YOG/DHYAN/SADHANA

Main Kaun Hun 06

Sixth Discourse from the series of 11 discourses - Main Kaun Hun by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
ध्यान अस्तित्व के साथ एक हो जाने का नाम है। हमारी सीमाएं हैं, उन्हें तोड़ कर असीम के साथ एक हो जाने का नाम है। हम जैसे एक छोटी सी बूंद हैं और बूंद जैसे सागर में गिर जाए और एक हो जाए। ध्यान कोई क्रिया नहीं है, बल्कि कहें अक्रिया है। क्योंकि क्रिया कोई भी हो उसमें हम बच जाएंगे, अक्रिया में ही मिट सकते हैं। ध्यान एक अर्थों में अपने ही हाथ से मर जाने की कला है। और आश्र्चर्य यही है कि जो मर जाने की कला सीख जाते हैं, वे ही केवल जीवन के परम अर्थ को उपलब्ध हो पाते हैं।
आज की सुबह इस एक घंटे में हम अपने को खोकर वह जो हमारे चारों ओर विस्तार है उसके साथ एक होने का प्रयास करेंगे। भाषा में तो यह प्रयास ही मालूम पड़ेगा, लेकिन बहुत गहरे में भीतर प्रयास नहीं हो सकता। अपने को सम्हालेंगे नहीं, छोड़ देंगे।
इसके पहले कि मैं ध्यान की प्रक्रिया के लिए आपसे कहूं, दो-तीन छोटी सी बातें खयाल कर लें। थोड़े से लोग हैं, इसलिए बहुत सुखद है। इसलिए कल मैंने सूचना भी नहीं की, ताकि थोड़े से ही लोग आ सकें।
एक तो सब इतने फासले पर बैठ जाएं कि कोई अगर बीच में गिर जाए तो किसी दूसरे के ऊपर न गिर जाए। जब पूरी तरह अपने को छोड़ेंगे तो बहुत बार ऐसा लगेगा कि शरीर गिर रहा है, उसे अगर रोका तो बाधा हो जाएगी, वह गिरता हो तो गिर जाने देना है। या फिर कहीं टिक कर बैठ जाएं। और जो लोग ऊपर बैठे हैं वे नीचे आ जाएं, क्योंकि वहां उनको पूरे वक्त यही खयाल बना रहेगा कि अपने को सम्हाले रखें।
फासले पर बैठें, बहुत पास-पास मत बैठें। कोई किसी को छूता हुआ तो हो ही नहीं और फिर भी फासला रखें कि कोई अगर लेटना चाहे बीच में--क्योंकि जो प्रयोग मैं आपको करवाने को हूं उसमें बहुतों को बीच में लगेगा कि लेट जाएं, तो उन्हें लेट जाना है, उन्हें बैठे नहीं रहना है। जैसा लगे वैसा हो जाने देना है। और दूसरे की कोई चिंता नहीं करना है कि कोई दूसरा मौजूद है। वहां कोई भी मौजूद नहीं है। आप अकेले ही हैं, दूसरा भी अकेला है।
ध्यान में श्वास का सर्वाधिक महत्व है। जीवन में भी है। श्वास चल रही है, तो आदमी जीवित है और श्वास खो गई, तो आदमी खो गया।
अभी मैं एक घर में गया। एक स्त्री नौ महीने से बेहोश है, वह कोमा में पड़ी है। और डॉक्टर कहते हैं कि वह कभी होश में आएगी भी नहीं। उसके होश के तंतु ही टूट गए हैं। लेकिन वह कम से कम तीन साल जिंदा रह सकेगी। वह बेहाश ही पड़ी रहेगी। उसको इंजेक्शन से दवाएं पहुंचाते हैं और सारा इंतजाम करते हैं। वह करीब-करीब मृत है। लेकिन मैं उनके घर देखने गया। उस स्त्री की मां से मैंने पूछा कि अब यह तो मर गई। उन्होंने कहा कि नहीं, अभी कहां मर गई। जब तक श्वास है, तब तक आशा है। अभी उसकी श्वास चल रही है। और सब तरह से मर गई है, लेकिन श्वास चल रही है। तो जीवन से एक संबंध शेष है। और उस बूढ़ी औरत ने कहा कि डॉक्टरों का क्या भरोसा। जिसको वे कहते हैं, जीएगा, वह मर जाता है। तो जिसको वे कहते हैं कि तीन साल में मर ही जाएगा, कुछ पक्का नहीं, बच सकता है।
