MAHAVIR

Mahaveer Vani 49

FourtyNinth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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भिक्षु-सूत्र: 3

उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए।
कयविक्कयसन्निहिओ विरए, सव्वसंगावगए य जे स भिक्खू।।
अलोल भिक्खू न रसेसु गिद्धे, उंछं चरे जीविय नाभिकंखे।
इडिं्‌ढ़ च सक्कारण-पूयणं च, चए ठियप्पा अणिहे जे स भिक्खू।।

जो अपने संयम-साधक उपकरणों तक में भी मूर्च्छा (आसक्ति) नहीं रखता, जो लालची नहीं है, जो अज्ञात परिवारों के यहां से भिक्षा मांगता है, जो संयम-पथ में बाधक होने वाले दोषों से दूर रहता है, जो खरीदने-बेचने और संग्रह करने के गृहस्थोचित धंधों के फेर में नहीं पड़ता, जो सब प्रकार से निःसंग रहता है, वही भिक्षु है।
जो मुनि अलोलुप है, जो रसों में अगृद्ध है, जो अज्ञात कुल की भिक्षा करता है, जो जीवन की चिंता नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा का मोह छोड़ देता है, जो स्थितात्मा तथा निस्पृही है, वही भिक्षु है।

साधारण जीवन एक यांत्रिक प्रवाह है। जैसे हम उसे नहीं जीते, बल्कि जीवन ही जैसे हमें जीता है। वासनाओं का, इच्छाओं का एक धक्का है जो हमें चलाए रखता है। हम चलते हैं, ऐसा कहना उचित नहीं; क्योंकि चलने में न तो हमारा कोई अपना निर्णय है, न चलने में हमारा कोई संकल्प है, न कोई दिशा है, न कोई गंतव्य है। जैसे पानी की धार में कोई तिनका बहा जाता हो, ऐसे ही जीवन की धार में हम बहे जाते हैं। अहंकार के कारण ही हम सोच लेते हैं कि हम अपने जीवन के नियंता हैं। थोड़ा भी निष्पक्ष होकर कोई देखेगा, तो जीवन को यंत्रवत पाएगा।
पैदा हो जाते हैं; भूख है, प्यास है, कामवासना जगती है, महत्वाकांक्षा पैदा होती है, फिर चलते रहते हैं, दौड़ते रहते हैं और एक दिन गिर कर समाप्त हो जाते हैं। यह सारी दौड़ अंधेरे में है, मूर्च्छा में है। हम उस शराबी की तरह हैं, जो चल रहा है, लेकिन जिसे पता नहीं कि कहां जा रहा है; और जिसे यह भी पता नहीं कि कहां से आ रहा है; और जिसे यह भी पता नहीं कि क्यों चलने की जरूरत है। नशा है और चले जा रहे हैं।
और ऐसा प्रत्येक आदमी का जीवन एक वर्तुल की तरह है। और सभी आदमियों के जीवन, जो यंत्रवत हैं, करीब-करीब एक से ही घूमते हैं और एक से ही समाप्त हो जाते हैं। जैसे प्रकृति मे ऋतुएं आती हैं, और फिर घूम कर वे ही ऋतुएं आ जाती हैं--फिर वर्षा आती है, फिर सर्दी आती है, फिर गर्मी आती है, फिर वर्षा आ जाती है--ऐसे ही हम सबके जीवन में भी बचपन है, जवानी है, बुढ़ापा है; फिर बचपन है, फिर जवानी है, फिर बुढ़ापा है। सब पुराना वर्तुल एक चक्के की भांति घूमता चला जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अचानक अपने विद्यार्थी जीवन की स्मृति से भर गया। भरने का कारण था, जहां से गुजर रहा था, वहीं वह विद्यापीठ था, वह छात्रावास था, जहां विद्यार्थी जीवन में नसरुद्दीन रहा था। प्रबल कामना मन को पकड़ गई कि जाकर देखूं उस कक्ष को, उस कमरे को, जहां मैं वर्षों रहा हूं--कैसा है वह कक्ष अब? वैसा ही है या सब बदल गया है? जाकर उसने द्वार पर दस्तक दी। कोई दूसरा विद्यार्थी वहां रह रहा था। भीतर कुछ हलचल हुई। विद्यार्थी ने दरवाजा खोला। विद्यार्थी थोड़ा घबड़ाया हुआ है।
नसरुद्दीन ने कहा: क्षमा करना, अकारण ही राह से गुजरता था, और याद आ गया कि अपने छात्रावास के कमरे को एक दफा हो आऊं वर्षों बाद।
कमरे के भीतर गया, देख कर उसने कहा कि दि सेम फर्नीचर--वही पुरानी कुर्सी है, वही मेज है। और तब वह गया आलमारी के पास। उसने आलमारी खोली और वहां देखा उसने, एक अर्धनग्न युवती छिपी है। तो नसरुद्दीन ने कहा: दि सेम ओल्ड रोमांस--वही पुराना प्रेम भी चल रहा है।
लेकिन जैसे ही उसने दरवाजा खोला आलमारी का, वह युवक-विद्यार्थी, जो कमरे में रहता था, घबड़ा गया। और उसने हकलाते हुए कहा कि सर, शी इ़ज माई सिस्टर। तो नसरुद्दीन ने कहा: दि सेम ओल्ड लाई--वही पुराना झूठ। सब वही चल रहा है।
हर आदमी के जीवन में करीब-करीब वही दुहर रहा है, जो हर दूसरे आदमी के जीवन में दुहरा है। लेकिन एक सुविधा है, क्योंकि हमें दूसरे जीवन का कोई पता नहीं।
हमसे पहले कितने लोग पृथ्वी पर हुए हैं! असंख्यात! वैज्ञानिक कहते हैं, जिस जगह पर आप बैठे हैं, कम से कम वहां दस आदमियों की लाशें दब चुकी हैं। पूरी पृथ्वी लाशों से भरी है। सारी जमीन की मिट्टी किसी न किसी आदमी के शरीर का हिस्सा रह चुकी है। लेकिन हमें उनके जीवन का कोई पता नहीं। इसलिए जब आप पहली दफा प्रेम में पड़ते हैं, तो आप सोचते हैं, ऐसा प्रेम पृथ्वी पर कभी नहीं हुआ।
ऐसा ही प्रेम हुआ है। ऐसा ही अनुभव भी हुआ है दूसरे लोगों को, जब वे प्रेम में पड़े हैं कि बस, ऐसा कभी नहीं हुआ। जब आप सफल होते हैं तो शायद सोचते हैं, ऐसी सफलता की चमक जमीन पर कभी नहीं घटी। या जब आप असफल होते हैं, और उदासी से भर जाते हैं, तो सोचते हैं, शायद ऐसा दुख का पहाड़ कभी नहीं टूटा।
यही सब होता रहा है। हर आदमी के जीवन में मौसम की तरह चीजें वैसी ही घूमती रही हैं। लेकिन हमें दूसरे आदमियों का कोई पता नहीं है। इसलिए हर आदमी को लगता है, सब नया हो रहा है।
कुछ भी नया नहीं हो रहा है। बहुत पुराना सूत्र है कि ‘सूर्य के नीचे कुछ भी नया नहीं।’ मगर प्रत्येक को ऐसा ही लगता है कि सब-कुछ नया है।
यह भ्रांति है। और जब तक यह भ्रांति न टूट जाए, तब तक हम मुक्त होने की चेष्टा में संलग्न नहीं होते। मुक्त होने की चेष्टा पैदा ही तब होती है, जब हमें ऐसा लगता है कि हम एक जाल में फंसे हैं, जैसे कि गाड़ी के चाक से हमें बांध दिया गया हो और गाड़ी घूमती चली जाती हो, और हम चाक के साथ घूमते चले जाते हैं।
इसलिए पूरब के मनीषियों ने जीवन की इस लंबी यात्रा को ‘आवागमन’ कहा है; ‘संसार’ कहा है। संसार का अर्थ होता है: चाक--दि व्हील। जिसमें वे ही आरे वापस लौट आते हैं, और यह चक्र घूमता चला जाता है।
यह जो चक्र है, जब तक आपको लग रहा है कि आप कुछ नया जी रहे हैं, तब तक इससे छूटने का आपको खयाल भी पैदा नहीं होगा। जैसे ही आपकी यह प्रतीति सघन हो जाए कि नया कुछ भी नहीं है, वही-वही दोहर रहा है, ऊब पैदा हो जाएगी। और वही ऊब अध्यात्म की तरफ पहला झुकाव बनती है। इसलिए बुद्ध और महावीर तो निरंतर अपने शिष्यों को कहते थे कि तुम याद करो अपने पिछले जन्मों को। और उन्होंने रास्ते खोजे थे ध्यान के जिनसे पिछले जन्मों की स्मृति सजग हो जाती है।
उसे महावीर ‘जाति-स्मरण’ कहते हैं। खोजो अपने पिछले जन्मों को, और जब तुम्हारी स्मृति जगेगी, तब तुम बहुत हैरान हो जाओगे कि तुम जो आज कर रहे हो, ये तुम लाख बार कर चुके हो। यही लोभ, यही काम, यही आकांक्षा, यही दुख, यही सुख तुम इतनी बार कर चुके हो कि अगर याद भी आ जाए, तो मन विरक्त हो जाए। पुनरुक्ति इतनी हो चुकी है कि अब कहीं कोई रस नहीं है।
लेकिन प्रकृति एक खेल खेलती है कि हर जन्म के बाद हमारा पिछले जीवन का पूरा का पूरा स्मृति का संग्रह बंद हो जाता है। हर नये जन्म के साथ पुरानी स्मृतियों के संग्रह का द्वार बंद हो जाता है। तब हमें सब फिर नया मालूम होने लगता है। फिर हम अ ब स से शुरू करते हैं।
मेरे एक मित्र हैं, डॉक्टर हैं। एक दुर्घटना में ट्रेन से वे गिर पड़े; भीड़ बहुत थी और दरवाजे से लटके हुए खड़े थे। हाथ छूट गया और गिर गए। गिरने से सिर पर भयानक चोट लगी। ऊपर से तो कुछ चोट पता नहीं चलती थी, लेकिन भीतर से सारी स्मृतियां भूल गईं। खुद का नाम भी याद न रहा। अपनी मां और अपने पिता को भी नहीं पहचान सकते थे। सारी जानकारी, सारा मेडिकल साइंस का अध्ययन--सब तिरोहित हो गया। फिर से--अ ब स से सब शुरू करना पड़ा। तीन साल में इस हालत में हो पाए कि ठीक से बातचीत कर सकें, भाषा समझ सकें, अखबार पढ़ सकें। जब गिरे तब उनकी उम्र कोई पैंतीस-छत्तीस वर्ष थी। वे पैंतीस वर्ष तिरोहित हो गए। वे कहां खो गए!
