YOG/DHYAN/SADHANA
Main Kaun Hun 05
Fifth Discourse from the series of 11 discourses - Main Kaun Hun by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक चर्च में एक फकीर को बोलने के लिए बुलाया हुआ था। उस चर्च के लोगों ने कहा था कि सत्य की खोज के संबंध में कुछ कहो। वह फकीर बोलने खड़ा हुआ। उसने बोलने के पहले कहा कि मैं एक प्रश्न इस चर्च में इकट्ठे लोगों से पूछना चाहता हूं। उसके बाद ही मैं बोलना शुरू करूंगा। उसने पूछा कि इस चर्च में जो लोग इकट्ठे हैं, वे बाइबिल का अध्ययन करते हैं?
सारे लोगों ने हाथ हिलाए। वे अध्ययन करते थे।
उस फकीर ने कहा कि दूसरी बात मुझे यह पूछनी है कि बाइबिल में ल्यूक की पुस्तक है--ल्यूक की पुस्तक का उनहत्तरवां अध्याय आप लोगों ने पढ़ा है? जिन लोगों ने पढ़ा हो, वे हाथ ऊपर उठा दें।
उस चर्च में बड़ी भीड़ थी, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर सारे लोगों ने हाथ ऊपर उठा दिए।
वह फकीर बहुत हंसने लगा। उसने कहा कि अब मैं सत्य के संबंध में कुछ कहूंगा। लेकिन उसके पहले मैं कह दूं, बाइबिल में ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय है ही नहीं।
और उन सारे लोगों ने हाथ उठाए थे कि हम पढ़ते हैं। और उनहत्तरवां अध्याय बाइबिल में ल्यूक का कोई है ही नहीं। वैसी कोई पुस्तक ही नहीं है!
तो उस फकीर ने कहा कि अब सत्य की खोज के संबंध में जरूर मुझे कुछ कहना होगा। क्योंकि यहां जितने लोग इकट्ठे हैं, उनमें सत्य से किसी का भी कोई संबंध नहीं है।
लेकिन उसने कहा कि मुझे हैरानी होती है कि इस मंदिर में एक आदमी सत्य बोलने वाला कैसे आ गया है? एक आदमी ने हाथ नहीं उठाया था। तो उस फकीर ने उस आदमी के पास जाकर पूछा कि मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूं, मंदिरों में सत्य बोलने वाले लोग इकट्ठे होते नहीं दिखाई देते हैं, तुम कैसे भूले-भटके यहां आ गए? तुमने हाथ नहीं उठाया? फिर भी धन्य भाग्य है कि मंदिर में एक आदमी तो कम से कम सत्य का प्रेमी आया है।
उस आदमी ने कहा कि जरा जोर से बोलिए मुझे कम सुनाई पड़ता है, मैं समझ नहीं पाया कि बात क्या थी। क्या आपने यह पूछा: उनहत्तरवां अध्याय ल्यूक का? मैं रोज ही उसका पाठ करता हूं। लेकिन मैं ठीक से समझ नहीं सका, इसलिए मैंने हाथ नहीं उठाया। मैं थोड़ा कम सुनता हूं।
मनुष्य का सारा व्यक्तित्व असत्य है और सत्य की हम खोज करना चाहते हैं!
मनुष्य का सारा व्यक्तित्व झूठ पर खड़ा है और हम सत्य की खोज करना चाहते हैं!
मनुष्य का सारा दिखावा असत्य पर खड़ा हुआ है। निश्चित ही असत्य व्यक्तित्व को साथ लेकर सत्य की खोज नहीं की जा सकती है। सत्य की खोज के लिए व्यक्तित्व सेअसत्य का मिट जाना जरूरी है।
इसलिए पहला सूत्र आपसे यह मैं कहना चाहता हूं कि क्या हम झूठे आदमी हैं? क्या हमारा व्यक्तित्व असत्य है? क्या हमने एक सूडो पर्सनैलिटी, एक मिथ्या आवरण और वस्त्रों का व्यक्तित्व बना रखा है? जिस आदमी को धर्म से कोई संबंध नहीं, वह मंदिर में पूजा करता हुआ दिखाई पड़ता है। जिस आदमी के भीतर अंधकार भरा हो, उसने सफेद वस्त्र पहनने के लिए ढूंढ लिए हैं। और जिस आदमी के भीतर क्रोध हो, उसके चेहरे पर क्षमा दिखाई पड़ती है। और जिस आदमी के भीतर हिंसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, वह प्रेम के गीत गाता है। हमने अपना सारा व्यक्तित्व ही झूठ कर लिया है।
रास्ते पर एक आदमी मिलता है और हम नमस्कार करते हैं और कहते हैं, बड़े भाग्य कि सुबह ही आपके दर्शन हो गए। और मन में हम कहे चले जाते हैं कि यह दुष्ट सुबह से कैसे दिखाई पड़ गया! हम जिनके प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हैं, हमारे प्राणों में उनके लिए कोई प्रार्थना नहीं उठती, कोई प्रेम नहीं उठता। हम जो बोलते हैं, उससे हमारी आत्मा का कोई भी संबंध नहीं है। हम जो दिखाई पड़ते हैं, उसका हमारे वास्तविक होने से कोई भी नाता नहीं है।
मैंने सुना है, लंदन में एक अदभुत फोटोग्राफर था। उसने अपने स्टूडियो के सामने एक तख्ती लगा रखी थी। उस तख्ती पर उसने कितने-कितने दामों के चित्र निकाले जाते हैं, वह लिख छोड़ा था। वह तीन तरह के फोटो निकालता था। एक गांव का ग्रामीण भी फोटो उतरवाने गया था। उसने तख्ती पर देखा कि उसने लिख रखा है कि पहले किस्म के फोटो जो उतरवाना चाहते हैं, उसके पांच रुपये दाम होंगे। और पहले किस्म के फोटो का मतलब है--आप जैसे हो वैसा ही चित्र। जो दूसरे प्रकार के चित्र उतरवाना चाहते हैं, उसके दाम दस रुपये होंगे। और दूसरे प्रकार के चित्र का अर्थ है--जैसे आप लोगों को दिखाई पड़ना चाहते हो वैसा चित्र। और तीसरे प्रकार के चित्र के दाम पंद्रह रुपये होंगे। और तीसरे चित्र का मतलब है--आप जैसा चाहते थे कि परमात्मा आपको बनाए वैसा चित्र।
वह ग्रामीण बहुत हैरान हो गया! उसने तो सोचा था: चित्र एक ही प्रकार का होता होगा। उसने उस स्टूडियो के मालिक को पूछा: क्या तीन प्रकार के चित्र हो सकते हैं एक आदमी के?
वह फोटोग्राफर हंसने लगा। उसने कहा: हमारे पास ज्यादा सुविधाएं नहीं हैं, एक-एक आदमी के हजार-हजार चित्र हो सकते हैं।
और एक-एक आदमी की हजार-हजार तस्वीरें हैं। पत्नी के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है; बेटों के, बच्चों के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है; मालिक के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है; नौकरों के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है। आदमी चौबीस घंटे तस्वीरें बदलता रहता है। वह गिरगिट की तरह बदलता रहता है पूरे समय।
आदमी की हजार तस्वीरें हो सकती हैं। हमारे पास साधन कम हैं, इसलिए हम तीन ही प्रकार की तस्वीरें उतारते हैं। तुम्हें किस प्रकार की तस्वीर उतरवानी है?
उस ग्रामीण ने कहा: मैं तो हैरान हूं! लोग तो पहली तरह की ही तस्वीर उतरवाते होंगे। जैसा आदमी दिखाई पड़ता है, वैसी ही तस्वीर उतरवानी चाहिए। क्या ऐसे लोग भी आते हैं इस स्टूडियो में जो नंबर दो और नंबर तीन की तस्वीर उतरवाते हों?
उस स्टूडियो के मालिक ने कहा: तुम पहले आदमी आए हो जो पहले नंबर की तस्वीर उतरवाने का विचार कर रहा है। अब तक ऐसा कोई आदमी नहीं आया। जो भी आता है अव्वल तो तीसरे नंबर की तस्वीर उतरवाना चाहता है। अगर पैसे कम होते हैं, तो नंबर दो की उतरवाता है। पहले नंबर की तस्वीर उतरवाने वाला आदमी अब तक आया ही नहीं।
कोई भी आदमी ऐसा दिखाई नहीं पड़ना चाहता है, जैसा वह है। आदमी जो सत्य है उसे भीतर छिपा लेना चाहता है और जो मिथ्या है उसे ओढ़ लेना चाहता है। हमने कितनी-कितनी तरकीबें ईजाद की हैं अपने व्यक्तित्व को झूठ और धोखे का बना लेने की। और फिर यही आदमी विचार करने लगता है कि मैं सत्य खोजूं! फिर यही आदमी गीता पढ़ने लगता है, कुरान, बाइबिल पढ़ता है, यही आदमी भजन-कीर्तन करता है। यही आदमी भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा होता है और प्रार्थना करता है कि मुझे सत्य का पता चल जाए। और यह आदमी कभी भी यह नहीं पूछता कि मैं अगर असत्य हूं, तो मुझे सत्य का पता कैसे चल सकता है? अगर मैं ही असत्य हूं, तो सत्य से मेरा संबंध कैसे हो सकता है?
सत्य की खोज का पहला चरण है: हमारा व्यक्तित्व सत्य होना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व वैसा होना चाहिए जैसा है--सीधा और साफ और सरल। हम जैसे हैं, वैसे की ही स्वीकृति होनी चाहिए। लेकिन वह स्वीकृति हमारे मन में कहीं भी नहीं है।
और बड़े आश्चर्य की बात है, जिनको हम भले आदमी कहते हैं, उनमें वह सरलता और भी कम है उन लोगों की बजाय जिन्हें हम बुरे आदमी कहते हैं। जिन्हें हम अपराधी कहते हैं, वे तो सरल हो भी सकते हैं, लेकिन जिन्हें हम सज्जन और साधु कहते हैं, वे बिलकुल भी सरल नहीं हैं।
इसलिए सभ्यता और संस्कृति जितनी विकसित हुई है, आदमी उतना झूठा होता चला गया है। गांव में, देहात में, दूर जंगल में आदिवासी सरल मिल भी सकता है। लेकिन उसे न धर्म का कोई पता है, न उसने गीता पढ़ी है, न कुरान, न बाइबिल; न वह हिंदू है, न मुसलमान; न उसे मोक्ष जाने का कोई खयाल है, न उसने सत्य के संबंध में शास्त्र रचे हैं, न उसने सत्य के लिए विवाद किया है। वहां दूर आदिवासी जंगल में मिल भी सकता है जो सच्चा आदमी हो, वैसा, जैसा है। लेकिन जितनी संस्कृति विकसित होती है और सभ्यता विकसित होती है उतना ही आदमी झूठा होता चला जाता है। उतने ही हम वस्त्रों के ऊपर वस्त्र ओढ़ते चले जाते हैं, धीरे-धीरे आदमी खो जाता है और सिर्फ कपड़ों का ढेर रह जाता है। फिर यह कपड़ों का ढेर चाहता है कि सत्य से मेरा कोई संबंध हो जाए, मैं परमात्मा को जान लूं, मैं जीवन को पहचान लूं। यह असंभव है।
यह आश्चर्य की बात है कि सभ्य आदमी असत्य आदमी होता है। होना तो उलटा चाहिए था। सत्य आदमी को ही सभ्य आदमी कहा जाना चाहिए था। लेकिन जितनी सभ्यता, जितनी संस्कृति, जितनी शिक्षा उतनी कनिंगनेस, उतनी चालाकी, उतना कपट, उतना झूठ।
लंदन में शेक्सपीयर का एक नाटक चल रहा था। सौ वर्ष पहले की बात है। और गांव भर में शेक्सपीयर के नाटक की चर्चा थी। जो भी बात करता था, उसकी प्रशंसा करता था। लंदन का जो आर्चप्रीस्ट था, जो सबसे बड़ा पुरोहित था, उसको भी लोगों ने आकर कहा कि बहुत अदभुत नाटक है और अभिनेता इतने कुशल हैं, इतने जीवंत हैं, ऐसा कभी देखा नहीं गया। लेकिन उस पादरी ने, जैसा कि धर्मगुरु और पुरोहितों की आदत होती है, फौरन कहा: नाटक! नरक जाने का विचार कर रहे हो! मनोरंजन खोजते हो? सुख खोजते हो? इस सबमें कोई भी सार नहीं है।
यह उस पादरी ने ऊपर से तो कहा, लेकिन पादरी के भीतर भी आदमी है उतना ही जितना किसी और आदमी के भीतर। ऊपर से तो उसने यह कहा कि नरक जाओगे, नाटकों में क्यों पड़े हो? सत्य की खोज करो, परमात्मा की खोज करो, समय क्यों गंवा रहे हो? जिंदगी पूरा ही एक नाटक है और तुम नाटकगृह में देखने क्या जाते हो? लेकिन भीतर उसे रात भर नींद नहीं आई। बार-बार यह खयाल आने लगा, कैसा होगा नाटक? कैसे होंगे पात्र? कैसा होगा अभिनय? उसने तो कभी भी नाटक नहीं देखा था।
उसने दूसरे दिन सोच-समझ कर नाटक के थियेटर के मैनेजर को एक पत्र लिखा कि मैं भी नाटक देखने आना चाहता हूं। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं हो सकता कि पीछे का कोई दरवाजा हो, उससे मैं आ जाऊं , कोई मुझे न देख सके और मैं नाटक देख लूं? अगर ऐसा कुछ हो, तो इंतजाम कर दें, बड़ी कृपा होगी। मैं नहीं चाहता हूं कि नाटक देखने वाले मुझे देख लें। तो पीछे से, जब नाटक शुरू हो जाए, अंधेरा हो जाए, तब मैं भीतर आ जाना चाहता हूं। कोई पीछे का दरवाजा है?
थियेटर के मैनेजर ने उसे पत्र का उत्तर दिया और लिखा: हमें पीछे के दरवाजे हर गांव में व्यवस्थित करने पड़ते हैं, पीछे के दरवाजे बनाने पड़ते हैं। क्योंकि सज्जन हमेशा पीछे के दरवाजे से आते हैं, वे सामने के दरवाजे से कभी नहीं आते। सामने से तो वे लोग आ जाते हैं, जिन्हें सज्जन होने के दंभ का कोई खयाल नहीं है। जिन्हें यह कोई अहंकार नहीं है कि हम कोई महापुरुष हैं, कोई ज्ञानी हैं, कोई साधु हैं, कोई महात्मा हैं, वे बेचारे सामने के दरवाजे से आ जाते हैं। वे सीधे-साधे लोग हैं, चालाक लोग नहीं हैं। चालाक लोग हमेशा पीछे के दरवाजे से आते हैं। तो पीछे का दरवाजा तो रखना पड़ता है। आप खुशी से आएं, स्वागत है आपका।
लेकिन उसने पत्र के बाद पुनश्च करके एक और सूचना लिखी और उस सूचना में लिखा: लेकिन एक बात मैं आपको याद दिला देना चाहता हूं, ऐसा दरवाजा तो है थियेटर में जिससे आप आएंगे तो कोई आपको नहीं देख सकेगा, लेकिन मैं यह विश्वास नहीं दिला सकता कि परमात्मा भी नहीं देख सकेगा। और यह भी हो सकता है कि आप मानते ही न हों कि परमात्मा है। क्योंकि पुरोहित मुश्किल से ही मानता है परमात्मा को। दुनिया को मनवाने की कोशिश करता है कि परमात्मा है, लेकिन खुद भलीभांति जानता है कि मैं धंधा कर रहा हूं परमात्मा के नाम पर। तो उस थियेटर के मैनेजर ने लिखा कि मुझे शक है कि शायद आप मानते भी न हों कि परमात्मा है।
पुरोहित परमात्मा को मानते हैं इसका कोई प्रमाण आज तक पृथ्वी पर नहीं मिल सका है। क्योंकि अगर पुरोहित परमात्मा को मानते होते, तो हिंदू का पुरोहित और मुसलमान और ईसाई का पुरोहित अलग-अलग नहीं हो सकता था। क्योंकि परमात्मा तीन नहीं हैं, तीन सौ नहीं हैं। और अगर पुरोहित परमात्मा को मानते होते, तो दुनिया में आज तक धर्म की कोई भी लड़ाई और हिंसा नहीं हुई होती। क्योंकि जो परमात्मा को जानते हैं और स्वीकार करते हैं, उनके लिए हिंसा का कोई उपाय नहीं है। उनके लिए प्रेम के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रह जाता।
तो उस थियेटर के मैनेजर ने लिखा: हो सकता है आप न मानते हों कि परमात्मा है, तब भी मैं एक बात याद दिला दूं कि कोई आपको नहीं देख पाएगा कि आप थियेटर में आए, लेकिन कम से कम आप तो देख ही पाऐंगे कि आप थियेटर में आए हैं। उसका इंतजाम मैं नहीं कर सकता कि आपको भी पता न चले कि आप थियेटर में आए हैं।
आदमी ने बहुत तरह का पाखंड, हिपोक्रेसी विकसित की है और पीछे के दरवाजे निकाल लिए हैं। और धीरे-धीरे दुनिया इतनी सभ्य होती जा रही है कि किसी थियेटर में आगे के दरवाजे रखने की जरूरत धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। सब दरवाजे पीछे की तरफ ही होंगे। क्योंकि सभी आदमी सज्जन होते चले जा रहे हैं। आदमी का सारा व्यक्तित्व ही कृत्रिम, झूठा, आर्टिफिशियल बनाया हुआ जा रहा है। हम एक शक्ल बनाए हुए हैं जो दूसरों को दिखाने के लिए है और हम सब अपने भीतर जानते हैं कि वह शक्ल झूठी है। हम सब भलीभांति परिचित हैं कि वह शक्ल झूठी है। और हमने न केवल जीवन के संबंध में झूठी शक्ल बना ली है, सत्य के संबंध में भी हमने झूठी शक्ल बना ली है। उसे हम थोड़ा समझें तो सत्य की खोज में कदम आगे बढ़ाए जा सकते हैं।
अगर मैं आपसे पूछूं कि ईश्वर है? तो निश्चित ही अधिक लोग कहेंगे कि हां, ईश्वर है। शायद कुछ थोड़े से लोग हों जो कहें कि नहीं है। लेकिन अगर मैं दूसरा प्रश्न पूछूं कि जो लोग कह रहे हैं कि ईश्वर है या जो लोग कह रहे हैं कि ईश्वर नहीं है, वे जान कर कह रहे हैं? उन्हें पता है? जो कह रहे हैं, ईश्वर है, उन्हें पता है ईश्वर के होने का? और अगर बिना पता हुए कह रहे हैं, तो झूठ बोल रहे हैं। और परमात्मा के सामने भी अपनी एक झूठी तस्वीर खड़ी कर रहे हैं कि मैं आस्तिक हूं। जो लेाग कह रहे हैं कि ईश्वर नहीं है, उन्होंने खोज लिया है जीवन को और अस्तित्व को और पा लिया है कि ईश्वर नहीं है, उसके न होने को उन्होंने पा लिया है? अगर उन्हें ईश्वर का न होना अब तक नहीं मिल गया है, तो वे झूठ बोल रहे हैं। और ईश्वर के समक्ष, सत्य के समक्ष, नास्तिक की झूठी शक्ल खड़ी कर रहे हैं।
और हम सारे लोग ही इसी तरह के लोग हैं। हमने जीवन के परम सत्यों के संबंध में भी झूठी शक्लें बना ली हैं--आस्तिक की, नास्तिक की। और कभी हम अपने से नहीं पूछते हैं कि इन झूठी शक्लों को लेकर हम सत्य को खोजने निकल पड़े हैं, तो वह हमें मिल सकेगा? सत्य के संबंध में भी हमारी झूठी धारणाएं हैं।
एक फकीर एक गांव में ठहरा हुआ था। उस गांव के लोगों ने कहा कि आप हमारी मस्जिद में प्रवचन देने नहीं चलेंगे?
