MAHAVIR
Mahaveer Vani 31
ThirtyFirst Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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प्रमाद-स्थान-सूत्र: 2
रसा पगामं न निसेवियव्वा,
पायं रसा दित्तिकरा नराणं।
दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति,
दुमं जहा साउफलं व पक्खी।।
न कामभोगा समयं उवेन्ति,
न यावि भोगा विगइं उवेन्ति।
जे तप्पओसी य परिग्गही य,
सो तेसु मोहा विगइं उवेइ।।
दूध, दही, घी, मक्खन, मलाई, शक्कर, गुड़, खांड, तेल, मधु, मद्य, मांस आदि रस वाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसी ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी।
काम-भोग अपने आप न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्वेष रूप विकृति पैदा करते हैं, परंतु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्वेष के नाना संकल्प बना कर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है।
पहले एक-दो प्रश्र्न।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, यदि महावीर की साधना-विधि में अप्रमाद प्राथमिक है, तो क्या अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम उसके ही परिणाम हैं या वे साधना के अलग आयाम हैं?
जीवन अति जटिल है, और जीवन की बड़ी से बड़ी और गहरी से गहरी जटिलता यह है कि जो भीतर है, आंतरिक है, वह बाहर से जुड़ा है, और जो बाहर है, वह भी भीतर से संयुक्त है। यह जो सत्य की यात्रा है यह कहां से शुरू हो, यह गुह्यतम प्रश्र्न रहा है मनुष्य के इतिहास में।
हम भीतर से यात्रा शुरू करें या बाहर से, हम आचरण बदलें या अंतस, हम अपना व्यवहार बदलें या अपना चैतन्य? स्वभावतः दो विपरीत उत्तर दिए गए हैं। एक ओर हैं वे लोग, जो कहते हैं, आचरण को बदले बिना अंतस को बदलना असंभव है। उनके कहने में भी गहरा विचार है। वे यह कहते हैं कि अंतस तक हम पहुंच ही नहीं पाते, बिना आचरण को बदले। वह जो भीतर छिपा है उसका तो हमें कोई पता नहीं है, जो हमसे बाहर होता है उसका ही हमें पता है। तो जिसका हमें पता ही नहीं है उसे हम बदलेंगे कैसे? जिसका हमें पता है उसे ही हम बदल सकते हैं। हमें अपने केंद्र का तो कोई अनुभव नहीं है, परिधि का ही बोध है। हम तो वही जानते हैं जो हम करते हैं।
मनस्विदों का एक वर्ग है जो कहता है, मनुष्य उसके कर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कहलर ने कहा है: यू आर वॉट यू डू। जो करते हो, वही हो तुम, उससे ज्यादा नहीं। उससे ज्यादा की बात करनी ही नहीं चाहिए। हमारा किया हुआ ही हमारा होना है। इसलिए हम जो करते हैं, उससे ही हम निर्मित होते हैं।
सार्त्र ने भी कहा है कि प्रत्येक कृत्य तुम्हारा जन्म है, क्योंकि प्रत्येक कृत्य से तुम निर्मित होते हो, और प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल अपने को जन्म दे रहा है। आत्मा कोई बंधी हुई, बनी हुई चीज नहीं है, बल्कि एक लंबी श्रृंखला है निर्माण की। तो जो हम करते हैं, उससे ही वह निर्मित होती है।
आज मैं झूठ बोलता हूं तो मैं एक झूठी आत्मा निर्मित करता हूं। आज मैं चोरी करता हूं तो मैं एक चोर आत्मा निर्मित करता हूं। आज मैं हिंसा करता हूं तो मैं एक हिंसक आत्मा निर्मित करता हूं, और यह आत्मा मेरे कल के व्यवहार को प्रभावित करेगी, क्योंकि कल का व्यवहार इससे निकलेगा।
इसका मतलब यह हुआ कि हम कर्म से निर्मित करते हैं स्वयं को और फिर उस स्वयं से पुनः कर्म को निर्मित करते हैं। इस भांति अगर देखा जाए, जो कि देखने का एक ढंग है, तो फिर आचरण से शुरू करनी पड़ेगी यात्रा। तो फिर हिंसा की जगह अहिंसा चाहिए, क्रोध की जगह अक्रोध चाहिए, लोभ की जगह अलोभ चाहिए। फिर हमें अपने व्यवहार में जो-जो विकृत है, दुखद है, स्वयं से दूर ले जाने वाला है, उस सबको काट कर उसकी स्थापना करनी चाहिए जो निकट है, आत्मीय है, भीतर स्वयं के पास ले आने वाला है। नीति की समस्त दृष्टि यही है।
लेकिन, जो विपरीत हैं इस विचार के, उनका कहना है कि वह जो हमारा आचरण है वह हमारी आत्मा का निर्माण नहीं है। बल्कि, हमारी जो आत्मा है, केवल उसकी अभिव्यक्ति है।
इसे थोड़ा समझ लें।
हम जो करते हैं, उससे हम निर्मित नहीं होते, हम जो हैं, उससे ही हमारा कर्म निकलता है। मैं चोरी करता हूं, इससे चोर आत्मा निर्मित नहीं होती, मेरे पास चोर आत्मा है, इसलिए मैं चोरी करता हूं। अगर मेरे पास चोर आत्मा नहीं है तो मैं चोरी कर ही नहीं सकूंगा। कर्म आएगा कहां से? कर्म मुझसे आता है। मेरे भीतर जो छिपा है, वही आता है। एक वृक्ष में कड़वे फल लगते हैं, ये कड़वे फल वृक्ष की कड़वी आत्मा का निर्माण नहीं करते, वृक्ष के पास कड़वा बीज है, इसलिए कड़वे फल लगते हैं। व्यवहार हमारा फल है। हम जो भीतर हैं वह बाहर निकल आता है। लेकिन जो बाहर निकलता है, उससे हमारा भीतर निर्मित नहीं होता। भीतर तो हम पहले से ही मौजूद हैं। जो बाहर होता है वह हमारे भीतर का प्रतिफलन है।
इसलिए दूसरा अंतसवादी वर्ग है, जिसका कहना है, जब तक भीतरी चेतना न बदल जाए, बाहर का कर्म बदल नहीं सकता। हम सिर्फ धोखा दे सकते हैं। हम इतना बड़ा भी धोखा दे सकते हैं कि हिंसा की जगह अहिंसा का व्यवहार करने लगें। लेकिन, अंतर नहीं पड़ेगा। हमारी अहिंसा में भी हमारी हिंसा की वृत्ति मौजूद रहेगी। और हम यह भी कर सकते हैं कि क्रोध की जगह हम क्षमा और शांति को ग्रहण कर लें, लेकिन हमारी शांति और क्षमा की पर्त के नीचे क्रोध की आग जलती रहेगी। इसलिए बहुत बार ऐसा दिखाई पड़ता है कि जिस आदमी को हम कहते हैं--कभी क्रोध नहीं करता, वह सिर्फ क्रोध का एक उबलता हुआ लावा, एक ज्वालामुखी मालूम पड़ता है। करता कभी नहीं, लेकिन भरा सदा रहता है। साधुओं में, संन्यासियों में, निरंतर ऐसे लोग मिल जाएंगे जो बाहर से सब तरफ से अपने को रोके खड़े हैं, लेकिन भीतर बांध तैयार है जो किसी भी समय दीवार तोड़ कर बहने को उत्सुक है, और जो बहता है नये-नये मार्गों से।
हमने, सबने सुन रखा है दुर्वासा और इस तरह के ऋषियों के बाबत, जो क्षुद्रतम बात पर पागल हो सकते हैं, क्रोध की आग बन जाते हैं। क्या होगा दुर्वासा के जीवन में? हुआ क्या होगा?
अंतस नहीं बदला है, आचरण बदल डाला है। अंतस से लपटें निकल रही हैं और आचरण को शीतल कर लिया है। वे लपटें उबल रही हैं भीतर। वे कोई भी बहाना पाकर बाहर निकल जाती हैं। कोई भी मार्ग उनके लिए यात्रा पथ बन जाता है। जो आदमी इस दूसरे विचार दृष्टि से आचरण को बदलेगा वह दमन में पड़ जाएगा।
ये दो विचार दृष्टियां हैं। लेकिन, महावीर की विचार-दृष्टि दोनों में से कोई भी नहीं है। महावीर या बुद्ध या कृष्ण जैसे लोग मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हैं, इंटिग्रेटेड। हम आदमी को तोड़ कर देखते हैं, तोड़ कर देखना हमारी विधि है। इसलिए हम अक्सर पूछते हैं कि अंडा पहले या मुर्गी? प्रश्न बिलकुल सार्थक मालूम पड़ता है और लोग जवाब देने की कोशिश भी करते हैं। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, मुर्गी पहले, क्योंकि बिना मुर्गी के अंडा हो कैसे सकेगा? और कुछ लोग हैं जो उतनी ही तर्कशीलता से कहते हैं कि अंडा पहले, क्योंकि अंडे के पहले मुर्गी हो कैसे सकेगी! और ऐसा नहीं कि गैर-बुद्धिमान इस तरह के तर्क में पड़ते हैं, बड़े-बड़े विचारशील लोग, बड़े दार्शनिकों ने भी इस पर चिंतन किया है कि मुर्गी पहले कि अंडा पहले।
एक भारतीय विचारक राहुल सांकृत्यायन ने बड़ी मेहनत की है इस विचार पर कि मुर्गी पहले कि अंडा पहले। हमको भी लगता है कि प्रश्र्न तो सार्थक है, पूछा जा सकता है। लेकिन प्रश्र्न व्यर्थ है, पूछा ही नहीं जा सकता। प्रश्र्न भाषा की भूल से पैदा होता है, लिंग्विस्टिक फैलिसी है।
असल में जब हम मुर्गी कहते हैं तो अंडा आ गया। जब हम अंडा कहते हैं तो मुर्गी आ गई। हम बाहर से मुर्गी-अंडे को दो में कर लेते हैं, लेकिन मुर्गी-अंडे दो नहीं हैं। एक श्रृंखला के हिस्से हैं। हम तोड़ लेते हैं कि यह रही मुर्गी और यह रहा अंडा। जब हम कहते हैं, यह रही मुर्गी, तो मुर्गी में अंडा छिपा है। जब हम कहते हैं, यह रही मुर्गी तो यह मुर्गी अंडे से ही पैदा हुई है। यह अंडे का ही फैलाव है, यह अंडे का ही आगे का कदम है। यह अंडा ही तो मुर्गी बना है।
जब हम आपसे कहते हैं बूढ़ा, तो आपका बचपन उसमें छिपा हुआ है। आपकी जवानी उसमें छिपी हुई है। बूढ़ा आदमी जवानी लिए हुए है, बचपन लिए हुए है। जब हम कहते हैं बच्चा, तो बच्चा भी बुढ़ापा लिए हुए है, जवानी लिए हुए है। जो कल होगा, वह अभी छिपा हुआ है। जो कल हो गया, वह भी छिपा है। लेकिन हम भाषा में तोड़ लेते हैं, मुर्गी अलग मालूम पड़ती है, अंडा अलग मालूम पड़ता है। और ठीक भी है, जरूरी भी है।
अगर दुकानदार से जाकर मैं कहूं कि मुझे अंडा चाहिए और वह मुझे मुर्गी दे दे, तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाएगी। दुकानदार के लिए और मेरे लिए जरूरी है कि अंडा अलग समझा जाए, मुर्गी अलग समझी जाए। लेकिन मुर्गी और अंडे की जीवन व्यवस्था में वे अलग नहीं हैं। अंडे का अर्थ होता है, होने वाली मुर्गी। मुर्गी का अर्थ होता है, हो गया अंडा।
देकार्त ने मजाक में कहा है--यह सवाल किसी ने देकार्त को पूछा है, तो देकार्त ने कहा कि मुझे मुश्किल में मत डालो। पहले तुम मेरी मुर्गी की परिभाषा समझ लो। देकार्त ने कहा कि मुर्गी है अंडे का एक ढंग और अंडे पैदा करने का। ए मेथड ऑफ दि एग्ग टु प्रोड्यूज मोर एग्स। मुर्गी बस केवल एक विधि है अंडे की और अंडे पैदा करने की। इससे उलटा भी हम कह सकते हैं कि अंडा केवल एक विधि है मुर्गी की और मुर्गियां पैदा करने की। एक बात साफ है कि अंडा और मुर्गी अस्तित्व में दो नहीं हैं, एक श्रृंखला के दो छोर हैं। एक कोने पर अंडा है, दूसरे कोने पर मुर्गी है। जो अंडा है वही मुर्गी हो जाता है, जो मुर्गी है वही अंडा हो जाती है। इसलिए जो इसे दो में तोड़ कर हल करने की कोशिश करते हैं, वे कभी हल न कर पाएंगे। भाषा की भूल है। अस्तित्व में दोनों एक हैं, भाषा में दो हैं।
ठीक ऐसा ही बाहर और भीतर भाषा की भूल है। जिसको हम बाहर कहते हैं, वह भीतर का ही फैलाव है। जिसको हम भीतर कहते हैं, वह बाहर की ही भीतर प्रवेश कर गई नोक है। बाहर और भीतर हमारे लिए दो हैं, अस्तित्व के लिए एक हैं। वह जो आकाश आपके बाहर है मकान के और जो मकान के भीतर है, वह दो नहीं हो गया है आपकी दीवाल उठा लेने से, वह एक ही है।
मैंने अपनी गागर सागर में डाल दी है। वह जो पानी मेरी गागर में भर गया है वह, और वह जो पानी मेरी गागर के बाहर है, दो नहीं हो गया है मेरी गागर की वजह से। वह जो भीतर है, वह जो बाहर है, वह एक ही है। आकाश अखंडित है, आत्मा भी अखंडित है। आत्मा का अर्थ है: भीतर छिपा हुआ आकाश। आकाश का अर्थ है: बाहर फैली हुई आत्मा।
यह मैं क्यों कह रहा हूं? यह मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि आपको यह दिखाई पड़ जाए कि चाहे बाहर से शुरू करो, चाहे भीतर से शुरू करो। बाहर से शुरू करो तो भी भीतर से शुरू करना पड़ता है, भीतर से शुरू करो तो भी बाहर से शुरू करना पड़ता है।
महावीर जैसे व्यक्ति मनुष्य के अस्तित्व को देखते हैं उसकी अखंडता में। इसलिए महावीर ने कहा है, कहां से शुरू करो, यह गौण है, क्योंकि बाहर और भीतर जुड़े हुए हैं। अगर एक व्यक्ति अहिंसक आचरण से शुरू करे, तो भी उसको अप्रमाद साधना पड़ेगा। उसको होश साधना पड़ेगा। क्योंकि बिना होश के अहिंसा नहीं हो सकती। और अगर बिना होश के अहिंसा हो रही है तो वह महावीर की अहिंसा नहीं है, वह जैनियों की अहिंसा भला हो। महावीर की अहिंसा में तो अप्रमाद आ ही जाएगा, क्योंकि महावीर की अहिंसा का मतलब दूसरे को मारने से बचना नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि दूसरे को हम मार ही कहां सकते हैं। इसलिए जो लोग सोचते हैं, अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को न मारना--उनसे ज्यादा मूढ़, चिंतन करने वाले लोग खोजने मुश्किल हैं। लेकिन यही समझाया जाता है कि अहिंसा का अर्थ है दूसरे को न मारना, दूसरे की हत्या न करना, दूसरे को दुख न पहुंचाना।
इसे हम थोड़ा समझ लें।
महावीर कहते हैं, आत्मा अमर है, इसलिए दूसरे को मार कैसे सकते हैं। दूसरे को मारने का उपाय कहां है? अगर मैं एक चींटी को पैर रख कर पिसल डालता हूं, तो भी मैं मार नहीं सकता। चींटी मर नहीं सकती मेरे पिसल देने से। अगर चींटी मर ही नहीं सकती, और उसकी आत्मा अमृत है, तो फिर दूसरे को मारना, नहीं मारना--ऐसी बातें करना अहिंसा के संबंध में बेमानी हैं। मार तो हम सकते ही नहीं--पहली बात। मारने का तो कोई उपाय ही नहीं है। और अगर हम मार ही सकते और आत्मा मिट जाती तो फिर आत्मा को खोजने का भी कोई उपाय नहीं था। फिर व्यर्थ थी सारी खोज। क्योंकि अगर मेरे मारने से किसी की आत्मा मर जाती है तो कोई मुझे मार डाले, मेरी आत्मा मर जाएगी। तो जो मर जाती है, उस आत्मा को पाकर भी क्या करेंगे? वह तो जरा सा पत्थर फेंक दिया जाए और खत्म हो जाएगी।
अमृत की तलाश है, इसलिए महावीर यह नहीं कह सकते कि दूसरे को मत मारो, यह अहिंसा की परिभाषा है। दूसरा तो मारा जा नहीं सकता--पहली बात। फिर अहिंसा का क्या अर्थ होगा?
