QUESTION & ANSWER
Main Kahta Akhan Dekhi 03
Third Discourse from the series of 7 discourses - Main Kahta Akhan Dekhi by Osho.
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भगवान, जिस इक्कीस दिन के अनुष्ठान की ओर आपने संकेत किया है, क्या वह साधना या तत्वानुभूति किसी परंपरागत थी? क्योंकि आपके अभिव्यक्तिकरण से निरंतर ऐसा भास होता है कि आप भी निश्चित ही किसी टीचर एवं तीर्थंकर की पद्धति का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी के अंतर्गत यह जानने का साहस भी करना चाहता हूं कि आप किसी परंपरा की अध्यात्म-श्र्ृंखला की कड़ी को जोड़ना चाहते हैं, या बुद्ध की भांति किसी पहाड़ में नया मार्ग काटने का प्रयास कर रहे हैं?
परंपरागत, परंपरा से चली आने वाली धारा तो परंपरागत है ही, बुद्ध का मार्ग भी अब नया नहीं है। जो परंपरा से चलते रहे वह तो मार्ग पुराना हो ही गया; लेकिन जो परंपरा को तोड़ कर नई परंपरा निर्मित करते रहे वह मार्ग भी अब नया नहीं है। उस भांति भी बहुत लोग चल चुके। जैसे बुद्ध ने तोड़ी नई पद्धति। महावीर पुरानी परंपरा को मान कर चल रहे थे। लेकिन महावीर की श्र्ृंखला के भी पहले आदमी ने पद्धति तोड़ी थी। वह मार्ग भी सदा से पुराना नहीं था। महावीर की श्र्ृंखला का पहला तीर्थंकर भी वही काम किया था जो बुद्ध ने किया है।
परंपरा मान कर चलना भी पुराना है; नई परंपराएं तोड़ना भी नई घटना नहीं है। नहीं तो परंपराएं कैसे निर्मित होंगी? तो आज तो दोनों ही बात पुरानी हैं। और इसलिए और इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि आज की स्थिति में दोनों ही बातों से भिन्न किसी चीज की जरूरत है। जैसे दोनों तरह के लोग आज मौजूद हैं। अगर जॉर्ज गुरजिएफ को हम देखें तो किसी पुरानी परंपरा के सूत्र को स्थापित करेगा; महावीर की तरह उसका काम है। अगर जे. कृष्णमूर्ति को देखें तो कोई नई परंपरा का सूत्रपात करेंगे; बुद्ध के जैसा उनका काम है। पर दोनों बातें पुरानी हैं।
बहुत परंपराएं तोड़ी जा चुकी हैं और बहुत नई परंपराएं बनाई जा चुकी हैं। जो आज नई परंपरा होती है वही कल पुरानी हो जाती है। जो आज पुरानी दिखाई पड़ती है वह कल नई थी। आज की स्थिति न तो ठीक वैसी है जहां महावीर सार्थक हो सके, और न ठीक वैसी है जहां बुद्ध सार्थक हो सके। क्योंकि लोग पुराने से तो बुरी तरह ऊब गए हैं, एक और नई घटना घटी है: लोग नये से भी बुरी तरह ऊब रहे हैं। क्योंकि सदा से ऐसा खयाल था कि नया जो है वह पुराने के विपरीत है। अब मनुष्य उस जगह है जहां उसे साफ दिखाई पड़ता है कि नया केवल पुराने का प्रारंभ है। नये का मतलब है जो पुराना होगा। हमने नया कहा नहीं कि पुराना होना शुरू हो गया। अब नये का भी आकर्षण नहीं है। पुराने के प्रति विकर्षण था!
एक जमाना था, पुराने के प्रति आकर्षण था, बड़ा आकर्षण था। कोई चीज जितनी पुरानी है उतनी कीमती थी। क्योंकि उतनी परखी हुई थी, उतनी जानी-पहचानी थी। उतनी प्रायोगिक थी, उतने अनुभव से गुजरी थी। परीक्षित थी भलीभांति। भय न था, निरापद थी। चलने में किसी तरह के संदेह की जरूरत न थी। श्रद्धावान हुआ जा सकता था। इतने लोग चल चुके थे, इतने पैर पड़ चुके थे, इतने लोग पहुंच चुके थे कि नये चलने वाले को आंख बंद करके भी चलना हो तो चल सकता था। अंधे के लिए भी मार्ग था। जरूरत न थी कि वह बहुत संदेह करे, बहुत विचार करे, बहुत खोजे, बहुत निर्णय करे। और फिर अज्ञात में बहुत निर्णय हो नहीं सकता। और कितना ही संदेह कोई करे, अज्ञात की छलांग अंततः श्रद्धा से लगती है। संदेह ज्यादा से ज्यादा इतना ही कर सकता है कि किसी श्रद्धा तक पहुंचा दे। बाकी अंततः छलांग श्रद्धा से ही लगती है।
पर वैसे पुराने का आकर्षण भी खो गया। उस पुराने के आकर्षण के खो जाने के कारण थे। पहला कारण तो यही बना कि पुराने की परंपरा, जब तक एक व्यक्ति के लिए एक ही परंपरा का परिचय था तब तक तो असुविधा न थी, लेकिन जब बहुत पुरानी परंपराएं एक साथ एक व्यक्ति को परिचित हुईं, तब असुविधा पैदा हुई। जो आदमी हिंदू घर में पैदा हुआ था, हिंदू वातावरण में जीया था, हिंदू मंदिर के पास बड़ा हुआ था, हिंदू मंदिर की घंटे की ध्वनि दूध के साथ खून में चली गई थी, हिंदू मंदिर का देवता वैसे ही हिस्सा था हड्डी-खून-मांस का, जैसे हवा, पहाड़, पानी सब था। और कोई प्रतियोगी न था। कोई मस्जिद न थी, कोई चर्च न था। कभी दूसरा कोई स्वर दूसरी किसी परंपरा का मन के भीतर न पड़ा था। तो पुराना इतना वास्तविक था कि उसमें प्रश्न नहीं लगाया जा सकता था। वह हमसे भी इतने पहले था, हम उसमें ही बड़े होते और खड़े होते थे। उससे अन्यथा हम सोच ही नहीं सकते थे।
फिर मंदिर के पास मस्जिद आ गई, चर्च आ गया, गुरुद्वारे आए। सारी परंपराएं एक साथ एक-एक व्यक्ति पर टूट पड़ीं। जैसे-जैसे गति हुई, स्थान छोटा हुआ, वैसे-वैसे सारी परंपराएं एक साथ टूट पड़ीं। कनफ्यूजन स्वाभाविक था। तब कोई भी चीज असंदिग्ध रूप से नहीं ली जा सकती, क्योंकि संदेह कराने के लिए दूसरा सूत्र भी सामने खड़ा है। अगर मंदिर घंटे देकर पुकार कर रहा है कि आओ, भरोसा करो! तो पास ही मस्जिद अजान दे रही है कि गलत है, वहां भूल कर मत जाना! ये दोनों बातें एक साथ प्रवेश कर गईं।
यह जो सारी दुनिया में इतना संदेह है, उस संदेह का मौलिक कारण मनुष्य की बुद्धिमानी का बढ़ जाना नहीं है। मनुष्य उतना ही बुद्धिमान है जितना सदा था। मनुष्य की बुद्धि पर बहुत से संस्कारों का एक साथ पड़ जाना है। और स्व-विरोधी संस्कार! और हर रास्ता दूसरे रास्ते को गलत कहेगा ही। यह मजबूरी है। इसलिए नहीं कि दूसरा रास्ता गलत है, दूसरा रास्ता गलत है इसलिए नहीं, बल्कि दूसरे रास्ते को गलत कहना ही होगा। दूसरे रास्ते को गलत न कहा जाए तो स्वयं को सही कहने की जो शक्ति है, जो बल है, वह टूट जाता है और बिखर जाता है। असल में स्वयं को सही कहना हो तो दूसरे को गलत कहना अनिवार्य हिस्सा है। उसी की पृष्ठभूमि में स्वयं को सही कहा जा सकता है।
तो जब तक एक-एक परंपरा का अपना मार्ग था, और विजातीय मार्ग कहीं मिलते नहीं थे, कहीं कोई चौरस्ते नहीं थे, कहीं कोई चौराहे नहीं थे जहां विजातीय मार्ग भी मिलते हों, जब सब धाराएं अपने में बंट कर अलग-अलग बहती थीं, तब पुराने का गहन आकर्षण था। ऐसे युग में, ऐसे समय में, महावीर जैसा व्यक्तित्व बड़ा उपयोगी था, सहयोगी था।
लेकिन जैसे-जैसे धाराएं अनेक हुईं, प्रतियोगी हुईं, बहुत हुईं, पुराना संदिग्ध हो गया, नये का मूल्य बढ़ा। नये के लिए भी प्रतियोगी थे। लेकिन पुरानी धारा के खिलाफ जब भी नया प्रतियोगी खड़ा हो जाए और जब सब पुरानी धाराएं मन को सिर्फ विभ्रम में डालती हों और कुछ तय न हो पाता हो, तो पुरानों में से चुनने की बजाय नये को चुनना मनुष्य के लिए सरल पड़ता है।
कई कारणों से। पहला कारण तो यह कि पुरानी धाराओं का तीर्थंकर, पैगंबर लाखों साल पहले हुआ। उसकी आवाज धुंधली हो जाती है बहुत। नये का पैगंबर अभी मौजूद होता है, सामने। उसकी आवाज घनी हो जाती है। पुरानी जो परंपरा है वह फिर भी पुरानी भाषा बोलती है, क्योंकि जब वह निर्मित हुई थी तब की भाषा बोलती है। नया तीर्थंकर, नया बुद्ध नई भाषा बोलता है। अभी निर्मित हो रही है। पुराने शब्दों के साथ जो संदेह जुड़ गया उन शब्दों को वह हटा देता है। वह नये शब्दों को लाता है जो एक तरह से कुंआरे हैं, जिन पर भरोसा ज्यादा आसान है।
तो नये का आकर्षण क्रमशः बढ़ा, जैसे-जैसे परंपराएं साथ हुईं, इकट्ठी हुईं; और करीब-करीब हम चौराहे पर जीने लगे जहां सभी रास्ते मिलते हैं, और हर घर के पास सभी रास्ते टूटते हैं, तो नये का आकर्षण बढ़ा। लेकिन अब नये का आकर्षण भी नहीं है। क्योंकि अब हमें यह भी पता चला कि सब नये अंततः पुराने हो जाते हैं। और जो भी पुराने हैं वे कभी नये थे। और हमें अब यह भी पता चला कि नये और पुराने में शायद शब्दों का ही फासला है।
नये की बड़ी गति थी। इधर कोई तीन सौ वर्षों से नये ने वही प्रतिष्ठा ले ली थी जो कभी पुराने सत्य की थी। जैसे कभी पुराना होना सही होने का प्रमाण था वैसे ही नया होना सही होने का प्रमाण हो गया। इतना ही काफी है बताना कि नई नई है बात, और लोग भरोसा करेंगे। जैसे पहले काफी था कि पुरानी है बात, और लोग भरोसा करते थे। अब किसी चीज को पुराना कहना अपने हाथ से उसको निंदित करना है। इसलिए प्रत्येक धारा नये होने की चेष्टा में लग गई। और प्रत्येक धारा ने नये व्यक्ति पैदा किए जिन्होंने नये की बातें कीं। पुराना समाप्त नहीं हुआ, पुराने रास्ते चलते ही रहे, नये रास्ते भी चल पड़े। उन्हें भी नये चलने वाले मिल गए। और जब नये की तीव्रता पकड़ती है तो एक अनूठी घटना घटी।
जैसे पुराना सदा तय करता था कि कितना पुराना है, तो सारे धर्म चेष्टा करते थे कि उनकी परंपरा से ज्यादा पुरानी कोई परंपरा नहीं है। अगर जैनों से पूछें तो वे कहेंगे कि उनकी परंपरा से ज्यादा पुरानी कोई परंपरा नहीं है। वेद भी बाद के हैं। अगर वेद से पूछें तो वे कहेंगे कि वेद काफी पुराना है। उससे तो पुराने का कोई सवाल ही नहीं है। वे तो प्राचीनतम हैं। उसको पीछे खींचने की कोशिश की जाएगी, क्योंकि पुराने की प्रतिष्ठा थी। फिर ऐसे ही नये की प्रतिष्ठा जब बननी शुरू हुई तो कितना नया?
तो आज से अगर पचास साल पहले के अमरीका में--जहां कि नये की बहुत पकड़ थी, क्योंकि सबसे ज्यादा नया समाज था--तो दो पीढ़ियां थीं; लेकिन आज अमरीका में दो पीढ़ियां नहीं हैं। बूढ़ों की पीढ़ी थी, जवानों की पीढ़ी थी, आज से पचास साल पहले। आज हालत बहुत अजीब है। आज चालीस साल वाले की अलग पीढ़ी है; तीस साल वाले की अलग पीढ़ी है; बीस साल वाले की अलग पीढ़ी है; पंद्रह साल वाले की अलग पीढ़ी है। तीस साल वाले कहते हैं, तीस साल के ऊपर भरोसा करना ही मत किसी पर। पच्चीस साल वाले तीस साल वाले पर भी उतने ही संदेह से भरे हैं, कि बूढ़े हो गए ये। लेकिन उनके पीछे जो बीस साल वाला जवान है वह कह रहा है कि ये भी जा चुके हैं। हाई स्कूल के बच्चे भी अब जवानों को बूढ़ा समझ रहे हैं जो आज पच्चीस साल के हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि तुम गए-गुजरे, जा चुकी पीढ़ी। यह कभी सोचा भी न गया था कि इतनी पीढ़ियां होंगी। दो पीढ़ी का खयाल था, कि जवान की पीढ़ी है, बूढ़े की पीढ़ी है। लेकिन जवान की पीढ़ी में भी पर्तें हो जाएंगी और बीस साल का आदमी पच्चीस साल के आदमी को समझेगा कि वह गया-गुजरा है, आउट ऑफ डेट है।
जब इतने जोर से नये की पकड़ होनी शुरू हो तो नये का आकर्षण भी खो जाएगा। क्योंकि आकर्षण बन भी नहीं पाएगा और नया पुराना हो जाएगा। आकर्षण बनने में भी समय लगता है। और धर्म कोई कपड़ों की फैशन की भांति नहीं है कि आप छह महीने में बदल लें। वह कोई मौसमी फूल के बीज नहीं हैं कि चार महीने पहले लगाया और चार महीने पहले हमने उन्हें समाप्त कर दिया। धर्म तो ऐसे वटवृक्ष हैं जो हजारों-लाखों साल में तो पूरे हो पाते हैं। और जब ऐसा खयाल हो कि हर दो-चार-दस साल में बदल डालना है तब तो वटवृक्ष लगेंगे ही नहीं। तब फिर मौसमी फूल ही लग सकते हैं। नये का आकर्षण भी खोने लगा है।
यह मैंने इसलिए कहा कि मैं साफ कर सकूं कि मेरी मनो-दशा बिलकुल तीसरी है। न तो मैं मानता हूं कि महावीर की भाषा कारगर हो सकती है अब, परंपरा की। न मैं मानता हूं कि नये का ही आग्रह कारगर हो सकता है। दोनों ही गए। अब तो मैं मानता हूं कि शाश्वत का आग्रह अर्थपूर्ण है--पुराने का भी नहीं, नये का भी नहीं--जो सदा है।
सदा का मतलब कि जो न पुराना होता है, न नया हो सकता है। पुराना-नया दोनों ही सामयिक घटनाएं हैं और धर्म दोनों में काफी परेशान हो लिया। पुराने के साथ बंध कर भी परेशान हो लिया; अब नये के साथ बंध कर भी उसने देखा है। कृष्णमूर्ति अभी भी नये का आग्रह लिए चले जाते हैं। उसका कारण है कि उनके पास जो पकड़ है वह उन्नीस सौ पंद्रह और उन्नीस सौ बीस के बीच की है, जब कि नये का आकर्षण जमीन पर था। वह जो पकड़ है वह उन्नीस सौ पंद्रह और उन्नीस सौ बीस के बीच की है, जब कि नया प्रभावी था। वे अभी भी कहे चले जाते हैं। लेकिन अब नये को कहने का भी कोई मतलब नहीं है।
अब तो इस पृथ्वी पर एक ही संभावना है। सब परंपराएं इतने निकट आ गई हैं कि अब कोई परंपरा एक्सक्लूसिवली कहे कि मैं ठीक हूं, तो अब उस पर संदेह पैदा होगा। कभी इस बात के कहने से विश्वास आता था कि कोई परंपरा कहती थी कि मैं ठीक हूं, और निरपेक्ष, एब्सोल्यूट अर्थों में ठीक हूं! कभी इससे श्रद्धा बनती थी। अब इसी से अश्रद्धा बन जाएगी कि कोई कहे कि मैं बिलकुल निरपेक्ष अर्थों में ठीक हूं। यह उसके पागलपन का सबूत होगा। यह सबूत होगा कि वह आदमी बहुत बुद्धिमान नहीं है। यह सबूत होगा कि बहुत सोच-विचार वाला नहीं है। यह सबूत होगा कि बहुत मतांध है, अंधा है, डाग्मैटिक है।
बटर्रेंड रसल ने कहीं लिखा है कि मैंने किसी बुद्धिमान आदमी को कभी बेझिझक बोलते नहीं देखा। बुद्धिमान में तो झिझक होगी ही, हेजिटेशन होगा ही। सिर्फ बुद्धू बेझिझक बोल सकते हैं।
रसल यह कह रहा है कि सिर्फ अज्ञानी कह सकते हैं कि बस पूर्ण सत्य यह रहा। ज्ञान के बढ़ने के साथ ऐसी निरपेक्ष घोषणाएं नहीं हो सकतीं। तो इस युग में अब कोई एक परंपरा को ठीक कहने का आग्रह करे तो इसीलिए वह परंपरा को नुकसान पहुंचाने वाला हो जाएगा। ठीक दूसरी बात भी, अगर कोई कहे कि जो मैं कह रहा हूं वह बिलकुल नया है, बेमानी हो गई। क्योंकि इतने नये की उदघोषणा होती है और आखिर में बहुत गहरे में पाया जाता है कि वही है। कितने रूपों में बातें कही जाती हैं! रूप को जरा हटा कर देख लें, तो कपड़े हट जाते हैं और पीछे पाया जाता है, वही है। इसलिए अब नये की घोषणा भी बहुत अर्थ नहीं रखती। पुराने की घोषणा भी बहुत अर्थ नहीं रखती।
मेरी दृष्टि में भविष्य का जो धर्म है, कल जिस बात का प्रभाव होने वाला है, जिससे लोग मार्ग लेंगे, और जिससे लोग चलेंगे, वह है--सनातन, इटर्नल का आग्रह। हम जो कह रहे हैं वह न नया है, न पुराना है। न वह कभी पुराना होगा और न उसे कभी कोई नया कर सकता है। हां, जिन्होंने पुराना कह कर उसे कहा था उनके पास पुराने शब्द थे, जिन्होंने नया कह कर उसे कहा उनके पास नये शब्द हैं। और हम शब्द का आग्रह छोड़ते हैं।
इसलिए मैं सभी परंपराओं के शब्दों का उपयोग करता हूं, जो शब्द समझ में आ जाए। कभी पुराने की भी बात करता हूं, शायद पुराने से किसी को समझ में आ जाए। कभी नये की भी बात करता हूं, शायद नये से किसी को समझ में आ जाए। और साथ ही यह भी निरंतर स्मरण दिलाते रहना चाहता हूं कि नया और पुराना सत्य नहीं होता। सत्य आकाश की तरह शाश्वत है। उसमें वृक्ष लगते हैं आकाश में, खिलते हैं, फूल आते हैं। वृक्ष गिर जाते हैं। वृक्ष पुराने, बूढ़े हो जाते हैं। वृक्ष बच्चे और जवान होते हैं--आकाश नहीं होता। एक बीज हमने बोया और अंकुर फूटा। अंकुर बिलकुल नया है, लेकिन जिस आकाश में फूटा, वह आकाश? फिर बड़ा हो गया वृक्ष। फिर जरा-जीर्ण होने लगा। मृत्यु के करीब आ गया वृक्ष। वृक्ष बूढ़ा है, लेकिन आकाश जिसमें वह हुआ है, वह आकाश बूढ़ा है? ऐसे कितने ही वृक्ष आए और गए, और आकाश अपनी जगह है--अछूता, निर्लेप।
सत्य तो आकाश जैसा है। शब्द वृक्षों जैसे हैं। लगते हैं, अंकुरित होते हैं, पल्लवित होते हैं, खिल जाते हैं, मुर्झाते हैं, गिरते हैं, मरते हैं, जमीन में खो जाते हैं। आकाश अपनी जगह ही खड़ा रह जाता है! पुराने वालों का जोर भी शब्दों पर था और नये वालों का जोर भी शब्दों पर है। मैं शब्द पर जोर ही नहीं देना चाहता हूं। मैं तो उस आकाश पर जोर देना चाहता हूं जिसमें शब्द के फूल खिलते हैं, मरते हैं, खोते हैं--और आकाश बिलकुल ही अछूता रह जाता है, कहीं कोई रेखा भी नहीं छूट जाती।
तो मेरी दृष्टि: सत्य शाश्वत है--नये-पुराने से अतीत, ट्रांसेंडेंटल है। हम कुछ भी कहें और कुछ भी करें, हम उसे न नया करते हैं, न हम उसे पुराना करते हैं। जो भी हम कहेंगे, जो भी हम सोचेंगे, जो भी हम विचार निर्मित करेंगे, वे आएंगे और गिर जाएंगे। और सत्य अपनी जगह खड़ा रह जाएगा।
इसलिए वह भी नासमझ है जो कहता है कि मेरे पास बहुत पुराना सत्य है। क्योंकि सत्य पुराने नहीं होते। क्योंकि आकाश पुराना नहीं होता। वह भी उतना ही नासमझ है जो कहता है कि मेरे पास नया सत्य है, मौलिक है। आकाश पुराना भी नहीं होता, आकाश मौलिक और नया भी नहीं होता।
इस तीसरे तत्व की घोषणा को मैं भविष्य के लिए मार्ग मानता हूं। क्यों मानता हूं? क्योंकि इस तत्व की घोषणा, जो बहुत सी परंपराओं के जाल से जो उपद्रव पैदा हो गया है, उसे काटने वाली होगी। तब हम कहेंगे कि ठीक है, वे वृक्ष भी खिले थे आकाश में और ये वृक्ष भी खिल रहे हैं आकाश में! और अनंत वृक्ष खिलते हैं आकाश में, इससे आकाश को कोई फर्क नहीं पड़ता। आकाश में बहुत अवकाश है, बहुत स्पेस है। हमारे वृक्ष उसको रिक्त नहीं कर पाते और न भर पाते हैं। हम इस भ्रम में न रहें कि हमारा कोई भी वृक्ष पूरे आकाश को भर देगा।
तो हमारे कोई भी शब्द, और हमारी कोई भी धारणाएं, और कोई भी सिद्धांत सत्य के आकाश को भर नहीं पाते। सदा गुंजाइश है। हजार महावीर पैदा हों तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता, करोड़ महावीर पैदा हों तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। करोड़ बुद्ध पैदा हो जाएं तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। कितने ही बड़े वे वटवृक्ष हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वटवृक्षों के बड़े होने से आकाश के बड़ेपन को नहीं नापा जाता। हालांकि स्वाभाविक, वटवृक्षों के नीचे जो घास के तिनके हैं उन्हें आकाश का कोई पता नहीं होता, वटवृक्ष का ही पता होता है। और उनके लिए वटवृक्ष भी इतना बड़ा होता है कि इससे भी बड़ा कुछ हो सकता है इसकी कल्पना भी संभव नहीं है।
तो अब इस दुर्गम स्थिति में जहां कि सारी परंपराएं एक साथ खड़ी हो गई हैं और आदमी के मन को एक साथ आकर्षित कर रही हैं चारों तरफ से, सब परंपराएं सब तरह का आकर्षण पैदा कर रही हैं--पुराने हैं, नये हैं, रोज नये पैदा होने वाले विचार हैं, वे सब मनुष्य को खींच रहे हैं। और उन सबके खींचने की वजह से मनुष्य ऐसी स्थिति में है कि वह किंकर्तव्यविमूढ़ है। वह करीब-करीब खड़ा हो गया है। वह कहीं जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। क्योंकि वह कहीं भी कदम बढ़ाए तो संदेह पैदा होता है। श्रद्धा कहीं भी नहीं आती।
सब श्रद्धा पैदा करवाने वाले ही उसको अश्रद्धा की हालत में खड़ा कर दिए हैं। क्योंकि श्रद्धा जो है जिस ढंग से पैदा की जाती थी उसी ढंग से अब भी पैदा की जा रही है। कुरान कहे जा रहा है कि वह ठीक है; धम्मपद कहे जा रहा है वह ठीक है। स्वभावतः, जो भी कहेगा कि मैं ठीक हूं, उसे यह भी कहना पड़ता है कि दूसरा गलत है। दूसरे को भी यही करना पड़ता है, कि मैं ठीक हूं कहना पड़ता है, दूसरा गलत है। और स्थिति ऐसी है कि खड़े हुए आदमी को ऐसा लगता है कि सभी गलत हैं।
क्यों? क्योंकि खुद को ठीक कहने वाला तो एक है, लेकिन उसको गलत कहने वाले पचास हैं। ठीक का दावा एक-एक अपने लिए कर रहा है, और उसके गलत होने का दावा बाकी पचास लोग कर रहे हैं कि वह गलत है। गलत कहे जाने का इतना बड़ा इंपैक्ट होगा कि वह जो एक चिल्ला रहा है कि मैं ठीक हूं, उसकी आवाज खो जाएगी इसमें कि वे जो पचास कह रहे हैं कि वह गलत है। यद्यपि उन सब पचास के साथ भी यही हालत है। क्योंकि वे सब अपने को ही अकेला ठीक कहेंगे, बाकी पचास फिर उनको भी गलत कहेंगे।