उस फकीर ने कहा: लेकिन मुझे कुछ पता हो तो मैं कहूं? मुझे कुछ पता ही नहीं है।
लेकिन उस गांव के लोगों ने सुना था कि जो लोग परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, वे ऐसा ही कहने लगते हैं कि हमें कुछ पता नहीं है। तो जरूर इस साधु को कुछ पता होगा। उससे बहुत प्रार्थना की और उसे मस्जिद जबरदस्ती ले गए। उसे जाकर मंच पर खड़ा कर दिया। तो उस फकीर ने उस मस्जिद के लोगों को पूछा कि इससे पहले कि मैं कुछ बोलूं, तुमसे मैं एक बात पूछना चाहता हूं। तुम किस संबंध में मुझसे चाहते हो कि मैं कहूं?
उन लोगों ने कहा: निश्चित ही हम ईश्वर के संबंध में सुनना चाहते हैं।
तो उस फकीर ने पूछा: तुम्हें पता है, ईश्वर है? तुम मानते हो ईश्वर है? तुम जानते हो ईश्वर है?
उस मस्जिद के सारे लोगों ने कहा कि हां, हम जानते हैं--एक स्वर से कि ईश्वर है, परमात्मा है, वही है।
उस फकीर ने कहा: फिर क्षमा करो! जब तुम्हें पता ही है कि वह है, तो अब और मैं क्या बोलूं? अगर तुम्हें पता न होता, तो शायद मेरे बोलने का कोई अर्थ भी था। जब पता ही है तो बात खत्म हो गई। ईश्वर के पता होने से और आगे तो ज्ञान की कोई यात्रा ही नहीं है। वह तो चरम, अंतिम ज्ञान है। उसके बाद तो ज्ञान की कोई यात्रा नहीं है। वहां तो आ जाती है सीमा। जो भी जानने योग्य है, वह जान लिया गया। जो भी पाने योग्य था, वह पा लिया गया। ईश्वर अर्थात अंत, दि अल्टीमेट। तो अब मेरे और कहने की क्या जरूरत रही? क्षमा करो! व्यर्थ मैं भी श्रम करूं, तुम भी घंटों यहां बैठे रहो। मैं जाता हूं।
उस गांव के मस्जिद के लोग फंस गए। उन्होंने सोचा, यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई। हमें क्या पता था कि यह आदमी यह कहने से कि ईश्वर है और चला ही जाएगा? उन्होंने कहा, अगले शुक्रवार को फिर प्रार्थना करनी चाहिए। और अब की बार हम तय कर लें कि हम कहेंगे कि नहीं, ईश्वर है ही नहीं। हमें मालूम ही नहीं कि ईश्वर है। हमें पता ही नहीं।--दूसरा उत्तर।
दूसरे शुक्रवार को उस फकीर को फिर वे पकड़ कर ले आए।
उसने फिर पूछा कि मित्रो, क्या इरादे हैं? ईश्वर के संबंध में जानना है? फिर वही सवाल: ईश्वर है? मानते हो? जानते हो?
उन सारे लोगों ने कहा: कैसा ईश्वर? कहां का ईश्वर? हमें कुछ भी पता नहीं। ईश्वर है भी, नहीं भी, हमें कुछ मालूम नहीं। न हम कुछ मानते, न हम जानते।
उस फकीर ने कहा: बात खत्म। जब तुम ईश्वर के बाबत न मानते हो, न जानते हो, तो फिजूल मेहनत करने की क्या जरूरत है? जो बात है ही नहीं, उसके संबंध में बात करने से फायदा क्या है? बेबात की बात हो जाएगी। हवा में चर्चा हो जाएगी। मैं जाता हूं। ईश्वर तुम्हारा सवाल ही नहीं है। ईश्वर तुम्हारा प्रॉब्लम नहीं है।
वह फकीर तो उतर कर चला गया। जिनकी समस्या ही नहीं है ईश्वर की, उनसे ईश्वर की क्या बात करनी?
गांव के लोग तो बहुत हैरान हुए कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। यह आदमी तो बड़ा धोखेबाज निकल गया। पहली बार हमने हां कहा था तो उसने गड़बड़ कर दी थी, अब की बार ना कहा तो गड़बड़ कर दी। अब क्या हो सकता है आगे? गांव के लोगों ने सोच कर तय किया कि तीसरा भी एक उत्तर हो सकता है। तीसरे शुक्रवार इसको फिर पकड़ना चाहिए।
वे तीसरे शुक्रवार उस फकीर को फिर ले आए। और उसने पूछा कि मित्रो, क्या इरादे हैं? अब क्या उत्तर है?
उस गांव के लोग होशियार थे। जैसा कि सभी गांव के लोग होशियार हैं। और उन होशियार लोगों ने तीसरा उत्तर खोज लिया था। होशियार लोग उत्तर खोजते रहे हैं बिना जानते हुए। इसलिए होशियारों के सब उत्तर दो कौड़ी के हैं। होशियारों के उत्तर का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि वे जानते नहीं हैं, सोच कर उत्तर तैयार कर लेते हैं। गांव के लोगों ने तीसरा उत्तर तैयार कर लिया। जैसे कि ईश्वर के संबंध में उत्तर तैयार करना गांव के लोगों का अधिकार हो।
उस फकीर ने कहा: क्या इरादा है आज? ईश्वर है कि नहीं? मानते हो कि नहीं?
आधी मस्जिद के लोगों ने हाथ उठाया और कहा कि आधे लोग जानते हैं कि ईश्वर है और आधे लोगों ने कहा कि हम नहीं जानते कि ईश्वर है। अब क्या इरादा है?
अब यही उत्तर हो सकता था तीसरा। पुराने दो उत्तर की कंप्रोमाइज, उन दोनों का समझौता कर लिया था।
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: तब तो मेरा आना बिलकुल ही फिजूल हुआ। जिनको मालूम है, वे उनको बता दें जिनको मालूम नहीं है। मैं जाता हूं। मेरी क्या जरूरत है? मेरा क्या प्रयोजन? और वह फकीर चला गया।
उस फकीर से मैंने पूछा है कि चौथी बार वे लोग नहीं आए?
वह फकीर कहने लगा: अगर चौथी बार वे आ जाते, तो फिर मुझे बोलना ही पड़ता।
तो मैंने उससे पूछा कि चौथी बार क्यों बोलना पड़ता?
उसने कहा: चौथी बार अब एक ही उत्तर शेष रहा था उस मस्जिद के लोगों को कि मैं पूछता और वे चुप रह जाते और कोई भी उत्तर न देते। एक ही उत्तर और बाकी रह गया था कि मैं पूछता और वे चुप रह जाते, कोई भी उत्तर न देते, तब मुझे जरूर बोलना पड़ता। क्योंकि मौन के अतिरिक्त सत्य के संबंध में सच्चा व्यक्तित्व कुछ भी नहीं हो सकता।
सत्य के संबंध में कोई भी पक्ष लेना असत्य के पक्ष में खड़ा होना है। सत्य के संबंध में खोजी की पहली अनुभूति मौन की होगी। वह कहेगा, मुझे कुछ भी पता नहीं। तो मैं क्या बोलूं, हां कहूं कि न? वह हां कहने में भी भयभीत होगा, हां गलत हो सकता है; वह न कहने में भी भयभीत होगा, न गलत हो सकता है। मुझे पता नहीं है।
तो सत्य के खोजी का पहला चरण होगा--मौन। वह जीवन के परम प्रश्नों पर चुप हो जाएगा। वह किसी पक्ष में खड़ा नहीं होगा। मौन है निष्पक्ष।
हां और न सब पक्षों में बांट देते हैं--आस्तिक और नास्तिक। इसलिए दोनों ही धार्मिक नहीं हैं। दोनों की खोज सत्य की खोज नहीं है। आस्तिक एक पक्ष ले रहा है हां का, नास्तिक विरोधी पक्ष ले रहा है न का। लेकिन दोनों पक्ष ले रहे हैं, निष्पक्ष कोई भी नहीं है। और सत्य की खोज वह कर सकता है जो निष्पक्ष है, अनप्रिज्युडिस्ड। जिसके मन में किसी पक्ष ने कोई स्थान नहीं बनाया है। जो कहता है, मुझे मालूम नहीं, इसलिए मैं किसी पक्ष में कैसे सम्मिलित हो जाऊं? जिस दिन मैं जानूंगा, उस दिन किसी पक्ष में खड़ा हो जाऊंगा। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है, जिन्होंने जाना है, वे सारे पक्षों के बाहर हो गए; वे किसी पक्ष में कभी खड़े नहीं हुए। जिन्होंने जाना है, वे पक्ष के बाहर हो गए और जो नहीं जानते, वे पक्षों में विभक्त हैं।
सत्य की खोज की हत्या इसलिए दुनिया में हो गई कि सत्य के नाम पर पक्ष बन गए।
सत्य का कोई पक्ष नहीं है।
सत्य का कोई मत नहीं है।
सत्य का कोई पंथ नहीं है।
सत्य का कोई संप्रदाय नहीं है।
सत्य का कोई धर्म नहीं है।
लेकिन सारी मनुष्यता विभक्त है पंथों में, धर्मों में, पक्षों में, मतों में, फिलॉसफीज में, सिस्टम्स में सारी दुनिया विभक्त है। हर आदमी ने कोई पक्ष बना लिया है। और जिस आदमी ने पक्ष बना लिया है, वह असत्य के रास्ते पर जा चुका। उसकी सत्य तक यात्रा नहीं हो सकती।
सत्य की तरफ जाने के लिए चाहिए निष्पक्ष चित्त, अनप्रिज्युडिस्ड माइंड, एक ऐसी चेतना, जो कहे कि मुझे पता नहीं है, इसलिए मैं किसी पक्ष में कैसे विभक्त हो सकता हूं? जो कहे कि मैं हिंदू नहीं हूं, जो कहे कि मैं मुसलमान नहीं हूं, जो कहे कि मैं जैन नहीं हूं, क्योंकि मुझे पता नहीं है कि सत्य क्या है, तो मैं कैसे निर्णायक हो जाऊं कि मैं कहां हूं और कौन हूं? जो कहे कि मैं आस्तिक नहीं, नास्तिक नहीं। जो मनुष्य इतनी हिम्मत जुटाता है, इस बात को कहने की कि मैं अज्ञानी हूं, मुझे कोई पता नहीं है, मैं कैसे पक्ष ले सकता हूं?
पक्ष लेने के लिए ज्ञानी मान लेने की जरूरत है अपने आप को। और इसलिए मैं कहता हूं, पक्ष मनुष्य को असत्य की यात्रा पर ले जाता है। पक्ष में सम्मिलित होने का मतलब यह है कि मैंने यह स्वीकार कर लिया कि मैं जानता हूं। तभी तो पक्ष लिया जा सकता है। और हम जानते नहीं हैं और हमें खयाल है कि हम जानते हैं। न केवल हमने पक्ष लिए हैं, बल्कि हमने पक्ष के लिए तलवारें चलाई हैं।
धर्म के नाम पर आज तक जितनी हत्याएं हुई हैं--न तो डाकुओं ने इतनी हत्याएं की हैं, न चोरों ने, न बदमाशों ने। बड़े आश्चर्य की बात है। धर्म के नाम पर जितने मकान जले हैं और जितनी स्त्रियों की बेइज्जती की गई है उतनी आज तक के सारे पापियों ने मिल कर भी नहीं की है। यह आश्चर्य की बात है। धर्म के नाम पर यह कैसे हो सकता है? और अगर धर्म के नाम पर यह सब होगा, तो फिर अधर्म के करने के लिए कुछ भी बच नहीं रहता, फिर अधर्म क्या करेगा? अधर्म के लिए तो कोई उपाय ही नहीं छोड़ा है धार्मिक लोगों ने।
यह हो सका है धर्म के नाम पर इसीलिए कि हमने धर्म को पंथ समझा है, पक्ष समझा है। धर्म का पक्ष और पंथ से कोई भी संबंध नहीं है। धार्मिक व्यक्ति होता है निष्पंथ, निष्पक्ष।
क्या आप धार्मिक व्यक्ति हैं? आप कहेंगे, हम धार्मिक हैं। मैं हिंदू हूं, टीका लगाता हूं, जनेऊ रखता हूं; मैं मुसलमान हूं, रोज मस्जिद जाता हूं; मैं जैन हूं, नमोकार पढ़ता हूं रोज सुबह से बैठ कर। धार्मिक आदमी हूं। और आपको कभी खयाल भी न आया होगा, आप पक्ष में खड़े हो गए हैं, आप धार्मिक नहीं रह गए हैं।
धार्मिक व्यक्ति खोज कर सकता है सत्य की, अधार्मिक नहीं। और धार्मिक होने के लिए निष्पक्षता पहला सूत्र है।
लेकिन हम तो बच्चों के पैदा होते से ही जहर उनके दिमाग में घुसेड़ने की कोशिश करते हैं। बच्चा पैदा हुआ और उसको जल्दी हिंदू बनाओ, कहीं उसको बुद्धि आ गई और उसने इनकार कर दिया कि मैं हिंदू नहीं बनता, तो बड़ी देर हो जाएगी, इसलिए बहुत जल्दी खून में उसके डाल दो कि वह हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है। निर्बोध बच्चों के साथ जो अत्याचार चलता रहा है, दस हजार सालों से, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
आज तक मनुष्य-जाति ने बच्चों के साथ जो अनाचार किया है वह और किसी से साथ नहीं किया। बच्चों को पक्ष में बांध दिया गया, यह सबसे बड़ा अनाचार है। उनकी सत्य की खोज हमेशा के लिए कुंठित हो गई। अब वे कभी भी हिम्मत के साथ प्रश्न नहीं पूछ सकेंगे कि सत्य क्या है? उन्हें उत्तर पहले से ही दे दिए गए। उन्होंने प्रश्न पूछे थे, उसके पहले उत्तर दे दिए गए। इसके पहले कि वे खोज करने निकलते, उन्हें शास्त्र पकड़ा दिए गए। इसके पहले कि वे खुद की जिज्ञासा को जगाते, उनके हाथों में सिद्धांत थमा दिए गए। वे बच्चे हमेशा के लिए असत्य में जीएंगे, असत्य में मरेंगे, वे कभी सत्य की खोज नहीं कर सकेंगे।
सत्य की खोज का दूसरा सूत्र है: जिज्ञासा।
पहला सूत्र है: निष्पक्ष चित्त। दूसरा सूत्र है: जिज्ञासा, इंक्वायरी।
और हम बच्चों की सारी जिज्ञासा की हत्या कर देते हैं। जिज्ञासा की हत्या करने के हमने उपाय खोज रखे हैं। हमने हर जिज्ञासा का रेडीमेड उत्तर बना रखा है। कोई भी प्रश्न हो, उत्तर तैयार है। हमें प्रश्न से ज्यादा मूल्य उत्तर का है। प्रश्न को दबा दो, उत्तर को ऊपर से थोप दो। बच्चा पूछे कि मृत्यु के बाद क्या है? और कह दो कि आत्मा अमर है। न खुद पता है कि आत्मा अमर है। नहीं, खुद भी कुछ पता नहीं है। लेकिन बच्चे के दिमाग पर थोप दो कि आत्मा अमर है।
बच्चा पूछता था: मृत्यु क्या है? बच्चा एक प्रश्न उठाता था, एक जिंदगी का बड़ा सवाल उठाता था कि मृत्यु के बाद क्या है? और मैं आपसे कहता हूं, बच्चे ने ज्यादा कीमती सवाल उठाया था, वह आपके उत्तर से बहुत ज्यादा कीमती था। क्योंकि आपका उत्तर झूठा है, आपको कुछ भी पता नहीं है। मौत आएगी तब आपको पता चलेगा कि आत्मा अमर है या नहीं। तब आप घबड़ाएंगे और चिल्लाएंगे कि मुझे बचा लो किसी तरह से अब मैं मर रहा हूं। तब आपको पता चलेगा कि वह आत्मा की अमरता की जो मैं बात कहता था, जानता नहीं था, सुना हुआ था। सुन लिया था, दोहरा रहा था। और दोहरा भी सिर्फ इसलिए रहा था कि मौत का बहुत मन में डर था। तो अपनी हिम्मत जुटा रहा था कि नहीं, आत्मा अमर है, आत्मा अमर है, आत्मा अमर है। मैं नहीं मरूंगा, यह हिम्मत जुटा रहे थे।
