MAHAVIR

Mahaveer Vani 34

ThirtyFourth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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जे य कंते पिए भोए,
लद्वे विपिट्ठीकुव्वई।
साहीणे चयइ भोए,
से हु चाइ त्ति वुच्चई।।
वत्थगंधमलंकारं,
इत्थियो सयणाणि य।
अच्छन्दा जे न भुंजंति,
न से चाइ ति वुच्चई।।
तस्सेस मग्गो गुरु विद्धसेवा,
विवज्जणा बालजणस्स दूरा।
सज्झायएगन्तनिसेवणा य,
सुत्तत्थसंचिन्तणया धिई य।।

पंडित-सूत्र

जो मनुष्य सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी पीठ कर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग करता है, वह सच्चा त्यागी कहलाता है।
जो मनुष्य किसी परतंत्रता के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शयन आदि का उपभोग नहीं कर पाता, वह सच्चा त्यागी नहीं कहलाता।
सदगुरु तथा अनुभवी वृद्धों की सेवा करना, मूर्खों के संसर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत्‌ शास्त्रों का अभ्यास करना और उनके गंभीर अर्थ का चिंतन करना, और चित्त में धृतिरूप अटल शांति प्राप्त करना, यह निःश्रेयस का मार्ग है।

पहले एक-दो प्रश्र्न।

एक मित्र ने पूछा है:

भगवान, कल आपने कहा कि महावीर की चिंतना में प्रत्येक कृत्य और कर्म के लिए मनुष्य अकेला पूरा का पूरा खुद ही जिम्मेवार है। जब कि दूसरी चिंतनाएं कहती हैं कि इतने बड़े संचालित विराट में मनुष्य की बिसात ही क्या? परमात्मा की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। इस चिंतना में कर्म को कहां रखिएगा? एक ओर स्वतंत्रता की घोषणा और दूसरी ओर परतंत्रता की बात है। या यूं कहें कि डूइंग एंड हैपनिंग में तालमेल कैसे बैठेगा?

तालमेल बिठाने की बात से ही परेशानी शुरू हो जाती है। तालमेल बिठाना ही मत। दो मार्गों में तालमेल कभी भी नहीं बैठता। दोनों की मंजिल एक हो सकती है, लेकिन मार्गों में तालमेल नहीं बैठता। और जो बिठाने की कोशिश करता है, वह मंजिल तक कभी भी नहीं पहुंच पाता।
यह हो सकता है कि पहाड़ पर चलने वाले बहुत से रास्ते एक ही शिखर पर पहुंच जाते हों, लेकिन दो रास्ते दो ही रास्ते हैं और उनको एक करने की कोशिश व्यर्थ है। और जो व्यक्ति दो रास्तों पर तालमेल बिठा कर चलने की कोशिश करेगा, वह चल ही नहीं पाएगा।
मंजिल में समन्वय है, मार्गों में कोई समन्वय नहीं है। लेकिन हम सब मार्गों में समन्वय बिठाने की कोशिश करते हैं और उससे बड़ी कठिनाई होती है।
महावीर का मार्ग है संकल्प का मार्ग, मीरा का मार्ग है समर्पण का मार्ग। ये बिलकुल विपरीत मार्ग हैं, और मंजिल एक है। मीरा कहती है: ‘तू’ ही सब-कुछ है, ‘मैं’ कुछ भी नहीं। मेरा कोई होना ही नहीं है, तेरा ही होना है। इसमें ‘मैं’ को पूरी तरह मिटा देना है। इतना मिटा देना है कि कुछ शेष न रह जाए, शून्य हो जाए। ‘तू’ ही एक मात्र सत्ता बचे, ‘मैं’ बिलकुल खो जाए। जिस दिन ‘तू’ की ही सत्ता बचेगी, उस दिन ‘तू’ का भी कोई अर्थ न रह जाएगा। क्योंकि ‘तू’ में जो भी अर्थ है वह ‘मैं’ के कारण है। अगर मैं अपने ‘मैं’ को बिलकुल मिटा दूं, तो ‘तू’ में क्या अर्थ होगा? यह कहना भी व्यर्थ होगा कि ‘तू’ ही है। यह कौन कहेगा, यह कौन अनुभव करेगा? अगर मैं ‘मैं’ को पूरी तरह मिटा दूं तो ‘तू’ में ‘तू’ का अर्थ ही न रह जाएगा। एक मिट जाए तो दूसरा भी मिट जाएगा।
मीरा कहती है, ‘मैं’ को हम मिटा दें। चैतन्य कहते हैं, ‘मैं’ को हम मिटा दें। कबीर कहते हैं, ‘मैं’ को हम मिटा दें। ये समर्पण के मार्ग हैं। महावीर कहते हैं, ‘तू’ को हम मिटा दें, ‘मैं’ ही बच रहे। यह बिलकुल उलटा है, लेकिन गहरे में उलटा नहीं भी है, क्योंकि मंजिल एक है। महावीर कहते हैं, ‘तू’ को भूल ही जाओ, उससे कुछ लेना-देना नहीं है, उससे कोई संबंध नहीं है। जैसे ‘तू’ है ही नहीं। आपके लिए बस ‘मैं’ ही है। इस ‘मैं’ को ही अकेला बचा लेना है। जिस दिन ‘मैं’ अकेला बचता है, ‘तू’ बिलकुल नहीं होता, उस दिन ‘मैं’ का अर्थ खो जाता है। क्योंकि ‘मैं’ में सारा अर्थ ‘तू’ के द्वारा डाला गया है।
‘मैं’ और ‘तू’, साथ-साथ ही हो सकते हैं, अलग-अलग नहीं हो सकते। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कोई कहता है, सिक्के का सीधा पहलू फेंक दो, तो उलटा भी उसके साथ फिंक जाएगा। कोई कहता है, सिक्के का उलटा पहलू फेंक दो, सीधा भी उसके साथ फिंक जाएगा।
महावीर कहते हैं, ‘मैं’ ही है अकेला अस्तित्व। जिस दिन ‘तू’ बिलकुल मिट जाएगा, न कोई परमात्मा, इसलिए महावीर परमात्मा को कोई जगह नहीं देते। क्योंकि परमात्मा का मतलब है ‘तू’ को जगह देना। कोई ‘तू’ नहीं है ‘मैं’ ही हूं। तो सारा जिम्मा मेरा है, सारा फल मेरा है, सारे परिणाम मेरे हैं। जो भी भोग रहा हूं, वह ‘मैं’ हूं, जो भी हो सकूंगा, वह भी ‘मैं’ हूं। इस भांति अकेला ‘मैं’ ही बचे एक दिन, और सब ‘तू’ विलीन हो जाएं, उस दिन ‘मैं’ में कोई अर्थ न रह जाएगा, ‘मैं’ भी गिर जाएगा।
चाहे ‘तू’ को बचाएं, चाहे ‘मैं’ को बचाएं, दो में से एक को बचाना मार्ग है। और अंत में जब एक बचता है, तो एक भी गिर जाता है; क्योंकि वह दूसरे के सहारे के बिना बच नहीं सकता। कहां से आप शुरू करते हैं, यह अपनी वृत्ति, अपने व्यक्तित्व, अपनी रुझान की बात है, टाइप की बात है। लेकिन दोनों में मेल मत करना। दोनों में कोई मेल नहीं हो सकता, अन्यथा उनका जो नियोजित प्रयोजन है, वही समाप्त हो जाता है। इन दोनों में कोई मेल नहीं है।
महावीर और मीरा को कभी भूल कर मत मिलाना। वे बिलकुल एक-दूसरे की तरफ पीठ करके खड़े हैं। जहां से वे चलते हैं, वहां उनकी पीठ है। जहां वे मिलते हैं, वहां वे दोनों ही खो जाते हैं।
मीरा नहीं बचती, क्योंकि ‘मैं’ को खोकर चलती है। और जब ‘मैं’ खो जाता है, तो ‘तू’ भी खो जाता है। महावीर भी नहीं बचते, क्योंकि ‘तू’ को खोकर चलते हैं, और जब ‘तू’ बिलकुल खो जाता है, तो ‘मैं’ में कोई अर्थ नहीं रह जाता, वह गिर जाता है। दोनों पहुंच जाते हैं परम शून्य पर, परम मुक्ति पर, लेकिन मार्ग बड़े विपरीत हैं।
और हमारी सबकी तकलीफ यह है कि हम सोचते हैं सदा द्वंद्व की भाषा में, कि या तो महावीर ठीक होंगे, या मीरा ठीक होगी। दोनों में से कोई एक ठीक होगा। ऐसा हमारी समझ में पड़ता है। क्योंकि दोनों कैसे ठीक हो सकते हैं! वहीं गलती शुरू हो जाती है। दोनों ठीक हैं। अगर हम यह भी समझ लेते हैं कि दोनों ठीक हैं, तो फिर हम तालमेल बिठाते हैं। हम सोचते हैं, दोनों ठीक हैं, तो दोनों का मार्ग एक होगा। फिर भूल हो जाती। दोनों ठीक हैं और दोनों का मार्ग एक नहीं है।
इस दुनिया में समन्वयवादियों ने जितना नुकसान किया है, उतना और किन्हीं ने भी नहीं किया है। जो हर चीज को मिलाने की कोशिश में लगे रहते हैं वे खिचड़ियां बना देते हैं। सारा अर्थ खो जाता है। भले मन से ही करते हैं वे, कि कोई कलह न हो, कोई झगड़ा न हो, कोई विरोध न हो, लेकिन विरोध है ही नहीं। जिसको वे मिटाने चलते हैं, वह है ही नहीं।
महावीर और मीरा में विरोध नहीं है, मंजिल की दृष्टि से। मार्ग की दृष्टि से भिन्नता है। अलग-अलग छोर से उनकी यात्रा शुरू होती है। और यात्रा हमेशा वहां से शुरू होती है, जहां आप हैं।
ध्यान रखें, मंजिल से उसका कम संबंध है, आपसे ज्यादा संबंध है, कहां आप हैं; मैं पूरब में खड़ा हूं, आप पश्र्चिम में खड़े हैं। हम दोनों के मार्ग एक से कैसे हो सकते हैं। मैं जहां खड़ा हूं, वहीं से मेरी यात्रा शुरू होगी। आप जहां खड़े हैं, वहीं से आपकी यात्रा शुरू होगी। मीरा जहां खड़ी है, वहीं से चलेगी। महावीर जहां खड़े हैं, वहीं से चलेंगे।
मीरा है स्त्रैण-चित्त की प्रतीक। महावीर हैं पुरुष चित्त के प्रतीक। स्त्रैण-चित्त से मतलब स्त्रियों का नहीं है और पुरुष-चित्त से मतलब पुरुषों का नहीं है। अनेक स्त्रियों के पास पुरुष-चित्त होता है। अनेक पुरुषों के पास स्त्री चित्त होता है। चित्त बड़ी और बात है। स्त्रैण-चित्त का अर्थ है: समर्पण का भाव, अपने को किसी की शरण में खो देने की क्षमता; अपने को मिटा देने की। इतनी ग्राहकता कि मैं न रहूं और दूसरा ही रह जाए।
स्त्री जब प्रेम करती है तो उसका प्रेम बनता है समर्पण। प्रेम का अर्थ है: मिट जाना। वह जिसे प्रेम करती है, वही रह जाए। इतनी एक हो जाए प्रेम करने वाले के साथ कि कोई भिन्नता न रह जाए। यह है स्त्रैण-चित्त, रिसेप्टिविटी, ग्राहकता, समर्पण, सरेंडर!
