MAHAVIR
Mahaveer Vani 44
FourtyFourth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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ब्राह्मण-सूत्र: 1
जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई।
रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं।।
जायरुवं जहामट्ठं, निद्धन्तमल-पावगं।
राग-दोस-भयाईयं, तं वयं बूम माहणं।।
तवस्सियं किसं दन्तं, अवचियमंससोणियं।
सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं।।
जो आने वाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता, जो आर्य-वचनों में सदा आनंद पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किए हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है, जो इंद्रिय-निग्रही है, उग्र तपसाधना के कारण जिसका रक्त और मांस भी सूख गया है, जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
ईसप की एक कथा है। एक दिन एक सिंह, एक गधा और एक लोमड़ी शिकार को निकले साथ-साथ। उन्होंने काफी शिकार किया। फिर जब सूर्य ढलने लगा और सांझ हो गई, तो सिंह ने लोमड़ी को कहा कि तू समझदार भी है, चालाक भी, गणितज्ञ भी, तार्किक भी; उचित होगा कि तू ही इस शिकार के तीन विभाजन कर दे, बराबर-बराबर, ताकि तीनों शिकार में भाग लेने वाले साथियों को बराबर भोजन उपलब्ध हो सके।
बड़े चमत्कारिक ढंग से लोमड़ी ने विभाजन किए जो बिलकुल बराबर थे, तीन हिस्से किए। लेकिन सिंह बहुत नाराज हो गया। उसने कुछ कहा भी नहीं; लोमड़ी की गर्दन दबाई और उसको भी शिकार के ढेर में फेंक दिया और गधे से कहा कि तू अब दो हिस्से कर दे, एक मेरे लिए और एक तेरे लिए, बिलकुल बराबर-बराबर।
गधे ने सारे शिकार का एक ढेर लगा दिया और एक मरे हुए कौए की लाश को, मरे हुए कौए को एक तरफ कर दिया और कहा कि महानुभाव! यह मेरा आधा भाग कौआ और वह आपका आधा भाग। सिंह ने कहा: गधे, मित्र गधे! तूने इतना समान विभाजन करने की कला कहां से सीखी? किसने तुझे सिखाया ऐसा शुद्ध गणित? तूने बिलकुल बराबर विभाजन कर दिए!
और विभाजन क्या है, एक तरफ कौआ है मरा हुआ और एक तरफ सारे शिकार का ढेर है।
गधे ने कहा: दिस डेड फॉक्स--इस मरी हुई लोमड़ी ने मुझे यह कला सिखाई बराबर विभाजन करने की!
ईसप ने कहा है कि गधे भी अनुभव से सीख लेते हैं, लेकिन आदमी नहीं। आदमी अनुभव से सीखता हुआ मालूम ही नहीं पड़ता। हजारों-हजार साल वही अनुभव, वही अनुभव बार-बार दोहरता है, फिर भी आदमी वैसा ही बना रहता है। उसमें कोई फर्क पड़ता हुआ मालूम नहीं पड़ता। जैसे अनुभव बह जाता है उसके ऊपर से; कहीं भी भिद नहीं पाता उसके रोओं में, उसकी चमड़ी में, उसकी हड्डियों में, उसके हृदय तक तो पहुंचने की बात ही दूर। ऊपर-ऊपर वर्षा के जल की तरह गिरता है और बह जाता है और आदमी वैसे का वैसा बना रहता है।
मनुष्य को हजारों साल के अनुभव में यह बात साफ हो जानी चाहिए थी, इसमें कोई भी अड़चन नहीं है कि जन्म से धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। एक आदमी मुसलमान के घर में पैदा हो सकता है, लेकिन इससे मुसलमान नहीं हो सकता। एक आदमी हिंदू के घर में पैदा हो सकता है, लेकिन पैदा होने से धर्म का क्या लेना-देना है? एक आदमी जैन कुल में पैदा होता है, लेकिन वह कुल का धर्म होगा, व्यक्ति का निजी चुनाव नहीं।
धर्म का प्रारंभ ही तब होता है जब व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से चुनता है। जब बोधपूर्वक निर्णय लेता है, जब समझपूर्वक संकल्प करता है, जब दीक्षित होता है स्वयं एक धारा में, तब धर्म का जन्म होता है।
दुनिया में इतना अधर्म है, उसके बुनियादी कारणों में एक कारण यह भी है कि हमारा धर्म उधार है। उधार धर्म जिंदा नहीं हो सकता, मरा हुआ होगा।
आपके पिता ने ही नहीं चुना है; न मालूम कितनी पीढ़ियों पहले किसी ने चुना। कोई व्यक्ति महावीर के पास दीक्षित हुआ। कोई व्यक्ति महावीर से आकर्षित हुआ; आंदोलित हुआ। किसी व्यक्ति को महावीर के पास तरंगें मिलीं परम सत्य की। वह दीक्षित हुआ। उसकी दीक्षा बहुमूल्य थी। वह उसका निर्णय था। वह शायद हिंदू घर में पैदा हुआ था; दीक्षित हुआ, जैन बना। उस आदमी के लिए जैन होने का कोई मूल्य था, क्योंकि जैन होने के लिए उसने कुछ चुकाया था, कुछ खोया था, कुछ मिटाया था। कुछ पाने के लिए कुछ त्यागा था; मोह छोड़े थे, संस्कार छोड़े थे, बचपन से पड़ी हुई धारणाएं छोड़ी थीं। जो सिखाया गया ज्ञान था, उसे फेंका था और एक नई यात्रा पर, अनजाने मार्ग पर चला था। उसका साहस था; उस साहस के परिणाम हुए। फिर उसका बेटा है, वह जैन हो जाता है पैदाइश से। फिर आप तो न मालूम कितनी पीढ़ियों के बाद जैन हैं।
सब उधार है, कचरा है। आपके जैन होने का कोई मूल्य नहीं है। आप भी जानते हैं कि आपका जैन होना झूठा है, हिंदू होना झूठा है, मुसलमान होना झूठा है, क्योंकि जो आपने नहीं चुना, वह सत्य नहीं हो सकता। निज का चुनाव सत्य की तरफ पहला कदम है।
यह हमें अनुभव है कि पैदाइश से कोई धार्मिक नहीं हो सकता, लेकिन हम पैदाइश से धार्मिक हो गए हैं, तो वस्तुतः धार्मिक होने का उपाय भी बंद हो गया है, क्योंकि हम सब को खयाल है कि हम धार्मिक हैं।
अनुभव कहता है कि धर्म सदा व्यक्ति का निजी संकल्प है। समूह धार्मिक नहीं होता, व्यक्ति धार्मिक होता है। भीड़ धार्मिक नहीं होती, व्यक्ति धार्मिक होता है। क्योंकि जीवन का, चेतना का अनुभव व्यक्ति के पास है, समूह के पास नहीं है। समूह तो बंधी हुई लकीरों से चलता है सुविधा के लिए; व्यवस्था के लिए, अराजकता न हो जाए इसलिए; नियम का घेरा बांध लेता है और चलता है।
अगर व्यक्ति भी उस घेरे में बंध कर चलता है और अपने निजी पथ की खोज नहीं करता, तो वह समाज का एक हिस्सा ही रहेगा; उसकी आत्मा उत्पन्न नहीं होगी। आत्मा उसी दिन उत्पन्न होती है, जिस दिन निजता का मूल्य समझ में आता है, जिस दिन मैं अपना मार्ग चुनता हूं ताकि अपने सत्य तक पहुंच सकूं। और प्रत्येक व्यक्ति का सत्य तक पहुंचने का मार्ग भिन्न होगा, उसके अपने अनुसार होगा।
जैसे कोई व्यक्ति अगर कम्युनिस्ट घर में पैदा हो जाए, तो हम नहीं कहते कि वह कम्युनिस्ट है। और कोई व्यक्ति सोशलिस्ट घर में पैदा होकर सोशलिस्ट नहीं हो जाता। सोशलिस्ट होने के लिए विचार करना पड़े, सोचना पड़े, निर्णय लेना पड़े।
कोई भी विचार जब तक आपके भीतर उगता नहीं है, तब तक बासा है, बोझ है। महावीर ने यह घोषणा आज से पच्चीस सौ साल पहले की, और महावीर ने कहा, जन्म से धर्म का कोई संबंध नहीं है। कहां आप पैदा हुए हैं, यह बात मूल्यवान नहीं है; क्या आप बनते हैं, खुद अपने श्रम से, वही बात मूल्यवान है। तो महावीर ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी; आश्रम की व्यवस्था तोड़ दी। और महावीर ने नये अर्थ दिए पुराने शब्दों को।
यह सूत्र ब्राह्मण-सूत्र है। इसमें महावीर ब्राह्मण की व्याख्या करते हैं कि ब्राह्मण कौन है। ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं है, लेकिन हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं, जो ब्राह्मण घर में पैदा हुआ है। तो ब्राह्मण की जो महान धारणा थी वह नष्ट हो गई; वह एक क्षुद्र बात हो गई।
ब्राह्मण के घर में पैदा होना बड़ी क्षुद्र बात है; ब्राह्मण हो जाना बिलकुल दूसरी बात है। ब्राह्मण होना एक यात्रा है। ब्राह्मण होना एक श्रम है, एक तपश्र्चर्या है। ब्राह्मण तभी कोई हो सकता है, जब ब्रह्म से उसका सम्पर्क सध जाए।
उद्दालक ने अपने बेटे श्र्वेतकेतु को कहा है उपनिषदों में कि श्र्वेतकेतु, ध्यान रखना एक बात, हमारे परिवार में कोई जन्म से ब्राह्मण नहीं हुआ। वह बड़ी बदनामी की बात है। हमारे परिवार में हम चेष्टा से ब्राह्मण होते रहे हैं। तू भी यह मत सोच लेना कि तू मेरे घर पैदा हुआ तो ब्राह्मण हो गया। तुझे ब्राह्मण होने के लिए अथक श्रम करना होगा, तुझे ब्राह्मण होने के लिए खुद ही साधना करनी होगी। ब्राह्मण होने के लिए तुझे स्वयं को ही जन्म देना होगा; मां-बाप तुझे जन्म नहीं दे सकते हैं। क्योंकि जब तक तेरा अनुभव ब्रह्म के निकट न आने लगे, तब तक तू ब्राह्मण नहीं है।
महावीर की बात निश्र्चित ही जातिगत ब्राह्मणों को बहुत कठिन मालूम पड़ी होगी। सत्य हमेशा ही स्वार्थ को कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि कितनी सुगम बात है जन्म से ब्राह्मण हो जाना और श्रम से ब्राह्मण होना तो बहुत दुर्गम है। जन्म से तो हजारों ब्राह्मण हो जाते हैं; श्रम से तो कभी कोई एकाध ब्राह्मण होता है।
तो जो ब्राह्मण थे जन्म से, उनको बहुत कष्टपूर्ण मालूम पड़ा होगा। महावीर उनकी पूरी बपौती छीने ले रहे हैं; उनकी शक्ति छीने ले रहे हैं। इससे भी खतरनाक मालूम पड़ी होगी बात, और भी दूसरा खतरा था और वह यह कि ब्राह्मण से उसका ब्राह्मणत्व ही नहीं छीने ले रहे हैं--जातिगत, जन्मगत; बल्कि महावीर कह रहे हैं कि कोई भी ब्राह्मण हो सकता है, तो शूद्र भी ब्राह्मण हो सकता है, श्रम से। तो ब्राह्मण की सत्ता छीन रहे हैं और जिनके पास सत्ता कभी नहीं थी, उनको सत्ता का, उस परम सत्ता के अनुभव का अवसर खुला कर रहे हैं।
महावीर की क्रांति गहरी है। महावीर कहते हैं, सभी लोग जन्म से शूद्र पैदा होते हैं। क्योंकि शरीर से पैदा होने में कोई कैसे ब्राह्मण हो सकता है? शरीर शूद्र है, शरीर से आदमी पैदा होता है, तो सभी जन्म से शूद्र पैदा होते हैं। फिर इस शूद्रता के बीच अगर कोई श्रम करे, निखारे अपने को, तपाए, तो सोने की तरह निखर आता है। पर अग्नि से गुजरना पड़ता है, तब कोई ब्राह्मण होता है।
शूद्र पैदा हो जाने से ब्राह्मण होने में बाधा नहीं है। शूद्रता ब्राह्मणत्व का आधार है। जैसे देह आत्मा का आधार है, ऐसे शूद्रता ब्राह्मणत्व का आधार है। इसलिए कोई भी शूद्र होने से वंचित नहीं है। सभी शूद्र हैं। लेकिन कुछ शूद्रों ने जन्म से अपने को ब्राह्मण समझ रखा है। कुछ शूद्रों ने जन्म से अपने को वैश्य समझ रखा है। कुछ शूद्रों ने जन्म से अपने को क्षत्रिय समझ रखा है। और कुछ शूद्रों को समझा दिया गया है कि तुम जन्म से ही शूद्र नहीं हो, तुम्हें सदा ही शूद्र रहना है; तुम जन्म से लेकर मृत्यु तक शूद्र रहोगे।
यह बड़ी खतरनाक बात है। इससे न मालूम कितनी संभावनाएं ब्राह्मण होने की खो गईं। जो ब्राह्मण हो सकता था वह रोक दिया गया। जो ब्राह्मण नहीं था, वह ब्राह्मण मान लिया गया। उसकी भी संभावना को नुकसान हुआ, क्योंकि वह भी हो सकता, उसकी फिकर छूट गई, उसने मान लिया कि मैं हूं।
महावीर कहते हैं, ब्राह्मण होना जीवन का अंतिम फूल है, इसलिए जन्म पर कोई ठहर न जाए। कीचड़ से कमल पैदा होता है; शूद्रता से ब्राह्मणत्व पैदा होता है। कीचड़ पीछे छूट जाती है; कमल ऊपर उठने लगता है। एक घड़ी आती है, कीचड़ बहुत पीछे छूट जाती है; कमल जल के ऊपर उठ आता है। और कमल को देख कर आपको खयाल भी पैदा नहीं हो सकता कि वह कीचड़ से पैदा हुआ है।
शूद्रता कीचड़ है। उसी में पड़े रहने की कोई भी जरूरत नहीं है। उससे ऊपर उठने का विज्ञान है। अध्यात्म, धर्म, योग कीचड़ को कमल में बदलने की कीमिया है। और एक बार कीचड़ कमल बन जाए, तो नीचे भूमि में जो कीचड़ पड़ी है, वह भी फिर उसे कीचड़ नहीं बना सकती। बल्कि उस कीचड़ से भी कमल रस लेता है; उस कीचड़ को निरंतर बदलता रहता है सुगंध में। उस कीचड़ की दुर्गंध बनती रहती है सुगंध, कमल के माध्यम से। उस कीचड़ का जो-जो कुरूप है उस कीचड़ में, वह सब कमल में आकर सुंदर होता रहता है।
आदमी कीचड़ की तरह पैदा होता है, लेकिन कीचड़ की तरह मरने की कोई भी जरूरत नहीं है। कमल होकर मरा जा सकता है।
उस कमल होने की कला का नाम धर्म है।
महावीर के सूत्र को अब हम समझें।
‘जो आने वाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता, जो आर्य-वचनों में सदा आनंद पाता है, उसे हम ‘ब्राह्मण’ कहते हैं।’
एक-एक कदम समझना जरूरी है।
‘जो स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता।’
इसका यह अर्थ नहीं है कि वह स्नेह नहीं रखता, नहीं तो स्नेहीजन कहने का कोई कारण नहीं है। प्रेम भरपूर है; आसक्ति नहीं है। शूद्र-मन में प्रेम बिलकुल नहीं होता, आसक्ति ही आसक्ति होती है। ब्राह्मण-मन में आसक्ति खो जाती है और प्रेम ही रह जाता है।
आसक्ति कीचड़ है; प्रेम कमल है। लेकिन प्रेम को आसक्ति से मुक्त करना बड़ी दुर्गम बात है, क्योंकि हम तो जैसे ही किसी को प्रेम करते हैं, प्रेम कर ही नहीं पाते कि आसक्ति पकड़ लेती है। आसक्ति का मतलब है या तो हम गुलाम हो जाते हैं, या दूसरे को गुलाम बनाने लगते हैं। दोनों ही गुलामी की प्रक्रियाएं हैं।
किसी व्यक्ति को आप प्रेम करते हैं, प्रेम करते ही आप निर्भर हो जाते हैं उस पर। आपका सुख उस पर निर्भर हो जाता है। आपका दुख उस पर निर्भर हो जाता है। दूसरा आदमी मालिक हो गया। अगर वह चाहे तो दुखी कर सकता है; अगर चाहे तो सुखी कर सकता है। उसका एक इशारा आपको नचा सकता है। उसका एक इशारा आपको दुख में डाल सकता है। आपकी आत्मा की अपनी मालकियत दूसरे व्यक्ति के हाथ में चली गई।
और ध्यान रहे, जब भी हम अपने प्रेम में किसी को अपना मालिक बना लेते हैं, तो उससे हमारी घृणा भी शुरू हो जाती है, क्योंकि मालकियत कोई किसी की कभी पसंद नहीं करता। इसलिए जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं; और जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही हम नष्ट भी करना चाहते हैं। क्योंकि वह दुश्मन भी मालूम पड़ता है।
पड़ेगा ही! प्रेमी दुश्मन मालूम पड़ते हैं एक-दूसरे को, क्योंकि एक-दूसरे की स्वतंत्रता को छीन लेते हैं और एक-दूसरे को वस्तुएं बना देते हैं, व्यक्तियों से मिटा कर।
हर पति की कोशिश है कि उसकी पत्नी एक वस्तु बन जाए। वह जैसा कहे वैसा उठे-बैठे। वह जैसा इशारा करे वैसा चले। पत्नी की भी पूरी चेष्टा यही है कि पति उसका गुलाम हो जाए। वह कहे रात, तो रात। वह कहे दिन, तो दिन। दोनों इसी संघर्ष में लगे हैं। एक-दूसरे को डॉमिनेट करना है। एक-दूसरे को मिटा डालना है।
क्यों? दूसरे से इतना भय क्या है? और जिससे हमारा प्रेम है, उससे इतना भय क्या है? भय इस बात का है कि हमारा प्रेम तत्काल आसक्ति बन जाता है; अटैचमेंट बन जाता है। और जैसे ही आसक्ति बनता है, तो दो में से कोई एक मालिक बन जाता है। तो मैं मालिक बना रहूं; दूसरा मालिक न बन जाए। लेकिन दूसरा भी इसी कोशिश में लगा है।
क्या प्रेम आसक्ति से मुक्त हो सकता है?
