MAHAVIR
Mahaveer Vani 41
FourtyFirst Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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लोकतत्व-सूत्र: 5
किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य।
सुक्कलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहक्कमं।।
किण्हा नीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई।।
तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई।।
कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल--ये लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं।
कृष्ण, नील, कापोत--ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।
तेज, पदम और शुक्ल--ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव सदगति में उत्पन्न होता है।
महावीर की उत्सुकता न तो काव्य में है, और न तर्क में। उनकी उत्सुकता है जीवन के तथ्य, जीवन की वैज्ञानिक खोज, आविष्कार में। इसलिए महावीर ने समाधि के कोई गीत नहीं गाए। और न ही महावीर ने जो कहा है उसके लिए कोई तर्क उपस्थित किए हैं। तर्क उपस्थित किए जा सकते हैं, हर बात के लिए। और ऐसी कोई भी बात नहीं, जिसके पक्ष में या विपक्ष में तर्क उपस्थित न किए जा सकें। तर्क दुधारी तलवार है। तर्क मंडन भी कर सकता है, खंडन भी। लेकिन तर्क से कोई सत्य की निष्पत्ति नहीं होती।
काव्य अभिव्यक्ति है। जो अनुभव हुआ है, उसके आनंद की झलक उसमें मिल सकती है। लेकिन आनंद कैसे अनुभव हुआ है, उसका विज्ञान उससे निर्मित नहीं होता। अधिक शास्त्र तार्किक हैं, जिनको बुद्धि की खुजली है, उनके लिए उनमें रस हो सकता है। शेष शास्त्र काव्यात्मक हैं, जिन्हें अनुभव हुआ है, उन्हें उन शास्त्रों में अपनी अभिव्यक्ति मिल सकती है। बहुत थोड़े से शास्त्र वैज्ञानिक हैं; उनके लिए हैं जिन्हें न तो बुद्धि की खुजली की बीमारी है, और न जो पहुंच गए हैं। जो जीवन में उलझे हैं और मार्ग की तलाश कर रहे हैं।
महावीर उस तीसरे कोण से ही बोल रहे हैं।
मैंने सुना है, एक यहूदी पंडित की मृत्यु हुई। वह ईश्र्वर के सामने उपस्थित किया गया। ईश्र्वर ने उससे पूछा कि पृथ्वी पर तुम क्या कर रहे थे पूरे जीवन? तो उस पंडित ने कहा: मैं धर्म का, शास्त्र का, शास्त्र को सिद्ध करने वाले तर्कों का अध्ययन कर रहा था। ईश्र्वर ने कहा: मैं खुश हूं, मेरे आनंद के लिए तुम कोई तर्क, ‘ईश्र्वर है’, इसके प्रमाण में उपस्थित करो।
पंडित ने जीवन भर तर्क किए थे, लेकिन ईश्र्वर को सामने पाकर उसकी बुद्धि अड़चन में पड़ गई। क्या तर्क उपस्थित करे ईश्र्वर के होने का? दो क्षण तो वह सोचता रहा, फिर कुछ सूझा नहीं, बुद्धि खाली मालूम पड़ी, तो उसने कहा कि बड़ी मुश्किल है--आपके कानों के योग्य मैं कुछ कह सकूं, ऐसा खोज नहीं पाता, अच्छा तो यह हो कि आप खुद ही कोई तर्क उपस्थित करें--यू परफार्म सम पॉइंट, एंड आइ विल शो यू हाउ टु रिफ्यूट इट--आप ही कोई तर्क उपस्थित कर दें और मैं तरकीब बताऊंगा कि उसका खंडन कैसे किया जा सकता है।
ठीक से समझें तो तर्क सदा खंडनात्मक है, निषेधात्मक है। वस्तुतः बुद्धि का स्वभाव नकार है। इसे समझ लें, ठीक से। बुद्धि का स्वभाव निगेटिव है, नकारात्मक है। जब बुद्धि कहती है नहीं--तभी होती है। और जब आप कहते हैं हां, तब बुद्धि विसर्जित हो जाती है, हृदय होता है। जब भी आपके भीतर ‘हां’ होती है, ‘यस’ होता है, तब हृदय होता है। और जब ‘नहीं’ होती है, ‘नो’ होता है, तब बुद्धि होती है। इसलिए जो व्यक्ति जीवन को पूरी तरह ‘हां’ कह सकता है, वह आस्तिक है; और जो व्यक्ति ‘नहीं’ पर जोर दिए चला जाता है, वह नास्तिक है।
नास्तिक होने से कोई संबंध नहीं कि वह ईश्र्वर को अस्वीकार करता है या नहीं करता। नास्तिक होने का अर्थ है कि ‘नहीं’ उसके जीवन की व्यवस्था है; ‘न’ कहना उसका सुख है, ‘हां’ कहने में उसे अड़चन है, कठिनाई है।
इसलिए आप देखते हैं, जैसे ही बच्चे में बुद्धि आनी शुरू होती है वह इनकार करना शुरू कर देता है। जैसे ही बच्चा जवान होने लगता है, उसकी अपनी बुद्धि चलने लगती है, उसे ‘न’ कहने में रस आने लगता है, ‘हां’ कहना मजबूरी मालूम पड़ती है।
बुद्धि का स्वभाव संदेह है, हृदय का स्वभाव श्रद्धा है। तो कुछ लोग हैं जिनको तर्क की ही कुल जमा बेचैनी है, पक्ष में या विपक्ष में। और कोई अंतर नहीं पड़ता, जो तर्क पक्ष में है वही विपक्ष में हो सकता है। तर्क वेश्या है। वह कोई गृहिणी नहीं है, कोई पत्नी नहीं है; कोई एक पति से उसका संबंध नहीं है। जो उसे पैसे दे, उसी के साथ है।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़े वकील डॉक्टर हरिसिंह गौर, जिन्होंने सागर विश्र्वविद्यालय की स्थापना की, प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ रहे थे। भुलक्कड़ स्वभाव के आदमी थे। तो जो उनका सहयोगी वकील था, वही उनको सब सूचनाएं दे देता था रास्ते में कि अदालत में क्या-क्या, किस-किस संबंध में उनको विवाद करना है। उस दिन सहयोगी वकील बीमार था और हरिसिंह गौर भूल गए कि वे किसके पक्ष में हैं और किसके विपक्ष में। प्रिवी कौंसिल में जाकर उन्होंने बोलना शुरू कर दिया।
न्यायाधीश भी चकित हुए, विरोधी वकील भी हैरान हुआ; क्योंकि वे अपने ही मुवक्किल के खिलाफ बोल रहे थे, और ऐसे तर्क दे रहे थे कि अब कोई उपाय ही न रहा। विरोधी वकील हैरान हुआ कि अब मैं क्या करूंगा, उसको करने को कुछ बचा ही नहीं। तभी असिस्टेंट को खयाल आया कि वह तो बीमार पड़ा है, लेकिन कुछ गड़बड़ न हो जाए, तो वह भागा हुआ आया। तब तक तो वे फैसला ही कर चुके थे अपने मुवक्किल का पूरी तरह से। आकर उसने उनका कोट हिलाया और कान में कहा कि आप क्या कर रहे हैं? यह अपना मुवक्किल है! तो उन्होंने कहा कि कोई फिकर न करो।
उन्होंने कहा: न्यायाधीश महोदय! अब तक मैंने वे दलीलें दीं, जो मेरा विरोधी पक्ष का वकील देना चाहेगा, अब मैं उनका खंडन शुरू करता हूं। और उन्होंने खंडन किया। और जितनी प्रबलता से समर्थन किया था, उतनी ही प्रबलता से खंडन भी किया।
वकील और वेश्या में बड़ा संबंध है। वेश्या अपना शरीर बेचती है, वकील अपनी बुद्धि बेचता है। उसके पास अपना कोई पक्ष नहीं है। जो भी पक्ष खरीद सकता है, वही उसका पक्ष है।
तर्क वेश्या है। इसलिए महावीर, बुद्ध या कृष्ण जैसे लोगों की उत्सुकता तर्क में नहीं है, और मैंने कहा कि उनकी उत्सुकता काव्य में भी नहीं है; क्योंकि काव्य तो आखिरी फूल है। जब कोई व्यक्ति समाधि को उपलब्ध होता है, तो उसके जो गीत की स्फुरणा होती है, वह जो संगीत उससे बहने लगता है, उसके उठने-बैठने में काव्य आ जाता है, वह अंतिम चीज है। उसका रस लिया जा सकता है। लेकिन उसका रस वे ही ले सकते हैं जो उस जगह तक पहुंच गए हैं। साधक के लिए उसका कोई मूल्य नहीं है। खतरा भी है।
सोलोमन के गीत हैं बाइबिल में। वे समाधिस्थ व्यक्ति के गीत हैं। लेकिन बड़ा खतरा हुआ है। क्योंकि सोलोमन ने अपनी उस परम समाधि को स्त्री-पुरुष के प्रतीक से प्रकट किया है। क्योंकि उससे बेहतर कोई प्रतीक हो भी नहीं सकता। जीवन में मिलन का जो आत्यंतिक अनुभव हो सकता है साधारण मनुष्य को, वह दो प्रेमियों का मिलन है। इसलिए सोलोमन ने अपने समाधि की पूरी व्यवस्था को, पूरी अनुभूति को स्त्री और पुरुष के प्रेम से प्रकट किया है।
लेकिन खुद बाइबिल पर भक्ति रखने वाले लोग भी सोलोमन के गीत से डरते हैं; क्योंकि लगता है कि वह गीत तो अत्यंत पार्थिव है। लेकिन मजबूरी है। उस परम तत्व को भी अगर गीत में प्रकट करना हो तो इस जगत में गीत की जो भाषा है--‘प्रेम’, उसी में प्रकट करना पड़ेगा। इसलिए अनेकों को मीरा के गीत में कामवासना की झलक मिल सकती है। क्योंकि मीरा कह रही है कि आओ, मेरी सेज पर सोओ। मैं तैयार बैठी हूं, तुम कहां हो? मैंने फूल बिछा दिए हैं, सेज तैयार है; दिया जला लिया है, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं। और जब तक तुम आकर मेरी सेज पर मेरे साथ न सो जाओ, तब तक मुझे चैन नहीं आएगा।
यह भाषा प्रेमियों की है। इसलिए अगर फ्रायड को मानने वाले लोग मीरा का अध्ययन करें तो उन्हें लगेगा कि जरूर कोई कामवासना भीतर दबी रह गई है। गीत में अगर प्रकट करना हो उस परम सत्य को तो भाषा प्रेम की ही चुननी पड़ेगी, और कोई उपाय नहीं। क्योंकि इस पृथ्वी पर निकटतम--उस परम तत्व के करीब, प्रेम ही आता है।
लेकिन तब खतरा है। और डर यह है कि पढ़ने वाले लोग समाधि की तरफ तो न झुकें, संभोग की तरफ झुक जाएं। और डर यह है कि उनके मन में इससे उस परम का विचार तो पैदा न हो, लेकिन क्षुद्र वासना का जन्म हो जाए।
महावीर तर्क की चिंता नहीं करते। महावीर गीत की भी चिंता नहीं करते। महावीर आत्मिक जीवन का शुद्ध विज्ञान उपस्थित करना चाहते हैं। वह दिशा बिलकुल अलग है। क्या अनुभव हुआ है, उसे प्रकट करना व्यर्थ है, उन लोगों के सामने जिन्हें कोई अनुभव नहीं हुआ। कैसे अनुभव हो सकता है, उसकी प्रक्रिया ही प्रकट करनी आवश्यक है। और अनुभव के मार्ग पर क्या-क्या घटित होगा, उसका नक्शा देना जरूरी है। क्योंकि अनंत है यात्रा और कहीं से भी भटकाव हो सकता है। अनंत हैं पहेलियां, अनंत हैं मोड़, एक पगडंडियों का जाल है, उसमें अगर नक्शा साफ न हो तो आप एक भूलभुलैया में भटक जाएंगे।
इसलिए महावीर की पूरी चेष्टा है, एक स्प्रिचुअल मैप, एक आध्यात्मिक नक्शा निर्मित करने की कि आपके हाथ में एक ठीक गाइड हो और आप एक-एक कदम जांच कर सकें; और एक-एक पड़ाव को पहचान सकें कि यात्रा ठीक चल रही है, दिशा ठीक है। और जिस तरफ मैं जा रहा हूं वहां अंततः मुक्ति उपलब्ध हो पाएगी। यह दृष्टि खयाल में रहे तो महावीर को समझना बहुत आसान हो जाएगा।
अब उनका हम सूत्र लें:
‘कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल--ये लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं।’
यह किताब ऐसी मालूम पड़ती है, महावीर के वचनों की--जैसे फिजिक्स की हो, केमिस्ट्री की हो, गणित की हो। इसलिए बहुत कम लोग इसमें रस ले पाएंगे। गीता का पाठ किया जा सकता है, एक महाकाव्य छिपा है। महावीर की बातें सीधी गणित की हैं, जैसे कि यूक्लिड थ्योरम लिख रहा हो, ज्यामिति की।
‘कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल--ये छह लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं।’
तो पहले तो समझ लें कि ‘लेश्या’ क्या है? महावीर के कुछ खास परिभाषिक शब्दों में एक लेश्या भी एक है।
ऐसा समझें कि सागर शांत है, कोई लहर नहीं है। फिर हवा का एक झोंका आता है, लहरें उठनी शुरू हो जाती हैं, तरंगें उठती हैं, सागर डांवाडोल हो जाता है, छाती अस्त-व्यस्त हो जाती है, सब अराजक हो जाता है। महावीर कहते हैं, शुद्ध आत्मा तो शांत सागर की तरह है, अशुद्ध आत्मा अशांत सागर की तरह है, जिस पर लहरें ही लहरें भर गई हैं। उन लहरों का नाम ‘लेश्या’ है। मनुष्य की चेतना में जो लहरें हैं, उनका नाम लेश्या है। और जब सब लेश्याएं शांत हो जाती हैं, तो शुद्ध आत्मा की प्रतीति होती है। इन लेश्याओं में भी छह तरह की लेश्याओं का महावीर ने विभाजन किया है। तो लेश्या का अर्थ हुआ चित्त की वृत्तियां।
जिसको पतंजलि ने ‘चित्त-वृत्ति’ कहा है, उसको महावीर ‘लेश्या’ कहते हैं। चित्त की वृत्तियां, चित्त के विचार, वासनाएं, कामनाएं, लोभ, आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, ये सब लेश्याएं हैं। अनंत लेश्याओं से आदमी घिरा है। प्रतिपल कोई न कोई तरंग पकड़े हुए है।
और ध्यान रहे, जब सागर में तरंगें होती हैं तो आपको तरंगें ही दिखाई पड़ती हैं, सागर तो बिलकुल छिप जाता है। जब तरंगें नहीं होतीं, तभी सागर होता है, तभी सागर दिखाई पड़ता है। तो जितनी ज्यादा तरंगें होंगी चित्त की, उतना ही ज्यादा भीतर का जो गहन सागर है, वह अनुभव में नहीं आएगा। और हम चित्त की तरंगों से ही उलझे रह जाते हैं, अटके रह जाते हैं, अंतर्यात्रा नहीं हो पाती।
अनंत हैं ये लेश्याएं, अनंत हैं ये तरंगें लेकिन महावीर कहते हैं, उनके छह रूप हैं। और छह ही रूप बड़े वैज्ञानिक हैं। और अब विज्ञान भी सिद्ध कर रहा है कि महावीर ने जिस ढंग से इन लेश्याओं का वर्गीकरण किया है, शायद वही एक मात्र आधार है वर्गीकरण करने का, और कोई आधार नहीं हो सकता।
महावीर ने रंग के आधार पर वर्गीकरण किया है। कलर--पश्र्चिम में रंग के ऊपर बड़ा गहन अध्ययन चल रहा है। और रंग के आधार पर कई चीजें पैदा हो रही हैं। कलर थेरेपी पैदा हुई है। रंग के द्वारा मनुष्य के चित्त की चिकित्सा, शरीर की चिकित्सा, और अदभुत परिणाम उपलब्ध होते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि आदमी के अंतर-जगत में रंग की कोई बड़ी बहुमूल्य स्थिति है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपके कमरे को सब तरफ से लाल रंग िदया जाए, खून के रंग में--सब चीजें लाल हों, प्रकाश लाल हो, फर्श लाल हो, दीवालें लाल हों तो आप तीन घंटों में विक्षिप्त हो जाएंगे। क्योंकि लाल आपको उद्विग्न करेगा; रक्त को उत्तेजित करेगा, हृदय की धड़कन बढ़ जाएगी; ब्लड-प्रेशर बढ़ जाएगा और मस्तिष्क पर बुरे परिणाम होंगे।
हरे को जब आप देखते हैं, मन शांत होता है। इसलिए जंगल में जाकर आपको लगता है, ‘कैसी शांति है।’ उस शांति में ज्यादा हिस्सा हरे रंग का है। हरियाली मन को एक शीतलता से भर जाती है। लाल रंग उत्तेजना दे सकता है। इसलिए कोई आश्र्चर्य नहीं कि कम्युनिस्टों ने और सभी क्रांतिकारियों ने लाल झंडा चुना है। वह खून का, उपद्रव का प्रतीक है।
...आकस्मिक नहीं है, आकस्मिक इस जगत में कुछ भी नहीं होता। जिनका भरोसा खून पर, हत्या पर है, स्वाभाविक है कि वे लाल रंग को प्रतीक की तरह चुनें।
इस्लाम ने हरा रंग चुना है अपने झंडे के लिए, उसका कारण है, ‘इस्लाम’ शब्द का अर्थ ही ‘शांति’ होता है। इसलिए शांति को खयाल में रख कर हरे रंग को चुना। यह दूसरी बात है कि मुसलमानों ने न हरे रंग के सबूत दिए और न शांति के। लेकिन इसमें मोहम्मद का कसूर नहीं है। शब्द इस्लाम का अर्थ होता है शांति और इसलिए हरे रंग को चुना, क्योंकि हरा रंग गहरे रूप से शांतिदायी है।
रंग आपको चालित करते हैं, उत्तेजित करते हैं। पश्र्चिम में एडवरटाइजमेंट की सलाह देने वाले लोग इसकी भी सलाह देते हैं कि आप अपनी चीजें बेचें तो किस रंग के डिब्बे में बेचें; क्योंकि सभी रंगों के डिब्बे एक से नहीं दिखते; क्योंकि सभी रंग अलग-अलग तरह से पकड़ते हैं। आप चकित होंगे कि बहुत बार ऐसा हुआ है कि कोई एक ही चीज, जैसे कोई साबुन, पीले रंग के डिब्बे में बिक रही थी और उसकी बिक्री बाजार में कम थी। और फिर सलाहकारों ने सलाह दी कि रंग का उपद्रव हो रहा है; साबुन तो ठीक है लेकिन डिब्बे का रंग गलत है, इतना आकर्षक नहीं है कि लोगों को पकड़ ले। और जहां हजारों साबुन के डिब्बे रखे हों दुकान पर, वहां रंग ऐसा होना चाहिए जो आकर्षित कर ले, पकड़ ले, सम्मोहित कर ले--कि नौ सौ निन्यानबे डिब्बे पीछे छूट जाएं और एक डिब्बे पर हाथ पहुंच जाए।
तो डिब्बे का रंग बदल देने से साबुन की बिक्री बढ़ गई। किताबों के कवर का रंग बदल देने से बिक्री बढ़ जाती है, घट जाती है। एक्सपर्ट जाकर बाजारों में जांच करते रहते हैं कि स्त्रियां जो खरीदने आती हैं, सुपरमार्केट में, वे किस रंग से आंदोलित होती हैं। किस उम्र की स्त्री किस रंग से आंदोलित होती है। तो जिस उम्र की स्त्री को बेचना हो चीज को, उसके रंग का खयाल रखना जरूरी है।
आप जैसे कपड़े पहनते हैं, वे भी आपके चित्त की लेश्या की खबर देते हैं। कामुक आदमी एक तरह के कपड़े पहनेगा, कामवासना से हटता हुआ आदमी दूसरे तरह के कपड़े पहनेगा। रंग बदल जाएंगे, कपड़े के ढंग बदल जाएंगे। कामुक आदमी चुस्त कपड़े पहनेगा, गैर-कामुक आदमी ढीले कपड़े पहनना शुरू कर देगा। क्योंकि चुस्त कपड़ा शरीर को वासना देता है, हिंसा देता है।
सैनिक को हम ढीले कपड़े नहीं पहना सकते। ढीले कपड़े पहन कर सैनिक लड़ने जाएगा तो हार कर वापस लौटेगा। साधु को चुस्त कपड़े पहनाना बिलकुल नासमझी की बात है, क्योंकि चुस्त कपड़े का काम नहीं साधु के लिए, इसलिए साधु निरंतर ढीले कपड़े चुनेगा, जो शरीर को छूते भर हैं, बांधते नहीं।
आपको खयाल में नहीं होगा कि बहुत छोटी-छोटी बातें आपके जीवन को संचालित करती हैं; क्योंकि चित्त क्षुद्र चीजों से ही बना हुआ है। अगर आप चुस्त कपड़े पहने हुए हैं तो आप सीढ़ियों पर दो-दो सीढ़ियां चढ़ने लगते हैं, एक साथ। अगर आप ढीले कपड़े पहने हुए हैं तो आपकी चाल शाही होती है, एक सीढ़ी भी आप मुश्किल से एक दफे में चढ़ते हैं। चुस्त कपड़े पहन कर आप में गति आ जाती है; ढीले कपड़े पहन कर एक सौम्यता आ जाती है, गति खो जाती है।
आप जो रंग चुनते हैं, वह भी खबर देता है आपके चित्त की। क्योंकि चुनाव अकारण नहीं है, चित्त चुन रहा है।
महावीर ने रंग के आधार पर चित्त की तरंगों के छह विभाजन किए हैं। तीन को महावीर कहते हैं, ‘अधर्म-लेश्याएं’, जिनसे मनुष्य पतित होता है। और तीन को महावीर कहते हैं, ‘धर्म-लेश्याएं’, जिनसे मनुष्य शुद्ध होता है, पवित्र होता है।
पहली लेश्या को महावीर कहते हैं, ‘कृष्ण’--काली। दूसरी लेश्या को ‘नील’--नीली। तीसरी लेश्या को ‘कापोत’--कबूतर के कंठ के रंग की। चौथी लेश्या को ‘तेज’--अग्नि के रंग की, सुर्ख लाल। पांचवीं को ‘पदम’--पीत, पीली। छठवीं को ‘शुक्ल’--शुभ्र, सफेद। ये छह लेश्याएं हैं। इनमें प्रथम तीन अधर्म-लेश्याएं हैं और अंतिम तीन धर्म-लेश्याएं हैं।
रंग से चुनने का कारण यह है कि जब आपके चित्त में एक वृत्ति होती है तो आपके चेहरे के आस-पास एक ऑरा, एक प्रभामंडल निर्मित होता है। इस प्रभामंडल के अब तो चित्र भी लिए जा सकते हैं। आपके प्रभामंडल का चित्र भी कह सकता है कि आपके भीतर क्या चल रहा है? कारण हैं, क्योंकि आपका पूरा शरीर विद्युत का एक प्रवाह है। आपको शायद खयाल न हो कि पूरा शरीर वैद्युतिक यंत्र है।
स्केंडेनेविया में ऐसा हुआ, कोई छह-सात वर्ष पहले, कि एक स्त्री छत से गिर पड़ी और उसके शरीर की वैद्युतिक-व्यवस्था गड़बड़ हो गई, शॉर्ट-सर्किट हो गई। तो वह स्त्री जिसको छुए उसे शाक लगने लगे। उसके पति ने अदालत में तलाक के लिए अर्जी दी, क्योंकि उस स्त्री के पास ही जाना कठिन हो गया। उसको छूते से ही शाक लगेगा। और जब उस स्त्री के वैज्ञानिक परीक्षण किए गए तो बड़ी आश्र्चर्य की बात हुई, उस स्त्री के हाथ में पांच कैंडल का बल्ब रख कर जलाया जा सकता था।
जो विद्युत वर्तुल की तरह घूमती है शरीर में, वह वर्तुल टूट गया, शॉर्ट-सर्किट हो गया कहीं। कहीं तार अस्त-व्यस्त हो गए और विद्युत शरीर के बाहर जाने लगी। ऐसे भी विद्युत शरीर के बाहर जाती है, लेकिन उसकी मात्रा बड़ी धीमी है।
आप पूरे जीवन विद्युत से जी रहे हैं। सारे जगत का जो मूल आधार है, वह विद्युत-कण है, इलेक्ट्रान है। शरीर भी उसी पदार्थ से बना है। और सारे शरीर की यात्रा विद्युत की यात्रा है।
अभी स्त्रियों के संबंध में एक खोज पूरी हुई है। उस खोज ने स्त्रियों के मन के संबंध में बड़ी गहरी बातें साफ कर दी हैं, जो अब तक साफ नहीं थीं। लेकिन खोज विद्युत की है। मनोवैज्ञानिक जिसे साफ नहीं कर पाता था।
हजारों साल से स्त्री एक समस्या रही है। और वह किस तरह का व्यवहार करेगी किस क्षण में, अनिश्र्चित है। स्त्री अनप्रिडिक्टेबल है, उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। ज्योतिषी उससे बुरी तरह हार चुके हैं। अभी क्षण भर को प्रसन्न दिखाई पड़ रही थी, और क्षण भर बाद एकदम अप्रसन्न हो जाएगी और पुरुष के तर्क में बिलकुल नहीं आता कि कोई कारण उपस्थित नहीं हुआ है, वह क्षण भर पहले बड़ी भली चंगी है, आनंदित है, और क्षण भर बाद दुखी और आंसू बहने लगें, और वह छाती पीटने लगे! बेबूझ मालूम रही है!
