MAHAVIR

Mahaveer Vani 39

ThirtyNinth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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लोकतत्व-सूत्र: 3

नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्दहे।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ।।
नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा।
एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गइं।।

मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है, चारित्र्य से भोग-वासनाओं का निग्रह करता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप--इस चतुष्टय अध्यात्म मार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्षु जीव मोक्षरूप सदगति पाते हैं।

ज्ञान का कोई शिक्षण संभव नहीं है। शिक्षण सूचनाओं का हो सकता है। ज्ञान का उदभावन होता है, आविर्भाव होता है। ज्ञान कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो बाहर से भीतर डाली जा सके। ज्ञान जीवन की उस धारा का नाम है, जो भीतर से बाहर की ओर आती है। सूचनाएं बाहर से भीतर की ओर आती हैं, ज्ञान भीतर से बाहर की ओर आता है। इसलिए कोई विद्यालय, कोई विद्यापीठ ज्ञान नहीं दे सकता; सूचनाएं दे सकता है, इनफर्मेशंस दे सकता है। कोई शास्त्र, कोई गुरु ज्ञान नहीं दे सकता, सूचनाएं दे सकता है। जो भी दिया जा सकता है, वह ज्ञान नहीं होगा, इस मौलिक बात को ठीक से खयाल में ले लें।
ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। उसे लेकर ही आप पैदा हुए हैं, जैसे बीज में वृक्ष छिपा हो--ऐसा ज्ञान आपमें छिपा है। इसलिए ज्ञान को पाने के लिए कुछ और नहीं करना, सिर्फ बीज को तोड़ना है। बीज मिट्टी में खो जाए, मिट जाए, तो ज्ञान का अंकुरण शुरू हो जाएगा।
ज्ञान को हम लेकर ही पैदा होते हैं। ज्ञान हमारे होने की आंतरिक स्थिति है। जो बीज की खोल है, वह बाधा है। इसलिए ज्ञान को पाने की प्रक्रिया नकारात्मक है, निगेटिव है। कुछ तोड़ना है, कुछ पाना नहीं है; कुछ मिटाना है, कुछ बनाना नहीं है, कुछ गिराना है, कुछ निर्मित नहीं करना है। अस्मिता टूट जाए, ‘मैं’ का भाव टूट जाए, ज्ञान का जन्म हो जाता है।
इसलिए महावीर ने कहा है: अहंकार के अतिरिक्त और कोई अज्ञान नहीं है। और जिस ज्ञान को हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह भी हमारे अहंकार को ही मजबूत करता है। अहंकार टूटना चाहिए; उलटा मजबूत होता है। जितना हम जानने लगते हैं, जितना हमें खयाल आता है कि मैं जान गया, उतना ही ‘मैं’ मजबूत हो जाता है। जिसे हम ज्ञान कहते हैं, वह हमारे अहंकार का भोजन बन जाता है। महावीर जिसे ज्ञान कहते हैं, वह अहंकार की मृत्यु पर घटित होता है। इस फर्क को ठीक-से समझ लेना जरूरी है। और हमारे ‘मैं’ की कोई सीमा नहीं है। हम कहते हैं कि ‘परमात्मा असीम है’, हम कहते हैं कि ‘आत्मा असीम है,’ कहते हैं, ‘सत्य असीम है’, लेकिन वे सिर्फ सुने हुए शब्द हैं। हमारी अपनी अनुभव की तो बात इतनी ही है कि ‘अहंकार असीम है’ और अहंकार असत्य है।
मैंने सुना है, जनरल दीगाल एक रात अपने बिस्तर पर सोए हैं। मैडम दीगाल ने आधी रात कहा: ‘माई गॉड, इट इ़ज सो कोल्ड--हे भगवान, रात बहुत सर्द है।’ दीगाल ने करवट बदली और कहा: ‘मैडम, इन बेड यू कैन काल मी चार्ल्स--रात बिस्तर में तुम मुझे चार्ल्स कह कर बुला सकती हो।’
पत्नी कह रही है, ‘हे भगवान, रात बड़ी सर्द है’, और दीगाल ने समझा कि ‘हे भगवान’ पत्नी उनसे कह रही है!
अहंकार असीम है।
मैंने सुना है यह भी कि जनरल दीगाल ने एक बार अमरीका के प्रेसिडेंट जान्सन को कहा कि फ्रांस को बचाने के लिए परमात्मा से मुझे सीधे आदेश प्राप्त हुए थे; ‘आइ रिसिव्ड डाइरेक्ट आर्डर्स फ्रॉम दि डिवाइन टु सेव फ्रांस।’ जान्सन ने कहा: ‘स्ट्रेंज, बिका़ज आइ डोंट रिमेंबर टु हैव गिवन एनी आर्डर्स टु यू! मैंने कभी कोई आज्ञाएं तुम्हें भेजी नहीं!’
हर आदमी अपने अहंकार में बड़ा विस्तीर्ण है, बड़ा असीम है। एक ही असीम तत्व हम जानते हैं; वह है अस्मिता, वह है अहंकार, और उससे बड़ा झूठ कुछ भी नहीं है; क्योंकि मनुष्य के जो होने की शुद्धता है, वहां ‘मैं’ का कभी कोई अनुभव नहीं होता। जितना अशुद्ध होता है मनुष्य, उतना ही ‘मैं’ का अनुभव होता है। जैसे-जैसे शुद्ध होता जाता है, वैसे-वैसे ‘मैं’ तिरोहित होता चला जाता है। परम शुद्धि की अवस्था में ‘मैं’ बिलकुल भी नहीं बचता। जैसे सोने से कचरा जल जाता है अग्नि में, वैसा ही जीवन से अहंकार जल जाता है। अहंकार की खोल है बीज के चारों तरफ, अंकुर भीतर छिपा है।
इसका यह मतलब नहीं कि अहंकार व्यर्थ ही है; बीज की खोल भी सार्थक है। क्योंकि वह जो भीतर अंकुर छिपा है; वह, अगर बीज की खोल न हो तो हो भी नहीं सकता। इसलिए बीज की खोल जरूरी है एक सीमा तक, क्योंकि रक्षा करती है, बचाती है। और एक सीमा तक जो रक्षा करती है, वही फिर बाधा बन जाती है। फिर अगर खोल इनकार कर दे टूटने से, मिटने से तो भी बीज मर जाएगा।
तो अहंकार बिलकुल जरूरी है जीवन के बचाव के लिए, सुरक्षा के लिए। जो बच्चा बिना अहंकार के पैदा हो जाए, वह बच नहीं सकेगा, क्योंकि जीवन संघर्ष है। उस संघर्ष में ‘मैं’ का भाव चाहिए। अगर ‘मैं’ का कोई भाव न हो तो वह मिट जाएगा। उसे दूसरे ‘मैं’ मिटा देंगे। उसे ‘मैं’ चाहिए, यह प्राथमिक जरूरत है। लेकिन एक सीमा पर यह ‘मैं’ इतना मजबूत हो जाए, कि जब इसे छोड़ने का क्षण आए तब भी हम छोड़ न सकें, तो खतरा हो गया। फिर जो सीढ़ी थी, वह बाधा बन गई, फिर जिसका सहारा लिया था, वह गुलामी हो गई।
अहंकार जरूरी है प्राथमिक चरण में, और अंतिम चरण में टूट जाना जरूरी है। इसलिए जैसे ही बच्चा पैदा होगा, हम उसे अहंकार सिखाना शुरू करते हैं। लेकिन अगर कोई मरते वक्त भी अहंकार में ही मर जाए, तो बीज खोल में ही मर गया, अंकुरित नहीं हो पाया, और उस अंकुर ने--उसने आकाश जाना ही न सूर्य का प्रकाश जाना। वह अंकुर छिपा-छिपा, अंधा, अंधेरे में ही मर गया। वह अवसर खो गया।
जन्म के साथ तो अहंकार जरूरी है, मृत्यु के पहले खो जाना जरूरी है। और जिस व्यक्ति का अहंकार मृत्यु के पहले खो जाता है, उसकी मृत्यु, महावीर कहते हैं, मोक्ष बन जाती है।
मरते हम सब हैं। अगर अहंकार के साथ मरते हैं, तो नये जीवन में फिर प्रवेश करना होगा, क्योंकि जीवन अभी परिचित ही नहीं हो पाया। फिर नया जीवन, ताकि जीवन से हम परिचित हो सकें। अगर अहंकार के साथ ही हम मर गए, खोल के साथ ही मर गए तो फिर हमें बीज में ही जन्म लेना पड़ेगा। अगर खोल टूट गई और खुला आकाश मोक्ष, मुक्ति का हमें अनुभव हो गया, और जीवन खोल से मुक्त होकर आकाश की तरफ उड़ने लगा, तो फिर दूसरे जन्म की कोई जरूरत न रह जाएगी। शिक्षण पूरा हो गया; अवसर का लाभ उठा लिया गया; जो हम हो सकते थे, हो गए; जो होना हमारी नियति थी, वह पूर्ण हो गई; अर्थ, अभिप्राय, सिद्धि उपलब्ध हो गई। फिर दूसरे जन्म की कोई भी जरूरत नहीं है।
अहंकार मर जाए मृत्यु के पहले, तो मोक्ष उपलब्ध हो जाता है।

अब हम सूत्र को लें:
क्योंकि महावीर कहते हैं: ‘मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से जीवादिक पदार्थों को जानता है।’
दो बातें: तो एक ‘मुमुक्षु-आत्मा’ को समझ लेना जरूरी है। दो तरह के लोग हैं: एक जो कोरी जिज्ञासा करते रहते हैं। उस जिज्ञासा के पीछे कोई प्राण नहीं होता। वे कुछ करना नहीं चाहते, वे सिर्फ पूछते रहते हैं। पूछ कर जान भी लें तो उनके जीवन में कोई अंतर नहीं आता, सिर्फ जानकारी बढ़ जाती है। वे जो भी इकट्ठा करते हैं, स्मृति में इकट्ठा करते हैं। उनका जीवन उससे रूपांतरित नहीं होता। ऐसी आत्माओं को महावीर ने जिज्ञासु आत्माएं कहा है।