अगर प्रेम आसक्ति से मुक्त हो सके, तो प्रेम घृणा से भी मुक्त हो जाता है।
महावीर कहते हैं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं, जो स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता। जिसका स्नेह भरपूर है। जिसके प्रेम में कोई कमी नहीं। लेकिन जो अपने प्रेम के कारण न तो किसी का गुलाम बनता है, और न किसी को गुलाम बनाता है। जिसका प्रेम दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच एक आनंद का संबंध है। जिसका प्रेम दो परतंत्र व्यक्तियों के बीच एक दुख का संबंध नहीं है। हमारा सारा प्रेम दुख का संबंध है। इसलिए जितना दुख हम प्रेम से पाते हैं उतना किसी और चीज से नहीं पाते। मगर मनुष्य के मन की ठीक-ठीक जांच की जाए, तो प्रेम से बड़ी बीमारी खोजनी मुश्किल है। उससे जितना दुख आदमी पाता है; उतना किसी और चीज से नहीं पाता। आपके सभी दुख प्रेम के दुख हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि पश्र्चिम में एक ऐसी घटना विकसित हो रही है रोज पिछले बीस-तीस वर्षों में कि लोग कहते हैं, प्रेम की बात ही मत करो। काम, सेक्स काफी है। क्योंकि सेक्स कम से कम स्वतंत्र तो रखता है; प्रेम तो उपद्रव खड़ा कर देता है।
इसलिए पश्र्चिम में प्रेम डूब रहा है; सिर्फ सेक्स उभर रहा है। दो व्यक्तियों के बीच सिर्फ सेक्स का संबंध काफी है, पश्र्चिम की नई धारणाएं कहती हैं। क्योंकि जैसे ही प्रेम आया कि बुखार आया; कि उपद्रव शुरू हुआ; कि एक ने दूसरे को दबाना शुरू किया, इसलिए सिर्फ सेक्स का संबंध पर्याप्त है। यह बड़ी खतरनाक बात है।
भारत ने भी प्रयोग किया है आसक्ति से मुक्त होने का; पश्र्चिम भी प्रयोग कर रहा है। भारत ने प्रयोग किया है, जो महावीर कह रहे हैं। महावीर कह रहे हैं, प्रेम तो प्रगाढ़ हो जाए, आसक्ति खो जाए। तो जो दुख है प्रेम का वह नष्ट हो जाएगा और प्रेम एक आनंद की वर्षा हो जाएगा।
पश्र्चिम भी यही चाहता है कि जो उपद्रव है आसक्ति का वह मिट जाए। पर वह नीचे गिर कर आसक्ति का उपद्रव मिटा रहा है। वह कह रहा है, दो शरीरों का संबंध काफी है। इससे ज्यादा जिम्मेवारी लेनी ठीक नहीं।
जैसे ही आप किसी के प्रेम में पड़ते हैं, उपद्रव शुरू होता है। इसलिए एक ही व्यक्ति से भी काम के संबंध ज्यादा देर तक बनाना ठीक नहीं है। काम के संबंध भी बदलते रहने चाहिए। आज एक स्त्री, कल दूसरी स्त्री; आज एक पुरुष, परसों दूसरा पुरुष। ये बदलते रहें ताकि कहीं कोई ठहराव न हो जाए और आसक्ति न बन जाए।
दृष्टि तो दोनों ही एक ही कोण पर निर्भर हैं। पूरब ने भी यही अनुभव किया है कि प्रेम दुख देता है। तो दुख से उठने का क्या उपाय है? महावीर कहते हैं, उपाय यह है कि प्रेम तो रह जाए, हृदय तो प्रेमपूर्ण हो लेकिन किसी को गुलाम बनाने की और किसी को मालिक बनाने की वृत्ति का निषेध हो जाए।
पश्र्चिम भी इसी परेशानी में है, लेकिन पश्र्चिम का सुझाव बड़ा अजीब है और बड़ा खतरनाक है। महावीर प्रेम को दिव्य बना देते हैं और पश्र्चिम प्रेम को पाशविक बना देता है।
प्रेम उपद्रव है, यह बात जाहिर है। यह पूरब, पश्र्चिम दोनों के मनीषियों ने अनुभव किया है। जिसको हम प्रेम कहते हैं, वहां झंझट है। तो या तो उससे नीचे उतर आओ और जैसे पशुओं का संबंध है... वहां कोई झंझट नहीं है। न विवाह है, न तलाक है, न कोई कलह है; सिर्फ संबंध शरीर का है। पशु मिलते हैं शरीर से क्षण भर के लिए, अलग हो जाते हैं। उससे कोई मोह निर्मित नहीं करते, कोई आसक्ति नहीं बनाते कि अब यह जो मादा है मेरी पत्नी हो गई; अब कोई दूसरा पुरुष पशु इसकी तरफ आंख उठाएगा तो मैं उपद्रव खड़ा करूंगा या यह जो पुरुष है पशु, मेरा पति हो गया, और अगर इसने अपनी नजर किसी और मादा की तरफ उठाई तो कलह शुरू होगी।
नहीं, पशु सिर्फ शरीर के संबंध से जीते हैं, अलग हो जाते हैं। वहां कोई आसक्ति नहीं है। इसलिए प्रेम की जो पीड़ा हमें है, पशुओं को नहीं है।
पश्र्चिम गिर रहा है प्रेम के उपद्रव से मुक्त होने के लिए। लेकिन गिर कर कुछ भी हल न होगा, क्योंकि कितना ही सेक्स हो जीवन में, अगर प्रेम का फूल न खिले तो प्राण अतृप्त रह जाते हैं, और जीवन की जो चमक है, और जीवन की जो प्रतिभा है, जो आभा है, वह प्रकट नहीं हो पाती। मनुष्य पशु होकर तृप्त नहीं हो सकता। मनुष्य केवल दिव्य होकर ही तृप्त हो सकता है। नीचे गिर कर कोई कभी तृप्त नहीं होता; जिम्मेवारी से मुक्त हो सकता है, लेकिन तृप्ति को उपलब्ध नहीं हो सकता। इसलिए पूरे पश्र्चिम में अनुभव किया जा रहा है कि एक मीनिंगलेसनेस, एक अर्थहीनता छा गई है। क्योंकि प्रेम है अर्थ जीवन का।
महावीर कहते हैं, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूं, जो प्रेम कर सकता है और आसक्ति में नहीं बंधता। यह हो सकता है। यह तब हो सकता है जब हमारा प्रेम दूसरे व्यक्ति पर निर्भर न हो, बल्कि हमारी क्षमता हो।
इस फर्क को ठीक से समझ लें।
आप इसलिए प्रेम करते हैं कि दूसरा व्यक्ति प्यारा है, तो दूसरे पर निर्भर हैं। महावीर कहते हैं, इसलिए प्रेम कि आप प्रेमपूर्ण हैं। जोर इस बात पर है कि आपका हृदय प्रेमपूर्ण हो। जैसे दीया जल रहा है तो दीये की रोशनी पड़ रही है; फिर कोई भी पास से निकले दीये के तो उस पर रोशनी पड़ेगी। दीया यह नहीं कहेगा कि तुम सुंदर हो, इसलिए तुम पर रोशनी डाल रहा हूं; कि तुम कुरूप हो इसलिए अपने को बुझा लेता हूं और अंधकार कर देता हूं। दीये की रोशनी बहती रहेगी; कोई न भी निकले तो शून्य में दीये की रोशनी बहती रहेगी।
महावीर उसे ब्राह्मण कहते हैं, जिसका प्रेम उसकी हार्दिक ज्योति बन गया। जो इसलिए प्रेम नहीं करता कि आप प्यारे हैं; कि आप सुंदर हैं; कि भले हैं; कि मुझे अच्छे लगते हैं, कि मुझे पसंद हैं। नहीं, जो सिर्फ इसलिए प्रेम करता है कि प्रेमपूर्ण है; कुछ और करने का उपाय नहीं। आप उसके पास होंगे तो उसके प्रेम की किरणें आप पर पड़ती रहेंगी।
प्रेम संबंध नहीं, स्थिति है। और जब ऐसे प्रेम का जन्म हो जाता है--यह तभी होगा जब व्यक्ति दूसरों से अपने को हटाए, अपनी दृष्टि को ‘पर’ से हटाए और ‘स्वयं’ में गड़ाए, जिसे हम ध्यान कहते हैं। जैसे-जैसे ध्यान बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रेम संबंध से हट कर स्थिति बनने लगता है। वह मनुष्य का स्वभाव हो जाता है।
महावीर भी प्रेम देते हैं, करते नहीं। करने में तो कृत्य है। महावीर प्रेम देते हैं। उनके होने का ढंग प्रेमपूर्ण है। आप उनके पास जाएं तो प्रेम मिलेगा। और आपको ऐसा भी वहम हो सकता है कि उन्होंने आपको प्रेम किया; क्योंकि आप करने की भाषा समझते हैं, होने की भाषा नहीं समझते। महावीर प्रेमपूर्ण हैं। जैसे फूल में गंध है, ऐसे उनमें प्रेम है।
‘जो आने वाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता।’
और ध्यान रखें, शोक तभी होगा जब आसक्ति होगी। जिससे हम बंधे हैं, जिसके बिना हमें होने में अड़चन है, अगर वह न हो तो हमें बहुत कठिनाई हो जाएगी।
जब कोई मरता है तो आप इसलिए नहीं रोते कि कोई मर गया। आप इसलिए रोते हैं कि आपके भीतर जो निर्भरता थी, वह टूट गई। जब कोई मरता है तो आप अपने लिए रोते हैं। कुछ खंड आपका टूट गया जो उस आदमी से भरा था। कुछ हृदय का कोना उसने भरा था, रोशन कर रखा था, वह दीया बुझ गया। आपके भीतर अंधेरा हो गया।
कोई किसी के मरने पर इसलिए नहीं रोता कि कोई मर गया। मृत्यु पर हम इसलिए रोते हैं कि हमारे भीतर कुछ मर गया। और तभी तक रोएंगे आप, जब तक वह कोना फिर से न भर जाए; जिस दिन वह कोना फिर से भर जाएगा, रोना बंद हो जाएगा।
आदमी अपने लिए ही रोता है। तो जब आप शोक करते हैं किसी से दूर हटने या किसी के दूर जाने पर, वह खबर देता है कि उसके पास रहने पर आसक्ति पैदा हो गई थी।
महावीर गुजरते हैं एक गांव से; प्रेमपूर्ण हैं, कुछ और होने का उपाय भी नहीं है। गांव पीछे छूट जाता है, तो महावीर की स्मृति अगर उस गांव से अटकी रहे तो महावीर ब्राह्मण नहीं हैं। गांव छूट गया, स्मृति भी छूट गई। जहां महावीर होंगे, वहीं उनका बोध होगा, वहीं उनका प्रकाश होगा। वे लौट-लौट कर पीछे के गांव के संबंध में नहीं सोचेंगे--कि जिस आदमी ने भोजन दिया था; कि जिस आदमी ने आश्रय दिया था; कि जिसने पैर दबा दिए थे; कि जिसने इतना प्रेम दिया था...।
अगर यह मन पीछे लौट रहा है... पीछे लौटता मन ब्राह्मण नहीं है। अगर यह मन आगे दौड़ रहा है कि आने वाले गांव में कोई प्रियजन मिलने वाला है और पैरों में गति आ गई, तो यह मन ब्राह्मण नहीं है। ब्राह्मण का मन वहीं होता है, जहां ब्राह्मण होता है। जहां होते हैं हम वहीं होना काफी है; न पीछे लौटते हैं किसी आसक्ति के कारण, न किसी शोक के कारण; न आगे जाते हैं किसी आसक्ति के कारण, न किसी सुख के कारण। वर्तमान में होना ब्राह्मण है।
महावीर कहते हैं कि जो न आसक्ति करता है और जो न उनसे दूर जाता हुआ शोक करता है। जो आर्य-वचनों में सदा आनंद पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
आर्य-वचन को समझ लेना चाहिए। महावीर के लिए कोई जाति अर्थ नहीं रखती। महावीर ‘आर्य’ किसी जातिगत अर्थों में नहीं कह रहे हैं। जैसी हिंदुओं की धारणा है कि हिंदुओं का पुराना नाम ‘आर्य’ है। महावीर और बुद्ध, दोनों ही ‘आर्य’ का बड़ा अनूठा अर्थ करते हैं। वे कहते हैं, ‘आर्य’--उसको जो अंतिम श्रेष्ठता को उपलब्ध हो गया। वह कोई जातिगत धारणा नहीं है।
कोई जाति आर्य नहीं है। इससे बड़े खतरे हुए हैं। हिंदू हजारों साल तक मानते रहे कि वे ‘आर्य’ हैं, उन्हीं के पास शुद्ध रक्त है, बाकी सब अशुद्ध हैं। ब्राह्मण श्रेष्ठता से दूसरों को हीन बनाता रहा। इसके उपद्रव कई बार हुए हैं। ‘आर्य’ शब्द कई दफे खतरनाक बन गया। अभी जो पिछला युद्ध हुआ, दूसरा महायुद्ध, वह इस ‘आर्य’ शब्द के आस-पास हुआ। हिटलर को फिर यह वहम पैदा हो गया कि वह ‘आर्य’ है और नारडिक जाति ‘आर्य’ है, शुद्ध ‘आर्य’, तो सारी दुनिया पर नारडिक जाति को, जर्मन्स को अधिकार करना चाहिए, क्योंकि बाकी सब शूद्र हैं।
हिटलर को प्रभावित करने वाले लोगों में नीत्शे था, और नीत्शे को प्रभावित करने वालों में मनु; तो हिटलर सीधा मनु से जुड़ा है। और मनु से ज्यादा जातिवादी व्यक्ति नहीं हुआ। महावीर का सारा विरोध मनु से है।
कोई जाति श्रेष्ठ नहीं है, हो नहीं सकती। खून में कोई श्रेष्ठता नहीं है। खून में क्या श्रेष्ठता हो सकती है? ब्राह्मण का खून निकालें और शूद्र का, कोई भी दुनिया का बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी दोनों की जांच करके नहीं कह सकता कि कौन सा खून शूद्र का है और कौन सा ब्राह्मण का।
हड्डियों में कुछ जाति नहीं होती। मांस-मज्जा में कोई जाति नहीं होती। महावीर कहते हैं: जाति होती है चेतना की श्रेष्ठता में। आर्य कहते हैं महावीर उसको, जो परम श्रेष्ठता को उपलब्ध हो गया। इस परम श्रेष्ठता को उपलब्ध व्यक्ति के विचारों में, शब्दों में जिसको भरोसा है, ट्रस्ट है, उसे महावीर ब्राह्मण कहते हैं।
यह थोड़ा समझने जैसा है, ‘आर्य-वचनों में जो सदा आनंद पाता है।’
आप हैरान होंगे जान कर कि आपको हमेशा अनार्य-वचनों में आनंद मिलता है--क्यों? क्योंकि जब भी कोई अनार्य-वचन आप सुनते हैं, क्षुद्र, तो पहली तो बात, आप उसे एकदम समझ पाते हैं, क्योंकि वह आपकी ही भाषा है। दूसरी बात, उसे सुन कर आप आश्र्वस्त होते हैं कि मैं ही बुरा नहीं हूं, सारा जगत ऐसा ही है। तीसरा, उसे सुनते ही आपको जो श्रेष्ठता का चुनाव है, वह जो चुनौती है आर्यत्व की, उसकी पीड़ा मिट जाती है, सब उत्तरदायित्व गिर जाता है।
ऐसा समझें, फ्रायड ने कहा कि मनुष्य एक कामुक प्राणी है। यह अनार्य-वचन है; असत्य नहीं है, सत्य है, लेकिन शूद्र सत्य है, निकृष्टतम सत्य है। आदमी की कीचड़ के बाबत सत्य है; आदमी के कमल के बाबत सत्य नहीं है कि आदमी सेक्सुअल है; कि आदमी के सारे कृत्य कामवासना से बंधे हैं, वह जो भी कर रहा है वह कामवासना ही है।
छोटे से बच्चे से लेकर बूढ़े आदमी तक सारी चेष्टा कामवासना की चेष्टा है; यह सत्य है, लेकिन शूद्र सत्य है। यह निम्नतम सत्य है--कीचड़ का। लेकिन सारी दुनिया में इस कीचड़ के सत्य ने लोगों को बड़ा आश्र्वासन दिया। लोगों ने कहा, तब ठीक है, तब हम ठीक हैं, जैसे हैं फिर कुछ बुराई नहीं है। फिर अगर मैं चौबीस घंटे कामवासना के संबंध में ही सोचता हूं, और नग्न स्त्रियां मेरे सपनों में तैरती हैं, तो जो कर रहा हूं वह नैसर्गिक है। अगर मैं शरीर में ही जीता हूं तो यह जीना ही तो वास्तविक है, फ्रायड कह रहा है।
फ्रायड ने हमारे निम्नतम को परिपुष्ट किया, इसलिए फ्रायड के वचन थोड़े ही दिनों में सारे जगत में फैल गए। जितनी तीव्रता से साइको एनालिसिस का, फ्रायड का आंदोलन फैला, दुनिया में कोई आंदोलन नहीं फैला। महावीर को पच्चीस सौ साल हो गए। उपनिषदों को लिखे और पुराना समय हुआ। गीता कहे और भी समय व्यतीत हो गया, पांच हजार साल हो गए। पांच हजार सालों में भी उन्होंने जो कहा है, वह इतनी आग की तरह नहीं फैला, जो फ्रायड ने पिछले पचास सालों में सारी दुनिया को पकड़ लिया--साहित्य, फिल्म, गीत, चित्र सब फ्रायडियन हो गए हैं। हर चीज फ्रायड की तरफ से सोची और समझी जाने लगी। क्या कारण होगा?
अनार्य-वचन हमारे निम्नतम को पुष्ट करते हैं। जब भी कोई हमारे निम्नतम को पुष्ट करता है, तो हमें राहत मिलती है। हमें लगता है कि ठीक है, हममें कोई गड़बड़ नहीं है। अपराध का भाव छूट जाता है। बेचैनी छूट जाती है कि कुछ होना है, कि कहीं जाना है, कि कोई शिखर छूना है। सीधी जमीन पर चलने में स्वीकृति आ जाती है कि ठीक है, आदमी सभी ऐसे हैं।
इसलिए हम सब दूसरों के संबंध में बुराई सुन कर प्रसन्न होते हैं। कोई निंदा करता है किसी की, हम प्रसन्न होते हैं; क्योंकि उस निंदा से हमारे भीतर एक राहत मिलती है कि ठीक है। अगर कोई किसी महात्मा की निंदा करे तो हमें प्रसन्नता और भी ज्यादा होती है; क्योंकि हमें पक्का हो जाता है कि महात्मा-वहात्मा कोई हो नहीं सकता, सब ऊपरी बातचीत है। हैं तो सब मेरे ही जैसे; किसी का पता चल गया है और किसी का पता नहीं चला है।
तो जब भी आपको किसी की निंदा में रस आता है, तब आप समझना कि आप क्या कर रहे हैं। आप अपने निम्नतम को पुष्ट कर रहे हैं। आप यह कह रहे हैं कि अब कोई चुनौती नहीं, कोई चैलेंज नहीं; कहीं जाना नहीं, कुछ होना नहीं। जो मैं हूं--इसी कीचड़ में मुझे जीना है और मर जाना है। यही कीचड़ जीवन है।
अनार्य-वचन बड़ा सुख देते हैं। बहुत अनार्य-वचन प्रचलित हैं। हम सबको पता है कि अनार्य-वचन तीव्रता से फैलते जा रहे हैं; और धीरे-धीरे हम यह भी भूल गए हैं कि वे अनार्य हैं। सब चीजों को जो लोएस्ट डिनामिनेटर है, जो निम्नतम तत्व है, उससे समझाने की कोशिश चल रही है। आदमी को रिड्यूज करके आखिरी चीज पर खड़ा कर देना है। जैसे हम आदमी को काटें-पीटें तो क्या पाएंगे वहां? हड्डी-मांस-मज्जा--तो हम कहेंगे कि हड्डी-मांस-मज्जा का एक जोड़ है। बात खत्म हो गई, चेतना वहां नहीं मिलेगी।
जो श्रेष्ठतम है, वह हमारे उपकरणों से छूट जाता है। अगर आदमी के व्यवहार की हम जांच-पड़ताल करें, तो क्या मिलेगा? कामवासना मिलेगी, वासना मिलेगी, दौड़ मिलेगी महत्वाकांक्षा की। फिर हर श्रेष्ठ चीज को हम निकृष्ट से समझा लेंगे, ऐसे ही जैसे हम कहेंगे, कमल में क्या रखा है, कीचड़ ही तो है।
यह एक ढंग हुआ। इससे हम कीचड़ को राजी कर लेंगे कि कमल होने की मेहनत में मत लग। कमल में भी क्या रखा है, बस कीचड़ ही है। तो कीचड़ की कमल होने की जो आकांक्षा पैदा हो सकती थी, वह कुंद हो जाएगी। कीचड़ शिथिल होकर बैठ जाएगी अपनी जगह; क्यों व्यर्थ दौड़-धूप करना, क्यों परेशान होना।
अनार्य-वचन सुख देते हैं। आर्य-वचन दुख देते हैं। महावीर कहते हैं, जो आर्य-वचनों में आनंद ले सके, वह ब्राह्मण है। भला वह अभी आर्य न हो गया हो, लेकिन आर्य-वचनों में आनंद लेने का अर्थ यह है कि चुनौती स्वीकार कर रहा है। जीवन के शिखर तक पहुंचने की आकांक्षा को जगने दे रहा है। जो है क्षुद्र उससे राजी नहीं है, जब तक विराट न हो जाए।
आर्य-वचन में आनंद लेने का अर्थ है कि मैं--आर्य-वचन जो कह रहे हैं, वहां तक पहुंचना चाहता हूं। दूर है मंजिल, लेकिन आंखें मेरी उसी तरफ लगी हैं। पैर मेरे कमजोर हों, लेकिन चलने की मेरी चेष्टा है। गिरूं, न पहुंच पाऊं, यह भी हो सकता है, लेकिन पहुंचने की चेष्टा मैं जारी रखूंगा।
आर्य-वचन में आनंद लेने का अर्थ है कि हम संभावना का द्वार खोल रहे हैं।
लोग हैं, जिन्हें यह सुन कर प्रसन्नता होती है कि ईश्र्वर नहीं है। लोग हैं जिन्हें सुन कर प्रसन्नता होती है कि आत्मा नहीं है। लोग हैं जिन्हें सुन कर सुख होता है कि मोक्ष नहीं है। बस, यही जीवन सब-कुछ है; खाओ, पीओ और मौज करो। अगर उनको खयाल आ जाए कि परमात्मा है, तो उनके सुख में एक कंकड़ पड़ गया। उन्हें खयाल आ जाए कि इस जीवन के समाप्त होने पर और जीवन है, तो सिर्फ खाओ, पीओ और मौज करो काफी नहीं मालूम होगा। फिर कुछ और भी करो। फिर जीवन अपने में लक्ष्य नहीं रह जाता, साधन हो जाता है, किसी और परम जीवन को पाने के लिए।
हम जो इनकार करते हैं कि ईश्र्वर नहीं है, आत्मा नहीं है, मोक्ष नहीं है, वह इनकार हम अपने को बचाने के लिए करते हैं। क्योंकि अगर ये तत्व हैं, तो फिर हम क्या कर रहे हैं। फिर समय नहीं है। फिर जीवन बहुत छोटा है और शक्ति को व्यर्थ खोना उचित नहीं है।
अगर पश्र्चिम में इतना भौतिकवाद फैला, तो उसके फैलने का एक कारण तो यह था कि ईसाइयत ने कहा कि कोई पुनर्जन्म नहीं है। पश्र्चिम में भौतिकता के इतनी तीव्रता से फैल जाने का एक कारण बना ईसाइयत की यह धारणा कि कोई पुनर्जन्म नहीं है, एक ही जीवन है। अगर एक ही जीवन है, तो लोगों को लगा कि फिर इसी जीवन को लक्ष्य बना कर जी लेना उचित है। कोई और जीवन नहीं है जिसके लिए इस जीवन को समर्पित किया जाए, त्यागा जाए, साधना में लगाया जाए। समय हाथ से छूटा जा रहा है, इसे भोग लो।
पश्र्चिम में भोगवाद एक जीवन की धारणा से बड़ी आसानी से फैल सका। जीसस के प्रयोजन दूसरे थे। मगर जीसस, महावीर या बुद्ध के प्रयोजनों से हमें कुछ लेना-देना नहीं। हम उनके प्रयोजन से भी अपना स्वार्थ निकाल लेते हैं।
जीसस का प्रयोजन था इस बात पर जोर देने के लिए कि एक ही जन्म है, ऐसा नहीं कि जीसस को पता नहीं था। जीसस ने ऐसी बहुत सी बातों के उल्लेख किए हैं जिनसे साबित होता है कि उन्हें पता है कि पुनर्जन्म है। क्योंकि जीसस से किसी ने पूछा कि तुम्हारी उम्र क्या है, तो जीसस ने कहा कि अब्राहम के पहले भी मैं था। अब्राहम को हुए तब दो हजार साल हो चुके थे।
तो जीसस को पूरा पता है; होगा ही। इतने ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति को अगर इतना भी पता न हो कि जीवन एक अनंत धारणा है, एक अनंत फैलाव है... लेकिन फिर भी जीसस ने लोगों से कहा कि एक ही जीवन है। और प्रयोजन यह था कि ताकि लोग तीव्रता से मोक्ष को पाने की चेष्टा में लग जाएं। क्योंकि ज्यादा समय नहीं है खोने को, समय कम है, लेकिन लोग बड़े होशियार हैं। उन्होंने देखा कि समय इतना कम है, कहां का मोक्ष, कहां का परमात्मा! पहले इसे तो भोग लो! हाथ की आधी रोटी, दूर सपनों की पूरी रोटी से बेहतर है। लोग अपने मतलब से लेते हैं।
मैंने सुना है, बाजार से एक संभ्रांत आदमी गुजर रहा था। अपने व्यवसाय की वेशभूषा में सजा-धजा। और एक छोटे से गरीब लड़के ने आकर कहा: महानुभाव, क्या आप बता सकेंगे कि कितना समय है?
