MAHAVIR

Mahaveer Vani 51

FiftyFirst Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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मोक्षमार्ग-सूत्र: 1

कहं चरे? कहं चिट्ठे? कहमासे? कहं सए?
कहं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधइ?
जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए।
जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधइ।।
सव्वभूयप्पभूयस्य, सम्मं भयाइं पासओ।
पिहियासवस्स दन्तस्य पावं कम्मं न बंधइ।।
पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए।
अन्नाणी किं काही, किं वा नाहिइ छेय-पावगं?
सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं।
उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे।।

भंते! साधक कैसे चले? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे? कैसे सोए? कैसे भोजन करे? कैसे बोले--जिससे कि पाप-कर्म का बंध न हो?
आयुष्मान! साधक विवेक से चले; विवेक से खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोए; विवेक से भोजन करे; और विवेक से ही बोले, तो उसे पाप-कर्म नहीं बांध सकता।
जो सब जीवों को अपने समान समझता है, अपने-पराए, सबको समान दृष्टि से देखता है, जिससे सब आस्रवों का निरोध कर लिया है, जो चंचल इंद्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म बंधन नहीं होता।
पहले ज्ञान है, बाद में दया। इसी क्रम पर समस्त त्यागी वर्ग अपनी संयम-यात्रा के लिए ठहरा हुआ है। भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा? श्रेय तथा पाप को वह कैसे जान सकेगा?
सुन कर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुन कर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुन कर जाने जाते हैं। बुद्धिमान साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे।

पाप क्या है, पुण्य क्या है; कृत्य जो हम करते हैं, उसमें पाप है या कर्ता में है, जो करता है उसमें; चोरी में पाप है या चोर की भाव-दशा में? दान में पुण्य है या दानी की अंतस-चेतना में? कृत्य महत्वपूर्ण है या भीतर का अभिप्राय? और अभिप्राय से भी ज्यादा भीतर की चेतना--मनुष्य के लिए पुराने से पुराना शाश्र्वत सवाल है।
नीति कृत्य का विचार करती है; क्या न करें, क्या करें।
धर्म कर्ता का विचार करता है; करने वाला कैसा हो, कैसा न हो।
जब पहली बार उपनिषदों का पश्र्चिमी भाषाओं में अनुवाद हुआ तो वहां के विचारक बड़े हैरान हुए, क्योंकि उनमें दस आज्ञाओं, टेन कमांडमेंट्‌स की तरह कोई भी बातें नहीं हैं। चोरी मत करो; व्यभिचार मत करो; न करो, या करो--ऐसा कोई आदेश नहीं है। और यहूदी और ईसाई धर्म तो करने के आदेश पर ही खड़े हैं। दस आज्ञाएं मो़जे़ज की, वे ही आधार-स्तंभ हैं।
उपनिषदों में भी उन्होंने सोचा कि कुछ आज्ञाएं होंगी, लेकिन कोई आज्ञाएं नहीं थीं। उन्हें लगा कि शायद उपनिषद धर्मग्रंथ नहीं हैं। लेकिन उपनिषद धर्मग्रंथ हैं। उपनिषद की दृष्टि से कृत्य की आज्ञा देना या न देना नीति का काम है, धर्म का नहीं। और नैतिक उसे होना पड़ता है जो धार्मिक नहीं है।
इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें।
नैतिकता एक सब्स्टीट्यूट है, एक परिपूरक है। जो व्यक्ति धार्मिक नहीं है, उसे नीति की जरूरत है। जो व्यक्ति धार्मिक है, उसे नीति की कोई भी जरूरत न रही।
इसका यह अर्थ नहीं कि वह अनैतिक हो जाएगा। इसका यह अर्थ है कि उसने नीति का इतना मूल-स्रोत पा लिया है कि अब ऊपरी व्यवस्था और नियम की कोई आवश्यकता नहीं रही।
ऐसा समझें, एक अंधा आदमी है, तो लकड़ी से टटोल कर चलता है। आंख वाला आदमी लकड़ी से टटोल कर नहीं चलता। क्योंकि लकड़ी से टटोलने की जरूरत है, आंख न हो तो। आंख हो तो लकड़ी से टटोलने की जरूरत नहीं है। अगर अंधे आदमी को हम समझाएं कि जब तेरी आंख ठीक हो जाएगी तो तू लकड़ी फेंक देगा, तो वह बहुत हैरान होगा। वह कहेगा, बिना लकड़ी के मैं चलूंगा कैसे? जीवन भर लकड़ी से ही चला है। लकड़ी उसकी आंख हो गई है। लेकिन लकड़ी क्या आंख हो सकती है? बस कामचलाऊ है।
नीति कभी धर्म नहीं है, कामचलाऊ लकड़ी है जो अधार्मिक आदमी के हाथ में पकड़ानी पड़ती है। जिसके पास भीतर की आंख नहीं है, उसे बाहर के नियम पकड़ाने पड़ते हैं। और जिसके पास भीतर की आंख है, उसे बाहर के नियम पकड़ाने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसकी भीतर की आंख जहां उसे ले जाएगी, वही ठीक है।
यह भारतीय और गैर-भारतीय धर्मों के बीच बुनियादी फर्क है। इस्लाम या ईसाइयत दोनों इस अर्थों में नैतिक धर्म हैं। उनका सारा आधार नीति पर है। जैन, बौद्ध और हिंदू इस अर्थ में अतिनैतिक धर्म हैं, सुपर मॉरल धर्म हैं। उनका आधार नीति पर नहीं है। उनकी सारी फिकर इस बात की है कि भीतर की चेतना परिशुद्ध हो। और अगर भीतर की चेतना परिशुद्ध है, तो आचरण अपने आप परिशुद्ध हो जाएगा।
आचरण को नहीं बदलना है, अंतरात्मा को बदलना है। आप क्या करते हैं, वह मूल्यवान नहीं है। आप क्या हैं, वही मूल्यवान है। आपकी डूइंग का बहुत मूल्य नहीं है, आपकी बीइंग का, आपके अस्तित्व का मूल्य है। और गलत अस्तित्व हो भीतर और ठीक आचरण हो, तो सिवाय पाखंड के कुछ भी नहीं है। और ठीक अस्तित्व हो भीतर, तो गलत आचरण के होने का कोई उपाय नहीं है।
यह मौलिक भेद है धर्म और नीति का। नीति सामाजिक व्यवस्था है। इसलिए अधार्मिक समाज में भी नीति की जरूरत होगी।
सोवियत रूस धर्म से इनकार कर सकता है, नीति से नहीं। उसको भी नैतिक नियम बनाने पड़े हैं। आदमी कैसा व्यवहार करे, इसकी चिंता नास्तिक को भी करनी पड़ेगी। अगर पूरी पृथ्वी भी नास्तिक हो जाए, तो नीति नष्ट नहीं होगी। नीति तो रहेगी, धर्म नष्ट हो जाएगा। और अगर पूरी पृथ्वी धार्मिक हो जाए, तो नीति की कोई जरूरत न रहेगी। वह ऊपरी खोल की तरह फेंकी जा सकती है।
अगर लोग सच में भीतर से अच्छे हों, तो बाह्य-आचरण, नियम, व्यवस्था की कोई भी आवश्यकता नहीं है। जितनी हमें बाहर की व्यवस्था करनी पड़ती है, उतनी ही खबर मिलती है कि भीतर हम विकृत और रुग्ण हैं। वह जो सड़क पर खड़ा हुआ पुलिस का सिपाही है, अदालत में बैठा हुआ मजिस्ट्रेट है, वह आपकी वजह से वहां बैठा है; चूंकि आप गलत हैं। अगर लोग ठीक हों तो पुलिसवाले और मजिस्ट्रेट की कोई जरूरत नहीं है। वह विदा हो जाए। उसे रखना फिजूल हो जाएगा; व्यर्थ हो जाएगा। कानून इसलिए हैं कि आप गलत हैं।
लाओत्सु ने कहा है, नीति का जन्म तभी होता है, जब धर्म खो जाता है। जब भीतर का ताओ नष्ट हो जाता है, तो बाह्य आचरण का हमें इंतजाम करना पड़ता है। जब प्रेम नहीं होता तो कर्तव्य को जगह देनी पड़ती है।
एक बेटा अपनी मां की सेवा कर रहा हो। अगर यह प्रेम के कारण है तो बेटा यह कभी भी नहीं कहेगा कि मेरा कर्तव्य है, इसलिए मैं मां की सेवा करता हूं। प्रेम के लिए ड्यूटी और कर्तव्य से ज्यादा कुरूप और भद्दा कोई शब्द नहीं है। प्रेम, इसलिए सेवा करता है कि सेवा आनंद है। जब प्रेम नहीं रह जाता, तो फिर बेटे को समझाना पड़ता है कि तुम्हारा कर्तव्य है, कि तुम मां की सेवा करो; वह तुम्हारी मां है; उसने तुम्हें जन्म दिया है, उसने तुम्हें बड़ा किया है; कि बूढ़े बाप के पैर दबाओ, यह तुम्हारा कर्तव्य है। और जब भी आप कहने लगते हैं, ‘मेरा कर्तव्य है’ तब आप समझना कि भीतर का प्रेम खो गया।
एक पति कहता है कि मैं पत्नी के लिए काम कर रहा हूं; नौकरी कर रहा हूं, धन कमा रहा रहा हूं--क्योंकि कर्तव्य है, ड्यूटी है--इसका अर्थ हुआ कि प्र्रेम समाप्त हो गया। जो पति प्रेम में है वह यह भूल कर भी सोच नहीं सकता कि यह कर्तव्य है। वह कहेगा, यह मेरा आनंद है। जिसे मैं प्रेम करता हूं, उसके लिए मैं सब-कुछ करूंगा। यह मेरा आनंद है, कर्तव्य नहीं; करने योग्य नहीं है, यही मेरा रस है। अगर मैं न करूं तो दुखी होऊंगा, करता हूं तो आनंदित हूं।
कर्तव्य वाले आदमी को अगर मौका मिल जाए कर्तव्य से बचने का, तो वह सुखी होगा। तो अगर वह नर्स को खोज सके मां की सेवा के लिए, तो नर्स को लगाना पसंद करेगा; क्योंकि कर्तव्य ही है। और नर्स कर्तव्य आपसे ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकेगी--टें्रड है, प्रशिक्षित है। अगर मां अपने बेटे को इसीलिए पाल रही है, क्योंकि कर्तव्य है, तो उचित होगा कि वह दाई को रख ले। दाई वह रख ही लेगी। वह अपने स्तन से दूध भी नहीं पिलाना पसंद करेगी--एक काम है, जो कोई और भी कर सकता है।
प्रेम काम नहीं है। उसे कोई दूसरा नहीं कर सकता। प्रेम में हम किसी दूसरे को नहीं रख सकते। प्रेम हम खुद ही करेंगे; वह कर्तव्य नहीं है। वह हमारे प्राणों का भीतरी स्वर है, वह बाहरी व्यवस्था नहीं है।
धर्म प्रेम की तरह है; नीति कर्तव्य की तरह है। इसलिए नीति करने की भाषा में बोलती है; यह करो, यह मत करो। और धर्म होने की भाषा में बोलता है; ऐसे हो जाओ, और ऐसे मत हो जाओ।
महावीर के ये सूत्र धर्म के सूत्र हैं। इन्हें समझने के पहले यह खयाल में ले लेना जरूरी है कि जोर बीइंग पर है, अंतरात्मा पर है; कर्म पर, कृत्य पर नहीं है। इसलिए महावीर से जब पूछा जाता है, तो वे यह नहीं कहते कि यह-यह काम मत करना। वे यह कहते हैं, इस भांति की चेतना हो जाना। बस, पाप-कर्म अपने आप बंद हो जाएंगे।
संत अगस्तीन से किसी ने पूछा है कि मैं क्या करूं कि पाप न हो; क्या करूं कि पुण्य हो? तो अगस्तीन ने कहा कि अगर मैं कर्तव्यों को गिनाने बैठूं तो बड़ी लंबी फेहरिस्त हो जाएगी; यह करो, यह मत करो। अगर एक-एक कर्तव्य को विस्तार से गिनाने बैठूं तो फेहरिस्त का कभी अंत नहीं होगा। और कितनी ही बड़ी फेहरिस्त हो, फिर भी तुम उसके भीतर से तरकीब निकाल लोगे जो तुम्हें करना है उसकी।
इसलिए कानून किसी को अपराध से नहीं रोक पाता। कानून के बीच से हमेशा रास्ता निकल आता है अपराध करने का। असल में कानून लोगों को सिर्फ कुशल अपराधी बनाता है। अकुशल अपराधी पकड़े जाते हैं, कुशल अपराधी सिंहासनों की यात्रा करते रहते हैं। कानून सिर्फ आपको समझदार बनाता है; चालाक बनाता है; होशियार बनाता है; गैर-अपराधी नहीं बनाता।
अगस्तीन ने उस आदमी को कहा: इसलिए तुझे मैं एक ही बात कह दूं, क्योंकि लंबी फेहरिस्त से कुछ न होगा। अगर तू प्रेम कर सकता है, तो फिर तू जो भी करेगा, वह ठीक होगा। और अगर तू प्रेम नहीं कर सकता, तो तू जो भी करेगा, वह गलत होगा।
अगस्तीन कह रहा है कि प्रेम एकमात्र नियम है। बात वही है, क्योंकि प्रेम कृत्य नहीं है, भीतरी अवस्था है। आपके कृत्य से प्रेम का पता नहीं चलता, आपके होने के ढंग से ही पता चलता है कि आप प्रेमपूर्ण हैं या नहीं।
आप कितने ही कृत्य करें, तो भी प्रेम को आप भर नहीं सकते। अगर प्रेम खो गया है, तो कितनी ही भेंट लाएं प्रेयसी के लिए और कितना ही इंतजाम करें, कितना ही अच्छा मकान बनाएं, बगीचा लगाएं, सब साधन-सुविधाएं जुटाएं; अगर प्रेम खो गया है, तो कोई भी चीज परिपूरक नहीं हो सकती। बड़े से बड़ा मकान, बड़े से बड़ी गाड़ी, बड़े से बड़ी व्यवस्था, नौकर-चाकर कुछ भी पूरा नहीं कर सकते। और अगर प्रेम है, तो सड़क पर भीख भी आप मांगते हों, तो भी घटना घट सकती है।
प्रेम आंतरिक है। आपके करने से संबंध नहीं है, आपके होने के ढंग से संबंध है। इसलिए प्रेम धर्म के निकटतम है। और अगर जीसस ने कहा कि लव इ़ज गॉड, ईश्र्वर प्रेम है, तो उसका अर्थ यही है कि हमारे जीवन में प्रेम, जैसे आंतरिक है, ऐसी ही आंतरिकता जब ईश्र्वर की हमारे भीतर होनी शुरू हो जाए तो हम धर्म के जगत में प्रवेश करते हैं।

सूत्र को लें:
‘भंते!’
