MAHAVIR
Mahaveer Vani 54
FiftyFourth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
मोक्षमार्ग-सूत्र: 4
जया सव्वत्तणं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ।
तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली।।
जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली।
तया जोगे निरुंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ।।
जया जोगे निरुंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ।
तया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ।।
जया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ।
तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासओ।।
जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब जिन तथा केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता है।
जब केवलज्ञानी जिन लोक-अलोकरूप समस्त संसार को जान लेता है, तब (आयु समाप्ति पर) मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध कर शैलेशी (अचल-अकंप) अवस्था को प्राप्त होता है।
जब मन, वचन और शरीर के योगों का निरोध कर आत्मा शैलेशी अवस्था पाती है, पूर्ण रूप से स्पंदन-रहित हो जाती है, तब सब कर्मों का क्षयकर सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होती है।
जब आत्मा सब कर्मों का क्षयकर सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि को पा लेती है, तब लोक के मस्तक पर, ऊपर के अग्रभाग पर स्थित होकर सदा काल के लिए सिद्ध हो जाती है।
मन एकमात्र बीमारी है। मन को स्वस्थ करने का कोई भी उपाय नहीं है; मन को शून्य करने का जरूर उपाय है। बीमारी मिट सकती है; बीमारी स्वस्थ नहीं हो सकती। साधारणतः लोग कहते हैं, उनका मन अशांत है, बेचैन है, परेशान है; तो पूछते हैं: कैसे मन को शांत करें?
मन कभी भी शांत नहीं होता। मन के शांत होने का कोई उपाय नहीं है। अशांत होना मन का स्वभाव है। ठीक से समझें तो अशांति ही मन है। मन से मुक्त हुआ जा सकता है। मन के पार हुआ जा सकता है। मन को छोड़ा जा सकता है। मन को शांत नहीं किया जा सकता। मन के शांत होने का एक ही अर्थ है, जहां मन न रह जाए।
इसका यह अर्थ हुआ: शांति और मन का कोई संबंध कभी भी नहीं हो पाता। जब तक मन है, तब तक शांति नहीं और जब शांति होती है, तब मन नहीं होता। मन को मिटाना, मन से मुक्त होना, मन के पार होना समस्त साधना का आधारभूत सूत्र है। तो मन को हम ठीक से समझ लें तो महावीर के इन अंतिम सूत्रों में प्रवेश हो जाए।
मन है क्या?
क्योंकि बीमारी ठीक से न समझी जा सके, निदान न हो पाए, डाइग्नोसिस न हो, तो उपचार नहीं हो सकेगा। निदान आधे से ज्यादा उपचार है। और बिना निदान किए जो उपचार में लग जाए, हो सकता है बीमारी को और बढ़ा ले; नई बीमारियों को निमंत्रण दे दे।
अधिक लोग मन को बिना समझे उपचार करने में लग जाते हैं। ऐसे लोग या तो मन को दबाने लगते हैं या ऐसे लोग मन को मूर्च्छित करने लगते हैं।
मन को दबाना हम सभी जानते हैं। क्रोध आ जाए तो उसे कैसे पी जाना, उसे कैसे गटक जाना गले के नीचे, हम सभी जानते हैं। क्योंकि जिंदगी में सभी मौकों पर क्रोध नहीं किया जा सकता। वासना मन में उठे, तो कैसे उसे पीते रहना, दबाते रहना, वह हम सभी जानते हैं। क्योंकि हर क्षण वासना को पूरा करने का उपाय नहीं है।
तो मन को हम सभी दबाते हैं। लेकिन इस दबाने से कोई कभी मुक्त होता है? ये दबी हुई जो वृत्तियां हैं, ये धक्का मारती रहती हैं; ये भीतर चोट करती रहती हैं और अवसर की तलाश करती हैं। जब भी कमजोर क्षण मिल जाएगा, ये प्रकट हो जाएंगी। ये इकट्ठी होती रहती हैं।
और मनस्विद कहते हैं कि जो आदमी बहुत ज्यादा क्रोध को दबाता रहता है, वह एक न एक दिन क्रोध के भयानक भूकंप से भर जाता है। जो लोग रोज-रोज क्रोध करते रहते हैं, छोटी-छोटी बातों में क्रोध करते रहते हैं, ऐसे लोग बड़े अपराध नहीं कर पाते। ऐसे लोग हत्या नहीं कर सकते, क्योंकि हत्या करने के लिए जितना क्रोध इकट्ठा होना चाहिए, उतना उनके पास कभी इकट्ठा ही नहीं होता। इसलिए अक्सर जो लोग छोटी-छोटी बातों में क्रोध कर लेते हैं, बुरे लोग नहीं होते। और जो आदमी दबाए चला जाता है, वर्षों तक दबाता रहता है, उसके भीतर ज्वालामुखी इकट्ठा हो जाता है। जब भी इसका विस्फोट होगा, तब यह छोटी-मोटी घटना होने वाली नहीं है। यह कोई महा-उपद्रव करेगा।
तो जिनको आप साधारणतः शांत समझते हैं, वे भयंकर अशांति के जन्मदाता हो सकते हैं। तो जो आदमी कभी-कभी क्रोध करता है, उसके क्रोध से जरा सावधान रहना। जो अक्सर करता है, उसके क्रोध का कोई मतलब नहीं है--हवा आई और गई।
छोटे बच्चे बड़े अपराध नहीं कर सकते। और उसका कारण यह है कि वे छोटा-छोटा क्रोध करके दिन भर निकाल लेते हैं। इसलिए छोटे बच्चे क्षण भर में क्रोध करेंगे, क्षण भर बाद बिलकुल शांत हो जाएंगे--जैसे तूफान कभी आया ही न हो। भरोसा ही न आएगा कि इस बच्चे ने थोड़ी देर पहले एक भयंकर क्रोध किया था। वह मुस्कुरा रहा है, नाच रहा है, प्रसन्न है। बच्चे से बड़े अपराध की संभावना नहीं है।
जो लोग अपने जीवन को सहज प्रकट करते रहते हैं, ये कोई महात्मा तो नहीं हो सकते, लेकिन ये महा अपराधी भी नहीं हो सकते। इनके महा अपराधी होने का कोई उपाय नहीं है।
दमन से महा अपराध पैदा होता है। अपराध से बचना हो जाता है, महा अपराध पैदा हो जाता है; क्योंकि ऊर्जा का एक नियम है कि आप उसे इकट्ठी करके रख नहीं सकते--उबल जाएगी, ओवरफ्लो हो जाएगी। एक सीमा है जब तक आप सम्हाल सकेंगे, और फिर सम्हालने के बाहर हो जाएगी। अगर आपने इतना सम्हाला, इतना सम्हाला कि उस सीमा पर बात आ गई कि जहां अगर आपके भीतर इकट्ठी शक्ति प्रकट होगी, और अगर वह आपके विपरीत प्रकट होगी तो आप विक्षिप्त भी हो सकते हैं।
मनस्विद कहते हैं कि पागल आदमी वही है, जिसने बहुत दबाया है। दबाना इतना ज्यादा हो गया है कि अब होश में उसे निकालने का कोई उपाय न रहा, तो उसने होश भी खो दिया है। अब वह बेहोशी में निकाल रहा है। पागलखानों में जो लोग बंद हैं, वे दमित स्थिति के आखिरी परिणाम हैं।
तो आप दमन कर-कर के विक्षिप्त हो सकते हैं, विमुक्त कभी नहीं हो सकते। विमुक्त होना हो, तो दबाना कोई रास्ता नहीं है। और जिसे हम दबाते हैं, हम उससे और ज्यादा बुरी तरह ग्रसित हो जाते हैं। उसकी जकड़ हम पर बढ़ जाती है।
तो दबाने से तो कोई कभी पहुंचता नहीं, पर मन को बिना समझे बहुत लोग दबाने की कोशिश में लग जाते हैं। वह सरल दिखता है, सुगम दिखता है, तात्कालिक परिणामकारी दिखता है--लेकिन लंबे अरसे में भयानक है, खतरनाक है।
दूसरा, कुछ लोग मन को मूर्च्छित करने में लग जाते हैं। उन्हें लगता है, अगर मन मूर्च्छित हो जाए, तो न पता चलेगा, न मन की उद्विग्नता, पीड़ा सताएगी।
मूर्च्छा के कई उपाय हैं। शराब कोई पी ले तो सीधा उपाय है--केमिकल्स, शरीर के रासायनिक तत्वों को मूर्च्छित कर देने से, मस्तिष्क भी शरीर का हिस्सा है, वह भी मूर्च्छित हो जाता है। मूर्च्छित हो जाने से फिर कुछ दुख, पीड़ा, तनाव, परेशानी, चिंता, संताप--कुछ भी पता नहीं चलता। लेकिन जो मूर्च्छित हो गया है, वह मिट नहीं जाता है। होश आएगा, सारी बीमारियां फिर खड़ी हो जाएंगी।
सारे धर्मों ने शराब का विरोध किया है--इसलिए नहीं कि शराब में कोई अपने आप में बुराई है। सारे धर्मों ने विरोध किया है, क्योंकि धर्म जिस बीमारी को मिटाना चाहते हैं, शराब उसे केवल भुलाती है। भुलाने से कोई चीज मिटती नहीं।
शराब में अपने आप में कोई बुराई नहीं है। बुराई है इसमें कि जो बीमारी मिट सकती थी, उसे हम भुला कर स्थगित कर रहे हैं, टाल रहे हैं। वह जीवन में और गहरी होती चली जाएगी। और एक ऐसी घड़ी आ जाएगी कि हम इतने कमजोर हो जाएंगे बेहोश होते-होते कि बीमारी हमसे सबल होगी और मिटाने का कोई उपाय न रह जाएगा।
लेकिन शराब अगर अकेली मूर्च्छा की बात होती तो भी ठीक था, बहुत सी अच्छी शराबें हैं। धार्मिक शराबें भी हैं, जिनमें पता ही नहीं चलता कि हम अपने को भुला रहे हैं। एक आदमी बैठा है और राम-राम, राम-राम, राम-राम जप रहा है। आपको पता नहीं होगा कि एक ही शब्द को बार-बार दोहराने से मस्तिष्क में रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जो मूर्च्छा ले आते हैं। एक ही शब्द की ध्वनि बार-बार चोट करती रहे तो ऊब पैदा करती है, उदासी पैदा करती है, तंद्रा पैदा करती है, नींद पैदा हो जाती है।
तो एक आदमी सुबह से बैठ कर एक घंटा अगर राम-राम या ओंकार, या नमोकार करता रहे--एक ही शब्द को दोहराता रहे--तो उस पुनरुक्ति के कारण मूर्च्छा पैदा हो जाती है। उस मूर्च्छा में और शराब की मूर्च्छा में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। यह ध्वनि के माध्यम से मस्तिष्क को सुलाना है।
छोटे-छोटे बच्चे को मां यही करती है, लोरी सुना देती है: राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। थोड़ी देर में राजा बेटा सो जाता है। मां समझती है कि उसके संगीत के कारण सो रहा है, तो गलती में है--राजा बेटा सिर्फ ऊब रहा है। बार-बार कहे जा रहे हो, राजा बेटा सो जा--इतनी ऊब पैदा हो जाती है कि इस ऊब से बचने का एक ही उपाय रहता है कि वह नींद में खो जाए।
इसको आप ठीक से समझ लें।
ऊब पैदा हो जाती है, तो ऊब से बच्चा भाग भी तो नहीं सकता। मां को छोड़ कर कहां भागे--बिस्तर पर उसको पकड़े बैठी हुई है। उसको छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकता। जाने का कोई उपाय नहीं है। एक ही भीतरी उपाय है कि नींद में डूब जाए, तो इस उपद्रव से छुटकारा हो।
लेकिन जो लोरी का सूत्र है, वही जिनको हम मंत्र कहते हैं, उनका सूत्र है। छोटे बच्चे को मां कह रही है: राजा बेटा सो जा। जरा बच्चा बड़ा हो गया है, वह खुद ही राम-राम, राम-राम, राम-राम जप रहा है। उसका खुद चित्त ऊब जाता है। ऊब से झपकी लग जाती है। नींद में डूब जाता है। यह झपकी थोड़ा फायदा भी कर सकती है, जैसा नींद करती है--स्वस्थ करेगी; थोड़ा ताजा करेगी।
आज पश्र्चिम में महर्षि महेश योगी के ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन का जोर से प्रचार है। लोरी से ज्यादा नहीं है वह। जो भी किया जा रहा है, वह सिर्फ इतना है कि एक शब्द दिया जा रहा है, एक मंत्र दिया जा रहा है--इसे दोहराए चले जाओ। इस दोहराने से तंद्रा पैदा होती है।
पूरब में इतना प्रभाव नहीं पड़ रहा है। भारत में कोई प्रभाव नहीं है, अमरीका में बहुत प्रभाव है, कारण? अमरीका में नींद खो गई है, भारत में लोग अभी भी सो रहे हैं।
अमरीका में नींद सबसे बड़ा सवाल हो गया है। बिना ट्रैंक्वेलाइजर के सोना मुश्किल है। फिर धीरे-धीरे ट्रैंक्वेलाइजर का भी शरीर आदी हो जाता है। फिर उनसे भी सोना मुश्किल है। और नींद इतनी ज्यादा व्याघात से भर गई है कि ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, भावातीत-ध्यान जैसे प्रयोग फायदा पहुंचा सकते हैं, और नींद आ सकती है।
लेकिन नींद ध्यान नहीं है, नींद मूर्च्छा है। इसके अच्छे परिणाम भी हो सकते हैं। नींद स्वास्थ्यकृत है, स्वास्थ्य को देगी, थोड़ा सुख भी देगी। नींद के बाद थोड़ा हलकापन भी लगेगा। और सच्चाई तो यह है कि साधारण नींद से मंत्र के द्वारा जो नींद आती है, वह ज्यादा गहरी होती है। क्योंकि मंत्र के द्वारा जो नींद आती है, वह हिप्नोसिस है, वह सम्मोहन है। हिप्नोसिस शब्द का अर्थ भी निद्रा ही होता है--चेष्टा से पैदा की गई निद्रा; कोशिश से लाई गई निद्रा; और मन के तंतुओं को शिथिल करके लाई गई निद्रा।
आपको जब रात नींद आती, तो कारण आप जानते हैं क्या होता है? कारण यह होता है कि मन के तंतु खिंचे होते हैं, विचार में लगे होते हैं। इतने विचार में लगे होते हैं कि खून दौड़ता ही चला जाता है। उस खून के दौड़ने के कारण नींद मुश्किल हो जाती है। इसलिए बिना तकिए के आप सोएं तो नींद नहीं आती, क्योंकि खून सिर की तरफ दौड़ता रहता है। तकिया आप रख लें तो खून सिर की तरफ नहीं दौड़ता, नहीं दौड़ने के कारण जल्दी नींद आ जाती है।
इसलिए जैसे-जैसे लोग बौद्धिक होते जाते हैं, वैसे-वैसे तकियों की संख्या बढ़ती जाती है। जंगली आदमी बिना तकिए के सो सकता है। जानवरों को तकिए की कोई फिकर ही नहीं है। जंगली आदमी सोच भी नहीं सकता कि तकिए की क्या जरूरत है। बड़ी गहरी नींद सोता है। असल में विचार न होने से खून की गति मस्तिष्क में वैसे ही कम होती है। लेकिन आपके मन में इतने विचार चल रहे होते हैं, कि जब तक विचार चल रहे होते हैं, तब तक खून दौड़ता रहता है। क्योंकि बिना खून दौड़े विचार नहीं चल सकते।
तो मंत्र के द्वारा ये विचार बंद हो जाते हैं। और मंत्र पुनरुक्ति है एक शब्द की। एक शब्द के दोहराने से मन के तंतु शिथिल होने लगते हैं। शिथिल होकर निद्रा आ जाती है। अगर आपको कोई भी एक मोनोटोनस वातावरण दिया जाए, वह नींद के लिए अच्छा होता हैं। ...मोनोटोनस चाहिए।
आपका सोने का जो कमरा है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बहुत से रंगों से उसको नहीं रंगना चाहिए। क्योंकि बहुत रंग मन को उत्तेजित करते हैं। एक रंग होना चाहिए--और वह भी मोनोटोनस, जिससे ऊब आए, उदासी आए, तंद्रा मालूम पड़े। कमरे में ज्यादा चीजें नहीं होनी चाहिए।
और हर आदमी के सोने का रिचुअल होता है। वह उसी को रोज दोहराता है। जैसे छोटे बच्चे हैं--कोई छोटा बच्चा अपनी गुड्डी को हाथ में पकड़ कर सो जाता है; कोई छोटा बच्चा अपने अंगूठे को मुंह में ले लेता है। वह मोनोटोनस हो गया है। रोज वही कर रहा है। अगर आप उसका अंगूठा उसके मुंह से निकाल लें, तो उसकी नींद तोड़ देंगे। वह जैसे ही अंगूठा मुंह में डालता है, अंगूठा मंत्र हो जाता है। वह ऊब हो गई। वही पुराना अंगूठा रोज-रोज, रोज-रोज--वह सो जाता है।
ऐसा मत सोचना कि छोटे बच्चे ही ऐसा करते हैं। आपका भी क्रियाकांड है। हर आदमी का क्रियाकांड है। सोते वक्त वह वही क्रियाकांड करेगा, उसके बाद नींद आ जाएगी। नींद आ जाएगी, अगर आपने वही क्रियाकांड किया।
इसलिए नये कमरे में नींद नहीं आती, क्योंकि मोनोटोनी टूट जाती है। नये मकान में नींद नहीं आती। नया आदमी कमरे में सो रहा हो, तो जरा अड़चन होती है। वही पत्नी सो रही हो, वही पति सो रहा हो, वही घुर्राटा चल रहा हो सदा का--ऊब पैदा होनी चाहिए, नींद का सूत्र है। जरा भी नई चीज अड़चन पैदा करती है।
तो मन को कुछ लोग उबा कर मूर्च्छित कर लेते हैं। ऐसे लोग, महावीर जिसको सिद्धावस्था कह रहे हैं, उस तक कभी भी नहीं पहुंच सकते। ये दो ढंग हैं। दबाने वाला विक्षिप्त हो जाता है, सुलाने वाला धीरे-धीरे सुस्त हो जाता है। वह शांत भला दिखाई पड़ने लगे, लेकिन उसकी शांति मुर्दगी है, मरे हुए आदमी की शांति है, मरघट की शांति है। वह कोई जीवंत शांति नहीं है, जहां भीतर जीवन प्रवाह ले रहा है और अशांति न हो।
इन दो बातों से बचना जरूरी है। लेकिन वही बच सकता है, जो मन का स्वभाव समझ ले।
मन का स्वभाव क्या है?
मन है विचार की प्रक्रिया। मन कोई यंत्र नहीं है। मन कोई वस्तु नहीं है। मन एक प्रवाह है। मन को अगर हम ठीक से समझें तो मन कहना ठीक नहीं--मनन, चिंतन, विचारों की धारा, नदी। ये विचार बहे चले जाते हैं। और जब तक ये बहते रहते हैं, तब तक आप शांत नहीं हो सकते। क्योंकि हर विचार आपको आंदोलित कर जाता है; हर विचार आपको हिला जाता है।
कंपित होना संसार में होना है, महावीर के हिसाब से, अकंप हो जाना संसार के बाहर हो जाना है। और हम प्रतिक्षण इसी कोशिश में लगे हैं कि थोड़ा सा कंपन मिले। उसे हम सेंसेशन कहते हैं।
थ्रिल... हमारी पूरी कोशिश यह है कि जिंदगी ऊब न जाए, तो कुछ नया हो जाए। एक नया वस्त्र भी आप ले आते हैं, तो थोड़ी जिंदगी में रौनक मालूम पड़ती है। एक नई चीज खरीद लाते हैं। तो लोग पागल हो गए हैं खरीदने में। बिना किसी फिकर के चीजें खरीदते चले जाते हैं। क्योंकि हर नई चीज थोड़ी सी थ्रिल देती है। थोड़ी सा ऐसा लगता है, जिंदगी आई। क्योंकि थोड़ी सी ऊब टूटती है, बोर्डम टूटती है। मन की पूरी कोशिश यह है कि आप नया-नया खोजते रहें रोज।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि पूरब के मनीषियों ने पुराने दिनों में इस बात की फिकर की थी कि समाज बहुत न बदले, चीजें बहुत नई न हों, घटनाओं में बहुत नयापन न हो ताकि मन को तरंगित होने का कम से कम उपाय हो। वह जो पूरब का समाज स्टैटिक था, स्थिर था, उसके पीछे मनीषियों का हाथ था। आज पश्र्चिम में ठीक उससे उलटी हालत हो गई है। हर चीज नई हो, हर दिन नई हो। दूसरे दिन पुरानी चीज ऊब देने लगती है। सब-कुछ नया होता चला जाए।
अमरीका के आंकड़े मैं पढ़ता था। कोई भी आदमी एक मकान में तीन साल से ज्यादा नहीं रहता। यह औसत है। हर आदमी तीन साल के भीतर तो मकान बदल ही लेता है। कार तो आदमी हर साल बदल लेता है। तलाक की संख्या पचास प्रतिशत को पार कर गई है। सौ विवाह होते हैं, तो पचास तलाक हो जाते हैं। इस सदी के पूरे होते-होते जितने विवाह होंगे, उतने ही तलाक होंगे। ये तलाक और विवाह भी मौलिक रूप से नये की खोज हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में एक चर्च था। और चर्च का पादरी कभी-कभी नसरुद्दीन को शिक्षण दिया करता था। देखता था उसका जीवन, तो कभी-कभी समझाता था। एक दिन नसरुद्दीन ने उससे कहा कि आप ठीक ही कहते हैं, मैंने अब पक्का कर लिया है कि आज जाकर मैं अपनी पत्नी से क्षमा मांग लूंगा, और अब किसी स्त्री की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखूंगा! बहुत हो गया। और आप ठीक ही कहते थे, लेकिन मैं माना नहीं। यह मन की दौड़ थी, वासना थी, चलती रही। लेकिन अब उम्र भी हो गई। तो आज जाकर पत्नी से क्षमा मांग लेता हूं। सब कनफेशन कर लूंगा कि मैं उसे धोखा दे रहा हूं।
दूसरे दिन सुबह पादरी प्रतीक्षा करता रहा कि कब नसरुद्दीन घर से निकले। नसरुद्दीन बड़ी शान से, बड़ी ताजगी से जोर से कदम रखता हुआ चर्च के पास से निकला। बड़ा प्रसन्न था। तो पादरी ने कहा: मालूम होता है, नसरुद्दीन, पत्नी ने तुम्हें क्षमा कर दिया!
नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, पत्नी ने क्षमा तो नहीं किया, लेकिन अभी बात न करो। दो-चार दिन बाद...!
पादरी ने कहा: लेकिन ऐसा क्या मामला हुआ है? प्रसन्न तुम बहुत दिखते हो?
नसरुद्दीन ने कहा: मैंने अपनी पत्नी को कहा कि मैं तुझे धोखा दे रहा हूं। एक दूसरी स्त्री से मेरा संबंध है। तो वह बड़ी बेचैन हो गई और कहने लगी, उसका नाम बताओ। तो नाम बताना तो उचित नहीं था, क्योंकि उस दूसरी स्त्री की इज्जत का भी सवाल है; उसके पति का भी सवाल है; उसके बच्चों का भी सवाल है। तो मैंने कहा कि नाम तो मैं नहीं बता सकूंगा, माफी मांगता हूं, क्षमा कर दे। तो पत्नी नाराज हो गई। उसने कहा कि जब तक तुम नाम नहीं बताओगे, मैं क्षमा न करूंगी। और फिर कहने लगी, अच्छा, अगर तुम नहीं बताते तो मैं खुद ही खयाल कर लेती हूं। तुम पादरी की पत्नी के प्रेम में तो नहीं हो? और जब मैं चुप रहा तो उसने कहा कि नहीं-नहीं, पादरी की बहिन! और जब मैं फिर भी चुप रहा तो उसने कहा कि नहीं-नहीं, अब तो पक्का है कि तुम पादरी की लड़की से!
मैं चुप ही रहा।
तो पादरी ने कहा: लेकिन इससे तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?
तो नसरुद्दीन ने कहा कि और तो कुछ हल न हुआ, बट शी हैव गिवेन मी थ्री न्यू कांटेक्ट्स। और अभी अब बीच में पड़ो मत!
मन फिर गतिमान हो गया। अब तीन नये पते उसने और बता दिए। इन तीन स्त्रियों का खयाल ही नहीं था नसरुद्दीन को।
कई बार आप संयम के करीब पहुंचने लगते हैं और फिर कोई तरंग हिला जाती है। आप सोचते हैं, संयम की इतनी जल्दी भी क्या है, कुछ देर और रुका जा सकता है। और अक्सर लोग मरते क्षण तक संयम नहीं साध पाते। आखिरी क्षण तक भी जीवन हिलाता ही रहता है।
महवीर कहते हैं: जिसे बाहर की स्थितियां कंपित कर देती हैं, आंदोलित कर देती हैं--आंदोलन का अर्थ है, जो बाहर जाने को उत्सुक हो जाता है, वह आदमी संसार में है। वह चेतना कभी भी सिद्ध नहीं हो सकती।
महावीर का शब्द है: ‘शैलेशी अवस्था’, हिमालय की तरह थिर। जहां कोई कंपन न हो। हिंदुओं ने शिव का घर कैलाश पर बनाया है सिर्फ इसी कारण। कोई कैलाश पर ढूंढने से शिव मिलेंगे नहीं। और अब तो करीब-करीब सारा हिमालय खोज डाला गया है। और कुछ बचा होगा तो चीनी छोड़ेंगे नहीं। वे खोजे ले रहे हैं। और शिव अगर मिलते होते, तो आपको ही मिलते, चीनियों को तो कभी मिल ही नहीं सकते।
शिव वहां हैं भी नहीं, सिर्फ प्रतीक है, कि शिवत्व की जो आखिरी अवस्था है, वह कैलाश जैसी थिर होगी। इसलिए महावीर ने शैलेशी अवस्था कहा है उसे। शैलेश जैसी, हिमालय जैसी थिर। जहां कोई कंपन नहीं है।
लेकिन अगर वैज्ञानिकों से पूछें तो वे कहेंगे कि यह शब्द ठीक नहीं है, क्योंकि हिमालय कंप रहा है। सच तो यह है कि हिमालय से ज्यादा कंपने वाला कोई पहाड़ ही दुनिया में नहीं है। विंध्याचल है, सतपुड़ा है--ये ठहरे हुए हैं। आलपस--ये सब ठहरे हुए हैं, कंप नहीं रहे हैं; हिमालय कंप रहा है--उसका कारण है--क्योंकि हिमालय जवान है। विंध्या और सतपुड़ा बूढ़े हैं।
भू-तत्वविद कहते हैं कि विंध्याचल जगत का सबसे पुराना पर्वत है, सबसे बूढ़ा पर्वत है। हमारी भी कहानियां कहती हैं कि ऋषि अगस्त्य जब दक्षिण गए, तो वे विंध्या से कह गए कि मैं जब तक लौट न आऊं, तुम झुके रहना, क्योंकि मैं बूढ़ा आदमी हूं और मुझे चढ़ने में बड़ी तकलीफ होती है।
उनके लिए ही वह झुका था। लेकिन फिर वे लौटे नहीं, उनकी मृत्यु हो गई दक्षिण में। तब से वह झुका है। कहानी बड़ी मीठी है। वह यह कहती है कि बूढ़ा पहाड़ है, गर्दन झुक गई है, कमर झुक गई है।
विंध्या सबसे पुराना पहाड़ है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। वह बढ़ नहीं रहा है; घट रहा है। हिमालय रोज बढ़ रहा है। उसकी ऊंचाई रोज बढ़ती जाती है। उसमें रोज कंपन है। वह अभी जवान है।
जितना जवान चित्त होगा, उतना कंपित होगा। अगर चित्त कंपित ही होता रहता है, तो आपका वार्धक्य शरीर का है--लेकिन चित्त के अर्थों में अभी आप जवान की वासना से भरे हैं। लेकिन महावीर का प्रयोजन है--महावीर को खयाल भी नहीं होगा कि हिमालय कंप रहा है। उस समय तक इस बात का कोई उदघाटन नहीं हुआ था कि हिमालय कंपित हो रहा है और बढ़ता जा रहा है।
रोज कुछ इंच हिमालय ऊपर उठ रहा है जमीन से। अभी जवान है, अभी वह वयस्क नहीं हुआ। अभी बाढ़ रुकी नहीं है। लेकिन महावीर का प्रयोजन साफ है, क्योंकि हिमालय जैसी थिर और कोई चीज जगत में मालूम नहीं पड़ती। ऊपर से देखने पर तो कम से कम हिमालय बिलकुल थिर मालूम होता है।
सब बदल जाता है, हिमालय बदलता हुआ नहीं मालूम होता--इस अर्थ में प्रतीक है। ऐसी चित्त की अवस्था हो जाए, जहां कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई कंपन नहीं होता, कोई बढ़ती नहीं, कोई गिरती नहीं। सब ठहर जाता है; जैसे कोई झील बिलकुल निस्तरंग हो जाए; शून्य आकाश हो, जहां बादल का एक टुकड़ा भी न तैरता हो; हवा का एक झोंका भी न आता हो--ऐसी अवस्था में चित्त तो नहीं रह जाता, मन नहीं रह जाता। ऐसी अवस्था में सिर्फ आत्मा रह जाती है।
तो हम ऐसी व्याख्या कर सकते हैं कि जब तक आत्मा कंपती है, उस कंपन का नाम मन है। मन कोई वस्तु नहीं है, मन सिर्फ कंपती हुई आत्मा का नाम है। और जब आत्मा नहीं कंपती, और ठहर जाती है, स्वस्थ हो जाती है, स्वयं में रुक जाती है, शैलेशी बन जाती है, तब मन नहीं रह जाता। जब मन नहीं रह जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वहां कोई कंपन नहीं है।
इस अवस्था को पाने के लिए जरूरी होगा कि हम नई की जो विक्षिप्त तलाश करते हैं, वह न करें। और मन जब मांग करता है नई उत्तेजनाओं की, तब हम सावधान रहें। और जब मन कहता है, खोजो नये को, तो हम समझें कि मन क्या मांग रहा है। मन मांग रहा है कि मुझे नया ईधन दो, ताकि मैं कंपता रहूं।
पुराने से मन बड़े जल्दी ऊब जाता है--नये से भी ऊब जाएगा। आज नया है, कल पुराना हो जाएगा। मन की वृत्ति को जो निरंतर भरता रहे नये से, बिना यह समझे कि मन सिर्फ कंपने की कोशिश कर रहा है, नये कंपन तलाश कर रहा है--वह आदमी कभी भी समाधि को उपलब्ध नहीं होगा।
और ऐसी अवस्था में हम सदा ही दूसरे पर भटकते रहते हैं। दूसरा ही उत्तेजना दे सकता है। उत्तेजना सदा बाहर से आती है। बाहर से शांति के आने का कोई उपाय नहीं है। शांति सदा भीतर जन्मती है, उत्तेजना सदा बाहर से आती है। अशांति बाहर से आती है, शांति भीतर से बहती है। और जब तक हम बाहर लगे हुए हैं...।
मुल्ला नसरुद्दीन युद्ध के दिनों में सेना में भर्ती हुआ था। उसका नया शिक्षण चल रहा था। और उसके कैप्टन ने एक दिन उससे पूछा कि नसरुद्दीन, जब तुम बंदूक साफ करते हो, तो सबसे पहले क्या करते हो? बंदूक साफ करने के पहले सबसे पहला काम क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा: सबसे पहला काम, पहले मैं नंबर देखता हूं। उस कैप्टन ने कहा कि नंबर से सफाई का क्या संबंध? नसरुद्दीन ने कहा: जस्ट टु बी श्योर दैट दिस इ़ज माई ओन, आइ एम नॉट क्लीनिंग समबडी एल्स--यह पक्का करने के लिए कि बंदूक अपनी ही है, किसी और की बंदूक साफ नहीं कर रहे हैं।
यह जो नसरुद्दीन कह रहा है, बड़ी कीमत की बात कह रहा है। जिंदगी में करीब-करीब हम दूसरों की बंदूकें साफ करते रहते हैं, अपनी बंदूक तो गंदी ही रह जाती है। दूसरों की साफ करने के कारण फुर्सत ही नहीं मिलती कि अपने पर ध्यान चला जाए।
जो व्यक्ति भी उत्तेजनाओं में रसलीन है, वह दूसरों की बंदूकें साफ करने में जीवन बिता देता है। दूसरों को ठीक करने में, दूसरों को सुधारने में, दूसरों को सुंदर बनाने में, दूसरों को मित्र बनाने में, दूसरों को अपने निकट लाने में, दूसरों का भोग करने में--पर सारा जीवन दूसरे पर लगा रहता है। और दूसरे काफी हैं! दूसरों का कोई अंत नहीं है।
सार्त्र ने एक अदभुत बात कही है, कहा है कि ‘दि अदर इ़ज दि हेल।’ वह दूसरा नरक है। बात थोड़ी सही है। हम अपना नरक दूसरे के ही माध्यम से पैदा करते हैं। आप खुद अपने नरक को देखें। आदमी-आदमी का अपना-अपना नरक है। हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है। मुस्कुराहटें तो ऊपर हैं और धोखे की हैं, और चिपकाई गई हैं, पेंटेड हैं--भीतर नरक है। और हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है; लेकिन वह नरक आप अकेले पैदा नहीं कर सकते हैं; उसके लिए आपको दूसरों की जरूरत है। दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता।
थोड़ा सोचें, क्या आप अकेले नरक पैदा कर सकते हैं? दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता। लेकिन अगर यह सच है कि दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता, तो हम दूसरों के पीछे इतने पागल क्यों हैं?
क्योंकि यह आशा बंधी है कि दूसरों के बिना स्वर्ग भी पैदा नहीं हो सकता। दूसरे के द्वारा स्वर्ग पैदा हो सकता है, इसी कोशिश में तो हम नरक पैदा कर लेते हैं।
स्वर्ग का स्वप्न नरक को जन्म दे जाता है। सब नरकों के द्वार पर लिखा है, स्वर्ग। तो जिस दरवाजे पर आप स्वर्ग लिखा देखें, जरा सोच कर प्रवेश करना, क्योंकि नरक बनाने वाले काफी कुशल हैं। वे अपने दरवाजे पर नरक नहीं लिखते, फिर कोई प्रवेश ही नहीं करेगा। नरक के दरवाजे पर सदा स्वर्ग लिखा होता है--वह दरवाजे पर ही होता है। भीतर जाकर, जैसे-जैसे भीतर प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे नरक प्रकट होने लगता है।
दूसरे से जो स्वर्ग की आशा करता है, दूसरे के द्वारा उसका नरक निर्मित हो जाएगा। सार्त्र ठीक कहता है कि ‘दि अदर इ़ज दि हेल।’ पर सार्त्र ने कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया कि दूसरा नरक क्यों है।
वह दूसरे के कारण नरक नहीं है। दूसरे में स्वर्ग की वासना ही नरक का जन्म बनती है। तो बहुत गहरे में देखने पर मेरी वासना ही, कि दूसरे से मैं स्वर्ग बना लूं, नरक का कारण होती है। और जो व्यक्ति दूसरे में उलझा है, वह सदा कंपित रहेगा।
आपने कभी देखा कि आपके जितने कंपन हैं, वे दूसरे के संबंध में होते हैं? क्रोध के, प्रेम के, घृणा के, मोह के, लोभ के--सब दूसरे के संबंध में होते हैं। थोड़ी देर को सोचें कि आप इस पृथ्वी पर अकेले रह गए हैं, क्या आपके भीतर कोई कंपन रह जाएगा? सारा संसार अचानक खो गया, आप अकेले हैं, तो कोई कंपन नहीं रह जाएगा। क्योंकि कंपन के लिए दूसरे से संबंधित होना जरूरी है; दूसरे और मेरे बीच वासना का सेतु बनना जरूरी है, तब कंपन होगा।
आदमी जब गहन भीतर डूबता है आंख बंद करके, बाहर को भूल जाता है--तो वह ऐसे ही हो जाता है, जैसे पृथ्वी पर अकेला है; जैसे और कोई भी न रहा। सब होंगे--लेकिन जैसे नहीं रहे; मैं अकेला हो गया। इस अकेलेपन में शैलेशी अवस्था पैदा होती है। इस अकेलेपन में, इस नितांत भीतरी एकांत में, सब कंपन ठहर जाते हैं और अकंप का अनुभव होता है।
सूत्र महावीर का हम लें।
‘जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है साधक, तब जिन तथा केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता है।’
‘जब केवलज्ञानी और जिन लोक-अलोकरूप समस्त संसार को जान लेता है, तब मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध हो जाता है और शैलेशी (अचल, अकंप) अवस्था प्राप्त होती है।’
महावीर ने पिछले सूत्र में कहा है कि जब अंतर-प्रकाश का उदय होता है, जब कोई जीवन-ऊर्जा पूरी तरह भीतर की तरफ मुड़ जाती है...।
इस भीतर की तरफ मुड़ जाने का नाम ही प्रतिक्रमण है। चेतना की दो अवस्थाएं हैं: एक आक्रमण, दूसरे की तरफ जाना; और एक प्रतिक्रमण, अपनी तरफ आना।
तो प्रतिक्रमण कोई क्रिया नहीं है कि आपने बैठ कर कर ली। प्रतिक्रमण चेतना का, ऊर्जा का अपनी तरफ लौटना है। यह बड़ी गहन घटना है।
लोग मुझे आकर कहते हैं कि आज प्रतिक्रमण करके आ रहे हैं। प्रतिक्रमण करके कहीं कोई आता है? प्रतिक्रमण का मतलब ही है कि बाहर आना नहीं, भीतर आना शुरू हुआ, भीतर जाना शुरू हुआ। प्रतिक्रमण ऊर्जा का भीतर की तरफ लौटना है। आपने देखे होंगे, अनेक इसोटेरिक, गुह्य समाजों ने सांप के प्रतीक को चुना है, जिसमें सांप अपनी पूंछ को पकड़े हुए है, वह सांप का अपनी पूंछ को पकड़ना प्रतिक्रमण है। जब चेतना अपने ही द्वारा अपने को पकड़ लेती है, और एक वर्तुल निर्मित हो जाता है, तब प्रतिक्रमण है।
जब तक मैं दूसरे की तरफ ध्यान दे रहा हूं, तब तक आक्रमण जारी है। और आक्रमण जब तक जारी है, तब तक मैं अपने को व्यर्थ कर रहा हूं; व्यर्थ खो रहा हूं--तब तक मैं नष्ट हो रहा हूं। क्योंकि जितनी ऊर्जा बाहर जा रही है, वह व्यर्थ जा रही है। जब तक भीतर जोड़ न हो जाए ऊर्जा का, जब तक अंतर्संभोग न हो जाए, जब तक मैं स्वयं से भीतर न मिल जाऊं, तब तक आनंद उपलब्ध नहीं होगा।
दूसरे से मिल कर जो थोड़ा-बहुत सुख उपलब्ध हो सकता है, वह केवल राहत है। वह शक्ति का क्षीण होना है। और जब भी शक्ति भारी हो जाती है, और दूसरे के माध्यम से बाहर निकल जाती है, तो हलकापन लगता है।
कभी-कभी, आपको खयाल होगा कि बुखार जब ठीक होता है, तो बड़ा हलकापन लगता है, जैसे उड़ सकते हैं। लेकिन वह हलकापन कमजोरी के कारण लगता है, शक्ति के कारण नहीं। शक्ति भीतर नहीं है, इसलिए बिलकुल हलके लगते हैं। बुखार के बाद बिलकुल हलकापन लगता है--जैसे सब शांत हो गया। दूसरे से मिल कर जिस ऊर्जा का हम व्यय करते हैं, वह बुखार वाला हलकापन है, जहां एक उत्तेजना आई और उत्तेजना विलीन हो गई।
अमरीका में मास्टर्स और जॉनसन ने संभोग के संबंध में बड़े वैज्ञानिक अध्ययन किए हैं। और पहला अध्ययन उनका यह है कि संभोग के क्षण में दो व्यक्ति, स्त्री-पुरुष, दोनों ही बुखार की अवस्था में आ जाते हैं, फीवरिश हो जाते हैं। दोनों का शरीर उत्तप्त हो जाता है, गर्मी बढ़ जाती है, टेम्प्रेचर ज्यादा हो जाता है, श्र्वास जोर से चलने लगती है। शरीर का रोआं-रोआं बेचैन और परेशान हो जाता है। कुछ ही क्षणों में दोनों ही उत्तप्त होकर जलने लगते हैं। और जब दोनों का स्खलन हो जाता है, तो इस बुखार से छुटकारा हो जाता है। वापस लौट आते हैं।
यह जो बुखार से छूट जाना है, इसमें राहत मिलती है, सुख नहीं मिल सकता। दूसरे से हमारा कोई भी संबंध ज्यादा से ज्यादा रिलीफ का हो सकता है। स्वयं से संबंध आनंद का हो सकता है।
महावीर इस स्वयं से संबंध को कहते हैं, प्रतिक्रमण। जब चेतना अपने पर लौट आती है। जैसे ही चेतना अपने पर लौटती है, वैसे ही कर्म-मल गिर जाते हैं। क्योंकि कर्म-मल हमने इकट्ठे ही किए थे दूसरे के लिए, दूसरे से संबंधित होने के लिए।
इसे हम थोड़ा समझें।
हम बोलते हैं; भाषा हम सीखते हैं। लेकिन भाषा हम सीखते हैं दूसरों के लिए। भाषा का कोई उपयोग अपने लिए नहीं है। भाषा सामाजिक है, दूसरे से जुड़ने का उपाय है। अगर आप अकेले रह जाएं जगत में, तो भाषा छूट जाएगी, भाषा की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। क्योंकि भाषा थी ही दूसरे से जुड़ने के लिए।
आप कार में बैठते हैं कहीं जाने के लिए, अगर कहीं जाना ही न हो, तो आप कार के बाहर निकल आएंगे। और अगर सारा जाना ही बंद हो जाए, कहीं जाने का सवाल ही न हो, कोई मंजिल ही न हो, तो कार को आप भूल ही जाएंगे।
आप वस्त्र पहनते हैं ताकि दूसरे को आपकी नग्नता न दिखाई पड़ जाए। लेकिन अगर जगत में कोई भी न हो, आप घने जंगल में हों, जहां कोई भी नहीं है--आप निर्वस्त्र घूमने लगेंगे। वस्त्र की चिंता नहीं रहेगी।
आप घर से निकलते हैं, आईने में चेहरा देखते हैं। क्योंकि कोई दूसरा आपके चेहरे में गंदगी न देख ले, कुरूपता न देख ले--अभद्र न मालूम पड़े। लेकिन आप जंगल में अकेले हों--दर्पण पड़ा-पड़ा टूट जाएगा, आप देखना बंद कर देंगे।
हम जीवन में जो भी कर रहे हैं, वह दूसरे के कारण, दूसरे के लिए। महावीर कहते हैं, हमने जीवन-जीवन में, जन्मों-जन्मों में, जो भी कर्म इकट्ठे किए हैं, वे दूसरे से संबंधित होने के लिए। हमारा सारा खेल यंत्र का है। हमारा सारा शरीर, हमारा सारा मन दूसरे से संबंधित होने का उपकरण है। जब कोई चेतना अपने से संबंधित होती है, यह सारा उपकरण नीचे गिर जाता है। इसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। इससे हमारा संबंध टूट जाता है।
यह जो संबंध का टूट जाना है, तभी सर्वत्रगामी केवलज्ञान का उदय होता है। तब ऐसे बोध का जन्म होता है, जो सब तरफ फैलता चला जाता है; जिसकी कोई सीमा नहीं है; जो असीम है। तब भीतर से प्रकाश के वर्तुल चारों तरफ फैलते चले जाते हैं, अनंत लोक को घेर लेते हैं। जितना विस्तार है, उसे घेर लेते हैं। महावीर कहते हैं, न केवल लोक का, बल्कि अलोक का भी बोध हो जाता है।
मैंने पीछे आपको कहा कि आधुनिक भौतिक शास्त्री एंटी यूनिवर्स, अलोक की धारणा के करीब पहुंच गए हैं। और पहुंचना जरूरी हो गया, क्योंकि जगत का एक अनिवार्य नियम समझ में आ गया है कि यहां द्वंद्व के बिना कुछ भी नहीं होता। यहां होने का ढंग विपरीत के द्वारा है। यहां सब चीजें विपरीत के साथ मौजूद हैं; अंधेरा प्रकाश के साथ, जन्म मृत्यु के साथ। तो अकेला यूनिवर्स, अकेला लोक नहीं हो सकता, अलोक भी होगा। इससे विपरीत भी कुछ होगा।
महावीर बड़ी अनूठी बात कहे हैं। और तब तो उनके पास कोई वैज्ञानिक उपकरण न थे इसको जानने के। निश्र्चित ही, यह उनके ज्ञान के विस्तार में ही प्रतीत हुआ होगा। क्योंकि वैज्ञानिक के पास तो उपकरण हैं, महावीर के पास तो कोई उपकरण न थे; कोई प्रयोगशाला न थी; स्वयं को छोड़ कर। खुद ही प्रयोगशाला थे--इससे ज्यादा तो कुछ भी साथ न था। आंख बंद करके भीतर देखने के सिवा उनकी कोई और विधि न थी। इस विधि के द्वारा उनको यह प्रतीति हुई कि अलोक भी है, एंटी यूनिवर्स भी है।
ठीक उस अलोक के नियम इसके बिलकुल विपरीत होंगे। वह इससे बिलकुल उलटा है। और वह उलटा होना जरूरी है ताकि यह लोक हो सके। क्योंकि द्वंद्व के बिना जगत में कोई भी अस्तित्व नहीं है। अगर स्त्रियां न हों, तो पुरुष खो जाएं; पुरुष न हों, स्त्रियां खो जाएं।
एक बहुत पुरानी कथा है अरब में कि एक बार लोग बिलकुल सुस्त और काहिल हो गए, और ऐसा समय आया कि सब आलसी हो गए। कोई कुछ करना नहीं चाहता था। कोई कुछ करता नहीं था। तो एक मनीषी को पूछा गया कि क्या करें? तो उसने कहा कि तुम एक उपाय करो, सारे पुरुषों को एक द्वीप पर बंद कर दो और सारी स्त्रियों को दूसरे द्वीप पर बंद कर दो। बस, सब ठीक हो जाएगा।
पर उन्होंने कहा कि आप पागल हो गए हैं, इससे क्या होगा? स्त्रियों को एक द्वीप पर बंद कर देंगे, पुरुषों को एक द्वीप पर बंद कर देंगे--इससे सुस्ती कैसे मिटेगी?
