MAHAVIR
Mahaveer Vani 27
TwentySeventh Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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चतुरंगीय-सूत्र
चत्तारि परमंगाणि, टुल्लहाणीह जंतुणो।
माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं।।
कम्माणं तु पहाणए, आणुपुव्वी क्याई उ।
जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययन्त्रि मणुस्सयं।।
माणुसत्तम्मि आयाओ, जो धम्मं सोच्च सद्दहे।
तवस्सी वीरियं लद्धुं, संबुडे निद्धुणे रयं।।
संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है--मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ।
संसार में परिभ्रमण करते-करते जब कभी बहुत काल में पाप कर्मों का वेग क्षीण होता है और उसके फलस्वरूप अंतरात्मा क्रमशः शुद्धि को प्राप्त करता है, तब कहीं मनुष्य-जन्म मिलता है।
यथार्थ में मनुष्य जन्म उसे ही प्राप्त हुआ जो सद्धर्म का श्रवण कर उस पर श्रद्धा लाता है और तदनुसार पुरुषार्थ कर आस्रव रहित हो अंतरात्मा पर से समस्त कर्म-रज को झाड़ कर फेंक देता है।
पहले एक-दो प्रश्र्न।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, कहीं आपने कहा था, कोई भी बात, आपका चिंतन और बुद्धि से तालमेल न बैठ सके तो नहीं मानना, छोड़ देना। बात चाहे कृष्ण की हो या किसी की भी हो, या मेरी हो। आपकी बहुत सी बातें प्रीतिकर, श्रेयस्कर मालूम होती हैं। उनसे जीवन में परिवर्तन करने का यथाशक्ति प्रयत्न भी करता हूं, लेकिन शिष्य-भाव संपूर्णतया ग्रहण करने की मेरी क्षमता नहीं है। मैं आपकी सूचनाओं से फायदा उठा रहा हूं। अगर मेरी कुछ प्रगति हुई तो किसी दिन कोई प्रार्थना लेकर, अगर शिष्य-भाव से रहित मैं आपके समक्ष उपस्थित हो जाऊं, तो आप मेरी सहायता करेंगे या नहीं? सतयुग में कृष्ण ने कहा था: ‘मामेकं शरणं व्रज’--सब छोड़ कर मेरी शरण में आ जा। इस युग में ऐसा कोई कहे, तो कहां तक कार्यक्षम और उचित होगा?
इस संबंध में दो-चार बातें समझ लेनी साधकों के लिए उपयोगी हैं।
पहली बात तो यह, अब भी मैं यही कहता हूं कि जो बात आपकी बुद्धि को उचित मालूम पड़े, आपके विवेक से तालमेल खाए, उसे ही स्वीकार करना। जो न तालमेल खाए उसे छोड़ देना, फेंक देना। गुरु की तलाश में भी यह बात लागू है, लेकिन तलाश के बाद यह बात लागू नहीं है। सब तरह से विवेक की कोशिश करना, सब तरह से बुद्धि का उपयोग करना, सोचना-समझना। लेकिन जब कोई गुरु विवेकपूर्ण रूप से तालमेल खा जाए और आपकी बुद्धि कहने लगे कि मिल गई वह जगह, जहां सब छोड़ा जा सकता है, फिर वहां रुकना मत, फिर छोड़ देना। लेकिन अगर कोई यह सोचता हो कि एक बार किसी के प्रति शिष्य-भाव लेने पर फिर इंच-इंच अपनी बुद्धि को बीच में लाना ही है, तो उसकी कोई भी गति न हो पाएगी। उसकी हालत वैसी हो जाएगी जैसे छोटे बच्चे आम की गोई को जमीन में गाड़ देते हैं, फिर घड़ी-घड़ी जाकर देखते हैं कि अभी तक अंकुर फूटा या नहीं। खोदते हैं, निकालते हैं। उनकी गोई में कभी भी अंकुर फूटेगा नहीं। फिर जब गोई को गाड़ दिया, तो फिर थोड़ा धैर्य और प्रतीक्षा रखनी होगी। फिर बार-बार उखाड़ कर देखने से कोई भी गति और कोई अंकुरण नहीं होगा।
तो कृष्ण ने भी जब कहा है: ‘मामेकं शरणं व्रज’--तो उसका मतलब यह नहीं है कि तू बिना सोचे-समझे किसी के भी चरणों में सिर रख देना। सब सोच-समझ, सारी बुद्धि का उपयोग कर लेना। लेकिन जब तेरी बुद्धि और तेरा विवेक कहे कि ठीक आ गई वह जगह, जहां सिर झुकाया जा सकता है, तो फिर सिर झुका देना।
इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। इन दोनों बातों में विरोध दिखाई पड़ता है, विरोध नहीं है। और अर्जुन ने भी ऐसे ही सिर नहीं झुका दिया, नहीं तो यह सारी गीता पैदा नहीं होती। उसने कृष्ण की सब तरह परीक्षा कर ली, सब तरह, चिंतन, मनन, प्रश्र्न, जिज्ञासा कर ली। सब तरह के प्रश्र्न पूछ डाले, जो भी पूछा जा सकता था, पूछ लिया। तभी वह उनके चरणों में झुका है। लेकिन अगर कोई कहे कि यह जारी ही रखनी है खोज, तो फिर जिज्ञासा तक ही बात रुकी रहेगी और यात्रा कभी शुरू न होगी।
यात्रा शुरू करने का अर्थ ही यह है कि जिज्ञासा पूरी हूई। अब हम कोई निर्णय लेते हैं और यात्रा शुरू करते हैं। नहीं तो यात्रा कभी भी नहीं हो सकती।
तो, एक तो दार्शनिक का जगत है, वहां आप जीवन भर जिज्ञासा जारी रख सकते हैं। धार्मिक का जगत भिन्न है, वहां जिज्ञासा की जगह है, लेकिन प्राथमिक। और जब जिज्ञासा पूरी हो जाती है तो यात्रा शुरू होती है। दार्शनिक कभी यात्रा पर नहीं निकलता, सोचता ही रहता है।
धार्मिक भी सोचता है, लेकिन यात्रा पर निकलने के लिए ही सोचता है। और अगर यात्रा पर एक-एक कदम करके सोचते ही चले जाना है तो यात्रा कभी भी नहीं हो पाएगी। निर्णय के पहले चिंतन, निर्णय के बाद समर्पण।
इन मित्र ने पूछा है कि ‘गुरु-पद की आपकी परिभाषा बड़ी अदभुत और हृदयंगम प्रतीत हुई, लेकिन शिष्य-भाव संपूर्णतया ग्रहण करने की मेरी क्षमता नहीं है।’
संपूर्णतया, किस बात को ग्रहण करने की क्षमता किसमें है? आदमी का मन तो बंटा हुआ है, इसलिए हम सिर्फ एक स्वर को मान कर जीते हैं। संपूर्ण स्वर तो हमारे भीतर अभी पैदा नहीं हो सकता। वह तो होगा ही तब, जब हमारे भीतर सारे मन के खंड बिखर जाएं, अलग हो जाएं और एक चेतना का जन्म हो। वह चेतना वहां अभी है नहीं, इसलिए आप संपूर्णतया कोई भी निर्णय नहीं ले सकते। आप जो भी निर्णय लेते हैं, वह प्रतिशत निर्णय होता है। आप तय करते हैं कि इस स्त्री से विवाह करता हूं, यह संपूर्णतया है? सौ प्रतिशत है? सत्तर प्रतिशत होगा, साठ प्रतिशत होगा, नब्बे प्रतिशत होगा। लेकिन दस प्रतिशत हिस्सा अभी भी कहता है कि मत करो, पता नहीं, क्या स्थिति बने!
आप जब भी कोई निर्णय लेते हैं, तभी आपका पूरा मन तो साथ नहीं हो सकता क्योंकि पूरा मन जैसी कोई चीज ही आपके पास नहीं है। आपका मन बंटा हुआ ही होगा। मन सदा ही बंटा हुआ है। मन खंड-खंड है। इसलिए बुद्धिमान आदमी इसकी प्रतीक्षा नहीं करता कि जब मेरा संपूर्ण मन राजी होगा तब मैं कुछ करूंगा। हां, बुद्धिमान आदमी इतनी जरूर फिकर करता है कि जिस संबंध में मेरा मन अधिक प्रतिशत राजी है, वह मैं करूंगा। मगर मैंने इधर अनुभव किया कि अनेक लोग यह सोच कर कि अभी पूरा मन तैयार नहीं है, अल्पमतीय मन के साथ निर्णय कर लेते हैं। निर्णय करना ही पड़ेगा, बिना निर्णय के रहना असंभव है। एक बात तय है, आप निर्णय करेंगे ही चाहे निषेध, चाहे विधेय।
एक आदमी मेरे पास आया और उन्होंने कहा कि मेरा साठ-सत्तर प्रतिशत मन तो संन्यास का है, लेकिन तीस-चालीस प्रतिशत मन संन्यास का नहीं है। तो अभी मैं रुकता हूं, जब मेरा मन पूरा हो जाएगा तब मैं निर्णय करूंगा। मैंने उनसे कहा: निर्णय तो तुम कर ही रहे हो, रुकने का कर रहे हो। और रुकने के बाबत तीस-चालीस प्रतिशत मन है और लेने के बाबत साठ-सत्तर प्रतिशत मन है। तो तुम निर्णय अल्पमत के पक्ष में ले रहे हो। हालांकि उनका यही खयाल था कि मैं अभी निर्णय लेने से रुक रहा हूं। आप निर्णय लेने से तो रुक ही नहीं सकते। निर्णय तो लेना ही पड़ेगा। उसमें कोई स्वतंत्रता नहीं है। हां, आप इस तरफ या उस तरफ निर्णय ले सकते हैं।
जब एक आदमी निर्णय लेता है कि अभी मैं संन्यास नहीं ले रहा हूं तो वह सोचता है, मैंने निर्णय अभी नहीं लिया। निर्णय तो ले लिया। यह न लेना, निर्णय है। और न लेने के लिए तीस-चालीस प्रतिशत मन था और लेने के लिए साठ-सत्तर प्रतिशत मन था। इस निर्णय को मैं बुद्धिमानीपूर्ण नहीं कहूंगा।
फिर एक और मजे की बात है कि जिसके पक्ष में आप निर्णय ले लेते हैं उसकी शक्ति बढ़ने लगती है। क्योंकि निर्णय समर्थन है। अगर आप तीस प्रतिशत मन के पक्ष में निर्णय लेते हैं कि अभी संन्यास नहीं लूंगा तो यह निर्णय तीस प्रतिशत को कल साठ प्रतिशत कर देगा। और जो आज साठ प्रतिशत मालूम पड़ रहा था वह कल तीस प्रतिशत हो जाएगा। तो ध्यान रखना, जब संन्यास लेने का सत्तर प्रतिशत मन हो रहा था, तब आपने नहीं लिया, तो जब तीस प्रतिशत ही मन रह जाएगा, तब आप कैसे लेंगे। और एक बात तय है कि सौ प्रतिशत मन आपके पास है नहीं। अगर होता तब तो निर्णय लेने की कोई जरूरत भी नहीं है।
सौ प्रतिशत मन का मतलब है कि एक स्वर आपके भीतर पैदा हो गया है। वह तो अंतिम घड़ी में पैदा होता है, जब समाधि को कोई उपलब्ध होता है। समाधि के पहले आदमी के पास सौ प्रतिशत निर्णय नहीं होता। छोटी बात हो या बड़ी, आज सिनेमा देखना है या नहीं, इसमें भी, और परमात्मा के निकट जाना है या नहीं, इसमें भी, आपके पास हमेशा बंटा हुआ मन होता है।
दूसरी बात: निर्णय आपको लेना ही पड़ेगा। इन मित्र ने कहा है कि संपूर्णतया शिष्य-भाव ग्रहण करने की मेरी क्षमता नहीं है, लेकिन संपूर्णतया शिष्य-भाव से बचने की क्षमता है? अगर संपूर्णतया का ही मामला है तो संपूर्णतया शिष्य-भाव से बचने की क्षमता है? वह भी नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं: किसी दिन मैं आपके पास आऊं प्रार्थना लेकर, कोई प्रश्र्न लेकर, तो आप मेरी सहायता करेंगे?