महावीर के लिए अहिंसा का अर्थ है दूसरे को मारने की धारणा मत करो। दूसरे को मारा नहीं जा सकता, लेकिन दूसरे को मारने का विचार किया जा सकता है। वही विचार पाप है। दूसरे को मारने का तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन दूसरे को मारने का विचार किया जा सकता है, वही पाप है।
इसलिए महावीर ने कहा, मारो या विचार करो, बराबर है। इसलिए भाव-हिंसा को भी उतना ही मूल्य दिया, जितना वास्तविक हिंसा को। हम कहेंगे, ज्यादती है। अदालत भाव-हिंसा को नहीं पकड़ती। अगर आप कहें कि मैं एक आदमी को मारने का विचार कर रहा हूं, तो अदालत आपको सजा नहीं दे सकती। आप कहें कि मैंने सपने में एक आदमी की हत्या कर दी है तो अदालत आपको सजा नहीं दे सकती। अपराध जब तक कृत्य न हो तब तक अपराध नहीं है। लेकिन महावीर ने कहा है, पाप और अपराध में यही फर्क है। अदालत तो तभी पकड़ेगी जब कृत्य हो, लेकिन धर्म तभी पकड़ लेता है, जब भाव हो।
एक आदमी को मैं मारूं या एक आदमी को मारने का विचार करूं, बराबर पाप हो गया, बराबर। जरा भी फर्क नहीं है। क्यों? क्योंकि वास्तविक मार कर भी मैं मार कहां पाता हूं? वह भी मेरा विचार ही है मारने का। और कल्पना में भी मार कर मैं मारता नहीं, मेरा विचार ही है, लेकिन जो मारने के विचार करता है, वह हिंसक है। कोई मरता नहीं मेरे मारने से, लेकिन मार-मार कर मैं अपने भीतर सड़ता हूं।
हम कहते हैं आमतौर से कि दूसरे को दुख नहीं देना है, दूसरे को दुख देना हिंसा है, लेकिन यह भी बात महावीर की नहीं हो सकती। क्योंकि दूसरे को मैं दुख दे कैसे सकता हूं? आप महावीर को दुख देकर देखें, तब आपको पता चलेगा। आप लाख उपाय करें, आप महावीर को दुख नहीं दे सकते। दूसरे को दुख देना मेरे हाथ में कहां है, जब तक दूसरा दुखी होने को तैयार न हो। यह मेरी स्वतंत्रता नहीं है कि मैं दूसरे को दुख दे दूं। जीसस को हमने सूली देकर देख ली, और हम दुख नहीं दे पाए। और मंसूर के हमने हाथ-पैर काट डाले और गर्दन तोड़ डाली, तो भी हम दुख नहीं दे पाए। मंसूर हंस रहा था। और हमने वह लोग भी देख लिए हैं कि उनको सिंहासनों पर बिठा दो तो भी उनके चेहरे पर हंसी नहीं आती।
हम न सुख दे सकते हैं, न दुख दे सकते हैं। यह हमारे हाथ में नहीं है। यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। हम आमतौर से सोचते हैं, किसी को दुख मत दो। आप दे कब सकते हो दूसरे को दुख? यह कहा किसने? यह वहम आपको पैदा कैसे हुआ? यह वहम एक गहरे दूसरे वहम पर खड़ा हुआ है। हम सोचते हैं, हम दूसरे को सुख दे सकते हैं। इसलिए यह जुड़ा हुआ है।
सब आदमी सुख दे रहे हैं। मां बेटे को सुख दे रही है। बेटे मां को सुख दे रहे हैं। पति पत्नियों को सुख दे रहे हैं। भाई भाई को, मित्र मित्र को सुख देने की कोशिश में लगे हैं और कोई किसी को सुख नहीं दे पा रहा है। अभी तक मुझे ऐसा आदमी नहीं मिला जो कहे कि मुझे मेरी मां ने सुख दिया। कि मां मिले, कहे कि मेरे बेटे ने मुझे सुख दिया। कोई किसी को सुख नहीं दे पा रहा है। और सारी दुनिया सुख देने की कोशिश में लगी है। इतनी सुख देने की चेष्टा, और सुख का कहीं कोई पता नहीं चलता। बल्कि अक्सर ऐसा लगता है कि जितना सुख देने की चेष्टा करो उतना दुख पहुंचता मालूम पड़ता है।
क्या, हो क्या रहा है? हम सुख दे सकते हैं दूसरे को, तब तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी, कभी की बन जाती, कोई कमी नहीं है इसमें। कभी कोई कमी नहीं रही है। लेकिन यह पृथ्वी स्वर्ग बन नहीं पाती, क्योंकि हम दूसरे को सुख दे नहीं सकते। कितने ही उपकरण जुटा लें हम, और कितना ही धन हो, और कितना ही वैभव हो, कितना ही धान्य हो, कितनी ही खुशहाली हो, एफ्लुएंस कितना ही हो जाए, समृद्धि कितनी ही हो जाए, हम सुख नहीं दे सकते, क्योंकि सुख दिया नहीं जा सकता। कोई सुखी होना चाहे तो सुखी हो सकता है, लेकिन कोई किसी को सुखी कर नहीं सकता।
इस बात को ठीक से समझ लें।
सुख दूसरे के द्वारा, दूसरे से निर्मित नहीं होता। आप चाहें तो सुखी हो सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहे तो सुखी हो सकता है। लेकिन महावीर की भी यह हैसियत नहीं है कि किसी को सुखी कर दें। आप अगर महावीर के पास भी हों तो दुखी रहेंगे। आपसे महावीर हारेंगे, जीतने का कोई उपाय नहीं है। आप जीत कर ही लौटेंगे। अपनी रोती हुई शक्ल लेकर ही आप लौटेंगे। महावीर भी आपको हंसा नहीं सकते। विजेता अंत में आप ही होंगे। इसका कारण यह नहीं कि महावीर कमजोर हैं और आप बड़े शक्तिशाली हैं।
इसका कुल कारण इतना है कि दूसरे को सुखी करने का कोई उपाय ही नहीं है। दूसरे को दुखी करने का भी कोई उपाय नहीं है। अगर सुखी करने का उपाय होता तो दुखी करने का भी उपाय होता। जो अपने हैं, जिनके साथ हमारा ममत्व का बंधन है, उनको हम सुखी करने का उपाय करते हैं। जिनके साथ हमारा ममत्व के विपरीत संबंध है, जिनसे हमारी घृणा है, ईर्ष्या है, जलन है, क्रोध है, उन्हें हम दुखी करने का उपाय करते हैं। हम दोनों में असफल होते हैं। न हम मित्रों को सुखी कर पाते, न हम शत्रुओं को दुखी कर पाते।
अगर मित्र सुखी होते हैं तो यह उनका ही कारण होगा; अगर शत्रु दुखी होते हैं तो यह उनका ही कारण होगा। आप इसमें नाहक अपने को न लाएं। क्योंकि अगर मैं दुखी न होना चाहूं तो कोई दुनिया की शक्ति मुझे दुखी नहीं कर सकती। अगर मैं सुखी न होना चाहूं तो कोई दुनिया की शक्ति मुझे सुखी नहीं कर सकती। सुख और दुख व्यक्ति के निर्णय हैं, निजी, आत्मगत और व्यक्ति स्वतंत्र है।
तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि अहिंसा का यह अर्थ भी करना ठीक नहीं कि हम दूसरे को दुखी न करें, यह अर्थ भी ठीक नहीं है। दूसरे को दुखी करने की चेष्टा न करें, इतना है अहिंसा का अर्थ। क्योंकि दूसरे को हम दुखी तो कर ही न पाएंगे, लेकिन दूसरे को दुखी करने की चेष्टा में हम अपने को दुखी कर लेते हैं। ठीक अगर इसको हम और गहरा समझें तो हम दूसरे को सुखी तो कर ही न पाएंगे, लेकिन दूसरे को सुखी करने की चेष्टा में हम अपने को दुखी कर लेते हैं।
यह बड़े मजे की बात है, अगर आप अपने को सुखी करने में लग जाएं, तो शायद आपके आस-पास के लोग भी थोड़े सुखी होने लगें। लेकिन हम उनको सुखी करने में लगे रहते हैं। उसमें वे तो सुखी हो नहीं पाते, हम दुखी हो जाते हैं। अगर आप अपने आस-पास के लोगों को पूरी स्वतंत्रता दे सकें, यही अहिंसा है।
इसे ठीक से समझ लें।
अगर मैं दूसरे को परिपूर्ण स्वतंत्रता दे सकूं कि न तो मैं तुम्हें दुखी करूंगा और न तुम्हें मैं सुखी करूंगा, मैं तुम्हें परिपूर्ण स्वतंत्रता देता हूं। तुम जो होना चाहो हो जाओ, मैं कोई बाधा नहीं डालूंगा, इस भाव का नाम अहिंसा है। अहिंसा जरा जटिल मामला है। इतना आसान नहीं है, जितना आप सोचते हैं। कई लोग कहते हैं, हम किसी को दुखी नहीं कर रहे। फिर भी अहिंसा नहीं हो जाएगी। यह खयाल भी कि आप दूसरे को दुखी कर सकते थे और अब नहीं कर रहे हैं, भ्रम है।
अहिंसा का अर्थ है, व्यक्ति परम स्वतंत्र है और मैं कोई बाधा नहीं डालूंगा। इतनी बाधा भी नहीं डालूंगा कि उसे सुखी करने की कोशिश करूं। मैं सुखी हो जाऊं तो शायद मेरे आस-पास जो आभा निर्मित होती है सुख की, वह किसी के काम आ जाए, लेकिन वह भी मेरी चेष्टा से काम नहीं आएगी। वह भी उसका ही भाव होगा काम में लाने का, तो काम में आएगी।
अहिंसा का इतना ही मतलब है कि मेरे चित्त में दूसरे को कुछ करने की धारणा मिट जाए। अगर कोई आदमी अहिंसा से शुरू करेगा तो भी अप्रमाद पर पहुंच जाएगा। क्योंकि बड़ा होश रखना पड़ेगा। हमें पता ही नहीं रहता है कि हम किन-किन मार्गों से, कितनी-कितनी तरकीबों से दूसरे को बाधा देते हैं--हमें पता ही नहीं रहता। हमारे उठने में, हमारे बैठने में, निंदा, प्रशंसा सम्मिलित रहती है। हमारे देखने में, समर्थन, विरोध शामिल रहता है। हम दूसरे को स्वतंत्रता देना ही नहीं चाहते। और जितने निकट हमारे कोई हो, हम उसको उतना परतंत्र करने की कोशिश में संलग्न रहते हैं। हमारी चेष्टा ही यही है कि दूसरा स्वतंत्र न हो जाए। इसका नाम हिंसा है, इस चेष्टा का नाम।
कोई आप परतंत्र कर पाएंगे, इस भ्रम में मत पड़ें। कोई परतंत्र हो नहीं पाता। पति अपने मन में कितना ही सोचता हो कि हम मालिक हैं, पति हैं और पत्नी उसको चिट्ठी में लिखती भी हो, स्वामी, आपके चरणों की दासी; मगर इससे कुछ हल नहीं होता। घर लौट कर पता चलेगा कि दासी क्या करती है। पत्नी कितनी ही सोचती हो कि मालकियत मेरी है, और पति के शरीर पर नहीं, उसकी आत्मा पर भी मेरा कब्जा है और उसकी आंख भी किस तरफ देखे और किस तरफ न देखे, यह भी मेरे इशारे पर चलता है। वह कितनी ही चेष्टा करती हो, लेकिन वह भ्रम में है। कोई किसी को परतंत्र कर नहीं पाता। हां, करने की चेष्टा में कलह, संघर्ष, संताप, धुंआ, चारों तरफ जीवन में जरूर पैदा हो जाता है।
महावीर का अहिंसा से अर्थ है--प्रत्येक व्यक्ति की जो परम स्वतंत्रता है, उसका समादर। एक चींटी की भी परम स्वतंत्रता है, उसका समादर। न हमने उसे जन्म दिया है, न हमने उसे जीवन दिया है, हम उसे मृत्यु कैसे दे सकते हैं। जो जीवन हमने दिया नहीं, वह हम छीन कैसे सकते हैं। वह अपनी हैसियत से जीती है, लेकिन हम बाधा डालने की कोशिश कर सकते हैं। उस कोशिश में चींटी को नुकसान होगा, यह महावीर का कहना नहीं है। उस कोशिश में हमको नुकसान हो रहा है। वह कोशिश हमें पथरीला बनाएगी और डुबा देगी जिंदगी में।
जो व्यक्ति दूसरे को परतंत्र करने चला है, या दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा डालने चला है, वह गुलाम की तरह मरेगा। जो व्यक्ति सबको स्वतंत्र करने चला है और जिसने सारे बंधन ढीले कर दिए हैं, और जिसने जाना भीतर कि प्रत्येक व्यक्ति परम गुह्य रूप से स्वतंत्र है, आत्यंतिक रूप से स्वतंत्र है, और दूसरे की आत्मा का अर्थ ही यह होता है कि उसे परतंत्र नहीं किया जा सकता।
इसे ठीक से समझ लें।
परतंत्र हम कर ही सकते हैं किसी को तब, जब कि उसमें आत्मा न हो। मशीन परतंत्र हो सकती है। मशीन के लिए स्वतंत्र का कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन व्यक्ति कभी परतंत्र नहीं हो सकता, और हम व्यक्ति को मशीन की तरह व्यवहार करना चाहते हैं। वह व्यवहार ही हिंसा है। तब तो बड़ा होश रखना पड़ेगा। व्यवहार के छोटे-छोटे हिस्से में होश रखना पड़ेगा कि मैं किसी की परतंत्रता लाने की चेष्टा में तो नहीं लगा हूं। आएगी तो है ही नहीं, लेकिन चेष्टा, मेरा प्रयास, मुझे दुख में डाल जाएगा। अप्रमाद तो रखना पड़ेगा, होश रखना पड़ेगा।
आप रास्ते से गुजर रहे हैं और एक आदमी की तरफ आप किस भांति देखते हैं। अगर उसमें निंदा है, और भले आदमी बड़े निंदा के भाव से देखते हैं। एक साधु के पास आप सिगरेट पीते चले जाएं, फिर उसकी आंखें देखें कैसी हो गईं। उसका वश चले तो अभी इसी वक्त आपको नरक भेज दे। साधु नहीं है यह आदमी, क्योंकि आपकी स्वतंत्रता पर गहन बाधा डाल रहा है, चेष्टा कर रहा है।
साधुओं के पास जाओ तो उनके पास बात ही इतनी है, ऐसा मत करो, वैसा मत करो। जैसे ही साधु के पास जाएंगे, वह आपकी स्वतंत्रता को छीनने की चेष्टा में संलग्न हो जाएगा। उसको वह कहता है, व्रत दे रहा हूं। कौन किसको व्रत दे सकता है? इसीलिए साधुओं के पास जाने में डर लगता है लोगों को, कि वहां गए तो यह छोड़ दो, यह पकड़ लो। ऐसा मत करो, वैसा मत करो; यह नियम ले लो।
मगर सारी चेष्टा का मतलब क्या है
कि साधु आपको बरदाश्त नहीं कर सकता, कि आप जैसे हैं। आप में फर्क करेगा, आपके पंख काटेगा, आपकी शक्ल-सूरत में थोड़ा सा हिसाब-किताब बांटेगा। तब, आप जैसे हैं इसकी परम स्वतंत्रता का कोई समादर साधु के पास नहीं है। और जिसके पास आपकी स्वतंत्रता का समादर नहीं है, वह साधु कहां? साधुता का मतलब ही यह है कि मैं कौन हूं जो बाधा दूं। मुझे जो ठीक लगता है वह मैं निवेदन कर सकता हूं, आग्रह नहीं।
महावीर ने कहा है, साधु उपदेश दे सकता है, आदेश नहीं। उपदेश का मतलब अलग होता है, आदेश का मतलब अलग। उपदेश का मतलब होता है, ऐसा मुझे ठीक लगता है, वह मैं कहता हूं। आदेश का मतलब है, ऐसा ठीक है, तुम भी करो। मुझे जो ठीक लगता है वह जरूरी नहीं कि ठीक हो। यह मेरा लगना है। मेरे लगने की क्या गारंटी है? मेरे लगने का मूल्य क्या है? यह मेरी रुचि है, यह मेरा भाव है। यह परम सत्य होगा, यह मैं कैसे कहूं?
असाधुता वहीं से शुरू होती है जहां मैं कहता हूं, मेरा सत्य तुम्हारा भी सत्य है, बस असाधुता शुरू हो गई, हिंसा शुरू हो गई। जब तक मैं कहता हूं, मेरा सत्य मेरा सत्य है। निवेदन करता हूं कि मुझे क्या ठीक लगता है। शायद तुम्हारे काम आ जाए, शायद काम न भी आए, शायद तुम्हें सहयोगी हो, शायद तुम्हें बाधा बन जाए। सोच-समझ कर, अप्रमाद से, होशपूर्वक, तुम्हें जैसा लगे करना। आदेश मैं नहीं दे सकता हूं। लेकिन जब मैं आदेश देता हूं तब उसका मतलब हुआ कि मैं कह रहा हूं, मेरा सत्य सार्वभौम सत्य है, माइ ट्रूथ मींस दि ट्रूथ, मेरा जो सत्य है वही सत्य है, और कोई सत्य नहीं है। अगर मेरे सत्य के विपरीत किसी का सत्य है तो वह असत्य है, उसे छोड़ना होगा। अगर उसे नहीं छोड़ते हो तो नरक जाना पड़ेगा, वह नरक की व्यवस्था मेरी है। जो मुझे नहीं मानेगा वह नरक जाएगा, यह उसका अर्थ है। जो मुझे नहीं मानेगा वह आग में सड़ेगा, इसका यह अर्थ है। जो मुझे मानेगा उसके लिए स्वर्ग का आश्र्वासन है, उसे स्वर्ग के सुख हैं।
यह क्या हुआ? यह साधु का भाव न हुआ। यह असाधु हो गया आदमी। यह हिंसा हो गई।
महावीर की अहिंसा गुह्य है, इसोटेरिक है, गुप्त है। अहिंसा का मतलब यह है, यह स्वीकृति कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा है, उससे नीचे नहीं। यह अहिंसा का अर्थ है। अहिंसा का अर्थ है कि मैं तुमसे ऐसा व्यवहार करूंगा कि तुम परमात्मा हो, इससे कम नहीं। और मैं अपने को तुम्हारे ऊपर थोपूंगा नहीं। और अगर तुम मेरे विपरीत जाते हो, तो तुम्हें नरक में नहीं डाल दूंगा। और तुम अनुकूल आते हो तो तुम्हारे लिए स्वर्ग का आयोजन नहीं करूंगा। तुम अनुकूल आते हो या प्रतिकूल, यह तुम्हारा अपना निर्णय है, और मेरा कोई भाव इस निर्णय पर आरोपित नहीं होगा।
तो अहिंसा साधते वक्त अप्रमाद अपने आप सध जाएगा। तो चाहे कोई अहिंसा से शुरू करे, अलोभ से शुरू करे, अक्रोध से शुरू करे, वह अप्रमाद पर उसे जाना ही होगा। वह अंडे से शुरू करे, मुर्गी तक उसे जाना ही होगा। और चाहे कोई अप्रमाद से शुरू करे, वह अप्रमाद से शुरू करेगा, हिंसा गिरनी शुरू हो जाएगी। क्योंकि अप्रमाद में कैसे, होश में कैसे, हिंसा टिक सकती है? हिंसा गिरेगी, परिग्रह गिरेगा, पाप हटेगा, पुण्य अपने आप प्रवेश करने लगेगा।
तो जब मुझसे कोई पूछता है कि इसमें महावीर की विधि क्या? वे बाहर पर जोर देते हैं कि भीतर पर? महावीर इस बात पर जोर देते हैं कि तुम कहीं से भी शुरू करो, दोनों सदा मौजूद रहेंगे। और अगर एक मौजूद रहता है तो विधि में भूल है और खतरा है। अगर कोई व्यक्ति कहता है, मैं तो भीतर से ही, मैं बाहर से ध्यान नहीं दूंगा, वह अपने को धोखा दे सकता है। क्योंकि वह बाहर हिंसा कर सकता है और कहे कि मैं तो भीतर से अहिंसक हूं। ऐसे बहुत लोग हैं जो भीतर से साधु और बाहर से असाधु हैं। और वे कहते चले जाएंगे, यह तो मामला बाहर का है। बाहर में क्या रखा हुआ है, बाहर तो माया है।
एक बौद्ध भिक्षु कहता था कि सारा संसार माया है। बाहर क्या रखा है? है ही नहीं कुछ, सपना है। इसलिए वेश्या के घर में भी ठहर जाएगा, शराब भी पी लेगा। क्योंकि अगर सपना ही है तो पानी और शराब में फर्क कैसे हो सकता है? अगर शराब में कुछ वास्तविकता है, तो ही फर्क हो सकता है। नहीं तो पानी में और शराब में क्या फर्क है, अगर सब माया है? तो आपको मैं मारूं कि जिलाऊं, कि जहर दूं, कि दवा दूं, क्या फर्क है? फर्क तो सच्चाइयों में होता है। दो झूठ बराबर झूठ होते हैं। और अगर आप कहते हैं, एक झूठ थोड़ा कम झूठ है, तो उसका मतलब है कि वह थोड़ा सच हो गया।
अगर सारा जगत माया है तो ठीक है। तो वह जो मन में आए करता था। एक सम्राट ने उससे अपने द्वार पर बुलाया। विवाद में जीतना उस आदमी से मुश्किल था। असल में विवाद की जिसे कुशलता आती हो, उससे जीतना किसी भी हालत में मुश्किल है। क्योंकि तर्क वेश्या की तरह है। कोई भी उसका उपयोग कर ले सकता है। और यह तर्क गहन है कि सारा जगत माया है। सिद्ध भी कैसे करो कि नहीं है।
पर सम्राट था बुद्धू, इसलिए कभी-कभी बुद्धू तार्किकों को बड़ी मुश्किल में डाल देते हैं। तो उसने कहा, अच्छा! सब माया है? तो उसने कहा, अपना जो पागल हाथी है, उसे ले आओ। वह भिक्षु घबड़ाया कि यह झंझट होगी। तर्क का मामला था तो वह सिद्ध कर लेता था। तर्क के मामले में आप जीत नहीं सकते, जो आदमी कहता है कि सब असत्य है, उसको कैसे सिद्ध करिएगा कि सत्य है? क्या उपाय है? कोई उपाय नहीं है।
उस सम्राट ने कहा कि बैठें, अभी पता चलता है। वह पागल हाथी बुला कर उसने महल के आंगन में छोड़ दिया और भिक्षु को खींचने लगे सिपाही, तो वह चिल्लाने लगा। कि यह क्या कर रहे हैं! विचार से विचार करिए।
पर सम्राट ने कहा कि हाथी पागल है। हमारी समझ में वास्तविकता है यह, तुम्हारी समझ में तो सब माया है। माया के हाथी से ऐसा भय क्या?
उस भिक्षु ने कहा: क्या मेरी जान लोगे?
उस सम्राट ने कहा कि माया का हाथी है, क्या जान ले पाएगा!
भिक्षु चिल्लाता रहा। जबरदस्ती उसे आंगन में छोड़ दिया। भिक्षु भागता है। और हाथी उसके पीछे चिंघाड़ता है। और भिक्षु चिल्लाता है कि क्षमा करो, वापस लेता हूं अपना सिद्धांत। अब कभी ऐसी भूल की बात न करूंगा। ऐसा मैंने कभी देखा नहीं था कि तर्क का और यह! बहुत रोता-गिड़गिड़ाता है, आंसू बहने लगते हैं। सम्राट उसे उठवा लेता है और कहता है, अब शांत होकर बैठ जाएं, भूल जाएं अपनी बात।
भिक्षु ने कहा: कौन सी बात?
‘वह जो अभी आप माफी मांग रहे थे, चिल्ला रहे थे।’
भिक्षु ने कहा: सब माया है--वह रोना, चिल्लाना, तुम्हारा बचाना।
जहां तक तर्क का मामला है, उससे बचना मुश्किल है।
सम्राट ने कहा: क्या मतलब?
