YOG/DHYAN/SADHANA

Main Kaun Hun 09

Ninth Discourse from the series of 11 discourses - Main Kaun Hun by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन!

एक मित्र ने पूछा है:

भगवान, क्या मनुष्य की श्रद्धा को तर्क से ललकारा जा सकता है?

श्रद्धा को तो किसी से भी नहीं ललकारा जा सकता। लेकिन जिसे हम श्रद्धा कहते हैं, वह श्रद्धा होती ही नहीं; वह होता है सिर्फ विश्वास। और विश्वास को किसी से भी ललकारा जा सकता है।
श्रद्धा और विश्वास के थोड़े से भेद को समझ लेना जरूरी है।
विश्वास है अज्ञान की घटना--जो नहीं जानते, उनकी मान्यता का नाम विश्वास है। श्रद्धा है ज्ञान की चरम परिणति--जो जानते हैं, उनके जानने में श्रद्धा है। उसे किसी भी भांति नहीं ललकारा जा सकता। लेकिन जिसे हम श्रद्धा कहते हैं, वह श्रद्धा नहीं है; वह विश्वास है, बिलीफ है।
और ध्यान रहे, जो विश्वास करता है, वह श्रद्धा तक कभी भी नहीं पहुंचता है। श्रद्धा तक पहुंचना हो, तो विश्वास में ही संदेह का सहारा लेना जरूरी है। श्रद्धा तक पहुंचना हो, तो अंधे होने की जगह आंख का खुला होना जरूरी है। श्रद्धा तक पहुंचना हो, तो कुछ भी मान लेने के बजाय, जो है, उसे खोजना जरूरी है।
हम सारे इतने कमजोर लोग हैं कि बिना खोजे मान लेते हैं। यह बिना खोजे जो हमने मान रखा है, इसे तो किसी भी भांति से तोड़ा जा सकता है। असल में, इसे तोड़ने की जरूरत ही नहीं, यह टूटा हुआ ही है। यह हम भी अपने भीतर जानते हैं कि हमारे विश्वास के नीचे कोई बुनियाद नहीं है, कोई आधार नहीं है। इसलिए विश्वास से भरा हुआ आदमी सदा भयभीत रहता है।
यह जिन मित्र ने पूछा है, वे भी विश्वास से ही भरे होंगे। इसलिए उन्हें डर है कि कहीं तर्क से उनका विश्वास ललकारा न जाए। तर्क ललकारेगा। तर्क बहुत कीमती है। और जिन्हें श्रद्धा तक पहुंचना है, उन्हें तर्क के मार्ग से गुजरना ही पड़ता है। असल में, श्रद्धा तब आती है जब सब तर्क हार कर गिर जाते हैं। और विश्वास तब आता है, जब तर्क किया ही नहीं गया हो।
जिसने तर्क किया ही नहीं है, वह विश्र्वासी होता है। और जिसने सब तर्क किए और पाया कि सब तर्क गिर गए, वह श्रद्धा को उपलब्ध होता है। श्रद्धा तर्कों की मृत्यु पर खड़ी होती है और विश्वास तर्क से बच कर आड़ में छिप कर खड़े होते हैं। विश्वास अंधेरे की चीजें हैं, श्रद्धा पूर्ण प्रकाश की घटना है। श्रद्धा को लेकिन हम विश्वास समझ कर बड़ी आसानी से जी लेते हैं।
ईश्र्वर का हमें कोई पता नहीं, लेकिन हम मानते हैं कि ईश्र्वर है। यह भी हो सकता है कि ईश्र्वर का हमें कोई पता नहीं और हममें से कोई मानता हो कि ईश्र्वर नहीं है। ये दोनों ही विश्वास हैं। आस्तिक भी विश्र्वासी है और नास्तिक भी विश्र्वासी है। उनके विश्वास विपरीत हैं, यह बात दूसरी है, लेकिन दोनों विश्वास हैं, दोनों बिलीफ्स हैं। विश्वास का लक्षण यही है कि जो हमें पता नहीं है, उसके संबंध में भी हम कुछ मान लेते हैं। यदि पता नहीं है ईश्र्वर के होने का, तो आस्तिक भी विश्र्वासी है और नास्तिक भी विश्र्वासी है।
धार्मिक आदमी इन दोनों से भिन्न होता है। धार्मिक आदमी का मतलब आस्तिक नहीं होता। धार्मिक आदमी का मतलब होता है वह जिसने जाना। और जो जान लेता है, वह हां और न में उत्तर देने में असमर्थ हो जाता है। क्योंकि जो वह जानता है उसमें हां और न दोनों ही एक साथ सम्मिलित होते हैं। वह जो जानता है उसमें निषेध और विधेय दोनों एक साथ उपस्थित होते हैं। वह जो जानता है उसमें जीवन और मृत्यु, अंधेरा और प्रकाश एक के ही रूप हो जाते हैं। उसमें अस्तित्व और अनस्तित्व एक ही सत्य के दो पहलू होकर रह जाते हैं।
श्रद्धा को तो ललकारने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि जब सब ललकार खो जाती है, तभी श्रद्धा आती है। लेकिन ऐसी श्रद्धा शायद कभी करोड़, दो करोड़, दस करोड़ में एक आदमी के पास होती है। बाकी लोगों के पास सिर्फ विश्वास होते हैं। और सब विश्वास बेमानी हैं। और सब विश्वास श्रद्धा से रोकने वाले हैं। विश्वास का मतलब यह है कि मंजिल पर पहुंचने के पहले हमने मान लिया कि मंजिल आ गई। और जो आदमी मंजिल पर पहुंचने के पहले मान ले कि मंजिल आ गई, उसकी यात्रा रुक जाए तो आश्र्चर्य तो नहीं! जब मंजिल आ ही गई, तो बात खत्म हो गई।
आस्तिक इसी भांति रुका हुआ है, ईश्र्वर को उसने मान ही लिया है, जानने की कोई जरूरत नहीं रह गई। नास्तिक भी इसी भांति रुका हुआ है, उसने भी मान लिया है कि नहीं है, और जो नहीं है उसे खोजने की क्या जरूरत?
धार्मिक आदमी मान कर नहीं जीता, धार्मिक आदमी बहुत विद्रोही आदमी है, बहुत रिबेलियस है। धार्मिक आदमी कहता है, जो मैं नहीं जानता, उसके संबंध में मैं कुछ भी न कहूंगा। और जो मैं नहीं जानता, उसे जानने की कोशिश करूंगा। और जब तक नहीं जान लेता हूं तब तक मेरा कोई विश्वास नहीं है। धार्मिक आदमी मूलतः एग्नास्टिक होता है। धार्मिक आदमी मूलतः दावेदार नहीं होता, रहस्यवादी होता है। वह कहता है, जो मुझे मालूम नहीं, उसे मालूम करने की कोशिश करूंगा, जानने की कोशिश करूंगा। और जिस दिन वह जान लेता है, उस दिन बड़ी कठिनाई में पड़ता है।
बुद्ध एक दिन सुबह एक गांव में प्रवेश किए हैं और एक आदमी ने आकर बुद्ध से पूछा कि मैं आस्तिक हूं, ईश्र्वर पर मेरा भरोसा है। मैं आपसे भी पूछना चाहता हूं, ईश्र्वर है?
बुद्ध ने उस आदमी को नीचे से ऊपर तक देखा और कहा: ईश्र्वर? ईश्र्वर कहीं भी नहीं है। किस भ्रमजाल में पड़े हो?
उस आदमी की जैसे किसी ने जड़ें हिला दीं, वह आदमी कंप गया।
बुद्ध आगे बढ़े। दोपहर एक दूसरा आदमी उसी गांव में उनसे मिलने आया और उसने कहा कि मैं नास्तिक हूं और नहीं मानता कि ईश्र्वर है। आपका क्या खयाल है?
बुद्ध ने कहा: ईश्र्वर को नहीं मानते? पागल तो नहीं हो गए हो? उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है, वही है।
वह आदमी भी सुबह वाले आदमी जैसा कंप गया।
लेकिन बुद्ध के साथ एक भिक्षु था आनंद। वह बहुत मुसीबत में पड़ गया। उसने दोनों उत्तर सुन लिए। अब वह प्रतीक्षा करने लगा कि कब सांझ हो, कब एकांत मिले, मैं बुद्ध को पूछूं कि तुमने क्या किया? सुबह कहा नहीं, दोपहर कहा हां। लेकिन इसके पहले कि रात हो एक आदमी और आया सांझ को और बुद्ध से कहने लगा कि मुझे कुछ भी पता नहीं है कि ईश्र्वर है या नहीं। आप कुछ कहेंगे?
बुद्ध चुप ही रह गए। उस आदमी ने दो-चार बार कहा कि कुछ कहो, लेकिन बुद्ध ने आंखें बंद कर लीं और वे चुप ही बैठे रहे।
आनंद और मुसीबत में पड़ गया कि दिन में तो उत्तर दिए, सांझ उत्तर भी नहीं दिया। रात जब बुद्ध सोने लगे, तो आनंद ने कहा: पहले सोओ मत, अन्यथा मेरी रात भर की नींद हराम हो जाएगी। पहले मुझे बता दो कि असलियत क्या है?
