RAIDAS

Man Hi Pooja Man Hi Dhoop 10

Tenth Discourse from the series of 10 discourses - Man Hi Pooja Man Hi Dhoop by Osho. These discourses were given during OCT 01-10 1979.
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पहला प्रश्र्न:
भगवान, संन्यास लेने के बाद यह याद आती है-- जू जू दयारे-इश्क में बढ़ता गया तोहमतें मिलती गईं, रुसवाइयां मिलती गईं।
आनंद मोहम्मद, प्रेम-पंथ ऐसो कठिन! सरल भी, कठिन भी। प्रेम स्वभावतः तो सरल है। फूल ही फूल खिलने चाहिए। संगीत की ही वर्षा होनी चाहिए। लेकिन चूंकि हमें जो भी सिखाया, पढ़ाया, समझाया गया है, वह सब प्रेम-विरोधी है। हमारे सारे संस्कार अप्रेम के हैं। हमारी सभ्यताएं, संस्कृतियां, समाज सब घृणा पर खड़े हैं। उनकी बुनियाद में युद्ध है। और सदियों-सदियों तक हमने मनुष्य के खून में जहर घोला है। इसलिए प्रेम कठिन हो जाता है।
प्रेम अपने में तो सरल है, लेकिन हम कठिन हैं। इसलिए जो व्यक्ति प्रेम के रास्ते पर चलेगा उसे शुरू-शुरू में अड़चनें तो आएंगी--अड़चनें वैसी ही जैसे कोई कुआं खोदे। भूमि के नीचे जल की धार है--जीवनदायी! लेकिन जल की धार और तुम्हारे बीच में बहुत पत्थर हैं, चट्टानें हैं, मिट्टी है, कूड़ा-करकट है। कुआं खोदोगे तो एकदम से जलधार हाथ नहीं लगेगी; पहले तो कूड़ा-कचरा मिलेगा, कंकड़-पत्थर मिलेंगे, मिट्टी मिलेगी, चट्टानें मिल सकती हैं, तब कहीं जाकर--इन सारी कठिनाइयों को पार किया तो, धैर्य रखा, भाग नहीं गए, बीच से ही छोड़ नहीं दिया तो--जलधार मिलेगी।
जलालुद्दीन रूमी एक दिन अपने शिष्यों को लेकर एक खेत पर गया। शिष्य बड़े चकित थे कि खेत पर किसलिए ले जाया जा रहा है! सूफी फकीर अक्सर ऐसा करते हैं--शिक्षा देते हैं किसी स्थिति के सहारे, किसी परिस्थिति को आधार बनाते हैं। जलालुद्दीन ले गया उन्हें खेत में और उसने कहा कि देखो खेत की हालत! देख कर वे भी चकित हुए, खेत पूरा बरबाद हो गया था। और बरबादी का कारण यह था कि खेत का मालिक कुआं खोदना चाहता था।
अब कुआं खोदने से खेत बर्बाद नहीं होते; कुआं खोदने से तो खेत हरे-भरे होते हैं। लेकिन खेत का मालिक बड़ा अधीर था। एक कुआं खोदा, आठ हाथ, दस हाथ गहरा गया और फिर छोड़ दिया, सोचा यहां जलधार नहीं मिलेगी, कंकड़ ही पत्थर, कंकड़ ही पत्थर; यहां कहां जलधार! कुछ आसार भी तो होने चाहिए। सोचा होगा--पूत के लक्षण पालने में! ये कंकड़-पत्थर शुरू से ही हाथ लग रहे हैं, आगे और बड़ी-बड़ी चट्टानें होंगी, पहाड़ होंगे। तर्क तो ठीक था। दूसरा कुआं खोदा। वह आठ-दस हाथ जो कुआं खोदा था, उसका कूड़ा-करकट सब खेत में भर गया; फिर दूसरा कुआं खोदा, बस आठ-दस हाथ फिर; फिर तीसरा--ऐसे उसने दस कुएं खोद डाले, सारा खेत खोद डाला। और सारा खेत कचरा, मिट्टी, पत्थर से भर गया; फसल जो पहले भी लगती थी हाथ, अब उसका भी लगना मुश्किल हो गया।
जलालुद्दीन ने कहा: देखते हो इस खेत के मालिक का अधैर्य! काश, इसने इतनी खुदाई की ताकत एक ही कुएं पर लगाई होती! दस कुएं दस-दस हाथ खोदे, सौ हाथ यह खोद चुका! और ऐसे अगर खोदता रहा तो जिंदगी भर खोदता रहेगा और जलधार नहीं पाएगा। अगर एक ही जगह सतत सौ हाथ की खुदाई की होती तो आज यह खेत हरा-भरा होता, फलों-फूलों से लदा होता।
शिष्यों ने कहा: लेकिन यह हमें आप क्यों दिखाते हैं?
जलालुद्दीन ने कहा: इसलिए कि इसी तरह के काम में मैं तुम्हें लगाए हुए हूं। भीतर खोदना है कुआं और पहले तो कंकड़-पत्थर ही हाथ लगेंगे।
आनंद मोहम्मद, तुम ठीक कहते हो। मैं तुम्हारी बात से राजी हूं--
‘जू जू दयारे-इश्क में बढ़ता गया
तोहमतें मिलती गईं, रुसवाइयां मिलती गईं।’
यह तो शुरुआत है। अच्छे लक्षण हैं। कुआं खुदना शुरू हो गया। कंकड़-पत्थर हाथ लगने लगे। नाचो! खुशी मनाओ! लेकिन खुदाई मत छोड़ देना। यही कहीं खोदते रहे, खोदते रहे, तो परमात्मा भी मिलेगा। क्योंकि प्रेम में खोद कर ही परमात्मा पाया गया है, और तो परमात्मा को पाने का उपाय ही नहीं है। प्रेम की भूमि में ही छिपी है जलधार। यह हो सकता है कहीं पचास हाथ खोदो तो मिलेगी, कहीं साठ हाथ खोदो तो मिलेगी, कहीं सत्तर हाथ खोदो तो मिलेगी; मगर एक बात पक्की है कि अगर खोदते ही रहे तो मिलेगी ही मिलेगी।
तदबीर ही तेरी नाकिस थी, तकदीर को तू इलजाम न दे
कर सब्र जरा, कारे-मुश्किल सब वक्त पर आसां होते हैं
किस्मत को दोष मत देना। अगर न मिले परमात्मा तो अपने प्रयास की कमी समझना, अपनी प्रार्थना का अधूरापन समझना। और धैर्य रखना! कहते हैं पलटू: काहे होत अधीर! अनंत धैर्य रखना। अनंत को पाने चले हो, अनंत धैर्य के बिना न पा सकोगे।
और स्मरण रखना, सब चीजें अपने समय पर आसान हो जाती हैं। जो बात किसी और मौसम में नहीं हो सकती, वह वसंत में होगी। जो बात गर्मी में नहीं हो सकती, वह वर्षा में होगी। जो वर्षा में नहीं हो सकती, वह किसी और ऋतु में होगी। इतनी ऋतुएं हैं इसीलिए तो कि जगत विभिन्न अभिव्यक्तियों से भर जाए! लेकिन जो बात एक ऋतु में संभव है, वह दूसरी ऋतु में संभव नहीं है। इसलिए बीज बोना ठीक समय पर और फिर प्रतीक्षा करना; ठीक समय पर टूटेंगे, निश्र्चित टूटेंगे!
तदबीर ही तेरी नाकिस थी...
कोशिश ही कमजोर थी, नपुंसक थी।
तदबीर ही तेरी नाकिस थी, तकदीर को तू इलजाम न दे
कर सब्र जरा, कारे-मुश्किल...
थोड़ा धीरज, थोड़ा धीरज, थोड़ा और धीरज--कठिन से कठिन काम भी--
...सब वक्त पर आसां होते हैं
कोई नहीं जानता किस वक्त पर ठीक घड़ी आ जाएगी--पकने की घड़ी।
यह मनुष्य कोई ऐसा वृक्ष नहीं है जिसके संबंध में भविष्यवाणियां की जा सकें। और एक-एक मनुष्य इतना भिन्न है कि एक के संबंध में कही गई बात किसी दूसरे पर लागू नहीं होगी। कोई वसंत में खिल जाएगा, कोई वसंत में नहीं खिलेगा। पतझड़ में भी खिलने वाले वृक्ष हैं, जो पतझड़ में ही खिलेंगे। ऐसे भी वृक्ष हैं, जब सूरज से आग बरसेगी तभी उनमें फूल आएंगे; और किसी तरह से उनमें फूल नहीं आएंगे, और किसी मौसम में फूल नहीं आएंगे। ऐसे फूल हैं जो पूरब की गर्मी में ही पैदा होंगे, पश्र्चिम की सर्दी में नहीं। और ऐसे फूल हैं, जो गर्मी में पैदा होंगे तो ही उनमें सुगंध होगी।
इसलिए पश्र्चिम के फूलों में सुगंध नहीं होती। गुलाब तो पश्र्चिम में भी होता है, मगर उसमें सुगंध नहीं होती। सुगंध तो पूरब के गुलाब में होती है। सुगंध के लिए गर्मी में तपना पड़ता है, गर्मी की तपश्र्चर्या से गुजरना पड़ता है। पश्र्चिम का गुलाब कागजी मालूम पड़ता है। फूल तो बहुत होते हैं, लेकिन सब गंधहीन, गंधशून्य। और फूल हो गंधहीन तो क्या खाक फूल हुआ!
कठिनाई तुम्हारी मैं समझता हूं। तुम भी मेरी बात समझो।
कफस में और नशेमन में रह के देख लिया
कहीं भी चैन मुझे जेरे-आस्मां न मिला
बगीचों में भी रह कर देख लिया, बहारों में भी रह कर देख लिया, पतझड़ों में भी रह कर देख लिया, कारागृहों में भी रह कर देख लिया।
कहीं भी चैन मुझे जेरे-आस्मां न मिला
इस आकाश के नीचे कहीं भी चैन नहीं मिला।
चैन तो मिलता है भीतर! चैन तो मिलता है अंतर्तम की अनुभूति में। तुम अभी भी प्रेम को बहिर्मुखी बनाए हो। अभी भी तुम सोच रहे हो कि प्रेम कहीं बाहर से आएगा, कोई देगा। फिर वह चाहे तुम्हारी पत्नी हो, चाहे पति, चाहे बेटा, चाहे पिता और चाहे परमात्मा, लेकिन तुम्हारी प्रेम की दृष्टि यह है कि कोई देगा। और वहीं भूल हो रही है। प्रेम दिया नहीं जाता। कोई देता नहीं। प्रेम बांटा जाता है। तुम्हें उसे विकीर्णित करना होता है। जैसे दीये से रोशनी झरती है, ऐसे तुमसे प्रेम झरना चाहिए। और तुमसे झरे प्रेम तो अनंत होकर लौटता है।
मगर हमारी सोचने की प्रक्रिया गलत है। हमारी पूरी तर्कसरणी भ्रांत है। हम हमेशा यह सोचते हैं: कोई मुझे प्रेम दे! मुझे प्रेम क्यों नहीं देते हैं लोग! इस भाषा में सोचना छोड़ो।
संन्यासी को नई भाषा सीखनी होगी। संन्यास नई भाषा है। तुम्हें सीखना होगा प्रेम देना। मांगे तो चूके। भिखमंगे बने कि भटके। प्रेम तो मालिकों का है, भिखमंगों का नहीं। दोगे तो मिलेगा, बहुत मिलेगा; मगर कहीं भी मन के किसी कोने-कातर में पाने की आकांक्षा मत रखना; उतनी आकांक्षा भी जहर घोल देगी। और एक बूंद जहर भी पर्याप्त है मार डालने को।
प्रेम नाजुक चीज है, कोमल चीज है। देने से, बांटने से बढ़ता है; मांगने से, राह देखने से घटता है। और जिससे भी तुम प्रेम चाहोगे, वही सिकुड़ जाएगा, वही तुमसे दूर हट जाएगा। और जिसको भी तुम प्रेम दोगे--बिना किसी मांग, बिना किसी शर्त के--वही तुम्हारे निकट आ जाएगा और तुम्हारे हृदय को अनंत-अनंत संपदाओं से भर देगा।
हैं जाहिर उस पे चमन की हकीकतें जिसने
शगुफ्ता लाला-ओ-गुल का मआल देखा है
नहीं है दिल में तमन्नाए-वस्ल तक बाकी
फिराके-यार में इतना मलाल देखा है
इस जगत में इतना दुख तुमने देखा; परमात्मा के बिना इतना दुख देखा; उसकी प्रतीक्षा में, उसकी इंतजारी में इतना दुख देखा; लेकिन फिर भी तुम कुछ सीखे नहीं! एक बात सीखनी थी--
नहीं है दिल में तमन्नाए-वस्ल तक बाकी
फिराके-यार में इतना मलाल देखा है
प्यारे की प्रतीक्षा में कि प्यारा मुझे मिले, इतना दुख देखा है कि अब उससे मिलन की तमन्ना तक भी मन में बाकी नहीं रही। मिलन की तमन्ना के कारण ही दुख देखा है। वही आकांक्षा दुख का बीज है। वही वासना है, जो दुष्पूर है। वही तृष्णा है, जिसे न कभी कोई भर पाया है और न भर सकेगा।
छोड़ो आकांक्षा! कल की तो बात ही मत उठाओ, कि कल यह मिले वह मिले। संन्यास लेकर भी तुम संन्यासी की भाषा नहीं सीखते, भाषा संसारी की ही जारी रहती है। संसार की भाषा क्या है--यह मिले, वह मिले, और मिले, और ज्यादा मिले! संन्यास की भाषा क्या है--जो है वह जरूरत से ज्यादा है; जितना मिला है उतनी भी मेरी पात्रता नहीं है; मैं धन्यवादी हूं! फिर तुम कमाल देखोगे, चमत्कार देखोगे! विस्मय-विमुग्ध हो जाओगे! झुक जाओगे--आनंद से, अनुग्रह से!
बाहर ही आंखें भटकती रहीं तो द्वंद्व में ही पड़े रहोगे।
चमन वालों को या रब तूने यह किस फेर में डाला
कभी फस्ले-खिजां आई, कभी फस्ले-बहार आई
यह कैसा द्वंद्व कि कभी पतझड़--कि पात-पात गिर जाते, कि वृक्ष रूखे और नग्न हो जाते! और कभी वसंत-मधुमास--नये अंकुर निकल आते, नये पत्ते, नई हरियाली, नये गीत फूट पड़ते! नये फूलों से हवाएं सुगंधित हो जातीं! कभी दुख कभी सुख! कभी दिन कभी रात! कभी जन्म कभी मृत्यु!
चमन वालों को या रब तूने यह किस फेर में डाला
कभी फस्ले-खिजां आई, कभी फस्ले-बहार आई
यहां सब बदलता ही रहता है। यहां द्वंद्व है। बाहर देखोगे तो द्वंद्व है। इसलिए बाहर देखने के लिए आदमी के पास दो आंखें हैं। दो आंखें यानी द्वंद्व को देखने वाली भाषा। और भीतर देखने वाली एक आंख है, इसलिए उसको हमने तीसरा नेत्र कहा है।
तुमने शायद सोचा न हो कि जब बाहर देखने की दो आंखें हैं तो भीतर भी देखने के लिए दो आंखें क्यों नहीं हैं! भीतर देखने के लिए एक आंख। दो आंखों से द्वंद्व पैदा होता है; एक आंख से द्वंद्वातीत अवस्था आती है। फिर न वहां दुख है न सुख। फिर न वहां दिन है न रात। फिर वहां एक ही शेष रह जाता है, जिसे कोई भी नाम नहीं दिया जा सकता। वही तुम हो! तत्वमसि! अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! इन महाउदघोषों में उसी एक की घोषणा है!
और फिर कोई तकलीफ नहीं है। फिर यह जो अड़चन आनंद मोहम्मद, आज मालूम होती है, अड़चन नहीं मालूम होगी।
आशियां में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ
सब बराबर हैं तबीयत अगर आजाद रहे
फिर न तो अपने घर में कोई फर्क पड़ता है और न कारागृह में। नीड़ हो अपना तो ठीक और हाथों में जंजीर हों और कैद हो तो ठीक।
आशियां में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ
सब बराबर हैं तबीयत अगर आजाद रहे
और तबीयत कब आजाद होती है? जब तुम निर्द्वंद्व हो जाते हो। जब तुम साक्षी रह जाते हो द्वैत के! जब इन दो आंखों के पार तुम एक आंख को पकड़ लेते हो, पहचान लेते हो! उसी एक आंख की तलाश संन्यास है, ध्यान है।
घबड़ाओ मत; बहुत बार उभरोगे, बहुत बार डूबोगे। यह शुरू-शुरू में स्वाभाविक है। पुराना एकदम पीछा नहीं छोड़ देता। तुम लाख उपाय करो, जिसके साथ इतने पुराने संबंध बनाए हैं, जन्मों-जन्मों से जिससे दोस्ती बांधी है, वह एकदम नहीं छोड़ देगा; उसने जड़ें तुम्हारे प्राणों तक पहुंचा दी हैं।
फिर बढ़ चला तलातुमे-तूफाने-आरजू
हालांकि डूब कर अभी उभरा नहीं हूं मैं
एक तूफान से उभर नहीं पाते कि फिर तूफान उठने लगता है। और तूफान किस बात का है? आरजू का, आकांक्षा का!
फिर बढ़ चला तलातुमे-तूफाने-आरजू
यह उठी आंधी फिर, यह उठा अंधड़, यह उठा तूफान! फिर समुंदर विक्षिप्त होने लगा--आकांक्षाओं का; वासनाओं का।
फिर बढ़ चला तलातुमे-तूफाने-आरजू
हालांकि डूब कर अभी उभरा नहीं हूं मैं
अभी पहले तूफान से ही डूब कर उभर नहीं पाए थे और यह दूसरा तूफान चला आया। तूफानों की कतार लगी है, क्यू बंधा है। संसार छोड़ दिया, संन्यासी हो गए। सोचते होओगे, संन्यासी होते ही सब ठीक हो जाएगा।
काश, इतना आसान होता! संन्यास भी होते-होते ही होगा, बनते-बनते ही बात बनेगी। यह जीवन-शैली भी आते-आते ही आती है। आहिस्ता-आहिस्ता परदे उठते हैं, घूंघट सरकता है। धीरे-धीरे, शनैः-शनैः आत्म-साक्षात्कार होता है। पहले तो किरणें, झलकें; फिर सूरज।
घबड़ाओ मत, सम्हल कर चलना होगा। और प्रेम का रास्ता, संतों ने कहा, खड्‌ग की धार है। इसलिए तो कहा: प्रेम-पंथ ऐसो कठिन! इधर गिरे कुआं, उधर गिरे खाई। और दोनों के बीच में चलना है; जैसे कोई नट चलता हो रस्सी पर, एक-एक पग सम्हाल कर रखना है।
तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा अपनी
तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती डूबती अपनी
माझी ने थोड़ा होश रखा होता, तवज्जोह, थोड़ा ध्यान दिया होता!
तवज्जोह सर्फ करता वाकई गर नाखुदा अपनी
अगर माझी ने थोड़ा ध्यान दिया होता, थोड़ा होश रखा होता!
तो क्यों साहिल से टकरा के किश्ती डूबती अपनी
और तूफानों से तो लोग बच जाते हैं, साहिल से टकरा जाते हैं। क्यों साहिल से टकरा जाते हैं? क्योंकि तूफानों में तो होश रहता है--इतना खतरा चारों तरफ हो, आदमी सोना भी चाहे तो कैसे सोए!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे सुबह बोली कि रात भयंकर आंधी उठी, अनेक मकान गिर गए, अपना भी छप्पर उड़ गया। कई लोग मर गए, आधा गांव बरबाद हो गया है। ऐसी बिजली, ऐसे बादल, ऐसा गर्जन कि मुर्दे भी कब्रों से उठ आएं!
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: अरे तो मुझे क्यों नहीं उठाया? ऐसा अवसर मैं देखने से चूक ही गया! जरा मुझे भी उठा देती।
कुछ लोग हैं जो ऐसे सो रहे हैं। उनकी तो बात छोड़ो। लेकिन आनंद मोहम्मद, तुम उन लोगों में से नहीं हो। जागने की आकांक्षा तो आई है, प्यास तो है, तभी तो संन्यस्त हुए हो। ऊब गए हो अब तूफानों से, साहिल की तलाश कर रहे हो। लेकिन एक खतरा है। तूफान में तो आदमी थोड़ा होश रखता है, रखना ही पड़ता है--नाव डूबी, अब डूबी तब डूबी होती है। सम्हल कर चलना पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे किनारा करीब आता है वैसे-वैसे होश खोने लगता है--अब क्या फिकर, अब तो पहुंच ही गए; अब पहुंचे तब पहुंचे! अब तो थोड़ी झपकी ले लो। अब तो थोड़ा आराम कर लो। अब तो थोड़ा विश्राम कर लो। और इस तूफान के बाद विश्राम करना ठीक भी लगता है, मौजूं भी मालूम पड़ता है, जरूरी भी, स्वाभाविक भी। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि तूफान में बहुत कम लोग डूबते हैं, कश्तियां तो साहिल से टकरा कर ही डूबती हैं। क्योंकि जब भी कोई सो जाता है तभी टकराहट हो जाती है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि संसार से भागो। मैं तो कहता हूं रहो संसार में ही, ताकि तूफान तुम्हें सोने न दे। जागरण तो लाना है। और संसार से जगाने वाली जगह और कहां होगी! यहां मुर्दे उठ आएं कब्रों से।
और तुम संन्यास को साहिल मत बना लेना। संन्यास साहिल नहीं है। तूफान में ही जागना है। किसी सुरक्षित स्थान की खोज नहीं है संन्यास--असुरक्षा को ही सुरक्षा में रूपांतरित करने की कला है, कीमिया है।
धीरज रखो, होगा। वह अपूर्व भी घटित होगा, जब प्रेम में परमात्मा मिलता है। लेकिन उसके पहले बहुत कांटे मिलेंगे, तब कहीं तुम गुलाब तक पहुंच पाओगे। लेकिन गुलाब तक पहुंचना निश्र्चित है। और जिस दिन पहुंच जाओगे उस दिन कांटे बिलकुल भूल जाएंगे; शायद तुम कांटों को धन्यवाद भी दो, क्योंकि न होते कांटे तो शायद तुम गुलाब तक कभी पहुंचते भी नहीं। कांटों की ही तो सीढ़ियां बनानी हैं।