पुरुष प्रेम करता है तो समर्पण नहीं है। पुरुष के प्रेम का अर्थ ही यह होता है कि वह समर्पण को पूरी तरह स्वीकार कर लेता है। जब प्रेमी उसे समर्पित होता है तो वह पूरी तरह स्वीकार कर लेता है। वह इतना आत्मसात कर लेता है अपने में अपनी प्रेयसी को कि प्रेयसी नहीं बचती, वही बचता है। और प्रेयसी इतनी आत्मसात हो जाती है प्रेमी में कि खुद नहीं बचती, प्रेमी ही बचता है। लेकिन पुरुष समर्पण नहीं करता है, इसलिए अगर कोई पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करे और समर्पण कर दे उसके चरणों में, तो वह स्त्री उसे प्रेम ही न कर पाएगी। क्योंकि समर्पण करने वाला पुरुष स्त्री जैसा मालूम पड़ेगा।
पुरुष है शिखर जैसा, स्त्री है खाई जैसी। वे दोनों की भाव-दशाएं भिन्न हैं। तो मीरा मिट जाती है और कृष्ण को अपने में समा लेती है। समर्पण उसका रास्ता है। वह कहती है, मैं नहीं हूं, तू ही है, और तेरी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता। बुरा हो मुझसे, तो तेरा; भला हो मुझसे, तो तेरा। पाप हो मुझसे, तो तेरा; पुण्य हो मुझसे तो तेरा। मेरा कुछ भी नहीं है।
यह मत सोचना कि मीरा यह कह रही है कि भला हो तो मेरा और बुरा हो तो तेरा। भला करूं तो मैं और पाप और बुरा हो जाए तो तू-विधि। न, मीरा कह रही है, तू ही है, मैं हूं ही नहीं। इसलिए कुछ भी हो, अब मेरी कोई भी जिम्मेवारी नहीं है। क्योंकि जब मैं नहीं हूं, तो मेरी जिम्मेवारी का कोई सवाल ही नहीं है। तू डुबाए, तू बचाए, तू मोक्ष में ले जाए, तू नरक में डाल दे, तेरी मर्जी मेरी खुशी है। अब यह भी नहीं है कि तू मुझे मोक्ष में ले जाएगा तो ही मेरी खुशी होगी। तू ले जाएगा, यही मेरी खुशी है। कहां ले जाएगा, यह तू जान।
इतने समग्र भाव से अपने को छोड़ सके कोई, फिर कोई कर्म का बंधन नहीं है। क्योंकि कर्ता ही न रहा।
ठीक से समझ लें।
जब तक करने वाले का भाव है, तभी तक कर्म का बंधन है। मैं करने वाला ही नहीं हूं, वही करने वाला है। यह विराट जो अस्तिव है, वही कर रहा है। फिर कोई कर्म का बंधन नहीं है। कर्म बंधता है कर्ता के भाव को, अहंकार को। इसलिए मीरा स्त्रैण-चित्त की परिपूर्ण अभिव्यक्ति में अपने को खो देती है। मीरा ही ऐसा करती है, ऐसा नहीं। चैतन्य भी यही करते हैं। इसलिए पुरुष-स्त्री का सवाल नहीं है, प्रतीक हैं।
महावीर बिलकुल भिन्न हैं। महावीर कहते हैं, समर्पण कैसा? किसके प्रति समर्पण? और महावीर कहते हैं कि समर्पण भी मैं ही करूंगा। वह भी मेरा ही कृत्य है। महावीर सोच ही नहीं सकते समर्पण की भाषा, वे पुरुष-चित्त के शिखर हैं। इसलिए ईश्र्वर को इनकार ही कर दिया, क्योंकि ईश्र्वर होगा तो समर्पण करना ही पड़ेगा।
कोई और नहीं है, मैं ही हूं। इसलिए सारी जिम्मेवारी का बोझ मेरे ही ऊपर है। वह मुझे ही खींचना है। मुझे ही तय करना है, कि क्या करूं और क्या न करूं। और जो भी परिणाम हो, वह मुझे जानना है कि मेरे ही द्वारा हुआ है। इसलिए ‘मैं’ छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। मुझे अपने को बदलना है और शुद्धतर, और शुद्धतर, और शून्यतर; इतना शुद्ध हो जाना है, इतना ट्रांसपेरेंट, पारदर्शी हो जाना है कि कुछ बुरा मुझमें न रह जाए।
इस शुद्ध करने की प्रक्रिया में ही ‘मैं’ विलीन होगा, लेकिन समर्पित नहीं होगा।
इसका फर्क समझ लें।
मीरा समर्पण करेगी, ‘मैं’ खो जाएगा। महावीर शुद्ध करेंगे, शून्य करेंगे और ‘मैं’ खो जाएगा। लेकिन महावीर श्रम करेंगे, मीरा समर्पण करेगी। इसलिए महावीर और बुद्ध की संस्कृति को हम कहते हैं--‘श्रमण संस्कृति।’
श्रम पर उनका जोर है, पुरुषार्थ पर उनका बल है, कुछ करो। इसलिए महावीर कहते हैं, मैं श्रम करूंगा अपने साथ और जो भी परिणाम होगा--नरक होगा तो भी जानूंगा कि मेरे द्वारा और मोक्ष होगा तो भी जानूंगा कि मेरे द्वारा। लेकिन किसी और पर जिम्मेवारी नहीं रखूंगा।
यह पुरुष-चित्त का लक्षण है कि वह किसी और पर जिम्मेवारी नहीं रखेगा। आप कहां हैं, इसे सोच लेना चाहिए। क्या आप पुरुष हैं, क्या आप स्त्री हैं? चित्त की दृष्टि से, शरीर की दृष्टि से नहीं।
आपका भाव भीतर समर्पण करने का है या संकल्प को सम्हाले रखने का है? मगर एक बात तय कर लें कि दोनों के बीच मत दौड़ना। क्योंकि नपुंसक के लिए कोई भी जगह नहीं है। वे जो समझौते वाले हैं, वे अक्सर नपुंसक पैदा कर देते हैं। वे जो समन्वयवादी हैं, जो कहते हैं, दोनों में थोड़ा तालमेल कर लो, थोड़ा मीरा का भी लो, थोड़ा महावीर का भी लो, थोड़ा कुरान का भी, थोड़ा गीता का भी--‘अल्लाह-ईश्र्वर तेरे नाम’--दोनों को जोड़ो, फिर उनको मिला कर चलो। इस तरह के लोग सारे मार्गों को भ्रष्ट कर देते हैं।
हर मार्ग की अपनी शुद्धता है, प्योरिटी है। और बड़े से बड़ा अन्याय जो हम कर सकते हैं, वह किसी मार्ग की शुद्धता को नष्ट करना है। हर मार्ग पूरा है। पूरे का अर्थ यह है कि उससे मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। दूसरे मार्ग की कोई भी जरूरत नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि दूसरे मार्ग से नहीं पहुंचा जा सकता। दूसरा मार्ग भी इतना ही पूरा है, उससे भी पहुंचा जा सकता है। आप मार्गों को मिलाने की बजाय यही सोचना कि आप कहां खड़े हैं। कहां से आपके लिए निकटतम मार्ग मिल सकता है। फिर दूसरे की भूल कर मत सुनना।
क्योंकि हम बड़े अजीब लोग हैं। हम इसकी फिकर ही नहीं करते कि कौन कहां खड़ा है।
एक मित्र हैं, उनकी पत्नी का भाव है भक्ति का, समर्पित होने का, छोड़ देने का परमात्मा के चरणों में। मित्र का भाव नहीं है। उनका भाव है अपने को शुद्ध करने का, रूपांतरित करने का, बदलने का, ठीक है। लेकिन वह मित्र अपनी पत्नी को भी भक्ति में नहीं जाने देते। क्योंकि वे मानते हैं, कि वे जो कहते हैं, वही ठीक है। वह उनके लिए ठीक है, उनकी पत्नी के लिए ठीक नहीं है। लेकिन जो पति के लिए ठीक है वह पत्नी के लिए भी ठीक होना चाहिए, ऐसी उनकी धारणा है। अगर कल पत्नी भी उनकी उन पर जोर देने लगे कि तुम भी चलो मंदिर में, और नाचो और कीर्तन करो, और गाओ। तो मैं कहूंगा, वह भी गलती कर रही है। क्योंकि जो उसके लिए ठीक है, वह उसके पति के लिए ठीक है, ऐसा मानने का कोई भी कारण नहीं है।
असल में दूसरे पर कभी भी मत थोपना अपना ठीक होना। क्योंकि आपको पता नहीं, दूसरा कहां खड़ा है। आप जहां खड़े हैं, अपना रास्ता आप चुन लेना। दूसरा जहां चल रहा है, उसे चलने देना। अक्सर बहुत लोग दूसरों के रास्ते पर बड़ी बाधाएं उपस्थित करते हैं। उसका कारण है, कि वे समझ ही नहीं पाते कि कोई दूसरा रास्ता भी हो सकता है।
हम सबको ऐसा खयाल है कि सत्य एक है, वह बिलकुल ठीक है। लेकिन उसके कारण हमको एक खयाल और पैदा हो गया कि सत्य का मार्ग भी एक है, वह बिल्कुल गलत है। सत्य एक है, सौ प्रतिशत ठीक। सत्य का मार्ग एक है, सौ प्रतिशत गलत।
सत्य के मार्ग अनंत हैं, अनेक हैं। असल में जितने पहुंचने और चलने वाले लोग हैं, उतने मार्ग हैं। हर आदमी पगडंडी से चलता है, अपनी ही पगडंडी से चलता है। और अस्तित्व की यात्रा में हम अलग-अलग जगह खड़े हैं, और अस्तित्व की यात्रा में हमने अलग-अलग चित्त निर्मित कर लिया है, जन्मों-जन्मों में हम सबके पास अलग-अलग भाव-दशा निर्मित हो गई है। हम उससे ही चल सकते हैं। कोई उपाय नहीं है, दूसरे के मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं है। जैसे दूसरे के पैरों से चलने का कोई उपाय नहीं है। दूसरे के मार्ग पर भी चलने का कोई उपाय नहीं है। और जब एक-दूसरे को लोग अपने मार्गों पर घसीटते हैं तो पंगु कर देते हैं, उनके पैर काट डालते हैं। बहुत हिंसा होती है ऐसे, लेकिन हमारे खयाल में नहीं आती।
तालमेल बिठाना मत। अगर यह बात ठीक लगती हो कि परमात्मा की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, तो फिर पूरे के पूरे इसमें डूब जाना, ताकि ‘मैं’ मिट जाए। लेकिन यह समग्र हो। फिर एक आदमी आकर पत्थर मार जाए सिर में तो यह मत सोचना कि इस आदमी ने पत्थर मारा। फिर सोचना कि परमात्मा की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।
लेकिन हम जिनको बहुत विचारशील लोग कहते हैं, वे भी भ्रांतियां करते हैं, और हम भी उन भ्रांतियों को समझ नहीं पाते, क्योंकि अगर हमें रुचिकर लगती हैं, तो समझने की हम फिकर ही नहीं करते।
महात्मा गांधी की हत्या की बात चलती थी, हत्या के पहले। तो सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उनसे जाकर कहा कि मैं सुरक्षा का इंतजाम करूं? तो गांधी जी ने जो कहा वह पूरे मुल्क को प्रीतिकर लगा, लेकिन बिलकुल नासमझी से भरी हुई बात है।
