MAHAVIR
Mahaveer Vani 26
TwentySixth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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विनय-सूत्र
आणा-निद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए।
इंगिया-ऽऽ गारसंपन्ने, से विणीए त्ति वुच्चई।।
अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चई।
नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले।।
अप्पं च अहिक्खिवई, पबन्धं च न कुव्वई।
मेत्तिज्जमाणो भयई, सुयं लद्धुं न मज्जई।।
नय पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई।
अप्पियस्साऽवि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई।।
कलहडमरवज्जिए, बुद्धे अभिजाइए।
हरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए त्ति वुच्चई।।
जो मनुष्य गुरु की आज्ञा का पालन करता हो, उनके पास रहता हो, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो तथा कार्य-विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।
निम्नलिखित पंद्रह लक्षणों से मनुष्य सुविनीत कहलाता है--उद्धत न हो, नम्र हो। चपल न हो, स्थिर हो। मायावी न हो, सरल हो। कुतूहली न हो, गंभीर हो। किसी का तिरस्कार न करता हो। क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो। मित्रों के प्रति पूरा सदभाव रखता हो। शास्त्रों से ज्ञान पाकर गर्व न करता हो। किसी के दोषों का भंडाफोड़ न करता हो। मित्रों पर क्रोधित न होता हो। अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भलाई ही गाता हो। किसी प्रकार का झगड़ा-फसाद न करता हो। बुद्धिमान हो। अभिजात अर्थात कुलीन हो। आंख की शर्म रखने वाला एवं स्थिरवृत्ति हो।
पहले एक प्रश्र्न।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, कल के सूत्र में कहे गए श्रेयार्थी का क्या अर्थ है? क्या श्रेयार्थी और साधक एक ही हैं?
‘श्रेयार्थी’ शब्द बहुत अर्थपूर्ण है। इस देश ने दो तरह के लोग माने हैं। एक को कहा है: प्रेयार्थी--जो प्रिय की तलाश में है और दूसरे को कहा है: श्रेयार्थी--जो श्रेय की तलाश में हैं।
दो ही तरह के लोग हैं जगत में। वे, जो प्रिय की खोज करते हैं। जो प्रीतिकर है, वही उनके जीवन का लक्ष्य है। लेकिन अनंत-अनंत काल तक भी प्रीतिकर की खोज की जाए तो प्रीतिकर मिलता नहीं। जब मिल जाता है तो अप्रीतिकर सिद्ध होता है। जब तक नहीं मिलता तब तक प्रीति की संभावना बनी रहती है। मिलते ही जो प्रीतिकर मालूम होता था, वह विलीन हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। लगता है प्रीतिकर, चलते हैं तब भी आशा बनी रहती है। पा लेते हैं तब आशा खंडित हो जाती है, डिसइल्यूजनमेंट के अतिरिक्त, विभ्रम, सब भ्रमों के टूट जाने के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता।
प्रेयार्थी, इंद्रियों की मान कर चलता है। जो इंद्रियों को प्रीतिकर है, उसको खोजने निकल पड़ता है। श्रेयार्थी की खोज बिलकुल अलग है। वह यह नहीं कहता कि जो प्रीतिकर है उसे खोजूंगा। वह कहता है: जो श्रेयस्कर है, जो ठीक है, जो सत्य है, जो शिव है उसे खोजूंगा। चाहे वह अप्रीतिकर ही क्यों न आज मालूम पड़े।
यह बड़े मजे की बात है और जीवन की गहनतम पहेलियों में से एक कि जो प्रीतिकर को खोजने निकलता है वह अप्रीतिकर को उपलब्ध होता है। जो सुख को खोजने निकलता है, वह दुख में उतर जाता है। जो स्वर्ग की आकांक्षा रखता है, वह नरक का द्वार खोल लेता है। यह हमारा निरंतर सभी का अनुभव है। दूसरी घटना भी इतनी ही अनिवार्यरूपेण घटती है।
श्रेयार्थी हम उसे कहते हैं, जो प्रीतिकर को खोजने नहीं निकलता, जो यह सोचता ही नहीं कि यह प्रीतिकर है या अप्रीतिकर है, सुखद है या दुखद है। जो सोचता है यह ठीक है, उचित है, सत्य है, श्रेय है, शिव है, इसलिए खोजने निकलता है। श्रेयार्थी की खोज पहले अप्रीतिकर होती है। श्रेयार्थी के पहले कदम दुख में पड़ते हैं। उन्हीं का नाम तप है।
तप का अर्थ है: श्रेय की खोज में जो प्रथम ही दुख का मिलन होता है, होगा ही। क्योंकि इंद्रियां इनकार करेंगी। इंद्रियां कहेंगी कि यह प्रीतिकर नहीं है। छोड़ो इसे। अगर फिर भी आपने श्रेयस्कर को पकड़ना चाहा तो इंद्रियां दुख उत्पन्न करेंगी। वे कहेंगी: यह दुखद है, छोड़ो इसे। सुखद कहीं और है। इंद्रियों के द्वारा खड़ा किया गया उत्पात ही तप बन जाता है। तप का अर्थ है कि इंद्रियां अपने मार्ग से नहीं हटना चाहतीं, और अगर आप किसी नये मार्ग को खोजते हैं जो इंद्रियों के लिए प्रीतिकर नहीं है, तो इंद्रियां बगावत करेंगी। वह बगावत दुख है। इसलिए श्रेय की खोज में दुख मिलेगा पहले। लेकिन जैसे-जैसे खोज बढ़ती है, दुख क्षीण होता चला जाता है।
दुख क्षीण होता है, इसका अर्थ है कि इंद्रियां धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस नये मार्ग पर चेतना का अनुगमन करने लगती हैं। दुख खो जाता है। और जिस दिन इंद्रियां चेतना का पूरा अनुगमन करती हैं, उसी दिन सुख का अनुभव होता है।
श्रेयार्थी की खोज में पहले दुख है और पीछे आनंद। प्रेयार्थी की खोज में पहले सुख का आभास है, और पीछे दुख। इंद्रियों की मान कर जो चलता है, वह पहले सुख पाता हुआ मालूम पड़ता है, पीछे दुख में उतर जाता है। इंद्रियों की मालकियत करके जो चलता है वह पहले दुख मालूम पड़ता है, पीछे आनंद में बदल जाता है।
श्रेयार्थी का अर्थ है: जिसने जीवन के इस रहस्य को समझ लिया कि जो खोजो वह नहीं मिलता है। जिसे खोजने निकलो, वह हाथ से खो जाता है। जिसे पकड़ना चाहो, वह छूट जाता है। अगर सुख खोजते हो तो सुख नहीं मिलेगा, इतना निश्चित है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति दुख के लिए राजी हो जाए, और दुख के लिए स्वयं को तत्पर कर ले, और दुख के प्रति वह जो सहज विरोध है मन का, वह छोड़ दे, तो सुख मिल जाता है।
ऐसा क्यों होता होगा? ऐसा होने का कारण क्या होगा? होना तो यही चाहिए नियमानुसार कि हम जो खोजें, वही मिल जाए। होना तो यही चाहिए कि जो हम न खोजें वह न मिले। ऐसा क्यों है, इसे थोड़ा हम समझ लें।
इंद्रियां अपना रस रखती हैं। आंख सुख पाती है कुछ देखने में। अगर रूप दिखाई पड़े तो आंख आनंदित होती है। लेकिन अगर वही रूप निरंतर दिखाई पड़ने लगे, तो आनंद क्रमशः खोता चला जाता है। क्योंकि जो चीज निरंतर उपलब्ध होती है, वह देखने योग्य नहीं रह जाती। दर्शनीय तो वही है जो कभी-कभी, आकस्मिक, मुश्किल से दिखाई पड़ती हो।
आप जाते हैं कश्मीर और डल झील सुखद मालूम पड़ती है। लेकिन वह जो आपकी नौका खे रहा है, उसे डल झील दिखाई ही नहीं पड़ती, और कई बार उसे हैरानी भी होती है कि लोग कैसे पागल हैं, इतने दूर-दूर से इस डल झील को देखने आते हैं।
इंद्रियां नवीन आघात में सुख पाती हैं। आघात जब सुनिश्चित, पुराना पड़ जाता है तो उबाने वाला हो जाता है। आज जो भोजन आपने किया है, वह सुखद है। कल भी वही, परसों भी वही, दुखद हो जाएगा। इंद्रियों के लिए नये में सुख है। इसलिए इंद्रियों के सभी सुख, दुख बन जाएंगे। क्योंकि जितना आप चाहेंगे... लगता है, किसी से आपका प्रेम है तो लगता है, चौबीस घंटे उसके पास बैठे रहें। भूल कर बैठना मत। क्योंकि अगर चौबीस घंटे उसके पास बैठे रहे तो आज नहीं कल यह उबाने वाला हो जाने वाला है। और आज नहीं कल ऐसा होगा, कैसे छुटकारा हो? ये वही इंद्रियां हैं जो कहती थीं: पास रहो, ये ही इंद्रियां कहेंगी: भाग जाओ, दूर निकल जाओ। क्योंकि जो पुराना पड़ जाता है, इंद्रियों का उसमें रस नहीं है। पुराने के साथ ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए इंद्रियां जिसे प्रीतिकर कहती हैं, कल उसी को अप्रीतिकर कहने लगती हैं।
इंद्रियों की तलाश में प्रीति से प्रारंभ होता है, अप्रीति पर अंत होता है। यह इंद्रियों का स्वभाव हुआ। इससे ठीक विपरीत स्थिति श्रेयार्थी की है। श्रेयार्थी, जो परिवर्तनशील है उसकी खोज नहीं कर रहा है, जो नया है उसकी खोज नहीं कर रहा है। श्रेयार्थी तो उसकी खोज कर रहा है जो शाश्र्वत है, जो सदा है।
प्रेयार्थी नये की खोज कर रहा है, नया सेंसेशन, नई संवेदना, नया सुख। वह नये की तलाश में लगा है। श्रेयार्थी उसकी खोज कर रहा है, न नये की, न पुराने की; क्योंकि श्रेयार्थी जानता है कि जो नया है अभी, क्षण भर बाद पुराना हो जाएगा। जो भी नया है, वह पुराना होगा ही। जिसको हम आज पुराना कह रहे हैं, कल वह भी नया था। सब नया पुराना हो जाता है। नये में सुख था, पुराने में दुख हो जाता है। नये के कारण ही सुख था, तो पुराने के कारण दुख हो जाता है।
श्रेयार्थी उसकी खोज कर रहा है जो सदा है, शाश्र्वत है, नित्य है। वह नया और पुराना नहीं है, बस है। उसकी तलाश है। इंद्रियां उसकी तलराश में कोई रस नहीं लेतीं। इंद्रियों को नये का सुख है। इसलिए जब कोई श्रेय की खोज में निकलता है, इंद्रियां मार्ग में बाधा बन जाती हैं। वे कहती हैं: कहां व्यर्थ की खोज पर जा रहे हो? सुख वहां नहीं है। सुख नये में है।
श्रेयार्थी, इंद्रियों की इस आवाज पर ध्यान नहीं देता। खोज में लगा रहता है जो सत्य है उसकी। प्रारंभ में दुख मालूम पड़ता है। धीरे-धीरे इंद्रियां बगावत छोड़ देती हैं। जिस दिन इंद्रियों की बगावत छूट जाती है, उसी दिन शाश्र्वत से झलक, संबंध जुड़ना शुरू हो जाता है। इंद्रियां जिस दिन बीच से हट जाती हैं, उसी दिन जो सदा है, उससे हमारा पहला संबंध होता है। वह संबंध, बुद्ध ने कहा है: सदा ही सुखदायी है, महासुखदायी है। क्योंकि वह कभी पुराना नहीं पड़ता, क्योंकि वह कभी नया नहीं था। वह है सनातन। श्रेयार्थी का अर्थ है: सत्य की, शाश्र्वत की तलाश। साधक ही उसका अर्थ है।
प्रेयार्थी हम सब हैं। और अगर हम कभी श्रेय की खोज में भी जाते हैं तो प्रिय के ही लिए। अगर हम कभी सत्य को भी खोजते हैं तो इसीलिए कि स्वर्ग मिल जाए। अगर हम कभी ध्यान करने भी बैठते हैं तो इसीलिए कि सुख मिल जाए। जो व्यक्ति सुख के लिए ही सत्य भी खोज रहा है वह अभी श्रेयार्थी नहीं है। वह अभी प्रेयार्थी है। अगर परमात्मा का दर्शन भी कोई इसीलिए खोज रहा है कि आंखों की तृप्ति हो जाएगी तो वह श्रेयार्थी नहीं है, प्रेयार्थी है। और प्रेयार्थी दुख पाएगा, परमात्मा भी मिल जाए तो भी दुख पाएगा। मोक्ष भी मिल जाए तो भी दुख पाएगा। क्या मिलता है, इससे संबंध नहीं है।
प्रेयार्थी का जो ढंग है जीवन को देखने का, वह दुख में उतारने वाला है। श्रेयार्थी का जो ढंग है जीवन को देखने का, वह आनंद में उतारने वाला है। सुख को खोजेंगे, दुख पाएंगे। सुख की खोज वाला मन ही दुख का निर्माता है। जितनी करेंगे अपेक्षा, उतनी पीड़ा में उतर जाएंगे। अपेक्षा ही पीड़ा का मार्ग है। नहीं करेंगे अपेक्षा, नहीं बांधेंगे आशा, उसकी ही तलाश करेंगे, जो है।
यह तलाश कठोर है, आर्डुअस है, दुर्गम है। क्योंकि हम वह नहीं जानना चाहते जो है। हम वह जानना चाहते हैं जो हमारी इंद्रियां कहती हैं, होना चाहिए। इसलिए हम सत्य के ऊपर इंद्रियों का एक मोह-आवरण डाले रखते हैं। हम यह नहीं जानना चाहते, क्या है, हम जानना चाहते हैं वही, जो होना चाहिए। अगर मैं किसी व्यक्ति को भी देखता हूं तो मैं उसको नहीं देखता जो वह है। मैं वही देखता हूं, जो वह होना चाहिए। इसी से झंझट खड़ी होती है। आप मुझे मिलते हैं, आपको मैं नहीं देखता। मैं आप में उस सौंदर्य को देख लेता हूं जो मेरी इंद्रियां चाहती हैं कि हो। वह सत्य नहीं है। आपकी आंखों में मैं वह काव्य देख लेता हूं जो वहां नहीं है, लेकिन मेरी मनोवासना देखना चाहती है कि हो।
कल वह काव्य तिरोहित हो जाएगा, परिचय से टूट जाएगा, जानकारी से, पहचान से, आंखें साधारण आंखें हो जाएंगी और तब मैं पछताऊंगा कि धोखा हो गया। लेकिन किसी ने मुझे धोखा दिया नहीं है, यह धोखा मैंने खाया है। मैंने वह देखना ही नहीं चाहा जो था। मैंने वह देख लिया जो होना चाहिए। मैंने अपना सपना आप में देख लिया। अब यह सपना टूटेगा। सपने टूटने के लिए ही होते हैं। और जब वास्तविकता उघड़ कर सामने आएगी तो लगेगा कि मैं किसी धोखे में डाल दिया गया। और तब हमारी इंद्रियां कहती हैं: धोखा दूसरे ने दिया। जहां काव्य नहीं था, वहां काव्य दिखलाया, जहां सौंदर्य नहीं था, वहां सौंदर्य दिखलाया। दूसरा आपको धोखा नहीं दे रहा है।
इस जगत में सब धोखे अपने हैं। हम धोखा खाना चाहते हैं। हम धोखा निर्मित करते हैं। हम दूसरे के ऊपर धोखे को खड़ा करके धोखा खा लेते हैं। फिर धोखे टूट जाते हैं, और तब दुख है।
श्रेयार्थी का अर्थ है: जो है वही मैं जानूंगा। कुछ भी जोडूंगा नहीं। वह जो है, दैट विच इ़ज, उसको उघाड़ लूंगा, खोल लूंगा। उसको नग्न देख लूंगा, जैसा है। उसमें जरा भी अपनी वासना, अपनी कामना, अपनी आकांक्षा नहीं जोडूंगा। कोई सपना नहीं डालूंगा, सत्य को वैसे ही देख लूंगा, जैसा है। फिर कोई दुख होने वाला नहीं। क्योंकि सत्य सदा वैसा ही रहेगा। सपने बदल जाते हैं, सत्य सदा वैसा है।
किसी में आप मित्र देखते हैं, किसी में शत्रु देखते हैं। वे सब आपके सपने हैं। किसी में सौंदर्य, किसी में कुरूपता, वे सब आपके सपने हैं। जो है, उसे जो देखने लगता है, उसके लिए इस जगत में फिर कोई दुख नहीं है। क्योंकि जो है, वह कभी भी बदलता नहीं है।
अब हम सूत्र को लें।
इस सूत्र में उतरने के पहले कुछ बुनियादी बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात: गुरु की धारणा मौलिक रूप से भारतीय है। दुनिया में शिक्षक हुए हैं, गुरु नहीं। शिक्षक साधारण सी बात है, गुरु बड़ी असाधारण घटना है। शिक्षक और गुरु का शाब्दिक अर्थ एक है, लेकिन अनुभूतिगत अर्थ बिलकुल भिन्न है। शिक्षक से हम वह सीखते हैं, जो वह जानता है। गुरु से हम वह सीखते हैं, जो वह है। शिक्षक से हम जानकारी लेते हैं, गुरु से जीवन। शिक्षक से हमारा संबंध बौद्धिक है, गुरु से आत्मगत। शिक्षक से हमारा संबंध आंशिक है, गुरु से पूर्ण।
गुरु की धारणा मौलिक रूप से पूर्वीय है। पूर्वीय ही नहीं, भारतीय है। गुरु जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। शिक्षक, टीचर, मास्टर, वे शब्द हैं--अध्यापक। लेकिन ‘गुरु’ जैसा कोई भी शब्द नहीं है। गुरु के साथ हमारे अभिप्राय ही भिन्न हैं।
पहली बात: शिक्षक से हमारा संबंध व्यावसायिक है, एक व्यवसाय का संबंध है। गुरु से हमारा संबंध व्यवसायिक नहीं है। आप किसी के पास कुछ सीखने जाते हैं। ठीक है, लेन-देन की बात है। आप उससे कुछ सीख लेते हैं, कुछ उसे भेंट कर देते हैं, बात समाप्त हो जाती है--यह व्यवसाय है। एक शिक्षक से आप कुछ सीखते हैं, सीखने के बदले में उसे कुछ दे देते हैं, बात समाप्त हो जाती है। गुरु से जो हम सीखते हैं, उसके बदले में कुछ भी नहीं दिया जा सकता। कोई उपाय देने का नहीं है। क्योंकि जो गुरु देता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। जो गुरु देता है, उसे चुकाने का कोई उपाय नहीं है। उसे वापस करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि शिक्षक देता है सूचनाएं, जानकारियां, इनफर्मेशन। गुरु देता है अनुभव। यह बड़े मजे की बात है कि शिक्षक जो जानकारी देता है, जरूरी नहीं कि वह जानकारी उसका अनुभव हो, आवश्यक नहीं। जो शिक्षक आपको नीति शास्त्र पढ़ाता है और बताता है कि शुभ क्या है, अशुभ क्या है? नीति क्या है, अनीति क्या है? जरूरी नहीं कि वह शुभ का आचरण करता हो। वह सिर्फ शिक्षक है, वह सूचन करता है। गुरु जो कहता है, वह सूचन नहीं है, वह उसके जीवन का आविर्भाव है।
तो हम बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को गुरु कहते हैं। गुरु का अर्थ यह है कि वे जो कह रहे हैं, उन्होंने जीया है, जाना ही नहीं। जानने वाले तो बहुत गुरु हैं। वे गांव-गांव में हैं। युनिवर्सिटीज उनसे भरी हुई पड़ी हैं। वे शिक्षक हैं, गुरु नहीं। जो कुछ जाना गया है, वह उन्होंने संगृहीत किया है, वे आपको दे रहे हैं। वे केवल माध्यम हैं। उनसे पास अपना कोई उत्स, अपना कोई स्रोत नहीं है। वे उधार हैं। वे जो भी दे रहे हैं उन्होंने कहीं से पाया है। उन्हें किसी और ने दिया है, वे बीच के सेतु हैं जिनसे जानकारियां यात्राएं करती हैं। एक पीढ़ी मरती है तो जो भी वह पीढ़ी जानती है, दूसरी पीढ़ी को दे जाती है। इस देने के क्रम में शिक्षक बीच का काम करता है, बीच की कड़ी का काम करता है। अगर बीच में शिक्षक न हो तो पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को सिखा नहीं सकती कि उसने क्या जाना। पुरानी पीढ़ी ने जो भी अनुभव किया है, जो भी जाना है, जो भी उघाड़ा है, जो भी ज्ञान अर्जित किया है, वह शिक्षक नई पीढ़ी को सौंपने का काम करता है।
गुरु, जो पुरानी पीढ़ी ने जाना है उसको सौंपने का काम नहीं करता, जो स्वयं उसने अनुभव किया है। और यह जो स्वयं अनुभव किया है, इसे सौंपने का सूचन की तरह कोई उपाय नहीं है। इसे तो जीवन की विधि के रूपांतरण से ही दिया जा सकता है। एक शिक्षक के पास से हम ज्ञानी होकर लौटते हैं, ज्यादा जान कर लौटते हैं, लर्नेड होकर लौटते हैं। एक गुरु के पास से हम रूपांतरित होकर लौटते हैं। पुराना आदमी मर जाता है, नये का जन्म होता है। गुरु के पास जब हम जाते हैं तब हम वही नहीं लौट सकते, अगर हम गुरु के पास गए हों। गुरु के पास जाना कठिन मामला है। लेकिन, अगर हम गुरु के पास गए हों तो, जो जाता है, वह फिर कभी वापस नहीं लौटता। दूसरा आदमी वापस लौटता है।
शिक्षक के पास जब हम जाते हैं--और जाना बहुत आसान है--तो हम वही लौटते हैं जो हम गए थे। थोड़े से और समृद्ध होकर लौटते हैं, थोड़ा सा और ज्यादा जानकर लौटते हैं। हम जो थे, उसी में शिक्षक जोड़ देता है--एडीशन। हम जो थे, उसी में थोड़े रंग-रूप लगा देता है, वस्त्र ओढ़ा देता है। हम जो थे उसमें और शिक्षक के द्वारा जो हम निर्मित होते हैं, दोनों के बीच में कोई डिसंकटीन्यूटी, कोई गैप, कोई खाली जगह नहीं होती।
गुरु के पास जब हम जाते हैं तो जो हम थे, वह और आदमी था और जो हम लौटते हैं, वह और आदमी है। गुरु हममें जोड़ता नहीं, हमें मिटाता है और नया निर्मित करता है। गुरु हमको ही संवारता नहीं, हमें मारता है और जिलाता है। गुरु के पास जाने के बाद हमारे अतीत में और हमारे भविष्य में एक गैप, एक अंतराल हो जाता है। लौट के आप देखेंगे तो अपनी ही कथा ऐसी लगेगी, किसी और की कहानी है--अगर गुरु के पास गए। अगर शिक्षक के पास गए तो अपनी कथा अपनी ही कथा है। बीच में कोई खाली जगह नहीं है जहां चीजें टूट गई हों, जहां आपका पुराना रूप बिखर गया हो और नये का जन्म हुआ हो।
इसलिए हमने इस मुल्क में एक शब्द खोजा था, वह है द्विज। द्विज का अर्थ है: ट्वाइस बॉर्न, दुबारा जन्मा हुआ। दुबारा जन्मा हुआ वही आदमी है, जिसे गुरु मिल गया। नहीं तो दुबारा जन्मा हुआ आदमी नहीं है। एक जन्म तो मां-बाप देते हैं, वह शरीर का जन्म है। एक जन्म गुरु के निकट घटित होता है, वह आत्मा का जन्म है। जब वह जन्म घटित होता है तो आदमी द्विज होता है। उसके पहले आदमी एक जन्मा है, उसके बाद दोहरा जन्म हो जाता है, ट्वाइस बॉर्न हो जाता है।
गुरु के लिए हमने जैसी श्रद्धा की धारणा बनाई है, ऐसा पश्र्चिम के लोग जब सुनते हैं तो भरोसा नहीं कर पाते कि ऐसी श्रद्धा की क्या जरूरत है। जब किसी व्यक्ति से सीखना है तो सीखा जा सकता है। ऐसा उसके चरणों में सिर रख कर मिट जाने की क्या जरूरत है! और उनका कहना भी ठीक है, सीखना ही है तो चरणों में सिर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है, अगर सीखना ही है तो सिर और सिर का संबंध होगा, चरणों और सिर के संबंध की क्या जरूरत है!
