GORAKH
Mare He Jogi Maro 12
Twelth Discourse from the series of 20 discourses - Mare He Jogi Maro by Osho. These discourses were given during NOV 11-20 1978.
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पहला प्रश्न:
प्यारे भगवान! कल प्रथम बार मैंने शिविर में विपस्सना ध्यान किया। इतनी उड़ान अनुभव हुई! कृपया विपस्सना के बारे में और प्रकाश डालें।
ईश्वर समर्पण! विपस्सना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपस्सना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपस्सना अपूर्व है! विपस्सना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते थे: इहि पस्सिको, आओ और देखो! बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है।
बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है; मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधा-सरल प्रयोग है। अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है। श्वास से ही तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जुड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है, मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्यरूपेण, अपरिहार्य रूप से, शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का और कोई उपाय ही नहीं है। जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्यरूपेण छूट गए। शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शाश्वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में, न कोई गहराइयां हैं जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।
फिर, श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है, करुणा में दूसरे ढंग से। दौड़ते हो, एक ढंग से चलती है; आहिस्ता चलते हो, दूसरे ढंग से चलती है। चित्त ज्वरग्रस्त होता है, एक ढंग से चलती है; तनाव से भरा होता है, एक ढंग से चलती है; और चित्त शांत होता है, मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है।
श्वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलो, श्वास बदल जाती है़। श्वास को बदल लो, भाव बदल जाते हैं। जरा कोशिश करना। क्रोध आये, मगर श्वास को डोलने मत देना। श्वास को थिर रखना, शांत रखना। श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, करना भी चाहोगे तो क्रोध न कर पाओगे। क्रोध उठेगा भी तो भी गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए जरूरी है कि श्वास आंदोलित हो जाये। श्वास आंदोलित हो तो भीतर का केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं है, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित न हो। चेतना आंदोलित हो, तो ज़ुड गये।
फिर इससे उल्टा भी सच है: भावों को बदलो, श्वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखते नदी-तट पर। भाव शांत हैं। कोई तरंगें नहीं चित्त में। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ? श्वास बड़ी शांत हो गयी। श्वास में एक रस हो गया, एक स्वाद...छंद बंध गया! श्वास संगीतपूर्ण हो गयी।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले...खयाल रखना प्राणायाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है, विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांक्षा है। जैसी है--ऊबड़-खाबड़ है, अच्छी है, बुरी है, तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरी है, जैसी है!
बुद्ध कहते हैं, तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्टा तुम्हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। तुम्हारे हाथ छोटे हैं; तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तुम बदलो। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया है। बुद्ध ने तो कहा: तुम तो बैठ जाओ, श्वास तो चल ही रही है; जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्या करोगे? आई एक बड़ी तरंग तो देखोगे और नहीं आई तरंग तो देखोगे। राह पर निकली कारें, बसें, तो देखोगे; नहीं निकलीं, तो देखोगे। गाय-भैंस निकलीं, तो देखोगे। जो भी है, जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांक्षा आरोपित न करो। बस शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते-देखते ही श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।
और निर्चुनाव--बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्न ही न रहा। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आंख के सामने से, हमारा उससे कुछ लेना-देना नहीं है। तो उद्विग्न होने का कोई सवाल नहीं, आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे हैं, निष्पक्ष देख रहे हो। श्वास की तरंग धीमे-धीमे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो स्पर्श...नासापुटों में। श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले; अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण भर सब रुक गया...अनुभव करो उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े, अनुभव करो उस सिकुड़ने को। फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उत्तप्त श्वास नासापुटों से बाहर जाती। फिर क्षण-भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी।
यह पड़ाव है। श्वास का भीतर आना, क्षण-भर श्वास का भीतर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण-भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है--वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने की कोई भी बात नहीं, बस देखो। यही विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं, इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते ही, मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे, मगर गूंगे का गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान। पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुनगुनाओगे भीतर-भीतर, मीठा-मीठा स्वाद लोगे, नाचोगे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह न पाओगे।
ईश्वर समर्पण, ठीक ही हुआ। कहा तुमने: इतनी उड़ान अनुभव हुई! अब विपस्सना के सूत्र को पकड़ लो। अब इसी सूत्र के सहारे चल पड़ो। और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान पता भी न चले। बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कार में यात्रा करते, राह के किनारे, दुकान पर, बाजार में, घर में, बिस्तर पर लेटे...किसी को पता भी न चले! क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चार करना है, न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे...इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जाये उतने ही एक दिन तुम बुद्ध के इस अदभुत आमंत्रण को समझोगे: इहि पस्सिको! आओ और देख लो!
बुद्ध कहते हैं: ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते हैं; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते हैं: इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना, दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्तिदायी है। मान्यताएं हिंदू बना देती हैं, मुसलमान बना देती हैं, ईसाई बना देती हैं, जैन बना देती हैं, बौद्ध बना देती हैं; दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्ममय हो। और वही अनुभव पाना है। वही अनुभव पाने योग्य है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, शरीर ही स्वस्थ नहीं है तो शरीर के पार, फिर मन के पार कैसे जा सकूंगी? भगवान, मैं बहुत निराश हो गयी हूं, कुछ मार्गदर्शन करें।
समाधि! शरीर तो सदा ही अस्वस्थ है। शरीर तो कभी स्वस्थ हो ही नहीं सकता। इसीलिए तो ज्ञानियों ने शरीर को व्याधि कहा है। ऐसा नहीं है कि जो अस्पताल में भर्ती हैं उन्हीं के शरीर को व्याधि कहा है, शरीर-मात्र को व्याधि कहा है। व्याधि इसलिए कहा है कि शरीर तो जन्मा है और मरेगा।
तो शरीर तो जन्म के बाद मर ही रहा है। जन्म के बाद कुछ और तुमने किया क्या है सिवाय मरने के? जन्म के बाद मरना शुरू हो गया। एक दिन का बच्चा एक दिन मर चुका। एक श्वास जिस बच्चे ने ली है जमीन पर मां के गर्भ से निकलकर, उसकी उतनी मौत हो गयी, उतनी मौत चल चुका। जन्म के बाद तो मृत्यु ही होनी है।
और जिसकी मृत्यु होनी है, उसका कैसा स्वास्थ्य? स्वास्थ्य तो सिर्फ अमृत का होता है। स्वस्थ तो जो होता है वह अमृत को जान लेता है। शरीर तो मरणधर्मा है। मरण तो उसके रोएं-रोएं में छिपा पड़ा है, देर-अबेर की बात है। शरीर तो मरघट है।
इसलिए चिंता न करो। शरीर स्वस्थ है कि अस्वस्थ, इससे तुम्हारे ध्यान का कोई खास संबंध नहीं। क्या समाधि, तू सोचती है जिनके शरीर स्वस्थ हैं, वे ध्यान को उपलब्ध हो रहे हैं? हालतें तो अक्सर उल्टी हैं। जिनके शरीर स्वस्थ हैं वे तो ध्यान की शायद सोचेंगे भी नहीं। वे कहेंगे: देखेंगे बुढ़ापे में, अभी क्या जल्दी पड़ी है? अभी तो चार दिन की जिंदगी मिली है; लूट लो, खा लो, मजा कर लो, मौज कर लो। आयेगी मौत, तब देखेंगे; जिनकी आती होगी, वे करें ध्यान। अभी तो हम मजबूत हैं, अभी तो हम जवान हैं।
शरीर के स्वस्थ होने से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। लेकिन शरीर स्वस्थ कभी होता ही नहीं। स्वस्थ से स्वस्थ शरीर भी बस स्वस्थ दिखायी पड़ता है। क्षण-भर में सब टूट जाये, क्षण-भर में सब बिखर जाये। शरीर का स्वास्थ्य तो ऐसा ही है जैसे पानी की थिरता; जरा हवा का झोंका आयेगा, सब अथिर हो जायेगा। लेकिन इससे कुछ बाधा नहीं पड़ती।
सच तो यह है, यदि मृत्यु न होती तो कोई ध्यान करता ही न। बुद्ध को भी मृत्यु को देखकर ही स्मरण आया था कि मैं जीवन कब तक गंवाऊंगा? उसे खोज लूं, जल्दी खोज लूं, जिसकी कोई मृत्यु न होती हो। राह के किनारे देखकर आदमी की लाश को ले जाते, बुद्ध ने अपने सारथी को पूछा था: इसे क्या हो गया? सारथी ने कहा था: यह आदमी मर गया। बुद्ध ने पूछा: क्या मैं भी मर जाऊंगा इसी तरह? सारथी ने कहा? कैसे कहूं, किन शब्दों में कहूं? आप ऐसा प्रश्न उठाते हैं कि मुझे अड़चन में डालते हैं। लेकिन झूठ भी नहीं कह सकता हूं। अभी आप सुंदर हैं, युवा हैं, स्वस्थ हैं, लेकिन मौत तो होगी; मौत सबकी होती है। मौत अपरिहार्य है। उससे कभी कोई बचा नहीं है।
बुद्ध जाते थे महोत्सव में भाग लेने। उन्होंने सारथी को कहा: रथ वापिस लौटा लो। अब महोत्सव में जाने का समय नहीं। सारथी ने कहा: क्या कहते हैं आप! प्रतीक्षा करते होंगे महोत्सव में लोग। आपके ही हाथ उदघाटन होना है।
बुद्ध ने कहा: हो चुका उदघाटन। अब मुझे महोत्सव में कोई रस नहीं। मेरे सामने अब एक प्रश्न खड़ा हो गया है कि अगर मौत होनी है तो मौत के पहले मुझे उसे जान लेना जरूरी है, जो अमृत हो। और जब तक अमृत को न जाना तब तक अब चैन नहीं।
उसी रात बुद्ध ने घर छोड़ दिया। उसी रात यात्रा पर निकल गये।
मृत्यु है, इसलिए तो ध्यान की खोज शुरू होती है।
देह अस्वस्थ है, इसे दुर्भाग्य न समझो; इसे सौभाग्य में बदल लो। फिर देह का अस्वस्थ होना बाधा नहीं बनेगा। अभी मैंने विपस्सना की बात कही। देह स्वस्थ हो कि अस्वस्थ, जवान हो कि वृद्ध, सुंदर हो कि कुरूप, स्त्री की हो कि पुरुष की, कोई भेद नहीं पड़ेगा। श्वास तो चल ही रही है न? समाधि, तू इतनी अस्वस्थ तो नहीं कि श्वास न चलती हो? इतनी अस्वस्थ होती तो प्रश्न ही कौन पूछता? तो जा ही चुकी होती! श्वास तो चल ही रही है न, बस इतना ही तो चाहिए, और कुछ चाहिए भी नहीं। इसी श्वास के प्रति जागो; बैठ कर जागो, खड़े होकर जागो, चलते हुए जागो, सोकर-लेटकर जागो--इस श्वास के प्रति जागो। यह तो बीमार से बीमार आदमी भी कर सकता है। यह तो जो अस्पताल में भरती होते हैं उनको भी मैं कहता हूं यही करो!
और सच तो यह है कि दिन-भर की घर की आपाधापी में समय भी नहीं मिलता। कभी अस्पताल में सौभाग्य से कोई महीने-पंद्रह दिन रह जाता है तो ध्यान का समय मिल जाता है। वहां कुछ और करने को भी नहीं। बिस्तर पर लेटे-लेटे और करोगे क्या? श्वास तो देख ही सकते हो न! आती श्वास, जाती श्वास। श्वास पर ध्यान तो आरोपित कर ही सकते हो न। बस उतने से ही हो जायेगा।
तू इसकी चिंता मत कर कि शरीर स्वस्थ नहीं है। न रहने दे शरीर को स्वस्थ, इसी अस्वास्थ्य को वरदान बना लेंगे। यही अभिशाप परम वरदान बन जायेगा। तू विपस्सना में लग।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, विरह क्या है?
पूछते हो तो समझ न पाओगे; समझते तो पूछते नहीं। समझ सकते, तो भी पूछते नहीं। क्योंकि विरह कोई सिद्धांत तो नहीं है, दर्शनशास्त्र की कोई धारणा तो नहीं है--प्रीति की अनुभूति है।
जैसे किसी ने प्रेम नहीं किया और पूछे कि प्रेम क्या है? अब कैसे समझाएं उसे, कैसे जतलाएं उसे? ऐसे जैसे अंधे ने पूछा, प्रकाश क्या है? अब क्या है उपाय बतलाने का? और जो भी हम बताने चलेंगे, अंधे को और उलझन में डाल जायेगा। अंधा समझेगा तो नहीं, और चक्कर में, और बिबूचन में पड़ जायेगा।
विरह अनुभूति है; प्रेम किया हो तो जान सकते हो। और जिसने प्रेम किया है, वह विरह जान ही लेगा। प्रेम के दो पहलू हैं। पहली मुलाकात जिससे होती है वह विरह और दूसरी मुलाकात जिससे होती है वह मिलन। प्रेम के दो अंग हैं--विरह और मिलन। विरह में पकता है भक्त और मिलन में परीक्षा पूरी हो गयी, पुरस्कार मिला। विरह तैयारी है, मिलन उपलब्धि है। आंसुओं से रास्ते को पाटना पड़ता है मंदिर के, तभी कोई मंदिर के देवता तक पहुंचता है। रो-रो कर काटनी पड़ती है यह लंबी रात, तभी सुबह होती है। और जितनी ही आंखें रोती हैं, उतनी ही ताजी सुबह होती है! और जितने ही आंसू बहे होते हैं, उतने ही सुंदर सूरज का जन्म होता है।
तुम्हारे विरह पर निर्भर है कि तुम्हारा मिलन कितना प्रीतिकर होगा, कितना गहन होगा, कितना गंभीर होगा। सस्ते में जो हो जाये, वह बात भी सस्ती ही रहती है। इसलिए परमात्मा मुफ्त में नहीं मिलता, रो-रो कर मिलना होता है। और आंसू भी साधारण आंसू नहीं, हृदय ही जैसे पिघल-पिघल कर आंसुओं से बहता है! जैसे रक्त आंसू बन जाता है। जैसे प्राण ही आंसू बन जाते हैं।
विरह है अवस्था पुकार की, कि लगता तो है कि तुम हो, मगर दिखाई नहीं पड़ते। लगता तो है कि तुम जरूर ही हो, क्योंकि तुम्हारे बिना कैसे यह विराट होगा? कैसे चलेंगे ये चांद-तारे? कैसे वृक्षों में बाढ़ होगी? कैसे वृक्षों में हरे पत्ते ऊगेंगे? कैसे फूल खिलेंगे? कैसे पक्षी गीत गायेंगे? कैसे जीवन का यह रहस्य जन्मेगा? तुम हो तो जरूर; छिपे हो, अवगुंठन में हो, किसी आवरण में हो।
विरह का अर्थ है: हम तुम्हारा घूंघट उठाएंगे, तलाशेंगे, कितनी ही हो कठिन यात्रा और कितनी ही दुर्गम, हम सब दांव पर लगायेंगे; मगर घूंघट उठायेंगे। हम तुम्हें जानकर रहेंगे, क्योंकि तुम्हें न जाना तो कुछ भी न जाना। अपने मालिक को न जाना, तो कुछ भी न जाना। जिससे आये उसे न जाना, तो कुछ भी न जाना। स्रोत को न जाना तो गंतव्य को कैसे जानेंगे? इसलिए तुमसे पहचान करनी ही होगी। तुम जो अदृश्य हो तुम्हें दृश्य बनाना ही होगा। तुम जो दूर हो, स्पर्श के पार, तुमसे आलिंगन करना ही होगा।
अदृश्य से आलिंगन की आकांक्षा विरह है। अदृश्य को आंखों में भर लेने की आकांक्षा विरह है। जो पकड़ में नहीं आता उसे पकड़ लेने की अदम्य आकांक्षा विरह है। और स्वभावतः बात आसान नहीं, बात अति दुर्गम है। खूब कसौटी होगी, बड़ी अग्नि-परीक्षा होगी। बहुत रोओगे, बहुत तड़फोगे। तुम्हारी तड़फ ही तुम्हारी परीक्षा होगी। विरह में गलोगे, जलोगे, मिटोगे। और जिस दिन राख-राख हो जाओगे, उस दिन उसी राख से मिलन का प्रारंभ होता है।
रेणु जलते ढांपने को
तुहिन से अवदात शीतल,
सखि, दुखों के पांवड़े तू
आज उनके पथ बिछा ले;
वेदना के गीत गा ले।
अग्नि झंझा-सी लगेगी
प्राण से उठती तुम्हारी
बाड़वी प्यासी लपट की
राह, सांसों से छिपा ले;
वेदना के गीत गा ले।
राग तारों के निकलती
मूर्छना ओ’ मींड़ तेरी;
बीन से उठती कसक यह,
आज हाथों से दबा ले;
वेदना के गीत गा ले।
कल्प के अंतिम निमिष तकयदि तुम्हारे ‘वे’ न आवें,साध की अंगारिका सेचेतना की सुधि जला ले;वेदना के गीत गा ले।
जलना होगा। विरह जलन है। विरह उत्तप्त, विदग्ध प्रीति की दशा है, पुकार है, प्रार्थना है।
नहीं, तुम्हें मैं न समझा सकूंगा कि विरह क्या है? तुम्हें प्रेम में पड़ना होगा। यह तो स्वाद है, लोगे तो जानोगे। इहि पस्सिको! आओ और जानो।
यहां हम प्रभु के प्रेमियों और दीवानों को ही तो पैदा कर रहे हैं। दूर-दूर से खड़े होकर जानने की कोशिश न करो। तमाशबीन न बनो। भागीदार बनो। यह जो महफिल बैठी है दीवानों की, इसके हिस्सेदार बनो। नाचो, ध्यान करो, गाओ। डोलो मस्ती में।
शुरू-शुरू पागलपन लगेगा, जल्दी ही और शेष सब पागलपन लगने लगेगा उसको छोड़कर। शुरू-शुरू लगेगा, यह तुम्हें क्या होने लगा! पहली दफा जब कोई शराब पीता है तो पैर बहुत डांवाडोल होते हैं। फिर धीरे-धीरे बात जम जाती है। फिर असली शराबी का तो तुम्हें पता ही न चलेगा कि उसने शराब पी रखी है।
मैंने तो सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक रात घर आया, बड़ा झगड़ा मचा। विवाह हुए भी बीस वर्ष हो चुके हैं। और पत्नी बहुत शोरगुल करने लगी। भीड़ इकट्ठी हो गयी। लोगों ने पूछा, बात क्या है? पत्नी ने कहा कि ये अब तक शराब पीते रहे। पर लोगों ने कहा, बीस साल हो गये, अब झगड़ा! पत्नी ने कहा, आज तक पता ही न चला, क्योंकि ये रोज पी कर आते रहे, आज बिना पीये आ गये हैं।
ढंग से कोई पीनेवाला होगा, रोज पीता होगा, तो पता ही न चलेगा; न पीयेगा तो पता चल जायेगा। शुरू-शुरू पीयोगे तो लड़खड़ाओगे भी, डगमगाओगे भी। भयभीत न होना, ऐसे ही डगमगाते-डगमगाते पैर ठीक पड़ने लगते हैं।
चमकते हीरे लगाये
डाल तम का सजल गुंठन,
मैं गगन में बिलखती
काली क्षपा की पीर-सी हूं।
श्याम अंजन कूट वाली
अंध मारुत बंदिनी-सी
अनुतर्षिका अनुरागवाली
मैं क्षितिज दृग नीर-सी हूं।
चिर व्यथा भर लोचनों में
नील यमुना के किनारे,
मलय से आवेग में
झुक झूमते वानीर-सी हूं।
नील अंबर में संजोये
पीत हिमकर को छिपाती,
मैं अमा के प्रात की
उन्मत्त श्वास अधीर-सी हूं।
बनो एक अधीर श्वास! मैं अमा के प्रात की उन्मत्त श्वास अधीर-सी हूं! पूछते हो: विरह क्या है? यह कुछ गणित तो नहीं कि समझा दिया जाये, जैसे दो और दो चार होते हैं। यह तो एक प्रीति की अनुभूति है। और प्रेम के बिना विरह नहीं जाना जा सकता। प्रेम की छाया है विरह।
तो पहले प्रेम में पड़ो। और आश्चर्य तो यही है कि लोग प्रेम में पड़े बिना कैसे बच जाते हैं! आश्चर्य यह नहीं है कि तुम पूछते हो कि विरह क्या है, आश्चर्य यह है कि तुम्हें अब तक प्रेम का पता नहीं!
लेकिन एक उलझन हो गयी है, उस उलझन में ही तुम्हारी सारी व्यथा-कथा है। सदियों-सदियों से तुम्हें समझाया गया है कि परमात्मा को प्रेम करना है तो आदमी को प्रेम करना छोड़ना पड़ेगा। आदमी को प्रेम करना छोड़ दो तो मैं तुमसे कहता हूं, तुम परमात्मा को कभी प्रेम कर ही न पाओगे। आदमी तो सीढ़ी है; सीढ़ी ही तोड़ दी...!
मैं तुमसे कहता हूं: आदमी को प्रेम करो। वहीं तुम प्रेम का पहला पाठ सीखोगे। और वही पाठ तुम्हें इतना मदमस्त कर देगा कि तुम जल्दी ही पूछने लगोगे: और बड़ा प्रेमपात्र कहां खोजूं? मनुष्य से प्रेम करने से ही तुम्हें अनुभव होगा कि मनुष्य छोटा पात्र है; प्रेम को जगा तो देता है, लेकिन तृप्त नहीं कर पाता। प्रेम को उकसा तो देता है, लेकिन संतुष्ट नहीं कर पाता। प्रेम की पुकार तो पैदा कर देता है; खोज शुरू हो जाती है। लेकिन पुकार इतनी बड़ी है और आदमी इतना छोटा कि फिर पुकार पूरी नहीं हो पाती। फिर वही बड़ी पुकार, जो आदमी तृप्त नहीं कर सकता, परमात्मा की तलाश में निकलती है।
आदमी तो छिछला-छिछला पानी है। तैरना सीख लो वहां, फिर बड़े सागर हैं! मगर छिछले पानी से ही बचते रहे, तो बड़े सागरों में कब तैरोगे, कब तिरोगे; कैसे तैरोगे, कैसे तिरोगे?
मुल्ला नसरुद्दीन जाता था नदी पर तैरना सीखने। पहले ही दिन, पुराना घाट, जमी हुई काई पत्थर पर। डरा-डरा गया था। उस्ताद सिखाने जो ले गये थे, वे तो अपना कपड़ा ही उतार रहे थे कि मुल्ला का पैर फिसल गया काई पर। चारों खाने चित्त गिर पड़ा। उठा और एकदम घर की तरफ भागा। उस्ताद ने पूछा कि नसरुद्दीन कहां जाते हो, तैरना नहीं सीखना?
