MEDITATION
Main Mrityu Sikhata Hun 01
First Discourse from the series of 15 discourses - Main Mrityu Sikhata Hun by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता है। और जीवन को ही हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना शेष नहीं रहती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और ज्ञात नहीं हो सकती है। सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन को जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है।
जगत में कुछ शब्द बिलकुल ही झूठे हैं, उन शब्दों में कुछ भी सत्य नहीं है। उन्हीं शब्दों में मृत्यु भी एक शब्द है, जो नितांत असत्य है। मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोगों को तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। गांव-गांव में मरघट हैं। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होगा कि जहां-जहां हम खड़े हैं, वहां-वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अरथी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, वे भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं। करोड़ों-करोड़ों लोग मरे हैं, रोज मर रहे हैं, और अगर मैं यह कहूं कि मृत्यु जैसा झूठा शब्द नहीं है मनुष्य की भाषा में, तो आश्चर्य होगा।
एक फकीर था तिब्बत में, मारपा। उस फकीर के पास कोई गया और पूछने लगा कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में कुछ पूछने आया हूं। मारपा बहुत हंसने लगा और उसने कहा, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो, तो जरूर पूछो, क्योंकि जीवन का मुझे पता है। रही मृत्यु, मृत्यु से आज तक मेरा कोई मिलना नहीं हुआ, मेरी कोई पहचान नहीं है। मृत्यु के संबंध में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे ही हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं, मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं।
यह बात वैसी ही है जैसी आपने सुनी होगी कि एक बार अंधकार ने भगवान से जाकर प्रार्थना की थी कि यह सूरज तुम्हारा, मेरे पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है। मैं बहुत थक गया हूं। सुबह से मेरा पीछा होता है और सांझ मुश्किल से मुझे छोड़ा जाता है। मेरा कसूर क्या है? दुश्मनी कैसी है यह? यह सूरज क्यों मुझे सताने के लिए मेरे पीछे दिन-रात दौड़ता रहता है? और रात भर मैं दिन भर की थकान से विश्राम भी नहीं कर पाता हूं कि फिर सुबह सूरज आकर द्वार पर खड़ा हो जाता है। फिर भागो! फिर बचो! यह अनंत काल से चल रहा है। अब मेरी धैर्य की सीमा आ गई और मैं प्रार्थना करता हूं, इस सूरज को समझा दें।
सुनते हैं, भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधेरे के पीछे क्यों पड़े हो? क्या बिगाड़ा है अंधेरे ने तुम्हारा? क्या है शत्रुता? क्या है शिकायत?
सूरज कहने लगा, अंधेरा! अनंत काल हो गया मुझे विश्व का परिभ्रमण करते, लेकिन अब तक अंधेरे से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई। अंधेरे को मैं जानता नहीं हूं। कहां है अंधेरा? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं क्षमा भी मांग लूं और आगे से पहचान लूं कि वह कौन है, ताकि उसके प्रति कोई भूल न हो सके।
इस बात को हुए भी अनंत काल हो गया। वह भगवान की फाइल में यह बात वहीं की वहीं पड़ी है। वह अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं बुला सके हैं। नहीं बुला सकेंगे। यह मामला हल नहीं होने का है। सूरज के सामने अंधकार कैसे बुलाया जा सकता है? अंधकार की कोई सत्ता ही नहीं है, कोई एक्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार की कोई पॉजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। अंधकार तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। वह तो प्रकाश की गैर-मौजूदगी है, वह तो एब्सेंस है, वह तो अनुपस्थिति है। तो सूरज के सामने ही सूरज की अनुपस्थिति को कैसे बुलाया जा सकता है?
नहीं! अंधकार को सूरज के सामने नहीं लाया जा सकता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, एक छोटे-से दीये के सामने भी अंधकार को लाना मुश्किल है। दीये के प्रकाश के घेरे में अंधकार का प्रवेश मुश्किल है। दीये के सामने मुठभेड़ मुश्किल है।
प्रकाश है जहां, वहां अंधकार कैसे आ सकता है! जीवन है जहां, वहां मृत्यु कैसे आ सकती है! या तो जीवन है ही नहीं, और या फिर मृत्यु नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश! हम उस जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं हैं। उस प्रकाश से हम परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, हमारा जीवन है, जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। समस्त जीवन अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख ही नहीं उठाते हैं। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते हैं। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं।
इसलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का। मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंभव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। या तो हमें पता है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं।
लेकिन हम सारे लोग तो मृत्यु से भयभीत हैं। मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है--जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है--श्वास-श्वास में, कण-कण में, चारों ओर, भीतर-बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हों। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है, अचेतन है, अनकांशस है, बेहोश है।
एक आदमी सोया हो, उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं? क्या हूं? कहां से हूं? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता कि मैं हूं भी या नहीं हूं? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था। नींद में तो इसका भी पता नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया, उसे यह भी पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर यह पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है, सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था, लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं।
जरूर, मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता है कि मैं हूं या नहीं, या क्या हूं, इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसलिए उसे जीवन का ही पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।
नहीं, लेकिन हम इनकार करेंगे। हम कहेंगे, कैसी आप बात करते हैं? हमें पूरी तरह पता है कि जीवन क्या है। हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं।
एक शराबी भी चलता है, उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, आंख खोलता है, बात करता है। एक पागल भी उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, बात करता है, जीता है। लेकिन इससे न तो शराबी होश में कहा जा सकता है और न पागल सचेतन है, यह कहा जा सकता है।
एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। एक आदमी चौराहे पर खड़ा होकर पत्थर फेंकने लगा और अपशब्द बोलने लगा और गालियां बकने लगा। सम्राट की बड़ी शोभायात्रा थी। उस आदमी को तत्काल सैनिकों ने पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया।
लेकिन जब वह गालियां बकता था और अपशब्द बोलता था, तो सम्राट हंस रहा था। उसके सैनिक हैरान हुए, उसके वजीरों ने कहा, आप हंसते क्यों हैं? उस सम्राट ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, उस आदमी को पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी नशे में है। खैर, कल सुबह उसे मेरे सामने ले आएं।
कल वह आदमी सुबह उसके सामने ले आकर खड़ा कर दिया गया। सम्राट उससे पूछने लगा, कल तुम मुझे गालियां देते थे, अपशब्द बोलते थे, क्या था कारण उसका? उस आदमी ने कहा, मैं! मैं और अपशब्द बोलता था! नहीं महाराज, मैं नहीं रहा होऊंगा, इसलिए अपशब्द बोले गए होंगे। मैं शराब में था, मैं बेहोश था, मुझे कुछ पता नहीं कि मैंने क्या बोला, मैं नहीं था।
हम भी नहीं हैं। नींद में हम चल रहे हैं, बोल रहे हैं, बात कर रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं, घृणा कर रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं। अगर कोई दूर के तारे से देखे मनुष्य की जाति को, तो वह यही समझेगा कि सारी मनुष्य-जाति इस भांति व्यवहार कर रही है जिस तरह नींद में, बेहोशी में कोई व्यवहार करता हो। तीन हजार वर्षों में मनुष्य-जाति ने पंद्रह हजार युद्ध किए हैं। यह जागे हुए मनुष्य का लक्षण नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु की सारी कथा, दुख की, चिंता की, पीड़ा की कथा है। आनंद का क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। आनंद का कण भी नहीं मिलता है जीवन में। खबर भी नहीं मिलती कि आनंद क्या है। जीवन बीत जाता है और आनंद की झलक भी नहीं मिलती। यह आदमी होश में नहीं कहा जा सकता है। दुख, चिंता, पीड़ा, उदासी और पागलपन--सारे जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा है।
लेकिन शायद हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे ही सोए हुए लोग हैं। और कभी अगर एकाध जागा हुआ आदमी पैदा हो जाता है, तो हम सोए हुए लोगों को इतना क्रोध आता है उस जागे हुए आदमी पर कि हम बहुत जल्दी ही उस आदमी की हत्या कर देते हैं। हम ज्यादा देर उसे बर्दाश्त नहीं करते।
जीसस को हम इसीलिए सूली पर लटका देते हैं कि तुम्हारा कसूर है कि तुम जागे हुए आदमी हो। हम सोए हुए लोगों को तुम्हें देखकर बहुत अपमानित होना पड़ता है। हम सोए हुए आदमियों के लिए तुम एक अपमानजनक चिह्न बन जाते हो कि तुम सोए हुए लोग हो। तुम्हारी मौजूदगी हमारी नींद में बाधा डालती है। हम तुम्हारी हत्या कर देंगे। हम सुकरात को जहर पिलाकर मार डालते हैं, हम मंसूर की गरदन काट देते हैं। हम जागे हुए आदमियों के साथ वही व्यवहार करते हैं, जो पागलों की बस्ती में उस आदमी के साथ होगा, जो पागल नहीं है। इसका आपको अंदाज नहीं है।
मेरे एक मित्र पागल थे। वह पागल थे और एक पागलखाने में बंद कर दिए गए। पागलपन में उन्होंने फिनाइल की एक बाल्टी, वहां पागलखाने में रखी थी, वह पी गए। उसके पी जाने से उनको कोई इतनी उल्टियां हुईं, इतने दस्त लगे कि पंद्रह दिन तक सारा शरीर रूपांतरित हो गया। उनकी सारी गर्मी जैसे शरीर से निकल गई और वह ठीक हो गए। लेकिन उन्हें छह महीने के लिए पागलघर में भेजा गया था। वह ठीक हो गए। उन्होंने मुझसे कहा कि जब मैं पागल था तब, और जब मैं ठीक हो गया उस पागलपन में और तीन महीने तक ठीक होकर पागलघर में रहा, तब जो मैंने पीड़ा अनुभव की, उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। जब तक मैं पागल था, तब तक कोई कठिनाई न थी, क्योंकि और भी सब मेरे जैसे लोग थे। जब मैं ठीक हो गया, तब मुझे लगा कि मैं कहां हूं! क्योंकि मैं सो रहा हूं और दो आदमी मेरी छाती पर सवार हो गए हैं। मैं चल रहा हूं और कोई मुझे धक्के मार रहा है। इस सबका मुझे कुछ भी पता नहीं चला था, क्योंकि मैं भी पागल था। मुझे यह भी पता नहीं चला था कि ये लोग पागल हैं जब तक मैं पागल था। जब मैं पागल न रहा तो मुझे पता चला कि ये सारे लोग पागल हैं। और जैसे ही मैं पागल न रहा, मैं उन सारे पागलों का शिकार बन गया। और मेरी कठिनाई कि मुझे सब समझ में आ रहा था कि अब मैं बिलकुल ठीक हूं, और अब क्या होगा और क्या नहीं होगा, अब मैं कैसे बाहर निकलूं! और अगर मैं चिल्लाकर कहता था कि मैं पागल नहीं हूं, तो सभी पागल यही चिल्लाकर कहते हैं कि हम पागल नहीं हैं, कोई डाक्टर मानने को राजी नहीं था।
हमारे चारों तरफ सोए हुए लोगों की भीड़ है, और इसलिए हमें पता नहीं चलता कि हम सोए हुए आदमी हैं। और जागे हुए आदमी की हम जल्दी से हत्या कर देते हैं, क्योंकि वह आदमी हमें बहुत कष्टपूर्ण मालूम होने लगता है, बहुत डिस्टर्बिंग, बहुत विघ्नकारक मालूम होने लगता है।
एक अंग्रेज विद्वान कैनेथ वाकर ने एक किताब लिखी है और उस किताब को एक फकीर गुरजिएफ को समर्पित किया है। समर्पण में, डेडीकेशन में उसने जो शब्द लिखे हैं, वे बड़े अदभुत हैं। उसने डेडीकेशन में, समर्पण में लिखा है: ‘टु जार्ज गुरजिएफ, दि डिस्टर्बर आफ माई स्लीप।’ मेरी नींद तोड़ने वाले जार्ज गुरजिएफ को समर्पित।
थोड़े-से लोग जमीन पर हुए हैं, जो नींद तोड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर आप किसी की नींद तोड़ने की कोशिश करेंगे, तो निश्चित वह आपसे बदला लेगा। किसी सोते हुए आदमी को जगाने की कोशिश करिए, वह आपकी गरदन पकड़ लेगा। आज तक मनुष्य को आध्यात्मिक नींद से जिन्होंने जगाने की कोशिश की है, हमने उनकी भी गरदनें पकड़ ली हैं। हमारे बीच हमें पता नहीं चलता इसीलिए कि हम सब एक जैसे सोए हुए और नींद में लोग हैं।
एक गांव के संबंध में मैंने सुना है कि उसमें एक जादूगर आ गया था एक दिन और उसने उस कुएं में गांव के एक पुड़िया डाल दी थी और कहा था: इस कुएं का पानी जो भी पीएगा, पागल हो जाएगा। एक ही कुआं था उस गांव में। एक कुआं और था, लेकिन वह गांव का कुआं न था, वह राजा के महल में था। सांझ होते-होते तक गांव के हर आदमी को पानी पीना पड़ा। चाहे पागलपन की कीमत पर भी पीना पड़े, लेकिन मजबूरी थी। प्यास तो बुझानी पड़ेगी, चाहे पागल ही क्यों न हो जाना पड़े। गांव के लोग कब तक रोकते, उन्होंने पानी पीया। सांझ होते-होते पूरा गांव पागल हो गया।
सम्राट बहुत खुश था, उसकी रानियां बहुत खुश थीं, महल में गीत और संगीत का आयोजन हो रहा था। उसके वजीर खुश थे कि हम बच गए। लेकिन सांझ होते उन्हें पता चला कि गलती में हैं वे, क्योंकि सारा महल सांझ होते-होते गांव के पागलों ने घेर लिया। पूरा गांव हो गया था पागल। राजा के पहरेदार और सैनिक भी हो गए थे पागल। सारे गांव ने राजा के महल को घेरकर आवाज लगाई कि मालूम होता है इस राजा का दिमाग खराब हो गया है। हम ऐसे पागल राजा को सिंहासन पर बर्दाश्त नहीं कर सकते। महल के ऊपर खड़े होकर राजा ने देखा कि बचाव का अब कोई उपाय नहीं है। अपने वजीर से पूछने लगा, अब क्या होगा? हम तो सोचते थे भाग्यवान हैं हम कि हमारे पास अपना कुआं है। आज महंगा पड़ गया है।
सभी राजाओं को एक न एक दिन अलग कुआं महंगा पड़ता है। सारी दुनिया में पड़ रहा है। जो अभी भी राजा हैं, कल उनको भी पड़ेगा महंगा कुआं। अलग कुआं खतरनाक है।
लेकिन तब तक खयाल नहीं था। वजीर से कहने लगा, क्या होगा अब? वजीर ने कहा, अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। आप भागें पीछे के द्वार से, और उस कुएं का पानी पीकर जल्दी लौट आएं। अन्यथा यह महल खतरे में है। सम्राट ने कहा, उस कुएं का पानी! क्या तुम मुझे पागल बनाना चाहते हो? वजीर ने कहा, अब पागल बने बिना कोई बचने का उपाय नहीं है।
राजा भागा, उसकी रानियां भागीं। उन्होंने जाकर उस कुएं का पानी पी लिया। उस रात उस गांव में एक बड़ा जलसा मनाया गया। सारे गांव के लोगों ने खुशी मनाई, बाजे बजाए, गीत गाए और भगवान को धन्यवाद दिया कि हमारे राजा का दिमाग ठीक हो गया है। क्योंकि राजा भी भीड़ में नाच रहा था और गालियां बक रहा था। अब राजा का दिमाग ठीक हो गया था।
चूंकि हमारी नींद सार्वजनिक है, सार्वभौमिक है, चूंकि हम जन्म से ही सोए हुए हैं, इसलिए हमें पता नहीं चलता है। इस नींद में हम क्या समझ पाते हैं जीवन को? इतना ही कि यह शरीर जीवन है। इस शरीर के भीतर जरा भी प्रवेश नहीं हो पाता। यह समझ वैसी ही है, जैसे किसी राजमहल के बाहर दीवाल के आस-पास कोई घूमता हो और समझता हो कि यह राजमहल है। दीवाल पर, बाहर की दीवाल पर, चारदीवारी पर, परकोटे पर, परकोटे के बाहर कोई घूमता हो और सोचता हो कि राजमहल है। और परकोटे की दीवाल से टिककर सो जाता हो और सोचता हो कि महलों में विश्राम कर रहा हूं। शरीर के आस-पास जिनके जीवन का बोध है, वे उसी नासमझ आदमी की तरह हैं जो महल की दीवाल के बाहर खड़े होकर समझता है कि महल का मेहमान हो गया हूं।
शरीर के भीतर हमारा कोई प्रवेश नहीं है, शरीर के बाहर जीते हैं। बस शरीर की पर्त--बाहर की पर्त! भीतर की शरीर की पर्त तक का हमें पता नहीं चलता। दीवाल के बाहर का हिस्सा! दीवाल के भीतर का हिस्सा ही पता नहीं चलता, महल तो बहुत दूर है। दीवाल के बाहर के हिस्से को ही महल समझते हैं, दीवाल के भीतर के हिस्से तक से परिचय नहीं हो पाता।
हम अपने शरीर को अपने से बाहर से जानते हैं, हमने कभी भीतर खड़े होकर भी शरीर को नहीं देखा है--भीतर से, फ्राम विदिन। जैसे मैं इस कमरे के भीतर बैठा हूं, आप इस कमरे के भीतर बैठे हैं। हम इस कमरे को भीतर से देख रहे हैं। एक आदमी बाहर घूम रहा है। वह इस मकान को बाहर से देख रहा है। आदमी अपने शरीर के घर में अपने को भीतर से भी देखने में समर्थ नहीं हो पाता है, बाहर से ही जानता है। और तब मौत पैदा हो जाती है। क्योंकि जिसे हम बाहर से जानते हैं, जिसे हम बाहर से जानते हैं वह केवल खोल है। वह केवल बाहरी वस्त्र है। वह केवल मकान के बाहर की दीवाल है, घर का मालिक नहीं। घर का मालिक भीतर है। उस भीतर के मालिक से तो पहचान ही हमारी नहीं हो पाती। भीतर की दीवाल तक से पहचान नहीं हो पाती तो भीतर के मालिक से कैसे पहचान होगी?