लेकिन, हमारी गुरु की धारणा कुछ और है। यह सिर्फ सीखना नहीं है, यह सिर्फ बौद्धिक आदान-प्रदान नहीं है। यह संवाद बुद्धि का नहीं है, दो सिरों का नहीं है। क्योंकि जो गहन अनुभव हैं, बुद्धि तो उनको अभिव्यक्त भी नहीं कर पाती। जो गहन अनुभव हैं, उनका संबंध तो हृदय से हो पाता है। बुद्धि से नहीं हो पाता। जो क्षुद्र बातें हैं, वे कही जा सकती हैं शब्दों में। जो विराट से संबंधित हैं, गहन से, ऊंचाइयों से, अनंत गहराइयों से, वे कही नहीं जा सकती शब्दों में, लेकिन प्रेम में अभिव्यक्त की जा सकती हैं। तो गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है वह गहन प्रेम का है। शिक्षक आौर विद्यार्थी के बीच जो संबंध है वह लेन-देन का है, व्यावसायिक है, बौद्धिक है। गुरु और शिष्य के बीच का जो संबंध है, वह हार्दिक है।
ध्यान रहे, जब बुद्धि लेती है, देती है, तो यह समतल पर घटित होता है। जब हृदय लेता-देता है तो यह समतल पर घटित नहीं होता। हृदय को तो लेना हो तो उसे पात्र की तरह खुला हुआ नीचे हो जाना पड़ता है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। तो जब हृदय को लेना हो... वर्षा हो रही हो तो पात्र को नीचे रख देना पड़ता है, पानी उसमें भर जाए। पात्र को उस धारा के नीचे होना चाहिए जहां से लेना है, अगर हृदय का लेन-देन है। बुद्धि का लेन-देन समतल पर होता है।
इसलिए पश्चिम में शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई रिस्पेक्ट, कोई समादर की बात नहीं है। और अगर कोई समादर है तो औपचारिक है, और अगर कोई समादर है तो कक्षा के भीतर है, बाहर तो कोई सवाल नहीं है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध एक खंड संबंध है। पूरब में गुरु और शिष्य का संबंध एक अखंड संबंध है, समग्र।
यह जो हृदय का लेन-देन है, इसमें शिष्य को पूरी तरह झुक जाना जरूरी है। शिष्य का अर्थ ही है जो झुक गया। हृदय के पात्र को जिसने चरणों में रख दिया। इसलिए इस लेन-देन में श्रद्धा अनिवार्य अंग हो गई। श्रद्धा का केवल इतना ही अर्थ है कि जिससे हम ले रहे हैं, उससे हम पूरा लेने को राजी हैं। उसमें हम कोई जांच-पड़ताल न करेंगे। इसका यह मतलब नहीं है कि जांच-पड़ताल की मनाही है। इसका केवल इतना मतलब है कि खूब जांच-पड़ताल कर लेना, जितनी जांच-पड़ताल करनी हो, कर लेना, लेकिन जांच-पड़ताल जब पूरी हो जाए और गुरु के करीब पहुंच जाओे, और चुन लो कि यह रहा गुरु, तो फिर जांच-पड़ताल बंद कर देना और पात्र को नीचे रख देना। और अब सब द्वार खुले छोड़ देना, ताकि गुरु सब मार्गों से प्रविष्ट हो जाए।
जांच-पड़ताल की मनाही नहीं है, लेकिन उसकी सीमा है। खोज लेना पहले, गुरु की खोज कर लेना जितनी बन सके। लेकिन जब खोज पूरी हो जाए और लगे कि यह आदमी रहा, तो फिर खोज बंद कर देना। फिर खोल देना अपने हृदय को।
शिष्य, इसलिए अलग शब्द है, उसका अर्थ विद्यार्थी नहीं है। शिष्य विद्यार्थी नहीं है, विद्या नहीं सीख रहा है। शिष्य जीवन सीख रहा है और जीवन के सीखने का मार्ग शिष्य के लिए विनय है।
यह सूत्र विनय सूत्र है। इसमें महावीर ने कहा है: जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालता हो, उनके पास रहता हो, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो, तथा कार्य-विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।
विनय, शिष्य का लक्षण है, ह्युमिलिटी, हंबलनेस, झुका हुआ होना, समर्पित भाव। इन शब्दों को हम एक-एक समझ लें।
‘जो गुरु की आज्ञा पालता हो।’
गुरु कहे: बैठ जाओ तो बैठ जाए, कहे: खड़े हो जाओ तो खड़ा हो जाए। इसका अर्थ आज्ञापालन नहीं है। आज्ञापालन का अर्थ तो है: जहां आपकी बुद्धि इनकार करती हो, वहां पालन।
सुना है मैंने, बायजीद अपने गुरु के पास गया, तो गुरु ने पूछा, कि निश्चित ही तुम आ गए हो मेरे पास? तो वस्त्र उतार दो, नग्न हो जाओ, जूता हाथ में ले लो, अपने सिर पर मारो और पूरे गांव का एक चक्कर लगा आओ।
और भी लोग वहां मौजूद थे। उनमें से एक आदमी के बरदाश्त के बाहर हुआ। उसने कहा: यह क्या मामला है, कोई अध्यात्म सीखने आया है कि पागल होने? लेकिन बायजीद ने वस्त्र उतारने शुरू कर दिए। उस आदमी ने बायजीद को कहा: ठहरो भी, पागल तो नहीं हो? और बायजीद के गुरु को कहा कि यह आप क्या करवा रहे हैं? यह जरा ज्यादा है, थोड़ा ज्यादा हो गया। फिर बायजीद की गांव में प्रतिष्ठा है। क्यों उसकी प्रतिष्ठा धूल में मिलाते हैं?
लेकिन बायजीद नग्न हो गया। उसने हाथ में जूता उठा लिया। वह गांव के चक्कर पर निकल गया। वह अपने को जूता मारता जा रहा है। गांव में भीड़ इकट्ठी हो गई। पागल हो गया हो बायजीद! लोग हंस रहे हैं, लोग मजाक उड़ा रहे हैं। किसी की समझ में नहीं आ रहा, क्या हो गया? वह पूरे गांव में चक्कर लगा कर अपनी सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला कर, मिट्टी होकर वापस लौट आया।
गुरु ने उसे छाती से लगा लिया और गुरु ने कहा: बायजीद अब तुझे कोई भी आज्ञा न दूंगा। पहचान हो गई। अब काम की बात शुरू हो सकती है।
आज्ञा का अर्थ है: जो एब्सर्ड मालूम पड़े, जिसमें कोई संगति न मालूम पड़े। क्योंकि जिसमें संगति मालूम पड़े, आप मत सोचना, आपने आज्ञा मानी। आपने अपनी बुद्धि को माना। अगर मैं आपसे कहूं, कि दो और दो चार होते हैं, यह मेरी आज्ञा है, और आप कहें कि बिलकुल ठीक, मानते हैं आपकी आज्ञा, दो और दो चार होते हैं। आप मुझे नहीं मान रहे हैं, आप अपनी बुद्धि को मान रहे हैं। और मैं कहूं कि दो और दो पांच होते हैं और आप कहें कि हां, दो और दो पांच होते हैं, तो आज्ञा।
बाइबिल में घटना है। एक पिता को आज्ञा हुई कि वह जाकर अपने बेटे को फलां-फलां वृक्ष के नीचे काट कर और बलिदान कर दे। उसने अपने बेटे को उठाया, फरसा लिया और जंगल की तरफ चल पड़ा। सोरेन कीर्कगार्ड ने इस घटना पर बड़े महत्वपूर्ण काम किए हैं, बड़े गहरे काम किए हैं। यह बात बिलकुल फिजूल है, क्योंकि सोरेन कीर्कगार्ड कहता है कि उस पिता को, यह तो सोचना ही चाहिए था, कहीं यह
आज्ञा मजाक तो नहीं है। यह तो सोचना ही चाहिए था कि यह आज्ञा अनैतिक कृत्य है कि पिता बेटे की हत्या कर दे! कुछ तो विचारना था! लेकिन उसने कुछ भी न विचारा। फरसा उठाया और बेटे को लेकर चल पड़ा।
यह हमें भी लगेगी कि जरूरत से ज्यादा बात है। और यह तो अंधापन है, और यह तो मूढ़ता है। लेकिन कीर्कगार्ड भी कहता है कि यह सारा परीक्षण पहले कर लेना चाहिए। लेकिन एक बार परीक्षण पूरा हो गया हो तो फिर छोड़ देना चाहिए सारी बात। अगर परीक्षण सदा ही जारी रखना है तो गुरु और शिष्य का संबंध कभी भी निर्मित नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण वह संबंध निर्मित होना है।
वक्त पर खबर आ गई कि हत्या नहीं करना है, फरसा उठ गया था और गला काटने के करीब था। लेकिन यह गौण बात है। वापस लौट आया है पिता अपने बेटे को लेकर, लेकिन अपनी तरफ से हत्या करने की आखिरी सीमा तक पहुंच गया था। फरसा उठ गया था और गला काटने के करीब था।
यह घटना तो सूचक है। शायद ही कोई गुरु आपको कहे कि जाकर बेटे की हत्या कर आएं। लेकिन, घटना में मूल्य सिर्फ इतना है कि अगर ऐसा भी हो, तो आज्ञापालन ही शिष्य का लक्षण है। क्यों आज्ञा को इतना मूल्यवान--पहले ही सूत्र के हिस्से में आज्ञा को इतना मूल्यवान महावीर क्यों कह रहे हैं?
आपकी बुद्धि जो-जो समझ सकती है इस जगत में, वह जैसे-जैसे आप भीतर प्रवेश करेंगे, उसकी समझ क्षीण होने लगेगी, वहां काम नहीं पड़ेगी। और अगर आप यही भरोसा मान कर चलते हैं कि मैं अपनी बुद्धि से ही चलूंगा तो बाहर की दुनिया तो ठीक, भीतर की दुनिया में प्रवेश नहीं हो सकेगा। भीतर तो घड़ी-घड़ी ऐसे मौके आएंगे जब गुरु कहेगा कि करो। और तब आपकी बुद्धि बिलकुल इनकार करेगी कि मत करो। क्योंकि अगर ध्यान की थोड़ी सी गहराई बढ़ेगी तो लगेगा कि मौत घट जाएगी। अब आपका कोई अनुभव नहीं है। जब भी ध्यान गहरा होगा तो मौत का अनुभव होगा। ऐसा लगेगा, मरे।
गुरु कहेगा: मरो, बढ़ो, मरोगे ही न! मर जाना। तब आपकी बुद्धि कहेगी: अब यह क्या हो रहा है, अब आगे कदम नहीं बढ़ाया जाता।
बेटे की हत्या करना भी इतना कठिन नहीं है, अगर खुद के मरने की भीतर घड़ी आए, तब। बेटा फिर भी दूर है और बेटे की हत्या करने वाले बाप मिल जाएंगे। ऐसे तो सभी बाप थोड़ी बहुत हत्या करते हैं, लेकिन वह अलग बात है। बाप की हत्या करने बाले बेटे मिल जाएंगे। एक सीमा पर सभी बेटे बाप से छुटकारा चाहते हैं, लेकिन वह अलग बात है।
लेकिन, आदमी जब अपने की ही हत्या पर उतरने की स्थिति आ जाती है, और जब ध्यान में ऐसी घड़ी आती है कि शरीर छूट तो नहीं जाएगा! सांस बंद तो नहीं हो जाएगी! तब आपकी बुद्धि कोई भी उपयोग की नहीं, क्योंकि आपका कोई अनुभव काम नहीं पड़ेगा। वहां गुरु कहता है कि ठीक है, हो जाने दो बंद सांस। उस वक्त क्या करिएगा? अगर आज्ञा मानने की आदत न बन गई हो। अगर गुरु के साथ असंगत में भी उतरने की तैयारी न हो गई हो, तो आप वापस लौट आएंगे, आप भाग जाएंगे। उस वक्त तो मृत्यु को एक किनारे रख कर वह गुरु जो कहता है, वही ठीक।
और बड़े मजे की बात है, आप मरेंगे नहीं, बल्कि इस ध्यान में जो मृत्यु घटेगी, इससे ही आप पहली दफे जीवन का स्वाद, जीवन का अनुभव कर पाएंगे। लेकिन उसके लिए आपकी बुद्धि कोई भी तो सहारा नहीं दे सकती। बुद्धि तो वही सहारा दे सकती है जो जानती हो। यह आपने कभी जाना नहीं है। यह तो मामला ठीक ऐसा ही है कि बेटा हाथ बाप का पकड़ लेता है और फिर फिकर छोड़ देता है कि ठीक, बाप साथ है, उसकी चिंता नहीं है कुछ। अब जंगल में शेर भी चारों तरफ भटक रहे हों तो बेटा गुनगुनाता हुआ, गीत गाता, बाप का हाथ पकड़ कर चलता है। बाप के हाथ में हाथ है, बात खत्म हो गई। अगर अब बाप उससे कह दे कि यह सामने जो शेर आ रहा है, इससे गले मिल लो, तो बेटा मिल लेगा।
आज्ञा का अर्थ है: असंगत घटनाएं घटेंगी साधना में, जिनके लिए बुद्धि कोई तर्क नहीं खोज पाती। तब कठिनाइयां शुरू होती हैं, तब संदेह पकड़ना शुरू होता है। तब लगता है कि भाग जाओ इस आदमी से, बच जाओ इस आदमी से। तब बुद्धि बहुत-बहुत उपाय करेगी कि यह आदमी गलत है, इसकी बात मत मानना। तब बुद्धि ऐसी पच्चीस बातें खोज लेगी, जिनसे यह सिद्ध हो जाए कि यह आदमी गलत है, इसलिए इसकी यह बात मानना भी उचित नहीं है। छोड़ दो।
इसलिए महावीर कहते हैं: जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालन करता हो, उसके पास रहता हो।
पास रहना बड़ी कीमती बात थी। पास रहना एक आंतरिक घटना है। शारीरिक रूप से पास रहना, रहने का उपयोग है, लेकिन आत्मिक रूप से, मानसिक रूप से पास रहने का बहुत उपयोग है। यह जो जीवन की आत्यंतिक कला है, इसे सीखना हो तो गुरु के इतने पास होना चाहिए, जितने हम अपने भी पास नहीं। जैसे कोई आपकी छाती में छुरा भोंक दे तो गुरु का स्मरण पहले आए, बाद में अपना, कि मैं मर रहा हूं। यह अर्थ हुआ पास रहने का।
पास रहने का मतलब है, एक आंतरिक निकटता, सामीप्य। हम अपने से भी ज्यादा पास, अपने से भी ज्यादा भरोसा, अपने से भी ज्यादा स्मरण। यह जो घटना है पास होने की, निकट होने की, यह शारीरिक तल पर भी बड़ी मूल्यवान है। इसलिए गुरु के पास शारीरिक रूप से रहने का भी बड़ा अर्थ है। अधिकतम गुरु, अगर हम उपनिषद के गुरुओं में लौट जाएं, या महावीर--महावीर के साथ दस हजार साधु-साध्वियों का समूह चलता था। महावीर के पास होना ही मूल्य था उसका।
क्या अर्थ है इस पास होने का?
इस पास होने का एक ही अर्थ है कि मेरे ‘मैं’ की जो आवाज है, वह धीरे-धीरे कम हो जाए। हम जब भी बोलते हैं, तो मैं हमारा केंद्र होता है। गुरु के पास रहने का अर्थ है: मैं केंद्र न रह जाए, गुरु केंद्र हो जाए। महावीर के पास दस हजार साधु-साध्वी हैं। उनका अपना होना कोई भी नहीं है। महावीर का होना ही सब-कुछ है।
बुद्ध एक गांव के बाहर ठहरे हैं। हजारों भिक्षु-भिक्षुणियां उनके पास हैं। गांव का सम्राट मिलने आया है। पास आकर उसे शक होने लगा। आम्रकुंज है, उसके बाहर आकर उसने अपने वजीरों को कहा कि मुझे शक होता है, इसमें कुछ धोखा तो नहीं है? क्योंकि तुम कहते थे: हजारों लोग वहां ठहरे हैं, लेकिन आवाज जरा भी नहीं हो रही। जहां हजारों लोग ठहरे हों और तुम कहते हो: बस यह जो आम की कतार है, इसके पीछे के ही वन में वे लोग ठहरे हैं। जरा भी आवाज नहीं है, मुझे शक होता है। उसने अपनी तलवार बाहर खींच ली। उसने कहा: इसमें कोई षडयंत्र तो नहीं? उसके वजीरों ने कहा: आप निश्चिंत रहें, वहां सिर्फ एक ही आदमी बोलता है, बाकी सब चुप हैं। वह बुद्ध के सिवाय वहां कोई बोलता ही नहीं। और जंगल में शांति है, क्योंकि बुद्ध नहीं बोल रहे होंगे, और तो वहां कोई बोलता ही नहीं।
मगर वह जो सम्राट था, उसका नाम था, अजातशत्रु। नाम भी हम बड़े मजेदार देते हैं, जिसका कोई शत्रु पैदा न हुआ हो! हालांकि शांति में भी उसे शत्रु दिखाई पड़ता है, सन्नाटे में भी। लेकिन वह तलवार निकाले ही गया। जब उसने देख लिया कि हजारों भिक्षु बैठे हैं चुपचाप, बुद्ध एक वृक्ष की छाया में बैठे हैं, तब उसने तलवार भीतर की। तब उसने बुद्ध से पहला प्रश्र्न यही पूछा: इतनी चुप्पी, इतना मौन क्यों है? इतने लोग हैं, कोई बातचीत नहीं, कोई चर्चा नहीं, दिन-रात ऐसे बीत जाते हैं?
बुद्ध ने कहा: ये लोग मेरे पास होने के लिए यहां हैं। अगर ये बोलते रहें तो ये अपने ही पास होंगे। ये अपने को मिटाने को यहां आए हैं। ये यहां हैं ही नहीं। बस इस जंगल में जैसे मैं ही हूं और ये सब मिटे हुए शून्य हैं। ये अपने को मिटा रहे हैं। जिस दिन ये पूरे बिखर जाएंगे उस दिन ही ये मुझे पूरा समझ पाएंगे। और जो मैं इनसे कहना चाहता हूं, वह इनके मौन में ही कहा जा सकता है। और अगर मैं शब्द का भी उपयोग करता हूं, तो वह यही समझाने के लिए, कैसे मौन हो जाएं। शब्द का उपयोग करता हूं, मौन में ले जाने के लिए, फिर मौन का उपयोग करूंगा सत्य में ले जाने के लिए। शब्द से कोई सत्य में ले जाने का उपाय नहीं है। शब्द से, मौन में ले जाया जा सकता है।
बस शब्द की इतनी ही सार्थकता है कि आपकी समझ में आ जाए कि चुप हो जाना है। फिर सत्य में ले जाया जा सकता है। सामीप्य का यह अर्थ है।
सारिपुत्र बुद्ध का खास शिष्य था। जब वह स्वयं बुद्ध हो गया तो बुद्ध ने उससे कहा, कि अब सारिपुत्र तू जा और मेरे संदेश को लोगों तक पहुंचा। सारिपुत्र उठा, नमस्कार करके चलने लगा।
आनंद बुद्ध का दूसरा प्रमुख शिष्य था। उसे अब तक ज्ञान नहीं हुआ था। उसने बुद्ध से कहा: इस भांति मुझे कभी दूर मत भेज देना। मेरी प्रार्थना: इतना खयाल रखना, कभी मुझे ऐसी आज्ञा मत देना कि दूर चला जाऊं।मैं तो समीप ही रहना चाहता हूं।
बुद्ध ने कहा: तू समीप नहीं है, इसीलिए समीप रहना चाहता है। सारिपुत्र उठा और चल पड़ा। वह कहीं भी रहे, वह मेरे समीप ही रहेगा। बीच का फासला अब कोई फासला नहीं है।
सारिपुत्र चल पड़ा। वह गांव-गांव, जगह-जगह संदेश देता रहा। लेकिन रोज सुबह जैसे उठ कर वह बुद्ध के चरणों में सिर रखता था, जिस दिशा में बुद्ध होते, रोज सुबह उठ कर उनके चरणों में सिर रखता। उसके शिष्य उससे पूछते, सारिपुत्र अब तो तुम भी स्वयं बुद्ध हो गए, अब तुम किसके चरणों में सिर रखते हो? अब क्या है जरूरत? सारिपुत्र कहता: जिनके कारण मैं मिट सका, जिनके कारण मैं समाप्त हुआ, जिनके कारण मैं शून्य हुआ। फिर उसके शिष्य कहते: लेकिन बुद्ध तो बहुत दूर हैं, सैकड़ों मील दूर हैं, यहां से तुम्हारे चरणों में किए गए प्रणाम कैसे पहुंचेगे? तो सारिपुत्र कहता: अगर वे दूर होते तो मैं उन्हें छोड़ कर ही न आता। छोड़ कर आ सका इसी भरोसे कि अब कहीं भी रहूं, वे मेरे पास हैं।
एक संबंध है बाहर का जो शरीर से होता है। शरीर कितने ही निकट आ जाए तो भी दूरी बनी रहती है। शरीर के साथ कोई निकटता हो ही नहीं पाती। कितने ही निकट ले आओ, आलिंगन कर लो किसी का, फिर भी बीच में फासला बना ही रहता है। दो शरीर कभी भी एक शरीर नहीं हो पाते, हो नहीं सकते। शरीर का होना ही पार्थक्य है। फिर एक और आंतरिक सामीप्य है। सारिपुत्र उसी की बात कर रहा है। वह कह रहा है: अब फासले टूट गए, अब कोई स्पेस, कोई जगह बीच में नहीं है। अब मैं नहीं हूं, बुद्ध ही हैं, या कहूं कि मैं हूं, बुद्ध नहीं हैं, एक ही बात है।
इससे भी ज्यादा मजेदार घटना तो तब घटी, कहते हैं, महाकाश्यप अपने ही पैर छू लेता था। लोगों को बहुत अजीब लगता होगा। महाकाश्यप बुद्ध का दूसरा शिष्य था और शायद उनके सारे शिष्यों में अदभुत था। महाकाश्यप अपने ही पैर छू लेता था और लोगों ने उससे कहा: यह तुम क्या करते हो? वह कहता कि बुद्ध के चरण छू रहा हूं। लोग कहते: ये पैर तुम्हारे हैं। महाकाश्यप कहता कि अब उनसे इतनी निकटता हो गई कि वह भीतर ही हैं, पैर उनके ही हैं। महाकाश्यप कहता: अब मैं किसी के भी पैर छूऊं, बुद्ध के ही पैर हैं। इतनी समीपता भी बन सकती है। इस सामीप्य में ही संवाद है। इसलिए महावीर कहते हैं: उनके पास रहता हो, उनके निकट होता हो।
इस निकटता में भौतिक निकटता ही अंतर्निहित नहीं है, आंतरिक सामीप्य भी है, वही है वस्तुतः अंत में।
‘गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो।’
हम तो गुरु के शब्द को भी ठीक से नहीं समझ पाते, इंगित तो बड़ी और बात है। इंगित का अर्थ है, इशारा, जो कहा नहीं गया है, फिर भी दिया गया है। शायद इतना बारीक है कि कहने में टूट जाएगा, इसलिए कहा नहीं गया है। सिर्फ दिया गया है। शायद इतना सूक्ष्म है कि शब्द उसके सौंदर्य को नष्ट कर देंगे। स्थूल बना देंगे। इसलिए सिर्फ इशारा दिया गया है।
जो गुरु है, वह धीरे-धीरे शब्दों का सहारा छोड़ता जाता है। जैसे-जैसे शिष्य विनीत होता है, जैसे-जैसे शिष्य झुकता है, वैसे-वैसे गुरु शब्दों का सहारा छोड़ता जाता है। इंगित महत्वपूर्ण हो जाते हैं, इशारे महत्वपूर्ण हो जाते हैं। शब्द भी इशारे हैं, लेकिन बहुत स्थूल, बहुत ऊपरी।
बुद्ध कैसे चलते हैं, महावीर कैसे बैठते हैं, महावीर कैसे उठते हैं, महावीर कैसे सोते हैं, इन सब में उनके इंगित हैं। बुद्ध कैसे हाथ उठाते हैं, कैसे आंख उठाते हैं, कैसे आंख उनकी झपती है, उस सबमें उनके इंगित हैं। धीरे-धीरे जो उनके पास है, उनके शरीर की भाषा को समझने लगता है। हमारी भी शरीर की भाषा तो होती है, हमें भी पता नहीं होता। हमारे शरीर की भी भाषा होती है, और अब तो पश्चिम में एक साइंस ही, किनेटिक्स, निर्मित हो रही है, जो शरीर की भाषा पर निर्भर है, बॉडी लैंग्वेज।
और हम सब शरीर से भी बोलते रहते हैं। कभी आपने खयाल न किया होगा, बच्चे शरीर की भाषा को बिलकुल ठीक से समझते हैं। फिर धीरे-धीरे शब्द सीखने लगते हैं और शरीर की भाषा भूल जाते हैं। इसलिए बच्चों के साथ मां-बाप को कभी-कभी बड़ा स्ट्रेंज, बड़ा विचित्र अनुभव होता है कि मां मुस्कुरा रही है चेहरे से लेकिन बच्चा समझता है कि वह क्रोध में है। मां कह रही है, थपका रही है, खिलौने ले आऊंगी बाजार से, और बड़ी प्रसन्नता दिखा रही है जैसे बच्चे पर बड़ा प्रेम हो, लेकिन बच्चे समझ लेते हैं कि यह सब धोखा है। क्योंकि वह जो कह रही है, उसके हाथ की थपकी से पता नहीं चलता। बच्चे पहले तो बाडी लैंग्वेज सीखते हैं, शरीर की भाषा सीखते हैं। बच्चे जानते हैं कि मां जब उन्हें दूध पिला रही है, तो उसके स्तन का इशारा भी बच्चे समझते हैं कि इस वक्त वह प्रसन्न है, नाखुश है, पिलाना चाहती है, नहीं पिलाना चाहती, हट जाना चाहती है कि पास आना चाहती है। वे सब समझते हैं। क्योंकि पहली भाषा उनकी शरीर की भाषा है। वे मां को देख कर समझते हैं। अभी वे बोल नहीं सकते, न मां क्या बोलती है, उसे समझ सकते हैं। लेकिन मां के गेस्चर, उसकी मुद्राएं उनके खयाल में आने लगती हैं। और इसलिए बच्चों को धोखा देना बहुत मुश्किल है। जब तक कि बच्चे थोड़े बड़े न होने लगें। छोटे बच्चों को धोखा नहीं दिया जा सकता।
फिर धीरे-धीरे भाषा आरोपित हो जाती है और हम शरीर की भाषा भूल जाते हैं। और तब बड़ी मजेदार घटनाएं घटती हैं। अक्सर... आपको खयाल में नहीं। कभी किसी फिल्म में आपको खयाल में आया हो तो आया हो। कभी फिल्म में ऐसा हो जाता है कि भाषा और भाव-भंगिमा का संबंध टूट जाता है।
एक नाटक में ऐसा हुआ कि एक आदमी को गोली मारी जानी थी, लेकिन गोली का घोड़ा अटक गया। मारने वाले ने बहुत घोड़ा खींचा, लेकिन जैसे ही उसने घोड़ा खींचा, जिसको मरना था, वह धड़ाम से गिर कर मर गया। जब वह मर चुका और चिल्ला चुका कि हाय, मैं मरा! बाद में घोड़ा छूटा और गोली चली। संबंध टूट गया, कृत्य में और भाषा में।
आपको पता नहीं कि आपके कृत्य और भाषा में भी संबंध नहीं होता। आपके ओंठ मुस्कराते हैं। आपकी आंख कुछ और कहती है। आप हाथ से हाथ मिलाते हैं, आपके हाथ के भीतर की ऊर्जा पीछे हटती है; हाथ आगे बढ़ा है, ऊर्जा पीछे हट रही, आप मिलाना नहीं चाहते। जब आप हाथ मिलाना नहीं चाहते तो भीतर की ऊर्जा पीछे हट रही है। और आप मिला रहे हैं हाथ। लेकिन अगर दूसरा आदमी भाषा समझता हो शरीर की तो फौरन पहचान जाएगा कि हाथ मिलाया गया और ऊर्जा नहीं मिली। ऊर्जा भीतर खींच ली गई।
लेकिन हम सभी भाषा भूल गए हैं। इसलिए कोई पता नहीं चलता। एक आदमी को गले मिलाते हैं और पीछे हट रहे हैं। आपको खुद पता चल जाएगा। जरा खयाल करना अपने कृत्यों में कि जो आप कर रहे हैं, अगर वह नहीं करना चाहते हैं तो भीतर उससे विपरीत हो रहा है। उसी वक्त हो रहा है। वह तो कोई शरीर की भाषा नहीं जानता। भूल गए हैं हम सब। शायद भूल जाना जरूरी है, नहीं तो दुनिया में दोस्ती बनाना, प्रेम करना बहुत मुश्किल हो जाए। अगर हमारे शरीर की भाषा सीधी-सीधी समझ में आ जाए तो बड़ा मुश्किल हो जाए। इसलिए हम सब पर्त बना लिए हैं। उन शब्दों की पर्त में हम जीते हैं।
जब हम किसी आदमी से कहते हैं: मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तो बस वह इतना ही सुनता है। न हमारे ओंठ की तरफ देखता कि जब ये शब्द कहे गए, तो ओंठों ने भी कुछ कहा? असली कंटेंट ओंठों में है, शब्दों में नहीं। जब ये शब्द कहे गए तब आंखों ने कुछ कहा? असली विषय-वस्तु आंखों में है, शब्दों में नहीं। जब ये शब्द कहे गए तो इस पूरे आदमी के रोएं-रोएं में पुलक क्या थी? आनंद क्या था? ये कहने से प्राण इसके आनंदित हुए? कि मजबूरी में इसने कह कर कर्तव्य निभाया!