गांधी जी ने कहा कि उसकी मर्जी के बिना मुझे कोई हटा भी कैसे सकेगा। यह बात बिलकुल ठीक है। अगर ईश्र्वर चाहता है तो मुझे उठा लेगा, तुम मुझे कैसे बचाओगे। यह--उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता--इस विचार का अनुषंग है। अगर वह मुझे बचाना चाहता है, तो कोई मुझे उठा नहीं सकता, और वह मुझे उठाना चाहता है, तो कोई मुझे बचा नहीं सकता।
सरदार वल्लभ भाई को भी लगा, तर्क करने का कोई उपाय न रहा। मैं उनकी जगह होता तो गांधी जी को कहता कि वह खुद तो हत्या करने आएगा नहीं, नाथूराम गोडसे का उपयोग करेगा, और अगर उसको बचाना है तो भी खुद बचाने नहीं आएगा, वल्लभ भाई पटेल का उपयोग करेगा।
तो आधी बात कह रहे हैं आप। आप कहते हैं कि अगर वह उठाना चाहेगा, तो कोई बचा नहीं सकेगा। और जो उठाने वाले हैं वे चारों तरफ घूम रहे हैं। और जिनके द्वारा वह बचा सकता है, वे इसलिए रुक जाएंगे कि हम क्या बचा सकते हैं। अगर मैं गांधी जी की जगह होता, तो मैं कहता कि तुम अपनी कोशिश करो, नाथूराम गोडसे को अपनी कोशिश करने दो। आखिर उसकी जो मर्जी होगी, वह होगी, लेकिन तुम दोनों अपनी कोशिश करो, क्योंकि उसकी मर्जी भी तो किसी के द्वारा...।
गांधी जी ने आधी बात कही। उसमें उन्होंने एक पत्ते को तो हिलने दिया, दूसरे पत्ते को रोकने की कोशिश की। तो सब उसकी मर्जी से हो रहा है, उन्होंने कहा जरूर, लेकिन उनको भी साफ नहीं है, नहीं तो वल्लभ भाई को भी रोकने का कोई अर्थ नहीं है। अगर उसकी ही मर्जी से यह सरदार भी हिल रहे हैं तो इनको भी हिलने दो। लेकिन गोडसे हिलता रहेगा उसकी मर्जी से और सरदार गांधी जी की मर्जी से रुक रहे हैं।
जीवन जटिल है, इसलिए मैं मानता हूं कि गांधी जी का पूरा भरोसा नहीं है उसकी मर्जी पर, नहीं तो वे कहते कि ठीक है। किसी को वह इशारा कर रहा होगा मुझे मारने का, तुम्हें इशारा करता है मुझे बचाने का; जो उसकी मर्जी, वह हो। मैं बीच में नहीं आऊंगा। लेकिन वे बीच में आए और उन्होंने सरदार को रोका। नाथूराम को तो नहीं रोक सकते, सरदार को रोक सकते हैं।
उसकी मर्जी पर पूरा भरोसा नहीं है। हालांकि ऐसी आलोचना किसी ने भी नहीं की। किसी ने भी यह नहीं कहा कि गांधी जी को उसकी मर्जी पर पूरा भरोसा नहीं है। पूरा भरोसा नहीं है। बाएं हाथ को तो मानते हैं उसका हाथ और दाएं हाथ को नहीं मानते हैं उसका हाथ।
हम भी ऊपर से देखेंगे तो हमें भी खयाल में नहीं आएगा। लेकिन जिंदगी ज्यादा गहरी है, जैसा हम ऊपर से देखते हैं, उतनी उथली नहीं है।
अगर सच में ही इस बात का भरोसा है कि उसकी मर्जी, तो फिर ठीक है। फिर आपके लिए कुछ भी अपनी तरफ से जोड़ने का कोई सवाल नहीं है। फिर आप बहते हैं, फिर आप पूरे ही बहें और जो भी हो, ठीक है। जो भी हो, ठीक है। अगर इसमें आपको अड़चन मालूम पड़ती हो कि ऐसे हम अपने को कैसे छोड़ सकते हैं, नदी कहीं भी बहा ले जाए, पता नहीं कहां; तो फिर नदी के बाहर निकल कर खड़े हो जाएं। फिर यह बात ही छोड़ दें कि उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता। फिर तो एक ही बात स्मरण रखें कि पत्ता हिलेगा तो मेरी मर्जीं से, नहीं हिलेगा तो मेरी मर्जी से। हिलता है तो मैंने चाहा होगा, इसलिए हिलता है, चाहे मुझे पता न हो; और नहीं हिलता है तो मैंने चाहा होगा कि न हिले, चाहे मुझे पता न हो। मैंने जो किया है, उसके कारण हिलता है और मैं जो किया हूं, उसके कारण रुकता है। फिर सारी जिम्मेवारी अपने पर ले लेना।
दोनों तरह से लोग पहुंच गए हैं। दोनों तरह से लोग पहुंच गए हैं, लेकिन दोनों को मिला कर अब तक सुना नहीं कि कोई पहुंचा हो। दोनों को मिलाने वाला वही आदमी है, जो चलना ही नहीं चाहता। असल में दोनों को मिलाना एक तरकीब है, एक डिसेप्शन, एक वंचना है, खुद को धोखा है। उसका मतलब यह कि जब जैसा मतलब होगा, जब जैसा अपने अनुकूल होगा, उसको कह लेंगे। जब कोई बुरी बात घटेगी तो कहेंगे, उसकी मर्जी और जब कुछ ठीक हो जाएगा तो कहेंगे, अपना संकल्प।
मिलाने का मतलब यह होता है कि हम दोनों नावों पर पैर रखेंगे। इसमें होशियारी तो है, चालाकी तो है, लेकिन बहुत बुद्धिमानी नहीं है।
चालाक आदमी दोनों नाव पर पैर रखता है, पता नहीं किसकी कब जरूरत पड़ जाए। चालाकी उनकी ठीक है, लेकिन मूढ़तापूर्ण है, क्योंकि दो नाव पर कोई भी सवार होकर चल नहीं सकता। दो नावों पर जो सवार होता है, वह डूबेगा। और अगर नहीं डूबना है तो नावों को खड़ा रखना पड़ेगा, चलाना नहीं पड़ेगा। फिर वहीं खड़ा रहेगा। वह भी डूबना ही है।
महावीर को समझते वक्त मीरा को बीच में मत लाएं। महावीर के रास्ते पर मीरा से कहीं भी मिलन नहीं होगा। और मीरा के रास्ते पर महावीर से कोई मुलाकात नहीं होगी। आखिर में जहां महावीर भी खो जाते हैं और मीरा भी खो जाती है, वहां मिलन है।
जब तक महावीर हैं, तब तक संकल्प रहेगा। जब तक मीरा है, तब तक समर्पण रहेगा। और जहां समर्पण भी समाप्त हो जाता है, संकल्प भी समाप्त हो जाता है। मंजिल जब आती है तो रास्ते समाप्त हो जाते हैं।
मंजिल का मतलब क्या है? मंजिल का मतलब है, रास्ते का समाप्त हो जाना, रास्ते से मुक्त हो जाना। मंजिल का मतलब है, रास्ता खत्म हुआ। मंजिल रास्ते की पूर्णता है। और जो भी चीज पूर्ण हो जाती है वह मर जाती है, मृत्यु हो जाती है। फल पक जाता है, गिर जाता है। रास्ता पक जाता है, खो जाता है। फिर मंजिल रह जाती है।
मंजिल पर मिलन है। सागर में नदियां मिल जाती हैं। जो नदी पूरब की तरफ बही, वह भी जाकर गिर जाती है हिंद महासागर में। जो पश्र्चिम की तरफ बही है, वह भी जाकर गिर जाती है हिंद महासागर में। अगर रास्ते में उन दोनों का कहीं मिलना हो तो वे नहीं मान सकतीं कि हम दोनों सागर में जा रहे हैं। पूरब चलने वाली नदी कहेगी पागल हो गई हो, पश्र्चिम जा रही हो, सागर पूरब है। पश्र्चिम जाने वाली नदी कहेगी, पागल तू है, सागर पश्र्चिम है। सदा से हम गिरते रहे हैं और जानते रहे हैं कि सागर पश्र्चिम है।
सागर सब ओर है। सागर का मतलब ही है जो सब ओर है। कहीं से भी जाओ, पहुंचना हो सकता है। एक ही बात ध्यान रखना, जाना, रुक मत जाना। तालाब भर नहीं पहुंचते, नदियां तो सब पहुंच जाती हैं। और समझौतावादी तालाब की तरह हो जाते हैं। ठहर जाते हैं, थोड़ा पूरब भी चलते हैं, थोड़ा पश्र्चिम भी चलते हैं। फिर चारों दिशाओं में चलने की वजह से चक्कर लगाने लगते हैं, फिर अपनी जगह पर ही घूमते रहते हैं। वहीं सूखते हैं, सड़ते हैं।
समझौता नहीं है मार्ग धर्म में, दर्शन में भला हो, विचार में भला हो। जिनको चलना है उनके लिए समझौता मार्ग नहीं है, उनके लिए तो स्पष्ट चुनाव। और वह चुनाव करना अपनी आंतरिक भाव-दशा के अवलोकन से, दूसरे की बातों से नहीं। अपने को सोचना कि मैं क्या कर सकता हूं, समर्पण या संकल्प।

एक मित्र ने पूछा है कि मैं तो हूं बहुत पापी। आकांक्षा होती है प्रभु तक पहुंचने की; क्या मुझ जैसे पापी के लिए प्रभु का द्वार खुला होगा? मैं बहना ही चाहूं, बहता ही रहूं, तो भी क्या परमात्मा के सागर को पा सकूंगा?

यह महत्वपूर्ण है भाव, क्योंकि जो जान लेता है कि मैं पापी हूं, उसके जीवन में पुण्य का प्रारंभ हो जाता है। यह एक पंडित का प्रश्र्न नहीं है, एक धार्मिक व्यक्ति का प्रश्र्न है। पंडित ज्ञान की बातों में से प्रश्र्न उठाता है, धार्मिक व्यक्ति अपनी अंतर-दशा में से प्रश्र्न उठाता है। पंडित के प्रश्र्न शास्त्रों से आते हैं, धार्मिक व्यक्ति के प्रश्र्न अपनी स्थिति से आते हैं।
यह भाव कि मैं पापी हूं, धार्मिक भाव है। यह जानना कि मेरा पहुंचना मुश्किल है, पहुंचने के लिए पहला कदम है। यह मानना कि क्या मेरे लिए भी प्रभु के द्वार खुले होंगे, द्वार पर पहली दस्तक है।
वे ही पहुंच पाते हैं जो इतने विनम्र हैं। जो बहुत अकड़ से चलते हैं, जो सोचते हैं कि दरवाजे का क्या सवाल, परमात्मा बीच में स्वागत के लिए खड़ा होगा द्वार-वंदनवार बना कर, वे कभी नहीं पहुंच पाते। क्योंकि उस परम सत्ता में लीन होना है। लीनता यहीं से शुरू होगी, आपकी तरफ से शुरू होगी। परम सत्ता के कोई द्वार नहीं हैं कि बंद हों।
समझ लें।
उसके कोई दरवाजे नहीं हैं, उसके महल के, कि बंद हों। परम सत्ता खुलापन है। परम सत्ता का अर्थ है: खुला हुआ होना। खुली ही हुई है परम सत्ता। सवाल उसकी तरफ से नहीं है कि वह आपको रोके, बुलाए, खींचे। सवाल सब आपकी तरफ से है कि अब आप भी उस खुलेपन में उतरने को तैयार हैं? आप कहीं बंद तो नहीं हैं? परमात्मा बंद नहीं है। बंद आप तो नहीं हैं?
सूरज निकला है और मैं अपने द्वार दरवाजे बंद करके घर में आंख बंद किए बैठा हूं और सोच रहा हूं कि अगर मैं द्वार के बाहर जाऊं तो सूरज से मेरा मिलन होगा? मैं आंख खोलूं तो सूरज मुझ पर कृपा करेगा?