जिज्ञासा शुभ है, बुरी नहीं है। लेकिन सिर्फ जिज्ञासा आत्मघातक है। एक आदमी पूछता ही रहे, पूछता ही रहे और इकट्ठा करता रहे जन्मों-जन्मों तक, तो भी कोई रूपांतरण नहीं होगा। और आनंद का कोई अनुभव जानकारी इकट्ठी करने से नहीं होता। हां, जानकारी से सिर्फ इतना ही हो सकता है कि वह आदमी जानकारी के अहंकार से और भी मूर्च्छित हो जाए। इसलिए पंडित अज्ञानियों से भी गहन अंधकार में भटक जाते हैं। ज्ञान का अहंकार, इस जगत में बड़े से बड़ा अहंकार है; धन का अहंकार भी उतना बड़ा नहीं है। इसलिए ज्ञान का अहंकार बचाने के लिए आदमी धन भी छोड़ सकता है, यश भी छोड़ सकता है, पद भी छोड़ सकता है। सब छोड़ सकता है, लेकिन ज्ञान का अहंकार अगर बच जाए तो सब छोड़ने को राजी है।
इस मुल्क में ब्राह्मणों के साथ ऐसा हुआ है। ब्राह्मण के पास न तो धन था और न पद था, लेकिन सम्राट भी उसके पैर छूते थे। ज्ञान का अहंकार मजबूत था। धनी भी उसके पैर छूते थे। धनी भी अनुभव करते थे कि हम ब्राह्मण के सामने निर्धन हैं, और सम्राट भी अनुभव करते थे कि हम ब्राह्मण के सामने शक्तिहीन हैं। तो ब्राह्मण गरीब रह कर भी प्रसन्न था; दीन रह कर भी प्रसन्न था; झोपड़े में रह कर भी प्रसन्न था। इसलिए भारत में कोई क्रांति नहीं हो सकी। क्योंकि क्रांति हमेशा ब्राह्मणों के द्वारा होती है। भारत के ब्राह्मण बड़े संतुष्ट थे। कोई क्रांति का उपाय नहीं था। शूद्र क्रांति नहीं करते, क्योंकि क्रांति का खयाल ही उनको आता है, जिनके पास बड़ी बौद्धिक बेचैनी होती है।
मार्क्स ब्राह्मण है, लेनिन ब्राह्मण है, ट्राटस्की ब्राह्मण है, माओ ब्राह्मण है। ये सब इंटेलेक्चुअल्स हैं। ये सब बुद्धिवादी लोग हैं। भारत में माओ और मार्क्स और लेनिन और ट्राटस्की पैदा नहीं हो सके, क्योंकि भारत का सम्राट और धनी भी उनके चरण छू रहा था। व्यवस्था इतनी प्रीतिकर थी, उनके के अहंकार को इतनी पोषक थी कि क्रांति का कोई सवाल ही नहीं था। रूस में भी क्रांति होनी बहुत मुश्किल है, क्योंकि जो भारत ने किया था वही रूस कर रहा है। रूस में बुद्धिजीवी का बहुत आदर है। यूनीवर्सिटी का प्रोफेसर, लेखक, कवि, संगीतज्ञ परम आदृत हैं। उनके आदर की कोई कमी नहीं है। और जब तक वह आदृत हैं, तब तक कोई उपद्रव नहीं हो सकता।
ज्ञान का अहंकार सूक्ष्मतम है। और महावीर के हिसाब से जिज्ञासा, मात्र कोरी जिज्ञासा, सिर्फ आपको अहंकार से भर देगी। मुमुक्षा चाहिए, जिज्ञासा काफी नहीं है। मुमुक्षा का अर्थ है कि मैं जानने में उत्सुक नहीं हूं। और अगर मैं जानना भी चाहता हूं, तो अपने को रूपांतरित करने के लिए जानना चाहता हूं। जानना मेरे लिए उपाय है, लक्ष्य नहीं। जान कर ही मैं राजी नहीं हो जाऊंगा, जान कर मैं अपने को बदलना चाहूंगा। जीवन में मुझे रूपांतरण करना है, वह मेरा लक्ष्य है। जीवन की शुद्धि लानी है, मुक्ति लानी है, वह मेरा लक्ष्य है। जीवन में कहीं कोई कलुष न रह जाए, कोई कषाय न रह जाए, जीवन में कोई बंधन न रह जाए, जीवन में कुछ दुख का कांटा न रह जाए, वह मेरा लक्ष्य है। और जानना चाहता हूं तो सिर्फ इसलिए जानना चाहता हूं कि कैसे यह हो सके। ज्ञान साधन है। जिज्ञासु के लिए ज्ञान साध्य है; मुमुक्षु के लिए ज्ञान साधन है, मुक्ति लक्ष्य है।
बुद्ध का उल्लेख कीमती है। बुद्ध निरंतर कहते थे, एक आदमी को तीर लगा और वह गिर पड़ा। और वह बेहोश होने के करीब है। और गांव के लोग इकट्ठे हो गए। वे उसका तीर खींचना चाहते हैं। बुद्ध भी उस गांव से गुजरते हैं। वे भी वहां पहुंच गए। लेकिन वह आदमी कहता है, ‘पहले, तीर निकालने के पहले मुझे यह तो पता हो जाए कि तीर किसने मारा? तीर निकालने के पहले मुझे यह तो पता हो जाए कि तीर किस दिशा से आया? तीर निकालने के पहले मुझे यह तो पता हो जाए कि तीर विषाक्त है या नहीं?’ बुद्ध ने कहा: ‘पागल, तीर को पहले निकल जाने दे, फिर तू सब जिज्ञासाएं कर लेना। क्योंकि तेरी जिज्ञासाएं इतनी लंबी हैं कि अगर उनको तृप्त करने की कोशिश की जाए तो हो सकता है, इसके पहले कि जिज्ञासाएं पूरी हों, तेरे जीवन का दिया बुझ जाए!’
फिर तो बुद्ध ने इस घटना को अपना आधार बना लिया। फिर तो वे लोगों से कहते थे, ‘मत पूछो कि ईश्र्वर क्या है? मत पूछो कि आत्मा क्या है? सिर्फ इतना ही पूछो कि दुख से कैसे निवृत्ति हो, तीर से कैसे छुटकारा हो?’ जीवन बिंधा है तीर से, जीवन जल रहा है प्रतिपल, और हम जिज्ञासाएं कर रहे हैं बचकानी! लगती हैं बड़ी तात्विक; परमात्मा की बात बड़ी तात्विक लगती है, लेकिन बुद्ध कहते हैं, जरा भी तात्विक नहीं है। तत्व की बात तो इतनी है कि तुम दुखी हो। तुम क्यों दुखी हो, और कैसे दुख का निवारण हो जाए, तत्व की बात तो इतनी है कि तुम कारागृह में पड़े हो। कहां है द्वार, कहां है चाबी, कि तुम कारागृह के बाहर हो जाओ। कैसे जीवन मुक्त हो सके इस उपद्रव से, जिसमें हम घिरे हैं, जिस पीड़ा और संताप में हम पड़े हैं, कैसे इस गर्त से, अंधेरे से जीवन प्रकाश में आ सके, वही बात तात्विक है।
तो मुमुक्षु और जिज्ञासु में एक बुनियादी फर्क है, और वह कीमती है। क्योंकि अगर जिज्ञासा के रास्ते पर कोई चलता रहे तो दर्शन में प्रवेश कर जाएगा--फिलॉसफी में। अगर मुमुक्षा के रास्ते पर कोई चले तो धर्म में प्रवेश करेगा, फिलॉसफी में नहीं। धर्म बहुत व्यावहारिक है, वास्तविक है, वैज्ञानिक है। जो वास्तविक है उसे कैसे बदला जाए? व्यर्थ की बकवास से धर्म का कोई संबंध नहीं है।
लेकिन मुमुक्षा होनी चाहिए। आपके प्रश्र्न बुद्धि से न उठें, जीवन के अनुभव से उठें, तो मुमुक्षा बन जाते हैं। कोई मेरे पास आता है, वह पूछता है, ‘ईश्र्वर है या नहीं?’ मैं उससे पूछता हूं कि ‘तुम्हारे जीवन के किस अनुभव से प्रश्र्न उठ रहा है। अगर ईश्र्वर है तो तुम क्या करोगे, अगर नहीं है तो तुम क्या करोगे?’ वह आदमी कहता है, ‘मैं बस जानना चाहता हूं, है या नहीं।’
है, तो भी यह आदमी ऐसा ही रहेगा, जैसा है। नहीं है, तो भी ऐसा ही रहेगा, जैसा है।
क्या फर्क पड़ता है, एक आदमी जैन-दर्शन में विश्र्वास करता है, एक आदमी हिंदू-दर्शन में विश्र्वास करता है; एक आदमी इस्लाम, एक आदमी ईसाई... उनके दर्शन अलग-अलग हैं, फिलॉसफीज अलग-अलग हैं, लेकिन ये आदमी बिलकुल एक जैसे हैं। किसी को भी गाली दो, वह क्रोध करेगा, भला ईश्र्वर हो उसके दर्शन में या न हो, भला वह मानता हो कि आत्मा बचती है मृत्यु के बाद या न मानता हो, भला वह मानता हो कि पुनर्जन्म होता है या नहीं होता है। गाली से परीक्षा हो जाएगी कि वे चारों आदमी एक जैसे हैं।
क्या फर्क है हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन में?
फर्क बातचीत में होगा, अंतस्तल में जरा भी फर्क नहीं है। आदमी को भीतर खोदो, बिलकुल एक जैसा है। बस, ऊपर चमड़ी-चमड़ी के फर्क हैं।
मुमुक्षा का अर्थ है कि जो मैं जानना चाहता हूं, उससे मैं जीवन को बदलने का काम लूंगा; वह मेरे लिए एक उपकरण होगा, उससे मैं नया आदमी बनूंगा। अन्यथा ज्ञान भी मूर्च्छा बन जाएगा, शराब की तरह हो जाएगा। बहुत लोग ज्ञान का उपयोग शराब की तरह ही करते हैं। उसमें अपने को भुलाए रखते हैं। शराब का मतलब ही इतना है, जिसमें हम अपने को भुला सकें, और जिसमें भुला कर अकड़ पैदा हो जाए। तो पंडितों की अकड़ आप देखते हैं! ब्राह्मण जैसी अकड़ दुनिया में कहीं भी देखी नहीं जा सकती। और अकड़ इतनी स्वाभाविक हो गई है, खून में मिल गई है कि उसे पता भी नहीं चलता कि अकड़ है।
जितने हम मूर्च्छित होते हैं, उतना अहंकार मजबूत होता है।
सुना है मैंने, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन गया शराबघर में। एक गिलास शराब उसने बुलाई, लोग चकित हुए देख कर कि वह क्या कर रहा है। थोड़ी सी शराब उसने अपने कोट के खीसे में डाली और बाकी पी गया। फिर दूसरा गिलास, तब लोग और चौंक कर देखते रहे कि वह क्या कर रहा है। फिर उसने थोड़ी सी शराब अपने खीसे में डाली गिलास से और बाकी पी गया।
ऐसे पांच गिलास, और हर बार...!