नसरुद्दीन ने कहा: अब जब तैरना सीख लूंगा, तभी नदी के पास आऊंगा। यह तो खतरनाक मामला है। यह तो भगवान की कृपा कहो कि घाट पर ही फिसला पैर, और पत्थर पर ही गिरा। चोट तो खायी है खूब, ठीक है दो-चार दिन में सब ठीक हो जायेगी; अगर पानी में पड़ गया होता तो आज जान गंवा दी होती! और उस्ताद! तुम तो कपड़े ही उतार रहे थे, तुम्हें तो पता ही न चलता। आऊंगा, एक दिन जरूर आऊंगा; लेकिन अब जब तैरना सीख लूंगा तभी आऊंगा।
मगर तैरना कहां सीखोगे? बैठकखाने में गद्दी इत्यादि बिछा के तैरना सीखोगे! ऐसे कहीं तैरना सीखा जाता है? लेकिन तर्क तो ठीक है नसरुद्दीन का कि बिना तैरे नदी मत जाना। तर्क तो बिलकुल ठीक है, सौ प्रतिशत ठीक है। रत्तीभर भूल तुम तर्क में न निकाल सकोगे, कि तैरना सीख लो तो ही नदी जाना, नहीं तो खतरा है। तर्क तो ठीक है मगर जीवन विपरीत है। नदी न जाओगे; तो तैरना सीखोगे कैसे? जोखिम तो लेनी ही होगी। हां, जरूरी नहीं है कि तुम बड़े सागरों में सीखने जाओ; नदी पर सीख लो, तट पर सीखो, उथले-उथले सीख लो। फिर जब सीखना आ जाये तो फिर सारे सागर तुम्हारे हैं।
ऐसा ही मैं तुमसे कहता हूं: पत्नी को प्रेम किया है, यह परमात्मा के विपरीत नहीं। बच्चे को प्रेम किया है, यह परमात्मा के विपरीत नहीं। मित्र को चाहा है, यह परमात्मा के विपरीत नहीं। यह नदी की उथली- उथली धार है; यहां सीख लो। यह सब परमात्मा के पक्ष में है। ये परमात्मा के पहले पाठ हैं। और इनसे तृप्ति नहीं मिलेगी, इसलिए आश्वस्त रहो। ये अतृप्त करेंगे, यही तो मजा है इनका। यही इनका राज है।
किस मनुष्य को मनुष्य से तृप्ति मिली है, कब मिली है? इतिहास में कोई उल्लेख नहीं। इससे कुछ सीखो। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य के साथ प्रेम में अतृप्ति सघन होती है। प्यास तो जग जाती है, जल नहीं मिलता। फिर जल की तलाश शुरू होती है। वही तलाश विरह है। फिर तुम परमात्मा को खोजने निकलते हो। तुम कहते हो: इतने प्रेम की आकांक्षा दी है, तो कहीं सरोवर भी होगा जो इस आकांक्षा को तृप्त करता होगा।
ज्ञानियों ने कहा है: इसके पहले कि वह तुम्हें जीवन देता, वह तुम्हारे जीवन की तृप्ति के आयोजन कर देता है। देखते नहीं हो, मां के पेट से एक बच्चे का जन्म होता! बच्चे का जन्म होते-होते या होने के पहले ही मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। अभी बच्चा आया नहीं, लेकिन भोजन का आयोजन तैयार हो गया। चिड़िया घोंसला बनाने लगती है, अभी अंडे रखे नहीं हैं; लेकिन कोई अचेतन हाथ चिड़िया को घोंसला बनाने में संलग्न कर देता है। उसके पास कुछ गणित भी नहीं है, कोई हिसाब-किताब भी नहीं है कि कब बनाये घोंसला। लेकिन कुछ अचेतन ऊर्जा, कोई सहज प्रतीति गहन में, उसे घोंसला बनाने में रत कर देती है। देखते हो, दीवाने की तरह भागी-भागी लाती है घास-पात, फूल-पत्ते, बना लेती है घोंसले को। इसके पहले कि अंडे रखने का क्षण आये, घोंसला तैयार हो जाता है।
इस जगत को अगर तुम गौर से देखोगे, तो यहां भूख के पहले भोजन है, प्यास के पहले जल है। इसका ही नाम श्रद्धा है। इसको देख लेने का नाम श्रद्धा है। तो अगर तुम्हारे भीतर परमात्मा को पाने की आकांक्षा उठे, तो मान ही लेना, जान ही लेना कि परमात्मा भी होगा। नहीं तो प्यास उठ नहीं सकती थी। फिर प्यास तड़फायेगी बहुत; जब तक मिलन न हो जायेगा तब तक रुलायेगी बहुत। उस अदभुत रुदन की यात्रा का नाम विरह है। विरह दुख नहीं है; या अगर कहना चाहो ठीक से तो बड़ा मधुर दुख है, बड़ा मीठा दुख है। सौभाग्यशालियों को ही उपलब्ध होता है। अभागे तो उससे वंचित रह जाते हैं।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं बड़ी उलझन में हूं। तीस अक्टूबर को मेरी प्यारी छोटी बहन ज्योति का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख और परेशानी महसूस कर रहा हूं। ध्यान तथा प्रवचन सुनने से थोड़ी-सी शांति की अनुभूति होती है, परंतु इतने सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम-रोम में उसकी याद सताती है। ऐसे संयोग में मुझे क्या करना चाहिए? भगवान, आप कृपया कुछ मार्गदर्शन देने की अनुकंपा करें।
कबीर! जाना है और सबको जाना है। हम सब पंक्तिबद्ध जाने को तैयार खड़े हैं--कब किसका बुलावा आ जाये! बहन गयी तुम्हारी, चोट लगी तुम पर। चोट इसीलिए लगी कि तुमने यह मानकर जिंदगी चलायी थी कि बहन कभी जायेगी नहीं। बहन के जाने से चोट नहीं लगी, तुम्हारी मान्यता भ्रांत थी; मान्यता के टूटने से चोट लगी। काश, तुमने जाना ही होता कि सब को जाना है, तो चोट न लगती! तुमने झूठी मान्यता बना रखी थी कि बहन कभी न जायेगी। किसी अचेतन में चुपचाप तुम इस भाव को पालते-पोसते रहे थे कि बहन कभी न जायेगी। इतनी प्यारी बहन कहीं जाती है!
लेकिन सबको जाना है। अब तुम सोचते हो कि बहन के जाने के कारण तुम विक्षुब्ध हो, तो फिर गलत सोच रहे हो। धारणा टूट गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। तुम्हारी मान्यता उखड़ गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। यह बहन का जाना तुम्हारे सारे तारतम्य को तोड़ गया, इसलिए विक्षुब्ध हो। अब भी सोचो, अब भी जागो। तुम्हें भी जाना है। पिता भी जायेंगे, मां भी जायेगी, भाई भी जायेंगे, मित्र भी जायेंगे; सभी को जाना है। बहन तो जैसे राह दिखा गयी। धन्यवाद मानो उसका, अनुग्रह स्वीकार करो कि अच्छा किया कि तू गयी और हमें चेता गयी। तो जाने की तैयारी हम करें।
दुनिया में दो तरह की शिक्षाएं होनी चाहिए, अभी एक ही तरह की शिक्षा है। और इसलिए दुनिया में बड़ा अधूरापन है। बच्चों को हम स्कूल भेजते हैं, कालेज भेजते हैं, युनिवर्सिटी भेजते हैं, मगर एक ही तरह की शिक्षा है वहां--कैसे जीयो? कैसे आजीविका अर्जन करो? कैसे धन कमाओ! कैसे पद-प्रतिष्ठा पाओ। जीवन के आयोजन सिखाते हैं। जीवन की कुशलता सिखाते हैं। दूसरी इससे भी महत्वपूर्ण शिक्षा है और वह है--कैसे मरो? कैसे मृत्यु के साथ आलिंगन करो? कैसे मृत्यु में प्रवेश करो? वह शिक्षा पृथ्वी से बिलकुल खो गयी है। ऐसा अतीत में नहीं था। अतीत में दोनों शिक्षाएं उपलब्ध थीं।
इसलिए जीवन को हमने चार हिस्सों में बांटा था। पच्चीस वर्ष तक विद्यार्थी का जीवन, ब्रह्मचर्य का जीवन। गुरु के पास बैठना। जीवन को कैसे जीना है, इसकी तैयारी करनी है। जीवन की शैली सीखनी है। फिर पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ का जीवन: जो गुरु के चरणों में बैठकर सीखा है उसका प्रयोग, उसका व्यावहारिक प्रयोग। फिर जब तुम पचास वर्ष के होने लगो तो तुम्हारे बच्चे पच्चीस वर्ष के करीब होने लगेंगे। उनके गुरु के गृह से लौटने के दिन करीब आने लगेंगे। अब बच्चे घर लौटेंगे गुरु-गृह से। अब उनके दिन आ गये कि वे जीवन को जीयें। और जब बच्चे घर आ गये, फिर भी पिता और बच्चे पैदा करता चला जाये, तो यह अशोभन समझा जाता था; यह अशोभन है। अब बच्चे बच्चे पैदा करेंगे। अब तुम इन खिलौनों से ऊपर उठो।
तो पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ। वानप्रस्थ का अर्थ बड़ा प्यारा है; जंगल की तरफ मुंह--इसका अर्थ होता है। अभी जंगल गये नहीं; अभी घर छोड़ा नहीं; लेकिन घर की तरफ पीठ और जंगल की तरफ मुंह--यह वानप्रस्थ का अर्थ होता है। चले-चले, तैयार...जैसे कभी तुम यात्रा पर जाते हो, बिस्तर-बोरिया सब बांध कर बस बैठे हो कि कब आ जाये बस, कि कब आ जाये गाड़ी--यह वानप्रस्थ। पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ, ताकि अगर तुम्हारे बेटों को तुम्हारी कुछ सलाह की जरूरत हो तो पूछ लें। अपनी तरफ से सलाह मत देना। वानप्रस्थी स्वयं सलाह नहीं देता, लेकिन बेटे अभी नये-नये गुरुकुल से लौटे हैं, अभी उन्हें बहुत-सी व्यावहारिक बातें पूछनी होंगी, तांछनी होंगी। तुम्हारा मार्गदर्शन शायद जरूरी हो। तो अब पीठ कर के घर की तरफ रुके रहना कि ठीक है, कुछ पूछना हो तो पूछ-पांछ लो।
फिर पचहत्तर वर्ष के तुम जब हो जाओगे, तो सब छोड़ कर जंगल चले जाना। वे शेष अंतिम पच्चीस वर्ष मृत्यु की तैयारी थे। उसी का नाम संन्यास था। पच्चीस वर्ष जीवन के प्रारंभ में, जीवन की तैयारी; और जीवन के अंत में पच्चीस वर्ष, मृत्यु की तैयारी।
आज दुनिया से मृत्यु की तैयारी खो गयी है। लोग मृत्यु की बात ही नहीं करना चाहते। मृत्यु की बात से ही मन तिलमिला जाता है, मन डरने लगता है। रास्ते पर निकलती अर्थी देखकर तुम बेचैन नहीं हो गये हो? वह बेचैनी इस बात की खबर है कि तुम्हें याद आ रही है, कि आज नहीं कल मेरी अर्थी भी उठेगी! यही लोग जो दूसरे को लिये जा रहे हैं, कल मुझे भी मरघट पहुंचा आयेंगे। आज कोई और चढ़ा है चिता पर, कल मैं भी चढूंगा। ऐसा अगर तुम्हें दिखाई पड़ जाये, तो क्रांति हो जाये! मगर हम बड़े चालबाज हैं। हम इसको छिपा लेते हैं। हम धुआं खड़ा कर लेते हैं। अब कबीर, तुम धुआं खड़ा कर रहे हो।
तुम कहते हो: ज्योति, मेरी बहन का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख में हूं, बहुत परेशानी में हूं। सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम-रोम में याद सताती है।
तुम झुठला रहे हो। तुम अपनी सारी बात को ज्योति पर आरोपित कर रहे हो कि न तू गयी होती, न मैं दुखी होता। तू क्या चली गयी, मुझे दुख में छोड़ गयी। तुम यह बात भुलाने की कोशिश कर रहे हो कि दुख ज्योति के जाने का नहीं है, दुख इस बात का है कि जाना पड़ेगा। दुख इस बात का है कि यह ज्योति सजग कर गयी तुम्हें कि मौत आती है; मेरी आ गयी, तुम्हारी भी आती होगी। देखो, मेरी आ गयी--और मैं तो तुमसे कम उम्र की थी!
अब तुम इसको झुठलाओ मत।
तुम कहते हो कि प्रवचन सुनता हूं, ध्यान करता हूं, थोड़ी शांति अनुभव होती है।
वह शांति नहीं है, सांत्वना है। प्रवचन सुनने में भूल जाते होओगे, याद न रह जाती होगी। यह शांति नहीं है, यह तो विस्मरण है। यह तो वैसे ही है जैसे कोई सिनेमा में जाकर बैठ गया, तो दो घड़ी के लिए उलझ गया सिनेमा की कहानी में, तो अपनी कहानी भूल गयी; कि पढ़ने लगा कोई उपन्यास, जासूसी, सनसनीखेज, कि लग गया चित्त उसमें, तो अपनी चिंता भूल गयी; कि पी ली शराब, कि डूब गये थोड़ी मूर्च्छा में, कि भूल गयी अपनी आपाधापी। मगर कितनी देर? फिर लौट आओगे। आना ही पड़ेगा।
नहीं, इस तरह सांत्वना देने से कुछ भी न होगा। जागो! जागने से शांति मिलेगी। स्वीकार करो कि मौत है। और स्वीकार करो कि सब संयोग यहां नदी-नाव संयोग हैं; अभी हैं, अभी बिछड़ जायेंगे। कितनी देर हमारा साथ है, कुछ भी कहा नहीं जा सकता। दूसरे ही क्षण रास्ते अलग हो जायेंगे।
तुम इस ज्योति के साथ, तुम्हारी बहन के साथ कितने दिन से थे? तुम्हारे पहले भी तुम्हारी बहन रही होगी, तुम भी रहे होओगे; जन्मों-जन्मों में कभी मिलना न हुआ था! अनंत जन्मों की कथा है! फिर थोड़ी देर राह पर साथ हो लिए दो राहगीर। तुम किसी और राह से आये, मैं किसी और राह से आया, घड़ी-भर को साथ हो लिया--संयोगवश। फिर मेरी राह अलग हो गयी, तुम्हारी राह अलग हो गयी; न तो कभी पहले साथ थी, न शायद अब दुबारा कभी मिलना हो। मगर ये थोड़े-से क्षण जो राह पर साथ-साथ गुजरे हैं, इनको इतना मूल्य मत दो। इनका कोई भी मूल्य नहीं है। स्मरण रखो--नदी-नाव संयोग! स्मरण रखो, जैसे वृक्ष पर एक ही रात बहुत-से पक्षियों ने बसेरा ले लिया; सुबह हुई, उड़ गये! स्मरण रखो कि रात सराय में रुके, सुबह हुई, विदा हो गये! रात थे साथ, तो परिचय भी बनाये, अपरिचितों के साथ बैठकर ताश भी खेले, शतरंज भी फैलाई, गपशप भी की; सुबह हुई, नमस्कार किया और विदा हो गये। बस, इससे ज्यादा मूल्य इस जीवन के संबंधों का नहीं है।
लेकिन चोट लगती है। चोट लगती है गलत धारणाओं के कारण। चोट लगती है हमारे अहंकार को कि मैं कुछ भी न कर सका, कि मेरी बहन मर गयी और मैं बचा न सका! तो मेरा बल क्या, तो मेरी सामर्थ्य क्या, तो मैं कौन हूं? तुम तिलमिला गये हो।
चाहता हूं, पुष्प यह
गुलदान का मेरे
न मुर्झाये कभी,
देता रहे
सौरभ सदा
अक्षुण्ण इसका
रूप हो!
पर यह कहां संभव,
कि जो है आज,
वह कल को कहां?
उत्पत्ति यदि,
अवसान निश्चित!
आदि है
तो अंत भी है!
यह विवशता!
जो हमारा हो,
उसे हम रख न पायें!
सामने अवसान हो
प्रिय वस्तु का,
हम विवश दर्शक
रहे आयें!
नियम शाश्वत
आदि के,
अवसान के,
अपवाद निश्चय ही
असंभव--
शूल-सा यह ज्ञान
चुभता मर्म में,
मन विकल होता!
प्राप्तियां, उपलब्धियां क्या
दीन मानव की,
कि जो
अवसान-क्रम से,
आदि-क्रम से
हार जाता
काल के
रथ को
न पल भर
रोक पाता!
क्या अहं मेरा
कि जिसकी तुष्टि
मैं ही कर न पाता!
अड़चन वहां है, कठिनाई वहां है; तुम्हारी ही नहीं कबीर, सभी की, प्रत्येक की।
प्राप्तियां, उपलब्धियां क्या
दीन मानव की,
कि जो
अवसान-क्रम से,
आदि-क्रम से,
हार जाता,
काल के
रथ को
न पल भर
रोक पाता!
इतने हम असहाय, इतने हम निर्बल! मगर हमारी अकड़ है गहरी! जब तक सब ठीक चलता है, तब तक तो अकड़ बनी रहती है; जब चीजें बिखरती हैं तो अड़चन आती है। इसको तुम सौभाग्य बनाओ। यह जो घड़ी घटी, इसे रो-रो कर भुलाने की चेष्टा न करो। समय घाव भर देता है; इसके पहले कि घाव भर जाये--जागो। अभी घाव हरा है, इस हरे घाव का लाभ ले लो। समझो कि जो हुआ, वही होना है, देर-अबेर की बात है।
एक सुबह बुद्ध एक गांव में आये। उस गांव में एक विधवा स्त्री का इकलौता बेटा मर गया। वही उसका सहारा था, वही उसकी आंख का तारा! वही सब कुछ था। पति तो चल बसा था, इसी बेटे के सहारे जी रही थी। उसकी पीड़ा तुम समझो, पागल हो गयी। बेटे की लाश को लेकर गांव में घूमने लगी--वैद्यों के, चिकित्सकों के द्वार-द्वार, तांत्रिकों-मांत्रिकों के द्वार-द्वार...। मगर कौन जगाये उसे; सब तंत्र, सब मंत्र, सब ज्योतिष, सब वैद्य, सब चिकित्सक मृत्यु के सामने असहाय हैं। किसी ने कहा: पागल औरत, अब इस लाश को ढोने-रखने से कुछ भी लाभ नहीं है। अब तू व्यर्थ ही दीवानी हो रही है! जो हुआ हुआ, मृत्यु तो हो गयी। अब तो कोई चमत्कार ही हो तो यह बच सकता है।
उस स्त्री को तो जैसे डूबते को तिनके का सहारा...उसने कहा: चमत्कार! क्या कोई चमत्कार हो सकता है? उस आदमी ने यह सोचकर कहा भी न था। उसने तो यूं ही बात में ही बात कह दी थी, बात में बात निकल गई थी--कह दिया था कि कोई चमत्कार हो, तो ही बच सकता है। चमत्कार कहीं होते हैं! मगर स्त्री पीछे पड़ गयी उसके कि चमत्कार हो सकता है, तो बोलो कहां, कैसे?
पिंड छुड़ाने को उसने कहा: गांव में गौतम बुद्ध का आगमन हुआ है, तू उनके पास जा। वे तो भगवान हैं। वे तो परम ज्ञान को उपलब्ध हैं। उनके चरणों में ही रख दे इस लाश को। अगर चमत्कार हो सकता है तो वहीं हो सकता है, और कहीं भी नहीं।
भागी स्त्री, जाकर लाश को बुद्ध के चरणों में रख दिया। और मालूम है, बुद्ध ने क्या कहा? बुद्ध ने कहा: ठीक, तो तू चाहती है कि तेरा बेटा वापिस जिंदा हो जाये?
उसने कहा: बस यही चाहती हूं, और कुछ भी नहीं चाहती। इतना ही कर दो। अनुकंपा करो, मुझ दीन पर दया करो।
बुद्ध ने कहा: होगा, जरूर होगा, लेकिन कुछ शर्तें पूरी करनी होंगी। तू जा गांव में और किसी भी घर से मेथी के थोड़े-से दाने मांग ला। वह गांव तो मेथी की ही खेती करता था। उस स्त्री ने कहा: यह भी कोई शर्त हुई? सारा गांव मेथी ही मेथी से भरा है। यही तो हमारी खेती है। अभी ले आती हूं।
बुद्ध ने कहा: लेकिन खयाल रख, उसके पीछे एक शर्त और है--मेथी उस घर से लाना जिसके घर में कभी कोई मृत्यु न घटी हो, तो चमत्कार हो जायेगा। बस मेथी के चार दाने काम कर जायेंगे।
वह भागी स्त्री...पागलपन में आदमी तो कुछ भी भरोसा कर लेता है। होश में न हो तो गणित बिठालने का समय भी कहां पाता है! और फिर मन जब मानना ही चाहता हो तो सब तर्कों के विपरीत मान लेता है। छोटी-सी बात थी, साफ हो गयी थी बात वहीं कि ऐसा कौन-सा घर होगा जहां मृत्यु न हुई हो! लेकिन कौन जाने! आशाएं हैं, बड़े सपनों में डूब जाती हैं। वह भागी, एक-एक द्वार खटखटाया। लोगों ने कहा कि जितनी मेथी चाहिए ले जा; बोरे के बोरे भरवा दें, गाड़ियों की गाड़ियां भरवा दें। मेथी ही मेथी है, गांव मेथी की ही खेती करता है। तेरे घर भी मेथी है, तू क्यों दूसरे घरों में मांगती फिरती है?
