YOG/DHYAN/SADHANA
Main Kaun Hun 03
Third Discourse from the series of 11 discourses - Main Kaun Hun by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
‘मैं कौन हूं?’--इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल और परसों मैंने आपसे की हैं।
परसों मैंने कहा, ज्ञान नहीं वरन न जानने की अवस्था, न जानने का बोध सत्य की ओर मार्ग प्रशस्त करता है। यह जान लेना कि ‘मैं नहीं जानता हूं’ एक अपूर्व शांति में और मौन में चित्त को ले जाता है। यह स्मरण आ जाना कि सारा ज्ञान, सारे शब्द और सिद्धांत जो मेरी स्मृति पर छाए हैं, वे ज्ञान नहीं हैं; वरन जब स्मृति मौन और चुप होती है, और जब स्मृति नहीं बोलती, और जब स्मृति स्पंदित नहीं होती, तब उस अंतराल में, उस रिक्त में जो जाना जाता है, वही, वही सत्य है, वही ज्ञान है। इस संबंध में परसों थोड़ी सी बातें कही थीं।
और कल--और कल मैंने आपसे कहा कि वे नहीं जो अपने अहंकार में कठोर हो गए हैं, वे नहीं जो अपने अहंकार के सिंहासन पर विराजमान हैं, वे नहीं जिन्होंने अपनी संवेदना के सब झरोखे बंद कर लिए और जिनके हृदय पत्थर हो गए हैं, वरन वे जो प्रेम में तरल हैं और जिनके हृदय के सब द्वार खुले हैं और जिन्हें अज्ञात स्पर्श करता है और जिन्हें जीवन में चारों तरफ छाए हुए जीवन में रहस्य की प्रतीति होती है ऐसे हृदय, ऐसे काव्य से और प्रेम से और रहस्य से भरे हृदय ही केवल सत्य को जानने में समर्थ हो पाते हैं।
और आज सुबह एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा मैं शुरू करूं।
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ थी। सारा गांव ही, सारी राजधानी ही द्वार पर इकट्ठी हो गई थी। सुबह-सुबह भीड़ का आगमन शुरू हुआ था और अब तो संध्या आने को थी, लेकिन जो आकर खड़ा हो गया था वह खड़ा था, कोई भी हटा नहीं था। दिन भर से भूखे-प्यासे लोग तपती धूप में उस द्वार के सामने खड़े थे। कोई अघटनीय वहां घट गया था। कुछ ऐसी बात हो गई थी जो विश्वास योग्य ही नहीं मालूम होती थी।
सुबह-सुबह एक भिक्षु ने आकर उस द्वार को खटखटाया था और अपना भिक्षापात्र आगे बढ़ा दिया था। राजा उठा ही था, उसने अपने नौकरों को कहा होगा कि जाओ और भिक्षापात्र भर दो। लेकिन उस भिक्षु ने कहा: ठहरो! इसके पहले कि मैं भिक्षा स्वीकार करूं, मेरी शर्त भी सुन लो। बेशर्त मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करता हूं।
यह तो सुना गया था कि देने वाले शर्त के साथ देते हैं, यह बिलकुल पहली बात थी कि लेने वाला भी शर्त रखता हो, भिखारी!
राजा ने कहा: शर्त! कैसी शर्त?
उस भिखारी ने कहा: शर्त है मेरी एक: भिक्षा स्वीकार करूंगा, लेकिन तभी जब यह वचन दो कि पात्र मेरा पूरा भर दोगे, अधूरा तो नहीं छोड़ोगे? पात्र पूरा भरोगे यह वचन दो, तो भिक्षा स्वीकार करूं, अन्यथा किसी और द्वार चला जाऊं।
राजा ने कहा: जानते हो राजा का द्वार है यह, क्या तुम्हारा छोटा सा पात्र न भर सकूंगा?
पर उसने कहा: फिर भी शर्त ले लेनी उचित है, वचन ले लेना उचित है।
राजा ने दिया वचन। और अपने मंत्रियों को कहा कि जब पात्र भरने की बात ही आ गई है, तो स्वर्णमुद्राओं से पात्र भर दो। बहुत थीं स्वर्णमुद्राएं उसके पास, बहुत थे हीरे-मोती, बहुत थे माणिक, बहुत था, अकूत खजाना था।
स्वर्णमुद्राएं लाई गईं और पात्र में डाली गईं और तभी से भीड़ बढ़नी शुरू हो गई। और तभी से सारा गांव टकटकी बांधे आकर द्वार पर खड़ा हो गया। पात्र कुछ ऐसा था कि भरता ही नहीं था। मुद्राएं डाली जाती रहीं, पात्र खाली था खाली रहा। और दोपहर आ गई। और खजाने जो अकूत मालूम होते थे, खाली पड़ने लगे। ऐसा कौन सा खजाना है जो खाली न हो जाए? और सांझ होते-होते तो सभी खजाने जीवन के खाली हो ही जाते हैं। उस सांझ भी सारे खजाने खाली हो गए उस राजा के। और तब घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई दोपहर के बाद। भिखारी तो भिखारी था, सांझ होते-होते राजा भी भिखारी हो गया। कौन राजा सांझ होते-होते भिखारी नहीं हो जाता है?
पात्र खाली था--खाली था खाली रहा। फिर तो राजा घबड़ाया और पैर पर गिर पड़ा और उसने कहा: मुझे क्षमा कर दें! मैं न समझा था कि शर्त इतनी महंगी पड़ जाएगी। क्या है, क्या है यह जादू, कैसा है यह पात्र? छोटा सा दिखाई पड़ता है और भरता नहीं! और खजाने जो मेरे बड़े दिखाई पड़ते थे खाली हो गए, व्यर्थ हो गए! छोटा सा पात्र और बड़े खजाने न भर पाए! क्या है इस पात्र में, कैसा जादू है?
उस भिक्षु ने कहा: कोई भी जादू नहीं है। एक मरघट से निकलता था, आदमी की एक खोपड़ी पड़ी मिल गई, उससे ही इस पात्र को बना लिया है। आदमी की खोपड़ी से बना हुआ पात्र है। किस आदमी की खोपड़ी कब भरी है? किस आदमी का मन कब भरा है? पात्र में कोई जादू नहीं है, एक साधारण से आदमी का सिर है।
पता नहीं फिर आगे क्या हुआ। लेकिन इस कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि मनुष्य के जीवन में जो प्रश्न हैं और जो समस्या है वह यही है: मन को भरना है और मन भरता नहीं है। और हजार-हजार उपाय हम करते हैं--और धन से, और यश से, और पद से, मित्रों से, प्रियजनों से भरते हैं--नहीं भरता। फिर, फिर कुछ हैं जो धर्म से भरने लगते हैं--गीता से और कुरान से; त्याग से, तपश्चर्या से; संन्यास से, साधना से, फिर भी मन भरता नहीं है। परमात्मा से, मोक्ष से, फिर भी मन भरता नहीं है। मन कुछ ऐसा है कि भरता ही नहीं है। और भरने के सारे प्रयास में हम टूटते हैं, नष्ट होते हैं, जीर्ण और जर्जर होते हैं और भरने की सारी आशाएं टकरा-टकरा कर नष्ट हो जाती हैं। और तब विफलता और विषाद मन को घेर लेता है और दुख और पीड़ा और संताप और चिंता और सब व्यर्थ दीख पड़ने लगता है। जीवन व्यर्थ मालूम होने लगता है, क्योंकि मन भरता नहीं है और भरने के सब प्रयास असफल हो जाते हैं। कभी किसी का मन भरा नहीं है। कभी किसी का मन भरा नहीं है! मन कुछ ऐसा है कि भर सकता ही नहीं।
एक आदमी ने एक प्रेत की आत्मा को वश में कर लिया था। कहानी है और सच मत मान लेना। और नहीं तो किसी प्रेत की आत्मा को वश करने निकल पड़ें! क्योंकि बहुत सी कहानियों को हमने सच मान लिया है, इसलिए कहता हूं। बहुत सी कहानियों को हमने सच मान लिया है, इसलिए कहता हूं! कहानियों में सच्चाइयां होती हैं, कहानियां सच नहीं होतीं। उस आदमी ने प्रेत की आत्मा को वश में कर लिया था। लेकिन जैसी भूल अक्सर हो जाती है, जिसको हम वश में करते हैं हम सोचते हैं हमने वश में कर लिया और जिसको हम वश में करते हैं वह सोचता है कि मैंने वश में कर लिया। जैसे कि भूल रोज जिंदगी में हो जाती है, वैसी ही भूल वहां भी हो गई थी। क्योंकि जिसे हम बांध लेते हैं अनजाने, उससे हम बंध जाते हैं। और जिसे हम परतंत्र कर लेते हैं, हम उसके परतंत्र हो जाते हैं। केवल वही स्वतंत्र हो सकता है जो किसी को परतंत्र न करता हो।
उसने उस प्रेत को परतंत्र कर लिया था, भूल में पीछे पता चला कि वह खुद ही परतंत्र हो गया है। क्योंकि उस प्रेत ने कहा कि मुझे चैन नहीं पड़ती, मुझे तो काम चाहिए, निरंतर काम चाहिए। कितने काम थे, सब चुक गए। और वह प्रेत बार-बार खड़ा हो जाए और पीछे आकर धक्के देने लगे कि मुझे काम दो, मुझे चैन नहीं पड़ती। बेकाम मैं बैठ सकता नहीं हूं।
वह आदमी तो घबड़ाया, कहां से काम लाए? सब काम चुक गए। जो-जो कामनाएं थीं, सब उसने पूरी कर दीं। और तब मुश्किल खड़ी हो गई। और वह प्रेत भारी पड़ने लगा। और वह खड़ा है पीछे और धक्के दे रहा है कि मुझे काम दो। वह आदमी बहुत घबड़ाया, बहुत बेचैन हुआ, बहुत परेशान हुआ। गांव के बाहर एक वृद्ध फकीर रहता था, उसके पास गया। जब कोई बहुत बेचैन और परेशान हो जाता है तो फकीरों को खोजता है, उनके पास जाता है। वह भी गया। और उसने उस वृद्ध फकीर को पूछा कि मैं बहुत मुश्किल में हूं, एक प्रेत को पाल लिया। पहले तो सोचा था: बड़ा अच्छा हुआ, सब काम करवा लूंगा। अब मुसीबत हो गई, फांसी बन गई। अब काम नहीं सूझते कि क्या करवाऊं? वह मेरे प्राण लिए ले रहा है। अगर उसे मैंने कोई काम न दिया, तो वह अब एक ही काम करेगा, मुझे समाप्त कर देने का काम। और कोई काम बचा नहीं है। अब क्या करें?