हमारा सारा का सारा बोध तो स्मृति पर निर्भर है। वह जो हमारी स्मृति है, अगर वह खो जाए, तो सब अतीत खो जाता है। तीन साल के बाद धीरे-धीरे मस्तिष्क स्वस्थ हुआ और पुरानी स्मृतियां फिर जगनी शुरू हो गईं।
जो लोग जीवन के संबंध में गहन खोज किए हैं, उनका खयाल है कि मृत्यु इतना बड़ा शाक है, इतना बड़ा धक्का है कि ट्रेन से गिरने से इतना बड़ा धक्का नहीं लग सकता। उस धक्के में पुरानी स्मृतियों से हमारा संबंध छूट जाता है। फिर जन्म भी बहुत बड़ा धक्का है। दोनों ही बड़े ट्रॉमैटिक, बड़े धक्के हैं।
जब एक आदमी मरता है तो सारा स्मृतियों का जगत अस्त-व्यस्त हो जाता है; सब संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं; सब तार खो जाते हैं। फिर जब जन्मता है, तब फिर एक धक्का लगता है। ये दो धक्कों के कारण अतीत से हम बंद हो जाते हैं। और हर बार हमें लगता है कि सब नया हो रहा है।
यह जो नये का भाव है, जब तक न टूट जाए, तब तक जीवन से मुक्ति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। महावीर कहते हैं कि पीछे लौट कर स्मरण करो। और जरा सी भी स्मृति आनी शुरू हो जाए तो जीवन से रस खोना शुरू हो जाता है। इस जीवन से, जिसे हम अभी जीवन समझते हैं; और एक नया रस, और एक नया संगीत, और एक नई दिशा खुलने लगती है, जिसे ‘मोक्ष’ महावीर ने कहा है।
संन्यस्त व्यक्ति का अर्थ है, जिसे इस जीवन में ऊब पैदा हो गई।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
इस जीवन में सुख अनुभव हो, तो आदमी संसारी रहेगा; और इस जीवन में दुख अनुभव हो, तो भी आदमी संसारी रहेगा। सुख और दुख दोनों में ऊब पैदा हो जाए, बोर्डम पैदा हो जाए, तो आदमी संन्यस्त होता है।
बहुत से लोग जीवन के दुख के कारण जीवन को छोड़ कर संन्यास ले लेते हैं। उनका संन्यास वास्तविक नहीं है; क्योंकि दुख की प्रतीति ही इसी बात की खबर है कि उन्हें सुख की आकांक्षा अभी मौजूद है। हमें दुख मिलता इसलिए है कि हम सुख चाहते हैं। जो दुख के कारण जगत को छोड़ता है, वह सुख के लिए जगत को छोड़ रहा है। और जो सुख के लिए छोड़ रहा है, वह छोड़ ही नहीं रहा है। क्योंकि सुख की आकांक्षा ही संसार है।
बहुत से लोग दुख में संसार छोड़ते हैं--शायद सौ में निन्यानबे संन्यासी दुख में ही छोड़ते हैं। उनका संन्यास वास्तविक नहीं हो पाता।
‘ऊब’--इस शब्द को बहुत याद रख लें; बोर्डम। जो आदमी जगत को इतना व्यर्थ पाता है कि उसके सुख भी उबाते हैं और दुख भी उबाते हैं; दोनों बराबर हो जाते हैं, और दोनों में विरसता आ जाती है--उस व्यक्ति के जीवन की यात्रा नई होती है।
इस संबंध में यह भी खयाल में ले लेना जरूरी है कि आदमी अकेला प्राणी है जगत में, जो ऊब सकता है। कोई दूसरा पशु ऊब नहीं सकता। किसी भैंस को, किसी घोड़े को, किसी सिंह को कभी भी बोर्डम की हालत में नहीं देखा गया है कि वे ऊबे हुए हों। भैंस रोज अपना वही चारा चबाती रहती है, जुगाली करती रहती है, लेकिन ऊबती नहीं। ऊब बिलकुल मनुष्य के जीवन की घटना है। ऊब बड़ी महत्वपूर्ण घटना है; बहुत आध्यात्मिक घटना है।
कोई पशु ऊबता नहीं। आप किसी पशु की आंखों में ऊब नहीं देख सकते। पशु जैसे हैं, तृप्त हैं--जहां हैं, तृप्त हैं--जो कुछ भी उन्हें जीवन में उपलब्ध हुआ है, जहां उन्होंने जीवन को पाया है, उससे रत्ती भर आगे जाने, ऊपर उठने का कोई सवाल नहीं है। वे अपने वर्तुल को पूरा करके समाप्त हो जाते हैं। उन्हें अपनी यांत्रिकता का कोई पता नहीं चलता। और जीवन व्यर्थ है, इसका उन्हें कोई होश नहीं आता।
मनुष्य अकेला प्राणी है, जो ऊब सकता है। और ध्यान रखें, मनुष्य में जितनी प्रतिभा ज्यादा होगी, उतनी ज्यादा ऊब आएगी। मनुष्य में भी जो बहुत कम विकसित लोग हैं, उनमें ऊब नहीं दिखाई पड़ेगी। ऊब आएगी प्रतिभा के विकास के साथ। जितना विचारशील व्यक्ति होगा, जीवन से उतना ऊबेगा, जल्दी ऊबेगा।
बर्ट्रेंड रसल ने कहा है कि मैं आदिवासियों को देखता हूं, उनकी प्रसन्नता देख कर ईर्ष्या पैदा होती है। लेकिन रसल को खयाल नहीं है कि आदिवासी इतने प्रसन्न क्यों हैं। आदिवासियों की प्रसन्नता का मौलिक कारण तो यही है कि वे पशुओं के बहुत निकट हैं। अभी भी ऊब पैदा नहीं हुई है। अभी भी जीवन से दूर खड़े होकर जीवन के पुरानेपन को, पुनरुक्ति को देखने की सामर्थ्य उनमें नहीं आई। अभी वे ठीक प्रकृति में डूबे हुए जी रहे हैं।
रसल को ऊब मालूम होती है। अगर रसल पूरब के मुल्कों में पैदा हुआ होता, या पूर्वीय जीवन-दृष्टि का उसे कुछ खयाल होता, तो यह ऊब उसके लिए आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत हो सकती थी। लेकिन दुर्भाग्य से वह पश्र्चिम में था। रसल के जीवन में महावीर और बुद्ध जैसी घटना घट सकती थी--उतनी ही प्रतिभा थी। लेकिन पूरे पश्र्चिम की हवा, पूरे पश्र्चिम का तर्कजाल ऊब तो पैदा कर देता है, लेकिन इस ऊब से ऊपर उठने की कोइर् कला पश्र्चिम विकसित नहीं कर पा रहा है; इस ऊब को भुलाने की भर कला विकसित कर पा रहा है।
इसलिए पश्र्चिम मनोरंजन के साधन खोजता चला जाता है। मनोरंजन के साधन इस बात की खबर देते हैं कि आदमी ऊबा हुआ है। उसे किसी तरह भुलाओ। फिल्म है, संगीत है, नाटक है, नृत्य है, शराब है, भोज है, उत्सव है--उसे किसी तरह भुलाओ। उसकी ऊब प्रकट न हो पाए।
तो पश्र्चिम मनोरंजन के साधन खोज रहा है; उसी अवस्था में है, जिस अवस्था में महावीर के वक्त भारत था; उसी तरह संपन्न है; उसी तरह स्वर्ण शिखर पर खड़ा है। लेकिन पूरब ने ऊब की स्थिति में अध्यात्म खोजा, और पश्र्चिम ऊब की स्थिति में मनोरंजन खोज रहा है। स्थिति एक ही है।
अगर मनोरंजन खोजते हैं, तो आप ऊब से वापस नीचे गिर जाते हैं। मनोरंजन का अर्थ है--कुछ नया खोज लिया, कुछ नये में रस आ गया और इसलिए भूल गए कि जिंदगी एक पुनरुक्ति है। इसलिए आप एक ही फिल्म दुबारा नहीं देख सकते। तीन बार तो बहुत मुश्किल है। चौथी बार तो दंड मालूम पड़ेगा। पांचवीं बार तो आप बगावत कर देंगे।... क्यों? जिंदगी तो आप रोज वही-वही देख लेते हैं, लेकिन फिल्म आप दुबारा क्यों नहीं देख सकते?
फिल्म का प्रयोजन ही खत्म हो जाता है दुबारा देखने से। क्योंकि फिल्म है ही नये का अनुभव देने की चेष्टा, ताकि थोड़ी देर के लिए यह भूल जाए कि जिंदगी एक पुरानी बकवास है। जिंदगी की ऊब को तोड़ने के लिए ही तो मनोरंजन है। अगर मनोरंजन भी ऊब पैदा करे, पुनरुक्त हो, तो कठिनाई हो जाएगी।
इसलिए फैशन रोज बदलता है। और जितना समाज सचेतन होने लगता है, उतना फेशन जल्दी बदलने लगता है। जितना समाज पुराना होता है--प्रकृति के करीब होता है, पशुओं के निकट होता है, उतने फैशन जल्दी नहीं बदलते। लेकिन जैसे-जैसे समाज सजग, सचेत होता है, फैशन रोज बदलते हैं। हर साल कार का मॉडल बदल जाता है--ऊब पैदा न हो।
पश्र्चिम में वस्तुओं को बदलने के साथ-साथ व्यक्तियों को बदलने की भी प्रवृत्ति गहरी हो गई है। वह भी ऊब का ही परिणाम है। हर साल पत्नी भी बदल लेना चाहिए। नये मॉडल उपलब्ध हो जाते हैं। तो पुराने मॉडल के साथ जीना सिर्फ पुरानी आदतों की वजह से चल रहा है।
मैंने सुना है, एक फिल्म अभिनेत्री ने अपना सत्रहवां तलाक दिया। और जब उसने अठारहवीं शादी की, तो शादी करने के बाद उसे पता चला कि यह आदमी एक दफा पहले भी उसका पति रह चुका है।
जिंदगी छोटी है, और अठारह विवाह, और सबकी याददाश्त रखना कठिन है, और जिंदगी इतनी जोर से भागती हुई है। तो व्यक्ति भी बदलो, भोजन बदलो, कपड़े बदलो, फिल्म बदलो--सब-कुछ बदलते रहो ताकि ऊब का पता न चले। लेकिन कितना ही बदलो, ऊब जिंदगी के भीतर छिपी है। क्योंकि जिंदगी पुनरुक्ति है। और कितना ही फिल्म को बदलो, कहानी तो वही रहती है। कोई कहानी में फर्क नहीं आता।
कोई भी फिल्म रामायण से आगे नहीं जा पाती; जा नहीं सकती। वही ट्रायंगल--वही राम, रावण, सीता। वही ट्रायंगल है। कहानी के थोड़े डिटेल्स हम बदल लेते हैं, लेकिन वही त्रिकोण चलता रहता है; दो प्रेमी हैं; एक प्रेयसी है। रामायण से आगे फिल्म को ले जाना मुश्किल मालूम पड़ता है। वही कथा है--लेकिन कथा के नाम बदल जाते हैं। थोड़े से विस्तार की बातें बदल जाती हैं, लेकिन मौलिक बात वही चलती चली जाती है।
क्या करिएगा! जब जिंदगी ही पुरानी पड़ जाती है, तो कहानी कितनी देर नई रह सकती है, जो जिंदगी से ही पैदा होती है।
पश्र्चिम और पूरब का भेद यहां है। दोनों ऊब की अवस्था में पहुंच गए। जब पूरब ऊब की अवस्था में पहुंचा, तो उसने सोचा कि इस ऊब के पार कैसे जाया जाए? इस जीवन से कैसे मुक्त हों? उससे संन्यास का जन्म हुआ। उससे भिक्षु पैदा हुए, जिन्होंने जीवन से अपने को ऊपर उठा लिया।