उसने कहा: लेकिन ऐसे घर की मेथी चाहिए जिसके घर कोई मरा न हो। सांझ होते-होते बात साफ हो गयी कि गांव में एक भी घर ऐसा नहीं है जहां कोई मरा न हो। और यह बात साफ होते-होते कुछ और भी साफ हो गया। जब वह लौटी सांझ, बुद्ध ने कहा: तू ले आयी मेथी के चार दाने? वह स्त्री हंसने लगी। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ी। उसने कहा: मुझे दीक्षा दो। इसके पहले कि मेरी मौत आये, मैं कुछ कर लूं। मैं जीवन का कुछ अर्थ जान लूं, मैं जीवन का अभिप्राय पहचान लूं। बेटा तो गया, मेरा जाना भी ज्यादा दूर नहीं है। और आपने ठीक ही किया कि मुझे भेज दिया गांव की यात्रा पर। एक-एक घर में पूछ कर मुझे पता चल गया कि मृत्यु तो सुनिश्चित है; सभी घर में हुई है; सभी घरों में होती रहेगी। हम मौत के द्वार पर ही खड़े हैं। तो मेरा बेटा आज गया, कल मैं जाऊंगी। इसके पहले कि मैं जाऊं...मेरा बेटा तो गया, बिना कुछ जाने गया, मैं बिना कुछ जाने नहीं जाना चाहती।
कबीर, यही मैं तुमसे कहता हूं। मौत तो होती ही है--किसी की आज, किसी की कल--आज बहन, कल भाई। हम सब विदा होने को हैं यहां। यह घर नहीं है, सराय है। रोने में समय मत गंवाओ। आंसू पोंछ डालो! क्योंकि आंसुओं से भरी आंखें देखने में समर्थ न हो सकेंगी। आंसू बिलकुल पोंछ डालो! यह देखने की घड़ी है।
मृत्यु से बड़ी महत्वपूर्ण कोई घड़ी नहीं है। और जब तुम्हारा कोई प्यारा मर जाये तब तो बड़ा बहुमूल्य अवसर है। क्योंकि प्यारे का अर्थ होता है जो तुम्हारे बहुत करीब था, हृदय के बहुत करीब था। प्यारे का अर्थ होता है जिसकी मृत्यु तुम्हें अपनी मृत्यु जैसी मालूम होती है। यही तो मौका है, यही तो ध्यान में प्रवेश का मौका है।
और मुझसे तुम सांत्वना न मांगो; मैं तुम्हें सत्य ही दे सकता हूं। और सत्य यह है कि कबीर, तुम्हें भी मरना होगा, मुझे भी मरना होगा, सभी को मरना होगा। मरने के पहले लेकिन एक उपाय है: काश! हम अपनी चेतना से थोड़ा परिचय बना लें! थोड़ा हमारे भीतर जो अमृत का दीया जल रहा है, उसका अनुभव हो जाये। फिर मृत्यु नहीं होती। फिर देह गिर जाती है और हम और लंबी यात्रा पर निकल जाते हैं। फिर केवल परिधान बदलते हैं। न हन्यते हन्यमाने शरीरे! फिर शरीर के मरने से वह जो भीतर छिपा है, वह नहीं मरता है!
और जिस दिन तुम अपने अमृत को देख पाओगे, उसी दिन तुम्हें सबके भीतर अमृत दिखायी पड़ जायेगा। न तुम्हारी बहन मरी है, न कोई कभी मर सकता है। अब तुमसे मैं ये दो विरोधाभासी वक्तव्य दे रहा हूं। एक--सभी मरते हैं। सभी को मरना पड़ेगा। जो देहग्रस्त हैं, मृत्यु के सिवाय वे कुछ भी अनुभव नहीं कर सकते। और दूसरा--कोई न कभी मरा है, और कोई न कभी मर सकता है। लेकिन यह तो उनका अनुभव है, जिन्होंने अमृत की पहचान की हो, जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार किया हो।
चाहता हूं,
पुष्प यह
गुलदान का मेरे
न मुर्झाये कभी,
देता रहे
सौरभ सदा,
अक्षुण्ण इसका
रूप हो!
पर यह कहां संभव,
कि जो है आज,
वह कल को कहां?
उत्पत्ति यदि,
अवसान निश्चित!
आदि है,
तो अंत भी है!
देह तो बस फूल है। देखते हो न, जब कोई मर जाता है और उसे हम जला आते हैं, फिर तीसरे दिन हम इकट्ठा करने जाते हैं, तो कहते हैं--फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं! क्यों कहते हैं फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं? बस, फूल जैसा ही सब है यहां क्षणभंगुर! प्यारा शब्द है फूल! क्षणभंगुरता का प्रतीक है फूल। हड्डियां इकट्ठी करने जाते हैं, कहते हैं--फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं!
मगर अब तुम कह रहे हो कि फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं। काश, जिसकी हड्डियां हैं उसने ही जागकर देख लिया होता कि ये सब फूल हैं--अभी हैं, अभी कुम्हला जायेंगे; सुबह हैं, सांझ पंखुड़ियां झड़ जायेंगी। तो शायद कब्र न बनती, समाधि बनती। तो शायद मृत्यु तो होने ही वाली थी, लेकिन भीतर कोई अमृत को जानता हुआ विदा होता।
उस क्रांति की तलाश करो कबीर। मुझसे सांत्वना न खोजो, मैं सत्य ही दे सकता हूं।
यह विवशता!
जो हमारा हो,
उसे हम रख न पायें!
सामने अवसान हो
प्रिय वस्तु का,
हम विवश दर्शक
रहे आयें!
मैं तुम्हारी पीड़ा समझता हूं। अपनों को भी नहीं बचा पाते। अपने को ही नहीं बचा पायेंगे।
नियम शाश्वत
आदि के,
अवसान के,
अपवाद निश्चय ही
असंभव--
शूल-सा यह ज्ञान
चुभता मर्म में,
मन विकल होता!
मैं तुम्हारा दुख समझता, तुम्हारी पीड़ा समझता, तुम्हारे मन की विकलता समझता। लेकिन यह सब स्वाभाविक है। जागो! मृत्यु से, प्रियजन की मृत्यु के क्षण से जागने का और कोई शुभ अवसर नहीं है।
लेकिन हम जागते नहीं। हम नये-नये सपनों में खो जाते हैं।
एक मित्र कुछ दिन पहले आये। पत्नी उनकी चल बसी है। साधारण, गैर-पढ़े-लिखे व्यक्ति भी नहीं हैं; सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हैं। मगर जहां तक मनुष्य के आंतरिक अज्ञान का संबंध है, कुछ भेद नहीं होता। वह जो पत्थर तोड़ता है राह पर उसमें, और वह जो सुप्रीम कोर्ट में बैठकर निर्णय देता है उसमें, कुछ भेद नहीं होता। मूढ़ से मूढ़ में और तथाकथित पंडित में, जरा भी अंतर नहीं होता! सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हैं, रोने लगे विह्वल, बच्चे की भांति! पत्नी को मरे भी दो साल हो चुके, मगर है कि पीड़ा नहीं जाती। दिल्ली से चल कर इतनी दूर आये थे, मुझसे सिर्फ यही पूछने कि क्या एक बात का मुझे भरोसा दिला सकते हैं कि कभी भविष्य में किसी और जन्म में मेरी पत्नी से मेरा मिलना होगा कि नहीं? और एक प्रार्थना है--कहने लगे--एक बार उसका दर्शन करा दें। स्वप्न में ही सही, एक बार उसे फिर देख लूं।
कैसा हमारा मोह है! फिर तो जैसे भूल ही गये मुझसे बात करते समय कि मैं भी वहां हूं। याद करने लगे कि हमने कैसे दिन बिताये--कैसे सुख के दिन! हमने सारी दुनिया की यात्रा दो बार की। हम पेरिस गये, हम लंदन गये, हम न्यूयार्क गये, हम पेकिंग गये...। एक क्षण को तो वह भूल ही गये कि पत्नी मर चुकी है! पेरिस का वर्णन करने लगे, लंदन का--कैसे हम ठहरे, कहां क्या घटना घटी...। मैं देखता था उनको और सोचता था कि बच्चों में और बूढ़ों में जरा भी भेद नहीं। बूढ़े हो गये हैं। अब कुल एक साल और बचा है रिटायर होने को। यह सब हमारे मन की जालसाजियां हैं।
मैंने उनको बार-बार कहा कि इस जन्म के पहले इस पत्नी से कभी मिलना हुआ था? उन्होंने कहा: नहीं, मुझे तो कुछ इस जन्म के पहले की याद ही नहीं। तो मैंने कहा: अगले जन्म में तुम्हें पत्नी की याद रहेगी? पिछले जन्म में कोई तुम्हारी पत्नी रही होगी?
कहा कि हां, जरूर रही ही होगी।
याद कुछ है? पिछले जन्म में भी पत्नी मरी होगी? पिछले जन्म में भी तुमने किसी से जाकर कहा होगा कि इसी पत्नी से फिर दोबारा मिलना हो जाये। याद है कुछ? आज तुम कह रहे हो, कल मर जाओगे; याद रह जायेगी? छोड़ो मरने की बात, रात जब सो जाओगे आज, तब याद रह जायेगी?
उनकी आंखें गीली हो आयीं। उन्होंने कहा: वही तो मेरा दुख है; दो साल हो गये, सपने में भी नहीं देखा!
रात रोज सो जाते हो तब भी याद भूल जाती है, तो जब मरोगे, मृत्यु जैसी बड़ी घटना घटेगी, देह भी छूट जायेगी, मन भी छूट जायेगा--तब तुम्हें याद रह जायेगी पत्नी की? कहीं मिल भी जायेगी भूल-चूक से, पहचान पाओगे? क्यों व्यर्थ की बातों में पड़े हो? और कुछ कमी थी इस जन्म के पहले, जब यह पत्नी तुम्हारी पत्नी न थी? कभी कमी थी कुछ, आगे भी कुछ कमी होगी? और यह पत्नी भी मिल गयी थी, यह भी सांयोगिक ही था।
कहने लगे: आपको कैसे पता चला--सांयोगिक?
मैंने कहा: मुझे आपकी कथा का कुछ पता नहीं है, मगर सभी सांयोगिक है। मैंने उन्हें एक यहूदी लेखक की कहानी बताई। उसके जीवन की घटना है। वह एक स्टेशन पर उतरा। चारों तरफ देखा, कुली नहीं था। सामान ज्यादा था। उसके पास ही एक और स्त्री उतरी थी, बगल के डिब्बे से। उसके पास बिलकुल सामान न था। भली महिला, उसने कहा कि आप चिंतातुर दिखते हैं। कुली कोई दिखाई पड़ता नहीं, रात सर्द है, बर्फ पड़ रही है। लाइये कुछ सामान मैं आपका बंटा लूं, जो भी बन सके।
तो कुछ झोले उसने भी ले लिये। दोनों चले स्टेशन की तरफ। अब जिसने झोले लिये थे, उससे बात भी होने लगी। बाहर आये। पहचान हो गयी तब तक; बात-चीत भी हुई, मित्रों की बात चली, कहां से आयी, क्या हुआ? टैक्सी में बैठने के पहले, रात सर्द थी, दोनों ने बैठकर होटल में काफी पी--थोड़ी गरमा लें अपनी देहों को। फिर तब तक इतनी पहचान हो गयी थी कि अब दो टैक्सी क्यों करनी, एक ही टैक्सी कर लें। फिर पहचान बढ़ती ही चली गयी; टैक्सी में कोई घंटे-भर की यात्रा थी, दोनों पास बैठे रहे, और भी मैत्री घनी हो गयी। फिर होटल में सोचा कि अब दो कमरे क्यों लें, एक ही ले लें। फिर ऐेसे विवाह हुआ।
उस लेखक ने लिखा है: ऐसे मेरे पिता और मेरी मां का मिलना हुआ। संयोग की ही बात थी कि उस दिन कोई कुली नहीं था। बस, उस नासमझ कुली की वजह से यह उपद्रव हुआ।
तुम भी देखना, कैसे तुम्हें अपनी पत्नी मिल गयी। एक ही स्कूल में पढ़ते थे, कि बस्ता टांगे एक ही स्कूल की तरफ रोज-रोज जाते थे, कि संयोग की बात वह भी पड़ोस में रहती थी। हमारी दौड़ ही कितनी है! अब थोड़ी कार वगैरह युवकों के पास हो गयी है तो थोड़ी दौड़ ज्यादा है। दूसरे मुहल्ले तक चले जाते हैं, नहीं तो मुहल्ले में ही होने वाली थी! सांयोगिक है सब मिलना।
वे तो बड़े हैरान हुए; उन्होंने कहा: आप कहते क्या हैं! बात सच है, मेरा मिलना उससे सांयोगिक ही था। हम ऐसे ही एक कांफ्रेंस में मिले थे। और फिर बात बन गयी (कि बात बिगड़ गयी--एक ही है मतलब) अब रो रहे हैं। अब सोच रहे हैं: आगे फिर मिलना इसी से हो जाये! और अब सोच रहे हैं: काश, वह होती तो कैसा अच्छा होता!
जो न गल जाती हिमानी विरह-दिनकर की कला से,
आज इस ज्वाला-तरी के हिम-जड़े पतवार होते।
हास औ’ सुख से भरे, आनंद का व्यापार करने,
प्राण-जलनिधि में प्रणय के पोत चलते पार होते।
पलक के प्यासे चषक में भर मिलन की माधवी को,
स्निग्ध चंद्रासव पीये-से नयन ये रतनार होते।
अंगुलियां जो उलझ जातीं नीलमणि के कोण पहने,
बंक बरुनी के कसे मुखरित सुरीले तार होते।
सिहरकर अंबर उतरता अंक में भरती उन्हें जो,
तो सजीली मोतियों के कंठ में विधुहार होते।
छांह हिमकर चांदनी का तान ताराजटित आतप,
आज इस ज्वाला भरी के मान औ’ मनुहार होते।
और फिर कल्पनाएं कि ऐसा होता, कि ऐसा होता...। मत खोओ कल्पनाओं में। जीवन जैसा है वैसा है। उसे वैसा ही जानो--उसकी नग्नता में। तथ्यों को झुठलाओ मत। तथ्यों को कल्पना के घूंघट मत पहनाओ। तथ्यों को बुर्के मत ओढ़ाओ।
मृत्यु है; इसे तुम कितना ही शृंगार करो और कितना ही सजाओ, तुम झुठला न सकोगे। इसे झुठलाने में जितने तुम सफल हो जाओगे, उतने ही तुमने जीवन को चूकने का उपाय कर लिया।
कबीर, धन्यवाद करो अपनी बहन का, ज्योति का। गयी, अंधेरा छोड़ गयी पीछे ज्योति। अब इस अंधेरे में अपनी ज्योति की तलाश करो। वही ज्योति भीतर जलेगी, तो ही शांति, तो ही सत्य, तो ही मुक्ति।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, बुद्ध हुए और महावीर हुए और गोरख हुए, नानक हुए और कबीर हुए--इतनी रोशनियां जलीं, फिर भी संसार में अंधेरा क्यों है?
आप सब की कृपा से! रोशनी जलती रहने दो तब न! अब बुद्ध हुए कुछ पहरा तो देते न रहे; जली रोशनी और गये। वे जा भी नहीं पाते कि हजारों रोशनी को फूंकने को तैयार बैठे हैं।
लोग रोशनी के दुश्मन हैं। लोग दीयों के पुजारी हैं, रोशनियों के दुश्मन हैं। रोशनी को बुझा देते हैं, दीये की पूजा करते हैं! जिंदगी को मेट देते हैं, पत्थरों की पूजा करते हैं! पत्थरों की पूजा चल रही है! बुद्ध की कितनी मूर्तियां बनीं, इतनी किसी और की नहीं बनीं। मूर्तियों की पूजा चल रही है। बुद्ध ने जो कहा था उससे किसको लेना-देना है, उससे किसको प्रयोजन है? वह तो झंझट की बात है। उस पर चलना तो कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलना है। उस पर चलना तो जीवन को बदलना होगा। पत्थर की पूजा करने में क्या लेना-देना है; सस्ता काम है।
तुम पूछते हो कि इतनी रोशनियां जलीं, फिर भी संसार में अंधेरा क्यों है? रोशनियों को तुम बचने ही नहीं देते। कभी-कभी तो ऐसा है कि रोशनी खुद भी नहीं बुझ पाती और तुम बुझा देते हो। तुमने जीसस की रोशनी जिंदा-जिंदा में बुझा दी। तुमने सुकरात की रोशनी जिंदा-जिंदा में बुझा दी। तुमने मंसूर की रोशनी जिंदा-जिंदा में बुझा दी। बुद्ध और महावीर के साथ तो तुमने थोड़ी कृपा भी की। पत्थर इत्यादि फेंके, गाली-गलौज भी दी, अपमान भी किया। तुम इस तरह के कामों में बड़े कुशल हो, बड़े निष्णात!
महावीर नग्न थे तो तुम नाराज हुए, अब नग्नता में कुछ नाराजगी की बात न थी। नग्न ही तो आते हैं हम संसार में और नग्न ही हमें जाना है। वस्त्र तो हमने बीच में ओढ़ लिये हैं, बीच का धोखा है। लेकिन हम धोखों को सत्य मान लेते हैं।
कल मैं पढ़ रहा था--बंबई की किसी होटल में, नयी बनती होटल में, किसी ने एक जैन तीर्थंकर की प्रतिमा सामने खड़ी कर दी है--बीस फीट ऊंची! अब जैन प्रतिमा, नग्न तीर्थंकर की प्रतिमा...बड़ी सनसनी फैल गयी है। जो जैन नहीं हैं वे नाराज हैं कि नंग-धड़ंग आदमी को यहां क्यों खड़ा किया? जो जैन हैं वे भी नाराज हैं, कि होटल और हमारे भगवान! बात यहां तक बढ़ गयी कि कुछ भक्तगण उनको चड्ढी पहना आये।
क्या पागल हो तुम!...चड्ढी! तुम्हें कुछ और न सूझा? वैसे दिन भी चड्ढीवालों के चल रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ--चड्ढी दल! गुजराती में तो जैसे राजकरण, ऐसे अब उन्होंने नाम रख लिया है चड्ढी-करण।
चड्ढी, महावीर को चड्ढी पहनाओगे! तुम्हें शर्म भी न आयी! फिर किन्हीं को गुस्सा आ गया कि हमारे भगवान को चड्ढी! उन्होंने चड्ढी फाड़ दी। अब विदेशी पर्यटक हैं, उनको तो कुछ पता नहीं कि कौन तीर्थंकर, क्या? वे कहते हैं: ‘मिस्टर तीर्थंकर!’...‘मिस्टर तीर्थंकर नंगे क्यों खड़े हैं?’ और उनको सारा रस उनकी नग्नता में है। वे फोटो पर फोटो उतार रहे हैं।
अब यह बात बेचैनी की है, क्योंकि इससे भारत की प्रतिमा का पश्चिम में बहुत खंडन होगा। तो कोई और ज्ञानी जाकर मूर्ति की जननेंद्रिय पर मिट्टी थोप आये! अब और भद्दी लगती है। मिट्टी थुपी संगमरमर की प्रतिमा पर...मामला क्या है? अब किन्हीं समझदारों ने कुछ रास्ता निकाला, उन्होंने एक बड़ा तख्ता लगा दिया है, जिसमें कि सिर्फ ऊपर की प्रतिमा दिखाई पड़ती है। मगर लोग इतनी आसानी से थोड़े ही छोड़ते हैं। जब से तख्ता लगा है, लोगों की उत्सुकता बढ़ गयी कि तख्ते के पीछे क्या है? तो लोग तख्ते के पीछे जा-जाकर फोटो ले रहे हैं। अब ऊपर की प्रतिमा का फोटो कोई लेता ही नहीं।
महावीर नग्न थे तो तुमने पत्थर मारे, बुद्ध को तुमने गांव-गांव से खदेड़ा--और तुम पूछते हो कि दुनिया में रोशनी कम क्यों है? तुम रोशनी के दुश्मन हो! जिसने भी रोशनी इस दुनिया में लाने की कोशिश की, तुम उससे नाराज हुए। तुम उसे सदियों तक क्षमा नहीं कर पाते। क्यों? कारण है। जो भी रोशनी लाता है उससे तुम्हारी जिंदगी का अंधेरा साफ होता है।
और कोई यह मानने को राजी नहीं कि मैं अंधेरे में जी रहा हूं। जो आदमी आंखवाला है, वह अंधे को नाराज कर देता है, क्योंकि कोई अंधा यह मानने को राजी नहीं कि मैं अंधा हूं। जो पक्षी उड़ नहीं सकते, वे अगर उड़नेवाले पक्षी के पंख तोड़ दें, तो कुछ आश्चर्य है? क्योंकि उड़नेवाला पक्षी उनके अहंकार को चोट पहुंचाता है।
कफस में गुफ्तगू यह सुनकर दिल का खून होता है
न छेड़ो बाजुओं के तजकिरे, परवाज की बातें।
जो नहीं उड़ सकते, वे कहते हैं: हमारे दिल का खून न करो। बाजुओं की बातें मत करो, परवाज की बातें मत करो, उड़ने की बातें मत करो; क्योंकि इससे हमें बेचैनी होती है। तुम उड़ने की बातें करते हो, हमें हमारी नपुंसकता का बोध होता है। और ये सारे लोग परवाज की बातें करते हैं। ये कहते हैं कि परमात्मा हुआ जा सकता है। और तुम तो आदमी होना मुश्किल पा रहे हो--और ये कहते हैं परमात्मा हुआ जा सकता है। और ये कहते हैं कि तुम भी परमात्मा हो सकते हो। ये तुम्हें इतनी विराट ऊंचाई का स्मरण दिलाते हैं कि तुम चक्कर खाने लगते हो। तुम कहते हो: ये बातें ही बंद करो। हम भले हैं, जमीन पर सरकते, घसिटते, हम भले हैं। हम अपने जैसे सरकते-घसिटते लोगों के साथ भले हैं। तुम हमारे बीच में न आओ। तुम हमारी नींद न तोड़ो। हम मधुर सपने ले रहे हैं, तुम हमें ज्यादा न पुकारो।
चिराग तो जल गये हैं, यह बुझ न जायें कहीं
हवाएं तुंद हैं, हर लौ में थर-थराहट है
यह लौ तो क्या है, लरजता है मेरा दिल ऐ दोस्त!
कि लरजा-खेज फजाओं की सनसनाहट है
चिराग जल तो गये हैं, नजर न लग जाये
नजर भी उनकी कि जिनके यहां अंधेरा है
निगाहे-बद से बचाना है इन चिरागों को
अभी है पिछला पहर दूर अभी सवेरा है
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
उलट न दें कहीं जलते हुए चिरागों को
सलामती जो है मंजूर इन चिरागों की
करो दुरुस्त इन इतफाल के दिमागों को
चिराग जल तो गये, हां चिराग जल तो गये
मजा तो तब है अंधेरा न हो चिराग तले
चिराग बाम पे हों, फर्शो-आस्मां पे चिराग
बुलंदो-पस्त में सब कह उठें ‘चिराग जले’
चिराग जल तो गये हैं, यह बुझ न जायें कहीं!