उस वृद्ध ने कहा: यह डब्बा ले जाओ। एक डब्बा पड़ा था टूटा-फूटा। इसे ले जाओ और उससे कहना, इसे भरो।
वह डब्बे को ले आया। रास्ते में बहुत सोचा कि बड़ा पागल मालूम होता है यह बूढ़ा, क्योंकि डब्बे में नीचे कोई बॉटम न थी, कोई तलहटी न थी, बॉटमलेस, बिना तलहटी का था, उसमें कोई पेंदी न थी, पोला था ऊपर से भी नीचे से भी। लेकिन जब उसने कहा था, तो सोचा कि देखूं। जाकर डब्बा लटका दिया और उस प्रेत को कहा कि कुएं से पानी खींचो और इसमें भरो। प्रेत पानी खींचने लगा और भरने लगा। और तब से अब तक वह प्रेत पानी भर रहा है। और वह आदमी तो कभी का मर भी गया। वह पानी भर नहीं पाता है और वह प्रेत सोचता नहीं--कि देखें कि इसमें तलहटी भी है या नहीं है? उस डब्बे के नीचे कोई तलहटी नहीं है, इसलिए पानी डाला तो जाता है, लेकिन भरता कभी नहीं।
और यह प्रेत कोई एकाध नहीं है, सबके भीतर बैठा हुआ है। और भरे जा रहा है, और भरे जा रहा है--और कुछ भी भरता नहीं है। बहुत थक गया है प्रेत, बहुत परेशान है, बहुत पीड़ित है, लेकिन भरे जाता है, भरे जाता है और यह नहीं देखता कि डब्बा भरेगा नहीं। डब्बा कुछ ऐसा है।
मनुष्य का मन भी कुछ ऐसा है, बॉटमलेस एबिस। मनुष्य का मन भी ऐसा है, शून्य। कोई सीमा नहीं उस पर, कोई नीचे जगह नहीं, कोई ऊपर छप्पर नहीं। कोई सीमा नहीं। असीम और शून्य गड्ढा है मनुष्य का मन। उसे भरने की कोशिश जीवन की असफलता है। लेकिन हम सब भर रहे हैं, सब भर रहे हैं। सब भरने के प्रयास में लगे हैं, और लगे हैं।
क्या यह नहीं हो सकता कि यह भरना छोड़ दें? क्या यह नहीं हो सकता कि मन--मन जैसा है खाली और रिक्त वैसा ही स्वीकार कर लिया जाए? क्या यह नहीं हो सकता कि मन का यह जो शून्य है, यह ऐसे ही अंगीकार कर लिया जाए, न भरा जाए?
क्योंकि एक बात तय है कि यह मन तो भरता नहीं, भरेगा नहीं। इसे भरने में हम जरूर मिटेंगे, मिट जाएंगे, समाप्त हो जाएंगे। हमसे पहले भी यही हुआ है, हम पर भी यही हो रहा है, हमसे बाद भी यही होता रहेगा।
यह असंभव है कि मन भर जाए। सीधा-सीधा तथ्य है, यह असंभव है कि मन भर जाए; क्योंकि मन है रिक्त। शायद रिक्त कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जो रिक्त होता है उसके आस-पास एक दीवाल भी होती है जिसके भीतर रिक्तता होती है। मन है रिक्तता। एंप्टी नहीं, एंप्टीनेस। मन रिक्त नहीं है, रिक्तता ही मन है। कोई सीमा ही नहीं है उस पर, कहीं कोई दीवाल ही नहीं है उस पर। इसलिए डालो, डालो और सब खो जाएगा, सब खो जाएगा, सब खो जाएगा; वहां कहीं कुछ रुकेगा नहीं, ठहरेगा नहीं, बनेगा नहीं, निर्मित नहीं होगा। बच्चा जितना खाली मन लेकर आता है, उतना ही खाली मन लेकर बूढ़ा विदा होता है। जन्म के क्षण में जितना खाली है मन, मृत्यु के क्षण में भी उतना ही खाली है। उतना ही, उसमें जरा भी भेद नहीं पड़ता। जरा भी भेद नहीं पड़ता। एक भेद पड़ जाता है: बच्चे को इसका पता नहीं होता, बूढ़े को इसका पता होता है। और पता, बोध दुख देने लगता है।
यह रिक्तता है भीतर और रिक्तता को भरने का प्रयास है हमारा। फिर चाहे हम किसी बात से भरते हों, किसी बात से--कौड़ी से, पत्थर से भरते हों, राम-नाम से भरते हों, मोक्ष से भरते हों, और किसी बात से भरते हों उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भरना, भरने की कोशिश एब्सर्ड है। भरने की कोशिश एकदम, एकदम अर्थहीन है। और जब नहीं भर पाता, तो हम कहते हैं कि बड़ा दुख है। दुख उसी क्षण शुरू हो जाता है जहां से हम भरना शुरू करते हैं।
क्या यह नहीं हो सकता--नहीं हो सकता है यह कि रहने दें मन जैसा है, राजी हो जाएं उसके खालीपन से, उसके शून्य से? भरने की कोशिश हमें भविष्य में ले जाती है--कल; आज खाली है, कल भर लेंगे; परसों भर लेंगे; इस जन्म में खाली है, अगले जन्म में भर लेंगे। भरने की कोशिश से फ्यूचर पैदा होता है, भविष्य पैदा होता है। भविष्य कहीं है नहीं, है तो केवल वर्तमान।
भविष्य तो कहीं है नहीं, लेकिन भविष्य पैदा होता है भरने की कोशिश से। क्योंकि अगर भविष्य न हो, तो भरेंगे कैसे? भरने के लिए समय चाहिए। भरने के लिए समय चाहिए, श्रम चाहिए, भविष्य चाहिए। तो भरने की आकांक्षा से भविष्य पैदा होता है, टाइम पैदा होता है, समय पैदा होता है। कल, कल, कल कुछ हो जाऊंगा, कल भर लूंगा। आज खाली हूं, कल भर जाऊंगा। और कल की आशा में आज व्यय होता है, व्यतीत होता है जो है, उस कल की आशा में जो नहीं है। कल की आशा में आज व्यय होता है, व्यतीत होता है जो है, उसकी आशा में, उस कल की आशा में जो नहीं है। फिर, फिर कल आज आ जाएगा। और उस आज को भी हम कल की आशा में व्यय करेंगे और व्यतीत करेंगे। और फिर आज आ जाएगा और उसको भी व्यय करेंगे और व्यतीत करेंगे। और ऐसे पूरी जिंदगी व्यतीत हो जाती है, उसे जाने बिना जो था, जो है।
जब तक कोई मन की रिक्तता को स्वीकार न कर ले, तब तक वह उसे नहीं जान सकता, जो है। जब तक कोई मन की शून्यता को अंगीकार न कर ले, तब तक उसे नहीं जान सकता, जो मैं हूं।
मैं हूं क्या? कौन?--उसके लिए तीसरी सीढ़ी मैं आज आपसे कहना चाहता हूं: रिक्तता की स्वीकृति, शून्यता का स्वीकार, अंगीकार, ना-कुछ होने का अंगीकार, एक्सेप्टेबिलिटी। यह जो स्वीकृति है, यही आस्तिकता है।
जो आदमी कुछ होने में लगा है, वह नास्तिक है। वह चाहे भगवान होने में लगा हो, वह चाहे मोक्ष जाने में लगा हो। जो आदमी कुछ होने में लगा है, वह नास्तिक है। जो आदमी जो है उसको जिसने स्वीकार कर लिया है, वह आस्तिक है। स्वीकृति, अंगीकार, उसका जो है। क्या हैं हम? रिक्त। क्या हैं? कभी, कभी टटोला, कभी थोड़ा खटखटाया, क्या हैं? रिक्त, एकदम एंप्टीनेस, सब खाली और खाली है।
उस खालीपन पर कुछ-कुछ चिपका लेते हैं--कोई डिग्रियां ले आता है, कोई पीएच.डी. हो जाता है, कोई धन कमा लेता है, कोई डॉक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई मिनिस्टर है। पच्चीस तरह के पागलपन हैं। कोई कुछ न कुछ है। तख्तियां दरवाजों पर ही नहीं लगा ली हैं, अपने भीतर की रिक्तता पर तख्तियां लगा ली हैं। उन्हीं तख्तियों को पढ़ लेते हैं और प्रसन्न हो जाते हैं। कुछ हूं! कुछ होने का मजा ले लेते हैं। समबडी होने का मजा ले लेते हैं। कुछ हूं! छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी पर, और बड़ी कुर्सी पर बैठ जाते हैं, सोचते हैं कुछ हूं! सिंहासन बड़ा करते जाते हैं और जानने लगते हैं कि कुछ हो रहा हूं।
लेकिन कभी झांक कर देखा भीतर कोई हंस रहा है, इन सारी पदवियों पर, इन सारी उपाधियों पर भीतर कोई हंस रहा है। ये सब सूखे हुए पत्तों की भांति हैं, हवा के झरोखे इन्हें ले जाएंगे। और मौत की हवा में तो यह कुछ भी टिकेगा नहीं। और इसलिए तो मौत से इतना डर है कि मौत उस रिक्तता को उघाड़ देगी जिसको जीवन भर ढांका और छिपाया। नहीं तो मौत से कोई क्यों डरेगा? मौत से भय का कारण क्या है? मौत को जानते हैं जो उससे भयभीत होंगे? मौत को देखा है जो उससे घबड़ाएंगे? नहीं। तो भय कैसे हो सकता है? जिसको जाना नहीं, जिसे पहचाना नहीं, जिससे मिलना नहीं हुआ उससे भय कैसा हो सकता है?
मौत से भय नहीं है, भय है इस बात से कि वह जो एंप्टीनेस है उस पर जो हमने कागज की दीवालें खड़ी करके घर बना लिए हैं कागज के और नाम लिख लिए हैं, और कागज की मुद्राएं और तिजोरियां बना ली हैं, और कागज की दुनिया बसा ली है, मौत उस सबको उड़ा देगी। बच जाएगी रिक्तता, बच जाएंगे अकेले और खाली। इसलिए मौत से डर है, इसलिए है मौत से डर कि वह रिक्तता उसकी स्वीकृति नहीं है। और जो अपनी रिक्तता को स्वीकार कर लेता है उसे, उसके लिए तो मौत रही ही नहीं। अब मौत और क्या करेगी? अब मौत और क्या करेगी? अब मौत और क्या करेगी, उसने खुद ही उन कागज की तख्तियों को उड़ा दिया और उस महल में आग लगा दी जो कागज का था। और जब वह महल जल जाता है, तब पीछे जो शेष रह जाता है, वही मैं हूं।
एक आदमी, एक आदमी--पता नहीं आपको भी मिला हो, शायद सुना हो, किसी रास्ते पर कहीं मिल गया हो--एक आदमी चिल्लाता फिरता है और पागल हो गया है। वह निरंतर यही कहता रहता है: ‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। स्टॉप!’ वह यही कहता रहता है: ‘यहां दुनिया समाप्त होती है। ठहरो!’ उसका दिमाग खराब हो गया है। शायद यहां भी सुना हो, इस गांव में भी वह आदमी आया हो। मुझे वह आदमी एक दफा मिल गया, तो मैं उसकी कथा सुना कि बात क्या है, तुम्हें क्या हो गया?
