YOG/DHYAN/SADHANA
Main Kaun Hun 10
Tenth Discourse from the series of 11 discourses - Main Kaun Hun by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
भगवान, जीवन को कैसे जीया जाए, उसका प्रयोजन क्या है?
दो-तीन बातें समझने योग्य हैं। एक तो जो जीवन को किसी भांति जीने की कोशिश करेगा, वह जीवन से वंचित रह जाएगा। जीवन के ऊपर जो सिद्धांत को आरोपित करेगा, वह जीवन की हत्या करने वाला हो जाता है। जीवन के ऊपर कोई पद्धति, कोई पैटर्न, कोई ढांचा जीवन के पौधे को ठीक से विकसित नहीं होने देता। जीवन को जीने की पहली समझ तो इस बात से आती है कि हम जीवन को जितनी सहजता से स्वीकार कर सकें, उतनी ही धन्यता को जीवन उपलब्ध हो जाता है। सिद्धांतवादी कभी भी सहज नहीं हो पाता है। और जितना व्यक्ति असहज होगा उतना कृत्रिम, उतना झूठा, उतना पाखंडी हो जाता है।
जीवन को जीने की कला का पहला सूत्र है: जीवन की सहज स्वीकृति। जैसा जीवन आता है, उसे अंगीकार करने का अहोभाव, टोटल एक्सेप्टेबिलिटी। न केवल परिपूर्ण स्वीकृति, बल्कि अनुग्रहपूर्वक स्वीकृति, एक्सेप्टेंस विद ग्रेटिट्यूड।
पौधे भी जीते हैं, पक्षी भी जीते हैं, आकाश भी जीता है, पृथ्वी भी जीती है, सागर भी जीते हैं बिना किसी सिद्धांत के। आदमी भर है जो जीवन के ऊपर सिद्धांतों को थोप कर जीने की कोशिश करता है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जीवन में सिद्धांत न हों, लेकिन जीवन के ऊपर कोई सिद्धांत नहीं हो सकते हैं। सिद्धांत हो, तो जीवन से अनुसरित हो, जीवन से निकले; सिद्धांतों से जीवन नहीं निकल सकता है। इन दोनों बातों के भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी है। सिद्धांतों से जीवन उसी भांति नहीं निकल सकता, जैसे रेत से तेल नहीं निकल सकता। जीवन से सिद्धांत निकल सकते हैं।
जीने की कला से बहुत कुछ दिखाई पड़ सकता है और जीवन का मार्ग बन सकता है। लेकिन वह मार्ग वैसा ही होगा, जैसे नदी बहती है सागर की तरफ और मार्ग बनाती है। रेडीमेड, बना-बनाया कोई रास्ता नहीं होता जिस पर नदी बह जाती है। रेलगाड़ियां भी चलती हैं, वे लोहे के बने-बनाए पथ पर चलती हैं। कोई रास्ते की उन्हें खोज नहीं करनी होती है, रास्ता पूर्व-निर्मित है, रेलगाड़ी के डिब्बे उन पर दौड़े चले जाते हैं।
सिद्धांतवादी का जीवन रेलगाड़ी के दौड़ते हुए मृत डब्बों की भांति होता है। सिद्धांत तय हैं, उनकी पटरियां बिछी पड़ी हैं परंपराओं से, हजारों साल से, लौह-पथ तैयार है, उस पर सिद्धांतवादी को अपने चक्कों को चढ़ा देना है और चलते जाना है।
जिंदगी बने-बनाए मार्गों को नहीं मानती। सिर्फ जिसे जिंदा रहने से ही भय हो, वह लोहे के रास्ते... हजार रेलगाड़ियां एक ही रास्ते पर चल सकती हैं। दो नदियां एक रास्ते पर नहीं चल सकतीं। दो जीवन भी एक रास्ते पर कभी नहीं चलते।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी जीवन है। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए कि जीवन का अर्थ ही होता है प्रत्येक का अपना जीवन। जीवन जैसी कोई चीज नहीं है हम सबकी इकट्ठी। मैं एक तरह से जीता हूं, आप दूसरी तरह से जीते हैं। और अगर कोई... उसी क्षण हम उनकी स्वतंत्रता को, उनकी सहजता को, उनकी निजता को, उनकी इंडिविजुअलिटी को इनकार कर देते हैं। यह जो हमारी दुनिया इतनी उदास, इतनी फीकी, इतनी तेजहीन मालूम पड़ती है, उसका कारण है कि तेज जहां से आता है, प्रफुल्लता जहां से आती है, आनंद जहां से आता है, हर्ष जहां से पैदा होता है, उस व्यक्ति को हमने कारागृह में डाला हुआ है। हमने बंधे-बंधाए रास्ते बनाए हुए हैं। और उन बंधे-बंधाए रास्तों पर प्रत्येक को चलने का नियमन किया हुआ है। जो चलता है, वह स्वीकृत है समाज को; जो रास्ते से नीचे उतरता है, वह अस्वीकृत और उपेक्षित हो जाता है।
जीवन का अर्थ है अनंत जीवन। जितने लोग हैं, जितने व्यक्ति हैं उतने जीवन हैं। और प्रत्येक व्यक्ति का जीवन एक विशेष अर्थ में उसका ही है। वैसा जीवन न पहले कभी हुआ है और न पीछे कभी होगा। असल में, आपको पैदा करने के लिए जगत की जो व्यवस्था थी वह दुबारा अब कभी नहीं दोहरेगी। आप जिस घड़ी में पैदा हुए हैं वह घड़ी अब इतिहास में फिर नहीं लौटने को है। न चांद-तारे वहां होंगे, न पृथ्वी पर यह सब-कुछ होगा जो आपके पैदा होने के क्षण में था। आप अनूठे हैं। प्रत्येक अनूठा है। प्रत्येक व्यक्ति ऐसा है जिसकी कोई पुनरुक्ति नहीं। जिसका कोई इतिहास में, भविष्य या अतीत में कहीं भी कोई समतुलना नहीं है, जिसका कोई कंपेरिजन नहीं है।
लेकिन बंधे हुए रास्ते, तैयार रास्ते, सिद्धांतों के रास्ते व्यक्ति को नहीं मानते, वे समूह के, बड़े समूह के आधार पर निर्मित होते हैं। और उनमें वही बुनियादी भूल हो जाती है जो सभी स्टैटिस्टिक्स में होती है, जो सभी इस तरह की गणनाओं में होती है।
यदि हम बड़ौदा के सारे लोगों की ऊंचाई नापें और सारे लोगों की संख्या का उसमें भाग दे दें, तो बड़ौदा के नागरिक की औसत ऊंचाई, एवरेज हाइट का पता चल जाएगा। वह जो एवरेज हाइट होगी, औसत ऊंचाई होगी, उस ऊंचाई का शायद ही कोई आदमी बड़ौदा में हो। अगर आप औसत ऊंचाई के आदमी को खोजने निकलें, तो एक भी आदमी बड़ौदा में नहीं मिलेगा। बहुत कम संभावना है। असल में, औसत आदमी होता ही नहीं है। औसत आदमी गणित का खेल है। हर आदमी की अपनी लंबाई है।
और औसत का खेल वैसा ही नासमझी से भरा हुआ है, जैसा मैंने सुना है कि एक सम्राट ने अपने जवान बेटे के लिए अपने वजीर को बहू खोजने भेजा था और कहा था सोलह साल की लड़की खोज लाना। उसने बहुत खोजा। सोलह साल की कोई सुंदर लड़की नहीं मिलती थी, तो वह आठ-आठ साल की दो लड़कियां खोज लाया। गणितज्ञ था। उसने सोचा कि सोलह साल की एक लड़की न हो, तो आठ-आठ साल की दो लड़की: आठ + आठ = सोलह। वह आया और उसने दो छोटी-छोटी लड़कियां खड़ी कर दीं।
सम्राट ने कहा: पागल! इन बच्चियों को किसलिए ले आया?
उसने कहा: ये बच्ची नहीं हैं महाराज। जरा जोड़ करें, आठ और आठ सोलह होते हैं। इन दोनों की उम्र मिल कर सोलह है। आपको सोलह साल की स्त्री चाहिए, यह सोलह साल की स्त्री खड़ी है। जरा गणित करें। आपका गणित कमजोर मालूम पड़ता है।
मनुष्य के साथ भी बहुत तरह के गणित किए गए हैं।
महावीर की एक जिंदगी है, बुद्ध की एक है, कृष्ण की एक है। सारी मनुष्यता में हर आदमी की जिंदगी अलग-अलग है। और जब हम सिद्धांत तय करते हैं कि किस भांति जीएं, तो अनिवार्य रूप से सिद्धांत उधार होते हैं, किसी और की जिंदगी को देख कर आते हैं।
महावीर नग्न खड़े हैं, महावीर को देख कर कोई अगर जिंदगी के सिद्धांत तय करेगा, तो नग्नता की लोहे की पटरियां बिछा देगा और कहेगा कि नग्न होना मेरे लिए भी जरूरी है। महावीर के लिए नग्न होना कभी भी जरूरी नहीं था। महावीर की नग्नता उनके निर्दोष हृदय से निकली हुई सहज घटना थी। वस्त्र पहनने उन्हें मुश्किल हो गए होंगे। किसी क्षण वस्त्र उन्होंने निकाल कर फेंक दिए। नग्नता उन्होंने किसी दिन सिद्धांत की तरह स्वीकार नहीं की है और फिर वस्त्र नहीं उतारे हैं। वस्त्र उतर गए हैं, तब उन्हें पता चला है कि वे नग्न खड़े हैं। यह नग्नता उनके जीवन की धारा में सहज घटी घटना है।
लेकिन जो आदमी महावीर को देख कर जिंदगी बनाएगा, उसके लिए सिद्धांत पहले आएगा नग्न होने का, घटना पीछे आएगी, घटना झूठी हो जाएगी। और उस आदमी की नग्नता सुंदर नहीं हो सकती, उस आदमी की नग्नता कुरूप होगी। और उस आदमी की नग्नता में संन्यास नहीं होगा। उस आदमी की नग्नता में बहुत गहरे में सर्कस ही हो सकता है, संन्यास नहीं हो सकता। वह सर्कसी आदमी है। उसने अपने को नंगा खड़ा कर लिया है चेष्टा से। महावीर को नग्न खड़े होने में कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ी। महावीर के लिए वस्त्र पहनने में चेष्टा हो भी सकती थी, नग्न खड़े होने में चेष्टा नहीं है। नग्न खड़ा होना उन्हें सहज घटित हुआ है। हम जब भी सिद्धांत पहले लेंगे, तो सिद्धांत किसी और का होगा।
न तो महावीर के पिता आपके पिता हैं, न महावीर की मां आपकी मां हैं; न महावीर का समय आपका समय है, न महावीर का चित्त आपका चित्त है; न महावीर की आत्मा के लंबे अनंत जन्मों के अनुभव आपके अनुभव हैं; न महावीर की जिंदगी का आपसे क्या लेना-देना। लेकिन आप नग्न खड़े जाएंगे। यह नग्नता आपकी जिंदगी में एक तरह का व्यभिचार होगी। महावीर की जिंदगी में एक आचार थी, सहज फलित; आपकी जिंदगी में एक एक्सीडेंट, दुघर्टना होगी। आप खड़े हो सकते हैं नग्न, नग्न खड़े होने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन यह सिद्धांत पहले होगा, जिंदगी पीछे होगी। और जब भी सिद्धांत पहले और जिंदगी पीछे, तभी जिंदगी खत्म हो जाती है और सिद्धांत ही रह जाते हैं।
सिद्धांतवादी का अर्थ है मरा हुआ आदमी। तो जितने वादी हैं, सभी मरे हुए होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे महावीरवादी हैं, कि बुद्धवादी हैं, कि मार्क्सवादी हैं, कि गांधीवादी हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वादी मुर्दा होता है। वादी इसलिए मुर्दा होता है कि सिद्धांत किसी और से लाता है और अपनी जिंदगी को उस ढांचे में ढालता है। उसी ढांचे में ढालने में जिंदगी मर जाती है।
अगर एक गुलाब का पौधा दूसरे गुलाब के पौधे को अपना सिद्धांत बना ले, तो आप पक्का मानिए कि वह पौधा मर जाएगा। क्योंकि एक पौधे में जिस तरह की शाखाएं निकलती हैं, उस तरह की शाखाएं दूसरे पौधे में नहीं निकलती हैं। एक पौधे में जितने पत्ते होते हैं, उतने दूसरे पौधे में नहीं होते। एक पौधे में जिस भांति के फूल आते हैं, वैसे दूसरे में नहीं आते। अगर आपके गुलाब के पौधे पर सफेद फूल आया और उसने लाल फूल वाले पौधे को अपना सिद्धांत बनाया हो, तो वह आत्म-निंदा से भर जाएगा और सोचेगा कि अब मेरे लिए सिवाय नरक में जाने के और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि लाल फूल सिद्धांत है और मुझमें आ रहे हैं सफेद फूल, अब मैं मरा! और चाहे वह कितना ही आत्म-निंदा करे, सफेद फूल के गुलाब में लाल फूल नहीं आ सकते। हां, एक तरकीब हो सकती है कि अगर पौधा आदमी जितना समझदार हो जाए, तो अपने सफेद फूलों को लाल वार्निश से रंग सकता है। और लाल वार्निश से रंगे गए सफेद गुलाब के फूल फूल भी नहीं रह जाते, जिंदा भी नहीं रह जाते, वार्निश मार डालता है।
सफेद फूल सफेद ही होने चाहिए, लाल फूल लाल ही होने चाहिए। बड़े फूल बड़े ही होने चाहिए, छोटे फूल छोटे ही होने चाहिए। छोटे फूलों का अपना सौंदर्य है, बड़े फूलों का अपना सौंदर्य है। लाल का अपना है, सफेद का अपना है। जिंदगी सबको स्वीकार कर रही है। सिर्फ हम अपने को अस्वीकार करके मुसीबत में पड़ जाते हैं।
तो जब मुझसे कोई पूछता है कि जिंदगी कैसे जीएं? तो मैं कहता हूं, मुझसे मत पूछो, अपनी जिंदगी से पूछो। अपनी जिंदगी को बहाओ, चलो, जीओ। और उस जीने में जो आनंदपूर्ण हो, उसे सिद्धांत समझो। जो दुखपूर्ण हो, उसे सिद्धांत मत समझो। एक ही कसौटी हो सकती है कि जिससे आपको आनंद मिलता हो, वही आपकी जिंदगी का सूत्र बने। जिससे आपको दुख मिलता हो, वही आपकी जिंदगी के लिए विरोध बने। मुझसे मत पूछो, किसी से मत पूछो, किसी से भी पूछने जाएंगे कि जिंदगी कैसे जीएं, तो गलती शुरू हो जाएगी। क्योंकि मैं अपनी जिंदगी के बाबत ही कह सकता हूं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि आप सुबह कब उठते हैं? मैं उनसे कहता हूं कि मेरे उठने से तुम्हें प्रयोजन? वे कहते हैं कि नहीं, हम भी उसी वक्त उठना शुरू करें। अब आपको शायद पता नहीं है कि जिंदगी में सुबह उठना भी प्रत्येक व्यक्ति का अपना होगा। होना ही चाहिए। सिर्फ मिलिटरी को छोड़ कर। जहां कि आदमी नहीं होते, मशीनें होती हैं। मिलिटरी की सारी टे्रनिंग यही होती है कि आदमी आदमी न रह जाए, मशीन हो जाए। इसलिए मिलिटरी में हम मूर्खतापूर्ण बातों को वर्षों तक दोहराते हैं--बाएं घूमो, दाएं घूमो। घुमाते रहो बाएं-दाएं, आदमी धीरे-धीरे मशीन की तरह बाएं-दाएं घूमने लगता है। फिर जब आप कहते हैं, बाएं घूमो, तो उसे घूमना नहीं पड़ता, बस वह घूम जाता है। फिर उसे सोचना नहीं पड़ता है कि बाएं यानी क्या? घूमना है या नहीं घूमना है यह भी नहीं सोचना पड़ता, बस वह घूम जाता है। और जब आदमी मशीन की तरह बाएं-दाएं घूमने लगता है, तब उससे कहो, बंदूक तानो, गोली चलाओ, तो वह बंदूक तानता है, गोली चलाता है, यह भी नहीं देखता कि वह क्या कर रहा है, किसको मार रहा है, क्यों मार रहा है, किसलिए मार रहा है। अब यह कोई सवाल नहीं रहा। अब वह आदमी मशीन हो गया है। मशीनगन मशीन के हाथ में। अब वह आदमी आदमी नहीं है। तो मिलिटरी में तो एक ही वक्त उठना पड़ता है। जिंदगी को मिलिटरी बनाने की जरूरत नहीं है।
अभी बहुत खोज चलती है नींद के ऊपर, तो बड़े हैरानी के तथ्य हाथ में आए हैं। और जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में उठने के आदी हैं और दूसरों को उठाने के भी, उन्हें थोड़े उन तथ्यों को समझ लेना चाहिए। चौबीस घंटे के आदमी के तापमान का जो अध्ययन किया गया है वह बहुत हैरानी का है। उसमें पता चलता है कि बाईस घंटे तो आदमी का शरीर एक तापमान पर रहता है, दो घंटे के लिए तापमान नीचे गिर जाता है। अक्सर यह घटना दो बजे से लेकर सुबह सात बजे के बीच में घटती है। दो घंटे के लिए शरीर का टेम्प्रेचर नीचे गिर जाता है। और जिस दो घंटे के बीच आपके शरीर का तापमान नीचे गिरता है, वे ही दो घंटे आपके गहरी निंद्रा के घंटे होते हैं। अगर उन दो घंटों के बीच में आप उठ आए, तो आप दिन भर बेचैन और परेशान रहेंगे, आपकी नींद नहीं हो पाई। और अगर उन दो घंटों के बाद उठे, तो आप ताजे उठेंगे और दिन भर नींद की चिंता करने की जरूरत नहीं रहेगी।