कोई पूछता है महावीर से, कोई जिज्ञासा करता है:
‘भंते! साधक कैसे चले? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे? कैसे सोए? कैसे भोजन करे? कैसे बोले--जिससे पाप-कर्म का बंध न हो?’
पूछने वाला कृत्यों के संबंध में पूछ रहा है। कैसे चले, कैसे बैठे, कैसे सोए, कैसे भोजन करे, कैसे बोले? यह सब कृष्ण से अर्जुन ने पूछा है गीता में कि स्थितप्रज्ञ की भाषा क्या है? वह कैसे बोलता है? समाधिस्थ का व्यवहार क्या है? वह कैसा व्यवहार करता है? ऐसा ही कोई साधक, कोई जिज्ञासु महावीर से पूछ रहा है कि हम क्या करें? जोर, ध्यान दें, करने पर है; हम क्या करें, जिससे कि पाप-कर्म का बंध न हो।
पाप-कर्म के बंध से अर्थ है, जिससे मैं बंधूं न, गुलाम न होऊं; जिससे मैं कारागृह में बंद न होऊं; जिससे मेरी आंतरिक स्वतंत्रता नष्ट न हो; जिससे मैं भीतर खुले आकाश में विचरण कर सकूं; मुझे कोई बांधे न; कोई भी घटना मुझे बांधे न; मैं मुक्त रहूं, मेरा भीतरी मोक्ष नष्ट न हो।
यह समझ लेने जैसा है कि आदमी की गहनतम आकांक्षा स्वतंत्रता की है; गहनतम आकांक्षा मुक्ति की है। और जहां भी आप पाते हैं कि आपकी स्वतंत्रता में बाधा पड़ती है, वहीं कष्ट शुरू हो जाता है।
इसलिए जो भी आपकी स्वतंत्रता में बाधा डालते हैं--वे चाहे मित्र ही क्यों न हों--वे दुश्मन की भांति मालूम होने लगते हैं। जिनसे आप प्रेम करते हैं, अगर वे भी आपके जीवन में बाधा बन जाएं और परतंत्रता लाएं, तो प्रेम कड़वा हो जाता है; जहरीला हो जाता है और पाय़जन हो जाता है। फिर उस प्रेम से रस नहीं बहता। फिर उस प्रेम में दुख और पीड़ा समाविष्ट हो जाती है।
जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको सुख दे सके, अगर आपकी स्वतंत्रता को नष्ट करता हो। इसलिए मनीषियों ने कहा है कि मोक्ष परम तत्व है। इसका अर्थ आप समझ लेना। इसका अर्थ हुआ, टु बी फ्री--टोटल फ्री--समग्र रूप से मुक्त। जहां कोई चीज बाधा नहीं बनती, और जहां मैं अपने निज-स्वभाव में पूरी तरह रह सकता हूं। जहां कोई मजबूरी नहीं है।
ऐसे चित्त की दशा ही मनुष्य की खोज है।
तो न धन से पूरी होती वह खोज, क्योंकि धन भी चारों तरफ दीवाल बन जाता है। वह भी मुक्त कम करता और बांधता ज्यादा है।
धनी आदमी को देखें। वह धन से मुक्त नहीं मालूम पड़ता; धन से और भी बंधा हुआ मालूम पड़ता है। इसका यह मतलब नहीं है कि आप गरीब हैं तो धन से मुक्त होंगे। गरीब तो और भी मुक्त नहीं हो सकता। जो नहीं है धन उसके पास, वह उसे बांधे रहता है।
तो दुनिया में गरीब और अमीर नहीं हैं। दुनिया में धन के आकांक्षी और जिनको धन उपलब्ध हो गया, धनिक; दो तरह के लोग हैं। एक जिनको धन अभी उपलब्ध नहीं हुआ है; ऐसे धनी; और एक जिनको धन उपलब्ध हो गया है, ऐसे धनी। गरीब तो खोजना बहुत मुश्किल है; गरीब का मतलब यह है कि जिसे धन की आकांक्षा ही नहीं है; जो धन की दौड़ में ही नहीं है। लेकिन वैसा गरीब सम्राट हो जाता है। धन मिल जाता है तो धन मुक्त नहीं करता दिखाई पड़ता; और भी बांध लेता है, कस कर बांध लेता है।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में एक अमीर आदमी था। और जैसा कि अमीर होते हैं, महाकृपण था। कपड़े भी कभी धोता था, इसमें शक था; क्योंकि धोने से कपड़े जल्दी नष्ट हो जाते। घर में बीमारी आ जाए तो इलाज नहीं करवाता था! क्योंकि बीमारी तो अपने से ही ठीक हो जाती है, इलाज तो नाहक पैसे का खर्च है! उसने सब तरह के सिद्धांत बना रखे थे जो उसके पैसे को बचाते थे।
फिर गांव में एक जादूगर, एक मदारी आया और उसकी बड़ी चर्चा फैली कि वह बड़े गजब के खेल दिखा रहा है। उसके खेल का नाम था: दि मिरेकल--चमत्कार। आखिर उस कंजूस को भी मन में खयाल उठने लगा। लेकिन मन में बड़ी पीड़ा होती थी, क्योंकि पत्नी कहती थी अगर तुम गए तो मैं भी जाऊंगी; बेटा कहता था, अगर तुम गए तो मैं भी जाऊंगा। तो तीन रुपये का खर्च था; एक रुपया टिकट थी एक-एक आदमी की।
तो तीन रुपये के मारे वह बड़ा परेशान था। मगर रोज खबरें आतीं कि बड़ा चमत्कार हो रहा है; बड़ा अदभुत जादू है, ऐसा कभी देखा नहीं। तो उसकी जिज्ञासा बढ़ती गई। आखिर संयम टूट गया। आखिरी दिन जब कि वह मदारी जाने वाला था, वह भी पहुंच गया अपनी पत्नी, बच्चे को लेकर। क्यू में खड़ा हो गया।
नसरुद्दीन भी यह देख कर कि कंजूस तीन रुपये खर्च करने जा रहा है, उसके पीछे-पीछे गया। वह भी क्यू में खड़ा हो गया कि क्या होता है। जब कंजूस पहुंचा खिड़की पर तो उसने मोल-भाव करना शुरू किया। खिड़की पर बैठी लड़की ने बहुत बार कहा कि मोल-भाव का सवाल ही नहीं है, तुम्हें देखना हो तो तीन रुपये खर्च होंगे। और अब देर मत करो, पहली घंटी हो चुकी है।
वह बार-बार खीसे में हाथ डालता और बाहर निकाल लेता। वह कहता कि आखिर डेढ़ रुपये में नहीं हो सकता क्या? और अब कोई भी तो नहीं है, हम तीन ही बचे हैं; एक मुल्ला नसरुद्दीन भर पीछे खड़ा है।
उस लड़की ने कहा: अब आप टिकट लेते हैं या मैं खिड़की बंद करूं? आखिर उसने तीन रुपये... उसकी आंखों में आंसू भी आ गए। उसने तीन रुपये निकाल कर दिए। नसरुद्दीन ने कहा: नाउ आइ कैन गो टु माई होम, आइ हैव सीन दि मिरेकल--अब मुझे अंदर जाने की कोई जरूरत ही नहीं है, चमत्कार तो मैंने देख ही लिया।
धन भी पकड़ लेता है; प्रेम भी जिसे हम कहते हैं, वह भी पकड़ लेता है और जकड़ लेता है। हम जीवन में जो कुछ भी करते हैं, वह सब हमें गुलाम ही किए चला जाता है।
जिज्ञासु महावीर से पूछ रहा है कि वह कौन सी कला है--किस ढंग से उठें, बैठें, चलें, व्यवहार करें कि कोई बंधन हमें न बांधे?