तो उस आदमी ने कहा कि मैं भी सत्य की खोज में निकला था। और मैं खोजता गया, खोजता गया, खोजता गया, खोजता गया और आखिर वहां पहुंच गया जहां रास्ता खत्म हो जाता था। और जहां अंतिम रोड साइन लगा था, उस पर लिखा था: ‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। स्टाप!’ मैं वहां पहुंच गया जहां दुनिया समाप्त होती थी। और अंतिम तख्ती आ गई सड़क की। और उसके बाद फिर न कोई रास्ता था, न कोई दुनिया थी, न कोई गति थी। फिर तो था शून्य--एकदम शून्य, अतल। और वहां तख्ती लगी थी, रुक जाओ, बस यहां दुनिया समाप्त होती है। और मैंने झांक कर देखा और मेरा सिर फिर गया। वहां न तो नीचे कुछ स्थान था, न ऊपर कोई छप्पर था। और न आगे कुछ था और न किसी दिशा में कुछ था, बस शून्य था। और तब मैं घबड़ा गया। और आंख बंद की और मैं भागा। और तब से मैं भाग रहा हूं, भाग रहा हूं। और तब से ऐसा घबड़ा गया हूं कि रह-रह कर बस मुझे यही खयाल आ जाता है--‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। रुक जाओ! यहीं दुनिया समाप्त होती है!’
उस आदमी से मैंने कहा कि मैं भी गया हूं, उस तख्ती को मैंने भी पढ़ा है। तुम थोड़े जल्दी लौट आए। एक क्षण और रुक जाते, उस तख्ती के दूसरी तरफ भी देख लेते। दूसरी तरफ लिखा था: ‘हियर बिगिन्स दि गॉड। जंप! यहां ईश्वर शुरू होता है। कूद जाओ!’ तुम थोड़ा जल्दी लौट आए। थोड़ा और रुक जाते।
शायद मिला हो वह आदमी, या न मिला हो तो छो़ड़ें उसे। खुद ही चले जाएं उस जगह जहां यह तख्ती लगी है कि यहां सब समाप्त होता है, ठहर जाओ। हरेक के भीतर वह टर्मिनस है, वह जगह है जहां सब रास्ते समाप्त हो जाते हैं। जाएं वहां। और जब ऐसा लगने लगे कि सब खोया और अब तो यह अतल शून्य सामने आ रहा है, और सब गया और सारी पकड़ गई और मुट्ठी खाली हुई जाती है, तब घबड़ाना मत, क्योंकि वहां जहां सब समाप्त होता है वहीं सब शुरू होता है। और तब डरना मत और कूद जाना उस शून्य में, उस अतल में। और उसी शून्य में वह पाया जाता है, जो है। उसी शून्य में वह पाया जाता है, जो है।
लेकिन हम सब तो कुछ न कुछ पकड़ लेते हैं--कोई राम के चरण पकड़े है, कोई कृष्ण के चरण पकड़े है, कोई क्राइस्ट के, कोई कुछ और पकड़े है, कोई कुछ और पकड़े है, कोई कुछ और। हम तो कुछ पकड़े हैं। और जो आदमी मन के तल पर कुछ भी पकड़े है, वह अपनी रिक्तता को भरने की कोशिश कर रहा है, कोशिश कर रहा है, वह कूदने के लिए तैयार नहीं है शून्य में। जो शून्य में कूदने को तैयार नहीं है वह स्वयं को नहीं पा सकेगा। जो कुछ होने की कोशिश में है वह उसे नहीं पा सकेगा जो वह है। जो कहीं पहुंचने की कोशिश में है वह वहां नहीं पहुंच सकेगा जहां वह खड़ा है। जो भरने की कोशिश में है वह खाली रह जाएगा। और जो राजी है, राजी है खाली होने को, वह पाएगा कि वही खालीपन सबसे बड़ी भरावट है, वह पाएगा कि वही शून्य पूर्ण है, वह पाएगा कि वही रिक्तता परमात्मा है, वह पाएगा कि वही स्वयं है, वही आत्मा है, वही है मोक्ष, वही है निर्वाण। शून्य--‘मैं कौन हूं’--शून्य में पाया जाएगा।
राजी हैं शून्य होने को?
कोई कठिनाई नहीं है, क्योंकि शून्य हैं; सिर्फ राजी होने की बात है। कुछ करना नहीं है शून्य होने को, कि आप पूछने आ जाएं कि क्या करें और कैसे शून्य हो जाएं?--शून्य हैं। सिर्फ शून्य न होने की जो कोशिश कर रहे हैं, कृपा करें और उस कोशिश को जाने दें। हम सब कोशिश कर रहे हैं कुछ होने की। बस जो कुछ होने की कोशिश कर रहा है वह संसार में है और जिसने होने की कोशिश जाने दी, छोड़ दी...। जो कुछ होने के लिए तैर रहा है वह धारा के विरोध में तैर रहा है, वह अपस्ट्रीम तैर रहा है, वह टूटेगा और नष्ट होगा और मिटेगा। लेकिन जो छोड़ रहा है और धारा में बहने को राजी है, हाथ छोड़ देता है और बह जाता है सागर की तरफ, वह पहुंच जाता है।
इसलिए आज की सुबह आपसे कहूंगा: तैरें नहीं, बहें। जीवन में तैरें नहीं, बहें। जीवन में कुछ होने का खयाल आत्मघाती है, अधर्म है, वही संसार है; उसे जाने दें, जाने दें, छोड़ दें। यह कोशिश कुछ होने की इतनी एब्सर्ड है...।
एक भिक्षु चीन पहुंचा भारत से। चीन का सम्राट उसके स्वागत को राज्य की सीमाओं पर आया। देख कर बहुत हैरान हो गया। वह भिक्षु न मालूम कैसा पागल था! बोधिधर्म था उसका नाम। पागल ही रहा होगा। क्योंकि इस पागलों की दुनिया में स्वस्थ और नार्मल होने का अर्थ पागल होना है। इस पागलों की दुनिया में जब भी कोई आदमी स्वस्थ, सच में स्वस्थ होता है, तो पागल मालूम पड़ता है। वह बोधिधर्म प्रविष्ट हुआ, तो अपने सिर पर जूते रखे हुए था। पैर में तो नहीं पहने हुए था, सिर पर रखे हुए था। सम्राट वू ने जिसने उसका स्वागत किया उसने कहा: अरे, यह क्या पागलपन! यह आदमी कैसा है सिर पर जूते रखे है? पूछा एकांत में कि भंते, यह क्या किया आपने? यह क्या किया? सारे लोग हंसते हैं, सिर पर जूते रख कर आए हैं!
बोधिधर्म बोला: अगर मेरा वश चलता तो अपने पैर सिर पर रख लेता और आता। बोधिधर्म बोला: अगर मेरा वश चलता तो अपने पैर सिर पर रख लेता और आता। नहीं चला, इसलिए जूते रख कर आया।
उसने कहा: मैं समझा नहीं। मैं समझा नहीं।
बोधिधर्म ने कहा: हर आदमी जो कुछ होने की कोशिश में है अपने सिर पर पैर रख कर चलने की कोशिश में है, इतनी ही एब्सर्ड है यह बात।
जो आदमी कुछ होने की कोशिश में है, क्योंकि कोई कुछ नहीं हो सकता जो वह नहीं है, जो है वही हो सकता है। कोई कुछ और नहीं हो सकता। कुछ होने की कोशिश असंभव की कोशिश है। असफलता सुनिश्चित है, व्यर्थता सुनिश्चित है।
बोधिधर्म ने कहा कि कोई अपने पैर सिर पर रख कर चलने की कोशिश करे और न चल पाए, तो किसको दोष देंगे? उससे ही हम कहेंगे कि तुम पागल हो, तुम सिर पर पैर रखते हो तो चलोगे कैसे? चलने के लिए जरूरी है कि सिर पर पैर न हों। जब हम कुछ होने की कोशिश में होते हैं, वह जो बिकमिंग है हमारे मन की कि कुछ हो जाऊं , कुछ हो जाऊं, कुछ हो जाऊं, तब हम सिर पर पैर रख रहे हैं।
एक रात एक महल की छत पर, छप्पर पर किसी के पदचाप सुनाई पड़े। राजा सोने को ही गया था, ऊपर देखा कि छप्पर पर कोई है, पता नहीं चोर है या कौन है। उसने चिल्ला कर पूछा कि यह कौन है? और किसने यह हिम्मत की है रात को छप्पर पर चढ़ने की?
उस आदमी ने कहा कि दुखी न हों, क्षमा करें! मेरा ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं।
उस राजा ने कहा: कौन पागल है यह? छप्परों पर कभी ऊंट
खोए हैं? यह सारी दुनिया छोड़ कर छप्पर पर खोजने आया है! छप्पर पर कैसे ऊंट खो जाएगा?
उसने कहा: मेरे मित्र, बड़े समझदार मालूम पड़ते हो, समझ में तुम्हें आता है कि छप्परों पर ऊंट नहीं खोते, असंभव है यह, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि अहंकार के सिंहासन पर बैठ कर कभी कोई शांत हुआ है और आनंदित हुआ है?
भागा राजा, उठ कर बाहर आया, जैसे किसी ने नींद से हिला दिया, सोया ही था, बहुत खोजा, वह आदमी मिला नहीं।
दूसरे दिन बहुत उदास था। इब्राहिम, नाम था उस राजा का। बहुत उदास था। बैठा था सिंहासन पर जाकर दरबार में और तभी एक अतिथि भीतर घुस आया। द्वारपालों ने रोका उसे। लेकिन उसने द्वारपालों से कहा: हट जाओ! धर्मशाला में सभी को ठहरने का हक है।
द्वारपाल बोले: पागल हुए हो? राजा का महल है, सराय नहीं है, धर्मशाला नहीं है।
उसने कहा: हटो! राजा से ही बात कर लेंगे। दिखता है कोई आदमी सराय में ज्यादा दिन ठहर गया, तो इस भ्रम में आ गया है कि मालिक हूं। वह भीतर पहुंच गया। अब ऐसे दबंग को द्वारपाल न रोक पाए। दरबार भरा था। और उस राजा से उसने कहा कि क्या इस सराय में मैं कुछ दिन ठहर सकता हूं?
वह राजा बोला: बहुत पागल मालूम होते हो! रात ही एक पागल से मिलना हुआ, ये दूसरे आ गए। सराय नहीं है, यह मेरा निवास स्थान है। शब्द वापस लो, नहीं तो जबान कटवा देंगे।
उस व्यक्ति ने कहा: सराय नहीं है? लेकिन कुछ दिनों पहले मैं आया था, तब तो इस सिंहासन पर दूसरे आदमी से मेरी टक्कर हो गई थी।
उस राजा ने कहा: वे मेरे पिता थे।
उस फकीर ने पूछा कि अब वे कहां हैं? और मैं तो उसके पहले भी आया था, तब दूसरे आदमी से टक्कर हो गई थी, तब कोई दूसरा आदमी इस सिंहासन पर बैठा था।
उस राजा ने कहा: वे मेरे पिता के पिता थे।
और उसने कहा: उसके पहले भी मैं आया था, मैं बहुत दफा आ चुका हूं, लेकिन हर बार दूसरा आदमी पाया, तो मैंने सोचा कि जरूर यह सराय है, यहां लोग ठहरते हैं और चले जाते हैं। तो क्या मैं इस सराय में ठहर सकता हूं?
वह राजा उठा और उसके पैर पकड़ लिए। जरूर यह वही आदमी था जो रात छप्पर पर था। चाहे वह दूसरा ही आदमी रहा हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। लेकिन यही आदमी था जिसने रात उत्तर दिया था। यही आदमी है। यही आदमी है।
पूछा कि क्या करूं? मैंने तो अपनी जिंदगी छप्पर पर ऊंट खोजने में, उस राजा ने कहा, मैंने तो अपनी जिंदगी छप्पर पर ऊंट खोजने में और धर्मशाला को मकान समझने में गंवा दी। अब मैं क्या करूं?