अंधेरी गली में आदमी निकलता है, तो हरे राम, हरे राम कहने लगता है, घबड़ाहट की वजह से, डर की वजह से, यह मत समझ लेना कि यह धार्मिक है। जोर-जोर से चिल्ला कर वह यह भ्रम पैदा करता है कि मैं डरा हुआ नहीं हूं। लेकिन उसका जोर से चिल्लाना बताता है कि वह डरा हुआ है। डरा हुआ नहीं होता तो हरे राम चिल्लाने की भी कोई जरूरत नहीं थी। ठंडी नदी में सुबह आदमी नहाने जाता है, पानी डालता है और चिल्लाता है जय सीताराम, जय सीताराम, यह मत समझ लेना कि यह धार्मिक आदमी है। ठंड को भुलाने की कोशिश कर रहा है चिल्ला कर। चिल्लाने में मन लग जाए, तो भूल जाए कि ठंड लग रही है। जल्दी से नदी के बाहर हो जाए।
ये जो लोग ‘आत्मा अमर है’ का मंत्र रटते रहते हैं, यह मत समझ लेना कि इन्हें आत्मा की अमरता का कोई भी पता है। अगर इन्हें पता होता, तो इनकी जिंदगी एक सुगंध बन जाती, एक सत्य बन जाती, इनका जीवन कुछ से कुछ और हो जाता, ये आदमी ही दूसरे होते। जिस आदमी को यह पता चल गया कि मृत्यु नहीं है, वह आदमी दूसरे ही जगत में प्रवेश कर गया। उसने उस सत्य को जान लिया, जिसे जानने से सब-कुछ जान लिया जाता है। उसने अमृत को अनुभव कर लिया। और जिस आदमी ने अमृत को अनुभव कर लिया, उसके जीवन में घृणा होगी? उसके जीवन में क्रोध होगा? उसके जीवन में बेईमानी होगी? जिस आदमी ने अमृत को जान लिया, उसके जीवन में क्रोध की कहां संभावना है? क्रोध तो मृत्यु से बचने का उपाय था, वह तो सेफ्टी मेजर है। वह तो डर लगता है कि कोई मार न डाले, तो हम अपनी ताकत इकट्ठा करने के लिए क्रोधित होकर सुरक्षा करते हैं। घृणा तो मौत से बचने का उपाय है। सुरक्षा के उपाय हैं ये सब।
जिस आदमी को यह पता चल गया कि मौत नहीं है, उसका इस जगत में कोई शत्रु हो सकता है? शायद आपने कभी सोचा ही नहीं होगा। मौत के भय के कारण शत्रु पैदा होते हैं, अन्यथा कोई शत्रु नहीं है, फिर सब मित्र हैं। जब मुझे कोई मिटा ही नहीं सकता, तो शत्रु हो कैसे सकता है? शत्रु का मतलब, जो मुझे मिटा सकता है। जिसकी संभावना है कि जो मुझे मिटा सकता है, वह मेरा शत्रु है। लेकिन अगर मैं मिट ही नहीं सकता, तो इस जगत में शत्रु कैसे हो सकता है? फिर सब मित्र हो गए। लेकिन नहीं, हमें कुछ पता नहीं है कि आत्मा अमर है। हम मौत को झुठलाने के लिए दोहरा रहे हैं कि आत्मा अमर है। और अगर एक पुरुष एक कोने में बैठ कर दोहराने लगे कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं, तो क्या मतलब होगा इसका? इसका मतलब होगा कि उसको अपने पुरुष होने में खुद भी शक है, नहीं तो दोहराता नहीं। हमें जिस बात का संदेह होता है, वही हम दोहराते हैं, नहीं तो हम कभी नहीं दोहराएंगे। जो हम जानते हैं, वह हम जानते हैं, दोहराने की कोई जरूरत नहीं है।
मंदिरों में, आश्रमों में लोग बैठे हैं, वे कहते हैं कि मैं तो अजर-अमर आत्मा हूं। सुबह से मंत्र रट रहे हैं कि मैं अजर-अमर आत्मा हूं, मैं अजर हूं। पागल हो गए हैं। अगर तुम्हें पता चल गया है कि तुम अजर-अमर आत्मा हो, तो यह बकवास क्यों जारी किए हो? यह किसको सुनाने के लिए चला रहे हो? यह किसलिए दोहरा रहे हो? और अगर पता नहीं चला है, तो इस भ्रम में मत रहो कि बहुत बार दोहरा लेने से पता चल जाएगा। अगर इतना सत्य आसान होता कि हम किसी बात को बहुत बार दोहराएं और हम उसके जानने वाले बन जाएं, तो दुनिया में सारे लोग सत्य को कभी का जान गए होते। दोहराने से भ्रम पैदा हो सकता है, दोहराने से सत्य का पता नहीं चल सकता। जो मुझे मालूम नहीं है, मैं उसे एक बार दोहराऊं कि करोड़ बार दोहराऊं, जो मुझे मालूम नहीं है, वह मालूम नहीं है। हां, लेकिन करोड़ बार दोहराने से यह भ्रम पैदा हो सकता है--वह पहली बुनियादी बात कि मुझे मालूम नहीं है--करोड़ बार दोहराने से भूल सकती है, विस्मृत हो सकती है। करोड़ बार दोहराने से यह भ्रम पैदा हो सकता है कि मुझे मालूम है। क्योंकि मैं कितने साल से दोहरा रहा हूं कि आत्मा अमर है। लेकिन आपके दोहराने से कभी कुछ नहीं होता है।
बच्चे ने एक बुनियादी सवाल पूछा है कि मौत के बाद क्या है? अगर आपको मालूम नहीं है, तो अपने अज्ञान को स्वीकार कर लें। यह बच्चे के साथ हित और मंगल होगा और बच्चे की जिज्ञासा को बढ़ाने में सहयोगी होगा। और बच्चे को कहें कि मुझे पता नहीं है। मैं भी खोज रहा हूं और अब तक जान नहीं सका हूं। तुम भी खोजना और खोजने के पहले भूल से भी कभी मान मत लेना, क्योंकि जो मान लेता है उसकी खोज बंद हो जाती है। जो मान लेता है उसकी खोज बंद हो जाती है!
जिज्ञासा का अर्थ है बिलीफ नहीं, विश्वास नहीं, श्रद्धा नहीं। जिज्ञासा का अर्थ है पूरे प्राणों की यह चेष्टा कि मैं जानना चाहता हूं कि क्या है सत्य जीवन का? क्या है रहस्य जीवन का? क्या है छिपा इस सारे जगत में? इस सारी प्रकृति में कौन है छिपा? इस दृश्य के भीतर कौन अदृश्य है? इस शरीर के भीतर कौन अशरीरी है? इन शब्दों के भीतर कौन सा सत्य है? इन फूलों के भीतर कौन सा सौंदर्य है? इस सारे जीवन और जगत के भीतर क्या है छिपा? उसे मैं जानना चाहता हूं--मैं जानना चाहता हूं! और अगर मुझे जानना है, तो मुझे उधार बातों से बच जाने की जरूरत है।
लेकिन मनुष्य-जाति के पाखंड ने, उधार बातों ने बहुत बड़ा हाथ जुड़ाया है।
कृष्ण को पता है कि सत्य क्या है। बुद्ध को पता है कि सत्य क्या है। उनको पता है और हम उनके शब्दों को दोहरा रहे हैं और सोच रहे हैं हमें भी पता हो जाएगा। उधार हैं वे शब्द, बासे और मृत। जिसे पता है, उसके शब्दों में प्राण होते हैं। लेकिन जैसे ही वे शब्द हमारे पास आते हैं, निष्प्राण हो जाते हैं। हमारे पास शब्द ही आते हैं, अनुभव पीछे छूट जाता है।
एक कवि समुद्र की यात्रा पर गया हुआ था। सुबह ही जब समुद्र के तट पर पहुंचा और उसने आकाश की तरफ उठती हुई झागदार लहरों को देखा। दूर से आती हुई लहरें दिखाई पड़ीं। हवाओं के झोंके, सुबह के सूरज की बरसती हुई किरणें दिखाई पड़ीं, सुबह की सुगंध से भरी हुई हवा। उसे तत्क्षण अपनी प्रेयसी की याद आई, जो एक अस्पताल में बीमार पड़ी थी। और उसके मन को हुआ कि काश, वह भी आ सकती और इस सौंदर्य को देख सकती! लेकिन वह तो बीमार है और नहीं आ सकती है। फिर क्या उपाय हो सकता है? तो उसने सोचा कि मैं एक खूबसूरत पेटी खरीद कर लाऊं और सूरज की किरणों को, हवाओं को, समुद्र के सौंदर्य को उसमें भर दूं और भेज दूं। कुछ तो जान सकेगी, कुछ तो देख सकेगी! कवि था, इसलिए इस तरह की नासमझी की बात सोच सकता था।
वह गया और बाजार से एक खूबसूरत पेटी खरीद लाया। बड़ी खूबसूरत पेटी थी। और उसने जाकर समुद्र की हवाएं और सूरज की रोशनी में पेटी को खोला और पेटी बंद कर दी। ताला लगाया। सब तरफ से बिलकुल सील्ड कर दी पेटी कि कहीं से सूरज की किरणें और हवाएं बाहर न निकल जाएं। और एक पत्र लिखा अपनी प्रेयसी को कि एक अपूर्व सौंदर्य का मैंने अनुभव किया है, उसे मैं पेटी में भर कर तेरे पास भेजता हूं। तू भी खुश होगी! थोड़ी सी झलक तो तुझे मिल ही जाएगी!
पेटी पहुंच गई, पत्र भी पहुंच गया। उसकी प्रेयसी बहुत हैरान हुई। स्त्रियां सदा से ही पुरुषों से ज्यादा व्यावहारिक हैं। बेवकूफी की बातें उनके मन को ज्यादा अपील नहीं करती हैं। इसलिए स्त्रियों को देख कर न मालूम कितने कवि पैदा हो गए, लेकिन स्त्रियां कविताएं भी नहीं करतीं। वह बड़ी हैरान हुई कि पागल हो गया है! समुद्र की हवाएं और सूरज की रोशनियां कहीं पेटियों में बंद होती हैं? कहीं सुबह के सौंदर्य भी पेटियों में बंद होते हैं? लेकिन शायद उसने कोई तरकीब की हो। उसने पत्र पढ़ लिया, पेटी खोली, वहां
तो कुछ भी न था। वहां तो घुप्प अंधकार था। न कोई किरण थी, न कोई हवा थी, न कोई सुगंध थी, न कोई सौंदर्य था। वहां तो कुछ भी न था। पेटी खाली थी।
जो लोग सत्य के किनारे पहुंचे हैं, उनके प्राणों में भी लगता होगा कि यह सौंदर्य, यह सत्य का अनुभव, यह प्रतीति उनको भी मिल जाए जो पीछे रह गए हैं यात्रा में। उनकी करुणा के कारण वे शब्दों में भर कर उस सत्य के सौंदर्य की खबर हम तक भेजते हैं। लेकिन शब्द हम तक पहुंच जाते हैं, सौंदर्य वहीं सत्य के किनारे ही रह जाता है। और शब्दों की पेटियों को हम सिर पर लेकर ढोते रहते हैं जिंदगी भर। कोई गीता को ढो रहा है, कोई समयसार को ढो रहा है, कोई कुरान को ढो रहा है, कोई कुछ और ढो रहा है। ये शब्दों की पेटियां हैं। इन शब्दों की पेटियों को ढोने से आप कभी उस समुद्र के किनारे नहीं पहुंच पाएंगे जहां इन शब्दों को भेजने वाले लोग पहुंचे थे। यह वैसा ही पागलपन है कि मैं अंगुली उठा कर दिखाऊं कि आकाश में चांद है और आप मेरी अंगुली पकड़ लें कि बड़े सौभाग्य की बात कि चांद मिल गया। मैं दिखाऊं आकाश की तरफ कि वह रहा चांद और आप पकड़ लें मेरी अंगुली कि मिल गया चांद। तो मैं भी अपनी खोपड़ी ठोक लूंगा। अगर महावीर, बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट कहीं भी हैं, तो अपनी खोपड़ी ठोक-ठोक कर थक गए होंगे कि हमने दिखाए थे इशारे और लोग उन्हीं को पकड़ कर मजे से समझ रहे हैं कि सत्य मिल गया है।
शब्द इशारे हैं, शास्त्र इशारे हैं और उनको हम पकड़े बैठे हुए हैं। और गुरु हैं, महंत हैं, संत हैं, वे समझा रहे हैं कि श्रद्धा रखो, आंख बंद रखो और पकड़े रहो। अगर जरा भी आंख खोली, तो गड़बड़ हो जाने का डर है, क्योंकि आंख खोलने से आपको भी दिखाई पड़ जाएगा कि पेटी खाली है। इसलिए आंख खोलना मत, आंख बंद रखना। यही भक्त का लक्षण है, यही धार्मिक आदमी का लक्षण है। आंख मत खोलना। इसलिए सारी दुनिया पाखंड और झूठ से भर गई है, सारे मनुष्य का व्यक्तित्व झूठा हो गया है।
आंख खोलने की जरूरत है। चाहे आंख खोलने से हमारे कितने ही दिन के पाले और पोसे हुए सत्य गिरते हों तो गिर जाएं। आंख खोलने की जरूरत है। विचार करने की जरूरत है। चाहे हमारे हजारों वर्ष के बनाए हुए भवन धूल में मिटते हों तो मिट जाएं। क्योंकि जो भवन खुली आंख को नहीं सह सकते, वे भवन सपने के भवन होंगे, वे सत्य के भवन नहीं हैं। जो सत्य सच्ची जिज्ञासा के सामने नहीं टिक सकते वे सत्य झूठ से भी बदतर हैं। जो सत्य है वह जिज्ञासा की अग्नि में निखर कर और साफ हो जाता है। सत्य के लिए विश्वास की कोई भी जरूरत नहीं है और सत्य ने कभी भी विश्वास मांगा नहीं है। असत्य मांगते हैं, विश्वास करो, क्योंकि असत्य केवल विश्वास के आधार पर ही खड़ा हो सकता है। सत्य कहता है, विश्वास की कोई जरूरत नहीं है। सोचो, विचारो, खोजो। क्योंकि सत्य को पता है कि तुम जितना खोजोगे, जितना विचारोगे, उतने मेरे निकट आ जाओगे।
तो मैं आपसे कहता हूं: जो लोग भी सिखा रहे हैं दुनिया को विश्वास करो, श्रद्धा करो, बिलीफ करो, वे सारे लोग दुनिया में असत्य के पक्षधर हैं। वे सारे लोग दुनिया में असत्य को मजबूत कर रहे हैं। सत्य को किसी विश्वास के सहारे की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। असत्य के लिए विश्वास की जरूरत है। सत्य के लिए किसी की कोई जरूरत नहीं है। सत्य अपने में खड़े होने में समर्थ है। सत्य नहीं कहता कि आंख बंद करके मेरी बात मानो। सत्य कहता है, खोजो, तोड़ो। जितना तुम काट सकते हो काट दो, लेकिन जो सत्य है, वह हमेशा पीछे शेष रह जाएगा। लेकिन असत्य डरता है कि विचार मत करना, असत्य घबड़ाता है कि विचार किया कि उसके प्राण निकले। विश्वास हटा कि नीचे के आधार खिसके।
एक गांव में एक दुकान पर एक दिन सुबह एक बात होती थी, वह मैंने सुन ली थी, वह मैं आपसे कहता हूं। एक तेली की दुकान है। वह तेल बेचता है। और एक आदमी तेल खरीदने आ गया है। तेली की दुकान के पीछे ही जहां तेली बैठा हुआ है, उसके ठीक पीछे ही कोल्हू का बैल चल रहा है और तेल पेर रहा है। वह ग्राहक जो तेल खरीदने आया है, देख कर बहुत हैरान हुआ। उस बैल को कोई भी चला नहीं रहा है, वह अपने आप ही चल रहा है और तेल पेर रहा है। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने कहा कि यह बैल बड़ा पुराना और बड़ा धार्मिक मालूम पड़ता है, बड़ा रिलीजियस। अब ऐसे कहां लोग हैं जो बिना चलाए चल जाएं? अब तो ऐसे लोग हैं कि सारा मुल्क भी उनको चलाने की कोशिश करे, तो वे नहीं चलते है। छोटा क्लर्क नहीं चल रहा है, बड़ा क्लर्क उसको चलाने की कोशिश कर रहा है। बड़ा क्लर्क भी नहीं चल रहा है, सुप्रिन्टेंडेंट उसको चलाने की कोशिश कर रहा है। और छोटे क्लर्क से लेकर राष्ट्रपति तक कोई नहीं चल रहा है। सब एक-दूसरे को चलाने की कोशिश कर रहे हैं और कोई भी नहीं चल रहा है। यह बैल तो बड़ा धार्मिक मालूम पड़ता है। इतना रिलीजियस, इतना धार्मिक, इतना विश्वासी! उस ग्राहक ने कहा कि धन्यवाद तुम्हारे बैल को! बड़ा आश्चर्य, कोई चला नहीं रहा और बैल कोल्हू चला रहा है!
उस तेली ने कहा: आपको पता नहीं शायद, हम दुकानदार हैं, हम तरकीबें खोजना जानते हैं।
उसने कहा: क्या तरकीब है?