‘पाप-कर्म’ बंधन का पुराना नाम है। वह पुरानी भाषा है, जिससे हमारी स्वतंत्रता नष्ट न हो और हम उस अवस्था में पहुंच जाएं, जहां हम परम स्वतंत्र हैं। वही आनंद है। इसलिए महावीर ब्रह्म को भी परम अवस्था नहीं कहते--मोक्ष को परम अवस्था कहते हैं। क्योंकि जहां ब्रह्म भी मौजूद हो, दूसरा भी मौजूद हो, वहां थोड़ा बंधन होगा। जहां कोई भी न रह जाए; सिर्फ स्वयं का होना ही आखिरी स्थिति है, उस कैवल्य को कैसे पाया जाए? लेकिन पूछने वाला पूछ रहा है कर्म की भाषा में। जिज्ञासु कर्म की भाषा में ही पूछेगा।
महावीर ने उससे कहा:
‘आयुष्मान! साधक विवेक से चले; विवेक से खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोए; विवेक से भोजन करे; विवेक से बोले, तो उसे पाप-कर्म नहीं बांधता।’
यहां एक क्रांतिकारी फर्क हो गया। महावीर का जोर कैसे चले, इस पर नहीं है; कैसे बैठे, इस पर नहीं है; कैसे उठे, इस पर नहीं है। सभी क्रियाओं के बीच उन्होंने विवेक को जोड़ दिया--विवेक से चले, विवेक से खड़ा हो, विवेक से बैठे।
उठने-बैठने का मूल्य नहीं है, विवेक का मूल्य है। और ‘विवेक’ महावीर का कीमती शब्द है। विवेक से महावीर का अर्थ है: अवेयरनेस, होश। लेकिन जैन-परंपरा उसे बड़ा गलत समझी। जैन-परंपरा ने विवेक का शाब्दिक अर्थ लिया है--डिसक्रिमिनेशन। जैन-परंपरा ने सोचा कि भेद करके चलें कि यह गलत है, यह न करूं; और यह ठीक है, यह करूं, यह विवेक का अर्थ लिया।
अगर यह विवेक का अर्थ लिया तो जिज्ञासु की और परमज्ञानी की भाषा में कोई फर्क ही नहीं हुआ। जिज्ञासु भी यही पूछ रहा था। इसलिए पंडितों को भी लगा कि अर्थ यही होगा महावीर का कि ‘विवेक से चले’--इसका मतलब यह कि देख कर चले कि जमीन पर कोई कीड़ा-मकोड़ा तो नहीं चल रहा है, हरी घास तो नहीं उगी है।
‘विवेक से सोए’--देख कर सोए कि कोई स्त्री तो कमरे में मौजूद नहीं है।
‘विवेक से भोजन करे’--देख ले कि जो भोजन दिया गया है, वह सब तरह से शुद्ध है। शुद्ध हाथों से बनाया गया है। और उसमें कोई अशुद्धि तो नहीं है।
एक अर्थ में पंडितों ने जो अर्थ लिया, वह ठीक मालूम पड़ेगा। क्योंकि साधक ने जो पूछा था, जिज्ञासु ने जो सवाल उठाया था, अगर महावीर उसी तल पर जवाब दे रहे हों, तो पंडितों ने जो अर्थ किए हैं जैन-परंपरा में, वे ठीक हैं। लेकिन जहां अज्ञानी पूछता है और ज्ञानी उत्तर देता है, वहां डाइमेन्शन, आयाम बदल जाते हैं; अज्ञानी की भाषा और ज्ञानी की भाषा में बुनियादी अंतर हो जाता है। जहां अज्ञानी की भाषा बहिर्मुखी होती है, ज्ञानी की भाषा अंतर्मुखी हो जाती है।
इसमें समझ लेना यह है कि सारी क्रियाओं के बीच जिस बात पर जोर है, वह विवेक है। क्रियाएं गौण हैं, विवेक महत्वपूर्ण है। और विवेक का अर्थ डिसक्रिमिनेशन नहीं है, भेद नहीं है। विवेक का अर्थ होश है, अमूर्च्छा है, अप्रमाद है, जागरूकता है। अगर विवेक का अर्थ--भेद है--गलत और सही में, तो बात बाहरी हो गई कि मैं चोरी न करूं, दान करूं। लेकिन अगर विवेक का अर्थ आंतरिक जागरूकता है, तो बाहर भेद करने का कोई सवाल नहीं है; भीतर मैं जागरूक रहूं। अगर भीतर मैं जागरूक हूं, तो चोरी होगी ही नहीं; नहीं करने का सवाल नहीं है। दान होगा; करने का सवाल नहीं है।
विवेक से जागा हुआ व्यक्ति बांटता ही रहता है। बांटना उसका आनंद हो जाता है। विवेक से जीता हुआ व्यक्ति दूसरे से छीनने का सोच भी नहीं सकता, क्योंकि दूसरे के पास न छीनने को कुछ है, न दूसरे से कुछ छीना जा सकता है। और छीनने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि जो भी हो सकता है, वह मेरे भीतर स्वयं मौजूद है। विवेक से जागा हुआ व्यक्ति अपनी अपार संपदा को देखता है।
इस अपार संपदा का मालिक चोरी करने जाएगा, किसी से छीनेगा, झपटेगा; यह सवाल ही नहीं उठता है। और इस विवेक में एक महत्वपूर्ण बात दिखाई पड़नी शुरू होती है कि जो मैं देता हूं, उसी का मैं मालिक हूं; जो मैं दे सकता हूं, वही मेरी संपदा है; जो मैं रोक लेता हूं, उसका मैं मालिक नहीं हूं।
इसलिए ध्यान रहे, जो भी आप दे पाते हैं, आप सिर्फ उसके ही मालिक हैं। दान ही खबर देता है कि आप मालिक थे। कंजूस मालिक नहीं है अपने धन का, धन ही कंजूस का मालिक है। जो दे सकता है, आनंद से दे सकता है! ध्यान रहे, सामान्य आदमी आनंद से ले सकता है, दे नहीं सकता। देने में पीड़ा है, लेने में सुख है। लेकिन अगर लेने में सुख है और देने में पीड़ा है, तो आपका जीवन पूरा का पूरा पीड़ा से भरा रहेगा।
जैसे ही व्यक्ति के जीवन में क्रांति घटित होती है, होश आता है, सारे नियम बदल जाते हैं। लेने की जगह देना नियम हो जाता है। लेने में सुख नहीं, देने में सुख शुरू हो जाता है। इसलिए चोरी का तो प्रश्र्न नहीं है। दूसरे को नुकसान पहुंचाने का सवाल नहीं है। क्योंकि हम नुकसान दूसरे को इसीलिए पहुंचाना चाहते हैं कि हम भयभीत हैं कि दूसरा हमें नुकसान न पहुंचा दे।
मैक्यावली ने कहा है कि इसके पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम आक्रमण कर देना; क्योंकि पहले आक्रमण कर देना सुरक्षा का सुगमतम उपाय है, एकमात्र डिफेंस है जगत में। जहां हम खड़े हैं अंधेरे में, वहां पहले हमला कर देना है, इसके पहले कि कोई हमला करे।
इसके पहले कि कोई मुझसे छीन ले, मैं छीन लूं; इससे पहले कि कोई मुझे दुख दे, मैं उसे दुख दे दूं; यही इस अंधेरे में चलती हुई व्यवस्था है। जैसे ही कोई भीतर होश से भरता है, यह सारी व्यवस्था बदल जाती है। इसके पहले कि कोई मुझसे छीने, मैं दे दूं, और देने से आनंदित हो जाऊं।
जीसस ने कहा है: कोई अगर तुम्हारा कोट छीने, तो तुम कमीज भी दे देना। और कोई अगर तुमसे एक मील बोझ ढोने को कहे, तो तुम दो मील तक चले जाना।
जीसस के इस वचन को ईसाइयत ठीक से समझ नहीं पाई। यह वचन जीसस को भारत से ही मिला। यह वचन बौद्ध विश्र्वविद्यालयों की हवा से जीसस को मिला। और इसके पीछे दान का सवाल नहीं है, इसके पीछे होश का सवाल है। जितना होशपूर्ण व्यक्ति हो, उतना छीनने से मुक्त हो जाता है और देने में सरल हो जाता है।
महावीर को ध्यान रखें। चलें, खड़े हों, बैठें, सोएं, भोजन करें, बोलें--यह सब गौण है। सबके भीतर एक शर्त है, विवेक से। अगर विवेक सध जाए, तो सब सध जाएगा।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन को उसके चिकित्सक ने कहा कि तू शराब पीना बंद कर दे। अब नशा बहुत ज्यादा बढ़ने लगा है।
...गया था चिकित्सक के पास। तो हाथ जब चिकित्सक ने उसका अपने हाथ में नाड़ी देखने को लिया, तो उसका हाथ इतना कंप रहा था कि उसके चिकित्सक ने कहा कि मालूम होता है, जरूरत से ज्यादा पीने लगे हो! बहुत पी रहे हो! हाथ इतना कंप रहा है!
नसरुद्दीन ने कहा: कहां पी पाता हूं! ज्यादा तो जमीन पर ही गिर जाती है। पर चिकित्सक ने कहा: अब बहुत हो गया, अब रुको! तुम्हारे गिरने का वक्त करीब आया जा रहा है। तुम यह शराब बंद करो, इसी से नशा हो रहा है।
नसरुद्दीन ने कहा कि मैं थोड़ा वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी हूं। पक्का नहीं कि नशा किस बात से हो रहा है, क्योंकि मैं शराब में सोडा मिला कर पीता हूं। पता नहीं, सोडा से हो रहा है।
चिकित्सक ने कहा: क्या तुम पागल हो गए हो, नसरुद्दीन?
नसरुद्दीन ने कहा: मुझे कुछ दिन का वक्त दो। मेरे पास जरा वैज्ञानिक बुद्धि है, मैं प्रयोग करके देख लूं।
तो उसने एक दिन ब्रांडी में सोडा मिला कर पीया। फिर दूसरे दिन उसने व्हिस्की में सोडा मिला कर पीया। फिर तीसरे दिन तीसरी तरह की शराब में सोडा मिला कर पीया। ऐसे सात दिन उसने देखा कि हर हालत में नशा होता है--और एक ही कामन एलिमेंट है, सोडा।
तो उसने चिकित्सक को कहा कि तुम गलती में हो, और जिसने भी तुमको कहा कि शराब से नशा होता है, वह नासमझ है। मैंने हर हालत में, हर चीज से सोडा मिला कर पीकर देख लिया है। लेकिन सोडा ही नशे का कारण है। तो अब मैं सोडा छोड़ता हूं, खाली शराब पीऊंगा।
महावीर ने अनुभव से जाना है कि मूर्च्छा हर कृत्य के पीछे पाप है। हर कृत्य के पीछे मूर्च्छा पाप है। आप क्या करते हैं, यह बात बहुत मूल्यवान नहीं है। उसके पीछे मूर्च्छा है, बेहोशी है। वही बेहोशी उपद्रव है। बेहोशी का कारण कोई भी हो सकता है।
मैं एक बहुत बड़े सिने-दिग्दर्शक सी. बी. डिमायल का जीवन पढ़ता था। उसने बड़े अनूठे चित्र निर्मित किए हैं। अरबों रुपये के खर्च से एक-एक दृश्य बनाया। मरते वक्त डिमायल का खयाल था कि एक दृश्य और मैं ले लूं--जगत की सृष्टि का दृश्य, जब परमात्मा छह दिन में जगत बनाता है--कैसे बनता है जगत। अरबों-अरबों डालर का खर्च था। लेकिन उसने हिम्मत की और स्पेन में एक घाटी खरीदी। और उस एकांत निर्जन घाटी में अरबों रुपयों का वैज्ञानिक इंतजाम किया; दस मिनट की व्यवस्था की कि कैसे प्रकाश पैदा होता है। फिर कैसे पृथ्वी का जन्म होता है। फिर कैसे पौधे पैदा होते हैं। फिर कैसे जीवन का अवतरण होता है--और छह दिन में परमात्मा कैसे प्रकृति को पूरा निर्मित करता है।
जगत का, विश्र्व का जन्म! यह इतना खर्चीला मामला था, और दस मिनट में अरबों डालर का खर्च था। और एक ही बार यह हो सकता था। अगर इसका दुबारा फिर से चित्र लेना पड़े, अगर एक दफे में फिल्म गलत हो जाए, कैमरामैन भूल-चूक कर जाए, तो फिर दस गुना खर्च होगा। और बड़ा उपद्रव था।
इसलिए डिमायल ने चारों तरफ पहाड़ियों पर चार कैमरामैन के समूह खड़े किए; और सबको हर हालत में चेतावनी दी कि सब चित्र लेना ताकि कोई भूल-चूक न हो जाए। एक ही बार में यह घटना हो जानी चाहिए।
फिर जन्म हुआ उस वैज्ञानिक व्यवस्था से प्रकाश का, खुद डिमायल रोने लगा, इतना अदभुत दृश्य था; कंपने लगा; आनंदविभोर हो गया। और जब दृश्य पूरा हुआ दस मिनट के बाद, तो उसने पहला काम किया कि पहले कैमरामैन को फोन किया और पूछा कि क्या हालत है? उस कैमरामैन ने कहा कि क्षमा करें, मैं शर्मिंदा हो रहा हूं कि क्या कहूं। मैं तो भूल ही गया। दृश्य इतना अदभुत था कि मैं देखने में लग गया, चित्र तो ले नहीं पाया।
डिमायल की जैसी आदत थी, उसने दो-चार भद्दी गालियां दीं, और उसने कहा कि मुझे पता ही था कि यह उपद्रव होने वाला है, इसलिए मैंने चार इंतजाम किए।
दूसरे को फोन किया। उसने कहा कि सब ठीक था, लेकिन फिल्म चढ़ाना भूल गए। यह तो जब दृश्य खत्म हो गया, कैमरे में झांका तो पता लगा कि हम नाहक ही शटर दबाते रहे, फिल्म तो थी ही नहीं।
अब तो उसका हृदय धड़कने लगा कि यह तो बहुत मुश्किल मामला दिखता है।
तीसरे को डरते हुए फोन किया। तीसरे ने कहा कि क्या आपको कहूं, मर जाने का मन होता है। सब ठीक था; फिल्म ठीक चढ़ी थी; कैमरा बिलकुल तैयार था--लेंस से टोपी उतारना भूल गया। दृश्य ही ऐसा था डिमायल, कि हम क्या करें।
चौथे को तो उसे भय होने लगा फोन करने में। लेकिन जब चौथे को फोन किया तो आशा बंधी। उसने कहा: हलो सी. बी.--चौथे आदमी ने कहा, उसकी आवाज से ऐसा लगा कि कम से कम चौथा ठीक अवस्था में चित्र ले लिया होगा। तो उसने पूछा कि कोई गड़बड़ तो नहीं? उसने कहा कि बिलकुल नहीं। सब ठीक है? उसने कहा: ऐसा ठीक कभी नहीं था, जैसा सब ठीक है।
फिल्म चढ़ी है?
