MAHAVIR

Mahaveer Vani 24

TwentyFourth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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अपरिग्रह-सूत्र

न सो परिग्गह वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा।
मुच्छा परिग्गहो वुत्ती, इइ वुत्तं महेसिणा।।
लोहस्सेस अणुफ्कोसी, मन्ने अन्नरामवि।
जे सिया सन्निहिकामे, गिही पव्वइए न से।।

प्राणीमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है। लेकिन इन सामग्रियों में असक्ति, ममता व मूर्च्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि ने बताया है।
संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है। अतएव मैं मानता हूं कि जो संग्रह करने की वृत्ति रखते हैं, वे गृहस्थ हैं, साधु नहीं।

पहले एक प्रश्र्न।

एक मित्र ने पूछा है कि रस-परित्याग का क्या अर्थ है? क्या रस-परित्याग का यही अर्थ है कि कोई भी इंद्रियजनित कंपन से ध्यान न जुड़े? फिर तो रस त्यागी को आंख, कान वगैरह बंद करके ही चलना उचित होगा। अंधे, बहरे, गूंगे सर्वश्रेष्ठ त्यागी सिद्ध होंगे। क्या यही महावीर और आपका खयाल है?

रस-परित्याग का अर्थ अंधापन, बहरापन नहीं है, लेकिन बहुत लोगों ने वैसा अर्थ लिया है। ध्यान को इंद्रियों से तोड़ना तो कठिन, इंद्रियों को तोड़ देना बहुत आसान है। आंख जो देखती है, उससे रस को छोड़ना तो कठिन, आंख को फोड़ देना बहुत कठिन नहीं है। किन्हीं ने तो आंखें फोड़ ही ली हैं वस्तुतः! किन्हीं ने धुंधली कर ली हैं। आंख बंद करके चलने से कुछ भी न होगा, क्योंकि आंख बंद करने की जो वृत्ति पैदा हो रही है वह जिस भय से पैदा हो रही है, वह भय त्याग नहीं है।
और मन के नियम बहुत अदभुत हैं। जिससे हम भयभीत होते हैं, उससे हम बहुत गहरे में प्रभावित भी होते हैं। अगर मैं सौंदर्य को देख कर आंख बंद कर लूं तो वह भी सौंदर्य से प्रभावित होना है। उससे यह पता नहीं चलता कि मैं सौंदर्य की जो वासना थी, उससे मुक्त हो गया। उससे इतना ही पता चलता है कि सौंदर्य की वासना भरपूर है, और मैं इतना भयभीत हूं अपनी वासना से कि भय के कारण मैंने आंखें बंद कर ली हैं। लेकिन जिस भय से आंखें बंद की हैं, वह आंख के भीतर चलता रहेगा। आवश्यक नहीं है कि हम बाहर ही देखें, तभी रूप दिखाई पड़े।
अगर रस भीतर मौजूद है तो रस भीतर भी रूप को निर्मित कर लेता है। स्वप्न निर्मित हो जाते हैं, कल्पना निर्मित हो जाती है। और बाहर तो जगत इतना सुंदर कभी भी नहीं है जितना हम भीतर निर्मित कर सकते हैं। जो स्वप्न का जगत है, वह हमारे हाथ में है। अगर रस मौजूद हो और आंख फोड़ डाली जाए तो हम सपने देखने लगेंगे, और सपने बाहर के संसार से ज्यादा प्रीतिकर हैं। क्योंकि बाहर का संसार तो बाधा भी डालता है। सपने हमारे हाथ का खेल है। हम जितना सुंदर बना सकें, बना लें। ऐर हम जितनी देर उन्हें टिकाना चाहें, टिका लें। फिर वे सपने की प्रतिमाएं किसी तरह का अवरोध भी उपस्थित नहीं करतीं।
बहुत लोग संसार से भयभीत होकर स्वप्न के संसार में प्रविष्ट हो जाते हैं। जिनको स्वप्न के संसार में प्रविष्ट होना हो, उन्हें आंखें बंद कर लेना बड़ा सहयोगी होगा, क्योंकि खुली आंख सपना देखना बड़ा मुश्किल है। लेकिन इससे रस विलीन न होगा, रस और प्रगाढ़ होकर प्रकट होगा।
आपके दिन उतने रसपूर्ण नहीं हैं, जितनी आपकी रातें रसपूर्ण हैं। और आपकी जागृति उतनी रसपूर्ण नहीं है, जितने स्वप्न आपके रसपूर्ण हैं। स्वप्न में आपका मन उन्मुक्त होकर अपने संसार का निर्माण कर लेता है। स्वप्न में हम सभी स्रष्टा हो जाते हैं और अपनी कल्पना का लोक निर्मित कर लेते हैं। बाहर का जगत थोड़ी बहुत बाधा भी डालता होगा, वह बाधा भी नष्ट हो जाती है।
रस-परित्याग का अर्थ इंद्रियों को नष्ट कर देना नहीं है। रस-परित्याग का अर्थ है इंद्रियों और चेतना के बीच जो संबंध है, जो बहाव है, जो मूर्च्छा है, उसे क्षीण कर लेना।
इंद्रियां खबर देती हैं, वे खबर उपयोगी हैं। इंद्रियां सूचनाएं लाती हैं, संवेदनाएं लाती हैं बाहर के जगत की, वे अत्यंत जरूरी हैं। उन इंद्रियों से लाई गई सूचनाओं, संवेदनाओं पर मन की जो गहरी भीतरी आसक्ति है, वह जो मन का रस है, वह जो मन का ध्यान है, जो मन का उन इंद्रियों से लाई गई खबरों में डूब जाना है, खो जाना है, वहीं खतरा है।
मन अगर खोए न, चेतना अगर इंद्रियों की लाई हुई सूचनाओं में डूबे न, मालिक बनी रहे, तो त्याग है। इसे ऐसा समझें, इंद्रियां जब मालिक होती हैं चेतना की, और चेतना अनुसरण करती है इंद्रियों की, तो भोग है। और जब चेतना मालिक होती है इंद्रियों की, और इंद्रियां अनुसरण करती हैं चेतना का, तो त्याग है।
मैं मालिक बना रहूं, इंद्रियां मेरी मालिक न हो जाएं। इंद्रियां जहां मुझे ले जाना चाहें, वहां खींचने न लगें; मैं जहां जाना चाहूं जा सकूं। और मै जहां जाना चाहूं, वहां जाने वाले रास्ते पर इंद्रियां मेरी सहयोगी हों। रास्ता मुझे देखना हो तो आंख देखे, ध्वनि मुझे सुननी हो तो कान ध्वनि सुने, मुझे जो करना हो इंद्रियां उसमें मुझे सहयोगी हो जाएं, इंस्ट्रूमेंटल हों--यही उनका उपयोग है।
हमारी इंद्रियां और हमारा जो संबंध है वह मालिक का है या गुलाम का, इस पर ही सभी कुछ निर्भर करता है। यह मेरा हाथ, जो मैं उठाना चाहूं वही उठाए, तो मैं त्यागी हूं, और यह मेरा हाथ मुझसे कहने लगे कि यह उठाना ही पड़ेगा, और मुझे उठाना पड़े, तो मैं भोगी हूं। यह मेरी आंख, जो मैं देखना चाहूं, वही देखे तो मैं त्यागी हूं। और यह आंख ही मुझे सुझाने लगे कि यह देखो, यह देखना ही पड़ेगा, इसे देखे बिना नहीं जाया जा सकता, तो मैं भोगी हूं। भोग और त्याग का इतना ही अर्थ है कि इंद्रियां मालिक हैं या चेतना मालिक है? चेतना मालिक है तो रस विलीन हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि इंद्रियां विलीन हो जाती हैं, बल्कि सच तो उल्टी बात है, इंद्रियां परिशुद्ध हो जाती हैं। इसलिए महावीर की आंखें जितनी निर्मलता से देखती हैं, आपकी आंखें नहीं देख सकतीं। इसलिए, हम महावीर को अंधा नहीं कहते, द्रष्टा कहते हैं, आंख वाला कहते हैं।
बुद्ध के हाथ जितना छूते हैं, उतना आपके हाथ नहीं छू सकते। नहीं छू सकते इसलिए कि भीतर का जो मालिक है, वह बेहोश है। नौकर मालिक हो गए हैं। भीतर की जो बेहोशी है वह संवेदना को पूरा गहरा नहीं होने देती, पूरा शुद्ध नहीं होने देती। बुद्ध की आंखें ट्रांसपेरेंट हैं। आपकी आंखों में धुआं है। वह धुआं आपकी गुलामी से पैदा हो रहा है। अगर ठीक से हम समझें, तो हम अंधे हैं आंखें होते हुए भी; क्योंकि भीतर जो देख सकता था आंखों से, वह मूर्च्छित है, सोया हुआ है। बुद्ध या महावीर जागे हुए हैं, अमूर्च्छित हैं। आंख सिर्फ बीच का काम करती है, मालकियत का नहीं। आंख अपनी तरफ से कुछ भी जोड़ती नहीं, आंख अपनी तरफ से कोई व्याख्या नहीं करती। भीतर जो है वह देखता है। आप अपनी खिड़की पर खड़े होकर बाहर की सड़क देख रहे हैं। खिड़की भी अगर इस देखने में कुछ अनुदान करने लगे, तो कठिनाई होगी। फिर आप वह न देख पाएंगे जो है। वह देखने लगेंगे जो खिड़की दिखाना चाहती है। लेकिन खिड़की कोई बाधा नहीं डालती, खिड़की सिर्फ राह है जहां से आप बाहर झांकते हैं।
आंख भी बुद्ध, महावीर के लिए सिर्फ एक मार्ग है, जहां से वे बाहर झांकते हैं। यह आंख सुझाती नहीं, क्या देखो; यह आंख कहती नहीं, ऐसा देखो; यह आंख कहती नहीं, ऐसा मत देखो। यह आंख सिर्फ शुद्ध मार्ग है।
तो महावीर जितनी निर्दोषता से देखते हैं, हम नहीं देख पाते। महावीर अगर आपका हाथ, हाथ में लें, तो वे आपको ही छू लेंगे। जब हम एक-दूसरे का हाथ लेते हैं तो सिर्फ हड्डी-मांस ही स्पर्श हो पाता है। छू लेंगे आपको ही क्योंकि बीच में कोई वासना का वेग नहीं है। कोई वासना का बुखार नहीं है। सब शांत है। हाथ सिर्फ छूने का ही काम करता है। इस हाथ की अपने तरफ से कोई आकांक्षा, कोई वासना नहीं है, तो महावीर इस हाथ के द्वारा आपके भीतर तक को स्पर्श कर लेंगे।
इंद्रियां महावीर और बुद्ध की अत्यंत निर्मल हो गई हैं। वे शुद्ध हो गई हैं, वे उतना ही काम करती हैं, जितना करना जरूरी है। अपनी तरफ से वे कुछ भी जोड़ती नहीं।