तो एक आदमी के सामने पचास लोग कहते हैं गलत है, और एक आदमी कहता है ठीक है। स्वभावतः वह चलने वाला नहीं है। वह खड़ा हो जाएगा। यह जो मनुष्य की आज की स्थिति है खड़े हो जाने की, उसके पीछे सबकी श्रद्धाएं और सब श्रद्धाओं की मांग, कि आ जाओ मेरे पास, दिक्कत डाल रही है। उनकी पुरानी आदत है, वे कहे चले जा रहे हैं।
यह स्थिति मिट सकती है एक ही तरह से, वह यह कि एक ऐसा आंदोलन चाहिए जगत में, जो यह ठीक है या वह ठीक है, इसका बहुत आग्रह नहीं करता; खड़ा होना गलत है और चलना ठीक है, इसका आग्रह करता है। इसका आग्रह नहीं करता कि यह ठीक है या वह गलत है। और इतनी व्यापक दृष्टि की जरूरत है कि जो आदमी जहां जाना चाहे, उसे वहां कैसे वह ठीक जा सके, यह बताने की सामर्थ्य हो।
दुरूह है यह मामला। मुसलमान होना आसान है, ईसाई होना आसान है, जैन होना आसान है। बंधी हुई लीक है, बंधी हुई परंपरा है। एक परंपरा से परिचित होना आसान है।
अब एक युवक मेरे पास आया कोई आठ दिन पहले। वह मुसलमान है और वह संन्यासी होना चाहता है। मैंने उससे कहा कि तू संन्यासी हो जा। पर उसने कहा कि मेरी गर्दन दबा देंगे वे सारे लोग। तो मैंने कहा: तू संन्यासी जरूर हो जा, लेकिन मुसलमान न हो जा, यह मैं नहीं कह रहा हूं। तू मुसलमान रहते हुए संन्यासी हो जा। तो उसने कहा: क्या फिर मैं गेरुआ वस्त्र पहन कर मस्जिद में नमाज पढ़ सकता हूं? पढ़नी ही पड़ेगी, मैंने उससे कहा! उसने कहा: मैं तो नमाज पढ़ना छोड़ चुका आपको सुन कर। मैं तो ध्यान कर रहा हूं। मैं तो जाता नहीं आज साल भर से। और मुझे अपूर्व आनंद हुआ है; जाना भी नहीं चाहता। मैंने कहा: जब तक ध्यान तेरा उस जगह न आ जाए कि नमाज और ध्यान में कोई फर्क न रहे, तब तक समझना कि ध्यान अभी पूरा नहीं हुआ।
इसे वापस नमाज पढ़ने भेजना ही पड़ेगा मस्जिद में। इसे मस्जिद से तोड़ना खतरनाक है। क्योंकि इसे मस्जिद से तोड़ कर किसी मंदिर से नहीं जोड़ा जा सकता। क्योंकि जिस विधि से हम तोड़ते हैं वही विधि इसको इस भांति विकृत कर जाती है कि फिर यह किसी मंदिर से नहीं जुड़ सकता।
तो न तो पुराने मंदिरों के बीच प्रतियोगिता खड़ी करनी है, और न नया मंदिर खड़ा करना है। जो जहां जाना चाहे, खड़ा न रहे, जाए। तो मेरे सामने जो पर्सपेक्टिव है, परिप्रेक्ष्य है, वह यही है कि जो भी व्यक्ति, जो उसकी क्षमता हो उस क्षमता, जो उसकी पात्रता हो, जो उसका संस्कार हो, जो उसके खून में प्रवेश कर गया हो, जो सुगमतम हो उसके लिए, उस पर ही मैं उसे गतिमान करता हूं।
तो मेरा कोई धर्म नहीं है और मेरा कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि अब कोई भी रास्ते वाला धर्म, संप्रदाय वाला धर्म भविष्य के लिए नहीं है। संप्रदाय का अर्थ है रास्ता। अब कोई भी रास्ते वाला धर्म भविष्य के लिए काम का नहीं है। अब ऐसा धर्म चाहिए जो एक रास्ते का आग्रह न करता हो, जो पूरे चौरस्ते को घेर ले। जो कहे कि सब रास्ते हमारे हैं। तुम चलो भर! तुम जहां से भी चलोगे वहीं पहुंचोगे। सब रास्ते वहीं ले जाते हैं। आग्रह यह है कि तुम चलो, खड़े मत रहो।
तो कोई नई धारणा, कोई पर्वत पर नया मार्ग तोड़ने की मेरी उत्सुकता नहीं, मार्ग बहुत हैं। चलने वाला नहीं है। मार्ग की कमी नहीं है कि मार्ग कम हैं इसलिए हम एक नया मार्ग तोड़ें। मार्ग बहुत हैं। मार्ग ज्यादा और चलने वाले कम हैं। करीब-करीब मार्ग सूने पड़े हैं, जिन पर कोई चलने वाला वर्षों से नहीं गुजरा है। सैकड़ों वर्षों से, हजारों वर्षों से कई मार्ग सूने पड़े हैं। कोई राहगीर नहीं आया उन पर। क्योंकि पर्वत पर चढ़ने की जो संभावना थी, वही टूट गई। पर्वत के नीचे इतना विवाद है और इतनी कलह है, और सारी कलह का पूरा का पूरा जो परिणाम हो रहा है वह प्रत्येक व्यक्ति को थका देने वाला, घबड़ा देने वाला, खड़ा कर देने वाला है। इतने बिगूचना में कोई चल नहीं सकता।
लेकिन यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है, फिर भी मेरी दृष्टि इक्लेक्टिक नहीं है। मेरी दृष्टि गांधी जैसी नहीं है कि मैं चार कुरान के वचन चुन लूं और चार गीता के वचन चुन लूं, और कहूं कि दोनों में एक ही बात है।
दोनों में एक बात है नहीं। यह मैं कहता हूं कि सब रास्तों से चल कर आदमी वहीं पहुंच जाएगा, लेकिन सब रास्ते एक नहीं हैं। यह मैं नहीं कहता। रास्ते तो बिलकुल अलग-अलग हैं। और अगर गीता और कुरान को एक बताने की कोशिश की जाती है तो तरकीब है।
अब यह बड़ी मजेदार बात है कि गांधी गीता को पढ़ लेंगे, फिर कुरान को पढ़ लेंगे। और कुरान में जो-जो बातें गीता से मेल खाती हैं वे चुन लेंगे, बाकी बातें छोड़ देंगे। बाकी बातें क्या हुईं जो मेल नहीं खातीं और जो विपरीत पड़ती हैं? वे छोड़ देंगे। पूरे कुरान को गांधी नहीं राजी हो सकते--पूरे कुरान को! पूरी गीता को राजी हैं।
इसलिए मैं कहता हूं इक्लेक्टिक! पूरी गीता को राजी हैं, फिर गीता के भी समानांतर कुछ मिलता हो कहीं कुरान में तो उसके लिए राजी हैं। इसमें राजी होने में कोई कठिनाई ही नहीं है। इसको तो कोई भी राजी हो जाएगा। मैं कहता हूं कि नहीं मैं आपसे बिलकुल राजी हूं, उतनी दूर तक, जहां तक कुरान गीता का अरबी रूपांतर है, बस। उससे इंच भर ज्यादा नहीं। वह तो कुरान वाला भी राजी हो जाता है।
लेकिन यह बहुत मजेदार प्रयोग होगा कि कुरान वाले से आप गीता में चुनवाएं कि कौन-कौन सी बात का मेल है, तो आप बिलकुल हैरान हो जाएंगे। जो चीजें वह चुनेगा वे गांधी ने कभी नहीं चुनीं। वह बहुत भिन्न चीजें चुनेगा। इसको इक्लेक्टिसिज्म कहता हूं मैं। यह चुनना है। यह पूरे की स्वीकृति नहीं है। स्वीकृति तो हमारी ही है। उससे आप भी मेल खाते हो कहीं, तो आप भी ठीक हो। ठीक तो हम ही हैं अंततः। लेकिन आप भी उतने दूर तक ठीक हो, इतना कहने की हम सहिष्णुता दिखलाते हैं, जितनी दूर तक आप हमसे मेल खाते हैं। यह कोई बहुत सहिष्णुता नहीं है।
और यह प्रश्न कोई सहिष्णुता का नहीं है। यह तो आकाश जैसी उदारता का है, सहिष्णुता का नहीं है। टालरेंस का नहीं है। यह नहीं है कि एक हिंदू एक मुसलमान को सह जाए; यह नहीं है कि एक ईसाई एक जैन को सहे। सहने में ही हिंसा भरी हुई है। मैं यह नहीं कहता कि कुरान और गीता एक ही बात कहते हैं। कुरान तो बिलकुल अलग बात कहता है। उसका अपना इंडिविजुअल स्वर है। वही उसकी महत्ता है। अगर वह भी वही कहता है जो गीता कहती है, तो कुरान दो कौड़ी का हो गया। बाइबिल तो कुछ और ही कहती है, जो न गीता कहती है, न कुरान कहता है। उनके सबके अपने स्वर हैं। महावीर वही नहीं कहते जो बुद्ध कहते हैं, बड़ी भिन्न बातें कहते हैं।
लेकिन इन भिन्न बातों से भी अंततः जहां पहुंचा जाता है, वह एक जगह है। जो मेरा जोर है वह मंजिल की एकता पर है, मार्ग की एकता पर नहीं है। जो मेरा जोर है वह यह है कि अंततः ये सारे मार्ग वहां पहुंच जाते हैं जहां कोई भेद नहीं है।
लेकिन ये मार्ग बड़े भिन्न हैं। और किसी भी आदमी को भूल कर दो मार्गों को एक समझने की चेष्टा में नहीं पड़ना चाहिए। अन्यथा वह किसी पर भी न चल पाएगा। माना कि ये सब नावें उस पार पहुंच जाती हैं, लेकिन फिर भी दो नावों पर सवार होने की गलती किसी को भी नहीं करना चाहिए। अन्यथा नावें पहुंच जाएंगी, दो नावों पर चढ़ने वाला नहीं पहुंचेगा। वह मरेगा, वह डूबेगा कहीं। माना कि सब नावें नावें हैं, फिर भी एक ही नाव पर चढ़ना होता है, पहुंचना हो तो।
हां, किनारे पर खड़े होकर बात करनी हो कि सब नावें नावें हैं, तो कोई हर्जा नहीं है। सब नावें एक ही हैं, तो भी कोई हर्जा नहीं है। लेकिन यात्रा करने वाले को तो नाव पर कदम रखते से ही चुनाव करना पड़ेगा। इस चुनाव के लिए मेरी परम स्वीकृति है सबकी।
बहुत कठिन है, क्योंकि बड़ी विपरीत घोषणाएं हैं। एक तरफ महावीर हैं जो चींटी को भी मारने को राजी न होंगे, पैर फूंक कर रखेंगे। दूसरी तरफ तलवार लिए मोहम्मद हैं। तो जो भी कहता है कि दोनों एक ही बातें कहते हैं, गलत कहता है। ये दोनों एक बात कह नहीं सकते। ये बातें तो बड़ी भिन्न कहते हैं। और अगर एक बात बताने की कोशिश की गई तो किसी न किसी के साथ अन्याय हो जाएगा। या तो मोहम्मद की तलवार छिपानी पड़ेगी और या महावीर का चींटी को फूंकना भुलाना पड़ेगा। अगर मोहम्मद का मानने वाला चुनेगा तो महावीर से वे हिस्से काट डालेगा जो तलवार के विपरीत जाते होंगे। और महावीर का मानने वाला चुनेगा तो तलवार को अलग कर देगा मोहम्मद से, और सिर्फ वे ही बातें चुन लेगा जो अहिंसा के तालमेल में पड़ती हों। बाकी यह अन्याय है।
इसलिए मैं गांधी जैसा समन्वयवादी नहीं हूं। मैं सारे धर्मों के बीच किसी सिंथिसिस और किसी समन्वय की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो यह कह रहा हूं कि सारे धर्म अपने निजी व्यक्तिगत रूप में जैसे हैं वैसे मुझे स्वीकृत हैं, मैं उनमें कोई चुनाव नहीं करता। और मैं यह भी कहता हूं कि उनके वैसे होने से भी पहुंचने का उपाय है।
इसलिए सारे धर्मों ने जो अलग-अलग अपने रास्ते बनाए हैं, उन रास्तों के जो भेद हैं, वे रास्तों के भेद हैं। मेरे रास्ते पर वृक्ष पड़ते हैं और आपके रास्ते पर पत्थर ही पत्थर हैं। आप जिस कोने से चढ़ते हैं पहाड़ के वहां पत्थर ही पत्थर हैं और मैं जिस रास्ते से चढ़ता हूं वहां वृक्ष ही वृक्ष हैं। कोई है कि सीधा पहाड़ पर चढ़ता है, और बड़ी चढ़ाई है और पसीने से तरबतर हो जाता है; और कोई है कि बहुत मद्धिम और घूमते हुए रास्ते से चढ़ता है, वह लंबा जरूर है, लेकिन थकता कभी नहीं और पसीना कभी नहीं आता। निश्चित ही ये अपने-अपने रास्तों की अलग-अलग बात करेंगे। इनके वर्णन बिलकुल अलग होंगे। फिर प्रत्येक के रास्ते पर मिलने वाली कठिनाइयों का हिसाब भी अलग होगा; और प्रत्येक कठिनाई से जूझने की साधना भी अलग होगी। और यह सब अलग होगा। अगर हम इनके रास्तों की ही चर्चा को देखें तो हम इनमें शायद ही कोई समानता खोज पाएं।
तो जो समानता दिखाई पड़ती है वह रास्तों की नहीं है। वह समानता उन वचनों की है जो पहुंचे हुए लोगों ने कहे हैं। वह रास्तों की जरा भी नहीं है। वह समानता उन वचनों की है, जो पहुंचे, जो शिखर पर पहुंचे हुए लोगों ने कहे हैं। फिर भाषा का ही फर्क रह जाता है, अरबी का होगा, कि पाली का होगा, कि प्राकृत का, कि संस्कृत का, उन शब्दों में सिर्फ भाषा ही का फर्क रह जाता है जो मंजिल की घोषणा के लिए कहे गए हैं। बाकी मंजिल के पहले सारे फर्क बहुत वास्तविक हैं। और मैं नहीं कहता कि उनको भुलाने की जरूरत है।
तो मैं कोई नया रास्ता नहीं तोड़ना चाहता। न ही किसी पुराने रास्ते को, बाकी रास्तों के खिलाफ, सही कहना चाहता हूं। मैं कहना चाहता हूं कि सभी रास्ते सही हैं, भिन्न हैं। क्योंकि हमारे मन में सही होने का एक ही मतलब होता है कि वे एक से हों। हमारे मन में यह भाव होता है कि दो चीजें तभी सही हो सकती हैं जब एक सी हों। एक सी होना कोई अनिवार्यता नहीं है। सच तो यह है कि दो एक सी चीजों में अक्सर एक नकल होगी, सही नहीं होगी। दो बिलकुल एक सी चीजों में एक नकल होगी, दोनों भी नकल हो सकती हैं, बाकी एक तो पक्का ही नकल होगी। दो बिलकुल ही वास्तविक असली चीजें बिलकुल अलग होती हैं। उनका व्यक्तित्व भिन्न होता ही है।
इसमें मैं आश्चर्य नहीं मानता कि मोहम्मद और महावीर के मार्ग में भेद है। न होता भेद तो एक चमत्कार था। जो कि बिलकुल अस्वाभाविक है। महावीर की सारी परिस्थितियां भिन्न हैं, मोहम्मद की सारी परिस्थितियां भिन्न हैं। मोहम्मद को जिन लोगों के साथ काम करना पड़ रहा है, वे बिलकुल भिन्न हैं। महावीर को जिनके साथ काम करना पड़ रहा है, वे बिलकुल भिन्न हैं। सारी संस्कारगत जो धारा है मोहम्मद के लोगों की वह बिलकुल और है। महावीर के पास जो धारा है वह बिलकुल और है। यह सब इतना भिन्न है कि इसमें महावीर और मोहम्मद का मार्ग एक नहीं हो सकता। और आज भी सबकी स्थितियां भिन्न हैं। उन भिन्न स्थितियों को ही ध्यान में रख कर जाना पड़े।
तो मैं न तो कोई नया मार्ग तोड़ने को उत्सुक हूं, न किसी पुराने मार्ग को, शेष पुराने मार्गों के खिलाफ सही कहने को उत्सुक हूं। दो बातें हैं। सभी सही हैं, जो टूटे मार्ग वे, जो आज टूट रहे हैं वे, और जो कल टूटेंगे वे भी, और जो अभी नहीं टूटे हैं वे भी सही हैं। आदमी खड़ा न रहे--चले। गलत से गलत मार्ग से चलने वाला भी आज नहीं कल पहुंच जाएगा और सही से सही मार्ग पर खड़ा रहने वाला कभी नहीं पहुंच सकता। इसलिए असली सवाल चलने का है।
और जब कोई चलता है तो गलत मार्ग से मुक्त हो जाना अड़चन नहीं है। लेकिन जब कोई खड़ा रह जाता है तो पता ही नहीं चलता कि जहां खड़ा है वह सही है कि गलत। चलने से पता चलता है कि सही है या गलत। अगर आप किसी भी सिद्धांत को मान कर बैठ जाएं तो कभी पता नहीं चलता कि वह सही है या गलत। आप उसका प्रयोग करें और चलें, और आपको फौरन पता चलता है कि वह सही है या गलत। कोई भी विचार, कर्म बन कर ही सही या गलत होने की कसौटी पर कसा जाता है, अन्यथा कोई कसने का उपाय नहीं है।
तो मेरी उत्सुकता है, चलें। और मैं प्रत्येक को उसके मार्ग पर ही सहारा देने के लिए उत्सुक हूं। स्वभावतः, महावीर के लिए यह आसान नहीं था। आज यह आसान है, और रोज आसान होता चला जाएगा। क्योंकि आज करीब-करीब ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो अपने दो-चार-छह जन्मों में दो-चार-छह धर्मों में पैदा न हो चुका हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। एक-एक आदमी चार-चार, छह-छह धर्मों में पैदा हो चुका है। इधर पिछले पांच-सात सौ वर्षों में जैसी बाहरी निकटता बढ़ी है वैसी ही भीतरी आत्मा के आवागमन की निकटता बढ़ी है। जो कि स्वाभाविक है, बढ़ेगी ही।
जैसे, उदाहरण के लिए, आज से दो हजार साल पहले कोई ब्राह्मण मरता तो शूद्र के घर में पैदा होना सौ में निन्यानबे मौके पर संभव नहीं था। शूद्र के घर में पैदा नहीं हो सकता था। आत्मा का आवागमन इतना ही कठिन था। क्योंकि आवागमन ही नहीं था। चित्त तो सारे संस्कार लेता है। जिस शूद्र को कभी छुआ नहीं, जिसकी छाया से बचे, जिसकी छाया पड़ गई तो स्नान किया, अलंघ्य खाई रही जिसके और हमारे बीच। मरने के बाद आत्मा यात्रा नहीं कर सकती। क्योंकि यात्रा जो चित्त कराएगा वह चित्त बिलकुल ही खिलाफ है। कोई यात्रा नहीं हो सकती।
इसलिए महावीर के समय तक बहुत कभी ऐसा मौका होता था कि कोई आदमी कोई धर्म-परिवर्तन में पैदा हो जाए। यह संभव नहीं था। धाराएं इतनी बंधी थीं, लीकें इतनी साफ थीं कि आप इस जन्म में ही अपने धर्म के भीतर घूमते थे, ऐसा नहीं है, आप अगले जन्म में भी उसी धर्म के भीतर घूमते थे।
अब यह संभव नहीं रहा। अब चीजें जैसे बाहर उदार हो गई हैं वैसे भीतर भी उदार हो गई हैं। वह तो चित्त...। आज मुसलमान के साथ बैठ कर खाना खाने में किसी ब्राह्मण को कोई तकलीफ कम हुई है, कम होती चली जाएगी। और जिसको कम नहीं हुई है वह आज का आदमी नहीं है। उसके पास चित्त पांच सौ साल पुराना है। आज के आदमी को तो बिलकुल कम हो गई है। आज तो सोचना भी उसे बेहूदा मालूम पड़ता है कि इस तरह की बात सोचे।
लेकिन इससे भीतरी आवागमन का भी द्वार खुल गया है, यह खयाल में ले लेना जरूरी है। इधर पांच सौ वर्ष में रोज द्वार खुलता गया है। वह जो भीतर का द्वार खुल गया है, उसके कारण आज कुछ बातें कही जा सकती हैं। अगर मैंने अपने पिछले जन्मों में अनेक मार्गों पर घूम कर देखा हो तो मेरे लिए बहुत आसान हो जाता है कि मैं कह सकूं। अगर आज एक तिब्बतन साधक मुझसे पूछता है तो उससे मैं कुछ कह सकता हूं। लेकिन तभी कह सकता हूं जब कि किसी न किसी यात्रा में तिब्बतन जो मिल्यू है, तिब्बतन जो वातावरण है, उसमें मैं जीया होऊं, अन्यथा मैं नहीं कह सकता हूं। और अगर मैं कहूंगा तो ऊपरी होगा, बहुत गहरा नहीं हो सकता। बहुत गहरा नहीं हो सकता। जब तक कि मैं किसी जगह से नहीं गुजरा हूं तब तक मैं बहुत कुछ नहीं कह सकता।
अगर मैंने कभी नमाज नहीं पढ़ी है तो मैं नमाज के लिए कोई सहायता नहीं दे सकता हूं। और दूंगा तो बहुत ऊपरी होगी। किसी मूल्य की नहीं होगी। लेकिन अगर मैं किसी भी मार्ग से नमाज से गुजरा हूं तो मैं सहायता दे सकता हूं। और अगर मैं एक दफा गुजरा हूं तो मैं जानता हूं कि नमाज से भी वहीं पहुंचा जाता है, जहां किसी प्रार्थना से पहुंचा जाता होगा। और तब मैं इक्लेक्टिक नहीं हूं। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि हिंदू-मुसलमान को एक होना ही चाहिए, इसलिए दोनों ठीक हैं। तब मेरे कहने का कारण बहुत और है। तब मैं जानता हूं कि वे दोनों की पद्धतियां भिन्न हैं, लेकिन जो प्रतीति है भीतर वह एक है। और यह रोज स्थिति ऐसी और भी जो मैं कह रहा हूं उसके अनुकूल होती चली जाएगी। भविष्य के लिए आने वाले सौ वर्षों में इतना आवागमन तीव्र हो जाएगा आत्माओं का, क्योंकि जितने बंधन बाहर टूटेंगे, उतने भीतर टूट जाएंगे।
और यह आप जान कर हैरान होंगे कि जिन्होंने बाहर बंधन बहुत सख्ती से तय किए थे, उनका आग्रह भी बाहर के बंधन के लिए नहीं था। भीतर का इंतजाम था। इसलिए कभी भी इस मुल्क की वर्ण-व्यवस्था को बहुत वैज्ञानिक रूप से समझा नहीं जा सका। जैसा आज हमें लगता है कि कितना अन्याय किया होगा उन लोगों ने। एक तरफ वही ब्राह्मण उपनिषद लिख रहा है और दूसरी तरफ वही ब्राह्मण शूद्रों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करने की व्यवस्था कर रहा है। ये संगत नहीं हैं बातें। या तो सब उपनिषद झूठे हैं, जो लिखे नहीं गए कभी, क्योंकि उसी ब्राह्मण से नहीं निकल सकते जिस ब्राह्मण से शूद्र की व्यवस्था निकल रही है। और अगर उससे ही शूद्र की व्यवस्था निकली हो, तो हम जो व्याख्या कर रहे हैं उसमें कहीं भूल हो रही है।
निकली उसी से है। वही मनु एक तरफ इतनी ऊंची बात कह रहा है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। नीत्शे कहा करता था कि मनु से ज्यादा बुद्धिमान आदमी पृथ्वी पर नहीं हुआ। लेकिन अगर मनु के वचन हम देखें तो शूद्रों और वर्णों के बीच जितनी अलंघ्य खाइयां उसने निर्मित कीं, उतनी किसी और आदमी ने नहीं कीं। वह अकेला आदमी जो तय कर गया उसको आज भी नहीं हिला पा रहे हैं आप। पांच हजार साल की धारा पर वह छाया है। आज भी सारा कानून, सारी व्यवस्था, सारी समझ, सारी बुद्धिमानी, सारी राजनीति उसके खिलाफ लगी है--पांच हजार साल पहले मरे हुए आदमी के। लेकिन वह जो व्यवस्था दे गया है उसको हटाना बहुत मुश्किल पड़ रहा है। राजा राममोहन राय से लेकर गांधी तक सारे हिंदुस्तान के डेढ़ सौ वर्ष के सारे समझदार आदमी मनु के खिलाफ लड़ रहे हैं। और वह एक आदमी, और वह पांच हजार साल पहले हो गया!
वह कोई छोटी समझ का आदमी नहीं है। ये सब बचकाने हैं उसके सामने, बिलकुल जुविनाइल हैं। गांधी या राजा राममोहन राय बिलकुल बचकाने हैं। आज सारी स्थिति विपरीत हो गई है, फिर भी मनु एकदम हिल नहीं पा रहा है। उसको हिलाना कठिन है। क्योंकि कारण भीतर है। सारी व्यवस्था इतनी ही थी कि एक आदमी इस जन्म में अगर नमाज पढ़ता रहा है, तो मनु चाहता है कि वह अगले जन्म में भी नमाज वाले घर में ही पैदा हो। नहीं तो जो काम तीन जन्म में हो सकता है एक ही परंपरा में पैदा होकर, वह तीस जन्मों में नहीं हो सकेगा। हर बार श्र्ृंखला टूट जाएगी। और जब भी वह आदमी रास्ता बदलेगा तब फिर अ ब स से शुरू करेगा। क्योंकि पुराने से आगे नहीं जोड़ा जा सकता है।
एक आदमी पिछले जन्म में मुसलमान के घर में था और इस जन्म में हिंदू के घर में पैदा हो गया। अब वह फिर क ख ग से शुरू कर रहा है। पिछली यात्रा बेकार हो गई, पुछ गई। उसका कोई अर्थ न रहा। वह ऐसा हुआ कि एक स्कूल में पढ़ा था वह छह महीने, फिर निकल आया। फिर दूसरे स्कूल में भर्ती हुआ, फिर पहली क्लास में भर्ती हुआ। फिर छह महीने बाद तीसरे स्कूल में भर्ती हो गया, उन्होंने फिर उसे पहली क्लास में भर्ती कर लिया। वह स्कूल बदलता चला गया। यह शिक्षित कब होगा?