उसने कहा: लेकिन दुबारा उस झंझट को खड़ा करने की...।
अगर पागल हाथी फिर पागल मालूम पड़ता है, तो फर्क है। भेद अगर दिखाई पड़ता है जरा सा भी, तो फर्क है। तो फिर हम अपने को धोखा दे सकते हैं। हम कह सकते हैं कि बाहर की तो हमें कोई चिंता नहीं है। बाहर तो सब ठीक है, असली चीज भीतर है। लेकिन अगर असली चीज भीतर है, तो उसके प्रमाण बाहर भी मिलेंगे, क्योंकि भीतर बाहर आता रहता है, प्रतिपल। वह जो झरना भीतर छिपा है वह बाहर छलांग लगा कर उचकता रहता है। बाहर फेंकता रहता है अपनी धारा को। अगर कोई झरना यह कहे, कि हम तो भीतर-भीतर हैं, बाहर कुछ भी नहीं, बाहर रेगिस्तान है, तो झरना झूठा है। झरने का मतलब ही क्या जो फूटे न। फूटे तभी झरना है।
अगर भीतर मेरे अप्रमाद है तो बाहर परिणाम होंगे। बाहर हिंसा गिरेगी। अगर भीतर मेरे अप्रमाद है, तो बाहर लोभ गिरेगा। अगर भीतर मेरे अप्रमाद है तो बाहर, वह जो आसक्ति है, मोह है, क्षीण होगा।
भीतर की बात करके आदमी अपने को धोखा दे सकता है। बाहर से भी आदमी अपने को धोखा दे सकता है। बाहर इंतजाम कर लेता है वह कि मैं अहिंसा पालन करूंगा, लोभ नहीं करूंगा, दान करूंगा और भीतर प्रमाद घना होता है। बेहोशी घनी होती है। बाहर सम्हल कर चलने लगता है। चींटी पर पैर नहीं रखता। लेकिन भीतर दूसरे को दुख-सुख पहुंचाने का भाव घना होता है। वह साधु हो जाता है, लेकिन नरक और स्वर्ग की बातें करता रहता है। वह साधु हो जाता है, लेकिन दूसरों को ऐसे देखता है जैसे वे कीड़े-मकोड़े हों।
शायद साधु होने का गहरा मजा यही है कि दूसरे कीड़े-मकोड़े दिखाई पड़ने लगते हैं। और हम सभी एक-दूसरे को कीड़ा-मकोड़ा देखना चाहते हैं। तरकीबें अलग-अलग हैं। कोई एक बहुत बड़ा मकान बना कर उस पर खड़ा हो जाता है, झोपड़ों के लोग कीड़े-मकोड़े हो जाते हैं। कोई आदमी चढ़ जाता है राजधानी के शिखर पर, भीड़ कीड़ा-मकोड़ा हो जाती है। एक आदमी त्याग के शिखर पर खड़ा हो जाता है, भोगी कीड़े-मकोड़े हो जाते हैं। और बड़ा मजा यह है कि झोपड़े वाला आदमी तो शायद अकड़ कर भी चल सके महल वाले के सामने कि तुम शोषक, हत्यारे, हिंसक। भीड़ का आदमी राजनीति के शिखर पर खड़े आदमी के सामने अकड़ कर भी चल सके कि तुम बेईमान, झूठे; लेकिन भोगी, त्यागी के सामने अकड़ कर नहीं चल सकता।
तो त्याग बारीक से बारीक अकड़ है, जिसका जवाब देना मुश्किल है। भोगी को खुद ही लगता है, हम गलत, तुम ठीक। यह भोगी को इसीलिए लगता है कि त्यागी हजारों साल से उसको समझा रहे हैं, बिल्ट इन कंडीशनिंग कर दी है उसके दिमाग में कि तुम गलत हो। उसको भी लगता है कि गलत तो मैं हूं ही। त्यागी ठीक, त्यागी शिखर पर हो जाता है, भोगी नीचे पड़ जाता है। सारी दुनिया में एक चेष्टा चलती रहती है कि मैं दूसरे से ऊपर, यही हिंसा है।
तो चींटी से बच कर चलने में बहुत कठिनाई नहीं है। अगर जो चींटी से बच कर नहीं चलता, उसको मैं देखता हूं कि वह कीड़ा-मकोड़ा है, तो कोई कठिनाई नहीं है, चींटी से बच कर चलने में अगर यही मजा है कि जो बच कर नहीं चलते, उनको मैं पापी की तरह देख सकता हूं, तो चींटी से बचा जा सकता है। लेकिन यह हिंसा और गहरी हो गई। चींटी का मर जाना, उसको बेहोशी से दबा देना, हिंसा थी, अप्रमाद था। यह अप्रमाद और गहरा हो गया। इसने रास्ता बदल दिया, रुख बदल दिया। बीमारी दूसरी तरफ चली गई, लेकिन मौजूद है, और गहरी हो गई।
चाहे तो कोई बाहर के आचरण को ठोक-पीट कर ठीक कर ले, और भीतर बेहोश बना रहे। चाहे तो कोई भीतर बेहोशी न टूटे, और बाहर के आचरण में जैसा है वैसा ही चलता रहे, जरा भी न बदले, धोखा दे सकता है।
महावीर जैसे व्यक्ति अखंड व्यक्ति को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, पूरा व्यक्ति ही बदलना है। बाहर और भीतर दो टुकड़े नहीं हैं। एक धारा के अंग हैं। कहीं से भी शुरू करो, दूसरा भी अंतर्निविष्ट है, दूसरा भी अंतर्निहित है।
अब सूत्र:
‘रस वाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसी ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी।’
अप्रमाद की बात कही, वह भीतर की बात थी। तत्काल रस की बात कही, वह बाहर की बात है। कहा कि भीतर जागते रहो, होश सम्हाले रखो, और फिर तत्काल यह कहा कि बाहर से भी वही लो अपने भीतर जो बेहोशी न बढ़ाता हो। नहीं तो एक आदमी ध्यान करता रहे और शराब पीता रहे, तो यह ऐसे हुआ कि एक कदम आगे गए और एक कदम पीछे आए। फिर जिंदगी के आखिर में पाए कि वहीं खड़े हैं। खड़े नहीं, गिर पड़े हैं, वहीं जहां पैदा हुए थे। तो इसमें हैरानी न होगी, लेकिन हम सब यही कर रहे हैं। एक कदम जाते हैं, तत्काल एक कदम उलटा वापस लौट आते हैं। तो इससे बेहतर है, जाओ ही मत। शक्ति और श्रम नष्ट मत करो।
अगर भीतर अप्रमाद की साधना चल रही है, भीतर ध्यान क
ी साधना चल रही है, तो महावीर कहते हैं, फिर ऐसे पदार्थ मत लो जो बेहोशी बढ़ाते हैं। और पदार्थ ऐसे हैं जो बेहोशी बढ़ाते हैं। मादक हैं। ऐसे पदार्थ हैं जो हमारे भीतर के प्रमाद को सहारा देते हैं।
इसलिए आप देखें--एक आदमी शराब पी लेता है, तत्काल दूसरा आदमी हो जाता है, इसलिए तो शराबी को भी शराब का रस है, कि एक ही आदमी रहते-रहते ऊब जाता है, अपने से ऊब जाता है। जब शराब पी लेता है तो जरा मजा आता है। नई जिंदगी हो जाती है, नया आदमी हो जाता है, यह नया आदमी कौन है?
यह शराब से नहीं आता, यह नया आदमी भीतर छिपा था। शराब इसको सिर्फ सहारा दे सकती है। शराब आपके भीतर कुछ पैदा नहीं करती। जो छिपा है, उसको उकसा सकती है। जगा सकती है। इसलिए बहुत मजे की घटनाएं घटती हैं।
एक अदामी शराब पीकर उदास हो जाता है। एक आदमी शराब पीकर प्रसन्न हो जाता है, एक आदमी गाली-गलौज बकने लगता है, एक आदमी बिलकुल मौन ही हो जाता है। मौन साध लेता है। एक आदमी नाचने-कूदने लगता है और एक आदमी बिलकुल शिथिल होकर मुर्दा हो जाता है, सोने की तैयारी करने लगता है। शराब एक, फर्क इतने! शराब कुछ भी नहीं करती। जो आदमी के भीतर पड़ा है, उसको भर उत्तेजित करती है।
तो अक्सर उलटा हो जाता है। जो आदमी आमतौर से हंसता रहता है वह शराब पीकर उदास हो जाता है, क्योंकि हंसी झूठी थी, ऊपर-ऊपर थी, उदासी भीतर थी, असली थी। शराब ने झूठ को हटा दिया। शराब सत्य की बड़ी खोजी है। शराब ने असत्य को हटा दिया, वह जो हंसते रहते थे बन-बन कर। अब उतना भी होश रखना मुश्किल है कि बन कर हंस सकें। अब बनावट नहीं टिकेगी। हंसी खो जाएगी। और वह जो हंसी के नीचे छिपा रखा था, अम्बार लगा रखा था उदासी का, दुख का, आंसुओं का, वह बाहर आने लगेंगे।
इसलिए गुरजिएफ के पास जब भी कोई जाता था, पंद्रह दिन तो वह धुआंधार शराब पिलाता था। सिर्फ उसकी डाइग्नोसिस, उसके निदान के लिए। पंद्रह दिन वह उसे शराब पिलाता जाता था, जब तक कि उसे बेहोश न कर दे इतना कि जो उसने ऊपर-ऊपर से थोपा है वह टूट जाए। और जो भीतर-भीतर है वह बाहर आने लगे। तब वह उसका निरीक्षण करता।
गुरजिएफ ने कहा है कि जब तक कोई साधक मेरे पास आकर पंद्रह दिन जितनी शराब मैं कहूं, उतना पीने को राजी न हो, तब तक मैं साधना शुरू नहीं करता। क्योंकि मुझे असली आदमी का पता ही नहीं चलता कि असली आदमी है कौन। जो वह बताता है, मैं हूं, वह, वह है नहीं। उस पर मैं मेहनत करूं, वह बेकार जाएगी, वह पानी पर खींची गई लकीरें सिद्ध होंगी। और जो वह है, उसका उसको भी पता नहीं, उसको वह दबा चुका है जन्मों-जन्मों। उसका उसे भी पता नहीं कि वह कौन है।
इधर मुझे भी निरंतर यह अनुभव आता है, एक आदमी आकर मुझे कहता है कि यह मेरी तकलीफ है। वह उसकी तकलीफ ही नहीं है। वह कहता है, यह मेरा रोग है, वह उसका रोग ही नहीं है। वह समझता है कि वह उसका रोग है। यह रोग उसकी पर्त का रोग है, और पर्त वह है नहीं। पर्त उसने बना ली है।
एक आदमी आता है और कहे कि मेरी कमीज पर यह दाग लगा है, यह मेरी आत्मा का दाग है। अब इसको मैं धोने में लग जाऊं, यह धुल भी जाए तो भी आत्मा नहीं धुलेगी क्योंकि यह दाग कमीज पर था, आत्मा पर था नहीं। यह न भी धुले, तो भी आत्मा पर था नहीं है। इस आदमी को मुझे नग्न करके देखना पड़ेगा कि इसकी आत्मा पर दाग कहां है। उसको धोने में ही कोई सार है, इसकी कमीज को धोने में समय गंवाना व्यर्थ है।
गुरजिएफ पंद्रह दिन शराब पिलाता, पूरी तरह बेहोश कर देता, डुबा देता बुरी तरह। और जिसने कभी नहीं पी हो, वह बिलकुल मतवाला हो जाता, बिलकुल पागल हो जाता। तब वह अध्ययन करता उस आदमी का, कि यह आदमी असलियत में क्या है।
फ्रायड जिन लोगों का अध्ययन करता, वह उनसे कहता कि अपने सपने बताओ, और बातें नहीं चाहिए। अपने सिद्धांत मत बताओ। अपनी फिलॉसफी अपने पास रखो, सिर्फ अपने सपने बताओ। जब पहली दफे फ्रायड ने सपनों पर खोज शुरू की, तो उसने अनुभव किया कि सपने में असली आदमी प्रकट होता है। ऊपरी चेहरे झूठे हैं।
एक आदमी को देखें, अपने बाप के पैर छू रहा है, और सपने में बाप की हत्या कर रहा है। आप आमतौर से यह सोचेंगे कि सपना तो सपना है, असली तो वही है, वह जो सुबह हम रोज पैर छूते हैं। वह असली नहीं है, ध्यान रख लें। सपना आपकी असलियत से ज्यादा असली हो गया है, क्योंकि आप बिलकुल झूठे हैं। वह जो सुबह आप पैर छूते हैं पिता का, वह सिर्फ सपने में जो असली काम किया, उसका पश्र्चाताप है। सपना असली है। क्यों? क्योंकि सपने में धोखा देने में अभी आप कुशल नहीं हो पाए। सपना गहरा है, बेहोश है। आप का जो होश है, उस वक्त आप आदर दिखा रहे हैं। आपका जो होश है, उस वक्त पत्नी कह रही है पति से कि तुम मेरे परमात्मा हो, और सपने में उसे दूसरा पति और दूसरा परमात्मा दिखाई पड़ रहा है। वह कहती है, यह तो सब सपना है।
बाकी यह सपना ज्यादा गहरा है। क्योंकि सपने में न सिद्धांत काम आते हैं, न समाज काम आता है, न सिखावन काम आती है। सपने में तो वह जो असली मन है, अचेतन, वह प्रकट होता है। इसलिए फ्रायड ने कहा कि अगर असली आदमी को जानना है तो सपनों का अध्ययन जरूरी है। बात एक ही है।
गुरजिएफ ने कहा है कि शराब पिला कर उघाड़ लेंगे, अनकांशस को, अचेतन को। उसने कहा कि हम आपका सपना; गुरजिएफ का मेथड ज्यादा तेज है। पंद्रह दिन में पता चल जाता है। फ्रायड के मेथड में पांच साल लग जाते हैं। पांच साल सपनों का अध्ययन करना पड़ेगा तब वह नतीजा निकालेगा कि तुम आदमी कैसे हो, तुम्हारे भीतर असलियत क्या है, तुम्हारा मूल रोग क्या है? लेकिन यह निदान बहुत लंबा हो गया।
महावीर कहते हैं कि जो भी हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह भीतर किसी चीज को पैदा नहीं कर सकता, लेकिन भीतर अगर कोई चीज पड़ी है तो उसके लिए सहयोगी हो सकता है, या विरोधी हो सकता है।
तो जो आदमी भीतर अप्रमाद की साधना करने में लगा है, जो इस साधना में लगा है कि मैं होश को जगा लूं, वह साथ में शराब पीता रहे और होश जगाने की कोशिश करता रहे, सांझ शराब पी ले और सुबह प्रार्थना करे और पूजा करे और ध्यान करे, वह आदमी असंगत है। अपने ही साथ उलटे काम कर रहा है, कंट्राडिक्ट्री है। वह आदमी कभी कहीं पहुंचेगा नहीं। उसकी गाड़ी का एक बैल एक तरफ जा रहा है, दूसरा बैल दूसरी तरफ जा रहा है। एक चक्का एक तरफ जा रहा है, दूसरा चक्का दूसरी तरफ जा रहा है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्रा में था। जब ऊपर की बर्थ पर सोने लगा तो उसने नीचे के आदमी से पूछा कि मैं यह तो पूछना ही भूल गया कि आप कहां जा रहे हैं? उस नीचे के आदमी ने कहा कि मैं मुंबई जा रहा हूं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: गजब! विज्ञान का चमत्कार! मैं कलकत्ता जा रहा हूं, एक ही गाड़ी में हम दोनों! विज्ञान का चमत्कार देखो कि नीचे की बर्थ मुंबई जा रही है, ऊपर की बर्थ कलकत्ता जा रही है।
और मुल्ला शान से सो गया।
मुल्ला पर हमें हंसी आएगी, लेकिन हमारी जिंदगी ऐसी ही है; एक बर्थ मुंबई जा रही है, एक कलकत्ता जा रही है। आदमी का चमत्कार देखो। आप विरोधी काम किए चले जा रहे हैं, पूरे वक्त। बड़ा मजा यह है कि आप जो भी कर रहे हैं, करीब-करीब उससे विपरीत भी कर रहे हैं। और जब तक विपरीत नहीं करते, तब तक भीतर एक बेचैनी मालूम पड़ती है। विपरीत कर लेते हैं, सब ठीक हो जाता है।
एक आदमी क्रोध करता है, फिर पश्र्चात्ताप करता है। आप आमतौर से सोचते होंगे कि पश्र्चात्ताप करने वाला आदमी अच्छा आदमी है। लेकिन आपको पता नहीं, एक बर्थ कलकत्ता जा रही है, एक मुंबई जा रही है। क्रोध करता है, पश्र्चात्ताप करता है। फिर क्रोध करता है, फिर पश्र्चात्ताप करता है। जिंदगी भर यही चलता है। कभी आपने खयाल किया? और हमेशा सोचता है, अब क्रोध न करूंगा। क्रोध करके पश्र्चात्ताप कर लेता है। होता क्या है? आमतौर से आदमी सोचता है, क्रोध करके पश्र्चात्ताप कर लिया, अच्छा ही हुआ, अब कभी क्रोध न करेंगे। लेकिन यह तो बहुत बार पहले भी हो चुका है, हर बार क्रोध किया, पश्र्चात्ताप किया, पश्र्चात्ताप से क्रोध कटता नहीं।
सच्चाई उलटी है। सच्चाई यह है कि पश्र्चात्ताप से क्रोध बचता है, कटता नहीं। क्योंकि जब आप क्रोध करते हैं तो आपकी जो अपनी प्रतिमा है, अपनी आंखों में, अच्छे आदमी की, वह खंडित हो जाती है। अरे, मैंने क्रोध किया! मैंने क्रोध किया! इतना सज्जन आदमी हूं मैं! इतना साधु चरित्र, और मैंने क्रोध किया! तो आपको पीड़ा जो अखरती है, खटकती है, अपनी प्रतिमा अपनी आंखों में गिर गई। पश्र्चात्ताप करके प्रतिमा फिर अपनी जगह खड़ी हो जाती है। फिर आप सज्जन हो जाते हैं कि मैंने पश्र्चात्ताप कर लिया। मांग ली क्षमा, मिच्छामि दुक्कड़म, निपटारा हो गया, आदमी फिर अच्छे हो गए। फिर अपनी जगह खड़ी हो गई प्रतिमा। यही प्रतिमा क्रोध करने के पहले अपनी जगह खड़ी थी, क्रोध करने से गिर गई थी। पश्र्चात्ताप ने फिर इसे खड़ा कर दिया। जहां यह क्रोध करने के पहले खड़ी थी, वहीं फिर खड़ी हो गई। अब आप फिर क्रोध करेंगे, जगह आ गई वापस, स्थान पर आ गए आप अपने।
पश्र्चात्ताप तरकीब है। जैसे मुर्गी तरकीब है अंडे की और अंडा पैदा करने की। पश्र्चात्ताप तरकीब है क्रोध की, और क्रोध करने की।
अब आप फिर क्रोध कर सकते हैं। अब आप फिर अपनी जगह आ गए। तो दो में से एक भी टूट जाए, फिर दूसरा नहीं टिक सकता। मुर्गी मर जाए तो फिर अंडा नहीं हो सकता, अंडा फूट जाए तो फिर मुर्गी नहीं हो सकती। क्रोध को तो छोड़ने की बहुत कोशिश की, अब कृपा करके इतना ही करो कि पश्र्चात्ताप ही छोड़ दो, मत करो पश्र्चात्ताप। रहने दो क्रोध को वहीं, तो आपकी प्रतिमा वापस खड़ी न हो पाएगी, और वही प्रतिमा खड़े होकर क्रोध करती है। लेकिन हम होशियार हैं। हम हर कृत्य से दूसरे कृत्य को बैलेंस कर देते हैं। तराजू को हम हमेशा सम्हाल कर रखते हैं। अच्छाई करते हैं थोड़ी, तत्काल थोड़ी बुराई कर देते हैं। थोड़ा हंसते हैं, थोड़ा रो लेते हैं; थोड़े रोते हैं, थोड़े हंस लेते हैं। सम्हाले रहते हैं अपने को।
हम नटों की तरह हैं जो रस्सियों पर चल रहे हैं, पूरे वक्त सम्हाल रहे हैं। बाएं झुकते हैं, दाएं झुक जाते हैं। दाएं गिरने लगते हैं, बाएं झुक जाते हैं। अपने को सम्हाले हुए रस्सी पर खड़े हुए हैं।
आदमी तभी पहुंचता है मंजिल तक, जब उसके जीवन की यात्रा यह इस चमत्कार से बच जाती है, कि एक बर्थ मुंबई, एक बर्थ कलकत्ता। जब आदमी एक दिशा में यात्रा करता है तो परिणाम, निष्पत्तियां, उपलब्धियां आती हैं, नहीं तो जीवन व्यर्थ हो जाता है, अपने ही हाथों व्यर्थ हो जाता है।
तो महावीर कहते हैं: ‘ऐसे रस का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए।’
महावीर बहुत ही सुविचारित बोलते हैं। उन्होंने ऐसा भी नहीं कहा कि सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अति हो जाएगी। कभी सेवन करने की जरूरत भी पड़ सकती है। कभी जहर भी औषधि होता है।
महावीर बहुत सुविचारित हैं। एक-एक शब्द उनका तुला हुआ है। कहीं भी वे अति नहीं करते, क्योंकि अति में हिंसा हो जाती है। वे ऐसा नहीं कहते कि ऐसा करना ही नहीं चाहिए, वे इतना ही कहते हैं कि अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए।
ध्यान रहे, औषधि की मात्रा होती है, शराब की कोई मात्रा नहीं होती। शराब का मजा ही अधिक मात्रा में है। औषधि की मात्रा होती है। औषधि मात्रा से ली जाती है, शराब कोई मात्रा से नहीं ली जाती। और जितनी मात्रा से आप लेते हैं, कल मात्रा बढ़ानी पड़ती है, क्योंकि उतने आप आदी होते चले जाते हैं। जितनी आप शराब पीते चले जाते हैं उतनी शराब बेकार होती चली
जाती है। फिर और पीयो, और पीयो, तो ही कुछ परिणाम होता दिखाई पड़ता है।
ध्यान रहे, अगर एक आदमी शराब पी रहा है, तो मात्रा बढ़ती जाएगी। और अगर एक आदमी शराब को दवा की तरह ले रहा है, तो मात्रा घटती जाएगी। क्योंकि जैसे-जैसे बीमारी कम होगी, मात्रा कम होगी। और जिस दिन बीमारी नहीं होगी, मात्रा विलीन हो जाएगी। और अगर एक आदमी शराब नशे की तरह ले रहा है, तो मात्रा रोज बढ़ेगी। क्योंकि हर शराब बीमारी को बढ़ाएगी, और ज्यादा शराब की मांग करेगी।
मुल्ला नसरुद्दीन कहता था कि मैं कभी एक पैग से ज्यादा नहीं पीता। उसके मित्रों ने कहा: हद कर दी! झूठ की भी एक सीमा होती है। अपनी आंखों से तुम्हें पैग पर पैग ढालते देखते हैं! तो मुल्ला ने कहा: मैं तो पहला ही पीता हूं। फिर पहला पैग दूसरा पीता है, फिर दूसरा, तीसरा। अपना जिम्मा एक का ही है। उससे सिलसिला शुरू हो जाता है। बाकी के हम जिम्मेवार नहीं हैं। हम अपने होश में एक ही पीते हैं। फिर होश ही कहां, फिर हम कहां, फिर पीने वाला कहां, फिर तो वह शराब ही शराब को पीए चली जाती है।
वह ठीक कह रहा है। बेहोशी का पहला कदम आप उठाते हैं। फिर पहला कदम दूसरा कदम उठाता है, फिर दूसरा तीसरा उठाता है।
जिसे बेहोशी को रोकना हो, उसे पहले कदम पर ही रुक जाना चाहिए, क्योंकि वहीं उसके निर्णय की जरूरत है। दूसरे कदम पर रुकना मुश्किल है। तीसरे पर असंभव हो जाएगा। हर रोग हमारे मानसिक जीवन में पहले कदम पर ही रोका जा सकता है। दूसरे कदम पर रोकना बहुत मुश्किल है। जितना हम आगे बढ़ते हैं उतना ही रोग भयंकर होता चला जाता है और जो पहले पर ही नहीं रोक पाया, वह अगर सोचता हो कि तीसरे पर रोक लेंगे तो वह अपने को धोखा दे रहा है। क्योंकि पहले पर वह वजनी था, ताकतवर था, तब नहीं रोक पाया, अब तीसरे पर रोकेगा, जब कमजोर हो जाएगा!