उसने कहा: गौर से देखो, उसकी आंखों पर हमने पट्टियां बांध रखी हैं। उसे दिखाई नहीं पड़ता कि पीछे कोई चलाने वाला है कि नहीं।
आंख पर पट्टियां हों, तो कैसे दिखाई पड़ेगा? तो जिन लोगों का धंधा अंधेरे पर चलता है, अंधेपन पर चलता है, वे आंख पर पट्टियां बांधने के लिए कहते हैं। पुरोहित भी बड़े पुराने व्यापारी हैं। साधारण लोग तो साधारण चीजों का धंधा करते हैं--कोई किराना बेचता है, कोई कपड़ा, कोई सोना-चांदी। पुरोहित परमात्मा को बेच रहा है। उसके धंधे बहुत गहरे हैं। उसने उतनी ही गहरी पट्टियां आदमी की आंख पर बांध देनी चाही हैं। जितना अंधा आदमी होगा, उतना ही झूठ के व्यवसाय में उसे शोषित किया जा सकता है।
वह ग्राहक बहुत हैरान हुआ। उसने कहा: मैं समझा। लेकिन वह थोड़ा सोच-विचार का आदमी होगा, जैसे कि आदमी मुश्किल से ही कभी होते हैं। उसने कहा कि मैं समझा कि आंख पर पट्टियां बंधी हैं, लेकिन बैल कभी रुक कर यह पता भी तो लगा सकता है कि कोई पीछे हांकने को है या नहीं? क्या बैल में इतनी भी बुद्धि नहीं है कि वह रुक जाए और पता लगा ले कि पीछे कोई है या नहीं?
उस दुकानदार ने कहा: अगर इतनी बुद्धि बैल में होती, तो हम कोल्हू चलाते, बैल दुकान चलाता। हमने उसके गले में घंटी बांध रखी है। बैल चलता रहता है, घंटी बजती रहती है, हमको पता है कि बैल चल रहा है। घंटी जरा रुकी कि मैं उचका और बैल को चला आया। उसको यह खयाल नहीं पैदा होने देता कि मैं पीछे हमेशा मौजूद नहीं रहता हूं। घंटी बजती रहती है, मैं जानता हूं कि बैल चल रहा है। घंटी जरा ही धीमी पड़ी कि मैं उठा और बैल को चला देता हूं। बैल को भ्रम बना रहता है कि कोई आदमी हमेशा पीछे मौजूद है।
लेकिन वह आदमी थोड़े विचार का आदमी रहा होगा, जैसे कि आदमी होते नहीं हैं। उस आदमी ने कहा: यह तो मैं समझ गया कि घंटी... लेकिन बैल कभी खड़े होकर भी तो सिर हिला कर घंटी बजा सकता है? तुम तो पीठ किए बैठे हो।
उस दुकानदार ने कहा: भाई, थोड़े धीरे बोल! अगर बैल सुन लेगा तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। और आगे से आप और किसी दुकान से तेल खरीद लेना। यह धंधा महंगा है।
मनुष्य के साथ भी जो लोग कहते हैं कि विश्वास करो, वे साथ में यह भी कहते हैं कि कहीं भी संदेह की और जिज्ञासा की बातें सुनने मत जाना। वे यह भी समझाते हैं कि ऐसी कोई बात मत सुन लेना जिससे विश्वास डगमगा जाए। और मैं कहता हूं, जो चीज डगमगा सकती है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। उसका दो कौड़ी मूल्य है, जिसे कोई डगमगा सकता है। इसलिए जरूर उन सारी बातों को सोच लेना और खोज लेना जिनसे कि विश्वास डगमगाता हो। डगमगाता हो तो डगमगा जाए और गिर जाए, उसका कोई मूल्य भी नहीं है। और जो संदेह की बात से डगमगा जाएगा, स्मरण रखना, मौत के क्षण में मौत के धक्के से टिक नहीं सकेगा। मौत का धक्का उसको मिट्टी कर देगा। जो संदेह से ही गिर जाता है, वह मौत के धक्के को कैसे सहेगा?
थोथे विश्वासियों को मौत के क्षण में पता चलता है कि जिंदगी व्यर्थ गंवा दी। कुछ भी नहीं जाना, सिर्फ मानते रहे और व्यर्थ हो गया सब-कुछ।
इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं: विचार।
पहला सूत्र है: निष्पक्ष चित्त।
दूसरा सूत्र है: जिज्ञासा--तीव्र जिज्ञासा, जो किसी चीज को मानने को तैयार नहीं होती।
और तीसरा सूत्र है: विचार--अनथक विचार।
सोचना होगा, जिंदगी के एक-एक पहलू पर सब तरफ से परीक्षा करनी होगी। और जब तक पूरे विवेक को कोई बात अंगीकार न हो, तब तक अंगीकार नहीं करनी होगी। जब तक पूरे प्राण किसी बात को स्वीकार करने को तैयार न हो जाएं, तब तक दुनिया का कोई गुरु कहता हो, कोई तीर्थंकर कहता हो, कोई अवतार कहता हो, मानने की जरूरत नहीं है। इसलिए नहीं कि तीर्थंकर और अवतार गलत कहते हैं, इसलिए नहीं, मानना गलत है। वे ठीक कहते होंगे, आपका मान लेना गलत है। अगर आप न मानोगे और साहसपूर्वक चिंतन और विचार और मनन की तीव्र प्रक्रिया से गुजरते ही रहोगे, तो एक दिन इस प्रक्रिया और संघर्ष का यह परिणाम होगा कि प्राणों का दर्पण स्वच्छ हो जाएगा। और जिसे तीर्थंकर कहते हैं, जिसे अवतार कहते हैं, वह आपको भी दिखाई पड़ेगा। उस दिन सारे धर्मग्रंथ सत्य हो जाएंगे, उसके पहले नहीं।
धर्मग्रंथों से कोई सत्य नहीं पा सकता, लेकिन सत्य को पा ले, तो सारे धर्मग्रंथ सत्य जरूर हो जाते हैं। धर्मग्रंथों से कोई सत्य को नहीं पा सकता, तीर्थंकर से कोई सत्य को नहीं पा सकता, अवतार से कोई सत्य को नहीं पा सकता, गुरु से कोई सत्य को नहीं पा सकता, लेकिन सत्य को पा ले, तो सारे जगत के गुरु और सारे जगत के तीर्थंकर एक ही बात कह रहे हैं, एक ही सत्य, यह जरूर दिखाई पड़ जाता है।
हम उलटी यात्रा कर रहे हैं। हम विश्वास से खोज रहे हैं, श्रद्धा से खोज रहे हैं, चरणों को पकड़ कर खोज रहे हैं। हम सत्य तक कभी भी नहीं पहुंच सकते हैं। सत्य तक पहुंचने के लिए चाहिए साहस, करेज, अंधेरे में खड़े होने का साहस, अज्ञान में खड़े होने का साहस, इस बात का साहस कि मैं नहीं जानता हूं। और मैं आपसे कहता हूं, अपने अज्ञान को स्वीकार करने से बड़ा साहस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। इस बात को स्वीकार करना कि मैं नहीं जानता हूं, यह बड़े से बड़ा साहस है। यह बड़ा मॉरल करेज है। यह थोड़े से लोगों में यह हिम्मत होती है कि कह सकें कि हम नहीं जानते हैं। वे ही थोड़े से लोग यात्रा पर निकलते हैं खोज की। क्योंकि जो नहीं जानता है, उसके प्राणों में एक पीड़ा और एक द्वंद्व शुरू हो जाता है कि मैं जानूं। और जानने की यात्रा शुरू हो जाती है।
जानने की यात्रा के तीन सूत्र मैंने आपसे कहे, उन्हें दोहरा देता हूं। और एक छोटी सी कहानी और अपनी बात को मैं पूरा कर दूंगा।
निष्पक्ष हो जाएं, सारे पक्षों को आग लगा दें। मनुष्य को पक्षों की कोई भी जरूरत नहीं है। संप्रदायों की कोई जरूरत नहीं है। अगर दुनिया में चाहते हैं कि धर्म पैदा हो, तो धर्मों से मुक्त हो जाएं। अगर चाहते है कि रिलीजन पैदा हो, तो रिलीजंस को विदा कर दें। निष्पक्ष हो जाएं। जिज्ञासा करें। डरें न। डरें न कि जिज्ञासा, पूछने पर, इंक्वायरी करने पर हमारी मानी हुई मान्यताएं कहीं गिर तो न जाएंगी! जरूर गिरेंगी। गिर जाने दें। गिरना चाहिए। एक-एक मूर्ति गिर जाए हमारी मान्यता की तो हर्ज नहीं है। जिज्ञासा की तलवार से सब-कुछ टूट जाए तो हर्ज नहीं है। क्योंकि जिसकी जिज्ञासा जितनी तीव्र होती है, वह परमात्मा का उतना ही प्यारा हो जाता है। उसकी प्यास उतनी तीव्र है, उसकी व्याकुलता उतनी तीव्र है, वह अपने बीच में और सत्य के बीच में कोई प्रतिमा खड़ी नहीं करना चाहता। वह कहता है कि मैं जानूंगा सत्य को, मैं बीच के दलालों से कुछ भी सीखने को राजी नहीं हूं। मैं जानना चाहता हूं।
कभी आपने सोचा, आपकी जगह कोई और प्रेम कर सकता है? हो सकता है कि कभी ऐसी दुनिया आ जाए। अल्डुअस हक्सले ने कहीं लिखा है कि जब दुनिया और आरामतलब हो जाएगी, लोग और कम्फर्ट को प्रेम करने लगेंगे, तो जैसे वे अभी दूसरे काम नौकरों से करवाते हैं, प्रेम का काम भी नौकरों से करवा लेंगे। हो सकता है, आदमी बड़ा अजीब है। यह भी कर सकता है कि नौकर रख ले कि प्रेम का काम तू कर दे, मुझे झंझट में मत डाल। यह हो सकता है, क्योंकि प्रार्थना का काम नौकरों से हम करवा रहे हैं हजारों साल से। और प्रार्थना प्रेम का ही गहनतम रूप है। एक आदमी एक पुजारी को पकड़ लाता है, कहता है, तू प्रार्थना कर, मैं दुकान करता हूं। हम तुझे प्रार्थना की तनख्वाह दे देंगे। यज्ञ कर, हम तुझे तनख्वाह दे देंगे। प्रार्थना हम नौकरों से करवा रहे हैं, तो कभी हम प्रेम भी करवा सकते हैं। वह एक कदम और आगे है। परमात्मा और अपने बीच नौकर को लिया, प्रेमी और अपने बीच भी नौकर को लेने में कौन सी कठिनाई है? कौन सी लॉजिकल तकलीफ है?
नहीं, लेकिन जिज्ञासा जिसकी तीव्र है, वह बीच में किसी को लेने को तैयार नहीं है। जिज्ञासा के तीव्र होने का यही मतलब है कि मैं अपने और सत्य के बीच किसी को स्वीकार नहीं करूंगा। और वे लोग धोखेबाज हैं जो सत्य के और आदमी के बीच खड़े होने की चेष्टा करते हैं। वे व्यवसायी हैं। वे धंधा करते हैं। और धंधे से सत्य नहीं मिल सकता।
और तीसरी बात चाहिए: अथक विचार। चाहे सारा जीवन आग से भर जाए, चाहे सारी श्रद्धा खो जाए, सारी सांत्वना खो जाए, सारा संतोष खो जाए, जीवन एक चिंता और एक एंजायटी बन जाए, लेकिन विचार का साथ मत छोड़ना, क्योंकि विचार ही वह नाव है जो विवेक तक पहुंचाती है। और विवेक ही वह दर्पण है जिसमें सत्य की छवि अंकित होती है।
विचार है नाव--तूफान आएंगे। किनारे पर खड़े रहने में एक सुख है--वहां तूफान नहीं आते, आंधियां नहीं आतीं, डूबने का और मरने का कोई भय नहीं होता। इसलिए कम साहसी लोग विश्वास के किनारे पर खड़े रह जाते हैं। हिम्मतवर लोग विचार की नाव लेते हैं और अनंत सागर में छोड़ देते हैं--जहां तूफान हैं, आंधियां हैं, मरने का डर है। लेकिन जो आदमी मरने का डर उठाने की हिम्मत नहीं रखता, वह आदमी जी भी नहीं पाता, यह याद रखना। जीने की उतनी ही पात्रता गहरी होती है, जितनी मौत में उतरने की क्षमता होती है। जो मरने को जितना स्वीकार करता है, वह उतने ही गहरे अर्थों में जिंदा हो जाता है। तो किनारे पर बैठे हुए लोग हैं--विश्वास के किनारे पर--वहां संतोष है, शांति है, बैठे हैं, सागर की घबड़ाहट नहीं है, डूब जाने, मर जाने का डर नहीं है।
विचार की नाव डगमगाती है हजारों बार, आंधियां आ जाती हैं, पानी भरने लगता है, ऐसा लगता है कि गए, अनेक बार मन होता है कि लौट चलो विश्वास के किनारे पर जहां सारे लोग शांति से बैठे हैं। लेकिन अगर दूसरे किनारे पर पहुंचना है, जहां कि सत्य है, तो यह बीच का सागर पार करना ही होगा। मैं इसको ही तपश्चर्या कहता हूं।
विचार तपश्चर्या है। तपश्चर्या धूप में खड़े रहना नहीं है। वे सब सर्कस के खेल हैं। तपश्चर्या भूखे मरना नहीं है। वे सब सर्कस के खेल हैं। तपश्चर्या है विचार, क्योंकि विचार प्राणों को कंपा देगा। सारे संतोष नष्ट हो जाएंगे, सारे कनसोलेशंस छिन जाएंगे, सारा ज्ञान छिन जाएगा और एक अज्ञात यात्रा पर धक्का शुरू होगा, जहां न कोई संगी है, न साथी, बस विचार की नाव है और अनंत सागर है। तपश्चर्या का अर्थ है विचार। लेकिन जो विचार के साथ जाते हैं, वे निश्चित पहुंच जाते हैं।
आज तक विश्वास से गया हुआ आदमी कभी नहीं पहुंचा है और विचार से गया हुआ आदमी कभी रुका नहीं है, निश्चित पहुंच गया है। विचार पहुंचा देता है विवेक के तट तक और विवेक के तट पर उससे मिलन होता है जिसका नाम सत्य है। उसे हम प्रेम से परमात्मा कह सकते हैं, उसे हम मोक्ष कह सकते हैं, उसे हम जो चाहें वह नाम दे सकते हैं। सत्य है, लेकिन दूर है किनारा उसका। अज्ञात सागर है बीच में। और एक ही नाव है आदमी के पास, सिवाय विचार के और कोई नौका नहीं है मनुष्य के पास। क्या है आपके पास जिससे आप जाएंगे? सिवाय विचार के आपकी क्या सामर्थ्य है? सिवाय विचार के आपकी क्या शक्ति है? सिवाय विचार के आपके पास कौन सी चेतना है? कौन सी कांशसनेस है? विचार के अतिरिक्त मनुष्य के पास कुछ भी तो नहीं है। इसलिए विचार से ही मार्ग बनता है और विचार से ही मनुष्य पहुंचता है और उपलब्ध होता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। एक कहानी और अपनी बात पूरी कर दूंगा।
एक पूर्णिमा की रात है और एक गांव के कुछ मित्र एक शराबखाने में इकट्ठे होकर शराब पी रहे हैं। चांदनी बरसती है। वे नाच रहे हैं, गीत गा रहे हैं।
आदमी की जिंदगी इतनी दुखी हो गई है कि सिवाय शराब के न वह कभी नाचता है, न गाता है। यह बड़ी दुखद बात है। होश में आदमी रहता है तो गंभीर रहता है, दुखी और चिंतित और परेशान रहता है। जब बेहोश होता है तभी थोड़ा खुश होता है। होना उलटा चाहिए था कि आदमी होश में आनंदित होता और प्रसन्न होता और जब बेहोश होता तो दुखी और उदास हो जाता। जिस दिन ऐसा होगा उसी दिन शराब समाप्त होगी दुनिया से। नहीं तो चिल्लाते रहें नेता दुनिया भर के, शराब नष्ट होने वाली नहीं है। क्योंकि आदमी की सामान्य जिंदगी आनंद से शून्य हो गई है। वह सिर्फ शराब में आनंदित दिखाई पड़ता है।
वे नाच रहे थे, गीत गा रहे थे, वे नशे में थे। फिर किसी ने कहा कि अरे, पूर्णिमा की रात है। और उन सबने आकाश की तरफ आंखें उठाईं।
होश में कोई आदमी आकाश की तरफ देखता ही नहीं। चांद को कौन देखता है? बंबई में तो शायद ही किसी को पता चलता होगा कि कब पूर्णिमा आती है और कब निकल जाती है।
उनका भी बेहोशी में सिर ऊपर उठ गया--चांद! और किसी ने कहा: क्या यह अच्छा न हो कि हम चलें नदी पर नौका-विहार करें? ऐसी बरसती चांदनी!
वे नौका पर पहुंच गए नदी पर। मछुए जा चुके थे। वे एक नाव में सवार हो गए। उन्होंने पतवारें उठा लीं और नाव को खेना शुरू कर दिया। आधी रात थी, सुबह होने के करीब आ गई, तब सुबह की ठंडी हवाएं चलीं और थोड़ा होश आया उन्हें, तो उनमें से एक ने कहा: हम पता नहीं कितनी दूर निकल आए हों, न मालूम किस दिशा में, अब लौटना पड़ेगा, सुबह होने के करीब हो गई, अब घर पर लोग याद करते होंगे। तो कोई एक व्यक्ति नीचे उतर जाए और देखे कि हम कितनी दूर निकल आए हैं। एक व्यक्ति नीचे उतरा और उसने कहा कि पागलो, सभी नीचे उतर आओ, हम कहीं भी नहीं गए, नौका वहीं की वहीं खड़ी है जहां हम रात खड़े थे।
वे सब लोग नीचे उतरे और दंग रह गए। असल में, वे नाव की जंजीर जो किनारे से बंधी थी, उसे छोड़ना भूल गए थे। तो पतवार तो उन्होंने बहुत चलाई थी रात भर, लेकिन नौका कैसे आगे जाती, उसकी जंजीर बंधी थी।
तट से जंजीर बंधी है मनुष्य के चित्त की, इसलिए जीवन भर दौड़िए, सत्य तक नहीं पहुंच सकते हैं। उस जंजीर को तोड़ने के तीन सूत्र मैंने कहे। वह जंजीर टूट जाए, तो सत्य अत्यंत निकट है। अपने से भी ज्यादा निकट सत्य है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एक चर्च में एक फकीर को बोलने के लिए बुलाया हुआ था। उस चर्च के लोगों ने कहा था कि सत्य की खोज के संबंध में कुछ कहो। वह फकीर बोलने खड़ा हुआ। उसने बोलने के पहले कहा कि मैं एक प्रश्न इस चर्च में इकट्ठे लोगों से पूछना चाहता हूं। उसके बाद ही मैं बोलना शुरू करूंगा। उसने पूछा कि इस चर्च में जो लोग इकट्ठे हैं, वे बाइबिल का अध्ययन करते हैं?
