MAHAVIR

Mahaveer Vani 25

TwentyFifth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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अरात्रि-भोजन-सूत्र

अत्थंगयंमि आइज्चे, पुरत्था य अणुग्गए।
आहारमाइयं सव्वं, भणसा वि न पत्थए।।
पाणिवह-मुसावायाऽदत्त मेहुण-परिग्गहा विरओ।
राइभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासवो।।

सूर्योदय के पहले और सूर्यास्त के बाद श्रेयार्थी को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन से जो जीव विरत रहता है, वह निराश्रव अर्थात निर्दोष हो जाता है।

सूत्र से पहले एक प्रश्र्न।

एक मित्र ने पूछा है:

भगवान, पाने योग्य चीज को अधिकतर मात्रा में पाने की चेष्टा करना भी क्या लोभ है? अधिक धन प्राप्त करके अधिक दान करने को आप क्या कहेंगे?

काम, क्रोधादि शत्रुओं में से आमतौर से लोभ के प्रति हमने थोड़ा अन्याय किया है। क्रोध और मोह जैसा संपूर्णतया अनिष्ट लोभ नहीं है। या तो लोभ को मैंने संपूर्णतया गलत समझा है।
लोभ के संबंध में थोड़ी बातें खयाल में लेनी जरूरी हैं।
एक तो काम, क्रोध, मोह--लोभ के मुकाबले कुछ भी नहीं हैं। लोभ बहुत गहरी घटना है। छोटा बच्चा पैदा होता है, तब उसके भीतर काम नहीं होता, पर लोभ होता है। काम तो आएगा बाद में, लेकिन लोभ जन्म के साथ होता है।
क्रोध तो प्रासंगिक है। कभी परिस्थिति प्रतिकूल होती है तब उठता है। लेकिन परिस्थिति प्रतिकूल ही इसलिए मालूम पड़ती है कि लोभ भीतर है।
क्रोध लोभ का अनुसंग है। अगर भीतर लोभ न हो तो क्रोध नहीं होगा। जब आपके लोभ में कोई बाधा डालता है, इसलिए क्रोध पैदा होता है। जब आपके लोभ में कोई सहयोगी नहीं होता, विरोधी हो जाता है तब क्रोध पैदा होता है।
लोभ ही क्रोध के मूल में है। गहरे देखें, तो काम का विस्तार, वासना का विस्तार भी लोभ का ही विस्तार है। बायोलॉजिस्ट, जीवशास्त्री कहते हैं कि मनुष्य की मृत्यु व्यक्ति की तरह तो निश्चित है, लेकिन व्यक्ति मरना नहीं चाहता। अमरता भी एक लोभ है, मैं रहूं सदा, मैं कभी मिट न जाऊं। लेकिन इस शरीर को हम मिटते देखते हैं। अब तक कोई उपाय नहीं इस शरीर को बचाने का।
जीवशास्त्री कहते हैं, इसलिए मनुष्य कामवासना को पकड़ता है। मैं नहीं बचूंगा तो भी कोई हर्ज नहीं, मेरा कोई बचेगा। मेरा यह शरीर नष्ट हो जाएगा, लेकिन इस शरीर के जीवाणु किसी और में जीवित रहेंगे।
पुत्र की इच्छा, अमरता की ही इच्छा है। मेरा कोई हिस्सा जीता रहे, बना रहे--वह भी लोभ है।
काम, लोभ का विस्तार है। क्रोध, काम--लोभ के मार्ग में आ गए अवरोध से पैदा हुई वितृष्णा हैं। मोह--जहां-जहां लोभ रुक जाता है, उसका नाम है--जिस-जिस पर लोभ रुक जाता है।
समझ लें, क्रोध है बाधा, मोह है सहयोग। जो मेरे लोभ में बाधा डालता है, उस पर मुझे क्रोध आता है। जो मेरे लोभ में सहयोगी बनता है, उस पर मुझे मोह आता है। वह लगता है, मेरा है। उससे ममता जगती है। इसलिए क्रोध, मोह, काम अत्यंत गहरे में ग्रीड, लोभ के ही विस्तार हैं। जिस व्यक्ति का लोभ गिर जाता है उसके ये तीनों, जिनको हम शत्रु कहते हैं, ये भी गिर जाते हैं।
लोभ के बिना क्रोध करिएगा कैसे? हां, यह हो सकता है कि क्रोध के बिना भी लोभ रहे। यह असंभव है कि लोभ के बिना कामवासना हो, लेकिन कामवासना के बिना भी लोभ हो सकता है। कैसे?
ब्रह्मचर्य में भी लोभ हो सकता है। और मैं, और ब्रह्मचारी, और ब्रह्मचारी, हो जाऊं, यह भी लोभ का हिस्सा हो सकता है।
आत्मा में भी लोभ हो सकता है और परमात्मा में भी लोभ हो सकता है। अक्सर ऐसा होता है कि लोभी अपने लोभ के लिए, जब संसार हाथ से छूटने लगता है तो दूसरे लोभ की चीजों को पकड़ना शुरू कर देते हैं। जो यहां धन पकड़ता था, वहां धर्म को पकड़ने लगता है। लेकिन पकड़ वही है। लोभ का भाव वही है। संसार खो गया, कोई हर्ज नहीं, स्वर्ग न खो जाए। यहां यश न मिला, प्रतिष्ठा न मिली, कोई हर्ज नहीं, उस परलोक में भी कहीं आनंद न खो जाए, कहीं ऐसा न हो कि यह संसार तो खो ही गया, दूसरा संसार भी खो जाए, यह लोभ पकड़ता है।
इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं: अधिक लोग बूढ़े होकर धार्मिक होने शुरू हो जाते हैं, लोभ के कारण। जवान आदमी से मौत जरा दूर होती है। अभी दूसरे लोक की इतनी चिंता नहीं होती। अभी आशा होती है कि यहीं पा लेंगे, जो पाने योग्य है। यहीं कर लेंगे इकट्ठा। लेकिन मौत जब करीब आने लगती है, हाथ-पैर शिथिल होने लगते हैं और संसार पर पकड़ ढ़ीली होने लगती है इंद्रियों की, तो भीतर का लोभ कहता है: यह संसार तो गया ही, अब दूसरे को मत छोड़ देना। ‘माया मिली न राम।’ कहीं ऐसा न हो कि माया भी गई, राम भी गए। तो अब राम को जोर से पकड़ लो।
इसलिए बूढ़े लोग मंदिरों, मस्जिदों की तरफ यात्रा करने लगते हैं। तीर्थयात्रियों में देखें, बूढ़े लोग तीर्थ की यात्रा करने लगते हैं। ये वे ही लोग हैं जिन्होंने जवानी में तीर्थ के विपरीत यात्रा की है।
कार्ल गुस्ताव जुंग ने, इस सदी के बड़े से बड़े मनस-चिकित्सक ने कहा है कि मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्तियों में जिन लोगों की मैंने चिकित्सा की है, उनमें अधिकतम लोग चालीस वर्ष के ऊपर थे। और उनकी निरंतर चिकित्सा के बाद मेरा यह निष्कर्ष है कि उनकी बीमारी का एक ही कारण था कि पश्चिम में धर्म खो गया है। चालीस साल के बाद आदमी को धर्म की वैसी ही जरूरत है, जुंग ने कहा है: जैसे जवान आदमी को विवाह की। जवान को जैसे कामवासना चाहिए, वैसे बूढ़े को धर्मवासना चाहिए। जुंग ने कहा है: उन अधिक लोगों की परेशानी यह थी कि उनको धर्म नहीं मिल रहा है। इसलिए पूरब में कम लोग पागल होते हैं, पश्चिम में ज्यादा लोग। पूरब में जवान आदमी भला पागल हो जाए, बूढ़ा आदमी पागल नहीं होता। पश्चिम में जवान आदमी पागल नहीं होता, बूढ़ा आदमी पागल हो जाता है। जैसे-जैसे जवानी हटती है, वैसे-वैसे रिक्तता आती है। यौवन की वासना खो जाती है और बुढ़ापे की वासना को कोई जगह नहीं मिलती। मन बेचैन और व्यथित हो जाता है।
हमारा बूढ़ा सोचता है आत्मा अमर है, आश्र्वासन होता है। हमारा बूढ़ा सोचता है: माला जप रहे हैं, राम नाम ले रहे हैं, स्वर्ग निश्चित है। सांत्वना मिलती है। पश्चिम के बूढ़े को कोई भी सांत्वना नहीं रही। पश्चिम का बूढ़ा बड़े कष्ट में है, बड़ी पीड़ा में है। सिवाय मौत के आगे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है उस पार।
उस पार लोभ को कोई मौका नहीं। जवानी के लोभ के विषय खो गए और बुढ़ापे के लोभ के लिए कोई ऑब्जेक्ट, कोई विषय नहीं मिल रहे। मौत का तो लोभ हो नहीं सकता, अमरता का हो सकता है। बूढ़ा आदमी शरीर का क्या लोभ करेगा! शरीर तो खो रहा है, हाथ से खिसक रहा है। तो शरीर के ऊपर, पार कोई चीज हो तो लोभ करे।
लोभ अदभुत है, विषय बदल ले सकता है। धन ही पर लोभ हो, ऐसा आवश्यक नहीं। लोभ किसी भी चीज पर हो सकता है। वासना छूट जाए काम की तो लोभ मोक्ष की वासना बन सकता है।
तो लोभ की गहराई हम समझ लें। क्यों लोभ के साथ अन्याय नहीं हुआ है? जिन्होंने भी समझा है लोभ को, उन्होंने उसे मूल में पाया है। ग्रीड मूल है। तो लोभ शब्द से हमें समझ में नहीं आता, क्योंकि सुन-सुन कर हम बहरे हो गए हैं। इस शब्द में हमें बहुत ज्यादा दिखाई नहीं पड़ता।
लोभ का मतलब है कि भीतर मैं खाली हूं और मुझे अपने को भरना है। और यह खालीपन ऐसा है कि भरा नहीं जा सकता। यह खालीपन हमारा स्वभाव है, खाली होना हमारा स्वभाव है। भरने की वासना लोभ है इसलिए लोभ सदा असफल होगा। और कितना ही सफल हो जाए तो भी असफल रहेगा। हम अपने को भर न पाएंगे। हम चाहे धन से, चाहे पद से, यश से, ज्ञान से, त्याग से, व्रत से, नियम से, साधना से, इन सबसे भी भरते रहें तो भी अपने को भर न पाएंगे। वह भीतर विराट शून्य है।
उस विराट शून्य का नाम ही आत्मा है। तो जब तक कोई व्यक्ति सूना होने को राजी नहीं हो जाता, शून्य होने को, तब तक उस आत्मा का कोई दर्शन नहीं होता। और लोभ हमें शून्य नहीं होने देता, इसलिए लोभ को इतना मूल्य दिया है और इतना उससे छुटकारे की बात की है। लोभ हमें शून्य नहीं होने देता। और लोभ हमें भटकाए रखता है, दौड़ाए रखता है। और जब तक हम भीतर शून्य न हो जाएं, तब तक स्वयं का कोई साक्षात्कार नहीं है। क्योंकि शून्य होना ही स्वयं होना है।
जब तक मैं भरा हूं, मैं किसी और चीज से भरा हूं। इसे ठीक से समझ लें।