दूसरे से सहायता मांगने की बात ही बताती है कि संपूर्ण भाव से शिष्यत्व से बचना भी आसान नहीं है, संभव नहीं है। पर निर्णय आप ले ही रहे हैं। यह निर्णय शिष्यत्व के पक्ष में न लेकर शिष्यत्व के विपरीत ले रहे हैं; क्यों? क्योंकि शिष्यत्व के पक्ष में अहंकार को रस नहीं है। अहंकार को कठिनाई है। शिष्यत्व के विपरीत अहंकार को रस है।
उन मित्र से मैं कहना चाहूंगा, और सभी से, आप शिष्य-भाव से आएं, मित्र-भाव से आएं, गुरु-भाव से आएं, मैं आपकी सहायता करूंगा ही, लेकिन आप उस सहायता को ले नहीं पाएंगे। एक बर्तन नदी से कहे कि मैं ढक्कन बंद तेरे भीतर आऊं तो पानी तू देगी या नहीं? तो नदी कहेगी: पानी मैं दे ही रही हूं, तुम ढक्कन बंद करके आओ या ढक्कन खुला लेकर आओ।
लेकिन नदी का देना ही काफी नहीं है, पात्र को लेना भी पड़ेगा। शिष्यत्व का मतलब कुल इतना ही है कि पात्र लेने को आया है। उतनी तैयारी है सीखने की। और तो कोई अर्थ नहीं है शिष्यत्व का।
भाषा बड़ी दिक्कत में डाल देती है। भाषा में ऐसा लगता है, ठीक सवाल है। अगर मैं बिना शिष्य-भाव लिए आपके पास आऊं,... बिना शिष्य-भाव लिए पास आ कैसे सकते हैं? पास आने का मतलब ही शिष्य-भाव होगा। फिजिकली, शरीर से पास आ जाएंगे, लेकिन अंतस से पास नहीं आ पाएंगे। और बिना शिष्य-भाव लिए आने का अर्थ है कि सीखने की तैयारी मेरी नहीं है, फिर भी आप मुझे सिखाएंगे या नहीं? मैं खुला नहीं रहूंगा, फिर भी आप मेरे ऊपर वर्षा करेंगे या नहीं?
वर्षा क्या करेगी? पात्र अगर बंद हो, उलटा हो! बुद्ध ने कहा है: कुछ पात्र वर्षा में भी खाली रह जाते हैं, क्योंकि वे उलटे जमीन पर रखे होते हैं। वर्षा क्या करेगी? झीलें भर जाएंगी, छोटा सा पात्र खाली रह जाएगा। शायद पात्र यही सोचेगा कि वर्षा पक्षपातपूर्ण है, मुझे नहीं भर रही है। लेकिन उलटे पात्र को भरना वर्षा के भी सामर्थ्य के बाहर है।
आज तक कोई भी गुरु उलटे पात्र में कुछ भी नहीं डाल सका है। वह संभव नहीं है। वह नियम के बाहर है। उलटे पात्र का मतलब ही यह है कि आपकी तैयारी पूरी है कि न डालने देंगे।
आपकी इच्छा के विपरीत कुछ भी नहीं डाला जा सकता, और उचित भी है कि आपकी इच्छा के विपरीत कुछ भी न डाला जा सके, अन्यथा आपकी स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी। अगर आपकी इच्छा के विपरीत कुछ डाला जा सके तो आदमी फिर गुलाम होगा। आपकी स्वेच्छा आपको खोलती है। आपकी विनम्रता आपके पात्र को सीधा रखती है। आपका शिष्य-भाव, आपकी सीखने की आकांक्षा, आपके ग्रहण भाव को बढ़ाती है।
सहायता तो मैं करूंगा ही, लेकिन सहायता होगी कि नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। सहायता पहुंचेगी या नहीं पहुंचेगी, यह नहीं कहा जा सकता। सूरज तो निकलेगा ही, लेकिन आपकी आंखें बंद होंगी तो सूरज आपकी आंखों को खोल नहीं सकता। आंखें खुली होंगी तो प्रकाश मिल जाएगा, आंखें बंद होंगी तो प्रकाश बंद रह जाएगा।
इन मित्र को अगर हम ऐसा कहें तो ठीक होगा। वे सूरज से कहें कि अगर मैं बंद आंखें तुम्हारे पास आऊं तो मुझे प्रकाश दोगे कि नहीं? सूरज कहेगा: प्रकाश तो दिया ही जा रहा है, मेरा होना ही प्रकाश का देना है। उस संबंध में कोई शर्त नहीं है। लेकिन अगर तुम्हारी आंखें बंद होंगी तो प्रकाश तुम तक पहुंचेगा नहीं। प्रकाश आंख के द्वार पर आकर रुक जाएगा। सहायता बाहर पड़ी रह जाएगी। वह भीतर तक कैसे पहुंचेगी? भीतर तक पहुंचने की जो ग्रहणशीलता है, उसी का नाम शिष्यत्व है।
उन मित्र ने पूछा है कि ‘कृष्ण ने कहा था कभी: मामेकं शरणं व्रज। आज कोई कहेगा तो कार्यक्षम होगा कि नहीं?’
जिन्हें सीखने की अभीप्सा है, उन्हें सदा ही कार्यक्षम होगा, और जिन्हें सीखने की क्षमता नहीं, उन्हें कभी भी कार्यक्षम नहीं होगा। उस दिन भी कृष्ण अर्जुन से कह सके, दुर्योधन से कहने का कोई उपाय नहीं था। उस दिन भी।
सतयुग और कलियुग युग नहीं हैं, आपकी मर्जी का नाम है। आप अभी सतयुग में हो सकते हैं, दुर्योधन तब भी कलियुग में था। व्यक्ति की अपनी वृत्तियों के नाम हैं।
अगर सीखने की क्षमता है, तो कृष्ण का वाक्य आज भी अर्थपूर्ण है। नहीं है क्षमता, तो उस दिन भी अर्थपूर्ण नहीं था। सीखने की क्षमता बड़ी कठिन बात है। सीखने का हमारा मन नहीं होता। अहंकार को बड़ी चोट लगती है।
कल एक मित्र दो विदेशी मित्रों को लेकर मेरे पास आ गए थे, पति-पत्नी थे दोनों। और दोनों ईसाई धर्म के प्रचारक हैं। आते ही उन मित्र ने कहा कि आइ बिलीव इन दि ट्रू गॉड। मेरा सच्चे ईश्र्वर में विश्र्वास है। मैंने उनसे पूछा कि कोई झूठा ईश्र्वर भी होता है? ईश्र्वर में विश्र्वास है, इतना ही कहना काफी है, सच्चा और क्यों? हर वाक्य के साथ वे बोलते थे, आइ बिलीव इन दिस, वाक्य ही शुरू होता था, आइ बिलीव इन दिस, मेरा इसमें विश्र्वास है। मैंने उनसे पूछा कि जब आदमी जानता है तो विश्र्वास की भाषा नहीं बोलता। कोई नहीं कहता कि सूरज में मेरा विश्र्वास है। अंधे कह सकते हैं।
अज्ञान विश्र्वास की भाषा बोलता है। विश्र्वास की भाषा आस्था की भाषा नहीं है। आस्था बोली नहीं जाती, आस्था की सुंगध होती है। जो बोला जाता है, उसमें से आस्था झलकती है। आस्था को सीधा नहीं बोलना पड़ता।
तो मैंने उनसे कहा: हर वाक्य में यह कहना कि मेरा यह विश्र्वास है, बताता है कि भीतर गहरा अविश्र्वास है। इसमें से किसी भी चीज का आपको कोई पता नहीं है। फिर वे चौंक गए। तब उन्होंने अपने दरवाजे बंद कर लिए। फिर उन्होंने मुझे सुनना बंद कर दिया। खतरा है! फिर वे जोर-जोर से बोलने लगे, ताकि मैं जो बोल रहा हूं, वह उन्हें सुनाई ही न पड़े। मैं बोलता था, तब भी वे बोल रहे हैं। फिर वे अनर्गल बोलने लगे। क्योंकि जब द्वार कोई बंद कर लेता है तो संगतियां खो जाती हैं। फिर तो बड़ी मजेदार बातें हुईं। वे कहने लगे: ईश्र्वर प्रेम है। मैंने उनसे पूछा: फिर घृणा कौन है? तो वे कहने लगे: शैतान है। तो मैंने पूछा: शैतान को किसने बनाया? उन्होंने कहा: ईश्र्वर ने। तो फिर मैंने कहा: सच्चा पापी कौन है? शैतान घृणा बनाता है, ईश्र्वर शैतान को बनाता है। फिर असली कल्प्रिट, असली उपद्रवी कौन है? फिर तो ईश्र्वर ही फंसेगा। और अगर ईश्र्वर ही शैतान को बनाता है तो तुम कौन हो शैतान के खिलाफ जाने वाले? और जा कैसे पाओगे? मगर नहीं, फिर तो उन्होंने सुनना-समझना बिलकुल बंद कर दिया। उन्होंने होश ही खो दिया।
हम अपने मन को बिलकुल बंद कर ले सकते हैं। और जिन लोगों को भी वहम हो जाता है कि वे जानते हैं--वहम। उनके मन बंद हो जाते हैं।
शिष्य-भाव का अर्थ है: अज्ञानी के भाव से आना। शिष्य-भाव का अर्थ है: मैं नहीं जानता हूं और इसलिए सीखने आ रहा हूं। मित्र-भाव का अर्थ है कि हम भी जानते हैं, तुम भी जानते हो, थोड़ा लेन-देन होगा। गुरु-भाव का अर्थ है: तुम नहीं जानते हो, मैं जानता हूं, मैं सिखाने आ रहा हूं।
अहंकार को बड़ी कठिनाई होती है सीखने में। सीखना बड़ा अप्रीतिकर मालूम पड़ता है। इसलिए कृष्ण का वचन ऐसा लगेगा कि इस युग के लिए नहीं है। लेकिन युग की क्यों चिंता करते हैं? असल में मेरे लिए नहीं, ऐसा लगता होगा। इसलिए युग की बात उठती है। मेरे लिए नहीं। लेकिन, अगर मेरे लिए नहीं है तो फिर मुझे दूसरे से सीखने की बात ही छोड़ देनी चाहिए।