बिलकुल फिल्म चढ़ी है।
तुमने टोपी अलग कर ली लेंस की?
बिलकुल अलग है।
डिमायल ने कहा: धन्यवाद परमात्मा का!
उसे चौथे आदमी ने कहा: रिलैक्स सी. बी., जस्ट गिव ए हिंट; व्हेन यू आर रेडी, वी आर रेडी--बस, जरा इशारा करो, हम बिलकुल तैयार हैं।
पता चला वह चौथे आदमी में जो जान मालूम पड़ रही थी, वह नशा किए था। वह शराब पी गया था। अभी उनको यह पता ही नहीं था कि वह दृश्य हो चुका!
महावीर जीवन की सारी भूल, सारे पाप के पीछे, मूर्च्छा को, बेहोशी को...।
बेहोशी का कारण कुछ भी हो। चाहे उत्तेजना आ जाए, तो भी आदमी बेहोश हो जाता है। क्रोध आ जाए, तो भी आदमी बेहोश हो जाता है। कामवासना आ जाए, तो भी आदमी बेहोश हो जाता है। लोभ पकड़ ले, तो भी आदमी बेहोश हो जाता है। अहंकार पकड़ ले, तो भी आदमी बेहोश हो जाता है।
एक तत्व खयाल में रखने जैसा है कि जब भी कोई बुराई पकड़ती है, तो उसमें एक अनिवार्य भीतरी शर्त है कि आप बेहोश होने चाहिए। आपने क्रोध में देखा होगा कि आप ऐसा काम कर लेते हैं, जो आप कभी कर नहीं सकते थे। बाद में पछताते हैं, रोते हैं, सोचते हैं, यह कैसे किया? लेकिन वह किया इसलिए कि आप उस वक्त होश में नहीं थे।
लोभ में आदमी कुछ भी कर लेता है। अहंकार में आदमी कुछ भी कर लेता है। कामवासना से भरा हुआ आदमी कुछ भी कर लेता है। विक्षिप्तता पकड़ लेती है। महावीर का निदान यह है कि आप जब भी बुरा करते हैं, तो क्या बुरा करते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है; उस बुरे के पीछे एक अनिवार्य बात है कि आप होश में नहीं होते।
इसलिए कृत्यों को बदलने का कोई सवाल नहीं है। भीतर से होश सम्हालने का सवाल है। और मूर्च्छा छोड़ने का सवाल है। उठते, बैठते, सोते, भोजन करते, होशपूर्वक करना है।
आप चलते हैं--आपका चलना बेहोश है। आपको चलते वक्त बिलकुल पता नहीं होता कि आप चल भी रहे हैं। चलने का काम शरीर करता है। यह ऑटोमैटिक है, यांत्रिक है।
चलने को भी छोड़ दें। एक आदमी साइकिल चला रहा है; उसे पता भी नहीं होता है कि वह चला रहा है। आप अपनी कार चला रहे हैं। आप कहां मुड़ जाते हैं, कब घर के दरवाजे पर आप आ जाते हैं, कब अपने गैरेज में चले जाते हैं, इस सबके लिए आपको सोचने की जरूरत नहीं है। इस सबका होश भी रखने की जरूरत नहीं है। यह सब होता है रोज की यांत्रिकता से। अगर कोई बीच में एक्सीडेंट होने की अवस्था आ जाए, तो क्षण भर को होश आता है, अन्यथा यंत्रवत सब चलता रहता है।
आपने कभी देखा, अचानक एक्सीडेंट होने की हालत आप कार चलाते हों और आ जाए, तो एक झटका लगता है नाभि पर; सारा शरीर का यंत्र हिल जाता है। विचार बंद हो जाते हैं। एक सेकेंड को होश आता है, अन्यथा सब बेहोशी में चलता चला जाता है।
हमारी जिंदगी पूरी बेहोशी में चलती चली जाती है। जैसे हम सोते हुए चल रहे हों। हमें पता ही नहीं होता, हम क्या कर रहे हैं। बस, यंत्रवत करते चले जाते हैं। रोज वही करते हैं, इसलिए रोज वही करते चले जाते हैं। ठीक वक्त भोजन कर लेते हैं; ठीक वक्त सो जाते हैं; ठीक वक्त प्रेम कर लेते हैं; ठीक वक्त स्नान कर लेते हैं। सब बंधा हुआ है। उस बंधे में आपको सोच-विचार की, होश की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
इस अवस्था को महावीर सोई हुई अवस्था कहते हैं, एक तरह से हिप्नोटाइज्ड, नशे में। और महावीर कहते हैं, यही पाप का मूल कारण है। इसलिए जो भी हम करते हैं, उस करने में होश न होने की वजह से हम बंधते हैं। हम प्रेम करें तो बंध जाते हैं। हम धर्म करें तो बंध जाते हैं। हम मंदिर जाएं तो गुलामी हो जाती है, हम न जाएं तो गुलामी हो जाती है।
हम जो कुछ भी करें, मूर्च्छा से गुलामी का जन्म होता है। मूर्च्छा गुलामी की जननी है। इसलिए महावीर कहते हैं, विवेक से चले, विवेक से खड़ा हो, विवेक से बैठे, विवेक से सोए, विवेक से भोजन करे, विवेक से बोले, तो उसे पाप-कर्म नहीं बंधता।
प्रत्येक कृत्य में विवेक समाविष्ट हो जाए। प्रत्येक कृत्य की माला मनके की तरह हो जाए और भीतर विवेक का धागा फैल जाए। चाहे किसी को दिखाई पड़े या न पड़े लेकिन आपको विवेक भीतर बना रहे।
कैसे करेंगे इसे? हमें आसान होता है, अगर कोई कृत्य बदलने को कह दे। कह दे कि दुकान छोड़ दो, मंदिर में बैठ जाओ; समझ में आता है; सरल बात है; क्योंकि छोड़ने वाला तो बदलता नहीं है। वह तो पकड़ने वाला ही बना रहता है।
मकान छोड़ देते हैं, मंदिर पकड़ लेते हैं। पकड़ने में कोई फर्क नहीं आता। मुट्ठी बंधी रहती है। धन छोड़ते हैं, त्याग पकड़ लेते हैं। गृहस्थ का वेश छोड़ते हैं, साधु का वेश पकड़ लेते हैं। पकड़ना जारी रहता है। मूर्च्छा में कोई अंतर नहीं पड़ता है।
ऊपरी चीजें बदल जाती हैं; लेबल बदल जाते हैं; नाम बदल जाते हैं; भीतर की वस्तु वही की वही बनी रहती है। इसलिए बहुत आसान है कि कोई हम से कह दे कि हिंसा मत करो। मांसाहार मत करो। रात पानी मत पीओ। बिलकुल आसान है, छोड़ देते हैं।
लेकिन कोई हमसे कहे, चौबीस घंटे होश रखो। यह बड़ा कठिन है। एक सेकेंड भी होशपूर्वक जीना अत्यंत दूभर है। अत्यंत दूभर है! अगर आप कोशिश करें पांच मिनट रास्ते पर चलने की कि मैं होशपूर्वक चलूंगा, तो आप पाएंगे कि एक सेकेंड भी नहीं चल पाए, दो कदम भी नहीं उठा पाए कि मन कहीं और चला गया। आप फिर यंत्र की भांति चलने लगे।
भीतर से इस यांत्रिकता को तोड़ने का सवाल है। भीतर यह यंत्रवत्ता न रह जाए। कुछ भी हो मेरे जीवन में, हाथ भी हिले, आंख भी झपके, तो मेरी जानकारी के बिना न हो। मैं होश से भरा रहूं, तो ही हो।
कठिन होगा। तपश्र्चर्या होगी। और बड़ी चेष्टा के बाद ही, वर्षों और जन्मों की चेष्टा के बाद ऐसी क्षमता भीतर आनी शुरू होती है, ऐसा इंटिग्रेशन और क्रिस्टेलाइजेशन होता है, जब आदमी होशपूर्वक होता है।
गुरजिएफ पश्र्चिम में एक महत्वपूर्ण संत था अभी, इस सदी में। मरने के कुछ दिन पहले उसने डेढ़ सौ मील की रफ्तार से कार चलाई और जान कर दुर्घटना की। दुर्घटना भयंकर थी; जान कर की गई थी। एक चट्टान, एक वृक्ष से जाकर टकरा गया। कोई डेढ़ सौ फ्रैक्चर हुए। पूरे शरीर की हड्डी-हड्डी टूट गई। कुछ बचा ही नहीं साबित। और जब उसके मित्रों ने कहा... लेकिन वह पूरे होश में था, होश नहीं खोया था। तो जब उसके मित्रों ने, शिष्यों ने कहा कि यह आपने क्या किया? डेढ़ सौ मील की रफ्तार से गाड़ी चलाने का कोई कारण न था इतने संकरे रास्ते पर। कोई प्रयोजन भी नहीं था। कोई जल्दी भी नहीं थी।
तो गुरजिएफ ने कहा कि यह सब जान कर किया गया है। और मैं मरने के पहले यह देखना चाहता था कि मेरा शरीर चकनाचूर हो जाए, तो भी मेरा होश न खोए। अब मैं निश्र्चिंत हूं। अब मरते वक्त मौत मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती; मेरा होश कायम रहेगा। इससे ज्यादा मौत क्या करेगी! सारा शरीर टूट गया है, लेकिन एक क्षण को होश नहीं खोया है!
उसका शिष्य ऑस्पेंस्की मरते वक्त, गुरजिएफ का शिष्य अपने मित्रों को अपने साथ लिया और कार से यात्रा पर निकल गया। कहीं रुके ही नहीं। रात आ जाए, तो भी गाड़ी चलाता रहे। आखिर उसके मित्रों ने कहा, यह क्या कर रहे हो? तीन दिन हो गए हैं, न तुम रुकते, न तुम सोते।
तो ऑस्पेंस्की ने कहा कि मैं जागते हुए ही मरना चाहता हूं। सोते में, नींद में पता नहीं, मैं मौत के वक्त ठीक होश रख सकूं, न रख सकूं। तो मैं मरूंगा तो मैं चलते ही रहना चाहता हूं इस कार में; चलाते ही रहना चाहता हूं इसको। मैं मरना चाहता हूं जागता हुआ, ताकि मुझे पक्का पता हो कि जब मौत आई, तो मेरे भीतर होश जरा भी नहीं खोया।
महावीर इस विवेक को कह रहे हैं। उनका विवेक कोई नैतिक बात नहीं है, एक बड़ी यौगिक प्रक्रिया है। आप कुछ भी करते हैं, आपको पता ही नहीं होता। आप बैठे हैं, आपका पैर हिल रहा है कुर्सी पर। आप कोई कारण बता सकते हैं, क्यों हिल रहा है? अगर आपको मैं कहूं कि आपका पैर हिल रहा है, आप नाहक पैर हिला रहे हैं; क्योंकि चल नहीं रहे हैं, बैठे हैं, तो पैर क्यों हिला रहे हैं? तो पैर रुक जाएगा। क्योंकि आपको होश आ गया। लेकिन कारण आप भी नहीं बता सकते।
महावीर कहेंगे कि अगर कुर्सी पर बैठ कर पैर भी हिल रहा है, तो होशपूर्वक ही हिलाओ, जानते हुए हिलाओ कि कोई कारण है। कारण जरूर है वहां; एक बेचैनी है भीतर। वह बेचैनी पैर से बह रही है। आप बैठे हैं, तो करवट ही बदलते रहेंगे बैठे हुए। वह बेचैनी करवट बदल रही है। भीतर एक बेचैनी का विक्षिप्त ज्वर चल रहा है। कोई चैन नहीं है।
इस बेचैनी को जानो और निकालो--लेकिन होशपूर्वक। इसको बेहोशी में मत बहने दो। क्योंकि यह बेहोशी में अगर बह रहा है, तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम न तो अपने मालिक हो, न अपने कृत्यों के मालिक हो सकते हो। क्योंकि जो इतने छोटे कृत्यों का मालिक नहीं है, वह सोचे कि मैं चोरी नहीं करूंगा, मैं क्रोध नहीं करूंगा, मैं हत्या नहीं करूंगा, उसका आप भरोसा मत करना।
आप कभी सोचते हैं कि आप हत्या करेंगे? आप कभी नहीं सोचते। जिन्होंने हत्या की हैं, उन्होंने भी करने के पहले कभी नहीं सोचा था कि हत्या करेंगे। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जो लोग निरंतर सोचते रहते हैं कि हत्या करेंगे, वे हत्या नहीं करते। अक्सर वे लोग हत्या करते हैं, जिन्होंने कभी सोचा ही नहीं। लेकिन किसी ज्वर के क्षण में, विक्षिप्तता के क्षण में घटना घट जाती है। वे किसी की गर्दन दबा देते हैं। दबाने के बाद ही उनको पता चलता है कि यह क्या कर बैठे! यह क्या हो गया!