अब किसी आदमी का दो बजे से चार बजे के बीच गिरता है। समझ लें कि विनोबा भावे का दो से चार के बीच गिरता है। तो वे तीन बजे रात उठ आते हैं या दो बजे रात उठ आते हैं। अब उनके आस-पास जो नकली विनोबा भावे इकट्ठे हैं, वे भी बेचारे तीन बजे उठते हैं। वे भी वैसी ही लंगोटी वगैरह लगा कर, वैसी ही चादर ओढ़ कर बैठ कर जाते हैं। वे भी तीन बजे उठ आते हैं। जो आदमी नकलची तीन बजे उठ रहा है, अगर उसका तापमान तीन और पांच के बीच गिरता है, तो वह दिन भर मुसीबत में होगा। और जब वह मुसीबत में होगा, तब वह सोचेगा कि मैं बड़ा तामसी हूं; देखो, विनोबा भावे को तो कोई नींद नहीं आ रही है और मुझे दिन भर नींद आती है। मालूम होता है पिछले जन्मों में अच्छे कर्म नहीं किए।... कोई न पिछले जन्म का सवाल है, न किसी पाप का सवाल है, न तामसी होने का सवाल है। सवाल सीधा वैज्ञानिक है। उस आदमी के शरीर का तापमान दो घंटे बाद गिरता है।
स्त्रियों के शरीर का तापमान अक्सर पुरुषों से बाद में गिरता है। इसलिए स्वभावतः पति सुबह उठ आते हैं और घर में चाय बनाने लगते हैं और पत्नी थोड़ी देर से उठती है। इसमें कुछ पत्नियों को परेशान होने की और दुखी होने की कोई भी जरूरत नहीं है। स्त्रियों का तापमान कोई तीन बजे और सात बजे के बीच में गिरता है। कुछ लोग हैं जिनका सात और नौ के बीच में भी गिरता है। अब जिनका सात और नौ के बीच में गिरता है, अगर वे नौ के पहले उठ आए, तो उनका दिन भर खराब हो जाएगा।
अपनी जिंदगी से खोजें। अगर सुबह उठने का सूत्र भी खोजना है, तो दस-पांच दिन प्रयोग करके देखें कि कौन सी घड़ी में उठने से आप दिन भर सबसे ज्यादा ताजगी अनुभव करते हैं। वही आपका सुबह उठने का नियम होगा। किसी और से पूछने मत जाएं, क्योंकि उसके सुबह उठने का नियम आपका नियम नहीं हो सकता। लेकिन हम जो फार्मूले बनाते हैं वे सबके लिए बनाते हैं। हम कहते हैं, ब्रह्ममुहूर्त में जो नहीं उठता वह अच्छा आदमी नहीं है।
सबके ब्रह्ममुहूर्त अलग हैं। और किसी का ठेका नहीं है कि उसका ब्रह्ममुहूर्त मेरा ब्रह्ममुहूर्त हो। इसलिए मैं यह नहीं कहता कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना। मैं यह कहता हूं कि अपना ब्रह्ममुहूर्त ठीक से खोज लेना कि आपका ब्रह्ममुहूर्त कब है, जागरण का आपका क्षण क्या है। नींद के क्षण भी अलग हैं, जागने के क्षण भी अलग हैं। भोजन की भी प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-व्यवस्था अलग है।
यह तो बहुत हैरानी की बात है कि अगर एक ही बीमारी से दो आदमी बीमार होते हैं, तो भी उनकी बीमारियों की इंडिविजुअलिटी होती है, उनकी बीमारियों का अपना व्यक्तित्व होता है। अगर मुझे भी टी. बी. हो जाए और आपको भी टी. बी. हो जाए, तो भी टी. बी. हम दोनों को एक सी नहीं हो सकती। इसलिए वही दवा जो आप पर काम कर जाती है, मुझ पर काम नहीं कर पाती। उसके कारण हैं। मेरे व्यक्तित्व का पूरा संगठन अलग है। उस संगठन में घटी हुई घटना भिन्न होने वाली है आपके व्यक्तित्व से।
और इसलिए एक ही दवा हमारी मजबूरी है। और आज तो मेडिकल साइंस इस बात को धीरे-धीरे अनुभव करने लगी है कि जिस दिन पूरी तरह विकास होगा, उस दिन हम बीमारी की नहीं, बीमार की चिकित्सा करेंगे। अभी हमें बीमारी की करनी पड़ रही है, जब कि असल में बीमार की चिकित्सा होनी चाहिए। क्योंकि बीमार अलग-अलग हैं। एक ही बीमारी के बीमार भी अलग-अलग हैं। लेकिन हमारी मजबूरी है कि हम एक अस्पताल बनाते हैं और उसमें हजार टी. बी. के मरीज को भरती करते हैं, तो एक-एक के साथ अलग-अलग व्यवहार करना अभी संभव नहीं हो पा रहा है, इसलिए हम सबके साथ एक सा व्यवहार करते हैं। लेकिन वह व्यवहार उचित नहीं है, वैज्ञानिक नहीं है--विवशता है।
जिस दिन हमारी क्षमता बढ़ेगी, तो प्रत्येक मरीज के साथ भिन्न व्यवहार होना चाहिए। नॉट दि डिसी़ज बट दि पेशेंट मस्ट बी ट्रीटेड। बीमारी नहीं, बीमार की चिकित्सा होनी चाहिए। और हर बीमार अनूठा है, अपने ढंग का है। बीमारी का कोई सामान्य तल नहीं है। एक-एक व्यक्ति व्यक्ति है, इसलिए तो एक-एक व्यक्ति के पास आत्मा है।
अगर एक कार की पेट्रोल की टंकी टूट जाए और दूसरी कार की पेट्रोल की टंकी टूट जाए, तो इन दोनों में कोई व्यक्तित्व नहीं होता। इन दोनों टंकियों के साथ एक सा इलाज किया जा सकता है। लेकिन एक आदमी और दो आदमी के पास व्यक्तित्व हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि आदमियों के पास आत्मा है, मशीनों के पास आत्मा नहीं है। और अगर आप आत्म-स्वीकार करते हैं कि आपके भीतर कोई व्यक्तित्व, कोई निजता, कोई आत्मा है, तो कभी भूल कर भी किसी दूसरे से जीवन कैसे जीएं, यह पूछने मत जाना। और अगर कोई आपको बताए, तो उसे अपना दुश्मन समझना, मित्र मत समझना। ज्यादा से ज्यादा वह इतना कह सकता है कि मैं जीवन को ऐसे जीता हूं और मैंने इस तरह जीकर आनंद पाया है, या दुख पाया है, लेकिन आप इससे आनंद पाएंगे और दुख पाएंगे यह जरूरी नहीं है।
आप अपने जीवन को जीएं और जीकर जीवन के सूत्र खोजें। कसौटी एक होगी कि जिससे आपकी शांति बढ़ती जाए, जिससे आपका आनंद बढ़ता जाए, जिससे आपकी प्रफुल्लता बढ़ती जाए, जिससे आपके जीवन में प्रकाश बढ़ता जाए, जिससे आपके जीवन में गहराई बढ़ती जाए, ऊंचाई बढ़ती जाए, समझना कि वह जीवन का आपके लिए ठीक रास्ता है। ध्यान रहे, आपके लिए है, भूल कर भी अपने बेटे की गर्दन मत पकड़ लेना कि यह रास्ता तेरे लिए भी है, क्योंकि मुझे इससे आनंद मिला है।
न दूसरे से पूछना, न दूसरे के ऊपर थोपना। हम पूछने को भी आतुर होते हैं कि कोई हमें बता दे। और अगर हमारी जिंदगी में कुछ घट जाए, तो हम किसी दूसरे पर भी थोपने को आतुर होते हैं कि किसी को हम फंसा दें। दोनों ही घातक बातें हैं। और इसके अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं है कि आप जीवन को कैसे जीएं, इसे आपको जीकर ही जानना पड़ेगा।
यह मामला ऐसा ही है जैसे कोई आदमी पूछे कि मैं तैरूं कैसे? तो मैं उससे कहूं कि नदी में कूद जाओ। निश्र्चय ही बहुत गहरे में मत कूद जाना, नहीं तो ऐसा न हो कि तैरने वाला न बचे। जरा उथले में कूदो, लेकिन इतने उथले में भी मत कूद जाना कि खड़े हो जाओ तो तैरने की कोई जरूरत न रहे। कूदो, इतनी गहराई में कि मर न जाओ और इतनी गहराई में जरूर कि हाथ तड़फड़ाने पड़ें। वह आदमी कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक मैं पानी में नहीं उतर सकता। उसका गणित दुरुस्त है। उसके तर्क में कोई खामी नहीं है। लेकिन तर्क और जिंदगी में बड़े फर्क हैं।
वह आदमी ठीक कहता है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, मैं पानी में कैसे उतरूं? पानी में उतरने की पहली शर्त है मेरी कि मैं तैरना सीख लूं तभी मैं उतर सकता हूं। और मैं उससे कहूंगा कि जब तक तुम पानी में न उतरोगे, तब तक तुम तैरना सीखोगे कैसे? और तैरना सीखने की पहली शर्त है कि पानी में उतरो। गद्दी बिछा कर कमरे में हाथ-पैर तड़फड़ाने से तैरना नहीं आ सकता। असल में, तैरना आने के लिए पानी में डूबने की संभावना अनिवार्य शर्त है। उतना खतरा जो लेता है, उसी के भीतर से तैरना प्रकट होता है। असल में, उसी खतरे में हाथ तड़फड़ाते हैं और तैरना आना शुरू होता है। नदी में उतरना पड़े, तो तैरना आता है। तैरना आ जाए, तो और गहरी नदी में उतरना आता है। और गहरी नदी में उतरना आए, तो और भी तैरना आता है। और भी तैरना आए, तो और सागरों में उतरना आ जाता है। ऐसे ही गति होती है।
जीवन में उतरें, किनारे बैठ कर सोचते मत रहें कि कैसे जीएं? गीता और कुरान और बाइबिल और हजारों तरह के गुरुओं के पास पूछने मत जाएं कि कैसे जीएं? उतरें। और ध्यान रहे, खतरा है वहीं शिक्षा है। खतरा तो है ही कि उतरने में डूब भी सकते हैं। उतरने में भटक भी सकते हैं। उतरने में भूल भी हो सकती है। इसलिए जो बहुत समझदार हैं, जिनको हम कहें बहुत समझू, जिनको हम कहें कि बहुत सयाने, ऐसे लोग किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, कोई भूल न हो जाए। कोई भूल न हो जाए, इसलिए पहले सारा इंतजाम कर लें, लोहे की पटरियां बिछा दें, फिर हम चलेंगे। तो ऐसे समझदार, ऐसे सयाने किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं, वे कभी उतर नहीं पाते।
खतरा लेना पड़ेगा। जिंदगी में भूल हो सकती है--होनी चाहिए भी। जो भी जीएगा, उससे बहुत भूलें होंगी। भूल से कोई डर नहीं है। एक ही भूल दुबारा न हो, इतनी समझ काफी है। रोज नई भूल हो, यह बहुत आवश्यक है। पुरानी भूल न दोहराई जाए, यह समझदारी है। यह समझदारी नहीं है कि भूल दोहराने के डर से, भूल होने के डर से कोई किनारे बैठ जाए।
जिंदगी में उतरें--जाग कर देखें, उठ कर देखें, भोजन करके देखें, झूठ बोल कर देखें, सच बोल कर देखें, क्रोध करके देखें, क्षमा करके देखें, प्रेम करके देखें, दुश्मनी करके देखें--सारे अनुभव लें। जिंदगी में उतरें। और उन सारे अनुभवों में कि जहां से गहराई ब़ढ़े, जहां से शांति बढ़े, जहां से आनंद बढ़े, जहां से प्रभु की झलक मिले, समझें कि वह मेरे जीवन का नियम बनना शुरू हुआ। और उस नियम को भी इतनी सख्ती से न बना लें कि कल उसमें बदलाहट का उपाय न रह जाए, क्योंकि कोई भी नहीं जानता कि कल जिंदगी क्या लाए। कोई भी नहीं जानता कि कल तक जो सपाट रास्ता था, कल उसे बदलना पड़े, मोड़ आ जाए। कोई भी नहीं जानता कि कल तक जो बहुत सुखद था, आने वाले कल में दुखद हो जाए। कल के लिए ओपनिंग चाहिए।
इसलिए दूसरी बात आपसे कहता हूं, अपने भीतर से जीवन के नियम खोजें। और दूसरी बात कहता हूं, अपने खोजे नियम को भी एब्सोल्यूट, परिपूर्ण न मान लें। अपने खोजे नियम को भी पूर्णता न समझ लें। वह भी कल बदलने की लोच, फ्लैक्सिबिलिटी उसमें होनी चाहिए। रोज प्रतिपल बदलने की क्षमता होने वाले आदमी में ही जिंदगी पूरे अर्थों में खिलती है--जो आदमी प्रतिपल बदल सकता है। लेकिन हम बड़े संगत, कंसिस्टेंट लोग हैं। हम कहते हैं कि जो हमने कल किया था, वही हम आज भी करेंगे, नहीं तो लोग क्या कहेंगे? जो हम कल मानते थे, वही हम आज भी मानेंगे, नहीं तो लोग क्या कहेंगे कि आप बदल गए?
मैंने सुना है एक आदमी के संबंध में। लोग तो उसे बुद्धिमान कहते थे, वैसे उस जैसा बुद्धिहीन आदमी खोजना जरा आसान नहीं है। सुना है मैंने उसके संबंध में कि जब वह स्कूल में पढ़ता था, तब उसने एक वचन स्कूल की दीवाल पर लिखा हुआ पढ़ा था। उस वचन में लिखा हुआ था: टाइम इ़ज मनी, समय संपत्ति है। उसने इस सिद्धांत को मान लिया। फिर वह जवान हुआ, फिर उसने कमाना शुरू किया। वह आदमी बड़ा कंसिस्टेंट, बड़ा संगत आदमी था।
लेकिन उसके व्यवहार से लोग बड़े परेशान हो गए। उसकी पत्नी, उसके बच्चे मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि वह जितने पैसे कमाता--उसने एक नियम बना लिया कि उसमें से दो तिहाई तो वह कचरे में फेंक देता और एक तिहाई उपयोग में लाता। अगर वह तीन रुपये कमाता, तो दो रुपये कचरे में फेंक आता और एक रुपये में घर का काम चलाता। बड़ी गरीबी, बड़ी मुसीबत में दिन बीतने लगे। लोगों ने बहुत उससे कहा कि यह क्या फितूर है? यह क्या पागलपन है? यह कैसा मैनिया है तुम्हारे दिमाग में? यह तुम क्या करते हो?
वह आदमी हंसता था उसी तरह जैसे कि ज्ञानी, अपने को ज्ञानी समझने वाले लोग जिनको अज्ञानी समझते हैं उन पर हंसते हैं, वह मुस्कुराता था। लेकिन आखिर एक दिन सारे मित्रों ने उसको धर पकड़ा और कहा कि आज बताना ही पड़ेगा कि यह तुम क्या कर रहे हो? बच्चों की हत्या करोगे? पत्नी को फांसी लगानी है? तो उस आदमी ने कहा कि तुम समझते नहीं, मैं कंसिस्टेंट आदमी हूं।
उन्होंने कहा: हम अभी भी नहीं समझे, इसका मतलब क्या होता है?
उसने कहा कि मैंने बचपन से मान रखा है: टाइम इ़ज मनी, समय संपत्ति है।
उन्होंने कहा कि यह भी हमने सुना है, समझा है, लेकिन इससे रुपये फेंकने का क्या संबंध?
उसने कहा: जब मैं अपने समय का दो तिहाई बेकार खर्च करता हूं, तो जो व्यवहार मैं समय के साथ करता हूं, वही मैं धन के साथ करूंगा। मैं कंसिस्टेंट आदमी हूं। जब मैं अपनी जिंदगी के दो तिहाई समय को बेकार खो रहा हूं, तो मैं पूरे धन को, जितना कमाता हूं, उसका पूरे का उपयोग कैसे कर सकता हूं? समय धन है, इसलिए जो मैं समय के साथ व्यवहार कर रहा हूं, वही व्यवहार मुझे धन के साथ भी करना ही पड़ेगा।
इतना कंसिस्टेंट आदमी दुनिया में कभी नहीं हुआ। स्कूलों की तो कई दीवालों पर लिखा है: टाइम इ़ज मनी। लेकिन यह आदमी बहुत ही संगत आदमी है। पक्का सिद्धांतवादी जिसको कहें। मित्र भी रह गए, क्योंकि मित्र भी सिद्ध न कर सके कि टाइम इ़ज मनी, यह गलत है, कि समय संपत्ति है, यह गलत है। मित्र भी सिद्ध न कर सके। कहीं कोई भूल-चूक जरूर हो रही है। लेकिन मित्रों कोसाफ नहीं हो सका कि क्या भूल-चूक हो रही है? अक्सर भूल-चूक होती है कि हमने अतीत में जो सिद्ध कर लिया, ठीक कर लिया, समझ लिया, पकड़ लिया, फिर हम उसे जिंदगी भर अंधे की तरह पकड़े हुए चले जाते हैं।
बुद्ध कहा करते थे कि कुछ लोगों ने एक बार नदी पार की--नाव में नदी पार की। स्वभावतः नाव में ही नदी पार हो सकती थी। फिर पार उतरने के बाद उन आठों आदमियों ने उस नाव को अपने सिर पर उठा लिया और बाजार की तरफ चले। गांव में लोग बड़े चकित हुए। उन्होंने लोगों को तो नाव पर सवार देखा था, लेकिन नाव को कभी लोगों पर सवार नहीं देखा। भीड़ इकट्ठी हो गई। और उन ग्रामीणों ने कहा कि हमें बताओ यह राज क्या है? नाव पर चढ़े हुए लोग हमने देखे, लोगों पर चढ़ी हुई नाव हमने कभी नहीं देखी!