मनु का खयाल था यह--और बड़ा कीमती है--कि हम उस व्यक्ति को उसी विचार-तरंगों के जगत में वापस पहुंचा दें जहां से वह छोड़ रहा है। फिर से शुरू न करना पड़े। जहां से छोड़ा वहां से शुरू कर सके। और यह तभी हो सकता था जब बहुत सख्ती से व्यवस्था की जाए। इसमें थोड़ी भी ढील-पोल से नहीं चलता। अगर इसमें इतना भी हो कि कोई हर्जा नहीं है कि शूद्र से विवाह कर लो। लेकिन मनु ज्यादा बुद्धिमान है। वह जानता है कि जब शूद्र से विवाह कर सकते हो तो कल शूद्र के घर में गर्भ लेने में कौन सी कठिनाई पड़ेगी? जब शूद्र की लड़की को गर्भ दे सकते हो तो शूद्र की लड़की में गर्भ लेने में कौन सी अड़चन रह जाएगी? कोई तर्कसंगत अड़चन नहीं रह जाती। अगर गर्भ लेने से रोकना है तो गर्भ देने से रोकना पड़ेगा। इसलिए विवाह पर सख्त पाबंदी लगा दी। उसमें इंच भर हिलने नहीं दिया। क्योंकि यहां इंच भर हिल गए तो पीछे की सारी व्यवस्था, वह सारी की सारी अस्तव्यस्त हो जाएगी।
लेकिन वह अस्तव्यस्त हो गई। अब शायद उसे व्यवस्थित करना कठिन पड़ेगा। कठिन क्या, मैं समझता हूं, असंभव है। अब हो नहीं सकता। सारी स्थिति ऐसी है अब कि अब नहीं हो सकता है। अब हमें और सूक्ष्म रास्ते खोजने पड़ेंगे, मनु से भी ज्यादा सूक्ष्म।
मनु बहुत बुद्धिमान था, लेकिन व्यवस्था बहुत स्थूल थी। इसलिए स्थूल व्यवस्था आदमी के लिए अन्यायपूर्ण हो जाएगी। बहुत बाह्य, बाहर से रोकी थी भीतर को सम्हालने को--आज नहीं कल कठिन हो जाएगी--स्टिफ जैकिट बैठ गई ऊपर वह, लोहे की हो गई।
आज और सूक्ष्म तल पर प्रयोग करने पड़ेंगे। सूक्ष्म तल पर प्रयोग करने का मतलब यह है कि आज हमें प्रार्थना और नमाज को इतना तरल बनाना पड़ेगा कि जिसने पिछले जन्म में नमाज छोड़ी हो वह इस जन्म में अगर प्रार्थना भी शुरू करे तो वहां से शुरू कर सके जहां से नमाज छोड़ी थी। इसका मतलब हुआ कि प्रार्थना और नमाज इतनी तरल, लिक्विड होनी चाहिए कि प्रार्थना से नमाज शुरू की जा सके, नमाज से प्रार्थना शुरू की जा सके। मंदिर के घंटे सुनते-सुनते कान ऐसे न हो जाएं कि किसी दिन सुबह अजान की आवाज अजनबी मालूम पड़े। मंदिर के घंटों और अजान की आवाज में कहीं कोई आंतरिक तालमेल बनाना पड़ेगा। और इसमें बनाने में कोई कठिनाई नहीं है। यह बिलकुल बनाया जा सकता है। और इसलिए भविष्य के लिए बिलकुल एक नये धर्म की, नई धार्मिकता की, न्यू रिलीजसनेस--नया धर्म नहीं कहना चाहिए--नई धार्मिकता की जरूरत पड़ेगी।
मनु का सारा इंतजाम टूट गया। बुद्ध, महावीर की सारी परंपराएं विश्रृंखल हो गईं। उन्हीं आधारों पर कोई नये प्रयोग करना चाहेगा, वे मजबूरी में टूट जाएंगे। गुरजिएफ ने बहुत कोशिश की, वह टूट गया। कृष्णमूर्ति चालीस साल से मेहनत करते हैं, कुछ बनता नहीं। सारी स्थिति अन्यथा हो गई।
इस अन्यथा स्थिति में बिलकुल ही एक नई धारणा--नई धारणा इस अर्थ में, जैसा कि हमने कभी प्रयोग ही नहीं की। एक तरल धर्म की धारणा। सब धर्मों के, वे जैसे हैं वैसे ही सही होने की धारणा। दृष्टि मंजिल पर, आग्रह चलने का! कहीं भी कोई चले। और हर दो रास्तों के बीच इतनी निकटता कि किसी भी रास्ते से दूसरा रास्ता शुरू हो सके। इन रास्तों के बीच इतना फासला नहीं कि एक रास्ते पर चलने वाला जब दूसरे पर शुरू करे तो उसे दरवाजे पर आना पड़े वापस। नहीं, वह जहां से एक रास्ते से हटे, वहीं से दूसरे रास्ते से मिल जाए।
तो जिनको कहना चाहिए लिंक रोड्स, रास्तों को जोड़ने वाली श्र्ृंखला कड़ियां! मंजिल से जोड़ने वाले रास्ते सदा से हैं। दो रास्तों को जोड़ने वाली कड़ियां सदा से नहीं हैं। मंजिल तक जाने की तो कोई कठिनाई नहीं है। कोई भी एक रास्ते को पकड़े, मंजिल पर पहुंच जाएगा। लेकिन अब ऐसा है कि एक रास्ते पर शायद ही कोई पूरा चल पाए। जिंदगी रोज अस्तव्यस्त होती रहेगी। भौतिक अर्थों में भी, मानसिक अर्थों में भी अस्तव्यस्त होती रहेगी। एक आदमी हिंदू घर में पैदा होगा, हिंदू गांव में बड़ा होगा, और फिर जिंदगी हो सकता है कि वह यूरोप में बिताए। एक आदमी अमरीका में पैदा होगा और हिंदुस्तान के जंगल में जिंदगी बिताए। लंदन में बड़ा होगा, वियतनाम के गांव में जीएगा। यह रोज होता जाएगा। भौतिक अर्थों में भी रोज वातावरण बदलेगा और आंतरिक अर्थों में भी इतना ही वातावरण बदलेगा। यह बदलाहट इतनी ज्यादा होती जाएगी कि अब हमें लिंक्स बनानी पड़ेंगी सब रास्तों के बीच।
कुरान और गीता एक नहीं हैं, लेकिन कुरान और गीता के बीच एक कड़ी बांधी जा सकती है। तो मैं एक ऐसे संन्यासियों का जाल भी फैलाना चाहता हूं जो कड़ियां बन जाएं। मस्जिद में नमाज भी पढ़ें, चर्च में भी प्रार्थना करें, मंदिर में भी गीत गाएं। महावीर के रास्ते पर भी चलें, बुद्ध की साधना में भी उतरें, सिक्खों के पंथ पर भी प्रयोग करें और लिंक निर्मित करें। और ऐसे व्यक्तियों का जीवित जाल, जो लिंक बन जाए! और ऐसी एक धार्मिक अवधारणा कि सब धर्म भिन्न होते हुए एक हैं! अभिन्न होकर एक नहीं, भिन्न होते हुए, बिलकुल भिन्न होते हुए, अपनी-अपनी निजता में भिन्न होते हुए एक हैं। एक, क्योंकि एक जगह पहुंचाते हैं। एक, क्योंकि परमात्मा की तरफ चलाते हैं।
तो मेरा काम कुछ तीसरे तरह का है। और वैसा काम ठीक से हुआ नहीं, कभी नहीं हुआ। कुछ छोटे-छोटे कभी प्रयोग किए गए, बहुत छोटे। लेकिन सदा असफल हुए। रामकृष्ण ने थोड़ी सी मेहनत की। पर वे प्रयोग भी बहुत पुराने नहीं हैं, इधर बस दो सौ वर्ष के बीच प्राथमिक कदम उठाए गए। रामकृष्ण ने मेहनत की, लेकिन खो गया। विवेकानंद ने उसे फिर वापस हिंदू रंग दे दिया पूरा का पूरा। वह बात खो गई। नानक ने कोशिश की थी पांच सौ वर्ष पहले, और थोड़ा पीछे, लेकिन वह भी खो गई। नानक ने गुरुग्रंथ में सारे हिंदू-मुसलमान संतों की वाणी इकट्ठी की। नानक गीत गाते, तो मर्दाना--एक मुसलमान--तंबूरा बजाता। कभी किसी दूसरे को तंबूरा नहीं बजाने दिया। उन्होंने कहा कि गीत हिंदू गाता हो तो मुसलमान तंबूरा तो बजाए ही। इतना तो गीत और तंबूरा कहीं तो एक हो जाए। मक्का और मदीना की यात्रा की, मस्जिदों में नमाज पढ़ी नानक ने। पर खो गई। तत्काल सारी चीज को इकट्ठा करके नया पंथ खड़ा हो गया।
और भी, सूफी फकीरों ने कुछ मेहनत की, और कहीं-कहीं कुछ मेहनत हुई। लेकिन सारी मेहनत अभी प्राथमिक रही, वह अभी तक बन नहीं पाई। उसके दो कारण थे। युग भी नहीं पूरा निर्मित हुआ था। लेकिन अब युग पूरा निर्मित हुआ जा रहा है। और अब एक बड़े पैमाने पर श्रम किया जा सकता है।
तो मेरी दिशा बिलकुल तीसरी है। न पुराने को दोहराना है, न नये की कोई बात है। पुराने और नये में, सबमें जो है, उस पर चलने का आग्रह है। कैसे भी चलें उसकी स्वतंत्रता है।
भगवान, जिस शाश्वत की बात, जिस सनातन की बात आपने की, क्या उसका बोध सात सौ वर्ष पूर्व आपको हो चुका था और उसी सांकेतिक में भी आज आप सारी बात कर रहे हैं? अथवा आज की परिस्थितियों में उस शाश्वतता वाली बात का बोध आपको होता है?
शाश्वत का बोध सभी को हुआ है। बोध में कहीं कोई अड़चन नहीं है। बोध की अभिव्यक्ति में अड़चन पड़ती है। शाश्वत का बोध महावीर को भी है, बुद्ध को भी है। लेकिन महावीर पुराने की भाषा में उस शाश्वत के बोध को अभिव्यक्त करते हैं; बुद्ध नये की भाषा में उस शाश्वत को अभिव्यक्त करते हैं। मैं उसे शाश्वत की ही भाषा में अभिव्यक्त करना चाहता हूं।
और जो आप पूछते हैं कि ‘क्या सात सौ वर्ष पहले मुझे हो गया था?’
करीब-करीब। अभिव्यक्ति तो आज ही दूंगा। क्योंकि सात सौ साल पहले भी जो जाना हो, वह भी जब आज कहा जाएगा, तो जानने में अंतर नहीं पड़ेगा, कहने में बहुत अंतर पड़ेगा। सात सौ साल पहले यही नहीं कहा जा सकता था, कोई कारण ही नहीं था कहने का। स्थिति करीब-करीब ऐसी है जैसे कभी वर्षा में इंद्रधनुष बन जाता है।
यह बहुत मजेदार घटना है। आप जहां खड़े होते हैं तो वहां से इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है। इंद्रधनुष तीन चीजों पर निर्भर होता है। वर्षा के कण, पानी के कण होने चाहिए हवा में, भाप होनी चाहिए हवा में। उन भापों को काटने वाली सूरज की किरणें एक विशेष कोण पर होनी चाहिए। और आप एक खास जगह में खड़े होने चाहिए। अगर आप उस जगह से हट जाएं तो इंद्रधनुष खो जाएगा। इंद्रधनुष के बनाने में सिर्फ सूरज की किरणें और पानी की बूंदें ही काम नहीं करतीं, आपका खास जगह खड़ा होना भी काम करता है।
एक एंगल में।
हां। सिर्फ सूरज की किरणें और पानी नहीं बनाते इंद्रधनुष को, आपकी आंख खास जगह से देख कर भी उतना ही हिस्सा बंटाती है उसके निर्माण में। यानी इंद्रधनुष के कांस्टिट्युएंट एलीमेंट्स जो हैं, उनमें आप भी एक हैं। तीन में से कोई भी हट जाए, इंद्रधनुष खो जाएगा।
तो जब भी सत्य अभिव्यक्त होता है तब भी तीन चीजें होती हैं। सत्य की अनुभूति होती है। वह न हो तब तो सत्य की अभिव्यक्ति नहीं होगी। सूरज न निकला हो तो कोई इंद्रधनुष बनने वाला नहीं है, आप कहीं भी खड़े हो जाएं और वर्षा के कण कुछ भी करें। तो सूर्य की तरह तो सत्य की अनुभूति अनिवार्य है। लेकिन सत्य की अनुभूति भी हो, सत्य को सुनने वाला भी मौजूद हो, लेकिन बोलने वाला ठीक कोण पर न हो तो नहीं बोला जा सकता।
जैसा कि मेहर बाबा को मैं मानता हूं कि वे कभी उस ठीक कोण पर नहीं खड़े हो पाए जहां से उनकी अनुभूति और सुनने वाले के बीच इंद्रधनुष बन जाता। वे उस कोण पर नहीं खड़े हो पाए। बहुत से फकीर मौन रह गए। मौन रहने का कारण है। वे कोण पर नहीं खड़े हो पाए ठीक, जहां से कि अभिव्यक्ति का कोण बन सके। वह भी अनिवार्य है। नहीं तो सत्य की अनुभूति एक तरफ रह जाएगी, सुनने वाला एक तरफ रह जाएगा, बोलने वाला मौजूद नहीं है, ठीक जगह पर नहीं है।
लेकिन बोलने वाला भी ठीक जगह पर हो और ठीक बोलने में समर्थ हो, लेकिन सुनने वाला--वह भी कांस्टिट्युएंट है, वह भी!
सात सौ साल पहले जिससे मैं बोलता वह भी मेरे बोलने में हिस्सा होता। इसलिए मैं यही नहीं बोल सकता था जो मैं आपसे बोल रहा हूं। और आप यहां न बैठे हों तो भी मैं यही नहीं बोल सकूंगा। क्योंकि आप भी, जो मैं बोल रहा हूं, उसमें उतने ही अनिवार्य हिस्से हैं। आपके बिना भी नहीं बोला जा सकता। ये तीनों चीजें जब एक निश्चित ट्यूनिंग पर आती हैं, एक निश्चित ध्वनि-तरंग पर मेल खाती हैं, तब अभिव्यक्ति हो पाती है। उसमें जरा सी भी चूक, कि सब खो जाता है। इंद्रधनुष एकदम बिखर जाता है। सूरज फिर कुछ नहीं कर सकता; रहा भला आए। पानी की बूंदें कुछ नहीं कर सकतीं। एक भी चीज कहीं से हिल गई कि इंद्रधनुष तत्काल खो जाता है।
तो सत्य की अभिव्यक्ति जो है वह रेनबो एक्झिस्टेंस है। वह बिलकुल ही इंद्रधनुष की भांति है। अत्यंत पल-पल खोने को तत्पर। जरा सा इधर-उधर चूके कि वह खो जाएगी। सुनने वाला जरा सा चूका कि इंद्रधनुष खो जाएगा। बोलने वाला जरा सा चूका कि बोलना व्यर्थ हो जाएगा।
इसलिए सात सौ साल की बात तो दूर है, सात दिन पहले भी आपसे मैं यही नहीं कह सकता था, और सात दिन बाद भी यही नहीं कह सकूंगा। क्योंकि सब बदल जाएगा। सूरज नहीं बदलेगा, वह जलता रहेगा। लेकिन सूरज के अलावा, सत्य की अनुभूति के अलावा, वे जो दो और अनिवार्य तत्व हैं--सुनने वाला और बोलने वाला--वे दोनों बदल जाएंगे।
इसलिए बोध तो सात सौ साल पहले का है, लेकिन अभिव्यक्ति तो आज की है--अभी की है। आज की भी नहीं कहनी चाहिए--अभी की! कल भी जरूरी नहीं है कि ऐसी ही हो। कठिन है कि ऐसी ही हो, इसमें बदलाहट होती ही चली जाएगी।
भगवान, आत्मा जब शरीर छोड़ देती है और दूसरा शरीर धारण नहीं करती है, उस बीच के समयातीत अंतराल में जो घटित होता है उसका, तथा जहां वह विचरण करती है उस वातावरण के वर्णन की कोई संभावना हो सकती है? और इसके साथ जिस प्रसंग में आपने आत्मा का अपनी मर्जी से जन्म लेने की स्वतंत्रता का जिक्र किया है, तो क्या उसे जब चाहे शरीर छोड़ने अथवा न छोड़ने की भी स्वतंत्रता है?
पहली तो बात, शरीर छोड़ने के बाद और नया शरीर ग्रहण करने के पहले जो अंतराल का क्षण है, अंतराल का काल है, उसके संबंध में दो-तीन बातें समझें तो ही प्रश्न समझ में आ सके।
एक तो कि उस क्षण जो भी अनुभव होते हैं वे स्वप्नवत हैं, ड्रीम लाइक हैं। इसलिए जब होते हैं तब तो बिलकुल वास्तविक होते हैं, लेकिन जब आप याद करते हैं तब सपने जैसे हो जाते हैं। स्वप्नवत इसलिए हैं वे अनुभव कि इंद्रियों का उपयोग नहीं होता। आपके यथार्थ का जो बोध है, यथार्थ की जो आपकी प्रतीति है, वह इंद्रियों के माध्यम से है, शरीर के माध्यम से है।
अगर मैं देखता हूं कि आप दिखाई पड़ते हैं, और छूता हूं और छूने में नहीं आते, तो मैं कहता हूं कि फैंटम हैं। है नहीं आदमी। यह टेबल मैं छूता हूं और छूने में नहीं आती और हाथ मेरा आर-पार चला जाता है, तो मैं कहता हूं झूठ है। मैं किसी भ्रम में पड़ा हुआ हूं। कोई हैलुसिनेशन है। आपके यथार्थ की कसौटी आपकी इंद्रियों के प्रमाण हैं। तो एक शरीर छोड़ने के बाद और दूसरा शरीर लेने के बीच इंद्रियां तो आपके पास नहीं होतीं, शरीर आपके पास नहीं होता। तो जो भी आपको प्रतीतियां होती हैं, वे बिलकुल स्वप्नवत हैं--जैसे आप स्वप्न देख रहे हैं।
जब आप स्वप्न देखते हैं तो स्वप्न बिलकुल ही यथार्थ मालूम होता है, स्वप्न में कभी संदेह नहीं आता। यह बहुत मजे की बात है। यथार्थ में कभी-कभी संदेह आता है। स्वप्न में कभी संदेह नहीं आता। स्वप्न बहुत श्रद्धावान है। यथार्थ में कभी-कभी ऐसा होता है कि जो दिखाई पड़ रहा है वह सच में है या नहीं! लेकिन स्वप्न में ऐसा कभी नहीं होता कि जो दिखाई पड़ रहा है वह सच में है या नहीं। क्यों? क्योंकि स्वप्न इतने से संदेह को सह न पाएगा, टूट जाएगा, बिखर जाएगा।
स्वप्न इतनी नाजुक घटना है कि इतना सा संदेह भी मौत के लिए काफी है। इतना ही खयाल आ गया कि कहीं यह स्वप्न तो नहीं है, कि स्वप्न टूट गया। या आप समझिए कि आप जाग गए। तो स्वप्न के होने के लिए अनिवार्य है कि संदेह तो कण भर भी न हो। कण भर संदेह भी बड़े से बड़े, प्रगाढ़ से प्रगाढ़ स्वप्न को छिन्न-भिन्न कर जाएगा, तिरोहित कर देगा।
तो स्वप्न में कभी पता नहीं चलता कि जो हो रहा है, वह हो रहा है? बिलकुल हो रहा है। इसका यह भी मतलब हुआ कि स्वप्न जब होता है तब यथार्थ से ज्यादा यथार्थ मालूम पड़ता है। यथार्थ कभी इतना यथार्थ नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि यथार्थ में संदेह की सुविधा है। स्वप्न तो अति यथार्थ होता है। इतना अति यथार्थ होता है कि स्वप्न के दो यथार्थ में विरोध भी हो, तो विरोध दिखाई नहीं पड़ता।
एक आदमी चला आ रहा है, अचानक कुत्ता हो जाता है, और आपके मन में यह भी खयाल नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है! यह अभी आदमी था, यह कुत्ता हो गया? नहीं, यह भी खयाल नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है! बस हो गया। और हो सकता है। इसमें कहीं संदेह नहीं है। जागने पर आप सोच सकते हैं कि यह क्या गड़बड़ हुई! लेकिन स्वप्न में कभी नहीं सोच सकते। स्वप्न में यह बिलकुल ही रीजनेबल है, इसमें कहीं कोई असंगति नहीं है। बिलकुल ठीक है। एक आदमी अभी मित्र था और एकदम बंदूक तान कर खड़ा हो गया। तो आपके मन में कहीं ऐसा सपने में नहीं आता कि अरे, मित्र होकर और बंदूक तानते हो! इसमें कोई असंगति नहीं है।
स्वप्न में असंगति होती ही नहीं। स्वप्न में सब असंगत भी संगत है। क्योंकि जरा सा शक, कि स्वप्न बिखर जाएगा। लेकिन जागने के बाद! जागने के बाद सब खो जाता है। कभी खयाल न किया होगा कि जाग कर ज्यादा से ज्यादा घंटे भर के बीच सपना याद किया जा सकता है, इससे ज्यादा नहीं। आमतौर से तो पांच-सात मिनट में खोने लगता है। लेकिन ज्यादा से ज्यादा, बहुत जो कल्पनाशील हैं वे भी एक घंटे से ज्यादा स्वप्न की स्मृति को नहीं रख सकते। नहीं तो आपके पास सपने की ही स्मृति इतनी हो जाएं कि आप जी न सकें। घंटे भर के बाद जागने के भीतर स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं। आपका मन स्वप्न के धुएं से बिलकुल मुक्त हो जाता है।
ठीक ऐसे ही दो शरीरों के बीच का जो अंतराल का क्षण है, जब होता है तब तो जो भी होता है वह बिलकुल ही यथार्थ है--इतना यथार्थ, जितना हमारी आंखों और इंद्रियों से कभी हम नहीं जानते। इसलिए देवताओं के सुख का कोई अंत नहीं! क्योंकि अप्सराएं जैसी यथार्थ उन्हें होती हैं, इंद्रियों से स्त्रियां वैसी यथार्थ कभी नहीं होती हैं। इसलिए प्रेतों के दुख का अंत नहीं! क्योंकि जैसे दुख उन पर टूटते हैं, ऐसे यथार्थ दुख आप पर कभी नहीं टूट सकते। तो नरक और स्वर्ग जो हैं वे बहुत प्रगाढ़ स्वप्न अवस्थाएं हैं--बहुत प्रगाढ़! तो जैसी आग नरक में जलती है वैसी आग आप यहां नहीं जला सकते। उतनी यथार्थ आग नहीं जला सकते। हालांकि बड़ी इनकंसिस्टेंट आग है।
कभी आपने देखा कि नरक की आग का जो-जो वर्णन है, उसमें यह बात है कि आग में जलाए जाते हैं, लेकिन जलते नहीं। मगर यह इनकंसिस्टेंसी खयाल में नहीं आती कि आग में जलाया जा रहा हूं, आग भयंकर है, तपन सही नहीं जाती, और जल बिलकुल नहीं रहा हूं! मगर यह इनकंसिस्टेंसी बाद में खयाल आ सकती है। उस वक्त खयाल नहीं आ सकती।
तो दो शरीरों के बीच का जो अंतराल है उसमें दो तरह की आत्माएं हैं। एक तो वे बहुत बुरी आत्माएं, जिनके लिए गर्भ मिलने में वक्त लगेगा। उनको मैं प्रेत कहता हूं। दूसरी वे भली आत्माएं, जिन्हें गर्भ मिलने में देर लगेगी, उनके योग्य गर्भ चाहिए। उन्हें मैं देव कहता हूं। इन दोनों में बुनियादी कोई भेद नहीं है--व्यक्तित्व भेद है, चरित्रगत भेद है, चित्तगत भेद है। योनि में कोई भेद नहीं है। अनुभव दोनों के भिन्न होंगे। बुरी आत्माएं बीच के इस अंतराल से इतने दुखद अनुभव लेकर लौटेंगी, उनकी ही स्मृति का फल नरक है। जो-जो उस स्मृति को दे सके हैं लौट कर, उन्होंने ही नरक की स्थिति साफ करवाई। नरक बिलकुल ड्रीमलैंड है, कहीं है नहीं। लेकिन जो उससे आया है वह मान नहीं सकता। क्योंकि आप जो दिखा रहे हैं, यह उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह कहता है, यह जो आग है बहुत ठंडी है उसके मुकाबले जो मैंने देखी। यहां जो घृणा और हिंसा है वह कुछ भी नहीं है जो मैं देख कर चला आ रहा हूं। वह जो स्वर्ग का अनुभव है, वह भी ऐसा ही अनुभव है। सुखद सपनों का और दुखद सपनों का भेद है। वह पूरा का पूरा ड्रीम पीरियड है।
अब यह तो बहुत तात्विक समझने की बात है कि वह बिलकुल ही स्वप्न है। हम समझ सकते हैं, क्योंकि हम भी रोज सपना देख रहे हैं। सपना आप तभी देखते हैं जब आपके शरीर की इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं। एक गहरे अर्थ में आपका संबंध टूट जाता है। तो आप सपने में चले जाते हैं। सपने भी रोज ही दो तरह के देखते हैं--स्वर्ग और नरक के; या तो मिश्रित होते हैं, कभी स्वर्ग, कभी नरक; या कुछ लोग नरक के ही देखते हैं, कुछ लोग स्वर्ग के ही देखते हैं। कभी सोचें कि आपका सपना रात आठ घंटा आपने देखा। अगर इसको आठ साल लंबा कर दिया जाए तो आपको कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि टाइम का बोध नहीं रह जाता, समय का कोई बोध नहीं रह जाता। इसलिए वह जो घड़ी बीतती है, उस घड़ी का कोई स्पष्ट बोध नहीं रह जाता। उस घड़ी का बोध पिछले जन्म के शरीर और इस जन्म के शरीर के बीच पड़े हुए परिवर्तनों से नापा जा सकता है। पर वह अनुमान है। खुद उसके भीतर समय का कोई बोध नहीं है।
और इसीलिए, जैसे क्रिश्चिएनिटी ने कहा कि नरक सदा के लिए है। वह भी ऐसे लोगों की स्मृति के आधार पर है जिन्होंने बड़ा लंबा सपना देखा। इतना लंबा सपना कि जब वे लौटे तो उन्हें पिछले अपने शरीर के और इस शरीर के बीच कोई संबंध स्मरण न रहा। इतना लंबा हो गया। लगा कि वह तो अनंत है, उसमें से निकलना बहुत मुश्किल है।
अच्छी आत्माएं सुखद सपने देखती हैं, बुरी आत्माएं दुखद सपने देखती हैं। सपनों से ही पीड़ित और दुखी होती हैं। तिब्बत में आदमी मरता है तो वे उसको मरते वक्त जो सूत्र देते हैं वह इसी के लिए है, ड्रीम सीक्वेंस पैदा करने के लिए है। आदमी मर रहा है तो वे उसको कहते हैं कि अब तू यह-यह देखना शुरू कर। सारा का सारा वातावरण तैयार करते हैं।
अब यह मजे की बात है, लेकिन वैज्ञानिक है--कि सपने बाहर से पैदा करवाए जा सकते हैं। रात आप सो रहे हैं। आपके पैर के पास अगर गीला पानी, भीगा हुआ कपड़ा आपके पैर के पास घुमाया जाए तो आपमें एक तरह का सपना पैदा होगा। हीटर से थोड़ी पैर में गर्मी दी जाए तो दूसरे तरह का सपना पैदा होगा। अगर ठंडक दी गई पैर में, तो शायद आप सपना देखें कि वर्षा हो रही है, शायद सपना देखें कि बर्फ पर चल रहे हैं। गर्म पैर किए गए, तो शायद सपना देखें कि रेगिस्तान में चले जा रहे हैं। तपती हुई रेत है, सूरज जल रहा है, पसीने से लथपथ हैं। आपके बाहर से सपने पैदा किए जा सकते हैं। और बहुत से सपने आपके बाहर से ही पैदा होते हैं। रात छाती पर हाथ रख गया जोर से तो सपना आता है कि कोई छाती पर चढ़ा हुआ बैठा है--आपका ही हाथ रखा हुआ है।
ठीक एक शरीर छोड़ते वक्त, वह जो सपने का लंबा काल आ रहा है--जिसमें आत्मा नये शरीर में शायद जाए, न जाए--जो वक्त बीतेगा बीच में, उसका सीक्वेंस पैदा करवाने की सिर्फ तिब्बत में साधना विकसित की गई। उसको वे ‘बारडो’ कहते हैं। वे पूरा इंतजाम करेंगे उसका सपना पैदा करने की। उसमें जो-जो शुभ वृत्तियां रही हैं उसकी जिंदगी में, उन सबको उभारेंगे। और जिंदगी भर भी उनकी व्यवस्था करने की कोशिश करेंगे कि मरते वक्त वे उभारी जा सकें।
जैसा मैंने कहा कि सुबह उठ कर घंटे भर तक आपको सपना याद रहता है। ऐसा ही नये जन्म पर कोई छह महीने तक, छह महीने की उम्र तक करीब-करीब सब याद रहता है। फिर धीरे-धीरे वह खोता चला जाता है। जो बहुत कल्पनाशील हैं या बहुत संवेदनशील हैं, वे कुछ थोड़ा ज्यादा रख लेते हैं। जिन्होंने अगर कोई तरह की जागरूकता के प्रयोग किए हैं पिछले जन्म में, तो वे बहुत देर तक रख ले सकते हैं।
जैसे सुबह एक घंटे तक सपना याददाश्त में घूमता रहता है, धुएं की तरह आपके आस-पास मंडराता रहता है, ऐसे ही रात सोने के घंटे भर पहले भी आपके ऊपर स्वप्न की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। ऐसे ही मरने के भी छह महीने पहले आपके ऊपर मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए छह महीने के भीतर मौत प्रिडिक्टेबल है।
एक्सीडेंट भी?