लेकिन यह आप भी कर सकते हैं! क्योंकि जिन्होंने किया है, वे आप ही जैसे भले लोग थे। उनमें कोई अंतर नहीं था करने के पहले। करने के पहले वे भी भरोसा नहीं कर सकते थे कि उनसे और हत्या हो सकती है! लेकिन उनसे हो गई। आपसे भी हो सकती है।
होने का सारा कारण मौजूद है--क्योंकि आप बेहोश हैं। आप जा रहे हैं, आपने कभी चोरी नहीं की, लेकिन आपको लाख रुपये के नोट रखे हुए दिखाई पड़ जाएं, चोर जो भीतर सोया था, फौरन जग जाएगा। वह आपको हजार दलीलें दे देगा। वह हजार दलीलें खोज लेगा। वह दलीलें फिर बुद्धि को समझाने के लिए हैं ताकि होश न रह जाए; ताकि बुद्धि सो जाए। चोरी आपसे हो जाएगी। यह जो चोरी है, यह आप किसी भी क्षण कर सकते हैं। आप कहेंगे कि मैं नहीं कर सकता। उसका कारण है कि पांच रुपये का नोट रहा होगा, पांच लाख नहीं रहे होंगे। पांच रुपये के नोट की आप चोरी नहीं करते--उतना आपकी मूर्च्छा के लिए काफी नहीं है। हर आदमी की चोरी की सीमा है। गरीब आदमी पांच रुपये की कर लेता है, अमीर आदमी पांच लाख की करता है। और अमीर आदमी है, पांच करोड़ की करता है। वह पांच करोड़ की चोरी करने वाला पांच की चोरी नहीं करता, इससे आप यह मत समझ लेना कि अचोर है। पांच रुपये की चोरी करने वाला पांच कौड़ी की नहीं करेगा, इससे आप यह मत समझना कि वह अचोर है।
तब तक चोरी नहीं मिटेगी, जब तक मूर्च्छा नहीं मिटती। यह हो सकता है कि आपकी चोरी की कीमत हो कि कितनी कीमत पर आप चोरी करेंगे। छोटे आदमी छोटी चोरी करते हैं, बड़े आदमी बड़ी चोरी करते हैं। छोटे आदमी बहुत सी चोरी करते हैं--क्योंकि छोटी-छोटी करते हैं। बड़े आदमी थोड़ी चोरी करते हैं; कभी करते हैं; एकाध करते हैं--लेकिन बड़ी करते हैं। वह सब पूरा कर लेते हैं। पूरी जिंदगी की चोरी एक दफा में निपटा लेते हैं।
हर आदमी की कीमत है। और कीमत परिस्थिति पर निर्भर है, आपके होश पर निर्भर नहीं है। आप सभी तरह के पाप कर सकते हैं, जो किसी मनुष्य ने कभी किए हों।
इसे ध्यान में रखें। हर आदमी के भीतर पूरी मनुष्यता बैठी हुई है। जो पाप कभी भी हुआ है इस पृथ्वी पर, वह आप भी कर सकते हैं। उलटी बात भी सही है, जो पुण्य इस पृथ्वी पर कभी भी हुआ है, वह आप भी कर सकते हैं। आपके भीतर चंगीज खान बैठा है और महावीर भी बैठे हैं। दोनों की मौजूदगी है। और दोनों की मौजूदगी इस बात पर निर्भर करती है कि कौन सक्रिय हो जाएगा।
मूर्च्छा बढ़ती चली जाए तो आप चंगीज खान की तरफ गिरने लगते हैं। होश बढ़ने लगे तो महावीर की तरफ उठने लगते हैं। परम होश के क्षण में वही आपके भीतर से भी होगा जो बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को, क्राइस्ट को हुआ है। परम बेहोशी के क्षण में वही आपसे होगा जो हिटलर से, नेपोलियन से, सिकंदर से, चंगीज खान से, तैमूरलंग से हुआ है।
आपके भीतर दोनों छोर मौजूद हैं। और ये जो सीढ़ियां हैं बीच की, ये होश या मूर्च्छा की सीढ़ियां हैं। नीचे की तरफ उतरें तो मूर्च्छित होते चले जाते हैं। ऊपर की तरफ उठें तो होश से भरते चले जाते हैं। होश से भरते चले जाएं तो आप ऊपर उठते हैं। यह महावीर की मौलिक आधारशिला है।
‘जो सब जीवों को अपने समान समझता है, अपने-पराए, सबको समान दृष्टि से देखता है, जिसने सब आश्रवों का निरोध कर लिया है, जो चंचल इंद्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बंधन नहीं होता।’
जैसे-जैसे होश बढ़ता है, वैसे-वैसे सभी जीवों के भीतर वही ज्योति दिखाई पड़ने लगती है, जो मेरे भीतर है। जैसे-जैसे बेहोशी बढ़ती है, खुद के भीतर ही आत्मा का पता नहीं चलता, दूसरों के भीतर तो चलने का कोई सवाल ही नहीं है। जिसे मैं अपने भीतर नहीं जानता, उसे मैं दूसरे के भीतर कभी भी नहीं जान सकता हूं। जो मैं अपने भीतर जानता हूं, वही मुझे दूसरे के भीतर भी दिखाई पड़ सकता है।
ज्ञान का पहला चरण भीतर घटेगा। फिर उसकी किरणें दूसरों पर पड़ती हैं। मुझे यही पता नहीं है कि मेरे भीतर कोई आत्मा है। इतना बेहोश हूं कि जो भीतर मौजूद है, वह भी दिखाई नहीं पड़ता। आंखों पर धुंध है, नशा है। धुआं घिरा है भीतर, कुछ दिखाई नहीं पड़ता; लेकिन हम चले चले जाते हैं।
मैंने सुना है, एक दिन जोर की वर्षा हो रही है और मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी को लेकर कहीं जा रहा है। गाड़ी चला रहा है। वर्षा इतने जोर की है, लेकिन उसने वाइपर नहीं चलाया। तो उसकी पत्नी कहती है कि नसरुद्दीन वाइपर तो चला लो, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। नसरुद्दीन ने कहा: कोई मतलब नहीं, क्योंकि मैं चश्मा घर ही भूल आया हूं। मुझे वाइपर ही नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। इसलिए वाइपर चले, न चले, मुझे क्या फर्क पड़ने वाला है!
और जोर से गाड़ी भगाए जा रहा है। एक पुलिसवाला उसको रोकता है और पूछता है कि क्या तुम पागल हो गए हो? इतनी जोर से गाड़ी भगा रहे हो! इतना धुंध छाया हुआ है और वाइपर तुम्हारे चल नहीं रहे।
नसरुद्दीन कहता है कि एक्सीडेंट होने के पहले मैं घर पहुंच जाना चाहता हूं, इसलिए तेजी से चला रहा हूं।
मूर्च्छा में ऐसा ही हो रहा है। और आप जो भी कर रहे हैं, सुरक्षा ही के लिए कर रहे हैं। वह तेजी से चला रहा है, ताकि एक्सीडेंट होने के पहले घर पहुंच जाए। जो आपके भीतर अगर ऐसी घनी मूर्च्छा है, जहां कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है, जहां खुद का होना नहीं दिखाई पड़ रहा है, वहां दूसरे का होना दिखाई पड़ने का तो कोई सवाल ही नहीं है। आपको अपना पता नहीं है, दूसरे का पता तो कैसे हो सकता है!
आत्म-ज्ञान समस्त ज्ञान का आधार है, स्रोत है।
तो महावीर कहते हैं:
‘जो सब जीवों को अपने समान समझता है...।’
यह होश के बाद ही होगा।
‘जो अपने-पराए को समान दृष्टि से देखता है...।’
क्योंकि जैसे ही होश बनना होना शुरू होता है, यह साफ हो जाता है कि न कोई अपना है, और न कोई पराया है। क्योंकि अपने-पराए के सब संबंध मूर्च्छा में निर्मित हुए थे। किसी को अपना कहा था, क्योंकि वह मेरी मूर्च्छा को भरता था; मेरे स्वार्थ को पूरा करता था; मेरे शोषण का आधार था। किसी को पराया कहा था, क्योंकि वह बाधा डालता था। कोई मित्र था, क्योंकि सहयोगी था। कोई दुश्मन था, क्योंकि बाधक था।
लेकिन जैसे-जैसे होश बढ़ता है, यह साफ होने लगता है कि न कोई सहयोगी हो सकता है, न कोई बाधक; न मुझे कोई सुख दे सकता है, न दुख; इसलिए न कोई मित्र हो सकता है, और न कोई शत्रु। तो अपना-पराया समान होने लगता है।
‘जिसने आश्रवों का निरोध कर लिया है...।’
जैसे ही होश बढ़ता है, पाप ग्रहण करना बंद हो जाता है। अभी तो हम आतुर होते हैं। कहीं से खबर भर मिल जाए पाप की, तो हम एकदम आकर्षित होते हैं। हमारी सारी चेतना जैसे पाप के लिए तैयार बैठी रहती है। पाप में हमें रस है।
अखबार देखते हैं; कहीं हत्या, कहीं लूट, कहीं किसी की पत्नी भाग गई किसी के साथ--एकदम अटक जाते हैं। बिना पढ़े फिर आगे नहीं बढ़ा जाता। जिस फिल्म में सभी कुछ शुभ हो, उसे देखने कोई जाएगा ही नहीं। अशुभ हमें खींचता है। जिस कहानी में सिर्फ संतों की चर्चा हो, उसमें कुछ कहानी जैसा न रह जाएगा।
आस्कर वाइल्ड ने कहा है: अच्छे आदमियों का कोई चरित्र ही नहीं होता। उसने ठीक कहा है। अच्छे आदमी का कोई चरित्र नहीं होता, चरित्र बुरे आदमी का होता है। इसलिए अच्छे आदमी के आस-पास कहानी खड़ी नहीं हो सकती-- बुरे आदमी के आस-पास कहानी खड़ी होती है। चरित्र ही नहीं है!