उसने कहा कि तुम इसकी फिकर छोड़ो--वे दोनों ही नाव बनाने में लग जाएंगे कि दूसरे द्वीप पर कैसे पहुंचें। सुस्ती बिलकुल टूट जाएगी। आलस्य बिलकुल खो जाएगा। उपक्रम आ जाएगा, श्रम शुरू हो जाएगा। पुरुष अकेला नहीं रह पाएगा, स्त्री अकेली नहीं रह पाएगी। वे पास आना चाहेंगे। उपद्रव शुरू हो जाएगा। तुम अराजकता पैदा कर दो, तुम दोनों को अलग कर दो।
द्वंद्व यहां इस पृथ्वी पर जीवन का आधार है। तो महावीर कहते हैं, अलोक और लोक ये दो अस्तित्व की अनिवार्यताएं हैं। जिस व्यक्ति के भीतर मौन घटित होगा, मन समाप्त हो जाएगा; जहां मन समाप्त होता है, वहां मौन है। जो भीतर मुनि हो जाएगा, उसको लोक और अलोक दोनों आलोकित हो जाएंगे, दोनों दिखाई पड़ने लगेंगे। जीवन का मौलिक आधार दिखाई पड़ जाएगा कि द्वंद्व, डुआलिटी, डाइलेक्टिक्स, संघर्ष, जीवन का द्धंद्ध है।
और इस जीवन से द्वंद्व नहीं मिट सकता। कोई चाहे तो अपने भीतर द्वंद्व के पार जा सकता है। लेकिन बाहर द्वंद्व नहीं मिट सकता--नये रूप ले लेगा, नये संघर्ष बना लेगा, नये उपद्रव खड़ा करेगा--क्योंकि बिना उपद्रव के जीवन अस्तित्व में नहीं हो सकता। संघर्ष वहां अनिवार्य है।
‘जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है साधक, तब जिन तथा केवली होकर...।’
जिन का अर्थ है, जिसने अपने को जीत लिया। अपने को जीतने का अर्थ है, जो दूसरे पर किसी भी अर्थों में निर्भर नहीं रह गया है। दूसरे की निर्भरता जहां पूर्णतया समाप्त हो जाती है, वहां महावीर कहते हैं, व्यक्ति जिन हुआ। और अपने को जिन कहने का हकदार वही है, जो किसी पर किसी भी कारण से निर्भर नहीं है। जो अपने में पर्याप्त है। जिसका होना काफी है। जिसकी चेतना किसी की भी तलाश में नहीं जाती। जो किसी को भी खोजता नहीं है; और कोई न मिले, तो जरा भी पीड़ा नहीं होती। जो अपने साथ रह कर इतना प्रसन्न है कि उसकी प्रसन्नता में कोई भी कमी नहीं है।
अपने ही साथ जो प्रफुल्ल है, उसे महावीर कहते हैं, जिन। और केवली उसे कहते हैं, जिसे इस ज्ञान का अनुभव हो गया है; जिसकी कोई बाधा नहीं है, जिस पर कोई अवरोध नहीं है। जो फैलता ही चला जाता है। जो अनंत प्रकाश है। भीतर के इस अनंत प्रकाश का जिसे अनुभव हो गया। महावीर ने शब्द बड़ा अनूठा चुना है: केवल--अलोन, अकेला, एकाकी, जहां सिर्फ ज्ञान ही रह जाए।
उपनिषदों में कहा जाता है कि जगत का ज्ञान एक त्रिवेणी है। वहां जानने वाला है, जानी जाने वाली वस्तु है, और दोनों के बीच का संबंध है, ज्ञान। वहां तीन हैं।
प्रयाग आप गए होंगे। वहां कुंभ भरता है; त्रिवेणी पर मेला जुड़ता है। लेकिन त्रिवेणी बड़ी मजे की है! नदियां वहां दो हैं, तीसरी, कहते हैं, कभी थी। कभी भी नहीं थी। तीसरी अदृश्य है। सरस्वती अदृश्य है, यमुना और गंगा प्रकट हैं। यह त्रिवेणी प्रतीक है भीतर के संगम का।
इस जगत में जो ज्ञान की घटना घटती है, जो तीर्थ निर्मित होता है ज्ञान का, वह तीन से निर्मित होता है: वस्तु, ऑब्जेक्ट, ज्ञेय; ज्ञाता, जानने वाला, सब्जेक्ट; और दोनों के बीच निर्मित होने वाली तीसरी धारा जो दिखाई नहीं पड़ती--ज्ञान। वह ज्ञान, सरस्वती है।
इसलिए सरस्वती ज्ञान की प्रतिमा है। और वह नदी कभी भी नहीं रही दुनिया में। वह हो नहीं सकती। उसके होने का कोई कारण नहीं है। अदृश्य उसका स्वभाव है। पदार्थ दिखाई पड़ता है, देखने वाला दिखाई पड़ता है; दृश्य दिखाई पड़ता है, द्रष्टा दिखाई पड़ता है; दर्शन दिखाई नहीं पड़ता। ज्ञाता, ज्ञेय दिखाई पड़ता है।
मैं यहां बैठा हूं, आपको देख रहा हूं। मैं हूं, आप हैं, और दोनों के बीच एक सरस्वती बह रही है जो दिखाई नहीं पड़ती--जानने की, ज्ञान की, बोध की, दर्शन की। इन तीनों से मिल कर इस जगत का सारा ज्ञान निर्मित हुआ है।
महावीर कहते हैं, जब ज्ञाता भी मिट जाए, ज्ञेय भी मिट जाए, केवल सरस्वती रह जाए; वह जो अदृश्य है, वही एकमात्र शेष रह जाए। जो दृश्य हैं, वे दोनों खो जाएं। क्योंकि दृश्य पदार्थ है, अदृश्य चैतन्य है।
अब यह बड़े मजे की बात है, आप जब प्रयाग जाते हैं तो गंगा-यमुना दिखाई पड़ती हैं, सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती। भीतर एक ऐसा प्रयाग भी है, जहां सिर्फ सरस्वती दिखाई पड़ती है--गंगा-यमुना दोनों खो जाती हैं। जहां गंगा-यमुना खो जाती हैं, और सरस्वती मात्र रह जाती है, उस अवस्था का नाम ‘केवल’ है।
जो दिखाई पड़ता है, वह नहीं दिखाई पड़ता वहां, और जो नहीं दिखाई पड़ता है, वही केवल दिखाई पड़ता है। इस जगत का दृश्य वहां अदृश्य हो जाता है और उस जगत का अदृश्य यहां दृश्य हो जाता है। इस जगत से वह बिलकुल विपरीत है। यहां जो अदृश्य है, वहां दृश्य हो जाता है।
पदार्थ और पदार्थ को जानने वाले के बीच, दोनों किनारों के बीच, एक तीसरी अदृश्य धारा बह रही है ज्ञान की। महावीर कहते हैं, वही तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है; जो दिखाई नहीं पड़ता। और जब तक तुम उसे न जान लोगे, तब तक तुम अज्ञानी ही रहोगे। केवलज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है। वस्तुतः, बाकी सब ज्ञान अज्ञान की टटोलें हैं। अज्ञानी आदमी टटोल रहा है; कुछ खोज रहा है; बना रहा है; सिद्धांत निर्मित कर रहा है।
ज्ञानी का अर्थ है, जहां दोनों खो गए। द्वंद्व खो गया और बीच की अदृश्य धारा प्रकट हो गई। उस अदृश्य धारा का नाम केवल है।
‘जब केवलज्ञानी जिन लोक-अलोक को, समस्त संसार को जान लेता है, तब मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध हो जाता है; शैलेशी (अचल-अकंप) अवस्था प्राप्त होती है।’
उस तीसरे में थिर होते ही सारी अथिरता खो जाती है। फिर कोई कंपन नहीं है। फिर कोई चीज हिला नहीं सकती, क्योंकि कोई चीज आकर्षित नहीं कर सकती। फिर कोई चीज डिगा नहीं सकती, क्योंकि कोई चीज आंदोलित नहीं कर सकती। कोई आमंत्रण सार्थक न रहा, फिर कोई निमंत्रण बाहर नहीं बुला सकता।
फिर कुछ भी नहीं है जगत में, जो मैग्नेट है। फिर आप अपने ही मैग्नेट पर थिर हो गए। अब आप अपने केंद्र पर हैं--सेंटरिंग हो गई। आप खड़े हो गए अपनी जगह। आप उस जगह आ गए...। गाड़ी का चाक चलता है, लेकिन चाक के बीच में एक कील है, जो नहीं चलती।
और बड़ा मजा यह है कि कील नहीं चलती, इसीलिए चाक चल पाता है। कील भी चलने लगे, तो चाक गिर जाए। कील ठहरी रहती है।
जब तक हम मन के साथ जुड़े होते हैं, हम चाक के साथ जुड़े हैं और जब हम मन से पीछे हटते हैं, शांत और मौन और शून्य हो जाते हैं, तो हम कील पर ठहर गए। कील पर ठहरा हुआ व्यक्ति, सेंटर्ड, स्वयं में ठहरा हुआ व्यक्ति--महावीर कहते हैं--शैलेशी है। वह हिमालय बन गया चेतना का। अब उसमें कोई कंपन नहीं है। अब उसे कोई चीज दुख नहीं दे सकती। क्योंकि अब उसे किसी से सुख की कोई आकांक्षा नहीं है। ऐसा व्यक्ति आनंद को उपलब्ध हो जाता है; या चाहें तो कहें, ब्रह्म को उपलब्ध हो जाता है।
महावीर कहते हैं, ऐसा व्यक्ति परमात्मा हो गया। परमात्मा का अर्थ है, ऐसी शैलेशी अवस्था को पा लेना।
‘जब मन, वचन और शरीर के योगों का निरोधकर आत्मा शैलेशी अवस्था पाती है; पूर्ण रूप से स्पंदन-रहित हो जाती है, तब सब कर्मों का क्षयकर सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि को प्राप्त होती है।’
महावीर के लिए ‘सिद्ध’ अंतिम शब्द है। सिद्ध का अर्थ है: वन हू हैज रीच्ड। सिद्ध का अर्थ है: जो पहुंच गया। सिद्ध का अर्थ है: जिसे मंजिल मिल गई। सिद्ध का अर्थ है: जिसकी यात्रा का अंत हुआ। सिद्ध का अर्थ है: जिसे अब कहीं जाने को न बचा। सिद्ध का अर्थ है: जिसे अब कुछ पाने को न बचा। सिद्ध का अर्थ है: जिसे अब कुछ जानने को न बचा। जो हो सकता था आखिरी इस जीवन में, वह घट गया। बीज फूल तक आ गया। इसके पार कोई यात्रा नहीं है। चेतना अपनी पूरी संभावनाओं को वास्तविक कर ली। जो-जो हो सकता था, वह हो गया। अब चेतना में कोई और बीज नहीं बचा, सब बीज प्रकट हो गए।
इस पूर्ण प्रकटावस्था को महावीर कहते हैं, परमात्मा की अवस्था। इसलिए महावीर के लिए एक परमात्मा नहीं है, जितनी चेतनाएं हैं--अनंत चेतनाएं हैं--उतने ही परमात्मा हैं--अनंत परमात्मा हैं। कुछ हैं, जो बीज में बंद हैं। कुछ हैं, जो तड़प रहे हैं और बीज को तोड़ रहे हैं। कुछ हैं, जो अंकुरित हो गए हैं और फूलों की तरफ बढ़ रहे हैं। और कुछ हैं, जो फूल हो गए और आखिरी अवस्था को पहुंच गए हैं।
सभी परमात्मा हैं--कुछ बीज में, कुछ अंकुर में; कोई वृक्ष में, कोई फूल में। लेकिन उनके स्वभाव में कोई अंतर नहीं है; स्वरूप में कोई अंतर नहीं है। अनंत परमात्माओं की धारणा है महावीर की। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर भगवत्ता है।
सिद्धि का अर्थ है: भगवत्ता को पा लेना, भगवान हो जाना। सिद्धि का अर्थ है: जहां से अब कोई वासना का सवाल न रहा; जहां से पार जाने का कोई उपाय नहीं है; जो आखिरी बिंदु है जीवन का।
इसी की हम तलाश भी कर रहे हैं। लेकिन जहां हम तलाश कर रहे हैं, शायद वह जगह नहीं है जहां इसे पाया जा सके। हम इसी को खोज भी रहे हैं--कोई धन में, कोई पद में, कोई प्रतिष्ठा में, कोई शास्त्र में। लेकिन वह खोज वहां हो नहीं सकती, उसे खोजना होगा भीतर। जहां भी हम खोज रहे हैं हम गलत खोज रहे हैं। और इसलिए जब हमें नहीं मिल पाता, तो हम इस बात का खयाल नहीं लेते कि हमारी खोज गलत थी। हम सोचते हैं, हमारा भाग्य गलत था। हम सोचते हैं, कोई चीज बाधा बन गई।
जब हम एक व्यक्ति में सुख खोजते हैं; नहीं पाते हैं, तो हम सोचते हैं, यह व्यक्ति ही गड़बड़ है, इसीलिए सुख नहीं मिल पा रहा है, किसी और में खोजें। धन में खोजते हैं, नहीं मिलता, तो सोचते हैं, पद में खोजें; पद में खोजते हैं, नहीं मिलता है, तो सोचते हैं, शास्त्र में खोजें।
लेकिन एक दिशा सदा अछूती रह जाती है; हम कभी नहीं सोचते कि अपने में खोजें। सदा कहीं, किसी और में! जब तक हमें यह खयाल न आ जाए कि हम कहीं भी खोजें, खोज गलत होगी; जब तक हम अपने में न खोजें। और इसीलिए हमें दूसरों में इतने दोष दिखाई पड़ते हैं। दूसरे में दोष दिखाई पड़ने का कुल कारण इतना है कि जहां-जहां हम असफल होते हैं, वहां-वहां दोष खोज कर हम अपने मन को तृप्त कर लेते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन बूढ़ा हो गया था। नौकरी के लिए एक दफतर में गया। वॉचमैन की, पहरेदार की जगह खाली थी। उस मालिक ने कहा कि ठीक है, लेकिन मैं तुम्हें बता दूं कि हमें किस तरह का व्यक्ति चाहिए। तुम ठीक हो, काम हम दे सकेंगे, लेकिन फिर भी तुम समझ लो। हमें ऐसा व्यक्ति चाहिए जो चौबीस घंटे संदेह करे--वॉचमैन। कोई भी भीतर आए, तो कभी आस्था और भरोसे से न देखे, चौबीस घंटा संदेह करे। और चौबीस घंटा लोगों के दोष, भूल-चूक निकालने की कोशिश में लगा रहे। और चौबीस घंटा लड़ने को तत्पर रहे। दुष्ट स्वभाव हो, कर्कश आवाज हो। भयावना चेहरा हो और जरा ही कोई उत्तेजना दे दे तो बिलकुल शैतान उसके भीतर प्रकट हो जाए--हमें ऐसा आदमी चाहिए। ठीक है, तुम चल पाओगे।
नसरुद्दीन ने कहा: क्षमा करें, आइ एम सॉरी, दिस जॉब इ़ज नाट फॉर मी, बट आइ विल सेंड माई वाइफ अराउंड--यह काम मेरा नहीं है, लेकिन मैं अपनी पत्नी को भेज दूंगा। बिलकुल जैसा आप कह रहे हैं, वैसा ही व्यक्तित्व है उसका!
अपने में देख पाना तो बहुत मुश्किल है। वह आदमी कह रहा है--जिसको नौकर रखना है--कि तुम बिलकुल ठीक हो। लेकिन नसरुद्दीन कहता है, यह नौकरी मेरे... मैं इसमें न जमूंगा, मेरी पत्नी...!