सारे लोगों ने हाथ हिलाए। वे अध्ययन करते थे।
उस फकीर ने कहा कि दूसरी बात मुझे यह पूछनी है कि बाइबिल में ल्यूक की पुस्तक है--ल्यूक की पुस्तक का उनहत्तरवां अध्याय आप लोगों ने पढ़ा है? जिन लोगों ने पढ़ा हो, वे हाथ ऊपर उठा दें।
उस चर्च में बड़ी भीड़ थी, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर सारे लोगों ने हाथ ऊपर उठा दिए।
वह फकीर बहुत हंसने लगा। उसने कहा कि अब मैं सत्य के संबंध में कुछ कहूंगा। लेकिन उसके पहले मैं कह दूं, बाइबिल में ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय है ही नहीं।
और उन सारे लोगों ने हाथ उठाए थे कि हम पढ़ते हैं। और उनहत्तरवां अध्याय बाइबिल में ल्यूक का कोई है ही नहीं। वैसी कोई पुस्तक ही नहीं है!
तो उस फकीर ने कहा कि अब सत्य की खोज के संबंध में जरूर मुझे कुछ कहना होगा। क्योंकि यहां जितने लोग इकट्ठे हैं, उनमें सत्य से किसी का भी कोई संबंध नहीं है।
लेकिन उसने कहा कि मुझे हैरानी होती है कि इस मंदिर में एक आदमी सत्य बोलने वाला कैसे आ गया है? एक आदमी ने हाथ नहीं उठाया था। तो उस फकीर ने उस आदमी के पास जाकर पूछा कि मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूं, मंदिरों में सत्य बोलने वाले लोग इकट्ठे होते नहीं दिखाई देते हैं, तुम कैसे भूले-भटके यहां आ गए? तुमने हाथ नहीं उठाया? फिर भी धन्य भाग्य है कि मंदिर में एक आदमी तो कम से कम सत्य का प्रेमी आया है।
उस आदमी ने कहा कि जरा जोर से बोलिए मुझे कम सुनाई पड़ता है, मैं समझ नहीं पाया कि बात क्या थी। क्या आपने यह पूछा: उनहत्तरवां अध्याय ल्यूक का? मैं रोज ही उसका पाठ करता हूं। लेकिन मैं ठीक से समझ नहीं सका, इसलिए मैंने हाथ नहीं उठाया। मैं थोड़ा कम सुनता हूं।
मनुष्य का सारा व्यक्तित्व असत्य है और सत्य की हम खोज करना चाहते हैं!
मनुष्य का सारा व्यक्तित्व झूठ पर खड़ा है और हम सत्य की खोज करना चाहते हैं!
मनुष्य का सारा दिखावा असत्य पर खड़ा हुआ है। निश्चित ही असत्य व्यक्तित्व को साथ लेकर सत्य की खोज नहीं की जा सकती है। सत्य की खोज के लिए व्यक्तित्व सेअसत्य का मिट जाना जरूरी है।
इसलिए पहला सूत्र आपसे यह मैं कहना चाहता हूं कि क्या हम झूठे आदमी हैं? क्या हमारा व्यक्तित्व असत्य है? क्या हमने एक सूडो पर्सनैलिटी, एक मिथ्या आवरण और वस्त्रों का व्यक्तित्व बना रखा है? जिस आदमी को धर्म से कोई संबंध नहीं, वह मंदिर में पूजा करता हुआ दिखाई पड़ता है। जिस आदमी के भीतर अंधकार भरा हो, उसने सफेद वस्त्र पहनने के लिए ढूंढ लिए हैं। और जिस आदमी के भीतर क्रोध हो, उसके चेहरे पर क्षमा दिखाई पड़ती है। और जिस आदमी के भीतर हिंसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, वह प्रेम के गीत गाता है। हमने अपना सारा व्यक्तित्व ही झूठ कर लिया है।
रास्ते पर एक आदमी मिलता है और हम नमस्कार करते हैं और कहते हैं, बड़े भाग्य कि सुबह ही आपके दर्शन हो गए। और मन में हम कहे चले जाते हैं कि यह दुष्ट सुबह से कैसे दिखाई पड़ गया! हम जिनके प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हैं, हमारे प्राणों में उनके लिए कोई प्रार्थना नहीं उठती, कोई प्रेम नहीं उठता। हम जो बोलते हैं, उससे हमारी आत्मा का कोई भी संबंध नहीं है। हम जो दिखाई पड़ते हैं, उसका हमारे वास्तविक होने से कोई भी नाता नहीं है।
मैंने सुना है, लंदन में एक अदभुत फोटोग्राफर था। उसने अपने स्टूडियो के सामने एक तख्ती लगा रखी थी। उस तख्ती पर उसने कितने-कितने दामों के चित्र निकाले जाते हैं, वह लिख छोड़ा था। वह तीन तरह के फोटो निकालता था। एक गांव का ग्रामीण भी फोटो उतरवाने गया था। उसने तख्ती पर देखा कि उसने लिख रखा है कि पहले किस्म के फोटो जो उतरवाना चाहते हैं, उसके पांच रुपये दाम होंगे। और पहले किस्म के फोटो का मतलब है--आप जैसे हो वैसा ही चित्र। जो दूसरे प्रकार के चित्र उतरवाना चाहते हैं, उसके दाम दस रुपये होंगे। और दूसरे प्रकार के चित्र का अर्थ है--जैसे आप लोगों को दिखाई पड़ना चाहते हो वैसा चित्र। और तीसरे प्रकार के चित्र के दाम पंद्रह रुपये होंगे। और तीसरे चित्र का मतलब है--आप जैसा चाहते थे कि परमात्मा आपको बनाए वैसा चित्र।
वह ग्रामीण बहुत हैरान हो गया! उसने तो सोचा था: चित्र एक ही प्रकार का होता होगा। उसने उस स्टूडियो के मालिक को पूछा: क्या तीन प्रकार के चित्र हो सकते हैं एक आदमी के?
वह फोटोग्राफर हंसने लगा। उसने कहा: हमारे पास ज्यादा सुविधाएं नहीं हैं, एक-एक आदमी के हजार-हजार चित्र हो सकते हैं।
और एक-एक आदमी की हजार-हजार तस्वीरें हैं। पत्नी के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है; बेटों के, बच्चों के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है; मालिक के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है; नौकरों के सामने उसकी तस्वीर दूसरी होती है। आदमी चौबीस घंटे तस्वीरें बदलता रहता है। वह गिरगिट की तरह बदलता रहता है पूरे समय।
आदमी की हजार तस्वीरें हो सकती हैं। हमारे पास साधन कम हैं, इसलिए हम तीन ही प्रकार की तस्वीरें उतारते हैं। तुम्हें किस प्रकार की तस्वीर उतरवानी है?
उस ग्रामीण ने कहा: मैं तो हैरान हूं! लोग तो पहली तरह की ही तस्वीर उतरवाते होंगे। जैसा आदमी दिखाई पड़ता है, वैसी ही तस्वीर उतरवानी चाहिए। क्या ऐसे लोग भी आते हैं इस स्टूडियो में जो नंबर दो और नंबर तीन की तस्वीर उतरवाते हों?
उस स्टूडियो के मालिक ने कहा: तुम पहले आदमी आए हो जो पहले नंबर की तस्वीर उतरवाने का विचार कर रहा है। अब तक ऐसा कोई आदमी नहीं आया। जो भी आता है अव्वल तो तीसरे नंबर की तस्वीर उतरवाना चाहता है। अगर पैसे कम होते हैं, तो नंबर दो की उतरवाता है। पहले नंबर की तस्वीर उतरवाने वाला आदमी अब तक आया ही नहीं।
कोई भी आदमी ऐसा दिखाई नहीं पड़ना चाहता है, जैसा वह है। आदमी जो सत्य है उसे भीतर छिपा लेना चाहता है और जो मिथ्या है उसे ओढ़ लेना चाहता है। हमने कितनी-कितनी तरकीबें ईजाद की हैं अपने व्यक्तित्व को झूठ और धोखे का बना लेने की। और फिर यही आदमी विचार करने लगता है कि मैं सत्य खोजूं! फिर यही आदमी गीता पढ़ने लगता है, कुरान, बाइबिल पढ़ता है, यही आदमी भजन-कीर्तन करता है। यही आदमी भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा होता है और प्रार्थना करता है कि मुझे सत्य का पता चल जाए। और यह आदमी कभी भी यह नहीं पूछता कि मैं अगर असत्य हूं, तो मुझे सत्य का पता कैसे चल सकता है? अगर मैं ही असत्य हूं, तो सत्य से मेरा संबंध कैसे हो सकता है?
सत्य की खोज का पहला चरण है: हमारा व्यक्तित्व सत्य होना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व वैसा होना चाहिए जैसा है--सीधा और साफ और सरल। हम जैसे हैं, वैसे की ही स्वीकृति होनी चाहिए। लेकिन वह स्वीकृति हमारे मन में कहीं भी नहीं है।
और बड़े आश्चर्य की बात है, जिनको हम भले आदमी कहते हैं, उनमें वह सरलता और भी कम है उन लोगों की बजाय जिन्हें हम बुरे आदमी कहते हैं। जिन्हें हम अपराधी कहते हैं, वे तो सरल हो भी सकते हैं, लेकिन जिन्हें हम सज्जन और साधु कहते हैं, वे बिलकुल भी सरल नहीं हैं।
इसलिए सभ्यता और संस्कृति जितनी विकसित हुई है, आदमी उतना झूठा होता चला गया है। गांव में, देहात में, दूर जंगल में आदिवासी सरल मिल भी सकता है। लेकिन उसे न धर्म का कोई पता है, न उसने गीता पढ़ी है, न कुरान, न बाइबिल; न वह हिंदू है, न मुसलमान; न उसे मोक्ष जाने का कोई खयाल है, न उसने सत्य के संबंध में शास्त्र रचे हैं, न उसने सत्य के लिए विवाद किया है। वहां दूर आदिवासी जंगल में मिल भी सकता है जो सच्चा आदमी हो, वैसा, जैसा है। लेकिन जितनी संस्कृति विकसित होती है और सभ्यता विकसित होती है उतना ही आदमी झूठा होता चला जाता है। उतने ही हम वस्त्रों के ऊपर वस्त्र ओढ़ते चले जाते हैं, धीरे-धीरे आदमी खो जाता है और सिर्फ कपड़ों का ढेर रह जाता है। फिर यह कपड़ों का ढेर चाहता है कि सत्य से मेरा कोई संबंध हो जाए, मैं परमात्मा को जान लूं, मैं जीवन को पहचान लूं। यह असंभव है।
यह आश्चर्य की बात है कि सभ्य आदमी असत्य आदमी होता है। होना तो उलटा चाहिए था। सत्य आदमी को ही सभ्य आदमी कहा जाना चाहिए था। लेकिन जितनी सभ्यता, जितनी संस्कृति, जितनी शिक्षा उतनी कनिंगनेस, उतनी चालाकी, उतना कपट, उतना झूठ।
लंदन में शेक्सपीयर का एक नाटक चल रहा था। सौ वर्ष पहले की बात है। और गांव भर में शेक्सपीयर के नाटक की चर्चा थी। जो भी बात करता था, उसकी प्रशंसा करता था। लंदन का जो आर्चप्रीस्ट था, जो सबसे बड़ा पुरोहित था, उसको भी लोगों ने आकर कहा कि बहुत अदभुत नाटक है और अभिनेता इतने कुशल हैं, इतने जीवंत हैं, ऐसा कभी देखा नहीं गया। लेकिन उस पादरी ने, जैसा कि धर्मगुरु और पुरोहितों की आदत होती है, फौरन कहा: नाटक! नरक जाने का विचार कर रहे हो! मनोरंजन खोजते हो? सुख खोजते हो? इस सबमें कोई भी सार नहीं है।
यह उस पादरी ने ऊपर से तो कहा, लेकिन पादरी के भीतर भी आदमी है उतना ही जितना किसी और आदमी के भीतर। ऊपर से तो उसने यह कहा कि नरक जाओगे, नाटकों में क्यों पड़े हो? सत्य की खोज करो, परमात्मा की खोज करो, समय क्यों गंवा रहे हो? जिंदगी पूरा ही एक नाटक है और तुम नाटकगृह में देखने क्या जाते हो? लेकिन भीतर उसे रात भर नींद नहीं आई। बार-बार यह खयाल आने लगा, कैसा होगा नाटक? कैसे होंगे पात्र? कैसा होगा अभिनय? उसने तो कभी भी नाटक नहीं देखा था।
उसने दूसरे दिन सोच-समझ कर नाटक के थियेटर के मैनेजर को एक पत्र लिखा कि मैं भी नाटक देखने आना चाहता हूं। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं हो सकता कि पीछे का कोई दरवाजा हो, उससे मैं आ जाऊं , कोई मुझे न देख सके और मैं नाटक देख लूं? अगर ऐसा कुछ हो, तो इंतजाम कर दें, बड़ी कृपा होगी। मैं नहीं चाहता हूं कि नाटक देखने वाले मुझे देख लें। तो पीछे से, जब नाटक शुरू हो जाए, अंधेरा हो जाए, तब मैं भीतर आ जाना चाहता हूं। कोई पीछे का दरवाजा है?
थियेटर के मैनेजर ने उसे पत्र का उत्तर दिया और लिखा: हमें पीछे के दरवाजे हर गांव में व्यवस्थित करने पड़ते हैं, पीछे के दरवाजे बनाने पड़ते हैं। क्योंकि सज्जन हमेशा पीछे के दरवाजे से आते हैं, वे सामने के दरवाजे से कभी नहीं आते। सामने से तो वे लोग आ जाते हैं, जिन्हें सज्जन होने के दंभ का कोई खयाल नहीं है। जिन्हें यह कोई अहंकार नहीं है कि हम कोई महापुरुष हैं, कोई ज्ञानी हैं, कोई साधु हैं, कोई महात्मा हैं, वे बेचारे सामने के दरवाजे से आ जाते हैं। वे सीधे-साधे लोग हैं, चालाक लोग नहीं हैं। चालाक लोग हमेशा पीछे के दरवाजे से आते हैं। तो पीछे का दरवाजा तो रखना पड़ता है। आप खुशी से आएं, स्वागत है आपका।
लेकिन उसने पत्र के बाद पुनश्च करके एक और सूचना लिखी और उस सूचना में लिखा: लेकिन एक बात मैं आपको याद दिला देना चाहता हूं, ऐसा दरवाजा तो है थियेटर में जिससे आप आएंगे तो कोई आपको नहीं देख सकेगा, लेकिन मैं यह विश्वास नहीं दिला सकता कि परमात्मा भी नहीं देख सकेगा। और यह भी हो सकता है कि आप मानते ही न हों कि परमात्मा है। क्योंकि पुरोहित मुश्किल से ही मानता है परमात्मा को। दुनिया को मनवाने की कोशिश करता है कि परमात्मा है, लेकिन खुद भलीभांति जानता है कि मैं धंधा कर रहा हूं परमात्मा के नाम पर। तो उस थियेटर के मैनेजर ने लिखा कि मुझे शक है कि शायद आप मानते भी न हों कि परमात्मा है।
पुरोहित परमात्मा को मानते हैं इसका कोई प्रमाण आज तक पृथ्वी पर नहीं मिल सका है। क्योंकि अगर पुरोहित परमात्मा को मानते होते, तो हिंदू का पुरोहित और मुसलमान और ईसाई का पुरोहित अलग-अलग नहीं हो सकता था। क्योंकि परमात्मा तीन नहीं हैं, तीन सौ नहीं हैं। और अगर पुरोहित परमात्मा को मानते होते, तो दुनिया में आज तक धर्म की कोई भी लड़ाई और हिंसा नहीं हुई होती। क्योंकि जो परमात्मा को जानते हैं और स्वीकार करते हैं, उनके लिए हिंसा का कोई उपाय नहीं है। उनके लिए प्रेम के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रह जाता।
तो उस थियेटर के मैनेजर ने लिखा: हो सकता है आप न मानते हों कि परमात्मा है, तब भी मैं एक बात याद दिला दूं कि कोई आपको नहीं देख पाएगा कि आप थियेटर में आए, लेकिन कम से कम आप तो देख ही पाऐंगे कि आप थियेटर में आए हैं। उसका इंतजाम मैं नहीं कर सकता कि आपको भी पता न चले कि आप थियेटर में आए हैं।
आदमी ने बहुत तरह का पाखंड, हिपोक्रेसी विकसित की है और पीछे के दरवाजे निकाल लिए हैं। और धीरे-धीरे दुनिया इतनी सभ्य होती जा रही है कि किसी थियेटर में आगे के दरवाजे रखने की जरूरत धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। सब दरवाजे पीछे की तरफ ही होंगे। क्योंकि सभी आदमी सज्जन होते चले जा रहे हैं। आदमी का सारा व्यक्तित्व ही कृत्रिम, झूठा, आर्टिफिशियल बनाया हुआ जा रहा है। हम एक शक्ल बनाए हुए हैं जो दूसरों को दिखाने के लिए है और हम सब अपने भीतर जानते हैं कि वह शक्ल झूठी है। हम सब भलीभांति परिचित हैं कि वह शक्ल झूठी है। और हमने न केवल जीवन के संबंध में झूठी शक्ल बना ली है, सत्य के संबंध में भी हमने झूठी शक्ल बना ली है। उसे हम थोड़ा समझें तो सत्य की खोज में कदम आगे बढ़ाए जा सकते हैं।
अगर मैं आपसे पूछूं कि ईश्वर है? तो निश्चित ही अधिक लोग कहेंगे कि हां, ईश्वर है। शायद कुछ थोड़े से लोग हों जो कहें कि नहीं है। लेकिन अगर मैं दूसरा प्रश्न पूछूं कि जो लोग कह रहे हैं कि ईश्वर है या जो लोग कह रहे हैं कि ईश्वर नहीं है, वे जान कर कह रहे हैं? उन्हें पता है? जो कह रहे हैं, ईश्वर है, उन्हें पता है ईश्वर के होने का? और अगर बिना पता हुए कह रहे हैं, तो झूठ बोल रहे हैं। और परमात्मा के सामने भी अपनी एक झूठी तस्वीर खड़ी कर रहे हैं कि मैं आस्तिक हूं। जो लेाग कह रहे हैं कि ईश्वर नहीं है, उन्होंने खोज लिया है जीवन को और अस्तित्व को और पा लिया है कि ईश्वर नहीं है, उसके न होने को उन्होंने पा लिया है? अगर उन्हें ईश्वर का न होना अब तक नहीं मिल गया है, तो वे झूठ बोल रहे हैं। और ईश्वर के समक्ष, सत्य के समक्ष, नास्तिक की झूठी शक्ल खड़ी कर रहे हैं।
और हम सारे लोग ही इसी तरह के लोग हैं। हमने जीवन के परम सत्यों के संबंध में भी झूठी शक्लें बना ली हैं--आस्तिक की, नास्तिक की। और कभी हम अपने से नहीं पूछते हैं कि इन झूठी शक्लों को लेकर हम सत्य को खोजने निकल पड़े हैं, तो वह हमें मिल सकेगा? सत्य के संबंध में भी हमारी झूठी धारणाएं हैं।
एक फकीर एक गांव में ठहरा हुआ था। उस गांव के लोगों ने कहा कि आप हमारी मस्जिद में प्रवचन देने नहीं चलेंगे?
