब्द है! अलख का मतलब होता है: जो लखा न जा सके; अलक्ष्य, जिसका हम लक्ष्य न बना सकें। न तो आंख, न कान, न हाथ, कोई इंद्रिय जिस तक न पहुंच सके। मन भी जिस तक न पहुंच सके। जिस तक पहुंचना संभव ही न हो। जो लक्ष्य बन ही न सके।
फिर परमात्मा कैसे मिलता है? परमात्मा तक तुम्हें नहीं पहुंचना होता। जब तुम शांत हो जाते हो, मौन हो जाते हो, लीन हो जाते हो--प्रार्थना में, ध्यान में--तब परमात्मा तुम में उतर आता है। परमात्मा तुम तक पहुंचता है, तुम परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचते। सागर ही आता है बूंद में--सागर ही उतर आता है बूंद में! सागर तो तत्पर खड़ा है उतर आने को, मगर तुम द्वार-दरवाजे नहीं खोलते।
परमात्मा तो प्रतिपल चारों ओर से तुम्हारे भीतर बह जाने को आतुर है। सब ओर से तुम्हें घेर लेने को तैयार है, मगर तुमने अपने को ऐसा कस कर बंद किया है, रंध्र भी नहीं छोड़ी है, जरा-सा स्थान नहीं छोड़ा है। कोई मुसलमान की तरह अपने को बंद किये है, कोई हिंदू की तरह अपने को बंद किये है। और तुम सोच रहे हो कि तुम धार्मिक हो? धार्मिक वही है जो बंद नहीं है, जो निर्बंध है। धार्मिक वही है जो स्वच्छंद है। धार्मिक वही है जो संप्रदाय के अतीत है। धार्मिक वही है जिसके लिए सारा अस्तित्व मंदिर है, मस्जिद है, काबा है, कैलाश है।
जोगी आषै अलख कौं, तहां राम अछै न षुदाइ।।
और वहां न तो राम पाया जाता है। धनुर्धारी राम नहीं मिलेंगे तुम्हें वहां...और न खुदा पाया जाता है। वहां कौन मिलता है? वहां शून्य आकाश मिलता है। वहां अस्तित्व की शुद्धता मिलती है। कोई अस्तित्ववान व्यक्ति नहीं मिलता। एक अनुभव मिलता है, एक प्रसाद, एक स्वाद! एक स्वाद, जो शाश्वत का है! एक स्वाद, जो समय में आबद्ध नहीं! उस स्वाद को जिसने चखा, उसी ने माखन चखा। वही सिद्ध हुआ।
हिंदू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।
हिंदू जाता है मंदिर और सोचता है मंदिर चले गये, परमात्मा का ध्यान कर लिया, घंटी बजायी, पूजा उतारी, थाल उतारा, मंदिर में रखी प्रतिमा पर दो फूल चढ़ाये, सिर झुकाया--काम पूरा हुआ। इतना सस्ता समझा है धर्म? ऐसे कहीं जीवन बदलता है? मंदिर की घंटियां बजाने से कहीं जीवन बदलेगा? पत्थरों की मूर्तियों के सामने सिर झुकाने से कहीं जीवन बदलेगा? काश, इतना आसान होता तो सारी पृथ्वी स्वर्ग हो गयी होती, कभी की स्वर्ग हो गयी होती! कितनी तो बार तुम मंदिर गये हो और खाली के खाली लौटे! कितनी बार मस्जिद गये हो, लेकर क्या आये हो? और कब तक यही करते रहोगे?
एक छोटी कहानी मैंने पढ़ी है। एक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एक चूहे पर प्रयोग कर रहा था। चूहे में बुद्धिमत्ता है या नहीं, इस संबंध में जानकारी के लिए कोशिश कर रहा था। उसने एक कठघरा बनाया। उसमें बारह छोटे-छोटे कमरे हैं। नौवें कमरे में उसने चूहे के खाने के लिए कुछ रख दिया और चूहे को कठघरे में छोड़ दिया। चूहा भागा इस कोने उस कोने, इस कमरे उस कमरे। और जब उसे नौवें कमरे में भोजन मिल गया, तो बड़ा मस्त हुआ। दोबारा जब चूहे को छोड़ा, तो वह सीधा नौवें कमरे की तरफ गया। और हर बार नौवें कमरे में उसे भोजन मिल गया, तो धीरे-धीरे उसकी आदत बन गयी। छोड़ो उसे कठघरे में, चला वह सीधे नौवें कमरे की तरफ। जब आदत मजबूत हो गयी तो मनोवैज्ञानिक ने नौवें कमरे में न रख कर मिठाइयां, तीसरे कमरे में रख दीं। चूहा गया नौवें कमरे में। बड़ा चकित हुआ। चारों तरफ देखा, चकराया--बात क्या हुई! इधर-उधर गया, फिर लौट कर नौवें कमरे में आया कि कुछ भूल-चूक तो नहीं हो गयी। तीसरी बार आया। फिर देखा कि नहीं, नौवें कमरे में कुछ भी नहीं है। खोजबीन की। तीसरे कमरे में पहुंच कर मिठाई पा ली। फिर तीसरे कमरे में जाने लगा।
उस वैज्ञानिक से किसी ने पूछा कि चूहे का अध्ययन करने से आदमी की बुद्धिमत्ता का कैसे पता चलेगा?
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: हां, चूहे और आदमी में बड़ा भेद है। चूहा एक ही बार जाकर समझ गया कि अब नौवें कमरे में मिठाई नहीं है; आदमी जिंदगी-भर न समझता। वह बार-बार नौवें में ही जाता, बार-बार नौवें में ही जाता...वह जाता ही रहता। और जितनी बार जाता उतनी ही जाने की आदत मजबूत होती जाती। चूहे और आदमी में इतना भेद है कि चूहा समझ गया कि अब नौवें में मिठाई नहीं है; आदमी कभी न समझता।
ठीक ऐसी दशा है तुम्हारे तथाकथित धार्मिकों की। मंदिर तुम कितने वर्षों से गये हो, कुछ पाया नहीं; फिर भी चले जाते हो आदतवश।...एक औपचारिकता, एक सामाजिक व्यवहार...जाना चाहिए इसलिए। मुझसे न मालूम कितने लोगों ने कहा है कि हम पूजा सुबह करते हैं, कुछ मिलता तो नहीं पूजा करने से, लेकिन न करें तो दिन-भर बेचैनी रहती है। लेकिन यह बेचैनी तो वैसी ही हुई जैसे कि तंबाकू खानेवाले को होती है, धूम्रपान करने वाले को होती है। अब कोई धूम्रपान करने से मिलता नहीं कुछ। क्या खाक मिलेगा! धुएं को भीतर ले गये, बाहर लाये, इससे क्या कुछ मिलने वाला है? कुछ खो भला जाये, मिलेगा क्या? लेकिन अगर न धुएं को बाहर-भीतर ले जाओ, तो बेचैनी मालूम होती है। आदत मजबूत हो गयी। तलफ लगती है।
तुम्हारी पूजा, तुम्हारे पाठ, तुम्हारे मंत्र कहीं तलफ तो नहीं हैं? क्योंकि अगर कुछ मिलता न हो, तो इतनी बुद्धिमत्ता होनी चाहिए कि कहीं और तलाशो, किसी और तरह तलाशो। कोई और मार्ग खोजो। बार-बार उसी कठघरे में जाने से क्या होगा? मगर लोग जिंदगी गुजार देते हैं। कोई गीता ही पढ़ रहा है तो जिंदगी-भर पढ़ता रहता है। और कोई कुरान पढ़ रहा है तो जिंदगी-भर पढ़ता रहता है। मिला है कुछ या नहीं? कभी एक बार सजग होकर सोचो।
हिंदू ध्यावै देहुरा, मुसलमान मसीत।
जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।।
फिर जोगी क्या करता है? फिर योग का मार्ग क्या है? हजारों लोग मंदिरों में, हजारों लोग गिरजों में, हजारों लोग मस्जिदों में, लेकिन कहीं कुछ ज्योति तो दिखायी पड़ती नहीं। मंदिर-मस्जिद उलटे लड़वाते हैं; राजनीतियों के अड्डे बन गये हैं। वहां पहुंचकर कोई शांति की झलक तो दिखायी नहीं पड़ती, न ही कोई आनंदमग्न भाव जन्मता है, न उत्सव पैदा होता है। न पैरों में थिरक आती है, न प्राणों में पुलक। जीवन जैसा था वैसा का ही वैसा चलता रहता है।
जोगी ध्यावै परम पद!
इसलिए योगी मंदिर-मस्जिद का ध्यान नहीं करता, परम पद का ध्यान करता है। क्या है परम पद? कहां है परम पद? मंदिर भी बाहर, मस्जिद भी बाहर; परम पद तुम्हारे भीतर है। परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है। और तुम कहां खोज रहे हो बाहर? और जब तक तुम बाहर खोजते रहोगे, उसे तुम कभी पा न सकोगे।
सूफी फकीर स्त्री हुई: राबिया। उसके घर एक मेहमान था: फकीर हसन। सुबह थी, हसन बाहर आया। बड़ी सुंदर सुबह! सूरज ऊगा और पक्षी गीत गाते, और वृक्ष हरे, और वृक्षों पर फूल खिले, और आकाश में बड़े प्यारे रंग!...ऐसी प्यारी सुबह...और राबिया अब भी झोपड़े के भीतर है, तो हसन ने आवाज दी: राबिया, पागल राबिया! भीतर तू क्या करती है, बाहर आ। देख, परमात्मा ने कैसी सुंदर सुबह रची!