सभी उत्सुक हो गए कि वह कर क्या रहा है? पांच गिलास पी जाने के बाद उसकी रीढ़ सीधी हो गई और अकड़ कर खड़े होकर उसने कहा: ‘नाउ आइ कैन कीक एनी बम इन दिस प्लेस--अब किसी को भी मैं चारों खाने चित कर सकता हूं, कोई है?’
दुबला-पतला नसरुद्दीन, किसी को भी चित वहां कर नहीं सकता। लेकिन बेहोशी अहंकार को मजबूत कर देती है। और तभी चमत्कार की घटना घटी कि उसके खीसे से एक चूहा बाहर निकला, और उसने कहा: ‘दि सेम गोज फॉर एनी राटन कैट टू--कोई भी सड़ी बिल्ली हो, उसके लिए भी यही चुनौती है।’
आदमी ही नहीं, चूहा भी, होश में हो तो बिल्ली से डरता है। अपनी अवस्था जानता है। बेहोश हो जाए, तो बिल्ली को भी चुनौती देता है।
अहंकार मूर्च्छा के साथ घना होता है, जागृति के साथ पिघलता है। जितना जागा हुआ व्यक्ति, उतना निर-अहंकारी हो जाएगा; जितना सोया हुआ व्यक्ति होगा, उतना अहंकार से भर जाएगा।
मुमुक्षु की खोज अहंकार को भरने की नहीं है। ज्ञान उसके लिए शराब नहीं है; ज्ञान उसके लिए जीवन-रूपांतरण की प्रक्रिया है। वह उतना ही जानना चाहेगा, जितने से जीवन बदल जाए। वह उतने में ही उत्सुक होगा, जिसको व्यवहार में लाया जा सके।
इसलिए महावीर कहते हैं: ‘मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से तत्वों को जानता है।’
जिन तत्वों की हमने बात की। छह महातत्व, फिर नौ तत्व, मुमुक्षु-आत्मा इन तत्वों को समझने की कोशिश करता है। सिर्फ इसीलिए कि इनके द्वारा कैसे मैं अपने जीवन को नया कर सकूं, कैसे मेरा नया जन्म हो सके?
यह ध्यान में बना रहे, तो ज्ञान आपके लिए मूर्च्छा नहीं बनेगा, मुक्ति बन जाएगा। अगर यह ध्यान से उतर जाए, तो आप ज्ञान का अंबार लगाए जा सकते हैं, जैसे कोई धन का अंबार लगाता है। फिर तिजोरी जितनी बड़ी होने लगती है, उस आदमी की अकड़ बढ़ने लगती है। आपका ज्ञान बढ़ने लगेगा, आपकी अकड़ बढ़ने लगेगी।
ज्ञान अकड़ न बने, यह ध्यान रखना जरूरी है। इसलिए हमने इस देश में ज्ञान का मौलिक लक्षण किया है कि जिससे विनम्रता बढ़ती जाए, वही ज्ञान है। नहीं तो उसे ज्ञान कहना व्यर्थ है; वह ज्ञान के नाम पर शराब है। और जब कोई व्यक्ति मुमुक्षा की दृष्टि से, अपने को बदलने की दृष्टि से ज्ञान की खोज करता है तो शीघ्र ही उसे दर्शन होना शुरू हो जाता है। उसे चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं। वह जो-जो अनुभव करता है, जो-जो समझता है, जिस-जिस बात की अंडरस्टैंडिंग पैदा हो जाती है; वह-वह उसकी प्रतीति भी बनने लगती है। होना ही चाहिए। क्योंकि जिस बात को मैं ठीक-से समझ लूं, वह मेरे अनुभव में आ जानी चाहिए।
आपने कितनी बार सुना है कि क्रोध पाप है, क्रोध बुरा है, क्रोध जहर है, क्रोध पागलपन है। यह आपने सुना है, लेकिन यह आपका दर्शन नहीं बन पाया। क्योंकि क्रोध तो आप किए ही चले जाते हैं। यह सुना है, यह ज्ञान बन गया। अगर दूसरे को समझाना हो, तो आप समझा सकते हैं। पांडित्य दूसरे के लिए है, अपने लिए नहीं। आप तो अभी भी क्रोध किए चले जाएंगे। तो यह समझ दर्शन नहीं बन पाई, समझ ही नहीं है। सिर्फ कचरे की तरह आपने मस्तिष्क में शब्द भर लिए हैं। उनको आप दोहरा सकते हैं। आप ग्रामोफोन के रिकॉर्ड हो गए लेकिन आपका अंतस्तल बिलकुल अछूता है।
अगर सच में ही आपने अनुभव किया हो कि क्रोध जहर है। इसका आपकी प्रतीति और आपका ज्ञान सघन हुआ हो; आपने इसे जीवन के अनुभव में परखा हो, निरीक्षण किया हो, क्रोध करके देखा हो; आंख बंद करके ध्यान किया हो कि जहर फैल रहा है शरीर में, मन में धुआं उठ रहा है--मैं उसी हालत में हूं जिसमें मैं पहले था, या कि बेहोश हूं? मेरा मन धुंधला है या प्रखर और साफ है? मेरे भीतर धुआं घिर गया है, सब चीजें अस्त-व्यस्त हो गई हैं, या चीजें सम्यक रूप से अपनी जगह पर हैं और मैं सुव्यवस्थित हूं? मैं सम्यक हूं या असम्यक हो गया? क्रोध करके क्रोध को अनुभव में--वह जो जाना है, अगर उसकी प्रतीति हो जाए, तो दर्शन शुरू हो जाता है। तब आप ऐसा नहीं कहेंगे कि शास्त्र कहते हैं कि क्रोध जहर है। आप कहेंगे कि मैं जानता हूं कि क्रोध जहर है, और जिस क्षण आप जानते हैं कि क्रोध जहर है उसी क्षण क्रोध करना असंभव होने लगेगा क्योंकि कौन जहर को जान कर पीता है? कौन पत्थर को पत्थर जान कर रोटी की तरह खाता है?
ज्ञान क्रांति बन जाता है। लेकिन ज्ञान तभी क्रांति बनता है, जब समझ दर्शन में रूपांतरित होने लगे। तो जो सुना है सदगुरु से, जैसा महावीर ने कहा है कि सदगुरु के उपदेश से, जिस व्यक्ति में आपको लगा है कि कोई क्रांति घटी है, उसके पास जो सुना है, उसे अपने जीवन के अनुभव के साथ जोड़ने का नाम ‘साधना’ है।
सुना, और वह सुना हुआ ही रह गया, कान का हिस्सा रह गया, व्यर्थ चला गया। व्यर्थ ही नहीं चला गया, हानिकर भी हो गया। क्योंकि अब आप बकवासी हो जाएंगे, आप उसको बोलने लगेंगे, आप दूसरों से कहने लगेंगे।
हमारी हालत ऐसी ही है, जैसे कोई हमें बताए कि यह हीरे की खदान है और हम चले जाएं बाजार में और लोगों को समझाएं कि जाओ, वहां हीरे की खदान है, और खुद भिक्षा मांगें।
क्या कोई आपका भरोसा करेगा कि आपको हीरे की खदान का पता है? और आप भिक्षा मांग रहे हैं और जो आपको दो पैसे दान दे देता है, उसको आप समझा रहे हैं कि तू जा, हीरे की खदान फलां जगह है, करोड़ों के हीरे वहां पड़े हैं।
अगर आपको हीरे की खदान पता चलेगी, तो पहला काम यह करेंगे आप, कि किसी और को पता न चल जाए। पहली जरूरत यह हो जाएगी मन में कि यह किसी और को तो पता नहीं है। और इसके पहले कि किसी और को पता चले, यह खदान खाली कर ली जाए न कि आप बाजार में लोगों को समझाते फिरेंगे?