उस फकीर ने कहा: लेकिन मुझे कुछ पता हो तो मैं कहूं? मुझे कुछ पता ही नहीं है।
लेकिन उस गांव के लोगों ने सुना था कि जो लोग परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, वे ऐसा ही कहने लगते हैं कि हमें कुछ पता नहीं है। तो जरूर इस साधु को कुछ पता होगा। उससे बहुत प्रार्थना की और उसे मस्जिद जबरदस्ती ले गए। उसे जाकर मंच पर खड़ा कर दिया। तो उस फकीर ने उस मस्जिद के लोगों को पूछा कि इससे पहले कि मैं कुछ बोलूं, तुमसे मैं एक बात पूछना चाहता हूं। तुम किस संबंध में मुझसे चाहते हो कि मैं कहूं?
उन लोगों ने कहा: निश्चित ही हम ईश्वर के संबंध में सुनना चाहते हैं।
तो उस फकीर ने पूछा: तुम्हें पता है, ईश्वर है? तुम मानते हो ईश्वर है? तुम जानते हो ईश्वर है?
उस मस्जिद के सारे लोगों ने कहा कि हां, हम जानते हैं--एक स्वर से कि ईश्वर है, परमात्मा है, वही है।
उस फकीर ने कहा: फिर क्षमा करो! जब तुम्हें पता ही है कि वह है, तो अब और मैं क्या बोलूं? अगर तुम्हें पता न होता, तो शायद मेरे बोलने का कोई अर्थ भी था। जब पता ही है तो बात खत्म हो गई। ईश्वर के पता होने से और आगे तो ज्ञान की कोई यात्रा ही नहीं है। वह तो चरम, अंतिम ज्ञान है। उसके बाद तो ज्ञान की कोई यात्रा नहीं है। वहां तो आ जाती है सीमा। जो भी जानने योग्य है, वह जान लिया गया। जो भी पाने योग्य था, वह पा लिया गया। ईश्वर अर्थात अंत, दि अल्टीमेट। तो अब मेरे और कहने की क्या जरूरत रही? क्षमा करो! व्यर्थ मैं भी श्रम करूं, तुम भी घंटों यहां बैठे रहो। मैं जाता हूं।
उस गांव के मस्जिद के लोग फंस गए। उन्होंने सोचा, यह तो बड़ी गड़बड़ हो गई। हमें क्या पता था कि यह आदमी यह कहने से कि ईश्वर है और चला ही जाएगा? उन्होंने कहा, अगले शुक्रवार को फिर प्रार्थना करनी चाहिए। और अब की बार हम तय कर लें कि हम कहेंगे कि नहीं, ईश्वर है ही नहीं। हमें मालूम ही नहीं कि ईश्वर है। हमें पता ही नहीं।--दूसरा उत्तर।
दूसरे शुक्रवार को उस फकीर को फिर वे पकड़ कर ले आए।
उसने फिर पूछा कि मित्रो, क्या इरादे हैं? ईश्वर के संबंध में जानना है? फिर वही सवाल: ईश्वर है? मानते हो? जानते हो?
उन सारे लोगों ने कहा: कैसा ईश्वर? कहां का ईश्वर? हमें कुछ भी पता नहीं। ईश्वर है भी, नहीं भी, हमें कुछ मालूम नहीं। न हम कुछ मानते, न हम जानते।
उस फकीर ने कहा: बात खत्म। जब तुम ईश्वर के बाबत न मानते हो, न जानते हो, तो फिजूल मेहनत करने की क्या जरूरत है? जो बात है ही नहीं, उसके संबंध में बात करने से फायदा क्या है? बेबात की बात हो जाएगी। हवा में चर्चा हो जाएगी। मैं जाता हूं। ईश्वर तुम्हारा सवाल ही नहीं है। ईश्वर तुम्हारा प्रॉब्लम नहीं है।
वह फकीर तो उतर कर चला गया। जिनकी समस्या ही नहीं है ईश्वर की, उनसे ईश्वर की क्या बात करनी?
गांव के लोग तो बहुत हैरान हुए कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। यह आदमी तो बड़ा धोखेबाज निकल गया। पहली बार हमने हां कहा था तो उसने गड़बड़ कर दी थी, अब की बार ना कहा तो गड़बड़ कर दी। अब क्या हो सकता है आगे? गांव के लोगों ने सोच कर तय किया कि तीसरा भी एक उत्तर हो सकता है। तीसरे शुक्रवार इसको फिर पकड़ना चाहिए।
वे तीसरे शुक्रवार उस फकीर को फिर ले आए। और उसने पूछा कि मित्रो, क्या इरादे हैं? अब क्या उत्तर है?
उस गांव के लोग होशियार थे। जैसा कि सभी गांव के लोग होशियार हैं। और उन होशियार लोगों ने तीसरा उत्तर खोज लिया था। होशियार लोग उत्तर खोजते रहे हैं बिना जानते हुए। इसलिए होशियारों के सब उत्तर दो कौड़ी के हैं। होशियारों के उत्तर का कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि वे जानते नहीं हैं, सोच कर उत्तर तैयार कर लेते हैं। गांव के लोगों ने तीसरा उत्तर तैयार कर लिया। जैसे कि ईश्वर के संबंध में उत्तर तैयार करना गांव के लोगों का अधिकार हो।
उस फकीर ने कहा: क्या इरादा है आज? ईश्वर है कि नहीं? मानते हो कि नहीं?
आधी मस्जिद के लोगों ने हाथ उठाया और कहा कि आधे लोग जानते हैं कि ईश्वर है और आधे लोगों ने कहा कि हम नहीं जानते कि ईश्वर है। अब क्या इरादा है?
अब यही उत्तर हो सकता था तीसरा। पुराने दो उत्तर की कंप्रोमाइज, उन दोनों का समझौता कर लिया था।
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: तब तो मेरा आना बिलकुल ही फिजूल हुआ। जिनको मालूम है, वे उनको बता दें जिनको मालूम नहीं है। मैं जाता हूं। मेरी क्या जरूरत है? मेरा क्या प्रयोजन? और वह फकीर चला गया।
उस फकीर से मैंने पूछा है कि चौथी बार वे लोग नहीं आए?
वह फकीर कहने लगा: अगर चौथी बार वे आ जाते, तो फिर मुझे बोलना ही पड़ता।
तो मैंने उससे पूछा कि चौथी बार क्यों बोलना पड़ता?
उसने कहा: चौथी बार अब एक ही उत्तर शेष रहा था उस मस्जिद के लोगों को कि मैं पूछता और वे चुप रह जाते और कोई भी उत्तर न देते। एक ही उत्तर और बाकी रह गया था कि मैं पूछता और वे चुप रह जाते, कोई भी उत्तर न देते, तब मुझे जरूर बोलना पड़ता। क्योंकि मौन के अतिरिक्त सत्य के संबंध में सच्चा व्यक्तित्व कुछ भी नहीं हो सकता।
सत्य के संबंध में कोई भी पक्ष लेना असत्य के पक्ष में खड़ा होना है। सत्य के संबंध में खोजी की पहली अनुभूति मौन की होगी। वह कहेगा, मुझे कुछ भी पता नहीं। तो मैं क्या बोलूं, हां कहूं कि न? वह हां कहने में भी भयभीत होगा, हां गलत हो सकता है; वह न कहने में भी भयभीत होगा, न गलत हो सकता है। मुझे पता नहीं है।
तो सत्य के खोजी का पहला चरण होगा--मौन। वह जीवन के परम प्रश्नों पर चुप हो जाएगा। वह किसी पक्ष में खड़ा नहीं होगा। मौन है निष्पक्ष।
हां और न सब पक्षों में बांट देते हैं--आस्तिक और नास्तिक। इसलिए दोनों ही धार्मिक नहीं हैं। दोनों की खोज सत्य की खोज नहीं है। आस्तिक एक पक्ष ले रहा है हां का, नास्तिक विरोधी पक्ष ले रहा है न का। लेकिन दोनों पक्ष ले रहे हैं, निष्पक्ष कोई भी नहीं है। और सत्य की खोज वह कर सकता है जो निष्पक्ष है, अनप्रिज्युडिस्ड। जिसके मन में किसी पक्ष ने कोई स्थान नहीं बनाया है। जो कहता है, मुझे मालूम नहीं, इसलिए मैं किसी पक्ष में कैसे सम्मिलित हो जाऊं? जिस दिन मैं जानूंगा, उस दिन किसी पक्ष में खड़ा हो जाऊंगा। लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है, जिन्होंने जाना है, वे सारे पक्षों के बाहर हो गए; वे किसी पक्ष में कभी खड़े नहीं हुए। जिन्होंने जाना है, वे पक्ष के बाहर हो गए और जो नहीं जानते, वे पक्षों में विभक्त हैं।
सत्य की खोज की हत्या इसलिए दुनिया में हो गई कि सत्य के नाम पर पक्ष बन गए।
सत्य का कोई पक्ष नहीं है।
सत्य का कोई मत नहीं है।
सत्य का कोई पंथ नहीं है।
सत्य का कोई संप्रदाय नहीं है।
सत्य का कोई धर्म नहीं है।
लेकिन सारी मनुष्यता विभक्त है पंथों में, धर्मों में, पक्षों में, मतों में, फिलॉसफीज में, सिस्टम्स में सारी दुनिया विभक्त है। हर आदमी ने कोई पक्ष बना लिया है। और जिस आदमी ने पक्ष बना लिया है, वह असत्य के रास्ते पर जा चुका। उसकी सत्य तक यात्रा नहीं हो सकती।
सत्य की तरफ जाने के लिए चाहिए निष्पक्ष चित्त, अनप्रिज्युडिस्ड माइंड, एक ऐसी चेतना, जो कहे कि मुझे पता नहीं है, इसलिए मैं किसी पक्ष में कैसे विभक्त हो सकता हूं? जो कहे कि मैं हिंदू नहीं हूं, जो कहे कि मैं मुसलमान नहीं हूं, जो कहे कि मैं जैन नहीं हूं, क्योंकि मुझे पता नहीं है कि सत्य क्या है, तो मैं कैसे निर्णायक हो जाऊं कि मैं कहां हूं और कौन हूं? जो कहे कि मैं आस्तिक नहीं, नास्तिक नहीं। जो मनुष्य इतनी हिम्मत जुटाता है, इस बात को कहने की कि मैं अज्ञानी हूं, मुझे कोई पता नहीं है, मैं कैसे पक्ष ले सकता हूं?
पक्ष लेने के लिए ज्ञानी मान लेने की जरूरत है अपने आप को। और इसलिए मैं कहता हूं, पक्ष मनुष्य को असत्य की यात्रा पर ले जाता है। पक्ष में सम्मिलित होने का मतलब यह है कि मैंने यह स्वीकार कर लिया कि मैं जानता हूं। तभी तो पक्ष लिया जा सकता है। और हम जानते नहीं हैं और हमें खयाल है कि हम जानते हैं। न केवल हमने पक्ष लिए हैं, बल्कि हमने पक्ष के लिए तलवारें चलाई हैं।
धर्म के नाम पर आज तक जितनी हत्याएं हुई हैं--न तो डाकुओं ने इतनी हत्याएं की हैं, न चोरों ने, न बदमाशों ने। बड़े आश्चर्य की बात है। धर्म के नाम पर जितने मकान जले हैं और जितनी स्त्रियों की बेइज्जती की गई है उतनी आज तक के सारे पापियों ने मिल कर भी नहीं की है। यह आश्चर्य की बात है। धर्म के नाम पर यह कैसे हो सकता है? और अगर धर्म के नाम पर यह सब होगा, तो फिर अधर्म के करने के लिए कुछ भी बच नहीं रहता, फिर अधर्म क्या करेगा? अधर्म के लिए तो कोई उपाय ही नहीं छोड़ा है धार्मिक लोगों ने।
यह हो सका है धर्म के नाम पर इसीलिए कि हमने धर्म को पंथ समझा है, पक्ष समझा है। धर्म का पक्ष और पंथ से कोई भी संबंध नहीं है। धार्मिक व्यक्ति होता है निष्पंथ, निष्पक्ष।
क्या आप धार्मिक व्यक्ति हैं? आप कहेंगे, हम धार्मिक हैं। मैं हिंदू हूं, टीका लगाता हूं, जनेऊ रखता हूं; मैं मुसलमान हूं, रोज मस्जिद जाता हूं; मैं जैन हूं, नमोकार पढ़ता हूं रोज सुबह से बैठ कर। धार्मिक आदमी हूं। और आपको कभी खयाल भी न आया होगा, आप पक्ष में खड़े हो गए हैं, आप धार्मिक नहीं रह गए हैं।
धार्मिक व्यक्ति खोज कर सकता है सत्य की, अधार्मिक नहीं। और धार्मिक होने के लिए निष्पक्षता पहला सूत्र है।
लेकिन हम तो बच्चों के पैदा होते से ही जहर उनके दिमाग में घुसेड़ने की कोशिश करते हैं। बच्चा पैदा हुआ और उसको जल्दी हिंदू बनाओ, कहीं उसको बुद्धि आ गई और उसने इनकार कर दिया कि मैं हिंदू नहीं बनता, तो बड़ी देर हो जाएगी, इसलिए बहुत जल्दी खून में उसके डाल दो कि वह हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है। निर्बोध बच्चों के साथ जो अत्याचार चलता रहा है, दस हजार सालों से, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
आज तक मनुष्य-जाति ने बच्चों के साथ जो अनाचार किया है वह और किसी से साथ नहीं किया। बच्चों को पक्ष में बांध दिया गया, यह सबसे बड़ा अनाचार है। उनकी सत्य की खोज हमेशा के लिए कुंठित हो गई। अब वे कभी भी हिम्मत के साथ प्रश्न नहीं पूछ सकेंगे कि सत्य क्या है? उन्हें उत्तर पहले से ही दे दिए गए। उन्होंने प्रश्न पूछे थे, उसके पहले उत्तर दे दिए गए। इसके पहले कि वे खोज करने निकलते, उन्हें शास्त्र पकड़ा दिए गए। इसके पहले कि वे खुद की जिज्ञासा को जगाते, उनके हाथों में सिद्धांत थमा दिए गए। वे बच्चे हमेशा के लिए असत्य में जीएंगे, असत्य में मरेंगे, वे कभी सत्य की खोज नहीं कर सकेंगे।
सत्य की खोज का दूसरा सूत्र है: जिज्ञासा।
पहला सूत्र है: निष्पक्ष चित्त। दूसरा सूत्र है: जिज्ञासा, इंक्वायरी।
और हम बच्चों की सारी जिज्ञासा की हत्या कर देते हैं। जिज्ञासा की हत्या करने के हमने उपाय खोज रखे हैं। हमने हर जिज्ञासा का रेडीमेड उत्तर बना रखा है। कोई भी प्रश्न हो, उत्तर तैयार है। हमें प्रश्न से ज्यादा मूल्य उत्तर का है। प्रश्न को दबा दो, उत्तर को ऊपर से थोप दो। बच्चा पूछे कि मृत्यु के बाद क्या है? और कह दो कि आत्मा अमर है। न खुद पता है कि आत्मा अमर है। नहीं, खुद भी कुछ पता नहीं है। लेकिन बच्चे के दिमाग पर थोप दो कि आत्मा अमर है।
बच्चा पूछता था: मृत्यु क्या है? बच्चा एक प्रश्न उठाता था, एक जिंदगी का बड़ा सवाल उठाता था कि मृत्यु के बाद क्या है? और मैं आपसे कहता हूं, बच्चे ने ज्यादा कीमती सवाल उठाया था, वह आपके उत्तर से बहुत ज्यादा कीमती था। क्योंकि आपका उत्तर झूठा है, आपको कुछ भी पता नहीं है। मौत आएगी तब आपको पता चलेगा कि आत्मा अमर है या नहीं। तब आप घबड़ाएंगे और चिल्लाएंगे कि मुझे बचा लो किसी तरह से अब मैं मर रहा हूं। तब आपको पता चलेगा कि वह आत्मा की अमरता की जो मैं बात कहता था, जानता नहीं था, सुना हुआ था। सुन लिया था, दोहरा रहा था। और दोहरा भी सिर्फ इसलिए रहा था कि मौत का बहुत मन में डर था। तो अपनी हिम्मत जुटा रहा था कि नहीं, आत्मा अमर है, आत्मा अमर है, आत्मा अमर है। मैं नहीं मरूंगा, यह हिम्मत जुटा रहे थे।
