MAHAVIR
Mahaveer Ya Mahavinash 04
Fourth Discourse from the series of 8 discourses - Mahaveer Ya Mahavinash by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं देश के कोने-कोने में गया हूं। हजारों आंखों, लाखों आंखों में देखने का मौका मिला है। जैसे मनुष्य को देखता हूं--ऊपर हंसने की, आनंद की, सुख की एक झलक दिखाई पड़ती है, पर पीछे घना दुख, बहुत दुख दिखाई पड़ता है। और इस दुख का परिणाम यह हुआ है, इस दुख का फलित यह हुआ है कि सारी पृथ्वी धीरे-धीरे दुख से भर गई है। यदि एक भी व्यक्ति दुखी है, परिणाम में अपने बाहर दुख को फेंकता है। व्यक्ति का दुख ही फैल कर सारे जगत का दुख हो जाता है। एक व्यक्ति के भीतर से जो दुख का धुआं उठता है, वह सारी समष्टि को दुख और पीड़ा से भर देता है। आज जो सारे जगत में दुख, पीड़ा और हिंसा मालूम होती है, वह जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, उसके पीछे एक ही कारण है, व्यक्ति की अंतरात्मा दुखी है।
मैं यदि दुखी हूं, तो मैं किसी को भी दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता। मेरे भीतर जो है, वही मेरे बाहर, मेरे आचरण में, मेरे व्यवहार में फैल जाता है। मेरे भीतर केंद्र पर जो है, वही मेरी परिधि पर आ जाता है। ढाई अरब लोग अगर भीतर दुख और पीड़ा से भरे हों, तो परिणाम में स्वाभाविक है कि सारा जगत दुख और पीड़ा से भर जाए। परिणाम में स्वाभाविक है कि सारे जगत में हिंसा और विनाश दिखाई पड़े।
पिछले पचास वर्षों में दो महायुद्ध हमने लड़े। दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या हुई। इससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता और न मैं इससे बहुत हैरान हूं कि दस करोड़ लोग मरे। इस जगत में जो पैदा होता है, मर जाता है। हैरानी इस बात की है कि हम दस करोड़ लोगों को शांति से समाप्त कर सके। उनके मरने का प्रश्न नहीं है। वे दिन, दो दिन बाद मर जाने को थे। कोई भी जीएगा नहीं, लेकिन हम ये सभी दस करोड़ लोगों की हत्या शांति से कर सके, यह बहुत विचारणीय है। हमारे भीतर पशु इतना जाग्रत कैसे हो गया? हमारे भीतर निकृष्टतम, हमारे भीतर अंधेरा इतना मुखर क्यों हो गया? मनुष्य को क्या हो गया है, यह विचारणीय हो गया है। और अब, जब कि हम तीसरे विनाश की तैयारी में हों, जो कि संभवतः अंतिम विनाश होगा।
आइंस्टीन ने मरने के पहले कहा था--किसी ने पूछा था, तीसरे महायुद्ध में किन अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होगा? आइंस्टीन ने कहा, तीसरे का तो मुझे पता नहीं, लेकिन चौथे के बाबत मुझे मालूम है। पूछने वाला हैरान हुआ होगा। तीसरे के बाबत ज्ञात नहीं है, चौथे के बाबत क्या ज्ञात है! उसने पूछा, क्या ज्ञात है? आइंस्टीन ने कहा, अगर चौथा महायुद्ध हुआ, जिसकी कोई संभावना नहीं है, तो आदमी पत्थर के औजारों से लड़ेगा। क्योंकि तीसरा उसके सारे विकास को, उसकी सारी समृद्धि को समाप्त कर देगा। संभावना तो इसकी है कि उसको परिपूर्णतया नष्ट कर दे।
जो हिंसा और जिस हिंसा के प्रति महावीर और बुद्ध ने और ईसा ने चेताया था--हिंसा की अंतिम परिणति महामृत्यु हो सकती है, और कुछ नहीं। वह हिंसा धीमी थी, अल्प थी, चलती गई। उस हिंसा के कारण जीवन नहीं चल रहा था, हिंसा टोटल नहीं थी, हिंसा आंशिक थी, शेष अहिंसा थी जीवन में। इसलिए हिंसा के साथ भी मनुष्य चलता रहा।
पहली बार हम ऐसे स्थान पर आए हैं, जहां हिंसा टोटल हो सकती है, जहां हिंसा समग्र हो सकती है। समग्र हिंसा के बाद जीवन की कोई संभावना नहीं है। हिंसा पूर्ण हो जाए, स्वयं अपना आत्मघात कर लेती है। वे हिंसक प्रवृत्तियां, जिनका सारे धर्मों ने विरोध किया है, विशेषतया श्रमण धर्मों ने जिस हिंसा के लिए पच्चीस सौ वर्ष पहले आवाज उठाई थी, वह भविष्यवाणी पूरे होने के करीब पहुंच रही है। जो आने वाला संभावी युद्ध होगा, वह किसी तरह के प्राण को जमीन पर नहीं बचने देगा।
मैं पढ़ता था, मैंने सुना, पानी को हम गर्म करते हैं, सौ डिग्री पर पानी भाप हो जाता है। लोहे को अगर गरम करें, पंद्रह सौ डिग्री पर लोहा पिघल कर पानी हो जाता है। पच्चीस सौ डिग्री पर लोहे का जो पानी तरल रूप है, वह भाप बन कर उड़ जाता है। एक हाइड्रोजन बम कितनी गर्मी पैदा करेगा, आपको ज्ञात है? दस करोड़ डिग्री! पच्चीस सौ डिग्री पर लोहा भाप होकर उड़ जाता है। एक हाइड्रोजन बम दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा करेगा! क्या बचेगा उस उष्णता में? उस उत्तप्त में ऐसा प्रतीत होगा, जैसे सूरज जमीन पर उतर आया हो। किसी तरह के जीवन की कोई संभावना न रह जाएगी।
एक हाइड्रोजन बम पैंतालीस हजार वर्गमील क्षेत्र को प्रभावित करता है। इंग्लैंड, फ्रांस या पश्चिमी जर्मनी जैसे देश को नष्ट करने को केवल पंद्रह हाइड्रोजन बम पर्याप्त हैं। और आपको ज्ञात है, सारी दुनिया में इस समय तैयार हाइड्रोजन बम की संख्या पचास हजार है। ये पचास हजार हाइड्रोजन बम इस तरह की तीन जमीनों को नष्ट करने को पर्याप्त हैं।
और प्रति घंटा--मैं घंटे भर बोलूंगा--प्रति घंटा पचास करोड़ रुपया इस तरह के विनाशक अस्त्रों को तैयार करने में सारी दुनिया में खर्च हो रहा है! प्रति घंटा! दो घंटे में एक अरब रुपया! चौबीस घंटे में बारह अरब रुपया! जब कि हर तीन आदमियों में दो आदमी भूखे हैं! जब कि हर तीन आदमियों में पूरी जमीन पर दो आदमी नंगे हैं! तो हम जरूर कुछ पागल हो गए हैं। हम जरूर विक्षिप्त हो गए हैं। ये सभी होश में नहीं हैं। हम कुछ नशे में हैं और जैसे हमें कुछ पता नहीं हम क्या कर रहे हैं! हमारे हाथ हमारी मौत का आयोजन कर रहे हैं, इसमें हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है!
एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं--एक बिलकुल काल्पनिक कहानी, कहीं सुना था, फिर बहुत प्रीतिकर लगी।
ईश्वर ने यह देख कर कि मनुष्य को यह क्या हुआ जा रहा है, यह मनुष्य अपने हाथ से अपनी मृत्यु के आयोजन में इतना उत्सुक क्यों हो गया है, दुनिया के तीन बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया। मैंने कहा, कहानी काल्पनिक है, झूठी; कहीं कोई ईश्वर ऐसा बुलाने को नहीं है, पर कहानी में एक सत्य बहुत उभर कर जाहिर हुआ है। उसमें अमरीका को, ब्रिटेन को, रूस को बुलाया था। इन मुल्कों के प्रतिनिधि उससे मिलने गए थे। ईश्वर ने कहा, मेरे मित्र! बहुत सदियां देखीं। मनुष्य का लंबा इतिहास देखा। इतना विक्षिप्त--इतनी समृद्धि के बीच, इतनी शक्ति के बीच, अपने को ही आत्मघात करने वाला कोई जमाना मैंने नहीं देखा है! मैं हैरान हूं, तुम यह क्या कर रहे हो? तुम्हारे किए का अंतिम परिणति और परिणाम क्या होगा? अगर मैं कुछ सहायक हो सकूं और मनुष्य बच सके, तो मुझसे वरदान मांग लो। मैं अगर मनुष्य के भविष्य के लिए कुछ कर सकूं, तो वरदान देने को तैयार हूं। तुम तीनों मांग लो तीन वरदान। मनुष्य बच जाए, यही मेरी आकांक्षा है।
अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे मालिक! इससे सुखद और क्या होगा, एक वरदान दे दें। और हमें कुछ भी नहीं चाहिए, एक ही आकांक्षा है हमारी: जमीन तो हो, लेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न रह जाए। ईश्वर ने वरदान दिए होंगे बहुत, बहुत मांगें पूरी की होंगी, ऐसी मांग कभी उसके सामने आई नहीं थी। उसने उदास घूम कर रूस के प्रतिनिधि की तरफ देखा। वह बोला, महानुभाव! एक तो हमें आप पर कोई विश्वास नहीं है। एक तो हम नहीं मानते कि कहीं कोई ईश्वर है। लेकिन मान लेंगे तुम्हें भी और उन चर्चों में जहां से तुम्हारे सब निशान मिटा दिए गए हैं, वापस तुम्हें प्रतिष्ठित कर देंगे, एक बात, एक आकांक्षा पूरी हो जाए। ईश्वर ने पूछा, कौन सी आकांक्षा? रूस के प्रतिनिधि ने कहा, नक्शे तो हों जमीन पर, नक्शे तो हों दुनिया के, अमरीका के लिए कोई रंग-रेखा न रह जाए। ईश्वर ने घूम कर ब्रिटेन को देखा। ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे प्रभु! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं, इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाएं, हमारी आकांक्षा पूरी हो जाएगी।
ऐसी सदी को होश में कहिएगा? ऐसे मनुष्य को जागा हुआ कहिएगा? ऐसे युग को स्वस्थ कहिएगा? विक्षिप्त है यह युग। और इस सत्य को हम जितना शीघ्र समझ लें, उतना उचित है, अन्यथा अपने ही विक्षिप्त आयोजन हमारी मृत्यु बन जा सकते हैं। यह विक्षिप्तता कैसे पैदा हो गई है? यह पागलपन कैसे आ गया? और क्या ऊपर का कोई उपचार और अहिंसा पर दिए गए प्रवचन और अहिंसा पर लिखा गया साहित्य और अहिंसा के पक्ष में बोली गई बातें इस विक्षिप्तता को तोड़ सकेंगी?
यह विक्षिप्तता टूट जानी इतनी आसान नहीं है। यह विक्षिप्तता ऊपर से आरोपित नहीं है, यह विक्षिप्तता कहीं भीतर से विकसित हुई है। इस विक्षिप्तता की कहीं मनुष्य के मन में, बुनियाद में जड़ें हैं। मनुष्य की प्रकृति में कुछ है, जहां से यह विक्षिप्तता फैलती और विकसित होती है। जब तक उसकी प्रकृति में परिवर्तन करने का विचार, विवेक, जागृति पैदा न हो, जब तक उसकी प्रकृति में जो पशु है, उसके विनाश का कोई आयोजन न हो, तब तक मनुष्य के भीतर प्रकाश को और प्रभु को पैदा नहीं किया जा सकता। मनुष्य यूं ही हिंसक नहीं है। उसके पीछे हिंसा में उसके चित्त में जड़ें हैं, उन जड़ों को अलग कर देना जरूरी है, तो हम एक अहिंसक मनुष्य का निर्माण कर सकते हैं। अहिंसक मनुष्य का निर्माण ही इस जगत के लिए एकमात्र त्राण हो सकता है।
महावीर ने कहा था, अहिंसा एकमात्र त्राण है। यह बात इतनी सच कभी भी नहीं थी। यह बात पहली बार परिपूर्ण सत्य हुई है। अहिंसा के अतिरिक्त आज कोई मार्ग नहीं है। मैं अभी कहा एक जगह: महावीर या महाविनाश, दो के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
पहली बार इतिहास ने हमें ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया, जहां महावीर और उनकी अहिंसा एकमात्र जीवन का पर्याय बन गई है। हिंसा को चुनना अब मृत्यु को चुनना है। अब हिंसा और मृत्यु में कोई फासला और फर्क नहीं है। अब अहिंसा को चुनना जीवन को चुनना है। वे लोग जो जीवन चाहते हैं, वे लोग जो जीवन का भविष्य चाहते हैं, उन्हें अहिंसा को अपने में जन्माए बिना कोई चारा नहीं है।
इस अहिंसा पर क्या हम करें? कैसे यह पैदा हो जाए? कहां है मनुष्य में हिंसा की जड़? कहां है मनुष्य में वह प्यास और वह सुख, जो दूसरे को पीड़ा और दूसरे के विनाश से तृप्त होता है? कौन है मनुष्य के भीतर ऐसा भूखा, जो दूसरे के विनाश में रस लेता है? उसे पहचानना, उस भूख को पकड़ लेना जरूरी है।
मनुष्य पूर्ण इकाई नहीं है। मनुष्य परिपूर्ण विकसित प्राणी नहीं है। मनुष्य केवल संक्रमण है। मनुष्य केवल बीच की एक कड़ी है--पशु और प्रभु के बीच। मनुष्य के भीतर दोनों संभावनाएं हैं--नीचे गिर कर पशु हो सकता है, ऊपर उठ कर प्रभु हो सकता है। और इसे मैं मनुष्य की गरिमा और गौरव मानता हूं। मैं अभी कहा एक जगह, मैंने लोगों से कहा कि तुम पाप कर सकते हो, यह तुम्हारी गरिमा है, यह तुम्हारा गौरव है। तुम पाप कर सकते हो, इसलिए तुम पवित्र भी हो सकते हो। जो पाप नहीं कर सकता, पवित्र भी नहीं हो सकता। तुम आत्मघात कर सकते हो...। दुनिया में कोई पशु मनुष्य के सिवाय आत्मघात नहीं कर सकता। कहीं स्युसाइड नहीं हो सकती मनुष्य को छोड़ कर। अकेला मनुष्य आत्महत्या कर सकता है।
मैं मानता हूं कि गौरवशील हो कि आत्महत्या कर सकते हो, क्योंकि जो आत्महत्या कर सकता है, वह परिपूर्ण जीवन पा सकता है। जो नीचे गिर सकता है गहराइयों में, अंधेरे की गर्तों में, और पाप की और नरक की सड़ांध में, वही केवल पवित्रता के धवल शिखरों को छू सकता है। नीचे गिरने की हमारी क्षमता हमारे स्वातंत्र्य की महिमा का प्रतीक है।
इसलिए मैं यह नहीं कहता कि नीचे गिर जाने की क्षमता बुरी है। वह केवल स्वातंत्र्य है, चुनाव की बात है। मनुष्य अकेला प्राणी है सारी जमीन पर, जो अपने जीवन के निर्माण के लिए स्वतंत्र है। इतना स्वतंत्र है कि निम्नतम हो सकता है, इतना स्वतंत्र है कि श्रेष्ठतम हो सकता है। मनुष्य केवल एक संक्रमण है, सारे पशु पूर्ण इकाइयां हैं। किसी पशु में पशुता के ऊपर उठने की क्षमता नहीं है, किसी पशु में पशुता के नीचे गिरने की क्षमता भी नहीं है। वह थिर इकाई है, रुकी हुई। प्रवाहमान नहीं, तरल नहीं। मनुष्य तरल इकाई है। मनुष्य तरलता है, लिक्विडिटी है। उसके भीतर प्रवाह की, नीचे-ऊपर उठने की क्षमता है।
और यह हमारे हाथ में है, यह हमारे संकल्प पर निर्भर है कि यह प्रवाह क्या दिशा ले।
पिछली कुछ सदियों ने मनुष्य की श्रेष्ठतम दिशा को खंडित कर दिया है। सारे पुराने प्रतिमान, सारी पुरानी प्रतिमाएं खंडित हो गई हैं। हम बहुत मूर्ति-भंजक हैं। मंदिरों की मूर्तियां टूट जाएं, कुछ नुकसान नहीं होगा। मनुष्य के जीवन की वह प्रतिमा, जिसे उसे पाना है, टूट जाए तो जीवन नष्ट हो जाएगा। हम इस अर्थ में मूर्ति-भंजक हैं। हमने सारी पुरानी प्रतिमाएं तोड़ दीं, जो हम होने की आकांक्षा करते थे। महावीर और बुद्ध और राम, वे सारी प्रतिमाएं हमारी आंखों से हट गई हैं। हम जो हैं, उस पर तृप्त हो गए हैं।
जो तृप्त हो जाएगा, मर जाएगा। जो तृप्त हो जाएगा और समझ लेगा हम जो हैं, काफी हैं, और ऊपर उठने की आकांक्षा और प्यास जहां विलीन हो गई, वहीं मृत्यु है। पिछले दो-तीन सौ वर्षों में हम निरंतर मरते चले गए हैं। मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो गया है। मनुष्य का मनुष्य से तृप्त हो जाना ही उसकी भूल और भ्रांति है। इस सदी का सारा दुख यह है, इस सदी की सारी विकृति इससे पैदा हुई है, मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो गया है।
मैं आपको तृप्त हुआ नहीं देखना चाहता। मैं किसी को नहीं कहता, तृप्त हो जाओ, संतुष्ट हो जाओ। मैं कहता हूं, जलने दो अतृप्ति की आग। मनुष्य से तृप्त मत होना। और बड़े आश्चर्य का नियम यह है, इस जगत में कुछ भी थिर नहीं है। जो आगे बढ़ने से रुक जाएगा, वह रुका नहीं रहेगा, प्रवाह उसे पीछे फेंक देता है। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, वह पीछे सरकता चला जाएगा। इस जगत में थिर कुछ नहीं है। जेम्स जीन्स ने एक बात कही थी, कि मैंने सारे शब्दकोश के अध्ययन के बाद अनुभव किया: रेस्ट, टिकाव, ठहराव, थिरता, इस शब्द की वास्तविकता जगत में कहीं भी नहीं है। कहीं कोई चीज थिर नहीं है। जो विकासमान नहीं है, ह्रासमान हो जाएगा। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, पीछे हट जाएगा। ठहर नहीं सकते हैं।
जिस दिन हमने मनुष्य के ऊपर भावी प्रतिमाओं को अलग कर दिया, जिस दिन मनुष्य के भीतर आदर्श को विसर्जित कर दिया, जिस दिन हमारे भीतर वह आकांक्षा, जो प्रत्येक को महावीर, बुद्ध और क्राइस्ट बनाना चाहती थी, विलीन हो गई, धूमिल हो गई, उसी दिन हम पशु की तरफ पीछे हटने शुरू हो गए। प्रभु की प्रतिमा हटेगी आंख से, अनिवार्यतया पशु की प्रतिमा उसकी जगह प्रतिष्ठित हो जाती है। ईश्वर को छोड़ने से कुछ हर्ज न था, लेकिन मंदिर रिक्त नहीं रहता। जिस सिंहासन पर से ईश्वर को उतार लिया, वहां कब रात के अंधेरे में पशु बैठ गया, इसका पता नहीं पड़ता है।
मैं इससे दुखी नहीं हूं कि हम ईश्वर को अस्वीकार कर दें--कर दें, लेकिन यह तो स्मरण रखें कि सिंहासन पर फिर कौन विराजमान हो गया है। और हमारे पूजा करने वाले हाथ, जो बहुत पुराने आदी हैं, अंधे की तरह पशु की पूजा में संलग्न हो गए हैं!