यह जो जीवन का अनुभव है फ्राम विदाउट, बाहर से, यह जीवन का अनुभव ही मृत्यु का अनुभव बनता है। यह जीवन का अनुभव जिस दिन हाथ से खिसक जाता है, क्योंकि जिस दिन इस घर को छोड़कर भीतर के प्राण सिकुड़ते हैं और बाहर की दीवाल से चेतना भीतर चली जाती है, उसी दिन बाहर के लोगों को पता चलता है कि मर गया यह आदमी। और उस आदमी को भी लगता है कि मरा, मरा, मरा। क्योंकि जिसे वह जीवन समझता था, वहां से चेतना भीतर सरकने लगती है। जिस तल पर उसे ज्ञात था कि यह जीवन है, उस तल से चेतना भीतर सरकने लगती है नई यात्रा की तैयारी में। और उसके प्राण चिल्लाने लगते हैं कि मरा! गया! सब डूबता है! क्योंकि जिसे वह समझता था कि मैं जीवन हूं, वह डूब रहा है, वह छूट रहा है। बाहर के लोग समझते हैं कि यह आदमी मर गया; और वह आदमी भी मरते क्षण में, इस मरने के क्षण में, इस बदलाहट के क्षण में समझता है कि मैं मरा, मैं मरा, मैं मरा, मैं गया।
यह जो देह है हमारी, यह जो शरीर है, यह शरीर हमारा वास्तविक होना नहीं है। यह हमारा आथेंटिक बीइंग नहीं है। गहराई में इससे बहुत भिन्न और बिलकुल दूसरे प्रकार का हमारा व्यक्तित्व है। इस शरीर से बिलकुल विपरीत और उलटा हमारा जीवन है।
एक बीज को हम देखते हैं। बीज की ऊपर की खोल होती है बहुत सख्त, ताकि भीतर जो छिपा हुआ जीवन का अंकुर है कोमल, डेलीकेट, वह उसकी रक्षा कर सके। भीतर का अंकुर तो होता है बहुत कोमल, उसकी रक्षा के लिए एक बहुत कठोर दीवाल, एक घेरा, एक खोल बीज के ऊपर चढ़ी होती है। वह जो खोल है, वह बीज नहीं है। और जो उस खोल को बीज समझ लेगा, वह कभी भी उस जीवन के अंकुर से परिचित नहीं हो पाएगा जो भीतर छिपा है। वह खोल को ही लिए रह जाएगा और अंकुर कभी पैदा नहीं होगा।
नहीं, खोल बीज नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि बीज जब पैदा होता है तो खोल को मिट जाना पड़ता है, टूट जाना पड़ता है, बिखर जाना पड़ता है, मिट्टी में गल जाना पड़ता है। जब खोल गल जाती है, तब बीज भीतर से प्रकट होता है।
यह शरीर एक बीज है। और जीवन, चेतना और आत्मा का एक अंकुर भीतर है। लेकिन हम इस खोल को ही बीज समझकर नष्ट हो जाते हैं और वह अंकुर पैदा भी नहीं हो पाता, वह अंकुर फूट भी नहीं पाता। जब वह अंकुर फूटता है, तो जीवन का अनुभव होता है। जब वह अंकुर फूटता है, तो मनुष्य का बीज होना समाप्त होता है और मनुष्य वृक्ष बनता है। जब तक मनुष्य बीज है, तब तक वह सिर्फ पोटेंशियलिटी है, एक संभावना। और जब उसके भीतर वृक्ष पैदा होता है जीवन का, तब वह वास्तविक बनता है। उस वास्तविकता को कोई आत्मा कहता है, उस वास्तविकता को कोई परमात्मा कहता है।
मनुष्य है बीज परमात्मा का। मनुष्य सिर्फ बीज है। जीवन का पूर्ण अनुभव तो वृक्ष को होगा, बीज को क्या हो सकता है? बीज क्या जान सकता है वृक्ष के आनंदों को? बीज क्या जान सकता है कि आएंगे पत्ते हरे जिन पर सूरज की किरणें नाचेंगी? बीज क्या जान सकता है कि हवाएं बहेंगी पत्तों और शाखाओं से और प्राण संगीत में गूंजेंगे? बीज कैसे जान सकता है कि खिलेंगे फूल और आकाश के तारों को मात कर देंगे? बीज कैसे जान सकता है कि पक्षी गीत गाएंगे और यात्री छाया में विश्राम करेंगे? बीज कैसे जान सकता है? वृक्ष के अनुभव को बीज कैसे जान सकता है? बीज को तो कुछ भी पता नहीं। वह तो सपना भी नहीं देख सकता उसका, जो वृक्ष होने पर संभव होगा। वह तो वृक्ष होकर ही जाना जा सकता है।
आदमी जीवन को नहीं जानता है, क्योंकि उसने बीज को ही अपनी परिपूर्णता समझ ली है। वह तो जीवन को तभी जानेगा, जब भीतर के जीवन का पूरा वृक्ष प्रकट हो। लेकिन भीतर के जीवन का वृक्ष प्रकट होना तो दूर, भीतर कुछ है शरीर से भिन्न और अलग, इसका हमें कोई बोध ही नहीं हो पाता। इसकी हमें कोई स्मृति, इसका कोई स्मरण, इसकी कोई रिमेंबरिंग ही पैदा नहीं हो पाती कि अलग है कुछ शरीर से भिन्न। जीवन की समस्या, जो भीतर है, उसके अनुभव की समस्या है। जो भीतर है, उसके अनुभव की समस्या है जीवन की समस्या। और हम जीवन को मान लेते हैं वह, वह जो बाहर विस्तीर्ण है।
एक वृक्ष से मैंने पूछा, तेरा जीवन कहां है? वह वृक्ष कहने लगा, उन जड़ों में जो दिखाई नहीं पड़तीं। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, वहां जीवन है। वृक्ष जो दिखाई पड़ता है, वह वहां से जीवन लेता है, अदृश्य से।
माओत्से तुंग ने अपने बचपन की एक घटना लिखी है। लिखी है कि मेरी मां की झोपड़ी के पास एक बगिया थी। उसने जीवन भर उस बगिया को संभाला था। उसके फूल इतने बड़े और प्यारे होते थे कि दूर-दूर के गांव के लोग देखने आते। और बगिया के पास से गुजरता ऐसा तो कठोर आदमी कभी नहीं देखा गया जो दो क्षण ठहर न गया हो उन फूलों को देखकर! वह बूढ़ी हो गई और बीमार पड़ी। माओ छोटा था, पर उसने अपनी मां को कहा कि फिक्र मत करो--घर पर और कोई बड़ा तो था नहीं--उसने कहा, फिक्र मत करो, तुम चिंता मत करो पौधों की, मैं उनकी फिक्र कर लूंगा।
पंद्रह दिन बाद मां उठी। माओ दिन भर बगीचे में मेहनत करता रहता, दिन-रात, सुबह से लेकर आधी रात तक। मां निश्चिंत थी। लेकिन जिस दिन वह उठकर पंद्रह दिन बाद बगीचे में आई, देखी बगिया तो कुम्हला गई है। फूल तो जा चुके कभी के, पत्ते भी मुर्दा हो गए हैं, सारे वृक्ष उदास खड़े हैं। ऐसा ही लगा होगा उस बुढ़िया को जैसा आज अगर किसी के पास आंखें हों, तो सारी मनुष्य की बगिया को देखकर लगेगा--सब फूल गिर गए, सब पत्ते कुम्हला गए हैं, सब वृक्ष उदास खड़े हैं। वह तो छाती पीटकर रोने लगी कि यह तूने क्या किया! और तू सुबह से सांझ तक करता क्या था?
माओ भी रोने लगा। उसने कहा कि मैंने बहुत कुछ किया जो मैं कर सकता था। एक-एक फूल की धूल झाड़ता था, एक-एक पते की धूल झाड़ता था। एक-एक फूल को चूमता था, एक-एक फूल पर पानी छिड़कता था। पता नहीं क्या हुआ! इतना श्रम, और सारे वृक्ष कुम्हला गए!
उसकी मां रोने में भी हंसने लगी। उसने कहा, पागल! शायद तुझे पता नहीं कि वृक्षों के प्राण पत्तों और फूलों में नहीं होते। वृक्षों के प्राण जड़ों में होते हैं, जो दिखाई नहीं पड़तीं। तू फूल और पत्तों को पानी देगा, तू फूल और पत्तों को चूमेगा और प्रेम करेगा, सब निरर्थक है। फूल-पत्ते की फिक्र भी मत कर। अगर अदृश्य जड़ें शक्तिशाली होती चली जाती हैं, तो फूल-पत्ते अपने से निकल आते हैं, उनकी चिंता नहीं करनी पड़ती है।
लेकिन आदमी ने जीवन को समझा है बाहर का सारा का सारा फूल-पत्ते का जो फैलाव है वह, और भीतर की जड़ें बिलकुल उपेक्षित हैं, निग्लेक्टेड हैं। आदमी के भीतर की जड़ें बिलकुल ही उपेक्षित पड़ी हैं। स्मरण भी नहीं कि भीतर भी मैं कुछ हूं। और जो भी है वह भीतर है। सत्य भीतर है, शक्ति भीतर है, जीवन की सारी क्षमता भीतर है। वहां से वह प्रकट हो सकती है बाहर। बाहर प्रकटीकरण होता है, होना भीतर है। बीइंग भीतर है, बिकमिंग बाहर होती है। वह जो वास्तविक है, वह भीतर है। जो फैलता है और अभिव्यक्त होता है, मेनिफेस्टेशन जो है वह बाहर है। बाहर है अभिव्यक्ति, आत्मा तो भीतर है। और बाहर की अभिव्यक्ति को जो जीवन समझ लेते हैं, उनका सारा जीवन मृत्यु के भय से आक्रांत होता है। वे जीते हैं तो भी मरे-मरे और डरे हुए कि कभी भी मर जाएंगे, किसी क्षण मर जाएंगे।
और यही मरने से डरे हुए लोग किसी की मौत पर रोते और परेशान होते हैं। ये उन किसी की मौत पर रोते और परेशान नहीं हो रहे हैं, हर मौत इन्हें इनकी मौत की खबर ले आती है। हर मौत इन्हें खबर लाती है इनकी मौत की। और जो अपने हैं, बहुत निकट हैं, उनकी मौत बहुत जोर से खबर लाती है अपनी मौत की। और तब प्राण भीतर कंप जाते हैं, तब भय पकड़ लेता है, तब कंपन पकड़ लेता है। और उस कंपन में, उस भय में आदमी अच्छी-अच्छी बातें सोचता है--आत्मा अमर है, आत्मा अमर है, हम तो भगवान के अंश हैं, हम तो ब्रह्म के स्वरूप हैं।
ये सब बकवास की बातें हैं। और यह अपने को धोखा देने से ज्यादा नहीं है, यह सेल्फ डिसेप्शन है। यह मौत से डरा हुआ आदमी अपने को मजबूत करने के लिए दोहराता है कि आत्मा अमर है। वह यह कह रहा है कि नहीं-नहीं, मुझे नहीं मरना पड़ेगा, आत्मा अमर है। लेकिन कंप रहे हैं प्राण और वह कह रहा है, आत्मा अमर है। जो आदमी जानता है कि आत्मा अमर है, उसे एक बार भी यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि आत्मा अमर है। क्योंकि वह जानता है, बात खतम हो गई।
लेकिन ये मौत से डरने वाले लोग मौत से डरते हैं, जीवन को जान नहीं पाते, और फिर बीच में एक नई तरकीब और एक नया धोखा पैदा करते हैं कि आत्मा अमर है।
इसीलिए तो आत्मा को अमर मानने वाले लोगों से ज्यादा मौत से डरने वाली कौम खोजनी कठिन है। इस देश में ही यह दुर्भाग्य घटित हुआ है। इस देश में आत्मा की अमरता मानने वाले सर्वाधिक लोग हैं पृथ्वी पर, और इस देश में मौत से डरने वाले कायरों की संख्या भी सर्वाधिक है। ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो गईं? जो जानते हैं कि आत्मा अमर है, उनके लिए तो मृत्यु हो गई समाप्त, उनके लिए तो भय हो गया विसर्जित, उन्हें तो अब कोई मार नहीं सकता। उन्हें तो अब कोई नहीं मार सकता।
और दूसरी बात भी ध्यान में ले लेना: न उन्हें कोई मार सकता है, न अब वे इस भ्रम में हो सकते हैं कि मैं किसी को मार सकता हूं। क्योंकि मारने की घटना ही खतम हो गई। और इस राज को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। जो लोग कहेंगे आत्मा अमर है, जो लोग कहेंगे आत्मा अमर है, वे मौत से डरे हुए हैं और दोहरा रहे हैं कि आत्मा अमर है। और साथ ही ऐसे मौत से डरने वाले लोग अहिंसा की भी बहुत बात करेंगे। इसलिए नहीं कि वे किसी को न मारें, बल्कि इसलिए कि बहुत गहरे में कोई उन्हें मारने को तैयार न हो जाए। दुनिया अहिंसक होनी चाहिए! क्यों? कहेंगे तो वे यही कि किसी को भी मारना बुरा है; लेकिन बहुत गहरे में वे यह कह रहे हैं कि कोई मुझे मार न डाले। किसी को भी मारना बुरा है! लेकिन अगर उन्हें पता चल गया है कि मृत्यु होती ही नहीं, तो न मरने का डर है और न मारने का डर है और न ये अर्थपूर्ण बातें रह गईं।
कृष्ण ने कहा अर्जुन से कि तू भयभीत मत हो, क्योंकि तू जिन्हें सामने खड़े देख रहा है, वे बहुत बार रहे हैं पहले भी। तू भी था, मैं भी था, हम सब बहुत बार थे और हम सब बहुत बार होंगे। जगत में कुछ भी नष्ट नहीं होता। इसलिए न मरने का डर है, न मारने का डर है। सवाल है जीवन को जीने का। और जो मरने और मारने दोनों से डरते हैं, वे जीवन की दृष्टि में एकदम नपुंसक और इंपोटेंट हो जाते हैं। जो न मर सकता है, न मार सकता है, वह जानता ही नहीं कि जो है वह न मारा जा सकता है, न मर सकता है
कैसी होगी वह दुनिया जिस दिन सारा जगत जानेगा भीतर से कि आत्मा अमर है! उस दिन मृत्यु का सारा भय विलीन हो जाएगा! उस दिन मरने का भय भी विलीन हो जाएगा, मारने की धमकी भी विलीन हो जाएगी। उस दिन युद्ध विलीन होंगे, उसके पहले नहीं।
जब तक आदमी को लगता है कि मारा जा सकता है, मर सकता हूं, तब तक दुनिया से युद्ध विलीन नहीं हो सकते। चाहे गांधी समझाएं अहिंसा, और चाहे बुद्ध और चाहे महावीर। चाहे सारी दुनिया में अहिंसा के कितने ही पाठ पढ़ाए जाएं। जब तक मनुष्य को भीतर से यह अनुभव नहीं पैदा हो सकता कि जो है, वह अमृत है, तब तक दुनिया में युद्ध बंद नहीं हो सकते।
वे जिनके हाथों में तलवारें दिखती हैं, यह मत समझ लेना कि वे बहुत बहादुर लोग हैं। तलवार सबूत है कि यह आदमी भीतर से डरपोक है, कायर है, कावर्ड है। चौरस्तों पर जिनकी मूर्तियां बनाते हो तलवारें हाथ में लेकर, वे कायरों की मूर्तियां हैं। बहादुर के हाथ में तलवार की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि मरना और मारना दोनों बच्चों की बातें हैं।
लेकिन एक अदभुत प्रवंचना आदमी पैदा करता है। जिन बातों को वह नहीं जानता है, उन बातों को भी इस भांति कोशिश करता है कि जैसे हम जानते हैं। भय के कारण! भीतर है भय, भीतर वह जानता है कि मरना पड़ेगा, लोग रोज मर रहे हैं। भीतर वह देखता है कि शरीर क्षीण हो रहा है, जवानी गई, बुढ़ापा आ रहा है। देखता है कि शरीर जा रहा है। और भीतर दोहरा रहा है कि आत्मा अजर-अमर है। वह अपना विश्वास जुटाने की कोशिश कर रहा है, हिम्मत जुटाने की कोशिश कर रहा है--कि मत घबराओ! मत घबराओ! मौत तो है, लेकिन नहीं-नहीं, ऋषि-मुनि कहते हैं कि आत्मा अमर है। मौत से डरने वाले लोग ऐसे ऋषि-मुनियों के आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं और भीड़ कर लेते हैं, जो आत्मा की अमरता की बातें करते हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है। मैं यह कह रहा हूं कि आत्मा की अमरता का सिद्धांत मौत से डरने वाले लोगों का सिद्धांत है। आत्मा की अमरता को जानना बिलकुल दूसरी बात है। और यह भी ध्यान रहे कि आत्मा की अमरता को वे ही जान सकते हैं, जो जीते जी मरने का प्रयोग कर लेते हैं। उसके अतिरिक्त कोई जानने का उपाय नहीं। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
मौत में होता क्या है? प्राणों की सारी ऊर्जा जो बाहर फैली हुई है, विस्तीर्ण है, वह वापस सिकुड़ती है, अपने केंद्र पर पहुंचती है। जो ऊर्जा प्राणों की सारे शरीर के कोने-कोने तक फैली हुई है, वह सारी ऊर्जा वापस सिकुड़ती है, बीज में वापस लौटती है। शरीर...जैसे एक दीये को हम मंदा करते जाएं, धीमा करते जाएं, तो फैला हुआ प्रकाश सिकुड़ आएगा, अंधकार घिरने लगेगा। प्रकाश सिकुड़कर फिर दीये के पास आ जाएगा। हम और धीमा करते जाएं, और धीमा; और फिर प्रकाश बीज-रूप में, अणुरूप में निहित हो जाएगा, अंधकार घेर लेगा।