बुद्ध ने कहा: कौन सी असलियत?
आनंद ने कहा: सुबह एक आदमी को एक उत्तर, दोपहर दूसरा उत्तर, सांझ तीसरा उत्तर। मैं मुसीबत में पड़ गया हूं।
बुद्ध ने कहा: वे उत्तर तुम्हें तो नहीं दिए गए थे। तुमने सुने क्यों? जिसे दिए गए थे, उसके लिए थे।
आनंद ने कहा: और आप मुश्किल करते हैं मेरी! मैं साथ था, मुझे सुनाई पड़ गए हैं और मैं मुसीबत में पड़ गया हूं।
बुद्ध ने कहा: मैंने तीनों को एक ही उत्तर दिया है। और वह यह कि तुम मुझसे सुन कर अगर कोई विश्वास लेने आए हो, तो मैं तुम्हें विश्वास देने वाला नहीं हूं। बुद्ध ने कहा: मैंने तीनों को एक ही उत्तर दिया है। और वह यह कि अगर तुम मेरे आधार पर ऑथेरिटी, कोई प्रमाण, कोई आप्त आदमी के आधार पर कोई विश्वास बनाने आए हो, तो मैं तुम्हें विश्वास न बनाने दूंगा। क्योंकि जो विश्वास बना लेता है, उसकी यात्रा बंद हो जाती है, वह सत्य तक कभी भी नहीं पहुंच पाता।
और हम सब विश्वास बनाए हुए लोग हैं। हम शास्त्रों में से विश्वास खोज लेते हैं, गुरुओं में से विश्वास खोज लेते हैं। हम चौबीस घंटे इस तलाश में हैं कि कोई ऐसा विश्वास मिल जाए जिसके सहारे हम जी लें। हमें सत्य की कोई चिंता नहीं। हमें सहारों की चिंता है। हमें सत्य से कोई संबंध नहीं। हमें सांत्वना चाहिए। हमें सत्य की कोई खोज नहीं। हमें संतोष चाहिए।
संतोषी आदमी संतोष की तलाश में विश्र्वासों को घेर कर जी लेता है। विश्वास की कोई जड़ नहीं, कोई आधार नहीं, कोई बुनियाद नहीं; विश्वास सिर्फ हमारे भय के आधार पर खड़े होते हैं। हम भयभीत हैं और अपने अज्ञान को स्वीकार करने की सामर्थ्य भी हममें नहीं है। हम इतने कमजोर हैं कि हम यह भी नहीं कह सकते कि हमें ज्ञात नहीं है, हमें पता नहीं है। हम अज्ञानी हैं, इसको स्वीकार करने के लिए भी बहुत हिम्मत की जरूरत है। इतनी हिम्मत हममें नहीं है। इसलिए हम कोई भी विश्वास पकड़ लेते हैं और ज्ञानी बन जाते हैं। बिना जाने जानने का मजा आ जाता है। दावेदार हो जाते हैं और समझ लेते हैं कि पहुंच गए। ऐसे पहुंच गए की भ्रांति में पड़े हुए लोग विश्र्वासी हैं। इन विश्र्वासियों को तो सब तरह से हिला देने की जरूरत है, ताकि इनकी यात्रा शुरू हो जाए, ताकि ये खोज पर निकल जाएं।
तो मैं आपसे कहूंगा, श्रद्धा को तो तर्क की कोई चुनौती नहीं पहुंचती, क्योंकि श्रद्धा आती ही तब है जब तर्कों की चुनौती के पार आदमी चला जाता है। लेकिन विश्र्वासों को, बिलीफ्स को सब तर्क हिला देते हैं। इसलिए विश्र्वासी कान बंद करके जीता है कि कोई तर्क सुनाई न पड़ जाए। इसलिए विश्र्वासियों के जहां मंडल हैं और दुकानें हैं, वहां उनको समझाया जाता है कि विरोधी की बात मत सुनना, तर्क की बात मत सुनना, कान बंद कर लेना कि कहीं कोई तर्क भीतर जाकर विश्वास को नष्ट न कर दे। लेकिन ऐसे विश्वास की कीमत कितनी है जो एक तर्क से नष्ट हो जाता है। ऐसा विश्वास तर्क से भी कमजोर है। ऐसे विश्वास का कोई भी मूल्य नहीं है।
श्रद्धा का जरूर मूल्य है। लेकिन ध्यान रहे, श्रद्धा का मतलब ही कुछ और है। श्रद्धा का मतलब है: जानने से जो दृढ़ता आती है, जानने से जो मजबूती आती है, जान लेने से जो पैर जमीन पर खड़े हो जाते हैं, जान लेने से जो हिम्मत और साहस आता है, जान लेने से जो आधार और बुनियाद मिल जाती है। अब एक अंधा आदमी हो, वह प्रकाश पर विश्वास कर सकता है, श्रद्धा नहीं कर सकता। अंधा आदमी प्रकाश पर विश्वास कर सकता है, श्रद्धा नहीं कर सकता। असल में, अंधा आदमी श्रद्धा करेगा भी कैसे? एक आंख वाले आदमी को प्रकाश पर श्रद्धा होती है, विश्वास नहीं। इन दोनों में इतना ही फर्क है। जो जानता है, उसका मानना बहुत और है--वह मानना नहीं है, वह जानना ही है। और जो बिना जाने मानता है, वह जानना नहीं है, सिर्फ मानना है। अंधेरे में मानी गई बातों की कोई कीमत नहीं है।
यह हमारा देश हजारों साल से इसी तरह के विश्र्वासों से भरा हुआ है। इन विश्र्वासों के कारण हम अंधे से अंधे होते चले गए। और इन विश्र्वासों के कारण हमने आंख खोल कर देखना भी बंद कर दिया कि कहीं कोई विपरीत सत्य न दिखाई पड़ जाए। कहीं ऐसा न हो कि कुछ ऐसा दिखाई पड़ जाए जो हमारे शास्त्र में न हो, तो बड़ी मुश्किल हो जाए। इसलिए हमने विज्ञान की खोज नहीं की। क्योंकि विश्र्वासी लोग विज्ञान की खोज नहीं कर सकते।
विज्ञान की खोज यह बात मान कर चलती है कि संदेह का मूल्य है। विज्ञान की खोज का मौलिक प्रारंभ यही है कि हम संदेह करने में समर्थ हैं। हम संदेह नहीं कर सके, इसलिए विज्ञान की खोज नहीं कर सके। हम विश्वास करके जड़ होकर बैठ गए और एक स्टैग्नेंट, एक अवरुद्ध समाज, एक मृत समाज हमने पैदा कर लिया है। और बहुत डर इस बात का है कि हम इतने हजारों साल के विश्र्वासी लोग हैं कि अगर हम बदलें, तो कहीं ऐसा न हो कि विपरीत विश्वास को पकड़ लें। नक्सलाइट विपरीत विश्र्वासी है। वह कोई संदेह करने वाला व्यक्ति नहीं है। वह गीता को छोड़ देता है, तो कैपिटल को मार्क्स की पकड़ लेता है। और महावीर को छोड़ता है, तो मार्क्स के पैर पकड़ लेता है। हम विश्र्वासी कौम हैं। और खतरा यह है कि इतने परेशान हो गए हैं पुराने विश्वास से कि इस बात का डर है कि कहीं हम नये विश्वास न पकड़ लें!