सूरज की कृपा बरस ही रही है। अकृपा कभी होती ही नहीं। वह सदा मौजूद ही है द्वार पर, आप द्वार खोलें। और द्वार आपने बंद किए हैं, उसने बंद नहीं किए हैं। आंख आपकी है, आप आंख खोलें। आंख आपने बंद की है।
परमात्मा है सदा खुला हुआ, हम हैं बंद। और हमारे बंद होने में सबसे बड़ा कारण क्या है? सबसे बड़ा कारण यह है कि हम यह मान कर चलते हैं कि हम तो खुले हुए हैं। अंधे को अगर यह खयाल हो कि मेरी आंखें तो खुली हुई हैं, तब बहुत अड़चन हो जाती है। हम सब मानते हैं, हम तो खुले ही हुए हैं।
हम खुले हुए नहीं हैं, हम बिलकुल बंद हैं। और अगर परमात्मा हमारे द्वार पर भी आ जाए तो शायद ही संभावना है कि हम उसे भीतर आने दें। बहुत मुश्किल है कि हम उसके लिए दरवाजा खोलें, क्योंकि वह इतना अजनबी होगा, हमने उसे कभी देखा नहीं। तो उससे ज्यादा अजनबी कोई भी न होगा।
हम पहले पूछेंगे, कहां के रहने वाले हो? हिंदू हो कि मुसलमान कि जैन? कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट साथ लाए हो? परमात्मा तो इतना स्ट्रेंजर होगा, अगर हमारे द्वार पर आ जाए, अगर परम सत्य हमारे पास आ जाए तो हम भाग खड़े होंगे। क्योंकि हम उसे बिलकुल न पहचान पाएंगे। हम पहचानते उसे हैं जिसे हम पहले से जानते हैं। जिसे हमने कभी जाना नहीं, हम उसे पहचानेंगे कैसे! हम उससे ऐसे सवाल पूछेंगे, हम उसकी इंक्वायरी करेंगे। हम जाकर पुलिस दफ्तर में पूछताछ करेंगे कि यह आदमी कैसा है? घर में ठहरना चाहता है। और हम द्वार बंद कर लेंगे।
अजनबियों के लिए हमारे द्वार खुले हुए नहीं हैं। और परमात्मा से ज्यादा अजनबी कौन होगा? और हमारी नीति, हमारे चरित्र के नियम सब छोटे पड़ जाएंगे। उनसे हम उसे नाप न पाएंगे। बड़ी अड़चन होगी। हमने बहुत बार यह किया है।
हम, महावीर मौजूद हों, तो नाप नहीं पाते। बुद्ध मौजूद हों तो नाप नहीं पाते। जीसस मौजूद हों, तो नाप नहीं पाते। हम ऐसे बेहूदे सवाल पूछते हैं बुद्ध से, महावीर से, जीसस से, वह असल में हम अजनबीपन के कारण पूछते हैं।
जीसस एक वेश्या के घर में ठहर गए। आपने क्या पूछा होता सुबह? जीसस को घेर कर आप क्या सवाल उठाते?
हम वही सवाल उठा सकते हैं, जो हम वेश्या के घर ठहरे होते तो जो हमने किया होता, वही सवाल हम उठाएंगे। हम यह सोच ही नहीं सकते कि जीसस के होने का कोई और अर्थ हो सकता है।
जीसस को कोई बुद्ध समझ सकता था।
बुद्ध का एक शिष्य एक वेश्या के घर ठहर गया। सारे भिक्षु परेशान हो गए और उन्होंने आकर बुद्ध को शिकायत की कि यह तो बहुत अशोभन बात है कि हमारा एक भिक्षु और वेश्या के घर ठहर जाए!
ये जो भिक्षु थे, ये ठहरना चाहते होंगे वेश्या के घर। यह ईर्ष्या से उठा हुआ सवाल था। बुद्ध ने कहा कि अगर तुम ठहर जाते तो चिंता होती। जो ठहर गया उसे मैं जानता हूं। लेकिन शिष्यों ने कहा कि आप यह अन्याय कर रहे हैं। इससे तो रास्ता खुल जाएगा। इससे तो और लोग भी ठहरने लगेंगे। और लोग--मतलब वे अपने को सोच रहे हैं कि क्या गुजरेगी उन पर अगर वे वेश्या के घर ठहर जाएं।
हम हमेशा अपने से सोचते हैं। और तो कोई उपाय भी नहीं है, हम अपने से ही सोचते हैं।
और वेश्या सुंदरी है, उन भिक्षुओं ने कहा, बहुत सुंदरी है। और उसके आकर्षण से बचना बहुत मुश्किल है। और रात भर भिक्षु वहीं ठहर गया। और हमने तो यह भी सुना है कि रात, आधी रात तक गीत भी चलता रहा, नाच भी चलता रहा, यह क्या हो रहा है?
बुद्ध ने कहा: मैं उस भिक्षु को भलीभांति जानता हूं। और अगर मेरा भिक्षु वेश्या के घर ठहरता है, तो मेरा भिक्षु वेश्या को बदलेगा, न कि वेश्या मेरे भिक्षु को। और अगर मेरे भिक्षु को वेश्या बदल लेती है तो वह भिक्षु इस योग्य ही न था कि अपने को भिक्षु कहे। वह ठीक ही हुआ। इसमें बिगड़ा क्या? जो बदला जा सकता था वही बदला जाएगा। और सुबह ऐसा हुआ कि भिक्षु वापस आया और पीछे उसके वेश्या आई। और बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा कि इस वेश्या को देखो।
उस वेश्या ने कहा कि मैं आपके चरणों में आना चाहती हूं, क्योंकि पहली दफे मुझे एक पुरुष मिला, जिसको मैं डांवाडोल न कर सकी। अब मेरे मन में भी यह भाव उठा कि कब ऐसा क्षण मुझे भी आएगा कि कोई मुझे डांवाडोल न कर सके। जो इस भिक्षु के भीतर घटा है, वही मेरे भीतर भी घट जाए, अब इसके सिवाय और कोई आकांक्षा नहीं है। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि तुम देखो।
लेकिन कठिन है। हम जो हैं, वही हम सोच पाते हैं। इसलिए बुद्ध हों, महावीर हों, हम अपनी तरफ से सोचते हैं। हम अपने ढंग से सोचते हैं। कोई उपाय भी नहीं है। हमारी भी मजबूरी है। हम वही ढंग जानते हैं, हम वही दृष्टि जानते हैं, हम अपनी आंख से ही तो देखेंगे! किसी और की आंख से कैसे देख सकते हैं?
परमात्मा अगर आपके द्वार पर भी आ जाए तो आप नहीं पहचानेंगे, यह पक्का है। और आप उसको ठहरने भी नहीं देंगे, यह पक्का है। नहीं, लेकिन परमात्मा आपके द्वार पर आता भी नहीं है। वह सदा खुला हुआ आकाश है चारों तरफ।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा है खुला हुआ आकाश। परमात्मा है स्पेस, चारों तरफ। आप कूद जाएं, वह आकाश आपको अपने में लीन करने को सदा तत्पर है। आप खड़े रहें, तो वह आकाश आपको खींच कर जबरदस्ती लीन नहीं करना चाहता है। क्योंकि उतनी हिंसा भी अस्तित्व को स्वीकार नहीं है। आप स्वतंत्र हैं रुकने को, कूद जाने को। सागर मौजूद है, नदियों को निमंत्रण भी नहीं देता, बुलाता भी नहीं। नदियां स्वतंत्र हैं, रुक जाएं, तालाब बन जाएं, छलांग ले लें, सागर में खो जाएं।
जिस व्यक्ति को यह खयाल हो रहा हो कि मैं पापी हूं, यह खयाल महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस खयाल में ही अहंकार गलता है। जिसको यह खयाल हो रहा हो कि मेरे लिए उसके द्वार न खुले होंगे, वह निश्चिंत रहे, उसके द्वार उसके लिए बिलकुल ही खुले हुए हैं। और बहता रहे और धीरे-धीरे अपने को डुबाता रहे। एक न एक दिन वह घड़ी घटती है, जब भीतर वह जो अहंकार की छोटी सी टिमटिमाती ज्योति है, वह बुझ जाती है। और जिस दिन वह टिमटिमाती ज्योति बुझती है, उसी दिन हमें पता चलता है उस सूर्य का, जो हमेशा मौजूद था; लेकिन हम अपनी टिमटिमाती ज्योति में इतने लीन थे कि सूर्य की तरफ आंख भी नहीं गई थी। जब तक मैं न बुझ जाऊं, तब तक मुझे उसका पता नहीं चलता जो चारों तरफ मौजूद है; क्योंकि मैं अपने में ही संलग्न हूं, मैं अपने में ही लगा हुआ हूं। टू मच आक्युपाइड विद माईसेल्फ, सारी व्यस्तता अपने में लगी है।
जिस दिन जीसस को सूली हुई, उस दिन उस गांव में एक आदमी की दाढ़ में दर्द था। सारा गांव जीसस को सूली देने जा रहा है। जीसस कंधे पर अपना क्रास लेकर उस मकान के सामने से निकल रहे हैं, और वह आदमी बैठा है, और जो भी रास्ते से निकलता है, वह अपने दाढ़ के दर्द की उससे चर्चा करता है। वह कहता है, आज बड़ी तकलीफ है दांत में। लोग कहते हैं, छोड़ो भी। पता है कुछ? आज मरियम के बेटे जीसस को सूली दी जा रही है। वह आदमी सुनता है, लेकिन सुनता नहीं। वह कहता है, होगा। लेकिन दांत में बहुत दर्द है।
जिस दिन जीसस को सूली हुई उस दिन वह आदमी अपने दांत में ही उलझा था। उस दिन इस पृथ्वी का बड़े से बड़ा चमत्कार घट रहा था, लेकिन वह आदमी अपने दांत के दर्द में उलझा था। और हम सब ऐसे ही लोग हैं जिनकी दाढ़ में दर्द है। अपनी-अपनी दाढ़ का दर्द लिए बैठे हैं। चारों तरफ विराट घटना घट रही है, हर पल। वह मौजूद है सब तरफ, लेकिन हमारी दाढ़ दुख रही है। हम उसी में लीन हैं।
और अहंकार बड़ी पीड़ा का घाव है। दाढ़ भी वैसा दर्द नहीं देती, जैसा अहंकार देता है। खयाल है आपको, दाढ़ के दर्द में थोड़ी मिठास भी होती है, दर्द भी होता है, मिठास भी होती है। अहंकार के दर्द में बड़ी मिठास होती है। दर्द होता है, तब हम सोचते हैं छोड़ दें, लेकिन मिठास इतनी होती है कि छोड़ भी नहीं पाते। उस मिठास के कारण हम दर्द को भी झेलते हैं। जब कोई गाली देता है तब चोट लगती है, दर्द होता है। जब कोई फूलमाला गले में डालता है, तब मिठास भर जाती है। सारे शरीर में रोयां-रोयां पुलकित हो जाता है।
ये दोनों बातें एक साथ छोड़नी पड़ेंगी। अगर गाली का दुख छोड़ना है तो फिर फूलमाला का सुख भी छोड़ देना पड़ेगा। वह सुख इतना मीठा है कि हम कितने ही दुख उसके लिए झेल लेते हैं। हजार कांटे हम झेल लेते हैं, एक फूल के लिए। हजार निंदा झेल लेते हैं, एक प्रशंसा के लिए। मिठास है बहुत। इस मिठास को और पीड़ा को एक साथ देखना होगा और धीरे-धीरे इस ‘मैं’ के घाव को छोड़ते जाना होगा। एक दिन, जिस दिन ‘मैं’ नहीं रहता, उस दिन मिलन हो जाता है।
इस ‘मैं’ के न रहने के दो रास्ते हैं--एक रास्ता है महावीर का, एक है मीरा का। एक रास्ता है कि इस ‘मैं’ को इतना शुद्ध करो, इतना परिशुद्ध करो कि उसकी शुद्धता के कारण ही वह शून्य होकर तिरोहित हो जाए। एक रास्ता है, यह जैसा है, वैसा ही परमात्मा के चरणों में रख दो। क्योंकि उसके चरण में रख देना आग में रख देना है। वह आग जला लेगी, निखार लेगी। दोनों कठिन हैं, ध्यान रखना।
आमतौर से लोग सोचते हैं कि दूसरी बात सरल मालूम पड़ती है। समर्पण कर दिया, खत्म हुआ मामला। लेकिन समर्पण कर दिया, समर्पण आसान नहीं है। न तो संकल्प आसान है, न समर्पण आसान है, दोनों एक से कठिन हैं, या एक से आसान हैं। कभी भूलकर भी यह मत सोचना कि यह सरल है। सरल का मतलब यह कि जिसमें आपको धोखा देने की सुविधा हो, उसको आप सरल समझते हैं। कहा कि कर दिया समर्पण। लेकिन समर्पण आसान है!