दो ही उपाय हैं, सीखना हो तो शिष्य-भाव से ही सीखा जा सकता है। न सीखना हो तो फिर सीखने की बात ही छोड़ देनी चाहिए। दो में से कोई एक विकल्प है, या तो मैं सीखूंगा ही नहीं, ठीक है, अपने अज्ञान से राजी हूं। अपने अज्ञान से राजी रहूंगा। कोशिश करता रहूंगा अपनी, कुछ हो जाएगा, हो जाएगा; नहीं होगा, नहीं होगा लेकिन दूसरे के पास सीखने नहीं जाऊंगा। यह भी ऑनेस्ट है, यह भी बात ईमानदारी की है। या जब दूसरे के पास सीखने जाऊंगा तो फिर सीखने का पूरा भाव लेकर जाऊंगा। वह भी बात ईमानदारी की है। लेकिन, अगर हमारे युग की कोई खूबी है, कलियुग की, तो वह है बेईमानी। बेईमानी का मतलब यह है कि हम दोनों नाव पर पैर रखेंगे। मुझे एक मित्र बार-बार पत्र लिखते हैं कि मुझे आपसे संन्यास लेना है, लेकिन आपको मैं गुरु नहीं बना सकता।
तो फिर मुझसे संन्यास क्यों लेना है? गुरु बनाने में क्या तकलीफ आ रही है? और अगर तकलीफ आ रही है तो संन्यास लेना क्यों? खुद को ही संन्यास दे देना चाहिए। किसी से क्यों लेना? कौन रोकेगा तुम्हें? दे दो अपने को संन्यास। लेकिन तब भीतर का खालीपन भी दिखाई पड़ता है, अज्ञान भी दिखाई पड़ता है, तो उसको भरने के लिए किसी से सीखना भी है, और यह भी स्वीकार नहीं करना है कि किसी से सीखा है।
कोई हर्जा नहीं है। स्वीकृति का कोई गुरु को मोह नहीं होता कि आप स्वीकार करें कि उससे सीखा। लेकिन स्वीकृति की जिसकी तैयारी नहीं वह सीख ही नहीं पाता। अड़चन वहां है। इसलिए कृष्णमूर्ति का आकर्षण बहुत कीमती हो गया, क्योंकि हमारी बेईमानी के बड़े अनुकूल हैं। कृष्णमूर्ति के आकर्षण का कुल कारण इतना है कि हमारी बेईमानी के अनुकूल हैं।
कृष्णमूर्ति कहते हैं: मैं तुम्हारा गुरु नहीं, मैं तुम्हें सिखाता नहीं। यह भी कहते हैं कि मैं जो बोल रहा हूं, वह कोई शिक्षा नहीं है, संवाद है। तुम सुनने वाले, मैं बोलने वाला, ऐसा नहीं है, एक संवाद है हम दोनों का। तो कृष्णमूर्ति को लोग चालीस-चालीस साल से सुन रहे हैं। उनकी खोपड़ी में कृष्णमूर्ति के शब्द भर गए हैं। वे बिलकुल ग्रामोफोन रिकॉर्ड हो गए हैं। वे वही दोहराते हैं, जो कृष्णमूर्ति कहते हैं। सीखे चले जा रहे हैं उनसे, फिर भी यह नहीं कहते कि हमने उनसे कुछ सीखा है। एक देवी उनसे बहुत कुछ सीख कर बोलती रहती हैं। बहुत मजेदार घटना घटी है। उन देवी को कृष्णमूर्ति के ही मानने वाले लोग यूरोप-अमरीका ले गए। उनके ही मानने वाले लोगों ने उनकी छोटी गोष्ठियां रखीं। वे लोग बड़े हैरान हुए, क्योंकि वे देवी बिलकुल ग्रामोफोन रिकॉर्ड हैं। वे वही बोल रही हैं जो कृष्णमूर्ति बोलते हैं।
लेकिन कोई कितना ही ग्रामोफोन रिकॉर्ड हो जाए, कार्बनकॉपी ही होता है। ओरिजिनल तो हो नहीं सकता, कोई उपाय नहीं है।
तो जिन मित्रों ने सुना, उन्होंने कहा कि आप ठीक कृष्णमूर्ति की ही बात कह रही हैं, आप उनका ही प्रचार कर रही हैं, तो उनको बड़ा दुख हुआ। उन्होंने कहा: मैं उनका प्रचार नहीं कर रही हूं, यह तो मेरा अनुभव है। उन मित्रों ने कहा: इसमें एक शब्द आपका नहीं है, यह आपका अनुभव कैसा! चुकता उधार है।
तो उन देवी ने बड़ी कुशलता की। वे कृष्णमूर्ति के पास गईं। उन देवी ने ही मुझे सब बताया है। कृष्णमूर्ति के पास गईं और कृष्णमूर्ति से उन्होंने कहा कि आप कहिए, लोग कहते हैं कि जो भी मैं बोल रही हूं वह मैं आपसे सीख कर बोल रही हूं। और मैं तो अपने भीतरी अनुभव से बोल रही हूं। तो आप मुझे बताइए कि मैं आपकी बात बोल रही हूं कि अपने भीतरी अनुभव से बोल रही हूं? तो कृष्णमूर्ति जैसा विनम्र आदमी क्या कहेगा? कृष्णमूर्ति ने कहा कि बिलकुल ठीक है। अगर तुम्हें लगता है, तुम्हारे अनुभव से बोल रही हो तो बिलकुल ठीक है।
यह सर्टिफिकेट हो गया। अब वे देवी कहती फिरती हैं कि कृष्णमूर्ति ने खुद कहा है कि तुम अपने अनुभव से बोल रही हो।
तुम्हारे अनुभव के लिए भी कृष्णमूर्ति के सर्टिफिकेट की जरूरत है, तभी वह प्रामाणिक होता है। शब्द कृष्णमूर्ति के, प्रमाण-पत्र कृष्णमूर्ति का, और इतनी विनम्रता भी नहीं कहने की कि मैंने तुमसे कुछ सीखा है। यह है हमारी बेईमानी।
लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि चालीस साल नहीं पचास साल कृष्णमूर्ति को कोई सुनता रहे, जो शिष्य-भाव से सुनने नहीं गया है वह कुछ भी सीख नहीं पाएगा। शब्द सीख लेगा। उसके अंतस में कोई क्रांति घटित नहीं होगी। क्योंकि जिसके अंतस में अभी इतनी विनम्रता भी नहीं है कि जिससे सीखा हो उसके चरणों में सिर रख सके, चरणों में सिर रखने की बात दूर है, जो इतना कह सके कि मैंने किसी से सीखा है। इतना भी जिसका विनम्र भाव नहीं है, उसके भीतर कोई क्रांति नहीं हो सकती। उसके चारों तरफ पत्थर की दीवाल खड़ी है अहंकार की। भीतर तक कोई किरण पहुंच नहीं सकती। हां, शब्द हो सकते हैं जो दीवाल पर टंक जाएंगे, खुद जाएंगे पत्थर पर, लेकिन उनसे कोई हृदय रूपांतरित नहीं होता।
यह बड़े मजे की बात है, यह तो उचित है कि गुरु कहे कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं। यह उचित नहीं है कि शिष्य कहे: मैं तुम्हारा शिष्य नहीं। क्यों?
क्योंकि इन दोनों के बीच औचित्य का एक ही कारण है। अगर गुरु कहे: मैं तुम्हारा गुरु हूं तो यह भी अहंकार की भाषा है। और शिष्य अगर कहे कि मैं तुम्हारा शिष्य नहीं तो यह भी अहंकार की भाषा है।
गहरा तालमेल तो वहां खड़ा होता है, जहां गुरु कहता है: मैं कैसा गुरु! और जहां शिष्य कहता है: मैं शिष्य हूं। वहां मिलन होता है। लेकिन हम हैं बेईमान। जब गुरु कहता है: मैं तुम्हारा गुरु नहीं, तब वह इतना ही कह रहा है कि मेरा अहंकार तुम्हारे ऊपर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है। हम बड़े प्रसन्न होते हैं। तब हम कहते हैं: बिलकुल ठीक, जब तुम ही गुरु नहीं हो, तो हम कैसे शिष्य! बात ही खत्म हो गई। बात ही खत्म हो गई।
हम या तो ऐसे गुरु को मानते हैं जो चिल्ला कर हमारी छाती पर खड़े होकर कहे कि मैं तुम्हारा गुरु हूं। या तो हम उसको मानते हैं--वैसा गुरु व्यर्थ है, जो आपसे चिल्ला कर कहता है: मैं तुम्हारा गुरु। जिसको अभी यह भाव भी नहीं मिटा कि जो दूसरे को सिखाने में भी अपने अहंकार का पोषण कर रहा हो, वह गुरु होने के योग्य नहीं है। इसलिए जो गुरु कहे: मैं तुम्हारा गुरु हूं वह गुरु होने के योग्य नहीं है। जो गुरु कहे: मैं तुम्हारा गुरु नहीं वह गुरु होने के योग्य है।
लेकिन जो शिष्य कहे: मैं शिष्य नहीं हूं, वह शिष्य होने के योग्य नहीं रह जाता। जो शिष्य कहे कि मैं शिष्य हूं--पूरे भाव से, पूरे भाव का मतलब, जितना मेरी सामर्थ्य है, उतना। पूरे का मतलब, संपूर्ण नहीं; पूरे का मतलब, जितनी मेरी सामर्थ्य है। मेरे अत्यधिक मन से मैं समर्पित हूं।
ऐसा शिष्य और ऐसा गुरु... गुरु जो इनकार करता हो गुरुत्व से, शिष्य जो स्वीकार करता हो शिष्यत्व को, इन दोनों के बीच सामीप्य घटित होता है। वह जो निकटता कल महावीर ने कही, वह ऐसे समय घटित होती है। और तब है मिलन, जब सूरज जबरदस्ती किरणें फेंकने को उत्सुक नहीं, चुपचाप फेंकता रहता है। और जब आंखें, जबरदस्ती आंखें बंद करके सूरज को भीतर ले जाने की पागल चेष्टा नहीं करतीं, चुपचाप खुली रहती हैं। आंखें कहती हैं: हम पी लेंगे प्रकाश को, और सूरज को पता ही नहीं कि वह प्रकाश दे रहा है, तब मिलन घटित होता है। अगर सूरज कहे कि मैं प्रकाश दे रहा हूं, तो आक्रमण हो जाता है। और शिष्य अगर कहे कि मैं प्रकाश लूंगा नहीं, तुम दे देना, तो सुरक्षा शुरू हो जाती है। सुरक्षित शिष्य तक कुछ भी नहीं पहुंचाया जा सकता। दिया जा सकता है, पहुंचेगा नहीं।