उसने इतने आदर से पूछा कि व्यापारी रुक गया। खीसे से शान से उसने अपनी सोने की घड़ी निकाली, देखा, घड़ी वापस रखी और कहा कि अभी तीन बजने में पंद्रह मिनट कम हैं।
उस लड़के ने कहा: धन्यवाद! ठीक तीन बजे तुम मेरा पैर चूमोगे। और भाग खड़ा हुआ।
स्वभावतः व्यवसायी क्रोध से भर गया। भागा आगबबूला होकर उसके पीछे। कोई दो ही मिनट भाग पाया होगा, हांफ रहा है, उम्र ज्यादा है, कि नसरुद्दीन मिल गया, पुराना परिचित। उसने व्यापारी को रोका और कहा कि कहां भागे जा रहे हैं? क्या हो गया है, इस उम्र में हांफ रहे हैं, पसीना-पसीना हो रहे हैं!
उस व्यापारी ने कहा कि वह देखते हैं, नालायक, वह लड़का! उसने मुझसे पूछा कि कितना समय है? तो मैंने घड़ी निकाली, उसके लिए रुका और मैंने कहा कि अभी पौने तीन बजे हैं। तो उसने कहा कि ठीक तीन बजे तुम मेरा पैर चूमोगे।
तो नसरुद्दीन ने कहा: देन वॉट इ़ज दि हरी, यू हैव इनफ टाइम येट, टेन मिनट्स लेफ्ट। इतनी तेजी से क्यों दौड़ रहे हो? अरे, पैर ही चूमना है न तीन बजे! इतनी जल्दी क्या है?
क्या आदमी अर्थ लेगा, आदमी पर निर्भर है। जीसस ने कहा कि एक ही जन्म है, तेजी से लगो, समय ज्यादा नहीं, ताकि परमात्मा खो न जाए; क्योंकि दूसरा अवसर नहीं है। लोगों ने कहा, इतना ही जीवन है, दूसरे का हमें कुछ पता नहीं; ठीक से इसे भोग लें।
महावीर, बुद्ध और कृष्ण ने कहा कि अनंत जीवन हैं। उन्होंने भी किसी प्रयोजन से ऐसा कहा। उन्होंने कहा कि अनंत जीवन हैं। बड़ा लंबा संघर्ष है; एक ही जीवन में पूरा न हो पाएगा। लेकिन चेष्टा करोगे तो अनंत जीवन में सत्य के निकट पहुंच जाओगे।
अनंत जीवन का खयाल इसलिए दिया ताकि तुम चेष्टा कर सको। अनंत जीवन का इसलिए खयाल दिया ताकि तुम इस जीवन को सब-कुछ न समझ लो। इसे तुम उपकरण बनाओ, साधन बनाओ, अगले जीवन में और श्रेष्ठतर स्थिति पाने के लिए। यह जीवन सब-कुछ न हो जाए, अनंत जीवन की धारणा दी। हमने क्या मतलब निकाला! हमने कहा, अनंत पड़े हैं जीवन; पहले इसे तो भोग लें। जल्दी क्या है? वॉट इ़ज दि हरी? जल्दी क्या है, इस जन्म में नहीं हुआ, अगले जन्म में कर लेंगे। अगले जन्म में नहीं हुआ तो और अगले जन्म में करेंगे। अनंत अवसर हैं; जल्दी कुछ भी नहीं है, पहले इसे तो भोग लें जो हाथ में है।
आदमी बहुत बेईमान है। सभी सिद्धांतों से वह अपना मतलब और स्वार्थ खींच लेता है।
महावीर कहते हैं कि आर्य-वचनों में जो आनंद पाता है, जो अपना स्वार्थ नहीं खोजता और आर्य-वचनों को अपने तल पर नहीं खींच लेता, बल्कि स्वयं को आर्य-वचनों के तल पर खींचने की कोशिश करता है, वह व्यक्ति ब्राह्मण है।
उसे हम ब्राह्मण कहते हैं, ‘जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किए हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
‘...अग्नि में डाल कर शुद्ध किए, कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है।’
जिस अग्नि को आप जानते हैं वही अग्नि नहीं है, और भी अग्नियां हैं। जो बाहर दिखाई पड़ती है वही अग्नि नहीं है, भीतर भी अग्नि है। सारा जीवन अग्नि का ही फैलाव है। और जिस सोने को आप बाहर देखते हैं, वही सोना नहीं है, भीतर भी सोने की संभावना है। लेकिन वहां सब मिट्टी मिला हुआ है, कचरा मिला हुआ है। हमने कभी उसे शुद्ध नहीं किया। असल में हम बाहर के सोने की चिंता में इतने पड़े रहते हैं कि भीतर के सोने की फिकर कौन करे। और बाहर के सोने को ही खोजने में जीवन समाप्त हो जाता है; भीतर के सोने को खोजने का मौका ही नहीं आता। कभी दुख, पीड़ा में, परेशानी में हम भीतर का खयाल भी करते हैं, तो सुख में भूल जाते हैं। सुख बहिर्गामी है। दुख में थोड़े से भीतर भी जाते हैं, तो सुख के आते ही...!
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत बीमार था, बहुत दुखी था। एक दिन बीमारी, पीड़ा की चिंता में मस्जिद चला गया; वैसे जाता नहीं था। मौलवी से जाकर कहा: मेरे लिए प्रार्थना करो। मैं तो पापी हूं, तुम तो पुण्यात्मा हो। तुम्हारी प्रार्थना जरूर स्वीकार होगी। मैं तो किस मुंह से प्रार्थना करूं, मेरे लिए प्रार्थना करो। अगर मैं बच गया इस बीमारी से, चिकित्सक कहते हैं कि बच न सकूंगा, बीमारी घातक है, अगर बच गया इस बीमारी से तो पांच रुपये--पांच रुपये काफी थे--पांच रुपया मस्जिद को दान करूंगा!
मुल्ला के ये वचन सुन कर मौलवी को भरोसा तो न आया कि वह पांच रुपये दान करेगा, लेकिन दुख में आदमी कभी-कभी कर भी देता है। दुख में कभी-कभी धर्म और परमात्मा स्मरण भी आ जाता है। और फिर कौन जाने दुख में कभी आदमी बदल भी जाता है।
मौलवी ने प्रार्थना की। संयोग की बात, मुल्ला बच भी गया। बच जाने के बाद, स्वस्थ हो जाने के बाद, मौलवी ने कई दफा कोशिश की और उसके घर का दरवाजा खटखटाया। लेकिन उसने खबर दे रखी थी अपने लड़कों को, पत्नी को, सबको कि जब भी मौलवी दिखे तो उसे फौरन कह देना कि मुल्ला घर में नहीं है।
दो महीने मौलवी चक्कर काटता रहा मस्जिद के उन पांच रुपयों के लिए। आखिर एक दिन उसने बाजार में पकड़ ही लिया कि नसरुद्दीन, रुको! हद कर दी! बीमारी से बच भी गए, प्रार्थना स्वीकृत भी हो गई, पांच रुपयों का क्या हुआ?
नसरुद्दीन ने कहा: कैसा पांच रुपया? क्या मैं इतना ज्यादा बीमार था कि पांच रुपया बोल गया दान? मैं होश में न रहा होऊंगा। इससे तुम समझ सकते हो! नसरुद्दीन ने कहा कि मैं कितना बीमार था!
आदमी दुख के क्षण में कभी घबड़ा जाता है, तो भीतर की सोचता भी है। लेकिन उसका सोचना क्षण भर का होता है; सुख का क्षण आया कि फिर बाहर बहने लगता है।
भीतर भी कुछ है, इसका हमें पता ही नहीं चल पाता। और भीतर ही सब-कुछ है। सोना भीतर है, खजाना भीतर है, और हम भिक्षापात्र लिए बाहर मांगते रहते हैं। मरते वक्त भिक्षापात्र ही हाथ में होता है, खाली। होगा ही, क्योंकि सोना बाहर नहीं है। बाहर का सोना जुटाने में जो लगे हैं, उनसे ज्यादा नासमझ कोई दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि इसी समय का उपयोग भीतर के सोने को खोदने में हो सकता था। वहां अनंत खान है। जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह भीतरी सोने की खदान है। लेकिन उस तरफ हमारे हाथ नहीं पहुंच पाते।
महावीर कहते हैं कि जो भीतर के सोने की खोज में लग जाए, वह ब्राह्मण है। न केवल खोज में लगे, बल्कि भीतर के सोने को खोज कर अग्नि में शुद्ध करे। अग्नि यानी तप, अग्नि यानी साधना, तपश्र्चर्या, योग, तंत्र--जो भी हम नाम देना चाहें।
अग्नि का अर्थ है कि भीतर अपने को तपाए। आप अपने को कभी तपाते हैं किसी भी क्षण में? कभी भीतर अपने को तपाते हैं किसी क्षण में? आप हमेशा कमजोरी की तरफ झुक जाते हैं। आप कभी सबल होने की तरफ नहीं झुकते। क्रोध उठा--यह बिलकुल स्वाभाविक, सहज है कि आप क्रोध प्रकट करते हैं, पशु भी कर रहे हैं। कुछ खास नहीं है। कुछ क्रोध करके आप खास हो नहीं जाएंगे, पाशविक वृत्ति है, लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यह जो निर्बल धारा है कि क्रोध उठा, बाहर शरीर से ऊर्जा जा रही है, रुक जाऊं, क्रोध को बैठ जाने दूं भीतर। दबाऊं भी नहीं, क्योंकि दबाने से जहर बन जाएगा। निकालूं भी नहीं, क्योंकि निकालने से दूसरे पर जहर चला जाएगा। सिर्फ साक्षीभाव से देखता रहूं कि क्रोध उठा है, और कोई प्रतिक्रिया न करूं।
आप अग्नि से गुजर रहे हैं। क्रोध अग्नि बन जाएगी, लपट बन जाएगी। और अगर आप बिना कुछ किए इस लपट को देखते रहे, बिना कुछ किए... कोई निर्णय नहीं लेना। न तो यह कहना कि यह बुरा है, क्योंकि बुरा कहा कि दबाना शुरू हो गया, तो खुद के शरीर में जहर फैल जाएगा। अगर कहा कि बिलकुल ठीक है, स्वाभाविक है; दुनिया में सभी क्रोध करते हैं, मैं क्यों न करूं, और किया, तो दूसरे के शरीर पर जहर पहुंच गया। और क्रोध अगर किया तो और क्रोध को करने का द्वार खुल गया। आदत निर्मित हुई। कल और जल्दी क्रोध आ जाएगा। परसों और जल्दी क्रोध आ जाएगा। धीरे-धीरे क्रोध जीवन हो जाएगा।
लेकिन अगर न क्रोध को दबाया और न क्रोध को प्रकट किया, बल्कि चेतना को सम्हाला और क्रोध को देखा, कोई निर्णय न लिया कि अच्छा या बुरा, करूं या न करूं, सिर्फ देखा कि क्या है क्रोध, तो आप एक अग्नि से गुजर रहे हैं। जो आग दूसरे को जलाती, जो आग अगर दबा दी जाती तो आपके स्नायुओं को नष्ट करती और आपके शरीर को विषाक्त करती, अगर उस आग का कोई भी उपयोग न किया जाए, वह तप हो जाती है। उस आग को अगर सिर्फ देखा जाए, तो वह आग आपके सोने को निखारने लगती है।
और अगर आप एक क्रोध को सिर्फ देखने में समर्थ हो जाएं तो आप इतने आनंदित होंगे इसके बाद कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते। इतना बल मालूम होगा। आप अपने मालिक हुए। अब कोई दूसरा आदमी आपको क्रोधित नहीं करवा सकता। इसका मतलब हुआ कि अब दूसरे लोग आपके ऊपर हावी नहीं हो सकते। अब दुनिया की कोई ताकत आपको परेशान नहीं कर सकती। आप, चाहे सारी दुनिया आपको परेशान कर रही हो, तो भी निश्चिंत रह सकते हैं।
इसका नाम जिनत्व है, ऐसी निश्चिंतता जो दूसरे से मुक्त होकर उपलब्ध होती है। जब आप क्रोध करते हैं, तब आप दूसरे के गुलाम हैं। यह सुन कर हैरानी होगी, क्योंकि क्रोध करने वाला समझता है, मैं दूसरे को ठीक कर रहा हूं। क्रोध करने वाला समझता है अगर मैंने क्रोध न किया तो दूसरा मेरा मालिक हुआ जा रहा है।
आपको पता नहीं है कि जीवन बड़ी जटिल बात है। जब आप क्रोध करते हैं, तो आपने दूसरे को मालिक स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसने आपको क्रोधित करवा दिया। वही चाबी उसी के हाथ में है। किसी ने आपको गाली दी, उसने चाबी घुमा दी, आपका ताला खुल गया। उसकी चाबी घूमती रहे और ताला नहीं खुले, तो चाबी बेकार हो गई। वह चाबी फेंकने जैसी हो गई।
अगर दुनिया में अधिक लोग अपने क्रोध को, अपने सोने को निखारने का उपाय बना लें, तो दूसरे लोगों को भी अपनी चाबियां फेंकने का मौका मिले; क्योंकि उनका कोई अर्थ न रह जाएगा। जो चाबी लगती ही नहीं उसका क्या करोगे? अगर कोई गाली देता हो और उसकी गाली की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो दुनिया से गालियां गिर जाएं।
गालियों में वजन है, क्योंकि गालियों से लोग प्रभावित होते हैं। सच तो यह है कि आप चाहे किसी और चीज से प्रभावित न हों, गाली से जरूर प्रभावित होते हैं। कोई जरा गाली दे दे, आप एकदम आंदोलित हो जाते हैं, जैसे तैयार ही बैठे थे। बारूद तैयार थी, किसी की चिनगारी की जरूरत थी। जरा सी चिनगारी और भभक उठ आएगी।
कामवासना उठती है; अग्नि है, वस्तुतः अग्नि है। रोआं-रोआं आग से भर जाता है, खून गरम हो जाता है, स्नायु तन जाते हैं। इस आग को आप किसी पर उड़ेल दे सकते हैं। यह कामवासना किसी पर उ़ंडेली जा सकती है और यह कामवासना खुद में भी दबाई जा सकती है। दोनों ही गलत हैं। क्योंकि खुद में दबाने पर हर चीज रोग बन जाती है; दूसरे पर उ़ंडेलने पर रोग और फैलता है। और रोग की आदत निर्मित होती है।
कामवासना जगी है और आप चुपचाप साक्षीभाव से देख रहे हैं। भीतर खड़े हो गए हैं, भीतर के मंदिर में, आंख बंद कर ली है और देख रहे हैं कि शरीर में कैसी कामवासना फैल रही है, कैसा रोआं-रोआं उससे कंपित और आंदोलित हो रहा है। उसे देखते रहें। यह आग आपकी चेतना को निखार जाएगी। इस आग की चमक में आप जग जाएंगे। इस आग की तप्तता में आपके भीतर का कचरा जल जाएगा।
जीवन की समस्त वासनाएं अग्नियां बन सकती हैं। उनके तीन उपयोग हैं: या तो दूसरे को नुकसान पहुंचाएं, या अपने को नुकसान पहुंचाएं, और या फिर अपनी आत्मा को उस अग्नि से निखारें।
इस निखार के लिए महावीर कह रहे हैं कि ‘जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किए हुए, कसौटी पर कसे हुए सोने के समान हैं...!’
कसौटी पर भी कसा जाना जरूरी है। क्योंकि पता नहीं अग्नि सोने को निखार पाई या नहीं निखार पाई। इसकी कसौटी कहां होगी? अग्नि में सोना डाल देना काफी नहीं है। हो सकता है अग्नि कमजोर रही हो, सोने का कचरा मजबूत रहा हो, पर्तें गहरी रही हों, सोना न शुद्ध हो पाया हो--कसेंगे कहां?
इस संबंध में एक बात समझ लेनी बहुत आवश्यक है। महावीर, बुद्ध, मोहम्मद या क्राइस्ट या कोई भी कुछ समय के लिए समाज से हट जाते हैं। वह समाज से हटने का समय आग को जलाने का समय है। लेकिन फिर समाज में लौट आते हैं। वह लौटना कसौटी का समय है। कसौटी कहां है?
मैं एकांत में जाकर बैठ जाऊं और मुझे क्रोध न उठे, क्योंकि वहां कोई गाली देने वाला नहीं है। वर्षों बैठा रहूं, क्रोध न उठे, तो मुझे वहम भी पैदा हो सकता है कि अब मैं क्रोध का विजेता हो गया। कसौटी कहां है? मुझे लौट कर आना पड़ेगा। मुझे भीड़ में खड़ा होना पड़ेगा। मुझे लोगों से संबंधित होना पड़ेगा। कोई मुझे गाली दे, कोई मुझे नुकसान पहुंचाए, और तब मेरे भीतर क्रोध की झलक भी न आए, तब अग्नि की एक लपट भी न उठे, मेरे भीतर कुछ भी जले नहीं, तो कसौटी होगी।
समाज कसौटी है। उचित है, जरूरी है कि साधक कुछ समय के लिए समाज से हट जाए। लेकिन सदा एकांत में रहना खतरनाक है। आग से तो आप गुजरे, लेकिन कसौटी कहां है? इसलिए जो साधक वन में ही रह जाते हैं सदा के लिए, अधूरे रह जाते हैं। जंगल की तरफ जाना जरूरी है। आग से पक जाने और गुजर जाने के बाद वापस लौट आना भी उतना ही जरूरी है, क्योंकि यहीं कसौटियां हैं। यहां चारों तरफ कसौटियां घूम रही हैं, वे आपको ठीक से कसौटी करवा देंगीं--कि यहां धन है, यहां वासना है, यहां काम के सब उपकरण हैं, यहां आपको पता चलेगा।
अभी एक कैंप था माउंट आबू में। एक जैन मुनि बड़ी हिम्मत करके--बड़ी हिम्मत...! क्योंकि उन्होंने कहा कि मैं देखने आना चाहता हूं कि वहां ध्यान लोग कैसा कर रहे हैं? मैंने उनसे कहा कि देखने से क्या दिखाई पड़ेगा, आप करें ही। तो उन्होंने कहा: वह तो जरा मुश्किल हो जाएगा।... क्या डर है? डर क्या है? तो वह कहने लगे कि वहां तो अभिव्यक्ति होती है कि किसी के भीतर कुछ भी हो वह बाहर निकालना है। तो मैंने कहा: भीतर कुछ है तो निकलेगा, नहीं है तो नहीं निकलेगा। डर क्या है? है तो निकाल कर जान लेना जरूरी है; कस
ौटी हो जाएगी कि भीतर पड़ा है। नहीं है, तो भी आनंद का अनुभव होगा कि भीतर कुछ भी नहीं पड़ा है। पर उन्होंने कहा कि नहीं, आप तो इतनी ही आज्ञा दें कि मैं बैठ कर देख सकूं। आपकी मर्जी--लेकिन जो कर नहीं सकता, मैंने कहा, वह ठीक से देख भी नहीं पाएगा।
और यही हुआ। जब लोगों ने ध्यान करना शुरू किया, तो वह कोई दो मिनट तक तो देखते रहे, फिर सामने ही एक युवती ने अपना वस्त्र अलग कर दिया। मुनि जी ने तत्काल आंख बंद कर ली। फिर वह देख नहीं सके!... नग्न स्त्री!
स्त्री को देखने की ही घबड़ाहट है, तो नग्न स्त्री को देखने में तो बहुत घबड़ाहट हो जाएगी। लेकिन घबड़ाहट बाहर है या भीतर?