एक्सीडेंट भी बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। उसकी बात करेंगे। कोई एक्सीडेंट बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। हमें लगता है, क्योंकि हमारी व्यवस्था के कुछ भीतर नहीं घटित होता। लेकिन कोई दुर्घटना सिर्फ दुर्घटना नहीं है। दुर्घटना भी सकारण है।
छह महीने पहले मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है, तैयारी शुरू हो जाती है। जैसे रात नींद के एक घंटे पहले तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए सोने के पहले जो घंटे भर का वक्त है, वह बहुत सजेस्टिबल है। उससे ज्यादा सजेस्टिबल कोई वक्त नहीं है। क्योंकि उस वक्त आपको शक होता है कि आप जागे हुए हैं, लेकिन आप पर नींद की छाया पड़नी शुरू हो गई होती है। इसलिए सारे दुनिया के धर्मों ने सोने के वक्त घंटे भर और सुबह जागने के बाद घंटे भर प्रार्थना का समय तय किया है--संध्याकाल!
संध्याकाल का मतलब सूरज जब डूबता है, उगता है, तब नहीं। संध्याकाल का मतलब है सोने से जब आप नींद में जाते हैं, बीच का समय। सुबह जब आप नींद से टूट कर और जागने में आते हैं, तब बीच की संध्या। वह जो मिडिल पीरियड है, उसका नाम है संध्या। सूरज से कोई लेना-देना नहीं है। वह तो बंध गया सूरज के साथ इसलिए कि एक जमाना ऐसा था कि सूरज का डूबना ही हमारा नींद का वक्त था और सूरज का उगना हमारे जागने का वक्त था। तो एसोसिएशन हो गया और खयाल में आ गया कि सूरज जब डूब रहा है तो संध्या और सुबह जब सूरज उग रहा है तब संध्या।
लेकिन अब संध्या का वह खयाल छोड़ देना चाहिए। क्योंकि अब कोई सूरज के डूबने के साथ सोता नहीं और कोई उगने के साथ उठता नहीं। जब आप सोते हैं उसके घंटे भर पहले संध्या और जब आप उठते हैं उसके घंटे भर बाद संध्या। संध्या का मतलब धुंधला क्षण--दो स्थितियों के बीच।
कबीर ने अपनी भाषा को संध्या-भाषा कहा है। कबीर कहते हैं कि न तो हम सोए हुए बोल रहे हैं, न हम जागे हुए बोल रहे हैं। हम बीच में हैं। हम ऐसी मुसीबत में हैं कि हम तुम्हारे बीच से भी नहीं बोल रहे, हम तुम्हारे बाहर से भी नहीं बोल रहे, हम बीच में खड़े हैं, बार्डर लैंड पर। वहां, जहां से हमें वह दिखाई पड़ता है जो आंखों से दिखाई नहीं पड़ता और जहां से हमें वह भी दिखाई पड़ रहा है जो आंखों से दिखाई पड़ता है। देहरी पर खड़े हैं। तो हम जो बोल रहे हैं उसमें वह भी है जो नहीं बोला जा सकता और वह भी है जो बोला जा सकता है। इसलिए हमारी भाषा संध्या-भाषा है। इसके अर्थ तुम जरा सम्हाल कर निकालना।
यह जो सुबह का एक घंटे का वक्त है और सांझ सोने के पहले जो घंटे भर का वक्त है, यह बहुत मूल्यवान है। ठीक ऐसे ही छह महीने जन्म के बाद का वक्त है और छह महीने मरने के पहले का वक्त है। लेकिन जो लोग रात के घंटे भर का और सुबह के घंटे भर के समय का उपयोग नहीं जानते, वे छह महीने के शुरू का और छह महीने के बाद का भी उपयोग नहीं जानेंगे। जब संस्कृतियां बहुत समझदार थीं इस मामले में तो पहले छह महीने बड़े महत्वपूर्ण थे। बच्चे को पहले छह महीने में ही सब-कुछ दिया जा सकता है जो भी महत्वपूर्ण है। फिर कभी नहीं दिया जा सकता। फिर बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि उस वक्त वह संध्याकाल में है, सजेस्टिबल है। लेकिन हम चूंकि बोल कर कुछ नहीं समझा सकते उसको, और चूंकि बोलने के सिवाय हमें और कुछ रास्ता नहीं है कहने का, इसलिए अड़चन है।
और ऐसे ही मरने के पहले का छह महीने का वक्त बहुत कीमती है। लेकिन बच्चे को हम समझा नहीं पाते, छह महीने तो हमें पता होते हैं कि ये रहे। और बूढ़े के हमें छह महीने पता नहीं होते कि कब छह महीने हैं। इसलिए दोनों मौके चूक जाते हैं। लेकिन जो आदमी सुबह के घंटे भर का उपयोग करे और रात के घंटे भर का ठीक उपयोग करे, वह अपने इस बार मरने के छह महीने पहले उसे पक्का पता चल जाएगा कि मरना है। क्योंकि जो आदमी रात सोने के पहले घंटे भर प्रार्थना में व्यतीत कर दे उसे स्पष्ट बोध होने लगेगा कि संध्या का काल क्या है। वह इतना बारीक और सूक्ष्म अनुभव है उसकी भिन्नता का, न तो वह जागने जैसा है, न सोने जैसा। वह इतना बारीक और अलग है कि अगर उसकी प्रतीति होनी शुरू हो गई तो मरने के छह महीने पहले आपको पता लगेगा कि अब वह प्रतीति रोज दिन भर रहने लगी है। वही प्रतीति, जो घंटे भर रात सोते वक्त आपके भीतर आती है, वह मरने के पहले छह महीने स्थिर हो जाएगी।
इसलिए मरने के पहले के छह महीने तो पूरी साधना में डुबा देने हैं। वही छह महीने बारडो के लिए उपयोग किए जाते हैं जिसमें वे ड्रीम ट्रेनिंग देते हैं कि अब अगली यात्रा में तुम क्या करोगे। वह कोई ठीक मरते वक्त नहीं दी जा सकती एकदम। उसके लिए तैयारी छह महीने की चाहिए। और जो आदमी इस छह महीने में तैयार हुआ हो, उसी आदमी को उसके अगले जन्म के पहले छह महीने में ट्रेनिंग दी जा सकती है, अन्यथा नहीं दी जा सकती है। क्योंकि इस छह महीने में वे सारे सूत्र उसे सिखा दिए जाते हैं, जिन सूत्रों के आधार पर उसके अगले छह महीने में उसको ट्रेनिंग दी जा सकेगी।
अब इस सबकी पूरी की पूरी अपनी वैज्ञानिकता है और इस सबके अपने सूत्र और राज हैं। और सारी चीजें तय की जा सकती हैं। वे जो अनुभव हैं उस बीच के, जो आदमी सारी प्रक्रिया से गुजरा हो, वह छह महीने के बाद भी याद रख सकता है। लेकिन याददाश्त सपने की रह जाती है, यथार्थ की नहीं होती। स्वर्ग-नरक दोनों ही सपने की याददाश्त हो जाते हैं। विवरण दिए जा सकते हैं। उन्हीं विवरणों के आधार पर सारी दुनिया में स्वर्गों-नरकों का सब लेखा-जोखा निर्मित हुआ है। लेकिन विवरण अलग-अलग हैं, क्योंकि सबके स्वर्ग-नरक अलग-अलग होंगे। क्योंकि स्वर्ग-नरक कोई स्थान नहीं हैं, मानसिक दशाएं हैं। इसलिए जब ईसाई स्वर्ग का वर्णन करते हैं तो वह और तरह का है। वह और तरह का इसलिए है कि जिन्होंने वर्णन किया है उन पर निर्भर है। भारतीय जब वर्णन करते हैं तो और तरह का होगा; जैन और तरह का करेंगे; बौद्ध और तरह का करेंगे। असल में हर आदमी और तरह की खबर लाएगा।
करीब-करीब स्थिति ऐसी है जैसे हम सारे लोग इस कमरे में आज सो जाएं और कल सुबह उठ कर अपने-अपने सपनों की चर्चा करें। हम एक ही जगह सोए थे, हम सब यहीं थे, फिर भी हमारे सपने अलग-अलग हैं। वे हम पर निर्भर करेंगे। इसलिए स्वर्ग और नरक बिलकुल वैयक्तिक घटनाएं हैं। लेकिन मोटे हिसाब बांधे जा सकते हैं--कि स्वर्ग में सुख होगा, कि नरक में दुख होगा, कि दुख के क्या रूप होंगे, कि सुख के क्या रूप होंगे। ये मोटे हिसाब बांटे जा सकते हैं। ये सारे ब्योरे, जो भी दिए गए हैं अब तक, वे सभी सही हैं चित्त-दशाओं की भांति।
और पूछा है कि जन्म को चुन सकता है व्यक्ति तो क्या अपनी मृत्यु को भी चुन सकता है?
इसमें भी दो-तीन बातें खयाल में लेनी पड़ेंगी। एक, जन्म को चुन सकने का मतलब यह है कि चाहे तो जन्म ले। यह तो पहली स्वतंत्रता है ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति को--चाहे तो जन्म ले। लेकिन जैसे ही हमने कोई चीज चाही कि चाह के साथ परतंत्रताएं आनी शुरू हो जाती हैं।
मैं मकान के बाहर खड़ा था। मुझे स्वतंत्रता थी कि चाहूं तो मकान के भीतर जाऊं। मकान के भीतर मैं आया। लेकिन मकान के भीतर आते ही से मकान की सीमाएं और मकान की परतंत्रताएं तत्काल शुरू हो जाती हैं। तो जन्म लेने की स्वतंत्रता जितनी बड़ी है, उतनी मरने की स्वतंत्रता उतनी बड़ी नहीं है। उतनी बड़ी नहीं है। रहेगी। साधारण आदमी को तो मरने की कोई स्वतंत्रता नहीं है, क्योंकि उसने जन्म को ही कभी नहीं चुना। लेकिन फिर भी जन्म की स्वतंत्रता बहुत बड़ी है, टोटल है एक अर्थ में, कि वह चाहे तो इनकार भी कर दे, न चुने। लेकिन चुनने के साथ ही बहुत सी परतंत्रताएं शुरू हो जाती हैं। क्योंकि अब वह सीमाएं चुनता है। वह विराट जगह को छोड़ कर संकरी जगह में प्रवेश करता है। अब संकरी जगह की अपनी सीमाएं होंगी।
अब वह एक गर्भ चुनता है। साधारणतः तो हम गर्भ नहीं चुनते इसलिए कोई बात नहीं है। लेकिन वैसा आदमी गर्भ चुनता है। उसके सामने लाखों गर्भ होते हैं। उनमें से वह एक गर्भ चुनता है। हर गर्भ के चुनाव के साथ वह परतंत्रता की दुनिया में प्रवेश कर रहा है। क्योंकि गर्भ की अपनी सीमाएं हैं। उसने एक मां चुनी है, एक पिता चुना है। उन मां और पिता के वीर्याणुओं की जितनी आयु हो सकती है वह उसने चुन ली। यह चुनाव हो गया। अब इस शरीर का उसे उपयोग करना पड़ेगा।
आप बाजार में एक मशीन खरीदने गए हैं, एक दस साल की गारंटी की मशीन आपने चुन ली। अब सीमा आ गई एक। पर यह वह जान कर ही चुन रहा है। इसलिए परतंत्रता उसे नहीं मालूम पड़ेगी। परतंत्रता हो जाएगी, लेकिन वह जान कर ही चुन रहा है। आप यह नहीं कहते कि मैंने यह मशीन खरीदी, तो दस साल चलेगी तो अब मैं गुलाम हो गया। आपने ही चुनी है, दस साल चलेगी यह जान कर चुनी है, बात खत्म हो गई है। इसमें कहीं कोई पीड़ा नहीं है, इसमें कहीं कोई दंश नहीं है। यद्यपि वह जानता है कि यह शरीर कब समाप्त हो जाएगा। और इसलिए इस शरीर के समाप्त होने का जो बोध है, वह उसे होगा। वह जानता है, कब समाप्त हो जाएगा। इसलिए इस तरह के आदमी में एक तरह की व्यग्रता होगी, जो साधारण आदमी में नहीं होती है।
अगर हम जीसस की बातें पढ़ें तो ऐसा लगता है वे बहुत व्यग्र हैं। अभी कुछ होने वाला है, अभी कुछ हो जाने वाला है। उनकी तकलीफ वे लोग नहीं समझ सकते, जो सुन रहे हैं। वे नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके लिए मृत्यु का कोई सवाल नहीं है और जीसस के लिए वह सामने खड़ी है। जीसस को पता है कि यह हो जाने वाला है। इसलिए अगर जीसस आपसे कह रहे हैं यह काम कर लो, आप कहते हैं कल कर लेंगे। अब जीसस की कठिनाई है कि वह जानता है कि कल वह कहने को नहीं होगा।
तो चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हों, चाहे जीसस हों, इनकी व्यग्रता बहुत ज्यादा है। बहुत तीव्रता से भाग रहे हैं। क्योंकि वे सारे मुर्दों के बीच में ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें पता है। बाकी सब तो बिलकुल निश्ंिचत हैं; कोई जल्दी नहीं है। और कितनी ही उम्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, जल्दी होगी ही ऐसे आदमी को। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह सौ साल जीएगा कि दो सौ साल जीएगा। सारा समय छोटा है। वह तो हमें समय छोटा नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि वह कब खत्म होगा, यह हमें कुछ पता नहीं है। खत्म भी होगा, यह भी हम भुलाए रखते हैं।
तो जन्म की स्वतंत्रता तो बहुत ज्यादा है। लेकिन जन्म कारागृह में प्रवेश है, तो कारागृह की अपनी परतंत्रताएं हैं, वे स्वीकार कर लेनी पड़ेंगी।
और ऐसा व्यक्ति सहजता से स्वीकार करता है, क्योंकि वह चुन रहा है। अगर वह कारागृह में आया है तो वह लाया नहीं गया है, वह आया है। इसलिए वह हाथ बढ़ा कर जंजीरें डलवा लेता है। इन जंजीरों में कोई दंश नहीं है, इनमें कोई पीड़ा नहीं है। वह अंधेरी दीवालों के पास सो जाता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि किसी ने उसे कहा नहीं था कि वह भीतर जाए। वह खुले आकाश के नीचे रह सकता था। अपनी ही मर्जी से आया है, यह उसका चुनाव है।
जब परतंत्रता भी चुनी जाती है तो वह स्वतंत्रता है। और जब स्वतंत्रता भी बिना चुनी मिलती है तो परतंत्रता है। स्वतंत्रता-परतंत्रता इतनी सीधी बंटी हुई चीजें नहीं हैं। अगर हमने परतंत्रता भी स्वयं चुनी है तो वह स्वतंत्रता है। और अगर हमें स्वतंत्रता भी जबरदस्ती दे दी गई है तो वह परतंत्रता ही होती है, उसमें कोई स्वतंत्रता नहीं है।
फिर भी, ऐसे व्यक्ति के लिए बहुत सी बातें साफ होती हैं, इसलिए वह चीजों को तय कर सकता है। जैसे उसे पता है कि वह सत्तर साल में चला जाएगा तो वह चीजों को तय कर पाता है। जो उसे करना है, वह साफ कर लेता है। चीजों को उलझाता नहीं। जो सत्तर साल में सुलझ जाए वैसा ही काम कर लेता है। जो कल पूरा हो सकेगा, वह निपटा देता है। वह इतने जाल नहीं फैलाता जो कि कल के बाहर चले जाएं। इसलिए वह कभी चिंता में नहीं होता। वह जैसे जीता है वैसे ही मरने की भी सारी तैयारी करता रहता है। मौत भी उसके लिए एक प्रिपरेशन है, एक तैयारी है।
एक अर्थ में वह बहुत जल्दी में होता है, जहां तक दूसरों का संबंध है। जहां तक खुद का संबंध है, उसकी कोई जल्दी नहीं होती। क्योंकि कुछ करने को उसे बचा नहीं होता है। फिर भी इस मृत्यु को, वह कैसे घटित हो, इसका चुनाव कर सकता है। कब घटित हो, इसकी व्यवस्था दे सकता है--सीमाओं के भीतर। सत्तर साल उसका शरीर चलना है तो सीमाओं के भीतर वह सत्तर साल में ठीक मोमेंट दे सकता है मरने का, कि वह कब मरे, कैसे मरे, किस व्यवस्था और किस ढंग में मरे!
एक झेन फकीर औरत हुई। उसने कोई छह महीने पहले अपने मरने की खबर दी। उसने अपनी चिता तैयार करवाई। फिर वह चिता पर सवार हो गई। फिर उसने सबको नमस्कार कर लिया। फिर सारे मित्रों ने आग लगा दी। तब एक साधु, जो देख रहा था खड़ा हुआ, उसने जोर से पूछा--जब आग की लपटें लग गईं और वह जलने के करीब होने लगी--उसने पूछा उससे कि वहां भीतर गर्मी तो बहुत मालूम होती होगी? तो वह फकीर औरत हंसी और उसने कहा कि तुम जैसे मूढ़, अभी भी इस तरह के सवाल उठाए जा रहे हो? मतलब और तुम्हें कोई काम लायक बात पूछने की नहीं खयाल में आई। तुम जैसे मूढ़, अभी भी ऐसे सवाल उठाए जा रहे हो? अब यह तो तुम्हें दिखाई ही पड़ रहा है! और आग में बैठूंगी तो गर्मी लगेगी या नहीं लगेगी, यह मुझे भी पता है।
पर यह चुना हुआ है। वह हंसते हुए जल जाती है। वह अपनी मृत्यु के क्षण को चुनती है। और उसके जो हजारों शिष्य इकट्ठे हो गए हैं उनको वह दिखा देना चाहती है कि हंसते हुए मरा जा सकता है। जिनके लिए हंसते हुए जीना मुश्किल है उनके लिए यह संदेश बड़े काम का है। जिनके लिए हंसते हुए जीना भी मुश्किल है उनके लिए यह संदेश बड़े काम का है कि हंसते हुए मरा जा सकता है।
तो मृत्यु को नियोजित किया जा सकता है। वह व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि वह कैसा चुनाव करता है। लेकिन सीमाओं के भीतर सारी बात होगी। असीम नहीं है मामला। सीमाओं के भीतर वह कुछ तय करेगा। इस कमरे के भीतर ही रहना पड़ेगा मुझे, लेकिन मैं किस कोने में बैठूं, यह मैं तय कर सकता हूं। बाएं सोऊं कि दाएं सोऊं, यह मैं तय कर सकता हूं। ऐसी स्वतंत्रताएं होंगी।
और ऐसे व्यक्ति अपनी मृत्यु का निश्चित ही उपयोग करते हैं। कई बार प्रकट दिखाई पड़ता है उपयोग, कई बार प्रकट दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन ऐसे व्यक्ति अपने जीवन की प्रत्येक चीज का उपयोग करते हैं, वे मृत्यु का भी उपयोग करते हैं। असल में वे आते ही अब किसी उपयोग के लिए हैं। उनका अपना कोई प्रयोजन नहीं रह गया होता है। अब उनका आना कुछ किसी के काम पड़ जाने के लिए है। तो वे जीवन की प्रत्येक चीज का उपयोग कर लेते हैं।
पर बड़ा ही कठिन है, बड़ा कठिन है कि हम उनके प्रयोग को समझ पाएं। जरूरी नहीं है! अक्सर हम नहीं समझ पाते। क्योंकि जो भी वे कुछ कर रहे हैं, हमें तो कुछ पता नहीं होता। और हमें पता करवा कर किया भी नहीं जा सकता।
अब जैसे बुद्ध जैसा आदमी नहीं कहेगा कि मैं कल मर जाने वाला हूं। क्योंकि कल मरना है यह आज कह देने का मतलब होगा कि कल तक जो भी जीवन का उपयोग हो सकता था वह मुश्किल हो जाएगा। ये लोग आज से ही रोना-धोना, चिल्लाना शुरू कर देंगे। ये चौबीस घंटे का जो उपयोग हो सकता था वह भी नहीं हो सकेगा। तो कई बार चुपचाप रह कर वैसा व्यक्ति ठीक समझेगा तो करेगा, कई दफे घोषणा भी करेगा--जैसी तत्काल परिस्थिति। पर इतनी सीमा तक वह तय करता है।
और ज्ञान के बाद का जन्म, जन्म से लेकर मृत्यु तक पूरा ही पूरा एक शिक्षण है, खुद के लिए नहीं। एक अनुशासन है, खुद के लिए नहीं। और हर बार स्ट्रेटेजी बदलनी पड़ती है। क्योंकि सब स्ट्रेटेजी पुरानी पड़ जाती हैं और बोथली हो जाती हैं, और लोगों को समझने में मुश्किल पड़ जाती है।
अब गुरजिएफ था अभी। महावीर कभी पैसा नहीं छुएंगे; गुरजिएफ से आप एक सवाल पूछेंगे तो वह कहेगा, सौ रुपये पहले रख दें। सौ रुपये बिना रखे वह सवाल भी स्वीकार नहीं करेगा। सौ रुपये रखवा लेगा, तब एक सवाल का जवाब देगा। हो सकता है एक वाक्य बोले, हो सकता है दो वाक्य बोले। फिर दूसरी बात पूछनी है तो फिर सौ रुपये रख दें।
अनेक बार लोगों ने उससे कहा कि आप यह क्या करते हैं? और जो उसे जानते थे वे हैरान होते थे, क्योंकि ये रुपये यहां आए और यहां वे बंट जाने वाले हैं। कुछ भी होने वाला है उनका। कोई गुरजिएफ उनको रखने वाला है एक क्षण को, ऐसा भी नहीं है; वे इधर-उधर बंट जाने वाले हैं। फिर किसलिए ये सौ रुपये मांग लिए हैं?
गुरजिएफ ने कभी कहा कि जिन लोगों के मन में सिर्फ रुपये का मूल्य है उन्हें परमात्मा के संबंध में मुफ्त कहना गलत है--एकदम गलत है। क्योंकि उनकी जिंदगी में मुफ्त चीज का कोई मूल्य नहीं होता। और गुरजिएफ कहता कि हर चीज के लिए चुकाना पड़ेगा कुछ। जो चुकाने की तैयारी नहीं रखता, कुछ भी चुकाने की तैयारी नहीं रखता, उसको पाने का हक भी नहीं है।
लेकिन लोग समझते कि गुरजिएफ को पैसे पर बड़ी पकड़ है। जो दूर से ही देखते हैं उनको तो लगता ही कि पैसे की बड़ी पकड़ है, बिना पैसे के सवाल का जवाब भी नहीं देता है।
पर मैं मानता हूं कि जिस जगह वह था, पश्चिम में, जहां पैसा एकमात्र मूल्य हो गया, वहां उसी तरह के शिक्षक की जरूरत थी। एक-एक शब्द का मूल्य ले लेना। क्योंकि वह जानता है, जिस शब्द के लिए तुमने सौ रुपये दिए हैं, तुमने सौ रुपये देने की तैयारी दिखाई है जिस शब्द के लिए, तुम उसको ही ले जाओगे, बाकी तुम कुछ ले जाने वाले नहीं हो।
गुरजिएफ बहुत से ऐसे काम करेगा जो बिलकुल ही कठिन मालूम पड़ेंगे। उसके शिष्य बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे, वे कहेंगे, यह आप न करते तो अच्छा था। और वह जान कर करेगा। वह बैठा है, आप उससे मिलने गए हैं, वह ऐसी शक्ल बना लेगा कि ऐसा लगे कि जैसे ठीक गुंडा-बदमाश है। साधु तो बिलकुल नहीं है। बहुत दिन तक सूफी प्रयोग करने की वजह से आंखों के कोण को वह तत्काल कैसा भी बदल सकता था। और आंखों के कोण के बदलने से पूरी शक्ल बदल जाती है। एक गुंडे में और एक साधु में आंख के अलावा और कोई फर्क नहीं होता। बाकी तो सब एक सा ही होता है। पर आंख का कोण जरा ही बदला कि सब साधु गुंडा हो जाता है, गुंडा साधु हो जाता है। आंखें उसकी बिलकुल ढीली थीं दोनों। आंखों को वह कैसा ही, उनकी पुतलियां कैसे ही कोण ले सकती थीं। यह एक सेकेंड में, इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता था। यह बगल वाले को पता ही नहीं चलेगा कि उसने दूसरे को गुंडा दिखा दिया है, यह बगल वाले को पता ही नहीं चलेगा कि उसने एक आदमी को घबड़ा दिया है। और बगल वाला आदमी घबड़ा गया कि यह आदमी कैसा है! मैं कहां आ गया!
