MAHAVIR
Mahaveer Vani 28
TwentyEighth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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अप्रमाद-सूत्र:
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिए आसुपन्ने।
घोरा मुहुत्ता अवलं शरीरं,
भारुंडपक्खी च चरऽप्पमत्ते।।
आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोह-निद्रा में सोए हुए संसारी मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए और किसी का विश्र्वास नहीं करना चाहिए।
काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल, यह जान कर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-भाव से विचरना चाहिए।
पहले कुछ प्रश्र्न।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, मनुष्य जीवन है दुर्लभ, लेकिन हम आदमियों को उस दुर्लभता का बोध क्यों नहीं होता? श्रवण करने की कला क्या है? कलियुग, सतयुग मनोस्थितियों के नाम हैं? क्या बुद्धत्व को भी हम एक मनोस्थिति ही समझें?
जो मिला हुआ है, उसका बोध नहीं होता। जो नहीं मिला है, उसकी वासना होती है, इसलिए बोध होता है।
दांत आपका एक टूट जाए, तो ही पता चलता है कि था। फिर जीभ चौबीस घंटे वहीं-वहीं जाती है। दांत था तो कभी नहीं गई थी; अब नहीं है, खाली जगह है तो जाती है।
जिसका अभाव हो जाता है, उसका हमें पता चलता है। जिसकी मौजूदगी होती है, उसका हमें पता नहीं चलता। मौजूदगी के हम आदी हो जाते हैं।
हृदय धड़कता है, पता नहीं चलता, श्र्वास चलती है, पता नहीं चलता। श्र्वास में कोई अड़चन आ जाए तो पता चलता है, हृदय रुग्ण हो जाए तो पता चलता है। हमें पता ही उस बात का चलता है जहां कोई वेदना, कोई दुख, कोई अभाव पैदा हो जाए। मनुष्यत्व का भी पता चलता है, हम आदमी थे, इसका भी पता चलता है जब आदमियत खो जाती है हमारी, मौत छीन लेती है हमसे। जब अवसर खो जाता है, तब हमें पता चलता है।
इसलिए मौत की पीड़ा वस्तुतः मौत की पीड़ा नहीं है, बल्कि जो अवसर खो गया, उसकी पीड़ा है। अगर हम मरे आदमी से पूछ सकें कि अब तेरी पीड़ा क्या है तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं मर गया, यह मेरी पीड़ा है। वह कहेगा कि जीवन मेरे पास था और यों ही खो गया, यह मेरी पीड़ा है।
हमें पता ही तब चलता है जीवन का, जब मौत आ जाती है। इस विरोधाभास को ठीक से समझ लें।
आप किसी को प्रेम करते हैं। उसका आपको पता ही नहीं चलता, जब तक कि वह खो न जाए। आपके पास हाथ है, उसका पता नहीं चलता, कल टूट जाए तो पता चलता है। जो मौजूद है, हम उसके प्रति विस्मृत हो जाते हैं। खो जाए, न हो, तो हमें याद आती है। यही कारण है कि हम आदमी की तरह पैदा होते हैं तो हमें पता नहीं चलता कि कितना बड़ा अवसर हमारे हाथ में है। मछलियों को, कहते हैं, सागर का पता नहीं चलता। मछली को सागर के बाहर डाल दें रेत पर, तड़फे, तब उसे पता चलता है। जहां वह थी वह सागर था, जीवन था; जहां अब वह है, वहां मौत है।
जिस मछली को सागर में पता चल जाए, वह संतत्व को उपलब्ध हो गई कि सागर है। जिस आदमी को आदमियत खोए बिना, अवसर खोए बिना, पता चल जाए, उसके जीवन में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। महावीर हैं, बुद्ध हैं, कृष्ण हैं--उनकी सारी चेष्टा यही है कि हमें पता चल जाए तभी, जब कि अवसर शेष है। तो शायद हम अवसर का उपयोग कर लें। तो शायद अवसर को हम स्वर्णिम बना लें। शायद अवसर हमारे जीवन को और वृहत्तर परम जीवन में ले जाने का मार्ग बन जाए। अगर पता भी उस दिन चला जब हाथ से सब छूट चुकता है तो उस पता चलने की कोई सार्थकता नहीं है, मगर यह मन का नियम है, मन को अभाव का पता चलता है।
गरीब आदमी को पता चलता है धन का, अमीर आदमी को धन का पता नहीं चलता। जो नहीं है हमारे पास वह दिखाई पड़ता है, जो है वह हम भूल जाते हैं।
इसलिए जो-जो आपको मिलता चला जाता है, आप भूलते चले जाते हैं और जो नहीं मिला होता, उस पर आंख अटकी रहती है। यह सामान्य मन का लक्षण है। इस लक्षण को बदल लेना साधना है। जो है, उसका पता चले तो बड़ी क्रांति घटित होती है। अगर जो नहीं है, उसका पता चले तो आपके जीवन में सिर्फ असंतोष के अतिरिक्त कुछ भी न होगा। जो है, उसका पता चले तो जीवन में परम तृप्ति छा जाएगी। जो नहीं है, उसका ही पता चले तो अक्सर अवसर जब खो जाएगा तब आपको पता चलेगा। जो है, उसका पता चले तो जो अवसर अभी मौजूद है, उसका आपको पता चलेगा; और अवसर आने के पहले, अवसर आते ही बोध हो जाए, तो हम अवसर को जी लेते हैं, अन्यथा चूक जाते हैं।
इसलिए ध्यान, जो है, उसको देखने की कला है। और मन, जो नहीं है, उसकी वासना करने की विधि है।
श्रवण करने की कला क्या है? सुनने की कला क्या है? निश्र्चित ही कला है, और महावीर ने कहा है, धर्म-श्रवण, दुर्लभ चार चीजों में एक है। तो बहुत सोच कर कहा है। श्रवण की कला--सुनते तो हम सब हैं। कला की क्या बात है? हम तो पैदा ही होते हैं कान लिए हुए, सुनना हमें आता ही है।
नहीं; लेकिन हम सुनते नहीं हैं, सुनने के लिए कुछ अनिवार्य शर्तें हैं। पहली, जब आप सुन रहे हों तब आपके भीतर विचार न हों। अगर विचार की भीड़ भीतर है, तो जो आप सुनेंगे वह वही नहीं होगा जो कहा गया है। आपके विचार उसे बदल देंगे, रूपांतरित कर देंगे। उसकी शक्ल और हो जाएगी। विचार हट जाने चाहिए बीच से। मन खाली हो, शून्य हो और सुने, तभी जो कहा गया है, वह आप सुनेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप उस पर विचार न करें। लेकिन विचार तो सुनने के बाद ही हो सकता है। सुनने के साथ ही विचार नहीं हो सकता। जो सुनने के साथ ही विचार कर रहा है, वह विचार ही कर रहा है, सुन नहीं रहा है।
सुनते समय सुनें, सुन लें पूरा, समझ लें क्या कहा गया है, फिर खूब विचार कर लें। लेकिन विचार और सुनने को जो साथ में मिश्रित कर देता है, वह बहरा हो जाता है। वह फिर अपने ही विचारों की प्रतिध्वनि सुनता है। फिर वह नहीं सुनता जो कहा गया है, वही सुन लेता है, जो उसके विचार उसे सुनने देते हैं।
अपने को अलग कर देना सुनने की कला है। जब सुन रहे हैं, तब सिर्फ सुनें। और जब विचार रहे हैं, तब सिर्फ विचारें। एक क्रिया को एक समय में करना ही उस क्रिया को शुद्ध करने कि विधि है। लेकिन हम हजार काम एक साथ करते रहते हैं। अगर मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो आप उसे सुन भी रहे हैं, आप उस पर सोच भी रहे हैं, उस संबंध में आपने जो पहले सुना है, उसके साथ तुलना भी कर रहे हैं। अगर आपको नहीं जंच रहा है, तो विरोध भी कर रहे हैं; अगर जंच रहा है, तो प्रशंसा भी कर रहे हैं। यह सब साथ चल रहा है। इतनी पर्तें अगर साथ चल रही हैं तो आप सुनने से चूक जाएंगे। फिर आपको राइट लिसनिंग, सम्यक श्रवण की कला नहीं आती।
महावीर ने तो श्रवण की कला को इतना मूल्य दिया है कि अपने चार घाटों में, जिनसे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंच सकता है, श्रावक को भी एक घाट कहा है। जो सुनना जानता है, उसे श्रावक कहा है। महावीर ने तो कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले तो भी उस पार पहुंच जाएगा। क्योंकि सत्य अगर भीतर चला जाए तो फिर आप उससे बच नहीं सकते। सत्य अगर भीतर चला जाए तो वह काम करेगा ही। अगर उससे बचना है तो उसे भीतर ही मत जाने देना, तो सुनने में ही बाधा डाल देना। उसी समय अड़चन खड़ी कर देना। एक बार सत्य की किरण भीतर पहुंच जाए तो वह काम करेगी, फिर आप कुछ कर न पाएंगे।
इसलिए महावीर ने कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले, तो भी पार हो सकता है। हमको हैरानी लगेगी कि ठीक से सुनने से कोई कैसे पार हो सकता है!
जीसस ने भी कहा है कि सत्य मुक्त करता है। अगर जान लिया जाए, तो फिर आप वही नहीं हो सकते जो आप उसके जानने के पहले थे। क्योंकि सत्य को जान लेना, सुन लेना भी, आपके भीतर एक नई घटना बन जाती है। फिर सारा पर्सपेक्टिव, सारा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है। फिर उस सत्य का जुड़ गया आपसे संबंध, अब आप देखेंगे और ढंग से, उठेंगे और ढंग से। अब आप कुछ भी करेंगे, वह सत्य आपके साथ होगा। अब उससे बच कर भागने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए जो कुशल हैं भागने में, बचने में, वे सुनते ही नहीं। हमने सुना है कि लोग अपने कान बंद कर लेते हैं, विपरीत बात सुनाई न पड़ जाए, प्रतिकूल बात सुनाई न पड़ जाए। हाथों से कान बंद करने वाले मूढ़ तो बहुत कम हैं, लेकिन हम ज्यादा कुशल हैं। हम भी कान बंद रखते हैं। हाथों से नहीं रखते। हम भीतर विचारों की पर्त कान के आस-पास इकट्ठी कर देते हैं। बाहर से कान बंद नहीं करते, भीतर से विचार से कान बंद कर देते हैं। तब कान पर कोई बात सुनाई पड़ती है, वह विचार की पर्त जांच-पड़ताल कर लेती है। वह हमारा सैंसर है। वहां से पार हम होने देते हैं तभी, जब लगे हमारे अनुकूल है।
और ध्यान रखना, सत्य आपके अनुकूल नहीं हो सकता, आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ता है। अगर आप सोचते हैं, सत्य आपके अनुकूल हो, तभी गृहीत होगा, तो आप सदा असत्य में जीएंगे। आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ेगा। इसलिए पहली बात तो ठीक से सुन लेना जरूरी है कि क्या कहा गया है। जरूरी नहीं कि उसे मान लें।
सुनने का अर्थ मानना नहीं है। इससे लोगों को बड़ी भ्रांति होती है। कई को ऐसा लगता है कि अगर हमने सोचा-विचारा न, तो इसका मतलब हुआ कि हम बिना ही सोचे-विचारे मान लें! सुनने का अर्थ मानना नहीं है। सिर्फ सुन लें, अभी मानने न मानने की बात ही नहीं है। अभी तो ठीक तस्वीर सामने आ जाएगी कि क्या कहा गया है। फिर मानना न मानना पीछे कर लेना।
और एक बड़े मजे की बात है, अगर सत्य ठीक से सुन लिया जाए तो पीछे न मानना बहुत मुश्किल है; अगर सत्य है, तो पीछे न मानना बहुत मुश्किल है। अगर सत्य नहीं है तो पीछे मानना बहुत मुश्किल है। पर एक दफा शुद्ध प्रतिबिंब बन जाना चाहिए, फिर मानने न मानने की बात कठिन नहीं है। साफ हो जाएगी। सत्य मना ही लेता है। सत्य कनवर्शन है। फिर आप बच न सकेंगे। फिर तो आपको ही दिखाई पड़ने लगेगा कि मानने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। फिर सोचें खूब, फिर कसौटी करें खूब। लेकिन सोचना और कसौटी भी निष्पक्ष होनी चाहिए।
हमारा सोचने का क्या अर्थ होता है?
हमारा सोचने का अर्थ होता है--पूर्वाग्रह। हमारी जो प्रिज्युडिस होती है, जो हमने पहले से मान रखा है उससे अनुकूल खाए, उससे अनुकूल हो तो सत्य है।
एक आदमी हिंदू घर में पैदा हुआ है, एक आदमी मुसलमान घर में, एक आदमी जैन घर में, तो जो उसने पहले से मान रखा है, वही, उससे मेल खा जाए, इसका नाम सोचना नहीं है। यह तो सोचने से बचना है, एस्केपिंग फ्रॉम थिंकिंग। आपने जो मान रखा है, अगर वही सत्य है तब तो आपको खोज ही नहीं करनी चाहिए। आपने जो मान रखा है, अगर उसको ही पकड़ कर कसौटी करनी है, तब तो आपकी सारी कसौटियां झूठी हो जाएंगी। जो आपने मान रखा है, उसको भी दूर रखिए; जो आपने सुना है उसको भी दूर रखिए। आप दोनों से अलग हो जाइए, किसी से अपने को जोड़िए मत। क्योंकि जिससे आप जोड़ रहे हैं, वहां पक्षपात हो जाएगा। दोनों को तराजू पर रखिए,आप दूर खड़े हो जाइए। आप निर्णायक रहिए, पक्षपाती नहीं।
हर बार जब नई बात सुनी जाए, तो पुरानी को अपना मान कर और नई को दूसरे की मान कर अगर तौलिएगा, तो आप कभी निष्पक्ष चिंतन नहीं कर सकते। अपनी पुरानी को भी दूर रखिए, इस नई को भी दूर रखिए, दोनों पराई हैं। सिर्फ फर्क इतना है कि एक बहुत पहले सुनी थी, एक अब सुनी है। समय भर का फासला है। कोई बात बीस साल पहले सुनी थी, कोई आज सुनी है। बीस साल पुरानी जो थी, वह आपकी नहीं हो गई है, वह भी पराई है। उसे भी दूर रखिए, इसे भी दूर रखिए। और स्वयं को पार, अलग रखिए, और तब दोनों को सोचिए। इस सोचने में पक्ष मत बनाइए, निष्पक्ष दृष्टि से देखिए तो निर्णय बहुत आसान होगा। और बड़ा मजा यह है कि इतना निष्पक्ष जो चित्त हो उसे सत्य दिखाई पड़ने लगता है, सोचना नहीं पड़ता।
इसलिए हमने निरंतर इस मुल्क में कहा है कि सत्य सोच विचार से उपलब्ध नहीं होता, दर्शन से उपलब्ध होता है। यह निष्पक्ष चित्त दर्शन की स्थिति है, देखने में आप कुशल हो गए। अब आपको दिखाई पड़ेगा, कि क्या है सत्य और क्या है असत्य। अब आपकी आंख खुल गई। यह आंख देख लेगी कि क्या है सत्य, और क्या है असत्य। लेकिन अगर पक्षपात तय है, आप हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं। बंधे हैं अपने पक्षपात से, तो फिर आप कुछ भी न देख पाएंगे। वह पक्षपात आपकी आंख को बंद रखेगा।
जो पक्षपात से देखता है, वह अंधा है। जो निष्पक्ष होकर देखता है, वह आंख वाला है। सुनें, फिर आंख वाले का व्यवहार करें।
कलियुग, सतयुग मनोस्थितियां हैं, बुद्धत्व मनोस्थिति नहीं है। स्वर्ग-नरक मनोस्थितियां हैं, बुद्धत्व मनोस्िथति नहीं है, या जिनत्व मनोस्थिति नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें।
हमारे भीतर तीन तल हैं। एक हमारे शरीर का तल है। सुविधाएं-असुविधाएं, कष्ट-अकष्ट शरीर की घटनाएं हैं। इसलिए अगर आपका ऑपरेशन करना है तो आपको एक इंजेक्शन लगा देते हैं। वह अंग शून्य हो जाता है। फिर ऑपरेशन हो सकता है, आपको कोई तकलीफ नहीं होती है। पैर कट रहा है, आपको कोई तकलीफ नहीं होती। क्योंकि पैर कट रहा है, इसकी खबर मन को होनी चाहिए। जब खबर होगी, तभी तकलीफ होगी।
मन की तकलीफ नहीं है, यह तकलीफ पैर की है। तो पैर और मन के बीच में जिनसे जोड़ है, जिन स्नायुओं से, उनको बेहोश कर दिया तो आप तक तकलीफ पहुंचती नहीं। तकलीफ पहुंचनी चाहिए तो ही!
कष्ट, असुविधाएं शरीर की घटनाएं हैं। इसलिए बड़े मजे की बात है, आपके पैर में तकलीफ हो रही है, इंजेक्शन लगा दिया जाए, आपको पता नहीं चलता। आप मजे से लेटे गपशप करते रहते हैं। इससे उलटा भी हो सकता है--पैर में तकलीफ नहीं हो रही, और आपके स्नायुओं को कंपित कर दिया जाए, जिनसे तकलीफ की खबर मिलती, तो आपको तकलीफ होगी। आप छाती पीट कर चिल्लाएंगे कि मैं मरा जा रहा हूं; और कहीं कोई तकलीफ नहीं हो रही।
तकलीफ से आपको जानने से रोका जा सकता है। तकलीफ की झूठी खबर मन को दी जा सकती है। मन के पास कोई उपाय नहीं है जांचने का कि सही क्या है, गलत क्या है। शरीर जो खबर दे देता है वह मन मान लेता है। ये शरीर की स्थितियां हैं, आपको भूख लगी है, प्यास लगी है, ये सब शरीर की स्थितियां हैं। इसके पीछे मन की स्थितियां हैं। आपको सुख हो रहा है, आपको दुख हो रहा है, ये मन की स्थितियां हैं।
देखते हैं कि मित्र चला आ रहा है, चित्त प्रसन्न हो जाता है। सुखी हो गए। लेकिन पास आकर पता चलता है कि धोखा हो गया, मित्र नहीं है, कोई और है, सुख तिरोहित हो गया। यह मन की स्थिति है, इसका मित्र से कोई संबंध नहीं था। क्योंकि मित्र तो वहां था ही नहीं।
रात निकले हैं, और दिखता है कि अंधेरे में कोई खड़ा है, छाती धड़कने लगी, भय हो गया। पास जाते हैं, देखते हैं, कोई भी नहीं है, लकड़ी का ठूंठ है, वृक्ष कटा हुआ है, निश्चिंत हो गए। छाती की धड़कन ठीक हो गई। फिर गुनगुनाने लगे गीत और चलने लगे। यह मन की स्थिति है।
मन, सुख और दुख भोगता है। मन में सतयुग होता है, कलियुग होता है। मन में स्वर्ग होते हैं, नरक होते हैं। शरीर के भी जो पार उठ जाता है, मन के भी जो पार उठ जाता है। उस घड़ी को हम कहते हैं बुद्धत्व, जिनत्व। उस घड़ी को हमने कहा है, कृष्ण चेतना; उस घड़ी को हमने कहा है, क्राइस्ट हो जाना।
जीसस का नाम तो जीसस है, क्राइस्ट नाम नहीं है। क्राइस्ट चित्त के पार होने का नाम है। बुद्ध का नाम तो गौतम सिद्धार्थ है, बुद्ध उनका नाम नहीं है। बुद्धत्व, उनकी चेतना का मन के पार चले जाना है। महावीर का नाम तो वर्धमान है, जिन उनका नाम नहीं है। जिन का अर्थ है, मन के पार चले जाना।
क्राइस्ट के नाम में बड़ा मजा है। जो इतिहास की गहरी खोज करते हैं, वे कहते हैं, क्राइस्ट कृष्ण का अपभ्रंश है। जीसस उनका नाम है, जीसस दी कृष्णा, जीसस जो कृष्ण हो गया। कृष्ण का रूप है क्राइस्ट। बंगाली में अब भी कृष्ण को कहते हैं, क्रिस्टो। बंगाली रूप है, क्रिस्टो। अगर कृष्ण का बंगाली रूप क्रिस्टो हो सकता है, तो हिब्रू या अरैमेक में क्राइस्ट हो सकता है, कोई अड़चन नहीं है।
यह जो, व्यक्ति जहां शरीर और मन, दोनों के पार हट जाता है, उन अवस्थाओं के नाम हैं। बुद्धत्व मनोस्थिति नहीं है, स्टेट ऑफ माइंड नहीं है। बुद्धत्व है स्टेट ऑफ नो-माइंड, अ-मन की स्थिति है, जहां मन नहीं है। बुद्ध के पास कोई मन नहीं है, इसलिए हम उनको बुद्ध कहते हैं। महावीर के पास कोई मन नहीं है, इसलिए हम उनको जिन कहते हैं।
मन का क्या अर्थ होता है? मन का अर्थ होता है: विचारों का संग्रह, कर्मों का संग्रह, संस्कारों का संग्रह, अनुभवों का संग्रह। मन का अर्थ होता है: पास्ट, अतीत, जो बीत गया है उसका संग्रह। मन है जोड़ अतीत अनुभव का। जो हमने जाना, जीया, अनुभव किया उन सबका जोड़ हमारा मन है। मन हमारा संग्रह है समस्त अनुभवों का।
हमारा मन बहुत बड़ा है। हम जानते नहीं। आप तो अपना मन उतना ही समझते हैं, जितना आप जानते हैं, वह तो कुछ भी नहीं है। उसके नीचे पर्त-पर्त गहरा मन है। फ्रायड ने खोज की है कि हमारा चेतन मन, उसके नीचे गहरा अचेतन मन है, अनकांशस है। फिर जुंग ने और खोज की कि उसके नीचे हमारा कलेक्टिव अनकांशस, सामूहिक अचेतन मन है। लेकिन ये खोजें अभी प्रारंभ हैं। बुद्ध और महावीर ने जो खोज की है, अभी उस अतल में उतरने की मनोविज्ञान की सामर्थ्य नहीं है। बुद्ध और महावीर तो कहते हैं, कि यह जो हमारा मन है, इसके नीचे बड़ी पर्तें हैं, आपके सारे जन्मों की, जो पशुओं में हुए हैं, उनकी पर्तें हैं। जो पौधों में हुए उनकी पर्तें हैं।
अगर आप कभी एक पत्थर थे, तो उस पत्थर का अनुभव भी आपके मन की गहरी पर्त में दबा हुआ पड़ा है। कभी आप पौधे थे, तो उस पौधे का अनुभव और स्मृतियां भी आपके मन के पर्त में दबी पड़ी हैं। आप कभी पशु थे, वह भी दबा हुआ पड़ा है। इसलिए कई बार ऐसा होता है कि आपकी उन पर्तों में से कोई आवाज आ जाती है तो आप आदमी नहीं रह जाते। जब आप क्रोध में होते हैं तो आप आदमी नहीं होते। असल में क्रोध के क्षण में आप तत्काल अपने पशु मन से जुड़ जाते हैं और पशु मन प्रकट होने लगता है।
इसलिए अक्सर क्रोध में आप कुछ कर लेते हैं और पीछे कहते हैं, मेरे बावजूद, इंस्पाइट ऑफ मी--मैं तो नहीं करना चाहता था, फिर भी हो गया। फिर किसने किया, आप नहीं करना चाहते थे तो! कभी आपने अपनी क्रोध की तस्वीर देखी है? कभी आईने के सामने खड़े होकर क्रोध करना, तब आप पाएंगे कि यह चेहरा आपका नहीं है। ये आंखें आपकी नहीं हैं। यह कोई और आपके भीतर आ गया। यह कौन है? यह आपका ही कोई पशु-संस्मरण है, कोई स्मृति है, कोई संस्कार; जब आप पशु थे, वह आपके भीतर काम कर रहा है। उसने आपको पकड़ लिया। जब आप अपने को ढीला छोड़ते हैं, तब आपके नीचे का मन आपको पकड़ लेता है।
कई बार कई आदमियों की आंखों में देख कर आपको लगेगा कि वह पथरा गई हैं। लोग कहते हैं, उसकी आंखें पथरा गई हैं। जब हम कहते हैं, किसी की आंखें पत्थर हो गईं, तो उसका क्या मतलब होता है? उसका मतलब है कि इस व्यक्ति के पत्थर जीवन के अनुभव इसकी आंखों को पकड़ रहे हैं आज भी। इसलिए इसकी आंखों में कोई संवेदना नहीं मालूम होती।
अनेक लोग बिलकुल मुर्दा मालूम पड़ते हैं। उनका शरीर लगता है, जैसे लाश है। वे चलते हैं तो ऐसा जैसे कि ढो रहे हैं अपने को। क्या हो गया है इनको?