भरने का मतलब ही किसी और चीज से भरे होना होता है। हम कहते हैं: बर्तन भरा है; बर्तन भरा है, इसका मतलब है कि कुछ और उसमें पड़ा है। अगर बर्तन स्वयं है तो खाली होगा, भरा नहीं हो सकता। हम कहते हैं: मकान भरा है, तो उसका मतलब है, किसी और चीज से भरा है। अगर मकान स्वयं है तो खाली होगा, भरा नहीं हो सकता। हम कहते हैं: आकाश बादलों से भरा है। उसका मतलब है कि बादल कुछ और हैं। जब बादल न होंगे, तब आकाश स्वयं होगा।
भराव सदा पराए से होता है, स्वयं का कोई भराव नहीं होता। जब भी आप स्वयं होंगे, शून्य होंगे और जब भी भरे होंगे, किसी और से भरे होंगे। वह और धन हो, प्रेम हो, मित्र हो, शत्रु हो, संसार हो, मोक्ष हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बट दि अदर, हमेशा दूसरा होगा, जिससे आप भरते हैं।
जिसको भरना है, वह दूसरे से भरेगा। और जिसको खाली होना है, वही स्वयं हो सकता है। इसका मतलब हुआ कि लोभ स्वयं को भरने की आकांक्षा है। अलोभ, स्वयं के खालीपन में जीने का साहस है। इसलिए लोभ भयंकर है। लोभ ही हमारा संसार है। जब तक मैं सोचता हूं कि किसी चीज से अपने को भर लूं, जब तक मुझे ऐसा लगता है कि भरे बिना मैं चैन में नहीं हूं...।
आप अकेले में कभी चैन में नहीं होते। हर आदमी तलाश कर रहा है साथी की, मित्र की, क्लब की, सभा की, समाज की। हर आदमी खोज कर रहा है दूसरे की, अकेला होने को कोई भी राजी नहीं। अपने साथ किसी को भी चैन नहीं मिलता। और बड़े मजेदार हैं हम लोग। हम खुद अपने साथ चैन नहीं पाते और सोचते हैं, दूसरे हमारे साथ चैन पाएं। हम खुद अपने को अकेले में बरदाश्त नहीं कर पाते और हम सोचते हैं, दूसरे न केवल हमें बरदाश्त करें, बल्कि अहोभाव मानें। हम खुद अपने साथ रहने को राजी नहीं हैं, लेकिन हम चाहते हैं दूसरे समझें कि हमारा साथ उनके लिए स्वर्ग है।
अकेला आदमी भागता है जल्दी, किसी से मिलने को।
मार्क ट्‌वेन ने मजाक में एक बड़ी बढ़िया बात कही है। मार्क ट्‌वेन बीमार था। किसी मित्र ने पूछा कि ट्‌वेन, तुम स्वर्ग जाना चाहोगे कि नरक? मार्क ट्‌वेन ने कहा कि इसी चिंतन में मैं भी पड़ा हूं। लेकिन बड़ी दुविधा है, फॉर क्लाइमेट हेवेन इ़ज बेस्ट, बट फॉर कंपनी हैल। अगर सिर्फ स्वास्थ्य सुधार ही करना हो, मगर अकेला रहना पड़ेगा स्वर्ग में, आबोहवा तो बहुत अच्छी है वहां की, लेकिन कंपनी बिलकुल नहीं है।
महावीर स्वामी बगल में बैठे भी हों आपके, तो भी कंपनी नहीं हो सकती। कंपनी चाहिए तो नरक। वहां जानदार, रंगीले लोग हैं, वहां कंपनी है, वहां चर्चा है, मजाक है, बातचीत है।
उसने तो मजाक में ही कहा था, लेकिन बात में थोड़ी सच्चाई है, लेकिन इसे दूसरे पहलू से देखें तो यह मजाक गंभीर हो जाता है। असल में जो लोग भी भीतर नरक में हैं, वे हमेशा कंपनी की खोज में होते हैं। जो लोग भीतर खुद से दुखी हैं, वे साथी खोजते हैं। जो भीतर आनंदित है, वह अपना साथी काफी है, किसी और साथ की कोई जरूरत नहीं।
सुना है मैंने इकहार्ट के बाबत, ईसाई फकीर हुआ और पश्चिम ने जो थोड़े से कीमती आदमी दिए हैं, महावीर और बुद्ध की हैसियत के, उनमें एक।इकहार्ट अकेला बैठा है। एक मित्र रास्ते से गुजरता था। उसने सोचा: बेचारा, अकेला बैठा है, ऊब गया होगा। वह मित्र आया और उसने कहा कि अकेले बैठे हो, मैंने सोचा--जाता तो हूं जरूरी काम से, लेकिन थोड़ा तुम्हें साथ दे दूं, टु गिव यू कंपनी।
इकहार्ट ने कहा: हे परमात्मा! अब तक मैं अपने साथ था, तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया। आइ वॉ़ज अप टु नाउ विद मी, यू हैव मेड मी अलोन। अब तक मैं अपने साथ था, तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया। तुम्हारी बड़ी कृपा होगी कि तुम अपनी कंपनी कहीं और ले जाओ। तुम किसी और को साथ दो। हम अपने साथ में काफी हैं, पर्याप्त हैं। जो अपने भीतर सोचता है: अपर्याप्त हूं, वह साथ खोजता है।
लोभ अपने से अतृप्ति है। लोभ का मतलब है: मैं अपने से राजी नहीं। कुछ और चाहिए राजी होने के लिए। और जो अपने से राजी नहीं है उसे कुछ भी मिल जाए, वह कभी राजी नहीं हो सकता। क्योंकि कुछ भी मिल जाए, वह मुझसे दूर ही रहेगा मेरे निकट तो मैं ही हूं। कितनी ही सुंदर पत्नी खोज लूं, फासला रहेगा। और कितना ही अच्छा मकान बना लूं, फासला रहेगा। और कितना ही धन का अंबार लग जाए, फासला रहेगा। मेरे पास तो मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं आ सकता। मैं अपने साथ तो रहूंगा ही, धन हो कि गरीबी, साथी हो कि अकेलापन, मैं अपने साथ तो रहूंगा ही। और अगर मैं अपने से ही राजी नहीं हूं तो मैं जगत में कभी भी राजी नहीं हो सकता।
लोभ का मतलब है: अपने से राजी न होना। किसी और से राजी होने की कोशिश है लोभ। जब कोई इस कोशिश में सफलता दे देता है, तो मोह बन जाता है। तब हम कहते हैं: इसके बिना मैं नहीं जी सकता। यह है मोह। कहते हैं: अगर यह हट गया तो मेरी जिंदगी बेकार है, यह है मोह। फिर कोई बाधा डालता है और मेरी इस लोभ की खोज में अवरोध बन जाता है, तो क्रोध उठता है, मिटा डालूंगा इसे। जिससे मोह बनता है, उससे हम कहते हैं: अगर यह मिट जाए तो मैं जी न सकूंगा। और जिससे हमारा क्रोध बनता है, तो हम कहते हैं: जब तक यह है, मैं जी न सकूंगा। इसे मिटा डालूं।
मोह और क्रोध विपरीत पहलू हैं, एक ही घटना के।और यह जो लोभ है हमारे भीतर, दूसरे की तलाश--इस दूसरे की तलाश में हमारी जो शक्तियों का नियोजन है, उसका नाम काम है, उसका नाम सेक्स है।
हमारे भीतर जो ऊर्जा है, जीवन की शक्ति है, जब यह शक्ति दूसरे की तलाश में निकल जाती है, तो काम बन जाती है। यह बड़े मजे की बात है, थोड़ी दुरूह भी। हमें खयाल में नहीं आता कि जब एक आदमी धन का दीवाना होता है, तो धन की दीवानगी उसके लिए वैसे ही कामवासना होती है जैसे कोई किसी स्त्री का दीवाना हो। वह रुपये को हाथ में रख कर वैसे ही देखता है, जैसे कोई सुंदर चेहरे को देखे। तिजोरी को वह वैसे ही प्रेम से खोलता है, जैसे कोई अपनी प्रेयसी को बिठाए। रात सपनों में प्रेयसी नहीं आती, तिजोरी आती है। यह धन जो है, इसके लिए सेक्स ऑब्जेक्ट है। यह धन के साथ मैथुन-रत है। इसलिए जो आदमी धन का दीवाना होता है, वह किसी को प्रेम नहीं कर सकता। धन पर्याप्त है। इसलिए धन का दीवाना पत्नी को प्रेम नहीं कर सकता, बच्चों को प्रेम नहीं कर सकता। सभी प्रेम बड़े ईर्ष्यालु हैं। अगर धन से प्रेम हो गया, तो धन दूसरे से प्रेम न होने देगा। प्रेम जेलेस है। धन ने अगर पकड़ लिया तो फिर नहीं होने देगा।
फैराडे, एक वैज्ञानिक को कोई पूछता था कि तुमने विवाह क्यों नहीं किया? उसने कहा कि जिस दिन विज्ञान से विवाह कर लिया, उस दिन सौतेली पत्नी घर में लाने की हिम्मत फिर मैंने न जुटाई।
अक्सर, वैज्ञानिक हों, चित्रकार हों, कवि हों, संगीतज्ञ हों, पत्नी से बचते हैं। नहीं बचते तो पछताते हैं। पछताना पड़ेगा, क्योंकि दो पत्नियां!
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका बेटा पूछ रहा था कि पिताजी कानून ने दो विवाह पर रोक क्यों लगा रखी है? तो नसरुद्दीन ने कहा कि जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते, कानून को उनकी रक्षा करनी पड़ती है। जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते, कानून को उनकी रक्षा करनी पड़ती है। एक ही पत्नी काफी है। मगर आदमी कमजोर है, दो, चार, दस इकट्ठी कर ले सकता है। तो कानून को उसकी रक्षा करनी पड़ती है कि ऐसी भूल मत करना।
अक्सर, जिनको किसी खोज में लीन होना है, वे विवाह से बच जाते हैं। उसका और कोई कारण नहीं है, क्योंकि वह खोज ही उनके लिए सेक्स ऑब्जेक्ट है। जो संगीत का दीवाना है, उसके लिए संगीत प्रेयसी है। जो काव्य का दीवाना है, कविता उसकी प्रेयसी है। अब दूसरी पत्नी कठिनाई खड़ी कर देगी। और पत्नियां इसे भलीभांति जानती हैं। कभी-कभी ऐसी भूल-चूक हो जाती है कि कोई कवि शादी कर लेता है, तो पत्नी के बरदाश्त के बाहर होता है कि वह कविता लिखे बैठ कर, उसके सामने। पत्नी मौजूद हो और पति कविता लिखे, तो पत्नी छीन कर फेंक देगी उसकी कविता। वैज्ञानिकों के हाथ से उनके उपकरण छीन लिए हैं। दार्शनिकों के हाथ से उनके शास्त्र छीन लिए हैं। हमें हैरानी लगती है कि आखिर यह पत्नी को क्या हो रहा है! अगर सुकरात अपनी किताब पढ़ रहा है, तो यह झेनथिप्पे उसे किताब पढ़ने क्यों नहीं देती!
