MAHAVIR
Mahaveer Vani 20
Twentieth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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धम्म सूत्र: 3
जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं।
विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई।।
एवं धम्मं विउक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया।
बाले मुच्चुमुहं पत्ते, अक्खेभग्गे व सोयई।।
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ।।
जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वड्ढई।
जाविन्दिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे।।
जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़ विषम (टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़) मार्ग पर चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य जान-बूझ कर धर्म मार्ग को छोड़ कर अधर्म मार्ग को पकड़ लेता है और अंत में मृत्यु-मुख में पहुंचने पर, जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।
जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं लौटते हैं। जो मनुष्य अधर्म करता है, उसके वे रात-दिन बिलकुल निष्फल रहते हैं। लेकिन जो मनुष्य धर्म करता है, उसके वे रात-दिन सफल हो जाते हैं।
जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां नहीं बढ़तीं, जब तक इंद्रियां अशक्त नहीं होतीं, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए, बाद में कुछ नहीं होगा।
मृत्यु के संबंध में थोड़ी सी बातें और।
पहली बात: मृत्यु अत्यंत निजी अनुभव है। दूसरे को हम मरता हुआ देखते हैं, लेकिन मृत्यु को नहीं देखते। दूसरे को मरता हुआ देखना, मृत्यु का परिचय नहीं है। मृत्यु आंतरिक घटना है। स्वयं मरे बिना देखने का कोई भी उपाय नहीं है। शायद इसलिए, जब भी हम मृत्यु के संबंध में सोचते हैं तो ऐसा लगता है, मृत्यु दूसरे की होगी। क्योंकि हमने दूसरों को ही मरते देखा है।
जब हम दूसरे को मरते देखते हैं तो हम क्या देखते हैं? हम इतना ही देखते हैं कि जीवन क्षीण होता चला जाता है। शरीर से जीवन की ज्योति विदा होती चली जाती है। लेकिन उस क्षण में जहां जीवन और शरीर पृथक होते हैं, हम मौजूद नहीं हो सकते। केवल वही व्यक्ति मौजूद होता है, जो मर रहा है। तो किसी को मरते हुए देखना, मृत्यु को देखना नहीं है। मृत्यु तो स्वयं ही देखी जा सकती है। आपके लिए कोई दूसरा नहीं मर सकता है, प्रॉक्सी से मरने का कोई उपाय नहीं है। अत्यंत निजी घटना है। उधार मृत्यु का अनुभव नहीं हो सकता।
और हमारा सब अनुभव उधार है। हमने सदा दूसरों को मरते हुए देखा है। शायद इसलिए मृत्यु का जो आघात हमारे ऊपर पड़ना चाहिए, वह नहीं पड़ता। उसकी गहराई हमारे खयाल में नहीं आती।
क्या जीवन में कोई और भी ऐसा अनुभव है, जो मृत्यु जैसा हो? एक अनुभव है, लेकिन एकबारगी खयाल भी न आए कि उसका और मृत्यु से कोई संबंध हो सकता है। वह अनुभव है प्रेम।
प्रेम और मृत्यु बड़े एक से अनुभव हैं। फिर तीसरा कोई भी अनुभव वैसा नहीं है। आपके लिए श्र्वास भी दूसरा आदमी ले सकता है। आपका हृदय भी, जरूरी नहीं कि आपका ही धड़के, दूसरे का भी आपके लिए धड़क सकता है। आपका हृदय पूरा अलग कर दिया जाए और दूसरे के हृदय से जोड़ दिया जाए, तो भी आप जीवित रह लेंगे। खून भी दूसरे का आपकी नाड़ियों में बह सकता है, श्र्वास भी यंत्र आप के लिए ले सकता है, लेकिन प्रेम आपके लिए कोई दूसरा नहीं कर सकता है।
प्रेम अत्यंत निजी अनुभव है। मृत्यु और प्रेम बड़े संयुक्त हैं। इसलिए जिन लोगों ने प्रेम के संबंध में गहराई से सोचा है, उन्हें मृत्यु के संबंध में भी सोचना पड़ा। और जिन्होंने मृत्यु की खोज-बीन की है, वे अंततः प्रेम के रहस्य में भी प्रवेश किए हैं।
कुछ बातें हमारे अनुभव में भी हैं, जिन्होंने बहुत नहीं सोचा होगा। जैसे, जो आदमी प्रेम से डरता है, वह मृत्यु से भी डरेगा। जो आदमी मृत्यु से डरता है, वह कभी प्रेम में नहीं पड़ेगा। जो व्यक्ति प्रेम की गहराई में उतर गया है, मृत्यु के प्रति बिलकुल अभय हो जाता है। इसलिए प्रेमी निश्चिंतता से मर सकते हैं। प्रेमी को मृत्यु में कोई भय नहीं रह जाता। लेकिन जिसने कभी प्रेम न किया हो, वह मृत्यु से बहुत डरेगा। तब एक दुष्चक्र निर्मित होता है, एक विसियस सर्किल बन जाता है। मृत्यु से डरता है, इसलिए प्रेम में भी नहीं उतरता, क्योंकि प्रेम का अनुभव भी गहरे में मृत्यु का ही अनुभव है। जब तक कोई पूरी तरह मिटता नहीं, तब तक प्रेम का जन्म भी नहीं होता।
इसलिए प्रेम एक आध्यात्मिक अर्थों में मृत्यु है। प्रेम वही कर सकता है जो अपने को मिटा लेने को राजी हो। जब तक कोई इतना नहीं मिट जाता कि बचे ही नहीं, तब तक प्रेम का फूल नहीं खिलता। इसलिए जिसने प्रेम को जान लिया हो, उसने मृत्यु को भी जान लिया। या जिसने मृत्यु को जान लिया हो, उसने प्रेम को भी जान लिया।
प्रेम और मृत्यु बड़ी संयुक्त घटनाएं हैं। गहरे आंतरिक तल पर वे एक ही चीज के दो रूप हैं। यह बहुत हैरानी की बात है। लेकिन विचारणीय है। मृत्यु तो हम जब मरेंगे, तब होगी। दूसरे को मरते देख कर हम मृत्यु का कोई अनुभव नहीं कर सकते। खुद मरेंगे, तभी अनुभव होगा। लेकिन एक उपाय है प्रेम, जिससे हम मृत्यु का अनुभव आज भी कर सकते हैं।
फिर प्रेम का ही और विराट रूप है, प्रार्थना। फिर प्रेम का ही सार अंश है, ध्यान। वे सब मृत्यु के रूप हैं। हिंदू शास्त्रों में तो कहा है कि गुरु मृत्यु है। इसी अर्थ में कहा है कि गुरु के पास तभी कोई पहुंच सकता है जब वह इस स्थिति में अपने को छोड़ दे, जैसे कि खुद मिट गया। और अगर गुरु के पास मृत्यु घटित न हो, तो गुरु से कोई संबंध नहीं जुड़ता।
श्रद्धा भी मृत्यु है। वह प्रेम का ही एक रूप है। यह मृत्यु तो जीवन के अंत में आएगी, जिसे हम दूसरे में घटते देखते हैं। लेकिन प्रेम आज भी घट सकता है। प्रार्थना आज भी हो सकती है। ध्यान में आज भी प्रवेश हो सकता है। जो लोग ध्यान में प्रवेश कर जाते हैं, मृत्यु का भय मिट जाता है। सिर्फ ध्यानी मृत्यु के बाहर हो जाता है, जैसे प्रेमी बाहर हो जाता है। क्यों? इसलिए नहीं कि ध्यान के द्वारा मृत्यु पर विजय हो जाती है। इसलिए भी नहीं कि प्रेम के द्वारा मृत्यु पर विजय हो जाती है। बल्कि इसलिए कि जो प्रेम में मर कर देख लेता है वह जान जाता है कि जो मरता है, वह मैं नहीं हूं। ध्यान में जो मर कर देख लेता है, वह जान जाता है कि जो मरता है, वह मेरी परिधि है, मेरी देह है, मेरा आवरण है, मैं नहीं हूं।
मृत्यु से गुजर कर जाना जाता है कि मेरे भीतर कोई अमृत भी है। इस अमृत के बोध से मृत्यु नहीं मिटती। मृत्यु तो घटेगी ही, महावीर को भी घटेगी और कृष्ण को भी घटेगी और बुद्ध को भी घटेगी। मृत्यु तो घटेगी ही, लेकिन तब यह मृत्यु केवल दूसरों के लिए होगी। दूसरे देखेंगे कि महावीर मर गए, और महावीर जानते रहेंगे कि वे नहीं मर रहे हैं। भीतर कोई मृत्यु घटित नहीं होगी, तब मृत्यु बाहरी घटना हो जाएगी, खुद के लिए भी। ऐसा अनुभव न हो पाए तो जीवन व्यर्थ गया।
इसे हम समझ लें तो फिर ये सूत्र समझ में आए।
एक बीज हम बोते हैं। वृक्ष बढ़ता है, बड़ा होता है। कब आप कहते हैं कि वृक्ष सफल हुआ? बीज बोया, सफल हुआ--जब फल लगते हैं, जब फल पकते हैं, जब फूल खिलते हैं; वृक्ष जो दे सकता था, जब पूरा दे देता है, तब हम कहते हैं: सफल हुआ श्रम। जिस वृक्ष पर फल न लगें, बांझ रह जाए, उस वृक्ष को हम सफल न कहेंगे। हम कहेंगे: कहीं अवरोध आ गया, कहीं रास्ता भटक गया, कहीं वृक्ष ऐसे रास्ते पर चला गया, जहां जीवन की निष्पत्ति नहीं होती। जहां जीवन में निर्णय नहीं आता। इस वृक्ष का होना व्यर्थ हो गया।
मनुष्य भी एक वृक्ष है और मनुष्य भी एक बीज है। सभी मनुष्य फल तक नहीं पहुंचते। पहुंचना चाहिए। पहुंच सकते हैं। सभी के लिए संभव है, लेकिन हो नहीं पाता। कुछ लोग भटक जाते हैं। कुछ लोग, ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं, जहां उनके जीवन में कोई फल नहीं लगते, और जहां उनके जीवन में कोई फूल नहीं खिलते। और जहां उनका जीवन निष्फल हो जाता है।
जीवन को हम देखें, तो जीवन की अंतिम घटना है मृत्यु। अगर इसे हम ऐसा समझें तो जीवन का जो आखिरी चरण है, शिखर है, वह मृत्यु है। जन्म तो शुरुआत है, मृत्यु अंत है। मृत्यु में ही पता चलेगा कि व्यक्ति का जीवन सफल हुआ या असफल हुआ। अंतिम घड़ी में ही जांच-पड़ताल हो जाएगी। निर्णय हो जाएगा।
अगर आप हंसते हुए मर सकते हैं तो जीवन सफल हुआ, फूल खिल गए। अगर आप रोते हुए ही मरते हैं तो जीवन व्यर्थ गया, फूल खिल नहीं पाए। क्योंकि जब सब खिल जाता है तो मृत्यु एक आनंद है। जब कुछ भी नहीं खिल पाता तो मृत्यु एक पीड़ा है, क्योंकि मैं बिना कुछ हुए मर रहा हूं। समय व्यर्थ गया, अवसर चूक गया। मैं कुछ हो नहीं पाया, जो हो सकता था। जो मेरे भीतर छिपा था वह बाहर न आया। जो गीत मैं गा सकता था, वह अनगाया रह गया। तब पीड़ा है।
हम में से अधिक लोग रोते हुए ही मरते हैं। रोता हुआ मरण इस बात की खबर है कि जीवन असफल गया। मृत्यु जब हंसती हुई होती है, जब मृत्यु फूल की तरह खिलती है, जब मृत्यु एक आनंद होती है, तो उसका अर्थ है कि इस जीवन की गहनताओं में छिपा हुआ जो अमृत था, उसका इस व्यक्ति को पता चल गया। अब मृत्यु सिर्फ विश्राम है। अब मृत्यु अंत नहीं है, बल्कि अब मृत्यु पूर्णता है, अब मृत्यु एक लंबी निष्फल जीवन की समाप्ति नहीं है, बल्कि एक फुलफिलमेंट है, एक पूर्णता है। एक जीवन पूरा हुआ।
जैसे कोई नदी मरुस्थल में खो जाए और सागर तक न पहुंच पाए, वैसा अधिक लोगों का जीवन है, कहीं खो जाता है, पूर्ण नहीं हो पाता। जैसे कोई नदी सागर में पहुंच जाए, गीत गाती, नाचती सागर में मिल जाए।
मरुस्थल में भी नदी खो जाती है, सागर में भी नदी खोती है। लेकिन मरुस्थल में नदी असफल खो जाती है, सागर में नदी सफल हो जाती है। इसलिए मरुस्थल में खोती नदी रोती हुई खोएगी; सागर में गिरती हुई नदी नाचती हुई, अहोभाव से भरी हुई। खोना तो दोनों में है।
मृत्यु में हम भी खोते हैं, लेकिन रोते हुए। जैसे मरुस्थल में सब अवसर व्यर्थ हो गया। महावीर भी खोते हैं, लेकिन हंसते हुए। वह जो अवसर मिला था, उससे जो भी हो सकता था, वह पूरा हो गया है।
इस बात को समझ कर सूत्र को समझें।
‘जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़, विषम टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य भी जान-बूझ कर धर्म को छोड़, अधर्म को पकड़ लेता है और अंत में मृत्यु के मुख में पहुंचने पर, जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।’
इसमें बहुत सी बातें हैं। एक, महावीर ने बड़ी अदभुत बात कही है और वह यह कि ‘मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर’, यह बड़ी उलटी बात है। अगर गाड़ीवान मूर्ख है, तो ‘जान-बूझ कर’ क्या अर्थ रखता है? और अगर गाड़ीवान जान-बूझ कर ही गलत रास्ते पर चलता है, तो मूर्ख कहने का क्या प्रयोजन? लेकिन महावीर का प्रयोजन है। जब महावीर कहते हैं कि ‘मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर।’
मूर्खता अज्ञान का नाम नहीं है। मूर्खता, उन ज्ञानियों के लिए कही जाती है जो जान-बूझ कर... बच्चे को हम मूर्ख नहीं कहते, अबोध कहते हैं। बच्चे को हम, अगर भूल करे, तो मूर्ख नहीं कहते, बच्चा ही कहते हैं, निर्दोष कहते हैं, अभी उसे पता ही नहीं है। मूर्ख तो आदमी तब होता है, जब उसे पता होता है और फिर भी जान-बूझ कर गलत रास्ते पर चला जाता है।
जानवरों को हम मूर्ख नहीं कह सकते, अज्ञानी तो वे हैं; बच्चों को हम मूर्ख नहीं कह सकते, अज्ञानी वे हैं। मूर्ख तो हम उनको ही कह सकते हैं जो ज्ञानी भी हैं, तब जान-बूझ कर भूल शुरू होती है और जान-बूझ कर भूल ही मूर्खता है। लेकिन क्यों कोई जान-बूझ कर भूल करता होगा?
क्योंकि सुकरात ने कहा है, कोई जान-बूझ कर भूल नहीं कर सकता। यूनान में इस पर लंबा विवाद रहा है और इस विवाद में सारे जगत की संस्कृतियों के अलग-अलग अनुदान हैं कि कोई आदमी जब भूल करता है तो जान-बूझ कर करता है, या कि अनजान करता है? सुकरात ने कहा है: कोई आदमी जान-बूझ कर भूल कर ही नहीं सकता। उसकी बात में भी सच्चाई है। कभी आप जान-बूझ कर आग में हाथ डाल सकते हैं? असंभव है। जान-बूझ कर कोई कैसे भूल करेगा, क्योंकि भूल दुख देती है, पीड़ा देती है। भूल तो अनजाने ही हो सकती है।
लेकिन महावीर कहते हैं कि जान-बूझ कर भी भूल हो सकती है। जान-बूझ कर भूल तब हो सकती है जब आप जानते हैं कि आग में हाथ डालने से हाथ जलेगा ही लेकिन फिर भी ऐसी परिस्थितियां पैदा की जा सकती हैं कि आप अहंकार वश आग में हाथ डाल दें। अगर यह प्रतियोगिता हो रही हो कि कौन कितनी देर तक आग में हाथ रख सकता है, तो आप जान-बूझ कर भी आग में हाथ डाल सकते हैं।
अहंकार के कारण आदमी जान-बूझ कर भूल कर सकता है। सिर्फ एक ही कारण है जान-बूझ कर भूल करने का, अहंकार के कारण। अगर आपके अहंकार को रस मिलता हो तो आप जान-बूझ कर भूल कर सकते हैं। कोई गाड़ीवान क्यों साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़ कर, ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चलेगा!
ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर अहंकार को तृप्ति मिलती है। राजमार्ग पर तो सभी चलते हैं, वहां कोई अहंकार को रस नहीं है। जब कोई उलटे-सीधे मार्ग पर चलता है तो अहंकार को रस मिलता है।
एवरेस्ट पर चढ़ने में कौन सा रस मिलता होगा? एवरेस्ट की चोटी पर खड़े होकर क्या उपलब्धि होती है? जब तेन सिंह और हिलेरी पहली दफे एवरेस्ट पर खड़े हो गए होंगे, तो उन्होंने क्या पाया होगा? एक बड़ी सूक्ष्म अहंकार की तृप्ति--जहां कोई भी नहीं पहुंच पाया वहां पहुंचने वाले वे पहले मनुष्य हैं। और तो कुछ भी एवरेस्ट पर मिलने को नहीं है। यात्रा के अंत पर मिलता क्या है? यात्रा के अंत पर मिलता है, अहंकार की तृप्ति।
तो जो आदमी ऊबड़-खाबड़ मार्ग चुनता है जीवन में, वह जान कर चुनता है। सीधे रास्ते पर तो सभी चलते हैं। राजमार्ग पर चलना भी कोई चलना है! जब आदमी ऐसे बीहड़ रास्ते पर चलता है, जहां चलना दुर्गम है, जहां एक-एक कदम उठाना मुश्किल है, जहां हर घड़ी कष्ट, हर घड़ी खतरा है; तब अहंकार को बड़ा रस आता है।
नीत्शे ने कहा है: ‘लिव डेंजरसली, खतरनाक ढंग से जीओ।’ क्योंकि नीत्शे कहता है: जीवन में एक ही तृप्ति है, और वह तृप्ति है--पॉवर, शक्ति। लेकिन शक्ति का अनुभव तभी होता है, जब हम विपरीत से जूझते हैं। सरल के साथ शक्ति का अनुभव नहीं होता। जहां कोई भी चल सकता है, वहां शक्ति का कैसा अनुभव! जहां बच्चे भी निरापद चल लेते हैं, जहां अंधे भी चल लेते हैं, वहां शक्ति का क्या अनुभव! शक्ति का अनुभव तो वहां है, जहां कदम-कदम कठिनाई है, जहां पहुचना असंभव है। इसलिए अहंकारी ऐसे रास्ते चुनता है, जो पहुंचाने के लिए नहीं होते, सिर्फ अहंकार के संघर्ष के लिए होते हैं।
तो मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर ऊबड़-खाबड़, विषम रास्ते चुन लेता है, क्योंकि वहां उसके अहंकार की प्रतिष्ठा हो सकती है। तो मूर्खता का गहनतम सूत्र है अहंकार। मूर्खता का संबंध ज्ञान से नहीं है, अज्ञान से नहीं है। मूर्खता का संबंध अहंकार से, ईगो से है। जितना अहंकारी व्यक्ति होगा, उतना मूर्ख होगा।
मजा यह है कि आप अपने ज्ञान का उपयोग भी अपनी मूर्खता के लिए कर सकते हैं, क्योंकि आप अपने ज्ञान से भी अपने अहंकार को भर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने ज्ञान से भी अपने अहंकार को ही भर रहा हो तो यह प्रयास मूर्खतापूर्ण है।
अज्ञान से तो लोग भूलें करते हैं, लेकिन ज्ञान से भी लोग भूलें करते हैं। और बड़ी से बड़ी भूल जो ज्ञान से हो सकती है, वह यह कि हम अपने इस अहंकार को खड़ा करने के लिए गलत मार्ग चुन लें, जान-बूझ कर। आपको भी खयाल होगा जिंदगी में, कई बार विषम मार्ग चुनने में बड़ा सुख मिलता है। कठिन है जो, लंबा है जो रास्ता, विघ्न जहां बहुत हैं, आपदाएं जहां हैं, विपत्तियां जहां हैं; उसे चुनने में बड़ा रस आता है।
रस क्या है? जीतने का रस। जब रास्ते में कोई विपत्ति होती है, तब हम जीतते हैं। जब रास्ते में कोई विपत्ति नहीं होती तो क्या खाक जीतना! इसलिए जो लोग इस भांति चलते हैं, उनके जीवन में हजार जटिलताएं खड़ी हो जाती हैं। उनका सारा जीवन, एक ही गणित को मान कर चलता है: जहां विपत्ति हो, जहां बाधा हो, जहां अड़चन हो, जो असंभव मालूम पड़े, उसे करने में उन्हें रस आता है।
और इस जगत में अधर्म से असंभव कुछ भी नहीं। अधर्म इस जगत में सबसे असंभव है। एवरेस्ट चढ़ा जा सकता है, चांद पर उतरा जा सकता है, मंगल पर भी आदमी उतर ही जाएगा, लेकिन यह कुछ भी असंभव नहीं है। अधर्म सबसे असंभव है। अधर्म का मतलब क्या? कल मैंने आपको कहा: धर्म का अर्थ है--स्वभाव; अधर्म का अर्थ है--स्वभाव के विपरीत। निश्चित ही स्वभाव के विपरीत जाना सबसे असंभव बात है। आदमी स्वभाव के विपरीत जा ही कैसे सकता है? स्वभाव का अर्थ ही है कि जिसके विपरीत आप न जा सकें। जैसे आग ठंडी होना चाहे, तो यह स्वभाव के विपरीत हुआ। जैसे पानी ऊपर चढ़ना चाहे तो यह स्वभाव के विपरीत हुआ। ऐसे ही अधर्म का अर्थ है, जो स्वभाव के विपरीत है, वही टेढ़ा-मेढ़ा है।
धर्म तो बहुत सरल और सीधा है; लेकिन मजा है कि धर्म में भी हम तभी उत्सुक होते हैं, जब वह टेढ़ा-मेढ़ा हो। सीधे धर्म में हम जरा भी उत्सुक नहीं होते। कोई बताए कि इतने उपवास करो, ऐसे खड़े रहो रात भर, नंगे रहो, कि कोड़े मारो शरीर को, कि सुखाओ, हड्डी-हड्डी हो जाओ, तब जरा रस आता है कि हां, यह कोई बात हुई।
जब धर्म भी टेढ़ा-मेढ़ा हो तो मूर्ख गाड़ीवान उत्सुक होता है। इसलिए ध्यान रखना, धर्म की तरफ जो उत्सुकता दिखाई पड़ती है, उसमें नब्बे--नब्बे भी कम हैं--निन्यानबे प्रतिशत मूर्ख गाड़ीवान होते हैं। जिनका कुल कारण यह होता है कि कोई असंभव करने जैसा दिखाई पड़ रहा है। तब उनको बड़ा रस आता है। अगर उनको कहो कि आराम से बैठ कर भी, छाया में भी, धर्म उपलब्ध हो सकता है, धर्म का सारा रस ही खो जाएगा। आसान हुआ, रस खो गया। बुद्धिमान आदमी को आसान हो तो रस बढ़ेगा। लेकिन अहंकारी आदमी को, आसान हो तो रस खो जाएगा।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
तपश्र्चर्या का अधिकतम रस टेढ़े-मेढ़ेपन के कारण है। जब आप अपने को सता रहे होते हैं, तब आपको लगता है, हां, कुछ कर रहे हैं! तब आपको लगता है, कुछ कर रहे हैं--भूखे हैं, पानी नहीं पी रहे हैं; तब आपको लगता है, आप कुछ कर रहे हैं। क्यों? क्योंकि बड़ा दुर्गम है, बड़ा अस्वाभाविक है। भूख स्वाभाविक है, भूखा रह जाना अस्वाभाविक है। भूख सहज है, भूख के विपरीत लड़ना असहज है। लेकिन जितना असहज हो, धारा के विपरीत हो, उतना हमें लगता है कि हां, कुछ अहंकार को रस आ रहा है। इसलिए तपस्वियों से ज्यादा प्रखर अहंकार और कहीं खोजना मुश्किल है। झोपड़े में रह रहा है, तो अहंकार बढ़ेगा। झाड़ के नीचे है तो और बढ़ जाएगा। धूप में खड़ा है, तो और बढ़ जाएगा। अगर विश्राम करता ही नहीं, खड़ा ही रहता है तपस्वी, तो और बढ़ जाएगा।
यह सारी की सारी चेष्टा सिकंदर और नेपोलियन की चेष्टा से भिन्न नहीं है। लेकिन हमें दिखती है भिन्न, क्योंकि हमारी समझ नहीं है। इस चेष्टा का एक ही अर्थ है कि जो असंभव है, वह हम करके दिखा रहे हैं। अगर आदमी सहज जी रहा हो, तो हमें खयाल में भी नहीं आ सकता है कि वह धार्मिक हो सकता है।
सहज आदमी हमारे खयाल में नहीं आता कि धार्मिक भी हो सकता है। लेकिन कबीर ने कहा है: ‘साधो, सहज समाधि भली।’ कारण है कहने का। सहज का अर्थ यह जो महावीर कह रहे हैं, वह समझदार आदमी, जो सीधे-सादे, साफ-सुथरे राजमार्ग को चुनता है; इसलिए कि कहीं पहुंचना है, इसलिए नहीं कि कुछ जीतना है।
ये दोनों अलग दिशाएं हैं। कहीं पहुंचना है तो व्यर्थ श्रम लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तब बीच में बाधाएं खड़ी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अगर कहीं पहुंचना नहीं है, सिर्फ अहंकार अर्जित करना है यात्रा में, तो फिर बाधाएं होनी चाहिए। तो आदमी अपने हाथ से भी बाधाएं निर्मित करता है। पैदल जाता है, तीर्थयात्रा को। मुझ से तीर्थयात्री कहते हैं कि जो मजा पैदल जाकर तीर्थयात्रा करने का है, वह ट्रेन में बैठ कर जाने में नहीं है।
स्वभावतः कैसे हो सकता है? लेकिन जो और आगे बढ़ गए हैं गाड़ी को टेढ़े-मेढ़े उतारने में, वे जमीन पर साष्टांग दंडवत करते हुए तीर्थयात्रा करते हैं। उनका वश चले अगर, तो वे शीर्षासन करते हुए भी तीर्थयात्रा करें। लेकिन तब जो मजा आएगा, निश्चित ही वह पैदल करने वाले को नहीं आ सकता। क्यों? वह मजा क्या है? वह तीर्थ पहुंचने का मजा नहीं है। वह अहंकार निर्मित करने का मजा है। जो कोई नहीं कर सकता, वह मैं कर रहा हूं।
धर्म हो, कि धन हो, कि यश हो, जो भी हम मार्ग इरछे-तिरछे चुनते हैं जान कर, महावीर कहते हैं: वह अधर्म है। असल में अधर्म तिरछा ही होगा, सीधा नहीं होता। कभी आपने खयाल किया है, एक झूठ बोलें, तो बड़ी तिरछी यात्राएं करनी पड़ती हैं! सच बोलें, सीधा। सच बिलकुल वैसा है, जैसे यूक्लिड की रेखा--दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी। यूक्लिड की व्याख्या है रेखा की--दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी, तो रेखा सीधी होती है। दो बिंदुओं के बीच जितना लंबा चक्कर लगाते जाएं, उतनी रेखा बड़ी तिरछी होती चली जाती है।
सत्य भी दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी है। असत्य सबसे बड़ी लंबी यात्रा है। इसलिए एक असत्य, फिर दूसरा, फिर तीसरा। एक को सम्हालने के लिए एक लंबी श्रृंखला है। बड़ा मजा है कि सत्य को सम्हालने के लिए कोई श्रृंखला नहीं होती। एक सत्य अपने में काफी होता है। सत्य एटामिक है। एक अणु काफी है।
झूठ श्रृंखला है, सीरी़ज है। एक झूठ काफी नहीं है। एक झूठ को दूसरे झूठ का सहारा चाहिए। दूसरे झूठ को और झूठों का सहारा चाहिए, और झूठ हमेशा अधर में अटका रहता है, कितना ही सहारा देते जाओ, उसके पैर जमीन से नहीं लगते। क्योंकि हर झूठ जो सहारा देता है वह खुद भी अधर में होता है। तो आप सिर्फ पोस्टपोन करते हैं, पकड़े जाने को, बस। जब मैं एक झूठ बोलता हूं तब तत्काल मुझे दूसरा झूठ बोलना पड़ता है कि पकड़ा न जाऊं। फिर दूसरा बोलता हूं, तीसरा बोलना पड़ता है कि पकड़ा न जाऊं। फिर यह भय कि पकड़ा न जाऊं, तो मैं स्थगित करता जाता हूं। हर झूठ थोड़ी राहत देता है, फिर नये झूठ को जन्म देता है।
सत्य सीधा है।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि सत्य को याद रखने की भी जरूरत नहीं है, सिर्फ झूठ को याद रखना पड़ता है। इसलिए जिनकी स्मृति कमजोर है, वे झूठ नहीं बोल सकते। झूठ बोलने के लिए स्मृति की कुशलता चाहिए। क्योंकि लंबी याददाश्त चाहिए। एक झूठ बोला है, तो उसकी पूरी श्रृंखला बनानी पड़ेगी। यह वर्षों तक चल सकती है। इसलिए झूठ बोलने वालों का मन बोझिल होता चला जाता है। सच बोलने वाले का मन खाली होता है, कुछ रखना नहीं पड़ता। कुछ सम्हालना नहीं पड़ता।
धर्म भी एक सीधी यात्रा है, सरल यात्रा है। लेकिन धर्म में हमें रस नहीं है, रस हमें टेढ़े-मेढ़ेपन में है; क्योंकि रस हमें अहंकार में है।
अभी स्पास्की और बॉबी फिशर में शतरंज की होड़ थी। अगर स्पास्की पहले दिन ही कह दे कि लो, तुम जीत गए! इतनी सरल हो अगर जीत, तो जीत में कोई रस न रह जाएगा। जीत जितनी कठिन है, जितनी असंभव है, जितनी मुश्किल है, उतनी ही रसपूर्ण हो जाती है। और मजा यह है कि आदमी इसके लिए कैसे-कैसे उपाय करता है! शतरंज बड़ा मजेदार उपाय है।
आदमी एक नकली युद्ध करता है--नकली! कुछ भी नहीं है वहां, न हाथी हैं, न घोड़े हैं, न कुछ है--नकली है सब, लेकिन रस असली है। रस वही है जो असली हाथी घोड़े से मिलता है। बिलकुल वह महंगा धंधा था। पुराने लोग उस धंधे को काफी कर चुके।
खेल, युद्ध का संक्षिप्त अहिंसात्मक संस्करण है। उसमें भी हम लड़ते हैं नकली साधनों से, लेकिन थोड़ी ही देर में नकली साधन भूल जाते हैं और असली हो जाते हैं। कोई घोड़ा क्या घोड़ा होगा मैदान पर, जो शतरंज के बोर्ड पर हो जाता है। क्यों? आखिर इस नकली लकड़ी के घोड़े में इतना रस? यह असली कैसे हो जाता है? जिस घोड़े पर भी अहंकार की सवारी हो जाए, वह असली हो जाता है। अहंकार चलता है, घोड़े थोड़े ही चलते हैं! फिर जितनी कठिनाई हो, जितनी असंभावना हो और जितना सस्पेंस हो, और जितना संदेह हो जीत में, उतनी ही बात बढ़ती चली जाती है।
आदमी ने बहुत उपाय किए हैं, जिनसे वह जो सीधा संभव है, उसको भी बहुत लंबी यात्रा करके संभव करता है। इसे महावीर कहते हैं: जान-बूझ कर, साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़ कर--जैसा मूर्ख गाड़ीवान पछताता है।
कब पछताता है मूर्ख गाड़ीवान? जब धुरी टूट जाती है। जब गाड़ी उलटे-सीधे रास्ते पर, पत्थरों पर, कंकड़ों पर, मरुस्थल में उलझ जाती है कहीं, और गाड़ी की धुरी टूट जाती है। जब एक चाक बहुत ऊपर और एक चाक बहुत नीचे हो जाता है, तब धुरी टूटती है।
धुरी टूटने का मतलब है कि दोनों चाक जहां समान नहीं होते, असंतुलित हो जाते हैं। वहां धुरी टूट जाती है। वहां दोनों को सम्हालने वाली धुरी टूट जाती है। तब पछताता है, तब दुखी होता है, लेकिन तब कुछ भी नहीं किया जा सकता। तब कुछ भी करना मुश्किल हो जाता है।
जीवन में भी हम धुरी को तोड़ कर ही पछताते हैं। जो पहले समझ लेता है, वह कुछ कर सकता है। जो तोड़ कर ही पछताने का आदी है, तो जीवन ऐसी घटना नहीं है कि तोड़ कर पछताने का कोई उपाय हो। जो मृत्यु के बाद ही पछताएगा, उसके लिए फिर पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है। हम भी पछताते हैं जब धुरी टूट जाती है। धुरी हमारी भी तब टूटती है जब असंतुलन बड़ा हो जाता है, एक चाक ऊपर और एक चाक बहुत नीचे हो जाता है।
यह होगा ही तिरछे रास्तों पर।
‘अधर्म को पकड़ लेता है, और अंत में मृत्यु के मुख में पहुंचने पर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।’
अधर्म को हम पकड़ते ही इसलिए हैं, अहंकार की वहां तृप्ति है। और धर्म को हम इसीलिए नहीं पकड़ते हैं कि वहां अहंकार से छुटकारा है। धर्म की पहली शर्त है, अहंकार छोड़ो। वही अड़चन है। अधर्म का निमंत्रण है, आओ, अहंकार की तृप्ति होगी। वही चुनौती है, वही रस है। अधर्म के द्वार पर लिखा है, बढ़ाओ अंहकार को, बड़ा करो। धर्म के द्वार पर लिखा है, छोड़ दो बाहर, अहंकार को। भीतर आ जाओ।
तो जिनको भी इस बात में रस है कि मैं कुछ हूं, उन्हें धर्म की तरफ जाने में बड़ी कठिनाई होगी। जो इस बात को समझने की तैयारी में हैं कि मैं ना कुछ हूं, उनके लिए धर्म का द्वार सदा ही खुला हुआ है। जिनको जरा भी है कि मैं कुछ हूं, वे अधर्म में खींच लिए जाएंगे--चाहे वे मंदिर जाएं, मस्जिद जाएं, गुरुद्वारा जाएं, कहीं भी जाएं। जिनको यह रस है कि मैं कुछ हूं, जो मंदिर में प्रार्थना करते वक्त भी यह देख रहे हैं कि कितने लोगों ने मुझे प्रार्थना करते देखा, जो यह देख रहे हैं कि कितने लोग मुझे तपस्वी मानते हैं, उपासक मानते हैं, कितने लोग मुझे साधु मानते हैं; जो अभी भी उस में रस ले रहे हैं वे कहीं से भी यात्रा करें, उनकी यात्रा ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर, अधर्म के रास्ते पर हो जाएगी।