फ्रायड ने चालीस साल के अध्ययन के बाद कहा कि स्त्री के संबंध में कुछ कहने की संभावना नहीं है। और जिन लोगों ने कुछ कहा भी है, उनका कहा हुआ भी पक्षपातपूर्ण मालूम पड़ता है। वह उनकी दृष्टि है, उससे स्त्री की बात जाहिर नहीं होती।
बड़ी प्रसिद्ध घटना है: चेखव ने लिखा है कि चेखव खुद, टाल्सटाय और गोर्की--रूस के तीन महालेखक, एक पार्क की बेंच पर बैठ कर बात कर रहे हैं। बात स्त्री पर पहुंच गई। पुरुषों की बात अक्सर ही स्त्री पर पहुंच जाएगी, और बात करने को कुछ है भी नहीं। टाल्सटाय बिलकुल बूढ़ा हो चुका था, लेकिन तब तक उसने स्त्रियों के बाबत कोई वक्तव्य नहीं दिया था। तो चेखव और गोर्की ने उससे कहा कि तुम कुछ कहो। उसने कहा कि मैं कहूंगा, लेकिन जब मेरा एक पैर कब्र में हो और एक बाहर, तब मैं कह कर एकदम कब्र में चला जाऊंगा! क्योंकि अगर मैं सत्य कहूं तो अभी भी स्त्रियों से मैं जुड़ा हूं, वे मेरी जान ले लेंगी, और असत्य मैं कहना नहीं चाहता!
लेकिन बॉयो-एनर्जी की खोज ने एक नई बात खबर में दी है, और वह यह कि जैसे ही स्त्री की माहवारी शुरू होती है, उसके शरीर का विद्युत-प्रवाह प्रति दस मिनट में सिकुड़ता है, कांट्रेक्ट होता है। और यह चलता है मोनोपाज तक, जब तक कि माहवारी बंद नहीं हो जाती, पैंतालीस-पचास साल तक। प्रति दस मिनट में, स्त्री को भी पता नहीं चलता कि उसके पूरे शरीर की विद्युत सिकुड़ती है, फिर फैलती है, फिर सिकुड़ती है, फिर फैलती है। इस हर दस मिनट के परिवर्तन के कारण उसका चित्त हर दस मिनट में परिवर्तित होता रहता है।
और यह जो संकुचन है, फैलाव है, यह बच्चे के लिए जरूरी है। बच्चे के विकास के लिए जरूरी है। जब बच्चा उसके गर्भ में होता है तो यह संकुचित होना, फैलना बच्चे को एक तरह का आंतरिक व्यायाम देता है, एक एक्सरसाइज देता है, इससे बच्चा बढ़ता है। इसलिए माहवारी शुरू होने और माहवारी अंत होने के बीच, तीस साल, पैंतीस साल, स्त्री का पूरा शरीर दस मिनट में एक झंझावात से गुजर रहा है। और वह झंझावात उसके चित्त को प्रभावित करता है। इसलिए जब स्त्री बहुत परेशान हो तो आप परेशान न हों; थोड़ी देर रुकें, थोड़ी देर प्रतीक्षा करें; वह झंझावात वैद्युतिक है। और स्त्री को भी खयाल में आ जाए, तो वह उस झंझावात से इतनी परेशान न हो, साक्षी हो सकती है।
पुरुष के शरीर में ऐसा कोई झंझावात नहीं है। इसलिए पुरुष ज्यादा तर्कयुक्त मालूम होता है। एक सीमा होती है उसकी बंधी हुई। उसके बाबत भविष्यवाणी हो सकती है कि वह क्या करेगा। उसके भीतर कोई झंझावात नहीं चल रहा है। विद्युत की एक सीधी धारा है। इस विद्युत की सीधी धारा के कारण उसके चित्त की लेश्याओं का ढंग सीधा-साफ है। स्त्री की चित्त की लेश्याएं ज्यादा बड़ी तरंगें लेंगी, क्योंकि विद्युत सिकुड़ेगी,फैलेगी, सिकुड़ेगी, फैलेगी; यह संकोच और फैलाव स्त्री को प्रतिपल झंझावात में और तरंगों में रखता है।
महावीर ने रंग के आधार पर विश्लेषण किया, शायद वही एकमात्र रास्ता हो सकता है। जब भी चित्त में कोई वृत्ति होती है तो उसके चेहरे के आस-पास उसके रंग-आभा आ जाती है। आपको दिखाई नहीं पड़ती। छोटे बच्चों को ज्यादा प्रतीत होती है। आपको भी दिखाई पड़ सकती है, अगर आप थोड़े सरल हो जाएं। जब कोई व्यक्ति सच में साधु-चित्त हो जाता है, तो वह आपकी आभा से ही आपको नापता है; आप क्या कहते हैं, उससे नहीं। वह आपको नहीं देखता, आपकी आभा को देखता है।
अब एक आदमी आ रहा है। उसके आस-पास कृष्ण-आभा है, काला रूप है चारों तरफ; उसके चेहरे के आस-पास एक पर्त है काली, तो वह कितनी ही शुभ्रता की बातें करे, वे व्यर्थ हैं, क्योंकि वह काली पर्त असली खबर दे रही है। अब तो सूक्ष्म कैमरे विकसित हो गए हैं, जिनसे उसका चित्र भी लिया जा सकता है। और वह चित्र बताएगा कि आपकी क्या भीतरी अवस्था चल रही है। और यह आभा प्रतिपल बदलती रहती है।
महावीर, बुद्ध, कृष्ण और राम, और क्राइस्ट के आस-पास, सारी दुनिया के संतों के आस-पास हमने उनके चेहरे के आस-पास एक प्रभामंडल बनाया है। हमारे कितने ही भेद हों--ईसाई में, मुसलमान में, हिंदू में, जैन में, बौद्ध में--एक मामले में हमारा भेद नहीं है कि इन सभी ने अपने जाग्रत महापुरुषों के चहेरे के आस-पास प्रभामंडल बनाया है। वह प्रभामंडल खबर देता है उस अंतिम घड़ी की, जहां, जब चेहरे के आस-पास श्र्वेत आभा प्रकट होती है, शुभ्र आभा प्रकट होती है।
हमारे चेहरे के आस-पास सामान्यतया काली आभा होती है, और या फिर बीच की आभाएं होती हैं। प्रत्येक आभा भीतर की अवस्था की खबर देती है। अगर आपके आस-पास काला आभामंडल है, ऑरा है, तो आपके भीतर भयंकर हिंसा, क्रोध, भयंकर कामवासना होगी। आप उस
अवस्था में होंगे, जहां आपको खुद भी नुकसान हो तो कोई हर्ज नहीं, दूसरे को नुकसान हो तो आपको आनंद मिलेगा। खुद को नुकसान पहुंचा कर भी अगर दूसरे को नुकसान पहुंचा सकें तो आप प्रसन्न होंगे। कृष्ण-लेश्या की अवस्था का आदमी ऐसा होगा।
मैंने सुना है कि एक आदमी मरा, तो उसने अपने बेटों को पास बुलाया और उनसे कहा कि मेरी आखिरी मर्जी पूरी कर देना। लेकिन बड़े बेटे तो सब समझदार थे, बाप को भलीभांति जानते थे कि वह उपद्रवी है। और आखिरी मर्जी कुछ ऐसी न उलझा जाए कि हम फंस जाएं जिंदगी भर को तो, वे तो दूर ही बैठे रहे। छोटा बेटा नासमझ था; उसे कुछ पता नहीं था बाप की हरकतों का। वह पास आ गया... और मरता बाप! उसने कहा: पहले वचन दे कि मेरी बात तू पूरी करेगा। उसने कहा कि मरते हुए पिता की बात पूरी नहीं करूंगा तो क्या करूंगा? आप कहें। तो उसने कहा कि तू ही मेरा असली बेटा है। ...उसके कान में कहा: एक काम करना, जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े करके मोहल्ले के लोगों के घरों में फेंक देना, और पुलिस में रिपोर्ट कर देना कि इन लोगों ने मार डाला। मेरी आत्मा को इतनी प्रसन्नता होगी, जब मैं देखूंगा कि चले हैं हथकड़ियों में बंधे सब!
यह कृष्ण-लेश्या का आदमी है। इसको अपनी फिकर नहीं है।
पंचतंत्र में बड़ी पुरानी कथा है कि एक आदमी भक्त था शिव का, और बड़े दिनों से प्रार्थना, बड़े दिनों से पूजा कर रहा था। आखिर शिव ने कहा कि ‘भाई, तू क्यों पीछे पड़ा है, क्या चाहता है?’
आखिर आपकी प्रार्थना-पूजा से निश्र्चित घबड़ा जाते होंगे!
शिव के संबंध में एक और कथा है, कि भक्त इतनी ज्यादा पूजा-प्रार्थना करने लगे कि उन्होंने नाराज होकर कहा कि तुम जाओ, सब कबूतर हो जाओ। वे जो शिव की पिंडी के आस-पास कबूतर घूमते हैं, वे भक्त हैं पुराने।
इस आदमी ने जब बहुत परेशान कर दिया तो शिव ने कहा कि तू आखिर चाहता क्या है? उसने कहा कि बस, एक... कि जो भी मैं मांगू, वह सदा पूरा किया जाए। तो शिव ने एक बड़ी उलटी शर्त रख दी। उन्होंने कहा कि होगा पूरा, लेकिन जो भी तू मांगेगा, वह तेरे लिए तो पूरा होगा ही, उससे दुगुना तेरे पड़ोसियों के लिए होगा।
उस आदमी ने कहा: मार डाला! मतलब ही खत्म हो गया! मैं मांगूं महल, पड़ोसी को मिल जाएं दो महल। मैं मांगूं हीरा, पड़ोसियों को, सबको मिल जाएं दो-दो हीरे। मतलब ही खो गया; बेकार कर दी सारी बात!
बड़ा चिंतित रहा। कई दिन तक कुछ भी नहीं मांगा। फिर सोचा कि किसी वकील से सलाह ले लूं, कुछ तो रास्ता हो ही सकता है। हर कानून से कोई न कोई रास्ता तो निकल ही आता है। वकील ने कहा कि इसमें घबड़ाने की क्या बात है? तू ऐसी चीजें मांग कि पड़ोसी मुश्किल में पड़ जाएं। तू कह कि मेरी एक आंख फोड़ दे भगवान, उनकी दोनों फूट जाएंगी।
वह आदमी नाचता हुआ घर लौटा। उसने कहा: गजब हो गया! यह खयाल ही नहीं आया। फिर तो सूत्र हाथ लग गया। फिर तो उसने कहा कि मेरी एक आंख फोड़ दे। उसकी एक आंख फूटी, पड़ोसियों की दोनों फूट गईं। इतने से मन न भरा--उसने कहा कि मेरे घर के सामने एक कुआं खोद दे। उसके घर के सामने एक कुआं खुदा, पड़ोसियों के सामने दो कुएं खुद गए। अब जब लोग गिरने लगे कुओं में--अंधे सारे पड़ोसी--तब उसके आनंद की सीमा न रही। कृष्ण-लेश्या अपनी आंख फोड़ सकती है, अगर दूसरे की दो फूटती हों। अपने लाभ का कोई सवाल नहीं है, दूसरे की हानि ही जीवन का लक्ष्य है। ऐसे व्यक्ति के आस-पास काला वर्तुल होगा।
महावीर कहते हैं, वह निम्नतम दशा है, जहां दुख, दूसरे का दुख ही एकमात्र सुख मालूम पड़ता है। ऐसा आदमी सुखी हो नहीं सकता, सिर्फ वहम में जीता है। क्योंकि हमें मिलता वही है जो हम दूसरों को देते हैं--वही लौट आता है। जगत एक प्रतिध्वनि है।
इसलिए हमने यम को, मृत्यु को काले रंग में चित्रित किया है; क्योंकि उसका कुल रस इतना है कि कब आप मरें, कब आपको ले जाया जाए। आपकी मृत्यु ही उसके जीवन का आधार है, इसीलिए काले रंग में हमने यम को पोता है। आपकी मृत्यु उसके जीवन का आधार है--कुल काम इतना है कि आप कब मरें, प्रतीक्षा इतनी है।
यह जो काला रंग है, इसकी कुछ खूबियां, वैज्ञानिक खूबियां समझ लेनी जरूरी हैं। काला रंग गहन भोग का प्रतीक है। काले रंग का वैज्ञानिक अर्थ होता है जब सूर्य की किरण आप तक आती है, तो उसमें सभी रंग होते हैं। इसलिए सूर्य की किरण सफेद है, शुभ्र है। सफेद सभी रंगों का जोड़ है, एक अर्थ में अगर आपकी आंख पर सभी रंग एक साथ पड़ें तो सफेद बन जाएंगे। छोटे बच्चों को स्कूल में एक सभी रंगों का वर्तुल दे दिया जाता है, उस वर्तुल को जोर से घुमाया जाता है, तो सभी रंग गड्ड-मड्ड हो जाते हैं और सफेद बन जाता है।
सफेद सभी रंगों का जोड़ है। जीवन का समग्र स्वीकार सफेद में है, कुछ अस्वीकार नहीं है, कुछ निषेध नहीं है। काला सभी रंगों का अभाव है, वहां कोई रंग नहीं है। जीवन में रंग होते हैं, मौत में कोई रंग नहीं होता। वहां कोई रंग नहीं है। जीवन रंगीन है, मौत रंग-विहीन है।
काले का अर्थ है... काला कोई रंग नहीं है, काला रंग का अभाव है। सभी रंगों के अभाव का नाम है, काला। और सभी रंगों के भाव का नाम है, सफेद। और इन दोनों के बीच में बाकी रंगों की सीढ़ियां हैं, वैज्ञानिक अर्थों में। पर पुराने प्रतीक बड़े कीमती मालूम पड़ते हैं। मृत्यु को हमने काला रंग दिया है, क्योंकि वहां जीवन की सब रंगीनी समाप्त हो जाती है। वहां कोई रंग नहीं बचता।
दुख का रंग काला है। कोई मर जाता है तो हम काले कपड़े पहनते हैं। सब जीवन का रंग शून्य हो जाता है। जब आप काले कपड़े पहनते हैं तो वैज्ञानिक रूप से क्या घटता है? सूर्य की किरणें जब काले कपड़े पर पड़ती हैं तो कोई भी किरण वापस नहीं लौटती। काले कपड़े में सभी किरणें डूब जाती हैं। आपकी आंख देख रही है, उसका मतलब यह कि काला कपड़ा दिखाई पड़ रहा है। उसका मतलब यह कि उस कपड़े से आपकी आंख तक कोई भी किरण का हिस्सा नहीं आ रहा। काले कपड़े में सभी किरणें डूब गई हैं; आप तक कोई भी किरण नहीं आ रही है, इसलिए कपड़ा काला दिखाई पड़ रहा है।
ध्यान रहे, रंग आपको दिखाई पड़ते हैं उन किरणों से जो आपकी आंखों तक आती हैं। अगर आपको लाल साड़ी दिखाई पड़ रही है, तो उसका मतलब है कि उस कपड़े से लाल किरण वापस आ रही है। प्रकाश पड़ रहा है, लाल किरण कपड़े से वापस लौट कर आपकी आंख पर आ रही है। लाल कपड़े का मतलब है कि उसने सब रंग पी लिए, सिर्फ लाल को नहीं पीया--वह लाल वापस लौट आया। पीले कपड़े का अर्थ है कि सब रंग पी लिए, पीला रंग नहीं पीया--पीला वापस लौट आया।
तो जो आपको दिखाई पड़ता है लाल, वह सब रंग पी गया, सिर्फ लाल को उसने छोड़ दिया है--तो लाल किरण आपकी आंख पर आ रही है। सफेद कपड़े का अर्थ है, उसने सभी किरणें वापस लौटा दीं, कुछ भी नहीं पीया--इसलिए आपको सफेद दिखाई पड़ रहा है।
तो एक अर्थ में काला सभी रंगों का अभाव है, क्योंकि आंख तक कोई भी किरण नहीं आती। आंख के लिए सभी रंगों का अभाव हो गया--काला। और सफेद सभी रंगों का भाव है, क्योंकि आंख तक सब किरणें आती हैं--एक अर्थ में। दूसरे अर्थ में सफेद कपड़े का अर्थ है: उसने सभी त्याग दिया, सभी किरणें वापस लौटा दीं, कुछ भी लिया नहीं।
इसलिए महावीर ने सफेद को त्याग का प्रतीक कहा है और काले को भोग का प्रतीक कहा है। उसने सभी पी लिया, कुछ भी छोड़ा नहीं--सभी किरणों को पी गया। तो जितना भोगी आदमी होगा, उतनी कृष्ण-लेश्या में डूबा हुआ होगा। जितना त्यागी व्यक्ति होगा, उतना ही कृष्ण-लेश्या से दूर उठने लगेगा।
दान और त्याग की इतनी महिमा लेश्याओं को बदलने का एक प्रयोग है। जब आप कुछ देते हैं किसी को, आपकी लेश्या तत्क्षण बदलती है। लेकिन जैसा मैंने कहा कि अगर आप व्यर्थ की चीज देते हैं तो लेश्या नहीं बदल सकती। कुछ सार्थक, जो प्रतिकर है, जो आपके हित का था और काम का था, और दूसरे के भी काम पड़ेगा--जब भी आप ऐसा कुछ देते हैं, आपकी लेश्या तत्क्षण परिवर्तित होती है। क्योंकि आप शुभ्र की तरफ बढ़ रहे हैं, कुछ छोड़ रहे हैं।
महावीर ने अंत में वस्त्र भी छोड़ दिए, सब छोड़ दिया। उस सब छोड़ने का केवल अर्थ इतना ही है कि कोई पकड़ न रखी। और जब कोई पकड़ नहीं रहती तो श्र्वेत, शुक्ल, शुभ्र-लेश्या का जन्म होता है। वह अंतिम लेश्या है; उसके पार लेश्याएं नहीं हैं।
यह सघनतम लेश्या है, काली। तो काली निम्नतम स्थिति है, और शुभ्र श्रेष्ठतम स्थिति है।
‘कृष्ण-लेश्या’ को पहली लेश्या...।
‘नील’ दूसरी लेश्या है। जो व्यक्ति अपने को भी हानि पहुंचा कर दूसरे को हानि पहुंचाने में रस लेता है, वह कृष्ण-लेश्या में डूबा है। जो व्यक्ति अपने को हानि न पहुंचे और दूसरे को हानि पहुंचे, इतनी चेष्टा करता है, खुद को हानि पहुंचने लगे तो रुक जाता है, वैसा व्यक्ति नील-लेश्या में है।
नील-लेश्या कृष्ण-लेश्या से बेहतर है। थोड़ा हलका हुआ कालापन, थोड़ा नीला हुआ। जो लोग निहित स्वार्थ में जीते हैं... यह जो पहला आदमी--जिसके बारे में मैंने कहा कि मेरी एक आंख फूट जाए--यह तो स्वार्थी नहीं है, यह तो स्वार्थ से भी नीचे गिर गया है। इसको अपनी आंख की फिकर ही नहीं है। इसको दूसरे की दो फोड़ने का रस है। यह तो स्वार्थ से भी नीचे खड़ा है।
नील-लेश्या वाला आदमी वह है, जिसको हम सेलफिश कहते हैं, जो सदा अपनी चिंता करता है। अगर उसको लाभ होता हो तो आपको हानि पहुंचा सकता है। लेकिन खुद हानि होती हो तो वह आपको हानि नहीं पहुंचाएगा। ऐसे ही आदमी को, नील-लेश्या के आदमी को हम दंड देकर रोक पाते हैं। पहले आदमी को दंड देकर नहीं रोका जा सकता। जो कृष्ण-लेश्या वाला आदमी है, उसको कोई दंड नहीं रोक सकते पाप से क्योंकि उसे फिकर ही नहीं कि मुझे क्या होता है। दूसरे को क्या होता है, उसका रस उसको नुकसान पहुंचाना। लेकिन नील-लेश्या वाले आदमी को पनिशमेंट से रोका जा सकता है। अदालत, पुलिस, भय कि पकड़ जाऊं, सजा हो जाए तो वह दूसरे को हानि करने से रुक सकता है।
तो ध्यान रहे, जो अपराधी इतने अदालत-कानून के बाद भी अपराध करते हैं, उनके पास निश्र्चित ही कृष्ण-लेश्या पाई जाएगी। और आप अगर डरते हैं अपराध करने से कि नुकसान न पहुंच जाए, और आप देख लेते हैं कि पुलिसवाला रास्ते पर खड़ा है, तो रुक जाते हैं लाल लाइट देख कर। कोई पुलिसवाला नहीं है--नील-लेश्या--कोई डर नहीं है, कोई नुकसान हो नहीं सकता है, निकल जाओ, एक सेकेंड की बात है।
मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र के साथ कार से जा रहा था। मित्र कार को भगाए लिए जा रहा है। आखिर मोटर साइकिल पर चढ़ा हुआ एक पुलिस का आदमी पीछा कर रहा है। जोर से साइरन बजा रहा है, लेकिन वह आदमी सुनता नहीं है।
दस मिनट के बाद मुश्किल से वह पुलिस का आदमी जाकर पकड़ पाया और उसने कहा कि मैं गिरफ्तार करता हूं चार कारणों से। बीच बस्ती में पचास-साठ मील की रफ्तार से तुम गाड़ी चला रहे हो। तुम्हें प्रकाश की कोई फिकर नहीं है। रेड लाइट है तो भी तुम चलाए जा रहे हो। जिस रास्ते से तुम जा रहे हो, यह वन-वे है और इसमें जाना निषिद्ध है। और मैं दस मिनट से साइरन बजा रहा हूं, लेकिन तुम सुनने को राजी नहीं हो।
नसरुद्दीन, जो उसके बगल में बैठा था, मित्र के, खिड़की से झुका और उसने कहा: यू मस्ट नॉट माइंड हिम ऑफिसर, ही इ़ज डेड ड्रंक। वह पांचवा कारण बता रहे हैं। इस पर खयाल मत करिए, वह बिलकुल बेहोश है, शराब में धुत है, माफ करने योग्य है।