हमारी सारी इंद्रियां विक्षिप्त हैं, और विक्षिप्त होंगी। क्योंकि जब मालिक मूर्च्छित है तो नौकर सम्यक नहीं हो सकते। जब एक रथ का सारथी सो गया हो तो घोड़े कहीं भी दौड़ने लगें, यह स्वाभाविक है। और उन सारे घोड़ों के बीच कोई तालमेल न रह जाए, यह भी स्वाभाविक है।
हमारी इंद्रियों के बीच कोई तालमेल भी नहीं है, भोगी की सभी इंद्रियां उसे विपरीत दिशाओं में खींचती रहती हैं। आंख कुछ देखना चाहती है, कान कुछ सुनना चाहता है, हाथ कुछ और छूना चाहते हैं। इन सबके बीच विरोध है, इस विरोध से बड़ा कंट्राडिक्शन है, जीवन में बड़ी विसंगतियां पैदा होती हैं।
जैसे, आप एक स्त्री के प्रेम में पड़ गए हैं, या एक पुरुष के प्रेम में पड़ गए हैं। आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि सभी प्रेम इतनी कठिनाइयों में क्यों ले जाते हैं, और सभी प्रेम अंततः दुख क्यों बन जाते हैं! उसका कारण है। किसी का चेहरा आपको सुंदर लगा, यह आंख का रस है। अगर आंख बहुत प्रभावी सिद्ध हो जाए तो आप प्रेम में पड़ जाएंगे। लेकिन कल उसकी गंध शरीर की आपको अच्छी नहीं लगती, तब नाक इनकार करने लगेगी। आप उसके शरीर को छूते हैं, लेकिन उसके शरीर की ऊष्मा आपके हाथ को अच्छी नहीं लगती, तो हाथ इनकार करने लगेंगे।
आपकी सारी इंद्रियों के बीच कोई तालमेल नहीं हैं, इसलिए प्रेम विसंवाद हो जाता है। एक इंद्रिय के आधार पर आदमी चुन लेता है, बाकी इंद्रियां धीरे-धीरे अपना-अपना स्वर देना शुरू करेंगी और तब एक ही व्यक्ति के प्रति कोई इंद्रिय अच्छा अनुभव करती है, दूसरी इंद्रिय बुरा अनुभव करती है। आपके मन में हजार विचार एक ही व्यक्ति के प्रति हो जाते हैं।
और हममें से अधिक लोग आंख का इशारा मान कर चलते हैं। क्योंकि आंख बड़ी प्रभावी हो गई है। हमारे चुनाव में, नब्बे प्रतिशत आंख काम करती है। हम आंख की मान लेते हैं, दूसरी इंद्रियों की हम कोई फिकर नहीं करते। आज नहीं कल कठिनाई शुरू हो जाती है। क्योंकि दूसरी इंद्रियां भी असर्ट करना शुरू करती हैं, अपने वक्तव्य देना शुरू करती हैं।
आंख की गुलामी मानने को कान राजी नहीं है। इसलिए आंख ने कितना ही कहा हो कि चेहरा सुंदर है, इस कारण वाणी को कान मान लेगा कि सुंदर है, यह आवश्यक नहीं है। आंख की आवाज को, आंख की मालकियत को, नाक मानने को राजी नहीं है। आंख ने कहा हो कि शरीर सुंदर है, लेकिन नाक तो कहेगी कि शरीर से जो गंध आती है, वह अप्रीतिकर है।
फिर क्या होगा? एक ही व्यक्ति के प्रति पांचों इंद्रियों के अलग-अलग वक्तव्य जटिलता पैदा कर देते हैं। यह जो जटिलता है, केवल उसी व्यक्ति में नहीं होती, जिसका भीतर मालिक जगा होता है।
तो फिर पांचों इंद्रियों को जोड़ने वाला एक केंद्र भी होता है। हमारे भीतर कोई केंद्र नहीं है। हमारी हर इंद्रिय मालकियत जाहिर करती है। और हर इंद्रिय का वक्तव्य आखिरी है। कोई दूसरी इंद्रिय उसके वक्तव्य को काट नहीं सकती। हम सभी इंद्रियों के वक्तव्य इकट्ठे करके एक विसंगतियों का ढेर हो जाते हैं।
हमारे भीतर--जिसे हम प्रेम करते हैं--उसके प्रति घृणा भी होती है। क्योंकि एक इंद्रिय प्रेम करती है, एक घृणा करती है। और हम इसमें कभी तालमेल नहीं बिठा पाते। तो ज्यादा से ज्यादा हम यही करते हैं कि हम हर इंद्रिय को रोटेशन में मौका देते रहते हैं। हमारी इंद्रियां रोटरी-क्लब के सदस्य हैं।
कभी आंख को मौका देते हैं, तब वह मालकियत कर लेती है। कभी कान को मौका देते हैं, तब वह मालकियत कर लेता है। लेकिन इनके बीच कभी कोई तालमेल निर्मित नहीं हो पाता। कोई संगति, कोई सामंजस्य, कोई संगीत पैदा नहीं हो पाता। इसलिए जीवन हमारा एक दुख हो जाता है।
जब भीतर का मालिक जगता है, तो वही संगति है, वही तालमेल है, वही हार्मनी है। सारी इंद्रियां... सारथी जग गया, और लगाम हाथ में आ गई और सारे घोड़े एक साथ चलने लगे--उनकी गति में एक लय आ गई, एक दिशा, एक आयाम आ गया।
मूर्च्छित मनुष्य इंद्रियों के द्वारा अलग-अलग रास्तों पर खींचा जाता है। जैसे एक ही बैलगाड़ी अलग-अलग रास्तों पर, चारों तरफ जुते हुए बैलों से खींची जा रही हो। यात्रा नहीं हो पाती, घसीटन होती है, और आखिर में सब अस्थि पंजर ढीले हो जाते हैं। कुछ परिणाम नहीं निकलता। जीवन निष्पत्तिहीन होता है, निष्कर्षरहित होता है।
रस-परित्याग का अर्थ है: इंद्रियों की मालकियत का परित्याग, इंद्रियों का परित्याग नहीं। आंख नहीं फोड़ लेनी, कान नहीं फोड़ देना। वह तो मूढ़ता है। हालांकि वह आसान है। आंख फोड़ने में क्या कठिनाई है? जरा सा जिद्दी स्वभाव चाहिए, जोश चाहिए, हठवादिता चाहिए। आंख फोड़ी जा सकती है। सोच-विचार नहीं चाहिए, आंख आसानी से फोड़ी जा सकती है। और फूट गई तो फिर तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन रस इतना आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। रस लंबा संघर्ष है, बारीक है, डेलिकेट है, सूक्ष्म है, नाजुक है और सतत--आंख तो एक बार में फोड़ी जा सकती है--रस जीवन भर में धीरे-धीरे, धीरे-धीरे छोड़ा जा सकता है। इसलिए त्यागियों को आसान दिखा आंख का फोड़ लेना। कोई हिम्मतवर है, इकट्ठी फोड़ लेते हैं, कोई उतने हिम्मतवर नहीं हैं तो धीरे-धीरे फोड़ते हैं। कोई उतने हिम्मतवर नहीं तो फोड़ते नहीं, सिर्फ आंख बंद करके जीने लगते हैं। लेकिन वह हल नहीं है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि आप नाहक ही आंख खोल कर जीएं।
कुछ लोग नाहक, अधिक लोक नाहक आंख खोल कर जीते हैं। रास्ते से जा रहे हैं, तो दीवालों पर लगे पोस्टर भी उनको पढ़ने ही पड़ते हैं। वह नाहक आंख खोल कर जीना है। जिससे कोई प्रयोजन न था, जिससे कोई अर्थ न था और जिस पोस्टर को हजार दफे पढ़ चुके हैं, क्योंकि उसी रास्ते से हजार बार गुजर चुके हैं, आज फिर उसको पढ़ेंगे।
पता नहीं, हमारी आंख पर हमारा कोई भी वश नहीं मालूम होता, इसलिए ऐसा हो रहा है। लेकिन उस पोस्टर को पढ़ लेना सिर्फ पढ़ लेना ही नहीं है, वह आपके भीतर भी जा रहा है और आपके जीवन को प्रभावित करेगा। ऐसा कुछ भी नहीं है जो आप भीतर ले जाते हैं जो आपको प्रभावित न करे। सब भोजन है--चाहे आप आंख से पोस्टर पढ़ रहे हों, वह भी भोजन है, वह भी आपके भीतर जा रहा है।
शंकर ने इन सबको ही आहार कहा है। कान से जो सुनते हैं, वह कान का भोजन है। मुंह से जो लेते हैं, वह मुंह का भोजन है। आंख से जो देखते हैं, वह आंख का भोजन है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप व्यर्थ ही आंख खोल कर चलते रहें, कि व्यर्थ ही कान खोल कर बाजार के बीच में बैठ जाएं। होश रखना जरूरी है। जो सार्थक है, उपादेय है, उसे ही भीतर जाने दें। जो निरर्थक है, निरुपादेय है, घातक है, उसे भीतर न जाने दें।
चुनाव जरूरी है, और चुनाव के साथ मालकियत निर्मित होती है। कौन चुने लेकिन? आंख के पास चुनने की कोई क्षमता नहीं है; देख सकती है। कान सुन सकता है। चुनेगा कौन? आप? लेकिन आपका तो कोई पता ही नहीं है। आप तो कहीं हैं ही नहीं। इसलिए जिंदगी में कोई चुनाव नहीं है।
आप कुछ भी पढ़ते हैं, कुछ भी सुनते हैं, कुछ भी देखते हैं, वह सब आपके भीतर जा रहा है। और आपको कचरे का एक ढेर बना देता है। अगर आपके मन को उघाड़ कर रखा जा सके बाहर तो कचरे का एक ढेर मिलेगा, जिसमें कोई संगति न मिलेगी। कबाड़, कुछ भी इकट्ठा कर लिया है। इकट्ठा करते वक्त सोचा भी नहीं। आप अपने घर में एक चीज लाने में जितना विचार करते हैं कि ले जाना कि नहीं, जगह घर में है या नहीं, कहां रखेंगे, क्या करेंगे, उतना भी विचार मन के भीतर ले जाने में आप नहीं करते। जगह है भीतर? वह भी कभी नहीं सोचते। जो ले जा रहे हैं वह ले जाने योग्य है? वह भी कभी नहीं सोचते। कुछ भी।
कभी आपने किसी आदमी से कहा है कि अब बातचीत आप जो कर रहे हैं, बंद कर दें, मेरे भीतर मत डालें। कभी नहीं कहा है। कुछ भी कोई आपके भीतर डाल सकता है। आप कोई टोकरी हैं, कचरे की? जिसमें कोई भी कुछ डाल सकता है! आप के घर में पड़ोसी कचरा फेंके तो आप पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे, और पड़ोसी आपकी खोपड़ी में रोज कचरा फेंकता है, आपने कभी कोई रिपोर्ट नहीं की है। बल्कि एक दिन न फेंके तो आपको लगता है, दिन खाली-खाली जा रहा है। आओ, फेंको।