दूसरा प्रश्र्न:
भगवान, आज तक दो प्रकार के खोजी हुए हैं। जो अंतर्यात्रा पर गए, उन्होंने बाह्य जगत से अपने संबंध न्यूनतम कर लिए। जो बाहर की विजय-यात्राओं पर निकले उन्हें अंतर्जगत का कोई बोध ही नहीं रहा। आपने हमें जीने का नया आयाम दिया है--दोनों दिशाओं में हमें अपनी यात्रा पूरी करनी है। ध्यान और सत्संग से जो मौन और शांति के अंकुर निकलते हैं, बाहर की भागा-भागी में वे कुचल जाते हैं। फिर बाहर के संघर्षों में जिस रुग्णता और राजनीति का हमें अभ्यास हो जाता है, अंतर्यात्रा में वे ही कड़ियां बन जाती हैं। प्रभु, दिशा-बोध देने की अनुकंपा करें।
आनंद अरुण, मनुष्य का अतीत जिन बहुत सी भूलों में उलझा रहा है, उनमें सबसे बड़ी भूल यही थी कि हमने अंतर्यात्रा और बहिर्यात्रा को बांटा, कि हमने उनको दो यात्रा कहा। अंतर और बाहर को बांटा नहीं जा सकता; वे संयुक्त हैं, उन्हें वियुक्त करने का कोई उपाय नहीं है।
जैसे तुम्हारी देह और आत्मा। तुम्हारी देह तुम्हारी आत्मा का प्रकट रूप है और तुम्हारी आत्मा तुम्हारी देह की अप्रकट शक्ति है; बस इतना ही भेद है प्रकट और अप्रकट का, लेकिन दोनों संयुक्त हैं। तुम भोजन करते हो, जाता तो देह में है, लेकिन आत्मा भी सबल होती है। और तुम ध्यान करते हो, ध्यान घटता तो आत्मा में है, मगर देह पर भी ओज फैल जाता है। संयुक्त है।
परमात्मा और यह सृष्टि, स्रष्टा और उसकी सृष्टि अलग-अलग नहीं हैं--एक हैं। लेकिन अतीत में यह हुआ, शायद होना ही था; क्योंकि कुछ भूलें करके ही तो आदमी सीखता है, बिना भूलें किए सीखने का उपाय भी तो नहीं है। एक भूल हुई--बड़ी से बड़ी भूल--कि हमने बाहर और भीतर को बांट दिया। बाहर की यात्रा पर निकले लोगों को हमने कहा सांसारिक; और भीतर की यात्रा पर निकले लोगों को हमने कहा धार्मिक, आध्यात्मिक।
लेकिन जो भीतर की यात्रा पर गया है, अगर बाहर की यात्रा बिलकुल ही अवरुद्ध कर ले, तो उसकी अंतर्यात्रा निष्प्राण हो जाएगी, निर्वीर्य हो जाएगी, अधूरी रह जाएगी। और अधूरे सत्य असत्यों से भी बदतर होते हैं। एकांगी हो जाएगी उसकी यात्रा। वह शांत तो हो जाएगा, लेकिन उसकी शांति में एक गहन उदासी होगी।
यही हुआ, सदियों-सदियों में तुम्हारे संत उदास हुए। उदासीनता उनका लक्षण ही हो गई। शांति तो मिली, लेकिन उत्सव न हुआ। सन्नाटा तो आया, लेकिन ऐसा सन्नाटा नहीं जो गुनगुनाता है, जो गीत बन जाता है! नाचता हुआ सन्नाटा नहीं, मरघट की शांति मिली उन्हें; बगिया की शांति नहीं--जहां फूल खिलते हैं, सुगंध बिखरती है, पक्षी गीत गाते हैं!
कल देखा, रैदास कह रहे थे कि तू है जैसे आकाश में घिरे हुए बादल और मैं हूं जैसे नाचता हुआ मोर! जब तक तुम्हारा ध्यान नाचे नहीं तब तक तुम्हारे ध्यान में कुछ अनिवार्य कमी है; तुम्हारा ध्यान जड़ है। ध्यान के पैरों में घुंघरू बंधने ही चाहिए, तब समग्रता से सत्य का अनुभव होता है।
तो जो भीतर गए उन्होंने बाहर से आंख मोड़ ली। वे अपने में बंद हो गए। वे एक तरह की कुंठा में घिर गए। बातें तो उन्होंने बहुत कीं अहंकार को छोड़ने की, मगर अहंकार की ही चारदीवारी के भीतर बंद हो गए। बातें तो उन्होंने बहुत कीं कि मैं को छोड़ना है--शायद इसीलिए कीं, क्योंकि मैं उन्हें इतना सताने लगा, मैं ही बचा, तू को तो छोड़ ही दिया, तू से तो पीठ मोड़ ली, बस मैं ही मैं बचा।
इसलिए तुम्हारे साधु-संत अगर दुर्वासा बन गए तो आश्र्चर्य नहीं। जहां मैं बचेगा वहां दुर्वासा पैदा होगा। तुम्हारे साधु-संत, तुम्हारे ऋषि-मुनि अभिशाप देने में कुशल हो गए तो आश्र्चर्य नहीं। आश्र्चर्य ऐसे होता है कि ऋषि-मुनि और अभिशाप! जरा-जरा सी बातों पर लोगों का एकाध जन्म नहीं, आगे के जन्म भी बिगाड़ दें, इनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो! एक जन्म बिगाड़े उसको अपराधी कहते हो और जो तुम्हारे जन्म-जन्म बिगाड़ दें, इनको ऋषि-मुनि कहते हो! यह तो महापाप हो गया। और इतना क्रोध इनमें कहां से आ रहा है? क्रोध बिना अहंकार के पैदा नहीं होता। क्रोध तो अहंकार का ही बेटा है। क्रोध तो अहंकार की संतति है। क्रोध तो अहंकार का ही विस्तार है।
सब तरफ से बाहर से अपने को खींच कर भीतर बंद कर लिया, सब चुनौतियों से भाग गए, अपने में बंद, कुंठित हो गए, रुग्ण हो गए, तोड़ लिया अपने को सबसे और सोचने लगे--सबसे तोड़ कर अपने को परमात्मा से जोड़ लेंगे! परमात्मा तो सबमें व्याप्त था। अगर परमात्मा से ही जोड़ना था तो सबसे अपने को जोड़ना था। जितना तुमने अपने को दूसरों से तोड़ लिया उतने ही तुम परमात्मा से टूट गए--रह गए अकेले, एकांगी, एकाकी। बचा सिर्फ तुम्हारा अहंकार। मनोविज्ञान इस तरह की मनोवृत्ति को कहता है--नार्सीसिज्म। यूनानी कथा है नार्सीसस की, उसके आधार पर यह शब्द बना।
नार्सीसस एक बहुत सुंदर युवक हुआ। वह इतना सुंदर था कि एक झील में अपने ही प्रतिबिंब को देख कर मोहित हो गया। मगर तुम उसकी मुसीबत समझ सकते हो: जैसे ही झील में उतरे, झील कंप जाए, प्रतिबिंब खो जाए; किनारे पर बैठे, झील शांत हो जाए, लहरें विलीन हो जाएं, फिर प्रतिबिंब दिखाई पड़ने लगे। वह वहीं झील के किनारे बैठा-बैठा मर गया। उसकी याददाश्त में नदियों और झीलों के किनारे उगने वाले एक पौधे का नाम नार्सीसस रख दिया गया है। वह पौधा झील और नदी के किनारे ही उगता है और सदा झील की तरफ झुका रहता है और झील के दर्पण में अपने को देखता रहता है। वह पौधा भी!
मनोविज्ञान कहता है: नार्सीसस जैसा जो हो जाएगा, वह विक्षिप्त हो गया, रुग्ण हो गया। और तुम्हारा जो अंतर्यात्रा का अब तक का ढंग रहा, रवैया रहा, वह नार्सीसस का है--बस अपने में बंद हो जाओ। तुम्हीं सब कुछ हो, तुम्हारे बाहर कुछ भी नहीं है। सब द्वार-दरवाजे बंद कर लो, न आए सूरज, न आएं हवाएं, न आए चांद, न झांकें तारे, बाहर की कोई आवाज भी न सुनाई पड़े--कान बंद कर लो, आंख बंद कर लो! कहानियां हैं कि संतों ने अपनी आंखें फोड़ लीं कि कहीं रूप से आकर्षित न हो जाएं, कि अपने कान फोड़ लिए कि कहीं संगीत प्रभावित न कर दे।
ये तो विक्षिप्तता के लक्षण हुए और इसका एक स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि बहुत थोड़े-से लोग ही इस तरह के धर्म में उत्सुक हुए। जो विक्षिप्त थे वे ही उत्सुक हुए। उनको अपनी विक्षिप्तता के लिए एक तर्क मिल गया, क्योंकि विक्षिप्तता आध्यात्मिक मालूम होने लगी।
यह बात तुम्हें हैरान करेगी, लेकिन स्मरण दिलाने योग्य है कि पश्र्चिम के देशों में, जहां धर्म का प्रभाव कम हो गया है, अधिक लोग पागल होते हैं। इससे भारतीय अहंकारियों को मौका मिल जाता है कहने को कि देखो, यद्यपि हम गरीब हैं, हमारे पास विज्ञान नहीं, टेक्नालॉजी नहीं, धन नहीं, रोटी नहीं, रोजी नहीं, कपड़ा नहीं, छप्पर नहीं, बीमारियां हैं, अकाल पड़ते हैं, बाढ़ें आती हैं, सब मुसीबतें हैं--फिर भी हमारे देश में इतने लोग पागल नहीं होते! जरूर हमारे अध्यात्म का प्रभाव है।
बात कुछ और है। बात सिर्फ इतनी है कि हमारे मुल्क में भी उतने ही लोग पागल होते हैं जितने पश्र्चिम में, लेकिन हमारे मुल्क में जब कोई पागल होता है तो वह अध्यात्म की चदरिया ओढ़ लेता है। वह पागल मालूम ही नहीं होता, वह तो आध्यात्मिक मालूम होने लगता है। पश्र्चिम में वही आदमी पागलखाने में भर्ती किया जाएगा। पूरब में उसी आदमी की पूजा की जाएगी। इस तरह के लोगों को यहां परमहंस कहा जाता है, जो बैठ कर खाना खा रहे हैं, उसी थाली में कुत्ते भी खा रहे हैं, उसी थाली में वे भी खा रहे हैं। इनको हम परमहंस कहते हैं। पश्र्चिम इनको पागल कहेगा कि इनको अब बुद्धि भी नहीं रही, विवेक भी नहीं रहा, थोड़ा भेद भी नहीं कर सकते। वहीं पाखाना कर लेंगे, वहीं बैठ कर भोजन कर रहे हैं--इनको हम परमहंस कहते हैं! इनको दुनिया में कहीं भी परमहंस नहीं कहा जाएगा। इनको स्किजोफ्रेनिक पश्र्चिम में कहा जाएगा कि इनका व्यक्तित्व खंडित है, टूटा हुआ है। ये दो व्यक्ति हैं--एक व्यक्ति ने पाखाना किया, दूसरा खाना खा रहा है। ये एक व्यक्ति होते तो यह असंभव था करना। इनका व्यक्तित्व विभाजित हो गया है, दो खंडों में टूट गया है।
और मैं मानता हूं कि पश्र्चिम की दृष्टि इस संबंध में ज्यादा सत्य के करीब है, लेकिन अध्यात्म ओढ़ लिया जाए...।
मैं एक सज्जन को जानता हूं, मेरे पड़ोस में ही रहते थे। उनको लोग बड़ा धार्मिक मानते थे। जब मैं उस जगह गया पहली दफा रहने तो लोगों ने मुझसे कहा कि हमारे पड़ोस में एक अदभुत व्यक्ति रहते हैं, बड़े धार्मिक हैं! मैंने कहा, उनकी धार्मिकता के संबंध में कुछ विस्तार से मुझे कहो, क्योंकि मैं इतने धार्मिक लोगों को जानता हूं और जब उनका विस्तार पता चलता है तो बड़ी हैरानी होती है।
उनकी धार्मिकता की प्रसिद्धि का कुल कारण इतना था कि वे सुबह नल पर जब पानी भरने जाते थे तो अगर कोई स्त्री दिखाई पड़ जाए तो फिर से बर्तन मलते, फिर धोते, फिर पानी भरते; इस बीच फिर कोई स्त्री दिखाई पड़ जाए तो फिर बर्तन मलते। कभी-कभी दस दफा, कभी-कभी बीस दफा, कभी तीस दफा! पानी भर कर चले आ रहे हैं रास्ते पर और फिर कोई स्त्री दिख गई। अब स्त्रियां ही स्त्रियां हैं सब तरफ। इससे उनकी बड़ी ख्याति थी कि अहा, यह है ब्रह्मचर्य!
अब यह आदमी ब्रह्मचारी है या पागल?
एक महिला को मैंने कहा कि मैं तुझे दस रुपये दूंगा, तू आज इनके पीछे ही पड़ जा। तेरा दिन भर का काम इतना ही है कि उसी नल के आस-पास चक्कर लगाती रह, जहां ये पानी भरते हैं। आज सांझ तक इनको पानी भरने नहीं देना है।...दस दफा, बीस दफा, पच्चीस दफा, तीस दफा, फिर आखिर उनको आग जलने लगी, क्रोध आने लगा कि यह तो स्त्री शरारत कर रही है। मतलब वही की वही स्त्री आ जाती है बार-बार! और मालूम है उन्होंने क्या किया? उन्होंने अपना जो बर्तन था, जो मटका था, वह उस स्त्री के सिर पर दे मारा। उस स्त्री को अस्पताल ले जाना पड़ा। उसने मुझसे कहा कि दस रुपये में आपने मंहगा काम करवाया।