हमें लगता है कि पागल औरत है। पागल नहीं है वह। जाने-अनजाने वह समझ गई है कि किताब ज्यादा महत्वपूर्ण है सुकरात के लिए पत्नी की बजाय। जब पत्नी मौजूद है और पति अखबार पढ़ रहा है तो बात साफ है कि महत्वपूर्ण कौन है! कौन महत्वपूर्ण है यह बात साफ है। तो अगर पत्नी अखबार को छीन कर फाड़ कर फेंक देती है, तो पत्नी की अंतःप्रज्ञा उसको ठीक-ठीक दिशा दे रही है। वह ठीक समझ रही है।
जो व्यक्ति जिसमें लीन हो जाता है, वही उसके लिए काम-विषय हो जाता है। लीनता, काम-विषय का लक्षण है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लीनता स्त्री और पुरुष के प्रति ही हो। आपकी लीनता किसी भी चीज के प्रति हो जाए, तो जो संबंध है वह काम का हो जाता है। लोभ काम की यात्रा पर निकल जाता है। फिर चाहे धन, चाहे यश, चाहे पद, चाहे पुण्य, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
लोभ का एक लक्षण है, अपने से बाहर जाना। दूसरे की खोज। दूसरे के बिना जीना मुश्किल। दूसरा स्वयं से ज्यादा महत्वपूर्ण है। दूसरे की महिमा ज्यादा, स्वयं की महिमा गौण। और जिसकी स्वयं की महिमा गौण है वह कहीं भी भटके, भिखारी ही रहेगा। इसलिए लोभी सदा भिखारी है, सम्राट हो जाए तो भी। उसका भिक्षापात्र खाली ही रहता है। और फिर लोभ से पैदा होती हैं सारी संततियां--क्रोध की, मोह की। इसलिए लोभ को पाप का मूल कहा है।
मित्र ने पूछा है कि ज्यादा धन कमा कर ज्यादा दान?
धन से लोभ का संबंध नहीं है। दान से भी लोभ का संबंध नहीं है। ज्यादा--ज्यादा से संबंध है। ज्यादा धन कमाने वाला ज्यादा में अटका है। कल यह ज्यादा दान भी कर सकता, तब भी ज्यादा में ही अटका होगा।
दान अच्छा है, लेकिन प्रायश्चित्त की तरह। और उसका कोई विधायक मूल्य नहीं है। जैसे माफी मांगना अच्छा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि ऐसे उपाय करना चाहिए, जिससे माफी मांगनी पड़े। कि पहले गाली देनी चाहिए, फिर माफी मांग लेनी चाहिए। क्योंकि माफी मांगना बहुत अच्छा है। माफी मांगना अच्छा है, प्रायश्चित्त की तरह। माफी कोई पुण्य नहीं है। माफी केवल पाप का प्रायश्चित्त है। दान कोई पुण्य नहीं है, केवल वह जो इकट्ठा किया था धन, उसका प्रायश्चित्त है। दान की कोई विधायकता नहीं है, कोई पाजिटिविटी नहीं है दान की। इसलिए जो लोग कहते हैं: खूब दान करो, अगर उनका मतलब यह है कि पहले खूब धन इकट्ठा करो, फिर दान करो तो यह तो गणित के साथ बहुत तरकीब होगी। पहले खूब पाप करो, फिर पुण्य करो।
एक पादरी अपने स्कूल के बच्चों से पूछ रहा था। उसने बहुत समझाया था उनको कि मुक्ति के लिए क्या आवश्यक है--सॉलवेशन के लिए, छुटकारे के लिए। समझाया था कि जीसस की प्रार्थना, पूजा, भगवान का स्मरण यह सब जरूरी है, जिसको मुक्त होना हो। फिर उसने सब समझाने के बाद पूछा कि मुक्त होने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी चीज क्या है? एक छोटे से बच्चे ने हाथ हिलाया। वह पादरी बहुत खुश हुआ। वह बच्चा खड़ा हुआ। उसने पूछा: क्या है सबसे जरूरी चीज? उसने कहा: पाप करना।
कि जब तक पाप न करो, छूटना किससे है? छुटकारे का क्या अर्थ है? छुटकारे के लिए पाप करना पहली जरूरत है। दान के लिए पहले धन इकट्ठा करना। लेकिन यह जाल समझने जैसा है। जो आदमी ज्यादा धन इकट्ठा कर रहा है, वह दान कर कैसे पाएगा? जितना ज्यादा पर उसका जोर होगा, उतना ही छोड़ना मुश्किल होगा। क्योंकि ज्यादा को पकड़ने की आदत हो जाएगी। हां, वह दान कर सकता है, अगर ये दान इनवेस्टमेंट हो। अगर उसको यह पक्का भरोसा हो जाए कि जितना मैं देता हूं, उससे ज्यादा मुझे मिलेगा, तो वह दान कर सकता है। उसे पक्का हो जाए कि यहां देता हूं, स्वर्ग में मिलेगा।
आजकल लोग दान करने में उतने तत्पर नहीं दिखाई पड़ते, उसका कारण है, स्वर्ग संदिग्ध हो गया है। और कोई कारण नहीं है! उतना भरोसा नहीं रहा साफ-साफ कि है भी। अगर पुराने लोग दानी थे तो आप यह मत समझना कि आपसे कम लोभी थे। स्वर्ग सुनिश्चित था। उसमें कोई शक की बात ही न थी। यहां देना और वहां लेना। नगद था, उसमें कहीं कोई उधारी का मामला न था। अब सब गड़बड़ है। यहां हाथ से जाता हुआ नगद मालूम पड़ता है, वहां स्वर्ग का मिलता हुआ नगद नहीं है।
जिन्होंने दान किए हैं पुराने लोगों ने, लोभ के कारण ही किए हैं, लोभ के विपरीत नहीं। लोभ के विपरीत दान बड़ी और बात है। लोभ के कारण दान बड़ी और बात है। क्या फर्क होगा दोनों में? एक फर्क होगा। ज्यादा मौजूद नहीं रहेगा दान में। अगर यह लगता है कि ज्यादा दान करूं, तो क्यों लगता है! ताकि ज्यादा पा लूं! यह ज्यादा की दौड़ क्या है? यही दौड़ कल थी कि ज्यादा धन इकट्ठा करूं, अब यही दौड़ है कि ज्यादा दान करूं। क्यों? तुम ज्यादा के बिना क्यों नहीं हो सकते हो? यह ज्यादा--यह बुखार ज्यादा का आवश्यक नहीं है। और जब कोई व्यक्ति ज्यादा से मुक्त हो जाता है तो शांत हो जाता है। तब लेाभ शांत हो जाता है।
तो जिन्होंने वस्तुतः दान किया है, उन्होंने कुछ पाने के लिए दान नहीं किया है। वह सिर्फ प्रायश्चित्त है। जो व्यर्थ का इकट्ठा कर लिया था वह वापस लौटा दिया है। उससे आगे कोई पुण्य मिलने वाला नहीं है, पीछे के किए पाप का निपटारा है। वह सिर्फ हिसाब साफ कर लेना है, और कुछ भी नहीं।
मित्र ने पूछा है: ‘पाने योग्य चीज को अधिकतर मात्रा में पाने की चेष्टा में भी क्या लोभ है?’
असल में पाने योग्य क्या है? जो पाने योग्य है, वह भीतर पहले से ही मिला हुआ है। उसका कोई लोभ नहीं किया जा सकता। और जो भी हम पाने योग्य मानते हैं, वह पाने योग्य नहीं होता। लोभ पहले आ जाता है, इसलिए पाने योग्य मालूम पड़ता है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
हम कहते हैं: जो पाने योग्य है, उसके लोभ में क्या हर्ज है! लेकिन पाने योग्य वह होता ही इसलिए है कि लोभ ने उसे पकड़ लिया है। नहीं तो पाने योग्य नहीं होता। जो चीज आपको पाने योग्य लगती है, आपके पड़ोसी को पाने योग्य नहीं लगती। पड़ोसी का लोभ कहीं और है, आपका लोभ कहीं और है, यही फर्क है।
कोई चीज अपने आप में पाने योग्य नहीं है। जिस दिन आपका लोभ उस चीज से जुड़ जाता है, वह पाने योग्य दिखाई पड़ने लगती है। जब तक लोभ नहीं जुड़ा था, पाने योग्य नहीं थी। पाने योग्य का मतलब ही यह है कि लोभ जुड़ गया। तब तो एक वीसियस सर्कल पैदा हो जाता है। लोभ पहले जुड़ गया, इसलिए चीज पाने योग्य मालूम पड़ती है। और फिर हम कहते हैं कि जो पाने योग्य है, उसके लोभ में हर्ज क्या! यह लोभ जो दूसरा है, धोखा दे रहा है। इसके पहले ही लोभ आ गया।
ऐसा समझें तो आसान हो जाएगा। हम कहते हैं: सुंदर व्यक्ति पाने योग्य मालूम पड़ता है। लेकिन सुंदर ही क्यों मालूम पड़ता है? आप जब कहते हैं: फलां व्यक्ति सुंदर है तो आप सोचते हैं, सौंदर्य कोई गुण है जो वहां व्यक्ति में मौजूद है। लेकिन मनस्विद कहते हैं: जिसको आप चाहते हैं, पाना चाहते हैं, वह आपको सुंदर दिखाई पड़ता है। यह तो हमारे अनुभव की बात है। क्योंकि जो आज हमें सुंदर दिखाई पड़ता है, जरूरी नहीं कि कल भी सुंदर दिखाई पड़े। जो हमें सुंदर दिखाई पड़ता है, हमारे मन की तरकीब है, हम कहते हैं: वह सुंदर है इसलिए हम पाना चाहते हैं। असलियत और है। हम पाना चाहते हैं, इसलिए वह सुंदर दिखाई पड़ता है। हमारी चाह पहले है। और जहां हमारी चाह जुड़ जाती है, वहीं सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। जहां हमारा लोभ जुड़ जाता है, वहीं पाने योग्य मालूम पड़ने लगता है।
पाने योग्य क्या है? पाने योग्य केवल वही है, जो मिला ही हुआ है। जिसे पाने की कोई जरूरत ही नहीं है। और जिसे भी पाने की जरूरत है, वह पाने योग्य नहीं है। यह कंट्राडिक्ट्री मालूम पड़े, विरोधी मालूम पड़े। जो पाने योग्य मालूम पड़ता है वह पाने योग्य है ही नहीं, क्योंकि वह पराया है। उसे पाना पड़ेगा। और जिसे भी हम पा लेंगे, उसे छोड़ना पड़ेगा। संसार का इतना ही अर्थ है: कितना ही पाओ, वह छोड़ना पड़ेगा। सिर्फ एक चीज मुझसे नहीं छीनी जा सकती, वह मेरा होना है। उसे मैंने कभी पाया नहीं, वह मुझे मिला हुआ है, आलरेडी गिवेन। जब भी मैंने जाना, वह मुझे मिला हुआ है। उसे मैंने कभी पाया नहीं। बाकी आपने जो भी चीजें पा ली हैं, वह सब छिन जाएंगी।
जो पाया जाता है, वह छिन जाता है, क्योंकि वह हमारा नहीं है। इसीलिए तो पाना पड़ता है। एक दिन छिन जाता है। जो हमारा नहीं है वह हमारा नहीं हो सकता। जो मेरा है, उसे मैंने कभी पाया ही नहीं। वह मैं ही हूं।
इसलिए धर्म की दृष्टि में पाने योग्य सिर्फ एक ही बात है, और वह है स्वयं का स्वरूप। उसको हम आत्मा कहें, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें--यह शब्दों का भेद है। बाकी कोई भी चीज पाने योग्य नहीं है।
लोभ दिखाता है, यह पाने योग्य है, यह पाने योग्य है, यह पाने योग्य है। लोभ दिखा देता है, वासना दौड़ पड़ती है। सफलता मिल जाती है, मोह बन जाता है। असफलता मिल जाती है, क्रोध बन जाता है। इसलिए लोभ अधर्म का मूल है।

अब सूत्र:
‘सूर्योदय के पहले और सूर्यास्त के बाद श्रेयार्थी को सभी प्रकार के भोजन, पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए।’