और ध्यान रहे, पुराने विश्वासों से भी खतरनाक होते हैं नये विश्वास। क्योंकि जब तक वे इतने पुराने न हो जाएं, तब तक उनसे छूटने का फिर उपाय नहीं होता। वहां रूस में भी यही हुआ। रूस एक विश्र्वासी कौम है और उन्नीस सौ सत्रह तक उसने अंधे की तरह ईसाइयत पर विश्वास किया था। फिर वह अंधापन बदला। आंख नहीं खुली, सिर्फ अंधेपन ने शक्ल बदल ली। और जहां मस्जिद और मंदिर और जीसस का चर्च था, वहां क्रेमलिन के लाल सितारे आ गए। और जहां जीसस और उनके अपॉसल्स थे--ल्यूक थे और सेंट जॉन थे, वहां स्टैलिन और लेनिन और मार्क्स बैठ गए। फर्क कुछ भी न हुआ। देवता बदल गए। और ध्यान रहे, नये देवता खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि उनको मारने में, उनसे छुटकारा पाने में फिर हजारों साल लगते हैं। तब उनसे छुटकारा हो पाता है।
हमारे देश के सामने भी वही सवाल है। हम विश्र्वासी कौम हैं, यह हमारा सबसे खतरनाक लक्षण है। इसमें खतरा यही है कि किसी दिन हम विश्वास बदलें, तो कहीं ऐसा न हो कि हम कोई दूसरा विश्वास पकड़ लें। इसलिए हमें अब बहुत सचेत हो जाना चाहिए विश्वास से और समझ लेना चाहिए कि बिना जाने जो भी पकड़ा जाएगा, वह नुकसान पहुंचाता है। बड़ा नुकसान तो यह पहुंचाता है कि हमारे सत्य की जिज्ञासा अवरुद्ध हो जाती है। बड़ा नुकसान यह पहुंचाता है कि हमारी पूछने की क्षमता क्षीण हो जाती है। फिर हम प्रश्न नहीं उठा पाते। और बड़ा नुकसान यह पहुंचाता है कि सत्य की जो रोज दैनंदिन खोज है, वह समाप्त हो जाती है। जब कि खोज रोज जारी रहे तो ही जीवन जारी रहता है। जैसे नदी बहती रहे तो ही सागर तक पहुंचती है, कोई तालाब सागर तक नहीं पहुंचता। तालाब बड़ा विश्र्वासी है, वह जहां रुका है उसी को सागर समझ लेता है, फिर जाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। नदी बड़ी संदेहग्रस्त है। वह भागती है, खोजती है, खोजती है, पुकारती है, दौड़ती है, तोड़ती है मार्गों को, अनजान-अपरिचित रास्तों पर भटकती है और सागर तक पहुंचती है। और जब तक नहीं पहुंच जाती, तब तक मानती नहीं।
मैं उस व्यक्ति को धार्मिक कहता हूं, जिसका चित्त नदी की भांति है, जो खोज पर निकला है। उस आदमी को मैं मुर्दा कहता हूं--और मुर्दा आदमी धार्मिक नहीं हो सकता--जो तालाब की तरह बंद होकर बैठ गया है और जिसने समझा कि सब पा लिया गया है, सब विश्वास कर लिया गया है, अब और कुछ खोजने को नहीं है।

उन्हीं मित्र ने एक सवाल और पूछा है:

उन्होंने पूछा है कि सनातन सत्यों का खंडन करने से क्या लाभ हो सकता है? उन्होंने पूछा है: आज का नया विचार भी कल पुराना हो जाएगा, तो फिर पुराने विचार छोड़ने से फायदा भी क्या है?

पहली तो बात यह है कि जो सत्य सनातन है, उसे आज तक कभी शब्दों में प्रकट नहीं किया गया है। और जो भी शब्दों में प्रकट हो जाता है, वह सामयिक हो जाता है, सनातन नहीं रह जाता। जो इटर्नल है, वह जो शाश्र्वत है, वह शब्द के प्रकट होने के बाहर है। और जो भी हम प्रकट करते हैं भाषा में, शब्द में, वह सामयिक हो जाता है, युगीन हो जाता है, वह शाश्वत नहीं रह जाता।
वेद भी, बाइबिल भी, गीता भी, कुरान भी, मैं जो कह रहा हूं वह और भविष्य में भी कोई आदमी जो कुछ कहेगा वह, वह सभी युगीन सत्य हैं, शाश्वत नहीं। निश्र्चित ही, जिन्होंने युगीन सत्य कहे हैं उन्होंने सनातन सत्य को जाना है; लेकिन जो जाना जाता है वह कहा नहीं जा पाता है, कहते ही युगीन हो जाता है। जो जाना जाता है वह कुछ और है और जो कहा जाता है वह कुछ और है।
रवींद्रनाथ मर रहे थे, मरणशय्या पर थे। और एक बूढ़े मित्र ने जाकर उनको कहा कि आप तो आनंदित हों, अनुगृहीत हों, परमात्मा को धन्यवाद दें कि आपको जो गाना था वह आपने गा लिया, जो कहना था वह कह दिया। रवींद्रनाथ ने छह हजार गीत लिखे हैं। उस आदमी ने कहा कि इतने ज्यादा गीत किसी आदमी ने कभी नहीं लिखे, पूरी पृथ्वी पर नहीं लिखे। शेली को जिसे यूरोप में महाकवि कहते हैं, उसके भी दो हजार गीत ही हैं। आपने छह हजार गीत लिखे हैं। सब गीत संगीत में बांधे जा सकते हैं, ऐसे गीत हैं। आप महाकवि हैं। जब वह यह कह रहा था, तब उसने सोचा कि मैं बड़ी प्रशंसा कर रहा हूं, लेकिन जब रवींद्रनाथ की तरफ देखा, तो बहुत हैरान हो गया, उनकी आंख से आंसू झर रहे थे।
रवींद्रनाथ ने कहा: मत कहो, ये बातें मत कहो। क्योंकि मैं जो गाना चाहता था, वह अभी तक गा ही नहीं पाया। अभी तो सिर्फ साज बिठा पाया। अभी संगीत कहां बजा! अभी तो सिर्फ ताल ठोक-पीट कर कुछ बिठाए थे तार। अभी गा कहां पाया! और यह तो विदा का क्षण आ गया! और अंत में उन्होंने कहा कि मैं जानता हूं कि मुझे अनंत समय मिले तब भी मैं उसे न गा पाऊंगा जिसे मैं भीतर अनुभव करता हूं। क्योंकि जब भी मैने कुछ अनुभव किया और गाया, गाते से ही पता लगा कि जो अनुभव किया था, वह शब्द में जाते ही कुछ और हो गया है।
कोई सनातन सत्य मनुष्य की भाषा में आज तक उतर नहीं सका है। कभी भी उतर नहीं सकेगा। सनातन का अर्थ ही यह है, शाश्र्वत का अर्थ ही यह है कि हम उसे जान सकते हैं लेकिन कह नहीं सकते। कहना सामयिक हो जाता है। सब भाषा समय की भाषा है। सब प्रतीक समय के प्रतीक हैं। सब कहना समय का कहना है।
तो सनातन सत्य कहीं भी नहीं हैं, जिनको आप पकड़ कर बैठ जाएं। सनातन सत्य जरूर है, जिसे अगर पाना हो, तो शब्दों की पकड़ छोड़ देनी पड़ती है। जिसे भी सनातन सत्य तक जाना है, उसे और सभी सत्यों से, शास्त्रीय सत्यों से छुटकारा पाना होगा। शास्त्रीय सत्यों में उलझा हुआ आदमी कभी भी सनातन सत्य को उपलब्ध नहीं होता। शब्दों और सिद्धांतों में उलझा हुआ चित्त इतना निर्विकार नहीं हो पाता कि उस निराकार को जान ले। शब्दों का भी अपना आकार है, हर शब्द का अपना आकार है। और जो चित्त शब्दों से भरा है, वह कभी आकार के ऊपर नहीं उठ पाता।
शायद आपको पता न हो कि हर शब्द की अपनी एक छवि है। अगर आप एक पतले से कागज पर रेत के बहुत बारीक कण बिछा दें और नीचे से शब्द करें, नीचे से कहें, राम--तो उस पतले कागज पर एक खास तरह का पैटर्न लहरों की, एक खास तरह की जाली उस रेत में बन जाएगी। आप नीचे से कहें, अल्लाह--तो दूसरी तरह की जाली बनेगी। आप नीचे से कहें, ओम--तो दूसरी तरह की जाली बनेगी। वे जो रेत के कण हैं, तत्काल एक पैटर्न, एक ढांचे में बंट जाएंगे। हर शब्द की अपनी ध्वनि है। हर शब्द का अपना रूप है। हर शब्द का अपना आकार है। हर शब्द का अपना रंग भी है। और हर शब्द हमारे भीतर जगह को घेरता है। जितने ज्यादा शब्द भीतर हों--चाहे वे कितने ही पुनीत शास्त्रों से आए हों, और चाहे कितने ही पवित्र ग्रंथों से लिए गए हों--उनके कारण भीतर निराकार का दर्शन नहीं हो पाता। और वह जो सनातन है, वह निराकार है।
सब शब्द छोड़ कर जो शून्य में प्रवेश करता है, वही केवल सनातन सत्य को जान पाता है।