एक बात समझ लेनी चाहिए, जो मुझे पता नहीं है, उसे जानने के दो ही उपाय हैं, या तो मैं खुद कोशिश करता रहूं, वह भी आसान नहीं है, अति कठिन है वह भी। या फिर मैं किसी का सहारा ले लूं। वह भी आसान नहीं है, अति कठिन है वह भी।
अपने ही पैरों जो चलने की तैयारी हो, तो फिर संकल्प की साधनाएं हैं, समर्पण की नहीं। तब कितना ही अज्ञान में भटकना पड़े, तब सहायता से बचना है, सहायता की खोज में नहीं जाना है। क्योंकि सहायता की खोज में जाने का मतलब ही है, समर्पण की शुरुआत हो गई। तब कहीं से सहायता मिलती हो तो द्वार बंद कर लेना है। कहना है कि मर जाऊंगा, सड़ जाऊंगा, अपने ही भीतर; लेकिन कहीं कोई सहायता लेने नहीं जाऊंगा।
इसे हिम्मत से पूरा करना, यह बड़ा कठिन मामला है। अति कठिन है। कभी-कभी यह होता है, कभी-कभी यह हो जाता है। लेकिन अति कठिन है, दुरूह है। या फिर सहायता लेनी है तो फिर समर्पण का भाव होना चाहिए, फिर संकल्प छोड़ देना चाहिए। जो संकल्प और समर्पण दोनों की नाव पर खड़ा होता है, वह बुरी तरह डूबेगा। और हम सब दोनों नाव पर खड़े हैं। इसलिए कहीं पहुंचते नहीं हैं, सिर्फ घसिटते हैं। क्योंकि दोनों नावों के यात्रा-पथ अलग हैं और दोनों नावों की साधना पद्धतियां अलग हैं; और दोनों नावों की पूरी भाव-दशा अलग है। इसे खयाल रखें।
अब सूत्र:
महावीर ने कहा है: ‘संसार में जीवों को इन चार श्रेष्ठ अंगों का प्राप्त होना बड़ा दुर्लभ है--मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ।’
मनुष्यत्व का अर्थ केवल मनुष्य हो जाना नहीं है। ऐसे तो वह अर्थ भी अभिप्रेत है। मनुष्य की चेतना तक पहुंचना भी एक लंबी, बड़ी लंबी यात्रा है। वैज्ञानिक कहते हैं: विकास है, और पहला प्राणी समुद्र में पैदा हुआ और मनुष्य तक आया। मछली से मनुष्य--बड़ी लंबी यात्रा है, करोड़ों वर्ष लगे। डार्विन के बाद भारतीय धर्मों की गरिमा बहुत निखर जाती है। डार्विन के पहले ऐसा लगता था, यह बात काल्पनिक है कि आदमी तक पहुंचने में लाखों-लाखों वर्ष लगते हैं। क्योंकि पश्चिम में ईसाइयत ने एक खयाल दिया जो कि बुनियादी रूप से अवैज्ञानिक है। वह था, विकास विरोधी दृष्टिकोण, कि परमात्मा ने सब चीजें बनाईं, बना दीं। आदमी बना दिया, घोड़े बना दिए, जानवर बना दिए। एक छह दिन में सारा काम पूरा हो गया और सातवें दिन हॉलिडे, परमात्मा ने विश्राम किया। छह दिन में सारी सृष्टि बना दी। यह बचकाना खयाल है। और सब चीजें बना दीं। तो फिर विकास का कोई सवाल नहीं रहा, आदमी बन गया। विकास का कोई सवाल न रहा, आदमी, आदमी जैसा बना दिया।
भारतीय धर्म इस लिहाज से बहुत गहरे और वैज्ञानिक हैं। डार्विन के बहुत पहले भारत जानता रहा है कि चीजें निर्मित नहीं हुईं, विकसित हुई हैं। हर चीज विकसित हो रही है। आदमी आदमी की तरह पैदा नहीं हुआ है। आदमी पशुओं में, पौधों में से विकसित होकर आया है। लेकिन भारत की धारणा थी कि आत्मा विकसित हो रही है, चेतना विकसित हो रही है। डार्विन ने पहली दफा पश्चिम में ईसाइयत को धक्का दे दिया और कहा कि विकास है। सृजन नहीं हुआ, विकास हुआ है। तो क्रिएशन की बात गलत है, एवोल्यूशन की बात सही है। सृष्टि कभी बनी नहीं, सृष्टि निरंतर बन रही है। सृष्टि एक क्रम है बनने का। यह कोई पूरा नहीं हो गया है, इतिहास समाप्त नहीं हो गया। कहानी का अंतिम अध्याय लिख नहीं दिया गया, लिखा जाने को है। हम मध्य में हैं। और पीछे बहुत कुछ हुआ है और आगे शायद उससे भी अनंतगुना, बहुत कुछ होगा।
लेकिन डार्विन था वैज्ञानिक, इसलिए उसके लिए चेतना का तो कोई सवाल नहीं था। उसने मनुष्य के शरीर के अध्ययन से तय किया कि यह शरीर भी विकसित हुआ है। यह शरीर भी धीरे-धीरे क्रम में लाखों साल के, यहां तक पहुंचा है। तो डार्विन ने आदमी के शरीर का सारा विश्लेषण किया और पशुओं के शरीर का अध्ययन किया और तय किया कि पशु और आदमी के शरीर में क्रमिक संबंध है। बड़ा दुखद लगा लोगों को, कम मे कम पश्चिम में ईसाइयत को तो बहुत पीड़ा लगी; क्योंकि ईसाइयत सोचती थी: ईश्र्वर ने आदमी को बनाया। और डार्विन ने कहा कि यह आदमी जो है, बंदर का विकास है। कहां ईश्र्वर था पिता और कहां बंदर सिद्ध हुआ पिता! बहुत दुखद था।
लेकिन, तथ्य तथ्य हैं और दुखद भी, हमारी दृष्टि पर निर्भर है। अगर ठीक से हम समझें तो पहली बात ज्यादा दुखद है कि ईश्र्वर से पैदा हुआ आदमी, और यह हालत है आदमी की! यह ज्यादा दुखद है। क्योंकि ईश्र्वर से आदमी पैदा हुआ तो यह पतन है। अगर बंदर से आदमी पैदा हुआ तो यह बात दुखद नहीं है, सुखद है, क्योंकि आदमी थोड़ा विकसित हुआ। पिता से नीचे गिर जाना अपमानजनक है, पिता से आगे जाना प्रीतिकर है। यह दृष्टिकोण पर निर्भर है।
लेकिन डार्विन ने शरीर के बाबत सिद्ध कर दिया कि शरीर क्रमशः विकसित हो रहा है। और आज भी आदमी के शरीर में पशुओं के सारे लक्षण मौजूद हैं। आज भी आप चलते हैं तो आपके बाएं पैर के साथ दायां हाथ हिलता है, हिलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन कभी आप चारों हाथ-पैर से चलते थे, उसका लक्षण है, शेष रह गया है। कोई जरूरत नहीं है, आप दोनों हाथ रोक कर चल सकते हैं, दोनों हाथ काट दिए जाएं तो भी चल सकते हैं। चलने में दोनों हाथों से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन जब बायां पैर चलता है तो दायां हाथ आगे जाता है, जैसा कि कुत्ते का जाता है, बंदर का जाता है, बैल का जाता है। वह चार से चलता है, आप दो से चलते हैं; लेकिन आप चार से कभी चलते रहे हैं, इसकी खबर देते हैं। वह दो हाथों की बुनियादी आदत अब भी अपने पैर के साथ चलने की है।
आदमी के सारे अंग पशुओं से मेल खाते हैं, थोड़े बहुत हेर-फेर हुए हैं, लेकिन वह हेर-फेर उन्हीं के ऊपर हुए हैं; बहुत फर्क नहीं हुआ है। जब आप क्रोध में आते हैं तो अभी भी दांत पीसते हैं। कोई जरूरत नहीं है। जब आप क्रोध में आते हैं तो आपके नाखून नोचने, फाड़ने को उत्सुक हो जाते हैं। आपकी मुट्ठियां बंध जाती हैं। वह लक्षण है कि कभी आप नाखून और दांत से हमला करते रहे हैं। अब भी वही है, अब भी वही है, अब भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। अब जिस बात की जरूरत नहीं रह गई है, लेकिन वह भी काम करती है।
जब क्रोध आता है तो... पश्र्चिम का एक बहुत विचारशील आदमी था, अलेक्जेंडर। उसने कहा है: क्रोध जब आता है तो अपनी टेबल के नीचे दोनों हाथ बांध कर, अगर जोर से मुट्ठी बांध कर पांच बार खोली जाए तो क्रोध विलीन हो जाएगा। करके आप देखना, वह सही कहता है।
क्या होगा, जब आप जोर से मुट्ठी बांधेंगे और पांच बार खोलेंगे टेबल के नीचे? आप अचानक पाएंगे कि अब सामने के आदमी पर क्रोध करने की कोई जरूरत नहीं, वह विलीन हो गया। क्योंकि शरीर की आदत पूरी हो गई। क्रोध पैदा होता है, एड्रिनलिन, और दूसरे रस शरीर में छूटते हैं, वे हाथ के फैलाव और सिकोड़ से निकसित हो जाते हैं, बाहर निकल जाते हैं। आप हलके हो जाते हैं। आपको पता है, आज भी आपके पेट में कोई जरा गुदगुदा दे तो हंसी छूटती है। और कहीं क्यों नहीं छूटती? गले में छूटती है, पेट में छूटती है। और कहीं क्यों नहीं छूटती?