मुमुक्षु और जिज्ञासु में यही फर्क है। मुमुक्षु को जैसे ही पता चलता है कि यहां हीरा है, वह खोदने में लग जाता है। और जिस दिन हीरा उसके पास होता है और हीरे की चमक उसके जीवन में आ जाती है, उस दिन लोग उससे खुद ही पूछने लगते हैं कि क्या हो गया, क्या मिल गया है? कौन-सा रस, कौन-सा नया द्वार, कौन-सा संगीत तुम्हारे जीवन में आ गया, जिसकी सुगंध, जिसकी ध्वनि दूसरों को भी छूती है।
‘मुमुक्षु-आत्मा ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है।’
और अनुभव जब तक न हो, तब तक श्रद्धा नहीं होती। लोग कहे जाते हैं, ‘श्रद्धा करो’, लेकिन श्रद्धा कैसे हो सकती है जब तक अपना अनुभव न हो। कोई कहता है कि ‘शक्कर मीठी है’, सुन कर कैसे श्रद्धा हो? और जान कर कैसे अश्रद्धा होगी? जिस दिन शक्कर कोई मुंह में रख देगा और मीठे का अनुभव होगा, श्रद्धा हो जाएगी। मुंह में मीठे का अनुभव हो रहा हो, तो फिर आपसे कोई नहीं कहेगा कि ‘श्रद्धा करो’ कि ‘शक्कर मीठी है।’
समझ दर्शन बने, अनुभव बने, तो अनुभव श्रद्धा बन जाती है।
दुनिया में श्रद्धा की कमी नहीं है, दुनिया में मुमुक्षा की कमी है। लोग जिज्ञासु हैं। और इस जिज्ञासा को बढ़ाने में शिक्षा ने बड़ा साथ दिया है, क्योंकि हमारा पूरा शिक्षाशास्त्र जिज्ञासा पर खड़ा है, मुमुक्षा पर नहीं। यही पूरब और पश्र्चिम की शिक्षा व्यवस्था का भेद है।
हमारी शिक्षा मुमुक्षा के आधार पर खड़ी थी: ‘वह सीखो, जिससे जीवन बदलता हो।’ आज की शिक्षा इस आधार पर खड़ी है कि ‘वह सीख लो, जिससे आजीविका चलती हो।’ जीवन बदलने का कोई सवाल नहीं है, जीवन चल जाए, इतना भर काफी है। सुविधा मिल जाए, धन मिल जाए, जीवन चल जाए। आजीविका आधार है, जीवन नहीं।
हमारी पूरी चेष्टा थी पूरब में कि बच्चा जब पहले दिन गुरुकुल जाए, तो मुमुक्षा के भाव से जाए। वहां से बदल कर लौटने का खयाल हो। वहां से नया आदमी होकर लौटे, वहां से द्विज होकर लौटे। गुरु के पास जा रहा है, वहां से नया होकर लौटे। वहां से कुछ बातें सीख कर आ जाए, यह मूल्यवान नहीं है। मूल्यवान यह है कि वहां से बीइंग, वहां से अस्तित्व का नया अनुभव लेकर आ जाए। वह नया अनुभव ही उसके जीवन की आधारशिला बनेगा, उस आधारशिला पर कभी मोक्ष तक भी उठा जा सकता है।
मुमुक्षा से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन, दर्शन से श्रद्धा का जन्म है। आपसे महावीर नहीं कहते कि आप मान लो कि मोक्ष है। वे आपसे नहीं कहते कि संसार दुख है, यह मान लो। वे कहते हैं, इसे अनुभव करो। और सभी अनुभोक्ताओं का अनुभव एक ही निष्कर्ष पर ले आता है। सभी अनुभव करने वालों का सार सदा एक होगा। बातचीत करने वालों का कभी भी कोई तालमेल नहीं हो सकता, यह जरा सोचने जैसी बात है।
दुनिया में हजारों तरह की फिलॉसफीज हैं, लेकिन विज्ञान एक तरह का है। आखिर क्या कारण है कि फिलॉसफीज इतनी हों, और विज्ञान एक हो? कारण सीधा है--क्योंकि फिलॉसफी अक्सर बातचीत है, कहीं कोई अनुभव नहीं है जहां कि दो व्यक्ति मिल सकें। विज्ञान अनुभव है, प्रयोग है--मिलना ही पड़ेगा। तो दुनिया में कहीं भी विज्ञान की खोज हो, सारी दुनिया के वैज्ञानिक, आज नहीं कल, उससे राजी हो जाएंगे--होना ही पड़ेगा। अगर सत्य है, तो राजी होना ही पड़ेगा। और कसौटी अनुभव है। आप इनकार कर नहीं सकते, आप यह नहीं कह सकते कि मैं मुसलमान हूं, मेरे घर में पानी सौ डिग्री पर भाप नहीं बनता; तुम हिंदू हो, तुम्हारे घर में बनता होगा, हमारे दर्शन अलग हैं, मेरे घर में पानी डेढ़ सौ डिग्री पर भाप बनता है।
मुसलमान हो कि हिंदू, कि तिब्बत में हो कि इंग्लैंड में, कोई फर्क नहीं पड़ेगा--पानी तो सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। लेकिन यह प्रयोग है, इस पर राजी होना पड़ेगा। इसे चार आदमी कर सकते हैं। और उनके अनुभव में जब एक ही बात आएगी, तो कोई उपाय नहीं है लेकिन कोई आदमी कहता है कि ईश्र्वर के चार हाथ हैं और कोई आदमी कहता है, चार नहीं, अनंत हाथ हैं, और कोई कहता है, सिर्फ दो हाथ हैं, और कोई कहता है कि ईश्र्वर के हाथ हैं ही नहीं, वह निराकार है--तो इसमें कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जिसकी बात की जा रही है, उसको अनुभवगत बनाना असंभव है, कल्पनाजन्य है, विचारजन्य है।
महावीर बहुत ही एम्पिरिकल हैं, व्यावहारिक हैं। वे कहते हैं कि जो अनुभवगम्य हो सके, वही श्रद्धा बन सकेगी। इसलिए ऊंची आकाश की बातों में मत भटको, जीवन के आधार से चलना शुरू करो। आधार है: मुमुक्षा, मुक्ति की खोज। मुक्ति की खोज उसी को होगी, जिसको बंधन अनुभव हो रहा है।
गुरजिएफ कहा करता था: अगर किसी कारागृह में लोग बंद हों, और भूल गए हों कि यह कारागृह है, तो स्वभावतः वे निकलने की कोई चेष्टा नहीं करेंगे कि जेल से बाहर निकल जाएं, क्योंकि जेल है ही कहां? कारागृह में रहने वाले लोग अगर समझ रहे हों कि यही घर है, तो उनकी चेष्टा यही होगी कि इस घर को कैसे सुंदर बनाएं? कैसे इसकी दीवालों पर रंग रोगन करें, कैसा फर्नीचर जमाएं? कैसा सजाएं इस घर को? और अगर कोई उनसे कहे कि बाहर आ जाओ, तो वे नाराज होंगे। कोई उनसे कहे, बाहर खुला आकाश भी है, इन अंधेरी कोठरियों में मत रहो, तो वे प्रसन्न नहीं होंगे। क्योंकि जिन्हें तुम अंधेरी कोठरियां कह रहे हो, वह उनके जीवन का सार-सर्वस्व है, वह उनका घर है।
मुमुक्षा का अर्थ है: आपको यह अनुभव होना शुरू हो गया कि जीवन बंधन है, पीड़ा है, संताप है, दुख है। इससे दो यात्राएं शुरू हो सकती हैं। अनुभव हो जाए कि जीवन दुख है, तो आप अपने को बेहोश करने की कोशिश कर सकते हैं, ताकि दुख भूल जाए। सभी लोग यही कर रहे हैं। कोई कामवासना में डूब रहा है, कोई शराब में डूब रहा है; कोई संगीत में, कोई फिल्म में, कोई कहीं और, कोई कहीं और; कोई जुआ खेल रहा है, कोई रेस में जाकर दांव लगा रहा है। वे भूलने के उपाय हैं, कहीं, जहां मुझे अपनी याद न रहे।
बड़े मजे की बात है। घोड़ों की दौड़ में आदमी कितने उत्सुक रहते हैं, कोई घोड़ा आदमी की दौड़ में इतना उत्सुक नहीं है! घोड़ों को आदमी की दौड़ में कोई भी रस नहीं है। एक धेला भी देने को घोड़े राजी नहीं होंगे। आदमी इतना घोड़े की दौड़ में रस ले रहा है, जरूर कहीं आदमी में कोई विकृति है। वह कहीं भी अपने को भुलाने की कोशिश कर रहा है। कहीं कोई उत्तेजना, जहां थोड़ी देर को अपनी याद न रहे। घोड़ों की दौड़ हो, तो वह रीढ़ को सीधा करके बैठ जाए और देखने लगे। घोड़ा इतना ज्यादा ध्यान में हो जाए कि अपना विस्मरण हो जाए, फॉरगेटफुलनेस हो जाए। उत्तेजना, कोई भी तरह की उत्तेजना।
आदमी ने हजार-हजार तरह की उत्तेजनाएं खोजी हैं। यूनान में शेरों के सामने, सिंहों के सामने आदमियों को फेंक देते थे, और जब सिंह आदमियों को चीरेंगे, फाड़ेंगे, तो लाखों लोग बैठ कर देखेंगे, आनंद लेंगे। क्या रस रहा होगा? फर्क नहीं पड़ा है आदमी में बहुत, अभी भी जब दो पहलवान लड़ते हैं और आप गौर से देखते हैं, तो क्या देख रहे हैं? या फिल्म में जब कोई खून, हत्या और भाग-दौड़ होती है, तो आप क्यों इतने उत्सुक हो जाते हैं? या दुनिया में जब युद्ध चलता है, तो आपकी प्रसन्नता क्यों बढ़ जाती है? घटनी चाहिए युद्ध के चलने से, पर आप प्रसन्न हो जाते हैं! सुबह जल्दी ब्रह्ममुहूर्त में उठने लगते हैं। क्या हो रहा है? कुछ हो रहा है चारों तरफ।
उत्तेजना आपको अपने में आने से रोकती है, बाहर ले जाती है। उत्तेजना में आप दूसरे में डूब जाते हैं, खुद को भूल जाते हैं। कोई न कोई उत्तेजना चाहिए। ऐसा भी हो सकता है कि आप उत्तेजना में प्रसन्न न होते हों, दुखी होते हों। समझ लें कि आपके सामने सिंह किसी को फाड़ कर खा रहा हो और आपकी आंखों से आंसू झर रहे हों, लेकिन तब भी, आप--वह भी आपका भूलना ही है। उस आंसू गिरने में भी वह सिंह और आदमी प्रमुख हो गए हैं, आप अपने को भूल गए हैं।
मैंने सुना है कि एक यहूदी बुढ़िया को उसका बेटा पहली दफा फिल्म दिखाने ले गया। वह फिल्म एक पुरानी रोमन कथा पर आधारित थी। और उसमें वह अनिवार्य दृश्य आया, जिसमें ईसाइयों को रोमन सम्राट फेंक रहे हैं सिंहों के सामने, बुढ़िया की आंखों से आंसू बहने लगे। और उसके मुंह से चीत्कार निकलने को थी कि उसके बेटे ने कहा: ‘इतना क्यों परेशान हो रही हो? उसने कहा कि’ देखो, बेचारे आदमियों को सिंह किस तरह फाड़ कर खा रहे हैं।’ तो उसने कहा कि ‘वे आदमी नहीं हैं, ईसाई हैं।’
यहूदी थी बुढ़िया। ‘वे आदमी नहीं हैं, ईसाई हैं’--बुढ़िया ने कहा: ‘अच्छा’। तब उसने अपने आंसू पोंछ लिए। वह प्रसन्नता से देखने लगी। लेकिन दो ही मिनट बाद फिर उसके आंसू बहने लगे। फिर चीत्कार निकलने को थी तो उसके लड़के ने कहा कि ‘अब क्या मामला है?’ उसने कहा कि देखो, एक बेचारा सिंह खड़ा है और उसको एक भी आदमी नहीं मिला। पहले वे बेचारे आदमी थे जिनको सिंह खा रहा था, लेकिन अब वे ईसाई हैं, अब एक बेचारा सिंह अकेला खड़ा है, उसको कोई आदमी नहीं मिला। अब वह उसके लिए रो रही है!
आदमी चाहे रोए और चाहे हंसे, जब तक दूसरे पर ध्यान है, तब तक अपना विस्मरण है। इसीलिए ट्रैजिडि का भी इतना रस है। बड़े मजे की बात है कि दुनिया में इतनी ट्रैजिडि है, इतना दुख है, फिर भी आप दुखांत नाटक देखने जाते हैं!
और ध्यान रहे, दुखांत नाटक ज्यादा चलते हैं सुखांत नाटक के बजाय। यह बड़ी अजीब बात है। दुनिया में काफी दुख है। अभी आपको दुख का अनुभव नहीं हुआ है कि आप दुखांत नाटक देखने जा रहे हैं? लेकिन अगर कहानी में दुख न हो और दुख पर कहानी का अंत न हो, तो उतनी उत्तेजना पैदा नहीं होती, क्यों?