मैंने कहा: तू फिकर मत कर, मगर एक आदमी का अध्यात्म तो समाप्त हुआ, एक आदमी का अध्यात्म से छुटकारा हुआ! मोहल्ले भर के लोगों ने कहा कि यह कैसा आदमी है! भाई तुम्हें अपना बर्तन धोना है धोओ, मगर किसी के सिर पर तो नहीं मार सकते।
अब तक इसको वहां तक नहीं खींचा गया था जहां दुर्वासा प्रकट हो जाता है, क्योंकि कभी कोई एक स्त्री निकल गई तो ठीक है, उसने धो लिया अपना बर्तन। और इससे उसको प्रतिष्ठा मिल रही थी, इसलिए इसमें रस भी था। जिस दिन कोई स्त्री न गुजरती होगी उस दिन उसे मजा भी नहीं आता होगा। मगर एक सीमा है हर चीज की।
मैंने उन सज्जन को जाकर कहा कि उस स्त्री पर नाराज न हों, नाराज होना हो तो मुझ पर हों। मैंने ही आयोजन किया था, देखना था कि अध्यात्म किस तरह का है। और स्त्री को देख कर तुम्हारा जल अपवित्र हो जाता है! तुम्हारा बर्तन अपवित्र हो जाता है! देखते तुम हो कि बर्तन देखता है? अगर स्त्री को देख कर कुछ अपवित्र होता है तो तुम स्नान किया करो, बर्तन क्यों मलते हो? बर्तन बेचारे के पास आंखें भी नहीं हैं! और पानी को क्यों बदलते हो, पानी का क्या कसूर है? और जिस नदी से यह पानी आ रहा है, उसमें स्त्रियां नहा रही हैं; स्त्रियां ही नहीं, भैंसें किल्लोल कर रही हैं, क्रीड़ा कर रही हैं। और यह नल जिससे तुम पानी भर कर आते हो, यह नालियों में से गुजर रहा है, जमाने भर की गंदगियों में से गुजर रहा है, कहां-कहां से होकर चला आ रहा है--वह सब ठीक!
और मैंने उनसे पूछा कि जब तुम पैदा हुए थे तो स्त्री से पैदा हुए कि पुरुष से? नौ महीने मां के पेट में रहे कि नहीं? तब क्या करते रहे? कैसे गुजारे नौ महीने? फिर मां का दूध पीकर बड़े हुए, उसकी शुद्धि कैसे करोगे? तुम जाओ अस्पताल में और सारा खून बदलवा लो। सब खून निकलवा कर नया खून डलवा लो। मगर ध्यान रखना, नया खून भी ऐसे आदमी से डलवाना जो स्त्री से पैदा न हुआ हो, और ऐसे आदमी का डलवाना जो स्त्री से पैदा न हुआ हो। बेहतर तो यह हो कि तुम खून निकलवा लो, पानी भरवा लो--शुद्ध, गंगाजल!
मगर उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। जब मैं वहां रहने लगा तो कुछ ही दिनों में वे छोड़ कर चले गए उस इलाके को। मैंने कहा: तुम भाग न सकोगे, तुम जिस इलाके में जाओगे वहीं मैं आ जाऊंगा। वे तो गांव ही छोड़ दिए। उनका पता ही नहीं चला वे कहां गए। वे किसी दूसरी जगह परमहंस हो गए होंगे।
तुम किसको अब तक साधु कहते रहे, संत कहते रहे--भगोड़ों को, पलायनवादियों को? और कारण कुल इतना था कि हमने बाहर और अंतर को तोड़ दिया। तो एक तरफ थोथा धार्मिक आदमी पैदा हुआ, जो करीब-करीब विक्षिप्त है; और दूसरी तरफ भोगी पैदा हुआ, वह भी बेचारा विक्षिप्त है। क्योंकि वह सोचता है कि मैं तो बाहर की यात्रा पर लगा हूं, मैं कैसे भीतर जाऊं! तो वह भीतर जाने की चेष्टा नहीं करता। फिर उसे डर भी है कि भीतर जाएगा तो बाहर की सारी की सारी व्यवस्था तोड़नी पड़ेगी; वह वह तोड़ना नहीं चाहता, उसके बड़े न्यस्त स्वार्थ हो गए हैं।
तुम्हारे तथाकथित धर्म ने कुछ लोगों को भीतर की विक्षिप्तता दे दी और कुछ लोगों को बाहर अटका दिया। मैं यह सारा जाल तोड़ देना चाहता हूं। इसलिए मुझसे सांसारिक भी नाराज होंगे और धार्मिक भी नाराज होंगे। मेरी उदघोषणा है कि बाहर और भीतर संयुक्त हैं, इनको अलग नहीं किया जा सकता। अलग करने की कोशिश करना भी मत, क्योंकि इन दोनों से मिल कर ही पूर्ण सत्य निर्मित होता है।
इसलिए अरुण, जैसे श्र्वास कभी भीतर आती है और कभी बाहर जाती है--ऐसे जीओ। अब कोई आदमी कहे कि जो श्र्वास भीतर गई, अब हम बाहर न जाने देंगे, हम तो भीतर ही सम्हालेंगे! अरे क्यों अपने भीतर की संपदा को बाहर जाने दें! तो कर लो नाक बंद और रोक लो श्र्वास को भीतर, ज्यादा देर न जीओगे। या कि जो बाहर गई, गई! जो बाहर जाती है बार-बार, ऐसी भ्रष्ट श्र्वास को फिर क्या भीतर लेना! नमस्कार कर लो और भीतर मत लो, तो भी मरोगे।
कभी तुम श्र्वास में यह भेद नहीं करते; न तुम्हारे संन्यासियों ने किया अब तक, न तुम्हारे ऋषियों ने किया अब तक। श्र्वास का एक पहलू है भीतर जाना और दूसरा पहलू है बाहर जाना। श्र्वास ताजी रहती है जितनी बाहर-भीतर जाए; क्योंकि भीतर जाकर जो भी प्राणप्रद है श्र्वास में, वह तुम ले लेते हो और जो भी व्यर्थ है वह बाहर वापस चला जाता है। फिर बाहर से शुद्ध होकर श्र्वास भीतर चली आती है। यह जो एक संतुलन है बाहर और भीतर का श्र्वास-प्रश्र्वास का, ऐसा ही संतुलन जीवन का चाहिए।
मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम कहते हो कि अगर भीतर जाते हैं तो मौन और शांति के अंकुर निकलते हैं, जो बाहर की भागा-भागी में कुचल जाते हैं।
कोई फिकर नहीं, कुचल जाने दो। एक बार कुचलेंगे, दो बार कुचलेंगे, धीरे-धीरे मजबूत होंगे। मजबूत होने की यही कला है, यही ढंग है। ऐसे ही दंड-बैठक लगता रहेगा। ऐसे ही तुम धीरे-धीरे मजबूत होओगे। ऐसे ही तुम्हारा ध्यान मजबूत होगा। फिर बाहर जाने से, बाहर की आपा-धापी से तुम्हारे अंकुर कुचले नहीं जाएंगे, बल्कि तुम एक चमत्कार देखोगे कि बाहर जाना तुम्हारे ध्यान के अंकुरों के लिए खाद बन जाएगा।
और अभी तुम कहते हो कि बाहर जाते हैं तो रुग्णता और राजनीति का अभ्यास हो जाता है, वह भीतर जाने में बाधा बनता है।
वह भी बाधा नहीं बनेगा। वह भी इसलिए बाधा बनता है कि अभी तुम ध्यान को ठीक से समझ नहीं पा रहे। अभी तुम साक्षीभाव नहीं पैदा कर पा रहे। नहीं तो बाहर के जगत में साक्षी होकर जीओ। फिर आदतें पीछा नहीं करेंगी तुम्हारा। भूल जाते हो साक्षीभाव को, इसलिए बाहर के उपद्रव और झगड़े-झांसे फिर भीतर चले आते हैं।
इसी कारण तो अतीत में यह भूल हो गई कि लोगों ने देखा, अगर बाहर के काम में लगो तो भीतर गड़बड़ होती है; अगर भीतर की शांति सम्हालो तो फिर बाहर जाने में डर लगता है, कहीं शांति नष्ट न हो जाए! इसलिए बांट ही लो: कुछ लोग भीतर रहें, वे ऋषि-महर्षि; अधिक लोग बाहर रहें, क्योंकि रहना ही पड़ेगा अधिक लोगों को! ऋषि-महर्षियों को भी तो भोजन चाहिए! वह कहां से पाएंगे, अगर सभी लोग ऋषि-महर्षि हो जाएं?
जरा सोचो तो कि सभी लोग महावीर हो गए, सब खड़े नंग-धड़ंग, किससे भिक्षा मांगोगे? किससे भोजन लेने जाओगे? कौन निमंत्रण देगा कि महाराज, आज हमारे घर से भोजन ग्रहण करें! एक महावीर को जिंदा रखना हो तो कम से कम दस आदमियों को बाहर उलझे रहना पड़ता है। तुम भाग जाओ बाहर से, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, तुम उन्हीं पर तो निर्भर हो! तुम उन पर निर्भर हो जो बाहर जी रहे हैं। और वे जो बाहर जी रहे हैं, वे भी तो बार-बार महावीर के चरणों में आते हैं, बुद्ध के चरणों में आते हैं कि थोड़ी सी अंतर्वाणी सुनाई पड़ जाए। वे भी तृप्त नहीं हैं, वहां भी कुछ कमी है।
संसारी खोजता है किसी सत्संग को। क्यों? क्योंकि उसे लगता है कि कुछ है जो मैं चूक रहा हूं। धन भी है, पद भी है, प्रतिष्ठा भी है, मगर आत्म-बोध नहीं है, आत्म-अनुभव नहीं है; भीतर का तो कोई संगीत ही सुनाई नहीं पड़ता, रोशनी नहीं दिखाई पड़ती! तो जाऊं उनके पास, बैठूं थोड़ी देर--जिनको भीतर की रोशनी मिल गई। वह भी उनकी तलाश करता है जो भीतर पहुंच गए हैं, या कम से कम भीतर पहुंचने का जिनका उसे खयाल है, पहुंचे हों या न पहुंचे हों। और जो भीतर गए हैं, वे भी उसकी तलाश करते हुए आते हैं, जो बाहर के काम में लगा है, क्योंकि उन्हें भी रोटी चाहिए, छप्पर चाहिए, ठहरने को जगह चाहिए। दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। दोनों एक-दूसरे से मुक्त नहीं हैं।
बजाय इस तरह करने के, क्यों नहीं तुम स्वयं ही दोनों को एक साथ साध लेते? यह मेरी प्रक्रिया है। क्यों दूसरों पर निर्भर रहो? समझो कि अगर बाहर रहना पाप है तो जो भी बाहर रह रहे हैं उनका भोजन ग्रहण करना पाप है। अगर चोरी पाप है और कोई चोर आकर महावीर को दान करे तो महावीर को मना करना चाहिए कि चोरी पाप है, मैं कैसे दान लूं? और यह भी हो सकता है, चोर ने सिर्फ दान देने के लिए ही चोरी की हो, क्योंकि महावीर को देने का मजा वह भी लेना चाहता है; वह भी चाहता है यश; वह भी चाहता है कि लोगों को पता चल जाए कि मैं भी दाता हूं! उसने चोरी की हो महावीर को दान देने के लिए, तो जिम्मेवार कौन होगा फिर? इसकी चोरी में भागीदार कौन होगा?
एक सज्जन मेरे पास आए। ख्यातिनाम साधु हैं। हिमालय में उनकी बड़ी ख्याति है। वे पैसा नहीं छूते। वह उनकी ख्याति का खास कारण है। ख्यातियां भी अजीब! जहां विक्षिप्तताएं प्रचलित हों वहां किन-किन बातों से ख्यातियां मिलती हैं, यह भी सोचने जैसा मामला है! वह पैसा नहीं छूते। मैंने उनसे कहा कि पैसा क्यों नहीं छूते? उन्होंने कहा: मिट्टी है। मैंने कहा: मिट्टी तो तुम मजे से छूते हो! अगर पैसा मिट्टी है तो छुओ। मिट्टी को छूने में क्या हर्जा है? तुम्हारा न छूना ही बता रहा है कि पैसा मिट्टी नहीं है।
वे जरा मुश्किल में पड़ गए, सिर खुजलाने लगे। मैंने कहा: मिट्टी को छूने में तुम एतराज नहीं करते। मिट्टी पर बैठते हो, चलते हो। पैसा ही छूने में क्या एतराज है? पैसा भी है तो आखिर धातु ही! और अब तो धातु भी कहां, अब तो कागज! किताब छूते हो कि नहीं? गीता छूते हो कि नहीं?
उन्होंने कहा: गीता क्यों नहीं छूऊंगा! मैंने कहा: गीता से ज्यादा अच्छे कागज पर नोट छपा है; स्याही भी बेहतर है, कागज भी सुंदर है। इसे छूने में क्या एतराज आ रहा है? चूंकि इस पर दस रुपया लिखा है सिर्फ इसलिए? तो मैं एक कागज पर दस रुपया लिख दूं, छुओगे कि नहीं?
उन्होंने कहा: आप भी कैसी बातें करते हैं!
मैंने उनसे कहा कि कल सुबह ध्यान का प्रयोग होने को है, आप उसमें आ जाना।
उन्होंने कहा: यह जरा मुश्किल है। मैंने आपको कहा कि मैं पैसा नहीं छूता, तो मुझे एक आदमी पर निर्भर रहना पड़ता है। वह आदमी जब मेरे साथ आए तो ही मैं आ सकता हूं, क्योंकि पैसा वह रखता है, वही चुकाता है टैक्सी वाले को। और वह कल नहीं आ सकेगा, कल उसे अदालत जाना है।