मन की बहुत पर्तें हैं। इस पर्त-पर्त मन का जो लंबा इतिहास है, वह अतीत है। रोज हम इस मन में जोड़ दिए चले जाते हैं। जो भी हम अनुभव करते हैं, वह उसमें जुड़ जाता है। मैं कुछ बोल रहा हूं, यह आपके मन में जुड़ जाएगा। आपका मन रोज बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है, फैलता जा रहा है।
बुद्धत्व, जिनत्व, इस मन के अतीत के पार उठने की घटना है। जिस दिन कोई व्यक्ति अपने अतीत का त्याग कर देता है, अपने सारे मनों को छोड़ देता है, और अपनी चेतना को मन के पार खींच लेता है और कहता है--अब मैं न शरीर हूं, न अब मैं मन हूं, अब मैं केवल जानने वाला हूं, जो मन को भी जानता है, वह हूं। अब मैं ऑब्जेक्ट नहीं हूं, जाने-जानी वाली चीज नहीं हूं--ज्ञाता हूं, चिन्मय हूं, चैतन्य हूं।
कहने से नहीं--मन यह भी कह सकता है, यही बड़ा मजा है। मन यह भी कह सकता है कि मैं चैतन्य हूं, आत्मा हूं, परमात्मा हूं। लेकिन अगर यह मन कह रहा है, अगर यह आप सुनी हुई बात कह रहे हैं, तो इसका आत्मा से कोई संबंध नहीं है। यह आपका अनुभव बन जाए और आप मन के पार अपने को पहचान लें कि यह मैं मन से अलग हूं, तब बुद्धत्व है।
बुद्ध से कोई पूछता है। बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। एक ज्योतिषी बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। उसने बुद्ध के पैर देख लिए रेत पर बने हुए। वह काशी से लौट ही रहा था अपने पांडित्य की डिग्री लेकर। वह बड़ा ज्योतिषी था। उसने पोथे पंडित, अपनी सारी पोथियां लेकर चला आ रहा था। उसने देखे बुद्ध के चरण, गीली रेत पर, गीली मिट्टी पर पैर के चिह्न थे। वह चकित हो गया। यह आदमी सम्राट होना चाहिए ज्योतिष के हिसाब से। पैर के चिह्न सम्राट के चिह्न हैं। लेकिन कौन सम्राट, नंगे पैर इस साधारण से गरीब गांव की रेत में चलने आएगा!
वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। अभी लौटा ही है काशी से। उसने कहा कि अगर इस साधारण से गांव-देहात में सम्राट नंगे पैर रेत में चलते हों, सम्राट मिलते हों, तो यह पोथी वगैरह यहीं, इसी नदी में डुबा कर हाथ जोड़ लेना चाहिए। कोई मतलब नहीं है। इस आदमी को खोजना पड़ेगा।
वह खोज करके पहुंचा, तो बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। बड़ी मुश्किल में पड़ गया ज्योतिषी। जिसको सम्राट होना चाहिए, वह भिक्षा पात्र लिए बैठा है! अगर यह आदमी सही है, तो ज्योतिष गलत है। अगर ज्योतिष सही है तो इस आदमी को यहां होना ही नहीं चाहिए इस वृक्ष के नीचे।
उसने बुद्ध से जाकर पूछा कि कृपा करें, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। ये पैर के लक्षण सम्राट के हैं, चक्रव्रती सम्राट के। और आप यहां भिखारी होकर बैठे हुए हैं। क्या करूं, पोथियों को डुबा दूं पानी में?
बुद्ध ने कहा: पोथियों को डुबाने की जरूरत नहीं, क्योंकि मेरे जैसा आदमी दुबारा तुम्हें जल्दी नहीं मिलेगा। होना चाहिए था चक्रवती सम्राट ही। ज्योतिष तुम्हारा ठीक ही कहता है। लेकिन एक और जगत है अध्यात्म का, जो ज्योतिष के पार चला जाता है। पर तुम्हें ऐसा बार-बार नहीं होगा, तुम बहुत चिंता में मत पड़ो। ऐसा जल्दी फिर दुबारा नहीं होगा। चक्रवती सम्राट ही होने को पैदा हुआ था, लेकिन उससे और ज्यादा होने का द्वार खुल गया। तो भिखारी मैं नहीं हूं, सम्राट भी मैं नहीं हूं।
तब आश्र्वस्त हुआ ज्योतिषी। उसने गौर से--चिंता छोड़ी--बुद्ध के चेहरे को देखा। वहां जो आभा थी, वहां जो गरिमा थी, वहां जो प्रकाश की किरणें फूट रही थीं... उसने पूछा, क्या आप देवता हैं? मुझसे भूल हो गई, मुझे क्षमा कर दें।
बुद्ध ने कहा: मैं देवता भी नहीं हूं।
तो ज्योतिषी पूछता जाता है कि आप यह हैं, आप यह हैं, आप यह हैं। बुद्ध कहते जाते हैं, मैं यह भी नहीं, मैं यह भी नहीं, मैं यह भी नहीं। तब ज्योतिषी पूछता है, फिर आप हैं क्या? न आप पशु हैं, न आप पक्षी हैं, न आप पौधा हैं, न आप मनुष्य हैं, न आप देवता हैं, तो आप हैं क्या?
बुद्ध कहते हैं: मैं बुद्ध हूं।
तो वह ज्योतिषी पूछता है, बुद्ध होने का क्या अर्थ? तो बुद्ध कहते हैं, जो भी परिधियां हो सकती थीं आदमी की, देवता की, पशु की, वे सब मन के खेल थे। मैं उनके पार हूं। मैंने उसे पा लिया है जो उस मन के भीतर छिपा था। अब मैं मन नहीं हूं।
पशु भी मन के कारण पशु है। और आदमी भी मन के कारण मनुष्य है। पौधा भी मन के कारण पौधा है।
आप जो भी हैं, अपने मन के कारण हैं। जिस दिन आप मन को छोड़ देंगे उस दिन आप वह हो जाएंगे जो आप अकारण हैं। वह अकारण होना ही हमारा ब्रह्मत्व है, वह अकारण होना ही हमारा परमात्म है।
कारण से हम संसार में हैं, अकारण से हम परमात्मा में हो जाते हैं। कारण से हमारी देह निर्मित होती है, मन निर्मित होता है। अकारण हमारा अस्तित्व है। वह है, उसका कोई कारण नहीं है।
बुद्धत्व अवस्था नहीं है, अवस्थाओं के पार हो जाना है।
अब हम सूत्र लें:
‘आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोहनिद्रा में सोए हुए संसारी मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए और किसी
का विश्र्वास नहीं करना चाहिए।’
‘काल निर्दयी है, और शरीर दुर्बल, यह जान कर भारंड पक्षी की भांति अप्रमत्त-भाव से विचरना चाहिए।’
बहुत सी बातें समझने की हैं।
महावीर अकेला पंडित नहीं कहते, आशुप्रज्ञ पंडित। तो पहले तो इस बात को हम समझ लें।
पंडित का अर्थ होता है, जानने वाला, जानकारी वाला, जिसके पास सूचनाओं का बहुत संग्रह है, लर्नेड। शास्त्र का जिसे पता है, सिद्धांत का जिसे पता है, प्राणियों का जिसे बोध है, तर्क में जो निष्णात है, ऐसा व्यक्ति पंडित है। जानकारियां जिसके पास हैं। आशुप्रज्ञ पंडित का अर्थ है, जानकारियां ही जिसके पास नहीं हैं, ज्ञान भी जिसके पास है। ‘आशुप्रज्ञ’ शब्द का अर्थ होता है, ऐसे प्रश्र्न का उत्तर भी जो दे सकेगा, जिस प्रश्र्न के उत्तर की कोई जानकारी उसके पास नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें।
हम उस व्यक्ति को आशु कवि कहते हैं जो कविता बना कर नहीं आया है; जिसकी कविता तत्क्षण बनेगी। जो कविता पहले बनाएगा नहीं, फिर गाएगा नहीं; जो गाएगा और गाने में ही कविता निर्मित होगी। उसको कहते हैं, आशु कवि। उसका गाना और बनाना साथ-साथ है। वह पहले बनाता और फिर गाता, ऐसा नहीं। वह गाता है, और कविता बनती चली जाती है।
आशु कवि का अर्थ है, कविता उसके लिए कोई रचना नहीं है, उसका स्वभाव है। वह बोलेगा, तो कविता है। उसके बोलने में ही काव्य होगा। काव्य को उसे बाहर से लाकर आरोपित नहीं करना होता। वह उससे वैसे ही निकलता है, जैसे वृक्षों में पत्ते निकलते हैं। जैसे झरना बहता है ऐसा उसकी कविता बहती है, निष्प्रयोजन है, निष्चेष्ठित है। उसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। जितना छोटा कवि हो उतना ज्यादा प्रयास करना पड़ता है। जितना बड़ा कवि हो उतना कम प्रयास करना पड़ता है। आशु कवि हो तो प्रयास होता ही नहीं, कविता बहती है। तब कविता एक निर्माण नहीं है, कोई आयोजना, कोई व्यवस्था नहीं है। तब कविता वैसे ही है जैसे श्र्वास का चलना है। ऐसे व्यक्ति को हम कहते हैं, आशु कवि। आशुप्रज्ञ उसे कहते हैं, जिसका ज्ञान स्मृति नहीं है। आप उससे पूछते हैं।
आप किसी से कुछ पूछते हैं तो दो तरह के उत्तर संभव हैं। एक सवाल आप मुझसे पूछें तो दो तरह के उत्तर संभव हैं। एक, आप सवाल पूछें, मैं तत्काल अपनी स्मृति के संग्रह में जाऊं और उत्तर खोज लाऊं। आप मुझसे कुछ पूछें, मैं तत्काल खोजूं अपने अतीत में, अपने मस्तिष्क में, अपनी स्मृति में, अपने कोश में, अपने संग्रह में--उत्तर, उत्तर खींच कर स्मृति से ले आऊं, उत्तर दे दूं। यह एक पंडित का उत्तर है।
आप मुझसे प्रश्र्न पूछें, मैं अपने भीतर चला जाऊं, स्मृति में नहीं। आप मुझसे उत्तर पूछें, मैं उत्तर के सामने अपनी चेतना को खड़ा कर दूं, स्मृति को नहीं। आप उत्तर पूछें, मैं दर्पण की तरह आपके उत्तर के सामने खड़ा हो जाऊं, और मेरी यह चेतना प्रतिध्वनि दे, आपके प्रश्र्न का उत्तर दे। यह उत्तर स्मृति से न आए, इस क्षण की मेरी चेतना से आए, तो आशुप्रज्ञ। आशुप्रज्ञ का अर्थ है, अभी जिसकी चेतना से उत्तर आएगा, ताजा, सद्यःस्नात, अभी-अभी नहाया हुआ, बासा नहीं।
हमारे सब उत्तर बासे होते हैं। बासे उत्तर में समय लगता है, पता चले या न चले। आशुप्रज्ञ में समय नहीं लगता।
आपसे कोई प्रश्र्न पूछे, समय लगता है। अगर ऐसा प्रश्र्न पूछे कि आपका नाम क्या है तो आपको लगता है, कोई समय नहीं लगता। कह देते हैं, राम। लेकिन इसमें भी समय लगता है। असल में आदत हो गई है। आपको पता है कि आपका नाम राम है, इसलिए समय लगता मालूम नहीं पड़ता, लेकिन इसमें भी समय जाता है। लेकिन कोई आपसे पूछे कि आपके पड़ोसी का नाम क्या है? तो आप कहते हैं, जबान पर रखा है, लेकिन याद नहीं आ रहा है।
इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, स्मृति में है, लेकिन हम स्मृति तक पहुंच नहीं पा रहे, बीच में कुछ दूसरी चीजें अड़ गई हैं, कुछ दूसरी स्मृतियां अड़ गई हैं; इसलिए हम ठीक पहुंच नहीं पा रहे। मालूम भी है, लेकिन पकड़ नहीं पा रहे स्मृति में।
आपको जो याद है, उसको आप तत्काल उत्तर दे देते हैं। समय बीत जाता है तो भूल जाता है, फिर आप तत्काल उत्तर नहीं दे पाते। लेकिन अगर आपको थोड़ा समय मिले, सुविधा मिले, तो आप खोज ले सकते हैं उत्तर।
स्मृति से आया हुआ उत्तर पांडित्य का है।
आपसे किसी ने पूछा, ईश्र्वर है? तो आप जो भी उत्तर देंगे वह पांडित्य का हो जाएगा। लेकिन कोई महावीर से पूछे, तो वह उत्तर पांडित्य का नहीं होगा, वह महावीर के जानने से निकलेगा। वह महावीर की जानकारी से नहीं निकलेगा--जानने से निकलेगा। मेमोरी से नहीं, कांशसनेस से, चैतन्य से निकलेगा।
महावीर कोई बंधा हुआ उत्तर तैयार नहीं रखते हैं कि आप पूछेंगे, वे दे देंगे। उनके पास रेडीमेड कुछ भी नहीं है। पंडित के पास सब रेडीमेड है। आप पूछेंगे, वह वही उत्तर देगा जो तैयार है। इसलिए एक बड़ी कठिनाई खड़ी होती है। महावीर का आज का उत्तर जरूरी नहीं कि कल भी हो, परसों भी हो। पंडित का आज भी वही होगा, कल भी वही होगा, परसों भी वही होगा। क्योंकि पंडित के पास वस्तुतः कोई उत्तर नहीं है, केवल एक जानकारी है। महावीर का उत्तर रोज बदल जाएगा, रोज बदल सकता है, प्रतिपल बदल सकता है। क्योंकि वह कोई जानकारी नहीं है।
महावीर की चेतना जो प्रतिध्वनि करेगी, इस प्रतिध्वनि में अंतर पड़ेगा, क्योंकि पूछने वाला रोज बदल जाएगा। और पूछने वाले पर निर्भर करेगा। इसे ऐसा समझें--एक फोटोग्राफ है, तो फोटोग्राफ आज भी वही शक्ल बताएगा, कल भी वही शक्ल बताएगा, परसों भी वही शक्ल बताएगा। किसी को दे दें देखने के लिए, इससे फर्क नहीं पड़ेगा। एक दर्पण है, दर्पण वही शक्ल नहीं बताएगा। जो देखेगा, उसकी ही शक्ल बताएगा। रोज बदल जाएगी शक्ल।
पांडित्य फोटोग्राफ है। सब पक्का बंधा हुआ है। हम उसी आदमी को बड़ा पंडित कहते हैं जिसका फोटोग्राफ बिलकुल साफ है, एक-एक रेखा-रेखा साफ दिखाई पड़ती हो।
महावीर और बुद्ध जैसे लोग दर्पण की भांति हैं। आपकी ही शक्ल दिखाई पड़ेगी। इसलिए जब प्रश्र्न पूछने वाला बदल जाएगा तो उत्तर बदल जाएगा। पंडित का उत्तर कभी नहीं बदलेगा। आप सोते से उठा कर पूछ लो, कुछ भी करो, उसका उत्तर नहीं बदलेगा। उसका उत्तर वही रहेगा।
इससे एक बड़ी कठिनाई पैदा होती है। महावीर और बुद्ध के वचनों में बड़ी असंगतियां दिखाई पड़ती हैं, दिखाई पड़ेंगी। पंडित ही संगत हो सकता है। आशुप्रज्ञ संगत नहीं हो सकता। क्योंकि प्रतिपल परिस्थिति बदल जाती है, पूछने वाला बदल जाता है, संदर्भ बदल जाता है, उत्तर बदल जाता है, दर्पण का प्रतिबिम्ब बदल जाता है।
आप पर निर्भर करेगा कि महावीर का उत्तर क्या होगा। पूछने वाले पर निर्भर करेगा कि उत्तर क्या होगा। इसलिए महावीर कहते हैं, आशुप्रज्ञ पंडित, जिसकी प्रज्ञा प्रतिपल तैयार है उत्तर देने को। प्रज्ञा, जिसका ज्ञान, प्रतिपल तैयार है उत्तर देने को।
‘आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोह-निद्रा में सोए हुए संसारी मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए।’
महावीर कहते हैं कि जिसको भी ऐसी प्रज्ञा में थिर रहना है, ऐसे ज्ञान में थिर रहना है, ऐसे ज्ञान में गति करते जाना है, उसे संसारी सोए हुए मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए। रहना तो पड़ेगा ही सोए हुए लोगों के बीच। क्योंकि वे ही हैं, और तो कोई है भी नहीं। भागने से कोई सार भी नहीं है। कहीं भी भाग जाओ, सोए हुए लोगों के बीच ही रहना पड़ेगा। यह जरा समझ लेने जैसा है।
अक्सर लोग सोचते हैं कि शहर छोड़ कर गांव चला जाऊं। गांव में भी सोए हुए लोग ही हैं। कोई सोचता है, गांव छोड़ कर जंगल चला जाए। लेकिन आपको कभी खयाल न आया होगा कि जंगल के पौधे मनुष्य से ज्यादा सोए हुए हैं, इसलिए तो पौधे हैं। और जंगल के पशु-पक्षी मनुष्य से ज्यादा सोए हुए हैं, इसलिए तो पशु-पक्षी हैं। ये मनुष्य भी कभी पशु-पक्षी थे और पौधे थे। ये थोड़े-थोड़े जाग कर मनुष्य तक आ गए हैं।
अगर एक आदमी मनुष्यों को छोड़ कर जंगल जा रहा है तो वह और भी गहन, सोई हुई चेतनाओं के बीच जा रहा है। वहां उसे शांति मालूम पड़ सकती है। उसका कुल कारण इतना है कि वह इन सोए हुए प्राणियों की भाषा नहीं समझ रहा है।
लेकिन सारा जंगल सोया हुआ है। ये सोए हुए वृक्ष, सोए हुए मनुष्य ही हैं। जो कभी मनुष्य हो जाएंगे। जागे हुए मनुष्य जो दिखाई पड़ रहे हैं, ये थोड़े से आगे बढ़ गए वृक्ष ही हैं जो कभी वृक्ष थे। पीछे लौटने में चूंकि भाषा का पता नहीं चलता, इसलिए आदमी सोचता है, जंगल में ठीक रहेगा। न कोई रहेगा आदमी, न कोई होगा उपद्रव। उपद्रव न होने का कुल कारण इतना है कि आदमी की भाषा जल्दी चोट करती है, और ज्यादा होश रखना पड़ता है, नहीं तो चोट से बचा नहीं जा सकता। आदमी गाली देगा तो क्रोध जल्दी आ जाएगा। पत्थर की चोट पैर में लगेगी तो उतनी जल्दी क्रोध नहीं आएगा क्योंकि हम सोचते हैं, पत्थर है। छोटे बच्चों को आ जाता है। क्योंकि अभी उनको पता नहीं है कि पत्थर और आदमी में फर्क करना है। वह पत्थर को भी गाली देंगे, डंडा उठा कर पत्थर को भी मारेंगे। कभी-कभी आप भी बचकाने होते हैं, तब वैसा कर लेते हैं। कलम ठीक से नहीं चलती तो गाली देकर फर्श पर पटक देते हैं।
लेकिन चाहे कहीं भी चले जाओ, महावीर कहते हैं, संसार में तो रहना ही पड़ेगा। संसार का मतलब ही है, सोई हुई चेतनाओं की भीड़। यह भीड़ चाहे बदल लो, चाहे वृक्षों की हो, चाहे पशुओं की हो, चाहे मनुष्यों की हो, यह भीड़ तो मौजूद है। यह स्थिति है, इससे बचा नहीं जा सकता।
संसार अनिवार्य है, उससे तब तक बचा नहीं जा सकता, जब तक हम पूरी तरह जाग न जाएं। तो आशुप्रज्ञ पंडित को भी, जो इस जागने की चेष्टा में सतत संलग्न है, सोए हुए लोगों के बीच रहना पड़ेगा। तो उसे सदा जागरूक रहना चाहिए।
क्यों?