दोष सदा दूसरे में दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि जो-जो हम पाना चाहते हैं दूसरे से, वह-वह नहीं मिलता। वह मिल नहीं सकता--इसलिए नहीं कि दूसरे में कोई भूल है। वह मिल ही नहीं सकता--वह वस्तुओं का स्वभाव नहीं है।
हम दूसरे से प्रेम चाहते हैं और क्रोध पाते हैं। इसलिए नहीं कि दूसरा क्रोधी है। दूसरे से इसका कोई संबंध नहीं है। जो भी प्रेम चाहता है, वह क्रोध पाएगा। वह प्रेम की चाह में ही हम दूसरे में क्रोध पैदा कर रहे हैं। यह बड़ी मुश्किल बात है; जटिल बात है।
हमारी वासना ही उपद्रव का कारण है। हम जो-जो मांगते हैं, उससे विपरीत हमें मिलता है। आप खुद अपने जीवन को देखें। जो-जो आपने मांगा है, उससे विपरीत आपने पाया है। लेकिन आप सोचते हैं कि विपरीत मिला इसलिए कि दूसरी तरफ गलत लोग थे।
नसरुद्दीन के गांव में पहली दफा टेलीफोन लगा। बूढ़ा आदमी था और प्रतिष्ठित था, और सारे लोग जानते थे, जाहिर था--या कहें बदनाम था। तो टेलीफोन कंपनी ने सोचा कि पहले टेलीफोन का उदघाटन नसरुद्दीन करे। उसकी पत्नी तीस मील दूर कहीं गांव में गई थी। तो उसकी पत्नी से मुलाकात उदघाटन में।
नसरुद्दीन बामुश्किल राजी हुआ। उसने कहा कि बामुश्किल तो वह गई है और तुम उसी से मुलाकत करवा रहे हो। और हम किसी तरह थोड़ी शांति अनुभव कर रहे हैं, तो अब यह एक उपद्रव टेलीफोन का गांव में आ गया! मतलब यह है कि अब पत्नी से कोई छुटकारा नहीं--वह बाहर जाए तो भी!
फिर भी लोग नहीं माने तो वह राजी हो गया। आषाढ़ के दिन थे, वर्षा का मौसम था। उसने टेलीफोन हाथ में लिया कंपते हुए, डरते हुए--जैसा कि सभी पति पत्नी को फोन करते वक्त नर्वस... हाथ कंपने लगता है। और फिर यह तो पहला टेलीफोन था और उसने कभी टेलीफोन किया नहीं था। हाथ कंपने लगा। और तभी संयोग की बात, जोर से बिजली कड़की और सामने के वृक्ष पर बिजली गिरी। उसके हाथ से टेलीफोन छूट गया, वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। किसी तरह सम्हाल कर अपने को उसने उठाया और उसने कहा कि दैट्स ऑल राइट! दैट्स माई ओल्ड वुमन!
उसने कहा कि बिलकुल पक्की बात है कि वही बोली है, यही मेरी पत्नी है! वह बिजली की कड़क आवाज और उसका गिरना, वह समझा कि अपनी पत्नी से बातचीत हो रही है। उसने कहा कि हम पहले ही कहे थे कि यह और उपद्रव टेलीफोन का यहां मत लगाओ!
तो दूसरे में हम सदा ही खोज पाते हैं--सभी। नसरुद्दीन अति पर हो, आप थोड़े पीछे हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन हमारे जीवन की पूरी अड़चन यही है कि सारा दुख हमें कोई दे रहा है। कोई परिस्थिति, कोई व्यक्ति, कोई घटना--लेकिन सदा बाहर से आ रहा है।
महावीर कहते हैं कि बाहर से कुछ भी नहीं आता। हम बाहर से मांगते हैं, उससे विपरीत हमें मिलता है। यह सीधा उत्तर है हमारी मांग का। सिद्धावस्था वैसी अवस्था है, जब बाहर से हमारी मांग गिर गई, और हम भीतर तृप्त हैं। और हम भीतर जैसे हैं, वैसे होने से हम परिपूर्ण तथाता में हैं: टोटल एक्सेप्टेबिलिटी, पूर्ण संतुष्टि।
सिद्ध को आप हिला नहीं सकते। आप कहें कि वहां हीरे की खदान मकान के बगल में है, तो भी वह हिलेगा नहीं। आप कहें कि इंद्र निमंत्रण देने आया है कि चलो स्वर्ग में, आपकी तपश्र्चर्या काफी हो गई, तो भी वह हिलेगा नहीं। आप उसे किसी भी तरह आकर्षित नहीं कर सकते। आप कुछ भी नहीं दे सकते हैं, जो उसे कंपित कर दे। आपके पास कुछ भी नहीं है। सारा जगत राख हो गया। इस जगत में कुछ भी मूल्यवान न रहा। सारा जगत निर्मूल्य हो गया।
ध्यान रहे, मूल्य हम देते हैं। जगत में सभी चीजें निर्मूल्य हैं। मूल्य हमारा दिया हुआ है। कितना हम मूल्य देते हैं, यह हम पर निर्भर है। किस चीज को हम मूल्य देते हैं, वह हम पर निर्भर है।
सारा मूल्य मनुष्य कल्पित है। इसलिए अलग-अलग जगह अलग-अलग मूल्य दिखाई पड़ते हैं। अलग-अलग समाज अलग-अलग चीजों को मूल्य देते हैं। और जहां जो चीज मूल्यवान है, वहां मूल्यवान है। आपको दो कौड़ी की लगेगी, क्योंकि आपके समाज में आपने उस चीज को कोई मूल्य नहीं दिया है।
मूल्य व्यक्ति देता है। और मूल्य दिए जाते हैं वासना से। सिद्ध के लिए जगत निर्मूल्य है।
और ध्यान रहे, जब तक जगत में मूल्य है तब तक आप भीतर निर्मूल्य रहेंगे। जब जगत से मूल्य खो जाएगा, तो भीतर मूल्य स्थापित हो जाता है।
सिद्ध की आत्मा में मूल्य है, और सारा जगत निर्मूल्य है। इसलिए शंकर कहते हैं कि आत्मा ही सत्य है, सारा जगत माया है। माया का मतलब इतना ही है केवल कि वहां हमने ही डाला था मूल्य और हमने ही निकाला था। जो हम डालते हैं, वही हम निकालते हैं। हम पहले प्रोजेक्ट करते हैं मूल्य, और फिर हम मूल्य से आंदोलित होते हैं। बड़ा खेल है!
महावीर कहते हैं: सिद्ध वह है, जो इस खेल के बाहर हो गया।
‘जब आत्मा सब कर्मों का क्षय कर--सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि को पा लेती है, तब लोक के मस्तक पर, ऊपर के अग्रभाग पर स्थित होकर सदा काल के लिए सिद्ध हो जाती है।’
महावीर कहते हैं: लोक और अलोक, ये द्वंद्व हैं। जैसा मैंने कहा यमुना और गंगा, ये दो दृश्य हैं और सरस्वती अदृश्य है। लोक और अलोक, मैटर और एंटी मैटर--विज्ञान की भाषा में कहें--ये दो विरोध हैं। इन दोनों विरोधों के बीच लोक के अग्रभाग पर और अलोक के प्रथम भाग पर सिद्ध चेतना थिर हो जाती है। पदार्थ और अ-पदार्थ, लोक और अलोक--इन दोनों के द्वंद्व के मध्य में चेतना थिर हो जाती है।
इस अवस्था का फिर कोई अंत नहीं है। यह अनंत अवस्था है। यह टाइमलेसनेस है। यह शाश्र्वतता है। इस क्षण से फिर कोई दूसरा क्षण नहीं है। यह क्षण अनंत है।
इससे बड़े विचार पैदा हुए, बड़ी चर्चा हजारों साल तक चली है। क्योंकि पश्र्चिम में वे पूछते हैं कि जब भी कोई चीज शुरू होती है तो उसका अंत होता है। अगर यह सिद्धावस्था शुरू होती है तो यह अंत कब होगी?
महावीर कहते हैं: इसका कोई अंत नहीं होता, यह सिर्फ शुरू होती है। सिद्धावस्था की सिर्फ बिगिनिंग है, अंत नहीं है। यह बड़े मजे की बात है। और महावीर की बात समझने जैसी है। और महावीर कहते हैं: संसार का अंत है, प्रारंभ नहीं है; सिद्धावस्था का प्रारंभ है, अंत नहीं है। और दोनों मिल कर एक वर्तुल बन जाते हैं।
महावीर कहते हैं: संसार का कोई प्रारंभ नहीं है, यह सदा से है। इसलिए महावीर स्रष्टा को नहीं मानते, या कभी क्रिएशन हुआ, इसको नहीं मानते; सृष्टि की गई, इसको नहीं मानते। वे कहते हैं, संसार सदा से है। इसका कोई प्रारंभ नहीं है। दि वर्ल्ड इ़ज बिगिनिंगलेस। सिद्धावस्था का प्रारंभ है। सिद्धावस्था के प्रारंभ का अर्थ हुआ कि संसार का अंत। जैसे ही कोई सिद्ध हुआ, उसके लिए संसार का अंत हो गया, संसार शून्य हो गया।
तो महावीर कहते हैं: संसार का प्रारंभ नहीं है, अंत है; सिद्धावस्था का प्रारंभ है, अंत नहीं है। और दोनों मिल कर वर्तुल को पूरा कर देते हैं।
हम एक बड़ी लकीर को खींचें। इस लकीर को हम दो हिस्सों में बांट दें। पहले हिस्से के अग्रभाग पर सिद्धावस्था को रख दें; उसका कोई अंत नहीं है, प्रारंभ है। सिद्धावस्था एक दिन प्रारंभ होती है, लेकिन उसका अंत कभी नहीं होता। यह आधी बात हुई, आधा संसार है। उसका प्रारंभ नहीं है, उसका अंत है। दोनों को जोड़ दें तो एक वर्तुल बन जाएगा।
महावीर कहते हैं: ये दोनों घटनाएं एक ही विस्तार के दो हिस्से हैं। सिद्ध पहुंच गया वहां, जहां से फिर कोई रूपांतरण नहीं है--न गिरना, न उठना; न आगे न पीछे।
अनेक दार्शनिकों ने सवाल उठाया है कि जब उसका कोई अंत नहीं होगा--इतनी लंबी, एंडलेस, अंत-रहित स्थिति होगी, तो हम उससे ऊब नहीं जाएंगे? उससे घबड़ाहट पैदा नहीं हो जाएगी? उससे आदमी भागना नहीं चाहेगा?
महावीर कहते हैं कि जब भी हम सोचते हैं, अंत-रहित, तो हमारा मतलब होता है, बहुत लंबी है, लेकिन कहीं अंत होगा। महावीर कहते हैं, जब मैं कहता हूं, अंत-रहित, तो उसका मतलब ही यह होता है कि जहां लंबाई का सवाल नहीं है, शाश्र्वतता का सवाल है, इटरनिटी का सवाल है। तब एक क्षण, जो प्राथमिक क्षण है, वही अंतिम क्षण है। वहां कोई चीज गुजरती हुई मालूम भी नहीं पड़ेगी; वहां समय व्यतीत होता हुआ मालूम भी नहीं पड़ेगा; क्योंकि समय संसार का हिस्सा है।
कालातीत है चेतना की सिद्धावस्था। वहां कोई समय नहीं है। इसलिए आपको ऐसा नहीं लगेगा कि बहुत देर हो गई सिद्ध हुए। ऐसा कभी नहीं लगेगा। क्योंकि देर का, ड्यूरेशन का कोई सवाल नहीं है। समय वहां है नहीं। वहां आपकी घड़ी रुक जाएगी। वहां घड़ी नहीं चल सकती।
जीसस से कोई पूछता है, तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में खास क्या बात होगी? तो जीसस कहते हैं: देयर शैल बी टाइम नो लांगर--वहां समय नहीं होगा।
समय संसार का हिस्सा है, क्योंकि समय परिवर्तन का हिस्सा है। अगर हम ठीक से समझें, तो परिवर्तन होता है, इसलिए समय का हमें पता चलता है। अगर परिवर्तन न हो, तो समय का पता न चले। जितना ज्यादा परिवर्तन होता है, उतना ज्यादा समय का पता चलता है।
इसलिए पश्र्चिम में लोग ज्यादा टाइम कांशस हैं--ज्यादा समय का पता चलता है, क्योंकि परिवर्तन बहुत हो रहा है। पूरब में लोग उतने समय से परेशान नहीं हैं, न पीड़ित हैं। अगर जंगल में जाएं आदिवासियों के पास, उन्हें समय से कोई लेना-देना ही नहीं है। समय का कोई सवाल ही नहीं है। समय जैसे है ही नहीं। सब चीजें ठहरी हुई हैं।
जब परिवर्तन जोर से होता है, तो समय का पता चलता है। जब परिवर्तन धीमा होता है, तो समय भी धीमा हो जाता है। जब परिवर्तन बिलकुल नहीं होता, तो समय समाप्त हो जाता है।
अगर ठीक से समझें तो समय का मतलब हुआ, परिवर्तन। परिवर्तन के बीच जो बोध होता है, वह समय है। अन्यथा समय का हमें कोई पता नहीं होगा। अगर आप एक ऐसी अवस्था में हों, जहां कुछ भी न बदले--समझें, इस कमरे में आप बैठे हैं, कुछ भी न बदले, सब चीजें थिर हों--तो आपको समय का कोई भी पता नहीं चलेगा। समय का पता चलता है, क्योंकि चीजें बदल रही हैं। एक बदलाहट से दूसरी बदलाहट के बीच जो खाली जगह है, उसमें ही समय का पता चलता है।
समय परिवर्तन का बोध है।
तो महावीर कहते हैं: सिद्धावस्था में कोई परिवर्तन नहीं है, इसलिए समय भी नहीं है। वहां कोई समय का पता नहीं चलेगा। सिद्ध होते ही समय गिर जाता है, संसार गिर जाता है।
असल में वासना के गिरते ही परिवर्तन समाप्त हो जाता है। जहां तक वासना है, वहां तक परिवर्तन है। जहां वासना नहीं है, सिर्फ आत्मा है, वहां कोई परिवर्तन नहीं है। वहां शाश्र्वतता है, इटरनिटी है।
यह जो सिद्धावस्था है, यही तलाश है हर प्राण की। यही खोज है हर श्र्वास की। प्राण इसी के लिए आतुर हैं कि एक ऐसी जगह मिल जाए, जिसके पार पाने को कुछ न बचे। आप कितना ही धन पा लें, ऐसी जगह नहीं मिलती। क्योंकि और धन पाने को बच रहता है! कितने ही बड़े पद पर हो जाएं, वह पद नहीं मिलता। और पद पाने को बच रहते हैं! और कितने ही शास्त्र के ज्ञाता हो जाएं, कुछ फर्क नहीं पड़ता। और शास्त्र बचे रहते हैं!
इस जगत में ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसको पाकर आप कहें, इसके आगे कुछ भी नहीं बचता। आगे बचता ही है! इसलिए इस जगत की उपलब्धियों में कोई सिद्धावस्था नहीं हो सकती। सिर्फ अंतर्यात्रा में एक जगह है, जहां पाने को कुछ भी नहीं बचता।
जो अपने को पा लेता है, उसे पाने को कुछ भी नहीं बचता है। और जो अपने को नहीं पाता, उसे पाने को सदा ही बचा रहता है। और जब तक वह अपने को न पा लेगा, तब तक कितना ही भटके, कितनी ही यात्रा करे; यात्रा का कोई अंत नहीं है। यात्रा मिटती है अपने को पाकर। स्वयं में होकर ही यात्रा समाप्त होती है। जो स्वयं में पूरी तरह हो गया, वही सिद्ध है।
महावीर इस सिद्धयोग के लिए ही इन सारे सूत्रों को दिए हैं। क्षण भर को आप भी सिद्ध होने का रस ले सकते हैं। क्षण भर को भी रस मिल जाए, तो आपकी खोज शुरू हो जाए। क्षण भर को भी आपका मन न दौड़ता हो, तो एक क्षण को झलक मिलती है सिद्ध होने की। एक क्षण को पता लगता है उसका कि क्या होता होगा सिद्ध को! पर वह आनंद भी अपरिसीम है। एक क्षण को भी झलक, एक बिजली कौंध जाए भीतर, तो भी आप शुरू हो गए, चल पड़े।
जिन्हें भी उस स्थान की तलाश हो, जिसके आगे कोई स्थान नहीं है और जिन्हें भी वह धन पाना हो, जो छीना नहीं जा सकता, जो नष्ट नहीं होता, जो खोया नहीं जा सकता; जिन्हें भी वह पद पाना हो, जिस पद के बिना आप हमेशा दीन-हीन मालूम पड़ेंगे--चाहे कुछ भी पा लें, आपकी दीन-हीनता चाहे कितने ही सम्राट के वस्त्रों में छिप जाए, दीन-हीनता ही रहेगी--जिस पद को पाकर सारी दीनता मिट जाती है और वस्तुतः व्यक्ति सम्राट होता है...!
स्वामी राम अपने को बादशाह कहते थे। जब वे अमरीका गए तो लोगों को बड़ी परेशानी होती थी। क्योंकि वे हमेशा अपने को कहते थे ‘राम बादशाह।’ उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम है: ‘राम बादशाह के छह हुक्मनामे। सिक्स आर्डर्स फ्रॉम एम्परर राम।’ अमरीका का प्रेसिडेंट उनसे मिलने आया था, वह जरा बेचैन हुआ। और उसने कहा कि और सब तो ठीक है, लेकिन आप बिलकुल फकीर हैं, और अपने को बादशाह क्यों कहते हैं?
राम ने कहा: मैं इसीलिए बादशाह कहता हूं कि मुझे पाने को अब कुछ भी नहीं बचा है। जिसको पाने को कुछ बचा है, वह भिखारी है, अभी वह मांगेगा। जिसको पाने को कुछ नहीं बचा, वह सम्राट है। मुझे पाने को कुछ भी नहीं बचा है। मैं सम्राट इसलिए अपने को कहता हूं कि अब इस जगत में कुछ भी नहीं है, जो मेरी वासना का आकर्षण बन जाए। अब मैं मालिक हूं! मेरे पास कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं हूं! यही मेरी मालकियत है, यही मेरा जिनत्व है।
महावीर कहते हैं, हर व्यक्ति जिनत्व को, सिद्धत्व को खोज रहा है। जैसे हर सरिता सागर को खोज रही है, ऐसे हर चेतना, हर आत्मा सिद्धत्व को खोज रही है। दिशाएं भटक जाएं, मार्ग भूल-चूक से भरे हों, लेकिन खोज वही है। धन में भी हम वही खोज रहे हैं; पद में भी वही खोज रहे हैं; संसार में भी वही खोज रहे हैं; प्रेम में भी वही खोज रहे हैं। हम खोज रहे हैं कुछ और, पर जहां खोज रहे हैं, वहां वह मिलता नहीं, इसलिए हम पीड़ित हैं; इसलिए हम दुखी हैं।
जिस दिन हमें ठीक दिशा का बोध हो जाए और जिस दिन हम भीतर की तरफ चल पड़ें, और थोड़ी सी भी भनक पड़ने लगे कानों में सिद्धावस्था की, थोड़ा सा भी स्वर गूंजने लगे उस अनंत संगीत का, थोड़ी सी सुगंध आने लगे, थोड़ा सा प्रकाश स्पर्श करने लगे, फिर इस संसार का कोई मूल्य नहीं है।
जरा सा संस्पर्श, फिर जादू की तरह खींचने लगता है। एक बार व्यक्ति भीतर की तरफ मुड़ा कि खींच लिया जाता है। फिर केंद्र खुद ही खींच लेता है। लेकिन उस मुड़ने के लिए ध्यान के क्षण चाहिए। थोड़ी देर के लिए संसार से अपने को बंद करके भीतर की तरफ खुला छोड़ देना जरूरी है ताकि मौका मिले कि भीतर का चुंबक आपको खींच सके। थोड़ी देर के लिए भीतर के लिए अवेलेबल, उपलब्ध होना चाहिए--कि आप खुले हैं और राजी हैं।
चौबीस घंटे में एक घंटा निकाल लें। उस एक घंटे में कुछ भी न करें, आंख बंद करके बैठ जाएं और भीतर के अंधेरे से राजी हों। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे प्रकाश आना शुरू होगा। और धीरे-धीरे प्रतिक्रमण शुरू होगा; चेतना भीतर मुड़ने लगेगी। बाहर कोई मार्ग न पाकर भीतर की तरफ मुड़ना अनिवार्य हो जाएगा। और एक किरण आपको मिल जाए, सिद्ध होने की एक झलक, फिर आपको कोई रोक न सकेगा। फिर कितने ही संसार चारों तरफ खड़े आपको बुलाते रहें, निर्मूल्य हैं। सब स्वप्न हो गया! जैसे नींद जिसकी टूट जाए, फिर स्वप्न कितना ही मधुर क्यों न रहा हो, वापस नहीं बुला सकता। ऐसे ही, जिसकी तंद्रा में एक किरण सिद्धावस्था की उतर आए, फिर संसार व्यर्थ है। फिर उसे नहीं बुला सकता।
ऐसी ही चेतना का नाम संन्यस्त चेतना है। संन्यास प्रारंभ है, सिद्ध होना अंत है।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें...!