इसलिए महावीर कहते हैं: ‘अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं। और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसे ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी।’
लेकिन हम तो चाहते हैं कि लोग हमारे चारों तरफ दौड़े हुए आएं, हम तो चाहते हैं कि स्वादिष्ट फल बन जाएं हम, लदे हुए वृक्ष। सारे पक्षी हम पर ही डेरा करें। तो जहां नहीं भी हैं फल, वहां हम झूठे नकली फल लटका देते हैं ताकि वृक्ष पर दौड़े हुए लोग आएं। पक्षी तो धोखा नहीं खाते नकली फलों से, आदमी धोखा खाते हैं।
हर आदमी बाजार में खड़ा है अपने को रसीला बनाए हुए कि चारों तरफ से लोग दौड़ें और मधुमक्खियों की तरह उस पर छा जाएं। जब तक किसी को ऐसा न लगे कि मैं बहुत लोगों को पागल कर पाता हूं तब तक आनंद ही नहीं मालूम होता है जीवन में। जब भीड़ चारों तरफ से दौड़ने लगे तब आपको लगता है कि आप मैग्नेट हो गए, करिश्मैटिक हो गए। अब आप चमत्कारी हैं।
राजनीतिक का रस यह है, नेता का रस यह है कि लोग उसकी तरफ दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं; दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं। अभिनेता का, अभिनेत्री का रस यह है कि लोग उसकी तरफ दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं।
तो हम तो अपने को एक मादक बिंदु बनाना चाहते हैं, जिसमें चारों तरफ, जिसके व्यक्तित्व में शराब हो और खींच ले। और महावीर कहते हैं कि जो दूसरे को खींचने जाएगा, वह पहले ही दूसरों से खिंच चुका है। जो दूसरों के आकर्षण पर जीएगा वह दूसरों से आकर्षित है। और जो अपने भीतर मादकता भरेगा, बेहोशी भरेगा, लोग उसकी तरफ खिंचेंगे जरूर, लेकिन वह अपने को खो रहा है और डुबा रहा है। और एक दिन रिक्त हो जाएगा और जीवन के अवसर से चूक जाएगा।
निश्र्चित ही, एक स्त्री जो होशपूर्ण हो, कम लोगों को आकर्षित करेगी। एक स्त्री जो मदमत्त हो, ज्यादा लोगों को आकर्षित करेगी। क्योंकि मदमत्त स्त्री पशु जैसी हो जाएगी--सारी सभ्यता, सारा संस्कार, सारा जो ऊपर था, वह सब टूट जाएगा। वह पशुवत हो जाएगी। एक पुरुष भी, जो मदमत्त हो, ज्यादा लोगों को आकर्षित, ज्यादा स्त्रियों को आकर्षित कर लेगा, क्योंकि वह पशुवत हो जाएगा। उसमें ठीक पशुता जैसी गति आ जाएगी। और सब वासनाएं पशु जैसी हों तो ज्यादा रसपूर्ण हो जाती हैं। इसलिए जिन मुल्कों में भी कामवासना प्रगाढ़ हो जाएगी, उन मुल्कों में शराब भी प्रगाढ़ हो जाएगी। सच तो यह है कि फिर बिना शराब पीए कामवासना में उतरना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि वह थोड़ी सी जो समझ है, वह भी बाधा डालती है। शराब पीकर आदमी फिर ठीक पशुवत व्यवहार कर सकता है।
यह जो हमारी वृत्ति है कि हम किसी को आकर्षित करें, अगर आप आकर्षित करना चाहते हैं किसी को, तो आपको किसी न किसी मामले में मदमत्त होना चाहिए। जो राजनीतिज्ञ नेता पागल की तरह बोलता है, जो पागल की तरह आश्र्वासन देता है, जो कहता है कि कल मेरे हाथ में ताकत होगी तो स्वर्ग आ जाएगा पृथ्वी पर, वह ज्यादा लोगों को आकर्षित करता है। जो समझदारी की बातें कहता है, उससे कोई आकर्षित नहीं होता। जिस अभिनेत्री की आंखों से शराब आपकी तरफ बहती हुई मालूम पड़ती है, वह आकर्षित करती है। अभिनेत्री के पास बुद्ध जैसी आंख हो, तो आप पागल जैसे गए हों तो शांत होकर घर लौट आएंगे। उसके पास आंख चाहिए जिसमें शराब का भाव हो। मदहोश आंख चाहिए। उसके चेहरे पर जो रौनक हो, वह आपको जगाती न हो, सुलाती हो।
जहां भी हमें बेहोशी मिलती है, वहां हमें रस आता है। जिस चीज को भी देख कर आप अपने को भूल जाते हैं, समझना कि वहां शराब है। जिस चीज को भी देख कर आप अपने को भूल जाते हैं, अगर एक अभिनेत्री को देख कर आपको अपना खयाल नहीं रह जाता, तो आप समझना कि वहां बेहोशी है, शराब है। और शराब ही आपको खींच रही है। शराब, शराब की बोतलों में ही नहीं होती, आंखों में भी होती है, वस्त्रों में भी होती है, चेहरों में भी होती है, हाथों में भी होती है, चमड़ी में भी होती है। शराब बड़ी व्यापक घटना है।
महावीर कहते हैं कि जो व्यक्ति इस तरह के रसों का सेवन करता है जो मादक हैं, और जो अपने भीतर की मादकता को मिटाता नहीं, बढ़ाता है, उसकी तरफ वासनाएं ऐसे ही दौड़ने लगेंगी जैसे फल भरे वृक्ष के पास पक्षी दौड़ आते हैं। और जो व्यक्ति अपने पास वासनाएं बुला रहा है वह अपने हाथ से अपने बंधन आकर्षित कर रहा है। वह अपनी हथकड़ियों और अपनी बेड़ियों को निमंत्रण दे रहा है कि आओ, वह अपने हाथ से अपने कारागृहों को बुला रहा है कि आओ, और मेरे चारों तरफ निर्मित हो जाओ। वह व्यक्ति कभी मुक्त, वह व्यक्ति कभी शांत, वह व्यक्ति कभी शून्य, वह व्यक्ति कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि सत्य की पहली शर्त है, स्वतंत्रता। सत्य की पहली शर्त है, एक मुक्त भाव। और वासनाओं में कोई कैसे मुक्त हो सकता है?
‘काम-भोग अपने आप न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्वेष रूपी विकृति पैदा करते हैं, परंतु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्वेष के नाना संकल्प बना कर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है।’
यह सूत्र कीमती है।
महावीर कहते हैं कि सारा खेल कामवासना का तुम्हारा अपना है।
मैं कुंभ के मेले में था। एक मित्र मेरे साथ थे। मेला शुरू होने में अभी देर थी कुछ। हम दोनों बैठे थे गंगा के किनारे, दूर, बहुत दूर नहीं, दिखाई पड़े इतने दूर। एक महिला अपने बाल संवार रही थी स्नान करने के बाद। उसकी पीठ ही दिखाई पड़ती थी। मित्र बिलकुल पागल हो गए। बातचीत में उनका रस जाता रहा। उन्होंने मुझसे कहा कि रुकें। मैं इस स्त्री का चेहरा न देख लूं तब तक मुझे चैन न पड़ेगा। मैं जाऊं, चेहरा देख आऊं। वह गए, और वहां से बड़े उदास लौटे। वह स्त्री नहीं थी, एक साधु था जो अपने बाल संवार रहा था। गए, तब उनके पैरों की चाल, लौटे तब उनके पैरों का हाल! मगर संकोची होते, शिष्ट होते, मन में ही रख लेते, और जिंदगी भर परेशान रहते।
सच में ही पीछे से आकृति आकर्षक मालूम पड़ी थी। पर वह आकर्षण वहां था या मन में था? क्योंकि वहां जाकर पता चला कि पुरुष है, तो आकर्षण खो गया।
आकर्षण स्त्री में है या स्त्री के भाव में है? आकर्षण पुरुष में है या पुरुष के भाव में है?
गहरा आकर्षण भीतर है, उसे हम फैलाते हैं बाहर। बाहर खूंटियां हैं सिर्फ, उन पर हम टांगते हैं अपने आकर्षण को। और ऐसा भी नहीं है कि ऐसी घटना घटे, तभी पता चलता है। आज आप किसी के लिए दीवाने हैं, बड़ा रस है। और कल सब फीका हो जाता है, और आप खुद ही नहीं सोच पाते कि क्या हुआ, कल इतना रस था, आज सब फीका क्यों हो गया? व्यक्ति वही है, सब रस फीका हो गया!
मन का जो आकर्षण था, वह पुनरुक्ति नहीं मांगता। अगर व्यक्ति का ही आकर्षण हो तो वह आज भी उतना ही रहेगा, कल भी उतना था, परसों भी उतना ही रहेगा। लेकिन मन नये को मांगता है। इसलिए जिसे आज आकर्षित जाना है, पक्का समझ लेना, कल वह उतना आकर्षित नहीं रहेगा। परसों और फीका हो जाएगा। नरसों धूमिल हो जाएगा, आठ दिन बाद दिखाई भी नहीं पड़ेगा, सब खो जाएगा।
यह मन तो नये को मांगता है। पुराने में इसका रस खोने लगता है। यह मन का स्वभाव है। कुछ भूल नहीं है इसमें, सिर्फ उसका स्वभाव है। आज जो भोजन किया, कल जो भोजन किया, परसों जो भोजन किया, तो चौथे दिन घबड़ाहट हो जाएगी। मन तो ऐसा ही मांगता है; आज भी वही पत्नी है, कल भी वही पत्नी है, परसों भी वही पत्नी है। चौथे दिन मन उदास हो जाएगा। मन तो नये को मांगता है। इसलिए अगर पत्नी में आकर्षण जारी रखना है, तो नये के सब उपाय बिलकुल बंद कर देने चाहिए, तो मार-पीट कर आकर्षण चलता रहता है। इसलिए हमने विवाह के इतने इंतजाम किए हैं, ताकि बाहर कोई उपाय ही न रह जाए।
जिन मुल्कों ने बाहर के उपाय छोड़ दिए, वहां विवाह टूट रहा है। विवाह बच नहीं सकता। विवाह एक बड़ी आयोजना है, वह आयोजना ऐसी है कि पुरुष फिर किसी और स्त्री को ठीक से देख भी न पाए। स्त्री फिर किसी और पुरुष के निकट पहुंच भी न पाए। तो फिर मजबूरी में उन दोनों को हमने छोड़ दिया। उसका मतलब यह हुआ कि मुझे आज भी वही भोजन दें, कल भी वही भोजन दें, परसों भी वही भोजन दें, और अगर किसी और भोजन का कोई उपाय ही न हो, और मेरी कालकोठरी में वही भोजन मुझे उपलब्ध होता हो, तो चौथे दिन भी मैं वही भोजन करूंगा। पांचवें दिन भी करूंगा। लेकिन अगर मुझे और भोजन उपलब्ध हो सकते हों, कोई अड़चन न आती हो, कोई असुविधा न आती हो, तो नहीं करूंगा।
इसलिए एक बात पक्की है, विवाह तभी तक टिक सकता है दुनिया में, जब तक हम बाहर के सारे आकर्षणों को पूरी तरह रोक रखते हैं। और बाहर के आकर्षण में जितना आकर्षण मिलता है, उससे ज्यादा खतरा मिले, उपद्रव मिले, झंझट मिले, परेशानी मिले, तो रुक सकता है। नहीं तो विवाह टूट जाएगा। लेकिन यह विवाह जो टूट जाएगा, झूठा ही होगा। जिस दुनिया में सारा आकर्षण मिलता हो और विवाह बच जाए, तो ही समझना कि विवाह है। नहीं तो धोखा था। इसलिए जिस दिन विवाह के कोई बंधन नहीं होंगे, उसी दिन हमें पता चलेगा कि कौन पति-पत्नी हैं, उसके पहले कोई पता नहीं चल सकता--कोई उपाय नहीं पता चलने का।
मुझे क्या पसंद है, मेरा किसके साथ गहरा नाता है, आंतरिक, वह तभी पता चलेगा जब बदलने के सब उपाय हों, और बदलाहट न हो, जब बदलने के कोई उपाय ही न हों, और बदलाहट न हो तो सभी पत्नियां सतियां हैं। कोई अड़चन नहीं है, और सभी पति एक पत्नीव्रती हैं। जितना हमारे चारों तरफ खूंटियां हों, उतना ही हमें पता चलेगा कि कितना प्रोजेक्शन है, कितना हमारा मन एक खूंटी से दूसरी खूंटी, दूसरी से तीसरी पर नाचता रहता है। जो हम रस पाते हैं उस खूंटी से, वह भी
हमारा दिया हुआ दान है, यह महावीर कह रहे हैं। उससे कुछ मिलता नहीं है हमें।
एक कुत्ता है, वह एक हड्डी को मुंह में लेकर चूस रहा है। कुत्ता जब हड्डी चूसे, तो बैठ कर ध्यान करना चाहिए उस पर क्योंकि वह बड़ा गहरा काम कर रहा है, जो सभी आदमी करते हैं। कुत्ता हड्डी चूसता है, तो हड्डी में कुछ रस तो होता नहीं, लेकिन कुत्ते के खुद ही मुंह में जख्म हो जाते हैं। हड्डी चूसने से, उनसे खून निकलने लगता है। वह जो खून निकलने लगता है, वह कुत्ता समझता है, हड्डी से आ रहा है। वह खून गले में जाता है, स्वादिष्ट मालूम पड़ता है, अपना ही खून है। लेकिन कुत्ता समझे भी कैसे कि हड्डी से नहीं निकल रहा है। जब हड्डी चूसता है, तभी निकलता है। स्वभावतः तर्कयुक्त है, गणित साफ है कि जब हड्डी चूसता हूं, तभी निकलता है, हड्डी से निकलता है। लेकिन वह निकलता है अपने ही मसूढ़ों के टूट जाने से, अपने ही मुंह में घाव हो जाने से। कुत्ता मजे से हड्डी चूसता रहता है, और अपना ही खून पीता रहता है।
जब आप किसी और से रस लेते हैं, तब आप हड्डी चूस रहे हैं। रस आपके ही मन का है, अपना ही खून झरता है। किसी दूसरे से कोई रस मिलता नहीं, मिल सकता नहीं। अगर एक व्यक्ति संभोग में भी सोचता है, सुख मिल रहा है तो वह अपने ही खून झरने से मिलता है, किसी दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं है। हड्डी चूसना है। लेकिन कठिन है, न कुत्ते की समझ में आता है, न आदमी की समझ में आता है। खुद को समझना जटिल है।
महावीर कहते हैं: ‘काम-भोग अपने आप न मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं...।’
न तो सोचना कि काम-भोग से कोई समता उपलब्ध होती है, सुख उपलब्ध होता है, शांति उपलब्ध होती है। इससे विपरीत भी मत सोचना। साधु-संन्यासी यही सोचते हैं, काम-भोग से दुख उत्पन्न होता है। कठिनाई आती है, राग-द्वेष पैदा होते हैं, नरक निर्मित होता है। ध्यान रखना कि यह वही आदमी है जो कल सोचता था कि काम-भोग से स्वर्ग मिलता है। यह वही आदमी है, अब शीर्षासन करने लगा। अब यह कहता है कि काम-भोग से नरक मिलता है।
महावीर कहते हैं, काम-भोग से न स्वर्ग मिलता है, न नरक मिलता है। काम-भोग पर स्वर्ग भी तुम्हारा मन ही आरोपित करता है, काम-भोग पर तुम्हारा मन ही तुम्हारा नरक भी निर्मित करता है। तुम काम-भोग से वही पाते हो जो तुम डाल देते हो उसमें। तुम्हें वही मिलता है जो तुम्हारा ही दिया हुआ है। और तुम देना, डालना बंद कर दो तो काम-भोग विलीन हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। खूंटियां खड़ी रहें अपनी जगह, तुम अपनी वृत्तियों को उन पर टांगना बंद कर देते हो।
और जिस दिन कोई व्यक्ति यह जान लेता है कि सुख भी मेरे, दुख भी मेरे--सब भाव मेरे हैं, उस दिन व्यक्ति मुक्त हो जाता है। जब तक मुझे लगता है कि दुख किसी और से आता है, सुख किसी और से आता है, तब तक मैं परतंत्र होता हूं, निर्भर होता हूं।
मुक्ति का यही है अर्थ--जिस दिन मुझे लगता है कि सब-कुछ मेरा फैलाव है। जहां मैंने चाहा, सुख पाऊं, वहां मैंने सुख देख लिया। जहां मैंने चाहा, दुख पाऊं, वहां मैंने दुख देख लिया। जो मैंने देखा, वह मेरी आंख से गए हुए चित्र थे, जगत ने केवल पर्दे का काम किया, चित्र मेरे थे। प्रोजेक्टर मैं हूं। लेकिन प्रोजेक्टर दिखाई नहीं पड़ते। फिल्म में भी आप बैठ कर देखते हैं, प्रोजेक्टर पीठ के पीछे होता है। वह वहां छिपा रहता है, दीवाल के भीतर, छोटे से छेद से निकलते रहते हैं चित्र, दिखाई पड़ते हैं पर्दे पर, जहां होते नहीं। जहां होते हैं, वह होती है पीठ के पीछे, वहां कोई देखता नहीं। पर्दे पर कुछ होता नहीं। पर्दे पर केवल जो प्रोजेक्टर फेंकता है, वही दिखाई पड़ता है।
ध्यान रहे, जब मैं किसी स्त्री, किसी पुरुष, किसी मित्र, किसी शत्रु के प्रति किसी भाव में पड़ जाता हूं, तो प्रोजेक्टर मेरे पीछे भीतर छिपा है जहां से मैं चित्र फेंकता हूं, और दूसरा व्यक्ति केवल एक पर्दा है, जिस पर वह चित्र दिखाई पड़ता है। मैं ही दिखाई पड़ता हूं बहुत लोगों पर।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब किसी आदमी में तुम्हें कोई बुराई दिखाई पड़े, तो बहुत गौर से सोचना। ज्यादा मौके ये हैं कि वह बुराई तुम्हारी होगी। जैसे एक बाप है--अगर बाप गधा रहा हो स्कूल में, तो बेटे को गधा बिलकुल बरदाश्त नहीं कर सकेगा, बेटे को वह बुद्धिमान बनाने की कोशिश में लगा रहेगा। और जरा सा बेटा कुछ नासमझी और मूढ़ता करे, और जरा नंबर उसके कम हो जाएं तो भारी शोरगुल मचाएगा। बुद्धिमान बाप इतना नहीं मचाएगा। बुद्धू बाप जरूर मचाएगा। उसका कारण है, कि बेटा सिर्फ प्रोजेक्शन का पर्दा है। जो उनमें कम रह गया है वह उसमें पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा एक दिन अपना स्कूल से प्रमाण-पत्र लेकर लौटा सालाना परीक्षा का। मुल्ला ने बहुत हाय-तौबा मचाई, बहुत उछला-कूदा। और कहा कि बरबाद कर दिया, नाम डुबा दिया। किसी विषय में बेटा उत्तीर्ण नहीं हुआ है। अधिकतर में शून्य प्राप्त हुआ है।
लेकिन बेटा नसरुद्दीन का ही था। वह खड़ा मुस्कुराता रहा। जब बाप काफी शोरगुल कर लिया और काफी अपने को उत्तेजित कर लिया, तब उसने कहा कि जरा ठहरिए, यह प्रमाण-पत्र मेरा नहीं है, पुरानी कुरान की किताब में मिल गया है। यह आपका है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: तो ठीक, तो जो मेरे बाप ने मेरे साथ किया था वही मैं तेरे साथ करूंगा।
उसके लड़के ने पूछा: तुम्हारे बाप ने तुम्हारे साथ क्या किया था?
उसने कहा: नंगा करके चमड़ी उधेड़ दी थी।
तो ठीक! मेरा ही सही, कोई हर्जा नहीं। तेरा कहां है?
उसके बेटे ने कहा: मेरी भी हालत यही है। इसीलिए तो मैंने आपका दिखाया है कि शायद आप थोड़े नरम हो जाएं।
उसने कहा कि नरम का कोई उपाय नहीं। जो मेरे बाप ने मेरे साथ किया था, वही मैं तेरे साथ करूंगा।
जो हमें दूसरों में दिखाई पड़ता है--आपको दिखाई पड़ता है कि फलां आदमी बहुत ईर्ष्यालु है, थोड़ा खयाल करना, कहीं वह आदमी पर्दा तो नहीं है, और आपके भीतर ईर्ष्या है। आपको दिखाई पड़ता है, फलां आदमी बहुत अहंकारी है, थोड़ा खयाल करना, कहीं वह पर्दा तो नहीं है, और अहंकार आपके भीतर है। आपको लगता है, फलां आदमी बेईमान है, थोड़ा खयाल करना, थोड़ा मुड़-मुड़ कर देखना शुरू करो, ताकि प्रोजेक्टर का पता चले। पर्दे पर ही मत देखते रहो।
महावीर कहते हैं, सब पीछे से, भीतर से आ रहा है और बाहर फैल रहा है। सारा खेल तुम्हारा है। तुम्हीं हो नाटक के लेखक, तुम्हीं हो उसके पात्र, तुम्हीं हो उसके दर्शक। दूसरे को मत खोजो, अपने को खोज लो। जो इस खोज में लग जाता है, वह एक दिन मुक्त हो जाता है।
आज इतना ही।
रसा पगामं न निसेवियव्वा,
पायं रसा दित्तिकरा नराणं।
दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति,
दुमं जहा साउफलं व पक्खी।।
न कामभोगा समयं उवेन्ति,
न यावि भोगा विगइं उवेन्ति।
जे तप्पओसी य परिग्गही य,
सो तेसु मोहा विगइं उवेइ।।
दूध, दही, घी, मक्खन, मलाई, शक्कर, गुड़, खांड, तेल, मधु, मद्य, मांस आदि रस वाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसी ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी।
काम-भोग अपने आप न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्वेष रूप विकृति पैदा करते हैं, परंतु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्वेष के नाना संकल्प बना कर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है।
पहले एक-दो प्रश्र्न।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, यदि महावीर की साधना-विधि में अप्रमाद प्राथमिक है, तो क्या अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम उसके ही परिणाम हैं या वे साधना के अलग आयाम हैं?