उन लोगों ने कहा कि नासमझो, हम बहुत संगत लोग हैं। जब नाव ने हमारा साथ दिया, जब हम मुसीबत में थे नदी में, तो अब हम नाव को साथ दे रहे हैं। और जिस नाव ने हमें नदी पार करवाई, उस नाव को हम कैसे सिर से नीचे उतार सकते हैं! हम सिद्धांतवादी हैं। हम धोखेबाज-बेईमान नहीं। नाव ने इतना साथ दिया, हम उसका साथ छोड़ दें! जब नाव हमें नदी में पार कराई, तो अब जिंदगी भर नाव को हम जीवन की नदी पार करवाते रहेंगे।
ये संगत लोग थे, सिद्धांतवादी लोग थे। उचित है कि कोई नाव से नदी पार करे, लेकिन यह भी उचित है कि फिर नाव को नदी के किनारे छोड़े और अपने रास्ते पर चला जाए। जिंदगी में सब सिद्धांत पार करने और छोड़ने योग्य हैं। कोई सिद्धांत ऐसा नहीं है जिसे सिर पर ढोने की जरूरत हो। लेकिन सिद्धांतवादी यही करता है, वह सिद्धांतों का इतना ढेर अपने सिर पर रख लेता है कि फिर चलना ही मुश्किल हो जाता है।
हमारे इस देश में ऐसा हुआ है। हजारों-हजारों साल की परंपरा के सिद्धांत हमारे सिर पर हैं। उन सबको लिए हम बैठे हैं। चलना मुश्किल हो गया है, कदम उठाना मुश्किल है, लेकिन सिद्धांतों को नीचे उतारना मुश्किल है।
मैं बिलकुल ही गैर-सिद्धांतवादी हूं, मैं किसी सिद्धांत को नहीं मानता हूं। कारण? कारण कि मैं जीवन को मानता हूं। और जीवन जहां ले जाए, उसके साथ जाने के साहस को मानता हूं। निश्र्चित ही मनुष्य के पास विवेक है, विचार है। जिंदगी जहां ले जाए, उसे खोजना चाहिए। वहां जाने योग्य है, तो दुबारा जाए--हजार बार जाए। नहीं जाने योग्य है, तो दुबारा न जाए--कभी न जाए।
लेकिन जो आज जाने योग्य है, कल नहीं जाने योग्य हो सकता है। और जो कल तक न जाने योग्य था, वह आज जाने योग्य हो सकता है। इसलिए जिंदगी में लोच चाहिए, जिंदगी में तरलता चाहिए, लिक्विडिटी चाहिए। जिंदगी ऐसे चाहिए, जैसे हम पानी को गिलास में रखें तो वह गिलास की शक्ल ले ले; लोटे में रखें तो लोटे की शक्ल ले ले; नदी में डालें तो नदी बन जाए; सागर में डालें तो सागर बन जाए।
लेकिन हम पानी की तरह नहीं हैं, हम पत्थर के बर्फ की तरह हैं--सख्त, सॉलिड, मजबूत। अगर पत्थर के बर्फ के टुकड़े को गिलास में डालो, तो संघर्ष शुरू हो जाता है। गिलास और पत्थर के बर्फ में लड़ाई शुरू हो जाती है। पत्थर के बर्फ का टुकड़ा इनकार करता है कि हम गिलास की शक्ल कैसे ले सकते हैं! उसमें लोच नहीं है। लेकिन पानी में एक लोच है।
असल में, जितना आदमी बूढ़ा होता जाता है, उतनी लोच कम हो जाती है। जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता है, फ्रोजन हो जाता है, पत्थर का बर्फ हो जाता है। बच्चे में लोच होती है, तरलता होती है। जवान भी बहुत सी तरलता खोने लगता है। बूढ़ा सब तरलता खो देता है। और अगर कोई आदमी अपने मरने के क्षण तक तरल रह सके, तो उसने जवानी नहीं खोई। शरीर बूढ़ा हो गया होगा, लेकिन वह आदमी बूढ़ा नहीं हुआ है।
अगर मरते दम तक कोई सीखने की क्षमता रख सके, तो वह आदमी कभी भी बूढ़ा नहीं होता है। शरीर बूढ़ा होता है, स्नायु बूढ़े हो जाते हैं, हड्डियां बूढ़ी हो जाती हैं, लेकिन आत्मा बूढ़ी नहीं हो पाती। और धन्य हैं वे लोग जो अपनी आत्मा को बूढ़े होने से बचा लेते हैं। ऐसे आदमियों को मैं धार्मिक आदमी कहता हूं। सिद्धांतवादियों को कभी भी नहीं। क्योंकि वे तो जवान होने के पहले ही बूढ़े हो जाते हैं। उनका सब सख्त हो जाता है। उनकी छाती पर लोहे के कवच बैठ जाते हैं। हिलना-डुलना मुश्किल हो जाता है। जरा सा हिलने में डर लगता है। फिर वे लकड़ी के जैसे सख्त, कठोर खड़े रह जाते हैं। वे सिर्फ मरने की प्रतीक्षा करते हैं। और सच तो यह है कि मौत को उन्हें मारना नहीं पड़ता, वे मौत के आने के बहुत पहले ही मर जाते हैं। बहुत कम लोग हैं जिनके मरने और दफनाए जाने का दिन एक ही होता हो, अधिकतर लोगों के मरने और दफनाने में चालीस से पचास साल का फासला होता है। बीस साल की उम्र में लोग मर जाते हैं, सत्तर साल के आस-पास दफनाए जाते हैं। पचास साल का फासला पड़ जाता है। मरने और दफनाए जाने का क्षण अगर एक ही है, तो वह आदमी जिंदा था और जवान।
जिंदगी का तीसरा सूत्र आपसे मैं कहना चाहता हूं: वह है नित्य युवा होना, सदा युवा होना--अर्थात सदा तरल होना। रोज खोजना, रोज जीना। और कल के लिए तय नहीं करना कि कल भी ऐसा ही जीऊंगा। आने दें जिंदगी को। अज्ञात जिंदगी से इतना भय क्या है? इतने डरते क्यों हैं? कल जो लाएगा, उसे देखेंगे। कल जो आएगा, उसे समझेंगे। और कल जो जिंदगी में घटेगा, उस भांति जीएंगे।
ध्यान रहे, जो आदमी कल के लिए आज ही निश्र्चय कर लेता है, उसका विवेक क्षीण हो जाता है। उसकी बुद्धि कुंठित हो जाती है। क्यों? क्योंकि उसे कल बुद्धि की फिर जरूरत ही नहीं रह जाती। तय तो आज ही कर लिया सारी जिंदगी के लिए। और जिस चीज की जरूरत नहीं रह जाती, वह धीरे-धीरे कुंठित हो जाती है।
लेकिन जो आदमी निरंतर असुरक्षा में जीता है, इनसिक्युरिटी में जीता है, और जो जानता है कि कल क्या लाएगा कुछ भी पता नहीं, कल क्या होगा कुछ भी ज्ञात नहीं, उसे अपनी बुद्धि को सतत सजग रखना पड़ता है। शायद हम खतरे में ही सजग होते हैं। साधरणतः हम सोए रहते हैं। अगर मैं आपकी छाती पर एक छुरा रख दूं, तो एक क्षण में आप इतने जागेंगे जितने आप कभी जागे हुए न होंगे। एक क्षण को आप अंतःकरण की आखिरी सीमा तक जाग जाएंगे। एक क्षण में छुरा होगा, आप होंगे और सब बंद हो जाएगा--सब विचार, सब खयाल, सब सिद्धांत। उस क्षण में आप हिंदू नहीं होंगे, उस क्षण में आप मुसलमान नहीं होंगे, उस क्षण में आपके भीतर न कुरान होगा, न गीता होगी। उस क्षण में आपके भीतर विचार भी नहीं होगा। उस क्षण में आपके भीतर होगा--ज्ञान। उस क्षण में आप सिर्फ जागे हुए, एक क्षण को रुके रह जाएंगे और पूरे प्राण जग जाएंगे। क्यों? क्योंकि इतने संकट के क्षण में सोया रहना खतरनाक है। इतने संकट के क्षण में पूरे प्राणों का जागना जरूरी है, ताकि हम कुछ कर सकें कि अब क्या करना है?
और छुरे रखने की घटनाएं रोज नहीं घटतीं कि पहले से सिद्धांत बनाया हुआ हो कि क्या करना चाहिए। छुरे रखने की घटनाएं पहले से खबर देकर नहीं आतीं, पहले से तार-चिट्ठी नहीं चलती उनकी। वे अचानक, आकस्मिक आकर खड़ी हो जाती हैं। तो जब छुरा कोई छाती पर रख देता है, तब आपको जागना पड़ता है; क्योंकि पूर्व-निर्मित लौह-पथ नहीं होते। पहले से निर्मित लोहे की पटरियां नहीं होतीं कि अब क्या करूं? स्कूल में सीखे हुए सिद्धांत नहीं होते कि क्या उत्तर दूं? कुछ पक्का नहीं होता। चूंकि कुछ पक्का नहीं होता, इसलिए बुद्धि को जाग कर देखना पड़ता है कि क्या करें? और जब क्या करने का सवाल उठता है और बुद्धि के पास रेडीमेड जवाब नहीं होते, तो बुद्धि अपने पूरे निखार में, अपने पूरे जागरण में, अपनी पूरी तीव्रता में उपस्थित होती है।
जो आदमी चौबीस घंटे ऐसे ही खतरे और असुरक्षा में जीता है, उसकी आत्मा में एक चमक आ जाती है। ऐसी चमक, जिस चमक का हमें कोई भी पता नहीं है। जो आदमी चौबीस घंटे इस भाव से जीता है कि अगली घड़ी क्या लाएगी मुझे पता नहीं। मैं पहले से कैसे तय करूं? जो आएगा उसको रिस्पांड करूंगा, जो आएगा उसके साथ संवाद करूंगा, जो होगा, हो सकेगा, वह हो जाए। ऐसा आदमी चौबीस घंटे जागा हुआ जीता है। उसके भीतर विवेक पैदा होता है।
सिद्धांतवादी के भीतर विवेक कभी पैदा नहीं होता। क्योंकि उसके पास हर परिस्थिति का उत्तर पहले से तैयार है। उसे किसी परिस्थिति को कोई उत्तर देने के लिए अब सोचने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका विवेक मर जाता है।
इस सूत्र को खयाल में रख लें: अगर अपने विवेक को जगाना है, तो असुरक्षा में जीएं, खतरे में जीएं।
नीत्शे ने अपनी टेबल पर एक वाक्य लिख रखा था। छोटे से दो शब्द थे, पर बड़े कीमती। और सभी धार्मिक आदमियों को समझने जैसे हैं। उसने लिख रखा था: लिव डेंजरसली! खतरनाक ढंग से जीओ! मगर खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? जहर पीयो? खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? वृक्षों के ऊपर मकान बनाओ? खतरनाक ढंग से जीने का मतलब क्या होता है? सड़क पर सो जाओ? खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? कि जब वह लाल राक्षस जैसी घूमती हुई बसें जोर से हॉर्न बजाएं, तो खड़े रहो, हटो मत?
नहीं, खतरनाक ढंग से जीने का यह मतलब नहीं होता। खतरनाक ढंग से जीने का एक ही मतलब होता है कि सुरक्षा में मत जीओ। सुरक्षा का इंतजाम मत करो। बंधे हुए सिद्धांतों से बचो। जीओ! खतरनाक ढंग से जीने का मतलब है--जीओ! जीने को पहले से नियोजित मत करो। उसके लिए फाइव ईयर प्लान्स मत बनाओ। जीने के लिए, अपने जीने के लिए कोई पूर्वबद्ध योजना मत करो। कोई पहले से सख्त ढांचा मत बनाओ जिसमें कि जीना है। जीओ सीधे और साफ। और जहां जिंदगी है, वहां संघर्ष लो और जीओ। और जो उस संघर्ष से निकले, उसमें आगे बढ़ो।
इसका एक परिणाम तो होता है कि विवेक जाग्रत होता है। और जहां विवेक जगा, वहां आत्मा का अनुभव शुरू हो जाता है। और जहां विवेक अपनी पूर्णता में जगता है, वहां परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
जितनी ज्यादा सुरक्षा, उतनी ही आत्मा का कोई पता नहीं चलेगा। सुरक्षावादी शरीरवादी होता है। सिद्धांतवादी शरीरवादी होता है। आत्मा का अनुभव उसे कभी नहीं हो पाता।
जैसे ही आत्मा की चमक पैदा होती है भीतर, जो कि हो ही जाती है, जैसे हम छुरी को पत्थर पर घिसें और उसमें धार आ जाए, ऐसा ही जो आदमी रोज जिंदगी की नई-नई परिस्थितियों से टक्कर लेता रहता है, उसके विवेक में धार आ जाती है। उस धार और चमक के परिणाम हैं। वही प्रतिभा है, वही जीनियस है। वही आभा है, वही हम जिसे कहें कि व्यक्ति के मुखमंडल के चारों ओर जो प्रकाश घेर लेता है, वह उसी पैनी धार की चमक है। उस चमक को पाए बिना कोई आदमी परमात्मा को नहीं पा सकता है।
ये मरे हुए लोग परमात्मा को नहीं पा सकते। जो चारों तरफ सिद्धांत की गठरी बांध कर जी रहे हैं, जो बिलकुल सुरक्षित हैं। जिन्हें स्वर्ग-नरक का भी पता है, जिन्हें मोक्ष का भी पता है, जिन्हें यह भी पता है कि क्या करने से नरक जाएंगे और क्या करने से स्वर्ग जाएंगे। जो एक-एक कौड़ी का हिसाब करके, कैल्कुलेशन करके जी रहे हैं। जो एक पैसा भिखमंगे को दे रहे हैं, तो अपनी बही में लिख रहे हैं कि स्वर्ग में इंतजाम रखना है कि एक पैसा भिखमंगे को दिया। एक चार दाने किसी गरीब को दिए हैं, तो जाकर भगवान से बदला ले लेना है। जो इस भांति जी रहे हैं, इन मरे हुए लोगों के लिए कोई मोक्ष नहीं है। इन मरे हुए लोगों के लिए कोई भगवान नहीं हो सकता।
असल में, जहां कैल्कुलेशन है, जहां गणित है, वहां जिंदगी नहीं होती। जिंदगी के रास्ते गणित-मुक्त हैं। जिंदगी के रास्ते तर्कमुक्त हैं। जिंदगी बड़ी बेतर्क है। जिंदगी तर्कातीत है। जिंदगी के गणित कुछ और ही हैं, जो हमारे हिसाब से नहीं चलते। इसलिए आदमी कपड़ा कितना पहनना कि कहीं नरक न चला जाऊं; खाना कितना खाना कि कहीं नरक न चला जाऊं; क्या बोलना, क्या नहीं बोलना; कैसे उठना, कैसे बैठना, इस भांति सब तरह से जोड़-तोड़ करके जी रहा है। इस गरीब आदमी को नरक में भी जगह मिल जाए तो बहुत है। इस गरीब आदमी को कहीं भी जगह नहीं मिल सकेगी। यह बहुत दीनहीन है। यह जी ही नहीं रहा है।
मैंने सुना है कि एक आदमी मरने के करीब था। आखिरी घड़ी थी। और एक पुरोहित उसे अंतिम पश्र्चात्ताप करवाने के लिए गया। और उस पुरोहित ने उससे कहा कि अब तू पश्र्चात्ताप कर, रिपेंट। पश्र्चात्ताप कर, तूने कोई पाप किए हों, तो उनके लिए भगवान से क्षमा मांग। आखिरी क्षण हैं। उस आदमी ने आंख खोली और उसने कहा कि मैं सिर्फ एक ही पश्र्चात्ताप कर सकता हूं कि मैं जीया नहीं। मैंने जीना जीने के इंतजाम में गवां दिया। मैं और कोई पश्र्चात्ताप नहीं कर सकता। और मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारे भगवान से कोई क्षमा न मांगूंगा, क्योंकि फिर वह मौत को जीने से भी मैं वंचित रह जाऊंगा। अब मुझे मरने दो--जानते हुए, जागे हुए, बिना डरे हुए, अब मैं मौत को ही जी लूं। जीवन को तो नहीं जी पाया, अब मैं मौत को ही देख लूं फेस टु फेस, आमने-सामने से कि मौत क्या है? जिंदगी को तो नहीं देख पाया। जिंदगी जब सामने थी, तब मैं बहीखाते पर हिसाब लगा रहा था कि कैसे जीऊं? जिंदगी गुजरती गई, मैं हिसाब लगाता रहा।
हिसाब कभी काम न पड़े, क्योंकि जिंदगी के काम कोई भी हिसाब नहीं पड़ते। आपके सब हिसाबों को जिंदगी गड़बड़ कर देती है। मैं भी आपसे यही कहना चाहूंगा।
और दूसरी बात इस संबंध में यह कि जिस आदमी का विवेक जग जाता है, उसे कभी पश्र्चात्ताप नहीं करना पड़ता। क्योंकि जैसा वह जी सकता था, जी लिया है। पश्र्चात्ताप किस बात का? अगर कल मैंने आप पर क्रोध किया, और यह पूरे जानते हुए किया, यह जानते हुए किया कि मैं क्रोध कर रहा हूं और मुझे लगा कि क्रोध करना ही उचित है, अगर मैंने इस पूरी स्वीकृति के साथ क्रोध किया है, तो आज मैं उसके लिए पश्र्चात्ताप नहीं करूंगा। क्योंकि मैं जानता हूं, जो मुझसे हो सकता था, वही हुआ है। लेकिन नहीं, क्रोध के पहले मैं सोचता था कि क्षमा धर्म है और क्रोध पाप है--फिर क्रोध किया। फिर क्रोध के बाद सोचने लगा कि बड़ा बुरा काम हो गया, क्षमा तो धर्म थी और क्रोध--मैंने पाप कर लिया। तब पश्र्चात्ताप पकड़ता है।
धार्मिक आदमी पछताता ही नहीं, क्योंकि धार्मिक आदमी जो भी करता है, उसे समग्रता से करता है। अगर वह बुरा भी करता है, तो समग्रता से करता है। और जब समग्रता से करता है, तो बुरे के बाहर हो जाता है। पछताता नहीं है; बाहर हो जाता है। अगर मेरे क्रोध ने मुझे दुख दिया, तो मैं बाहर हो जाऊंगा, लेकिन पछताऊंगा नहीं। बल्कि धन्यवाद ही दूंगा उस क्रोध को, क्योंकि अगर उस समय न कर पाता, तो शायद मैं उसके बाहर भी न हो पाता। उसने मुझे एक मौका दिया कि मैं उसके बाहर हो सकूं। और मैं आपसे भी क्षमा मांगने नहीं आऊंगा कि मैंने आप पर क्रोध किया। आपको धन्यवाद देने आऊंगा कि आपने अच्छा मौका उपस्थित कर दिया कि मैं क्रोध कर पाया। क्योंकि आप मौका उपस्थित न करते, तो शायद इस क्रोध से मेरा कभी छुटकारा न होता।