ईश्वर को अस्वीकार केवल वही कर सकता है, जो ईश्वर के जैसा हो, उसके पहले नहीं। धर्म को अस्वीकार वही कर सकता है, जो धर्म को उपलब्ध हो जाए, उसके पहले नहीं। अन्यथा विपरीत प्रतिष्ठित हो जाता है। मनुष्य के भीतर दोनों हैं--मनुष्य के भीतर दोनों हैं।
एक कहानी कहूं। पढ़ता था एक चित्रकार के बाबत। एक चित्र उसने बनाना चाहा था मनुष्य के भीतर दिव्य का, डिवाइन का। गया था खोज में। खोज लिया था एक व्यक्ति को, जिसकी आंखों में आकाश के जैसी नीली शांति थी। जिसके नक्श में, जिसकी रेखा-रेखा में कुछ था अलौकिक, संवेदित, जिसको देख कर लगता था कि मनुष्य के ऊपर का कुछ प्रकट हुआ। उसने उसके चित्र को बनाया। चित्र बना, पूरा हुआ, लाखों प्रतिलिपियां बिकीं। गांव-गांव, उसके देश के गांव-गांव में पहुंच गया, प्रतिष्ठित हुआ, आदृत हुआ। बहुत हुई थी प्रशंसा।
बीस वर्ष बाद उस चित्रकार ने दूसरा चित्र बनाना चाहा था, मनुष्य के भीतर जो पशु है उसका। सोचा था, यूं मनुष्य की तस्वीर पूरी हो जाएगी इन दो चित्रों में। गया था खोजने वेश्यालयों में, कारागृहों में, पागलखानों में। और खोज लिया था आखिर एक कारागृह में एक व्यक्ति को, जिसकी आंख तो आदमी की थी, लेकिन जो झांकता था भीतर से, वह पशु था। जिसका चेहरा तो आदमी का था, लेकिन पारदर्शी था चेहरा और पीछे कोई खूंखार बैठा हुआ था। चित्र को बनाया। दूसरा चित्र भी बन कर जिस दिन पूरा हुआ था, एक घटना घटी बहुमूल्य, स्मरणीय।
अपने पुराने चित्र को लेकर गया था कारागृह में, दोनों को रख कर करीब यह देखने, कौन सी कृति श्रेष्ठ बनी है! मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था, तय करना मुश्किल था, कौन सा चित्र ठीक बना! तभी पीछे कैदी रोने लगा था, जिसका चित्र उसने दूसरा बनाया था। लौट कर देखा था। कहा, मित्र! मेरे चित्रों से तुम्हें दुख का कारण? तुम्हारे आंसू का कारण? तुम क्यों रोते हो? उस कैदी ने कहा, इतने दिन कितनी मुश्किल से अपने भाव को छिपाया, आज मुश्किल हो गया। पहला चित्र भी मेरा ही चित्र है। बीस वर्ष पहले मेरे ही चेहरे और आंखों को देख कर पहला चित्र बनाया था। दोनों चित्र मेरे हैं, इसलिए रोता हूं।
कहानी बहुत काल्पनिक सी लगती है, काल्पनिक नहीं है। और काल्पनिक भी हो तो भी प्रत्येक व्यक्ति के संबंध में सत्य है। ये चित्र उस आदमी के ही नहीं थे दोनों, ये हमारे भी दोनों हैं। ये प्रत्येक के दोनों हैं। जो भी आदमी इस जमीन पर है, उसके भीतर दोनों छिपे हैं। उसके भीतर दोनों विराजमान हैं। उसके भीतर दोनों के बीच निरंतर संघर्ष, निरंतर दोनों किनारों के बीच आदमी टकराता रहता है।
कभी देखना, कभी विचार करना, कभी होश से भरना, घड़ी भर पहले तुम्हारे भीतर हो सकता है प्रभु रहा हो, घड़ी भर बाद हो सकता है कि पशु विराजमान है। कितनी तीव्रता से हम इन दोनों तटों के बीच घूमते रहते हैं! और अगर प्रभु की धारणा ही विलीन हो जाए, अगर आत्मिक जीवन में बैठने की, उठने की आकांक्षा विलीन हो जाए, तो फिर हम पशु के तट पर लगे रह जाते हैं। हमारी नौका वहीं लगी रह जाती है। फिर स्वाभाविक है, जब कि एक-एक आदमी के भीतर का पशु ही केवल प्रवृत्तिमान होता हो, जब कि पशु को तृप्त करना ही जीवन रह गया हो, तो स्वाभाविक है कि ढाई अरब पशुओं का इकट्ठा संघर्षण, ढाई अरब पशुओं की इकट्ठी विकृत आकांक्षाएं सारी संस्कृति की मृत्यु बन जाएं।
कहां हम स्वप्न देखे थे मनुष्य के भीतर परम शक्ति के जागरण का और कहां निकृष्ट को उपलब्ध करके बैठ गए हैं! कहां बुद्ध, कहां महावीर, कहां क्राइस्ट, जो कहते हैं, तुम्हारे भीतर परमात्मा विराजमान है! और कहां हम, जो भीतर झांक कर देखते हैं तो सिवाय पशु की आहट के, उसके चलने के कुछ भी वहां नहीं पाते!
मेरा मानना है, अहिंसा ऊपर से शिक्षित नहीं की जा सकती। हिंसा हमारे पशु की प्रकृति का सहज परिणाम है। जब तक हम पशु के तट से बंधे हैं, तब तक सहज परिणाम हिंसा होगी। लाख चेष्टा ऊपर से आरोपित करने की व्यर्थ है। अहिंसा का अभिनय हो सकेगा, अहिंसक नहीं हुआ जा सकता। अहिंसक होना हो, क्रियाएं नहीं बदलनी हैं, भीतर चैतन्य का तट बदलना होगा। लाख उपाय करें, उसी तट पर बंधे हुए कहीं पहुंचना न होगा।
सुनता था, एक साधु नदी पर नहाने उतरा था। सुबह भोर होने के करीब थी और थोड़ा-थोड़ा प्रकाश हो गया था। सूरज निकलने के करीब था, प्राची लाल हो गई थी। देखा उस पार उसने, चार व्यक्ति एक नाव में बैठ कर जोर से डांड चला रहे हैं। नाव वहीं की वहीं खड़ी है, डांड चलाए जा रहे हैं। वह तैर कर पास गया, देखा, नाव की जंजीर तट से बंधी थी!
उसने पूछा, मित्र कहां जा रहे हो? वे चारों नशे में थे और रात नशे में आकर नाव चलाना शुरू कर दिए थे। रात भर इस खयाल में रहे कि बहुत यात्रा हो रही है। उस साधु ने उनसे कहा, पागल हो! यह तो देख लेते पहले कि नाव तट से छोड़ी भी या नहीं? जंजीर तो वहीं बंधी है, तो डांड खेने से कुछ भी न होगा!
ऊपर सारे कर्म अहिंसक होने के, उन नशेखोर नाविकों जैसे हैं। भीतर उस तट से जंजीर छूटी या नहीं? और जंजीर छूट जाए, भीतर तट परिवर्तित हो जाए, भीतर चैतन्य का केंद्र परिवर्तित हो जाए, तो जैसा पशु के तट से बंधे हुए हिंसा सहज बाहर निकलती है, आचरण हिंसक हो जाता है, वैसे ही तट-परिवर्तन से, चेतना के परिवर्तन से अहिंसा सहज निकलती है।
महावीर ने कहा है--अदभुत परिभाषा की है अहिंसा की--कहा है, स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना अहिंसा है।
अहिंसा का कोई संबंध ही दूसरे से नहीं है। जो कहते हैं, दूसरे को दुख न देना अहिंसा है, नासमझ हैं। दूसरे से कोई वास्ता अहिंसा का नहीं। स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना अहिंसा है, स्वरूप के बाहर होना हिंसा है। जो स्वरूप के बाहर है, कुछ भी करे--कुछ भी करे, सबमें हिंसा प्रवाहित होगी। जो स्वरूप में प्रतिष्ठित है, कुछ भी करे, सबमें अहिंसा प्रवाहित होगी। अहिंसा क्रिया का परिवर्तन नहीं, डूइंग का परिवर्तन नहीं, बीइंग का, सत्ता का, होने का परिवर्तन है। जिसकी सत्ता परिवर्तित होगी और तट बदल जाएगा, उसके जीवन में सहज, सहज अहिंसा प्रतिफलित हो जाती है।
अहिंसा साधना नहीं है। कोई अहिंसा को साध नहीं सकता। साधना आत्म-ज्ञान को पड़ता है। अहिंसा अपने आप चली आती है, जैसे पौधों में फूल चले आते हैं। अहिंसा सहज परिणाम है, कांसीक्वेंस है, साधना नहीं है। अहिंसा परम धर्म का अर्थ यही है कि जब जीवन में आत्म-ज्ञान उपलब्ध होता है अंतिम परिणति में, परम धर्म की तरह, परम विकास, विकसित फूल की तरह अहिंसा आ जाती है। अहिंसा को लाना नहीं होता, अहिंसा आती है। लाना होता है स्व-स्थिति को, लाना होता है स्व-स्थिति को।
अहिंसा के संबंध में सबसे भ्रांत जो धारणा व्यापक है, वह यह है कि हम अहिंसा को एक नैतिक उपकरण, एक नैतिक साधना समझते हैं। अहिंसा नैतिक साधना नहीं है। और नैतिक साधक की अहिंसा में और महावीर की अहिंसा में जमीन-आसमान का अंतर है। नैतिक साधक यह सोच-सोच कर कि दूसरे को दुख देना बुरा है, अहिंसक होने की चेष्टा करता है। इस तरह जो चेष्टित, कल्टीवेटेड अहिंसा है, वह कृत्रिम है, थोथी है, बाह्य है।
महावीर की अहिंसा नैतिक अहिंसा नहीं है। महावीर की अहिंसा यौगिक अहिंसा है। महावीर का मानना है, स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाओ, स्वयं ज्ञान को उपलब्ध। तुम पाओगे, बाहर दूसरे को दुख देना असंभव हो गया। क्योंकि जिसके भीतर दुख नहीं है, वह दूसरे को दुख नहीं दे सकता है। जिसके भीतर आत्म-ज्ञान का प्रकाश और आनंद उपलब्ध हो गया, अनायास उससे आनंद ही बहेगा, प्रकाश ही बहेगा। कोई रास्ता न रहा कि उसके भीतर से आनंद के विपरीत कुछ बह जाए।
सच, अगर विचार करें, हम दूसरे को इसलिए दुख दे पाते हैं कि हम दुखी हैं। हम दूसरे के प्रति इसलिए हिंसक हो पाते हैं कि हम अपने प्रति हिंसक हैं और भीतर हिंसा से भरे हैं। दूसरे का प्रश्न नहीं है, अंततः अहिंसा का प्रश्न वैयक्तिक जागरण का प्रश्न है। मनुष्य अपने भीतर जाग जाए और उसे अनुभव कर ले, जो वहां बैठा है, हिंसा विसर्जित हो जाती है।
वहां पश्चिम ने पदार्थ के विश्लेषण, पदार्थ के खंडन, पदार्थ के आंतरिक रहस्य की खोज के द्वारा अणु को उपलब्ध किया है। अणु को उपलब्ध करके पाया कि विराट शक्ति हाथ में आ गई। विनाश की अदभुत शक्ति पर नियंत्रण हो गया है। पूरब ने भी प्रयोग किए। पश्चिम ने पदार्थ की सत्ता पर प्रयोग किए, पूरब ने मनुष्य की चेतना की सत्ता पर प्रयोग किए। महावीर का प्रयोग मनुष्य की चेतन सत्ता के विश्लेषण का प्रयोग है।
पदार्थ के विश्लेषण से उपलब्ध हुआ है अणु, मनुष्य की चेतना के विश्लेषण से उपलब्ध हुई है आत्मा।
पदार्थ के विश्लेषण से जो अणु उपलब्ध हुआ, वह विनाशक साबित हुआ। पदार्थ की सब शक्तियां अंधी हैं। और अंधों के हाथ में आ जाएं, तो परिणाम बुरे होने स्वाभाविक हैं। चैतन्य के विश्लेषण से, चैतन्य के जागरण से, चैतन्य में उतरने से जो उपलब्ध हुई आत्मा, वह सारे जीवन को, सारे दृष्टिकोण को बदल देती है।
महावीर ने कहा है, केवल वही अहिंसक हो सकता है, जो अभय को उपलब्ध हो।
अभय को कौन उपलब्ध होगा? जो आत्म-ज्ञानी नहीं है वह अभय को उपलब्ध हो सकता है? कोई भय को जबरदस्ती निकाल कर अभय को पा सकता है?