लेकिन शायद खतरनाक है। जैसा हमारी सभ्यता है, समाज है, धोखे का एक लंबा आडंबर। इसलिए हम बच्चों को जल्दी ही ठोक-पीट कर उनकी जो समझ है उसके ऊपर आरोपण करके, उनकी वास्तविक समझ को भुला देते हैं।
गुरु के पास रह कर फिर शब्दों की भाषा भूलनी पड़ती है। फिर शरीर की भाषा सीखनी पड़ती है। क्योंकि जो गहन है, वह शरीर से कहा जा सकता है। वह जो गहन है, वह भाव-भंगिमा से कहा जा सकता है। इसलिए भारत में एक पूरा का पूरा शास्त्र मुद्राओं का, गेस्चर्स का निर्मित हुआ। अब पश्चिम में उसकी पुनः खोज हो रही है। जिसको वह शरीर की भाषा कहते हैं, वह हमने मुद्राओं में काफी गहराई तक खोजी।
आपने बुद्ध की मूर्तियां देखी होंगी विभिन्न मुद्राओं में। अगर आप किसी एक खास मुद्रा में बैठ जाएं तो आप हैरान होंगे कि आपके भीतर भाव परिवर्तन हो जाता है। आपकी मुद्रा भीतर भाव परिवर्तन ले आती है। आपका भाव परिवर्तन हो तो आपकी मुद्रा परिवर्तित हो जाती है। जैसे बुद्ध पद्मासन में बैठते हैं, हाथ पर हाथ रख कर, या महावीर बैठते हैं पद्मासन में। सिर्फ वैसे ही आप बैठ जाएं, तो आप तत्काल पाएंगे कि जो आपके मन की धारा चल रही थी वह उसमें विघ्न पड़ गया। बुद्ध ने अनेक मुद्राएं, अभय, करुणा, बहुत सी मुद्राओं की बात की है। अगर उस मुद्रा में आप खड़े हो जाएं तो आप तत्काल भीतर पाएंगे कि भाव में अंतर पड़ गया है। अगर आप क्रोध की मुद्रा में खड़े हो जाएं तो भीतर क्रोध का आवेश आना शुरू हो जाता है।
शरीर और भीतर जोड़ है। गुरु के भीतर सारे धोखे मिट गए हैं। उसके भीतर जो भाव होता है, उसके शरीर तक बह जाता है।
इसलिए महावीर कहते हैं कि शिष्य को, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो। क्या गुरु कह रहा है, इसे ठीक-ठीक समझता हो, शरीर से भी।
रिंझाई अपने गुरु के पास था। चौबीस घंटे रुकने के बाद उसने कहा: आप कुछ सिखाएंगे नहीं? गुरु ने कहा: चौबीस घंटे मैंने कुछ और किया ही नहीं सिवाय सिखाने के। तो रिंझाई ने कहा: एक शब्द आप बोले नहीं! या तो मैं बहरा हूं जो मुझे सुनाई नहीं पड़ा! लेकिन अभी आप बोल रहे हैं, मैं ठीक से सुन रहा हूं। आप एक शब्द नहीं बोले।
गुरु ने कहा कि मेरा सब-कुछ होना बोलना ही है। तुम जब सुबह मेरे लिए चाय लेकर आए थे, तब मैंने कैसे तुमसे हाथ से चाय ग्रहण की थी, और मेरी आंखों में कैसे अनुग्रह का भाव था! वह तुमने नहीं देखा। काश, तुम वह देख लेते! तो जो नहीं कहा जा सकता, वह मैंने कह दिया था। जब सुबह आकर तुमने मेरे चरणों में सिर रखा था और नमस्कार किया था तो मैंने किस भांति तुम्हारे सिर पर हाथ रख दिया था! काश, तुम वह समझ लेते तो बहुत कुछ समझ में आ गया होता!
शास्त्र नहीं कह सकते, जो एक इशारा कह सकता है।
महावीर कहते हैं: ‘जो गुरु के इंगितों को समझता हो, कार्य विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।’
तो हमारी तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। हम तो महावीर चिल्ला-चिल्ला कर, डंका बजा-बजा कर कहें कि ऐसा करो, तो भी समझ में नहीं आता। समझ में भी आता है तो हमारी समझ में वही आता है जो हम समझना चाहते हैं। वह क्या कहना चाहते हैं इससे कोई लेना-देना नहीं है। हम अपने पर इस बुरी तरह आरूढ़ हैं, हम अपने आपको इस तरह पकड़े हुए हैं कि जो हम समझते हैं, वह हमारी व्याख्या होती है, इंटरप्रिटेशन होता है। क्या महावीर कहते हैं, वह हम नहीं समझते। हम क्या समझना चाहते हैं, हम क्या समझ सकते हैं, हमारी समझ हम उनके ऊपर आरोपित करके जो व्याख्या कर लेते हैं--फिर हम उसके अनुसार चलते हैं और हम सोचते हैं, हम महावीर के अनुसार चल रहे हैं। हम अपने ही अनुसार चलते रहते हैं।
कभी आपने खयाल किया, मैं यहां बोल रहा हूं, मैं एक ही बात बोल रहा हूं; लेकिन यहां जितने लोग हैं, उतनी बातें समझी जा रही हैं। यहां हर आदमी अपने भीतर इंतजाम कर रहा है, समझ रहा है, अपनी बुद्धि को जोड़ रहा है, अर्थ निकाल रहा है।
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हम इतने चालाक हैं कि जो हमारे मतलब का होता है, हम उसे जल्दी से समझ लेते हैं। जो हमारे मतलब का नहीं होता, हम उसको बाई पास कर जाते हैं। उस पर हम ध्यान ही नहीं देते। जिससे हमारा लाभ होता हो उसे हम तत्काल पकड़ लेते हैं। जिसमें हमें जरा भी हानि दिखाई पड़ती हो, हम उसको सुनते ही नहीं। हम उसे गुजार जाते हैं। ऐसा नहीं कि हम सुन कर उसे गुजार जाते, हम सुनते ही नहीं। हम उस पर ध्यान ही नहीं देते। हम अपने ध्यान को एक छलांग लगा देते हैं, हम आगे बढ़ जाते हैं।
जब मैं आपसे बोल रहा हूं तो उसमें से पांच प्रतिशत भी सुन लें तो बहुत कठिन है। उसमें से पांच प्रतिशत भी आप वैसा सुन लें जैसा बोला गया है, बहुत कठिन है। आप अपने को मिलाते चले जाते हैं, इसलिए अंत में जो आप अर्थ निकालते हैं, ध्यान रखना, वह आपका ही है। उसका मुझ से कुछ लेना-देना नहीं।
महावीर कहते हैं कि जो शारीरिक, मौखिक मुद्राओं तक को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है। वह आदमी विनीत है, वह आदमी हंबल है। क्या मतलब हुआ विनीत का? विनीत का मतलब हुआ कि आप बीच-बीच में न आते हों, आप अपने को घुमा-घुमा कर बीच में न ले आते हों। जो कहा जा रहा हो, उसको ही समझ लेते हों अपने को बीच में लाए बिना, तो आप शिष्य हैं।
विद्यार्थी को मनाही नहीं है, वह अपने को बीच में लाए, मजे से लाए। शिष्य को मनाही है, क्योंकि विद्यार्थी केवल सूचनाएं ग्रहण कर रहा है, अपने लाभ के लिए। जो उसके लाभ का हो ग्रहण कर ले, जो उसके लाभ का न हो छोड़ दे। इसलिए शिक्षक और विद्यार्थी के बीच संबंध लाभ-हानि का है। जो मेरे काम का नहीं वह मैं छोड़ दूंगा, जो मेरे काम का है वह चुन लूंगा। यह उचित ही है। लेकिन शिष्य और गुरु के बीच संबंध लाभ-हानि का नहीं है। यह गुरु को पीने आया है। इसमें अगर यह अपने को बीच-बीच में डालता है तो जो भी यह निष्कर्ष लेगा वह इसके अपने होंगे। गुरु से कोई संबंध न हो पाएगा।
इसलिए कई बार ऐसा होता है, गुरु के पास लोग वर्षों रहते हैं और फिर भी गुरु को बिना छुए लौट जाते हैं। वर्षों रहा जा सकता है। वर्ष बड़े छोटे हैं, जन्मों रहा जा सकता है। वे अपने को ही सुनते रहते हैं।
विनय का यह तो बहुत गहरा अर्थ हुआ। विनय का अर्थ हुआ: अपने को सब भांति छोड़ देना। असल में विद्यार्थी होना हो तो अज्ञान शर्त नहीं है। शिष्य होना हो तो अज्ञानी होना शर्त है। अपने सारे ज्ञान को तिलांजलि दे देना, खाली स्लेट की तरह, खाली कागज की तरह खड़े हो जाना, ताकि गुरु जो लिखे वही दिखाई पड़े। आपका लिखा हुआ पहले से तैयार हो कागज पर, और फिर गुरु और लिख दे तो सब, सब उपद्रव ही हो जाएगा और जो अर्थ निकलेंगे वे अनर्थ सिद्ध होंगे।
यह अनर्थ घट रहा है, यह हर आदमी पर घट रहा है। हर आदमी एक भीड़ है। उसमें न मालूम कितने विचार हैं। और जब एक विचार उस भीड़ में घुसता है तो वह भीड़ तत्काल उस विचार को बदलने में लग जाती है, अपने अनुकूल करने में लग जाती है। जब तक वह विचार अनुकूल न हो जाए, तब तक आपका पुराना मन बेचैनी अनुभव करता है। जब वह अनुकूल हो जाए, तब आप निश्चिंत हो जाते हैं।
गुरु के पास आप जब जाते हैं तब गुरु जो विचार देता है, उसको आपके पूर्व-विचारों के अनुकूल नहीं बनाना है, बल्कि इस विचार के अनुकूल सारे पूर्व-विचारों को बनाना है, तब विनय है, चाहे सब टूटता हो, चाहे सब जाता हो।
आपके पास है भी क्या! हम बड़े मजेदार लोग हैं, जिसको बचाते रहते हैं, कभी यह सोचते नहीं कि है भी क्या! मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: मेरा विचार तो ऐसा है। मैं उनसे पूछता हूं: अगर यह विचार तुम्हें कहीं ले गया हो तो मजे से पकड़े रहो, मेरे पास आओ ही मत। नहीं, वे कहते हैं: कहीं ले तो नहीं गया। तो फिर इस ‘मेरे’ विचार को कृपा करके छोड़ दो। जो विचार तुम्हें कहीं नहीं ले गया है, उसी को लेकर अगर तुम मेरे पास भी आते हो और मैं तुमसे जो कहता हूं, उसी विचार से उसकी भी जांच करते हो तो मेरा विचार भी तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगा। तुम निर्णायक बने रहते। लोग सुनते ही नहीं हैं।
मार्क ट्वेन ने एक मजाक की है, बड़ा संपादक था, बड़ा लेखक था और एक हंसोड़ आदमी था। और कभी-कभी हंसने वाले लोग गहरी बातें कह जाते हैं जो कि रोने वाले लाख रोएं तो नहीं कह पाते। उदास लोगों से सत्यों का जन्म नहीं होता। उदास लोगों से बीमारियां पैदा होती हैं। मार्क ट्वेन ने कहा है, कि जब कोई किताब मेरे पास आलोचना के लिए, क्रिटिसिज्म के लिए भेजता है, तो मैं पहले किताब पढ़ता नहीं, पहले आलोचना लिखता हूं। क्योंकि किताब पढ़ने से आदमी अगर प्रभावित हो जाए तो पक्षपात हो जाता है। पहले आलोचना लिख देता हूं, फिर मजे से किताब पढ़ता हूं। उसने सलाह दी कि आलोचक को कभी भी आलोचना करने के पहले किताब नहीं पढ़नी चाहिए क्योंकि उससे आलोचक का मन अगर प्रभावित हो जाए तो पक्षपात हो जाता है।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन बुढ़ापे में मजिस्ट्रेट हो गया, जे पी। पहला ही आदमी आया... मिल गया होगा किसी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उसको जे पी होना। पहला ही आदमी आया, पहला ही मुकदमा था। एक पक्ष बोल पाया था कि उसने जजमेंट लिखना शुरू किया। कोर्ट के क्लर्क ने कहा: महानुभाव, यह आप क्या कर रहे हैं। अभी आपने दूसरे पक्ष को तो सुना ही नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा: अभी मेरा मन साफ है और अगर मैं दोनों को सुन लूं तो सब कनफ्यूजन हो जाएगा, जब तक मन साफ है, मुझे निर्णय लिख लेने दो, फिर पीछे दूसरे को भी सुन लेंगे। फिर कुछ गड़बड़ होने वाली नहीं है। हम सब ऐसे ही कनफ्यूजन में हैं, और हम किसी की भी नहीं सुनता चाहते कि कहीं कनफ्यूजन न हो जाए। हम अपने को ही सुने चले जाते हैं। जब हम दूसरे को भी सुन रहे हैं तब हम पर्दे की ओट से सुनते हैं, छांटते रहते हैं, क्या छोड़ देना, क्या बचा लेना। फिर जो बचता है, वह आपका ही चुनाव है। लोग अपने विचार को पकड़ कर चलते हों, तो गुरु से उनका कोई संबंध नहीं हो सकता। वे लाख गुरुओं के पास भटकें, वे अपने इर्द-गिर्द ही परिक्रमा करते रहते हैं। वे अपने घर को कभी नहीं छोड़ पाते, उसके आस-पास ही घूमते रहते हैं।
इसलिए महावीर ने कहा है, कहता हूं उसे विनय संपन्न, जो गुरु की मुद्राओं तक को वैसा ही समझ लेता हो, जैसी वे हैं। फिर पंद्रह लक्षण महावीर ने गिनाए। निम्नलिखित पंद्रह लक्षणों से मनुष्य सुविनीत कहलाता है। इनमें कुछ महत्वपूर्ण हैं।
‘उद्धत न हो, एग्रेसिव न हो, आक्रामक न हो।’
क्योंकि जो आक्रामक है चित्त से वह ग्रहण न कर पाएगा। रिसेप्टिव हो, ग्राहक हो, उद्धत न हो।
अलग-अलग स्थितियां हैं। जब आप उद्धत होते हैं तब आप दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं। लोग आते हैं, उनके प्रश्र्न ऐसे होते हैं, जैसे वे प्रश्र्न न लाकर, एक छुरा लेकर आए हों। प्रश्र्न पूछने के लिए नहीं होते, हमला करने के लिए होते हैं। प्रश्र्न कुछ समझने के लिए नहीं होते, कुछ समझाने के लिए होते हैं। तो अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो, तो कुछ भी होने वाला नहीं है। यह तो नदी जो है, नाव के ऊपर हो गई, अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो। हालांकि ऐसे शिष्य खोजना मुश्किल हैं जो गुरु को समझाने न आते हों। तरकीब से समझाने आते हैं और फिर भी यह मन में माने चले जाते हैं कि हम शिष्य हैं।
महावीर कहते हैं: ‘उद्धत न हो, नम्र हो। आक्रामक न हो, ग्राहक हो, कुछ लेने आया हो। चपल न हो, स्थिर हो।’
क्योंकि जितनी चपलता हो, उतना ही ग्रहण करना मुश्किल हो जाता है। चपल आदमी का चित्त वैसे होता है जैसे फूटी बाल्टी हो। ग्राहक भी हो तो किसी काम की नहीं, पानी भरा हुआ दिखाई पड़ेगा जब तक पानी में डूबी रहे। ऊपर निकालो, पानी सब गिर जाता है। चपल चित्त छेद वाला चित्त है। जब वह गुरु के पास भी बैठा हुआ है तब तक वह हजार जगह हो आया। बैठे हैं वहां, न मालूम कहां-कहां का चक्कर काट आए। तो जितनी देर वह कहीं और रहा उतनी देर गुरु ने जो कहा, वह तो सुनाई भी नहीं पड़ेगा।
‘स्थिर हो, मायावी न हो, सरल हो’, किसी तरह का धोखा देने की इच्छा में न हो।
हम सब होते हैं। गुरु के पास जब कोई जाता है तो वह बताता है कि मैं बिलकुल ईमानदार हूं, सच्चा हूं। नहीं, वह जो हो, वही उसे बता देना चाहिए। क्योंकि गुरु को धोखा देने से वह अपने को ही धोखा देगा। यह तो ऐसा हुआ, जैसे किसी डॉक्टर के पास कोई जाए। हो कैंसर और बताए कि कुछ नहीं, जरा फोड़ा-फुंसी है। तो फोड़ा-फुंसी का इलाज हो जाएगा।
डॉक्टर को हम धोखा नहीं देते, बीमारी बता देते हैं वही जो है। तो ही डॉक्टर किसी उपयोग का हो पाता है। गुरु तो चिकित्सक है। उसके पास जाकर तो सब खोल देना जरूरी है, तो ही निदान हो सकता है। लेकिन हम उसके साथ भी वही धोखा चलाए जाते हैं जो हम दुनिया भर में चला रहे हैं। उसके साथ भी हम वह दिखाए चले जाते हैं जो हम नहीं हैं, तो बदलाहट कभी भी संभव नहीं होगी। गुरु के पास तो पूर्ण नग्न--जो हम हैं, जैसे हम हैं, सब उघाड़ कर रख देने का है। उसमें कुछ भी छिपाने का नहीं है। यह अछिपाव का अर्थ ही सरलता है।
‘कुतूहली न हो, गंभीर हो।’
जिज्ञासा गंभीर बात है, कुतूहल नहीं है, क्युरिआसिटी नहीं है। इंक्वायरी और क्युरिआसिटी में फर्क है। बच्चे कुतूहली होते हैं, कुतूहली का आप मतलब समझते हैं? कुछ करना नहीं है पूछ कर, पूछने के लिए पूछना है। आ गया खयाल कि ऐसा क्यों है, पूछ लिया। इससे क्या उत्तर मिलेगा, उससे जीवन में कोई अंतर करना है, यह सवाल नहीं है। इसलिए बच्चों के बड़े मजेदार सवाल होते हैं। एक सवाल उन्होंने पूछा, उसका आप उत्तर भी नहीं दे पाए कि दूसरा सवाल पूछ लिया। आप जब उत्तर दे रहे हैं, तब उन्हें कोई रस नहीं है, उनका मतलब पूछने से था।
मेरे पास लोग आते हैं। मै बहुत चकित हुआ। वे एक सवाल--कहते हैं कि बड़ा महत्वपूर्ण सवाल आपसे पूछना है। वे पूछ लेते हैं। उन्होंने सवाल पूछ लिया। मैं उनसे पूछता हूं: पत्नी आपकी ठीक, बच्चे आपके ठीक? वे कहते हैं: बिलकुल ठीक हैं। वे सवाल ही भूल गए इतने में। वे घंटे भर जमाने भर की बातें करके बड़े खुश वापस लौट जाते हैं। मैं सोचता हूं, सवाल का क्या हुआ जो बड़ा महत्वपूर्ण था, जो मेरे इतने से पूछने से कि बच्चे कैसे हैं, समाप्त हो गया। फिर उन्होंने पूछा ही नहीं।
कुतूहल था, आ गए थे पूछने, ईश्र्वर है या नहीं? मगर इससे कोई मतलब न था, इससे कोई संबंध न था। शायद यह पूछना भी एक रस दिखलाना था कि मैं ईश्र्वर में उत्सुक हूं। यह भी अहंकार को तृप्ति देता है कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, ईश्र्वर की खोज कर रहा हूं।
मार्पा अपने गुरु के पास गया, नारोपा के पास। तो तिब्बत में रिवाज था कि पहले गुरु की सात परिक्रमाएं की जाएं, फिर सात बार उसके चरण छूए जाएं, सिर रखा जाए, फिर साष्टांग लेट कर प्रणाम किया जाए, फिर प्रश्र्न निवेदन किया जाए। लेकिन मार्पा सीधा पहुंचा, जाकर गुरु की गर्दन पकड़ ली और कहा कि यह सवाल है। नारोपा ने कहा कि मार्पा, कुछ तो शिष्टता बरत, यह भी कोई ढंग है? परिक्रमा कर, दंडवत कर, विधि से बैठ, प्रतीक्षा कर। जब मैं तुझसे पूछूं कि पूछ, तब पूछ।
लेकिन मार्पा ने कहा: जीवन है अल्प। और कोई भरोसा नहीं कि सात परिक्रमाएं पूरी हो पाएं! और अगर मैं बीच में मर जाऊं तो नारोपा, जिम्मेवारी तुम्हारी कि मेरी?