प्राणों की जो ऊर्जा फैली हुई है जीवन की, वह सिकुड़ती है, वापस लौटती है अपने केंद्र पर। नई यात्रा के लिए फिर बीज बनती है, फिर अणु बनती है। यह जो सिकुड़ाव है, इसी सिकुड़ाव से, इसी संकोच से पता चलता है कि मरा! मैं मरा! क्योंकि जिसे मैं जीवन समझता था, वह जा रहा है, सब छूट रहा है। हाथ-पैर शिथिल होने लगे, श्वास खोने लगी, आंखों ने देखना बंद कर दिया, कानों ने सुनना बंद कर दिया। ये तो सारी इंद्रियां, यह सारा शरीर किसी ऊर्जा के साथ संयुक्त होने के कारण जीवंत था। वह ऊर्जा वापस लौटने लगी। देह तो मुर्दा है, वह फिर मुर्दा रह गई। घर का मालिक घर छोड़ने की तैयारी करने लगा, घर उदास हो गया, निर्जन हो गया। लगता है: मरा मैं। मृत्यु के इस क्षण में पता चलता है कि जा रहा हूं, डूब रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं।
और इस घबराहट के कारण कि मैं मर रहा हूं, इस चिंता और उदासी के कारण, इस पीड़ा, इस एंग्विश के कारण, यह एंग्जायटी कि मैं मर रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं, यह इतनी ज्यादा चिंता पैदा कर देती है मन में कि वह उस मृत्यु के अनुभव को भी जानने से वंचित रह जाता है। जानने के लिए चाहिए शांति। हो जाता है इतना अशांत कि मृत्यु को जान नहीं पाता।
बहुत बार हम मर चुके हैं, अनंत बार, लेकिन हम अभी तक मृत्यु को जान नहीं पाए। क्योंकि हर बार जब मरने की घड़ी आई है, तब फिर हम इतने विह्वल और बेचैन और परेशान हो गए हैं कि उस बेचैनी और परेशानी में कैसा जानना? कैसा ज्ञान? हर बार मौत आकर गुजर गई है हमारे आस-पास से और हम फिर भी अपरिचित रह गए हैं उससे।
नहीं, मरने के क्षण में नहीं जाना जा सकता है मौत को। लेकिन आयोजित मौत हो सकती है। आयोजित मौत को ही ध्यान कहते हैं, योग कहते हैं, समाधि कहते हैं। समाधि का एक ही अर्थ है कि जो घटना मृत्यु में अपने आप घटती है, समाधि में साधक चेष्टा और प्रयास से सारे जीवन की ऊर्जा को सिकोड़कर भीतर ले जाता है, जानते हुए।
निश्चित ही अशांत होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह प्रयोग कर रहा है भीतर ले जाने का, चेतना को सिकोड़ने का। वह शांत मन से चेतना को भीतर सिकोड़ता है। जो मौत करती है, उसे वह खुद करता है। और इस शांति में वह जान पाता है कि जीवन-ऊर्जा अलग बात है, शरीर अलग बात है। वह जो बल्ब, जिससे बिजली प्रकट हो रही है, अलग बात है, और वह जो बिजली प्रकट हो रही है वह अलग बात है। बिजली सिकुड़ जाती है, बल्ब निर्जीव होकर पड़ा रह जाता है।
शरीर बल्ब से ज्यादा नहीं है। जीवन वह विद्युत है, वह ऊर्जा है, वह इनर्जी, वह प्राण है, जो शरीर को जीवंत किए हुए है, गर्म किए हुए है, उत्तप्त किए हुए है। समाधि में साधक मरता है स्वयं, और चूंकि वह स्वयं मृत्यु में प्रवेश करता है, वह जान लेता है इस सत्य को कि मैं हूं अलग, शरीर है अलग। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, मृत्यु समाप्त हो गई। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, और जीवन का अनुभव शुरू हो गया। मृत्यु की समाप्ति और जी
वन का अनुभव एक ही सीमा पर होते हैं, एक ही साथ होते हैं। जीवन को जाना कि मृत्यु गई, मृत्यु को जाना कि जीवन हुआ। अगर ठीक से समझें तो ये एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। ये एक ही दिशा में इंगित करने वाले दो इशारे हैं।
धर्म को इसलिए मैं कहता हूं, धर्म है मृत्यु की कला। वह है आर्ट आफ डेथ। लेकिन आप कहेंगे, कई बार मैं कहता हूं धर्म है जीवन की कला, आर्ट आफ लिविंग। निश्चित ही दोनों बात मैं कहता हूं, क्योंकि जो मरना जान लेता है वही जीवन को जान पाता है।
धर्म है जीवन और मृत्यु की कला। अगर जानना है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है, तो आपको स्वेच्छा से शरीर से ऊर्जा को खींचने की कला सीखनी होगी, तो आप जान सकते हैं, अन्यथा नहीं। और यह ऊर्जा खींची जा सकती है। इस ऊर्जा को खींचना कठिन नहीं है। इस ऊर्जा को खींचना सरल है। यह ऊर्जा संकल्प से ही फैलती है और संकल्प से ही वापस लौट आती है। यह ऊर्जा सिर्फ संकल्प का विस्तार है, विल फोर्स का विस्तार है।
संकल्प हम करें तीव्रता से, टोटल, समग्र, कि मैं वापस लौटता हूं अपने भीतर। सिर्फ आधा घंटा भी कोई इस बात का संकल्प करे कि मैं वापस लौटना चाहता हूं, मैं मरना चाहता हूं, मैं डूबना चाहता हूं अपने भीतर, मैं अपनी सारी ऊर्जा को सिकोड़ लेना चाहता हूं, और थोड़े ही दिनों में वह इस अनुभव के करीब पहुंचने लगेगा कि ऊर्जा सिकुड़ने लगी भीतर। शरीर छूट जाएगा बाहर पड़ा हुआ। एक तीन महीने थोड़ा गहरा प्रयोग, और आप शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं। अपना ही शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं। सबसे पहले तो भीतर से दिखाई पड़ेगा कि मैं अलग खड़ा हूं भीतर--एक तेजस, एक ज्योति, और सारा शरीर भीतर से दिखाई पड़ रहा है जैसा यह भवन है। और फिर थोड़ी और हिम्मत जुटाई जाए, तो वह जो जीवंत-ज्योति भीतर है, उसे बाहर भी लाया जा सकता है। और हम बाहर से देख सकते हैं कि शरीर पड़ा है वह।
एक अदभुत अनुभव मुझे हुआ, वह मैं कहूं। अब तक उसे कभी कहा नहीं। अचानक खयाल आ गया तो कहता हूं। कोई बारह साल पहले, तेरह साल पहले, बहुत रातों तक एक वृक्ष के ऊपर बैठकर ध्यान करता था। ऐसा बार-बार अनुभव हुआ कि जमीन पर बैठकर ध्यान करने पर शरीर बहुत प्रबल होता है। शरीर बनता है पृथ्वी से और पृथ्वी पर बैठकर ध्यान करने से शरीर की शक्ति बहुत प्रबल होती है। वह जो हाइट्स पर, पहाड़ों पर और हिमालय पर जाने वाले योगी की चर्चा है, वह अकारण नहीं है, बहुत वैज्ञानिक है। जितनी पृथ्वी से दूरी बढ़ती है शरीर की, उतना ही शरीरतत्व का प्रभाव भीतर कम होता चला जाता है।
तो एक बड़े वृक्ष पर ऊपर बैठकर मैं ध्यान करता था रोज रात। एक दिन ध्यान में कब कितना लीन हो गया, मुझे पता नहीं; और कब शरीर वृक्ष से गिर गया, वह मुझे पता नहीं। जब नीचे गिर पड़ा शरीर, तब मैंने चौंककर देखा कि यह क्या हो गया है! मैं तो वृक्ष पर ही था और शरीर नीचे गिर गया! कैसा हुआ अनुभव, कहना बहुत मुश्किल है। मैं तो वृक्ष पर ही बैठा था और शरीर नीचे गिरा था और मुझे दिखाई पड़ रहा था कि वह नीचे गिर गया है। सिर्फ एक रजत-रज्जु, एक सिलवर कॉर्ड नाभि से और मुझ तक जुड़ी हुई थी। एक अत्यंत चमकदार शुभ्र रेखा। कुछ भी समझ के बाहर था कि अब क्या होगा? कैसे वापस लौटूंगा?
कितनी देर यह अवस्था रही, वह भी पता नहीं। लेकिन अपूर्व अनुभव हुआ। शरीर के बाहर से पहली दफा देखा शरीर को। और शरीर उसी दिन से समाप्त हो गया। मौत उसी दिन से खतम हो गई। क्योंकि एक और देह दिखाई पड़ी जो शरीर से भिन्न है। एक और सूक्ष्म शरीर का अनुभव हुआ। कितनी देर यह रहा, कहना मुश्किल है। सुबह होते-होते दो औरतें वहां से निकलीं दूध लेकर किसी गांव से, और उन्होंने आकर पड़ा हुआ शरीर देखा। वह मैं देख रहा हूं ऊपर से कि वे करीब आकर बैठ गई हैं। कोई मर गया! और उन्होंने सिर पर हाथ रखा--और एक क्षण में जैसे तीव्र आकर्षण से मैं वापस अपने शरीर में आ गया और आंख खुल गई।
तब एक दूसरा अनुभव भी हुआ। वह दूसरा अनुभव यह हुआ कि स्त्री पुरुष के शरीर में एक कीमिया और केमिकल चेंज पैदा कर सकती है और पुरुष स्त्री के शरीर में एक केमिकल चेंज पैदा कर सकता है। यह भी खयाल हुआ कि उस स्त्री का छूना और मेरा वापस लौट आना, यह कैसे हो गया! फिर तो बहुत अनुभव हुए इस बात के और तब मुझे समझ में आया कि हिंदुस्तान में जिन तांत्रिकों ने समाधि पर और मृत्यु पर सर्वाधिक प्रयोग किए थे, उन्होंने क्यों स्त्रियों को भी अपने साथ बांध लिया था। क्योंकि गहरी समाधि के प्रयोग में अगर शरीर के बाहर तेजस शरीर चला गया है, सूक्ष्म शरीर चला गया है, तो बिना स्त्री की सहायता के पुरुष के तेजस शरीर को वापस नहीं लौटाया जा सकता। या स्त्री का तेजस शरीर अगर बाहर चला गया है, तो बिना पुरुष की सहायता के उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता। स्त्री और पुरुष के शरीर के मिलते ही एक विद्युत वृत्त, एक इलेक्ट्रिक सर्किल पूरा हो जाता है और वह जो बाहर निकल गई है चेतना, तीव्रता से भीतर वापस लौट आती है।
फिर तो छह महीने में कोई छह बार वह अनुभव हुआ निरंतर, और छह महीने में मुझे अनुभव हुआ कि मेरी उम्र कम से कम दस वर्ष कम हो गई। दस वर्ष कम हो गई मतलब, अगर मैं सत्तर साल जीता तो अब साठ ही साल जी सकूंगा। छह महीने में एक अजीब-अजीब से अनुभव हुए। छाती के सारे बाल मेरे सफेद हो गए छह महीने के भीतर। मेरी समझ के बाहर हुआ कि यह क्या हो रहा है!
और तब यह भी खयाल आया कि इस शरीर और उस शरीर के बीच के संबंध में व्याघात पड़ गया है, उन दोनों का जो तालमेल था वह टूट गया है। और तब मुझे यह भी समझ में आया कि शंकराचार्य का तैंतीस साल की उम्र में मर जाना या विवेकानंद का छत्तीस साल की उम्र में मर जाना कुछ और ही कारण रखता है। अगर ये दोनों के संबंध बहुत तीव्रता से टूट जाएं, तो जीना मुश्किल है। और तब मुझे यह भी खयाल में आया कि रामकृष्ण का बहुत बीमारियों से घिरे रहना और रमण का कैंसर से मर जाने का भी कारण शारीरिक नहीं है, उस बीच के तालमेल का टूट जाना ही कारण है।
लोग आमतौर से कहते हैं कि योगी बहुत स्वस्थ होते हैं, लेकिन सचाई बिलकुल उलटी है। सचाई आज तक यह है कि योगी हमेशा रुग्ण रहा है और कम उम्र में मरता रहा है। और उसका कुल कारण इतना है कि उन दोनों शरीर के बीच जो एडजेस्टमेंट चाहिए, जो तालमेल चाहिए, उसमें विघ्न पड़ जाता है। जैसे ही एक बार वह शरीर बाहर हुआ, फिर ठीक से पूरी तरह कभी भी पूरी अवस्था में भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाता है। लेकिन उसकी कोई जरूरत भी नहीं रह जाती, उसका कोई प्रयोजन भी नहीं रह जाता, उसका कोई अर्थ भी नहीं रह जाता है।
संकल्प से खींची जा सकती है ऊर्जा भीतर। सिर्फ संकल्प से, सिर्फ यह धारणा, सिर्फ यह भावना कि मैं अंदर वापस लौट आऊं, वापस लौट आऊं, वापस लौट आऊं--इसकी तीव्र पुकार, इसका तीव्र आंदोलन, पूरे प्राण इससे भर जाएं कि मैं भीतर वापस लौट आऊं--मैं केंद्र पर वापस लौट आऊं, मैं वापस लौट आऊं, मैं वापस लौट आऊं। इसकी इतनी तीव्र पुकार कि यह सारे कण-कण में शरीर के गूंज जाए, श्वास-श्वास को पकड़ ले। और किसी भी दिन यह घटना घट जाती है कि एक झटके के साथ आप भीतर पहुंच जाते हैं और पहली दफा फ्राम विदिन शरीर को देखते हैं।
यह जो हजारों नाड़ियों की बात की है योग ने, वह फिजियोलॉजी को जानकर नहीं की है। शरीर-शास्त्र से उसका कोई संबंध नहीं है। वे नाड़ियां जानी गई हैं भीतर से। और इसलिए आज जब फिजियोलॉजी उनका विचार करती है तो पाती है कि ये नाड़ी कहां हैं? ये जो सात चक्र बताए हैं, ये कहां हैं? वे कहीं भी नहीं हैं शरीर में! शरीर में वे कहीं भी नहीं हैं, क्योंकि शरीर को हम बाहर से जांच रहे हैं, वे कहीं नहीं मिलेंगे। एक और जांच है: शरीर को भीतर से जानना, इनर-फिजियोलॉजी। वह बहुत सटल फिजियोलॉजी है, वह बहुत सूक्ष्म शरीर-शास्त्र है। वहां से जानने पर जो नाड़ियां जानी गई हैं और जो केंद्र जाने गए हैं, वे बिलकुल अलग हैं। इस शरीर में खोजने से वे कहीं भी नहीं मिलेंगे। वे केंद्र इस शरीर और उस भीतर की आत्मा के कांटेक्ट फील्ड्स हैं, जहां ये दोनों मिलते हैं।
सबसे बड़ा कांटेक्ट फील्ड, सबसे बड़ा संपर्क का स्थल नाभि है। इसलिए आपको खयाल होगा कि अगर आप कार चला रहे हों और एकदम से एक्सीडेंट होने लगे, तो सबसे पहले नाभि प्रभावित हो जाएगी। एकदम नाभि अस्तव्यस्त हो जाएगी, क्योंकि वहां सबसे ज्यादा, सबसे ज्यादा गहरा उस आत्मा और इस शरीर के बीच संबंध का क्षेत्र है। वह सबसे पहले अस्तव्यस्त हो जाएगा मौत को देखकर। जैसे ही मौत सामने दिखाई पड़ेगी, नाभि अस्तव्यस्त हो जाएगी सारे शरीर केंद्र से। और शरीर की एक आंतरिक व्यवस्था है, जो उस अंतस शरीर और इस शरीर के बीच संपर्क से स्थापित हुई है। जिन चक्रों की बात है, वे उनके संपर्क-स्थल हैं। निश्चित ही एक बार भीतर से शरीर को जानना एक बिलकुल ही दूसरी दुनिया को जान लेना है, जिसका हमें कोई भी पता नहीं है। मेडिकल साइंस जिसके संबंध में एक शब्द भी नहीं जानती और नहीं जान सकेगी अभी।
एक बार यह अनुभव हो जाए कि मैं अलग और यह शरीर अलग, मौत खतम हो गई। मृत्यु नहीं है फिर। और फिर तो शरीर के बाहर आकर खड़े होकर देखा जा सकता है। तो यह कोई फिलासफिक विचार नहीं है, यह कोई दार्शनिक तात्विक चिंतन नहीं है कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है। जो लोग इस पर विचार करते हैं, वे दो कौड़ी का भी फल कभी नहीं निकाल पाते। यह तो है एक्झिस्टेंशियल एप्रोच, यह तो है अस्तित्ववादी खोज। जाना जा सकता है कि मैं जीवन हूं, जाना जा सकता है कि मृत्यु मेरी नहीं है। इसे जीया जा सकता है, इसके भीतर प्रविष्ट हुआ जा सकता है।
लेकिन जो लोग केवल सोचते हैं कि हम विचार करेंगे कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है, वे लाख विचार करें, जन्म-जन्म विचार करें, उन्हें कुछ भी पता नहीं चल सकता है, कुछ भी पता नहीं चल सकता है। क्योंकि हम विचार करके विचार करेंगे क्या? विचार किया जा सकता है उसके संबंध में जिसे हम जानते हों। जो नोन है, जो ज्ञात है, उसके बाबत विचार हो सकता है। जो अननोन है, अज्ञात है, उसके बाबत कोई विचार नहीं हो सकता। आप वही सोच सकते हैं, जो आप जानते हैं।
कभी आपने खयाल किया? आप उसे नहीं सोच सकते हैं, जिसे आप नहीं जानते। उसे सोचेंगे कैसे? हाउ टु कन्सीव इट? उसकी कल्पना ही कैसे हो सकती है? उसकी धारणा कैसे हो सकती है जिसे हम जानते ही नहीं हैं? जीवन हम जानते नहीं, मृत्यु हम जानते नहीं, सोचेंगे हम क्या? इसलिए दुनिया में मृत्यु और जीवन पर दार्शनिकों ने जो कहा है, उसका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। फिलासफी की किताबों में जो भी लिखा है मृत्यु और जीवन के संबंध में, उसका कौड़ी भर मूल्य नहीं है। क्योंकि वे लोग सोच-सोच कर लिख रहे हैं। सोचकर लिखने का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ योग ने जो कहा है जीवन और मृत्यु के संबंध में, उसके अतिरिक्त आज तक सिर्फ शब्दों का खेल हुआ है। क्योंकि योग जो कह रहा है वह एक एक्झिस्टेंशियल, एक लिविंग, एक जीवंत अनुभव की बात है।