धार्मिक आदमी पछताता ही नहीं, धार्मिक आदमी प्रत्येक पश्र्चात्ताप के क्षण को भी उपलब्धि का क्षण बना लेता है। क्योंकि वह पूरी तरह जीता है। इसलिए जो भी जीता है, वह उसकी अनुभूति का हिस्सा हो जाता है। और जो भी हमारी अनुभूति का हिस्सा हो जाता है, उसे सिद्धांत नहीं बनाना पड़ता, वह अनजाने, चुपचाप हमारे भीतर काम करने लगता है। वह हमारे मन की नस-नस में, रोएं-रोएं में व्याप्त हो जाता है।
जब आपका हाथ आग में जल जाता है, तो आपको यह सिद्धांत नहीं बनाना पड़ता कि अब दुबारा मैं आग में हाथ नहीं डालूंगा। अब मैं पक्का सिद्धांत करता हूं कि आग में हाथ डालना बुरा है। नहीं, आग में हाथ जल जाता है, तो आपके प्राण-प्राण के कोने तक कोई बात पहुंच जाती है, जो आग में हाथ डालने से रोकने लगती है। सिद्धांत की कोई जरूरत नहीं होती। और अगर कोई आदमी का आग में हाथ जला हो और वह कहे कि अब मैं सिद्धांत पक्का करता हूं कि आग में हाथ न डालूंगा, तो समझना कि हाथ जला न होगा, इसलिए सिद्धांत बनाना पड़ रहा है। सिद्धांत सिर्फ अनुभवहीनों को बनाने पड़ते हैं। जहां अनुभव है, वहां सिद्धांत बनाने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती।
जीएं, इसलिए मैं कहूंगा, यह मत पूछें कि कैसे जीएं? जीएं, निर्भय होकर जीएं, सारे भय छोड़ कर जीएं। पाप का भय न रखें, पुण्य की आकांक्षा न रखें, जीएं पूरी तरह। और जब आप पूरी तरह जीएंगे, तो आप पाएंगे: आपकी नौका पुण्य के किनारे की तरफ बहने लगी और पाप के किनारे से हटने लगी। और अगर आप पाप के किनारे से डर कर जीए, तो ध्यान रहे, जिससे हम डर कर जीते हैं, उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। पाप का किनारा बुलाएगा कि कभी-कभी आ जाया करो, जब सूरज ढल जाए और जब अंधेरा हो जाए और जब रात का परदा छा जाए, तब कभी-कभी आ जाया करो। पुण्य बड़ा रूखा है। जो पाप से डर कर जीएगा, अंधेरे के रास्तों से पाप उसे बुलाता ही रहेगा। उसका पाप का आकर्षण कभी भी नहीं खो सकता। असल में, हम भयभीत ही उससे होते हैं, जिससे हम आकर्षित होते हैं। साधु-संन्यासी सदा ही स्त्री से भयभीत रहे, क्योंकि वे स्त्री से आकर्षित हैं। जहां आकर्षण है, वहां भय है; क्योंकिवहां हमले का डर है। वहां डर है कि कहीं स्त्री हमला न कर दे।
मैंने सुना है कि चीन में एक वृद्ध महिला ने एक संन्यासी की तीस वर्षों तक सेवा की। तीस वर्षों तक निरंतर। जब वह संन्यासी युवा था, तबसे उसने सेवा की। फिर वह संन्यासी भी बूढ़ा हो गया, साठ वर्ष का हो गया। और वह स्त्री तो कोई नब्बे वर्ष की हो गई। मरने के करीब आ गई। तो एक रात उसने गांव की वेश्या को बुलाया और उस वेश्या को बुला कर कहा कि अब मैं मरने के करीब हूं, एक बात जानने से रह गई, तू कृपाकर और थोड़ा सा मेरे लिए काम कर दे। मैं जिस संन्यासी की सेवा करती हूं और गांव के बाहर जो मैंने झोपड़ा बनाया है, आज रात बारह बजे के बाद तू उस झोपड़े में चली जा। जाकर तू संन्यासी को गले से ही लगा लेना। और वह क्या कहता है, क्या करता है, क्या बोलता है, उसे ध्यानपूर्वक सुन कर मुझे खबर कर देना। कुछ और नहीं करना है, बस गले से लगा लेना है। वह क्या कहता है, क्या बोलता है, क्या व्यवहार करता है, वह मुझे कह देना।
वह वेश्या गई। वह संन्यासी बारह बजे अपने द्वार अटका कर रात्रि के अंतिम ध्यान के लिए बैठा था। उस वेश्या ने दरवाजा खोला। निर्जन, एकांत, अंधेरी रात थी। गांव के बाहर वह झोपड़ी। दरवाजा खुलते देख कर संन्यासी का ध्यान... आंख खोली, देखा, गांव की वेश्या सुंदर सज-धज कर सामने खड़ी हुई है। वह संन्यासी चिल्लाया कि वेश्या नरक का द्वार! तू यहां कैसे? बाहर निकल। लेकिन वह वेश्या तो उसकी तरफ बढ़ती चली गई। वह घबड़ाया, वह उठ कर खड़ा हो गया, वह कोने में भाग कर छिपने की कोशिश करने लगा। एक ही दरवाजा था और उस पर वेश्या खड़ी थी। और वह वेश्या उसकी तरफ बढ़ने लगी। वह संन्यासी हाथ जोड़ने लगा कि तू यह क्या कर रही है, मैं तुझे माता मानता हूं।
ये सब भय की बातें हैं। ये माता मानने वाले, बहिन मानने वाले, बेटी मानने वाले, सब भयभीत हैं।
वह हाथ जोड़ने लगा, उसने आंख बंद कर ली कि हे भगवान, मेरी रक्षा करो! उस वेश्या ने जाकर उसको गले से लगा लिया था। उसका सारा शरीर आग सा जल रहा था। सारे शरीर पर बुखार था। उसके हाथ-पैर कंप रहे थे।
उस वेश्या ने आकर उस बुढ़िया को कहा कि ऐसा-ऐसा हुआ। उस बुढ़िया ने कहा कि मैंने व्यर्थ ही उस आदमी की तीस साल सेवा की--व्यर्थ ही। अभी वह कामवासना के ऊपर भी नहीं जा सका है।
जिससे हम भयभीत हैं, उससे हम आकर्षित होते हैं। जितने हम भयभीत होते हैं, उतने आकर्षित होते हैं।
कभी आपने नये सिक्खड़ को साइकिल चलाते हुए देखा। साइकिल सीख रहा हो। साठ फीट चौड़े रास्ते पर भी जहां कोई न हो, निर्जन रास्ता हो, नये आदमी को साइकिल सिखाई कभी आपने? उसे साइकिल पर बिठा दें। रास्ते के किनारे वह मील का पत्थर लगा है, वह उसे एकदम दिखाई पड़ना शुरू होता है कि कहीं इससे टकरा न जाऊं! साठ फीट चौड़ा रास्ता नहीं दिखता। अगर आदमी निशाना लगा कर भी पत्थर से टकराना चाहे, तो भी संभावना कम है। लेकिन यह आदमी साठ फीट चौड़े रास्ते को नहीं देखता, इसे दिखाई पड़ता है--भय के कारण--वह पत्थर मील का कि कहीं इससे टकरा न जाऊं! और बस, तब जिस मील के पत्थर से वह भयभीत हो गया, उसकी आंखें उसी पत्थर पर टिक जाती हैं, रास्ता खो जाता है और उसकी साइकिल का हैंडल उस पत्थर की तरफ मुड़ना शुरू हो जाता है। तो जितना पत्थर की तरफ हैंडल मुड़ता है, उतना वह घबड़ाता है कि कहीं मैं टकरा न जाऊं! जितना वह घबड़ाता है, उतना रास्ता खोता है और मील का पत्थर ही रह जाता है। फिर जो शेष रह जाता है, उससे टकराने के सिवाय कोई उपाय भी नहीं रह जाता, वह जाकर टकरा जाता है।
आप यह मत समझना कि मील के पत्थर नये सिक्खड़ साइकिलबाज के दुश्मन हैं। और यह मत समझना कि वे कोई नरक के द्वार हैं। मील के पत्थरों को आपसे क्या लेना-देना कि आप साइकिल सीख रहे हैं कि नहीं सीख रहे। मील के पत्थर का कोई भी हाथ नहीं है इस बात में, आप ही जिम्मेवार हैं। आपका भय ही आपके हाथों को मोड़ देता है। भय भी एक तरह का सम्मोहन पैदा करता है, एक तरह की हिप्नोसिस पैदा करता है। जिससे हम भयभीत हो जाते हैं, उससे हम सम्मोहित हो जाते हैं। सम्मोहित होकर हम उसकी तरफ दौड़ने लगते हैं।
अब बड़े मजे की बात है, संन्यासी कहते हैं, स्त्री नरक का द्वार है। कोई उनसे पूछे कि स्त्री अगर नरक का द्वार भी है, तो भी तुमसे कौन कहता है कि इस द्वार से गुजरो? और कोई उनसे पूछे कि अगर स्त्री नरक का द्वार है, तो फिर स्त्री तो नरक जा ही न सकेगी--उसके लिए दरवाजा कहां? खुद दरवाजे तो कहीं नहीं जाते। तब तो पक्का मानो कि नरक में अब तक कोई स्त्री न पहुंची होगी, सिर्फ पुरुष ही पहुंचे होंगे। और खासकर संन्यासी तो पहुंच ही गए होंगे। क्योंकि नरक का द्वार उनके लिए मील का पत्थर बन जाता है। वे जितने जोर-जोर से राम-राम करते हैं, उतने जोर-जोर से भीतर यह स्त्री उनको सताना शुरू कर देती है।
और अगर स्त्री नरक का द्वार है, तो पुरुष कौन है? पुरुष नरक का द्वार नहीं है? फिर स्त्री के लिए पुरुष नरक का द्वार हो जाता है। वह तो स्त्री संन्यासिनियों ने बहुत ग्रंथ नहीं लिखे, नहीं तो यह हो जाता। वह तो स्त्री संन्यासिनियां कम हुईं। असल में, स्त्री के मन में जीवन को जीने की इतनी अदम्य कामना होती है कि अब तक भी स्त्री ठीक-ठीक संन्यास के लिए राजी नहीं हो सकी। शायद स्त्री का मन जीवन के ज्यादा निकट है। और पुरुष का मन मृत्यु के ज्यादा निकट है। शायद स्त्री जीवन के प्रति इतने आनंद से भरी है कि उसे छोड़ने जैसा जीवन नहीं मालूम पड़ता। और अगर परमात्मा आएगा भी, तो वह जीवन के रस से ही आएगा। इसलिए स्त्रियों ने कोई ऐसी किताबें नहीं लिखीं।
लेकिन कुछ स्त्रियां संन्यासिनियां हैं। एक स्त्री संन्यासिन को मैं जानता हूं। और एक पुरुष संन्यासी को भी जानता हूं। वे दोनों कभी-कभी मिलते रहते हैं। उन्होंने एक संस्मरण लिखा है, वह मुझे बहुत हैरानी का मालूम पड़ा। स्वामी अखंडानंद और मां आनंदमयी। स्वामी अखंडानंद ने एक संस्मरण लिखा है: कि वह आनंदमयी को माता कहते हैं जब मिलते हैं और आनंदमयी जब उनको मिलती हैं तो वह उनको पिता कहती हैं। उन दोनों की बातचीत बड़ी जोरदार चलती होंगी। वह कहते हैं, माताजी; वह कहती हैं, पिताजी।
कौन सा भय आदमी को सता रहा है?
असल में, किसी स्त्री को माता कह कर हम एक बैरियर खड़ा करते हैं। किसी स्त्री को मां कह कर हम यह कह रहे हैं कि ठीक, अब, अब हमारे बीच स्त्री-पुरुष का होना हम मिटा रहे हैं। अब हम निर्भय होकर थोड़ी बात कर सकते हैं, क्योंकि तुम मेरी मां हो, अब इतना डर नहीं रहा। स्त्री कह रही है कि अब तुम मेरे पिता हो, अब इतना डर नहीं रहा।
लेकिन इतना डर क्यों है?
स्त्री स्त्री है, पुरुष पुरुष है, उनके बीच जो पवित्रतम संबंध हो सकता है, वह मित्रता का हो सकता है। लेकिन स्त्री-पुरुष के बीच मित्रता का कोई संबंध होता ही नहीं। हम होने ही नहीं देते। या तो उसे पत्नी होना चाहिए, या उसे मां होना चाहिए, या उसे बेटी होना चाहिए। किसी भी हालत में उसे किसी सेक्सुअल रिलेशनशिप में होना चाहिए। और जो अध्यात्मवादी कौमें हैं, वे कहती हैं कि मां बनाओ, बहिन बनाओ, बेटी बनाओ, या पत्नी बनाओ, मित्रता का कोई नाता स्त्री-पुरुष में नहीं हो सकता। मित्रता खतरनाक है। ये सब संबंध सेक्सुअल हैं। मां का मतलब है मेरे पिता की पत्नी। पिता का मतलब है मेरी मां का पति। बहिन का मतलब है एक ही योनि मार्ग से आए हुए दो व्यक्ति। बेटी का मतलब है मेरी पत्नी से पैदा हुई। मां, बहिन, बेटी, पत्नी--ये सारे संग-संबंध सेक्सुअल और कामुक हैं। ये सब यौनजन्य हैं। ये जो डरे हुए लोग हैं, ये इसमें कहते हैं कि कुछ भी निर्णय पक्का कर लो।
मित्रता भर एक अयौनज, ए-सेक्सुअल संबंध है। मित्रता का लेकिन कोई उपाय नहीं है।
अगर आप एक स्त्री के साथ जा रहे हो रास्ते पर और कोई मित्र मिले और पूछे कि यह कौन है? पूछेगा ही! आध्यात्मिक मुल्क में यह असंभव है कि स्त्री आपके साथ हो और पहला सवाल यह न हो कि यह कौन है? अगर आप कह दें, पत्नी है--तो बड़ी आश्र्चर्य की घटना है--अगर आप बता दें कि पत्नी है, तो यह खयाल ही नहीं आता कि इन दोनों के बीच में कोई काम का संबंध होगा। बात खत्म हो गई। अगर आप कह दें, मित्र है; तो बेचैनी शुरू हो गई। तब तत्काल खयाल आता है कि दोनों के बीच कुछ गलत संबंध होना चाहिए। मित्रता भर गलत संबंध है। पति और पत्नी के बीच भी खयाल नहीं आता कि इनके बीच कोई काम-संबंध होगा। जब कि पति-पत्नी का मतलब ही यह है कि सोशियली सैंक्शंड सेक्सुअल रिलेशनशिप। यह समाज के द्वारा स्वीकृत काम-संबंध है। लाइसेंस है। लेकिन यह खयाल नहीं आता। क्योंकि लाइसेंस के अंतर्गत जो भी हो रहा है, हम उसे बड़े आनंद से स्वीकार करते हैं।
लेकिन मित्रता, जो कि हो सकता है काम-संबंध न हो। सिर्फ मित्रता ही एक संबंध है, जो काम-संबंध नहीं है। लेकिन फ्रेंडशिप, मित्रता का कोई उपाय नहीं है।
यह भयभीत लोगों ने जो दुनिया बनाई है, जिंदगी से भयभीत लोगों ने जो सिद्धांत बनाए हैं, जिंदगी से भयभीत लोगों ने जो साधना की पद्धतियां बनाई हैं, ये कहीं भी नहीं ले जातीं--और गहरे फियर, और गहरे भय में उतार देती हैं। और अंततः आदमी को कंपता हुआ, डरता हुआ छोड़ देती हैं।
डरे हुए आदमी के अतिरिक्त नरक कहीं भी नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है कि स्वर्ग और नरक की आपकी क्या परिभाषा है?
तो मैं आपसे कहता हूं, डरे हुए आदमी के अतिरिक्त नरक कहीं भी नहीं है। निर्भय आदमी के अतिरिक्त स्वर्ग कहीं भी नहीं है। पूर्ण अभय में जो प्रतिष्ठित है, वह स्वर्ग में है। पूर्ण भय में जो प्रतिष्ठित है, वह नरक में है।
और भयभीत होने के लिए सुगम उपाय तथाकथित धार्मिक लोगों ने खोज रखे हैं। सब चीजों से डरवा दिया है। स्वाद मत लेना भोजन करो तो। अगर भोजन किया और स्वाद लिया, तो नरक जाओगे। अस्वाद चाहिए। गांधी जी के व्रतों में एक है: अस्वाद। भोजन करना, लेकिन स्वाद मत लेना।
बड़े मजे की बात है। सिर्फ पशु हैं, जानवर हैं, जो भोजन करे और स्वाद न ले। मनुष्य के विकास का अनिवार्य हिस्सा है कि वह स्वाद भी ले सकता है। कोई पशु स्वाद नहीं ले सकता; सिर्फ चरता है, भोजन करता है। और जो लोग अस्वाद साधेंगे, वे अपने को पशु के तल पर नीचे उतारते हैं।
नहीं, अस्वाद नहीं साधा जा सकता है। अस्वाद आता है पूर्ण स्वाद के फलस्वरूप। अगर कोई व्यक्ति किसी चीज में पूरे स्वाद को ले सके, तो तृप्त हो जाए। वही तृप्ति अस्वाद बन जाती है। फिर स्वाद की आकांक्षा नहीं रह जाती। फिर स्वाद के पीछे दौड़ नहीं रह जाती। फिर स्वाद के पीछे तृष्णा नहीं रह जाती। फिर स्वाद के पीछे वासना नहीं रह जाती। जिसे हम जान लेते हैं, जिसे हम भोग लेते हैं, उससे हम मुक्त हो जाते हैं।
तो मैं आपसे कहूंगा, लेना पूर्ण स्वाद। अगर व्रत ही लेना हो, तो लेना पूर्ण स्वाद का कि स्वाद लूंगा तो स्वाद ही लूंगा और पूरा लूंगा। और जब स्वाद ले रहा होऊंगा, तो सब भूल जाऊंगा--जगत, दुकान, बाजार, ज्ञान, गीता, कुरान--सब भूल जाऊंगा। जब स्वाद लूंगा, तो अपनी जीभ पर ही आ जाऊंगा, सारी चेतना वहीं ले आऊंगा। सारी आत्मा स्वाद ले सके, तो आप स्वाद के बाहर हो गए।
अगर स्त्री आकर्षित करती हो, तो भागना मत; अगर पुरुष आकर्षित करता हो, तो पीठ मत दिखाना। असल में, युद्धों से भागे हुए लोगों को हम कोई सम्मान नहीं देते, लेकिन जीवन के युद्ध से भागे हुए लोगों को बहुत सम्मान देते हैं।
एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि एक महात्मा हैं, अब तो कहना चाहिए थे, रणछोड़दास जी। एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि आप एक संन्यासी को जानते हैं, रणछोड़दास जी को?
मैंने कहा: मैं जितने संन्यासियों को जानता हूं सभी रणछोड़दास जी हैं। रणछोड़दास का मतलब समझते हैं?...