इस संबंध मे थोड़ा विचारणीय है। क्योंकि महावीर को मानने वालों ने इस सूत्र को बुरी तरह विकृत कर दिया। जैनों की धारणा केवल इतनी ही रह गई कि रात्रि में भोजन करने से हिंसा होती है, इसलिए नहीं करना चाहिए। यह बड़ा गौण हिस्सा है। यह मूल हिस्सा नहीं है। और अगर यही सच है तो अब रात्रि में भोजन करने में कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए। क्योंकि महावीर के वक्त में न बिजली थी, न प्रकाश था, न कुछ था। आज भी गांव के देहात में लोग अंधेरे में रात भोजन करते हैं। अगर इसीलिए महावीर ने कहा था कि रात्रि-भोजन करने में कभी कोई कीड़ा है, करकट है, छोटा पतंगा है, कोई भोजन में गिर जाए, गिर जाता है। दिन में गिर जाता है तो रात में तो बहुत आसान है। और अंधेरे में भोजन, या छोटे-मोटे दीये के प्रकाश में भोजन--अगर महावीर ने इसीलिए कहा था, जैसा कि जैन साधु समझाते रहते हैं कि रात्रि में भोजन करने से हिंसा होती है, अगर महावीर ने इसीलिए कहा था, तो अब इस सूत्र की कोई सार्थकता नहीं है। अब तो बिजली का प्रकाश है जो दिन से भी ज्यादा हो सकता है। अब तो कोई इसमें अड़चन नहीं है। अगर यही कारण है, तब तो यह परिस्थितिगत बात थी और अब इसका कोई मूल्य नहीं रह जाता। लेकिन, यही कारण नहीं है और इसका मूल्य कायम रहेगा।
इसके मूल्य को हम समझें।
सूर्योदय के साथ ही जीवन फैलता है। सुबह होती है, सोए हुए पक्षी जग जाते हैं, सोए हुए पौधे जग जाते हैं, फूल खिलने लगते हैं, पक्षी गीत गाने लगते हैं, आकाश में उड़ान शुरू हो जाती है। सारा जीवन फैलने लगता है। सूर्योदय का अर्थ है: सिर्फ सूरज का निकलना नहीं, जीवन का जागना, जीवन का फैलना। सूर्यास्त का अर्थ है: जीवन का सिकुड़ना, विश्राम में लीन हो जाना।
दिन जागरण है, रात्रि निद्रा है। दिन फैलाव है, रात्रि विश्राम है। दिन श्रम है, रात्रि श्रम से वापस लौट आना है। सूर्योदय की इस घटना को समझ लें तो खयाल में आएगा कि रात्रि-भोजन के लिए महावीर का निषेध क्यों है? क्योंकि भोजन है जीवन का फैलाव। तो सूर्योदय के साथ तो भोजन की सार्थकता है। शक्ति की जरूरत है। लेकिन सूर्यास्त के बाद भोजन की जरा भी आवश्यकता नहीं है। सूर्यास्त के बाद किया गया भोजन बाधा बनेगा, सिकुड़ाव में, विश्राम में। क्योंकि भोजन भी एक श्रम है।
आप भोजन ले लेते हैं, तो आप सोचते हैं, काम समाप्त हो गया। गले के नीचे भोजन गया तो आप समझे कि काम समाप्त हो गया। गले तक तोकाम शुरू ही नहीं होता, गले के नीचे ही काम शुरू होता है। शरीर श्रम में लीन होता है। भोजन देने का अर्थ है, शरीर को भीतरी श्रम में लगा देना। भोजन देने का अर्थ है कि अब शरीर का रोआं-रोआं इसको पचाने में लग जाएगा।
तो अगर आपकी निद्रा क्षीण हो गई है, अगर रात विश्राम नहीं मिलता, नींद नहीं मालूम पड़ती, स्वप्न ही स्वप्न मालूम पड़ते हैं, करवट ही करवट बदलनी पड़ती है, उसमें से अस्सी प्रतिशत कारण तो शरीर को दिया गया काम है जो रात में नहीं दिया जाना चाहिए। तो एक तो भोजन देने का अर्थ है, शरीर को श्रम देना। लेकिन जब सूरज उगता है तो ऑक्सीजन की, प्राणवायु की मात्रा बढ़ती है। प्राणवायु जरूरी है श्रम को करने के लिए। जब रात्रि आती है, सूर्य डूब जाता है तो प्राण वायु का औसत गिर जाता है हवा में। जीवन को अब कोई जरूरत नहीं है। कार्बन डाइआक्साइड का, कार्बन द्वि औषद की मात्रा बढ़ जाती है जो कि विश्राम के लिए जरूरी है। जान कर आप हैरान होंगे कि ऑक्सीजन जरूरी है भोजन पचाने के लिए। कार्बन द्वि औषद के साथ भोजन मुश्किल से पचेगा।
मनोवैज्ञानिक अब कहते हैं कि हमारे अधिकतर दुख स्वप्नों का कारण हमारे पेट में पड़ा हुआ भोजन है। हमारी निद्रा की जो अस्त-व्यस्तता है, अराजकता है, उसका कारण पेट में पड़ा हुआ भोजन है। आपके सपने अधिक मात्रा में आपके भोजन से पैदा हुए हैं। आपका पेट परेशान है। काम में लीन है। दिन भर चुक गया। काम का समय बीत गया और अब भी आपका पेट काम में लीन है। बाकी हम तो अदभुत लोग हैं। हमारा असली भोजन तो रात में होता है, बाकी तो दिन भर हम काम चला लेते हैं। जो असली भोजन है, बड़ा भोजन, डिनर, वह हम रात में लेते हैं। उससे ज्यादा दुष्टता शरीर के साथ दूसरी नहीं हो सकती।
इसलिए अगर महावीर ने रात्रि-भोजन को हिंसा कहा है तो मैं कहता हूं: कीड़े-मकोड़ों के मरने के कारण नहीं, अपने साथ हिंसा करने के कारण, वह आत्म-हिंसा है। आप अपने शरीर के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं। एक--अवैज्ञानिक है। भोजन की जरूरत है सुबह, सूर्य के उगने के साथ--जीवन की आवश्यकता है, शक्ति की आवश्यकता है। श्रम होगा, शक्ति चाहिए। विश्राम होगा, शक्ति नहीं चाहिए। पेट सांझ होते-होते, होते-होते मुक्त हो जाए भोजन से, तो रात्रि शांत होगी, मौन होगी, गहरी होगी। निद्रा एक सुख होगी और सुबह आप ताजे उठेंगे। रात्रि भर भी आपके पेट को श्रम करना पड़े तो सुबह आप थके-मांदे उठेंगे।
इसके और भी गहरे कारण हैं। आपने खयाल किया होगा, जैसे ही पेट में भोजन पड़ जाता है, वैसे ही आपका मस्तिष्क ढीला हो जाता है। इसलिए भोजन के बाद नींद सताने लगती है। लगता है लेट जाओ। लेट जाने का मतलब यह है कि कुछ मत करो अब। क्यों? क्योंकि सारी ऊर्जा शरीर की पेट को पचाने के लिए दौड़ जाती है। मस्तिष्क बहुत दूर है पेट से। जैसे ही पेट में भोजन पड़ता है, मस्तिष्क की सारी ऊर्जा पेट में पचाने को आ जाती है। ये वैज्ञानिक तथ्य हैं। इसलिए आंख झपकने लगती है और नींद मालूम होने लगती है। इसलिए उपवासे आदमी को रात में नींद नहीं आती। दिन भर उपवास किया हो तो रात में नींद नहीं आती। क्योंकि सारी ऊर्जा मस्तिष्क की तरफ दौड़ती रहती है तो नींद नहीं आ पाती। इसलिए, जैसे ही आप पेट भर लेते हैं तत्काल नींद मालूम होने लगती है। यह भरे पेट में नींद इसलिए मालूम होती है कि मस्तिष्क को जो ऊर्जा दी गई थी, वह पेट ने वापस ले ली।
पेट जड़ है। पेट पहली जरूरत है। मस्तिष्क विलास है, लक़्जरी है। जब पेट के पास ज्यादा ऊर्जा होती है तब वह मस्तिष्क को दे देता है। नहीं तो पेट में ही मस्तिष्क की ऊर्जा घूमती रहती है।
महावीर ने कहा है: दिन है श्रम, रात्रि है विश्राम, ध्यान भी है विश्राम। इसलिए पूरी रात्रि ध्यान बन सकती है, अगर थोड़ा सा शरीर के साथ समझ का उपयोग किया जाए। अगर रात्रि पेट में भोजन पड़ा है तो रात्रि ध्यान नहीं बन सकती, निद्रा ही रह जाएगी। निद्रा भी उखड़ी-उखड़ी, गहरी नहीं।
आदमी साठ साल जीए तो बीस साल सोता है। बीस साल बड़ा लंबा वक्त है। और हम सारे लोग कहते सुने पाए जाते हैं, कब करें ध्यान? समय नहीं है। महावीर कहते हैं: ये बीस साल ध्यान में बदले जा सकते हैं। यह जो रात्रि की निद्रा है, जब आप कुछ भी नहीं कर सकते, तब ध्यान किया जा सकता है।
ध्यान श्रम नहीं है, ध्यान विश्राम है। इसलिए ध्यान का नींद से बड़ा गहरा संबंध है। और नींद ध्यान में रूपांतरित हो जाती है। लेकिन नींद, ध्यान में तभी रूपांतरित हो सकती है, जब पेट ऊर्जा न मांग रहा हो। जब पेट मांग न कर रहा हो कि शक्ति मुझे चाहिए पचाने के लिए। जब पेट शांत हो, पेट की कोई मांग न हो, ऊर्जा मस्तिष्क में हो। इस उर्जा को ध्यान में बदला जा सकता है। अगर इसको ध्यान में न बदला जाए तो नींद को तोड़ने वाली हो जाएगी जो कि आम उपवास करने वाले की होती है। अगर यह ध्यान में बदल जाए, यह ऊर्जा तो नींद को बाधा नहीं देगी। नींद अपने तल पर चलती रहेगी, और एक नया आयाम, एक नया डाइमेंशन ऊर्जा का शुरू हो जाएगा, ध्यान।
कृष्ण ने कहा है कि योगी रात सो कर भी सोता नहीं। महावीर ने भी कहा है: शरीर ही सोता है, चेतना नहीं सोती। यह एक भीतरी कीमिया है। अब इस कीमिया के तीन हिस्से हुए--अगर ऊर्जा पेट में जाए तो मस्तिष्क में जाती नहीं, पहली बात। अगर ऊर्जा मस्तिष्क में जाए और ध्यान न बनाई जाए तो नींद असंभव हो जाएगी। इसलिए तीसरी बात, ऊर्जा पेट में न जाए, मस्तिष्क में जाए और मस्तिष्क में ध्यान की यात्रा पर निकल जाए तो मस्तिष्क सो सकेगा और ऊर्जा ध्यान बन जाएगी। इसलिए योगी रात में सोता नहीं।
इसका यह मतलब नहीं है कि योगी का शरीर नहीं सोता, शरीर भलीभांति सोता है। आपसे ज्यादा अच्छी तरह सोता है। शायद योगी ही इस अर्थ में ठीक से सोता है। लेकिन फिर भी सोता नहीं, भीतर कोई जागता रहता है। वह जो ऊर्जा पेट के काम नहीं आ रही है, वह जो ऊर्जा मस्तिष्क के काम नहीं आ रही है, वही ऊर्जा बूंद-बूंद ध्यान में टपकती रहती है। और भीतर एक ज्योति जागरण की जगनी शुरू हो जाती है। रात्रि से ज्यादा सम्यक अवसर ध्यान के लिए दूसरा नहीं है। इसलिए महावीर ने कहा है कि रात्रि-भोजन नहीं।
जैन साधुओं को सुन कर बातें बहुत बचकानी लगती हैं। उनकी बातें सुन कर ऐसा लगता है कि ये ऑब्सेस्ड हैं, इनका दिमाग खराब है। रात्रि-भोजन नहीं! और रात्रि-भोजन नहीं, इसको ऐसा बना लिया है कि जैसे इसके बिना मोक्ष न हो सकेगा। तो बात बड़ी टुच्ची मालूम पड़ती है। कहां मोक्ष, कहां रात्रि-भोजन से जोड़ रहे हो। ऐसा लगता है कि रात्रि-भोजन छोड़ दिया तो मुक्ति हो गई। इतना सस्ता! कि रात्रि-भोजन छोड़ दिया तो मुक्ति हो गई!