आत्मा अमर है, यह कोई सिद्धांत, कोई थ्योरी, कोई आइडियोलॉजी नहीं है। यह कुछ लोगों का अनुभव है। और अनुभव की तरफ जाना हो तो ही...तो ही अनुभव हल कर सकता है इस समस्या को कि क्या है जीवन, क्या है मौत। और जैसे ही यह अनुभव होगा, ज्ञात होगा: जीवन है, मौत नहीं है। जीवन ही है, मृत्यु है ही नहीं।
फिर हम कहेंगे, लेकिन यह मृत्यु तो घट जाती है। उसका कुल मतलब इतना है कि जिस घर में हम निवास करते थे, उस घर को छोड़कर दूसरे घर की
यात्रा शुरू हो जाती है। जिस घर में हम रहे थे, उस घर से हम दूसरे घर की तरफ यात्रा करते हैं। घर की सीमा है, घर की सामर्थ्य है। घर एक यंत्र है। यंत्र थक जाता है, जीर्ण हो जाता है, और हमें पार हो जाना होता है।
अगर विज्ञान ने व्यवस्था कर ली, तो आदमी के शरीर को सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष भी जिलाया जा सकता है। लेकिन उससे यह सिद्ध नहीं होगा कि आत्मा नहीं है। उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि आत्मा को कल तक घर बदलने पड़ते थे, विज्ञान ने पुराने ही घर को फिर से ठीक कर देने की व्यवस्था कर दी है। उससे यह सिद्ध नहीं होगा, इस भूल में कोई वैज्ञानिक न रहे कि हम आदमी की उम्र अगर पांच सौ वर्ष कर लेंगे, हजार वर्ष कर लेंगे, तो हमने सिद्ध कर दिया कि आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं है। नहीं, इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैकेनिज्म जो शरीर का था, उसे आत्मा को इसीलिए बदलना पड़ता था कि वह जरा-जीर्ण हो गया था। अगर उसको रिप्लेस किया जा सकता है--हृदय बदला जा सकता है, आंख बदली जा सकती है, हाथ-पैर बदले जा सकते हैं--तो आत्मा को शरीर बदलने की जरूरत न रही। पुराने घर से काम चल जाएगा। रिपेयरमेंट हो गया। उससे कोई आत्मा नहीं है, यह दूर से भी सिद्ध नहीं होता।
और यह भी हो सकता है कल कि विज्ञान टेस्ट-ट्यूब में जन्म को, जीवन को पैदा कर सके। और तब शायद वैज्ञानिक इस भ्रम में पड़ेगा कि हमने जीवन को जन्म दे लिया। वह भी गलत है। वह भी मैं कह देना चाहता हूं कि उससे भी कुछ सिद्ध नहीं होता।
मां और बाप मिलकर क्या करते हैं मां के पेट में? एक पुरुष और एक स्त्री मिलकर क्या करते हैं स्त्री के पेट में? आत्मा को जन्म नहीं देते। दे जस्ट क्रिएट ए सिचुएशन, वे सिर्फ एक अवसर पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रविष्ट हो सकती है। मां का और पिता का अणु मिलकर एक अपरचुनिटी, एक अवसर पैदा करते हैं, एक सिचुएशन, जिसमें कि आत्मा प्रवेश पा सकती है।
कल यह हो सकता है कि हम टेस्ट-ट्यूब में यह सिचुएशन पैदा कर दें। इससे कोई आत्मा पैदा नहीं हो रही है। मां का पेट भी तो एक टेस्ट-ट्यूब है, एक यांत्रिक व्यवस्था है। वह प्राकृतिक है। कल विज्ञान यह कर सकता है कि प्रयोगशाला में जिन-जिन रासायनिक तत्वों से पुरुष का वीर्याणु बनता है और स्त्री का अणु बनता है, उन-उन रासायनिक तत्वों की पूरी खोज और प्रोटोप्लाज्म की पूरी जानकारी से यह हो सकता है कि हम टेस्ट-ट्यूब में रासायनिक व्यवस्था कर लें। तब जो आत्माएं कल तक मां के पेट में प्रविष्ट होती थीं, वे टेस्ट-ट्यूब में प्रविष्ट हो जाएंगी। लेकिन आत्मा पैदा नहीं हो रही है, आत्मा अब भी आ रही है। जन्म की घटना दोहरी घटना है--शरीर की तैयारी और आत्मा का आगमन, आत्मा का उतरना।
आत्मा के संबंध में आने वाले दिन बहुत खतरनाक और अंधेरे होने वाले हैं, क्योंकि विज्ञान की प्रत्येक घोषणा आदमी को यह विश्वास दिला देगी कि आत्मा नहीं है। इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी के भीतर जाने का जो संकल्प था, वह क्षीण होगा। इससे सिर्फ अगर यह आदमी को समझ में आने लगा कि ठीक है, उम्र बढ़ गई, बच्चे टेस्ट-ट्यूब में पैदा होने लगे, अब कहां है आत्मा? इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी का जो प्रयास चलता था अंतस की खोज का, वह बंद हो जाएगा। और यह बहुत दुर्भाग्य की घटना घटने वाली है, जो आने वाले पचास वर्षों में घटेगी। इधर पचास वर्षों में पिछले वर्षों में उसकी भूमिका तैयार हो गई है।
दुनिया में आज तक पृथ्वी पर दीन लोग रहे हैं, दरिद्र लोग रहे हैं, दुखी लोग रहे हैं, बीमार लोग रहे हैं, उनकी उम्र कम थी, उनके पास भोजन अच्छा न था, कपड़े न थे अच्छे। लेकिन आज तक आत्मा की दृष्टि से दरिद्र लोगों की संख्या जितनी आज है, उतनी कभी भी नहीं थी। और उसका कुल एक ही कारण है कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो जाने का सवाल क्या है! एक बार अगर मनुष्य-जाति को यह विश्वास आ गया कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो वहां जाने का सवाल खतम हो जाता है।
आने वाला भविष्य अत्यंत अंधकारपूर्ण और खतरनाक हो सकता है। इसलिए हर कोने से इस संबंध में प्रयोग चलते रहने चाहिए कि ऐसे लोग खड़े होकर घोषणा करते रहें--सिर्फ शब्दों की और सिद्धांतों की नहीं, गीता और कुरान और बाइबिल की पुनरुक्ति की नहीं, बल्कि घोषणा कर सकें जीवंत--कि मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं। और न केवल यह घोषणा शब्दों की हो, यह उनके सारे जीवन से प्रकट होती रहे, तो शायद हम मनुष्य को बचाने में सफल हो सकते हैं। अन्यथा विज्ञान की सारी की सारी विकसित अवस्था मनुष्य को भी एक यंत्र में परिणत कर देगी। और जिस दिन मनुष्य-जाति को यह खयाल आ जाएगा कि भीतर कुछ भी नहीं है, उस दिन शायद भीतर के सारे द्वार बंद हो जाएंगे। और उसके बाद क्या होगा, कहना कठिन है।
आज तक भी अधिक लोगों के भीतर के द्वार बंद रहे हैं, लेकिन कभी-कभी कोई एक साहसी व्यक्ति भीतर की दीवालें तोड़कर घुस जाता है। कभी कोई एक महावीर, कभी कोई एक बुद्ध, कभी कोई एक क्राइस्ट, कभी कोई एक लाओत्से तोड़ देता है दीवाल और भीतर घुस जाता है। उसकी संभावना भी रोज-रोज कम होती जा रही है। हो सकता है सौ, दो सौ वर्ष बाद--जैसा मैंने आपसे कहा कि मैं कहता हूं, जीवन है, मृत्यु नहीं है--सौ, दो सौ वर्ष बाद मनुष्य कहे कि मृत्यु है, जीवन नहीं है। इसकी तैयारी तो पूरी हो गई है। इसको कहने वाले लोग तो खड़े हो गए हैं। आखिर मार्क्स क्या कह रहा है? मार्क्स यह कह रहा है कि मैटर है, माइंड नहीं है। मार्क्स यह कह रहा है कि पदार्थ है, परमात्मा नहीं है। और जो तुम्हें परमात्मा मालूम होता है वह भी बाई-प्रोडक्ट है मैटर का। वह भी पदार्थ की ही उत्पत्ति है, वह भी पदार्थ से ही पैदा हुआ है। मार्क्स यह कह रहा है कि जीवन नहीं है, मृत्यु है। क्योंकि अगर आत्मा नहीं है और पदार्थ है तो फिर जीवन नहीं है, मृत्यु है।
मार्क्स की इस बात का प्रभाव बढ़ता चला गया है। यह शायद आपको पता न होगा, दुनिया में ऐसे लोग रहे हैं हमेशा, जिन्होंने आत्मा को इनकार किया है, लेकिन आत्मा को इनकार करने वालों का धर्म आज तक दुनिया में पैदा नहीं हुआ था। मार्क्स ने पहली दफा आत्मा को इनकार करने वाले लोगों का धर्म पैदा कर दिया है। नास्तिकों का अब तक कोई आर्गनाइजेशन नहीं था। चार्वाक थे, बृहस्पति थे, एपीकुरस था। दुनिया में अदभुत लोग हुए जिन्होंने यह कहा कि नहीं है आत्मा, लेकिन उनका कोई आर्गनाइज्ड, उनका कोई चर्च, उनका कोई संगठन नहीं था। मार्क्स दुनिया में पहला नास्तिक है जिसके पास आर्गनाइज्ड चर्च है और आधी दुनिया उसके चर्च के भीतर खड़ी हो गई है। और आने वाले पचास वर्षों में बाकी आधी दुनिया भी खड़ी हो जाएगी।
आत्मा तो है, लेकिन उसको जानने और पहचानने के सारे द्वार बंद होते जा रहे हैं। जीवन तो है, लेकिन उस जीवन से संबंधित होने की सारी संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं। इसके पहले कि सारे द्वार बंद हो जाएं, जिनमें थोड़ी भी सामर्थ्य और साहस है, उन्हें अपने पर प्रयोग करने चाहिए और चेष्टा करनी चाहिए भीतर जाने की, ताकि वे अनुभव कर सकें। और अगर दुनिया में सौ, दो सौ लोग भी भीतर की ज्योति को अनुभव करते हों, तो कोई खतरा नहीं है। करोड़ों लोगों के भीतर का अंधकार भी थोड़े-से लोगों की जीवन-ज्योति से दूर हो सकता है और टूट सकता है। एक छोटा-सा दीया, और न मालूम कितने अंधकार को तोड़ देता है।
अगर एक गांव में एक आदमी भी है, जो जानता है कि आत्मा अमर है, उस गांव का पूरा वातावरण, उस गांव की पूरी की पूरी हवा, उस गांव की पूरी की पूरी जिंदगी बदल जाएगी। एक छोटा-सा फूल खिलता है, और दूर-दूर के रास्तों पर उसकी सुगंध फैल जाती है। एक आदमी भी अगर इस बात को जानता है कि आत्मा अमर है, तो उस एक आदमी का एक गांव में होना पूरे गांव की आत्मा की शुद्धि का कारण बन सकता है।
लेकिन हमारे मुल्क में कितने साधु हैं और कितने चिल्लाने और शोरगुल करने वाले हैं कि आत्मा अमर है। और इनकी इतनी लंबी कतार, इतनी भीड़, और मुल्क का यह नैतिक चरित्र और मुल्क का यह पतन! यह सबूत करता है कि यह सब धोखेबाज धंधा है। यहां कहीं कोई आत्मा-वात्मा को जानने वाला नहीं है। यह इतनी भीड़, इतनी कतार, यह इतनी मिलिटरी और इतना बड़ा सर्कस साधुओं का सारे मुल्क में--कोई मुंह पर पट्टी बांधे हुए एक तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई डंडा लिए दूसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई तीसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं--यह इतनी बड़ी भीड़ आत्मा को जानने वाले लोगों की हो और मुल्क का जीवन इतना नीचे गिरता चला जाए, यह असंभव है।
और मैं आपको कहना चाहता हूं कि जो लोग कहते हैं कि यह आम आदमी ने दुनिया का चरित्र बिगाड़ा है, वे गलत कहते हैं। आम आदमी हमेशा ऐसा रहा है। दुनिया का चरित्र ऊंचा था, कुछ थोड़े-से लोगों के आत्म-अनुभव की वजह से। आम आदमी हमेशा ऐसा था। आम आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ गया है। आम आदमी के बीच कुछ लोग थे जीवंत, और उसकी चेतना को सदा ऊपर उठाते रहे, सदा ऊपर खींचते रहे। उनकी मौजूदगी, उनकी प्रेजेंस, कैटेलेटिक एजेंट का काम करती रही है और आदमी के जीवन को ऊपर खींचती रही है। और अगर आज दुनिया में आदमी का चरित्र इतना नीचा है, तो जिम्मेवार हैं साधु, जिम्मेवार हैं महात्मा, जिम्मेवार हैं धर्म की बातें करने वाले झूठे लोग। आम आदमी जिम्मेवार नहीं है। उसकी कभी कोई रिस्पांसबिलिटी नहीं थी। पहले भी नहीं थी, आज भी नहीं है।
तो अगर दुनिया को बदलना हो, तो इस बकवास को छोड़ दें कि हम एक-एक आदमी का चरित्र सुधारेंगे, कि हम एक-एक आदमी को नैतिक शिक्षा का पाठ देंगे। अगर दुनिया को बदलना चाहते हैं, तो कुछ थोड़े-से लोगों को अत्यंत इंटेंस इनर एक्सपेरिमेंट में से गुजरना पड़ेगा। जो लोग बहुत भीतरी प्रयोग से गुजरने को राजी हैं। ज्यादा नहीं, सिर्फ एक मुल्क में सौ लोग आत्मा को जानने की स्थिति में पहुंच जाएं, और पूरे मुल्क का जीवन अपने आप ऊपर उठ जाएगा। सौ दीये जीवित, और सारा मुल्क ऊपर उठ सकता है।
तो मैं तो राजी हो गया था इस बात पर बोलने के लिए सिर्फ इसलिए हो सकता है कि कोई हिम्मत का आदमी आ जाए, तो उसको मैं निमंत्रण दूंगा कि मेरी तैयारी है भीतर ले चलने की, तुम्हारी तैयारी हो तो आ जाओ। वहां बताया जा सकता है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता है। और जीवन को ही हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना शेष नहीं रहती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और ज्ञात नहीं हो सकती है। सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन को जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है।
जगत में कुछ शब्द बिलकुल ही झूठे हैं, उन शब्दों में कुछ भी सत्य नहीं है। उन्हीं शब्दों में मृत्यु भी एक शब्द है, जो नितांत असत्य है। मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोगों को तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। गांव-गांव में मरघट हैं। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होगा कि जहां-जहां हम खड़े हैं, वहां-वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अरथी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, वे भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं। करोड़ों-करोड़ों लोग मरे हैं, रोज मर रहे हैं, और अगर मैं यह कहूं कि मृत्यु जैसा झूठा शब्द नहीं है मनुष्य की भाषा में, तो आश्चर्य होगा।
एक फकीर था तिब्बत में, मारपा। उस फकीर के पास कोई गया और पूछने लगा कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में कुछ पूछने आया हूं। मारपा बहुत हंसने लगा और उसने कहा, अगर जीवन के संबंध में पूछना हो, तो जरूर पूछो, क्योंकि जीवन का मुझे पता है। रही मृत्यु, मृत्यु से आज तक मेरा कोई मिलना नहीं हुआ, मेरी कोई पहचान नहीं है। मृत्यु के संबंध में पूछना हो, तो उनसे पूछो जो मरे ही हुए हैं या मर चुके हैं। मैं तो जीवन हूं, मैं जीवन के संबंध में बोल सकता हूं, बता सकता हूं। मृत्यु से मेरा कोई परिचय नहीं।
यह बात वैसी ही है जैसी आपने सुनी होगी कि एक बार अंधकार ने भगवान से जाकर प्रार्थना की थी कि यह सूरज तुम्हारा, मेरे पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है। मैं बहुत थक गया हूं। सुबह से मेरा पीछा होता है और सांझ मुश्किल से मुझे छोड़ा जाता है। मेरा कसूर क्या है? दुश्मनी कैसी है यह? यह सूरज क्यों मुझे सताने के लिए मेरे पीछे दिन-रात दौड़ता रहता है? और रात भर मैं दिन भर की थकान से विश्राम भी नहीं कर पाता हूं कि फिर सुबह सूरज आकर द्वार पर खड़ा हो जाता है। फिर भागो! फिर बचो! यह अनंत काल से चल रहा है। अब मेरी धैर्य की सीमा आ गई और मैं प्रार्थना करता हूं, इस सूरज को समझा दें।
सुनते हैं, भगवान ने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधेरे के पीछे क्यों पड़े हो? क्या बिगाड़ा है अंधेरे ने तुम्हारा? क्या है शत्रुता? क्या है शिकायत?