और राबिया खिलखिला कर हंसी। उसकी हंसी सुनना; अगर तुम्हें सुनायी पड़ जाये, तुम्हारी जिंदगी बदल जाये। राबिया अभी भी हंस रही है। राबिया की हंसी ऐसी नहीं है कि जो समाप्त हो जाये। राबिया उन थोड़ी-सी स्त्रियों में से एक है, जिनकी गणना बुद्ध, महावीर, मोहम्मद कृष्ण के साथ की जानी चाहिए। थोड़ी-सी स्त्रियों में से एक है। राबिया खिलखिला कर हंसी। हसन तो चौंक गया, खिलखिलाहट उसकी बड़ी दीवानी थी। और उसने कहा: पागल हसन! तू ही भीतर आ। मुझे मालूम है कि सुबह सुंदर है। मैंने बहुत सुबहें देखी हैं। उसकी प्रकृति बड़ी प्यारी है! उसकी सृष्टि बड़ी अदभुत है, अलौकिक है! मगर जिसने उसे देख लिया, उसके लिए तो उसकी प्रकृति बिलकुल फीकी हो जाती है। तू चित्र ही देख रहा है, मैं चित्रकार को देख रही हूं। तू काव्य ही सुन रहा है, मैं कवि के सामने खड़ी हूं। तूने सिर्फ प्रतिध्वनि सुनी है, मैं मूलस्रोत को सुन रही हूं। तू ही भीतर आ! मुझे बाहर मत बुला, मैं बाहर बहुत रह चुकी। तू भी बाहर बहुत रह चुका, अब भीतर आ।
बात तो छोटी-सी थी। हसन ने तो किसी और ही मतलब से कही थी। लेकिन सिद्ध पुरुषों की यही खूबी है कि छोटी-छोटी बातों को बड़े-बड़े अर्थ दे देते हैं। छोटी-छोटी बातें उनके हाथ का स्पर्श पा कर स्वर्णिम हो जाती हैं। उसने तो ऐसे ही पुकारा था कि राबिया, तू भीतर क्या करती है? सुबह, बड़ी सुंदर सुबह है, बाहर आ। राबिया ने बात बदल दी। राबिया ने इस छोटी-सी घटना को एक आध्यात्मिक उत्प्रेरणा बना दी। उसने कहा: नहीं हसन, तू ही भीतर आ, क्योंकि मैं भीतर उस मालिक को देख रही हूं, जिसने बाहर की सुबह बनायी है।
जिसने भीतर छिपे मालिक को देख लिया, सब मंदिर मिल गये, सब मस्जिदें मिल गयीं। फिर तुम जहां हो वहीं मंदिर है, वहीं मस्जिद है। मगर नाराज हो जायेंगे लोग। लोग नाराज हो जाते हैं। लोग सत्य की बातों से बड़े नाराज हो जाते हैं। क्योंकि मैंने कह दिया कि जहां तुम बैठे हो अगर तुम शांत हो, मौन हो, आनंदित हो, तो वहीं काबा है--बस मौलवी नाराज हो गये!...काबा! काबा पवित्र स्थल है। मैं तुम से फिर कहता हूं: जहां ध्यानी बैठ जाता है वहीं काबा है। उसे कहीं और जाने की जरूरत नहीं।
मंसूर अलहिल्लाज को जब ज्ञान उत्पन्न हुआ, तो उसके भीतर से अनलहक की आवाज उठने लगी--मैं परमात्मा हूं! अंधे लोग क्षमा नहीं कर सकते ऐसी बात। अंधे भी बड़े जिद्दी हैं। सदियां बीत गयीं, आंखवाले आते रहे और जाते रहे, मगर अंधे भी बड़े जिद्दी हैं। सदियां बीत गयीं। दीये जलते रहे, लेकिन अंधे बुझाते रहे। अमृत आता रहा, लेकिन अंधे इंकार करते रहे। आंख का उपचार हो सकता था, लेकिन अंधे भागते रहे उपचार से।
मंसूर ने आवाज दी: अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक, मैं ईश्वर हूं! अब यह एक मुसलमान देश में इस तरह की बात कहनी बड़ी खतरनाक है। मंसूर के गुरु ने कहा कि मंसूर, इस तरह की बात मत कर। मुझे भी मालूम है। मेरे भीतर भी यह आवाज उठी थी, लेकिन दबा गया। क्योंकि नाहक उपद्रव क्यों खड़ा करना, पी गया। तू भी पी जा।
गुरु ने कहा, तो मंसूर ने कहा: आप कहते हैं तो ऐसा ही करूंगा। लेकिन फिर जब भी ध्यान में बैठे तब फिर आवाज, वही पुकार--अनलहक!
गुरु जुन्नैद ने कहा कि सुन, तू वचन भी दे देता है और तोड़ देता है।
मंसूर ने कहा: मैं नहीं तोड़ता वचन। जब तक मेरा वश रहता है, जब तक मैं रहता हूं तब तक वचन का पालन करता हूं। लेकिन एक ऐसी घड़ी आती है जब मैं नहीं रहता। फिर कौन वचन का पालन करे? फिर वही पुकारता है अनलहक, मैं क्या करूं? उसने तो वचन दिया नहीं, वचन मैं देता हूं। इसलिए जहां तक मेरी सामर्थ्य है, वहां तक दबाये रखता हूं। लेकिन जब मेरी सामर्थ्य छूट जाती है, जब मैं ही नहीं होता, परमात्मा मेरे भीतर से बोल उठता है, तो फिर कुछ किया नहीं जा सकता।
जुन्नैद ने कोई उपाय न देख कर...क्योंकि मौलवियों तक खबरें पहुंचने लगीं। और मौलवी ये खबरें ले जाने लगे राजदरबार तक कि यह मंसूर काफिर हो गया है। जैसे कृष्ण मुहम्मद काफिर हो गये न, राधा मोहम्मद काफिर हो गयी--ऐसे ही मंसूर काफिर हो गया! लोग खबरें ले जाने लगे। जुन्नैद को प्रेम था मंसूर से। जुन्नैद ने कहा: तू एक काम कर, तू कुछ दिन के लिये तीर्थयात्रा पर चला जा। जा काबा की यात्रा कर आ। यात्रा भी हो जायेगी और वहां तू खूब रास्ते में, एकांत में, जंगल में, रेगिस्तानों में चिल्ला लेना जितना चिल्लाना हो: अनलहक! क्योंकि रेगिस्तान इतना नासमझ नहीं है जितने लोग! पत्थर-पहाड़ इतने मूढ़ नहीं हैं जितने लोग! वे तेरी बात समझेंगे। तू जा, और एक बार तीर्थयात्रा कर आ।
यह सिर्फ बहाना था कि एक साल, दो साल के लिए...क्योंकि उन दिनों हज की यात्रा पर जाना वर्षों का काम था। पैदल जाना, लंबी यात्रा। लौटना हो भी कि न हो। जंगल और पहाड़ और रेगिस्तान और नदियां और बीमारियां और हजार उपद्रव थे...जंगली जानवर। दो-चार वर्ष बात टल जायेगी। फिर लौटेगा, तब तक शायद शांत भी हो जाये। अभी नयी-नयी घटना घटी है, अभी ताजा-ताजा परमात्मा बोला है, इसलिए रोकने में असमर्थ है। इस बीच थोड़ी क्षमता भी बढ़ जायेगी।
गुरु ने कहा, तो मंसूर ने झुक कर नमस्कार किया और कहा: आप कहते हैं तो यह चला यात्रा को। अभी कर आता हूं काबा, हज।
गुरु तो बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन प्रसन्नता ज्यादा देर न टिकी, क्योंकि मंसूर उठा और अपने गुरु के सात चक्कर लगाये और आ कर बैठ गया। और उसने कहा। यह हो गयी यात्रा। तुम मेरे काबा, तुम मेरे तीर्थ! और कहां जाना है, तुम्हें छोड़ कर कहां जाना है?
जरूर मुसलमान नाराज हो गये होंगे। देहधारी मनुष्य को काबा कहना! अनलहक की घोषणा करना! मैं परमात्मा हूं, ऐसी घोषणा करना! मंसूर को सूली दी। मंसूर के हाथ-पैर काट डाले।
सदियां बीत गयीं, लेकिन बात नहीं बदलती! अभी भी वे कृष्ण मुहम्मद को पत्र लिखते हैं कि गर्दन काट देंगे। आदमी कभी बदलेगा या नहीं बदलेगा? यहां ध्यान करने वाले लोगों पर हमला कर देंगे, कि गर्दनें काट देंगे। आदमी कभी बदलेगा या नहीं बदलेगा?