मैंने कहा: लोग आपको पैसा वगैरह भेंट करते हैं, वह कहां जाता है? कहा: वह वही आदमी रखता है। मैंने कहा, यह चालबाजी थोड़ा सोचो तो! एक आदमी को साथ रखना पड़ता है, वह पैसा सम्हाल कर रखता है। जैसे कि रईस मुनीम रखते हैं, यह मुनीम हुआ तुम्हारा। और यह तो बड़ी गुलामी हो गई! कल तुम्हें आना है, लेकिन तुम नहीं आ सकते, क्योंकि मुनीम को अदालत जाना है। अरे तुम्हारे खीसे में क्या खराबी है? उसके खीसे में हाथ डाल कर निकालते हो न! उसका ही हाथ है, उसका ही खीसा है, मगर निकालता तुम्हारे लिए है। पैसा भी तुम्हीं को भेंट मिलता है, रखता वह है। उसको क्या देते हो तनख्वाह?
पहले तो वे जरा इधर-उधर...। मैंने कहा कि मुझसे तुम झूठ नहीं बोलना, नहीं तो जन्म-जन्म भुगतोगे। बात सच्ची कह देना।
कहने लगे, अब आपसे क्या छिपाना! तीन सौ रुपये महीने उसको देना पड़ता है और फिर भी उस पर निर्भर रहना पड़ता है!
यह सब क्या खेल चल रहा है! मगर उनकी प्रसिद्धि यह है कि वे पैसा नहीं छूते।
आचार्य विनोबा भावे को अगर नोट दिखा दो, वे जल्दी से आंख बंद कर लेते हैं। जरूर नोट में बहुत रस होगा। इतना क्या रस? क्या आंख से लार टपकती है? क्या मामला क्या है? यह तो एक तरह का रोग हुआ। जैसे किसी आदमी को नोट दिखा दो, वह एकदम से आंख बंद कर ले। नोट में तो बड़ा जादू मालूम होता है! और किसी चीज को देख कर वे आंख बंद नहीं करते, नोट को देख कर आंख बंद कर लेते हैं। यह तो नोट से बड़ा भय हुआ। कहीं कोई भीतर रुग्ण लगाव रह गया है।
यह वजह, इसकी मौलिक वजह यही है अरुण कि हमने बाहर और भीतर को दो हिस्सों में तोड़ दिया। इससे बड़े उपद्रव पैदा हुए। झूठे पाखंडी साधु पैदा हुए और दीन-हीन भोगी पैदा हुए। भोगी सोचते हैं, हमसे क्या होगा, हम तो भोगी हैं! हम तो सेवा ही कर लें साधु-संन्यासियों की, उतना ही बहुत है, उतना ही पुण्य काफी है। कभी अगले जन्म में प्रभु की कृपा होगी, पुण्य का प्रभाव होगा, तो अंतर्यात्रा पर भी जाएंगे; लेकिन अभी तो बहिर्यात्रा पर हैं, अभी तो यह यात्रा पूरी करनी है, अभी तो अंतर्यात्रा पर हम जा नहीं सकते।
उनको अंतर्यात्रा पर न जाने का बहाना मिल गया और जो अंतर्यात्रा पर गए हैं उनकी अंतर्यात्रा नपुंसक है, क्योंकि उनको उन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है जिनकी बहिर्यात्रा है। इतना क्यों उपद्रव खड़ा करना? क्यों न सीधी-सादी जिंदगी जीओ? रोटी कमानी है कमाओ। मगर रोटी कमाने की, बाजार-दुकान चलाने की आदतों में न घिर जाओ। जब दुकान बंद करके आओ तो वे आदतें भी दुकान में ही बंद कर आओ; उनको घर मत लाओ। जब दफ्तर से लौटो तो खाली होकर लौटो। और जब घर में बैठो तो प्रीति में डूबो, ध्यान में डूबो। घर का और अर्थ क्या? नहीं तो घर आए किसलिए? लेकिन चले आए दफ्तर सिर में लिए, तो घर आए काहे को? दफ्तर में ही रहते। घर चले आए दफ्तर को सिर में लिए तो घर तो तुम आए ही नहीं।
यही अरुण, तुम कह रहे हो अड़चन है कि फिर बाहर की आदतें पकड़ लेती हैं!
आदतें तुम्हें नहीं पकड़तीं, तुम्हीं आदतों को पकड़ते हो। पहले तुम्हीं पकड़ते हो, शुरुआत तुम्हीं करते हो।
नदी में बाढ़ आई हुई थी। वर्षा के दिन। पहली-पहली बाढ़। मुल्ला नसरुद्दीन और कुछ लोग नदी के किनारे खड़े बाढ़ को बढ़ता देख रहे थे, तभी एक आदमी चिल्लाया: अरे देखते हो, कंबल बहा जा रहा है!
मुल्ला को तो लालच आ गया। आव देखी न ताव, कूद पड़ा। ज्यादा दूर भी नहीं था, एक पांच-सात हाथ के ही फासले पर था। कंबल को पकड़ लिया। फिर चिल्लाया, बचाओ! तो लोगों ने किनारे से कहा: इसमें बचाना क्या है? अगर कंबल नहीं खींच सकते हो तो छोड़ दो। उसने कहा: अब मुश्किल है मामला। यह भालू है, कंबल नहीं है। अब इसने भी मुझे पकड़ लिया।
पहले तुम पकड़ते हो। मगर हमेशा पहले तुम पकड़ते हो, खयाल रखना। फिर कभी-कभी भालू मिल जाते हैं। दिख रही होगी पीठ कंबल जैसी सुंदर। जिंदा था भालू, वह बहा जा रहा था। अब मुश्किल पड़ी। अब चिल्ला रहे हैं कि बचाओ।
तुम आदतों को पहले पकड़ते हो, फिर धीरे-धीरे उनका अभ्यास तुम्हीं करते हो। और बहुत अभ्यास के बाद वे तुम्हें पकड़ लेती हैं।
फिर तुम पूछते हो, कैसे बचें?
पकड़ो मत आदतों को! उपयोग करो। मस्तिष्क का उपयोग करो। बुद्धि का उपयोग करो। तर्क का उपयोग करो। गणित का उपयोग करो। लेकिन बस उपयोग कर दिया और सरका कर रख लिया। चौबीस घंटे उनसे घिरे रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर घर में ध्यान में डूबो, प्रेम में डूबो, नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। लेकिन इस उत्सव और शांति और आनंद और प्रेम में भी पकड़ जाने की जरूरत नहीं है, कि फिर दफ्तर पहुंच गए नाचते हुए, तो फिर दफ्तर के लोग पुलिस में खबर करेंगे! क्योंकि रोओ अगर दफ्तर में तो क्षमा भी कर दें वे; अगर हंसो तो क्षमा नहीं कर सकते। रोने वाले लोग हंसने वाले लोगों को कैसे क्षमा कर सकते हैं! इतने दुख से भरे लोग आनंदित व्यक्ति को क्षमा नहीं कर सकते।
तो समझ का थोड़ा उपयोग करो; इसी को विवेक कहते हैं। घर में अपनी मौज से जीओ; दफ्तर दफ्तर है, उसकी अपनी दुनिया है। वहां उसी दुनिया में जीओ।
जैसे रास्ते पर बाएं चलने का नियम है कि बाएं चलो। अब यह कोई शाश्र्वत नियम नहीं है, कोई ऐसा नहीं है कि तुम दाएं चलोगे तो नरक भेज दिए जाओगे। मगर बस के नीचे आ जाओगे। कोई ऐसा नहीं है कि दाएं चलने में पाप है। न मनुस्मृति में लिखा है और न किसी और शास्त्र में कि दाएं चलना पाप है। और अमरीका में तो लोग दाएं चलते ही हैं, जैसे भारत में बाएं चलते हैं। यह इंग्लैंड ने सिखा दिया भारत को बाएं चलना। इंग्लैंड में बाएं चलने का रिवाज है, अमरीका में दाएं चलने का रिवाज है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अमरीका जाने की तैयारी कर रहा था। बहुत दिन हो गए, एक दिन पता चला कि अस्पताल में भर्ती किया गया है, कई फ्रैक्चर हो गए हैं! मैं उसे देखने गया। पट्टियां ही पट्टियां बंधी हैं--मुंह पर, चेहरे पर, खोपड़ी पर, हाथ में, पैर में! मैंने कहा: नसरुद्दीन हुआ क्या? उसने कहा: ऐसी की तैसी अमरीका की! मैंने कहा: अमरीका का इसमें क्या लेना-देना है? अभी तो तुम गए ही नहीं! उसने कहा: अरे बिना गए ही यह हालत हो गई। मैं अमरीका जाने का अभ्यास कर रहा था कि वहां क्या-क्या नियम, क्या-क्या विधियां--पता चला कि वहां दाएं चलना पड़ता है, सो कार दाएं चला रहा था, कि अभ्यास तो कर लूं! चम्मच-छुरी से खाने का अभ्यास कर रहा था। और सब तो ठीक रहा, यह दाएं चलाना कार झंझट आ गई। आ गई बस एक और बस बच गए, इतना ही बहुत है!
मैंने कहा: बहुत तकलीफ होती होगी, इतने घाव! उसने कहा: हां, होती है जब हंसता हूं। मैंने कहा: हंसते काहे के लिए हो? उसने कहा, हंसता इसलिए हूं कि अच्छे बुद्धू, अपने शांति से रह रहे थे, अमरीका जाने की सनक सवार हुई। अब भूल कर नहीं जाऊंगा। अब कहीं जाना ही नहीं है। अपने घर में ही रहेंगे। बिना ही गए इतनी झंझट हो गई, अमरीका में क्या हालत हो रही होगी लोगों की!
लेकिन अमरीका में कोई गड़बड़ नहीं हो रही। सभी लोग उसी नियम को मान कर चल रहे हैं, तो वह नियम कारगर हो जाता है। बाएं सब लोग मान कर चलते हैं तो बाएं चलना ठीक हो जाता है; दाएं मान कर चलते हैं तो दाएं चलना ठीक हो जाता है। मगर कोई एक नियम मान कर चलना होता है। यह नियम केवल औपचारिक है। इन नियमों की कोई शाश्र्वतता नहीं है। इनमें कोई पारमार्थिक तत्व नहीं है, कोई पारलौकिक तत्व नहीं है--कामचलाऊ हैं, व्यावहारिक हैं।
तो मैं जानता हूं कि अरुण लोगों के साथ रहोगे तो थोड़ी राजनीति बरतनी होगी, क्योंकि लोग राजनीति से भरे हैं; थोड़े मुखौटे भी लगाने होंगे, क्योंकि लोगों से अगर वैसा ही कह दो सच-सच जैसा है, तो बस अस्पताल में दिखाई पड़ोगे। और फिर दर्द होगा जब हंसोगे!
तो लोग रास्ते पर मिल जाते हैं, भीतर तो कहते हैं कि हे भगवान, आज बचाना, कहां से इस शैतान की सुबह से ही शकल दिखाई पड़ गई! लेकिन उससे ऐसा नहीं कहते, उससे कहते हैं; धन्यभाग कि आप सुबह ही सुबह मिल गए! अरे कितने दिनों से लालसा थी। बड़े मुश्किल से दर्शन हुए, बड़े दुर्लभ दर्शन हैं आपके! और भीतर यही कह रहे हैं कि हे प्रभु, अब बचाना! अब ये चौबीस घंटे किसी तरह गुजर जाएं तो ठीक है। यह सुबह ही सुबह कहां से अपशकुन हो गया! मगर वे भीतर की बातें भीतर, बाहर की बातें बाहर।
मैं जानता हूं कि बाहर की जिंदगी है तो वहां मुखौटे भी हैं और वहां राजनीति भी है, क्योंकि बाकी सारे लोग राजनीति से भरे हैं और मुखौटों से भरे हैं। मगर मुखौटा ओढ़ कर जाओ तो उसको फिर कोई घर लगाए रखने की जरूरत नहीं है; घर आकर निकाल कर रख दिया। घर अपने असली चेहरे में आ गए। इसीलिए घर है।
घर को मंदिर बनाओ! यही मेरी सारी शिक्षा का सार है--घर को मंदिर बनाओ! क्योंकि वह प्रेम का स्थल है। वहां पूजा के दीप जलाओ! वहां जलने दो धूप! वहां सब मुखौटे एक तरफ रख दिया करो। वहां सारी राजनीति छोड़ दिया करो।
मगर पत्नी के साथ भी राजनीति चल रही है, पति के साथ भी राजनीति चल रही है। बच्चों के साथ राजनीति चल रही है! छोटे-छोटे बच्चों को भी तुम धोखा दे रहे हो! उनसे भी झूठी बातें कह रहे हो! फिर अड़चन हो जाती है। लेकिन जिम्मा तुम्हारा है। बहिर्यात्रा का जिम्मा नहीं है। यह तुम्हारी भ्रांति है। यह तुम्हारे विवेक की कमी है। घर आते ही सब जाल-जंजाल दरवाजे पर रख दिया; जहां जूते उतारते हो वहीं सब उतार कर रख दिया। घर निपट सहज मानव हो गए। जब बाहर गए, फिर जूते पहन लिए, फिर मुखौटे पहन लिए। खेल समझो इसको! और बाहर-भीतर अगर तुम खेल समझ कर आओ-जाओ तो साक्षी का जन्म हो जाए।
उसी साक्षी को मैं संन्यास कहता हूं। न तो संन्यास अंतर्यात्रा है और न संन्यास बहिर्यात्रा है--बहिर्यात्रा-अंतर्यात्रा दोनों के बीच साक्षी का जग जाना। भीतर भी जाओ और बाहर भी जाओ; फिर भी अलग-थलग बने रहो, दोनों से अस्पर्शित रहो, दोनों से मुक्त, तादात्म्य न हो। उस साक्षीभाव को मैं संन्यास कहता हूं।
सत्य है रवि, सत्य रवि की दीप्त किरणें भी
पर मनोहर बादलों की श्यामली माया
सत्य है व्यवधान अंतर, सत्य तुम मैं भी
किंतु फिर भी यह निलय का भाव घिर आया