कोई आकर मेरे पास कहते हैं कि मैं सब समर्पण आपको करता हूं। अब आप जो चाहें करें। उनसे मैं कहता हूं, कूद जाओ वुडलैंड के ऊपर से। वे कूदने वाले नहीं हैं। वे कह रहे थे कि समर्पण कर दिया। मैं भी कुदाने वाला नहीं हूं, लेकिन क्या भरोसा! कूदने वाले वे नहीं हैं। जैसे ही मैं यह कहूंगा, वैसे ही वे कहेंगे कि क्या कह रहे हैं आप! वे भूल गए समर्पण।
समर्पण का अर्थ क्या होता है?
बोधिधर्म भारत से चीन गया तो नौ साल तक दीवाल की तरफ मुंह रखता था और पीठ लोगों की तरफ रखता था। बोलता था तो मेरे जैसा नहीं। आपकी तरफ पीठ, मुंह दीवाल की तरफ। हालांकि बहुत फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि जब मैं बोल रहा हूं, तब आप पीठ मेरी तरफ किए हुए हैं, फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। मुंह आपका दीवाल की तरफ है।
बोधिधर्म से लोग पूछते हैं, यह क्या करते हो? तो बोधिधर्म कहता कि जब ठीक आदमी आ जाएगा, जो समर्पण करने को तैयार है, तब मैं मुंह उस तरफ कर लूंगा। अभी व्यर्थ के लोगों की शक्ल देखने से फायदा भी क्या है? क्या तुम हो, वह आदमी जो समर्पण करेगा? वे आदमी कहते कि अभी लड़की की शादी करनी है, अभी लड़के-बच्चे बड़े हो रहे हैं, जरा व्यवस्था कर लें, पिता बूढ़े हैं, उनकी सेवा करनी है। फिर कभी आएंगे।
फिर आया हुईनेंग नाम का आदमी। उसने आकर कुछ कहा नहीं। उसने अपना एक हाथ काटा और बोधिधर्म के सामने कर दिया, और कहा कि तत्काल इस तरफ मुंह करो, नहीं तो गर्दन काट कर रख दूंगा। बोधिधर्म तत्काल लौटा, क्योंकि अभी यह आदमी...। बोधिधर्म ने कहा: तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी, हुईनेंग। तुम आ गए वक्त पर, तो जो मुझे कहना है, तुमसे कह दूं और अब मैं मर जाऊं। मर मुझे जाना चाहिए बहुत पहले। वक्त मेरा बहुत पहले पूरा हो चुका है। सिर्फ उस आदमी की तलाश में था जिसे मैं जो जान गया हूं, वह दे दूं। क्योंकि हजारों-हजारों वर्षों में कभी कोई आदमी यह जान पाता है। अगर मैं इसे बिना बताए मर जाऊं तो हजारों वर्ष तक अंतराल पड़ जाएगा। तो उस आदमी की तलाश में था, लेकिन मैं यह उससे ही कह सकता हूं जो मरने को तैयार हो। क्योंकि यह एक बहुत गहरी भीतरी मौत है।
हुईनेंग को शिष्य की तरह स्वीकार किया बोधिधर्म ने और हुईनेंग को सारी बात कह दी, जो उसे कहनी थी।
क्या है वह बात? अपने को मिटाने की तैयारी का एक मार्ग है समर्पण। लेकिन लोग सोचते हैं, सरल है। बहुत कठिन है। धोखा देने में आपको लगता है, लेकिन बहुत कठिन है। दूसरा भी कोई सरल नहीं है। कोई सोचता है कि ठीक है, अपने को शुद्ध कर लेंगे। चोरी न करेंगे, बेईमानी न करेंगे, यह न करेंगे, वह न करेंगे, शुद्ध कर लेंगे। वह भी इतना आसान नहीं है, क्योंकि चोरी बहुत गहरी है। चोरी आपका कृत्य नहीं है, आप चोर हो। हजारों-हजारों जन्मों तक चोरी की है, वह चोरी का जो जहर है, वह धीरे-धीरे, धीरे-धीरे प्राण की तलहटी तक पहुंच गया है। झूठ छोड़ देंगे। झूठ अगर कोई वचन होता तो छूट जाता। आपकी आत्मा झूठ हो गई है। यह कोई कपड़े उतार कर रख देने जैसा मामला नहीं है। चमड़ी खींच कर रखने जैसा मामला है। इतना सब जुड़ गया है।
एक आदमी कहता है, झूठ छोड़ देंगे। झूठ अगर कोई वक्तव्य होते तो हम छोड़ देते; हम झूठ हो गए हैं बोलते-बोलते, करते-करते हम झूठ हो गए हैं।
हमें पता ही नहीं है कि हम कब झूठ बोल रहे हैं और कब सच बोल रहे हैं। छोड़ेंगे कैसे? पता भी नहीं चलता कि कब झूठ बोल रहे हैं। होश ही नहीं रहता और झूठ निकल जाता है। झूठ हमारी आत्मा हो गई है।
कहते हैं, हिंसा छोड़ देंगे, इसको नहीं मारेंगे, उसको नहीं मारेंगे। लेकिन हिंसा भीतर है। ऊपर से छोड़ना बहुत कठिन नहीं मालूम पड़ता, लेकिन भीतर गहरे में दबा हुआ है।
बहुत मजेदार घटनाएं घटती हैं। अभी मैं हिंदी के एक विचारक प्रभाकर माचवे का एक लेख पढ़ता था। बहुत मजा आया। क्षमा पर लेख लिखा है। उदाहरण जो दिया है, वह दिया है कि चर्चिल ने महात्मा गांधी के लिए कुछ अपशब्द कहे हैं, अपशब्द थे कि गांधी भी क्या है, एक नंगा फकीर।
तो माचवे ने अपने लेख में लिखा है कि गांधी जी ने चर्चिल को उत्तर दिया--क्षमा का उदाहरण दे रहे हैं--गांधी जी ने उत्तर दिया कि आपने आधी बात तो ठीक ही कही कि मैं एक फकीर हूं। गरीब मुल्क का आदमी हूं और पूरा मुल्क मेरा फकीर है, उनका मैं प्रतिनिधि हूं इसलिए मैं फकीर हूं। लेकिन दूसरी बात आपने जरा ज्यादा कह दी। नंगा होना जरा मुश्किल है। और बाइबिल का एक वचन उद्धृत किया अपने पत्र में, जिसमें जीसस ने कहा है कि परमात्मा के सामने जो पूर्णतया नग्न है, वही नग्न है। तो गांधी ने लिखा है कि परमात्मा के सामने पूर्णतया नग्न होने की हिम्मत मेरी अभी भी नहीं है, लेकिन कभी यह आकांक्षा है कि उसके सामने परिपूर्ण नग्न हो सकूं ताकि आपका वचन पूरा हो जाए।
प्रभाकर माचवे ने लिखा है कि गांधी जी ने ऐसा जवाब देकर चर्चिल को खूब नीचा दिखाया। क्षमा का उदाहरण दे रहे हैं, क्षमा की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन नीचा दिखाना...। नीचा दिखाने का मजा ले रहे हैं।
पता नहीं, गांधी ने नीचा दिखाने के लिए जवाब दिया या नहीं दिया, लेकिन माचवे को खयाल में भी नहीं आ रहा है कि नीचा दिखाने में क्षमा हो कैसे सकती है! और नीचा दिखाना ही तो क्रोध है। कोई आदमी गाली देकर नीचा दिखा देता है और कोई आदमी क्षमा करके नीचा दिखा दे, तो भी वही बात है। क्योंकि नीचा दिखाना, वही तो हिंसा है।
अब यह तरकीब की बात है कि आप किस तरह नीचा दिखाते हैं। अगर आप किसी को क्षमा करके नीचा दिखा रहे हैं तो खयाल रखना कि यह क्षमा नहीं है। आप ज्यादा चालाक हैं, उस आदमी से ज्यादा बेईमान हैं जो गाली देकर नीचा दिखाता है। वह जरा अकुशल है। उसके ढंग नीचा दिखाने के सीधे-साफ हैं, आपके ढंग चालबाजी के हैं। घूम-फिर कर हैं।
मुझे पता नहीं कि गांधी जी ने नीचा दिखाने के लिए जवाब दिया होगा। लेकिन जैसा माचवे कहते हैं, अगर नीचा दिखाया है तो फिर यह क्षमा नहीं है। तब चर्चिल ज्यादा ईमानदार और गांधी ज्यादा बेईमान हो जाते हैं। क्योंकि चर्चिल को लगता है कि नंगा फकीर, तो वह कहता है कि नंगा फकीर। इसमें ज्यादा ऑनेस्टी है, ज्यादा सच्चाई मालूम पड़ती है। लेकिन अगर यह नीचा दिखाने के लिए जवाब दिया गया है तो ज्यादा बेईमानी दिखाई पड़ती है।
लेकिन हमें खयाल नहीं आता कि हिंसा बहुत गहरी है, हिंसा बड़ी गहरी है। और अहिंसक होने की चेष्टा में भी प्रकट हो सकती है। और क्रोध बहुत गहरा है और अक्रोध में भी उसकी झलक आ जाती है। अपने को संकल्प से बदलना भी इतना आसान नहीं है।
मार्ग तो दोनों कठिन हैं, फिर भी अगर आप वह मार्ग चुन लें जो आपके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता तो असंभव हो जाएगा; कठिन नहीं, असंभव। अगर मीरा महावीर का मार्ग चुन ले तो असंभव है। अपने ही मार्ग पर चले तो कठिन है, सरल नहीं। अगर महावीर मीरा का मार्ग चुन लें तो असंभव है, अपने ही मार्ग पर चलें तो कठिन है, सरल नहीं।
सरल तो कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए नहीं कि सत्य कठिन है, बल्कि इसलिए कि लाखों-लाखों जन्मों की हमारी आदतें कठिन हैं, उनको तोड़ना कठिन है। सत्य तो सरल है। सागर में गिरते समय नदी को क्या कठिनाई है? लेकिन नदी को आना पड़ता है हिमालय की कंदराओं को, पहाड़ों को पार करके, पत्थरों को काट कर। वह जो मार्ग है, वह कठिन है।
हम कठिन हैं। हमें अपने से ही गुजर कर तो सत्य तक पहुंचना है। सत्य है सरल, हम हैं कठिन। अगर हम अपने विपरीत मार्ग चुन लें तो यात्रा है असंभव।

अब हम सूत्र को लें:
‘जो मनुष्य सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी पीठ फेर लेता है, सब प्रकार से स्वाधीन भोगों का परित्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी है।’
भोग मौजूद न हो, भोग का उपाय न हो, भोग को भोगने की क्षमता न हो, असहाय हो आदमी, तब भी त्याग कर सकता है। लेकिन महावीर कहते हैं, तब त्याग का कोई भी अर्थ नहीं है। जो भोग ही नहीं सकता, उसके त्याग का क्या अर्थ है? जिसके पास भोगने की सुविधा नहीं, उसके त्याग का क्या अर्थ है? उसका त्याग कोई भी अर्थ नहीं रखता।