डार्विन ने बताया है कि पशुओं के वे हिस्से, जिनको पकड़ कर हमला किया जाता है, संवेदनशील होने चाहिए, नहीं तो पशु मर जाएगा। आज आपके पेट पर कोई हमला नहीं कर रहा है, लेकिन छूते ही से आप सजग हो जाते हैं, क्योंकि वह खतरनाक जगह है। कभी आप वहीं पकड़ कर, या पकड़े जाकर हमला किए जाते थे। वहीं हिंसा होती थी। जहां से आपके प्राण लिए जा सकते हैं, मुंह से पकड़ कर, वे हिस्से संवेदनशील हैं। इसलिए आपको गुदगुदी छूटती है। गुदगुदी का मतलब है कि बहुत सेंसिटिव है जगह। जरा सा स्पर्श, और बेचैनी शुरू हो जाती है।
शरीर के अध्ययन से सिद्ध हुआ है कि आदमी पशुओं के साथ जुड़ी हुई एक कड़ी है। शरीर के लिहाज से। लेकिन डार्विन ने आधा काम पूरा कर दिया। और पश्चिम में डार्विन के बाद ही महावीर, बुद्ध और कृष्ण को समझा जा सकता था। उसके पहले नहीं। जब शरीर भी विकसित होता है तो महावीर की बात सार्थक मालूम पड़ती है कि यह चेतना जो भीतर है, यह भी विकसित हुई है। यह भी अचानक पैदा नहीं हो गई है। यह कोई एक्सीडेंट नहीं है, एक लंबा विस्तार है। यह भी विकसित हुई है। इसका भी विकास हुआ है पशुओं से, पौधों से हम आदमी तक आए हैं। इसका मतलब हुआ कि दोहरे विकास चल रहे हैं। शरीर विकसित हो रहा है, चेतना विकसित हो रही है; दोनों विकसित होते जा रहे हैं।
मनुष्य अब तक इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा विकसित प्राणी है। उसके पास सर्वाधिक चेतना है और सबसे ज्यादा संयोजित शरीर है। इसलिए महावीर कहते हैं: मनुष्य होना दुर्लभ है।
आप शिकायत भी तो नहीं कर सकते, अगर आप कीड़े-मकोड़े होते तो किससे कहने जाते कि मैं मनुष्य क्यों नहीं हूं! और आपके पास क्या उपाय हैं कि अगर आप कीड़े-मकोड़े होते तो मनुष्य हो सकते। यह मनुष्य होना इतनी बड़ी घटना है, लेकिन हमारे खयाल में नहीं आती क्योंकि हम हैं।
काफ्का ने एक कहानी लिखी है कि एक आदमी--एक पादरी रात सोया। और सपने में उसे ऐसा लगा कि वह एक कीड़ा हो गया। लेकिन सपना इतना गहन था कि उसे ऐसा भी नहीं लगा कि सपना देख रहा है, लगा कि वह जाग गया है, वस्तुतः कीड़ा हो गया। तब उसे घबड़ाहट छूटी। तब उसे पता चला कि अब क्या होगा? अपने हाथों की तरफ देखा, वहां हाथ नहीं हैं, कीड़े की टांगें हैं। अपने शरीर की तरफ देखा, वहां आदमी का शरीर नहीं है, कीड़े की देह है। भीतर तो चेतना आदमी की है, चारों तरफ कीड़े की देह है। तब वह पछताने लगा कि अब क्या होगा। आदमी की भाषा अब समझ में नहीं आती, क्योंकि कान कीड़े के हैं। चारों तरफ का जगत अब बिलकुल बेबूझ हो गया, क्योंकि आंखें कीड़े की हैं और भीतर होश रह गया थोड़ा सा कि मैं आदमी हूं। तब उसे पहली दफा पता चला कि मैंने कितना गंवा दिया। आदमी रह कर मैं क्या-क्या जान सकता था, अब कभी भी न जान सकूंगा। अब कोई उपाय न रहा।
अब वह तड़फता है, चीखता, चिल्लाता है, लेकिन कोई नहीं सुनता। उसकी पत्नी पड़ोस से गुजर रही है, उसका पिता पास से गुजर रहा है, लेकिन उस कीड़े की कौन सुनता है। उसकी भाषा उनकी समझ में नहीं आती। वे क्या कह रहे हैं, क्या सुन रहे हैं, उसकी समझ में नहीं आता। उसका संताप हम समझ सकते हैं। थोड़ी कल्पना करेंगे, अपने को ऐसी जगह रखेंगे तो उसका संताप हम समझ सकते हैं।
इसलिए महावीर ने कहा है, प्राणियों के प्रति दया। उनका संताप समझो। उनके पास भी तुम्हारी जैसी चेतना है, लेकिन शरीर बहुत अविकसित है। उनकी पीड़ा समझो। एक चींटी को ऐसे ही पैर दबा कर मत निकल जाओ। तुम्हारे ही जैसी चेतना है वहां। शरीर भर अलग है। तुम जैसा ही विकसित हो सके, ऐसा ही जीवन है वहां, लेकिन उपकरण नहीं है। चारों तरफ... शरीर क्या है, उपकरण है।
इसलिए जीव-दया पर महावीर का इतना जोर है। वह सिर्फ अहिंसा के कारण नहीं। उसके कारण बहुत गहरे आध्यात्मिक हैं। वह जो तुम्हारे पास चलता हुआ कीड़ा है, वह तुम ही हो। कभी तुम भी वही थे। कभी तुम भी वैसे ही सरक रहे थे--एक छिपकली की तरह, एक चींटी की तरह, एक बिच्छू की तरह तुम्हारा जीवन था। आज तुम भूल गए हो, तुम आगे निकल आए हो। लेकिन जो आगे निकल जाए और पीछे वालों को भूल जाए, उस आदमी के भीतर कोई करुणा, कोई प्रेम, कोई मनुष्यत्व नहीं है।
इसलिए महावीर कहते हैं: यह जो दया है--पीछे की तरफ--यह अपने ही प्रति है। कल तुम भी ऐसी ही हालत में थे। और किसी ने तुम्हें पैर के नीचे दबा दिया होता तो तुम इनकार भी नहीं कर सकते थे। तुम यह भी नहीं कह सकते थे कि मेरे साथ क्या किया जा रहा है!
मनुष्यत्व, हमें लगेगा मुफ्त मिला हुआ है, इसमें भी क्या बात है दुर्लभ होने की। मनुष्यत्व मुफ्त मिला हुआ है, क्या बात है इसमें दुर्लभ होने की? क्योंकि हम मनुष्य हैं और हमें किसी दूसरी स्थिति का कोई स्मरण नहीं रह गया। महावीर ने जिनसे यह कहा था, उनको महावीर साधना करवाते थे और उनके पिछले स्मरण याद करवाते थे। और जब किसी आदमी को याद आ जाता था, कि मैं हाथी था, घोड़ा था, गधा था, वृक्ष रहा कभी, तब उसे पता चलता था कि मनुष्यत्व दुर्लभ है। तब उसे पता चलता था कि घोड़ा रह कर, गधा रह कर, बिच्छू रह कर, वृक्ष रह कर मैंने कितनी कामना की थी कि कभी मनुष्य हो जाऊं, तो मुक्त हो जांऊ इस सब उपद्रव से। और आज मैं मनुष्य हो गया हूं तो कुछ भी नहीं कर रहा हूं।
अतीत हमारा विस्मृत हो जाता है। उसके कारण हैं। उसका बड़ा कारण तो यह है कि अगर एक आदमी पशु रहा है पिछले जन्म में, तो पशु की स्मृतियों को समझने में मनुष्य का मस्तिष्क असमर्थ हो जाता है, इसलिए विस्मरण हो जाता है। पशु का जगत, अनुभव, भाषा, सब भिन्न हैं, आदमी से उसका कोई तालमेल नहीं हो पाता; इसलिए सब भूल जाता है। इसलिए जितने लोगों को भी याद आता है पिछले जन्मों का, वह कोई नहीं कहते कि हम जानवर थे, पशु थे। वे यही बताते हैं कि हम स्त्री थे, पुरुष थे। उसका कारण है कि स्त्री, पुरुष ही अगर पिछले जन्म में रहे हो तो स्मरण आसान है। अगर पशु, पक्षी रहे हो तो स्मरण अति कठिन है। क्योंकि भाषा बिलकुल ही बदल जाती है। जगत ही बदल जाते हैं, आयाम बदल जाता है। उससे कोई संबंध नहीं रह जाता। अगर याद भी आ जाए तो ऐसा नहीं लगेगा कि यह मेरी याददाश्त आ रही है, लगेगा कि कोई दुख-स्वप्न चल रहा है।
महावीर कहते हैं: मनुष्य होना दुर्लभ है। दुर्लभ दिखाई पड़ता है। इसे अगर हम थोड़े वैज्ञानिक ढंग से भी देखें तो समझ में आ जाए।
हमारा सूर्य है, यह एक परिवार है, सौर परिवार। पृथ्वी एक छोटा सा उपग्रह है। सूरज हमारी पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन हमारा सूरज बहुत बचकाना सूरज है, मिडियाकर! उससे करोड़-करोड़ गुने बड़े सूरज हैं। अब तक विज्ञान ने जितने सूरजों की जांच की है, वह है तीन अरब; तीन अरब सूरज हैं। तीन अरब सूर्यों के परिवार हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि अंदाजन, कम से कम इतना तो होना ही चाहिए, पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन होना चाहिए। तीन अरब सूर्यों के विस्तार में कम से कम पचास हजार उपग्रह होंगे जिन पर जीवन होना चाहिए। यह कम से कम है। इससे ज्यादा हो सकता है। यह कम से कम प्रोबेबिलिटी है। जैसे कि मैं एक सिक्के को सौ बार फेंकू तो प्रोबेबिलिटी है कि पचास बार वह सीधा गिरे, पचास बार उलटा गिरे, अंदाजन। न गिरे पचास बार, हम इतना तो कह सकते हैं कि कम से कम पांच बार तो सीधा गिरेगा, पिच्चानबे बार उलटा गिर जाए। अगर इतना भी हम मान लें, तो कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन होना चाहिए। अरबों-खरबों पृथ्वियां हैं। इन पचास हजार पृथ्वियों पर, सिर्फ एक पृथ्वी पर, हमारी पृथ्वी पर मनुष्य के होने की संभावना प्रकट हुई है। इतना बड़ा विस्तार है तीन अरब सूर्यों का। और तीन अरब सूर्य हमारी जानकारी के कारण। यह अंत नहीं है। हम जहां तक जान पाते हैं, जहां तक हमारे यंत्र पहुंच पाते हैं। अब तो विज्ञान कहता है कि हम कभी सीमा को जान न पाएंगे, क्योंकि सीमा आगे ही हटती चली जाती है। वे सपने छूट गए कि किसी दिन हम पूरा जान लेंगे। अब विज्ञान कहता है, नहीं जान पाएंगे। जितना जानते हैं उतना पता चलता है कि आगे और आगे और...। इतने विराट विश्र्व में, जिसकी हम कल्पना और धारणा भी नहीं कर सकते, सिर्फ इस पृथ्वी पर मनुष्य है।
पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है, लेकिन मनुष्य की कहीं कोई संभावना नहीं मालूम पड़ती। इस पृथ्वी पर मनुष्य है, और यह मनुष्य भी केवल कुछ दस लाख वर्षों से है। इसके पहले पृथ्वी पर मनुष्य नहीं था। जानवर थे, पक्षी थे, पौधे थे; मनुष्य नहीं था।
इन दस लाख वर्षों में मनुष्य हुआ है। और मनुष्य भी कितना है? अगर हम पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों की संख्या का अंदाज करें तो तीन साढ़े तीन अरब मनुष्य कुछ भी नहीं है। एक घर में इतने मच्छर मिल जाएं। अगर शुद्ध भारतीय घर हो तो जरूर मिल जाएं।
असंभव लगता है आदमी का होना। आदमी की घटना असंभव घटना है। अगर आदमी न हो तो हम सोच भी नहीं सकते कि आदमी हो सकता है। क्योंकि जहां तीन अरब सूर्य हैं और करोड़ों अरबों पृथ्वियां हैं और कहीं भी मनुष्य का कोई निशान नहीं है, कोई उसके चरण-चिह्न नहीं हैं। अगर इस पृथ्वी पर मनुष्य न हो तो क्या कोई कितना ही बड़ा कल्पनाशील मस्तिष्क सोच सकता है कि मनुष्य हो सकता है? कोई उपाय नहीं है, कोई उपाय नहीं है। मनुष्य दुर्लभ है, सिर्फ उसका होना दुर्लभ है। लेकिन महावीर का मनुष्य शब्द से उतना ही अर्थ नहीं है। मनुष्य होकर भी बहुत कम लोग मनुष्यत्व को उपलब्ध हो पाते हैं। वह और भी दुर्लभ है।
मनुष्य हम पैदा होते हैं शक्ल-सूरत से। मनुष्यता भीतरी घटना है, शक्ल-सूरत से उसका बहुत लेना-देना नहीं है। आप शक्ल-सूरत से मनुष्य हो सकते हैं और भीतर हैवान हो सकते हैं, भीतर शैतान हो सकते हैं। भीतर होने का कुछ भी उपाय है। शक्ल-सूरत कुछ निश्चित नहीं करती, केवल संभावना बताती है।
जब एक आदमी मनुष्य की तरह पैदा होता है तो आध्यात्मिक अर्थों में इतना ही मतलब होता है कि वह अगर चाहे तो मनुष्यत्व को पा सकता है। लेकिन यह मिला हुआ नहीं है, सिर्फ संभावना है, बीज है। आदमी पैदा हुआ है, वह चाहे तो व्यर्थ खो सकता है, बिना मनुष्य बने। मनुष्य बन भी सकता है।
किस बात से वह मनुष्य बनेगा? आखिर पशु और मनुष्य में फर्क क्या है? पौधे और मनुष्य में फर्क क्या है? पत्थर और मनुष्य में फर्क क्या है?