हम सब गंवा रहे हैं। छप्पर पर ऊंट खोज रहे हैं, धर्मशालाओं को निवास समझ रहे हैं। जिस व्यक्ति ने भी कुछ होने की आशा में अपना निवास बना लिया है, उसने धर्मशाला को निवास बना लिया है। कुछ होने की आशा निवास स्थान नहीं है, सराय है। एक दिन ठहर भी नहीं पाइएगा कि धक्के देकर कोई और वहां से बाहर कर देगा। और दौड़ते रहिए, दौड़ते रहिए, सराय में भटकते रहिए, भटकते रहिए; दुख होगा और पीड़ा होगी।
अपने घर लौटे बिना कोई रास्ता नहीं है। और बहुत सरायें हैं आशाओं की, कामनाओं की, वासनाओं की, बिकमिंग की--बहुत धर्मशालाएं हैं...भटकिए, भटकिए...लेकिन जिस दिन खयाल आ जाए कि यह धर्मशाला है, उस दिन क्या देर है कि वापस लौट आइए अपने घर पर? घर कभी खोया नहीं है, वह हमेशा साथ है। जिस दिन धर्मशाला से मन भर जाए, व्यर्थता दिखाई पड़ जाए, आप अपने घर में हैं।
खोजिए छप्परों पर खोए हुए ऊंट को, मिलेगा? नहीं मिलेगा। इसको कहने की क्या बात है कि नहीं मिलेगा; लेकिन खोज रहे हैं हम सब भविष्य के छप्परों पर भविष्य के ऊंटों को। असली ऊंट न मिलेगा असली छप्पर पर। तो भविष्य के छप्पर हैं जो हैं ही नहीं और भविष्य के ऊंट हैं वे भी नहीं हैं और उनको हम खोज रहे हैं, उनको हम खोज रहे हैं।
एक कथा मैंने सुनी थी कि एक राजा के तीन लड़के थे। दो तो पैदा ही नहीं हुए थे; एक पैदा होकर मर गया था। तीन लड़के थे। वे तीनों यात्रा पर निकले। जिनमें से दो पैदा ही नहीं हुए थे और एक मर गया था। वे तीनों यात्रा पर निकले। जिनमें से दो तो लंगड़े थे और एक अंधा था। और वे तीनों उस नगर में पहुंचे--तीन नगरों में; जिनमें से दो मिट गए थे और एक अभी बसा नहीं था। और ऐसी वह कथा चलती है और चलती है और चलती है और उसका कोई अंत नहीं आता। इसलिए उसको कैसे कहूं? अब और आगे कैसे ले जाऊं? वह कहीं खत्म नहीं होती, बस वह ऐसे ही चलती है और ऐसे ही चलती है...।
और हम सबकी जिंदगी ऐसे ही चलती है। दो चीजें, वे जो हैं ही नहीं--एक जो थी और अब नहीं है; अतीत जो मिट चुका, भविष्य जो नहीं है, उसमें हमारी सारी यात्रा चलती है। यह होने की यात्रा बाधा है ‘मैं कौन हूं’ उसे जानने में, उसे पहचानने में, उसके साथ एक होने में।
इसलिए मैं कहता हूं, इसलिए कहूं: स्वीकार कर लें उस शून्य को जो भीतर है। उसकी स्वीकृति से फलित होता है धर्म। उसकी स्वीकृति से फलित होता है ज्ञान। उसकी स्वीकृति से निकलता है वह, वह जो जीवन को शांति से और आनंद से भर जाता है।
मिट जाएं उस शून्य में, उस शून्य में डूब जाएं, उस शून्य के साथ एक हो जाएं। हैं, उसके साथ एक हैं। और, और जिस दिन भी, जिस दिन भी उस अंतराल में और उस शून्य में क्षण भर को भी ठहर जाएंगे, जिस दिन को उस अपने घर में क्षण भर को ठहर जाएंगे, उस नथिंगनेस में, उसी दिन पाएंगे कि सब पा लिया गया, उसी दिन पाएंगे कि सब मिल गया, उसी दिन पाएंगे कि कुछ खोया नहीं था कभी।
तो न तो ले जाएगा योग, न ले जाएगा ध्यान, न ले जाएंगे मंत्र-तंत्र, न ले जाएगा मोक्ष, न कोई गीता और न कोई कुरान, न कोई गुरु, न कोई उपदेशक, कोई नहीं ले जाएगा। क्योंकि जब तक किसी के द्वारा आप जाना चाहेंगे तब तक--तब तक का अर्थ है कि आपने शून्य को स्वीकार नहीं किया, आप कुछ होना चाहते हैं। और जब तक आप कुछ होना चाहते हैं, तब तक आप वह नहीं हो सकेंगे जो आप हैं।
लाओत्सु ने कहा है: खोजो और खो दोगे। दौड़ो और कहीं न पहुंच पाओगे। मत खोजो और पा लो। रुक जाओ और पहुंच जाओ। ठहरो और वहीं हो जहां जाना चाहते हो।
बड़ी, बड़ी ठीक, बड़ी ठीक, एकदम ठीक बात है।
क्या रुकने को राजी हैं? क्या राजी हैं ठहरने को? क्या छोड़ देने को राजी हैं खोज को, दौड़ को? क्या लेट-गो के लिए राजी हैं? यदि हैं, तो बस, तो बस वहीं से, वहीं से, वहीं से पा लिया जाएगा, ‘मैं कौन हूं’ वहीं से आ जाएगा, वहीं से कोई भर देगा सब शून्य, कोई उतर आएगा।
वर्षा होती है पहाड़ों पर भी, झीलों पर भी--झीलें भर जाती हैं, पहाड़ खाली रह जाते हैं। क्यों? पहाड़ भरे हैं इसलिए खाली रह जाते हैं, झीलें खाली हैं इसलिए भर जाती हैं। गड्ढे भर जाते हैं वर्षा होती है तो और टीले, टीले खाली के खाली रह जाते हैं; टीले पहले से ही भरे हुए हैं।
धार्मिक चित्त टीलों की तरह नहीं है, उठते हुए टीलों की तरह है; भरते हुए टीलों की तरह नहीं है, खाली गड्ढों की तरह है।
खाली गड्ढों की तरह हो जाएं। और हैं। वह जो बॉटमलेस एबिस है, वह जो घड़ा है शून्य और रिक्त और असीम, उसको भरने में न लगें। उसको भरने में लगे कि गए। छोड़ दें भरने का खयाल और हो जाएं वही शून्य। बस उसी शून्य से कुछ होता है। कुछ होता है जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता। कुछ होता है जो इशारों से नहीं बताया जा सकता। कुछ होता है जिसे गीत नहीं गा सकते। कुछ होता है जिसे आंसू नहीं कह सकते। कुछ होता है जिसे कहने का कोई उपाय नहीं है।
परमात्मा करे, शून्य, रिक्त होने की क्षमता, साहस, स्मृति आ जाए। और ज्यादा नहीं कहूंगा। और ज्यादा कुछ कहने को है भी नहीं।
एक बात फिर से दोहरा दूं: जाएं अपने भीतर, वहां आ जाती है वह जगह, वह अंतिम साइन पोस्ट, वह अंतिम खंभा जहां लिखा है: ‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। यहां होती है दुनिया समाप्त। रुक जाओ।’ वहां रुकना मत। उसी तख्ती के दूसरी तरफ लिखा है: ‘हियर बिगिन्स दि गॉड। जंप। यहां होता है शुरू परमात्मा। कूद जाओ।’ कूद जाना। जो कूद जाता है, वह पा लेता है।
एक छोटी सी कहानी और चर्चा पूरी करूंगा।
एक रात एक यात्री एक अंधेरी अमावस में एक पहाड़ से गुजरता था। पैर उसका फिसल गया। किस यात्री का कब नहीं फिसला है! जो यात्रा करेगा, फिसलेगा भी, गिरेगा भी, रास्ते भी भूलेगा, अंधेरे मार्ग भी आएंगे, खो भी जाएगा। वह भी भटक गया अंधेरे रास्तों में। उसका पैर फिसल गया और गिर गया एक बड़े खड्ढ में। झाड़ियों को पकड़ लिया। कौन नहीं पकड़ेगा? हम सब पकड़े हुए लटके हैं झाड़ियों को। उसने भी झाड़ियां पकड़ लीं। सर्द रात, अंधेरी रात चारों तरफ, नीचे गड्ढ, कहीं कुछ दिखाई न पड़े, कोई ओर-छोर नहीं। पकड़े है, भगवान को याद कर रहा है, भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि बचाओ! बचने की खुद कोशिश भी कर रहा है। कोशिश न सफल हो पाए तो भगवान की खुशामद भी कर रहा है कि तुम बचाओ।
लेकिन पत्थर है सरकीला, चिकना, पैर रुकते नहीं, छोटी है झाड़ी, जड़ें उखड़ी जा रही हैं, कभी भी भय है कि क्षण दो क्षण में टूट जाएंगी और नीचे गिर जाएगा। सर्द है रात, हाथ अकड़े जा रहे हैं, थोड़ी देर बाद हाथ जड़ हो जाएंगे और फिर झाड़ी को पकड़ना संभव नहीं रह जाएगा। पैर टिकते नहीं हैं, हाथ कठिनाई में हैं, झाड़ी है कमजोर, नीचे है गड्ढा। बड़ी मुश्किल है। बड़ी मुश्किल है। और क्या मुश्किल हो सकती है? परेशान! परेशान! लेकिन थोड़ी देर में कोई उपाय सफल नहीं होता, रखे हुए पैर नीचे खिसक जाते हैं। हाथ जड़ होने लगे, झाड़ियों की जड़ें आवाजें कर रही हैं, उखड़ रही हैं। और फिर वह क्षण आ गया जहां उसे पता चला कि बस अब गया। हाथ सरकने लगे, झाड़ियां छूटने लगीं, जाना उसने कि गया। और फिर हाथ छूट गए और झाड़ियां छूट गईं और छूटते उसने जाना कि मिटा!