त्याग का सभी अर्थ भोग के संदर्भ में है। इसलिए जब बूढ़ा ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेता है तो उसका कोई भी अर्थ नहीं है। बूढ़ा अपने को धोखा दे रहा है। जवान जब ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेता है, तब उसकी कोई सार्थकता है। जब मरता हुआ आदमी अन्न-जल का त्याग कर देता है, जब डाक्टर बता देते हैं कि अब घड़ी दो घड़ी से ज्यादा नहीं, जब बिलकुल पक्का हो जाता है कि मर ही रहे हैं, तो अन्न-जल का त्याग कर देता है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। लेकिन जो जीवन को पूरी तरह अभी स्वस्थ मानकर अन्न-जल का त्याग कर देता है और मृत्यु की प्रतीक्षा करता है आनंदपूर्वक, तो उसका कोई अर्थ है।
आप अपनी बेबसी में जब त्याग करते हैं तो अपने को धोखा दे रहे हैं। अपने को दे सकते हैं, जगत की व्यवस्था को धोखा आप न दे सकेंगे। इसलिए, दो बातें ठीक से समझ लें। एक, बेबसी का नाम त्याग नहीं है, सामर्थ्य का नाम त्याग है। इसलिए त्याग के पहले समर्थ हो जाना अत्यंत जरूरी है और त्याग के क्षण में सामर्थ्य हो तो ही त्याग में त्वरा, तेजी, चमक, ओज उत्पन्न होता है। इसलिए महावीर ने हिंदू व्यवस्था की, जो वर्ण की कल्पना थी, आश्रम की कल्पना थी, वह बिलकुल तोड़ दी। और उन्होंने कहा कि जब प्रखर हो ऊर्जा जीवन को भोगने की, तभी रूपांतरण है। जब सारा जीवन बहता हो कामवासना की तरफ, तभी लौट पड़ना।
जब रिक्त हो जाती हो--जैसे, बंदूक की गोली चल चुकती हो, और फिर अहिंसक हो जाए। चली चलाई बंदूक की कारतूस कहे कि अब मैंने अहिंसा का व्रत ले लिया, उसमें कोई भी सार्थकता नहीं है। लेकिन हम यही करते हैं। या तो हमारे पास सुविधा नहीं होती, तो हम त्याग कर देते हैं, या हम असमर्थ हो जाते हैं, सुविधा भोगने में, तो हम त्याग करते हैं।
त्याग का बिंदु वही है जो भोग का बिंदु है, त्याग और भोग एक ही क्षण की घटनाएं हैं, रुख अलग है, दिशा अलग है; लेकिन क्षण एक है, क्षण दो नहीं हैं। दिशा अलग है। त्याग अलग दिशा में जाता है, भोग अलग दिशा में, लेकिन जहां से यात्रा होती है, वह बिंदु एक है।
इसलिए महावीर कहते हैं, सुंदर और प्रिय भोगों को पाकर भी जो पीठ फेर लेता है। सब प्रकार से स्वाधीन, किसी परतंत्रता में नहीं, किसी परवशता में नहीं, स्वतंत्र रूप से परित्याग कर देता है। परित्याग करना नहीं पड़ता, कर देता है। यह उसका संकल्प है। संकल्प से त्याग फलित होना चाहिए तो सामर्थ्य बढ़ती है, शक्ति बढ़ती है। असमर्थता से त्याग होता है तो दीनता बढ़ जाती है।
‘जो मनुष्य किसी परतंत्रता के कारण वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शयन आदि का उपभोग नहीं कर पाता, वह सच्चा त्यागी नहीं कहलाता है।’
‘सदगुरु तथा अनुभवी वृद्धों की सेवा करना, मूर्खों के संसर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत्‌ शास्त्रों का अभ्यास, उनके गंभीर अर्थ का चिंतन, चित्त में धृतिरूप अटल शांति प्राप्त करना, यह निःश्रेयस का मार्ग है।’
इस सूत्र के दो हिस्से हैं--एक त्याग क्या है, और त्याग के बाद क्या करने योग्य है। क्योंकि त्याग सिर्फ एक निषेध नहीं है कि छोड़ दिया, बात खत्म हो गई। छोड़ने से कुछ मिलता नहीं। छोड़ने से सिर्फ बाधाएं कटती हैं। छोड़ने से कुछ उपलब्धि नहीं होती, छोड़ने से भटकाव बचता है। छोड़ने से गलत यात्रा रुकती है, सही यात्रा शुरू नहीं होती। लेकिन बहुत लोग इस भ्रांति में रहते हैं। बहुत लोग यह सोचते हैं कि अब मैंने पत्नी छोड़ दी, घर छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, अब और क्या करना है? हमारे अनेक साधु इसी निषेध में जीते हैं, और हम भी इसी निषेध को बड़ा मूल्य देते हैं कि बेचारे ने पत्नी छोड़ दी, घर छोड़ दिया, बच्चे छोड़ दिए, महात्यागी है।
फिर पाया क्या? यह तो छोड़ दिया, बहुत अच्छा किया, फिर पाया क्या? फिर कुछ मिला भी? और अगर पत्नी छोड़ दी और पत्नी से श्रेष्ठतर कुछ न मिला, तो क्या अर्थ हुआ छोड़ने का? और जिसने पत्नी छोड़ दी, और कुछ मिला नहीं, उसके मन में पत्नी की तरफ दौड़ जारी रहेगी। क्योंकि इस अस्तित्व में खाली जगह को बरदाश्त करने का उपाय नहीं है। प्रकृति खाली जगह को बरदाश्त नहीं करती। अंतस जीवन में भी खाली जगह बरदाश्त नहीं होती। अगर पत्नी की
जगह परमात्मा न आ जाए तो पत्नी झांकती ही रहेगी उस खाली जगह में। झांकने की तरकीबें बहुत हो सकती हैं।
अगर धन छोड़ दिया और धर्म भीतर न उठा, तो यह इस छोड़े हुए आदमी की स्थिति त्रिशंकु की हो जाएगी। इसलिए हमारे साधु छोड़ तो देते हैं, पा कुछ नहीं पाते। फिर परेशान होते हैं। और वह इसी आशा में छोड़ देते हैं कि छोड़ने से ही पाना हो जाएगा।
छोड़ना आवश्यक है, पर्याप्त नहीं।
मैंने कुछ छोड़ दिया, इससे जो अगर मैं पकड़े रहता उसे तो जो-जो भूलें मुझसे होतीं, वे नहीं होंगी--यह निषेधक है। लेकिन अब मुझे कुछ करना होगा। तो क्या करना होगा।
महावीर कहते हैं: ‘सदगुरु अनुभवी वृद्धों की सेवा करना।’
महावीर बहुत ही सशर्त बोलते हैं, क्योंकि उन्हें पक्का पता है कि जो सुनने वाले लोग हैं, उन्हें जरा सा भी छिद्र मिल जाए तो वे इस छिद्र में से अपना बचाव खोज लेते हैं।
तो महावीर वृद्ध की सेवा नहीं बोलते, क्योंकि वृद्ध होने से कोई ज्ञानी नहीं होता। सिर्फ बूढ़े होने से कोई ज्ञानी नहीं होता। सिर्फ बूढ़े होते जाना तो प्राकृतिक घटना है, इसमें आपका काम ही क्या है? लेकिन बूढ़े बूढ़े होकर समझते हैं कि कुछ पा लिया।
सिर्फ खोया है, कुछ पाया नहीं। जिंदगी खोई है। मगर वे समझते हैं कि बूढ़े हो गए तो कुछ पा लिया। सिर्फ बूढ़े हुए हैं, और इस होने में उनका हाथ ही क्या है? उन्होंने तो पूरा चाहा था कि न हों, फिर भी हो गए हैं। अपनी सब कोशिश की थी, फिर भी हो गए हैं। अब इसको ही वे गुण मान रहे हैं, यह भी कोई योग्यता है!
तो महावीर कहते हैं: अनुभवी वृद्धों की सेवा।
बड़ा मुश्किल है! वृद्ध और अनुभवी, बड़ी कठिन बात है। बूढ़े तो सभी हो जाते हैं, अनुभवी सभी नहीं होते। अनुभव का मतलब है--वह जो-जो जीवन में हुआ, वह सिर्फ हुआ नहीं, उससे कुछ सीखा भी गया।
अब एक बूढ़ा आदमी भी अगर क्रोध करता है तो समझना, अनुभवी नहीं है। क्योंकि जिंदगी भर क्रोध करके अगर इतना भी नहीं सीख पाया कि क्रोध व्यर्थ है, तो यह जिंदगी बेकार गई। एक बूढ़ा आदमी भी अगर उन्हीं क्षुद्र बातों में उलझा है, जिनमें बच्चे उलझे होते हैं, तो समझना कि यह आदमी बूढ़ा तो हो गया, वृद्ध नहीं हुआ। सिर्फ बुढ़ा गया, सिर्फ उमर पक गई, लेकिन धूप में पक गए, अनुभव में नहीं। लेकिन आप हैरान होंगे कि बूढ़े भी वही करते रहते हैं जो बच्चे करते हैं। हालांकि निश्र्चित ही बूढ़े करते हैं तो ज्यादा सोफिस्टिकेटेड, ज्यादा ढंग से करते हैं। बच्चे उतने ढंग से नहीं करते। अब बच्चे हैं छोटे, गुड्डा-गुड्डी का विवाह कर रहे हैं। बूढ़े हैं, राम-सीता का जुलूस निकाल रहे हैं। बच्चे गुड्डा-गुड्डी के श्रृंगार में लगे हैं, बूढ़े महावीर स्वामी का श्रृंगार कर रहे हैं। लेकिन गुड्डियां बड़ी हो गई हैं, बदली नहीं। विवाह है, बच्चे भी मजा ले रहे थे, गुड्डों का कर रहे थे, अब ये राम-सीता की बारात निकाल रहे हैं। यह बूढ़ों का बचपना है।
बच्चे इतने गंभीर भी नहीं थे, ये भारी गंभीर हैं। बस इतना ही फर्क पड़ा है। और बच्चे के गुड्डा-गुड्डी के मामले में कभी कोई हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं होता, इनके में हो जाएगा। बूढ़े ज्यादा उपद्रवी हैं। क्योंकि वे जो भी करते हैं, उसको खेल नहीं मान सकते, क्योंकि उनको उम्र का अनुभव है। लेकिन सीखा उन्होंने कुछ भी नहीं। वहीं के वहीं खड़े हैं। कहीं कोई अंतर न पड़ा। वे वहीं खड़े हैं, उनकी चेतना वहीं खड़ी है, शरीर सिर्फ बूढ़ा हो गया।
इसलिए महावीर ने कहा, अनुभवी वृद्ध, सदगुरु।
सिर्फ गुरु नहीं कहा, साथ में जोड़ा सदगुरु।
क्या फर्क है गुरु और सदगुरु में?