जीवन में श्वास हमारा संबंध है। और शायद इस बात पर कभी खयाल न किया होगा कि मन का जरा सा परिवर्तन भी श्वास पर शीघ्रता से प्रतिफलित होता है। आप क्रोध में हैं, तो श्वास और तरह से चलती है। आप शांत हैं, तो और तरह से चलती है। आप बेचैन हैं, तो और तरह से चलती है। आप कामवासना से भरे हैं, तो श्वास और तरह से चलती है। श्वास पूरे समय मन की खबरें देती रहती है। जो श्वास की पूरी प्रक्रिया को समझते हैं, वे आपकी श्वास को देख कर कह सकते हैं कि आप भीतर कहां होंगे, क्या कर रहे होंगे। अगर आदमी की श्वास समझी जा सके, तो आदमी के भीतर का सब-कुछ समझा जा सकता है।
ध्यान में तो श्वास बहुत कीमती है--सर्वाधिक कीमती है। क्योंकि जैसे-जैसे आप लीन होंगे विराट में, वैसे-वैसे श्वास रूपांतरित होगी। इससे उलटा भी होगा, अगर श्वास रूपांतरित हो तो आप विराट में लीन होना शुरू हो जाएंगे। जैसे, अगर कोई आपसे कहे कि श्वास शांत रखो और क्रोध करो, तो आप बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। श्वास शांत रख कर क्रोध करना असंभव है। एकदम असंभव है। श्वास में रूपांतरण अनिवार्य है।
इसलिए आप छोटा सा प्रयोग करके कभी देखना। जब भी क्रोध आए, तो क्रोध की फिकर मत करना, श्वास को धीमा करना--और तब आप अचानक पाएंगे कि क्रोध असंभव हो गया। श्वास धीमी हो, तो क्रोध असंभव हो जाएगा। क्रोध असंभव हो जाए, तो श्वास धीमी होती चली जाएगी।
अगर बुद्ध और महावीर की मूर्तियां देखें, तो ऐसा नहीं लगता है कि ये लोग श्वास ले रहे होंगे। श्वास ठहरी हुई मालूम पड़ती है। रुक गई है। मूर्तियों की वजह से वैसा नहीं है। मन पूरी तरह शांत होगा, भीतर सारे मन के उपद्रव लीन हो जाएंगे और व्यक्ति विराट के साथ एक होगा, तो श्वास आमूल रूपांतरित होती है।
हम श्वास से ही शुरू करेंगे। दो-तीन छोटी सी बातें समझ लें। फिर बीच-बीच में मैं सुझाव दूंगा, उन्हें आप समझते रहेंगे।
पहली बात, ध्यान में हम आंख बंद करके बैठेंगे। लेकिन आंख ऐसे बंद नहीं करनी है कि आंख पर दबाव पड़े। आंख को ढीला छोड़ देना है और आंख अपने से बंद हो जाए। इसलिए आंख बंद न करेंगे सिर्फ छोड़ देंगे, ताकि आंख बंद हो जाए। आंख पर दबाव जरा भी न हो। क्योंकि आंख हमारे मस्तिष्क का सर्वाधिक संवेदनशील हिस्सा है। अगर आंख पर जरा भी दबाव है, तो भीतर के मस्तिष्क के शांत होने में बड़ी कठिनाई हो जाती है।
तो सबसे पहले तो पलकों को धीरे से छोड़ दें और ऐसा खयाल करें कि आंख बंद हो रही है, आप कर नहीं रहे हैं। पलक छोड़ें, पलक को धीमे से छोड़ दें और आंख को बंद हो जाने दें। आंख को बंद हो जाने दें, बंद न करें। बस आंख की पलक को ढीला छोड़ दें और आंख बंद हो जाने दें। छोड़ दें, आंख को बंद हो जाने दें। जैसे ही आंख बंद हो जाए...