लेकिन, लेकिन छूटते ही क्या जाना? छूटते ही जाना कि नीचे तो जमीन आ गई, अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ती थी, गड्ढा था ही नहीं। और तब वह खूब जोर से उस अंधेरी रात में उस पहाड़ी घाटी में हंसने लगा कि बड़ा पागल था मैं व्यर्थ ही इतनी देर कष्ट सहा, व्यर्थ ही इतनी देर तकलीफ सही, व्यर्थ ही इतनी देर मरने में लटका रहा, मौत में अटका रहा, व्यर्थ इतनी देर मरा। क्योंकि जितनी देर लटका था उतनी देर ही मरता रहा, उतनी देर ही लगता रहा कि मरा, मरा, मरा, गया, गया, टूटा, छूटा...और ताकत लगाता रहा...और हाथ छूट गए और पाया कि नीचे जमीन थी, अंधकार में दिखाई नहीं पड़ती थी।
वह जो भीतर रिक्तता है, वही पूर्णता है। एक दफा छोड़ें और देखें, छूटते ही पता चलेगा जमीन आ गई।
जो शून्य में होने को राजी है, वह परमात्मा की भूमि पर खड़ा हो जाता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे उस शून्य के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें। वही परमात्मा है, वही सब-कुछ है।
‘मैं कौन हूं?’--इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल और परसों मैंने आपसे की हैं।
परसों मैंने कहा, ज्ञान नहीं वरन न जानने की अवस्था, न जानने का बोध सत्य की ओर मार्ग प्रशस्त करता है। यह जान लेना कि ‘मैं नहीं जानता हूं’ एक अपूर्व शांति में और मौन में चित्त को ले जाता है। यह स्मरण आ जाना कि सारा ज्ञान, सारे शब्द और सिद्धांत जो मेरी स्मृति पर छाए हैं, वे ज्ञान नहीं हैं; वरन जब स्मृति मौन और चुप होती है, और जब स्मृति नहीं बोलती, और जब स्मृति स्पंदित नहीं होती, तब उस अंतराल में, उस रिक्त में जो जाना जाता है, वही, वही सत्य है, वही ज्ञान है। इस संबंध में परसों थोड़ी सी बातें कही थीं।
और कल--और कल मैंने आपसे कहा कि वे नहीं जो अपने अहंकार में कठोर हो गए हैं, वे नहीं जो अपने अहंकार के सिंहासन पर विराजमान हैं, वे नहीं जिन्होंने अपनी संवेदना के सब झरोखे बंद कर लिए और जिनके हृदय पत्थर हो गए हैं, वरन वे जो प्रेम में तरल हैं और जिनके हृदय के सब द्वार खुले हैं और जिन्हें अज्ञात स्पर्श करता है और जिन्हें जीवन में चारों तरफ छाए हुए जीवन में रहस्य की प्रतीति होती है ऐसे हृदय, ऐसे काव्य से और प्रेम से और रहस्य से भरे हृदय ही केवल सत्य को जानने में समर्थ हो पाते हैं।
और आज सुबह एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा मैं शुरू करूं।
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ थी। सारा गांव ही, सारी राजधानी ही द्वार पर इकट्ठी हो गई थी। सुबह-सुबह भीड़ का आगमन शुरू हुआ था और अब तो संध्या आने को थी, लेकिन जो आकर खड़ा हो गया था वह खड़ा था, कोई भी हटा नहीं था। दिन भर से भूखे-प्यासे लोग तपती धूप में उस द्वार के सामने खड़े थे। कोई अघटनीय वहां घट गया था। कुछ ऐसी बात हो गई थी जो विश्वास योग्य ही नहीं मालूम होती थी।
सुबह-सुबह एक भिक्षु ने आकर उस द्वार को खटखटाया था और अपना भिक्षापात्र आगे बढ़ा दिया था। राजा उठा ही था, उसने अपने नौकरों को कहा होगा कि जाओ और भिक्षापात्र भर दो। लेकिन उस भिक्षु ने कहा: ठहरो! इसके पहले कि मैं भिक्षा स्वीकार करूं, मेरी शर्त भी सुन लो। बेशर्त मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करता हूं।
यह तो सुना गया था कि देने वाले शर्त के साथ देते हैं, यह बिलकुल पहली बात थी कि लेने वाला भी शर्त रखता हो, भिखारी!
राजा ने कहा: शर्त! कैसी शर्त?
उस भिखारी ने कहा: शर्त है मेरी एक: भिक्षा स्वीकार करूंगा, लेकिन तभी जब यह वचन दो कि पात्र मेरा पूरा भर दोगे, अधूरा तो नहीं छोड़ोगे? पात्र पूरा भरोगे यह वचन दो, तो भिक्षा स्वीकार करूं, अन्यथा किसी और द्वार चला जाऊं।
राजा ने कहा: जानते हो राजा का द्वार है यह, क्या तुम्हारा छोटा सा पात्र न भर सकूंगा?
पर उसने कहा: फिर भी शर्त ले लेनी उचित है, वचन ले लेना उचित है।
राजा ने दिया वचन। और अपने मंत्रियों को कहा कि जब पात्र भरने की बात ही आ गई है, तो स्वर्णमुद्राओं से पात्र भर दो। बहुत थीं स्वर्णमुद्राएं उसके पास, बहुत थे हीरे-मोती, बहुत थे माणिक, बहुत था, अकूत खजाना था।
स्वर्णमुद्राएं लाई गईं और पात्र में डाली गईं और तभी से भीड़ बढ़नी शुरू हो गई। और तभी से सारा गांव टकटकी बांधे आकर द्वार पर खड़ा हो गया। पात्र कुछ ऐसा था कि भरता ही नहीं था। मुद्राएं डाली जाती रहीं, पात्र खाली था खाली रहा। और दोपहर आ गई। और खजाने जो अकूत मालूम होते थे, खाली पड़ने लगे। ऐसा कौन सा खजाना है जो खाली न हो जाए? और सांझ होते-होते तो सभी खजाने जीवन के खाली हो ही जाते हैं। उस सांझ भी सारे खजाने खाली हो गए उस राजा के। और तब घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई दोपहर के बाद। भिखारी तो भिखारी था, सांझ होते-होते राजा भी भिखारी हो गया। कौन राजा सांझ होते-होते भिखारी नहीं हो जाता है?
पात्र खाली था--खाली था खाली रहा। फिर तो राजा घबड़ाया और पैर पर गिर पड़ा और उसने कहा: मुझे क्षमा कर दें! मैं न समझा था कि शर्त इतनी महंगी पड़ जाएगी। क्या है, क्या है यह जादू, कैसा है यह पात्र? छोटा सा दिखाई पड़ता है और भरता नहीं! और खजाने जो मेरे बड़े दिखाई पड़ते थे खाली हो गए, व्यर्थ हो गए! छोटा सा पात्र और बड़े खजाने न भर पाए! क्या है इस पात्र में, कैसा जादू है?
उस भिक्षु ने कहा: कोई भी जादू नहीं है। एक मरघट से निकलता था, आदमी की एक खोपड़ी पड़ी मिल गई, उससे ही इस पात्र को बना लिया है। आदमी की खोपड़ी से बना हुआ पात्र है। किस आदमी की खोपड़ी कब भरी है? किस आदमी का मन कब भरा है? पात्र में कोई जादू नहीं है, एक साधारण से आदमी का सिर है।
पता नहीं फिर आगे क्या हुआ। लेकिन इस कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि मनुष्य के जीवन में जो प्रश्न हैं और जो समस्या है वह यही है: मन को भरना है और मन भरता नहीं है। और हजार-हजार उपाय हम करते हैं--और धन से, और यश से, और पद से, मित्रों से, प्रियजनों से भरते हैं--नहीं भरता। फिर, फिर कुछ हैं जो धर्म से भरने लगते हैं--गीता से और कुरान से; त्याग से, तपश्चर्या से; संन्यास से, साधना से, फिर भी मन भरता नहीं है। परमात्मा से, मोक्ष से, फिर भी मन भरता नहीं है। मन कुछ ऐसा है कि भरता ही नहीं है। और भरने के सारे प्रयास में हम टूटते हैं, नष्ट होते हैं, जीर्ण और जर्जर होते हैं और भरने की सारी आशाएं टकरा-टकरा कर नष्ट हो जाती हैं। और तब विफलता और विषाद मन को घेर लेता है और दुख और पीड़ा और संताप और चिंता और सब व्यर्थ दीख पड़ने लगता है। जीवन व्यर्थ मालूम होने लगता है, क्योंकि मन भरता नहीं है और भरने के सब प्रयास असफल हो जाते हैं। कभी किसी का मन भरा नहीं है। कभी किसी का मन भरा नहीं है! मन कुछ ऐसा है कि भर सकता ही नहीं।
एक आदमी ने एक प्रेत की आत्मा को वश में कर लिया था। कहानी है और सच मत मान लेना। और नहीं तो किसी प्रेत की आत्मा को वश करने निकल पड़ें! क्योंकि बहुत सी कहानियों को हमने सच मान लिया है, इसलिए कहता हूं। बहुत सी कहानियों को हमने सच मान लिया है, इसलिए कहता हूं! कहानियों में सच्चाइयां होती हैं, कहानियां सच नहीं होतीं। उस आदमी ने प्रेत की आत्मा को वश में कर लिया था। लेकिन जैसी भूल अक्सर हो जाती है, जिसको हम वश में करते हैं हम सोचते हैं हमने वश में कर लिया और जिसको हम वश में करते हैं वह सोचता है कि मैंने वश में कर लिया। जैसे कि भूल रोज जिंदगी में हो जाती है, वैसी ही भूल वहां भी हो गई थी। क्योंकि जिसे हम बांध लेते हैं अनजाने, उससे हम बंध जाते हैं। और जिसे हम परतंत्र कर लेते हैं, हम उसके परतंत्र हो जाते हैं। केवल वही स्वतंत्र हो सकता है जो किसी को परतंत्र न करता हो।
उसने उस प्रेत को परतंत्र कर लिया था, भूल में पीछे पता चला कि वह खुद ही परतंत्र हो गया है। क्योंकि उस प्रेत ने कहा कि मुझे चैन नहीं पड़ती, मुझे तो काम चाहिए, निरंतर काम चाहिए। कितने काम थे, सब चुक गए। और वह प्रेत बार-बार खड़ा हो जाए और पीछे आकर धक्के देने लगे कि मुझे काम दो, मुझे चैन नहीं पड़ती। बेकाम मैं बैठ सकता नहीं हूं।
वह आदमी तो घबड़ाया, कहां से काम लाए? सब काम चुक गए। जो-जो कामनाएं थीं, सब उसने पूरी कर दीं। और तब मुश्किल खड़ी हो गई। और वह प्रेत भारी पड़ने लगा। और वह खड़ा है पीछे और धक्के दे रहा है कि मुझे काम दो। वह आदमी बहुत घबड़ाया, बहुत बेचैन हुआ, बहुत परेशान हुआ। गांव के बाहर एक वृद्ध फकीर रहता था, उसके पास गया। जब कोई बहुत बेचैन और परेशान हो जाता है तो फकीरों को खोजता है, उनके पास जाता है। वह भी गया। और उसने उस वृद्ध फकीर को पूछा कि मैं बहुत मुश्किल में हूं, एक प्रेत को पाल लिया। पहले तो सोचा था: बड़ा अच्छा हुआ, सब काम करवा लूंगा। अब मुसीबत हो गई, फांसी बन गई। अब काम नहीं सूझते कि क्या करवाऊं? वह मेरे प्राण लिए ले रहा है। अगर उसे मैंने कोई काम न दिया, तो वह अब एक ही काम करेगा, मुझे समाप्त कर देने का काम। और कोई काम बचा नहीं है। अब क्या करें?