न तो मंदिर में है परमात्मा, न मस्जिद में है; परमात्मा तुम्हारे भीतर है। और जिसने उसे वहां नहीं पाया, उसे कहीं भी नहीं पा सकेगा। और जिसने उसे वहां पाया, वह सब जगह पा लेगा।
जोगी ध्यावै परम पद, जहां देहुरा न मसीत।।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै...।
और इसलिए अड़चनें खड़ी होंगी। कोई निंदा करेगा, कोई वंदन करेगा। ज्ञानी को यह अड़चन सदा होगी: कोई निंदा करेगा, कोई प्रशंसा करेगा। कोई न्यंदै कोई व्यंदै। और वंदन करने वाले तो थोड़े होंगे, निंदन करने वाले बहुत होंगे। सौ में से निन्यानबे तो गालियां देंगे; कोई एक-आध, कोई एक-आध माई का लाल, कोई एक-आध विरला, कोई एक-आध हिम्मतवर प्रशंसा करेगा।
प्रशंसा तो वही कर सकता है, जिसे थोड़ी झलक मिली है; एक-आध किरण सही, न मिला हो सूरज; एक-आध बूंद सही, न मिला हो सागर। जरा-सी सुगंध ही आयी हो, लेकिन नासापुट तक पहुंची हो, वही वंदन कर सकेगा।
तो वंदन करने वाला तो कभी कोई एक-आध होगा, निंदा करने वाले बहुत होंगे। ध्यानी को, योगी को, खोजी को स्मरण रखना चाहिए: गालियां बहुत मिलेंगी, फूल-हार कभी-कभी।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै, कोई करै हमारी आसा।
और कुछ लोग सोचते हैं कि हम से कुछ मिल जायेगा, इसलिए प्रशंसा करते हैं। वह प्रशंसा भी सच्ची नहीं है फिर। उन विरले लोगों में भी जो प्रशंसा करते हैं, उनमें से कुछ इसलिए करते हैं अधिक कि कुछ मिल जायेगा, कि योगी से कुछ चमत्कार हो जायेगा। किसी को बेटा नहीं है। किसी को नौकरी नहीं है। किसी को कोई बीमारी है। किसी को कुछ है, किसी को कुछ है, जीवन की हजार अड़चनें हैं। तो जो नमस्कार करने भी आते हैं ध्यानी को, सिद्ध को, बुद्ध को, वे भी बुद्ध को नमस्कार करने नहीं आते। वे भी इस आशा में आते हैं कि शायद अपनी कोई कामना पूरी हो जाये। वे कल्पवृक्ष की तलाश में हैं, बुद्धत्व की तलाश में नहीं। वे सोचते हैं बुद्ध के पास शायद उनके आशीर्वाद से, जो हम अपने ही प्रयास से नहीं कर पाये हैं, उनके प्रसाद से हो जाये।
कोई करै हमारी आसा।
लेकिन जिन्होंने जाना है, वे तुम्हें ऐसा आशीर्वाद नहीं दे सकते जो तुम्हें और संसार में उलझा दे। उन्होंने स्वयं ही सारी आशाएं छोड़ दी हैं। वे तुम्हारी आशाओं को पूरा करने का कारण नहीं बन सकते। जिस बात को उन्होंने ही गलत जान कर छोड़ दिया है, वही गलत वे तुम्हें नहीं दे सकते। जिसे उन्होंने ही बंधन माना है, वे कैसे तुम्हें आभूषण बना कर बंधनों को दे देंगे। वे जंजीरें हैं। उनके पास तुम जाओगे, तो वे तुम से कहेंगे कि तुम भी छोड़ दो सब आशा।
इस जगत में सब आशा व्यर्थ है, क्योंकि यह आशा सिर्फ भटकाती है--भ्रमजाल है, मृगमाया! ये सोने के जो मृग दिखायी पड़ते हैं, ये कहीं होते नहीं। और तुम तो तुम, राम तक धोखे में आ जाते हैं! सोने का मृग! चले तलाश पर। रावण के कारण राम ने सीता नहीं खोई, सोने के मृग के कारण खोई। सोने के मृग की तलाश में चल पड़े। और जो बाहर निकल जाता है सोने के मृग की तलाश में, उसके भीतर की सीता खो जाती है। यह तो प्रतीक-कथा है। यह तो प्यारी कथा है। राम चले खोजने बाहर, भीतर की सीता खो गयी, आत्मा खो गयी।
कोई न्यंदै कोई व्यंदै, कोई करै हमारी आसा।
गोरख कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।।
और गोरख कहते हैं, ठीक से सुन लो, समझ लो। हम तो खरी बात कह रहे हैं कि हमारे रास्ते पर आशा आती ही नहीं। हमारे रास्ते पर तो परम निराशा में ही कोई उतरता है।
परम निराशा को समझना। निराशा का अर्थ होता है: इस जगत में न कुछ मिला है, न मिल सकता है। सब स्वप्न-जाल है। बस स्वप्न ही स्वप्न है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं, पास जाने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता।
गोरख कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।
यह तो पंथ ही उनका है, जो उदासीन हो गये हैं; जिन्होंने देख ली सब आशाएं और सब आशाएं उघाड़ कर पहचान लीं और भीतर कुछ भी नहीं पाया। यह रास्ता उनका है। इस रास्ते पर वे ही गतिमान होते हैं। संसार जिनके लिए व्यर्थ हो गया है, वे ही तो भीतर की यात्रा पर निकलते हैं। उनके पास तुम किसी आशा के कारण मत जाना।
मुझे सपने दिखाओ मत
कि सपने टूट जाते हैं,
न अपनापन दिखाओ तुम
कि अपने छूट जाते हैं!
न खो जाना रसीली तान में
कल फूल कहते थे--
भ्रमर हमका रसीले गीत
गाकर लूट जाते हैं!
कहानी सिंधु-मंथन की
यही फिर-फिर जताती है,
सुधा लेकर हलाहल के
पिलाये घूंट जाते हैं!
मुझे कल रात रो-रो कर
बताया एक बच्चे ने--
घरौंदे मत बना लेना,
घरौंदे फूट जाते हैं!
किनारे कह रहे थे--
लौटकर आती नहीं लहरें,
वचन सौ-सौ मिले हों, पर
निकल सब झूठ जाते हैं!
छिपाकर चंद्रमा को,
सिंधु से काली घटा बोली--
छटा के देवता ये
अर्चना से रूठ जाते हैं!
यहां सब सपने ही सपने हैं। जिसको यह दिखायी पड़ गया कि बाहर कुछ भी नहीं है, वही अंतर की खोज पर निकलता है। बाहर से हारा हुआ ही भीतर जाता है। हारे को हरिनाम! इसलिए हार बड़ा सौभाग्य है, जीत बड़ी महंगी पड़ती है। इस दुनिया में जो सफल हो जाते हैं, वे चूक जाते हैं। इस दुनिया में सफल होना महंगा सौदा है। धन मिल गया, पद मिल गया, प्रतिष्ठा मिल गयी, इतरा गये, अकड़ गये, मदमस्त हो गये--चूक गये।
धन्य हैं वे जो हार जाते हैं; जिन्हें न पद न प्रतिष्ठा न सफलता--कुछ भी नहीं मिलता। धन्य हैं वे, अगर समझ पायें तो। अगर अपनी धन्यता को पहचान पायें तो। अगर देख पायें कि कुछ भी नहीं मिलता। सब घरौंदे फूट जाते हैं। जिनको ऐसा दिखायी पड़ जाये, उनके जीवन में क्रांति का अपूर्व क्षण आ गया।
गोरख कहै सुणो रे अवधू, पंथ षरा उदासा।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
बदंत गोरखनाथ आत्मां विचारत, ज्यूं जल दीसै चंदा।।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा...।
इन खेलों में मत पड़ जाना कि लगा कर बैठ गये आसन, कि हिलेंगे नहीं, कि बैठेंगे पत्थर की मूरत की तरह। इन खेलों में मत पड़ जाना। देह का आसन जमा कर बैठ गये, इससे कुछ भी न होगा। ये तो सर्कसी बातें हैं।
पवण निरोधिबा...।
यह भी मत सोच लेना कि श्वास को भीतर रोक लेते हैं आधा-आधा घंटे, कि जमीन में सो जाते हैं दिन-दिन के लिए, ऊपर से मिट्टी डलवा लेते हैं, फिर जिंदा निकल आते हैं। इन सब खेलों में मत उलझना। यह प्रश्न न तो देह का है, न श्वास का है; जो देह के और श्वास के पार है, उसका है। देह को सम्हाल लो, तो घंटों बैठे रह सकते हो एक ही आसन में। श्वास को सम्हाल लो तो श्वास को रोककर रह सकते हो। पर खयाल रखना, ये व्यर्थ की ही बातें हैं। इनसे कुछ हाथ लगेगा नहीं।
आसण बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
इससे तुम्हें कुछ लाभ होंगे, सम्मान मिलेगा बहुत। लोग कहेंगे: अहा, महायोगी, सिद्धपुरुष! लोग सम्मान देंगे।
यह दुनिया बड़ी अजीब है। यहां असली बुद्धों को अपमान मिलता है, यहां नकली बुद्धों को सम्मान मिल जाता है। यहां मंसूर जैसे प्यारे आदमी को तो सूली लग जाती है। और अगर कोई रास्ते पर आ कर, कोई बाजीगर जमीन में गड़ कर खड़ा हो जाये, एक हाथ ऊपर निकाल कर सिर तक अपने को खपा ले, फिर देखो कैसी भीड़ लगती है, कैसा सम्मान शुरू होता है! और कभी उस आदमी को गौर से देखा, जो चौबीस घंटे जमीन में गड़ा रहता है? बाहर निकाल कर कभी उसके पास बैठे? उसके पास कोई सत्य की सुगंध पायी? उसके पास कोई तरंग उठी? नहीं, इस सबकी किसी को चिंता ही नहीं है? लोग तो अचंभों में रस लेते हैं।
बुद्धपुरुष तो सीधे-सरल होते हैं, अत्यंत सामान्य होते हैं। उल्टे-सीधे कामों में उन्हें क्या रस हो सकता है? कोई बुद्ध कांटों की सेज बिछा कर लेटेगा? किसलिए? कोई प्रदर्शनी करनी है? लेकिन कोई कांटों की सेज बिछाकर लेट जाये, तो चले तुम। किसी ने मुंह में भाला भोंक लिया, चले तुम, चली भीड़, मूढ़ों की जमात इकट्ठी हुई! असल में तुम्हारी भीड़ जहां भी इकट्ठी होती हो, समझ लेना कि कुछ-न-कुछ गलत हो रहा होगा; नहीं तो इतनी भीड़ इकट्ठी नहीं हो सकती थी।
एक अदभुत फकीर थे: महात्मा भगवानदीन। उनके साथ एक बार मैं यात्रा पर था। वे बड़े प्यारे व्यक्ति थे। मगर अगर सभा में कभी बोलते और कोई ताली बजा देता, तो बड़े उदास हो जाते। एक-दो बार मैंने यह देखा कि तालियां बजती हैं, तो वे बड़े उदास हो जाते हैं। तो मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है, जब लोग तालियां बजाते हैं आप उदास क्यों हो जाते हैं? तो उन्होंने कहा कि जब लोग तालियां बजाते हैं, तब मुझे पक्का हो जाता है कि मैंने जरूर कोई गलत बात कही होगी; नहीं तो लोग और तालियां बजायें? लोग तो गलत को ही पकड़ पाते हैं। तो लोगों की तालियां बजीं कि मेरे चित्त में तत्काल खटका लगता है कि जरूर कुछ-न-कुछ बात गलत हो गयी। कुछ ऐसा कह दिया जो लोगों की समझ में आ गया--और समझ में ही उनके गलत आता है। प्रशंसा कर रहे हैं तो जरूर कुछ मुझ से भूल हो गयी। ये वे ही तो लोग हैं, जो सत्य को सुन कर पत्थर मारते हैं। ये सत्य को सुन कर तालियां कैसे बजायेंगे।
मुझे उस बूढ़े फकीर की बात जमी। यह बात सच है। ये वे ही लोग हैं जिन्होंने बुद्ध को पत्थर मारे, महावीर के कानों में सींकचे ठोक दिये; जिन्होंने मुहम्मद को जिंदगी-भर शांति से न बैठने दिया। ये वे ही लोग हैं, जो मुहम्मद का पीछा करते रहे एक गांव से दूसरे गांव। मुहम्मद की जान हमेशा खतरे में बनाये रखी जिन्होंने, ये वे ही लोग हैं। मगर अब मुहम्मद की पूजा कर रहे हैं। अब महावीर की पूजा कर रहे हैं। अब बुद्ध का आराधन चल रहा है। पश्चात्ताप कर रहे हो, प्रायश्चित कर रहे हो? जो दुर्व्यवहार किया था उसके लिए अब रो रहे हो?