असंभव है, असंभव है। कोई भय को निकाल नहीं सकता। भय है मृत्यु का। अंतिम भय के पीछे मृत्यु बैठी हुई है। प्रतिक्षण चारों तरफ से जीवन मृत्यु से घिरा हुआ है। जब तक अमृत न दिख जाए, जब तक यह न दिख जाए कि मेरे भीतर कोई है जो नहीं मरेगा, नहीं मर सकता है, तब तक व्यक्ति अभय को उपलब्ध नहीं होता है। जब तक हम मर्त्य से घिरे हैं, जब तक हम जानते हैं कि जो भी हमारे आस-पास है, सब मृत्यु में समा जाएगा...।
और मैं तो कहने लगा, जीवन हमारे पास है ही नहीं, हम तो प्रतिक्षण मर ही रहे हैं। मृत्यु अनायास थोड़े ही एक दिन घटित हो जाती है। जीवन में सब विकास होता है। जिस दिन हम जन्मे, उसी दिन मृत्यु शुरू हो गई। जिस दिन जन्म हुआ, उसी दिन मरना शुरू हो गया। जिसको हम मृत्यु कहते हैं, वह उसी मरण की शुरुआत की अंतिम पूर्णाहुति है। कोई अचानक थोड़े ही मर जाता है। अचानक इस जगत में कुछ भी नहीं होता है। हम प्रतिक्षण मर रहे हैं। हम प्रतिक्षण मरते जा रहे हैं, हमारा सब मरता चला जा रहा है, हम प्रतिक्षण अंधेरे में और मृत्यु में दबे जा रहे हैं। इस मृत्यु में और अंधेरे में दबता हुआ व्यक्ति अभय को उपलब्ध हो सकता है? कोई तलवार अभय न देगी। और जो हाथ में तलवार लिए खड़े हैं, वे भयभीत हैं, तलवार केवल इसकी ही सूचना देती है। किसी दिन शायद वक्त आए कि जिनकी तलवार हाथ में लिए हम तस्वीरें और मूर्तियां बना रहे हैं, लोग हंसें और समझें कि बहुत कमजोर, बहुत भयभीत रहे होंगे। जो भयभीत नहीं है, उसके हाथ में तलवार होने का कोई कारण नहीं है। जिनको हम बहादुर कहते हैं, वह केवल भय की ही एक परिणति है, भय का ही एक रूप है। मर्त्य के बोध के भीतर अभय असंभव है। जो मरने से डरा हो, जिसे मृत्यु दिख रही हो...और मैंने कहा कि हमारा सब तो मरण के करीब पहुंच रहा है। हमारे पास कुछ भी तो नहीं है, जो न मर जाएगा।
नानक एक गांव में ठहरे हुए थे, लाहौर में। एक व्यक्ति उनके पास बहुत बार आया, वर्षों आया। उसने अनेक बार नानक से कहा, मेरे सेवा योग्य कुछ मिल जाए, मैं कुछ आपकी सेवा कर सकूं। नानक टालते गए कि मुझे तो कोई जरूरत नहीं, तुम्हारा प्रेम है, पर्याप्त है। प्रभु ने सब दिया है। एक दिन नानक ने कहा, तुम बहुत बार कहे, आज तुम्हारे लिए काम खोज लिया है। अपने कपड़े में छिपा रखी थी एक सुई कपड़े को सीने की, उस व्यक्ति को दी, इसे रख लो, मृत्यु के बाद मुझे वापस कर देना। काम खोजा ऐसा खोजा!
वह आदमी घबड़ाया, एक क्षण सोचा, मृत्यु के बाद वापस कर देना? जब मृत्यु होगी तो मुट्ठी तो बंधी रह जाएगी सुई पर, लेकिन सुई साथ नहीं जा सकती है। रात भर चिंतित रहा, सुबह आकर नानक के पैरों पर गिर पड़ा और कहा कि क्षमा कर दें। मेरी कोई समृद्धि, मेरी कोई सामर्थ्य, मेरी कोई शक्ति मृत्यु के पार इस सुई को नहीं ले जा सकती। नानक ने पूछा, फिर तुम्हारे पास क्या है जिसे मृत्यु के पार ले जा सकते हो?
और क्या यही प्रश्न मैं आपसे न पूछूं? और क्या यही प्रश्न प्रत्येक को सारे जगत में अपने से नहीं पूछ लेना है? एक न एक दिन क्या यह प्रश्न मृत्यु के वक्त खड़ा न हो जाएगा कि क्या है मेरे पास जो मैं ले जा सकता हूं? जिसके पास मृत्यु के पार ले जाने को कुछ भी नहीं है, वह अभय को कैसे उपलब्ध होगा? जिसे यह भी पक्का नहीं कि मैं भी बचूंगा उन लपटों के पार या नहीं, वह कैसे अभय को उपलब्ध होगा? जिसके पैर के नीचे सारी जमीन खिसकी जाती हो, जिसकी सारी मुट्ठियों की पकड़ किसी चीज को पकड़ाए न रखेगी, जिसके सब सहारे डूब जाएंगे, और मझधार में जिसकी नौका डूबनी ही है और कोई तट और किनारा जिसे न दिखता हो, वह कैसे अभय को उपलब्ध हो?
आत्म-ज्ञान के बिना अभय असंभव है।
महावीर ने कहा, जो अभय को उपलब्ध है, वही केवल अहिंसक हो सकता है। और अदभुत शर्त लगा दी, और उस शर्त में सारा भय इकट्ठा कर दिया। आत्म-ज्ञानी ही अभय को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि जो अपने को जानता है वह जानता है कि मृत्यु नहीं है। सब मरेगा, मैं नहीं मर सकता हूं। सब विसर्जित हो जाएगा, सब मिट जाएगा, भीतर जो चैतन्य सत्ता बैठी हुई है, उसकी मृत्यु नहीं है। जिस क्षण यह दर्शन होता है, जिस क्षण इस अमृत का दर्शन होता है, उसी क्षण जीवन से भय विलीन हो जाता है। जिसका स्वयं का भय विलीन हो गया, वह अहिंसक हो जाता है, वह हिंसक नहीं रह जाता है। अहिंसक होने की सीढ़ी, अहिंसक होने का मार्ग आत्म-ज्ञान का मार्ग है।
अपने को जानना होगा, अपने से परिचित होना होगा। सारे जगत को जानें और अपने से अपरिचित, दो कौड़ी का है ज्ञान फिर। उसका कोई मूल्य नहीं है। मैं सारी दुनिया को जान लूं और मेरे भीतर अंधेरा घना हो--इस जानने का क्या होगा? क्या है प्रयोजन? क्या हुआ अर्थ? क्या पाया? धोखा है, प्रवंचना है, अपने को समझा लेना है। यह पांडित्य और यह ज्ञान किसी काम का नहीं। महावीर के बाबत सब कुछ जान लूं, राम के बाबत सब कुछ जान लूं, कृष्ण के बाबत सब कुछ जान लूं, और यह जो भीतर बैठा है, अपरिचित रह जाऊं, दो कौड़ी की है यह सब जानकारी। यह नाहक का मनोरंजन है, अपने समय को खराब कर लेना है। सारे शास्त्र पढ़ डालूं और भीतर जो शास्त्रों का पढ़ने वाला बैठा है, अनपढ़ा रह जाए, कुछ नहीं किया मानना होगा, कुछ नहीं पाया मानना होगा।
महावीर कहते हैं, एक को जान लेने से सब जान लिया जाता है।
उस एक को जानना जरूरी है, उसके जानने का परिणाम अहिंसा होगी। कैसे जानें?
जानते तो हैं अपने को। नाम परिचित है। कितना धन है, बैंक बैलेंस कितना है, वह भी परिचित है। किसका लड़का हूं, वह भी परिचित है। किसका भाई हूं, किसका पति हूं, वह भी सब परिचित है। लेकिन यह सारा परिचय शरीर का परिचय है। यह शरीर किसी का लड़का होगा, यह शरीर किसी का पति होगा, यह शरीर जवान होगा या बूढ़ा होगा। इस शरीर का कुछ नाम होगा, लेकिन इस शरीर के पीछे जो बैठा है, वह किसी से संबंधित नहीं है। जो भी किसी से संबंधित है, वह मैं नहीं हूं। भीतर एक चेतना है असंग और असंबंधित, जिसका न कोई जन्म है, न मृत्यु है। उसको जानना होगा। उसका परिचय ही आत्म-ज्ञान बनेगा।
हम शरीर पर ठहर जाते हैं! जीवन शरीर पर केंद्रित होकर घूम लेता है और समाप्त हो जाता है! शरीर की वासनाएं, शरीर की दौड़, शरीर की आकांक्षा, शरीर की प्यास, उसी में व्यय हो जाता है! और उसको देख ही नहीं पाते हैं जो शरीर की इस कारा के पीछे खड़ा है। जो शरीर का मालिक था, जो शरीर में बसा था, निवासी था, उस अदेही को, जो देह में बैठा हुआ है, हम नहीं जान पाते हैं! देह की दौड़ ही सब रिक्त कर देती है!
महाराष्ट्र में एक साधु हुआ, एकनाथ। एक व्यक्ति ने एकनाथ से एक सुबह पूछा था, नाथजी, आपको देखते हैं, एक प्रश्न मन में बार-बार उठता है। क्या आपके मन में पाप पैदा नहीं होता? वासना नहीं उठती? विकार नहीं जगते? विषाक्त पशु आपके भीतर गति नहीं करते? नाथजी ने कहा, उत्तर अभी दूं? एक मिनट ठहर जाओ, एक बहुत जरूरी बात कह दूं। फिर उत्तर दे दूंगा, कहीं भूल न जाऊं। कल अचानक तुम्हारे हाथ पर नजर पड़ी, देखा मृत्यु की रेखा टूट गई है। सात दिन और, और तुम समाप्त हो जाओगे। सात दिन बाद सूरज डूबा, तुम्हारा भी डूबना है। यह बता दूं, कि कहीं भूल न जाए इसलिए। अब पूछो, क्या पूछते हो?
उस आदमी के हाथ-पैर कंप गए। सात दिन और! केवल सात दिन! उसके भीतर तो अचानक उदासी, अवसाद घना हो गया। वह बोला, फिर मैं आऊंगा प्रश्न पूछने, अभी कोई प्रश्न नहीं पूछना। नाथजी ने बहुत कहा, रुको, बड़ा कीमती प्रश्न था, अच्छी चर्चा होती। वह बोला, फिर आऊंगा। अभी चर्चा करने का कोई रस न रहा। मृत्यु ने सारा रस विरस कर दिया है।
उठा, राह पर चलता था, पैर कंपने लगे! मृत्यु का भाव घना हो गया! द्वार पहुंचा, गिर पड़ा! चेहरा काला पड़ गया, इतने से मार्ग में! लोगों ने उठा कर घर बिठाया, पूछा, क्या हुआ? बताया कि सात दिन और--आवाज ऐसी आती थी, जैसे दूर गड्ढे से आती हो! डूब गई आवाज। लेट गया बिस्तर पर। दूसरे दिन सबसे क्षमा मांग आया किसी तरह चल कर! पैर छू आया, जिनसे कभी भूल-चूक हुई थी, दो कडुवे शब्द कहे थे। बिस्तर पर लग गया! रोज घड़ी-घड़ी मौत करीब आने लगी। एक-एक क्षण लंबा हो गया, बीतना कठिन हो गया! एक ही प्रतीक्षा रह गई! कमरे में आसन्न मृत्यु की छाया घनी होने लगी! मृत्यु करीब से करीब उसकी खाट के चली आती थी! मृत्यु ही रह गई थी, और कुछ न था। सारी वासनाएं, सारे विकार, सबकी जगह मृत्यु खड़ी हो गई थी! मृत्यु ही ठंसी थी! हाथ हिलाता था तो मृत्यु लगती थी, अनुभव होती थी! आंख खोलता था तो मृत्यु दिखती थी! श्वास लेता था तो मृत्यु ही श्वास में भीतर-बाहर हो रही थी! सब मृत्युमय हो गया था!
सातवें दिन सूरज डूबने के घड़ी भर पहले एकनाथ उसके घर गए। भीतर गए, घर के लोग रोने लगे थे। उसकी आंख से आंसू टपक रहे थे। करीब आ गई थी घड़ी, और थोड़ी देर थी। और क्षण कुछ सरकेंगे, और सब समाप्त हो जाएगा। सब बनाया हुआ, सब इकट्ठा किया हुआ, सब जिसे जाना कि अपना है, सब जो मेरे मैं को भरता था, सब विसर्जित हो जाएगा। सारी दौड़-धूप स्वप्न हुई जाती थी। नाथजी ने जाकर पूछा, मित्र! एक बात पूछने आया हूं। उसने आंख खोली। मरणासन्न व्यक्ति, आंखें डूब गई थीं, जीवन की ज्योति बुझ गई थी। नाथजी ने पूछा, एक प्रश्न पूछने आया हूं, सात दिन में कोई पाप, कोई विकार, कोई वासना मन में उठी? उस आदमी ने कहा, क्यों मजाक करते हैं नाथजी! मृत्यु इतने करीब थी कि मेरे और उसके बीच किसी पाप को उठने की गुंजाइश नहीं थी। मृत्यु इतने करीब थी कि विकार उठ आए, इसके लायक भी फासला मेरे और उसके बीच नहीं था।
नाथजी ने कहा, तेरी मृत्यु अभी आई नहीं, केवल तेरे प्रश्न का उत्तर दिया है।
सात दिन बाद मृत्यु हो या सत्तर वर्ष बाद, क्या अंतर पड़ता है? सात दिन बाद समाप्त हो जाता हो या सत्तर वर्ष बाद यह शरीर, तो क्या अंतर पड़ता है? सच ही सात दिन में और सत्तर वर्ष में कोई अंतर है? एक स्वप्न सात दिन का देखा या सत्तर वर्ष का, कोई भेद पड़ेगा?
नाथजी ने कहा था, तू अभी मरने को नहीं, उत्तर दिया है! मुझे मृत्यु दिखती है। यह शरीर मरेगा। जिस दिन से यह दिखा कि यह शरीर मरेगा, उसी दिन से शरीर से सारी आसक्ति विलीन हो गई है।
मृत्यु के प्रति कोई आसक्त नहीं हो सकता है। मृत्यु के प्रति आसक्त होना असंभव है। केवल हम जीवन के प्रति आसक्त हो सकते हैं। हम शरीर को जीवन मानते हैं, इसलिए आसक्त हैं। लेकिन अगर हम दोहराएं, समझाएं अपने को कि हम शरीर नहीं हैं; यह शरीर तो मरेगा, हम तो अमृत हैं, हम तो नित्य आत्मा हैं, अगर हम ऐसा समझाएं, विचार करें, चिंतन करें, तो क्या कुछ उपलब्ध हो जाएगा?