उस वृद्ध ने कहा: यह डब्बा ले जाओ। एक डब्बा पड़ा था टूटा-फूटा। इसे ले जाओ और उससे कहना, इसे भरो।
वह डब्बे को ले आया। रास्ते में बहुत सोचा कि बड़ा पागल मालूम होता है यह बूढ़ा, क्योंकि डब्बे में नीचे कोई बॉटम न थी, कोई तलहटी न थी, बॉटमलेस, बिना तलहटी का था, उसमें कोई पेंदी न थी, पोला था ऊपर से भी नीचे से भी। लेकिन जब उसने कहा था, तो सोचा कि देखूं। जाकर डब्बा लटका दिया और उस प्रेत को कहा कि कुएं से पानी खींचो और इसमें भरो। प्रेत पानी खींचने लगा और भरने लगा। और तब से अब तक वह प्रेत पानी भर रहा है। और वह आदमी तो कभी का मर भी गया। वह पानी भर नहीं पाता है और वह प्रेत सोचता नहीं--कि देखें कि इसमें तलहटी भी है या नहीं है? उस डब्बे के नीचे कोई तलहटी नहीं है, इसलिए पानी डाला तो जाता है, लेकिन भरता कभी नहीं।
और यह प्रेत कोई एकाध नहीं है, सबके भीतर बैठा हुआ है। और भरे जा रहा है, और भरे जा रहा है--और कुछ भी भरता नहीं है। बहुत थक गया है प्रेत, बहुत परेशान है, बहुत पीड़ित है, लेकिन भरे जाता है, भरे जाता है और यह नहीं देखता कि डब्बा भरेगा नहीं। डब्बा कुछ ऐसा है।
मनुष्य का मन भी कुछ ऐसा है, बॉटमलेस एबिस। मनुष्य का मन भी ऐसा है, शून्य। कोई सीमा नहीं उस पर, कोई नीचे जगह नहीं, कोई ऊपर छप्पर नहीं। कोई सीमा नहीं। असीम और शून्य गड्ढा है मनुष्य का मन। उसे भरने की कोशिश जीवन की असफलता है। लेकिन हम सब भर रहे हैं, सब भर रहे हैं। सब भरने के प्रयास में लगे हैं, और लगे हैं।
क्या यह नहीं हो सकता कि यह भरना छोड़ दें? क्या यह नहीं हो सकता कि मन--मन जैसा है खाली और रिक्त वैसा ही स्वीकार कर लिया जाए? क्या यह नहीं हो सकता कि मन का यह जो शून्य है, यह ऐसे ही अंगीकार कर लिया जाए, न भरा जाए?
क्योंकि एक बात तय है कि यह मन तो भरता नहीं, भरेगा नहीं। इसे भरने में हम जरूर मिटेंगे, मिट जाएंगे, समाप्त हो जाएंगे। हमसे पहले भी यही हुआ है, हम पर भी यही हो रहा है, हमसे बाद भी यही होता रहेगा।
यह असंभव है कि मन भर जाए। सीधा-सीधा तथ्य है, यह असंभव है कि मन भर जाए; क्योंकि मन है रिक्त। शायद रिक्त कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जो रिक्त होता है उसके आस-पास एक दीवाल भी होती है जिसके भीतर रिक्तता होती है। मन है रिक्तता। एंप्टी नहीं, एंप्टीनेस। मन रिक्त नहीं है, रिक्तता ही मन है। कोई सीमा ही नहीं है उस पर, कहीं कोई दीवाल ही नहीं है उस पर। इसलिए डालो, डालो और सब खो जाएगा, सब खो जाएगा, सब खो जाएगा; वहां कहीं कुछ रुकेगा नहीं, ठहरेगा नहीं, बनेगा नहीं, निर्मित नहीं होगा। बच्चा जितना खाली मन लेकर आता है, उतना ही खाली मन लेकर बूढ़ा विदा होता है। जन्म के क्षण में जितना खाली है मन, मृत्यु के क्षण में भी उतना ही खाली है। उतना ही, उसमें जरा भी भेद नहीं पड़ता। जरा भी भेद नहीं पड़ता। एक भेद पड़ जाता है: बच्चे को इसका पता नहीं होता, बूढ़े को इसका पता होता है। और पता, बोध दुख देने लगता है।
यह रिक्तता है भीतर और रिक्तता को भरने का प्रयास है हमारा। फिर चाहे हम किसी बात से भरते हों, किसी बात से--कौड़ी से, पत्थर से भरते हों, राम-नाम से भरते हों, मोक्ष से भरते हों, और किसी बात से भरते हों उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भरना, भरने की कोशिश एब्सर्ड है। भरने की कोशिश एकदम, एकदम अर्थहीन है। और जब नहीं भर पाता, तो हम कहते हैं कि बड़ा दुख है। दुख उसी क्षण शुरू हो जाता है जहां से हम भरना शुरू करते हैं।
क्या यह नहीं हो सकता--नहीं हो सकता है यह कि रहने दें मन जैसा है, राजी हो जाएं उसके खालीपन से, उसके शून्य से? भरने की कोशिश हमें भविष्य में ले जाती है--कल; आज खाली है, कल भर लेंगे; परसों भर लेंगे; इस जन्म में खाली है, अगले जन्म में भर लेंगे। भरने की कोशिश से फ्यूचर पैदा होता है, भविष्य पैदा होता है। भविष्य कहीं है नहीं, है तो केवल वर्तमान।
भविष्य तो कहीं है नहीं, लेकिन भविष्य पैदा होता है भरने की कोशिश से। क्योंकि अगर भविष्य न हो, तो भरेंगे कैसे? भरने के लिए समय चाहिए। भरने के लिए समय चाहिए, श्रम चाहिए, भविष्य चाहिए। तो भरने की आकांक्षा से भविष्य पैदा होता है, टाइम पैदा होता है, समय पैदा होता है। कल, कल, कल कुछ हो जाऊंगा, कल भर लूंगा। आज खाली हूं, कल भर जाऊंगा। और कल की आशा में आज व्यय होता है, व्यतीत होता है जो है, उस कल की आशा में जो नहीं है। कल की आशा में आज व्यय होता है, व्यतीत होता है जो है, उसकी आशा में, उस कल की आशा में जो नहीं है। फिर, फिर कल आज आ जाएगा। और उस आज को भी हम कल की आशा में व्यय करेंगे और व्यतीत करेंगे। और फिर आज आ जाएगा और उसको भी व्यय करेंगे और व्यतीत करेंगे। और ऐसे पूरी जिंदगी व्यतीत हो जाती है, उसे जाने बिना जो था, जो है।
जब तक कोई मन की रिक्तता को स्वीकार न कर ले, तब तक वह उसे नहीं जान सकता, जो है। जब तक कोई मन की शून्यता को अंगीकार न कर ले, तब तक उसे नहीं जान सकता, जो मैं हूं।
मैं हूं क्या? कौन?--उसके लिए तीसरी सीढ़ी मैं आज आपसे कहना चाहता हूं: रिक्तता की स्वीकृति, शून्यता का स्वीकार, अंगीकार, ना-कुछ होने का अंगीकार, एक्सेप्टेबिलिटी। यह जो स्वीकृति है, यही आस्तिकता है।
जो आदमी कुछ होने में लगा है, वह नास्तिक है। वह चाहे भगवान होने में लगा हो, वह चाहे मोक्ष जाने में लगा हो। जो आदमी कुछ होने में लगा है, वह नास्तिक है। जो आदमी जो है उसको जिसने स्वीकार कर लिया है, वह आस्तिक है। स्वीकृति, अंगीकार, उसका जो है। क्या हैं हम? रिक्त। क्या हैं? कभी, कभी टटोला, कभी थोड़ा खटखटाया, क्या हैं? रिक्त, एकदम एंप्टीनेस, सब खाली और खाली है।
उस खालीपन पर कुछ-कुछ चिपका लेते हैं--कोई डिग्रियां ले आता है, कोई पीएच.डी. हो जाता है, कोई धन कमा लेता है, कोई डॉक्टर है, कोई इंजीनियर है, कोई मिनिस्टर है। पच्चीस तरह के पागलपन हैं। कोई कुछ न कुछ है। तख्तियां दरवाजों पर ही नहीं लगा ली हैं, अपने भीतर की रिक्तता पर तख्तियां लगा ली हैं। उन्हीं तख्तियों को पढ़ लेते हैं और प्रसन्न हो जाते हैं। कुछ हूं! कुछ होने का मजा ले लेते हैं। समबडी होने का मजा ले लेते हैं। कुछ हूं! छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी पर, और बड़ी कुर्सी पर बैठ जाते हैं, सोचते हैं कुछ हूं! सिंहासन बड़ा करते जाते हैं और जानने लगते हैं कि कुछ हो रहा हूं।
लेकिन कभी झांक कर देखा भीतर कोई हंस रहा है, इन सारी पदवियों पर, इन सारी उपाधियों पर भीतर कोई हंस रहा है। ये सब सूखे हुए पत्तों की भांति हैं, हवा के झरोखे इन्हें ले जाएंगे। और मौत की हवा में तो यह कुछ भी टिकेगा नहीं। और इसलिए तो मौत से इतना डर है कि मौत उस रिक्तता को उघाड़ देगी जिसको जीवन भर ढांका और छिपाया। नहीं तो मौत से कोई क्यों डरेगा? मौत से भय का कारण क्या है? मौत को जानते हैं जो उससे भयभीत होंगे? मौत को देखा है जो उससे घबड़ाएंगे? नहीं। तो भय कैसे हो सकता है? जिसको जाना नहीं, जिसे पहचाना नहीं, जिससे मिलना नहीं हुआ उससे भय कैसा हो सकता है?
मौत से भय नहीं है, भय है इस बात से कि वह जो एंप्टीनेस है उस पर जो हमने कागज की दीवालें खड़ी करके घर बना लिए हैं कागज के और नाम लिख लिए हैं, और कागज की मुद्राएं और तिजोरियां बना ली हैं, और कागज की दुनिया बसा ली है, मौत उस सबको उड़ा देगी। बच जाएगी रिक्तता, बच जाएंगे अकेले और खाली। इसलिए मौत से डर है, इसलिए है मौत से डर कि वह रिक्तता उसकी स्वीकृति नहीं है। और जो अपनी रिक्तता को स्वीकार कर लेता है उसे, उसके लिए तो मौत रही ही नहीं। अब मौत और क्या करेगी? अब मौत और क्या करेगी? अब मौत और क्या करेगी, उसने खुद ही उन कागज की तख्तियों को उड़ा दिया और उस महल में आग लगा दी जो कागज का था। और जब वह महल जल जाता है, तब पीछे जो शेष रह जाता है, वही मैं हूं।
एक आदमी, एक आदमी--पता नहीं आपको भी मिला हो, शायद सुना हो, किसी रास्ते पर कहीं मिल गया हो--एक आदमी चिल्लाता फिरता है और पागल हो गया है। वह निरंतर यही कहता रहता है: ‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। स्टॉप!’ वह यही कहता रहता है: ‘यहां दुनिया समाप्त होती है। ठहरो!’ उसका दिमाग खराब हो गया है। शायद यहां भी सुना हो, इस गांव में भी वह आदमी आया हो। मुझे वह आदमी एक दफा मिल गया, तो मैं उसकी कथा सुना कि बात क्या है, तुम्हें क्या हो गया?
तो उस आदमी ने कहा कि मैं भी सत्य की खोज में निकला था। और मैं खोजता गया, खोजता गया, खोजता गया, खोजता गया और आखिर वहां पहुंच गया जहां रास्ता खत्म हो जाता था। और जहां अंतिम रोड साइन लगा था, उस पर लिखा था: ‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। स्टाप!’ मैं वहां पहुंच गया जहां दुनिया समाप्त होती थी। और अंतिम तख्ती आ गई सड़क की। और उसके बाद फिर न कोई रास्ता था, न कोई दुनिया थी, न कोई गति थी। फिर तो था शून्य--एकदम शून्य, अतल। और वहां तख्ती लगी थी, रुक जाओ, बस यहां दुनिया समाप्त होती है। और मैंने झांक कर देखा और मेरा सिर फिर गया। वहां न तो नीचे कुछ स्थान था, न ऊपर कोई छप्पर था। और न आगे कुछ था और न किसी दिशा में कुछ था, बस शून्य था। और तब मैं घबड़ा गया। और आंख बंद की और मैं भागा। और तब से मैं भाग रहा हूं, भाग रहा हूं। और तब से ऐसा घबड़ा गया हूं कि रह-रह कर बस मुझे यही खयाल आ जाता है--‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। रुक जाओ! यहीं दुनिया समाप्त होती है!’