न, इसमें बीच के सूत्र खो गए हैं, जिनकी वजह से अड़चन है। बीच की सीढ़ियां खो गई हैं। सीढ़ी है--रात्रि सबसे ज्यादा सम्यक अवसर है ध्यान के लिए, अनेक कारणों से। पहला: समस्त अस्तित्व विश्राम में चला जाता है, सूर्य के डूबते ही अस्तित्व विश्राम में चला जाता है। मगर हम उलटे लोग
हैं। हमने सब-कुछ उलटा कर रखा है। सूर्य के डूबते ही समस्त अस्तित्व विश्राम में चला जाता है, हमें भी विश्राम में चला जाना चाहिए, हमें सूरज के साथ यात्रा करनी चाहिए। शरीर भी विश्राम में जाना चाहिए, मन भी विश्राम में जाना चाहिए। मन के विश्राम का नाम ध्यान है। शरीर के विश्राम का नाम निद्रा है। आपका मन अगर विश्राम में नहीं जाता तो आप ध्यान में नहीं जा सकते। लेकिन जिनका शरीर ही विश्राम में नहीं जाता, उनका मन कैसे विश्राम में जा सकेगा।
इसलिए महावीर ने कहा: रात्रि-भोजन बिलकुल नहीं। इसका रात्रि से संबंध नहीं है, इसका आपसे संबंध है, ध्यान से संबंध है।
अब मैं जैनों को देखता हूं, रात्रि-भोजन बिलकुल नहीं, इसलिए शाम को वह ठूंस-ठूंस कर खा लेते हैं। देखते जाते हैं कि सूरज तो नहीं डूब रहा और खाते जाते हैं।
एक घर में मैं ठहरा हुआ था। जो मेरे आतिथेय थे, मेजबान थे, वे मेरे साथ खाना खाने बैठे। कमरे के भीतर अंधेरा उतरने लगा। उन्होंने जल्दी से अपनी थाली ली और कहा कि मैं बाहर जाकर भोजन करता हूं। मैंने पूछा: क्या हुआ? उन्होंने कहा: बाहर अभी जरा रोशनी है, दिन है। कमरे से वे बाहर चले गए, वहां उन्होंने जल्दी-जल्दी भोजन कर लिया।
बड़े मजे की बात है, कभी-कभी हम सूत्रों का पालन करने में सूत्रों का जो मूल है, उसकी ही हत्या कर देते हैं। जिस आदमी ने जल्दी-जल्दी भोजन किया है, उसकी रात बड़ी बेचैन गुजरेगी। क्योंकि जल्दी-जल्दी भोजन का मतलब है कि कचरे की तरह पेट में भोजन डाल दिया गया, बिना चबाए। पेट को ज्यादा अड़चन होगी इसे पचाने में। इससे तो बेहतर था कि अंधेरे में बैठ कर ठीक से चबा लिया होता, क्योंकि पेट के पास दांत नहीं हैं। दांत का काम मुंह में ही हो सकता है। फिर पेट में नहीं होगा। और फिर पेट को इसे पचाने में अथक कष्ट झेलना पड़ेगा, और रात्रि और मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन समझ हाथ में न हो, सूत्र हों, तो ऐसे ही अंधापन पैदा होता है। फिर चूंकि रात भर भोजन नहीं करना है, इसलिए खूब कर लेना है! रात पानी नहीं पीना है, इसलिए सूरज डूबते-डूबते खूब पानी पी लेना है! यह हत्या हो गई मूल सूत्र की। लेकिन यह होगी, क्योंकि हमारा कुल खयाल इतना है कि रात्रि-भोजन छूट गया तो सब-कुछ मिल गया। उसके पीछे के पूरे विज्ञान का कोई बोध नहीं है।
रात्रि-भोजन जिसे छोड़ना हो, उसे पूरी जीवनचर्या बदलनी पड़ेगी। इतना आसान नहीं है रात्रि-भोजन छोड़ देना। रात्रि-भोजन तो कोई भी छोड़ सकता है, लेकिन पूरी जीवनचर्या बदलनी पड़ेगी।
महावीर ने तो साधक के लिए एक बार भोजन को कहा है। क्योंकि एक बार भोजन लिया गया हो तो उसके पचने में छह और आठ घंटे लगते हैं। इसलिए दोपहर में अगर ग्यारह बजे भोजन ले लिया तो ही रात्रि-भोजन से बचा जा सकता है, नहीं तो नहीं बचा जा सकता। इसका मतलब यह हुआ कि ग्यारह बजे जो भोजन लिया, वह सांझ सूरज के डूबते-डूबते पच जाएगा। पेट में नहीं रह जाएगा, पचाने की कोई क्रिया जारी नहीं रहेगी। अब यह साधक रात में बिना भोजन के सो सकता है। लेकिन अगर सिर्फ इतनी ही मान्यता है, तो रात में नींद मुश्किल हो जाएगी। और जब नींद मुश्किल होगी, तो भोजन के बाबत ही चिंतन चलेगा। जो उपवास करता है, रात भर भोजन करता है। भोजन का मजा लेना हो तो उपवास करना चाहिए। फिर ऐसा रस भोजन में आता है, जैसा कभी आया ही नहीं। ऐसी-ऐसी चीजें याद आती हैं, जो कई जमाने हो गए, भूल गईं और बड़ा मन ताजा हो जाता है। अभी व्रत चलते हैं तो कई लोगों का मन भोजन के प्रति बड़ा ताजा हो जाएगा। आठ-दस दिन के बाद जब व्रत छूटेंगे, तब वह जेलखाने से छूटे हुए कैदियों के भांति अपने चौकों में प्रवेश कर जाएंगे। योजनाएं अभी से तैयार हो रही हैं उनके मन में कि क्या-क्या करना है!