जब भी आप कुछ गलत करते हैं तब आप शराब में धुत होते ही हैं। क्योंकि गलत हो ही नहीं सकता मूर्च्छा के बिना। लेकिन मूर्च्छा भी इतना खयाल रखती है कि खुद को नुकसान न पहुंचे, इतनी सुरक्षा रखती है। हममें से अधिक लोग कृष्ण-लेश्या में नहीं जीते। कभी-कभी कृष्ण लेश्या में उतरते हैं। वह हमारे जीवन का रोजमर्रा का ढंग नहीं है। लेकिन कभी-कभी हम कृष्ण-लेश्या में उतर जाते हैं।
कोई क्रोध आ जाए, तो हम उतर जाते हैं और इसीलिए क्रोध के बाद हम पछताते हैं। और हम कहते हैं, जो मुझे नहीं करना था, वह मैंने किया। जो मैं नहीं करना चाहता था, वह मैंने किया। बहुत बार हम कहते हैं कि मेरे बावजूद यह हो गया। यह आप कैसे कह पाते हैं? क्योंकि आपने ही किया। आप एक सीढ़ी नीचे उतर गए। जो आपके जीवन का ढांचा था; जिस सीढ़ी पर आप सदा जीते हैं--नील लेश्या--उससे जब आप नीचे उतरते हैं तो ऐसा लगता है कि किसी और ने आप से करवा लिया। क्योंकि उस लेश्या से आप अपरिचित हैं। नील-लेश्या शुद्ध स्वार्थ है, लेकिन कृष्ण-लेश्या से बेहतर है।
तीसरी लेश्या को महावीर ने ‘कापोत’ कहा है--कबूतर के कंठ के रंग की। नीला रंग और भी फीका हो गया, आकाशी रंग हो गया। ऐसा व्यक्ति खुद को थोड़ी हानि भी पहुंच जाए, तो भी दूसरे को हानि नहीं पहुंचाएगा। खुद को थोड़ा नुकसान भी होता हो तो सह लेगा, लेकिन इस कारण दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। ऐसा व्यक्ति परार्थी होने लगेगा। उसके जीवन में दूसरे की चिंतना और दूसरे का ध्यान आना शुरू हो जाएगा।
ध्यान रहे, पहली दो लेश्या वाले लोग प्रेम नहीं कर सकते। कृष्ण-लेश्या वाला तो सिर्फ घृणा कर सकता है। नील-लेश्या वाला व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ के संबंध बना सकता है। कापोत-लेश्या वाला व्यक्ति प्रेम कर सकता है, प्रेम का पहला चरण उठा सकता है; क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है कि दूसरा मुझसे ज्यादा मूल्यवान है। जब तक आप ही मूल्यवान हैं और दूसरा कम मूल्यवान है, तब तक प्रेम नहीं है। तब तक आप शोषण कर रहे हैं। तब तक दूसरे का उपयोग कर रहे हैं, दूसरा एक वस्तु है, व्यक्ति नहीं। जिस दिन दूसरा भी मूल्यवान है, और कभी आपसे भी ज्यादा मूल्यवान है, कि वक्त आ जाए तो आप हानि सह लेंगे लेकिन उसे हानि न सहने देंगे। तो आपके जीवन में एक नई दिशा का उदभव हुआ।
यह तीसरी लेश्या अधर्म की धर्म-लेश्या के बिलकुल करीब है, यहीं से द्वार खुलेगा। परार्थ, प्रेम, दया, करुणा की छोटी सी झलक इस लेश्या में प्रवेश होगी, लेकिन बस छोटी सी झलक।
आप दूसरे पर ध्यान देते हैं, लेकिन वह भी गहरे में अपने ही लिए। आपकी पत्नी है, अगर कोई हमला कर दे तो आप बचाएंगे उसको--यह कापोत-लेश्या है। आप बचाएंगे उसको--लेकिन आप बचा इसीलिए रहे हैं कि वह आपकी पत्नी है। किसी और की पत्नी पर कोई हमला कर रहा हो तो आप खड़े देखते रहेंगे!
‘मेरे’ का विस्तार हुआ है लेकिन ‘मेरा’ मौजूद है। और अगर आपको यह भी पता चल जाए कि यह पत्नी धोखेबाज है, तो आप हट जाएंगे। आपको पता चल जाए कि इस पत्नी का लगाव किसी और से भी है, तो सारी करुणा, सारा प्रेम, सारी दया खो जाएगी। इस प्रेम में भी एक गहरा स्वार्थ है कि पत्नी मेरी है, और पत्नी के बिना मेरा जीवन कष्टपूर्ण होगा; पत्नी जरूरी है, आवश्यक है। उस पर ध्यान गया है, उस को मूल्य दिया है, लेकिन मूल्य मेरे लिए ही है।
कापोत-लेश्या अधर्म की पतली से पतली कम से कम भारी लेश्या है। लेकिन अधर्म वहां है। हममें से मुश्किल से कुछ लोग ही इस लेश्या तक उठ पाते हैं कि दूसरा मूल्यवान हो जाए। लेकिन इतना भी जो कर पाते हैं, वह भी, वह भी काफी बड़ी घटना है। अधर्म के द्वार पर आप आ गए, जहां से दूसरे जगत में प्रवेश हो सकता है। लेकिन आमतौर से हमारे संबंध इतने भी ऊंचे नहीं होते। नील-लेश्या पर ही होते हैं। और कुछ के संबंध तो प्रेम के संबंध भी कृष्ण-लेश्या पर होते हैं।
आपने दि सादे का नाम सुना होगा। फ्रांस का एक बहुत बड़ा लेखक, जिसके नाम पर पूरा एक रोग पैदा हो गया--सैडिज्म। दि सादे जब भी किसी स्त्री को प्रेम करता था, तो पहले उसे मारेगा, पीटेगा, कोड़े लगाएगा, नाखून चुभाएगा, कीलें गपाएगा, लहूलुहान कर देगा--तभी उससे संभोग कर सकेगा, उससे प्रेम कर सकेगा। और दि सादे का कहना था कि जब तक सताओ न, तब तक दूसरा व्यक्ति जगता ही नहीं। तो पहले उसे जगाओ, जब उसको कोड़े मारो, उसका खून तेजी से बहने लगे और उत्तेजित हो जाए और विक्षिप्त हो जाए, तब जो रस है संभोग का, वह साधारणतया चुपचाप संभोग कर लेने में नहीं हो सकता। यह आदमी कृष्ण-लेश्या का आदमी है। इसका प्रेम भी हिंसा से आता है। और जब तक हिंसा तीव्र न हो जाए तब तक इसके प्रेम में उत्तेजना नहीं मालूम होगी। जैसे आप भोजन करते हैं तो मिर्च के बिना स्वाद नहीं आता, ऐसा दि सादे को जब तक मार-पीट न कर ले तब तक कोई रस नहीं आता।
लेकिन दूसरी तरह के लोग भी हैं। एक दूसरा लेखक हुआ, मैसोच, वह उलटा था। वह जब तक अपने को न पीट ले, खुद को न मार ले, तब तक वह प्रेम में नहीं उतर सकता था। तो प्रेमिका खड़ी देखेगी, वह खुद को मारेगा और प्रेमिका से भी कहेगा कि वह सहायता करे। मारे, पीटे, लहूलुहान कर दे, तब...।
दो तरह के लोग हैं कृष्ण-लेश्या में: मैसोचिस्ट और सैडिस्ट, मैसोचिवादी और सादेवादी। अगर इन दोनों का मिलन हो जाए तो विवाह बड़ा सुखद होता है। अगर एक स्वयं को दुख देने वाला, स्व-पीड़क, और पर-पीड़क--ये पति-पत्नि हो जाएं तो इनसे अच्छा जोड़ा खोजना मुश्किल है। क्योंकि पति मारे तो पत्नी रस ले, या पत्नी पीटे तो पति रस ले। इसको कहते हैं, राम मिलाई जोड़ी। इनमें बिलकुल तालमेल है। दोनों कृष्ण-लेश्या पर एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
कभी-कभी सौभाग्य से ऐसी जोड़ी भी बन जाती है, लेकिन कभी-कभी। अक्सर तो ऐसा नहीं हो पाता, क्योंकि हम इस विचार से सोचते नहीं, विवाह करते वक्त हम और सब चीजें सोचते हैं, यह कभी नहीं सोचते कि इन दोनों में एक पीड़ा देने वाला और एक पीड़ा लेने वाला होना चाहिए, नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी।
अगर मनौवैज्ञानिक के हाथ में हमने दिया कि वह तय करे कि कौन सा जोड़ा ठीक होगा, तो वह इस जोड़े को पहले तय करेगा कि यह जोड़ा बिलकुल ठीक रहेगा। इसमें कभी कलह नहीं होगी। कलह का कोई कारण नहीं है।
यह जो कृष्ण-लेश्या है इसमें प्रेम का भी जन्म हो तो वह भी हिंसा के ही माध्यम से होगा। ऐसे प्रेमियों की अदालतों में कथाएं हैं, जिन्होंने अपनी प्रेयसी को मार डाला सुहागरात पर ही! ...और बड़े प्रेम से विवाह किया था। थोड़ी-बहुत तो आप में भी, सबमें यह वृत्ति होती है--दबाने की, नाखून चुभाने की। वात्स्यायन ने अपने काम-सूत्रों में इसको भी प्रेम का हिस्सा कहा है: दांत से काटो। इसको उसने प्रेम की जो प्रक्रिया बताई है: कैसे प्रेम करें? उसने दांत से काटना भी कहा है। नाखून चुभाओ, शरीर पर निशान छूट जाएं--इनको लव मार्क्स, प्रेम के चिह्न कहा है...।
वात्स्यायन अनुभवी आदमी था, बड़ी गहरी उसकी दृष्टि रही होगी; क्योंकि वह जानता है कि कृष्ण-लेश्या वाले लोग हैं, ये जब तक सताएंगे नहीं, तब तक इनको रस ही नहीं आ सकता। जब तक ये एक-दूसरे को परेशान नहीं करेंगे, मरोड़ेंगे-तोड़ेंगे नहीं, तब तक इनको रस नहीं आ सकता। इनका रस ही पीड़ा है।
छोटे बच्चों में भी जग जाता है, कोई बड़ों में ही जगता है, ऐसा नहीं। छोटा बच्चा भी, कीड़ा दिख जाए, फौरन मसल देगा उसको पैर से। तितली दिख जाए--पंख तोड़ कर देखेगा, क्या हो रहा है? मेढक को पत्थर मार कर देखेगा, क्या हो रहा है, कुत्ते की पूंछ में डिब्बा बांध देगा--छोटा बच्चा! वह भी पीड़ा में रस ले रहा है।
छोटा बच्चा भी आपका ही छोटा रूप है, बड़ा हो रहा है। आप कुत्ते की पूंछ में डिब्बा नहीं बांधते, आप आदमियों की पूंछ में डिब्बा बांधते हैं--रस लेते हैं, फिर क्या हो रहा है? कुछ लोग उसको राजनीति कहते हैं, कुछ लोग उसको व्यवसाय कहते हैं, कुछ लोग उसको जीवन की प्रतिस्पर्धा कहते हैं; लेकिन दूसरे को सताने में बड़ा रस आता है। जब दूसरे को बिलकुल चारों खाने चित कर देते हैं, तब आपको बड़ी प्रसन्नता होती है कि जीवन में कोई परम गुह्य की उपलब्धि हो गई।
नील-लेश्या वाला व्यक्ति आमतौर से, जिसको हम विवाह कहते हैं, वह नील-लेश्या वाले व्यक्ति का लक्षण है--दूसरे से कोई मतलब नहीं है, प्रेम की कोई घटना नहीं है। इसलिए भारतीयों ने अगर विवाह पर इतना जोर दिया और प्रेम-विवाह पर बिलकुल जोर नहीं दिया, तो उसका बड़ा कारण यही है कि सौ में से निन्यानबे लोग नील-लेश्या में जीते हैं। प्रेम उनके जीवन में है ही नहीं, इसलिए प्रेम को कोई जगह देने का कारण नहीं है। उनको जीवन में कुल एक स्त्री चाहिए, जिसका वे उपयोग कर सकें--एक उपकरण।
मुल्ला नसरुद्दीन का विवाह होने को था। लड़की दिखाई नहीं गई थी। पुराने जमाने की बात थी। फिर जिस दिन सगाई का मुहूर्त होने को था, उस दिन बाप और गांव के कुछ लोग नसरुद्दीन को सजा-धजा कर लड़की वालों के गांव ले गए। पास ही गांव था। तब तक लड़की देखी नहीं गई थी, न लड़की वालों का घर देखा गया था, न परिवार के लोग देखे गए थे। वहां लड़की भी सज-धज कर तैयार थी, उसकी सखियां भी सब सज-धज कर तैयार थीं। कोई पंद्रह-बीस युवतियां स्वागत के लिए थीं।
नसरुद्दीन के बाप ने ऐसे ही नसरुद्दीन से पूछा, वह जानता तो था कि यह लड़का कुछ तिरछा-तिरछा है, ऐसे ही पूछा कि क्या तू बता सकता है, नसरुद्दीन, कि इनमें से, बीस लड़कियों में से कौन सी लड़की तेरी पत्नी होने वाली है? नसरुद्दीन ने कहा: निश्र्चित! उसने एक नजर डाली और कहा कि यह लड़की।
बाप हैरान हो गया। वह लड़की ठीक वही लड़की थी, जिससे शादी होने वाली थी। उसने कहा कि हद कर दी, नसरुद्दीन! तू कैसे पहचाना? क्योंकि तूने कभी देखा नहीं। तो नसरुद्दीन ने कहा: इसका कारण है, अभी उसको देख कर मुझे घबड़ाहट हो रही है। यही मेरी पत्नी होने वाली है, इसमें कोई शक नहीं है। अभी से मेरा डर, हृदय कंपित हो रहा है।
कोई प्रेम का संबंध नहीं है, कोई प्रेम की बात नहीं है, उपकरण चाहिए। इसलिए विवाह एक लंबी कलह है, जिसमें पति पत्नी का उपयोग कर रहा है, पत्नी पति का उपयोग कर रही है। बस दोनों साथ-साथ जी लेते हैं, इतना ही काफी है कि साथ-साथ चल लेते हैं। साथ-साथ रह कर दोनों अकेले ही रहते हैं--अलोन टुगेदर। कोई मेल नहीं हो पाता, क्योंकि मेल तो सिर्फ प्रेम से ही हो सकता है।
‘कापोत’...आकाशी रंग की जो लेश्या है, उसमें प्रेम की पहली किरण उतरती है। इसलिए अधर्म के जगत में प्रेम सबसे ऊंची घटना है। ज्यादा से ज्यादा धर्म की घटना है। और अगर आपके जीवन में प्रेम मूल्यवान है, तो उसका अर्थ है कि दूसरा व्यक्ति मूल्यवान हुआ। यद्यपि वह भी अभी आपके लिए ही है। इतना मूल्यवान नहीं है कि आप कह सकें कि मेरा न हो तो भी मूल्यवान है। अगर मेरी पत्नी किसी और के भी प्रेम में पड़ जाए तो भी मैं खुश होऊंगा क्योंकि वह खुश है। इतनी मूल्यवान नहीं है; उसके व्यक्तित्व का कोई इतना मूल्य नहीं है कि मेरे सुख के अलावा किसी और का सुख उससे निर्मित होता हो, तो भी मैं सुखी रहूं।
फिर तीन लेश्याएं हैं: ‘तेज’, ‘पदम’ और ‘शुक्ल।’ तेज का अर्थ है: अग्नि की तरह सुर्ख लाल। जैसे ही व्यक्ति तेज-लेश्या में प्रवेश करता है, वैसे ही प्रेम गहन प्रगाढ़ हो जाता है। अब यह प्रेम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करने के लिए नहीं है। अब यह प्रेम लेना नहीं है, अब यह प्रेम सिर्फ देना है, यह सिर्फ दान है। और इस व्यक्ति का जीवन प्रेम के इर्द-गिर्द निर्मित होता है। यह जो लाल रं
ग है, इसके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए; क्योंकि धर्म की यात्रा पर यह पहला रंग हुआ। आकाशी, अधर्म की यात्रा पर अंतिम रंग था। लाल, धर्म की यात्रा पर पहला रंग हुआ। इसलिए हिंदुओं ने लाल को, गैरिक को संन्यासी का रंग चुना है; क्योंकि धर्म के पथ पर वह पहला रंग है। साधक के लिए गैरिक रंग चुना है, क्योंकि उसके शरीर की पूरी आभा लाल से भर जाए। उसका आभामंडल लाल होगा, उसके वस्त्र भी उसमें तालमेल बन जाएं, एक हो जाएं। तो शरीर और उसकी आभा में, उसके वस्त्रों और आभा में किसी तरह का विरोध न रहे; एक तारतम्य, एक संगीत पैदा हो जाए।
हिंदुओं ने गैरिक को, लाल को संन्यासी का रंग चुना, क्योंकि वहां से मंजिल शुरू होती है। जैनों ने ‘शुभ्र’ को, सफेद को संन्यासी का रंग चुना, क्योंकि वहां मंजिल अंत होती है, वहां पूरी होती है।
दोनों सही और गलत हो सकते हैं, हिंदू कह सकते हैं कि जो अभी हुआ नहीं, उस रंग को चुनना ठीक नहीं है, प्रथम को ही चुनना ठीक है; क्योंकि अभी साधक यात्रा शुरू कर रहा है, अभी मंजिल मिली नहीं। और जैन कह सकते हैं कि मंजिल को ही ध्यान में रखना उचित है। जो आज है वह मूल्यवान नहीं है, जो वस्तुतः कल होगा; अंत में, वही मूल्यवान है। उसी पर नजर होनी चाहिए।
दोनों सही हो सकते हैं, दोनों गलत हो सकते हैं। लेकिन दोनों मूल्यवान हैं।
हिंदू ने लाल रंग चुना है संन्यासी के लिए। जैन ने सफेद रंग चुना है। बौद्धों ने पीला रंग चुना है--दोनों के बीच। बुद्ध हमेशा मध्य-मार्ग के पक्षपाती थे, हर चीज में।
ये तीन धर्म के रंग हैं--तेज, पदम, शुक्ल। ‘तेज’ हिंदुओं ने चुना है। ‘शुक्ल’ जैनों ने चुना है। ‘पदम’--पीला, पीत-वस्त्र बुद्ध ने अपने भिक्षुओं के लिए चुने हैं; क्योंकि बुद्ध कहते हैं कि जो है वह मूल्यवान नहीं, क्योंकि उसे छोड़ना है, और जो अभी हुआ नहीं वह भी बहुत मूल्यवान नहीं, क्योंकि उसे अभी होना है--दोनों के बीच में साधक है।
लाल यात्रा का प्रथम चरण है, शुभ्र यात्रा का अंतिम चरण है--पूरी यात्रा तो पीत की है। इसलिए बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए पीला रंग चुना है। तीनों चुनाव अपने आप में मूल्यवान हैं; कीमती, बहुमूल्य हैं।
यह जो लाल रंग है, यह आपके आस-पास तभी प्रकट होना शुरू होता है, जब आपके जीवन से स्वार्थ बिलकुल शून्य हो जाता है, अहंकार बिलकुल टूट जाता है। यह लाल आपके अहंकार को जला देता है। यह अग्नि आपके अहंकार को जला देती है। जिस दिन आप ऐसे जीने लगते हैं जैसे ‘मैं नहीं हूं’, उस दिन धर्म की तरंगें उठनी शुरू हो जाती हैं। जितना आपको लगता है कि ‘मैं हूं’, उतनी ही अधर्म की तरंगें उठती हैं। क्योंकि ‘मैं’ का भाव ही दूसरे को हानि पहुंचाने का भाव है। मैं हो ही तभी सकता हूं, जब मैं आपको दबाऊं। जितना आपको दबाऊं, उतना ज्यादा मेरा ‘मैं’ मजबूत होता है। सारी दुनिया को दबा दूं पैरों के नीचे, तभी मुझे लगेगा कि ‘मैं हूं।’
अहंकार दूसरे का विनाश है। धर्म शुरू होता है वहां से, जहां से हम अहंकार को छोड़ते हैं। जहां से मैं कहता हूं कि अब मेरे अहंकार की अभीप्सा, वह जो अहंकार की महत्वाकांक्षा थी, वह मैं छोड़ता हूं। प्रतिस्पर्धा छोड़ता हूं, संघर्ष छोड़ता हूं, दूसरे को हराना, दूसरे को मिटाना, दूसरे को दबाने का भाव छोड़ता हूं। अब मेरे प्रथम होने की दौड़ बंद होती है। अब मैं अगर अंतिम भी खड़ा हूं, तो प्रसन्न हूं।
संन्यासी का अर्थ ही यही है कि जो अंतिम खड़े होने को राजी हो गया। जीसस ने कहा है, मेरे प्रभु के राज्य में वे प्रथम होंगे, जो यहां पृथ्वी के राज्य में अंतिम खड़े होने को राजी हैं।
ध्यान रहे, ‘अंतिम खड़े हैं’, ऐसा नहीं कहा है--‘अंतिम खड़े होने को राजी हैं।’ अंतिम तो बहुत लोग खड़े हैं लेकिन खड़े नहीं रहना चाहते हैं वहां। मजबूरी है कि क्यू में कोई आगे जाने ही नहीं देता, ज्यादा ताकतवर लोग आगे खड़े हैं। क्यू से निकल नहीं पाते हैं, इच्छा तो निकलने की है। दिल तो क्यू में आगे ही खड़े होने का है। लेकिन खड़े पीछे हैं, यह मजबूरी है। इस मजबूरी वाले को प्रभु के राज्य में प्रथम मौका मिल जाएगा, ऐसा नहीं है।
जीसस कहते हैं: जो अंतिम खड़ा होने को राजी है। जो पहले की तलाश ही नहीं करता, जो चुपचाप पीछे खड़ा है, और पीछे संतुष्ट है। और हैरान है कि आगे होने की इतनी दौड़ क्यों चल रही है? क्या होगा...? आगे होकर क्या होगा?