(आगे का ध्वनि-मुद्रण उपलब्ध नहीं है।)
भगवान, जीवन को कैसे जीया जाए, उसका प्रयोजन क्या है?
दो-तीन बातें समझने योग्य हैं। एक तो जो जीवन को किसी भांति जीने की कोशिश करेगा, वह जीवन से वंचित रह जाएगा। जीवन के ऊपर जो सिद्धांत को आरोपित करेगा, वह जीवन की हत्या करने वाला हो जाता है। जीवन के ऊपर कोई पद्धति, कोई पैटर्न, कोई ढांचा जीवन के पौधे को ठीक से विकसित नहीं होने देता। जीवन को जीने की पहली समझ तो इस बात से आती है कि हम जीवन को जितनी सहजता से स्वीकार कर सकें, उतनी ही धन्यता को जीवन उपलब्ध हो जाता है। सिद्धांतवादी कभी भी सहज नहीं हो पाता है। और जितना व्यक्ति असहज होगा उतना कृत्रिम, उतना झूठा, उतना पाखंडी हो जाता है।
जीवन को जीने की कला का पहला सूत्र है: जीवन की सहज स्वीकृति। जैसा जीवन आता है, उसे अंगीकार करने का अहोभाव, टोटल एक्सेप्टेबिलिटी। न केवल परिपूर्ण स्वीकृति, बल्कि अनुग्रहपूर्वक स्वीकृति, एक्सेप्टेंस विद ग्रेटिट्यूड।
पौधे भी जीते हैं, पक्षी भी जीते हैं, आकाश भी जीता है, पृथ्वी भी जीती है, सागर भी जीते हैं बिना किसी सिद्धांत के। आदमी भर है जो जीवन के ऊपर सिद्धांतों को थोप कर जीने की कोशिश करता है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जीवन में सिद्धांत न हों, लेकिन जीवन के ऊपर कोई सिद्धांत नहीं हो सकते हैं। सिद्धांत हो, तो जीवन से अनुसरित हो, जीवन से निकले; सिद्धांतों से जीवन नहीं निकल सकता है। इन दोनों बातों के भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी है। सिद्धांतों से जीवन उसी भांति नहीं निकल सकता, जैसे रेत से तेल नहीं निकल सकता। जीवन से सिद्धांत निकल सकते हैं।
जीने की कला से बहुत कुछ दिखाई पड़ सकता है और जीवन का मार्ग बन सकता है। लेकिन वह मार्ग वैसा ही होगा, जैसे नदी बहती है सागर की तरफ और मार्ग बनाती है। रेडीमेड, बना-बनाया कोई रास्ता नहीं होता जिस पर नदी बह जाती है। रेलगाड़ियां भी चलती हैं, वे लोहे के बने-बनाए पथ पर चलती हैं। कोई रास्ते की उन्हें खोज नहीं करनी होती है, रास्ता पूर्व-निर्मित है, रेलगाड़ी के डिब्बे उन पर दौड़े चले जाते हैं।
सिद्धांतवादी का जीवन रेलगाड़ी के दौड़ते हुए मृत डब्बों की भांति होता है। सिद्धांत तय हैं, उनकी पटरियां बिछी पड़ी हैं परंपराओं से, हजारों साल से, लौह-पथ तैयार है, उस पर सिद्धांतवादी को अपने चक्कों को चढ़ा देना है और चलते जाना है।
जिंदगी बने-बनाए मार्गों को नहीं मानती। सिर्फ जिसे जिंदा रहने से ही भय हो, वह लोहे के रास्ते... हजार रेलगाड़ियां एक ही रास्ते पर चल सकती हैं। दो नदियां एक रास्ते पर नहीं चल सकतीं। दो जीवन भी एक रास्ते पर कभी नहीं चलते।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी जीवन है। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए कि जीवन का अर्थ ही होता है प्रत्येक का अपना जीवन। जीवन जैसी कोई चीज नहीं है हम सबकी इकट्ठी। मैं एक तरह से जीता हूं, आप दूसरी तरह से जीते हैं। और अगर कोई... उसी क्षण हम उनकी स्वतंत्रता को, उनकी सहजता को, उनकी निजता को, उनकी इंडिविजुअलिटी को इनकार कर देते हैं। यह जो हमारी दुनिया इतनी उदास, इतनी फीकी, इतनी तेजहीन मालूम पड़ती है, उसका कारण है कि तेज जहां से आता है, प्रफुल्लता जहां से आती है, आनंद जहां से आता है, हर्ष जहां से पैदा होता है, उस व्यक्ति को हमने कारागृह में डाला हुआ है। हमने बंधे-बंधाए रास्ते बनाए हुए हैं। और उन बंधे-बंधाए रास्तों पर प्रत्येक को चलने का नियमन किया हुआ है। जो चलता है, वह स्वीकृत है समाज को; जो रास्ते से नीचे उतरता है, वह अस्वीकृत और उपेक्षित हो जाता है।
जीवन का अर्थ है अनंत जीवन। जितने लोग हैं, जितने व्यक्ति हैं उतने जीवन हैं। और प्रत्येक व्यक्ति का जीवन एक विशेष अर्थ में उसका ही है। वैसा जीवन न पहले कभी हुआ है और न पीछे कभी होगा। असल में, आपको पैदा करने के लिए जगत की जो व्यवस्था थी वह दुबारा अब कभी नहीं दोहरेगी। आप जिस घड़ी में पैदा हुए हैं वह घड़ी अब इतिहास में फिर नहीं लौटने को है। न चांद-तारे वहां होंगे, न पृथ्वी पर यह सब-कुछ होगा जो आपके पैदा होने के क्षण में था। आप अनूठे हैं। प्रत्येक अनूठा है। प्रत्येक व्यक्ति ऐसा है जिसकी कोई पुनरुक्ति नहीं। जिसका कोई इतिहास में, भविष्य या अतीत में कहीं भी कोई समतुलना नहीं है, जिसका कोई कंपेरिजन नहीं है।
लेकिन बंधे हुए रास्ते, तैयार रास्ते, सिद्धांतों के रास्ते व्यक्ति को नहीं मानते, वे समूह के, बड़े समूह के आधार पर निर्मित होते हैं। और उनमें वही बुनियादी भूल हो जाती है जो सभी स्टैटिस्टिक्स में होती है, जो सभी इस तरह की गणनाओं में होती है।
यदि हम बड़ौदा के सारे लोगों की ऊंचाई नापें और सारे लोगों की संख्या का उसमें भाग दे दें, तो बड़ौदा के नागरिक की औसत ऊंचाई, एवरेज हाइट का पता चल जाएगा। वह जो एवरेज हाइट होगी, औसत ऊंचाई होगी, उस ऊंचाई का शायद ही कोई आदमी बड़ौदा में हो। अगर आप औसत ऊंचाई के आदमी को खोजने निकलें, तो एक भी आदमी बड़ौदा में नहीं मिलेगा। बहुत कम संभावना है। असल में, औसत आदमी होता ही नहीं है। औसत आदमी गणित का खेल है। हर आदमी की अपनी लंबाई है।
और औसत का खेल वैसा ही नासमझी से भरा हुआ है, जैसा मैंने सुना है कि एक सम्राट ने अपने जवान बेटे के लिए अपने वजीर को बहू खोजने भेजा था और कहा था सोलह साल की लड़की खोज लाना। उसने बहुत खोजा। सोलह साल की कोई सुंदर लड़की नहीं मिलती थी, तो वह आठ-आठ साल की दो लड़कियां खोज लाया। गणितज्ञ था। उसने सोचा कि सोलह साल की एक लड़की न हो, तो आठ-आठ साल की दो लड़की: आठ + आठ = सोलह। वह आया और उसने दो छोटी-छोटी लड़कियां खड़ी कर दीं।
सम्राट ने कहा: पागल! इन बच्चियों को किसलिए ले आया?
उसने कहा: ये बच्ची नहीं हैं महाराज। जरा जोड़ करें, आठ और आठ सोलह होते हैं। इन दोनों की उम्र मिल कर सोलह है। आपको सोलह साल की स्त्री चाहिए, यह सोलह साल की स्त्री खड़ी है। जरा गणित करें। आपका गणित कमजोर मालूम पड़ता है।
मनुष्य के साथ भी बहुत तरह के गणित किए गए हैं।
महावीर की एक जिंदगी है, बुद्ध की एक है, कृष्ण की एक है। सारी मनुष्यता में हर आदमी की जिंदगी अलग-अलग है। और जब हम सिद्धांत तय करते हैं कि किस भांति जीएं, तो अनिवार्य रूप से सिद्धांत उधार होते हैं, किसी और की जिंदगी को देख कर आते हैं।
महावीर नग्न खड़े हैं, महावीर को देख कर कोई अगर जिंदगी के सिद्धांत तय करेगा, तो नग्नता की लोहे की पटरियां बिछा देगा और कहेगा कि नग्न होना मेरे लिए भी जरूरी है। महावीर के लिए नग्न होना कभी भी जरूरी नहीं था। महावीर की नग्नता उनके निर्दोष हृदय से निकली हुई सहज घटना थी। वस्त्र पहनने उन्हें मुश्किल हो गए होंगे। किसी क्षण वस्त्र उन्होंने निकाल कर फेंक दिए। नग्नता उन्होंने किसी दिन सिद्धांत की तरह स्वीकार नहीं की है और फिर वस्त्र नहीं उतारे हैं। वस्त्र उतर गए हैं, तब उन्हें पता चला है कि वे नग्न खड़े हैं। यह नग्नता उनके जीवन की धारा में सहज घटी घटना है।
लेकिन जो आदमी महावीर को देख कर जिंदगी बनाएगा, उसके लिए सिद्धांत पहले आएगा नग्न होने का, घटना पीछे आएगी, घटना झूठी हो जाएगी। और उस आदमी की नग्नता सुंदर नहीं हो सकती, उस आदमी की नग्नता कुरूप होगी। और उस आदमी की नग्नता में संन्यास नहीं होगा। उस आदमी की नग्नता में बहुत गहरे में सर्कस ही हो सकता है, संन्यास नहीं हो सकता। वह सर्कसी आदमी है। उसने अपने को नंगा खड़ा कर लिया है चेष्टा से। महावीर को नग्न खड़े होने में कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ी। महावीर के लिए वस्त्र पहनने में चेष्टा हो भी सकती थी, नग्न खड़े होने में चेष्टा नहीं है। नग्न खड़ा होना उन्हें सहज घटित हुआ है। हम जब भी सिद्धांत पहले लेंगे, तो सिद्धांत किसी और का होगा।
न तो महावीर के पिता आपके पिता हैं, न महावीर की मां आपकी मां हैं; न महावीर का समय आपका समय है, न महावीर का चित्त आपका चित्त है; न महावीर की आत्मा के लंबे अनंत जन्मों के अनुभव आपके अनुभव हैं; न महावीर की जिंदगी का आपसे क्या लेना-देना। लेकिन आप नग्न खड़े जाएंगे। यह नग्नता आपकी जिंदगी में एक तरह का व्यभिचार होगी। महावीर की जिंदगी में एक आचार थी, सहज फलित; आपकी जिंदगी में एक एक्सीडेंट, दुघर्टना होगी। आप खड़े हो सकते हैं नग्न, नग्न खड़े होने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन यह सिद्धांत पहले होगा, जिंदगी पीछे होगी। और जब भी सिद्धांत पहले और जिंदगी पीछे, तभी जिंदगी खत्म हो जाती है और सिद्धांत ही रह जाते हैं।
सिद्धांतवादी का अर्थ है मरा हुआ आदमी। तो जितने वादी हैं, सभी मरे हुए होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे महावीरवादी हैं, कि बुद्धवादी हैं, कि मार्क्सवादी हैं, कि गांधीवादी हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वादी मुर्दा होता है। वादी इसलिए मुर्दा होता है कि सिद्धांत किसी और से लाता है और अपनी जिंदगी को उस ढांचे में ढालता है। उसी ढांचे में ढालने में जिंदगी मर जाती है।
अगर एक गुलाब का पौधा दूसरे गुलाब के पौधे को अपना सिद्धांत बना ले, तो आप पक्का मानिए कि वह पौधा मर जाएगा। क्योंकि एक पौधे में जिस तरह की शाखाएं निकलती हैं, उस तरह की शाखाएं दूसरे पौधे में नहीं निकलती हैं। एक पौधे में जितने पत्ते होते हैं, उतने दूसरे पौधे में नहीं होते। एक पौधे में जिस भांति के फूल आते हैं, वैसे दूसरे में नहीं आते। अगर आपके गुलाब के पौधे पर सफेद फूल आया और उसने लाल फूल वाले पौधे को अपना सिद्धांत बनाया हो, तो वह आत्म-निंदा से भर जाएगा और सोचेगा कि अब मेरे लिए सिवाय नरक में जाने के और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि लाल फूल सिद्धांत है और मुझमें आ रहे हैं सफेद फूल, अब मैं मरा! और चाहे वह कितना ही आत्म-निंदा करे, सफेद फूल के गुलाब में लाल फूल नहीं आ सकते। हां, एक तरकीब हो सकती है कि अगर पौधा आदमी जितना समझदार हो जाए, तो अपने सफेद फूलों को लाल वार्निश से रंग सकता है। और लाल वार्निश से रंगे गए सफेद गुलाब के फूल फूल भी नहीं रह जाते, जिंदा भी नहीं रह जाते, वार्निश मार डालता है।
सफेद फूल सफेद ही होने चाहिए, लाल फूल लाल ही होने चाहिए। बड़े फूल बड़े ही होने चाहिए, छोटे फूल छोटे ही होने चाहिए। छोटे फूलों का अपना सौंदर्य है, बड़े फूलों का अपना सौंदर्य है। लाल का अपना है, सफेद का अपना है। जिंदगी सबको स्वीकार कर रही है। सिर्फ हम अपने को अस्वीकार करके मुसीबत में पड़ जाते हैं।
तो जब मुझसे कोई पूछता है कि जिंदगी कैसे जीएं? तो मैं कहता हूं, मुझसे मत पूछो, अपनी जिंदगी से पूछो। अपनी जिंदगी को बहाओ, चलो, जीओ। और उस जीने में जो आनंदपूर्ण हो, उसे सिद्धांत समझो। जो दुखपूर्ण हो, उसे सिद्धांत मत समझो। एक ही कसौटी हो सकती है कि जिससे आपको आनंद मिलता हो, वही आपकी जिंदगी का सूत्र बने। जिससे आपको दुख मिलता हो, वही आपकी जिंदगी के लिए विरोध बने। मुझसे मत पूछो, किसी से मत पूछो, किसी से भी पूछने जाएंगे कि जिंदगी कैसे जीएं, तो गलती शुरू हो जाएगी। क्योंकि मैं अपनी जिंदगी के बाबत ही कह सकता हूं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे पूछते हैं कि आप सुबह कब उठते हैं? मैं उनसे कहता हूं कि मेरे उठने से तुम्हें प्रयोजन? वे कहते हैं कि नहीं, हम भी उसी वक्त उठना शुरू करें। अब आपको शायद पता नहीं है कि जिंदगी में सुबह उठना भी प्रत्येक व्यक्ति का अपना होगा। होना ही चाहिए। सिर्फ मिलिटरी को छोड़ कर। जहां कि आदमी नहीं होते, मशीनें होती हैं। मिलिटरी की सारी टे्रनिंग यही होती है कि आदमी आदमी न रह जाए, मशीन हो जाए। इसलिए मिलिटरी में हम मूर्खतापूर्ण बातों को वर्षों तक दोहराते हैं--बाएं घूमो, दाएं घूमो। घुमाते रहो बाएं-दाएं, आदमी धीरे-धीरे मशीन की तरह बाएं-दाएं घूमने लगता है। फिर जब आप कहते हैं, बाएं घूमो, तो उसे घूमना नहीं पड़ता, बस वह घूम जाता है। फिर उसे सोचना नहीं पड़ता है कि बाएं यानी क्या? घूमना है या नहीं घूमना है यह भी नहीं सोचना पड़ता, बस वह घूम जाता है। और जब आदमी मशीन की तरह बाएं-दाएं घूमने लगता है, तब उससे कहो, बंदूक तानो, गोली चलाओ, तो वह बंदूक तानता है, गोली चलाता है, यह भी नहीं देखता कि वह क्या कर रहा है, किसको मार रहा है, क्यों मार रहा है, किसलिए मार रहा है। अब यह कोई सवाल नहीं रहा। अब वह आदमी मशीन हो गया है। मशीनगन मशीन के हाथ में। अब वह आदमी आदमी नहीं है। तो मिलिटरी में तो एक ही वक्त उठना पड़ता है। जिंदगी को मिलिटरी बनाने की जरूरत नहीं है।
अभी बहुत खोज चलती है नींद के ऊपर, तो बड़े हैरानी के तथ्य हाथ में आए हैं। और जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में उठने के आदी हैं और दूसरों को उठाने के भी, उन्हें थोड़े उन तथ्यों को समझ लेना चाहिए। चौबीस घंटे के आदमी के तापमान का जो अध्ययन किया गया है वह बहुत हैरानी का है। उसमें पता चलता है कि बाईस घंटे तो आदमी का शरीर एक तापमान पर रहता है, दो घंटे के लिए तापमान नीचे गिर जाता है। अक्सर यह घटना दो बजे से लेकर सुबह सात बजे के बीच में घटती है। दो घंटे के लिए शरीर का टेम्प्रेचर नीचे गिर जाता है। और जिस दो घंटे के बीच आपके शरीर का तापमान नीचे गिरता है, वे ही दो घंटे आपके गहरी निंद्रा के घंटे होते हैं। अगर उन दो घंटों के बीच में आप उठ आए, तो आप दिन भर बेचैन और परेशान रहेंगे, आपकी नींद नहीं हो पाई। और अगर उन दो घंटों के बाद उठे, तो आप ताजे उठेंगे और दिन भर नींद की चिंता करने की जरूरत नहीं रहेगी।