क्योंकि दोनों सत्य हैं: तम भी उजेला भी
मैं तुम्हारे साथ भी हूं, प्रिय! अकेला भी!
ऐसा साधो--
मैं तुम्हारे साथ भी हूं, प्रिय! अकेला भी!
क्योंकि दोनों सत्य हैं: तम भी उजेला भी।
अंतर्जगत भी सत्य है--उतना ही जितना बहिर्जगत सत्य है, जरा भी कम-ज्यादा सत्य नहीं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; एक ही वर्तुल के दो आधी फांकें। आधा चांद भीतर, आधा चांद बाहर; दोनों से मिल कर पूर्णिमा होगी। और जिसके जीवन में पूर्णिमा हो गई वही मुक्त है।
संन्यास को मैं नये अर्थ दे रहा हूं, नई भाव-भंगिमा दे रहा हूं। इसलिए तुम्हें अड़चन होती है, तुम भूल जाते हो। संन्यास की तुम पुरानी ही परिभाषा में उलझ जाते हो।
बहुत दिनों के बाद
आज फिर हवा चली है फागुन की!
मेरे कुर्ते का छोर
तुम्हारी साड़ी का पल्ला
साथ-साथ लहराता है
मन जाने किन-किन अनजान दिशाओं में
बह जाता है
बहुत दिनों के बाद!