सूरज कहने लगा, अंधेरा! अनंत काल हो गया मुझे विश्व का परिभ्रमण करते, लेकिन अब तक अंधेरे से मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई। अंधेरे को मैं जानता नहीं हूं। कहां है अंधेरा? आप उसे मेरे सामने बुला दें, तो मैं क्षमा भी मांग लूं और आगे से पहचान लूं कि वह कौन है, ताकि उसके प्रति कोई भूल न हो सके।
इस बात को हुए भी अनंत काल हो गया। वह भगवान की फाइल में यह बात वहीं की वहीं पड़ी है। वह अब तक अंधेरे को सूरज के सामने नहीं बुला सके हैं। नहीं बुला सकेंगे। यह मामला हल नहीं होने का है। सूरज के सामने अंधकार कैसे बुलाया जा सकता है? अंधकार की कोई सत्ता ही नहीं है, कोई एक्झिस्टेंस नहीं है। अंधकार की कोई पॉजिटिव, कोई विधायक स्थिति नहीं है। अंधकार तो सिर्फ प्रकाश के अभाव का नाम है। वह तो प्रकाश की गैर-मौजूदगी है, वह तो एब्सेंस है, वह तो अनुपस्थिति है। तो सूरज के सामने ही सूरज की अनुपस्थिति को कैसे बुलाया जा सकता है?
नहीं! अंधकार को सूरज के सामने नहीं लाया जा सकता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, एक छोटे-से दीये के सामने भी अंधकार को लाना मुश्किल है। दीये के प्रकाश के घेरे में अंधकार का प्रवेश मुश्किल है। दीये के सामने मुठभेड़ मुश्किल है।
प्रकाश है जहां, वहां अंधकार कैसे आ सकता है! जीवन है जहां, वहां मृत्यु कैसे आ सकती है! या तो जीवन है ही नहीं, और या फिर मृत्यु नहीं है। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं।
हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है। काश! हम उस जीवन से परिचित हो सकें जो भीतर है, तो उसके परिचय की एक किरण भी सदा-सदा के लिए इस अज्ञान को तोड़ देती है कि मैं मर सकता हूं, या कभी मरा हूं, या कभी मर जाऊंगा। लेकिन उस प्रकाश को हम जानते नहीं जो हम हैं, और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं जो हम नहीं हैं। उस प्रकाश से हम परिचित नहीं हो पाते जो हमारा प्राण है, हमारा जीवन है, जो हमारी सत्ता है; और उस अंधकार से हम भयभीत होते हैं, जो हम नहीं हैं।
मनुष्य मृत्यु नहीं है, मनुष्य अमृत है। समस्त जीवन अमृत है। लेकिन हम अमृत की ओर आंख ही नहीं उठाते हैं। हम जीवन की तरफ, जीवन की दिशा में कोई खोज ही नहीं करते हैं, एक कदम भी नहीं उठाते हैं। जीवन से रह जाते हैं अपरिचित और इसलिए मृत्यु से भयभीत प्रतीत होते हैं।
इसलिए प्रश्न जीवन और मृत्यु का नहीं है, प्रश्न है सिर्फ जीवन का। मुझे कहा गया है कि मैं जीवन और मृत्यु के संबंध में बोलूं। यह असंभव है बात। प्रश्न तो है सिर्फ जीवन का और मृत्यु जैसी कोई चीज ही नहीं है। जीवन ज्ञात होता है, तो जीवन रह जाता है। और जीवन ज्ञात नहीं होता, तो सिर्फ मृत्यु रह जाती है। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ कभी भी समस्या की तरह खड़े नहीं होते। या तो हमें पता है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु नहीं है। और या हमें पता नहीं है कि हम जीवन हैं, तो फिर मृत्यु ही है, जीवन नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ मौजूद नहीं होती हैं, नहीं हो सकती हैं।
लेकिन हम सारे लोग तो मृत्यु से भयभीत हैं। मृत्यु का भय बताता है कि हम जीवन से अपरिचित हैं। मृत्यु के भय का एक ही अर्थ है--जीवन से अपरिचय। और जीवन हमारे भीतर प्रतिपल प्रवाहित हो रहा है--श्वास-श्वास में, कण-कण में, चारों ओर, भीतर-बाहर सब तरफ जीवन है और उससे ही हम अपरिचित हैं। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी नींद में है। नींद में ही हो सकती है यह संभावना कि जो हम हैं, उससे भी अपरिचित हों। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी किसी गहरी मूर्च्छा में है। इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि आदमी के प्राणों की पूरी शक्ति सचेतन नहीं है, अचेतन है, अनकांशस है, बेहोश है।
एक आदमी सोया हो, उसे फिर कुछ भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं? क्या हूं? कहां से हूं? नींद के अंधकार में सब डूब जाता है और उसे कुछ पता नहीं रह जाता कि मैं हूं भी या नहीं हूं? नींद का पता भी उसे तब चलता है, जब वह जागता है। तब उसे पता चलता है कि मैं सोया था। नींद में तो इसका भी पता नहीं चलता कि मैं सोया हूं। जब नहीं सोया था, तब पता चलता था कि मैं सोने जा रहा हूं। जब तक जागा हुआ था, तब तक पता था कि मैं अभी जागा हुआ हूं, सोया हुआ नहीं हूं। जैसे ही सो गया, उसे यह भी पता नहीं चलता कि मैं सो गया हूं। क्योंकि अगर यह पता चलता रहे कि मैं सो गया हूं, तो उसका अर्थ है कि आदमी जागा हुआ है, सोया हुआ नहीं है। नींद चली जाती है तब पता चलता है कि मैं सोया था, लेकिन नींद में पता नहीं चलता कि मैं हूं भी या नहीं हूं।
जरूर, मनुष्य को कुछ भी पता नहीं चलता है कि मैं हूं या नहीं, या क्या हूं, इसका एक ही अर्थ हो सकता है कि कोई बहुत गहरी आध्यात्मिक नींद, कोई स्प्रिचुअल हिप्नोटिक स्लीप, कोई आध्यात्मिक सम्मोहन की तंद्रा मनुष्य को घेरे हुए है। इसलिए उसे जीवन का ही पता नहीं चलता कि जीवन क्या है।
नहीं, लेकिन हम इनकार करेंगे। हम कहेंगे, कैसी आप बात करते हैं? हमें पूरी तरह पता है कि जीवन क्या है। हम जीते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, सोते हैं।
एक शराबी भी चलता है, उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, आंख खोलता है, बात करता है। एक पागल भी उठता है, बैठता है, सोता है, श्वास लेता है, बात करता है, जीता है। लेकिन इससे न तो शराबी होश में कहा जा सकता है और न पागल सचेतन है, यह कहा जा सकता है।
एक सम्राट की सवारी निकलती थी एक रास्ते पर। एक आदमी चौराहे पर खड़ा होकर पत्थर फेंकने लगा और अपशब्द बोलने लगा और गालियां बकने लगा। सम्राट की बड़ी शोभायात्रा थी। उस आदमी को तत्काल सैनिकों ने पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया।
लेकिन जब वह गालियां बकता था और अपशब्द बोलता था, तो सम्राट हंस रहा था। उसके सैनिक हैरान हुए, उसके वजीरों ने कहा, आप हंसते क्यों हैं? उस सम्राट ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, उस आदमी को पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी नशे में है। खैर, कल सुबह उसे मेरे सामने ले आएं।
कल वह आदमी सुबह उसके सामने ले आकर खड़ा कर दिया गया। सम्राट उससे पूछने लगा, कल तुम मुझे गालियां देते थे, अपशब्द बोलते थे, क्या था कारण उसका? उस आदमी ने कहा, मैं! मैं और अपशब्द बोलता था! नहीं महाराज, मैं नहीं रहा होऊंगा, इसलिए अपशब्द बोले गए होंगे। मैं शराब में था, मैं बेहोश था, मुझे कुछ पता नहीं कि मैंने क्या बोला, मैं नहीं था।
हम भी नहीं हैं। नींद में हम चल रहे हैं, बोल रहे हैं, बात कर रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं, घृणा कर रहे हैं, युद्ध कर रहे हैं। अगर कोई दूर के तारे से देखे मनुष्य की जाति को, तो वह यही समझेगा कि सारी मनुष्य-जाति इस भांति व्यवहार कर रही है जिस तरह नींद में, बेहोशी में कोई व्यवहार करता हो। तीन हजार वर्षों में मनुष्य-जाति ने पंद्रह हजार युद्ध किए हैं। यह जागे हुए मनुष्य का लक्षण नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु की सारी कथा, दुख की, चिंता की, पीड़ा की कथा है। आनंद का क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। आनंद का कण भी नहीं मिलता है जीवन में। खबर भी नहीं मिलती कि आनंद क्या है। जीवन बीत जाता है और आनंद की झलक भी नहीं मिलती। यह आदमी होश में नहीं कहा जा सकता है। दुख, चिंता, पीड़ा, उदासी और पागलपन--सारे जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा है।
लेकिन शायद हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी हमारे जैसे ही सोए हुए लोग हैं। और कभी अगर एकाध जागा हुआ आदमी पैदा हो जाता है, तो हम सोए हुए लोगों को इतना क्रोध आता है उस जागे हुए आदमी पर कि हम बहुत जल्दी ही उस आदमी की हत्या कर देते हैं। हम ज्यादा देर उसे बर्दाश्त नहीं करते।
जीसस को हम इसीलिए सूली पर लटका देते हैं कि तुम्हारा कसूर है कि तुम जागे हुए आदमी हो। हम सोए हुए लोगों को तुम्हें देखकर बहुत अपमानित होना पड़ता है। हम सोए हुए आदमियों के लिए तुम एक अपमानजनक चिह्न बन जाते हो कि तुम सोए हुए लोग हो। तुम्हारी मौजूदगी हमारी नींद में बाधा डालती है। हम तुम्हारी हत्या कर देंगे। हम सुकरात को जहर पिलाकर मार डालते हैं, हम मंसूर की गरदन काट देते हैं। हम जागे हुए आदमियों के साथ वही व्यवहार करते हैं, जो पागलों की बस्ती में उस आदमी के साथ होगा, जो पागल नहीं है। इसका आपको अंदाज नहीं है।
मेरे एक मित्र पागल थे। वह पागल थे और एक पागलखाने में बंद कर दिए गए। पागलपन में उन्होंने फिनाइल की एक बाल्टी, वहां पागलखाने में रखी थी, वह पी गए। उसके पी जाने से उनको कोई इतनी उल्टियां हुईं, इतने दस्त लगे कि पंद्रह दिन तक सारा शरीर रूपांतरित हो गया। उनकी सारी गर्मी जैसे शरीर से निकल गई और वह ठीक हो गए। लेकिन उन्हें छह महीने के लिए पागलघर में भेजा गया था। वह ठीक हो गए। उन्होंने मुझसे कहा कि जब मैं पागल था तब, और जब मैं ठीक हो गया उस पागलपन में और तीन महीने तक ठीक होकर पागलघर में रहा, तब जो मैंने पीड़ा अनुभव की, उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। जब तक मैं पागल था, तब तक कोई कठिनाई न थी, क्योंकि और भी सब मेरे जैसे लोग थे। जब मैं ठीक हो गया, तब मुझे लगा कि मैं कहां हूं! क्योंकि मैं सो रहा हूं और दो आदमी मेरी छाती पर सवार हो गए हैं। मैं चल रहा हूं और कोई मुझे धक्के मार रहा है। इस सबका मुझे कुछ भी पता नहीं चला था, क्योंकि मैं भी पागल था। मुझे यह भी पता नहीं चला था कि ये लोग पागल हैं जब तक मैं पागल था। जब मैं पागल न रहा तो मुझे पता चला कि ये सारे लोग पागल हैं। और जैसे ही मैं पागल न रहा, मैं उन सारे पागलों का शिकार बन गया। और मेरी कठिनाई कि मुझे सब समझ में आ रहा था कि अब मैं बिलकुल ठीक हूं, और अब क्या होगा और क्या नहीं होगा, अब मैं कैसे बाहर निकलूं! और अगर मैं चिल्लाकर कहता था कि मैं पागल नहीं हूं, तो सभी पागल यही चिल्लाकर कहते हैं कि हम पागल नहीं हैं, कोई डाक्टर मानने को राजी नहीं था।
हमारे चारों तरफ सोए हुए लोगों की भीड़ है, और इसलिए हमें पता नहीं चलता कि हम सोए हुए आदमी हैं। और जागे हुए आदमी की हम जल्दी से हत्या कर देते हैं, क्योंकि वह आदमी हमें बहुत कष्टपूर्ण मालूम होने लगता है, बहुत डिस्टर्बिंग, बहुत विघ्नकारक मालूम होने लगता है।
एक अंग्रेज विद्वान कैनेथ वाकर ने एक किताब लिखी है और उस किताब को एक फकीर गुरजिएफ को समर्पित किया है। समर्पण में, डेडीकेशन में उसने जो शब्द लिखे हैं, वे बड़े अदभुत हैं। उसने डेडीकेशन में, समर्पण में लिखा है: ‘टु जार्ज गुरजिएफ, दि डिस्टर्बर आफ माई स्लीप।’ मेरी नींद तोड़ने वाले जार्ज गुरजिएफ को समर्पित।
थोड़े-से लोग जमीन पर हुए हैं, जो नींद तोड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर आप किसी की नींद तोड़ने की कोशिश करेंगे, तो निश्चित वह आपसे बदला लेगा। किसी सोते हुए आदमी को जगाने की कोशिश करिए, वह आपकी गरदन पकड़ लेगा। आज तक मनुष्य को आध्यात्मिक नींद से जिन्होंने जगाने की कोशिश की है, हमने उनकी भी गरदनें पकड़ ली हैं। हमारे बीच हमें पता नहीं चलता इसीलिए कि हम सब एक जैसे सोए हुए और नींद में लोग हैं।
एक गांव के संबंध में मैंने सुना है कि उसमें एक जादूगर आ गया था एक दिन और उसने उस कुएं में गांव के एक पुड़िया डाल दी थी और कहा था: इस कुएं का पानी जो भी पीएगा, पागल हो जाएगा। एक ही कुआं था उस गांव में। एक कुआं और था, लेकिन वह गांव का कुआं न था, वह राजा के महल में था। सांझ होते-होते तक गांव के हर आदमी को पानी पीना पड़ा। चाहे पागलपन की कीमत पर भी पीना पड़े, लेकिन मजबूरी थी। प्यास तो बुझानी पड़ेगी, चाहे पागल ही क्यों न हो जाना पड़े। गांव के लोग कब तक रोकते, उन्होंने पानी पीया। सांझ होते-होते पूरा गांव पागल हो गया।
सम्राट बहुत खुश था, उसकी रानियां बहुत खुश थीं, महल में गीत और संगीत का आयोजन हो रहा था। उसके वजीर खुश थे कि हम बच गए। लेकिन सांझ होते उन्हें पता चला कि गलती में हैं वे, क्योंकि सारा महल सांझ होते-होते गांव के पागलों ने घेर लिया। पूरा गांव हो गया था पागल। राजा के पहरेदार और सैनिक भी हो गए थे पागल। सारे गांव ने राजा के महल को घेरकर आवाज लगाई कि मालूम होता है इस राजा का दिमाग खराब हो गया है। हम ऐसे पागल राजा को सिंहासन पर बर्दाश्त नहीं कर सकते। महल के ऊपर खड़े होकर राजा ने देखा कि बचाव का अब कोई उपाय नहीं है। अपने वजीर से पूछने लगा, अब क्या होगा? हम तो सोचते थे भाग्यवान हैं हम कि हमारे पास अपना कुआं है। आज महंगा पड़ गया है।
सभी राजाओं को एक न एक दिन अलग कुआं महंगा पड़ता है। सारी दुनिया में पड़ रहा है। जो अभी भी राजा हैं, कल उनको भी पड़ेगा महंगा कुआं। अलग कुआं खतरनाक है।
लेकिन तब तक खयाल नहीं था। वजीर से कहने लगा, क्या होगा अब? वजीर ने कहा, अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं है। आप भागें पीछे के द्वार से, और उस कुएं का पानी पीकर जल्दी लौट आएं। अन्यथा यह महल खतरे में है। सम्राट ने कहा, उस कुएं का पानी! क्या तुम मुझे पागल बनाना चाहते हो? वजीर ने कहा, अब पागल बने बिना कोई बचने का उपाय नहीं है।
राजा भागा, उसकी रानियां भागीं। उन्होंने जाकर उस कुएं का पानी पी लिया। उस रात उस गांव में एक बड़ा जलसा मनाया गया। सारे गांव के लोगों ने खुशी मनाई, बाजे बजाए, गीत गाए और भगवान को धन्यवाद दिया कि हमारे राजा का दिमाग ठीक हो गया है। क्योंकि राजा भी भीड़ में नाच रहा था और गालियां बक रहा था। अब राजा का दिमाग ठीक हो गया था।
चूंकि हमारी नींद सार्वजनिक है, सार्वभौमिक है, चूंकि हम जन्म से ही सोए हुए हैं, इसलिए हमें पता नहीं चलता है। इस नींद में हम क्या समझ पाते हैं जीवन को? इतना ही कि यह शरीर जीवन है। इस शरीर के भीतर जरा भी प्रवेश नहीं हो पाता। यह समझ वैसी ही है, जैसे किसी राजमहल के बाहर दीवाल के आस-पास कोई घूमता हो और समझता हो कि यह राजमहल है। दीवाल पर, बाहर की दीवाल पर, चारदीवारी पर, परकोटे पर, परकोटे के बाहर कोई घूमता हो और सोचता हो कि राजमहल है। और परकोटे की दीवाल से टिककर सो जाता हो और सोचता हो कि महलों में विश्राम कर रहा हूं। शरीर के आस-पास जिनके जीवन का बोध है, वे उसी नासमझ आदमी की तरह हैं जो महल की दीवाल के बाहर खड़े होकर समझता है कि महल का मेहमान हो गया हूं।
शरीर के भीतर हमारा कोई प्रवेश नहीं है, शरीर के बाहर जीते हैं। बस शरीर की पर्त--बाहर की पर्त! भीतर की शरीर की पर्त तक का हमें पता नहीं चलता। दीवाल के बाहर का हिस्सा! दीवाल के भीतर का हिस्सा ही पता नहीं चलता, महल तो बहुत दूर है। दीवाल के बाहर के हिस्से को ही महल समझते हैं, दीवाल के भीतर के हिस्से तक से परिचय नहीं हो पाता।
हम अपने शरीर को अपने से बाहर से जानते हैं, हमने कभी भीतर खड़े होकर भी शरीर को नहीं देखा है--भीतर से, फ्राम विदिन। जैसे मैं इस कमरे के भीतर बैठा हूं, आप इस कमरे के भीतर बैठे हैं। हम इस कमरे को भीतर से देख रहे हैं। एक आदमी बाहर घूम रहा है। वह इस मकान को बाहर से देख रहा है। आदमी अपने शरीर के घर में अपने को भीतर से भी देखने में समर्थ नहीं हो पाता है, बाहर से ही जानता है। और तब मौत पैदा हो जाती है। क्योंकि जिसे हम बाहर से जानते हैं, जिसे हम बाहर से जानते हैं वह केवल खोल है। वह केवल बाहरी वस्त्र है। वह केवल मकान के बाहर की दीवाल है, घर का मालिक नहीं। घर का मालिक भीतर है। उस भीतर के मालिक से तो पहचान ही हमारी नहीं हो पाती। भीतर की दीवाल तक से पहचान नहीं हो पाती तो भीतर के मालिक से कैसे पहचान होगी?