और यहां कोई एक व्यक्ति भी खुली आंख से नहीं बैठेगा। यहां आए ही इसलिए हैं कि इस प्रयोग को करना है, अन्यथा नहीं आना चाहिए। कोई व्यक्ति खुली आंख से नहीं बैठेगा।
आंख चुपचाप बंद कर दें, ढीला छोड़ दें और आंख बंद हो जाने दें। और फिर बीच-बीच में भी आपको आंख खोल कर देखने की जरूरत नहीं है, क्योंकि देखने हम भीतर जा रहे हैं और भीतर आंख के खुले होने की कोई जरूरत नहीं है। आंख को बंद कर लें, ढीला छोड़ दें। और शरीर को भी शिथिल कर लें, ताकि शरीर से कोई आपको बाधा न रहे, कोई स्ट्रेन न रहे। किसी को लेटना हो तो पहले ही लेट जा सकता है। शरीर को भी ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर ली है, शरीर ढीला छोड़ दिया है। जिसे लेटना हो वह चुपचाप लेट जाए। अब ध्यान श्वास पर ले जाएं। भीतर देखें: श्वास जा रही है, आ रही है। श्वास को देखें। जैसे ही श्वास को देखना शुरू करेंगे, वैसे ही उस जगह खड़े हो जाएंगे, उस द्वार पर, जहां से ध्यान खुलता है।
श्वास को देखना शुरू करें--यह श्वास भीतर गई। बहुत बारीक चीज है, गौर से देखेंगे भीतर, तो दिखाई पड़ने लगेगी। दिखाई पड़ने लगेगी मतलब अनुभव होने लगेगा कि श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है। अगर किसी को अनुभव न हो रहा हो, फीलिंग न हो रही हो, तो थोड़ी सी गहरी श्वास ले, ताकि उसे फीलिंग साफ मालूम पड़ने लगे। थोड़ी सी धीमी और गहरी श्वास लेकर देख लें, ताकि पता चल जाए यह रही श्वास--यह श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है; श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है।
देखें, भीतर अनुभव करें--श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है। थोड़ा गहरा लें, ताकि साफ-साफ खयाल में आ जाए। थोड़ी गहरी श्वास लें। एक दस मिनट तक गहरी श्वास लेते रहें और देखते रहें--श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है। बस एक ही काम खयाल में रह जाए कि मैं श्वास को देख रहा हूं: श्वास को बिना देखे भीतर न जाने दूंगा, बिना देखे बाहर न जाने दूंगा। मैं श्वास को जानता रहूंगा, पहचानता रहूंगा, देखता रहूंगा। श्वास को देखते-देखते ही मन शांत होना शुरू हो जाएगा। एक दस मिनट के लिए श्वास को देखते रहें। मैं चुप हो जाता हूं...।
गहरी श्वास लें...श्वास भीतर जाएगी तो अनुभव करें कि भीतर जा रही है, श्वास बाहर जाएगी तो अनुभव करें कि बाहर जा रही है। बस श्वास रह जाए। आप रह जाएं एक द्रष्टा की भांति जो देख रहा है श्वास के आने को, जाने को। देख रहा है--श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है; श्वास भीतर आ रही है, श्वास बाहर जा रही है। बस देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें और मन शांत होता जाएगा...शांत होता जाएगा...शांत होता जाएगा...।
मैं दस मिनट के लिए चुप हो जाता हूं। आप श्वास को देखते रहें। किसी को भी इस बीच लगे कि लेट जाना है, तो चुपचाप लेट जाए। शरीर कंपने लगे, तो रोकें न, कंपने दें...आंख से आंसू बहने लगें, तो रोकें न, बहने दें...जो भी हो रहा हो उसे होने दें और आप एक ही काम करें कि श्वास को देखते रहें। फिर दस मिनट बाद मैं दूसरी सूचना दूंगा। आप दस मिनट तक अब श्वास को देखने में लीन हो जाएं--यह श्वास आ रही है, यह श्वास जा रही है, मैं सिर्फ द्रष्टा की भांति श्वास को देख रहा हूं।

(ओशो कुछ मिनट मौन रह कर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

गहरी श्वास लेते रहें...गहरी श्वास लें और देखते रहें--श्वास बाहर जा रही है, श्वास भीतर आ रही है। आंख बंद रखें, गहरी श्वास लें और देखते रहें--श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है। श्वास को देखते-देखते ही मन बिलकुल शांत हो जाएगा।
गहरी श्वास लें, आंख बंद रखें और देखें भीतर: श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर जा रही है। श्वास को देखते रहें...श्वास देखते-देखते ही मन शांत हो जाता है। आंख बंद ही रखें, गहरी श्वास लेते रहें और श्वास को देखते रहें--श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर आ रही है--मैं सिर्फ श्वास को देखने वाला हूं, मैं सिर्फ श्वास को देख रहा हूं।
और अब मैं कुछ सुझाव देता हूं, मेरे साथ अनुभव करें, वैसा ही होता चला जाएगा और धीरे-धीरे भीतर गहराई में उतरते जाएंगे।