अब किसी आदमी का दो बजे से चार बजे के बीच गिरता है। समझ लें कि विनोबा भावे का दो से चार के बीच गिरता है। तो वे तीन बजे रात उठ आते हैं या दो बजे रात उठ आते हैं। अब उनके आस-पास जो नकली विनोबा भावे इकट्ठे हैं, वे भी बेचारे तीन बजे उठते हैं। वे भी वैसी ही लंगोटी वगैरह लगा कर, वैसी ही चादर ओढ़ कर बैठ कर जाते हैं। वे भी तीन बजे उठ आते हैं। जो आदमी नकलची तीन बजे उठ रहा है, अगर उसका तापमान तीन और पांच के बीच गिरता है, तो वह दिन भर मुसीबत में होगा। और जब वह मुसीबत में होगा, तब वह सोचेगा कि मैं बड़ा तामसी हूं; देखो, विनोबा भावे को तो कोई नींद नहीं आ रही है और मुझे दिन भर नींद आती है। मालूम होता है पिछले जन्मों में अच्छे कर्म नहीं किए।... कोई न पिछले जन्म का सवाल है, न किसी पाप का सवाल है, न तामसी होने का सवाल है। सवाल सीधा वैज्ञानिक है। उस आदमी के शरीर का तापमान दो घंटे बाद गिरता है।
स्त्रियों के शरीर का तापमान अक्सर पुरुषों से बाद में गिरता है। इसलिए स्वभावतः पति सुबह उठ आते हैं और घर में चाय बनाने लगते हैं और पत्नी थोड़ी देर से उठती है। इसमें कुछ पत्नियों को परेशान होने की और दुखी होने की कोई भी जरूरत नहीं है। स्त्रियों का तापमान कोई तीन बजे और सात बजे के बीच में गिरता है। कुछ लोग हैं जिनका सात और नौ के बीच में भी गिरता है। अब जिनका सात और नौ के बीच में गिरता है, अगर वे नौ के पहले उठ आए, तो उनका दिन भर खराब हो जाएगा।
अपनी जिंदगी से खोजें। अगर सुबह उठने का सूत्र भी खोजना है, तो दस-पांच दिन प्रयोग करके देखें कि कौन सी घड़ी में उठने से आप दिन भर सबसे ज्यादा ताजगी अनुभव करते हैं। वही आपका सुबह उठने का नियम होगा। किसी और से पूछने मत जाएं, क्योंकि उसके सुबह उठने का नियम आपका नियम नहीं हो सकता। लेकिन हम जो फार्मूले बनाते हैं वे सबके लिए बनाते हैं। हम कहते हैं, ब्रह्ममुहूर्त में जो नहीं उठता वह अच्छा आदमी नहीं है।
सबके ब्रह्ममुहूर्त अलग हैं। और किसी का ठेका नहीं है कि उसका ब्रह्ममुहूर्त मेरा ब्रह्ममुहूर्त हो। इसलिए मैं यह नहीं कहता कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना। मैं यह कहता हूं कि अपना ब्रह्ममुहूर्त ठीक से खोज लेना कि आपका ब्रह्ममुहूर्त कब है, जागरण का आपका क्षण क्या है। नींद के क्षण भी अलग हैं, जागने के क्षण भी अलग हैं। भोजन की भी प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-व्यवस्था अलग है।
यह तो बहुत हैरानी की बात है कि अगर एक ही बीमारी से दो आदमी बीमार होते हैं, तो भी उनकी बीमारियों की इंडिविजुअलिटी होती है, उनकी बीमारियों का अपना व्यक्तित्व होता है। अगर मुझे भी टी. बी. हो जाए और आपको भी टी. बी. हो जाए, तो भी टी. बी. हम दोनों को एक सी नहीं हो सकती। इसलिए वही दवा जो आप पर काम कर जाती है, मुझ पर काम नहीं कर पाती। उसके कारण हैं। मेरे व्यक्तित्व का पूरा संगठन अलग है। उस संगठन में घटी हुई घटना भिन्न होने वाली है आपके व्यक्तित्व से।
और इसलिए एक ही दवा हमारी मजबूरी है। और आज तो मेडिकल साइंस इस बात को धीरे-धीरे अनुभव करने लगी है कि जिस दिन पूरी तरह विकास होगा, उस दिन हम बीमारी की नहीं, बीमार की चिकित्सा करेंगे। अभी हमें बीमारी की करनी पड़ रही है, जब कि असल में बीमार की चिकित्सा होनी चाहिए। क्योंकि बीमार अलग-अलग हैं। एक ही बीमारी के बीमार भी अलग-अलग हैं। लेकिन हमारी मजबूरी है कि हम एक अस्पताल बनाते हैं और उसमें हजार टी. बी. के मरीज को भरती करते हैं, तो एक-एक के साथ अलग-अलग व्यवहार करना अभी संभव नहीं हो पा रहा है, इसलिए हम सबके साथ एक सा व्यवहार करते हैं। लेकिन वह व्यवहार उचित नहीं है, वैज्ञानिक नहीं है--विवशता है।
जिस दिन हमारी क्षमता बढ़ेगी, तो प्रत्येक मरीज के साथ भिन्न व्यवहार होना चाहिए। नॉट दि डिसी़ज बट दि पेशेंट मस्ट बी ट्रीटेड। बीमारी नहीं, बीमार की चिकित्सा होनी चाहिए। और हर बीमार अनूठा है, अपने ढंग का है। बीमारी का कोई सामान्य तल नहीं है। एक-एक व्यक्ति व्यक्ति है, इसलिए तो एक-एक व्यक्ति के पास आत्मा है।
अगर एक कार की पेट्रोल की टंकी टूट जाए और दूसरी कार की पेट्रोल की टंकी टूट जाए, तो इन दोनों में कोई व्यक्तित्व नहीं होता। इन दोनों टंकियों के साथ एक सा इलाज किया जा सकता है। लेकिन एक आदमी और दो आदमी के पास व्यक्तित्व हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि आदमियों के पास आत्मा है, मशीनों के पास आत्मा नहीं है। और अगर आप आत्म-स्वीकार करते हैं कि आपके भीतर कोई व्यक्तित्व, कोई निजता, कोई आत्मा है, तो कभी भूल कर भी किसी दूसरे से जीवन कैसे जीएं, यह पूछने मत जाना। और अगर कोई आपको बताए, तो उसे अपना दुश्मन समझना, मित्र मत समझना। ज्यादा से ज्यादा वह इतना कह सकता है कि मैं जीवन को ऐसे जीता हूं और मैंने इस तरह जीकर आनंद पाया है, या दुख पाया है, लेकिन आप इससे आनंद पाएंगे और दुख पाएंगे यह जरूरी नहीं है।
आप अपने जीवन को जीएं और जीकर जीवन के सूत्र खोजें। कसौटी एक होगी कि जिससे आपकी शांति बढ़ती जाए, जिससे आपका आनंद बढ़ता जाए, जिससे आपकी प्रफुल्लता बढ़ती जाए, जिससे आपके जीवन में प्रकाश बढ़ता जाए, जिससे आपके जीवन में गहराई बढ़ती जाए, ऊंचाई बढ़ती जाए, समझना कि वह जीवन का आपके लिए ठीक रास्ता है। ध्यान रहे, आपके लिए है, भूल कर भी अपने बेटे की गर्दन मत पकड़ लेना कि यह रास्ता तेरे लिए भी है, क्योंकि मुझे इससे आनंद मिला है।
न दूसरे से पूछना, न दूसरे के ऊपर थोपना। हम पूछने को भी आतुर होते हैं कि कोई हमें बता दे। और अगर हमारी जिंदगी में कुछ घट जाए, तो हम किसी दूसरे पर भी थोपने को आतुर होते हैं कि किसी को हम फंसा दें। दोनों ही घातक बातें हैं। और इसके अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं है कि आप जीवन को कैसे जीएं, इसे आपको जीकर ही जानना पड़ेगा।
यह मामला ऐसा ही है जैसे कोई आदमी पूछे कि मैं तैरूं कैसे? तो मैं उससे कहूं कि नदी में कूद जाओ। निश्र्चय ही बहुत गहरे में मत कूद जाना, नहीं तो ऐसा न हो कि तैरने वाला न बचे। जरा उथले में कूदो, लेकिन इतने उथले में भी मत कूद जाना कि खड़े हो जाओ तो तैरने की कोई जरूरत न रहे। कूदो, इतनी गहराई में कि मर न जाओ और इतनी गहराई में जरूर कि हाथ तड़फड़ाने पड़ें। वह आदमी कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक मैं पानी में नहीं उतर सकता। उसका गणित दुरुस्त है। उसके तर्क में कोई खामी नहीं है। लेकिन तर्क और जिंदगी में बड़े फर्क हैं।
वह आदमी ठीक कहता है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, मैं पानी में कैसे उतरूं? पानी में उतरने की पहली शर्त है मेरी कि मैं तैरना सीख लूं तभी मैं उतर सकता हूं। और मैं उससे कहूंगा कि जब तक तुम पानी में न उतरोगे, तब तक तुम तैरना सीखोगे कैसे? और तैरना सीखने की पहली शर्त है कि पानी में उतरो। गद्दी बिछा कर कमरे में हाथ-पैर तड़फड़ाने से तैरना नहीं आ सकता। असल में, तैरना आने के लिए पानी में डूबने की संभावना अनिवार्य शर्त है। उतना खतरा जो लेता है, उसी के भीतर से तैरना प्रकट होता है। असल में, उसी खतरे में हाथ तड़फड़ाते हैं और तैरना आना शुरू होता है। नदी में उतरना पड़े, तो तैरना आता है। तैरना आ जाए, तो और गहरी नदी में उतरना आता है। और गहरी नदी में उतरना आए, तो और भी तैरना आता है। और भी तैरना आए, तो और सागरों में उतरना आ जाता है। ऐसे ही गति होती है।
जीवन में उतरें, किनारे बैठ कर सोचते मत रहें कि कैसे जीएं? गीता और कुरान और बाइबिल और हजारों तरह के गुरुओं के पास पूछने मत जाएं कि कैसे जीएं? उतरें। और ध्यान रहे, खतरा है वहीं शिक्षा है। खतरा तो है ही कि उतरने में डूब भी सकते हैं। उतरने में भटक भी सकते हैं। उतरने में भूल भी हो सकती है। इसलिए जो बहुत समझदार हैं, जिनको हम कहें बहुत समझू, जिनको हम कहें कि बहुत सयाने, ऐसे लोग किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, कोई भूल न हो जाए। कोई भूल न हो जाए, इसलिए पहले सारा इंतजाम कर लें, लोहे की पटरियां बिछा दें, फिर हम चलेंगे। तो ऐसे समझदार, ऐसे सयाने किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं, वे कभी उतर नहीं पाते।
खतरा लेना पड़ेगा। जिंदगी में भूल हो सकती है--होनी चाहिए भी। जो भी जीएगा, उससे बहुत भूलें होंगी। भूल से कोई डर नहीं है। एक ही भूल दुबारा न हो, इतनी समझ काफी है। रोज नई भूल हो, यह बहुत आवश्यक है। पुरानी भूल न दोहराई जाए, यह समझदारी है। यह समझदारी नहीं है कि भूल दोहराने के डर से, भूल होने के डर से कोई किनारे बैठ जाए।
जिंदगी में उतरें--जाग कर देखें, उठ कर देखें, भोजन करके देखें, झूठ बोल कर देखें, सच बोल कर देखें, क्रोध करके देखें, क्षमा करके देखें, प्रेम करके देखें, दुश्मनी करके देखें--सारे अनुभव लें। जिंदगी में उतरें। और उन सारे अनुभवों में कि जहां से गहराई ब़ढ़े, जहां से शांति बढ़े, जहां से आनंद बढ़े, जहां से प्रभु की झलक मिले, समझें कि वह मेरे जीवन का नियम बनना शुरू हुआ। और उस नियम को भी इतनी सख्ती से न बना लें कि कल उसमें बदलाहट का उपाय न रह जाए, क्योंकि कोई भी नहीं जानता कि कल जिंदगी क्या लाए। कोई भी नहीं जानता कि कल तक जो सपाट रास्ता था, कल उसे बदलना पड़े, मोड़ आ जाए। कोई भी नहीं जानता कि कल तक जो बहुत सुखद था, आने वाले कल में दुखद हो जाए। कल के लिए ओपनिंग चाहिए।
इसलिए दूसरी बात आपसे कहता हूं, अपने भीतर से जीवन के नियम खोजें। और दूसरी बात कहता हूं, अपने खोजे नियम को भी एब्सोल्यूट, परिपूर्ण न मान लें। अपने खोजे नियम को भी पूर्णता न समझ लें। वह भी कल बदलने की लोच, फ्लैक्सिबिलिटी उसमें होनी चाहिए। रोज प्रतिपल बदलने की क्षमता होने वाले आदमी में ही जिंदगी पूरे अर्थों में खिलती है--जो आदमी प्रतिपल बदल सकता है। लेकिन हम बड़े संगत, कंसिस्टेंट लोग हैं। हम कहते हैं कि जो हमने कल किया था, वही हम आज भी करेंगे, नहीं तो लोग क्या कहेंगे? जो हम कल मानते थे, वही हम आज भी मानेंगे, नहीं तो लोग क्या कहेंगे कि आप बदल गए?
मैंने सुना है एक आदमी के संबंध में। लोग तो उसे बुद्धिमान कहते थे, वैसे उस जैसा बुद्धिहीन आदमी खोजना जरा आसान नहीं है। सुना है मैंने उसके संबंध में कि जब वह स्कूल में पढ़ता था, तब उसने एक वचन स्कूल की दीवाल पर लिखा हुआ पढ़ा था। उस वचन में लिखा हुआ था: टाइम इ़ज मनी, समय संपत्ति है। उसने इस सिद्धांत को मान लिया। फिर वह जवान हुआ, फिर उसने कमाना शुरू किया। वह आदमी बड़ा कंसिस्टेंट, बड़ा संगत आदमी था।
लेकिन उसके व्यवहार से लोग बड़े परेशान हो गए। उसकी पत्नी, उसके बच्चे मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि वह जितने पैसे कमाता--उसने एक नियम बना लिया कि उसमें से दो तिहाई तो वह कचरे में फेंक देता और एक तिहाई उपयोग में लाता। अगर वह तीन रुपये कमाता, तो दो रुपये कचरे में फेंक आता और एक रुपये में घर का काम चलाता। बड़ी गरीबी, बड़ी मुसीबत में दिन बीतने लगे। लोगों ने बहुत उससे कहा कि यह क्या फितूर है? यह क्या पागलपन है? यह कैसा मैनिया है तुम्हारे दिमाग में? यह तुम क्या करते हो?
वह आदमी हंसता था उसी तरह जैसे कि ज्ञानी, अपने को ज्ञानी समझने वाले लोग जिनको अज्ञानी समझते हैं उन पर हंसते हैं, वह मुस्कुराता था। लेकिन आखिर एक दिन सारे मित्रों ने उसको धर पकड़ा और कहा कि आज बताना ही पड़ेगा कि यह तुम क्या कर रहे हो? बच्चों की हत्या करोगे? पत्नी को फांसी लगानी है? तो उस आदमी ने कहा कि तुम समझते नहीं, मैं कंसिस्टेंट आदमी हूं।
उन्होंने कहा: हम अभी भी नहीं समझे, इसका मतलब क्या होता है?
उसने कहा कि मैंने बचपन से मान रखा है: टाइम इ़ज मनी, समय संपत्ति है।
उन्होंने कहा कि यह भी हमने सुना है, समझा है, लेकिन इससे रुपये फेंकने का क्या संबंध?
उसने कहा: जब मैं अपने समय का दो तिहाई बेकार खर्च करता हूं, तो जो व्यवहार मैं समय के साथ करता हूं, वही मैं धन के साथ करूंगा। मैं कंसिस्टेंट आदमी हूं। जब मैं अपनी जिंदगी के दो तिहाई समय को बेकार खो रहा हूं, तो मैं पूरे धन को, जितना कमाता हूं, उसका पूरे का उपयोग कैसे कर सकता हूं? समय धन है, इसलिए जो मैं समय के साथ व्यवहार कर रहा हूं, वही व्यवहार मुझे धन के साथ भी करना ही पड़ेगा।
इतना कंसिस्टेंट आदमी दुनिया में कभी नहीं हुआ। स्कूलों की तो कई दीवालों पर लिखा है: टाइम इ़ज मनी। लेकिन यह आदमी बहुत ही संगत आदमी है। पक्का सिद्धांतवादी जिसको कहें। मित्र भी रह गए, क्योंकि मित्र भी सिद्ध न कर सके कि टाइम इ़ज मनी, यह गलत है, कि समय संपत्ति है, यह गलत है। मित्र भी सिद्ध न कर सके। कहीं कोई भूल-चूक जरूर हो रही है। लेकिन मित्रों कोसाफ नहीं हो सका कि क्या भूल-चूक हो रही है? अक्सर भूल-चूक होती है कि हमने अतीत में जो सिद्ध कर लिया, ठीक कर लिया, समझ लिया, पकड़ लिया, फिर हम उसे जिंदगी भर अंधे की तरह पकड़े हुए चले जाते हैं।
बुद्ध कहा करते थे कि कुछ लोगों ने एक बार नदी पार की--नाव में नदी पार की। स्वभावतः नाव में ही नदी पार हो सकती थी। फिर पार उतरने के बाद उन आठों आदमियों ने उस नाव को अपने सिर पर उठा लिया और बाजार की तरफ चले। गांव में लोग बड़े चकित हुए। उन्होंने लोगों को तो नाव पर सवार देखा था, लेकिन नाव को कभी लोगों पर सवार नहीं देखा। भीड़ इकट्ठी हो गई। और उन ग्रामीणों ने कहा कि हमें बताओ यह राज क्या है? नाव पर चढ़े हुए लोग हमने देखे, लोगों पर चढ़ी हुई नाव हमने कभी नहीं देखी!