क्योंकि नींद भी संक्रामक है, इनफैक्शस है। यहां इतने लोग बैठे हैं, हम सब संक्रामक रूप से जीते हैं। अभी एक आदमी खांस दे, तब पता चलेगा कि दस बीस लोग खांसने लगेंगे। क्या हो गया? अभी तक ये चुपचाप बैठे थे, इनके गले को क्या हो गया? अभी तक कोई गड़बड़ न थी। एक आदमी ने खांसना शुरू किया, दस बीस लोग खांसना शुरू कर देंगे। संक्रामक है। हम अनुकरण से जीते हैं। एक आदमी पेशाब करने चला जाए तो कई लोगों को खयाल हो जाएगा कि पेशाब करने जाना है। संक्रामक है। हम एक-दूसरे के हिसाब से जी रहे हैं।
हिटलर अपनी सभाओं में अपने दस-पांच आदमियों को दस जगह बिठा रखता था। ठीक वक्त पर दस आदमी ताली बजाते, वह पूरा हाल तालियों से गूंज उठता था। समझ गया था कि ताली संक्रामक है। दस आदमी अपने हैं, वे ताली बजा देते हैं, फिर बाकी दस हजार लोग भी ताली बजा देते हैं। ये दस हजार लोगों को क्या हो गया? इनकी ताली को क्या हो गया?
हमारा मन आस-पास से एकदम प्रभावित होता रहता है। बीमारियां ही नहीं पकड़ती हमको, फ्लू ही नहीं पकड़ता हमको एक-दूसरे से, क्रोध भी पकड़ता है, मोह भी पकड़ता है, लोभ भी पकड़ता है, कामवासना भी पकड़ती है। शरीर ही नहीं पकड़ता जीवाणुओं को, मन भी पकड़ता है।
इसलिए महावीर कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को सोए हुए लोगों के बीच जागरूक रहना चाहिए, क्योंकि वे चारों तरफ गहन निद्रा में सो रहे हैं। उनकी निद्रा की लहरें तुम्हें छुएंगी। वे चारों तरफ से तुम्हारे भीतर आएंगी। तुम अकेले ही अपनी नींद के लिए जिम्मेवार नहीं हो, तुम एक नींद के सागर में हो जहां चारों तरफ से नींद तुम्हें छुएगी। अगर तुमने बहुत चेष्टा न की तो वह नींद तुम्हें पकड़ लेगी। वह नींद तुम्हें डुबा देगी। कोई तुम्हें डुबाने की उसकी आकांक्षा नहीं है, यह कोई सचेतन प्रयास नहीं है, यह केवल स्थिति है।
कभी आपने खयाल किया है, अगर दस लोग बैठे हैं और एक आदमी जम्हाई लेने लगे, फौरन दूसरे कुछ लोग जम्हाई लेना शुरू कर देंगे। एक आदमी सो जाए, दूसरे लोगों को नींद पकड़ने लगेगी।
हम समूह का एक अंग हैं जब तक हम पूरे नहीं जाग गए। जब तक कोई व्यक्ति पूरा नहीं जागा, तब तक वह व्यक्ति नहीं है, भीड़ है। तब तक वह कितना ही समझे कि मैं अलग हूं, वह अलग है नहीं।
इसलिए बड़ी मजे की घटनाएं घटती हैं। दुनिया में बड़े पाप व्यक्ति से नहीं होते, भीड़ से होते हैं। क्योंकि भीड़ में संक्रमण हो जाता है। हजार लोगों की भीड़ मंदिर को जला रही है या मस्जिद में आग लगा रही है। इनमें से एक-एक आदमी को अलग करके पूछें कि मस्जिद में आग लगाना चाहते हो? मंदिर तोड़ना चाहते हो? क्या होगा? एक-एक आदमी को अलग पूछें, वह कहेगा कि नहीं, इससे कुछ होने वाला नहीं है, इसमें कोई सार भी नहीं है। फिर क्या कर रहे थे?
लेकिन हजार आदमियों की भीड़ में वह आदमी था ही नहीं, वह सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा था। इसलिए बड़ा पाप भीड़ करती है। छोटे पाप निजी होते हैं। बड़े पाप सामूहिक होते हैं। जितना बड़ा पाप करना हो, उतनी बड़ी भीड़ चाहिए। क्योंकि भीड़ में व्यक्ति को जो निज की जिम्मेवारी है वह खो जाती है। भीड़ में व्यक्ति अपने में नहीं रह जाता। भीड़ में उसे लगता है, एक सागर है जिसमें बहे चले जा रहे हैं। भीड़ में उसे ऐसा नहीं लगता है कि मैं कर रहा हूं, भीड़ कर रही है, मैं सिर्फ साथ हूं।
कभी आपने खयाल किया, अगर भीड़ तेजी से चल रही हो, आपके पैर भी तेज हो जाते हैं। हिटलर ने अपने सैनिकों को आदेश दे रखे थे कि जब भी तुम चलो तो एक-दूसरे के शरीर छूते रहें। अगर पचास आदमी चल रहे हों, और एक-दूसरे के शरीर छूते हैं और उनके कदम एक लय में पड़ते हैं, तो आप उस लय में फंस जाएंगे। जब उनका हाथ आपको छुएगा तो उनका जोश भी आपके भीतर चला जाएगा। और जब उनके कदम की चाप आपके सिर में पड़ेगी तो आपका कदम भी वैसा ही पड़ने लगेगा। पचास आदमियों की भीड़ में आप अकेले नहीं रह जाते, आप सिर्फ एक अंग हो जाते हैं, एक बड़ी चेतना का हिस्सा हो जाते हैं। और वह चेतना फिर आपको प्रवाहित कर लेती है। जैसे नदी की धार में कोई बहता हो और जब नदी वर्षा के पूर में आई हो जब कोई बहता हो, वैसा असहाय आदमी हो जाता है भीड़ में।
इसलिए सारे लोग भीड़ बना कर जीते हैं। राष्ट्र भीड़ों के नाम हैं। धर्म भीड़ों के नाम हैं--हिंदुओं की भीड़, मुसलमानों की भीड़, जैनों की भीड़। हिंदुस्तान, पाकिस्तान, चीन, रूस--ये सब भीड़ों के नाम हैं।
रूस खतरे में है, तो फिर सारा मामला खत्म हो गया। भारत खतरे में है, तो फिर आप व्यक्ति नहीं रह जाते। सिर्फ एक बड़ी भीड़ के हिस्से रह जाते हैं। फिर उसमें आप बहते हैं।
राजनीति भीड़ों को संचालित करने की कला है। इसलिए जहां भी भीड़ है वहां राजनीति होगी। चाहे वह धर्म की भीड़ क्यों न हो, राजनीति आ जाएगी। इसलिए मैं आपसे कहता हूं, धर्म का संबंध है व्यक्ति से और राजनीति का संबंध है भीड़ से। जहां धर्म भी भीड़ से संबंधित होता है वहां राजनीति का रूप है। इसलिए हिंदुओं की भीड़, मुसलमानों की भीड़, ईसाइयों की भीड़, ये सब राजनीति के रूप हैं, इनका धर्म से कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध है व्यक्ति से। धर्म की चेष्टा ही यही है कि व्यक्ति को हम भीड़ से कैसे मुक्त करें, वह भीड़ के उपद्रव से कैसे बाहर आए, भीड़ के प्रभाव से कैसे छूटे, यही तो धर्म की सारी चेष्टा है। लेकिन धर्म भी भीड़ बन जाता है, और जब धर्म भीड़ बन जाता है तो उससे मुश्किल हो जाती है, तब कठिनाई खड़ी होती है। युद्ध में सैनिक ही भीड़ में नहीं लड़ते, लोग मस्जिदों में, मंदिरों में, भीड़ में प्रार्थना भी करते हैं। बह जाएंगे आप। बह जाना निद्रा में भी हो जाएगा, महावीर कहते हैं।
इसलिए जागे हुए व्यक्ति को आस-पास पूरे वक्त सचेत रहना पड़ेगा। सब तरफ से नींद आ रही है, सब तरफ सोए हुए लोग हैं। क्रोध आएगा, लोभ आएगा, मोह आएगा, सब तरफ से बह रहा है, जैसे कि कोई आदमी सब तरफ से गंदी नालियां बह रही हों और उनके बीच में बैठा हो। उसको बहुत सचेत रहना पड़ेगा अन्यथा वे गंदी नालियां उसे भी गंदा कर जाएगी। उसकी सचेतना ही उसको पवित्र रख सकती है। इसलिए महावीर कहते हैं, सब तरह से जागरूक रहना चाहिए, सब तरह से। इसलिए बहुत अदभुत वचन उन्होंने कहा है।
‘और किसी का भी विश्र्वास नहीं करना चाहिए।’
इसका यह मतलब नहीं है कि महावीर अविश्र्वास सिखा रहे हैं। महावीर कहते हैं कि तुमने किसी का विश्र्वास किया, सोए हुए आदमी का, तो तुम खुद सो जाओगे। तुमने अगर सोए हुए आदमी का विश्र्वास किया तो तुम सो जाओगे, क्योंकि विश्र्वास का मतलब यह है कि अब सचेतन रहने की कोई भी जरूरत नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें।
जिसका हम विश्र्वास करते हैं, उससे हमें सचेतन नहीं रहना पड़ता। एक अजनबी आदमी आपके कमरे में ठहर जाए तो आप रात ठीक से सो न पाएंगे। क्यों?
अजनबी आदमी कमरे में है, पता नहीं क्या करे! नींद उखड़ी-उखड़ी रहेगी, रात में दो-चार दफा आप आंख खोल कर देख लेंगे कि कुछ कर तो नहीं रहा। आपकी पत्नी आपके कमरे में सो रही है, आप मजे से घोड़े बेच कर सो जाते हैं, क्योंकि अब अजनबी नहीं है, और जो भी कर सकती थी, कर चुकी। अब सब परिचित है। अब जो कुछ भी होगा, होगा। अब इसमें कुछ ऐसा नया कुछ होने वाला नहीं है। कोई भय नहीं है। आप चेतना खो सकते हैं। आपको चेतन रहने की कोई जरूरत नहीं है।
इसीलिए तो नये मकान में, नये कमरे में नींद नहीं आती। स्थिति नई है, आदतन नहीं है। नये बिस्तर पर नींद नहीं आती, नये लोगों के बीच नींद नहीं आती, क्योंकि स्थिति नई है और थोड़ा सा होश रखना पड़ता है। पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता।
महावीर कहते हैं, जीना जगत में जैसे अजनबियों के बीच ही हो सदा--स्ट्रैंजर्स...! है ही सच्चाई यह। पति और पत्नी चाहे बीस साल, चाहे चालीस साल साथ रहे हों, अजनबी हैं। कभी भी कोई पहचान हो नहीं पाती; स्ट्रैंजर्स हैं। मान लेते हैं बीस साल साथ रहने के कारण कि अब हम परिचित हो गए हैं। क्या खाक परिचित हो गए! कोई परिचित नहीं होते, कोई परिचित नहीं होता, सब आइलैंड बने रहते हैं, अपने-अपने में द्वीप बने रहते हैं। परिचय हो जाता है ऊपरी, नाम-धाम, ठिकाना, यह सब पता हो जाता है, शक्ल-सूरत, लेकिन भीतर क्या संभावनाएं छिपी हैं, उसका कुछ परिचय नहीं होता, कोई पहचान नहीं होती।
महावीर कहते हैं, किसी का विश्र्वास मत करना। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह नहीं है कि अविश्र्वासी हो जाना, अनट्रस्ंिटग हो जाना। इसका यह मतलब नहीं कि हर आदमी को समझना कि बेईमान है, हर आदमी को समझना कि चोर है। इससे कई लोगों को बड़ी प्रसन्नता होगी कि किसी का विश्र्वास मत करना। वे कहेंगे, यह तो हम कर ही रहे हैं, यह तो हमारी साधना ही है। किसी का विश्र्वास हम करते कहां हैं? अपना नहीं करते, दूसरे की तो बात ही दूसरी है।
कोई किसी का विश्र्वास नहीं कर रहा है, मगर वह अर्थ नहीं है महावीर का, इसे ठीक से समझ लें। हम अविश्र्वास करते हैं, लेकिन वह अविश्र्वास महावीर का प्रयोजन नहीं है। महावीर कहते हैं, किसी का विश्र्वास न करना इस कारण, ताकि तुम सो न जाओ। निकटतम भी तुम्हारे कोई हो तो भी इतना विश्र्वास मत करना कि अब होश रखने की कोई जरूरत नहीं है। होश तो तुम रखना ही, जागे तो तुम रहना ही। क्योंकि जो निकटतम हैं उन्हीं से बीमारियां आसानी से आती हैं। वे करीब हैं, उनका रोग जल्दी लगता है। होश तो रखना ही। अगर तुम होश खोकर अपनी पत्नी, या अपने पति, या अपने बेटे, या अपनी मां के पास भी बैठे हो, तो उसकी बीमारियां तुम्हारे भीतर प्रवेश कर रही हैं। तुम्हारा चित्त पहरेदार बना ही रहे और मन की कोई बीमारी तुममें प्रवेश न कर पाए।
बुद्ध कहते थे: कि जिस मकान के बाहर पहरे पर कोई बैठा हो, चोर उसमें प्रवेश नहीं करते। जिस मकान का दीया जला हो और घर के बाहर रोशनी आ रही हो, चोर उस मकान से जरा दूर ही रहते हैं। ठीक ऐसे ही जिसके भीतर होश का दीया जला हो, ठीक ऐसे ही जिसने सावधानी को पहरे पर रखा हो, उसके भीतर मन की बीमारियां प्रवेश नहीं करतीं। जरा दूर ही रहती हैं।
हम ऐसे जीते हैं कि न कोई पहरे पर है, न घर का दीया जला है, सब अंधकार है घना, चोरों के लिए निमंत्रण है, और चारों तरफ हमारे चोर मौजूद हैं। हम गड्ढा बन जाते हैं, वे हममें बह जाते हैं भीतर।
खयाल करें, एक उदास आदमी आपके घर आकर बैठ जाता है। कभी आपने खयाल किया है, थोड़ी देर में आप भी उदास हो जाते हैं! एक हंसता हुआ, मुस्कुराता हुआ आदमी आपके घर में आ जाता है। कभी आपने खयाल किया, आप भी मुस्कुराने लगते हैं, प्रसन्न हो जाते हैं। छोटे बच्चों को देख कर आपको इतना अच्छा क्यों लगता है? छोटे बच्चे उसका कारण नहीं हैं। छोटे बच्चे प्रसन्न हैं। उनकी प्रसन्नता संक्रामक हो जाती है। वे नाच रहे हैं, कूद रहे हैं, संसार का उन्हें अभी कोई पता नहीं, मुसीबतों का उन्हें अभी कोई बोध नहीं। अभी वे नये-नये खिले फूलों जैसे हैं। न उन्होंने तूफान देखे, न आंधियां देखीं, न अभी सूरज की तपती हुई आग देखी, अभी उन्हें कुछ भी पता नहीं।
उनको देख कर आप भी प्रसन्न हो जाते हैं। छोटे बच्चों के बीच भी अगर कोई उदास बैठा रहे तो समझो कि साधु है। मतलब यह कि उसे बहुत ही चेष्टा करके उदास रहना पड़े, वह बीमार है, पैथालॉजिकल है, रुग्ण है। छोटे बच्चों के बीच तो कोई प्रसन्न हो ही जाएगा।
नेहरू को छोटे बच्चों से बहुत लगाव था। उसका कारण, छोटे बच्चे नहीं थे, राजनीति की बीमारी थी। बच्चों में जाकर वे दुष्टों को भूल पाते थे, जिनसे घिरे थे, जिनके बीच थे, जिस उपद्रव में पड़े थे। वह बच्चों के बीच जाकर हलका हो जाता था मन। जैसे कि कोई हॉलिडे पर पहाड़ चला गया, छुट्टी मना ली। छोटे बच्चों के बीच उनका होना इस बात का सूचक था कि नेहरू मन से राजनीतिज्ञ नहीं थे, इसलिए छोटे बच्चों की तलाश थी, ताकि इन आदमियों से बचें जो उनको घेरे हुए थे।
नेहरू कम से कम राजनीतिज्ञ आदमी थे, नियति उनकी वह नहीं थी। नियति तो थी कि वह कवि होते। हिंदुस्तान ने एक बड़ा कवि खो दिया, और एक कमजोर राजनीतिज्ञ पाया। वे हो नहीं सकते थे। और कोई उपाय नहीं था। उनके लिए कोई वहां गति नहीं थी। इसलिए बचाव करते थे, बच्चों के साथ ही खिलते थे और प्रसन्न हो जाते थे। जैसे वहां उनको निकटता मालूम होती थी, सान्निध्य मालूम होता था।
जहां भी आप हैं, आप प्रभावित हो रहे हैं। कैसे लोगों के बीच आप हैं, आप वैसे हो जाएंगे।
तो महावीर कहते हैं: ‘किसी का विश्र्वास मत करना।’ इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई और हंसता है और आपको हंसी आ जाती है तो समझना कि आपकी हंसी झूठी है। कोई और रोता है और आपको रोना आ जाता है, तो समझना कि रोना झूठा है। न यह हंसी आपकी है, न यह रोना आपका है। यह सब उधार है।
और हम सब उधारी में जीते हैं, हम बिलकुल उधारी में जीते हैं। एक फिल्म में आप देख लेते हैं कोई करुण दृश्य और आपकी आंखों में आंसू बहने लगते हैं। ये उधार हैं। कुछ भी वहां नहीं हो रहा है। पर्दे पर केवल धूप-छाया का खेल है, मगर आप रोने लगे। वह बता रहा है कि आप किस भांति बाहर से संक्रामित होते हैं। फिर थोड़ी देर में आप हंसने लगेंगे। आपकी हंसी भी बाहर से खींची जाती है और आपका रोना भी बाहर से खींचा जाता है। आपकी अपनी कोई आत्मा है? जिसका सब-कुछ बाहर से संचालित हो रहा है, उसके पास कोई आत्मा नहीं है।
महावीर कहते हैं: ‘जागरूक रहना, किसी का विश्र्वास मत करना।’
इसका मतलब यह है कि किसी को भी इस भांति मत स्वीकार करना कि वहां तुम्हें असावधान रहने की सुविधा मिले। तुम मान कर चलना
कि तुम एक अजनबी देश में हो, अजनबी लोगों के बीच, एक आउट साइडर हो, जहां कोई तुम्हारा अपना नहीं, जहां सब पराए हैं। सब अपने-अपने हैं, कोई किसी दूसरे का नहीं है।
लेकिन हम सब धोखा देते हैं। पत्नी कहती कि मैं आपकी। पति कहता कि मैं तुम्हारा। बाप कहता है बेटे से कि मैं तुम्हारा। बेटा कहता मां से कि मैं तुम्हारा। सब अपने-अपने हैं। कोई यहां किसी का नहीं है। चारों तरफ हम इसे रोज देखते हैं, फिर भी एक-दूसरे को कहते रहते हैं, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारे बिना न जी सकूंगा, और सब सबके बिना जी लेते हैं। मगर यह कठोर है सत्य।
महावीर कहते हैं, कोई अपना नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि सब दुश्मन हैं। इसका कुल मतलब इतना है कि तुम होश रखना। जैसे कि कोई आदमी युद्ध के मैदान पर होश रखता है। एक क्षण भी चूकता नहीं, बेहोशी को आने नहीं देता, तलवार सजग रखता, धार पैनी रखता, आंख तेज रखता है, चारों तरफ चौकन्ना होता है। कभी भी, किसी भी क्षण जरा सी बेहोशी और खतरा हो जाएगा। ठीक वैसे जीना जैसे कि प्रतिपल कुरुक्षेत्र है, प्रतिपल युद्ध है, किसी का विश्र्वास न करना।
‘काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल।’
इन सत्यों को स्मरण रखना कि काल निर्दयी है। समय आपकी जरा भी चिंता नहीं करता। समय आपका विचार ही नहीं करता, बहा चला जाता है। समय को आपके होने का कोई पता ही नहीं है। समय आपको क्षमा नहीं करता। समय आपको सुविधा नहीं देता। समय लौट कर नहीं आता। समय से आप कितनी ही प्रार्थना करें, कोई प्रार्थना नहीं सुनी जाती। समय और आपके बीच कोई भी संबंध नहीं है। मौत आ जाए द्वार पर और आप कहें कि एक घड़ी भर ठहर जा, अभी मुझे लड़के की शादी करनी है, कि अभी तो कुछ काम पूरा हुआ नहीं, मकान अधूरा बना है।
एक बूढ़ी महिला संन्यास लेना चाहती थी, दो महीने पहले। बड़ी उसकी आकांक्षा थी संन्यास ले लेने की। मगर उसके बेटे खिलाफ थे कि संन्यास नहीं लेने देंगे। मैंने उसके एक बेटे को बुला कर पूछा कि ठीक है, संन्यास मत लेने दो, क्योंकि बूढ़ी स्त्री है, तुम पर निर्भर है और इतना साहस भी उसका नहीं है। लेकिन कल अगर इसे मौत आ जाए तो तुम मौत से क्या कहोगे, कि नहीं मरने देंगे।
जैसा कि कोई भी उत्तर देता, बेटे ने उत्तर दिया। कहा कि मौत कब आएगी, कब नहीं आएगी, देखा जाएगा। मगर संन्यास नहीं लेने देंगे। और अभी दो महीने भी नहीं हुए और वह स्त्री मर गई। जिस दिन वह मर गई, उसके बेटे की खबर आई कि क्या आप आज्ञा देंगे, हम उसे गैरिक वस्त्रों में माला पहना कर संन्यासी की तरह चिता पर चढ़ा दें!