जया सव्वत्तणं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ।
तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली।।
जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली।
तया जोगे निरुंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ।।
जया जोगे निरुंभित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ।
तया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ।।
जया कम्मं खवित्ताणं सिद्धिं गच्छइ नीरओ।
तया लोगमत्थयत्थो सिद्धो हवइ सासओ।।
जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब जिन तथा केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता है।
जब केवलज्ञानी जिन लोक-अलोकरूप समस्त संसार को जान लेता है, तब (आयु समाप्ति पर) मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध कर शैलेशी (अचल-अकंप) अवस्था को प्राप्त होता है।
जब मन, वचन और शरीर के योगों का निरोध कर आत्मा शैलेशी अवस्था पाती है, पूर्ण रूप से स्पंदन-रहित हो जाती है, तब सब कर्मों का क्षयकर सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होती है।
जब आत्मा सब कर्मों का क्षयकर सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि को पा लेती है, तब लोक के मस्तक पर, ऊपर के अग्रभाग पर स्थित होकर सदा काल के लिए सिद्ध हो जाती है।
मन एकमात्र बीमारी है। मन को स्वस्थ करने का कोई भी उपाय नहीं है; मन को शून्य करने का जरूर उपाय है। बीमारी मिट सकती है; बीमारी स्वस्थ नहीं हो सकती। साधारणतः लोग कहते हैं, उनका मन अशांत है, बेचैन है, परेशान है; तो पूछते हैं: कैसे मन को शांत करें?
मन कभी भी शांत नहीं होता। मन के शांत होने का कोई उपाय नहीं है। अशांत होना मन का स्वभाव है। ठीक से समझें तो अशांति ही मन है। मन से मुक्त हुआ जा सकता है। मन के पार हुआ जा सकता है। मन को छोड़ा जा सकता है। मन को शांत नहीं किया जा सकता। मन के शांत होने का एक ही अर्थ है, जहां मन न रह जाए।
इसका यह अर्थ हुआ: शांति और मन का कोई संबंध कभी भी नहीं हो पाता। जब तक मन है, तब तक शांति नहीं और जब शांति होती है, तब मन नहीं होता। मन को मिटाना, मन से मुक्त होना, मन के पार होना समस्त साधना का आधारभूत सूत्र है। तो मन को हम ठीक से समझ लें तो महावीर के इन अंतिम सूत्रों में प्रवेश हो जाए।
मन है क्या?
क्योंकि बीमारी ठीक से न समझी जा सके, निदान न हो पाए, डाइग्नोसिस न हो, तो उपचार नहीं हो सकेगा। निदान आधे से ज्यादा उपचार है। और बिना निदान किए जो उपचार में लग जाए, हो सकता है बीमारी को और बढ़ा ले; नई बीमारियों को निमंत्रण दे दे।
अधिक लोग मन को बिना समझे उपचार करने में लग जाते हैं। ऐसे लोग या तो मन को दबाने लगते हैं या ऐसे लोग मन को मूर्च्छित करने लगते हैं।
मन को दबाना हम सभी जानते हैं। क्रोध आ जाए तो उसे कैसे पी जाना, उसे कैसे गटक जाना गले के नीचे, हम सभी जानते हैं। क्योंकि जिंदगी में सभी मौकों पर क्रोध नहीं किया जा सकता। वासना मन में उठे, तो कैसे उसे पीते रहना, दबाते रहना, वह हम सभी जानते हैं। क्योंकि हर क्षण वासना को पूरा करने का उपाय नहीं है।
तो मन को हम सभी दबाते हैं। लेकिन इस दबाने से कोई कभी मुक्त होता है? ये दबी हुई जो वृत्तियां हैं, ये धक्का मारती रहती हैं; ये भीतर चोट करती रहती हैं और अवसर की तलाश करती हैं। जब भी कमजोर क्षण मिल जाएगा, ये प्रकट हो जाएंगी। ये इकट्ठी होती रहती हैं।
और मनस्विद कहते हैं कि जो आदमी बहुत ज्यादा क्रोध को दबाता रहता है, वह एक न एक दिन क्रोध के भयानक भूकंप से भर जाता है। जो लोग रोज-रोज क्रोध करते रहते हैं, छोटी-छोटी बातों में क्रोध करते रहते हैं, ऐसे लोग बड़े अपराध नहीं कर पाते। ऐसे लोग हत्या नहीं कर सकते, क्योंकि हत्या करने के लिए जितना क्रोध इकट्ठा होना चाहिए, उतना उनके पास कभी इकट्ठा ही नहीं होता। इसलिए अक्सर जो लोग छोटी-छोटी बातों में क्रोध कर लेते हैं, बुरे लोग नहीं होते। और जो आदमी दबाए चला जाता है, वर्षों तक दबाता रहता है, उसके भीतर ज्वालामुखी इकट्ठा हो जाता है। जब भी इसका विस्फोट होगा, तब यह छोटी-मोटी घटना होने वाली नहीं है। यह कोई महा-उपद्रव करेगा।
तो जिनको आप साधारणतः शांत समझते हैं, वे भयंकर अशांति के जन्मदाता हो सकते हैं। तो जो आदमी कभी-कभी क्रोध करता है, उसके क्रोध से जरा सावधान रहना। जो अक्सर करता है, उसके क्रोध का कोई मतलब नहीं है--हवा आई और गई।
छोटे बच्चे बड़े अपराध नहीं कर सकते। और उसका कारण यह है कि वे छोटा-छोटा क्रोध करके दिन भर निकाल लेते हैं। इसलिए छोटे बच्चे क्षण भर में क्रोध करेंगे, क्षण भर बाद बिलकुल शांत हो जाएंगे--जैसे तूफान कभी आया ही न हो। भरोसा ही न आएगा कि इस बच्चे ने थोड़ी देर पहले एक भयंकर क्रोध किया था। वह मुस्कुरा रहा है, नाच रहा है, प्रसन्न है। बच्चे से बड़े अपराध की संभावना नहीं है।
जो लोग अपने जीवन को सहज प्रकट करते रहते हैं, ये कोई महात्मा तो नहीं हो सकते, लेकिन ये महा अपराधी भी नहीं हो सकते। इनके महा अपराधी होने का कोई उपाय नहीं है।
दमन से महा अपराध पैदा होता है। अपराध से बचना हो जाता है, महा अपराध पैदा हो जाता है; क्योंकि ऊर्जा का एक नियम है कि आप उसे इकट्ठी करके रख नहीं सकते--उबल जाएगी, ओवरफ्लो हो जाएगी। एक सीमा है जब तक आप सम्हाल सकेंगे, और फिर सम्हालने के बाहर हो जाएगी। अगर आपने इतना सम्हाला, इतना सम्हाला कि उस सीमा पर बात आ गई कि जहां अगर आपके भीतर इकट्ठी शक्ति प्रकट होगी, और अगर वह आपके विपरीत प्रकट होगी तो आप विक्षिप्त भी हो सकते हैं।
मनस्विद कहते हैं कि पागल आदमी वही है, जिसने बहुत दबाया है। दबाना इतना ज्यादा हो गया है कि अब होश में उसे निकालने का कोई उपाय न रहा, तो उसने होश भी खो दिया है। अब वह बेहोशी में निकाल रहा है। पागलखानों में जो लोग बंद हैं, वे दमित स्थिति के आखिरी परिणाम हैं।
तो आप दमन कर-कर के विक्षिप्त हो सकते हैं, विमुक्त कभी नहीं हो सकते। विमुक्त होना हो, तो दबाना कोई रास्ता नहीं है। और जिसे हम दबाते हैं, हम उससे और ज्यादा बुरी तरह ग्रसित हो जाते हैं। उसकी जकड़ हम पर बढ़ जाती है।
तो दबाने से तो कोई कभी पहुंचता नहीं, पर मन को बिना समझे बहुत लोग दबाने की कोशिश में लग जाते हैं। वह सरल दिखता है, सुगम दिखता है, तात्कालिक परिणामकारी दिखता है--लेकिन लंबे अरसे में भयानक है, खतरनाक है।
दूसरा, कुछ लोग मन को मूर्च्छित करने में लग जाते हैं। उन्हें लगता है, अगर मन मूर्च्छित हो जाए, तो न पता चलेगा, न मन की उद्विग्नता, पीड़ा सताएगी।
मूर्च्छा के कई उपाय हैं। शराब कोई पी ले तो सीधा उपाय है--केमिकल्स, शरीर के रासायनिक तत्वों को मूर्च्छित कर देने से, मस्तिष्क भी शरीर का हिस्सा है, वह भी मूर्च्छित हो जाता है। मूर्च्छित हो जाने से फिर कुछ दुख, पीड़ा, तनाव, परेशानी, चिंता, संताप--कुछ भी पता नहीं चलता। लेकिन जो मूर्च्छित हो गया है, वह मिट नहीं जाता है। होश आएगा, सारी बीमारियां फिर खड़ी हो जाएंगी।
सारे धर्मों ने शराब का विरोध किया है--इसलिए नहीं कि शराब में कोई अपने आप में बुराई है। सारे धर्मों ने विरोध किया है, क्योंकि धर्म जिस बीमारी को मिटाना चाहते हैं, शराब उसे केवल भुलाती है। भुलाने से कोई चीज मिटती नहीं।
शराब में अपने आप में कोई बुराई नहीं है। बुराई है इसमें कि जो बीमारी मिट सकती थी, उसे हम भुला कर स्थगित कर रहे हैं, टाल रहे हैं। वह जीवन में और गहरी होती चली जाएगी। और एक ऐसी घड़ी आ जाएगी कि हम इतने कमजोर हो जाएंगे बेहोश होते-होते कि बीमारी हमसे सबल होगी और मिटाने का कोई उपाय न रह जाएगा।
लेकिन शराब अगर अकेली मूर्च्छा की बात होती तो भी ठीक था, बहुत सी अच्छी शराबें हैं। धार्मिक शराबें भी हैं, जिनमें पता ही नहीं चलता कि हम अपने को भुला रहे हैं। एक आदमी बैठा है और राम-राम, राम-राम, राम-राम जप रहा है। आपको पता नहीं होगा कि एक ही शब्द को बार-बार दोहराने से मस्तिष्क में रासायनिक परिवर्तन होते हैं, जो मूर्च्छा ले आते हैं। एक ही शब्द की ध्वनि बार-बार चोट करती रहे तो ऊब पैदा करती है, उदासी पैदा करती है, तंद्रा पैदा करती है, नींद पैदा हो जाती है।
तो एक आदमी सुबह से बैठ कर एक घंटा अगर राम-राम या ओंकार, या नमोकार करता रहे--एक ही शब्द को दोहराता रहे--तो उस पुनरुक्ति के कारण मूर्च्छा पैदा हो जाती है। उस मूर्च्छा में और शराब की मूर्च्छा में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। यह ध्वनि के माध्यम से मस्तिष्क को सुलाना है।
छोटे-छोटे बच्चे को मां यही करती है, लोरी सुना देती है: राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। थोड़ी देर में राजा बेटा सो जाता है। मां समझती है कि उसके संगीत के कारण सो रहा है, तो गलती में है--राजा बेटा सिर्फ ऊब रहा है। बार-बार कहे जा रहे हो, राजा बेटा सो जा--इतनी ऊब पैदा हो जाती है कि इस ऊब से बचने का एक ही उपाय रहता है कि वह नींद में खो जाए।
इसको आप ठीक से समझ लें।
ऊब पैदा हो जाती है, तो ऊब से बच्चा भाग भी तो नहीं सकता। मां को छोड़ कर कहां भागे--बिस्तर पर उसको पकड़े बैठी हुई है। उसको छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकता। जाने का कोई उपाय नहीं है। एक ही भीतरी उपाय है कि नींद में डूब जाए, तो इस उपद्रव से छुटकारा हो।
लेकिन जो लोरी का सूत्र है, वही जिनको हम मंत्र कहते हैं, उनका सूत्र है। छोटे बच्चे को मां कह रही है: राजा बेटा सो जा। जरा बच्चा बड़ा हो गया है, वह खुद ही राम-राम, राम-राम, राम-राम जप रहा है। उसका खुद चित्त ऊब जाता है। ऊब से झपकी लग जाती है। नींद में डूब जाता है। यह झपकी थोड़ा फायदा भी कर सकती है, जैसा नींद करती है--स्वस्थ करेगी; थोड़ा ताजा करेगी।
आज पश्र्चिम में महर्षि महेश योगी के ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन का जोर से प्रचार है। लोरी से ज्यादा नहीं है वह। जो भी किया जा रहा है, वह सिर्फ इतना है कि एक शब्द दिया जा रहा है, एक मंत्र दिया जा रहा है--इसे दोहराए चले जाओ। इस दोहराने से तंद्रा पैदा होती है।
पूरब में इतना प्रभाव नहीं पड़ रहा है। भारत में कोई प्रभाव नहीं है, अमरीका में बहुत प्रभाव है, कारण? अमरीका में नींद खो गई है, भारत में लोग अभी भी सो रहे हैं।
अमरीका में नींद सबसे बड़ा सवाल हो गया है। बिना ट्रैंक्वेलाइजर के सोना मुश्किल है। फिर धीरे-धीरे ट्रैंक्वेलाइजर का भी शरीर आदी हो जाता है। फिर उनसे भी सोना मुश्किल है। और नींद इतनी ज्यादा व्याघात से भर गई है कि ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, भावातीत-ध्यान जैसे प्रयोग फायदा पहुंचा सकते हैं, और नींद आ सकती है।
लेकिन नींद ध्यान नहीं है, नींद मूर्च्छा है। इसके अच्छे परिणाम भी हो सकते हैं। नींद स्वास्थ्यकृत है, स्वास्थ्य को देगी, थोड़ा सुख भी देगी। नींद के बाद थोड़ा हलकापन भी लगेगा। और सच्चाई तो यह है कि साधारण नींद से मंत्र के द्वारा जो नींद आती है, वह ज्यादा गहरी होती है। क्योंकि मंत्र के द्वारा जो नींद आती है, वह हिप्नोसिस है, वह सम्मोहन है। हिप्नोसिस शब्द का अर्थ भी निद्रा ही होता है--चेष्टा से पैदा की गई निद्रा; कोशिश से लाई गई निद्रा; और मन के तंतुओं को शिथिल करके लाई गई निद्रा।
आपको जब रात नींद आती, तो कारण आप जानते हैं क्या होता है? कारण यह होता है कि मन के तंतु खिंचे होते हैं, विचार में लगे होते हैं। इतने विचार में लगे होते हैं कि खून दौड़ता ही चला जाता है। उस खून के दौड़ने के कारण नींद मुश्किल हो जाती है। इसलिए बिना तकिए के आप सोएं तो नींद नहीं आती, क्योंकि खून सिर की तरफ दौड़ता रहता है। तकिया आप रख लें तो खून सिर की तरफ नहीं दौड़ता, नहीं दौड़ने के कारण जल्दी नींद आ जाती है।
इसलिए जैसे-जैसे लोग बौद्धिक होते जाते हैं, वैसे-वैसे तकियों की संख्या बढ़ती जाती है। जंगली आदमी बिना तकिए के सो सकता है। जानवरों को तकिए की कोई फिकर ही नहीं है। जंगली आदमी सोच भी नहीं सकता कि तकिए की क्या जरूरत है। बड़ी गहरी नींद सोता है। असल में विचार न होने से खून की गति मस्तिष्क में वैसे ही कम होती है। लेकिन आपके मन में इतने विचार चल रहे होते हैं, कि जब तक विचार चल रहे होते हैं, तब तक खून दौड़ता रहता है। क्योंकि बिना खून दौड़े विचार नहीं चल सकते।
तो मंत्र के द्वारा ये विचार बंद हो जाते हैं। और मंत्र पुनरुक्ति है एक शब्द की। एक शब्द के दोहराने से मन के तंतु शिथिल होने लगते हैं। शिथिल होकर निद्रा आ जाती है। अगर आपको कोई भी एक मोनोटोनस वातावरण दिया जाए, वह नींद के लिए अच्छा होता हैं। ...मोनोटोनस चाहिए।
आपका सोने का जो कमरा है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बहुत से रंगों से उसको नहीं रंगना चाहिए। क्योंकि बहुत रंग मन को उत्तेजित करते हैं। एक रंग होना चाहिए--और वह भी मोनोटोनस, जिससे ऊब आए, उदासी आए, तंद्रा मालूम पड़े। कमरे में ज्यादा चीजें नहीं होनी चाहिए।
और हर आदमी के सोने का रिचुअल होता है। वह उसी को रोज दोहराता है। जैसे छोटे बच्चे हैं--कोई छोटा बच्चा अपनी गुड्डी को हाथ में पकड़ कर सो जाता है; कोई छोटा बच्चा अपने अंगूठे को मुंह में ले लेता है। वह मोनोटोनस हो गया है। रोज वही कर रहा है। अगर आप उसका अंगूठा उसके मुंह से निकाल लें, तो उसकी नींद तोड़ देंगे। वह जैसे ही अंगूठा मुंह में डालता है, अंगूठा मंत्र हो जाता है। वह ऊब हो गई। वही पुराना अंगूठा रोज-रोज, रोज-रोज--वह सो जाता है।
ऐसा मत सोचना कि छोटे बच्चे ही ऐसा करते हैं। आपका भी क्रियाकांड है। हर आदमी का क्रियाकांड है। सोते वक्त वह वही क्रियाकांड करेगा, उसके बाद नींद आ जाएगी। नींद आ जाएगी, अगर आपने वही क्रियाकांड किया।
इसलिए नये कमरे में नींद नहीं आती, क्योंकि मोनोटोनी टूट जाती है। नये मकान में नींद नहीं आती। नया आदमी कमरे में सो रहा हो, तो जरा अड़चन होती है। वही पत्नी सो रही हो, वही पति सो रहा हो, वही घुर्राटा चल रहा हो सदा का--ऊब पैदा होनी चाहिए, नींद का सूत्र है। जरा भी नई चीज अड़चन पैदा करती है।
तो मन को कुछ लोग उबा कर मूर्च्छित कर लेते हैं। ऐसे लोग, महावीर जिसको सिद्धावस्था कह रहे हैं, उस तक कभी भी नहीं पहुंच सकते। ये दो ढंग हैं। दबाने वाला विक्षिप्त हो जाता है, सुलाने वाला धीरे-धीरे सुस्त हो जाता है। वह शांत भला दिखाई पड़ने लगे, लेकिन उसकी शांति मुर्दगी है, मरे हुए आदमी की शांति है, मरघट की शांति है। वह कोई जीवंत शांति नहीं है, जहां भीतर जीवन प्रवाह ले रहा है और अशांति न हो।
इन दो बातों से बचना जरूरी है। लेकिन वही बच सकता है, जो मन का स्वभाव समझ ले।
मन का स्वभाव क्या है?
मन है विचार की प्रक्रिया। मन कोई यंत्र नहीं है। मन कोई वस्तु नहीं है। मन एक प्रवाह है। मन को अगर हम ठीक से समझें तो मन कहना ठीक नहीं--मनन, चिंतन, विचारों की धारा, नदी। ये विचार बहे चले जाते हैं। और जब तक ये बहते रहते हैं, तब तक आप शांत नहीं हो सकते। क्योंकि हर विचार आपको आंदोलित कर जाता है; हर विचार आपको हिला जाता है।
कंपित होना संसार में होना है, महावीर के हिसाब से, अकंप हो जाना संसार के बाहर हो जाना है। और हम प्रतिक्षण इसी कोशिश में लगे हैं कि थोड़ा सा कंपन मिले। उसे हम सेंसेशन कहते हैं।
थ्रिल... हमारी पूरी कोशिश यह है कि जिंदगी ऊब न जाए, तो कुछ नया हो जाए। एक नया वस्त्र भी आप ले आते हैं, तो थोड़ी जिंदगी में रौनक मालूम पड़ती है। एक नई चीज खरीद लाते हैं। तो लोग पागल हो गए हैं खरीदने में। बिना किसी फिकर के चीजें खरीदते चले जाते हैं। क्योंकि हर नई चीज थोड़ी सी थ्रिल देती है। थोड़ी सा ऐसा लगता है, जिंदगी आई। क्योंकि थोड़ी सी ऊब टूटती है, बोर्डम टूटती है। मन की पूरी कोशिश यह है कि आप नया-नया खोजते रहें रोज।
यह जान कर आप हैरान होंगे कि पूरब के मनीषियों ने पुराने दिनों में इस बात की फिकर की थी कि समाज बहुत न बदले, चीजें बहुत नई न हों, घटनाओं में बहुत नयापन न हो ताकि मन को तरंगित होने का कम से कम उपाय हो। वह जो पूरब का समाज स्टैटिक था, स्थिर था, उसके पीछे मनीषियों का हाथ था। आज पश्र्चिम में ठीक उससे उलटी हालत हो गई है। हर चीज नई हो, हर दिन नई हो। दूसरे दिन पुरानी चीज ऊब देने लगती है। सब-कुछ नया होता चला जाए।
अमरीका के आंकड़े मैं पढ़ता था। कोई भी आदमी एक मकान में तीन साल से ज्यादा नहीं रहता। यह औसत है। हर आदमी तीन साल के भीतर तो मकान बदल ही लेता है। कार तो आदमी हर साल बदल लेता है। तलाक की संख्या पचास प्रतिशत को पार कर गई है। सौ विवाह होते हैं, तो पचास तलाक हो जाते हैं। इस सदी के पूरे होते-होते जितने विवाह होंगे, उतने ही तलाक होंगे। ये तलाक और विवाह भी मौलिक रूप से नये की खोज हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में एक चर्च था। और चर्च का पादरी कभी-कभी नसरुद्दीन को शिक्षण दिया करता था। देखता था उसका जीवन, तो कभी-कभी समझाता था। एक दिन नसरुद्दीन ने उससे कहा कि आप ठीक ही कहते हैं, मैंने अब पक्का कर लिया है कि आज जाकर मैं अपनी पत्नी से क्षमा मांग लूंगा, और अब किसी स्त्री की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखूंगा! बहुत हो गया। और आप ठीक ही कहते थे, लेकिन मैं माना नहीं। यह मन की दौड़ थी, वासना थी, चलती रही। लेकिन अब उम्र भी हो गई। तो आज जाकर पत्नी से क्षमा मांग लेता हूं। सब कनफेशन कर लूंगा कि मैं उसे धोखा दे रहा हूं।
दूसरे दिन सुबह पादरी प्रतीक्षा करता रहा कि कब नसरुद्दीन घर से निकले। नसरुद्दीन बड़ी शान से, बड़ी ताजगी से जोर से कदम रखता हुआ चर्च के पास से निकला। बड़ा प्रसन्न था। तो पादरी ने कहा: मालूम होता है, नसरुद्दीन, पत्नी ने तुम्हें क्षमा कर दिया!
नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, पत्नी ने क्षमा तो नहीं किया, लेकिन अभी बात न करो। दो-चार दिन बाद...!
पादरी ने कहा: लेकिन ऐसा क्या मामला हुआ है? प्रसन्न तुम बहुत दिखते हो?
नसरुद्दीन ने कहा: मैंने अपनी पत्नी को कहा कि मैं तुझे धोखा दे रहा हूं। एक दूसरी स्त्री से मेरा संबंध है। तो वह बड़ी बेचैन हो गई और कहने लगी, उसका नाम बताओ। तो नाम बताना तो उचित नहीं था, क्योंकि उस दूसरी स्त्री की इज्जत का भी सवाल है; उसके पति का भी सवाल है; उसके बच्चों का भी सवाल है। तो मैंने कहा कि नाम तो मैं नहीं बता सकूंगा, माफी मांगता हूं, क्षमा कर दे। तो पत्नी नाराज हो गई। उसने कहा कि जब तक तुम नाम नहीं बताओगे, मैं क्षमा न करूंगी। और फिर कहने लगी, अच्छा, अगर तुम नहीं बताते तो मैं खुद ही खयाल कर लेती हूं। तुम पादरी की पत्नी के प्रेम में तो नहीं हो? और जब मैं चुप रहा तो उसने कहा कि नहीं-नहीं, पादरी की बहिन! और जब मैं फिर भी चुप रहा तो उसने कहा कि नहीं-नहीं, अब तो पक्का है कि तुम पादरी की लड़की से!
मैं चुप ही रहा।
तो पादरी ने कहा: लेकिन इससे तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?
तो नसरुद्दीन ने कहा कि और तो कुछ हल न हुआ, बट शी हैव गिवेन मी थ्री न्यू कांटेक्ट्स। और अभी अब बीच में पड़ो मत!
मन फिर गतिमान हो गया। अब तीन नये पते उसने और बता दिए। इन तीन स्त्रियों का खयाल ही नहीं था नसरुद्दीन को।
कई बार आप संयम के करीब पहुंचने लगते हैं और फिर कोई तरंग हिला जाती है। आप सोचते हैं, संयम की इतनी जल्दी भी क्या है, कुछ देर और रुका जा सकता है। और अक्सर लोग मरते क्षण तक संयम नहीं साध पाते। आखिरी क्षण तक भी जीवन हिलाता ही रहता है।
महवीर कहते हैं: जिसे बाहर की स्थितियां कंपित कर देती हैं, आंदोलित कर देती हैं--आंदोलन का अर्थ है, जो बाहर जाने को उत्सुक हो जाता है, वह आदमी संसार में है। वह चेतना कभी भी सिद्ध नहीं हो सकती।
महावीर का शब्द है: ‘शैलेशी अवस्था’, हिमालय की तरह थिर। जहां कोई कंपन न हो। हिंदुओं ने शिव का घर कैलाश पर बनाया है सिर्फ इसी कारण। कोई कैलाश पर ढूंढने से शिव मिलेंगे नहीं। और अब तो करीब-करीब सारा हिमालय खोज डाला गया है। और कुछ बचा होगा तो चीनी छोड़ेंगे नहीं। वे खोजे ले रहे हैं। और शिव अगर मिलते होते, तो आपको ही मिलते, चीनियों को तो कभी मिल ही नहीं सकते।
शिव वहां हैं भी नहीं, सिर्फ प्रतीक है, कि शिवत्व की जो आखिरी अवस्था है, वह कैलाश जैसी थिर होगी। इसलिए महावीर ने शैलेशी अवस्था कहा है उसे। शैलेश जैसी, हिमालय जैसी थिर। जहां कोई कंपन नहीं है।
लेकिन अगर वैज्ञानिकों से पूछें तो वे कहेंगे कि यह शब्द ठीक नहीं है, क्योंकि हिमालय कंप रहा है। सच तो यह है कि हिमालय से ज्यादा कंपने वाला कोई पहाड़ ही दुनिया में नहीं है। विंध्याचल है, सतपुड़ा है--ये ठहरे हुए हैं। आलपस--ये सब ठहरे हुए हैं, कंप नहीं रहे हैं; हिमालय कंप रहा है--उसका कारण है--क्योंकि हिमालय जवान है। विंध्या और सतपुड़ा बूढ़े हैं।
भू-तत्वविद कहते हैं कि विंध्याचल जगत का सबसे पुराना पर्वत है, सबसे बूढ़ा पर्वत है। हमारी भी कहानियां कहती हैं कि ऋषि अगस्त्य जब दक्षिण गए, तो वे विंध्या से कह गए कि मैं जब तक लौट न आऊं, तुम झुके रहना, क्योंकि मैं बूढ़ा आदमी हूं और मुझे चढ़ने में बड़ी तकलीफ होती है।
उनके लिए ही वह झुका था। लेकिन फिर वे लौटे नहीं, उनकी मृत्यु हो गई दक्षिण में। तब से वह झुका है। कहानी बड़ी मीठी है। वह यह कहती है कि बूढ़ा पहाड़ है, गर्दन झुक गई है, कमर झुक गई है।
विंध्या सबसे पुराना पहाड़ है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है। वह बढ़ नहीं रहा है; घट रहा है। हिमालय रोज बढ़ रहा है। उसकी ऊंचाई रोज बढ़ती जाती है। उसमें रोज कंपन है। वह अभी जवान है।
जितना जवान चित्त होगा, उतना कंपित होगा। अगर चित्त कंपित ही होता रहता है, तो आपका वार्धक्य शरीर का है--लेकिन चित्त के अर्थों में अभी आप जवान की वासना से भरे हैं। लेकिन महावीर का प्रयोजन है--महावीर को खयाल भी नहीं होगा कि हिमालय कंप रहा है। उस समय तक इस बात का कोई उदघाटन नहीं हुआ था कि हिमालय कंपित हो रहा है और बढ़ता जा रहा है।
रोज कुछ इंच हिमालय ऊपर उठ रहा है जमीन से। अभी जवान है, अभी वह वयस्क नहीं हुआ। अभी बाढ़ रुकी नहीं है। लेकिन महावीर का प्रयोजन साफ है, क्योंकि हिमालय जैसी थिर और कोई चीज जगत में मालूम नहीं पड़ती। ऊपर से देखने पर तो कम से कम हिमालय बिलकुल थिर मालूम होता है।
सब बदल जाता है, हिमालय बदलता हुआ नहीं मालूम होता--इस अर्थ में प्रतीक है। ऐसी चित्त की अवस्था हो जाए, जहां कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई कंपन नहीं होता, कोई बढ़ती नहीं, कोई गिरती नहीं। सब ठहर जाता है; जैसे कोई झील बिलकुल निस्तरंग हो जाए; शून्य आकाश हो, जहां बादल का एक टुकड़ा भी न तैरता हो; हवा का एक झोंका भी न आता हो--ऐसी अवस्था में चित्त तो नहीं रह जाता, मन नहीं रह जाता। ऐसी अवस्था में सिर्फ आत्मा रह जाती है।
तो हम ऐसी व्याख्या कर सकते हैं कि जब तक आत्मा कंपती है, उस कंपन का नाम मन है। मन कोई वस्तु नहीं है, मन सिर्फ कंपती हुई आत्मा का नाम है। और जब आत्मा नहीं कंपती, और ठहर जाती है, स्वस्थ हो जाती है, स्वयं में रुक जाती है, शैलेशी बन जाती है, तब मन नहीं रह जाता। जब मन नहीं रह जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वहां कोई कंपन नहीं है।
इस अवस्था को पाने के लिए जरूरी होगा कि हम नई की जो विक्षिप्त तलाश करते हैं, वह न करें। और मन जब मांग करता है नई उत्तेजनाओं की, तब हम सावधान रहें। और जब मन कहता है, खोजो नये को, तो हम समझें कि मन क्या मांग रहा है। मन मांग रहा है कि मुझे नया ईधन दो, ताकि मैं कंपता रहूं।
पुराने से मन बड़े जल्दी ऊब जाता है--नये से भी ऊब जाएगा। आज नया है, कल पुराना हो जाएगा। मन की वृत्ति को जो निरंतर भरता रहे नये से, बिना यह समझे कि मन सिर्फ कंपने की कोशिश कर रहा है, नये कंपन तलाश कर रहा है--वह आदमी कभी भी समाधि को उपलब्ध नहीं होगा।
और ऐसी अवस्था में हम सदा ही दूसरे पर भटकते रहते हैं। दूसरा ही उत्तेजना दे सकता है। उत्तेजना सदा बाहर से आती है। बाहर से शांति के आने का कोई उपाय नहीं है। शांति सदा भीतर जन्मती है, उत्तेजना सदा बाहर से आती है। अशांति बाहर से आती है, शांति भीतर से बहती है। और जब तक हम बाहर लगे हुए हैं...।
मुल्ला नसरुद्दीन युद्ध के दिनों में सेना में भर्ती हुआ था। उसका नया शिक्षण चल रहा था। और उसके कैप्टन ने एक दिन उससे पूछा कि नसरुद्दीन, जब तुम बंदूक साफ करते हो, तो सबसे पहले क्या करते हो? बंदूक साफ करने के पहले सबसे पहला काम क्या है?
नसरुद्दीन ने कहा: सबसे पहला काम, पहले मैं नंबर देखता हूं। उस कैप्टन ने कहा कि नंबर से सफाई का क्या संबंध? नसरुद्दीन ने कहा: जस्ट टु बी श्योर दैट दिस इ़ज माई ओन, आइ एम नॉट क्लीनिंग समबडी एल्स--यह पक्का करने के लिए कि बंदूक अपनी ही है, किसी और की बंदूक साफ नहीं कर रहे हैं।
यह जो नसरुद्दीन कह रहा है, बड़ी कीमत की बात कह रहा है। जिंदगी में करीब-करीब हम दूसरों की बंदूकें साफ करते रहते हैं, अपनी बंदूक तो गंदी ही रह जाती है। दूसरों की साफ करने के कारण फुर्सत ही नहीं मिलती कि अपने पर ध्यान चला जाए।
जो व्यक्ति भी उत्तेजनाओं में रसलीन है, वह दूसरों की बंदूकें साफ करने में जीवन बिता देता है। दूसरों को ठीक करने में, दूसरों को सुधारने में, दूसरों को सुंदर बनाने में, दूसरों को मित्र बनाने में, दूसरों को अपने निकट लाने में, दूसरों का भोग करने में--पर सारा जीवन दूसरे पर लगा रहता है। और दूसरे काफी हैं! दूसरों का कोई अंत नहीं है।
सार्त्र ने एक अदभुत बात कही है, कहा है कि ‘दि अदर इ़ज दि हेल।’ वह दूसरा नरक है। बात थोड़ी सही है। हम अपना नरक दूसरे के ही माध्यम से पैदा करते हैं। आप खुद अपने नरक को देखें। आदमी-आदमी का अपना-अपना नरक है। हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है। मुस्कुराहटें तो ऊपर हैं और धोखे की हैं, और चिपकाई गई हैं, पेंटेड हैं--भीतर नरक है। और हर आदमी अपने-अपने नरक में जी रहा है; लेकिन वह नरक आप अकेले पैदा नहीं कर सकते हैं; उसके लिए आपको दूसरों की जरूरत है। दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता।
थोड़ा सोचें, क्या आप अकेले नरक पैदा कर सकते हैं? दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता। लेकिन अगर यह सच है कि दूसरों के बिना नरक पैदा नहीं हो सकता, तो हम दूसरों के पीछे इतने पागल क्यों हैं?
क्योंकि यह आशा बंधी है कि दूसरों के बिना स्वर्ग भी पैदा नहीं हो सकता। दूसरे के द्वारा स्वर्ग पैदा हो सकता है, इसी कोशिश में तो हम नरक पैदा कर लेते हैं।
स्वर्ग का स्वप्न नरक को जन्म दे जाता है। सब नरकों के द्वार पर लिखा है, स्वर्ग। तो जिस दरवाजे पर आप स्वर्ग लिखा देखें, जरा सोच कर प्रवेश करना, क्योंकि नरक बनाने वाले काफी कुशल हैं। वे अपने दरवाजे पर नरक नहीं लिखते, फिर कोई प्रवेश ही नहीं करेगा। नरक के दरवाजे पर सदा स्वर्ग लिखा होता है--वह दरवाजे पर ही होता है। भीतर जाकर, जैसे-जैसे भीतर प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे नरक प्रकट होने लगता है।
दूसरे से जो स्वर्ग की आशा करता है, दूसरे के द्वारा उसका नरक निर्मित हो जाएगा। सार्त्र ठीक कहता है कि ‘दि अदर इ़ज दि हेल।’ पर सार्त्र ने कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया कि दूसरा नरक क्यों है।
वह दूसरे के कारण नरक नहीं है। दूसरे में स्वर्ग की वासना ही नरक का जन्म बनती है। तो बहुत गहरे में देखने पर मेरी वासना ही, कि दूसरे से मैं स्वर्ग बना लूं, नरक का कारण होती है। और जो व्यक्ति दूसरे में उलझा है, वह सदा कंपित रहेगा।
आपने कभी देखा कि आपके जितने कंपन हैं, वे दूसरे के संबंध में होते हैं? क्रोध के, प्रेम के, घृणा के, मोह के, लोभ के--सब दूसरे के संबंध में होते हैं। थोड़ी देर को सोचें कि आप इस पृथ्वी पर अकेले रह गए हैं, क्या आपके भीतर कोई कंपन रह जाएगा? सारा संसार अचानक खो गया, आप अकेले हैं, तो कोई कंपन नहीं रह जाएगा। क्योंकि कंपन के लिए दूसरे से संबंधित होना जरूरी है; दूसरे और मेरे बीच वासना का सेतु बनना जरूरी है, तब कंपन होगा।
आदमी जब गहन भीतर डूबता है आंख बंद करके, बाहर को भूल जाता है--तो वह ऐसे ही हो जाता है, जैसे पृथ्वी पर अकेला है; जैसे और कोई भी न रहा। सब होंगे--लेकिन जैसे नहीं रहे; मैं अकेला हो गया। इस अकेलेपन में शैलेशी अवस्था पैदा होती है। इस अकेलेपन में, इस नितांत भीतरी एकांत में, सब कंपन ठहर जाते हैं और अकंप का अनुभव होता है।
सूत्र महावीर का हम लें।
‘जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है साधक, तब जिन तथा केवली होकर लोक और अलोक को जान लेता है।’
‘जब केवलज्ञानी और जिन लोक-अलोकरूप समस्त संसार को जान लेता है, तब मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध हो जाता है और शैलेशी (अचल, अकंप) अवस्था प्राप्त होती है।’
महावीर ने पिछले सूत्र में कहा है कि जब अंतर-प्रकाश का उदय होता है, जब कोई जीवन-ऊर्जा पूरी तरह भीतर की तरफ मुड़ जाती है...।
इस भीतर की तरफ मुड़ जाने का नाम ही प्रतिक्रमण है। चेतना की दो अवस्थाएं हैं: एक आक्रमण, दूसरे की तरफ जाना; और एक प्रतिक्रमण, अपनी तरफ आना।
तो प्रतिक्रमण कोई क्रिया नहीं है कि आपने बैठ कर कर ली। प्रतिक्रमण चेतना का, ऊर्जा का अपनी तरफ लौटना है। यह बड़ी गहन घटना है।
लोग मुझे आकर कहते हैं कि आज प्रतिक्रमण करके आ रहे हैं। प्रतिक्रमण करके कहीं कोई आता है? प्रतिक्रमण का मतलब ही है कि बाहर आना नहीं, भीतर आना शुरू हुआ, भीतर जाना शुरू हुआ। प्रतिक्रमण ऊर्जा का भीतर की तरफ लौटना है। आपने देखे होंगे, अनेक इसोटेरिक, गुह्य समाजों ने सांप के प्रतीक को चुना है, जिसमें सांप अपनी पूंछ को पकड़े हुए है, वह सांप का अपनी पूंछ को पकड़ना प्रतिक्रमण है। जब चेतना अपने ही द्वारा अपने को पकड़ लेती है, और एक वर्तुल निर्मित हो जाता है, तब प्रतिक्रमण है।
जब तक मैं दूसरे की तरफ ध्यान दे रहा हूं, तब तक आक्रमण जारी है। और आक्रमण जब तक जारी है, तब तक मैं अपने को व्यर्थ कर रहा हूं; व्यर्थ खो रहा हूं--तब तक मैं नष्ट हो रहा हूं। क्योंकि जितनी ऊर्जा बाहर जा रही है, वह व्यर्थ जा रही है। जब तक भीतर जोड़ न हो जाए ऊर्जा का, जब तक अंतर्संभोग न हो जाए, जब तक मैं स्वयं से भीतर न मिल जाऊं, तब तक आनंद उपलब्ध नहीं होगा।
दूसरे से मिल कर जो थोड़ा-बहुत सुख उपलब्ध हो सकता है, वह केवल राहत है। वह शक्ति का क्षीण होना है। और जब भी शक्ति भारी हो जाती है, और दूसरे के माध्यम से बाहर निकल जाती है, तो हलकापन लगता है।
कभी-कभी, आपको खयाल होगा कि बुखार जब ठीक होता है, तो बड़ा हलकापन लगता है, जैसे उड़ सकते हैं। लेकिन वह हलकापन कमजोरी के कारण लगता है, शक्ति के कारण नहीं। शक्ति भीतर नहीं है, इसलिए बिलकुल हलके लगते हैं। बुखार के बाद बिलकुल हलकापन लगता है--जैसे सब शांत हो गया। दूसरे से मिल कर जिस ऊर्जा का हम व्यय करते हैं, वह बुखार वाला हलकापन है, जहां एक उत्तेजना आई और उत्तेजना विलीन हो गई।
अमरीका में मास्टर्स और जॉनसन ने संभोग के संबंध में बड़े वैज्ञानिक अध्ययन किए हैं। और पहला अध्ययन उनका यह है कि संभोग के क्षण में दो व्यक्ति, स्त्री-पुरुष, दोनों ही बुखार की अवस्था में आ जाते हैं, फीवरिश हो जाते हैं। दोनों का शरीर उत्तप्त हो जाता है, गर्मी बढ़ जाती है, टेम्प्रेचर ज्यादा हो जाता है, श्र्वास जोर से चलने लगती है। शरीर का रोआं-रोआं बेचैन और परेशान हो जाता है। कुछ ही क्षणों में दोनों ही उत्तप्त होकर जलने लगते हैं। और जब दोनों का स्खलन हो जाता है, तो इस बुखार से छुटकारा हो जाता है। वापस लौट आते हैं।
यह जो बुखार से छूट जाना है, इसमें राहत मिलती है, सुख नहीं मिल सकता। दूसरे से हमारा कोई भी संबंध ज्यादा से ज्यादा रिलीफ का हो सकता है। स्वयं से संबंध आनंद का हो सकता है।
महावीर इस स्वयं से संबंध को कहते हैं, प्रतिक्रमण। जब चेतना अपने पर लौट आती है। जैसे ही चेतना अपने पर लौटती है, वैसे ही कर्म-मल गिर जाते हैं। क्योंकि कर्म-मल हमने इकट्ठे ही किए थे दूसरे के लिए, दूसरे से संबंधित होने के लिए।
इसे हम थोड़ा समझें।
हम बोलते हैं; भाषा हम सीखते हैं। लेकिन भाषा हम सीखते हैं दूसरों के लिए। भाषा का कोई उपयोग अपने लिए नहीं है। भाषा सामाजिक है, दूसरे से जुड़ने का उपाय है। अगर आप अकेले रह जाएं जगत में, तो भाषा छूट जाएगी, भाषा की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। क्योंकि भाषा थी ही दूसरे से जुड़ने के लिए।
आप कार में बैठते हैं कहीं जाने के लिए, अगर कहीं जाना ही न हो, तो आप कार के बाहर निकल आएंगे। और अगर सारा जाना ही बंद हो जाए, कहीं जाने का सवाल ही न हो, कोई मंजिल ही न हो, तो कार को आप भूल ही जाएंगे।
आप वस्त्र पहनते हैं ताकि दूसरे को आपकी नग्नता न दिखाई पड़ जाए। लेकिन अगर जगत में कोई भी न हो, आप घने जंगल में हों, जहां कोई भी नहीं है--आप निर्वस्त्र घूमने लगेंगे। वस्त्र की चिंता नहीं रहेगी।
आप घर से निकलते हैं, आईने में चेहरा देखते हैं। क्योंकि कोई दूसरा आपके चेहरे में गंदगी न देख ले, कुरूपता न देख ले--अभद्र न मालूम पड़े। लेकिन आप जंगल में अकेले हों--दर्पण पड़ा-पड़ा टूट जाएगा, आप देखना बंद कर देंगे।
हम जीवन में जो भी कर रहे हैं, वह दूसरे के कारण, दूसरे के लिए। महावीर कहते हैं, हमने जीवन-जीवन में, जन्मों-जन्मों में, जो भी कर्म इकट्ठे किए हैं, वे दूसरे से संबंधित होने के लिए। हमारा सारा खेल यंत्र का है। हमारा सारा शरीर, हमारा सारा मन दूसरे से संबंधित होने का उपकरण है। जब कोई चेतना अपने से संबंधित होती है, यह सारा उपकरण नीचे गिर जाता है। इसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। इससे हमारा संबंध टूट जाता है।
यह जो संबंध का टूट जाना है, तभी सर्वत्रगामी केवलज्ञान का उदय होता है। तब ऐसे बोध का जन्म होता है, जो सब तरफ फैलता चला जाता है; जिसकी कोई सीमा नहीं है; जो असीम है। तब भीतर से प्रकाश के वर्तुल चारों तरफ फैलते चले जाते हैं, अनंत लोक को घेर लेते हैं। जितना विस्तार है, उसे घेर लेते हैं। महावीर कहते हैं, न केवल लोक का, बल्कि अलोक का भी बोध हो जाता है।
मैंने पीछे आपको कहा कि आधुनिक भौतिक शास्त्री एंटी यूनिवर्स, अलोक की धारणा के करीब पहुंच गए हैं। और पहुंचना जरूरी हो गया, क्योंकि जगत का एक अनिवार्य नियम समझ में आ गया है कि यहां द्वंद्व के बिना कुछ भी नहीं होता। यहां होने का ढंग विपरीत के द्वारा है। यहां सब चीजें विपरीत के साथ मौजूद हैं; अंधेरा प्रकाश के साथ, जन्म मृत्यु के साथ। तो अकेला यूनिवर्स, अकेला लोक नहीं हो सकता, अलोक भी होगा। इससे विपरीत भी कुछ होगा।
महावीर बड़ी अनूठी बात कहे हैं। और तब तो उनके पास कोई वैज्ञानिक उपकरण न थे इसको जानने के। निश्र्चित ही, यह उनके ज्ञान के विस्तार में ही प्रतीत हुआ होगा। क्योंकि वैज्ञानिक के पास तो उपकरण हैं, महावीर के पास तो कोई उपकरण न थे; कोई प्रयोगशाला न थी; स्वयं को छोड़ कर। खुद ही प्रयोगशाला थे--इससे ज्यादा तो कुछ भी साथ न था। आंख बंद करके भीतर देखने के सिवा उनकी कोई और विधि न थी। इस विधि के द्वारा उनको यह प्रतीति हुई कि अलोक भी है, एंटी यूनिवर्स भी है।
ठीक उस अलोक के नियम इसके बिलकुल विपरीत होंगे। वह इससे बिलकुल उलटा है। और वह उलटा होना जरूरी है ताकि यह लोक हो सके। क्योंकि द्वंद्व के बिना जगत में कोई भी अस्तित्व नहीं है। अगर स्त्रियां न हों, तो पुरुष खो जाएं; पुरुष न हों, स्त्रियां खो जाएं।
एक बहुत पुरानी कथा है अरब में कि एक बार लोग बिलकुल सुस्त और काहिल हो गए, और ऐसा समय आया कि सब आलसी हो गए। कोई कुछ करना नहीं चाहता था। कोई कुछ करता नहीं था। तो एक मनीषी को पूछा गया कि क्या करें? तो उसने कहा कि तुम एक उपाय करो, सारे पुरुषों को एक द्वीप पर बंद कर दो और सारी स्त्रियों को दूसरे द्वीप पर बंद कर दो। बस, सब ठीक हो जाएगा।
पर उन्होंने कहा कि आप पागल हो गए हैं, इससे क्या होगा? स्त्रियों को एक द्वीप पर बंद कर देंगे, पुरुषों को एक द्वीप पर बंद कर देंगे--इससे सुस्ती कैसे मिटेगी?