अच्छा आदमी निश्र्चरित्र होता है, ऐसा समझना चाहिए: शून्य होता है; खाली होता है। कुछ घटना उसके आस-पास घटती नहीं। न हत्या होती है, न चोरी होती है, न बेईमानी होती है--कुछ नहीं होता। वह खाली होता है, जैसे न होता, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अच्छा आदमी हट जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि अच्छा आदमी कुछ कर ही नहीं रहा था।
महावीर कहते हैं: जैसे ही होश बढ़ना शुरू होता है, वैसे ही पाप के प्रति जो हमारा प्रबल आकर्षण है, जो आश्रव है, जिससे हम खिंच रहे हैं और खींचे जा रहे हैं, वह गिरने लगता है। पाप के प्रति हमारी रुचि क्षीण होने लगती है। आप चाहे पाप न कर रहे हों, लेकिन कोई पाप करता है, उसमें आपका रस है। वह रस भी पाप करने जैसा ही है। वह पाप है प्राक्सी के द्वारा। दूसरे के माध्यम से आप पाप का मजा ले रहे हैं।
आपने देखा, फिल्म देखते वक्त आप आइडेंटिफाइड हो जाते हैं किसी पात्र से, आप एक हो जाते हैं किसी पात्र से। और वह पात्र आपके जीवन को जीने लगता है। उसमें आप अपने भीतर से जो निकालना चाहते थे और नहीं निकाल पाए हैं, वह उसमें निकालते हैं। यह प्रॉक्सी से जीवन है। यह अभिनेता के माध्यम से आप काम कर रहे हैं। इसमें आपका निकास होता है--मनोवैज्ञानिक कहते हैं, कैथार्सिस होता है। वे ठीक कहते हैं। अगर आप खून से भरी फिल्म, हत्याओं से भरी फिल्म देख कर घर लौटते हैं, तो आपकी खुद की हत्या करने की वृत्ति और खून करने की वृत्ति थोड़ी सी राहत पाती है। किसी के द्वारा आपने यह काम कर लिया। घर आप हलके होकर लौटते हैं।
मनोवैज्ञानिकों का तो कहना है कि ये फिल्में हत्या आप में बढ़ाती नहीं, कम करती हैं। उनकी बात में सत्य हो सकता है। क्योंकि ये आपको थोड़ा सा हत्या करने का मौका दे देती हैं; और बिना किसी झंझट के, बिना अपराध में फंसे। थोड़े से पैसे फेंक कर और तीन घंटे अपराध करके आप घर वापस आ जाते हैं।
क्या आपने देखा है, अगर फिल्म में कोई अश्लील, कामुक दृश्य हो, तो आप कामोत्तेजित हो जाते हैं। उसका अध्ययन नहीं किया गया है, किया जाना चाहिए। लोगों पर यंत्र लगाए जा सकते हैं, जो उनके मस्तिष्क की खबर दें। जब कोई नग्न स्त्री चित्र में आती है, तो आप कामोत्तेजित हो जाते हैं। वह कामोत्तेजना एक तरह का संभोग है--प्रॉक्सी से...।
मुल्ला नसरुद्दीन एक फिल्म में बैठा हुआ है। खूब पी गया है। पहला शो खत्म हो गया है, लेकिन वह वहां से हटता नहीं। नौकर आकर उसे कहते हैं कि यह शो खत्म हो गया है। वह कहता है, दूसरी टिकट लाकर यहीं दे दो। दूसरा शो भी खत्म हो गया। वह कहता है, तीसरी टिकट भी लाकर...। मैनेजर भागा हुआ आता है... आप होश में हैं, नसरुद्दीन?
नसरुद्दीन कहता है कि जरा कुछ कारण है।
मैनेजर पूछता है, कारण क्या है?
फिल्म में एक दृश्य है कि कुछ स्त्रियां कपड़े उतार कर तालाब में कूदने की तैयारी कर रही हैं। वे बिलकुल उन्होंने कपड़े उतार दिए हैं। आखिरी कपड़ा उतारने को रह गया है और तभी एक रेलगाड़ी दृ
श्य को ढांक लेती है। पानी में कूदने की आवाज आती है, लेकिन तब तक उस रेलगाड़ी ने सब गड़बड़ कर दिया। वे पानी में खड़ी हैं। वह रेलगाड़ी चली गई।
नसरुद्दीन कहता है, कभी तो रेलगाड़ी लेट होगी। मैं यहां से हटने वाला नहीं हूं, कब तक ठीक वक्त पर आती चली जाएगी! एक सेकेंड भी लेट हो गई कि...!
आदमी पाप के लिए बिलकुल आतुर है। महावीर इस पाप की आतुरता को ‘आश्रव’ कहते हैं। जैसे होश बढ़ता है, वैसे ही ये आश्रव क्षीण होने लगते हैं।
‘जो चंचल इंद्रियों का दमन कर चुका है...।’
यह ‘दमन’ शब्द समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जिन अर्थों में महावीर ने ढाई हजार साल पहले इसका उपयोग किया, उस अर्थ में आज इसका उपयोग नहीं होता। दमन का आज अर्थ होता है, रिप्रेशन। और फ्रायड ने इसका अलग अर्थ साफ कर दिया है, किसी चीज को दबा लेने का नाम दमन है।
महावीर के लिए दम का अर्थ था: किसी चीज का शांत हो जाना। दम का अर्थ है: शांत हो जाना। दमन का अर्थ है, कोई चीज इतनी शांत हो गई कि अब आप में हिलती-डुलती नहीं। महावीर के लिए दमन का अर्थ दमन नहीं था, रिप्रेशन नहीं था। महावीर के लिए अर्थ था: किसी चीज का बिलकुल शांत हो जाना, निर्जीव हो जाना।
तो जिसकी चंचल इंद्रियां इतनी शांत हो गई हैं। वह जैसे ही होश बढ़ता है, चंचल इंद्रियां शांत हो जाती हैं। उनकी चंचलता हमारी बेहोशी के कारण है। जैसे हवा चलती है तो वृक्ष के पत्ते कंपते हैं; हवा रुक जाती है तो पत्ते रुक जाते हैं। आप पत्तों को रोक कर हवा को नहीं रोक सकते। कि एक-एक पत्ते को पकड़ कर रोकेंगे? और पत्ते आप पकड़ कर रोक भी लें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा--हवा चल रही है। पत्तों को रोकना बिलकुल पागलपन होगा, क्योंकि हवा धक्के मारती ही रहेगी। हवा रुक जाए, पत्ते रुक जाते हैं।
आपकी इंद्रियां चंचल हैं, क्योंकि भीतर मूर्च्छा है, हवा चल रही है। मूर्च्छा में चंचलता होगी। सिर्फ होश में स्थिरता हो सकती है। तो जैसे ही भीतर की हवा चलनी बंद हो जाती है, इंद्रियां थिर हो जाती हैं। कोई इंद्रियों को थिर करके मूर्च्छा से नहीं ऊपर उठता, लेकिन मूर्च्छा से ऊपर उठ जाए तो इंद्रियां थिर हो जाती हैं।
‘चंचल इंद्रियों का जो दमन कर चुका है...।’
जो पार हो चुका है इंद्रियों की अशांति के, और इंद्रियां शांत हो गईं--उसे पाप-कर्म का बंधन नहीं होता।
‘पहले ज्ञान है, बाद में दया--पढमं नाणं तओ दया।’
यह सूत्र बड़ा अदभुत है। और जैन इस सूत्र को बिलकुल भी नहीं समझ पाए या बिलकुल ही गलत समझे। इस सूत्र से क्रांतिकारी सूत्र खोजना कठिन है--पहले ज्ञान बाद में दया।
महावीर कहते हैं: अहिंसा पहले नहीं हो सकती--पहले आत्म-ज्ञान है। पहले भीतर का ज्ञान न हो, तो जीवन का आचरण दयापूर्ण नहीं हो सकता; अहिंसापूर्ण नहीं हो सकता। क्योंकि जिसके भीतर ज्ञान का ही उदय नहीं हुआ, उसके जीवन में हिंसा होगी ही। वह लक्षण है।
इसे हम ठीक से समझ लें।
एक आदमी को बुखार चढ़ा है। शरीर का गर्म हो जाना लक्षण है, बीमारी नहीं है। लेकिन कोई नासमझ यह कर सकता है कि ठंडे पानी से इसको नहलाओ ताकि इसकी गर्मी कम हो जाए; बीमारी ठीक हो जाएगी। बुखार बीमारी नहीं है, बुखार तो केवल लक्षण है। बीमारी तो भीतर है। उस बीमारी के कारण शरीर उत्तप्त है। क्योंकि शरीर के कोष्ठ आपस में लड़ रहे हैं। शरीर में एक संघर्ष छिड़ा है। शरीर में कोई विजातीय जीवाणु प्रवेश कर गए हैं, और शरीर के जीवाणु उन जीवाणुओं से लड़ रहे हैं। उस लड़ने के कारण गर्मी पैदा हो गई है। शरीर एक कुरुक्षेत्र बना है। उस कुरुक्षेत्र में शरीर उत्तप्त हो गया है।
उत्तप्तता बीमारी नहीं है। उत्तप्तता केवल बीमारी की खबर है। और उत्तप्तता शुभ है, क्योंकि वह खबर दे रही है कि कुछ करो--जल्दी करो। ठंडे पानी से उसको ठंडा किया जा सकता है, लेकिन इससे बुखार के मिटने की संभावना कम, मरीज के मिट जाने की संभावना ज्यादा है।
लक्षणों से लड़ना अज्ञान है। आप हिंसक हैं, क्योंकि भीतर कोई मूर्च्छा है। हिंसा लक्षण है, बीमारी नहीं। आप चोर हैं, दुष्ट हैं, कामुक हैं, पापी हैं--ये लक्षण हैं। इनसे लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। इनसे जो लड़ता है, वह भटक जाएगा। उसने चिकित्सा-शास्त्र का प्राथमिक नियम भी नहीं समझा। ये केवल खबर दे रहे हैं कि भीतर आत्मा सोई हुई है--बस, इतनी खबर दे रहे हैं। आत्मा को जगाओ, ये बदल जाएंगे।
अहिंसक होने से कोई आत्म-ज्ञानी नहीं होता, आत्म-ज्ञानी होने से अहिंसक होता है। पहले ज्ञान, फिर दया। लेकिन जैन इसको बिलकुल खयाल में नहीं ले पाए। वे ‘पहले दया, फिर ज्ञान’ की पूरी कोशिश कर रहे हैं। पहले अहिंसा साधो, आचरण साधो, व्रत-नियम साधो--सब तरह से बाहर की पहले व्यवस्था करो, फिर भीतर की। वे कहते हैं कि पहले बाहर और फिर भीतर। और महावीर कहते हैं: पहले भीतर और फिर बाहर।
बाहर अटक जाना साधक के लिए सबसे खतरनाक है। क्योंकि वह अटकाव इतना लंबा है कि जन्मों लग सकते हैं और उससे छुटकारा न हो; और छुटकारा होगा नहीं।
हिंसा को बाहर से रोको, बुखार को बाहर से रोको--बुखार दूसरी तरफ से निकलना शुरू हो जाएगा। और जब दूसरी तरफ से निकलेगा तो ज्यादा खतरनाक होगा। पहला निकलना नैसर्गिक था; दूसरा विकृत, परवर्टेड होगा।
कामवासना को बाहर से रोक लो, कामवासना दूसरी तरफ से निकलना शुरू हो जाएगी। और यह दूसरी तरफ से निकलना रोगपूर्ण होगा। पहला तो कम से कम प्राकृतिक था, यह अप्राकृतिक होगा।
कामवासना से लड़ने से कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता, लेकिन स्वयं का बोध आना शुरू हो जाए, ब्रह्मचर्य उसकी छाया की तरह पीछे आने लगता है।
आचरण छाया है। छाया को खींचने की कोशिश मत करो। उसे कोई भी खींच नहीं सकता। आप जहां होओगे, वहां छाया पहुंच जाएगी। अगर आप आत्मा में हो, तो छाया आत्मिक हो जाएगी। अगर आप शरीर में हो, तो छाया शारीरिक होगी। फिर आप कुछ भी करो, आपके करने से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए मौलिक करने की जो बात है, गहरी करने की जो बात है, वह आत्मिक ज्ञान है।
महावीर कहते हैं: वह विवेक से फलित होगा। जितना भीतर होश जगेगा, उतनी भीतर की प्रतीति होगी। वही ज्ञान है।
पहले ज्ञान बाद में दया। इसी क्रम पर--यह क्रम बहुत मूल्यवान है--त्यागी अपनी संयम यात्रा पूरी करता है। इसी क्रम पर--पहले ज्ञान, फिर दया। लेकिन आदमी होशियार है, और अपने मतलब की बातें निकालता रहता है और गणित बिठाता रहता है।
इस सूत्र को बदलना तो बहुत मुश्किल है।
मैं एक जैन मंदिर में गया। एक मुनि को बड़ी इच्छा थी कि मुझसे मिलें। वे आ नहीं सकते थे मिलने क्योंकि उनके आस-पास जो गृहस्थों का जाल है, कारागृह है, वह उन्हें आने नहीं देता।
यह बड़े मजे की बात है। मुनि जाता है मुक्त होने। एक गृहस्थी से छूटता है, पच्चीस गृहस्थियों के चक्कर में फंस जाता है।
उन मुनि ने खुद मुझे खबर भेजी कि मैं आ नहीं सकता, क्योंकि श्रावक बाधा डालते हैं। वे कहते हैं, आपको जाने की क्या जरूरत? तो मैंने कहा कि मैं खुद आऊंगा, क्योंकि मुझे बाधा डालने वाला कोई भी नहीं है। मैं श्रावकों को बाधाएं डालता हूं, मुझे बाधा डालने वाला कोई नहीं है।
मैं गया। पर मैंने उनसे कहा कि आप भ्रांति में हैं कि श्रावक आपको बाधा डालते हैं। श्रावकों से आप डरते हैं, उसका कुछ कारण है। और कारण यह है कि आप उनसे साफ क्यों नहीं कहते कि मुझे पता नहीं है, मैं पूछने जाना चाहता हूं। श्रावकों को आप यही समझाए जा रहे हैं कि मुझे ज्ञान उपलब्ध हो गया है, और ज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ है। इसलिए मुझसे मिलने आना चाहते हैं।
वे कहने लगे, जोर से मत बोलिए। वे लोग पास ही बैठे हैं। वे सब दरवाजे पर बैठे सुन रहे हैं।
वे आपको नहीं बांधे हुए हैं--आपका भ्रांत अहंकार कि आपको ज्ञान हो गया है। और उनके पीछे तख्ती लगी है, ‘पढमं नाणं तओ दया।’ मैंने कहा: यह पीछे तख्ती किसलिए लगा रखी है? तो उन्होंने क्या व्याख्या की, वह मैं आपको कहना चाहता हूं। उन्होंने कहा कि नहीं, इसका मतलब यह है कि पहले शास्त्र-ज्ञान, पहले पढ़ कर शास्त्र से जानना पड़ेगा और फिर अहिंसा साधनी पड़ेगी।
महावीर विवेक के सूत्र में यह बात कर रहे हैं। इसमें शास्त्र का कहीं कोई संबंध नहीं है। और महावीर शास्त्र की बात तो कह ही नहीं सकते, क्योंकि महावीर से शास्त्र-विरोधी आदमी ही नहीं हुआ। महावीर हिंदू धर्म के विपरीत गए--सिर्फ इसलिए कि हिंदू धर्म शास्त्रवादी धर्म हो गया। वेद परम हो गया। तो महावीर अवैदिक हैं। वे कहते हैं, वेद परम नहीं है। जो आदमी कहता है, वेद परम नहीं है, वह शास्त्र को परम नहीं कह सकता। और शास्त्र-ज्ञान से कहीं ज्ञान हुआ है?