तो नारोपा ने कहा कि छोड़ परिक्रमा, पूछ। परिक्रमा पीछे कर लेना।
नारोपा ने कहा है कि मार्पा जैसा शिष्य फिर नहीं आया। यह कोई कुतूहल न था, यह तो जीवन का सवाल था। यह कोई कुतूहल नहीं था। यह ऐसे ही पूछने नहीं चला आया था। जिंदगी दांव पर थी। जब जिंदगी दांव पर होती है, तब जिज्ञासा होती है। और जब ऐसी खुजलाहट होती है दिमाग की, तब कुतूहल होता है।
‘किसी का तिरस्कार न करे।’
इसलिए नहीं कि तिरस्कार योग्य लोग नहीं हैं जगत में, काफी हैं। जरूरत से ज्यादा हैं। बल्कि इसलिए कि तिरस्कार करने वाला अपनी ही आत्महत्या में लग जाता है। जब आप किसी का तिरस्कार करते हैं तो वह तिरस्कार योग्य था या नहीं, लेकिन आप नीचे गिरते हैं। जब आप तिरस्कार करते हैं किसी का, तो आपकी ऊर्जा ऊंचाइयां छोड़ देती है और नीचाइयों पर उतर आती है। यह बहुत मजे की बात है कि तिरस्कार जब आप किसी का करते हैं तो आपको उसी के तल पर भीतर उतर आना पड़ता है।
इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है: मित्र कोई भी चुन लेना, लेकिन शत्रु सोच-समझ कर चुनना। क्योंकि आदमी को शत्रु के तल पर उतर आना पड़ता है। इसलिए अगर दो लोग जिंदगी भर लड़ते रहें, तो आप आखिर में पाएंगे, उनके गुण एक जैसे हो जाते हैं। क्योंकि जिससे लड़ना पड़ता है, उसके तल पर होना पड़ता है, नीचे उतरना पड़ता है।
इसलिए महावीर कहेंगे: अगर प्रशंसा बन सके तो करना, क्योंकि प्रशंसा में ऊपर जाना पड़ता है, निंदा में नीचे आना पड़ता है। यह सवाल नहीं है कि दूसरा आदमी निंदा योग्य था या प्रशंसा योग्य था, यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि जब आप प्रशंसा करते हैं तो आप ऊपर उठते हैं और जब आप निंदा करते हैं, तो आप नीचे गिरते हैं। वह आदमी कैसा था, यह तो निर्णय करना भी आसान नहीं है।
इसलिए महावीर कहते हैं:किसी का तिरस्कार न रखता हो, क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो।
यह नहीं कहते कि अक्रोधी हो, क्योंकि शिष्य से यह जरा ज्यादा अपेक्षा हो जाएगी। इतना ही कहते हैं: क्रोध को ज्यादा न टिकने देता हो। क्रोध क्षण भर को आता हो, तब तक जाग जाता हो और क्रोध को विसर्जित कर देता हो। धीरे-धीरे क्रोध नहीं आएगा, लेकिन वह दूर की बात है। यात्रा के पहले चरण में क्रोध को अधिक न टिकने दे, इतना ही काफी है।
आपको पता है, आप क्रोध को कितना टिकने देते हैं? कुछ लोग हैं कि उनके बापदादे लड़े थे, अभी तक क्रोध टिका है। अभी तक वे लड़ रहे हैं, क्योंकि वह दुश्मनी बापदादों से चली आ रही है। आज आपको क्रोध हो जाए, आप जिंदगी भर उसको टिकने देते हैं। वह बैठा रहता है भीतर। कब मौका मिल जाए, आप बदला ले लें।
क्रोध अगर एक क्षण में उठने वाली घटना है और खो जाने वाली तो पानी का एक बुलबुला है। बहुत चिंता की जरूरत नहीं है। एक लिहाज से अच्छा है। इसलिए वे
लोग अच्छे होते हैं जो क्रोध कर लेते हैं और भूल जाते हैं, बजाय उन लोगों के जो क्रोध को दबाए चले जाते हैं। ये लोग खतरनाक हैं। ये आज नहीं कल कोई उपद्रव करेंगे। इनकी केटली का ढक्कन भी बंद है और नीचे आग भी जल रही है। विस्फोट होगा। ये किसी की जान लेंगे। उससे कम में ये मानने वाले नहीं हैं। केटली अच्छी जिसका ढक्कन खुला है। भाप ज्यादा हो जाती है, ढक्कन थोड़ा उछल जाता है, भाप बाहर निकल जाती है, केटली अपनी जगह हो जाती है।
हर आदमी एक उबलती हुई केटली है, जिंदगी की आग नीचे जल रही है। ढक्कन थोड़ा ढीला रखना अच्छा है। बिलकुल चुस्त मत कर लेना, जैसा संयमी लोग कर लेते हैं। फिर वे जान-लेऊ हो जाते हैं। खुद तो मरेंगे, दो चार को आस-पास मार डालेंगे।
महावीर कहते हैं: जिसका ढक्कन थोड़ा ढीला हो। भाप ज्यादा होती हो, छलांग लगा कर बाहर निकल जाती हो, ढक्कन वापस अपनी जगह हो जाता हो।
क्रोध बिलकुल न हो, यह शिष्य से अपेक्षा नहीं की जा सकती, यह तो आखिरी बात है। लेकिन क्षण भर टिकता हो, बस इतना भी काफी है। असल में क्रोध इतनी बीमारी नहीं है जितना टिका हुआ क्रोध बीमारी है क्योंकि टिका हुआ क्रोध भीतर एक स्थायी धुआं हो जाता है। कुछ लोग ऐसे हैं जो क्रोधित नहीं होते, उनको होने की जरूरत नहीं, वे क्रोधित रहते ही हैं। उनको होने वगैरह की आवश्यकता नहीं है, वे हमेशा तैयार ही हैं। वे तलाश कर रहे हैं कि कहां खूंटी मिल जाए, और हम अपने को टांग दें। और खूंटी न मिले तो भी वे कहीं खिड़की-दरवाजे पर, कहीं न कहीं टांगेंगे, निर्मित कर लेंगे खूंटी।
क्रोध निकल जाता हो, क्षण भर आता हो तो बेहतर है। वैसा आदमी भीतर क्रोध की पर्त निर्मित नहीं करता। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है, महावीर के मुंह से यह बात कि क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो, बड़ी महत्वपूर्ण बात है।
‘मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो।’
यह बड़ी हैरानी की बात है। हम कहेंगे: मित्रों के प्रति सदभाव होता ही है। बिलकुल झूठ है। मित्रों के प्रति सदभाव रखना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि मित्र का मतलब, जिसको हम जानते हैं, जिसको हम भलीभांति पहचानते हैं। जिसको नहीं पहचानते उसके प्रति सदभाव आसान है। जिसको जानते हैं, उसके प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है। मित्रों के प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है।
मार्क ट्वेन ने कहा है कि हे परमात्मा! शत्रुओं से मैं निपट लूंगा, मित्रों से तू मुझे बचाना।
मित्र बड़ी अदभुत चीज है। जिसे हम जानते हैं, जिसका सब-कुछ हमें पता है, उसके प्रति कैसे सदभाव रखें?
अज्ञान में सदभाव आसान है, ज्ञान में मुश्किल हो जाता है। इसलिए जितना हमारे कोई निकट होता है उतना ही दूर भी हो जाता है। और हम मित्रों के संबंध में भी इधर-उधर जो बातें करते रहते हैं, वे बताते हैं कि सदभाव कितना है। पीठ पीछे हम क्या कहते रहते हैं, उससे पता चलता है, सदभाव कितना है! महावीर कहते हैं: मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो, पूरा सदभाव रखता हो।
‘शास्त्रों से ज्ञान पाकर गर्व न करता हो।’
क्योंकि शास्त्रीय ज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए गर्व व्यर्थ है। और शास्त्रों के ज्ञान से गर्व पैदा होता है, इसलिए विशेष रूप से यह सूचन किया है, क्योंकि शास्त्रों से जब ज्ञान मिल जाता है तो लगता है, मैंने जान लिया, बिना जाने। अभी जानना बहुत दूर है। अभी किताब में पढ़ा कि पानी प्यास बुझाता है, अभी पानी नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि मिठाई बड़ी मीठी होती है, अभी स्वाद नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि सूरज उगता है और प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है, जिंदगी अभी अंधेरे में है।
तो किताब को पढ़ कर जो गर्व न करता हो। लेकिन किताब को पढ़ कर गर्व आ ही जाता है, लगता है, जाना। इसलिए शास्त्रीय आदमी हो और अहंकारी न हो, बड़ा मुश्किल है। शास्त्र अहंकार के लिए बोझिल है। इसलिए पंडित की चाल देखें, पंडित की आंख देखें, उनकी भाव-भंगिमा जरा पहचानें, तो वे जमीन पर नहीं चलते। वे चल नहीं सकते। जमीन और उनके बीच बड़ा फासला होता है। इसलिए दो पंडितों को पास बिठा दें, तो जो घटना दो कुत्तों के बीच घट जाती है, वही घट जाती है।
क्या हो जाता है? एकदम कुत्तों के गले में खराश आ जाती है। एकदम भौंकना-भांकना शुरू कर देते हैं। जब तक एक हार न जाए, तब तक दूसरे को शांति नहीं मिलती।
मैंने तो सुना है कि पंडित मर कर कुत्ते-बिल्लियां हो जाते हैं। वे पुरानी आदतवश भौंकते चले जाते हैं।
क्या हो जाता होगा? शास्त्र इतना भौंकता क्यों है? शास्त्र नहीं भौंकता। शास्त्र से अहंकार पोषित हो जाता है। लगता है, मैं जानता हूं, और जब ऐसा लगता है कि मैं जानता हूं तो फिर कोई और जान सकता है, यह मानने का मन नहीं होता। फिर कोई और भी जानता है जो मुझसे भिन्न जानता है, तो शत्रुता निर्मित हो जाती है। फिर सिद्ध करना जरूरी हो जाता है कि मैं ठीक हूं। पंडित सत्य की खोज में नहीं होता, मैं ठीक हूं, इसकी खोज में होता है।
महावीर कहते हैं: ‘शास्त्रों को पाकर गर्व न करता हो, किसी के दोषों का भंडाफोड़ न करता हो।’
कोई प्रयोजन नहीं है। किसी के दोष पता भी चल जाएं तो उनकी चर्चा का क्या अर्थ है? आपकी चर्चा से उसके दोष न मिट जाएंगे। हो सकता है, बढ़ जाएं। अगर आप सच में ही चाहते हैं कि उसके दोष मिट जाएं तो इन दोषों की सारे जगत में चर्चा करते रहने से कोई मतलब नहीं। लेकिन, एक मामले में हम बड़े-बड़े, सृजनात्मक लोग हैं। किसी का जरा सा दोष दिख जाए तो हमारे पास मैग्निफाइंग ग्लास है, हम उसको फिर इतना बड़ा करके देखते हैं कि सारा ब्रह्मांड का विस्तार छोटा मालूम पड़ने लगता है।
सुना है मैंने, मुल्ला ने एक दिन अपनी पत्नी को फोन किया। फोन करना पड़ा, क्योंकि ऐसी घटना हाथ में लग गई थी। बताया कि पड़ोसी अहमद, अहमद के मित्र रहमान की पत्नी को लेकर भाग गया। दोनों के बच्चे सड़कों पर भीख मांग रहे हैं। और बहुत सी बातें बताईं। पत्नी भी रस से भर गई। क्योंकि पत्नियों को वियतनाम में क्या हो रहा है, इससे मतलब नहीं, पड़ोसी की पत्नी कहां भाग गई, यह बड़ा महत्वपूर्ण है।
पत्नी ने कहा कि जरा मुल्ला विस्तार से बताओ। मुल्ला ने कहा: विस्तार में मत ले जाओ मुझे, जितना मैंने सुना है उससे तीन गुना तुम्हें बता ही चुका हूं। अब और विस्तार में मुझे मत ले जाओ।
जब किसी का दोष हमें दिखाई पड़ जाए, तो हम तत्काल उसे बड़ा कर लेते हैं। इसमें भीतरी एक रस है। जब दूसरे का दोष बहुत बड़ा हो जाता है तो अपने दोष बहुत छोटे दिखाई पड़ते हैं। और अपने दोष जब छोटे दिखाई पड़ते हैं तो बड़ी राहत मिलती है कि हम क्या, हमारा पाप भी क्या! दुनिया में यह-यह एक घट रहा है चारों तरफ? तो हम बड़े पुण्यात्मा मालूम पड़ते हैं। इसलिए दूसरे के दोष बड़ा कर लेने में अपने दोष छोटा कर लेने की तरकीब है। खुद के दोष छोटा करना बुरा नहीं है, लेकिन दूसरे के बड़े करके छोटा करने का खयाल करना पागलपन है। खुद के दोष छोटे करना अलग बात है।
लेकिन दो तरकीबें हैं, या तो खुद के दोष छोटे करो, तब छोटे होते हैं, या फिर पड़ोसियों के बड़े कर लो, तब भी छोटे दिखाई पड़ने लगते हैं। यह आसान है पड़ोसियों के बड़े करना। इसमें कुछ भी नहीं करना पड़ता है।
महावीर कहते हैं: ‘भंडाफोड़ न करता हो, मित्रों पर क्रोधित न होता हो।’
शत्रुओं पर हमारा इतना क्रोध नहीं होता जितना मित्रों पर होता है। इसलिए मित्र की सफलता कोई भी बरदाश्त नहीं कर पाता। यह बड़ा मजा है आदमी का मन। मित्र जब तकलीफ में होता है तब हमें सहानुभूति बताने में बड़ा मजा आता है। लेकिन मित्र अगर तकलीफ में न हो, सफल होता चला जाए, तब हमें बड़ी पीड़ा होती है। जो आदमी अपने मित्र की सफलता में सुख न पाता हो, जानना कि मित्रता है ही नहीं। लेकिन हमें बड़ा मजा आता है। अगर कोई दुखी है तो हम संवेदना प्रकट करने पहुंच जाते हैं। संवेदना में बड़ा मजा आता है। कोई दुखी है, हम दुखी नहीं हैं। कभी आपने देखा है कि जब आप संवेदना प्रकट करने जाते हैं तो भीतर एक हलका सा रस मिलता है!
किसी के मकान में आग लग जाए तो आपकी आंख से आंसू गिरने लगते हैं। और किसी का मकान आकाश छूने लगे, तब आपके पैरों में नाच नहीं आता। तो जरूर इसमें कुछ खतरा है। क्योंकि अगर सच में ही किसी के मकान में आग लगने से हृदय रोता है तो उसका मकान जिस दिन गगनचुंबी हो जाए, उस दिन पैर नाचने चाहिए। लेकिन गगनचुंबी मकान देख कर पैर नाचते नहीं। आग लग जाए तो आंखें रोती हैं। निश्चित ही उस रोने के पीछे भी रस है। इसीलिए लोग ट्रैजिडी, दुखांत नाटक और फिल्मों को देख कर इतना मजा पाते हैं, नहीं तो दुख को देखने में इतना मजा क्या है!
दुख को देख कर एक राहत मिलती है कि हम इतने दुखी नहीं हैं। अपना मकान अभी भी कायम है, कोई आग नहीं लगी। दूसरे को सुखी देख कर जब हम सुखी होते हैं तब समझना कि मित्रता है। मित्रता सूक्ष्म बात है।
महावीर कहते हैं: ‘मित्रों पर क्रोधित न होता हो।’
यह भी ध्यान रखना कि शत्रुओं पर तो क्रोधित होने का कोई अर्थ नहीं होता, आप क्रोधित हैं। मित्रों पर क्रोधित होने का अर्थ होता है, क्योंकि रोज-रोज होना पड़ता है।
‘मित्रों पर क्रोधित न होता हो, अप्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे भलाई ही गाता हो।’
क्यों आखिर? यह तो झूठ मालूम होगा न। आप कहेंगे: बिलकुल सरासर झूठ की शिक्षा महावीर दे रहे हैं। अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भलाई गाता हो, पीछे भले की ही बात करता हो। नहीं, झूठ के लिए नहीं कह रहे हैं। कोई आदमी इतना बुरा नहीं है कि बिलकुल बुरा हो। कोई आदमी इतना भला नहीं है कि बिलकुल भला हो। इसलिए चुनाव है। जब आप किसी आदमी की बुराई की चर्चा करते हैं तब इसका यह मतलब नहीं कि उस आदमी में भलाई है ही नहीं। आपने बुराई चुन ली। जब आप किसी आदमी की भलाई की चर्चा करते हैं तब भी यह मतलब नहीं होता कि उसमें बुराई है ही नहीं। आपने भलाई चुन ली।
महावीर कहते हैं: ऐसा बुरा आदमी खोजना कठिन है, जिसमें कोई भलाई न हो। क्योंकि बुराइयों के टिकने के लिए भी भलाइयों की जरूरत है। तो तुम चुनाव करना भलाई की चर्चा का। क्यों आखिर?
क्योंकि भलाई की जितनी चर्चा की जाए, उतनी खुद के भीतर भलाई की जड़ें गहरी बैठने लगती हैं। बुराई की जितनी चर्चा की जाए, बुराई की जड़ें गहरी बैठनी लगती हैं। हम जिसकी चर्चा करते हैं, अंततः हम वही हो जाते हैं। लेकिन हम सब बुराई की चर्चा कर रहे हैं। अगर हम अखबार उठा कर देखें तो पता ही नहीं चलता कि दुनिया में कहीं कोई भलाई भी हो रही होगी। सब तरफ बुराई हो रही है। सब तरफ बुराई हो रही है, सब तरफ चोरी हो रही है, सब तरफ हिंसा हो रही है। अखबार देख कर लगता है कि शायद अपने से छोटा पापी जगत में कोई भी नहीं है--यह सब क्या हो रहा चारों तरफ! और चेहरे पर एक रौनक आ जाती है। यह सारी बुराई आप संचित कर रहे हैं, अपने भीतर। यह सारी बुराई आपके भीतर प्रवेश कर रही है।
अगर हमें एक अच्छी दुनिया बनानी हो और अच्छे आदमी को जन्म देना हो तो हमें भलाई संचित करनी चाहिए, भलाई की फिकर करनी चाहिए। और जब हम बुराई की चर्चा करते हैं तब हमें पता नहीं कि वह बुराई का संस्कार हम पर निर्मित होता चला जाता है। यह आदमी चोर है, वह आदमी चोर है, सारी दुनिया चोर है। तो जिस दिन आप चोरी करने जाते हैं, भीतर आपको ऐसा नहीं लगता कि आप कुछ नया करने जा रहे हैं। सभी यही कर रहे हैं। चोरी की जड़ मजबूत होती है।
जब आप कहते हैं: फलां आदमी अच्छा है... फलां आदमी अच्छा है... फलां आदमी... जब आप चुनते हैं अच्छा तो आपके भीतर अच्छे की मूल्यवत्ता निर्मित होती है। और जब बुराई करने जाते हैं तो आपको लगता है, आप क्या कर रहे हैं! दुनिया में ऐसा कोई भी नहीं कर रहा है।
तो महावीर कहते हैं: ‘अप्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे भलाई ही गाता हो।’
हम तो प्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे बुराई ही गाते हैं।
‘किसी प्रकार का झगड़ा-फसाद न करता हो।’
झगड़े-फसाद की एक वृत्ति होती है। कुछ लोग फसादी होते हैं। फसादी का मतलब यह कि आप ऐसा कोई कारण ही नहीं दे सकते उन्हें, जिसमें से वे झगड़ा न निकाल लें। वे झगड़ा निकाल ही लेंगे। झगड़ा निकालने की एक कला है, एक कुशलता है। कुछ लोग उसमें इतने कुशल हो जाते हैं कि वे किसी भी चीज में से झगड़ा निकाल लेंगे।
मैं अपने एक मित्र को जानता हूं। उनके पिता बड़े अदभुत थे। ऐसे कुशल थे जिसका कोई हिसाब नहीं। अगर उनका बेटा नहा-धोकर, साफ-सुथरे कपड़े पहन कर दुकान पर आ जाए तो वे ग्राहकों को इकट्ठा कर लेते थे, कि देखो इनको, बाप मर गया कमा-कमा कर, ये मौज उड़ा रहे हैं। हमने कभी साबुन न देखी, आप देवी-देवताओं को लजा रहे हैं। देखें।
तो मैंने उनके बेटे को कहा कि तू एक दिन बिना ही नहाए पहुंच जा, गंदे ही कपड़े पहन कर पहुंच जा! क्यों उनको बार-बार कष्ट देता है। वह पहुंच गया। पिता ने फिर भीड़ इकट्ठी कर ली और कहा: देखो, जब मैं मर जाऊं तब इस हालत में घूमना। अभी मैं जिंदा हूं, अभी नहाओ-धोओ, अभी ठीक से रहो।
फिर बहुत प्रयोग किए हमने, सब तरह के प्रयोग किए, लेकिन पिता को... उनकी कुशलता अपरिसीम थी। कुछ भी करो, उसमें से फसाद निकाला जा सकता है।
महावीर कहते हैं: ‘झगड़ा-फसाद न करता हो।’
नहीं तो सीख न पाएगा, जीवन को बदल न पाएगा। ऊर्जा नष्ट हो जाती है इन मूढ़ताओं में। अपनी ही शक्ति नष्ट होती, किसी और की नहीं। लेकिन व्यर्थ खो जाती है।
‘बुद्धिमान हो।’
बुद्धिमानी का अर्थ ही है कि झगड़ा-फसाद न करता हो, जीवन-ऊर्जा का विध्वंसक उपयोग न करता हो, सृजनात्मक, क्रिएटिव उपयोग करता हो।
‘अभिजात हो।’
‘अभिजात’ कीमती शब्द है। अरिस्टोक्रेटिक हो। बड़ा अजीब लगेगा, समाजवाद की दुनिया है, वहां अरिस्टोक्रेसी, आभिजात्य। लेकिन महावीर के अर्थ में कुलीनता और अभिजात का अर्थ है: क्षुद्रता पर ध्यान न देता हो, शालीन हो। क्षुद्रताओं को नजर से बाहर कर देता हो, श्रेष्ठता पर ही ध्यान रखता हो। व्यर्थ को चुनता न हो और दूसरे में श्रेष्ठ होना चाहिए, इसकी तलाश करता हो।
अकुलीन का अर्थ होता है: जो पहले ही से मान कर बैठा है कि लोग बुरे हैं। कुलीन का अर्थ है: जो पहले से मान कर बैठा है कि लोग भले हैं। लोग भले हैं मूलतः, कभी-कभी बुरे हो जाते हैं, यह बात और है। अकुलीन का अर्थ है कि लोग बुरे तो हैं ही, कभी-कभी भले हो जाते हैं, यह बात और है।
कुलीन आदमी, अभिजात चित्त वाला व्यक्ति, दो दिनों के बीच में एक रात को देखता है। अकुलीन व्यक्ति दो रातों के बीच में एक दिन को देखता है। कुलीन व्यक्ति फूलों को गिनता है, कांटों को नहीं। और मानता है कि जहां फूल होते हैं वहां थोड़े कांटे भी होते हैं। और उनसे कुछ हर्जा नहीं होता, कांटे भी फूल की रक्षा ही करते हैं।
अकुलीन चित्त कांटों की गिनती करता है, और जब सब कांटों को गिन लेता है तो वह कहता है: एक-दो फूल से होता भी क्या है! जहां इतने कांटे हैं, वहां एक-दो फूल धोखा है।
कुलीनता, अकुलीनता चुनाव का नाम है, आप क्या चुनते हैं? श्रेष्ठ का दर्शन आभिजात्य है, अश्रेष्ठ का दर्शन शूद्रता है।
‘अभिजात हो, आंख की शर्म रखने वाला स्थिर वृत्ति हो।’
मैंने सुना है कि अकबर के तीन पदाधिकारियों ने राज्य को धोखा दिया। राज्य के खजाने को धोखा दिया। पहले पदाधिकारी को बुला कर अकबर ने कहा: तुमसे ऐसी आशा न थी! कहते हैं, उस आदमी ने उसी दिन सांझ जाकर आत्महत्या कर ली।
दूसरे आदमी को साल भर की सजा दी। तीसरे आदमी को पंद्रह वर्ष के लिए जेलखाने में डाला और सड़क पर नग्न खड़ा करवा कर कोड़े लगवाए। मंत्री बड़े चिंतित हुए। जुर्म एक था, सजाएं बहुत भिन्न हो गईं।
अकबर से पूछा मंत्रियों ने कि यह कुछ समझ में नहीं आता, यह न्याययुक्त नहीं मालूम होता। तीनों का जुर्म एक था। एक को आपने सिर्फ इतना कहा कि तुमसे इतनी आशा न थी!
अकबर ने कहा: वह आंख की शर्म वाला आदमी था। इतना बहुत था। इतना भी जरूरत से ज्यादा था। सांझ उसने आत्महत्या कर ली।
दूसरे को आपने साल भर की सजा दी!
अकबर ने कहा: वह थोड़ा मोटी चमड़ी का है।
और तीसरे को नग्न करके कोड़े लगवाए, और जेल में डलवाया!
अकबर ने कहा कि जाकर तीसरे से मिलो, तुम्हें समझ में आ जाएगा।
एक मंत्री भेजा गया जेलखाने में, जिसको कोड़े के निशान भी अभी नहीं मिटे थे, वह वहां बड़े मजे में था, और उसने कहा कि पंद्रह ही वर्ष की तो बात है, और जितना मैंने खजाने से मार दिया, उतना पंद्रह वर्ष नौकरी करके भी तो नहीं मिल सकता था। और पंद्रह ही वर्ष की तो बात है, फिर बाहर आ जाऊंगा। और इतना मार दिया है कि पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चे मजा करें। कोई ऐसी चिंता की बात नहीं। फिर यहां भी ऐसी क्या तकलीफ है!
मंत्रियों ने कहा: बड़े पागल हो, सड़क पर कोड़े खाए!
उस आदमी ने कहा: बदनामी भी हो तो नाम तो होता ही है। कौन जानता था हमको पहले! आज सारी दिल्ली में अपनी चर्चा है।
आज इतना ही।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें...!