लेकिन जिसे हम शून्य में जानते हैं, उसे अगर हम शब्द में कहने जाएंगे, तो विकृति होनी अनिवार्य है। यह ऐसा ही है, जैसे कि समझें, आप मेरे घर आएं और मैं वीणा पर कुछ बजाऊं और आप सुन कर लौटें, और आप ऐसे लोगों के पास पहुंच जाएं जो बहरे हों, और आप उनसे कहें कि वीणा बहुत आनंदपूर्ण थी, बहुत रस आया, संगीत था बहुत, ध्वनि थी बहुत सुंदर, प्राण खिल गए, फूल खिल गए। वे कुछ भी न सुनें। वे आपसे कहें कि आप चित्र बना कर बता दो, तो थोड़ा हम समझ पाएंगे। बहरे लोग। उनके पास आंखें हैं। मैंने जो आपसे संगीत में बजाया, अगर आप कागज पर चित्र बना कर बताएं, तो जो हालत हो जाए वही हालत जिसे हम शून्य में जानते हैं उसे शब्द में कहने में हो जाती है। माध्यम बदल जाते हैं।
इसलिए कोई भी सनातन सत्य आज तक नहीं कहा गया। कहने की बहुत बार कोशिश की गई है। कम्युनिकेट करने के बहुत प्रयास किए गए हैं, लेकिन सनातन सत्य नहीं कहा गया। और जिन्होंने भी कहा है, उन्होंने भी यह साथ में कहा है कि जो कहना था वह शब्दों में नहीं कहा जा रहा है। जो कहना था वह प्रवचन से उपलब्ध नहीं हो सकता है। न प्रवचनेन लभ्य! वह नहीं मिलेगा उपदेश से, नहीं मिलेगा शब्द से।
लाओत्सु ने जिंदगी भर कोई किताब नहीं लिखी। क्योंकि जब भी लोगों ने कहा कि जो तुमने जाना है वह लिख दो। तो उसने कहा: जो मैंने जाना है उसे जब लिखने जाता हूं तो नहीं लिखा जाता और जो लिखा जाता है वह मैंने जाना नहीं है। इस झंझट में मैं न पडूंगा। अंत समय में लोग नहीं माने। लाओत्सु देश छोड़ कर पहाड़ की तरफ जा रहा था, तो देश के सम्राट ने लाओत्सु को चुंगी नाके पर पकड़वा लिया और उससे कहा कि जब तक लिख कर न जाओगे तब तक हम जाने न देंगे।
मजबूरी में लाओत्सु ने एक छोटी सी किताब लिखी। किताब का नाम है: ताओ तेह किंग। उस छोटी सी किताब में थोड़ी सी बातें लिखी हैं। और उन थोड़ी सी बातों में भी सर्वाधिक बार-बार जो बात लिखी है वह यह है कि जो मैं कह रहा हूं उस पर विश्वास मत कर लेना, क्योंकि जो मैंने जाना वह कुछ और है। जो पहली बात उस किताब में लिखी है वह यह लिखी है कि सत्य कहा नहीं जाता और जो कहा जा सकता है वह कहने के साथ ही सत्य नहीं रह जाता।
सनातन सत्य अगर आपके हाथ में होते, तब तो उन्हें छोड़ने की कोई जरूरत न थी। आपके हाथ में सनातन सत्यों के नाम पर केवल सामयिक सत्य हैं। वे हो सकते हैं कि कोई दो हजार साल पहले के समय के हों, कोई पांच हजार साल पहले के समय के हों, कोई और दस हजार साल पहले के समय के हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन किसी समय की धारा में प्रकट हुए शब्दों का हमारे पास संग्रह है। चाहे उसका नाम हम कुछ भी देते हों--चाहे हम वेद कहें, चाहे बाइबिल कहें, चाहे गीता, चाहे कुरान, हम कोई भी नाम दें। हमारे पास समय-शून्य से उतरी हुई समय की धारा में जो शब्दों की भाषा में झलक आई है, आकृति आई है, वही हमारे पास है। यह ऐसा ही है जैसे कि मैं किसी नदी के किनारे खड़ा हो जाऊं और पानी के दर्पण में मेरा चित्र बने और उस चित्र को, पानी में बने हुए प्रतिबिंब को कोई मुझे समझ ले कि मैं हूं और उसी को पकड़ कर बैठ जाए।
समय के बाहर, बियांड टाइम जो सत्य हैं, उनका समय की धारा में प्रतिबिंब बनता है। हम उन्हीं प्रतिबिंबों को पकड़ लेते हैं। उन प्रतिबिंबों को पकड़ कर हजारों वर्ष तक बैठे रह जाते हैं। हाथ में कुछ नहीं रह जाता। सिर्फ पानी की लहरें होती हैं, कोई प्रतिबिंब नहीं होता। उन्हीं प्रतिबिंबों को पकड़ कर यदि कोई सोचता हो कि हमारे पास तो पुराने सत्य हैं हम नये की खोज क्यों करें, तो उससे ज्यादा गहरी भ्रांति में और कोई न पड़ेगा। उससे ज्यादा गहरे असत्य में और कोई न पड़ेगा। असत्य में पड़ने की सबसे सरल तरकीब एक है और वह यह है कि यह मान लेना कि सत्य हमारे पास सनातन परंपरा से चले ही आ रहे हैं, हम उन्हीं को पकड़ कर जी लेंगे, खोज की कोई भी जरूरत नहीं है।
ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति को, जिसने सत्य को जाना है, उसे पुनः-पुनः खोजना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति को सत्य निजी तौर से खोजना पड़ता है। सत्य की कोई परंपरा और ट्रेडीशन नहीं होती। सत्य की कोई बपौती और वसीयत नहीं होती। सत्य कोई हेरिटेज में नहीं मिलता है कि बाप मरे और बेटे को लिख जाए कि मेरे सत्यों की मालकियत अब तेरे हाथ है। धन मिल सकता है बाप से, क्योंकि धन आदमी की बनाई हुई व्यवस्था है। मकान मिल सकता है बाप से, क्योंकि मकान आदमी का बनाया हुआ इंतजाम है। सत्य नहीं मिलते बाप से, क्योंकि सत्य आदमी का बनाया हुआ इंतजाम नहीं है। सत्य प्रत्येक को स्वयं ही पाने होते हैं।
इसलिए जब मैं यह कह रहा हूं कि खोज करें सत्य की, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप कोई नया सत्य खोज लेंगे। खोजेंगे तो आप वही, जो सदा से है। जो कृष्ण ने खोजा होगा, जो क्राइस्ट ने खोजा होगा, जिसके दर्शन मोहम्मद को हुए होंगे, जिसे जरथुस्त्र ने झांका होगा, वही झांकेंगे आप। लेकिन जब झांकेंगे, तो सदा अपनी निजी खिड़की से ही झांकना पड़ेगा। मोहम्मद की खिड़की पर खड़े होकर झांकने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए मुसलमान होना बेमानी है। कृष्ण की खिड़की से खड़े होकर झांकने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए हिंदू होना नासमझी है। महावीर की खिड़की पर खड़े होकर झांकने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए जैन होने से कोई तृप्त हो जाए तो नासमझ है।
सत्य अपने ही खोजने पड़ेंगे। सत्य तो वही है, लेकिन हर बार अपनी ही आंख से उसे जांचना पड़ता है। अपनी ही आंख खोल कर उसे पहचानना पड़ता है। न हम दूसरे की जिंदगी जी सकते हैं, न दूसरे की मृत्यु मर सकते हैं और न हम दूसरे के सत्यों को जान सकते हैं।
निश्र्चित ही, जब हम भी जानते हैं, तो हमें पता चलता है कि यही तो औरों ने भी जाना। लेकिन इसके पहले यह भी पता नहीं चलता। जिस दिन आप जानेंगे, उस दिन आप कह सकेंगे कि ठीक है, किसी ने भी जो जाना होगा वही मैंने भी जाना। लेकिन इससे उलटा नहीं कह सकते कि जब किसी और ने जान लिया तो मुझे जानने की क्या जरूरत, मैं उसी को मान लूंगा और जान लूंगा। ऐसा नहीं हो सकता। शास्त्र आपकी गवाही बन जाएंगे। जिस दिन आप जानेंगे, उस दिन सारी दुनिया के शास्त्र गवाही देंगे कि ठीक पहुंच गए। उस दिन आप शास्त्रों को समझ पाएंगे कि मैं भी वहीं खड़ा हूं जहां इस शास्त्र को कहने वाला खड़ा रहा हो। लेकिन उसके पहले कोई भी उपाय नहीं है। उसके पहले शास्त्रों से कुछ भी मिल नहीं सकता है।
मैं आपसे पुराने सत्य छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। सत्य न तो पुराना होता है और न नया होता है। सिर्फ असत्य पुराने होते हैं और असत्य नये होते हैं। सत्य तो सदा होता है, पुराने-नये का कोई संबंध नहीं है। लेकिन जो सदा होता है, उसे सदा, सदैव स्वयं ही जानना पड़ता है। सत्य एक निजी अनुभव है। अत्यंत निजी अनुभव है। जैसे प्रेम एक निजी अनुभव है। फिर भी प्रेम में तो दो की जगह होती है, सत्य में दो की भी जगह नहीं होती। सत्य में आप निपट अकेले रह जाते हैं, एकाकी रह जाते हैं। आपके पिता ने भी प्रेम जाना होगा, उनके पिता ने भी प्रेम जाना होगा, मेरे पिता ने भी प्रेम जाना, परंपराओं से लोग प्रेम जान रहे हैं, लेकिन उन सबके प्रेम जानने की वजह से आप यह न कहेंगे कि जब इतने लोग प्रेम जान चुके, तो मैं प्रेम किसलिए जानूं? मैं लैला-मजनू की किताब पढ़ लूंगा। मैं शीरी-फरिहाद को छाती से बांध कर रख लूंगा। मैं प्रेम को क्यों जानने जाऊं? जब सारे लोग जान चुके सनातन सत्य, तो अब मुझे जानने की क्या जरूरत है? लेकिन शीरी-फरिहाद को घोल कर भी पी जाएं, तो भी प्रेम का कोई पता नहीं चलेगा। प्रेम को फिर से जानना पड़ेगा। प्रत्येक व्यक्ति को जानना पड़ेगा।