उसने कहा कि तुम इसकी फिकर छोड़ो--वे दोनों ही नाव बनाने में लग जाएंगे कि दूसरे द्वीप पर कैसे पहुंचें। सुस्ती बिलकुल टूट जाएगी। आलस्य बिलकुल खो जाएगा। उपक्रम आ जाएगा, श्रम शुरू हो जाएगा। पुरुष अकेला नहीं रह पाएगा, स्त्री अकेली नहीं रह पाएगी। वे पास आना चाहेंगे। उपद्रव शुरू हो जाएगा। तुम अराजकता पैदा कर दो, तुम दोनों को अलग कर दो।
द्वंद्व यहां इस पृथ्वी पर जीवन का आधार है। तो महावीर कहते हैं, अलोक और लोक ये दो अस्तित्व की अनिवार्यताएं हैं। जिस व्यक्ति के भीतर मौन घटित होगा, मन समाप्त हो जाएगा; जहां मन समाप्त होता है, वहां मौन है। जो भीतर मुनि हो जाएगा, उसको लोक और अलोक दोनों आलोकित हो जाएंगे, दोनों दिखाई पड़ने लगेंगे। जीवन का मौलिक आधार दिखाई पड़ जाएगा कि द्वंद्व, डुआलिटी, डाइलेक्टिक्स, संघर्ष, जीवन का द्धंद्ध है।
और इस जीवन से द्वंद्व नहीं मिट सकता। कोई चाहे तो अपने भीतर द्वंद्व के पार जा सकता है। लेकिन बाहर द्वंद्व नहीं मिट सकता--नये रूप ले लेगा, नये संघर्ष बना लेगा, नये उपद्रव खड़ा करेगा--क्योंकि बिना उपद्रव के जीवन अस्तित्व में नहीं हो सकता। संघर्ष वहां अनिवार्य है।
‘जब सर्वत्रगामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है साधक, तब जिन तथा केवली होकर...।’
जिन का अर्थ है, जिसने अपने को जीत लिया। अपने को जीतने का अर्थ है, जो दूसरे पर किसी भी अर्थों में निर्भर नहीं रह गया है। दूसरे की निर्भरता जहां पूर्णतया समाप्त हो जाती है, वहां महावीर कहते हैं, व्यक्ति जिन हुआ। और अपने को जिन कहने का हकदार वही है, जो किसी पर किसी भी कारण से निर्भर नहीं है। जो अपने में पर्याप्त है। जिसका होना काफी है। जिसकी चेतना किसी की भी तलाश में नहीं जाती। जो किसी को भी खोजता नहीं है; और कोई न मिले, तो जरा भी पीड़ा नहीं होती। जो अपने साथ रह कर इतना प्रसन्न है कि उसकी प्रसन्नता में कोई भी कमी नहीं है।
अपने ही साथ जो प्रफुल्ल है, उसे महावीर कहते हैं, जिन। और केवली उसे कहते हैं, जिसे इस ज्ञान का अनुभव हो गया है; जिसकी कोई बाधा नहीं है, जिस पर कोई अवरोध नहीं है। जो फैलता ही चला जाता है। जो अनंत प्रकाश है। भीतर के इस अनंत प्रकाश का जिसे अनुभव हो गया। महावीर ने शब्द बड़ा अनूठा चुना है: केवल--अलोन, अकेला, एकाकी, जहां सिर्फ ज्ञान ही रह जाए।
उपनिषदों में कहा जाता है कि जगत का ज्ञान एक त्रिवेणी है। वहां जानने वाला है, जानी जाने वाली वस्तु है, और दोनों के बीच का संबंध है, ज्ञान। वहां तीन हैं।
प्रयाग आप गए होंगे। वहां कुंभ भरता है; त्रिवेणी पर मेला जुड़ता है। लेकिन त्रिवेणी बड़ी मजे की है! नदियां वहां दो हैं, तीसरी, कहते हैं, कभी थी। कभी भी नहीं थी। तीसरी अदृश्य है। सरस्वती अदृश्य है, यमुना और गंगा प्रकट हैं। यह त्रिवेणी प्रतीक है भीतर के संगम का।
इस जगत में जो ज्ञान की घटना घटती है, जो तीर्थ निर्मित होता है ज्ञान का, वह तीन से निर्मित होता है: वस्तु, ऑब्जेक्ट, ज्ञेय; ज्ञाता, जानने वाला, सब्जेक्ट; और दोनों के बीच निर्मित होने वाली तीसरी धारा जो दिखाई नहीं पड़ती--ज्ञान। वह ज्ञान, सरस्वती है।
इसलिए सरस्वती ज्ञान की प्रतिमा है। और वह नदी कभी भी नहीं रही दुनिया में। वह हो नहीं सकती। उसके होने का कोई कारण नहीं है। अदृश्य उसका स्वभाव है। पदार्थ दिखाई पड़ता है, देखने वाला दिखाई पड़ता है; दृश्य दिखाई पड़ता है, द्रष्टा दिखाई पड़ता है; दर्शन दिखाई नहीं पड़ता। ज्ञाता, ज्ञेय दिखाई पड़ता है।
मैं यहां बैठा हूं, आपको देख रहा हूं। मैं हूं, आप हैं, और दोनों के बीच एक सरस्वती बह रही है जो दिखाई नहीं पड़ती--जानने की, ज्ञान की, बोध की, दर्शन की। इन तीनों से मिल कर इस जगत का सारा ज्ञान निर्मित हुआ है।
महावीर कहते हैं, जब ज्ञाता भी मिट जाए, ज्ञेय भी मिट जाए, केवल सरस्वती रह जाए; वह जो अदृश्य है, वही एकमात्र शेष रह जाए। जो दृश्य हैं, वे दोनों खो जाएं। क्योंकि दृश्य पदार्थ है, अदृश्य चैतन्य है।
अब यह बड़े मजे की बात है, आप जब प्रयाग जाते हैं तो गंगा-यमुना दिखाई पड़ती हैं, सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती। भीतर एक ऐसा प्रयाग भी है, जहां सिर्फ सरस्वती दिखाई पड़ती है--गंगा-यमुना दोनों खो जाती हैं। जहां गंगा-यमुना खो जाती हैं, और सरस्वती मात्र रह जाती है, उस अवस्था का नाम ‘केवल’ है।
जो दिखाई पड़ता है, वह नहीं दिखाई पड़ता वहां, और जो नहीं दिखाई पड़ता है, वही केवल दिखाई पड़ता है। इस जगत का दृश्य वहां अदृश्य हो जाता है और उस जगत का अदृश्य यहां दृश्य हो जाता है। इस जगत से वह बिलकुल विपरीत है। यहां जो अदृश्य है, वहां दृश्य हो जाता है।
पदार्थ और पदार्थ को जानने वाले के बीच, दोनों किनारों के बीच, एक तीसरी अदृश्य धारा बह रही है ज्ञान की। महावीर कहते हैं, वही तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है; जो दिखाई नहीं पड़ता। और जब तक तुम उसे न जान लोगे, तब तक तुम अज्ञानी ही रहोगे। केवलज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है। वस्तुतः, बाकी सब ज्ञान अज्ञान की टटोलें हैं। अज्ञानी आदमी टटोल रहा है; कुछ खोज रहा है; बना रहा है; सिद्धांत निर्मित कर रहा है।
ज्ञानी का अर्थ है, जहां दोनों खो गए। द्वंद्व खो गया और बीच की अदृश्य धारा प्रकट हो गई। उस अदृश्य धारा का नाम केवल है।
‘जब केवलज्ञानी जिन लोक-अलोक को, समस्त संसार को जान लेता है, तब मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध हो जाता है; शैलेशी (अचल-अकंप) अवस्था प्राप्त होती है।’
उस तीसरे में थिर होते ही सारी अथिरता खो जाती है। फिर कोई कंपन नहीं है। फिर कोई चीज हिला नहीं सकती, क्योंकि कोई चीज आकर्षित नहीं कर सकती। फिर कोई चीज डिगा नहीं सकती, क्योंकि कोई चीज आंदोलित नहीं कर सकती। कोई आमंत्रण सार्थक न रहा, फिर कोई निमंत्रण बाहर नहीं बुला सकता।
फिर कुछ भी नहीं है जगत में, जो मैग्नेट है। फिर आप अपने ही मैग्नेट पर थिर हो गए। अब आप अपने केंद्र पर हैं--सेंटरिंग हो गई। आप खड़े हो गए अपनी जगह। आप उस जगह आ गए...। गाड़ी का चाक चलता है, लेकिन चाक के बीच में एक कील है, जो नहीं चलती।
और बड़ा मजा यह है कि कील नहीं चलती, इसीलिए चाक चल पाता है। कील भी चलने लगे, तो चाक गिर जाए। कील ठहरी रहती है।
जब तक हम मन के साथ जुड़े होते हैं, हम चाक के साथ जुड़े हैं और जब हम मन से पीछे हटते हैं, शांत और मौन और शून्य हो जाते हैं, तो हम कील पर ठहर गए। कील पर ठहरा हुआ व्यक्ति, सेंटर्ड, स्वयं में ठहरा हुआ व्यक्ति--महावीर कहते हैं--शैलेशी है। वह हिमालय बन गया चेतना का। अब उसमें कोई कंपन नहीं है। अब उसे कोई चीज दुख नहीं दे सकती। क्योंकि अब उसे किसी से सुख की कोई आकांक्षा नहीं है। ऐसा व्यक्ति आनंद को उपलब्ध हो जाता है; या चाहें तो कहें, ब्रह्म को उपलब्ध हो जाता है।
महावीर कहते हैं, ऐसा व्यक्ति परमात्मा हो गया। परमात्मा का अर्थ है, ऐसी शैलेशी अवस्था को पा लेना।
‘जब मन, वचन और शरीर के योगों का निरोधकर आत्मा शैलेशी अवस्था पाती है; पूर्ण रूप से स्पंदन-रहित हो जाती है, तब सब कर्मों का क्षयकर सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि को प्राप्त होती है।’
महावीर के लिए ‘सिद्ध’ अंतिम शब्द है। सिद्ध का अर्थ है: वन हू हैज रीच्ड। सिद्ध का अर्थ है: जो पहुंच गया। सिद्ध का अर्थ है: जिसे मंजिल मिल गई। सिद्ध का अर्थ है: जिसकी यात्रा का अंत हुआ। सिद्ध का अर्थ है: जिसे अब कहीं जाने को न बचा। सिद्ध का अर्थ है: जिसे अब कुछ पाने को न बचा। सिद्ध का अर्थ है: जिसे अब कुछ जानने को न बचा। जो हो सकता था आखिरी इस जीवन में, वह घट गया। बीज फूल तक आ गया। इसके पार कोई यात्रा नहीं है। चेतना अपनी पूरी संभावनाओं को वास्तविक कर ली। जो-जो हो सकता था, वह हो गया। अब चेतना में कोई और बीज नहीं बचा, सब बीज प्रकट हो गए।
इस पूर्ण प्रकटावस्था को महावीर कहते हैं, परमात्मा की अवस्था। इसलिए महावीर के लिए एक परमात्मा नहीं है, जितनी चेतनाएं हैं--अनंत चेतनाएं हैं--उतने ही परमात्मा हैं--अनंत परमात्मा हैं। कुछ हैं, जो बीज में बंद हैं। कुछ हैं, जो तड़प रहे हैं और बीज को तोड़ रहे हैं। कुछ हैं, जो अंकुरित हो गए हैं और फूलों की तरफ बढ़ रहे हैं। और कुछ हैं, जो फूल हो गए और आखिरी अवस्था को पहुंच गए हैं।
सभी परमात्मा हैं--कुछ बीज में, कुछ अंकुर में; कोई वृक्ष में, कोई फूल में। लेकिन उनके स्वभाव में कोई अंतर नहीं है; स्वरूप में कोई अंतर नहीं है। अनंत परमात्माओं की धारणा है महावीर की। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर भगवत्ता है।
सिद्धि का अर्थ है: भगवत्ता को पा लेना, भगवान हो जाना। सिद्धि का अर्थ है: जहां से अब कोई वासना का सवाल न रहा; जहां से पार जाने का कोई उपाय नहीं है; जो आखिरी बिंदु है जीवन का।
इसी की हम तलाश भी कर रहे हैं। लेकिन जहां हम तलाश कर रहे हैं, शायद वह जगह नहीं है जहां इसे पाया जा सके। हम इसी को खोज भी रहे हैं--कोई धन में, कोई पद में, कोई प्रतिष्ठा में, कोई शास्त्र में। लेकिन वह खोज वहां हो नहीं सकती, उसे खोजना होगा भीतर। जहां भी हम खोज रहे हैं हम गलत खोज रहे हैं। और इसलिए जब हमें नहीं मिल पाता, तो हम इस बात का खयाल नहीं लेते कि हमारी खोज गलत थी। हम सोचते हैं, हमारा भाग्य गलत था। हम सोचते हैं, कोई चीज बाधा बन गई।
जब हम एक व्यक्ति में सुख खोजते हैं; नहीं पाते हैं, तो हम सोचते हैं, यह व्यक्ति ही गड़बड़ है, इसीलिए सुख नहीं मिल पा रहा है, किसी और में खोजें। धन में खोजते हैं, नहीं मिलता, तो सोचते हैं, पद में खोजें; पद में खोजते हैं, नहीं मिलता है, तो सोचते हैं, शास्त्र में खोजें।
लेकिन एक दिशा सदा अछूती रह जाती है; हम कभी नहीं सोचते कि अपने में खोजें। सदा कहीं, किसी और में! जब तक हमें यह खयाल न आ जाए कि हम कहीं भी खोजें, खोज गलत होगी; जब तक हम अपने में न खोजें। और इसीलिए हमें दूसरों में इतने दोष दिखाई पड़ते हैं। दूसरे में दोष दिखाई पड़ने का कुल कारण इतना है कि जहां-जहां हम असफल होते हैं, वहां-वहां दोष खोज कर हम अपने मन को तृप्त कर लेते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन बूढ़ा हो गया था। नौकरी के लिए एक दफतर में गया। वॉचमैन की, पहरेदार की जगह खाली थी। उस मालिक ने कहा कि ठीक है, लेकिन मैं तुम्हें बता दूं कि हमें किस तरह का व्यक्ति चाहिए। तुम ठीक हो, काम हम दे सकेंगे, लेकिन फिर भी तुम समझ लो। हमें ऐसा व्यक्ति चाहिए जो चौबीस घंटे संदेह करे--वॉचमैन। कोई भी भीतर आए, तो कभी आस्था और भरोसे से न देखे, चौबीस घंटा संदेह करे। और चौबीस घंटा लोगों के दोष, भूल-चूक निकालने की कोशिश में लगा रहे। और चौबीस घंटा लड़ने को तत्पर रहे। दुष्ट स्वभाव हो, कर्कश आवाज हो। भयावना चेहरा हो और जरा ही कोई उत्तेजना दे दे तो बिलकुल शैतान उसके भीतर प्रकट हो जाए--हमें ऐसा आदमी चाहिए। ठीक है, तुम चल पाओगे।
नसरुद्दीन ने कहा: क्षमा करें, आइ एम सॉरी, दिस जॉब इ़ज नाट फॉर मी, बट आइ विल सेंड माई वाइफ अराउंड--यह काम मेरा नहीं है, लेकिन मैं अपनी पत्नी को भेज दूंगा। बिलकुल जैसा आप कह रहे हैं, वैसा ही व्यक्तित्व है उसका!
अपने में देख पाना तो बहुत मुश्किल है। वह आदमी कह रहा है--जिसको नौकर रखना है--कि तुम बिलकुल ठीक हो। लेकिन नसरुद्दीन कहता है, यह नौकरी मेरे... मैं इसमें न जमूंगा, मेरी पत्नी...!