मगर तुम अब भी वही करोगे। तुम अब भी वही कर रहे हो। अब भी अगर कोई बुद्ध खड़ा होगा, तुम्हारा व्यवहार तत्क्षण पुराना का पुराना हो जायेगा। तुमने कुछ सीखा नहीं है सदियों में। तुम जैसे सीखोगे ही नहीं। जैसे तुमने जिद्द कर रखी है न सीखने की।
आसण बैसिबा पवन निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
तो धंधा तो खूब चल सकता है, सम्मान भी खूब मिलेगा। अगर आसन मार कर बैठ गये और श्वास रोक ली, तो बहुत तुम्हारा सम्मान करनेवाले मिल जायेंगे, बहुत तुम्हारी पूजा करनेवाले मिल जायेंगे।
एक गांव में मैं गया। किसी ने मुझे कहा कि गांव में एक बड़े फकीर आये हुए हैं। मैंने पूछा, कौन?
उनका नाम है: खड़ेश्री बाबा।
मैंने कहा: यह भी खूब नाम है, बात क्या है?
तो उन्होंने कहा: वे खड़े हैं दस साल से; बैठते ही नहीं!
पड़ोस में ही थे। सुबह जब मैं घूमने निकला, तो दिखाई पड़ गये, एक झाड़ के नीचे खड़े थे। झाड़ से एक झूला लटका रखा था। झूले पर हाथ टेके...क्योंकि नींद तो आयेगी ही रात, गिर न पड़ जायें। और दो शिष्य रात साथ लगे रहते थे; वे दिन-भर सोते थे शिष्य, और रात-भर उनको सम्हाले रखते थे कि वे गिर न जायें। लेटना तो है ही नहीं। उनके पैर सूज गये। दस साल कोई खड़ा रहेगा! सारा शरीर तो सूख गया, पैर हाथी-पांव हो गये। यह रुग्ण मनुष्य अकारण कष्ट झेल रहा है। मगर पूजा चल रही है! कीर्तन चल रहा है--सुबह सांझ रात, चौबीस घंटे!
मैंने लोगों से पूछा कि जरा इनकी आंखों में भी तो देखो, इनके चेहरे पर भी देखो! न कोई प्रतिभा का लक्षण है, न कोई शांति है, न कोई प्रसाद है, न कोई काव्य झरता मालूम होता है। सिर्फ ये मोटे पांव, ये हाथी-पांव...। तुम इनकी पूजा किये जा रहे हो! पर वे बोले कि देखिये तो चमत्कार, दस साल हो गए! दस साल नहीं, दस सदियां हो जाएं तो भी क्या होगा? कोई मूढ़ दस साल तक खड़ा रहे, इससे प्रज्ञावान हो जायेगा? मूढ़ता और घनी हो जायेगी। मूढ़ता और मजबूत हो जायेगी।
आसन बैसिबा पवण निरोधिबा, थांन मांन सब धंधा।
बदंत गोरखनाथ आत्मां विचारत...।
कहते हैं गोरख: करना हो तो एक ही बात करना, वह जो भीतर छिपा है उसका विचार करना। मैं कौन हूं, इस विचार में उतरना।
…ज्यों जल दीसै चंदा!
और अगर तुम उस तक पहुंच गये, तो जैसे जल में चंद्रमा दिखायी पड़ता है, ऐसे ही अपने भीतर परमात्मा की झलक मिल जायेगी।
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
माना, यमुना के तट पर आज उदासी,
माना, उजड़ा-उजड़ा-सा है वृंदावन;
माना, पनघट वीरान पड़ा बरसों से,
हर ओर दिखाई देता है सूनापन!
उर में मुरली की तान बसा कर देखो--
सूनेपन में भी रास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
प्रियतम को दूर बताकर तुम रोते हो,
तुमने शायद तन को ही प्यार किया है,
मन की समीपता को न कभी पहचाना,
अपराध न यह अब तक स्वीकार किया है!
मन में छलिया का रूप बसाकर देखो--
छलना में भी विश्वास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
कागज के फूल चढ़ाते हो प्रतिमा पर?
तुम पूजा को खिलवार समझ बैठे हो!
प्यासे मृग-से दीवाने बने हुए हो,
बालू को ही जलधार समझ बैठे हो!
तन से जो कोसों दूर दिखाई देता,
मन में खोजो तो पास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मुधमास दिखाई देगा!
मंजिल तो न्यौछावर होने आयेगी,
बहके-बहके चरणों की चाल संभालो;
मनुहार करो मत चांद-सितारों की तुम,
केवल अपने उर को आकाश बना लो!
मीरा जैसा संकल्प संजोकर देखो,
विष में अमृत का वास दिखाई देगा!
सूनी आंखों में रंग प्यार का भर लो,
पतझर में भी मधुमास दिखाई देगा!
आकाश बनो। निर्विचार बनो। मौन बनो। भीतर जगो; भीतर जाग कर देखो। एक ही प्रश्न है सार्थक पूछने जैसा--मैं कौन हूं? पूछे जाओ, पूछे जाओ, पूछे जाओ...तीर की तरह चुभने दो इस प्रश्न को--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और बहुत उत्तर राह में आयेंगे, कोई उत्तर स्वीकार न करना। एक किनारे से कुरान बोलेगा कि तुम कौन हो। कह देना कि चुप! एक तरफ से गीता बोलेगी कि तुम कौन हो। कह देना कि चुप। एक तरफ से वेद बोलेंगे, धम्मपद बोलेगा। कह देना, चुप। सुनना ही मत शास्त्रों की। और ऐसा नहीं कि शास्त्र गलत कहते हैं। शास्त्र बिलकुल सही कहते हैं। मगर तुम शास्त्र की सुनना मत; अन्यथा तुम अपनी सुनने से वंचित रह जाओगे। तुम तो चले जाना भीतर और भीतर...और इंकार करते जाना थोथे ज्ञान को, जो तुमने सीख लिया बाहर से--पंडित से, मौलवी से, पुरोहित से। कह देना नहीं, मुझे जानना है। मुझे स्वयं ही जानना है। मैं अपना ही जानूंगा तो मानूंगा, अन्यथा कुछ न मानूंगा।
हटा देना सब शास्त्र। चले जाना भीतर। हो जाना बिना शास्त्र के, बिना विचार के। एक ऐसी घड़ी आयेगी, प्रश्न ही गूंजता रह जायेगा, कोई उत्तर न उठेगा। मैं कौन हूं?...और कोई उत्तर न आयेगा। समझना, आधी यात्रा पूरी हो गयी, अब सब उत्तर गिर गए। बासे, सिखाए गए पढ़ाए गए, तोतों की तरह रटे गये...ग्रामोफोन रिकॉर्ड सब छूट गए पीछे। अब सिर्फ तुम्हारा प्रश्न बचा है--मैं कौन हूं? यह आधी यात्रा। एक कदम पूरा हो गया--और बड़ा कदम पूरा हो गया! असली कदम पूरा हो गया। दूसरा कदम तो बहुत आसान है।
अब पूछते जाना: मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और तुम चकित हो जाओगे, एक घड़ी आयेगी, प्रश्न भी छूट जायेगा। ऐसा सन्नाटा खिंचेगा कि प्रश्न भी बनाये न बनेगा। चाहोगे भी पूछना, तो न पूछ सकोगे। पहले उत्तर गिर जायेंगे--बासे, सिखाये, शास्त्रों से पढ़े। फिर प्रश्न गिर जायेगा। और जहां न प्रश्न है न उत्तर है, वहीं उत्तर है! अब प्रश्न भी नहीं कि मैं कौन हूं! लेकिन तुम जागोगे और देखोगे। तीर जगा गया। तीर छिद गया हृदय में। उसकी पीड़ा तुम्हें चौंका गयी, उठा गयी, तोड़ गई तंद्रा, छूट गयी नींद, हो गयी सुबह। और तब तुम आंख खोल कर देखना। तब तुम चकित हो जाओगे; यह जगत उसी का जगत है! इसके पत्ते-पत्ते पर उसी की छाप है! इसके कण-कण पर उसी का हस्ताक्षर है!