इस चिंतन से कुछ भी न होगा, यह तो भ्रम है। इस तरह का चिंतन कोई धोखा न दे पाएगा आपको। किसी को उसने कभी धोखा न दे पाया। वरन जब मैं यह कह रहा हूं और अपने को समझा रहा हूं, कि अरे यह शरीर तो मरेगा, इसको छोड़ो, छोड़ो, तब जानना चाहिए कि मैं जान नहीं रहा कि शरीर मरेगा। जो जानेगा कि शरीर मरेगा, एक क्षण भी जान लेना, समझाने का प्रश्न बाकी नहीं रह जाता। अज्ञान में केवल समझाना है। ज्ञान खोल जाता है आंख, भेद स्पष्ट हो जाता है; समझाना नहीं होता। मैं आपको नहीं कहता कि अपने मन में इसका चिंतन करें कि मैं देह नहीं हूं। वही इस चिंतन को करेगा, जो जानता है कि देह है। मैं चिंतन को नहीं कहता। यह चिंतन व्यर्थ है। मैं जानने को कहता हूं।
महावीर का मार्ग चिंतना का मार्ग नहीं, महावीर का मार्ग विचार का मार्ग नहीं, जानने का, आंख खोल कर देख लेने का मार्ग है। महावीर का मार्ग श्रद्धा का मार्ग नहीं, अंधी श्रद्धा का मार्ग नहीं, बहुत वैज्ञानिक है। जिसे जान लेना, देख लेना, उसे मान लेना। उसके पहले कोई मान्यता किसी काम की नहीं है। वे सब डूबते हुए आदमी की थोथी अपनी धारणाएं हैं आलंबन की, झूठे आसरों की, झूठे सहारों की। कोई झूठा सहारा काम न देगा। कोई इस तरह की झूठी शरण काम नहीं देगी, जानना होगा।
और जाना जा सकता है। इसी जानने की प्रक्रिया को हम दर्शन कहते हैं। भारत ने जो पैदा किया है, वह फिलासफी नहीं है। और नासमझ हैं वे, जो फिलासफी और दर्शन को पर्यायवाची समझते हैं! फिलासफी है चिंतना, सोचना, विचारना--जो अज्ञात है उसके संबंध में सोच-विचार करना।
लेकिन जो अज्ञात है, उसके संबंध में सोचिएगा क्या? जिसको देखा नहीं, जाना नहीं, जिससे परिचित नहीं, उसके संबंध में चिंतन क्या करिएगा? सब चिंतन गलत होगा।
भारत सोच-विचार को नहीं, देखने को, आंख खोल लेने को कहता है।
भारत कहता है, सत्य देखा जाता है, विचारा नहीं।
महावीर की पूरी धारणा दर्शन की है, चिंतन की नहीं। दर्शन हो सकता है। उसका दर्शन हो सकता है, जो भीतर बैठा है। उसकी, दर्शन उसकी शक्ति है, उसकी क्षमता है, उसका स्वरूप है। वह सारे जगत को कौन देख रहा है? मैं आपको देख रहा हूं, मैं सारे जगत को देख रहा हूं। देखना मेरी क्षमता है, सिर्फ जिस देखने की क्षमता से मैं सबको देख रहा हूं, उसका उपयोग मैं अपने पर करना नहीं जानता हूं! जो देखना सारे जगत पर प्रतिफलित हो रहा है, वह मैं अपने पर प्रतिफलित करना नहीं जानता हूं! जो आंख सब पर खुली है, वह अपने पर खोलना नहीं जानता हूं--इतनी ही दिक्कत, इतनी ही परेशानी है।
रास्ता है! महावीर कहते हैं, जो दृश्य को देख रहा है, वह द्रष्टा को देख सकता है। और उस द्रष्टा को देखते ही जीवन का सारा दुख, सारी पीड़ा, सारा अज्ञान गिर जाएगा।
मैं देख रहा हूं, इतना तो तय है। स्वप्न ही सही, देख रहा हूं, इतना तो तय है। रात मैंने स्वप्न देखा, सुबह उठा, पाया, स्वप्न झूठा था। होगा स्वप्न झूठा, लेकिन मैंने देखा इतना तो सही है। होगा यह जगत माया, होगा यह संसार व्यर्थ, होगा यह असार, लेकिन मैंने देखा। देखना तो सत्य है। दृश्य हो सकता है असत्य, द्रष्टा असत्य नहीं हो सकता है। दृश्य हो सकता है भ्रामक, हो सकता है मृग-मरीचिका, देखने वाला मृग-मरीचिका नहीं हो सकता है। द्रष्टा एकमात्र सत्य है जीवन के केंद्र पर खड़ा हुआ, जो देख रहा है। लेकिन उस देखने की क्षमता पर से घिरी हुई है। उस देखने के सामने पर खड़ा हुआ है, विजातीय खड़ा हुआ है। अगर मैं पर को अलग कर दूं देखने की क्षमता के सामने से, अगर द्रष्टा के सामने से पर को अलग कर दूं, तो देखने की क्षमता जो पर को देखती थी, पर को न पाकर, पर के आलंबन के आधार को न पाकर स्व आधार पर लौट आती है। अगर बाहर कुछ देखने को न रह जाए, तो जो सब को देखता था, स्वयं को देख लेता है।
द्रष्टा के सामने से पर का विसर्जन ध्यान है, सामायिक है।
द्रष्टा के सामने से पर का विसर्जन, पर का अलग कर देना, पर का हटा देना, स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाना है। आंख खोलता हूं, आपको देख रहा हूं। आंख बंद कर लूंगा तो भी आपको देखूंगा। आपके चित्र, आपके प्रतिबिंब, आपकी स्मृतियां घूमेंगी। आंख खोलता हूं तो बाहर हूं, आंख बंद करता हूं तो भी बाहर हूं। बाहर से बने हुए चित्र, बाहर से बने हुए इम्प्रेशंस, बाहर से आए हुए संस्कार फिर मुझे घेरे रहते हैं। अभी वास्तविक वस्तुएं घेरी हैं, फिर आंख बंद करता हूं तो वस्तुओं के विचार घेरे रहते हैं, लेकिन बाहर ही हूं। आंख खोल कर भी, आंख बंद करके भी! यह मेरा निरंतर बाहर होना मेरा बंधन है। थोड़ी देर को वस्तुओं से आंख बंद की, विचार से भी आंख बंद कर लेनी है।
इसको महावीर ने निर्जरा कहा है। जो बाहर से मुझ पर आया है--जो भी बाहर से मुझ पर आया है, उसी विजातीय ने मुझको घेरे में बंद किया, आबद्ध किया। उस बाहर से आए हुए प्रभाव को विसर्जित कर देना निर्जरा है। बाहर का बाहर छोड़ देना, और भीतर वही बच जाए जो बाहर से नहीं आया--तत्क्षण, उसी क्षण कुछ दिखेगा, जो सब बदल जाता है, सब परिवर्तित कर जाता है। कुछ नए आयाम में, नए डायमेंशन में, नई भूमि में उठना हो जाता है। महावीर की यह वैज्ञानिक धारणा निर्जरा की अदभुत है। और वही है मार्ग। वही है मार्ग, वही है योग, वही है सब कुछ, वही है विज्ञान, वही है प्रयोगशाला व्यक्ति की अपने में जाने की।
स्मरण करें, कुछ भी है हमारे मन में जो बाहर से न आया हो? कुछ भी है हमारे चित्त में जो बाहर का प्रतिफलन न हो? कुछ भी है ऐसी चीज जो बाहर की धूल की तरह हम पर नहीं जम गया है? जो भी बाहर से आया हो, उस पर आंख बंद कर लेनी है। उसे देखना है, लेकिन जानना है कि वह पर है और बाहर से आया है, और वह मैं नहीं हूं।
अगर व्यक्ति अपने भीतर थोड़ी देर भी बैठ कर सिर्फ इस विवेक को जाग्रत करता रहे कि क्या बाहर से आया है, वह मैं नहीं हूं। सिर्फ इस होश को भीतर पैदा करता रहे कि यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। निषेध करता चले उस क्षण तक, जब तक बाहर से आया हुआ कुछ भी डोलता हो चित्त में।
और हैरान होगा, मैं उसे अपना मान लेता था, इसलिए वह आता था। वे बाहर से आए हुए संस्कार इसलिए ठहर जाते थे, मैं उन्हें अपना मान कर ठहरा लेता था इसलिए। जिस क्षण मैंने उनके साथ यह जाना कि वे मेरे नहीं, वे बाहर से आए हुए यात्री हैं; आएंगे और चले जाएंगे। मैं यात्री नहीं हूं, मैं अतिथि नहीं हूं, आतिथेय हूं; मैं होस्ट हूं, गेस्ट नहीं। वे जो गेस्ट आए हैं, चले जाएंगे; मैं तो उनका मेजबान हूं।
अतिथि में और आतिथेय में फर्क कर लेना आत्म-ज्ञान है।
अतिथि में, आतिथेय में; गेस्ट में और होस्ट में फर्क कर लेना आत्म-ज्ञान है।
जो बाहर से आया, वह अतिथि है। उसे मैं जानूं, देखूं, परिचित होऊं और होश रखूं कि वह मैं नहीं हूं। और अगर...इसको महावीर ने भेद-विज्ञान कहा, इस भेद का विज्ञान। इस भेद को धीरे-धीरे थिर करना, इस भेद में स्थित होना। धीरे-धीरे जिसको मैं अतिथि जानूंगा, उससे झगड़ने का कोई कारण नहीं है, जानना पर्याप्त है। जान लें, यह मेरा नहीं, मेरे भीतर से नहीं आया। आए, चला जाए; मैं दर्शक बना रहूं, मैं तटस्थ द्रष्टा रह जाऊं।
धीरे-धीरे यह तटस्थ द्रष्टा का बोध, यह सम्यक द्रष्टा का बोध पर को विसर्जित कर देगा, पर को विलीन कर देगा। दृश्य विलीन होते चले जाएंगे, स्वप्न गिरते चले जाएंगे और एक दिन अचानक, अनायास जहां जगत दिखता था, वहां शून्य खड़ा रह जाएगा। जैसे अचानक प्रोजेक्टर बंद हो गया हो, पीछे फिल्म को बनाने वाली मशीन, चलाने वाली मशीन बंद हो गई हो; पर्दा खाली रह जाए, चित्र न हों, सफेद; वैसे ही किसी दिन धीरे-धीरे सामायिक के इस प्रयोग के, तटस्थ द्रष्टा के इस प्रयोग के माध्यम से प्रोजेक्टर बंद हो जाएगा। सामने जगत विलीन, कोरा आकाश रह जाएगा--शून्य।
इस शून्य की परिपूर्ण स्थिति को महावीर ने शुक्ल-ध्यान कहा है। जिस क्षण कुछ भी न रह गया, दृश्य सब शून्य हो गया, उसी क्षण--तत्क्षण ज्यादा ठीक हो कहना--ठीक उसी क्षण, जैसे ही वहां शून्य हुआ, जो सबको देखता था, वह अपने पर लौट आता है। जो दूसरों के घरों पर उड़ता फिरा, जिसने दूसरों के डेरों को अपना आधार बनाया, जो दूसरी भूमियों में विचरण किया, कोई आधार न पाकर, निराधार शून्य में छूट कर--और शून्य में कुछ भी नहीं रह सकता है--शून्य में आधार न पाकर स्व-आधारित हो जाता है, स्वयं प्रतिष्ठित हो जाता है, स्वयं में लौट आता है। आत्मा आत्मा पर लौट आती है।
इस क्षण दिखता है अमृत, जिसकी कोई मृत्यु नहीं। इस क्षण दिखता है, जिसमें कोई भय की संभावना नहीं। जैसे गीता में उन्होंने कहा है: न हन्यते हन्यमाने शरीरे--जो, शरीर मर जाएगा, तब भी नहीं मरेगा। जिसे चिता की लपटें नहीं जला सकतीं, जिसे कुछ भी नष्ट और विकृत नहीं कर सकता--अच्युत, शाश्वत, नित्य--उसके जब दर्शन होंगे, अनायास, सहज। इस दर्शन के कारण जीवन अहिंसक हो जाता है। इस दर्शन के कारण जीवन में अहिंसा फैल जाती है। इसके अतिरिक्त और अहिंसा तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है।
आत्म-ज्ञान है मार्ग अहिंसा का।
और अगर विश्व को बचा लेना है, और अगर मनुष्य को कोई भविष्य और नियति देनी है, तो एक-एक व्यक्ति तक आत्म-ज्ञान की इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को पहुंचा देना जरूरी है। महावीर को, उनके विचार को घेरों को तोड़ कर सब तक पहुंचा देना जरूरी है। महावीर अहिंसक होने को नहीं कह रहे हैं, महावीर आत्म-ज्ञानी होने को कह रहे हैं--अहिंसा तो अपने से चली आएगी। आत्म-ज्ञान जागे, लोग अपने को जानें, अमृत को पहचानें, नित्य को पहचानें, प्रबुद्ध को पहचानें; उसको, जो कभी बंधन में नहीं गिरा, उस मुक्त को पहचानें, तो हम सारे जगत को एक नई मनुष्यता में परिवर्तित कर सकते हैं।
अणु का उत्तर आत्मा है, विज्ञान का उत्तर धर्म है। फैले हुए विकृति और विकार का उत्तर संस्कृति है। केवल आत्म-ज्ञानी संस्कृत होता है।
अज्ञानी प्रकृत होता है। और अज्ञानी अगर अज्ञान में तृप्त हो जाए तो विकृत हो जाता है। अज्ञानी प्रकृत होता है। और अगर अज्ञानी ऊपर उठने की आकांक्षा भी छोड़ दे ज्ञान तक तो विकृत हो जाता है। और अगर ऊपर उठने की आकांक्षा से भरे, संस्कृत होता चलता है। जिस दिन भीतर परिपूर्ण आत्म-ज्ञान उदय होता है, उसी दिन व्यक्ति सुसंस्कृत होता है।
जगत को संस्कृति देनी है। और संस्कृति तो हिंसक नहीं हो सकती, केवल विकृति हिंसक हो सकती है। जगत को संस्कृति देनी है, तो आत्म-ज्ञान की आकांक्षा देनी जरूरी है, प्यास को जगाना जरूरी है। एक-एक आदमी के भीतर जो सोया है, वह जो प्रदीप्त हो सकता है, लेकिन प्रसुप्त है; वह जो जाग सकता है, लेकिन सोया है, नींद में है; वह जो अमूर्च्छित, अप्रमत्त हो सकता है, लेकिन मूर्च्छित और बेहोश में है--उसे पुकारना जरूरी है।
एक-एक व्यक्ति के भीतर पुकार देनी जरूरी है कि जागो और जगाओ अपने को। तुम्हारा जागरण सारे जगत की रक्षा हो सकता है। एक-एक व्यक्ति का जागरण सारे जगत की रक्षा हो सकता है। एक-एक व्यक्ति का अपने में प्रतिष्ठित हो जाना विश्व की विकृति के संस्कृति में बदलने का मार्ग बन सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैं कहा हूं। बहुत प्रीति से, आनंद से आपकी आंखों को देख रहा हूं, पहचान रहा हूं। बहुत प्यार से इन बातों को सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं।
अंत में एक ही प्रार्थना करता हूं: जगाएं, अपने भीतर पुकारें उसको, जो सोया है। अगर वह महावीर में जग सका, बुद्ध में जग सका, कोई कारण नहीं है कि हमारे भीतर नहीं जगेगा। ठीक ऐसे ही हड्डी-मांस के लोग वे थे। ठीक इन्हीं विकृतियों, इन्हीं सीमाओं में घिरे हुए, जो हमारी हैं। अगर वे जाग सके, तो अपमान है हमारा कि हम न जाग सकें! तिरस्कार है हमारा, अगर हम न जाग सकें! अगर एक भी मनुष्य कभी जागा है, प्रत्येक दूसरा मनुष्य जाग सकता है। क्यों न वह दूसरा मनुष्य मैं हो जाऊं? यही प्रार्थना है, वह दूसरा मनुष्य होने का प्रत्येक प्रयास करे, प्रत्येक आकांक्षा से भरे, प्रत्येक अतृप्त हो जाए, प्यास से पुकारे अपने भीतर--निश्चित जागरण हो सकता है।
इस प्रार्थना के साथ अपनी बात को पूरा करता हूं और आप सबके भीतर बैठे हुए उस सोए हुए को प्रणाम करता हूं, जो जाग जाए तो प्रभु हो सकता है, और सो जाए तो पशु हो सकता है। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
मैं देश के कोने-कोने में गया हूं। हजारों आंखों, लाखों आंखों में देखने का मौका मिला है। जैसे मनुष्य को देखता हूं--ऊपर हंसने की, आनंद की, सुख की एक झलक दिखाई पड़ती है, पर पीछे घना दुख, बहुत दुख दिखाई पड़ता है। और इस दुख का परिणाम यह हुआ है, इस दुख का फलित यह हुआ है कि सारी पृथ्वी धीरे-धीरे दुख से भर गई है। यदि एक भी व्यक्ति दुखी है, परिणाम में अपने बाहर दुख को फेंकता है। व्यक्ति का दुख ही फैल कर सारे जगत का दुख हो जाता है। एक व्यक्ति के भीतर से जो दुख का धुआं उठता है, वह सारी समष्टि को दुख और पीड़ा से भर देता है। आज जो सारे जगत में दुख, पीड़ा और हिंसा मालूम होती है, वह जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, उसके पीछे एक ही कारण है, व्यक्ति की अंतरात्मा दुखी है।
मैं यदि दुखी हूं, तो मैं किसी को भी दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकता। मेरे भीतर जो है, वही मेरे बाहर, मेरे आचरण में, मेरे व्यवहार में फैल जाता है। मेरे भीतर केंद्र पर जो है, वही मेरी परिधि पर आ जाता है। ढाई अरब लोग अगर भीतर दुख और पीड़ा से भरे हों, तो परिणाम में स्वाभाविक है कि सारा जगत दुख और पीड़ा से भर जाए। परिणाम में स्वाभाविक है कि सारे जगत में हिंसा और विनाश दिखाई पड़े।