बहुत दिनों के बाद
आज फिर खुला आसमान
सूरज की किरन चमकती है
अंधियारे कमरे की बंदी
मेरी अनुभूति
पंख लगा कर उड़ती है
बहुत दिनों के बाद!

बहुत दिनों के बाद
आज फिर फूला पलाश है
सेमल की डालों से अंगारे झड़ते हैं
अमलताश के पत्तों से मेरे शब्द
अर्थ खोजते
धरती से आसमान तक उड़ते हैं
बहुत दिनों के बाद
आज फिर हवा चली है फागुन की!
मैं एक नई हवा ला रहा हूं। मैं किसी बंधी-बंधाई पुरानी लीक, किसी परिपाटी को नहीं पीट रहा हूं। जैसा कभी नहीं हुआ है आज तक, वैसा कुछ करने को तुमसे कह रहा हूं। इसलिए अड़चन तो होगी। समझने में ही अड़चन होगी; करने में तो और भी अड़चन होनी है। मगर काश तुम कर सके तो हम एक नये मनुष्य को पृथ्वी पर जन्म दे सकते हैं! और उसकी बहुत जरूरत है। बिना नये मनुष्य के अब पृथ्वी का कोई भविष्य नहीं है। अतीत सड़-गल गया। अतीत में हमने जो भी किया था, काम नहीं आया। बुद्ध भी होते रहे, सिकंदर भी होते रहे, चंगीज खां भी होते रहे, तैमूरलंग भी होते रहे; महावीर भी होते रहे, जीसस भी होते रहे। लेकिन मनुष्य आत्मवान नहीं हो पाया। कहीं-कहीं कभी-कभी दीये जलते रहे, लेकिन अधिकतर तो अमावस की रात रही।
और अब ऐसी घड़ी आ गई है कि यदि हम एक बिलकुल ही सर्वांग नये मनुष्य को जन्म न दे सके तो पृथ्वी का कोई भविष्य नहीं है। संन्यास की मेरी चेष्टा उसी नये मनुष्य को जन्म देने की चेष्टा है। इसलिए पुराने संन्यासी मुझसे नाराज हैं--फिर वे जैन हों, हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, वे सब मुझसे नाराज हैं। उनकी नाराजगी का कारण यह है कि मैं उनकी लीक तोड़ रहा हूं, उनकी परंपरा तोड़ रहा हूं।
और वे ही मुझसे नाराज होते तो आश्र्चर्य न था, मुझसे सांसारिक लोग भी नाराज हैं। वे इसलिए नाराज हैं कि मैं उनकी भी लीक तोड़ रहा हूं। मैं संन्यासियों को संसार में प्रवेश करवा रहा हूं।
मैं सारी सीमाओं को तोड़ देना चाहता हूं। मैं बांध तोड़ देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मनुष्य बाहर और भीतर दोनों में जीने में समर्थ हो जाए। पदार्थ के साथ भी उतना ही कुशल हो, उतना ही वैज्ञानिक हो--जितना धार्मिक, जितना आत्मा के साथ कुशल हो। चुनाव की जरूरत नहीं है। यह कोई विकल्प नहीं है कि हम ईश्र्वर को चुनें कि संसार को।
पुराना सूत्र है: ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। ऐसा संन्यासी कहते रहे कि ईश्र्वर सत्य है और संसार झूठ। और संसारी मानते रहे कि संसार सत्य है, ईश्र्वर झूठ। भला मंदिर भी गए, मस्जिद भी गए, पूजा भी की, पाठ भी किया, लेकिन उनका पूरा जीवन कहता रहा यह, उनका पूरा व्यवहार कहता रहा कि ये सब बातें करने की हैं, असलियत तो यह है कि संसार सत्य है। उनका सारा व्यवहार तो संसार के सत्य की घोषणा करता रहा और परमात्मा को झूठ सिद्ध करता रहा।
मैं तुमसे कहता हूं: ब्रह्म भी सत्य है और जगत भी सत्य है। होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि जिस ब्रह्म से जगत पैदा हुआ हो, सत्य से असत्य कैसे पैदा हो सकता है? फिर इसी जगत में ही तो ब्रह्म का अनुभव होता है! असत्य में सत्य का अनुभव कैसे हो सकता है? जगत पैदा होता है ब्रह्म से और जगत में ही फिर ब्रह्म का अनुभव पैदा होता है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
इसलिए मुझसे बहुत लोग नाराज होंगे। और मुझे समझना जटिल होगा, कठिन होगा। और समझना तो एक तरफ, जब तुम इसे जीवन-व्यवहार में लाना शुरू करोगे तो बहुत अड़चनें आएंगी। मगर अड़चनें उठानी हैं। बिना अड़चनें उठाए तुम पकोगे नहीं, परिपक्व नहीं होओगे।
मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा
एक-एक गांठ को उम्र-उम्र खोलूंगा
गांठ-गांठ खोलनी है जीवन की!
मौसम के जूड़े को देर तक टटोलूंगा
एक-एक गांठ को उम्र-उम्र खोलूंगा