उस आदमी से मैंने कहा कि मैं भी गया हूं, उस तख्ती को मैंने भी पढ़ा है। तुम थोड़े जल्दी लौट आए। एक क्षण और रुक जाते, उस तख्ती के दूसरी तरफ भी देख लेते। दूसरी तरफ लिखा था: ‘हियर बिगिन्स दि गॉड। जंप! यहां ईश्वर शुरू होता है। कूद जाओ!’ तुम थोड़ा जल्दी लौट आए। थोड़ा और रुक जाते।
शायद मिला हो वह आदमी, या न मिला हो तो छो़ड़ें उसे। खुद ही चले जाएं उस जगह जहां यह तख्ती लगी है कि यहां सब समाप्त होता है, ठहर जाओ। हरेक के भीतर वह टर्मिनस है, वह जगह है जहां सब रास्ते समाप्त हो जाते हैं। जाएं वहां। और जब ऐसा लगने लगे कि सब खोया और अब तो यह अतल शून्य सामने आ रहा है, और सब गया और सारी पकड़ गई और मुट्ठी खाली हुई जाती है, तब घबड़ाना मत, क्योंकि वहां जहां सब समाप्त होता है वहीं सब शुरू होता है। और तब डरना मत और कूद जाना उस शून्य में, उस अतल में। और उसी शून्य में वह पाया जाता है, जो है। उसी शून्य में वह पाया जाता है, जो है।
लेकिन हम सब तो कुछ न कुछ पकड़ लेते हैं--कोई राम के चरण पकड़े है, कोई कृष्ण के चरण पकड़े है, कोई क्राइस्ट के, कोई कुछ और पकड़े है, कोई कुछ और पकड़े है, कोई कुछ और। हम तो कुछ पकड़े हैं। और जो आदमी मन के तल पर कुछ भी पकड़े है, वह अपनी रिक्तता को भरने की कोशिश कर रहा है, कोशिश कर रहा है, वह कूदने के लिए तैयार नहीं है शून्य में। जो शून्य में कूदने को तैयार नहीं है वह स्वयं को नहीं पा सकेगा। जो कुछ होने की कोशिश में है वह उसे नहीं पा सकेगा जो वह है। जो कहीं पहुंचने की कोशिश में है वह वहां नहीं पहुंच सकेगा जहां वह खड़ा है। जो भरने की कोशिश में है वह खाली रह जाएगा। और जो राजी है, राजी है खाली होने को, वह पाएगा कि वही खालीपन सबसे बड़ी भरावट है, वह पाएगा कि वही शून्य पूर्ण है, वह पाएगा कि वही रिक्तता परमात्मा है, वह पाएगा कि वही स्वयं है, वही आत्मा है, वही है मोक्ष, वही है निर्वाण। शून्य--‘मैं कौन हूं’--शून्य में पाया जाएगा।
राजी हैं शून्य होने को?
कोई कठिनाई नहीं है, क्योंकि शून्य हैं; सिर्फ राजी होने की बात है। कुछ करना नहीं है शून्य होने को, कि आप पूछने आ जाएं कि क्या करें और कैसे शून्य हो जाएं?--शून्य हैं। सिर्फ शून्य न होने की जो कोशिश कर रहे हैं, कृपा करें और उस कोशिश को जाने दें। हम सब कोशिश कर रहे हैं कुछ होने की। बस जो कुछ होने की कोशिश कर रहा है वह संसार में है और जिसने होने की कोशिश जाने दी, छोड़ दी...। जो कुछ होने के लिए तैर रहा है वह धारा के विरोध में तैर रहा है, वह अपस्ट्रीम तैर रहा है, वह टूटेगा और नष्ट होगा और मिटेगा। लेकिन जो छोड़ रहा है और धारा में बहने को राजी है, हाथ छोड़ देता है और बह जाता है सागर की तरफ, वह पहुंच जाता है।
इसलिए आज की सुबह आपसे कहूंगा: तैरें नहीं, बहें। जीवन में तैरें नहीं, बहें। जीवन में कुछ होने का खयाल आत्मघाती है, अधर्म है, वही संसार है; उसे जाने दें, जाने दें, छोड़ दें। यह कोशिश कुछ होने की इतनी एब्सर्ड है...।
एक भिक्षु चीन पहुंचा भारत से। चीन का सम्राट उसके स्वागत को राज्य की सीमाओं पर आया। देख कर बहुत हैरान हो गया। वह भिक्षु न मालूम कैसा पागल था! बोधिधर्म था उसका नाम। पागल ही रहा होगा। क्योंकि इस पागलों की दुनिया में स्वस्थ और नार्मल होने का अर्थ पागल होना है। इस पागलों की दुनिया में जब भी कोई आदमी स्वस्थ, सच में स्वस्थ होता है, तो पागल मालूम पड़ता है। वह बोधिधर्म प्रविष्ट हुआ, तो अपने सिर पर जूते रखे हुए था। पैर में तो नहीं पहने हुए था, सिर पर रखे हुए था। सम्राट वू ने जिसने उसका स्वागत किया उसने कहा: अरे, यह क्या पागलपन! यह आदमी कैसा है सिर पर जूते रखे है? पूछा एकांत में कि भंते, यह क्या किया आपने? यह क्या किया? सारे लोग हंसते हैं, सिर पर जूते रख कर आए हैं!
बोधिधर्म बोला: अगर मेरा वश चलता तो अपने पैर सिर पर रख लेता और आता। बोधिधर्म बोला: अगर मेरा वश चलता तो अपने पैर सिर पर रख लेता और आता। नहीं चला, इसलिए जूते रख कर आया।
उसने कहा: मैं समझा नहीं। मैं समझा नहीं।
बोधिधर्म ने कहा: हर आदमी जो कुछ होने की कोशिश में है अपने सिर पर पैर रख कर चलने की कोशिश में है, इतनी ही एब्सर्ड है यह बात।
जो आदमी कुछ होने की कोशिश में है, क्योंकि कोई कुछ नहीं हो सकता जो वह नहीं है, जो है वही हो सकता है। कोई कुछ और नहीं हो सकता। कुछ होने की कोशिश असंभव की कोशिश है। असफलता सुनिश्चित है, व्यर्थता सुनिश्चित है।
बोधिधर्म ने कहा कि कोई अपने पैर सिर पर रख कर चलने की कोशिश करे और न चल पाए, तो किसको दोष देंगे? उससे ही हम कहेंगे कि तुम पागल हो, तुम सिर पर पैर रखते हो तो चलोगे कैसे? चलने के लिए जरूरी है कि सिर पर पैर न हों। जब हम कुछ होने की कोशिश में होते हैं, वह जो बिकमिंग है हमारे मन की कि कुछ हो जाऊं , कुछ हो जाऊं, कुछ हो जाऊं, तब हम सिर पर पैर रख रहे हैं।
एक रात एक महल की छत पर, छप्पर पर किसी के पदचाप सुनाई पड़े। राजा सोने को ही गया था, ऊपर देखा कि छप्पर पर कोई है, पता नहीं चोर है या कौन है। उसने चिल्ला कर पूछा कि यह कौन है? और किसने यह हिम्मत की है रात को छप्पर पर चढ़ने की?
उस आदमी ने कहा कि दुखी न हों, क्षमा करें! मेरा ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं।
उस राजा ने कहा: कौन पागल है यह? छप्परों पर कभी ऊंट
खोए हैं? यह सारी दुनिया छोड़ कर छप्पर पर खोजने आया है! छप्पर पर कैसे ऊंट खो जाएगा?
उसने कहा: मेरे मित्र, बड़े समझदार मालूम पड़ते हो, समझ में तुम्हें आता है कि छप्परों पर ऊंट नहीं खोते, असंभव है यह, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि अहंकार के सिंहासन पर बैठ कर कभी कोई शांत हुआ है और आनंदित हुआ है?
भागा राजा, उठ कर बाहर आया, जैसे किसी ने नींद से हिला दिया, सोया ही था, बहुत खोजा, वह आदमी मिला नहीं।
दूसरे दिन बहुत उदास था। इब्राहिम, नाम था उस राजा का। बहुत उदास था। बैठा था सिंहासन पर जाकर दरबार में और तभी एक अतिथि भीतर घुस आया। द्वारपालों ने रोका उसे। लेकिन उसने द्वारपालों से कहा: हट जाओ! धर्मशाला में सभी को ठहरने का हक है।
द्वारपाल बोले: पागल हुए हो? राजा का महल है, सराय नहीं है, धर्मशाला नहीं है।
उसने कहा: हटो! राजा से ही बात कर लेंगे। दिखता है कोई आदमी सराय में ज्यादा दिन ठहर गया, तो इस भ्रम में आ गया है कि मालिक हूं। वह भीतर पहुंच गया। अब ऐसे दबंग को द्वारपाल न रोक पाए। दरबार भरा था। और उस राजा से उसने कहा कि क्या इस सराय में मैं कुछ दिन ठहर सकता हूं?
वह राजा बोला: बहुत पागल मालूम होते हो! रात ही एक पागल से मिलना हुआ, ये दूसरे आ गए। सराय नहीं है, यह मेरा निवास स्थान है। शब्द वापस लो, नहीं तो जबान कटवा देंगे।
उस व्यक्ति ने कहा: सराय नहीं है? लेकिन कुछ दिनों पहले मैं आया था, तब तो इस सिंहासन पर दूसरे आदमी से मेरी टक्कर हो गई थी।
उस राजा ने कहा: वे मेरे पिता थे।
उस फकीर ने पूछा कि अब वे कहां हैं? और मैं तो उसके पहले भी आया था, तब दूसरे आदमी से टक्कर हो गई थी, तब कोई दूसरा आदमी इस सिंहासन पर बैठा था।
उस राजा ने कहा: वे मेरे पिता के पिता थे।
और उसने कहा: उसके पहले भी मैं आया था, मैं बहुत दफा आ चुका हूं, लेकिन हर बार दूसरा आदमी पाया, तो मैंने सोचा कि जरूर यह सराय है, यहां लोग ठहरते हैं और चले जाते हैं। तो क्या मैं इस सराय में ठहर सकता हूं?
वह राजा उठा और उसके पैर पकड़ लिए। जरूर यह वही आदमी था जो रात छप्पर पर था। चाहे वह दूसरा ही आदमी रहा हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। लेकिन यही आदमी था जिसने रात उत्तर दिया था। यही आदमी है। यही आदमी है।
पूछा कि क्या करूं? मैंने तो अपनी जिंदगी छप्पर पर ऊंट खोजने में, उस राजा ने कहा, मैंने तो अपनी जिंदगी छप्पर पर ऊंट खोजने में और धर्मशाला को मकान समझने में गंवा दी। अब मैं क्या करूं?