पिछले पचास वर्षों में दो महायुद्ध हमने लड़े। दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या हुई। इससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता और न मैं इससे बहुत हैरान हूं कि दस करोड़ लोग मरे। इस जगत में जो पैदा होता है, मर जाता है। हैरानी इस बात की है कि हम दस करोड़ लोगों को शांति से समाप्त कर सके। उनके मरने का प्रश्न नहीं है। वे दिन, दो दिन बाद मर जाने को थे। कोई भी जीएगा नहीं, लेकिन हम ये सभी दस करोड़ लोगों की हत्या शांति से कर सके, यह बहुत विचारणीय है। हमारे भीतर पशु इतना जाग्रत कैसे हो गया? हमारे भीतर निकृष्टतम, हमारे भीतर अंधेरा इतना मुखर क्यों हो गया? मनुष्य को क्या हो गया है, यह विचारणीय हो गया है। और अब, जब कि हम तीसरे विनाश की तैयारी में हों, जो कि संभवतः अंतिम विनाश होगा।
आइंस्टीन ने मरने के पहले कहा था--किसी ने पूछा था, तीसरे महायुद्ध में किन अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होगा? आइंस्टीन ने कहा, तीसरे का तो मुझे पता नहीं, लेकिन चौथे के बाबत मुझे मालूम है। पूछने वाला हैरान हुआ होगा। तीसरे के बाबत ज्ञात नहीं है, चौथे के बाबत क्या ज्ञात है! उसने पूछा, क्या ज्ञात है? आइंस्टीन ने कहा, अगर चौथा महायुद्ध हुआ, जिसकी कोई संभावना नहीं है, तो आदमी पत्थर के औजारों से लड़ेगा। क्योंकि तीसरा उसके सारे विकास को, उसकी सारी समृद्धि को समाप्त कर देगा। संभावना तो इसकी है कि उसको परिपूर्णतया नष्ट कर दे।
जो हिंसा और जिस हिंसा के प्रति महावीर और बुद्ध ने और ईसा ने चेताया था--हिंसा की अंतिम परिणति महामृत्यु हो सकती है, और कुछ नहीं। वह हिंसा धीमी थी, अल्प थी, चलती गई। उस हिंसा के कारण जीवन नहीं चल रहा था, हिंसा टोटल नहीं थी, हिंसा आंशिक थी, शेष अहिंसा थी जीवन में। इसलिए हिंसा के साथ भी मनुष्य चलता रहा।
पहली बार हम ऐसे स्थान पर आए हैं, जहां हिंसा टोटल हो सकती है, जहां हिंसा समग्र हो सकती है। समग्र हिंसा के बाद जीवन की कोई संभावना नहीं है। हिंसा पूर्ण हो जाए, स्वयं अपना आत्मघात कर लेती है। वे हिंसक प्रवृत्तियां, जिनका सारे धर्मों ने विरोध किया है, विशेषतया श्रमण धर्मों ने जिस हिंसा के लिए पच्चीस सौ वर्ष पहले आवाज उठाई थी, वह भविष्यवाणी पूरे होने के करीब पहुंच रही है। जो आने वाला संभावी युद्ध होगा, वह किसी तरह के प्राण को जमीन पर नहीं बचने देगा।
मैं पढ़ता था, मैंने सुना, पानी को हम गर्म करते हैं, सौ डिग्री पर पानी भाप हो जाता है। लोहे को अगर गरम करें, पंद्रह सौ डिग्री पर लोहा पिघल कर पानी हो जाता है। पच्चीस सौ डिग्री पर लोहे का जो पानी तरल रूप है, वह भाप बन कर उड़ जाता है। एक हाइड्रोजन बम कितनी गर्मी पैदा करेगा, आपको ज्ञात है? दस करोड़ डिग्री! पच्चीस सौ डिग्री पर लोहा भाप होकर उड़ जाता है। एक हाइड्रोजन बम दस करोड़ डिग्री गर्मी पैदा करेगा! क्या बचेगा उस उष्णता में? उस उत्तप्त में ऐसा प्रतीत होगा, जैसे सूरज जमीन पर उतर आया हो। किसी तरह के जीवन की कोई संभावना न रह जाएगी।
एक हाइड्रोजन बम पैंतालीस हजार वर्गमील क्षेत्र को प्रभावित करता है। इंग्लैंड, फ्रांस या पश्चिमी जर्मनी जैसे देश को नष्ट करने को केवल पंद्रह हाइड्रोजन बम पर्याप्त हैं। और आपको ज्ञात है, सारी दुनिया में इस समय तैयार हाइड्रोजन बम की संख्या पचास हजार है। ये पचास हजार हाइड्रोजन बम इस तरह की तीन जमीनों को नष्ट करने को पर्याप्त हैं।
और प्रति घंटा--मैं घंटे भर बोलूंगा--प्रति घंटा पचास करोड़ रुपया इस तरह के विनाशक अस्त्रों को तैयार करने में सारी दुनिया में खर्च हो रहा है! प्रति घंटा! दो घंटे में एक अरब रुपया! चौबीस घंटे में बारह अरब रुपया! जब कि हर तीन आदमियों में दो आदमी भूखे हैं! जब कि हर तीन आदमियों में पूरी जमीन पर दो आदमी नंगे हैं! तो हम जरूर कुछ पागल हो गए हैं। हम जरूर विक्षिप्त हो गए हैं। ये सभी होश में नहीं हैं। हम कुछ नशे में हैं और जैसे हमें कुछ पता नहीं हम क्या कर रहे हैं! हमारे हाथ हमारी मौत का आयोजन कर रहे हैं, इसमें हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है!
एक छोटी सी कहानी आपसे कहूं--एक बिलकुल काल्पनिक कहानी, कहीं सुना था, फिर बहुत प्रीतिकर लगी।
ईश्वर ने यह देख कर कि मनुष्य को यह क्या हुआ जा रहा है, यह मनुष्य अपने हाथ से अपनी मृत्यु के आयोजन में इतना उत्सुक क्यों हो गया है, दुनिया के तीन बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया। मैंने कहा, कहानी काल्पनिक है, झूठी; कहीं कोई ईश्वर ऐसा बुलाने को नहीं है, पर कहानी में एक सत्य बहुत उभर कर जाहिर हुआ है। उसमें अमरीका को, ब्रिटेन को, रूस को बुलाया था। इन मुल्कों के प्रतिनिधि उससे मिलने गए थे। ईश्वर ने कहा, मेरे मित्र! बहुत सदियां देखीं। मनुष्य का लंबा इतिहास देखा। इतना विक्षिप्त--इतनी समृद्धि के बीच, इतनी शक्ति के बीच, अपने को ही आत्मघात करने वाला कोई जमाना मैंने नहीं देखा है! मैं हैरान हूं, तुम यह क्या कर रहे हो? तुम्हारे किए का अंतिम परिणति और परिणाम क्या होगा? अगर मैं कुछ सहायक हो सकूं और मनुष्य बच सके, तो मुझसे वरदान मांग लो। मैं अगर मनुष्य के भविष्य के लिए कुछ कर सकूं, तो वरदान देने को तैयार हूं। तुम तीनों मांग लो तीन वरदान। मनुष्य बच जाए, यही मेरी आकांक्षा है।
अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे मालिक! इससे सुखद और क्या होगा, एक वरदान दे दें। और हमें कुछ भी नहीं चाहिए, एक ही आकांक्षा है हमारी: जमीन तो हो, लेकिन जमीन पर रूस का कोई निशान न रह जाए। ईश्वर ने वरदान दिए होंगे बहुत, बहुत मांगें पूरी की होंगी, ऐसी मांग कभी उसके सामने आई नहीं थी। उसने उदास घूम कर रूस के प्रतिनिधि की तरफ देखा। वह बोला, महानुभाव! एक तो हमें आप पर कोई विश्वास नहीं है। एक तो हम नहीं मानते कि कहीं कोई ईश्वर है। लेकिन मान लेंगे तुम्हें भी और उन चर्चों में जहां से तुम्हारे सब निशान मिटा दिए गए हैं, वापस तुम्हें प्रतिष्ठित कर देंगे, एक बात, एक आकांक्षा पूरी हो जाए। ईश्वर ने पूछा, कौन सी आकांक्षा? रूस के प्रतिनिधि ने कहा, नक्शे तो हों जमीन पर, नक्शे तो हों दुनिया के, अमरीका के लिए कोई रंग-रेखा न रह जाए। ईश्वर ने घूम कर ब्रिटेन को देखा। ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने कहा, मेरे प्रभु! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं, इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाएं, हमारी आकांक्षा पूरी हो जाएगी।
ऐसी सदी को होश में कहिएगा? ऐसे मनुष्य को जागा हुआ कहिएगा? ऐसे युग को स्वस्थ कहिएगा? विक्षिप्त है यह युग। और इस सत्य को हम जितना शीघ्र समझ लें, उतना उचित है, अन्यथा अपने ही विक्षिप्त आयोजन हमारी मृत्यु बन जा सकते हैं। यह विक्षिप्तता कैसे पैदा हो गई है? यह पागलपन कैसे आ गया? और क्या ऊपर का कोई उपचार और अहिंसा पर दिए गए प्रवचन और अहिंसा पर लिखा गया साहित्य और अहिंसा के पक्ष में बोली गई बातें इस विक्षिप्तता को तोड़ सकेंगी?
यह विक्षिप्तता टूट जानी इतनी आसान नहीं है। यह विक्षिप्तता ऊपर से आरोपित नहीं है, यह विक्षिप्तता कहीं भीतर से विकसित हुई है। इस विक्षिप्तता की कहीं मनुष्य के मन में, बुनियाद में जड़ें हैं। मनुष्य की प्रकृति में कुछ है, जहां से यह विक्षिप्तता फैलती और विकसित होती है। जब तक उसकी प्रकृति में परिवर्तन करने का विचार, विवेक, जागृति पैदा न हो, जब तक उसकी प्रकृति में जो पशु है, उसके विनाश का कोई आयोजन न हो, तब तक मनुष्य के भीतर प्रकाश को और प्रभु को पैदा नहीं किया जा सकता। मनुष्य यूं ही हिंसक नहीं है। उसके पीछे हिंसा में उसके चित्त में जड़ें हैं, उन जड़ों को अलग कर देना जरूरी है, तो हम एक अहिंसक मनुष्य का निर्माण कर सकते हैं। अहिंसक मनुष्य का निर्माण ही इस जगत के लिए एकमात्र त्राण हो सकता है।
महावीर ने कहा था, अहिंसा एकमात्र त्राण है। यह बात इतनी सच कभी भी नहीं थी। यह बात पहली बार परिपूर्ण सत्य हुई है। अहिंसा के अतिरिक्त आज कोई मार्ग नहीं है। मैं अभी कहा एक जगह: महावीर या महाविनाश, दो के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
पहली बार इतिहास ने हमें ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया, जहां महावीर और उनकी अहिंसा एकमात्र जीवन का पर्याय बन गई है। हिंसा को चुनना अब मृत्यु को चुनना है। अब हिंसा और मृत्यु में कोई फासला और फर्क नहीं है। अब अहिंसा को चुनना जीवन को चुनना है। वे लोग जो जीवन चाहते हैं, वे लोग जो जीवन का भविष्य चाहते हैं, उन्हें अहिंसा को अपने में जन्माए बिना कोई चारा नहीं है।
इस अहिंसा पर क्या हम करें? कैसे यह पैदा हो जाए? कहां है मनुष्य में हिंसा की जड़? कहां है मनुष्य में वह प्यास और वह सुख, जो दूसरे को पीड़ा और दूसरे के विनाश से तृप्त होता है? कौन है मनुष्य के भीतर ऐसा भूखा, जो दूसरे के विनाश में रस लेता है? उसे पहचानना, उस भूख को पकड़ लेना जरूरी है।
मनुष्य पूर्ण इकाई नहीं है। मनुष्य परिपूर्ण विकसित प्राणी नहीं है। मनुष्य केवल संक्रमण है। मनुष्य केवल बीच की एक कड़ी है--पशु और प्रभु के बीच। मनुष्य के भीतर दोनों संभावनाएं हैं--नीचे गिर कर पशु हो सकता है, ऊपर उठ कर प्रभु हो सकता है। और इसे मैं मनुष्य की गरिमा और गौरव मानता हूं। मैं अभी कहा एक जगह, मैंने लोगों से कहा कि तुम पाप कर सकते हो, यह तुम्हारी गरिमा है, यह तुम्हारा गौरव है। तुम पाप कर सकते हो, इसलिए तुम पवित्र भी हो सकते हो। जो पाप नहीं कर सकता, पवित्र भी नहीं हो सकता। तुम आत्मघात कर सकते हो...। दुनिया में कोई पशु मनुष्य के सिवाय आत्मघात नहीं कर सकता। कहीं स्युसाइड नहीं हो सकती मनुष्य को छोड़ कर। अकेला मनुष्य आत्महत्या कर सकता है।
मैं मानता हूं कि गौरवशील हो कि आत्महत्या कर सकते हो, क्योंकि जो आत्महत्या कर सकता है, वह परिपूर्ण जीवन पा सकता है। जो नीचे गिर सकता है गहराइयों में, अंधेरे की गर्तों में, और पाप की और नरक की सड़ांध में, वही केवल पवित्रता के धवल शिखरों को छू सकता है। नीचे गिरने की हमारी क्षमता हमारे स्वातंत्र्य की महिमा का प्रतीक है।
इसलिए मैं यह नहीं कहता कि नीचे गिर जाने की क्षमता बुरी है। वह केवल स्वातंत्र्य है, चुनाव की बात है। मनुष्य अकेला प्राणी है सारी जमीन पर, जो अपने जीवन के निर्माण के लिए स्वतंत्र है। इतना स्वतंत्र है कि निम्नतम हो सकता है, इतना स्वतंत्र है कि श्रेष्ठतम हो सकता है। मनुष्य केवल एक संक्रमण है, सारे पशु पूर्ण इकाइयां हैं। किसी पशु में पशुता के ऊपर उठने की क्षमता नहीं है, किसी पशु में पशुता के नीचे गिरने की क्षमता भी नहीं है। वह थिर इकाई है, रुकी हुई। प्रवाहमान नहीं, तरल नहीं। मनुष्य तरल इकाई है। मनुष्य तरलता है, लिक्विडिटी है। उसके भीतर प्रवाह की, नीचे-ऊपर उठने की क्षमता है।
और यह हमारे हाथ में है, यह हमारे संकल्प पर निर्भर है कि यह प्रवाह क्या दिशा ले।
पिछली कुछ सदियों ने मनुष्य की श्रेष्ठतम दिशा को खंडित कर दिया है। सारे पुराने प्रतिमान, सारी पुरानी प्रतिमाएं खंडित हो गई हैं। हम बहुत मूर्ति-भंजक हैं। मंदिरों की मूर्तियां टूट जाएं, कुछ नुकसान नहीं होगा। मनुष्य के जीवन की वह प्रतिमा, जिसे उसे पाना है, टूट जाए तो जीवन नष्ट हो जाएगा। हम इस अर्थ में मूर्ति-भंजक हैं। हमने सारी पुरानी प्रतिमाएं तोड़ दीं, जो हम होने की आकांक्षा करते थे। महावीर और बुद्ध और राम, वे सारी प्रतिमाएं हमारी आंखों से हट गई हैं। हम जो हैं, उस पर तृप्त हो गए हैं।
जो तृप्त हो जाएगा, मर जाएगा। जो तृप्त हो जाएगा और समझ लेगा हम जो हैं, काफी हैं, और ऊपर उठने की आकांक्षा और प्यास जहां विलीन हो गई, वहीं मृत्यु है। पिछले दो-तीन सौ वर्षों में हम निरंतर मरते चले गए हैं। मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो गया है। मनुष्य का मनुष्य से तृप्त हो जाना ही उसकी भूल और भ्रांति है। इस सदी का सारा दुख यह है, इस सदी की सारी विकृति इससे पैदा हुई है, मनुष्य मनुष्य होने से तृप्त हो गया है।
मैं आपको तृप्त हुआ नहीं देखना चाहता। मैं किसी को नहीं कहता, तृप्त हो जाओ, संतुष्ट हो जाओ। मैं कहता हूं, जलने दो अतृप्ति की आग। मनुष्य से तृप्त मत होना। और बड़े आश्चर्य का नियम यह है, इस जगत में कुछ भी थिर नहीं है। जो आगे बढ़ने से रुक जाएगा, वह रुका नहीं रहेगा, प्रवाह उसे पीछे फेंक देता है। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, वह पीछे सरकता चला जाएगा। इस जगत में थिर कुछ नहीं है। जेम्स जीन्स ने एक बात कही थी, कि मैंने सारे शब्दकोश के अध्ययन के बाद अनुभव किया: रेस्ट, टिकाव, ठहराव, थिरता, इस शब्द की वास्तविकता जगत में कहीं भी नहीं है। कहीं कोई चीज थिर नहीं है। जो विकासमान नहीं है, ह्रासमान हो जाएगा। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, पीछे हट जाएगा। ठहर नहीं सकते हैं।
जिस दिन हमने मनुष्य के ऊपर भावी प्रतिमाओं को अलग कर दिया, जिस दिन मनुष्य के भीतर आदर्श को विसर्जित कर दिया, जिस दिन हमारे भीतर वह आकांक्षा, जो प्रत्येक को महावीर, बुद्ध और क्राइस्ट बनाना चाहती थी, विलीन हो गई, धूमिल हो गई, उसी दिन हम पशु की तरफ पीछे हटने शुरू हो गए। प्रभु की प्रतिमा हटेगी आंख से, अनिवार्यतया पशु की प्रतिमा उसकी जगह प्रतिष्ठित हो जाती है। ईश्वर को छोड़ने से कुछ हर्ज न था, लेकिन मंदिर रिक्त नहीं रहता। जिस सिंहासन पर से ईश्वर को उतार लिया, वहां कब रात के अंधेरे में पशु बैठ गया, इसका पता नहीं पड़ता है।
मैं इससे दुखी नहीं हूं कि हम ईश्वर को अस्वीकार कर दें--कर दें, लेकिन यह तो स्मरण रखें कि सिंहासन पर फिर कौन विराजमान हो गया है। और हमारे पूजा करने वाले हाथ, जो बहुत पुराने आदी हैं, अंधे की तरह पशु की पूजा में संलग्न हो गए हैं!