जीवन अति जटिल है, और जीवन की बड़ी से बड़ी और गहरी से गहरी जटिलता यह है कि जो भीतर है, आंतरिक है, वह बाहर से जुड़ा है, और जो बाहर है, वह भी भीतर से संयुक्त है। यह जो सत्य की यात्रा है यह कहां से शुरू हो, यह गुह्यतम प्रश्र्न रहा है मनुष्य के इतिहास में।
हम भीतर से यात्रा शुरू करें या बाहर से, हम आचरण बदलें या अंतस, हम अपना व्यवहार बदलें या अपना चैतन्य? स्वभावतः दो विपरीत उत्तर दिए गए हैं। एक ओर हैं वे लोग, जो कहते हैं, आचरण को बदले बिना अंतस को बदलना असंभव है। उनके कहने में भी गहरा विचार है। वे यह कहते हैं कि अंतस तक हम पहुंच ही नहीं पाते, बिना आचरण को बदले। वह जो भीतर छिपा है उसका तो हमें कोई पता नहीं है, जो हमसे बाहर होता है उसका ही हमें पता है। तो जिसका हमें पता ही नहीं है उसे हम बदलेंगे कैसे? जिसका हमें पता है उसे ही हम बदल सकते हैं। हमें अपने केंद्र का तो कोई अनुभव नहीं है, परिधि का ही बोध है। हम तो वही जानते हैं जो हम करते हैं।
मनस्विदों का एक वर्ग है जो कहता है, मनुष्य उसके कर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कहलर ने कहा है: यू आर वॉट यू डू। जो करते हो, वही हो तुम, उससे ज्यादा नहीं। उससे ज्यादा की बात करनी ही नहीं चाहिए। हमारा किया हुआ ही हमारा होना है। इसलिए हम जो करते हैं, उससे ही हम निर्मित होते हैं।
सार्त्र ने भी कहा है कि प्रत्येक कृत्य तुम्हारा जन्म है, क्योंकि प्रत्येक कृत्य से तुम निर्मित होते हो, और प्रत्येक व्यक्ति प्रतिपल अपने को जन्म दे रहा है। आत्मा कोई बंधी हुई, बनी हुई चीज नहीं है, बल्कि एक लंबी श्रृंखला है निर्माण की। तो जो हम करते हैं, उससे ही वह निर्मित होती है।
आज मैं झूठ बोलता हूं तो मैं एक झूठी आत्मा निर्मित करता हूं। आज मैं चोरी करता हूं तो मैं एक चोर आत्मा निर्मित करता हूं। आज मैं हिंसा करता हूं तो मैं एक हिंसक आत्मा निर्मित करता हूं, और यह आत्मा मेरे कल के व्यवहार को प्रभावित करेगी, क्योंकि कल का व्यवहार इससे निकलेगा।
इसका मतलब यह हुआ कि हम कर्म से निर्मित करते हैं स्वयं को और फिर उस स्वयं से पुनः कर्म को निर्मित करते हैं। इस भांति अगर देखा जाए, जो कि देखने का एक ढंग है, तो फिर आचरण से शुरू करनी पड़ेगी यात्रा। तो फिर हिंसा की जगह अहिंसा चाहिए, क्रोध की जगह अक्रोध चाहिए, लोभ की जगह अलोभ चाहिए। फिर हमें अपने व्यवहार में जो-जो विकृत है, दुखद है, स्वयं से दूर ले जाने वाला है, उस सबको काट कर उसकी स्थापना करनी चाहिए जो निकट है, आत्मीय है, भीतर स्वयं के पास ले आने वाला है। नीति की समस्त दृष्टि यही है।
लेकिन, जो विपरीत हैं इस विचार के, उनका कहना है कि वह जो हमारा आचरण है वह हमारी आत्मा का निर्माण नहीं है। बल्कि, हमारी जो आत्मा है, केवल उसकी अभिव्यक्ति है।
इसे थोड़ा समझ लें।
हम जो करते हैं, उससे हम निर्मित नहीं होते, हम जो हैं, उससे ही हमारा कर्म निकलता है। मैं चोरी करता हूं, इससे चोर आत्मा निर्मित नहीं होती, मेरे पास चोर आत्मा है, इसलिए मैं चोरी करता हूं। अगर मेरे पास चोर आत्मा नहीं है तो मैं चोरी कर ही नहीं सकूंगा। कर्म आएगा कहां से? कर्म मुझसे आता है। मेरे भीतर जो छिपा है, वही आता है। एक वृक्ष में कड़वे फल लगते हैं, ये कड़वे फल वृक्ष की कड़वी आत्मा का निर्माण नहीं करते, वृक्ष के पास कड़वा बीज है, इसलिए कड़वे फल लगते हैं। व्यवहार हमारा फल है। हम जो भीतर हैं वह बाहर निकल आता है। लेकिन जो बाहर निकलता है, उससे हमारा भीतर निर्मित नहीं होता। भीतर तो हम पहले से ही मौजूद हैं। जो बाहर होता है वह हमारे भीतर का प्रतिफलन है।
इसलिए दूसरा अंतसवादी वर्ग है, जिसका कहना है, जब तक भीतरी चेतना न बदल जाए, बाहर का कर्म बदल नहीं सकता। हम सिर्फ धोखा दे सकते हैं। हम इतना बड़ा भी धोखा दे सकते हैं कि हिंसा की जगह अहिंसा का व्यवहार करने लगें। लेकिन, अंतर नहीं पड़ेगा। हमारी अहिंसा में भी हमारी हिंसा की वृत्ति मौजूद रहेगी। और हम यह भी कर सकते हैं कि क्रोध की जगह हम क्षमा और शांति को ग्रहण कर लें, लेकिन हमारी शांति और क्षमा की पर्त के नीचे क्रोध की आग जलती रहेगी। इसलिए बहुत बार ऐसा दिखाई पड़ता है कि जिस आदमी को हम कहते हैं--कभी क्रोध नहीं करता, वह सिर्फ क्रोध का एक उबलता हुआ लावा, एक ज्वालामुखी मालूम पड़ता है। करता कभी नहीं, लेकिन भरा सदा रहता है। साधुओं में, संन्यासियों में, निरंतर ऐसे लोग मिल जाएंगे जो बाहर से सब तरफ से अपने को रोके खड़े हैं, लेकिन भीतर बांध तैयार है जो किसी भी समय दीवार तोड़ कर बहने को उत्सुक है, और जो बहता है नये-नये मार्गों से।
हमने, सबने सुन रखा है दुर्वासा और इस तरह के ऋषियों के बाबत, जो क्षुद्रतम बात पर पागल हो सकते हैं, क्रोध की आग बन जाते हैं। क्या होगा दुर्वासा के जीवन में? हुआ क्या होगा?
अंतस नहीं बदला है, आचरण बदल डाला है। अंतस से लपटें निकल रही हैं और आचरण को शीतल कर लिया है। वे लपटें उबल रही हैं भीतर। वे कोई भी बहाना पाकर बाहर निकल जाती हैं। कोई भी मार्ग उनके लिए यात्रा पथ बन जाता है। जो आदमी इस दूसरे विचार दृष्टि से आचरण को बदलेगा वह दमन में पड़ जाएगा।
ये दो विचार दृष्टियां हैं। लेकिन, महावीर की विचार-दृष्टि दोनों में से कोई भी नहीं है। महावीर या बुद्ध या कृष्ण जैसे लोग मनुष्य को उसकी समग्रता में देखते हैं, इंटिग्रेटेड। हम आदमी को तोड़ कर देखते हैं, तोड़ कर देखना हमारी विधि है। इसलिए हम अक्सर पूछते हैं कि अंडा पहले या मुर्गी? प्रश्न बिलकुल सार्थक मालूम पड़ता है और लोग जवाब देने की कोशिश भी करते हैं। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, मुर्गी पहले, क्योंकि बिना मुर्गी के अंडा हो कैसे सकेगा? और कुछ लोग हैं जो उतनी ही तर्कशीलता से कहते हैं कि अंडा पहले, क्योंकि अंडे के पहले मुर्गी हो कैसे सकेगी! और ऐसा नहीं कि गैर-बुद्धिमान इस तरह के तर्क में पड़ते हैं, बड़े-बड़े विचारशील लोग, बड़े दार्शनिकों ने भी इस पर चिंतन किया है कि मुर्गी पहले कि अंडा पहले।
एक भारतीय विचारक राहुल सांकृत्यायन ने बड़ी मेहनत की है इस विचार पर कि मुर्गी पहले कि अंडा पहले। हमको भी लगता है कि प्रश्र्न तो सार्थक है, पूछा जा सकता है। लेकिन प्रश्र्न व्यर्थ है, पूछा ही नहीं जा सकता। प्रश्र्न भाषा की भूल से पैदा होता है, लिंग्विस्टिक फैलिसी है।
असल में जब हम मुर्गी कहते हैं तो अंडा आ गया। जब हम अंडा कहते हैं तो मुर्गी आ गई। हम बाहर से मुर्गी-अंडे को दो में कर लेते हैं, लेकिन मुर्गी-अंडे दो नहीं हैं। एक श्रृंखला के हिस्से हैं। हम तोड़ लेते हैं कि यह रही मुर्गी और यह रहा अंडा। जब हम कहते हैं, यह रही मुर्गी, तो मुर्गी में अंडा छिपा है। जब हम कहते हैं, यह रही मुर्गी तो यह मुर्गी अंडे से ही पैदा हुई है। यह अंडे का ही फैलाव है, यह अंडे का ही आगे का कदम है। यह अंडा ही तो मुर्गी बना है।
जब हम आपसे कहते हैं बूढ़ा, तो आपका बचपन उसमें छिपा हुआ है। आपकी जवानी उसमें छिपी हुई है। बूढ़ा आदमी जवानी लिए हुए है, बचपन लिए हुए है। जब हम कहते हैं बच्चा, तो बच्चा भी बुढ़ापा लिए हुए है, जवानी लिए हुए है। जो कल होगा, वह अभी छिपा हुआ है। जो कल हो गया, वह भी छिपा है। लेकिन हम भाषा में तोड़ लेते हैं, मुर्गी अलग मालूम पड़ती है, अंडा अलग मालूम पड़ता है। और ठीक भी है, जरूरी भी है।
अगर दुकानदार से जाकर मैं कहूं कि मुझे अंडा चाहिए और वह मुझे मुर्गी दे दे, तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाएगी। दुकानदार के लिए और मेरे लिए जरूरी है कि अंडा अलग समझा जाए, मुर्गी अलग समझी जाए। लेकिन मुर्गी और अंडे की जीवन व्यवस्था में वे अलग नहीं हैं। अंडे का अर्थ होता है, होने वाली मुर्गी। मुर्गी का अर्थ होता है, हो गया अंडा।
देकार्त ने मजाक में कहा है--यह सवाल किसी ने देकार्त को पूछा है, तो देकार्त ने कहा कि मुझे मुश्किल में मत डालो। पहले तुम मेरी मुर्गी की परिभाषा समझ लो। देकार्त ने कहा कि मुर्गी है अंडे का एक ढंग और अंडे पैदा करने का। ए मेथड ऑफ दि एग्ग टु प्रोड्यूज मोर एग्स। मुर्गी बस केवल एक विधि है अंडे की और अंडे पैदा करने की। इससे उलटा भी हम कह सकते हैं कि अंडा केवल एक विधि है मुर्गी की और मुर्गियां पैदा करने की। एक बात साफ है कि अंडा और मुर्गी अस्तित्व में दो नहीं हैं, एक श्रृंखला के दो छोर हैं। एक कोने पर अंडा है, दूसरे कोने पर मुर्गी है। जो अंडा है वही मुर्गी हो जाता है, जो मुर्गी है वही अंडा हो जाती है। इसलिए जो इसे दो में तोड़ कर हल करने की कोशिश करते हैं, वे कभी हल न कर पाएंगे। भाषा की भूल है। अस्तित्व में दोनों एक हैं, भाषा में दो हैं।
ठीक ऐसा ही बाहर और भीतर भाषा की भूल है। जिसको हम बाहर कहते हैं, वह भीतर का ही फैलाव है। जिसको हम भीतर कहते हैं, वह बाहर की ही भीतर प्रवेश कर गई नोक है। बाहर और भीतर हमारे लिए दो हैं, अस्तित्व के लिए एक हैं। वह जो आकाश आपके बाहर है मकान के और जो मकान के भीतर है, वह दो नहीं हो गया है आपकी दीवाल उठा लेने से, वह एक ही है।
मैंने अपनी गागर सागर में डाल दी है। वह जो पानी मेरी गागर में भर गया है वह, और वह जो पानी मेरी गागर के बाहर है, दो नहीं हो गया है मेरी गागर की वजह से। वह जो भीतर है, वह जो बाहर है, वह एक ही है। आकाश अखंडित है, आत्मा भी अखंडित है। आत्मा का अर्थ है: भीतर छिपा हुआ आकाश। आकाश का अर्थ है: बाहर फैली हुई आत्मा।
यह मैं क्यों कह रहा हूं? यह मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि आपको यह दिखाई पड़ जाए कि चाहे बाहर से शुरू करो, चाहे भीतर से शुरू करो। बाहर से शुरू करो तो भी भीतर से शुरू करना पड़ता है, भीतर से शुरू करो तो भी बाहर से शुरू करना पड़ता है।
महावीर जैसे व्यक्ति मनुष्य के अस्तित्व को देखते हैं उसकी अखंडता में। इसलिए महावीर ने कहा है, कहां से शुरू करो, यह गौण है, क्योंकि बाहर और भीतर जुड़े हुए हैं। अगर एक व्यक्ति अहिंसक आचरण से शुरू करे, तो भी उसको अप्रमाद साधना पड़ेगा। उसको होश साधना पड़ेगा। क्योंकि बिना होश के अहिंसा नहीं हो सकती। और अगर बिना होश के अहिंसा हो रही है तो वह महावीर की अहिंसा नहीं है, वह जैनियों की अहिंसा भला हो। महावीर की अहिंसा में तो अप्रमाद आ ही जाएगा, क्योंकि महावीर की अहिंसा का मतलब दूसरे को मारने से बचना नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि दूसरे को हम मार ही कहां सकते हैं। इसलिए जो लोग सोचते हैं, अहिंसा का अर्थ है, दूसरे को न मारना--उनसे ज्यादा मूढ़, चिंतन करने वाले लोग खोजने मुश्किल हैं। लेकिन यही समझाया जाता है कि अहिंसा का अर्थ है दूसरे को न मारना, दूसरे की हत्या न करना, दूसरे को दुख न पहुंचाना।
इसे हम थोड़ा समझ लें।
महावीर कहते हैं, आत्मा अमर है, इसलिए दूसरे को मार कैसे सकते हैं। दूसरे को मारने का उपाय कहां है? अगर मैं एक चींटी को पैर रख कर पिसल डालता हूं, तो भी मैं मार नहीं सकता। चींटी मर नहीं सकती मेरे पिसल देने से। अगर चींटी मर ही नहीं सकती, और उसकी आत्मा अमृत है, तो फिर दूसरे को मारना, नहीं मारना--ऐसी बातें करना अहिंसा के संबंध में बेमानी हैं। मार तो हम सकते ही नहीं--पहली बात। मारने का तो कोई उपाय ही नहीं है। और अगर हम मार ही सकते और आत्मा मिट जाती तो फिर आत्मा को खोजने का भी कोई उपाय नहीं था। फिर व्यर्थ थी सारी खोज। क्योंकि अगर मेरे मारने से किसी की आत्मा मर जाती है तो कोई मुझे मार डाले, मेरी आत्मा मर जाएगी। तो जो मर जाती है, उस आत्मा को पाकर भी क्या करेंगे? वह तो जरा सा पत्थर फेंक दिया जाए और खत्म हो जाएगी।
अमृत की तलाश है, इसलिए महावीर यह नहीं कह सकते कि दूसरे को मत मारो, यह अहिंसा की परिभाषा है। दूसरा तो मारा जा नहीं सकता--पहली बात। फिर अहिंसा का क्या अर्थ होगा?