उन लोगों ने कहा कि नासमझो, हम बहुत संगत लोग हैं। जब नाव ने हमारा साथ दिया, जब हम मुसीबत में थे नदी में, तो अब हम नाव को साथ दे रहे हैं। और जिस नाव ने हमें नदी पार करवाई, उस नाव को हम कैसे सिर से नीचे उतार सकते हैं! हम सिद्धांतवादी हैं। हम धोखेबाज-बेईमान नहीं। नाव ने इतना साथ दिया, हम उसका साथ छोड़ दें! जब नाव हमें नदी में पार कराई, तो अब जिंदगी भर नाव को हम जीवन की नदी पार करवाते रहेंगे।
ये संगत लोग थे, सिद्धांतवादी लोग थे। उचित है कि कोई नाव से नदी पार करे, लेकिन यह भी उचित है कि फिर नाव को नदी के किनारे छोड़े और अपने रास्ते पर चला जाए। जिंदगी में सब सिद्धांत पार करने और छोड़ने योग्य हैं। कोई सिद्धांत ऐसा नहीं है जिसे सिर पर ढोने की जरूरत हो। लेकिन सिद्धांतवादी यही करता है, वह सिद्धांतों का इतना ढेर अपने सिर पर रख लेता है कि फिर चलना ही मुश्किल हो जाता है।
हमारे इस देश में ऐसा हुआ है। हजारों-हजारों साल की परंपरा के सिद्धांत हमारे सिर पर हैं। उन सबको लिए हम बैठे हैं। चलना मुश्किल हो गया है, कदम उठाना मुश्किल है, लेकिन सिद्धांतों को नीचे उतारना मुश्किल है।
मैं बिलकुल ही गैर-सिद्धांतवादी हूं, मैं किसी सिद्धांत को नहीं मानता हूं। कारण? कारण कि मैं जीवन को मानता हूं। और जीवन जहां ले जाए, उसके साथ जाने के साहस को मानता हूं। निश्र्चित ही मनुष्य के पास विवेक है, विचार है। जिंदगी जहां ले जाए, उसे खोजना चाहिए। वहां जाने योग्य है, तो दुबारा जाए--हजार बार जाए। नहीं जाने योग्य है, तो दुबारा न जाए--कभी न जाए।
लेकिन जो आज जाने योग्य है, कल नहीं जाने योग्य हो सकता है। और जो कल तक न जाने योग्य था, वह आज जाने योग्य हो सकता है। इसलिए जिंदगी में लोच चाहिए, जिंदगी में तरलता चाहिए, लिक्विडिटी चाहिए। जिंदगी ऐसे चाहिए, जैसे हम पानी को गिलास में रखें तो वह गिलास की शक्ल ले ले; लोटे में रखें तो लोटे की शक्ल ले ले; नदी में डालें तो नदी बन जाए; सागर में डालें तो सागर बन जाए।
लेकिन हम पानी की तरह नहीं हैं, हम पत्थर के बर्फ की तरह हैं--सख्त, सॉलिड, मजबूत। अगर पत्थर के बर्फ के टुकड़े को गिलास में डालो, तो संघर्ष शुरू हो जाता है। गिलास और पत्थर के बर्फ में लड़ाई शुरू हो जाती है। पत्थर के बर्फ का टुकड़ा इनकार करता है कि हम गिलास की शक्ल कैसे ले सकते हैं! उसमें लोच नहीं है। लेकिन पानी में एक लोच है।
असल में, जितना आदमी बूढ़ा होता जाता है, उतनी लोच कम हो जाती है। जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता है, फ्रोजन हो जाता है, पत्थर का बर्फ हो जाता है। बच्चे में लोच होती है, तरलता होती है। जवान भी बहुत सी तरलता खोने लगता है। बूढ़ा सब तरलता खो देता है। और अगर कोई आदमी अपने मरने के क्षण तक तरल रह सके, तो उसने जवानी नहीं खोई। शरीर बूढ़ा हो गया होगा, लेकिन वह आदमी बूढ़ा नहीं हुआ है।
अगर मरते दम तक कोई सीखने की क्षमता रख सके, तो वह आदमी कभी भी बूढ़ा नहीं होता है। शरीर बूढ़ा होता है, स्नायु बूढ़े हो जाते हैं, हड्डियां बूढ़ी हो जाती हैं, लेकिन आत्मा बूढ़ी नहीं हो पाती। और धन्य हैं वे लोग जो अपनी आत्मा को बूढ़े होने से बचा लेते हैं। ऐसे आदमियों को मैं धार्मिक आदमी कहता हूं। सिद्धांतवादियों को कभी भी नहीं। क्योंकि वे तो जवान होने के पहले ही बूढ़े हो जाते हैं। उनका सब सख्त हो जाता है। उनकी छाती पर लोहे के कवच बैठ जाते हैं। हिलना-डुलना मुश्किल हो जाता है। जरा सा हिलने में डर लगता है। फिर वे लकड़ी के जैसे सख्त, कठोर खड़े रह जाते हैं। वे सिर्फ मरने की प्रतीक्षा करते हैं। और सच तो यह है कि मौत को उन्हें मारना नहीं पड़ता, वे मौत के आने के बहुत पहले ही मर जाते हैं। बहुत कम लोग हैं जिनके मरने और दफनाए जाने का दिन एक ही होता हो, अधिकतर लोगों के मरने और दफनाने में चालीस से पचास साल का फासला होता है। बीस साल की उम्र में लोग मर जाते हैं, सत्तर साल के आस-पास दफनाए जाते हैं। पचास साल का फासला पड़ जाता है। मरने और दफनाए जाने का क्षण अगर एक ही है, तो वह आदमी जिंदा था और जवान।
जिंदगी का तीसरा सूत्र आपसे मैं कहना चाहता हूं: वह है नित्य युवा होना, सदा युवा होना--अर्थात सदा तरल होना। रोज खोजना, रोज जीना। और कल के लिए तय नहीं करना कि कल भी ऐसा ही जीऊंगा। आने दें जिंदगी को। अज्ञात जिंदगी से इतना भय क्या है? इतने डरते क्यों हैं? कल जो लाएगा, उसे देखेंगे। कल जो आएगा, उसे समझेंगे। और कल जो जिंदगी में घटेगा, उस भांति जीएंगे।
ध्यान रहे, जो आदमी कल के लिए आज ही निश्र्चय कर लेता है, उसका विवेक क्षीण हो जाता है। उसकी बुद्धि कुंठित हो जाती है। क्यों? क्योंकि उसे कल बुद्धि की फिर जरूरत ही नहीं रह जाती। तय तो आज ही कर लिया सारी जिंदगी के लिए। और जिस चीज की जरूरत नहीं रह जाती, वह धीरे-धीरे कुंठित हो जाती है।
लेकिन जो आदमी निरंतर असुरक्षा में जीता है, इनसिक्युरिटी में जीता है, और जो जानता है कि कल क्या लाएगा कुछ भी पता नहीं, कल क्या होगा कुछ भी ज्ञात नहीं, उसे अपनी बुद्धि को सतत सजग रखना पड़ता है। शायद हम खतरे में ही सजग होते हैं। साधरणतः हम सोए रहते हैं। अगर मैं आपकी छाती पर एक छुरा रख दूं, तो एक क्षण में आप इतने जागेंगे जितने आप कभी जागे हुए न होंगे। एक क्षण को आप अंतःकरण की आखिरी सीमा तक जाग जाएंगे। एक क्षण में छुरा होगा, आप होंगे और सब बंद हो जाएगा--सब विचार, सब खयाल, सब सिद्धांत। उस क्षण में आप हिंदू नहीं होंगे, उस क्षण में आप मुसलमान नहीं होंगे, उस क्षण में आपके भीतर न कुरान होगा, न गीता होगी। उस क्षण में आपके भीतर विचार भी नहीं होगा। उस क्षण में आपके भीतर होगा--ज्ञान। उस क्षण में आप सिर्फ जागे हुए, एक क्षण को रुके रह जाएंगे और पूरे प्राण जग जाएंगे। क्यों? क्योंकि इतने संकट के क्षण में सोया रहना खतरनाक है। इतने संकट के क्षण में पूरे प्राणों का जागना जरूरी है, ताकि हम कुछ कर सकें कि अब क्या करना है?
और छुरे रखने की घटनाएं रोज नहीं घटतीं कि पहले से सिद्धांत बनाया हुआ हो कि क्या करना चाहिए। छुरे रखने की घटनाएं पहले से खबर देकर नहीं आतीं, पहले से तार-चिट्ठी नहीं चलती उनकी। वे अचानक, आकस्मिक आकर खड़ी हो जाती हैं। तो जब छुरा कोई छाती पर रख देता है, तब आपको जागना पड़ता है; क्योंकि पूर्व-निर्मित लौह-पथ नहीं होते। पहले से निर्मित लोहे की पटरियां नहीं होतीं कि अब क्या करूं? स्कूल में सीखे हुए सिद्धांत नहीं होते कि क्या उत्तर दूं? कुछ पक्का नहीं होता। चूंकि कुछ पक्का नहीं होता, इसलिए बुद्धि को जाग कर देखना पड़ता है कि क्या करें? और जब क्या करने का सवाल उठता है और बुद्धि के पास रेडीमेड जवाब नहीं होते, तो बुद्धि अपने पूरे निखार में, अपने पूरे जागरण में, अपनी पूरी तीव्रता में उपस्थित होती है।
जो आदमी चौबीस घंटे ऐसे ही खतरे और असुरक्षा में जीता है, उसकी आत्मा में एक चमक आ जाती है। ऐसी चमक, जिस चमक का हमें कोई भी पता नहीं है। जो आदमी चौबीस घंटे इस भाव से जीता है कि अगली घड़ी क्या लाएगी मुझे पता नहीं। मैं पहले से कैसे तय करूं? जो आएगा उसको रिस्पांड करूंगा, जो आएगा उसके साथ संवाद करूंगा, जो होगा, हो सकेगा, वह हो जाए। ऐसा आदमी चौबीस घंटे जागा हुआ जीता है। उसके भीतर विवेक पैदा होता है।
सिद्धांतवादी के भीतर विवेक कभी पैदा नहीं होता। क्योंकि उसके पास हर परिस्थिति का उत्तर पहले से तैयार है। उसे किसी परिस्थिति को कोई उत्तर देने के लिए अब सोचने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका विवेक मर जाता है।
इस सूत्र को खयाल में रख लें: अगर अपने विवेक को जगाना है, तो असुरक्षा में जीएं, खतरे में जीएं।
नीत्शे ने अपनी टेबल पर एक वाक्य लिख रखा था। छोटे से दो शब्द थे, पर बड़े कीमती। और सभी धार्मिक आदमियों को समझने जैसे हैं। उसने लिख रखा था: लिव डेंजरसली! खतरनाक ढंग से जीओ! मगर खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? जहर पीयो? खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? वृक्षों के ऊपर मकान बनाओ? खतरनाक ढंग से जीने का मतलब क्या होता है? सड़क पर सो जाओ? खतरनाक ढंग से जीने का क्या मतलब होता है? कि जब वह लाल राक्षस जैसी घूमती हुई बसें जोर से हॉर्न बजाएं, तो खड़े रहो, हटो मत?
नहीं, खतरनाक ढंग से जीने का यह मतलब नहीं होता। खतरनाक ढंग से जीने का एक ही मतलब होता है कि सुरक्षा में मत जीओ। सुरक्षा का इंतजाम मत करो। बंधे हुए सिद्धांतों से बचो। जीओ! खतरनाक ढंग से जीने का मतलब है--जीओ! जीने को पहले से नियोजित मत करो। उसके लिए फाइव ईयर प्लान्स मत बनाओ। जीने के लिए, अपने जीने के लिए कोई पूर्वबद्ध योजना मत करो। कोई पहले से सख्त ढांचा मत बनाओ जिसमें कि जीना है। जीओ सीधे और साफ। और जहां जिंदगी है, वहां संघर्ष लो और जीओ। और जो उस संघर्ष से निकले, उसमें आगे बढ़ो।
इसका एक परिणाम तो होता है कि विवेक जाग्रत होता है। और जहां विवेक जगा, वहां आत्मा का अनुभव शुरू हो जाता है। और जहां विवेक अपनी पूर्णता में जगता है, वहां परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
जितनी ज्यादा सुरक्षा, उतनी ही आत्मा का कोई पता नहीं चलेगा। सुरक्षावादी शरीरवादी होता है। सिद्धांतवादी शरीरवादी होता है। आत्मा का अनुभव उसे कभी नहीं हो पाता।
जैसे ही आत्मा की चमक पैदा होती है भीतर, जो कि हो ही जाती है, जैसे हम छुरी को पत्थर पर घिसें और उसमें धार आ जाए, ऐसा ही जो आदमी रोज जिंदगी की नई-नई परिस्थितियों से टक्कर लेता रहता है, उसके विवेक में धार आ जाती है। उस धार और चमक के परिणाम हैं। वही प्रतिभा है, वही जीनियस है। वही आभा है, वही हम जिसे कहें कि व्यक्ति के मुखमंडल के चारों ओर जो प्रकाश घेर लेता है, वह उसी पैनी धार की चमक है। उस चमक को पाए बिना कोई आदमी परमात्मा को नहीं पा सकता है।
ये मरे हुए लोग परमात्मा को नहीं पा सकते। जो चारों तरफ सिद्धांत की गठरी बांध कर जी रहे हैं, जो बिलकुल सुरक्षित हैं। जिन्हें स्वर्ग-नरक का भी पता है, जिन्हें मोक्ष का भी पता है, जिन्हें यह भी पता है कि क्या करने से नरक जाएंगे और क्या करने से स्वर्ग जाएंगे। जो एक-एक कौड़ी का हिसाब करके, कैल्कुलेशन करके जी रहे हैं। जो एक पैसा भिखमंगे को दे रहे हैं, तो अपनी बही में लिख रहे हैं कि स्वर्ग में इंतजाम रखना है कि एक पैसा भिखमंगे को दिया। एक चार दाने किसी गरीब को दिए हैं, तो जाकर भगवान से बदला ले लेना है। जो इस भांति जी रहे हैं, इन मरे हुए लोगों के लिए कोई मोक्ष नहीं है। इन मरे हुए लोगों के लिए कोई भगवान नहीं हो सकता।
असल में, जहां कैल्कुलेशन है, जहां गणित है, वहां जिंदगी नहीं होती। जिंदगी के रास्ते गणित-मुक्त हैं। जिंदगी के रास्ते तर्कमुक्त हैं। जिंदगी बड़ी बेतर्क है। जिंदगी तर्कातीत है। जिंदगी के गणित कुछ और ही हैं, जो हमारे हिसाब से नहीं चलते। इसलिए आदमी कपड़ा कितना पहनना कि कहीं नरक न चला जाऊं; खाना कितना खाना कि कहीं नरक न चला जाऊं; क्या बोलना, क्या नहीं बोलना; कैसे उठना, कैसे बैठना, इस भांति सब तरह से जोड़-तोड़ करके जी रहा है। इस गरीब आदमी को नरक में भी जगह मिल जाए तो बहुत है। इस गरीब आदमी को कहीं भी जगह नहीं मिल सकेगी। यह बहुत दीनहीन है। यह जी ही नहीं रहा है।
मैंने सुना है कि एक आदमी मरने के करीब था। आखिरी घड़ी थी। और एक पुरोहित उसे अंतिम पश्र्चात्ताप करवाने के लिए गया। और उस पुरोहित ने उससे कहा कि अब तू पश्र्चात्ताप कर, रिपेंट। पश्र्चात्ताप कर, तूने कोई पाप किए हों, तो उनके लिए भगवान से क्षमा मांग। आखिरी क्षण हैं। उस आदमी ने आंख खोली और उसने कहा कि मैं सिर्फ एक ही पश्र्चात्ताप कर सकता हूं कि मैं जीया नहीं। मैंने जीना जीने के इंतजाम में गवां दिया। मैं और कोई पश्र्चात्ताप नहीं कर सकता। और मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारे भगवान से कोई क्षमा न मांगूंगा, क्योंकि फिर वह मौत को जीने से भी मैं वंचित रह जाऊंगा। अब मुझे मरने दो--जानते हुए, जागे हुए, बिना डरे हुए, अब मैं मौत को ही जी लूं। जीवन को तो नहीं जी पाया, अब मैं मौत को ही देख लूं फेस टु फेस, आमने-सामने से कि मौत क्या है? जिंदगी को तो नहीं देख पाया। जिंदगी जब सामने थी, तब मैं बहीखाते पर हिसाब लगा रहा था कि कैसे जीऊं? जिंदगी गुजरती गई, मैं हिसाब लगाता रहा।
हिसाब कभी काम न पड़े, क्योंकि जिंदगी के काम कोई भी हिसाब नहीं पड़ते। आपके सब हिसाबों को जिंदगी गड़बड़ कर देती है। मैं भी आपसे यही कहना चाहूंगा।
और दूसरी बात इस संबंध में यह कि जिस आदमी का विवेक जग जाता है, उसे कभी पश्र्चात्ताप नहीं करना पड़ता। क्योंकि जैसा वह जी सकता था, जी लिया है। पश्र्चात्ताप किस बात का? अगर कल मैंने आप पर क्रोध किया, और यह पूरे जानते हुए किया, यह जानते हुए किया कि मैं क्रोध कर रहा हूं और मुझे लगा कि क्रोध करना ही उचित है, अगर मैंने इस पूरी स्वीकृति के साथ क्रोध किया है, तो आज मैं उसके लिए पश्र्चात्ताप नहीं करूंगा। क्योंकि मैं जानता हूं, जो मुझसे हो सकता था, वही हुआ है। लेकिन नहीं, क्रोध के पहले मैं सोचता था कि क्षमा धर्म है और क्रोध पाप है--फिर क्रोध किया। फिर क्रोध के बाद सोचने लगा कि बड़ा बुरा काम हो गया, क्षमा तो धर्म थी और क्रोध--मैंने पाप कर लिया। तब पश्र्चात्ताप पकड़ता है।
धार्मिक आदमी पछताता ही नहीं, क्योंकि धार्मिक आदमी जो भी करता है, उसे समग्रता से करता है। अगर वह बुरा भी करता है, तो समग्रता से करता है। और जब समग्रता से करता है, तो बुरे के बाहर हो जाता है। पछताता नहीं है; बाहर हो जाता है। अगर मेरे क्रोध ने मुझे दुख दिया, तो मैं बाहर हो जाऊंगा, लेकिन पछताऊंगा नहीं। बल्कि धन्यवाद ही दूंगा उस क्रोध को, क्योंकि अगर उस समय न कर पाता, तो शायद मैं उसके बाहर भी न हो पाता। उसने मुझे एक मौका दिया कि मैं उसके बाहर हो सकूं। और मैं आपसे भी क्षमा मांगने नहीं आऊंगा कि मैंने आप पर क्रोध किया। आपको धन्यवाद देने आऊंगा कि आपने अच्छा मौका उपस्थित कर दिया कि मैं क्रोध कर पाया। क्योंकि आप मौका उपस्थित न करते, तो शायद इस क्रोध से मेरा कभी छुटकारा न होता।