आणा-निद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए।
इंगिया-ऽऽ गारसंपन्ने, से विणीए त्ति वुच्चई।।
अह पन्नरसहिं ठाणेहिं, सुविणीए त्ति वुच्चई।
नीयावत्ती अचवले, अमाई अकुऊहले।।
अप्पं च अहिक्खिवई, पबन्धं च न कुव्वई।
मेत्तिज्जमाणो भयई, सुयं लद्धुं न मज्जई।।
नय पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई।
अप्पियस्साऽवि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई।।
कलहडमरवज्जिए, बुद्धे अभिजाइए।
हरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए त्ति वुच्चई।।
जो मनुष्य गुरु की आज्ञा का पालन करता हो, उनके पास रहता हो, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो तथा कार्य-विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।
निम्नलिखित पंद्रह लक्षणों से मनुष्य सुविनीत कहलाता है--उद्धत न हो, नम्र हो। चपल न हो, स्थिर हो। मायावी न हो, सरल हो। कुतूहली न हो, गंभीर हो। किसी का तिरस्कार न करता हो। क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो। मित्रों के प्रति पूरा सदभाव रखता हो। शास्त्रों से ज्ञान पाकर गर्व न करता हो। किसी के दोषों का भंडाफोड़ न करता हो। मित्रों पर क्रोधित न होता हो। अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भलाई ही गाता हो। किसी प्रकार का झगड़ा-फसाद न करता हो। बुद्धिमान हो। अभिजात अर्थात कुलीन हो। आंख की शर्म रखने वाला एवं स्थिरवृत्ति हो।
पहले एक प्रश्र्न।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, कल के सूत्र में कहे गए श्रेयार्थी का क्या अर्थ है? क्या श्रेयार्थी और साधक एक ही हैं?
‘श्रेयार्थी’ शब्द बहुत अर्थपूर्ण है। इस देश ने दो तरह के लोग माने हैं। एक को कहा है: प्रेयार्थी--जो प्रिय की तलाश में है और दूसरे को कहा है: श्रेयार्थी--जो श्रेय की तलाश में हैं।
दो ही तरह के लोग हैं जगत में। वे, जो प्रिय की खोज करते हैं। जो प्रीतिकर है, वही उनके जीवन का लक्ष्य है। लेकिन अनंत-अनंत काल तक भी प्रीतिकर की खोज की जाए तो प्रीतिकर मिलता नहीं। जब मिल जाता है तो अप्रीतिकर सिद्ध होता है। जब तक नहीं मिलता तब तक प्रीति की संभावना बनी रहती है। मिलते ही जो प्रीतिकर मालूम होता था, वह विलीन हो जाता है, तिरोहित हो जाता है। लगता है प्रीतिकर, चलते हैं तब भी आशा बनी रहती है। पा लेते हैं तब आशा खंडित हो जाती है, डिसइल्यूजनमेंट के अतिरिक्त, विभ्रम, सब भ्रमों के टूट जाने के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता।
प्रेयार्थी, इंद्रियों की मान कर चलता है। जो इंद्रियों को प्रीतिकर है, उसको खोजने निकल पड़ता है। श्रेयार्थी की खोज बिलकुल अलग है। वह यह नहीं कहता कि जो प्रीतिकर है उसे खोजूंगा। वह कहता है: जो श्रेयस्कर है, जो ठीक है, जो सत्य है, जो शिव है उसे खोजूंगा। चाहे वह अप्रीतिकर ही क्यों न आज मालूम पड़े।
यह बड़े मजे की बात है और जीवन की गहनतम पहेलियों में से एक कि जो प्रीतिकर को खोजने निकलता है वह अप्रीतिकर को उपलब्ध होता है। जो सुख को खोजने निकलता है, वह दुख में उतर जाता है। जो स्वर्ग की आकांक्षा रखता है, वह नरक का द्वार खोल लेता है। यह हमारा निरंतर सभी का अनुभव है। दूसरी घटना भी इतनी ही अनिवार्यरूपेण घटती है।
श्रेयार्थी हम उसे कहते हैं, जो प्रीतिकर को खोजने नहीं निकलता, जो यह सोचता ही नहीं कि यह प्रीतिकर है या अप्रीतिकर है, सुखद है या दुखद है। जो सोचता है यह ठीक है, उचित है, सत्य है, श्रेय है, शिव है, इसलिए खोजने निकलता है। श्रेयार्थी की खोज पहले अप्रीतिकर होती है। श्रेयार्थी के पहले कदम दुख में पड़ते हैं। उन्हीं का नाम तप है।
तप का अर्थ है: श्रेय की खोज में जो प्रथम ही दुख का मिलन होता है, होगा ही। क्योंकि इंद्रियां इनकार करेंगी। इंद्रियां कहेंगी कि यह प्रीतिकर नहीं है। छोड़ो इसे। अगर फिर भी आपने श्रेयस्कर को पकड़ना चाहा तो इंद्रियां दुख उत्पन्न करेंगी। वे कहेंगी: यह दुखद है, छोड़ो इसे। सुखद कहीं और है। इंद्रियों के द्वारा खड़ा किया गया उत्पात ही तप बन जाता है। तप का अर्थ है कि इंद्रियां अपने मार्ग से नहीं हटना चाहतीं, और अगर आप किसी नये मार्ग को खोजते हैं जो इंद्रियों के लिए प्रीतिकर नहीं है, तो इंद्रियां बगावत करेंगी। वह बगावत दुख है। इसलिए श्रेय की खोज में दुख मिलेगा पहले। लेकिन जैसे-जैसे खोज बढ़ती है, दुख क्षीण होता चला जाता है।
दुख क्षीण होता है, इसका अर्थ है कि इंद्रियां धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इस नये मार्ग पर चेतना का अनुगमन करने लगती हैं। दुख खो जाता है। और जिस दिन इंद्रियां चेतना का पूरा अनुगमन करती हैं, उसी दिन सुख का अनुभव होता है।
श्रेयार्थी की खोज में पहले दुख है और पीछे आनंद। प्रेयार्थी की खोज में पहले सुख का आभास है, और पीछे दुख। इंद्रियों की मान कर जो चलता है, वह पहले सुख पाता हुआ मालूम पड़ता है, पीछे दुख में उतर जाता है। इंद्रियों की मालकियत करके जो चलता है वह पहले दुख मालूम पड़ता है, पीछे आनंद में बदल जाता है।
श्रेयार्थी का अर्थ है: जिसने जीवन के इस रहस्य को समझ लिया कि जो खोजो वह नहीं मिलता है। जिसे खोजने निकलो, वह हाथ से खो जाता है। जिसे पकड़ना चाहो, वह छूट जाता है। अगर सुख खोजते हो तो सुख नहीं मिलेगा, इतना निश्चित है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति दुख के लिए राजी हो जाए, और दुख के लिए स्वयं को तत्पर कर ले, और दुख के प्रति वह जो सहज विरोध है मन का, वह छोड़ दे, तो सुख मिल जाता है।
ऐसा क्यों होता होगा? ऐसा होने का कारण क्या होगा? होना तो यही चाहिए नियमानुसार कि हम जो खोजें, वही मिल जाए। होना तो यही चाहिए कि जो हम न खोजें वह न मिले। ऐसा क्यों है, इसे थोड़ा हम समझ लें।
इंद्रियां अपना रस रखती हैं। आंख सुख पाती है कुछ देखने में। अगर रूप दिखाई पड़े तो आंख आनंदित होती है। लेकिन अगर वही रूप निरंतर दिखाई पड़ने लगे, तो आनंद क्रमशः खोता चला जाता है। क्योंकि जो चीज निरंतर उपलब्ध होती है, वह देखने योग्य नहीं रह जाती। दर्शनीय तो वही है जो कभी-कभी, आकस्मिक, मुश्किल से दिखाई पड़ती हो।
आप जाते हैं कश्मीर और डल झील सुखद मालूम पड़ती है। लेकिन वह जो आपकी नौका खे रहा है, उसे डल झील दिखाई ही नहीं पड़ती, और कई बार उसे हैरानी भी होती है कि लोग कैसे पागल हैं, इतने दूर-दूर से इस डल झील को देखने आते हैं।
इंद्रियां नवीन आघात में सुख पाती हैं। आघात जब सुनिश्चित, पुराना पड़ जाता है तो उबाने वाला हो जाता है। आज जो भोजन आपने किया है, वह सुखद है। कल भी वही, परसों भी वही, दुखद हो जाएगा। इंद्रियों के लिए नये में सुख है। इसलिए इंद्रियों के सभी सुख, दुख बन जाएंगे। क्योंकि जितना आप चाहेंगे... लगता है, किसी से आपका प्रेम है तो लगता है, चौबीस घंटे उसके पास बैठे रहें। भूल कर बैठना मत। क्योंकि अगर चौबीस घंटे उसके पास बैठे रहे तो आज नहीं कल यह उबाने वाला हो जाने वाला है। और आज नहीं कल ऐसा होगा, कैसे छुटकारा हो? ये वही इंद्रियां हैं जो कहती थीं: पास रहो, ये ही इंद्रियां कहेंगी: भाग जाओ, दूर निकल जाओ। क्योंकि जो पुराना पड़ जाता है, इंद्रियों का उसमें रस नहीं है। पुराने के साथ ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए इंद्रियां जिसे प्रीतिकर कहती हैं, कल उसी को अप्रीतिकर कहने लगती हैं।
इंद्रियों की तलाश में प्रीति से प्रारंभ होता है, अप्रीति पर अंत होता है। यह इंद्रियों का स्वभाव हुआ। इससे ठीक विपरीत स्थिति श्रेयार्थी की है। श्रेयार्थी, जो परिवर्तनशील है उसकी खोज नहीं कर रहा है, जो नया है उसकी खोज नहीं कर रहा है। श्रेयार्थी तो उसकी खोज कर रहा है जो शाश्र्वत है, जो सदा है।
प्रेयार्थी नये की खोज कर रहा है, नया सेंसेशन, नई संवेदना, नया सुख। वह नये की तलाश में लगा है। श्रेयार्थी उसकी खोज कर रहा है, न नये की, न पुराने की; क्योंकि श्रेयार्थी जानता है कि जो नया है अभी, क्षण भर बाद पुराना हो जाएगा। जो भी नया है, वह पुराना होगा ही। जिसको हम आज पुराना कह रहे हैं, कल वह भी नया था। सब नया पुराना हो जाता है। नये में सुख था, पुराने में दुख हो जाता है। नये के कारण ही सुख था, तो पुराने के कारण दुख हो जाता है।
श्रेयार्थी उसकी खोज कर रहा है जो सदा है, शाश्र्वत है, नित्य है। वह नया और पुराना नहीं है, बस है। उसकी तलाश है। इंद्रियां उसकी तलराश में कोई रस नहीं लेतीं। इंद्रियों को नये का सुख है। इसलिए जब कोई श्रेय की खोज में निकलता है, इंद्रियां मार्ग में बाधा बन जाती हैं। वे कहती हैं: कहां व्यर्थ की खोज पर जा रहे हो? सुख वहां नहीं है। सुख नये में है।
श्रेयार्थी, इंद्रियों की इस आवाज पर ध्यान नहीं देता। खोज में लगा रहता है जो सत्य है उसकी। प्रारंभ में दुख मालूम पड़ता है। धीरे-धीरे इंद्रियां बगावत छोड़ देती हैं। जिस दिन इंद्रियों की बगावत छूट जाती है, उसी दिन शाश्र्वत से झलक, संबंध जुड़ना शुरू हो जाता है। इंद्रियां जिस दिन बीच से हट जाती हैं, उसी दिन जो सदा है, उससे हमारा पहला संबंध होता है। वह संबंध, बुद्ध ने कहा है: सदा ही सुखदायी है, महासुखदायी है। क्योंकि वह कभी पुराना नहीं पड़ता, क्योंकि वह कभी नया नहीं था। वह है सनातन। श्रेयार्थी का अर्थ है: सत्य की, शाश्र्वत की तलाश। साधक ही उसका अर्थ है।
प्रेयार्थी हम सब हैं। और अगर हम कभी श्रेय की खोज में भी जाते हैं तो प्रिय के ही लिए। अगर हम कभी सत्य को भी खोजते हैं तो इसीलिए कि स्वर्ग मिल जाए। अगर हम कभी ध्यान करने भी बैठते हैं तो इसीलिए कि सुख मिल जाए। जो व्यक्ति सुख के लिए ही सत्य भी खोज रहा है वह अभी श्रेयार्थी नहीं है। वह अभी प्रेयार्थी है। अगर परमात्मा का दर्शन भी कोई इसीलिए खोज रहा है कि आंखों की तृप्ति हो जाएगी तो वह श्रेयार्थी नहीं है, प्रेयार्थी है। और प्रेयार्थी दुख पाएगा, परमात्मा भी मिल जाए तो भी दुख पाएगा। मोक्ष भी मिल जाए तो भी दुख पाएगा। क्या मिलता है, इससे संबंध नहीं है।
प्रेयार्थी का जो ढंग है जीवन को देखने का, वह दुख में उतारने वाला है। श्रेयार्थी का जो ढंग है जीवन को देखने का, वह आनंद में उतारने वाला है। सुख को खोजेंगे, दुख पाएंगे। सुख की खोज वाला मन ही दुख का निर्माता है। जितनी करेंगे अपेक्षा, उतनी पीड़ा में उतर जाएंगे। अपेक्षा ही पीड़ा का मार्ग है। नहीं करेंगे अपेक्षा, नहीं बांधेंगे आशा, उसकी ही तलाश करेंगे, जो है।
यह तलाश कठोर है, आर्डुअस है, दुर्गम है। क्योंकि हम वह नहीं जानना चाहते जो है। हम वह जानना चाहते हैं जो हमारी इंद्रियां कहती हैं, होना चाहिए। इसलिए हम सत्य के ऊपर इंद्रियों का एक मोह-आवरण डाले रखते हैं। हम यह नहीं जानना चाहते, क्या है, हम जानना चाहते हैं वही, जो होना चाहिए। अगर मैं किसी व्यक्ति को भी देखता हूं तो मैं उसको नहीं देखता जो वह है। मैं वही देखता हूं, जो वह होना चाहिए। इसी से झंझट खड़ी होती है। आप मुझे मिलते हैं, आपको मैं नहीं देखता। मैं आप में उस सौंदर्य को देख लेता हूं जो मेरी इंद्रियां चाहती हैं कि हो। वह सत्य नहीं है। आपकी आंखों में मैं वह काव्य देख लेता हूं जो वहां नहीं है, लेकिन मेरी मनोवासना देखना चाहती है कि हो।
कल वह काव्य तिरोहित हो जाएगा, परिचय से टूट जाएगा, जानकारी से, पहचान से, आंखें साधारण आंखें हो जाएंगी और तब मैं पछताऊंगा कि धोखा हो गया। लेकिन किसी ने मुझे धोखा दिया नहीं है, यह धोखा मैंने खाया है। मैंने वह देखना ही नहीं चाहा जो था। मैंने वह देख लिया जो होना चाहिए। मैंने अपना सपना आप में देख लिया। अब यह सपना टूटेगा। सपने टूटने के लिए ही होते हैं। और जब वास्तविकता उघड़ कर सामने आएगी तो लगेगा कि मैं किसी धोखे में डाल दिया गया। और तब हमारी इंद्रियां कहती हैं: धोखा दूसरे ने दिया। जहां काव्य नहीं था, वहां काव्य दिखलाया, जहां सौंदर्य नहीं था, वहां सौंदर्य दिखलाया। दूसरा आपको धोखा नहीं दे रहा है।
इस जगत में सब धोखे अपने हैं। हम धोखा खाना चाहते हैं। हम धोखा निर्मित करते हैं। हम दूसरे के ऊपर धोखे को खड़ा करके धोखा खा लेते हैं। फिर धोखे टूट जाते हैं, और तब दुख है।
श्रेयार्थी का अर्थ है: जो है वही मैं जानूंगा। कुछ भी जोडूंगा नहीं। वह जो है, दैट विच इ़ज, उसको उघाड़ लूंगा, खोल लूंगा। उसको नग्न देख लूंगा, जैसा है। उसमें जरा भी अपनी वासना, अपनी कामना, अपनी आकांक्षा नहीं जोडूंगा। कोई सपना नहीं डालूंगा, सत्य को वैसे ही देख लूंगा, जैसा है। फिर कोई दुख होने वाला नहीं। क्योंकि सत्य सदा वैसा ही रहेगा। सपने बदल जाते हैं, सत्य सदा वैसा है।
किसी में आप मित्र देखते हैं, किसी में शत्रु देखते हैं। वे सब आपके सपने हैं। किसी में सौंदर्य, किसी में कुरूपता, वे सब आपके सपने हैं। जो है, उसे जो देखने लगता है, उसके लिए इस जगत में फिर कोई दुख नहीं है। क्योंकि जो है, वह कभी भी बदलता नहीं है।
अब हम सूत्र को लें।
इस सूत्र में उतरने के पहले कुछ बुनियादी बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली बात: गुरु की धारणा मौलिक रूप से भारतीय है। दुनिया में शिक्षक हुए हैं, गुरु नहीं। शिक्षक साधारण सी बात है, गुरु बड़ी असाधारण घटना है। शिक्षक और गुरु का शाब्दिक अर्थ एक है, लेकिन अनुभूतिगत अर्थ बिलकुल भिन्न है। शिक्षक से हम वह सीखते हैं, जो वह जानता है। गुरु से हम वह सीखते हैं, जो वह है। शिक्षक से हम जानकारी लेते हैं, गुरु से जीवन। शिक्षक से हमारा संबंध बौद्धिक है, गुरु से आत्मगत। शिक्षक से हमारा संबंध आंशिक है, गुरु से पूर्ण।
गुरु की धारणा मौलिक रूप से पूर्वीय है। पूर्वीय ही नहीं, भारतीय है। गुरु जैसा शब्द दुनिया की किसी भाषा में नहीं है। शिक्षक, टीचर, मास्टर, वे शब्द हैं--अध्यापक। लेकिन ‘गुरु’ जैसा कोई भी शब्द नहीं है। गुरु के साथ हमारे अभिप्राय ही भिन्न हैं।
पहली बात: शिक्षक से हमारा संबंध व्यावसायिक है, एक व्यवसाय का संबंध है। गुरु से हमारा संबंध व्यवसायिक नहीं है। आप किसी के पास कुछ सीखने जाते हैं। ठीक है, लेन-देन की बात है। आप उससे कुछ सीख लेते हैं, कुछ उसे भेंट कर देते हैं, बात समाप्त हो जाती है--यह व्यवसाय है। एक शिक्षक से आप कुछ सीखते हैं, सीखने के बदले में उसे कुछ दे देते हैं, बात समाप्त हो जाती है। गुरु से जो हम सीखते हैं, उसके बदले में कुछ भी नहीं दिया जा सकता। कोई उपाय देने का नहीं है। क्योंकि जो गुरु देता है, उसका कोई मूल्य नहीं है। जो गुरु देता है, उसे चुकाने का कोई उपाय नहीं है। उसे वापस करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि शिक्षक देता है सूचनाएं, जानकारियां, इनफर्मेशन। गुरु देता है अनुभव। यह बड़े मजे की बात है कि शिक्षक जो जानकारी देता है, जरूरी नहीं कि वह जानकारी उसका अनुभव हो, आवश्यक नहीं। जो शिक्षक आपको नीति शास्त्र पढ़ाता है और बताता है कि शुभ क्या है, अशुभ क्या है? नीति क्या है, अनीति क्या है? जरूरी नहीं कि वह शुभ का आचरण करता हो। वह सिर्फ शिक्षक है, वह सूचन करता है। गुरु जो कहता है, वह सूचन नहीं है, वह उसके जीवन का आविर्भाव है।
तो हम बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को गुरु कहते हैं। गुरु का अर्थ यह है कि वे जो कह रहे हैं, उन्होंने जीया है, जाना ही नहीं। जानने वाले तो बहुत गुरु हैं। वे गांव-गांव में हैं। युनिवर्सिटीज उनसे भरी हुई पड़ी हैं। वे शिक्षक हैं, गुरु नहीं। जो कुछ जाना गया है, वह उन्होंने संगृहीत किया है, वे आपको दे रहे हैं। वे केवल माध्यम हैं। उनसे पास अपना कोई उत्स, अपना कोई स्रोत नहीं है। वे उधार हैं। वे जो भी दे रहे हैं उन्होंने कहीं से पाया है। उन्हें किसी और ने दिया है, वे बीच के सेतु हैं जिनसे जानकारियां यात्राएं करती हैं। एक पीढ़ी मरती है तो जो भी वह पीढ़ी जानती है, दूसरी पीढ़ी को दे जाती है। इस देने के क्रम में शिक्षक बीच का काम करता है, बीच की कड़ी का काम करता है। अगर बीच में शिक्षक न हो तो पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को सिखा नहीं सकती कि उसने क्या जाना। पुरानी पीढ़ी ने जो भी अनुभव किया है, जो भी जाना है, जो भी उघाड़ा है, जो भी ज्ञान अर्जित किया है, वह शिक्षक नई पीढ़ी को सौंपने का काम करता है।
गुरु, जो पुरानी पीढ़ी ने जाना है उसको सौंपने का काम नहीं करता, जो स्वयं उसने अनुभव किया है। और यह जो स्वयं अनुभव किया है, इसे सौंपने का सूचन की तरह कोई उपाय नहीं है। इसे तो जीवन की विधि के रूपांतरण से ही दिया जा सकता है। एक शिक्षक के पास से हम ज्ञानी होकर लौटते हैं, ज्यादा जान कर लौटते हैं, लर्नेड होकर लौटते हैं। एक गुरु के पास से हम रूपांतरित होकर लौटते हैं। पुराना आदमी मर जाता है, नये का जन्म होता है। गुरु के पास जब हम जाते हैं तब हम वही नहीं लौट सकते, अगर हम गुरु के पास गए हों। गुरु के पास जाना कठिन मामला है। लेकिन, अगर हम गुरु के पास गए हों तो, जो जाता है, वह फिर कभी वापस नहीं लौटता। दूसरा आदमी वापस लौटता है।
शिक्षक के पास जब हम जाते हैं--और जाना बहुत आसान है--तो हम वही लौटते हैं जो हम गए थे। थोड़े से और समृद्ध होकर लौटते हैं, थोड़ा सा और ज्यादा जानकर लौटते हैं। हम जो थे, उसी में शिक्षक जोड़ देता है--एडीशन। हम जो थे, उसी में थोड़े रंग-रूप लगा देता है, वस्त्र ओढ़ा देता है। हम जो थे उसमें और शिक्षक के द्वारा जो हम निर्मित होते हैं, दोनों के बीच में कोई डिसंकटीन्यूटी, कोई गैप, कोई खाली जगह नहीं होती।
गुरु के पास जब हम जाते हैं तो जो हम थे, वह और आदमी था और जो हम लौटते हैं, वह और आदमी है। गुरु हममें जोड़ता नहीं, हमें मिटाता है और नया निर्मित करता है। गुरु हमको ही संवारता नहीं, हमें मारता है और जिलाता है। गुरु के पास जाने के बाद हमारे अतीत में और हमारे भविष्य में एक गैप, एक अंतराल हो जाता है। लौट के आप देखेंगे तो अपनी ही कथा ऐसी लगेगी, किसी और की कहानी है--अगर गुरु के पास गए। अगर शिक्षक के पास गए तो अपनी कथा अपनी ही कथा है। बीच में कोई खाली जगह नहीं है जहां चीजें टूट गई हों, जहां आपका पुराना रूप बिखर गया हो और नये का जन्म हुआ हो।
इसलिए हमने इस मुल्क में एक शब्द खोजा था, वह है द्विज। द्विज का अर्थ है: ट्वाइस बॉर्न, दुबारा जन्मा हुआ। दुबारा जन्मा हुआ वही आदमी है, जिसे गुरु मिल गया। नहीं तो दुबारा जन्मा हुआ आदमी नहीं है। एक जन्म तो मां-बाप देते हैं, वह शरीर का जन्म है। एक जन्म गुरु के निकट घटित होता है, वह आत्मा का जन्म है। जब वह जन्म घटित होता है तो आदमी द्विज होता है। उसके पहले आदमी एक जन्मा है, उसके बाद दोहरा जन्म हो जाता है, ट्वाइस बॉर्न हो जाता है।
गुरु के लिए हमने जैसी श्रद्धा की धारणा बनाई है, ऐसा पश्र्चिम के लोग जब सुनते हैं तो भरोसा नहीं कर पाते कि ऐसी श्रद्धा की क्या जरूरत है। जब किसी व्यक्ति से सीखना है तो सीखा जा सकता है। ऐसा उसके चरणों में सिर रख कर मिट जाने की क्या जरूरत है! और उनका कहना भी ठीक है, सीखना ही है तो चरणों में सिर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है, अगर सीखना ही है तो सिर और सिर का संबंध होगा, चरणों और सिर के संबंध की क्या जरूरत है!