महावीर के लिए अहिंसा का अर्थ है दूसरे को मारने की धारणा मत करो। दूसरे को मारा नहीं जा सकता, लेकिन दूसरे को मारने का विचार किया जा सकता है। वही विचार पाप है। दूसरे को मारने का तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन दूसरे को मारने का विचार किया जा सकता है, वही पाप है।
इसलिए महावीर ने कहा, मारो या विचार करो, बराबर है। इसलिए भाव-हिंसा को भी उतना ही मूल्य दिया, जितना वास्तविक हिंसा को। हम कहेंगे, ज्यादती है। अदालत भाव-हिंसा को नहीं पकड़ती। अगर आप कहें कि मैं एक आदमी को मारने का विचार कर रहा हूं, तो अदालत आपको सजा नहीं दे सकती। आप कहें कि मैंने सपने में एक आदमी की हत्या कर दी है तो अदालत आपको सजा नहीं दे सकती। अपराध जब तक कृत्य न हो तब तक अपराध नहीं है। लेकिन महावीर ने कहा है, पाप और अपराध में यही फर्क है। अदालत तो तभी पकड़ेगी जब कृत्य हो, लेकिन धर्म तभी पकड़ लेता है, जब भाव हो।
एक आदमी को मैं मारूं या एक आदमी को मारने का विचार करूं, बराबर पाप हो गया, बराबर। जरा भी फर्क नहीं है। क्यों? क्योंकि वास्तविक मार कर भी मैं मार कहां पाता हूं? वह भी मेरा विचार ही है मारने का। और कल्पना में भी मार कर मैं मारता नहीं, मेरा विचार ही है, लेकिन जो मारने के विचार करता है, वह हिंसक है। कोई मरता नहीं मेरे मारने से, लेकिन मार-मार कर मैं अपने भीतर सड़ता हूं।
हम कहते हैं आमतौर से कि दूसरे को दुख नहीं देना है, दूसरे को दुख देना हिंसा है, लेकिन यह भी बात महावीर की नहीं हो सकती। क्योंकि दूसरे को मैं दुख दे कैसे सकता हूं? आप महावीर को दुख देकर देखें, तब आपको पता चलेगा। आप लाख उपाय करें, आप महावीर को दुख नहीं दे सकते। दूसरे को दुख देना मेरे हाथ में कहां है, जब तक दूसरा दुखी होने को तैयार न हो। यह मेरी स्वतंत्रता नहीं है कि मैं दूसरे को दुख दे दूं। जीसस को हमने सूली देकर देख ली, और हम दुख नहीं दे पाए। और मंसूर के हमने हाथ-पैर काट डाले और गर्दन तोड़ डाली, तो भी हम दुख नहीं दे पाए। मंसूर हंस रहा था। और हमने वह लोग भी देख लिए हैं कि उनको सिंहासनों पर बिठा दो तो भी उनके चेहरे पर हंसी नहीं आती।
हम न सुख दे सकते हैं, न दुख दे सकते हैं। यह हमारे हाथ में नहीं है। यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है। हम आमतौर से सोचते हैं, किसी को दुख मत दो। आप दे कब सकते हो दूसरे को दुख? यह कहा किसने? यह वहम आपको पैदा कैसे हुआ? यह वहम एक गहरे दूसरे वहम पर खड़ा हुआ है। हम सोचते हैं, हम दूसरे को सुख दे सकते हैं। इसलिए यह जुड़ा हुआ है।
सब आदमी सुख दे रहे हैं। मां बेटे को सुख दे रही है। बेटे मां को सुख दे रहे हैं। पति पत्नियों को सुख दे रहे हैं। भाई भाई को, मित्र मित्र को सुख देने की कोशिश में लगे हैं और कोई किसी को सुख नहीं दे पा रहा है। अभी तक मुझे ऐसा आदमी नहीं मिला जो कहे कि मुझे मेरी मां ने सुख दिया। कि मां मिले, कहे कि मेरे बेटे ने मुझे सुख दिया। कोई किसी को सुख नहीं दे पा रहा है। और सारी दुनिया सुख देने की कोशिश में लगी है। इतनी सुख देने की चेष्टा, और सुख का कहीं कोई पता नहीं चलता। बल्कि अक्सर ऐसा लगता है कि जितना सुख देने की चेष्टा करो उतना दुख पहुंचता मालूम पड़ता है।
क्या, हो क्या रहा है? हम सुख दे सकते हैं दूसरे को, तब तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी, कभी की बन जाती, कोई कमी नहीं है इसमें। कभी कोई कमी नहीं रही है। लेकिन यह पृथ्वी स्वर्ग बन नहीं पाती, क्योंकि हम दूसरे को सुख दे नहीं सकते। कितने ही उपकरण जुटा लें हम, और कितना ही धन हो, और कितना ही वैभव हो, कितना ही धान्य हो, कितनी ही खुशहाली हो, एफ्लुएंस कितना ही हो जाए, समृद्धि कितनी ही हो जाए, हम सुख नहीं दे सकते, क्योंकि सुख दिया नहीं जा सकता। कोई सुखी होना चाहे तो सुखी हो सकता है, लेकिन कोई किसी को सुखी कर नहीं सकता।
इस बात को ठीक से समझ लें।
सुख दूसरे के द्वारा, दूसरे से निर्मित नहीं होता। आप चाहें तो सुखी हो सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहे तो सुखी हो सकता है। लेकिन महावीर की भी यह हैसियत नहीं है कि किसी को सुखी कर दें। आप अगर महावीर के पास भी हों तो दुखी रहेंगे। आपसे महावीर हारेंगे, जीतने का कोई उपाय नहीं है। आप जीत कर ही लौटेंगे। अपनी रोती हुई शक्ल लेकर ही आप लौटेंगे। महावीर भी आपको हंसा नहीं सकते। विजेता अंत में आप ही होंगे। इसका कारण यह नहीं कि महावीर कमजोर हैं और आप बड़े शक्तिशाली हैं।
इसका कुल कारण इतना है कि दूसरे को सुखी करने का कोई उपाय ही नहीं है। दूसरे को दुखी करने का भी कोई उपाय नहीं है। अगर सुखी करने का उपाय होता तो दुखी करने का भी उपाय होता। जो अपने हैं, जिनके साथ हमारा ममत्व का बंधन है, उनको हम सुखी करने का उपाय करते हैं। जिनके साथ हमारा ममत्व के विपरीत संबंध है, जिनसे हमारी घृणा है, ईर्ष्या है, जलन है, क्रोध है, उन्हें हम दुखी करने का उपाय करते हैं। हम दोनों में असफल होते हैं। न हम मित्रों को सुखी कर पाते, न हम शत्रुओं को दुखी कर पाते।
अगर मित्र सुखी होते हैं तो यह उनका ही कारण होगा; अगर शत्रु दुखी होते हैं तो यह उनका ही कारण होगा। आप इसमें नाहक अपने को न लाएं। क्योंकि अगर मैं दुखी न होना चाहूं तो कोई दुनिया की शक्ति मुझे दुखी नहीं कर सकती। अगर मैं सुखी न होना चाहूं तो कोई दुनिया की शक्ति मुझे सुखी नहीं कर सकती। सुख और दुख व्यक्ति के निर्णय हैं, निजी, आत्मगत और व्यक्ति स्वतंत्र है।
तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि अहिंसा का यह अर्थ भी करना ठीक नहीं कि हम दूसरे को दुखी न करें, यह अर्थ भी ठीक नहीं है। दूसरे को दुखी करने की चेष्टा न करें, इतना है अहिंसा का अर्थ। क्योंकि दूसरे को हम दुखी तो कर ही न पाएंगे, लेकिन दूसरे को दुखी करने की चेष्टा में हम अपने को दुखी कर लेते हैं। ठीक अगर इसको हम और गहरा समझें तो हम दूसरे को सुखी तो कर ही न पाएंगे, लेकिन दूसरे को सुखी करने की चेष्टा में हम अपने को दुखी कर लेते हैं।
यह बड़े मजे की बात है, अगर आप अपने को सुखी करने में लग जाएं, तो शायद आपके आस-पास के लोग भी थोड़े सुखी होने लगें। लेकिन हम उनको सुखी करने में लगे रहते हैं। उसमें वे तो सुखी हो नहीं पाते, हम दुखी हो जाते हैं। अगर आप अपने आस-पास के लोगों को पूरी स्वतंत्रता दे सकें, यही अहिंसा है।
इसे ठीक से समझ लें।
अगर मैं दूसरे को परिपूर्ण स्वतंत्रता दे सकूं कि न तो मैं तुम्हें दुखी करूंगा और न तुम्हें मैं सुखी करूंगा, मैं तुम्हें परिपूर्ण स्वतंत्रता देता हूं। तुम जो होना चाहो हो जाओ, मैं कोई बाधा नहीं डालूंगा, इस भाव का नाम अहिंसा है। अहिंसा जरा जटिल मामला है। इतना आसान नहीं है, जितना आप सोचते हैं। कई लोग कहते हैं, हम किसी को दुखी नहीं कर रहे। फिर भी अहिंसा नहीं हो जाएगी। यह खयाल भी कि आप दूसरे को दुखी कर सकते थे और अब नहीं कर रहे हैं, भ्रम है।
अहिंसा का अर्थ है, व्यक्ति परम स्वतंत्र है और मैं कोई बाधा नहीं डालूंगा। इतनी बाधा भी नहीं डालूंगा कि उसे सुखी करने की कोशिश करूं। मैं सुखी हो जाऊं तो शायद मेरे आस-पास जो आभा निर्मित होती है सुख की, वह किसी के काम आ जाए, लेकिन वह भी मेरी चेष्टा से काम नहीं आएगी। वह भी उसका ही भाव होगा काम में लाने का, तो काम में आएगी।
अहिंसा का इतना ही मतलब है कि मेरे चित्त में दूसरे को कुछ करने की धारणा मिट जाए। अगर कोई आदमी अहिंसा से शुरू करेगा तो भी अप्रमाद पर पहुंच जाएगा। क्योंकि बड़ा होश रखना पड़ेगा। हमें पता ही नहीं रहता है कि हम किन-किन मार्गों से, कितनी-कितनी तरकीबों से दूसरे को बाधा देते हैं--हमें पता ही नहीं रहता। हमारे उठने में, हमारे बैठने में, निंदा, प्रशंसा सम्मिलित रहती है। हमारे देखने में, समर्थन, विरोध शामिल रहता है। हम दूसरे को स्वतंत्रता देना ही नहीं चाहते। और जितने निकट हमारे कोई हो, हम उसको उतना परतंत्र करने की कोशिश में संलग्न रहते हैं। हमारी चेष्टा ही यही है कि दूसरा स्वतंत्र न हो जाए। इसका नाम हिंसा है, इस चेष्टा का नाम।
कोई आप परतंत्र कर पाएंगे, इस भ्रम में मत पड़ें। कोई परतंत्र हो नहीं पाता। पति अपने मन में कितना ही सोचता हो कि हम मालिक हैं, पति हैं और पत्नी उसको चिट्ठी में लिखती भी हो, स्वामी, आपके चरणों की दासी; मगर इससे कुछ हल नहीं होता। घर लौट कर पता चलेगा कि दासी क्या करती है। पत्नी कितनी ही सोचती हो कि मालकियत मेरी है, और पति के शरीर पर नहीं, उसकी आत्मा पर भी मेरा कब्जा है और उसकी आंख भी किस तरफ देखे और किस तरफ न देखे, यह भी मेरे इशारे पर चलता है। वह कितनी ही चेष्टा करती हो, लेकिन वह भ्रम में है। कोई किसी को परतंत्र कर नहीं पाता। हां, करने की चेष्टा में कलह, संघर्ष, संताप, धुंआ, चारों तरफ जीवन में जरूर पैदा हो जाता है।
महावीर का अहिंसा से अर्थ है--प्रत्येक व्यक्ति की जो परम स्वतंत्रता है, उसका समादर। एक चींटी की भी परम स्वतंत्रता है, उसका समादर। न हमने उसे जन्म दिया है, न हमने उसे जीवन दिया है, हम उसे मृत्यु कैसे दे सकते हैं। जो जीवन हमने दिया नहीं, वह हम छीन कैसे सकते हैं। वह अपनी हैसियत से जीती है, लेकिन हम बाधा डालने की कोशिश कर सकते हैं। उस कोशिश में चींटी को नुकसान होगा, यह महावीर का कहना नहीं है। उस कोशिश में हमको नुकसान हो रहा है। वह कोशिश हमें पथरीला बनाएगी और डुबा देगी जिंदगी में।
जो व्यक्ति दूसरे को परतंत्र करने चला है, या दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा डालने चला है, वह गुलाम की तरह मरेगा। जो व्यक्ति सबको स्वतंत्र करने चला है और जिसने सारे बंधन ढीले कर दिए हैं, और जिसने जाना भीतर कि प्रत्येक व्यक्ति परम गुह्य रूप से स्वतंत्र है, आत्यंतिक रूप से स्वतंत्र है, और दूसरे की आत्मा का अर्थ ही यह होता है कि उसे परतंत्र नहीं किया जा सकता।
इसे ठीक से समझ लें।
परतंत्र हम कर ही सकते हैं किसी को तब, जब कि उसमें आत्मा न हो। मशीन परतंत्र हो सकती है। मशीन के लिए स्वतंत्र का कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन व्यक्ति कभी परतंत्र नहीं हो सकता, और हम व्यक्ति को मशीन की तरह व्यवहार करना चाहते हैं। वह व्यवहार ही हिंसा है। तब तो बड़ा होश रखना पड़ेगा। व्यवहार के छोटे-छोटे हिस्से में होश रखना पड़ेगा कि मैं किसी की परतंत्रता लाने की चेष्टा में तो नहीं लगा हूं। आएगी तो है ही नहीं, लेकिन चेष्टा, मेरा प्रयास, मुझे दुख में डाल जाएगा। अप्रमाद तो रखना पड़ेगा, होश रखना पड़ेगा।
आप रास्ते से गुजर रहे हैं और एक आदमी की तरफ आप किस भांति देखते हैं। अगर उसमें निंदा है, और भले आदमी बड़े निंदा के भाव से देखते हैं। एक साधु के पास आप सिगरेट पीते चले जाएं, फिर उसकी आंखें देखें कैसी हो गईं। उसका वश चले तो अभी इसी वक्त आपको नरक भेज दे। साधु नहीं है यह आदमी, क्योंकि आपकी स्वतंत्रता पर गहन बाधा डाल रहा है, चेष्टा कर रहा है।
साधुओं के पास जाओ तो उनके पास बात ही इतनी है, ऐसा मत करो, वैसा मत करो। जैसे ही साधु के पास जाएंगे, वह आपकी स्वतंत्रता को छीनने की चेष्टा में संलग्न हो जाएगा। उसको वह कहता है, व्रत दे रहा हूं। कौन किसको व्रत दे सकता है? इसीलिए साधुओं के पास जाने में डर लगता है लोगों को, कि वहां गए तो यह छोड़ दो, यह पकड़ लो। ऐसा मत करो, वैसा मत करो; यह नियम ले लो।
मगर सारी चेष्टा का मतलब क्या है
कि साधु आपको बरदाश्त नहीं कर सकता, कि आप जैसे हैं। आप में फर्क करेगा, आपके पंख काटेगा, आपकी शक्ल-सूरत में थोड़ा सा हिसाब-किताब बांटेगा। तब, आप जैसे हैं इसकी परम स्वतंत्रता का कोई समादर साधु के पास नहीं है। और जिसके पास आपकी स्वतंत्रता का समादर नहीं है, वह साधु कहां? साधुता का मतलब ही यह है कि मैं कौन हूं जो बाधा दूं। मुझे जो ठीक लगता है वह मैं निवेदन कर सकता हूं, आग्रह नहीं।
महावीर ने कहा है, साधु उपदेश दे सकता है, आदेश नहीं। उपदेश का मतलब अलग होता है, आदेश का मतलब अलग। उपदेश का मतलब होता है, ऐसा मुझे ठीक लगता है, वह मैं कहता हूं। आदेश का मतलब है, ऐसा ठीक है, तुम भी करो। मुझे जो ठीक लगता है वह जरूरी नहीं कि ठीक हो। यह मेरा लगना है। मेरे लगने की क्या गारंटी है? मेरे लगने का मूल्य क्या है? यह मेरी रुचि है, यह मेरा भाव है। यह परम सत्य होगा, यह मैं कैसे कहूं?
असाधुता वहीं से शुरू होती है जहां मैं कहता हूं, मेरा सत्य तुम्हारा भी सत्य है, बस असाधुता शुरू हो गई, हिंसा शुरू हो गई। जब तक मैं कहता हूं, मेरा सत्य मेरा सत्य है। निवेदन करता हूं कि मुझे क्या ठीक लगता है। शायद तुम्हारे काम आ जाए, शायद काम न भी आए, शायद तुम्हें सहयोगी हो, शायद तुम्हें बाधा बन जाए। सोच-समझ कर, अप्रमाद से, होशपूर्वक, तुम्हें जैसा लगे करना। आदेश मैं नहीं दे सकता हूं। लेकिन जब मैं आदेश देता हूं तब उसका मतलब हुआ कि मैं कह रहा हूं, मेरा सत्य सार्वभौम सत्य है, माइ ट्रूथ मींस दि ट्रूथ, मेरा जो सत्य है वही सत्य है, और कोई सत्य नहीं है। अगर मेरे सत्य के विपरीत किसी का सत्य है तो वह असत्य है, उसे छोड़ना होगा। अगर उसे नहीं छोड़ते हो तो नरक जाना पड़ेगा, वह नरक की व्यवस्था मेरी है। जो मुझे नहीं मानेगा वह नरक जाएगा, यह उसका अर्थ है। जो मुझे नहीं मानेगा वह आग में सड़ेगा, इसका यह अर्थ है। जो मुझे मानेगा उसके लिए स्वर्ग का आश्र्वासन है, उसे स्वर्ग के सुख हैं।
यह क्या हुआ? यह साधु का भाव न हुआ। यह असाधु हो गया आदमी। यह हिंसा हो गई।
महावीर की अहिंसा गुह्य है, इसोटेरिक है, गुप्त है। अहिंसा का मतलब यह है, यह स्वीकृति कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा है, उससे नीचे नहीं। यह अहिंसा का अर्थ है। अहिंसा का अर्थ है कि मैं तुमसे ऐसा व्यवहार करूंगा कि तुम परमात्मा हो, इससे कम नहीं। और मैं अपने को तुम्हारे ऊपर थोपूंगा नहीं। और अगर तुम मेरे विपरीत जाते हो, तो तुम्हें नरक में नहीं डाल दूंगा। और तुम अनुकूल आते हो तो तुम्हारे लिए स्वर्ग का आयोजन नहीं करूंगा। तुम अनुकूल आते हो या प्रतिकूल, यह तुम्हारा अपना निर्णय है, और मेरा कोई भाव इस निर्णय पर आरोपित नहीं होगा।
तो अहिंसा साधते वक्त अप्रमाद अपने आप सध जाएगा। तो चाहे कोई अहिंसा से शुरू करे, अलोभ से शुरू करे, अक्रोध से शुरू करे, वह अप्रमाद पर उसे जाना ही होगा। वह अंडे से शुरू करे, मुर्गी तक उसे जाना ही होगा। और चाहे कोई अप्रमाद से शुरू करे, वह अप्रमाद से शुरू करेगा, हिंसा गिरनी शुरू हो जाएगी। क्योंकि अप्रमाद में कैसे, होश में कैसे, हिंसा टिक सकती है? हिंसा गिरेगी, परिग्रह गिरेगा, पाप हटेगा, पुण्य अपने आप प्रवेश करने लगेगा।
तो जब मुझसे कोई पूछता है कि इसमें महावीर की विधि क्या? वे बाहर पर जोर देते हैं कि भीतर पर? महावीर इस बात पर जोर देते हैं कि तुम कहीं से भी शुरू करो, दोनों सदा मौजूद रहेंगे। और अगर एक मौजूद रहता है तो विधि में भूल है और खतरा है। अगर कोई व्यक्ति कहता है, मैं तो भीतर से ही, मैं बाहर से ध्यान नहीं दूंगा, वह अपने को धोखा दे सकता है। क्योंकि वह बाहर हिंसा कर सकता है और कहे कि मैं तो भीतर से अहिंसक हूं। ऐसे बहुत लोग हैं जो भीतर से साधु और बाहर से असाधु हैं। और वे कहते चले जाएंगे, यह तो मामला बाहर का है। बाहर में क्या रखा हुआ है, बाहर तो माया है।
एक बौद्ध भिक्षु कहता था कि सारा संसार माया है। बाहर क्या रखा है? है ही नहीं कुछ, सपना है। इसलिए वेश्या के घर में भी ठहर जाएगा, शराब भी पी लेगा। क्योंकि अगर सपना ही है तो पानी और शराब में फर्क कैसे हो सकता है? अगर शराब में कुछ वास्तविकता है, तो ही फर्क हो सकता है। नहीं तो पानी में और शराब में क्या फर्क है, अगर सब माया है? तो आपको मैं मारूं कि जिलाऊं, कि जहर दूं, कि दवा दूं, क्या फर्क है? फर्क तो सच्चाइयों में होता है। दो झूठ बराबर झूठ होते हैं। और अगर आप कहते हैं, एक झूठ थोड़ा कम झूठ है, तो उसका मतलब है कि वह थोड़ा सच हो गया।
अगर सारा जगत माया है तो ठीक है। तो वह जो मन में आए करता था। एक सम्राट ने उससे अपने द्वार पर बुलाया। विवाद में जीतना उस आदमी से मुश्किल था। असल में विवाद की जिसे कुशलता आती हो, उससे जीतना किसी भी हालत में मुश्किल है। क्योंकि तर्क वेश्या की तरह है। कोई भी उसका उपयोग कर ले सकता है। और यह तर्क गहन है कि सारा जगत माया है। सिद्ध भी कैसे करो कि नहीं है।
पर सम्राट था बुद्धू, इसलिए कभी-कभी बुद्धू तार्किकों को बड़ी मुश्किल में डाल देते हैं। तो उसने कहा, अच्छा! सब माया है? तो उसने कहा, अपना जो पागल हाथी है, उसे ले आओ। वह भिक्षु घबड़ाया कि यह झंझट होगी। तर्क का मामला था तो वह सिद्ध कर लेता था। तर्क के मामले में आप जीत नहीं सकते, जो आदमी कहता है कि सब असत्य है, उसको कैसे सिद्ध करिएगा कि सत्य है? क्या उपाय है? कोई उपाय नहीं है।
उस सम्राट ने कहा कि बैठें, अभी पता चलता है। वह पागल हाथी बुला कर उसने महल के आंगन में छोड़ दिया और भिक्षु को खींचने लगे सिपाही, तो वह चिल्लाने लगा। कि यह क्या कर रहे हैं! विचार से विचार करिए।
पर सम्राट ने कहा कि हाथी पागल है। हमारी समझ में वास्तविकता है यह, तुम्हारी समझ में तो सब माया है। माया के हाथी से ऐसा भय क्या?
उस भिक्षु ने कहा: क्या मेरी जान लोगे?
उस सम्राट ने कहा कि माया का हाथी है, क्या जान ले पाएगा!
भिक्षु चिल्लाता रहा। जबरदस्ती उसे आंगन में छोड़ दिया। भिक्षु भागता है। और हाथी उसके पीछे चिंघाड़ता है। और भिक्षु चिल्लाता है कि क्षमा करो, वापस लेता हूं अपना सिद्धांत। अब कभी ऐसी भूल की बात न करूंगा। ऐसा मैंने कभी देखा नहीं था कि तर्क का और यह! बहुत रोता-गिड़गिड़ाता है, आंसू बहने लगते हैं। सम्राट उसे उठवा लेता है और कहता है, अब शांत होकर बैठ जाएं, भूल जाएं अपनी बात।
भिक्षु ने कहा: कौन सी बात?
‘वह जो अभी आप माफी मांग रहे थे, चिल्ला रहे थे।’
भिक्षु ने कहा: सब माया है--वह रोना, चिल्लाना, तुम्हारा बचाना।
जहां तक तर्क का मामला है, उससे बचना मुश्किल है।
सम्राट ने कहा: क्या मतलब?