‘काल निर्दयी है।’
लेकिन अब कोई अर्थ भी नहीं है, क्योंकि संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि वह ऊपर से डाल दिया जाए। न जिंदा पर डाला जा सकता है, न मुर्दा पर डाला जा सकता है। संन्यास लिया जाता है, दिया नहीं जा सकता। मरा आदमी कैसे संन्यास लेगा? दिया जा सके तो मरे को भी दिया जा सकता है।
संन्यास दिया जा ही नहीं सकता, लिया जा सकता है। इंटेंशनल है, भीतर अभिप्राय है। वही कीमती है, बाहर की घटना का तो कोई मूल्य नहीं है। भीतर कोई लेना चाहता था। संसार से ऊबा था, संसार की व्यर्थता दिखाई पड़ी थी, किसी और आयाम में यात्रा करने की अभीप्सा जगी थी, वह थी बात। अब तो कोई अर्थ नहीं है, लेकिन अब ये बेटे अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो न समझा पाए, अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो नहीं रोक सकते कि रुको, अभी हम न जाने देंगे। मां को रोक सकते थे। मां भी रुक गई क्योंकि उसे भी मौत का साफ-साफ बोध नहीं था। नहीं तो रुकने का कोई कारण भी नहीं था। मां डरी कि बेटों के बिना कैसे जीएगी! और अब, अब बेटों के बिना ही जीना पड़ेगा। अब इस लंबे यात्रा-पथ पर बेटे दुबारा नहीं मिलेंगे। और मिल भी जाएं तो पहचानेंगे नहीं।
‘काल निर्दयी है।’
उसका अर्थ यह है कि समय आपकी चिंता नहीं करता। इसलिए इस भरोसे मत बैठे रहना कि आज नहीं कल कर लेंगे, कल नहीं परसों कर लेंगे। पोस्टपोन मत करना, स्थगित मत करना। क्योंकि जिसके भरोसे स्थगित कर रहे हो, उसको जरा भी दया नहीं है। दया नहीं है, इसका यह मतलब नहीं कि वह आपका दुश्मन है। निरपेक्ष है, कोई संबंध ही नहीं है उसको आपसे।
आप होंगे कि नहीं होंगे, इससे क्या फर्क पड़ता है समय की धारा को? एक तिनका नदी में बह रहा है, नदी को क्या लेना-देना है कि तिनका बहेगा कि नहीं बहेगा, कि तिनके के सहारे नदी बह रही है। हालांकि तिनके यही सोचते हैं कि अगर हम न हुए, नदी कैसे बहेगी!
एक बूढ़ी औरत का मुर्गा बांग देता था एक गांव में। तो वह सोचती थी, सूरज उसी की वजह से उगता है। न मुर्गा बांग देगा, न सूरज उगेगा। अब यह बिलकुल तर्कयुक्त था। क्योंकि रोज जब मुर्गा बांग देता था तभी सूरज उगता। ऐसा कभी हुआ ही नहीं था कि सूरज बिना मुर्गे की बांग के उगा हो, इसलिए यह बात बिलकुल तर्क शुद्ध थी।
फिर एक दिन बुढ़िया गांव पर नाराज हो गई। किन्हीं लोगों ने उसे नाराज कर दिया, तो उसने कहा कि ठहरो। पछताओगे पीछे। चली जाऊंगी अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव। तब रोओगे, छाती पीटोगे, जब सूरज नहीं उगेगा।
नाराजगी में बुढ़िया अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। दूसरे गांव में मुर्गे ने बांग दी और सूरज उगा। बुढ़िया ने कहा, अब रो रहे होंगे। सूरज यहां उग रहा है, जहां मुर्गा बांग दे रहा है।
तिनका भी सोचता है, मैं न होऊंगा तो नदी कैसे बहेगी। आप भी सोचते हैं, आप न होंगे तो संसार कैसे होगा! हर आदमी यही सोचता है। कब्रों में जाकर देखें, बहुत ऐसे सोचने वाले कब्रों में दबे पड़े हैं जो सोचते थे उनके बिना संसार कैसे होगा। और संसार बड़े मजे में है, संसार उनको बिलकुल भूल ही गया। संसार को कोई पता ही नहीं है।
हर आदमी के मरने पर हम कहते हैं कि अपूर्णीय क्षति हो गई, अब कभी भरी न जा सकेगी, और फिर बिलकुल भूल जाते हैं, फिर पता ही नहीं चलता कि किसकी अपूरणीय क्षति हुई। ऐसा लगता है, सब अंधकार हो गया। और कोई अंधकार नहीं होता। दीये जलते चले जाते हैं, फूल खिलते चले जाते हैं।
समय की धारा निरपेक्ष है। आपसे कुछ लेना-देना नहीं। समय से आप कुछ कर सकते हैं, समय का आप कोई उपयोग कर सकते हैं। तिनका नदी का उपयोग करके सागर भी पहुंच सकता है, किनारे पर भी अटक सकता है, डूब भी सकता है। लेकिन नदी को कोई प्रयोजन नहीं है।
समय की धारा बही जाती है। आप उसका कोई उपयोग कर सकते हैं। आप सिर्फ एक उपयोग करते हैं, स्थगित करने का। कल करेंगे, परसों करेंगे, छोड़ते चले जाते हैं इस भरोसे कि कल भी होगा! लेकिन कल कभी होता नहीं है।
कल कभी भी नहीं होता है। जब भी हाथ में आता है, तो आता है आज। और उसको भी कल पर छोड़ देते हैं। जीते ही नहीं, स्थगित किए चले जाते हैं। कल जी लेंगे, परसों जी लेंगे। फिर एक दिन द्वार पर मौत खड़ी हो जाती है, वह क्षण भर का अवसर नहीं देती है और तब हम पछताते हैं। वह सब जो स्थगित किया हुआ जीवन है, सब आंख के सामने खड़ा हो जाता है कि क्या-क्या जी सकते थे, क्या हो सकता था, कितने अंकुर निकल सकते थे जीवन में, कितनी यात्रा हो सकती थी, वह कुछ भी न हो पाई।
तब पीछे लौट कर देखते हैं तो कुछ तिजोरियों में रुपये दिखाई पड़ते हैं, जिनको भर लिया, जीवन के मूल्य पर। कुछ लड़के-बच्चे दिखाई पड़ते हैं, जिनको बड़ा कर लिया जीवन के मूल्य पर। वे चारों तरफ बैठे हैं खाट के और सोच रहे हैं कि चाबी किसके हाथ लगती है। रो रहे हैं, लेकिन ध्यान चाबी पर है। इनको बड़ा कर लिया जीवन के मूल्य पर। हिसाब-किताब, खाताबही, बैंक सब चलेगा। आप हट जाएंगे। आपका खाता किसी और के नाम हो जाएगा। आपका मकान किसी और का निवास स्थान बन जाएगा। आपकी आकांक्षाएं किन्हीं और के भूत बन जाएंगी, उन पर सवार हो जाएंगी और आप विदा हो जाएंगे। और आपने सारे जीवन, जो भी मूल्यवान था, उसको स्थगित किया।
हम धर्म को स्थगित करते हैं और अधर्म को जीते हैं। क्रोध हम अभी कर लेते हैं, ध्यान हम कहते हैं, कल कर लेंगे। प्रार्थना हम कहते हैं, कल कर लेंगे, बेईमानी हम अभी कर लेते हैं। धर्म को करते हैं स्थगित, अधर्म को अभी जी लेते हैं। लेकिन क्यों? हमको भी पता है कि जो कल पर स्थगित किया वह हो नहीं पाएगा; इसलिए जो हम करना चाहते हैं, वह आज कर लेते हैं। जो हम नहीं करना चाहते हैं, और केवल दिखाते हैं कि करना चाहते हैं वह हम कल पर छोड़ देते हैं। इसमें गणित है साफ। कोई महावीर को ही पता है, ऐसा नहीं, हमको भी पता है। हमको भी पता है, क्रोध करना हो, अभी कर लो। हम कभी नहीं कहते, कल क्रोध करेंगे।
गुरजिएफ का पिता मरा, तो उसने बेटे के कान में कहा कि तू एक वचन मुझे दे दे। मेरे पास और कुछ तुझे देने को नहीं है। लेकिन जो मैंने जीवन में सर्वाधिक मूल्यवान पाया है वह मैं तुझसे कह देता हूं। वह नौ ही साल का था लड़का, समझ भी नहीं सकता था कि बाप क्या कह रहा है। लेकिन उसने कहा, इतना तू याद कर ले, कभी न कभी समझ जाएगा। जब भी तुझे क्रोध आए, तो चौबीस घंटे बाद करना। कोई गाली दे, सुन लेना, समझ लेना, क्या कह रहा है, उसको ठीक से देख लेना, क्या उसका मतलब है, उसकी पूरी स्थिति समझ लेना ताकि तू ठीक से क्रोध कर सके। और उससे कह आना कि अब मैं चौबीस घंटे बाद आकर उत्तर दूंगा।
गुरजिएफ बाद में कहता था, उस एक वाक्य ने मेरे पूरे जीवन को बदल डाला। वह एक वाक्य ही मुझे धार्मिक बना गया। क्योंकि चौबीस घंटे बाद क्रोध किया ही नहीं जा सका। वह उसी वक्त किया जा सकता था। जो भी किया जा सकता है, उसी वक्त किया जा सकता है। और जब क्रोध न किया जा सका, और बुराई न की जा सकी, तो जो शक्ति बच गई उसका क्या करना?
तो गुरजिएफ ने ध्यान कर लिया आज और क्रोध किया कल। हम क्रोध करते हैं आज, और ध्यान करेंगे कल। शक्ति क्रोध में चुक जाएगी, ध्यान कभी होगा नहीं। गुरजिएफ की शक्ति ध्यान में बह गई, क्रोध कभी हुआ नहीं।
जो हम करना चाहते हैं, हम भी जानते हैं, आज कर लो। समय का कोई भरोसा नहीं। महावीर ही जानते हैं, ऐसा नहीं, हम भी जानते हैं। जो हम करना चाहते हैं, अभी कर लेते हैं। जो हम नहीं करना चाहते--हम बेईमान हैं, नहीं करना चाहते तो साफ कहना चाहिए, नहीं करना चाहते हैं--लेकिन हम होशियार हैं। अपने को धोखा देते हैं। हम कहते हैं, करना तो हम चाहते हैं, लेकिन अभी समय नहीं है। कल कर लेंगे।
इसे ठीक से समझ लें।
जिसे आप कल पर छोड़ रहे हैं, जान लें, आप करना नहीं चाहते हैं। यह अच्छा होगा, ईमानदारी होगी अपने प्रति कि मैं करना ही नहीं चाहता। इसलिए तो शायद आपको चोट भी लगेगी कि क्या मैं ध्यान करना ही नहीं चाहता? क्या मैं शांत होना ही नहीं चाहता? क्या मैं अपने को जानना ही नहीं चाहता? क्या इस जीवन के रहस्य में मैं उतरना ही नहीं चाहता?
अगर आप ईमानदार हों तो आपको चोट लगेगी। शायद आपको खयाल आए कि मैं गलती कर रहा हूं। यह करने योग्य जो है, मैं छोड़ रहा हूं। होशियारी यह है कि हम कहते हैं, करना तो हम चाहते हैं। कौन मना कर रहा है?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, साधना में तो हम जाना चाहते हैं। कौन मना कर रहा है? लेकिन अभी नहीं। यह है तरकीब। इस तरकीब में उनको यह नहीं दिखाई पड़ता कि जो हम नहीं करना चाहते, उसे हम भ्रम पाल रहे हैं कि हम करना चाहते हैं।
महावीर कहते हैं: ‘काल है निर्दयी और शरीर दुर्बल।’
काल पर भरोसा नहीं किया जा सकता, उससे हमारा कोई संबंध नहीं है और शरीर है दुर्बल। शरीर पर हम बहुत भरोसा करते हैं। शरीर पर हम इतना भरोसा करते हैं जो कि आश्र्चर्यजनक है।
क्या है हमारे शरीर की क्षमता? क्या है शक्ति? 98 डिग्री गर्मी और 110 डिग्री गर्मी के बीच में 12 डिग्री गर्मी आपकी क्षमता है। इधर जरा नीचे उतर जाएं, 95 डिग्री हो जाए, फैसला हो गया। उधर जरा 110 के करीब पहुंचने लगे, फैसला हो गया। 12 डिग्री गर्मी आपके शरीर की क्षमता है।
उम्र कितनी है आपकी? इस विराट अस्तित्व में जहां समय को नापने के लिए कोई उपाय नहीं है, वहां आप कितनी देर जीते हैं? सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, कोई सौ वर्ष जी गया तो चत्मकार है। सौ वर्ष हमें बहुत लगते हैं। क्या है सौ वर्ष इस समय की धारा में? कुछ भी नहीं है। क्योंकि पीछे है अनंत धारा, जो कभी प्रारंभ नहीं हुई। और आगे है अनंत धारा, जो कभी अंत नहीं होगी। इस अनंत में सौ वर्ष का क्या है अर्थ? इस सौ वर्ष में भी क्या करेंगे? वैज्ञानिक हिसाब लगाते हैं तो आदमी आठ घंटे सोता है चौबीस घंटे में। चार घंटे खाना, पीना, स्नान, कपड़े बदलना, उसमें व्यय हो जाते हैं। आठ घंटे रोटी कमाना, घर से दफ्तर, दफ्तर से घर उसमें व्यय हो जाते हैं--बीस घंटे। जो चार घंटे बचते हैं उसमें रेडियो सुनना, फिल्म देखना, अखबार पढ़ना, सिगरेट पीना, दाढ़ी बनाना--ऐसा चौबीस घंटे व्यय हो जाते हैं। बचता क्या है सौ वर्ष में आपके पास? जिससे आप अपनी आत्मा को जान सकें, पा सकें।
अगर आदमी की कहानी हम ठीक से बांटें तो बड़ी फिजूल मालूम पड़ेगी, ए टेल टोल्ड बाई एन इडियट, फुल ऑफ फ्यूरी एंड नॉइ़ज, सिग्नीफाइंग नथिंग। एक मूर्ख द्वारा कही हुई कथा, शोरगुल बहुत, मतलब बिलकुल नहीं। शोरगुल बड़ा होता है। हर बच्चा बड़ा शोरगुल करता हुआ संसार में आता है कि तूफान आ रहा है और थोड़े दिन में ठंडे हो जाते हैं। लकड़ी टेक कर चलने लगते हैं। वह सब तूफान, वह सब शोरगुल, सब खो जाता है। आंखें धुंधली पड़ जाती हैं, हाथ-पैर कमजोर हो जाते हैं। बिस्तर पर लग जाते हैं।
झूले से लेकर कब्र तक कहानी क्या है? सामर्थ्य क्या है शरीर की? बड़ा कमजोर है। जरा सा बैक्टीरिया घुस जाए बीमारी का, तब पता चल जाता है कि कितनी आपकी ताकत है। गामा लड़ते होंगे पहलवानों से, लेकिन क्षय रोग से नहीं लड़ पाते। गामा टी. बी. से मरा। और टी. बी. के कीटाणु कितनी छोटी चीज हैं। आंख से दिखाई भी नहीं पड़ते। बड़े पहलवानों से जीत लिए, छोटे पहलवानों से हार गए। शरीर की ताकत कितनी है? बड़ी-बड़ी बीमारियां छोड़ दीजिए, कामन कोल्ड से लड़ना मुश्किल होता है। साधारण सर्दी-जुकाम पकड़ ले तो उपाय नहीं, सब ताकत रखी रह जाती है।
इस शरीर को अगर हम भीतर गौर से देखें, इसकी क्षमता क्या है? हड्डी-मांस-मज्जा, इसका मूल्य कितना है? वैज्ञानिक कहते हैं, पांच रुपये से ज्यादा नहीं। वह भी मंहगाई की वजह से। आपकी वजह से नहीं। इतना अल्युमिनियम है, इतना लोहा है, इतना तांबा है, इतना फलां-ढिंका। सब निकाल कर रख लें, पांच रुपये का सामान, पांच रुपये के सामान पर इतने इतरा रहे हैं?
यह जो थोड़ा सा अवसर है जीवन का, उसमें शरीर की कोई क्षमता तो है नहीं। शरीर दुर्बल है, एकदम दुर्बल है। उधर सूरज ठंडा हो जाए, ये साढ़े तीन अरब लोग यहां एकदम ठंडे हो जाएंगे। क्या है क्षमता? जरा सा ताप बढ़ जाए, गिर जाए जमीन का, ठंडे हो जाएंगे। अभी ध्रुव की जमी हुई बर्फ पिघल जाए, सब डूब जाए। वैज्ञानिक कहते हैं, वह पिघलेगी किसी न किसी दिन। अगर ध्रुव प्रदेश में जमी हुई बर्फ किसी भी दिन पिघल गई तो सारे समुद्रों का पानी हजार फीट ऊंचा उठ जाएगा। सारी जमीन डूब जाएगी। वह किसी भी दिन पिघलेगी। और नहीं पिघलेगी तो रूसी या अमरीकी उसको पिघलाने का उपाय खोजते हैं। क्योंकि वे इसलिए खोजते हैं कि अगर कोई उपद्रव का, झगड़े का मौका हो तो दूसरे को मौका नहीं मिलना चाहिए दुनिया मिटाने का, हमको ही मिलना चाहिए। हालांकि हम भी उसमें मिटेंगे, लेकिन कहानी रह जाएगी, हालांकि कहानी कहने वाला कोई भी नहीं रहेगा।
कहते हैं, रूसी वैज्ञानिकों ने तो तरकीबें खोज ली हैं कि किसी भी दिन, आने वाला अगर कोई तीसरा महायुद्ध हुआ, तो वह ध्रुव प्रदेश की, साइबेरिया की बर्फ को पिघला देंगे। कोई सात सेकेंड लगेंगे उनको पिघलाने में। एटामिक एक्सप्लोजन से पिघल जाएगी। तत्काल सारी जमीन बाढ़ में डूब जाएगी। वैसी बाढ़ पुराने ग्रंथों में एक दफा और आई है।
ईसाई कहते हैं कि नोह ने अपनी नाव में लोगों को बचाया। सारी जमीन डूब गई। अध्यात्म की दिशा में जो गहरे काम करते हैं वे कहते हैं, पूरा महाद्वीप, एटलांटिस डूब गया। पूरा महाद्वीप, जो उस समय की शिखर सभ्यता पर था, जैसे आज अमरीका, वैसे एटलांटिस पूरा का पूरा डूब गया। अभी तक यह समझा नहीं जा सका। दुनिया के सभी धर्मों की कथाओं में उस महान बाढ़, ग्रेट फ्लड की बात है। भारतीय कथाओं में, मिस्री कथाओं में, यूनानी कथाओं में, सारी दुनिया की कथाओं में उस बाढ़ की बात है। वह बाढ़ जरूर हुई होगी। जब से वैज्ञानिकों को पता चला है कि ध्रुव की बर्फ पिघलाई जा सकती है, तब से यह संदेह है कि वह बाढ़ भी किसी युद्ध का परिणाम थी। वह अपने आप नहीं हो गई थी, किसी महायुद्ध में, किसी महासभ्यता ने बर्फ को पिघला डाला, सारी जमीन डूब गई। वह महाप्रलय थी। वह कल फिर हो सकती है। आदमी का वश कितना है?
हिरोशिमा पर बम गिरा, जो जहां था वहीं सूख गया, एक सेकेंड में। एक तस्वीर मेरे मित्र ने मुझे भेजी थी। एक बच्ची सीढ़ियां चढ़ कर अपना होमवर्क करने ऊपर जा रही है, रात नौ बजे वह अपनी किताब, बस्ता, बही के साथ सूख कर दीवाल से चिपक गई। राख हो गई। एक लाख बीस हजार आदमी सेकेंडों में राख हो गए। उनकी भी आकांक्षाएं आप ही जैसी थीं। उनकी भी योजनाएं आप ही जैसी थीं। उन्होंने भी समय का बड़ा भरोसा किया था। उन्होंने भी शरीर का बड़ा बल माना था। वह एक सेकेंड नहीं रुकता। अभी हम यहां बैठ कर बात कर रहे हैं, एक सेकेंड में सब रुक जा सकता है। और कोई उपाय नहीं है शिकायत का।
महावीर कहते हैं: ‘शरीर है दुर्बल, काल है निर्दयी, यह जान कर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-भाव से विचरण करना चाहिए।’
भारंड पक्षी एक मिथ, माइथोलॉजिक, पौराणिक पक्षी है, एक काल्पनिक कवि की कल्पना है कि भारंड पक्षी मृत्यु से, समय से, जीवन की क्षणभंगुरता से इतना ज्यादा भयभीत है कि वह सोता ही नहीं। वह उड़ता ही रहता है, जागता हुआ। कि सोए, और कहीं मौत न पकड़ ले, कि सोए और कहीं जीवन समाप्त न हो जाए, कि सोए और कहीं वापस न उठे। काल्पनिक पक्षी है।
तो महावीर कहते हैं: भारंड पक्षी की तरह समय निर्दयी, शरीर दुर्बल, ऐसा जान कर अप्रमत्त-भाव से, बिना बेहोश हुए, होशपूर्वक, विद अवेयरनेस, जागरूकता से जीना ही प्राज्ञ व्यक्ति का, प्रज्ञावान व्यक्ति का लक्षण है।
एक ही सूत्र है कृष्ण का, महावीर का, बुद्ध का, क्राइस्ट का। वह सूत्र है: अप्रमत्त-भाव, अवेयरनेस, होश। इसे हम आगे समझेंगे।
आज इतना ही।
रुकें पांच मिनट, कीर्तन करें, और फिर जाएं...!