पश्र्चिम में भी ऊब की अवस्था आ गई। इस ऊब को कैसे भूला जाए? तो पश्र्चिम में मनोरंजन के साधन पैदा हो रहे हैं। और कुल चेष्टा इतनी रह गई है कि शराब, एल एस डी, मारिजुआना से किसी तरह अपने को भुला कर हम जिंदगी कैसे गुजार लें। इसलिए आज जब पश्र्चिम की सरकारें, विचारशील नैतिक लोग, पुरोहित-पंडित, कोशिश में लगे हैं कि नई पीढ़ियां सम्मोहित करने वाले, बेहोश करने वाले रासायनिक तत्वों से बचें--एल एस डी से, मारिजुआना से। उनकी कोशिश सफल नहीं हो सकती। उनकी कोशिश असंभव है कि सफल हो। जब तक कि पश्र्चिम में पूरब का संन्यास स्थापित न हो, उनकी कोशिश सफल नहीं हो सकती। क्योंकि जिंदगी दुख दे रही है; दुख ही नहीं दे रही है, जिंदगी ऊब दे रही है। उस ऊब को या तो भुलाओ, या ऊब के पार चले जाओ।
ऊब के पार जाने के सूत्र, महावीर, भिक्षु कौन है, इस संदर्भ में कह रहे हैं।
उनके सूत्र को हम समझें।
‘जो अपने संयम-साधक उपकरणों तक में मूर्च्छा नहीं रखता, जो लालची नहीं है, जो अज्ञात परिवारों से भिक्षा मांगता है, जो संयम-पथ में बाधक होने वाले दोषों से दूर रहता है, जो खरीदने-बेचने और संग्रह करने के गृहस्थोचित धंधों के फेर में नहीं पड़ता, जो सब प्रकार से निःसंग है, वही भिक्षु है।’
मनुष्य की आसक्ति वस्तुओं के कारण नहीं होती, मनुष्य की आसक्ति अपनी ही बेहोश होने की वृत्ति के कारण होती है। आसक्ति बेहोश होने का एक ढंग है। जब भी आप किसी चीज में बहुत आसक्त हो जाते हैं, तब वह चीज आपको नशा देने लगती है। इसे आपने अनुभव भी किया होगा।
अगर आप किसी स्त्री के प्रेम में हैं, तो आपकी चाल बदल जाती है; आप नशे में चलने लगते हैं। कोई भी देख कर कह सकता है आपको कि अब आप प्रेम में पड़ गए हैं। आपके पैर ठीक जगह पर नहीं पड़ते। आपकी आंखें ठीक देखती नहीं मालूम पड़तीं। आपके कान ठीक सुनते मालूम नहीं पड़ते। जिस स्त्री को आप प्रेम करते हैं, अगर हजार लोगों की भीड़ हो, तो नौ सौ निन्यानबे आदमी आपको दिखाई ही नहीं पड़ते, वही स्त्री दिखाई पड़ती है। अगर वह स्त्री उठ जाए, तो पूरी सभा उठ गई; वहां अब कोई नहीं है। और आप इस तरह जीने लगते हैं कि जैसे अब इस स्त्री के बिना जीना असंभव है; या इस पुरुष के बिना जीना असंभव है।
एक नशा है। वह नशा आपको जिंदगी को भूलने में सुविधा देता है। यह नशा मनुष्यों के आपसी संबंधों में ही होता है, ऐसा नहीं है, वस्तुओं से भी हो सकता है। जो आदमी धन को प्रेम करता है, वह भी नशे में होता है। जैसे-जैसे उसकी तिजोड़ी में संग्रह बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे उसकी चाल अनूठी होने लगती है; वैसे-वैसे उसका सीना फूलने लगता है; वैसे-वैसे वह जमीन पर नहीं होता, आकाश में उड़ने लगता है। जो आदमी राजनीति के नशे में है, पद के नशे में है, वह जैसे-जैसे पदों के करीब पहुंचने लगता है, उसकी हालत देखें, उसकी हालत बिलकुल वही है, जो शराबी की हो सकती है।
सच तो यह है कि शराबी सबसे कमजोर नशेवाला आदमी है। असल में शराब को वही खोजता है, जो और कोई मजबूत नशा नहीं खोज पाता। जिंदगी में बड़े नशे हैं। इसलिए यह हो सकता है कि नेता लोगों को समझा रहा है कि शराब मत पीओ, और उसे पता ही नहीं कि वह सिर्फ इसलिए नहीं पी रहा है कि उसे नेता होने की सुविधा है। और नेता होने में इतना मजा है, और इतनी बेहोशी है कि वह शराब का काम कर रही है।
आदमी, जैसी जिंदगी है, इस जिंदगी में कोई न कोई नशा खोजेगा। वह नशा कोई भी हो सकता है। इसलिए हमने तो इस देश में विद्या तक को व्यसन कहा है। वह भी नशा हो सकती है। वह भी अपने को भुलाने का उपाय हो सकती है। जिस किसी चीज में भी आत्मस्मृति खोती हो, वही नशा है। और जिससे आत्मस्मृति बढ़ती हो, वही नशे के पार जाना है।
और पृथ्वी पर हजारों साल से लोग समझा रहे हैं कि नशा छोड़ो। नशा छूटता नहीं, बढ़ता चला जाता है। ऐसा कोई युग नहीं हुआ, जब लोग नशा न कर रहे हों। नशे के उन्होंने बहाने अलग-अलग खोजे, लेकिन वेद से लेकर आज तक आदमी नशा करता ही रहा है। कभी वह सोमरस पीता है। और अल्डुअस हक्सले, पश्र्चिम का विचारशील अन्वेषक कहता है कि सोमरस, एल एस डी जैसी ही चीज है। और वैज्ञानिक खोज में लगे हैं, तो वे कहते हैं, सोमरस का जो-जो वर्णन ऋग्वेद में दिया है, वह वर्णन ठीक एल एस डी से मिलता-जुलता है। और हम जल्दी ही इस सदी के पूरे होते-होते एल एस डी में और सुधार कर लेंगे, तो वह बिलकुल सोमरस हो जाएगा, जिसको पीकर ऋषि-मुनि देवताओं से बात करने लगते थे; और जिसको पीकर वे परम आनंदित होकर नाचने लगते थे।
हिप्पी वही कर रहे हैं।
अल्डुअस हक्सले ने तो, बीसवीं सदी के बाद जब वैज्ञानिक आविष्कार और गहरे हो जाएंगे और एल एस डी में परिष्कार हो जाएंगे, तो इक्वीसवीं सदी में जो एल एस डी का परिष्कृत रूप होगा, उसको नाम ही ‘सोमा’ दिया है--सोमरस के कारण। तो उसका नाम ‘सोमा’ होगा।
आदमी सदा से ही नशे की तलाश करता रहा है; मूर्च्छित होने के उपाय खोजता रहा है। आदमी क्यों मूर्च्छित होना चाहता है, यह सोचना जरूरी है। होने के पीछे कारण हैं। आदमी अपने को, जैसा वह है, देखता है, तो बड़ी बैचेनी अनुभव करता है। जैसा आदमी है, अगर जागता है, तो बड़ी उदासी, ऊब पैदा होती है। आप जैसे हैं, अगर आपको पूरा-पूरा अपना दर्शन होने लगे, तो आप बहुत बैचेन हो जाएंगे, और घबड़ा जाएंगे। शायद आप आत्महत्या करना चाहेंगे। आप कहेंगे, इसमें क्या रखा है? मैं क्या कर रहा हूं? मेरे होने का क्या अर्थ है; क्या प्रयोजन है?
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अपने से बचता है। अपने से बचने का नाम नशा है। आप चाहे अपने मित्र के पास जाकर गपशप में अपने को भूल जाते हों, चाहे मंदिर में जाकर आप धर्म-प्रवचन सुन कर उसमें अपने को भूल जाते हों, चाहे होटल में बैठ कर नशा कर लेते हों--कुछ भी करते हों; जहां भी आप अपने को भूलने की कोशिश कर रहे हैं, वह कोशिश आपको धार्मिक बनने से रोक रही है।
तो महावीर कहते हैं कि भिक्षु वह है, जो उन उपकरणों तक में मूर्च्छा नहीं रखता, जिनके माध्यम से वह मुक्ति की तरफ जा रहा है। मोक्ष ले जाने वाले जो साधन हैं, उनमें भी जिसकी मूर्च्छा नहीं है--जो उनमें भी बेहोश नहीं होता--जो उनमें भी अपने को खोता नहीं।
लेकिन साधुओं को देखें। अगर साधु सुबह पांच बजे उठता है ब्रह्ममुहूर्त में और अपनी प्रार्थना करता है--एक दिन न उठ पाए पांच बजे, तो बेचैन, परेशान हो जाता है। तो वह ब्रह्ममुहूर्त में उठना भी एक मूर्च्छित आदत हो गई। अगर एक दिन प्रार्थना न कर पाए तो बेचैनी हो जाती है। तो इस बेचैनी में और शराब पीने वाले की बेचैनी में बुनियादी फर्क नहीं है। एक दिन शराब न मिले तो बेचैनी हो जाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी अपनी सहेलियों को कह रही थी कि मेरा दुर्भाग्य कि इस शराबी से मेरा संबंध हो गया; इस शराबी से मैंने विवाह कर लिया। लेकिन सहेलियों ने कहा कि विवाह किए तो दो साल भी हो गए, लेकिन तुमने कभी शिकायत न की? उसने कहा कि दो साल वह रोज ही शराब पीकर आता था, तो पता ही नहीं चला; कल रात बिना पीए आ गया, तो पता चला कि यह आदमी शराबी है। क्योंकि रात भर वह बेचैन और परेशान रहा।
जिस चीज से भी आपका संबंध ऐसा बन जाए कि उसके बिना आप बेचैन होने लगें, तो आप समझना कि आपने शराब का संबंध निर्धारित कर लिया, निश्र्चित कर लिया। जिसके बिना भी आप अपने को मुश्किल में पाएं--वह चाहे ध्यान हो, प्रार्थना हो, पूजा हो, तो आप समझना कि आपने धार्मिक ढंग की शराब अपने आस-पास इकट्ठी कर ली।
महावीर कहते हैं, भिक्षु तो वह है, जो अपने साधनों में भी, उपकरणों में भी, जिनके सहारे वह जा रहा है परमगति की ओर, उनमें भी मूर्च्छित नहीं है।
यह तो गहरी बात है। इसका एक स्थूल रूप भी है। क्योंकि आखिर भिक्षु होगा, तो भी वस्त्र थोड़े से पहनेगा, भिक्षा पात्र रखेगा, कुछ थोड़ी सी साधन
सामग्री उसके पास होगी। जीवन के निर्वाह के लिए इतना जरूरी होगा। इसमें भी मूर्च्छा पकड़ जाती है। वे जो दो वस्त्र पास में हैं, उनमें भी रस पकड़ जाता है। वे भी खो जाएं तो दुख होगा, तो लगेगा लुट गए। उनको भी सम्हाल कर रखता है। उनको भी बचा कर रखता है कि कहीं चोरी न हो जाएं।
जापान का एक सम्राट रात को निकलता था अपनी राजधानी देखने कि क्या स्थिति है--वेश बदल कर। वह बड़ा हैरान हुआ। और सब तो ठीक था, जब भी वह जाता तो एक भिखारी को जागते हुए पाता एक वृक्ष के नीचे। आखिर उसकी उत्सुकता बढ़ गई। और एक दिन उसने पूछा कि रात भर तू जागता क्यों है? तो उस भिखारी ने कहा कि अगर सो जाऊं और कोई चोरी कर ले जाए? वृक्ष के नीचे बैठा हूं, कोई और तो सुरक्षा है नहीं, तो दिन में सो लेता हूं। क्योंकि दिन में तो सड़क चलती रहती है, लोग होते हैं; रात तो जगना ही पड़ता है।
सम्राट ने उसके आस-पास पड़े हुए चीथड़ों का ढेर देखा, दो-चार भिक्षा के टूटे-फूटे पात्र देखे, उनके बचाव के लिए वह रात भर जग रहा है।
भिखारी भी चिंतित है कि चोरी न हो जाए। साधु भी चिंतित है कि उसका कुछ सामान न खो जाए। तो उसकी गृहस्थी छोटी हो गई, सिकुड़ गई, लेकिन मिटी नहीं। उसके लालच का फैलाव कम हो गया, लेकिन मिटा नहीं।