महावीर आदमी को भोजन से छुड़ाना चाहते हैं। जैनों को जितना भोजन से बंधा मैं देखता हूं, किसी और को नहीं देखता--चौबीस घंटे भोजन! सूत्र की हत्या हो जाती है, समझ की कमी से।
भोजन महत्वपूणर्र् नहीं है, न रात्रि महत्वपूर्ण है। शरीर की ऊर्जा का संतुलन, शरीर की ऊर्जा का रूपांतरण, वह अल्केमी, कीमिया महत्वपूर्ण है। महावीर निश्चित ही मनुष्य के शरीर में गहरे उतरे। कम लोग इतने गहरे गए हैं। उन्होंने ठीक जड़ पकड़ ली, कहां से जड़ें शुरू होती हैं। शरीर का काम शुरू होता है भोजन से, और शरीर चाहता है भोजन के पास रुके रहो, क्योंकि शरीर का काम भोजन से पूरा हो जाता है। उसकी और कोई जरूरत नहीं है। भोजन से जो ऊपर न उठ सके वह शरीर से भी ऊपर न उठ सकेगा। शरीर, यानी भोजन। आपका शरीर है क्या? भोजन का संग्रह है। आपने जो भोजन किया, उसका, आपकी मां ने, आपके पिता ने जो भोजन किया, उसका, उनके माता-पिता ने जो भोजन किया, उसका, आप भोजन का लंबा सार निचोड़ हैं, आपका शरीर जो है। इसलिए भोजन के प्रति इतना आकर्षण स्वाभाविक है, क्योंकि वह हमारे शरीर का मूल आधार है। उससे ही शरीर चल रहा है। अब सवाल यह है कि हमको शरीर को ही अगर चलाते रहना है तो बस भोजन करते रहना है, और भोजन निकालते रहना है, बस यह काम करते रहना है।
यूनान में लोग अपने भोजन की टेबल पर, जैसे आप सींकें रखते हैं दांत साफ करने के लिए, ऐसा पक्षियों के पंख रखते थे। भोजन कर लिया, फिर गले में पंख फिराया, वॉमिट कर दी, फिर भोजन कर लिया। तो मेहमान को अगर आपने दो-चार दफा उलटी न करवाई तो आपने ठीक स्वागत न किया। तो मेहमान के लिए एक बड़ा पंख पक्षी का रखते थे। और दो आदमी पास खड़े रहते थे जो जल्दी जब उसका भोजन, वह कहे, बस अब नहीं, तो जल्दी से वे बर्तन ले आएंगे, पंख चला देंगे उसके गले में और वॉमिट करवा देंगे। नीरो ने, सम्राट नीरो ने दो डॉक्टर रख छोड़े थे जो दिन में उसे आठ दफा उल्टियां करवाते थे ताकि वह और भोजन कर सके।
मगर आप क्या कर रहे हैं? आप न पंख चला रहे हैं गले में, न आपने डॉक्टर रख छोड़े हैं, लेकिन आप गलती में हैं। आप भी इतना ही कर रहे हैं कि डालो, निकालो; डालो, निकालो। आप सिर्फ एक यंत्र हैं, जिसमें भोजन डाला जाता है और निकाला जाता है। एक सर्कल है, जब निकल जाए तो फिर डाल लो, जब डल जाए तो निकलने की प्रतीक्षा करो।
आप जिंदगी भर भोजन डालने और निकालने का एक क्रम हैं। यही है जीवन! अगर इस ऊर्जा में से कुछ ऊर्जा मुक्त नहीं होती और ऊपर नहीं जाती, तो आपको शरीर के अतिरिक्त किसी चीज का कभी अनुभव नहीं होगा। इसलिए महावीर भोजन के शत्रु नहीं हैं, भोजन के दुश्मन नहीं हैं, जैसा उनके साधु हो गए हैं।
महावीर--केवल भोजन ही जीवन नहीं है, भोजन के पार जीवन का विस्तार है--इसके उदघाटक हैं। रात्रि-भोजन नहीं, महावीर का बहुत आग्रह है। यह आग्रह इस बात की सूचना है कि यह मामला सिर्फ भोजन का नहीं है, यह कोई गहरी, भीतरी क्रांति का मामला है।
‘सूर्योदय के पहले और सूर्यास्त के बाद श्रेयार्थी को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिए।’
यह भी जोड़ा है साथ, ‘मन से इच्छा नहीं करनी चाहिए।’ आपने किया या नहीं किया, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना मन से इच्छा नहीं करनी चाहिए। तो मैं तो कहूंगा कि अगर कर लेने से मन की इच्छा मिटती हो तो कर लेना बेहतर। अगर न करने से मन की इच्छा बढ़ती हो तो खतरनाक है। अगर थोड़ा सा भोजन पेट में डाल लेने से रात भर भोजन की, मन की वासना क्षीण होती हो तो बेहतर बजाय उपवासे रहने के और रात भर मन भोजन के आस-पास घूमे--वह ज्यादा खतरनाक है।
महावीर कहते हैं: रात्रि-भोजन तो करना नहीं है, और रात्रि में मन में वासना भी न उठे भोजन की। यह कैसे होगा? यह हमें मुश्किल मालूम पड़ता है। भोजन न करें, यह कोई बड़ी कठिन बात नहीं है, कोई भी कर सकता है। थोड़ा जिद्दी स्वभाव हो तो और आसान मामला है। इसलिए अक्सर जिद्दी बच्चे, अभी पर्युषण चलता है, तो जो बच्चे जिद्दी हैं वे भी उपवास कर लेंगे। उनके मां-बाप समझते हैं कि बच्चा बड़ा धार्मिक है। कुल कारण इतना है कि बच्चा उपद्रवी है और पीछे सताएगा। उसका मतलब यह है कि बच्चा, बच्चा नहीं है, जिद्दी है, बहुत अहंकारी है। और देखता है कि बड़े कर रहे हैं उपवास, तो ठीक, हम भी कर के दिखा देते हैं। और जितना लोग समझाते हैं कि मत करो बेटे, तुम अभी छोटे हो, बड़े होकर करना, उतना उसका अहंकार मजबूत होता है कि अच्छा! छोटे हैं! तो करके दिखाए देते हैं। वह करके दिखा देगा।
यह बच्चा आज नहीं कल उपद्रवी सिद्ध होने वाला है। जरूरी नहीं है कि साधु हो जाए तो उपद्रवी न हो। अधिक साधु तो उपद्रवी होते ही हैं। उपद्रव का मतलब ही इतना है कि यह अहंकार को रस मिलना शुरू हो गया।
आप भी थोड़े अहंकारी हों, तो बराबर भोजन छोड़ सकते हैं। भोजन में क्या अड़चन है! लेकिन मन की वासना कैसे छूटेगी? वह जो रात मन दौड़ेगा भोजन की तरफ, उसका क्या करिएगा? उसको कैसे रोकिएगा? उसे रोका नहीं जा सकता। मन दौड़ेगा ही। उसे जब तक आप मन की ऊर्जा को नई दिशा में प्रवाहित न कर दें, तब तक वह उन्हीं दिशाओं में दौड़ेगा जिसकी उसे आदत है। पेट कहेगा: भूख लगी है, तो मन पेट की तरफ दौड़ेगा। गला कहेगा: प्यास लगी है, तो मन गले की तरफ दौड़ेगा। मन का काम ही यही है कि वह शरीर में कहां क्या हो रहा है, इससे आपको सूचित रखे।
एक ही हालत है कि मन किसी इतनी बड़ी चीज में नियोजित हो जाए कि उसे पता ही न चले कि पेट को भूख लगी कि गले को प्यास लगी। उसका नाम ही ध्यान है। उस दिशा में नियोजित हो जाए। इतना लीन हो जाए किसी और आयाम में कि शरीर भूल ही जाए। जब शरीर भूल जाए तो फिर प्यास नहीं लगती, फिर भूख नहीं लगती है।
भूख लगी है आपको। घर में आग लग गई, फिर भूख नहीं लगती। फिर पता ही नहीं चलता कि भूख लगी है। अभी बिलकुल सुस्त होकर बैठते थे कि कदम नहीं उठाए उठता है और घर में आग लग गई है, आप ऐसे दौड़ रहे हैं जैसे गलती हो गई कि आपको ओलंपिक क्यों न भेजा! सारी ताकत लगा दी है आपने। मिल्खा सिंह अब आपसे जीत नहीं सकता दौड़ में। क्यों? ध्यान नियोजित हो गया। एकाग्र हो गया, मकान में आग लग गई, शरीर से हट गया। पूरे शरीर से हट गया। ध्यान का नियोजन बड़ी बात है।
मैंने सुना है मिल्खा सिंह के संबंध में। एक रात उसके घर में चोर घुसे। वह विश्व-विजेता दौड़ाक। उसके घर में चोर घुसे। मिल्खा सिंह जोश में आ गया, चोरों के पीछे भागा। पुलिस स्टेशन पहुंच गया। जाकर इंस्पेक्टर को कहा कि चोर कहां हैं? मैं उनके ठीक पीछे था।
चोर तो वहां कोई थे नहीं। इंस्पेक्टर ने कहा: कहां के चोर? आप अकेले दौड़े चले आ रहे हैं।
मिल्खा सिंह ने कहा: गलती हो गई, आइ मस्ट हैव ओवरटेकन देम। रास्ते में मैं भूल गया कि चोरों का पीछा कर रहा हूं, मैं समझा दौड़ चल रही है।
आपका मस्तिष्क जहां नियोजित हो जाए, फिर सब भूल जाता है। चित्त एकाग्र हो जाए कहीं भी तो शेष सब विस्मृत हो जाता है। क्योंकि स्मरण के लिए चित्त का संस्पर्श जरूरी है। पैर में दर्द हो रहा है, तो चित्त पैर तक जाए तो ही पता चलता है। पेट में भूख लगी है, चित्त पेट तक जाए तो ही पता चलता है। पेट को कभी पता नहीं चलता है भूख लगने का। पता तो चित्त को चलता है लेकिन चित्त पेट तक जाए तो ही पता चलता है। अगर चित्त कहीं और चला जाए तो फिर पेट तक नहीं जा सकता। घर में आग लगी है तो चित्त वहां चला गया। एक धारा में चित्त बह जाए तो शेष सारा जगत अनुपस्थित हो जाता है।
काशी के नरेश का ऑपरेशन हुआ पे
ट का, तो उसने कहा: मैं कोई दवा नहीं लूंगा। कोई जिंदगी भर दवा नहीं ली थी। नहीं लेने का खयाल था कि शरीर में कुछ भी विजातीय रासायनिक द्रव्य नहीं डालने। लेकिन बिना दवा ऑपरेशन... अब यह ऑपरेशन होगा कैसे? बेहोश तो करना पड़ेगा। उसने कहा कि नहीं, कोई जरूरत नहीं, बस मुझे गीता पढ़ने दी जाए। मैं गीता पढ़ता रहूंगा, तुम पेट का ऑपरेशन कर डालना।
डॉक्टर बड़े चिंतित थे कि यह असंभव मामला दिखता है; गीता पढ़ने में इतना चित्त एकाग्र हो पाएगा? लेकिन कोई उपाय न था। मौत दोनों हालत में होने वाली थी। अगर नहीं ऑपरेशन करते हैं, तो सम्राट मरेगा। अगर करते हैं तो एक संभावना भी है शायद... इसलिए ऑपरेशन किया गया। और काशी नरेश गीता पढ़ते रहे और उनका पेट काटा जाता रहा। सी दिया गया, सब ठीक हो गया। यह पहला ऑपरेशन था, बड़ा ऑपरेशन था; पहला ऑपरेशन था, जो बिना किसी अनस्थेसिया के, बिना किसी बेहोशी की दवा के किया गया। डॉक्टर तो चकित हो गए। उन्होंने कहा: यह तो चमत्कार है।
लेकिन नरेश ने कहा: कोई भी चमत्कार नहीं है। क्योंकि पेट तक मेरा जाना जरूरी है, तभी तो मुझे पता चले कि वहां दर्द हो रहा है। लेकिन मैं गीता की तरफ जा रहा हूं, तो फिर वहां नहीं जा सकता।