लेकिन, हमारी गुरु की धारणा कुछ और है। यह सिर्फ सीखना नहीं है, यह सिर्फ बौद्धिक आदान-प्रदान नहीं है। यह संवाद बुद्धि का नहीं है, दो सिरों का नहीं है। क्योंकि जो गहन अनुभव हैं, बुद्धि तो उनको अभिव्यक्त भी नहीं कर पाती। जो गहन अनुभव हैं, उनका संबंध तो हृदय से हो पाता है। बुद्धि से नहीं हो पाता। जो क्षुद्र बातें हैं, वे कही जा सकती हैं शब्दों में। जो विराट से संबंधित हैं, गहन से, ऊंचाइयों से, अनंत गहराइयों से, वे कही नहीं जा सकती शब्दों में, लेकिन प्रेम में अभिव्यक्त की जा सकती हैं। तो गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है वह गहन प्रेम का है। शिक्षक आौर विद्यार्थी के बीच जो संबंध है वह लेन-देन का है, व्यावसायिक है, बौद्धिक है। गुरु और शिष्य के बीच का जो संबंध है, वह हार्दिक है।
ध्यान रहे, जब बुद्धि लेती है, देती है, तो यह समतल पर घटित होता है। जब हृदय लेता-देता है तो यह समतल पर घटित नहीं होता। हृदय को तो लेना हो तो उसे पात्र की तरह खुला हुआ नीचे हो जाना पड़ता है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। तो जब हृदय को लेना हो... वर्षा हो रही हो तो पात्र को नीचे रख देना पड़ता है, पानी उसमें भर जाए। पात्र को उस धारा के नीचे होना चाहिए जहां से लेना है, अगर हृदय का लेन-देन है। बुद्धि का लेन-देन समतल पर होता है।
इसलिए पश्चिम में शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई रिस्पेक्ट, कोई समादर की बात नहीं है। और अगर कोई समादर है तो औपचारिक है, और अगर कोई समादर है तो कक्षा के भीतर है, बाहर तो कोई सवाल नहीं है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध एक खंड संबंध है। पूरब में गुरु और शिष्य का संबंध एक अखंड संबंध है, समग्र।
यह जो हृदय का लेन-देन है, इसमें शिष्य को पूरी तरह झुक जाना जरूरी है। शिष्य का अर्थ ही है जो झुक गया। हृदय के पात्र को जिसने चरणों में रख दिया। इसलिए इस लेन-देन में श्रद्धा अनिवार्य अंग हो गई। श्रद्धा का केवल इतना ही अर्थ है कि जिससे हम ले रहे हैं, उससे हम पूरा लेने को राजी हैं। उसमें हम कोई जांच-पड़ताल न करेंगे। इसका यह मतलब नहीं है कि जांच-पड़ताल की मनाही है। इसका केवल इतना मतलब है कि खूब जांच-पड़ताल कर लेना, जितनी जांच-पड़ताल करनी हो, कर लेना, लेकिन जांच-पड़ताल जब पूरी हो जाए और गुरु के करीब पहुंच जाओे, और चुन लो कि यह रहा गुरु, तो फिर जांच-पड़ताल बंद कर देना और पात्र को नीचे रख देना। और अब सब द्वार खुले छोड़ देना, ताकि गुरु सब मार्गों से प्रविष्ट हो जाए।
जांच-पड़ताल की मनाही नहीं है, लेकिन उसकी सीमा है। खोज लेना पहले, गुरु की खोज कर लेना जितनी बन सके। लेकिन जब खोज पूरी हो जाए और लगे कि यह आदमी रहा, तो फिर खोज बंद कर देना। फिर खोल देना अपने हृदय को।
शिष्य, इसलिए अलग शब्द है, उसका अर्थ विद्यार्थी नहीं है। शिष्य विद्यार्थी नहीं है, विद्या नहीं सीख रहा है। शिष्य जीवन सीख रहा है और जीवन के सीखने का मार्ग शिष्य के लिए विनय है।
यह सूत्र विनय सूत्र है। इसमें महावीर ने कहा है: जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालता हो, उनके पास रहता हो, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो, तथा कार्य-विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।
विनय, शिष्य का लक्षण है, ह्युमिलिटी, हंबलनेस, झुका हुआ होना, समर्पित भाव। इन शब्दों को हम एक-एक समझ लें।
‘जो गुरु की आज्ञा पालता हो।’
गुरु कहे: बैठ जाओ तो बैठ जाए, कहे: खड़े हो जाओ तो खड़ा हो जाए। इसका अर्थ आज्ञापालन नहीं है। आज्ञापालन का अर्थ तो है: जहां आपकी बुद्धि इनकार करती हो, वहां पालन।
सुना है मैंने, बायजीद अपने गुरु के पास गया, तो गुरु ने पूछा, कि निश्चित ही तुम आ गए हो मेरे पास? तो वस्त्र उतार दो, नग्न हो जाओ, जूता हाथ में ले लो, अपने सिर पर मारो और पूरे गांव का एक चक्कर लगा आओ।
और भी लोग वहां मौजूद थे। उनमें से एक आदमी के बरदाश्त के बाहर हुआ। उसने कहा: यह क्या मामला है, कोई अध्यात्म सीखने आया है कि पागल होने? लेकिन बायजीद ने वस्त्र उतारने शुरू कर दिए। उस आदमी ने बायजीद को कहा: ठहरो भी, पागल तो नहीं हो? और बायजीद के गुरु को कहा कि यह आप क्या करवा रहे हैं? यह जरा ज्यादा है, थोड़ा ज्यादा हो गया। फिर बायजीद की गांव में प्रतिष्ठा है। क्यों उसकी प्रतिष्ठा धूल में मिलाते हैं?
लेकिन बायजीद नग्न हो गया। उसने हाथ में जूता उठा लिया। वह गांव के चक्कर पर निकल गया। वह अपने को जूता मारता जा रहा है। गांव में भीड़ इकट्ठी हो गई। पागल हो गया हो बायजीद! लोग हंस रहे हैं, लोग मजाक उड़ा रहे हैं। किसी की समझ में नहीं आ रहा, क्या हो गया? वह पूरे गांव में चक्कर लगा कर अपनी सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला कर, मिट्टी होकर वापस लौट आया।
गुरु ने उसे छाती से लगा लिया और गुरु ने कहा: बायजीद अब तुझे कोई भी आज्ञा न दूंगा। पहचान हो गई। अब काम की बात शुरू हो सकती है।
आज्ञा का अर्थ है: जो एब्सर्ड मालूम पड़े, जिसमें कोई संगति न मालूम पड़े। क्योंकि जिसमें संगति मालूम पड़े, आप मत सोचना, आपने आज्ञा मानी। आपने अपनी बुद्धि को माना। अगर मैं आपसे कहूं, कि दो और दो चार होते हैं, यह मेरी आज्ञा है, और आप कहें कि बिलकुल ठीक, मानते हैं आपकी आज्ञा, दो और दो चार होते हैं। आप मुझे नहीं मान रहे हैं, आप अपनी बुद्धि को मान रहे हैं। और मैं कहूं कि दो और दो पांच होते हैं और आप कहें कि हां, दो और दो पांच होते हैं, तो आज्ञा।
बाइबिल में घटना है। एक पिता को आज्ञा हुई कि वह जाकर अपने बेटे को फलां-फलां वृक्ष के नीचे काट कर और बलिदान कर दे। उसने अपने बेटे को उठाया, फरसा लिया और जंगल की तरफ चल पड़ा। सोरेन कीर्कगार्ड ने इस घटना पर बड़े महत्वपूर्ण काम किए हैं, बड़े गहरे काम किए हैं। यह बात बिलकुल फिजूल है, क्योंकि सोरेन कीर्कगार्ड कहता है कि उस पिता को, यह तो सोचना ही चाहिए था, कहीं यह
आज्ञा मजाक तो नहीं है। यह तो सोचना ही चाहिए था कि यह आज्ञा अनैतिक कृत्य है कि पिता बेटे की हत्या कर दे! कुछ तो विचारना था! लेकिन उसने कुछ भी न विचारा। फरसा उठाया और बेटे को लेकर चल पड़ा।
यह हमें भी लगेगी कि जरूरत से ज्यादा बात है। और यह तो अंधापन है, और यह तो मूढ़ता है। लेकिन कीर्कगार्ड भी कहता है कि यह सारा परीक्षण पहले कर लेना चाहिए। लेकिन एक बार परीक्षण पूरा हो गया हो तो फिर छोड़ देना चाहिए सारी बात। अगर परीक्षण सदा ही जारी रखना है तो गुरु और शिष्य का संबंध कभी भी निर्मित नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण वह संबंध निर्मित होना है।
वक्त पर खबर आ गई कि हत्या नहीं करना है, फरसा उठ गया था और गला काटने के करीब था। लेकिन यह गौण बात है। वापस लौट आया है पिता अपने बेटे को लेकर, लेकिन अपनी तरफ से हत्या करने की आखिरी सीमा तक पहुंच गया था। फरसा उठ गया था और गला काटने के करीब था।
यह घटना तो सूचक है। शायद ही कोई गुरु आपको कहे कि जाकर बेटे की हत्या कर आएं। लेकिन, घटना में मूल्य सिर्फ इतना है कि अगर ऐसा भी हो, तो आज्ञापालन ही शिष्य का लक्षण है। क्यों आज्ञा को इतना मूल्यवान--पहले ही सूत्र के हिस्से में आज्ञा को इतना मूल्यवान महावीर क्यों कह रहे हैं?
आपकी बुद्धि जो-जो समझ सकती है इस जगत में, वह जैसे-जैसे आप भीतर प्रवेश करेंगे, उसकी समझ क्षीण होने लगेगी, वहां काम नहीं पड़ेगी। और अगर आप यही भरोसा मान कर चलते हैं कि मैं अपनी बुद्धि से ही चलूंगा तो बाहर की दुनिया तो ठीक, भीतर की दुनिया में प्रवेश नहीं हो सकेगा। भीतर तो घड़ी-घड़ी ऐसे मौके आएंगे जब गुरु कहेगा कि करो। और तब आपकी बुद्धि बिलकुल इनकार करेगी कि मत करो। क्योंकि अगर ध्यान की थोड़ी सी गहराई बढ़ेगी तो लगेगा कि मौत घट जाएगी। अब आपका कोई अनुभव नहीं है। जब भी ध्यान गहरा होगा तो मौत का अनुभव होगा। ऐसा लगेगा, मरे।
गुरु कहेगा: मरो, बढ़ो, मरोगे ही न! मर जाना। तब आपकी बुद्धि कहेगी: अब यह क्या हो रहा है, अब आगे कदम नहीं बढ़ाया जाता।
बेटे की हत्या करना भी इतना कठिन नहीं है, अगर खुद के मरने की भीतर घड़ी आए, तब। बेटा फिर भी दूर है और बेटे की हत्या करने वाले बाप मिल जाएंगे। ऐसे तो सभी बाप थोड़ी बहुत हत्या करते हैं, लेकिन वह अलग बात है। बाप की हत्या करने बाले बेटे मिल जाएंगे। एक सीमा पर सभी बेटे बाप से छुटकारा चाहते हैं, लेकिन वह अलग बात है।
लेकिन, आदमी जब अपने की ही हत्या पर उतरने की स्थिति आ जाती है, और जब ध्यान में ऐसी घड़ी आती है कि शरीर छूट तो नहीं जाएगा! सांस बंद तो नहीं हो जाएगी! तब आपकी बुद्धि कोई भी उपयोग की नहीं, क्योंकि आपका कोई अनुभव काम नहीं पड़ेगा। वहां गुरु कहता है कि ठीक है, हो जाने दो बंद सांस। उस वक्त क्या करिएगा? अगर आज्ञा मानने की आदत न बन गई हो। अगर गुरु के साथ असंगत में भी उतरने की तैयारी न हो गई हो, तो आप वापस लौट आएंगे, आप भाग जाएंगे। उस वक्त तो मृत्यु को एक किनारे रख कर वह गुरु जो कहता है, वही ठीक।
और बड़े मजे की बात है, आप मरेंगे नहीं, बल्कि इस ध्यान में जो मृत्यु घटेगी, इससे ही आप पहली दफे जीवन का स्वाद, जीवन का अनुभव कर पाएंगे। लेकिन उसके लिए आपकी बुद्धि कोई भी तो सहारा नहीं दे सकती। बुद्धि तो वही सहारा दे सकती है जो जानती हो। यह आपने कभी जाना नहीं है। यह तो मामला ठीक ऐसा ही है कि बेटा हाथ बाप का पकड़ लेता है और फिर फिकर छोड़ देता है कि ठीक, बाप साथ है, उसकी चिंता नहीं है कुछ। अब जंगल में शेर भी चारों तरफ भटक रहे हों तो बेटा गुनगुनाता हुआ, गीत गाता, बाप का हाथ पकड़ कर चलता है। बाप के हाथ में हाथ है, बात खत्म हो गई। अगर अब बाप उससे कह दे कि यह सामने जो शेर आ रहा है, इससे गले मिल लो, तो बेटा मिल लेगा।
आज्ञा का अर्थ है: असंगत घटनाएं घटेंगी साधना में, जिनके लिए बुद्धि कोई तर्क नहीं खोज पाती। तब कठिनाइयां शुरू होती हैं, तब संदेह पकड़ना शुरू होता है। तब लगता है कि भाग जाओ इस आदमी से, बच जाओ इस आदमी से। तब बुद्धि बहुत-बहुत उपाय करेगी कि यह आदमी गलत है, इसकी बात मत मानना। तब बुद्धि ऐसी पच्चीस बातें खोज लेगी, जिनसे यह सिद्ध हो जाए कि यह आदमी गलत है, इसलिए इसकी यह बात मानना भी उचित नहीं है। छोड़ दो।
इसलिए महावीर कहते हैं: जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालन करता हो, उसके पास रहता हो।
पास रहना बड़ी कीमती बात थी। पास रहना एक आंतरिक घटना है। शारीरिक रूप से पास रहना, रहने का उपयोग है, लेकिन आत्मिक रूप से, मानसिक रूप से पास रहने का बहुत उपयोग है। यह जो जीवन की आत्यंतिक कला है, इसे सीखना हो तो गुरु के इतने पास होना चाहिए, जितने हम अपने भी पास नहीं। जैसे कोई आपकी छाती में छुरा भोंक दे तो गुरु का स्मरण पहले आए, बाद में अपना, कि मैं मर रहा हूं। यह अर्थ हुआ पास रहने का।
पास रहने का मतलब है, एक आंतरिक निकटता, सामीप्य। हम अपने से भी ज्यादा पास, अपने से भी ज्यादा भरोसा, अपने से भी ज्यादा स्मरण। यह जो घटना है पास होने की, निकट होने की, यह शारीरिक तल पर भी बड़ी मूल्यवान है। इसलिए गुरु के पास शारीरिक रूप से रहने का भी बड़ा अर्थ है। अधिकतम गुरु, अगर हम उपनिषद के गुरुओं में लौट जाएं, या महावीर--महावीर के साथ दस हजार साधु-साध्वियों का समूह चलता था। महावीर के पास होना ही मूल्य था उसका।
क्या अर्थ है इस पास होने का?
इस पास होने का एक ही अर्थ है कि मेरे ‘मैं’ की जो आवाज है, वह धीरे-धीरे कम हो जाए। हम जब भी बोलते हैं, तो मैं हमारा केंद्र होता है। गुरु के पास रहने का अर्थ है: मैं केंद्र न रह जाए, गुरु केंद्र हो जाए। महावीर के पास दस हजार साधु-साध्वी हैं। उनका अपना होना कोई भी नहीं है। महावीर का होना ही सब-कुछ है।
बुद्ध एक गांव के बाहर ठहरे हैं। हजारों भिक्षु-भिक्षुणियां उनके पास हैं। गांव का सम्राट मिलने आया है। पास आकर उसे शक होने लगा। आम्रकुंज है, उसके बाहर आकर उसने अपने वजीरों को कहा कि मुझे शक होता है, इसमें कुछ धोखा तो नहीं है? क्योंकि तुम कहते थे: हजारों लोग वहां ठहरे हैं, लेकिन आवाज जरा भी नहीं हो रही। जहां हजारों लोग ठहरे हों और तुम कहते हो: बस यह जो आम की कतार है, इसके पीछे के ही वन में वे लोग ठहरे हैं। जरा भी आवाज नहीं है, मुझे शक होता है। उसने अपनी तलवार बाहर खींच ली। उसने कहा: इसमें कोई षडयंत्र तो नहीं? उसके वजीरों ने कहा: आप निश्चिंत रहें, वहां सिर्फ एक ही आदमी बोलता है, बाकी सब चुप हैं। वह बुद्ध के सिवाय वहां कोई बोलता ही नहीं। और जंगल में शांति है, क्योंकि बुद्ध नहीं बोल रहे होंगे, और तो वहां कोई बोलता ही नहीं।
मगर वह जो सम्राट था, उसका नाम था, अजातशत्रु। नाम भी हम बड़े मजेदार देते हैं, जिसका कोई शत्रु पैदा न हुआ हो! हालांकि शांति में भी उसे शत्रु दिखाई पड़ता है, सन्नाटे में भी। लेकिन वह तलवार निकाले ही गया। जब उसने देख लिया कि हजारों भिक्षु बैठे हैं चुपचाप, बुद्ध एक वृक्ष की छाया में बैठे हैं, तब उसने तलवार भीतर की। तब उसने बुद्ध से पहला प्रश्र्न यही पूछा: इतनी चुप्पी, इतना मौन क्यों है? इतने लोग हैं, कोई बातचीत नहीं, कोई चर्चा नहीं, दिन-रात ऐसे बीत जाते हैं?
बुद्ध ने कहा: ये लोग मेरे पास होने के लिए यहां हैं। अगर ये बोलते रहें तो ये अपने ही पास होंगे। ये अपने को मिटाने को यहां आए हैं। ये यहां हैं ही नहीं। बस इस जंगल में जैसे मैं ही हूं और ये सब मिटे हुए शून्य हैं। ये अपने को मिटा रहे हैं। जिस दिन ये पूरे बिखर जाएंगे उस दिन ही ये मुझे पूरा समझ पाएंगे। और जो मैं इनसे कहना चाहता हूं, वह इनके मौन में ही कहा जा सकता है। और अगर मैं शब्द का भी उपयोग करता हूं, तो वह यही समझाने के लिए, कैसे मौन हो जाएं। शब्द का उपयोग करता हूं, मौन में ले जाने के लिए, फिर मौन का उपयोग करूंगा सत्य में ले जाने के लिए। शब्द से कोई सत्य में ले जाने का उपाय नहीं है। शब्द से, मौन में ले जाया जा सकता है।
बस शब्द की इतनी ही सार्थकता है कि आपकी समझ में आ जाए कि चुप हो जाना है। फिर सत्य में ले जाया जा सकता है। सामीप्य का यह अर्थ है।
सारिपुत्र बुद्ध का खास शिष्य था। जब वह स्वयं बुद्ध हो गया तो बुद्ध ने उससे कहा, कि अब सारिपुत्र तू जा और मेरे संदेश को लोगों तक पहुंचा। सारिपुत्र उठा, नमस्कार करके चलने लगा।
आनंद बुद्ध का दूसरा प्रमुख शिष्य था। उसे अब तक ज्ञान नहीं हुआ था। उसने बुद्ध से कहा: इस भांति मुझे कभी दूर मत भेज देना। मेरी प्रार्थना: इतना खयाल रखना, कभी मुझे ऐसी आज्ञा मत देना कि दूर चला जाऊं।मैं तो समीप ही रहना चाहता हूं।
बुद्ध ने कहा: तू समीप नहीं है, इसीलिए समीप रहना चाहता है। सारिपुत्र उठा और चल पड़ा। वह कहीं भी रहे, वह मेरे समीप ही रहेगा। बीच का फासला अब कोई फासला नहीं है।
सारिपुत्र चल पड़ा। वह गांव-गांव, जगह-जगह संदेश देता रहा। लेकिन रोज सुबह जैसे उठ कर वह बुद्ध के चरणों में सिर रखता था, जिस दिशा में बुद्ध होते, रोज सुबह उठ कर उनके चरणों में सिर रखता। उसके शिष्य उससे पूछते, सारिपुत्र अब तो तुम भी स्वयं बुद्ध हो गए, अब तुम किसके चरणों में सिर रखते हो? अब क्या है जरूरत? सारिपुत्र कहता: जिनके कारण मैं मिट सका, जिनके कारण मैं समाप्त हुआ, जिनके कारण मैं शून्य हुआ। फिर उसके शिष्य कहते: लेकिन बुद्ध तो बहुत दूर हैं, सैकड़ों मील दूर हैं, यहां से तुम्हारे चरणों में किए गए प्रणाम कैसे पहुंचेगे? तो सारिपुत्र कहता: अगर वे दूर होते तो मैं उन्हें छोड़ कर ही न आता। छोड़ कर आ सका इसी भरोसे कि अब कहीं भी रहूं, वे मेरे पास हैं।
एक संबंध है बाहर का जो शरीर से होता है। शरीर कितने ही निकट आ जाए तो भी दूरी बनी रहती है। शरीर के साथ कोई निकटता हो ही नहीं पाती। कितने ही निकट ले आओ, आलिंगन कर लो किसी का, फिर भी बीच में फासला बना ही रहता है। दो शरीर कभी भी एक शरीर नहीं हो पाते, हो नहीं सकते। शरीर का होना ही पार्थक्य है। फिर एक और आंतरिक सामीप्य है। सारिपुत्र उसी की बात कर रहा है। वह कह रहा है: अब फासले टूट गए, अब कोई स्पेस, कोई जगह बीच में नहीं है। अब मैं नहीं हूं, बुद्ध ही हैं, या कहूं कि मैं हूं, बुद्ध नहीं हैं, एक ही बात है।
इससे भी ज्यादा मजेदार घटना तो तब घटी, कहते हैं, महाकाश्यप अपने ही पैर छू लेता था। लोगों को बहुत अजीब लगता होगा। महाकाश्यप बुद्ध का दूसरा शिष्य था और शायद उनके सारे शिष्यों में अदभुत था। महाकाश्यप अपने ही पैर छू लेता था और लोगों ने उससे कहा: यह तुम क्या करते हो? वह कहता कि बुद्ध के चरण छू रहा हूं। लोग कहते: ये पैर तुम्हारे हैं। महाकाश्यप कहता कि अब उनसे इतनी निकटता हो गई कि वह भीतर ही हैं, पैर उनके ही हैं। महाकाश्यप कहता: अब मैं किसी के भी पैर छूऊं, बुद्ध के ही पैर हैं। इतनी समीपता भी बन सकती है। इस सामीप्य में ही संवाद है। इसलिए महावीर कहते हैं: उनके पास रहता हो, उनके निकट होता हो।
इस निकटता में भौतिक निकटता ही अंतर्निहित नहीं है, आंतरिक सामीप्य भी है, वही है वस्तुतः अंत में।
‘गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो।’
हम तो गुरु के शब्द को भी ठीक से नहीं समझ पाते, इंगित तो बड़ी और बात है। इंगित का अर्थ है, इशारा, जो कहा नहीं गया है, फिर भी दिया गया है। शायद इतना बारीक है कि कहने में टूट जाएगा, इसलिए कहा नहीं गया है। सिर्फ दिया गया है। शायद इतना सूक्ष्म है कि शब्द उसके सौंदर्य को नष्ट कर देंगे। स्थूल बना देंगे। इसलिए सिर्फ इशारा दिया गया है।
जो गुरु है, वह धीरे-धीरे शब्दों का सहारा छोड़ता जाता है। जैसे-जैसे शिष्य विनीत होता है, जैसे-जैसे शिष्य झुकता है, वैसे-वैसे गुरु शब्दों का सहारा छोड़ता जाता है। इंगित महत्वपूर्ण हो जाते हैं, इशारे महत्वपूर्ण हो जाते हैं। शब्द भी इशारे हैं, लेकिन बहुत स्थूल, बहुत ऊपरी।
बुद्ध कैसे चलते हैं, महावीर कैसे बैठते हैं, महावीर कैसे उठते हैं, महावीर कैसे सोते हैं, इन सब में उनके इंगित हैं। बुद्ध कैसे हाथ उठाते हैं, कैसे आंख उठाते हैं, कैसे आंख उनकी झपती है, उस सबमें उनके इंगित हैं। धीरे-धीरे जो उनके पास है, उनके शरीर की भाषा को समझने लगता है। हमारी भी शरीर की भाषा तो होती है, हमें भी पता नहीं होता। हमारे शरीर की भी भाषा होती है, और अब तो पश्चिम में एक साइंस ही, किनेटिक्स, निर्मित हो रही है, जो शरीर की भाषा पर निर्भर है, बॉडी लैंग्वेज।
और हम सब शरीर से भी बोलते रहते हैं। कभी आपने खयाल न किया होगा, बच्चे शरीर की भाषा को बिलकुल ठीक से समझते हैं। फिर धीरे-धीरे शब्द सीखने लगते हैं और शरीर की भाषा भूल जाते हैं। इसलिए बच्चों के साथ मां-बाप को कभी-कभी बड़ा स्ट्रेंज, बड़ा विचित्र अनुभव होता है कि मां मुस्कुरा रही है चेहरे से लेकिन बच्चा समझता है कि वह क्रोध में है। मां कह रही है, थपका रही है, खिलौने ले आऊंगी बाजार से, और बड़ी प्रसन्नता दिखा रही है जैसे बच्चे पर बड़ा प्रेम हो, लेकिन बच्चे समझ लेते हैं कि यह सब धोखा है। क्योंकि वह जो कह रही है, उसके हाथ की थपकी से पता नहीं चलता। बच्चे पहले तो बाडी लैंग्वेज सीखते हैं, शरीर की भाषा सीखते हैं। बच्चे जानते हैं कि मां जब उन्हें दूध पिला रही है, तो उसके स्तन का इशारा भी बच्चे समझते हैं कि इस वक्त वह प्रसन्न है, नाखुश है, पिलाना चाहती है, नहीं पिलाना चाहती, हट जाना चाहती है कि पास आना चाहती है। वे सब समझते हैं। क्योंकि पहली भाषा उनकी शरीर की भाषा है। वे मां को देख कर समझते हैं। अभी वे बोल नहीं सकते, न मां क्या बोलती है, उसे समझ सकते हैं। लेकिन मां के गेस्चर, उसकी मुद्राएं उनके खयाल में आने लगती हैं। और इसलिए बच्चों को धोखा देना बहुत मुश्किल है। जब तक कि बच्चे थोड़े बड़े न होने लगें। छोटे बच्चों को धोखा नहीं दिया जा सकता।
फिर धीरे-धीरे भाषा आरोपित हो जाती है और हम शरीर की भाषा भूल जाते हैं। और तब बड़ी मजेदार घटनाएं घटती हैं। अक्सर... आपको खयाल में नहीं। कभी किसी फिल्म में आपको खयाल में आया हो तो आया हो। कभी फिल्म में ऐसा हो जाता है कि भाषा और भाव-भंगिमा का संबंध टूट जाता है।
एक नाटक में ऐसा हुआ कि एक आदमी को गोली मारी जानी थी, लेकिन गोली का घोड़ा अटक गया। मारने वाले ने बहुत घोड़ा खींचा, लेकिन जैसे ही उसने घोड़ा खींचा, जिसको मरना था, वह धड़ाम से गिर कर मर गया। जब वह मर चुका और चिल्ला चुका कि हाय, मैं मरा! बाद में घोड़ा छूटा और गोली चली। संबंध टूट गया, कृत्य में और भाषा में।
आपको पता नहीं कि आपके कृत्य और भाषा में भी संबंध नहीं होता। आपके ओंठ मुस्कराते हैं। आपकी आंख कुछ और कहती है। आप हाथ से हाथ मिलाते हैं, आपके हाथ के भीतर की ऊर्जा पीछे हटती है; हाथ आगे बढ़ा है, ऊर्जा पीछे हट रही, आप मिलाना नहीं चाहते। जब आप हाथ मिलाना नहीं चाहते तो भीतर की ऊर्जा पीछे हट रही है। और आप मिला रहे हैं हाथ। लेकिन अगर दूसरा आदमी भाषा समझता हो शरीर की तो फौरन पहचान जाएगा कि हाथ मिलाया गया और ऊर्जा नहीं मिली। ऊर्जा भीतर खींच ली गई।
लेकिन हम सभी भाषा भूल गए हैं। इसलिए कोई पता नहीं चलता। एक आदमी को गले मिलाते हैं और पीछे हट रहे हैं। आपको खुद पता चल जाएगा। जरा खयाल करना अपने कृत्यों में कि जो आप कर रहे हैं, अगर वह नहीं करना चाहते हैं तो भीतर उससे विपरीत हो रहा है। उसी वक्त हो रहा है। वह तो कोई शरीर की भाषा नहीं जानता। भूल गए हैं हम सब। शायद भूल जाना जरूरी है, नहीं तो दुनिया में दोस्ती बनाना, प्रेम करना बहुत मुश्किल हो जाए। अगर हमारे शरीर की भाषा सीधी-सीधी समझ में आ जाए तो बड़ा मुश्किल हो जाए। इसलिए हम सब पर्त बना लिए हैं। उन शब्दों की पर्त में हम जीते हैं।
जब हम किसी आदमी से कहते हैं: मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तो बस वह इतना ही सुनता है। न हमारे ओंठ की तरफ देखता कि जब ये शब्द कहे गए, तो ओंठों ने भी कुछ कहा? असली कंटेंट ओंठों में है, शब्दों में नहीं। जब ये शब्द कहे गए तब आंखों ने कुछ कहा? असली विषय-वस्तु आंखों में है, शब्दों में नहीं। जब ये शब्द कहे गए तो इस पूरे आदमी के रोएं-रोएं में पुलक क्या थी? आनंद क्या था? ये कहने से प्राण इसके आनंदित हुए? कि मजबूरी में इसने कह कर कर्तव्य निभाया!