जो लोग नये आए हैं, वे भी आंख बंद कर लें। गहरी श्वास लें और श्वास को देखते रहें--श्वास बाहर आ रही है, भीतर जा रही है।
अब मैं सुझाव देता हूं, ठीक मेरे साथ अनुभव करें। बहुत शीघ्र वह जो विराट हमारे चारों ओर उपस्थित है उसमें हम लीन हो जाएंगे।
सबसे पहले शरीर को ढीला छोड़ दें। श्वास जारी रहेगी और श्वास को देखते रहें, साथ ही शरीर को ढीला छोड़ें। और मेरे साथ अनुभव करें कि शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...बिलकुल ढीला छोड़ दें जैसे मिट्टी हो। अपने आप शरीर गिर जाए, तो रोकें नहीं, गिर जाने दें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...।
भीतर श्वास को गहरा लेते रहें और देखते रहें, श्वास आ रही है, श्वास जा रही है। साथ ही अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...बिलकुल छोड़ दें, गिरे तो गिर जाए...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...।
छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें...आगे झुके, झुक जाए, जो होना हो, हो जाए...शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...।
श्वास को देखते रहें--श्वास भीतर आ रही है, बाहर जा रही है। श्वास पर ध्यान रहे और शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर को ढीला छोड़ते जाएं।
अब दस मिनट तक मैं चुप रहूंगा। आप शरीर को ढीला छोड़ते जाएं, श्वास को देखते रहें, शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। एक-एक अंग इस तरह ढीला छोड़ दें कि शरीर जैसे है ही नहीं। जो होना हो, हो जाए, उसकी चिंता न लें। मैं देख रहा हूं कि कोई रोक रहा है, कोई सम्हाल रहा है, उसे सम्हालें न। जहां झुकता हो, झुक जाने दें; गिरता हो, गिर जाने दें, शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। एक दस मिनट के लिए फिर श्वास को देखते रहें और शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है, जैसे कोई प्राण ही न हों। शरीर शिथिल हो रहा है...छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा है। हिले, कंपन आए, शरीर गिर जाए, कोई रुकावट न डालें अपनी तरफ से। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है, जैसे कोई प्राण ही न हों। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है...।
अब दस मिनट के लिए मैं चुप हो जाता हूं। आप श्वास को देखते रहें और शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। किसी का भी लेटने का मन हो चुपचाप लेट जाए। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। बिलकुल छोड़ दें। लेटने का मन हो तो बैठे न रहें, बिलकुल छोड़ दें और लेट जाएं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। छोड़ दें, बाधा न डालें, बिलकुल ढीला छोड़ दें। जहां झुकता हो, झुके; गिरता हो, गिरे। हमें खो देना है अपने को, तो शरीर को रोकना नहीं है।
अब मैं दस मिनट के लिए चुप हो जाता हूं। श्वास को देखते रहेंगे और शरीर को ढीला छोड़ दें।

(ओशो कुछ मिनट मौन रह कर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

श्वास को देखते रहें...आंख बंद रखें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। शरीर को बिलकुल छोड़ दें, जैसे है ही नहीं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। छोड़ दें, झुकता है, झुके; गिरता है, गिरे; कंपता है, कंपे; रोना आए, रोए; आंसू गिरें, आंसू गिरें। बिलकुल छोड़ दें, अपनी तरफ से कोई नियंत्रण न रखें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। श्वास को देखते रहें और शरीर को ढीला छोड़ते जाएं। लेटने का मन हो लेट जाएं। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें, जैसे कोई प्राण ही नहीं हैं, एक मिट्टी के ढेले की तरह गिर जाए। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। शरीर बिलकुल निष्प्राण हो गया, जैसे है ही नहीं।
छोड़ दें, और शरीर की तरफ से पकड़ छोड़ते ही मन बहुत गहराई में चला जाएगा। शरीर की पकड़ छूटी कि मन गहरा गया। छोड़ दें, बिलकुल छोड़ दें, ताकि गहरे उतर सकें। शरीर छूटा मन से कि गहराई आई। छोड़ दें, कोई रोके नहीं, शरीर को जरा भी न रोकें। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...। लेटना है लेट जाएं, रोकें नहीं लेकिन। शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है...।