और ध्यान रहे, लालच का फैलाव जितना कम हो जाए, लालच उतना ही ज्यादा नशा देता है; क्योंकि इंटेंसिटी बढ़ जाती है। यह जरा समझने जैसा है। जैसे कि सूरज की किरणें पड़ रही हैं, आग पैदा नहीं होती; लेकिन आप एक लेंस से सूरज की किरणों को इकट्ठा कर लें एक कागज पर, सारी किरणें इकट्ठी हो जाएंगी, आग पैदा हो जाएगी। किरणें तो पड़ रही थीं, लेकिन बिखरी हुई थीं; इकट्ठी पड़ती हैं तो कागज जल उठता है, आग पैदा हो जाती है।
ध्यान रहे, साधारण गृहस्थ आदमी की वासना की किरणें तो बिखरी हुई हैं। साधु के पास तो ज्यादा सामान नहीं रह जाता, जिस पर वह अपनी वासना को फैला दे; बहुत थोड़ा रह जाता है, इसलिए बहुत इंटेंस, बड़ी तीव्रता से वासना इकट्ठी हो जाती है। और कई बार ऐसा होता है कि फैला हुआ गृहस्थ उतना गृहस्थ नहीं होता, जितना सिकुड़ा हुआ साधु गृहस्थ हो जाता है; जकड़ जाता है। थोड़ी जगह वासना इकट्ठी होकर आग पैदा करने लगती है। इसीलिए मनुष्य का मन अनजाने ही, जैसे सहज वृत्ति से सत्य को जानता है।
अगर आप एक स्त्री को प्रेम करते हैं तो वह बरदाश्त नहीं करेगी कि आप किसी और स्त्री को प्रेम करें। यह सहज है। कोई चेष्टा नहीं है। लेकिन सहज ही दूसरी स्त्री के प्रति आपका जरा सा भी लगाव उसे कष्ट देगा। अगर आपकी पत्नी किसी दूसरे में जरा ज्यादा उत्सुकता लेती है, तो आपको कष्ट होना शुरू हो जाएगा।
कारण है। और कारण यह है कि जितनी वासना फैल जाती है, उसकी तीव्रता कम हो जाती है--तो जो आग पैदा हो सकती है वासना से, वह फिर पैदा नहीं होती।
इसलिए प्रेमी डरते हैं कि कहीं वासना ज्यादा लोगों पर न फैल जाए। तो सब तरफ से वासना की किरणें एक ही व्यक्ति पर इकट्ठी हों। इसलिए प्रेमी एक-दूसरे को मोनोपलाइज करते हैं; पजेस करते हैं, एक-दूसरे को बिलकुल अपने पर रोक लेना चाहते हैं--जरा सी भी वासना कहीं न जाए ताकि वासना की तीव्रता और चोट आग पैदा कर सके।
इसलिए इतना भय प्रेमियों को लगा रहता है; और इतनी ईर्ष्या, और इतनी जलन, और इतना उपद्रव पकड़े रहता है।
इस सबके पीछे कोई बड़ी नैतिकता नहीं है। इस सबके पीछे कोई धर्म नहीं है और कोई समाज नहीं है। इस सबके पीछे मनुष्य का सहज अनुभव है कि वासना अगर बिखर जाए तो कुनकुनी हो जाती है; उसमें आग नहीं रह जाती। अगर वासना बहुत लोगों पर फैल जाए तो फिर उससे गहरे संबंध निर्मित नहीं हो सकते। फिर सतह पर ही मिलना हो पाता है।
साधु अपनी वासना को सिकोड़ लेता है सब तरफ से; घर छोड़ देता; पत्नी छोड़ देता; धन छोड़ देता; लेकिन तब उसकी वासना, जो उसके आस-पास रह जाता है, उस पर केंद्रित होने लगती है।
यह बड़े मजे की बात है कि बाप नहीं मिलेंगे ऐसे, जो अपने बेटे के प्रति इतने आसक्त हैं, जितने गुरु मिल जाएंगे, जो अपने शिष्य के प्रति इतने आसक्त हैं। गुरु जितना बेचैन रहता है कि कहीं शिष्य और कहीं न चला जाए, किसी और को गुरु न बना ले, कहीं और न भटक जाए--उतना बाप भी चिंतित नहीं रहता; उतना बाप भी परेशान नहीं रहता।
गुरु की वासना और निश्र्चित ही अगर गुरु को संन्यस्त होने का पूरा अनुभव नहीं हुआ है अभी, तो ही यह हो सकता है। गुरु नहीं है ठीक अर्थों में, तो ही यह हो सकता है। बुरी तरह शिष्य को जकड़ लेता है, सब तरफ से बांध लेता है, पजेसिव हो जाता है।
यह न केवल व्यक्तियों के संबंध में होगा, चीजों के संबंध में भी हो जाएगा। जो थोड़ी सी चीजें साधु के पास रह जाएंगी, उन पर वह सारा संसार आरोपित करेगा। वही उसका संसार है। आप लाख रुपये की चीज को भी इतना सम्हाल कर नहीं रखेंगे, जितना साधु दो कौड़ी की चीज को सम्हाल कर रखेगा।
महावीर कहते हैं: ऐसी मूर्च्छा अगर हो तो भिक्षु अभी भिक्षु नहीं है।
‘जो लालची नहीं है, गृद्ध नहीं है, लोभी नहीं है...।’
लोभ बड़ी सूक्ष्म वृत्ति है। और इसका संबंध धन से, मकान से, जमीन-जायदाद से नहीं है। इसका संबंध भीतर की एक गहरी आकांक्षा से है। और वह आकांक्षा है--और ज्यादा, और ज्यादा--किसी भी संबंध में।
अगर धन लाख रुपया आपके पास है, तो आपका लोभ कहेगा--और ज्यादा। अगर आपको उम्र सत्तर वर्ष की मिली है, तो लोभ की वासना कहेगी--और ज्यादा। अगर आपको ध्यान में थोड़ी सी शांति मिल रही है, तो लोभ की आकांक्षा कहेगी--और ज्यादा। अगर आपको मोक्ष के थोड़े से दर्शन होने लगे हैं, तो लोभ की आकांक्षा कहेगी--और ज्यादा।
लोभ की आकांक्षा का सूत्र है--और ज्यादा; जितना है, उतना काफी नहीं। तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आप घर छोड़ कर चले गए, दुकान छोड़ कर चले गए। ‘और ज्यादा’ में कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरे पास लोग आते हैं; ध्यान कर रहे हैं। उन्हें शांति मिलती है। जब उन्हें शुरू-शुरू में शांति मिलती है, वे बड़े प्रसन्न होते हैं। फिर थोड़े दिन बाद आकर वे कहने लगते हैं कि अब ठीक है, यह शांति तो ठीक है--अब और आगे क्या? अब कुछ आगे बढ़ाएं। आनंद कब मिलेगा? उनको पता नहीं कि जब ‘और ज्यादा’ का खयाल छूट जाएगा, तभी आनंद मिलेगा। वही अड़चन है। क्योंकि ‘और ज्यादा’ का खयाल ही दुख देता है। वही बाधा है। और आप ‘और ज्यादा’ को हर जगह लगा लेते हैं। कुछ भी हो, वह लग जाता है। कहीं भी वह वृत्ति जुड़ जाती है और बेचैनी शुरू हो जाती है।
आपको परमात्मा भी मिल जाए, तत्क्षण जो बात आपके मन में उठेगी, वह यह होगी कि अच्छा, ठीक है--यह तो ठीक, अब और ज्यादा। आप सोचें, खुद अपने मन के बाबत सोचें कि मिल गया परमात्मा--तृप्ति नहीं होगी!
मन कुछ ऐसा है कि अतृप्त करना उसका स्वभाव है। लोभ मन की आधारभूत वृत्ति है। जहां लोभ मिट जाता है, वहां मन मिट जाता है। जहां लोभ नहीं वहां मन के निर्मित होने का कोई उपाय नहीं है। मन कहता है, बस जहां भी है यह काफी नहीं है, और ज्यादा हो सकता है।
और वह जो नहीं हो रहा है, उससे पीड़ा आती है; जो हो रहा है, उसका सुख खो जाता है।
इसे थोड़ा समझें।
आप अपना दुख इसी वृत्ति के कारण पैदा कर रहे हैं। इसको महावीर कहते हैं, गृद्ध-वृत्ति--गीध के जैसी वृत्ति। अगृद्ध होगा भिक्षु। जो भी है, वह कहेगा, इतना ज्यादा है कि मेरी क्षमता नहीं थी, वह मुझे मिला है। वह हमेशा अनुगृहीत भाव से भरा होगा। एक ग्रेटिट्यूड होगा उसमें।
आप जब तक लोभ से भरे हैं, आपमें अनुग्रह नहीं हो सकता। आपको कुछ भी मिल जाए, तो भी शिकायत ही होगी। आपकी जिंदगी एक लंबी शिकायत है। उसमें कभी भी अहोभाव नहीं हो सकता। क्योंकि आप सदा जानते हैं, और ज्यादा मिल सकता था; और ज्यादा मिल सकता था, जो नहीं मिला।
भिक्षु का अर्थ है; संन्यस्त का अर्थ है--ऐसा व्यक्ति, जिसे जो भी मिल जाए, तो वह हमेशा अनुभव करता है कि जो मुझे नहीं मिल सकता था, वह मिल गया; जो मेरी पात्रता नहीं थी, वह मुझे मिल गया; जिसको पाने का मैं अधिकारी नहीं था, वह मुझ पर बरस गया। वह हमेशा अनुगृहीत है। ग्रेटिट्यूड उसका स्वभाव हो जाएगा। जो भी मिल जाए, वह उसे इतनी परम तृप्ति देगा कि आनंद के द्वार ज्यादा देर तक बंद नहीं रह सकते, कि मोक्ष ज्यादा दूर नहीं रह सकता।
और ध्यान रहे कि संन्यस्त व्यक्ति मोक्ष में प्रवेश नहीं करता, संन्यस्त व्यक्ति में मोक्ष प्रवेश करता है। मोक्ष कोई भौगोलिक जगह नहीं है, जिसमें आप चले गए। अगर ऐसी कोई जगह कहीं होती तो आपमें से कोई न कोई रिश्र्वत का रास्ता, पीछे का दरवाजा जरूर खोज लिया होता इतने लंबे समय में। आदमी काफी कुशल है।
लेकिन अच्छा ही है कि मोक्ष कोई भौगोलिक जगह नहीं है, नहीं तो शैतान और चालाक उस पर कब्जा कर लेते; निरीह, सीधे-साधे लोग बाहर रह जाते। जो योग्य होते, वे बाहर रह जाते; जो अयोग्य होते, वे भीतर सिंहासनों पर विराजमान हो जाते। लेकिन मोक्ष में राजनीतिज्ञ नहीं घुस पाते; चालाक नहीं घुस पाते; बेईमान नहीं घुस पाते। उसका कारण यह है कि मोक्ष कोई जगह नहीं है जिसमें प्रवेश किया जा सके। मोक्ष एक अवस्था है जो आपमें प्रवेश करती है। जब आप तैयार होते हैं, वह प्रविष्ट हो जाती है। ठीक तो कहना यह होगा कि वह कोई अवस्था नहीं जो आपमें बाहर से आती है--भीतर मौजूद है। जैसे ही ‘और ज्यादा’ की वृत्ति खो जाती है, उसका अनुभव शुरू हो जाता है।
‘और ज्यादा’ में उलझा हुआ आदमी उसे नहीं देख पाता, जो भीतर मौजूद है। संतुष्ट, अहोभाव से भरा व्यक्ति दौड़ता नहीं, उसका मन कहीं और जाता नहीं। वह उससे तृप्त हो जाता है, जो भीतर है।
आदमी का मन किसी भी चीज से तृप्त नहीं होता। थोड़ी देर सोचें कि ऐसी कौन सी चीज है, जो आपको मिल जाए, तो आप तृप्त हो जाएंगे।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन जब मरा, स्वर्ग पहुंचा, तो उसने सेंट पीटर से कहा कि मेरी एक आकांक्षा जीवन भर रही है। एक व्यक्ति से मैं मिलना चाहता हूं, जो स्वर्ग में है। और मुझे कोई सवाल पूछना है।
सेंट पीटर ने कहा कि मिलने का इंतजाम करवा देंगे, अगर तुम जिस व्यक्ति से मिलना चाहते हो, वह स्वर्ग में हो तो। नसरुद्दीन ने कहा कि बिलकुल निश्र्चित है कि वह स्वर्ग में है, आप सिर्फ इंतजाम करवाएं। मैं जीसस की मां ‘मेरी’ से मिलना चाहता हूं।
पीटर भी थोड़ा हैरान हुआ कि क्या प्रयोजन होगा! वह भी उत्सुक हुआ। उसने कहा: क्या मैं भी मौजूद रह सकता हूं तुम्हारी मुलाकात के वक्त? तुम क्या पूछना चाहते हो आखिर, जीसस की मां से?