लेकिन शायद खतरनाक है। जैसा हमारी सभ्यता है, समाज है, धोखे का एक लंबा आडंबर। इसलिए हम बच्चों को जल्दी ही ठोक-पीट कर उनकी जो समझ है उसके ऊपर आरोपण करके, उनकी वास्तविक समझ को भुला देते हैं।
गुरु के पास रह कर फिर शब्दों की भाषा भूलनी पड़ती है। फिर शरीर की भाषा सीखनी पड़ती है। क्योंकि जो गहन है, वह शरीर से कहा जा सकता है। वह जो गहन है, वह भाव-भंगिमा से कहा जा सकता है। इसलिए भारत में एक पूरा का पूरा शास्त्र मुद्राओं का, गेस्चर्स का निर्मित हुआ। अब पश्चिम में उसकी पुनः खोज हो रही है। जिसको वह शरीर की भाषा कहते हैं, वह हमने मुद्राओं में काफी गहराई तक खोजी।
आपने बुद्ध की मूर्तियां देखी होंगी विभिन्न मुद्राओं में। अगर आप किसी एक खास मुद्रा में बैठ जाएं तो आप हैरान होंगे कि आपके भीतर भाव परिवर्तन हो जाता है। आपकी मुद्रा भीतर भाव परिवर्तन ले आती है। आपका भाव परिवर्तन हो तो आपकी मुद्रा परिवर्तित हो जाती है। जैसे बुद्ध पद्मासन में बैठते हैं, हाथ पर हाथ रख कर, या महावीर बैठते हैं पद्मासन में। सिर्फ वैसे ही आप बैठ जाएं, तो आप तत्काल पाएंगे कि जो आपके मन की धारा चल रही थी वह उसमें विघ्न पड़ गया। बुद्ध ने अनेक मुद्राएं, अभय, करुणा, बहुत सी मुद्राओं की बात की है। अगर उस मुद्रा में आप खड़े हो जाएं तो आप तत्काल भीतर पाएंगे कि भाव में अंतर पड़ गया है। अगर आप क्रोध की मुद्रा में खड़े हो जाएं तो भीतर क्रोध का आवेश आना शुरू हो जाता है।
शरीर और भीतर जोड़ है। गुरु के भीतर सारे धोखे मिट गए हैं। उसके भीतर जो भाव होता है, उसके शरीर तक बह जाता है।
इसलिए महावीर कहते हैं कि शिष्य को, गुरु के इंगितों को ठीक-ठीक समझता हो। क्या गुरु कह रहा है, इसे ठीक-ठीक समझता हो, शरीर से भी।
रिंझाई अपने गुरु के पास था। चौबीस घंटे रुकने के बाद उसने कहा: आप कुछ सिखाएंगे नहीं? गुरु ने कहा: चौबीस घंटे मैंने कुछ और किया ही नहीं सिवाय सिखाने के। तो रिंझाई ने कहा: एक शब्द आप बोले नहीं! या तो मैं बहरा हूं जो मुझे सुनाई नहीं पड़ा! लेकिन अभी आप बोल रहे हैं, मैं ठीक से सुन रहा हूं। आप एक शब्द नहीं बोले।
गुरु ने कहा कि मेरा सब-कुछ होना बोलना ही है। तुम जब सुबह मेरे लिए चाय लेकर आए थे, तब मैंने कैसे तुमसे हाथ से चाय ग्रहण की थी, और मेरी आंखों में कैसे अनुग्रह का भाव था! वह तुमने नहीं देखा। काश, तुम वह देख लेते! तो जो नहीं कहा जा सकता, वह मैंने कह दिया था। जब सुबह आकर तुमने मेरे चरणों में सिर रखा था और नमस्कार किया था तो मैंने किस भांति तुम्हारे सिर पर हाथ रख दिया था! काश, तुम वह समझ लेते तो बहुत कुछ समझ में आ गया होता!
शास्त्र नहीं कह सकते, जो एक इशारा कह सकता है।
महावीर कहते हैं: ‘जो गुरु के इंगितों को समझता हो, कार्य विशेष में गुरु की शारीरिक अथवा मौखिक मुद्राओं को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है।’
तो हमारी तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। हम तो महावीर चिल्ला-चिल्ला कर, डंका बजा-बजा कर कहें कि ऐसा करो, तो भी समझ में नहीं आता। समझ में भी आता है तो हमारी समझ में वही आता है जो हम समझना चाहते हैं। वह क्या कहना चाहते हैं इससे कोई लेना-देना नहीं है। हम अपने पर इस बुरी तरह आरूढ़ हैं, हम अपने आपको इस तरह पकड़े हुए हैं कि जो हम समझते हैं, वह हमारी व्याख्या होती है, इंटरप्रिटेशन होता है। क्या महावीर कहते हैं, वह हम नहीं समझते। हम क्या समझना चाहते हैं, हम क्या समझ सकते हैं, हमारी समझ हम उनके ऊपर आरोपित करके जो व्याख्या कर लेते हैं--फिर हम उसके अनुसार चलते हैं और हम सोचते हैं, हम महावीर के अनुसार चल रहे हैं। हम अपने ही अनुसार चलते रहते हैं।
कभी आपने खयाल किया, मैं यहां बोल रहा हूं, मैं एक ही बात बोल रहा हूं; लेकिन यहां जितने लोग हैं, उतनी बातें समझी जा रही हैं। यहां हर आदमी अपने भीतर इंतजाम कर रहा है, समझ रहा है, अपनी बुद्धि को जोड़ रहा है, अर्थ निकाल रहा है।
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हम इतने चालाक हैं कि जो हमारे मतलब का होता है, हम उसे जल्दी से समझ लेते हैं। जो हमारे मतलब का नहीं होता, हम उसको बाई पास कर जाते हैं। उस पर हम ध्यान ही नहीं देते। जिससे हमारा लाभ होता हो उसे हम तत्काल पकड़ लेते हैं। जिसमें हमें जरा भी हानि दिखाई पड़ती हो, हम उसको सुनते ही नहीं। हम उसे गुजार जाते हैं। ऐसा नहीं कि हम सुन कर उसे गुजार जाते, हम सुनते ही नहीं। हम उस पर ध्यान ही नहीं देते। हम अपने ध्यान को एक छलांग लगा देते हैं, हम आगे बढ़ जाते हैं।
जब मैं आपसे बोल रहा हूं तो उसमें से पांच प्रतिशत भी सुन लें तो बहुत कठिन है। उसमें से पांच प्रतिशत भी आप वैसा सुन लें जैसा बोला गया है, बहुत कठिन है। आप अपने को मिलाते चले जाते हैं, इसलिए अंत में जो आप अर्थ निकालते हैं, ध्यान रखना, वह आपका ही है। उसका मुझ से कुछ लेना-देना नहीं।
महावीर कहते हैं कि जो शारीरिक, मौखिक मुद्राओं तक को ठीक-ठीक समझ लेता हो, वह मनुष्य विनय संपन्न कहलाता है। वह आदमी विनीत है, वह आदमी हंबल है। क्या मतलब हुआ विनीत का? विनीत का मतलब हुआ कि आप बीच-बीच में न आते हों, आप अपने को घुमा-घुमा कर बीच में न ले आते हों। जो कहा जा रहा हो, उसको ही समझ लेते हों अपने को बीच में लाए बिना, तो आप शिष्य हैं।
विद्यार्थी को मनाही नहीं है, वह अपने को बीच में लाए, मजे से लाए। शिष्य को मनाही है, क्योंकि विद्यार्थी केवल सूचनाएं ग्रहण कर रहा है, अपने लाभ के लिए। जो उसके लाभ का हो ग्रहण कर ले, जो उसके लाभ का न हो छोड़ दे। इसलिए शिक्षक और विद्यार्थी के बीच संबंध लाभ-हानि का है। जो मेरे काम का नहीं वह मैं छोड़ दूंगा, जो मेरे काम का है वह चुन लूंगा। यह उचित ही है। लेकिन शिष्य और गुरु के बीच संबंध लाभ-हानि का नहीं है। यह गुरु को पीने आया है। इसमें अगर यह अपने को बीच-बीच में डालता है तो जो भी यह निष्कर्ष लेगा वह इसके अपने होंगे। गुरु से कोई संबंध न हो पाएगा।
इसलिए कई बार ऐसा होता है, गुरु के पास लोग वर्षों रहते हैं और फिर भी गुरु को बिना छुए लौट जाते हैं। वर्षों रहा जा सकता है। वर्ष बड़े छोटे हैं, जन्मों रहा जा सकता है। वे अपने को ही सुनते रहते हैं।
विनय का यह तो बहुत गहरा अर्थ हुआ। विनय का अर्थ हुआ: अपने को सब भांति छोड़ देना। असल में विद्यार्थी होना हो तो अज्ञान शर्त नहीं है। शिष्य होना हो तो अज्ञानी होना शर्त है। अपने सारे ज्ञान को तिलांजलि दे देना, खाली स्लेट की तरह, खाली कागज की तरह खड़े हो जाना, ताकि गुरु जो लिखे वही दिखाई पड़े। आपका लिखा हुआ पहले से तैयार हो कागज पर, और फिर गुरु और लिख दे तो सब, सब उपद्रव ही हो जाएगा और जो अर्थ निकलेंगे वे अनर्थ सिद्ध होंगे।
यह अनर्थ घट रहा है, यह हर आदमी पर घट रहा है। हर आदमी एक भीड़ है। उसमें न मालूम कितने विचार हैं। और जब एक विचार उस भीड़ में घुसता है तो वह भीड़ तत्काल उस विचार को बदलने में लग जाती है, अपने अनुकूल करने में लग जाती है। जब तक वह विचार अनुकूल न हो जाए, तब तक आपका पुराना मन बेचैनी अनुभव करता है। जब वह अनुकूल हो जाए, तब आप निश्चिंत हो जाते हैं।
गुरु के पास आप जब जाते हैं तब गुरु जो विचार देता है, उसको आपके पूर्व-विचारों के अनुकूल नहीं बनाना है, बल्कि इस विचार के अनुकूल सारे पूर्व-विचारों को बनाना है, तब विनय है, चाहे सब टूटता हो, चाहे सब जाता हो।
आपके पास है भी क्या! हम बड़े मजेदार लोग हैं, जिसको बचाते रहते हैं, कभी यह सोचते नहीं कि है भी क्या! मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: मेरा विचार तो ऐसा है। मैं उनसे पूछता हूं: अगर यह विचार तुम्हें कहीं ले गया हो तो मजे से पकड़े रहो, मेरे पास आओ ही मत। नहीं, वे कहते हैं: कहीं ले तो नहीं गया। तो फिर इस ‘मेरे’ विचार को कृपा करके छोड़ दो। जो विचार तुम्हें कहीं नहीं ले गया है, उसी को लेकर अगर तुम मेरे पास भी आते हो और मैं तुमसे जो कहता हूं, उसी विचार से उसकी भी जांच करते हो तो मेरा विचार भी तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगा। तुम निर्णायक बने रहते। लोग सुनते ही नहीं हैं।
मार्क ट्वेन ने एक मजाक की है, बड़ा संपादक था, बड़ा लेखक था और एक हंसोड़ आदमी था। और कभी-कभी हंसने वाले लोग गहरी बातें कह जाते हैं जो कि रोने वाले लाख रोएं तो नहीं कह पाते। उदास लोगों से सत्यों का जन्म नहीं होता। उदास लोगों से बीमारियां पैदा होती हैं। मार्क ट्वेन ने कहा है, कि जब कोई किताब मेरे पास आलोचना के लिए, क्रिटिसिज्म के लिए भेजता है, तो मैं पहले किताब पढ़ता नहीं, पहले आलोचना लिखता हूं। क्योंकि किताब पढ़ने से आदमी अगर प्रभावित हो जाए तो पक्षपात हो जाता है। पहले आलोचना लिख देता हूं, फिर मजे से किताब पढ़ता हूं। उसने सलाह दी कि आलोचक को कभी भी आलोचना करने के पहले किताब नहीं पढ़नी चाहिए क्योंकि उससे आलोचक का मन अगर प्रभावित हो जाए तो पक्षपात हो जाता है।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन बुढ़ापे में मजिस्ट्रेट हो गया, जे पी। पहला ही आदमी आया... मिल गया होगा किसी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उसको जे पी होना। पहला ही आदमी आया, पहला ही मुकदमा था। एक पक्ष बोल पाया था कि उसने जजमेंट लिखना शुरू किया। कोर्ट के क्लर्क ने कहा: महानुभाव, यह आप क्या कर रहे हैं। अभी आपने दूसरे पक्ष को तो सुना ही नहीं।
नसरुद्दीन ने कहा: अभी मेरा मन साफ है और अगर मैं दोनों को सुन लूं तो सब कनफ्यूजन हो जाएगा, जब तक मन साफ है, मुझे निर्णय लिख लेने दो, फिर पीछे दूसरे को भी सुन लेंगे। फिर कुछ गड़बड़ होने वाली नहीं है। हम सब ऐसे ही कनफ्यूजन में हैं, और हम किसी की भी नहीं सुनता चाहते कि कहीं कनफ्यूजन न हो जाए। हम अपने को ही सुने चले जाते हैं। जब हम दूसरे को भी सुन रहे हैं तब हम पर्दे की ओट से सुनते हैं, छांटते रहते हैं, क्या छोड़ देना, क्या बचा लेना। फिर जो बचता है, वह आपका ही चुनाव है। लोग अपने विचार को पकड़ कर चलते हों, तो गुरु से उनका कोई संबंध नहीं हो सकता। वे लाख गुरुओं के पास भटकें, वे अपने इर्द-गिर्द ही परिक्रमा करते रहते हैं। वे अपने घर को कभी नहीं छोड़ पाते, उसके आस-पास ही घूमते रहते हैं।
इसलिए महावीर ने कहा है, कहता हूं उसे विनय संपन्न, जो गुरु की मुद्राओं तक को वैसा ही समझ लेता हो, जैसी वे हैं। फिर पंद्रह लक्षण महावीर ने गिनाए। निम्नलिखित पंद्रह लक्षणों से मनुष्य सुविनीत कहलाता है। इनमें कुछ महत्वपूर्ण हैं।
‘उद्धत न हो, एग्रेसिव न हो, आक्रामक न हो।’
क्योंकि जो आक्रामक है चित्त से वह ग्रहण न कर पाएगा। रिसेप्टिव हो, ग्राहक हो, उद्धत न हो।
अलग-अलग स्थितियां हैं। जब आप उद्धत होते हैं तब आप दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं। लोग आते हैं, उनके प्रश्र्न ऐसे होते हैं, जैसे वे प्रश्र्न न लाकर, एक छुरा लेकर आए हों। प्रश्र्न पूछने के लिए नहीं होते, हमला करने के लिए होते हैं। प्रश्र्न कुछ समझने के लिए नहीं होते, कुछ समझाने के लिए होते हैं। तो अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो, तो कुछ भी होने वाला नहीं है। यह तो नदी जो है, नाव के ऊपर हो गई, अगर शिष्य गुरु को समझाने आया हो। हालांकि ऐसे शिष्य खोजना मुश्किल हैं जो गुरु को समझाने न आते हों। तरकीब से समझाने आते हैं और फिर भी यह मन में माने चले जाते हैं कि हम शिष्य हैं।
महावीर कहते हैं: ‘उद्धत न हो, नम्र हो। आक्रामक न हो, ग्राहक हो, कुछ लेने आया हो। चपल न हो, स्थिर हो।’
क्योंकि जितनी चपलता हो, उतना ही ग्रहण करना मुश्किल हो जाता है। चपल आदमी का चित्त वैसे होता है जैसे फूटी बाल्टी हो। ग्राहक भी हो तो किसी काम की नहीं, पानी भरा हुआ दिखाई पड़ेगा जब तक पानी में डूबी रहे। ऊपर निकालो, पानी सब गिर जाता है। चपल चित्त छेद वाला चित्त है। जब वह गुरु के पास भी बैठा हुआ है तब तक वह हजार जगह हो आया। बैठे हैं वहां, न मालूम कहां-कहां का चक्कर काट आए। तो जितनी देर वह कहीं और रहा उतनी देर गुरु ने जो कहा, वह तो सुनाई भी नहीं पड़ेगा।
‘स्थिर हो, मायावी न हो, सरल हो’, किसी तरह का धोखा देने की इच्छा में न हो।
हम सब होते हैं। गुरु के पास जब कोई जाता है तो वह बताता है कि मैं बिलकुल ईमानदार हूं, सच्चा हूं। नहीं, वह जो हो, वही उसे बता देना चाहिए। क्योंकि गुरु को धोखा देने से वह अपने को ही धोखा देगा। यह तो ऐसा हुआ, जैसे किसी डॉक्टर के पास कोई जाए। हो कैंसर और बताए कि कुछ नहीं, जरा फोड़ा-फुंसी है। तो फोड़ा-फुंसी का इलाज हो जाएगा।
डॉक्टर को हम धोखा नहीं देते, बीमारी बता देते हैं वही जो है। तो ही डॉक्टर किसी उपयोग का हो पाता है। गुरु तो चिकित्सक है। उसके पास जाकर तो सब खोल देना जरूरी है, तो ही निदान हो सकता है। लेकिन हम उसके साथ भी वही धोखा चलाए जाते हैं जो हम दुनिया भर में चला रहे हैं। उसके साथ भी हम वह दिखाए चले जाते हैं जो हम नहीं हैं, तो बदलाहट कभी भी संभव नहीं होगी। गुरु के पास तो पूर्ण नग्न--जो हम हैं, जैसे हम हैं, सब उघाड़ कर रख देने का है। उसमें कुछ भी छिपाने का नहीं है। यह अछिपाव का अर्थ ही सरलता है।
‘कुतूहली न हो, गंभीर हो।’
जिज्ञासा गंभीर बात है, कुतूहल नहीं है, क्युरिआसिटी नहीं है। इंक्वायरी और क्युरिआसिटी में फर्क है। बच्चे कुतूहली होते हैं, कुतूहली का आप मतलब समझते हैं? कुछ करना नहीं है पूछ कर, पूछने के लिए पूछना है। आ गया खयाल कि ऐसा क्यों है, पूछ लिया। इससे क्या उत्तर मिलेगा, उससे जीवन में कोई अंतर करना है, यह सवाल नहीं है। इसलिए बच्चों के बड़े मजेदार सवाल होते हैं। एक सवाल उन्होंने पूछा, उसका आप उत्तर भी नहीं दे पाए कि दूसरा सवाल पूछ लिया। आप जब उत्तर दे रहे हैं, तब उन्हें कोई रस नहीं है, उनका मतलब पूछने से था।
मेरे पास लोग आते हैं। मै बहुत चकित हुआ। वे एक सवाल--कहते हैं कि बड़ा महत्वपूर्ण सवाल आपसे पूछना है। वे पूछ लेते हैं। उन्होंने सवाल पूछ लिया। मैं उनसे पूछता हूं: पत्नी आपकी ठीक, बच्चे आपके ठीक? वे कहते हैं: बिलकुल ठीक हैं। वे सवाल ही भूल गए इतने में। वे घंटे भर जमाने भर की बातें करके बड़े खुश वापस लौट जाते हैं। मैं सोचता हूं, सवाल का क्या हुआ जो बड़ा महत्वपूर्ण था, जो मेरे इतने से पूछने से कि बच्चे कैसे हैं, समाप्त हो गया। फिर उन्होंने पूछा ही नहीं।
कुतूहल था, आ गए थे पूछने, ईश्र्वर है या नहीं? मगर इससे कोई मतलब न था, इससे कोई संबंध न था। शायद यह पूछना भी एक रस दिखलाना था कि मैं ईश्र्वर में उत्सुक हूं। यह भी अहंकार को तृप्ति देता है कि मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, ईश्र्वर की खोज कर रहा हूं।
मार्पा अपने गुरु के पास गया, नारोपा के पास। तो तिब्बत में रिवाज था कि पहले गुरु की सात परिक्रमाएं की जाएं, फिर सात बार उसके चरण छूए जाएं, सिर रखा जाए, फिर साष्टांग लेट कर प्रणाम किया जाए, फिर प्रश्र्न निवेदन किया जाए। लेकिन मार्पा सीधा पहुंचा, जाकर गुरु की गर्दन पकड़ ली और कहा कि यह सवाल है। नारोपा ने कहा कि मार्पा, कुछ तो शिष्टता बरत, यह भी कोई ढंग है? परिक्रमा कर, दंडवत कर, विधि से बैठ, प्रतीक्षा कर। जब मैं तुझसे पूछूं कि पूछ, तब पूछ।
लेकिन मार्पा ने कहा: जीवन है अल्प। और कोई भरोसा नहीं कि सात परिक्रमाएं पूरी हो पाएं! और अगर मैं बीच में मर जाऊं तो नारोपा, जिम्मेवारी तुम्हारी कि मेरी?