ईश्वर को अस्वीकार केवल वही कर सकता है, जो ईश्वर के जैसा हो, उसके पहले नहीं। धर्म को अस्वीकार वही कर सकता है, जो धर्म को उपलब्ध हो जाए, उसके पहले नहीं। अन्यथा विपरीत प्रतिष्ठित हो जाता है। मनुष्य के भीतर दोनों हैं--मनुष्य के भीतर दोनों हैं।
एक कहानी कहूं। पढ़ता था एक चित्रकार के बाबत। एक चित्र उसने बनाना चाहा था मनुष्य के भीतर दिव्य का, डिवाइन का। गया था खोज में। खोज लिया था एक व्यक्ति को, जिसकी आंखों में आकाश के जैसी नीली शांति थी। जिसके नक्श में, जिसकी रेखा-रेखा में कुछ था अलौकिक, संवेदित, जिसको देख कर लगता था कि मनुष्य के ऊपर का कुछ प्रकट हुआ। उसने उसके चित्र को बनाया। चित्र बना, पूरा हुआ, लाखों प्रतिलिपियां बिकीं। गांव-गांव, उसके देश के गांव-गांव में पहुंच गया, प्रतिष्ठित हुआ, आदृत हुआ। बहुत हुई थी प्रशंसा।
बीस वर्ष बाद उस चित्रकार ने दूसरा चित्र बनाना चाहा था, मनुष्य के भीतर जो पशु है उसका। सोचा था, यूं मनुष्य की तस्वीर पूरी हो जाएगी इन दो चित्रों में। गया था खोजने वेश्यालयों में, कारागृहों में, पागलखानों में। और खोज लिया था आखिर एक कारागृह में एक व्यक्ति को, जिसकी आंख तो आदमी की थी, लेकिन जो झांकता था भीतर से, वह पशु था। जिसका चेहरा तो आदमी का था, लेकिन पारदर्शी था चेहरा और पीछे कोई खूंखार बैठा हुआ था। चित्र को बनाया। दूसरा चित्र भी बन कर जिस दिन पूरा हुआ था, एक घटना घटी बहुमूल्य, स्मरणीय।
अपने पुराने चित्र को लेकर गया था कारागृह में, दोनों को रख कर करीब यह देखने, कौन सी कृति श्रेष्ठ बनी है! मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था, तय करना मुश्किल था, कौन सा चित्र ठीक बना! तभी पीछे कैदी रोने लगा था, जिसका चित्र उसने दूसरा बनाया था। लौट कर देखा था। कहा, मित्र! मेरे चित्रों से तुम्हें दुख का कारण? तुम्हारे आंसू का कारण? तुम क्यों रोते हो? उस कैदी ने कहा, इतने दिन कितनी मुश्किल से अपने भाव को छिपाया, आज मुश्किल हो गया। पहला चित्र भी मेरा ही चित्र है। बीस वर्ष पहले मेरे ही चेहरे और आंखों को देख कर पहला चित्र बनाया था। दोनों चित्र मेरे हैं, इसलिए रोता हूं।
कहानी बहुत काल्पनिक सी लगती है, काल्पनिक नहीं है। और काल्पनिक भी हो तो भी प्रत्येक व्यक्ति के संबंध में सत्य है। ये चित्र उस आदमी के ही नहीं थे दोनों, ये हमारे भी दोनों हैं। ये प्रत्येक के दोनों हैं। जो भी आदमी इस जमीन पर है, उसके भीतर दोनों छिपे हैं। उसके भीतर दोनों विराजमान हैं। उसके भीतर दोनों के बीच निरंतर संघर्ष, निरंतर दोनों किनारों के बीच आदमी टकराता रहता है।
कभी देखना, कभी विचार करना, कभी होश से भरना, घड़ी भर पहले तुम्हारे भीतर हो सकता है प्रभु रहा हो, घड़ी भर बाद हो सकता है कि पशु विराजमान है। कितनी तीव्रता से हम इन दोनों तटों के बीच घूमते रहते हैं! और अगर प्रभु की धारणा ही विलीन हो जाए, अगर आत्मिक जीवन में बैठने की, उठने की आकांक्षा विलीन हो जाए, तो फिर हम पशु के तट पर लगे रह जाते हैं। हमारी नौका वहीं लगी रह जाती है। फिर स्वाभाविक है, जब कि एक-एक आदमी के भीतर का पशु ही केवल प्रवृत्तिमान होता हो, जब कि पशु को तृप्त करना ही जीवन रह गया हो, तो स्वाभाविक है कि ढाई अरब पशुओं का इकट्ठा संघर्षण, ढाई अरब पशुओं की इकट्ठी विकृत आकांक्षाएं सारी संस्कृति की मृत्यु बन जाएं।
कहां हम स्वप्न देखे थे मनुष्य के भीतर परम शक्ति के जागरण का और कहां निकृष्ट को उपलब्ध करके बैठ गए हैं! कहां बुद्ध, कहां महावीर, कहां क्राइस्ट, जो कहते हैं, तुम्हारे भीतर परमात्मा विराजमान है! और कहां हम, जो भीतर झांक कर देखते हैं तो सिवाय पशु की आहट के, उसके चलने के कुछ भी वहां नहीं पाते!
मेरा मानना है, अहिंसा ऊपर से शिक्षित नहीं की जा सकती। हिंसा हमारे पशु की प्रकृति का सहज परिणाम है। जब तक हम पशु के तट से बंधे हैं, तब तक सहज परिणाम हिंसा होगी। लाख चेष्टा ऊपर से आरोपित करने की व्यर्थ है। अहिंसा का अभिनय हो सकेगा, अहिंसक नहीं हुआ जा सकता। अहिंसक होना हो, क्रियाएं नहीं बदलनी हैं, भीतर चैतन्य का तट बदलना होगा। लाख उपाय करें, उसी तट पर बंधे हुए कहीं पहुंचना न होगा।
सुनता था, एक साधु नदी पर नहाने उतरा था। सुबह भोर होने के करीब थी और थोड़ा-थोड़ा प्रकाश हो गया था। सूरज निकलने के करीब था, प्राची लाल हो गई थी। देखा उस पार उसने, चार व्यक्ति एक नाव में बैठ कर जोर से डांड चला रहे हैं। नाव वहीं की वहीं खड़ी है, डांड चलाए जा रहे हैं। वह तैर कर पास गया, देखा, नाव की जंजीर तट से बंधी थी!
उसने पूछा, मित्र कहां जा रहे हो? वे चारों नशे में थे और रात नशे में आकर नाव चलाना शुरू कर दिए थे। रात भर इस खयाल में रहे कि बहुत यात्रा हो रही है। उस साधु ने उनसे कहा, पागल हो! यह तो देख लेते पहले कि नाव तट से छोड़ी भी या नहीं? जंजीर तो वहीं बंधी है, तो डांड खेने से कुछ भी न होगा!
ऊपर सारे कर्म अहिंसक होने के, उन नशेखोर नाविकों जैसे हैं। भीतर उस तट से जंजीर छूटी या नहीं? और जंजीर छूट जाए, भीतर तट परिवर्तित हो जाए, भीतर चैतन्य का केंद्र परिवर्तित हो जाए, तो जैसा पशु के तट से बंधे हुए हिंसा सहज बाहर निकलती है, आचरण हिंसक हो जाता है, वैसे ही तट-परिवर्तन से, चेतना के परिवर्तन से अहिंसा सहज निकलती है।
महावीर ने कहा है--अदभुत परिभाषा की है अहिंसा की--कहा है, स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना अहिंसा है।
अहिंसा का कोई संबंध ही दूसरे से नहीं है। जो कहते हैं, दूसरे को दुख न देना अहिंसा है, नासमझ हैं। दूसरे से कोई वास्ता अहिंसा का नहीं। स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना अहिंसा है, स्वरूप के बाहर होना हिंसा है। जो स्वरूप के बाहर है, कुछ भी करे--कुछ भी करे, सबमें हिंसा प्रवाहित होगी। जो स्वरूप में प्रतिष्ठित है, कुछ भी करे, सबमें अहिंसा प्रवाहित होगी। अहिंसा क्रिया का परिवर्तन नहीं, डूइंग का परिवर्तन नहीं, बीइंग का, सत्ता का, होने का परिवर्तन है। जिसकी सत्ता परिवर्तित होगी और तट बदल जाएगा, उसके जीवन में सहज, सहज अहिंसा प्रतिफलित हो जाती है।
अहिंसा साधना नहीं है। कोई अहिंसा को साध नहीं सकता। साधना आत्म-ज्ञान को पड़ता है। अहिंसा अपने आप चली आती है, जैसे पौधों में फूल चले आते हैं। अहिंसा सहज परिणाम है, कांसीक्वेंस है, साधना नहीं है। अहिंसा परम धर्म का अर्थ यही है कि जब जीवन में आत्म-ज्ञान उपलब्ध होता है अंतिम परिणति में, परम धर्म की तरह, परम विकास, विकसित फूल की तरह अहिंसा आ जाती है। अहिंसा को लाना नहीं होता, अहिंसा आती है। लाना होता है स्व-स्थिति को, लाना होता है स्व-स्थिति को।
अहिंसा के संबंध में सबसे भ्रांत जो धारणा व्यापक है, वह यह है कि हम अहिंसा को एक नैतिक उपकरण, एक नैतिक साधना समझते हैं। अहिंसा नैतिक साधना नहीं है। और नैतिक साधक की अहिंसा में और महावीर की अहिंसा में जमीन-आसमान का अंतर है। नैतिक साधक यह सोच-सोच कर कि दूसरे को दुख देना बुरा है, अहिंसक होने की चेष्टा करता है। इस तरह जो चेष्टित, कल्टीवेटेड अहिंसा है, वह कृत्रिम है, थोथी है, बाह्य है।
महावीर की अहिंसा नैतिक अहिंसा नहीं है। महावीर की अहिंसा यौगिक अहिंसा है। महावीर का मानना है, स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाओ, स्वयं ज्ञान को उपलब्ध। तुम पाओगे, बाहर दूसरे को दुख देना असंभव हो गया। क्योंकि जिसके भीतर दुख नहीं है, वह दूसरे को दुख नहीं दे सकता है। जिसके भीतर आत्म-ज्ञान का प्रकाश और आनंद उपलब्ध हो गया, अनायास उससे आनंद ही बहेगा, प्रकाश ही बहेगा। कोई रास्ता न रहा कि उसके भीतर से आनंद के विपरीत कुछ बह जाए।
सच, अगर विचार करें, हम दूसरे को इसलिए दुख दे पाते हैं कि हम दुखी हैं। हम दूसरे के प्रति इसलिए हिंसक हो पाते हैं कि हम अपने प्रति हिंसक हैं और भीतर हिंसा से भरे हैं। दूसरे का प्रश्न नहीं है, अंततः अहिंसा का प्रश्न वैयक्तिक जागरण का प्रश्न है। मनुष्य अपने भीतर जाग जाए और उसे अनुभव कर ले, जो वहां बैठा है, हिंसा विसर्जित हो जाती है।
वहां पश्चिम ने पदार्थ के विश्लेषण, पदार्थ के खंडन, पदार्थ के आंतरिक रहस्य की खोज के द्वारा अणु को उपलब्ध किया है। अणु को उपलब्ध करके पाया कि विराट शक्ति हाथ में आ गई। विनाश की अदभुत शक्ति पर नियंत्रण हो गया है। पूरब ने भी प्रयोग किए। पश्चिम ने पदार्थ की सत्ता पर प्रयोग किए, पूरब ने मनुष्य की चेतना की सत्ता पर प्रयोग किए। महावीर का प्रयोग मनुष्य की चेतन सत्ता के विश्लेषण का प्रयोग है।
पदार्थ के विश्लेषण से उपलब्ध हुआ है अणु, मनुष्य की चेतना के विश्लेषण से उपलब्ध हुई है आत्मा।
पदार्थ के विश्लेषण से जो अणु उपलब्ध हुआ, वह विनाशक साबित हुआ। पदार्थ की सब शक्तियां अंधी हैं। और अंधों के हाथ में आ जाएं, तो परिणाम बुरे होने स्वाभाविक हैं। चैतन्य के विश्लेषण से, चैतन्य के जागरण से, चैतन्य में उतरने से जो उपलब्ध हुई आत्मा, वह सारे जीवन को, सारे दृष्टिकोण को बदल देती है।
महावीर ने कहा है, केवल वही अहिंसक हो सकता है, जो अभय को उपलब्ध हो।
अभय को कौन उपलब्ध होगा? जो आत्म-ज्ञानी नहीं है वह अभय को उपलब्ध हो सकता है? कोई भय को जबरदस्ती निकाल कर अभय को पा सकता है?