नहीं, हमें होश ही नहीं है कि हम भीतर क्या ले जा रहे हैं। आंख, न तो फोड़नी उचित है और न जरूरत से ज्यादा खोलनी उचित है। इसलिए महावीर ने तो कहा है कि साधु इतना देख कर चले जितना आवश्यक है। और महावीर ने कहा है कि आंख चार फीट देखे, चलते वक्त भिक्षु की। अगर आंख चार फीट देखे, तो उसका मतलब हुआ आपको नाक का अग्र हिस्सा दिखाई पड़ता रहेगा, बस। आंख झुकी होगी, चार फीट देखेगी। क्योंकि महावीर ने कहा है: चलने के लिए चार फीट देखना काफी है। फिर आगे बढ़ जाते हैं, चार फीट फिर दिखाई पड़ने लगता है, इतना काफी है। कोई दूर का आकाश चलने के लिए देखना आवश्यक नहीं है। उतना देखें, जितना जरूरी हो, काम के लिए। उतना सुनें जितना जरूरी हो, उतना बोलें जितना जरूरी हो, तो इसके परिणाम होंगे।
इसके दो परिणाम होंगे--एक तो व्यर्थ आपके भीतर इकट्ठा नहीं होगा। वह आपकी शक्ति क्षीण करता है। दूसरा, आपकी शक्ति बचेगी। वह शक्ति ही आपके उर्ध्वगमन के लिए मार्ग बनने वाली है। उसी शक्ति के सहारे आप अंतर की यात्रा पर निकलेंगे।
हम तो करीब-करीब एक्झास्टेड हैं, खत्म हैं। कुछ बचता ही नहीं सांझ होते-होते, दिन भर में सब चुक जाता है। सांझ हम चुके चुकाए, चली हुई कारतूस की तरह अपने बिस्तर पर गिर जाते हैं। मगर रात भर भी हम शक्ति को इकट्ठा नहीं कर रहे हैं, खर्च कर रहे हैं। इसलिए एक मजे की घटना घटती है, लोग थके हुए बिस्तर में जाते हैं और सुबह और थके हुए उठते हैं। रात भी सपने चल रहे हैं और हम थक रहे हैं। हमारी जिंदगी एक लंबी थकान बन जाती है। एक शक्ति का संचयन नहीं। और जहां शक्ति नहीं है, वहां कुछ भी नहीं हो सकता।
तो दो परिणाम हैं--एक तो व्यर्थ इकट्ठा न हो, हमारे भीतर स्पेस, खाली जगह चाहिए। जिस आदमी के भीतर आकाश नहीं है, उस आदमी का आत्मा से कोई संबंध नहीं हो सकता। जिस आदमी के भीतर आकाश नहीं है, वह उस परमात्मा के अतिथि को निमंत्रण भी नहीं भेज सकता। उसके भीतर वह मेहमान आ जाए तो ठहराने की जगह भी नहीं है।
भीतरी आकाश, इनर स्पेस, धर्म की अनिवार्य खोज है। हम जिसे बुला रहे, जिसे पुकार रहे, जिसे खोज रहे, उसके लायक हमारे भीतर जगह होनी चाहिए। स्थान होना चाहिए। वह रिक्तता बिलकुल नहीं है। आप भरे हुए हैं, ठसाठस भरे हुए हैं। परमात्मा की भी सामर्थ्य नहीं--लोग कहते हैं कि सर्वशक्तिमान है, मगर आपके भीतर घुसने की उसकी भी सामर्थ्य नहीं है। जगह ही नहीं है वहां और शायद इसलिए आप भी अपने भीतर नहीं जा पाते, बाहर घूमते रहते हैं। वहां जगह तो चाहिए। और वहां आपने क्या भर रखा है, यह कभी आपने सोचा?
कभी दस मिनट बैठ जाएं और एक कागज पर जो आपके मन के भीतर चलता हो, उसको लिख डालें, तब आपको पता चलेगा, आपने क्या भीतर भर रखा है! कहीं कोई फिल्म की कड़ी आ जाएगी, कहीं पड़ोसी के कुत्ते का भौंकना आ जाएगा, कहीं रास्ते पर सुनी हुई कोई बात आ जाएगी, पता नहीं क्या-क्या कचरा वहां सब इकट्ठा है। और इस पर शक्ति व्यय हो रही है। चाहे आप फिल्म की एक कड़ी दोहराते हों और चाहे आप प्रभु का स्मरण करते हों, एक शब्द का भी भीतर उच्चारण शक्ति का ह्रास है। फिर उसका क्या उपयोग कर रहे हैं, यह आप पर निर्भर है। अगर व्यर्थ ही खोते चले जा रहे हैं, तो आखिर में जीवन के अगर आप पाएं कि आप सिर्फ खो गए, कुछ पाया नहीं, तो इसमें आश्र्चर्य नहीं है।
हमारी मृत्यु अक्सर हमें उस जगह पहुंचा देती है जहां अवसर था, शक्ति थी, लेकिन हम उसे फेंकते रहे। कुछ सृजन नहीं हो पाया। हमारी मृत्यु एक लंबे विध्वंस का अंत होती है, एक लंबे आत्मघात का अंत, एक सृजनात्मक, एक क्रिएटिव घटना नहीं।
महावीर की सारी उत्सुकता इसमें है कि भीतर एक सृजन हो जाए, वह सृजन ही आत्मा है।

इस सूत्र को हम समझें:
‘प्राणीमात्र के संरक्षक ज्ञानपुत्र ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है।’
महावीर ने नहीं कहा है कि आपके पास कुछ चीजें हैं तो आप परिग्रही हैं। महावीर ने यह भी नहीं कहा है कि आप सब चीजें छोड़ कर खड़े हो गए तो आप अपरिग्रही हो गए, कि आपने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया।
वस्तुएं हैं, इससे कोई गृहस्थ नहीं होता; और वस्तुएं नहीं हैं, इससे कोई साधु नहीं होता। लेकिन अधिक साधु यही करते रहते हैं। कितनी कम वस्तुएं हैं, इससे सोचते हैं कि साधुता हो गई। साधुता या गृहस्थ्य महावीर के लिए आंतरिक घटनाएं हैं। वे कहते हैं: वस्तुओं में कितनी मूर्च्छा है, कितना लगाव है? इन सामग्रियों में आसक्ति, ममता, मूर्च्छा रखना ही परिग्रह है।
मूर्च्छा परिग्रह है। बेहोशी परिग्रह है। बेहोशी का क्या मतलब है? होश का क्या मतलब है? जब आप किसी चीज के लिए जीने लगते हैं, तब बेहोशी शुरू हो जाती है। एक आदमी धन के लिए जीता है, तो बेहोश है। वह कहता है: मेरी जिंदगी इसलिए है कि धन इकट्ठा करना है। धन मेरे लिए है, ऐसा नहीं, धन किसी और काम के लिए है, ऐसा भी नहीं, मैं धन के लिए हूं। मुझे धन इकट्ठा करना है। मैं एक मशीन हूं, एक फैक्ट्री हूं, मुझे धन इकट्ठा करना है।
जब एक आदमी वस्तुओं को अपने से ऊपर रख लेता है, और जब एक आदमी कहने लगता है कि मैं वस्तुओं के लिए जी रहा हूं, वस्तुएं ही सब-कुछ हैं, मेरे जीवन का लक्ष्य, साध्य--तब मूर्च्छा है। लेकिन हम सारे लोग इसी तरह जीते हैं। छोटी सी चीज आपकी खो जाए तो ऐसा लगता है, आत्मा खो गई। कभी आपने खयाल किया? उस चीज का कितना ही कम मूल्य क्यों न हो, रात नींद नहीं आती। चिंता, भीतर मन में चलती है--दिनों तक पीछा करती है, एक छोटी सी चीज का खो जाना!
बच्चों जैसी हमारी हालत है। एक बच्चे की गुड़िया टूट जाए तो रोता है, छाती पीटता है। मुश्किल हो जाता है उसे यह स्वीकार करना कि गुड़िया अब नहीं रही। दो-चार-दस दिन उसकी आंखों में आंसू भर-भर आते हैं। लेकिन यह बच्चे की ही बात होती तो क्षम्य थी, बूढ़ों की भी यही बात है--जरा सा कुछ खो जाए! यह बड़े मजे की बात है कि उसके होने से कभी कोई सुख न मिला हो, तो भी खो जाए, तो खोने से दुख मिलता है।
आपके पास कोई चीज है। जब तक थी, तब तक आपको उससे कोई सुख नहीं मिला। आपकी तिजोड़ी में एक सोने की ईंट रखी है, उससे आपको कोई सुख नहीं मिला। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसकी वजह से आप नाचे हों, आनंदित हुए हों--ऐसा कभी नहीं हुआ। लेकिन आज ईंट चोरी चली गई, छाती पीट कर रो रहे हैं। जिस ईंट से कभी कोई खुशी नहीं मिली, उसके लिए रोने का क्या अर्थ है? और जो ईंट तिजोड़ी में ही रखी थी वह सोने की थी कि पत्थर की इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं पड़ता। छाती पर वजन ही रखना है तो सोने का रख लो कि पत्थर का रख लो।
महावीर का अर्थ है मूर्च्छा से, वस्तुएं हमसे ज्यादा मूल्यवान हो जाएं तो मूर्च्छा है।
रस्किन ने कहा है कि धनी आदमी तब होता है, जब वह धन को दान कर पाता है। नहीं तो गरीब ही होता है। रस्किन का मतलब यह है कि आप धनी उसी दिन हैं, जिस दिन आप धन को छोड़ पाते हैं। अगर नहीं छोड़ पाते तो आप गरीब ही हैं। पकड़ गरीबी का लक्षण है, छोड़ना मालकियत का लक्षण है। अगर किसी चीज को आप छोड़ पाते हैं, तो समझना कि आप उसके मालिक हैं; और अगर किसी चीज को आप केवल पकड़ ही पाते हैं तो आप भूल कर मत समझना कि आप उसके मालिक हैं। इसका तो बड़ा अजीब मतलब हुआ। इसका मतलब हुआ कि जो चीजें आप किसी को बांट देते हैं, उनके आप मालिक हैं। और जो चीजें आप पकड़ कर बैठे रहते हैं, उनके आप मालिक नहीं हैं।
दान मालकियत है; क्योंकि जो आदमी दे सकता है, वह यह बता रहा है कि वस्तु मुझसे नीची है, मुझसे ऊपर नहीं। मैं दे सकता हूं। देना मेरे हाथ में है। और जो व्यक्ति देकर प्रसन्न हो सकता है, उसकी मूर्च्छा टूट गई। ज
ो व्यक्ति केवल लेकर ही प्रसन्न होता है और देकर दुखी हो जाता है, वह मूर्च्छित है। त्याग का ऐसा है अर्थ।
त्याग का अर्थ है: दान की अनंत क्षमता, देने की क्षमता। जितना बड़ा हम दे पाते हैं, जितना ज्यादा हम दे पाते हैं, उतने ही हम मालिक होते चले जाते हैं। इसलिए महावीर ने सब दे दिया। महावीर ने कुछ भी नहीं बचाया। जो भी उनके पास था, सब देकर वे नग्न होकर चले गए। इस सब देने में, सिर्फ एक आंतरिक मालकियत की उदघोषणा है। इस देने को याद भी नहीं रखा कि मैंने कितना दे दिया! अगर याद भी रखे कोई, तो उसका मतलब हुआ कि वस्तुओं की पकड़ जारी है। अगर कोई कहे कि मैंने इतना दान कर दिया, इसे दोहराए...!