इसका मतलब यह हुआ कि जो आदमी स्वयं में कम उत्सुक है और स्वयं को दिखाने में ज्यादा उत्सुक है, वह अधर्म के रास्ते पर चला जाएगा। जिस आदमी को इस में कम रस है कि मैं क्या हूं, और इस में ज्यादा रस है कि लोग मेरे संबंध में क्या सोचते हैं, वह अधर्म के रास्ते पर चला जाएगा। जो लोगों की आंखों में एक प्रतिबिंब बनाना चाहता है, एक इमेज, वह अधर्म के रास्ते पर चला जाएगा।
धर्म के रास्ते पर तो केवल वे ही जा सकते हैं, जो स्वयं में उत्सुक हैं, स्वयं की वास्तविकता में। स्वयं के आवरण, आभूषण, स्वयं की साज-सज्जा, स्वयं के श्रृंगार, दूसरों की आंखों में बनी स्वयं की प्रतिमा में जिनकी उत्सुकता नहीं है, केवल वे ही धर्म के रास्ते पर जा सकते हैं। क्योंकि दूसरे तो तभी आदर देते हैं, जब आप कुछ असंभव करके दिखाएं। दूसरे तो तभी आपको मानते हैं जब आप कोई चमत्कार करके दिखाएं। दूसरे तो आपको तभी मानते हैं जब आप कुछ ऐसा करें, जो वे नहीं कर सकते हैं। तब...। इसलिए देखें, जब आप किसी को आदर देते हैं तो आपने कभी खयाल किया है कि आपके आदर देने का कारण क्या होता है? सदा कारण यही होता है कि जो आप नहीं कर सकते, वह यह आदमी कर रहा है। अगर आप भी कर सकते हैं, तो आप आदर न दे सकेंगे।
आप जाते हैं, कोई सत्य साईंबाबा एक ताबीज हाथ से निकाल कर दे देते हैं, तो आप आदर करते हैं। एक मदारी आदर न कर सकेगा। ताबीज तो कुछ भी नहीं, वह कबूतर निकाल देता है हाथ से। वह जानता है कि इसमें आदर जैसा कुछ भी नहीं है, यह साधारण मदारीगिरी है। वह आदर न दे सकेगा। आप आदर दे सकेंगे, क्योंकि आप नहीं कर सकते हैं। जो आप नहीं कर सकते, वह चमत्कार है। फिर यह ताबीजों से ही संबंधित होता तो बहुत हर्जा न था, क्योंकि ताबीजों में बच्चों के सिवाय कोई उत्सुक नहीं होता, न कबूतरों में कोई बच्चों के सिवाय उत्सुक होता है; लेकिन यह और तरह से भी संबंधित है।
आप एक दिन भूखे नहीं रह सकते, और एक आदमी तीस दिन का उपवास कर लेता है, तब आपका सिर उसके चरणों में लग जाता है। यह भी वही है, इसमें भी कुछ मामला नहीं है। आप ब्रह्मचर्य नहीं साध सकते और एक आदमी बाल ब्रह्मचारी रह जाता है, आपका सिर उसके चरणों में लग जाता है। यह भी वही है, कोई फर्क नहीं है। कोई भी फर्क नहीं है।
कारण सदा एक ही है भीतर हर चीज के, कि जो आप नहीं कर सकते। तब इसका यह मतलब हुआ कि अगर आपको भी अहंकार की तृप्ति करनी हो तो आपको कुछ ऐसा करना पड़े, जो लोग नहीं कर सकते। या कम से कम दिखाना पड़े कि आप कर सकते हैं, जो लोग नहीं कर सकते।
तो जो व्यक्ति अहंकार में उत्सुक है, वह सदा ही तिरछे रास्तों में उत्सुक होगा। ताबीज पेटी से निकाल कर आपके हाथ में दे देना बिलकुल सीधा काम है, लेकिन पहले ताबीज को छिपाना, और फिर इस तरकीब से निकालना कि दिखाई न पड़े, कहां से निकल रहा है, तिरछा काम है। तिरछा है तो आकर्षक है। आपको भी पता चल जाए कि ताबीज कैसे पेटी से कपड़े की बांह के भीतर गया, फिर बांह से कैसे हाथ तक आया, एक दफा आपको पता चल जाए, चमत्कार तिरोहित हो जाए। फिर दुबारा आपको इसमें कोई श्रद्धा न मालूम होगी।
आपको भी पता चल जाए कि भूखा रहने की तरकीब क्या है, तो फिर उपवास में भी आपकी श्रद्धा न रह जाएगी। आपको भी पता चल जाए कि ब्रह्मचारी रहने की तरकीब क्या है, फिर आपको उसमें भी रस न रह जाएगा।
जो भी आप कर सकते हैं... यह बड़े मजे की बात है कि किसी आदमी की अपने में श्रद्धा नहीं है। जो भी आप कर सकते हैं, उसमें आपकी कभी श्रद्धा नहीं होगी। जो दूसरा कर सकता है, और आप नहीं कर सकते तो श्रद्धा होती है। तो जो भी आदमी अहंकार खोज रहा है--अहंकार का मतलब, दूसरों की श्रद्धा खोज रहा है, सम्मान खोज रहा है--वह आदमी तिरछे रास्ते चुन लेगा।
मूर्ख गड़ीवान ऐसे ही मूर्ख नहीं है, बहुत समझदारी से मूर्ख है। उस मूर्खता में एक विधि है।
महावीर कहते हैं: लेकिन जीवन के रास्ते पर भी यही होता है। मनुष्य जान-बूझ कर धर्म को छोड़ कर अधर्म को चुन लेता है।
आपको साफ-साफ पता होता है, यह सरल और सीधा रास्ता है; लेकिन उसमें अहंकार की तृप्ति नहीं होती। तब आप तिरछा रास्ता चुनते हैं। यह जान-बूझ कर चुनते हैं। इसको समझ लेना जरूरी है। क्योंकि अगर आप बिना जाने-बूझे चुनते हैं तब तो बदलने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए महावीर का जोर है कि आप जान-बूझ कर चुनते हैं। अगर आप बिना जाने-बूझे चुनते हैं तब तो फिर बदलने का कोई उपाय नहीं है। अगर जान-बूझ कर चुनते हैं, तो बदलाहट हो सकती है।
बदलाहट का अर्थ ही यह है कि आप ही मालिक हैं चुनाव के। आपने ही चाहा था इसलिए तिरछे रास्ते पर गए। आप चाहेंगे तो सीधे रास्ते पर आ सकते हैं। यह आपकी चाह ही है जो आपको भटकाती है। इसमें कोई दूसरा पीछे से काम नहीं कर रहा है।
फ्रायड कहता है: आदमी जान-बूझ कर कुछ भी नहीं करता। धर्म और अधर्म के बीच यही विकल्प है। फ्रायड कहता है: मनुष्य जान-बूझ कर कुछ भी नहीं करता, सब अनकांशस है, सब अचेतन है, जान कर आदमी कुछ भी नहीं करता है।
फ्रायड ने यह बात पिछले पचास सालों में इतने जोर से पश्चिम के सामने सिद्ध कर दी। और वह आदमी अदभुत था। उसकी खोज में कई सत्य थे, लेकिन अधूरे सत्य थे और अधूरे सत्य असत्यों से भी खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि अधूरा सत्य, सत्य भी मालूम पड़ता है और सत्य होता भी नहीं। और कोई भी आदमी अधूरे सत्य को नहीं पकड़ता है। जब अधूरे सत्य को पकड़ता है, तो उसे पूरा सत्य मान कर पकड़ता है। तब उपद्रव शुरू हो जाते हैं।
फ्रायड ने पश्चिम को समझा दिया कि आदमी जो भी कर रहा है, वह सब अचेतन है। अगर यह बात सच है, तो फिर आदमी के हाथ में परिवर्तन का कोई उपाय नहीं है। इसलिए शराबी ने सोचा कि अब मैं कर भी क्या सकता हूं। व्यभिचारी ने सोचा: अब उपाय भी क्या है। यह सब अचेतन है, यह सब हो रहा है। इसमें मैं कुछ भी नहीं कर सकता।
और इस सदी ने बिना जाने जगत के इतिहास का सबसे बड़ा भाग्यवाद जन्माया। भाग्यवादी कहते थे: परमात्मा कर रहा है; फ्रायड कहता है: अचेतन कर रहा है। लेकिन एक बात में दोनों राजी हैं कि हम नहीं कर रहे हैं। हमारे हाथ में बात नहीं है। परमात्मा कर रहा है। विधि ने लिख दिया खोपड़ी पर, वह हो रहा है। और फ्रायड कहता है: पीछे से अचेतन चला रहा है, और हम चल रहे हैं। जैसे कि कोई गुड्डियों को नचा रहा हो। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। पहले परमात्मा नचाता था गुड्डियों को, अब अनकांशस, अचेतन नचा रहा है। सिर्फ शब्द बदल गए हैं। लेकिन आदमी के हाथ में कोई ताकत नहीं।
महावीर परमात्मा के भी खिलाफ हैं और अचेतन के भी। महावीर कहते हैं: तुम जो भी कर रहे हो, ठीक से जानना, तुम कर रहे हो। आदमी को इतना ज्यादा उत्तरदायी किसी दूसरे ने कभी नहीं माना, जितना महावीर ने माना। महावीर ने कहा कि अंततः तुम ही निर्णायक हो, और इसलिए कभी भूल कर मत कहना कि भाग्य ने, विधि ने, परमात्मा ने, किसी ने करवा दिया। जो तुमने किया है, तुमने किया है। इस पर जोर देने का कारण है और वह कारण यह है कि जितना यह स्पष्ट होगा कि मैं कर रहा हूं, उतनी ही बदलाहट आसान है। क्योंकि अगर मैं अपने चुनाव से उलटे रास्ते पर नहीं गया हूं, भेजा गया हूं, तो जब मैं भेजा जाऊंगा सीधे रास्ते पर तब चला जाऊंगा। जब मैं भेजा गया हूं उलटे रास्ते पर, तो मैं कैसे लौट सकता हूं? जब भेजेगी प्रकृति, भेजेगी नियति, भेजेगा परमात्मा, तो ठीक है, मैं लौट जाऊंगा। न मैं गया, न मैं लौट सकता हूं। मैं एक पानी में बहता हुआ तिनका हूं। मेरी अपनी कोई गति नहीं है, मेरा अपना कोई संकल्प नहीं है।
महावीर का यह जोर कि तुम जान-बूझ कर गलत कर रहे हो, कारणवश है और वह कारण यह है कि अगर जान-बूझ कर रहे हो तो ही बदलाहट हो सकती है। नहीं तो फिर कोई ट्रांसफार्मेशन, मनुष्य के जीवन में फिर कोई क्रांति संभव नहीं है। इसलिए महावीर बड़े साहस से ईश्र्वर को बिलकुल इनकार कर दिए, क्योंकि ईश्र्वर के रहते महावीर को लगा कि आदमी को सदा एक सहारा होता है कि वह जो करेगा, उसकी बिना आज्ञा के तो पत्ता भी नहीं हिलता, तो हम कैसे हिलेंगे। वह पत्ता तो बहाना है, असली में हम हिलना नहीं चाहते। तो हम कहते हैं: उसकी आज्ञा के बिना पत्ता नहीं हिलता। अब हम व्यभिचारी हैं, अब हम कैसे व्यभिचार से हिल जाएं! जब वह हिलाएगा, उसकी मर्जी!
आदमी बेईमान है, अपने परमात्माओं के साथ भी। आदमी बड़ा कुशल है और परमात्मा भी कुछ कर नहीं सकता। आदमी को जो उससे बुलवाना है, बुलवाता है। जो उससे करवाना है, करवाता है। मजा यह है कि परमात्मा की बिना आज्ञा के पत्ता हिलता है, या नहीं हिलता है, यह तो पता नहीं, आपकी बिना आज्ञा के परमात्मा भी नहीं हिल सकता। वह आप ही उसको हिलाते रहते हैं, जैसी मर्जी, आप ही अंततः निर्णायक हैं।
इसलिए महावीर कहते हैं: ‘जान-बूझ कर।’ लेकिन कितना ही कोई जान-बूझ कर गलत रास्ते पर जाए, रास्ता तो गलत ही होगा, और गलत रास्ते पर धुरी टुटेगी ही। रास्ते के गलत होने का मतलब ही इतना है कि जहां धुरी टूट सकती है। और तो कोई मतलब नहीं है। इसलिए अधर्म में गया हुआ आदमी रोज टूटता चला जाता है। निर्मित नहीं होता, बिखरता है।
चोरी करके देखें, झूठ बोल कर देखें, बेईमानी करके देखें, धोखा करके देखें, किसी की हत्या करें, होगा क्या? आपकी आत्मा की धुरी टूटती चली जाती है, आप भीतर टूटने लगते हैं। भीतर इंटिग्रेशन, अखंडता नहीं रह जाती, खंड-खंड हो जाते हैं। कभी कुछ, जिसको धर्म कहा है, वह करके देखें तो भीतर अखंडता आती है।
इसको ऐसा सोचें कि जब आप झूठ बोलते हैं, तब आपके भीतर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, एक आत्मा नहीं होती। एक हिस्सा तो भीतर कहता ही रहता है कि मत करो, गलत है। एक हिस्सा तो जानता ही रहता है कि यह सच नहीं है। आप सारी दुनिया को झूठ बोल सकते हैं, लेकिन अपने से कैसे बोलिएगा? भीतर तो पता चलता ही रहता है कि यह झूठ है। इसलिए सतह पर भर आप झूठ के लेबल चिपका सकते हैं, आपकी अंतरात्मा तो जानती है कि यह झूठ है। इसलिए आप इकट्ठे नहीं हो सकते।
आपकी परीधि और आपके केंद्र में विरोध बना रहेगा। भीतर कोई कहता ही रहेगा कि यह झूठ है, यह नहीं, यह नहीं बोलना था। जो बोला है वह ठीक नहीं था। यह भीतर खंड-खंड कर जाएगा।
अब जो आदमी हजार झूठ बोल रहा है, उसके हजार खंड हो जाएंगे, लेकिन जो आदमी सच बोल रहा है, उसके भीतर कोई खंड नहीं होता। क्योंकि सच के विपरीत कोई कारण नहीं होता। और मजा यह है कि अगर कभी विपरीत भी हो, जैसा कि सच बोलते में भी कभी परिधि कहती है: मत बोलो, नुकसान होगा; लेकिन तब भी सच आता है भीतर से और झूठ आता है बाहर से।
यह भीतर हमेशा मजबूत होता है। इसलिए परिधि ज्यादा देर टिक नहीं पाती, टूट जाती है। लेकिन जब आप झूठ बोलते हैं परिधि की मान कर, तो कभी भी कितना ही बोलते चले जाएं, टिक नहीं सकता। रोज सम्हालें, फिर भी नहीं सम्हलता; क्योंकि भीतर गहरे में आप जानते ही हैं कि वह झूठ है। वह हजार तरह से निकलने की कोशिश करता है। इसलिए जो आदमी झूठ बोलता है वह भी किसी से बता देता है कि यह झूठ है।
आप जानते हैं क्यों? हम सब अपनी इंटिमेसीज रखते हैं, आंतरिकताएं रखते हैं, जहां हम सब बता देते हैं। उससे मन हलका होता है। नहीं बता पाए दुनिया को, कोई फिकर नहीं, अपनी पत्नी को तो बता दिया! इससे राहत मिलती है। वह जो सच है भीतर, धक्के दे रहा है। उसे प्रकट करो। नहीं है हिम्मत कि सारी दुनिया को प्रकट कर दें, तो किसी को तो बता पाते हैं।
इस दुनिया में उस आदमी से अकेला कोई भी नहीं, जिसके कोई भी इतना निकट नहीं है, जिससे कम से कम वह झूठ बता सके कि जो-जो मैं गलत कर रहा हूं, वह यह है। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि प्रेम का लक्षण ही यह है कि जिसके सामने तुम पूरे सच्चे प्रकट हो जाओ। अगर एक भी ऐसा आदमी नहीं है जगत में, जिसके सामने आप पूरे नग्न हो सकते हैं अंतःकरण से, तो आप समझना आपको प्रेम का कोई अनुभव नहीं हुआ है।
लेकिन जो आदमी सारे जगत के सामने अंतःकरण से नग्न हो सकता है, उसको प्रार्थना का अनुभव हुआ है। एक व्यक्ति के सामने भी आप पूरे सच हो जाते हैं तो जो क्षण भर को राहत मिलती है, जो सुगंध आती है, जो ताजी हवाएं दौड़ जाती हैं प्राणों के आर-पार, वे भी काफी हैं। लेकिन जब कोई व्यक्ति समस्त जगत के सामने सच हो जाता है, जैसा है, वैसा ही हो जाता है, तब उसके जीवन में दुर्गंध का कोई उपाय नहीं है।
महावीर धर्म कहते हैं स्वभाव की सत्यता को, जैसा है भीतर वैसा ही। कोई टेढ़ा-मेढ़ा नहीं। ठीक वैसा ही, नग्न जैसे दर्पण के सामने कोई खड़ा हो। ऐसा जो सहज है भीतर, वह जगत के सामने प्रकट हो जाए। इस अभिव्यक्ति का, सहज अभिव्यक्ति का जो अंतिम फल है वह है, मृत्यु मोक्ष बन जाती है। और हमारे समस्त झूठों के संग्रह का जो अंतिम फल है, पूरा जीवन एक असत्य, अप्रामाणिक, अनऑथेंटिक यात्रा हो जाती है। चलते बहुत हैं, पहुंचते कहीं भी नहीं। दौड़ते बहुत हैं, मंजिल कोई भी हाथ नहीं आती। सिर्फ मरते हैं। जीवन कहीं पहुंचाता नहीं, सिर्फ भटकाता है।
जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं लौटते। जो मनुष्य अधर्म करता है, उसके वे रात-दिन बिलकुल निष्फल जाते हैं। लेकिन जो मनुष्य धर्म करता है, उसके वे रात-दिन सफल हो जाते हैं।
महावीर के लिए सफलता का क्या अर्थ है? बैंक-बैलेंस? कि कितने लोग आपको मानते हैं? कि कितने अखबार आपकी तस्वीर छापते हैं? कि कितनी नोबल प्राइज आपको मिल जाती हैं? नहीं, महावीर इसे सफलता नहीं कहते। थोड़ा सा उनकी जिंदगी देखें जिनको नोबल प्राइज मिलती है। उनमें से अधिक आत्महत्या कर लेते हैं। जो आत्महत्या नहीं करते, वे मरे-मरे जीते हैं। चिंता...!