अगर कहानी बिलकुल सुखांत हो तो उसमें रस ज्यादा नहीं आएगा, क्योंकि सुख दूसरे को मिल रहा हो तो हमें कोई रस नहीं आता। दुख दूसरे को मिल रहा हो, तो ही हमें रस आता है। इसलिए दुनिया में नब्बे प्रतिशत कहानियां दुखांत लिखी जाती हैं, केवल दस प्रतिशत सुखांत लिखी जाती हैं। और वह दस प्रतिशत भी बाजार में टिक नहीं पाती हैं, दुखांत कहानियों के मुकाबले।
आदमी अजीब है। अगर दुख का अनुभव हो तो वह भूलने की कोशिश करता है। जीवन के ढंग को बदलने की नहीं, ताकि दुख से ऊपर उठ जाए, और वे कारण मिट जाएं जिनसे दुख पैदा होता है। जब कोई व्यक्ति दुख को मिटाने की तैयारी करता है, भुलाने की नहीं, तो मुमुक्षा का जन्म होता है, तो मोक्ष की खोज शुरू हो गई।
दर्शन से श्रद्धा और चारित्र्य श्रद्धा से। श्रद्धावान ही चारित्र्य को उपलब्ध होता है। जब अपना अनुभव बता देता है कि क्या सही है और क्या गलत है, और जब अपने अनुभव पर भरोसा प्रगाढ़ हो जाता है, तो चरित्र बदलना शुरू हो जाता है। जो सही है, उस दिशा में चरित्र अपने आप बहने लगता है। वैसे ही, जैसे पानी ढाल की तरफ बहता है। जो गलत है, उस तरफ से जीवन अपने आप मुड़ना शुरू हो जाता है। गलत की तरफ से मुड़ना पड़ता है हमें, क्योंकि हमारे जीवन में कोई श्रद्धा और कोई अनुभव नहीं है। सही को लाने की कोशिश करनी पड़ती है, क्योंकि हमारे जीवन में कोई श्रद्धा नहीं है।
मुमुक्षा हो, ज्ञान हो, दर्शन हो, श्रद्धा हो--चारित्र्य ऐसे आता है, जैसे छाया आपके पीछे आती है। उसको लाना नहीं पड़ता। आप रुक-रुक कर पीछे देखते नहीं कि छाया आ रही है, कि नहीं आ रही है--आती है। श्रद्धा की छाया है चरित्र।
अश्रद्धावान दुष्चरित्र हो जाता है, श्रद्धावान चरित्र को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन श्रद्धा का आप अर्थ समझ लेना, महावीर का अर्थ श्रद्धा का क्या है? श्रद्धा कोई ऐसी बात नहीं है कि आपने मेरी बात मान ली तो श्रद्धा हो गई। जब तक आपके अनुभव से मेल न खा जाए, तब तक श्रद्धा न होगी। तो महावीर की बात आप सुन रहे हैं, उसे थोड़ा जीवन में प्रयोग करना। जहां-जहां लगेगा कि महावीर जो कहते हैं, वह जीवन से मेल खाता है, वहीं-वहीं श्रद्धा का जन्म होगा। जहां-जहां श्रद्धा का जन्म होगा, वहीं-वहीं चरित्र की छाया पीछे चलने लगेगी।
ठीक के विपरीत जाना असंभव है, लेकिन सभी लोग ठीक के विपरीत चले गए हैं। यूनान में बहुत पुराना विवाद था, सुकरात ने उठाया। सुकरात ने कहा कि ठीक के विपरीत जाना असंभव है। सैंकड़ों वर्ष तक विवाद चला, और सैकड़ों दार्शनिकों ने कहा कि सुकरात की बात ठीक नहीं है, क्योंकि हमें पता है कि ठीक क्या है? फिर भी हम विपरीत जाते हैं। अनुभव तो यही कहता है बाहर का, जगत का कि लोगों को मालूम है कि ठीक क्या है। आपको मालूम नहीं है कि ठीक क्या है? आपको बिलकुल मालूम है कि ठीक क्या है, फिर भी आप विपरीत जाते हैं। लेकिन ये सुकरात, महावीर, बुद्ध, कृष्ण--ये बड़ी उलटी बात कहते हैं। ये कहते हैं कि ठीक के विपरीत जाना असंभव है।
ज्ञान चरित्र है। तब जरूर कहीं न कहीं कोई भूल-चूक हो रही है, हमारे शब्दों में कहीं कोई अड़चन हो रही है। हम जिसको ठीक का ज्ञान कहते हैं, वह ज्ञान ही नहीं है, सिर्फ जानकारी है। वहीं अड़चन हो रही है। आपको भी पता है कि सत्य बोलना चाहिए। आपको इसका बोध है। लेकिन यह सुना हुआ बोध है। किसी ने आपको कहा है; पिता ने कहा है, गुरु ने कहा है, शास्त्र से पढ़ा है, हवा है चारों तरफ कि सत्य बोलना चाहिए, लेकिन जब कठिनाई आती है तो आप जानते हैं कि झूठ बोल कर बचा जा सकता है। वह अनुभव आपका वही है कि सत्य बोल कर फंसेंगे, झूठ बोल कर बचेंगे। और सभी बचना चाहते हैं। वह बचाव--असली में आपका ज्ञान यही है कि झूठ बोल कर बचा जा सकता है।
सभी शास्त्र और सभी तीर्थंकर कहते रहें, इससे क्या फर्क पड़ता है। सभी तीर्थंकर जगत के मिल कर भी आपके छोटे अनुभव के मुकाबले कमजोर हैं, आपका अनुभव सच है। आपको पता है कि झूठ बोल कर बचूंगा। पहले भी झूठ बोल कर बचे हैं, पहले भी सच बोल कर फंसे हैं। अनुभव आपका यही है; यही आपका ज्ञान है। आपके वास्तविक शास्त्र में लिखा है कि ‘झूठ ही धर्म है’, क्योंकि वही बचाव है। लेकिन आपकी अवास्तविक बुद्धि में लिखा है, ‘सत्य धर्म है’, वही परम श्रेय है। इन दोनों में कोई तालमेल नहीं है। अपने ही शास्त्र से आप चलते हैं। आपका आचरण आपके ही ज्ञान की छाया की तरह चलता है। महावीर का आचरण महावीर के ज्ञान की छाया है। महावीर का ज्ञान आप में छाया पैदा नहीं कर सकता। महावीर की छाया आपके पीछे कैसे चल सकती है? उनके ही पीछे चलेगी।
यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि हम जिसे ठीक जानना कहते हैं, वह जानना ही नहीं है, ठीक तो बहुत दूर। हमारी सारी कठिनाई इस बात में है कि हमारे मस्तिष्क सुशिक्षित कर दिए गए हैं, और हमारी चेतना अशिक्षित रह गई है। तो एक अर्थ में हमें सभी कुछ मालूम है और एक अर्थ में हमें कुछ भी नहीं मालूम है। इसलिए जिस व्यक्ति को मोक्ष के मार्ग पर जाना हो, पहले तो उसे अपने
इस ज्ञान के झूठे खयाल से मुक्ति पानी जरूरी है। उसे एक दफा अज्ञानी हो जाना जरूरी है। उसे ठीक-ठीक साफ कर लेना चाहिए कि मेरा ज्ञान क्या कहता है, नहीं तो धोखा हो रहा है।
महावीर का ज्ञान आप अपना ज्ञान समझ रहे हैं तो धोखा हो रहा है--आप भटकेंगे। आपका ज्ञान क्या है? अपने पास एक छोटा अपना शास्त्र, निजी शास्त्र, प्रत्येक को बनाना चाहिए। उसमें अपना ज्ञान लिखना चाहिए, शुद्ध मेरा ज्ञान यह है कि ‘झूठ धर्म है।’ क्योंकि धर्म वही है जो रक्षा करे। झूठ रक्षा करता है। अपना छोटा सा शास्त्र, निजी, और तब आप पाएंगे कि आपका चारित्र्य हमेशा आपके शास्त्र की छाया है। तब आपको कभी कोई भूल-चूक नहीं मिलेगी। जो आपके शास्त्र में लिखा है, वही आपका जीवन होगा। लेकिन शास्त्र आपके पास महावीर का है और चरित्र अपना है। इसमें बड़ी अड़चन है। और आप बड़े धोखे में पड़े हैं। और तब प्रश्र्न उठता है कि जानने से क्या होगा? जान तो लिया, लेकिन जीवन तो बदलता नहीं। तो महावीर की बात समझ में नहीं आएगी।
अगर जानने से जीवन न बदलता हो, उसका एक ही अर्थ हुआ कि जाना नहीं है। उस जानने को छोड़ें और जानने की कोशिश में लगें। जानने की कोशिश में वही लगेगा, जिसे अज्ञान का बोध हो रहा है। आप सब ज्ञानी हैं, अज्ञान का बोध होता ही नहीं, तो जानने का कोई सवाल ही नहीं उठता। और जब तक सम्यक ज्ञान न हो, तब तक सम्यक चारित्र्य नहीं हो सकता है।
चरित्र एक कड़ी है, जिसके पहले कुछ अनिवार्य कड़ियां गुजर जानी चाहिए। जब तक वे अनिवार्य कड़ियां न गुजर जाएं, चरित्र की कड़ी हाथ में नहीं आती। लेकिन आप झूठा कागजी चरित्र पैदा कर सकते हैं, आप आवरण बना सकते हैं, आप पाखंडी हो सकते हैं, आप चेहरे ओढ़ सकते हैं। और चेहरे कभी-कभी इतने गहरे हो जाते हैं, इतने पुराने हो जाते हैं कि लगता है, कि आपका यही असली चेहरा है।
रिलके ने, एक कवि ने अपने बचपन का एक संस्मरण लिखा है। उसने लिखा है कि मैं छोटा था और मेरे पिता को बड़ी सांस्कृतिक गतिविधियों में रुचि थी। नाटक, कविता, संगीत--और घर में निरंतर कलाकार ठहरते थे। एक बार एक नाटक-मंडली घर में ठहरी। उन दिनों अभिनेता चेहरे ओढ़ कर अभिनय करता था नाटक में--मास्क--तो उनके पास बड़े अजीब-अजीब चेहरे थे।