एक मित्र मेरे पास आए थे। उन्होंने कहा कि... पर्चा भी छपाए हुए हैं वे, कि एक लाख रुपया उन्होंने दान किया हुआ है। उन्होंने मुझे कहा कि मैं अब तक लाख रुपया दान कर चुका हूं। नहीं, उनकी पत्नी ने मुझे कहा कि मेरे पति लाख रुपया दान कर चुके हैं। उन्होंने पत्नी की तरफ बड़ी हैरानी से देखा और कहा कि पर्चा पुराना है, अब तो एक लाख दस हजार!
एक पैसा दान नहीं हो सका इन सज्जन से। एक लाख दस हजार इनके एकाउंट में अब भी उसी भांति हैं जैसे पहले थे, उसी तरह गिनती में है। ये भला कह रहे हों कि दान कर दिया है, दान हो नहीं पाया। क्योंकि जो दान याद रह जाए वह दान नहीं है।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन के घर कोई मेहमान आया हुआ है। बहुत दिन का पुराना मित्र है और मुल्ला उसे खिलाए चले जा रहे हैं। कोई बहुत बढ़िया मिठाई बनाई है। बार-बार आग्रह कर रहे हैं, तो उस मित्र ने कहा कि बस अब रहने दें। तीन बार तो मैं ले ही चुका हूं। मुल्ला ने कहा कि छोड़ो भी, ले तो तुम छह बार चुके हो, लेकिन गिन कौन रहा है! फिकर छोड़ो, ले तुम छह बार चुके हो, लेकिन गिन कौन रहा है!
आदमी का मन ऐसा है, गिन भी रहा है और सोचता है गिन कौन रहा है? त्याग अक्सर ऐसा ही चलता है। आदमी कहता है: छोड़ दिया और दूसरी तरफ से पकड़ लेता है, गिनती किए चला जाता है। फिर भी सोचता है, गिन कौन रहा है? पैसा तो मिट्टी है, लेकिन एक लाख दस हजार मैंने दान कर दिया! मिट्टी के दान को कोई याद रखता है! दान तो हम तभी याद रखते हैं जब सोने का होता है। लेकिन अगर मिट्टी ही है तो फिर याददाश्त की कोई जरूरत नहीं।
दान की कोई स्मृति नहीं होती सिर्फ चोरी की स्मृति होती है। चोरी को याद रखना पड़ता है। और अगर दान भी याद रहे तो चोरी के ही समान हो जाता है। अर्थ क्या है? अर्थ इतना है कि हम इस भांति सम्मोहित हो सकते हैं वस्तुओं से, हिप्नोटाइज हो सकते हैं कि हमारी आत्मा वस्तुओं में प्रवेश कर जाए।
एक कार सरसराती रास्ते से गुजर जाती है। कार तो गुजर जाती है, हवा के झोंके के साथ आपकी आत्मा भी कार के साथ बह जाती है। वह छवि आंख में रह जाती है। वह सपनों में प्रवेश कर जाती है। मन में एक ही बात घूमने लगती है, उस रंग की, वैसी गाड़ी, पकड़ लेती है। इसे अगर हम विज्ञान की भाषा में समझें, तो यह हिप्नोटिज्म है, यह सम्मोहन है। आप उस कार के रंग से, रूप से, आकृति से सम्मोहित हो गए। अब आपके चित्त में एक प्रतिमा बन गई है। वह प्रतिमा जब तक न मिल जाए, आप दुखी होंगे।
हम वस्तुओं से सम्मोहित होते हैं। व्यक्तियों से ही होते हों, तो भी ठीक है, हम वस्तुओं से भी सम्मोहित होते हैं। देख लेते हैं एक आदमी का कमीज, रंग पकड़ लेता है, रूप पकड़ लेता है। आपकी आत्मा बह गई आपके बाहर और कमीज से जाकर जुड़ गई। अपने से बाहर बह जाना और किसी से जुड़ जाना, और फिर ऐसा अनुभव करना कि उसके मिले बिना सुख न होगा, यह सम्मोहन का लक्षण है। जहां-जहां हम सम्मोहित होते हैं, वहां-वहां लगता है, इसके बिना अब सुख न होगा। जब भी आपको लगे कि इसके बिना सुख न होगा, तब आप समझ लेना कि आप हिप्नोटाइज्ड हो गए, आप सम्मोहित हो गए।
सम्मोहन करने के लिए कोई आपकी आंखों में झांक कर घंटे भर तक देखना आवश्यक नहीं है। सम्मोहित करने के लिए आपको किसी टेबल पर लिटा कर किसी मेक्सकोली को या किसी को आपको बेहोश करना आवश्यक नहीं है। आप चौबीस घंटे सम्मोहित हो रहे हैं, और चारों तरफ उपाय किए गए हैं आपको सम्मोहित करने के, क्योंकि सारा व्यवसाय जीवन का, सम्मोहन पर खड़ा है।
खयाल में नहीं है, सारी एडवरटाइजमेंट की कला सम्मोहन पर खड़ी है, वह आपको सम्मोहित कर रही है। रोज रेडियो आपसे कह रहा है कि यही सिगरेट, यही साबुन, यही टूथपेस्ट श्रेष्ठतम है। बस इसको कहे चला जा रहा है। अखबार में रोज बड़े-बड़े अक्षरों में आप यही पढ़ रहे हैं। रास्ते पर निकलते हैं, पोस्टर भी यही कहता है। और इस सबको कहने के और सम्मोहित करने के सारे उपाय किए जाते हैं, क्योंकि अगर कोई इतना ही कहे कि बिनाका टूथपेस्ट सबसे अच्छा है, तो मन में बहुत गहरा नहीं जाता। लेकिन पास में एक खूबसूरत अभिनेत्री को भी खड़ा कर दिया जाए, तो मन में ज्यादा जाता है। अब बिनाका अभिनेत्री का सहारा लेकर मन की गहराइयों में चला जाएगा। अभिनेत्री मुस्कुराती हो, और उसके झूठे सही, लेकिन मोतियों जैसे चमकते दांत पकड़ लेते हैं मन को। बिनाका गौण हो जाता है, अभिनेत्री प्रमुख हो जाती है। अभिनेत्री का सहज सम्मोहन है क्योंकि सेक्स का सहज सम्मोहन है। वासना, कामवासना का सहज सम्मोहन है। इसलिए आज दुनिया में कोई भी चीज बेचनी हो, तो बिना स्त्री के सहारे के बेचना मुश्किल है; या बिना पुरुष के सहारे के बेचना मुश्किल है।
पहले उसे सम्मोहित करने के लिए काम-आविष्ट करना जरूरी है। अगर अभिनेत्री नग्न खड़ी हो, तो आपको पता नहीं होगा... अब वैज्ञानिक कहते हैं कि आपकी आंखों की जो पुतली है, वह तत्काल बड़ी हो जाती है, जब नग्न स्त्री को आप देखते हैं। और आप कुछ भी करें, वह नॉन-वॉलेंटरी है। आपके हाथ में नहीं है मामला। आप कितना ही संयम साधें और कुछ भी करें, आप आंख की पुतली को बड़ा होने से नहीं रोक सकते। जब आप नग्न चित्र देखते हैं, तब आंख की पुतली तत्काल बड़ी हो जाती है। क्यों? क्योंकि आपके भीतर की आसक्ति पूरी तरह देखना चाहती है। तो आंख का जो लेंस है, बड़ा हो जाए, ताकि पूरा चित्र भीतर चला जाए।
और जब आंख की पुतली बड़ी हो जाती है, वही मैक्सकोली आपकी आंख में पांच मिनट देख कर करता है, वह एक नग्न स्त्री बिना आपकी तरफ देख कर देती है। आंख की पुतली बड़ी हो जाती है, चित्र तत्काल भीतर चला जाता है, जैसे कैमरे के लेंस से चित्र भीतर चला जाता है। उस स्त्री के साथ बिनाका टूथपेस्ट भी भीतर चला जाता है। यह कंडिशनिंग हो जाती है। अगर रोज-रोज यह होता रहे, तो जब भी आप सुंदर स्त्री के संबंध में सोचेंगे, आपके भीतर बिनाका भी आवाज लगाएगा, और एक दिन आप जब दुकान पर जाकर कहेंगे कि बिनाका टूथपेस्ट दे दें, तो आप बिनाका टूथपेस्ट नहीं मांग रहे हैं, आप अनजाने अचेतन मन से बिनाका के साथ जो स्मृति जुड़ गई है स्त्री की, वह मांग रहे हैं। यह सम्मोहन है। यह सम्मोहन हजार तरह से चलता है, चारों तरफ चलता है। और ऐसा नहीं कि कोई जान कर जब विज्ञापन से आपको सम्मोहित करता है, यह तो अब होश की बात हो गई है, विज्ञापनदाता समझ गया है कि आपको कैसे पकड़ना है! मन के पकड़ने के नियम जाहिर हो गए हैं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। नियम जाहिर नहीं थे, तब भी, तब भी आदमी वस्तुओं से सम्मोहित हो रहा था। हम सदा ही वस्तुओं से सम्मोहित होते रहे हैं। इस सम्मोहन का नाम मूर्च्छा है।
मूर्च्छा का अर्थ है: कोई वस्तु इस भांति आपको पकड़ ले कि मन में यह भाव पैदा हो जाए कि इसके बिना अब कोई सुख नहीं मिल सकता। महावीर कहते हैं: जिस आदमी को ऐसा भाव पैदा हो गया, उसको दुख मिलेगा। जब तक वस्तु न मिलेगी, तब तक लगेगा, इसके बिना सुख नहीं मिल सकता, और जब वस्तु मिल जाएगी तो--वस्तु के कारण नहीं दिखाई पड़ रहा था कि सुख मिलेगा कि नहीं मिलेगा, यह आपका सम्मोहन था--वस्तु के मिलते ही टूट जाएगा।
इसे ठीक से समझ लें।