अर्नेस्ट हेमिंग्वे का नाम सुना होगा। कौन इतनी सफलता पाता है? नोबल प्राइज है, धन है, प्रतिष्ठा है, सारे जगत में नाम है। उससे बड़ा कोई लेखक न था उसके समय में। लेकिन अर्नेस्ट हेमिंग्वे अंत में आत्महत्या कर लेता है। बड़ी अदभुत सफलता है। यह बाहर इतनी सफलता और भीतर इतनी पीड़ा है कि आत्महत्या कर लेनी पड़ती है! अपने को सहना मुश्किल हो जाता है, तभी तो कोई आत्महत्या करता है। जब अपने को बरदाश्त करना आसान नहीं रह जाता, एक-एक पल, एक-एक घड़ी आदमी अपने को भारी पड़ने लगता है, तभी तो मिटाता है!
तो जिसको इतनी सफलता है चारों तरफ, इतना यश, गौरव है, वह भी भीतर इतनी दिक्कत में पड़ा है! भीतर की धुरी टूट गई है। तो सारी दुनिया तारीफ कर रही है चकों की, धुरी तो दुनिया को दिखाई नहीं पड़ती, वह तो भीतर है, स्वयं को दिखाई पड़ती है। सारी दुनिया चांदी के वर्क, सोने के वर्क लगा रही है चाकों पर; और सारी दुनिया कह रही है, क्या अदभुत चके हैं, कितनी-कितनी ऊबड़-खाबड़ यात्राएं कीं! और भीतर धुरी टूट गई, वह गाड़ी ही जानती है कि अब क्या होना है! इन चकों पर लगे हुए सितारे काम नहीं पड़ेंगे। अंत में तो धुरी ही... उस धुरी की सफलता महावीर के लिए क्या हो सकती है? महावीर के लिए सफलता एक ही है।
समय तो बीत जाता है। उस समय में हम दो काम कर सकते हैं--या तो उस समय में हम अपनी आत्मा को इकट्ठा कर सकते हैं, या उस समय में हम अपनी आत्मा को बिखेर सकते हैं, तोड़-तोड़, टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं।
समय तो बीत जाएगा, फिर लौट कर नहीं आता, लेकिन उस समय में हमने जो किया है, वह हमारे साथ रह जाता है। वह कभी नहीं खोता, इस बात को ठीक से समझ लें।
समय तो कभी नहीं लौटता, लेकिन समय में जो घटता है, वह कभी नहीं जाता। वह सदा साथ रह जाता है। तो मैंने क्या किया है समय में, उससे मेरी आत्मा निर्मित होती है। महावीर ने तो आत्मा को समय का नाम ही दे दिया। महावीर ने तो कहा है कि आत्मा, यानी समय। ऐसा किसी ने भी दुनिया में नहीं कहा। क्योंकि महावीर ने कहा कि समय तो खो जाएगा, लेकिन समय के भीतर तुमने क्या किया है, वही तुम्हारी आत्मा बन जाएगी, वही तुम्हारा सृजन है।
तो हम समय के साथ विध्वंसक हो सकते हैं, सृजनात्मक हो सकते हैं। विध्वंसक का अर्थ है कि हम जो भी कर रहे हैं उससे हमारी आत्मा निर्मित नहीं हो रही है। झूठ बोलने से एक आदमी की आत्मा निर्मित नहीं होती। चोरी करने से आत्मा निर्मित नहीं होती। धन मिल सकता है, झूठ बोलने से यश मिल सकता है। सच तो यह है कि बिना झूठ बोले यश पाना बड़ा मुश्किल है। बिना चोरी किए धन पाना बहुत मुश्किल है। जब धन मिलता है तो निन्यानबे प्रतिशत चोरी के कारण मिलता है, एक प्रतिशत शायद बिना चोरी के मिलता हो। जब प्रतिष्ठा मिलती है तो निन्यानबे प्रतिशत झूठ, प्रचार से मिलती है; एक प्रतिशत शायद, उसका कोई निश्र्चय नहीं है।
एक बात तय है कि अधर्म से जो भी मिलता है, उससे आपकी आत्मा निर्मित नहीं होती। अधर्म से जो भी मिलता है, वह आत्मा की कीमत पर मिलता है। बाहर तो कुछ मिलता है, भीतर कुछ खोना पड़ता है। हम हमेशा मूल्य चुकाते हैं।
जब आप झूठ बोलते हैं, तो मैं इसलिए नहीं कहता: झूठ मत बोलें, कि इससे दूसरे को नुकसान होगा। दूसरे को होगा कि नहीं होगा, यह पक्का नहीं है। आपको निश्चित हो रहा है, यह पक्का है। दूसरा अगर समझदार हुआ, तो आपके झूठ से कोई नुकसान नहीं होने वाला है; और दूसरा अगर नासमझ है, तो आपके सत्य से भी नुकसान हो सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण आप हैं। अंततः जब आप कुछ भी गलत कर रहे हैं, तो आप भीतर आत्मा के मूल्य में चुका रहे हैं; व्यर्थ का एक कंकड़, इकट्ठा कर रहे हैं और भीतर एक आत्मा का खंड खो रहे हैं। महावीर इसको असफलता कहते हैं कि एक आदमी जीवन में सब-कुछ इकट्ठा कर ले और आखिर में पाए कि खुद की धुरी टूट गई, सब पा ले और आखिर में पाए कि खुद को खोकर पाया है यह, तब मृत्यु के क्षण में जो पछतावा होता है, लेकिन तब समय वापस नहीं आ सकता।
पुनर्जन्म की सारी भारतीय धारणा इसीलिए है कि पिछला समय तो वापस नहीं आ सकता। नया समय आपको दुबारा मिलेगा। पुराने समय को लौटाने का कोई उपाय नहीं, लेकिन नया जन्म मिलेगा। फिर से नया समय मिलेगा। लेकिन जिन्होंने पुराने समय में मजबूत आदतें निर्मित कर ली हैं, संस्कार भारी कर लिए हैं, वे नये समय का भी फिर वैसा ही उपयोग करेंगे।
थोड़ा सोचें, अगर कोई आपसे कहे कि आपको हम फिर से जन्म दे देते हैं; आपका क्या करने का इरादा है? तो आप क्या करेंगे? सोचें थोड़ा, तो आप पाएंगे कि जो आपने अभी किया है, थोड़ा बहुत मॉडिफाइड, इधर-उधर थोड़ा बहुत हेर-फेर, पत्नी थोड़ी और अच्छी नाक वाली चुन लेंगे, कि मकान थोड़ा और नये डिजाइन का बना लेंगे। क्या, करेंगे क्या?
मुल्ला नसरुद्दीन से मरते वक्त किसी ने पूछा था कि फिर से जन्म मिले तो क्या करोगे? तो उसने कहा, जो पाप मैंने बहुत देर से शुरू किए, वे मैं जल्दी शुरू कर दूंगा, क्योंकि जो पाप मैंने किए, उनके लिए मुझे कोई पछतावा नहीं होता। जो मैं नहीं कर पाया हूं, उनका हमेशा मुझे पछतावा होता।
आप भी खयाल करना, पाप का पछतावा बहुत कम लोगों को होता है। जो आप पाप नहीं कर पाए, उसका पछतावा सदा बना रहता है। और करके पछताना उतना बुरा नहीं है, न कर के पछताना बिलकुल व्यर्थ है।
कभी आपने खयाल किया कि जो-जो आप नहीं कर पाए हैं, जो चोरी नहीं कर पाए, उसके लिए भी पछता रहे हैं। जो झूठ नहीं बोल पाए उसके लिए भी पछताते हैं। जो बेईमानी अगर कर लेते तो अभी कहीं के गवर्नर होते, या कहीं चीफ मिनिस्टर होते, नहीं कर पाए। नाहक जेल गए और आए। जरा सी तरकीब लगा लेते... तो मन पीड़ा झेलता चला जाता है।
अगर आपको नया समय भी मिले, तो आप पुनरुक्ति ही करेंगे; क्योंकि आपको मूल खयाल में नहीं है कि आपने जो किया, वह क्यों किया? वह अहंकार के कारण आपने गलत रास्ता चुना। अगर अहंकार मौजूद है, आप फिर गलत रास्ता चुनेंगे। फिर गलत रास्ता चुनेंगे।
अहंकार प्रवृत्ति है--गलत रास्ता चुनने की। अगर अहंकार खो जाए, तो आप समय का उपयोग कर सकते हैं। इसलिए महावीर ने इस अंतिम सूत्र में बात कही: ‘जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां नहीं सतातीं, जब तक इंद्रियां अशक्त नहीं होतीं, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। बाद में कुछ भी नहीं होगा।’
यहां हिंदू और जैन-विचार में एक बहुत मौलिक भेद है। हिंदू-विचार सदा से मानता रहा है कि ‘संन्यास, धर्म, ध्यान, योग सब बुढ़ापे के लिए हैं।’ अगर महावीर ने इस विचार में कोई बड़ी से बड़ी क्रांति पैदा की तो वह इस सूत्र में है। वह यह कि ‘यह बुढ़ापे के लिए नहीं है।’
बड़े मजे की बात है कि अधर्म जवानी के लिए है, और धर्म बुढ़ापे के लिए; भोग जवानी के लिए, और योग बुढ़ापे के लिए। क्यों? क्या योग के लिए किसी शक्ति की जरूरत नहीं है? जब भोग तक के लिए शक्ति की जरूरत है, तो योग के लिए शक्ति की जरूरत नहीं है? लेकिन उसका कारण है--उसका कारण है, और वह कारण यह है कि हम भलीभांति जानते हैं कि भोग तो बुढ़ापे में किया नहीं जा सकता, योग देखेंगे! हो गया तो ठीक है, न हुआ तो क्या हर्ज है! भोग छोड़ा नहीं जा सकता, योग छोड़ा जा सकता है। तो भोग तो अभी कर लें और योग को स्थगित रखें। जब भोग करने योग्य न रह जाएं, तब योग कर लेंगे।
लेकिन ध्यान रखना, वही शक्ति, जो भोग करती है, वही शक्ति योग करती है। दूसरी कोई शक्ति आपके पास है नहीं। आदमी के पास शक्ति तो एक ही है; उसी से वह भोग करता है, उसी से वह योग करता है। इसलिए महावीर की दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। महावीर कहते हैं कि जिस शक्ति से भोग किया जाता है, उसी से तो योग किया जाता है। वह जो वीर्य, वह जो ऊर्जा संभोग बनती है, वही वीर्य, वही ऊर्जा तो समाधि बनती है। जो मन भोग का चिंतन करता है, वही मन तो ध्यान करता है। जो शक्ति क्रोध में निकलती है, वही शक्ति तो क्षमा में खिलती है। उसमें फर्क नहीं है, शक्ति वही है। शक्ति हमेशा तटस्थ है, न्यूट्रल है। आप क्या करते हैं, इस पर निर्भर करता है।
तो एक आदमी अगर ऐसा कहे कि धन मेरे पास है, इसका उपयोग मैं भोग के लिए करूंगा, और जब धन मेरे पास नहीं होगा तब जो बचेगा, उसका उपयोग दान के लिए करूंगा।
मुल्ला नसरुद्दीन मरा तो उसने अपनी वसीयत लिखी। वसीयत में उसने लिखवाया अपने वकील को कि लिखो, मेरी आधी संपत्ति मेरी पत्नी के लिए, नियमानुसार। मेरी आधी संपत्ति मेरे पांच पुत्रों में बांट दी जाए; और बाद में जो कुछ बचे, गरीबों को दान कर दिया जाए। लेकिन वकील ने पूछा: कुल संपत्ति कितनी है? मुल्ला ने कहा: यह तो कानूनी बात है, संपत्ति तो बिलकुल नहीं है। संपत्ति तो मैं खत्म कर चुका हूं। लेकिन वसीयत रहे, तो मन को थोड़ी शांति रहती है; कि कुछ करके आए, कुछ छोड़ कर आए।
करीब-करीब जीवन-ऊर्जा के साथ हमारा यही व्यवहार है।
महावीर कहते हैं: ‘भोग के जब क्षण हैं, तभी योग के भी क्षण हैं।’ भोग जब पकड़ रहा है, तभी योग भी पकड़ सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं: जब बुढ़ापा सताने लगे, जब व्याधियां बढ़ जाएं, और जब इंद्रियां अशक्त हो जाएं, तब धर्म का आचरण नहीं हो सकता है; तब सिर्फ धर्म की आशा हो सकती है; आचरण नहीं।
आचरण शक्ति मांगता है। इसलिए जिस विचारधारा में, बुढ़ापे को धर्म के आचरण की बात मान लिया गया, उस विचारधारा में बुढ़ापे में सिवाय भगवान से प्रार्थना करने के फिर कोई और उपाय बचता नहीं। इसलिए लोग फिर राम नाम लेते हैं आखिर में। फिर और तो कुछ कर नहीं सकते, कुछ और तो हो नहीं सकता। जो हो सकता था, वह सारी शक्ति गवां दी; जिससे हो सकता था, वह सारा समय खो दिया। जब शक्ति प्रवाह में थी और ऊर्जा जब शिखर पर थी, तब हम कचरा-कूड़ा बीनते रहे। और जब हाथ से सारी शक्ति खो गई, तब हम आकाश के तारे छूने की सोचते हैं। तब सिर्फ हम आंखें बांध कर, बंद करके राम नाम ले सकते हैं।
राम-नाम अधिकतर धोखा है। धोखे का मतलब? राम-नाम में धोखा है, ऐसा नहीं, राम-नाम लेने वाले में धोखा है। धोखा इसलिए है कि अब कुछ नहीं कर सकते, तब तो राम-नाम ही सहारा है। साधु-संन्यासी मुल्क में समझाते रहते हैं कि यह कलयुग है, अब कुछ कर तो सकते नहीं। अब तो बस राम-नाम ही एक सहारा है। लेकिन यह मतलब इसका वही होता है जैसा आमतौर से होता है। किसी बात को आप नहीं जानते तो आप कहते हैं: सिर्फ भगवान ही जानता है। उसका मतलब, कोई नहीं जानता। राम-नाम ही सहारा है, उसका ठीक मतलब कि अब कोई सहारा नहीं है।
महावीर कहते हैं: इसके पहले की शक्तियां खो जाएं, उन्हें रूपांतरित कर लेना। इसके पहले... और बड़े मजे की बात यह है कि जो उन्हें रूपांतरित कर लेता है खोने के पहले, शायद उसे बुढ़ापा कभी नहीं सताता। क्योंकि बुढ़ापा वस्तुतः शारीरिक घटना कम और मानसिक घटना ज्यादा है। महावीर भी शरीर से तो बूढ़े हो जाएंगे, लेकिन मन से उनकी जवानी कभी नहीं खोती।
इसलिए हमने महावीर का कोई चित्र बुढ़ापे का नहीं बनाया, न कोई मूर्ति बुढ़ापे की बनाई। क्योंकि वह बनाना गलत है। महावीर बूढ़े हुए होंगे, और उनके शरीर पर झुर्रियां पड़ी होंगी, क्योंकि शरीर किसी को भी क्षमा नहीं करता।
और शरीर के नियम हैं, वह महावीर की फिकर नहीं करता, किसी की फिकर नहीं करता। उनकी आखें भी कमजोर हो गई होंगी, उनके पैर भी डगमगाने लगे होंगे, शायद उन्हें भी लकड़ी का सहारा लेना पड़ा हो--कुछ पता नहीं। लेकिन हमने कभी उनके बुढ़ापे की कोई मूर्ति नहीं बनाई, क्योंकि वह असत्य है। तथ्य तो हो सकती है, फैक्ट तो हो सकती है, लेकिन वह असत्य होगी।
महावीर के बाबत सच्ची खबर उससे न मिलेगी। वह भीतर से सदा जवान बने रहे, क्योंकि बुढ़ापा वासनाओं में खोई गई शक्तियों का भीतरी परिणाम है। बाहर तो शरीर पर बुढ़ापा आएगा, वह समय की धारा में अपने आप घटित हो जाएगा, लेकिन भीतर जब शरीर की शक्तियां वासना में गवांई जाती हैं, अधर्म में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर जब धुरी टूट जाती है, तब भीतर भी एक बुढ़ापा आता है, एक दीनता।
वासना में बिताए हुए आदमी का जीवन सबसे ज्यादा दुखद बुढ़ापे में हो जाता है। और बहुत कुरूप हो जाता है। क्योंकि धुरी टूट चुकी होती है और हाथ में सिवाय राख के कुछ भी नहीं होता, सिर्फ पापों की थोड़ी सी स्मृतियां होती हैं और वे भी सालती हैं। और समय व्यर्थ गया, उसकी भी पीड़ा कचोटती है।
इसलिए बुढ़ापा हमें सबसे ज्यादा कुरूप मालूम पड़ता है। होना नहीं चाहिए। क्योंकि बुढ़ापा तो शिखर है जीवन का, आखिरी। सर्वाधिक सुंदर होना चाहिए। इसलिए जब कभी कोई बूढ़ा आदमी जिंदगी में गलत रास्तों पर न चल कर सीधे-सरल रास्तों से चला होता है, तो बुढ़ापा बच्चों जैसा निर्दोष, पुनः हो जाता है। और बच्चे इतने निर्दोष नहीं हो सकते। क्योंकि अज्ञानी हैं। बुढ़ापा एक अनुभव से निखरता और गुजरता है। इसलिए बुढ़ापा जितना निर्दोष हो सकता है--और कभी सफेद बालों का सिर पर छा जाना--अगर भीतर जीवन में भी इतनी ही शुभ्रता आती चली गई हो, तो उस सौंदर्य की कोई उपमा नहीं है।
जब तक बूढ़ा आदमी सुंदर न हो, तब तक जानना कि जीवन व्यर्थ गया है। जब तक बुढ़ापा सौंदर्य न बन जाए, लेकिन बुढ़ापा कब सौंदर्य बनता है? जब शरीर तो बूढ़ा हो जाता है, लेकिन भीतर जवानी की ऊर्जा अक्षुण्ण रह जाती है। तब इस बुढ़ापे की झुर्रियों के भीतर से वह जवानी की जो अक्षुण्ण ऊर्जा है, जो वीर्य है, जो शक्ति है, जो बच गई, जो रूपांतरित हो गई, उसकी किरणें इन बुढ़ापे की झुर्रियों से बाहर पड़ने लगती हैं, तब एक अनूठे सौंदर्य का जन्म होता है।
इसलिए हमने महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण किसी का भी बुढ़ापे का कोई चित्र नहीं रखा है। अच्छा किया हमने। हम ऐतिहासिक कौम नहीं हैं। हमें तथ्यों की बहुत चिंता नहीं है, हमें सत्यों की फिकर है जो तथ्यों के भीतर छिपे होते हैं, गहरे में छिपे होते हैं। इसलिए हमने उनको जवान ही चित्रित किया है।
महावीर कहते हैं: जब है शक्ति, तब उसे बदल डालो। पीछे पछताने का कोई भी अर्थ नहीं है।
आज इतना ही।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, फिर जाएं...!
जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं।
विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई।।
एवं धम्मं विउक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया।
बाले मुच्चुमुहं पत्ते, अक्खेभग्गे व सोयई।।
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई।
अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ।।
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ।।
जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वड्ढई।
जाविन्दिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे।।
जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़ विषम (टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़) मार्ग पर चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य जान-बूझ कर धर्म मार्ग को छोड़ कर अधर्म मार्ग को पकड़ लेता है और अंत में मृत्यु-मुख में पहुंचने पर, जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।
जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं लौटते हैं। जो मनुष्य अधर्म करता है, उसके वे रात-दिन बिलकुल निष्फल रहते हैं। लेकिन जो मनुष्य धर्म करता है, उसके वे रात-दिन सफल हो जाते हैं।
जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां नहीं बढ़तीं, जब तक इंद्रियां अशक्त नहीं होतीं, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए, बाद में कुछ नहीं होगा।
मृत्यु के संबंध में थोड़ी सी बातें और।
पहली बात: मृत्यु अत्यंत निजी अनुभव है। दूसरे को हम मरता हुआ देखते हैं, लेकिन मृत्यु को नहीं देखते। दूसरे को मरता हुआ देखना, मृत्यु का परिचय नहीं है। मृत्यु आंतरिक घटना है। स्वयं मरे बिना देखने का कोई भी उपाय नहीं है। शायद इसलिए, जब भी हम मृत्यु के संबंध में सोचते हैं तो ऐसा लगता है, मृत्यु दूसरे की होगी। क्योंकि हमने दूसरों को ही मरते देखा है।
जब हम दूसरे को मरते देखते हैं तो हम क्या देखते हैं? हम इतना ही देखते हैं कि जीवन क्षीण होता चला जाता है। शरीर से जीवन की ज्योति विदा होती चली जाती है। लेकिन उस क्षण में जहां जीवन और शरीर पृथक होते हैं, हम मौजूद नहीं हो सकते। केवल वही व्यक्ति मौजूद होता है, जो मर रहा है। तो किसी को मरते हुए देखना, मृत्यु को देखना नहीं है। मृत्यु तो स्वयं ही देखी जा सकती है। आपके लिए कोई दूसरा नहीं मर सकता है, प्रॉक्सी से मरने का कोई उपाय नहीं है। अत्यंत निजी घटना है। उधार मृत्यु का अनुभव नहीं हो सकता।
और हमारा सब अनुभव उधार है। हमने सदा दूसरों को मरते हुए देखा है। शायद इसलिए मृत्यु का जो आघात हमारे ऊपर पड़ना चाहिए, वह नहीं पड़ता। उसकी गहराई हमारे खयाल में नहीं आती।
क्या जीवन में कोई और भी ऐसा अनुभव है, जो मृत्यु जैसा हो? एक अनुभव है, लेकिन एकबारगी खयाल भी न आए कि उसका और मृत्यु से कोई संबंध हो सकता है। वह अनुभव है प्रेम।
प्रेम और मृत्यु बड़े एक से अनुभव हैं। फिर तीसरा कोई भी अनुभव वैसा नहीं है। आपके लिए श्र्वास भी दूसरा आदमी ले सकता है। आपका हृदय भी, जरूरी नहीं कि आपका ही धड़के, दूसरे का भी आपके लिए धड़क सकता है। आपका हृदय पूरा अलग कर दिया जाए और दूसरे के हृदय से जोड़ दिया जाए, तो भी आप जीवित रह लेंगे। खून भी दूसरे का आपकी नाड़ियों में बह सकता है, श्र्वास भी यंत्र आप के लिए ले सकता है, लेकिन प्रेम आपके लिए कोई दूसरा नहीं कर सकता है।
प्रेम अत्यंत निजी अनुभव है। मृत्यु और प्रेम बड़े संयुक्त हैं। इसलिए जिन लोगों ने प्रेम के संबंध में गहराई से सोचा है, उन्हें मृत्यु के संबंध में भी सोचना पड़ा। और जिन्होंने मृत्यु की खोज-बीन की है, वे अंततः प्रेम के रहस्य में भी प्रवेश किए हैं।
कुछ बातें हमारे अनुभव में भी हैं, जिन्होंने बहुत नहीं सोचा होगा। जैसे, जो आदमी प्रेम से डरता है, वह मृत्यु से भी डरेगा। जो आदमी मृत्यु से डरता है, वह कभी प्रेम में नहीं पड़ेगा। जो व्यक्ति प्रेम की गहराई में उतर गया है, मृत्यु के प्रति बिलकुल अभय हो जाता है। इसलिए प्रेमी निश्चिंतता से मर सकते हैं। प्रेमी को मृत्यु में कोई भय नहीं रह जाता। लेकिन जिसने कभी प्रेम न किया हो, वह मृत्यु से बहुत डरेगा। तब एक दुष्चक्र निर्मित होता है, एक विसियस सर्किल बन जाता है। मृत्यु से डरता है, इसलिए प्रेम में भी नहीं उतरता, क्योंकि प्रेम का अनुभव भी गहरे में मृत्यु का ही अनुभव है। जब तक कोई पूरी तरह मिटता नहीं, तब तक प्रेम का जन्म भी नहीं होता।
इसलिए प्रेम एक आध्यात्मिक अर्थों में मृत्यु है। प्रेम वही कर सकता है जो अपने को मिटा लेने को राजी हो। जब तक कोई इतना नहीं मिट जाता कि बचे ही नहीं, तब तक प्रेम का फूल नहीं खिलता। इसलिए जिसने प्रेम को जान लिया हो, उसने मृत्यु को भी जान लिया। या जिसने मृत्यु को जान लिया हो, उसने प्रेम को भी जान लिया।
प्रेम और मृत्यु बड़ी संयुक्त घटनाएं हैं। गहरे आंतरिक तल पर वे एक ही चीज के दो रूप हैं। यह बहुत हैरानी की बात है। लेकिन विचारणीय है। मृत्यु तो हम जब मरेंगे, तब होगी। दूसरे को मरते देख कर हम मृत्यु का कोई अनुभव नहीं कर सकते। खुद मरेंगे, तभी अनुभव होगा। लेकिन एक उपाय है प्रेम, जिससे हम मृत्यु का अनुभव आज भी कर सकते हैं।
फिर प्रेम का ही और विराट रूप है, प्रार्थना। फिर प्रेम का ही सार अंश है, ध्यान। वे सब मृत्यु के रूप हैं। हिंदू शास्त्रों में तो कहा है कि गुरु मृत्यु है। इसी अर्थ में कहा है कि गुरु के पास तभी कोई पहुंच सकता है जब वह इस स्थिति में अपने को छोड़ दे, जैसे कि खुद मिट गया। और अगर गुरु के पास मृत्यु घटित न हो, तो गुरु से कोई संबंध नहीं जुड़ता।
श्रद्धा भी मृत्यु है। वह प्रेम का ही एक रूप है। यह मृत्यु तो जीवन के अंत में आएगी, जिसे हम दूसरे में घटते देखते हैं। लेकिन प्रेम आज भी घट सकता है। प्रार्थना आज भी हो सकती है। ध्यान में आज भी प्रवेश हो सकता है। जो लोग ध्यान में प्रवेश कर जाते हैं, मृत्यु का भय मिट जाता है। सिर्फ ध्यानी मृत्यु के बाहर हो जाता है, जैसे प्रेमी बाहर हो जाता है। क्यों? इसलिए नहीं कि ध्यान के द्वारा मृत्यु पर विजय हो जाती है। इसलिए भी नहीं कि प्रेम के द्वारा मृत्यु पर विजय हो जाती है। बल्कि इसलिए कि जो प्रेम में मर कर देख लेता है वह जान जाता है कि जो मरता है, वह मैं नहीं हूं। ध्यान में जो मर कर देख लेता है, वह जान जाता है कि जो मरता है, वह मेरी परिधि है, मेरी देह है, मेरा आवरण है, मैं नहीं हूं।
मृत्यु से गुजर कर जाना जाता है कि मेरे भीतर कोई अमृत भी है। इस अमृत के बोध से मृत्यु नहीं मिटती। मृत्यु तो घटेगी ही, महावीर को भी घटेगी और कृष्ण को भी घटेगी और बुद्ध को भी घटेगी। मृत्यु तो घटेगी ही, लेकिन तब यह मृत्यु केवल दूसरों के लिए होगी। दूसरे देखेंगे कि महावीर मर गए, और महावीर जानते रहेंगे कि वे नहीं मर रहे हैं। भीतर कोई मृत्यु घटित नहीं होगी, तब मृत्यु बाहरी घटना हो जाएगी, खुद के लिए भी। ऐसा अनुभव न हो पाए तो जीवन व्यर्थ गया।
इसे हम समझ लें तो फिर ये सूत्र समझ में आए।
एक बीज हम बोते हैं। वृक्ष बढ़ता है, बड़ा होता है। कब आप कहते हैं कि वृक्ष सफल हुआ? बीज बोया, सफल हुआ--जब फल लगते हैं, जब फल पकते हैं, जब फूल खिलते हैं; वृक्ष जो दे सकता था, जब पूरा दे देता है, तब हम कहते हैं: सफल हुआ श्रम। जिस वृक्ष पर फल न लगें, बांझ रह जाए, उस वृक्ष को हम सफल न कहेंगे। हम कहेंगे: कहीं अवरोध आ गया, कहीं रास्ता भटक गया, कहीं वृक्ष ऐसे रास्ते पर चला गया, जहां जीवन की निष्पत्ति नहीं होती। जहां जीवन में निर्णय नहीं आता। इस वृक्ष का होना व्यर्थ हो गया।
मनुष्य भी एक वृक्ष है और मनुष्य भी एक बीज है। सभी मनुष्य फल तक नहीं पहुंचते। पहुंचना चाहिए। पहुंच सकते हैं। सभी के लिए संभव है, लेकिन हो नहीं पाता। कुछ लोग भटक जाते हैं। कुछ लोग, ऐसे मार्ग पर चले जाते हैं, जहां उनके जीवन में कोई फल नहीं लगते, और जहां उनके जीवन में कोई फूल नहीं खिलते। और जहां उनका जीवन निष्फल हो जाता है।
जीवन को हम देखें, तो जीवन की अंतिम घटना है मृत्यु। अगर इसे हम ऐसा समझें तो जीवन का जो आखिरी चरण है, शिखर है, वह मृत्यु है। जन्म तो शुरुआत है, मृत्यु अंत है। मृत्यु में ही पता चलेगा कि व्यक्ति का जीवन सफल हुआ या असफल हुआ। अंतिम घड़ी में ही जांच-पड़ताल हो जाएगी। निर्णय हो जाएगा।
अगर आप हंसते हुए मर सकते हैं तो जीवन सफल हुआ, फूल खिल गए। अगर आप रोते हुए ही मरते हैं तो जीवन व्यर्थ गया, फूल खिल नहीं पाए। क्योंकि जब सब खिल जाता है तो मृत्यु एक आनंद है। जब कुछ भी नहीं खिल पाता तो मृत्यु एक पीड़ा है, क्योंकि मैं बिना कुछ हुए मर रहा हूं। समय व्यर्थ गया, अवसर चूक गया। मैं कुछ हो नहीं पाया, जो हो सकता था। जो मेरे भीतर छिपा था वह बाहर न आया। जो गीत मैं गा सकता था, वह अनगाया रह गया। तब पीड़ा है।
हम में से अधिक लोग रोते हुए ही मरते हैं। रोता हुआ मरण इस बात की खबर है कि जीवन असफल गया। मृत्यु जब हंसती हुई होती है, जब मृत्यु फूल की तरह खिलती है, जब मृत्यु एक आनंद होती है, तो उसका अर्थ है कि इस जीवन की गहनताओं में छिपा हुआ जो अमृत था, उसका इस व्यक्ति को पता चल गया। अब मृत्यु सिर्फ विश्राम है। अब मृत्यु अंत नहीं है, बल्कि अब मृत्यु पूर्णता है, अब मृत्यु एक लंबी निष्फल जीवन की समाप्ति नहीं है, बल्कि एक फुलफिलमेंट है, एक पूर्णता है। एक जीवन पूरा हुआ।
जैसे कोई नदी मरुस्थल में खो जाए और सागर तक न पहुंच पाए, वैसा अधिक लोगों का जीवन है, कहीं खो जाता है, पूर्ण नहीं हो पाता। जैसे कोई नदी सागर में पहुंच जाए, गीत गाती, नाचती सागर में मिल जाए।
मरुस्थल में भी नदी खो जाती है, सागर में भी नदी खोती है। लेकिन मरुस्थल में नदी असफल खो जाती है, सागर में नदी सफल हो जाती है। इसलिए मरुस्थल में खोती नदी रोती हुई खोएगी; सागर में गिरती हुई नदी नाचती हुई, अहोभाव से भरी हुई। खोना तो दोनों में है।
मृत्यु में हम भी खोते हैं, लेकिन रोते हुए। जैसे मरुस्थल में सब अवसर व्यर्थ हो गया। महावीर भी खोते हैं, लेकिन हंसते हुए। वह जो अवसर मिला था, उससे जो भी हो सकता था, वह पूरा हो गया है।
इस बात को समझ कर सूत्र को समझें।
‘जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़, विषम टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है, वैसे ही मूर्ख मनुष्य भी जान-बूझ कर धर्म को छोड़, अधर्म को पकड़ लेता है और अंत में मृत्यु के मुख में पहुंचने पर, जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।’
इसमें बहुत सी बातें हैं। एक, महावीर ने बड़ी अदभुत बात कही है और वह यह कि ‘मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर’, यह बड़ी उलटी बात है। अगर गाड़ीवान मूर्ख है, तो ‘जान-बूझ कर’ क्या अर्थ रखता है? और अगर गाड़ीवान जान-बूझ कर ही गलत रास्ते पर चलता है, तो मूर्ख कहने का क्या प्रयोजन? लेकिन महावीर का प्रयोजन है। जब महावीर कहते हैं कि ‘मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर।’
मूर्खता अज्ञान का नाम नहीं है। मूर्खता, उन ज्ञानियों के लिए कही जाती है जो जान-बूझ कर... बच्चे को हम मूर्ख नहीं कहते, अबोध कहते हैं। बच्चे को हम, अगर भूल करे, तो मूर्ख नहीं कहते, बच्चा ही कहते हैं, निर्दोष कहते हैं, अभी उसे पता ही नहीं है। मूर्ख तो आदमी तब होता है, जब उसे पता होता है और फिर भी जान-बूझ कर गलत रास्ते पर चला जाता है।
जानवरों को हम मूर्ख नहीं कह सकते, अज्ञानी तो वे हैं; बच्चों को हम मूर्ख नहीं कह सकते, अज्ञानी वे हैं। मूर्ख तो हम उनको ही कह सकते हैं जो ज्ञानी भी हैं, तब जान-बूझ कर भूल शुरू होती है और जान-बूझ कर भूल ही मूर्खता है। लेकिन क्यों कोई जान-बूझ कर भूल करता होगा?