दोष सदा दूसरे में दिखाई पड़ते हैं। क्योंकि जो-जो हम पाना चाहते हैं दूसरे से, वह-वह नहीं मिलता। वह मिल नहीं सकता--इसलिए नहीं कि दूसरे में कोई भूल है। वह मिल ही नहीं सकता--वह वस्तुओं का स्वभाव नहीं है।
हम दूसरे से प्रेम चाहते हैं और क्रोध पाते हैं। इसलिए नहीं कि दूसरा क्रोधी है। दूसरे से इसका कोई संबंध नहीं है। जो भी प्रेम चाहता है, वह क्रोध पाएगा। वह प्रेम की चाह में ही हम दूसरे में क्रोध पैदा कर रहे हैं। यह बड़ी मुश्किल बात है; जटिल बात है।
हमारी वासना ही उपद्रव का कारण है। हम जो-जो मांगते हैं, उससे विपरीत हमें मिलता है। आप खुद अपने जीवन को देखें। जो-जो आपने मांगा है, उससे विपरीत आपने पाया है। लेकिन आप सोचते हैं कि विपरीत मिला इसलिए कि दूसरी तरफ गलत लोग थे।
नसरुद्दीन के गांव में पहली दफा टेलीफोन लगा। बूढ़ा आदमी था और प्रतिष्ठित था, और सारे लोग जानते थे, जाहिर था--या कहें बदनाम था। तो टेलीफोन कंपनी ने सोचा कि पहले टेलीफोन का उदघाटन नसरुद्दीन करे। उसकी पत्नी तीस मील दूर कहीं गांव में गई थी। तो उसकी पत्नी से मुलाकात उदघाटन में।
नसरुद्दीन बामुश्किल राजी हुआ। उसने कहा कि बामुश्किल तो वह गई है और तुम उसी से मुलाकत करवा रहे हो। और हम किसी तरह थोड़ी शांति अनुभव कर रहे हैं, तो अब यह एक उपद्रव टेलीफोन का गांव में आ गया! मतलब यह है कि अब पत्नी से कोई छुटकारा नहीं--वह बाहर जाए तो भी!
फिर भी लोग नहीं माने तो वह राजी हो गया। आषाढ़ के दिन थे, वर्षा का मौसम था। उसने टेलीफोन हाथ में लिया कंपते हुए, डरते हुए--जैसा कि सभी पति पत्नी को फोन करते वक्त नर्वस... हाथ कंपने लगता है। और फिर यह तो पहला टेलीफोन था और उसने कभी टेलीफोन किया नहीं था। हाथ कंपने लगा। और तभी संयोग की बात, जोर से बिजली कड़की और सामने के वृक्ष पर बिजली गिरी। उसके हाथ से टेलीफोन छूट गया, वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। किसी तरह सम्हाल कर अपने को उसने उठाया और उसने कहा कि दैट्स ऑल राइट! दैट्स माई ओल्ड वुमन!
उसने कहा कि बिलकुल पक्की बात है कि वही बोली है, यही मेरी पत्नी है! वह बिजली की कड़क आवाज और उसका गिरना, वह समझा कि अपनी पत्नी से बातचीत हो रही है। उसने कहा कि हम पहले ही कहे थे कि यह और उपद्रव टेलीफोन का यहां मत लगाओ!
तो दूसरे में हम सदा ही खोज पाते हैं--सभी। नसरुद्दीन अति पर हो, आप थोड़े पीछे हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन हमारे जीवन की पूरी अड़चन यही है कि सारा दुख हमें कोई दे रहा है। कोई परिस्थिति, कोई व्यक्ति, कोई घटना--लेकिन सदा बाहर से आ रहा है।
महावीर कहते हैं कि बाहर से कुछ भी नहीं आता। हम बाहर से मांगते हैं, उससे विपरीत हमें मिलता है। यह सीधा उत्तर है हमारी मांग का। सिद्धावस्था वैसी अवस्था है, जब बाहर से हमारी मांग गिर गई, और हम भीतर तृप्त हैं। और हम भीतर जैसे हैं, वैसे होने से हम परिपूर्ण तथाता में हैं: टोटल एक्सेप्टेबिलिटी, पूर्ण संतुष्टि।
सिद्ध को आप हिला नहीं सकते। आप कहें कि वहां हीरे की खदान मकान के बगल में है, तो भी वह हिलेगा नहीं। आप कहें कि इंद्र निमंत्रण देने आया है कि चलो स्वर्ग में, आपकी तपश्र्चर्या काफी हो गई, तो भी वह हिलेगा नहीं। आप उसे किसी भी तरह आकर्षित नहीं कर सकते। आप कुछ भी नहीं दे सकते हैं, जो उसे कंपित कर दे। आपके पास कुछ भी नहीं है। सारा जगत राख हो गया। इस जगत में कुछ भी मूल्यवान न रहा। सारा जगत निर्मूल्य हो गया।
ध्यान रहे, मूल्य हम देते हैं। जगत में सभी चीजें निर्मूल्य हैं। मूल्य हमारा दिया हुआ है। कितना हम मूल्य देते हैं, यह हम पर निर्भर है। किस चीज को हम मूल्य देते हैं, वह हम पर निर्भर है।
सारा मूल्य मनुष्य कल्पित है। इसलिए अलग-अलग जगह अलग-अलग मूल्य दिखाई पड़ते हैं। अलग-अलग समाज अलग-अलग चीजों को मूल्य देते हैं। और जहां जो चीज मूल्यवान है, वहां मूल्यवान है। आपको दो कौड़ी की लगेगी, क्योंकि आपके समाज में आपने उस चीज को कोई मूल्य नहीं दिया है।
मूल्य व्यक्ति देता है। और मूल्य दिए जाते हैं वासना से। सिद्ध के लिए जगत निर्मूल्य है।
और ध्यान रहे, जब तक जगत में मूल्य है तब तक आप भीतर निर्मूल्य रहेंगे। जब जगत से मूल्य खो जाएगा, तो भीतर मूल्य स्थापित हो जाता है।
सिद्ध की आत्मा में मूल्य है, और सारा जगत निर्मूल्य है। इसलिए शंकर कहते हैं कि आत्मा ही सत्य है, सारा जगत माया है। माया का मतलब इतना ही है केवल कि वहां हमने ही डाला था मूल्य और हमने ही निकाला था। जो हम डालते हैं, वही हम निकालते हैं। हम पहले प्रोजेक्ट करते हैं मूल्य, और फिर हम मूल्य से आंदोलित होते हैं। बड़ा खेल है!
महावीर कहते हैं: सिद्ध वह है, जो इस खेल के बाहर हो गया।
‘जब आत्मा सब कर्मों का क्षय कर--सर्वथा मल-रहित होकर सिद्धि को पा लेती है, तब लोक के मस्तक पर, ऊपर के अग्रभाग पर स्थित होकर सदा काल के लिए सिद्ध हो जाती है।’
महावीर कहते हैं: लोक और अलोक, ये द्वंद्व हैं। जैसा मैंने कहा यमुना और गंगा, ये दो दृश्य हैं और सरस्वती अदृश्य है। लोक और अलोक, मैटर और एंटी मैटर--विज्ञान की भाषा में कहें--ये दो विरोध हैं। इन दोनों विरोधों के बीच लोक के अग्रभाग पर और अलोक के प्रथम भाग पर सिद्ध चेतना थिर हो जाती है। पदार्थ और अ-पदार्थ, लोक और अलोक--इन दोनों के द्वंद्व के मध्य में चेतना थिर हो जाती है।
इस अवस्था का फिर कोई अंत नहीं है। यह अनंत अवस्था है। यह टाइमलेसनेस है। यह शाश्र्वतता है। इस क्षण से फिर कोई दूसरा क्षण नहीं है। यह क्षण अनंत है।
इससे बड़े विचार पैदा हुए, बड़ी चर्चा हजारों साल तक चली है। क्योंकि पश्र्चिम में वे पूछते हैं कि जब भी कोई चीज शुरू होती है तो उसका अंत होता है। अगर यह सिद्धावस्था शुरू होती है तो यह अंत कब होगी?
महावीर कहते हैं: इसका कोई अंत नहीं होता, यह सिर्फ शुरू होती है। सिद्धावस्था की सिर्फ बिगिनिंग है, अंत नहीं है। यह बड़े मजे की बात है। और महावीर की बात समझने जैसी है। और महावीर कहते हैं: संसार का अंत है, प्रारंभ नहीं है; सिद्धावस्था का प्रारंभ है, अंत नहीं है। और दोनों मिल कर एक वर्तुल बन जाते हैं।
महावीर कहते हैं: संसार का कोई प्रारंभ नहीं है, यह सदा से है। इसलिए महावीर स्रष्टा को नहीं मानते, या कभी क्रिएशन हुआ, इसको नहीं मानते; सृष्टि की गई, इसको नहीं मानते। वे कहते हैं, संसार सदा से है। इसका कोई प्रारंभ नहीं है। दि वर्ल्ड इ़ज बिगिनिंगलेस। सिद्धावस्था का प्रारंभ है। सिद्धावस्था के प्रारंभ का अर्थ हुआ कि संसार का अंत। जैसे ही कोई सिद्ध हुआ, उसके लिए संसार का अंत हो गया, संसार शून्य हो गया।
तो महावीर कहते हैं: संसार का प्रारंभ नहीं है, अंत है; सिद्धावस्था का प्रारंभ है, अंत नहीं है। और दोनों मिल कर वर्तुल को पूरा कर देते हैं।
हम एक बड़ी लकीर को खींचें। इस लकीर को हम दो हिस्सों में बांट दें। पहले हिस्से के अग्रभाग पर सिद्धावस्था को रख दें; उसका कोई अंत नहीं है, प्रारंभ है। सिद्धावस्था एक दिन प्रारंभ होती है, लेकिन उसका अंत कभी नहीं होता। यह आधी बात हुई, आधा संसार है। उसका प्रारंभ नहीं है, उसका अंत है। दोनों को जोड़ दें तो एक वर्तुल बन जाएगा।
महावीर कहते हैं: ये दोनों घटनाएं एक ही विस्तार के दो हिस्से हैं। सिद्ध पहुंच गया वहां, जहां से फिर कोई रूपांतरण नहीं है--न गिरना, न उठना; न आगे न पीछे।
अनेक दार्शनिकों ने सवाल उठाया है कि जब उसका कोई अंत नहीं होगा--इतनी लंबी, एंडलेस, अंत-रहित स्थिति होगी, तो हम उससे ऊब नहीं जाएंगे? उससे घबड़ाहट पैदा नहीं हो जाएगी? उससे आदमी भागना नहीं चाहेगा?
महावीर कहते हैं कि जब भी हम सोचते हैं, अंत-रहित, तो हमारा मतलब होता है, बहुत लंबी है, लेकिन कहीं अंत होगा। महावीर कहते हैं, जब मैं कहता हूं, अंत-रहित, तो उसका मतलब ही यह होता है कि जहां लंबाई का सवाल नहीं है, शाश्र्वतता का सवाल है, इटरनिटी का सवाल है। तब एक क्षण, जो प्राथमिक क्षण है, वही अंतिम क्षण है। वहां कोई चीज गुजरती हुई मालूम भी नहीं पड़ेगी; वहां समय व्यतीत होता हुआ मालूम भी नहीं पड़ेगा; क्योंकि समय संसार का हिस्सा है।
कालातीत है चेतना की सिद्धावस्था। वहां कोई समय नहीं है। इसलिए आपको ऐसा नहीं लगेगा कि बहुत देर हो गई सिद्ध हुए। ऐसा कभी नहीं लगेगा। क्योंकि देर का, ड्यूरेशन का कोई सवाल नहीं है। समय वहां है नहीं। वहां आपकी घड़ी रुक जाएगी। वहां घड़ी नहीं चल सकती।
जीसस से कोई पूछता है, तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में खास क्या बात होगी? तो जीसस कहते हैं: देयर शैल बी टाइम नो लांगर--वहां समय नहीं होगा।
समय संसार का हिस्सा है, क्योंकि समय परिवर्तन का हिस्सा है। अगर हम ठीक से समझें, तो परिवर्तन होता है, इसलिए समय का हमें पता चलता है। अगर परिवर्तन न हो, तो समय का पता न चले। जितना ज्यादा परिवर्तन होता है, उतना ज्यादा समय का पता चलता है।
इसलिए पश्र्चिम में लोग ज्यादा टाइम कांशस हैं--ज्यादा समय का पता चलता है, क्योंकि परिवर्तन बहुत हो रहा है। पूरब में लोग उतने समय से परेशान नहीं हैं, न पीड़ित हैं। अगर जंगल में जाएं आदिवासियों के पास, उन्हें समय से कोई लेना-देना ही नहीं है। समय का कोई सवाल ही नहीं है। समय जैसे है ही नहीं। सब चीजें ठहरी हुई हैं।
जब परिवर्तन जोर से होता है, तो समय का पता चलता है। जब परिवर्तन धीमा होता है, तो समय भी धीमा हो जाता है। जब परिवर्तन बिलकुल नहीं होता, तो समय समाप्त हो जाता है।
अगर ठीक से समझें तो समय का मतलब हुआ, परिवर्तन। परिवर्तन के बीच जो बोध होता है, वह समय है। अन्यथा समय का हमें कोई पता नहीं होगा। अगर आप एक ऐसी अवस्था में हों, जहां कुछ भी न बदले--समझें, इस कमरे में आप बैठे हैं, कुछ भी न बदले, सब चीजें थिर हों--तो आपको समय का कोई भी पता नहीं चलेगा। समय का पता चलता है, क्योंकि चीजें बदल रही हैं। एक बदलाहट से दूसरी बदलाहट के बीच जो खाली जगह है, उसमें ही समय का पता चलता है।
समय परिवर्तन का बोध है।
तो महावीर कहते हैं: सिद्धावस्था में कोई परिवर्तन नहीं है, इसलिए समय भी नहीं है। वहां कोई समय का पता नहीं चलेगा। सिद्ध होते ही समय गिर जाता है, संसार गिर जाता है।
असल में वासना के गिरते ही परिवर्तन समाप्त हो जाता है। जहां तक वासना है, वहां तक परिवर्तन है। जहां वासना नहीं है, सिर्फ आत्मा है, वहां कोई परिवर्तन नहीं है। वहां शाश्र्वतता है, इटरनिटी है।
यह जो सिद्धावस्था है, यही तलाश है हर प्राण की। यही खोज है हर श्र्वास की। प्राण इसी के लिए आतुर हैं कि एक ऐसी जगह मिल जाए, जिसके पार पाने को कुछ न बचे। आप कितना ही धन पा लें, ऐसी जगह नहीं मिलती। क्योंकि और धन पाने को बच रहता है! कितने ही बड़े पद पर हो जाएं, वह पद नहीं मिलता। और पद पाने को बच रहते हैं! और कितने ही शास्त्र के ज्ञाता हो जाएं, कुछ फर्क नहीं पड़ता। और शास्त्र बचे रहते हैं!
इस जगत में ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसको पाकर आप कहें, इसके आगे कुछ भी नहीं बचता। आगे बचता ही है! इसलिए इस जगत की उपलब्धियों में कोई सिद्धावस्था नहीं हो सकती। सिर्फ अंतर्यात्रा में एक जगह है, जहां पाने को कुछ भी नहीं बचता।
जो अपने को पा लेता है, उसे पाने को कुछ भी नहीं बचता है। और जो अपने को नहीं पाता, उसे पाने को सदा ही बचा रहता है। और जब तक वह अपने को न पा लेगा, तब तक कितना ही भटके, कितनी ही यात्रा करे; यात्रा का कोई अंत नहीं है। यात्रा मिटती है अपने को पाकर। स्वयं में होकर ही यात्रा समाप्त होती है। जो स्वयं में पूरी तरह हो गया, वही सिद्ध है।
महावीर इस सिद्धयोग के लिए ही इन सारे सूत्रों को दिए हैं। क्षण भर को आप भी सिद्ध होने का रस ले सकते हैं। क्षण भर को भी रस मिल जाए, तो आपकी खोज शुरू हो जाए। क्षण भर को भी आपका मन न दौड़ता हो, तो एक क्षण को झलक मिलती है सिद्ध होने की। एक क्षण को पता लगता है उसका कि क्या होता होगा सिद्ध को! पर वह आनंद भी अपरिसीम है। एक क्षण को भी झलक, एक बिजली कौंध जाए भीतर, तो भी आप शुरू हो गए, चल पड़े।
जिन्हें भी उस स्थान की तलाश हो, जिसके आगे कोई स्थान नहीं है और जिन्हें भी वह धन पाना हो, जो छीना नहीं जा सकता, जो नष्ट नहीं होता, जो खोया नहीं जा सकता; जिन्हें भी वह पद पाना हो, जिस पद के बिना आप हमेशा दीन-हीन मालूम पड़ेंगे--चाहे कुछ भी पा लें, आपकी दीन-हीनता चाहे कितने ही सम्राट के वस्त्रों में छिप जाए, दीन-हीनता ही रहेगी--जिस पद को पाकर सारी दीनता मिट जाती है और वस्तुतः व्यक्ति सम्राट होता है...!
स्वामी राम अपने को बादशाह कहते थे। जब वे अमरीका गए तो लोगों को बड़ी परेशानी होती थी। क्योंकि वे हमेशा अपने को कहते थे ‘राम बादशाह।’ उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम है: ‘राम बादशाह के छह हुक्मनामे। सिक्स आर्डर्स फ्रॉम एम्परर राम।’ अमरीका का प्रेसिडेंट उनसे मिलने आया था, वह जरा बेचैन हुआ। और उसने कहा कि और सब तो ठीक है, लेकिन आप बिलकुल फकीर हैं, और अपने को बादशाह क्यों कहते हैं?
राम ने कहा: मैं इसीलिए बादशाह कहता हूं कि मुझे पाने को अब कुछ भी नहीं बचा है। जिसको पाने को कुछ बचा है, वह भिखारी है, अभी वह मांगेगा। जिसको पाने को कुछ नहीं बचा, वह सम्राट है। मुझे पाने को कुछ भी नहीं बचा है। मैं सम्राट इसलिए अपने को कहता हूं कि अब इस जगत में कुछ भी नहीं है, जो मेरी वासना का आकर्षण बन जाए। अब मैं मालिक हूं! मेरे पास कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं हूं! यही मेरी मालकियत है, यही मेरा जिनत्व है।
महावीर कहते हैं, हर व्यक्ति जिनत्व को, सिद्धत्व को खोज रहा है। जैसे हर सरिता सागर को खोज रही है, ऐसे हर चेतना, हर आत्मा सिद्धत्व को खोज रही है। दिशाएं भटक जाएं, मार्ग भूल-चूक से भरे हों, लेकिन खोज वही है। धन में भी हम वही खोज रहे हैं; पद में भी वही खोज रहे हैं; संसार में भी वही खोज रहे हैं; प्रेम में भी वही खोज रहे हैं। हम खोज रहे हैं कुछ और, पर जहां खोज रहे हैं, वहां वह मिलता नहीं, इसलिए हम पीड़ित हैं; इसलिए हम दुखी हैं।
जिस दिन हमें ठीक दिशा का बोध हो जाए और जिस दिन हम भीतर की तरफ चल पड़ें, और थोड़ी सी भी भनक पड़ने लगे कानों में सिद्धावस्था की, थोड़ा सा भी स्वर गूंजने लगे उस अनंत संगीत का, थोड़ी सी सुगंध आने लगे, थोड़ा सा प्रकाश स्पर्श करने लगे, फिर इस संसार का कोई मूल्य नहीं है।
जरा सा संस्पर्श, फिर जादू की तरह खींचने लगता है। एक बार व्यक्ति भीतर की तरफ मुड़ा कि खींच लिया जाता है। फिर केंद्र खुद ही खींच लेता है। लेकिन उस मुड़ने के लिए ध्यान के क्षण चाहिए। थोड़ी देर के लिए संसार से अपने को बंद करके भीतर की तरफ खुला छोड़ देना जरूरी है ताकि मौका मिले कि भीतर का चुंबक आपको खींच सके। थोड़ी देर के लिए भीतर के लिए अवेलेबल, उपलब्ध होना चाहिए--कि आप खुले हैं और राजी हैं।
चौबीस घंटे में एक घंटा निकाल लें। उस एक घंटे में कुछ भी न करें, आंख बंद करके बैठ जाएं और भीतर के अंधेरे से राजी हों। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे प्रकाश आना शुरू होगा। और धीरे-धीरे प्रतिक्रमण शुरू होगा; चेतना भीतर मुड़ने लगेगी। बाहर कोई मार्ग न पाकर भीतर की तरफ मुड़ना अनिवार्य हो जाएगा। और एक किरण आपको मिल जाए, सिद्ध होने की एक झलक, फिर आपको कोई रोक न सकेगा। फिर कितने ही संसार चारों तरफ खड़े आपको बुलाते रहें, निर्मूल्य हैं। सब स्वप्न हो गया! जैसे नींद जिसकी टूट जाए, फिर स्वप्न कितना ही मधुर क्यों न रहा हो, वापस नहीं बुला सकता। ऐसे ही, जिसकी तंद्रा में एक किरण सिद्धावस्था की उतर आए, फिर संसार व्यर्थ है। फिर उसे नहीं बुला सकता।
ऐसी ही चेतना का नाम संन्यस्त चेतना है। संन्यास प्रारंभ है, सिद्ध होना अंत है।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें...!