शायद हो गंध कहीं उन आदिम फूलों की
धुंधली तस्वीर कहीं तीर पर बबूलों की
भूलें वे जिनको नित टोक कर, हिकार कर
कुढ़ी-कुढ़ी नजरें हों बूढ़े उसूलों की।

शबनम के कूड़े को देर तक बटोरूंगा
एक-एक कतरे को जन्म-जन्म टोलूंगा
शायद हो छंद कोई चंदा की फांक सा
मिल जाए मन कोई घुट कर छटांक सा

पलकें वे जिनको नित ताक कर, निहार कर
सूरज हो पड़ा कहीं काजली सलाख सा

संयम के पलड़े को देर तक झिंझोडूंगा
एक-एक खतरे को बार-बार मोलूंगा
लो खतरे जितने ले सको, एक-एक खतरा लेने जैसा है! और मैं जो संन्यास तुम्हें दे रहा हूं, वह इस जगत में सबसे बड़ा खतरा है। बाहर-भीतर एक साथ जीना सबसे बड़ा खतरा है। बाहर-भीतर जीना तुम्हारी बुद्धि के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। मगर उसी चुनौती से तो तुम्हारे प्राणों पर धार आएगी, तुम्हारी आत्मा में चमक आएगी। सदियों-सदियों की जमी हुई जंग उसी चुनौती से गिर सकती है, और कोई उपाय नहीं है।
मैं तुम्हें एक कंटकाकीर्ण मार्ग पर आमंत्रित कर रहा हूं। एक दूर की यात्रा पर ले चलने का मेरा आह्वान है। शिखर चढ़ने हैं! गौरीशंकर को छूना है! मुश्किलें तो होंगी, लेकिन हर मुश्किल को सीढ़ी बना लेना है। और उसकी कला तुम्हें सिखा रहा हूं।
जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान गहरा होगा वैसे-वैसे तुम पाओगे: बाहर और भीतर दोनों तरफ जीने का मजा आने लगा; बाहर-भीतर दोनों समान हो गए; तुम तीसरे हो गए; तुम दोनों से मुक्त हो गए, दोनों से अतिक्रमित हो गया तुम्हारा व्यक्तित्व, अतिक्रमण हो गया; तुम दोनों के पार हो गए। तुम देखोगे अपने को कभी बाहर के अभिनय के जगत में और कभी देखोगे भीतर की परम शांति में; मगर तुम जानोगे: न तो मैं बाहर हूं, न मैं भीतर हूं; मैं दोनों हूं और दोनों के पार भी।

तीसरा प्रश्र्न:
भगवान, साक्षीभाव और लीनता परस्पर-विरोधी दिखाई देते हैं। क्या वे सचमुच विरोधी हैं?
जगदीश दवे, वे बस विरोधी दिखाई देते हैं--विरोधी नहीं हैं, उलटे सहयोगी हैं, परिपूरक हैं। हां, अगर तुम दोनों को साथ-साथ साधोगे तो शायद तुम्हें अड़चन अनुभव होगी। तुम एक को साधो और दूसरा अपने से आ जाएगा।
ऐसा समझो कि पहाड़ की चोटी पर जाने के लिए बहुत से रास्ते हैं। वे विरोधी नहीं हैं, क्योंकि वे सभी एक ही चोटी पर पहुंचा देते हैं, इसलिए सहयोगी हैं। मगर तुम दो रास्तों पर एक साथ चलने की कोशिश मत करना, अन्यथा तुम चोटी पर कभी न पहुंच सकोगे। दो कदम भाग कर इस पर चलोगे, फिर भाग कर दो कदम दूसरे रास्ते पर चलोगे, फिर लौट कर इस पर चलोगे, फिर लौट कर उस पर चलोगे। यह बार-बार लौटना तुम्हें वहीं का वहीं रखेगा, तुम पहुंच ही न पाओगे। मंजिल तो बहुत दूर, रास्ते का क ख ग भी पूरा नहीं हो पाएगा। वहीं के वहीं अटके रहोगे।
इसलिए मेरा कहना है: एक में से कोई भी चुन लो। अगर साक्षीभाव को चुनोगे तो एक दिन तुम पाओगे: जैसे-जैसे साक्षी सघन होगा वैसे-वैसे तल्लीनता आने लगी। तल्लीनता साक्षीभाव की सुगंध की तरह आएगी। और बड़ी अदभुत अवस्था है तब--साक्षी भी और तल्लीन भी! जैसे कमल में जल, जल में कमल! डूबा भी है और नहीं भी डूबा है। पानी में है और पानी छूता नहीं।
सुबह-सुबह तुमने कमल के पत्तों पर जमी ओस की बूंदें देखीं, कैसी मोती सी चमकती हैं! मगर पत्ते को नहीं छूतीं। पत्ते पर हैं--और नहीं भी; और पत्ता जल पर है--और नहीं भी। कमल में जल हो या जल में कमल हो, अस्पर्शित रहते हैं। ऐसा ही साक्षीभाव में लीनता भी आ जाती है और फिर भी तुम साक्षी बने रहते हो।
मगर यह हुई अनुभव की बात, इसे मैं तुम्हें समझा न सकूंगा। समझने की कोशिश करोगे तो विरोधाभासी मालूम पड़ेगी; तुम कहोगे, एक कुछ हो सकता है। और मैं तुम्हारी बात समझा। साक्षीभाव साधोगे तो लगेगा तल्लीनता कैसे होगी? तल्लीनता का तो अर्थ है: डूब जाओ, बिलकुल भूल जाओ अपने को। और साक्षीभाव का अर्थ है: स्मरण रखो अपना, बोध रखो अपना; जरा भी भूलो मत; एक क्षण को विस्मरण न करो, आत्म-बोध बना रहे, सम्यक स्मृति बनी रहे, सुरति बनी रहे।
साक्षीभाव ध्यानी का मार्ग है--महावीर का, बुद्ध का, लाओत्सु का। साक्षी का मार्ग झेन मार्ग का सार-सूत्र है। लेकिन तल्लीनता आती है, गहन तल्लीनता आती है। मगर तल्लीनता आती है अंत में। रास्ता जब पूरा हो जाता है, तुम साक्षी में थिर हो जाते हो, तब अचानक तुम पाते हो: अरे यह कैसी सुवास उठने लगी तल्लीनता की!
या तल्लीनता साधो। वह प्रेमी का मार्ग है, भक्त का मार्ग है--मीरा का, चैतन्य का, रैदास का। डूबो! और डूबोगे शुरू-शुरू में तो कई बार खयाल आएगा कि फिर क्या होगा, साक्षी का क्या होगा? घबड़ाना मत! डूबते जाना, डूबते जाना--जिस दिन बिलकुल डूब जाओगे, मैं-भाव नहीं बचेगा, उसी क्षण साक्षी उभर आएगा। मगर वह सुगंध की तरह आएगा तब।
यह कैसे संभव हो पाता है? यह अदभुत, यह विरोधाभास कैसे संभव हो पाता है? इसके संभव होने का गणित मैं तुमसे कहूं। अभी तो सिर्फ तुमसे कहूंगा, तुम सुनोगे, लेकिन किसी दिन जब अनुभव होगा तब पूरी बात समझ में आ जाएगी। इसके पीछे गणित है--गणित सीधा है, साफ है, छोटा है। गणित है, मैं-भाव का खो जाना। साक्षी में भी मैं-भाव खो जाता है और तल्लीनता में भी मैं-भाव खो जाता है। अलग-अलग प्रक्रियाओं से खोता है, लेकिन दोनों हालत में मैं-भाव खो जाता है, अहंकार खो जाता है। और वही बाधा है।
जैसे-जैसे तुम साक्षी बनोगे, तुम चकित हो जाओगे: जब साक्षी बनना शुरू हुए थे तो ऐसा लगता था, मैं साक्षी हूं! और जैसे-जैसे साक्षी घना होगा वैसे-वैसे लगेगा, मैं तो पिघलने लगा, बहने लगा, उड़ने लगा, वाष्पीभूत होने लगा! जब साक्षीभाव पूरा होगा, तुम अचानक पाओगे: साक्षी तो है, मैं कोई भी नहीं। भीतर बोध तो है, लेकिन मैं का कोई भाव नहीं। इसलिए तल्लीनता आ जाएगी। जब मैं ही न बचा तो अब अतल्लीन कैसे रहोगे? जब मैं ही न बचा तो अब बिना डूबे कैसे बचोगे? मैं ही तो था जो रोक रहा था, जो दीवाल बना था। दीवाल ही गिर गई तो आकाश मिल गया। आंगन टूट गया, दीवाल गिर गई, आंगन आकाश हो गया। यही तल्लीनता है!
और अगर तल्लीनता से शुरू करोगे तो पहले ऐसा लगेगा, मैं तल्लीन हो रहा हूं। अहा, कैसी तल्लीनता में उतर रहा हूं मैं! शुरू-शुरू में लगेगा मैं तल्लीन हो रहा हूं; लेकिन जब तक मैं है, क्या खाक तल्लीन हो रहे हो! भुला रहे हो अपने को, समझा रहे हो अपने को। लेकिन मैं लौट-लौट आएगा। धीरे-धीरे जैसे तल्लीनता बढ़ेगी, मैं पिघलेगा। फिर तल्लीनता रह जाएगी। डूबे तो रहोगे, लेकिन कोई बचेगा नहीं जो डूबा है। मैं-भाव गया। और जहां मैं-भाव गया वहां साक्षी पैदा हो जाता है, साक्षी बच नहीं सकता।
इसलिए जगदीश दवे, दो में से कोई एक चुन कर चल पड़ो। और खयाल रखो, यह प्रश्र्न बौद्धिक नहीं है, यह प्रश्र्न अस्तित्वगत है। अनुभव से ही राज खुलेगा, अनुभव से ही खुलता रहा है। कितना ही कहो, कितना ही समझाओ, कहने और समझाने की बातें नहीं हैं। दो में से कोई एक चुन लो, जो प्रीतिकर लगे। अपने को पहचानो थोड़ा; अपने लगाव, अपने रुझान परखो थोड़ा। और जो प्रीतिकर लगे...। अगर तुम्हें साक्षीभाव में मजा आता हो तो ठीक; अगर तुम्हें तल्लीनता में मजा आता हो तो ठीक। साक्षीभाव है बुद्ध, महावीर, लाओत्सु का मार्ग, झेन का मार्ग, ध्यान का मार्ग।
‘झेन’ शब्द ध्यान से ही आया है। बुद्ध तो संस्कृत नहीं बोलते थे, इसलिए ‘ध्यान’ शब्द का उन्होंने उपयोग नहीं किया। वे तो बोलते थे पाली। पाली में ध्यान नहीं है, ध्यान की जगह शब्द है ‘झान।’ चूंकि बुद्ध पाली बोलते थे और ध्यान को झान कहते थे, इसलिए जब बौद्ध भिक्षु चीन पहुंचे तो वे झान शब्द को ले गए। चीन में झान शब्द लिखा नहीं जा सकता था, ठीक झान। झ लिखने का चीनी में कोई उपाय नहीं। पहले तो चीनी में कोई वर्णमाला नहीं होती, चित्र होते हैं। और झ जैसा कोई शब्द नहीं है। जैसे अंग्रेजी में बहुत से शब्द नहीं हैं--जैसे ध अंग्रेजी में नहीं है। हमारी भाषा में बावन वर्ण हैं; अंग्रेजी में छब्बीस हैं, आधे से काम चलता है।
चीन में झ लिखना संभव नहीं था, इसलिए जो शब्द लिखा गया--जो करीब से करीब आ सकता था झान के--वह था ’चान।’ इसलिए चीन में बुद्ध का ध्यान चान कहा जाता है। फिर चीन से बात जापान पहुंची। और जापानी बौद्ध साधक, जो चीन से ले गए इस महत्वपूर्ण मार्ग को, वे बड़ी झंझट में थे कि क्या करें--झान कहें कि चान? उनकी एक अड़चन और थी कि उनकी भाषा में झान लिखा जाए तो वह झेन जैसा पढ़ा जाएगा। इसलिए जापान में जाकर वह झेन हो गया। मगर है वह ध्यान का ही रूपांतरण।
तो या तो झेन का मार्ग है--ध्यान का मार्ग। वहां साक्षी होना ही एकमात्र उपाय है। तल्लीनता आती है।
एक झेन फकीर के संबंध में यह कहानी है कि जब वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ तो एक शराब की बोतल बगल में दबा कर बाजार में पहुंच गया। झेन फकीर जो न करें सो थोड़ा! और इसीलिए मेरा उनसे खूब लगाव है। उनसे मेरी पटती है, उनसे मेरी जमती है। क्या प्यारा आदमी रहा होगा! बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, दबाई एक शराब की बोतल, पहुंच गया बाजार में।
लोगों ने पूछा: आप और शराब की बोतल! आप बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, शराब की बोतल आपको शोभा नहीं देती।
उस फकीर ने कहा: यह खबर देने के लिए अब यह बोतल मुझे सदा साथ रखनी होगी। यह पीने के लिए नहीं है, यह इस बात की खबर देने के लिए है कि जब कोई परिपूर्ण साक्षी हो जाता है तो वैसी ही मस्ती आ जाती है जैसी शराब पीने से। यह बोतल मैं अब सदा साथ रखूंगा, ताकि तुम्हें पता रहे। साक्षी से चला था और तल्लीनता पर पहुंच गया--ऐसी तल्लीनता जैसी केवल शराब में आती है, तुम्हारे अनुभव में तो सिर्फ शराब में ही आती है। चला तो था साक्षी होने और लौटा हूं पियक्कड़ होकर। सोचा तो था कि मंदिर में जा रहा हूं, पहुंच गया मधुशाला!
इसकी बात प्यारी है। जिंदगी भर वह बोतल अपने साथ ही रखे रहा। हो सकता है बोतल में सिर्फ पानी ही हो। मगर झेन फकीर के हाथ में पानी भी शराब हो जाता है।
जीसस के संबंध में तो प्यारी कहानी है कि जब वे समुद्र के तट पर गए तो उन्होंने सारे समुद्र को शराब में बदल दिया। ईसाई इसको नहीं समझा पाते। पंडित-पुरोहितों से ज्यादा मूढ़ इस दुनिया में कोई भी नहीं, क्योंकि अनुभव तो उनका कुछ है नहीं। जीसस ने तो और गजब कर दिया--अब क्या खाक बोतल लेकर चलना, पूरे समुद्र को ही शराब में बदल दिया!
जो व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो जाएगा, उसके लिए सारा अस्तित्व मदमस्त हो जाता है, सारा अस्तित्व शराब बन जाता है।
एक ईसाई पादरी मुझसे बात कर रहे थे। मैंने कहा, आप इसको कैसे समझाते हैं?
उन्होंने नीचे नजरें झुका लीं। उन्होंने कहा कि मुझे बड़ी अड़चन होती है जब भी कोई ऐसे सवाल पूछता है। बात तो ठीक नहीं है। शराब कोई चीज तो अच्छी नहीं है। जीसस ने क्यों सारे सागर को शराब में बदल दिया!
मैंने उनसे कहा कि आपको पता है, इंग्लैंड के स्कूल में परीक्षा हो रही थी--बाइबिल की क्लास की परीक्षा। और शिक्षक ने यह सवाल पूछा कि लिखो सब निबंध कि जीसस जब सागर के तट पर गए तो उन्होंने सारे सागर को शराब में बदल दिया।
एक बच्चे ने तो मिनट में उत्तर लिखा और खड़ा हो गया कि यह मेरा उत्तर पूरा हो गया। शिक्षक ने कहा: इतने जल्दी! यह इतना कठिन सवाल है कि बड़े-बड़े पंडित और बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ सदियों से सिर मारते रहे हैं और इसका हल नहीं कर पाए। देखूं तेरा उत्तर!
लेकिन उसे पता नहीं था वह बच्चा कौन है; भविष्य उसका क्या था, उसे पता नहीं था। उस बच्चे ने एक छोटा सा, एक वाक्य लिखा था। उसने एक छोटा सा वाक्य लिखा था: दि सी सा हर मास्टर एण्ड ब्लश्ड! सागर ने अपने मालिक को देखा, अपने प्यारे को देखा और शरमा गया! इसलिए लाली छा गई। शराब-वराब नहीं। इसी बात को कहने के लिए यह कहानी गढ़ी गई। वह बच्चा बाद में बायरन बना--इंग्लैंड का महाकवि! लक्षण दे दिया उसने काव्य का वहीं। बड़े-बड़े पंडित जो व्याख्या नहीं कर सके थे, उसने एक वाक्य में व्याख्या कर दी।
अंग्रेजी में सागर स्त्रैण है, इसलिए और बात जमी कि सागर ने अपने मालिक को देखा, अपने प्रेमी को--जैसे प्रेयसी और शरमा जाए और सिर झुका ले और उसके चेहरे पर लाली दौड़ जाए अपने प्रेमी को देख कर! और जितनी लंबी प्रतीक्षा रही हो, उतनी ही लाली दौड़ जाए। सदियों-सदियों में जीसस जैसा मालिक पृथ्वी पर चलता है! एक वाक्य में व्याख्या हो गई।
मेरा भी कहना यही है। सागर को कोई शराब में नहीं बदल दिया जीसस ने, लेकिन सारा अस्तित्व शराबमय हो गया, अलमस्ती छा गई।
साक्षी से चलोगे तो अलमस्ती छा जाएगी एक दिन। हवा की लहर-लहर में शराब! सूरज की किरण-किरण में शराब! फूल के रंग-रंग में शराब!
और अगर तुम्हें प्रीतिकर लगता हो तल्लीनता का मार्ग--मीरा का, कबीर का, रैदास का--लगता हो प्रीतिकर कि डूबूं, तल्लीन हो जाऊं, नाचूं और गाऊं और खो दूं अपने को! अगर तुम्हें सूफियों और बाउलों का मार्ग अच्छा लगता हो...
वह पागलों का मार्ग है, इसलिए बाउल नाम चल पड़ा। बंगाल में जो प्रेमी भक्त हुए हैं, उनका नाम बाउल है। बाउल यानी बावला, पागल। ऐसे मस्त थे--नाचते हुए, गाते हुए! कुछ खास उनके पास नहीं--इकतारा और डुग्गी! बस इतना काफी है। न मंदिर की जरूरत, न मूर्ति की, न पूजा की। इकतारा बजेगा और डुग्गी पिटेगी और बाउल नाचेगा! और उसका नृत्य ही उसका ध्यान है। नृत्य ही उसकी अर्चना, पूजा। मन ही पूजा मन ही धूप! उसके भीतर ही सब घटित हो रहा है। तल्लीनता का मार्ग चुन लो, एक दिन साक्षी हो जाओगे।
मगर दोनों मार्ग एक साथ चलने की चेष्टा मत करना; उसमें विभाजन होगा, अड़चन होगी। और उसमें शायद कहीं भी न पहुंच पाओ, और बड़ी बिगूचन में, विडंबना में उलझ जाओ।