क्योंकि सुकरात ने कहा है, कोई जान-बूझ कर भूल नहीं कर सकता। यूनान में इस पर लंबा विवाद रहा है और इस विवाद में सारे जगत की संस्कृतियों के अलग-अलग अनुदान हैं कि कोई आदमी जब भूल करता है तो जान-बूझ कर करता है, या कि अनजान करता है? सुकरात ने कहा है: कोई आदमी जान-बूझ कर भूल कर ही नहीं सकता। उसकी बात में भी सच्चाई है। कभी आप जान-बूझ कर आग में हाथ डाल सकते हैं? असंभव है। जान-बूझ कर कोई कैसे भूल करेगा, क्योंकि भूल दुख देती है, पीड़ा देती है। भूल तो अनजाने ही हो सकती है।
लेकिन महावीर कहते हैं कि जान-बूझ कर भी भूल हो सकती है। जान-बूझ कर भूल तब हो सकती है जब आप जानते हैं कि आग में हाथ डालने से हाथ जलेगा ही लेकिन फिर भी ऐसी परिस्थितियां पैदा की जा सकती हैं कि आप अहंकार वश आग में हाथ डाल दें। अगर यह प्रतियोगिता हो रही हो कि कौन कितनी देर तक आग में हाथ रख सकता है, तो आप जान-बूझ कर भी आग में हाथ डाल सकते हैं।
अहंकार के कारण आदमी जान-बूझ कर भूल कर सकता है। सिर्फ एक ही कारण है जान-बूझ कर भूल करने का, अहंकार के कारण। अगर आपके अहंकार को रस मिलता हो तो आप जान-बूझ कर भूल कर सकते हैं। कोई गाड़ीवान क्यों साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़ कर, ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चलेगा!
ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर अहंकार को तृप्ति मिलती है। राजमार्ग पर तो सभी चलते हैं, वहां कोई अहंकार को रस नहीं है। जब कोई उलटे-सीधे मार्ग पर चलता है तो अहंकार को रस मिलता है।
एवरेस्ट पर चढ़ने में कौन सा रस मिलता होगा? एवरेस्ट की चोटी पर खड़े होकर क्या उपलब्धि होती है? जब तेन सिंह और हिलेरी पहली दफे एवरेस्ट पर खड़े हो गए होंगे, तो उन्होंने क्या पाया होगा? एक बड़ी सूक्ष्म अहंकार की तृप्ति--जहां कोई भी नहीं पहुंच पाया वहां पहुंचने वाले वे पहले मनुष्य हैं। और तो कुछ भी एवरेस्ट पर मिलने को नहीं है। यात्रा के अंत पर मिलता क्या है? यात्रा के अंत पर मिलता है, अहंकार की तृप्ति।
तो जो आदमी ऊबड़-खाबड़ मार्ग चुनता है जीवन में, वह जान कर चुनता है। सीधे रास्ते पर तो सभी चलते हैं। राजमार्ग पर चलना भी कोई चलना है! जब आदमी ऐसे बीहड़ रास्ते पर चलता है, जहां चलना दुर्गम है, जहां एक-एक कदम उठाना मुश्किल है, जहां हर घड़ी कष्ट, हर घड़ी खतरा है; तब अहंकार को बड़ा रस आता है।
नीत्शे ने कहा है: ‘लिव डेंजरसली, खतरनाक ढंग से जीओ।’ क्योंकि नीत्शे कहता है: जीवन में एक ही तृप्ति है, और वह तृप्ति है--पॉवर, शक्ति। लेकिन शक्ति का अनुभव तभी होता है, जब हम विपरीत से जूझते हैं। सरल के साथ शक्ति का अनुभव नहीं होता। जहां कोई भी चल सकता है, वहां शक्ति का कैसा अनुभव! जहां बच्चे भी निरापद चल लेते हैं, जहां अंधे भी चल लेते हैं, वहां शक्ति का क्या अनुभव! शक्ति का अनुभव तो वहां है, जहां कदम-कदम कठिनाई है, जहां पहुचना असंभव है। इसलिए अहंकारी ऐसे रास्ते चुनता है, जो पहुंचाने के लिए नहीं होते, सिर्फ अहंकार के संघर्ष के लिए होते हैं।
तो मूर्ख गाड़ीवान जान-बूझ कर ऊबड़-खाबड़, विषम रास्ते चुन लेता है, क्योंकि वहां उसके अहंकार की प्रतिष्ठा हो सकती है। तो मूर्खता का गहनतम सूत्र है अहंकार। मूर्खता का संबंध ज्ञान से नहीं है, अज्ञान से नहीं है। मूर्खता का संबंध अहंकार से, ईगो से है। जितना अहंकारी व्यक्ति होगा, उतना मूर्ख होगा।
मजा यह है कि आप अपने ज्ञान का उपयोग भी अपनी मूर्खता के लिए कर सकते हैं, क्योंकि आप अपने ज्ञान से भी अपने अहंकार को भर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने ज्ञान से भी अपने अहंकार को ही भर रहा हो तो यह प्रयास मूर्खतापूर्ण है।
अज्ञान से तो लोग भूलें करते हैं, लेकिन ज्ञान से भी लोग भूलें करते हैं। और बड़ी से बड़ी भूल जो ज्ञान से हो सकती है, वह यह कि हम अपने इस अहंकार को खड़ा करने के लिए गलत मार्ग चुन लें, जान-बूझ कर। आपको भी खयाल होगा जिंदगी में, कई बार विषम मार्ग चुनने में बड़ा सुख मिलता है। कठिन है जो, लंबा है जो रास्ता, विघ्न जहां बहुत हैं, आपदाएं जहां हैं, विपत्तियां जहां हैं; उसे चुनने में बड़ा रस आता है।
रस क्या है? जीतने का रस। जब रास्ते में कोई विपत्ति होती है, तब हम जीतते हैं। जब रास्ते में कोई विपत्ति नहीं होती तो क्या खाक जीतना! इसलिए जो लोग इस भांति चलते हैं, उनके जीवन में हजार जटिलताएं खड़ी हो जाती हैं। उनका सारा जीवन, एक ही गणित को मान कर चलता है: जहां विपत्ति हो, जहां बाधा हो, जहां अड़चन हो, जो असंभव मालूम पड़े, उसे करने में उन्हें रस आता है।
और इस जगत में अधर्म से असंभव कुछ भी नहीं। अधर्म इस जगत में सबसे असंभव है। एवरेस्ट चढ़ा जा सकता है, चांद पर उतरा जा सकता है, मंगल पर भी आदमी उतर ही जाएगा, लेकिन यह कुछ भी असंभव नहीं है। अधर्म सबसे असंभव है। अधर्म का मतलब क्या? कल मैंने आपको कहा: धर्म का अर्थ है--स्वभाव; अधर्म का अर्थ है--स्वभाव के विपरीत। निश्चित ही स्वभाव के विपरीत जाना सबसे असंभव बात है। आदमी स्वभाव के विपरीत जा ही कैसे सकता है? स्वभाव का अर्थ ही है कि जिसके विपरीत आप न जा सकें। जैसे आग ठंडी होना चाहे, तो यह स्वभाव के विपरीत हुआ। जैसे पानी ऊपर चढ़ना चाहे तो यह स्वभाव के विपरीत हुआ। ऐसे ही अधर्म का अर्थ है, जो स्वभाव के विपरीत है, वही टेढ़ा-मेढ़ा है।
धर्म तो बहुत सरल और सीधा है; लेकिन मजा है कि धर्म में भी हम तभी उत्सुक होते हैं, जब वह टेढ़ा-मेढ़ा हो। सीधे धर्म में हम जरा भी उत्सुक नहीं होते। कोई बताए कि इतने उपवास करो, ऐसे खड़े रहो रात भर, नंगे रहो, कि कोड़े मारो शरीर को, कि सुखाओ, हड्डी-हड्डी हो जाओ, तब जरा रस आता है कि हां, यह कोई बात हुई।
जब धर्म भी टेढ़ा-मेढ़ा हो तो मूर्ख गाड़ीवान उत्सुक होता है। इसलिए ध्यान रखना, धर्म की तरफ जो उत्सुकता दिखाई पड़ती है, उसमें नब्बे--नब्बे भी कम हैं--निन्यानबे प्रतिशत मूर्ख गाड़ीवान होते हैं। जिनका कुल कारण यह होता है कि कोई असंभव करने जैसा दिखाई पड़ रहा है। तब उनको बड़ा रस आता है। अगर उनको कहो कि आराम से बैठ कर भी, छाया में भी, धर्म उपलब्ध हो सकता है, धर्म का सारा रस ही खो जाएगा। आसान हुआ, रस खो गया। बुद्धिमान आदमी को आसान हो तो रस बढ़ेगा। लेकिन अहंकारी आदमी को, आसान हो तो रस खो जाएगा।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
तपश्र्चर्या का अधिकतम रस टेढ़े-मेढ़ेपन के कारण है। जब आप अपने को सता रहे होते हैं, तब आपको लगता है, हां, कुछ कर रहे हैं! तब आपको लगता है, कुछ कर रहे हैं--भूखे हैं, पानी नहीं पी रहे हैं; तब आपको लगता है, आप कुछ कर रहे हैं। क्यों? क्योंकि बड़ा दुर्गम है, बड़ा अस्वाभाविक है। भूख स्वाभाविक है, भूखा रह जाना अस्वाभाविक है। भूख सहज है, भूख के विपरीत लड़ना असहज है। लेकिन जितना असहज हो, धारा के विपरीत हो, उतना हमें लगता है कि हां, कुछ अहंकार को रस आ रहा है। इसलिए तपस्वियों से ज्यादा प्रखर अहंकार और कहीं खोजना मुश्किल है। झोपड़े में रह रहा है, तो अहंकार बढ़ेगा। झाड़ के नीचे है तो और बढ़ जाएगा। धूप में खड़ा है, तो और बढ़ जाएगा। अगर विश्राम करता ही नहीं, खड़ा ही रहता है तपस्वी, तो और बढ़ जाएगा।
यह सारी की सारी चेष्टा सिकंदर और नेपोलियन की चेष्टा से भिन्न नहीं है। लेकिन हमें दिखती है भिन्न, क्योंकि हमारी समझ नहीं है। इस चेष्टा का एक ही अर्थ है कि जो असंभव है, वह हम करके दिखा रहे हैं। अगर आदमी सहज जी रहा हो, तो हमें खयाल में भी नहीं आ सकता है कि वह धार्मिक हो सकता है।
सहज आदमी हमारे खयाल में नहीं आता कि धार्मिक भी हो सकता है। लेकिन कबीर ने कहा है: ‘साधो, सहज समाधि भली।’ कारण है कहने का। सहज का अर्थ यह जो महावीर कह रहे हैं, वह समझदार आदमी, जो सीधे-सादे, साफ-सुथरे राजमार्ग को चुनता है; इसलिए कि कहीं पहुंचना है, इसलिए नहीं कि कुछ जीतना है।
ये दोनों अलग दिशाएं हैं। कहीं पहुंचना है तो व्यर्थ श्रम लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तब बीच में बाधाएं खड़ी करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अगर कहीं पहुंचना नहीं है, सिर्फ अहंकार अर्जित करना है यात्रा में, तो फिर बाधाएं होनी चाहिए। तो आदमी अपने हाथ से भी बाधाएं निर्मित करता है। पैदल जाता है, तीर्थयात्रा को। मुझ से तीर्थयात्री कहते हैं कि जो मजा पैदल जाकर तीर्थयात्रा करने का है, वह ट्रेन में बैठ कर जाने में नहीं है।
स्वभावतः कैसे हो सकता है? लेकिन जो और आगे बढ़ गए हैं गाड़ी को टेढ़े-मेढ़े उतारने में, वे जमीन पर साष्टांग दंडवत करते हुए तीर्थयात्रा करते हैं। उनका वश चले अगर, तो वे शीर्षासन करते हुए भी तीर्थयात्रा करें। लेकिन तब जो मजा आएगा, निश्चित ही वह पैदल करने वाले को नहीं आ सकता। क्यों? वह मजा क्या है? वह तीर्थ पहुंचने का मजा नहीं है। वह अहंकार निर्मित करने का मजा है। जो कोई नहीं कर सकता, वह मैं कर रहा हूं।
धर्म हो, कि धन हो, कि यश हो, जो भी हम मार्ग इरछे-तिरछे चुनते हैं जान कर, महावीर कहते हैं: वह अधर्म है। असल में अधर्म तिरछा ही होगा, सीधा नहीं होता। कभी आपने खयाल किया है, एक झूठ बोलें, तो बड़ी तिरछी यात्राएं करनी पड़ती हैं! सच बोलें, सीधा। सच बिलकुल वैसा है, जैसे यूक्लिड की रेखा--दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी। यूक्लिड की व्याख्या है रेखा की--दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी, तो रेखा सीधी होती है। दो बिंदुओं के बीच जितना लंबा चक्कर लगाते जाएं, उतनी रेखा बड़ी तिरछी होती चली जाती है।
सत्य भी दो बिंदुओं के बीच सबसे कम दूरी है। असत्य सबसे बड़ी लंबी यात्रा है। इसलिए एक असत्य, फिर दूसरा, फिर तीसरा। एक को सम्हालने के लिए एक लंबी श्रृंखला है। बड़ा मजा है कि सत्य को सम्हालने के लिए कोई श्रृंखला नहीं होती। एक सत्य अपने में काफी होता है। सत्य एटामिक है। एक अणु काफी है।
झूठ श्रृंखला है, सीरी़ज है। एक झूठ काफी नहीं है। एक झूठ को दूसरे झूठ का सहारा चाहिए। दूसरे झूठ को और झूठों का सहारा चाहिए, और झूठ हमेशा अधर में अटका रहता है, कितना ही सहारा देते जाओ, उसके पैर जमीन से नहीं लगते। क्योंकि हर झूठ जो सहारा देता है वह खुद भी अधर में होता है। तो आप सिर्फ पोस्टपोन करते हैं, पकड़े जाने को, बस। जब मैं एक झूठ बोलता हूं तब तत्काल मुझे दूसरा झूठ बोलना पड़ता है कि पकड़ा न जाऊं। फिर दूसरा बोलता हूं, तीसरा बोलना पड़ता है कि पकड़ा न जाऊं। फिर यह भय कि पकड़ा न जाऊं, तो मैं स्थगित करता जाता हूं। हर झूठ थोड़ी राहत देता है, फिर नये झूठ को जन्म देता है।
सत्य सीधा है।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि सत्य को याद रखने की भी जरूरत नहीं है, सिर्फ झूठ को याद रखना पड़ता है। इसलिए जिनकी स्मृति कमजोर है, वे झूठ नहीं बोल सकते। झूठ बोलने के लिए स्मृति की कुशलता चाहिए। क्योंकि लंबी याददाश्त चाहिए। एक झूठ बोला है, तो उसकी पूरी श्रृंखला बनानी पड़ेगी। यह वर्षों तक चल सकती है। इसलिए झूठ बोलने वालों का मन बोझिल होता चला जाता है। सच बोलने वाले का मन खाली होता है, कुछ रखना नहीं पड़ता। कुछ सम्हालना नहीं पड़ता।
धर्म भी एक सीधी यात्रा है, सरल यात्रा है। लेकिन धर्म में हमें रस नहीं है, रस हमें टेढ़े-मेढ़ेपन में है; क्योंकि रस हमें अहंकार में है।
अभी स्पास्की और बॉबी फिशर में शतरंज की होड़ थी। अगर स्पास्की पहले दिन ही कह दे कि लो, तुम जीत गए! इतनी सरल हो अगर जीत, तो जीत में कोई रस न रह जाएगा। जीत जितनी कठिन है, जितनी असंभव है, जितनी मुश्किल है, उतनी ही रसपूर्ण हो जाती है। और मजा यह है कि आदमी इसके लिए कैसे-कैसे उपाय करता है! शतरंज बड़ा मजेदार उपाय है।