भीतर कोई कंपित हो गया। भीतर कोई वासना उठ गई, भीतर कोई परेशानी खड़ी हो गई। आंख उस स्त्री से थोड़े ही बंद की जा रही है। आंख बंद करके वह जो भीतर उठ रहा है, उसे दबाया जा रहा है। दबाए से कभी मुक्ति न हो पाएगी। यह दबा हुआ सदा पीछा करेगा, जन्मों-जन्मों तक सताएगा। मैंने उन्हें कहा कि आप सोचते थे, देख पाएंगे, लेकिन देख नहीं पाए। क्योंकि जो डर करने में था, वही डर देखने में भी है।
वासना भीतर खड़ी है। एकांत में इसका निरीक्षण, इसका साक्षीभाव उचित है। और अच्छा है कि प्रारंभ में साधक एकांत में चला जाए, ताकि और चीजों के उपद्रव न रह जाएं। एक ही बात रह जाए जीवन में साधना की। लेकिन वन अंत नहीं है, लौट तो समाज में ही आना पड़ेगा।
तो महावीर कहते हैं कि जो अग्नि में डाले हुए शुद्ध किए हुए और कसौटी पर कसे हुए निर्मल सोने की तरह है; जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
‘...राग, द्वेष तथा भय से रहित है।’
राग-द्वेष से रहित कौन हो सकता है? राग और द्वेष दो चीजें नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो राग से भरा है, वह द्वेष से भी भरा होगा; जो द्वेष से भरा है, वह राग से भी भरा होगा। लेकिन इसे समझा नहीं गया है। आमतौर से तो हालत बड़ी उलटी हो गई है। दुनिया में दो तरह के लोग हैं इस वक्त: राग से भरे हुए लोग, जिन्हें हम गृहस्थ कहते हैं और द्वेष से भरे हुए लोग, जिनको हम साधु-संन्यासी कहते हैं। जिस-जिस चीज से आपको राग है, साधु को उसी-उसी से द्वेष है। लेकिन महावीर कहते हैं, राग, द्वेष, दोनों से जो मुक्त है, वह ब्राह्मण है। क्योंकि द्वेष राग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है।
एक आदमी स्त्री के पीछे दीवाना है, पागल है, बस उसे सिर्फ स्त्री दिखाई पड़ती है। यह आदमी कल संन्यस्त हो सकता है। तब यह स्त्री से बचने के लिए पागल हो जाएगा। तब कहीं कोई स्त्री छू न ले, कोई स्त्री पास न आ जाए, कोई स्त्री एकांत में न मिल जाए। तो यह भयभीत हो जाएगा, यह भागेगा, यह डरेगा।
पहले भी भाग रहा था। पहले यह स्त्री की तरफ भाग रहा था, अब स्त्री की तरफ से भाग रहा है। लेकिन ध्यान स्त्री पर ही लगा हुआ है। पहले राग था, अब द्वेष है। पहले धन इकट्ठा कर रहा था, अब धन को देखता है तो आंख बंद कर लेता है। पहले धन को छूकर बड़ा मजा आता था। जैसे धन में भी प्राण हो। अब कोई धन को पास ले आए तो हाथ सिकोड़ लेता है कि कहीं छू न जाए, जैसे धन में अब भी प्राण है और धन इसको बिगाड़ सकता है। फर्क नहीं पड़ रहा है।
राग और द्वेष में फर्क नहीं है। द्वेष राग की ही उलटी तस्वीर है। जो भी राग करते हैं, किसी भी दिन द्वेष कर सकते हैं। जो भी द्वेष करते हैं, किसी भी दिन फिर राग कर सकते हैं। और राग, द्वेष घड़ी के पेंडुलम की तरह बदलते रहते हैं। सुबह द्वेष, सांझ राग; सांझ राग, सुबह द्वेष। आप अपने ही जीवन में अनुभव करेंगे तो पता चलेगा, प्रतिपल यह बदलाहट होती रहती है। यह बदलाहट, यह द्वंद्व हमारे विक्षिप्त मन का हिस्सा है।
महावीर कहते हैं, राग, द्वेष से मुक्ति, दोनों से एक साथ। न तो किसी चीज के प्रति आसक्ति और न किसी चीज के प्रति विरक्ति। यह बड़ी कठिन है, क्योंकि हम तो विरक्त को संन्यासी कहते हैं; महावीर नहीं कहते। महावीर ने एक नया शब्द खोजा, उसे वे कहते हैं, ‘वीतराग।’ आसक्ति में बंधा हुआ आदमी और विरक्त, दोनों एक जैसे हैं। वीतराग का अर्थ है: दोनों से पार। वीत--दोनों से पार चला गया, अब वहां दोनों नहीं हैं--आदमी सरल हो गया, सहज हो गया।
एक बड़ी अदभुत शर्त साथ में लगाई है कि जो राग, द्वेष और भय से रहित है।
क्योंकि यह भी हो सकता है कि हम राग, द्वेष से रहित होने की कोशिश भय के कारण करें। हममें से बहुत से लोग धार्मिक भय के कारण होते हैं, डर के कारण। डर नरक का, डर पाप का, डर अगले जन्म का, मृत्यु के बाद सताए तो नहीं जाएंगे? पता नहीं क्या होगा!
आदमी मृत्यु से उतना नहीं डरता, जितना दुख से डरता है। मेरे पास बूढ़े लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मृत्यु का हमें डर नहीं है, इतना ही आशीर्वाद दे दें कि सुख से मरें। कोई दुख न पकड़े, कोई बीमारी न पकड़े; सड़ें-गलें नहीं।
मृत्यु का डर नहीं है, डर दुख का है। मृत्यु में क्या है, कोई फिकर नहीं है। लेकिन कैंसर हो जाए, टी. बी. हो जाए, सड़ें-गलें, दुख पाएं, उसका डर है। जैसे हैं, स्वस्थ मर जाएं।
मृत्यु से भी ज्यादा डर दुख का है। और पुरोहितों को पता चल गया है कि आदमी दुख से डरता है, इसलिए उन्होंने बड़े नरक का इंतजाम कर दिया है। उन्होंने नरक बना दिया कि अगर तुमने पाप किया, अगर राग किया, द्वेष किया, यह किया, वह किया तो नरक में सड़ोगे। नरक के डर के कारण बहुत से लोग धार्मिक बने हैं।
अब यह नरक का डर रोज-रोज कम होता जा रहा है, लोगों का धर्म भी कम होता जा रहा है उसी अनुपात में। जिस दिन नरक बिलकुल समाप्त हो जाएगा, आप बिलकुल अधार्मिक हो जाएंगे, क्योंकि आपका धर्म सिवाय भय के कुछ भी नहीं है। भगवान की मूर्ति के सामने जब आप घुटने टेकते हैं, वह भय में टेके गए घुटने हैं। और भय से क्या संबंध सत्य से हो सकता है!
महावीर कहते हैं: अभय सत्य की खोज का पहला चरण है। और जो अभय नहीं है, वह ब्राह्मण नहीं हो सकता। इसलिए महावीर ने तो प्रार्थना तक को विसर्जित कर दिया। महावीर ने कहा: प्रार्थना में भय छिपा रहता है, मांग छिपी रहती है। प्रार्थना की भी कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ अभय हो जाने की जरूरत है। कौन आदमी अभय हो सकता है? भय मौजूद है, वास्तविक है। मौत है, दुख है, पीड़ा है।
तो एक तो उपाय यह है कि कोई दुख न रह जाए, तब आदमी निर्भय हो जाए, अभय हो जाए। पर दुख तो रहेंगे। कोई दुनिया का विज्ञान आदमी को दुख से मुक्त नहीं कर सकता; एक दुख को बदल कर दूसरे दुख में ही डाल सकता है। कोई स्थिति नहीं हो सकती जमीन पर, जब कोई दुख न हो। पांच हजार साल का अनुभव है। पुराने दुख हट जाते हैं, नये दुख आ जाते हैं। पुरानी बीमारियां चली जाती हैं। प्लेग नहीं है अब। बहुत से मुल्कों से मलेरिया विदा हो गया। प्लेग खो गई। काला बुखार नहीं रहा; लेकिन क्या फर्क पड़ता है, उससे भी भयंकर बीमारियां मौजूद हो गई हैं।
आदमी सुख में नहीं हो सकता, अकेले सुख में नहीं हो सकता; दुख सुख के साथ जुड़ा है। हम इधर सुख का इंतजाम करते हैं, उतने ही दुख का इंतजाम उसके साथ ही हो जाता है। तो महावीर कहते हैं कि दुख से मुक्त होने की कोशिश एक ही अर्थ रखती है कि मेरी चेतना दुख और सुख से पृथक हो जाए। और कोई उपाय नहीं है।
विज्ञान मनुष्य को आनंद में नहीं उतार सकता; बड़े सुख में ले जा सकता है, लेकिन साथ ही बड़े दुख में भी ले जाएगा। इसलिए जितना विज्ञान सुविधा जुटाता है, उतना आदमी को असुविधा का अनुभव होने लगता है। एक आदमी धूप में दिन भर काम करता है, उसे धूप का दुख निरंतर अनुभव से कम हो जाता है। एक आदमी छाया में बैठ कर काम करता है। छाया में निरंतर बैठने से छाया का सुख होता है, लेकिन धूप का दुख बढ़ जाता है। धूप में जाएगा तो बहुत दुख पाएगा, जो धूप वाला आदमी कभी नहीं पाएगा।
आप जितना सुख बढ़ाते हैं, उनके साथ ही दुख की क्षमता बढ़ती जाती है। क्योंकि सुख के साथ ही साथ आप डेलिकेट होते जाते हैं, नाजुक होते जाते हैं। जितने नाजुक होते हैं, उतना रेसिस्टेंस कम हो जाता है, प्रतिरोध कम हो जाता है। तो हमने सब बीमारियों का इंतजाम कर लिया, लेकिन आदमी का प्रतिरोध कम हो गया और आदमी का प्रतिरोध कम हो जाने से हजार नई बीमारियां खड़ी हो गईं।
हम आदमी को जितना सुख देंगे, उतना ही उसके साथ दुख की खाई बढ़ती जाएगी। विज्ञान बड़े सुख दे सकता है; बड़े दुख देगा।
महावीर कहते हैं, आनंद की तो एक ही संभावना है कि सुख-दुख से मैं अपनी चेतना को पृथक कर लूं। राग, द्वेष से अलग होने का अर्थ है, मैं साक्षी हो जाऊं। न तो मैं किसी के खिलाफ, न किसी के पक्ष में, न तो सुख की आकांक्षा और न दुख का विरोध। जो भी घटित हो, मैं उसका देखने वाला रह जाऊं।
महावीर का धर्म अभय पर खड़ा धर्म है। अंग्रेजी में एक शब्द है: ‘गॉड-फियरिंग।’ हिंदी में भी एक शब्द है: ‘ईश्र्वर-भीरु’--ईश्र्वर से डरने वाला। महावीर ऐसे शब्द को धर्मशास्त्र में जगह नहीं देंगे। महावीर कहेंगे, जो डरता है, वह तो कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। भयभीत चित्त का कोई संबंध सत्य से होने की संभावना नहीं है। तो महावीर कहते हैं: राग, द्वेष और भय से जो रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
‘जो तपस्वी है...।’
जो भीतर जीवन की वासना की जो अग्नि है, उसको यज्ञ बना रहा है। जो भीतर अपने को निखार रहा है। अपने जीवन की पूरी ऊर्जा का उपयोग जो व्यर्थ बाहर नहीं खो रहा है, बल्कि सारा ईंधन एक ही काम में ला रहा है कि मेरे भीतर का सोना निखर जाए।
‘जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है।’
यह जरा सोचने जैसा है, क्योंकि महावीर की प्रतिमा दुबली-पतली नहीं है। इससे बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। महावीर की प्रतिमा बड़ी बलिष्ठ और स्वस्थ है, दुबली-पतली जरा भी नहीं है। और महावीर की एक भी प्रतिमा उपलब्ध नहीं है, जिसमें वे दुबले-पतले हों। हां, बुद्ध की एक प्रतिमा उपलब्ध है, जिसमें वे हड्डी-हड्डी रह गए हैं, महातप उन्होंने किया जिसमें वे बिलकुल सूख गए हैं, और उनकी पीठ और पेट एक हो गए हैं। और वे इतने कमजोर हो गए हैं कि उठ भी नहीं सकते। नदी में स्नान करने गए हैं निरंजना में, इतने कमजोर हो गए हैं कि नदी से बाहर निकलने की ताकत नहीं है तो एक वृक्ष की जड़ को पकड़ कर लटके हुए हैं।
जरूर महावीर और बुद्ध की तपश्र्चर्या में कुछ बुनियादी फर्क है। बुद्ध जरूर कुछ गलत तपश्र्चर्या कर रहे हैं। और इसीलिए बुद्ध को छह साल के बाद तपश्र्चर्या छोड़ देनी पड़ी। और बुद्ध ने कहा कि तप से कोई मुक्त नहीं हो सकता। उनका अनुभव ठीक था। उन्होंने जो तप किया था, उससे कभी कोई मुक्त नहीं हो सकता। वे उस तप को छोड़ कर मुक्त हुए।
लेकिन इस पर बहुत गंभीर विचारणा नहीं हुई है, क्योंकि महावीर तप से ही मुक्त हुए। लेकिन महावीर ने वैसा तप कभी नहीं किया, जैसा बुद्ध ने किया। बुद्ध के तप में कोई भ्रांति थी। बुद्ध एक तरफ भोगी थे; फिर एकदम विपरीत तपस्वी हो गए। उन्होंने शरीर को सुखा डाला; खून, मांस सब सूख गया; हड्डी-हड्डी हो गए; इतने कमजोर हो गए कि ऊर्जा ही न बची जो कि भीतर के सोने को निखार सके। तो उन्हें उस तप को छोड़ देना पड़ा। लेकिन महावीर कभी हड्डी-हड्डी नहीं हुए।
तो महावीर का वचन समझने जैसा है।
महावीर कहते हैं: ‘जो दुबला-पतला है, जो इंद्रिय-निग्रही है, उग्र तपसाधना के कारण जिसका रक्त और मांस सूख गया है, जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
महावीर की प्रतिमा को खयाल में रख कर इस वचन को समझना जरूरी है, नहीं तो भ्रांति महावीर के अनुयायी भी करते रहे हैं। महावीर कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में रक्त और मांस अकारण नहीं होता। रक्त और मांस के होने के दो कारण हैं। एक तो शरीर की जरूरत है कि शरीर बिना रक्त और मांस के जी नहीं सकता। वह शरीर का भोजन है, शरीर का ईंधन है। लेकिन जितना शरीर को चाहिए, उतने से ज्यादा आदमी इकट्ठा कर लेता है और वह जो ज्यादा इकट्ठा किया हुआ है, वह मनुष्य को वासनाओं में ले जाता है। ध्यान रहे, अगर आपको अचानक लाख रुपये मिल जाएं, तो आप क्या करेंगे? आप एकदम, आपकी जो-जो बुझी पड़ी वासनाएं हैं, उनको सजग कर लेंगे। एक लाख का खयाल आते ही से आपकी वासनाएं भागने लगेंगी। क्या कर लूं? कहां भोग लूं?
नया-नया धनी हुआ आदमी बड़ा पागल हो जाता है। नया धनी अपनी सारी वासनाओं को जगा हुआ पाता है। इसलिए नये धनी को पहचानने में कठिनाई नहीं है। उसका धन उछलता हुआ दिखाई पड़ता है। उसका धन वासना की दौड़ बन जाता है। जैसे ही आपके शरीर में जरूरत से ज्यादा खून-मांस-मज्जा इकट्ठी हो जाती है, आप उसका क्या करेंगे? और मनुष्य के पास संग्रह करने का उपाय है।
मनुष्य के शरीर में उपाय है। तीन महीने के लायक तो भोजन हम अपने शरीर में इकट्ठा रखते ही हैं। इसलिए कोई भी आदमी तीन महीने तक उपवास कर सकता है, मरेगा नहीं। स्वस्थ, सामान्य स्वस्थ आदमी नब्बे दिन तक भूखा रहे तो मरेगा नहीं, क्योंकि नब्बे दिन के लिए रिजर्व, सुरक्षित भोजन शरीर में है। हम अपना मांस पचाते जाएंगे नब्बे दिन तक। इसलिए जब आप उपवास करते हैं तो हर रोज एक पौंड, डेढ़ पौंड वजन गिरने लगता है। कैसे गिर रहा है वजन? वजन कहां जा रहा है? शरीर को बाहर से भोजन नहीं दिया जा रहा है, तो शरीर के पास एक दोहरी व्यवस्था है, शरीर अपने ही मांस को पचाने लगता है।
उपवास एक तरह का मांसाहार है, अपना ही मांस पचने लगता है। डेढ़ पौंड, दो पौंड मांस रोज पचा जाएगा। स्वस्थ आदमी के शरीर में तीन महीने तक के लायक सुरक्षित व्यवस्था होती है। लेकिन इस तीन महीने से ज्यादा भी हम इकट्ठा कर लेते हैं। हम बड़े कृपण हैं, कंजूस हैं। हम सब चीजें इकट्ठी करते रहते हैं। हम इतना इकट्ठा कर लेते हैं कि उसे फेंकना जरूरी हो जाता है। उसे न फेंकें तो वह बोझ हो जाएगा। वह जो अतिरिक्त बोझ हो जाता है, वह हमारी वासनाओं में फिंकने लगता है।
तो महावीर जब कहते हैं, ‘दुबला-पतला’, तो उनका मतलब है सामान्य, स्वस्थ, जो कृपण नहीं है, जो मांस-मज्जा को इकट्ठा करने में नहीं लगा है; क्योंकि वह इकट्ठी मांस-मज्जा गलत मार्गों पर ले जाएगी; बोझ हो जाएगा।
पश्र्चिम में अगर आज वासना का ज्वार आ गया है, तो उसका एक कारण तो है कि जरूरत से ज्यादा भोजन आज पश्र्चिम में पहली दफा उपलब्ध है। इतना भोजन उपलब्ध है कि बड़ी हैरानी की बात है, उस भोजन का उपयोग क्या किया जाए? अगर आपको बहुत ज्यादा दूध और पौष्टिक पदार्थ मिलें, तो कामवासना बढ़ जाएगी। इतनी भी ज्यादा बढ़ सकती है कि आपको चौबीस घंटे कामवासना ही घेरे रहे। क्योंकि इतना वीर्य आप रोज उत्पन्न कर लेंगे कि उसे फेंकना जरूरी हो जाएगा।
महावीर कहते हैं: शरीर पर दृष्टि रखनी जरूरी है। एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि शरीर में अतिरिक्त इकट्ठा न हो। अतिरिक्त इकट्ठा होगा तो वासना में खींचेगा। शरीर में उतना ही हो जितना जरूरी है ताकि जितना आत्मा को जगाने और रोशन करने के लिए काफी है उतना दीया भीतर जल जाए और बाहर की तरफ की वासना न उठे।
तो महावीर कहते हैं कि ‘जो दुबला-पतला है, जिसका रक्त और मांस सूख गया है।’ इसका यह मतलब नहीं कि उसका रक्त और मांस बिलकुल सूख गया है। रक्त-मांस सूख गया है, मतलब: अतिरिक्त रक्त-मांस सूख गया है। जिसके पास व्यर्थ ईंधन नहीं है, जो उसे गलत मार्गों पर ले जाए।
‘जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
इस आखिरी शब्द को, ‘निर्वाण’ को समझ लेना जरूरी है। निर्वाण बड़ा कीमती शब्द है। इस शब्द का मतलब होता है: दीये का बुझ जाना। जब किसी दीये को हम फूंक देते हैं और उसकी ज्योति बुझ जाती है, तो कहते हैं: दीया निर्वाण को उपलब्ध हो गया।
महावीर कहते हैं: ‘जो निर्वाण को उपलब्ध हो गया, वह ब्राह्मण है।’
तो किस दीये की बात कर रहे हैं?
जब तक अहंकार है, तब तक हम जल रहे हैं व्यक्ति की तरह। जैसे ही अहंकार की ज्योति बुझ जाती है, हम व्यक्ति की तरह समाप्त हो जाते हैं; अहंकार खो जाता है। अब हम होते हैं; लेकिन व्यक्ति की तरह नहीं होते हैं; अहंकार की तरह नहीं होते, अस्मिता नहीं होती। हमारी कोई सीमा नहीं रह जाती, हमारी कोई दीवालें नहीं रह जातीं, और ‘मैं’ का कोई भाव नहीं रह जाता।
‘मैं-भाव’ का बुझ जाना निर्वाण है। जिस क्षण मैं हूं, और मुझे पता नहीं चलता कि मैं हूं, मेरा होना शुद्ध हो गया। इस शुद्धतम अवस्था को महावीर कहते हैं, ‘मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
महावीर ने जितना आदर ‘ब्राह्मण’ शब्द को दिया है, उतना किसी और ने कभी भी नहीं दिया है। ‘ब्राह्मण’ शब्द की ऐसी पराकाष्ठा न तो उपनिषदों में उपलब्ध है और न वेदों में उपलब्ध है। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने समझा कि महावीर ब्राह्मणों के दुश्मन हैं। समझने का कारण था, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मण की जन्मजात बपौती छीन ली, स्वार्थ छीन लिया, उसका धंधा छीन लिया, उसका व्यवसाय छीन लिया।
लेकिन अगर कोई ठीक से समझे तो महावीर ब्राह्मण के दुश्मन नहीं हैं, ब्राह्मण ही ब्राह्मण के दुश्मन हैं। महावीर तो परम प्रेमी मालूम पड़ते हैं ब्राह्मणत्व के। उसको उन्होंने ठीक ब्राह्मण के निकट बिठा दिया। और ब्राह्मण तभी कहने का कोई अपने को अधिकारी है, जब महावीर की परिभाषा पूरी करता है। जन्म से जो ब्राह्मण है, उसका ब्राह्मणत्व औपचारिक है, फार्मल है। उसका कोई मूल्य नहीं है। ब्रह्म की उपलब्धि और ब्रह्म की उपलब्धि के मार्ग पर चलते हुए, पड़ते हुए कदम और पड़ाव, वे ही ब्राह्मण होने के पड़ाव हैं।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, और फिर जाएं...!