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी,
न वीससे पंडिए आसुपन्ने।
घोरा मुहुत्ता अवलं शरीरं,
भारुंडपक्खी च चरऽप्पमत्ते।।
आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोह-निद्रा में सोए हुए संसारी मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए और किसी का विश्र्वास नहीं करना चाहिए।
काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल, यह जान कर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-भाव से विचरना चाहिए।
पहले कुछ प्रश्र्न।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, मनुष्य जीवन है दुर्लभ, लेकिन हम आदमियों को उस दुर्लभता का बोध क्यों नहीं होता? श्रवण करने की कला क्या है? कलियुग, सतयुग मनोस्थितियों के नाम हैं? क्या बुद्धत्व को भी हम एक मनोस्थिति ही समझें?
जो मिला हुआ है, उसका बोध नहीं होता। जो नहीं मिला है, उसकी वासना होती है, इसलिए बोध होता है।
दांत आपका एक टूट जाए, तो ही पता चलता है कि था। फिर जीभ चौबीस घंटे वहीं-वहीं जाती है। दांत था तो कभी नहीं गई थी; अब नहीं है, खाली जगह है तो जाती है।
जिसका अभाव हो जाता है, उसका हमें पता चलता है। जिसकी मौजूदगी होती है, उसका हमें पता नहीं चलता। मौजूदगी के हम आदी हो जाते हैं।
हृदय धड़कता है, पता नहीं चलता, श्र्वास चलती है, पता नहीं चलता। श्र्वास में कोई अड़चन आ जाए तो पता चलता है, हृदय रुग्ण हो जाए तो पता चलता है। हमें पता ही उस बात का चलता है जहां कोई वेदना, कोई दुख, कोई अभाव पैदा हो जाए। मनुष्यत्व का भी पता चलता है, हम आदमी थे, इसका भी पता चलता है जब आदमियत खो जाती है हमारी, मौत छीन लेती है हमसे। जब अवसर खो जाता है, तब हमें पता चलता है।
इसलिए मौत की पीड़ा वस्तुतः मौत की पीड़ा नहीं है, बल्कि जो अवसर खो गया, उसकी पीड़ा है। अगर हम मरे आदमी से पूछ सकें कि अब तेरी पीड़ा क्या है तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं मर गया, यह मेरी पीड़ा है। वह कहेगा कि जीवन मेरे पास था और यों ही खो गया, यह मेरी पीड़ा है।
हमें पता ही तब चलता है जीवन का, जब मौत आ जाती है। इस विरोधाभास को ठीक से समझ लें।
आप किसी को प्रेम करते हैं। उसका आपको पता ही नहीं चलता, जब तक कि वह खो न जाए। आपके पास हाथ है, उसका पता नहीं चलता, कल टूट जाए तो पता चलता है। जो मौजूद है, हम उसके प्रति विस्मृत हो जाते हैं। खो जाए, न हो, तो हमें याद आती है। यही कारण है कि हम आदमी की तरह पैदा होते हैं तो हमें पता नहीं चलता कि कितना बड़ा अवसर हमारे हाथ में है। मछलियों को, कहते हैं, सागर का पता नहीं चलता। मछली को सागर के बाहर डाल दें रेत पर, तड़फे, तब उसे पता चलता है। जहां वह थी वह सागर था, जीवन था; जहां अब वह है, वहां मौत है।
जिस मछली को सागर में पता चल जाए, वह संतत्व को उपलब्ध हो गई कि सागर है। जिस आदमी को आदमियत खोए बिना, अवसर खोए बिना, पता चल जाए, उसके जीवन में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। महावीर हैं, बुद्ध हैं, कृष्ण हैं--उनकी सारी चेष्टा यही है कि हमें पता चल जाए तभी, जब कि अवसर शेष है। तो शायद हम अवसर का उपयोग कर लें। तो शायद अवसर को हम स्वर्णिम बना लें। शायद अवसर हमारे जीवन को और वृहत्तर परम जीवन में ले जाने का मार्ग बन जाए। अगर पता भी उस दिन चला जब हाथ से सब छूट चुकता है तो उस पता चलने की कोई सार्थकता नहीं है, मगर यह मन का नियम है, मन को अभाव का पता चलता है।
गरीब आदमी को पता चलता है धन का, अमीर आदमी को धन का पता नहीं चलता। जो नहीं है हमारे पास वह दिखाई पड़ता है, जो है वह हम भूल जाते हैं।
इसलिए जो-जो आपको मिलता चला जाता है, आप भूलते चले जाते हैं और जो नहीं मिला होता, उस पर आंख अटकी रहती है। यह सामान्य मन का लक्षण है। इस लक्षण को बदल लेना साधना है। जो है, उसका पता चले तो बड़ी क्रांति घटित होती है। अगर जो नहीं है, उसका पता चले तो आपके जीवन में सिर्फ असंतोष के अतिरिक्त कुछ भी न होगा। जो है, उसका पता चले तो जीवन में परम तृप्ति छा जाएगी। जो नहीं है, उसका ही पता चले तो अक्सर अवसर जब खो जाएगा तब आपको पता चलेगा। जो है, उसका पता चले तो जो अवसर अभी मौजूद है, उसका आपको पता चलेगा; और अवसर आने के पहले, अवसर आते ही बोध हो जाए, तो हम अवसर को जी लेते हैं, अन्यथा चूक जाते हैं।
इसलिए ध्यान, जो है, उसको देखने की कला है। और मन, जो नहीं है, उसकी वासना करने की विधि है।
श्रवण करने की कला क्या है? सुनने की कला क्या है? निश्र्चित ही कला है, और महावीर ने कहा है, धर्म-श्रवण, दुर्लभ चार चीजों में एक है। तो बहुत सोच कर कहा है। श्रवण की कला--सुनते तो हम सब हैं। कला की क्या बात है? हम तो पैदा ही होते हैं कान लिए हुए, सुनना हमें आता ही है।
नहीं; लेकिन हम सुनते नहीं हैं, सुनने के लिए कुछ अनिवार्य शर्तें हैं। पहली, जब आप सुन रहे हों तब आपके भीतर विचार न हों। अगर विचार की भीड़ भीतर है, तो जो आप सुनेंगे वह वही नहीं होगा जो कहा गया है। आपके विचार उसे बदल देंगे, रूपांतरित कर देंगे। उसकी शक्ल और हो जाएगी। विचार हट जाने चाहिए बीच से। मन खाली हो, शून्य हो और सुने, तभी जो कहा गया है, वह आप सुनेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि आप उस पर विचार न करें। लेकिन विचार तो सुनने के बाद ही हो सकता है। सुनने के साथ ही विचार नहीं हो सकता। जो सुनने के साथ ही विचार कर रहा है, वह विचार ही कर रहा है, सुन नहीं रहा है।
सुनते समय सुनें, सुन लें पूरा, समझ लें क्या कहा गया है, फिर खूब विचार कर लें। लेकिन विचार और सुनने को जो साथ में मिश्रित कर देता है, वह बहरा हो जाता है। वह फिर अपने ही विचारों की प्रतिध्वनि सुनता है। फिर वह नहीं सुनता जो कहा गया है, वही सुन लेता है, जो उसके विचार उसे सुनने देते हैं।
अपने को अलग कर देना सुनने की कला है। जब सुन रहे हैं, तब सिर्फ सुनें। और जब विचार रहे हैं, तब सिर्फ विचारें। एक क्रिया को एक समय में करना ही उस क्रिया को शुद्ध करने कि विधि है। लेकिन हम हजार काम एक साथ करते रहते हैं। अगर मैं आपसे कुछ कह रहा हूं तो आप उसे सुन भी रहे हैं, आप उस पर सोच भी रहे हैं, उस संबंध में आपने जो पहले सुना है, उसके साथ तुलना भी कर रहे हैं। अगर आपको नहीं जंच रहा है, तो विरोध भी कर रहे हैं; अगर जंच रहा है, तो प्रशंसा भी कर रहे हैं। यह सब साथ चल रहा है। इतनी पर्तें अगर साथ चल रही हैं तो आप सुनने से चूक जाएंगे। फिर आपको राइट लिसनिंग, सम्यक श्रवण की कला नहीं आती।
महावीर ने तो श्रवण की कला को इतना मूल्य दिया है कि अपने चार घाटों में, जिनसे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंच सकता है, श्रावक को भी एक घाट कहा है। जो सुनना जानता है, उसे श्रावक कहा है। महावीर ने तो कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले तो भी उस पार पहुंच जाएगा। क्योंकि सत्य अगर भीतर चला जाए तो फिर आप उससे बच नहीं सकते। सत्य अगर भीतर चला जाए तो वह काम करेगा ही। अगर उससे बचना है तो उसे भीतर ही मत जाने देना, तो सुनने में ही बाधा डाल देना। उसी समय अड़चन खड़ी कर देना। एक बार सत्य की किरण भीतर पहुंच जाए तो वह काम करेगी, फिर आप कुछ कर न पाएंगे।
इसलिए महावीर ने कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन भी ले, तो भी पार हो सकता है। हमको हैरानी लगेगी कि ठीक से सुनने से कोई कैसे पार हो सकता है!
जीसस ने भी कहा है कि सत्य मुक्त करता है। अगर जान लिया जाए, तो फिर आप वही नहीं हो सकते जो आप उसके जानने के पहले थे। क्योंकि सत्य को जान लेना, सुन लेना भी, आपके भीतर एक नई घटना बन जाती है। फिर सारा पर्सपेक्टिव, सारा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है। फिर उस सत्य का जुड़ गया आपसे संबंध, अब आप देखेंगे और ढंग से, उठेंगे और ढंग से। अब आप कुछ भी करेंगे, वह सत्य आपके साथ होगा। अब उससे बच कर भागने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए जो कुशल हैं भागने में, बचने में, वे सुनते ही नहीं। हमने सुना है कि लोग अपने कान बंद कर लेते हैं, विपरीत बात सुनाई न पड़ जाए, प्रतिकूल बात सुनाई न पड़ जाए। हाथों से कान बंद करने वाले मूढ़ तो बहुत कम हैं, लेकिन हम ज्यादा कुशल हैं। हम भी कान बंद रखते हैं। हाथों से नहीं रखते। हम भीतर विचारों की पर्त कान के आस-पास इकट्ठी कर देते हैं। बाहर से कान बंद नहीं करते, भीतर से विचार से कान बंद कर देते हैं। तब कान पर कोई बात सुनाई पड़ती है, वह विचार की पर्त जांच-पड़ताल कर लेती है। वह हमारा सैंसर है। वहां से पार हम होने देते हैं तभी, जब लगे हमारे अनुकूल है।
और ध्यान रखना, सत्य आपके अनुकूल नहीं हो सकता, आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ता है। अगर आप सोचते हैं, सत्य आपके अनुकूल हो, तभी गृहीत होगा, तो आप सदा असत्य में जीएंगे। आपको ही सत्य के अनुकूल होना पड़ेगा। इसलिए पहली बात तो ठीक से सुन लेना जरूरी है कि क्या कहा गया है। जरूरी नहीं कि उसे मान लें।
सुनने का अर्थ मानना नहीं है। इससे लोगों को बड़ी भ्रांति होती है। कई को ऐसा लगता है कि अगर हमने सोचा-विचारा न, तो इसका मतलब हुआ कि हम बिना ही सोचे-विचारे मान लें! सुनने का अर्थ मानना नहीं है। सिर्फ सुन लें, अभी मानने न मानने की बात ही नहीं है। अभी तो ठीक तस्वीर सामने आ जाएगी कि क्या कहा गया है। फिर मानना न मानना पीछे कर लेना।
और एक बड़े मजे की बात है, अगर सत्य ठीक से सुन लिया जाए तो पीछे न मानना बहुत मुश्किल है; अगर सत्य है, तो पीछे न मानना बहुत मुश्किल है। अगर सत्य नहीं है तो पीछे मानना बहुत मुश्किल है। पर एक दफा शुद्ध प्रतिबिंब बन जाना चाहिए, फिर मानने न मानने की बात कठिन नहीं है। साफ हो जाएगी। सत्य मना ही लेता है। सत्य कनवर्शन है। फिर आप बच न सकेंगे। फिर तो आपको ही दिखाई पड़ने लगेगा कि मानने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। फिर सोचें खूब, फिर कसौटी करें खूब। लेकिन सोचना और कसौटी भी निष्पक्ष होनी चाहिए।
हमारा सोचने का क्या अर्थ होता है?
हमारा सोचने का अर्थ होता है--पूर्वाग्रह। हमारी जो प्रिज्युडिस होती है, जो हमने पहले से मान रखा है उससे अनुकूल खाए, उससे अनुकूल हो तो सत्य है।
एक आदमी हिंदू घर में पैदा हुआ है, एक आदमी मुसलमान घर में, एक आदमी जैन घर में, तो जो उसने पहले से मान रखा है, वही, उससे मेल खा जाए, इसका नाम सोचना नहीं है। यह तो सोचने से बचना है, एस्केपिंग फ्रॉम थिंकिंग। आपने जो मान रखा है, अगर वही सत्य है तब तो आपको खोज ही नहीं करनी चाहिए। आपने जो मान रखा है, अगर उसको ही पकड़ कर कसौटी करनी है, तब तो आपकी सारी कसौटियां झूठी हो जाएंगी। जो आपने मान रखा है, उसको भी दूर रखिए; जो आपने सुना है उसको भी दूर रखिए। आप दोनों से अलग हो जाइए, किसी से अपने को जोड़िए मत। क्योंकि जिससे आप जोड़ रहे हैं, वहां पक्षपात हो जाएगा। दोनों को तराजू पर रखिए,आप दूर खड़े हो जाइए। आप निर्णायक रहिए, पक्षपाती नहीं।
हर बार जब नई बात सुनी जाए, तो पुरानी को अपना मान कर और नई को दूसरे की मान कर अगर तौलिएगा, तो आप कभी निष्पक्ष चिंतन नहीं कर सकते। अपनी पुरानी को भी दूर रखिए, इस नई को भी दूर रखिए, दोनों पराई हैं। सिर्फ फर्क इतना है कि एक बहुत पहले सुनी थी, एक अब सुनी है। समय भर का फासला है। कोई बात बीस साल पहले सुनी थी, कोई आज सुनी है। बीस साल पुरानी जो थी, वह आपकी नहीं हो गई है, वह भी पराई है। उसे भी दूर रखिए, इसे भी दूर रखिए। और स्वयं को पार, अलग रखिए, और तब दोनों को सोचिए। इस सोचने में पक्ष मत बनाइए, निष्पक्ष दृष्टि से देखिए तो निर्णय बहुत आसान होगा। और बड़ा मजा यह है कि इतना निष्पक्ष जो चित्त हो उसे सत्य दिखाई पड़ने लगता है, सोचना नहीं पड़ता।
इसलिए हमने निरंतर इस मुल्क में कहा है कि सत्य सोच विचार से उपलब्ध नहीं होता, दर्शन से उपलब्ध होता है। यह निष्पक्ष चित्त दर्शन की स्थिति है, देखने में आप कुशल हो गए। अब आपको दिखाई पड़ेगा, कि क्या है सत्य और क्या है असत्य। अब आपकी आंख खुल गई। यह आंख देख लेगी कि क्या है सत्य, और क्या है असत्य। लेकिन अगर पक्षपात तय है, आप हिंदू हैं, मुसलमान हैं, जैन हैं। बंधे हैं अपने पक्षपात से, तो फिर आप कुछ भी न देख पाएंगे। वह पक्षपात आपकी आंख को बंद रखेगा।
जो पक्षपात से देखता है, वह अंधा है। जो निष्पक्ष होकर देखता है, वह आंख वाला है। सुनें, फिर आंख वाले का व्यवहार करें।
कलियुग, सतयुग मनोस्थितियां हैं, बुद्धत्व मनोस्थिति नहीं है। स्वर्ग-नरक मनोस्थितियां हैं, बुद्धत्व मनोस्िथति नहीं है, या जिनत्व मनोस्थिति नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें।
हमारे भीतर तीन तल हैं। एक हमारे शरीर का तल है। सुविधाएं-असुविधाएं, कष्ट-अकष्ट शरीर की घटनाएं हैं। इसलिए अगर आपका ऑपरेशन करना है तो आपको एक इंजेक्शन लगा देते हैं। वह अंग शून्य हो जाता है। फिर ऑपरेशन हो सकता है, आपको कोई तकलीफ नहीं होती है। पैर कट रहा है, आपको कोई तकलीफ नहीं होती। क्योंकि पैर कट रहा है, इसकी खबर मन को होनी चाहिए। जब खबर होगी, तभी तकलीफ होगी।
मन की तकलीफ नहीं है, यह तकलीफ पैर की है। तो पैर और मन के बीच में जिनसे जोड़ है, जिन स्नायुओं से, उनको बेहोश कर दिया तो आप तक तकलीफ पहुंचती नहीं। तकलीफ पहुंचनी चाहिए तो ही!
कष्ट, असुविधाएं शरीर की घटनाएं हैं। इसलिए बड़े मजे की बात है, आपके पैर में तकलीफ हो रही है, इंजेक्शन लगा दिया जाए, आपको पता नहीं चलता। आप मजे से लेटे गपशप करते रहते हैं। इससे उलटा भी हो सकता है--पैर में तकलीफ नहीं हो रही, और आपके स्नायुओं को कंपित कर दिया जाए, जिनसे तकलीफ की खबर मिलती, तो आपको तकलीफ होगी। आप छाती पीट कर चिल्लाएंगे कि मैं मरा जा रहा हूं; और कहीं कोई तकलीफ नहीं हो रही।
तकलीफ से आपको जानने से रोका जा सकता है। तकलीफ की झूठी खबर मन को दी जा सकती है। मन के पास कोई उपाय नहीं है जांचने का कि सही क्या है, गलत क्या है। शरीर जो खबर दे देता है वह मन मान लेता है। ये शरीर की स्थितियां हैं, आपको भूख लगी है, प्यास लगी है, ये सब शरीर की स्थितियां हैं। इसके पीछे मन की स्थितियां हैं। आपको सुख हो रहा है, आपको दुख हो रहा है, ये मन की स्थितियां हैं।
देखते हैं कि मित्र चला आ रहा है, चित्त प्रसन्न हो जाता है। सुखी हो गए। लेकिन पास आकर पता चलता है कि धोखा हो गया, मित्र नहीं है, कोई और है, सुख तिरोहित हो गया। यह मन की स्थिति है, इसका मित्र से कोई संबंध नहीं था। क्योंकि मित्र तो वहां था ही नहीं।
रात निकले हैं, और दिखता है कि अंधेरे में कोई खड़ा है, छाती धड़कने लगी, भय हो गया। पास जाते हैं, देखते हैं, कोई भी नहीं है, लकड़ी का ठूंठ है, वृक्ष कटा हुआ है, निश्चिंत हो गए। छाती की धड़कन ठीक हो गई। फिर गुनगुनाने लगे गीत और चलने लगे। यह मन की स्थिति है।
मन, सुख और दुख भोगता है। मन में सतयुग होता है, कलियुग होता है। मन में स्वर्ग होते हैं, नरक होते हैं। शरीर के भी जो पार उठ जाता है, मन के भी जो पार उठ जाता है। उस घड़ी को हम कहते हैं बुद्धत्व, जिनत्व। उस घड़ी को हमने कहा है, कृष्ण चेतना; उस घड़ी को हमने कहा है, क्राइस्ट हो जाना।
जीसस का नाम तो जीसस है, क्राइस्ट नाम नहीं है। क्राइस्ट चित्त के पार होने का नाम है। बुद्ध का नाम तो गौतम सिद्धार्थ है, बुद्ध उनका नाम नहीं है। बुद्धत्व, उनकी चेतना का मन के पार चले जाना है। महावीर का नाम तो वर्धमान है, जिन उनका नाम नहीं है। जिन का अर्थ है, मन के पार चले जाना।
क्राइस्ट के नाम में बड़ा मजा है। जो इतिहास की गहरी खोज करते हैं, वे कहते हैं, क्राइस्ट कृष्ण का अपभ्रंश है। जीसस उनका नाम है, जीसस दी कृष्णा, जीसस जो कृष्ण हो गया। कृष्ण का रूप है क्राइस्ट। बंगाली में अब भी कृष्ण को कहते हैं, क्रिस्टो। बंगाली रूप है, क्रिस्टो। अगर कृष्ण का बंगाली रूप क्रिस्टो हो सकता है, तो हिब्रू या अरैमेक में क्राइस्ट हो सकता है, कोई अड़चन नहीं है।
यह जो, व्यक्ति जहां शरीर और मन, दोनों के पार हट जाता है, उन अवस्थाओं के नाम हैं। बुद्धत्व मनोस्थिति नहीं है, स्टेट ऑफ माइंड नहीं है। बुद्धत्व है स्टेट ऑफ नो-माइंड, अ-मन की स्थिति है, जहां मन नहीं है। बुद्ध के पास कोई मन नहीं है, इसलिए हम उनको बुद्ध कहते हैं। महावीर के पास कोई मन नहीं है, इसलिए हम उनको जिन कहते हैं।
मन का क्या अर्थ होता है? मन का अर्थ होता है: विचारों का संग्रह, कर्मों का संग्रह, संस्कारों का संग्रह, अनुभवों का संग्रह। मन का अर्थ होता है: पास्ट, अतीत, जो बीत गया है उसका संग्रह। मन है जोड़ अतीत अनुभव का। जो हमने जाना, जीया, अनुभव किया उन सबका जोड़ हमारा मन है। मन हमारा संग्रह है समस्त अनुभवों का।
हमारा मन बहुत बड़ा है। हम जानते नहीं। आप तो अपना मन उतना ही समझते हैं, जितना आप जानते हैं, वह तो कुछ भी नहीं है। उसके नीचे पर्त-पर्त गहरा मन है। फ्रायड ने खोज की है कि हमारा चेतन मन, उसके नीचे गहरा अचेतन मन है, अनकांशस है। फिर जुंग ने और खोज की कि उसके नीचे हमारा कलेक्टिव अनकांशस, सामूहिक अचेतन मन है। लेकिन ये खोजें अभी प्रारंभ हैं। बुद्ध और महावीर ने जो खोज की है, अभी उस अतल में उतरने की मनोविज्ञान की सामर्थ्य नहीं है। बुद्ध और महावीर तो कहते हैं, कि यह जो हमारा मन है, इसके नीचे बड़ी पर्तें हैं, आपके सारे जन्मों की, जो पशुओं में हुए हैं, उनकी पर्तें हैं। जो पौधों में हुए उनकी पर्तें हैं।
अगर आप कभी एक पत्थर थे, तो उस पत्थर का अनुभव भी आपके मन की गहरी पर्त में दबा हुआ पड़ा है। कभी आप पौधे थे, तो उस पौधे का अनुभव और स्मृतियां भी आपके मन के पर्त में दबी पड़ी हैं। आप कभी पशु थे, वह भी दबा हुआ पड़ा है। इसलिए कई बार ऐसा होता है कि आपकी उन पर्तों में से कोई आवाज आ जाती है तो आप आदमी नहीं रह जाते। जब आप क्रोध में होते हैं तो आप आदमी नहीं होते। असल में क्रोध के क्षण में आप तत्काल अपने पशु मन से जुड़ जाते हैं और पशु मन प्रकट होने लगता है।
इसलिए अक्सर क्रोध में आप कुछ कर लेते हैं और पीछे कहते हैं, मेरे बावजूद, इंस्पाइट ऑफ मी--मैं तो नहीं करना चाहता था, फिर भी हो गया। फिर किसने किया, आप नहीं करना चाहते थे तो! कभी आपने अपनी क्रोध की तस्वीर देखी है? कभी आईने के सामने खड़े होकर क्रोध करना, तब आप पाएंगे कि यह चेहरा आपका नहीं है। ये आंखें आपकी नहीं हैं। यह कोई और आपके भीतर आ गया। यह कौन है? यह आपका ही कोई पशु-संस्मरण है, कोई स्मृति है, कोई संस्कार; जब आप पशु थे, वह आपके भीतर काम कर रहा है। उसने आपको पकड़ लिया। जब आप अपने को ढीला छोड़ते हैं, तब आपके नीचे का मन आपको पकड़ लेता है।
कई बार कई आदमियों की आंखों में देख कर आपको लगेगा कि वह पथरा गई हैं। लोग कहते हैं, उसकी आंखें पथरा गई हैं। जब हम कहते हैं, किसी की आंखें पत्थर हो गईं, तो उसका क्या मतलब होता है? उसका मतलब है कि इस व्यक्ति के पत्थर जीवन के अनुभव इसकी आंखों को पकड़ रहे हैं आज भी। इसलिए इसकी आंखों में कोई संवेदना नहीं मालूम होती।
अनेक लोग बिलकुल मुर्दा मालूम पड़ते हैं। उनका शरीर लगता है, जैसे लाश है। वे चलते हैं तो ऐसा जैसे कि ढो रहे हैं अपने को। क्या हो गया है इनको?