यह जो जीवन का अनुभव है फ्राम विदाउट, बाहर से, यह जीवन का अनुभव ही मृत्यु का अनुभव बनता है। यह जीवन का अनुभव जिस दिन हाथ से खिसक जाता है, क्योंकि जिस दिन इस घर को छोड़कर भीतर के प्राण सिकुड़ते हैं और बाहर की दीवाल से चेतना भीतर चली जाती है, उसी दिन बाहर के लोगों को पता चलता है कि मर गया यह आदमी। और उस आदमी को भी लगता है कि मरा, मरा, मरा। क्योंकि जिसे वह जीवन समझता था, वहां से चेतना भीतर सरकने लगती है। जिस तल पर उसे ज्ञात था कि यह जीवन है, उस तल से चेतना भीतर सरकने लगती है नई यात्रा की तैयारी में। और उसके प्राण चिल्लाने लगते हैं कि मरा! गया! सब डूबता है! क्योंकि जिसे वह समझता था कि मैं जीवन हूं, वह डूब रहा है, वह छूट रहा है। बाहर के लोग समझते हैं कि यह आदमी मर गया; और वह आदमी भी मरते क्षण में, इस मरने के क्षण में, इस बदलाहट के क्षण में समझता है कि मैं मरा, मैं मरा, मैं मरा, मैं गया।
यह जो देह है हमारी, यह जो शरीर है, यह शरीर हमारा वास्तविक होना नहीं है। यह हमारा आथेंटिक बीइंग नहीं है। गहराई में इससे बहुत भिन्न और बिलकुल दूसरे प्रकार का हमारा व्यक्तित्व है। इस शरीर से बिलकुल विपरीत और उलटा हमारा जीवन है।
एक बीज को हम देखते हैं। बीज की ऊपर की खोल होती है बहुत सख्त, ताकि भीतर जो छिपा हुआ जीवन का अंकुर है कोमल, डेलीकेट, वह उसकी रक्षा कर सके। भीतर का अंकुर तो होता है बहुत कोमल, उसकी रक्षा के लिए एक बहुत कठोर दीवाल, एक घेरा, एक खोल बीज के ऊपर चढ़ी होती है। वह जो खोल है, वह बीज नहीं है। और जो उस खोल को बीज समझ लेगा, वह कभी भी उस जीवन के अंकुर से परिचित नहीं हो पाएगा जो भीतर छिपा है। वह खोल को ही लिए रह जाएगा और अंकुर कभी पैदा नहीं होगा।
नहीं, खोल बीज नहीं है। बल्कि सच तो यह है कि बीज जब पैदा होता है तो खोल को मिट जाना पड़ता है, टूट जाना पड़ता है, बिखर जाना पड़ता है, मिट्टी में गल जाना पड़ता है। जब खोल गल जाती है, तब बीज भीतर से प्रकट होता है।
यह शरीर एक बीज है। और जीवन, चेतना और आत्मा का एक अंकुर भीतर है। लेकिन हम इस खोल को ही बीज समझकर नष्ट हो जाते हैं और वह अंकुर पैदा भी नहीं हो पाता, वह अंकुर फूट भी नहीं पाता। जब वह अंकुर फूटता है, तो जीवन का अनुभव होता है। जब वह अंकुर फूटता है, तो मनुष्य का बीज होना समाप्त होता है और मनुष्य वृक्ष बनता है। जब तक मनुष्य बीज है, तब तक वह सिर्फ पोटेंशियलिटी है, एक संभावना। और जब उसके भीतर वृक्ष पैदा होता है जीवन का, तब वह वास्तविक बनता है। उस वास्तविकता को कोई आत्मा कहता है, उस वास्तविकता को कोई परमात्मा कहता है।
मनुष्य है बीज परमात्मा का। मनुष्य सिर्फ बीज है। जीवन का पूर्ण अनुभव तो वृक्ष को होगा, बीज को क्या हो सकता है? बीज क्या जान सकता है वृक्ष के आनंदों को? बीज क्या जान सकता है कि आएंगे पत्ते हरे जिन पर सूरज की किरणें नाचेंगी? बीज क्या जान सकता है कि हवाएं बहेंगी पत्तों और शाखाओं से और प्राण संगीत में गूंजेंगे? बीज कैसे जान सकता है कि खिलेंगे फूल और आकाश के तारों को मात कर देंगे? बीज कैसे जान सकता है कि पक्षी गीत गाएंगे और यात्री छाया में विश्राम करेंगे? बीज कैसे जान सकता है? वृक्ष के अनुभव को बीज कैसे जान सकता है? बीज को तो कुछ भी पता नहीं। वह तो सपना भी नहीं देख सकता उसका, जो वृक्ष होने पर संभव होगा। वह तो वृक्ष होकर ही जाना जा सकता है।
आदमी जीवन को नहीं जानता है, क्योंकि उसने बीज को ही अपनी परिपूर्णता समझ ली है। वह तो जीवन को तभी जानेगा, जब भीतर के जीवन का पूरा वृक्ष प्रकट हो। लेकिन भीतर के जीवन का वृक्ष प्रकट होना तो दूर, भीतर कुछ है शरीर से भिन्न और अलग, इसका हमें कोई बोध ही नहीं हो पाता। इसकी हमें कोई स्मृति, इसका कोई स्मरण, इसकी कोई रिमेंबरिंग ही पैदा नहीं हो पाती कि अलग है कुछ शरीर से भिन्न। जीवन की समस्या, जो भीतर है, उसके अनुभव की समस्या है। जो भीतर है, उसके अनुभव की समस्या है जीवन की समस्या। और हम जीवन को मान लेते हैं वह, वह जो बाहर विस्तीर्ण है।
एक वृक्ष से मैंने पूछा, तेरा जीवन कहां है? वह वृक्ष कहने लगा, उन जड़ों में जो दिखाई नहीं पड़तीं। जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, वहां जीवन है। वृक्ष जो दिखाई पड़ता है, वह वहां से जीवन लेता है, अदृश्य से।
माओत्से तुंग ने अपने बचपन की एक घटना लिखी है। लिखी है कि मेरी मां की झोपड़ी के पास एक बगिया थी। उसने जीवन भर उस बगिया को संभाला था। उसके फूल इतने बड़े और प्यारे होते थे कि दूर-दूर के गांव के लोग देखने आते। और बगिया के पास से गुजरता ऐसा तो कठोर आदमी कभी नहीं देखा गया जो दो क्षण ठहर न गया हो उन फूलों को देखकर! वह बूढ़ी हो गई और बीमार पड़ी। माओ छोटा था, पर उसने अपनी मां को कहा कि फिक्र मत करो--घर पर और कोई बड़ा तो था नहीं--उसने कहा, फिक्र मत करो, तुम चिंता मत करो पौधों की, मैं उनकी फिक्र कर लूंगा।
पंद्रह दिन बाद मां उठी। माओ दिन भर बगीचे में मेहनत करता रहता, दिन-रात, सुबह से लेकर आधी रात तक। मां निश्चिंत थी। लेकिन जिस दिन वह उठकर पंद्रह दिन बाद बगीचे में आई, देखी बगिया तो कुम्हला गई है। फूल तो जा चुके कभी के, पत्ते भी मुर्दा हो गए हैं, सारे वृक्ष उदास खड़े हैं। ऐसा ही लगा होगा उस बुढ़िया को जैसा आज अगर किसी के पास आंखें हों, तो सारी मनुष्य की बगिया को देखकर लगेगा--सब फूल गिर गए, सब पत्ते कुम्हला गए हैं, सब वृक्ष उदास खड़े हैं। वह तो छाती पीटकर रोने लगी कि यह तूने क्या किया! और तू सुबह से सांझ तक करता क्या था?
माओ भी रोने लगा। उसने कहा कि मैंने बहुत कुछ किया जो मैं कर सकता था। एक-एक फूल की धूल झाड़ता था, एक-एक पते की धूल झाड़ता था। एक-एक फूल को चूमता था, एक-एक फूल पर पानी छिड़कता था। पता नहीं क्या हुआ! इतना श्रम, और सारे वृक्ष कुम्हला गए!
उसकी मां रोने में भी हंसने लगी। उसने कहा, पागल! शायद तुझे पता नहीं कि वृक्षों के प्राण पत्तों और फूलों में नहीं होते। वृक्षों के प्राण जड़ों में होते हैं, जो दिखाई नहीं पड़तीं। तू फूल और पत्तों को पानी देगा, तू फूल और पत्तों को चूमेगा और प्रेम करेगा, सब निरर्थक है। फूल-पत्ते की फिक्र भी मत कर। अगर अदृश्य जड़ें शक्तिशाली होती चली जाती हैं, तो फूल-पत्ते अपने से निकल आते हैं, उनकी चिंता नहीं करनी पड़ती है।
लेकिन आदमी ने जीवन को समझा है बाहर का सारा का सारा फूल-पत्ते का जो फैलाव है वह, और भीतर की जड़ें बिलकुल उपेक्षित हैं, निग्लेक्टेड हैं। आदमी के भीतर की जड़ें बिलकुल ही उपेक्षित पड़ी हैं। स्मरण भी नहीं कि भीतर भी मैं कुछ हूं। और जो भी है वह भीतर है। सत्य भीतर है, शक्ति भीतर है, जीवन की सारी क्षमता भीतर है। वहां से वह प्रकट हो सकती है बाहर। बाहर प्रकटीकरण होता है, होना भीतर है। बीइंग भीतर है, बिकमिंग बाहर होती है। वह जो वास्तविक है, वह भीतर है। जो फैलता है और अभिव्यक्त होता है, मेनिफेस्टेशन जो है वह बाहर है। बाहर है अभिव्यक्ति, आत्मा तो भीतर है। और बाहर की अभिव्यक्ति को जो जीवन समझ लेते हैं, उनका सारा जीवन मृत्यु के भय से आक्रांत होता है। वे जीते हैं तो भी मरे-मरे और डरे हुए कि कभी भी मर जाएंगे, किसी क्षण मर जाएंगे।
और यही मरने से डरे हुए लोग किसी की मौत पर रोते और परेशान होते हैं। ये उन किसी की मौत पर रोते और परेशान नहीं हो रहे हैं, हर मौत इन्हें इनकी मौत की खबर ले आती है। हर मौत इन्हें खबर लाती है इनकी मौत की। और जो अपने हैं, बहुत निकट हैं, उनकी मौत बहुत जोर से खबर लाती है अपनी मौत की। और तब प्राण भीतर कंप जाते हैं, तब भय पकड़ लेता है, तब कंपन पकड़ लेता है। और उस कंपन में, उस भय में आदमी अच्छी-अच्छी बातें सोचता है--आत्मा अमर है, आत्मा अमर है, हम तो भगवान के अंश हैं, हम तो ब्रह्म के स्वरूप हैं।
ये सब बकवास की बातें हैं। और यह अपने को धोखा देने से ज्यादा नहीं है, यह सेल्फ डिसेप्शन है। यह मौत से डरा हुआ आदमी अपने को मजबूत करने के लिए दोहराता है कि आत्मा अमर है। वह यह कह रहा है कि नहीं-नहीं, मुझे नहीं मरना पड़ेगा, आत्मा अमर है। लेकिन कंप रहे हैं प्राण और वह कह रहा है, आत्मा अमर है। जो आदमी जानता है कि आत्मा अमर है, उसे एक बार भी यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि आत्मा अमर है। क्योंकि वह जानता है, बात खतम हो गई।
लेकिन ये मौत से डरने वाले लोग मौत से डरते हैं, जीवन को जान नहीं पाते, और फिर बीच में एक नई तरकीब और एक नया धोखा पैदा करते हैं कि आत्मा अमर है।
इसीलिए तो आत्मा को अमर मानने वाले लोगों से ज्यादा मौत से डरने वाली कौम खोजनी कठिन है। इस देश में ही यह दुर्भाग्य घटित हुआ है। इस देश में आत्मा की अमरता मानने वाले सर्वाधिक लोग हैं पृथ्वी पर, और इस देश में मौत से डरने वाले कायरों की संख्या भी सर्वाधिक है। ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो गईं? जो जानते हैं कि आत्मा अमर है, उनके लिए तो मृत्यु हो गई समाप्त, उनके लिए तो भय हो गया विसर्जित, उन्हें तो अब कोई मार नहीं सकता। उन्हें तो अब कोई नहीं मार सकता।
और दूसरी बात भी ध्यान में ले लेना: न उन्हें कोई मार सकता है, न अब वे इस भ्रम में हो सकते हैं कि मैं किसी को मार सकता हूं। क्योंकि मारने की घटना ही खतम हो गई। और इस राज को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। जो लोग कहेंगे आत्मा अमर है, जो लोग कहेंगे आत्मा अमर है, वे मौत से डरे हुए हैं और दोहरा रहे हैं कि आत्मा अमर है। और साथ ही ऐसे मौत से डरने वाले लोग अहिंसा की भी बहुत बात करेंगे। इसलिए नहीं कि वे किसी को न मारें, बल्कि इसलिए कि बहुत गहरे में कोई उन्हें मारने को तैयार न हो जाए। दुनिया अहिंसक होनी चाहिए! क्यों? कहेंगे तो वे यही कि किसी को भी मारना बुरा है; लेकिन बहुत गहरे में वे यह कह रहे हैं कि कोई मुझे मार न डाले। किसी को भी मारना बुरा है! लेकिन अगर उन्हें पता चल गया है कि मृत्यु होती ही नहीं, तो न मरने का डर है और न मारने का डर है और न ये अर्थपूर्ण बातें रह गईं।
कृष्ण ने कहा अर्जुन से कि तू भयभीत मत हो, क्योंकि तू जिन्हें सामने खड़े देख रहा है, वे बहुत बार रहे हैं पहले भी। तू भी था, मैं भी था, हम सब बहुत बार थे और हम सब बहुत बार होंगे। जगत में कुछ भी नष्ट नहीं होता। इसलिए न मरने का डर है, न मारने का डर है। सवाल है जीवन को जीने का। और जो मरने और मारने दोनों से डरते हैं, वे जीवन की दृष्टि में एकदम नपुंसक और इंपोटेंट हो जाते हैं। जो न मर सकता है, न मार सकता है, वह जानता ही नहीं कि जो है वह न मारा जा सकता है, न मर सकता है
कैसी होगी वह दुनिया जिस दिन सारा जगत जानेगा भीतर से कि आत्मा अमर है! उस दिन मृत्यु का सारा भय विलीन हो जाएगा! उस दिन मरने का भय भी विलीन हो जाएगा, मारने की धमकी भी विलीन हो जाएगी। उस दिन युद्ध विलीन होंगे, उसके पहले नहीं।
जब तक आदमी को लगता है कि मारा जा सकता है, मर सकता हूं, तब तक दुनिया से युद्ध विलीन नहीं हो सकते। चाहे गांधी समझाएं अहिंसा, और चाहे बुद्ध और चाहे महावीर। चाहे सारी दुनिया में अहिंसा के कितने ही पाठ पढ़ाए जाएं। जब तक मनुष्य को भीतर से यह अनुभव नहीं पैदा हो सकता कि जो है, वह अमृत है, तब तक दुनिया में युद्ध बंद नहीं हो सकते।