सत्य भी प्रेम जैसा है। थोड़ा सा फर्क है। प्रेम को जानने में फिर भी दो व्यक्ति होते हैं। वह निजता भी दो की है। प्रेम दो के बीच एक बहाव है। सत्य और भी अकेला है, वह दो के बीच बहाव नहीं है, सत्य एक का ही बहाव है, एक का नितांत अकेलापन है। वह टोटल अलोन, टोटली अलोन, एकदम अकेला जब कोई रह जाता है शून्य में, तब वह जिसे जानता है वह सत्य है, वह सनातन है। उस सनातन सत्य के लिए ही मैं कह रहा हूं। मैं किसी नये सत्य के लिए नहीं कह रहा हूं और इसलिए किसी पुराने सत्य के खिलाफ नहीं कह रहा हूं। मैं सनातन सत्य के लिए ही कह रहा हूं। उस सनातन सत्य के खिलाफ वे ही सत्य खड़े हो गए हैं जो कभी उस सनातन सत्य से ही आए हैं। कभी उस सनातन सत्य के अनुभव से ही जो शब्द निकले थे उनको ही हम पकड़ कर बैठ गए हैं। और अब हम शब्दों में ही जी रहे हैं।
शायद आदमी की जिंदगी में भटकाव का जो सबसे बड़ा मार्ग हो सकता है वह शब्द है। और शब्द इस भांति भटका सकते हैं कि हम यह भूल ही जाएं कि शब्दों के बाहर भी कोई जगत है। हम शब्दों में ही जीते, उठते, बैठते, खाते, पीते हैं। हमारे चारों तरफ शब्दों की एक भारी दीवाल है। हम उसके पार कभी नहीं उठ पाते। हम उस दीवाल को कभी पार नहीं कर पाते। हर आदमी शब्दों की एक गहरी पर्त में दबा हुआ जीता है और मर जाता है।
इन शब्दों से थोड़ा ऊपर उठना पड़ेगा। क्योंकि जो है, वहां कोई शब्द नहीं, वहां शांति है। जो है, वहां कोई सिद्धांत नहीं, वहां परम जीवन है। लेकिन हमारी कठिनाई यह है, हमारी कठिनाई यह है कि हम शब्दों में बात करते हैं, शब्दों में संवाद करते हैं। मजबूरी है। इसके सिवा कोई उपाय भी नहीं है। लेकिन यह शब्दों में बात करते-करते, करते-करते शब्द ही शब्द हमारे पास रह जाते हैं। और हम एक कंप्यूटर हो जाते हैं, जिसके पास शब्द ही शब्द हैं और भीतर कुछ भी नहीं रह जाता है।
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप शब्दों को छोड़ कर गूंगे हो जाएं। मैं कह सिर्फ इतना रहा हूं कि शब्दों के बाहर भी आपके अस्तित्व का कोई द्वार खुला रहे, उसी द्वार से सनातन उतरता है, उसी द्वार से सत्य उतरता है। और जिस दिन सत्य उस द्वार से आता है, उस दिन आप भी भलीभांति जानते हैं कि इसे शब्दों में कहने का कोई भी उपाय नहीं है।
सुना है मैंने कि फरीद तीर्थयात्रा पर निकला है। और निकलता है कबीर के आश्रम के पास से। तो फरीद के साथी उससे कहते हैं कि हम कबीर के आश्रम में रुक जाएं दो दिन। आप दोनों की बातें होंगी, तो हमें सुन कर बड़ा आनंद होगा। फरीद कहता है कि रुकेंगे जरूर, शायद बातें भी हों, लेकिन तुम सुन न पाओगे। वे फरीद के प्रेमी कुछ समझ नहीं पाते, वे सोचते हैं, जब बातें होंगी तो हम जरूर ही सुन पाएंगे। और जब कबीर के आश्रम में खबर पहुंचती है कि फरीद गुजर रहा है यहां से, तो कबीर के भक्त और प्रेमी उनसे कहते हैं, हम फरीद को रोक लें, दो-चार दिन वे यहां विश्राम करें, आप दोनों की बातें होंगी तो हमारे लिए तो स्वर्ग का द्वार खुल जाएगा। कबीर कहते हैं, बातें? जो बोलेगा, वह नासमझ होगा।
फिर फरीद आता है, कबीर के आश्रम में रुकता है। वे गले मिलते हैं, वे हंसते भी हैं, वे रोते भी हैं, वे पास भी बैठते हैं घंटों, लेकिन कुछ बात नहीं होती। फिर दो दिन गुजर जाते हैं। और भक्तों पर जैसी मुसीबत गुजरी होगी, वह हम समझ सकते हैं। वे बेचारे बैठे हैं प्रतीक्षा में...प्रतीक्षा में...प्रतीक्षा में...घंटे लंबे मालूम होने लगे, घड़ियां गुजरना मुश्किल हो गईं, वे फरीद और कबीर बोलते नहीं। कभी एक-दूसरे की तरफ देख कर हंसते हैं, कभी एक-दूसरे की तरफ देख कर रोते हैं, कभी एक-दूसरे को गले मिल जाते हैं, कभी एक-दूसरे का हाथ हाथ में ले लेते हैं, लेकिन चुप्पी है कि नहीं टूटती, शब्द है कि नहीं फूटता। फिर दो दिन भी गुजर गए। फिर विदा भी हो गई।
विदा होते ही कबीर के शिष्यों ने कबीर को पकड़ा और कहा कि यह क्या किया? दो दिन हमारी मुसीबत कर दी! बोले क्यों नहीं?
कबीर ने कहा: अगर मैं बोलता, तो मैं नासमझ हो जाता। क्योंकि जो मैं जानता हूं, वह बोला नहीं जा सकता। और उसे फरीद भी जानता है। अब उससे अगर मैं कुछ भी बोलता, तो वह गलत होता। तुमसे मैं कुछ बोलता हूं, वह थोड़ा-बहुत गलत होता ही है, लेकिन चल जाता है, क्योंकि तुम्हें सही का कुछ भी पता नहीं। और तुमसे बिना बोले नहीं चलेगा। फरीद से बिना बोले भी चल गया। हमने एक-दूसरे को समझा, हम एक-दूसरे से बोले चुप्पी में, मौन में।
फरीद के शिष्यों ने गांव के बाहर होते ही फरीद को कहा कि आपने यह क्या किया? यह कैसा अन्याय! यह हमसे कैसी ज्यादती! दो दिन गुजारने मुश्किल हो गए! यह कैसी ऊब पैदा कर दी! आप बोले क्यों नहीं?
फरीद ने कहा: मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था कि बोलेंगे जरूर, लेकिन तुम सुन न सकोगे। एक और बोलना भी है, जो शब्दों के बिना होता है। और ऐसे, कबीर जैसे आदमी के पास, जो निःशब्द में जीता हो, उससे शब्द में बुलवा कर क्या तुम मेरी फजीहत करते? जिसने असली सूरज को देखा है, उसके सामने मिट्टी के दीये रखने से कुछ मतलब था? और जिसने असली सोना देखा है, उसके सामने पीतल के गहने प्रकट करने से क्या कुछ मेरी अमीरी प्रकट होती?
नहीं, सत्य आज तक कहा नहीं गया है। सत्य की जगह गैप, खाली जगह छूट गई है। इसलिए अगर असली शास्त्र पढ़ना हो, तो जहां-जहां अक्षर हो वहां-वहां छोड़ कर, जहां-जहां खाली जगह हो वहां-वहां पढ़ लेना, बिटवीन दि लाइंस, लकीरों के बीच में, शब्दों के बीच में जहां खाली जगह हो वहां जरा गौर से देखना, शायद वहां सत्य मिल जाए। शब्दों में सत्य नहीं मिलेगा। वहां सिर्फ आड़ी-टेढ़ी लकीरें हैं स्याही से खींची गई। कोरे कागज में शायद मिल जाए, भरे कागज में न मिलेगा। कोरे कागज में शायद इशारा हो, भरे कागज में कोई इशारा नहीं है। खाली जगह में खोजना, क्योंकि भीतर भी वह खाली जगह और कोरे मन को उपलब्ध होता है।
इसलिए जिन मित्र ने यह पूछा है, मैं किन्हीं नये सत्यों के लिए नहीं कह रहा हूं, किन्हीं पुराने सत्यों के खिलाफ नहीं कह रहा हूं। पकड़े गए सत्य असत्य हो जाते हैं, उनके खिलाफ कह रहा हूं। जाने गए सत्य ही सत्य होते हैं, उनके पक्ष में कह रहा हूं। सनातन को जानना हो, तो सामयिक से मुक्त होने की जरूरत है।

भगवान, ये मादक द्रव्य, नशीली चीजें, शराब आदमी को शैतान बना देती हैं, तो आप उनके विरोध में क्यों कुछ नहीं बोलते?