बस एक प्रश्र्न मेरे मन में सदा से अटका है।
जीसस की मां ‘मेरी’ के पास उसे ले जाया गया। ‘मेरी’ का भव्य रूप--चारों तरफ गिरती प्रकाश की किरणें--आभामंडल--आनंद का सागर चारों तरफ, नसरुद्दीन बहुत प्रभावित हुआ। उसने कहा कि मैं बस एक ही सवाल पूछना चाहता हूं। मेरे मन में सदा यह उठता रहा है, क्योंकि मेरे लड़के सब नालायक निकल गए। मैं दुखी रहा हूं उनकी वजह से। मेरी पत्नी दुखी है अपने बेटों की वजह से। और मैंने पृथ्वी पर ऐसा कोई मां और बाप नहीं देखा, जो दुखी नहीं है। मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि तुम्हें तो जीसस जैसा बेटा मिला--जिसे लोग, हजारों-लाखों लोग ईश्र्वर की प्रतिमा मानते हैं--परमात्मा ही मानते हैं, तो जब तुम जमीन पर थीं और जीसस पैदा हुआ और जब जीसस ऐसा प्रभावी हो गया कि लाखों लोग उसे ईश्र्वर मानने लगे, तब तुम्हारे मन को कैसा हुआ? तुम तो कम से कम तृप्त रही होओगी?
‘मेरी’ ने कहा: टु बी फ्रैंक, नसरुद्दीन, आइ एंड माई हसबैंड, वी बोथ वर होपिंग दैट ही शुड बिकम ए गुड कारपेंटर--अच्छा बढ़ई बन जाए
गा, ऐसा हम दोनों का खयाल था, आशा थी। और हम दोनों बड़े उदास हुए, जब उसने सब धंधा छोड़ दिया और फिजूल की बातों में लग गया। बट, नसरुद्दीन, डोंट टैल इट टु एनीबडी, दे वोंट बिलीव इट--अब तुम पूछ ही रहे हो तो मैं सच्ची बात कहे देती हूं कि उस वक्त तो हमारे मन में यही भाव था।
क्योंकि जीसस का बाप बढ़ई था। और बढ़ई चाहता होगा कि उसका बेटा अच्छा बढ़ई बने। दूर-दूर तक उसकी ख्याति पहुंचे--उसके सामानों की, उसके फर्नीचर की, उसकी बनाई हुई चीजों की। तो ‘मेरी’ बड़ी सच्ची बात कह रही है। और ‘मेरी’ जैसी मां ही कह सकती है, इतनी सच्ची बात।
आदमी का मन ऐसा है। उसकी वासनाएं क्या हैं, चाहता क्या है--अगर परमात्मा भी उपलब्ध हो, तो भी तृप्ति नहीं होने वाली--तो भी कुछ अतृप्त रह जाएगा। कहीं कुछ खटकता ही रहेगा। कहीं कोई शिकायत मौजूद रह जाएगी।
अगर आप शिकायत से भरे हैं, तो उसका कारण यह नहीं है कि आपकी जिंदगी में शिकायत है। अगर आप शिकायत से भरे हैं, तो उसका कारण यह है कि जैसा मन आपके पास है, वह मन शिकायत से भरा ही हो सकता है।
हम पूरे जीवन इन शिकायतों को मिटाने की जिंदगी में कोशिश करते हैं। महावीर कहते हैं: संन्यस्त वह है, जो शिकायत के मूल आधार को भीतर तोड़ देता है। वह मूल आधार लोभ है, लालच है--‘और ज्यादा’ का भाव।
‘जो अज्ञात परिवारों से भिक्षा मांग लाता है...।’
महावीर का बहुत जोर है कि भिक्षु अज्ञात परिवारों से भिक्षा मांगे। क्योंकि ज्ञात परिवारों से संबंध निश्र्चित होने शुरू हो जाते हैं। और जैसे ही संबंध बनने लगते हैं, भिक्षु की आकांक्षाएं सजग हो सकती हैं। अनजाने, अचेतन में भी वह आशा कर सकता है कि क्या मिलेगा। अज्ञात परिवारों से, अज्ञात परिवारों से इसलिए, ताकि भविष्य सदा अनजान रहे। जैसे ही भविष्य जाना-माना होता है, मन सक्रिय हो जाता है। भविष्य बिलकुल अननोन रहे। यह भी अंदाज न हो कि जिस द्वार पर खड़े होकर मैं भीख मांगूंगा, वहां भीख मिलेगी भी या नहीं। भीख मिलेगी तो रूखी-सूखी रोटी मिलने वाली है या कुछ मिष्ठान्न मिलने वाले हैं। गाली मिलेगी; अपमान मिलेगा; दरवाजे से हट जाने की आज्ञा मिलेगी...।
एक बौद्ध भिक्षु की कथा है कि वह एक ब्राह्मण के द्वार पर भिक्षा मांगने गया। ब्राह्मण का घर था, बुद्ध से ब्राह्मण नाराज था। उसने अपने घर के लोगों को कह रखा था कि और कुछ भी हो, बौद्ध भिक्षु भर को एक दाना भी मत देना कभी इस घर से। ब्राह्मण घर पर नहीं था, पत्नी घर पर थी; भिक्षु को देख कर उसका मन तो हुआ कि कुछ दे दे। इतना शांत, चुपचाप, मौन भिक्षापात्र फैलाए खड़ा था, और ऐसा पवित्र, फूल जैसा। लेकिन पति की याद आई कि वह पति पंडित है और पंडित भयंकर होते हैं, वह लौट कर टूट पड़ेगा। सिद्धांत का सवाल है उसके लिए। कौन निर्दोष है बच्चे की तरह, यह सवाल नहीं है, सिद्धांत का सवाल है--भिक्षु को, बौद्ध भिक्षु को देना अपने धर्म पर कुल्हाड़ी मारना है। वहां शास्त्र मूल्यवान है, जीवित सत्यों का कोई मूल्य नहीं है। तो भी उसने कहा कि इस भिक्षु को ऐसे ही चले जाने देना अच्छा नहीं होगा। वह बाहर आई और उसने कहा: क्षमा करें, यहां भिक्षा न मिल सकेगी।
भिक्षु चला गया। पर बड़ी हैरानी हुई कि दूसरे दिन फिर भिक्षु द्वार पर खड़ा है। वह पत्नी भी थोड़ी चिंतित हुई कि कल मना भी कर दिया। फिर उसने मना किया।
कहानी बड़ी अनूठी है; शायद न भी घटी हो, घटी हो। कहते हैं, ग्यारह साल तक वह भिक्षु उस द्वार पर भिक्षा मांगने आता ही रहा। और रोज जब पत्नी कह देती कि क्षमा करें, यहां भिक्षा न मिल सकेगी, वह चला जाता। ग्यारह साल में पंडित भी परेशान हो गया। पत्नी भी बार-बार कहती कि क्या अदभुत आदमी है! दिखता है कि बिना भिक्षा लिए जाएगा ही नहीं। ग्यारह साल काफी लंबा वक्त है। आखिर एक दिन पंडित ने उसे रास्ते में पकड़ लिया और कहा कि सुनो, तुम किस आशा से आए चले जा रहे हो, जब तुम्हें कह दिया निरंतर हजारों बार?
उस भिक्षु ने कहा: अनुगृहीत हूं। क्योंकि इतने प्रेम से कोई कहता भी कहां है कि जाओ, भिक्षा न मिलेगी! इतना भी क्या कम है? भिखारी के लिए द्वार तक आना और कहना कि क्षमा करो, भिक्षा न मिलेगी, क्या कम है? मेरी पात्रता क्या है! अनुगृहीत हूं! और तुम्हारे द्वार पर मेरे लिए साधना का जो अवसर मिला है, वह किसी दूसरे द्वार पर नहीं मिला है। इसलिए नाराज मत होओ, मुझे आने दो। तुम भिक्षा दो या न दो, यह सवाल नहीं है।
महावीर कहते हैं: अज्ञात द्वार से--जानी-मानी जगह भिक्षा मिल जाएगी, भिक्षा मूल्यवान नहीं है। भिक्षु के लिए, संन्यस्त के लिए भोजन मूल्यवान नहीं है, भोजन के प्रति जो उसका रुख है, दृष्टिकोण है, वह मूल्यवान है।
तो अज्ञात द्वार पर, जहां कोई अपेक्षा नहीं है, जहां संभावना है इनकार की, वहां से भिक्षा मांग लाता है।
किसी तरह की अपेक्षा का फैलाव न हो जीवन में, तो संसार बिखर जाता है। हम तो ऐसी अपेक्षाएं बना लेते हैं, जिनका हमें पता नहीं है। अगर आप रास्ते पर मुझे मिलते हैं, मैं रोज नमस्कार कर लेता हूं; एक दिन नमस्कार न करूं तो आप दुखी हो जाएं कि इस आदमी ने नमस्कार क्यों नहीं किया?... क्या मतलब?
नमस्कार तक की हम अपेक्षा बना लेते हैं कि कौन करेगा। जो आदमी आपको देख कर रोज मुस्कुराता है, अगर न मुस्कुराए, तो आप बेचैन हैं। तब फिर आदमियों को झूठा मुस्कुराना पड़ता है। आप देखें कि वे मुस्कुरा रहे हैं, उन्होंने मुंह फैला दिया--अकारण, कोई कारण नहीं है। लेकिन आप--नाहक उपद्रव खड़ा करना कोई उचित भी नहीं है--आप भी मुस्कुरा रहे हैं, वह भी मुस्कुरा रहे हैं। दो झूठी मुस्कुराहटें, जिनके पीछे आदमियों को कोई लेना-देना नहीं है!