उसके मित्रों ने जब धीरे-धीरे पकड़ा कि वह इस तरह कई लोगों को परेशान करता है तो उन्होंने कहा कि आप यह क्या करते हैं? हमें पता ही नहीं चलता कि वह बेचारा आया था, आपने उसे ऐसा...।
तो गुरजिएफ कहता कि वह आदमी, अगर मैं साधु भी होता तो मुझमें गुंडा खोज लेता। थोड़ी देर लगती। मैंने उसका वक्त जाया नहीं करवाया। मैंने कहा, तू देख ले, तू जा। क्योंकि तू नाहक दो-चार दिन चक्कर लगाएगा, खोजेगा तू यही। मैं तुझे खुद ही सौंपे देता हूं। अगर वह इसके बाद भी रुक जाता तो मैं उसके साथ मेहनत करता।
इसलिए बहुत मुश्किल मामला है। जो गुरजिएफ को गुंडा समझ कर चला गया है, अब कभी दुबारा नहीं आएगा। लेकिन गुरजिएफ का जानना गहरा है। वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, यह आदमी यही खोज लेता। इसको खुद मेहनत करना पड़ती। वह काम मैंने हल कर दिया। इसके चार दिन खराब नहीं हुए और मेरे चार दिन खराब नहीं हुए। अगर यह सच में ही किसी खोज में आया था, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, यह फिर भी रुकता। यह मेरे बावजूद रुके तो ही रुका, मेरी वजह से रुके तो मैं इसको रुकना नहीं कहूंगा। यह खोजने आया हो तो रुके, धैर्य रखे, थोड़ी जल्दी न करे। इतने जल्दी नतीजे लेगा कि मेरी आंख जरा ऐसी हो गई तो इसने समझा कि आदमी गड़बड़ है, इतने जल्दी नतीजे लेगा तो मुझमें कुछ न कुछ इसे मिल जाएगा जिसमें वह नतीजे लेकर चला जाएगा।
अब यह एक-एक शिक्षक के साथ होगा कि वह क्या करता है, कैसे करता है। बहुत बार तो जिंदगी भर पता नहीं चलता कि उसके करने की व्यवस्था क्या है। पर वह जिंदगी के प्रत्येक क्षण का उपयोग करता है--जन्म से लेकर मृत्यु तक। एक भी क्षण व्यर्थ नहीं है। उसकी कोई गहरी सार्थकता है, किसी बड़े प्रयोजन और किसी बड़ी नियति में उपयोग है।
परंपरागत, परंपरा से चली आने वाली धारा तो परंपरागत है ही, बुद्ध का मार्ग भी अब नया नहीं है। जो परंपरा से चलते रहे वह तो मार्ग पुराना हो ही गया; लेकिन जो परंपरा को तोड़ कर नई परंपरा निर्मित करते रहे वह मार्ग भी अब नया नहीं है। उस भांति भी बहुत लोग चल चुके। जैसे बुद्ध ने तोड़ी नई पद्धति। महावीर पुरानी परंपरा को मान कर चल रहे थे। लेकिन महावीर की श्र्ृंखला के भी पहले आदमी ने पद्धति तोड़ी थी। वह मार्ग भी सदा से पुराना नहीं था। महावीर की श्र्ृंखला का पहला तीर्थंकर भी वही काम किया था जो बुद्ध ने किया है।
परंपरा मान कर चलना भी पुराना है; नई परंपराएं तोड़ना भी नई घटना नहीं है। नहीं तो परंपराएं कैसे निर्मित होंगी? तो आज तो दोनों ही बात पुरानी हैं। और इसलिए और इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि आज की स्थिति में दोनों ही बातों से भिन्न किसी चीज की जरूरत है। जैसे दोनों तरह के लोग आज मौजूद हैं। अगर जॉर्ज गुरजिएफ को हम देखें तो किसी पुरानी परंपरा के सूत्र को स्थापित करेगा; महावीर की तरह उसका काम है। अगर जे. कृष्णमूर्ति को देखें तो कोई नई परंपरा का सूत्रपात करेंगे; बुद्ध के जैसा उनका काम है। पर दोनों बातें पुरानी हैं।
बहुत परंपराएं तोड़ी जा चुकी हैं और बहुत नई परंपराएं बनाई जा चुकी हैं। जो आज नई परंपरा होती है वही कल पुरानी हो जाती है। जो आज पुरानी दिखाई पड़ती है वह कल नई थी। आज की स्थिति न तो ठीक वैसी है जहां महावीर सार्थक हो सके, और न ठीक वैसी है जहां बुद्ध सार्थक हो सके। क्योंकि लोग पुराने से तो बुरी तरह ऊब गए हैं, एक और नई घटना घटी है: लोग नये से भी बुरी तरह ऊब रहे हैं। क्योंकि सदा से ऐसा खयाल था कि नया जो है वह पुराने के विपरीत है। अब मनुष्य उस जगह है जहां उसे साफ दिखाई पड़ता है कि नया केवल पुराने का प्रारंभ है। नये का मतलब है जो पुराना होगा। हमने नया कहा नहीं कि पुराना होना शुरू हो गया। अब नये का भी आकर्षण नहीं है। पुराने के प्रति विकर्षण था!
एक जमाना था, पुराने के प्रति आकर्षण था, बड़ा आकर्षण था। कोई चीज जितनी पुरानी है उतनी कीमती थी। क्योंकि उतनी परखी हुई थी, उतनी जानी-पहचानी थी। उतनी प्रायोगिक थी, उतने अनुभव से गुजरी थी। परीक्षित थी भलीभांति। भय न था, निरापद थी। चलने में किसी तरह के संदेह की जरूरत न थी। श्रद्धावान हुआ जा सकता था। इतने लोग चल चुके थे, इतने पैर पड़ चुके थे, इतने लोग पहुंच चुके थे कि नये चलने वाले को आंख बंद करके भी चलना हो तो चल सकता था। अंधे के लिए भी मार्ग था। जरूरत न थी कि वह बहुत संदेह करे, बहुत विचार करे, बहुत खोजे, बहुत निर्णय करे। और फिर अज्ञात में बहुत निर्णय हो नहीं सकता। और कितना ही संदेह कोई करे, अज्ञात की छलांग अंततः श्रद्धा से लगती है। संदेह ज्यादा से ज्यादा इतना ही कर सकता है कि किसी श्रद्धा तक पहुंचा दे। बाकी अंततः छलांग श्रद्धा से ही लगती है।
पर वैसे पुराने का आकर्षण भी खो गया। उस पुराने के आकर्षण के खो जाने के कारण थे। पहला कारण तो यही बना कि पुराने की परंपरा, जब तक एक व्यक्ति के लिए एक ही परंपरा का परिचय था तब तक तो असुविधा न थी, लेकिन जब बहुत पुरानी परंपराएं एक साथ एक व्यक्ति को परिचित हुईं, तब असुविधा पैदा हुई। जो आदमी हिंदू घर में पैदा हुआ था, हिंदू वातावरण में जीया था, हिंदू मंदिर के पास बड़ा हुआ था, हिंदू मंदिर की घंटे की ध्वनि दूध के साथ खून में चली गई थी, हिंदू मंदिर का देवता वैसे ही हिस्सा था हड्डी-खून-मांस का, जैसे हवा, पहाड़, पानी सब था। और कोई प्रतियोगी न था। कोई मस्जिद न थी, कोई चर्च न था। कभी दूसरा कोई स्वर दूसरी किसी परंपरा का मन के भीतर न पड़ा था। तो पुराना इतना वास्तविक था कि उसमें प्रश्न नहीं लगाया जा सकता था। वह हमसे भी इतने पहले था, हम उसमें ही बड़े होते और खड़े होते थे। उससे अन्यथा हम सोच ही नहीं सकते थे।
फिर मंदिर के पास मस्जिद आ गई, चर्च आ गया, गुरुद्वारे आए। सारी परंपराएं एक साथ एक-एक व्यक्ति पर टूट पड़ीं। जैसे-जैसे गति हुई, स्थान छोटा हुआ, वैसे-वैसे सारी परंपराएं एक साथ टूट पड़ीं। कनफ्यूजन स्वाभाविक था। तब कोई भी चीज असंदिग्ध रूप से नहीं ली जा सकती, क्योंकि संदेह कराने के लिए दूसरा सूत्र भी सामने खड़ा है। अगर मंदिर घंटे देकर पुकार कर रहा है कि आओ, भरोसा करो! तो पास ही मस्जिद अजान दे रही है कि गलत है, वहां भूल कर मत जाना! ये दोनों बातें एक साथ प्रवेश कर गईं।
यह जो सारी दुनिया में इतना संदेह है, उस संदेह का मौलिक कारण मनुष्य की बुद्धिमानी का बढ़ जाना नहीं है। मनुष्य उतना ही बुद्धिमान है जितना सदा था। मनुष्य की बुद्धि पर बहुत से संस्कारों का एक साथ पड़ जाना है। और स्व-विरोधी संस्कार! और हर रास्ता दूसरे रास्ते को गलत कहेगा ही। यह मजबूरी है। इसलिए नहीं कि दूसरा रास्ता गलत है, दूसरा रास्ता गलत है इसलिए नहीं, बल्कि दूसरे रास्ते को गलत कहना ही होगा। दूसरे रास्ते को गलत न कहा जाए तो स्वयं को सही कहने की जो शक्ति है, जो बल है, वह टूट जाता है और बिखर जाता है। असल में स्वयं को सही कहना हो तो दूसरे को गलत कहना अनिवार्य हिस्सा है। उसी की पृष्ठभूमि में स्वयं को सही कहा जा सकता है।
तो जब तक एक-एक परंपरा का अपना मार्ग था, और विजातीय मार्ग कहीं मिलते नहीं थे, कहीं कोई चौरस्ते नहीं थे, कहीं कोई चौराहे नहीं थे जहां विजातीय मार्ग भी मिलते हों, जब सब धाराएं अपने में बंट कर अलग-अलग बहती थीं, तब पुराने का गहन आकर्षण था। ऐसे युग में, ऐसे समय में, महावीर जैसा व्यक्तित्व बड़ा उपयोगी था, सहयोगी था।
लेकिन जैसे-जैसे धाराएं अनेक हुईं, प्रतियोगी हुईं, बहुत हुईं, पुराना संदिग्ध हो गया, नये का मूल्य बढ़ा। नये के लिए भी प्रतियोगी थे। लेकिन पुरानी धारा के खिलाफ जब भी नया प्रतियोगी खड़ा हो जाए और जब सब पुरानी धाराएं मन को सिर्फ विभ्रम में डालती हों और कुछ तय न हो पाता हो, तो पुरानों में से चुनने की बजाय नये को चुनना मनुष्य के लिए सरल पड़ता है।
कई कारणों से। पहला कारण तो यह कि पुरानी धाराओं का तीर्थंकर, पैगंबर लाखों साल पहले हुआ। उसकी आवाज धुंधली हो जाती है बहुत। नये का पैगंबर अभी मौजूद होता है, सामने। उसकी आवाज घनी हो जाती है। पुरानी जो परंपरा है वह फिर भी पुरानी भाषा बोलती है, क्योंकि जब वह निर्मित हुई थी तब की भाषा बोलती है। नया तीर्थंकर, नया बुद्ध नई भाषा बोलता है। अभी निर्मित हो रही है। पुराने शब्दों के साथ जो संदेह जुड़ गया उन शब्दों को वह हटा देता है। वह नये शब्दों को लाता है जो एक तरह से कुंआरे हैं, जिन पर भरोसा ज्यादा आसान है।
तो नये का आकर्षण क्रमशः बढ़ा, जैसे-जैसे परंपराएं साथ हुईं, इकट्ठी हुईं; और करीब-करीब हम चौराहे पर जीने लगे जहां सभी रास्ते मिलते हैं, और हर घर के पास सभी रास्ते टूटते हैं, तो नये का आकर्षण बढ़ा। लेकिन अब नये का आकर्षण भी नहीं है। क्योंकि अब हमें यह भी पता चला कि सब नये अंततः पुराने हो जाते हैं। और जो भी पुराने हैं वे कभी नये थे। और हमें अब यह भी पता चला कि नये और पुराने में शायद शब्दों का ही फासला है।
नये की बड़ी गति थी। इधर कोई तीन सौ वर्षों से नये ने वही प्रतिष्ठा ले ली थी जो कभी पुराने सत्य की थी। जैसे कभी पुराना होना सही होने का प्रमाण था वैसे ही नया होना सही होने का प्रमाण हो गया। इतना ही काफी है बताना कि नई नई है बात, और लोग भरोसा करेंगे। जैसे पहले काफी था कि पुरानी है बात, और लोग भरोसा करते थे। अब किसी चीज को पुराना कहना अपने हाथ से उसको निंदित करना है। इसलिए प्रत्येक धारा नये होने की चेष्टा में लग गई। और प्रत्येक धारा ने नये व्यक्ति पैदा किए जिन्होंने नये की बातें कीं। पुराना समाप्त नहीं हुआ, पुराने रास्ते चलते ही रहे, नये रास्ते भी चल पड़े। उन्हें भी नये चलने वाले मिल गए। और जब नये की तीव्रता पकड़ती है तो एक अनूठी घटना घटी।
जैसे पुराना सदा तय करता था कि कितना पुराना है, तो सारे धर्म चेष्टा करते थे कि उनकी परंपरा से ज्यादा पुरानी कोई परंपरा नहीं है। अगर जैनों से पूछें तो वे कहेंगे कि उनकी परंपरा से ज्यादा पुरानी कोई परंपरा नहीं है। वेद भी बाद के हैं। अगर वेद से पूछें तो वे कहेंगे कि वेद काफी पुराना है। उससे तो पुराने का कोई सवाल ही नहीं है। वे तो प्राचीनतम हैं। उसको पीछे खींचने की कोशिश की जाएगी, क्योंकि पुराने की प्रतिष्ठा थी। फिर ऐसे ही नये की प्रतिष्ठा जब बननी शुरू हुई तो कितना नया?
तो आज से अगर पचास साल पहले के अमरीका में--जहां कि नये की बहुत पकड़ थी, क्योंकि सबसे ज्यादा नया समाज था--तो दो पीढ़ियां थीं; लेकिन आज अमरीका में दो पीढ़ियां नहीं हैं। बूढ़ों की पीढ़ी थी, जवानों की पीढ़ी थी, आज से पचास साल पहले। आज हालत बहुत अजीब है। आज चालीस साल वाले की अलग पीढ़ी है; तीस साल वाले की अलग पीढ़ी है; बीस साल वाले की अलग पीढ़ी है; पंद्रह साल वाले की अलग पीढ़ी है। तीस साल वाले कहते हैं, तीस साल के ऊपर भरोसा करना ही मत किसी पर। पच्चीस साल वाले तीस साल वाले पर भी उतने ही संदेह से भरे हैं, कि बूढ़े हो गए ये। लेकिन उनके पीछे जो बीस साल वाला जवान है वह कह रहा है कि ये भी जा चुके हैं। हाई स्कूल के बच्चे भी अब जवानों को बूढ़ा समझ रहे हैं जो आज पच्चीस साल के हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि तुम गए-गुजरे, जा चुकी पीढ़ी। यह कभी सोचा भी न गया था कि इतनी पीढ़ियां होंगी। दो पीढ़ी का खयाल था, कि जवान की पीढ़ी है, बूढ़े की पीढ़ी है। लेकिन जवान की पीढ़ी में भी पर्तें हो जाएंगी और बीस साल का आदमी पच्चीस साल के आदमी को समझेगा कि वह गया-गुजरा है, आउट ऑफ डेट है।
जब इतने जोर से नये की पकड़ होनी शुरू हो तो नये का आकर्षण भी खो जाएगा। क्योंकि आकर्षण बन भी नहीं पाएगा और नया पुराना हो जाएगा। आकर्षण बनने में भी समय लगता है। और धर्म कोई कपड़ों की फैशन की भांति नहीं है कि आप छह महीने में बदल लें। वह कोई मौसमी फूल के बीज नहीं हैं कि चार महीने पहले लगाया और चार महीने पहले हमने उन्हें समाप्त कर दिया। धर्म तो ऐसे वटवृक्ष हैं जो हजारों-लाखों साल में तो पूरे हो पाते हैं। और जब ऐसा खयाल हो कि हर दो-चार-दस साल में बदल डालना है तब तो वटवृक्ष लगेंगे ही नहीं। तब फिर मौसमी फूल ही लग सकते हैं। नये का आकर्षण भी खोने लगा है।
यह मैंने इसलिए कहा कि मैं साफ कर सकूं कि मेरी मनो-दशा बिलकुल तीसरी है। न तो मैं मानता हूं कि महावीर की भाषा कारगर हो सकती है अब, परंपरा की। न मैं मानता हूं कि नये का ही आग्रह कारगर हो सकता है। दोनों ही गए। अब तो मैं मानता हूं कि शाश्वत का आग्रह अर्थपूर्ण है--पुराने का भी नहीं, नये का भी नहीं--जो सदा है।
सदा का मतलब कि जो न पुराना होता है, न नया हो सकता है। पुराना-नया दोनों ही सामयिक घटनाएं हैं और धर्म दोनों में काफी परेशान हो लिया। पुराने के साथ बंध कर भी परेशान हो लिया; अब नये के साथ बंध कर भी उसने देखा है। कृष्णमूर्ति अभी भी नये का आग्रह लिए चले जाते हैं। उसका कारण है कि उनके पास जो पकड़ है वह उन्नीस सौ पंद्रह और उन्नीस सौ बीस के बीच की है, जब कि नये का आकर्षण जमीन पर था। वह जो पकड़ है वह उन्नीस सौ पंद्रह और उन्नीस सौ बीस के बीच की है, जब कि नया प्रभावी था। वे अभी भी कहे चले जाते हैं। लेकिन अब नये को कहने का भी कोई मतलब नहीं है।
अब तो इस पृथ्वी पर एक ही संभावना है। सब परंपराएं इतने निकट आ गई हैं कि अब कोई परंपरा एक्सक्लूसिवली कहे कि मैं ठीक हूं, तो अब उस पर संदेह पैदा होगा। कभी इस बात के कहने से विश्वास आता था कि कोई परंपरा कहती थी कि मैं ठीक हूं, और निरपेक्ष, एब्सोल्यूट अर्थों में ठीक हूं! कभी इससे श्रद्धा बनती थी। अब इसी से अश्रद्धा बन जाएगी कि कोई कहे कि मैं बिलकुल निरपेक्ष अर्थों में ठीक हूं। यह उसके पागलपन का सबूत होगा। यह सबूत होगा कि वह आदमी बहुत बुद्धिमान नहीं है। यह सबूत होगा कि बहुत सोच-विचार वाला नहीं है। यह सबूत होगा कि बहुत मतांध है, अंधा है, डाग्मैटिक है।
बटर्रेंड रसल ने कहीं लिखा है कि मैंने किसी बुद्धिमान आदमी को कभी बेझिझक बोलते नहीं देखा। बुद्धिमान में तो झिझक होगी ही, हेजिटेशन होगा ही। सिर्फ बुद्धू बेझिझक बोल सकते हैं।
रसल यह कह रहा है कि सिर्फ अज्ञानी कह सकते हैं कि बस पूर्ण सत्य यह रहा। ज्ञान के बढ़ने के साथ ऐसी निरपेक्ष घोषणाएं नहीं हो सकतीं। तो इस युग में अब कोई एक परंपरा को ठीक कहने का आग्रह करे तो इसीलिए वह परंपरा को नुकसान पहुंचाने वाला हो जाएगा। ठीक दूसरी बात भी, अगर कोई कहे कि जो मैं कह रहा हूं वह बिलकुल नया है, बेमानी हो गई। क्योंकि इतने नये की उदघोषणा होती है और आखिर में बहुत गहरे में पाया जाता है कि वही है। कितने रूपों में बातें कही जाती हैं! रूप को जरा हटा कर देख लें, तो कपड़े हट जाते हैं और पीछे पाया जाता है, वही है। इसलिए अब नये की घोषणा भी बहुत अर्थ नहीं रखती। पुराने की घोषणा भी बहुत अर्थ नहीं रखती।
मेरी दृष्टि में भविष्य का जो धर्म है, कल जिस बात का प्रभाव होने वाला है, जिससे लोग मार्ग लेंगे, और जिससे लोग चलेंगे, वह है--सनातन, इटर्नल का आग्रह। हम जो कह रहे हैं वह न नया है, न पुराना है। न वह कभी पुराना होगा और न उसे कभी कोई नया कर सकता है। हां, जिन्होंने पुराना कह कर उसे कहा था उनके पास पुराने शब्द थे, जिन्होंने नया कह कर उसे कहा उनके पास नये शब्द हैं। और हम शब्द का आग्रह छोड़ते हैं।
इसलिए मैं सभी परंपराओं के शब्दों का उपयोग करता हूं, जो शब्द समझ में आ जाए। कभी पुराने की भी बात करता हूं, शायद पुराने से किसी को समझ में आ जाए। कभी नये की भी बात करता हूं, शायद नये से किसी को समझ में आ जाए। और साथ ही यह भी निरंतर स्मरण दिलाते रहना चाहता हूं कि नया और पुराना सत्य नहीं होता। सत्य आकाश की तरह शाश्वत है। उसमें वृक्ष लगते हैं आकाश में, खिलते हैं, फूल आते हैं। वृक्ष गिर जाते हैं। वृक्ष पुराने, बूढ़े हो जाते हैं। वृक्ष बच्चे और जवान होते हैं--आकाश नहीं होता। एक बीज हमने बोया और अंकुर फूटा। अंकुर बिलकुल नया है, लेकिन जिस आकाश में फूटा, वह आकाश? फिर बड़ा हो गया वृक्ष। फिर जरा-जीर्ण होने लगा। मृत्यु के करीब आ गया वृक्ष। वृक्ष बूढ़ा है, लेकिन आकाश जिसमें वह हुआ है, वह आकाश बूढ़ा है? ऐसे कितने ही वृक्ष आए और गए, और आकाश अपनी जगह है--अछूता, निर्लेप।
सत्य तो आकाश जैसा है। शब्द वृक्षों जैसे हैं। लगते हैं, अंकुरित होते हैं, पल्लवित होते हैं, खिल जाते हैं, मुर्झाते हैं, गिरते हैं, मरते हैं, जमीन में खो जाते हैं। आकाश अपनी जगह ही खड़ा रह जाता है! पुराने वालों का जोर भी शब्दों पर था और नये वालों का जोर भी शब्दों पर है। मैं शब्द पर जोर ही नहीं देना चाहता हूं। मैं तो उस आकाश पर जोर देना चाहता हूं जिसमें शब्द के फूल खिलते हैं, मरते हैं, खोते हैं--और आकाश बिलकुल ही अछूता रह जाता है, कहीं कोई रेखा भी नहीं छूट जाती।
तो मेरी दृष्टि: सत्य शाश्वत है--नये-पुराने से अतीत, ट्रांसेंडेंटल है। हम कुछ भी कहें और कुछ भी करें, हम उसे न नया करते हैं, न हम उसे पुराना करते हैं। जो भी हम कहेंगे, जो भी हम सोचेंगे, जो भी हम विचार निर्मित करेंगे, वे आएंगे और गिर जाएंगे। और सत्य अपनी जगह खड़ा रह जाएगा।
इसलिए वह भी नासमझ है जो कहता है कि मेरे पास बहुत पुराना सत्य है। क्योंकि सत्य पुराने नहीं होते। क्योंकि आकाश पुराना नहीं होता। वह भी उतना ही नासमझ है जो कहता है कि मेरे पास नया सत्य है, मौलिक है। आकाश पुराना भी नहीं होता, आकाश मौलिक और नया भी नहीं होता।
इस तीसरे तत्व की घोषणा को मैं भविष्य के लिए मार्ग मानता हूं। क्यों मानता हूं? क्योंकि इस तत्व की घोषणा, जो बहुत सी परंपराओं के जाल से जो उपद्रव पैदा हो गया है, उसे काटने वाली होगी। तब हम कहेंगे कि ठीक है, वे वृक्ष भी खिले थे आकाश में और ये वृक्ष भी खिल रहे हैं आकाश में! और अनंत वृक्ष खिलते हैं आकाश में, इससे आकाश को कोई फर्क नहीं पड़ता। आकाश में बहुत अवकाश है, बहुत स्पेस है। हमारे वृक्ष उसको रिक्त नहीं कर पाते और न भर पाते हैं। हम इस भ्रम में न रहें कि हमारा कोई भी वृक्ष पूरे आकाश को भर देगा।
तो हमारे कोई भी शब्द, और हमारी कोई भी धारणाएं, और कोई भी सिद्धांत सत्य के आकाश को भर नहीं पाते। सदा गुंजाइश है। हजार महावीर पैदा हों तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता, करोड़ महावीर पैदा हों तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। करोड़ बुद्ध पैदा हो जाएं तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। कितने ही बड़े वे वटवृक्ष हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वटवृक्षों के बड़े होने से आकाश के बड़ेपन को नहीं नापा जाता। हालांकि स्वाभाविक, वटवृक्षों के नीचे जो घास के तिनके हैं उन्हें आकाश का कोई पता नहीं होता, वटवृक्ष का ही पता होता है। और उनके लिए वटवृक्ष भी इतना बड़ा होता है कि इससे भी बड़ा कुछ हो सकता है इसकी कल्पना भी संभव नहीं है।
तो अब इस दुर्गम स्थिति में जहां कि सारी परंपराएं एक साथ खड़ी हो गई हैं और आदमी के मन को एक साथ आकर्षित कर रही हैं चारों तरफ से, सब परंपराएं सब तरह का आकर्षण पैदा कर रही हैं--पुराने हैं, नये हैं, रोज नये पैदा होने वाले विचार हैं, वे सब मनुष्य को खींच रहे हैं। और उन सबके खींचने की वजह से मनुष्य ऐसी स्थिति में है कि वह किंकर्तव्यविमूढ़ है। वह करीब-करीब खड़ा हो गया है। वह कहीं जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। क्योंकि वह कहीं भी कदम बढ़ाए तो संदेह पैदा होता है। श्रद्धा कहीं भी नहीं आती।
सब श्रद्धा पैदा करवाने वाले ही उसको अश्रद्धा की हालत में खड़ा कर दिए हैं। क्योंकि श्रद्धा जो है जिस ढंग से पैदा की जाती थी उसी ढंग से अब भी पैदा की जा रही है। कुरान कहे जा रहा है कि वह ठीक है; धम्मपद कहे जा रहा है वह ठीक है। स्वभावतः, जो भी कहेगा कि मैं ठीक हूं, उसे यह भी कहना पड़ता है कि दूसरा गलत है। दूसरे को भी यही करना पड़ता है, कि मैं ठीक हूं कहना पड़ता है, दूसरा गलत है। और स्थिति ऐसी है कि खड़े हुए आदमी को ऐसा लगता है कि सभी गलत हैं।