सम्मोहन तभी तक रह सकता है, जब तक आपके हाथ में वस्तु न हो। आपको लगे कि कोहिनूर हीरा मेरे पास हो तो मैं जगत का सबसे सुखी आदमी हो जाऊंगा, लेकिन जब तक आपके हाथ में कोहिनूर हीरा नहीं है, तभी तक यह सम्मोहन काम कर सकता है। कोहिनूर हीरा आपके हाथ में आ जाए, सम्मोहन नहीं बचेगा। क्योंकि कोहिनूर हीरा हाथ में आ जाएगा और सुख का कोई पता नहीं चलेगा। तो सम्मोहन तत्काल टूट जाएगा। सम्मोहन टूटेगा तो दुख शुरू हो जाएगा। और जितनी बड़ी अपेक्षा बांधी थी सुख की, उतने ही बड़े गर्त में दुख के गिर जाएंगे। अपेक्षा के अनुकूल दुख होता है, ठीक उसी अनुपात में। अगर आपने सोचा था कि कोहिनूर के मिलते ही मोक्ष मिल जाएगा तो फिर कोहिनूर के मिलते ही आपसे बड़ा दुखी आदमी दुनिया में दूसरा नहीं होगा। इसीलिए धनी आदमी दुखी हो जाते हैं। गरीब आदमी इतना दुखी नहीं होता। यह जरा अजीब लगेगी मेरी बात।
गरीब आदमी कष्ट में होता है, दुख में नहीं होता। अमीर आदमी कष्ट में नहीं होता, दुख में होता है। कष्ट का मतलब है: अभाव और दुख का मतलब है: भाव। कष्ट हम उस चीज से उठाते हैं, जो हमें नहीं मिली है और जिसमें हमें आशा है कि मिल जाए तो सुख मिलेगा। इसलिए गरीब आदमी हमेशा आशा में होता है, सुख मिलेगा, आज नहीं कल, कल नहीं परसों; इस जन्म में नहीं, अगले जन्म में, मगर सुख मिलेगा। यह आशा उसके भीतर एक थिरकन बनी रहती है। कितना ही कष्ट हो, अभाव हो, वह झेल लेता है, इस आशा के सहारे कि आज है कष्ट, कल होगा सुख--आज को गुजार देना है। कल की आशा उसे खींचे लिए चली जाती है। फिर एक दिन यही आदमी अमीर हो जाता है।
अमीर का मतलब, जो-जो इसने सोचा था आशा में, वह सब हाथ में आ जाता है। इस जगत में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं है, जब आशा आपके हाथ में आ जाती है। तब तत्क्षण सब फ्रस्ट्रेशन हो जाता है, सब विषाद हो जाता है। क्योंकि इतनी आशाएं बांधी थीं, इतने लंबे-लंबे सपने देखे थे, वे सब तिरोहित हो जाते हैं। हाथ में कोहिनूर आ जाता है, सिर्फ पत्थर का एक टुकड़ा मालूम पड़ता है। सब आशाएं खो गईं। अब क्या होगा? अमीर आदमी इस दुख में पड़ जाता है कि अब क्या होगा? अब क्या करना है? कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती आगे।
धन बड़े विषाद में गिरा देता है; कष्ट में नहीं, दुख में गिरा देता है। इसलिए दुख जो है वह समृद्ध आदमी का लक्षण है, कष्ट जो है वह गरीब आदमी का लक्षण है। और कष्ट और दुख, भाषाकोश में भले ही उनका एक ही अर्थ लिखा हो, जीवन के कोष में बिलकुल विपरीत अर्थ हैं। और मजा यह है कि कष्ट कभी इतना कष्टपूर्ण नहीं है, जितना दुख। क्योंकि दुख आंतरिक हताशा है और कष्ट बाहरी अभाव है। लेकिन भीतर आशा भरी रहती है।
आपको पता नहीं है कि आप खोज रहे हैं कि ईश्र्वर का दर्शन हो जाए, ईश्र्वर का दर्शन हो जाए। हो जाए किसी दिन तो उससे बड़ा दुख फिर आपको कभी न होगा। अगर आपने सारी आशाएं इसी पर बांध रखी हैं कि ईश्र्वर का दर्शन हो जाए...।
समझ लो कि किसी दिन ईश्र्वर आपसे मजाक कर दे--ऐसे वह कभी करता नहीं--और मोरमुकुट बांध कर और बांसुरी बजा कर आपके सामने खड़ा हो जाए, तो थोड़ी बहुत देर देखिएगा, फिर! फिर क्या करिएगा? फिर करने को क्या है? फिर आप उससे कहेंगे कि अब आप तिरोधान हो जाओ, तब आप फिर पहले जैसे लुप्त हो जाओ ताकि हम खोजें।
रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ईश्र्वर को खोजा मैंने बहुत-बहुत जन्मों तक। कभी किसी दूर तारे के किनारे उसकी झलक दिखाई पड़ी, लेकिन जब तक मैं अपनी धीमी सी गति से चलता-चलता वहां तक पहुंचा, तब तक वह दूर निकल गया था। कहीं और जा चुका था। कभी किसी सूरज के पास उसकी छाया दिखी, और मैं जन्मों-जन्मों उसको खोजता रहा, खोज बड़ी आनंदपूर्ण थी। क्योंकि सदा वह दिखाई पड़ता था कि कहीं है।
फासला था। फासला पूरा हो सकता था। फिर एक दिन बड़ी मुश्किल हो गई। मैं उसके द्वार पर पहुंच गया, जहां तख्ती लगी थी कि भगवान यहीं रहता है। बड़ा चित्त प्रसन्न हुआ। छलांग लगा कर सीढ़ियां चढ़ गया। हाथ में सांकल लेकर ठोकने जाता ही था दरवाजे पर, पुराने किस्म का दरवाजा होगा, कालबेल नहीं रही होगी। रवींद्रनाथ ने कविता भी लिखी, उसको काफी समय हो गया। कालबेल होती तो वह मुश्किल में पड़ जाते क्योंकि वह एकदम से बज जाती। सांकल हाथ में लेकर ठोकने ही जाता था, तभी मुझे खयाल आया कि अगर आवाज मैंने कर दी और दरवाजा खुल गया और ईश्र्वर सामने खड़ा हो गया, फिर! फिर क्या करिएगा? फिर तो सब अंत हो गया, फिर तो मरण ही रह गया हाथ में, फिर कोई खोज न बची; क्योंकि कोई आशा न बची। फिर कोई भविष्य न बचा; क्योंकि कुछ पाने को न बचा।
ईश्र्वर को पाने के बाद और क्या पाइएगा? फिर मैं क्या करूंगा? फिर मेरा अस्तित्व क्या होगा? सारा अस्तित्व तो तनाव है, आशा का, आकांक्षा का, भविष्य का। जब कोई भविष्य नहीं, कोई आशा नहीं, कोई तनाव नहीं, फिर मैं क्या करूंगा? मेरे होने का क्या प्रयोजन है फिर? फिर मैं होऊंगा भी कैसे? वह तो होना बहुत बदतर हो जाएगा।
रवींद्रनाथ ने लिखा है: धीमे से छोड़ दी मैंने वह सांकल कि कहीं आवाज हो ही न जाए। पैर के जूते निकाल कर हाथ में ले लिए, कहीं सीढ़ियों से उतरते वक्त पगध्वनि सुनाई न पड़ जाए। और जो मैं भागा हूं उस दरवाजे से, तो फिर मैंने लौट कर नहीं देखा। हालांकि अब भी मैं फिर ईश्र्वर को खोज रहा हूं, और मुझे पता है कि उसका घर कहां है। उस जगह को भर छोड़ कर सब जगह खोजता हूं।
बहुत मनोवैज्ञानिक है, सार्थक है बात, अर्थपूर्ण है। आप जहां-जहां सम्मोहन रखते हैं, सम्मोहन का अर्थ--जहां-जहां आप सोचते हैं, सुख छिपा है, वहां-वहां पहुंच कर दुखी होंगे। क्योंकि वह आपकी आशा थी, जगत का अस्तित्व नहीं था। वह जगत का आश्र्वासन न था, आपकी कामना थी, वह आपने ही सोचा था, वह आपने ही कल्पित किया था, वह सुख आपने आरोपित किया था। दूर-दूर रहना, उसके पास मत जाना, नहीं तो वह नष्ट हो जाएगा। जितने पास जाएंगे उतनी मुसीबत होने लगेगी।
इंद्रधनुष जैसा है सुख। पास जाएं, खो जाता है; दूर रहें, बहुत रंगीन।
महावीर कहते हैं: इस मूर्च्छा को मैं परिग्रह कहता हूं। यह जो वस्तुओं में सुख रखने की और खोजने की चेष्टा है, इसे मूर्च्छा कहता हूं। पहले हम वस्तुओं में अपनी आत्मा को रख देते हैं, फिर उसको खोजने निकल जाते हैं। फिर जब वस्तु मिल जाती है तो आत्मा को पाते नहीं, ठीकरा, वस्तु हाथ में रह जाती है। तब हम छाती पीट कर रोते हैं। थोड़ी बहुत देर रोना होता है, फिर तत्काल हम किसी दूसरी वस्तु में आत्मा को रख लेते हैं। वस्तुओं का कोई अंत नहीं, इसलिए जीवन की यात्रा का भी कोई अंत नहीं। चलती जाती है यात्रा। आज यहां, कल वहां।
पुरानी कहानियों में बच्चों की, आपने पढ़ा होगा कि सम्राट अपनी आत्मा को पक्षियों में छिपा देते। कोई तोते में अपनी आत्मा को रख देता है। जब तक तोता न मारा जाए, तब तक वह सम्राट नहीं मरता।
यह सम्राट रखते हों या न रखते हों, लेकिन यह कहानी बड़ी प्रतीकात्मक है। हम सब भी अपनी आत्मा को वस्तुओं में रख देते हैं, और जब तक हम उन वस्तुओं को पा न लें, तब तक जिंदगी बड़े मजे से चलती है। उन वस्तुओं को पाते ही आत्मा उन वस्तुओं से खिसक जाती है। नष्ट हो जाती है। तब जिंदगी मुश्किल में पड़ जाती है।
यह जो मुसीबत है, यह एक आत्म-सम्मोहन, ऑटो-हिप्नोसिस का परिणाम है। इसको महावीर ने मूर्च्छा कहा है। कैसे इसे तोड़ें? वस्तुओं से कैसे मुक्त हों? इसका यह मतलब नहीं कि महावीर को प्यास लगेगी तो पानी नहीं पीएंगे। लेकिन महावीर पानी के प्रति मूर्च्छित नहीं हैं। वे ऐसा नहीं सोचते कि पानी पीने से प्यास मिट जाएगी। वे जानते हैं कि प्यास तो फिर दो घड़ी बाद पैदा हो जाएगी। पानी प्यास को थोड़ी देर पोस्टपोन करता है। स्थगित करता है। वे यह नहीं सोचते कि खाना खाने से पेट भर जाएगा। खाना खाने से पेट का जो गैर-भरापन है, वह थोड़ी देर के लिए सरक जाएगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वे पेट को खाली रखते, या पानी नहीं पीते। वे पानी भी पीते हैं, पेट को जब जरूरत होती है, भोजन भी देते हैं; लेकिन उनका कोई सम्मोहन नहीं है। कोई पानी स्वर्ग हो जाएगा, ऐसा उनका सम्मोहन नहीं है।