और फिर गीता पढ़ना। फिर कुरान गुनगुनाना। और तुम हैरान हो जाओगे, जो तुमने जाना है, वही कुरान है। जो तुमने जाना है वही गीता है। अब गीता और कुरान और धम्मपद और बाइबिल, सब तुम्हारे गवाह हो गये। मेरी ये बातें पंडितों को, मौलवियों को बड़ा कष्ट दे जाती हैं। और मैं यह कह रहा हूं कि तुम असली कुरान कैसे पाओ, तुम्हारे भीतर असली कुरान की आयत कैसे उठे। मैं तुम्हें असली कुरान खोजने की कुंजी दे रहा हूं। मगर जो कुरान रटकर बैठा है उसे तो अड़चन लगेगी। वह तो कहेगा कि मैंने कहा, कुरान की आवाज आये तो मत सुनना; कह देना चुप रहो। यह तो अपमान हो गया कुरान का। समझोगे या नहीं समझोगे?
मुझ से ज्यादा किसी ने प्रेम किया होगा कुरान को, उपनिषद को, गीता को, बाइबिल को? मुझसे ज्यादा किसी ने स्मरण किया है मुहम्मद का, महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का? लेकिन फिर भी मैं तुम से कहता हूं: राह पर जब तुम्हें बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट और मुहम्मद मिलें, हटा देना; कहना, हट जाओ मार्ग से; रास्ता दो। मुझे जाने दो। मुझे रोको मत, मुझे अटकाओ मत। मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंच जाने दो। मैं तुम्हें भी तभी जान पाऊंगा जब मैं अपने पर पहुंच गया हूं। उसके पहले तुम बासे हो, उधार हो। उसके पहले मैं तुम्हें खाक समझूंगा! तुम कुछ कहोगे, मैं कुछ और समझूंगा। तुम सत्य कहोगे, मैं शब्द पकड़ लूंगा। जब तक तुम्हारी जैसी ही भाव-दशा मेरी न हो जाये।
जैसे मुहम्मद के निर्जन निवास में पहाड़ पर एक दिन कुरान उतरी...। जैसी दशा मुहम्मद की उस दिन थी जिसमें कुरान उतरी, जब तक तुम्हारी न हो जाये, तब तक तुम कुरान को न जान पाओगे। गीता को जानना हो, तो कृष्ण जैसा चित्त चाहिए। अर्जुन भी हो गये, तो भी न जान पाओगे। अर्जुन, देखो कितना विवाद कर रहा है कृष्ण से; नहीं समझ पा रहा है। अर्जुन इतने निकट है, इतना मित्र, संगी-साथी है बचपन का। एक-दूसरे के साथ खेले हैं। एक-दूसरे के साथ मिले-जुले हैं, मैत्री है; मगर फिर भी अर्जुन नहीं समझ पा रहा है। कृष्ण कुछ कहते हैं, अर्जुन कुछ पूछे चला जाता है।
तुम कैसे समझोगे--तुम जो इतने दूर हो? हजारों सालों का फासला है तुम्हारे और कृष्ण के बीच--भाषा का, भाव का, विचार का, संस्कार का, संस्कृति का, समाज का, इतना लंबा फासला...। अर्जुन नहीं समझ पा रहा है, तुम कैसे समझ पाओगे? नहीं, तुम कुछ का कुछ समझ लोगे।
कृष्ण-चेतना तुम्हारे भीतर पैदा हो, तो ही तुम गीता समझ पाओगे। और मुहम्मद जैसा भाव तुम्हारे भीतर हो, तो तुम्हारे भीतर भी कुरान उतरेगी। कोई मुहम्मद पर ही परमात्मा की विशेष कृपा थोड़े ही है। परमात्मा किसी पर विशेष कृपा नहीं करता; उसकी अनुकंपा समान है। सब पर एक जैसी बरस रही है। जो खाली हैं वे भर जाते हैं, जो भरे हैं वे खाली रह जाते हैं--बस इतना ही खयाल रखना। वर्षा होती है पहाड़ों पर भी, लेकिन पहाड़ खाली रह जाते हैं, क्योंकि भरे हैं। झीलों में भी वर्षा होती है, लेकिन झीलें भर जाती हैं, क्योंकि खाली हैं।
शून्य हो जाओ पहले तो भर जाओगे। मगर तुम्हारा कुरान, तुम्हारी गीता, तुम्हारी बाइबिल, तुम्हारे वेद भरे हैं। तुम पहाड़ बने बैठे हो--ज्ञान के पहाड़! उसी से तुम अज्ञानी हो। हटाओ इन पहाड़ों को। इन पहाड़ों की ओट में अपने अज्ञान को छिपाओ मत। अपने अज्ञान को नग्न करो, निर्वस्त्र करो। खोल दो उसके सामने अपने सारे घावों को। खाली हो तो खाली सही; जैसे भी हो उसके हो। सूने हो, शून्य हो, शून्य सही; जैसे भी हो उसके हो। अपने शून्य पात्र को उसके सामने कर दो। और तुम तत्क्षण भर जाओगे उसकी रोशनी से। और वही रोशनी प्रमाण बन जायेगी सारे शास्त्रों का। उसी रोशनी में तुम्हारे भीतर शास्त्र का जन्म शुरू हो जायेगा।
शास्त्र तो रोज पैदा होते हैं; जब भी कोई ध्यान को उपलब्ध होता है तभी शास्त्र पैदा हो जाते हैं। जैसे गंगोत्री से गंगा निकलती है, ऐसे समाधि से शास्त्र निकलते हैं।
केता आवै केता जाइ। केता मांगै केता खाइ।
केता रुष-बिरष तलि रहै। गोरख अनभै कासौं कहै।।
गोरख कहते हैं: कई आते हैं और कई जाते हैं। मगर मुश्किल से कोई एक-आध ऐसा आता है जो टिक रहे। यहां भी कई आते हैं कई जाते हैं। केता आवै केता जाइ। और जो आ कर चला जाता है वह सोचता है वहां कुछ भी नहीं था, इसलिए चले आये...। लेने की क्षमता न थी। खुलने की हिम्मत न थी। अज्ञान को स्वीकार करने की तत्परता न थी। नग्न होने, उघड़ने का साहस न जुटा सके, इसलिए पलायन कर गये। मगर सोच कर यही जाता है जाने वाला कि यहां क्या है? यहां कुछ नहीं, कहीं और चलें।
केता आवै केता जाइ।
ऐसा गोरख ने भी देखा होगा। न मालूम कितने लोग आये, न मालूम कितने लोग गये।
केता मांगै केता खाइ।
बहुत से मांगते हैं ज्ञान की भीख, मगर बहुत कम हैं जो उसे खाते हैं और पचाते हैं। और जब तक ज्ञान पचाया न जाये, जब तक खून-मांस-मज्जा न बने, तब तक कुछ भी न होगा। लोग ज्ञान को ऐसे ही भर लेते हैं खोपड़ी में, जैसे कोई बिना पचाये भोजन को अपने पेट में डालता जाये। इससे तो रोग पैदा होगा, उपाधि लगेगी, व्याधि लगेगी। इससे निरोगता न आयेगी।
जैसे भोजन बे-पचा पेट में पड़ा रहे तो जहर है, ऐसे ही ज्ञान बे-पचा मस्तिष्क में पड़ा रहे तो जहर है। ऐसे ही जहर से पंडित और मौलवी पैदा होते हैं। ज्ञानी बनना हो तो खयाल रखना: पाचन की शक्ति जगानी होगी। परमात्मा को पचाने की क्षमता चाहिए। ध्यान में ही यह हो सकेगा। भीतर ध्यान का आकाश होगा; तो ही तुम परमात्मा को अपने में समाविष्ट करने में सफल हो पाओगे।
केता आवै केता जाइ। केता मांगै केता खाइ।
कितने मांगते हैं, मगर पचा कौन पाता है? कितने पूछते हैं, लेकिन उत्तर को ग्रहण कौन करता है!