अपेक्षाएं जीवन को झूठा कर जाती हैं।
महावीर कहते हैं: न तो खुद झूठे होना और न दूसरे को झूठा करने का मौका देना, क्योंकि वह भी पाप है। अगर तुम दो-चार दिन एक जगह से भिक्षा मांग लाए और पांचवें दिन गए, तो उस घर के लोग भी सोचेंगे, भिक्षु अपेक्षा रखता है। अगर न देंगे तो दुखी होगा। अगर न देंगे तो हमारी प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचती है। अगर न देंगे तो हमें भी अच्छा नहीं लगेगा। तो शायद उन्हें देना पड़े, जब कि वे नहीं देना चाहते थे। तो तुम अज्ञात द्वार पर जाना, जहां कोई अपेक्षा का संबंध नहीं है।
‘जो संयम-पथ में बाधक होने वाले दोषों से दूर रहता है...।’
संयम-पथ पर बहुत सी बाधाएं हैं--होंगी ही। उन बाधाओं से जो दूर रहता है। दूर रहने का प्रयोजन इतना है कि अकारण उनमें उलझने की कोई जरूरत नहीं है।
आप जहां रह रहे हैं, वहां चारों तरफ हजारों तरह के लोग हैं। एक संन्यस्त व्यक्ति अगर आपके गांव में आता है, हजार तरह की बाधाएं आप मौजूद कर देंगे बिना सचेतन रूप से जाने हुए। आप गांव की गपशप जाकर उसे सुनाने लगेंगे; किसी की निंदा-प्रशंसा करने लगेंगे। उस आदमी को भी आप पक्ष-विपक्ष में बांटने लगेंगे।
यदि संयम-पथ का सच में कोई साधक हो, तो इन सारी चीजों से ऐसे दूर रहेगा, जैसे यह सब घटनाएं उसके आस-पास नहीं घट रहीं। वह तभी बोलेगा, जब उसकी साधना के लिए सहयोगी हो। अन्यथा चुप होगा। वह किसी चीज में सहमति नहीं देगा, असहमति नहीं देगा, जब तक कि वह उसकी साधना के लिए कुछ सहयोगी न हो। वह व्यर्थ की बातें सुनना भी नहीं चाहेगा, सुनाना भी नहीं चाहेगा। वह ऐसी कोई चीज खड़ी नहीं करना चाहेगा, जिससे आज नहीं कल जाकर परेशानी शुरू हो जाए।
परेशानियां बड़ी छोटी चीजों से शुरू होती हैं।
आपने सुनी होगी, बहुत प्राचीन कथा है। एक संन्यासी जंगल में रहता है अकेला। भिक्षा मांगने जाता है। भिक्षा लेकर आता है तो घर में कभी थोड़ी देर को रोटी रख देता है; भोजन रख देता है। थोड़ी देर रोटी भोजन रुक जाता है, तो चूहे धीरे-धीरे घर में पैदा हो गए; आने लगे पड़ोस से, जंगल से, खेतों से। तो किसी मित्र ने सलाह दी--एक भक्त ने--कि ऐसा करो, एक बिल्ली पाल लो। बिल्ली चूहों को खा जाएगी।
संन्यासी को जंचा। उसने अगर महावीर का सूत्र पढ़ा होता, तो बिलकुल नहीं जंचती यह बात। क्योंकि पालने से झंझट ही शुरू होने वाली थी। बिल्ली के पीछे पूरा संसार आ सकता है; क्योंकि पालने की वृत्ति, वह गृहस्थ का लक्षण है। लेकिन बिल्ली पालना उसको भी निर्दोष लगा--मामला कोई झंझट का नहीं है। कोई संसार तो है नहीं बिल्ली। बिल्ली से किसी का मोक्ष कभी अटका हो, ऐसा सुना भी नहीं। बिल्ली ने किसी संन्यासी को भ्रष्ट किया हो, इसका कोई इतिहास भी नहीं।
कोई कारण नहीं था। शास्त्रों में कोई उल्लेख भी नहीं कि बिल्ली मत पालना। शास्त्र भी कितना इंतजाम कर सकते हैं! संसार बड़ा है, शास्त्र बड़े छोटे हैं। तो सूत्र दिए जा सकते हैं, लेकिन डिटेल्स, विस्तार में तो कुछ नहीं कहा जा सकता।
संन्यासी ने बिल्ली पाल ली। बिल्ली तो पाल ली, लेकिन अड़चन शुरू हुई। क्योंकि बिल्ली के लिए अब दूध मांग कर लाना पड़ता। भक्त ने, किसी ने सलाह दी कि क्यों इतना परेशान होते हो, गाय हम भेंट किए देते हैं, तुम एक गाय रख लो।
संन्यासी ने कहा: गाय तो वैसे भी गऊ-माता है। इसमें तो कोई हर्ज है नहीं। गऊ-माता की पूंछ पकड़ कर कोई मोक्ष भला पहुंचा हो, बाधा तो किसी को नहीं पड़ी। और वैतरणी पार करनी हो तो गऊ-माता की पूंछ ही पकड़नी पड़ती है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है। बिल्ली तो शायद कुछ शैतान से संबंध भी रखती हो, गाय तो एकदम शुद्ध परमात्मा से जुड़ी है।
गाय भी रख ली। गाय रखते ही अड़चन शुरू हुई, क्योंकि घास-पात की जरूरत पड़ने लगी। अब रोज घास खरीद कर लाओ, या मांग कर लाओ। किसी भक्त ने, और भक्त सदा मौजूद हैं, जो सलाह देने को तैयार हैं। और बेचारे नेक सलाह देते हैं। उनकी तरफ से कुछ भूल नहीं है। उन्होंने कहा: इतनी झंझट क्यों करते हो? थोड़ी सी खेती-बाड़ी आस-पास ही कर लो। तो गाय का भी काम चले, तुम्हारा भी काम चले, बिल्ली का भी काम चले।
अब काफी संसार बड़ा हो गया। बेचारे ने खेती-बाड़ी शुरू कर दी। मजबूरी थी, अब यह गाय मर न जाए। दूध की भी जरूरत थी। फिर उस गाय को चराने भी ले जाना पड़ता। फिर खेती-बाड़ी काटनी भी पड़ती। वक्त पर फसल भी बोनी पड़ती। फिर ये उसे थोड़ा ज्यादा मालूम पड़ने लगा। प्रार्थना-पूजा का समय ही न बचता, ध्यान का कोई उपाय न रहा।
तो एक परम भक्त ने कहा: ऐसा करो कि तुम विवाह कर लो। एक पत्नी रहेगी, साथी-सहयोगी होगी। वह सब देखभाल कर लेगी, तुम अपना ध्यान करना। अब तुम्हें ध्यान का बिलकुल समय ही नहीं बचा।
साधु को भी बात तो समझ में आई। क्योंकि इतना उपद्रव फैल गया कि उसको कौन सम्हाले।
अगर आपने घर बसा लिया तो घरवाली ज्यादा देर दूर नहीं रह सकती। वह आएगी। उसके बिना घर बस भी नहीं सकता। अड़चन होगी।
उसने शादी भी कर ली। लेकिन शादी से किसी को ध्यान करने का समय मिला है! जो थोड़ा-बहुत मिलता था, गाय-बिल्ली से बचता था, वह भी खो गया।
फिर जब यह साधु मर रहा था तो उसके शिष्यों ने उससे पूछा कि तुम्हारा कोई आखिरी संदेश? तो उसने मरते वक्त कहा कि बिल्ली भूल कर मत पालना! बिल्ली संसार है!
महावीर कहते हैं: संयम के पथ पर बहुत सचेत होने की जरूरत है कि कौन सी चीज बाधा बन जाएगी। आज चाहे दिखाई भी न पड़ती हो। क्योंकि चीजें जब शुरू होती हैं, बड़ी सूक्ष्म होती हैं। धीरे-धीरे उनका स्थूल रूप निर्मित होना शुरू होता है। बहुत सूक्ष्म होती हैं। किसी ने भिक्षा दी, और आपने धन्यवाद दिया। वह धन्यवाद देने में कहीं कोई संसार नहीं आ रहा है, लेकिन आ सकता है। उस धन्यवाद में ही संसार आ सकता है।
तो महावीर कहते हैं: धन्यवाद भी मत देना। भिक्षा किसी ने दी तो, न तो सुख अनुभव करना और न दुख। चुपचाप हट जाना जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
धन्यवाद देने तक की भी मनाही करते हैं, क्योंकि वह धन्यवाद भी संबंध निर्मित कर रहा है। और जिसको तुमने धन्यवाद दिया, उससे तुम्हारा भीतरी एक नाता बनना शुरू हो गया। और अगर बिल्ली से संसार आ सकता है, तो धन्यवाद से भी आ सकता है।
इसलिए महावीर कहते हैं, होश रखना। कोई भी सूक्ष्म ऐसा कृत्य मत करना जिसके पीछे स्थूल जाल निर्मित हो जाए। और हर चीज के पीछे स्थूल निर्मित हो सकता है। इसलिए संयम का पथ अत्यंत होश का और सावधानी का, सावचेतता का पथ है।
‘जो खरीदने-बेचने और संग्रह करने के गृहस्थोचित धंधों के फेर में नहीं पड़ता।’
गृहस्थी सवाल नहीं है, गृहस्थी के कुछ विशेष धंधे हैं जिनके आस-पास गृहस्थी निर्मित होती है। गृहस्थी का मतलब वह स्थूल घर नहीं है, जहां आप रहते हैं; वह पत्नी नहीं है, जहां आप रहते हैं; वे बच्चे नहीं हैं, जहां आप रहते हैं। गृहस्थी का मतलब है कि आप कुछ अर्थशास्त्र के जगत में जुड़े हैं; कुछ इकॉनामिक्स के जगत में जुड़े हैं।
मेरे एक मित्र हैं। उनको घर बनाने का बड़ा शौक है। फिर वे संन्यासी हो गए। जब वे संन्यस्त नहीं थे, तब भी वे घर बनाते थे। अपने मित्रों के घर भी बनवा देते थे। छाता लगा कर धूप में खड़े रहते, और बड़े खुश होते थे, जब कोई नई चीज बनवा देते। उनको एक ही शौक है, कि अच्छे घर। उनमें नई डिजाइन, नये ढंग, नये प्रयोग। फिर वे संन्यस्त हो गए। कोई दस साल बाद मैं उनके गांव के करीब से गुजरता था, जहां वे संन्यस्त होकर रहने लगे थे।
तो जो मित्र मुझे ड्राइव कर रहे थे, उनसे मैंने कहा कि दस मील का चक्कर तो जरूर होगा, लेकिन मैं देखना चाहता हूं कि वे क्या कर रहे हैं। जरूर वे छाता लिए खड़े होंगे।
उन्होंने कहा: आप भी पागल हो गए हैं! दस साल पहले... और अब वे संन्यस्त हो गए हैं। दस साल हो गए उन्हें संन्यस्त हुए, और अब क्यों छाता लेकर खड़े होंगे? मैंने कहा: वे जरूर खड़े होंगे, फिर भी चल कर देख लें।
आश्र्चर्य की बात, वे खड़े थे! आश्रम बनवा रहे थे। छाता लगाए धूप में खड़े थे, आश्रम बनवा रहे थे। वे कहने लगे कि यह जरा आश्रम बन जाए तो शांति हो। मैंने कहा: यह शांति कभी होने वाली नहीं। तुम इसी सब उपद्रव से छूट कर संन्यासी हुए थे। लेकिन उपद्रव बाहर नहीं है, उपद्रव भीतर है। पर उन्होंने कहा: वह गृहस्थी की बात थी, यह तो आश्रम बन रहा है।
शंकराचार्य तक अदालतों में खड़े होते हैं, क्योंकि आश्रम का मुकदमा चल रहा है। फर्क क्या है? आप अपने घर के मुकदमे के लिए खड़े होते हैं; शंकराचार्य अपने आश्रम के मुकदमे के लिए खड़े होते हैं, क्योंकि मुकदमा चल रहा है!