जो न सज्जइ आगन्तुं, पव्वयन्तो न सोयई।
रमइ अज्जवयणम्मि, तं वयं बूम माहणं।।
जायरुवं जहामट्ठं, निद्धन्तमल-पावगं।
राग-दोस-भयाईयं, तं वयं बूम माहणं।।
तवस्सियं किसं दन्तं, अवचियमंससोणियं।
सुव्वयं पत्तनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं।।
जो आने वाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता, जो आर्य-वचनों में सदा आनंद पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किए हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है, जो इंद्रिय-निग्रही है, उग्र तपसाधना के कारण जिसका रक्त और मांस भी सूख गया है, जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
ईसप की एक कथा है। एक दिन एक सिंह, एक गधा और एक लोमड़ी शिकार को निकले साथ-साथ। उन्होंने काफी शिकार किया। फिर जब सूर्य ढलने लगा और सांझ हो गई, तो सिंह ने लोमड़ी को कहा कि तू समझदार भी है, चालाक भी, गणितज्ञ भी, तार्किक भी; उचित होगा कि तू ही इस शिकार के तीन विभाजन कर दे, बराबर-बराबर, ताकि तीनों शिकार में भाग लेने वाले साथियों को बराबर भोजन उपलब्ध हो सके।
बड़े चमत्कारिक ढंग से लोमड़ी ने विभाजन किए जो बिलकुल बराबर थे, तीन हिस्से किए। लेकिन सिंह बहुत नाराज हो गया। उसने कुछ कहा भी नहीं; लोमड़ी की गर्दन दबाई और उसको भी शिकार के ढेर में फेंक दिया और गधे से कहा कि तू अब दो हिस्से कर दे, एक मेरे लिए और एक तेरे लिए, बिलकुल बराबर-बराबर।
गधे ने सारे शिकार का एक ढेर लगा दिया और एक मरे हुए कौए की लाश को, मरे हुए कौए को एक तरफ कर दिया और कहा कि महानुभाव! यह मेरा आधा भाग कौआ और वह आपका आधा भाग। सिंह ने कहा: गधे, मित्र गधे! तूने इतना समान विभाजन करने की कला कहां से सीखी? किसने तुझे सिखाया ऐसा शुद्ध गणित? तूने बिलकुल बराबर विभाजन कर दिए!
और विभाजन क्या है, एक तरफ कौआ है मरा हुआ और एक तरफ सारे शिकार का ढेर है।
गधे ने कहा: दिस डेड फॉक्स--इस मरी हुई लोमड़ी ने मुझे यह कला सिखाई बराबर विभाजन करने की!
ईसप ने कहा है कि गधे भी अनुभव से सीख लेते हैं, लेकिन आदमी नहीं। आदमी अनुभव से सीखता हुआ मालूम ही नहीं पड़ता। हजारों-हजार साल वही अनुभव, वही अनुभव बार-बार दोहरता है, फिर भी आदमी वैसा ही बना रहता है। उसमें कोई फर्क पड़ता हुआ मालूम नहीं पड़ता। जैसे अनुभव बह जाता है उसके ऊपर से; कहीं भी भिद नहीं पाता उसके रोओं में, उसकी चमड़ी में, उसकी हड्डियों में, उसके हृदय तक तो पहुंचने की बात ही दूर। ऊपर-ऊपर वर्षा के जल की तरह गिरता है और बह जाता है और आदमी वैसे का वैसा बना रहता है।
मनुष्य को हजारों साल के अनुभव में यह बात साफ हो जानी चाहिए थी, इसमें कोई भी अड़चन नहीं है कि जन्म से धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। एक आदमी मुसलमान के घर में पैदा हो सकता है, लेकिन इससे मुसलमान नहीं हो सकता। एक आदमी हिंदू के घर में पैदा हो सकता है, लेकिन पैदा होने से धर्म का क्या लेना-देना है? एक आदमी जैन कुल में पैदा होता है, लेकिन वह कुल का धर्म होगा, व्यक्ति का निजी चुनाव नहीं।
धर्म का प्रारंभ ही तब होता है जब व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से चुनता है। जब बोधपूर्वक निर्णय लेता है, जब समझपूर्वक संकल्प करता है, जब दीक्षित होता है स्वयं एक धारा में, तब धर्म का जन्म होता है।
दुनिया में इतना अधर्म है, उसके बुनियादी कारणों में एक कारण यह भी है कि हमारा धर्म उधार है। उधार धर्म जिंदा नहीं हो सकता, मरा हुआ होगा।
आपके पिता ने ही नहीं चुना है; न मालूम कितनी पीढ़ियों पहले किसी ने चुना। कोई व्यक्ति महावीर के पास दीक्षित हुआ। कोई व्यक्ति महावीर से आकर्षित हुआ; आंदोलित हुआ। किसी व्यक्ति को महावीर के पास तरंगें मिलीं परम सत्य की। वह दीक्षित हुआ। उसकी दीक्षा बहुमूल्य थी। वह उसका निर्णय था। वह शायद हिंदू घर में पैदा हुआ था; दीक्षित हुआ, जैन बना। उस आदमी के लिए जैन होने का कोई मूल्य था, क्योंकि जैन होने के लिए उसने कुछ चुकाया था, कुछ खोया था, कुछ मिटाया था। कुछ पाने के लिए कुछ त्यागा था; मोह छोड़े थे, संस्कार छोड़े थे, बचपन से पड़ी हुई धारणाएं छोड़ी थीं। जो सिखाया गया ज्ञान था, उसे फेंका था और एक नई यात्रा पर, अनजाने मार्ग पर चला था। उसका साहस था; उस साहस के परिणाम हुए। फिर उसका बेटा है, वह जैन हो जाता है पैदाइश से। फिर आप तो न मालूम कितनी पीढ़ियों के बाद जैन हैं।
सब उधार है, कचरा है। आपके जैन होने का कोई मूल्य नहीं है। आप भी जानते हैं कि आपका जैन होना झूठा है, हिंदू होना झूठा है, मुसलमान होना झूठा है, क्योंकि जो आपने नहीं चुना, वह सत्य नहीं हो सकता। निज का चुनाव सत्य की तरफ पहला कदम है।
यह हमें अनुभव है कि पैदाइश से कोई धार्मिक नहीं हो सकता, लेकिन हम पैदाइश से धार्मिक हो गए हैं, तो वस्तुतः धार्मिक होने का उपाय भी बंद हो गया है, क्योंकि हम सब को खयाल है कि हम धार्मिक हैं।
अनुभव कहता है कि धर्म सदा व्यक्ति का निजी संकल्प है। समूह धार्मिक नहीं होता, व्यक्ति धार्मिक होता है। भीड़ धार्मिक नहीं होती, व्यक्ति धार्मिक होता है। क्योंकि जीवन का, चेतना का अनुभव व्यक्ति के पास है, समूह के पास नहीं है। समूह तो बंधी हुई लकीरों से चलता है सुविधा के लिए; व्यवस्था के लिए, अराजकता न हो जाए इसलिए; नियम का घेरा बांध लेता है और चलता है।
अगर व्यक्ति भी उस घेरे में बंध कर चलता है और अपने निजी पथ की खोज नहीं करता, तो वह समाज का एक हिस्सा ही रहेगा; उसकी आत्मा उत्पन्न नहीं होगी। आत्मा उसी दिन उत्पन्न होती है, जिस दिन निजता का मूल्य समझ में आता है, जिस दिन मैं अपना मार्ग चुनता हूं ताकि अपने सत्य तक पहुंच सकूं। और प्रत्येक व्यक्ति का सत्य तक पहुंचने का मार्ग भिन्न होगा, उसके अपने अनुसार होगा।
जैसे कोई व्यक्ति अगर कम्युनिस्ट घर में पैदा हो जाए, तो हम नहीं कहते कि वह कम्युनिस्ट है। और कोई व्यक्ति सोशलिस्ट घर में पैदा होकर सोशलिस्ट नहीं हो जाता। सोशलिस्ट होने के लिए विचार करना पड़े, सोचना पड़े, निर्णय लेना पड़े।
कोई भी विचार जब तक आपके भीतर उगता नहीं है, तब तक बासा है, बोझ है। महावीर ने यह घोषणा आज से पच्चीस सौ साल पहले की, और महावीर ने कहा, जन्म से धर्म का कोई संबंध नहीं है। कहां आप पैदा हुए हैं, यह बात मूल्यवान नहीं है; क्या आप बनते हैं, खुद अपने श्रम से, वही बात मूल्यवान है। तो महावीर ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी; आश्रम की व्यवस्था तोड़ दी। और महावीर ने नये अर्थ दिए पुराने शब्दों को।
यह सूत्र ब्राह्मण-सूत्र है। इसमें महावीर ब्राह्मण की व्याख्या करते हैं कि ब्राह्मण कौन है। ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं है, लेकिन हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं, जो ब्राह्मण घर में पैदा हुआ है। तो ब्राह्मण की जो महान धारणा थी वह नष्ट हो गई; वह एक क्षुद्र बात हो गई।
ब्राह्मण के घर में पैदा होना बड़ी क्षुद्र बात है; ब्राह्मण हो जाना बिलकुल दूसरी बात है। ब्राह्मण होना एक यात्रा है। ब्राह्मण होना एक श्रम है, एक तपश्र्चर्या है। ब्राह्मण तभी कोई हो सकता है, जब ब्रह्म से उसका सम्पर्क सध जाए।
उद्दालक ने अपने बेटे श्र्वेतकेतु को कहा है उपनिषदों में कि श्र्वेतकेतु, ध्यान रखना एक बात, हमारे परिवार में कोई जन्म से ब्राह्मण नहीं हुआ। वह बड़ी बदनामी की बात है। हमारे परिवार में हम चेष्टा से ब्राह्मण होते रहे हैं। तू भी यह मत सोच लेना कि तू मेरे घर पैदा हुआ तो ब्राह्मण हो गया। तुझे ब्राह्मण होने के लिए अथक श्रम करना होगा, तुझे ब्राह्मण होने के लिए खुद ही साधना करनी होगी। ब्राह्मण होने के लिए तुझे स्वयं को ही जन्म देना होगा; मां-बाप तुझे जन्म नहीं दे सकते हैं। क्योंकि जब तक तेरा अनुभव ब्रह्म के निकट न आने लगे, तब तक तू ब्राह्मण नहीं है।
महावीर की बात निश्र्चित ही जातिगत ब्राह्मणों को बहुत कठिन मालूम पड़ी होगी। सत्य हमेशा ही स्वार्थ को कठिन मालूम पड़ता है। क्योंकि कितनी सुगम बात है जन्म से ब्राह्मण हो जाना और श्रम से ब्राह्मण होना तो बहुत दुर्गम है। जन्म से तो हजारों ब्राह्मण हो जाते हैं; श्रम से तो कभी कोई एकाध ब्राह्मण होता है।
तो जो ब्राह्मण थे जन्म से, उनको बहुत कष्टपूर्ण मालूम पड़ा होगा। महावीर उनकी पूरी बपौती छीने ले रहे हैं; उनकी शक्ति छीने ले रहे हैं। इससे भी खतरनाक मालूम पड़ी होगी बात, और भी दूसरा खतरा था और वह यह कि ब्राह्मण से उसका ब्राह्मणत्व ही नहीं छीने ले रहे हैं--जातिगत, जन्मगत; बल्कि महावीर कह रहे हैं कि कोई भी ब्राह्मण हो सकता है, तो शूद्र भी ब्राह्मण हो सकता है, श्रम से। तो ब्राह्मण की सत्ता छीन रहे हैं और जिनके पास सत्ता कभी नहीं थी, उनको सत्ता का, उस परम सत्ता के अनुभव का अवसर खुला कर रहे हैं।
महावीर की क्रांति गहरी है। महावीर कहते हैं, सभी लोग जन्म से शूद्र पैदा होते हैं। क्योंकि शरीर से पैदा होने में कोई कैसे ब्राह्मण हो सकता है? शरीर शूद्र है, शरीर से आदमी पैदा होता है, तो सभी जन्म से शूद्र पैदा होते हैं। फिर इस शूद्रता के बीच अगर कोई श्रम करे, निखारे अपने को, तपाए, तो सोने की तरह निखर आता है। पर अग्नि से गुजरना पड़ता है, तब कोई ब्राह्मण होता है।
शूद्र पैदा हो जाने से ब्राह्मण होने में बाधा नहीं है। शूद्रता ब्राह्मणत्व का आधार है। जैसे देह आत्मा का आधार है, ऐसे शूद्रता ब्राह्मणत्व का आधार है। इसलिए कोई भी शूद्र होने से वंचित नहीं है। सभी शूद्र हैं। लेकिन कुछ शूद्रों ने जन्म से अपने को ब्राह्मण समझ रखा है। कुछ शूद्रों ने जन्म से अपने को वैश्य समझ रखा है। कुछ शूद्रों ने जन्म से अपने को क्षत्रिय समझ रखा है। और कुछ शूद्रों को समझा दिया गया है कि तुम जन्म से ही शूद्र नहीं हो, तुम्हें सदा ही शूद्र रहना है; तुम जन्म से लेकर मृत्यु तक शूद्र रहोगे।
यह बड़ी खतरनाक बात है। इससे न मालूम कितनी संभावनाएं ब्राह्मण होने की खो गईं। जो ब्राह्मण हो सकता था वह रोक दिया गया। जो ब्राह्मण नहीं था, वह ब्राह्मण मान लिया गया। उसकी भी संभावना को नुकसान हुआ, क्योंकि वह भी हो सकता, उसकी फिकर छूट गई, उसने मान लिया कि मैं हूं।
महावीर कहते हैं, ब्राह्मण होना जीवन का अंतिम फूल है, इसलिए जन्म पर कोई ठहर न जाए। कीचड़ से कमल पैदा होता है; शूद्रता से ब्राह्मणत्व पैदा होता है। कीचड़ पीछे छूट जाती है; कमल ऊपर उठने लगता है। एक घड़ी आती है, कीचड़ बहुत पीछे छूट जाती है; कमल जल के ऊपर उठ आता है। और कमल को देख कर आपको खयाल भी पैदा नहीं हो सकता कि वह कीचड़ से पैदा हुआ है।
शूद्रता कीचड़ है। उसी में पड़े रहने की कोई भी जरूरत नहीं है। उससे ऊपर उठने का विज्ञान है। अध्यात्म, धर्म, योग कीचड़ को कमल में बदलने की कीमिया है। और एक बार कीचड़ कमल बन जाए, तो नीचे भूमि में जो कीचड़ पड़ी है, वह भी फिर उसे कीचड़ नहीं बना सकती। बल्कि उस कीचड़ से भी कमल रस लेता है; उस कीचड़ को निरंतर बदलता रहता है सुगंध में। उस कीचड़ की दुर्गंध बनती रहती है सुगंध, कमल के माध्यम से। उस कीचड़ का जो-जो कुरूप है उस कीचड़ में, वह सब कमल में आकर सुंदर होता रहता है।
आदमी कीचड़ की तरह पैदा होता है, लेकिन कीचड़ की तरह मरने की कोई भी जरूरत नहीं है। कमल होकर मरा जा सकता है।
उस कमल होने की कला का नाम धर्म है।
महावीर के सूत्र को अब हम समझें।
‘जो आने वाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता, जो आर्य-वचनों में सदा आनंद पाता है, उसे हम ‘ब्राह्मण’ कहते हैं।’
एक-एक कदम समझना जरूरी है।
‘जो स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता।’
इसका यह अर्थ नहीं है कि वह स्नेह नहीं रखता, नहीं तो स्नेहीजन कहने का कोई कारण नहीं है। प्रेम भरपूर है; आसक्ति नहीं है। शूद्र-मन में प्रेम बिलकुल नहीं होता, आसक्ति ही आसक्ति होती है। ब्राह्मण-मन में आसक्ति खो जाती है और प्रेम ही रह जाता है।
आसक्ति कीचड़ है; प्रेम कमल है। लेकिन प्रेम को आसक्ति से मुक्त करना बड़ी दुर्गम बात है, क्योंकि हम तो जैसे ही किसी को प्रेम करते हैं, प्रेम कर ही नहीं पाते कि आसक्ति पकड़ लेती है। आसक्ति का मतलब है या तो हम गुलाम हो जाते हैं, या दूसरे को गुलाम बनाने लगते हैं। दोनों ही गुलामी की प्रक्रियाएं हैं।
किसी व्यक्ति को आप प्रेम करते हैं, प्रेम करते ही आप निर्भर हो जाते हैं उस पर। आपका सुख उस पर निर्भर हो जाता है। आपका दुख उस पर निर्भर हो जाता है। दूसरा आदमी मालिक हो गया। अगर वह चाहे तो दुखी कर सकता है; अगर चाहे तो सुखी कर सकता है। उसका एक इशारा आपको नचा सकता है। उसका एक इशारा आपको दुख में डाल सकता है। आपकी आत्मा की अपनी मालकियत दूसरे व्यक्ति के हाथ में चली गई।
और ध्यान रहे, जब भी हम अपने प्रेम में किसी को अपना मालिक बना लेते हैं, तो उससे हमारी घृणा भी शुरू हो जाती है, क्योंकि मालकियत कोई किसी की कभी पसंद नहीं करता। इसलिए जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं; और जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही हम नष्ट भी करना चाहते हैं। क्योंकि वह दुश्मन भी मालूम पड़ता है।
पड़ेगा ही! प्रेमी दुश्मन मालूम पड़ते हैं एक-दूसरे को, क्योंकि एक-दूसरे की स्वतंत्रता को छीन लेते हैं और एक-दूसरे को वस्तुएं बना देते हैं, व्यक्तियों से मिटा कर।
हर पति की कोशिश है कि उसकी पत्नी एक वस्तु बन जाए। वह जैसा कहे वैसा उठे-बैठे। वह जैसा इशारा करे वैसा चले। पत्नी की भी पूरी चेष्टा यही है कि पति उसका गुलाम हो जाए। वह कहे रात, तो रात। वह कहे दिन, तो दिन। दोनों इसी संघर्ष में लगे हैं। एक-दूसरे को डॉमिनेट करना है। एक-दूसरे को मिटा डालना है।
क्यों? दूसरे से इतना भय क्या है? और जिससे हमारा प्रेम है, उससे इतना भय क्या है? भय इस बात का है कि हमारा प्रेम तत्काल आसक्ति बन जाता है; अटैचमेंट बन जाता है। और जैसे ही आसक्ति बनता है, तो दो में से कोई एक मालिक बन जाता है। तो मैं मालिक बना रहूं; दूसरा मालिक न बन जाए। लेकिन दूसरा भी इसी कोशिश में लगा है।
क्या प्रेम आसक्ति से मुक्त हो सकता है?