असंभव है, असंभव है। कोई भय को निकाल नहीं सकता। भय है मृत्यु का। अंतिम भय के पीछे मृत्यु बैठी हुई है। प्रतिक्षण चारों तरफ से जीवन मृत्यु से घिरा हुआ है। जब तक अमृत न दिख जाए, जब तक यह न दिख जाए कि मेरे भीतर कोई है जो नहीं मरेगा, नहीं मर सकता है, तब तक व्यक्ति अभय को उपलब्ध नहीं होता है। जब तक हम मर्त्य से घिरे हैं, जब तक हम जानते हैं कि जो भी हमारे आस-पास है, सब मृत्यु में समा जाएगा...।
और मैं तो कहने लगा, जीवन हमारे पास है ही नहीं, हम तो प्रतिक्षण मर ही रहे हैं। मृत्यु अनायास थोड़े ही एक दिन घटित हो जाती है। जीवन में सब विकास होता है। जिस दिन हम जन्मे, उसी दिन मृत्यु शुरू हो गई। जिस दिन जन्म हुआ, उसी दिन मरना शुरू हो गया। जिसको हम मृत्यु कहते हैं, वह उसी मरण की शुरुआत की अंतिम पूर्णाहुति है। कोई अचानक थोड़े ही मर जाता है। अचानक इस जगत में कुछ भी नहीं होता है। हम प्रतिक्षण मर रहे हैं। हम प्रतिक्षण मरते जा रहे हैं, हमारा सब मरता चला जा रहा है, हम प्रतिक्षण अंधेरे में और मृत्यु में दबे जा रहे हैं। इस मृत्यु में और अंधेरे में दबता हुआ व्यक्ति अभय को उपलब्ध हो सकता है? कोई तलवार अभय न देगी। और जो हाथ में तलवार लिए खड़े हैं, वे भयभीत हैं, तलवार केवल इसकी ही सूचना देती है। किसी दिन शायद वक्त आए कि जिनकी तलवार हाथ में लिए हम तस्वीरें और मूर्तियां बना रहे हैं, लोग हंसें और समझें कि बहुत कमजोर, बहुत भयभीत रहे होंगे। जो भयभीत नहीं है, उसके हाथ में तलवार होने का कोई कारण नहीं है। जिनको हम बहादुर कहते हैं, वह केवल भय की ही एक परिणति है, भय का ही एक रूप है। मर्त्य के बोध के भीतर अभय असंभव है। जो मरने से डरा हो, जिसे मृत्यु दिख रही हो...और मैंने कहा कि हमारा सब तो मरण के करीब पहुंच रहा है। हमारे पास कुछ भी तो नहीं है, जो न मर जाएगा।
नानक एक गांव में ठहरे हुए थे, लाहौर में। एक व्यक्ति उनके पास बहुत बार आया, वर्षों आया। उसने अनेक बार नानक से कहा, मेरे सेवा योग्य कुछ मिल जाए, मैं कुछ आपकी सेवा कर सकूं। नानक टालते गए कि मुझे तो कोई जरूरत नहीं, तुम्हारा प्रेम है, पर्याप्त है। प्रभु ने सब दिया है। एक दिन नानक ने कहा, तुम बहुत बार कहे, आज तुम्हारे लिए काम खोज लिया है। अपने कपड़े में छिपा रखी थी एक सुई कपड़े को सीने की, उस व्यक्ति को दी, इसे रख लो, मृत्यु के बाद मुझे वापस कर देना। काम खोजा ऐसा खोजा!
वह आदमी घबड़ाया, एक क्षण सोचा, मृत्यु के बाद वापस कर देना? जब मृत्यु होगी तो मुट्ठी तो बंधी रह जाएगी सुई पर, लेकिन सुई साथ नहीं जा सकती है। रात भर चिंतित रहा, सुबह आकर नानक के पैरों पर गिर पड़ा और कहा कि क्षमा कर दें। मेरी कोई समृद्धि, मेरी कोई सामर्थ्य, मेरी कोई शक्ति मृत्यु के पार इस सुई को नहीं ले जा सकती। नानक ने पूछा, फिर तुम्हारे पास क्या है जिसे मृत्यु के पार ले जा सकते हो?
और क्या यही प्रश्न मैं आपसे न पूछूं? और क्या यही प्रश्न प्रत्येक को सारे जगत में अपने से नहीं पूछ लेना है? एक न एक दिन क्या यह प्रश्न मृत्यु के वक्त खड़ा न हो जाएगा कि क्या है मेरे पास जो मैं ले जा सकता हूं? जिसके पास मृत्यु के पार ले जाने को कुछ भी नहीं है, वह अभय को कैसे उपलब्ध होगा? जिसे यह भी पक्का नहीं कि मैं भी बचूंगा उन लपटों के पार या नहीं, वह कैसे अभय को उपलब्ध होगा? जिसके पैर के नीचे सारी जमीन खिसकी जाती हो, जिसकी सारी मुट्ठियों की पकड़ किसी चीज को पकड़ाए न रखेगी, जिसके सब सहारे डूब जाएंगे, और मझधार में जिसकी नौका डूबनी ही है और कोई तट और किनारा जिसे न दिखता हो, वह कैसे अभय को उपलब्ध हो?
आत्म-ज्ञान के बिना अभय असंभव है।
महावीर ने कहा, जो अभय को उपलब्ध है, वही केवल अहिंसक हो सकता है। और अदभुत शर्त लगा दी, और उस शर्त में सारा भय इकट्ठा कर दिया। आत्म-ज्ञानी ही अभय को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि जो अपने को जानता है वह जानता है कि मृत्यु नहीं है। सब मरेगा, मैं नहीं मर सकता हूं। सब विसर्जित हो जाएगा, सब मिट जाएगा, भीतर जो चैतन्य सत्ता बैठी हुई है, उसकी मृत्यु नहीं है। जिस क्षण यह दर्शन होता है, जिस क्षण इस अमृत का दर्शन होता है, उसी क्षण जीवन से भय विलीन हो जाता है। जिसका स्वयं का भय विलीन हो गया, वह अहिंसक हो जाता है, वह हिंसक नहीं रह जाता है। अहिंसक होने की सीढ़ी, अहिंसक होने का मार्ग आत्म-ज्ञान का मार्ग है।
अपने को जानना होगा, अपने से परिचित होना होगा। सारे जगत को जानें और अपने से अपरिचित, दो कौड़ी का है ज्ञान फिर। उसका कोई मूल्य नहीं है। मैं सारी दुनिया को जान लूं और मेरे भीतर अंधेरा घना हो--इस जानने का क्या होगा? क्या है प्रयोजन? क्या हुआ अर्थ? क्या पाया? धोखा है, प्रवंचना है, अपने को समझा लेना है। यह पांडित्य और यह ज्ञान किसी काम का नहीं। महावीर के बाबत सब कुछ जान लूं, राम के बाबत सब कुछ जान लूं, कृष्ण के बाबत सब कुछ जान लूं, और यह जो भीतर बैठा है, अपरिचित रह जाऊं, दो कौड़ी की है यह सब जानकारी। यह नाहक का मनोरंजन है, अपने समय को खराब कर लेना है। सारे शास्त्र पढ़ डालूं और भीतर जो शास्त्रों का पढ़ने वाला बैठा है, अनपढ़ा रह जाए, कुछ नहीं किया मानना होगा, कुछ नहीं पाया मानना होगा।
महावीर कहते हैं, एक को जान लेने से सब जान लिया जाता है।
उस एक को जानना जरूरी है, उसके जानने का परिणाम अहिंसा होगी। कैसे जानें?
जानते तो हैं अपने को। नाम परिचित है। कितना धन है, बैंक बैलेंस कितना है, वह भी परिचित है। किसका लड़का हूं, वह भी परिचित है। किसका भाई हूं, किसका पति हूं, वह भी सब परिचित है। लेकिन यह सारा परिचय शरीर का परिचय है। यह शरीर किसी का लड़का होगा, यह शरीर किसी का पति होगा, यह शरीर जवान होगा या बूढ़ा होगा। इस शरीर का कुछ नाम होगा, लेकिन इस शरीर के पीछे जो बैठा है, वह किसी से संबंधित नहीं है। जो भी किसी से संबंधित है, वह मैं नहीं हूं। भीतर एक चेतना है असंग और असंबंधित, जिसका न कोई जन्म है, न मृत्यु है। उसको जानना होगा। उसका परिचय ही आत्म-ज्ञान बनेगा।
हम शरीर पर ठहर जाते हैं! जीवन शरीर पर केंद्रित होकर घूम लेता है और समाप्त हो जाता है! शरीर की वासनाएं, शरीर की दौड़, शरीर की आकांक्षा, शरीर की प्यास, उसी में व्यय हो जाता है! और उसको देख ही नहीं पाते हैं जो शरीर की इस कारा के पीछे खड़ा है। जो शरीर का मालिक था, जो शरीर में बसा था, निवासी था, उस अदेही को, जो देह में बैठा हुआ है, हम नहीं जान पाते हैं! देह की दौड़ ही सब रिक्त कर देती है!
महाराष्ट्र में एक साधु हुआ, एकनाथ। एक व्यक्ति ने एकनाथ से एक सुबह पूछा था, नाथजी, आपको देखते हैं, एक प्रश्न मन में बार-बार उठता है। क्या आपके मन में पाप पैदा नहीं होता? वासना नहीं उठती? विकार नहीं जगते? विषाक्त पशु आपके भीतर गति नहीं करते? नाथजी ने कहा, उत्तर अभी दूं? एक मिनट ठहर जाओ, एक बहुत जरूरी बात कह दूं। फिर उत्तर दे दूंगा, कहीं भूल न जाऊं। कल अचानक तुम्हारे हाथ पर नजर पड़ी, देखा मृत्यु की रेखा टूट गई है। सात दिन और, और तुम समाप्त हो जाओगे। सात दिन बाद सूरज डूबा, तुम्हारा भी डूबना है। यह बता दूं, कि कहीं भूल न जाए इसलिए। अब पूछो, क्या पूछते हो?
उस आदमी के हाथ-पैर कंप गए। सात दिन और! केवल सात दिन! उसके भीतर तो अचानक उदासी, अवसाद घना हो गया। वह बोला, फिर मैं आऊंगा प्रश्न पूछने, अभी कोई प्रश्न नहीं पूछना। नाथजी ने बहुत कहा, रुको, बड़ा कीमती प्रश्न था, अच्छी चर्चा होती। वह बोला, फिर आऊंगा। अभी चर्चा करने का कोई रस न रहा। मृत्यु ने सारा रस विरस कर दिया है।
उठा, राह पर चलता था, पैर कंपने लगे! मृत्यु का भाव घना हो गया! द्वार पहुंचा, गिर पड़ा! चेहरा काला पड़ गया, इतने से मार्ग में! लोगों ने उठा कर घर बिठाया, पूछा, क्या हुआ? बताया कि सात दिन और--आवाज ऐसी आती थी, जैसे दूर गड्ढे से आती हो! डूब गई आवाज। लेट गया बिस्तर पर। दूसरे दिन सबसे क्षमा मांग आया किसी तरह चल कर! पैर छू आया, जिनसे कभी भूल-चूक हुई थी, दो कडुवे शब्द कहे थे। बिस्तर पर लग गया! रोज घड़ी-घड़ी मौत करीब आने लगी। एक-एक क्षण लंबा हो गया, बीतना कठिन हो गया! एक ही प्रतीक्षा रह गई! कमरे में आसन्न मृत्यु की छाया घनी होने लगी! मृत्यु करीब से करीब उसकी खाट के चली आती थी! मृत्यु ही रह गई थी, और कुछ न था। सारी वासनाएं, सारे विकार, सबकी जगह मृत्यु खड़ी हो गई थी! मृत्यु ही ठंसी थी! हाथ हिलाता था तो मृत्यु लगती थी, अनुभव होती थी! आंख खोलता था तो मृत्यु दिखती थी! श्वास लेता था तो मृत्यु ही श्वास में भीतर-बाहर हो रही थी! सब मृत्युमय हो गया था!
सातवें दिन सूरज डूबने के घड़ी भर पहले एकनाथ उसके घर गए। भीतर गए, घर के लोग रोने लगे थे। उसकी आंख से आंसू टपक रहे थे। करीब आ गई थी घड़ी, और थोड़ी देर थी। और क्षण कुछ सरकेंगे, और सब समाप्त हो जाएगा। सब बनाया हुआ, सब इकट्ठा किया हुआ, सब जिसे जाना कि अपना है, सब जो मेरे मैं को भरता था, सब विसर्जित हो जाएगा। सारी दौड़-धूप स्वप्न हुई जाती थी। नाथजी ने जाकर पूछा, मित्र! एक बात पूछने आया हूं। उसने आंख खोली। मरणासन्न व्यक्ति, आंखें डूब गई थीं, जीवन की ज्योति बुझ गई थी। नाथजी ने पूछा, एक प्रश्न पूछने आया हूं, सात दिन में कोई पाप, कोई विकार, कोई वासना मन में उठी? उस आदमी ने कहा, क्यों मजाक करते हैं नाथजी! मृत्यु इतने करीब थी कि मेरे और उसके बीच किसी पाप को उठने की गुंजाइश नहीं थी। मृत्यु इतने करीब थी कि विकार उठ आए, इसके लायक भी फासला मेरे और उसके बीच नहीं था।
नाथजी ने कहा, तेरी मृत्यु अभी आई नहीं, केवल तेरे प्रश्न का उत्तर दिया है।
सात दिन बाद मृत्यु हो या सत्तर वर्ष बाद, क्या अंतर पड़ता है? सात दिन बाद समाप्त हो जाता हो या सत्तर वर्ष बाद यह शरीर, तो क्या अंतर पड़ता है? सच ही सात दिन में और सत्तर वर्ष में कोई अंतर है? एक स्वप्न सात दिन का देखा या सत्तर वर्ष का, कोई भेद पड़ेगा?
नाथजी ने कहा था, तू अभी मरने को नहीं, उत्तर दिया है! मुझे मृत्यु दिखती है। यह शरीर मरेगा। जिस दिन से यह दिखा कि यह शरीर मरेगा, उसी दिन से शरीर से सारी आसक्ति विलीन हो गई है।
मृत्यु के प्रति कोई आसक्त नहीं हो सकता है। मृत्यु के प्रति आसक्त होना असंभव है। केवल हम जीवन के प्रति आसक्त हो सकते हैं। हम शरीर को जीवन मानते हैं, इसलिए आसक्त हैं। लेकिन अगर हम दोहराएं, समझाएं अपने को कि हम शरीर नहीं हैं; यह शरीर तो मरेगा, हम तो अमृत हैं, हम तो नित्य आत्मा हैं, अगर हम ऐसा समझाएं, विचार करें, चिंतन करें, तो क्या कुछ उपलब्ध हो जाएगा?