श्वास पर ध्यान रखें और शरीर को निष्प्राण छोड़ दें। श्वास भीतर जा रही है, श्वास बाहर आ रही है, बस श्वास ही रह गई है। शरीर से पकड़ छोड़ दें, श्वास पर ध्यान रहे। शरीर शिथिल हो गया है...श्वास को देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें और शरीर को ढीला छोड़ दें। शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...। कोई रोके नहीं, शरीर को जरा न रोकें, बिलकुल ढीला छोड़ दें। जहां झुकता हो, झुक जाए; लेटता हो, लेट जाए। बिलकुल ढीला छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...।
छोड़ दें, ताकि मैं तीसरा प्रयोग आपसे कहूं, शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। क्योंकि तीसरे में वे ही जा सकेंगे जो शरीर से पकड़ छोड़ देंगे। शरीर छूट गया है...शरीर बिलकुल ढीला छूट गया है...। गिरता हो, गिर जाए; झुकता हो, झुक जाए, आप पकड़ भर न रखें। आप अपनी तरफ से शरीर को न सम्हालें।
शरीर शिथिल हो गया है...एक दो मिनट में बिलकुल ढीला छोड़ दें, ताकि तीसरे प्रयोग में प्रवेश कर सकें।
शरीर शिथिल हो गया है...श्वास देखी जा रही है...श्वास भीतर और बाहर दिखाई पड़ रही है, अनुभव हो रही है। शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...। शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है, निष्प्राण। शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर शिथिल हो गया है...शरीर बिलकुल निष्प्राण हो गया है...।
अब मैं तीसरा प्रयोग कहता हूं।
आंख बंद रखें, श्वास देखते रहें। यह ध्यान का गहरा प्रयोग है। अब इस तीसरे प्रयोग को भीतर ही शुरू करें। श्वास दिखाई पड़ रही है--भीतर आ रही है जा रही है; शरीर शिथिल छोड़ दिया है। ओंठ बिलकुल बंद रहें, जीभ तालू से लग जाए। भीतर ध्यान कर लें--ओंठ बंद हो गए हैं, जीभ तालू से लग गई है, शरीर शिथिल है, श्वास देखी जा रही है। अब प्रत्येक श्वास को देखते हुए ही साथ में मन में पूछने लगें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? श्वास को देखते रहें, श्वास का देखना जारी रहे और भीतर तीव्रता से पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? भीतर मन में ही तीव्रता से पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? इतनी तेजी से पूछें कि दो पूछने के बीच जगह न रह जाए। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? अपने भीतर पूरी शक्ति लगा दें और पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? श्वास दिखाई पड़ती रहे और पूछें भीतर--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...एक तूफान भीतर उठ जाए...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? इतने जोर से, जैसे किसी बंद दरवाजे पर हम ठोक रहे हैं। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? इतने जोर से कि प्राण की पूरी शक्ति भीतर लग जाए पूछने में--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
एक दस मिनट के लिए तीव्रता से भीतर पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...सारा शरीर कंप जाएगा, प्राण कंप जाएगा, श्वास कंप जाएगी। भीतर पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? सारी शक्ति लगा दें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
श्वास का देखना जारी रहे...श्वास दिखाई पड़ रही है--भीतर जा रही है, बाहर आ रही है औैर साथ ही प्रत्येक श्वास के पूछते रहें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...और दूसरे में कोई उत्सुकता न लें, अपनी फिकर करें। आंख बंद रखें। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...एक दस मिनट इतनी तेजी से कि पसीना-पसीना हो जाए। सारी ताकत लगा दें। इसके बाद अदभुत शांति में प्रवेश हो जाएगा। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
अब मैं चुप हो जाता हूं। दस मिनट आप पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पूरी शक्ति से पूछना है--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...जोर से पूछें, पूरी तरह अपने को थका डालें। जितना पूछ सकते हो उतना पूछ लें, ताकि पीछे सब शांत हो जाए। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...