जलते रहे हैं, बुझते रहे हैं। जलाने वाले बहुत कम, बुझाने वाले बहुत ज्यादा। अंधेरे में तुमने बहुत-से स्वार्थ जोड़ रखे हैं। अंधेरे में तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ है।
अब जैसे चोरों की बस्ती हो और वहां कोई चिराग जलाये, तो चोर बुझा न देंगे? चोर तो जी ही सकते हैं अंधेरे में। चोरों को चांदनी रात बुरी लगती है, अमावस की रात बड़ी प्यारी लगती है। उनका स्वार्थ है, न्यस्त स्वार्थ है।
चिराग जल तो गये हैं, यह बुझ न जायें कहीं
हवाएं तुंद हैं, हर लौ में थरथराहट है
यह लौ तो क्या है, लरजता है मेरा दिल ऐे दोस्त!
कि लरजा खेज फजाओं की सनसनाहट है
चारों तरफ कंपकंपा देने वाली आंधियां हैं! चारों तरफ हवाओं का जोर है! चिराग जल तो गये हैं...कभी कोई बुद्ध, कभी कोई बहाऊद्दीन, कभी कोई महावीर, कभी कोई मुहम्मद, कभी कोई कबीर, कभी कोई गोरख...चिराग जल तो गये हैं, मगर बड़ी तूफानी हवाएं हैं जो बुझा देने को आतुर हैं! और वे हवाएं तुम्हारी हैं, वे तुम हो! तुमने बुझाए हैं चिराग! और अब तुम पूछते हो कि इतनी रोशनियां जलीं, फिर संसार में अंधेरा क्यों है?
आपकी कृपा, आपका अनुग्रह! हां, जब चिराग बुझ जाता है, और बुझा हुआ दीया रह जाता है, तो तुम बड़े मंदिर बनाते हो, तुम बड़ी पूजा करते हो! फिर तुम्हारी स्तुतियां सुनने जैसी हैं! तुम मुर्दे की पूजा करने में कुशल हो, क्योंकि तुम मुर्दे हो! मुर्दों से तुम्हारी दोस्ती बन जाती है, जिंदों से तुम्हारी दोस्ती टूट जाती है। जीसस, जिंदा तो मारो। हां, मर जायें तो फिर पूजो। आज एक तिहाई दुनिया जीसस को मानती है। और जिस दिन जीसस को सूली लगी थी उस दिन तुम्हें पता है, तीन आदमी भी स्वीकार करने को राजी नहीं थे कि हम जीसस को मानते हैं! और जब जीसस को गोलगोथा की पहाड़ी पर, उनके कंधे पर वजनी सूली को लेकर चढ़ाया गया, तो वे तीन बार रास्ते में गिरे। लेकिन एक भी आदमी ने यह न कहा कि लाओ मैं साथ दे दूं, कि चलो मैं तुम्हारी सूली ढो दूं। कौन हिम्मत करे!
जब जीसस को सूली लगी...और उन दिनों जैसी सूली लगती थी जेरुसलम में, आदमी एकदम नहीं मर जाता था, छह घंटे, आठ घंटे, दस घंटे, बारह घंटे, कभी-कभी चौबीस घंटे लग जाते थे मरने में, क्योंकि सूली का ढंग बड़ा बेहूदा था। हाथ-पैर में खीले ठोंक देते थे, लटका देते थे आदमी को। अब हाथ-पैर से खून बहेगा, बहेगा, बहेगा...घंटों लगेंगे। भरी दोपहरी सूली को ढो कर लाना, पहाड़ी पर चढ़ना। जीसस प्यासे हैं। उनके हाथ में खीले ठोंक दिये गये हैं। वे कहते हैं कि मुझे प्यास लगी है, कोई पानी दे दो। मगर उन एक लाख इकट्ठे लोगों में, किसी एक आदमी ने हिम्मत न की कि कह देता कि लो मैं पानी ले आऊं तुम्हारे लिए। मरते जीसस को तुम पानी न दे सके! लोगों ने पत्थर फेंके, सड़े छिलके फेंके। गालियां दीं, सब तरह के अपमान किये। मरते जीसस को तुमने शांति से भी न मरने दिया। मरते जीसस को भाले चुभा-चुभा कर लोगों ने पूछा कि क्या हुआ चमत्कारों का? क्या हुआ तुम्हारे परमात्मा का? तुम तो कहते थे कि तुम ईश्वर के बेटे हो, अब कहां है तुम्हारा पिता? आये और प्रमाण दे!
यह तो तुमने जीसस के साथ व्यवहार किया। और फिर...तुमने कितने चर्च बनाये जीसस के लिए! इतने तुमने किसी के लिए नहीं बनाये। और कितने पुजारी हैं आज! बारह लाख तो सिर्फ पादरी-पुजारी हैं दुनिया में। फिर प्रोटेस्टेंट अलग हैं, और-और दूसरे चर्च अलग हैं। दुनिया का सबसे बड़ा धर्म बन गया है ईसाइयत! कारण क्या हुआ? जिंदा को तो तुम स्वीकार न कर सके, मुर्दा का सम्मान कर रहे हो! शायद इसीलिए। जिंदा का तुमने इतना अपमान किया कि मनुष्य-जाति के प्राण अपराध-भाव से भर गये। अब अपराध-भाव को किसी तरह पोंछने के लिए तुम स्तुति कर रहे हो, पूजा कर रहे हो, शोरगुल मचा रहे हो; मगर अपराध-भाव मिटता नहीं।
चिराग जल तो गये हैं, नजर न लग जाये
नजर भी उनकी कि जिनके यहां अंधेरा है।
जिनके यहां अंधेरा है वे नाराज होते हैं रोशनी देखकर। तुमने कभी यह खयाल किया, कि तुम अपनी गरीबी से उतने परेशान नहीं होते जितना पड़ोसी की अमीरी से परेशान होते हो। गरीबी से तो बहुत कम लोग परेशान हैं, अमीरी से परेशान हो जाते हैं। तुम्हें खयाल ही नहीं था कि तुम्हारे पास कार नहीं है। तुम परेशान ही नहीं थे। फिर पड़ोसी एक कार ले आया। बस, अब परेशानी शुरू हुई। अब तुम गरीब हुए। अब तक तुम गरीब न थे, अब तक सब ठीक चल रहा था। अब पड़ोसी कार ले आया, अब गरीबी शुरू हुई। अब तुम्हें बेचैनी हुई। अब कार तुम्हारे पास भी होनी चाहिए।
दुनिया में इतनी गरीबी नहीं है, जितने लोग परेशान हैं। और परेशान गरीबी से तो कोई भी नहीं है। इसलिए रूस में परेशानी कम है; उसका कारण है कि सभी समान रूप से गरीब हैं! अमरीका का गरीब-से-गरीब आदमी रूस के अमीर-से-अमीर आदमी से आठ गुना ज्यादा अमीर है। लेकिन अमरीका में बड़ी परेशानी है, रूस में परेशानी नहीं है। तो निश्चित ही बात साफ है कि गरीबी से कोई परेशानी नहीं होती, परेशानी अमीरी से होती है। तुलना पैदा हो जाती है। तुम्हारे पास है और मेरे पास नहीं, इससे बेचैनी, इससे कांटा चुभता है।
इस देश में भी यही होगा। इस देश में थोड़े-से अमीर हैं; उनको बांटा जा सकता है। जिस दिन वे बंट जायेंगे, लोग बड़े प्रसन्न हो जायेंगे। ऐसा नहीं है कि लोग अमीर हो जाएंगे। उनके बंटने से कुछ नहीं होने वाला है। उनका बंटना ऐसे है जैसे कि कोई जाकर चम्मच-भर शक्कर और सागर में डाल दे! उनके बंटने से कुछ नहीं होने वाला है। वे बंट भी जाएंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। तुम्हारी जिंदगी की मिठास न बढ़ेगी, लेकिन तुम्हारी खटास कम हो जायेगी। अगर सभी गरीब हैं तो फिर कोई अड़चन न रही। फिर तुम्हारे गरीब होने में कोई पीड़ा न रही, तुम्हारे अहंकार को चोट न रही।
यह बड़ी अजीब दुनिया है! यहां लोग अपनी गरीबी से परेशान नहीं हैं, दूसरे की अमीरी से परेशान हो जाते हैं। और जो सामान्य अमीरी-गरीबी के तल पर होता है, वह और भी बड़े पैमाने पर आध्यात्मिक तल पर होता है। तुम्हें अपने आध्यात्मिक अंधेपन की कोई पीड़ा नहीं है, लेकिन बुद्ध को देखकर तुम नाराज हो जाते हो--यह आंखवाला आदमी है।
चिराग जल तो गये हैं, नजर न लग जाये
नजर भी उनकी कि जिनके यहां अंधेरा है
निगाहे-बद से बचाना है इन चिरागों को
अभी है पिछला पहर, दूर अभी सवेरा है
चिराग तो जलते रहे, लेकिन सवेरा बहुत दूर है। सूरज अभी तक नहीं निकला है। बुद्ध जले, महावीर जले, कृष्ण, क्राइस्ट...ये चिराग हैं। सवेरा अभी नहीं हुआ। सवेरा कब होगा? सवेरा तब होगा, जब सारी मनुष्यता पर एक धार्मिक प्रकाश फैल जाये। सवेरा तब होगा जब सभी के चेहरों पर ध्यान की आभा होगी। वह तो अभी बड़ी दूर है बात। और जो उसे करीब ला सकते थे, तुम उन्हें बुझा देते हो; तुम उनसे नाराज हो जाते हो; तुम उनके दुश्मन हो जाते हो।
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
उलट न दें कहीं जलते हुए चिरागों को
शरारती लोगों से जरा सावधान रहना!
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
बहुत शरारती लोग हैं दुनिया में; वे चिरागों का जलना पसंद नहीं करते। वे तत्क्षण उन चिरागों को उलट देने को तैयार हो जाते हैं।
बुद्ध पर पागल हाथी छोड़ा गया। पागल हाथी भी इतना पागल नहीं था जितने पागल आदमी हैं। क्योंकि कहानी यह है कि पागल हाथी भी बुद्ध के पास आकर रुक गया। ऐसा हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन बात मुझे जंचती है। कोई हाथी इतना पागल नहीं होता जितने आदमी पागल होते हैं! पागल हाथी को भी लगा होगा कि बेचारा सीधा-सादा आदमी है, इस पर हमला क्यों करना? पागल रहा होगा, मगर इतनी बुद्धि उसमें भी अभी शेष थी कि वह आकर रुक गया। लेकिन जिसने छोड़ा था पागल हाथी--देवदत्त--वह बुद्ध का चचेरा भाई था। चचेरा भाई! साथ-साथ बड़े हुए थे। साथ-साथ पढ़े थे। एक ही उम्र के थे। एक-सी प्रतिभा के थे। और बचपन से ही उनमें एक कशमकश थी, एक प्रतियोगिता थी। फिर जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये तो देवदत्त को बड़ी बेचैनी होने लगी कि वह पीछे छूट गया। उसे भी बुद्धत्व सिद्ध करके दिखाना है। अब बुद्धत्व कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि तुम सिद्ध करके दिखा दोगे। तो वह झूठा ही अपने को बुद्ध घोषित करने लगा। लेकिन झूठा बुद्ध सच्चे बुद्ध के सामने फीका लगता। तो फिर एक उपाय था कि सच्चे बुद्ध को खत्म करो। तो पागल हाथी छुड़वा दिया।
यह भी जानकर हैरानी होती है कि अपना ही भाई, चचेरा भाई, पागल हाथी छुड़वायेगा! ऐसा अक्सर हुआ है। जो निकटतम हैं, वे ही सर्वाधिक नाराज हो जाते हैं, क्योंकि उनके ही अहंकार को सबसे ज्यादा चोट पहुंचती है।
जीसस ने कहा है: पैगंबर का अपने ही गांव में सम्मान नहीं होता। क्योंकि गांव के लोग निकट होते हैं। वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि एक छोकरा हमारे ही बीच से उठा। यहीं हमने उसे बड़े होते देखा, इन्हीं गलियों में खेलते देखा--और वह पैगंबर हो गया! तो हम सब दो कौड़ी के! नहीं, यह बर्दाश्त नहीं हो सकता।
जीसस अपने गांव में एक ही बार गये ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद; दोबारा जाने की नौबत ही गांव के लोगों ने न दी! गांव के लोगों ने जीसस पर इतनी नाराजगी जाहिर की कि सारा गांव उनके पीछे पड़ गया। उन्हें पहाड़ पर ले जा कर उनको पहाड़ से गिरा देने की कोशिश की, मार डालने की कोशिश की। क्या नाराजगी थी जीसस जैसे प्यारे आदमी से? इसका प्यारा होना ही नाराजगी का कारण है। शरारती लोग हैं, दुनिया शरारतियों से भरी है।
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
उलट न दें कहीं जलते हुए चिरागों को
इसलिए सावधानी रखनी होती है। जो जानते हैं, जो पहचानते हैं, उन्हें बड़ी सावधानी रखनी होती है, कि जब कोई चिराग जले, तो उसे अपने आंचल में छिपा लें--कि उसकी रोशनी काम आ जाये लोगों के, कि उस चिराग से कुछ और बुझे चिराग जल जायें।
सलामती जो है मंजूर, इन चिरागों की
करो दुरुस्त इन इतफाल के दिमागों को
अगर चाहते हो कि दुनिया में चिराग जलते रहें, तो शरारती लोगों के दिमाग को जरा ठीक करो। मगर शरारतें नये-नये ढंग लेती जाती हैं, शरारतें नये-नये रंग लेती जाती हैं। और शरारतें बहुत तर्कपूर्ण होती हैं। शरारतें शास्त्रों का उल्लेख करती हैं, शरारतें शास्त्रों में आधार खोज लेती हैं।
चिराग जल तो गये, हां चिराग जल तो गये!
मजा तो तब है अंधेरा न हो चिराग तले
और फिर एक और बड़ी अड़चन है, अगर शरारतियों से चिराग बच जायें, आंधियों और तूफानों से चिराग बच जायें, लोगों की नजरों से चिराग बच जायें, लोगों की बदनजरों से चिराग बच जायें--तो फिर एक और बड़ा खतरा है, कि हर चिराग के तले ही अंधेरा इकट्ठा हो जाता है। तथाकथित शिष्य इकट्ठे हो जाते हैं, जिनमें शिष्यत्व की कोई क्षमता और बोध नहीं होता। अगर उनमें शिष्यत्व की क्षमता और बोध हो, तब तो चिराग के नीचे भी रोशनी हो जाये। क्योंकि चिराग के नीचे और चिराग हो जायें!
लेकिन अक्सर यह हो जाता है कि जब भी कोई सदगुरु पैदा होता है, तो उसके विदा होते ही उसकी ही छाया में राजनीतिज्ञों के अड्डे जम जाते हैं, शरारतियों के अड्डे जम जाते हैं। वहीं आपाधापी शुरू हो जाती है कि कौन प्रथम हो?
अब यह तुम जानकर हैरान होओगे कि शंकराचार्यों के मुकदमे अदालतों में चलते हैं, तय करने के लिए कि कौन असली शंकराचार्य है! अदालत तय करेगी कि कौन असली शंकराचार्य है! एक सम्मेलन में एक ऐसे शंकराचार्य से मेरा मिलना हुआ, जिनके ऊपर इलाहाबाद के हाईकोर्ट में मुकदमा चलता है। दो शंकराचार्य हैं, दोनों घोषणा करते हैं कि हम असली हैं। एक ही पीठ पर दोनों का कब्जा है। उन्होंने मुझसे पूछा कि आपका इस संबंध में क्या मंतव्य है?
मैंने कहा कि मेरा एक मंतव्य है कि तुम दोनों नकली, इतना तय है। यह भी कोई बात है कि अदालत से तुम मुकदमे का फैसला लेने चले हो! तो तुम सोचते हो कि अदालत का जो मजिस्ट्रेट है, हजार-पांच सौ रुपये तनखाह पाने वाला, वह पहचान सकेगा कि असली शंकराचार्य कौन है? वह तो बेचारा सिर्फ अदालती ढंग से देख रहा है। वह तो इसकी जांच-पड़ताल करवा रहा है कि इसके पहले जो शंकराचार्य था, उसने जो वसीयत लिखी है वह असली है कि नकली है? किसके नाम लिखी...? दोनों के पास वसीयत है। जहां तक संभावना यह है कि दोनों के नाम लिखी हो। पहले एक के नाम लिखी हो, फिर मरते वक्त आधी मूर्च्छा में, बेहोशी में, दूसरे ने भी दस्तखत करवा लिए हों।
तो मैंने कहा कि तुम दोनों तो शंकराचार्य नहीं हो, इससे यह भी तय होता है कि तुम्हारा गुरु भी शंकराचार्य नहीं था। चिराग के तले अंधेरा इकट्ठा हो जाता है।
चिराग जल तो गये, हां चिराग जल तो गये!
मजा तो तब है अंधेरा न हो चिराग तले
हर सदगुरु के पीछे लोग इकट्ठे हो जाते हैं, जो राजनीति चलाने लगते हैं। उनसे सावधान होना जरूरी है। नहीं तो फिर पोप पैदा होते हैं, और शंकराचार्यों के मठ खड़े होते हैं, और सब उपद्रव शुरू हो जाता है।
चिराग बाम पे हों, फर्शो-आस्मां पे चिराग!
चिराग जलें ऊंचाइयों पर, शिखरों पर, आसमानों पर...।
बुलंदो-पस्त में सब कह उठें, चिराग जले।
और उत्थान हो कि पतन, लेकिन चिराग जलते रहें। लेकिन हमें सहारा देना होगा। ये चिराग कुछ ऐसे नहीं हैं कि अपने-आप जलते रहेंगे; इन्हें हमें प्राणों के द्वारा जलाना होगा। प्राणों की आहुति देंगे तो ये चिराग जलेंगे।
बुद्धों के चिराग जल सकते हैं। इस जगत की सुबह भी करीब आ सकती है। लेकिन बहुत-बहुत लोगों को अपने प्राणों का स्नेह इन चिरागों को जलाने में लगाना होगा।
अब तक यह नहीं हो पाया है। इसलिए आदमी अंधेरे में है। रात गहरी है, पर सुबह हो सकती है। और अब ऐसी घड़ी आयी है कि अगर सुबह न हो सकी तो आदमी बच न सकेगा। अब सुबह होनी ही चाहिए। अब आदमी का भाग्य ही इस बात पर निर्भर है कि सुबह होनी चाहिए। आदमी उस जगह पहुंच गया है कि जैसा है ऐसा ही अब ज्यादा देर जिंदा न रह सकेगा। गये वे दिन जब तुम तीर-कमान चला कर एक-दूसरे को मारा करते थे। अब हमारे पास अणु-अस्त्र हैं। पृथ्वी पर इतने अणु-अस्त्र हैं कि एक-एक आदमी एक-एक हजार बार मारा जा सकता है! हालांकि आदमी एक ही बार में मर जाता है। इतना आयोजन करने की कोई जरूरत नहीं है। मगर भूल-चूक क्यों करनी! राजनीतिज्ञों ने पूरा, शरारतियों ने पूरा इंतजाम कर रखा है। कितनी दफे बचोगे? एक हजार पृथ्वियां नष्ट हो सकें, इतना आयोजन है। अब अगर आदमी न बदला और सुबह न हुई तो आदमी समाप्त होगा।
इन आने वाले पच्चीस वर्ष में बड़ी निर्णायक घड़ी है। या तो आदमी नष्ट होगा और यह पृथ्वी आदमी से शून्य हो जायेगी; या फिर एक नये आदमी का जन्म होगा--एक नयी सुबह! लेकिन ये जो छोटे-छोटे चिराग जले हैं, इन्हीं से आशा बनी है।
गुलों की कसरत हो, या कमी हो, बहार फिर भी बहार है
दीये जले, बुझे, मिट गये; उनकी छाया में अंधेरा पनपा--यह सब ठीक। गुलों की कसरत हो...फूल ज्यादा हों कि कम।
गुलों की कसरत हो, या कमी हो, बहार फिर भी बहार है
कली हो चुप या चटक रही हो, बहार फिर भी बहार है
तुम्हें शऊरे-नजर नहीं है, बहार को हेच कहने वालो!
घटा घिरी हो कि चांदनी हो, बहार फिर भी बहार है
तयूर की नग्मा-साजियां हैं, कहीं है कू-कू, कहीं है पी-पी
अगर खरोशे-जगन कभी हो, बहार फिर भी बहार है
हवा में तुंदी भी हो अगर कुछ, उसे नमू का पयाम समझो
जो चंद पत्तों में बरहमी हो, बहार फिर भी बहार है
थोड़े पक्षी गीत गायें, कोई कोयल कूके एक-आध बार, कि कोई पपीहा बोले पी-पी और कौओं का बड़ा शोरगुल हो, तो भी बहार तो बहार ही है। तयूर की नग्मा-साजियां हैं...पक्षियों की गुनगुनाहट... कहीं है कू-कू, कहीं है पी-पी। अगर खरोशे-जगन कभी हो...लेकिन अगर बहुत कौओं की कांव-कांव भी हो, तो भी खयाल रखना, बहार फिर भी बहार है।
हवा में तुंदी भी हो अगर कुछ, उसे नमू का पयाम समझो
जो चंद पत्तों में बरहमी हो, बहार फिर भी बहार है।
ये छोटे-छोटे दीये जो जले और बुझ भी गये हैं--हमारे कारण। जले तो हमारे कारण नहीं, बुझे हमारे कारण हैं। तो भी इन्होंने आने वाले महावसंत की प्राथमिक सूचनाएं दी हैं। इन्होंने आने वाले सुबह की पहली खबरें दी हैं।
कदम बढ़ाके तुम चले, मगर यह इक कसर रही
कदम जरा मिले नहीं
अगर कदम मिले रहें, तो चाहे सुस्त-रौ भी हों
रसाई होगी एक दिन
फिर दूसरी कठिनाई यह हुई कि दीये तो बहुते जले, लेकिन दीये के पीछे चलनेवाले लोग कभी इकट्ठे होकर न चल सके। हिंदू अलग, मुसलमान अलग, जैन अलग, ईसाई अलग! रोशनियों को प्रेम करने वाले लोग भी इकट्ठे न हो सके! अंधेरे में लोग लड़ते रहे, ठीक था, क्षमा के योग्य हैं; रोशनियों के नाम पर लोग लड़ने लगे, यह अक्षम्य है।
कदम बढ़ाके तुम चले, मगर यह इक कसर रही
कदम जरा मिले नहीं
अगर कदम मिले रहें, तो चाहे सुस्त-रौ भी हों
रसाई होगी एक दिन
और अगर कदम मिल कर चलें तो चाहे धीमे भी चलें, तो भी एक दिन पहुंचना निश्चित है। मंजिल दूर नहीं। सुबह करीब है।
आज इतना ही।
प्यारे भगवान! कल प्रथम बार मैंने शिविर में विपस्सना ध्यान किया। इतनी उड़ान अनुभव हुई! कृपया विपस्सना के बारे में और प्रकाश डालें।
ईश्वर समर्पण! विपस्सना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपस्सना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपस्सना अपूर्व है! विपस्सना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते थे: इहि पस्सिको, आओ और देखो! बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है।
बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है; मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधा-सरल प्रयोग है। अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है। श्वास से ही तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जुड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है, मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्यरूपेण, अपरिहार्य रूप से, शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का और कोई उपाय ही नहीं है। जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्यरूपेण छूट गए। शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शाश्वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में, न कोई गहराइयां हैं जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।
फिर, श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है, करुणा में दूसरे ढंग से। दौड़ते हो, एक ढंग से चलती है; आहिस्ता चलते हो, दूसरे ढंग से चलती है। चित्त ज्वरग्रस्त होता है, एक ढंग से चलती है; तनाव से भरा होता है, एक ढंग से चलती है; और चित्त शांत होता है, मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है।
श्वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलो, श्वास बदल जाती है़। श्वास को बदल लो, भाव बदल जाते हैं। जरा कोशिश करना। क्रोध आये, मगर श्वास को डोलने मत देना। श्वास को थिर रखना, शांत रखना। श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, करना भी चाहोगे तो क्रोध न कर पाओगे। क्रोध उठेगा भी तो भी गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए जरूरी है कि श्वास आंदोलित हो जाये। श्वास आंदोलित हो तो भीतर का केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं है, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित न हो। चेतना आंदोलित हो, तो ज़ुड गये।
फिर इससे उल्टा भी सच है: भावों को बदलो, श्वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखते नदी-तट पर। भाव शांत हैं। कोई तरंगें नहीं चित्त में। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ? श्वास बड़ी शांत हो गयी। श्वास में एक रस हो गया, एक स्वाद...छंद बंध गया! श्वास संगीतपूर्ण हो गयी।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले...खयाल रखना प्राणायाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है, विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांक्षा है। जैसी है--ऊबड़-खाबड़ है, अच्छी है, बुरी है, तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरी है, जैसी है!