तो मैंने उनसे पूछा कि शास्त्र तो आप पढ़ चुके हैं, ज्ञान हो चुका? अगर हो चुका तो आपकी व्याख्या ठीक है, और अगर ज्ञान नहीं हुआ तो व्याख्या में भूल है।
महावीर सीधा कह रहे हैं कि पहले ज्ञान, फिर दया। पहले भीतर का होश--अवेयरनेस, अप्रमत्तता, जागरूकता, सावधानी--फिर बाहर का आचरण अपने साथ-साथ चलने लगता है। जो हमें दिखाई पड़ जाए कि गलत है, वह बंद हो जाता है जीवन से। जो हमें दिखाई पड़ जाए कि सही है, वह होना शुरू हो जाता है।
और अगर आपको पता चलता है कि क्या सही है और क्या गलत है, फिर भी गलत आप करते हैं और सही नहीं करते, तो उसका मतलब है: वह शास्त्र-ज्ञान है, ज्ञान नहीं। और शास्त्र-ज्ञान अज्ञान से भी खतरनाक हो सकता है, क्योंकि उसमें भ्रांति होती है कि मैं जानता हूं, जानता हूं--बिना जाने लगता है कि मैं जानता हूं।
इसलिए पंडित पापी से भी ज्यादा भटक जाता है। और पापी तो कभी-कभी मोक्ष में पहुंच जाते सुने हैं, पंडित कभी नहीं पहुंच पाता। हालांकि पंडित गणित बिठाता रहता है। और हर गणित जिसको वह दूसरे से सरल करता है, जिससे वह हल करता है पहले को, जिस दूसरे गणित से हल करता है, वह दूसरा पहले से भी ज्यादा उपद्रव में ले जाता है। फिर उसको दस तरकीबें और दस तर्क और खोजने पड़ते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन जा रहा है ट्रेन से अपनी पत्नी के साथ। ट्रेन भागी जा रही है साठ-सत्तर मील की रफ्तार से। एक खेत में, एक पहाड़ की खाई के करीब, एक भेड़ों का बड़ा भारी झुंड है। पत्नी कहती है, कितनी भेड़ें हैं।
नसरुद्दीन कहता है, ठीक सत्रह सौ चौरासी! पत्नी कहती है, क्या कह रहे हो? इतनी शीघ्रता से तुमने गिन भी लिया? ठीक सत्रह सौ चौरासी?
नसरुद्दीन ने कहा कि सीधा गिनना तो संभव नहीं है--इट इ़ज इंपासिबल टु काउंट डाइरेक्टली। आइ डिड इट इनडाइरेक्टली--मैंने जरा यह परोक्ष रूप से किया। पत्नी ने उससे पूछा कि वह कौन सा परोक्ष रूप है?
तो नसरुद्दीन ने कहा: एक छोटे से छोटा बच्चा भी जानता है--ईवन ए स्कूल बॉय नोज दि ट्रिक: फर्स्ट काउंट दि लेग्ज, देन डिवाइड देम बाई फोर--पहले पैर गिन लो, फिर चार से भाग दे दो। पहले मैंने पैर गिने, फिर चार से भाग दे दिया। ठीक सत्रह सौ चौरासी भेड़ें हैं।
पंडितों के सारे गणित ऐसे हैं। जिस बात से वे पहले उपद्रव को हल करते हैं, वह और भी ज्यादा उपद्रव के हैं। फिर उनसे और पूछिए तो वे और चार तर्क खड़े कर देते हैं। एक रेश्र्नेलाइजेशन का जाल है। वे खड़ा करते चले जाते हैं। लेकिन उससे मूल भूल मिटती नहीं। हां, जो नहीं समझ पाते हैं गणित को, उनको शायद चमत्कार हो जाता हो। शायद वे सोचते हों कि जरूर कोई रहस्य होगा, तभी तो इतना गणित हल हो रहा है। लेकिन पहली, प्राथमिक भूल मिटती नहीं।
बुनियादी भूल यह है कि कोई भी चरित्र पैदा नहीं होता बोध के बिना। अगर बोध के बिना चरित्र पैदा करने की कोशिश की, तो चरित्र थोथा और पाखंड होगा--हिपोक्रेसी होगा। और ऐसा चरित्र नरक भला ले जाए, मोक्ष नहीं ले जा सकता। और ऐसा चरित्र यहां भी पीड़ा देगा; यहां भी कष्ट देगा
--क्योंकि झूठा होगा, जबरदस्ती होगा।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि जिंदगी भर हमने कोई चोरी नहीं की, बेईमानी नहीं की--लेकिन कैसा नियम है जगत का कि चोर और बेईमान धनपति हो गए हैं, आनंद लूट रहे हैं; कोई पद पर है; कोई प्रतिष्ठा पर है; कोई सिंहासन पर बैठा हुआ है, और हम ईमानदार रहे और दुख भोग रहे हैं!
उनको मैं कहता हूं कि तुम सच्चे ईमानदार नहीं हो। नहीं तो ईमानदारी से ज्यादा सुख तुम्हें महल में दिखाई पड़ नहीं सकता था। तुम्हारी ईमानदारी पाखंड है। तुम भी बेईमान हो, लेकिन कमजोर हो। वह बेईमान ताकतवर है। वह साहसी है। वह कर गुजरा, तुम बैठे सोचते रहे हो। तुम सिर्फ कायर हो, पुण्यात्मा नहीं हो। तुममें बेईमानी करने की हिम्मत भी नहीं है, लेकिन बेईमानी का फल मिलता है, उसमें रस है। तुम चाहते हो कि बेईमानी किए बिना और महल तुम्हें मिल जाएं। तब तुम जरा ज्यादा मांग रहे हो। बेईमान ने बेचारे ने कम से कम बेईमानी तो की; कुछ तो किया; दांव पर तो लगाया ही है; झंझट में तो पड़ा ही है; जेल में भी हो सकता था। उतनी उसने जोखम ली है।
जोखम हमेशा हिम्मतवर का लक्षण है। तुम सिर्फ कमजोर हो, और कमजोरी को तुम ईमानदारी कह रहे हो। तुम नहीं कर सकते बेईमानी, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम ईमानदार हो। इसका कुल मतलब इतना है कि तुममें साहस की कमी है। अगर तुम ईमानदार होते, तो तुम कहते कि बेचारा महलों में सड़ रहा है। बेईमानी करके देखो--यह फल मिला--कि महलों में सड़ रहा है; कि सिंहासन पर सड़ रहा है। तुम्हें दया आती, और तुम आनंदित होते।
लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि बेईमान कभी ईमानदारों की ईर्ष्या नहीं करते। यह बड़े मजे की बात है। और ईमानदार हमेशा बेईमानों की ईर्ष्या करते हैं। इससे बात साफ है कि वह जो ईमानदार है, झूठ है; धोखा है। उसकी ईमानदारी ऊपरी कवच है, उसका आंतरिक प्रकाश नहीं है। और वह जो बेईमान है, वह कम से कम सच्चा है; साफ है, कम से कम जटिल नहीं है; उलझा हुआ नहीं है।
भला आदमी... उसका भला होना ही इतना बड़ा आनंद है कि वह क्यों ईर्ष्या करेगा? दया कर सकता है। लेकिन आप सब भले आदमियों को ईर्ष्या करते पाएंगे। वे समझते हैं कि अपनी भलाई की वजह से वे असफल हो गए हैं।
भलाई की वजह से दुनिया में कोई अभी असफल नहीं होता और बुराई की वजह से दुनिया में कोई सफल नहीं होता। सफलता का कारण है: बुराई के साथ कोई साहस जुड़ा है; कोई सच्चाई जुड़ी है; यह जरा समझ लें। असफलता का कारण है: भलाई के साथ कोई कमजोरी, कोई कायरता, कोई नपुंसकता जुड़ी है।
बेईमान अपनी बेईमानी में जितना साहसी है, ईमानदार अपनी ईमानदारी में उतना साहसी नहीं है, वह साहस प्राण ले लेता है, उसकी कमी सब गड़बड़ कर जाती है। जगत में सफलता ऑथेंटिक, प्रामाणिक को मिलती है, चाहे वह प्रामाणिक अपनी बेईमानी में ही क्यों न हो; निष्ठावान को मिलती है, चाहे उसकी निष्ठा गलत में ही क्यों न हो।
सत्य भी कमजोर है अगर निष्ठा उसके पीछे नहीं है। लेकिन पाखंडी...। यह तो आप पक्का जानते हैं कि आपको बेईमान पाखंडी मिलना मुश्किल है कि ऊपर-ऊपर बेईमानी और भीतर-भीतर ईमानदार। कभी आपने ऐसा कोई पाखंडी देखा है कि ऊपर-ऊपर बेईमानी, ऊपर-ऊपर चोरी, असत्य; भीतर-भीतर सब ठीक।
नहीं, अधर्म में कोई पाखंडी होते ही नहीं। सिर्फ धर्म में पाखंडी होते हैं--भीतर बेईमानी, चोरी, बदमाशी, सब--बाहर-बाहर अच्छा, कपड़ों पर सब रंग-रोगन है, भीतर सब गंदगी है। इस पाखंड, इस द्वंद्व, इस आंतरिक और बाह्य के विरोध के कारण, जिसको हम भला आदमी कहते हैं, वह असफल होता है।
सफलता उसको मिलती है तो एकजुट है। और मैं कहता हूं कि बुराई तक सफल हो जाती है अगर एकजुट हो, तो जिस दिन भलाई एकजुट होती है, उसकी सफलता का तो कोई मुकाबला नहीं कर सकता। सारा जगत उसके विपरीत हो जाए, तो भी उसकी सफलता का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। लेकिन हम हमेशा बुरे में निष्ठावान होते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक कुत्ता बेचना चाहता है। बाजार में खड़ा है। कुत्ता बड़ा खूबसूरत है; बड़ा शानदार है; देखने में बड़ा ताकतवर है। एक आदमी खरीदने आता है। मुल्ला कहता है कि तीन सौ रुपया।
वह आदमी कहता है कि जरा ज्यादा दाम बता रहे हैं! दिस इ़ज टू मच।
मुल्ला नसरुद्दीन कहता है, पहले इस कुत्ते को भी तो देखो ठीक से। दिस डॉग इ़ज आलसो टू मच! इस कुत्ते की शान देखो! इसका सौंदर्य देखो! वह आदमी कहता है, शान और सौंदर्य तो ठीक है, इनसे कोई आखिरी काम नहीं निकलता। इ़ज दिस डॉग फेथफुल आल्सो? क्या यह कुत्ता ईमानदार भी है; निष्ठावान भी है?