चैतन्य का फर्क है, और तो कोई फर्क नहीं है। चैतन्य का फर्क है, कांशसनेस का फर्क है। आदमी के पास सर्वाधिक चैतन्य है, अगर हम पशुओं से तौलें तो। अगर हम पशुओं को छोड़ दें और आदमी का चैतन्य तौलें तो कभी चौबीस घंटे में क्षण भर को भी चेतन हो जाता हो तो मुश्किल है। बेहोश ही चलता है।
मनुष्य को पशुओं से तौलें तो चेतन मालूम पड़ता है। अगर मनुष्य को उसकी संभावना से तौलें, बुद्ध से, महावीर से तौलें, तो बेहोश मालूम पड़ता है। तुलनात्मक है। मनुष्य उसी अर्थ में मनुष्य हो जाता है जिस अर्थ में चेतना बढ़ जाती है। इसलिए हमने मनुष्य कहा है। मनुष्य का अर्थ है: जितना मन निखर जाता है, उतना। आदमी सब पैदा होते हैं, मनुष्य बनना पड़ता है। आदमी सब पैदा होते हैं, मनुष्य बनना पड़ता है। इसलिए आदमी और मनुष्य का एक ही अर्थ नहीं है। आदमी का तो इतना ही मतलब है कि हमारा जातिसूचक नाम है, आदम के बेटे--आदमी।
यह शब्द बड़ा अच्छा है। इसका भी मूल्य है। भाषाशास्त्री कहते हैं कि अदम अहं का रूपांतरण है। और बच्चा जो, जो पहली आवाजें करता है--आह, अह, अहं--इस तरह की आवाजें करता है। उन आवाजों से अहं बना है, मैं। और उन्हीं आवाजों से अदम बना है, आदमी।
बच्चे की पहली आवाज आदमी का नाम बन गई है, अदम। लड़का बोलता है: आह। लड़की बोलती है: ईह; इसलिए ईव। पहली... लड़की जब पैदा होती है तो वह नहीं बोलती: आह। लड़का बोलता: आह, आह। लड़की बोलती: ईह। इसलिए भाषाशास्त्री, हिब्रू भाषाशास्त्री कहते हैं: ईह की आवाज के कारण ईव, आह की आवाज के कारण अदम। आदमी और औरत।
आदमी जातिवाचक नाम है, मनुष्य नहीं। मनुष्य चेतनासूचक नाम है। अंग्रेजी का ‘मैन’ संस्कृत के मनु का ही रूपांतरण है। हम कहते हैं, मनु के बेटे, नहीं अदम के बेटे। अदम के बेटे सभी हैं। लेकिन मनु का बेटा वह बनता है, जो अपने भीतर मनस्वी हो जाता है। जिसका मन जाग्रत हो जाता है, उसको हम मनुष्य कहते हैं।
महावीर ने कहा है: ऐसे तो अदम होना भी बहुत मुश्किल, मनुष्य होना और भी दुर्लभ है। कितनी चेतना है आपके भीतर, उसी मात्रा में आप मनुष्य हैं। कितने होश से जीते हैं, उसी मात्रा में मनुष्य हैं। क्यों? क्योंकि जितने होश से जीते हैं, उतने शरीर से टूटते जाते हैं और आत्मा से जुड़ते जाते हैं। और जितनी बेहोशी से जीते हैं उतने शरीर से जुड़ते जाते हैं और आत्मा से टूटते जाते हैं। होश सेतु है, आत्मा तक जाने का। मन द्वार है आत्मा तक जाने का। जितने मनस्वी होते हैं, उतनी आत्मा की तरफ हट जाते हैं। जितने बेहोश होते हैं, उतने शरीर की तरफ हट जाते हैं। इसलिए महावीर ने कहा है: जो-जो कृत्य बेहोशी में किए जाते हैं, वे पाप हैं। क्योंकि जिन-जिन कृत्यों से आदमी शरीर हो जाता है, वे पाप हैं। और जिन-जिन कृत्यों से आदमी आत्मा हो जाती है, वे पुण्य हैं।
कभी आपने देखा है कि पाप को बिना बेहोशी के करना मुश्किल है। अगर आपको चोरी करनी है तो बेहोशी चाहिए। किसी की हत्या करनी है तो बेहोशी चाहिए। बड़ी बातें हैं, क्रोध करना है तो बेहोशी चाहिए। होश आ जाए तो हंसी आ जाएगी कि क्या मूढ़ता कर रहे हैं! लेकिन बेहोशी हो तो चलेगा।
इसलिए कुछ लोगों को जब ठीक से पाप करना होता है तो शराब पी लेते हैं। शराब पीकर मजे से पाप कर सकते हैं। होश कम हो जाता है, बिलकुल कम हो जाता है। होश जितना कम होता है उतना हम शरीर हो जाते हैं--पदार्थवत, पशुवत। होश जितना ज्यादा हो जाता है उतना हम मनुष्य हो जाते हैं--आत्मवत।
मनुष्यत्व का अर्थ है: बढ़ते हुए होश की धारा। जो भी करें वह होशपूर्वक करें। महावीर ने कहा है: विवेक से चलें, विवेक से बैठें, विवेक से उठें, विवेक से सोएं, होश रखें, एक क्षण भी बेहोशी में न जाए, एक क्षण भी ऐसा मौका न मिले कि शरीर मालिक हो जाए, चेतना ही मालिक रहे। यह मालकियत जिस अर्थों में निर्धारित हो जाए, उसी अर्थ में आप मनुष्य हैं, अन्यथा आप आदमी हैं।
आदमी-मनुष्य के इस भेद को बढ़ाते जाना क्रमशः आत्मा के निकट पहुंचना है। इस भेद को बढ़ाने में ये तीन बातें काम करेंगी जो और भी दुर्लभ हैं। मनुष्य होना मुश्किल, मनुष्यत्व पाना और भी मुश्किल, धर्म-श्रवण--इसको क्यों इतना मुश्किल कहा है?
सब तरफ धर्मसभाएं चल रही हैं, गांव-गांव धर्मगुरु हैं! न खोजो तो भी मिल जाते हैं, न जाओ उनके पास तो आपके घर आ जाते हैं। धर्मगुरुओं की कोई कमी है? कोई तकलीफ है? शास्त्रों की कोई अड़चन है? सब तरफ सब मौजूद है।
फिर ये महावीर कहते हैं: धर्म-श्रवण दुर्लभ! मालूम नहीं पड़ता। कितने चर्च, कितने गुरुद्वारे, मंदिर, मस्जिद... तीन हजार धर्म हैं पृथ्वी पर। और महावीर कहते हैं कि धर्म-श्रवण दुर्लभ है! अकेले कैथोलिक पादरियों की संख्या दस लाख है। हिंदू संन्यासी एक लाख हैं! जैनियों के मुनि इतने हो गए हैं कि गृहस्थ खिलाने में उनको असुविधा अनुभव कर रहे हैं। थाईलैंड में चार करोड़ की आबादी है, बीस लाख भिक्षु हैं। सरकार नियम बना रही है कि अब बिना लाइसेंस लिए कोई संन्यास न ले सकेगा। क्योंकि इतने लोगों को पालेंगे कैसे? और महावीर कहते हैं: धर्म-श्रवण दुर्लभ!
शास्त्र ही शास्त्र हैं, बाइबिलें हैं, कुरानें हैं, धम्मपद है, महावीर के सूत्र हैं, गीता है, वेद हैं, धर्म ही धर्म, शास्त्र ही शास्त्र, गुरु ही गुरु। इतना सब शिक्षण है। हर आदमी धार्मिक है। और महावीर का दिमाग खराब मालूम पड़ता है। फिर धर्म-श्रवण दुर्लभ! उसका कारण है। क्योंकि न तो शास्त्रों से मिलता है धर्म, न उपदेशकों से मिलता है धर्म। कभी-कभी अरबों-खरबों मनुष्य में एक आदमी धमर्र् को उपलब्ध होता है। अरबों-खरबों आदमियों में कभी-कभी एक आदमी मनुष्यत्व को उपलब्ध होता है। अरबों-खरबों मनुष्यों में कभी एक आदमी धर्म को उपलब्ध होता है। और जो धर्म को उपलब्ध हुआ है, उसे सुनना ही धर्म-श्रवण है--कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध।
बुद्ध मर रहे हैं, तो आनंद छाती पीट कर रो रहा है। बुद्ध कहते हैं: तू रोता क्यों है? आनंद कहता है कि रोता इसलिए हूं कि आपको सुन कर भी मैं न सुन पाया। आप मौजूद थे, फिर भी आपको न देख पाया। और अब आप खो जाएंगें, और अब कितने कल्प लगेंगे कि दुबारा किसी बुद्ध का दर्शन हो। रो रहा हूं इसलिए कि अब यह यात्रा बड़ी मुश्किल हो जाने वाली है। अब किसी बुद्ध पुरुष का दर्शन हो, इसके लिए कल्पों-कल्पों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
बुद्ध का जन्म हुआ, तो हिमालय से एक वृद्ध संन्यासी भागा हुआ बुद्ध के गांव आया। नब्बे वर्ष उसकी उम्र थी। सम्राट के द्वार पर पहुंचा। बुद्ध के पिता से उसने कहा कि बेटा तुम्हारे घर में पैदा हुआ है, उसके मैं दर्शन करने आया हूं। पिता हैरान हुए। अभी दो-चार दिन की ही उम्र थी उस बेटे की, और वृद्ध संन्यासी--प्रतिभावान, तेजस्वी, अपूर्व सौंदर्य से, गरिमा से भरा हुआ। बुद्ध के पिता उस संन्यासी के चरणों में गिर पड़े। और उन्होंने सोचा कि जरूर सौभाग्य है मेरा कि ऐसा महापुरुष मेरे बेटे का दर्शन करने आया, आशीर्वाद देने आया। कुछ अनूठा बेटा पैदा हुआ है।
शुद्धोधन अपने बेटे को लेकर, सिद्धार्थ को लेकर, बुद्ध को लेकर संन्यासी के चरणों में ले जाने लगे रखने, तो संन्यासी ने कहा, रुको। मैं उसके चरणों में पड़ने आया हूं। और वह नब्बे वर्ष का वृद्ध, महिमावान संन्यासी उस छोटे से दो दिन के बच्चे के चरणों में गिर पड़ा। और छाती पीट कर रोने लगा।
बुद्ध जब मर रहे थे तो आनंद छाती पीट कर रो रहा था, एक दूसरा संन्यासी। और बुद्ध जब पैदा हुए तो एक और संन्यासी छाती पीट कर रो रहा था।
बुद्ध के पिता बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा: यह आप क्या अपशकुन कर रहे हैं? यह रोने का वक्त है? आशीर्वाद दें। आप क्यों रोते हैं? क्या यह बेटा बचेगा नहीं? आप क्यों रोते हैं? क्या कुछ अशुभ हआ है?