धार्मिक आदमी पछताता ही नहीं, धार्मिक आदमी प्रत्येक पश्र्चात्ताप के क्षण को भी उपलब्धि का क्षण बना लेता है। क्योंकि वह पूरी तरह जीता है। इसलिए जो भी जीता है, वह उसकी अनुभूति का हिस्सा हो जाता है। और जो भी हमारी अनुभूति का हिस्सा हो जाता है, उसे सिद्धांत नहीं बनाना पड़ता, वह अनजाने, चुपचाप हमारे भीतर काम करने लगता है। वह हमारे मन की नस-नस में, रोएं-रोएं में व्याप्त हो जाता है।
जब आपका हाथ आग में जल जाता है, तो आपको यह सिद्धांत नहीं बनाना पड़ता कि अब दुबारा मैं आग में हाथ नहीं डालूंगा। अब मैं पक्का सिद्धांत करता हूं कि आग में हाथ डालना बुरा है। नहीं, आग में हाथ जल जाता है, तो आपके प्राण-प्राण के कोने तक कोई बात पहुंच जाती है, जो आग में हाथ डालने से रोकने लगती है। सिद्धांत की कोई जरूरत नहीं होती। और अगर कोई आदमी का आग में हाथ जला हो और वह कहे कि अब मैं सिद्धांत पक्का करता हूं कि आग में हाथ न डालूंगा, तो समझना कि हाथ जला न होगा, इसलिए सिद्धांत बनाना पड़ रहा है। सिद्धांत सिर्फ अनुभवहीनों को बनाने पड़ते हैं। जहां अनुभव है, वहां सिद्धांत बनाने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती।
जीएं, इसलिए मैं कहूंगा, यह मत पूछें कि कैसे जीएं? जीएं, निर्भय होकर जीएं, सारे भय छोड़ कर जीएं। पाप का भय न रखें, पुण्य की आकांक्षा न रखें, जीएं पूरी तरह। और जब आप पूरी तरह जीएंगे, तो आप पाएंगे: आपकी नौका पुण्य के किनारे की तरफ बहने लगी और पाप के किनारे से हटने लगी। और अगर आप पाप के किनारे से डर कर जीए, तो ध्यान रहे, जिससे हम डर कर जीते हैं, उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। पाप का किनारा बुलाएगा कि कभी-कभी आ जाया करो, जब सूरज ढल जाए और जब अंधेरा हो जाए और जब रात का परदा छा जाए, तब कभी-कभी आ जाया करो। पुण्य बड़ा रूखा है। जो पाप से डर कर जीएगा, अंधेरे के रास्तों से पाप उसे बुलाता ही रहेगा। उसका पाप का आकर्षण कभी भी नहीं खो सकता। असल में, हम भयभीत ही उससे होते हैं, जिससे हम आकर्षित होते हैं। साधु-संन्यासी सदा ही स्त्री से भयभीत रहे, क्योंकि वे स्त्री से आकर्षित हैं। जहां आकर्षण है, वहां भय है; क्योंकिवहां हमले का डर है। वहां डर है कि कहीं स्त्री हमला न कर दे।
मैंने सुना है कि चीन में एक वृद्ध महिला ने एक संन्यासी की तीस वर्षों तक सेवा की। तीस वर्षों तक निरंतर। जब वह संन्यासी युवा था, तबसे उसने सेवा की। फिर वह संन्यासी भी बूढ़ा हो गया, साठ वर्ष का हो गया। और वह स्त्री तो कोई नब्बे वर्ष की हो गई। मरने के करीब आ गई। तो एक रात उसने गांव की वेश्या को बुलाया और उस वेश्या को बुला कर कहा कि अब मैं मरने के करीब हूं, एक बात जानने से रह गई, तू कृपाकर और थोड़ा सा मेरे लिए काम कर दे। मैं जिस संन्यासी की सेवा करती हूं और गांव के बाहर जो मैंने झोपड़ा बनाया है, आज रात बारह बजे के बाद तू उस झोपड़े में चली जा। जाकर तू संन्यासी को गले से ही लगा लेना। और वह क्या कहता है, क्या करता है, क्या बोलता है, उसे ध्यानपूर्वक सुन कर मुझे खबर कर देना। कुछ और नहीं करना है, बस गले से लगा लेना है। वह क्या कहता है, क्या बोलता है, क्या व्यवहार करता है, वह मुझे कह देना।
वह वेश्या गई। वह संन्यासी बारह बजे अपने द्वार अटका कर रात्रि के अंतिम ध्यान के लिए बैठा था। उस वेश्या ने दरवाजा खोला। निर्जन, एकांत, अंधेरी रात थी। गांव के बाहर वह झोपड़ी। दरवाजा खुलते देख कर संन्यासी का ध्यान... आंख खोली, देखा, गांव की वेश्या सुंदर सज-धज कर सामने खड़ी हुई है। वह संन्यासी चिल्लाया कि वेश्या नरक का द्वार! तू यहां कैसे? बाहर निकल। लेकिन वह वेश्या तो उसकी तरफ बढ़ती चली गई। वह घबड़ाया, वह उठ कर खड़ा हो गया, वह कोने में भाग कर छिपने की कोशिश करने लगा। एक ही दरवाजा था और उस पर वेश्या खड़ी थी। और वह वेश्या उसकी तरफ बढ़ने लगी। वह संन्यासी हाथ जोड़ने लगा कि तू यह क्या कर रही है, मैं तुझे माता मानता हूं।
ये सब भय की बातें हैं। ये माता मानने वाले, बहिन मानने वाले, बेटी मानने वाले, सब भयभीत हैं।
वह हाथ जोड़ने लगा, उसने आंख बंद कर ली कि हे भगवान, मेरी रक्षा करो! उस वेश्या ने जाकर उसको गले से लगा लिया था। उसका सारा शरीर आग सा जल रहा था। सारे शरीर पर बुखार था। उसके हाथ-पैर कंप रहे थे।
उस वेश्या ने आकर उस बुढ़िया को कहा कि ऐसा-ऐसा हुआ। उस बुढ़िया ने कहा कि मैंने व्यर्थ ही उस आदमी की तीस साल सेवा की--व्यर्थ ही। अभी वह कामवासना के ऊपर भी नहीं जा सका है।
जिससे हम भयभीत हैं, उससे हम आकर्षित होते हैं। जितने हम भयभीत होते हैं, उतने आकर्षित होते हैं।
कभी आपने नये सिक्खड़ को साइकिल चलाते हुए देखा। साइकिल सीख रहा हो। साठ फीट चौड़े रास्ते पर भी जहां कोई न हो, निर्जन रास्ता हो, नये आदमी को साइकिल सिखाई कभी आपने? उसे साइकिल पर बिठा दें। रास्ते के किनारे वह मील का पत्थर लगा है, वह उसे एकदम दिखाई पड़ना शुरू होता है कि कहीं इससे टकरा न जाऊं! साठ फीट चौड़ा रास्ता नहीं दिखता। अगर आदमी निशाना लगा कर भी पत्थर से टकराना चाहे, तो भी संभावना कम है। लेकिन यह आदमी साठ फीट चौड़े रास्ते को नहीं देखता, इसे दिखाई पड़ता है--भय के कारण--वह पत्थर मील का कि कहीं इससे टकरा न जाऊं! और बस, तब जिस मील के पत्थर से वह भयभीत हो गया, उसकी आंखें उसी पत्थर पर टिक जाती हैं, रास्ता खो जाता है और उसकी साइकिल का हैंडल उस पत्थर की तरफ मुड़ना शुरू हो जाता है। तो जितना पत्थर की तरफ हैंडल मुड़ता है, उतना वह घबड़ाता है कि कहीं मैं टकरा न जाऊं! जितना वह घबड़ाता है, उतना रास्ता खोता है और मील का पत्थर ही रह जाता है। फिर जो शेष रह जाता है, उससे टकराने के सिवाय कोई उपाय भी नहीं रह जाता, वह जाकर टकरा जाता है।
आप यह मत समझना कि मील के पत्थर नये सिक्खड़ साइकिलबाज के दुश्मन हैं। और यह मत समझना कि वे कोई नरक के द्वार हैं। मील के पत्थरों को आपसे क्या लेना-देना कि आप साइकिल सीख रहे हैं कि नहीं सीख रहे। मील के पत्थर का कोई भी हाथ नहीं है इस बात में, आप ही जिम्मेवार हैं। आपका भय ही आपके हाथों को मोड़ देता है। भय भी एक तरह का सम्मोहन पैदा करता है, एक तरह की हिप्नोसिस पैदा करता है। जिससे हम भयभीत हो जाते हैं, उससे हम सम्मोहित हो जाते हैं। सम्मोहित होकर हम उसकी तरफ दौड़ने लगते हैं।
अब बड़े मजे की बात है, संन्यासी कहते हैं, स्त्री नरक का द्वार है। कोई उनसे पूछे कि स्त्री अगर नरक का द्वार भी है, तो भी तुमसे कौन कहता है कि इस द्वार से गुजरो? और कोई उनसे पूछे कि अगर स्त्री नरक का द्वार है, तो फिर स्त्री तो नरक जा ही न सकेगी--उसके लिए दरवाजा कहां? खुद दरवाजे तो कहीं नहीं जाते। तब तो पक्का मानो कि नरक में अब तक कोई स्त्री न पहुंची होगी, सिर्फ पुरुष ही पहुंचे होंगे। और खासकर संन्यासी तो पहुंच ही गए होंगे। क्योंकि नरक का द्वार उनके लिए मील का पत्थर बन जाता है। वे जितने जोर-जोर से राम-राम करते हैं, उतने जोर-जोर से भीतर यह स्त्री उनको सताना शुरू कर देती है।
और अगर स्त्री नरक का द्वार है, तो पुरुष कौन है? पुरुष नरक का द्वार नहीं है? फिर स्त्री के लिए पुरुष नरक का द्वार हो जाता है। वह तो स्त्री संन्यासिनियों ने बहुत ग्रंथ नहीं लिखे, नहीं तो यह हो जाता। वह तो स्त्री संन्यासिनियां कम हुईं। असल में, स्त्री के मन में जीवन को जीने की इतनी अदम्य कामना होती है कि अब तक भी स्त्री ठीक-ठीक संन्यास के लिए राजी नहीं हो सकी। शायद स्त्री का मन जीवन के ज्यादा निकट है। और पुरुष का मन मृत्यु के ज्यादा निकट है। शायद स्त्री जीवन के प्रति इतने आनंद से भरी है कि उसे छोड़ने जैसा जीवन नहीं मालूम पड़ता। और अगर परमात्मा आएगा भी, तो वह जीवन के रस से ही आएगा। इसलिए स्त्रियों ने कोई ऐसी किताबें नहीं लिखीं।
लेकिन कुछ स्त्रियां संन्यासिनियां हैं। एक स्त्री संन्यासिन को मैं जानता हूं। और एक पुरुष संन्यासी को भी जानता हूं। वे दोनों कभी-कभी मिलते रहते हैं। उन्होंने एक संस्मरण लिखा है, वह मुझे बहुत हैरानी का मालूम पड़ा। स्वामी अखंडानंद और मां आनंदमयी। स्वामी अखंडानंद ने एक संस्मरण लिखा है: कि वह आनंदमयी को माता कहते हैं जब मिलते हैं और आनंदमयी जब उनको मिलती हैं तो वह उनको पिता कहती हैं। उन दोनों की बातचीत बड़ी जोरदार चलती होंगी। वह कहते हैं, माताजी; वह कहती हैं, पिताजी।
कौन सा भय आदमी को सता रहा है?
असल में, किसी स्त्री को माता कह कर हम एक बैरियर खड़ा करते हैं। किसी स्त्री को मां कह कर हम यह कह रहे हैं कि ठीक, अब, अब हमारे बीच स्त्री-पुरुष का होना हम मिटा रहे हैं। अब हम निर्भय होकर थोड़ी बात कर सकते हैं, क्योंकि तुम मेरी मां हो, अब इतना डर नहीं रहा। स्त्री कह रही है कि अब तुम मेरे पिता हो, अब इतना डर नहीं रहा।
लेकिन इतना डर क्यों है?
स्त्री स्त्री है, पुरुष पुरुष है, उनके बीच जो पवित्रतम संबंध हो सकता है, वह मित्रता का हो सकता है। लेकिन स्त्री-पुरुष के बीच मित्रता का कोई संबंध होता ही नहीं। हम होने ही नहीं देते। या तो उसे पत्नी होना चाहिए, या उसे मां होना चाहिए, या उसे बेटी होना चाहिए। किसी भी हालत में उसे किसी सेक्सुअल रिलेशनशिप में होना चाहिए। और जो अध्यात्मवादी कौमें हैं, वे कहती हैं कि मां बनाओ, बहिन बनाओ, बेटी बनाओ, या पत्नी बनाओ, मित्रता का कोई नाता स्त्री-पुरुष में नहीं हो सकता। मित्रता खतरनाक है। ये सब संबंध सेक्सुअल हैं। मां का मतलब है मेरे पिता की पत्नी। पिता का मतलब है मेरी मां का पति। बहिन का मतलब है एक ही योनि मार्ग से आए हुए दो व्यक्ति। बेटी का मतलब है मेरी पत्नी से पैदा हुई। मां, बहिन, बेटी, पत्नी--ये सारे संग-संबंध सेक्सुअल और कामुक हैं। ये सब यौनजन्य हैं। ये जो डरे हुए लोग हैं, ये इसमें कहते हैं कि कुछ भी निर्णय पक्का कर लो।
मित्रता भर एक अयौनज, ए-सेक्सुअल संबंध है। मित्रता का लेकिन कोई उपाय नहीं है।
अगर आप एक स्त्री के साथ जा रहे हो रास्ते पर और कोई मित्र मिले और पूछे कि यह कौन है? पूछेगा ही! आध्यात्मिक मुल्क में यह असंभव है कि स्त्री आपके साथ हो और पहला सवाल यह न हो कि यह कौन है? अगर आप कह दें, पत्नी है--तो बड़ी आश्र्चर्य की घटना है--अगर आप बता दें कि पत्नी है, तो यह खयाल ही नहीं आता कि इन दोनों के बीच में कोई काम का संबंध होगा। बात खत्म हो गई। अगर आप कह दें, मित्र है; तो बेचैनी शुरू हो गई। तब तत्काल खयाल आता है कि दोनों के बीच कुछ गलत संबंध होना चाहिए। मित्रता भर गलत संबंध है। पति और पत्नी के बीच भी खयाल नहीं आता कि इनके बीच कोई काम-संबंध होगा। जब कि पति-पत्नी का मतलब ही यह है कि सोशियली सैंक्शंड सेक्सुअल रिलेशनशिप। यह समाज के द्वारा स्वीकृत काम-संबंध है। लाइसेंस है। लेकिन यह खयाल नहीं आता। क्योंकि लाइसेंस के अंतर्गत जो भी हो रहा है, हम उसे बड़े आनंद से स्वीकार करते हैं।
लेकिन मित्रता, जो कि हो सकता है काम-संबंध न हो। सिर्फ मित्रता ही एक संबंध है, जो काम-संबंध नहीं है। लेकिन फ्रेंडशिप, मित्रता का कोई उपाय नहीं है।
यह भयभीत लोगों ने जो दुनिया बनाई है, जिंदगी से भयभीत लोगों ने जो सिद्धांत बनाए हैं, जिंदगी से भयभीत लोगों ने जो साधना की पद्धतियां बनाई हैं, ये कहीं भी नहीं ले जातीं--और गहरे फियर, और गहरे भय में उतार देती हैं। और अंततः आदमी को कंपता हुआ, डरता हुआ छोड़ देती हैं।
डरे हुए आदमी के अतिरिक्त नरक कहीं भी नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है कि स्वर्ग और नरक की आपकी क्या परिभाषा है?
तो मैं आपसे कहता हूं, डरे हुए आदमी के अतिरिक्त नरक कहीं भी नहीं है। निर्भय आदमी के अतिरिक्त स्वर्ग कहीं भी नहीं है। पूर्ण अभय में जो प्रतिष्ठित है, वह स्वर्ग में है। पूर्ण भय में जो प्रतिष्ठित है, वह नरक में है।
और भयभीत होने के लिए सुगम उपाय तथाकथित धार्मिक लोगों ने खोज रखे हैं। सब चीजों से डरवा दिया है। स्वाद मत लेना भोजन करो तो। अगर भोजन किया और स्वाद लिया, तो नरक जाओगे। अस्वाद चाहिए। गांधी जी के व्रतों में एक है: अस्वाद। भोजन करना, लेकिन स्वाद मत लेना।
बड़े मजे की बात है। सिर्फ पशु हैं, जानवर हैं, जो भोजन करे और स्वाद न ले। मनुष्य के विकास का अनिवार्य हिस्सा है कि वह स्वाद भी ले सकता है। कोई पशु स्वाद नहीं ले सकता; सिर्फ चरता है, भोजन करता है। और जो लोग अस्वाद साधेंगे, वे अपने को पशु के तल पर नीचे उतारते हैं।
नहीं, अस्वाद नहीं साधा जा सकता है। अस्वाद आता है पूर्ण स्वाद के फलस्वरूप। अगर कोई व्यक्ति किसी चीज में पूरे स्वाद को ले सके, तो तृप्त हो जाए। वही तृप्ति अस्वाद बन जाती है। फिर स्वाद की आकांक्षा नहीं रह जाती। फिर स्वाद के पीछे दौड़ नहीं रह जाती। फिर स्वाद के पीछे तृष्णा नहीं रह जाती। फिर स्वाद के पीछे वासना नहीं रह जाती। जिसे हम जान लेते हैं, जिसे हम भोग लेते हैं, उससे हम मुक्त हो जाते हैं।
तो मैं आपसे कहूंगा, लेना पूर्ण स्वाद। अगर व्रत ही लेना हो, तो लेना पूर्ण स्वाद का कि स्वाद लूंगा तो स्वाद ही लूंगा और पूरा लूंगा। और जब स्वाद ले रहा होऊंगा, तो सब भूल जाऊंगा--जगत, दुकान, बाजार, ज्ञान, गीता, कुरान--सब भूल जाऊंगा। जब स्वाद लूंगा, तो अपनी जीभ पर ही आ जाऊंगा, सारी चेतना वहीं ले आऊंगा। सारी आत्मा स्वाद ले सके, तो आप स्वाद के बाहर हो गए।
अगर स्त्री आकर्षित करती हो, तो भागना मत; अगर पुरुष आकर्षित करता हो, तो पीठ मत दिखाना। असल में, युद्धों से भागे हुए लोगों को हम कोई सम्मान नहीं देते, लेकिन जीवन के युद्ध से भागे हुए लोगों को बहुत सम्मान देते हैं।
एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि एक महात्मा हैं, अब तो कहना चाहिए थे, रणछोड़दास जी। एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि आप एक संन्यासी को जानते हैं, रणछोड़दास जी को?
मैंने कहा: मैं जितने संन्यासियों को जानता हूं सभी रणछोड़दास जी हैं। रणछोड़दास का मतलब समझते हैं?...
(आगे का ध्वनि-मुद्रण उपलब्ध नहीं है।)