अंधेरी गली में आदमी निकलता है, तो हरे राम, हरे राम कहने लगता है, घबड़ाहट की वजह से, डर की वजह से, यह मत समझ लेना कि यह धार्मिक है। जोर-जोर से चिल्ला कर वह यह भ्रम पैदा करता है कि मैं डरा हुआ नहीं हूं। लेकिन उसका जोर से चिल्लाना बताता है कि वह डरा हुआ है। डरा हुआ नहीं होता तो हरे राम चिल्लाने की भी कोई जरूरत नहीं थी। ठंडी नदी में सुबह आदमी नहाने जाता है, पानी डालता है और चिल्लाता है जय सीताराम, जय सीताराम, यह मत समझ लेना कि यह धार्मिक आदमी है। ठंड को भुलाने की कोशिश कर रहा है चिल्ला कर। चिल्लाने में मन लग जाए, तो भूल जाए कि ठंड लग रही है। जल्दी से नदी के बाहर हो जाए।
ये जो लोग ‘आत्मा अमर है’ का मंत्र रटते रहते हैं, यह मत समझ लेना कि इन्हें आत्मा की अमरता का कोई भी पता है। अगर इन्हें पता होता, तो इनकी जिंदगी एक सुगंध बन जाती, एक सत्य बन जाती, इनका जीवन कुछ से कुछ और हो जाता, ये आदमी ही दूसरे होते। जिस आदमी को यह पता चल गया कि मृत्यु नहीं है, वह आदमी दूसरे ही जगत में प्रवेश कर गया। उसने उस सत्य को जान लिया, जिसे जानने से सब-कुछ जान लिया जाता है। उसने अमृत को अनुभव कर लिया। और जिस आदमी ने अमृत को अनुभव कर लिया, उसके जीवन में घृणा होगी? उसके जीवन में क्रोध होगा? उसके जीवन में बेईमानी होगी? जिस आदमी ने अमृत को जान लिया, उसके जीवन में क्रोध की कहां संभावना है? क्रोध तो मृत्यु से बचने का उपाय था, वह तो सेफ्टी मेजर है। वह तो डर लगता है कि कोई मार न डाले, तो हम अपनी ताकत इकट्ठा करने के लिए क्रोधित होकर सुरक्षा करते हैं। घृणा तो मौत से बचने का उपाय है। सुरक्षा के उपाय हैं ये सब।
जिस आदमी को यह पता चल गया कि मौत नहीं है, उसका इस जगत में कोई शत्रु हो सकता है? शायद आपने कभी सोचा ही नहीं होगा। मौत के भय के कारण शत्रु पैदा होते हैं, अन्यथा कोई शत्रु नहीं है, फिर सब मित्र हैं। जब मुझे कोई मिटा ही नहीं सकता, तो शत्रु हो कैसे सकता है? शत्रु का मतलब, जो मुझे मिटा सकता है। जिसकी संभावना है कि जो मुझे मिटा सकता है, वह मेरा शत्रु है। लेकिन अगर मैं मिट ही नहीं सकता, तो इस जगत में शत्रु कैसे हो सकता है? फिर सब मित्र हो गए। लेकिन नहीं, हमें कुछ पता नहीं है कि आत्मा अमर है। हम मौत को झुठलाने के लिए दोहरा रहे हैं कि आत्मा अमर है। और अगर एक पुरुष एक कोने में बैठ कर दोहराने लगे कि मैं पुरुष हूं, मैं पुरुष हूं, तो क्या मतलब होगा इसका? इसका मतलब होगा कि उसको अपने पुरुष होने में खुद भी शक है, नहीं तो दोहराता नहीं। हमें जिस बात का संदेह होता है, वही हम दोहराते हैं, नहीं तो हम कभी नहीं दोहराएंगे। जो हम जानते हैं, वह हम जानते हैं, दोहराने की कोई जरूरत नहीं है।
मंदिरों में, आश्रमों में लोग बैठे हैं, वे कहते हैं कि मैं तो अजर-अमर आत्मा हूं। सुबह से मंत्र रट रहे हैं कि मैं अजर-अमर आत्मा हूं, मैं अजर हूं। पागल हो गए हैं। अगर तुम्हें पता चल गया है कि तुम अजर-अमर आत्मा हो, तो यह बकवास क्यों जारी किए हो? यह किसको सुनाने के लिए चला रहे हो? यह किसलिए दोहरा रहे हो? और अगर पता नहीं चला है, तो इस भ्रम में मत रहो कि बहुत बार दोहरा लेने से पता चल जाएगा। अगर इतना सत्य आसान होता कि हम किसी बात को बहुत बार दोहराएं और हम उसके जानने वाले बन जाएं, तो दुनिया में सारे लोग सत्य को कभी का जान गए होते। दोहराने से भ्रम पैदा हो सकता है, दोहराने से सत्य का पता नहीं चल सकता। जो मुझे मालूम नहीं है, मैं उसे एक बार दोहराऊं कि करोड़ बार दोहराऊं, जो मुझे मालूम नहीं है, वह मालूम नहीं है। हां, लेकिन करोड़ बार दोहराने से यह भ्रम पैदा हो सकता है--वह पहली बुनियादी बात कि मुझे मालूम नहीं है--करोड़ बार दोहराने से भूल सकती है, विस्मृत हो सकती है। करोड़ बार दोहराने से यह भ्रम पैदा हो सकता है कि मुझे मालूम है। क्योंकि मैं कितने साल से दोहरा रहा हूं कि आत्मा अमर है। लेकिन आपके दोहराने से कभी कुछ नहीं होता है।
बच्चे ने एक बुनियादी सवाल पूछा है कि मौत के बाद क्या है? अगर आपको मालूम नहीं है, तो अपने अज्ञान को स्वीकार कर लें। यह बच्चे के साथ हित और मंगल होगा और बच्चे की जिज्ञासा को बढ़ाने में सहयोगी होगा। और बच्चे को कहें कि मुझे पता नहीं है। मैं भी खोज रहा हूं और अब तक जान नहीं सका हूं। तुम भी खोजना और खोजने के पहले भूल से भी कभी मान मत लेना, क्योंकि जो मान लेता है उसकी खोज बंद हो जाती है। जो मान लेता है उसकी खोज बंद हो जाती है!
जिज्ञासा का अर्थ है बिलीफ नहीं, विश्वास नहीं, श्रद्धा नहीं। जिज्ञासा का अर्थ है पूरे प्राणों की यह चेष्टा कि मैं जानना चाहता हूं कि क्या है सत्य जीवन का? क्या है रहस्य जीवन का? क्या है छिपा इस सारे जगत में? इस सारी प्रकृति में कौन है छिपा? इस दृश्य के भीतर कौन अदृश्य है? इस शरीर के भीतर कौन अशरीरी है? इन शब्दों के भीतर कौन सा सत्य है? इन फूलों के भीतर कौन सा सौंदर्य है? इस सारे जीवन और जगत के भीतर क्या है छिपा? उसे मैं जानना चाहता हूं--मैं जानना चाहता हूं! और अगर मुझे जानना है, तो मुझे उधार बातों से बच जाने की जरूरत है।
लेकिन मनुष्य-जाति के पाखंड ने, उधार बातों ने बहुत बड़ा हाथ जुड़ाया है।
कृष्ण को पता है कि सत्य क्या है। बुद्ध को पता है कि सत्य क्या है। उनको पता है और हम उनके शब्दों को दोहरा रहे हैं और सोच रहे हैं हमें भी पता हो जाएगा। उधार हैं वे शब्द, बासे और मृत। जिसे पता है, उसके शब्दों में प्राण होते हैं। लेकिन जैसे ही वे शब्द हमारे पास आते हैं, निष्प्राण हो जाते हैं। हमारे पास शब्द ही आते हैं, अनुभव पीछे छूट जाता है।
एक कवि समुद्र की यात्रा पर गया हुआ था। सुबह ही जब समुद्र के तट पर पहुंचा और उसने आकाश की तरफ उठती हुई झागदार लहरों को देखा। दूर से आती हुई लहरें दिखाई पड़ीं। हवाओं के झोंके, सुबह के सूरज की बरसती हुई किरणें दिखाई पड़ीं, सुबह की सुगंध से भरी हुई हवा। उसे तत्क्षण अपनी प्रेयसी की याद आई, जो एक अस्पताल में बीमार पड़ी थी। और उसके मन को हुआ कि काश, वह भी आ सकती और इस सौंदर्य को देख सकती! लेकिन वह तो बीमार है और नहीं आ सकती है। फिर क्या उपाय हो सकता है? तो उसने सोचा कि मैं एक खूबसूरत पेटी खरीद कर लाऊं और सूरज की किरणों को, हवाओं को, समुद्र के सौंदर्य को उसमें भर दूं और भेज दूं। कुछ तो जान सकेगी, कुछ तो देख सकेगी! कवि था, इसलिए इस तरह की नासमझी की बात सोच सकता था।
वह गया और बाजार से एक खूबसूरत पेटी खरीद लाया। बड़ी खूबसूरत पेटी थी। और उसने जाकर समुद्र की हवाएं और सूरज की रोशनी में पेटी को खोला और पेटी बंद कर दी। ताला लगाया। सब तरफ से बिलकुल सील्ड कर दी पेटी कि कहीं से सूरज की किरणें और हवाएं बाहर न निकल जाएं। और एक पत्र लिखा अपनी प्रेयसी को कि एक अपूर्व सौंदर्य का मैंने अनुभव किया है, उसे मैं पेटी में भर कर तेरे पास भेजता हूं। तू भी खुश होगी! थोड़ी सी झलक तो तुझे मिल ही जाएगी!
पेटी पहुंच गई, पत्र भी पहुंच गया। उसकी प्रेयसी बहुत हैरान हुई। स्त्रियां सदा से ही पुरुषों से ज्यादा व्यावहारिक हैं। बेवकूफी की बातें उनके मन को ज्यादा अपील नहीं करती हैं। इसलिए स्त्रियों को देख कर न मालूम कितने कवि पैदा हो गए, लेकिन स्त्रियां कविताएं भी नहीं करतीं। वह बड़ी हैरान हुई कि पागल हो गया है! समुद्र की हवाएं और सूरज की रोशनियां कहीं पेटियों में बंद होती हैं? कहीं सुबह के सौंदर्य भी पेटियों में बंद होते हैं? लेकिन शायद उसने कोई तरकीब की हो। उसने पत्र पढ़ लिया, पेटी खोली, वहां
तो कुछ भी न था। वहां तो घुप्प अंधकार था। न कोई किरण थी, न कोई हवा थी, न कोई सुगंध थी, न कोई सौंदर्य था। वहां तो कुछ भी न था। पेटी खाली थी।
जो लोग सत्य के किनारे पहुंचे हैं, उनके प्राणों में भी लगता होगा कि यह सौंदर्य, यह सत्य का अनुभव, यह प्रतीति उनको भी मिल जाए जो पीछे रह गए हैं यात्रा में। उनकी करुणा के कारण वे शब्दों में भर कर उस सत्य के सौंदर्य की खबर हम तक भेजते हैं। लेकिन शब्द हम तक पहुंच जाते हैं, सौंदर्य वहीं सत्य के किनारे ही रह जाता है। और शब्दों की पेटियों को हम सिर पर लेकर ढोते रहते हैं जिंदगी भर। कोई गीता को ढो रहा है, कोई समयसार को ढो रहा है, कोई कुरान को ढो रहा है, कोई कुछ और ढो रहा है। ये शब्दों की पेटियां हैं। इन शब्दों की पेटियों को ढोने से आप कभी उस समुद्र के किनारे नहीं पहुंच पाएंगे जहां इन शब्दों को भेजने वाले लोग पहुंचे थे। यह वैसा ही पागलपन है कि मैं अंगुली उठा कर दिखाऊं कि आकाश में चांद है और आप मेरी अंगुली पकड़ लें कि बड़े सौभाग्य की बात कि चांद मिल गया। मैं दिखाऊं आकाश की तरफ कि वह रहा चांद और आप पकड़ लें मेरी अंगुली कि मिल गया चांद। तो मैं भी अपनी खोपड़ी ठोक लूंगा। अगर महावीर, बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट कहीं भी हैं, तो अपनी खोपड़ी ठोक-ठोक कर थक गए होंगे कि हमने दिखाए थे इशारे और लोग उन्हीं को पकड़ कर मजे से समझ रहे हैं कि सत्य मिल गया है।
शब्द इशारे हैं, शास्त्र इशारे हैं और उनको हम पकड़े बैठे हुए हैं। और गुरु हैं, महंत हैं, संत हैं, वे समझा रहे हैं कि श्रद्धा रखो, आंख बंद रखो और पकड़े रहो। अगर जरा भी आंख खोली, तो गड़बड़ हो जाने का डर है, क्योंकि आंख खोलने से आपको भी दिखाई पड़ जाएगा कि पेटी खाली है। इसलिए आंख खोलना मत, आंख बंद रखना। यही भक्त का लक्षण है, यही धार्मिक आदमी का लक्षण है। आंख मत खोलना। इसलिए सारी दुनिया पाखंड और झूठ से भर गई है, सारे मनुष्य का व्यक्तित्व झूठा हो गया है।
आंख खोलने की जरूरत है। चाहे आंख खोलने से हमारे कितने ही दिन के पाले और पोसे हुए सत्य गिरते हों तो गिर जाएं। आंख खोलने की जरूरत है। विचार करने की जरूरत है। चाहे हमारे हजारों वर्ष के बनाए हुए भवन धूल में मिटते हों तो मिट जाएं। क्योंकि जो भवन खुली आंख को नहीं सह सकते, वे भवन सपने के भवन होंगे, वे सत्य के भवन नहीं हैं। जो सत्य सच्ची जिज्ञासा के सामने नहीं टिक सकते वे सत्य झूठ से भी बदतर हैं। जो सत्य है वह जिज्ञासा की अग्नि में निखर कर और साफ हो जाता है। सत्य के लिए विश्वास की कोई भी जरूरत नहीं है और सत्य ने कभी भी विश्वास मांगा नहीं है। असत्य मांगते हैं, विश्वास करो, क्योंकि असत्य केवल विश्वास के आधार पर ही खड़ा हो सकता है। सत्य कहता है, विश्वास की कोई जरूरत नहीं है। सोचो, विचारो, खोजो। क्योंकि सत्य को पता है कि तुम जितना खोजोगे, जितना विचारोगे, उतने मेरे निकट आ जाओगे।
तो मैं आपसे कहता हूं: जो लोग भी सिखा रहे हैं दुनिया को विश्वास करो, श्रद्धा करो, बिलीफ करो, वे सारे लोग दुनिया में असत्य के पक्षधर हैं। वे सारे लोग दुनिया में असत्य को मजबूत कर रहे हैं। सत्य को किसी विश्वास के सहारे की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। असत्य के लिए विश्वास की जरूरत है। सत्य के लिए किसी की कोई जरूरत नहीं है। सत्य अपने में खड़े होने में समर्थ है। सत्य नहीं कहता कि आंख बंद करके मेरी बात मानो। सत्य कहता है, खोजो, तोड़ो। जितना तुम काट सकते हो काट दो, लेकिन जो सत्य है, वह हमेशा पीछे शेष रह जाएगा। लेकिन असत्य डरता है कि विचार मत करना, असत्य घबड़ाता है कि विचार किया कि उसके प्राण निकले। विश्वास हटा कि नीचे के आधार खिसके।
एक गांव में एक दुकान पर एक दिन सुबह एक बात होती थी, वह मैंने सुन ली थी, वह मैं आपसे कहता हूं। एक तेली की दुकान है। वह तेल बेचता है। और एक आदमी तेल खरीदने आ गया है। तेली की दुकान के पीछे ही जहां तेली बैठा हुआ है, उसके ठीक पीछे ही कोल्हू का बैल चल रहा है और तेल पेर रहा है। वह ग्राहक जो तेल खरीदने आया है, देख कर बहुत हैरान हुआ। उस बैल को कोई भी चला नहीं रहा है, वह अपने आप ही चल रहा है और तेल पेर रहा है। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने कहा कि यह बैल बड़ा पुराना और बड़ा धार्मिक मालूम पड़ता है, बड़ा रिलीजियस। अब ऐसे कहां लोग हैं जो बिना चलाए चल जाएं? अब तो ऐसे लोग हैं कि सारा मुल्क भी उनको चलाने की कोशिश करे, तो वे नहीं चलते है। छोटा क्लर्क नहीं चल रहा है, बड़ा क्लर्क उसको चलाने की कोशिश कर रहा है। बड़ा क्लर्क भी नहीं चल रहा है, सुप्रिन्टेंडेंट उसको चलाने की कोशिश कर रहा है। और छोटे क्लर्क से लेकर राष्ट्रपति तक कोई नहीं चल रहा है। सब एक-दूसरे को चलाने की कोशिश कर रहे हैं और कोई भी नहीं चल रहा है। यह बैल तो बड़ा धार्मिक मालूम पड़ता है। इतना रिलीजियस, इतना धार्मिक, इतना विश्वासी! उस ग्राहक ने कहा कि धन्यवाद तुम्हारे बैल को! बड़ा आश्चर्य, कोई चला नहीं रहा और बैल कोल्हू चला रहा है!
उस तेली ने कहा: आपको पता नहीं शायद, हम दुकानदार हैं, हम तरकीबें खोजना जानते हैं।
उसने कहा: क्या तरकीब है?