हम सब ऐसी हालत में हैं, जैसे एक आदमी रेगिस्तान में पड़ा हो, प्यासा तड़प रहा हो। उस वक्त उसको ऐसा लगता है, अगर पानी मिल जाए, तो सब मिल गया। हमारी हालत ऐसी है कि हम सोच रहे हैं, अगर पानी मिल जाए तो सब मिल गया।
एक मित्र एक राज्य के मिनिस्टर हैं। वे मेरे पास आते थे। वे मुझसे आकर बोले कि मुझे सिर्फ नींद आ जाए तो मुझे स्वर्ग मिल गया। और कुछ नहीं चाहिए। मैं आपके पास न आत्मा जानने आया, न परमात्मा की खोज के लिए आया, मैं तो सिर्फ एक ही आशा से आया हूं कि मुझे नींद आ जाए, तो मुझे सब मिल गया। मैंने उन्हें कुछ श्र्वास के ध्यान के प्रयोग बताए और मैंने कहा: यह तो मिल ही जाएगा, कोई तकलीफ नहीं है। उन्होंने कहा: बस, अगर यह मुझे मिल जाए तो मुझे और कुछ चाहिए भी नहीं।
वह रेगिस्तान में पड़े हुए आदमी की हालत है कि पानी मिल जाए तो सब मिल जाए, और आप सबको पानी मिला हुआ है। और कुछ नहीं मिलता पानी मिलने से। लेकिन रेगिस्तान में ऐसा लगता है, पानी मिल जाए तो सब मिल जाए। रेगिस्तान पानी के प्रति इतना बड़ा सम्मोहन पैदा कर देता है कि वह पड़ा हुआ आदमी सोच भी नहीं सकता कि पानी के मिलने के बाद कुछ और भी दुनिया में पाने को चीज रह जाएगी।
उन मित्र ने कुछ दिन ध्यान का प्रयोग किया, उनको नींद आ गई। महीने भर बाद वे आए और बोले कि नींद तो आने लगी, और कुछ भी नहीं हुआ।
मैंने, जब वह पहले आए थे तो टेप कर लिया था, जो-जो वह कह गए थे। मैंने टेप लगवाया और मैंने कहा: सुनिए। आप कहते थे: नींद मिल जाए तो सब मिल जाए। नींद मिल जाए तो न मुझे ईश्र्वर चाहिए, न आत्मा चाहिए। और अब जब नींद मिल गई तो आप कहते हैं: नींद तो मिल गई, और कुछ भी नहीं मिला।
उन्होंने मुझे धन्यवाद तक नहीं दिया। स्वर्ग वगैरह तो दूर, बल्कि मुझे उनकी बात सुन कर ऐसा लगा कि मुझसे कोई अपराध हो गया। उन्होंने कहा: नींद तो मिल गई, और कुछ भी नहीं मिला। वह मुझसे शिकायत करने आए हैं, ऐसा उनका भाव लगा कि और कुछ भी नहीं मिला।
मैंने उनसे पूछा: और क्या चाहिए? जिस दिन वह भी मिल जाएगा, आप ऐसा ही आकर कहोगे: ईश्र्वर तो मिल गया, और कुछ भी नहीं मिला। वह और है क्या? वह और कब मिलेगा? वह और कहीं है नहीं, वह हटता हुआ क्षितिज है, हॉरीजन है। जो भी चीज मिल जाती है, वह उससे हट जाता है, वह आगे निकल जाता है। हम कहते हैं: वह! वह और कुछ है नहीं, वह हमारा सम्मोहन है जो आगे खिसक जाता है।
हम वस्तुओं में नहीं जीते, हम उस और के सम्मोहन में जीते हैं। वह मिल जाए, तो सब मिल जाए। जब वह मिल जाता है, तो हमारा और, और आगे सरक जाता है। आकाश छूता दिखता है जमीन को, उसे हम क्षितिज कहते हैं। कहीं छूता नहीं आकाश जमीन को, लेकिन दिखता है छूता हुआ। आंख से ही देखने से कुछ सच नहीं होता दुनिया में। लोग कहते हैं: हम तो प्रत्यक्ष को मानते हैं। वह आकाश छूता दिखाई पड़ता है प्रत्यक्ष, जमीन को। आंखें भी बड़ा धोखा देती हैं। जाएं, खोजने उस क्षितिज को। आगे बढ़ेंगे, क्षितिज भी आगे बढ़ता जाएगा। पूरी जमीन का चक्कर लगा आएं, कहीं जमीन आकाश को छूती हुई न मिलेगी। लेकिन कहीं भी खड़े रहें, आगे आकाश छूता हुआ दिखाई पड़ता रहेगा। वह है और, क्षितिज, कहीं छूता नहीं। कहीं भी मनुष्य की वासना तृप्ति को नहीं छूती। कहीं आकाश पृथ्वी को नहीं छूता। वासना आगे बढ़ती है, तृप्ति आगे हट जाती है--और। और यह और कभी भी नहीं मिलता।
इसे महावीर मूर्च्छा कहते हैं। मूर्च्छा परिग्रह है। वस्तुओं का होना नहीं, वस्तुओं में स्वर्ग का दिखाई देना। मकान का होना परिग्रह नहीं है; लेकिन मकान में अगर किसी को मोक्ष दिखाई पड़ रहा है, तो परिग्रह है। धन परिग्रह नहीं है, लेकिन धन में अगर किसी को दिखाई पड़ रहा है परमात्मा, तो परिग्रह है। धन, धन है, मगर बड़े मजे के लोग हैं हम सब। या तो हम कहते हैं: धन परमात्मा है, या हम कहते हैं: धन मिट्टी है। लेकिन, धन, धन है, ऐसा कोई कहने वाला नहीं मिलता।
धन सिर्फ धन है; न मिट्टी, न परमात्मा। या तो हम शिखर पर रखते हैं, वह भी झूठ है। और जब हम इस झूठ से परेशान हो जाते हैं, तो हम दूसरा झूठ पैदा करते हैं कि धन मिट्टी है। धन मिट्टी भी नहीं है। धन सिर्फ धन है। वस्तुएं जो हैं, वही हैं, लेकिन हम कुछ न कुछ करेंगे। या तो स्वर्ग से जोड़ेंगे, या नरक से जोड़ेंगे। हम नरक से क्यों जोड़ना चाहते हैं? स्वर से जोड़-जोड़ कर जब हम ऊब जाते हैं और कोई स्वर्ग नहीं पाते, तो क्रोध में हम नरक से जोड़ना शुरू कर देते हैं। जिसको हम पहले कहते थे स्वर्ग, वह जब नहीं मिलता तो हम अपने को समझाने के लिए कहने लगते हैं: वह तो नरक है, पाने योग्य ही नहीं है। पहले हम धन में कहते थे: मिल जाएगा सब-कुछ; अब हम कहते हैं: धन में क्या रखा है? हाथ का मैल है, मिट्टी है। मगर यह भी तरकीब है मन की। धन सिर्फ धन है। धन का मतलब है, वह विनिमय का साधन है।
मिट्टी विनिमय का साधन नहीं है। उससे चीजें बदली जा सकती हैं, मिट्टी से नहीं बदली जा सकतीं। वह चीजों के बदलने का उपयोगी माध्यम है। ठीक है, उतना काफी है। उससे ज्यादा आशा रखना गलत है। वह ज्यादा आशा जब हार जाती है, तो हम नीचे गिराकर देखना शुरू करते हैं। हम दूसरी अति पर हट जाते हैं। एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत आसान है, लेकिन वस्तु के सत्य पर रुक जाना बहुत कठिन है।
धन सिर्फ धन है, उपयोगी है। न उसमें स्वर्ग है, न उसमें नरक है। हां, जो उसमें स्वर्ग देखेगा, उसे उसमें नरक मिलेगा। जो उसमें नरक देखने की कोशिश कर रहा है, उसके भीतर कहीं न कहीं, अभी भी उसमें स्वर्ग दिखाई पड़ रहा है। जो वही देख लेता है, जो धन है, उतना जितना है, उसकी मूर्च्छा टूट गई।
महावीर का अति जोर सम्यक बोध पर है, राइट अंडरस्टैंडिंग पर है। हर चीज को, वह जैसी है वैसा ही जान लेना। इंच भर अपने मन को न जोड़ना। इंच भर अपनी आकांक्षाएं, आशाओं को स्थापित न करना। जो जितना है, जैसा है उतना ही जान लेना; अपने प्रोजेक्शन, अपने प्रक्षेप संयुक्त न करना। लेकिन हम नहीं बच सकते। किसी को हम कहेंगे: सुंदर है, किसी को हम कहेंगे: कुरूप है, किसी को हम कहेंगे: मित्र है, किसी को हम कहेंगे: शत्रु है। और जब हम यह वक्तव्य देते हैं, तब हमने आकांक्षाएं जोड़नी शुरू कर दीं।
मित्र जब आप किसी को कहते हैं, तो क्या मतलब है आपका? आपका मतलब है कि इससे कुछ अपेक्षाएं पूरी हो सकती हैं। मित्र है, मुसीबत में काम पड़ेगा। मित्र है, इससे हम आशा रख सकते हैं कि कल ऐसा करेगा। शत्रु से भी आपकी आशाएं हैं कि वह क्या-क्या करेगा। विपरीत आशाएं हैं। आप में बाधा डालेगा, लेकिन आपने कुछ जोड़ दीं आशाएं।
जब आपने किसी को कहा: मित्र, तो आपने आशाएं जोड़ लीं, जब आपने किसी को कहा: शत्रु, तो आपने आशाएं जोड़ लीं। आप सम्मोहन के जगत में प्रवेश कर गए। जब आपने अ को अ कहा, ब को ब कहा, न मित्र को मित्र कहा, न शत्रु को शत्रु कहा। जब आपने जो है, उतना ही जाना, उसमें कुछ अपनी तरफ से भविष्य न जोड़ा तो आप मूर्च्छा के बाहर हो गए।
मूर्च्छा के बाहर होने की विधि के तीन सूत्र--
एक: वस्तुओं को उनके तथ्य में देखना, आशाओं में नहीं।
दो: वस्तुओं को कभी भी साध्य न समझना, साधन।
तीन: स्वयं की मालकियत कभी भी वस्तुओं के मरुस्थल में न खो जाए, इसके लिए सचेत रहना।