तो नारोपा ने कहा कि छोड़ परिक्रमा, पूछ। परिक्रमा पीछे कर लेना।
नारोपा ने कहा है कि मार्पा जैसा शिष्य फिर नहीं आया। यह कोई कुतूहल न था, यह तो जीवन का सवाल था। यह कोई कुतूहल नहीं था। यह ऐसे ही पूछने नहीं चला आया था। जिंदगी दांव पर थी। जब जिंदगी दांव पर होती है, तब जिज्ञासा होती है। और जब ऐसी खुजलाहट होती है दिमाग की, तब कुतूहल होता है।
‘किसी का तिरस्कार न करे।’
इसलिए नहीं कि तिरस्कार योग्य लोग नहीं हैं जगत में, काफी हैं। जरूरत से ज्यादा हैं। बल्कि इसलिए कि तिरस्कार करने वाला अपनी ही आत्महत्या में लग जाता है। जब आप किसी का तिरस्कार करते हैं तो वह तिरस्कार योग्य था या नहीं, लेकिन आप नीचे गिरते हैं। जब आप तिरस्कार करते हैं किसी का, तो आपकी ऊर्जा ऊंचाइयां छोड़ देती है और नीचाइयों पर उतर आती है। यह बहुत मजे की बात है कि तिरस्कार जब आप किसी का करते हैं तो आपको उसी के तल पर भीतर उतर आना पड़ता है।
इसलिए बुद्धिमानों ने कहा है: मित्र कोई भी चुन लेना, लेकिन शत्रु सोच-समझ कर चुनना। क्योंकि आदमी को शत्रु के तल पर उतर आना पड़ता है। इसलिए अगर दो लोग जिंदगी भर लड़ते रहें, तो आप आखिर में पाएंगे, उनके गुण एक जैसे हो जाते हैं। क्योंकि जिससे लड़ना पड़ता है, उसके तल पर होना पड़ता है, नीचे उतरना पड़ता है।
इसलिए महावीर कहेंगे: अगर प्रशंसा बन सके तो करना, क्योंकि प्रशंसा में ऊपर जाना पड़ता है, निंदा में नीचे आना पड़ता है। यह सवाल नहीं है कि दूसरा आदमी निंदा योग्य था या प्रशंसा योग्य था, यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि जब आप प्रशंसा करते हैं तो आप ऊपर उठते हैं और जब आप निंदा करते हैं, तो आप नीचे गिरते हैं। वह आदमी कैसा था, यह तो निर्णय करना भी आसान नहीं है।
इसलिए महावीर कहते हैं:किसी का तिरस्कार न रखता हो, क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो।
यह नहीं कहते कि अक्रोधी हो, क्योंकि शिष्य से यह जरा ज्यादा अपेक्षा हो जाएगी। इतना ही कहते हैं: क्रोध को ज्यादा न टिकने देता हो। क्रोध क्षण भर को आता हो, तब तक जाग जाता हो और क्रोध को विसर्जित कर देता हो। धीरे-धीरे क्रोध नहीं आएगा, लेकिन वह दूर की बात है। यात्रा के पहले चरण में क्रोध को अधिक न टिकने दे, इतना ही काफी है।
आपको पता है, आप क्रोध को कितना टिकने देते हैं? कुछ लोग हैं कि उनके बापदादे लड़े थे, अभी तक क्रोध टिका है। अभी तक वे लड़ रहे हैं, क्योंकि वह दुश्मनी बापदादों से चली आ रही है। आज आपको क्रोध हो जाए, आप जिंदगी भर उसको टिकने देते हैं। वह बैठा रहता है भीतर। कब मौका मिल जाए, आप बदला ले लें।
क्रोध अगर एक क्षण में उठने वाली घटना है और खो जाने वाली तो पानी का एक बुलबुला है। बहुत चिंता की जरूरत नहीं है। एक लिहाज से अच्छा है। इसलिए वे
लोग अच्छे होते हैं जो क्रोध कर लेते हैं और भूल जाते हैं, बजाय उन लोगों के जो क्रोध को दबाए चले जाते हैं। ये लोग खतरनाक हैं। ये आज नहीं कल कोई उपद्रव करेंगे। इनकी केटली का ढक्कन भी बंद है और नीचे आग भी जल रही है। विस्फोट होगा। ये किसी की जान लेंगे। उससे कम में ये मानने वाले नहीं हैं। केटली अच्छी जिसका ढक्कन खुला है। भाप ज्यादा हो जाती है, ढक्कन थोड़ा उछल जाता है, भाप बाहर निकल जाती है, केटली अपनी जगह हो जाती है।
हर आदमी एक उबलती हुई केटली है, जिंदगी की आग नीचे जल रही है। ढक्कन थोड़ा ढीला रखना अच्छा है। बिलकुल चुस्त मत कर लेना, जैसा संयमी लोग कर लेते हैं। फिर वे जान-लेऊ हो जाते हैं। खुद तो मरेंगे, दो चार को आस-पास मार डालेंगे।
महावीर कहते हैं: जिसका ढक्कन थोड़ा ढीला हो। भाप ज्यादा होती हो, छलांग लगा कर बाहर निकल जाती हो, ढक्कन वापस अपनी जगह हो जाता हो।
क्रोध बिलकुल न हो, यह शिष्य से अपेक्षा नहीं की जा सकती, यह तो आखिरी बात है। लेकिन क्षण भर टिकता हो, बस इतना भी काफी है। असल में क्रोध इतनी बीमारी नहीं है जितना टिका हुआ क्रोध बीमारी है क्योंकि टिका हुआ क्रोध भीतर एक स्थायी धुआं हो जाता है। कुछ लोग ऐसे हैं जो क्रोधित नहीं होते, उनको होने की जरूरत नहीं, वे क्रोधित रहते ही हैं। उनको होने वगैरह की आवश्यकता नहीं है, वे हमेशा तैयार ही हैं। वे तलाश कर रहे हैं कि कहां खूंटी मिल जाए, और हम अपने को टांग दें। और खूंटी न मिले तो भी वे कहीं खिड़की-दरवाजे पर, कहीं न कहीं टांगेंगे, निर्मित कर लेंगे खूंटी।
क्रोध निकल जाता हो, क्षण भर आता हो तो बेहतर है। वैसा आदमी भीतर क्रोध की पर्त निर्मित नहीं करता। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है, महावीर के मुंह से यह बात कि क्रोध को अधिक समय तक न टिकने देता हो, बड़ी महत्वपूर्ण बात है।
‘मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो।’
यह बड़ी हैरानी की बात है। हम कहेंगे: मित्रों के प्रति सदभाव होता ही है। बिलकुल झूठ है। मित्रों के प्रति सदभाव रखना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि मित्र का मतलब, जिसको हम जानते हैं, जिसको हम भलीभांति पहचानते हैं। जिसको नहीं पहचानते उसके प्रति सदभाव आसान है। जिसको जानते हैं, उसके प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है। मित्रों के प्रति सदभाव बड़ा मुश्किल है।
मार्क ट्वेन ने कहा है कि हे परमात्मा! शत्रुओं से मैं निपट लूंगा, मित्रों से तू मुझे बचाना।
मित्र बड़ी अदभुत चीज है। जिसे हम जानते हैं, जिसका सब-कुछ हमें पता है, उसके प्रति कैसे सदभाव रखें?
अज्ञान में सदभाव आसान है, ज्ञान में मुश्किल हो जाता है। इसलिए जितना हमारे कोई निकट होता है उतना ही दूर भी हो जाता है। और हम मित्रों के संबंध में भी इधर-उधर जो बातें करते रहते हैं, वे बताते हैं कि सदभाव कितना है। पीठ पीछे हम क्या कहते रहते हैं, उससे पता चलता है, सदभाव कितना है! महावीर कहते हैं: मित्रों के प्रति सदभाव रखता हो, पूरा सदभाव रखता हो।
‘शास्त्रों से ज्ञान पाकर गर्व न करता हो।’
क्योंकि शास्त्रीय ज्ञान का कोई मूल्य ही नहीं है। इसलिए गर्व व्यर्थ है। और शास्त्रों के ज्ञान से गर्व पैदा होता है, इसलिए विशेष रूप से यह सूचन किया है, क्योंकि शास्त्रों से जब ज्ञान मिल जाता है तो लगता है, मैंने जान लिया, बिना जाने। अभी जानना बहुत दूर है। अभी किताब में पढ़ा कि पानी प्यास बुझाता है, अभी पानी नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि मिठाई बड़ी मीठी होती है, अभी स्वाद नहीं मिला। अभी किताब में पढ़ा कि सूरज उगता है और प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है, जिंदगी अभी अंधेरे में है।
तो किताब को पढ़ कर जो गर्व न करता हो। लेकिन किताब को पढ़ कर गर्व आ ही जाता है, लगता है, जाना। इसलिए शास्त्रीय आदमी हो और अहंकारी न हो, बड़ा मुश्किल है। शास्त्र अहंकार के लिए बोझिल है। इसलिए पंडित की चाल देखें, पंडित की आंख देखें, उनकी भाव-भंगिमा जरा पहचानें, तो वे जमीन पर नहीं चलते। वे चल नहीं सकते। जमीन और उनके बीच बड़ा फासला होता है। इसलिए दो पंडितों को पास बिठा दें, तो जो घटना दो कुत्तों के बीच घट जाती है, वही घट जाती है।
क्या हो जाता है? एकदम कुत्तों के गले में खराश आ जाती है। एकदम भौंकना-भांकना शुरू कर देते हैं। जब तक एक हार न जाए, तब तक दूसरे को शांति नहीं मिलती।
मैंने तो सुना है कि पंडित मर कर कुत्ते-बिल्लियां हो जाते हैं। वे पुरानी आदतवश भौंकते चले जाते हैं।
क्या हो जाता होगा? शास्त्र इतना भौंकता क्यों है? शास्त्र नहीं भौंकता। शास्त्र से अहंकार पोषित हो जाता है। लगता है, मैं जानता हूं, और जब ऐसा लगता है कि मैं जानता हूं तो फिर कोई और जान सकता है, यह मानने का मन नहीं होता। फिर कोई और भी जानता है जो मुझसे भिन्न जानता है, तो शत्रुता निर्मित हो जाती है। फिर सिद्ध करना जरूरी हो जाता है कि मैं ठीक हूं। पंडित सत्य की खोज में नहीं होता, मैं ठीक हूं, इसकी खोज में होता है।
महावीर कहते हैं: ‘शास्त्रों को पाकर गर्व न करता हो, किसी के दोषों का भंडाफोड़ न करता हो।’
कोई प्रयोजन नहीं है। किसी के दोष पता भी चल जाएं तो उनकी चर्चा का क्या अर्थ है? आपकी चर्चा से उसके दोष न मिट जाएंगे। हो सकता है, बढ़ जाएं। अगर आप सच में ही चाहते हैं कि उसके दोष मिट जाएं तो इन दोषों की सारे जगत में चर्चा करते रहने से कोई मतलब नहीं। लेकिन, एक मामले में हम बड़े-बड़े, सृजनात्मक लोग हैं। किसी का जरा सा दोष दिख जाए तो हमारे पास मैग्निफाइंग ग्लास है, हम उसको फिर इतना बड़ा करके देखते हैं कि सारा ब्रह्मांड का विस्तार छोटा मालूम पड़ने लगता है।
सुना है मैंने, मुल्ला ने एक दिन अपनी पत्नी को फोन किया। फोन करना पड़ा, क्योंकि ऐसी घटना हाथ में लग गई थी। बताया कि पड़ोसी अहमद, अहमद के मित्र रहमान की पत्नी को लेकर भाग गया। दोनों के बच्चे सड़कों पर भीख मांग रहे हैं। और बहुत सी बातें बताईं। पत्नी भी रस से भर गई। क्योंकि पत्नियों को वियतनाम में क्या हो रहा है, इससे मतलब नहीं, पड़ोसी की पत्नी कहां भाग गई, यह बड़ा महत्वपूर्ण है।
पत्नी ने कहा कि जरा मुल्ला विस्तार से बताओ। मुल्ला ने कहा: विस्तार में मत ले जाओ मुझे, जितना मैंने सुना है उससे तीन गुना तुम्हें बता ही चुका हूं। अब और विस्तार में मुझे मत ले जाओ।
जब किसी का दोष हमें दिखाई पड़ जाए, तो हम तत्काल उसे बड़ा कर लेते हैं। इसमें भीतरी एक रस है। जब दूसरे का दोष बहुत बड़ा हो जाता है तो अपने दोष बहुत छोटे दिखाई पड़ते हैं। और अपने दोष जब छोटे दिखाई पड़ते हैं तो बड़ी राहत मिलती है कि हम क्या, हमारा पाप भी क्या! दुनिया में यह-यह एक घट रहा है चारों तरफ? तो हम बड़े पुण्यात्मा मालूम पड़ते हैं। इसलिए दूसरे के दोष बड़ा कर लेने में अपने दोष छोटा कर लेने की तरकीब है। खुद के दोष छोटा करना बुरा नहीं है, लेकिन दूसरे के बड़े करके छोटा करने का खयाल करना पागलपन है। खुद के दोष छोटे करना अलग बात है।
लेकिन दो तरकीबें हैं, या तो खुद के दोष छोटे करो, तब छोटे होते हैं, या फिर पड़ोसियों के बड़े कर लो, तब भी छोटे दिखाई पड़ने लगते हैं। यह आसान है पड़ोसियों के बड़े करना। इसमें कुछ भी नहीं करना पड़ता है।
महावीर कहते हैं: ‘भंडाफोड़ न करता हो, मित्रों पर क्रोधित न होता हो।’
शत्रुओं पर हमारा इतना क्रोध नहीं होता जितना मित्रों पर होता है। इसलिए मित्र की सफलता कोई भी बरदाश्त नहीं कर पाता। यह बड़ा मजा है आदमी का मन। मित्र जब तकलीफ में होता है तब हमें सहानुभूति बताने में बड़ा मजा आता है। लेकिन मित्र अगर तकलीफ में न हो, सफल होता चला जाए, तब हमें बड़ी पीड़ा होती है। जो आदमी अपने मित्र की सफलता में सुख न पाता हो, जानना कि मित्रता है ही नहीं। लेकिन हमें बड़ा मजा आता है। अगर कोई दुखी है तो हम संवेदना प्रकट करने पहुंच जाते हैं। संवेदना में बड़ा मजा आता है। कोई दुखी है, हम दुखी नहीं हैं। कभी आपने देखा है कि जब आप संवेदना प्रकट करने जाते हैं तो भीतर एक हलका सा रस मिलता है!
किसी के मकान में आग लग जाए तो आपकी आंख से आंसू गिरने लगते हैं। और किसी का मकान आकाश छूने लगे, तब आपके पैरों में नाच नहीं आता। तो जरूर इसमें कुछ खतरा है। क्योंकि अगर सच में ही किसी के मकान में आग लगने से हृदय रोता है तो उसका मकान जिस दिन गगनचुंबी हो जाए, उस दिन पैर नाचने चाहिए। लेकिन गगनचुंबी मकान देख कर पैर नाचते नहीं। आग लग जाए तो आंखें रोती हैं। निश्चित ही उस रोने के पीछे भी रस है। इसीलिए लोग ट्रैजिडी, दुखांत नाटक और फिल्मों को देख कर इतना मजा पाते हैं, नहीं तो दुख को देखने में इतना मजा क्या है!
दुख को देख कर एक राहत मिलती है कि हम इतने दुखी नहीं हैं। अपना मकान अभी भी कायम है, कोई आग नहीं लगी। दूसरे को सुखी देख कर जब हम सुखी होते हैं तब समझना कि मित्रता है। मित्रता सूक्ष्म बात है।
महावीर कहते हैं: ‘मित्रों पर क्रोधित न होता हो।’
यह भी ध्यान रखना कि शत्रुओं पर तो क्रोधित होने का कोई अर्थ नहीं होता, आप क्रोधित हैं। मित्रों पर क्रोधित होने का अर्थ होता है, क्योंकि रोज-रोज होना पड़ता है।
‘मित्रों पर क्रोधित न होता हो, अप्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे भलाई ही गाता हो।’
क्यों आखिर? यह तो झूठ मालूम होगा न। आप कहेंगे: बिलकुल सरासर झूठ की शिक्षा महावीर दे रहे हैं। अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भलाई गाता हो, पीछे भले की ही बात करता हो। नहीं, झूठ के लिए नहीं कह रहे हैं। कोई आदमी इतना बुरा नहीं है कि बिलकुल बुरा हो। कोई आदमी इतना भला नहीं है कि बिलकुल भला हो। इसलिए चुनाव है। जब आप किसी आदमी की बुराई की चर्चा करते हैं तब इसका यह मतलब नहीं कि उस आदमी में भलाई है ही नहीं। आपने बुराई चुन ली। जब आप किसी आदमी की भलाई की चर्चा करते हैं तब भी यह मतलब नहीं होता कि उसमें बुराई है ही नहीं। आपने भलाई चुन ली।
महावीर कहते हैं: ऐसा बुरा आदमी खोजना कठिन है, जिसमें कोई भलाई न हो। क्योंकि बुराइयों के टिकने के लिए भी भलाइयों की जरूरत है। तो तुम चुनाव करना भलाई की चर्चा का। क्यों आखिर?
क्योंकि भलाई की जितनी चर्चा की जाए, उतनी खुद के भीतर भलाई की जड़ें गहरी बैठने लगती हैं। बुराई की जितनी चर्चा की जाए, बुराई की जड़ें गहरी बैठनी लगती हैं। हम जिसकी चर्चा करते हैं, अंततः हम वही हो जाते हैं। लेकिन हम सब बुराई की चर्चा कर रहे हैं। अगर हम अखबार उठा कर देखें तो पता ही नहीं चलता कि दुनिया में कहीं कोई भलाई भी हो रही होगी। सब तरफ बुराई हो रही है। सब तरफ बुराई हो रही है, सब तरफ चोरी हो रही है, सब तरफ हिंसा हो रही है। अखबार देख कर लगता है कि शायद अपने से छोटा पापी जगत में कोई भी नहीं है--यह सब क्या हो रहा चारों तरफ! और चेहरे पर एक रौनक आ जाती है। यह सारी बुराई आप संचित कर रहे हैं, अपने भीतर। यह सारी बुराई आपके भीतर प्रवेश कर रही है।
अगर हमें एक अच्छी दुनिया बनानी हो और अच्छे आदमी को जन्म देना हो तो हमें भलाई संचित करनी चाहिए, भलाई की फिकर करनी चाहिए। और जब हम बुराई की चर्चा करते हैं तब हमें पता नहीं कि वह बुराई का संस्कार हम पर निर्मित होता चला जाता है। यह आदमी चोर है, वह आदमी चोर है, सारी दुनिया चोर है। तो जिस दिन आप चोरी करने जाते हैं, भीतर आपको ऐसा नहीं लगता कि आप कुछ नया करने जा रहे हैं। सभी यही कर रहे हैं। चोरी की जड़ मजबूत होती है।
जब आप कहते हैं: फलां आदमी अच्छा है... फलां आदमी अच्छा है... फलां आदमी... जब आप चुनते हैं अच्छा तो आपके भीतर अच्छे की मूल्यवत्ता निर्मित होती है। और जब बुराई करने जाते हैं तो आपको लगता है, आप क्या कर रहे हैं! दुनिया में ऐसा कोई भी नहीं कर रहा है।
तो महावीर कहते हैं: ‘अप्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे भलाई ही गाता हो।’
हम तो प्रिय मित्र की भी पीठ-पीछे बुराई ही गाते हैं।
‘किसी प्रकार का झगड़ा-फसाद न करता हो।’
झगड़े-फसाद की एक वृत्ति होती है। कुछ लोग फसादी होते हैं। फसादी का मतलब यह कि आप ऐसा कोई कारण ही नहीं दे सकते उन्हें, जिसमें से वे झगड़ा न निकाल लें। वे झगड़ा निकाल ही लेंगे। झगड़ा निकालने की एक कला है, एक कुशलता है। कुछ लोग उसमें इतने कुशल हो जाते हैं कि वे किसी भी चीज में से झगड़ा निकाल लेंगे।
मैं अपने एक मित्र को जानता हूं। उनके पिता बड़े अदभुत थे। ऐसे कुशल थे जिसका कोई हिसाब नहीं। अगर उनका बेटा नहा-धोकर, साफ-सुथरे कपड़े पहन कर दुकान पर आ जाए तो वे ग्राहकों को इकट्ठा कर लेते थे, कि देखो इनको, बाप मर गया कमा-कमा कर, ये मौज उड़ा रहे हैं। हमने कभी साबुन न देखी, आप देवी-देवताओं को लजा रहे हैं। देखें।
तो मैंने उनके बेटे को कहा कि तू एक दिन बिना ही नहाए पहुंच जा, गंदे ही कपड़े पहन कर पहुंच जा! क्यों उनको बार-बार कष्ट देता है। वह पहुंच गया। पिता ने फिर भीड़ इकट्ठी कर ली और कहा: देखो, जब मैं मर जाऊं तब इस हालत में घूमना। अभी मैं जिंदा हूं, अभी नहाओ-धोओ, अभी ठीक से रहो।
फिर बहुत प्रयोग किए हमने, सब तरह के प्रयोग किए, लेकिन पिता को... उनकी कुशलता अपरिसीम थी। कुछ भी करो, उसमें से फसाद निकाला जा सकता है।
महावीर कहते हैं: ‘झगड़ा-फसाद न करता हो।’
नहीं तो सीख न पाएगा, जीवन को बदल न पाएगा। ऊर्जा नष्ट हो जाती है इन मूढ़ताओं में। अपनी ही शक्ति नष्ट होती, किसी और की नहीं। लेकिन व्यर्थ खो जाती है।
‘बुद्धिमान हो।’
बुद्धिमानी का अर्थ ही है कि झगड़ा-फसाद न करता हो, जीवन-ऊर्जा का विध्वंसक उपयोग न करता हो, सृजनात्मक, क्रिएटिव उपयोग करता हो।
‘अभिजात हो।’
‘अभिजात’ कीमती शब्द है। अरिस्टोक्रेटिक हो। बड़ा अजीब लगेगा, समाजवाद की दुनिया है, वहां अरिस्टोक्रेसी, आभिजात्य। लेकिन महावीर के अर्थ में कुलीनता और अभिजात का अर्थ है: क्षुद्रता पर ध्यान न देता हो, शालीन हो। क्षुद्रताओं को नजर से बाहर कर देता हो, श्रेष्ठता पर ही ध्यान रखता हो। व्यर्थ को चुनता न हो और दूसरे में श्रेष्ठ होना चाहिए, इसकी तलाश करता हो।
अकुलीन का अर्थ होता है: जो पहले ही से मान कर बैठा है कि लोग बुरे हैं। कुलीन का अर्थ है: जो पहले से मान कर बैठा है कि लोग भले हैं। लोग भले हैं मूलतः, कभी-कभी बुरे हो जाते हैं, यह बात और है। अकुलीन का अर्थ है कि लोग बुरे तो हैं ही, कभी-कभी भले हो जाते हैं, यह बात और है।
कुलीन आदमी, अभिजात चित्त वाला व्यक्ति, दो दिनों के बीच में एक रात को देखता है। अकुलीन व्यक्ति दो रातों के बीच में एक दिन को देखता है। कुलीन व्यक्ति फूलों को गिनता है, कांटों को नहीं। और मानता है कि जहां फूल होते हैं वहां थोड़े कांटे भी होते हैं। और उनसे कुछ हर्जा नहीं होता, कांटे भी फूल की रक्षा ही करते हैं।
अकुलीन चित्त कांटों की गिनती करता है, और जब सब कांटों को गिन लेता है तो वह कहता है: एक-दो फूल से होता भी क्या है! जहां इतने कांटे हैं, वहां एक-दो फूल धोखा है।
कुलीनता, अकुलीनता चुनाव का नाम है, आप क्या चुनते हैं? श्रेष्ठ का दर्शन आभिजात्य है, अश्रेष्ठ का दर्शन शूद्रता है।
‘अभिजात हो, आंख की शर्म रखने वाला स्थिर वृत्ति हो।’
मैंने सुना है कि अकबर के तीन पदाधिकारियों ने राज्य को धोखा दिया। राज्य के खजाने को धोखा दिया। पहले पदाधिकारी को बुला कर अकबर ने कहा: तुमसे ऐसी आशा न थी! कहते हैं, उस आदमी ने उसी दिन सांझ जाकर आत्महत्या कर ली।
दूसरे आदमी को साल भर की सजा दी। तीसरे आदमी को पंद्रह वर्ष के लिए जेलखाने में डाला और सड़क पर नग्न खड़ा करवा कर कोड़े लगवाए। मंत्री बड़े चिंतित हुए। जुर्म एक था, सजाएं बहुत भिन्न हो गईं।
अकबर से पूछा मंत्रियों ने कि यह कुछ समझ में नहीं आता, यह न्याययुक्त नहीं मालूम होता। तीनों का जुर्म एक था। एक को आपने सिर्फ इतना कहा कि तुमसे इतनी आशा न थी!
अकबर ने कहा: वह आंख की शर्म वाला आदमी था। इतना बहुत था। इतना भी जरूरत से ज्यादा था। सांझ उसने आत्महत्या कर ली।
दूसरे को आपने साल भर की सजा दी!
अकबर ने कहा: वह थोड़ा मोटी चमड़ी का है।
और तीसरे को नग्न करके कोड़े लगवाए, और जेल में डलवाया!
अकबर ने कहा कि जाकर तीसरे से मिलो, तुम्हें समझ में आ जाएगा।
एक मंत्री भेजा गया जेलखाने में, जिसको कोड़े के निशान भी अभी नहीं मिटे थे, वह वहां बड़े मजे में था, और उसने कहा कि पंद्रह ही वर्ष की तो बात है, और जितना मैंने खजाने से मार दिया, उतना पंद्रह वर्ष नौकरी करके भी तो नहीं मिल सकता था। और पंद्रह ही वर्ष की तो बात है, फिर बाहर आ जाऊंगा। और इतना मार दिया है कि पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चे मजा करें। कोई ऐसी चिंता की बात नहीं। फिर यहां भी ऐसी क्या तकलीफ है!
मंत्रियों ने कहा: बड़े पागल हो, सड़क पर कोड़े खाए!
उस आदमी ने कहा: बदनामी भी हो तो नाम तो होता ही है। कौन जानता था हमको पहले! आज सारी दिल्ली में अपनी चर्चा है।
आज इतना ही।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें...!