हम सब गंवा रहे हैं। छप्पर पर ऊंट खोज रहे हैं, धर्मशालाओं को निवास समझ रहे हैं। जिस व्यक्ति ने भी कुछ होने की आशा में अपना निवास बना लिया है, उसने धर्मशाला को निवास बना लिया है। कुछ होने की आशा निवास स्थान नहीं है, सराय है। एक दिन ठहर भी नहीं पाइएगा कि धक्के देकर कोई और वहां से बाहर कर देगा। और दौड़ते रहिए, दौड़ते रहिए, सराय में भटकते रहिए, भटकते रहिए; दुख होगा और पीड़ा होगी।
अपने घर लौटे बिना कोई रास्ता नहीं है। और बहुत सरायें हैं आशाओं की, कामनाओं की, वासनाओं की, बिकमिंग की--बहुत धर्मशालाएं हैं...भटकिए, भटकिए...लेकिन जिस दिन खयाल आ जाए कि यह धर्मशाला है, उस दिन क्या देर है कि वापस लौट आइए अपने घर पर? घर कभी खोया नहीं है, वह हमेशा साथ है। जिस दिन धर्मशाला से मन भर जाए, व्यर्थता दिखाई पड़ जाए, आप अपने घर में हैं।
खोजिए छप्परों पर खोए हुए ऊंट को, मिलेगा? नहीं मिलेगा। इसको कहने की क्या बात है कि नहीं मिलेगा; लेकिन खोज रहे हैं हम सब भविष्य के छप्परों पर भविष्य के ऊंटों को। असली ऊंट न मिलेगा असली छप्पर पर। तो भविष्य के छप्पर हैं जो हैं ही नहीं और भविष्य के ऊंट हैं वे भी नहीं हैं और उनको हम खोज रहे हैं, उनको हम खोज रहे हैं।
एक कथा मैंने सुनी थी कि एक राजा के तीन लड़के थे। दो तो पैदा ही नहीं हुए थे; एक पैदा होकर मर गया था। तीन लड़के थे। वे तीनों यात्रा पर निकले। जिनमें से दो पैदा ही नहीं हुए थे और एक मर गया था। वे तीनों यात्रा पर निकले। जिनमें से दो तो लंगड़े थे और एक अंधा था। और वे तीनों उस नगर में पहुंचे--तीन नगरों में; जिनमें से दो मिट गए थे और एक अभी बसा नहीं था। और ऐसी वह कथा चलती है और चलती है और चलती है और उसका कोई अंत नहीं आता। इसलिए उसको कैसे कहूं? अब और आगे कैसे ले जाऊं? वह कहीं खत्म नहीं होती, बस वह ऐसे ही चलती है और ऐसे ही चलती है...।
और हम सबकी जिंदगी ऐसे ही चलती है। दो चीजें, वे जो हैं ही नहीं--एक जो थी और अब नहीं है; अतीत जो मिट चुका, भविष्य जो नहीं है, उसमें हमारी सारी यात्रा चलती है। यह होने की यात्रा बाधा है ‘मैं कौन हूं’ उसे जानने में, उसे पहचानने में, उसके साथ एक होने में।
इसलिए मैं कहता हूं, इसलिए कहूं: स्वीकार कर लें उस शून्य को जो भीतर है। उसकी स्वीकृति से फलित होता है धर्म। उसकी स्वीकृति से फलित होता है ज्ञान। उसकी स्वीकृति से निकलता है वह, वह जो जीवन को शांति से और आनंद से भर जाता है।
मिट जाएं उस शून्य में, उस शून्य में डूब जाएं, उस शून्य के साथ एक हो जाएं। हैं, उसके साथ एक हैं। और, और जिस दिन भी, जिस दिन भी उस अंतराल में और उस शून्य में क्षण भर को भी ठहर जाएंगे, जिस दिन को उस अपने घर में क्षण भर को ठहर जाएंगे, उस नथिंगनेस में, उसी दिन पाएंगे कि सब पा लिया गया, उसी दिन पाएंगे कि सब मिल गया, उसी दिन पाएंगे कि कुछ खोया नहीं था कभी।
तो न तो ले जाएगा योग, न ले जाएगा ध्यान, न ले जाएंगे मंत्र-तंत्र, न ले जाएगा मोक्ष, न कोई गीता और न कोई कुरान, न कोई गुरु, न कोई उपदेशक, कोई नहीं ले जाएगा। क्योंकि जब तक किसी के द्वारा आप जाना चाहेंगे तब तक--तब तक का अर्थ है कि आपने शून्य को स्वीकार नहीं किया, आप कुछ होना चाहते हैं। और जब तक आप कुछ होना चाहते हैं, तब तक आप वह नहीं हो सकेंगे जो आप हैं।
लाओत्सु ने कहा है: खोजो और खो दोगे। दौड़ो और कहीं न पहुंच पाओगे। मत खोजो और पा लो। रुक जाओ और पहुंच जाओ। ठहरो और वहीं हो जहां जाना चाहते हो।
बड़ी, बड़ी ठीक, बड़ी ठीक, एकदम ठीक बात है।
क्या रुकने को राजी हैं? क्या राजी हैं ठहरने को? क्या छोड़ देने को राजी हैं खोज को, दौड़ को? क्या लेट-गो के लिए राजी हैं? यदि हैं, तो बस, तो बस वहीं से, वहीं से, वहीं से पा लिया जाएगा, ‘मैं कौन हूं’ वहीं से आ जाएगा, वहीं से कोई भर देगा सब शून्य, कोई उतर आएगा।
वर्षा होती है पहाड़ों पर भी, झीलों पर भी--झीलें भर जाती हैं, पहाड़ खाली रह जाते हैं। क्यों? पहाड़ भरे हैं इसलिए खाली रह जाते हैं, झीलें खाली हैं इसलिए भर जाती हैं। गड्ढे भर जाते हैं वर्षा होती है तो और टीले, टीले खाली के खाली रह जाते हैं; टीले पहले से ही भरे हुए हैं।
धार्मिक चित्त टीलों की तरह नहीं है, उठते हुए टीलों की तरह है; भरते हुए टीलों की तरह नहीं है, खाली गड्ढों की तरह है।
खाली गड्ढों की तरह हो जाएं। और हैं। वह जो बॉटमलेस एबिस है, वह जो घड़ा है शून्य और रिक्त और असीम, उसको भरने में न लगें। उसको भरने में लगे कि गए। छोड़ दें भरने का खयाल और हो जाएं वही शून्य। बस उसी शून्य से कुछ होता है। कुछ होता है जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता। कुछ होता है जो इशारों से नहीं बताया जा सकता। कुछ होता है जिसे गीत नहीं गा सकते। कुछ होता है जिसे आंसू नहीं कह सकते। कुछ होता है जिसे कहने का कोई उपाय नहीं है।
परमात्मा करे, शून्य, रिक्त होने की क्षमता, साहस, स्मृति आ जाए। और ज्यादा नहीं कहूंगा। और ज्यादा कुछ कहने को है भी नहीं।
एक बात फिर से दोहरा दूं: जाएं अपने भीतर, वहां आ जाती है वह जगह, वह अंतिम साइन पोस्ट, वह अंतिम खंभा जहां लिखा है: ‘हियर एंड्स दि वर्ल्ड। यहां होती है दुनिया समाप्त। रुक जाओ।’ वहां रुकना मत। उसी तख्ती के दूसरी तरफ लिखा है: ‘हियर बिगिन्स दि गॉड। जंप। यहां होता है शुरू परमात्मा। कूद जाओ।’ कूद जाना। जो कूद जाता है, वह पा लेता है।
एक छोटी सी कहानी और चर्चा पूरी करूंगा।
एक रात एक यात्री एक अंधेरी अमावस में एक पहाड़ से गुजरता था। पैर उसका फिसल गया। किस यात्री का कब नहीं फिसला है! जो यात्रा करेगा, फिसलेगा भी, गिरेगा भी, रास्ते भी भूलेगा, अंधेरे मार्ग भी आएंगे, खो भी जाएगा। वह भी भटक गया अंधेरे रास्तों में। उसका पैर फिसल गया और गिर गया एक बड़े खड्ढ में। झाड़ियों को पकड़ लिया। कौन नहीं पकड़ेगा? हम सब पकड़े हुए लटके हैं झाड़ियों को। उसने भी झाड़ियां पकड़ लीं। सर्द रात, अंधेरी रात चारों तरफ, नीचे गड्ढ, कहीं कुछ दिखाई न पड़े, कोई ओर-छोर नहीं। पकड़े है, भगवान को याद कर रहा है, भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि बचाओ! बचने की खुद कोशिश भी कर रहा है। कोशिश न सफल हो पाए तो भगवान की खुशामद भी कर रहा है कि तुम बचाओ।
लेकिन पत्थर है सरकीला, चिकना, पैर रुकते नहीं, छोटी है झाड़ी, जड़ें उखड़ी जा रही हैं, कभी भी भय है कि क्षण दो क्षण में टूट जाएंगी और नीचे गिर जाएगा। सर्द है रात, हाथ अकड़े जा रहे हैं, थोड़ी देर बाद हाथ जड़ हो जाएंगे और फिर झाड़ी को पकड़ना संभव नहीं रह जाएगा। पैर टिकते नहीं हैं, हाथ कठिनाई में हैं, झाड़ी है कमजोर, नीचे है गड्ढा। बड़ी मुश्किल है। बड़ी मुश्किल है। और क्या मुश्किल हो सकती है? परेशान! परेशान! लेकिन थोड़ी देर में कोई उपाय सफल नहीं होता, रखे हुए पैर नीचे खिसक जाते हैं। हाथ जड़ होने लगे, झाड़ियों की जड़ें आवाजें कर रही हैं, उखड़ रही हैं। और फिर वह क्षण आ गया जहां उसे पता चला कि बस अब गया। हाथ सरकने लगे, झाड़ियां छूटने लगीं, जाना उसने कि गया। और फिर हाथ छूट गए और झाड़ियां छूट गईं और छूटते उसने जाना कि मिटा!
लेकिन, लेकिन छूटते ही क्या जाना? छूटते ही जाना कि नीचे तो जमीन आ गई, अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ती थी, गड्ढा था ही नहीं। और तब वह खूब जोर से उस अंधेरी रात में उस पहाड़ी घाटी में हंसने लगा कि बड़ा पागल था मैं व्यर्थ ही इतनी देर कष्ट सहा, व्यर्थ ही इतनी देर तकलीफ सही, व्यर्थ ही इतनी देर मरने में लटका रहा, मौत में अटका रहा, व्यर्थ इतनी देर मरा। क्योंकि जितनी देर लटका था उतनी देर ही मरता रहा, उतनी देर ही लगता रहा कि मरा, मरा, मरा, गया, गया, टूटा, छूटा...और ताकत लगाता रहा...और हाथ छूट गए और पाया कि नीचे जमीन थी, अंधकार में दिखाई नहीं पड़ती थी।
वह जो भीतर रिक्तता है, वही पूर्णता है। एक दफा छोड़ें और देखें, छूटते ही पता चलेगा जमीन आ गई।
जो शून्य में होने को राजी है, वह परमात्मा की भूमि पर खड़ा हो जाता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे उस शून्य के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें। वही परमात्मा है, वही सब-कुछ है।