‘सामग्रियों में आसक्ति, ममता, मूर्च्छा रखना ही परिग्रह है, ऐसा उन महर्षि ने बताया है। संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है।’
बाहर हम जो भी करते हैं, वह भीतर की झलक है। बाहर का हमारा सारा व्यवहार हमारे अंतस का फैलाव है। आप बाहर जो भी करते हैं, वह आपके भीतर की खबर देता है। जरा सी भी बात आप बाहर करते हैं, वह भीतर की खबर देता है। आप बैठे हैं यहां, बैठे-बैठे टांग भी हिला रहे हैं कुर्सी पर तो वह आपके भीतर की खबर दे रहा है। क्योंकि टांग ऐसे ही नहीं हिलती, उसे हिलाना पड़ता है। आप हिला रहे हैं। आपको पता भी न हो, और पता हो जाए तो तत्काल टांग रुक जाए। इस वक्त किसी की भी टांग नहीं हिल रही होगी। तत्काल रुक जाए। लेकिन हिल रही थी, और आपको पता चला तो रुक भी गई। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि आपके भीतर बहुत-कुछ चल रहा है, जिसका आपको पता नहीं। और आपके भीतर बहुत-कुछ हो रहा है जो बाहर भी प्रकट हो रहा है, लेकिन आपको पता नहीं।
इसीलिए बड़े मजे की घटना घटती है। दूसरों के दोष हमें जल्दी दिखाई पड़ जाते हैं, अपने दोष मुश्किल से दिखाई पड़ते हैं; क्योंकि खुद के दोष अचेतन चलते रहते हैं। ऐसा कोई जान कर नहीं करता कि अपने दोष नहीं देखना चाहता, लेकिन खुद के दोष इतने अचेतन हो गए होते हैं, इतने हम आदी हो गए होते हैं कि दिखाई नहीं पड़ते। दूसरे के तत्काल दिखाई पड़ जाते हैं। क्योंकि दूसरा सामने खड़ा होता है। फिर अपने दोषों के साथ हमारे लगाव होते हैं, मूर्च्छाएं होती हैं, अंधापन होता है। दूसरे के दोष के प्रति हम बिलकुल निरीक्षक, शुद्ध निरीक्षक होते हैं।
इसलिए ध्यान रखना, आपके संबंध में दूसरे जो कहें, उसे बहुत गौर से सोचना। जल्दी उसे इनकार मत कर देना। क्योंकि बहुत मौके ये हैं कि वे सही होंगे।
और अपने संबंध में आप जो मानते चले जाते हैं, उसको जल्दी स्वीकार मत कर लेना, बहुत कारण तो यह है कि वह सिर्फ आदतन है। आप ऐसा मानते रहे हैं। अपने संबंध में अपनी जो धारणा हो, उस पर बहुत सोच-विचार करना, बहुत कठोरता से। और दूसरे आपके बाबत जो कहते हों, उस पर बहुत विनम्रता से, जल्दबाजी किए बिना सोच-विचार करना। अक्सर दूसरे सही पाए जाएंगे। आप गलत पाए जाओगे। क्योंकि आपको अपने होने का अधिक हिस्सा अचेतन है। आपको पता ही नहीं कि आप क्या कर रहे हैं।
यह जो हमारी स्थिति है, इसमें प्रतिपल हमारा जो भीतर है, भीतरी है, वह बाहर आ रहा है। हमारे द्वार पर उसकी झलक दिखाई पड़ती है।
एक आदमी संग्रह करता है। धन संग्रह करता है। इकट्ठा करता चला जाता है धन। धन मूल्यवान नहीं है बड़ा। धन न हो तो आप पोस्टल स्टैम्प इकट्ठा कर सकते हैं। उससे कोई अड़चन नहीं पड़ती। यही काम हो जाएगा। सिगरेट की डिब्बियां इकट्ठी कर सकते हैं, वही काम हो जाएगा। कई दफा हमें लगता है कि बड़ी इनोसेंट हॉबी है किसी आदमी की, बड़ी निर्दोष। कि पोस्टल स्टैम्प इकट्ठा करता है। सवाल यह नहीं है कि आप क्या इकट्ठा करते हैं, सवाल यह है कि आप इकट्ठा करते हैं। भीतर कहीं कोई चीज खालीपन अनुभव कर रही है, उसको आप भरते चले जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि आप कुछ भी इकट्ठा मत करें। इसका कुल मतलब इतना है कि लोभ के कारण इकट्ठा मत करें।
जरूरत और लोभ में बड़ा फर्क है, आवश्यकता और लोभ में बड़ा फर्क है। बड़े मजे की बात है, लोभी अक्सर अपनी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर पाता। क्योंकि लोभ के कारण आवश्यकता पूरी करने में भी जो खर्च करना है, वह उसकी हिम्मत के बाहर होता है। अक्सर ऐसा होता है कि एक धनी आदमी है, लेकिन अपनी बीमारी का इलाज नहीं करता; क्योंकि उसमें खर्च करना पड़े। वह खर्च करना उसे कठिन मालूम पड़ता है। तो यह तो हद्द हो गई। आवश्यकता के लिए धन उपयोगी हो सकता है, लेकिन इस आदमी के लिए आवश्यकता से भी कोई बड़ी चीज है, और वह है भीतर का गड्ढा, लोभ। वहां चीजें भरी होनी चाहिए, वहां जरा सी भी कोई चीज हट जाए तो उसे खालीपन लगता है। खालीपन में बेचैनी मालूम पड़ती है।
धनी अक्सर कंजूस हो जाते हैं, गरीब कंजूस नहीं होते। इसका मतलब यह नहीं कि अगर यह गरीब कल अमीर हो जाए तो कंजूस नहीं होगा। गरीब कंजूस नहीं होते इसका कुल कारण इतना है कि भीतर वैसे ही खाली हैं, थोड़ा बचाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। खाली तो रहेंगे ही, इसलिए गरीब आदमी सहज खर्च कर लेता है। लेकिन अमीर आदमी को लगता है कि सब तो भर गया, जरा सा कोना खाली है। इसको भर लें तो तृप्ति हो जाए। वह कोना कभी नहीं भरता। वह कोना बड़ा होता जाता है। वह कभी नहीं भरता, एक कोना सदा खाली रह जाता है। क्योंकि हम अपनी आत्मा को वस्तुओं से भर नहीं सकते, सिर्फ धोखा दे सकते हैं भरने का। कोई वस्तु भीतर नहीं जाती, वस्तु तो बाहर रह जाती है। इसलिए भीतर के खालीपन को भर नहीं सकती।
लेकिन यह भीतर का खालीपन, महावीर कहते हैं: लोभ है। जब एक आदमी बाहर संग्रह करता है तो वह इतनी खबर देता है कि भीतर खाली है। वह खालीपन गड्ढे की तरह पुकारता है: भरो। वह लोभ है। इस लोभ को हम हजार ढंग दे सकते हैं, इस लोभ को कोई आदमी धन से भर सकता है, कोई आदमी ज्ञान से भर सकता है, कोई आदमी त्याग से भर सकता है। बड़ा मुश्किल होगा मामला। क्योंकि हम त्यागी को कभी लोभी नहीं कहते।
लेकिन आपने चार उपवास किए, फिर सोचा की आठ कर लें तो पुण्य और ज्यादा होगा। तो यह लोभ है। चार करने वाला सोचता है कि अगले साल आठ कर लूं, तो क्या फर्क हुआ? चार लाख जिसके पास हैं, वह सोचता है, अगले साल आठ लाख हो जाएं। गणित में कहां भेद है। इस वर्ष आपने इतनी तपश्र्चर्या की, सोचते हैं, अगले वर्ष दुगुनी कर लें। कहां भेद है? ज्यादा, और ज्यादा लोभ की मांग है। त्याग से भी लोभ अपने को भर सकता है। धन से भी भर सकता है, ज्ञान से भी भर सकता है। और जान लूं, और जान लूं तो उससे भी भराव शुरू हो जाएगा।
महावीर कहते हैं: बाहर का संग्रह अंदर के लोभ की झलक है। संग्रह को छोड़ कर भाग जाने से लोभ नहीं मिटेगा।
आईने में आपका चेहरा दिखाई पड़ रहा है, कुरूप है, तो कुरूप दिखाई पड़ रहा है। एक डंडा उठा कर आईना तोड़ दें, झलक नदारद हो जाएगी; लेकिन आप नदारद नहीं हो जाएंगे। और आपका कुरूप चेहरा भी नदारद नहीं हो जाएगा। सिर्फ झलक नदारद हो जाएगी।
मेरे भीतर लोभ है, मैं धन इकट्ठा कर रहा हूं। धन दर्पण है। समझ में आ गया मुझे कि धन का संग्रह लोभ है, धन छोड़ कर मैं भाग गया। दर्पण मैंने तोड़ दिया, मैं वही का वही हूं, झलक टूट गई। यह समझ लेना।
महावीर कहते हैं: लोभ की झलक है। झलक को तोड़ने से लोभ नहीं टूटेगा, सिर्फ झलक दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी।
अब मैं भाग गया जंगल में। अब मैं तपश्र्चर्या कर रहा हूं, त्याग कर रहा हूं, और अब मैं त्याग का संग्रह कर रहा हूं। वह आदमी मैं वही हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। घर छोड़ कर चला जाऊं आश्रम। घर के मुकदमें नहीं लडूंगा तो आश्रम के मुकदमें लडूंगा लेकिन अदालत जाऊंगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
मेरा मकान, मेरा बेटा, मेरी पत्नी, मेरा पति इनको छोड़ दूंगा तो कहूंगा, मेरा धर्म, मेरा शास्त्र, मेरा वेद, मेरे महावीर, मेरे बुद्ध, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वहां लकड़ियां उठ जाएंगी और सिर खुल जाएंगे।