ध्यान की तरफ जाए बिना रात्रि-भोजन से बचने का कोई अर्थ नहीं है। उपवास का भी कोई अर्थ नहीं है। आप समझते हैं? उपवास और अनशन में यही फर्क है। अनशन का मतलब है, भूखे मर रहे हैं रात, सोच रहे हैं। अनशन उपवास नहीं है। उपवास शब्द का अर्थ होता है: आत्मा के निकट होना। उपवास--आत्मा के पास होना। आत्मा के पास होने का अर्थ ही ध्यान है।
तो जो ध्यान नहीं कर सकता, वह उपवास नहीं कर सकता। इसलिए मैं नहीं कहता कि उपवास की फिकर करो। पहले ध्यान की फिकर करो। ध्यान जिसे आता है उसका अनशन उपवास बन जाता है। जिसे ध्यान नहीं आता, उसका उपवास सिर्फ भूख हड़ताल है--अपने ही खिलाफ। उससे कोई आनंद उत्पन्न होने वाला नहीं है। इसलिए महावीर ने इतना जोर दिया है।
क्या करें? कैसे मन ध्यान बन जाए? कहां मन को ले जाएं? तो मन के धीरे-धीरे अभ्यास करने पड़ते हैं हटाने के।मन को धीरे-धीरे शरीर से हटाने का अभ्यास करना पड़ता है। कभी ऐसा थोड़े सा प्रयोग करें तो खयाल में आना शुरू हो जाएगा।
खड़े हैं, आंख बंद कर लें। बाएं पैर में मन ले जाएं, बाएं पैर के अंगूठे तक मन को जाने दें।
दाएं पैर को बिलकुल भूल जाएं। सारी चेतना बाएं पैर में घूमने लगे। यह कठिन नहीं है। बाएं पैर में चेतना घूमने लगेगी। फिर हटा लें बाएं पैर से। फिर दाएं पैर में ले जाएं, बाएं पैर को बिलकुल भूल जाएं। दाएं पैर में चेतना को घूमने दें। इसे हर अंग पर बदलें, तो आपको फौरन एक बात पता चल जाएगी कि चेतना भी एक प्रवाह है आपके भीतर, और जहां आप ले जाना चाहते हैं वहां जा सकता है, और जहां से आप हटाना चाहते हैं वहां से हट सकता है। अभी आपने कभी इसका अभ्यास नहीं किया है, इसलिए खयाल में नहीं है।
इसलिए शरीर जहां चाहता है, आपकी चेतना वहां चली जाती है। आप जहां चाहते हैं, वहां नहीं जाती। क्योंकि आपने उसका कोई अभ्यास नहीं किया। अभी भूख लगती है तो चेतना तत्काल पेट में चली जाती है। वह आपसे आज्ञा नहीं लेती कि मैं पेट की तरफ जाऊं। वह चली जाती है। आप कुछ कर नहीं पाते। क्योंकि आपने कभी यह अब तक सोचा ही नहीं कि चेतना का प्रवाह, मेरी इंटेंशन, मेरी अभीप्सा पर निर्भर है। इसका थोड़ा प्रयोग करें।
रात बिस्तर पर पड़े हैं, सारी चेतना को पैर के अंगूठों में ले जाएं। सब तरफ से भूल जाएं, सिर्फ अंगूठे रह जाएं। ले जाएं, भीतर...भीतर...भीतर...अंगूठे में ठहर जाएं जाकर। जैसे आपकी आत्मा अंगूठे में ठहरी गई। बहुत लाभ होगा, नींद तत्काल आ जाएगी। क्योंकि मस्तिष्क से अंगूठा बहुत दूर है। जब चेतना सारी वहां पहुंच जाती है, मस्तिष्क खाली हो जाए, आप एकदम गहरी नींद में गिर जाएंगे।
चेतना को थोड़ा हटाना सीखें। आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें, कहीं भी एक बिंदु पर चेतना को थिर करने की कोशिश करें, आप पाएंगे, जिस बिंदु पर चेतना को ले जाएंगे, वहीं प्रकाश पैदा हो जाएगा। आंख बंद कर लें, सोचें कि सारी चेतना हृदय पर आ गई, इंटेंशनल, अभिप्राय से सारी चेतना को हृदय पर ले आएं, हृदय की धड़कन ही केंद्र बन गई। आप अचानक पाएंगे, हृदय के पास धीमा सा प्रकाश होना शुरू हो गया।
चेतना को बदलने के ये प्रयोग करते रहें। कभी भी कर सकते हैं, इसमें कोई अड़चन नहीं है। कुर्सी पर खाली बैठे हैं, ट्रेन में, बस में, कार में बिलकुल कर सकते हैं। कहीं कोई अलग समय निकालने की जरूरत नहीं है। धीरे-धीरे आपको लगेगा, आपकी मास्टरी हो गई। यह मास्टरी वैसी ही है जैसे की कोई कार की ड्राइविंग सीखता है। ऐसे ही चेतना की ड्राइविंग सीखनी पड़ती है।
एक आदमी साइकिल चलाना सीखता है। आप भी साइकिल चलाना जानते हैं, लेकिन अब तक कोई बता नहीं सका कि साइकिल कैसे चलाई जाती है। अभी तक तो नहीं बता सका कोई। चला कर बता सकते हैं आप, लेकिन कैसे चलाई जाती है, क्या है ट्रिक, क्या है सीक्रेट? सीक्रेट सूक्ष्म है। अभ्यास से आ जाता है, लेकिन खयाल में नहीं है।
साइकिल चलाना एक बड़ी दुर्लभ घटना है, क्योंकि पूरे समय ग्रेविटेशन आपको गिराने की कोशिश कर रहा है। जमीन आपको पटकने की कोशिश कर रही है। दो चक्के पर सीधे आप खड़े हैं, लेकिन प्रतिपल आप गति इतनी रख रहे हैं कि आपको इसके पहले कि इस जमीन का ग्रेविटेशन गिराए, आप आगे हट गए। इसके पहले कि वहां का गुरुत्वाकर्षण आपको पटके, आप फिर आगे हट गए। गति और गुरुत्वाकर्षण के बीच में आप एक संतुलन बनाए हुए हैं। इसके पहले कि बाएं तरफ का गुरुत्वाकर्षण आपको गिराए, आप दाएं झुक गए। इसके पहले दाएं गिरें, बाएं झुक गए। एक गहन संतुलन साइकिल पर चल रहा है।
पहली दफे ही आप साइकिल क्यों नहीं चला पाते हैं? बिठा दिया आपको, और धक्का दे दिया, चला लें! क्योंकि दुबारा भी कुछ ज्यादा नहीं करेंगे आप, अभी भी कर सकते हैं यही। लेकिन अभी भय है, बस। और पता नहीं कि क्या होगा! वह भय के कारण आप गिर जाते हैं। दो-चार दफा गिर कर, दो-चार दफा धक्के खाकर अक्ल आ जाती है। चलाने लगते हैं।
चेतना एक भीतरी नियंत्रण है, एक संतुलन है। अपने शरीर में चेतना को गतिमान करना सीखें। एक तीन महीने निरंतर अभ्यास से आप समर्थ हो जाएंगे, जहां चेतना को ले जाना चाहें। अगर फिर आपके बाएं हाथ में दर्द हो रहा है, आप चेतना को दाएं हाथ में ले जाएं, दर्द विलीन हो जाएगा। आपके पैर में कांटा गड़ गया है, आप चेतना को पैर से हटा लें, सोख लें भीतर, कांटा विलीन हो जाएगा। जिस दिन आपको यह समझ आ जाए उसी दिन अनशन उपवास बन सकता है, उसके पहले नहीं। उसके पहले भूखे मरते रहें, उससे कुछ होने वाला नहीं है। उससे कुछ होने वाला नहीं है। खुद को सताने में कुछ मजा आए तो आए, कोई जुलूस यात्रा वगैरह आपकी निकाल दे तो बात अलग। नासमझ मिल जाते हैं, यात्रा निकालने वाले भी। उसका कारण है, ये सब म्युचुअल मामले हैं। कल वे भी यह नासमझी करेंगे तब आप उनकी यात्रा में सम्मिलित हो जाना।
आदमी इसीलिए यात्राओं में सम्मिलित हो जाता है कि कल अपनी निकली तो कोई सम्मिलित न होगा!
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपनी पत्नी से कह रहा है कि नहीं, आज मैं जाऊंगा ही नहीं। पत्नी ने कहा: क्या मामला है, कहां जाने की बात है? मुल्ला नसरुद्दीन के मित्र की पत्नी मर गई है। तो नसरुद्दीन कहता है: आज मैं नहीं जाऊंगा। पत्नी कहती है, क्या आप पागल हो गए हैं? जाना ही पड़ेगा।
नसरुद्दीन ने कहा: वह तीन दफे मौका दे चुका मुझे, तीन पत्नियां मर चुकीं, मैंने उसको अब तक एक भी अवसर नहीं दिया। ऐसे बड़ी हीनता मालूम पड़ती है, कि चले हर बार। अब तक अपन ने कोई मौका ही नहीं दिया। और वह है कि दिए चला जा रहा है।
म्युचुअल, पारस्परिक है सब लेन-देन। यहां सब लेन-देन का हिसाब है। यहां सारा खेल उस पर टिका हुआ है। तो नासमझ आपको मिल जाएंगे, आपके जुलूस में जाने को। क्योंकि वह भी आशा लगाए बैठे हैं कि कभी न कभी आप भी उनके जुलूस में आएंगे।
शायद इसमें कुछ रस आ जाए तो बात अलग, लेकिन आपका अनशन, अनशन ही रहेगा, उपवास नहीं बन सकता। उपवास तो एक भीतरी विज्ञान है। इस विज्ञान का पहला सूत्र है: चेतना को शरीर के अंगों में प्रवाहित करने की क्षमता, सचेतन, स्वेच्छा से। जब यह क्षमता आ जाती है तो फिर चेतना को शरीर के बाहर ले जाने की दूसरी प्रक्रिया है कि शरीर के, चेतना को बाहर ले जाना। जब शरीर के बाहर चेतना जाने लगती है तभी भूख, प्यास, दुख, पीड़ा का कोई पता नहीं चलता।
तो महावीर ने कहा है: इच्छा भी नहीं करनी चाहिए।
‘हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन से जो जीव विरत रहता है, वह निराश्रव, निर्दोष हो जाता है।’
‘निराश्रव’ महावीर का अपना शब्द है, और बड़ा कीमती है। ‘आश्रव’ महावीर कहते हैं उन द्वारों को, जिनसे हमारे भीतर बाहर से चीजें आती हैं। आश्रव यानी आना। निराश्रव, मतलब बाहर से हमारे भीतर अब कुछ भी नहीं आता। अब हम अपने में आप्तकाम, अब हम अपने में पूरे हैं। अब कोई मांग न रही बाहर से। अब सारा संसार भी इस क्षण खो जाए, बिलकुल खो जाए, तो ऐसा ही लगेगा, एक स्वप्न समाप्त हुआ। इससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। इससे कोई भेद नहीं पड़ेगा।
निराश्रव का अर्थ है कि बाहर से आने का जो भी यात्रा-पथ था, वह समाप्त हो गया। अब किसी यात्री को हम भीतर नहीं बुलाते। अब हमारे भीतर कोई भी नहीं आता। न धन, न प्रेम, न घृणा, न क्रोध, अब कुछ भी हम भीतर नहीं आने देते। न मित्र, न शत्रु, अब कोई हमारे भीतर प्रवेश नहीं करता। अब हम अपने में पूरे हैं। लेकिन, हम तो आश्रव में ही जीते हैं। हम पूरे वक्त... बाहर से कुछ हमें चाहिए। उत्तेजना चाहिए पूरे वक्त बाहर से। ऐसा जैसे बाहर के सहारे ही हम जीते हैं भीतर भी।
एक आदमी आ जाता है और आपसे कह देता है: बड़े सुंदर हैं। चित्त प्रफुल्लित हो जाता है, फूल खिल जाते हैं, पक्षी उड़ने लगते हैं भीतर। इसका रास्ता आप देख रहे थे कि कोई आकर कहे कि बड़े सुंदर हैं। लोगों की आंखों में आप खोजते रहते हैं कि लोग आपको सुंदर कह रहे हैं कि नहीं। अगर कोई आपकी तरफ ध्यान नहीं देता, चित्त बड़ा उदास हो जाता है।