संन्यासी का अर्थ है: जिसने महत्वाकांक्षा छोड़ दी, जिसने संघर्ष छोड़ दिया; जिसने दूसरे अहंकारों से लड़ने की वृत्ति छोड़ दी। इस घड़ी में चेहरे के आस-पास लाल, गैरिक रंग का उदय होता है। जैसे सुबह का सूरज जब उगता है, जैसा रंग उस पर होता है, वैसा रंग पैदा होता है। इसलिए संन्यासी अगर सच में संन्यासी हो, तो उसके चेहरे पर जो रक्ताभ, जो लाली होगी, जो सूर्य के उदय के क्षण की ताजगी होगी, वही खबर दे देगी।
‘पदम’...महावीर कहते हैं, दूसरी धर्म-लेश्या है: ‘पीत।’ इस लाली के बाद जब जल जाएगा अहंकार... स्वभावतः अग्नि की तभी तक जरूरत है जब तक अहंकार जल न जाए। जैसे ही अहंकार जल जाएगा, तो लाली पीत होने लगेगी। जैसे, सुबह का सूरज जैसे-जैसे ऊपर उठने लगेगा, वैसा लाल नहीं रह जाएगा, पीला हो जाएगा। स्वर्ण का पीत रंग प्रकट होने लगेगा। जब स्पर्धा छूट जाती है, संघर्ष छूट जाता है, दूसरों से तुलना छूट जाती है और व्यक्ति अपने साथ राजी हो जाता है--अपने में ही जीने लगता है--जैसे संसार हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता--यह ध्यान की अवस्था है।
लाल रंग की अवस्था में व्यक्ति पूरी तरह प्रेम से भरा होगा, खुद मिट जाएगा, दूसरे महत्वपूर्ण हो जाएंगे। पीत की अवस्था में न खुद रहेगा, न दूसरे रहेंगे, सब शांत हो जाएगा। पीत ध्यान की अवस्था है--जब व्यक्ति अपने में होता है, दूसरे का पता ही नहीं चलता कि दूसरा है भी। जिस क्षण मुझे भूल जाता है कि ‘मैं हूं’, उसी क्षण यह भी भूल जाएगा कि दूसरा भी है।
पीत, बड़ा शांत, बड़ा मौन, अनउद्विग्न रंग है। स्वर्ण की तरह शुद्ध, लेकिन कोई उत्तेजना नहीं। लाल रंग में उत्तेजना है, वह धर्म का पहला चरण है।
इसलिए, ध्यान रहे, जो लोग धर्म के पहले चरण में होते हैं, बड़े उत्तेजित होते हैं। धर्म के प्रति बड़े ऑब्सेस्ड होते हैं। धर्म उनके लिए खींचता है--जोर से। धर्म भी एक ज्वर की तरह होता है। लेकिन जैसे-जैसे धर्म में गति होती जाती है, वैसे-वैसे सब शांत हो जाता है।
पश्र्चिम के धर्म हैं--ईसाइयत है, वह लाल रंग को अभी भी पार नहीं कर पाई; क्योंकि अभी भी दूसरे को कनवर्ट करने की आकांक्षा है। इस्लाम लाल रंग को पार नहीं कर पाया। गहन दूसरे पर ध्यान है, दूसरे को बदल देना है, किसी भी तरह बदल देना है, उसकी वजह से एक मतांधता है।
आप जान कर हैरान होंगे कि दुनिया के दो पुराने धर्म--हिंदू और यहूदी, दोनों पीत अवस्था में हैं। हिंदुओं और यहूदियों ने कभी किसी को बदलने की कोशिश नहीं की। बल्कि कोई आ भी जाए तो बड़ा मुश्किल है उसको भीतर लेना। द्वार जैसे बंद हैं, सब शांत है। दूसरे में कोई उत्सुकता नहीं है। संख्या कितनी है, इसकी कोई फिकर नहीं है।
व्यक्ति जब पहली दफा धार्मिक होना शुरू होता है, तो बड़ा धार्मिक जोश-खरोश होता है। यही लोग उपद्रव का कारण भी हो जाते हैं, क्योंकि उनमें इतना जोश-खरोश होता है कि वे फैनेटिक हो जाते हैं; वे अपने को ठीक मानते हैं, सबको गलत मानते हैं। और सबको ठीक करने की चेष्टा में लग जाते हैं--दयावश! लेकिन वह दया भी कठोर हो सकती है।
जैसे ही ध्यान पैदा होता है, प्रेम शांत होता है। क्योंकि प्रेम में दूसरे पर नजर होती है, ध्यान में अपने पर नजर आ जाती है। पीत-लेश्या--पदम-लेश्या ध्यानी की अवस्था है। बारह वर्ष तक महावीर उसी अवस्था में थे। और पीला भी जब और बिखरता जाता है, विलीन होता जाता है तो शुभ्र का जन्म होता है। जैसे सांझ जब सूरज डूब जाता है--रात नहीं आई और सूरज डूब गया, और संध्या फैल जाती है--शुभ्र, कोई उत्तेजना नहीं, वह समाधि की अवस्था है। उस क्षण में सभी लेश्याएं शांत हो गईं, सभी लेश्याएं सफेद बन गईं--शुभ्र बच रहा है। वह अंतिम अवस्था है चित्त की तरफ से।
ये चित्त की लेश्याएं हैं। ‘शुभ्र’ चित्त की आखिरी अवस्था है। झीने से झीना पर्दा बचा है, वह भी खो जाएगा। तो सातवीं को महावीर ने नहीं गिनाया; क्योंकि सातवीं फिर चित्त की अवस्था नहीं, आत्मा का स्वभाव है। वहां सफेद भी नहीं बचता। उतनी उत्तेजना भी नहीं रह जाती, सब रंग खो जाते हैं।
मृत्यु में जैसे खोते हैं, वैसे नहीं, जैसा काले में खोते हैं, वैसे नहीं--मुक्ति में जैसे खोते हैं। काले में तो सारे रंग इसलिए खो जाते हैं कि काला सभी रंगों को हजम कर जाता है, पी जाता है, भोग लेता है। मुक्ति में सभी रंग इसलिए खो जाते हैं कि किसी भी रंग पर पकड़ नहीं रह जाती; जीवन की कोई वासना, जीवन की कोई आकांक्षा, जीवेषणा नहीं रह जाती--सभी रंग खो जाते हैं। इसलिए सफेद के बाद जो अंतिम छलांग है, वह भी रंग-विहीन है।
और ध्यान रहे, मृत्यु और मोक्ष बड़े एक जैसे हैं और बड़े विपरीत भी; दोनों में रंग खो जाते हैं। एक में इसलिए रंग खो जाते हैं कि जीवन खो जाता है, दूसरे में इसलिए रंग खो जाते हैं कि जीवन पूर्ण हो जाता है, और अब रंगों की कोई इच्छा नहीं रह जाती।
मोक्ष मृत्यु जैसा है, इसलिए मुक्त होने से हम डरते हैं। जो मरने को राजी है, वही मुक्त हो सकता है। जो जीवन को पकड़ता है, वह बंधन में बना रहता है। ‘जीवेषणा’, तनहा जिसको बुद्ध ने कहा है, लस्ट फॉर लाइफ, वही इन रंगों का फैलाव है। और अगर जीवेषणा बहुत ज्यादा हो तो दूसरे की मृत्यु बन जाती है--वह कृष्ण-लेश्या है। अगर जीवेषणा तरल होती जाए, कम होती जाए, फीकी होती जाए, तो दूसरे का जीवन बन जाती है--वह प्रेम है।
ये महावीर ने छह लेश्याएं कही हैं। अभी पश्र्चिम में इस पर खोज चलती है तो अनुभव में आता है कि ये छह रंग करीब-करीब वैज्ञानिक सिद्ध होंगे। और मनुष्य के चित्त को नापने की इससे कुशल कुंजी दूसरी नहीं हो सकती, क्योंकि यह बाहर से नापा जा सकता है, भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे एक्सरे लेकर कहा जा सकता है कि भीतर कौन सी बीमारी है, वैसे आपके चेहरे का ऑरा पकड़ा जाए तो उस ऑरे से पता चल सकता है कि चित्त किस तहर से रुग्ण है, कहां अटका है। और तब मार्ग खोजे जा सकते हैं कि क्या किया जाए कि चित्त इस लेश्या के ऊपर उठे।
अंतिम घड़ी तो लक्ष्य वही है, जहां कोई लेश्या न रह जाए। लेश्या का अर्थ: जो बांधती है, जिससे हम बंधन में होते हैं, जो रस्सी की तरह हमें चारों तरफ से घेरे रहती है। जब सारी लेश्याएं गिर जाती हैं तो जीवन की परम ऊर्जा मुक्त हो जाती है। उस मुक्ति के क्षण को हिंदुओं ने ‘ब्रह्म’ कहा है--बुद्ध ने ‘निर्वाण’ कहा है--महावीर ने ‘कैवल्य’ कहा है।
‘कृष्ण, नील, कापोत--ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।’
‘तेज, पदम और शुक्ल--ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव सदगति में उत्पन्न होता है।’
ध्यान रहे, शुभ्र-लेश्या के पैदा हो जाने पर भी जन्म होगा। अच्छी गति होगी, सदगति होगी, साधु का जीवन होगा। लेकिन जन्म होगा क्योंकि लेश्या अभी भी बाकी है, थोड़ा सा बंधन शुभ्र का बाकी है। इसलिए पूरा विज्ञान विकसित हुआ था प्राचीन समय में--मरते हुए आदमी के पास ध्यान रखा जाता था कि उसकी कौन सी लेश्या मरते क्षण में है, क्योंकि जो उसकी लेश्या मरते क्षण में है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि वह कहां जाएगा, उसकी कैसी गति होगी।
सभी लोगों के मरने पर लोग रोते नहीं थे, लेश्या देख कर... अगर कृष्ण-लेश्या हो तो ही रोने का कोई अर्थ है। अगर कोई अधर्म-लेश्या हो तो रोने का अर्थ है, क्योंकि यह व्यक्ति फिर दुर्गति में जा रहा है, दुख में जा रहा है, नरक में भटक रहा है।
तिब्बत में बारदो पूरा विज्ञान है, और पूरी कोशिश की जाती थी कि मरते क्षण में भी इसकी लेश्या बदल जाए, तो भी काम का है। मरते क्षण में भी इसकी लेश्या काली से नील हो जाए, तो भी इसके जीवन का तल बदल जाएगा। क्योंकि जिस क्षण में हम मरते हैं--जिस ढंग से, जिस अवस्था में--उसी में हम जन्मते हैं। ठीक वैसे, जैसे रात आप सोते हैं, तो जो विचार आपका अंतिम होगा, सुबह वही विचार आपका प्रथम होगा।
इसे आप प्रयोग करके देखें। बिलकुल आखिरी विचार रात सोते समय जो आपके चित्त में होगा, जिसके बाद आप खो जाएंगे अंधेरे में नींद के--सुबह जैसे ही जागेंगे, वही विचार पहला होगा। क्योंकि रातभर सब स्थगित रहा, जो अंतिम था वही पहले सुबह प्रथम बनेगा। बीच में तो गैप है, अंधकार है, सब खाली है। इसलिए हमने मृत्यु को महानिद्रा कहा है। इधर मृत्यु के आखिरी क्षण में जो लेश्या होगी, जन्म के समय में वही पहली लेश्या होगी।
इसलिए मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति कहां जा रहा है। मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति जाएगा कहीं या नहीं जाएगा और महाशून्य के साथ एक हो जाएगा। जन्म के समय भी जाना जा सकता है। ज्योतिष बहुत भटक गया, और कचरे में भटक गया। अन्यथा जन्म के समय सारी खोज इस बात की थी कि व्यक्ति किस लेश्या को लेकर जन्म रहा है। क्योंकि उसके पूरे जीवन का ढंग और ढांचा वही होगा।
बुद्ध पैदा हुए...। और जब भी कोई व्यक्ति श्र्वेत-लेश्या के साथ मरता है, तो जो लोग भी धर्म-लेश्याओं में जीते हैं--पीत या लाल--उन लोगों को अनुभव होता है; क्योंकि यह घटना जागतिक है। और जब भी कोई व्यक्ति शुभ्र लेश्या में जन्म लेता है तो जो लोग भी धर्म और पीत लेश्याओं के करीब होते हैं, या शुभ्र लेश्या में होते हैं, उनको अनुभव होता है कि कहां कौन पैदा हो रहा है।
जीसस के जन्म पर पूरब से तीन व्यक्ति जीसस की खोज में निकले। जीसस का जन्म हुआ बेथलहम की एक जहां जानवर बांधे जाते हैं, उस पशुशाला में गरीब बढ़ई के घर। और पूरब के तीन मनीषी यात्रा पर निकले कि कहीं कोई शुभ्र-लेश्या का व्यक्ति जन्मा है। इन तीन की वजह से हेरोत को पता चला, सम्राट को पता चला, क्योंकि ये तीन पहले हेरोत के पास पहुंचे। इन्हें क्या पता? इन्होंने कहा, सम्राट खुश होगा। इन्होंने जाकर हेरोत को कहा कि तुम्हारे राज्य में कोई व्यक्ति पैदा हुआ है, क्योंकि हम तीनों को संकेत मिले हैं। और हम तीनों ने ध्यान में यह जाना है। हम तीनों को यात्रा कराता हुआ आकाश में एक शुभ्र तारा चला है, और वह तारा बेथलहम पर आकर रुक गया है, तुम्हारे राज्य में। इस गांव में कोई व्यक्ति जन्मा है जो सच में सम्राट है।
यह बात हेरोत को अखर गई--सच में सम्राट! तो उसने कहा कि तुम जाओ और उसका पता लगाओ, और लौटते में मुझे खबर करते जाना। हेरोत ने तय कर लिया कि हत्या कर देगा इस बच्चे की। क्योंकि सच में कोई सम्राट जन्म जाए तो मेरा क्या होगा? अहंकार, प्रतिस्पर्धा!
वे तीनों व्यक्ति खोज करते हुए उस जगह पहुंचे। उस पशुशाला में जहां जीसस का जन्म हुआ था--घुड़साल में, उन्होंने जीसस की मां को भेंटें दीं, जीसस के चरण छुए। और उसी रात उनको स्वप्न आया कि तुम लौट कर हेरोत के पास मत जाओ, तुम भाग जाओ यहां से। और जीसस की मां को कह दो कि वह बच्चे को लेकर जितनी जल्दी हो सके बेथलहम छोड़ दे। उसी रात तीनों मनीषी छोड़ गए राज्य को और जीसस की मां और पिता लेकर इजिप्त जीसस को चले गए।
बुद्ध का जन्म हुआ, तो हिमालय से एक महर्षि भागा हुआ बुद्ध की राजधानी में आया। उस वृद्ध तपस्वी को देख कर बुद्ध के पिता बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि तुम्हें पता कैसे चला? तो उसने कहा कि पता चल गया; क्योंकि जिस लेश्या में मैं हूं, जिस क्षण में मैं हूं, वहां से दिखाई पड़ सकता है। अगर कोई इतना शुभ्र तारा जमीन पर पैदा हो। तुम्हारा बच्चा तीर्थंकर होने को है, बुद्ध होने को है।
बच्चे को लाया गया। बुद्ध के पिता तो बहुत हैरान हुए! उनको तो भरोसा न आया कि यह आदमी पागल तो नहीं है, क्योंकि उसने बच्चे के चरणों में सिर रख दिया। अभी कुछ ही दिन का बच्चा, और वह मनीषी रोने लगा ़जार-़जार! बुद्ध के पिता डरे, और उन्होंने कहा कि क्या कुछ अशुभ होने को है? तुम रोते क्यों हो?
तो उसने कहा कि नहीं, मैं इसलिए रोता हूं कि मेरी मृत्यु करीब है; और जिस क्षण यह व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होगा, उस समय मैं इसका सान्निध्य न पा सकूंगा। और ऐसी घड़ी को उपलब्ध होने की घटना कभी-कभी हजारों वर्षों में घटती है। तो मैं अपने लिए रो रहा हूं, इसके लिए नहीं रो रहा हूं। इसका तो यह आखिरी जीवन का शिखर है।
श्र्वेत-लेश्या को लेकर जो व्यक्ति पैदा होता है, वह निर्वाण को उपलब्ध हो सकता है--इसी जन्म में। क्योंकि धर्म की अंतिम सीमा पर पहुंच गया, अब धर्म के भी पार जा सकता है।
निर्वाण, ब्रह्म, मोक्ष--अधर्म के तो पार हैं ही, धर्म के भी पार हैं।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, फिर जाएं...!
किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य।
सुक्कलेसा य छट्ठा य, नामाइं तु जहक्कमं।।
किण्हा नीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गइं उववज्जई।।
तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई।।
कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल--ये लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं।
कृष्ण, नील, कापोत--ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।
तेज, पदम और शुक्ल--ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव सदगति में उत्पन्न होता है।
महावीर की उत्सुकता न तो काव्य में है, और न तर्क में। उनकी उत्सुकता है जीवन के तथ्य, जीवन की वैज्ञानिक खोज, आविष्कार में। इसलिए महावीर ने समाधि के कोई गीत नहीं गाए। और न ही महावीर ने जो कहा है उसके लिए कोई तर्क उपस्थित किए हैं। तर्क उपस्थित किए जा सकते हैं, हर बात के लिए। और ऐसी कोई भी बात नहीं, जिसके पक्ष में या विपक्ष में तर्क उपस्थित न किए जा सकें। तर्क दुधारी तलवार है। तर्क मंडन भी कर सकता है, खंडन भी। लेकिन तर्क से कोई सत्य की निष्पत्ति नहीं होती।
काव्य अभिव्यक्ति है। जो अनुभव हुआ है, उसके आनंद की झलक उसमें मिल सकती है। लेकिन आनंद कैसे अनुभव हुआ है, उसका विज्ञान उससे निर्मित नहीं होता। अधिक शास्त्र तार्किक हैं, जिनको बुद्धि की खुजली है, उनके लिए उनमें रस हो सकता है। शेष शास्त्र काव्यात्मक हैं, जिन्हें अनुभव हुआ है, उन्हें उन शास्त्रों में अपनी अभिव्यक्ति मिल सकती है। बहुत थोड़े से शास्त्र वैज्ञानिक हैं; उनके लिए हैं जिन्हें न तो बुद्धि की खुजली की बीमारी है, और न जो पहुंच गए हैं। जो जीवन में उलझे हैं और मार्ग की तलाश कर रहे हैं।
महावीर उस तीसरे कोण से ही बोल रहे हैं।
मैंने सुना है, एक यहूदी पंडित की मृत्यु हुई। वह ईश्र्वर के सामने उपस्थित किया गया। ईश्र्वर ने उससे पूछा कि पृथ्वी पर तुम क्या कर रहे थे पूरे जीवन? तो उस पंडित ने कहा: मैं धर्म का, शास्त्र का, शास्त्र को सिद्ध करने वाले तर्कों का अध्ययन कर रहा था। ईश्र्वर ने कहा: मैं खुश हूं, मेरे आनंद के लिए तुम कोई तर्क, ‘ईश्र्वर है’, इसके प्रमाण में उपस्थित करो।
पंडित ने जीवन भर तर्क किए थे, लेकिन ईश्र्वर को सामने पाकर उसकी बुद्धि अड़चन में पड़ गई। क्या तर्क उपस्थित करे ईश्र्वर के होने का? दो क्षण तो वह सोचता रहा, फिर कुछ सूझा नहीं, बुद्धि खाली मालूम पड़ी, तो उसने कहा कि बड़ी मुश्किल है--आपके कानों के योग्य मैं कुछ कह सकूं, ऐसा खोज नहीं पाता, अच्छा तो यह हो कि आप खुद ही कोई तर्क उपस्थित करें--यू परफार्म सम पॉइंट, एंड आइ विल शो यू हाउ टु रिफ्यूट इट--आप ही कोई तर्क उपस्थित कर दें और मैं तरकीब बताऊंगा कि उसका खंडन कैसे किया जा सकता है।
ठीक से समझें तो तर्क सदा खंडनात्मक है, निषेधात्मक है। वस्तुतः बुद्धि का स्वभाव नकार है। इसे समझ लें, ठीक से। बुद्धि का स्वभाव निगेटिव है, नकारात्मक है। जब बुद्धि कहती है नहीं--तभी होती है। और जब आप कहते हैं हां, तब बुद्धि विसर्जित हो जाती है, हृदय होता है। जब भी आपके भीतर ‘हां’ होती है, ‘यस’ होता है, तब हृदय होता है। और जब ‘नहीं’ होती है, ‘नो’ होता है, तब बुद्धि होती है। इसलिए जो व्यक्ति जीवन को पूरी तरह ‘हां’ कह सकता है, वह आस्तिक है; और जो व्यक्ति ‘नहीं’ पर जोर दिए चला जाता है, वह नास्तिक है।
नास्तिक होने से कोई संबंध नहीं कि वह ईश्र्वर को अस्वीकार करता है या नहीं करता। नास्तिक होने का अर्थ है कि ‘नहीं’ उसके जीवन की व्यवस्था है; ‘न’ कहना उसका सुख है, ‘हां’ कहने में उसे अड़चन है, कठिनाई है।
इसलिए आप देखते हैं, जैसे ही बच्चे में बुद्धि आनी शुरू होती है वह इनकार करना शुरू कर देता है। जैसे ही बच्चा जवान होने लगता है, उसकी अपनी बुद्धि चलने लगती है, उसे ‘न’ कहने में रस आने लगता है, ‘हां’ कहना मजबूरी मालूम पड़ती है।
बुद्धि का स्वभाव संदेह है, हृदय का स्वभाव श्रद्धा है। तो कुछ लोग हैं जिनको तर्क की ही कुल जमा बेचैनी है, पक्ष में या विपक्ष में। और कोई अंतर नहीं पड़ता, जो तर्क पक्ष में है वही विपक्ष में हो सकता है। तर्क वेश्या है। वह कोई गृहिणी नहीं है, कोई पत्नी नहीं है; कोई एक पति से उसका संबंध नहीं है। जो उसे पैसे दे, उसी के साथ है।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़े वकील डॉक्टर हरिसिंह गौर, जिन्होंने सागर विश्र्वविद्यालय की स्थापना की, प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ रहे थे। भुलक्कड़ स्वभाव के आदमी थे। तो जो उनका सहयोगी वकील था, वही उनको सब सूचनाएं दे देता था रास्ते में कि अदालत में क्या-क्या, किस-किस संबंध में उनको विवाद करना है। उस दिन सहयोगी वकील बीमार था और हरिसिंह गौर भूल गए कि वे किसके पक्ष में हैं और किसके विपक्ष में। प्रिवी कौंसिल में जाकर उन्होंने बोलना शुरू कर दिया।
न्यायाधीश भी चकित हुए, विरोधी वकील भी हैरान हुआ; क्योंकि वे अपने ही मुवक्किल के खिलाफ बोल रहे थे, और ऐसे तर्क दे रहे थे कि अब कोई उपाय ही न रहा। विरोधी वकील हैरान हुआ कि अब मैं क्या करूंगा, उसको करने को कुछ बचा ही नहीं। तभी असिस्टेंट को खयाल आया कि वह तो बीमार पड़ा है, लेकिन कुछ गड़बड़ न हो जाए, तो वह भागा हुआ आया। तब तक तो वे फैसला ही कर चुके थे अपने मुवक्किल का पूरी तरह से। आकर उसने उनका कोट हिलाया और कान में कहा कि आप क्या कर रहे हैं? यह अपना मुवक्किल है! तो उन्होंने कहा कि कोई फिकर न करो।
उन्होंने कहा: न्यायाधीश महोदय! अब तक मैंने वे दलीलें दीं, जो मेरा विरोधी पक्ष का वकील देना चाहेगा, अब मैं उनका खंडन शुरू करता हूं। और उन्होंने खंडन किया। और जितनी प्रबलता से समर्थन किया था, उतनी ही प्रबलता से खंडन भी किया।
वकील और वेश्या में बड़ा संबंध है। वेश्या अपना शरीर बेचती है, वकील अपनी बुद्धि बेचता है। उसके पास अपना कोई पक्ष नहीं है। जो भी पक्ष खरीद सकता है, वही उसका पक्ष है।
तर्क वेश्या है। इसलिए महावीर, बुद्ध या कृष्ण जैसे लोगों की उत्सुकता तर्क में नहीं है, और मैंने कहा कि उनकी उत्सुकता काव्य में भी नहीं है; क्योंकि काव्य तो आखिरी फूल है। जब कोई व्यक्ति समाधि को उपलब्ध होता है, तो उसके जो गीत की स्फुरणा होती है, वह जो संगीत उससे बहने लगता है, उसके उठने-बैठने में काव्य आ जाता है, वह अंतिम चीज है। उसका रस लिया जा सकता है। लेकिन उसका रस वे ही ले सकते हैं जो उस जगह तक पहुंच गए हैं। साधक के लिए उसका कोई मूल्य नहीं है। खतरा भी है।
सोलोमन के गीत हैं बाइबिल में। वे समाधिस्थ व्यक्ति के गीत हैं। लेकिन बड़ा खतरा हुआ है। क्योंकि सोलोमन ने अपनी उस परम समाधि को स्त्री-पुरुष के प्रतीक से प्रकट किया है। क्योंकि उससे बेहतर कोई प्रतीक हो भी नहीं सकता। जीवन में मिलन का जो आत्यंतिक अनुभव हो सकता है साधारण मनुष्य को, वह दो प्रेमियों का मिलन है। इसलिए सोलोमन ने अपने समाधि की पूरी व्यवस्था को, पूरी अनुभूति को स्त्री और पुरुष के प्रेम से प्रकट किया है।
लेकिन खुद बाइबिल पर भक्ति रखने वाले लोग भी सोलोमन के गीत से डरते हैं; क्योंकि लगता है कि वह गीत तो अत्यंत पार्थिव है। लेकिन मजबूरी है। उस परम तत्व को भी अगर गीत में प्रकट करना हो तो इस जगत में गीत की जो भाषा है--‘प्रेम’, उसी में प्रकट करना पड़ेगा। इसलिए अनेकों को मीरा के गीत में कामवासना की झलक मिल सकती है। क्योंकि मीरा कह रही है कि आओ, मेरी सेज पर सोओ। मैं तैयार बैठी हूं, तुम कहां हो? मैंने फूल बिछा दिए हैं, सेज तैयार है; दिया जला लिया है, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं। और जब तक तुम आकर मेरी सेज पर मेरे साथ न सो जाओ, तब तक मुझे चैन नहीं आएगा।
यह भाषा प्रेमियों की है। इसलिए अगर फ्रायड को मानने वाले लोग मीरा का अध्ययन करें तो उन्हें लगेगा कि जरूर कोई कामवासना भीतर दबी रह गई है। गीत में अगर प्रकट करना हो उस परम सत्य को तो भाषा प्रेम की ही चुननी पड़ेगी, और कोई उपाय नहीं। क्योंकि इस पृथ्वी पर निकटतम--उस परम तत्व के करीब, प्रेम ही आता है।
लेकिन तब खतरा है। और डर यह है कि पढ़ने वाले लोग समाधि की तरफ तो न झुकें, संभोग की तरफ झुक जाएं। और डर यह है कि उनके मन में इससे उस परम का विचार तो पैदा न हो, लेकिन क्षुद्र वासना का जन्म हो जाए।
महावीर तर्क की चिंता नहीं करते। महावीर गीत की भी चिंता नहीं करते। महावीर आत्मिक जीवन का शुद्ध विज्ञान उपस्थित करना चाहते हैं। वह दिशा बिलकुल अलग है। क्या अनुभव हुआ है, उसे प्रकट करना व्यर्थ है, उन लोगों के सामने जिन्हें कोई अनुभव नहीं हुआ। कैसे अनुभव हो सकता है, उसकी प्रक्रिया ही प्रकट करनी आवश्यक है। और अनुभव के मार्ग पर क्या-क्या घटित होगा, उसका नक्शा देना जरूरी है। क्योंकि अनंत है यात्रा और कहीं से भी भटकाव हो सकता है। अनंत हैं पहेलियां, अनंत हैं मोड़, एक पगडंडियों का जाल है, उसमें अगर नक्शा साफ न हो तो आप एक भूलभुलैया में भटक जाएंगे।
इसलिए महावीर की पूरी चेष्टा है, एक स्प्रिचुअल मैप, एक आध्यात्मिक नक्शा निर्मित करने की कि आपके हाथ में एक ठीक गाइड हो और आप एक-एक कदम जांच कर सकें; और एक-एक पड़ाव को पहचान सकें कि यात्रा ठीक चल रही है, दिशा ठीक है। और जिस तरफ मैं जा रहा हूं वहां अंततः मुक्ति उपलब्ध हो पाएगी। यह दृष्टि खयाल में रहे तो महावीर को समझना बहुत आसान हो जाएगा।
अब उनका हम सूत्र लें:
‘कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल--ये लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं।’
यह किताब ऐसी मालूम पड़ती है, महावीर के वचनों की--जैसे फिजिक्स की हो, केमिस्ट्री की हो, गणित की हो। इसलिए बहुत कम लोग इसमें रस ले पाएंगे। गीता का पाठ किया जा सकता है, एक महाकाव्य छिपा है। महावीर की बातें सीधी गणित की हैं, जैसे कि यूक्लिड थ्योरम लिख रहा हो, ज्यामिति की।
‘कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पदम और शुक्ल--ये छह लेश्याओं के क्रमशः छह नाम हैं।’
तो पहले तो समझ लें कि ‘लेश्या’ क्या है? महावीर के कुछ खास परिभाषिक शब्दों में एक लेश्या भी एक है।
ऐसा समझें कि सागर शांत है, कोई लहर नहीं है। फिर हवा का एक झोंका आता है, लहरें उठनी शुरू हो जाती हैं, तरंगें उठती हैं, सागर डांवाडोल हो जाता है, छाती अस्त-व्यस्त हो जाती है, सब अराजक हो जाता है। महावीर कहते हैं, शुद्ध आत्मा तो शांत सागर की तरह है, अशुद्ध आत्मा अशांत सागर की तरह है, जिस पर लहरें ही लहरें भर गई हैं। उन लहरों का नाम ‘लेश्या’ है। मनुष्य की चेतना में जो लहरें हैं, उनका नाम लेश्या है। और जब सब लेश्याएं शांत हो जाती हैं, तो शुद्ध आत्मा की प्रतीति होती है। इन लेश्याओं में भी छह तरह की लेश्याओं का महावीर ने विभाजन किया है। तो लेश्या का अर्थ हुआ चित्त की वृत्तियां।
जिसको पतंजलि ने ‘चित्त-वृत्ति’ कहा है, उसको महावीर ‘लेश्या’ कहते हैं। चित्त की वृत्तियां, चित्त के विचार, वासनाएं, कामनाएं, लोभ, आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, ये सब लेश्याएं हैं। अनंत लेश्याओं से आदमी घिरा है। प्रतिपल कोई न कोई तरंग पकड़े हुए है।
और ध्यान रहे, जब सागर में तरंगें होती हैं तो आपको तरंगें ही दिखाई पड़ती हैं, सागर तो बिलकुल छिप जाता है। जब तरंगें नहीं होतीं, तभी सागर होता है, तभी सागर दिखाई पड़ता है। तो जितनी ज्यादा तरंगें होंगी चित्त की, उतना ही ज्यादा भीतर का जो गहन सागर है, वह अनुभव में नहीं आएगा। और हम चित्त की तरंगों से ही उलझे रह जाते हैं, अटके रह जाते हैं, अंतर्यात्रा नहीं हो पाती।
अनंत हैं ये लेश्याएं, अनंत हैं ये तरंगें लेकिन महावीर कहते हैं, उनके छह रूप हैं। और छह ही रूप बड़े वैज्ञानिक हैं। और अब विज्ञान भी सिद्ध कर रहा है कि महावीर ने जिस ढंग से इन लेश्याओं का वर्गीकरण किया है, शायद वही एक मात्र आधार है वर्गीकरण करने का, और कोई आधार नहीं हो सकता।
महावीर ने रंग के आधार पर वर्गीकरण किया है। कलर--पश्र्चिम में रंग के ऊपर बड़ा गहन अध्ययन चल रहा है। और रंग के आधार पर कई चीजें पैदा हो रही हैं। कलर थेरेपी पैदा हुई है। रंग के द्वारा मनुष्य के चित्त की चिकित्सा, शरीर की चिकित्सा, और अदभुत परिणाम उपलब्ध होते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि आदमी के अंतर-जगत में रंग की कोई बड़ी बहुमूल्य स्थिति है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर आपके कमरे को सब तरफ से लाल रंग िदया जाए, खून के रंग में--सब चीजें लाल हों, प्रकाश लाल हो, फर्श लाल हो, दीवालें लाल हों तो आप तीन घंटों में विक्षिप्त हो जाएंगे। क्योंकि लाल आपको उद्विग्न करेगा; रक्त को उत्तेजित करेगा, हृदय की धड़कन बढ़ जाएगी; ब्लड-प्रेशर बढ़ जाएगा और मस्तिष्क पर बुरे परिणाम होंगे।
हरे को जब आप देखते हैं, मन शांत होता है। इसलिए जंगल में जाकर आपको लगता है, ‘कैसी शांति है।’ उस शांति में ज्यादा हिस्सा हरे रंग का है। हरियाली मन को एक शीतलता से भर जाती है। लाल रंग उत्तेजना दे सकता है। इसलिए कोई आश्र्चर्य नहीं कि कम्युनिस्टों ने और सभी क्रांतिकारियों ने लाल झंडा चुना है। वह खून का, उपद्रव का प्रतीक है।
...आकस्मिक नहीं है, आकस्मिक इस जगत में कुछ भी नहीं होता। जिनका भरोसा खून पर, हत्या पर है, स्वाभाविक है कि वे लाल रंग को प्रतीक की तरह चुनें।
इस्लाम ने हरा रंग चुना है अपने झंडे के लिए, उसका कारण है, ‘इस्लाम’ शब्द का अर्थ ही ‘शांति’ होता है। इसलिए शांति को खयाल में रख कर हरे रंग को चुना। यह दूसरी बात है कि मुसलमानों ने न हरे रंग के सबूत दिए और न शांति के। लेकिन इसमें मोहम्मद का कसूर नहीं है। शब्द इस्लाम का अर्थ होता है शांति और इसलिए हरे रंग को चुना, क्योंकि हरा रंग गहरे रूप से शांतिदायी है।
रंग आपको चालित करते हैं, उत्तेजित करते हैं। पश्र्चिम में एडवरटाइजमेंट की सलाह देने वाले लोग इसकी भी सलाह देते हैं कि आप अपनी चीजें बेचें तो किस रंग के डिब्बे में बेचें; क्योंकि सभी रंगों के डिब्बे एक से नहीं दिखते; क्योंकि सभी रंग अलग-अलग तरह से पकड़ते हैं। आप चकित होंगे कि बहुत बार ऐसा हुआ है कि कोई एक ही चीज, जैसे कोई साबुन, पीले रंग के डिब्बे में बिक रही थी और उसकी बिक्री बाजार में कम थी। और फिर सलाहकारों ने सलाह दी कि रंग का उपद्रव हो रहा है; साबुन तो ठीक है लेकिन डिब्बे का रंग गलत है, इतना आकर्षक नहीं है कि लोगों को पकड़ ले। और जहां हजारों साबुन के डिब्बे रखे हों दुकान पर, वहां रंग ऐसा होना चाहिए जो आकर्षित कर ले, पकड़ ले, सम्मोहित कर ले--कि नौ सौ निन्यानबे डिब्बे पीछे छूट जाएं और एक डिब्बे पर हाथ पहुंच जाए।
तो डिब्बे का रंग बदल देने से साबुन की बिक्री बढ़ गई। किताबों के कवर का रंग बदल देने से बिक्री बढ़ जाती है, घट जाती है। एक्सपर्ट जाकर बाजारों में जांच करते रहते हैं कि स्त्रियां जो खरीदने आती हैं, सुपरमार्केट में, वे किस रंग से आंदोलित होती हैं। किस उम्र की स्त्री किस रंग से आंदोलित होती है। तो जिस उम्र की स्त्री को बेचना हो चीज को, उसके रंग का खयाल रखना जरूरी है।
आप जैसे कपड़े पहनते हैं, वे भी आपके चित्त की लेश्या की खबर देते हैं। कामुक आदमी एक तरह के कपड़े पहनेगा, कामवासना से हटता हुआ आदमी दूसरे तरह के कपड़े पहनेगा। रंग बदल जाएंगे, कपड़े के ढंग बदल जाएंगे। कामुक आदमी चुस्त कपड़े पहनेगा, गैर-कामुक आदमी ढीले कपड़े पहनना शुरू कर देगा। क्योंकि चुस्त कपड़ा शरीर को वासना देता है, हिंसा देता है।
सैनिक को हम ढीले कपड़े नहीं पहना सकते। ढीले कपड़े पहन कर सैनिक लड़ने जाएगा तो हार कर वापस लौटेगा। साधु को चुस्त कपड़े पहनाना बिलकुल नासमझी की बात है, क्योंकि चुस्त कपड़े का काम नहीं साधु के लिए, इसलिए साधु निरंतर ढीले कपड़े चुनेगा, जो शरीर को छूते भर हैं, बांधते नहीं।
आपको खयाल में नहीं होगा कि बहुत छोटी-छोटी बातें आपके जीवन को संचालित करती हैं; क्योंकि चित्त क्षुद्र चीजों से ही बना हुआ है। अगर आप चुस्त कपड़े पहने हुए हैं तो आप सीढ़ियों पर दो-दो सीढ़ियां चढ़ने लगते हैं, एक साथ। अगर आप ढीले कपड़े पहने हुए हैं तो आपकी चाल शाही होती है, एक सीढ़ी भी आप मुश्किल से एक दफे में चढ़ते हैं। चुस्त कपड़े पहन कर आप में गति आ जाती है; ढीले कपड़े पहन कर एक सौम्यता आ जाती है, गति खो जाती है।
आप जो रंग चुनते हैं, वह भी खबर देता है आपके चित्त की। क्योंकि चुनाव अकारण नहीं है, चित्त चुन रहा है।
महावीर ने रंग के आधार पर चित्त की तरंगों के छह विभाजन किए हैं। तीन को महावीर कहते हैं, ‘अधर्म-लेश्याएं’, जिनसे मनुष्य पतित होता है। और तीन को महावीर कहते हैं, ‘धर्म-लेश्याएं’, जिनसे मनुष्य शुद्ध होता है, पवित्र होता है।
पहली लेश्या को महावीर कहते हैं, ‘कृष्ण’--काली। दूसरी लेश्या को ‘नील’--नीली। तीसरी लेश्या को ‘कापोत’--कबूतर के कंठ के रंग की। चौथी लेश्या को ‘तेज’--अग्नि के रंग की, सुर्ख लाल। पांचवीं को ‘पदम’--पीत, पीली। छठवीं को ‘शुक्ल’--शुभ्र, सफेद। ये छह लेश्याएं हैं। इनमें प्रथम तीन अधर्म-लेश्याएं हैं और अंतिम तीन धर्म-लेश्याएं हैं।
रंग से चुनने का कारण यह है कि जब आपके चित्त में एक वृत्ति होती है तो आपके चेहरे के आस-पास एक ऑरा, एक प्रभामंडल निर्मित होता है। इस प्रभामंडल के अब तो चित्र भी लिए जा सकते हैं। आपके प्रभामंडल का चित्र भी कह सकता है कि आपके भीतर क्या चल रहा है? कारण हैं, क्योंकि आपका पूरा शरीर विद्युत का एक प्रवाह है। आपको शायद खयाल न हो कि पूरा शरीर वैद्युतिक यंत्र है।
स्केंडेनेविया में ऐसा हुआ, कोई छह-सात वर्ष पहले, कि एक स्त्री छत से गिर पड़ी और उसके शरीर की वैद्युतिक-व्यवस्था गड़बड़ हो गई, शॉर्ट-सर्किट हो गई। तो वह स्त्री जिसको छुए उसे शाक लगने लगे। उसके पति ने अदालत में तलाक के लिए अर्जी दी, क्योंकि उस स्त्री के पास ही जाना कठिन हो गया। उसको छूते से ही शाक लगेगा। और जब उस स्त्री के वैज्ञानिक परीक्षण किए गए तो बड़ी आश्र्चर्य की बात हुई, उस स्त्री के हाथ में पांच कैंडल का बल्ब रख कर जलाया जा सकता था।
जो विद्युत वर्तुल की तरह घूमती है शरीर में, वह वर्तुल टूट गया, शॉर्ट-सर्किट हो गया कहीं। कहीं तार अस्त-व्यस्त हो गए और विद्युत शरीर के बाहर जाने लगी। ऐसे भी विद्युत शरीर के बाहर जाती है, लेकिन उसकी मात्रा बड़ी धीमी है।
आप पूरे जीवन विद्युत से जी रहे हैं। सारे जगत का जो मूल आधार है, वह विद्युत-कण है, इलेक्ट्रान है। शरीर भी उसी पदार्थ से बना है। और सारे शरीर की यात्रा विद्युत की यात्रा है।
अभी स्त्रियों के संबंध में एक खोज पूरी हुई है। उस खोज ने स्त्रियों के मन के संबंध में बड़ी गहरी बातें साफ कर दी हैं, जो अब तक साफ नहीं थीं। लेकिन खोज विद्युत की है। मनोवैज्ञानिक जिसे साफ नहीं कर पाता था।
हजारों साल से स्त्री एक समस्या रही है। और वह किस तरह का व्यवहार करेगी किस क्षण में, अनिश्र्चित है। स्त्री अनप्रिडिक्टेबल है, उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। ज्योतिषी उससे बुरी तरह हार चुके हैं। अभी क्षण भर को प्रसन्न दिखाई पड़ रही थी, और क्षण भर बाद एकदम अप्रसन्न हो जाएगी और पुरुष के तर्क में बिलकुल नहीं आता कि कोई कारण उपस्थित नहीं हुआ है, वह क्षण भर पहले बड़ी भली चंगी है, आनंदित है, और क्षण भर बाद दुखी और आंसू बहने लगें, और वह छाती पीटने लगे! बेबूझ मालूम रही है!