मन की बहुत पर्तें हैं। इस पर्त-पर्त मन का जो लंबा इतिहास है, वह अतीत है। रोज हम इस मन में जोड़ दिए चले जाते हैं। जो भी हम अनुभव करते हैं, वह उसमें जुड़ जाता है। मैं कुछ बोल रहा हूं, यह आपके मन में जुड़ जाएगा। आपका मन रोज बढ़ रहा है, बड़ा हो रहा है, फैलता जा रहा है।
बुद्धत्व, जिनत्व, इस मन के अतीत के पार उठने की घटना है। जिस दिन कोई व्यक्ति अपने अतीत का त्याग कर देता है, अपने सारे मनों को छोड़ देता है, और अपनी चेतना को मन के पार खींच लेता है और कहता है--अब मैं न शरीर हूं, न अब मैं मन हूं, अब मैं केवल जानने वाला हूं, जो मन को भी जानता है, वह हूं। अब मैं ऑब्जेक्ट नहीं हूं, जाने-जानी वाली चीज नहीं हूं--ज्ञाता हूं, चिन्मय हूं, चैतन्य हूं।
कहने से नहीं--मन यह भी कह सकता है, यही बड़ा मजा है। मन यह भी कह सकता है कि मैं चैतन्य हूं, आत्मा हूं, परमात्मा हूं। लेकिन अगर यह मन कह रहा है, अगर यह आप सुनी हुई बात कह रहे हैं, तो इसका आत्मा से कोई संबंध नहीं है। यह आपका अनुभव बन जाए और आप मन के पार अपने को पहचान लें कि यह मैं मन से अलग हूं, तब बुद्धत्व है।
बुद्ध से कोई पूछता है। बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। एक ज्योतिषी बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। उसने बुद्ध के पैर देख लिए रेत पर बने हुए। वह काशी से लौट ही रहा था अपने पांडित्य की डिग्री लेकर। वह बड़ा ज्योतिषी था। उसने पोथे पंडित, अपनी सारी पोथियां लेकर चला आ रहा था। उसने देखे बुद्ध के चरण, गीली रेत पर, गीली मिट्टी पर पैर के चिह्न थे। वह चकित हो गया। यह आदमी सम्राट होना चाहिए ज्योतिष के हिसाब से। पैर के चिह्न सम्राट के चिह्न हैं। लेकिन कौन सम्राट, नंगे पैर इस साधारण से गरीब गांव की रेत में चलने आएगा!
वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। अभी लौटा ही है काशी से। उसने कहा कि अगर इस साधारण से गांव-देहात में सम्राट नंगे पैर रेत में चलते हों, सम्राट मिलते हों, तो यह पोथी वगैरह यहीं, इसी नदी में डुबा कर हाथ जोड़ लेना चाहिए। कोई मतलब नहीं है। इस आदमी को खोजना पड़ेगा।
वह खोज करके पहुंचा, तो बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। बड़ी मुश्किल में पड़ गया ज्योतिषी। जिसको सम्राट होना चाहिए, वह भिक्षा पात्र लिए बैठा है! अगर यह आदमी सही है, तो ज्योतिष गलत है। अगर ज्योतिष सही है तो इस आदमी को यहां होना ही नहीं चाहिए इस वृक्ष के नीचे।
उसने बुद्ध से जाकर पूछा कि कृपा करें, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। ये पैर के लक्षण सम्राट के हैं, चक्रव्रती सम्राट के। और आप यहां भिखारी होकर बैठे हुए हैं। क्या करूं, पोथियों को डुबा दूं पानी में?
बुद्ध ने कहा: पोथियों को डुबाने की जरूरत नहीं, क्योंकि मेरे जैसा आदमी दुबारा तुम्हें जल्दी नहीं मिलेगा। होना चाहिए था चक्रवती सम्राट ही। ज्योतिष तुम्हारा ठीक ही कहता है। लेकिन एक और जगत है अध्यात्म का, जो ज्योतिष के पार चला जाता है। पर तुम्हें ऐसा बार-बार नहीं होगा, तुम बहुत चिंता में मत पड़ो। ऐसा जल्दी फिर दुबारा नहीं होगा। चक्रवती सम्राट ही होने को पैदा हुआ था, लेकिन उससे और ज्यादा होने का द्वार खुल गया। तो भिखारी मैं नहीं हूं, सम्राट भी मैं नहीं हूं।
तब आश्र्वस्त हुआ ज्योतिषी। उसने गौर से--चिंता छोड़ी--बुद्ध के चेहरे को देखा। वहां जो आभा थी, वहां जो गरिमा थी, वहां जो प्रकाश की किरणें फूट रही थीं... उसने पूछा, क्या आप देवता हैं? मुझसे भूल हो गई, मुझे क्षमा कर दें।
बुद्ध ने कहा: मैं देवता भी नहीं हूं।
तो ज्योतिषी पूछता जाता है कि आप यह हैं, आप यह हैं, आप यह हैं। बुद्ध कहते जाते हैं, मैं यह भी नहीं, मैं यह भी नहीं, मैं यह भी नहीं। तब ज्योतिषी पूछता है, फिर आप हैं क्या? न आप पशु हैं, न आप पक्षी हैं, न आप पौधा हैं, न आप मनुष्य हैं, न आप देवता हैं, तो आप हैं क्या?
बुद्ध कहते हैं: मैं बुद्ध हूं।
तो वह ज्योतिषी पूछता है, बुद्ध होने का क्या अर्थ? तो बुद्ध कहते हैं, जो भी परिधियां हो सकती थीं आदमी की, देवता की, पशु की, वे सब मन के खेल थे। मैं उनके पार हूं। मैंने उसे पा लिया है जो उस मन के भीतर छिपा था। अब मैं मन नहीं हूं।
पशु भी मन के कारण पशु है। और आदमी भी मन के कारण मनुष्य है। पौधा भी मन के कारण पौधा है।
आप जो भी हैं, अपने मन के कारण हैं। जिस दिन आप मन को छोड़ देंगे उस दिन आप वह हो जाएंगे जो आप अकारण हैं। वह अकारण होना ही हमारा ब्रह्मत्व है, वह अकारण होना ही हमारा परमात्म है।
कारण से हम संसार में हैं, अकारण से हम परमात्मा में हो जाते हैं। कारण से हमारी देह निर्मित होती है, मन निर्मित होता है। अकारण हमारा अस्तित्व है। वह है, उसका कोई कारण नहीं है।
बुद्धत्व अवस्था नहीं है, अवस्थाओं के पार हो जाना है।
अब हम सूत्र लें:
‘आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोहनिद्रा में सोए हुए संसारी मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए और किसी
का विश्र्वास नहीं करना चाहिए।’
‘काल निर्दयी है, और शरीर दुर्बल, यह जान कर भारंड पक्षी की भांति अप्रमत्त-भाव से विचरना चाहिए।’
बहुत सी बातें समझने की हैं।
महावीर अकेला पंडित नहीं कहते, आशुप्रज्ञ पंडित। तो पहले तो इस बात को हम समझ लें।
पंडित का अर्थ होता है, जानने वाला, जानकारी वाला, जिसके पास सूचनाओं का बहुत संग्रह है, लर्नेड। शास्त्र का जिसे पता है, सिद्धांत का जिसे पता है, प्राणियों का जिसे बोध है, तर्क में जो निष्णात है, ऐसा व्यक्ति पंडित है। जानकारियां जिसके पास हैं। आशुप्रज्ञ पंडित का अर्थ है, जानकारियां ही जिसके पास नहीं हैं, ज्ञान भी जिसके पास है। ‘आशुप्रज्ञ’ शब्द का अर्थ होता है, ऐसे प्रश्र्न का उत्तर भी जो दे सकेगा, जिस प्रश्र्न के उत्तर की कोई जानकारी उसके पास नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें।
हम उस व्यक्ति को आशु कवि कहते हैं जो कविता बना कर नहीं आया है; जिसकी कविता तत्क्षण बनेगी। जो कविता पहले बनाएगा नहीं, फिर गाएगा नहीं; जो गाएगा और गाने में ही कविता निर्मित होगी। उसको कहते हैं, आशु कवि। उसका गाना और बनाना साथ-साथ है। वह पहले बनाता और फिर गाता, ऐसा नहीं। वह गाता है, और कविता बनती चली जाती है।
आशु कवि का अर्थ है, कविता उसके लिए कोई रचना नहीं है, उसका स्वभाव है। वह बोलेगा, तो कविता है। उसके बोलने में ही काव्य होगा। काव्य को उसे बाहर से लाकर आरोपित नहीं करना होता। वह उससे वैसे ही निकलता है, जैसे वृक्षों में पत्ते निकलते हैं। जैसे झरना बहता है ऐसा उसकी कविता बहती है, निष्प्रयोजन है, निष्चेष्ठित है। उसके लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। जितना छोटा कवि हो उतना ज्यादा प्रयास करना पड़ता है। जितना बड़ा कवि हो उतना कम प्रयास करना पड़ता है। आशु कवि हो तो प्रयास होता ही नहीं, कविता बहती है। तब कविता एक निर्माण नहीं है, कोई आयोजना, कोई व्यवस्था नहीं है। तब कविता वैसे ही है जैसे श्र्वास का चलना है। ऐसे व्यक्ति को हम कहते हैं, आशु कवि। आशुप्रज्ञ उसे कहते हैं, जिसका ज्ञान स्मृति नहीं है। आप उससे पूछते हैं।
आप किसी से कुछ पूछते हैं तो दो तरह के उत्तर संभव हैं। एक सवाल आप मुझसे पूछें तो दो तरह के उत्तर संभव हैं। एक, आप सवाल पूछें, मैं तत्काल अपनी स्मृति के संग्रह में जाऊं और उत्तर खोज लाऊं। आप मुझसे कुछ पूछें, मैं तत्काल खोजूं अपने अतीत में, अपने मस्तिष्क में, अपनी स्मृति में, अपने कोश में, अपने संग्रह में--उत्तर, उत्तर खींच कर स्मृति से ले आऊं, उत्तर दे दूं। यह एक पंडित का उत्तर है।
आप मुझसे प्रश्र्न पूछें, मैं अपने भीतर चला जाऊं, स्मृति में नहीं। आप मुझसे उत्तर पूछें, मैं उत्तर के सामने अपनी चेतना को खड़ा कर दूं, स्मृति को नहीं। आप उत्तर पूछें, मैं दर्पण की तरह आपके उत्तर के सामने खड़ा हो जाऊं, और मेरी यह चेतना प्रतिध्वनि दे, आपके प्रश्र्न का उत्तर दे। यह उत्तर स्मृति से न आए, इस क्षण की मेरी चेतना से आए, तो आशुप्रज्ञ। आशुप्रज्ञ का अर्थ है, अभी जिसकी चेतना से उत्तर आएगा, ताजा, सद्यःस्नात, अभी-अभी नहाया हुआ, बासा नहीं।
हमारे सब उत्तर बासे होते हैं। बासे उत्तर में समय लगता है, पता चले या न चले। आशुप्रज्ञ में समय नहीं लगता।
आपसे कोई प्रश्र्न पूछे, समय लगता है। अगर ऐसा प्रश्र्न पूछे कि आपका नाम क्या है तो आपको लगता है, कोई समय नहीं लगता। कह देते हैं, राम। लेकिन इसमें भी समय लगता है। असल में आदत हो गई है। आपको पता है कि आपका नाम राम है, इसलिए समय लगता मालूम नहीं पड़ता, लेकिन इसमें भी समय जाता है। लेकिन कोई आपसे पूछे कि आपके पड़ोसी का नाम क्या है? तो आप कहते हैं, जबान पर रखा है, लेकिन याद नहीं आ रहा है।
इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है, स्मृति में है, लेकिन हम स्मृति तक पहुंच नहीं पा रहे, बीच में कुछ दूसरी चीजें अड़ गई हैं, कुछ दूसरी स्मृतियां अड़ गई हैं; इसलिए हम ठीक पहुंच नहीं पा रहे। मालूम भी है, लेकिन पकड़ नहीं पा रहे स्मृति में।
आपको जो याद है, उसको आप तत्काल उत्तर दे देते हैं। समय बीत जाता है तो भूल जाता है, फिर आप तत्काल उत्तर नहीं दे पाते। लेकिन अगर आपको थोड़ा समय मिले, सुविधा मिले, तो आप खोज ले सकते हैं उत्तर।
स्मृति से आया हुआ उत्तर पांडित्य का है।
आपसे किसी ने पूछा, ईश्र्वर है? तो आप जो भी उत्तर देंगे वह पांडित्य का हो जाएगा। लेकिन कोई महावीर से पूछे, तो वह उत्तर पांडित्य का नहीं होगा, वह महावीर के जानने से निकलेगा। वह महावीर की जानकारी से नहीं निकलेगा--जानने से निकलेगा। मेमोरी से नहीं, कांशसनेस से, चैतन्य से निकलेगा।
महावीर कोई बंधा हुआ उत्तर तैयार नहीं रखते हैं कि आप पूछेंगे, वे दे देंगे। उनके पास रेडीमेड कुछ भी नहीं है। पंडित के पास सब रेडीमेड है। आप पूछेंगे, वह वही उत्तर देगा जो तैयार है। इसलिए एक बड़ी कठिनाई खड़ी होती है। महावीर का आज का उत्तर जरूरी नहीं कि कल भी हो, परसों भी हो। पंडित का आज भी वही होगा, कल भी वही होगा, परसों भी वही होगा। क्योंकि पंडित के पास वस्तुतः कोई उत्तर नहीं है, केवल एक जानकारी है। महावीर का उत्तर रोज बदल जाएगा, रोज बदल सकता है, प्रतिपल बदल सकता है। क्योंकि वह कोई जानकारी नहीं है।
महावीर की चेतना जो प्रतिध्वनि करेगी, इस प्रतिध्वनि में अंतर पड़ेगा, क्योंकि पूछने वाला रोज बदल जाएगा। और पूछने वाले पर निर्भर करेगा। इसे ऐसा समझें--एक फोटोग्राफ है, तो फोटोग्राफ आज भी वही शक्ल बताएगा, कल भी वही शक्ल बताएगा, परसों भी वही शक्ल बताएगा। किसी को दे दें देखने के लिए, इससे फर्क नहीं पड़ेगा। एक दर्पण है, दर्पण वही शक्ल नहीं बताएगा। जो देखेगा, उसकी ही शक्ल बताएगा। रोज बदल जाएगी शक्ल।
पांडित्य फोटोग्राफ है। सब पक्का बंधा हुआ है। हम उसी आदमी को बड़ा पंडित कहते हैं जिसका फोटोग्राफ बिलकुल साफ है, एक-एक रेखा-रेखा साफ दिखाई पड़ती हो।
महावीर और बुद्ध जैसे लोग दर्पण की भांति हैं। आपकी ही शक्ल दिखाई पड़ेगी। इसलिए जब प्रश्र्न पूछने वाला बदल जाएगा तो उत्तर बदल जाएगा। पंडित का उत्तर कभी नहीं बदलेगा। आप सोते से उठा कर पूछ लो, कुछ भी करो, उसका उत्तर नहीं बदलेगा। उसका उत्तर वही रहेगा।
इससे एक बड़ी कठिनाई पैदा होती है। महावीर और बुद्ध के वचनों में बड़ी असंगतियां दिखाई पड़ती हैं, दिखाई पड़ेंगी। पंडित ही संगत हो सकता है। आशुप्रज्ञ संगत नहीं हो सकता। क्योंकि प्रतिपल परिस्थिति बदल जाती है, पूछने वाला बदल जाता है, संदर्भ बदल जाता है, उत्तर बदल जाता है, दर्पण का प्रतिबिम्ब बदल जाता है।
आप पर निर्भर करेगा कि महावीर का उत्तर क्या होगा। पूछने वाले पर निर्भर करेगा कि उत्तर क्या होगा। इसलिए महावीर कहते हैं, आशुप्रज्ञ पंडित, जिसकी प्रज्ञा प्रतिपल तैयार है उत्तर देने को। प्रज्ञा, जिसका ज्ञान, प्रतिपल तैयार है उत्तर देने को।
‘आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोह-निद्रा में सोए हुए संसारी मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए।’
महावीर कहते हैं कि जिसको भी ऐसी प्रज्ञा में थिर रहना है, ऐसे ज्ञान में थिर रहना है, ऐसे ज्ञान में गति करते जाना है, उसे संसारी सोए हुए मनुष्यों के बीच रह कर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिए। रहना तो पड़ेगा ही सोए हुए लोगों के बीच। क्योंकि वे ही हैं, और तो कोई है भी नहीं। भागने से कोई सार भी नहीं है। कहीं भी भाग जाओ, सोए हुए लोगों के बीच ही रहना पड़ेगा। यह जरा समझ लेने जैसा है।
अक्सर लोग सोचते हैं कि शहर छोड़ कर गांव चला जाऊं। गांव में भी सोए हुए लोग ही हैं। कोई सोचता है, गांव छोड़ कर जंगल चला जाए। लेकिन आपको कभी खयाल न आया होगा कि जंगल के पौधे मनुष्य से ज्यादा सोए हुए हैं, इसलिए तो पौधे हैं। और जंगल के पशु-पक्षी मनुष्य से ज्यादा सोए हुए हैं, इसलिए तो पशु-पक्षी हैं। ये मनुष्य भी कभी पशु-पक्षी थे और पौधे थे। ये थोड़े-थोड़े जाग कर मनुष्य तक आ गए हैं।
अगर एक आदमी मनुष्यों को छोड़ कर जंगल जा रहा है तो वह और भी गहन, सोई हुई चेतनाओं के बीच जा रहा है। वहां उसे शांति मालूम पड़ सकती है। उसका कुल कारण इतना है कि वह इन सोए हुए प्राणियों की भाषा नहीं समझ रहा है।
लेकिन सारा जंगल सोया हुआ है। ये सोए हुए वृक्ष, सोए हुए मनुष्य ही हैं। जो कभी मनुष्य हो जाएंगे। जागे हुए मनुष्य जो दिखाई पड़ रहे हैं, ये थोड़े से आगे बढ़ गए वृक्ष ही हैं जो कभी वृक्ष थे। पीछे लौटने में चूंकि भाषा का पता नहीं चलता, इसलिए आदमी सोचता है, जंगल में ठीक रहेगा। न कोई रहेगा आदमी, न कोई होगा उपद्रव। उपद्रव न होने का कुल कारण इतना है कि आदमी की भाषा जल्दी चोट करती है, और ज्यादा होश रखना पड़ता है, नहीं तो चोट से बचा नहीं जा सकता। आदमी गाली देगा तो क्रोध जल्दी आ जाएगा। पत्थर की चोट पैर में लगेगी तो उतनी जल्दी क्रोध नहीं आएगा क्योंकि हम सोचते हैं, पत्थर है। छोटे बच्चों को आ जाता है। क्योंकि अभी उनको पता नहीं है कि पत्थर और आदमी में फर्क करना है। वह पत्थर को भी गाली देंगे, डंडा उठा कर पत्थर को भी मारेंगे। कभी-कभी आप भी बचकाने होते हैं, तब वैसा कर लेते हैं। कलम ठीक से नहीं चलती तो गाली देकर फर्श पर पटक देते हैं।
लेकिन चाहे कहीं भी चले जाओ, महावीर कहते हैं, संसार में तो रहना ही पड़ेगा। संसार का मतलब ही है, सोई हुई चेतनाओं की भीड़। यह भीड़ चाहे बदल लो, चाहे वृक्षों की हो, चाहे पशुओं की हो, चाहे मनुष्यों की हो, यह भीड़ तो मौजूद है। यह स्थिति है, इससे बचा नहीं जा सकता।
संसार अनिवार्य है, उससे तब तक बचा नहीं जा सकता, जब तक हम पूरी तरह जाग न जाएं। तो आशुप्रज्ञ पंडित को भी, जो इस जागने की चेष्टा में सतत संलग्न है, सोए हुए लोगों के बीच रहना पड़ेगा। तो उसे सदा जागरूक रहना चाहिए।
क्यों?