केता रुष-विरष तलि रहै।
गोरख के पास लोग आते होंगे। कुछ रुक भी जाते होंगे। बैठ गये वृक्षों के नीचे, जैसे इस देश में चलते थे पुराने दिनों में योगी; अब भी...बैठ गये वृक्ष के नीचे। कुछ दिन रहे। धूनी तापी, चिलम पी। कुछ उल्टा-सीधा, इरछा-तिरछा योग साधा। कुछ मान-सम्मान पाया। आगे बढ़ गये।
गौरख अनभै कासौं कहै।
गोरख कहते हैं कि कहना चाहता हूं। मिल गया मुझे। मगर किससे कहूं? लोग टिकते नहीं; आते हैं चले जाते हैं। कोई पूछता भी है, तो थोथा प्रश्न होता है जिज्ञासु का, कुतूहल से भरा हुआ; मुमुक्षा का नहीं। किसको उत्तर दूं? कुछ आते हैं, जो अपनी मान-मर्यादा पाने के चक्कर में हैं। वृक्ष के नीचे बैठे। आसन जमाया। धूनी रमायी। दो दिन रहे, आगे बढ़े। कुछ हैं जो धंधे में लगे हैं।
गौरख अनभै कासौं कहै।
यह पीड़ा सभी ज्ञानियों की रही। मिल गया है, देना चाहते हैं, बांटना चाहते हैं। सत्य बंटना चाहता है। मगर किसको दो? पात्र नहीं मिलते। किसको दो, कोई लेने को तैयार नहीं है। लोग व्यर्थ को लेने को आतुर हैं, कचरा-कूड़ा लेने को आतुर हैं। लेकिन सत्य को लेने को कोई आतुर नहीं है। क्योंकि महंगा सौदा है, सत्य को लेने का अर्थ होता है: मरना पड़ेगा। तुम मरोगे तो सत्य ले सकोगे।
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मरि गोरख दीठा।।
ले तो सकेगा सत्य को वही जो मिटने को तैयार है; जो कहता है कि मैं अपनी कीमत जीवन से भी देने के लिए तैयार हूं; यह मेरा जीवन जाये तो जाये, सत्य लेकिन मुझे चाहिए। ऐसी जिसकी त्वरा है, ऐसी ज्वलंत जिसकी अभीप्सा है, ऐसी जिसकी प्यास है--बस वही पा सकेगा।
तो अनभै कासौं कहै। मुझे मिल गया, गोरख कहते हैं, अभय ज्ञान। मुझे मिल गया वह ज्ञान जहां मृत्यु नहीं घटती, इसलिए जहां कोई भय नहीं। मैंने जान लिया वह, जो अमृत है। बांटना चाहता हूं। यह भरा हुआ कलश लेकर घूम रहा हूं कि कोई ले ले। मगर लेने वाले नहीं मिलते हैं।
बिरला जाणंति भेदांनिभेद। बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
बिरला जाणंति अकथ कहाणी। बिरला जाणंति सुधि बुधि की वाणी।।
बहुत विरले हैं--गोरख कहते हैं--जिनको भेद है कि क्या व्यर्थ है और क्या सार्थक है। सार और असार में जिन्हें भेद है, ऐसे बहुत विरले हैं। वे ही ले सकेंगे। जो धन के पीछे दीवाने हैं, वे ध्यान न ले सकेंगे। उन्हें अभी पता ही नहीं कि कौन-सी बात सार्थक है, कौन-सी व्यर्थ है। जो पद के पीछे दीवाने हैं, वे प्रार्थना न ले सकेंगे। अभी तो कचरा जोड़ने में लगे हैं। अभी तो राह के किनारे कंकड़ बीन रहे हैं। अभी तुम उनको कहोगे भी कि आओ हमारे साथ, हीरे की खदानों पर ले चलें; वे जाने को राजी नहीं होंगे। उन्हें हीरों का कुछ पता ही नहीं है। हीरे होते भी हैं, इसका पता नहीं है। उन्होंने तो कंकड़-पत्थर को ही हीरा मान लिया है।
बिरला जाणंति भेदांनिभेद। बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
ये जो पक्ष-विपक्ष हैं, ये दोनों छेदवाले हैं--ऐसा विरलों को ही पता है। जीवन का सत्य पक्ष-विपक्ष में बंटने से नहीं मिलता, कि तुमने यह वाद मान लिया या वह वाद मान लिया, तुमने यह शास्त्र मान लिया कि वह शास्त्र मान लिया; कि तुम हिंदू हो गये कि मुसलमान हो गये। पक्ष-विपक्ष में बंटने से सत्य नहीं मिलता। सत्य तो निष्पक्ष को मिलता है।
इसलिए मैं तुम से बार-बार कहता हूं कि जो धार्मिक है वह किसी संप्रदाय का हिस्सा नहीं हो सकता। धार्मिक होने की शर्त ही यही है कि निष्पक्ष हो जाये। खोजी रहे, खुला रहे। फिर जहां से भी पुकार आ जाये उसी तरफ चल पड़े। फिर यह सोच-विचार न करे कि किससे लूं और किससे न लूं। नहीं तो जैन जाता है केवल जैन मुनि के पास, चाहे जैन मुनि के पास हो या न हो। अगर हिंदू को मिल गया है, तो भी जैन वहां न जायेगा। मुसलमान जाता है अपने फकीर के पास, चाहे वहां हो चाहे न हो। अगर किसी जैन मुनि को मिल गया है तो मुसलमान नहीं जाता। और ऐसी ही औरों की गति है। ये पक्षों के कारण, सत्य यहां मिल भी जाता है लोगों को, तो भी तुम नहीं उपलब्ध कर पाते। तुम अटके रह जाते हो।
निष्पक्ष बनो।
बिरला जाणंति दोइ पष छेद।
इस पक्ष में उस पक्ष में, सब तरफ छेद ही छेद हैं। पक्ष मात्र में छेद है। निष्पक्ष हो जाओ, तो तुम निष्छिद्र हो जाओ। और जो निष्छिद्र है, वही सत्य को झेल सकेगा। उसमें वर्षा होगी अमृत की, तो उसका पात्र भर जायेगा।
बिरला जाणंति अकथ कहाणी।
और बहुत कम हैं जो उसको जान पाते हैं, जो नहीं कहा जा सकता। अब जो कहा नहीं जा सकता, वह लिखा भी नहीं जा सकता। जो बोला नहीं जा सकता, बताया नहीं जा सकता, उसे कैसे जानोगे शास्त्र से? उसे कैसे समझोगे पंडित से? उसे जानने के लिए तो उसके पास बैठना होगा जिसने जान लिया हो। उसके पास बैठते-बैठते चमत्कार घटता है। सत्संग में जानना होगा उसे।
सत्संग इस जगत का सब से बड़ा चमत्कार है। सत्संग छूत की बीमारी है--संक्रामक है। जिसने जान लिया है, उसके पास बैठते-बैठते रोग उसको भी लग जाता है, जिसने नहीं जाना। जानने का रोग, ध्यान का रोग, मस्ती का रोग--अगर रोग कहना चाहो; कहना तो नहीं चाहिए। कहना चाहिए संक्रामक स्वास्थ्य। उसका स्वास्थ्य लग जाता है। उसकी स्व-स्थिति तुम्हें भी लग जाती है। तुम्हारे भीतर भी भनक होने लगती है।
गुरु के पास बैठ कर उसके तार में तार मिलाना। गुरु के पास बैठ कर उसके छंद में लीन होना। गुरु के पास बैठ कर उसके शून्य को पीना। गुरु के पास बैठ कर उसकी उपस्थिति में डूबना। अगर होगा, तो बस इसी तरह होता है, और किसी तरह नहीं होता। बुझे दीये को हम जले दीये के पास ले जाते हैं--पास और पास और पास...।
एक ऐसी घड़ी आती है जहां तत्क्षण जले दीये से बुझे दीये पर ज्योति छलांग लगा जाती है। मगर पास लाना पड़ता है। तुम मील भर दूर रखो बुझे दीये को जले दीये से, तो घटना नहीं घटेगी। आधा मील दूर रखो तो भी नहीं घटेगी। एक गज दूर रखो तो भी नहीं घटेगी। एक फीट दूर रखो तो नहीं घटेगी। सरकाते जाओ, सरकाते जाओ, सरकाते जाओ...छह इंच पर भी नहीं घटेगी, चार इंच पर भी नहीं घटेगी। लेकिन एक घड़ी आती है, इंच या आधा इंच की दूरी और पाव इंच की दूरी...और बस...जो होना था हो गया। एक क्षण में छलांग लग जाती है। सत्संग का यही अर्थ है: ज्योति से ज्योति जले!