वे जिनके हाथों में तलवारें दिखती हैं, यह मत समझ लेना कि वे बहुत बहादुर लोग हैं। तलवार सबूत है कि यह आदमी भीतर से डरपोक है, कायर है, कावर्ड है। चौरस्तों पर जिनकी मूर्तियां बनाते हो तलवारें हाथ में लेकर, वे कायरों की मूर्तियां हैं। बहादुर के हाथ में तलवार की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह जानता है कि मरना और मारना दोनों बच्चों की बातें हैं।
लेकिन एक अदभुत प्रवंचना आदमी पैदा करता है। जिन बातों को वह नहीं जानता है, उन बातों को भी इस भांति कोशिश करता है कि जैसे हम जानते हैं। भय के कारण! भीतर है भय, भीतर वह जानता है कि मरना पड़ेगा, लोग रोज मर रहे हैं। भीतर वह देखता है कि शरीर क्षीण हो रहा है, जवानी गई, बुढ़ापा आ रहा है। देखता है कि शरीर जा रहा है। और भीतर दोहरा रहा है कि आत्मा अजर-अमर है। वह अपना विश्वास जुटाने की कोशिश कर रहा है, हिम्मत जुटाने की कोशिश कर रहा है--कि मत घबराओ! मत घबराओ! मौत तो है, लेकिन नहीं-नहीं, ऋषि-मुनि कहते हैं कि आत्मा अमर है। मौत से डरने वाले लोग ऐसे ऋषि-मुनियों के आस-पास इकट्ठे हो जाते हैं और भीड़ कर लेते हैं, जो आत्मा की अमरता की बातें करते हैं।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं है। मैं यह कह रहा हूं कि आत्मा की अमरता का सिद्धांत मौत से डरने वाले लोगों का सिद्धांत है। आत्मा की अमरता को जानना बिलकुल दूसरी बात है। और यह भी ध्यान रहे कि आत्मा की अमरता को वे ही जान सकते हैं, जो जीते जी मरने का प्रयोग कर लेते हैं। उसके अतिरिक्त कोई जानने का उपाय नहीं। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है।
मौत में होता क्या है? प्राणों की सारी ऊर्जा जो बाहर फैली हुई है, विस्तीर्ण है, वह वापस सिकुड़ती है, अपने केंद्र पर पहुंचती है। जो ऊर्जा प्राणों की सारे शरीर के कोने-कोने तक फैली हुई है, वह सारी ऊर्जा वापस सिकुड़ती है, बीज में वापस लौटती है। शरीर...जैसे एक दीये को हम मंदा करते जाएं, धीमा करते जाएं, तो फैला हुआ प्रकाश सिकुड़ आएगा, अंधकार घिरने लगेगा। प्रकाश सिकुड़कर फिर दीये के पास आ जाएगा। हम और धीमा करते जाएं, और धीमा; और फिर प्रकाश बीज-रूप में, अणुरूप में निहित हो जाएगा, अंधकार घेर लेगा।
प्राणों की जो ऊर्जा फैली हुई है जीवन की, वह सिकुड़ती है, वापस लौटती है अपने केंद्र पर। नई यात्रा के लिए फिर बीज बनती है, फिर अणु बनती है। यह जो सिकुड़ाव है, इसी सिकुड़ाव से, इसी संकोच से पता चलता है कि मरा! मैं मरा! क्योंकि जिसे मैं जीवन समझता था, वह जा रहा है, सब छूट रहा है। हाथ-पैर शिथिल होने लगे, श्वास खोने लगी, आंखों ने देखना बंद कर दिया, कानों ने सुनना बंद कर दिया। ये तो सारी इंद्रियां, यह सारा शरीर किसी ऊर्जा के साथ संयुक्त होने के कारण जीवंत था। वह ऊर्जा वापस लौटने लगी। देह तो मुर्दा है, वह फिर मुर्दा रह गई। घर का मालिक घर छोड़ने की तैयारी करने लगा, घर उदास हो गया, निर्जन हो गया। लगता है: मरा मैं। मृत्यु के इस क्षण में पता चलता है कि जा रहा हूं, डूब रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं।
और इस घबराहट के कारण कि मैं मर रहा हूं, इस चिंता और उदासी के कारण, इस पीड़ा, इस एंग्विश के कारण, यह एंग्जायटी कि मैं मर रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं, यह इतनी ज्यादा चिंता पैदा कर देती है मन में कि वह उस मृत्यु के अनुभव को भी जानने से वंचित रह जाता है। जानने के लिए चाहिए शांति। हो जाता है इतना अशांत कि मृत्यु को जान नहीं पाता।
बहुत बार हम मर चुके हैं, अनंत बार, लेकिन हम अभी तक मृत्यु को जान नहीं पाए। क्योंकि हर बार जब मरने की घड़ी आई है, तब फिर हम इतने विह्वल और बेचैन और परेशान हो गए हैं कि उस बेचैनी और परेशानी में कैसा जानना? कैसा ज्ञान? हर बार मौत आकर गुजर गई है हमारे आस-पास से और हम फिर भी अपरिचित रह गए हैं उससे।
नहीं, मरने के क्षण में नहीं जाना जा सकता है मौत को। लेकिन आयोजित मौत हो सकती है। आयोजित मौत को ही ध्यान कहते हैं, योग कहते हैं, समाधि कहते हैं। समाधि का एक ही अर्थ है कि जो घटना मृत्यु में अपने आप घटती है, समाधि में साधक चेष्टा और प्रयास से सारे जीवन की ऊर्जा को सिकोड़कर भीतर ले जाता है, जानते हुए।
निश्चित ही अशांत होने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि वह प्रयोग कर रहा है भीतर ले जाने का, चेतना को सिकोड़ने का। वह शांत मन से चेतना को भीतर सिकोड़ता है। जो मौत करती है, उसे वह खुद करता है। और इस शांति में वह जान पाता है कि जीवन-ऊर्जा अलग बात है, शरीर अलग बात है। वह जो बल्ब, जिससे बिजली प्रकट हो रही है, अलग बात है, और वह जो बिजली प्रकट हो रही है वह अलग बात है। बिजली सिकुड़ जाती है, बल्ब निर्जीव होकर पड़ा रह जाता है।
शरीर बल्ब से ज्यादा नहीं है। जीवन वह विद्युत है, वह ऊर्जा है, वह इनर्जी, वह प्राण है, जो शरीर को जीवंत किए हुए है, गर्म किए हुए है, उत्तप्त किए हुए है। समाधि में साधक मरता है स्वयं, और चूंकि वह स्वयं मृत्यु में प्रवेश करता है, वह जान लेता है इस सत्य को कि मैं हूं अलग, शरीर है अलग। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, मृत्यु समाप्त हो गई। और एक बार यह पता चल जाए कि मैं हूं अलग, और जीवन का अनुभव शुरू हो गया। मृत्यु की समाप्ति और जी
वन का अनुभव एक ही सीमा पर होते हैं, एक ही साथ होते हैं। जीवन को जाना कि मृत्यु गई, मृत्यु को जाना कि जीवन हुआ। अगर ठीक से समझें तो ये एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं। ये एक ही दिशा में इंगित करने वाले दो इशारे हैं।
धर्म को इसलिए मैं कहता हूं, धर्म है मृत्यु की कला। वह है आर्ट आफ डेथ। लेकिन आप कहेंगे, कई बार मैं कहता हूं धर्म है जीवन की कला, आर्ट आफ लिविंग। निश्चित ही दोनों बात मैं कहता हूं, क्योंकि जो मरना जान लेता है वही जीवन को जान पाता है।
धर्म है जीवन और मृत्यु की कला। अगर जानना है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है, तो आपको स्वेच्छा से शरीर से ऊर्जा को खींचने की कला सीखनी होगी, तो आप जान सकते हैं, अन्यथा नहीं। और यह ऊर्जा खींची जा सकती है। इस ऊर्जा को खींचना कठिन नहीं है। इस ऊर्जा को खींचना सरल है। यह ऊर्जा संकल्प से ही फैलती है और संकल्प से ही वापस लौट आती है। यह ऊर्जा सिर्फ संकल्प का विस्तार है, विल फोर्स का विस्तार है।
संकल्प हम करें तीव्रता से, टोटल, समग्र, कि मैं वापस लौटता हूं अपने भीतर। सिर्फ आधा घंटा भी कोई इस बात का संकल्प करे कि मैं वापस लौटना चाहता हूं, मैं मरना चाहता हूं, मैं डूबना चाहता हूं अपने भीतर, मैं अपनी सारी ऊर्जा को सिकोड़ लेना चाहता हूं, और थोड़े ही दिनों में वह इस अनुभव के करीब पहुंचने लगेगा कि ऊर्जा सिकुड़ने लगी भीतर। शरीर छूट जाएगा बाहर पड़ा हुआ। एक तीन महीने थोड़ा गहरा प्रयोग, और आप शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं। अपना ही शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं। सबसे पहले तो भीतर से दिखाई पड़ेगा कि मैं अलग खड़ा हूं भीतर--एक तेजस, एक ज्योति, और सारा शरीर भीतर से दिखाई पड़ रहा है जैसा यह भवन है। और फिर थोड़ी और हिम्मत जुटाई जाए, तो वह जो जीवंत-ज्योति भीतर है, उसे बाहर भी लाया जा सकता है। और हम बाहर से देख सकते हैं कि शरीर पड़ा है वह।
एक अदभुत अनुभव मुझे हुआ, वह मैं कहूं। अब तक उसे कभी कहा नहीं। अचानक खयाल आ गया तो कहता हूं। कोई बारह साल पहले, तेरह साल पहले, बहुत रातों तक एक वृक्ष के ऊपर बैठकर ध्यान करता था। ऐसा बार-बार अनुभव हुआ कि जमीन पर बैठकर ध्यान करने पर शरीर बहुत प्रबल होता है। शरीर बनता है पृथ्वी से और पृथ्वी पर बैठकर ध्यान करने से शरीर की शक्ति बहुत प्रबल होती है। वह जो हाइट्स पर, पहाड़ों पर और हिमालय पर जाने वाले योगी की चर्चा है, वह अकारण नहीं है, बहुत वैज्ञानिक है। जितनी पृथ्वी से दूरी बढ़ती है शरीर की, उतना ही शरीरतत्व का प्रभाव भीतर कम होता चला जाता है।
तो एक बड़े वृक्ष पर ऊपर बैठकर मैं ध्यान करता था रोज रात। एक दिन ध्यान में कब कितना लीन हो गया, मुझे पता नहीं; और कब शरीर वृक्ष से गिर गया, वह मुझे पता नहीं। जब नीचे गिर पड़ा शरीर, तब मैंने चौंककर देखा कि यह क्या हो गया है! मैं तो वृक्ष पर ही था और शरीर नीचे गिर गया! कैसा हुआ अनुभव, कहना बहुत मुश्किल है। मैं तो वृक्ष पर ही बैठा था और शरीर नीचे गिरा था और मुझे दिखाई पड़ रहा था कि वह नीचे गिर गया है। सिर्फ एक रजत-रज्जु, एक सिलवर कॉर्ड नाभि से और मुझ तक जुड़ी हुई थी। एक अत्यंत चमकदार शुभ्र रेखा। कुछ भी समझ के बाहर था कि अब क्या होगा? कैसे वापस लौटूंगा?
कितनी देर यह अवस्था रही, वह भी पता नहीं। लेकिन अपूर्व अनुभव हुआ। शरीर के बाहर से पहली दफा देखा शरीर को। और शरीर उसी दिन से समाप्त हो गया। मौत उसी दिन से खतम हो गई। क्योंकि एक और देह दिखाई पड़ी जो शरीर से भिन्न है। एक और सूक्ष्म शरीर का अनुभव हुआ। कितनी देर यह रहा, कहना मुश्किल है। सुबह होते-होते दो औरतें वहां से निकलीं दूध लेकर किसी गांव से, और उन्होंने आकर पड़ा हुआ शरीर देखा। वह मैं देख रहा हूं ऊपर से कि वे करीब आकर बैठ गई हैं। कोई मर गया! और उन्होंने सिर पर हाथ रखा--और एक क्षण में जैसे तीव्र आकर्षण से मैं वापस अपने शरीर में आ गया और आंख खुल गई।
तब एक दूसरा अनुभव भी हुआ। वह दूसरा अनुभव यह हुआ कि स्त्री पुरुष के शरीर में एक कीमिया और केमिकल चेंज पैदा कर सकती है और पुरुष स्त्री के शरीर में एक केमिकल चेंज पैदा कर सकता है। यह भी खयाल हुआ कि उस स्त्री का छूना और मेरा वापस लौट आना, यह कैसे हो गया! फिर तो बहुत अनुभव हुए इस बात के और तब मुझे समझ में आया कि हिंदुस्तान में जिन तांत्रिकों ने समाधि पर और मृत्यु पर सर्वाधिक प्रयोग किए थे, उन्होंने क्यों स्त्रियों को भी अपने साथ बांध लिया था। क्योंकि गहरी समाधि के प्रयोग में अगर शरीर के बाहर तेजस शरीर चला गया है, सूक्ष्म शरीर चला गया है, तो बिना स्त्री की सहायता के पुरुष के तेजस शरीर को वापस नहीं लौटाया जा सकता। या स्त्री का तेजस शरीर अगर बाहर चला गया है, तो बिना पुरुष की सहायता के उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता। स्त्री और पुरुष के शरीर के मिलते ही एक विद्युत वृत्त, एक इलेक्ट्रिक सर्किल पूरा हो जाता है और वह जो बाहर निकल गई है चेतना, तीव्रता से भीतर वापस लौट आती है।
फिर तो छह महीने में कोई छह बार वह अनुभव हुआ निरंतर, और छह महीने में मुझे अनुभव हुआ कि मेरी उम्र कम से कम दस वर्ष कम हो गई। दस वर्ष कम हो गई मतलब, अगर मैं सत्तर साल जीता तो अब साठ ही साल जी सकूंगा। छह महीने में एक अजीब-अजीब से अनुभव हुए। छाती के सारे बाल मेरे सफेद हो गए छह महीने के भीतर। मेरी समझ के बाहर हुआ कि यह क्या हो रहा है!