गुरु से मतलब तो सिर्फ इतना ही है कि जो आपको खबर दे दे, सूचना दे दे, शास्त्र समझा दे। उसके स्वयं के अस्तित्व से इसका कोई जरूरी संबंध नहीं है--शिक्षक। सदगुरु से मतलब है, जो स्वयं शास्त्र है। जो-जो कह रहा है, वह किसी से सुन कर नहीं कह रहा है, यह उसका अपना अनुभव, अपनी प्रतीति है। वेद में ऐसा कहा है, ऐसा नहीं। गीता में ऐसा कहा है इसलिए ठीक होना चाहिए, ऐसा नहीं। महावीर ने ऐसा कहा है, इसलिए ठीक होगा ही; क्योंकि महावीर ने कहा है, ऐसा नहीं। ऐसा जो कहता है, वह शिक्षक है साधारण। लेकिन जो अपने अनुभव में परखता है और जो अपने अनुभव में देखता है और अगर कभी कहता भी है कि वेद में ठीक कहा है, तो इसलिए कहता है, कि मेरा अनुभव भी कहता है। वेद कहता है, इसलिए ठीक नहीं, मेरा अनुभव कहता है, इसलिए वेद ठीक।
इस फर्क को आप समझ लें।
वेद ठीक कहता है, इसलिए मेरा अनुभव ठीक, यह उधार है आदमी। मेरा अनुभव कहता है इसलिए वेद ठीक या वेद गलत। यह आदमी वहीं खड़ा है ज्ञान के स्रोत पर, जहां खुद अपनी आंख से देखता है। किताब नंबर दो हो जाती है, शास्त्र नंबर दो हो जाते हैं। गुरु के लिए शास्त्र होता है नंबर एक, सदगुरु के लिए शास्त्र होता है नंबर दो। शास्त्र भी प्रामाणिक होता है इसलिए कि मेरा अनुभव शास्त्र की गवाही देता है। मैं हूं गवाह।
जीसस से कोई पूछता है कि पुराने शास्त्रों के संबंध में तुम्हारा क्या कहना है? तो जीसस कहते हैं, आइ एम दि विटनेस। बड़ी मजे की बात कहते हैं। मैं हूं गवाह। जो मैं कहता हूं, उससे मिलान कर लेना। मेरे अनुभव से जो बात मेल खा जाए, समझना कि ठीक है। नहीं तो गलत है।
सदगुरु का मतलब है: जो सत्‌ हो गया। जो अब शिक्षाएं नहीं दे रहा है, जो स्वयं शिक्षा है। गुरु एक श्रृंखला है, एक परंपरा है। गुरु एक काम कर रहा है। सदगुरु एक जीवन है।
इसलिए महावीर ने कहा है: ‘सदगुरु अनुभवी वृद्धों की सेवा।’
बड़े मजे की बात है कि महावीर कहते हैं, सेवा के अतिरिक्त सत्संग नहीं है। क्योंकि सेवा से ही निकट आना होगा। सेवा से ही विनम्रता होगी। सेवा से ही चरणों में झुकना होगा। सेवा से आंतरिकता होगी। सेवा से धीरे-धीरे अहंकार गलेगा। और सदगुरु की उपस्थिति और शिष्य में अगर सेवा की वृत्ति हो, तो वह घटना घट जाएगी, जिसको हम आंतरिक जोड़ कहते हैं। सिर्फ बैठ कर सुनने से नहीं हो पाएगा।
महावीर कहते हैं, जिससे सीखना हो, जिसके जीवन को अपने भीतर ले लेना हो, उसकी सेवा में डूब जाना पड़ेगा।
इसलिए महावीर ने सेवा को बड़ा मूल्य दिया है। लेकिन यह सेवा, जिसको हम आज सर्विस कहते हैं, जिसको हम सेवा कहते हैं, उससे बहुत भिन्न है। अभी हम भी सेवा की बात करते हैं। रोटरी-क्लब अपने सिम्बल में लिखता है, सर्विस, सेवा। क्रिश्र्चियन मिशनरी सेवा कर रहे हैं, सर्वोदयवादी सेवा कर रहे हैं। गरीब की सेवा करो, दुखी की सेवा करो, यह सेवा सामाजिक घटना है। महावीर की सेवा एक साधना का अंग है। महावीर दुखी की सेवा के लिए नहीं कह रहे हैं, गरीब की सेवा के लिए नहीं कह रहे हैं।
महावीर कह रहे हैं: अनुभवी वृद्ध, ज्ञानी, सदगुरु की सेवा। इस सेवा में और रोटरी-क्लब वाली सेवा में फर्क है। दूसरी सेवा केवल एक सामाजिक बात है। अच्छी है, कोई करे, हर्जा नहीं है। लेकिन महावीर की सेवा का अर्थ दूसरा है। वह सेवा एक साधना का अंग है। उसकी सेवा, जो तुमसे सत्य की दिशा में आगे जा चुका है। क्योंकि जब तुम उसकी सेवा के लिए झुकोगे--और सेवा में झुकना पड़ता है--जब तुम उसकी सेवा के लिए झुकोगे तो उसकी ऊंचाइयों से जो वर्षा हो रही है, वह तुममें प्रवेश कर जाएगी। जब तुम उसके चरणों में सिर रखोगे तो जो उसमें प्रवाहित हो रहा है ओज, वह तुम्हें भी छुएगा और तुम्हारे रोएं-रोएं को स्नान करा जाएगा।
यह बड़ा सोचने जैसा मामला है। इस पर तो बहुत चिंतन करने जैसी बात है। क्योंकि जब भी आप किसी की सेवा कर रहे हैं तो आपको झुकना पड़ता है। और जिसकी आप सेवा कर रहे हैं, वह आपमें प्रवाहित हो सकता है।
यह खतरनाक भी है। क्योंकि अगर आप ऐसे आदमी की सेवा कर रहे हैं, जो आपसे चेतना की दृष्टि से नीचे है, तो आपको नुकसान होगा। अगर आपसे ऊंची चेतना के व्यक्ति से आपको लाभ होगा तो आपसे नीची चेतना के व्यक्ति से आपको नुकसान होगा। इसलिए हमने कहा है कि वृद्ध जवानों की सेवा न करें। इसलिए हमने कहा है कि मां-बाप बेटे के पैर न छुएं और बेटा छुए। इसके पीछे कुल एक ही कारण है कि श्रेष्ठतर प्रवाहित हो, कहीं निकृष्ट श्रेष्ठ के साथ संयुक्त न हो, उसे विकृत और अशुद्ध न करे।
इसलिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात आपसे इस संदर्भ में आपको कहूं। यही कारण है कि भारत ने ईसाइयत जैसी सेवा की धारणा विकसित नहीं की, क्योंकि भारत को सेवा के संबंध में आंतरिक गहरे अनुभव हैं। इसलिए पश्र्चिम में बहुत लोग हैरान होते हैं कि भारत के धर्म कैसे हैं; गरीब की सेवा की कोई बात ही नहीं है, बीमार की सेवा की कोई बात नहीं है; रुग्ण की, कोढ़ी की सेवा की कोई बात नहीं है। यह सेवा के लिए, इनके बाबत कोई है ही नहीं इनके पास मामला, ये धर्म कैसे हैं?
गांधी जी बहुत प्रभावित थे ईसाइयत से, तो उन्होंने कहा कि सेवा धर्म है। हमने कभी नहीं कहा इस मुल्क में, न महावीर ने, न बुद्ध ने; और ये सब सेवा को धर्म कहने वाले लोग महावीर के ऐसे वचनों को उठा कर गलत अर्थ निकालते हैं। महावीर जब सेवा शब्द का उपयोग कर रहे हैं तो उनका प्रयोजन ही अलग है। हमने जान कर यह बात नहीं कही है।
शूद्र को हमने नीचे रखा है, ब्राह्मण को ऊपर रखा है, इस आशा में कि शूद्र ब्राह्मण की सेवा करे, ब्राह्मण शूद्र की नहीं। बहुत अजीब लगता है, आज की चिंतन की हवा में बहुत अजीब लगता है कि यह क्या बात हुई? अगर ब्राह्मण सच्चा ब्राह्मण है, तो शूद्र की सेवा करे, क्योंकि सेवा से ही वह ब्राह्मण होगा। लेकिन हमारे लिए मूल्य शूद्र और ब्राह्मण का सामाजिक नहीं है, आत्मिक है। हम शूद्र उसको कहते हैं जो शरीर में ही जी रहा है, जिसका और कोई जीवन नहीं है। और ब्राह्मण हम उसको कहते हैं जो ब्रह्म में जी रहा है, जिसका और कोई जीवन नहीं है। तो जो ब्रह्म में जी रहा है, उसकी कोई भी सेवा करे तो उसे लाभ होगा।
सेवा का अर्थ है: झुक जाना। और जो झुकता है, वह गड्ढा बन जाता है। और जो गड्ढा बन जाता है, उसमें वर्षा संगृहीत हो जाती है। तो महावीर कहते हैं: सदगुरु, अनुभवी वृद्धों की सेवा।
‘मूर्खों के संसर्ग से दूर रहना।’
मगर मूर्खों का संसर्ग बड़ा प्रीतिकर होता है। एक तो यह फायदा होता है कि मूर्खों के बीच आप बुद्धिमान मालूम पड़ते हैं, इसलिए हर आदमी मूर्खों की तलाश करता है। जब तक आपको दो-चार मूर्ख न मिल जाएं, आप बुद्धिमान नहीं। और कोई उपाय भी तो नहीं बुद्धिमानी का, एक ही उपाय है कि दो-चार मूर्ख इकट्ठे कर लो।
इसलिए कोई पति अपने से बुद्धिमान पत्नी पसंद नहीं करता। अपने से ज्यादा पढ़ी-लिखी हो, ज्यादा समझदार हो तो पसंद नहीं करता। क्योंकि फिर पति को मजा नहीं आएगा बुद्धिमान होने का। मूर्ख पत्नी पसंद की जाती है। फिर निश्र्चित, मूर्ख जो कर सकती है, वह करती है। वह सहा जा सकता है, लेकिन अहंकार को रस आता है।
हम सब ऐसी कोशिश करते हैं कि अपने से छोटे तल के लोग हमारे आस-पास इकट्ठे हो जाएं। उसमें रस आता है। मजा आता है।
क्या मजा है उनके बीच? वह जो अकबर के सामने बीरबल ने किया था, एक लकीर खींच दी थी, छोटी लकीर के सामने एक बड़ी लकीर खींच दी थी। और अकबर ने कहा था कि इस लकीर को बिना छुए छोटा कर दो। तो बीरबल ने एक बड़ी लकीर नीचे खींच दी थी। दरबार में कोई भी उसे छोटा न कर सका, क्योंकि सभी ने कहा, बिना छुए कैसे छोटा कर दें? जब छोटा करना है तो छूना पड़ेगा। बीरबल ने कहा: छूने की कोई जरूरत नहीं। एक बड़ी लकीर खींच दी। लकीर छोटी हो गई।
हम सब होशियार हैं उतने, जितना बीरबल था।
अपने को बुद्धिमान कैसे करना, सीधा रास्ता है। अपने से छोटी लकीरें आस-पास इकट्ठी कर लो, आप बड़ी लकीर हो गए।
महावीर कहते हैं: मूर्खों के संसर्ग से दूर रहना। क्योंकि वह संसर्ग मंहगा है। आपकी लकीर बड़ी भला दिखाई पड़े, लेकिन वह जो छोटी लकीरें इकट्ठी हो गई हैं, वे धीरे-धीरे आपकी लकीर को और छोटा करती जाएंगी। क्योंकि जिनके साथ आप रहते हैं, आप धीरे-धीरे उन जैसे होने लगते हैं। साथ संक्रामक है। जिनके साथ आप रहते हैं, धीरे-धीरे वे आपको बदलने लगते हैं। उनसे बचना मुश्किल है। इतना मुश्किल है बचना कि साथ जिनके रहते हैं, उनसे तो बचना मुश्किल है ही, जिनके आप दुश्मन हो जाते हैं उन तक से बचना मुश्किल है, क्योंकि उनका भी संग-साथ हो जाता है भीतर।
मोहम्मद अली जिन्ना गवर्नर जनरल हुए। तो उन्होंने, जैसा कि गवर्नर जनरल्स को करना चाहिए, एक अंग्रेज ए.डी.सी रखा। वह अंग्रेज ए.डी.सी जिन्ना को बहुत समझाया कि आपकी सुरक्षा का ठीक इंतजाम होना चाहिए, और आपके बंगले के चारों तरफ बड़ी दीवाल होनी चाहिए। जिन्ना ने कहा कि मैं कोई तुम्हारे गवर्नर जनरल जैसा गवर्नर जनरल नहीं हूं। मैं एक लोकप्रिय नेता हूं। मुझे कौन मारने वाला है? कोई जरूरत नहीं है बड़ी दीवाल की और सुरक्षा की। मेरा कोई दुश्मन नहीं है। मैं पाकिस्तान का जन्मदाता हूं। तुम्हारे गवर्नर जनरल को दीवाल की जरूरत थी, क्योंकि तुम हमारे दुश्मन थे, लेकिन मुझे कोई जरूरत नहीं है।
ए.डी.सी. बहुत समझाता रहा, लेकिन जिन्ना नहीं माना। जिस दिन गांधी की हत्या हुई और खबर पहुंची--जिन्ना अपने बगीचे में बैठा था। जैसे ही खबर मिली, जिन्ना चिंतित हो गए, परेशान हो गए। उठ कर उसने अपने ए.डी.सी. से कहा कि पूरी खबर का पता लगाओ, क्या हुआ है? और सीढ़ियां चढ़ते वक्त उसने लौटकर ए.डी.सी. से कहा, और ठीक है, वह जो दीवाल के संबंध में तुम कहते थे, उसका इंतजाम कर लो।
जिन्ना जीवन भर गांधी जो करें, उससे ही बंधा हुआ चलते रहे। चाहे हां करें, चाहे न। जिन्ना तब तक कोई उत्तर न देगा, जब तक गांधी क्या कहते हैं, यह पता न चल जाए। सारी पॉलिटिक्स इतनी थी जिन्ना की। वह गांधी की दुश्मनी से तय होती थी।
यह बड़े मजे की बात है, जिंदगी भर भी जिन्ना गांधी की दुश्मनी से तय हुआ। और गांधी की मौत से भी जिन्ना तय हुआ। उस दिन के बाद फिर जिन्ना कभी भी नहीं समझा अपने को कि मैं लोकप्रिय नेता हूं, सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं। फिर दीवाल खड़ी हो गई और सारा इंतजाम कर लिया गया।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि गांधी और जिन्ना में इतनी दुश्मनी! लेकिन यह दुश्मनी भी एक-दूसरे को तय करती है। मित्रता तो एक-दूसरे को बनाती है, दुश्मनी तक बनाती होगी, क्योंकि दुश्मनी भी एक तरह की मित्रता है। जिनके साथ हम हैं, या जिनके विरोध में हम हैं, वे हमें निर्मित करते हैं।
इसलिए महावीर कहते हैं: ‘मूर्खों के संसर्ग से दूर रहना, एकाग्र चित्त से सत्‌ शास्त्रों का अभ्यास करना।’
मूर्ख कौन है? क्या वे जो कुछ नहीं जानते? वे मूर्ख नहीं हैं, वे अज्ञानी हैं। उनको मूर्ख कहना उचित नहीं है। मूर्ख वे हैं, जो बहुत कुछ जानते हैं बिना कुछ जाने। उनसे बचना।
अब एक आदमी आपको बता रहा है कि ईश्र्वर है, और उसे कोई पता नहीं। उससे पहले पूछना कि तुझे पता है? उसे कुछ पता नहीं है। वह आपको बता रहा है कि ईश्र्वर है। एक आदमी बता रहा है, ईश्र्वर नहीं है। उससे पूछना, तूने पूरी-पूरी खोज कर ली है?