यह सवाल महत्वपूर्ण है। इसे थोड़ा समझना उपयोगी है।
पहली बात तो यह समझना उपयोगी है कि आदमी बेहोश क्यों होना चाहता है? और ऐसा कोई युग नहीं हुआ जब आदमी बेहोश न होना चाहा हो। चाहे वेद के युग का सोमरस हो, चाहे शराब हो, गांजा हो, अफीम हो, भांग हो, या आधुनिक युग का मेस्कलीन हो, एल एस डी हो, मारिजुआना हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी बेहोश क्यों होना चाहता है? ठेठ वैदिक ऋषियों से लेकर अल्डुअस हक्सले तक आदमी बेहोश क्यों होना चाहता है?
जरूर आदमी की होश की जिंदगी सुखद नहीं है, आदमी की होश की जिंदगी वेदनापूर्ण है। आदमी जहां जीता है, वहां कष्ट हैं, पीड़ाएं हैं। आदमी जैसे जीता है, वहां दुख और दुख और जहर और जहर है। आदमी जैसा है, वहां कांटें ही कांटे हैं। इस सबको भूलने की जरूरत आदमी को सदा से मालूम होती रही है।
भूलने के उसने बहुत से उपाय खोजे हैं। रासायनिक तरकीबें खोजी हैं भूलने की। धार्मिक तरकीबें खोजी हैं भूलने की। शारीरिक तरकीबें खोजी हैं भूलने की। मानसिक तरकीबें खोजी हैं भूलने की। बहुत तरह की तरकीबें खोजी हैं। एक आदमी गांजा पीकर भूल जाता है उस जिंदगी को जहां वह था; उन लोगों को जिनसे संबंधित था; उन बातों को जो उसकी छाती पर पत्थर बन गई थीं। शराब पीकर भूल जाता है उस सब व्यापार को, दुकान को, बाजार को जो उसके प्राणों में तीरों की तरह छिद गए हैं। अफीम खाकर भूल जाता है उस पत्नी को जिसके साथ सोचा था कि एक स्वर्ग बन जाएगा, लेकिन नरक बन गया है। मेस्कलीन ले लेता है, एल एस डी ले लेता है। और हजार तरकीबें हैं जिनमें वह अपने को भुला देता है। थोड़ी देर को वह नहीं हो जाता है। और जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ी है, वैसे-वैसे यह भुलाने की आकांक्षा तीव्र हुई है।
लेकिन कुछ लोग हैं, जो बिना इसको समझे कहेंगे कि मादक द्रव्य बंद कर दिए जाएं।
मैं उन लोगों में से नहीं हूं। और मैं मानता हूं, उनकी दृष्टि अवैज्ञानिक है। मैं मानता हूं कि जिंदगी में दुख कम हों, मैं मानता हूं कि जिंदगी में आनंद हो, मैं मानता हूं कि जिंदगी में रस के द्वार खुलें, तो दुनिया से मादकता अपने आप क्षीण हो जाए। मैं नहीं मानता हूं कि हम मादक द्रव्य बंद कर दें, तो दुनिया में रस और आनंद बढ़ जाएगा। हां, इतना ही हो सकता है, ठीक शराब न मिले, तो लोग स्प्रिट की बोतलें पी लें और मर जाएं।
आदमी जैसा है, वैसा याद रखने योग्य नहीं है। मेरे लिए इसलिए आदमी कैसा हो, यह सवाल है, जिसे कि भूलने की जरूरत न रह जाए।
ध्यान रहे, अगर आप आनंदित हैं, तो आप कभी भी भूलना नहीं चाहते। जब आप दुखी हैं, तभी आप भूलना चाहते हैं। आप भूलना चाहते तभी हैं जब कुछ चीज है जिससे आप पीठ फेर लेना चाहते हैं। वह कुछ भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
जिंदगी ऐसी बनाने की जरूरत है और आदमी की जिंदगी को ऐसे नियम और ऐसी व्यवस्था और ऐसी दिशा देने की जरूरत है कि जिंदगी में इतना रस और इतना आनंद हो सके कि जो भूले जिंदगी को वह अपने आप नासमझ सिद्ध हो जाए। वह खुद की आंखों में नासमझ सिद्ध हो जाए। लेकिन जिंदगी हम ऐसी नहीं बना पाते हैं। उलटे हम जिंदगी में ये भुलाने की जो तरकीबें हैं, चाहते हैं कि कोई कानून इन तरकीबों को रोक दे। कोई कानून इनको नहीं रोक पाएगा। क्योंकि आदमी की जरूरत है, जैसा आज आदमी है, उसकी यह जरूरत है। तब, तब हजारों साल की शिक्षाएं, हजारों साल के धर्मगुरुओं के उपदेश कुछ मतलब नहीं ला पाते, कुछ प्रयोजन हल नहीं होता। कुछ लोग चिल्लाए चले जाते हैं कि पाप है और नरक चले जाओगे और कुछ लोग पाप को मजे से किए चले जाते हैं और नरक की बेफिकर यात्रा करते रहते हैं। उनके चिल्लाने से कोई फर्क नहीं होता।
जरूर आदमी की जरूरत कहीं ज्यादा गहरी है कि वह नरक से भी भयभीत नहीं होता और पाप से भी भयभीत नहीं होता। और फिर कभी इन धर्मगुरुओं की पूरी बातों को सुनें, तो बड़ी हैरानी होगी। वे धर्मगुरु यहां तो कहते हैं लोगों से कि शराब मत पीना, लेकिन बहिश्त में शराब के चश्मे बहाते हैं। वे कहते हैं,बहिश्त में, स्वर्ग में शराब के झरने बह रहे हैं। और यहां एक चुल्लू शराब के लिए नरक भिजवा रहे हैं। तो देवताओं की क्या हालत हुई होगी अब तक जहां शराब के चश्मे बह रहे हैं? और उसी स्वर्ग में जाने के लिए बेचारा एक चुल्लू शराब छोड़ रहा है आदमी कि किसी तरह वहां पहुंच जाए जहां झरने बह रहे हैं। यहां वे धर्मगुरुसमझा रहे हैं कि स्त्री से बचना और वहां वे समझा रहे हैं कि स्वर्ग में जो अप्सराएं हैं वे सोलह साल से ज्यादा की नहीं होतीं, उनकी उम्र सोलह साल पर रुक जाती है। और उन्हीं अप्सराओं को पाने के लिए यहां स्त्रियों से भागना पड़ेगा, बचना पड़ेगा।
यह सब क्या पागलपन है? वही प्रलोभन जिसे यहां रोक रहे हो, वही प्रलोभन वहां दे रहे हो! जरूर आदमी की जरूरत बहुत गहरी मालूम पड़ती है। वे तुम्हारे स्वर्ग में भी न जाएंगे अगर वहां शराब के चश्मे न हों, और अगर वहां की औरतें सोलह के ऊपर बढ़ जाती हों, तो वे कहेंगे, ऐसे स्वर्ग में रहने से तो हम नरक में ही जाना पसंद करते हैं। धर्मगुरुओं को भी पता है कि आदमी की बुनियादी जरूरतें क्या हैं।
लेकिन उन बुनियादी जरूरतों को समझने की चिंता नहीं है। मुझे ऐसा लगता है कि आज तक आदमी की बुनियादी जरूरतों को समझने की सहानुभूति ही नहीं दिखलाई गई है। आदमी की बड़ी जरूरत तो यह है कि उसकी जिंदगी आनंद की एक धारा होनी चाहिए, दुख की एक धारा नहीं। और जब तक दुख की धारा है, तब तक वह किसी तरह का नशा खोजे तो क्षम्य है; अपराधी नहीं है।
और जब तक हम ऐसी जीवन की व्यवस्था नहीं बना सकते जहां आदमी का जीवन सुख और आनंद और नृत्य हो जाए, तब तक मैं समझता हूं कि बजाय शराबबंदी के सरकारों को कोशिश करनी चाहिए अच्छी शराब बनाने की। ऐसी शराब बनाने की जो लोगों के स्वास्थ्य को नुकसान न पहुंचाए। ऐसी शराब बनाने की जो लोगों के ऊपर हैंगओवर न लाती हो। ऐसी शराब बनाने की जो उनके लिए स्वास्थ्यप्रद हो जाए। ऐसी शराब बनाने की जो उनको बीमारियों में न डालती हो। और ऐसी शराब बनाई जा सकती है।
जब आदमी चांद पर पहुंच सकता है, तो अब ये बकवास की बातें हैं कि ऐसी शराब नहीं बनाई जा सकती। आज विज्ञान की इतनी समझ है कि हम इस तरह की शराबें बना सकते हैं। बल्कि सच तो यह है कि इस तरह के मादक द्रव्य खोज लिए गए हैं। लेकिन दुनिया में जिनके शराब के व्यापार हैं, वे उन द्रव्यों को बाजार में आने देने के लिए राजी नहीं हैं। क्योंकि शराब के व्यापार का क्या होगा?