(अनेक आवाजों के साथ साधको की तीव्र प्रतिक्रियाएं...ओशो थोड़ी देर मौन रह कर फिर सुझाव देना शुरू करते हैं।)

मैं कौन हूं? आप अपने भीतर तीव्रता से पूछते रहें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? श्वास पर ध्यान रहे। पूछें--मैं कौन हूं? पूरी शक्ति से पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...जितनी शक्ति लगा सकें लगा दें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूरी शक्ति लगा दें--मैं कौन हूं?...
एक पांच मिनट अंत में पूरी शक्ति से भीतर पूछें--मैं कौन हूं? इतना जैसे तूफान उठ जाए। फिर सब छोड़ देंगे और फिर शांत रह जाएंगे। जितने तूफान में, जितनी आंधी में मन जाएगा उतनी ही गहरी शांति भी उपलब्ध होगी। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...श्वास को देखते रहें...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...आखिरी ताकत लगा दें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...यह प्राणों के पोर-पोर में गूंजने लगे--मैं कौन हूं?...यह रोएं-रोएं में गूंजने लगे--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...आखिरी दो मिनट--मैं कौन हूं? पूरी शक्ति लगा दें। फिर दस मिनट के लिए हम बिलकुल बिना कुछ किए पड़े रह जाएंगे। न फिर श्वास देखेंगे, न फिर पूछेंगे, बस फिर रह जाएंगे। जो है उसके साथ पड़े रह जाएंगे। तो आखिर में जितनी तेजी से पूछेंगे उतनी ही गहरी शून्य में उतर जाएंगे। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...आखिरी दो मिनटों में पूरी शक्ति भीतर लगा दें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पूरे क्लाइमेक्स पर, पूरी चरम ताकत से पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...और जब मैं कहूंगा कि छोड़ कर शांत हो जाएं, तो फिर सब छोड़ देंगे--श्वास भी, पूछना भी, देखना भी, फिर सिर्फ रह जाएंगे, जस्ट बीइंग। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...अंतिम एक मिनट जोर से पूछ लें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
और छोड़ दें...सब छोड़ दें--पूछना भी, देखना भी, सब छोड़ दें। दस मिनट के लिए कुछ भी न करें, बस रह जाएं। पक्षियों की आवाज सुनाई पड़ेगी, कौवे चिल्ला रहे, सागर की लहरों की आवाज सुनाई पड़ेगी, हवाएं पत्तों को हिलाएंगी--चारों तरफ जो हो रहा है, इसमें डूब कर रह जाएं, इसके साथ एक हो जाएं। यह पक्षियों की आवाज अलग न रहे, यह सागर का गर्जन अलग न रहे, सूरज की धूप अलग न रहे। अब दस मिनट के लिए कुछ भी न करें, बस इस विस्तार में डूब कर रह जाएं और मन परम गहराइयों को छुएगा, बहुत शांति में उतर जाएगा।
अब दस मिनट मैं चुप हो जाता हूं। बिलकुल डूब जाएं। अब कुछ न करें। जो है, है, उसके साथ एक रह जाएं।

(दस मिनट तक ध्यान-प्रयोग जारी रहता है, उसके बाद ओशो पुनः बोलना शुरू करते हैं।)

अब धीरे-धीरे आंख खोल लें...आंख न खुले तो दोनों हाथ आंख पर रख लें और फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। जो लोग गिर गए हैं या लेट गए हैं, वे धीरे-धीरे उठें। अगर उठते न बने तो उठने के पहले दो-चार गहरी श्वास लें फिर आहिस्ता-आहिस्ता उठें। झटके से कोई भी न उठे। अगर बिलकुल उठते न बने, तो पड़े रहें, गहरी श्व