और घर में ही वह ठहरे थे। तो यह छोटा बच्चा रिलके एक दिन उनके कमरे में घुस गया, जब कि सब लोग खाना खाने में लगे थे। तो उनके सजावट के कमरे में पहुंच गया। उसने भी सोचा कि मैं भी एक चेहरा ओढ़ कर देखूं। तो उसने एक भयंकर--बच्चों को बड़ा रस होता है भयंकर में--एक राक्षस का चेहरा लगा लिया, उसे ठीक से बांध लिया। उसके ऊपर एक पगड़ी बांध ली, ताकि उसकी कोरें ढंक जाएं। वह चेहरा उसके चेहरे पर बिलकुल आ गया। फिर वह राक्षस की तरह चलना उसने शुरू किया कमरे में, एक तलवार उठा ली नकली, और छोटे बच्चे--कल्पना उनकी प्रगाढ़ होती है--और वह बिलकुल भूल गया, जोश में आ गया। जोश इतना आ गया कि उसने तलवार चला दी। तलवार चलाने से पास की टेबल पर रखी हुई कुछ शीशियां गिर गईं, उनका रंग नीचे बिखर गया, कोई सामान टूट गया तो वह घबड़ा गया सामान इकट्ठा करने में कि कोई आ न जाए। शीशियां जमाने में वह बिलकुल भूल ही गया कि ‘मैं कौन हूं?’ और जब सब जमा कर, सब ठीक हो गया तो वहां से भागा कि इसके पहले कि मैं पकड़ जाऊं; लेकिन अपना चेहरा उतारना भूल गया। जब अपने कमरे में जाकर पहुंचा और आईने में उसे खुद का चेहरा दिखाई पड़ा, तो उसने चीख मार दी। वह घबड़ा गया कि यह क्या हो गया? बेहोश होकर गिर पड़ा। लोग दौड़े हुए आए। परिवार के लोग इकट्ठे हो गए। परिवार के लोग हंसने लगे, देख कर सब उसका नाटक।
लेकिन रिलके ने लिखा है: मेरी पीड़ा को कोई भी नहीं समझा। उनकी हंसी देख कर मैं और घबड़ाने लगा। उनकी हंसी देख कर मुझे और भरोसा आने लगा कि कुछ गड़बड़ हो ही गई है; अब इस चेहरे से कोई छुटकारा नहीं दिखाई पड़ता। यह स्मरण ही न रहा कि मैं अलग हूं और यह चेहरा अलग है।
और सभी की जिंदगी में उपद्रव बचपन से ही शुरू होता है, क्योंकि बचपन से ही बच्चों को चेहरे ओढ़ने पड़ते हैं। बाप कहता है, कब हंसो, इसकी भी आज्ञा बाप देता है। इसकी भी आज्ञा मां देती है कि कब हंसो, कब मत हंसो। तो जब बच्चे को हंसी आती है, तब वह उसको रोक लेता है। तब उसको दूसरा चेहरा ओढ़ना पड़ता है, जो हंसी का नहीं है।
और बच्चे की हंसी के वक्त अलग होंगे आपकी हंसी से, क्योंकि आपके सोचने के ढंग और उसके सोचने के ढंग बिलकुल अलग हैं। वह बूढ़ा नहीं है। वह किन्हीं और चीजों पर हंसता है, जिन पर आप हंस ही नहीं सकते। और आप जिन चीजों पर हंसते हैं, उसकी समझ में भी नहीं आ सकता है कि उसमें हंसी की क्या बात है?
एक छोटे बच्चे को उसकी मां ने कहा कि एक मेहमान घर में आ रहा है, ध्यान रखना, उनकी नाक की बात मत उठाना क्योंकि नाक उन मेहमान की थी नहीं, आपरेशन हो गया था। तो मां परेशान थी कि यह बच्चा एकदम पूछ न ले कि नाक का क्या हुआ? तो मेहमान कहीं अड़चन में न पड़े। तो मां ने समझा दिया कि नाक की बिलकुल बात ही मत उठाना। ध्यान रखना, सब-कुछ कहना, नाक की भर बात मत उठाना।
अब बच्चा और भी उत्सुक होकर बैठ गया कि मामला क्या है? अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ है। और जब वह आदमी आया तो उस बच्चे ने कहा कि मां, नाक तो है ही नहीं, चर्चा किस बात की करनी, नाक होती तो चर्चा भी हो सकती थी! नाक तो है ही नहीं!
बच्चे का जगत अलग है, उसके सोचने का गणित अलग है। हम उसको बता रहे हैं, कब हंसो, कब रोओ, कब उठो, कैसे बैठो; क्या करो, क्या न करो। हम उसको झूठ सिखा रहे हैं। हम उसको चेहरे दे रहे हैं। मजबूरी है, वह कमजोर है, उसे हमारी माननी ही पड़ेगी। वह हम पर निर्भर है। चेहरे जितने ओढ़ने लगेगा, हम कहेंगे बच्चा उतना सुंसस्कृत है, मैनरली है। उतना बच्चा शिष्ट होने लगा, जितना चेहरे ओढ़ने लगा। वर्षों के बाद उसे याद भी नहीं रहेगा कि उसका असली चेहरा कहां है? यही चेहरे उसकी जिंदगी हो जाएंगे। वह हंसेगा, वह हंसी झूठी, ऊपर से चिपकाई हुई होगी। वह रोएगा, उस रोने में कहीं कोई रुदन नहीं होगा। वह कहेगा, आपको देख कर बड़ी प्रसन्नता हो रही है, और उसे कोई प्रसन्नता नहीं हो रही होगी।
सब झूठा हो जाएगा।
हम सब इसी झूठ में खड़े हैं, समाज एक महा-असत्य है। लेकिन इतने बचपन में चेहरे ओढ़ाए जाते हैं कि हमें भूल ही जाता है कि हमारा कोई असली चेहरा था। आईने में सदा यही चेहरे देखे हैं, इन्हीं से हमारी पहचान हो गई है।
आप जान कर हैरान होंगे कि अगर किसी व्यक्ति को तीन महीने गहन ध्यान कराया जाए और आईना न देखने दिया जाए, तो तीन महीने बाद आईने में देख कर वह खुद को पहचानने में कठिनाई अनुभव करेगा कि यह चेहरा मेरा है। क्योंकि सब पर्तें उतर जाएंगी और एक नये ही चेहरे का आविर्भाव होगा।
जापान में तो वे कहते ही हैं साधक को--जो भी साधक गुरु के पास आता है, वे उससे कहते हैं कि फाइंड आउट योर ओरिजिनल फेस--अपना मूल चेहरा खोजो। बस, यही ध्यान है।
महावीर कहते हैं कि जब ज्ञान श्रद्धा बन जाता है, अनुभव श्रद्धा बन जाता है तो चरित्र अपने आप पीछे आता है। अगर आपके ज्ञान के पीछे आपका चरित्र न आ रहा हो, तो आप चरित्र को दोष देना बंद करो, आप ज्ञान को दोष देना शुरू करो।
लेकिन आपके साधु-संन्यासी आपको समझा रहे हैं कि चरित्र आपका खराब है, ज्ञान तो बिलकुल ठीक है। यहीं बुनियादी भूल हो रही है। मनुष्य के मन को समझने में इससे बड़ी भूल नहीं हो सकती। साधु-संन्यासी समझा रहे हैं कि चरित्र ठीक करो, ज्ञान तो तुम्हारा ठीक है। क्योंकि तुम्हें कंठस्थ हैं शास्त्र। चरित्र ठीक करो। साधु-संन्यासी भी अपना चरित्र ठीक करने में लगे हैं। ज्ञान उनका भी ठीक है।
चरित्र को ठीक करना ही नहीं पड़ता, सिर्फ ज्ञान को ठीक करना पड़ता है। जब ज्ञान ठीक हो जाता है, चरित्र एकदम से ठीक होने लगता है। चरित्र का ठीक होना सिर्फ लक्षण है, ज्ञान के ठीक हो जाने का।
जीवन की क्रांति ज्ञान पर निर्भर है, चरित्र पर निर्भर नहीं है। इसीलिए दुनिया इतनी चरित्रहीन है, क्योंकि सभी लोग चरित्र को ठीक करने में लगे हैं। जिस दिन दुनिया ज्ञान को ठीक करने में लगेगी, चरित्र अपने आप आ जाएगा।
महावीर ज्ञानी हैं, नैतिक चरित्र के उपदेशक नहीं। लेकिन बड़ी भ्रांति है। पश्र्चिम में, पूरब में, सब तरफ भ्रांति है। एक तो महावीर को लोग बहुत कम जानते हैं, क्योंकि उनके आस-पास जो लोग घिरे हैं, उन्होंने महावीर की प्रतिष्ठा ऐसी कर दी है कि वह जानने योग्य मालूम ही नहीं पड़ते। जैन साधुओं को देख कर कौन महावीर को जानना चाहेगा? इनको देख कर ऐसा लगता है कि परमात्मा न करे कि ऐसा कभी अपने जीवन में हो जाए--ऐसी रुग्णता, ऐसी उदासी, ऐसी कठोरता, ऐसा सब जड़-भाव, और जिंदगी से ऐसी लड़ाई। अहोभाव का खो जाना, उत्सव का बिलकुल विनष्ट हो जाना, मुर्दे की तरह जीना, लाश की तरह तैरना--कोई देख कर जैन साधुओं को, जैनियों को छोड़ कर, क्योंकि उनको तो कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है, उनके पास तो एक चश्मा है, दुनिया में किसी को भी जैन साधु को दिखाओ--उसको लगेगा कि पैथालॉजिकल है, कुछ रुग्ण है। कहीं न कहीं कोई गड़बड़ हो गई है। शरीर भी खराब है, मन भी ठीक नहीं है। और दुष्ट है, जिसका हमें खयाल भी नहीं आ सकता। जैन को खयाल नहीं आ सकता कि जैन साधु दुष्ट है। हिंसा का एक रस है--वह चाहे दूसरे को सताने में लो, चाहे खुद को सताने में, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। सताने का मजा है--कुछ लोग दूसरे को सताते हैं, कुछ लोग अपने को सताते हैं।
ध्यान रहे, अक्सर ताकतवर दूसरों को सताते हैं, कमजोर अपने को सताने लगते हैं। क्योंकि दूसरे को सताने में खतरा है। दूसरे को सताने जाइएगा तो झंझट है, क्योंकि दूसरा भी बैठा नहीं रहेगा। इसलिए जो कमजोर हैं, कायर हैं, नपुसंक हैं, वे दूसरों को सताने का मजा तो ले नहीं सकते, उनके लिए सिर्फ एक ही रास्ता है कि अपने को सताओ, भूखा रखो, नंगा रखो, बीमार रखो, सब तरह से अपने को सताओ और मजा लो।
कठोरता, क्रूरता, हिंसा छिपी हुई दिखाई पड़ेगी। लेकिन उसमें जैन को अहिंसा दिखाई पड़ रही है। उसका कारण कुल चश्मा है।