और तब यह भी खयाल आया कि इस शरीर और उस शरीर के बीच के संबंध में व्याघात पड़ गया है, उन दोनों का जो तालमेल था वह टूट गया है। और तब मुझे यह भी समझ में आया कि शंकराचार्य का तैंतीस साल की उम्र में मर जाना या विवेकानंद का छत्तीस साल की उम्र में मर जाना कुछ और ही कारण रखता है। अगर ये दोनों के संबंध बहुत तीव्रता से टूट जाएं, तो जीना मुश्किल है। और तब मुझे यह भी खयाल में आया कि रामकृष्ण का बहुत बीमारियों से घिरे रहना और रमण का कैंसर से मर जाने का भी कारण शारीरिक नहीं है, उस बीच के तालमेल का टूट जाना ही कारण है।
लोग आमतौर से कहते हैं कि योगी बहुत स्वस्थ होते हैं, लेकिन सचाई बिलकुल उलटी है। सचाई आज तक यह है कि योगी हमेशा रुग्ण रहा है और कम उम्र में मरता रहा है। और उसका कुल कारण इतना है कि उन दोनों शरीर के बीच जो एडजेस्टमेंट चाहिए, जो तालमेल चाहिए, उसमें विघ्न पड़ जाता है। जैसे ही एक बार वह शरीर बाहर हुआ, फिर ठीक से पूरी तरह कभी भी पूरी अवस्था में भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाता है। लेकिन उसकी कोई जरूरत भी नहीं रह जाती, उसका कोई प्रयोजन भी नहीं रह जाता, उसका कोई अर्थ भी नहीं रह जाता है।
संकल्प से खींची जा सकती है ऊर्जा भीतर। सिर्फ संकल्प से, सिर्फ यह धारणा, सिर्फ यह भावना कि मैं अंदर वापस लौट आऊं, वापस लौट आऊं, वापस लौट आऊं--इसकी तीव्र पुकार, इसका तीव्र आंदोलन, पूरे प्राण इससे भर जाएं कि मैं भीतर वापस लौट आऊं--मैं केंद्र पर वापस लौट आऊं, मैं वापस लौट आऊं, मैं वापस लौट आऊं। इसकी इतनी तीव्र पुकार कि यह सारे कण-कण में शरीर के गूंज जाए, श्वास-श्वास को पकड़ ले। और किसी भी दिन यह घटना घट जाती है कि एक झटके के साथ आप भीतर पहुंच जाते हैं और पहली दफा फ्राम विदिन शरीर को देखते हैं।
यह जो हजारों नाड़ियों की बात की है योग ने, वह फिजियोलॉजी को जानकर नहीं की है। शरीर-शास्त्र से उसका कोई संबंध नहीं है। वे नाड़ियां जानी गई हैं भीतर से। और इसलिए आज जब फिजियोलॉजी उनका विचार करती है तो पाती है कि ये नाड़ी कहां हैं? ये जो सात चक्र बताए हैं, ये कहां हैं? वे कहीं भी नहीं हैं शरीर में! शरीर में वे कहीं भी नहीं हैं, क्योंकि शरीर को हम बाहर से जांच रहे हैं, वे कहीं नहीं मिलेंगे। एक और जांच है: शरीर को भीतर से जानना, इनर-फिजियोलॉजी। वह बहुत सटल फिजियोलॉजी है, वह बहुत सूक्ष्म शरीर-शास्त्र है। वहां से जानने पर जो नाड़ियां जानी गई हैं और जो केंद्र जाने गए हैं, वे बिलकुल अलग हैं। इस शरीर में खोजने से वे कहीं भी नहीं मिलेंगे। वे केंद्र इस शरीर और उस भीतर की आत्मा के कांटेक्ट फील्ड्स हैं, जहां ये दोनों मिलते हैं।
सबसे बड़ा कांटेक्ट फील्ड, सबसे बड़ा संपर्क का स्थल नाभि है। इसलिए आपको खयाल होगा कि अगर आप कार चला रहे हों और एकदम से एक्सीडेंट होने लगे, तो सबसे पहले नाभि प्रभावित हो जाएगी। एकदम नाभि अस्तव्यस्त हो जाएगी, क्योंकि वहां सबसे ज्यादा, सबसे ज्यादा गहरा उस आत्मा और इस शरीर के बीच संबंध का क्षेत्र है। वह सबसे पहले अस्तव्यस्त हो जाएगा मौत को देखकर। जैसे ही मौत सामने दिखाई पड़ेगी, नाभि अस्तव्यस्त हो जाएगी सारे शरीर केंद्र से। और शरीर की एक आंतरिक व्यवस्था है, जो उस अंतस शरीर और इस शरीर के बीच संपर्क से स्थापित हुई है। जिन चक्रों की बात है, वे उनके संपर्क-स्थल हैं। निश्चित ही एक बार भीतर से शरीर को जानना एक बिलकुल ही दूसरी दुनिया को जान लेना है, जिसका हमें कोई भी पता नहीं है। मेडिकल साइंस जिसके संबंध में एक शब्द भी नहीं जानती और नहीं जान सकेगी अभी।
एक बार यह अनुभव हो जाए कि मैं अलग और यह शरीर अलग, मौत खतम हो गई। मृत्यु नहीं है फिर। और फिर तो शरीर के बाहर आकर खड़े होकर देखा जा सकता है। तो यह कोई फिलासफिक विचार नहीं है, यह कोई दार्शनिक तात्विक चिंतन नहीं है कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है। जो लोग इस पर विचार करते हैं, वे दो कौड़ी का भी फल कभी नहीं निकाल पाते। यह तो है एक्झिस्टेंशियल एप्रोच, यह तो है अस्तित्ववादी खोज। जाना जा सकता है कि मैं जीवन हूं, जाना जा सकता है कि मृत्यु मेरी नहीं है। इसे जीया जा सकता है, इसके भीतर प्रविष्ट हुआ जा सकता है।
लेकिन जो लोग केवल सोचते हैं कि हम विचार करेंगे कि मृत्यु क्या है, जीवन क्या है, वे लाख विचार करें, जन्म-जन्म विचार करें, उन्हें कुछ भी पता नहीं चल सकता है, कुछ भी पता नहीं चल सकता है। क्योंकि हम विचार करके विचार करेंगे क्या? विचार किया जा सकता है उसके संबंध में जिसे हम जानते हों। जो नोन है, जो ज्ञात है, उसके बाबत विचार हो सकता है। जो अननोन है, अज्ञात है, उसके बाबत कोई विचार नहीं हो सकता। आप वही सोच सकते हैं, जो आप जानते हैं।
कभी आपने खयाल किया? आप उसे नहीं सोच सकते हैं, जिसे आप नहीं जानते। उसे सोचेंगे कैसे? हाउ टु कन्सीव इट? उसकी कल्पना ही कैसे हो सकती है? उसकी धारणा कैसे हो सकती है जिसे हम जानते ही नहीं हैं? जीवन हम जानते नहीं, मृत्यु हम जानते नहीं, सोचेंगे हम क्या? इसलिए दुनिया में मृत्यु और जीवन पर दार्शनिकों ने जो कहा है, उसका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है। फिलासफी की किताबों में जो भी लिखा है मृत्यु और जीवन के संबंध में, उसका कौड़ी भर मूल्य नहीं है। क्योंकि वे लोग सोच-सोच कर लिख रहे हैं। सोचकर लिखने का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ योग ने जो कहा है जीवन और मृत्यु के संबंध में, उसके अतिरिक्त आज तक सिर्फ शब्दों का खेल हुआ है। क्योंकि योग जो कह रहा है वह एक एक्झिस्टेंशियल, एक लिविंग, एक जीवंत अनुभव की बात है।
आत्मा अमर है, यह कोई सिद्धांत, कोई थ्योरी, कोई आइडियोलॉजी नहीं है। यह कुछ लोगों का अनुभव है। और अनुभव की तरफ जाना हो तो ही...तो ही अनुभव हल कर सकता है इस समस्या को कि क्या है जीवन, क्या है मौत। और जैसे ही यह अनुभव होगा, ज्ञात होगा: जीवन है, मौत नहीं है। जीवन ही है, मृत्यु है ही नहीं।
फिर हम कहेंगे, लेकिन यह मृत्यु तो घट जाती है। उसका कुल मतलब इतना है कि जिस घर में हम निवास करते थे, उस घर को छोड़कर दूसरे घर की
यात्रा शुरू हो जाती है। जिस घर में हम रहे थे, उस घर से हम दूसरे घर की तरफ यात्रा करते हैं। घर की सीमा है, घर की सामर्थ्य है। घर एक यंत्र है। यंत्र थक जाता है, जीर्ण हो जाता है, और हमें पार हो जाना होता है।
अगर विज्ञान ने व्यवस्था कर ली, तो आदमी के शरीर को सौ, दो सौ, तीन सौ वर्ष भी जिलाया जा सकता है। लेकिन उससे यह सिद्ध नहीं होगा कि आत्मा नहीं है। उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होगा कि आत्मा को कल तक घर बदलने पड़ते थे, विज्ञान ने पुराने ही घर को फिर से ठीक कर देने की व्यवस्था कर दी है। उससे यह सिद्ध नहीं होगा, इस भूल में कोई वैज्ञानिक न रहे कि हम आदमी की उम्र अगर पांच सौ वर्ष कर लेंगे, हजार वर्ष कर लेंगे, तो हमने सिद्ध कर दिया कि आदमी के भीतर कोई आत्मा नहीं है। नहीं, इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैकेनिज्म जो शरीर का था, उसे आत्मा को इसीलिए बदलना पड़ता था कि वह जरा-जीर्ण हो गया था। अगर उसको रिप्लेस किया जा सकता है--हृदय बदला जा सकता है, आंख बदली जा सकती है, हाथ-पैर बदले जा सकते हैं--तो आत्मा को शरीर बदलने की जरूरत न रही। पुराने घर से काम चल जाएगा। रिपेयरमेंट हो गया। उससे कोई आत्मा नहीं है, यह दूर से भी सिद्ध नहीं होता।
और यह भी हो सकता है कल कि विज्ञान टेस्ट-ट्यूब में जन्म को, जीवन को पैदा कर सके। और तब शायद वैज्ञानिक इस भ्रम में पड़ेगा कि हमने जीवन को जन्म दे लिया। वह भी गलत है। वह भी मैं कह देना चाहता हूं कि उससे भी कुछ सिद्ध नहीं होता।
मां और बाप मिलकर क्या करते हैं मां के पेट में? एक पुरुष और एक स्त्री मिलकर क्या करते हैं स्त्री के पेट में? आत्मा को जन्म नहीं देते। दे जस्ट क्रिएट ए सिचुएशन, वे सिर्फ एक अवसर पैदा करते हैं जिसमें आत्मा प्रविष्ट हो सकती है। मां का और पिता का अणु मिलकर एक अपरचुनिटी, एक अवसर पैदा करते हैं, एक सिचुएशन, जिसमें कि आत्मा प्रवेश पा सकती है।
कल यह हो सकता है कि हम टेस्ट-ट्यूब में यह सिचुएशन पैदा कर दें। इससे कोई आत्मा पैदा नहीं हो रही है। मां का पेट भी तो एक टेस्ट-ट्यूब है, एक यांत्रिक व्यवस्था है। वह प्राकृतिक है। कल विज्ञान यह कर सकता है कि प्रयोगशाला में जिन-जिन रासायनिक तत्वों से पुरुष का वीर्याणु बनता है और स्त्री का अणु बनता है, उन-उन रासायनिक तत्वों की पूरी खोज और प्रोटोप्लाज्म की पूरी जानकारी से यह हो सकता है कि हम टेस्ट-ट्यूब में रासायनिक व्यवस्था कर लें। तब जो आत्माएं कल तक मां के पेट में प्रविष्ट होती थीं, वे टेस्ट-ट्यूब में प्रविष्ट हो जाएंगी। लेकिन आत्मा पैदा नहीं हो रही है, आत्मा अब भी आ रही है। जन्म की घटना दोहरी घटना है--शरीर की तैयारी और आत्मा का आगमन, आत्मा का उतरना।
आत्मा के संबंध में आने वाले दिन बहुत खतरनाक और अंधेरे होने वाले हैं, क्योंकि विज्ञान की प्रत्येक घोषणा आदमी को यह विश्वास दिला देगी कि आत्मा नहीं है। इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी के भीतर जाने का जो संकल्प था, वह क्षीण होगा। इससे सिर्फ अगर यह आदमी को समझ में आने लगा कि ठीक है, उम्र बढ़ गई, बच्चे टेस्ट-ट्यूब में पैदा होने लगे, अब कहां है आत्मा? इससे आत्मा असिद्ध नहीं होगी, इससे सिर्फ आदमी का जो प्रयास चलता था अंतस की खोज का, वह बंद हो जाएगा। और यह बहुत दुर्भाग्य की घटना घटने वाली है, जो आने वाले पचास वर्षों में घटेगी। इधर पचास वर्षों में पिछले वर्षों में उसकी भूमिका तैयार हो गई है।
दुनिया में आज तक पृथ्वी पर दीन लोग रहे हैं, दरिद्र लोग रहे हैं, दुखी लोग रहे हैं, बीमार लोग रहे हैं, उनकी उम्र कम थी, उनके पास भोजन अच्छा न था, कपड़े न थे अच्छे। लेकिन आज तक आत्मा की दृष्टि से दरिद्र लोगों की संख्या जितनी आज है, उतनी कभी भी नहीं थी। और उसका कुल एक ही कारण है कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो जाने का सवाल क्या है! एक बार अगर मनुष्य-जाति को यह विश्वास आ गया कि भीतर कुछ है ही नहीं, तो वहां जाने का सवाल खतम हो जाता है।
आने वाला भविष्य अत्यंत अंधकारपूर्ण और खतरनाक हो सकता है। इसलिए हर कोने से इस संबंध में प्रयोग चलते रहने चाहिए कि ऐसे लोग खड़े होकर घोषणा करते रहें--सिर्फ शब्दों की और सिद्धांतों की नहीं, गीता और कुरान और बाइबिल की पुनरुक्ति की नहीं, बल्कि घोषणा कर सकें जीवंत--कि मैं जानता हूं कि मैं शरीर नहीं हूं। और न केवल यह घोषणा शब्दों की हो, यह उनके सारे जीवन से प्रकट होती रहे, तो शायद हम मनुष्य को बचाने में सफल हो सकते हैं। अन्यथा विज्ञान की सारी की सारी विकसित अवस्था मनुष्य को भी एक यंत्र में परिणत कर देगी। और जिस दिन मनुष्य-जाति को यह खयाल आ जाएगा कि भीतर कुछ भी नहीं है, उस दिन शायद भीतर के सारे द्वार बंद हो जाएंगे। और उसके बाद क्या होगा, कहना कठिन है।
आज तक भी अधिक लोगों के भीतर के द्वार बंद रहे हैं, लेकिन कभी-कभी कोई एक साहसी व्यक्ति भीतर की दीवालें तोड़कर घुस जाता है। कभी कोई एक महावीर, कभी कोई एक बुद्ध, कभी कोई एक क्राइस्ट, कभी कोई एक लाओत्से तोड़ देता है दीवाल और भीतर घुस जाता है। उसकी संभावना भी रोज-रोज कम होती जा रही है। हो सकता है सौ, दो सौ वर्ष बाद--जैसा मैंने आपसे कहा कि मैं कहता हूं, जीवन है, मृत्यु नहीं है--सौ, दो सौ वर्ष बाद मनुष्य कहे कि मृत्यु है, जीवन नहीं है। इसकी तैयारी तो पूरी हो गई है। इसको कहने वाले लोग तो खड़े हो गए हैं। आखिर मार्क्स क्या कह रहा है? मार्क्स यह कह रहा है कि मैटर है, माइंड नहीं है। मार्क्स यह कह रहा है कि पदार्थ है, परमात्मा नहीं है। और जो तुम्हें परमात्मा मालूम होता है वह भी बाई-प्रोडक्ट है मैटर का। वह भी पदार्थ की ही उत्पत्ति है, वह भी पदार्थ से ही पैदा हुआ है। मार्क्स यह कह रहा है कि जीवन नहीं है, मृत्यु है। क्योंकि अगर आत्मा नहीं है और पदार्थ है तो फिर जीवन नहीं है, मृत्यु है।
मार्क्स की इस बात का प्रभाव बढ़ता चला गया है। यह शायद आपको पता न होगा, दुनिया में ऐसे लोग रहे हैं हमेशा, जिन्होंने आत्मा को इनकार किया है, लेकिन आत्मा को इनकार करने वालों का धर्म आज तक दुनिया में पैदा नहीं हुआ था। मार्क्स ने पहली दफा आत्मा को इनकार करने वाले लोगों का धर्म पैदा कर दिया है। नास्तिकों का अब तक कोई आर्गनाइजेशन नहीं था। चार्वाक थे, बृहस्पति थे, एपीकुरस था। दुनिया में अदभुत लोग हुए जिन्होंने यह कहा कि नहीं है आत्मा, लेकिन उनका कोई आर्गनाइज्ड, उनका कोई चर्च, उनका कोई संगठन नहीं था। मार्क्स दुनिया में पहला नास्तिक है जिसके पास आर्गनाइज्ड चर्च है और आधी दुनिया उसके चर्च के भीतर खड़ी हो गई है। और आने वाले पचास वर्षों में बाकी आधी दुनिया भी खड़ी हो जाएगी।
आत्मा तो है, लेकिन उसको जानने और पहचानने के सारे द्वार बंद होते जा रहे हैं। जीवन तो है, लेकिन उस जीवन से संबंधित होने की सारी संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं। इसके पहले कि सारे द्वार बंद हो जाएं, जिनमें थोड़ी भी सामर्थ्य और साहस है, उन्हें अपने पर प्रयोग करने चाहिए और चेष्टा करनी चाहिए भीतर जाने की, ताकि वे अनुभव कर सकें। और अगर दुनिया में सौ, दो सौ लोग भी भीतर की ज्योति को अनुभव करते हों, तो कोई खतरा नहीं है। करोड़ों लोगों के भीतर का अंधकार भी थोड़े-से लोगों की जीवन-ज्योति से दूर हो सकता है और टूट सकता है। एक छोटा-सा दीया, और न मालूम कितने अंधकार को तोड़ देता है।
अगर एक गांव में एक आदमी भी है, जो जानता है कि आत्मा अमर है, उस गांव का पूरा वातावरण, उस गांव की पूरी की पूरी हवा, उस गांव की पूरी की पूरी जिंदगी बदल जाएगी। एक छोटा-सा फूल खिलता है, और दूर-दूर के रास्तों पर उसकी सुगंध फैल जाती है। एक आदमी भी अगर इस बात को जानता है कि आत्मा अमर है, तो उस एक आदमी का एक गांव में होना पूरे गांव की आत्मा की शुद्धि का कारण बन सकता है।
लेकिन हमारे मुल्क में कितने साधु हैं और कितने चिल्लाने और शोरगुल करने वाले हैं कि आत्मा अमर है। और इनकी इतनी लंबी कतार, इतनी भीड़, और मुल्क का यह नैतिक चरित्र और मुल्क का यह पतन! यह सबूत करता है कि यह सब धोखेबाज धंधा है। यहां कहीं कोई आत्मा-वात्मा को जानने वाला नहीं है। यह इतनी भीड़, इतनी कतार, यह इतनी मिलिटरी और इतना बड़ा सर्कस साधुओं का सारे मुल्क में--कोई मुंह पर पट्टी बांधे हुए एक तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई डंडा लिए दूसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं, कोई तीसरे तरह का सर्कस कर रहे हैं--यह इतनी बड़ी भीड़ आत्मा को जानने वाले लोगों की हो और मुल्क का जीवन इतना नीचे गिरता चला जाए, यह असंभव है।
और मैं आपको कहना चाहता हूं कि जो लोग कहते हैं कि यह आम आदमी ने दुनिया का चरित्र बिगाड़ा है, वे गलत कहते हैं। आम आदमी हमेशा ऐसा रहा है। दुनिया का चरित्र ऊंचा था, कुछ थोड़े-से लोगों के आत्म-अनुभव की वजह से। आम आदमी हमेशा ऐसा था। आम आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ गया है। आम आदमी के बीच कुछ लोग थे जीवंत, और उसकी चेतना को सदा ऊपर उठाते रहे, सदा ऊपर खींचते रहे। उनकी मौजूदगी, उनकी प्रेजेंस, कैटेलेटिक एजेंट का काम करती रही है और आदमी के जीवन को ऊपर खींचती रही है। और अगर आज दुनिया में आदमी का चरित्र इतना नीचा है, तो जिम्मेवार हैं साधु, जिम्मेवार हैं महात्मा, जिम्मेवार हैं धर्म की बातें करने वाले झूठे लोग। आम आदमी जिम्मेवार नहीं है। उसकी कभी कोई रिस्पांसबिलिटी नहीं थी। पहले भी नहीं थी, आज भी नहीं है।
तो अगर दुनिया को बदलना हो, तो इस बकवास को छोड़ दें कि हम एक-एक आदमी का चरित्र सुधारेंगे, कि हम एक-एक आदमी को नैतिक शिक्षा का पाठ देंगे। अगर दुनिया को बदलना चाहते हैं, तो कुछ थोड़े-से लोगों को अत्यंत इंटेंस इनर एक्सपेरिमेंट में से गुजरना पड़ेगा। जो लोग बहुत भीतरी प्रयोग से गुजरने को राजी हैं। ज्यादा नहीं, सिर्फ एक मुल्क में सौ लोग आत्मा को जानने की स्थिति में पहुंच जाएं, और पूरे मुल्क का जीवन अपने आप ऊपर उठ जाएगा। सौ दीये जीवित, और सारा मुल्क ऊपर उठ सकता है।
तो मैं तो राजी हो गया था इस बात पर बोलने के लिए सिर्फ इसलिए हो सकता है कि कोई हिम्मत का आदमी आ जाए, तो उसको मैं निमंत्रण दूंगा कि मेरी तैयारी है भीतर ले चलने की, तुम्हारी तैयारी हो तो आ जाओ। वहां बताया जा सकता है कि जीवन क्या है और मृत्यु क्या है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।