क्योंकि नींद भी संक्रामक है, इनफैक्शस है। यहां इतने लोग बैठे हैं, हम सब संक्रामक रूप से जीते हैं। अभी एक आदमी खांस दे, तब पता चलेगा कि दस बीस लोग खांसने लगेंगे। क्या हो गया? अभी तक ये चुपचाप बैठे थे, इनके गले को क्या हो गया? अभी तक कोई गड़बड़ न थी। एक आदमी ने खांसना शुरू किया, दस बीस लोग खांसना शुरू कर देंगे। संक्रामक है। हम अनुकरण से जीते हैं। एक आदमी पेशाब करने चला जाए तो कई लोगों को खयाल हो जाएगा कि पेशाब करने जाना है। संक्रामक है। हम एक-दूसरे के हिसाब से जी रहे हैं।
हिटलर अपनी सभाओं में अपने दस-पांच आदमियों को दस जगह बिठा रखता था। ठीक वक्त पर दस आदमी ताली बजाते, वह पूरा हाल तालियों से गूंज उठता था। समझ गया था कि ताली संक्रामक है। दस आदमी अपने हैं, वे ताली बजा देते हैं, फिर बाकी दस हजार लोग भी ताली बजा देते हैं। ये दस हजार लोगों को क्या हो गया? इनकी ताली को क्या हो गया?
हमारा मन आस-पास से एकदम प्रभावित होता रहता है। बीमारियां ही नहीं पकड़ती हमको, फ्लू ही नहीं पकड़ता हमको एक-दूसरे से, क्रोध भी पकड़ता है, मोह भी पकड़ता है, लोभ भी पकड़ता है, कामवासना भी पकड़ती है। शरीर ही नहीं पकड़ता जीवाणुओं को, मन भी पकड़ता है।
इसलिए महावीर कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को सोए हुए लोगों के बीच जागरूक रहना चाहिए, क्योंकि वे चारों तरफ गहन निद्रा में सो रहे हैं। उनकी निद्रा की लहरें तुम्हें छुएंगी। वे चारों तरफ से तुम्हारे भीतर आएंगी। तुम अकेले ही अपनी नींद के लिए जिम्मेवार नहीं हो, तुम एक नींद के सागर में हो जहां चारों तरफ से नींद तुम्हें छुएगी। अगर तुमने बहुत चेष्टा न की तो वह नींद तुम्हें पकड़ लेगी। वह नींद तुम्हें डुबा देगी। कोई तुम्हें डुबाने की उसकी आकांक्षा नहीं है, यह कोई सचेतन प्रयास नहीं है, यह केवल स्थिति है।
कभी आपने खयाल किया है, अगर दस लोग बैठे हैं और एक आदमी जम्हाई लेने लगे, फौरन दूसरे कुछ लोग जम्हाई लेना शुरू कर देंगे। एक आदमी सो जाए, दूसरे लोगों को नींद पकड़ने लगेगी।
हम समूह का एक अंग हैं जब तक हम पूरे नहीं जाग गए। जब तक कोई व्यक्ति पूरा नहीं जागा, तब तक वह व्यक्ति नहीं है, भीड़ है। तब तक वह कितना ही समझे कि मैं अलग हूं, वह अलग है नहीं।
इसलिए बड़ी मजे की घटनाएं घटती हैं। दुनिया में बड़े पाप व्यक्ति से नहीं होते, भीड़ से होते हैं। क्योंकि भीड़ में संक्रमण हो जाता है। हजार लोगों की भीड़ मंदिर को जला रही है या मस्जिद में आग लगा रही है। इनमें से एक-एक आदमी को अलग करके पूछें कि मस्जिद में आग लगाना चाहते हो? मंदिर तोड़ना चाहते हो? क्या होगा? एक-एक आदमी को अलग पूछें, वह कहेगा कि नहीं, इससे कुछ होने वाला नहीं है, इसमें कोई सार भी नहीं है। फिर क्या कर रहे थे?
लेकिन हजार आदमियों की भीड़ में वह आदमी था ही नहीं, वह सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा था। इसलिए बड़ा पाप भीड़ करती है। छोटे पाप निजी होते हैं। बड़े पाप सामूहिक होते हैं। जितना बड़ा पाप करना हो, उतनी बड़ी भीड़ चाहिए। क्योंकि भीड़ में व्यक्ति को जो निज की जिम्मेवारी है वह खो जाती है। भीड़ में व्यक्ति अपने में नहीं रह जाता। भीड़ में उसे लगता है, एक सागर है जिसमें बहे चले जा रहे हैं। भीड़ में उसे ऐसा नहीं लगता है कि मैं कर रहा हूं, भीड़ कर रही है, मैं सिर्फ साथ हूं।
कभी आपने खयाल किया, अगर भीड़ तेजी से चल रही हो, आपके पैर भी तेज हो जाते हैं। हिटलर ने अपने सैनिकों को आदेश दे रखे थे कि जब भी तुम चलो तो एक-दूसरे के शरीर छूते रहें। अगर पचास आदमी चल रहे हों, और एक-दूसरे के शरीर छूते हैं और उनके कदम एक लय में पड़ते हैं, तो आप उस लय में फंस जाएंगे। जब उनका हाथ आपको छुएगा तो उनका जोश भी आपके भीतर चला जाएगा। और जब उनके कदम की चाप आपके सिर में पड़ेगी तो आपका कदम भी वैसा ही पड़ने लगेगा। पचास आदमियों की भीड़ में आप अकेले नहीं रह जाते, आप सिर्फ एक अंग हो जाते हैं, एक बड़ी चेतना का हिस्सा हो जाते हैं। और वह चेतना फिर आपको प्रवाहित कर लेती है। जैसे नदी की धार में कोई बहता हो और जब नदी वर्षा के पूर में आई हो जब कोई बहता हो, वैसा असहाय आदमी हो जाता है भीड़ में।
इसलिए सारे लोग भीड़ बना कर जीते हैं। राष्ट्र भीड़ों के नाम हैं। धर्म भीड़ों के नाम हैं--हिंदुओं की भीड़, मुसलमानों की भीड़, जैनों की भीड़। हिंदुस्तान, पाकिस्तान, चीन, रूस--ये सब भीड़ों के नाम हैं।
रूस खतरे में है, तो फिर सारा मामला खत्म हो गया। भारत खतरे में है, तो फिर आप व्यक्ति नहीं रह जाते। सिर्फ एक बड़ी भीड़ के हिस्से रह जाते हैं। फिर उसमें आप बहते हैं।
राजनीति भीड़ों को संचालित करने की कला है। इसलिए जहां भी भीड़ है वहां राजनीति होगी। चाहे वह धर्म की भीड़ क्यों न हो, राजनीति आ जाएगी। इसलिए मैं आपसे कहता हूं, धर्म का संबंध है व्यक्ति से और राजनीति का संबंध है भीड़ से। जहां धर्म भी भीड़ से संबंधित होता है वहां राजनीति का रूप है। इसलिए हिंदुओं की भीड़, मुसलमानों की भीड़, ईसाइयों की भीड़, ये सब राजनीति के रूप हैं, इनका धर्म से कोई संबंध नहीं है। धर्म का संबंध है व्यक्ति से। धर्म की चेष्टा ही यही है कि व्यक्ति को हम भीड़ से कैसे मुक्त करें, वह भीड़ के उपद्रव से कैसे बाहर आए, भीड़ के प्रभाव से कैसे छूटे, यही तो धर्म की सारी चेष्टा है। लेकिन धर्म भी भीड़ बन जाता है, और जब धर्म भीड़ बन जाता है तो उससे मुश्किल हो जाती है, तब कठिनाई खड़ी होती है। युद्ध में सैनिक ही भीड़ में नहीं लड़ते, लोग मस्जिदों में, मंदिरों में, भीड़ में प्रार्थना भी करते हैं। बह जाएंगे आप। बह जाना निद्रा में भी हो जाएगा, महावीर कहते हैं।
इसलिए जागे हुए व्यक्ति को आस-पास पूरे वक्त सचेत रहना पड़ेगा। सब तरफ से नींद आ रही है, सब तरफ सोए हुए लोग हैं। क्रोध आएगा, लोभ आएगा, मोह आएगा, सब तरफ से बह रहा है, जैसे कि कोई आदमी सब तरफ से गंदी नालियां बह रही हों और उनके बीच में बैठा हो। उसको बहुत सचेत रहना पड़ेगा अन्यथा वे गंदी नालियां उसे भी गंदा कर जाएगी। उसकी सचेतना ही उसको पवित्र रख सकती है। इसलिए महावीर कहते हैं, सब तरह से जागरूक रहना चाहिए, सब तरह से। इसलिए बहुत अदभुत वचन उन्होंने कहा है।
‘और किसी का भी विश्र्वास नहीं करना चाहिए।’
इसका यह मतलब नहीं है कि महावीर अविश्र्वास सिखा रहे हैं। महावीर कहते हैं कि तुमने किसी का विश्र्वास किया, सोए हुए आदमी का, तो तुम खुद सो जाओगे। तुमने अगर सोए हुए आदमी का विश्र्वास किया तो तुम सो जाओगे, क्योंकि विश्र्वास का मतलब यह है कि अब सचेतन रहने की कोई भी जरूरत नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लें।
जिसका हम विश्र्वास करते हैं, उससे हमें सचेतन नहीं रहना पड़ता। एक अजनबी आदमी आपके कमरे में ठहर जाए तो आप रात ठीक से सो न पाएंगे। क्यों?
अजनबी आदमी कमरे में है, पता नहीं क्या करे! नींद उखड़ी-उखड़ी रहेगी, रात में दो-चार दफा आप आंख खोल कर देख लेंगे कि कुछ कर तो नहीं रहा। आपकी पत्नी आपके कमरे में सो रही है, आप मजे से घोड़े बेच कर सो जाते हैं, क्योंकि अब अजनबी नहीं है, और जो भी कर सकती थी, कर चुकी। अब सब परिचित है। अब जो कुछ भी होगा, होगा। अब इसमें कुछ ऐसा नया कुछ होने वाला नहीं है। कोई भय नहीं है। आप चेतना खो सकते हैं। आपको चेतन रहने की कोई जरूरत नहीं है।
इसीलिए तो नये मकान में, नये कमरे में नींद नहीं आती। स्थिति नई है, आदतन नहीं है। नये बिस्तर पर नींद नहीं आती, नये लोगों के बीच नींद नहीं आती, क्योंकि स्थिति नई है और थोड़ा सा होश रखना पड़ता है। पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता।
महावीर कहते हैं, जीना जगत में जैसे अजनबियों के बीच ही हो सदा--स्ट्रैंजर्स...! है ही सच्चाई यह। पति और पत्नी चाहे बीस साल, चाहे चालीस साल साथ रहे हों, अजनबी हैं। कभी भी कोई पहचान हो नहीं पाती; स्ट्रैंजर्स हैं। मान लेते हैं बीस साल साथ रहने के कारण कि अब हम परिचित हो गए हैं। क्या खाक परिचित हो गए! कोई परिचित नहीं होते, कोई परिचित नहीं होता, सब आइलैंड बने रहते हैं, अपने-अपने में द्वीप बने रहते हैं। परिचय हो जाता है ऊपरी, नाम-धाम, ठिकाना, यह सब पता हो जाता है, शक्ल-सूरत, लेकिन भीतर क्या संभावनाएं छिपी हैं, उसका कुछ परिचय नहीं होता, कोई पहचान नहीं होती।
महावीर कहते हैं, किसी का विश्र्वास मत करना। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब यह नहीं है कि अविश्र्वासी हो जाना, अनट्रस्ंिटग हो जाना। इसका यह मतलब नहीं कि हर आदमी को समझना कि बेईमान है, हर आदमी को समझना कि चोर है। इससे कई लोगों को बड़ी प्रसन्नता होगी कि किसी का विश्र्वास मत करना। वे कहेंगे, यह तो हम कर ही रहे हैं, यह तो हमारी साधना ही है। किसी का विश्र्वास हम करते कहां हैं? अपना नहीं करते, दूसरे की तो बात ही दूसरी है।
कोई किसी का विश्र्वास नहीं कर रहा है, मगर वह अर्थ नहीं है महावीर का, इसे ठीक से समझ लें। हम अविश्र्वास करते हैं, लेकिन वह अविश्र्वास महावीर का प्रयोजन नहीं है। महावीर कहते हैं, किसी का विश्र्वास न करना इस कारण, ताकि तुम सो न जाओ। निकटतम भी तुम्हारे कोई हो तो भी इतना विश्र्वास मत करना कि अब होश रखने की कोई जरूरत नहीं है। होश तो तुम रखना ही, जागे तो तुम रहना ही। क्योंकि जो निकटतम हैं उन्हीं से बीमारियां आसानी से आती हैं। वे करीब हैं, उनका रोग जल्दी लगता है। होश तो रखना ही। अगर तुम होश खोकर अपनी पत्नी, या अपने पति, या अपने बेटे, या अपनी मां के पास भी बैठे हो, तो उसकी बीमारियां तुम्हारे भीतर प्रवेश कर रही हैं। तुम्हारा चित्त पहरेदार बना ही रहे और मन की कोई बीमारी तुममें प्रवेश न कर पाए।
बुद्ध कहते थे: कि जिस मकान के बाहर पहरे पर कोई बैठा हो, चोर उसमें प्रवेश नहीं करते। जिस मकान का दीया जला हो और घर के बाहर रोशनी आ रही हो, चोर उस मकान से जरा दूर ही रहते हैं। ठीक ऐसे ही जिसके भीतर होश का दीया जला हो, ठीक ऐसे ही जिसने सावधानी को पहरे पर रखा हो, उसके भीतर मन की बीमारियां प्रवेश नहीं करतीं। जरा दूर ही रहती हैं।
हम ऐसे जीते हैं कि न कोई पहरे पर है, न घर का दीया जला है, सब अंधकार है घना, चोरों के लिए निमंत्रण है, और चारों तरफ हमारे चोर मौजूद हैं। हम गड्ढा बन जाते हैं, वे हममें बह जाते हैं भीतर।
खयाल करें, एक उदास आदमी आपके घर आकर बैठ जाता है। कभी आपने खयाल किया है, थोड़ी देर में आप भी उदास हो जाते हैं! एक हंसता हुआ, मुस्कुराता हुआ आदमी आपके घर में आ जाता है। कभी आपने खयाल किया, आप भी मुस्कुराने लगते हैं, प्रसन्न हो जाते हैं। छोटे बच्चों को देख कर आपको इतना अच्छा क्यों लगता है? छोटे बच्चे उसका कारण नहीं हैं। छोटे बच्चे प्रसन्न हैं। उनकी प्रसन्नता संक्रामक हो जाती है। वे नाच रहे हैं, कूद रहे हैं, संसार का उन्हें अभी कोई पता नहीं, मुसीबतों का उन्हें अभी कोई बोध नहीं। अभी वे नये-नये खिले फूलों जैसे हैं। न उन्होंने तूफान देखे, न आंधियां देखीं, न अभी सूरज की तपती हुई आग देखी, अभी उन्हें कुछ भी पता नहीं।
उनको देख कर आप भी प्रसन्न हो जाते हैं। छोटे बच्चों के बीच भी अगर कोई उदास बैठा रहे तो समझो कि साधु है। मतलब यह कि उसे बहुत ही चेष्टा करके उदास रहना पड़े, वह बीमार है, पैथालॉजिकल है, रुग्ण है। छोटे बच्चों के बीच तो कोई प्रसन्न हो ही जाएगा।
नेहरू को छोटे बच्चों से बहुत लगाव था। उसका कारण, छोटे बच्चे नहीं थे, राजनीति की बीमारी थी। बच्चों में जाकर वे दुष्टों को भूल पाते थे, जिनसे घिरे थे, जिनके बीच थे, जिस उपद्रव में पड़े थे। वह बच्चों के बीच जाकर हलका हो जाता था मन। जैसे कि कोई हॉलिडे पर पहाड़ चला गया, छुट्टी मना ली। छोटे बच्चों के बीच उनका होना इस बात का सूचक था कि नेहरू मन से राजनीतिज्ञ नहीं थे, इसलिए छोटे बच्चों की तलाश थी, ताकि इन आदमियों से बचें जो उनको घेरे हुए थे।
नेहरू कम से कम राजनीतिज्ञ आदमी थे, नियति उनकी वह नहीं थी। नियति तो थी कि वह कवि होते। हिंदुस्तान ने एक बड़ा कवि खो दिया, और एक कमजोर राजनीतिज्ञ पाया। वे हो नहीं सकते थे। और कोई उपाय नहीं था। उनके लिए कोई वहां गति नहीं थी। इसलिए बचाव करते थे, बच्चों के साथ ही खिलते थे और प्रसन्न हो जाते थे। जैसे वहां उनको निकटता मालूम होती थी, सान्निध्य मालूम होता था।
जहां भी आप हैं, आप प्रभावित हो रहे हैं। कैसे लोगों के बीच आप हैं, आप वैसे हो जाएंगे।
तो महावीर कहते हैं: ‘किसी का विश्र्वास मत करना।’ इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई और हंसता है और आपको हंसी आ जाती है तो समझना कि आपकी हंसी झूठी है। कोई और रोता है और आपको रोना आ जाता है, तो समझना कि रोना झूठा है। न यह हंसी आपकी है, न यह रोना आपका है। यह सब उधार है।
और हम सब उधारी में जीते हैं, हम बिलकुल उधारी में जीते हैं। एक फिल्म में आप देख लेते हैं कोई करुण दृश्य और आपकी आंखों में आंसू बहने लगते हैं। ये उधार हैं। कुछ भी वहां नहीं हो रहा है। पर्दे पर केवल धूप-छाया का खेल है, मगर आप रोने लगे। वह बता रहा है कि आप किस भांति बाहर से संक्रामित होते हैं। फिर थोड़ी देर में आप हंसने लगेंगे। आपकी हंसी भी बाहर से खींची जाती है और आपका रोना भी बाहर से खींचा जाता है। आपकी अपनी कोई आत्मा है? जिसका सब-कुछ बाहर से संचालित हो रहा है, उसके पास कोई आत्मा नहीं है।
महावीर कहते हैं: ‘जागरूक रहना, किसी का विश्र्वास मत करना।’
इसका मतलब यह है कि किसी को भी इस भांति मत स्वीकार करना कि वहां तुम्हें असावधान रहने की सुविधा मिले। तुम मान कर चलना
कि तुम एक अजनबी देश में हो, अजनबी लोगों के बीच, एक आउट साइडर हो, जहां कोई तुम्हारा अपना नहीं, जहां सब पराए हैं। सब अपने-अपने हैं, कोई किसी दूसरे का नहीं है।
लेकिन हम सब धोखा देते हैं। पत्नी कहती कि मैं आपकी। पति कहता कि मैं तुम्हारा। बाप कहता है बेटे से कि मैं तुम्हारा। बेटा कहता मां से कि मैं तुम्हारा। सब अपने-अपने हैं। कोई यहां किसी का नहीं है। चारों तरफ हम इसे रोज देखते हैं, फिर भी एक-दूसरे को कहते रहते हैं, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारे बिना न जी सकूंगा, और सब सबके बिना जी लेते हैं। मगर यह कठोर है सत्य।
महावीर कहते हैं, कोई अपना नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि सब दुश्मन हैं। इसका कुल मतलब इतना है कि तुम होश रखना। जैसे कि कोई आदमी युद्ध के मैदान पर होश रखता है। एक क्षण भी चूकता नहीं, बेहोशी को आने नहीं देता, तलवार सजग रखता, धार पैनी रखता, आंख तेज रखता है, चारों तरफ चौकन्ना होता है। कभी भी, किसी भी क्षण जरा सी बेहोशी और खतरा हो जाएगा। ठीक वैसे जीना जैसे कि प्रतिपल कुरुक्षेत्र है, प्रतिपल युद्ध है, किसी का विश्र्वास न करना।
‘काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल।’
इन सत्यों को स्मरण रखना कि काल निर्दयी है। समय आपकी जरा भी चिंता नहीं करता। समय आपका विचार ही नहीं करता, बहा चला जाता है। समय को आपके होने का कोई पता ही नहीं है। समय आपको क्षमा नहीं करता। समय आपको सुविधा नहीं देता। समय लौट कर नहीं आता। समय से आप कितनी ही प्रार्थना करें, कोई प्रार्थना नहीं सुनी जाती। समय और आपके बीच कोई भी संबंध नहीं है। मौत आ जाए द्वार पर और आप कहें कि एक घड़ी भर ठहर जा, अभी मुझे लड़के की शादी करनी है, कि अभी तो कुछ काम पूरा हुआ नहीं, मकान अधूरा बना है।
एक बूढ़ी महिला संन्यास लेना चाहती थी, दो महीने पहले। बड़ी उसकी आकांक्षा थी संन्यास ले लेने की। मगर उसके बेटे खिलाफ थे कि संन्यास नहीं लेने देंगे। मैंने उसके एक बेटे को बुला कर पूछा कि ठीक है, संन्यास मत लेने दो, क्योंकि बूढ़ी स्त्री है, तुम पर निर्भर है और इतना साहस भी उसका नहीं है। लेकिन कल अगर इसे मौत आ जाए तो तुम मौत से क्या कहोगे, कि नहीं मरने देंगे।
जैसा कि कोई भी उत्तर देता, बेटे ने उत्तर दिया। कहा कि मौत कब आएगी, कब नहीं आएगी, देखा जाएगा। मगर संन्यास नहीं लेने देंगे। और अभी दो महीने भी नहीं हुए और वह स्त्री मर गई। जिस दिन वह मर गई, उसके बेटे की खबर आई कि क्या आप आज्ञा देंगे, हम उसे गैरिक वस्त्रों में माला पहना कर संन्यासी की तरह चिता पर चढ़ा दें!