उसने कहा: लेकिन दुबारा उस झंझट को खड़ा करने की...।
अगर पागल हाथी फिर पागल मालूम पड़ता है, तो फर्क है। भेद अगर दिखाई पड़ता है जरा सा भी, तो फर्क है। तो फिर हम अपने को धोखा दे सकते हैं। हम कह सकते हैं कि बाहर की तो हमें कोई चिंता नहीं है। बाहर तो सब ठीक है, असली चीज भीतर है। लेकिन अगर असली चीज भीतर है, तो उसके प्रमाण बाहर भी मिलेंगे, क्योंकि भीतर बाहर आता रहता है, प्रतिपल। वह जो झरना भीतर छिपा है वह बाहर छलांग लगा कर उचकता रहता है। बाहर फेंकता रहता है अपनी धारा को। अगर कोई झरना यह कहे, कि हम तो भीतर-भीतर हैं, बाहर कुछ भी नहीं, बाहर रेगिस्तान है, तो झरना झूठा है। झरने का मतलब ही क्या जो फूटे न। फूटे तभी झरना है।
अगर भीतर मेरे अप्रमाद है तो बाहर परिणाम होंगे। बाहर हिंसा गिरेगी। अगर भीतर मेरे अप्रमाद है, तो बाहर लोभ गिरेगा। अगर भीतर मेरे अप्रमाद है तो बाहर, वह जो आसक्ति है, मोह है, क्षीण होगा।
भीतर की बात करके आदमी अपने को धोखा दे सकता है। बाहर से भी आदमी अपने को धोखा दे सकता है। बाहर इंतजाम कर लेता है वह कि मैं अहिंसा पालन करूंगा, लोभ नहीं करूंगा, दान करूंगा और भीतर प्रमाद घना होता है। बेहोशी घनी होती है। बाहर सम्हल कर चलने लगता है। चींटी पर पैर नहीं रखता। लेकिन भीतर दूसरे को दुख-सुख पहुंचाने का भाव घना होता है। वह साधु हो जाता है, लेकिन नरक और स्वर्ग की बातें करता रहता है। वह साधु हो जाता है, लेकिन दूसरों को ऐसे देखता है जैसे वे कीड़े-मकोड़े हों।
शायद साधु होने का गहरा मजा यही है कि दूसरे कीड़े-मकोड़े दिखाई पड़ने लगते हैं। और हम सभी एक-दूसरे को कीड़ा-मकोड़ा देखना चाहते हैं। तरकीबें अलग-अलग हैं। कोई एक बहुत बड़ा मकान बना कर उस पर खड़ा हो जाता है, झोपड़ों के लोग कीड़े-मकोड़े हो जाते हैं। कोई आदमी चढ़ जाता है राजधानी के शिखर पर, भीड़ कीड़ा-मकोड़ा हो जाती है। एक आदमी त्याग के शिखर पर खड़ा हो जाता है, भोगी कीड़े-मकोड़े हो जाते हैं। और बड़ा मजा यह है कि झोपड़े वाला आदमी तो शायद अकड़ कर भी चल सके महल वाले के सामने कि तुम शोषक, हत्यारे, हिंसक। भीड़ का आदमी राजनीति के शिखर पर खड़े आदमी के सामने अकड़ कर भी चल सके कि तुम बेईमान, झूठे; लेकिन भोगी, त्यागी के सामने अकड़ कर नहीं चल सकता।
तो त्याग बारीक से बारीक अकड़ है, जिसका जवाब देना मुश्किल है। भोगी को खुद ही लगता है, हम गलत, तुम ठीक। यह भोगी को इसीलिए लगता है कि त्यागी हजारों साल से उसको समझा रहे हैं, बिल्ट इन कंडीशनिंग कर दी है उसके दिमाग में कि तुम गलत हो। उसको भी लगता है कि गलत तो मैं हूं ही। त्यागी ठीक, त्यागी शिखर पर हो जाता है, भोगी नीचे पड़ जाता है। सारी दुनिया में एक चेष्टा चलती रहती है कि मैं दूसरे से ऊपर, यही हिंसा है।
तो चींटी से बच कर चलने में बहुत कठिनाई नहीं है। अगर जो चींटी से बच कर नहीं चलता, उसको मैं देखता हूं कि वह कीड़ा-मकोड़ा है, तो कोई कठिनाई नहीं है, चींटी से बच कर चलने में अगर यही मजा है कि जो बच कर नहीं चलते, उनको मैं पापी की तरह देख सकता हूं, तो चींटी से बचा जा सकता है। लेकिन यह हिंसा और गहरी हो गई। चींटी का मर जाना, उसको बेहोशी से दबा देना, हिंसा थी, अप्रमाद था। यह अप्रमाद और गहरा हो गया। इसने रास्ता बदल दिया, रुख बदल दिया। बीमारी दूसरी तरफ चली गई, लेकिन मौजूद है, और गहरी हो गई।
चाहे तो कोई बाहर के आचरण को ठोक-पीट कर ठीक कर ले, और भीतर बेहोश बना रहे। चाहे तो कोई भीतर बेहोशी न टूटे, और बाहर के आचरण में जैसा है वैसा ही चलता रहे, जरा भी न बदले, धोखा दे सकता है।
महावीर जैसे व्यक्ति अखंड व्यक्ति को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं, पूरा व्यक्ति ही बदलना है। बाहर और भीतर दो टुकड़े नहीं हैं। एक धारा के अंग हैं। कहीं से भी शुरू करो, दूसरा भी अंतर्निविष्ट है, दूसरा भी अंतर्निहित है।
अब सूत्र:
‘रस वाले पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसी ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी।’
अप्रमाद की बात कही, वह भीतर की बात थी। तत्काल रस की बात कही, वह बाहर की बात है। कहा कि भीतर जागते रहो, होश सम्हाले रखो, और फिर तत्काल यह कहा कि बाहर से भी वही लो अपने भीतर जो बेहोशी न बढ़ाता हो। नहीं तो एक आदमी ध्यान करता रहे और शराब पीता रहे, तो यह ऐसे हुआ कि एक कदम आगे गए और एक कदम पीछे आए। फिर जिंदगी के आखिर में पाए कि वहीं खड़े हैं। खड़े नहीं, गिर पड़े हैं, वहीं जहां पैदा हुए थे। तो इसमें हैरानी न होगी, लेकिन हम सब यही कर रहे हैं। एक कदम जाते हैं, तत्काल एक कदम उलटा वापस लौट आते हैं। तो इससे बेहतर है, जाओ ही मत। शक्ति और श्रम नष्ट मत करो।
अगर भीतर अप्रमाद की साधना चल रही है, भीतर ध्यान क
ी साधना चल रही है, तो महावीर कहते हैं, फिर ऐसे पदार्थ मत लो जो बेहोशी बढ़ाते हैं। और पदार्थ ऐसे हैं जो बेहोशी बढ़ाते हैं। मादक हैं। ऐसे पदार्थ हैं जो हमारे भीतर के प्रमाद को सहारा देते हैं।
इसलिए आप देखें--एक आदमी शराब पी लेता है, तत्काल दूसरा आदमी हो जाता है, इसलिए तो शराबी को भी शराब का रस है, कि एक ही आदमी रहते-रहते ऊब जाता है, अपने से ऊब जाता है। जब शराब पी लेता है तो जरा मजा आता है। नई जिंदगी हो जाती है, नया आदमी हो जाता है, यह नया आदमी कौन है?
यह शराब से नहीं आता, यह नया आदमी भीतर छिपा था। शराब इसको सिर्फ सहारा दे सकती है। शराब आपके भीतर कुछ पैदा नहीं करती। जो छिपा है, उसको उकसा सकती है। जगा सकती है। इसलिए बहुत मजे की घटनाएं घटती हैं।
एक अदामी शराब पीकर उदास हो जाता है। एक आदमी शराब पीकर प्रसन्न हो जाता है, एक आदमी गाली-गलौज बकने लगता है, एक आदमी बिलकुल मौन ही हो जाता है। मौन साध लेता है। एक आदमी नाचने-कूदने लगता है और एक आदमी बिलकुल शिथिल होकर मुर्दा हो जाता है, सोने की तैयारी करने लगता है। शराब एक, फर्क इतने! शराब कुछ भी नहीं करती। जो आदमी के भीतर पड़ा है, उसको भर उत्तेजित करती है।
तो अक्सर उलटा हो जाता है। जो आदमी आमतौर से हंसता रहता है वह शराब पीकर उदास हो जाता है, क्योंकि हंसी झूठी थी, ऊपर-ऊपर थी, उदासी भीतर थी, असली थी। शराब ने झूठ को हटा दिया। शराब सत्य की बड़ी खोजी है। शराब ने असत्य को हटा दिया, वह जो हंसते रहते थे बन-बन कर। अब उतना भी होश रखना मुश्किल है कि बन कर हंस सकें। अब बनावट नहीं टिकेगी। हंसी खो जाएगी। और वह जो हंसी के नीचे छिपा रखा था, अम्बार लगा रखा था उदासी का, दुख का, आंसुओं का, वह बाहर आने लगेंगे।
इसलिए गुरजिएफ के पास जब भी कोई जाता था, पंद्रह दिन तो वह धुआंधार शराब पिलाता था। सिर्फ उसकी डाइग्नोसिस, उसके निदान के लिए। पंद्रह दिन वह उसे शराब पिलाता जाता था, जब तक कि उसे बेहोश न कर दे इतना कि जो उसने ऊपर-ऊपर से थोपा है वह टूट जाए। और जो भीतर-भीतर है वह बाहर आने लगे। तब वह उसका निरीक्षण करता।
गुरजिएफ ने कहा है कि जब तक कोई साधक मेरे पास आकर पंद्रह दिन जितनी शराब मैं कहूं, उतना पीने को राजी न हो, तब तक मैं साधना शुरू नहीं करता। क्योंकि मुझे असली आदमी का पता ही नहीं चलता कि असली आदमी है कौन। जो वह बताता है, मैं हूं, वह, वह है नहीं। उस पर मैं मेहनत करूं, वह बेकार जाएगी, वह पानी पर खींची गई लकीरें सिद्ध होंगी। और जो वह है, उसका उसको भी पता नहीं, उसको वह दबा चुका है जन्मों-जन्मों। उसका उसे भी पता नहीं कि वह कौन है।
इधर मुझे भी निरंतर यह अनुभव आता है, एक आदमी आकर मुझे कहता है कि यह मेरी तकलीफ है। वह उसकी तकलीफ ही नहीं है। वह कहता है, यह मेरा रोग है, वह उसका रोग ही नहीं है। वह समझता है कि वह उसका रोग है। यह रोग उसकी पर्त का रोग है, और पर्त वह है नहीं। पर्त उसने बना ली है।
एक आदमी आता है और कहे कि मेरी कमीज पर यह दाग लगा है, यह मेरी आत्मा का दाग है। अब इसको मैं धोने में लग जाऊं, यह धुल भी जाए तो भी आत्मा नहीं धुलेगी क्योंकि यह दाग कमीज पर था, आत्मा पर था नहीं। यह न भी धुले, तो भी आत्मा पर था नहीं है। इस आदमी को मुझे नग्न करके देखना पड़ेगा कि इसकी आत्मा पर दाग कहां है। उसको धोने में ही कोई सार है, इसकी कमीज को धोने में समय गंवाना व्यर्थ है।
गुरजिएफ पंद्रह दिन शराब पिलाता, पूरी तरह बेहोश कर देता, डुबा देता बुरी तरह। और जिसने कभी नहीं पी हो, वह बिलकुल मतवाला हो जाता, बिलकुल पागल हो जाता। तब वह अध्ययन करता उस आदमी का, कि यह आदमी असलियत में क्या है।
फ्रायड जिन लोगों का अध्ययन करता, वह उनसे कहता कि अपने सपने बताओ, और बातें नहीं चाहिए। अपने सिद्धांत मत बताओ। अपनी फिलॉसफी अपने पास रखो, सिर्फ अपने सपने बताओ। जब पहली दफे फ्रायड ने सपनों पर खोज शुरू की, तो उसने अनुभव किया कि सपने में असली आदमी प्रकट होता है। ऊपरी चेहरे झूठे हैं।
एक आदमी को देखें, अपने बाप के पैर छू रहा है, और सपने में बाप की हत्या कर रहा है। आप आमतौर से यह सोचेंगे कि सपना तो सपना है, असली तो वही है, वह जो सुबह हम रोज पैर छूते हैं। वह असली नहीं है, ध्यान रख लें। सपना आपकी असलियत से ज्यादा असली हो गया है, क्योंकि आप बिलकुल झूठे हैं। वह जो सुबह आप पैर छूते हैं पिता का, वह सिर्फ सपने में जो असली काम किया, उसका पश्र्चाताप है। सपना असली है। क्यों? क्योंकि सपने में धोखा देने में अभी आप कुशल नहीं हो पाए। सपना गहरा है, बेहोश है। आप का जो होश है, उस वक्त आप आदर दिखा रहे हैं। आपका जो होश है, उस वक्त पत्नी कह रही है पति से कि तुम मेरे परमात्मा हो, और सपने में उसे दूसरा पति और दूसरा परमात्मा दिखाई पड़ रहा है। वह कहती है, यह तो सब सपना है।
बाकी यह सपना ज्यादा गहरा है। क्योंकि सपने में न सिद्धांत काम आते हैं, न समाज काम आता है, न सिखावन काम आती है। सपने में तो वह जो असली मन है, अचेतन, वह प्रकट होता है। इसलिए फ्रायड ने कहा कि अगर असली आदमी को जानना है तो सपनों का अध्ययन जरूरी है। बात एक ही है।
गुरजिएफ ने कहा है कि शराब पिला कर उघाड़ लेंगे, अनकांशस को, अचेतन को। उसने कहा कि हम आपका सपना; गुरजिएफ का मेथड ज्यादा तेज है। पंद्रह दिन में पता चल जाता है। फ्रायड के मेथड में पांच साल लग जाते हैं। पांच साल सपनों का अध्ययन करना पड़ेगा तब वह नतीजा निकालेगा कि तुम आदमी कैसे हो, तुम्हारे भीतर असलियत क्या है, तुम्हारा मूल रोग क्या है? लेकिन यह निदान बहुत लंबा हो गया।
महावीर कहते हैं कि जो भी हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह भीतर किसी चीज को पैदा नहीं कर सकता, लेकिन भीतर अगर कोई चीज पड़ी है तो उसके लिए सहयोगी हो सकता है, या विरोधी हो सकता है।
तो जो आदमी भीतर अप्रमाद की साधना करने में लगा है, जो इस साधना में लगा है कि मैं होश को जगा लूं, वह साथ में शराब पीता रहे और होश जगाने की कोशिश करता रहे, सांझ शराब पी ले और सुबह प्रार्थना करे और पूजा करे और ध्यान करे, वह आदमी असंगत है। अपने ही साथ उलटे काम कर रहा है, कंट्राडिक्ट्री है। वह आदमी कभी कहीं पहुंचेगा नहीं। उसकी गाड़ी का एक बैल एक तरफ जा रहा है, दूसरा बैल दूसरी तरफ जा रहा है। एक चक्का एक तरफ जा रहा है, दूसरा चक्का दूसरी तरफ जा रहा है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्रा में था। जब ऊपर की बर्थ पर सोने लगा तो उसने नीचे के आदमी से पूछा कि मैं यह तो पूछना ही भूल गया कि आप कहां जा रहे हैं? उस नीचे के आदमी ने कहा कि मैं मुंबई जा रहा हूं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: गजब! विज्ञान का चमत्कार! मैं कलकत्ता जा रहा हूं, एक ही गाड़ी में हम दोनों! विज्ञान का चमत्कार देखो कि नीचे की बर्थ मुंबई जा रही है, ऊपर की बर्थ कलकत्ता जा रही है।
और मुल्ला शान से सो गया।
मुल्ला पर हमें हंसी आएगी, लेकिन हमारी जिंदगी ऐसी ही है; एक बर्थ मुंबई जा रही है, एक कलकत्ता जा रही है। आदमी का चमत्कार देखो। आप विरोधी काम किए चले जा रहे हैं, पूरे वक्त। बड़ा मजा यह है कि आप जो भी कर रहे हैं, करीब-करीब उससे विपरीत भी कर रहे हैं। और जब तक विपरीत नहीं करते, तब तक भीतर एक बेचैनी मालूम पड़ती है। विपरीत कर लेते हैं, सब ठीक हो जाता है।
एक आदमी क्रोध करता है, फिर पश्र्चात्ताप करता है। आप आमतौर से सोचते होंगे कि पश्र्चात्ताप करने वाला आदमी अच्छा आदमी है। लेकिन आपको पता नहीं, एक बर्थ कलकत्ता जा रही है, एक मुंबई जा रही है। क्रोध करता है, पश्र्चात्ताप करता है। फिर क्रोध करता है, फिर पश्र्चात्ताप करता है। जिंदगी भर यही चलता है। कभी आपने खयाल किया? और हमेशा सोचता है, अब क्रोध न करूंगा। क्रोध करके पश्र्चात्ताप कर लेता है। होता क्या है? आमतौर से आदमी सोचता है, क्रोध करके पश्र्चात्ताप कर लिया, अच्छा ही हुआ, अब कभी क्रोध न करेंगे। लेकिन यह तो बहुत बार पहले भी हो चुका है, हर बार क्रोध किया, पश्र्चात्ताप किया, पश्र्चात्ताप से क्रोध कटता नहीं।
सच्चाई उलटी है। सच्चाई यह है कि पश्र्चात्ताप से क्रोध बचता है, कटता नहीं। क्योंकि जब आप क्रोध करते हैं तो आपकी जो अपनी प्रतिमा है, अपनी आंखों में, अच्छे आदमी की, वह खंडित हो जाती है। अरे, मैंने क्रोध किया! मैंने क्रोध किया! इतना सज्जन आदमी हूं मैं! इतना साधु चरित्र, और मैंने क्रोध किया! तो आपको पीड़ा जो अखरती है, खटकती है, अपनी प्रतिमा अपनी आंखों में गिर गई। पश्र्चात्ताप करके प्रतिमा फिर अपनी जगह खड़ी हो जाती है। फिर आप सज्जन हो जाते हैं कि मैंने पश्र्चात्ताप कर लिया। मांग ली क्षमा, मिच्छामि दुक्कड़म, निपटारा हो गया, आदमी फिर अच्छे हो गए। फिर अपनी जगह खड़ी हो गई प्रतिमा। यही प्रतिमा क्रोध करने के पहले अपनी जगह खड़ी थी, क्रोध करने से गिर गई थी। पश्र्चात्ताप ने फिर इसे खड़ा कर दिया। जहां यह क्रोध करने के पहले खड़ी थी, वहीं फिर खड़ी हो गई। अब आप फिर क्रोध करेंगे, जगह आ गई वापस, स्थान पर आ गए आप अपने।
पश्र्चात्ताप तरकीब है। जैसे मुर्गी तरकीब है अंडे की और अंडा पैदा करने की। पश्र्चात्ताप तरकीब है क्रोध की, और क्रोध करने की।
अब आप फिर क्रोध कर सकते हैं। अब आप फिर अपनी जगह आ गए। तो दो में से एक भी टूट जाए, फिर दूसरा नहीं टिक सकता। मुर्गी मर जाए तो फिर अंडा नहीं हो सकता, अंडा फूट जाए तो फिर मुर्गी नहीं हो सकती। क्रोध को तो छोड़ने की बहुत कोशिश की, अब कृपा करके इतना ही करो कि पश्र्चात्ताप ही छोड़ दो, मत करो पश्र्चात्ताप। रहने दो क्रोध को वहीं, तो आपकी प्रतिमा वापस खड़ी न हो पाएगी, और वही प्रतिमा खड़े होकर क्रोध करती है। लेकिन हम होशियार हैं। हम हर कृत्य से दूसरे कृत्य को बैलेंस कर देते हैं। तराजू को हम हमेशा सम्हाल कर रखते हैं। अच्छाई करते हैं थोड़ी, तत्काल थोड़ी बुराई कर देते हैं। थोड़ा हंसते हैं, थोड़ा रो लेते हैं; थोड़े रोते हैं, थोड़े हंस लेते हैं। सम्हाले रहते हैं अपने को।
हम नटों की तरह हैं जो रस्सियों पर चल रहे हैं, पूरे वक्त सम्हाल रहे हैं। बाएं झुकते हैं, दाएं झुक जाते हैं। दाएं गिरने लगते हैं, बाएं झुक जाते हैं। अपने को सम्हाले हुए रस्सी पर खड़े हुए हैं।
आदमी तभी पहुंचता है मंजिल तक, जब उसके जीवन की यात्रा यह इस चमत्कार से बच जाती है, कि एक बर्थ मुंबई, एक बर्थ कलकत्ता। जब आदमी एक दिशा में यात्रा करता है तो परिणाम, निष्पत्तियां, उपलब्धियां आती हैं, नहीं तो जीवन व्यर्थ हो जाता है, अपने ही हाथों व्यर्थ हो जाता है।
तो महावीर कहते हैं: ‘ऐसे रस का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए।’
महावीर बहुत ही सुविचारित बोलते हैं। उन्होंने ऐसा भी नहीं कहा कि सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अति हो जाएगी। कभी सेवन करने की जरूरत भी पड़ सकती है। कभी जहर भी औषधि होता है।
महावीर बहुत सुविचारित हैं। एक-एक शब्द उनका तुला हुआ है। कहीं भी वे अति नहीं करते, क्योंकि अति में हिंसा हो जाती है। वे ऐसा नहीं कहते कि ऐसा करना ही नहीं चाहिए, वे इतना ही कहते हैं कि अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए।
ध्यान रहे, औषधि की मात्रा होती है, शराब की कोई मात्रा नहीं होती। शराब का मजा ही अधिक मात्रा में है। औषधि की मात्रा होती है। औषधि मात्रा से ली जाती है, शराब कोई मात्रा से नहीं ली जाती। और जितनी मात्रा से आप लेते हैं, कल मात्रा बढ़ानी पड़ती है, क्योंकि उतने आप आदी होते चले जाते हैं। जितनी आप शराब पीते चले जाते हैं उतनी शराब बेकार होती चली
जाती है। फिर और पीयो, और पीयो, तो ही कुछ परिणाम होता दिखाई पड़ता है।
ध्यान रहे, अगर एक आदमी शराब पी रहा है, तो मात्रा बढ़ती जाएगी। और अगर एक आदमी शराब को दवा की तरह ले रहा है, तो मात्रा घटती जाएगी। क्योंकि जैसे-जैसे बीमारी कम होगी, मात्रा कम होगी। और जिस दिन बीमारी नहीं होगी, मात्रा विलीन हो जाएगी। और अगर एक आदमी शराब नशे की तरह ले रहा है, तो मात्रा रोज बढ़ेगी। क्योंकि हर शराब बीमारी को बढ़ाएगी, और ज्यादा शराब की मांग करेगी।
मुल्ला नसरुद्दीन कहता था कि मैं कभी एक पैग से ज्यादा नहीं पीता। उसके मित्रों ने कहा: हद कर दी! झूठ की भी एक सीमा होती है। अपनी आंखों से तुम्हें पैग पर पैग ढालते देखते हैं! तो मुल्ला ने कहा: मैं तो पहला ही पीता हूं। फिर पहला पैग दूसरा पीता है, फिर दूसरा, तीसरा। अपना जिम्मा एक का ही है। उससे सिलसिला शुरू हो जाता है। बाकी के हम जिम्मेवार नहीं हैं। हम अपने होश में एक ही पीते हैं। फिर होश ही कहां, फिर हम कहां, फिर पीने वाला कहां, फिर तो वह शराब ही शराब को पीए चली जाती है।
वह ठीक कह रहा है। बेहोशी का पहला कदम आप उठाते हैं। फिर पहला कदम दूसरा कदम उठाता है, फिर दूसरा तीसरा उठाता है।
जिसे बेहोशी को रोकना हो, उसे पहले कदम पर ही रुक जाना चाहिए, क्योंकि वहीं उसके निर्णय की जरूरत है। दूसरे कदम पर रुकना मुश्किल है। तीसरे पर असंभव हो जाएगा। हर रोग हमारे मानसिक जीवन में पहले कदम पर ही रोका जा सकता है। दूसरे कदम पर रोकना बहुत मुश्किल है। जितना हम आगे बढ़ते हैं उतना ही रोग भयंकर होता चला जाता है और जो पहले पर ही नहीं रोक पाया, वह अगर सोचता हो कि तीसरे पर रोक लेंगे तो वह अपने को धोखा दे रहा है। क्योंकि पहले पर वह वजनी था, ताकतवर था, तब नहीं रोक पाया, अब तीसरे पर रोकेगा, जब कमजोर हो जाएगा!