एक मित्र मुझे मिलने आए थे अभी। उनकी पत्नी धार्मिक है, जैसे कि धार्मिक लोग होते हैं। तो मुझसे पूछने लगे कि यहां पास में कोई जैन मंदिर हो, तो मेरी पत्नी बिना नमस्कार किए भोजन नहीं करती। तो मैंने कहा: यहां बहुत जैन मंदिर हैं। चले जाएं, जो भी जैन मंदिर मिले, नमस्कार करा दें। कोई बड़ी कठिन बात नहीं, बंबई में। वे गए। एक मित्र को मैंने साथ कर दिया कि इनको किसी जैन मंदिर पहुंचा दें। उस बेचारे को क्या पता कि जैन मंदिर में भी बड़े फर्क होते हैं! वे थे दिगंबर, वह ले गया श्र्वेतांबर। उसने बता दिया कि यह रहा मंदिर, आप अंदर जाकर नमस्कार कर लें। लेकिन वह देवी उदास होकर वहीं सीढ़ियों पर बैठ गईं। उसने कहा: यह हमारा मंदिर नहीं है। ये हमारे महावीर नहीं हैं। हमें तो दिगंबर मंदिर ले चलो। यह तो श्र्वेतांबर मंदिर है। वह सज्जन अब तक यही सोचते रहे थे बेचारे कि जैन मंदिर, यानी जैन मंदिर। उनको कभी खयाल न था कि इसमें भी, महावीर में भी टाइप, प्रकार होते हैं।
उस स्त्री ने उस मंदिर में जाकर नमस्कार करने से इनकार कर दिया। वे उनके महावीर नही हैं। ऐसे मंदिर हैं जैनियों के जहां सुबह दस बजे तक महावीर श्र्वेतांबर रहते हैं, दस बजे के बाद दिगंबर हो जाते हैं। तो दस बजे तक श्र्वेतांबर नमस्कार करते, दस के बाद दिगंबर नमस्कार करते हैं।
आदमी गुड्डा-गुड्डियों के खेलों के ऊपर कभी नहीं उठ पाता, और इन पर मुकदमे चलते हैं। क्योंकि अगर दस से साढ़े दस बजे तक महावीर श्र्वेतांबर ही रह गए, तो वे जो दूसरे उपासक हैं, वे लट्ठ लेकर खड़े हो जाते हैं। न मालूम कितने जैनियों के मंदिरों पर पुलिस ने ताला डाल रखा है, क्योंकि भक्त तय नहीं कर पाते। महावीर ताले में बंद हैं, क्योंकि भक्त तय नहीं कर पाते कि कैसे बांटें! कैसे आधा-आधा करें! फिर मेरे महावीर, और मेरे बुद्ध, और मेरे राम, और मेरे कृष्ण! मगर वह मेरा खड़ा रहता है, ममता खड़ी रहती है, मूर्च्छा खड़ी रहती है। आदमी झलक को तोड़ दे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, जब तक आदमी अपने भीतर की स्थिति को न बदल लें।
दर्पणों को मिटाने से कोई भी सार नहीं। दर्पण बड़े मित्र हैं, झलक देते हैं, आपकी खबर देते हैं। अच्छा है, दर्पणों को रहने दें, लेकिन भीतर जो कुरूपता है, उसे मिटाएं। तो दर्पण, जिस दिन कुरूपता नहीं होगी भीतर, उस दिन बता देंगे कि अब आप सुंदर हो गए हैं। अब भीतर लोभ नहीं है।
धन छोड़ने से कोई प्रयोजन हल नहीं होता, लोभ छोड़ने से प्रयोजन हल होता है। लोभ बड़ी अलग बात है और एक आंतरिक क्रांति है। लोभ कब छूटता है? लोभ है क्यों?
लोभ है इसलिए कि हम भीतर खाली हैं, अर्थहीन, एंप्टी, रिक्त, कुछ भी वहां नहीं है। इसलिए लोभ है। किसी भी चीज से भर दें, यह बात बुरी नहीं है, भरने की। कठिनाई इसलिए खड़ी हो जाती है कि जिन चीजों से हम भरने जाते हैं, वे भीतर जा नहीं सकतीं। क्या है जो भीतर जा सकता है? उसकी खोज करनी चाहिए। या कहीं ऐसा तो नहीं है कि भीतर हम खाली हैं ही नहीं। यह हमारा खयाल ही है, और यह खयाल इसलिए है कि हम भीतर कभी गए नहीं। हमने ठीक जांच पड़ताल न की। या यह खयाल इसलिए है कि बाहर के जगत से खालीपन का जो अर्थ होता है, भीतर के जगत में वही नहीं होता।
एक कमरा खाली है। लाओत्सु ने कहा है: एक कमरा खाली है, तो हम कहते हैं: खाली है। लेकिन लाओत्सु कहता है: तुम ऐसा भी तो कह सकते हो कि कमरा अपने से भरा है, और कोई चीज से नहीं भरा, अपने से भरा है। तुम ऐसा भी कह सकते हो: कमरा खाली
पन से भरा है। खालीपन भी एक भरावट है। लेकिन जो फर्नीचर को ही भरावट समझते हैं, उनको कमरा खाली दिखाई पड़ेगा। खाली दिखाई पड़ने का कारण यह नहीं कि कमरा खाली है, खाली दिखाई पड़ने का कारण यह है कि आपके भरेपन की परिभाषा। हमने अब तक चीजों को ही भरापन समझा है। आत्मा में कोई चीज नहीं है। इसलिए हमको आत्मा खाली दिखाई पड़ती है। फिर हम चीजों से ही भरते चले जाते हैं। फिर लोभ का पागलपन पैदा हो जाता है, कभी भराव पैदा नहीं होता।
महावीर कहते हैं कि भीतर जाकर जो देख ले, वह पाता है, आत्मा तो भरी ही हुई है। अपने से भरी है, किसी और से नहीं। जिस दिन उसका भरापन हमें पता चल जाता है, उस दिन लोभ तिरोहित हो जाता है। क्योंकि फिर भरने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जिस दिन लोभ हट जाता है, उस दिन संग्रह की पागल दौड़ समाप्त हो जाती है।
ये जो संग्रह करने की वृत्ति रखते हैं, ऐसे लोग गृहस्थ हैं, साधु नहीं, फिर यह वृत्ति कुछ भी हो। किस चीज का आप संग्रह करते हैं, इससे भेद नहीं पड़ता। आप संग्रह करते हैं, तो आप गृहस्थ हैं। अगर आप संग्रह नहीं करते हैं, तो आप साधु हैं। इसलिए साधु या गृहस्थ होना ऊपरी घटना नहीं है, बड़ी आंतरिक क्रांति है।
मैंने सुना है, एस्किमो परिवारों में एक रिवाज है। एक फ्रेंच यात्री जब पहली दफा एस्किमो ध्रुवीय देशों में गया, तो उसे कुछ पता नहीं था। बहुत गरीब हैं एस्किमो, गरीब से गरीब हैं, लेकिन शायद उनसे संपन्न आदमी पाना भी बहुत मुश्किल है। उस फ्रेंच लेखक ने लिखा है कि मैंने उनसे ज्यादा समृद्ध लोग नहीं देखे। पता उसे कैसे चला? जिस घर में भी वह ठहरा, सहज आदतवश, उसे कुछ पता नहीं था कि यहां का रिवाज क्या है, यहां का हिसाब क्या है? किसी एस्किमो से उसने कह दिया कि तुम्हारे जूते तो बहुत खूबसूरत हैं! उसने तत्काल जूते भेंट कर दिए। उसके पास दूसरी जोड़ी नहीं है। बर्फीली जगह है, नंगे पैर चलना जीवन को जोखम में डालना है, लेकिन यह सवाल नहीं है।
दो-चार दिन बाद उसे बड़ी हैरानी हुई कि वह जिससे भी कुछ कह दे कि यह चीज बड़ी अच्छी है, वह तत्काल भेंट कर देता है। तब उसे पता चला कि एस्किमो मानते हैं कि जो चीज किसी को पसंद आ गई, वह उसकी हो गई। उसने पूछा कि इसके मानने का कारण क्या है? तो जिस वृद्ध से उसने पूछा, उस वृद्ध ने कहा: इसके दो कारण हैं, एक तो चीजें किसी की नहीं हैं, चीजें हैं। दूसरा, इसके मानने का कारण है कि जिसके पास है, उसके लिए तो अब व्यर्थ हो गई है। जिसके पास नहीं है, वह सम्मोहित हो रहा है। अगर उसे न मिले तो उसका सम्मोहन लंबा हो जाएगा, उसे तत्काल दे देनी जरूरी है ताकि उसका सम्मोहन टूट जाए। और तीसरा कारण यह है कि जिस चीज के हम मालिक हैं, उसकी मालकियत का मौका ही तभी आता है, जब हम किसी को देते हैं। नहीं तो कोई मौका नहीं आता।
चीजों का होना, आपको गृहस्थ नहीं बनाता; चीजों का पकड़ना, क्लिंगिंग आपको गृहस्थ बनाती है। ये एस्किमो संन्यासी हैं, साधु हैं। जिसे हम साधु कहते हैं, अगर उसके भीतर हम झांकें तो वहां संग्रह मौजूद रहता है। बना रहता है, तो फिर वह गृहस्थ है। बाहर से आप क्या हैं, यह बहुत मूल्य का नहीं है। भीतर से आप क्या हैं, यही मूल्य का है। लेकिन भीतर से आप क्या हैं, यह आपके अतिरिक्त कौन जानेगा? कैसे जानेगा? इसलिए सदा अपने भीतर पर एक आंख रखनी चाहिए निरीक्षण की, कि मैं भीतर क्या हूं। चीज को पकड़ता हूं? चीज मूल्यवान है बहुत? चीज न होगी तो मैं मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा, मैं चीजों का एक जोड़ हूं, तो मैं गृहस्थ हूं। फिर भाग कर जंगल में जाने से कुछ भी न होगा। फिर इस गृहस्थ होने की भीतरी व्यवस्था को तोड़ना पड़ेगा।
संन्यासी होना एक आंतरिक क्रांति है। यह भीतर घटित हो जाए, तो फिर बाहर वस्तुएं हों या न हों, गौण है।
महावीर ने मूर्च्छा को परिग्रह कहा है, अमूर्च्छा को संन्यास कहा है। महावीर का सूत्र है: जो सोता है, वह असाधु है--सुत्ता अमुनि। जो जागता है, वह साधु है--असुत्ता मुनि। जो सोया नहीं है, जागा हुआ है--वह साधु है।
भीतरी जागरण साधुता है, भीतरी बेहोशी असाधुता है।

आज इतना ही।

कीर्तन में सम्मिलित हों...!


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