उसने कहा: गौर से देखो, उसकी आंखों पर हमने पट्टियां बांध रखी हैं। उसे दिखाई नहीं पड़ता कि पीछे कोई चलाने वाला है कि नहीं।
आंख पर पट्टियां हों, तो कैसे दिखाई पड़ेगा? तो जिन लोगों का धंधा अंधेरे पर चलता है, अंधेपन पर चलता है, वे आंख पर पट्टियां बांधने के लिए कहते हैं। पुरोहित भी बड़े पुराने व्यापारी हैं। साधारण लोग तो साधारण चीजों का धंधा करते हैं--कोई किराना बेचता है, कोई कपड़ा, कोई सोना-चांदी। पुरोहित परमात्मा को बेच रहा है। उसके धंधे बहुत गहरे हैं। उसने उतनी ही गहरी पट्टियां आदमी की आंख पर बांध देनी चाही हैं। जितना अंधा आदमी होगा, उतना ही झूठ के व्यवसाय में उसे शोषित किया जा सकता है।
वह ग्राहक बहुत हैरान हुआ। उसने कहा: मैं समझा। लेकिन वह थोड़ा सोच-विचार का आदमी होगा, जैसे कि आदमी मुश्किल से ही कभी होते हैं। उसने कहा कि मैं समझा कि आंख पर पट्टियां बंधी हैं, लेकिन बैल कभी रुक कर यह पता भी तो लगा सकता है कि कोई पीछे हांकने को है या नहीं? क्या बैल में इतनी भी बुद्धि नहीं है कि वह रुक जाए और पता लगा ले कि पीछे कोई है या नहीं?
उस दुकानदार ने कहा: अगर इतनी बुद्धि बैल में होती, तो हम कोल्हू चलाते, बैल दुकान चलाता। हमने उसके गले में घंटी बांध रखी है। बैल चलता रहता है, घंटी बजती रहती है, हमको पता है कि बैल चल रहा है। घंटी जरा रुकी कि मैं उचका और बैल को चला आया। उसको यह खयाल नहीं पैदा होने देता कि मैं पीछे हमेशा मौजूद नहीं रहता हूं। घंटी बजती रहती है, मैं जानता हूं कि बैल चल रहा है। घंटी जरा ही धीमी पड़ी कि मैं उठा और बैल को चला देता हूं। बैल को भ्रम बना रहता है कि कोई आदमी हमेशा पीछे मौजूद है।
लेकिन वह आदमी थोड़े विचार का आदमी रहा होगा, जैसे कि आदमी होते नहीं हैं। उस आदमी ने कहा: यह तो मैं समझ गया कि घंटी... लेकिन बैल कभी खड़े होकर भी तो सिर हिला कर घंटी बजा सकता है? तुम तो पीठ किए बैठे हो।
उस दुकानदार ने कहा: भाई, थोड़े धीरे बोल! अगर बैल सुन लेगा तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। और आगे से आप और किसी दुकान से तेल खरीद लेना। यह धंधा महंगा है।
मनुष्य के साथ भी जो लोग कहते हैं कि विश्वास करो, वे साथ में यह भी कहते हैं कि कहीं भी संदेह की और जिज्ञासा की बातें सुनने मत जाना। वे यह भी समझाते हैं कि ऐसी कोई बात मत सुन लेना जिससे विश्वास डगमगा जाए। और मैं कहता हूं, जो चीज डगमगा सकती है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। उसका दो कौड़ी मूल्य है, जिसे कोई डगमगा सकता है। इसलिए जरूर उन सारी बातों को सोच लेना और खोज लेना जिनसे कि विश्वास डगमगाता हो। डगमगाता हो तो डगमगा जाए और गिर जाए, उसका कोई मूल्य भी नहीं है। और जो संदेह की बात से डगमगा जाएगा, स्मरण रखना, मौत के क्षण में मौत के धक्के से टिक नहीं सकेगा। मौत का धक्का उसको मिट्टी कर देगा। जो संदेह से ही गिर जाता है, वह मौत के धक्के को कैसे सहेगा?
थोथे विश्वासियों को मौत के क्षण में पता चलता है कि जिंदगी व्यर्थ गंवा दी। कुछ भी नहीं जाना, सिर्फ मानते रहे और व्यर्थ हो गया सब-कुछ।
इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं: विचार।
पहला सूत्र है: निष्पक्ष चित्त।
दूसरा सूत्र है: जिज्ञासा--तीव्र जिज्ञासा, जो किसी चीज को मानने को तैयार नहीं होती।
और तीसरा सूत्र है: विचार--अनथक विचार।
सोचना होगा, जिंदगी के एक-एक पहलू पर सब तरफ से परीक्षा करनी होगी। और जब तक पूरे विवेक को कोई बात अंगीकार न हो, तब तक अंगीकार नहीं करनी होगी। जब तक पूरे प्राण किसी बात को स्वीकार करने को तैयार न हो जाएं, तब तक दुनिया का कोई गुरु कहता हो, कोई तीर्थंकर कहता हो, कोई अवतार कहता हो, मानने की जरूरत नहीं है। इसलिए नहीं कि तीर्थंकर और अवतार गलत कहते हैं, इसलिए नहीं, मानना गलत है। वे ठीक कहते होंगे, आपका मान लेना गलत है। अगर आप न मानोगे और साहसपूर्वक चिंतन और विचार और मनन की तीव्र प्रक्रिया से गुजरते ही रहोगे, तो एक दिन इस प्रक्रिया और संघर्ष का यह परिणाम होगा कि प्राणों का दर्पण स्वच्छ हो जाएगा। और जिसे तीर्थंकर कहते हैं, जिसे अवतार कहते हैं, वह आपको भी दिखाई पड़ेगा। उस दिन सारे धर्मग्रंथ सत्य हो जाएंगे, उसके पहले नहीं।
धर्मग्रंथों से कोई सत्य नहीं पा सकता, लेकिन सत्य को पा ले, तो सारे धर्मग्रंथ सत्य जरूर हो जाते हैं। धर्मग्रंथों से कोई सत्य को नहीं पा सकता, तीर्थंकर से कोई सत्य को नहीं पा सकता, अवतार से कोई सत्य को नहीं पा सकता, गुरु से कोई सत्य को नहीं पा सकता, लेकिन सत्य को पा ले, तो सारे जगत के गुरु और सारे जगत के तीर्थंकर एक ही बात कह रहे हैं, एक ही सत्य, यह जरूर दिखाई पड़ जाता है।
हम उलटी यात्रा कर रहे हैं। हम विश्वास से खोज रहे हैं, श्रद्धा से खोज रहे हैं, चरणों को पकड़ कर खोज रहे हैं। हम सत्य तक कभी भी नहीं पहुंच सकते हैं। सत्य तक पहुंचने के लिए चाहिए साहस, करेज, अंधेरे में खड़े होने का साहस, अज्ञान में खड़े होने का साहस, इस बात का साहस कि मैं नहीं जानता हूं। और मैं आपसे कहता हूं, अपने अज्ञान को स्वीकार करने से बड़ा साहस पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। इस बात को स्वीकार करना कि मैं नहीं जानता हूं, यह बड़े से बड़ा साहस है। यह बड़ा मॉरल करेज है। यह थोड़े से लोगों में यह हिम्मत होती है कि कह सकें कि हम नहीं जानते हैं। वे ही थोड़े से लोग यात्रा पर निकलते हैं खोज की। क्योंकि जो नहीं जानता है, उसके प्राणों में एक पीड़ा और एक द्वंद्व शुरू हो जाता है कि मैं जानूं। और जानने की यात्रा शुरू हो जाती है।
जानने की यात्रा के तीन सूत्र मैंने आपसे कहे, उन्हें दोहरा देता हूं। और एक छोटी सी कहानी और अपनी बात को मैं पूरा कर दूंगा।
निष्पक्ष हो जाएं, सारे पक्षों को आग लगा दें। मनुष्य को पक्षों की कोई भी जरूरत नहीं है। संप्रदायों की कोई जरूरत नहीं है। अगर दुनिया में चाहते हैं कि धर्म पैदा हो, तो धर्मों से मुक्त हो जाएं। अगर चाहते है कि रिलीजन पैदा हो, तो रिलीजंस को विदा कर दें। निष्पक्ष हो जाएं। जिज्ञासा करें। डरें न। डरें न कि जिज्ञासा, पूछने पर, इंक्वायरी करने पर हमारी मानी हुई मान्यताएं कहीं गिर तो न जाएंगी! जरूर गिरेंगी। गिर जाने दें। गिरना चाहिए। एक-एक मूर्ति गिर जाए हमारी मान्यता की तो हर्ज नहीं है। जिज्ञासा की तलवार से सब-कुछ टूट जाए तो हर्ज नहीं है। क्योंकि जिसकी जिज्ञासा जितनी तीव्र होती है, वह परमात्मा का उतना ही प्यारा हो जाता है। उसकी प्यास उतनी तीव्र है, उसकी व्याकुलता उतनी तीव्र है, वह अपने बीच में और सत्य के बीच में कोई प्रतिमा खड़ी नहीं करना चाहता। वह कहता है कि मैं जानूंगा सत्य को, मैं बीच के दलालों से कुछ भी सीखने को राजी नहीं हूं। मैं जानना चाहता हूं।
कभी आपने सोचा, आपकी जगह कोई और प्रेम कर सकता है? हो सकता है कि कभी ऐसी दुनिया आ जाए। अल्डुअस हक्सले ने कहीं लिखा है कि जब दुनिया और आरामतलब हो जाएगी, लोग और कम्फर्ट को प्रेम करने लगेंगे, तो जैसे वे अभी दूसरे काम नौकरों से करवाते हैं, प्रेम का काम भी नौकरों से करवा लेंगे। हो सकता है, आदमी बड़ा अजीब है। यह भी कर सकता है कि नौकर रख ले कि प्रेम का काम तू कर दे, मुझे झंझट में मत डाल। यह हो सकता है, क्योंकि प्रार्थना का काम नौकरों से हम करवा रहे हैं हजारों साल से। और प्रार्थना प्रेम का ही गहनतम रूप है। एक आदमी एक पुजारी को पकड़ लाता है, कहता है, तू प्रार्थना कर, मैं दुकान करता हूं। हम तुझे प्रार्थना की तनख्वाह दे देंगे। यज्ञ कर, हम तुझे तनख्वाह दे देंगे। प्रार्थना हम नौकरों से करवा रहे हैं, तो कभी हम प्रेम भी करवा सकते हैं। वह एक कदम और आगे है। परमात्मा और अपने बीच नौकर को लिया, प्रेमी और अपने बीच भी नौकर को लेने में कौन सी कठिनाई है? कौन सी लॉजिकल तकलीफ है?
नहीं, लेकिन जिज्ञासा जिसकी तीव्र है, वह बीच में किसी को लेने को तैयार नहीं है। जिज्ञासा के तीव्र होने का यही मतलब है कि मैं अपने और सत्य के बीच किसी को स्वीकार नहीं करूंगा। और वे लोग धोखेबाज हैं जो सत्य के और आदमी के बीच खड़े होने की चेष्टा करते हैं। वे व्यवसायी हैं। वे धंधा करते हैं। और धंधे से सत्य नहीं मिल सकता।
और तीसरी बात चाहिए: अथक विचार। चाहे सारा जीवन आग से भर जाए, चाहे सारी श्रद्धा खो जाए, सारी सांत्वना खो जाए, सारा संतोष खो जाए, जीवन एक चिंता और एक एंजायटी बन जाए, लेकिन विचार का साथ मत छोड़ना, क्योंकि विचार ही वह नाव है जो विवेक तक पहुंचाती है। और विवेक ही वह दर्पण है जिसमें सत्य की छवि अंकित होती है।
विचार है नाव--तूफान आएंगे। किनारे पर खड़े रहने में एक सुख है--वहां तूफान नहीं आते, आंधियां नहीं आतीं, डूबने का और मरने का कोई भय नहीं होता। इसलिए कम साहसी लोग विश्वास के किनारे पर खड़े रह जाते हैं। हिम्मतवर लोग विचार की नाव लेते हैं और अनंत सागर में छोड़ देते हैं--जहां तूफान हैं, आंधियां हैं, मरने का डर है। लेकिन जो आदमी मरने का डर उठाने की हिम्मत नहीं रखता, वह आदमी जी भी नहीं पाता, यह याद रखना। जीने की उतनी ही पात्रता गहरी होती है, जितनी मौत में उतरने की क्षमता होती है। जो मरने को जितना स्वीकार करता है, वह उतने ही गहरे अर्थों में जिंदा हो जाता है। तो किनारे पर बैठे हुए लोग हैं--विश्वास के किनारे पर--वहां संतोष है, शांति है, बैठे हैं, सागर की घबड़ाहट नहीं है, डूब जाने, मर जाने का डर नहीं है।
विचार की नाव डगमगाती है हजारों बार, आंधियां आ जाती हैं, पानी भरने लगता है, ऐसा लगता है कि गए, अनेक बार मन होता है कि लौट चलो विश्वास के किनारे पर जहां सारे लोग शांति से बैठे हैं। लेकिन अगर दूसरे किनारे पर पहुंचना है, जहां कि सत्य है, तो यह बीच का सागर पार करना ही होगा। मैं इसको ही तपश्चर्या कहता हूं।
विचार तपश्चर्या है। तपश्चर्या धूप में खड़े रहना नहीं है। वे सब सर्कस के खेल हैं। तपश्चर्या भूखे मरना नहीं है। वे सब सर्कस के खेल हैं। तपश्चर्या है विचार, क्योंकि विचार प्राणों को कंपा देगा। सारे संतोष नष्ट हो जाएंगे, सारे कनसोलेशंस छिन जाएंगे, सारा ज्ञान छिन जाएगा और एक अज्ञात यात्रा पर धक्का शुरू होगा, जहां न कोई संगी है, न साथी, बस विचार की नाव है और अनंत सागर है। तपश्चर्या का अर्थ है विचार। लेकिन जो विचार के साथ जाते हैं, वे निश्चित पहुंच जाते हैं।
आज तक विश्वास से गया हुआ आदमी कभी नहीं पहुंचा है और विचार से गया हुआ आदमी कभी रुका नहीं है, निश्चित पहुंच गया है। विचार पहुंचा देता है विवेक के तट तक और विवेक के तट पर उससे मिलन होता है जिसका नाम सत्य है। उसे हम प्रेम से परमात्मा कह सकते हैं, उसे हम मोक्ष कह सकते हैं, उसे हम जो चाहें वह नाम दे सकते हैं। सत्य है, लेकिन दूर है किनारा उसका। अज्ञात सागर है बीच में। और एक ही नाव है आदमी के पास, सिवाय विचार के और कोई नौका नहीं है मनुष्य के पास। क्या है आपके पास जिससे आप जाएंगे? सिवाय विचार के आपकी क्या सामर्थ्य है? सिवाय विचार के आपकी क्या शक्ति है? सिवाय विचार के आपके पास कौन सी चेतना है? कौन सी कांशसनेस है? विचार के अतिरिक्त मनुष्य के पास कुछ भी तो नहीं है। इसलिए विचार से ही मार्ग बनता है और विचार से ही मनुष्य पहुंचता है और उपलब्ध होता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। एक कहानी और अपनी बात पूरी कर दूंगा।
एक पूर्णिमा की रात है और एक गांव के कुछ मित्र एक शराबखाने में इकट्ठे होकर शराब पी रहे हैं। चांदनी बरसती है। वे नाच रहे हैं, गीत गा रहे हैं।
आदमी की जिंदगी इतनी दुखी हो गई है कि सिवाय शराब के न वह कभी नाचता है, न गाता है। यह बड़ी दुखद बात है। होश में आदमी रहता है तो गंभीर रहता है, दुखी और चिंतित और परेशान रहता है। जब बेहोश होता है तभी थोड़ा खुश होता है। होना उलटा चाहिए था कि आदमी होश में आनंदित होता और प्रसन्न होता और जब बेहोश होता तो दुखी और उदास हो जाता। जिस दिन ऐसा होगा उसी दिन शराब समाप्त होगी दुनिया से। नहीं तो चिल्लाते रहें नेता दुनिया भर के, शराब नष्ट होने वाली नहीं है। क्योंकि आदमी की सामान्य जिंदगी आनंद से शून्य हो गई है। वह सिर्फ शराब में आनंदित दिखाई पड़ता है।
वे नाच रहे थे, गीत गा रहे थे, वे नशे में थे। फिर किसी ने कहा कि अरे, पूर्णिमा की रात है। और उन सबने आकाश की तरफ आंखें उठाईं।
होश में कोई आदमी आकाश की तरफ देखता ही नहीं। चांद को कौन देखता है? बंबई में तो शायद ही किसी को पता चलता होगा कि कब पूर्णिमा आती है और कब निकल जाती है।
उनका भी बेहोशी में सिर ऊपर उठ गया--चांद! और किसी ने कहा: क्या यह अच्छा न हो कि हम चलें नदी पर नौका-विहार करें? ऐसी बरसती चांदनी!
वे नौका पर पहुंच गए नदी पर। मछुए जा चुके थे। वे एक नाव में सवार हो गए। उन्होंने पतवारें उठा लीं और नाव को खेना शुरू कर दिया। आधी रात थी, सुबह होने के करीब आ गई, तब सुबह की ठंडी हवाएं चलीं और थोड़ा होश आया उन्हें, तो उनमें से एक ने कहा: हम पता नहीं कितनी दूर निकल आए हों, न मालूम किस दिशा में, अब लौटना पड़ेगा, सुबह होने के करीब हो गई, अब घर पर लोग याद करते होंगे। तो कोई एक व्यक्ति नीचे उतर जाए और देखे कि हम कितनी दूर निकल आए हैं। एक व्यक्ति नीचे उतरा और उसने कहा कि पागलो, सभी नीचे उतर आओ, हम कहीं भी नहीं गए, नौका वहीं की वहीं खड़ी है जहां हम रात खड़े थे।
वे सब लोग नीचे उतरे और दंग रह गए। असल में, वे नाव की जंजीर जो किनारे से बंधी थी, उसे छोड़ना भूल गए थे। तो पतवार तो उन्होंने बहुत चलाई थी रात भर, लेकिन नौका कैसे आगे जाती, उसकी जंजीर बंधी थी।
तट से जंजीर बंधी है मनुष्य के चित्त की, इसलिए जीवन भर दौड़िए, सत्य तक नहीं पहुंच सकते हैं। उस जंजीर को तोड़ने के तीन सूत्र मैंने कहे। वह जंजीर टूट जाए, तो सत्य अत्यंत निकट है। अपने से भी ज्यादा निकट सत्य है।
मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।