किसी मनस्विद से पूछो, दुनिया भर के सारे मनस्विद भी इकट्ठे हो जाएं, तो मैं जो कह रहा हूं, यही गवाही देंगे कि यह आदमी रुग्ण है, बीमार है, पैथालॉजिकल है। यह अपने को सता रहा है, मैसोचिस्ट है।
दो तरह की वृत्तियां हैं हिंसा की: दूसरे को सताने की और अपने को सताने की। अहिंसक वही है, जो किसी को भी नहीं सता रहा है, न दूसरे को, न अपने को। सताने की धारणा ही जिसकी गिर गई। लेकिन वह आपको साधु ही नहीं मालूम पड़ेगा, जो अपने को नहीं सता रहा है। क्योंकि साधु कैसा है? यह आराम से बैठा है, अपने को भी नहीं सता रहा है।
तपश्र्चर्या करो कुछ, कुछ उपवास करो, कुछ भूखे रहो, कुछ मर कर दिखाओ तो ही साधु मालूम पड़ेगा। आपको लगे कि साधु आराम से है, शांत बैठा है, प्रसन्न है, आनंदित है--आपको शक हो जाएगा कि यह आदमी साधु नहीं है। क्योंकि हमने कठोरता और हिंसा को साधुता का अंग बना लिया है।
महावीर की बात बिलकुल अन्यथा है। महावीर के शरीर को देख कर कोई भी नहीं कह सकता कि पैथालॉजिकल है, बीमार है। महावीर के चेहरे की प्रसन्नता को देख कर कोई नहीं कह सकता है कि इन्होंने अपने को सताया है, नहीं तो चेहरा मुरझा जाता। सताए हुए का चेहरा नहीं दिखता महावीर का। उस प्रफुल्लित व्यक्ति का चेहरा दिखता है जो सताना भूल ही गया, न किसी और को, न अपने को।
मगर महावीर की यह धारणा और महावीर की यह प्रतिमा दुनिया के सामने प्रकट नहीं हो पा रही है। कारण दिखाई पड़ता है और कारण यही है कि महावीर ने जो बातें कहीं, महावीर ने जो विचार दिया, उस विचार की बड़ी ही भ्रांत व्याख्या हो गई। होने की संभावना थी; उसमें बीज थे। महावीर नग्न खड़े हो गए।
पश्र्चिम में मनस्विद कहते हैं कि कुछ लोगों को नग्न खड़े होने में सुख मालूम पड़ता है, कोई उनको नंगा देख ले। ये वे ही लोग हैं जिनकी कामवासना ठीक नहीं है, विकृत हो गई है। इनको इतने में ही रस आ जाता है कि कोई इनको नग्न देख ले। तो ऐसे आदमी को महावीर में रस आ जाएगा। वह कहेगा कि यह तो बिलकुल ठीक है। धर्म की आड़ मिलती है और मैं नग्न खड़ा हो जाऊं तो लोग उलटे पूजा करते हैं।
आदमी को अपने को सताने में विजय का रस मिलता है, कि मैं जीत रहा हूं, मैं मालिक हूं। आखिर दूसरे को सताने में आपको क्या रस मिलता है? यही रस न कि वह आपसे बदला नहीं ले सकता, और आप मालिक हैं; वह कमजोर और आप ताकतवर हैं? आदमी जब अपने को सताता है, तब भी उसके अहंकार को मजा आता है कि ‘मैं ताकतवर हूं। देखो, पंद्रह दिन से भूखा हूं, उपवास किया है; और सारा शरीर ताकत लगा रहा था, कि भूख लगी है, लेकिन मैंने एक न सुनी।’
यह कौन है, जो एक नहीं सुन रहा है? यह दुष्ट अहंकार है। नहीं तो शरीर जब कह रहा है, भूख लगी है, तो चाहे दूसरे का शरीर कह रहा हो, चाहे अपना शरीर कह रहा हो, फर्क क्या है? एक दूसरा आदमी बैठा हो, उसको भूख लगेगी--आप कहते हैं, नहीं खाना खाने देंगे, और आपका शरीर कह रहा है कि भूख लगी है, और आप कहते हैं, कि नहीं खाना खाने देंगे, क्योंकि मैंने व्रत लिया है। यह व्रत कौन ले रहा है?
सब व्रत अहंकार के हिस्से हैं। क्योंकि व्रत से मजा आ रहा है कि मैं पंद्रह दिन करके दिखा दूंगा। इस शरीर को दिखा दूंगा करके। यह शरीर है कौन? यह आपका यंत्र भर है। आप वैसा ही पागलपन कर रहे हैं, जैसे कोई गाड़ी को चलाता रहे और कहे कि पेट्रोल नहीं दूंगा। चखा दूंगा मजा बिना पेट्रोल के चला कर।
बिलकुल पागलपन की बात कर रहे हैं। गाड़ी को पेट्रोल नहीं देने से गाड़ी क्या चखेगी मजा, मजा आप ही चख रहे हैं। लेकिन कोई भी आदमी अगर गाड़ी के साथ ऐसा व्यवहार करेगा खड़े होकर तो आप कहेंगे यह पागल है। लेकिन शरीर के साथ इस तरह के व्यवहार करने वाले लोग पूज्य हो जाते हैं, महात्मा हो जाते हैं। आप भी उनके पागलपन में सहभागी हैं। एक पार्टनरशिप चल रही है, साझेदारी चल रही है।
महावीर का चरित्र तो श्रद्धा का अपरिहार्य परिणाम है। और श्रद्धा, अनुभव की अनुसंगी है। अनुभव ज्ञान से उत्पन्न होता है। ज्ञान मुमुक्षा के बीज से जन्मता है।
‘चारित्र्य से भोग-वासनाओं का निग्रह हो जाता है, और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।’
बड़े मजे की बात है। महावीर तप को चरित्र के बाद रखते हैं। सब से पहले मुमुक्षा, ज्ञान, अनुभव, श्रद्धा, फिर चरित्र, और फिर तप। जब व्यक्ति के जीवन से वासनाएं क्षीण हो जाती हैं, चरित्र का जन्म होता है। जब गलत की ओर जाने की बात रुक जाती है, जब गलत तरफ जाती हुई ऊर्जा ठहर जाती है, तभी तप का जन्म हो सकता है। क्योंकि तप महा-ऊर्जा में पैदा होता है। वह अग्नि जो आपको जला कर निखार दे, उस अग्नि के इकट्ठे होने के पहले चरित्र का पैदा हो जाना जरूरी है। क्योंकि जिनके पास ऊर्जा ही नहीं है, जिनके पास ईंधन नहीं है, वे भीतर की अग्नि को जला नहीं पाएंगे।
असल में चरित्रहीन पापी नहीं है, सिर्फ मूढ़ है; चरित्रहीन सिर्फ नासमझ है। वह उस ऊर्जा को नष्ट कर रहा है, जिस ऊर्जा से महातप पैदा हो सकता है, और जिससे वह निखर कर नये जन्म को पा सकता है। अमृत जिससे झर सकता है, उसको वह व्यर्थ खो रहा है। वह सिर्फ मूढ़ है।
इसलिए महावीर कहते हैं, कि वह सिर्फ अज्ञानी है। पापी पर दया करो, वह सिर्फ अज्ञानी है। उसको दंड देने की व्यवस्था मत करो, क्योंकि वह सिर्फ भूल कर रहा है। दोष है उसकी समझ में, वह लुटा रहा है चीजें, जिनसे वह बहुमूल्य को खरीद सकता था। अमूल्य को खरीद सकता था, उनको वह क्षुद्र चीजों में लुटा रहा है। लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ता।
चरित्र कोई नैतिक लक्ष्य नहीं है महावीर के लिए, आध्यात्मिक रूपांतरण का अनिवार्य अंग है। और चरित्र, इसलिए मूल्यवान है कि वह आपकी शक्तियों को संवरित कर देगा। आपकी शक्तियां बच रहेंगी, संगृहीत हो जाएंगी। और एक सीमा पर जब संग्रह आता है तो जैसा विज्ञान का नियम है कि क्वांटिटी, क्वालिटेटिव परिवर्तन बन जाती है। जब एक जगह मात्रा आती है तो गुण का रूपांतरण होता है।
यह थोड़ा समझ लेना चाहिए, यह जैसा विज्ञान का सिद्धांत है, वैसा ही अध्यात्म का भी--आप पानी को गरम करते हैं, निन्यानबे डिग्री तक गर्म किया पानी भाप नहीं बनता, सौ डिग्री सीमा आई, एवोपरेटिंग पॉइंट आया। सौ डिग्री पर फर्क क्या पड़ रहा है? सिर्फ एक डिग्री गर्मी बढ़ रही है, और कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन सौ डिग्री पर गर्मी आते ही पानी अचानक भाप बनना शुरू हो जाता है, क्रांति शुरू हो गई। पानी ने अपना रूप छोड़ दिया पुराना, और नया रूप लेने लगा।
गर्मी की एक खास मात्रा पर पानी भाप बनता है। गर्मी की एक खास मात्रा पर हर चीज बदलती है। हर चीज गर्मी को नीचे गिराते जाएं, एक सीमा पर पानी बर्फ बन जाएगा। लोहा भी भाप बन कर उड़ता है, गर्मी की एक सीमा पर। गर्मी की एक सीमा पर हर चीज बदलती है। इसका मतलब यह हुआ कि सारी बदलाहट के पीछे गर्मी है, अग्नि है।
ऐसी कोई भी बदलाहट नहीं है, जो बिना गर्मी के हो जाए। आपको खयाल है, ऐसी कोई भी बदलाहट जो बिना गर्मी के हो जाए--चाहे पदार्थ की, चाहे जीव की। जब आप प्रेम से भरते हैं, तो आपको पता है खास तरह की गर्मी से भर जाते हैं? इसलिए हम प्रेम को उष्ण कहते हैं, वार्म कहते हैं। और जब कोई आदमी ठंडा होता है, जिसमें प्रेम बिलकुल नहीं, तब हम उसको कोल्ड कहते हैं, ठंडा कहते हैं। एक तरह की गर्मी है जो प्रेम में आपको परिव्याप्त कर लेती है। संभोग के क्षण में आप उत्तप्त हो जाते हैं पूरी तरह से। आप इतने उत्तप्त हो जाते हैं, तभी एक नये व्यक्ति का जन्म आपसे हो पाता है।