उस संन्यासी ने कहा: इसलिए नहीं रोता हूं, इसलिए रोता हूं कि मेरी मौत करीब है, और यह लड़का बुद्ध होगा। मैं चूक जाऊंगा। और यह कल्पों-कल्पों में कभी कोई बुद्ध होता है। मैं रो रहा हूं क्योंकि मैं चूका। मेरी मौत करीब है, और कुछ पक्का नहीं कि जब यह बुद्ध होगा तब मैं दुबारा जन्म ले सकूं। इसलिए रो रहा हूं।
धर्म-श्रवण का अर्थ है: जिसने जाना हो, उससे सुनना। इसीलिए महावीर कहते हैं, दुर्लभ है। जिसने सुना हो, उससे सुनना तो बिलकुल दुर्लभ नहीं। जिसने जाना हो, उससे सुनना दुर्लभ है।
मगर यह दुर्लभता अनेक आयामी है। एक तो महावीर का होना दुष्कर, बुद्ध का होना दुष्कर, कृष्ण का होना दुष्कर। फिर वे हों भी, वे बोल भी रहे हों तो आपका सुनना दुष्कर। इसलिए कहा कि श्रवण दुष्कर है, क्योंकि महावीर खड़े हो जाएं तो भी आप सुनेंगे, यह जरूरी नहीं है। जरूरी तो यही है कि आप नहीं सुनेंगे।
क्यों नहीं सुनेंगे? क्योंकि महावीर को सुनना अपने को मिटाने की तैयारी है। वह किसी की भी तैयारी नहीं है। महावीर दुश्मन से मालूम होंगे। महावीर की गैर-मौजूदगी में नहीं मालूम होते, महावीर मौजूद होंगे तो दुश्मन से मालूम होंगे। महावीर का साधु दुश्मन नहीं मालूम होगा। वह साधु आपका गुलाम है। वह साधु आपसे इशारे मांग कर चलता है, आपकी सलाह से जीता है। आप पर निर्भर है। उससे आपको कोई तकलीक नहीं है। वह तो आपकी सामाजिक व्यवस्था का एक हिस्सा है, और एक लिहाज से अच्छा है, लूब्रिकेटिंग है। कार में थोड़ा सा लूब्रिकेशन डालना पड़ता है, उससे चक्के ठीक चलते हैं। आपके संसार में भी आपके साधु लूब्रिकेशन का काम करते हैं। उससे संसार अच्छा चलता है।
दिन भर दुकान पर उपद्रव किए, पाप किए, बेईमानी की, झूठ बोले, सांझ को साधु के चरणों में जाकर बैठ गए, धर्म-श्रवण किया। उससे मन ऐसा हुआ कि छोड़ो भी, हम भी कोई बुरे आदमी नहीं हैं। कल की फिर तैयारी हो गई। यह लूब्रिकेटिंग है। यह आपको भी वहम देते हैं कि आप भी संसारी नहीं हैं, थोड़े तो धार्मिक हैं। वह थोड़ा धार्मिक होना चक्कों को, पाहियों को तेल डाल देता है और ठीक से चला देता है।
संसार ठीक से चलता है साधुओं की वजह से। क्योंकि साधु आपको समझाए रखते हैं कि कोई बात नहीं, कोई बात नहीं, अगर महाव्रत नहीं सधते तो अणुव्रत साधो। अगर बड़ी चोरी नहीं छूटती तो छोटी-छोटी चोरी छोड़ते रहो। तरकीबें बताते रहते हैं कि संसार में भी रहे आओ और तेल भी डालते रहो कि चक्के ठीक से चलते रहें। तुम्हें भ्रम भी बना रहे कि तुम भी धार्मिक हो, और धार्मिक होना भी न पड़े। मंदिर है, पुरोहित है, साधु है, ये काम कर रहे हैं। वे आपके संसार के एजेंट हैं। वे आपको और संसार में आपको मोक्ष का भ्रम दिलवाते रहते हैं।
लेकिन महावीर या बुद्ध दुश्मन मालूम पड़ते हैं, शत्रू मालूम पड़ते हैं, क्योंकि वे जो भी कहते हैं वे आपकी आधारशिलाएं गिराने वाली बातें हैं। वे जो भी कहते हैं उससे आपका मकान गिरेगा, जलेगा, आप मिटेंगे। आप मिटेंगे तो ही उन्हें श्रवण कर पाएंगे। नहीं तो उनको श्रवण भी नहीं कर पाएंगे। इसलिए महावीर कहते हैं: धर्म-श्रवण अति दुर्लभ। आप सुनने को राजी नहीं हैं।
जीसस बार-बार कहते हैं बाइबिल में: जिनके पास कान हैं, वे सुन लें। सबके पास कान थे, जिनसे वे बात कर रहे थे। क्योंकि बहरे तो अपने आप ही नहीं आए होंगे। जिनसे भी वे बात कर रहे होंगे उन सबके पास कान थे। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है बाइबिल को पढ़ कर कि वे बहरों के बीच ही बोलते रहे, क्योंकि वे हमेशा कहते हैं कि जिनके पास कान हों, वे सुन लें। जिनके पास आंख हो वे देख लें। यह मामला अजीब है। क्या अंधों के अस्पताल में चले गए थे? कि बहरों के अस्पताल में बोल रहे थे? क्या कर रहे थे वे?
हमारे ही बीच बोल रहे थे, लेकिन हम अंधे और बहरे हैं। आंखें हमारी धोखा हैं, कान हमारे सुनते नहीं। और जब जीसस बोलते हैं तब हम कान-आंख बिलकुल बंद कर लेते हैं, क्योंकि यह आदमी खतरनाक है। इसकी बात भीतर जाएगी तो दो ही उपाय हैं, यह बचेगा और तुम्हें मिटना पड़ेगा। अपने को हम सब बचाना चाहते हैं।
सेंट पाल ने कहा है: नाउ आइ एम नॉट। जीसस लिव्स इन मी। नाउ ही इ़ज, एंड आइ एम नॉट। अब मैं नहीं हूं, अब जीसस मुझमें जीता है, अब जीसस ही हैं, मैं नहीं हूं। जो महावीर को सुनेगा, उसे एक दिन अनुभव करना पड़ेगा कि अब मैं नहीं हूं। तो ही सुनेगा।
श्रावक का यही अर्थ है: जो खुद मिटने को राजी है और गुरु को अपने भीतर प्रकट हो जाने के लिए द्वार खोलता है। जो अपने को हटा लेता है, जो अपने को मिटा लेता है, शून्य हो जाता है, एक ग्रहणशीलता, जस्ट ए रिसेप्टिविटी, और आने देता है।
बड़ी मजेदार घटना है। एक बड़ा चोर था, महावीर जिस गांव में ठहरे। उस चोर ने अपने बेटे से कहा: तू और सब-कुछ करना, लेकिन इस महावीर से बचना। इसकी बात सुनने मत जाना।
चोर ईमानदार था। आप जैसा होशियार नहीं था, नहीं तो कहता: सुनना, और सुनना भी मत। चोर ने कहा: सुनना ही मत। यह बात समझ की है, अपने काम की नहीं, अपने धंधे से मेल नहीं खाती। और यह आदमी खतरनाक है। इसकी सुन ली तो सदा का चला आया धंधा नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। बड़ी मुश्किल से हम जमा पाए, तू खराब मत कर देना। और तेरे लक्षण अच्छे नहीं मालूम पड़ते। तू उधर जाना ही मत, उस रास्ते ही मत निकलना।
बाप की बात बेटे ने मानी। उन जमानों में तो बेटे बाप की बात मानते थे। बेटे ने उस रास्ते जाना छोड़ दिया, जहां महावीर बोलते थे। जहां से गुजरते थे, वहां दूर से देख लेता कि महावीर आ रहे हैं तो वह भाग खड़ा होता, आज्ञाकारी बेटा!