बुद्ध कहते हैं, तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्टा तुम्हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। तुम्हारे हाथ छोटे हैं; तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तुम बदलो। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया है। बुद्ध ने तो कहा: तुम तो बैठ जाओ, श्वास तो चल ही रही है; जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्या करोगे? आई एक बड़ी तरंग तो देखोगे और नहीं आई तरंग तो देखोगे। राह पर निकली कारें, बसें, तो देखोगे; नहीं निकलीं, तो देखोगे। गाय-भैंस निकलीं, तो देखोगे। जो भी है, जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांक्षा आरोपित न करो। बस शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते-देखते ही श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।
और निर्चुनाव--बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्न ही न रहा। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आंख के सामने से, हमारा उससे कुछ लेना-देना नहीं है। तो उद्विग्न होने का कोई सवाल नहीं, आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे हैं, निष्पक्ष देख रहे हो। श्वास की तरंग धीमे-धीमे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो स्पर्श...नासापुटों में। श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले; अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण भर सब रुक गया...अनुभव करो उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े, अनुभव करो उस सिकुड़ने को। फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उत्तप्त श्वास नासापुटों से बाहर जाती। फिर क्षण-भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी।
यह पड़ाव है। श्वास का भीतर आना, क्षण-भर श्वास का भीतर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण-भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है--वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने की कोई भी बात नहीं, बस देखो। यही विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं, इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते ही, मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे, मगर गूंगे का गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान। पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुनगुनाओगे भीतर-भीतर, मीठा-मीठा स्वाद लोगे, नाचोगे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह न पाओगे।
ईश्वर समर्पण, ठीक ही हुआ। कहा तुमने: इतनी उड़ान अनुभव हुई! अब विपस्सना के सूत्र को पकड़ लो। अब इसी सूत्र के सहारे चल पड़ो। और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान पता भी न चले। बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कार में यात्रा करते, राह के किनारे, दुकान पर, बाजार में, घर में, बिस्तर पर लेटे...किसी को पता भी न चले! क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चार करना है, न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे...इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जाये उतने ही एक दिन तुम बुद्ध के इस अदभुत आमंत्रण को समझोगे: इहि पस्सिको! आओ और देख लो!
बुद्ध कहते हैं: ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते हैं; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते हैं: इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना, दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्तिदायी है। मान्यताएं हिंदू बना देती हैं, मुसलमान बना देती हैं, ईसाई बना देती हैं, जैन बना देती हैं, बौद्ध बना देती हैं; दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्ममय हो। और वही अनुभव पाना है। वही अनुभव पाने योग्य है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, शरीर ही स्वस्थ नहीं है तो शरीर के पार, फिर मन के पार कैसे जा सकूंगी? भगवान, मैं बहुत निराश हो गयी हूं, कुछ मार्गदर्शन करें।
समाधि! शरीर तो सदा ही अस्वस्थ है। शरीर तो कभी स्वस्थ हो ही नहीं सकता। इसीलिए तो ज्ञानियों ने शरीर को व्याधि कहा है। ऐसा नहीं है कि जो अस्पताल में भर्ती हैं उन्हीं के शरीर को व्याधि कहा है, शरीर-मात्र को व्याधि कहा है। व्याधि इसलिए कहा है कि शरीर तो जन्मा है और मरेगा।
तो शरीर तो जन्म के बाद मर ही रहा है। जन्म के बाद कुछ और तुमने किया क्या है सिवाय मरने के? जन्म के बाद मरना शुरू हो गया। एक दिन का बच्चा एक दिन मर चुका। एक श्वास जिस बच्चे ने ली है जमीन पर मां के गर्भ से निकलकर, उसकी उतनी मौत हो गयी, उतनी मौत चल चुका। जन्म के बाद तो मृत्यु ही होनी है।
और जिसकी मृत्यु होनी है, उसका कैसा स्वास्थ्य? स्वास्थ्य तो सिर्फ अमृत का होता है। स्वस्थ तो जो होता है वह अमृत को जान लेता है। शरीर तो मरणधर्मा है। मरण तो उसके रोएं-रोएं में छिपा पड़ा है, देर-अबेर की बात है। शरीर तो मरघट है।
इसलिए चिंता न करो। शरीर स्वस्थ है कि अस्वस्थ, इससे तुम्हारे ध्यान का कोई खास संबंध नहीं। क्या समाधि, तू सोचती है जिनके शरीर स्वस्थ हैं, वे ध्यान को उपलब्ध हो रहे हैं? हालतें तो अक्सर उल्टी हैं। जिनके शरीर स्वस्थ हैं वे तो ध्यान की शायद सोचेंगे भी नहीं। वे कहेंगे: देखेंगे बुढ़ापे में, अभी क्या जल्दी पड़ी है? अभी तो चार दिन की जिंदगी मिली है; लूट लो, खा लो, मजा कर लो, मौज कर लो। आयेगी मौत, तब देखेंगे; जिनकी आती होगी, वे करें ध्यान। अभी तो हम मजबूत हैं, अभी तो हम जवान हैं।
शरीर के स्वस्थ होने से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। लेकिन शरीर स्वस्थ कभी होता ही नहीं। स्वस्थ से स्वस्थ शरीर भी बस स्वस्थ दिखायी पड़ता है। क्षण-भर में सब टूट जाये, क्षण-भर में सब बिखर जाये। शरीर का स्वास्थ्य तो ऐसा ही है जैसे पानी की थिरता; जरा हवा का झोंका आयेगा, सब अथिर हो जायेगा। लेकिन इससे कुछ बाधा नहीं पड़ती।
सच तो यह है, यदि मृत्यु न होती तो कोई ध्यान करता ही न। बुद्ध को भी मृत्यु को देखकर ही स्मरण आया था कि मैं जीवन कब तक गंवाऊंगा? उसे खोज लूं, जल्दी खोज लूं, जिसकी कोई मृत्यु न होती हो। राह के किनारे देखकर आदमी की लाश को ले जाते, बुद्ध ने अपने सारथी को पूछा था: इसे क्या हो गया? सारथी ने कहा था: यह आदमी मर गया। बुद्ध ने पूछा: क्या मैं भी मर जाऊंगा इसी तरह? सारथी ने कहा? कैसे कहूं, किन शब्दों में कहूं? आप ऐसा प्रश्न उठाते हैं कि मुझे अड़चन में डालते हैं। लेकिन झूठ भी नहीं कह सकता हूं। अभी आप सुंदर हैं, युवा हैं, स्वस्थ हैं, लेकिन मौत तो होगी; मौत सबकी होती है। मौत अपरिहार्य है। उससे कभी कोई बचा नहीं है।
बुद्ध जाते थे महोत्सव में भाग लेने। उन्होंने सारथी को कहा: रथ वापिस लौटा लो। अब महोत्सव में जाने का समय नहीं। सारथी ने कहा: क्या कहते हैं आप! प्रतीक्षा करते होंगे महोत्सव में लोग। आपके ही हाथ उदघाटन होना है।
बुद्ध ने कहा: हो चुका उदघाटन। अब मुझे महोत्सव में कोई रस नहीं। मेरे सामने अब एक प्रश्न खड़ा हो गया है कि अगर मौत होनी है तो मौत के पहले मुझे उसे जान लेना जरूरी है, जो अमृत हो। और जब तक अमृत को न जाना तब तक अब चैन नहीं।
उसी रात बुद्ध ने घर छोड़ दिया। उसी रात यात्रा पर निकल गये।
मृत्यु है, इसलिए तो ध्यान की खोज शुरू होती है।
देह अस्वस्थ है, इसे दुर्भाग्य न समझो; इसे सौभाग्य में बदल लो। फिर देह का अस्वस्थ होना बाधा नहीं बनेगा। अभी मैंने विपस्सना की बात कही। देह स्वस्थ हो कि अस्वस्थ, जवान हो कि वृद्ध, सुंदर हो कि कुरूप, स्त्री की हो कि पुरुष की, कोई भेद नहीं पड़ेगा। श्वास तो चल ही रही है न? समाधि, तू इतनी अस्वस्थ तो नहीं कि श्वास न चलती हो? इतनी अस्वस्थ होती तो प्रश्न ही कौन पूछता? तो जा ही चुकी होती! श्वास तो चल ही रही है न, बस इतना ही तो चाहिए, और कुछ चाहिए भी नहीं। इसी श्वास के प्रति जागो; बैठ कर जागो, खड़े होकर जागो, चलते हुए जागो, सोकर-लेटकर जागो--इस श्वास के प्रति जागो। यह तो बीमार से बीमार आदमी भी कर सकता है। यह तो जो अस्पताल में भरती होते हैं उनको भी मैं कहता हूं यही करो!
और सच तो यह है कि दिन-भर की घर की आपाधापी में समय भी नहीं मिलता। कभी अस्पताल में सौभाग्य से कोई महीने-पंद्रह दिन रह जाता है तो ध्यान का समय मिल जाता है। वहां कुछ और करने को भी नहीं। बिस्तर पर लेटे-लेटे और करोगे क्या? श्वास तो देख ही सकते हो न! आती श्वास, जाती श्वास। श्वास पर ध्यान तो आरोपित कर ही सकते हो न। बस उतने से ही हो जायेगा।
तू इसकी चिंता मत कर कि शरीर स्वस्थ नहीं है। न रहने दे शरीर को स्वस्थ, इसी अस्वास्थ्य को वरदान बना लेंगे। यही अभिशाप परम वरदान बन जायेगा। तू विपस्सना में लग।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, विरह क्या है?
पूछते हो तो समझ न पाओगे; समझते तो पूछते नहीं। समझ सकते, तो भी पूछते नहीं। क्योंकि विरह कोई सिद्धांत तो नहीं है, दर्शनशास्त्र की कोई धारणा तो नहीं है--प्रीति की अनुभूति है।
जैसे किसी ने प्रेम नहीं किया और पूछे कि प्रेम क्या है? अब कैसे समझाएं उसे, कैसे जतलाएं उसे? ऐसे जैसे अंधे ने पूछा, प्रकाश क्या है? अब क्या है उपाय बतलाने का? और जो भी हम बताने चलेंगे, अंधे को और उलझन में डाल जायेगा। अंधा समझेगा तो नहीं, और चक्कर में, और बिबूचन में पड़ जायेगा।
विरह अनुभूति है; प्रेम किया हो तो जान सकते हो। और जिसने प्रेम किया है, वह विरह जान ही लेगा। प्रेम के दो पहलू हैं। पहली मुलाकात जिससे होती है वह विरह और दूसरी मुलाकात जिससे होती है वह मिलन। प्रेम के दो अंग हैं--विरह और मिलन। विरह में पकता है भक्त और मिलन में परीक्षा पूरी हो गयी, पुरस्कार मिला। विरह तैयारी है, मिलन उपलब्धि है। आंसुओं से रास्ते को पाटना पड़ता है मंदिर के, तभी कोई मंदिर के देवता तक पहुंचता है। रो-रो कर काटनी पड़ती है यह लंबी रात, तभी सुबह होती है। और जितनी ही आंखें रोती हैं, उतनी ही ताजी सुबह होती है! और जितने ही आंसू बहे होते हैं, उतने ही सुंदर सूरज का जन्म होता है।
तुम्हारे विरह पर निर्भर है कि तुम्हारा मिलन कितना प्रीतिकर होगा, कितना गहन होगा, कितना गंभीर होगा। सस्ते में जो हो जाये, वह बात भी सस्ती ही रहती है। इसलिए परमात्मा मुफ्त में नहीं मिलता, रो-रो कर मिलना होता है। और आंसू भी साधारण आंसू नहीं, हृदय ही जैसे पिघल-पिघल कर आंसुओं से बहता है! जैसे रक्त आंसू बन जाता है। जैसे प्राण ही आंसू बन जाते हैं।
विरह है अवस्था पुकार की, कि लगता तो है कि तुम हो, मगर दिखाई नहीं पड़ते। लगता तो है कि तुम जरूर ही हो, क्योंकि तुम्हारे बिना कैसे यह विराट होगा? कैसे चलेंगे ये चांद-तारे? कैसे वृक्षों में बाढ़ होगी? कैसे वृक्षों में हरे पत्ते ऊगेंगे? कैसे फूल खिलेंगे? कैसे पक्षी गीत गायेंगे? कैसे जीवन का यह रहस्य जन्मेगा? तुम हो तो जरूर; छिपे हो, अवगुंठन में हो, किसी आवरण में हो।
विरह का अर्थ है: हम तुम्हारा घूंघट उठाएंगे, तलाशेंगे, कितनी ही हो कठिन यात्रा और कितनी ही दुर्गम, हम सब दांव पर लगायेंगे; मगर घूंघट उठायेंगे। हम तुम्हें जानकर रहेंगे, क्योंकि तुम्हें न जाना तो कुछ भी न जाना। अपने मालिक को न जाना, तो कुछ भी न जाना। जिससे आये उसे न जाना, तो कुछ भी न जाना। स्रोत को न जाना तो गंतव्य को कैसे जानेंगे? इसलिए तुमसे पहचान करनी ही होगी। तुम जो अदृश्य हो तुम्हें दृश्य बनाना ही होगा। तुम जो दूर हो, स्पर्श के पार, तुमसे आलिंगन करना ही होगा।
अदृश्य से आलिंगन की आकांक्षा विरह है। अदृश्य को आंखों में भर लेने की आकांक्षा विरह है। जो पकड़ में नहीं आता उसे पकड़ लेने की अदम्य आकांक्षा विरह है। और स्वभावतः बात आसान नहीं, बात अति दुर्गम है। खूब कसौटी होगी, बड़ी अग्नि-परीक्षा होगी। बहुत रोओगे, बहुत तड़फोगे। तुम्हारी तड़फ ही तुम्हारी परीक्षा होगी। विरह में गलोगे, जलोगे, मिटोगे। और जिस दिन राख-राख हो जाओगे, उस दिन उसी राख से मिलन का प्रारंभ होता है।
रेणु जलते ढांपने को
तुहिन से अवदात शीतल,
सखि, दुखों के पांवड़े तू
आज उनके पथ बिछा ले;
वेदना के गीत गा ले।
अग्नि झंझा-सी लगेगी
प्राण से उठती तुम्हारी
बाड़वी प्यासी लपट की
राह, सांसों से छिपा ले;
वेदना के गीत गा ले।
राग तारों के निकलती
मूर्छना ओ’ मींड़ तेरी;
बीन से उठती कसक यह,
आज हाथों से दबा ले;
वेदना के गीत गा ले।
कल्प के अंतिम निमिष तकयदि तुम्हारे ‘वे’ न आवें,साध की अंगारिका सेचेतना की सुधि जला ले;वेदना के गीत गा ले।
जलना होगा। विरह जलन है। विरह उत्तप्त, विदग्ध प्रीति की दशा है, पुकार है, प्रार्थना है।
नहीं, तुम्हें मैं न समझा सकूंगा कि विरह क्या है? तुम्हें प्रेम में पड़ना होगा। यह तो स्वाद है, लोगे तो जानोगे। इहि पस्सिको! आओ और जानो।
यहां हम प्रभु के प्रेमियों और दीवानों को ही तो पैदा कर रहे हैं। दूर-दूर से खड़े होकर जानने की कोशिश न करो। तमाशबीन न बनो। भागीदार बनो। यह जो महफिल बैठी है दीवानों की, इसके हिस्सेदार बनो। नाचो, ध्यान करो, गाओ। डोलो मस्ती में।
शुरू-शुरू पागलपन लगेगा, जल्दी ही और शेष सब पागलपन लगने लगेगा उसको छोड़कर। शुरू-शुरू लगेगा, यह तुम्हें क्या होने लगा! पहली दफा जब कोई शराब पीता है तो पैर बहुत डांवाडोल होते हैं। फिर धीरे-धीरे बात जम जाती है। फिर असली शराबी का तो तुम्हें पता ही न चलेगा कि उसने शराब पी रखी है।
मैंने तो सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक रात घर आया, बड़ा झगड़ा मचा। विवाह हुए भी बीस वर्ष हो चुके हैं। और पत्नी बहुत शोरगुल करने लगी। भीड़ इकट्ठी हो गयी। लोगों ने पूछा, बात क्या है? पत्नी ने कहा कि ये अब तक शराब पीते रहे। पर लोगों ने कहा, बीस साल हो गये, अब झगड़ा! पत्नी ने कहा, आज तक पता ही न चला, क्योंकि ये रोज पी कर आते रहे, आज बिना पीये आ गये हैं।
ढंग से कोई पीनेवाला होगा, रोज पीता होगा, तो पता ही न चलेगा; न पीयेगा तो पता चल जायेगा। शुरू-शुरू पीयोगे तो लड़खड़ाओगे भी, डगमगाओगे भी। भयभीत न होना, ऐसे ही डगमगाते-डगमगाते पैर ठीक पड़ने लगते हैं।
चमकते हीरे लगाये
डाल तम का सजल गुंठन,
मैं गगन में बिलखती
काली क्षपा की पीर-सी हूं।
श्याम अंजन कूट वाली
अंध मारुत बंदिनी-सी
अनुतर्षिका अनुरागवाली
मैं क्षितिज दृग नीर-सी हूं।
चिर व्यथा भर लोचनों में
नील यमुना के किनारे,
मलय से आवेग में
झुक झूमते वानीर-सी हूं।
नील अंबर में संजोये
पीत हिमकर को छिपाती,
मैं अमा के प्रात की
उन्मत्त श्वास अधीर-सी हूं।
बनो एक अधीर श्वास! मैं अमा के प्रात की उन्मत्त श्वास अधीर-सी हूं! पूछते हो: विरह क्या है? यह कुछ गणित तो नहीं कि समझा दिया जाये, जैसे दो और दो चार होते हैं। यह तो एक प्रीति की अनुभूति है। और प्रेम के बिना विरह नहीं जाना जा सकता। प्रेम की छाया है विरह।
तो पहले प्रेम में पड़ो। और आश्चर्य तो यही है कि लोग प्रेम में पड़े बिना कैसे बच जाते हैं! आश्चर्य यह नहीं है कि तुम पूछते हो कि विरह क्या है, आश्चर्य यह है कि तुम्हें अब तक प्रेम का पता नहीं!
लेकिन एक उलझन हो गयी है, उस उलझन में ही तुम्हारी सारी व्यथा-कथा है। सदियों-सदियों से तुम्हें समझाया गया है कि परमात्मा को प्रेम करना है तो आदमी को प्रेम करना छोड़ना पड़ेगा। आदमी को प्रेम करना छोड़ दो तो मैं तुमसे कहता हूं, तुम परमात्मा को कभी प्रेम कर ही न पाओगे। आदमी तो सीढ़ी है; सीढ़ी ही तोड़ दी...!
मैं तुमसे कहता हूं: आदमी को प्रेम करो। वहीं तुम प्रेम का पहला पाठ सीखोगे। और वही पाठ तुम्हें इतना मदमस्त कर देगा कि तुम जल्दी ही पूछने लगोगे: और बड़ा प्रेमपात्र कहां खोजूं? मनुष्य से प्रेम करने से ही तुम्हें अनुभव होगा कि मनुष्य छोटा पात्र है; प्रेम को जगा तो देता है, लेकिन तृप्त नहीं कर पाता। प्रेम को उकसा तो देता है, लेकिन संतुष्ट नहीं कर पाता। प्रेम की पुकार तो पैदा कर देता है; खोज शुरू हो जाती है। लेकिन पुकार इतनी बड़ी है और आदमी इतना छोटा कि फिर पुकार पूरी नहीं हो पाती। फिर वही बड़ी पुकार, जो आदमी तृप्त नहीं कर सकता, परमात्मा की तलाश में निकलती है।
आदमी तो छिछला-छिछला पानी है। तैरना सीख लो वहां, फिर बड़े सागर हैं! मगर छिछले पानी से ही बचते रहे, तो बड़े सागरों में कब तैरोगे, कब तिरोगे; कैसे तैरोगे, कैसे तिरोगे?
मुल्ला नसरुद्दीन जाता था नदी पर तैरना सीखने। पहले ही दिन, पुराना घाट, जमी हुई काई पत्थर पर। डरा-डरा गया था। उस्ताद सिखाने जो ले गये थे, वे तो अपना कपड़ा ही उतार रहे थे कि मुल्ला का पैर फिसल गया काई पर। चारों खाने चित्त गिर पड़ा। उठा और एकदम घर की तरफ भागा। उस्ताद ने पूछा कि नसरुद्दीन कहां जाते हो, तैरना नहीं सीखना?