आदमी एक नकली युद्ध करता है--नकली! कुछ भी नहीं है वहां, न हाथी हैं, न घोड़े हैं, न कुछ है--नकली है सब, लेकिन रस असली है। रस वही है जो असली हाथी घोड़े से मिलता है। बिलकुल वह महंगा धंधा था। पुराने लोग उस धंधे को काफी कर चुके।
खेल, युद्ध का संक्षिप्त अहिंसात्मक संस्करण है। उसमें भी हम लड़ते हैं नकली साधनों से, लेकिन थोड़ी ही देर में नकली साधन भूल जाते हैं और असली हो जाते हैं। कोई घोड़ा क्या घोड़ा होगा मैदान पर, जो शतरंज के बोर्ड पर हो जाता है। क्यों? आखिर इस नकली लकड़ी के घोड़े में इतना रस? यह असली कैसे हो जाता है? जिस घोड़े पर भी अहंकार की सवारी हो जाए, वह असली हो जाता है। अहंकार चलता है, घोड़े थोड़े ही चलते हैं! फिर जितनी कठिनाई हो, जितनी असंभावना हो और जितना सस्पेंस हो, और जितना संदेह हो जीत में, उतनी ही बात बढ़ती चली जाती है।
आदमी ने बहुत उपाय किए हैं, जिनसे वह जो सीधा संभव है, उसको भी बहुत लंबी यात्रा करके संभव करता है। इसे महावीर कहते हैं: जान-बूझ कर, साफ-सुथरे राजमार्ग को छोड़ कर--जैसा मूर्ख गाड़ीवान पछताता है।
कब पछताता है मूर्ख गाड़ीवान? जब धुरी टूट जाती है। जब गाड़ी उलटे-सीधे रास्ते पर, पत्थरों पर, कंकड़ों पर, मरुस्थल में उलझ जाती है कहीं, और गाड़ी की धुरी टूट जाती है। जब एक चाक बहुत ऊपर और एक चाक बहुत नीचे हो जाता है, तब धुरी टूटती है।
धुरी टूटने का मतलब है कि दोनों चाक जहां समान नहीं होते, असंतुलित हो जाते हैं। वहां धुरी टूट जाती है। वहां दोनों को सम्हालने वाली धुरी टूट जाती है। तब पछताता है, तब दुखी होता है, लेकिन तब कुछ भी नहीं किया जा सकता। तब कुछ भी करना मुश्किल हो जाता है।
जीवन में भी हम धुरी को तोड़ कर ही पछताते हैं। जो पहले समझ लेता है, वह कुछ कर सकता है। जो तोड़ कर ही पछताने का आदी है, तो जीवन ऐसी घटना नहीं है कि तोड़ कर पछताने का कोई उपाय हो। जो मृत्यु के बाद ही पछताएगा, उसके लिए फिर पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है। हम भी पछताते हैं जब धुरी टूट जाती है। धुरी हमारी भी तब टूटती है जब असंतुलन बड़ा हो जाता है, एक चाक ऊपर और एक चाक बहुत नीचे हो जाता है।
यह होगा ही तिरछे रास्तों पर।
‘अधर्म को पकड़ लेता है, और अंत में मृत्यु के मुख में पहुंचने पर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।’
अधर्म को हम पकड़ते ही इसलिए हैं, अहंकार की वहां तृप्ति है। और धर्म को हम इसीलिए नहीं पकड़ते हैं कि वहां अहंकार से छुटकारा है। धर्म की पहली शर्त है, अहंकार छोड़ो। वही अड़चन है। अधर्म का निमंत्रण है, आओ, अहंकार की तृप्ति होगी। वही चुनौती है, वही रस है। अधर्म के द्वार पर लिखा है, बढ़ाओ अंहकार को, बड़ा करो। धर्म के द्वार पर लिखा है, छोड़ दो बाहर, अहंकार को। भीतर आ जाओ।
तो जिनको भी इस बात में रस है कि मैं कुछ हूं, उन्हें धर्म की तरफ जाने में बड़ी कठिनाई होगी। जो इस बात को समझने की तैयारी में हैं कि मैं ना कुछ हूं, उनके लिए धर्म का द्वार सदा ही खुला हुआ है। जिनको जरा भी है कि मैं कुछ हूं, वे अधर्म में खींच लिए जाएंगे--चाहे वे मंदिर जाएं, मस्जिद जाएं, गुरुद्वारा जाएं, कहीं भी जाएं। जिनको यह रस है कि मैं कुछ हूं, जो मंदिर में प्रार्थना करते वक्त भी यह देख रहे हैं कि कितने लोगों ने मुझे प्रार्थना करते देखा, जो यह देख रहे हैं कि कितने लोग मुझे तपस्वी मानते हैं, उपासक मानते हैं, कितने लोग मुझे साधु मानते हैं; जो अभी भी उस में रस ले रहे हैं वे कहीं से भी यात्रा करें, उनकी यात्रा ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर, अधर्म के रास्ते पर हो जाएगी।
इसका मतलब यह हुआ कि जो आदमी स्वयं में कम उत्सुक है और स्वयं को दिखाने में ज्यादा उत्सुक है, वह अधर्म के रास्ते पर चला जाएगा। जिस आदमी को इस में कम रस है कि मैं क्या हूं, और इस में ज्यादा रस है कि लोग मेरे संबंध में क्या सोचते हैं, वह अधर्म के रास्ते पर चला जाएगा। जो लोगों की आंखों में एक प्रतिबिंब बनाना चाहता है, एक इमेज, वह अधर्म के रास्ते पर चला जाएगा।
धर्म के रास्ते पर तो केवल वे ही जा सकते हैं, जो स्वयं में उत्सुक हैं, स्वयं की वास्तविकता में। स्वयं के आवरण, आभूषण, स्वयं की साज-सज्जा, स्वयं के श्रृंगार, दूसरों की आंखों में बनी स्वयं की प्रतिमा में जिनकी उत्सुकता नहीं है, केवल वे ही धर्म के रास्ते पर जा सकते हैं। क्योंकि दूसरे तो तभी आदर देते हैं, जब आप कुछ असंभव करके दिखाएं। दूसरे तो तभी आपको मानते हैं जब आप कोई चमत्कार करके दिखाएं। दूसरे तो आपको तभी मानते हैं जब आप कुछ ऐसा करें, जो वे नहीं कर सकते हैं। तब...। इसलिए देखें, जब आप किसी को आदर देते हैं तो आपने कभी खयाल किया है कि आपके आदर देने का कारण क्या होता है? सदा कारण यही होता है कि जो आप नहीं कर सकते, वह यह आदमी कर रहा है। अगर आप भी कर सकते हैं, तो आप आदर न दे सकेंगे।
आप जाते हैं, कोई सत्य साईंबाबा एक ताबीज हाथ से निकाल कर दे देते हैं, तो आप आदर करते हैं। एक मदारी आदर न कर सकेगा। ताबीज तो कुछ भी नहीं, वह कबूतर निकाल देता है हाथ से। वह जानता है कि इसमें आदर जैसा कुछ भी नहीं है, यह साधारण मदारीगिरी है। वह आदर न दे सकेगा। आप आदर दे सकेंगे, क्योंकि आप नहीं कर सकते हैं। जो आप नहीं कर सकते, वह चमत्कार है। फिर यह ताबीजों से ही संबंधित होता तो बहुत हर्जा न था, क्योंकि ताबीजों में बच्चों के सिवाय कोई उत्सुक नहीं होता, न कबूतरों में कोई बच्चों के सिवाय उत्सुक होता है; लेकिन यह और तरह से भी संबंधित है।
आप एक दिन भूखे नहीं रह सकते, और एक आदमी तीस दिन का उपवास कर लेता है, तब आपका सिर उसके चरणों में लग जाता है। यह भी वही है, इसमें भी कुछ मामला नहीं है। आप ब्रह्मचर्य नहीं साध सकते और एक आदमी बाल ब्रह्मचारी रह जाता है, आपका सिर उसके चरणों में लग जाता है। यह भी वही है, कोई फर्क नहीं है। कोई भी फर्क नहीं है।
कारण सदा एक ही है भीतर हर चीज के, कि जो आप नहीं कर सकते। तब इसका यह मतलब हुआ कि अगर आपको भी अहंकार की तृप्ति करनी हो तो आपको कुछ ऐसा करना पड़े, जो लोग नहीं कर सकते। या कम से कम दिखाना पड़े कि आप कर सकते हैं, जो लोग नहीं कर सकते।
तो जो व्यक्ति अहंकार में उत्सुक है, वह सदा ही तिरछे रास्तों में उत्सुक होगा। ताबीज पेटी से निकाल कर आपके हाथ में दे देना बिलकुल सीधा काम है, लेकिन पहले ताबीज को छिपाना, और फिर इस तरकीब से निकालना कि दिखाई न पड़े, कहां से निकल रहा है, तिरछा काम है। तिरछा है तो आकर्षक है। आपको भी पता चल जाए कि ताबीज कैसे पेटी से कपड़े की बांह के भीतर गया, फिर बांह से कैसे हाथ तक आया, एक दफा आपको पता चल जाए, चमत्कार तिरोहित हो जाए। फिर दुबारा आपको इसमें कोई श्रद्धा न मालूम होगी।
आपको भी पता चल जाए कि भूखा रहने की तरकीब क्या है, तो फिर उपवास में भी आपकी श्रद्धा न रह जाएगी। आपको भी पता चल जाए कि ब्रह्मचारी रहने की तरकीब क्या है, फिर आपको उसमें भी रस न रह जाएगा।
जो भी आप कर सकते हैं... यह बड़े मजे की बात है कि किसी आदमी की अपने में श्रद्धा नहीं है। जो भी आप कर सकते हैं, उसमें आपकी कभी श्रद्धा नहीं होगी। जो दूसरा कर सकता है, और आप नहीं कर सकते तो श्रद्धा होती है। तो जो भी आदमी अहंकार खोज रहा है--अहंकार का मतलब, दूसरों की श्रद्धा खोज रहा है, सम्मान खोज रहा है--वह आदमी तिरछे रास्ते चुन लेगा।
मूर्ख गड़ीवान ऐसे ही मूर्ख नहीं है, बहुत समझदारी से मूर्ख है। उस मूर्खता में एक विधि है।
महावीर कहते हैं: लेकिन जीवन के रास्ते पर भी यही होता है। मनुष्य जान-बूझ कर धर्म को छोड़ कर अधर्म को चुन लेता है।
आपको साफ-साफ पता होता है, यह सरल और सीधा रास्ता है; लेकिन उसमें अहंकार की तृप्ति नहीं होती। तब आप तिरछा रास्ता चुनते हैं। यह जान-बूझ कर चुनते हैं। इसको समझ लेना जरूरी है। क्योंकि अगर आप बिना जाने-बूझे चुनते हैं तब तो बदलने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए महावीर का जोर है कि आप जान-बूझ कर चुनते हैं। अगर आप बिना जाने-बूझे चुनते हैं तब तो फिर बदलने का कोई उपाय नहीं है। अगर जान-बूझ कर चुनते हैं, तो बदलाहट हो सकती है।
बदलाहट का अर्थ ही यह है कि आप ही मालिक हैं चुनाव के। आपने ही चाहा था इसलिए तिरछे रास्ते पर गए। आप चाहेंगे तो सीधे रास्ते पर आ सकते हैं। यह आपकी चाह ही है जो आपको भटकाती है। इसमें कोई दूसरा पीछे से काम नहीं कर रहा है।
फ्रायड कहता है: आदमी जान-बूझ कर कुछ भी नहीं करता। धर्म और अधर्म के बीच यही विकल्प है। फ्रायड कहता है: मनुष्य जान-बूझ कर कुछ भी नहीं करता, सब अनकांशस है, सब अचेतन है, जान कर आदमी कुछ भी नहीं करता है।
फ्रायड ने यह बात पिछले पचास सालों में इतने जोर से पश्चिम के सामने सिद्ध कर दी। और वह आदमी अदभुत था। उसकी खोज में कई सत्य थे, लेकिन अधूरे सत्य थे और अधूरे सत्य असत्यों से भी खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि अधूरा सत्य, सत्य भी मालूम पड़ता है और सत्य होता भी नहीं। और कोई भी आदमी अधूरे सत्य को नहीं पकड़ता है। जब अधूरे सत्य को पकड़ता है, तो उसे पूरा सत्य मान कर पकड़ता है। तब उपद्रव शुरू हो जाते हैं।
फ्रायड ने पश्चिम को समझा दिया कि आदमी जो भी कर रहा है, वह सब अचेतन है। अगर यह बात सच है, तो फिर आदमी के हाथ में परिवर्तन का कोई उपाय नहीं है। इसलिए शराबी ने सोचा कि अब मैं कर भी क्या सकता हूं। व्यभिचारी ने सोचा: अब उपाय भी क्या है। यह सब अचेतन है, यह सब हो रहा है। इसमें मैं कुछ भी नहीं कर सकता।
और इस सदी ने बिना जाने जगत के इतिहास का सबसे बड़ा भाग्यवाद जन्माया। भाग्यवादी कहते थे: परमात्मा कर रहा है; फ्रायड कहता है: अचेतन कर रहा है। लेकिन एक बात में दोनों राजी हैं कि हम नहीं कर रहे हैं। हमारे हाथ में बात नहीं है। परमात्मा कर रहा है। विधि ने लिख दिया खोपड़ी पर, वह हो रहा है। और फ्रायड कहता है: पीछे से अचेतन चला रहा है, और हम चल रहे हैं। जैसे कि कोई गुड्डियों को नचा रहा हो। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। पहले परमात्मा नचाता था गुड्डियों को, अब अनकांशस, अचेतन नचा रहा है। सिर्फ शब्द बदल गए हैं। लेकिन आदमी के हाथ में कोई ताकत नहीं।
महावीर परमात्मा के भी खिलाफ हैं और अचेतन के भी। महावीर कहते हैं: तुम जो भी कर रहे हो, ठीक से जानना, तुम कर रहे हो। आदमी को इतना ज्यादा उत्तरदायी किसी दूसरे ने कभी नहीं माना, जितना महावीर ने माना। महावीर ने कहा कि अंततः तुम ही निर्णायक हो, और इसलिए कभी भूल कर मत कहना कि भाग्य ने, विधि ने, परमात्मा ने, किसी ने करवा दिया। जो तुमने किया है, तुमने किया है। इस पर जोर देने का कारण है और वह कारण यह है कि जितना यह स्पष्ट होगा कि मैं कर रहा हूं, उतनी ही बदलाहट आसान है। क्योंकि अगर मैं अपने चुनाव से उलटे रास्ते पर नहीं गया हूं, भेजा गया हूं, तो जब मैं भेजा जाऊंगा सीधे रास्ते पर तब चला जाऊंगा। जब मैं भेजा गया हूं उलटे रास्ते पर, तो मैं कैसे लौट सकता हूं? जब भेजेगी प्रकृति, भेजेगी नियति, भेजेगा परमात्मा, तो ठीक है, मैं लौट जाऊंगा। न मैं गया, न मैं लौट सकता हूं। मैं एक पानी में बहता हुआ तिनका हूं। मेरी अपनी कोई गति नहीं है, मेरा अपना कोई संकल्प नहीं है।
महावीर का यह जोर कि तुम जान-बूझ कर गलत कर रहे हो, कारणवश है और वह कारण यह है कि अगर जान-बूझ कर रहे हो तो ही बदलाहट हो सकती है। नहीं तो फिर कोई ट्रांसफार्मेशन, मनुष्य के जीवन में फिर कोई क्रांति संभव नहीं है। इसलिए महावीर बड़े साहस से ईश्र्वर को बिलकुल इनकार कर दिए, क्योंकि ईश्र्वर के रहते महावीर को लगा कि आदमी को सदा एक सहारा होता है कि वह जो करेगा, उसकी बिना आज्ञा के तो पत्ता भी नहीं हिलता, तो हम कैसे हिलेंगे। वह पत्ता तो बहाना है, असली में हम हिलना नहीं चाहते। तो हम कहते हैं: उसकी आज्ञा के बिना पत्ता नहीं हिलता। अब हम व्यभिचारी हैं, अब हम कैसे व्यभिचार से हिल जाएं! जब वह हिलाएगा, उसकी मर्जी!