एक दिन भूल हो गई। वह अपनी धुन में चला जा रहा था और महावीर बोल रहे थे, एक रास्ते के किनारे। उसे एक वाक्य सुनाई पड़ गया। वह भागा। उसने कहा कि यह बड़ी मुश्किल हो गई। लेकिन, चूंकि वह बचना चाह रहा था, जो बचना चाहता है उसका आकर्षण भी हो जाता है। चूंकि वह सुनना चाहता ही नहीं था, अपने कानों को बंद ही रखने की चेष्टा में लगा था, और कान पर अनजाने में एक वचन पड़ गया। उस वचन ने उसकी सारी जिंदगी बदल दी। उस वचन ने, उसकी सारी जिंदगी को अस्त-व्यस्त कर दिया। फिर वह वही नहीं रह सका, जो था।
क्या हुआ होगा, एक वचन को सुन कर? महावीर का एक वचन भी चिनगारी है, अगर भीतर पहुंच जाए। और चिनगारी छोटी भी काफी है। बारूद तो हमारे भीतर सदा मौजूद है। विस्फोट हो सकता है। वह आत्मा मौजूद है जिसमें विस्फोट हो जाए, एक चिंगारी। लेकिन महावीर को कोई बिलकुल सारी बातें सुनता रहे तो भी जरूरी नहीं कि चिंगारी पहुंचे।
हम तरकीबें बांध लेते हैं, उनसे हम चीजों को बाहर ही रख देते हैं। उनको हम भीतर नहीं जाने देते। सबसे अच्छी तरकीब यह है कि रोज सुनते रहो महावीर को, अपने आप बहरे हो जाओगे। जिस बात को लोग रोज सुनते हैं, उसे सुनना बंद कर देते हैं।
इसलिए धर्म-श्रवण बड़ी अच्छी चीज है। उससे धर्म से बचने में रास्ता मिलता है। रोज धर्मसभा में चले जाओ। वहां सोए रहो। अक्सर लोग सोते ही हैं धर्मसभा में, और कुछ करते नहीं। जिनको नींद नहीं आती, वे तक सोते हैं। जिनको अनिद्रा की बीमारी है, डॉक्टर उनको सलाह देते हैं कि धर्मसभा में चले जाओ। जिनको सर्दी-जुकाम हो गया है, वे और कहीं नहीं जाते, सीधे धर्मसभा में जाकर खांसते-खंखारते रहते हैं। मुझे ऐसा लगता है, धर्मसभा में जिनको खांसी-जुकाम है वही जगे रहते हैं। या उनकी खांसी वगैरह से कोई आस-पास जग जाए, बात अलग, नहीं तो गहरी नींद रहती है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक धर्मसभा में बोल रहा था। एक आदमी उठ कर जाने लगा तो उसने कहा कि प्यारे, बैठ जाओ। मेरे बोलने में तुम्हारे जाने से अड़चन पड़ती है, ऐसा नहीं, जो सो गए हैं, उनकी नींद न तोड़ देना। शांति से बैठ जाओ। सोए हुए लोगों पर दया करो।
धर्मसभा में हम क्यों सो जाते हैं? सुनते-सुनते कान पक गए हैं वही बातें। हम हजार दफे सुन चुके हैं। अब सुनने योग्य कुछ नहीं बचा। यह सबसे आसान तरकीब है धर्म से बचने की। बेईमान कान--तरकीबें निकाल ली हैं, बेईमान आंखें--तरकीबें निकाल ली हैं।
अगर महावीर सामने भी आपके आकर खड़े हो जाएं तो आपको महावीर नहीं दिखाई पड़ेंगे, दिखाई पड़ेगा कि एक नंगा आदमी खड़ा है। यह आपकी आंखों की तरकीब है। बड़े मजे की बात है, महावीर सामने हों तो भी नंगा आदमी दिखेगा, महावीर नहीं दिखेंगे। आप जो देखना चाहते हैं, वही दिखता है, जो है वह नहीं। इसलिए महावीर को लोगों ने गांवों से खदेड़ा, भगाया कि यहां मत रखो, यह आदमी नंगा है। नंगे आदमी को गांव में घुसने देना खतरनाक है। कुछ न दिखाई पड़ा उनको, महावीर की नग्नता दिखाई पड़ी। महावीर में बहुत कुछ था और महावीर बिलकुल नग्न खड़े थे, कपड़े की भी ओट न थी। देखना चाहते तो उनके बिलकुल भीतर देख लेते लेकिन सिर्फ उनकी चमड़ी और उनकी नग्नता दिखाई पड़ी।
हम जो देखना चाहते हैं वह देखते हैं, जो सुनना चाहते हैं वह सुनते हैं। इसलिए महावीर कहते हैं: धर्म-श्रवण दुर्लभ! फिर श्रद्धा और भी दुर्लभ। जो सुना है उस पर श्रद्धा! जो सुना है, मन हजार तर्क उठाता है। वह कहता है: यह ठीक, यह गलत। और बड़ा मजा यह है कि हम कभी यह नहीं पूछते कि कौन कह रहा है गलत? कौन कह रहा है ठीक? यह मन जो हमसे कह रहा है, यह हमें कहां ले गया? किस चीज तक इसने हमें पहुंचाया? किसकी हम बात मान रहे हैं? इस मन ने हमें कौन सी शांति दी, कौन सा आनंद दिया, कौन सा सत्य? इस मन ने हमें कुछ भी नहीं दिया, मगर यह हमारे सलाहकार हैं, ये हमारे कांस्टेंट, परमानेंट काउंसलर हैं। वे अंदर बैठे हुए हैं, वे कह रहे हैं: यह गलत है।
हम सारी दुनिया पर शक कर लेते हैं, अपने मन पर कभी शक नहीं करते। श्रद्धा का मतलब है, जिसने अपने मन पर शक किया। हम सारी दुनिया पर संदेह कर लेते हैं। महावीर हों तो उन पर भी संदेह करेंगे, कि पता नहीं ठीक कह रहे हैं, कि गलत कह रहे हैं, कि पता नहीं क्या मतलब है, कि पता नहीं रात में घर ठहराएं और एकाध चादर लेकर नदारद हो जाए! नंगे आदमी का क्या भरोसा, पता नहीं क्या प्रयोजन है? हमें... और हमारा जो मन है, उसके हम सदा, उस पर श्रद्धा रखते हैं, यह बड़े मजे की बात है। हमारे मन पर हमें कभी अश्रद्धा नहीं आती। उसको हम मान कर चलते हैं।
क्या है उसमें मानने जैसा? क्या है अनुभव पूरे जीवन का, और अनेक जन्मों का क्या है अनुभव? मन ने क्या दिया है? लेकिन वह हमारा है। यह वहम सुख देता है और हम सोचते हैं, हम अपनी मान कर चल रहे हैं। अपनी मान कर हम मरुस्थल में पहुंच जाएं, भटक जाएं, खो जाएं तो भी राहत रहती है कि अपनी ही तो मान कर तो चल रहे हैं। दूसरे की मान कर मोक्ष भी पहुंच जाएं तो मन में एक पीड़ा बनी रहती है कि अरे, दूसरे के पीछे चले। वह अहंकार को कष्टपूर्ण है।
इसलिए महावीर कहते हैं, और भी दुर्लभ, श्रद्धा। श्रद्धा का अर्थ है: जब धर्म का वचन सुना जाए, तो अपने मन को हटा कर, उसके प्रति स्वीकृति लाकर जीवन को बदलना। उस पर आस्था, क्योंकि आस्था न हो तो बदलाहट का कोई उपाय ही नहीं है। जो सुना है, जो समझा है, जिसे भीतर जाने दिया है, तो भीतर मन बैठा है, वह हजार तरकीबें उठाएगा। कि इसमें यह भूल है, इसमें यह चूक है, यह ऐसा क्यों है, वह वैसा क्यों है? उन्होंने कल ऐसा कहा, आज ऐसा कहा, हजार सवाल मन उठाएगा। इन सवालों को ध्यानपूर्वक देख कर कि इन सवालों से कोई हल नहीं होता, इनको हटा कर महावीर या बुद्ध जैसे व्यक्ति के आकाश का दर्शन श्रद्धा है।
श्रद्धा भी दुर्लभ, और फिर साधना के लिए पुरुषार्थ तो और भी दुर्लभ। फिर यह जो सुना, जिस पर श्रद्धा ले आए इसके अनुसार जीवन को बदलना और भी दुर्लभ। इसलिए महावीर कहते हैं: ये चार चीजें दुर्लभ हैं--मनुष्यत्व, धर्म-श्रवण, श्रद्धा, पुरुषार्थ। क्योंकि श्रद्धा अगर नपुंसक हो, मान कर बैठी रहेगी, ठीक है, बिलकुल ठीक कहते हैं। और हम जैसे चल रहे हैं, वैसे ही चलते रहेंगे। तो उस नपुंसक श्रद्धा का कोई भी अर्थ नहीं है। हम बड़े होशियार हैं, हमारी होशियारी का कोई हिसाब नहीं है। हम इतने होशियार हैं कि अपने ही को धोखा दे जाते हैं। दूसरे को धोखा देने वाले को हम होशियार कहते हैं। हम इतने होशियार हैं, अपने को धोखा दे जाते हैं। हम कहते हैं: मानते तो बिलकुल हैं आपकी बात। और कभी न कभी करेंगे, लेकिन अभी नहीं।
हम कहते हैं: मोक्ष तो जाना है, लेकिन अभी नहीं। निर्वाण चाहिए, लेकिन जरा ठहरें, जरा रुकें।
आचरण तो अभी होगा, आशा सदा कल पर छोड़ी जा सकती है। आचरण अभी होगा, और अभी के अतिरिक्त हमारे पास कोई भी समय नहीं है; यही क्षण, अगले क्षण का कोई भरोसा नहीं है।
जो अगले क्षण पर छोड़ता है, वह मौत पर छोड़ रहा है। जो इस क्षण कर लेता है, वह जीवन का उपयोग कर रहा है।
इसलिए महावीर कहते हैं: पुरुषार्थ, जो ठीक लगे उसे कर लेने की क्षमता, साहस, छलांग। क्योंकि इस करने का मतलब यह है, हम खतरे में उतर रहे हैं। पता नहीं, क्या होगा?
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं: संन्यास तो ले लें, संन्यास में तो चले जाएं, लेकिन फिर क्या होगा? मैं उनसे कहता हूं: जाओ और देखो! क्योंकि अगर हिम्मतवर हो और कुछ न हो तो वापस लौट जाना। डर क्या है? फिर वे कहते हैं: वापस लौट जाना? उसमें भी डर लगता है, कि लोग क्या कहेंगे? अभी भी लोग क्या कहेंगे कि संन्यास लिया? और अगर कुछ न हुआ और वापस लौटे तो लोग क्या कहेंगे? लोग कौन हैं ये? इन लोगों ने क्या दिया, इन लोगों से क्या संबंध है?
नहीं, लोग बहाना हैं, अपने को बचाने की तरकीबें हैं, एक्सक्यूजे़ज हैं। लोगों के नाम से हम अपने को बचा लेते हैं और सोचते हैं कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों, कभी न कभी, टालते चले जाते हैं।
क्रोध अभी कर लेते हैं, ध्यान कल करेंगे। चोरी अभी कर लेते हैं, संन्यास कभी भी लिया जा सकता है।
यह जो वृत्ति है, इसे महावीर कहते हैं: पुरुषार्थ की कमी।
हम बुरे हैं, पुरुषार्थ के कारण नहीं, इसे खयाल कर लें। हम बुरे हैं पुरुषार्थ की कमी के कारण। हम अगर चोर हैं तो इसलिए नहीं कि हम हिम्मतवर हैं, हम इसलिए चोर हैं कि हम अचोर होने लायक पुरुषार्थ नहीं जुटा पाते। हम अगर झूठ बोलते हैं तो इसलिए नहीं कि हम होशियार हैं। हम झूठ बोलते हैं इसलिए कि सत्य बोलने में बड़े पुरुषार्थ की, बड़ी सामर्थ्य की, बड़ी शक्ति की जरूरत है। अगर हम अधार्मिक हैं तो शक्ति के कारण नहीं, कमजोरी के कारण हैं क्योंकि धर्म को पालन करना बड़ी शक्ति की आवश्यकता है। और अधर्म में बहे जाने में कोई शक्ति की जरूरत नहीं।
अधर्म है उतार की तरह, आपको लुढ़का दिया जाए, आप लुढ़कते चले जाएंगे पत्थर की तरह। धर्म है पहाड़ की तरह, यात्रा करनी पड़ती है। एक-एक इंच कठिनाई है और एक-एक इंच सामान कम करना पड़ता है क्योंकि बोझ पहाड़ पर नहीं ले जाया जा सकता। आखिर में तो अपने तक को छोड़ देना पड़ता है, तभी कोई शिखर पर पहुंचता है।
आज इतना ही।