नसरुद्दीन ने कहा: अब जब तैरना सीख लूंगा, तभी नदी के पास आऊंगा। यह तो खतरनाक मामला है। यह तो भगवान की कृपा कहो कि घाट पर ही फिसला पैर, और पत्थर पर ही गिरा। चोट तो खायी है खूब, ठीक है दो-चार दिन में सब ठीक हो जायेगी; अगर पानी में पड़ गया होता तो आज जान गंवा दी होती! और उस्ताद! तुम तो कपड़े ही उतार रहे थे, तुम्हें तो पता ही न चलता। आऊंगा, एक दिन जरूर आऊंगा; लेकिन अब जब तैरना सीख लूंगा तभी आऊंगा।
मगर तैरना कहां सीखोगे? बैठकखाने में गद्दी इत्यादि बिछा के तैरना सीखोगे! ऐसे कहीं तैरना सीखा जाता है? लेकिन तर्क तो ठीक है नसरुद्दीन का कि बिना तैरे नदी मत जाना। तर्क तो बिलकुल ठीक है, सौ प्रतिशत ठीक है। रत्तीभर भूल तुम तर्क में न निकाल सकोगे, कि तैरना सीख लो तो ही नदी जाना, नहीं तो खतरा है। तर्क तो ठीक है मगर जीवन विपरीत है। नदी न जाओगे; तो तैरना सीखोगे कैसे? जोखिम तो लेनी ही होगी। हां, जरूरी नहीं है कि तुम बड़े सागरों में सीखने जाओ; नदी पर सीख लो, तट पर सीखो, उथले-उथले सीख लो। फिर जब सीखना आ जाये तो फिर सारे सागर तुम्हारे हैं।
ऐसा ही मैं तुमसे कहता हूं: पत्नी को प्रेम किया है, यह परमात्मा के विपरीत नहीं। बच्चे को प्रेम किया है, यह परमात्मा के विपरीत नहीं। मित्र को चाहा है, यह परमात्मा के विपरीत नहीं। यह नदी की उथली- उथली धार है; यहां सीख लो। यह सब परमात्मा के पक्ष में है। ये परमात्मा के पहले पाठ हैं। और इनसे तृप्ति नहीं मिलेगी, इसलिए आश्वस्त रहो। ये अतृप्त करेंगे, यही तो मजा है इनका। यही इनका राज है।
किस मनुष्य को मनुष्य से तृप्ति मिली है, कब मिली है? इतिहास में कोई उल्लेख नहीं। इससे कुछ सीखो। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य के साथ प्रेम में अतृप्ति सघन होती है। प्यास तो जग जाती है, जल नहीं मिलता। फिर जल की तलाश शुरू होती है। वही तलाश विरह है। फिर तुम परमात्मा को खोजने निकलते हो। तुम कहते हो: इतने प्रेम की आकांक्षा दी है, तो कहीं सरोवर भी होगा जो इस आकांक्षा को तृप्त करता होगा।
ज्ञानियों ने कहा है: इसके पहले कि वह तुम्हें जीवन देता, वह तुम्हारे जीवन की तृप्ति के आयोजन कर देता है। देखते नहीं हो, मां के पेट से एक बच्चे का जन्म होता! बच्चे का जन्म होते-होते या होने के पहले ही मां के स्तन दूध से भर जाते हैं। अभी बच्चा आया नहीं, लेकिन भोजन का आयोजन तैयार हो गया। चिड़िया घोंसला बनाने लगती है, अभी अंडे रखे नहीं हैं; लेकिन कोई अचेतन हाथ चिड़िया को घोंसला बनाने में संलग्न कर देता है। उसके पास कुछ गणित भी नहीं है, कोई हिसाब-किताब भी नहीं है कि कब बनाये घोंसला। लेकिन कुछ अचेतन ऊर्जा, कोई सहज प्रतीति गहन में, उसे घोंसला बनाने में रत कर देती है। देखते हो, दीवाने की तरह भागी-भागी लाती है घास-पात, फूल-पत्ते, बना लेती है घोंसले को। इसके पहले कि अंडे रखने का क्षण आये, घोंसला तैयार हो जाता है।
इस जगत को अगर तुम गौर से देखोगे, तो यहां भूख के पहले भोजन है, प्यास के पहले जल है। इसका ही नाम श्रद्धा है। इसको देख लेने का नाम श्रद्धा है। तो अगर तुम्हारे भीतर परमात्मा को पाने की आकांक्षा उठे, तो मान ही लेना, जान ही लेना कि परमात्मा भी होगा। नहीं तो प्यास उठ नहीं सकती थी। फिर प्यास तड़फायेगी बहुत; जब तक मिलन न हो जायेगा तब तक रुलायेगी बहुत। उस अदभुत रुदन की यात्रा का नाम विरह है। विरह दुख नहीं है; या अगर कहना चाहो ठीक से तो बड़ा मधुर दुख है, बड़ा मीठा दुख है। सौभाग्यशालियों को ही उपलब्ध होता है। अभागे तो उससे वंचित रह जाते हैं।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं बड़ी उलझन में हूं। तीस अक्टूबर को मेरी प्यारी छोटी बहन ज्योति का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख और परेशानी महसूस कर रहा हूं। ध्यान तथा प्रवचन सुनने से थोड़ी-सी शांति की अनुभूति होती है, परंतु इतने सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम-रोम में उसकी याद सताती है। ऐसे संयोग में मुझे क्या करना चाहिए? भगवान, आप कृपया कुछ मार्गदर्शन देने की अनुकंपा करें।
कबीर! जाना है और सबको जाना है। हम सब पंक्तिबद्ध जाने को तैयार खड़े हैं--कब किसका बुलावा आ जाये! बहन गयी तुम्हारी, चोट लगी तुम पर। चोट इसीलिए लगी कि तुमने यह मानकर जिंदगी चलायी थी कि बहन कभी जायेगी नहीं। बहन के जाने से चोट नहीं लगी, तुम्हारी मान्यता भ्रांत थी; मान्यता के टूटने से चोट लगी। काश, तुमने जाना ही होता कि सब को जाना है, तो चोट न लगती! तुमने झूठी मान्यता बना रखी थी कि बहन कभी न जायेगी। किसी अचेतन में चुपचाप तुम इस भाव को पालते-पोसते रहे थे कि बहन कभी न जायेगी। इतनी प्यारी बहन कहीं जाती है!
लेकिन सबको जाना है। अब तुम सोचते हो कि बहन के जाने के कारण तुम विक्षुब्ध हो, तो फिर गलत सोच रहे हो। धारणा टूट गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। तुम्हारी मान्यता उखड़ गयी, इसलिए विक्षुब्ध हो। यह बहन का जाना तुम्हारे सारे तारतम्य को तोड़ गया, इसलिए विक्षुब्ध हो। अब भी सोचो, अब भी जागो। तुम्हें भी जाना है। पिता भी जायेंगे, मां भी जायेगी, भाई भी जायेंगे, मित्र भी जायेंगे; सभी को जाना है। बहन तो जैसे राह दिखा गयी। धन्यवाद मानो उसका, अनुग्रह स्वीकार करो कि अच्छा किया कि तू गयी और हमें चेता गयी। तो जाने की तैयारी हम करें।
दुनिया में दो तरह की शिक्षाएं होनी चाहिए, अभी एक ही तरह की शिक्षा है। और इसलिए दुनिया में बड़ा अधूरापन है। बच्चों को हम स्कूल भेजते हैं, कालेज भेजते हैं, युनिवर्सिटी भेजते हैं, मगर एक ही तरह की शिक्षा है वहां--कैसे जीयो? कैसे आजीविका अर्जन करो? कैसे धन कमाओ! कैसे पद-प्रतिष्ठा पाओ। जीवन के आयोजन सिखाते हैं। जीवन की कुशलता सिखाते हैं। दूसरी इससे भी महत्वपूर्ण शिक्षा है और वह है--कैसे मरो? कैसे मृत्यु के साथ आलिंगन करो? कैसे मृत्यु में प्रवेश करो? वह शिक्षा पृथ्वी से बिलकुल खो गयी है। ऐसा अतीत में नहीं था। अतीत में दोनों शिक्षाएं उपलब्ध थीं।
इसलिए जीवन को हमने चार हिस्सों में बांटा था। पच्चीस वर्ष तक विद्यार्थी का जीवन, ब्रह्मचर्य का जीवन। गुरु के पास बैठना। जीवन को कैसे जीना है, इसकी तैयारी करनी है। जीवन की शैली सीखनी है। फिर पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ का जीवन: जो गुरु के चरणों में बैठकर सीखा है उसका प्रयोग, उसका व्यावहारिक प्रयोग। फिर जब तुम पचास वर्ष के होने लगो तो तुम्हारे बच्चे पच्चीस वर्ष के करीब होने लगेंगे। उनके गुरु के गृह से लौटने के दिन करीब आने लगेंगे। अब बच्चे घर लौटेंगे गुरु-गृह से। अब उनके दिन आ गये कि वे जीवन को जीयें। और जब बच्चे घर आ गये, फिर भी पिता और बच्चे पैदा करता चला जाये, तो यह अशोभन समझा जाता था; यह अशोभन है। अब बच्चे बच्चे पैदा करेंगे। अब तुम इन खिलौनों से ऊपर उठो।
तो पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ। वानप्रस्थ का अर्थ बड़ा प्यारा है; जंगल की तरफ मुंह--इसका अर्थ होता है। अभी जंगल गये नहीं; अभी घर छोड़ा नहीं; लेकिन घर की तरफ पीठ और जंगल की तरफ मुंह--यह वानप्रस्थ का अर्थ होता है। चले-चले, तैयार...जैसे कभी तुम यात्रा पर जाते हो, बिस्तर-बोरिया सब बांध कर बस बैठे हो कि कब आ जाये बस, कि कब आ जाये गाड़ी--यह वानप्रस्थ। पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ, ताकि अगर तुम्हारे बेटों को तुम्हारी कुछ सलाह की जरूरत हो तो पूछ लें। अपनी तरफ से सलाह मत देना। वानप्रस्थी स्वयं सलाह नहीं देता, लेकिन बेटे अभी नये-नये गुरुकुल से लौटे हैं, अभी उन्हें बहुत-सी व्यावहारिक बातें पूछनी होंगी, तांछनी होंगी। तुम्हारा मार्गदर्शन शायद जरूरी हो। तो अब पीठ कर के घर की तरफ रुके रहना कि ठीक है, कुछ पूछना हो तो पूछ-पांछ लो।
फिर पचहत्तर वर्ष के तुम जब हो जाओगे, तो सब छोड़ कर जंगल चले जाना। वे शेष अंतिम पच्चीस वर्ष मृत्यु की तैयारी थे। उसी का नाम संन्यास था। पच्चीस वर्ष जीवन के प्रारंभ में, जीवन की तैयारी; और जीवन के अंत में पच्चीस वर्ष, मृत्यु की तैयारी।
आज दुनिया से मृत्यु की तैयारी खो गयी है। लोग मृत्यु की बात ही नहीं करना चाहते। मृत्यु की बात से ही मन तिलमिला जाता है, मन डरने लगता है। रास्ते पर निकलती अर्थी देखकर तुम बेचैन नहीं हो गये हो? वह बेचैनी इस बात की खबर है कि तुम्हें याद आ रही है, कि आज नहीं कल मेरी अर्थी भी उठेगी! यही लोग जो दूसरे को लिये जा रहे हैं, कल मुझे भी मरघट पहुंचा आयेंगे। आज कोई और चढ़ा है चिता पर, कल मैं भी चढूंगा। ऐसा अगर तुम्हें दिखाई पड़ जाये, तो क्रांति हो जाये! मगर हम बड़े चालबाज हैं। हम इसको छिपा लेते हैं। हम धुआं खड़ा कर लेते हैं। अब कबीर, तुम धुआं खड़ा कर रहे हो।
तुम कहते हो: ज्योति, मेरी बहन का देहांत हो गया। मैं बहुत दुख में हूं, बहुत परेशानी में हूं। सालों से प्रेम एवं ममत्व होने के कारण रोम-रोम में याद सताती है।
तुम झुठला रहे हो। तुम अपनी सारी बात को ज्योति पर आरोपित कर रहे हो कि न तू गयी होती, न मैं दुखी होता। तू क्या चली गयी, मुझे दुख में छोड़ गयी। तुम यह बात भुलाने की कोशिश कर रहे हो कि दुख ज्योति के जाने का नहीं है, दुख इस बात का है कि जाना पड़ेगा। दुख इस बात का है कि यह ज्योति सजग कर गयी तुम्हें कि मौत आती है; मेरी आ गयी, तुम्हारी भी आती होगी। देखो, मेरी आ गयी--और मैं तो तुमसे कम उम्र की थी!
अब तुम इसको झुठलाओ मत।
तुम कहते हो कि प्रवचन सुनता हूं, ध्यान करता हूं, थोड़ी शांति अनुभव होती है।
वह शांति नहीं है, सांत्वना है। प्रवचन सुनने में भूल जाते होओगे, याद न रह जाती होगी। यह शांति नहीं है, यह तो विस्मरण है। यह तो वैसे ही है जैसे कोई सिनेमा में जाकर बैठ गया, तो दो घड़ी के लिए उलझ गया सिनेमा की कहानी में, तो अपनी कहानी भूल गयी; कि पढ़ने लगा कोई उपन्यास, जासूसी, सनसनीखेज, कि लग गया चित्त उसमें, तो अपनी चिंता भूल गयी; कि पी ली शराब, कि डूब गये थोड़ी मूर्च्छा में, कि भूल गयी अपनी आपाधापी। मगर कितनी देर? फिर लौट आओगे। आना ही पड़ेगा।
नहीं, इस तरह सांत्वना देने से कुछ भी न होगा। जागो! जागने से शांति मिलेगी। स्वीकार करो कि मौत है। और स्वीकार करो कि सब संयोग यहां नदी-नाव संयोग हैं; अभी हैं, अभी बिछड़ जायेंगे। कितनी देर हमारा साथ है, कुछ भी कहा नहीं जा सकता। दूसरे ही क्षण रास्ते अलग हो जायेंगे।
तुम इस ज्योति के साथ, तुम्हारी बहन के साथ कितने दिन से थे? तुम्हारे पहले भी तुम्हारी बहन रही होगी, तुम भी रहे होओगे; जन्मों-जन्मों में कभी मिलना न हुआ था! अनंत जन्मों की कथा है! फिर थोड़ी देर राह पर साथ हो लिए दो राहगीर। तुम किसी और राह से आये, मैं किसी और राह से आया, घड़ी-भर को साथ हो लिया--संयोगवश। फिर मेरी राह अलग हो गयी, तुम्हारी राह अलग हो गयी; न तो कभी पहले साथ थी, न शायद अब दुबारा कभी मिलना हो। मगर ये थोड़े-से क्षण जो राह पर साथ-साथ गुजरे हैं, इनको इतना मूल्य मत दो। इनका कोई भी मूल्य नहीं है। स्मरण रखो--नदी-नाव संयोग! स्मरण रखो, जैसे वृक्ष पर एक ही रात बहुत-से पक्षियों ने बसेरा ले लिया; सुबह हुई, उड़ गये! स्मरण रखो कि रात सराय में रुके, सुबह हुई, विदा हो गये! रात थे साथ, तो परिचय भी बनाये, अपरिचितों के साथ बैठकर ताश भी खेले, शतरंज भी फैलाई, गपशप भी की; सुबह हुई, नमस्कार किया और विदा हो गये। बस, इससे ज्यादा मूल्य इस जीवन के संबंधों का नहीं है।
लेकिन चोट लगती है। चोट लगती है गलत धारणाओं के कारण। चोट लगती है हमारे अहंकार को कि मैं कुछ भी न कर सका, कि मेरी बहन मर गयी और मैं बचा न सका! तो मेरा बल क्या, तो मेरी सामर्थ्य क्या, तो मैं कौन हूं? तुम तिलमिला गये हो।
चाहता हूं, पुष्प यह
गुलदान का मेरे
न मुर्झाये कभी,
देता रहे
सौरभ सदा
अक्षुण्ण इसका
रूप हो!
पर यह कहां संभव,
कि जो है आज,
वह कल को कहां?
उत्पत्ति यदि,
अवसान निश्चित!
आदि है
तो अंत भी है!
यह विवशता!
जो हमारा हो,
उसे हम रख न पायें!
सामने अवसान हो
प्रिय वस्तु का,
हम विवश दर्शक
रहे आयें!
नियम शाश्वत
आदि के,
अवसान के,
अपवाद निश्चय ही
असंभव--
शूल-सा यह ज्ञान
चुभता मर्म में,
मन विकल होता!
प्राप्तियां, उपलब्धियां क्या
दीन मानव की,
कि जो
अवसान-क्रम से,
आदि-क्रम से
हार जाता
काल के
रथ को
न पल भर
रोक पाता!
क्या अहं मेरा
कि जिसकी तुष्टि
मैं ही कर न पाता!
अड़चन वहां है, कठिनाई वहां है; तुम्हारी ही नहीं कबीर, सभी की, प्रत्येक की।
प्राप्तियां, उपलब्धियां क्या
दीन मानव की,
कि जो
अवसान-क्रम से,
आदि-क्रम से,
हार जाता,
काल के
रथ को
न पल भर
रोक पाता!
इतने हम असहाय, इतने हम निर्बल! मगर हमारी अकड़ है गहरी! जब तक सब ठीक चलता है, तब तक तो अकड़ बनी रहती है; जब चीजें बिखरती हैं तो अड़चन आती है। इसको तुम सौभाग्य बनाओ। यह जो घड़ी घटी, इसे रो-रो कर भुलाने की चेष्टा न करो। समय घाव भर देता है; इसके पहले कि घाव भर जाये--जागो। अभी घाव हरा है, इस हरे घाव का लाभ ले लो। समझो कि जो हुआ, वही होना है, देर-अबेर की बात है।
एक सुबह बुद्ध एक गांव में आये। उस गांव में एक विधवा स्त्री का इकलौता बेटा मर गया। वही उसका सहारा था, वही उसकी आंख का तारा! वही सब कुछ था। पति तो चल बसा था, इसी बेटे के सहारे जी रही थी। उसकी पीड़ा तुम समझो, पागल हो गयी। बेटे की लाश को लेकर गांव में घूमने लगी--वैद्यों के, चिकित्सकों के द्वार-द्वार, तांत्रिकों-मांत्रिकों के द्वार-द्वार...। मगर कौन जगाये उसे; सब तंत्र, सब मंत्र, सब ज्योतिष, सब वैद्य, सब चिकित्सक मृत्यु के सामने असहाय हैं। किसी ने कहा: पागल औरत, अब इस लाश को ढोने-रखने से कुछ भी लाभ नहीं है। अब तू व्यर्थ ही दीवानी हो रही है! जो हुआ हुआ, मृत्यु तो हो गयी। अब तो कोई चमत्कार ही हो तो यह बच सकता है।
उस स्त्री को तो जैसे डूबते को तिनके का सहारा...उसने कहा: चमत्कार! क्या कोई चमत्कार हो सकता है? उस आदमी ने यह सोचकर कहा भी न था। उसने तो यूं ही बात में ही बात कह दी थी, बात में बात निकल गई थी--कह दिया था कि कोई चमत्कार हो, तो ही बच सकता है। चमत्कार कहीं होते हैं! मगर स्त्री पीछे पड़ गयी उसके कि चमत्कार हो सकता है, तो बोलो कहां, कैसे?
पिंड छुड़ाने को उसने कहा: गांव में गौतम बुद्ध का आगमन हुआ है, तू उनके पास जा। वे तो भगवान हैं। वे तो परम ज्ञान को उपलब्ध हैं। उनके चरणों में ही रख दे इस लाश को। अगर चमत्कार हो सकता है तो वहीं हो सकता है, और कहीं भी नहीं।
भागी स्त्री, जाकर लाश को बुद्ध के चरणों में रख दिया। और मालूम है, बुद्ध ने क्या कहा? बुद्ध ने कहा: ठीक, तो तू चाहती है कि तेरा बेटा वापिस जिंदा हो जाये?
उसने कहा: बस यही चाहती हूं, और कुछ भी नहीं चाहती। इतना ही कर दो। अनुकंपा करो, मुझ दीन पर दया करो।
बुद्ध ने कहा: होगा, जरूर होगा, लेकिन कुछ शर्तें पूरी करनी होंगी। तू जा गांव में और किसी भी घर से मेथी के थोड़े-से दाने मांग ला। वह गांव तो मेथी की ही खेती करता था। उस स्त्री ने कहा: यह भी कोई शर्त हुई? सारा गांव मेथी ही मेथी से भरा है। यही तो हमारी खेती है। अभी ले आती हूं।
बुद्ध ने कहा: लेकिन खयाल रख, उसके पीछे एक शर्त और है--मेथी उस घर से लाना जिसके घर में कभी कोई मृत्यु न घटी हो, तो चमत्कार हो जायेगा। बस मेथी के चार दाने काम कर जायेंगे।
वह भागी स्त्री...पागलपन में आदमी तो कुछ भी भरोसा कर लेता है। होश में न हो तो गणित बिठालने का समय भी कहां पाता है! और फिर मन जब मानना ही चाहता हो तो सब तर्कों के विपरीत मान लेता है। छोटी-सी बात थी, साफ हो गयी थी बात वहीं कि ऐसा कौन-सा घर होगा जहां मृत्यु न हुई हो! लेकिन कौन जाने! आशाएं हैं, बड़े सपनों में डूब जाती हैं। वह भागी, एक-एक द्वार खटखटाया। लोगों ने कहा कि जितनी मेथी चाहिए ले जा; बोरे के बोरे भरवा दें, गाड़ियों की गाड़ियां भरवा दें। मेथी ही मेथी है, गांव मेथी की ही खेती करता है। तेरे घर भी मेथी है, तू क्यों दूसरे घरों में मांगती फिरती है?