एक ईसाई पादरी अभी मुझे मिलने आए थे। उन्होंने कहा कि गॉड इ़ज इनडिफाइनेबल, ईश्र्वर अपरिभाष्य, अनंत, असीम, उसकी कोई थाह नहीं ले सकता। मैंने उनसे पूछा: यह तुम थाह लेकर कह रहे हो, कि बिना थाह लिए ही कह रहे हो? वे जरा मुश्किल में पड़ गए। मैंने कहा कि अगर तुमने पूरी थाह ले ली है, तब तुम कह रहे हो कि अथाह है, तब तुम्हारा वचन बिलकुल गलत है। क्योंकि थाह तुम ले चुके। अगर तुम कहते हो कि मैं पूरी थाह नहीं ले पाया तो तुम इतना ही कहो कि मैं पूरी थाह नहीं ले पाया। पता नहीं, एक कदम आगे थाह हो! तुम अथाह कैसे कह रहे हो?
और तुम कहते हो कि ईश्र्वर की कोई परिभाषा नहीं हो सकती, यह परिभाषा हो गई। तुमने परिभाषा कर दी। तुमने ईश्र्वर का एक गुण बता दिया कि उसकी कोई परिभाषा नहीं हो सकती। यह तुम क्या कह रहे हो? तो वह फौरन उन्होंने कहा कि बाइबिल में ऐसा लिखा है। मैंने कहा, बाइबिल में लिखा होगा। तुम्हें पता है?
वहीं सारी बात अटकती है। दुनिया ज्ञानी मूर्खों से भरी है, लर्नेड इडियट्‌स से। उनका कोई अंत ही नहीं है। पढ़े-लिखे गंवार, उनका कोई अंत ही नहीं है, उनसे दुनिया भरी है। और ध्यान रखना, गैर-पढ़े-लिखे गंवार तो अपने आप कम होते जा रहे हैं, क्योंकि सब शिक्षित होते जा रहे हैं। अब गैर पढ़े-लिखे गंवार खोजना जरा मुश्किल मामला है। अब तो पढ़े-लिखे गंवार ही मिलेंगे। और एक खोजो, हजार मिलते हैं।
महावीर कहते हैं: ‘मूर्खों के संसर्ग से दूर रहना।’
जिनको कुछ पता नहीं है और जिनको यह वहम है कि पता है, वे तुम्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं।
‘एकाग्र चित्त से सत्‌ शास्त्रों का अभ्यास करना।’
शास्त्र, वह भी सत्‌ हो। सत्‌ का अर्थ इतना है: शास्त्र जिसका रस पांडित्य में न हो, सत्य में हो, जिसका रस विवाद में न हो, साधना में हो। शास्त्र, जो आपको कोई सिद्धांत, कोई संप्रदाय देने में उत्सुक न हो, जीवन रूपांतरित करने का विज्ञान देने में उत्सुक हो। तो ऐसे शास्त्र हैं जिनसे आपको सिद्धांत मिल सकते हैं, और ऐसे शास्त्र हैं जिनसे आपको जीवन-रूपांतरण की विधि मिल सकती है। सत्‌ शास्त्र वही है जिससे आपको विधि मिलती है। असत्‌ शास्त्र वही है जिससे आपको बकवास मिलती है। और बकवास लोग सीख कर बैठ जाते हैं। और जब बकवास बिलकुल मजबूत हो जाती है तो वे भूल ही जाते हैं कि हम क्या कर रहे हैं। यह जो खोपड़ी में भर लिया, यह कोई आत्मा का रूपांतरण नहीं होने वाला है।
महावीर का जोर है, सत्‌ शास्त्रों का अभ्यास करना एकाग्र चित्त से, क्यों? क्योंकि अगर कोई आदमी एक सत्‌ शास्त्र को पढ़ते वक्त पच्चीस सत्‌ शास्त्रों को सोचता रहे, तो चित्त एकाग्र नहीं होगा। जब पतंजलि को पढ़ना तो सारे जगत को भूल जाना। पतंजलि को ही पढ़ना। और जब महावीर को पढ़ना तो महावीर को ही पढ़ना फिर सारे जगत को, पतंजलि को बिलकुल भूल जाना। लेकिन हमारी तकलीफ यही है कि जो हमने और जान लिया है, वह हमेशा बीच में खड़ा हो जाता है। चित्त कभी एकाग्र नहीं हो पाता, और शास्त्र से कोई संबंध न जुड़ेगा, अगर चित्त पूरी तरह एकाग्र न हो।
सारे जगत को भूल जाना। फिर यही समझना कि पतंजलि तो पतंजलि, बुद्ध तो बुद्ध और महावीर तो महावीर। फिर सब-कुछ भी नहीं है और। फिर इसमें ही पूरे डूब जाना। इस डुबकी से ही संभव होगा कि जीवन बदले।
‘गंभीर अर्थ का चिंतन करना।’
हम अर्थों का चिंतन नहीं करते। हम केवल अर्थों के साथ विवाद करते हैं। आपने अगर मुझे सुना तो आप इसकी फिकर नहीं करते कि जो मैंने कहा है, उसके क्या गंभीर से गंभीर अर्थ हो सकते हैं। आप इसकी फिकर नहीं करते। आप तो अर्थ अभी समझ गए। गंभीर का और कोई सवाल नहीं है। अब यह अर्थ ठीक है या गलत, इसका आप विचार करते हैं। सत्य के संबंध में ठीक और गलत का विचार करने से कोई हल होने वाला नहीं है। क्या कहा है, उसमें कितने और गम्भीर उतरा जा सकता है, कितने गहरे जाया जा सकता है।
महावीर जैसे व्यक्तियों की वाणी एक पर्त नहीं होती, उसमें हजार पर्तें होती हैं। इसलिए हमने पाठ पर बहुत जोर दिया है। हम नहीं कहते कि पढ़ लेना और किताब रख देना। हम कहते हैं, फिर-फिर पढ़ना। फिर-फिर पढ़ने का क्या मतलब है? फिर-फिर पढ़ने का मतलब है कि कल मैंने एक अर्थ देखा था, आज फिर से पढूंगा। फिर खोजूंगा कि क्या और भी कोई अर्थ हो सकता है, और भी कोई गहरा अर्थ हो सकता है? और महावीर जैसे लोगों की वाणी में जीवन भर अर्थ निकलते आएंगे। आप जितने गहरे होते जाएंगे, उतने गहरे अर्थ आपको मिलते जाएंगे। जिस दिन आपको अपने भीतर आखिरी गहराई मिलेगी, उस दिन महावीर का आखिरी अर्थ आपको पता चलेगा। इसलिए भाषाकोश में अर्थ मत खोजना, अपने भीतर की गहराई में, एकाग्र ध्यान की गहराई में अर्थ को खोजना।
‘चित्त में धृतिरूप अटल शांति और धैर्य रखना।’
जल्दी मत करना, क्योंकि यात्रा है लंबी। इसमें ऐसा मत करना कि आज पढ़ लिया और बात खत्म हो गई, आज सुन लिया और सब हो गया। यह यात्रा लम्बी है, अनंत है यात्रा। तो बहुत धैर्यपूर्वक गति करना। प्रतीक्षा करना, शांति रखना।
‘यही निःश्रेयस का मार्ग है।’
मोक्ष का मार्ग यही है। छोड़ना, जो गलत है। खोजना, जो सही है और धैर्य रखना अनंत, प्रतीक्षा रखना अनंत; श्रम, साधना, पर अत्यंत धैर्य से, अत्यंत शांति से।
यह मत सोचना कि अभी मिल जाएगा सत्य। अभी भी मिल सकता है। लेकिन अभी उन्हें मिल सकता है जो अनंत तक प्रतीक्षा करने को तैयार हैं। उन्हें अभी इसी क्षण भी मिल सकता है, क्योंकि उतने धैर्य की क्षमता अगर हो, कि अनंतकाल तक रुका रहूंगा, तो अभी भी मिल सकता है। वही धैर्य मिलने का कारण बन जाता है। लेकिन हम जल्दी में होते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं, दो दिन हो गए, ध्यान करते, अभी तक कुछ दर्शन हुआ नहीं।
इनक्योरेबल। इनका कोई इलाज भी करना मुश्किल है। दो दिन! काफी समय हो गया! अगर बहुत उन्हें समझाओ-बुझाओ तो वे चार दिन कर लेंगे! कितने जन्मों की बीमारी है? कितना कचरा है इकट्ठा?
अभी म्युनिसिपल के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे, तो दो-चार दिन में कितना कचरा इकट्ठा हो गया था? और आप कितने दिन से हड़ताल पर हैं, आपको पता है?
थोड़ा उसका ध्यान करें कि कितने दिन से हड़ताल पर हैं! आत्मा कचरा ही कचरा हो गई है।
थोड़ा धैर्य! थोड़ी शांति! लेकिन, जो भी गलत को छोड़ने को तैयार है और ठीक को पकड़ने के लिए साहस रखता है; धैर्य, श्रम, प्रतीक्षा कर सकता है; उसकी प्रार्थना एक दिन निश्र्चित ही पूरी हो जाती है।

आज इतना ही।

पांच मिनट कीर्तन करेंगे...!


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