यह अकथ है सत्य, कहा नहीं जा सकता। लेकिन ज्योति से ज्योति जलाई जा सकती है।
बिरला जाणंति सुधि बुधि की वाणी।
इसीलिए जो सिद्ध हो गये, जो बुद्ध हो गये, उनकी वाणी को बहुत विरले समझ पाते हैं, क्योंकि वे बोलते क्या हैं? जो नहीं बोला जा सकता, उसको कैसे बोलेंगे? फिर बुद्ध क्यों बोलते हैं? सारे बुद्ध बोलते रहे हैं। बोलते हैं तुम्हें पुकारने को कि पास आ जाओ। बोलने से सत्य नहीं मिल सकता। लेकिन बोलने के कारण तुम पास आते जाओगे। यह पुकार है कि और सरक आओ, और थोड़ा, और थोड़ा, और थोड़ा...। सरकते-सरकते एक क्षण ज्योति छलांग लगा जाती है।
संन्यासी सोइ करै सब नास। गगन मंडल महि मांडै आस।
अनहद सूं मन उनमन रहै। सो संन्यासी अगम की कहै।।
सत्संग में संन्यास का जन्म होता है। संन्यास का अर्थ होता है: सम्यक न्यास। जो व्यर्थ है, उसे परिपूर्ण रूप से छोड़ देना। संन्यास का अर्थ संसार छोड़ देना नहीं है; संन्यास का अर्थ व्यर्थ पर पकड़ छोड़ देना है और सार्थक के लिए उन्मुख हो जाना है, सार्थक के लिए तत्पर हो जाना है, ग्राहक हो जाना है।
संन्यासी सोइ करै सब नास।
जो सर्वन्यास कर दे--जो सब भांति व्यर्थ को छोड़ दे, वही संन्यासी। जो सत्संग में सब छोड़ने को राजी हो जाये, वही संन्यासी।
गगन मंडल महि मांडै आस।
वह कोई ऐसी छोटी-मोटी आसन लगाने में नहीं पड़ता--शीर्षासन और सर्वांगासन और पद्मासन और सिद्धासन, और इस सब के उपद्रव में नहीं पड़ता है। वह तो एक ही आसन लगाता है--शून्य में आसन लगाता है। गगन मंडल महि मांडै आस। गगन मंडल का अर्थ होता है: भीतर का आकाश। भीतर के शून्य में आसन जमाता है। वहां निर्विचार हो कर बैठ रहता है।
अनहद सूं मन उनमन रहै।
वहीं बैठकर शून्य में डूबता है।
शून्य में डूबना उनमन होना है। उनमन यानी मन के पार होना है--अमन होना है। और तब अनहद का नाद सुनायी पड़ता है। तब परम संगीत--ओंकार, अनहद बजने लगता है। वहीं से उठे वेद, वहीं से उठे उपनिषद, वहीं से कुरान; वहीं से जीसस के, बुद्ध के, महावीर के वचन। वे सब अनहद से उठे हैं।
अनहद सूं मन उनमन रहै। सो संन्यासी अगम की कहै।
और फिर जो वहां पहुंच गया है, वह अगम की कहने लगता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है; जिसको पार पाने का कोई उपाय नहीं है; जिसकी कोई थाह नहीं है--अथाह और अगम है; जिसमें डूबो तो डूबते ही चले जाओ और कभी थाह न मिले।
लेकिन जो अपने भीतर के अनहद को सुन लिया है, वह उस अगम की खबर ले आता है। वह अपने व्यक्तित्व से अगम की तरंगें विकीर्णित करने लगता है। वह जिसे छू दे, उसे अगम का स्वाद मिले। वह जिसे अपनी छाती से लगा ले, उसे अगम ने छाती से लगा लिया। मगर ऐसे व्यक्ति की छाती से लगने के लिए तुम्हारे पास बड़ी छाती चाहिए, बड़ा खुला हृदय चाहिए। संकीर्णताएं होंगी तो यह अपूर्व घटना नहीं घट पायेगी।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै।
क्या प्यारी परिभाषा की! कहा, दरवेस कौन? वही जो दर की जाने, जिसे घर का पता चल गया। जिसे दरवाजा मिल गया। जिसे परमात्मा का द्वार मिल गया।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै।
जिसे अपना घर मिल गया। जिसकी तलाश थी, जिसकी खोज थी, पहुंच गये वहां। परम स्थान आ गया।
दरवेस सोइ जो दर की जाणै। पंचे पवण अपूठा आनै।
और जिसने अपनी पांचों इंद्रियों को उल्टा लिया है। आंख अब उसकी बाहर नहीं देखती, भीतर देखती है; और कान अब उसके बाहर नहीं सुनते, भीतर सुनते हैं। क्योंकि भीतर अनहद का नाद हो रहा है। और भीतर अरूप का रूप दिखाई पड़ रहा है। अब उसके नासापुट बाहर की गंध नहीं लेते, भीतर की गंध लेते हैं, क्योंकि वहां सुगंधों की सुगंध है--गंधराज! वहां परमात्मा की सुवास है। अब उसकी सारी इंद्रियां भीतर की तरफ उन्मुख हो गयी हैं। इस को ही पतंजलि ने प्रत्याहार कहा है।
पंचे पवण अपूठा आनै!
जिसने अपनी पांचों इंद्रियों की ज्योति को भीतर की तरफ मोड़ लिया है। जिसने पांचों इंद्रियों से बाहर जाने की यात्रा बंद कर दी; जो भीतर लौट आया।
सदा सुचेत रहै दिन राति।
ऐसा व्यक्ति चौबीस घंटे सावधान होता है, सचेत होता है, जागरूक होता है।
सदा सुचैत रहै दिन राति।
दिन में ही नहीं--रात में भी। तुम तो दिन में भी सोये हुए हो, वह रात में भी जागा होता है।
कृष्ण ने कहा न, योगी रात को भी सोता नहीं। जो सब के लिए रात्रि है, उसके लिए वह भी जागरण है। या निशा सर्वभूतायां तस्यां जागति संयमी। वही संयमी है, वही साधु है, वही संन्यासी है--जो रात में भी जागा होता है।
क्या अर्थ है इसका? शरीर तो सो जाता है, लेकिन भीतर एक भाव, एक बोध, एक अनुस्मरण बना रहता है। भीतर भान बना रहता है। नींद में भी भान की यह जो दशा है, यह परम सिद्धि है। जिसे यह मिल गयी, वह मृत्यु में भी जागा हुआ जायेगा। क्योंकि तुम तो नींद में भी जागे हुए नहीं जा सकते तो मृत्यु में कैसे जागे हुए जाओगे? मृत्यु तो महानिद्रा है। और निद्रा छोटी-सी मृत्यु है। तो नींद में जागना होगा। जो नींद में जाग कर सो सकता है, जागा-जागा सो सकता है, उसने कला सीख ली। उसके हाथ कुंजी आ गयी। अब वह मरेगा, तो भी जागा हुआ जायेगा।
जो जाग कर मर जाता है, उसका फिर पुनर्जन्म नहीं है। वह फिर नहीं लौटता क्षुद्र में। वह फिर विराट में ही तिरता है। उस अवस्था का नाम निर्वाण, मोक्ष, या सूफी फकीर जिसको फना कहते हैं।
जीबिता बिछायबां मूंवां ओढिबा, कवहु न होइबा रोगी।
बरसवै दिन काया पलटिबा, यूं कोई कोई बिरला जोगी।।
जीबिता बिछायबां...
ऐसा व्यक्ति प्राण का तो बिछौना बना लेता है, जब रात सोता है।
मूंवां ओढिबा,...
शरीर का ओढ़ना बना लेता है, जब रात सोता है।
प्राण का बिछौना, शरीर का ओढ़ना--और इन दोनों के बीच में दुबका जागा पड़ा रहता है।
जीबिता बिछायबां मूंवां ओढिबा, कवहु न होइबा रोगी।
और ऐसा व्यक्ति, जिसने इस शाश्वत को जान लिया, फिर किसी तरह की सांसारिक वासनाओं, तृष्णाओं, रोगों में, व्याधियों में नहीं उलझता। फिर उसे कोई तृष्णा, कोई वासना नहीं पकड़ सकती। रोग का अर्थ समझ लेना। रोग का यह अर्थ नहीं होता कि ऐसा व्यक्ति कभी रोगी नहीं होता। शरीर तो रोग का घर है। वह तो किसी का भी होगा तो रोगी होगा।
परम ज्ञानी महावीर की मृत्यु पेट की बीमारी से हुई। छह महीने तक अंतिम दिनों में पेट के रोग से अत्यंत पीड़ित रहे। बुद्ध की मृत्यु विषाक्त भोजन के कारण हुई। तो कोई विष बुद्ध के शरीर में जायेगा, तो यह सोच कर बुद्ध को क्षमा नहीं कर देगा कि जाने भी दो यह दो बुद्धपुरुष की देह है। देह तो देह है। देह तो मिट्टी है।
रोग का अर्थ कुछ और है। ज्ञानी रोग कहते हैं वासना को। और स्वास्थ्य कहते हैं निर्वासना को।
जो रात के अंधरे में भी, तंद्रा के घेरे में भी, प्राणों का बिछौना करके, शरीर का ओढ़ना करके, दोनों के बीच आत्मवान बना जाग्रत है, उसके लिए फिर कोई वासना नहीं पकड़ सकती। क्योंकि वासना मूर्च्छा में पकड़ती है। वासना मूर्च्छा का ही विस्तार है।
इसलिए ज्ञानियों ने, बुद्ध ने, महावीर ने, बहाऊद्दीन ने, जुन्नैद ने, मंसूर ने, रमण ने, कृष्णमूर्ति ने एक ही बात बार-बार कही है: जाग कर जीयो, होशपूर्वक जीयो। क्योंकि जितना होश सम्हल जायेगा, उतना ही रोग विदा हो जायेगा। होश से भरा हुआ आदमी क्रोध नहीं कर सकता। करता भी हो, तो नाटक ही होगा, अभिनय ही होगा। जीसस ने कोड़ा उठा लिया था मंदिर में जा कर और मंदिर में ब्याज का धंधा करनेवाले लोगों के तख्ते उलट दिये थे, खदेड़ कर उन्हें बाहर कर दिया था। मगर मैं तुम से कहता हूं, वह अभिनय ही था। जीसस जैसा व्यक्ति क्रुद्ध नहीं हो सकता; हां, क्रोध का अभिनय करना चाहे, तो बराबर कर सकता है। और इतनी कुशलता से कर सकता है जितनी कुशलता से कोई और न कर सकेगा।
जीबिता बिछायबा मूंवां ओढिबा, कवहू न होइबा रोगी।
बरसवै दिन काया पलटिबा...।
फिर प्रतीक्षा करना। जाग जाना और प्रतीक्षा करना। बरस दिन में, आज नहीं कल, कल नहीं तो परसों, कभी-न-कभी...
बरसवै दिन काया पलटिबा!...