फ्रायड ने चालीस साल के अध्ययन के बाद कहा कि स्त्री के संबंध में कुछ कहने की संभावना नहीं है। और जिन लोगों ने कुछ कहा भी है, उनका कहा हुआ भी पक्षपातपूर्ण मालूम पड़ता है। वह उनकी दृष्टि है, उससे स्त्री की बात जाहिर नहीं होती।
बड़ी प्रसिद्ध घटना है: चेखव ने लिखा है कि चेखव खुद, टाल्सटाय और गोर्की--रूस के तीन महालेखक, एक पार्क की बेंच पर बैठ कर बात कर रहे हैं। बात स्त्री पर पहुंच गई। पुरुषों की बात अक्सर ही स्त्री पर पहुंच जाएगी, और बात करने को कुछ है भी नहीं। टाल्सटाय बिलकुल बूढ़ा हो चुका था, लेकिन तब तक उसने स्त्रियों के बाबत कोई वक्तव्य नहीं दिया था। तो चेखव और गोर्की ने उससे कहा कि तुम कुछ कहो। उसने कहा कि मैं कहूंगा, लेकिन जब मेरा एक पैर कब्र में हो और एक बाहर, तब मैं कह कर एकदम कब्र में चला जाऊंगा! क्योंकि अगर मैं सत्य कहूं तो अभी भी स्त्रियों से मैं जुड़ा हूं, वे मेरी जान ले लेंगी, और असत्य मैं कहना नहीं चाहता!
लेकिन बॉयो-एनर्जी की खोज ने एक नई बात खबर में दी है, और वह यह कि जैसे ही स्त्री की माहवारी शुरू होती है, उसके शरीर का विद्युत-प्रवाह प्रति दस मिनट में सिकुड़ता है, कांट्रेक्ट होता है। और यह चलता है मोनोपाज तक, जब तक कि माहवारी बंद नहीं हो जाती, पैंतालीस-पचास साल तक। प्रति दस मिनट में, स्त्री को भी पता नहीं चलता कि उसके पूरे शरीर की विद्युत सिकुड़ती है, फिर फैलती है, फिर सिकुड़ती है, फिर फैलती है। इस हर दस मिनट के परिवर्तन के कारण उसका चित्त हर दस मिनट में परिवर्तित होता रहता है।
और यह जो संकुचन है, फैलाव है, यह बच्चे के लिए जरूरी है। बच्चे के विकास के लिए जरूरी है। जब बच्चा उसके गर्भ में होता है तो यह संकुचित होना, फैलना बच्चे को एक तरह का आंतरिक व्यायाम देता है, एक एक्सरसाइज देता है, इससे बच्चा बढ़ता है। इसलिए माहवारी शुरू होने और माहवारी अंत होने के बीच, तीस साल, पैंतीस साल, स्त्री का पूरा शरीर दस मिनट में एक झंझावात से गुजर रहा है। और वह झंझावात उसके चित्त को प्रभावित करता है। इसलिए जब स्त्री बहुत परेशान हो तो आप परेशान न हों; थोड़ी देर रुकें, थोड़ी देर प्रतीक्षा करें; वह झंझावात वैद्युतिक है। और स्त्री को भी खयाल में आ जाए, तो वह उस झंझावात से इतनी परेशान न हो, साक्षी हो सकती है।
पुरुष के शरीर में ऐसा कोई झंझावात नहीं है। इसलिए पुरुष ज्यादा तर्कयुक्त मालूम होता है। एक सीमा होती है उसकी बंधी हुई। उसके बाबत भविष्यवाणी हो सकती है कि वह क्या करेगा। उसके भीतर कोई झंझावात नहीं चल रहा है। विद्युत की एक सीधी धारा है। इस विद्युत की सीधी धारा के कारण उसके चित्त की लेश्याओं का ढंग सीधा-साफ है। स्त्री की चित्त की लेश्याएं ज्यादा बड़ी तरंगें लेंगी, क्योंकि विद्युत सिकुड़ेगी,फैलेगी, सिकुड़ेगी, फैलेगी; यह संकोच और फैलाव स्त्री को प्रतिपल झंझावात में और तरंगों में रखता है।
महावीर ने रंग के आधार पर विश्लेषण किया, शायद वही एकमात्र रास्ता हो सकता है। जब भी चित्त में कोई वृत्ति होती है तो उसके चेहरे के आस-पास उसके रंग-आभा आ जाती है। आपको दिखाई नहीं पड़ती। छोटे बच्चों को ज्यादा प्रतीत होती है। आपको भी दिखाई पड़ सकती है, अगर आप थोड़े सरल हो जाएं। जब कोई व्यक्ति सच में साधु-चित्त हो जाता है, तो वह आपकी आभा से ही आपको नापता है; आप क्या कहते हैं, उससे नहीं। वह आपको नहीं देखता, आपकी आभा को देखता है।
अब एक आदमी आ रहा है। उसके आस-पास कृष्ण-आभा है, काला रूप है चारों तरफ; उसके चेहरे के आस-पास एक पर्त है काली, तो वह कितनी ही शुभ्रता की बातें करे, वे व्यर्थ हैं, क्योंकि वह काली पर्त असली खबर दे रही है। अब तो सूक्ष्म कैमरे विकसित हो गए हैं, जिनसे उसका चित्र भी लिया जा सकता है। और वह चित्र बताएगा कि आपकी क्या भीतरी अवस्था चल रही है। और यह आभा प्रतिपल बदलती रहती है।
महावीर, बुद्ध, कृष्ण और राम, और क्राइस्ट के आस-पास, सारी दुनिया के संतों के आस-पास हमने उनके चेहरे के आस-पास एक प्रभामंडल बनाया है। हमारे कितने ही भेद हों--ईसाई में, मुसलमान में, हिंदू में, जैन में, बौद्ध में--एक मामले में हमारा भेद नहीं है कि इन सभी ने अपने जाग्रत महापुरुषों के चहेरे के आस-पास प्रभामंडल बनाया है। वह प्रभामंडल खबर देता है उस अंतिम घड़ी की, जहां, जब चेहरे के आस-पास श्र्वेत आभा प्रकट होती है, शुभ्र आभा प्रकट होती है।
हमारे चेहरे के आस-पास सामान्यतया काली आभा होती है, और या फिर बीच की आभाएं होती हैं। प्रत्येक आभा भीतर की अवस्था की खबर देती है। अगर आपके आस-पास काला आभामंडल है, ऑरा है, तो आपके भीतर भयंकर हिंसा, क्रोध, भयंकर कामवासना होगी। आप उस
अवस्था में होंगे, जहां आपको खुद भी नुकसान हो तो कोई हर्ज नहीं, दूसरे को नुकसान हो तो आपको आनंद मिलेगा। खुद को नुकसान पहुंचा कर भी अगर दूसरे को नुकसान पहुंचा सकें तो आप प्रसन्न होंगे। कृष्ण-लेश्या की अवस्था का आदमी ऐसा होगा।
मैंने सुना है कि एक आदमी मरा, तो उसने अपने बेटों को पास बुलाया और उनसे कहा कि मेरी आखिरी मर्जी पूरी कर देना। लेकिन बड़े बेटे तो सब समझदार थे, बाप को भलीभांति जानते थे कि वह उपद्रवी है। और आखिरी मर्जी कुछ ऐसी न उलझा जाए कि हम फंस जाएं जिंदगी भर को तो, वे तो दूर ही बैठे रहे। छोटा बेटा नासमझ था; उसे कुछ पता नहीं था बाप की हरकतों का। वह पास आ गया... और मरता बाप! उसने कहा: पहले वचन दे कि मेरी बात तू पूरी करेगा। उसने कहा कि मरते हुए पिता की बात पूरी नहीं करूंगा तो क्या करूंगा? आप कहें। तो उसने कहा कि तू ही मेरा असली बेटा है। ...उसके कान में कहा: एक काम करना, जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े करके मोहल्ले के लोगों के घरों में फेंक देना, और पुलिस में रिपोर्ट कर देना कि इन लोगों ने मार डाला। मेरी आत्मा को इतनी प्रसन्नता होगी, जब मैं देखूंगा कि चले हैं हथकड़ियों में बंधे सब!
यह कृष्ण-लेश्या का आदमी है। इसको अपनी फिकर नहीं है।
पंचतंत्र में बड़ी पुरानी कथा है कि एक आदमी भक्त था शिव का, और बड़े दिनों से प्रार्थना, बड़े दिनों से पूजा कर रहा था। आखिर शिव ने कहा कि ‘भाई, तू क्यों पीछे पड़ा है, क्या चाहता है?’
आखिर आपकी प्रार्थना-पूजा से निश्र्चित घबड़ा जाते होंगे!
शिव के संबंध में एक और कथा है, कि भक्त इतनी ज्यादा पूजा-प्रार्थना करने लगे कि उन्होंने नाराज होकर कहा कि तुम जाओ, सब कबूतर हो जाओ। वे जो शिव की पिंडी के आस-पास कबूतर घूमते हैं, वे भक्त हैं पुराने।
इस आदमी ने जब बहुत परेशान कर दिया तो शिव ने कहा कि तू आखिर चाहता क्या है? उसने कहा कि बस, एक... कि जो भी मैं मांगू, वह सदा पूरा किया जाए। तो शिव ने एक बड़ी उलटी शर्त रख दी। उन्होंने कहा कि होगा पूरा, लेकिन जो भी तू मांगेगा, वह तेरे लिए तो पूरा होगा ही, उससे दुगुना तेरे पड़ोसियों के लिए होगा।
उस आदमी ने कहा: मार डाला! मतलब ही खत्म हो गया! मैं मांगूं महल, पड़ोसी को मिल जाएं दो महल। मैं मांगूं हीरा, पड़ोसियों को, सबको मिल जाएं दो-दो हीरे। मतलब ही खो गया; बेकार कर दी सारी बात!
बड़ा चिंतित रहा। कई दिन तक कुछ भी नहीं मांगा। फिर सोचा कि किसी वकील से सलाह ले लूं, कुछ तो रास्ता हो ही सकता है। हर कानून से कोई न कोई रास्ता तो निकल ही आता है। वकील ने कहा कि इसमें घबड़ाने की क्या बात है? तू ऐसी चीजें मांग कि पड़ोसी मुश्किल में पड़ जाएं। तू कह कि मेरी एक आंख फोड़ दे भगवान, उनकी दोनों फूट जाएंगी।
वह आदमी नाचता हुआ घर लौटा। उसने कहा: गजब हो गया! यह खयाल ही नहीं आया। फिर तो सूत्र हाथ लग गया। फिर तो उसने कहा कि मेरी एक आंख फोड़ दे। उसकी एक आंख फूटी, पड़ोसियों की दोनों फूट गईं। इतने से मन न भरा--उसने कहा कि मेरे घर के सामने एक कुआं खोद दे। उसके घर के सामने एक कुआं खुदा, पड़ोसियों के सामने दो कुएं खुद गए। अब जब लोग गिरने लगे कुओं में--अंधे सारे पड़ोसी--तब उसके आनंद की सीमा न रही। कृष्ण-लेश्या अपनी आंख फोड़ सकती है, अगर दूसरे की दो फूटती हों। अपने लाभ का कोई सवाल नहीं है, दूसरे की हानि ही जीवन का लक्ष्य है। ऐसे व्यक्ति के आस-पास काला वर्तुल होगा।
महावीर कहते हैं, वह निम्नतम दशा है, जहां दुख, दूसरे का दुख ही एकमात्र सुख मालूम पड़ता है। ऐसा आदमी सुखी हो नहीं सकता, सिर्फ वहम में जीता है। क्योंकि हमें मिलता वही है जो हम दूसरों को देते हैं--वही लौट आता है। जगत एक प्रतिध्वनि है।
इसलिए हमने यम को, मृत्यु को काले रंग में चित्रित किया है; क्योंकि उसका कुल रस इतना है कि कब आप मरें, कब आपको ले जाया जाए। आपकी मृत्यु ही उसके जीवन का आधार है, इसीलिए काले रंग में हमने यम को पोता है। आपकी मृत्यु उसके जीवन का आधार है--कुल काम इतना है कि आप कब मरें, प्रतीक्षा इतनी है।
यह जो काला रंग है, इसकी कुछ खूबियां, वैज्ञानिक खूबियां समझ लेनी जरूरी हैं। काला रंग गहन भोग का प्रतीक है। काले रंग का वैज्ञानिक अर्थ होता है जब सूर्य की किरण आप तक आती है, तो उसमें सभी रंग होते हैं। इसलिए सूर्य की किरण सफेद है, शुभ्र है। सफेद सभी रंगों का जोड़ है, एक अर्थ में अगर आपकी आंख पर सभी रंग एक साथ पड़ें तो सफेद बन जाएंगे। छोटे बच्चों को स्कूल में एक सभी रंगों का वर्तुल दे दिया जाता है, उस वर्तुल को जोर से घुमाया जाता है, तो सभी रंग गड्ड-मड्ड हो जाते हैं और सफेद बन जाता है।
सफेद सभी रंगों का जोड़ है। जीवन का समग्र स्वीकार सफेद में है, कुछ अस्वीकार नहीं है, कुछ निषेध नहीं है। काला सभी रंगों का अभाव है, वहां कोई रंग नहीं है। जीवन में रंग होते हैं, मौत में कोई रंग नहीं होता। वहां कोई रंग नहीं है। जीवन रंगीन है, मौत रंग-विहीन है।
काले का अर्थ है... काला कोई रंग नहीं है, काला रंग का अभाव है। सभी रंगों के अभाव का नाम है, काला। और सभी रंगों के भाव का नाम है, सफेद। और इन दोनों के बीच में बाकी रंगों की सीढ़ियां हैं, वैज्ञानिक अर्थों में। पर पुराने प्रतीक बड़े कीमती मालूम पड़ते हैं। मृत्यु को हमने काला रंग दिया है, क्योंकि वहां जीवन की सब रंगीनी समाप्त हो जाती है। वहां कोई रंग नहीं बचता।
दुख का रंग काला है। कोई मर जाता है तो हम काले कपड़े पहनते हैं। सब जीवन का रंग शून्य हो जाता है। जब आप काले कपड़े पहनते हैं तो वैज्ञानिक रूप से क्या घटता है? सूर्य की किरणें जब काले कपड़े पर पड़ती हैं तो कोई भी किरण वापस नहीं लौटती। काले कपड़े में सभी किरणें डूब जाती हैं। आपकी आंख देख रही है, उसका मतलब यह कि काला कपड़ा दिखाई पड़ रहा है। उसका मतलब यह कि उस कपड़े से आपकी आंख तक कोई भी किरण का हिस्सा नहीं आ रहा। काले कपड़े में सभी किरणें डूब गई हैं; आप तक कोई भी किरण नहीं आ रही है, इसलिए कपड़ा काला दिखाई पड़ रहा है।
ध्यान रहे, रंग आपको दिखाई पड़ते हैं उन किरणों से जो आपकी आंखों तक आती हैं। अगर आपको लाल साड़ी दिखाई पड़ रही है, तो उसका मतलब है कि उस कपड़े से लाल किरण वापस आ रही है। प्रकाश पड़ रहा है, लाल किरण कपड़े से वापस लौट कर आपकी आंख पर आ रही है। लाल कपड़े का मतलब है कि उसने सब रंग पी लिए, सिर्फ लाल को नहीं पीया--वह लाल वापस लौट आया। पीले कपड़े का अर्थ है कि सब रंग पी लिए, पीला रंग नहीं पीया--पीला वापस लौट आया।
तो जो आपको दिखाई पड़ता है लाल, वह सब रंग पी गया, सिर्फ लाल को उसने छोड़ दिया है--तो लाल किरण आपकी आंख पर आ रही है। सफेद कपड़े का अर्थ है, उसने सभी किरणें वापस लौटा दीं, कुछ भी नहीं पीया--इसलिए आपको सफेद दिखाई पड़ रहा है।
तो एक अर्थ में काला सभी रंगों का अभाव है, क्योंकि आंख तक कोई भी किरण नहीं आती। आंख के लिए सभी रंगों का अभाव हो गया--काला। और सफेद सभी रंगों का भाव है, क्योंकि आंख तक सब किरणें आती हैं--एक अर्थ में। दूसरे अर्थ में सफेद कपड़े का अर्थ है: उसने सभी त्याग दिया, सभी किरणें वापस लौटा दीं, कुछ भी लिया नहीं।
इसलिए महावीर ने सफेद को त्याग का प्रतीक कहा है और काले को भोग का प्रतीक कहा है। उसने सभी पी लिया, कुछ भी छोड़ा नहीं--सभी किरणों को पी गया। तो जितना भोगी आदमी होगा, उतनी कृष्ण-लेश्या में डूबा हुआ होगा। जितना त्यागी व्यक्ति होगा, उतना ही कृष्ण-लेश्या से दूर उठने लगेगा।
दान और त्याग की इतनी महिमा लेश्याओं को बदलने का एक प्रयोग है। जब आप कुछ देते हैं किसी को, आपकी लेश्या तत्क्षण बदलती है। लेकिन जैसा मैंने कहा कि अगर आप व्यर्थ की चीज देते हैं तो लेश्या नहीं बदल सकती। कुछ सार्थक, जो प्रतिकर है, जो आपके हित का था और काम का था, और दूसरे के भी काम पड़ेगा--जब भी आप ऐसा कुछ देते हैं, आपकी लेश्या तत्क्षण परिवर्तित होती है। क्योंकि आप शुभ्र की तरफ बढ़ रहे हैं, कुछ छोड़ रहे हैं।
महावीर ने अंत में वस्त्र भी छोड़ दिए, सब छोड़ दिया। उस सब छोड़ने का केवल अर्थ इतना ही है कि कोई पकड़ न रखी। और जब कोई पकड़ नहीं रहती तो श्र्वेत, शुक्ल, शुभ्र-लेश्या का जन्म होता है। वह अंतिम लेश्या है; उसके पार लेश्याएं नहीं हैं।
यह सघनतम लेश्या है, काली। तो काली निम्नतम स्थिति है, और शुभ्र श्रेष्ठतम स्थिति है।
‘कृष्ण-लेश्या’ को पहली लेश्या...।
‘नील’ दूसरी लेश्या है। जो व्यक्ति अपने को भी हानि पहुंचा कर दूसरे को हानि पहुंचाने में रस लेता है, वह कृष्ण-लेश्या में डूबा है। जो व्यक्ति अपने को हानि न पहुंचे और दूसरे को हानि पहुंचे, इतनी चेष्टा करता है, खुद को हानि पहुंचने लगे तो रुक जाता है, वैसा व्यक्ति नील-लेश्या में है।
नील-लेश्या कृष्ण-लेश्या से बेहतर है। थोड़ा हलका हुआ कालापन, थोड़ा नीला हुआ। जो लोग निहित स्वार्थ में जीते हैं... यह जो पहला आदमी--जिसके बारे में मैंने कहा कि मेरी एक आंख फूट जाए--यह तो स्वार्थी नहीं है, यह तो स्वार्थ से भी नीचे गिर गया है। इसको अपनी आंख की फिकर ही नहीं है। इसको दूसरे की दो फोड़ने का रस है। यह तो स्वार्थ से भी नीचे खड़ा है।
नील-लेश्या वाला आदमी वह है, जिसको हम सेलफिश कहते हैं, जो सदा अपनी चिंता करता है। अगर उसको लाभ होता हो तो आपको हानि पहुंचा सकता है। लेकिन खुद हानि होती हो तो वह आपको हानि नहीं पहुंचाएगा। ऐसे ही आदमी को, नील-लेश्या के आदमी को हम दंड देकर रोक पाते हैं। पहले आदमी को दंड देकर नहीं रोका जा सकता। जो कृष्ण-लेश्या वाला आदमी है, उसको कोई दंड नहीं रोक सकते पाप से क्योंकि उसे फिकर ही नहीं कि मुझे क्या होता है। दूसरे को क्या होता है, उसका रस उसको नुकसान पहुंचाना। लेकिन नील-लेश्या वाले आदमी को पनिशमेंट से रोका जा सकता है। अदालत, पुलिस, भय कि पकड़ जाऊं, सजा हो जाए तो वह दूसरे को हानि करने से रुक सकता है।
तो ध्यान रहे, जो अपराधी इतने अदालत-कानून के बाद भी अपराध करते हैं, उनके पास निश्र्चित ही कृष्ण-लेश्या पाई जाएगी। और आप अगर डरते हैं अपराध करने से कि नुकसान न पहुंच जाए, और आप देख लेते हैं कि पुलिसवाला रास्ते पर खड़ा है, तो रुक जाते हैं लाल लाइट देख कर। कोई पुलिसवाला नहीं है--नील-लेश्या--कोई डर नहीं है, कोई नुकसान हो नहीं सकता है, निकल जाओ, एक सेकेंड की बात है।
मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र के साथ कार से जा रहा था। मित्र कार को भगाए लिए जा रहा है। आखिर मोटर साइकिल पर चढ़ा हुआ एक पुलिस का आदमी पीछा कर रहा है। जोर से साइरन बजा रहा है, लेकिन वह आदमी सुनता नहीं है।
दस मिनट के बाद मुश्किल से वह पुलिस का आदमी जाकर पकड़ पाया और उसने कहा कि मैं गिरफ्तार करता हूं चार कारणों से। बीच बस्ती में पचास-साठ मील की रफ्तार से तुम गाड़ी चला रहे हो। तुम्हें प्रकाश की कोई फिकर नहीं है। रेड लाइट है तो भी तुम चलाए जा रहे हो। जिस रास्ते से तुम जा रहे हो, यह वन-वे है और इसमें जाना निषिद्ध है। और मैं दस मिनट से साइरन बजा रहा हूं, लेकिन तुम सुनने को राजी नहीं हो।
नसरुद्दीन, जो उसके बगल में बैठा था, मित्र के, खिड़की से झुका और उसने कहा: यू मस्ट नॉट माइंड हिम ऑफिसर, ही इ़ज डेड ड्रंक। वह पांचवा कारण बता रहे हैं। इस पर खयाल मत करिए, वह बिलकुल बेहोश है, शराब में धुत है, माफ करने योग्य है।