नसरुद्दीन ने कहा: वह तो बात ही मत करो! डोंट टॉक अबाउट हिज फेथफुलनेस। आइ हैव सोल्ड हिम सेवन टाइम्स, ही कम्स बैक विदिन ट्‌वेल्व ऑवर्स--इसकी निष्ठा की तो बात मत करो! सात दफे बेच चुके हैं, बारह घंटे में वापस आ जाता है। इसकी तुम फिकर ही मत करो। मालिक के प्रति इसकी निष्ठा तो बिलकुल अटूट है!
जहां हम जी रहे हैं, वहां अगर दुख है, पीड़ा है और हम सोचते हैं कि हम शुभ हैं, धार्मिक हैं, तो समझना, कहीं भूल हो रही है। धार्मिक व्यक्ति को पीड़ा होती ही नहीं, हो नहीं सकती। वह असंभव है। शुभ के साथ दुख का कोई संबंध ही नहीं है। और अगर दुख है, तो समझना कि सुख झूठ है, धोखा है। महावीर इसीलिए कहते हैं--पहले ज्ञान बाद में दया।
‘इस क्रम पर त्यागी वर्ग अपनी संयम-यात्रा के लिए ठहरा हुआ है।’
यही क्रम है, पहले ज्ञान फिर दया। पहले आंतरिक बोध, पहले भीतर का दीया जले, फिर आचरण में प्रकाश।
‘भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा? श्रेय तथा पाप को वह जान ही कैसे सकेगा?’ जिसके भीतर का दीया बुझा हुआ है, उसे कैसे पता चलेगा, क्या प्रकाश है और क्या अंधेरा है? क्या करने योग्य है, क्या करने योग्य नहीं है? कहां जाऊं, कहां न जाऊं? उसे दिशाओं का कोई भी पता नहीं हो सकता है। इसलिए विवेक, होश पहली शर्त है।
‘सुन कर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुन कर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुन कर जाने जाते हैं। बुद्धिमान साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे, फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे।’
यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए।
और महावीर की परंपरा में इसका बड़ा मूल्य है। इतना मूल्य है कि महावीर ने अपने साधक को ‘श्रावक’ कहा है।
श्रावक का अर्थ है: ठीक सुनने वाला--राइट लिसनर। हम सभी सुनते हैं। इसलिए महावीर कुछ ज्यादती करते मालूम पड़ते हैं। वह ठीक सुनने का क्या मतलब? जिसके कान ठीक हैं, वह ठीक सुनने वाला है। कान खराब हों तो ठीक सुनने वाला नहीं है।
लेकिन महावीर कहते हैं: ठीक सुनने वाला वह है जो सुनते समय विचार का बिलकुल ही त्याग कर देता है। जो सिर्फ सुनता है। जिसकी सारी ऊर्जा और सारी चेतना सुनने में लग जाती है। जो सुनते वक्त न तो पक्ष सोचता है, न विपक्ष सोचता है। न तो कहता ठीक, न कहता गलत। न कोई तर्क खड़े करता, न भीतर द्वंद्व करता। न अपने शास्त्रों से मिलाता, न अपने अतीत के साथ तुलना करता। जो सुनते वक्त एक शून्य की भांति हो जाता है।
इसका यह मतलब नहीं है कि सुन कर वह अंधा हो जाता है। महावीर कहते हैं, पहले सुन ले साधक पूरा, फिर सोचे। लेकिन सुनने की घटना पहले घट जाए। आमतौर से ऐसा नहीं होता है। जब आप सुनते हैं, तभी आप सोचते रहते हैं। और आपका सोचना सुनने को विकृत कर देता है। फिर जो आप सुन कर जाते हैं, उसमें जो कहा गया है, वह शायद ही होता है; आपने जो जोड़ लिया, वही होता है। आपकी व्याख्याएं सम्मिलित हो जाती हैं।
आपका मन अगर सम्मिलित हो जाए; आपके अतीत का कचरा, आपकी स्मृतियां अगर सुनते वक्त हमला बोल दें, तो जो भी आपने सुना वह अशुद्ध हो गया। उस अशुद्ध के आधार पर कोई साधना के जगत में जा नहीं सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं: पाप भी सुन कर जाना जाता है, पुण्य भी सुन कर जाना जाता है।
प्राथमिक चरण में, जहां हम अंधेरे में खड़े हैं, हम उनसे ही सुनेंगे, जो प्रकाश में पहुंच गए हैं। पहली आवाज इस अंधेरे में हमें सुनाई पड़ेगी उनकी, जो कि प्रकाश को उपलब्ध हो गए हैं। उनकी आवाज के सहारे हम भी बाहर जा सकते हैं। लेकिन पहले सुन लेना, बिलकुल ठीक से सुन लेना जरूरी है।
हम अगर रेडियो भी सुनने बैठते हैं, तो ठीक से ट्यूनिंग करते हैं। दो-तीन स्टेशन एक साथ लगे हों, तो आप नहीं मानेंगे कि आप जो सुन रहे हैं, वह ठीक है। रेडियो के साथ हम जितनी समझदारी बरतते हैं, उतनी अपने भीतर नहीं बरतते। वहां कई स्टेशन एक साथ लगे रहते हैं।
अब मैं बोल रहा हूं--आपके भीतर कई स्टेशन साथ में बोल रहे हैं। कुछ आपने पढ़ा है, वह बोल रहा है। कुछ और सुना है, वह बोल रहा है। किसी धर्म को आप मानते हैं, वह बोल रहा है। किसी गुरु को आप मानते हैं, वह बोल रहा है। और आप तो बोल ही रहे हैं निरंतर! और आप कोई एक नहीं हैं, आप पूरी एक भीड़ हैं! आपके भीतर बाजार है--शेयर मार्केट, जो भीतर चल रहा है। वहां कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है कि क्या हो रहा है।
महावीर कहते हैं: श्रवण, शुद्ध श्रवण। जब मन बिलकुल शून्य है। सिर्फ सुन रहा है, सोच नहीं रहा है और पूरी तरह आत्मसात कर रहा है, जो कहा जा रहा है, ताकि एक दफा पूरा का पूरा भीतर साफ हो जाए, फिर सोच लेंगे; फिर अपनी बुद्धि का पूरा प्रयोग कर लेंगे। इसलिए महावीर अंधश्रद्धा के आग्रही नहीं हैं। कोई यह न समझे कि महावीर कहते हैं: जो मैं कहता हूं, वह मान लो। महावीर कहते हैं, सुन लो। मानने की जल्दी नहीं है। न मानने की भी जल्दी मत करो। पहले सुन लो ताकि तुम न्याय कर सको। और फिर पीछे सोच लेना।
‘सुन कर कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुन कर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुन कर जाने जाते हैं। बुद्धिमान साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालूम हो, उसका आचरण करे।’
अंततः आचरण के पहले, साधना में उतरने के पहले निर्णय करे। लेकिन वह निर्णय तभी किया जाए, जब शुद्ध श्रवण घट चुका हो। इसलिए महावीर ने कहा कि चार तीर्थ हैं जिनसे मोक्ष जाया जा सकता है: श्रावक, श्राविका, साध्वी, साधु। चार तीर्थ हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि महावीर के कहा कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले, तो भी मोक्ष जा सकता है। ठीक सुनना भी एक बड़ी आंतरिक घटना है। कृष्णमूर्ति बहुत जोर देते हैं: राइट लिसनिंग, ठीक से सुनो। पर उनके सामने लोग बैठे हैं, जो नोट करते रहते हैं। वे सुनेंगे कैसे! उनकी फिकर इसमें है कि कुछ नोट करने में चूक न जाए, घर जाकर फिर...। जिंदा आदमी बोल रहा है, वे नोट कर रहे हैं।
एक सज्जन को मैं यहां भी देखता हूं, वे नोट करते रहते हैं। वे लेखक हैं। वे किताबें लिखते हैं। उनको यहां सुनने से मतलब नहीं है। उनको कुछ समझने से भी मतलब नहीं है। उन्हें यहां से कुछ इकट्ठा कर लेना है, जिसको जाकर वे किताब में लिख देंगे। आपको सुनने का एक क्षण मिले, उसको आप गंवा देते हैं। आप कुछ और कर रहे हैं, जब सुना जा सकता था। और जब सुना नहीं जा सकेगा, तब आप सोचेंगे। सब विकृत हो जाएगा।
महावीर कहते हैं कि अगर कोई ठीक से सुन ले, श्रावक हो, तो भी सीधा मोक्ष जा सकता है। उनकी आवाज ठीक से सुन ले, जो प्रकाश में उठ गए हैं--तो उस आवाज की दिशा को पकड़ कर...।
ध्यान रखें, यह बड़ा फर्क है। क्या कहा गया है, वह उतना मूल्यवान नहीं है। किस दिशा से आवाज आई है, उस दिशा को पकड़ कर श्रावक भी मुक्त हो सकता है। आप अंधेरे में खड़े हैं और एक आवाज आती है। आवाज में क्या कहा गया है, वह उतना सवाल नहीं है, आवाज किस दिशा से आती है, उस दिशा को अगर आप पकड़ लें, तो थोड़ी ही देर में अंधेरे के बाहर हो जाएंगे।
महावीर और बुद्ध या कृष्ण के वचन अर्थों से नहीं समझे जाते, दिशाओं के बोध...। जब महावीर बोलते हैं, तो किस दिशा से बोलते हैं? कहां से, किस महाशून्य से वह आवाज आती है? उस दिशा को आप पकड़ लें, आप महाशून्य के पथ पर चल पड़ेंगे। और फिर, फिर आप सोचें, आचरण करें, निर्णय करें--क्या श्रेय है, क्या अश्रेय है।
जो नासमझ हैं, वे जल्दी निर्णय कर लेते हैं। जो समझदार हैं, वे प्रतीक्षा करते हैं; आत्मसात हो जाने देते हैं; खून-हड्डी में मिल जाने देते हैं उस आवाज को, ताकि दिशा का बोध होने लगे। और दिशा का बोध असली बात है।
महावीर मूल्यवान नहीं हैं, किस दिशा से महावीर की आवाज आ रही है, वह मूल्यवान है। अगर वह दिशा आपको दिखाई पड़नी शुरू हो जाए, तो आप समझेंगे कि यह दिशा वही है, जहां से क्राइस्ट की आवाज आती है; कृष्ण की आती है; मोहम्मद की आती है। लेकिन अगर आप शब्दों को पकड़ें, तो शब्द अलग हैं। क्योंकि मोहम्मद अरबी बोलते हैं; महावीर प्राकृत बोलते हैं; कृष्ण संस्कृत बोलते हैं; जीसस हिब्रू बोलते हैं। वे आवाजें बड़ी अलग-अलग हैं।
पंडित आवाजों से उलझ जाते हैं। श्रावक दिशा के बोध से भर जाता है और उस दिशा में सरकने लगता है। अगर आप ठीक सुनें, तो आपके भीतर रेडार पैदा हो जाता है। उस रेडार में पकड़ आने लगती है, कौन सी दिशा।
महावीर मूल्यवान नहीं हैं। कहां से आती है यह आवाज; कौन बोलता है महावीर के भीतर से; कौन सा महाशून्य, कौन सा महासत्य, उस तरफ आप हटने शुरू हो जाते हैं एक-एक कदम। जल्दी ही आप पाएंगे, अंधेरे के बाहर आ गए हैं; महाप्रकाश आपको चारों ओर से घेरे हुए है।

पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, फिर जाएं...!


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