महावीर कहते हैं: गृहस्थोचित धंधों में--लेन-देन, खरीदना-बेचना--इस तरह की जो वृत्तियां हैं, उनमें जरा भी भिक्षु संबंधित न हो। अन्यथा उसे पता भी नहीं चलेगा, कब छोटे से छिद्र से पूरा संसार भीतर चला आया।
‘जो सब प्रकार से निःसंग रहता है, वही भिक्षु है।’
निःसंगता बड़ा मौलिक तत्व है; कठिन भी बहुत है। क्योंकि हम सदा संग चाहते हैं। संग की चाह हममें बड़ी गहरी है--कोई साथ हो। अकेले होने में बड़ा बुरा लगता है। अकेला कोई भी नहीं होना चाहता। आप जब भी अकेले छूट जाते हैं, तब बेचैनी अनुभव करते हैं कि क्या करें, क्या न करें। कुछ सूझता नहीं। अकेले होने में बड़ी मुसीबत है।
एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ, लियोपोल गोडवस्की, अनिद्रा से पीड़ित था। और अनिद्रा से पीड़ित लोगों की तकलीफ नींद का न आना नहीं है, रात अकेला छूट जाना है। सारी दुनिया सो गई, पत्नी घुर्राटे ले रही है। बच्चे मजे से सोए हुए हैं। और आप जग रहे हैं। बिलकुल अकेले रह गए। सारा संसार खो गया। धीरे-धीरे रास्ते का ट्रैफिक बंद हो गया। शोरगुल शांत हो गया। अब कहीं कोई हिलता-डुलता नहीं। पशु-पक्षी तक सो गए। वृक्ष तक चुप हो गए। अब आप अकेले रह गए। जैसे पृथ्वी समाप्त हो गई तीसरे महायुद्ध में। सब लाशें पड़ी हैं। और आप अकेले जग रहे हैं।
लियोपोल गोडवस्की के संस्मरणों में लिखा गया है कि उसका लड़का उसके पास रहता था। तो रात को जब उसे बहुत मुश्किल हो जाती--और लड़का बहुत भयंकर सोने वाला था; जोर से घुर्राटे भरता, और बड़ी गहरी नींद में--कि कोई भूकंप हो जाए, तो भी जगे नहीं--तो लियोपोल रात में दो-चार बार उसके पास जाकर कहता, उसे जोर से हिलाता और कहता: क्यों बेटा, आज तुमको भी नींद नहीं आई क्या?
वह सो रहा है; घुर्राटे ले रहा है। उसको हिलाता है कि क्यों बेटे, आज तुमको भी नींद नहीं आई क्या? पहले उसको जगा देता है। उसके बेटे ने लिखा है कि मैं चकित था कि यह मामला क्या है? लेकिन कुल मामला इतना था, आदमी साथ खोजता है। अगर दूसरे को भी नींद नहीं आई तो हम संगी-साथी हो गए।
दो तो हैं कम से कम--साथ हैं।
हम जीवन में जिस वृत्ति से सर्वाधिक ग्रसित हैं, वह है संगी खोजने की, साथी खोजने की। अकेला होना बड़ा कठिन मालूम होता है--क्यों? कई कारणों से।
एक: जब कोई संगी-साथी होता है, तो हम दुख का सारा दायित्व उस पर दे सकते हैं। जब कोई संगी-साथी नहीं है, तो सारा दुख अपने ही हाथों पैदा किया हो जाता है। इसे झेलना बहुत कठिन है।
जब कोई संगी-साथी होता है, तो उसमें हम अपने को भूल सकते हैं। वह नशे का काम करता है। जब कोई संगी-साथी नहीं होता, तो भूलने की कोई जगह नहीं रह जाती।
जब कोई संगी-साथी होता है, तो हम अपनी झूठी तस्वीरें खड़ी कर सकते हैं। क्योंकि हम अभिनय कर सकते हैं उसके सामने। हम धोखा दे सकते हैं उसको। और उसको धोखा देकर अपने को धोखा दे सकते हैं।
लेकिन जब कोई संगी-साथी नहीं, कोई दर्पण नहीं, तो धोखा किसको देना है? आदमी की नग्नता, उसकी पशुता, उसके भीतर जो भी है बुरा-भला--सब सामने आ जाता है। उससे बचने का कोई उपाय नहीं रहता। उससे दुख होता है; नरक अनुभव होता है। अकेला आदमी नरक में अपने को अनुभव करता है।
महावीर कहते हैं: असंगता भिक्षु का लक्षण है; संग की तलाश संसारी का लक्षण है। अकेले होने में आनंद; और जितनी देर अकेला होना मिल जाए, उतनी प्रसन्नता। और जितनी देर संग-साथ हो, अनिवार्य हो तो ही, अन्यथा उसको विदा करना है। उतने ही देर के लिए, जितना बिलकुल जरूरी हो, संग-साथ ठीक। अधिक समय असंग बीते। और धीरे-धीरे भीतर असंगता ऐसी बढ़ जाए कि जब कोई मौजूद भी हो, तो भी संन्यासी अपने को अकेला ही अनुभव करे। वह दूसरे को अपने भीतर न ले। वह भीड़ में भी खड़ा रहे, तो भी भीड़ उसमें प्रवेश न कर पाए, वह भीड़ के बाहर बना रहे।
इतने असंग होने की जो साधना है, वही व्यक्ति को आत्मवान बनाएगी। जितना असंग हो सकेगा आदमी, उतना आत्मवान हो सकेगा; और जितना भीड़ में खो जाता है, उतना आत्महीन हो जाता है। आप सब भीड़ में खोने को उत्सुक रहते हैं। आत्महीन होने में सारी जिम्मेवारी हट जाती है।
ध्यान रहे, दुनिया में जो बड़े पाप होते हैं, वे निजी अकेले में नहीं किए जाते। उनके लिए भीड़ चाहिए। एक हिंदुओं की भीड़ मस्जिद को जला रही है, या मुसलमानों की भीड़ मंदिर को जला रही है। इस भीड़ में जितने मुसलमान हैं, अगर उनको एक-एक से अलग-अलग पूछा जाए कि क्या तुम अकेले मंदिर को जलाने की जिम्मेवारी लेते हो? मुसलमान इनकार करेगा। अगर हिंदू से पूछा जाए कि क्या तुम अकेले इस मस्जिद को आग लगाने का विचार करोगे? वह कहेगा कि नहीं। लेकिन भीड़ में आसान हो जाता है। क्योंकि भीड़ में मैं जिम्मेवार नहीं हूं। जब भीड़ हत्या कर रही हो, तो आप भी दो हाथ लगा देते हैं। इस दो हाथ लगाने में आपकी निजी जिम्मेवारी नहीं है।
और ध्यान रहे, भीड़ आपको निम्नतम जगह पर ले आती है। क्योंकि जैसा पानी का स्वभाव है, एक लेवल पर आ जाना। अगर आप पानी को डाल दें तो फौरन लेवल बना लेगा। पानी निकाल लें नदी से, नदी फिर लेवल पर हो जाएगी। आपका चित्त भी एक लेवलिंग करता रहता है पूरे वक्त। जब आप हजार आदमियों की भीड़ में खड़े होते हैं, तो हजार आदमियों के चित्त की जो निम्नतम सतह है, वही आपकी सतह हो जाती है। तत्क्षण आप छोटे आदमी हो जाते हैं।
भीड़ में पाप बड़ा आसान है करना। अकेले में पाप करना बहुत कठिन है। क्योंकि अकेले में आपको कोई दूसरे पर जिम्मा छोड़ने का मौका नहीं होता। तो महावीर कहते हैं कि जब तक कोई व्यक्ति भीड़ से मुक्त न होने लगे, तब तक आत्मवान नहीं होगा। जैसे-जैसे व्यक्ति अकेला होने लगता है, वैसे-वैसे बुराई गिरने लगती है। और जिस दिन व्यक्ति बिलकुल अकेले होने में समर्थ हो जाता है, तो महावीर कहते हैं, वह असंग स्थिति कैवल्य का जन्म बन जाती है।
‘जो मुनि अलोलुप है, जो रसों में अगृद्ध है, जो अज्ञात कुल की भिक्षा करता है, जो जीवन की चिंता नहीं करता, जो ऋद्धि, सत्कार, पूजा और प्रतिष्ठा का मोह छोड़ देता है, जो स्थितात्मा तथा निस्पृही है, वही भिक्षु है।’
‘जो जीवन की चिंता नहीं करता...।’
जो जीता है, लेकिन चिंता निर्मित नहीं करता।
हम जीते कम हैं, चिंता ज्यादा करते हैं। अगर ऐसा हो जाए, तो क्या होगा? अगर ऐसा न हुआ होता, तो कितना अच्छा होता। हम इस तरह की चिंताएं अतीत के प्रति भी निर्मित करते हैं, भविष्य के प्रति भी। चिंताएं इतना हमें पकड़ लेती हैं कि जीने की जगह ही नहीं बचती; स्पेस भी नहीं बचती, जिसमें हम चल सकें और जी सकें।
आप अपने मन को सोचें। कल आपने किसी से कुछ कहा, आप सोचते हैं, न कहा होता। कोई अर्थ है? जो कहा, वह कहा। उसको न कहने का अब कोई उपाय नहीं। लेकिन सोच रहे हैं--अगर न कहा होता। और चिंतित हो रहे हैं। कल क्या कहना है, उसके लिए चिंतित हो रहे हैं।
और ध्यान रहे, जो भी आप तय करके जाएंगे, वह आप कल कहने वाले नहीं हैं, क्योंकि जिंदगी रोज बदल जाती है। और आप जो भी तय करते हैं, वह सब बासा और पुराना हो जाता है। जिंदगी तो नई, प्रतिपल परिवर्तनशील धारा है। वह उसमें नया प्रतिसंवेदन चाहती है। नहीं तो आप तय करके जाते हैं, बंधे हुए उत्तर हो जाते हैं। बंधे हुए उत्तर दिक्कत दे देते हैं।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में सम्राट आ रहा है। और गांव का वह प्रतिष्ठित आदमी था। तो गांव के लोगों ने कहा कि तुम्हीं उसका स्वागत करना। लेकिन नसरुद्दीन, जरा खयाल रखना; कुछ ऐसी-वैसी बात मत कर देना। सम्राट है, नाराज न हो जाए।
तो नसरुद्दीन ने कहा: फिर बेहतर यही होगा कि तुम मुझे बता ही दो कि मैं क्या कहूं। जिसमें कि गलती का कोई सवाल ही न रहे। तो दरबारियों ने पूरा इंतजाम कर लिया; सम्राट को कहा कि आप दो ही सवाल पूछना इस आदमी से। और वह दो ही जवाब देगा। ज्यादा झंझट खड़ी नहीं करनी है। तो आप उससे पूछना कि तुम्हारी उम्र क्या है? तो वह अपनी उम्र बता देगा। उसकी उम्र सत्तर साल है। और फिर आप उससे पूछना कि तुम धर्म में कब से रुचि ले रहे हो? कब से तुम मौलवी, मुल्ला हो गए हो? वह बीस साल से धर्म में रुचि ले रहा है। तो वह कहेगा, बीस साल से। बस, ऐसे औपचारिक बातें पक्की कर लेना।
नसरुद्दीन को भी समझा दिया गया। लेकिन सब गड़बड़ हो गई बात। क्योंकि नसरुद्दीन ने बिलकुल तय कर लिया कि पहले का उत्तर सत्तर साल, और दूसरे का उत्तर बीस साल। सम्राट गलती कर गया। उसने दूसरा सवाल पहले पूछ लिया। उसने पूछा कि नसरुद्दीन, तुम धर्म में कितने दिन से रुचि ले रहे हो? कब से तुम मुल्ला हो? नसरुद्दीन ने कहा: सत्तर साल से! और उसने पूछा: और तुम्हारा जन्म कब हुआ? तुम्हारी उम्र कितनी है? नसरुद्दीन ने कहा: बीस साल!