बरस, दिन में एक दिन वह परम घड़ी आ जायेगी, वह पुनीत क्षण आ जायेगा कि काया पलट जायेगी। पूरी काया पलट जायेगी। अभी सब बाहर की तरफ है, फिर सब भीतर की तरफ हो जायेगा। अभी सारी ऊर्जा बाहर दौड़ी जा रही है, तुम बिखरे जा रहे हो। फिर ठीक उल्टी प्रक्रिया हो जायेगी। सब केंद्र पर लौट आयेगा।
ऐसा समझो कि जैसे बीज, बीज की सारी ऊर्जा केंद्र पर है। फिर बीज टूटा, वृक्ष बना, फैला, शाखाएं निकलीं, पत्ते निकले, दूर-दूर आकाश में फूल खिले--यह फैलाव हुआ। फिर वृक्ष वापस लौटा। फिर सिकुड़ा। अपने भीतर आया। अंतर्मुखी हुआ। ऊर्जा फिर बीज बन गयी।
बीज हम प्रथम में थे और बीज हमें फिर अंतिम में हो जाना है। यह जो फैलाव है, संसार है, यह बीच की घड़ी है।
योगी फिर बीज हो जाता है, वृक्ष खो जाता है। बाहर फैलती हुई शाखाएं, अब बाहर नहीं फैलतीं। बाहर दौड़ती हुई इंद्रियां अब बाहर नहीं दौड़तीं। अब अंतर्गमन हो जाता है। सारी ऊर्जा अपने पर ही आ जाती हैं। अब पंखुड़ियां खुलती नहीं, अपने में बंद हो जाती हैं। सब अपने में लीन हो जाता है।
संसार है विस्तार, फैलाव, परिधि की तरफ दौड़--एक्सप्लोजन। ध्यान है, समाधि है--इनप्लोजन, केंद्र की तरफ लौटना, प्रत्याहार, प्रतिक्रमण--अपने घर आ जाना।
बरसवै दिन काया पलटिबा...।
प्रतीक्षा करना जाग कर; आज नहीं कल, कल नहीं परसों, बरस दिन में सब रूपांतरण हो जायेगा। मिट्टी की काया है तुम्हारी अभी, सोने की हो जायेगी। मरणधर्मा है काया तुम्हारी अभी, अमृत की हो जायेगी। समय की है तुम्हारी काया अभी, शाश्वत की हो जायेगी।
…यूं कोई बिरला जोगी।
ऐसा कभी-कभी किसी व्यक्ति को हो पाता है। हो सब को सकता है। होना सभी को चाहिए। सभी का अधिकार है। मगर मांगते नहीं अधिकार हम अपना।
गगन-मंडल में गाय बियाई...!
और उस शून्य आकाश में--गगन-मंडल--वह जो भीतर का शून्य आकाश है, उस में गाय बियाई। बड़ा प्यारा वचन है! उस में गाय ने जन्म दिया।
गगन-मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
शास्त्र में उसी ब्याई हुई गाय के दही को जमाया गया।
कागद दही जमाया।
उसी से कुरान बनती है। उसी से वेद। उसी से उपनिषद। उसी से धम्मपद।
गगन-मंडल में गाय बियाई!...
लेकिन घटना घटी है शून्य में। लेकिन उस शून्य को संसार तक लाने के लिए और कोई उपाय नहीं है कि उस का दही जमाया जाये कागज पर। तो शब्दों में उसका दही जमाया, सिद्धांतों में उसका दही जमाया। मगर खयाल रखना, जो मीठा था, खट्टा हो गया जमते ही। जब तक नहीं बोला था, तब तक सत्य सत्य था; बोला, असत्य हो गया।
इसलिए लाओत्सु ने कहा है: सत्य बोले नहीं, कि असत्य हुआ नहीं। बोलो और असत्य हुआ। जो मीठा था, खट्टा हो गया। जो शब्द के बाहर था, तो विराट था, अपार था; शब्द में आते ही संकीर्ण हो गया, छोटा हो गया।
गगन-मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छाछि छाछि पंडिता पीवीं...।
और वे जो पंडित हैं--मौलवी, पंडित, पुरोहित--वे छाछ छाछ पी रहे हैं। दही में से भी। दही भी पूरा नहीं लेते वे। वे दही की भी छाछ बना रहे हैं। शास्त्र को भी जैसा शास्त्र ने कहा है वैसा नहीं समझते; उसकी व्याख्या करते हैं; उसकी टीका करते हैं पहले। पहले अपने मतलब का मतलब निकालते हैं। जो अपने से बैठ जाये, ऐसा अर्थ खोजते हैं। अपने अनुकूल अर्थ बनाते हैं।
एक तो सत्य को बोला, उसी वक्त सत्य खट्टा हो गया। जब पंडित शास्त्र को समझता है, शब्द को समझता है, उस पर व्याख्या के नये अर्थ आरोपित कर देता है। अब तो दही भी न रहा, छाछ ही हो गयी। इस पंडित की व्याख्या में मक्खन भी खो गया।
…सिधां माखण खाया।
सिर्फ सिद्ध पुरुष ही पहचान पायेंगे शास्त्रों के मक्खन को। शास्त्र को दो तरह के लोग पढ़ते हैं--एक ज्ञानी और एक ध्यानी। जब ज्ञानी पढ़ता है, छाछ हाथ लगती है। जब ध्यानी पढ़ता है, मक्खन हाथ लगता है। शास्त्र को जानने का उपाय ज्ञान नहीं है, ध्यान है। शास्त्र को जानने का उपाय शब्द की व्याख्या नहीं है, निःशब्द की यात्रा है। जितने तुम शून्य हो जाओगे, उतने ही शास्त्र का सम्यक अर्थ तुम्हारे सामने प्रगट होगा।
गगन-मंडल में गाय बियाई, कागद दही जमाया।
छाछि छाछि पंडिता पीवीं, सिधां माखण खाया।
और जो माखन खा लेते हैं, उनके जीवन में क्रांति घटती है--ऐसी क्रांति, कि सब कुछ रसमय हो जाता है।
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
जब-जब अपना चित्र बनाया
तब-तब ध्यान तुम्हारा आया!
मन में कौंध गई बिजली-सी
छवि का इंद्रधनुष मुसकाया!
सुख की एक घटा-सी छाई,
भीग गया जीवन आंगन-सा,
घूम गई कूंची दीवानी, हर रेखा मतवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
मेरा रूप तुम्हारा निकला,
मेरा रंग तुम्हारा निकला,
जो अपनी मुद्रा समझी थी,
वह तो ढंग तुम्हारा निकला!
धूप और छाया का मिश्रण
यौवन का प्रतिबिंब बन गया,
होश समझ बैठा था जिसको, वह रंगीन खुमारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली।
मैंने बार-बार झुंझलाकर
रंग बदले, आकृतियां बदलीं,
जो नव आकृतियां अंकित कीं
वे भी प्राण! तुम्हारी निकलीं!
अपनी प्यास दिखाने मैंने
रेगिस्तान बनाना चाहा,
पर तसवीर हुई जब पूरी, फागुन की फुलवारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
तुम से भिन्न कहां जग मेरा?
तुम से भिन्न कहां गति मेरी?
तुम से भिन्न स्वयं को समझा,
बहक गई कितनी मति मेरी!
मेरी शक्ति तुम्हीं से संचित,
मेरी कला तुम्हीं से प्रेरित,
जिसको मैं अपनी जय समझा, वह तो तुम से हारी निकली!
जो अपनी तस्वीर बनाई, वह तस्वीर तुम्हारी निकली!
एक बार शून्य का स्वाद मिल जाये, फिर सब उसी का है। उठो, बैठो--पूजा। सोओ, जागो--परिक्रमा। खाओ, पीयो--सेवा। जो करो, जैसा करो उस सभी में प्रार्थना का रंग और ढंग। और जो दिखाई पड़े, उसी की छवि। फिर मंदिर में भी वही, मस्जिद में भी वही। फिर गुरुद्वारे में भी वही, गिरजे में भी वही। पत्थर में भी वही, पहाड़ों में भी वही। चांद-तारों में भी वही। एक बार अपने भीतर पहचान हो जाये...।
उस पहचान के लिए ही तुम्हें निमंत्रित कर लिया है। तुम आ भी गये हो। उनमें से मत होना जो आते हैं और चले जाते हैं। उन विरलों में से बनो जो रुक जाते हैं, ठहर जाते हैं। और जमा लो शून्य में आसन। वही मैं तुम्हें सिखा रहा हूं। रम जाओ गगन मंडल में। और तुम्हारे भीतर से अमृत की धार बहेगी। वह तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वरूपसिद्ध अधिकार है। मांगो अपने अधिकार को। उसे बिना मांगे मत मर जाना। उसे सिद्ध करना है। जो उसे बिना सिद्ध किये मर जाता है, वह व्यर्थ ही जीया।
व्यर्थ मत जीना। तुम्हारे जीवन में आनंद के बड़े फूल खिल सकते हैं। और सब तुम पर निर्भर है। और बड़े उपाय की जरूरत नहीं है; थोड़ी-सी समझ की जरूरत है। पहाड़ जैसा उपाय नहीं करना है, रत्ती-भर जैसी समझ काम आ जाती है। यह कोई तलवार का काम नहीं है; सुई से काम हो जायेगा। सुई जैसी समझ, बारीक समझ पर्याप्त है। बरसता है एक दिन वह।
बज उठी मुरलिया पावस की!
विहंसे वन, उपवन,
दिक-दिगंत,
हुलसे मानव, पशु,
वन-विहंग
लू के झोंके
अब नहीं रहे,
शोले सोये,
रवि-किरणों के!
बज उठी मुरलिया पावस की!
कजरारे बादल
डोल रहे,
घन-घन मृदंग-से
बोल रहे,
नर्तन चम-चम
करती चपला!
क्या मदिर, मधुरतम
समा बंधा!
बज उठी मुरलिया पावस की!
मृदु झड़ी लगी,
संगीत छिड़ा,
रिमझिम-रिमझिम,
लय-ताल-बद्ध!
पुरवाई के
हर झोंके में
उल्लास अपरिमित
तैर रहा!
नभ से
धरती तक
जग-जीवन
नैसर्गिक रस में
डूब रहा!
बज उठी मुरलिया पावस की!
आज इतना ही।