ास लें और फिर धीरे-धीरे उठें। झटके से नहीं, बहुत अहिस्ता से उठें। जिससे उठते न बने वह धीरे-धीरे गहरी श्वास ले फिर आहिस्ता से उठे।
कल दो-तीन बात ध्यान में आने के पहले खयाल कर लें।
एक तो स्नान करके आएं। और आठ बजने के पांच मिनट पहले सब लोग पहुंच जाएं। पीछे कोई भी न आए। आठ बजे दरवाजा बंद कर दिया जाएगा। क्योंकि आठ के पीछे जो लोग आते हैं उनको समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है। फिर वे बैठे रहते हैं, इधर-उधर देखते हैं, कोई बात करेगा। आठ बजने के पांच मिनट पहले सारे लोग आ जाएं। जो पहले आ जाएं वे चुपचाप आंख बंद करके प्रयोग मैंने कहा है चुपचाप प्रयोग जारी कर दें। ठीक आठ बजे मैं आकर प्रयोग जारी करवाऊंगा। और घर से ही चुप होकर चलें, ताकि यहां आते-आते तक मन बिलकुल शांत हो जाए। और यहां आकर तो बात बिलकुल न करें।
और किसी को भी कोई भीतरी अनुभव हो, कोई भीतरी प्रश्न उठे, तो वह दोपहर तीन से चार--बौद्धिक चर्चा के लिए नहीं--ध्यान में जिसको भीतर कुछ भी प्रतीत हो, कुछ नया अनुभव हो, कुछ समझ में न पड़े, वह तीन से चार के बीच आकर मेरे पास बात कर ले, अकेला चुपचाप। और किसी को भी कोई अनुभव हो, तो दूसरे से कृपा करके बात न करें; अन्यथा अनुभव को नुकसान पहुंचता है। अगर आपको कुछ भी पता चले, कुछ भी अहसास हो, कुछ भी भीतर कोई शक्ति सक्रिय हो, कोई चक्र चलता मालूम पड़े, कोई प्रतीति हो, तो दूसरे से बात न करें, सीधा मुझसे तीन और चार के बीच आकर बात कर लें।
रात सोते समय बिस्तर पर प्रयोग को करें और करते-करते ही सो जाएं, ताकि सुबह जब कल आप यहां आएं तो मन पूरी तरह तैयार हो। इन चार-पांच दिनों में गहरी यात्रा की जा सकती है।
और ध्यान रखें, यहां कोई दर्शक की हैसियत से न आए। कुछ दो-चार मित्र ऐसे आ गए मालूम होते हैं, जो इस फिकर में हैं कि किसको क्या हो रहा है। यहां तो सिर्फ वे ही लोग आएं, जो इस फिकर में हैं कि उनको क्या हो रहा है। दूसरे से जिनका कोई लेना-देना नहीं है। दर्शक की हैसियत से कोई भी न आए। क्योंकि ध्यान के संबंध में बाहर से देख कर कुछ भी नहीं जाना जा सकता।
अगर कोई एक व्यक्ति रोने लगे, तो आप उसको देख कर कुछ भी नहीं जान सकते कि उसके भीतर क्या हो रहा है। और अगर उसको देख कर, आप कुछ भी सोचेंगे, तो गलत होगा। उसके भीतर जो कुछ हो रहा है वह वही जान सकता है, आप नहीं जान सकते हैं। और आपको पता भी नहीं कि एक व्यक्ति रो ले, तो उसके भीतर के कितने भार कट सकते हैं, इसका आपको पता नहीं है। कोई व्यक्ति गिर पड़ा है, आप नहीं जान सकते हैं कि उसके भीतर क्या हो रहा है। कोई व्यक्ति चक्कर खा रहा है उसका शरीर, उसके भीतर क्या हो रहा है, आप नहीं जानते हैं।
इसलिए आप दूसरे के संबंध में विचार ही न करें। और दूसरे से अपनी बात भी मत कहें। क्योंकि जो नहीं जानते हैं, वे आपको पागल ही कहेंगे--कि यह सब हो रहा है, यह पागलपन है। जो भी कुछ आपको प्रतीत हो, तीन से चार के बीच मेरे पास आ जाएं और मुझसे बात कर लें। और अच्छा तो यह हो कि चार दिन प्रयोग करें, जो कुछ भी है वह अपने आप रूपांतरित हो जाएगा, हल हो जाएगा।
फिर भी कोई प्रश्न हों, तो वे लिख कर दे देंगे, तो मैं कल सुबह बात कर लूंगा।

हमारी सुबह की बैठक पूरी हुई।


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