सम्राट ने कहा: नसरुद्दीन, तुम पागल तो नहीं हो? नसरुद्दीन ने कहा कि मैं तो ठीक ही जवाब दे रहा हूं, पागल वह है जो गलत सवाल पूछ रहा है।
जिंदगी रोज बदल रही है। आपकी आज की चिंता कल काम नहीं आएगी। और अगर आप बहुत मजबूत होकर बैठ गए, तो आप कल पाएंगे कि उत्तर ही सब गलत हुए जा रहे हैं। क्योंकि सवाल ही नये हैं। महावीर कहते हैं, भिक्षु वह है, जो चिंता नहीं करता। जो बीत गया, उसे जान लेता है कि बीत गया। जो नहीं आया, जानता है अभी नहीं आया। जो सामने है, उसमें जीता है।
और ध्यान रहे, जो सामने है, उसमें जो जी लेता है उससे भूलें नहीं होंगी। भूलें होती ही इसीलिए हैं कि हम ‘यहां’ तो मौजूद नहीं होते, जहां जीना है। या तो पीछे होते हैं, या आगे होते हैं। हम ‘यहां’ बेहोश होते हैं। जो न पीछे है, न आगे है--जो निश्चिंत है, वह ‘यहां’ है। अपनी पूरी चेतना के साथ ‘यहां’ मौजूद है, उससे भूलें नहीं होतीं।
चिंताओं से भूलें नहीं मिटतीं, चिंताओं के कारण भूलें होती हैं। इसलिए अक्सर यह होता है कि विद्यार्थी परीक्षा के भवन में जाता है और सब गड़बड़ हो जाता है। बाहर तक उसे सब मालूम था कि क्या क्या है। परीक्षा के भवन में बैठते ही सब अस्त व्यस्त हो गया। परीक्षा के हाल से निकलते ही फिर सब ठीक हो जाता है। यह बड़े आश्र्चर्य की बात है। परीक्षा का हाल बड़ा चमत्कारी है। और बाहर आकर उसको ठीक-ठीक उत्तर आने लगते हैं। और पहले भी आ रहे थे। और एक तीन घंटे के लिए सब गड़बड़ हो गया, क्या कारण है?
तीन घंटे वह इतना चिंतित हो गया, इतना चिंतित हो गया कि उस चिंता के कारण जो भी सामने है, उससे संबंध नहीं जुड़ पाता। तीन घंटे पहले इतनी चिंता नहीं थी। तीन घंटे के बाद फिर चिंता नहीं रह जाएगी।
चिंता हमारे जीवन को विकृत कर रही है। और हम सीधे संबंधित नहीं हो पाते। समस्याएं हल नहीं होतीं, उलझती चली जाती हैं।
महावीर कहते हैं, भिक्षु वही है जो चिंता नहीं करता, जो जीवन की चिंता नहीं करता। जीवन जैसा आता है, उसके साथ जो भी स्पांटेनियस, सहजस्फूर्त घटना घटती है, घटने देता है। न तो पीछे के लिए पश्र्चात्ताप करता है, और न आगे के लिए योजना करता है।
जिसने अतीत भी छोड़ दिया, और जिसने भविष्य भी त्याग दिया। जो शुद्ध वर्तमान में खड़ा है, वही भिक्षु है।
‘जो ऋद्धि, सत्कार, और पूजा-प्रतिष्ठा का मोह छोड़ देता है...।’
पकड़ता है, क्योंकि जैसे ही व्यक्ति साधना के जगत में प्रवेश करता है, अनेक घटनाएं घटनी शुरू हो जाती हैं। उन घटनाओं में अगर थोड़ा सा भी ऋद्धि, चमत्कार, सिद्धि का आग्रह बना रहे, तो जीवन मदारी का जीवन हो जाता है। मोक्ष की तरफ जाने के बजाय आदमी मदारी की तरफ जाना शुरू हो जाता है।
बहुत घटनाएं घटती हैं। क्योंकि जीवन में बड़ी पर्तें छिपी हैं; बड़े रहस्यमय लोक छिपे हैं। बड़ी शक्तियां हैं, जो आपके पास हैं। जैसे ही आप भीतर प्रवेश करेंगे, वे शक्तियां सक्रिय होना शुरू होंगी।
रामकृष्ण के आश्रम में एक सीधा-सादा आदमी था, कालू उसका नाम था। वह बड़ा सरल था। वह इतना सरल था और इतना ग्राहक था, जिसका हिसाब नहीं। उसका मस्तिष्क सीधा खुला था। विवेकानंद साधना शुरू किए तो एक दिन विवेकानंद को ध्यान लगा--पहली दफा। ध्यान लगते ही विवेकानंद को ऐसा लगा कि मुझमें इतनी शक्ति है कि मैं जो भी चाहूं, किसी का भी विचार प्रभावित कर सकता हूं। वह कालू बेचारा निरीह, सीधा आदमी था। उसको याद आया--विवेकानंद को कि कालू से चाहो तो कुछ भी करवाया जा सकता है। और किसी में तो अड़चन भी होगी, क्योंकि लोग चालाक हैं; बाधा डालेंगे--कालू सीधा है। कालू अपनी पूजा कर रहे थे। वह अपने कमरे में सभी तरह के देवी-देवता रखे थे--सैकड़ों; और सभी की पूजा करते थे। उनको कोई छह-आठ घंटे सभी को फूल रखने में और घंटी हिलाने में लग जाते। वे पूजा कर रहे थे। घंटी की आवाज आ रही थी।
विवेकानंद ने कहा: कालू, बांध एक पोटली सब देवी-देवताओं की और फेंक गंगा में। कालू ने बांधी पोटली; चले वह गंगा की तरफ। वहां से रामकृष्ण स्नान करके आ रहे थे। तो उन्होंने कहा: रुक, कहां जा रहा है? उसने कहा कि बस, ऐसा भाव आ गया।
‘यह तेरा भाव नहीं है। तू वापस चल।’
जाकर विवेकानंद का दरवाजा खटखटाया और कहा कि बस, यह तू क्या कर रहा है? अगर ऐसा ही तुझे करना है तो तेरे ध्यान की चाबी मैं अपने हाथ में ले लेता हूं।
क्योंकि जैसे ही व्यक्ति के जीवन में भीतर की ऊर्जाएं जगनी शुरू होती हैं, बड़ा भरोसा आना शुरू होता है। और उस भरोसे में आदमी कर सकता है वह सब जो हम... अब इस मुल्क में कई चमत्कारी बहुत से तरह के काम करते दिखाई पड़ रहे हैं। महावीर उनमें से किसी को भी संन्यासी नहीं कहेंगे। सच तो यह है कि वे संन्यास का दुरुपयोग कर रहे हैं। कोई ताबीज निकाल रहा है। किसी के हाथ से भस्म गिर रही है। कोई घड़ियां बांट रहा है। मिठाइयां आ रही हैं; हाथों में प्रकट हो रही हैं।
वह सब हो सकता है। इस सबके होने में जरा भी अड़चन नहीं है; बड़े मूल्य पर होता है लेकिन। संन्यास खो जाता है, मदारीपन हाथ में रह जाता है।
तो महावीर कहते हैं: भिक्षु वही है, जो ऋद्धि-सिद्धि से बचे; जो सत्कार, पूजा-प्रतिष्ठा का मोह छोड़ दे। क्योंकि तब बड़ा सत्कार मिल सकता है क्षुद्र बातों से।
हमारे आस-पास जो भीड़ खड़ी है, वह क्षुद्र बातों की तो आकांक्षा करती है। अब यह क्या बड़ी आकांक्षा है--किसी के हाथ से राख गिरने लगे; बस, आप चमत्कृत हो गए। साधु के पास आप गए। उसने हाथ बंद किया--खुला हाथ था, खाली आपने देखा था--बंद किया और एक ताबीज आपको भेंट कर दिया। बस, मोक्ष आपको भी मिल गया; साधु को भी मोक्ष मिल गया।
न तो कोई ज्ञान से प्रभावित होता है, न कोई जीवन से प्रभावित होता है। लोग क्षुद्र चमत्कारों से प्रभावित होते हैं। लोग क्षुद्र हैं; उनकी क्षुद्र वासनाएं हैं। उन क्षुद्र वासनाओं से उनका तालमेल बैठता है।
असल में जब आप एक आदमी के हाथ से ताबीज को प्रकट होते देखते हैं, तो आपको लगता है, जो ताबीज प्रकट कर सकता है शून्य से, वह मेरी शून्य में भटकती सारी वासनाओं को भी चाहे तो पूरा कर सकता है। लड़का नहीं है मुझे; एक लड़का पैदा हो सकता है। जब ताबीज निकल सकता है शून्य से, तो लड़का क्यों नहीं निकल सकता! और अभी मुझे असफलता लगती है; सफलता क्यों नहीं आ सकती है, जब शून्य से ताबीज निकल सकता है।
आपकी भटकती हुई वासनाएं हैं, जो शून्य में हैं; जिनको कोई पूरा करने का उपाय नहीं दिखता। जब भी आप किसी आदमी के पास शून्य से कुछ प्रकट होते देखते हैं, तब आपको भरोसा पड़ता है। तब आप चरणों पर गिर जाते हैं।
कोई भी व्यक्ति धर्म को नमस्कार करने की तैयारी में नहीं दिखता। इसलिए महावीर के भिक्षुओं को कभी भी आज्ञा नहीं रही है कि वे किसी तरह का भी चमत्कार करें। बुद्ध के भिक्षुओं को भी आज्ञा नहीं रही कि वे किसी तरह का चमत्कार करें। हो सकता है, शायद बुद्ध और महावीर के भिक्षुओं का प्रभाव इस देश पर इसीलिए ज्यादा नहीं पड़ सका। क्योंकि मदारी होने की उन्हें आज्ञा नहीं है, निषेध है। और निषेध कीमती है।
काश, हिंदू संन्यासियों को भी इसी तरह का निषेध साफ-साफ हो। और हिंदू मन में भी यह बात साफ बैठ जाए कि चमत्कार दिखाता ही वह आदमी है, जो किसी तरह पूजा पाना चाहता है; प्रतिष्ठा पाना चाहता है; जो आपकी क्षुद्र वासना का शोषण कर रहा है। तो जिन्हें हम अभी महात्मा कहते हैं, उन्हें हम महात्मा न कह पाएं। और जिन्हें अभी हम पहचान भी नहीं पाते, और जो महात्मा हैं, उनकी पहचान, उनकी प्रतिभिज्ञा होनी शुरू हो जाए।
‘जो स्थितात्मा है...’
जो हर स्थिति में थिर है, और जिसे हिलाने का कोई उपाय नहीं है।
‘जो निस्पृही है...।’
जिसकी कोई स्पर्धा नहीं; कोई स्पृहा नहीं; कोई महत्वाकांक्षा नहीं। जो न किसी से जीतना चाहता है, न किसी से हारना चाहता है। जो न कहीं पहुंचना चाहता है, न जिसका कोई लक्ष्य है इस संसार की भाषा में। जो किसी का प्रतियोगी नहीं है--वही भिक्षु है।
वस्तुतः प्रतियोगिता अहंकार का ज्वर है। और जब तक अहंकार है, तब तक प्रतियोगिता रहेगी। जिनको हम साधु-महात्मा कहते हैं, वे भी बड़े प्रतियोगी हैं। एक-दूसरे से प्रतियोगिता चलती रहती है। किसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, किसकी घटती है; कौन ज्यादा सम्मान को प्राप्त होता है, कौन कम सम्मान को प्राप्त होता है--उस सबकी चेष्टा चलती रहती है।
महावीर कहते हैं: भिक्षु वही है, जिसकी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। जो ना-कुछ होने को राजी है। और जो ना-कुछ ही मर जाए, तो उसे जरा सी भी चिंता पैदा न होगी। और जो सब-कुछ भी हो जाए, तो भी उसमें कोई गर्व निर्मित न होगा। जो सिंहासन पर हो तो ऐसे ही होगा, जैसे सूली पर हो। सूली और सिंहासन पर जो समभाव से हो सके, ऐसा निस्पृही, प्रतिस्पर्धारहित, समभावी व्यक्ति संन्यस्त है। वही भिक्षु है।

पांच मिनट कीर्तन करें, फिर जाएं...!


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