जब भी आप कुछ गलत करते हैं तब आप शराब में धुत होते ही हैं। क्योंकि गलत हो ही नहीं सकता मूर्च्छा के बिना। लेकिन मूर्च्छा भी इतना खयाल रखती है कि खुद को नुकसान न पहुंचे, इतनी सुरक्षा रखती है। हममें से अधिक लोग कृष्ण-लेश्या में नहीं जीते। कभी-कभी कृष्ण लेश्या में उतरते हैं। वह हमारे जीवन का रोजमर्रा का ढंग नहीं है। लेकिन कभी-कभी हम कृष्ण-लेश्या में उतर जाते हैं।
कोई क्रोध आ जाए, तो हम उतर जाते हैं और इसीलिए क्रोध के बाद हम पछताते हैं। और हम कहते हैं, जो मुझे नहीं करना था, वह मैंने किया। जो मैं नहीं करना चाहता था, वह मैंने किया। बहुत बार हम कहते हैं कि मेरे बावजूद यह हो गया। यह आप कैसे कह पाते हैं? क्योंकि आपने ही किया। आप एक सीढ़ी नीचे उतर गए। जो आपके जीवन का ढांचा था; जिस सीढ़ी पर आप सदा जीते हैं--नील लेश्या--उससे जब आप नीचे उतरते हैं तो ऐसा लगता है कि किसी और ने आप से करवा लिया। क्योंकि उस लेश्या से आप अपरिचित हैं। नील-लेश्या शुद्ध स्वार्थ है, लेकिन कृष्ण-लेश्या से बेहतर है।
तीसरी लेश्या को महावीर ने ‘कापोत’ कहा है--कबूतर के कंठ के रंग की। नीला रंग और भी फीका हो गया, आकाशी रंग हो गया। ऐसा व्यक्ति खुद को थोड़ी हानि भी पहुंच जाए, तो भी दूसरे को हानि नहीं पहुंचाएगा। खुद को थोड़ा नुकसान भी होता हो तो सह लेगा, लेकिन इस कारण दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाएगा। ऐसा व्यक्ति परार्थी होने लगेगा। उसके जीवन में दूसरे की चिंतना और दूसरे का ध्यान आना शुरू हो जाएगा।
ध्यान रहे, पहली दो लेश्या वाले लोग प्रेम नहीं कर सकते। कृष्ण-लेश्या वाला तो सिर्फ घृणा कर सकता है। नील-लेश्या वाला व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ के संबंध बना सकता है। कापोत-लेश्या वाला व्यक्ति प्रेम कर सकता है, प्रेम का पहला चरण उठा सकता है; क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है कि दूसरा मुझसे ज्यादा मूल्यवान है। जब तक आप ही मूल्यवान हैं और दूसरा कम मूल्यवान है, तब तक प्रेम नहीं है। तब तक आप शोषण कर रहे हैं। तब तक दूसरे का उपयोग कर रहे हैं, दूसरा एक वस्तु है, व्यक्ति नहीं। जिस दिन दूसरा भी मूल्यवान है, और कभी आपसे भी ज्यादा मूल्यवान है, कि वक्त आ जाए तो आप हानि सह लेंगे लेकिन उसे हानि न सहने देंगे। तो आपके जीवन में एक नई दिशा का उदभव हुआ।
यह तीसरी लेश्या अधर्म की धर्म-लेश्या के बिलकुल करीब है, यहीं से द्वार खुलेगा। परार्थ, प्रेम, दया, करुणा की छोटी सी झलक इस लेश्या में प्रवेश होगी, लेकिन बस छोटी सी झलक।
आप दूसरे पर ध्यान देते हैं, लेकिन वह भी गहरे में अपने ही लिए। आपकी पत्नी है, अगर कोई हमला कर दे तो आप बचाएंगे उसको--यह कापोत-लेश्या है। आप बचाएंगे उसको--लेकिन आप बचा इसीलिए रहे हैं कि वह आपकी पत्नी है। किसी और की पत्नी पर कोई हमला कर रहा हो तो आप खड़े देखते रहेंगे!
‘मेरे’ का विस्तार हुआ है लेकिन ‘मेरा’ मौजूद है। और अगर आपको यह भी पता चल जाए कि यह पत्नी धोखेबाज है, तो आप हट जाएंगे। आपको पता चल जाए कि इस पत्नी का लगाव किसी और से भी है, तो सारी करुणा, सारा प्रेम, सारी दया खो जाएगी। इस प्रेम में भी एक गहरा स्वार्थ है कि पत्नी मेरी है, और पत्नी के बिना मेरा जीवन कष्टपूर्ण होगा; पत्नी जरूरी है, आवश्यक है। उस पर ध्यान गया है, उस को मूल्य दिया है, लेकिन मूल्य मेरे लिए ही है।
कापोत-लेश्या अधर्म की पतली से पतली कम से कम भारी लेश्या है। लेकिन अधर्म वहां है। हममें से मुश्किल से कुछ लोग ही इस लेश्या तक उठ पाते हैं कि दूसरा मूल्यवान हो जाए। लेकिन इतना भी जो कर पाते हैं, वह भी, वह भी काफी बड़ी घटना है। अधर्म के द्वार पर आप आ गए, जहां से दूसरे जगत में प्रवेश हो सकता है। लेकिन आमतौर से हमारे संबंध इतने भी ऊंचे नहीं होते। नील-लेश्या पर ही होते हैं। और कुछ के संबंध तो प्रेम के संबंध भी कृष्ण-लेश्या पर होते हैं।
आपने दि सादे का नाम सुना होगा। फ्रांस का एक बहुत बड़ा लेखक, जिसके नाम पर पूरा एक रोग पैदा हो गया--सैडिज्म। दि सादे जब भी किसी स्त्री को प्रेम करता था, तो पहले उसे मारेगा, पीटेगा, कोड़े लगाएगा, नाखून चुभाएगा, कीलें गपाएगा, लहूलुहान कर देगा--तभी उससे संभोग कर सकेगा, उससे प्रेम कर सकेगा। और दि सादे का कहना था कि जब तक सताओ न, तब तक दूसरा व्यक्ति जगता ही नहीं। तो पहले उसे जगाओ, जब उसको कोड़े मारो, उसका खून तेजी से बहने लगे और उत्तेजित हो जाए और विक्षिप्त हो जाए, तब जो रस है संभोग का, वह साधारणतया चुपचाप संभोग कर लेने में नहीं हो सकता। यह आदमी कृष्ण-लेश्या का आदमी है। इसका प्रेम भी हिंसा से आता है। और जब तक हिंसा तीव्र न हो जाए तब तक इसके प्रेम में उत्तेजना नहीं मालूम होगी। जैसे आप भोजन करते हैं तो मिर्च के बिना स्वाद नहीं आता, ऐसा दि सादे को जब तक मार-पीट न कर ले तब तक कोई रस नहीं आता।
लेकिन दूसरी तरह के लोग भी हैं। एक दूसरा लेखक हुआ, मैसोच, वह उलटा था। वह जब तक अपने को न पीट ले, खुद को न मार ले, तब तक वह प्रेम में नहीं उतर सकता था। तो प्रेमिका खड़ी देखेगी, वह खुद को मारेगा और प्रेमिका से भी कहेगा कि वह सहायता करे। मारे, पीटे, लहूलुहान कर दे, तब...।
दो तरह के लोग हैं कृष्ण-लेश्या में: मैसोचिस्ट और सैडिस्ट, मैसोचिवादी और सादेवादी। अगर इन दोनों का मिलन हो जाए तो विवाह बड़ा सुखद होता है। अगर एक स्वयं को दुख देने वाला, स्व-पीड़क, और पर-पीड़क--ये पति-पत्नि हो जाएं तो इनसे अच्छा जोड़ा खोजना मुश्किल है। क्योंकि पति मारे तो पत्नी रस ले, या पत्नी पीटे तो पति रस ले। इसको कहते हैं, राम मिलाई जोड़ी। इनमें बिलकुल तालमेल है। दोनों कृष्ण-लेश्या पर एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
कभी-कभी सौभाग्य से ऐसी जोड़ी भी बन जाती है, लेकिन कभी-कभी। अक्सर तो ऐसा नहीं हो पाता, क्योंकि हम इस विचार से सोचते नहीं, विवाह करते वक्त हम और सब चीजें सोचते हैं, यह कभी नहीं सोचते कि इन दोनों में एक पीड़ा देने वाला और एक पीड़ा लेने वाला होना चाहिए, नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी।
अगर मनौवैज्ञानिक के हाथ में हमने दिया कि वह तय करे कि कौन सा जोड़ा ठीक होगा, तो वह इस जोड़े को पहले तय करेगा कि यह जोड़ा बिलकुल ठीक रहेगा। इसमें कभी कलह नहीं होगी। कलह का कोई कारण नहीं है।
यह जो कृष्ण-लेश्या है इसमें प्रेम का भी जन्म हो तो वह भी हिंसा के ही माध्यम से होगा। ऐसे प्रेमियों की अदालतों में कथाएं हैं, जिन्होंने अपनी प्रेयसी को मार डाला सुहागरात पर ही! ...और बड़े प्रेम से विवाह किया था। थोड़ी-बहुत तो आप में भी, सबमें यह वृत्ति होती है--दबाने की, नाखून चुभाने की। वात्स्यायन ने अपने काम-सूत्रों में इसको भी प्रेम का हिस्सा कहा है: दांत से काटो। इसको उसने प्रेम की जो प्रक्रिया बताई है: कैसे प्रेम करें? उसने दांत से काटना भी कहा है। नाखून चुभाओ, शरीर पर निशान छूट जाएं--इनको लव मार्क्स, प्रेम के चिह्न कहा है...।
वात्स्यायन अनुभवी आदमी था, बड़ी गहरी उसकी दृष्टि रही होगी; क्योंकि वह जानता है कि कृष्ण-लेश्या वाले लोग हैं, ये जब तक सताएंगे नहीं, तब तक इनको रस ही नहीं आ सकता। जब तक ये एक-दूसरे को परेशान नहीं करेंगे, मरोड़ेंगे-तोड़ेंगे नहीं, तब तक इनको रस नहीं आ सकता। इनका रस ही पीड़ा है।
छोटे बच्चों में भी जग जाता है, कोई बड़ों में ही जगता है, ऐसा नहीं। छोटा बच्चा भी, कीड़ा दिख जाए, फौरन मसल देगा उसको पैर से। तितली दिख जाए--पंख तोड़ कर देखेगा, क्या हो रहा है? मेढक को पत्थर मार कर देखेगा, क्या हो रहा है, कुत्ते की पूंछ में डिब्बा बांध देगा--छोटा बच्चा! वह भी पीड़ा में रस ले रहा है।
छोटा बच्चा भी आपका ही छोटा रूप है, बड़ा हो रहा है। आप कुत्ते की पूंछ में डिब्बा नहीं बांधते, आप आदमियों की पूंछ में डिब्बा बांधते हैं--रस लेते हैं, फिर क्या हो रहा है? कुछ लोग उसको राजनीति कहते हैं, कुछ लोग उसको व्यवसाय कहते हैं, कुछ लोग उसको जीवन की प्रतिस्पर्धा कहते हैं; लेकिन दूसरे को सताने में बड़ा रस आता है। जब दूसरे को बिलकुल चारों खाने चित कर देते हैं, तब आपको बड़ी प्रसन्नता होती है कि जीवन में कोई परम गुह्य की उपलब्धि हो गई।
नील-लेश्या वाला व्यक्ति आमतौर से, जिसको हम विवाह कहते हैं, वह नील-लेश्या वाले व्यक्ति का लक्षण है--दूसरे से कोई मतलब नहीं है, प्रेम की कोई घटना नहीं है। इसलिए भारतीयों ने अगर विवाह पर इतना जोर दिया और प्रेम-विवाह पर बिलकुल जोर नहीं दिया, तो उसका बड़ा कारण यही है कि सौ में से निन्यानबे लोग नील-लेश्या में जीते हैं। प्रेम उनके जीवन में है ही नहीं, इसलिए प्रेम को कोई जगह देने का कारण नहीं है। उनको जीवन में कुल एक स्त्री चाहिए, जिसका वे उपयोग कर सकें--एक उपकरण।
मुल्ला नसरुद्दीन का विवाह होने को था। लड़की दिखाई नहीं गई थी। पुराने जमाने की बात थी। फिर जिस दिन सगाई का मुहूर्त होने को था, उस दिन बाप और गांव के कुछ लोग नसरुद्दीन को सजा-धजा कर लड़की वालों के गांव ले गए। पास ही गांव था। तब तक लड़की देखी नहीं गई थी, न लड़की वालों का घर देखा गया था, न परिवार के लोग देखे गए थे। वहां लड़की भी सज-धज कर तैयार थी, उसकी सखियां भी सब सज-धज कर तैयार थीं। कोई पंद्रह-बीस युवतियां स्वागत के लिए थीं।
नसरुद्दीन के बाप ने ऐसे ही नसरुद्दीन से पूछा, वह जानता तो था कि यह लड़का कुछ तिरछा-तिरछा है, ऐसे ही पूछा कि क्या तू बता सकता है, नसरुद्दीन, कि इनमें से, बीस लड़कियों में से कौन सी लड़की तेरी पत्नी होने वाली है? नसरुद्दीन ने कहा: निश्र्चित! उसने एक नजर डाली और कहा कि यह लड़की।
बाप हैरान हो गया। वह लड़की ठीक वही लड़की थी, जिससे शादी होने वाली थी। उसने कहा कि हद कर दी, नसरुद्दीन! तू कैसे पहचाना? क्योंकि तूने कभी देखा नहीं। तो नसरुद्दीन ने कहा: इसका कारण है, अभी उसको देख कर मुझे घबड़ाहट हो रही है। यही मेरी पत्नी होने वाली है, इसमें कोई शक नहीं है। अभी से मेरा डर, हृदय कंपित हो रहा है।
कोई प्रेम का संबंध नहीं है, कोई प्रेम की बात नहीं है, उपकरण चाहिए। इसलिए विवाह एक लंबी कलह है, जिसमें पति पत्नी का उपयोग कर रहा है, पत्नी पति का उपयोग कर रही है। बस दोनों साथ-साथ जी लेते हैं, इतना ही काफी है कि साथ-साथ चल लेते हैं। साथ-साथ रह कर दोनों अकेले ही रहते हैं--अलोन टुगेदर। कोई मेल नहीं हो पाता, क्योंकि मेल तो सिर्फ प्रेम से ही हो सकता है।
‘कापोत’...आकाशी रंग की जो लेश्या है, उसमें प्रेम की पहली किरण उतरती है। इसलिए अधर्म के जगत में प्रेम सबसे ऊंची घटना है। ज्यादा से ज्यादा धर्म की घटना है। और अगर आपके जीवन में प्रेम मूल्यवान है, तो उसका अर्थ है कि दूसरा व्यक्ति मूल्यवान हुआ। यद्यपि वह भी अभी आपके लिए ही है। इतना मूल्यवान नहीं है कि आप कह सकें कि मेरा न हो तो भी मूल्यवान है। अगर मेरी पत्नी किसी और के भी प्रेम में पड़ जाए तो भी मैं खुश होऊंगा क्योंकि वह खुश है। इतनी मूल्यवान नहीं है; उसके व्यक्तित्व का कोई इतना मूल्य नहीं है कि मेरे सुख के अलावा किसी और का सुख उससे निर्मित होता हो, तो भी मैं सुखी रहूं।
फिर तीन लेश्याएं हैं: ‘तेज’, ‘पदम’ और ‘शुक्ल।’ तेज का अर्थ है: अग्नि की तरह सुर्ख लाल। जैसे ही व्यक्ति तेज-लेश्या में प्रवेश करता है, वैसे ही प्रेम गहन प्रगाढ़ हो जाता है। अब यह प्रेम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करने के लिए नहीं है। अब यह प्रेम लेना नहीं है, अब यह प्रेम सिर्फ देना है, यह सिर्फ दान है। और इस व्यक्ति का जीवन प्रेम के इर्द-गिर्द निर्मित होता है। यह जो लाल रं
ग है, इसके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए; क्योंकि धर्म की यात्रा पर यह पहला रंग हुआ। आकाशी, अधर्म की यात्रा पर अंतिम रंग था। लाल, धर्म की यात्रा पर पहला रंग हुआ। इसलिए हिंदुओं ने लाल को, गैरिक को संन्यासी का रंग चुना है; क्योंकि धर्म के पथ पर वह पहला रंग है। साधक के लिए गैरिक रंग चुना है, क्योंकि उसके शरीर की पूरी आभा लाल से भर जाए। उसका आभामंडल लाल होगा, उसके वस्त्र भी उसमें तालमेल बन जाएं, एक हो जाएं। तो शरीर और उसकी आभा में, उसके वस्त्रों और आभा में किसी तरह का विरोध न रहे; एक तारतम्य, एक संगीत पैदा हो जाए।
हिंदुओं ने गैरिक को, लाल को संन्यासी का रंग चुना, क्योंकि वहां से मंजिल शुरू होती है। जैनों ने ‘शुभ्र’ को, सफेद को संन्यासी का रंग चुना, क्योंकि वहां मंजिल अंत होती है, वहां पूरी होती है।
दोनों सही और गलत हो सकते हैं, हिंदू कह सकते हैं कि जो अभी हुआ नहीं, उस रंग को चुनना ठीक नहीं है, प्रथम को ही चुनना ठीक है; क्योंकि अभी साधक यात्रा शुरू कर रहा है, अभी मंजिल मिली नहीं। और जैन कह सकते हैं कि मंजिल को ही ध्यान में रखना उचित है। जो आज है वह मूल्यवान नहीं है, जो वस्तुतः कल होगा; अंत में, वही मूल्यवान है। उसी पर नजर होनी चाहिए।
दोनों सही हो सकते हैं, दोनों गलत हो सकते हैं। लेकिन दोनों मूल्यवान हैं।
हिंदू ने लाल रंग चुना है संन्यासी के लिए। जैन ने सफेद रंग चुना है। बौद्धों ने पीला रंग चुना है--दोनों के बीच। बुद्ध हमेशा मध्य-मार्ग के पक्षपाती थे, हर चीज में।
ये तीन धर्म के रंग हैं--तेज, पदम, शुक्ल। ‘तेज’ हिंदुओं ने चुना है। ‘शुक्ल’ जैनों ने चुना है। ‘पदम’--पीला, पीत-वस्त्र बुद्ध ने अपने भिक्षुओं के लिए चुने हैं; क्योंकि बुद्ध कहते हैं कि जो है वह मूल्यवान नहीं, क्योंकि उसे छोड़ना है, और जो अभी हुआ नहीं वह भी बहुत मूल्यवान नहीं, क्योंकि उसे अभी होना है--दोनों के बीच में साधक है।
लाल यात्रा का प्रथम चरण है, शुभ्र यात्रा का अंतिम चरण है--पूरी यात्रा तो पीत की है। इसलिए बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए पीला रंग चुना है। तीनों चुनाव अपने आप में मूल्यवान हैं; कीमती, बहुमूल्य हैं।
यह जो लाल रंग है, यह आपके आस-पास तभी प्रकट होना शुरू होता है, जब आपके जीवन से स्वार्थ बिलकुल शून्य हो जाता है, अहंकार बिलकुल टूट जाता है। यह लाल आपके अहंकार को जला देता है। यह अग्नि आपके अहंकार को जला देती है। जिस दिन आप ऐसे जीने लगते हैं जैसे ‘मैं नहीं हूं’, उस दिन धर्म की तरंगें उठनी शुरू हो जाती हैं। जितना आपको लगता है कि ‘मैं हूं’, उतनी ही अधर्म की तरंगें उठती हैं। क्योंकि ‘मैं’ का भाव ही दूसरे को हानि पहुंचाने का भाव है। मैं हो ही तभी सकता हूं, जब मैं आपको दबाऊं। जितना आपको दबाऊं, उतना ज्यादा मेरा ‘मैं’ मजबूत होता है। सारी दुनिया को दबा दूं पैरों के नीचे, तभी मुझे लगेगा कि ‘मैं हूं।’
अहंकार दूसरे का विनाश है। धर्म शुरू होता है वहां से, जहां से हम अहंकार को छोड़ते हैं। जहां से मैं कहता हूं कि अब मेरे अहंकार की अभीप्सा, वह जो अहंकार की महत्वाकांक्षा थी, वह मैं छोड़ता हूं। प्रतिस्पर्धा छोड़ता हूं, संघर्ष छोड़ता हूं, दूसरे को हराना, दूसरे को मिटाना, दूसरे को दबाने का भाव छोड़ता हूं। अब मेरे प्रथम होने की दौड़ बंद होती है। अब मैं अगर अंतिम भी खड़ा हूं, तो प्रसन्न हूं।
संन्यासी का अर्थ ही यही है कि जो अंतिम खड़े होने को राजी हो गया। जीसस ने कहा है, मेरे प्रभु के राज्य में वे प्रथम होंगे, जो यहां पृथ्वी के राज्य में अंतिम खड़े होने को राजी हैं।
ध्यान रहे, ‘अंतिम खड़े हैं’, ऐसा नहीं कहा है--‘अंतिम खड़े होने को राजी हैं।’ अंतिम तो बहुत लोग खड़े हैं लेकिन खड़े नहीं रहना चाहते हैं वहां। मजबूरी है कि क्यू में कोई आगे जाने ही नहीं देता, ज्यादा ताकतवर लोग आगे खड़े हैं। क्यू से निकल नहीं पाते हैं, इच्छा तो निकलने की है। दिल तो क्यू में आगे ही खड़े होने का है। लेकिन खड़े पीछे हैं, यह मजबूरी है। इस मजबूरी वाले को प्रभु के राज्य में प्रथम मौका मिल जाएगा, ऐसा नहीं है।
जीसस कहते हैं: जो अंतिम खड़ा होने को राजी है। जो पहले की तलाश ही नहीं करता, जो चुपचाप पीछे खड़ा है, और पीछे संतुष्ट है। और हैरान है कि आगे होने की इतनी दौड़ क्यों चल रही है? क्या होगा...? आगे होकर क्या होगा?