मैं एक युनिवर्सिटी में था। वहां कुछ लड़कियां मुझे आकर शिकायत करती हैं कि किसी ने कंकड़ मार दिया, किसी ने धक्का मार दिया। मैंने उनसे कहा: मारने भी दो! अगर कोई धक्का न मारे और कोई कंकड़ न मारे, तो भी मुसीबत! तो भी चित्त उदास होता है। जिस लड़की को कोई कंकड़ नहीं मारता युनिवर्सिटी में, उसका कष्ट आपको पता है? वह कष्ट, जिसको कंकड़ मारे जाते हैं उससे बहुत ज्यादा है। सच तो यह है कि जो लड़की आकर मुझे शिकायत की है कि मुझे फलां लड़के ने कंकड़ मारा, इसने कंकड़ मारा, उस प्रोफेसर तक ने मुझे धक्का दे दिया, वह असल में इसके कहने में रस भी ले रही है। उस रस का उसे पता न हो। भीतर उसे मजा भी आ रहा है।
इसलिए जब कोई आकर बताता है कि रास्ते में भीड़ बड़ी धक्का मारने लगी, तो उसकी आंखों में देखना, एक चमक है। अगर भीड़ धक्का न मारती, कोई देखता ही नहीं कि आप थे भी, कि आप थीं भी। तो उदासी चित्त को पकड़ लेती है। कोई ध्यान नहीं दे रहा है।
हम पूरे समय बाहर से जी रहे हैं, बाहर कौन क्या कर रहा है! यह हमारा आश्रव चित्त है। इसमें सिर्फ बाहर के सहारे ही हमारा अस्तित्व है। सब सहारे खींच लो, हम ऐसे गिर पड़ेंगे जैसे कि खेत में खड़ा हुआ झूठा पुतला गिर जाए। उसकी सब चीजें अलग कर लो। नास्तिक यही कहता है कि तुम्हारे भीतर कुछ है ही नहीं। जो बाहर से आया है, वही है। तुम भीतर कुछ भी नहीं हो, बाहर के जोड़ हो।
चार्वाक ने यही कहा है, यही उसका निवेदन है कि तुम बाहर के ही जोड़ हो। तुम्हारे शरीर में जो खून दौड़ रहा है वह बाहर से आया। तुम्हारा जो अणु, तुम्हारा सेल बन गया वह बाहर से आया, तुम्हारी हड्डी-मांस-मज्जा सब बाहर से आई। तुम जो भी हो वह सब बाहर से आया हुआ है। भीतर तुम कुछ भी नहीं हो, भीतर होने जैसी कोई बात ही नहीं है। देयर इ़ज नो इनरनेस, सब-कुछ बाहर से आया हुआ है। भीतर झूठा शब्द है। इसलिए चार्वाक कहता है: बाहर की सब चीजें अलग कर लो, तो भीतर कुछ नहीं बचता। हालत वैसी हो जाती है, जैसे प्याज के छिलके निकालते जाओ, आखिर में कुछ भी हाथ नहीं आता। प्याज हाथ में नहीं आती। प्याज छिलकों का जोड़ थी।
चार्वाक कहता है: तुम भी सिर्फ एक जोड़ हो बाहर के, सब हटा लो और तुम खो जाओगे, तुम्हारी आत्मा वगैरह कुछ भी नहीं है, सिर्फ एक जोड़ है, एक कंपाउंड।
महावीर इसके ही विपरीत हैं। वे कहते हैं: तुम भीतर भी कुछ हो, तुम्हारा भीतरी होना भी तत्व है। लेकिन इस भीतरी तत्व को तुम जानोगे कैसे? तुम तभी जान पाओगे जब तुम बाहर से सब लेना बंद कर दो। शरीर तो बाहर से लेगा ही। इसलिए महावीर कहते हैं: शरीर का कोई भीतरीपन नहीं है। शरीर का सब-कुछ बाहरी है। मन भी बाहर से ही लेता है, इसलिए मन का भी कोई भीतरीपन नहीं है।
इसलिए महावीर कहते हैं: शरीर से ऊपर उठो, चेतना को हटा लो शरीर से पूरा। मन को जो-जो बाहर से मिलता है--विचार, क्रोध, लोभ, मोह--जो-जो बाहर से प्रभावित करते हैं मन को, आंदोलित करते हैं, मन को भी छोड़ दो। वहां से भी चेतना को हटा लो। तुम हटाए जाओ चेतना को उस समय तक जब तक कि तुम्हें कुछ भी दिखाई पड़े कि यह बाहरी है। उससे तोड़ते चले जाओ। इसको महावीर ने भेद-विज्ञान कहा है--दि साइंस ऑफ डिसक्रिमिनेशन। तुम अपने को तोड़ते चले जाओ उससे, जो भी पराया मालूम पड़ता है, बाहर से आया हुआ मालूम पड़ता है। हट जाओ उससे। एक दिन ऐसा आएगा कि बाहर से आया हुआ कुछ भी न बचेगा, तुम अनाश्रव हो जाओगे। तुम्हारे भीतर कुछ भी बाहर से आया हुआ न होगा। उसी दिन अगर तुम बचते हो तो समझना कि आत्मा है। अगर उस दिन नहीं बचते तो समझना कि कोई आत्मा नहीं है।
आदमी के भीतर अगर आत्मा है, तो उसे जानने का एक ही उपाय है कि हमें बाहर से जो भी मिला है, उसका त्याग कर दें; चेतना से त्याग कर दें, चेतना को हटा लें, दूर कर लें। जिस दिन मैं भीतर ही भीतर रह जाऊं और मैं कह सकूं: यह मेरी मां से नहीं आया, मेरे पिता से नहीं आया, समाज से नहीं आया, शिक्षा से नहीं आया; यह किसी ने मुझे नहीं दिया। यह मेरा भीतरीपन है, यह मेरा अंतस है, उसी दिन समझना कि मैंने आत्मा पा ली।
अनाश्रव मार्ग है हटा देने का, जो बाहर से आया। हम जोड़ हैं, बाहर के और भीतर के। चार्वाक या नास्तिक कहते हैं कि हम सिर्फ बाहर के जोड़ हैं। महावीर कहते हैं: हम बाहर और भीतर दोनों के जोड़ हैं। जो बाहर से आया हुआ है, उसके संग्रह का नाम शरीर है, और जो बाहर से नहीं आया हुआ है उसका नाम आत्मा है। लेकिन इस आत्मा को खोजना पड़े, क्योंकि हम बाहर में ही जी रहे हैं। हमें कोई पता नहीं है। हम कहते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं: आत्मा है। और यह शब्द कोरा आकाश में खो जाता है धुएं की तरह। इसका कोई बहुत अर्थ नहीं है। इसका अर्थ तो केवल उसी को हो सकता है जिसने अपने भीतर बाहर का सब छोड़ दिया चेतना से, हटा ली चेतना सब तरफ से, और उस बिंदु पर पहुंच कर खड़ा हो गया कि कह सके कि यह बाहर से आया हुआ नहीं है।
बुद्ध घर लौटे बारह वर्ष के बाद, तो पिता ने कहा कि माफ कर दे सकता हूं तुम्हें अभी भी। लौट आओ।
बुद्ध ने कहा कि आप थोड़ा गौर से मुझे देखें! मैं वही नहीं हूं जो आपके घर से गया था। जो आपके घर से गया था, वह केवल काया थी, बाहर का था। अब मैं उसे जान कर लौटा हूं जो भीतर का है, जो काया नहीं है। अब मैं और ही हूं।
लेकिन पिता क्रोध में थे, जैसा कि अक्सर पिता होते हैं। पिता और पुत्र में क्रोध में न हो, यह जरा असंभावना है।
असंभावना इसलिए है कि पिता की आकांक्षाएं पुत्र पर टिकी रहती हैं, और इस दुनिया में कौन किसकी आकांक्षा पूरी कर सकता है! अपनी ही आकांक्षा पूरी कोई नहीं कर पाता, दूसरे की कोई कैसे करेगा! और पिता की सब आकांक्षाएं पुत्र पर टिकी रहती हैं, वह कोई पूरी नहीं होतीं। सभी पिता क्रोध में होते हैं। पिता होने का मतलब क्रोध में होना है। बचना मुश्किल है।
और जो भी पुत्र हुआ, उसे कुपुत्र होने की तैयारी रखनी ही चाहिए। कोई उपाय नहीं है। बुद्ध जैसा पुत्र भी पिता को लगता है, कुपुत्र!
बुद्ध के पिता ने कहा कि हमारे घर में कभी कोई भिक्षापात्र लेकर नहीं घूमा है। छोड़ो यह भिक्षापात्र, तुम सम्राट के बेटे हो। यह सारा राज्य तुम्हारा है। मत करो नष्ट मेरे वंश को। यह क्या लगा रखा है, हटाओ यह सब!
बुद्ध ने कहा: आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं। आप जरा क्रोध को कम करें, आंख को धुएं से मुक्त करें, देखें तो, कौन सामने खड़ा है। स्वभावतः पिता और नाराज हो गए होंगे। पिता ने कहा कि मैं तुम्हें नहीं पहचानता! मेरी हड्डी-मांस-मज्जा तू है। मेरा खून तेरी नसों में बह रहा है और मैं तुझे नहीं पहचानता!
बुद्ध ने कहा: जो हड्डी-मांस-मज्जा है, अगर मैं वही हूं तो आप मुझे भलीभांति पहचानते हैं। लेकिन अब मैं जान कर लौटा हूं कि वह मैं नहीं हूं। और मैं आपसे कहता हूं कि मैं आपके द्वारा पैदा हुआ जरूर, लेकिन आपसे पैदा नहीं हुआ हूं। आप एक रास्ते से ज्यादा नहीं थे जिससे मैं गुजरा। यह जो भी मुझमें दिखाई पड़ता है, आपका है। लेकिन मेरे भीतर वह भी है जो आपको दिखाई नहीं पड़ता, मुझे दिखाई पड़ता है। वह आपका नहीं है।
इस बिंदु का नाम आत्मा है। लेकिन यह अनाश्रव हुए बिना, इसका कोई अनुभव नहीं है।
इसलिए महावीर कहते हैं: जो अनाश्रव हो जाता है वह निर्दोष हो जाता है। सब दोष बाहर से आए हुए हैं। निर्दोषता भीतरी घटना है। सब दोष शरीर के संग के कारण हैं। यह महावीर निरंतर कहते हैं कि अगर हम एक नीलमणि को पानी में डाल दें, तो सारा पानी नीला हो जाता है। होता नहीं, दिखाई पड़ने लगता है। नीला हो नहीं जाता। मणि को बाहर खींच लें, पानी का रंग खो जाता है। मणि को भीतर डाल दें, पानी फिर नीला हो जाता है। संग-दोष। इसको महावीर कहते हैं कि सिर्फ संग-साथ के कारण पानी नीला दिखाई पड़ने लगता है।
आत्मा पर कोई वस्तुतः दोष लगते नहीं। आत्मा कभी दोषी होती नहीं। आत्मा का होना निर्दोष है, वह इनोसेंस है ही, निर्दोषता है। लेकिन शरीर के संग-साथ शरीर का रंग उस पर पड़ जाता है। शरीर की वजह से रंग उसको घेर लेते हैं। शरीर की वजह से लगता है, मेरी सीमा है। शरीर की वजह से लगता है, मैं बीमार हुआ। शरीर की वजह से लगता है, भूख लगी। शरीर की वजह से लगता है, सिर में दर्द हो रहा है। शरीर की वजह से सब-कुछ पकड़ लेता है।
आत्मा, जैसे-जैसे शरीर से अपने को अलग जानती है, वैसे-वैसे निर्दोषता का अनुभव करने लगती है। सब संग-दोष है। न शरीर दोषी है, न आत्मा दोषी है। दोनों के संग-साथ में एक-दूसरे पर छाया पड़ती है और दोष हो जाता है।

आज इतना ही।

रुकें पांच मिनट, कीर्तन में सम्मिलित हों...!


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