अभी तो पश्र्चिम के एक विचारक ने बड़ी महत्वपूर्ण प्रस्तावना की है। और उसने कहा कि शायद स्वीकृत हो जाए, क्योंकि बात कीमती और वैज्ञानिक और प्रयोगसिद्ध मालूम होती है। बहुत पुराने शास्त्र दुनिया के कहते हैं कि गर्भ के समय में स्त्री के साथ संभोग न किया जाए। लेकिन अब तक उसके लिए कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। लेकिन अभी पश्र्चिम के वैज्ञानिक ने आधार दिया है। और उसका कहना है कि संभोग के क्षण में इतना उत्ताप पैदा होता है, वह उत्ताप बच्चे के कोमल मस्तिष्क तंतुओं को नष्ट कर देता है। इसलिए संभोग अगर गर्भ की अवस्था में किया जाए तो बच्चे विकलांग पैदा होते हैं, और मस्तिष्क उनका क्षीण होता है।
दो कारणों से: एक तो उत्ताप बढ़ जाता है स्त्री के शरीर में और बच्चे के अभी जन्मते हुए स्नायु इतने कोमल हैं कि जरा सी गर्मी और वे जल जाते हैं। और स्त्री के शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। इसलिए संभोग के क्षण में आप जोर से श्र्वास लेते हैं, जैसे दौड़ रहे हों। क्योंकि भीतर गर्मी में ऑक्सीजन जलने लगती है। ऑक्सीजन जलती है तो आपको जोर से श्र्वास लेनी पड़ती है। स्त्री बड़े जोर से श्र्वास लेती है। उसका पूरा खून उत्तप्त हो जाता है। उस उत्तप्त खून के क्षण में बच्चे के स्नायु भी जलते हैं और ऑक्सीजन की कमी की स्थिति में उसका आई-क्यू, उसका बुद्धिमाप नीचे गिर जाता है।
इस वैज्ञानिक के हिसाब से दुनिया में जो बढ़ती जाती मानसिक बीमारी का कारण है, उनमें एक बुनियादी कारण है कि सारी दुनिया में अब सारे धर्मों के हिसाब को छोड़ कर, लोग गर्भ के समय भी संभोग कर रहे हैं।
यह बड़े मजे की बात है कि कोई पशु गर्भ के समय संभोग नहीं करता, सिर्फ आदमी को छोड़ कर। कोई पशु पूरी पृथ्वी पर गर्भ के समय संभोग नहीं करता, सिर्फ मनुष्य करता है। तो मनुष्य से ज्यादा विकृत कोई पशु पैदा भी नहीं होता। यह बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि कोई भी रूपांतरण ऊर्जा का, गर्मी का, फायर का, अग्नि का रूपांतरण है।
तप अंतिम रूपांतरण है, जहां व्यक्ति शरीर से अपने सारे संबंध छोड़ देता है, जहां आत्मा सब तरह के कर्म-मल से अलग हो जाती है। एक महागर्मी की जरूरत है। उस गर्मी के पहले चरित्र की घटना घट जानी चाहिए। क्योंकि दुश्र्चरित्र का मतलब है, लीकेज। उसके जीवन से ऊर्जा इधर-उधर भटक रही है, जैसे नाव में छेद हो, या बाल्टी में छेद हो और आप पानी भर रहे हैं--जब पानी में होती है बाल्टी, बिलकुल भरी मालूम पड़ती है। जैसे ही ऊपर उठाने लगते हैं, पानी बहने लगता है। जब तक ऊपर उठ कर आती है, पानी बूंद भी नहीं बचता। सब पानी छेदों से बह जाता है।
मरने के समय में आपकी बाल्टी बिलकुल खाली होती है। दुख मृत्यु का नहीं है, दुख खाली जीवन का है, जो मरने के क्षण में हाथ आता है। होना उलटा चाहिए। अगर जीवन में चरित्र की आधारशिला निर्मित की होती, तो मृत्यु के समय में आप सबसे ज्यादा भरे हुए होते। और जो व्यक्ति भरा हुआ मर सकता है, उसका फिर कोई जन्म नहीं है। जो खाली मरता है, वह फिर भरने की आकांक्षा से मरता है, फिर नया जन्म शुरू हो जाता है।
जब आपकी खाली बाल्टी आ जाएगी कुएं के पाट पर, स्वभावतः आप फिर से बाल्टी को पानी में डालेंगे। क्योंकि भरने के लिए तो सारी चेष्टा थी। लेकिन उसी बाल्टी को पानी में डाल रहे हैं, जिसके छिद्रों ने पानी को बहा दिया। फिर-फिर वही होगा। बाल्टी के छेद ‘दुश्र्चरित्रता’ है। बाल्टी के छेदों का भर जाना, रुक जाना, बंद हो जाना ‘चरित्र’ है।
यह बहुत मजे की बात है कि जितना भी चरित्रवान व्यक्ति हो, वह ऊर्जा नहीं खोता। चरित्र से ऊर्जा बढ़ती है, और दुश्र्चरित्र से ऊर्जा खोती है। तो जिस काम को भी करके आपको लगता हो कि आप और भी शक्तिशाली हो गए, उस काम को आप चरित्र समझना; जिस काम को लगता हो करके कि आप थक गए और टूट गए, आप अपने को दुश्र्चरित्र समझना।
मोटी धारणाओं में मत पड़ना; क्योंकि मोटी धारणाएं तो सभी समाजों में अलग होती हैं। कहीं कोई चीज चरित्र समझी जाती है, कहीं कोई चीज दुश्र्चरित्र समझी जाती है। एक बात यहां चरित्र हो सकती है भारत में, और पाकिस्तान में दुश्र्चरित्र हो सकती है। इतनी दूर जाने की जरूरत नहीं है। आपके घर में चरित्र हो, पड़ोसी के घर में दुश्चरित्र हो सकती है।
इससे कोई संबंध नहीं है महावीर का। महावीर का संबंध है, उस चरित्र से जो ऊर्जा को बचाता है। तो आप कहीं भी हों दुनिया में एक ही बात खयाल में रखने की है कि मेरी जीवन-ऊर्जा व्यर्थ तो नहीं खोती है? मैं उसका व्यर्थ अपव्यय तो नहीं करता हूं?
पर यह बोध भी क्रमशः ही कड़ी-कड़ी पैदा होगा।
‘और तप से कर्ममलरहित होकर पूर्णतया शुद्ध हो जाता है।’
और जब ऊर्जा पूरी इकट्ठी होती है, तो सिर्फ ऊर्जा का इकट्ठा होते ही एक बिंदु आता है, एक एवोपरेटिंग पॉइंट आता है, जहां इतनी गर्मी पैदा हो जाती है कि जो भी व्यर्थ है, वह जल जाता है। संसार जल जाता है और सिर्फ शुद्धतम शेष रह जाता है। उस अग्नि से गुजर कर जो बच रहता है, वही मुक्ति है, वही मोक्ष है।
‘ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप--इस चतुष्टय आध्यात्म मार्ग को प्राप्त होकर मुमुक्षु जीव मोक्षरूप सदगति को पाते हैं।’
मुक्त हो जाना ही एकमात्र--एकमात्र लक्ष्य है सारे जीवन की दौड़ का, ऊहापोह का। लेकिन मोक्ष का यह विज्ञान है: मुमुक्षा से शुरू करें, ज्ञान को अनुभव बनाएं, अनुभव श्रद्धा बनेगी, श्रद्धा से चारित्र्य का जन्म होगा, चरित्र के जन्म पर ऊर्जा इकट्ठी होनी शुरू होगी। आप एक झील बन जाएंगे शक्ति की। एक मात्रा पर, उस मात्रा का कोई माप नहीं है, क्योंकि किसी वैज्ञानिक ने कभी अब तक उसे मापने की कोशिश नहीं की कि अंतर-ऊर्जा किस बिंदू पर मोक्ष में प्रवेश करा देती है। लेकिन मैं समझता हूं कि आज नहीं कल, हम उसको भी माप सकेंगे।
विज्ञान विकसित हो रहा है और धीरे-धीरे गहरा हो रहा है। अब तक विज्ञान बहुत सी चीजें नहीं माप पाता था, अब उसने मापना शुरू कर दिया है। अब आपकी रात नींद मापी जा सकती है कि कब गहरी और कब हलकी है, कब स्वप्न चल रहा है, कब नहीं चल रहा है। क्योंकि मस्तिष्क की तरंगें बदल जाती हैं। जब स्वप्न चलता है, तरंगें और होती हैं; जब नहीं चलता, तब और होती हैं। जब गहरी, प्रगाढ़ निद्रा होती है, तो तरंगें और होती हैं। तो पूरी रात ग्राफ बनता रहता है। कि आपने कब स्वप्न लिया। अब तो इस बात की भी पकड़ आ गई है, कब आपके भीतर कामवासना से भरा हुआ स्वप्न चल रहा है। वह भी ग्राफ पर आ जाएगा। क्योंकि जब कामवासना भीतर होती है, तो गर्मी बदल जाती है।
आपने छोटे बच्चों को देखा होगा, रात सोते कई बार उनकी जननेंद्रिय सक्रिय हो जाती है? पुरुषों की भी होती है, मरते दम तक होती है। रात नींद में कम से कम दस बार, सामान्य स्वस्थ व्यक्ति की जननेंद्रिय सक्रिय हो जाती है। जब भी सक्रिय होती है, तभी उसके शरीर का सारा का सारा गर्मी का तल बदल जाता है। उसकी श्र्वास बदल जाती है। वह सब ग्राफ पर आ जाता है। इस बात की संभावना बढ़ती जाती है कि हम चरित्र के भी ग्राफ ले सकेंगे। क्योंकि जैसे-जैसे ऊर्जा भीतर इकट्ठी होगी, भीतर रासायनिक परिवर्तन हो रहे हैं, उन परिवर्तनों का कोई न कोई उपाय खोजा जा सकता है, मापा जा सकता है। और तब एक घड़ी भी तय की जा सकती है कि इस घड़ी पर ऊर्जा के पहुंच जाने पर व्यक्ति की चेतना पदार्थ से छूट जाती है, मुक्त हो जाती है।
गर्मी की एक खास डिग्री, और व्यक्ति शरीर और संसार से अलग हो जाता है। उस अलग होने की घटना का नाम मोक्ष है।

पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, और फिर जाएं...!


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