संन्यासी का अर्थ है: जिसने महत्वाकांक्षा छोड़ दी, जिसने संघर्ष छोड़ दिया; जिसने दूसरे अहंकारों से लड़ने की वृत्ति छोड़ दी। इस घड़ी में चेहरे के आस-पास लाल, गैरिक रंग का उदय होता है। जैसे सुबह का सूरज जब उगता है, जैसा रंग उस पर होता है, वैसा रंग पैदा होता है। इसलिए संन्यासी अगर सच में संन्यासी हो, तो उसके चेहरे पर जो रक्ताभ, जो लाली होगी, जो सूर्य के उदय के क्षण की ताजगी होगी, वही खबर दे देगी।
‘पदम’...महावीर कहते हैं, दूसरी धर्म-लेश्या है: ‘पीत।’ इस लाली के बाद जब जल जाएगा अहंकार... स्वभावतः अग्नि की तभी तक जरूरत है जब तक अहंकार जल न जाए। जैसे ही अहंकार जल जाएगा, तो लाली पीत होने लगेगी। जैसे, सुबह का सूरज जैसे-जैसे ऊपर उठने लगेगा, वैसा लाल नहीं रह जाएगा, पीला हो जाएगा। स्वर्ण का पीत रंग प्रकट होने लगेगा। जब स्पर्धा छूट जाती है, संघर्ष छूट जाता है, दूसरों से तुलना छूट जाती है और व्यक्ति अपने साथ राजी हो जाता है--अपने में ही जीने लगता है--जैसे संसार हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता--यह ध्यान की अवस्था है।
लाल रंग की अवस्था में व्यक्ति पूरी तरह प्रेम से भरा होगा, खुद मिट जाएगा, दूसरे महत्वपूर्ण हो जाएंगे। पीत की अवस्था में न खुद रहेगा, न दूसरे रहेंगे, सब शांत हो जाएगा। पीत ध्यान की अवस्था है--जब व्यक्ति अपने में होता है, दूसरे का पता ही नहीं चलता कि दूसरा है भी। जिस क्षण मुझे भूल जाता है कि ‘मैं हूं’, उसी क्षण यह भी भूल जाएगा कि दूसरा भी है।
पीत, बड़ा शांत, बड़ा मौन, अनउद्विग्न रंग है। स्वर्ण की तरह शुद्ध, लेकिन कोई उत्तेजना नहीं। लाल रंग में उत्तेजना है, वह धर्म का पहला चरण है।
इसलिए, ध्यान रहे, जो लोग धर्म के पहले चरण में होते हैं, बड़े उत्तेजित होते हैं। धर्म के प्रति बड़े ऑब्सेस्ड होते हैं। धर्म उनके लिए खींचता है--जोर से। धर्म भी एक ज्वर की तरह होता है। लेकिन जैसे-जैसे धर्म में गति होती जाती है, वैसे-वैसे सब शांत हो जाता है।
पश्र्चिम के धर्म हैं--ईसाइयत है, वह लाल रंग को अभी भी पार नहीं कर पाई; क्योंकि अभी भी दूसरे को कनवर्ट करने की आकांक्षा है। इस्लाम लाल रंग को पार नहीं कर पाया। गहन दूसरे पर ध्यान है, दूसरे को बदल देना है, किसी भी तरह बदल देना है, उसकी वजह से एक मतांधता है।
आप जान कर हैरान होंगे कि दुनिया के दो पुराने धर्म--हिंदू और यहूदी, दोनों पीत अवस्था में हैं। हिंदुओं और यहूदियों ने कभी किसी को बदलने की कोशिश नहीं की। बल्कि कोई आ भी जाए तो बड़ा मुश्किल है उसको भीतर लेना। द्वार जैसे बंद हैं, सब शांत है। दूसरे में कोई उत्सुकता नहीं है। संख्या कितनी है, इसकी कोई फिकर नहीं है।
व्यक्ति जब पहली दफा धार्मिक होना शुरू होता है, तो बड़ा धार्मिक जोश-खरोश होता है। यही लोग उपद्रव का कारण भी हो जाते हैं, क्योंकि उनमें इतना जोश-खरोश होता है कि वे फैनेटिक हो जाते हैं; वे अपने को ठीक मानते हैं, सबको गलत मानते हैं। और सबको ठीक करने की चेष्टा में लग जाते हैं--दयावश! लेकिन वह दया भी कठोर हो सकती है।
जैसे ही ध्यान पैदा होता है, प्रेम शांत होता है। क्योंकि प्रेम में दूसरे पर नजर होती है, ध्यान में अपने पर नजर आ जाती है। पीत-लेश्या--पदम-लेश्या ध्यानी की अवस्था है। बारह वर्ष तक महावीर उसी अवस्था में थे। और पीला भी जब और बिखरता जाता है, विलीन होता जाता है तो शुभ्र का जन्म होता है। जैसे सांझ जब सूरज डूब जाता है--रात नहीं आई और सूरज डूब गया, और संध्या फैल जाती है--शुभ्र, कोई उत्तेजना नहीं, वह समाधि की अवस्था है। उस क्षण में सभी लेश्याएं शांत हो गईं, सभी लेश्याएं सफेद बन गईं--शुभ्र बच रहा है। वह अंतिम अवस्था है चित्त की तरफ से।
ये चित्त की लेश्याएं हैं। ‘शुभ्र’ चित्त की आखिरी अवस्था है। झीने से झीना पर्दा बचा है, वह भी खो जाएगा। तो सातवीं को महावीर ने नहीं गिनाया; क्योंकि सातवीं फिर चित्त की अवस्था नहीं, आत्मा का स्वभाव है। वहां सफेद भी नहीं बचता। उतनी उत्तेजना भी नहीं रह जाती, सब रंग खो जाते हैं।
मृत्यु में जैसे खोते हैं, वैसे नहीं, जैसा काले में खोते हैं, वैसे नहीं--मुक्ति में जैसे खोते हैं। काले में तो सारे रंग इसलिए खो जाते हैं कि काला सभी रंगों को हजम कर जाता है, पी जाता है, भोग लेता है। मुक्ति में सभी रंग इसलिए खो जाते हैं कि किसी भी रंग पर पकड़ नहीं रह जाती; जीवन की कोई वासना, जीवन की कोई आकांक्षा, जीवेषणा नहीं रह जाती--सभी रंग खो जाते हैं। इसलिए सफेद के बाद जो अंतिम छलांग है, वह भी रंग-विहीन है।
और ध्यान रहे, मृत्यु और मोक्ष बड़े एक जैसे हैं और बड़े विपरीत भी; दोनों में रंग खो जाते हैं। एक में इसलिए रंग खो जाते हैं कि जीवन खो जाता है, दूसरे में इसलिए रंग खो जाते हैं कि जीवन पूर्ण हो जाता है, और अब रंगों की कोई इच्छा नहीं रह जाती।
मोक्ष मृत्यु जैसा है, इसलिए मुक्त होने से हम डरते हैं। जो मरने को राजी है, वही मुक्त हो सकता है। जो जीवन को पकड़ता है, वह बंधन में बना रहता है। ‘जीवेषणा’, तनहा जिसको बुद्ध ने कहा है, लस्ट फॉर लाइफ, वही इन रंगों का फैलाव है। और अगर जीवेषणा बहुत ज्यादा हो तो दूसरे की मृत्यु बन जाती है--वह कृष्ण-लेश्या है। अगर जीवेषणा तरल होती जाए, कम होती जाए, फीकी होती जाए, तो दूसरे का जीवन बन जाती है--वह प्रेम है।
ये महावीर ने छह लेश्याएं कही हैं। अभी पश्र्चिम में इस पर खोज चलती है तो अनुभव में आता है कि ये छह रंग करीब-करीब वैज्ञानिक सिद्ध होंगे। और मनुष्य के चित्त को नापने की इससे कुशल कुंजी दूसरी नहीं हो सकती, क्योंकि यह बाहर से नापा जा सकता है, भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे एक्सरे लेकर कहा जा सकता है कि भीतर कौन सी बीमारी है, वैसे आपके चेहरे का ऑरा पकड़ा जाए तो उस ऑरे से पता चल सकता है कि चित्त किस तहर से रुग्ण है, कहां अटका है। और तब मार्ग खोजे जा सकते हैं कि क्या किया जाए कि चित्त इस लेश्या के ऊपर उठे।
अंतिम घड़ी तो लक्ष्य वही है, जहां कोई लेश्या न रह जाए। लेश्या का अर्थ: जो बांधती है, जिससे हम बंधन में होते हैं, जो रस्सी की तरह हमें चारों तरफ से घेरे रहती है। जब सारी लेश्याएं गिर जाती हैं तो जीवन की परम ऊर्जा मुक्त हो जाती है। उस मुक्ति के क्षण को हिंदुओं ने ‘ब्रह्म’ कहा है--बुद्ध ने ‘निर्वाण’ कहा है--महावीर ने ‘कैवल्य’ कहा है।
‘कृष्ण, नील, कापोत--ये तीन अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव दुर्गति में उत्पन्न होता है।’
‘तेज, पदम और शुक्ल--ये तीन धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से युक्त जीव सदगति में उत्पन्न होता है।’
ध्यान रहे, शुभ्र-लेश्या के पैदा हो जाने पर भी जन्म होगा। अच्छी गति होगी, सदगति होगी, साधु का जीवन होगा। लेकिन जन्म होगा क्योंकि लेश्या अभी भी बाकी है, थोड़ा सा बंधन शुभ्र का बाकी है। इसलिए पूरा विज्ञान विकसित हुआ था प्राचीन समय में--मरते हुए आदमी के पास ध्यान रखा जाता था कि उसकी कौन सी लेश्या मरते क्षण में है, क्योंकि जो उसकी लेश्या मरते क्षण में है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि वह कहां जाएगा, उसकी कैसी गति होगी।
सभी लोगों के मरने पर लोग रोते नहीं थे, लेश्या देख कर... अगर कृष्ण-लेश्या हो तो ही रोने का कोई अर्थ है। अगर कोई अधर्म-लेश्या हो तो रोने का अर्थ है, क्योंकि यह व्यक्ति फिर दुर्गति में जा रहा है, दुख में जा रहा है, नरक में भटक रहा है।
तिब्बत में बारदो पूरा विज्ञान है, और पूरी कोशिश की जाती थी कि मरते क्षण में भी इसकी लेश्या बदल जाए, तो भी काम का है। मरते क्षण में भी इसकी लेश्या काली से नील हो जाए, तो भी इसके जीवन का तल बदल जाएगा। क्योंकि जिस क्षण में हम मरते हैं--जिस ढंग से, जिस अवस्था में--उसी में हम जन्मते हैं। ठीक वैसे, जैसे रात आप सोते हैं, तो जो विचार आपका अंतिम होगा, सुबह वही विचार आपका प्रथम होगा।
इसे आप प्रयोग करके देखें। बिलकुल आखिरी विचार रात सोते समय जो आपके चित्त में होगा, जिसके बाद आप खो जाएंगे अंधेरे में नींद के--सुबह जैसे ही जागेंगे, वही विचार पहला होगा। क्योंकि रातभर सब स्थगित रहा, जो अंतिम था वही पहले सुबह प्रथम बनेगा। बीच में तो गैप है, अंधकार है, सब खाली है। इसलिए हमने मृत्यु को महानिद्रा कहा है। इधर मृत्यु के आखिरी क्षण में जो लेश्या होगी, जन्म के समय में वही पहली लेश्या होगी।
इसलिए मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति कहां जा रहा है। मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति जाएगा कहीं या नहीं जाएगा और महाशून्य के साथ एक हो जाएगा। जन्म के समय भी जाना जा सकता है। ज्योतिष बहुत भटक गया, और कचरे में भटक गया। अन्यथा जन्म के समय सारी खोज इस बात की थी कि व्यक्ति किस लेश्या को लेकर जन्म रहा है। क्योंकि उसके पूरे जीवन का ढंग और ढांचा वही होगा।
बुद्ध पैदा हुए...। और जब भी कोई व्यक्ति श्र्वेत-लेश्या के साथ मरता है, तो जो लोग भी धर्म-लेश्याओं में जीते हैं--पीत या लाल--उन लोगों को अनुभव होता है; क्योंकि यह घटना जागतिक है। और जब भी कोई व्यक्ति शुभ्र लेश्या में जन्म लेता है तो जो लोग भी धर्म और पीत लेश्याओं के करीब होते हैं, या शुभ्र लेश्या में होते हैं, उनको अनुभव होता है कि कहां कौन पैदा हो रहा है।
जीसस के जन्म पर पूरब से तीन व्यक्ति जीसस की खोज में निकले। जीसस का जन्म हुआ बेथलहम की एक जहां जानवर बांधे जाते हैं, उस पशुशाला में गरीब बढ़ई के घर। और पूरब के तीन मनीषी यात्रा पर निकले कि कहीं कोई शुभ्र-लेश्या का व्यक्ति जन्मा है। इन तीन की वजह से हेरोत को पता चला, सम्राट को पता चला, क्योंकि ये तीन पहले हेरोत के पास पहुंचे। इन्हें क्या पता? इन्होंने कहा, सम्राट खुश होगा। इन्होंने जाकर हेरोत को कहा कि तुम्हारे राज्य में कोई व्यक्ति पैदा हुआ है, क्योंकि हम तीनों को संकेत मिले हैं। और हम तीनों ने ध्यान में यह जाना है। हम तीनों को यात्रा कराता हुआ आकाश में एक शुभ्र तारा चला है, और वह तारा बेथलहम पर आकर रुक गया है, तुम्हारे राज्य में। इस गांव में कोई व्यक्ति जन्मा है जो सच में सम्राट है।
यह बात हेरोत को अखर गई--सच में सम्राट! तो उसने कहा कि तुम जाओ और उसका पता लगाओ, और लौटते में मुझे खबर करते जाना। हेरोत ने तय कर लिया कि हत्या कर देगा इस बच्चे की। क्योंकि सच में कोई सम्राट जन्म जाए तो मेरा क्या होगा? अहंकार, प्रतिस्पर्धा!
वे तीनों व्यक्ति खोज करते हुए उस जगह पहुंचे। उस पशुशाला में जहां जीसस का जन्म हुआ था--घुड़साल में, उन्होंने जीसस की मां को भेंटें दीं, जीसस के चरण छुए। और उसी रात उनको स्वप्न आया कि तुम लौट कर हेरोत के पास मत जाओ, तुम भाग जाओ यहां से। और जीसस की मां को कह दो कि वह बच्चे को लेकर जितनी जल्दी हो सके बेथलहम छोड़ दे। उसी रात तीनों मनीषी छोड़ गए राज्य को और जीसस की मां और पिता लेकर इजिप्त जीसस को चले गए।
बुद्ध का जन्म हुआ, तो हिमालय से एक महर्षि भागा हुआ बुद्ध की राजधानी में आया। उस वृद्ध तपस्वी को देख कर बुद्ध के पिता बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा कि तुम्हें पता कैसे चला? तो उसने कहा कि पता चल गया; क्योंकि जिस लेश्या में मैं हूं, जिस क्षण में मैं हूं, वहां से दिखाई पड़ सकता है। अगर कोई इतना शुभ्र तारा जमीन पर पैदा हो। तुम्हारा बच्चा तीर्थंकर होने को है, बुद्ध होने को है।
बच्चे को लाया गया। बुद्ध के पिता तो बहुत हैरान हुए! उनको तो भरोसा न आया कि यह आदमी पागल तो नहीं है, क्योंकि उसने बच्चे के चरणों में सिर रख दिया। अभी कुछ ही दिन का बच्चा, और वह मनीषी रोने लगा ़जार-़जार! बुद्ध के पिता डरे, और उन्होंने कहा कि क्या कुछ अशुभ होने को है? तुम रोते क्यों हो?
तो उसने कहा कि नहीं, मैं इसलिए रोता हूं कि मेरी मृत्यु करीब है; और जिस क्षण यह व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होगा, उस समय मैं इसका सान्निध्य न पा सकूंगा। और ऐसी घड़ी को उपलब्ध होने की घटना कभी-कभी हजारों वर्षों में घटती है। तो मैं अपने लिए रो रहा हूं, इसके लिए नहीं रो रहा हूं। इसका तो यह आखिरी जीवन का शिखर है।
श्र्वेत-लेश्या को लेकर जो व्यक्ति पैदा होता है, वह निर्वाण को उपलब्ध हो सकता है--इसी जन्म में। क्योंकि धर्म की अंतिम सीमा पर पहुंच गया, अब धर्म के भी पार जा सकता है।
निर्वाण, ब्रह्म, मोक्ष--अधर्म के तो पार हैं ही, धर्म के भी पार हैं।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, फिर जाएं...!