उसने कहा: लेकिन ऐसे घर की मेथी चाहिए जिसके घर कोई मरा न हो। सांझ होते-होते बात साफ हो गयी कि गांव में एक भी घर ऐसा नहीं है जहां कोई मरा न हो। और यह बात साफ होते-होते कुछ और भी साफ हो गया। जब वह लौटी सांझ, बुद्ध ने कहा: तू ले आयी मेथी के चार दाने? वह स्त्री हंसने लगी। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ी। उसने कहा: मुझे दीक्षा दो। इसके पहले कि मेरी मौत आये, मैं कुछ कर लूं। मैं जीवन का कुछ अर्थ जान लूं, मैं जीवन का अभिप्राय पहचान लूं। बेटा तो गया, मेरा जाना भी ज्यादा दूर नहीं है। और आपने ठीक ही किया कि मुझे भेज दिया गांव की यात्रा पर। एक-एक घर में पूछ कर मुझे पता चल गया कि मृत्यु तो सुनिश्चित है; सभी घर में हुई है; सभी घरों में होती रहेगी। हम मौत के द्वार पर ही खड़े हैं। तो मेरा बेटा आज गया, कल मैं जाऊंगी। इसके पहले कि मैं जाऊं...मेरा बेटा तो गया, बिना कुछ जाने गया, मैं बिना कुछ जाने नहीं जाना चाहती।
कबीर, यही मैं तुमसे कहता हूं। मौत तो होती ही है--किसी की आज, किसी की कल--आज बहन, कल भाई। हम सब विदा होने को हैं यहां। यह घर नहीं है, सराय है। रोने में समय मत गंवाओ। आंसू पोंछ डालो! क्योंकि आंसुओं से भरी आंखें देखने में समर्थ न हो सकेंगी। आंसू बिलकुल पोंछ डालो! यह देखने की घड़ी है।
मृत्यु से बड़ी महत्वपूर्ण कोई घड़ी नहीं है। और जब तुम्हारा कोई प्यारा मर जाये तब तो बड़ा बहुमूल्य अवसर है। क्योंकि प्यारे का अर्थ होता है जो तुम्हारे बहुत करीब था, हृदय के बहुत करीब था। प्यारे का अर्थ होता है जिसकी मृत्यु तुम्हें अपनी मृत्यु जैसी मालूम होती है। यही तो मौका है, यही तो ध्यान में प्रवेश का मौका है।
और मुझसे तुम सांत्वना न मांगो; मैं तुम्हें सत्य ही दे सकता हूं। और सत्य यह है कि कबीर, तुम्हें भी मरना होगा, मुझे भी मरना होगा, सभी को मरना होगा। मरने के पहले लेकिन एक उपाय है: काश! हम अपनी चेतना से थोड़ा परिचय बना लें! थोड़ा हमारे भीतर जो अमृत का दीया जल रहा है, उसका अनुभव हो जाये। फिर मृत्यु नहीं होती। फिर देह गिर जाती है और हम और लंबी यात्रा पर निकल जाते हैं। फिर केवल परिधान बदलते हैं। न हन्यते हन्यमाने शरीरे! फिर शरीर के मरने से वह जो भीतर छिपा है, वह नहीं मरता है!
और जिस दिन तुम अपने अमृत को देख पाओगे, उसी दिन तुम्हें सबके भीतर अमृत दिखायी पड़ जायेगा। न तुम्हारी बहन मरी है, न कोई कभी मर सकता है। अब तुमसे मैं ये दो विरोधाभासी वक्तव्य दे रहा हूं। एक--सभी मरते हैं। सभी को मरना पड़ेगा। जो देहग्रस्त हैं, मृत्यु के सिवाय वे कुछ भी अनुभव नहीं कर सकते। और दूसरा--कोई न कभी मरा है, और कोई न कभी मर सकता है। लेकिन यह तो उनका अनुभव है, जिन्होंने अमृत की पहचान की हो, जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार किया हो।
चाहता हूं,
पुष्प यह
गुलदान का मेरे
न मुर्झाये कभी,
देता रहे
सौरभ सदा,
अक्षुण्ण इसका
रूप हो!
पर यह कहां संभव,
कि जो है आज,
वह कल को कहां?
उत्पत्ति यदि,
अवसान निश्चित!
आदि है,
तो अंत भी है!
देह तो बस फूल है। देखते हो न, जब कोई मर जाता है और उसे हम जला आते हैं, फिर तीसरे दिन हम इकट्ठा करने जाते हैं, तो कहते हैं--फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं! क्यों कहते हैं फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं? बस, फूल जैसा ही सब है यहां क्षणभंगुर! प्यारा शब्द है फूल! क्षणभंगुरता का प्रतीक है फूल। हड्डियां इकट्ठी करने जाते हैं, कहते हैं--फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं!
मगर अब तुम कह रहे हो कि फूल इकट्ठे करने जा रहे हैं। काश, जिसकी हड्डियां हैं उसने ही जागकर देख लिया होता कि ये सब फूल हैं--अभी हैं, अभी कुम्हला जायेंगे; सुबह हैं, सांझ पंखुड़ियां झड़ जायेंगी। तो शायद कब्र न बनती, समाधि बनती। तो शायद मृत्यु तो होने ही वाली थी, लेकिन भीतर कोई अमृत को जानता हुआ विदा होता।
उस क्रांति की तलाश करो कबीर। मुझसे सांत्वना न खोजो, मैं सत्य ही दे सकता हूं।
यह विवशता!
जो हमारा हो,
उसे हम रख न पायें!
सामने अवसान हो
प्रिय वस्तु का,
हम विवश दर्शक
रहे आयें!
मैं तुम्हारी पीड़ा समझता हूं। अपनों को भी नहीं बचा पाते। अपने को ही नहीं बचा पायेंगे।
नियम शाश्वत
आदि के,
अवसान के,
अपवाद निश्चय ही
असंभव--
शूल-सा यह ज्ञान
चुभता मर्म में,
मन विकल होता!
मैं तुम्हारा दुख समझता, तुम्हारी पीड़ा समझता, तुम्हारे मन की विकलता समझता। लेकिन यह सब स्वाभाविक है। जागो! मृत्यु से, प्रियजन की मृत्यु के क्षण से जागने का और कोई शुभ अवसर नहीं है।
लेकिन हम जागते नहीं। हम नये-नये सपनों में खो जाते हैं।
एक मित्र कुछ दिन पहले आये। पत्नी उनकी चल बसी है। साधारण, गैर-पढ़े-लिखे व्यक्ति भी नहीं हैं; सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हैं। मगर जहां तक मनुष्य के आंतरिक अज्ञान का संबंध है, कुछ भेद नहीं होता। वह जो पत्थर तोड़ता है राह पर उसमें, और वह जो सुप्रीम कोर्ट में बैठकर निर्णय देता है उसमें, कुछ भेद नहीं होता। मूढ़ से मूढ़ में और तथाकथित पंडित में, जरा भी अंतर नहीं होता! सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस हैं, रोने लगे विह्वल, बच्चे की भांति! पत्नी को मरे भी दो साल हो चुके, मगर है कि पीड़ा नहीं जाती। दिल्ली से चल कर इतनी दूर आये थे, मुझसे सिर्फ यही पूछने कि क्या एक बात का मुझे भरोसा दिला सकते हैं कि कभी भविष्य में किसी और जन्म में मेरी पत्नी से मेरा मिलना होगा कि नहीं? और एक प्रार्थना है--कहने लगे--एक बार उसका दर्शन करा दें। स्वप्न में ही सही, एक बार उसे फिर देख लूं।
कैसा हमारा मोह है! फिर तो जैसे भूल ही गये मुझसे बात करते समय कि मैं भी वहां हूं। याद करने लगे कि हमने कैसे दिन बिताये--कैसे सुख के दिन! हमने सारी दुनिया की यात्रा दो बार की। हम पेरिस गये, हम लंदन गये, हम न्यूयार्क गये, हम पेकिंग गये...। एक क्षण को तो वह भूल ही गये कि पत्नी मर चुकी है! पेरिस का वर्णन करने लगे, लंदन का--कैसे हम ठहरे, कहां क्या घटना घटी...। मैं देखता था उनको और सोचता था कि बच्चों में और बूढ़ों में जरा भी भेद नहीं। बूढ़े हो गये हैं। अब कुल एक साल और बचा है रिटायर होने को। यह सब हमारे मन की जालसाजियां हैं।
मैंने उनको बार-बार कहा कि इस जन्म के पहले इस पत्नी से कभी मिलना हुआ था? उन्होंने कहा: नहीं, मुझे तो कुछ इस जन्म के पहले की याद ही नहीं। तो मैंने कहा: अगले जन्म में तुम्हें पत्नी की याद रहेगी? पिछले जन्म में कोई तुम्हारी पत्नी रही होगी?
कहा कि हां, जरूर रही ही होगी।
याद कुछ है? पिछले जन्म में भी पत्नी मरी होगी? पिछले जन्म में भी तुमने किसी से जाकर कहा होगा कि इसी पत्नी से फिर दोबारा मिलना हो जाये। याद है कुछ? आज तुम कह रहे हो, कल मर जाओगे; याद रह जायेगी? छोड़ो मरने की बात, रात जब सो जाओगे आज, तब याद रह जायेगी?
उनकी आंखें गीली हो आयीं। उन्होंने कहा: वही तो मेरा दुख है; दो साल हो गये, सपने में भी नहीं देखा!
रात रोज सो जाते हो तब भी याद भूल जाती है, तो जब मरोगे, मृत्यु जैसी बड़ी घटना घटेगी, देह भी छूट जायेगी, मन भी छूट जायेगा--तब तुम्हें याद रह जायेगी पत्नी की? कहीं मिल भी जायेगी भूल-चूक से, पहचान पाओगे? क्यों व्यर्थ की बातों में पड़े हो? और कुछ कमी थी इस जन्म के पहले, जब यह पत्नी तुम्हारी पत्नी न थी? कभी कमी थी कुछ, आगे भी कुछ कमी होगी? और यह पत्नी भी मिल गयी थी, यह भी सांयोगिक ही था।
कहने लगे: आपको कैसे पता चला--सांयोगिक?
मैंने कहा: मुझे आपकी कथा का कुछ पता नहीं है, मगर सभी सांयोगिक है। मैंने उन्हें एक यहूदी लेखक की कहानी बताई। उसके जीवन की घटना है। वह एक स्टेशन पर उतरा। चारों तरफ देखा, कुली नहीं था। सामान ज्यादा था। उसके पास ही एक और स्त्री उतरी थी, बगल के डिब्बे से। उसके पास बिलकुल सामान न था। भली महिला, उसने कहा कि आप चिंतातुर दिखते हैं। कुली कोई दिखाई पड़ता नहीं, रात सर्द है, बर्फ पड़ रही है। लाइये कुछ सामान मैं आपका बंटा लूं, जो भी बन सके।
तो कुछ झोले उसने भी ले लिये। दोनों चले स्टेशन की तरफ। अब जिसने झोले लिये थे, उससे बात भी होने लगी। बाहर आये। पहचान हो गयी तब तक; बात-चीत भी हुई, मित्रों की बात चली, कहां से आयी, क्या हुआ? टैक्सी में बैठने के पहले, रात सर्द थी, दोनों ने बैठकर होटल में काफी पी--थोड़ी गरमा लें अपनी देहों को। फिर तब तक इतनी पहचान हो गयी थी कि अब दो टैक्सी क्यों करनी, एक ही टैक्सी कर लें। फिर पहचान बढ़ती ही चली गयी; टैक्सी में कोई घंटे-भर की यात्रा थी, दोनों पास बैठे रहे, और भी मैत्री घनी हो गयी। फिर होटल में सोचा कि अब दो कमरे क्यों लें, एक ही ले लें। फिर ऐेसे विवाह हुआ।
उस लेखक ने लिखा है: ऐसे मेरे पिता और मेरी मां का मिलना हुआ। संयोग की ही बात थी कि उस दिन कोई कुली नहीं था। बस, उस नासमझ कुली की वजह से यह उपद्रव हुआ।
तुम भी देखना, कैसे तुम्हें अपनी पत्नी मिल गयी। एक ही स्कूल में पढ़ते थे, कि बस्ता टांगे एक ही स्कूल की तरफ रोज-रोज जाते थे, कि संयोग की बात वह भी पड़ोस में रहती थी। हमारी दौड़ ही कितनी है! अब थोड़ी कार वगैरह युवकों के पास हो गयी है तो थोड़ी दौड़ ज्यादा है। दूसरे मुहल्ले तक चले जाते हैं, नहीं तो मुहल्ले में ही होने वाली थी! सांयोगिक है सब मिलना।
वे तो बड़े हैरान हुए; उन्होंने कहा: आप कहते क्या हैं! बात सच है, मेरा मिलना उससे सांयोगिक ही था। हम ऐसे ही एक कांफ्रेंस में मिले थे। और फिर बात बन गयी (कि बात बिगड़ गयी--एक ही है मतलब) अब रो रहे हैं। अब सोच रहे हैं: आगे फिर मिलना इसी से हो जाये! और अब सोच रहे हैं: काश, वह होती तो कैसा अच्छा होता!
जो न गल जाती हिमानी विरह-दिनकर की कला से,
आज इस ज्वाला-तरी के हिम-जड़े पतवार होते।
हास औ’ सुख से भरे, आनंद का व्यापार करने,
प्राण-जलनिधि में प्रणय के पोत चलते पार होते।
पलक के प्यासे चषक में भर मिलन की माधवी को,
स्निग्ध चंद्रासव पीये-से नयन ये रतनार होते।
अंगुलियां जो उलझ जातीं नीलमणि के कोण पहने,
बंक बरुनी के कसे मुखरित सुरीले तार होते।
सिहरकर अंबर उतरता अंक में भरती उन्हें जो,
तो सजीली मोतियों के कंठ में विधुहार होते।
छांह हिमकर चांदनी का तान ताराजटित आतप,
आज इस ज्वाला भरी के मान औ’ मनुहार होते।
और फिर कल्पनाएं कि ऐसा होता, कि ऐसा होता...। मत खोओ कल्पनाओं में। जीवन जैसा है वैसा है। उसे वैसा ही जानो--उसकी नग्नता में। तथ्यों को झुठलाओ मत। तथ्यों को कल्पना के घूंघट मत पहनाओ। तथ्यों को बुर्के मत ओढ़ाओ।
मृत्यु है; इसे तुम कितना ही शृंगार करो और कितना ही सजाओ, तुम झुठला न सकोगे। इसे झुठलाने में जितने तुम सफल हो जाओगे, उतने ही तुमने जीवन को चूकने का उपाय कर लिया।
कबीर, धन्यवाद करो अपनी बहन का, ज्योति का। गयी, अंधेरा छोड़ गयी पीछे ज्योति। अब इस अंधेरे में अपनी ज्योति की तलाश करो। वही ज्योति भीतर जलेगी, तो ही शांति, तो ही सत्य, तो ही मुक्ति।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, बुद्ध हुए और महावीर हुए और गोरख हुए, नानक हुए और कबीर हुए--इतनी रोशनियां जलीं, फिर भी संसार में अंधेरा क्यों है?
आप सब की कृपा से! रोशनी जलती रहने दो तब न! अब बुद्ध हुए कुछ पहरा तो देते न रहे; जली रोशनी और गये। वे जा भी नहीं पाते कि हजारों रोशनी को फूंकने को तैयार बैठे हैं।
लोग रोशनी के दुश्मन हैं। लोग दीयों के पुजारी हैं, रोशनियों के दुश्मन हैं। रोशनी को बुझा देते हैं, दीये की पूजा करते हैं! जिंदगी को मेट देते हैं, पत्थरों की पूजा करते हैं! पत्थरों की पूजा चल रही है! बुद्ध की कितनी मूर्तियां बनीं, इतनी किसी और की नहीं बनीं। मूर्तियों की पूजा चल रही है। बुद्ध ने जो कहा था उससे किसको लेना-देना है, उससे किसको प्रयोजन है? वह तो झंझट की बात है। उस पर चलना तो कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलना है। उस पर चलना तो जीवन को बदलना होगा। पत्थर की पूजा करने में क्या लेना-देना है; सस्ता काम है।
तुम पूछते हो कि इतनी रोशनियां जलीं, फिर भी संसार में अंधेरा क्यों है? रोशनियों को तुम बचने ही नहीं देते। कभी-कभी तो ऐसा है कि रोशनी खुद भी नहीं बुझ पाती और तुम बुझा देते हो। तुमने जीसस की रोशनी जिंदा-जिंदा में बुझा दी। तुमने सुकरात की रोशनी जिंदा-जिंदा में बुझा दी। तुमने मंसूर की रोशनी जिंदा-जिंदा में बुझा दी। बुद्ध और महावीर के साथ तो तुमने थोड़ी कृपा भी की। पत्थर इत्यादि फेंके, गाली-गलौज भी दी, अपमान भी किया। तुम इस तरह के कामों में बड़े कुशल हो, बड़े निष्णात!
महावीर नग्न थे तो तुम नाराज हुए, अब नग्नता में कुछ नाराजगी की बात न थी। नग्न ही तो आते हैं हम संसार में और नग्न ही हमें जाना है। वस्त्र तो हमने बीच में ओढ़ लिये हैं, बीच का धोखा है। लेकिन हम धोखों को सत्य मान लेते हैं।
कल मैं पढ़ रहा था--बंबई की किसी होटल में, नयी बनती होटल में, किसी ने एक जैन तीर्थंकर की प्रतिमा सामने खड़ी कर दी है--बीस फीट ऊंची! अब जैन प्रतिमा, नग्न तीर्थंकर की प्रतिमा...बड़ी सनसनी फैल गयी है। जो जैन नहीं हैं वे नाराज हैं कि नंग-धड़ंग आदमी को यहां क्यों खड़ा किया? जो जैन हैं वे भी नाराज हैं, कि होटल और हमारे भगवान! बात यहां तक बढ़ गयी कि कुछ भक्तगण उनको चड्ढी पहना आये।
क्या पागल हो तुम!...चड्ढी! तुम्हें कुछ और न सूझा? वैसे दिन भी चड्ढीवालों के चल रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ--चड्ढी दल! गुजराती में तो जैसे राजकरण, ऐसे अब उन्होंने नाम रख लिया है चड्ढी-करण।
चड्ढी, महावीर को चड्ढी पहनाओगे! तुम्हें शर्म भी न आयी! फिर किन्हीं को गुस्सा आ गया कि हमारे भगवान को चड्ढी! उन्होंने चड्ढी फाड़ दी। अब विदेशी पर्यटक हैं, उनको तो कुछ पता नहीं कि कौन तीर्थंकर, क्या? वे कहते हैं: ‘मिस्टर तीर्थंकर!’...‘मिस्टर तीर्थंकर नंगे क्यों खड़े हैं?’ और उनको सारा रस उनकी नग्नता में है। वे फोटो पर फोटो उतार रहे हैं।
अब यह बात बेचैनी की है, क्योंकि इससे भारत की प्रतिमा का पश्चिम में बहुत खंडन होगा। तो कोई और ज्ञानी जाकर मूर्ति की जननेंद्रिय पर मिट्टी थोप आये! अब और भद्दी लगती है। मिट्टी थुपी संगमरमर की प्रतिमा पर...मामला क्या है? अब किन्हीं समझदारों ने कुछ रास्ता निकाला, उन्होंने एक बड़ा तख्ता लगा दिया है, जिसमें कि सिर्फ ऊपर की प्रतिमा दिखाई पड़ती है। मगर लोग इतनी आसानी से थोड़े ही छोड़ते हैं। जब से तख्ता लगा है, लोगों की उत्सुकता बढ़ गयी कि तख्ते के पीछे क्या है? तो लोग तख्ते के पीछे जा-जाकर फोटो ले रहे हैं। अब ऊपर की प्रतिमा का फोटो कोई लेता ही नहीं।
महावीर नग्न थे तो तुमने पत्थर मारे, बुद्ध को तुमने गांव-गांव से खदेड़ा--और तुम पूछते हो कि दुनिया में रोशनी कम क्यों है? तुम रोशनी के दुश्मन हो! जिसने भी रोशनी इस दुनिया में लाने की कोशिश की, तुम उससे नाराज हुए। तुम उसे सदियों तक क्षमा नहीं कर पाते। क्यों? कारण है। जो भी रोशनी लाता है उससे तुम्हारी जिंदगी का अंधेरा साफ होता है।
और कोई यह मानने को राजी नहीं कि मैं अंधेरे में जी रहा हूं। जो आदमी आंखवाला है, वह अंधे को नाराज कर देता है, क्योंकि कोई अंधा यह मानने को राजी नहीं कि मैं अंधा हूं। जो पक्षी उड़ नहीं सकते, वे अगर उड़नेवाले पक्षी के पंख तोड़ दें, तो कुछ आश्चर्य है? क्योंकि उड़नेवाला पक्षी उनके अहंकार को चोट पहुंचाता है।
कफस में गुफ्तगू यह सुनकर दिल का खून होता है
न छेड़ो बाजुओं के तजकिरे, परवाज की बातें।
जो नहीं उड़ सकते, वे कहते हैं: हमारे दिल का खून न करो। बाजुओं की बातें मत करो, परवाज की बातें मत करो, उड़ने की बातें मत करो; क्योंकि इससे हमें बेचैनी होती है। तुम उड़ने की बातें करते हो, हमें हमारी नपुंसकता का बोध होता है। और ये सारे लोग परवाज की बातें करते हैं। ये कहते हैं कि परमात्मा हुआ जा सकता है। और तुम तो आदमी होना मुश्किल पा रहे हो--और ये कहते हैं परमात्मा हुआ जा सकता है। और ये कहते हैं कि तुम भी परमात्मा हो सकते हो। ये तुम्हें इतनी विराट ऊंचाई का स्मरण दिलाते हैं कि तुम चक्कर खाने लगते हो। तुम कहते हो: ये बातें ही बंद करो। हम भले हैं, जमीन पर सरकते, घसिटते, हम भले हैं। हम अपने जैसे सरकते-घसिटते लोगों के साथ भले हैं। तुम हमारे बीच में न आओ। तुम हमारी नींद न तोड़ो। हम मधुर सपने ले रहे हैं, तुम हमें ज्यादा न पुकारो।
चिराग तो जल गये हैं, यह बुझ न जायें कहीं
हवाएं तुंद हैं, हर लौ में थर-थराहट है
यह लौ तो क्या है, लरजता है मेरा दिल ऐ दोस्त!
कि लरजा-खेज फजाओं की सनसनाहट है
चिराग जल तो गये हैं, नजर न लग जाये
नजर भी उनकी कि जिनके यहां अंधेरा है
निगाहे-बद से बचाना है इन चिरागों को
अभी है पिछला पहर दूर अभी सवेरा है
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
उलट न दें कहीं जलते हुए चिरागों को
सलामती जो है मंजूर इन चिरागों की
करो दुरुस्त इन इतफाल के दिमागों को
चिराग जल तो गये, हां चिराग जल तो गये
मजा तो तब है अंधेरा न हो चिराग तले
चिराग बाम पे हों, फर्शो-आस्मां पे चिराग
बुलंदो-पस्त में सब कह उठें ‘चिराग जले’
चिराग जल तो गये हैं, यह बुझ न जायें कहीं!