‘काल निर्दयी है।’
लेकिन अब कोई अर्थ भी नहीं है, क्योंकि संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि वह ऊपर से डाल दिया जाए। न जिंदा पर डाला जा सकता है, न मुर्दा पर डाला जा सकता है। संन्यास लिया जाता है, दिया नहीं जा सकता। मरा आदमी कैसे संन्यास लेगा? दिया जा सके तो मरे को भी दिया जा सकता है।
संन्यास दिया जा ही नहीं सकता, लिया जा सकता है। इंटेंशनल है, भीतर अभिप्राय है। वही कीमती है, बाहर की घटना का तो कोई मूल्य नहीं है। भीतर कोई लेना चाहता था। संसार से ऊबा था, संसार की व्यर्थता दिखाई पड़ी थी, किसी और आयाम में यात्रा करने की अभीप्सा जगी थी, वह थी बात। अब तो कोई अर्थ नहीं है, लेकिन अब ये बेटे अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो न समझा पाए, अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो नहीं रोक सकते कि रुको, अभी हम न जाने देंगे। मां को रोक सकते थे। मां भी रुक गई क्योंकि उसे भी मौत का साफ-साफ बोध नहीं था। नहीं तो रुकने का कोई कारण भी नहीं था। मां डरी कि बेटों के बिना कैसे जीएगी! और अब, अब बेटों के बिना ही जीना पड़ेगा। अब इस लंबे यात्रा-पथ पर बेटे दुबारा नहीं मिलेंगे। और मिल भी जाएं तो पहचानेंगे नहीं।
‘काल निर्दयी है।’
उसका अर्थ यह है कि समय आपकी चिंता नहीं करता। इसलिए इस भरोसे मत बैठे रहना कि आज नहीं कल कर लेंगे, कल नहीं परसों कर लेंगे। पोस्टपोन मत करना, स्थगित मत करना। क्योंकि जिसके भरोसे स्थगित कर रहे हो, उसको जरा भी दया नहीं है। दया नहीं है, इसका यह मतलब नहीं कि वह आपका दुश्मन है। निरपेक्ष है, कोई संबंध ही नहीं है उसको आपसे।
आप होंगे कि नहीं होंगे, इससे क्या फर्क पड़ता है समय की धारा को? एक तिनका नदी में बह रहा है, नदी को क्या लेना-देना है कि तिनका बहेगा कि नहीं बहेगा, कि तिनके के सहारे नदी बह रही है। हालांकि तिनके यही सोचते हैं कि अगर हम न हुए, नदी कैसे बहेगी!
एक बूढ़ी औरत का मुर्गा बांग देता था एक गांव में। तो वह सोचती थी, सूरज उसी की वजह से उगता है। न मुर्गा बांग देगा, न सूरज उगेगा। अब यह बिलकुल तर्कयुक्त था। क्योंकि रोज जब मुर्गा बांग देता था तभी सूरज उगता। ऐसा कभी हुआ ही नहीं था कि सूरज बिना मुर्गे की बांग के उगा हो, इसलिए यह बात बिलकुल तर्क शुद्ध थी।
फिर एक दिन बुढ़िया गांव पर नाराज हो गई। किन्हीं लोगों ने उसे नाराज कर दिया, तो उसने कहा कि ठहरो। पछताओगे पीछे। चली जाऊंगी अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव। तब रोओगे, छाती पीटोगे, जब सूरज नहीं उगेगा।
नाराजगी में बुढ़िया अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई। दूसरे गांव में मुर्गे ने बांग दी और सूरज उगा। बुढ़िया ने कहा, अब रो रहे होंगे। सूरज यहां उग रहा है, जहां मुर्गा बांग दे रहा है।
तिनका भी सोचता है, मैं न होऊंगा तो नदी कैसे बहेगी। आप भी सोचते हैं, आप न होंगे तो संसार कैसे होगा! हर आदमी यही सोचता है। कब्रों में जाकर देखें, बहुत ऐसे सोचने वाले कब्रों में दबे पड़े हैं जो सोचते थे उनके बिना संसार कैसे होगा। और संसार बड़े मजे में है, संसार उनको बिलकुल भूल ही गया। संसार को कोई पता ही नहीं है।
हर आदमी के मरने पर हम कहते हैं कि अपूर्णीय क्षति हो गई, अब कभी भरी न जा सकेगी, और फिर बिलकुल भूल जाते हैं, फिर पता ही नहीं चलता कि किसकी अपूरणीय क्षति हुई। ऐसा लगता है, सब अंधकार हो गया। और कोई अंधकार नहीं होता। दीये जलते चले जाते हैं, फूल खिलते चले जाते हैं।
समय की धारा निरपेक्ष है। आपसे कुछ लेना-देना नहीं। समय से आप कुछ कर सकते हैं, समय का आप कोई उपयोग कर सकते हैं। तिनका नदी का उपयोग करके सागर भी पहुंच सकता है, किनारे पर भी अटक सकता है, डूब भी सकता है। लेकिन नदी को कोई प्रयोजन नहीं है।
समय की धारा बही जाती है। आप उसका कोई उपयोग कर सकते हैं। आप सिर्फ एक उपयोग करते हैं, स्थगित करने का। कल करेंगे, परसों करेंगे, छोड़ते चले जाते हैं इस भरोसे कि कल भी होगा! लेकिन कल कभी होता नहीं है।
कल कभी भी नहीं होता है। जब भी हाथ में आता है, तो आता है आज। और उसको भी कल पर छोड़ देते हैं। जीते ही नहीं, स्थगित किए चले जाते हैं। कल जी लेंगे, परसों जी लेंगे। फिर एक दिन द्वार पर मौत खड़ी हो जाती है, वह क्षण भर का अवसर नहीं देती है और तब हम पछताते हैं। वह सब जो स्थगित किया हुआ जीवन है, सब आंख के सामने खड़ा हो जाता है कि क्या-क्या जी सकते थे, क्या हो सकता था, कितने अंकुर निकल सकते थे जीवन में, कितनी यात्रा हो सकती थी, वह कुछ भी न हो पाई।
तब पीछे लौट कर देखते हैं तो कुछ तिजोरियों में रुपये दिखाई पड़ते हैं, जिनको भर लिया, जीवन के मूल्य पर। कुछ लड़के-बच्चे दिखाई पड़ते हैं, जिनको बड़ा कर लिया जीवन के मूल्य पर। वे चारों तरफ बैठे हैं खाट के और सोच रहे हैं कि चाबी किसके हाथ लगती है। रो रहे हैं, लेकिन ध्यान चाबी पर है। इनको बड़ा कर लिया जीवन के मूल्य पर। हिसाब-किताब, खाताबही, बैंक सब चलेगा। आप हट जाएंगे। आपका खाता किसी और के नाम हो जाएगा। आपका मकान किसी और का निवास स्थान बन जाएगा। आपकी आकांक्षाएं किन्हीं और के भूत बन जाएंगी, उन पर सवार हो जाएंगी और आप विदा हो जाएंगे। और आपने सारे जीवन, जो भी मूल्यवान था, उसको स्थगित किया।
हम धर्म को स्थगित करते हैं और अधर्म को जीते हैं। क्रोध हम अभी कर लेते हैं, ध्यान हम कहते हैं, कल कर लेंगे। प्रार्थना हम कहते हैं, कल कर लेंगे, बेईमानी हम अभी कर लेते हैं। धर्म को करते हैं स्थगित, अधर्म को अभी जी लेते हैं। लेकिन क्यों? हमको भी पता है कि जो कल पर स्थगित किया वह हो नहीं पाएगा; इसलिए जो हम करना चाहते हैं, वह आज कर लेते हैं। जो हम नहीं करना चाहते हैं, और केवल दिखाते हैं कि करना चाहते हैं वह हम कल पर छोड़ देते हैं। इसमें गणित है साफ। कोई महावीर को ही पता है, ऐसा नहीं, हमको भी पता है। हमको भी पता है, क्रोध करना हो, अभी कर लो। हम कभी नहीं कहते, कल क्रोध करेंगे।
गुरजिएफ का पिता मरा, तो उसने बेटे के कान में कहा कि तू एक वचन मुझे दे दे। मेरे पास और कुछ तुझे देने को नहीं है। लेकिन जो मैंने जीवन में सर्वाधिक मूल्यवान पाया है वह मैं तुझसे कह देता हूं। वह नौ ही साल का था लड़का, समझ भी नहीं सकता था कि बाप क्या कह रहा है। लेकिन उसने कहा, इतना तू याद कर ले, कभी न कभी समझ जाएगा। जब भी तुझे क्रोध आए, तो चौबीस घंटे बाद करना। कोई गाली दे, सुन लेना, समझ लेना, क्या कह रहा है, उसको ठीक से देख लेना, क्या उसका मतलब है, उसकी पूरी स्थिति समझ लेना ताकि तू ठीक से क्रोध कर सके। और उससे कह आना कि अब मैं चौबीस घंटे बाद आकर उत्तर दूंगा।
गुरजिएफ बाद में कहता था, उस एक वाक्य ने मेरे पूरे जीवन को बदल डाला। वह एक वाक्य ही मुझे धार्मिक बना गया। क्योंकि चौबीस घंटे बाद क्रोध किया ही नहीं जा सका। वह उसी वक्त किया जा सकता था। जो भी किया जा सकता है, उसी वक्त किया जा सकता है। और जब क्रोध न किया जा सका, और बुराई न की जा सकी, तो जो शक्ति बच गई उसका क्या करना?
तो गुरजिएफ ने ध्यान कर लिया आज और क्रोध किया कल। हम क्रोध करते हैं आज, और ध्यान करेंगे कल। शक्ति क्रोध में चुक जाएगी, ध्यान कभी होगा नहीं। गुरजिएफ की शक्ति ध्यान में बह गई, क्रोध कभी हुआ नहीं।
जो हम करना चाहते हैं, हम भी जानते हैं, आज कर लो। समय का कोई भरोसा नहीं। महावीर ही जानते हैं, ऐसा नहीं, हम भी जानते हैं। जो हम करना चाहते हैं, अभी कर लेते हैं। जो हम नहीं करना चाहते--हम बेईमान हैं, नहीं करना चाहते तो साफ कहना चाहिए, नहीं करना चाहते हैं--लेकिन हम होशियार हैं। अपने को धोखा देते हैं। हम कहते हैं, करना तो हम चाहते हैं, लेकिन अभी समय नहीं है। कल कर लेंगे।
इसे ठीक से समझ लें।
जिसे आप कल पर छोड़ रहे हैं, जान लें, आप करना नहीं चाहते हैं। यह अच्छा होगा, ईमानदारी होगी अपने प्रति कि मैं करना ही नहीं चाहता। इसलिए तो शायद आपको चोट भी लगेगी कि क्या मैं ध्यान करना ही नहीं चाहता? क्या मैं शांत होना ही नहीं चाहता? क्या मैं अपने को जानना ही नहीं चाहता? क्या इस जीवन के रहस्य में मैं उतरना ही नहीं चाहता?
अगर आप ईमानदार हों तो आपको चोट लगेगी। शायद आपको खयाल आए कि मैं गलती कर रहा हूं। यह करने योग्य जो है, मैं छोड़ रहा हूं। होशियारी यह है कि हम कहते हैं, करना तो हम चाहते हैं। कौन मना कर रहा है?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, साधना में तो हम जाना चाहते हैं। कौन मना कर रहा है? लेकिन अभी नहीं। यह है तरकीब। इस तरकीब में उनको यह नहीं दिखाई पड़ता कि जो हम नहीं करना चाहते, उसे हम भ्रम पाल रहे हैं कि हम करना चाहते हैं।
महावीर कहते हैं: ‘काल है निर्दयी और शरीर दुर्बल।’
काल पर भरोसा नहीं किया जा सकता, उससे हमारा कोई संबंध नहीं है और शरीर है दुर्बल। शरीर पर हम बहुत भरोसा करते हैं। शरीर पर हम इतना भरोसा करते हैं जो कि आश्र्चर्यजनक है।
क्या है हमारे शरीर की क्षमता? क्या है शक्ति? 98 डिग्री गर्मी और 110 डिग्री गर्मी के बीच में 12 डिग्री गर्मी आपकी क्षमता है। इधर जरा नीचे उतर जाएं, 95 डिग्री हो जाए, फैसला हो गया। उधर जरा 110 के करीब पहुंचने लगे, फैसला हो गया। 12 डिग्री गर्मी आपके शरीर की क्षमता है।
उम्र कितनी है आपकी? इस विराट अस्तित्व में जहां समय को नापने के लिए कोई उपाय नहीं है, वहां आप कितनी देर जीते हैं? सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, कोई सौ वर्ष जी गया तो चत्मकार है। सौ वर्ष हमें बहुत लगते हैं। क्या है सौ वर्ष इस समय की धारा में? कुछ भी नहीं है। क्योंकि पीछे है अनंत धारा, जो कभी प्रारंभ नहीं हुई। और आगे है अनंत धारा, जो कभी अंत नहीं होगी। इस अनंत में सौ वर्ष का क्या है अर्थ? इस सौ वर्ष में भी क्या करेंगे? वैज्ञानिक हिसाब लगाते हैं तो आदमी आठ घंटे सोता है चौबीस घंटे में। चार घंटे खाना, पीना, स्नान, कपड़े बदलना, उसमें व्यय हो जाते हैं। आठ घंटे रोटी कमाना, घर से दफ्तर, दफ्तर से घर उसमें व्यय हो जाते हैं--बीस घंटे। जो चार घंटे बचते हैं उसमें रेडियो सुनना, फिल्म देखना, अखबार पढ़ना, सिगरेट पीना, दाढ़ी बनाना--ऐसा चौबीस घंटे व्यय हो जाते हैं। बचता क्या है सौ वर्ष में आपके पास? जिससे आप अपनी आत्मा को जान सकें, पा सकें।
अगर आदमी की कहानी हम ठीक से बांटें तो बड़ी फिजूल मालूम पड़ेगी, ए टेल टोल्ड बाई एन इडियट, फुल ऑफ फ्यूरी एंड नॉइ़ज, सिग्नीफाइंग नथिंग। एक मूर्ख द्वारा कही हुई कथा, शोरगुल बहुत, मतलब बिलकुल नहीं। शोरगुल बड़ा होता है। हर बच्चा बड़ा शोरगुल करता हुआ संसार में आता है कि तूफान आ रहा है और थोड़े दिन में ठंडे हो जाते हैं। लकड़ी टेक कर चलने लगते हैं। वह सब तूफान, वह सब शोरगुल, सब खो जाता है। आंखें धुंधली पड़ जाती हैं, हाथ-पैर कमजोर हो जाते हैं। बिस्तर पर लग जाते हैं।
झूले से लेकर कब्र तक कहानी क्या है? सामर्थ्य क्या है शरीर की? बड़ा कमजोर है। जरा सा बैक्टीरिया घुस जाए बीमारी का, तब पता चल जाता है कि कितनी आपकी ताकत है। गामा लड़ते होंगे पहलवानों से, लेकिन क्षय रोग से नहीं लड़ पाते। गामा टी. बी. से मरा। और टी. बी. के कीटाणु कितनी छोटी चीज हैं। आंख से दिखाई भी नहीं पड़ते। बड़े पहलवानों से जीत लिए, छोटे पहलवानों से हार गए। शरीर की ताकत कितनी है? बड़ी-बड़ी बीमारियां छोड़ दीजिए, कामन कोल्ड से लड़ना मुश्किल होता है। साधारण सर्दी-जुकाम पकड़ ले तो उपाय नहीं, सब ताकत रखी रह जाती है।
इस शरीर को अगर हम भीतर गौर से देखें, इसकी क्षमता क्या है? हड्डी-मांस-मज्जा, इसका मूल्य कितना है? वैज्ञानिक कहते हैं, पांच रुपये से ज्यादा नहीं। वह भी मंहगाई की वजह से। आपकी वजह से नहीं। इतना अल्युमिनियम है, इतना लोहा है, इतना तांबा है, इतना फलां-ढिंका। सब निकाल कर रख लें, पांच रुपये का सामान, पांच रुपये के सामान पर इतने इतरा रहे हैं?
यह जो थोड़ा सा अवसर है जीवन का, उसमें शरीर की कोई क्षमता तो है नहीं। शरीर दुर्बल है, एकदम दुर्बल है। उधर सूरज ठंडा हो जाए, ये साढ़े तीन अरब लोग यहां एकदम ठंडे हो जाएंगे। क्या है क्षमता? जरा सा ताप बढ़ जाए, गिर जाए जमीन का, ठंडे हो जाएंगे। अभी ध्रुव की जमी हुई बर्फ पिघल जाए, सब डूब जाए। वैज्ञानिक कहते हैं, वह पिघलेगी किसी न किसी दिन। अगर ध्रुव प्रदेश में जमी हुई बर्फ किसी भी दिन पिघल गई तो सारे समुद्रों का पानी हजार फीट ऊंचा उठ जाएगा। सारी जमीन डूब जाएगी। वह किसी भी दिन पिघलेगी। और नहीं पिघलेगी तो रूसी या अमरीकी उसको पिघलाने का उपाय खोजते हैं। क्योंकि वे इसलिए खोजते हैं कि अगर कोई उपद्रव का, झगड़े का मौका हो तो दूसरे को मौका नहीं मिलना चाहिए दुनिया मिटाने का, हमको ही मिलना चाहिए। हालांकि हम भी उसमें मिटेंगे, लेकिन कहानी रह जाएगी, हालांकि कहानी कहने वाला कोई भी नहीं रहेगा।
कहते हैं, रूसी वैज्ञानिकों ने तो तरकीबें खोज ली हैं कि किसी भी दिन, आने वाला अगर कोई तीसरा महायुद्ध हुआ, तो वह ध्रुव प्रदेश की, साइबेरिया की बर्फ को पिघला देंगे। कोई सात सेकेंड लगेंगे उनको पिघलाने में। एटामिक एक्सप्लोजन से पिघल जाएगी। तत्काल सारी जमीन बाढ़ में डूब जाएगी। वैसी बाढ़ पुराने ग्रंथों में एक दफा और आई है।
ईसाई कहते हैं कि नोह ने अपनी नाव में लोगों को बचाया। सारी जमीन डूब गई। अध्यात्म की दिशा में जो गहरे काम करते हैं वे कहते हैं, पूरा महाद्वीप, एटलांटिस डूब गया। पूरा महाद्वीप, जो उस समय की शिखर सभ्यता पर था, जैसे आज अमरीका, वैसे एटलांटिस पूरा का पूरा डूब गया। अभी तक यह समझा नहीं जा सका। दुनिया के सभी धर्मों की कथाओं में उस महान बाढ़, ग्रेट फ्लड की बात है। भारतीय कथाओं में, मिस्री कथाओं में, यूनानी कथाओं में, सारी दुनिया की कथाओं में उस बाढ़ की बात है। वह बाढ़ जरूर हुई होगी। जब से वैज्ञानिकों को पता चला है कि ध्रुव की बर्फ पिघलाई जा सकती है, तब से यह संदेह है कि वह बाढ़ भी किसी युद्ध का परिणाम थी। वह अपने आप नहीं हो गई थी, किसी महायुद्ध में, किसी महासभ्यता ने बर्फ को पिघला डाला, सारी जमीन डूब गई। वह महाप्रलय थी। वह कल फिर हो सकती है। आदमी का वश कितना है?
हिरोशिमा पर बम गिरा, जो जहां था वहीं सूख गया, एक सेकेंड में। एक तस्वीर मेरे मित्र ने मुझे भेजी थी। एक बच्ची सीढ़ियां चढ़ कर अपना होमवर्क करने ऊपर जा रही है, रात नौ बजे वह अपनी किताब, बस्ता, बही के साथ सूख कर दीवाल से चिपक गई। राख हो गई। एक लाख बीस हजार आदमी सेकेंडों में राख हो गए। उनकी भी आकांक्षाएं आप ही जैसी थीं। उनकी भी योजनाएं आप ही जैसी थीं। उन्होंने भी समय का बड़ा भरोसा किया था। उन्होंने भी शरीर का बड़ा बल माना था। वह एक सेकेंड नहीं रुकता। अभी हम यहां बैठ कर बात कर रहे हैं, एक सेकेंड में सब रुक जा सकता है। और कोई उपाय नहीं है शिकायत का।
महावीर कहते हैं: ‘शरीर है दुर्बल, काल है निर्दयी, यह जान कर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-भाव से विचरण करना चाहिए।’
भारंड पक्षी एक मिथ, माइथोलॉजिक, पौराणिक पक्षी है, एक काल्पनिक कवि की कल्पना है कि भारंड पक्षी मृत्यु से, समय से, जीवन की क्षणभंगुरता से इतना ज्यादा भयभीत है कि वह सोता ही नहीं। वह उड़ता ही रहता है, जागता हुआ। कि सोए, और कहीं मौत न पकड़ ले, कि सोए और कहीं जीवन समाप्त न हो जाए, कि सोए और कहीं वापस न उठे। काल्पनिक पक्षी है।
तो महावीर कहते हैं: भारंड पक्षी की तरह समय निर्दयी, शरीर दुर्बल, ऐसा जान कर अप्रमत्त-भाव से, बिना बेहोश हुए, होशपूर्वक, विद अवेयरनेस, जागरूकता से जीना ही प्राज्ञ व्यक्ति का, प्रज्ञावान व्यक्ति का लक्षण है।
एक ही सूत्र है कृष्ण का, महावीर का, बुद्ध का, क्राइस्ट का। वह सूत्र है: अप्रमत्त-भाव, अवेयरनेस, होश। इसे हम आगे समझेंगे।
आज इतना ही।
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