क्यों? क्योंकि खुद को ठीक कहने वाला तो एक है, लेकिन उसको गलत कहने वाले पचास हैं। ठीक का दावा एक-एक अपने लिए कर रहा है, और उसके गलत होने का दावा बाकी पचास लोग कर रहे हैं कि वह गलत है। गलत कहे जाने का इतना बड़ा इंपैक्ट होगा कि वह जो एक चिल्ला रहा है कि मैं ठीक हूं, उसकी आवाज खो जाएगी इसमें कि वे जो पचास कह रहे हैं कि वह गलत है। यद्यपि उन सब पचास के साथ भी यही हालत है। क्योंकि वे सब अपने को ही अकेला ठीक कहेंगे, बाकी पचास फिर उनको भी गलत कहेंगे।
तो एक आदमी के सामने पचास लोग कहते हैं गलत है, और एक आदमी कहता है ठीक है। स्वभावतः वह चलने वाला नहीं है। वह खड़ा हो जाएगा। यह जो मनुष्य की आज की स्थिति है खड़े हो जाने की, उसके पीछे सबकी श्रद्धाएं और सब श्रद्धाओं की मांग, कि आ जाओ मेरे पास, दिक्कत डाल रही है। उनकी पुरानी आदत है, वे कहे चले जा रहे हैं।
यह स्थिति मिट सकती है एक ही तरह से, वह यह कि एक ऐसा आंदोलन चाहिए जगत में, जो यह ठीक है या वह ठीक है, इसका बहुत आग्रह नहीं करता; खड़ा होना गलत है और चलना ठीक है, इसका आग्रह करता है। इसका आग्रह नहीं करता कि यह ठीक है या वह गलत है। और इतनी व्यापक दृष्टि की जरूरत है कि जो आदमी जहां जाना चाहे, उसे वहां कैसे वह ठीक जा सके, यह बताने की सामर्थ्य हो।
दुरूह है यह मामला। मुसलमान होना आसान है, ईसाई होना आसान है, जैन होना आसान है। बंधी हुई लीक है, बंधी हुई परंपरा है। एक परंपरा से परिचित होना आसान है।
अब एक युवक मेरे पास आया कोई आठ दिन पहले। वह मुसलमान है और वह संन्यासी होना चाहता है। मैंने उससे कहा कि तू संन्यासी हो जा। पर उसने कहा कि मेरी गर्दन दबा देंगे वे सारे लोग। तो मैंने कहा: तू संन्यासी जरूर हो जा, लेकिन मुसलमान न हो जा, यह मैं नहीं कह रहा हूं। तू मुसलमान रहते हुए संन्यासी हो जा। तो उसने कहा: क्या फिर मैं गेरुआ वस्त्र पहन कर मस्जिद में नमाज पढ़ सकता हूं? पढ़नी ही पड़ेगी, मैंने उससे कहा! उसने कहा: मैं तो नमाज पढ़ना छोड़ चुका आपको सुन कर। मैं तो ध्यान कर रहा हूं। मैं तो जाता नहीं आज साल भर से। और मुझे अपूर्व आनंद हुआ है; जाना भी नहीं चाहता। मैंने कहा: जब तक ध्यान तेरा उस जगह न आ जाए कि नमाज और ध्यान में कोई फर्क न रहे, तब तक समझना कि ध्यान अभी पूरा नहीं हुआ।
इसे वापस नमाज पढ़ने भेजना ही पड़ेगा मस्जिद में। इसे मस्जिद से तोड़ना खतरनाक है। क्योंकि इसे मस्जिद से तोड़ कर किसी मंदिर से नहीं जोड़ा जा सकता। क्योंकि जिस विधि से हम तोड़ते हैं वही विधि इसको इस भांति विकृत कर जाती है कि फिर यह किसी मंदिर से नहीं जुड़ सकता।
तो न तो पुराने मंदिरों के बीच प्रतियोगिता खड़ी करनी है, और न नया मंदिर खड़ा करना है। जो जहां जाना चाहे, खड़ा न रहे, जाए। तो मेरे सामने जो पर्सपेक्टिव है, परिप्रेक्ष्य है, वह यही है कि जो भी व्यक्ति, जो उसकी क्षमता हो उस क्षमता, जो उसकी पात्रता हो, जो उसका संस्कार हो, जो उसके खून में प्रवेश कर गया हो, जो सुगमतम हो उसके लिए, उस पर ही मैं उसे गतिमान करता हूं।
तो मेरा कोई धर्म नहीं है और मेरा कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि अब कोई भी रास्ते वाला धर्म, संप्रदाय वाला धर्म भविष्य के लिए नहीं है। संप्रदाय का अर्थ है रास्ता। अब कोई भी रास्ते वाला धर्म भविष्य के लिए काम का नहीं है। अब ऐसा धर्म चाहिए जो एक रास्ते का आग्रह न करता हो, जो पूरे चौरस्ते को घेर ले। जो कहे कि सब रास्ते हमारे हैं। तुम चलो भर! तुम जहां से भी चलोगे वहीं पहुंचोगे। सब रास्ते वहीं ले जाते हैं। आग्रह यह है कि तुम चलो, खड़े मत रहो।
तो कोई नई धारणा, कोई पर्वत पर नया मार्ग तोड़ने की मेरी उत्सुकता नहीं, मार्ग बहुत हैं। चलने वाला नहीं है। मार्ग की कमी नहीं है कि मार्ग कम हैं इसलिए हम एक नया मार्ग तोड़ें। मार्ग बहुत हैं। मार्ग ज्यादा और चलने वाले कम हैं। करीब-करीब मार्ग सूने पड़े हैं, जिन पर कोई चलने वाला वर्षों से नहीं गुजरा है। सैकड़ों वर्षों से, हजारों वर्षों से कई मार्ग सूने पड़े हैं। कोई राहगीर नहीं आया उन पर। क्योंकि पर्वत पर चढ़ने की जो संभावना थी, वही टूट गई। पर्वत के नीचे इतना विवाद है और इतनी कलह है, और सारी कलह का पूरा का पूरा जो परिणाम हो रहा है वह प्रत्येक व्यक्ति को थका देने वाला, घबड़ा देने वाला, खड़ा कर देने वाला है। इतने बिगूचना में कोई चल नहीं सकता।
लेकिन यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है, फिर भी मेरी दृष्टि इक्लेक्टिक नहीं है। मेरी दृष्टि गांधी जैसी नहीं है कि मैं चार कुरान के वचन चुन लूं और चार गीता के वचन चुन लूं, और कहूं कि दोनों में एक ही बात है।
दोनों में एक बात है नहीं। यह मैं कहता हूं कि सब रास्तों से चल कर आदमी वहीं पहुंच जाएगा, लेकिन सब रास्ते एक नहीं हैं। यह मैं नहीं कहता। रास्ते तो बिलकुल अलग-अलग हैं। और अगर गीता और कुरान को एक बताने की कोशिश की जाती है तो तरकीब है।
अब यह बड़ी मजेदार बात है कि गांधी गीता को पढ़ लेंगे, फिर कुरान को पढ़ लेंगे। और कुरान में जो-जो बातें गीता से मेल खाती हैं वे चुन लेंगे, बाकी बातें छोड़ देंगे। बाकी बातें क्या हुईं जो मेल नहीं खातीं और जो विपरीत पड़ती हैं? वे छोड़ देंगे। पूरे कुरान को गांधी नहीं राजी हो सकते--पूरे कुरान को! पूरी गीता को राजी हैं।
इसलिए मैं कहता हूं इक्लेक्टिक! पूरी गीता को राजी हैं, फिर गीता के भी समानांतर कुछ मिलता हो कहीं कुरान में तो उसके लिए राजी हैं। इसमें राजी होने में कोई कठिनाई ही नहीं है। इसको तो कोई भी राजी हो जाएगा। मैं कहता हूं कि नहीं मैं आपसे बिलकुल राजी हूं, उतनी दूर तक, जहां तक कुरान गीता का अरबी रूपांतर है, बस। उससे इंच भर ज्यादा नहीं। वह तो कुरान वाला भी राजी हो जाता है।
लेकिन यह बहुत मजेदार प्रयोग होगा कि कुरान वाले से आप गीता में चुनवाएं कि कौन-कौन सी बात का मेल है, तो आप बिलकुल हैरान हो जाएंगे। जो चीजें वह चुनेगा वे गांधी ने कभी नहीं चुनीं। वह बहुत भिन्न चीजें चुनेगा। इसको इक्लेक्टिसिज्म कहता हूं मैं। यह चुनना है। यह पूरे की स्वीकृति नहीं है। स्वीकृति तो हमारी ही है। उससे आप भी मेल खाते हो कहीं, तो आप भी ठीक हो। ठीक तो हम ही हैं अंततः। लेकिन आप भी उतने दूर तक ठीक हो, इतना कहने की हम सहिष्णुता दिखलाते हैं, जितनी दूर तक आप हमसे मेल खाते हैं। यह कोई बहुत सहिष्णुता नहीं है।
और यह प्रश्न कोई सहिष्णुता का नहीं है। यह तो आकाश जैसी उदारता का है, सहिष्णुता का नहीं है। टालरेंस का नहीं है। यह नहीं है कि एक हिंदू एक मुसलमान को सह जाए; यह नहीं है कि एक ईसाई एक जैन को सहे। सहने में ही हिंसा भरी हुई है। मैं यह नहीं कहता कि कुरान और गीता एक ही बात कहते हैं। कुरान तो बिलकुल अलग बात कहता है। उसका अपना इंडिविजुअल स्वर है। वही उसकी महत्ता है। अगर वह भी वही कहता है जो गीता कहती है, तो कुरान दो कौड़ी का हो गया। बाइबिल तो कुछ और ही कहती है, जो न गीता कहती है, न कुरान कहता है। उनके सबके अपने स्वर हैं। महावीर वही नहीं कहते जो बुद्ध कहते हैं, बड़ी भिन्न बातें कहते हैं।
लेकिन इन भिन्न बातों से भी अंततः जहां पहुंचा जाता है, वह एक जगह है। जो मेरा जोर है वह मंजिल की एकता पर है, मार्ग की एकता पर नहीं है। जो मेरा जोर है वह यह है कि अंततः ये सारे मार्ग वहां पहुंच जाते हैं जहां कोई भेद नहीं है।
लेकिन ये मार्ग बड़े भिन्न हैं। और किसी भी आदमी को भूल कर दो मार्गों को एक समझने की चेष्टा में नहीं पड़ना चाहिए। अन्यथा वह किसी पर भी न चल पाएगा। माना कि ये सब नावें उस पार पहुंच जाती हैं, लेकिन फिर भी दो नावों पर सवार होने की गलती किसी को भी नहीं करना चाहिए। अन्यथा नावें पहुंच जाएंगी, दो नावों पर चढ़ने वाला नहीं पहुंचेगा। वह मरेगा, वह डूबेगा कहीं। माना कि सब नावें नावें हैं, फिर भी एक ही नाव पर चढ़ना होता है, पहुंचना हो तो।
हां, किनारे पर खड़े होकर बात करनी हो कि सब नावें नावें हैं, तो कोई हर्जा नहीं है। सब नावें एक ही हैं, तो भी कोई हर्जा नहीं है। लेकिन यात्रा करने वाले को तो नाव पर कदम रखते से ही चुनाव करना पड़ेगा। इस चुनाव के लिए मेरी परम स्वीकृति है सबकी।
बहुत कठिन है, क्योंकि बड़ी विपरीत घोषणाएं हैं। एक तरफ महावीर हैं जो चींटी को भी मारने को राजी न होंगे, पैर फूंक कर रखेंगे। दूसरी तरफ तलवार लिए मोहम्मद हैं। तो जो भी कहता है कि दोनों एक ही बातें कहते हैं, गलत कहता है। ये दोनों एक बात कह नहीं सकते। ये बातें तो बड़ी भिन्न कहते हैं। और अगर एक बात बताने की कोशिश की गई तो किसी न किसी के साथ अन्याय हो जाएगा। या तो मोहम्मद की तलवार छिपानी पड़ेगी और या महावीर का चींटी को फूंकना भुलाना पड़ेगा। अगर मोहम्मद का मानने वाला चुनेगा तो महावीर से वे हिस्से काट डालेगा जो तलवार के विपरीत जाते होंगे। और महावीर का मानने वाला चुनेगा तो तलवार को अलग कर देगा मोहम्मद से, और सिर्फ वे ही बातें चुन लेगा जो अहिंसा के तालमेल में पड़ती हों। बाकी यह अन्याय है।
इसलिए मैं गांधी जैसा समन्वयवादी नहीं हूं। मैं सारे धर्मों के बीच किसी सिंथिसिस और किसी समन्वय की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तो यह कह रहा हूं कि सारे धर्म अपने निजी व्यक्तिगत रूप में जैसे हैं वैसे मुझे स्वीकृत हैं, मैं उनमें कोई चुनाव नहीं करता। और मैं यह भी कहता हूं कि उनके वैसे होने से भी पहुंचने का उपाय है।
इसलिए सारे धर्मों ने जो अलग-अलग अपने रास्ते बनाए हैं, उन रास्तों के जो भेद हैं, वे रास्तों के भेद हैं। मेरे रास्ते पर वृक्ष पड़ते हैं और आपके रास्ते पर पत्थर ही पत्थर हैं। आप जिस कोने से चढ़ते हैं पहाड़ के वहां पत्थर ही पत्थर हैं और मैं जिस रास्ते से चढ़ता हूं वहां वृक्ष ही वृक्ष हैं। कोई है कि सीधा पहाड़ पर चढ़ता है, और बड़ी चढ़ाई है और पसीने से तरबतर हो जाता है; और कोई है कि बहुत मद्धिम और घूमते हुए रास्ते से चढ़ता है, वह लंबा जरूर है, लेकिन थकता कभी नहीं और पसीना कभी नहीं आता। निश्चित ही ये अपने-अपने रास्तों की अलग-अलग बात करेंगे। इनके वर्णन बिलकुल अलग होंगे। फिर प्रत्येक के रास्ते पर मिलने वाली कठिनाइयों का हिसाब भी अलग होगा; और प्रत्येक कठिनाई से जूझने की साधना भी अलग होगी। और यह सब अलग होगा। अगर हम इनके रास्तों की ही चर्चा को देखें तो हम इनमें शायद ही कोई समानता खोज पाएं।
तो जो समानता दिखाई पड़ती है वह रास्तों की नहीं है। वह समानता उन वचनों की है जो पहुंचे हुए लोगों ने कहे हैं। वह रास्तों की जरा भी नहीं है। वह समानता उन वचनों की है, जो पहुंचे, जो शिखर पर पहुंचे हुए लोगों ने कहे हैं। फिर भाषा का ही फर्क रह जाता है, अरबी का होगा, कि पाली का होगा, कि प्राकृत का, कि संस्कृत का, उन शब्दों में सिर्फ भाषा ही का फर्क रह जाता है जो मंजिल की घोषणा के लिए कहे गए हैं। बाकी मंजिल के पहले सारे फर्क बहुत वास्तविक हैं। और मैं नहीं कहता कि उनको भुलाने की जरूरत है।
तो मैं कोई नया रास्ता नहीं तोड़ना चाहता। न ही किसी पुराने रास्ते को, बाकी रास्तों के खिलाफ, सही कहना चाहता हूं। मैं कहना चाहता हूं कि सभी रास्ते सही हैं, भिन्न हैं। क्योंकि हमारे मन में सही होने का एक ही मतलब होता है कि वे एक से हों। हमारे मन में यह भाव होता है कि दो चीजें तभी सही हो सकती हैं जब एक सी हों। एक सी होना कोई अनिवार्यता नहीं है। सच तो यह है कि दो एक सी चीजों में अक्सर एक नकल होगी, सही नहीं होगी। दो बिलकुल एक सी चीजों में एक नकल होगी, दोनों भी नकल हो सकती हैं, बाकी एक तो पक्का ही नकल होगी। दो बिलकुल ही वास्तविक असली चीजें बिलकुल अलग होती हैं। उनका व्यक्तित्व भिन्न होता ही है।
इसमें मैं आश्चर्य नहीं मानता कि मोहम्मद और महावीर के मार्ग में भेद है। न होता भेद तो एक चमत्कार था। जो कि बिलकुल अस्वाभाविक है। महावीर की सारी परिस्थितियां भिन्न हैं, मोहम्मद की सारी परिस्थितियां भिन्न हैं। मोहम्मद को जिन लोगों के साथ काम करना पड़ रहा है, वे बिलकुल भिन्न हैं। महावीर को जिनके साथ काम करना पड़ रहा है, वे बिलकुल भिन्न हैं। सारी संस्कारगत जो धारा है मोहम्मद के लोगों की वह बिलकुल और है। महावीर के पास जो धारा है वह बिलकुल और है। यह सब इतना भिन्न है कि इसमें महावीर और मोहम्मद का मार्ग एक नहीं हो सकता। और आज भी सबकी स्थितियां भिन्न हैं। उन भिन्न स्थितियों को ही ध्यान में रख कर जाना पड़े।
तो मैं न तो कोई नया मार्ग तोड़ने को उत्सुक हूं, न किसी पुराने मार्ग को, शेष पुराने मार्गों के खिलाफ सही कहने को उत्सुक हूं। दो बातें हैं। सभी सही हैं, जो टूटे मार्ग वे, जो आज टूट रहे हैं वे, और जो कल टूटेंगे वे भी, और जो अभी नहीं टूटे हैं वे भी सही हैं। आदमी खड़ा न रहे--चले। गलत से गलत मार्ग से चलने वाला भी आज नहीं कल पहुंच जाएगा और सही से सही मार्ग पर खड़ा रहने वाला कभी नहीं पहुंच सकता। इसलिए असली सवाल चलने का है।
और जब कोई चलता है तो गलत मार्ग से मुक्त हो जाना अड़चन नहीं है। लेकिन जब कोई खड़ा रह जाता है तो पता ही नहीं चलता कि जहां खड़ा है वह सही है कि गलत। चलने से पता चलता है कि सही है या गलत। अगर आप किसी भी सिद्धांत को मान कर बैठ जाएं तो कभी पता नहीं चलता कि वह सही है या गलत। आप उसका प्रयोग करें और चलें, और आपको फौरन पता चलता है कि वह सही है या गलत। कोई भी विचार, कर्म बन कर ही सही या गलत होने की कसौटी पर कसा जाता है, अन्यथा कोई कसने का उपाय नहीं है।
तो मेरी उत्सुकता है, चलें। और मैं प्रत्येक को उसके मार्ग पर ही सहारा देने के लिए उत्सुक हूं। स्वभावतः, महावीर के लिए यह आसान नहीं था। आज यह आसान है, और रोज आसान होता चला जाएगा। क्योंकि आज करीब-करीब ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो अपने दो-चार-छह जन्मों में दो-चार-छह धर्मों में पैदा न हो चुका हो। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है। एक-एक आदमी चार-चार, छह-छह धर्मों में पैदा हो चुका है। इधर पिछले पांच-सात सौ वर्षों में जैसी बाहरी निकटता बढ़ी है वैसी ही भीतरी आत्मा के आवागमन की निकटता बढ़ी है। जो कि स्वाभाविक है, बढ़ेगी ही।
जैसे, उदाहरण के लिए, आज से दो हजार साल पहले कोई ब्राह्मण मरता तो शूद्र के घर में पैदा होना सौ में निन्यानबे मौके पर संभव नहीं था। शूद्र के घर में पैदा नहीं हो सकता था। आत्मा का आवागमन इतना ही कठिन था। क्योंकि आवागमन ही नहीं था। चित्त तो सारे संस्कार लेता है। जिस शूद्र को कभी छुआ नहीं, जिसकी छाया से बचे, जिसकी छाया पड़ गई तो स्नान किया, अलंघ्य खाई रही जिसके और हमारे बीच। मरने के बाद आत्मा यात्रा नहीं कर सकती। क्योंकि यात्रा जो चित्त कराएगा वह चित्त बिलकुल ही खिलाफ है। कोई यात्रा नहीं हो सकती।
इसलिए महावीर के समय तक बहुत कभी ऐसा मौका होता था कि कोई आदमी कोई धर्म-परिवर्तन में पैदा हो जाए। यह संभव नहीं था। धाराएं इतनी बंधी थीं, लीकें इतनी साफ थीं कि आप इस जन्म में ही अपने धर्म के भीतर घूमते थे, ऐसा नहीं है, आप अगले जन्म में भी उसी धर्म के भीतर घूमते थे।
अब यह संभव नहीं रहा। अब चीजें जैसे बाहर उदार हो गई हैं वैसे भीतर भी उदार हो गई हैं। वह तो चित्त...। आज मुसलमान के साथ बैठ कर खाना खाने में किसी ब्राह्मण को कोई तकलीफ कम हुई है, कम होती चली जाएगी। और जिसको कम नहीं हुई है वह आज का आदमी नहीं है। उसके पास चित्त पांच सौ साल पुराना है। आज के आदमी को तो बिलकुल कम हो गई है। आज तो सोचना भी उसे बेहूदा मालूम पड़ता है कि इस तरह की बात सोचे।
लेकिन इससे भीतरी आवागमन का भी द्वार खुल गया है, यह खयाल में ले लेना जरूरी है। इधर पांच सौ वर्ष में रोज द्वार खुलता गया है। वह जो भीतर का द्वार खुल गया है, उसके कारण आज कुछ बातें कही जा सकती हैं। अगर मैंने अपने पिछले जन्मों में अनेक मार्गों पर घूम कर देखा हो तो मेरे लिए बहुत आसान हो जाता है कि मैं कह सकूं। अगर आज एक तिब्बतन साधक मुझसे पूछता है तो उससे मैं कुछ कह सकता हूं। लेकिन तभी कह सकता हूं जब कि किसी न किसी यात्रा में तिब्बतन जो मिल्यू है, तिब्बतन जो वातावरण है, उसमें मैं जीया होऊं, अन्यथा मैं नहीं कह सकता हूं। और अगर मैं कहूंगा तो ऊपरी होगा, बहुत गहरा नहीं हो सकता। बहुत गहरा नहीं हो सकता। जब तक कि मैं किसी जगह से नहीं गुजरा हूं तब तक मैं बहुत कुछ नहीं कह सकता।
अगर मैंने कभी नमाज नहीं पढ़ी है तो मैं नमाज के लिए कोई सहायता नहीं दे सकता हूं। और दूंगा तो बहुत ऊपरी होगी। किसी मूल्य की नहीं होगी। लेकिन अगर मैं किसी भी मार्ग से नमाज से गुजरा हूं तो मैं सहायता दे सकता हूं। और अगर मैं एक दफा गुजरा हूं तो मैं जानता हूं कि नमाज से भी वहीं पहुंचा जाता है, जहां किसी प्रार्थना से पहुंचा जाता होगा। और तब मैं इक्लेक्टिक नहीं हूं। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि हिंदू-मुसलमान को एक होना ही चाहिए, इसलिए दोनों ठीक हैं। तब मेरे कहने का कारण बहुत और है। तब मैं जानता हूं कि वे दोनों की पद्धतियां भिन्न हैं, लेकिन जो प्रतीति है भीतर वह एक है। और यह रोज स्थिति ऐसी और भी जो मैं कह रहा हूं उसके अनुकूल होती चली जाएगी। भविष्य के लिए आने वाले सौ वर्षों में इतना आवागमन तीव्र हो जाएगा आत्माओं का, क्योंकि जितने बंधन बाहर टूटेंगे, उतने भीतर टूट जाएंगे।
और यह आप जान कर हैरान होंगे कि जिन्होंने बाहर बंधन बहुत सख्ती से तय किए थे, उनका आग्रह भी बाहर के बंधन के लिए नहीं था। भीतर का इंतजाम था। इसलिए कभी भी इस मुल्क की वर्ण-व्यवस्था को बहुत वैज्ञानिक रूप से समझा नहीं जा सका। जैसा आज हमें लगता है कि कितना अन्याय किया होगा उन लोगों ने। एक तरफ वही ब्राह्मण उपनिषद लिख रहा है और दूसरी तरफ वही ब्राह्मण शूद्रों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करने की व्यवस्था कर रहा है। ये संगत नहीं हैं बातें। या तो सब उपनिषद झूठे हैं, जो लिखे नहीं गए कभी, क्योंकि उसी ब्राह्मण से नहीं निकल सकते जिस ब्राह्मण से शूद्र की व्यवस्था निकल रही है। और अगर उससे ही शूद्र की व्यवस्था निकली हो, तो हम जो व्याख्या कर रहे हैं उसमें कहीं भूल हो रही है।
निकली उसी से है। वही मनु एक तरफ इतनी ऊंची बात कह रहा है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। नीत्शे कहा करता था कि मनु से ज्यादा बुद्धिमान आदमी पृथ्वी पर नहीं हुआ। लेकिन अगर मनु के वचन हम देखें तो शूद्रों और वर्णों के बीच जितनी अलंघ्य खाइयां उसने निर्मित कीं, उतनी किसी और आदमी ने नहीं कीं। वह अकेला आदमी जो तय कर गया उसको आज भी नहीं हिला पा रहे हैं आप। पांच हजार साल की धारा पर वह छाया है। आज भी सारा कानून, सारी व्यवस्था, सारी समझ, सारी बुद्धिमानी, सारी राजनीति उसके खिलाफ लगी है--पांच हजार साल पहले मरे हुए आदमी के। लेकिन वह जो व्यवस्था दे गया है उसको हटाना बहुत मुश्किल पड़ रहा है। राजा राममोहन राय से लेकर गांधी तक सारे हिंदुस्तान के डेढ़ सौ वर्ष के सारे समझदार आदमी मनु के खिलाफ लड़ रहे हैं। और वह एक आदमी, और वह पांच हजार साल पहले हो गया!
वह कोई छोटी समझ का आदमी नहीं है। ये सब बचकाने हैं उसके सामने, बिलकुल जुविनाइल हैं। गांधी या राजा राममोहन राय बिलकुल बचकाने हैं। आज सारी स्थिति विपरीत हो गई है, फिर भी मनु एकदम हिल नहीं पा रहा है। उसको हिलाना कठिन है। क्योंकि कारण भीतर है। सारी व्यवस्था इतनी ही थी कि एक आदमी इस जन्म में अगर नमाज पढ़ता रहा है, तो मनु चाहता है कि वह अगले जन्म में भी नमाज वाले घर में ही पैदा हो। नहीं तो जो काम तीन जन्म में हो सकता है एक ही परंपरा में पैदा होकर, वह तीस जन्मों में नहीं हो सकेगा। हर बार श्र्ृंखला टूट जाएगी। और जब भी वह आदमी रास्ता बदलेगा तब फिर अ ब स से शुरू करेगा। क्योंकि पुराने से आगे नहीं जोड़ा जा सकता है।
एक आदमी पिछले जन्म में मुसलमान के घर में था और इस जन्म में हिंदू के घर में पैदा हो गया। अब वह फिर क ख ग से शुरू कर रहा है। पिछली यात्रा बेकार हो गई, पुछ गई। उसका कोई अर्थ न रहा। वह ऐसा हुआ कि एक स्कूल में पढ़ा था वह छह महीने, फिर निकल आया। फिर दूसरे स्कूल में भर्ती हुआ, फिर पहली क्लास में भर्ती हुआ। फिर छह महीने बाद तीसरे स्कूल में भर्ती हो गया, उन्होंने फिर उसे पहली क्लास में भर्ती कर लिया। वह स्कूल बदलता चला गया। यह शिक्षित कब होगा?