अगर प्रेम आसक्ति से मुक्त हो सके, तो प्रेम घृणा से भी मुक्त हो जाता है।
महावीर कहते हैं, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं, जो स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता। जिसका स्नेह भरपूर है। जिसके प्रेम में कोई कमी नहीं। लेकिन जो अपने प्रेम के कारण न तो किसी का गुलाम बनता है, और न किसी को गुलाम बनाता है। जिसका प्रेम दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच एक आनंद का संबंध है। जिसका प्रेम दो परतंत्र व्यक्तियों के बीच एक दुख का संबंध नहीं है। हमारा सारा प्रेम दुख का संबंध है। इसलिए जितना दुख हम प्रेम से पाते हैं उतना किसी और चीज से नहीं पाते। मगर मनुष्य के मन की ठीक-ठीक जांच की जाए, तो प्रेम से बड़ी बीमारी खोजनी मुश्किल है। उससे जितना दुख आदमी पाता है; उतना किसी और चीज से नहीं पाता। आपके सभी दुख प्रेम के दुख हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि पश्र्चिम में एक ऐसी घटना विकसित हो रही है रोज पिछले बीस-तीस वर्षों में कि लोग कहते हैं, प्रेम की बात ही मत करो। काम, सेक्स काफी है। क्योंकि सेक्स कम से कम स्वतंत्र तो रखता है; प्रेम तो उपद्रव खड़ा कर देता है।
इसलिए पश्र्चिम में प्रेम डूब रहा है; सिर्फ सेक्स उभर रहा है। दो व्यक्तियों के बीच सिर्फ सेक्स का संबंध काफी है, पश्र्चिम की नई धारणाएं कहती हैं। क्योंकि जैसे ही प्रेम आया कि बुखार आया; कि उपद्रव शुरू हुआ; कि एक ने दूसरे को दबाना शुरू किया, इसलिए सिर्फ सेक्स का संबंध पर्याप्त है। यह बड़ी खतरनाक बात है।
भारत ने भी प्रयोग किया है आसक्ति से मुक्त होने का; पश्र्चिम भी प्रयोग कर रहा है। भारत ने प्रयोग किया है, जो महावीर कह रहे हैं। महावीर कह रहे हैं, प्रेम तो प्रगाढ़ हो जाए, आसक्ति खो जाए। तो जो दुख है प्रेम का वह नष्ट हो जाएगा और प्रेम एक आनंद की वर्षा हो जाएगा।
पश्र्चिम भी यही चाहता है कि जो उपद्रव है आसक्ति का वह मिट जाए। पर वह नीचे गिर कर आसक्ति का उपद्रव मिटा रहा है। वह कह रहा है, दो शरीरों का संबंध काफी है। इससे ज्यादा जिम्मेवारी लेनी ठीक नहीं।
जैसे ही आप किसी के प्रेम में पड़ते हैं, उपद्रव शुरू होता है। इसलिए एक ही व्यक्ति से भी काम के संबंध ज्यादा देर तक बनाना ठीक नहीं है। काम के संबंध भी बदलते रहने चाहिए। आज एक स्त्री, कल दूसरी स्त्री; आज एक पुरुष, परसों दूसरा पुरुष। ये बदलते रहें ताकि कहीं कोई ठहराव न हो जाए और आसक्ति न बन जाए।
दृष्टि तो दोनों ही एक ही कोण पर निर्भर हैं। पूरब ने भी यही अनुभव किया है कि प्रेम दुख देता है। तो दुख से उठने का क्या उपाय है? महावीर कहते हैं, उपाय यह है कि प्रेम तो रह जाए, हृदय तो प्रेमपूर्ण हो लेकिन किसी को गुलाम बनाने की और किसी को मालिक बनाने की वृत्ति का निषेध हो जाए।
पश्र्चिम भी इसी परेशानी में है, लेकिन पश्र्चिम का सुझाव बड़ा अजीब है और बड़ा खतरनाक है। महावीर प्रेम को दिव्य बना देते हैं और पश्र्चिम प्रेम को पाशविक बना देता है।
प्रेम उपद्रव है, यह बात जाहिर है। यह पूरब, पश्र्चिम दोनों के मनीषियों ने अनुभव किया है। जिसको हम प्रेम कहते हैं, वहां झंझट है। तो या तो उससे नीचे उतर आओ और जैसे पशुओं का संबंध है... वहां कोई झंझट नहीं है। न विवाह है, न तलाक है, न कोई कलह है; सिर्फ संबंध शरीर का है। पशु मिलते हैं शरीर से क्षण भर के लिए, अलग हो जाते हैं। उससे कोई मोह निर्मित नहीं करते, कोई आसक्ति नहीं बनाते कि अब यह जो मादा है मेरी पत्नी हो गई; अब कोई दूसरा पुरुष पशु इसकी तरफ आंख उठाएगा तो मैं उपद्रव खड़ा करूंगा या यह जो पुरुष है पशु, मेरा पति हो गया, और अगर इसने अपनी नजर किसी और मादा की तरफ उठाई तो कलह शुरू होगी।
नहीं, पशु सिर्फ शरीर के संबंध से जीते हैं, अलग हो जाते हैं। वहां कोई आसक्ति नहीं है। इसलिए प्रेम की जो पीड़ा हमें है, पशुओं को नहीं है।
पश्र्चिम गिर रहा है प्रेम के उपद्रव से मुक्त होने के लिए। लेकिन गिर कर कुछ भी हल न होगा, क्योंकि कितना ही सेक्स हो जीवन में, अगर प्रेम का फूल न खिले तो प्राण अतृप्त रह जाते हैं, और जीवन की जो चमक है, और जीवन की जो प्रतिभा है, जो आभा है, वह प्रकट नहीं हो पाती। मनुष्य पशु होकर तृप्त नहीं हो सकता। मनुष्य केवल दिव्य होकर ही तृप्त हो सकता है। नीचे गिर कर कोई कभी तृप्त नहीं होता; जिम्मेवारी से मुक्त हो सकता है, लेकिन तृप्ति को उपलब्ध नहीं हो सकता। इसलिए पूरे पश्र्चिम में अनुभव किया जा रहा है कि एक मीनिंगलेसनेस, एक अर्थहीनता छा गई है। क्योंकि प्रेम है अर्थ जीवन का।
महावीर कहते हैं, मैं उसे ब्राह्मण कहता हूं, जो प्रेम कर सकता है और आसक्ति में नहीं बंधता। यह हो सकता है। यह तब हो सकता है जब हमारा प्रेम दूसरे व्यक्ति पर निर्भर न हो, बल्कि हमारी क्षमता हो।
इस फर्क को ठीक से समझ लें।
आप इसलिए प्रेम करते हैं कि दूसरा व्यक्ति प्यारा है, तो दूसरे पर निर्भर हैं। महावीर कहते हैं, इसलिए प्रेम कि आप प्रेमपूर्ण हैं। जोर इस बात पर है कि आपका हृदय प्रेमपूर्ण हो। जैसे दीया जल रहा है तो दीये की रोशनी पड़ रही है; फिर कोई भी पास से निकले दीये के तो उस पर रोशनी पड़ेगी। दीया यह नहीं कहेगा कि तुम सुंदर हो, इसलिए तुम पर रोशनी डाल रहा हूं; कि तुम कुरूप हो इसलिए अपने को बुझा लेता हूं और अंधकार कर देता हूं। दीये की रोशनी बहती रहेगी; कोई न भी निकले तो शून्य में दीये की रोशनी बहती रहेगी।
महावीर उसे ब्राह्मण कहते हैं, जिसका प्रेम उसकी हार्दिक ज्योति बन गया। जो इसलिए प्रेम नहीं करता कि आप प्यारे हैं; कि आप सुंदर हैं; कि भले हैं; कि मुझे अच्छे लगते हैं, कि मुझे पसंद हैं। नहीं, जो सिर्फ इसलिए प्रेम करता है कि प्रेमपूर्ण है; कुछ और करने का उपाय नहीं। आप उसके पास होंगे तो उसके प्रेम की किरणें आप पर पड़ती रहेंगी।
प्रेम संबंध नहीं, स्थिति है। और जब ऐसे प्रेम का जन्म हो जाता है--यह तभी होगा जब व्यक्ति दूसरों से अपने को हटाए, अपनी दृष्टि को ‘पर’ से हटाए और ‘स्वयं’ में गड़ाए, जिसे हम ध्यान कहते हैं। जैसे-जैसे ध्यान बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रेम संबंध से हट कर स्थिति बनने लगता है। वह मनुष्य का स्वभाव हो जाता है।
महावीर भी प्रेम देते हैं, करते नहीं। करने में तो कृत्य है। महावीर प्रेम देते हैं। उनके होने का ढंग प्रेमपूर्ण है। आप उनके पास जाएं तो प्रेम मिलेगा। और आपको ऐसा भी वहम हो सकता है कि उन्होंने आपको प्रेम किया; क्योंकि आप करने की भाषा समझते हैं, होने की भाषा नहीं समझते। महावीर प्रेमपूर्ण हैं। जैसे फूल में गंध है, ऐसे उनमें प्रेम है।
‘जो आने वाले स्नेहीजनों में आसक्ति नहीं रखता, जो उनसे दूर जाता हुआ शोक नहीं करता।’
और ध्यान रखें, शोक तभी होगा जब आसक्ति होगी। जिससे हम बंधे हैं, जिसके बिना हमें होने में अड़चन है, अगर वह न हो तो हमें बहुत कठिनाई हो जाएगी।
जब कोई मरता है तो आप इसलिए नहीं रोते कि कोई मर गया। आप इसलिए रोते हैं कि आपके भीतर जो निर्भरता थी, वह टूट गई। जब कोई मरता है तो आप अपने लिए रोते हैं। कुछ खंड आपका टूट गया जो उस आदमी से भरा था। कुछ हृदय का कोना उसने भरा था, रोशन कर रखा था, वह दीया बुझ गया। आपके भीतर अंधेरा हो गया।
कोई किसी के मरने पर इसलिए नहीं रोता कि कोई मर गया। मृत्यु पर हम इसलिए रोते हैं कि हमारे भीतर कुछ मर गया। और तभी तक रोएंगे आप, जब तक वह कोना फिर से न भर जाए; जिस दिन वह कोना फिर से भर जाएगा, रोना बंद हो जाएगा।
आदमी अपने लिए ही रोता है। तो जब आप शोक करते हैं किसी से दूर हटने या किसी के दूर जाने पर, वह खबर देता है कि उसके पास रहने पर आसक्ति पैदा हो गई थी।
महावीर गुजरते हैं एक गांव से; प्रेमपूर्ण हैं, कुछ और होने का उपाय भी नहीं है। गांव पीछे छूट जाता है, तो महावीर की स्मृति अगर उस गांव से अटकी रहे तो महावीर ब्राह्मण नहीं हैं। गांव छूट गया, स्मृति भी छूट गई। जहां महावीर होंगे, वहीं उनका बोध होगा, वहीं उनका प्रकाश होगा। वे लौट-लौट कर पीछे के गांव के संबंध में नहीं सोचेंगे--कि जिस आदमी ने भोजन दिया था; कि जिस आदमी ने आश्रय दिया था; कि जिसने पैर दबा दिए थे; कि जिसने इतना प्रेम दिया था...।
अगर यह मन पीछे लौट रहा है... पीछे लौटता मन ब्राह्मण नहीं है। अगर यह मन आगे दौड़ रहा है कि आने वाले गांव में कोई प्रियजन मिलने वाला है और पैरों में गति आ गई, तो यह मन ब्राह्मण नहीं है। ब्राह्मण का मन वहीं होता है, जहां ब्राह्मण होता है। जहां होते हैं हम वहीं होना काफी है; न पीछे लौटते हैं किसी आसक्ति के कारण, न किसी शोक के कारण; न आगे जाते हैं किसी आसक्ति के कारण, न किसी सुख के कारण। वर्तमान में होना ब्राह्मण है।
महावीर कहते हैं कि जो न आसक्ति करता है और जो न उनसे दूर जाता हुआ शोक करता है। जो आर्य-वचनों में सदा आनंद पाता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
आर्य-वचन को समझ लेना चाहिए। महावीर के लिए कोई जाति अर्थ नहीं रखती। महावीर ‘आर्य’ किसी जातिगत अर्थों में नहीं कह रहे हैं। जैसी हिंदुओं की धारणा है कि हिंदुओं का पुराना नाम ‘आर्य’ है। महावीर और बुद्ध, दोनों ही ‘आर्य’ का बड़ा अनूठा अर्थ करते हैं। वे कहते हैं, ‘आर्य’--उसको जो अंतिम श्रेष्ठता को उपलब्ध हो गया। वह कोई जातिगत धारणा नहीं है।
कोई जाति आर्य नहीं है। इससे बड़े खतरे हुए हैं। हिंदू हजारों साल तक मानते रहे कि वे ‘आर्य’ हैं, उन्हीं के पास शुद्ध रक्त है, बाकी सब अशुद्ध हैं। ब्राह्मण श्रेष्ठता से दूसरों को हीन बनाता रहा। इसके उपद्रव कई बार हुए हैं। ‘आर्य’ शब्द कई दफे खतरनाक बन गया। अभी जो पिछला युद्ध हुआ, दूसरा महायुद्ध, वह इस ‘आर्य’ शब्द के आस-पास हुआ। हिटलर को फिर यह वहम पैदा हो गया कि वह ‘आर्य’ है और नारडिक जाति ‘आर्य’ है, शुद्ध ‘आर्य’, तो सारी दुनिया पर नारडिक जाति को, जर्मन्स को अधिकार करना चाहिए, क्योंकि बाकी सब शूद्र हैं।
हिटलर को प्रभावित करने वाले लोगों में नीत्शे था, और नीत्शे को प्रभावित करने वालों में मनु; तो हिटलर सीधा मनु से जुड़ा है। और मनु से ज्यादा जातिवादी व्यक्ति नहीं हुआ। महावीर का सारा विरोध मनु से है।
कोई जाति श्रेष्ठ नहीं है, हो नहीं सकती। खून में कोई श्रेष्ठता नहीं है। खून में क्या श्रेष्ठता हो सकती है? ब्राह्मण का खून निकालें और शूद्र का, कोई भी दुनिया का बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी दोनों की जांच करके नहीं कह सकता कि कौन सा खून शूद्र का है और कौन सा ब्राह्मण का।
हड्डियों में कुछ जाति नहीं होती। मांस-मज्जा में कोई जाति नहीं होती। महावीर कहते हैं: जाति होती है चेतना की श्रेष्ठता में। आर्य कहते हैं महावीर उसको, जो परम श्रेष्ठता को उपलब्ध हो गया। इस परम श्रेष्ठता को उपलब्ध व्यक्ति के विचारों में, शब्दों में जिसको भरोसा है, ट्रस्ट है, उसे महावीर ब्राह्मण कहते हैं।
यह थोड़ा समझने जैसा है, ‘आर्य-वचनों में जो सदा आनंद पाता है।’
आप हैरान होंगे जान कर कि आपको हमेशा अनार्य-वचनों में आनंद मिलता है--क्यों? क्योंकि जब भी कोई अनार्य-वचन आप सुनते हैं, क्षुद्र, तो पहली तो बात, आप उसे एकदम समझ पाते हैं, क्योंकि वह आपकी ही भाषा है। दूसरी बात, उसे सुन कर आप आश्र्वस्त होते हैं कि मैं ही बुरा नहीं हूं, सारा जगत ऐसा ही है। तीसरा, उसे सुनते ही आपको जो श्रेष्ठता का चुनाव है, वह जो चुनौती है आर्यत्व की, उसकी पीड़ा मिट जाती है, सब उत्तरदायित्व गिर जाता है।
ऐसा समझें, फ्रायड ने कहा कि मनुष्य एक कामुक प्राणी है। यह अनार्य-वचन है; असत्य नहीं है, सत्य है, लेकिन शूद्र सत्य है, निकृष्टतम सत्य है। आदमी की कीचड़ के बाबत सत्य है; आदमी के कमल के बाबत सत्य नहीं है कि आदमी सेक्सुअल है; कि आदमी के सारे कृत्य कामवासना से बंधे हैं, वह जो भी कर रहा है वह कामवासना ही है।
छोटे से बच्चे से लेकर बूढ़े आदमी तक सारी चेष्टा कामवासना की चेष्टा है; यह सत्य है, लेकिन शूद्र सत्य है। यह निम्नतम सत्य है--कीचड़ का। लेकिन सारी दुनिया में इस कीचड़ के सत्य ने लोगों को बड़ा आश्र्वासन दिया। लोगों ने कहा, तब ठीक है, तब हम ठीक हैं, जैसे हैं फिर कुछ बुराई नहीं है। फिर अगर मैं चौबीस घंटे कामवासना के संबंध में ही सोचता हूं, और नग्न स्त्रियां मेरे सपनों में तैरती हैं, तो जो कर रहा हूं वह नैसर्गिक है। अगर मैं शरीर में ही जीता हूं तो यह जीना ही तो वास्तविक है, फ्रायड कह रहा है।
फ्रायड ने हमारे निम्नतम को परिपुष्ट किया, इसलिए फ्रायड के वचन थोड़े ही दिनों में सारे जगत में फैल गए। जितनी तीव्रता से साइको एनालिसिस का, फ्रायड का आंदोलन फैला, दुनिया में कोई आंदोलन नहीं फैला। महावीर को पच्चीस सौ साल हो गए। उपनिषदों को लिखे और पुराना समय हुआ। गीता कहे और भी समय व्यतीत हो गया, पांच हजार साल हो गए। पांच हजार सालों में भी उन्होंने जो कहा है, वह इतनी आग की तरह नहीं फैला, जो फ्रायड ने पिछले पचास सालों में सारी दुनिया को पकड़ लिया--साहित्य, फिल्म, गीत, चित्र सब फ्रायडियन हो गए हैं। हर चीज फ्रायड की तरफ से सोची और समझी जाने लगी। क्या कारण होगा?
अनार्य-वचन हमारे निम्नतम को पुष्ट करते हैं। जब भी कोई हमारे निम्नतम को पुष्ट करता है, तो हमें राहत मिलती है। हमें लगता है कि ठीक है, हममें कोई गड़बड़ नहीं है। अपराध का भाव छूट जाता है। बेचैनी छूट जाती है कि कुछ होना है, कि कहीं जाना है, कि कोई शिखर छूना है। सीधी जमीन पर चलने में स्वीकृति आ जाती है कि ठीक है, आदमी सभी ऐसे हैं।
इसलिए हम सब दूसरों के संबंध में बुराई सुन कर प्रसन्न होते हैं। कोई निंदा करता है किसी की, हम प्रसन्न होते हैं; क्योंकि उस निंदा से हमारे भीतर एक राहत मिलती है कि ठीक है। अगर कोई किसी महात्मा की निंदा करे तो हमें प्रसन्नता और भी ज्यादा होती है; क्योंकि हमें पक्का हो जाता है कि महात्मा-वहात्मा कोई हो नहीं सकता, सब ऊपरी बातचीत है। हैं तो सब मेरे ही जैसे; किसी का पता चल गया है और किसी का पता नहीं चला है।
तो जब भी आपको किसी की निंदा में रस आता है, तब आप समझना कि आप क्या कर रहे हैं। आप अपने निम्नतम को पुष्ट कर रहे हैं। आप यह कह रहे हैं कि अब कोई चुनौती नहीं, कोई चैलेंज नहीं; कहीं जाना नहीं, कुछ होना नहीं। जो मैं हूं--इसी कीचड़ में मुझे जीना है और मर जाना है। यही कीचड़ जीवन है।
अनार्य-वचन बड़ा सुख देते हैं। बहुत अनार्य-वचन प्रचलित हैं। हम सबको पता है कि अनार्य-वचन तीव्रता से फैलते जा रहे हैं; और धीरे-धीरे हम यह भी भूल गए हैं कि वे अनार्य हैं। सब चीजों को जो लोएस्ट डिनामिनेटर है, जो निम्नतम तत्व है, उससे समझाने की कोशिश चल रही है। आदमी को रिड्यूज करके आखिरी चीज पर खड़ा कर देना है। जैसे हम आदमी को काटें-पीटें तो क्या पाएंगे वहां? हड्डी-मांस-मज्जा--तो हम कहेंगे कि हड्डी-मांस-मज्जा का एक जोड़ है। बात खत्म हो गई, चेतना वहां नहीं मिलेगी।
जो श्रेष्ठतम है, वह हमारे उपकरणों से छूट जाता है। अगर आदमी के व्यवहार की हम जांच-पड़ताल करें, तो क्या मिलेगा? कामवासना मिलेगी, वासना मिलेगी, दौड़ मिलेगी महत्वाकांक्षा की। फिर हर श्रेष्ठ चीज को हम निकृष्ट से समझा लेंगे, ऐसे ही जैसे हम कहेंगे, कमल में क्या रखा है, कीचड़ ही तो है।
यह एक ढंग हुआ। इससे हम कीचड़ को राजी कर लेंगे कि कमल होने की मेहनत में मत लग। कमल में भी क्या रखा है, बस कीचड़ ही है। तो कीचड़ की कमल होने की जो आकांक्षा पैदा हो सकती थी, वह कुंद हो जाएगी। कीचड़ शिथिल होकर बैठ जाएगी अपनी जगह; क्यों व्यर्थ दौड़-धूप करना, क्यों परेशान होना।
अनार्य-वचन सुख देते हैं। आर्य-वचन दुख देते हैं। महावीर कहते हैं, जो आर्य-वचनों में आनंद ले सके, वह ब्राह्मण है। भला वह अभी आर्य न हो गया हो, लेकिन आर्य-वचनों में आनंद लेने का अर्थ यह है कि चुनौती स्वीकार कर रहा है। जीवन के शिखर तक पहुंचने की आकांक्षा को जगने दे रहा है। जो है क्षुद्र उससे राजी नहीं है, जब तक विराट न हो जाए।
आर्य-वचन में आनंद लेने का अर्थ है कि मैं--आर्य-वचन जो कह रहे हैं, वहां तक पहुंचना चाहता हूं। दूर है मंजिल, लेकिन आंखें मेरी उसी तरफ लगी हैं। पैर मेरे कमजोर हों, लेकिन चलने की मेरी चेष्टा है। गिरूं, न पहुंच पाऊं, यह भी हो सकता है, लेकिन पहुंचने की चेष्टा मैं जारी रखूंगा।
आर्य-वचन में आनंद लेने का अर्थ है कि हम संभावना का द्वार खोल रहे हैं।
लोग हैं, जिन्हें यह सुन कर प्रसन्नता होती है कि ईश्र्वर नहीं है। लोग हैं जिन्हें सुन कर प्रसन्नता होती है कि आत्मा नहीं है। लोग हैं जिन्हें सुन कर सुख होता है कि मोक्ष नहीं है। बस, यही जीवन सब-कुछ है; खाओ, पीओ और मौज करो। अगर उनको खयाल आ जाए कि परमात्मा है, तो उनके सुख में एक कंकड़ पड़ गया। उन्हें खयाल आ जाए कि इस जीवन के समाप्त होने पर और जीवन है, तो सिर्फ खाओ, पीओ और मौज करो काफी नहीं मालूम होगा। फिर कुछ और भी करो। फिर जीवन अपने में लक्ष्य नहीं रह जाता, साधन हो जाता है, किसी और परम जीवन को पाने के लिए।
हम जो इनकार करते हैं कि ईश्र्वर नहीं है, आत्मा नहीं है, मोक्ष नहीं है, वह इनकार हम अपने को बचाने के लिए करते हैं। क्योंकि अगर ये तत्व हैं, तो फिर हम क्या कर रहे हैं। फिर समय नहीं है। फिर जीवन बहुत छोटा है और शक्ति को व्यर्थ खोना उचित नहीं है।
अगर पश्र्चिम में इतना भौतिकवाद फैला, तो उसके फैलने का एक कारण तो यह था कि ईसाइयत ने कहा कि कोई पुनर्जन्म नहीं है। पश्र्चिम में भौतिकता के इतनी तीव्रता से फैल जाने का एक कारण बना ईसाइयत की यह धारणा कि कोई पुनर्जन्म नहीं है, एक ही जीवन है। अगर एक ही जीवन है, तो लोगों को लगा कि फिर इसी जीवन को लक्ष्य बना कर जी लेना उचित है। कोई और जीवन नहीं है जिसके लिए इस जीवन को समर्पित किया जाए, त्यागा जाए, साधना में लगाया जाए। समय हाथ से छूटा जा रहा है, इसे भोग लो।
पश्र्चिम में भोगवाद एक जीवन की धारणा से बड़ी आसानी से फैल सका। जीसस के प्रयोजन दूसरे थे। मगर जीसस, महावीर या बुद्ध के प्रयोजनों से हमें कुछ लेना-देना नहीं। हम उनके प्रयोजन से भी अपना स्वार्थ निकाल लेते हैं।
जीसस का प्रयोजन था इस बात पर जोर देने के लिए कि एक ही जन्म है, ऐसा नहीं कि जीसस को पता नहीं था। जीसस ने ऐसी बहुत सी बातों के उल्लेख किए हैं जिनसे साबित होता है कि उन्हें पता है कि पुनर्जन्म है। क्योंकि जीसस से किसी ने पूछा कि तुम्हारी उम्र क्या है, तो जीसस ने कहा कि अब्राहम के पहले भी मैं था। अब्राहम को हुए तब दो हजार साल हो चुके थे।
तो जीसस को पूरा पता है; होगा ही। इतने ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति को अगर इतना भी पता न हो कि जीवन एक अनंत धारणा है, एक अनंत फैलाव है... लेकिन फिर भी जीसस ने लोगों से कहा कि एक ही जीवन है। और प्रयोजन यह था कि ताकि लोग तीव्रता से मोक्ष को पाने की चेष्टा में लग जाएं। क्योंकि ज्यादा समय नहीं है खोने को, समय कम है, लेकिन लोग बड़े होशियार हैं। उन्होंने देखा कि समय इतना कम है, कहां का मोक्ष, कहां का परमात्मा! पहले इसे तो भोग लो! हाथ की आधी रोटी, दूर सपनों की पूरी रोटी से बेहतर है। लोग अपने मतलब से लेते हैं।
मैंने सुना है, बाजार से एक संभ्रांत आदमी गुजर रहा था। अपने व्यवसाय की वेशभूषा में सजा-धजा। और एक छोटे से गरीब लड़के ने आकर कहा: महानुभाव, क्या आप बता सकेंगे कि कितना समय है?