इस चिंतन से कुछ भी न होगा, यह तो भ्रम है। इस तरह का चिंतन कोई धोखा न दे पाएगा आपको। किसी को उसने कभी धोखा न दे पाया। वरन जब मैं यह कह रहा हूं और अपने को समझा रहा हूं, कि अरे यह शरीर तो मरेगा, इसको छोड़ो, छोड़ो, तब जानना चाहिए कि मैं जान नहीं रहा कि शरीर मरेगा। जो जानेगा कि शरीर मरेगा, एक क्षण भी जान लेना, समझाने का प्रश्न बाकी नहीं रह जाता। अज्ञान में केवल समझाना है। ज्ञान खोल जाता है आंख, भेद स्पष्ट हो जाता है; समझाना नहीं होता। मैं आपको नहीं कहता कि अपने मन में इसका चिंतन करें कि मैं देह नहीं हूं। वही इस चिंतन को करेगा, जो जानता है कि देह है। मैं चिंतन को नहीं कहता। यह चिंतन व्यर्थ है। मैं जानने को कहता हूं।
महावीर का मार्ग चिंतना का मार्ग नहीं, महावीर का मार्ग विचार का मार्ग नहीं, जानने का, आंख खोल कर देख लेने का मार्ग है। महावीर का मार्ग श्रद्धा का मार्ग नहीं, अंधी श्रद्धा का मार्ग नहीं, बहुत वैज्ञानिक है। जिसे जान लेना, देख लेना, उसे मान लेना। उसके पहले कोई मान्यता किसी काम की नहीं है। वे सब डूबते हुए आदमी की थोथी अपनी धारणाएं हैं आलंबन की, झूठे आसरों की, झूठे सहारों की। कोई झूठा सहारा काम न देगा। कोई इस तरह की झूठी शरण काम नहीं देगी, जानना होगा।
और जाना जा सकता है। इसी जानने की प्रक्रिया को हम दर्शन कहते हैं। भारत ने जो पैदा किया है, वह फिलासफी नहीं है। और नासमझ हैं वे, जो फिलासफी और दर्शन को पर्यायवाची समझते हैं! फिलासफी है चिंतना, सोचना, विचारना--जो अज्ञात है उसके संबंध में सोच-विचार करना।
लेकिन जो अज्ञात है, उसके संबंध में सोचिएगा क्या? जिसको देखा नहीं, जाना नहीं, जिससे परिचित नहीं, उसके संबंध में चिंतन क्या करिएगा? सब चिंतन गलत होगा।
भारत सोच-विचार को नहीं, देखने को, आंख खोल लेने को कहता है।
भारत कहता है, सत्य देखा जाता है, विचारा नहीं।
महावीर की पूरी धारणा दर्शन की है, चिंतन की नहीं। दर्शन हो सकता है। उसका दर्शन हो सकता है, जो भीतर बैठा है। उसकी, दर्शन उसकी शक्ति है, उसकी क्षमता है, उसका स्वरूप है। वह सारे जगत को कौन देख रहा है? मैं आपको देख रहा हूं, मैं सारे जगत को देख रहा हूं। देखना मेरी क्षमता है, सिर्फ जिस देखने की क्षमता से मैं सबको देख रहा हूं, उसका उपयोग मैं अपने पर करना नहीं जानता हूं! जो देखना सारे जगत पर प्रतिफलित हो रहा है, वह मैं अपने पर प्रतिफलित करना नहीं जानता हूं! जो आंख सब पर खुली है, वह अपने पर खोलना नहीं जानता हूं--इतनी ही दिक्कत, इतनी ही परेशानी है।
रास्ता है! महावीर कहते हैं, जो दृश्य को देख रहा है, वह द्रष्टा को देख सकता है। और उस द्रष्टा को देखते ही जीवन का सारा दुख, सारी पीड़ा, सारा अज्ञान गिर जाएगा।
मैं देख रहा हूं, इतना तो तय है। स्वप्न ही सही, देख रहा हूं, इतना तो तय है। रात मैंने स्वप्न देखा, सुबह उठा, पाया, स्वप्न झूठा था। होगा स्वप्न झूठा, लेकिन मैंने देखा इतना तो सही है। होगा यह जगत माया, होगा यह संसार व्यर्थ, होगा यह असार, लेकिन मैंने देखा। देखना तो सत्य है। दृश्य हो सकता है असत्य, द्रष्टा असत्य नहीं हो सकता है। दृश्य हो सकता है भ्रामक, हो सकता है मृग-मरीचिका, देखने वाला मृग-मरीचिका नहीं हो सकता है। द्रष्टा एकमात्र सत्य है जीवन के केंद्र पर खड़ा हुआ, जो देख रहा है। लेकिन उस देखने की क्षमता पर से घिरी हुई है। उस देखने के सामने पर खड़ा हुआ है, विजातीय खड़ा हुआ है। अगर मैं पर को अलग कर दूं देखने की क्षमता के सामने से, अगर द्रष्टा के सामने से पर को अलग कर दूं, तो देखने की क्षमता जो पर को देखती थी, पर को न पाकर, पर के आलंबन के आधार को न पाकर स्व आधार पर लौट आती है। अगर बाहर कुछ देखने को न रह जाए, तो जो सब को देखता था, स्वयं को देख लेता है।
द्रष्टा के सामने से पर का विसर्जन ध्यान है, सामायिक है।
द्रष्टा के सामने से पर का विसर्जन, पर का अलग कर देना, पर का हटा देना, स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाना है। आंख खोलता हूं, आपको देख रहा हूं। आंख बंद कर लूंगा तो भी आपको देखूंगा। आपके चित्र, आपके प्रतिबिंब, आपकी स्मृतियां घूमेंगी। आंख खोलता हूं तो बाहर हूं, आंख बंद करता हूं तो भी बाहर हूं। बाहर से बने हुए चित्र, बाहर से बने हुए इम्प्रेशंस, बाहर से आए हुए संस्कार फिर मुझे घेरे रहते हैं। अभी वास्तविक वस्तुएं घेरी हैं, फिर आंख बंद करता हूं तो वस्तुओं के विचार घेरे रहते हैं, लेकिन बाहर ही हूं। आंख खोल कर भी, आंख बंद करके भी! यह मेरा निरंतर बाहर होना मेरा बंधन है। थोड़ी देर को वस्तुओं से आंख बंद की, विचार से भी आंख बंद कर लेनी है।
इसको महावीर ने निर्जरा कहा है। जो बाहर से मुझ पर आया है--जो भी बाहर से मुझ पर आया है, उसी विजातीय ने मुझको घेरे में बंद किया, आबद्ध किया। उस बाहर से आए हुए प्रभाव को विसर्जित कर देना निर्जरा है। बाहर का बाहर छोड़ देना, और भीतर वही बच जाए जो बाहर से नहीं आया--तत्क्षण, उसी क्षण कुछ दिखेगा, जो सब बदल जाता है, सब परिवर्तित कर जाता है। कुछ नए आयाम में, नए डायमेंशन में, नई भूमि में उठना हो जाता है। महावीर की यह वैज्ञानिक धारणा निर्जरा की अदभुत है। और वही है मार्ग। वही है मार्ग, वही है योग, वही है सब कुछ, वही है विज्ञान, वही है प्रयोगशाला व्यक्ति की अपने में जाने की।
स्मरण करें, कुछ भी है हमारे मन में जो बाहर से न आया हो? कुछ भी है हमारे चित्त में जो बाहर का प्रतिफलन न हो? कुछ भी है ऐसी चीज जो बाहर की धूल की तरह हम पर नहीं जम गया है? जो भी बाहर से आया हो, उस पर आंख बंद कर लेनी है। उसे देखना है, लेकिन जानना है कि वह पर है और बाहर से आया है, और वह मैं नहीं हूं।
अगर व्यक्ति अपने भीतर थोड़ी देर भी बैठ कर सिर्फ इस विवेक को जाग्रत करता रहे कि क्या बाहर से आया है, वह मैं नहीं हूं। सिर्फ इस होश को भीतर पैदा करता रहे कि यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। यह बाहर से आया है, यह मैं नहीं हूं। निषेध करता चले उस क्षण तक, जब तक बाहर से आया हुआ कुछ भी डोलता हो चित्त में।
और हैरान होगा, मैं उसे अपना मान लेता था, इसलिए वह आता था। वे बाहर से आए हुए संस्कार इसलिए ठहर जाते थे, मैं उन्हें अपना मान कर ठहरा लेता था इसलिए। जिस क्षण मैंने उनके साथ यह जाना कि वे मेरे नहीं, वे बाहर से आए हुए यात्री हैं; आएंगे और चले जाएंगे। मैं यात्री नहीं हूं, मैं अतिथि नहीं हूं, आतिथेय हूं; मैं होस्ट हूं, गेस्ट नहीं। वे जो गेस्ट आए हैं, चले जाएंगे; मैं तो उनका मेजबान हूं।
अतिथि में और आतिथेय में फर्क कर लेना आत्म-ज्ञान है।
अतिथि में, आतिथेय में; गेस्ट में और होस्ट में फर्क कर लेना आत्म-ज्ञान है।
जो बाहर से आया, वह अतिथि है। उसे मैं जानूं, देखूं, परिचित होऊं और होश रखूं कि वह मैं नहीं हूं। और अगर...इसको महावीर ने भेद-विज्ञान कहा, इस भेद का विज्ञान। इस भेद को धीरे-धीरे थिर करना, इस भेद में स्थित होना। धीरे-धीरे जिसको मैं अतिथि जानूंगा, उससे झगड़ने का कोई कारण नहीं है, जानना पर्याप्त है। जान लें, यह मेरा नहीं, मेरे भीतर से नहीं आया। आए, चला जाए; मैं दर्शक बना रहूं, मैं तटस्थ द्रष्टा रह जाऊं।
धीरे-धीरे यह तटस्थ द्रष्टा का बोध, यह सम्यक द्रष्टा का बोध पर को विसर्जित कर देगा, पर को विलीन कर देगा। दृश्य विलीन होते चले जाएंगे, स्वप्न गिरते चले जाएंगे और एक दिन अचानक, अनायास जहां जगत दिखता था, वहां शून्य खड़ा रह जाएगा। जैसे अचानक प्रोजेक्टर बंद हो गया हो, पीछे फिल्म को बनाने वाली मशीन, चलाने वाली मशीन बंद हो गई हो; पर्दा खाली रह जाए, चित्र न हों, सफेद; वैसे ही किसी दिन धीरे-धीरे सामायिक के इस प्रयोग के, तटस्थ द्रष्टा के इस प्रयोग के माध्यम से प्रोजेक्टर बंद हो जाएगा। सामने जगत विलीन, कोरा आकाश रह जाएगा--शून्य।
इस शून्य की परिपूर्ण स्थिति को महावीर ने शुक्ल-ध्यान कहा है। जिस क्षण कुछ भी न रह गया, दृश्य सब शून्य हो गया, उसी क्षण--तत्क्षण ज्यादा ठीक हो कहना--ठीक उसी क्षण, जैसे ही वहां शून्य हुआ, जो सबको देखता था, वह अपने पर लौट आता है। जो दूसरों के घरों पर उड़ता फिरा, जिसने दूसरों के डेरों को अपना आधार बनाया, जो दूसरी भूमियों में विचरण किया, कोई आधार न पाकर, निराधार शून्य में छूट कर--और शून्य में कुछ भी नहीं रह सकता है--शून्य में आधार न पाकर स्व-आधारित हो जाता है, स्वयं प्रतिष्ठित हो जाता है, स्वयं में लौट आता है। आत्मा आत्मा पर लौट आती है।
इस क्षण दिखता है अमृत, जिसकी कोई मृत्यु नहीं। इस क्षण दिखता है, जिसमें कोई भय की संभावना नहीं। जैसे गीता में उन्होंने कहा है: न हन्यते हन्यमाने शरीरे--जो, शरीर मर जाएगा, तब भी नहीं मरेगा। जिसे चिता की लपटें नहीं जला सकतीं, जिसे कुछ भी नष्ट और विकृत नहीं कर सकता--अच्युत, शाश्वत, नित्य--उसके जब दर्शन होंगे, अनायास, सहज। इस दर्शन के कारण जीवन अहिंसक हो जाता है। इस दर्शन के कारण जीवन में अहिंसा फैल जाती है। इसके अतिरिक्त और अहिंसा तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है।
आत्म-ज्ञान है मार्ग अहिंसा का।
और अगर विश्व को बचा लेना है, और अगर मनुष्य को कोई भविष्य और नियति देनी है, तो एक-एक व्यक्ति तक आत्म-ज्ञान की इस वैज्ञानिक प्रक्रिया को पहुंचा देना जरूरी है। महावीर को, उनके विचार को घेरों को तोड़ कर सब तक पहुंचा देना जरूरी है। महावीर अहिंसक होने को नहीं कह रहे हैं, महावीर आत्म-ज्ञानी होने को कह रहे हैं--अहिंसा तो अपने से चली आएगी। आत्म-ज्ञान जागे, लोग अपने को जानें, अमृत को पहचानें, नित्य को पहचानें, प्रबुद्ध को पहचानें; उसको, जो कभी बंधन में नहीं गिरा, उस मुक्त को पहचानें, तो हम सारे जगत को एक नई मनुष्यता में परिवर्तित कर सकते हैं।
अणु का उत्तर आत्मा है, विज्ञान का उत्तर धर्म है। फैले हुए विकृति और विकार का उत्तर संस्कृति है। केवल आत्म-ज्ञानी संस्कृत होता है।
अज्ञानी प्रकृत होता है। और अज्ञानी अगर अज्ञान में तृप्त हो जाए तो विकृत हो जाता है। अज्ञानी प्रकृत होता है। और अगर अज्ञानी ऊपर उठने की आकांक्षा भी छोड़ दे ज्ञान तक तो विकृत हो जाता है। और अगर ऊपर उठने की आकांक्षा से भरे, संस्कृत होता चलता है। जिस दिन भीतर परिपूर्ण आत्म-ज्ञान उदय होता है, उसी दिन व्यक्ति सुसंस्कृत होता है।
जगत को संस्कृति देनी है। और संस्कृति तो हिंसक नहीं हो सकती, केवल विकृति हिंसक हो सकती है। जगत को संस्कृति देनी है, तो आत्म-ज्ञान की आकांक्षा देनी जरूरी है, प्यास को जगाना जरूरी है। एक-एक आदमी के भीतर जो सोया है, वह जो प्रदीप्त हो सकता है, लेकिन प्रसुप्त है; वह जो जाग सकता है, लेकिन सोया है, नींद में है; वह जो अमूर्च्छित, अप्रमत्त हो सकता है, लेकिन मूर्च्छित और बेहोश में है--उसे पुकारना जरूरी है।
एक-एक व्यक्ति के भीतर पुकार देनी जरूरी है कि जागो और जगाओ अपने को। तुम्हारा जागरण सारे जगत की रक्षा हो सकता है। एक-एक व्यक्ति का जागरण सारे जगत की रक्षा हो सकता है। एक-एक व्यक्ति का अपने में प्रतिष्ठित हो जाना विश्व की विकृति के संस्कृति में बदलने का मार्ग बन सकता है।
ये थोड़ी सी बातें मैं कहा हूं। बहुत प्रीति से, आनंद से आपकी आंखों को देख रहा हूं, पहचान रहा हूं। बहुत प्यार से इन बातों को सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं।
अंत में एक ही प्रार्थना करता हूं: जगाएं, अपने भीतर पुकारें उसको, जो सोया है। अगर वह महावीर में जग सका, बुद्ध में जग सका, कोई कारण नहीं है कि हमारे भीतर नहीं जगेगा। ठीक ऐसे ही हड्डी-मांस के लोग वे थे। ठीक इन्हीं विकृतियों, इन्हीं सीमाओं में घिरे हुए, जो हमारी हैं। अगर वे जाग सके, तो अपमान है हमारा कि हम न जाग सकें! तिरस्कार है हमारा, अगर हम न जाग सकें! अगर एक भी मनुष्य कभी जागा है, प्रत्येक दूसरा मनुष्य जाग सकता है। क्यों न वह दूसरा मनुष्य मैं हो जाऊं? यही प्रार्थना है, वह दूसरा मनुष्य होने का प्रत्येक प्रयास करे, प्रत्येक आकांक्षा से भरे, प्रत्येक अतृप्त हो जाए, प्यास से पुकारे अपने भीतर--निश्चित जागरण हो सकता है।
इस प्रार्थना के साथ अपनी बात को पूरा करता हूं और आप सबके भीतर बैठे हुए उस सोए हुए को प्रणाम करता हूं, जो जाग जाए तो प्रभु हो सकता है, और सो जाए तो पशु हो सकता है। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।