मनु का खयाल था यह--और बड़ा कीमती है--कि हम उस व्यक्ति को उसी विचार-तरंगों के जगत में वापस पहुंचा दें जहां से वह छोड़ रहा है। फिर से शुरू न करना पड़े। जहां से छोड़ा वहां से शुरू कर सके। और यह तभी हो सकता था जब बहुत सख्ती से व्यवस्था की जाए। इसमें थोड़ी भी ढील-पोल से नहीं चलता। अगर इसमें इतना भी हो कि कोई हर्जा नहीं है कि शूद्र से विवाह कर लो। लेकिन मनु ज्यादा बुद्धिमान है। वह जानता है कि जब शूद्र से विवाह कर सकते हो तो कल शूद्र के घर में गर्भ लेने में कौन सी कठिनाई पड़ेगी? जब शूद्र की लड़की को गर्भ दे सकते हो तो शूद्र की लड़की में गर्भ लेने में कौन सी अड़चन रह जाएगी? कोई तर्कसंगत अड़चन नहीं रह जाती। अगर गर्भ लेने से रोकना है तो गर्भ देने से रोकना पड़ेगा। इसलिए विवाह पर सख्त पाबंदी लगा दी। उसमें इंच भर हिलने नहीं दिया। क्योंकि यहां इंच भर हिल गए तो पीछे की सारी व्यवस्था, वह सारी की सारी अस्तव्यस्त हो जाएगी।
लेकिन वह अस्तव्यस्त हो गई। अब शायद उसे व्यवस्थित करना कठिन पड़ेगा। कठिन क्या, मैं समझता हूं, असंभव है। अब हो नहीं सकता। सारी स्थिति ऐसी है अब कि अब नहीं हो सकता है। अब हमें और सूक्ष्म रास्ते खोजने पड़ेंगे, मनु से भी ज्यादा सूक्ष्म।
मनु बहुत बुद्धिमान था, लेकिन व्यवस्था बहुत स्थूल थी। इसलिए स्थूल व्यवस्था आदमी के लिए अन्यायपूर्ण हो जाएगी। बहुत बाह्य, बाहर से रोकी थी भीतर को सम्हालने को--आज नहीं कल कठिन हो जाएगी--स्टिफ जैकिट बैठ गई ऊपर वह, लोहे की हो गई।
आज और सूक्ष्म तल पर प्रयोग करने पड़ेंगे। सूक्ष्म तल पर प्रयोग करने का मतलब यह है कि आज हमें प्रार्थना और नमाज को इतना तरल बनाना पड़ेगा कि जिसने पिछले जन्म में नमाज छोड़ी हो वह इस जन्म में अगर प्रार्थना भी शुरू करे तो वहां से शुरू कर सके जहां से नमाज छोड़ी थी। इसका मतलब हुआ कि प्रार्थना और नमाज इतनी तरल, लिक्विड होनी चाहिए कि प्रार्थना से नमाज शुरू की जा सके, नमाज से प्रार्थना शुरू की जा सके। मंदिर के घंटे सुनते-सुनते कान ऐसे न हो जाएं कि किसी दिन सुबह अजान की आवाज अजनबी मालूम पड़े। मंदिर के घंटों और अजान की आवाज में कहीं कोई आंतरिक तालमेल बनाना पड़ेगा। और इसमें बनाने में कोई कठिनाई नहीं है। यह बिलकुल बनाया जा सकता है। और इसलिए भविष्य के लिए बिलकुल एक नये धर्म की, नई धार्मिकता की, न्यू रिलीजसनेस--नया धर्म नहीं कहना चाहिए--नई धार्मिकता की जरूरत पड़ेगी।
मनु का सारा इंतजाम टूट गया। बुद्ध, महावीर की सारी परंपराएं विश्रृंखल हो गईं। उन्हीं आधारों पर कोई नये प्रयोग करना चाहेगा, वे मजबूरी में टूट जाएंगे। गुरजिएफ ने बहुत कोशिश की, वह टूट गया। कृष्णमूर्ति चालीस साल से मेहनत करते हैं, कुछ बनता नहीं। सारी स्थिति अन्यथा हो गई।
इस अन्यथा स्थिति में बिलकुल ही एक नई धारणा--नई धारणा इस अर्थ में, जैसा कि हमने कभी प्रयोग ही नहीं की। एक तरल धर्म की धारणा। सब धर्मों के, वे जैसे हैं वैसे ही सही होने की धारणा। दृष्टि मंजिल पर, आग्रह चलने का! कहीं भी कोई चले। और हर दो रास्तों के बीच इतनी निकटता कि किसी भी रास्ते से दूसरा रास्ता शुरू हो सके। इन रास्तों के बीच इतना फासला नहीं कि एक रास्ते पर चलने वाला जब दूसरे पर शुरू करे तो उसे दरवाजे पर आना पड़े वापस। नहीं, वह जहां से एक रास्ते से हटे, वहीं से दूसरे रास्ते से मिल जाए।
तो जिनको कहना चाहिए लिंक रोड्स, रास्तों को जोड़ने वाली श्र्ृंखला कड़ियां! मंजिल से जोड़ने वाले रास्ते सदा से हैं। दो रास्तों को जोड़ने वाली कड़ियां सदा से नहीं हैं। मंजिल तक जाने की तो कोई कठिनाई नहीं है। कोई भी एक रास्ते को पकड़े, मंजिल पर पहुंच जाएगा। लेकिन अब ऐसा है कि एक रास्ते पर शायद ही कोई पूरा चल पाए। जिंदगी रोज अस्तव्यस्त होती रहेगी। भौतिक अर्थों में भी, मानसिक अर्थों में भी अस्तव्यस्त होती रहेगी। एक आदमी हिंदू घर में पैदा होगा, हिंदू गांव में बड़ा होगा, और फिर जिंदगी हो सकता है कि वह यूरोप में बिताए। एक आदमी अमरीका में पैदा होगा और हिंदुस्तान के जंगल में जिंदगी बिताए। लंदन में बड़ा होगा, वियतनाम के गांव में जीएगा। यह रोज होता जाएगा। भौतिक अर्थों में भी रोज वातावरण बदलेगा और आंतरिक अर्थों में भी इतना ही वातावरण बदलेगा। यह बदलाहट इतनी ज्यादा होती जाएगी कि अब हमें लिंक्स बनानी पड़ेंगी सब रास्तों के बीच।
कुरान और गीता एक नहीं हैं, लेकिन कुरान और गीता के बीच एक कड़ी बांधी जा सकती है। तो मैं एक ऐसे संन्यासियों का जाल भी फैलाना चाहता हूं जो कड़ियां बन जाएं। मस्जिद में नमाज भी पढ़ें, चर्च में भी प्रार्थना करें, मंदिर में भी गीत गाएं। महावीर के रास्ते पर भी चलें, बुद्ध की साधना में भी उतरें, सिक्खों के पंथ पर भी प्रयोग करें और लिंक निर्मित करें। और ऐसे व्यक्तियों का जीवित जाल, जो लिंक बन जाए! और ऐसी एक धार्मिक अवधारणा कि सब धर्म भिन्न होते हुए एक हैं! अभिन्न होकर एक नहीं, भिन्न होते हुए, बिलकुल भिन्न होते हुए, अपनी-अपनी निजता में भिन्न होते हुए एक हैं। एक, क्योंकि एक जगह पहुंचाते हैं। एक, क्योंकि परमात्मा की तरफ चलाते हैं।
तो मेरा काम कुछ तीसरे तरह का है। और वैसा काम ठीक से हुआ नहीं, कभी नहीं हुआ। कुछ छोटे-छोटे कभी प्रयोग किए गए, बहुत छोटे। लेकिन सदा असफल हुए। रामकृष्ण ने थोड़ी सी मेहनत की। पर वे प्रयोग भी बहुत पुराने नहीं हैं, इधर बस दो सौ वर्ष के बीच प्राथमिक कदम उठाए गए। रामकृष्ण ने मेहनत की, लेकिन खो गया। विवेकानंद ने उसे फिर वापस हिंदू रंग दे दिया पूरा का पूरा। वह बात खो गई। नानक ने कोशिश की थी पांच सौ वर्ष पहले, और थोड़ा पीछे, लेकिन वह भी खो गई। नानक ने गुरुग्रंथ में सारे हिंदू-मुसलमान संतों की वाणी इकट्ठी की। नानक गीत गाते, तो मर्दाना--एक मुसलमान--तंबूरा बजाता। कभी किसी दूसरे को तंबूरा नहीं बजाने दिया। उन्होंने कहा कि गीत हिंदू गाता हो तो मुसलमान तंबूरा तो बजाए ही। इतना तो गीत और तंबूरा कहीं तो एक हो जाए। मक्का और मदीना की यात्रा की, मस्जिदों में नमाज पढ़ी नानक ने। पर खो गई। तत्काल सारी चीज को इकट्ठा करके नया पंथ खड़ा हो गया।
और भी, सूफी फकीरों ने कुछ मेहनत की, और कहीं-कहीं कुछ मेहनत हुई। लेकिन सारी मेहनत अभी प्राथमिक रही, वह अभी तक बन नहीं पाई। उसके दो कारण थे। युग भी नहीं पूरा निर्मित हुआ था। लेकिन अब युग पूरा निर्मित हुआ जा रहा है। और अब एक बड़े पैमाने पर श्रम किया जा सकता है।
तो मेरी दिशा बिलकुल तीसरी है। न पुराने को दोहराना है, न नये की कोई बात है। पुराने और नये में, सबमें जो है, उस पर चलने का आग्रह है। कैसे भी चलें उसकी स्वतंत्रता है।
भगवान, जिस शाश्वत की बात, जिस सनातन की बात आपने की, क्या उसका बोध सात सौ वर्ष पूर्व आपको हो चुका था और उसी सांकेतिक में भी आज आप सारी बात कर रहे हैं? अथवा आज की परिस्थितियों में उस शाश्वतता वाली बात का बोध आपको होता है?
शाश्वत का बोध सभी को हुआ है। बोध में कहीं कोई अड़चन नहीं है। बोध की अभिव्यक्ति में अड़चन पड़ती है। शाश्वत का बोध महावीर को भी है, बुद्ध को भी है। लेकिन महावीर पुराने की भाषा में उस शाश्वत के बोध को अभिव्यक्त करते हैं; बुद्ध नये की भाषा में उस शाश्वत को अभिव्यक्त करते हैं। मैं उसे शाश्वत की ही भाषा में अभिव्यक्त करना चाहता हूं।
और जो आप पूछते हैं कि ‘क्या सात सौ वर्ष पहले मुझे हो गया था?’
करीब-करीब। अभिव्यक्ति तो आज ही दूंगा। क्योंकि सात सौ साल पहले भी जो जाना हो, वह भी जब आज कहा जाएगा, तो जानने में अंतर नहीं पड़ेगा, कहने में बहुत अंतर पड़ेगा। सात सौ साल पहले यही नहीं कहा जा सकता था, कोई कारण ही नहीं था कहने का। स्थिति करीब-करीब ऐसी है जैसे कभी वर्षा में इंद्रधनुष बन जाता है।
यह बहुत मजेदार घटना है। आप जहां खड़े होते हैं तो वहां से इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है। इंद्रधनुष तीन चीजों पर निर्भर होता है। वर्षा के कण, पानी के कण होने चाहिए हवा में, भाप होनी चाहिए हवा में। उन भापों को काटने वाली सूरज की किरणें एक विशेष कोण पर होनी चाहिए। और आप एक खास जगह में खड़े होने चाहिए। अगर आप उस जगह से हट जाएं तो इंद्रधनुष खो जाएगा। इंद्रधनुष के बनाने में सिर्फ सूरज की किरणें और पानी की बूंदें ही काम नहीं करतीं, आपका खास जगह खड़ा होना भी काम करता है।
एक एंगल में।
हां। सिर्फ सूरज की किरणें और पानी नहीं बनाते इंद्रधनुष को, आपकी आंख खास जगह से देख कर भी उतना ही हिस्सा बंटाती है उसके निर्माण में। यानी इंद्रधनुष के कांस्टिट्युएंट एलीमेंट्स जो हैं, उनमें आप भी एक हैं। तीन में से कोई भी हट जाए, इंद्रधनुष खो जाएगा।
तो जब भी सत्य अभिव्यक्त होता है तब भी तीन चीजें होती हैं। सत्य की अनुभूति होती है। वह न हो तब तो सत्य की अभिव्यक्ति नहीं होगी। सूरज न निकला हो तो कोई इंद्रधनुष बनने वाला नहीं है, आप कहीं भी खड़े हो जाएं और वर्षा के कण कुछ भी करें। तो सूर्य की तरह तो सत्य की अनुभूति अनिवार्य है। लेकिन सत्य की अनुभूति भी हो, सत्य को सुनने वाला भी मौजूद हो, लेकिन बोलने वाला ठीक कोण पर न हो तो नहीं बोला जा सकता।
जैसा कि मेहर बाबा को मैं मानता हूं कि वे कभी उस ठीक कोण पर नहीं खड़े हो पाए जहां से उनकी अनुभूति और सुनने वाले के बीच इंद्रधनुष बन जाता। वे उस कोण पर नहीं खड़े हो पाए। बहुत से फकीर मौन रह गए। मौन रहने का कारण है। वे कोण पर नहीं खड़े हो पाए ठीक, जहां से कि अभिव्यक्ति का कोण बन सके। वह भी अनिवार्य है। नहीं तो सत्य की अनुभूति एक तरफ रह जाएगी, सुनने वाला एक तरफ रह जाएगा, बोलने वाला मौजूद नहीं है, ठीक जगह पर नहीं है।
लेकिन बोलने वाला भी ठीक जगह पर हो और ठीक बोलने में समर्थ हो, लेकिन सुनने वाला--वह भी कांस्टिट्युएंट है, वह भी!
सात सौ साल पहले जिससे मैं बोलता वह भी मेरे बोलने में हिस्सा होता। इसलिए मैं यही नहीं बोल सकता था जो मैं आपसे बोल रहा हूं। और आप यहां न बैठे हों तो भी मैं यही नहीं बोल सकूंगा। क्योंकि आप भी, जो मैं बोल रहा हूं, उसमें उतने ही अनिवार्य हिस्से हैं। आपके बिना भी नहीं बोला जा सकता। ये तीनों चीजें जब एक निश्चित ट्यूनिंग पर आती हैं, एक निश्चित ध्वनि-तरंग पर मेल खाती हैं, तब अभिव्यक्ति हो पाती है। उसमें जरा सी भी चूक, कि सब खो जाता है। इंद्रधनुष एकदम बिखर जाता है। सूरज फिर कुछ नहीं कर सकता; रहा भला आए। पानी की बूंदें कुछ नहीं कर सकतीं। एक भी चीज कहीं से हिल गई कि इंद्रधनुष तत्काल खो जाता है।
तो सत्य की अभिव्यक्ति जो है वह रेनबो एक्झिस्टेंस है। वह बिलकुल ही इंद्रधनुष की भांति है। अत्यंत पल-पल खोने को तत्पर। जरा सा इधर-उधर चूके कि वह खो जाएगी। सुनने वाला जरा सा चूका कि इंद्रधनुष खो जाएगा। बोलने वाला जरा सा चूका कि बोलना व्यर्थ हो जाएगा।
इसलिए सात सौ साल की बात तो दूर है, सात दिन पहले भी आपसे मैं यही नहीं कह सकता था, और सात दिन बाद भी यही नहीं कह सकूंगा। क्योंकि सब बदल जाएगा। सूरज नहीं बदलेगा, वह जलता रहेगा। लेकिन सूरज के अलावा, सत्य की अनुभूति के अलावा, वे जो दो और अनिवार्य तत्व हैं--सुनने वाला और बोलने वाला--वे दोनों बदल जाएंगे।
इसलिए बोध तो सात सौ साल पहले का है, लेकिन अभिव्यक्ति तो आज की है--अभी की है। आज की भी नहीं कहनी चाहिए--अभी की! कल भी जरूरी नहीं है कि ऐसी ही हो। कठिन है कि ऐसी ही हो, इसमें बदलाहट होती ही चली जाएगी।
भगवान, आत्मा जब शरीर छोड़ देती है और दूसरा शरीर धारण नहीं करती है, उस बीच के समयातीत अंतराल में जो घटित होता है उसका, तथा जहां वह विचरण करती है उस वातावरण के वर्णन की कोई संभावना हो सकती है? और इसके साथ जिस प्रसंग में आपने आत्मा का अपनी मर्जी से जन्म लेने की स्वतंत्रता का जिक्र किया है, तो क्या उसे जब चाहे शरीर छोड़ने अथवा न छोड़ने की भी स्वतंत्रता है?
पहली तो बात, शरीर छोड़ने के बाद और नया शरीर ग्रहण करने के पहले जो अंतराल का क्षण है, अंतराल का काल है, उसके संबंध में दो-तीन बातें समझें तो ही प्रश्न समझ में आ सके।
एक तो कि उस क्षण जो भी अनुभव होते हैं वे स्वप्नवत हैं, ड्रीम लाइक हैं। इसलिए जब होते हैं तब तो बिलकुल वास्तविक होते हैं, लेकिन जब आप याद करते हैं तब सपने जैसे हो जाते हैं। स्वप्नवत इसलिए हैं वे अनुभव कि इंद्रियों का उपयोग नहीं होता। आपके यथार्थ का जो बोध है, यथार्थ की जो आपकी प्रतीति है, वह इंद्रियों के माध्यम से है, शरीर के माध्यम से है।
अगर मैं देखता हूं कि आप दिखाई पड़ते हैं, और छूता हूं और छूने में नहीं आते, तो मैं कहता हूं कि फैंटम हैं। है नहीं आदमी। यह टेबल मैं छूता हूं और छूने में नहीं आती और हाथ मेरा आर-पार चला जाता है, तो मैं कहता हूं झूठ है। मैं किसी भ्रम में पड़ा हुआ हूं। कोई हैलुसिनेशन है। आपके यथार्थ की कसौटी आपकी इंद्रियों के प्रमाण हैं। तो एक शरीर छोड़ने के बाद और दूसरा शरीर लेने के बीच इंद्रियां तो आपके पास नहीं होतीं, शरीर आपके पास नहीं होता। तो जो भी आपको प्रतीतियां होती हैं, वे बिलकुल स्वप्नवत हैं--जैसे आप स्वप्न देख रहे हैं।
जब आप स्वप्न देखते हैं तो स्वप्न बिलकुल ही यथार्थ मालूम होता है, स्वप्न में कभी संदेह नहीं आता। यह बहुत मजे की बात है। यथार्थ में कभी-कभी संदेह आता है। स्वप्न में कभी संदेह नहीं आता। स्वप्न बहुत श्रद्धावान है। यथार्थ में कभी-कभी ऐसा होता है कि जो दिखाई पड़ रहा है वह सच में है या नहीं! लेकिन स्वप्न में ऐसा कभी नहीं होता कि जो दिखाई पड़ रहा है वह सच में है या नहीं। क्यों? क्योंकि स्वप्न इतने से संदेह को सह न पाएगा, टूट जाएगा, बिखर जाएगा।
स्वप्न इतनी नाजुक घटना है कि इतना सा संदेह भी मौत के लिए काफी है। इतना ही खयाल आ गया कि कहीं यह स्वप्न तो नहीं है, कि स्वप्न टूट गया। या आप समझिए कि आप जाग गए। तो स्वप्न के होने के लिए अनिवार्य है कि संदेह तो कण भर भी न हो। कण भर संदेह भी बड़े से बड़े, प्रगाढ़ से प्रगाढ़ स्वप्न को छिन्न-भिन्न कर जाएगा, तिरोहित कर देगा।
तो स्वप्न में कभी पता नहीं चलता कि जो हो रहा है, वह हो रहा है? बिलकुल हो रहा है। इसका यह भी मतलब हुआ कि स्वप्न जब होता है तब यथार्थ से ज्यादा यथार्थ मालूम पड़ता है। यथार्थ कभी इतना यथार्थ नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि यथार्थ में संदेह की सुविधा है। स्वप्न तो अति यथार्थ होता है। इतना अति यथार्थ होता है कि स्वप्न के दो यथार्थ में विरोध भी हो, तो विरोध दिखाई नहीं पड़ता।
एक आदमी चला आ रहा है, अचानक कुत्ता हो जाता है, और आपके मन में यह भी खयाल नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है! यह अभी आदमी था, यह कुत्ता हो गया? नहीं, यह भी खयाल नहीं आता कि यह कैसे हो सकता है! बस हो गया। और हो सकता है। इसमें कहीं संदेह नहीं है। जागने पर आप सोच सकते हैं कि यह क्या गड़बड़ हुई! लेकिन स्वप्न में कभी नहीं सोच सकते। स्वप्न में यह बिलकुल ही रीजनेबल है, इसमें कहीं कोई असंगति नहीं है। बिलकुल ठीक है। एक आदमी अभी मित्र था और एकदम बंदूक तान कर खड़ा हो गया। तो आपके मन में कहीं ऐसा सपने में नहीं आता कि अरे, मित्र होकर और बंदूक तानते हो! इसमें कोई असंगति नहीं है।
स्वप्न में असंगति होती ही नहीं। स्वप्न में सब असंगत भी संगत है। क्योंकि जरा सा शक, कि स्वप्न बिखर जाएगा। लेकिन जागने के बाद! जागने के बाद सब खो जाता है। कभी खयाल न किया होगा कि जाग कर ज्यादा से ज्यादा घंटे भर के बीच सपना याद किया जा सकता है, इससे ज्यादा नहीं। आमतौर से तो पांच-सात मिनट में खोने लगता है। लेकिन ज्यादा से ज्यादा, बहुत जो कल्पनाशील हैं वे भी एक घंटे से ज्यादा स्वप्न की स्मृति को नहीं रख सकते। नहीं तो आपके पास सपने की ही स्मृति इतनी हो जाएं कि आप जी न सकें। घंटे भर के बाद जागने के भीतर स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं। आपका मन स्वप्न के धुएं से बिलकुल मुक्त हो जाता है।
ठीक ऐसे ही दो शरीरों के बीच का जो अंतराल का क्षण है, जब होता है तब तो जो भी होता है वह बिलकुल ही यथार्थ है--इतना यथार्थ, जितना हमारी आंखों और इंद्रियों से कभी हम नहीं जानते। इसलिए देवताओं के सुख का कोई अंत नहीं! क्योंकि अप्सराएं जैसी यथार्थ उन्हें होती हैं, इंद्रियों से स्त्रियां वैसी यथार्थ कभी नहीं होती हैं। इसलिए प्रेतों के दुख का अंत नहीं! क्योंकि जैसे दुख उन पर टूटते हैं, ऐसे यथार्थ दुख आप पर कभी नहीं टूट सकते। तो नरक और स्वर्ग जो हैं वे बहुत प्रगाढ़ स्वप्न अवस्थाएं हैं--बहुत प्रगाढ़! तो जैसी आग नरक में जलती है वैसी आग आप यहां नहीं जला सकते। उतनी यथार्थ आग नहीं जला सकते। हालांकि बड़ी इनकंसिस्टेंट आग है।
कभी आपने देखा कि नरक की आग का जो-जो वर्णन है, उसमें यह बात है कि आग में जलाए जाते हैं, लेकिन जलते नहीं। मगर यह इनकंसिस्टेंसी खयाल में नहीं आती कि आग में जलाया जा रहा हूं, आग भयंकर है, तपन सही नहीं जाती, और जल बिलकुल नहीं रहा हूं! मगर यह इनकंसिस्टेंसी बाद में खयाल आ सकती है। उस वक्त खयाल नहीं आ सकती।
तो दो शरीरों के बीच का जो अंतराल है उसमें दो तरह की आत्माएं हैं। एक तो वे बहुत बुरी आत्माएं, जिनके लिए गर्भ मिलने में वक्त लगेगा। उनको मैं प्रेत कहता हूं। दूसरी वे भली आत्माएं, जिन्हें गर्भ मिलने में देर लगेगी, उनके योग्य गर्भ चाहिए। उन्हें मैं देव कहता हूं। इन दोनों में बुनियादी कोई भेद नहीं है--व्यक्तित्व भेद है, चरित्रगत भेद है, चित्तगत भेद है। योनि में कोई भेद नहीं है। अनुभव दोनों के भिन्न होंगे। बुरी आत्माएं बीच के इस अंतराल से इतने दुखद अनुभव लेकर लौटेंगी, उनकी ही स्मृति का फल नरक है। जो-जो उस स्मृति को दे सके हैं लौट कर, उन्होंने ही नरक की स्थिति साफ करवाई। नरक बिलकुल ड्रीमलैंड है, कहीं है नहीं। लेकिन जो उससे आया है वह मान नहीं सकता। क्योंकि आप जो दिखा रहे हैं, यह उसके सामने कुछ भी नहीं है। वह कहता है, यह जो आग है बहुत ठंडी है उसके मुकाबले जो मैंने देखी। यहां जो घृणा और हिंसा है वह कुछ भी नहीं है जो मैं देख कर चला आ रहा हूं। वह जो स्वर्ग का अनुभव है, वह भी ऐसा ही अनुभव है। सुखद सपनों का और दुखद सपनों का भेद है। वह पूरा का पूरा ड्रीम पीरियड है।
अब यह तो बहुत तात्विक समझने की बात है कि वह बिलकुल ही स्वप्न है। हम समझ सकते हैं, क्योंकि हम भी रोज सपना देख रहे हैं। सपना आप तभी देखते हैं जब आपके शरीर की इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं। एक गहरे अर्थ में आपका संबंध टूट जाता है। तो आप सपने में चले जाते हैं। सपने भी रोज ही दो तरह के देखते हैं--स्वर्ग और नरक के; या तो मिश्रित होते हैं, कभी स्वर्ग, कभी नरक; या कुछ लोग नरक के ही देखते हैं, कुछ लोग स्वर्ग के ही देखते हैं। कभी सोचें कि आपका सपना रात आठ घंटा आपने देखा। अगर इसको आठ साल लंबा कर दिया जाए तो आपको कभी पता नहीं चलेगा। क्योंकि टाइम का बोध नहीं रह जाता, समय का कोई बोध नहीं रह जाता। इसलिए वह जो घड़ी बीतती है, उस घड़ी का कोई स्पष्ट बोध नहीं रह जाता। उस घड़ी का बोध पिछले जन्म के शरीर और इस जन्म के शरीर के बीच पड़े हुए परिवर्तनों से नापा जा सकता है। पर वह अनुमान है। खुद उसके भीतर समय का कोई बोध नहीं है।
और इसीलिए, जैसे क्रिश्चिएनिटी ने कहा कि नरक सदा के लिए है। वह भी ऐसे लोगों की स्मृति के आधार पर है जिन्होंने बड़ा लंबा सपना देखा। इतना लंबा सपना कि जब वे लौटे तो उन्हें पिछले अपने शरीर के और इस शरीर के बीच कोई संबंध स्मरण न रहा। इतना लंबा हो गया। लगा कि वह तो अनंत है, उसमें से निकलना बहुत मुश्किल है।
अच्छी आत्माएं सुखद सपने देखती हैं, बुरी आत्माएं दुखद सपने देखती हैं। सपनों से ही पीड़ित और दुखी होती हैं। तिब्बत में आदमी मरता है तो वे उसको मरते वक्त जो सूत्र देते हैं वह इसी के लिए है, ड्रीम सीक्वेंस पैदा करने के लिए है। आदमी मर रहा है तो वे उसको कहते हैं कि अब तू यह-यह देखना शुरू कर। सारा का सारा वातावरण तैयार करते हैं।
अब यह मजे की बात है, लेकिन वैज्ञानिक है--कि सपने बाहर से पैदा करवाए जा सकते हैं। रात आप सो रहे हैं। आपके पैर के पास अगर गीला पानी, भीगा हुआ कपड़ा आपके पैर के पास घुमाया जाए तो आपमें एक तरह का सपना पैदा होगा। हीटर से थोड़ी पैर में गर्मी दी जाए तो दूसरे तरह का सपना पैदा होगा। अगर ठंडक दी गई पैर में, तो शायद आप सपना देखें कि वर्षा हो रही है, शायद सपना देखें कि बर्फ पर चल रहे हैं। गर्म पैर किए गए, तो शायद सपना देखें कि रेगिस्तान में चले जा रहे हैं। तपती हुई रेत है, सूरज जल रहा है, पसीने से लथपथ हैं। आपके बाहर से सपने पैदा किए जा सकते हैं। और बहुत से सपने आपके बाहर से ही पैदा होते हैं। रात छाती पर हाथ रख गया जोर से तो सपना आता है कि कोई छाती पर चढ़ा हुआ बैठा है--आपका ही हाथ रखा हुआ है।
ठीक एक शरीर छोड़ते वक्त, वह जो सपने का लंबा काल आ रहा है--जिसमें आत्मा नये शरीर में शायद जाए, न जाए--जो वक्त बीतेगा बीच में, उसका सीक्वेंस पैदा करवाने की सिर्फ तिब्बत में साधना विकसित की गई। उसको वे ‘बारडो’ कहते हैं। वे पूरा इंतजाम करेंगे उसका सपना पैदा करने की। उसमें जो-जो शुभ वृत्तियां रही हैं उसकी जिंदगी में, उन सबको उभारेंगे। और जिंदगी भर भी उनकी व्यवस्था करने की कोशिश करेंगे कि मरते वक्त वे उभारी जा सकें।
जैसा मैंने कहा कि सुबह उठ कर घंटे भर तक आपको सपना याद रहता है। ऐसा ही नये जन्म पर कोई छह महीने तक, छह महीने की उम्र तक करीब-करीब सब याद रहता है। फिर धीरे-धीरे वह खोता चला जाता है। जो बहुत कल्पनाशील हैं या बहुत संवेदनशील हैं, वे कुछ थोड़ा ज्यादा रख लेते हैं। जिन्होंने अगर कोई तरह की जागरूकता के प्रयोग किए हैं पिछले जन्म में, तो वे बहुत देर तक रख ले सकते हैं।
जैसे सुबह एक घंटे तक सपना याददाश्त में घूमता रहता है, धुएं की तरह आपके आस-पास मंडराता रहता है, ऐसे ही रात सोने के घंटे भर पहले भी आपके ऊपर स्वप्न की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। ऐसे ही मरने के भी छह महीने पहले आपके ऊपर मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए छह महीने के भीतर मौत प्रिडिक्टेबल है।
एक्सीडेंट भी?