उसने इतने आदर से पूछा कि व्यापारी रुक गया। खीसे से शान से उसने अपनी सोने की घड़ी निकाली, देखा, घड़ी वापस रखी और कहा कि अभी तीन बजने में पंद्रह मिनट कम हैं।
उस लड़के ने कहा: धन्यवाद! ठीक तीन बजे तुम मेरा पैर चूमोगे। और भाग खड़ा हुआ।
स्वभावतः व्यवसायी क्रोध से भर गया। भागा आगबबूला होकर उसके पीछे। कोई दो ही मिनट भाग पाया होगा, हांफ रहा है, उम्र ज्यादा है, कि नसरुद्दीन मिल गया, पुराना परिचित। उसने व्यापारी को रोका और कहा कि कहां भागे जा रहे हैं? क्या हो गया है, इस उम्र में हांफ रहे हैं, पसीना-पसीना हो रहे हैं!
उस व्यापारी ने कहा कि वह देखते हैं, नालायक, वह लड़का! उसने मुझसे पूछा कि कितना समय है? तो मैंने घड़ी निकाली, उसके लिए रुका और मैंने कहा कि अभी पौने तीन बजे हैं। तो उसने कहा कि ठीक तीन बजे तुम मेरा पैर चूमोगे।
तो नसरुद्दीन ने कहा: देन वॉट इ़ज दि हरी, यू हैव इनफ टाइम येट, टेन मिनट्स लेफ्ट। इतनी तेजी से क्यों दौड़ रहे हो? अरे, पैर ही चूमना है न तीन बजे! इतनी जल्दी क्या है?
क्या आदमी अर्थ लेगा, आदमी पर निर्भर है। जीसस ने कहा कि एक ही जन्म है, तेजी से लगो, समय ज्यादा नहीं, ताकि परमात्मा खो न जाए; क्योंकि दूसरा अवसर नहीं है। लोगों ने कहा, इतना ही जीवन है, दूसरे का हमें कुछ पता नहीं; ठीक से इसे भोग लें।
महावीर, बुद्ध और कृष्ण ने कहा कि अनंत जीवन हैं। उन्होंने भी किसी प्रयोजन से ऐसा कहा। उन्होंने कहा कि अनंत जीवन हैं। बड़ा लंबा संघर्ष है; एक ही जीवन में पूरा न हो पाएगा। लेकिन चेष्टा करोगे तो अनंत जीवन में सत्य के निकट पहुंच जाओगे।
अनंत जीवन का खयाल इसलिए दिया ताकि तुम चेष्टा कर सको। अनंत जीवन का इसलिए खयाल दिया ताकि तुम इस जीवन को सब-कुछ न समझ लो। इसे तुम उपकरण बनाओ, साधन बनाओ, अगले जीवन में और श्रेष्ठतर स्थिति पाने के लिए। यह जीवन सब-कुछ न हो जाए, अनंत जीवन की धारणा दी। हमने क्या मतलब निकाला! हमने कहा, अनंत पड़े हैं जीवन; पहले इसे तो भोग लें। जल्दी क्या है? वॉट इ़ज दि हरी? जल्दी क्या है, इस जन्म में नहीं हुआ, अगले जन्म में कर लेंगे। अगले जन्म में नहीं हुआ तो और अगले जन्म में करेंगे। अनंत अवसर हैं; जल्दी कुछ भी नहीं है, पहले इसे तो भोग लें जो हाथ में है।
आदमी बहुत बेईमान है। सभी सिद्धांतों से वह अपना मतलब और स्वार्थ खींच लेता है।
महावीर कहते हैं कि आर्य-वचनों में जो आनंद पाता है, जो अपना स्वार्थ नहीं खोजता और आर्य-वचनों को अपने तल पर नहीं खींच लेता, बल्कि स्वयं को आर्य-वचनों के तल पर खींचने की कोशिश करता है, वह व्यक्ति ब्राह्मण है।
उसे हम ब्राह्मण कहते हैं, ‘जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किए हुए और कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है, जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
‘...अग्नि में डाल कर शुद्ध किए, कसौटी पर कसे हुए सोने के समान निर्मल है।’
जिस अग्नि को आप जानते हैं वही अग्नि नहीं है, और भी अग्नियां हैं। जो बाहर दिखाई पड़ती है वही अग्नि नहीं है, भीतर भी अग्नि है। सारा जीवन अग्नि का ही फैलाव है। और जिस सोने को आप बाहर देखते हैं, वही सोना नहीं है, भीतर भी सोने की संभावना है। लेकिन वहां सब मिट्टी मिला हुआ है, कचरा मिला हुआ है। हमने कभी उसे शुद्ध नहीं किया। असल में हम बाहर के सोने की चिंता में इतने पड़े रहते हैं कि भीतर के सोने की फिकर कौन करे। और बाहर के सोने को ही खोजने में जीवन समाप्त हो जाता है; भीतर के सोने को खोजने का मौका ही नहीं आता। कभी दुख, पीड़ा में, परेशानी में हम भीतर का खयाल भी करते हैं, तो सुख में भूल जाते हैं। सुख बहिर्गामी है। दुख में थोड़े से भीतर भी जाते हैं, तो सुख के आते ही...!
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत बीमार था, बहुत दुखी था। एक दिन बीमारी, पीड़ा की चिंता में मस्जिद चला गया; वैसे जाता नहीं था। मौलवी से जाकर कहा: मेरे लिए प्रार्थना करो। मैं तो पापी हूं, तुम तो पुण्यात्मा हो। तुम्हारी प्रार्थना जरूर स्वीकार होगी। मैं तो किस मुंह से प्रार्थना करूं, मेरे लिए प्रार्थना करो। अगर मैं बच गया इस बीमारी से, चिकित्सक कहते हैं कि बच न सकूंगा, बीमारी घातक है, अगर बच गया इस बीमारी से तो पांच रुपये--पांच रुपये काफी थे--पांच रुपया मस्जिद को दान करूंगा!
मुल्ला के ये वचन सुन कर मौलवी को भरोसा तो न आया कि वह पांच रुपये दान करेगा, लेकिन दुख में आदमी कभी-कभी कर भी देता है। दुख में कभी-कभी धर्म और परमात्मा स्मरण भी आ जाता है। और फिर कौन जाने दुख में कभी आदमी बदल भी जाता है।
मौलवी ने प्रार्थना की। संयोग की बात, मुल्ला बच भी गया। बच जाने के बाद, स्वस्थ हो जाने के बाद, मौलवी ने कई दफा कोशिश की और उसके घर का दरवाजा खटखटाया। लेकिन उसने खबर दे रखी थी अपने लड़कों को, पत्नी को, सबको कि जब भी मौलवी दिखे तो उसे फौरन कह देना कि मुल्ला घर में नहीं है।
दो महीने मौलवी चक्कर काटता रहा मस्जिद के उन पांच रुपयों के लिए। आखिर एक दिन उसने बाजार में पकड़ ही लिया कि नसरुद्दीन, रुको! हद कर दी! बीमारी से बच भी गए, प्रार्थना स्वीकृत भी हो गई, पांच रुपयों का क्या हुआ?
नसरुद्दीन ने कहा: कैसा पांच रुपया? क्या मैं इतना ज्यादा बीमार था कि पांच रुपया बोल गया दान? मैं होश में न रहा होऊंगा। इससे तुम समझ सकते हो! नसरुद्दीन ने कहा कि मैं कितना बीमार था!
आदमी दुख के क्षण में कभी घबड़ा जाता है, तो भीतर की सोचता भी है। लेकिन उसका सोचना क्षण भर का होता है; सुख का क्षण आया कि फिर बाहर बहने लगता है।
भीतर भी कुछ है, इसका हमें पता ही नहीं चल पाता। और भीतर ही सब-कुछ है। सोना भीतर है, खजाना भीतर है, और हम भिक्षापात्र लिए बाहर मांगते रहते हैं। मरते वक्त भिक्षापात्र ही हाथ में होता है, खाली। होगा ही, क्योंकि सोना बाहर नहीं है। बाहर का सोना जुटाने में जो लगे हैं, उनसे ज्यादा नासमझ कोई दूसरा नहीं हो सकता, क्योंकि इसी समय का उपयोग भीतर के सोने को खोदने में हो सकता था। वहां अनंत खान है। जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह भीतरी सोने की खदान है। लेकिन उस तरफ हमारे हाथ नहीं पहुंच पाते।
महावीर कहते हैं कि जो भीतर के सोने की खोज में लग जाए, वह ब्राह्मण है। न केवल खोज में लगे, बल्कि भीतर के सोने को खोज कर अग्नि में शुद्ध करे। अग्नि यानी तप, अग्नि यानी साधना, तपश्र्चर्या, योग, तंत्र--जो भी हम नाम देना चाहें।
अग्नि का अर्थ है कि भीतर अपने को तपाए। आप अपने को कभी तपाते हैं किसी भी क्षण में? कभी भीतर अपने को तपाते हैं किसी क्षण में? आप हमेशा कमजोरी की तरफ झुक जाते हैं। आप कभी सबल होने की तरफ नहीं झुकते। क्रोध उठा--यह बिलकुल स्वाभाविक, सहज है कि आप क्रोध प्रकट करते हैं, पशु भी कर रहे हैं। कुछ खास नहीं है। कुछ क्रोध करके आप खास हो नहीं जाएंगे, पाशविक वृत्ति है, लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि यह जो निर्बल धारा है कि क्रोध उठा, बाहर शरीर से ऊर्जा जा रही है, रुक जाऊं, क्रोध को बैठ जाने दूं भीतर। दबाऊं भी नहीं, क्योंकि दबाने से जहर बन जाएगा। निकालूं भी नहीं, क्योंकि निकालने से दूसरे पर जहर चला जाएगा। सिर्फ साक्षीभाव से देखता रहूं कि क्रोध उठा है, और कोई प्रतिक्रिया न करूं।
आप अग्नि से गुजर रहे हैं। क्रोध अग्नि बन जाएगी, लपट बन जाएगी। और अगर आप बिना कुछ किए इस लपट को देखते रहे, बिना कुछ किए... कोई निर्णय नहीं लेना। न तो यह कहना कि यह बुरा है, क्योंकि बुरा कहा कि दबाना शुरू हो गया, तो खुद के शरीर में जहर फैल जाएगा। अगर कहा कि बिलकुल ठीक है, स्वाभाविक है; दुनिया में सभी क्रोध करते हैं, मैं क्यों न करूं, और किया, तो दूसरे के शरीर पर जहर पहुंच गया। और क्रोध अगर किया तो और क्रोध को करने का द्वार खुल गया। आदत निर्मित हुई। कल और जल्दी क्रोध आ जाएगा। परसों और जल्दी क्रोध आ जाएगा। धीरे-धीरे क्रोध जीवन हो जाएगा।
लेकिन अगर न क्रोध को दबाया और न क्रोध को प्रकट किया, बल्कि चेतना को सम्हाला और क्रोध को देखा, कोई निर्णय न लिया कि अच्छा या बुरा, करूं या न करूं, सिर्फ देखा कि क्या है क्रोध, तो आप एक अग्नि से गुजर रहे हैं। जो आग दूसरे को जलाती, जो आग अगर दबा दी जाती तो आपके स्नायुओं को नष्ट करती और आपके शरीर को विषाक्त करती, अगर उस आग का कोई भी उपयोग न किया जाए, वह तप हो जाती है। उस आग को अगर सिर्फ देखा जाए, तो वह आग आपके सोने को निखारने लगती है।
और अगर आप एक क्रोध को सिर्फ देखने में समर्थ हो जाएं तो आप इतने आनंदित होंगे इसके बाद कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते। इतना बल मालूम होगा। आप अपने मालिक हुए। अब कोई दूसरा आदमी आपको क्रोधित नहीं करवा सकता। इसका मतलब हुआ कि अब दूसरे लोग आपके ऊपर हावी नहीं हो सकते। अब दुनिया की कोई ताकत आपको परेशान नहीं कर सकती। आप, चाहे सारी दुनिया आपको परेशान कर रही हो, तो भी निश्चिंत रह सकते हैं।
इसका नाम जिनत्व है, ऐसी निश्चिंतता जो दूसरे से मुक्त होकर उपलब्ध होती है। जब आप क्रोध करते हैं, तब आप दूसरे के गुलाम हैं। यह सुन कर हैरानी होगी, क्योंकि क्रोध करने वाला समझता है, मैं दूसरे को ठीक कर रहा हूं। क्रोध करने वाला समझता है अगर मैंने क्रोध न किया तो दूसरा मेरा मालिक हुआ जा रहा है।
आपको पता नहीं है कि जीवन बड़ी जटिल बात है। जब आप क्रोध करते हैं, तो आपने दूसरे को मालिक स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसने आपको क्रोधित करवा दिया। वही चाबी उसी के हाथ में है। किसी ने आपको गाली दी, उसने चाबी घुमा दी, आपका ताला खुल गया। उसकी चाबी घूमती रहे और ताला नहीं खुले, तो चाबी बेकार हो गई। वह चाबी फेंकने जैसी हो गई।
अगर दुनिया में अधिक लोग अपने क्रोध को, अपने सोने को निखारने का उपाय बना लें, तो दूसरे लोगों को भी अपनी चाबियां फेंकने का मौका मिले; क्योंकि उनका कोई अर्थ न रह जाएगा। जो चाबी लगती ही नहीं उसका क्या करोगे? अगर कोई गाली देता हो और उसकी गाली की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो दुनिया से गालियां गिर जाएं।
गालियों में वजन है, क्योंकि गालियों से लोग प्रभावित होते हैं। सच तो यह है कि आप चाहे किसी और चीज से प्रभावित न हों, गाली से जरूर प्रभावित होते हैं। कोई जरा गाली दे दे, आप एकदम आंदोलित हो जाते हैं, जैसे तैयार ही बैठे थे। बारूद तैयार थी, किसी की चिनगारी की जरूरत थी। जरा सी चिनगारी और भभक उठ आएगी।
कामवासना उठती है; अग्नि है, वस्तुतः अग्नि है। रोआं-रोआं आग से भर जाता है, खून गरम हो जाता है, स्नायु तन जाते हैं। इस आग को आप किसी पर उड़ेल दे सकते हैं। यह कामवासना किसी पर उ़ंडेली जा सकती है और यह कामवासना खुद में भी दबाई जा सकती है। दोनों ही गलत हैं। क्योंकि खुद में दबाने पर हर चीज रोग बन जाती है; दूसरे पर उ़ंडेलने पर रोग और फैलता है। और रोग की आदत निर्मित होती है।
कामवासना जगी है और आप चुपचाप साक्षीभाव से देख रहे हैं। भीतर खड़े हो गए हैं, भीतर के मंदिर में, आंख बंद कर ली है और देख रहे हैं कि शरीर में कैसी कामवासना फैल रही है, कैसा रोआं-रोआं उससे कंपित और आंदोलित हो रहा है। उसे देखते रहें। यह आग आपकी चेतना को निखार जाएगी। इस आग की चमक में आप जग जाएंगे। इस आग की तप्तता में आपके भीतर का कचरा जल जाएगा।
जीवन की समस्त वासनाएं अग्नियां बन सकती हैं। उनके तीन उपयोग हैं: या तो दूसरे को नुकसान पहुंचाएं, या अपने को नुकसान पहुंचाएं, और या फिर अपनी आत्मा को उस अग्नि से निखारें।
इस निखार के लिए महावीर कह रहे हैं कि ‘जो अग्नि में डाल कर शुद्ध किए हुए, कसौटी पर कसे हुए सोने के समान हैं...!’
कसौटी पर भी कसा जाना जरूरी है। क्योंकि पता नहीं अग्नि सोने को निखार पाई या नहीं निखार पाई। इसकी कसौटी कहां होगी? अग्नि में सोना डाल देना काफी नहीं है। हो सकता है अग्नि कमजोर रही हो, सोने का कचरा मजबूत रहा हो, पर्तें गहरी रही हों, सोना न शुद्ध हो पाया हो--कसेंगे कहां?
इस संबंध में एक बात समझ लेनी बहुत आवश्यक है। महावीर, बुद्ध, मोहम्मद या क्राइस्ट या कोई भी कुछ समय के लिए समाज से हट जाते हैं। वह समाज से हटने का समय आग को जलाने का समय है। लेकिन फिर समाज में लौट आते हैं। वह लौटना कसौटी का समय है। कसौटी कहां है?
मैं एकांत में जाकर बैठ जाऊं और मुझे क्रोध न उठे, क्योंकि वहां कोई गाली देने वाला नहीं है। वर्षों बैठा रहूं, क्रोध न उठे, तो मुझे वहम भी पैदा हो सकता है कि अब मैं क्रोध का विजेता हो गया। कसौटी कहां है? मुझे लौट कर आना पड़ेगा। मुझे भीड़ में खड़ा होना पड़ेगा। मुझे लोगों से संबंधित होना पड़ेगा। कोई मुझे गाली दे, कोई मुझे नुकसान पहुंचाए, और तब मेरे भीतर क्रोध की झलक भी न आए, तब अग्नि की एक लपट भी न उठे, मेरे भीतर कुछ भी जले नहीं, तो कसौटी होगी।
समाज कसौटी है। उचित है, जरूरी है कि साधक कुछ समय के लिए समाज से हट जाए। लेकिन सदा एकांत में रहना खतरनाक है। आग से तो आप गुजरे, लेकिन कसौटी कहां है? इसलिए जो साधक वन में ही रह जाते हैं सदा के लिए, अधूरे रह जाते हैं। जंगल की तरफ जाना जरूरी है। आग से पक जाने और गुजर जाने के बाद वापस लौट आना भी उतना ही जरूरी है, क्योंकि यहीं कसौटियां हैं। यहां चारों तरफ कसौटियां घूम रही हैं, वे आपको ठीक से कसौटी करवा देंगीं--कि यहां धन है, यहां वासना है, यहां काम के सब उपकरण हैं, यहां आपको पता चलेगा।
अभी एक कैंप था माउंट आबू में। एक जैन मुनि बड़ी हिम्मत करके--बड़ी हिम्मत...! क्योंकि उन्होंने कहा कि मैं देखने आना चाहता हूं कि वहां ध्यान लोग कैसा कर रहे हैं? मैंने उनसे कहा कि देखने से क्या दिखाई पड़ेगा, आप करें ही। तो उन्होंने कहा: वह तो जरा मुश्किल हो जाएगा।... क्या डर है? डर क्या है? तो वह कहने लगे कि वहां तो अभिव्यक्ति होती है कि किसी के भीतर कुछ भी हो वह बाहर निकालना है। तो मैंने कहा: भीतर कुछ है तो निकलेगा, नहीं है तो नहीं निकलेगा। डर क्या है? है तो निकाल कर जान लेना जरूरी है; कस
ौटी हो जाएगी कि भीतर पड़ा है। नहीं है, तो भी आनंद का अनुभव होगा कि भीतर कुछ भी नहीं पड़ा है। पर उन्होंने कहा कि नहीं, आप तो इतनी ही आज्ञा दें कि मैं बैठ कर देख सकूं। आपकी मर्जी--लेकिन जो कर नहीं सकता, मैंने कहा, वह ठीक से देख भी नहीं पाएगा।
और यही हुआ। जब लोगों ने ध्यान करना शुरू किया, तो वह कोई दो मिनट तक तो देखते रहे, फिर सामने ही एक युवती ने अपना वस्त्र अलग कर दिया। मुनि जी ने तत्काल आंख बंद कर ली। फिर वह देख नहीं सके!... नग्न स्त्री!
स्त्री को देखने की ही घबड़ाहट है, तो नग्न स्त्री को देखने में तो बहुत घबड़ाहट हो जाएगी। लेकिन घबड़ाहट बाहर है या भीतर?