सच बात यह है कि एल एस डी या मेस्कलीन बहुत ही निर्दोष मादक द्रव्य हैं, बहुत इनोसेंट, जिनसे सच में ही शायद ही कोई थोड़ा बहुत नुकसान पहुंचता हो। वह नुकसान भी काटा जा सकता है। लेकिन दुनिया भर की सारी हुकूमतें उनके खिलाफ हैं। और जो आदमी उन पर प्रयोग कर रहे हैं, उनको सजाएं दी जा रही हैं और जेलों में डाला जा रहा है। क्योंकि डर इस बात का है, दो तरह के डर हैं, एक तो शराब बेचने वालों को डर है और एक शराब के खिलाफ सिद्धांत बेचने वालों को डर है। दो डर हैं--एक तो शराब के कारखानेदारों को डर है कि अगर कोई ऐसी शराब निकल आए जो स्वास्थ्यप्रद हो, आनंददायी हो और जिसमें शराब की कोई भी भूलें और गलतियां और बुराइयां न हों, तो शराब के इस विश्वव्यापी व्यापार का क्या हो। और दूसरा डर है धर्मगुरुओं को कि अगर ऐसा नशा निकल आए जिसमें कोई नुकसान न हो, तो फिर हम किस शराब के खिलाफ बातें करेंगे? और लोगों को किस शराब के खिलाफ समझाएंगे? और लोगों को किस शराब के खिलाफ व्रत दिलवाएंगे? अणुव्रत आंदोलनों का क्या होगा? बहुत मुश्किल हो जाएगी। धर्मगुरु भी खिलाफ हैं कि ऐसी कोई चीज नहीं खोजी जानी चाहिए।
और भी एक कारण है कि ये जो लोग अपने को भूलना चाहते हैं, ये ही लोग मंदिर और मस्जिद में भी आते हैं। ये अपने को भूलने वाले लोग अगर नये ढंग के हुए तो सिनेमा जाते हैं और अगर जरा पुराने ढंग के हुए तो मंदिर और मस्जिद में जाते हैं। जो अपने को भूलना चाहता है, वह कई तरह की तरकीबें खोजता है। जाकर कोई आदमी भजन-कीर्तन, ताल-मंजीरा बजाने लगता है और कोई आदमी फिल्म पर चलती हुई तस्वीरें देख कर अपने को भुला लेता है। ये दो ढंग हैं, पुराने और नये। कोई आदमी रामलीला देख अपने को भुला लेता है, कोई आदमी जाकर फिल्म देख आता है। कहानी वही है, वही ट्रायंगल, वही प्रेम का झगड़ा, वही एक स्त्री और दो आदमियों के बीच तनाव। वही फिल्म में हो रहा है, वही रामलीला में हो रहा है। लेकिन पुराने ढंग का आदमी धार्मिक मालूम पड़ता है और नये ढंग का आदमी अधार्मिक मालूम पड़ता है। दोनों की तलाश एक है। दोनों कहीं जाकर किसी बात में अपने को भूल जाना चाहते हैं।
यह जो भूल जाना है, मैं इसे सहानुभूति से देखता हूं। और मैं मानता हूं कि अभी तक हम आदमी की जिंदगी में न तो ऐसा समाज ला पाए, न हम आदमी की जिंदगी में ऐसा विज्ञान ला पाए, न हम आदमी की जिंदगी में ऐसा धर्म ला पाए, जो उसको आनंद से भर दे। इसलिए आदमी भूलना चाहता है। दो उपाय हैं, एक तो यह कि हम उस दिशा में खोज करें। बड़ी कठिन है वह बात। क्योंकि उस दिशा में खोज करने में हमारी जिंदगी की हजारों व्यवस्थाओं को चोट पहुंचती है।
अब जैसे उदाहरण के लिए मैं एकाध उदाहरण दूं। क्योंकि यह तो बहुत बड़ी बात होगी। जरूरत होगी तो कल मैं आपसे फिर बात करूं। एकाध उदाहरण दूं।
जो बच्चे मां के पास बड़े होते हैं उनकी जिंदगी में बहुत सुख होना बहुत मुश्किल है। यह बहुत अजीब सी बात मालूम पड़ेगी। असल में, मां के पास जो बच्चा बड़ा होगा, उसे मां के दो रूप देखने पड़ते हैं एक ही साथ। कभी मां बहुत प्रसन्न होती है, आनंदित होती है, बच्चे को प्रेम करती है। कभी मां बहुत नाराज होती है, बहुत दुखी और परेशान होती है और बच्चे को मारती भी है, ठोकती भी है, क्रोध भी करती है। बच्चा उसी मां को प्रेम भी करता है और जब वह उसे क्रोध करती है, मारती, ठोकती है, तो उसे ही घृणा भी करता है।
अब उस बच्चे की जिंदगी में एक बहुत ही दुर्घटना घट जाती है: वह एक ही व्यक्ति को प्रेम भी करता है और घृणा भी करता है। एक ही व्यक्ति के संबंध में उसका दोहरा रुख हो जाता है--प्रेम का और घृणा का। और इसी में वह बड़ा होता है। अब जो लोग जानते हैं, वे कहते हैं कि जब तक बच्चे मां के पास बड़े होंगे तब तक कभी पति-पत्नी सुखी नहीं हो सकते। क्योंकि वह जो लड़का है कल पति बनेगा और वह जिस स्त्री को प्रेम करेगा उसी स्त्री को घृणा भी करेगा। उसकी पूरी आदत मां के साथ जीकर एक ही स्त्री को घृणा करने और प्रेम करने की है। वह जिस स्त्री को भी प्रेम करेगा, एक तरफ से प्रेम का हाथ बढ़ाएगा, दूसरी तरफ से घृणा की छुरी भी तैयार रखेगा। सांझ प्रेम करेगा, सुबह गर्दन दबाएगा; दोपहर क्षमा मांगेगा, शाम फिर प्रेम करेगा। और यह चक्कर चलेगा। एक ही व्यक्ति के संबंध में दोहरी भावनाएं बहुत खतरनाक सिद्ध होने वाली हैं।
इजरायल में उन्होंने एक छोटा सा प्रयोग किया है किबुत्ज में। जिसमें उन्होंने बच्चों को मां से दूर रखने की कोशिश की है। दूर रखने का मतलब यह नहीं कि मां से नहीं मिलने दिया है, मां से मिलने दिया जाता है, मां कभी-कभी आकर स्कूल में नर्सरी में बच्चे को मिल जाती है। तब बच्चा मां का एक ही रूप देख पाता है--प्रेम से भरा हुआ, और उसके मन में आत्म-विरोधी दो स्वर पैदा नहीं हो पाते। मां जब भी उससे मिलने आती है--पंद्रह दिन में, महीने में, सप्ताह में, तभी आकर उसे गले से लगाती है। स्त्री का रूप उसके मन में प्रेम का ही रूप निर्माण होता है। और मां जब दुखी होती है, परेशान होती है, तो मिलने ही नहीं आती। वह मिलने ही तब आती है जब वह खुद ही आनंदित होती है, तब वह अपने बेटे को देखने आती है। अठारह-बीस साल तक बेटा पलता है नर्सरी में। मां उससे मिलती है, बाप उससे मिलता है। मां के साथ उसका एक ही संबंध होता है प्रेम का। और स्त्री के प्रति उसकी धारा भविष्य में एक ही होगी प्रेम की।
दूसरी बात, वह मां-बाप को दोनों को लड़ते नहीं देख पाता। जो कि घर में रहे, तो अंधा लड़का भी देख लेगा, उसके लिए आंखें होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि मां-बाप के बीच शांति के क्षण इतने कम होते हैं और युद्ध के क्षण इतने ज्यादा होते हैं कि उसके लिए अंधा होना हो तो भी दिखाई पड़ जाएगा कि मां-बाप लड़ रहे हैं। और जब बच्चा बचपन से मां-बाप को लड़ते देखता है, तो लड़ना जिंदगी का हिस्सा हो जाता है और हर बच्चा अपने मां-बाप को अपनी जिंदगी में पुनरुक्त करता है, रिपीट करता है।
स्वभावतः लड़कियां अपनी मां को दोहराती हैं, लड़के आने बाप को दोहराते हैं। और करीब-करीब वही कहानी हर पीढ़ी में वापस दोहरती है। जो आपके पिता ने आपकी मां के साथ किया था, वह अपनी पत्नी के साथ आप किए चले जाते हैं। थोड़े बहुत फर्क होते हैं। लेकिन उन फर्कों से कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता है। हर कहानी उसी ढांचे में दोहरती चली जाती है।
किबुत्ज में मां-बाप जब दोनों साथ आते हैं, तो किबुत्ज की नर्सरी में आकर तो लड़ते नहीं। अगर घर लड़े हों, तो उस दिन आते ही नहीं। जब दोनों भले मन में होते हैं, मित्रतापूर्ण होते हैं, शत्रुतापूर्ण नहीं होते, जब दोनों के मन में प्रेम चल रहा होता है, तलाक नहीं चल रहा होता, तब वे बच्चे को देखने आते हैं। बच्चे के मन में उन दोनों की जो प्रतिमा है, वह आपस के प्रेम की प्रतिमा निर्मित होती है। यह बच्चा बहुत और तरह की जिंदगी जी सकेगा। इस बच्चे को शायद शराब की जरूरत कम पड़े। यह बच्चा शायद नशे में खोना जरूरी न समझे।