एक्सीडेंट भी बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। उसकी बात करेंगे। कोई एक्सीडेंट बिलकुल एक्सीडेंट नहीं है। हमें लगता है, क्योंकि हमारी व्यवस्था के कुछ भीतर नहीं घटित होता। लेकिन कोई दुर्घटना सिर्फ दुर्घटना नहीं है। दुर्घटना भी सकारण है।
छह महीने पहले मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है, तैयारी शुरू हो जाती है। जैसे रात नींद के एक घंटे पहले तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए सोने के पहले जो घंटे भर का वक्त है, वह बहुत सजेस्टिबल है। उससे ज्यादा सजेस्टिबल कोई वक्त नहीं है। क्योंकि उस वक्त आपको शक होता है कि आप जागे हुए हैं, लेकिन आप पर नींद की छाया पड़नी शुरू हो गई होती है। इसलिए सारे दुनिया के धर्मों ने सोने के वक्त घंटे भर और सुबह जागने के बाद घंटे भर प्रार्थना का समय तय किया है--संध्याकाल!
संध्याकाल का मतलब सूरज जब डूबता है, उगता है, तब नहीं। संध्याकाल का मतलब है सोने से जब आप नींद में जाते हैं, बीच का समय। सुबह जब आप नींद से टूट कर और जागने में आते हैं, तब बीच की संध्या। वह जो मिडिल पीरियड है, उसका नाम है संध्या। सूरज से कोई लेना-देना नहीं है। वह तो बंध गया सूरज के साथ इसलिए कि एक जमाना ऐसा था कि सूरज का डूबना ही हमारा नींद का वक्त था और सूरज का उगना हमारे जागने का वक्त था। तो एसोसिएशन हो गया और खयाल में आ गया कि सूरज जब डूब रहा है तो संध्या और सुबह जब सूरज उग रहा है तब संध्या।
लेकिन अब संध्या का वह खयाल छोड़ देना चाहिए। क्योंकि अब कोई सूरज के डूबने के साथ सोता नहीं और कोई उगने के साथ उठता नहीं। जब आप सोते हैं उसके घंटे भर पहले संध्या और जब आप उठते हैं उसके घंटे भर बाद संध्या। संध्या का मतलब धुंधला क्षण--दो स्थितियों के बीच।
कबीर ने अपनी भाषा को संध्या-भाषा कहा है। कबीर कहते हैं कि न तो हम सोए हुए बोल रहे हैं, न हम जागे हुए बोल रहे हैं। हम बीच में हैं। हम ऐसी मुसीबत में हैं कि हम तुम्हारे बीच से भी नहीं बोल रहे, हम तुम्हारे बाहर से भी नहीं बोल रहे, हम बीच में खड़े हैं, बार्डर लैंड पर। वहां, जहां से हमें वह दिखाई पड़ता है जो आंखों से दिखाई नहीं पड़ता और जहां से हमें वह भी दिखाई पड़ रहा है जो आंखों से दिखाई पड़ता है। देहरी पर खड़े हैं। तो हम जो बोल रहे हैं उसमें वह भी है जो नहीं बोला जा सकता और वह भी है जो बोला जा सकता है। इसलिए हमारी भाषा संध्या-भाषा है। इसके अर्थ तुम जरा सम्हाल कर निकालना।
यह जो सुबह का एक घंटे का वक्त है और सांझ सोने के पहले जो घंटे भर का वक्त है, यह बहुत मूल्यवान है। ठीक ऐसे ही छह महीने जन्म के बाद का वक्त है और छह महीने मरने के पहले का वक्त है। लेकिन जो लोग रात के घंटे भर का और सुबह के घंटे भर के समय का उपयोग नहीं जानते, वे छह महीने के शुरू का और छह महीने के बाद का भी उपयोग नहीं जानेंगे। जब संस्कृतियां बहुत समझदार थीं इस मामले में तो पहले छह महीने बड़े महत्वपूर्ण थे। बच्चे को पहले छह महीने में ही सब-कुछ दिया जा सकता है जो भी महत्वपूर्ण है। फिर कभी नहीं दिया जा सकता। फिर बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि उस वक्त वह संध्याकाल में है, सजेस्टिबल है। लेकिन हम चूंकि बोल कर कुछ नहीं समझा सकते उसको, और चूंकि बोलने के सिवाय हमें और कुछ रास्ता नहीं है कहने का, इसलिए अड़चन है।
और ऐसे ही मरने के पहले का छह महीने का वक्त बहुत कीमती है। लेकिन बच्चे को हम समझा नहीं पाते, छह महीने तो हमें पता होते हैं कि ये रहे। और बूढ़े के हमें छह महीने पता नहीं होते कि कब छह महीने हैं। इसलिए दोनों मौके चूक जाते हैं। लेकिन जो आदमी सुबह के घंटे भर का उपयोग करे और रात के घंटे भर का ठीक उपयोग करे, वह अपने इस बार मरने के छह महीने पहले उसे पक्का पता चल जाएगा कि मरना है। क्योंकि जो आदमी रात सोने के पहले घंटे भर प्रार्थना में व्यतीत कर दे उसे स्पष्ट बोध होने लगेगा कि संध्या का काल क्या है। वह इतना बारीक और सूक्ष्म अनुभव है उसकी भिन्नता का, न तो वह जागने जैसा है, न सोने जैसा। वह इतना बारीक और अलग है कि अगर उसकी प्रतीति होनी शुरू हो गई तो मरने के छह महीने पहले आपको पता लगेगा कि अब वह प्रतीति रोज दिन भर रहने लगी है। वही प्रतीति, जो घंटे भर रात सोते वक्त आपके भीतर आती है, वह मरने के पहले छह महीने स्थिर हो जाएगी।
इसलिए मरने के पहले के छह महीने तो पूरी साधना में डुबा देने हैं। वही छह महीने बारडो के लिए उपयोग किए जाते हैं जिसमें वे ड्रीम ट्रेनिंग देते हैं कि अब अगली यात्रा में तुम क्या करोगे। वह कोई ठीक मरते वक्त नहीं दी जा सकती एकदम। उसके लिए तैयारी छह महीने की चाहिए। और जो आदमी इस छह महीने में तैयार हुआ हो, उसी आदमी को उसके अगले जन्म के पहले छह महीने में ट्रेनिंग दी जा सकती है, अन्यथा नहीं दी जा सकती है। क्योंकि इस छह महीने में वे सारे सूत्र उसे सिखा दिए जाते हैं, जिन सूत्रों के आधार पर उसके अगले छह महीने में उसको ट्रेनिंग दी जा सकेगी।
अब इस सबकी पूरी की पूरी अपनी वैज्ञानिकता है और इस सबके अपने सूत्र और राज हैं। और सारी चीजें तय की जा सकती हैं। वे जो अनुभव हैं उस बीच के, जो आदमी सारी प्रक्रिया से गुजरा हो, वह छह महीने के बाद भी याद रख सकता है। लेकिन याददाश्त सपने की रह जाती है, यथार्थ की नहीं होती। स्वर्ग-नरक दोनों ही सपने की याददाश्त हो जाते हैं। विवरण दिए जा सकते हैं। उन्हीं विवरणों के आधार पर सारी दुनिया में स्वर्गों-नरकों का सब लेखा-जोखा निर्मित हुआ है। लेकिन विवरण अलग-अलग हैं, क्योंकि सबके स्वर्ग-नरक अलग-अलग होंगे। क्योंकि स्वर्ग-नरक कोई स्थान नहीं हैं, मानसिक दशाएं हैं। इसलिए जब ईसाई स्वर्ग का वर्णन करते हैं तो वह और तरह का है। वह और तरह का इसलिए है कि जिन्होंने वर्णन किया है उन पर निर्भर है। भारतीय जब वर्णन करते हैं तो और तरह का होगा; जैन और तरह का करेंगे; बौद्ध और तरह का करेंगे। असल में हर आदमी और तरह की खबर लाएगा।
करीब-करीब स्थिति ऐसी है जैसे हम सारे लोग इस कमरे में आज सो जाएं और कल सुबह उठ कर अपने-अपने सपनों की चर्चा करें। हम एक ही जगह सोए थे, हम सब यहीं थे, फिर भी हमारे सपने अलग-अलग हैं। वे हम पर निर्भर करेंगे। इसलिए स्वर्ग और नरक बिलकुल वैयक्तिक घटनाएं हैं। लेकिन मोटे हिसाब बांधे जा सकते हैं--कि स्वर्ग में सुख होगा, कि नरक में दुख होगा, कि दुख के क्या रूप होंगे, कि सुख के क्या रूप होंगे। ये मोटे हिसाब बांटे जा सकते हैं। ये सारे ब्योरे, जो भी दिए गए हैं अब तक, वे सभी सही हैं चित्त-दशाओं की भांति।
और पूछा है कि जन्म को चुन सकता है व्यक्ति तो क्या अपनी मृत्यु को भी चुन सकता है?
इसमें भी दो-तीन बातें खयाल में लेनी पड़ेंगी। एक, जन्म को चुन सकने का मतलब यह है कि चाहे तो जन्म ले। यह तो पहली स्वतंत्रता है ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति को--चाहे तो जन्म ले। लेकिन जैसे ही हमने कोई चीज चाही कि चाह के साथ परतंत्रताएं आनी शुरू हो जाती हैं।
मैं मकान के बाहर खड़ा था। मुझे स्वतंत्रता थी कि चाहूं तो मकान के भीतर जाऊं। मकान के भीतर मैं आया। लेकिन मकान के भीतर आते ही से मकान की सीमाएं और मकान की परतंत्रताएं तत्काल शुरू हो जाती हैं। तो जन्म लेने की स्वतंत्रता जितनी बड़ी है, उतनी मरने की स्वतंत्रता उतनी बड़ी नहीं है। उतनी बड़ी नहीं है। रहेगी। साधारण आदमी को तो मरने की कोई स्वतंत्रता नहीं है, क्योंकि उसने जन्म को ही कभी नहीं चुना। लेकिन फिर भी जन्म की स्वतंत्रता बहुत बड़ी है, टोटल है एक अर्थ में, कि वह चाहे तो इनकार भी कर दे, न चुने। लेकिन चुनने के साथ ही बहुत सी परतंत्रताएं शुरू हो जाती हैं। क्योंकि अब वह सीमाएं चुनता है। वह विराट जगह को छोड़ कर संकरी जगह में प्रवेश करता है। अब संकरी जगह की अपनी सीमाएं होंगी।
अब वह एक गर्भ चुनता है। साधारणतः तो हम गर्भ नहीं चुनते इसलिए कोई बात नहीं है। लेकिन वैसा आदमी गर्भ चुनता है। उसके सामने लाखों गर्भ होते हैं। उनमें से वह एक गर्भ चुनता है। हर गर्भ के चुनाव के साथ वह परतंत्रता की दुनिया में प्रवेश कर रहा है। क्योंकि गर्भ की अपनी सीमाएं हैं। उसने एक मां चुनी है, एक पिता चुना है। उन मां और पिता के वीर्याणुओं की जितनी आयु हो सकती है वह उसने चुन ली। यह चुनाव हो गया। अब इस शरीर का उसे उपयोग करना पड़ेगा।
आप बाजार में एक मशीन खरीदने गए हैं, एक दस साल की गारंटी की मशीन आपने चुन ली। अब सीमा आ गई एक। पर यह वह जान कर ही चुन रहा है। इसलिए परतंत्रता उसे नहीं मालूम पड़ेगी। परतंत्रता हो जाएगी, लेकिन वह जान कर ही चुन रहा है। आप यह नहीं कहते कि मैंने यह मशीन खरीदी, तो दस साल चलेगी तो अब मैं गुलाम हो गया। आपने ही चुनी है, दस साल चलेगी यह जान कर चुनी है, बात खत्म हो गई है। इसमें कहीं कोई पीड़ा नहीं है, इसमें कहीं कोई दंश नहीं है। यद्यपि वह जानता है कि यह शरीर कब समाप्त हो जाएगा। और इसलिए इस शरीर के समाप्त होने का जो बोध है, वह उसे होगा। वह जानता है, कब समाप्त हो जाएगा। इसलिए इस तरह के आदमी में एक तरह की व्यग्रता होगी, जो साधारण आदमी में नहीं होती है।
अगर हम जीसस की बातें पढ़ें तो ऐसा लगता है वे बहुत व्यग्र हैं। अभी कुछ होने वाला है, अभी कुछ हो जाने वाला है। उनकी तकलीफ वे लोग नहीं समझ सकते, जो सुन रहे हैं। वे नहीं समझ सकते, क्योंकि उनके लिए मृत्यु का कोई सवाल नहीं है और जीसस के लिए वह सामने खड़ी है। जीसस को पता है कि यह हो जाने वाला है। इसलिए अगर जीसस आपसे कह रहे हैं यह काम कर लो, आप कहते हैं कल कर लेंगे। अब जीसस की कठिनाई है कि वह जानता है कि कल वह कहने को नहीं होगा।
तो चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हों, चाहे जीसस हों, इनकी व्यग्रता बहुत ज्यादा है। बहुत तीव्रता से भाग रहे हैं। क्योंकि वे सारे मुर्दों के बीच में ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें पता है। बाकी सब तो बिलकुल निश्ंिचत हैं; कोई जल्दी नहीं है। और कितनी ही उम्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, जल्दी होगी ही ऐसे आदमी को। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह सौ साल जीएगा कि दो सौ साल जीएगा। सारा समय छोटा है। वह तो हमें समय छोटा नहीं मालूम पड़ता, क्योंकि वह कब खत्म होगा, यह हमें कुछ पता नहीं है। खत्म भी होगा, यह भी हम भुलाए रखते हैं।
तो जन्म की स्वतंत्रता तो बहुत ज्यादा है। लेकिन जन्म कारागृह में प्रवेश है, तो कारागृह की अपनी परतंत्रताएं हैं, वे स्वीकार कर लेनी पड़ेंगी।
और ऐसा व्यक्ति सहजता से स्वीकार करता है, क्योंकि वह चुन रहा है। अगर वह कारागृह में आया है तो वह लाया नहीं गया है, वह आया है। इसलिए वह हाथ बढ़ा कर जंजीरें डलवा लेता है। इन जंजीरों में कोई दंश नहीं है, इनमें कोई पीड़ा नहीं है। वह अंधेरी दीवालों के पास सो जाता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि किसी ने उसे कहा नहीं था कि वह भीतर जाए। वह खुले आकाश के नीचे रह सकता था। अपनी ही मर्जी से आया है, यह उसका चुनाव है।
जब परतंत्रता भी चुनी जाती है तो वह स्वतंत्रता है। और जब स्वतंत्रता भी बिना चुनी मिलती है तो परतंत्रता है। स्वतंत्रता-परतंत्रता इतनी सीधी बंटी हुई चीजें नहीं हैं। अगर हमने परतंत्रता भी स्वयं चुनी है तो वह स्वतंत्रता है। और अगर हमें स्वतंत्रता भी जबरदस्ती दे दी गई है तो वह परतंत्रता ही होती है, उसमें कोई स्वतंत्रता नहीं है।
फिर भी, ऐसे व्यक्ति के लिए बहुत सी बातें साफ होती हैं, इसलिए वह चीजों को तय कर सकता है। जैसे उसे पता है कि वह सत्तर साल में चला जाएगा तो वह चीजों को तय कर पाता है। जो उसे करना है, वह साफ कर लेता है। चीजों को उलझाता नहीं। जो सत्तर साल में सुलझ जाए वैसा ही काम कर लेता है। जो कल पूरा हो सकेगा, वह निपटा देता है। वह इतने जाल नहीं फैलाता जो कि कल के बाहर चले जाएं। इसलिए वह कभी चिंता में नहीं होता। वह जैसे जीता है वैसे ही मरने की भी सारी तैयारी करता रहता है। मौत भी उसके लिए एक प्रिपरेशन है, एक तैयारी है।
एक अर्थ में वह बहुत जल्दी में होता है, जहां तक दूसरों का संबंध है। जहां तक खुद का संबंध है, उसकी कोई जल्दी नहीं होती। क्योंकि कुछ करने को उसे बचा नहीं होता है। फिर भी इस मृत्यु को, वह कैसे घटित हो, इसका चुनाव कर सकता है। कब घटित हो, इसकी व्यवस्था दे सकता है--सीमाओं के भीतर। सत्तर साल उसका शरीर चलना है तो सीमाओं के भीतर वह सत्तर साल में ठीक मोमेंट दे सकता है मरने का, कि वह कब मरे, कैसे मरे, किस व्यवस्था और किस ढंग में मरे!
एक झेन फकीर औरत हुई। उसने कोई छह महीने पहले अपने मरने की खबर दी। उसने अपनी चिता तैयार करवाई। फिर वह चिता पर सवार हो गई। फिर उसने सबको नमस्कार कर लिया। फिर सारे मित्रों ने आग लगा दी। तब एक साधु, जो देख रहा था खड़ा हुआ, उसने जोर से पूछा--जब आग की लपटें लग गईं और वह जलने के करीब होने लगी--उसने पूछा उससे कि वहां भीतर गर्मी तो बहुत मालूम होती होगी? तो वह फकीर औरत हंसी और उसने कहा कि तुम जैसे मूढ़, अभी भी इस तरह के सवाल उठाए जा रहे हो? मतलब और तुम्हें कोई काम लायक बात पूछने की नहीं खयाल में आई। तुम जैसे मूढ़, अभी भी ऐसे सवाल उठाए जा रहे हो? अब यह तो तुम्हें दिखाई ही पड़ रहा है! और आग में बैठूंगी तो गर्मी लगेगी या नहीं लगेगी, यह मुझे भी पता है।
पर यह चुना हुआ है। वह हंसते हुए जल जाती है। वह अपनी मृत्यु के क्षण को चुनती है। और उसके जो हजारों शिष्य इकट्ठे हो गए हैं उनको वह दिखा देना चाहती है कि हंसते हुए मरा जा सकता है। जिनके लिए हंसते हुए जीना मुश्किल है उनके लिए यह संदेश बड़े काम का है। जिनके लिए हंसते हुए जीना भी मुश्किल है उनके लिए यह संदेश बड़े काम का है कि हंसते हुए मरा जा सकता है।
तो मृत्यु को नियोजित किया जा सकता है। वह व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि वह कैसा चुनाव करता है। लेकिन सीमाओं के भीतर सारी बात होगी। असीम नहीं है मामला। सीमाओं के भीतर वह कुछ तय करेगा। इस कमरे के भीतर ही रहना पड़ेगा मुझे, लेकिन मैं किस कोने में बैठूं, यह मैं तय कर सकता हूं। बाएं सोऊं कि दाएं सोऊं, यह मैं तय कर सकता हूं। ऐसी स्वतंत्रताएं होंगी।
और ऐसे व्यक्ति अपनी मृत्यु का निश्चित ही उपयोग करते हैं। कई बार प्रकट दिखाई पड़ता है उपयोग, कई बार प्रकट दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन ऐसे व्यक्ति अपने जीवन की प्रत्येक चीज का उपयोग करते हैं, वे मृत्यु का भी उपयोग करते हैं। असल में वे आते ही अब किसी उपयोग के लिए हैं। उनका अपना कोई प्रयोजन नहीं रह गया होता है। अब उनका आना कुछ किसी के काम पड़ जाने के लिए है। तो वे जीवन की प्रत्येक चीज का उपयोग कर लेते हैं।
पर बड़ा ही कठिन है, बड़ा कठिन है कि हम उनके प्रयोग को समझ पाएं। जरूरी नहीं है! अक्सर हम नहीं समझ पाते। क्योंकि जो भी वे कुछ कर रहे हैं, हमें तो कुछ पता नहीं होता। और हमें पता करवा कर किया भी नहीं जा सकता।
अब जैसे बुद्ध जैसा आदमी नहीं कहेगा कि मैं कल मर जाने वाला हूं। क्योंकि कल मरना है यह आज कह देने का मतलब होगा कि कल तक जो भी जीवन का उपयोग हो सकता था वह मुश्किल हो जाएगा। ये लोग आज से ही रोना-धोना, चिल्लाना शुरू कर देंगे। ये चौबीस घंटे का जो उपयोग हो सकता था वह भी नहीं हो सकेगा। तो कई बार चुपचाप रह कर वैसा व्यक्ति ठीक समझेगा तो करेगा, कई दफे घोषणा भी करेगा--जैसी तत्काल परिस्थिति। पर इतनी सीमा तक वह तय करता है।
और ज्ञान के बाद का जन्म, जन्म से लेकर मृत्यु तक पूरा ही पूरा एक शिक्षण है, खुद के लिए नहीं। एक अनुशासन है, खुद के लिए नहीं। और हर बार स्ट्रेटेजी बदलनी पड़ती है। क्योंकि सब स्ट्रेटेजी पुरानी पड़ जाती हैं और बोथली हो जाती हैं, और लोगों को समझने में मुश्किल पड़ जाती है।
अब गुरजिएफ था अभी। महावीर कभी पैसा नहीं छुएंगे; गुरजिएफ से आप एक सवाल पूछेंगे तो वह कहेगा, सौ रुपये पहले रख दें। सौ रुपये बिना रखे वह सवाल भी स्वीकार नहीं करेगा। सौ रुपये रखवा लेगा, तब एक सवाल का जवाब देगा। हो सकता है एक वाक्य बोले, हो सकता है दो वाक्य बोले। फिर दूसरी बात पूछनी है तो फिर सौ रुपये रख दें।
अनेक बार लोगों ने उससे कहा कि आप यह क्या करते हैं? और जो उसे जानते थे वे हैरान होते थे, क्योंकि ये रुपये यहां आए और यहां वे बंट जाने वाले हैं। कुछ भी होने वाला है उनका। कोई गुरजिएफ उनको रखने वाला है एक क्षण को, ऐसा भी नहीं है; वे इधर-उधर बंट जाने वाले हैं। फिर किसलिए ये सौ रुपये मांग लिए हैं?
गुरजिएफ ने कभी कहा कि जिन लोगों के मन में सिर्फ रुपये का मूल्य है उन्हें परमात्मा के संबंध में मुफ्त कहना गलत है--एकदम गलत है। क्योंकि उनकी जिंदगी में मुफ्त चीज का कोई मूल्य नहीं होता। और गुरजिएफ कहता कि हर चीज के लिए चुकाना पड़ेगा कुछ। जो चुकाने की तैयारी नहीं रखता, कुछ भी चुकाने की तैयारी नहीं रखता, उसको पाने का हक भी नहीं है।
लेकिन लोग समझते कि गुरजिएफ को पैसे पर बड़ी पकड़ है। जो दूर से ही देखते हैं उनको तो लगता ही कि पैसे की बड़ी पकड़ है, बिना पैसे के सवाल का जवाब भी नहीं देता है।
पर मैं मानता हूं कि जिस जगह वह था, पश्चिम में, जहां पैसा एकमात्र मूल्य हो गया, वहां उसी तरह के शिक्षक की जरूरत थी। एक-एक शब्द का मूल्य ले लेना। क्योंकि वह जानता है, जिस शब्द के लिए तुमने सौ रुपये दिए हैं, तुमने सौ रुपये देने की तैयारी दिखाई है जिस शब्द के लिए, तुम उसको ही ले जाओगे, बाकी तुम कुछ ले जाने वाले नहीं हो।
गुरजिएफ बहुत से ऐसे काम करेगा जो बिलकुल ही कठिन मालूम पड़ेंगे। उसके शिष्य बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे, वे कहेंगे, यह आप न करते तो अच्छा था। और वह जान कर करेगा। वह बैठा है, आप उससे मिलने गए हैं, वह ऐसी शक्ल बना लेगा कि ऐसा लगे कि जैसे ठीक गुंडा-बदमाश है। साधु तो बिलकुल नहीं है। बहुत दिन तक सूफी प्रयोग करने की वजह से आंखों के कोण को वह तत्काल कैसा भी बदल सकता था। और आंखों के कोण के बदलने से पूरी शक्ल बदल जाती है। एक गुंडे में और एक साधु में आंख के अलावा और कोई फर्क नहीं होता। बाकी तो सब एक सा ही होता है। पर आंख का कोण जरा ही बदला कि सब साधु गुंडा हो जाता है, गुंडा साधु हो जाता है। आंखें उसकी बिलकुल ढीली थीं दोनों। आंखों को वह कैसा ही, उनकी पुतलियां कैसे ही कोण ले सकती थीं। यह एक सेकेंड में, इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता था। यह बगल वाले को पता ही नहीं चलेगा कि उसने दूसरे को गुंडा दिखा दिया है, यह बगल वाले को पता ही नहीं चलेगा कि उसने एक आदमी को घबड़ा दिया है। और बगल वाला आदमी घबड़ा गया कि यह आदमी कैसा है! मैं कहां आ गया!
उसके मित्रों ने जब धीरे-धीरे पकड़ा कि वह इस तरह कई लोगों को परेशान करता है तो उन्होंने कहा कि आप यह क्या करते हैं? हमें पता ही नहीं चलता कि वह बेचारा आया था, आपने उसे ऐसा...।
तो गुरजिएफ कहता कि वह आदमी, अगर मैं साधु भी होता तो मुझमें गुंडा खोज लेता। थोड़ी देर लगती। मैंने उसका वक्त जाया नहीं करवाया। मैंने कहा, तू देख ले, तू जा। क्योंकि तू नाहक दो-चार दिन चक्कर लगाएगा, खोजेगा तू यही। मैं तुझे खुद ही सौंपे देता हूं। अगर वह इसके बाद भी रुक जाता तो मैं उसके साथ मेहनत करता।
इसलिए बहुत मुश्किल मामला है। जो गुरजिएफ को गुंडा समझ कर चला गया है, अब कभी दुबारा नहीं आएगा। लेकिन गुरजिएफ का जानना गहरा है। वह ठीक कह रहा है। वह कह रहा है, यह आदमी यही खोज लेता। इसको खुद मेहनत करना पड़ती। वह काम मैंने हल कर दिया। इसके चार दिन खराब नहीं हुए और मेरे चार दिन खराब नहीं हुए। अगर यह सच में ही किसी खोज में आया था, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था, यह फिर भी रुकता। यह मेरे बावजूद रुके तो ही रुका, मेरी वजह से रुके तो मैं इसको रुकना नहीं कहूंगा। यह खोजने आया हो तो रुके, धैर्य रखे, थोड़ी जल्दी न करे। इतने जल्दी नतीजे लेगा कि मेरी आंख जरा ऐसी हो गई तो इसने समझा कि आदमी गड़बड़ है, इतने जल्दी नतीजे लेगा तो मुझमें कुछ न कुछ इसे मिल जाएगा जिसमें वह नतीजे लेकर चला जाएगा।
अब यह एक-एक शिक्षक के साथ होगा कि वह क्या करता है, कैसे करता है। बहुत बार तो जिंदगी भर पता नहीं चलता कि उसके करने की व्यवस्था क्या है। पर वह जिंदगी के प्रत्येक क्षण का उपयोग करता है--जन्म से लेकर मृत्यु तक। एक भी क्षण व्यर्थ नहीं है। उसकी कोई गहरी सार्थकता है, किसी बड़े प्रयोजन और किसी बड़ी नियति में उपयोग है।