जलते रहे हैं, बुझते रहे हैं। जलाने वाले बहुत कम, बुझाने वाले बहुत ज्यादा। अंधेरे में तुमने बहुत-से स्वार्थ जोड़ रखे हैं। अंधेरे में तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ है।
अब जैसे चोरों की बस्ती हो और वहां कोई चिराग जलाये, तो चोर बुझा न देंगे? चोर तो जी ही सकते हैं अंधेरे में। चोरों को चांदनी रात बुरी लगती है, अमावस की रात बड़ी प्यारी लगती है। उनका स्वार्थ है, न्यस्त स्वार्थ है।
चिराग जल तो गये हैं, यह बुझ न जायें कहीं
हवाएं तुंद हैं, हर लौ में थरथराहट है
यह लौ तो क्या है, लरजता है मेरा दिल ऐे दोस्त!
कि लरजा खेज फजाओं की सनसनाहट है
चारों तरफ कंपकंपा देने वाली आंधियां हैं! चारों तरफ हवाओं का जोर है! चिराग जल तो गये हैं...कभी कोई बुद्ध, कभी कोई बहाऊद्दीन, कभी कोई महावीर, कभी कोई मुहम्मद, कभी कोई कबीर, कभी कोई गोरख...चिराग जल तो गये हैं, मगर बड़ी तूफानी हवाएं हैं जो बुझा देने को आतुर हैं! और वे हवाएं तुम्हारी हैं, वे तुम हो! तुमने बुझाए हैं चिराग! और अब तुम पूछते हो कि इतनी रोशनियां जलीं, फिर संसार में अंधेरा क्यों है?
आपकी कृपा, आपका अनुग्रह! हां, जब चिराग बुझ जाता है, और बुझा हुआ दीया रह जाता है, तो तुम बड़े मंदिर बनाते हो, तुम बड़ी पूजा करते हो! फिर तुम्हारी स्तुतियां सुनने जैसी हैं! तुम मुर्दे की पूजा करने में कुशल हो, क्योंकि तुम मुर्दे हो! मुर्दों से तुम्हारी दोस्ती बन जाती है, जिंदों से तुम्हारी दोस्ती टूट जाती है। जीसस, जिंदा तो मारो। हां, मर जायें तो फिर पूजो। आज एक तिहाई दुनिया जीसस को मानती है। और जिस दिन जीसस को सूली लगी थी उस दिन तुम्हें पता है, तीन आदमी भी स्वीकार करने को राजी नहीं थे कि हम जीसस को मानते हैं! और जब जीसस को गोलगोथा की पहाड़ी पर, उनके कंधे पर वजनी सूली को लेकर चढ़ाया गया, तो वे तीन बार रास्ते में गिरे। लेकिन एक भी आदमी ने यह न कहा कि लाओ मैं साथ दे दूं, कि चलो मैं तुम्हारी सूली ढो दूं। कौन हिम्मत करे!
जब जीसस को सूली लगी...और उन दिनों जैसी सूली लगती थी जेरुसलम में, आदमी एकदम नहीं मर जाता था, छह घंटे, आठ घंटे, दस घंटे, बारह घंटे, कभी-कभी चौबीस घंटे लग जाते थे मरने में, क्योंकि सूली का ढंग बड़ा बेहूदा था। हाथ-पैर में खीले ठोंक देते थे, लटका देते थे आदमी को। अब हाथ-पैर से खून बहेगा, बहेगा, बहेगा...घंटों लगेंगे। भरी दोपहरी सूली को ढो कर लाना, पहाड़ी पर चढ़ना। जीसस प्यासे हैं। उनके हाथ में खीले ठोंक दिये गये हैं। वे कहते हैं कि मुझे प्यास लगी है, कोई पानी दे दो। मगर उन एक लाख इकट्ठे लोगों में, किसी एक आदमी ने हिम्मत न की कि कह देता कि लो मैं पानी ले आऊं तुम्हारे लिए। मरते जीसस को तुम पानी न दे सके! लोगों ने पत्थर फेंके, सड़े छिलके फेंके। गालियां दीं, सब तरह के अपमान किये। मरते जीसस को तुमने शांति से भी न मरने दिया। मरते जीसस को भाले चुभा-चुभा कर लोगों ने पूछा कि क्या हुआ चमत्कारों का? क्या हुआ तुम्हारे परमात्मा का? तुम तो कहते थे कि तुम ईश्वर के बेटे हो, अब कहां है तुम्हारा पिता? आये और प्रमाण दे!
यह तो तुमने जीसस के साथ व्यवहार किया। और फिर...तुमने कितने चर्च बनाये जीसस के लिए! इतने तुमने किसी के लिए नहीं बनाये। और कितने पुजारी हैं आज! बारह लाख तो सिर्फ पादरी-पुजारी हैं दुनिया में। फिर प्रोटेस्टेंट अलग हैं, और-और दूसरे चर्च अलग हैं। दुनिया का सबसे बड़ा धर्म बन गया है ईसाइयत! कारण क्या हुआ? जिंदा को तो तुम स्वीकार न कर सके, मुर्दा का सम्मान कर रहे हो! शायद इसीलिए। जिंदा का तुमने इतना अपमान किया कि मनुष्य-जाति के प्राण अपराध-भाव से भर गये। अब अपराध-भाव को किसी तरह पोंछने के लिए तुम स्तुति कर रहे हो, पूजा कर रहे हो, शोरगुल मचा रहे हो; मगर अपराध-भाव मिटता नहीं।
चिराग जल तो गये हैं, नजर न लग जाये
नजर भी उनकी कि जिनके यहां अंधेरा है।
जिनके यहां अंधेरा है वे नाराज होते हैं रोशनी देखकर। तुमने कभी यह खयाल किया, कि तुम अपनी गरीबी से उतने परेशान नहीं होते जितना पड़ोसी की अमीरी से परेशान होते हो। गरीबी से तो बहुत कम लोग परेशान हैं, अमीरी से परेशान हो जाते हैं। तुम्हें खयाल ही नहीं था कि तुम्हारे पास कार नहीं है। तुम परेशान ही नहीं थे। फिर पड़ोसी एक कार ले आया। बस, अब परेशानी शुरू हुई। अब तुम गरीब हुए। अब तक तुम गरीब न थे, अब तक सब ठीक चल रहा था। अब पड़ोसी कार ले आया, अब गरीबी शुरू हुई। अब तुम्हें बेचैनी हुई। अब कार तुम्हारे पास भी होनी चाहिए।
दुनिया में इतनी गरीबी नहीं है, जितने लोग परेशान हैं। और परेशान गरीबी से तो कोई भी नहीं है। इसलिए रूस में परेशानी कम है; उसका कारण है कि सभी समान रूप से गरीब हैं! अमरीका का गरीब-से-गरीब आदमी रूस के अमीर-से-अमीर आदमी से आठ गुना ज्यादा अमीर है। लेकिन अमरीका में बड़ी परेशानी है, रूस में परेशानी नहीं है। तो निश्चित ही बात साफ है कि गरीबी से कोई परेशानी नहीं होती, परेशानी अमीरी से होती है। तुलना पैदा हो जाती है। तुम्हारे पास है और मेरे पास नहीं, इससे बेचैनी, इससे कांटा चुभता है।
इस देश में भी यही होगा। इस देश में थोड़े-से अमीर हैं; उनको बांटा जा सकता है। जिस दिन वे बंट जायेंगे, लोग बड़े प्रसन्न हो जायेंगे। ऐसा नहीं है कि लोग अमीर हो जाएंगे। उनके बंटने से कुछ नहीं होने वाला है। उनका बंटना ऐसे है जैसे कि कोई जाकर चम्मच-भर शक्कर और सागर में डाल दे! उनके बंटने से कुछ नहीं होने वाला है। वे बंट भी जाएंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। तुम्हारी जिंदगी की मिठास न बढ़ेगी, लेकिन तुम्हारी खटास कम हो जायेगी। अगर सभी गरीब हैं तो फिर कोई अड़चन न रही। फिर तुम्हारे गरीब होने में कोई पीड़ा न रही, तुम्हारे अहंकार को चोट न रही।
यह बड़ी अजीब दुनिया है! यहां लोग अपनी गरीबी से परेशान नहीं हैं, दूसरे की अमीरी से परेशान हो जाते हैं। और जो सामान्य अमीरी-गरीबी के तल पर होता है, वह और भी बड़े पैमाने पर आध्यात्मिक तल पर होता है। तुम्हें अपने आध्यात्मिक अंधेपन की कोई पीड़ा नहीं है, लेकिन बुद्ध को देखकर तुम नाराज हो जाते हो--यह आंखवाला आदमी है।
चिराग जल तो गये हैं, नजर न लग जाये
नजर भी उनकी कि जिनके यहां अंधेरा है
निगाहे-बद से बचाना है इन चिरागों को
अभी है पिछला पहर, दूर अभी सवेरा है
चिराग तो जलते रहे, लेकिन सवेरा बहुत दूर है। सूरज अभी तक नहीं निकला है। बुद्ध जले, महावीर जले, कृष्ण, क्राइस्ट...ये चिराग हैं। सवेरा अभी नहीं हुआ। सवेरा कब होगा? सवेरा तब होगा, जब सारी मनुष्यता पर एक धार्मिक प्रकाश फैल जाये। सवेरा तब होगा जब सभी के चेहरों पर ध्यान की आभा होगी। वह तो अभी बड़ी दूर है बात। और जो उसे करीब ला सकते थे, तुम उन्हें बुझा देते हो; तुम उनसे नाराज हो जाते हो; तुम उनके दुश्मन हो जाते हो।
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
उलट न दें कहीं जलते हुए चिरागों को
शरारती लोगों से जरा सावधान रहना!
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
बहुत शरारती लोग हैं दुनिया में; वे चिरागों का जलना पसंद नहीं करते। वे तत्क्षण उन चिरागों को उलट देने को तैयार हो जाते हैं।
बुद्ध पर पागल हाथी छोड़ा गया। पागल हाथी भी इतना पागल नहीं था जितने पागल आदमी हैं। क्योंकि कहानी यह है कि पागल हाथी भी बुद्ध के पास आकर रुक गया। ऐसा हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन बात मुझे जंचती है। कोई हाथी इतना पागल नहीं होता जितने आदमी पागल होते हैं! पागल हाथी को भी लगा होगा कि बेचारा सीधा-सादा आदमी है, इस पर हमला क्यों करना? पागल रहा होगा, मगर इतनी बुद्धि उसमें भी अभी शेष थी कि वह आकर रुक गया। लेकिन जिसने छोड़ा था पागल हाथी--देवदत्त--वह बुद्ध का चचेरा भाई था। चचेरा भाई! साथ-साथ बड़े हुए थे। साथ-साथ पढ़े थे। एक ही उम्र के थे। एक-सी प्रतिभा के थे। और बचपन से ही उनमें एक कशमकश थी, एक प्रतियोगिता थी। फिर जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हो गये तो देवदत्त को बड़ी बेचैनी होने लगी कि वह पीछे छूट गया। उसे भी बुद्धत्व सिद्ध करके दिखाना है। अब बुद्धत्व कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि तुम सिद्ध करके दिखा दोगे। तो वह झूठा ही अपने को बुद्ध घोषित करने लगा। लेकिन झूठा बुद्ध सच्चे बुद्ध के सामने फीका लगता। तो फिर एक उपाय था कि सच्चे बुद्ध को खत्म करो। तो पागल हाथी छुड़वा दिया।
यह भी जानकर हैरानी होती है कि अपना ही भाई, चचेरा भाई, पागल हाथी छुड़वायेगा! ऐसा अक्सर हुआ है। जो निकटतम हैं, वे ही सर्वाधिक नाराज हो जाते हैं, क्योंकि उनके ही अहंकार को सबसे ज्यादा चोट पहुंचती है।
जीसस ने कहा है: पैगंबर का अपने ही गांव में सम्मान नहीं होता। क्योंकि गांव के लोग निकट होते हैं। वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि एक छोकरा हमारे ही बीच से उठा। यहीं हमने उसे बड़े होते देखा, इन्हीं गलियों में खेलते देखा--और वह पैगंबर हो गया! तो हम सब दो कौड़ी के! नहीं, यह बर्दाश्त नहीं हो सकता।
जीसस अपने गांव में एक ही बार गये ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद; दोबारा जाने की नौबत ही गांव के लोगों ने न दी! गांव के लोगों ने जीसस पर इतनी नाराजगी जाहिर की कि सारा गांव उनके पीछे पड़ गया। उन्हें पहाड़ पर ले जा कर उनको पहाड़ से गिरा देने की कोशिश की, मार डालने की कोशिश की। क्या नाराजगी थी जीसस जैसे प्यारे आदमी से? इसका प्यारा होना ही नाराजगी का कारण है। शरारती लोग हैं, दुनिया शरारतियों से भरी है।
चिराग जल तो गये हैं, मगर शरीर इतफाल
उलट न दें कहीं जलते हुए चिरागों को
इसलिए सावधानी रखनी होती है। जो जानते हैं, जो पहचानते हैं, उन्हें बड़ी सावधानी रखनी होती है, कि जब कोई चिराग जले, तो उसे अपने आंचल में छिपा लें--कि उसकी रोशनी काम आ जाये लोगों के, कि उस चिराग से कुछ और बुझे चिराग जल जायें।
सलामती जो है मंजूर, इन चिरागों की
करो दुरुस्त इन इतफाल के दिमागों को
अगर चाहते हो कि दुनिया में चिराग जलते रहें, तो शरारती लोगों के दिमाग को जरा ठीक करो। मगर शरारतें नये-नये ढंग लेती जाती हैं, शरारतें नये-नये रंग लेती जाती हैं। और शरारतें बहुत तर्कपूर्ण होती हैं। शरारतें शास्त्रों का उल्लेख करती हैं, शरारतें शास्त्रों में आधार खोज लेती हैं।
चिराग जल तो गये, हां चिराग जल तो गये!
मजा तो तब है अंधेरा न हो चिराग तले
और फिर एक और बड़ी अड़चन है, अगर शरारतियों से चिराग बच जायें, आंधियों और तूफानों से चिराग बच जायें, लोगों की नजरों से चिराग बच जायें, लोगों की बदनजरों से चिराग बच जायें--तो फिर एक और बड़ा खतरा है, कि हर चिराग के तले ही अंधेरा इकट्ठा हो जाता है। तथाकथित शिष्य इकट्ठे हो जाते हैं, जिनमें शिष्यत्व की कोई क्षमता और बोध नहीं होता। अगर उनमें शिष्यत्व की क्षमता और बोध हो, तब तो चिराग के नीचे भी रोशनी हो जाये। क्योंकि चिराग के नीचे और चिराग हो जायें!
लेकिन अक्सर यह हो जाता है कि जब भी कोई सदगुरु पैदा होता है, तो उसके विदा होते ही उसकी ही छाया में राजनीतिज्ञों के अड्डे जम जाते हैं, शरारतियों के अड्डे जम जाते हैं। वहीं आपाधापी शुरू हो जाती है कि कौन प्रथम हो?
अब यह तुम जानकर हैरान होओगे कि शंकराचार्यों के मुकदमे अदालतों में चलते हैं, तय करने के लिए कि कौन असली शंकराचार्य है! अदालत तय करेगी कि कौन असली शंकराचार्य है! एक सम्मेलन में एक ऐसे शंकराचार्य से मेरा मिलना हुआ, जिनके ऊपर इलाहाबाद के हाईकोर्ट में मुकदमा चलता है। दो शंकराचार्य हैं, दोनों घोषणा करते हैं कि हम असली हैं। एक ही पीठ पर दोनों का कब्जा है। उन्होंने मुझसे पूछा कि आपका इस संबंध में क्या मंतव्य है?
मैंने कहा कि मेरा एक मंतव्य है कि तुम दोनों नकली, इतना तय है। यह भी कोई बात है कि अदालत से तुम मुकदमे का फैसला लेने चले हो! तो तुम सोचते हो कि अदालत का जो मजिस्ट्रेट है, हजार-पांच सौ रुपये तनखाह पाने वाला, वह पहचान सकेगा कि असली शंकराचार्य कौन है? वह तो बेचारा सिर्फ अदालती ढंग से देख रहा है। वह तो इसकी जांच-पड़ताल करवा रहा है कि इसके पहले जो शंकराचार्य था, उसने जो वसीयत लिखी है वह असली है कि नकली है? किसके नाम लिखी...? दोनों के पास वसीयत है। जहां तक संभावना यह है कि दोनों के नाम लिखी हो। पहले एक के नाम लिखी हो, फिर मरते वक्त आधी मूर्च्छा में, बेहोशी में, दूसरे ने भी दस्तखत करवा लिए हों।
तो मैंने कहा कि तुम दोनों तो शंकराचार्य नहीं हो, इससे यह भी तय होता है कि तुम्हारा गुरु भी शंकराचार्य नहीं था। चिराग के तले अंधेरा इकट्ठा हो जाता है।
चिराग जल तो गये, हां चिराग जल तो गये!
मजा तो तब है अंधेरा न हो चिराग तले
हर सदगुरु के पीछे लोग इकट्ठे हो जाते हैं, जो राजनीति चलाने लगते हैं। उनसे सावधान होना जरूरी है। नहीं तो फिर पोप पैदा होते हैं, और शंकराचार्यों के मठ खड़े होते हैं, और सब उपद्रव शुरू हो जाता है।
चिराग बाम पे हों, फर्शो-आस्मां पे चिराग!
चिराग जलें ऊंचाइयों पर, शिखरों पर, आसमानों पर...।
बुलंदो-पस्त में सब कह उठें, चिराग जले।
और उत्थान हो कि पतन, लेकिन चिराग जलते रहें। लेकिन हमें सहारा देना होगा। ये चिराग कुछ ऐसे नहीं हैं कि अपने-आप जलते रहेंगे; इन्हें हमें प्राणों के द्वारा जलाना होगा। प्राणों की आहुति देंगे तो ये चिराग जलेंगे।
बुद्धों के चिराग जल सकते हैं। इस जगत की सुबह भी करीब आ सकती है। लेकिन बहुत-बहुत लोगों को अपने प्राणों का स्नेह इन चिरागों को जलाने में लगाना होगा।
अब तक यह नहीं हो पाया है। इसलिए आदमी अंधेरे में है। रात गहरी है, पर सुबह हो सकती है। और अब ऐसी घड़ी आयी है कि अगर सुबह न हो सकी तो आदमी बच न सकेगा। अब सुबह होनी ही चाहिए। अब आदमी का भाग्य ही इस बात पर निर्भर है कि सुबह होनी चाहिए। आदमी उस जगह पहुंच गया है कि जैसा है ऐसा ही अब ज्यादा देर जिंदा न रह सकेगा। गये वे दिन जब तुम तीर-कमान चला कर एक-दूसरे को मारा करते थे। अब हमारे पास अणु-अस्त्र हैं। पृथ्वी पर इतने अणु-अस्त्र हैं कि एक-एक आदमी एक-एक हजार बार मारा जा सकता है! हालांकि आदमी एक ही बार में मर जाता है। इतना आयोजन करने की कोई जरूरत नहीं है। मगर भूल-चूक क्यों करनी! राजनीतिज्ञों ने पूरा, शरारतियों ने पूरा इंतजाम कर रखा है। कितनी दफे बचोगे? एक हजार पृथ्वियां नष्ट हो सकें, इतना आयोजन है। अब अगर आदमी न बदला और सुबह न हुई तो आदमी समाप्त होगा।
इन आने वाले पच्चीस वर्ष में बड़ी निर्णायक घड़ी है। या तो आदमी नष्ट होगा और यह पृथ्वी आदमी से शून्य हो जायेगी; या फिर एक नये आदमी का जन्म होगा--एक नयी सुबह! लेकिन ये जो छोटे-छोटे चिराग जले हैं, इन्हीं से आशा बनी है।
गुलों की कसरत हो, या कमी हो, बहार फिर भी बहार है
दीये जले, बुझे, मिट गये; उनकी छाया में अंधेरा पनपा--यह सब ठीक। गुलों की कसरत हो...फूल ज्यादा हों कि कम।
गुलों की कसरत हो, या कमी हो, बहार फिर भी बहार है
कली हो चुप या चटक रही हो, बहार फिर भी बहार है
तुम्हें शऊरे-नजर नहीं है, बहार को हेच कहने वालो!
घटा घिरी हो कि चांदनी हो, बहार फिर भी बहार है
तयूर की नग्मा-साजियां हैं, कहीं है कू-कू, कहीं है पी-पी
अगर खरोशे-जगन कभी हो, बहार फिर भी बहार है
हवा में तुंदी भी हो अगर कुछ, उसे नमू का पयाम समझो
जो चंद पत्तों में बरहमी हो, बहार फिर भी बहार है
थोड़े पक्षी गीत गायें, कोई कोयल कूके एक-आध बार, कि कोई पपीहा बोले पी-पी और कौओं का बड़ा शोरगुल हो, तो भी बहार तो बहार ही है। तयूर की नग्मा-साजियां हैं...पक्षियों की गुनगुनाहट... कहीं है कू-कू, कहीं है पी-पी। अगर खरोशे-जगन कभी हो...लेकिन अगर बहुत कौओं की कांव-कांव भी हो, तो भी खयाल रखना, बहार फिर भी बहार है।
हवा में तुंदी भी हो अगर कुछ, उसे नमू का पयाम समझो
जो चंद पत्तों में बरहमी हो, बहार फिर भी बहार है।
ये छोटे-छोटे दीये जो जले और बुझ भी गये हैं--हमारे कारण। जले तो हमारे कारण नहीं, बुझे हमारे कारण हैं। तो भी इन्होंने आने वाले महावसंत की प्राथमिक सूचनाएं दी हैं। इन्होंने आने वाले सुबह की पहली खबरें दी हैं।
कदम बढ़ाके तुम चले, मगर यह इक कसर रही
कदम जरा मिले नहीं
अगर कदम मिले रहें, तो चाहे सुस्त-रौ भी हों
रसाई होगी एक दिन
फिर दूसरी कठिनाई यह हुई कि दीये तो बहुते जले, लेकिन दीये के पीछे चलनेवाले लोग कभी इकट्ठे होकर न चल सके। हिंदू अलग, मुसलमान अलग, जैन अलग, ईसाई अलग! रोशनियों को प्रेम करने वाले लोग भी इकट्ठे न हो सके! अंधेरे में लोग लड़ते रहे, ठीक था, क्षमा के योग्य हैं; रोशनियों के नाम पर लोग लड़ने लगे, यह अक्षम्य है।
कदम बढ़ाके तुम चले, मगर यह इक कसर रही
कदम जरा मिले नहीं
अगर कदम मिले रहें, तो चाहे सुस्त-रौ भी हों
रसाई होगी एक दिन
और अगर कदम मिल कर चलें तो चाहे धीमे भी चलें, तो भी एक दिन पहुंचना निश्चित है। मंजिल दूर नहीं। सुबह करीब है।
आज इतना ही।