आखिरी प्रश्र्न:
भगवान, आपका मूल संदेश?
सहजानंद, छोटा है मेरा संदेश, बड़ा भी बहुत! आणविक है मेरा संदेश, मगर अणु-विस्फोट भी उससे हो सकता है।
शबाब आ रहा है, शबाब आ रहा है
दहकता हुआ आफताब आ रहा है

हैं अठखेलियों पर चमन की हवाएं
नए सिरे से फिर इंकलाब आ रहा है

यह सूरज है मशरिक में या मैकदे में
कोई ले के जामे-शराब आ रहा है

यह कौसे-कुजह है कि बज्मे-फलक से
मुगन्नी उठाए रबाब आ रहा है

कंवल खिल रहा है कि हौजे-चमन से
उभरता हुआ आफताब आ रहा है
शराब लेकर आया हूं तुम्हारे लिए! एक गीत लेकर आया हूं तुम्हारे लिए! पीओ और गाओ! तुम्हें शराब में डुबोने, तुम्हें गीतों में भिगोने!...तुम्हें कोई उपदेश देने में मेरी उत्सुकता नहीं है। मैं कोई उपदेशक नहीं हूं--एक दीवाना हूं। मेरे साथ जुड़ो तो तुम भी दीवाने हो जाओ। उपदेशकों से तो तुम्हें बचाना चाहता हूं; उन्होंने ही तुम्हें विकृत किया है।
आपकी जिद ने मुझे और पिलाई हजरत
शेखजी इतनी नसीहत भी बुरी होती है
वे समझाते रहे उपदेशक--ऐसा न करो, वैसा न करो। और जो-जो वे समझाते रहे, वही-वही लोग और-और करते रहे। क्योंकि जितना कहा जाए मत करो, उतना ही लगता है कि कुछ बात करने योग्य जरूर होगी। निषेध में निमंत्रण है। इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता--यह न करो, वह न करो। मैं तो कहता हूं, तुम जैसे हो, मुझे स्वीकार है। अगर परमात्मा को तुम स्वीकार हो तो मुझे क्यों तुम अस्वीकार होओगे! तुम जैसे हो मुझे स्वीकार हो। तुम जैसे हो वैसे ही कहता हूं: आओ और डूबो! मैं तो उपदेशकों को भी कहता हूं कि तुम भी आओ और डूबो!
पी लोगे तो ऐ शेख जरा गर्म रहोगे
ठंडा ही न कर दें कहीं जन्नत की हवाएं
इतना ही छोटा सा मेरा संदेश है। जरा पीने का अंदाज सीखो--प्रेम को पीओ, ध्यान को पीओ, परमात्मा को पीओ! और परमात्मा बेशर्त उपलब्ध है। कोई शर्त नहीं है कि पहले तुम इतनी पात्रता अर्जित करो, तब परमात्मा उपलब्ध होगा। तुम हो, जीवित हो--बस इतनी पात्रता काफी है। सिर्फ जीवित हो जाओ, यह मेरा संदेश है। क्योंकि तुम में बहुत हैं, जो मुर्दा हैं; जो काफी समय पहले मर चुके हैं, अब मरे-मरे चल रहे हैं। उनमें फिर से पुनः जीवन की झनकार जगाना चाहता हूं। उनमें एक इंकलाब लाना चाहता हूं, एक अंतर-क्रांति--कि उनके भीतर पुनः यह होश आए कि जीवन एक परम अवसर है। परम, क्योंकि इसमें परमात्मा पाया जा सकता है। न जाओ काबा, न काशी।
मन ही पूजा मन ही धूप!

आज इतना ही।