इसलिए महावीर कहते हैं: ‘अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे मादकता पैदा करते हैं। और मत्त पुरुष अथवा स्त्री के पास वासनाएं वैसे ही दौड़ी आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष की ओर पक्षी।’
लेकिन हम तो चाहते हैं कि लोग हमारे चारों तरफ दौड़े हुए आएं, हम तो चाहते हैं कि स्वादिष्ट फल बन जाएं हम, लदे हुए वृक्ष। सारे पक्षी हम पर ही डेरा करें। तो जहां नहीं भी हैं फल, वहां हम झूठे नकली फल लटका देते हैं ताकि वृक्ष पर दौड़े हुए लोग आएं। पक्षी तो धोखा नहीं खाते नकली फलों से, आदमी धोखा खाते हैं।
हर आदमी बाजार में खड़ा है अपने को रसीला बनाए हुए कि चारों तरफ से लोग दौड़ें और मधुमक्खियों की तरह उस पर छा जाएं। जब तक किसी को ऐसा न लगे कि मैं बहुत लोगों को पागल कर पाता हूं तब तक आनंद ही नहीं मालूम होता है जीवन में। जब भीड़ चारों तरफ से दौड़ने लगे तब आपको लगता है कि आप मैग्नेट हो गए, करिश्मैटिक हो गए। अब आप चमत्कारी हैं।
राजनीतिक का रस यह है, नेता का रस यह है कि लोग उसकी तरफ दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं; दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं। अभिनेता का, अभिनेत्री का रस यह है कि लोग उसकी तरफ दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं।
तो हम तो अपने को एक मादक बिंदु बनाना चाहते हैं, जिसमें चारों तरफ, जिसके व्यक्तित्व में शराब हो और खींच ले। और महावीर कहते हैं कि जो दूसरे को खींचने जाएगा, वह पहले ही दूसरों से खिंच चुका है। जो दूसरों के आकर्षण पर जीएगा वह दूसरों से आकर्षित है। और जो अपने भीतर मादकता भरेगा, बेहोशी भरेगा, लोग उसकी तरफ खिंचेंगे जरूर, लेकिन वह अपने को खो रहा है और डुबा रहा है। और एक दिन रिक्त हो जाएगा और जीवन के अवसर से चूक जाएगा।
निश्र्चित ही, एक स्त्री जो होशपूर्ण हो, कम लोगों को आकर्षित करेगी। एक स्त्री जो मदमत्त हो, ज्यादा लोगों को आकर्षित करेगी। क्योंकि मदमत्त स्त्री पशु जैसी हो जाएगी--सारी सभ्यता, सारा संस्कार, सारा जो ऊपर था, वह सब टूट जाएगा। वह पशुवत हो जाएगी। एक पुरुष भी, जो मदमत्त हो, ज्यादा लोगों को आकर्षित, ज्यादा स्त्रियों को आकर्षित कर लेगा, क्योंकि वह पशुवत हो जाएगा। उसमें ठीक पशुता जैसी गति आ जाएगी। और सब वासनाएं पशु जैसी हों तो ज्यादा रसपूर्ण हो जाती हैं। इसलिए जिन मुल्कों में भी कामवासना प्रगाढ़ हो जाएगी, उन मुल्कों में शराब भी प्रगाढ़ हो जाएगी। सच तो यह है कि फिर बिना शराब पीए कामवासना में उतरना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि वह थोड़ी सी जो समझ है, वह भी बाधा डालती है। शराब पीकर आदमी फिर ठीक पशुवत व्यवहार कर सकता है।
यह जो हमारी वृत्ति है कि हम किसी को आकर्षित करें, अगर आप आकर्षित करना चाहते हैं किसी को, तो आपको किसी न किसी मामले में मदमत्त होना चाहिए। जो राजनीतिज्ञ नेता पागल की तरह बोलता है, जो पागल की तरह आश्र्वासन देता है, जो कहता है कि कल मेरे हाथ में ताकत होगी तो स्वर्ग आ जाएगा पृथ्वी पर, वह ज्यादा लोगों को आकर्षित करता है। जो समझदारी की बातें कहता है, उससे कोई आकर्षित नहीं होता। जिस अभिनेत्री की आंखों से शराब आपकी तरफ बहती हुई मालूम पड़ती है, वह आकर्षित करती है। अभिनेत्री के पास बुद्ध जैसी आंख हो, तो आप पागल जैसे गए हों तो शांत होकर घर लौट आएंगे। उसके पास आंख चाहिए जिसमें शराब का भाव हो। मदहोश आंख चाहिए। उसके चेहरे पर जो रौनक हो, वह आपको जगाती न हो, सुलाती हो।
जहां भी हमें बेहोशी मिलती है, वहां हमें रस आता है। जिस चीज को भी देख कर आप अपने को भूल जाते हैं, समझना कि वहां शराब है। जिस चीज को भी देख कर आप अपने को भूल जाते हैं, अगर एक अभिनेत्री को देख कर आपको अपना खयाल नहीं रह जाता, तो आप समझना कि वहां बेहोशी है, शराब है। और शराब ही आपको खींच रही है। शराब, शराब की बोतलों में ही नहीं होती, आंखों में भी होती है, वस्त्रों में भी होती है, चेहरों में भी होती है, हाथों में भी होती है, चमड़ी में भी होती है। शराब बड़ी व्यापक घटना है।
महावीर कहते हैं कि जो व्यक्ति इस तरह के रसों का सेवन करता है जो मादक हैं, और जो अपने भीतर की मादकता को मिटाता नहीं, बढ़ाता है, उसकी तरफ वासनाएं ऐसे ही दौड़ने लगेंगी जैसे फल भरे वृक्ष के पास पक्षी दौड़ आते हैं। और जो व्यक्ति अपने पास वासनाएं बुला रहा है वह अपने हाथ से अपने बंधन आकर्षित कर रहा है। वह अपनी हथकड़ियों और अपनी बेड़ियों को निमंत्रण दे रहा है कि आओ, वह अपने हाथ से अपने कारागृहों को बुला रहा है कि आओ, और मेरे चारों तरफ निर्मित हो जाओ। वह व्यक्ति कभी मुक्त, वह व्यक्ति कभी शांत, वह व्यक्ति कभी शून्य, वह व्यक्ति कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि सत्य की पहली शर्त है, स्वतंत्रता। सत्य की पहली शर्त है, एक मुक्त भाव। और वासनाओं में कोई कैसे मुक्त हो सकता है?
‘काम-भोग अपने आप न किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्वेष रूपी विकृति पैदा करते हैं, परंतु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्वेष के नाना संकल्प बना कर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है।’
यह सूत्र कीमती है।
महावीर कहते हैं कि सारा खेल कामवासना का तुम्हारा अपना है।
मैं कुंभ के मेले में था। एक मित्र मेरे साथ थे। मेला शुरू होने में अभी देर थी कुछ। हम दोनों बैठे थे गंगा के किनारे, दूर, बहुत दूर नहीं, दिखाई पड़े इतने दूर। एक महिला अपने बाल संवार रही थी स्नान करने के बाद। उसकी पीठ ही दिखाई पड़ती थी। मित्र बिलकुल पागल हो गए। बातचीत में उनका रस जाता रहा। उन्होंने मुझसे कहा कि रुकें। मैं इस स्त्री का चेहरा न देख लूं तब तक मुझे चैन न पड़ेगा। मैं जाऊं, चेहरा देख आऊं। वह गए, और वहां से बड़े उदास लौटे। वह स्त्री नहीं थी, एक साधु था जो अपने बाल संवार रहा था। गए, तब उनके पैरों की चाल, लौटे तब उनके पैरों का हाल! मगर संकोची होते, शिष्ट होते, मन में ही रख लेते, और जिंदगी भर परेशान रहते।
सच में ही पीछे से आकृति आकर्षक मालूम पड़ी थी। पर वह आकर्षण वहां था या मन में था? क्योंकि वहां जाकर पता चला कि पुरुष है, तो आकर्षण खो गया।
आकर्षण स्त्री में है या स्त्री के भाव में है? आकर्षण पुरुष में है या पुरुष के भाव में है?
गहरा आकर्षण भीतर है, उसे हम फैलाते हैं बाहर। बाहर खूंटियां हैं सिर्फ, उन पर हम टांगते हैं अपने आकर्षण को। और ऐसा भी नहीं है कि ऐसी घटना घटे, तभी पता चलता है। आज आप किसी के लिए दीवाने हैं, बड़ा रस है। और कल सब फीका हो जाता है, और आप खुद ही नहीं सोच पाते कि क्या हुआ, कल इतना रस था, आज सब फीका क्यों हो गया? व्यक्ति वही है, सब रस फीका हो गया!
मन का जो आकर्षण था, वह पुनरुक्ति नहीं मांगता। अगर व्यक्ति का ही आकर्षण हो तो वह आज भी उतना ही रहेगा, कल भी उतना था, परसों भी उतना ही रहेगा। लेकिन मन नये को मांगता है। इसलिए जिसे आज आकर्षित जाना है, पक्का समझ लेना, कल वह उतना आकर्षित नहीं रहेगा। परसों और फीका हो जाएगा। नरसों धूमिल हो जाएगा, आठ दिन बाद दिखाई भी नहीं पड़ेगा, सब खो जाएगा।
यह मन तो नये को मांगता है। पुराने में इसका रस खोने लगता है। यह मन का स्वभाव है। कुछ भूल नहीं है इसमें, सिर्फ उसका स्वभाव है। आज जो भोजन किया, कल जो भोजन किया, परसों जो भोजन किया, तो चौथे दिन घबड़ाहट हो जाएगी। मन तो ऐसा ही मांगता है; आज भी वही पत्नी है, कल भी वही पत्नी है, परसों भी वही पत्नी है। चौथे दिन मन उदास हो जाएगा। मन तो नये को मांगता है। इसलिए अगर पत्नी में आकर्षण जारी रखना है, तो नये के सब उपाय बिलकुल बंद कर देने चाहिए, तो मार-पीट कर आकर्षण चलता रहता है। इसलिए हमने विवाह के इतने इंतजाम किए हैं, ताकि बाहर कोई उपाय ही न रह जाए।
जिन मुल्कों ने बाहर के उपाय छोड़ दिए, वहां विवाह टूट रहा है। विवाह बच नहीं सकता। विवाह एक बड़ी आयोजना है, वह आयोजना ऐसी है कि पुरुष फिर किसी और स्त्री को ठीक से देख भी न पाए। स्त्री फिर किसी और पुरुष के निकट पहुंच भी न पाए। तो फिर मजबूरी में उन दोनों को हमने छोड़ दिया। उसका मतलब यह हुआ कि मुझे आज भी वही भोजन दें, कल भी वही भोजन दें, परसों भी वही भोजन दें, और अगर किसी और भोजन का कोई उपाय ही न हो, और मेरी कालकोठरी में वही भोजन मुझे उपलब्ध होता हो, तो चौथे दिन भी मैं वही भोजन करूंगा। पांचवें दिन भी करूंगा। लेकिन अगर मुझे और भोजन उपलब्ध हो सकते हों, कोई अड़चन न आती हो, कोई असुविधा न आती हो, तो नहीं करूंगा।
इसलिए एक बात पक्की है, विवाह तभी तक टिक सकता है दुनिया में, जब तक हम बाहर के सारे आकर्षणों को पूरी तरह रोक रखते हैं। और बाहर के आकर्षण में जितना आकर्षण मिलता है, उससे ज्यादा खतरा मिले, उपद्रव मिले, झंझट मिले, परेशानी मिले, तो रुक सकता है। नहीं तो विवाह टूट जाएगा। लेकिन यह विवाह जो टूट जाएगा, झूठा ही होगा। जिस दुनिया में सारा आकर्षण मिलता हो और विवाह बच जाए, तो ही समझना कि विवाह है। नहीं तो धोखा था। इसलिए जिस दिन विवाह के कोई बंधन नहीं होंगे, उसी दिन हमें पता चलेगा कि कौन पति-पत्नी हैं, उसके पहले कोई पता नहीं चल सकता--कोई उपाय नहीं पता चलने का।
मुझे क्या पसंद है, मेरा किसके साथ गहरा नाता है, आंतरिक, वह तभी पता चलेगा जब बदलने के सब उपाय हों, और बदलाहट न हो, जब बदलने के कोई उपाय ही न हों, और बदलाहट न हो तो सभी पत्नियां सतियां हैं। कोई अड़चन नहीं है, और सभी पति एक पत्नीव्रती हैं। जितना हमारे चारों तरफ खूंटियां हों, उतना ही हमें पता चलेगा कि कितना प्रोजेक्शन है, कितना हमारा मन एक खूंटी से दूसरी खूंटी, दूसरी से तीसरी पर नाचता रहता है। जो हम रस पाते हैं उस खूंटी से, वह भी
हमारा दिया हुआ दान है, यह महावीर कह रहे हैं। उससे कुछ मिलता नहीं है हमें।
एक कुत्ता है, वह एक हड्डी को मुंह में लेकर चूस रहा है। कुत्ता जब हड्डी चूसे, तो बैठ कर ध्यान करना चाहिए उस पर क्योंकि वह बड़ा गहरा काम कर रहा है, जो सभी आदमी करते हैं। कुत्ता हड्डी चूसता है, तो हड्डी में कुछ रस तो होता नहीं, लेकिन कुत्ते के खुद ही मुंह में जख्म हो जाते हैं। हड्डी चूसने से, उनसे खून निकलने लगता है। वह जो खून निकलने लगता है, वह कुत्ता समझता है, हड्डी से आ रहा है। वह खून गले में जाता है, स्वादिष्ट मालूम पड़ता है, अपना ही खून है। लेकिन कुत्ता समझे भी कैसे कि हड्डी से नहीं निकल रहा है। जब हड्डी चूसता है, तभी निकलता है। स्वभावतः तर्कयुक्त है, गणित साफ है कि जब हड्डी चूसता हूं, तभी निकलता है, हड्डी से निकलता है। लेकिन वह निकलता है अपने ही मसूढ़ों के टूट जाने से, अपने ही मुंह में घाव हो जाने से। कुत्ता मजे से हड्डी चूसता रहता है, और अपना ही खून पीता रहता है।
जब आप किसी और से रस लेते हैं, तब आप हड्डी चूस रहे हैं। रस आपके ही मन का है, अपना ही खून झरता है। किसी दूसरे से कोई रस मिलता नहीं, मिल सकता नहीं। अगर एक व्यक्ति संभोग में भी सोचता है, सुख मिल रहा है तो वह अपने ही खून झरने से मिलता है, किसी दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं है। हड्डी चूसना है। लेकिन कठिन है, न कुत्ते की समझ में आता है, न आदमी की समझ में आता है। खुद को समझना जटिल है।
महावीर कहते हैं: ‘काम-भोग अपने आप न मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं...।’
न तो सोचना कि काम-भोग से कोई समता उपलब्ध होती है, सुख उपलब्ध होता है, शांति उपलब्ध होती है। इससे विपरीत भी मत सोचना। साधु-संन्यासी यही सोचते हैं, काम-भोग से दुख उत्पन्न होता है। कठिनाई आती है, राग-द्वेष पैदा होते हैं, नरक निर्मित होता है। ध्यान रखना कि यह वही आदमी है जो कल सोचता था कि काम-भोग से स्वर्ग मिलता है। यह वही आदमी है, अब शीर्षासन करने लगा। अब यह कहता है कि काम-भोग से नरक मिलता है।
महावीर कहते हैं, काम-भोग से न स्वर्ग मिलता है, न नरक मिलता है। काम-भोग पर स्वर्ग भी तुम्हारा मन ही आरोपित करता है, काम-भोग पर तुम्हारा मन ही तुम्हारा नरक भी निर्मित करता है। तुम काम-भोग से वही पाते हो जो तुम डाल देते हो उसमें। तुम्हें वही मिलता है जो तुम्हारा ही दिया हुआ है। और तुम देना, डालना बंद कर दो तो काम-भोग विलीन हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। खूंटियां खड़ी रहें अपनी जगह, तुम अपनी वृत्तियों को उन पर टांगना बंद कर देते हो।
और जिस दिन कोई व्यक्ति यह जान लेता है कि सुख भी मेरे, दुख भी मेरे--सब भाव मेरे हैं, उस दिन व्यक्ति मुक्त हो जाता है। जब तक मुझे लगता है कि दुख किसी और से आता है, सुख किसी और से आता है, तब तक मैं परतंत्र होता हूं, निर्भर होता हूं।
मुक्ति का यही है अर्थ--जिस दिन मुझे लगता है कि सब-कुछ मेरा फैलाव है। जहां मैंने चाहा, सुख पाऊं, वहां मैंने सुख देख लिया। जहां मैंने चाहा, दुख पाऊं, वहां मैंने दुख देख लिया। जो मैंने देखा, वह मेरी आंख से गए हुए चित्र थे, जगत ने केवल पर्दे का काम किया, चित्र मेरे थे। प्रोजेक्टर मैं हूं। लेकिन प्रोजेक्टर दिखाई नहीं पड़ते। फिल्म में भी आप बैठ कर देखते हैं, प्रोजेक्टर पीठ के पीछे होता है। वह वहां छिपा रहता है, दीवाल के भीतर, छोटे से छेद से निकलते रहते हैं चित्र, दिखाई पड़ते हैं पर्दे पर, जहां होते नहीं। जहां होते हैं, वह होती है पीठ के पीछे, वहां कोई देखता नहीं। पर्दे पर कुछ होता नहीं। पर्दे पर केवल जो प्रोजेक्टर फेंकता है, वही दिखाई पड़ता है।
ध्यान रहे, जब मैं किसी स्त्री, किसी पुरुष, किसी मित्र, किसी शत्रु के प्रति किसी भाव में पड़ जाता हूं, तो प्रोजेक्टर मेरे पीछे भीतर छिपा है जहां से मैं चित्र फेंकता हूं, और दूसरा व्यक्ति केवल एक पर्दा है, जिस पर वह चित्र दिखाई पड़ता है। मैं ही दिखाई पड़ता हूं बहुत लोगों पर।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब किसी आदमी में तुम्हें कोई बुराई दिखाई पड़े, तो बहुत गौर से सोचना। ज्यादा मौके ये हैं कि वह बुराई तुम्हारी होगी। जैसे एक बाप है--अगर बाप गधा रहा हो स्कूल में, तो बेटे को गधा बिलकुल बरदाश्त नहीं कर सकेगा, बेटे को वह बुद्धिमान बनाने की कोशिश में लगा रहेगा। और जरा सा बेटा कुछ नासमझी और मूढ़ता करे, और जरा नंबर उसके कम हो जाएं तो भारी शोरगुल मचाएगा। बुद्धिमान बाप इतना नहीं मचाएगा। बुद्धू बाप जरूर मचाएगा। उसका कारण है, कि बेटा सिर्फ प्रोजेक्शन का पर्दा है। जो उनमें कम रह गया है वह उसमें पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा एक दिन अपना स्कूल से प्रमाण-पत्र लेकर लौटा सालाना परीक्षा का। मुल्ला ने बहुत हाय-तौबा मचाई, बहुत उछला-कूदा। और कहा कि बरबाद कर दिया, नाम डुबा दिया। किसी विषय में बेटा उत्तीर्ण नहीं हुआ है। अधिकतर में शून्य प्राप्त हुआ है।
लेकिन बेटा नसरुद्दीन का ही था। वह खड़ा मुस्कुराता रहा। जब बाप काफी शोरगुल कर लिया और काफी अपने को उत्तेजित कर लिया, तब उसने कहा कि जरा ठहरिए, यह प्रमाण-पत्र मेरा नहीं है, पुरानी कुरान की किताब में मिल गया है। यह आपका है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: तो ठीक, तो जो मेरे बाप ने मेरे साथ किया था वही मैं तेरे साथ करूंगा।
उसके लड़के ने पूछा: तुम्हारे बाप ने तुम्हारे साथ क्या किया था?
उसने कहा: नंगा करके चमड़ी उधेड़ दी थी।
तो ठीक! मेरा ही सही, कोई हर्जा नहीं। तेरा कहां है?
उसके बेटे ने कहा: मेरी भी हालत यही है। इसीलिए तो मैंने आपका दिखाया है कि शायद आप थोड़े नरम हो जाएं।
उसने कहा कि नरम का कोई उपाय नहीं। जो मेरे बाप ने मेरे साथ किया था, वही मैं तेरे साथ करूंगा।
जो हमें दूसरों में दिखाई पड़ता है--आपको दिखाई पड़ता है कि फलां आदमी बहुत ईर्ष्यालु है, थोड़ा खयाल करना, कहीं वह आदमी पर्दा तो नहीं है, और आपके भीतर ईर्ष्या है। आपको दिखाई पड़ता है, फलां आदमी बहुत अहंकारी है, थोड़ा खयाल करना, कहीं वह पर्दा तो नहीं है, और अहंकार आपके भीतर है। आपको लगता है, फलां आदमी बेईमान है, थोड़ा खयाल करना, थोड़ा मुड़-मुड़ कर देखना शुरू करो, ताकि प्रोजेक्टर का पता चले। पर्दे पर ही मत देखते रहो।
महावीर कहते हैं, सब पीछे से, भीतर से आ रहा है और बाहर फैल रहा है। सारा खेल तुम्हारा है। तुम्हीं हो नाटक के लेखक, तुम्हीं हो उसके पात्र, तुम्हीं हो उसके दर्शक। दूसरे को मत खोजो, अपने को खोज लो। जो इस खोज में लग जाता है, वह एक दिन मुक्त हो जाता है।
आज इतना ही।