भीतर कोई कंपित हो गया। भीतर कोई वासना उठ गई, भीतर कोई परेशानी खड़ी हो गई। आंख उस स्त्री से थोड़े ही बंद की जा रही है। आंख बंद करके वह जो भीतर उठ रहा है, उसे दबाया जा रहा है। दबाए से कभी मुक्ति न हो पाएगी। यह दबा हुआ सदा पीछा करेगा, जन्मों-जन्मों तक सताएगा। मैंने उन्हें कहा कि आप सोचते थे, देख पाएंगे, लेकिन देख नहीं पाए। क्योंकि जो डर करने में था, वही डर देखने में भी है।
वासना भीतर खड़ी है। एकांत में इसका निरीक्षण, इसका साक्षीभाव उचित है। और अच्छा है कि प्रारंभ में साधक एकांत में चला जाए, ताकि और चीजों के उपद्रव न रह जाएं। एक ही बात रह जाए जीवन में साधना की। लेकिन वन अंत नहीं है, लौट तो समाज में ही आना पड़ेगा।
तो महावीर कहते हैं कि जो अग्नि में डाले हुए शुद्ध किए हुए और कसौटी पर कसे हुए निर्मल सोने की तरह है; जो राग, द्वेष तथा भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
‘...राग, द्वेष तथा भय से रहित है।’
राग-द्वेष से रहित कौन हो सकता है? राग और द्वेष दो चीजें नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो राग से भरा है, वह द्वेष से भी भरा होगा; जो द्वेष से भरा है, वह राग से भी भरा होगा। लेकिन इसे समझा नहीं गया है। आमतौर से तो हालत बड़ी उलटी हो गई है। दुनिया में दो तरह के लोग हैं इस वक्त: राग से भरे हुए लोग, जिन्हें हम गृहस्थ कहते हैं और द्वेष से भरे हुए लोग, जिनको हम साधु-संन्यासी कहते हैं। जिस-जिस चीज से आपको राग है, साधु को उसी-उसी से द्वेष है। लेकिन महावीर कहते हैं, राग, द्वेष, दोनों से जो मुक्त है, वह ब्राह्मण है। क्योंकि द्वेष राग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है।
एक आदमी स्त्री के पीछे दीवाना है, पागल है, बस उसे सिर्फ स्त्री दिखाई पड़ती है। यह आदमी कल संन्यस्त हो सकता है। तब यह स्त्री से बचने के लिए पागल हो जाएगा। तब कहीं कोई स्त्री छू न ले, कोई स्त्री पास न आ जाए, कोई स्त्री एकांत में न मिल जाए। तो यह भयभीत हो जाएगा, यह भागेगा, यह डरेगा।
पहले भी भाग रहा था। पहले यह स्त्री की तरफ भाग रहा था, अब स्त्री की तरफ से भाग रहा है। लेकिन ध्यान स्त्री पर ही लगा हुआ है। पहले राग था, अब द्वेष है। पहले धन इकट्ठा कर रहा था, अब धन को देखता है तो आंख बंद कर लेता है। पहले धन को छूकर बड़ा मजा आता था। जैसे धन में भी प्राण हो। अब कोई धन को पास ले आए तो हाथ सिकोड़ लेता है कि कहीं छू न जाए, जैसे धन में अब भी प्राण है और धन इसको बिगाड़ सकता है। फर्क नहीं पड़ रहा है।
राग और द्वेष में फर्क नहीं है। द्वेष राग की ही उलटी तस्वीर है। जो भी राग करते हैं, किसी भी दिन द्वेष कर सकते हैं। जो भी द्वेष करते हैं, किसी भी दिन फिर राग कर सकते हैं। और राग, द्वेष घड़ी के पेंडुलम की तरह बदलते रहते हैं। सुबह द्वेष, सांझ राग; सांझ राग, सुबह द्वेष। आप अपने ही जीवन में अनुभव करेंगे तो पता चलेगा, प्रतिपल यह बदलाहट होती रहती है। यह बदलाहट, यह द्वंद्व हमारे विक्षिप्त मन का हिस्सा है।
महावीर कहते हैं, राग, द्वेष से मुक्ति, दोनों से एक साथ। न तो किसी चीज के प्रति आसक्ति और न किसी चीज के प्रति विरक्ति। यह बड़ी कठिन है, क्योंकि हम तो विरक्त को संन्यासी कहते हैं; महावीर नहीं कहते। महावीर ने एक नया शब्द खोजा, उसे वे कहते हैं, ‘वीतराग।’ आसक्ति में बंधा हुआ आदमी और विरक्त, दोनों एक जैसे हैं। वीतराग का अर्थ है: दोनों से पार। वीत--दोनों से पार चला गया, अब वहां दोनों नहीं हैं--आदमी सरल हो गया, सहज हो गया।
एक बड़ी अदभुत शर्त साथ में लगाई है कि जो राग, द्वेष और भय से रहित है।
क्योंकि यह भी हो सकता है कि हम राग, द्वेष से रहित होने की कोशिश भय के कारण करें। हममें से बहुत से लोग धार्मिक भय के कारण होते हैं, डर के कारण। डर नरक का, डर पाप का, डर अगले जन्म का, मृत्यु के बाद सताए तो नहीं जाएंगे? पता नहीं क्या होगा!
आदमी मृत्यु से उतना नहीं डरता, जितना दुख से डरता है। मेरे पास बूढ़े लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मृत्यु का हमें डर नहीं है, इतना ही आशीर्वाद दे दें कि सुख से मरें। कोई दुख न पकड़े, कोई बीमारी न पकड़े; सड़ें-गलें नहीं।
मृत्यु का डर नहीं है, डर दुख का है। मृत्यु में क्या है, कोई फिकर नहीं है। लेकिन कैंसर हो जाए, टी. बी. हो जाए, सड़ें-गलें, दुख पाएं, उसका डर है। जैसे हैं, स्वस्थ मर जाएं।
मृत्यु से भी ज्यादा डर दुख का है। और पुरोहितों को पता चल गया है कि आदमी दुख से डरता है, इसलिए उन्होंने बड़े नरक का इंतजाम कर दिया है। उन्होंने नरक बना दिया कि अगर तुमने पाप किया, अगर राग किया, द्वेष किया, यह किया, वह किया तो नरक में सड़ोगे। नरक के डर के कारण बहुत से लोग धार्मिक बने हैं।
अब यह नरक का डर रोज-रोज कम होता जा रहा है, लोगों का धर्म भी कम होता जा रहा है उसी अनुपात में। जिस दिन नरक बिलकुल समाप्त हो जाएगा, आप बिलकुल अधार्मिक हो जाएंगे, क्योंकि आपका धर्म सिवाय भय के कुछ भी नहीं है। भगवान की मूर्ति के सामने जब आप घुटने टेकते हैं, वह भय में टेके गए घुटने हैं। और भय से क्या संबंध सत्य से हो सकता है!
महावीर कहते हैं: अभय सत्य की खोज का पहला चरण है। और जो अभय नहीं है, वह ब्राह्मण नहीं हो सकता। इसलिए महावीर ने तो प्रार्थना तक को विसर्जित कर दिया। महावीर ने कहा: प्रार्थना में भय छिपा रहता है, मांग छिपी रहती है। प्रार्थना की भी कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ अभय हो जाने की जरूरत है। कौन आदमी अभय हो सकता है? भय मौजूद है, वास्तविक है। मौत है, दुख है, पीड़ा है।
तो एक तो उपाय यह है कि कोई दुख न रह जाए, तब आदमी निर्भय हो जाए, अभय हो जाए। पर दुख तो रहेंगे। कोई दुनिया का विज्ञान आदमी को दुख से मुक्त नहीं कर सकता; एक दुख को बदल कर दूसरे दुख में ही डाल सकता है। कोई स्थिति नहीं हो सकती जमीन पर, जब कोई दुख न हो। पांच हजार साल का अनुभव है। पुराने दुख हट जाते हैं, नये दुख आ जाते हैं। पुरानी बीमारियां चली जाती हैं। प्लेग नहीं है अब। बहुत से मुल्कों से मलेरिया विदा हो गया। प्लेग खो गई। काला बुखार नहीं रहा; लेकिन क्या फर्क पड़ता है, उससे भी भयंकर बीमारियां मौजूद हो गई हैं।
आदमी सुख में नहीं हो सकता, अकेले सुख में नहीं हो सकता; दुख सुख के साथ जुड़ा है। हम इधर सुख का इंतजाम करते हैं, उतने ही दुख का इंतजाम उसके साथ ही हो जाता है। तो महावीर कहते हैं कि दुख से मुक्त होने की कोशिश एक ही अर्थ रखती है कि मेरी चेतना दुख और सुख से पृथक हो जाए। और कोई उपाय नहीं है।
विज्ञान मनुष्य को आनंद में नहीं उतार सकता; बड़े सुख में ले जा सकता है, लेकिन साथ ही बड़े दुख में भी ले जाएगा। इसलिए जितना विज्ञान सुविधा जुटाता है, उतना आदमी को असुविधा का अनुभव होने लगता है। एक आदमी धूप में दिन भर काम करता है, उसे धूप का दुख निरंतर अनुभव से कम हो जाता है। एक आदमी छाया में बैठ कर काम करता है। छाया में निरंतर बैठने से छाया का सुख होता है, लेकिन धूप का दुख बढ़ जाता है। धूप में जाएगा तो बहुत दुख पाएगा, जो धूप वाला आदमी कभी नहीं पाएगा।
आप जितना सुख बढ़ाते हैं, उनके साथ ही दुख की क्षमता बढ़ती जाती है। क्योंकि सुख के साथ ही साथ आप डेलिकेट होते जाते हैं, नाजुक होते जाते हैं। जितने नाजुक होते हैं, उतना रेसिस्टेंस कम हो जाता है, प्रतिरोध कम हो जाता है। तो हमने सब बीमारियों का इंतजाम कर लिया, लेकिन आदमी का प्रतिरोध कम हो गया और आदमी का प्रतिरोध कम हो जाने से हजार नई बीमारियां खड़ी हो गईं।
हम आदमी को जितना सुख देंगे, उतना ही उसके साथ दुख की खाई बढ़ती जाएगी। विज्ञान बड़े सुख दे सकता है; बड़े दुख देगा।
महावीर कहते हैं, आनंद की तो एक ही संभावना है कि सुख-दुख से मैं अपनी चेतना को पृथक कर लूं। राग, द्वेष से अलग होने का अर्थ है, मैं साक्षी हो जाऊं। न तो मैं किसी के खिलाफ, न किसी के पक्ष में, न तो सुख की आकांक्षा और न दुख का विरोध। जो भी घटित हो, मैं उसका देखने वाला रह जाऊं।
महावीर का धर्म अभय पर खड़ा धर्म है। अंग्रेजी में एक शब्द है: ‘गॉड-फियरिंग।’ हिंदी में भी एक शब्द है: ‘ईश्र्वर-भीरु’--ईश्र्वर से डरने वाला। महावीर ऐसे शब्द को धर्मशास्त्र में जगह नहीं देंगे। महावीर कहेंगे, जो डरता है, वह तो कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। भयभीत चित्त का कोई संबंध सत्य से होने की संभावना नहीं है। तो महावीर कहते हैं: राग, द्वेष और भय से जो रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
‘जो तपस्वी है...।’
जो भीतर जीवन की वासना की जो अग्नि है, उसको यज्ञ बना रहा है। जो भीतर अपने को निखार रहा है। अपने जीवन की पूरी ऊर्जा का उपयोग जो व्यर्थ बाहर नहीं खो रहा है, बल्कि सारा ईंधन एक ही काम में ला रहा है कि मेरे भीतर का सोना निखर जाए।
‘जो तपस्वी है, जो दुबला-पतला है।’
यह जरा सोचने जैसा है, क्योंकि महावीर की प्रतिमा दुबली-पतली नहीं है। इससे बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। महावीर की प्रतिमा बड़ी बलिष्ठ और स्वस्थ है, दुबली-पतली जरा भी नहीं है। और महावीर की एक भी प्रतिमा उपलब्ध नहीं है, जिसमें वे दुबले-पतले हों। हां, बुद्ध की एक प्रतिमा उपलब्ध है, जिसमें वे हड्डी-हड्डी रह गए हैं, महातप उन्होंने किया जिसमें वे बिलकुल सूख गए हैं, और उनकी पीठ और पेट एक हो गए हैं। और वे इतने कमजोर हो गए हैं कि उठ भी नहीं सकते। नदी में स्नान करने गए हैं निरंजना में, इतने कमजोर हो गए हैं कि नदी से बाहर निकलने की ताकत नहीं है तो एक वृक्ष की जड़ को पकड़ कर लटके हुए हैं।
जरूर महावीर और बुद्ध की तपश्र्चर्या में कुछ बुनियादी फर्क है। बुद्ध जरूर कुछ गलत तपश्र्चर्या कर रहे हैं। और इसीलिए बुद्ध को छह साल के बाद तपश्र्चर्या छोड़ देनी पड़ी। और बुद्ध ने कहा कि तप से कोई मुक्त नहीं हो सकता। उनका अनुभव ठीक था। उन्होंने जो तप किया था, उससे कभी कोई मुक्त नहीं हो सकता। वे उस तप को छोड़ कर मुक्त हुए।
लेकिन इस पर बहुत गंभीर विचारणा नहीं हुई है, क्योंकि महावीर तप से ही मुक्त हुए। लेकिन महावीर ने वैसा तप कभी नहीं किया, जैसा बुद्ध ने किया। बुद्ध के तप में कोई भ्रांति थी। बुद्ध एक तरफ भोगी थे; फिर एकदम विपरीत तपस्वी हो गए। उन्होंने शरीर को सुखा डाला; खून, मांस सब सूख गया; हड्डी-हड्डी हो गए; इतने कमजोर हो गए कि ऊर्जा ही न बची जो कि भीतर के सोने को निखार सके। तो उन्हें उस तप को छोड़ देना पड़ा। लेकिन महावीर कभी हड्डी-हड्डी नहीं हुए।
तो महावीर का वचन समझने जैसा है।
महावीर कहते हैं: ‘जो दुबला-पतला है, जो इंद्रिय-निग्रही है, उग्र तपसाधना के कारण जिसका रक्त और मांस सूख गया है, जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
महावीर की प्रतिमा को खयाल में रख कर इस वचन को समझना जरूरी है, नहीं तो भ्रांति महावीर के अनुयायी भी करते रहे हैं। महावीर कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में रक्त और मांस अकारण नहीं होता। रक्त और मांस के होने के दो कारण हैं। एक तो शरीर की जरूरत है कि शरीर बिना रक्त और मांस के जी नहीं सकता। वह शरीर का भोजन है, शरीर का ईंधन है। लेकिन जितना शरीर को चाहिए, उतने से ज्यादा आदमी इकट्ठा कर लेता है और वह जो ज्यादा इकट्ठा किया हुआ है, वह मनुष्य को वासनाओं में ले जाता है। ध्यान रहे, अगर आपको अचानक लाख रुपये मिल जाएं, तो आप क्या करेंगे? आप एकदम, आपकी जो-जो बुझी पड़ी वासनाएं हैं, उनको सजग कर लेंगे। एक लाख का खयाल आते ही से आपकी वासनाएं भागने लगेंगी। क्या कर लूं? कहां भोग लूं?
नया-नया धनी हुआ आदमी बड़ा पागल हो जाता है। नया धनी अपनी सारी वासनाओं को जगा हुआ पाता है। इसलिए नये धनी को पहचानने में कठिनाई नहीं है। उसका धन उछलता हुआ दिखाई पड़ता है। उसका धन वासना की दौड़ बन जाता है। जैसे ही आपके शरीर में जरूरत से ज्यादा खून-मांस-मज्जा इकट्ठी हो जाती है, आप उसका क्या करेंगे? और मनुष्य के पास संग्रह करने का उपाय है।
मनुष्य के शरीर में उपाय है। तीन महीने के लायक तो भोजन हम अपने शरीर में इकट्ठा रखते ही हैं। इसलिए कोई भी आदमी तीन महीने तक उपवास कर सकता है, मरेगा नहीं। स्वस्थ, सामान्य स्वस्थ आदमी नब्बे दिन तक भूखा रहे तो मरेगा नहीं, क्योंकि नब्बे दिन के लिए रिजर्व, सुरक्षित भोजन शरीर में है। हम अपना मांस पचाते जाएंगे नब्बे दिन तक। इसलिए जब आप उपवास करते हैं तो हर रोज एक पौंड, डेढ़ पौंड वजन गिरने लगता है। कैसे गिर रहा है वजन? वजन कहां जा रहा है? शरीर को बाहर से भोजन नहीं दिया जा रहा है, तो शरीर के पास एक दोहरी व्यवस्था है, शरीर अपने ही मांस को पचाने लगता है।
उपवास एक तरह का मांसाहार है, अपना ही मांस पचने लगता है। डेढ़ पौंड, दो पौंड मांस रोज पचा जाएगा। स्वस्थ आदमी के शरीर में तीन महीने तक के लायक सुरक्षित व्यवस्था होती है। लेकिन इस तीन महीने से ज्यादा भी हम इकट्ठा कर लेते हैं। हम बड़े कृपण हैं, कंजूस हैं। हम सब चीजें इकट्ठी करते रहते हैं। हम इतना इकट्ठा कर लेते हैं कि उसे फेंकना जरूरी हो जाता है। उसे न फेंकें तो वह बोझ हो जाएगा। वह जो अतिरिक्त बोझ हो जाता है, वह हमारी वासनाओं में फिंकने लगता है।
तो महावीर जब कहते हैं, ‘दुबला-पतला’, तो उनका मतलब है सामान्य, स्वस्थ, जो कृपण नहीं है, जो मांस-मज्जा को इकट्ठा करने में नहीं लगा है; क्योंकि वह इकट्ठी मांस-मज्जा गलत मार्गों पर ले जाएगी; बोझ हो जाएगा।
पश्र्चिम में अगर आज वासना का ज्वार आ गया है, तो उसका एक कारण तो है कि जरूरत से ज्यादा भोजन आज पश्र्चिम में पहली दफा उपलब्ध है। इतना भोजन उपलब्ध है कि बड़ी हैरानी की बात है, उस भोजन का उपयोग क्या किया जाए? अगर आपको बहुत ज्यादा दूध और पौष्टिक पदार्थ मिलें, तो कामवासना बढ़ जाएगी। इतनी भी ज्यादा बढ़ सकती है कि आपको चौबीस घंटे कामवासना ही घेरे रहे। क्योंकि इतना वीर्य आप रोज उत्पन्न कर लेंगे कि उसे फेंकना जरूरी हो जाएगा।
महावीर कहते हैं: शरीर पर दृष्टि रखनी जरूरी है। एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि शरीर में अतिरिक्त इकट्ठा न हो। अतिरिक्त इकट्ठा होगा तो वासना में खींचेगा। शरीर में उतना ही हो जितना जरूरी है ताकि जितना आत्मा को जगाने और रोशन करने के लिए काफी है उतना दीया भीतर जल जाए और बाहर की तरफ की वासना न उठे।
तो महावीर कहते हैं कि ‘जो दुबला-पतला है, जिसका रक्त और मांस सूख गया है।’ इसका यह मतलब नहीं कि उसका रक्त और मांस बिलकुल सूख गया है। रक्त-मांस सूख गया है, मतलब: अतिरिक्त रक्त-मांस सूख गया है। जिसके पास व्यर्थ ईंधन नहीं है, जो उसे गलत मार्गों पर ले जाए।
‘जो शुद्धव्रती है, जिसने निर्वाण पा लिया है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।’
इस आखिरी शब्द को, ‘निर्वाण’ को समझ लेना जरूरी है। निर्वाण बड़ा कीमती शब्द है। इस शब्द का मतलब होता है: दीये का बुझ जाना। जब किसी दीये को हम फूंक देते हैं और उसकी ज्योति बुझ जाती है, तो कहते हैं: दीया निर्वाण को उपलब्ध हो गया।
महावीर कहते हैं: ‘जो निर्वाण को उपलब्ध हो गया, वह ब्राह्मण है।’
तो किस दीये की बात कर रहे हैं?
जब तक अहंकार है, तब तक हम जल रहे हैं व्यक्ति की तरह। जैसे ही अहंकार की ज्योति बुझ जाती है, हम व्यक्ति की तरह समाप्त हो जाते हैं; अहंकार खो जाता है। अब हम होते हैं; लेकिन व्यक्ति की तरह नहीं होते हैं; अहंकार की तरह नहीं होते, अस्मिता नहीं होती। हमारी कोई सीमा नहीं रह जाती, हमारी कोई दीवालें नहीं रह जातीं, और ‘मैं’ का कोई भाव नहीं रह जाता।
‘मैं-भाव’ का बुझ जाना निर्वाण है। जिस क्षण मैं हूं, और मुझे पता नहीं चलता कि मैं हूं, मेरा होना शुद्ध हो गया। इस शुद्धतम अवस्था को महावीर कहते हैं, ‘मैं ब्राह्मण कहता हूं।’
महावीर ने जितना आदर ‘ब्राह्मण’ शब्द को दिया है, उतना किसी और ने कभी भी नहीं दिया है। ‘ब्राह्मण’ शब्द की ऐसी पराकाष्ठा न तो उपनिषदों में उपलब्ध है और न वेदों में उपलब्ध है। लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने समझा कि महावीर ब्राह्मणों के दुश्मन हैं। समझने का कारण था, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मण की जन्मजात बपौती छीन ली, स्वार्थ छीन लिया, उसका धंधा छीन लिया, उसका व्यवसाय छीन लिया।
लेकिन अगर कोई ठीक से समझे तो महावीर ब्राह्मण के दुश्मन नहीं हैं, ब्राह्मण ही ब्राह्मण के दुश्मन हैं। महावीर तो परम प्रेमी मालूम पड़ते हैं ब्राह्मणत्व के। उसको उन्होंने ठीक ब्राह्मण के निकट बिठा दिया। और ब्राह्मण तभी कहने का कोई अपने को अधिकारी है, जब महावीर की परिभाषा पूरी करता है। जन्म से जो ब्राह्मण है, उसका ब्राह्मणत्व औपचारिक है, फार्मल है। उसका कोई मूल्य नहीं है। ब्रह्म की उपलब्धि और ब्रह्म की उपलब्धि के मार्ग पर चलते हुए, पड़ते हुए कदम और पड़ाव, वे ही ब्राह्मण होने के पड़ाव हैं।
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