यह मैंने एक पहलू की बात कही। जिंदगी मल्टी-डाइमेन्शनल है, जिंदगी के बहुत आयाम हैं। और जिंदगी के सब आयामों की खोज की जाए, तभी हम कहीं ऐसे आदमी को जन्म दे पाएं जिसे नशे की जरूरत न हो।
लेकिन मोरार जी भाई देसाई को इससे कोई मतलब नहीं है, उनको मतलब है कि शराब नहीं होनी चाहिए। उन्हें पता नहीं कि कुछ लोग तीन-चार घंटे चरखा कात कर उसी तरह अपने को भूल जाते हैं, जिस तरह कोई आदमी शराब पीकर अपने को भूलता है। असल में, चरखा भी अगर छह घंटे आप बैठ कर कातते रहें, तो चरखा भी बड़ा ही इनटाक्सिकेंट है। क्योंकि छह घंटे तक इतना बोर्डम का काम कोई भी आदमी करे, तो बुद्धि तो क्षीण होती है। चरखा कात रहा है, चरखे के साथ घूमते-घूमते तंद्रा पैदा हो जाती है। बुद्धि को काम करने की कोई जरूरत तो होती नहीं चरखे में। बुद्धि निष्क्रिय पड़ी रह जाती है और चरखे का चक्का घूमता जाता है एक अनवरत, एक ही धारा में, रिपीटेडली, मोनोटोनस। जैसे कोई राम-राम, राम-राम, राम-राम जपता रहता है, ऐसा चरखा घूमता रहता है। चरखे की रुन-धुन घूमती रहती है। चार-छह घंटे में चरखा वैसा ही मजा देता है जैसे कि नशा मजा देता है।
लेकिन कोई चरखे में भुला लेता है अपने को, कोई किसी और ढंग से भुला लेता है अपने को। आदमी भुला रहा है। और आदमी तब तक अपने को भुलाता रहेगा जब तक आदमी आनंद की कोई धारा न खोज ले।
तो या तो हम समाज की एक व्यवस्था खोजें, लेकिन यह कब होगा, यह कहना मुश्किल है। यह यूटोपिया कभी आएगा जमीन पर, कहना मुश्किल है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अगर चाहे, तो अपने जीवन में आनंद की धारा जरूर खोज सकता है। सारे अवरोधों के बावजूद अगर कोई व्यक्ति चाहे, तो अपने भीतर से आनंद के स्रोत खोज सकता है।
मैं अपने भीतर आनंद के स्रोत खोजने की व्यवस्था को ही ध्यान कहता हूं। हमारे भीतर भी आनंद की बड़ी रसपूर्ण ग्रंथियां हैं। लेकिन हम उन तक कभी जाते नहीं। हम अपने बाहर ही जीते हैं और बाहर ही जीकर समाप्त हो जाते हैं। हमें उस खजाने का पता ही नहीं चलता जो हमारे भीतर दबा है। अगर कोई व्यक्ति ध्यान की उस भीतर की धारा को खोज ले, तो उसे जगत में फिर शराब और नशे की कोई जरूरत नहीं रह जाती। रामधुन की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती। और चरखा कात कर भुलाने की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती। इलेक्शन लड़ कर भी अपने को भुलाने की जरूरत नहीं रह जाती। और गरीबों की सेवा में भी अपने को भुलाने की जरूरत नहीं रह जाती। और शराब पीने की और ताश खेल कर अपने को भुलाने की, और रोटरी क्लब और लायंस क्लब में बैठ कर अपने को भुलाने की भी जरूरत नहीं रह जाती। भुलाने की जरूरत विदा हो जाती है अगर हमारे भीतर रिमेंबरिंग आ जाए, उसका स्मरण आ जाए जो हमारे भीतर आनंद-स्रोत है। वह आनंद-स्रोत ध्यान की कुदाली से खोदा जा सकता है।

एक अंतिम सवाल:

एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान से प्रयोजन क्या है?

यही है प्रयोजन ध्यान से कि आपकी जिंदगी दुख की एक कहानी न रह जाए, बल्कि आनंद का एक झरना बन जाए। और आपके भीतर, प्रत्येक के भीतर इतनी क्षमता है और इतने अनंत स्रोत हैं कि वे सब अगर प्रकट हो जाएं, तो आपकी जिंदगी में चारों तरफ फूल और सुगंध फैल जाए। और चारों तरफ आपकी जिंदगी में वीणा बजने लगे। फिर उसे भुलाने की जरूरत न हो।
जिन मित्रों को ध्यान में सच में ही आकर्षण है और जो ध्यान के संबंध में कुछ समझना चाहें, उनके लिए रात की अलग बैठक है। तो ध्यान के संबंध में और भी चार-छह प्रश्न हैं, वह मैं रात की बैठक में ही बात करूंगा। क्योंकि ध्यान के संबंध में समझने से कुछ नहीं होगा, ध्यान को करने से कुछ होगा। आप आ जाएं साढ़े नौ बजे रात और ध्यान को करके देखें और देखें अपने भीतर जाकर और खोजें उसे जो आपके भीतर आपकी संपत्ति छिपी है। जिस दिन उस संपत्ति पर आपका हाथ पड़ जाए, उस दिन से दुनिया में आपको अपने को विस्मरण करने की जरूरत नहीं रह जाती है।
मेरे लिए धर्म आत्म-स्मरण है, सेल्फ-रिमेंबरिंग है। और मेरे लिए धर्म के अतिरिक्त कोई भी आदमी ऐसा नहीं है जो अपने को भुलाने का कोई रास्ता न खोजे। रास्ते अलग होंगे, लेकिन रास्ता खोजना ही पड़ेगा। सेक्स में, संगीत में, सिनेमा में, कहीं न कहीं रास्ता खोजना पड़ेगा अपने को भूलने का। क्योंकि हम इतने दुखद हैं कि अपने साथ जीना बहुत ही कठिन है। यह बहुत मजे की बात है। अगर आपको एक कमरे में अकेला छोड़ दिया जाए, तो आप कहते हैं, बड़ी मुश्किल हो जाती है, अकेले जीना बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन आपने कभी सोचा कि अकेला जीना मुश्किल हो जाता है, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है: अपने साथ जीना मुश्किल हो जाता है।
और मजा यह है कि जिस मित्र के साथ आप मिल कर आनंद उठा रहे हो, वह भी अकेले में जीने में इतनी ही मुश्किल पाता है। और दोनों जो अकेले जीने में मुश्किल पाते हैं, तो दोनों मिल कर आनंदित कैसे हो जाएंगे? मुश्किल दुगुनी हो सकती है, आनंद नहीं हो सकता। जैसे दो भिखारी रास्ते पर खड़े होकर एक-दूसरे से भीख मांगने लगें, ऐसे ही हम सारे लोग हैं। अकेले में हर आदमी मुश्किल में पड़ जाता है, दूसरे के साथ बड़े आनंद में दिखाई पड़ता है। यह दिखाई पड़ना सिर्फ दिखावा होगा। थोड़ी देर में मुश्किल आ जाएगी। चेहरे थोड़ी देर में हट जाएंगे और असली चीजें प्रकट होंगी। और तब दूसरे के साथ जीना भी मुश्किल हो जाता है।
असल में, जीना मुश्किल है, क्योंकि जीने के स्रोत का हमें कोई भी पता नहीं है। जीने के राज और जीने की कुंजी का हमें कोई पता नहीं है। उस महल का हमें कोई पता नहीं, जिसके द्वार पर हम खड़े हैं। उसकी कुंजी खोजी जा सकती है। उसकी कुंजी की खोज ही धर्म है। और उस कुंजी का नाम ध्यान है।
जिन मित्रों को उस कुंजी का खयाल हो, वे आएं रात, उस कुंजी की तलाश में थोड़ा श्रम करें। थोड़ा सा ही श्रम, वह कुंजी निश्र्चित मिल जाती है।
जीसस के एक छोटे से वचन से मैं अपनी बात पूरी करूं।
जीसस ने कहा है: ‘तुम एक कदम चलो उस परमात्मा की तरफ और वह परमात्मा हमेशा तुम्हारी तरफ हजार कदम चलने को तैयार है।’
लेकिन हम एक कदम भी नहीं चल पाते। वही हमारा दुख है। वह एक कदम हम उठा पाएं, तो हमारे ऊपर अनंत वर्षा हो जाती है आनंद की। फिर शराब बंद नहीं करनी पड़ती, फिर शराब बेमानी हो जाती है। फिर शराब को छोड़ना नहीं पड़ता, शराब को पीना असंभव हो जाता है।
कुछ और प्रश्न रह गए हैं, वह कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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