आदमी बेईमान है, अपने परमात्माओं के साथ भी। आदमी बड़ा कुशल है और परमात्मा भी कुछ कर नहीं सकता। आदमी को जो उससे बुलवाना है, बुलवाता है। जो उससे करवाना है, करवाता है। मजा यह है कि परमात्मा की बिना आज्ञा के पत्ता हिलता है, या नहीं हिलता है, यह तो पता नहीं, आपकी बिना आज्ञा के परमात्मा भी नहीं हिल सकता। वह आप ही उसको हिलाते रहते हैं, जैसी मर्जी, आप ही अंततः निर्णायक हैं।
इसलिए महावीर कहते हैं: ‘जान-बूझ कर।’ लेकिन कितना ही कोई जान-बूझ कर गलत रास्ते पर जाए, रास्ता तो गलत ही होगा, और गलत रास्ते पर धुरी टुटेगी ही। रास्ते के गलत होने का मतलब ही इतना है कि जहां धुरी टूट सकती है। और तो कोई मतलब नहीं है। इसलिए अधर्म में गया हुआ आदमी रोज टूटता चला जाता है। निर्मित नहीं होता, बिखरता है।
चोरी करके देखें, झूठ बोल कर देखें, बेईमानी करके देखें, धोखा करके देखें, किसी की हत्या करें, होगा क्या? आपकी आत्मा की धुरी टूटती चली जाती है, आप भीतर टूटने लगते हैं। भीतर इंटिग्रेशन, अखंडता नहीं रह जाती, खंड-खंड हो जाते हैं। कभी कुछ, जिसको धर्म कहा है, वह करके देखें तो भीतर अखंडता आती है।
इसको ऐसा सोचें कि जब आप झूठ बोलते हैं, तब आपके भीतर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, एक आत्मा नहीं होती। एक हिस्सा तो भीतर कहता ही रहता है कि मत करो, गलत है। एक हिस्सा तो जानता ही रहता है कि यह सच नहीं है। आप सारी दुनिया को झूठ बोल सकते हैं, लेकिन अपने से कैसे बोलिएगा? भीतर तो पता चलता ही रहता है कि यह झूठ है। इसलिए सतह पर भर आप झूठ के लेबल चिपका सकते हैं, आपकी अंतरात्मा तो जानती है कि यह झूठ है। इसलिए आप इकट्ठे नहीं हो सकते।
आपकी परीधि और आपके केंद्र में विरोध बना रहेगा। भीतर कोई कहता ही रहेगा कि यह झूठ है, यह नहीं, यह नहीं बोलना था। जो बोला है वह ठीक नहीं था। यह भीतर खंड-खंड कर जाएगा।
अब जो आदमी हजार झूठ बोल रहा है, उसके हजार खंड हो जाएंगे, लेकिन जो आदमी सच बोल रहा है, उसके भीतर कोई खंड नहीं होता। क्योंकि सच के विपरीत कोई कारण नहीं होता। और मजा यह है कि अगर कभी विपरीत भी हो, जैसा कि सच बोलते में भी कभी परिधि कहती है: मत बोलो, नुकसान होगा; लेकिन तब भी सच आता है भीतर से और झूठ आता है बाहर से।
यह भीतर हमेशा मजबूत होता है। इसलिए परिधि ज्यादा देर टिक नहीं पाती, टूट जाती है। लेकिन जब आप झूठ बोलते हैं परिधि की मान कर, तो कभी भी कितना ही बोलते चले जाएं, टिक नहीं सकता। रोज सम्हालें, फिर भी नहीं सम्हलता; क्योंकि भीतर गहरे में आप जानते ही हैं कि वह झूठ है। वह हजार तरह से निकलने की कोशिश करता है। इसलिए जो आदमी झूठ बोलता है वह भी किसी से बता देता है कि यह झूठ है।
आप जानते हैं क्यों? हम सब अपनी इंटिमेसीज रखते हैं, आंतरिकताएं रखते हैं, जहां हम सब बता देते हैं। उससे मन हलका होता है। नहीं बता पाए दुनिया को, कोई फिकर नहीं, अपनी पत्नी को तो बता दिया! इससे राहत मिलती है। वह जो सच है भीतर, धक्के दे रहा है। उसे प्रकट करो। नहीं है हिम्मत कि सारी दुनिया को प्रकट कर दें, तो किसी को तो बता पाते हैं।
इस दुनिया में उस आदमी से अकेला कोई भी नहीं, जिसके कोई भी इतना निकट नहीं है, जिससे कम से कम वह झूठ बता सके कि जो-जो मैं गलत कर रहा हूं, वह यह है। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि प्रेम का लक्षण ही यह है कि जिसके सामने तुम पूरे सच्चे प्रकट हो जाओ। अगर एक भी ऐसा आदमी नहीं है जगत में, जिसके सामने आप पूरे नग्न हो सकते हैं अंतःकरण से, तो आप समझना आपको प्रेम का कोई अनुभव नहीं हुआ है।
लेकिन जो आदमी सारे जगत के सामने अंतःकरण से नग्न हो सकता है, उसको प्रार्थना का अनुभव हुआ है। एक व्यक्ति के सामने भी आप पूरे सच हो जाते हैं तो जो क्षण भर को राहत मिलती है, जो सुगंध आती है, जो ताजी हवाएं दौड़ जाती हैं प्राणों के आर-पार, वे भी काफी हैं। लेकिन जब कोई व्यक्ति समस्त जगत के सामने सच हो जाता है, जैसा है, वैसा ही हो जाता है, तब उसके जीवन में दुर्गंध का कोई उपाय नहीं है।
महावीर धर्म कहते हैं स्वभाव की सत्यता को, जैसा है भीतर वैसा ही। कोई टेढ़ा-मेढ़ा नहीं। ठीक वैसा ही, नग्न जैसे दर्पण के सामने कोई खड़ा हो। ऐसा जो सहज है भीतर, वह जगत के सामने प्रकट हो जाए। इस अभिव्यक्ति का, सहज अभिव्यक्ति का जो अंतिम फल है वह है, मृत्यु मोक्ष बन जाती है। और हमारे समस्त झूठों के संग्रह का जो अंतिम फल है, पूरा जीवन एक असत्य, अप्रामाणिक, अनऑथेंटिक यात्रा हो जाती है। चलते बहुत हैं, पहुंचते कहीं भी नहीं। दौड़ते बहुत हैं, मंजिल कोई भी हाथ नहीं आती। सिर्फ मरते हैं। जीवन कहीं पहुंचाता नहीं, सिर्फ भटकाता है।
जो रात और दिन एक बार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं लौटते। जो मनुष्य अधर्म करता है, उसके वे रात-दिन बिलकुल निष्फल जाते हैं। लेकिन जो मनुष्य धर्म करता है, उसके वे रात-दिन सफल हो जाते हैं।
महावीर के लिए सफलता का क्या अर्थ है? बैंक-बैलेंस? कि कितने लोग आपको मानते हैं? कि कितने अखबार आपकी तस्वीर छापते हैं? कि कितनी नोबल प्राइज आपको मिल जाती हैं? नहीं, महावीर इसे सफलता नहीं कहते। थोड़ा सा उनकी जिंदगी देखें जिनको नोबल प्राइज मिलती है। उनमें से अधिक आत्महत्या कर लेते हैं। जो आत्महत्या नहीं करते, वे मरे-मरे जीते हैं। चिंता...!
अर्नेस्ट हेमिंग्वे का नाम सुना होगा। कौन इतनी सफलता पाता है? नोबल प्राइज है, धन है, प्रतिष्ठा है, सारे जगत में नाम है। उससे बड़ा कोई लेखक न था उसके समय में। लेकिन अर्नेस्ट हेमिंग्वे अंत में आत्महत्या कर लेता है। बड़ी अदभुत सफलता है। यह बाहर इतनी सफलता और भीतर इतनी पीड़ा है कि आत्महत्या कर लेनी पड़ती है! अपने को सहना मुश्किल हो जाता है, तभी तो कोई आत्महत्या करता है। जब अपने को बरदाश्त करना आसान नहीं रह जाता, एक-एक पल, एक-एक घड़ी आदमी अपने को भारी पड़ने लगता है, तभी तो मिटाता है!
तो जिसको इतनी सफलता है चारों तरफ, इतना यश, गौरव है, वह भी भीतर इतनी दिक्कत में पड़ा है! भीतर की धुरी टूट गई है। तो सारी दुनिया तारीफ कर रही है चकों की, धुरी तो दुनिया को दिखाई नहीं पड़ती, वह तो भीतर है, स्वयं को दिखाई पड़ती है। सारी दुनिया चांदी के वर्क, सोने के वर्क लगा रही है चाकों पर; और सारी दुनिया कह रही है, क्या अदभुत चके हैं, कितनी-कितनी ऊबड़-खाबड़ यात्राएं कीं! और भीतर धुरी टूट गई, वह गाड़ी ही जानती है कि अब क्या होना है! इन चकों पर लगे हुए सितारे काम नहीं पड़ेंगे। अंत में तो धुरी ही... उस धुरी की सफलता महावीर के लिए क्या हो सकती है? महावीर के लिए सफलता एक ही है।
समय तो बीत जाता है। उस समय में हम दो काम कर सकते हैं--या तो उस समय में हम अपनी आत्मा को इकट्ठा कर सकते हैं, या उस समय में हम अपनी आत्मा को बिखेर सकते हैं, तोड़-तोड़, टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं।
समय तो बीत जाएगा, फिर लौट कर नहीं आता, लेकिन उस समय में हमने जो किया है, वह हमारे साथ रह जाता है। वह कभी नहीं खोता, इस बात को ठीक से समझ लें।
समय तो कभी नहीं लौटता, लेकिन समय में जो घटता है, वह कभी नहीं जाता। वह सदा साथ रह जाता है। तो मैंने क्या किया है समय में, उससे मेरी आत्मा निर्मित होती है। महावीर ने तो आत्मा को समय का नाम ही दे दिया। महावीर ने तो कहा है कि आत्मा, यानी समय। ऐसा किसी ने भी दुनिया में नहीं कहा। क्योंकि महावीर ने कहा कि समय तो खो जाएगा, लेकिन समय के भीतर तुमने क्या किया है, वही तुम्हारी आत्मा बन जाएगी, वही तुम्हारा सृजन है।
तो हम समय के साथ विध्वंसक हो सकते हैं, सृजनात्मक हो सकते हैं। विध्वंसक का अर्थ है कि हम जो भी कर रहे हैं उससे हमारी आत्मा निर्मित नहीं हो रही है। झूठ बोलने से एक आदमी की आत्मा निर्मित नहीं होती। चोरी करने से आत्मा निर्मित नहीं होती। धन मिल सकता है, झूठ बोलने से यश मिल सकता है। सच तो यह है कि बिना झूठ बोले यश पाना बड़ा मुश्किल है। बिना चोरी किए धन पाना बहुत मुश्किल है। जब धन मिलता है तो निन्यानबे प्रतिशत चोरी के कारण मिलता है, एक प्रतिशत शायद बिना चोरी के मिलता हो। जब प्रतिष्ठा मिलती है तो निन्यानबे प्रतिशत झूठ, प्रचार से मिलती है; एक प्रतिशत शायद, उसका कोई निश्र्चय नहीं है।
एक बात तय है कि अधर्म से जो भी मिलता है, उससे आपकी आत्मा निर्मित नहीं होती। अधर्म से जो भी मिलता है, वह आत्मा की कीमत पर मिलता है। बाहर तो कुछ मिलता है, भीतर कुछ खोना पड़ता है। हम हमेशा मूल्य चुकाते हैं।
जब आप झूठ बोलते हैं, तो मैं इसलिए नहीं कहता: झूठ मत बोलें, कि इससे दूसरे को नुकसान होगा। दूसरे को होगा कि नहीं होगा, यह पक्का नहीं है। आपको निश्चित हो रहा है, यह पक्का है। दूसरा अगर समझदार हुआ, तो आपके झूठ से कोई नुकसान नहीं होने वाला है; और दूसरा अगर नासमझ है, तो आपके सत्य से भी नुकसान हो सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण आप हैं। अंततः जब आप कुछ भी गलत कर रहे हैं, तो आप भीतर आत्मा के मूल्य में चुका रहे हैं; व्यर्थ का एक कंकड़, इकट्ठा कर रहे हैं और भीतर एक आत्मा का खंड खो रहे हैं। महावीर इसको असफलता कहते हैं कि एक आदमी जीवन में सब-कुछ इकट्ठा कर ले और आखिर में पाए कि खुद की धुरी टूट गई, सब पा ले और आखिर में पाए कि खुद को खोकर पाया है यह, तब मृत्यु के क्षण में जो पछतावा होता है, लेकिन तब समय वापस नहीं आ सकता।
पुनर्जन्म की सारी भारतीय धारणा इसीलिए है कि पिछला समय तो वापस नहीं आ सकता। नया समय आपको दुबारा मिलेगा। पुराने समय को लौटाने का कोई उपाय नहीं, लेकिन नया जन्म मिलेगा। फिर से नया समय मिलेगा। लेकिन जिन्होंने पुराने समय में मजबूत आदतें निर्मित कर ली हैं, संस्कार भारी कर लिए हैं, वे नये समय का भी फिर वैसा ही उपयोग करेंगे।
थोड़ा सोचें, अगर कोई आपसे कहे कि आपको हम फिर से जन्म दे देते हैं; आपका क्या करने का इरादा है? तो आप क्या करेंगे? सोचें थोड़ा, तो आप पाएंगे कि जो आपने अभी किया है, थोड़ा बहुत मॉडिफाइड, इधर-उधर थोड़ा बहुत हेर-फेर, पत्नी थोड़ी और अच्छी नाक वाली चुन लेंगे, कि मकान थोड़ा और नये डिजाइन का बना लेंगे। क्या, करेंगे क्या?
मुल्ला नसरुद्दीन से मरते वक्त किसी ने पूछा था कि फिर से जन्म मिले तो क्या करोगे? तो उसने कहा, जो पाप मैंने बहुत देर से शुरू किए, वे मैं जल्दी शुरू कर दूंगा, क्योंकि जो पाप मैंने किए, उनके लिए मुझे कोई पछतावा नहीं होता। जो मैं नहीं कर पाया हूं, उनका हमेशा मुझे पछतावा होता।
आप भी खयाल करना, पाप का पछतावा बहुत कम लोगों को होता है। जो आप पाप नहीं कर पाए, उसका पछतावा सदा बना रहता है। और करके पछताना उतना बुरा नहीं है, न कर के पछताना बिलकुल व्यर्थ है।
कभी आपने खयाल किया कि जो-जो आप नहीं कर पाए हैं, जो चोरी नहीं कर पाए, उसके लिए भी पछता रहे हैं। जो झूठ नहीं बोल पाए उसके लिए भी पछताते हैं। जो बेईमानी अगर कर लेते तो अभी कहीं के गवर्नर होते, या कहीं चीफ मिनिस्टर होते, नहीं कर पाए। नाहक जेल गए और आए। जरा सी तरकीब लगा लेते... तो मन पीड़ा झेलता चला जाता है।
अगर आपको नया समय भी मिले, तो आप पुनरुक्ति ही करेंगे; क्योंकि आपको मूल खयाल में नहीं है कि आपने जो किया, वह क्यों किया? वह अहंकार के कारण आपने गलत रास्ता चुना। अगर अहंकार मौजूद है, आप फिर गलत रास्ता चुनेंगे। फिर गलत रास्ता चुनेंगे।
अहंकार प्रवृत्ति है--गलत रास्ता चुनने की। अगर अहंकार खो जाए, तो आप समय का उपयोग कर सकते हैं। इसलिए महावीर ने इस अंतिम सूत्र में बात कही: ‘जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां नहीं सतातीं, जब तक इंद्रियां अशक्त नहीं होतीं, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। बाद में कुछ भी नहीं होगा।’
यहां हिंदू और जैन-विचार में एक बहुत मौलिक भेद है। हिंदू-विचार सदा से मानता रहा है कि ‘संन्यास, धर्म, ध्यान, योग सब बुढ़ापे के लिए हैं।’ अगर महावीर ने इस विचार में कोई बड़ी से बड़ी क्रांति पैदा की तो वह इस सूत्र में है। वह यह कि ‘यह बुढ़ापे के लिए नहीं है।’
बड़े मजे की बात है कि अधर्म जवानी के लिए है, और धर्म बुढ़ापे के लिए; भोग जवानी के लिए, और योग बुढ़ापे के लिए। क्यों? क्या योग के लिए किसी शक्ति की जरूरत नहीं है? जब भोग तक के लिए शक्ति की जरूरत है, तो योग के लिए शक्ति की जरूरत नहीं है? लेकिन उसका कारण है--उसका कारण है, और वह कारण यह है कि हम भलीभांति जानते हैं कि भोग तो बुढ़ापे में किया नहीं जा सकता, योग देखेंगे! हो गया तो ठीक है, न हुआ तो क्या हर्ज है! भोग छोड़ा नहीं जा सकता, योग छोड़ा जा सकता है। तो भोग तो अभी कर लें और योग को स्थगित रखें। जब भोग करने योग्य न रह जाएं, तब योग कर लेंगे।
लेकिन ध्यान रखना, वही शक्ति, जो भोग करती है, वही शक्ति योग करती है। दूसरी कोई शक्ति आपके पास है नहीं। आदमी के पास शक्ति तो एक ही है; उसी से वह भोग करता है, उसी से वह योग करता है। इसलिए महावीर की दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। महावीर कहते हैं कि जिस शक्ति से भोग किया जाता है, उसी से तो योग किया जाता है। वह जो वीर्य, वह जो ऊर्जा संभोग बनती है, वही वीर्य, वही ऊर्जा तो समाधि बनती है। जो मन भोग का चिंतन करता है, वही मन तो ध्यान करता है। जो शक्ति क्रोध में निकलती है, वही शक्ति तो क्षमा में खिलती है। उसमें फर्क नहीं है, शक्ति वही है। शक्ति हमेशा तटस्थ है, न्यूट्रल है। आप क्या करते हैं, इस पर निर्भर करता है।
तो एक आदमी अगर ऐसा कहे कि धन मेरे पास है, इसका उपयोग मैं भोग के लिए करूंगा, और जब धन मेरे पास नहीं होगा तब जो बचेगा, उसका उपयोग दान के लिए करूंगा।
मुल्ला नसरुद्दीन मरा तो उसने अपनी वसीयत लिखी। वसीयत में उसने लिखवाया अपने वकील को कि लिखो, मेरी आधी संपत्ति मेरी पत्नी के लिए, नियमानुसार। मेरी आधी संपत्ति मेरे पांच पुत्रों में बांट दी जाए; और बाद में जो कुछ बचे, गरीबों को दान कर दिया जाए। लेकिन वकील ने पूछा: कुल संपत्ति कितनी है? मुल्ला ने कहा: यह तो कानूनी बात है, संपत्ति तो बिलकुल नहीं है। संपत्ति तो मैं खत्म कर चुका हूं। लेकिन वसीयत रहे, तो मन को थोड़ी शांति रहती है; कि कुछ करके आए, कुछ छोड़ कर आए।
करीब-करीब जीवन-ऊर्जा के साथ हमारा यही व्यवहार है।
महावीर कहते हैं: ‘भोग के जब क्षण हैं, तभी योग के भी क्षण हैं।’ भोग जब पकड़ रहा है, तभी योग भी पकड़ सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं: जब बुढ़ापा सताने लगे, जब व्याधियां बढ़ जाएं, और जब इंद्रियां अशक्त हो जाएं, तब धर्म का आचरण नहीं हो सकता है; तब सिर्फ धर्म की आशा हो सकती है; आचरण नहीं।
आचरण शक्ति मांगता है। इसलिए जिस विचारधारा में, बुढ़ापे को धर्म के आचरण की बात मान लिया गया, उस विचारधारा में बुढ़ापे में सिवाय भगवान से प्रार्थना करने के फिर कोई और उपाय बचता नहीं। इसलिए लोग फिर राम नाम लेते हैं आखिर में। फिर और तो कुछ कर नहीं सकते, कुछ और तो हो नहीं सकता। जो हो सकता था, वह सारी शक्ति गवां दी; जिससे हो सकता था, वह सारा समय खो दिया। जब शक्ति प्रवाह में थी और ऊर्जा जब शिखर पर थी, तब हम कचरा-कूड़ा बीनते रहे। और जब हाथ से सारी शक्ति खो गई, तब हम आकाश के तारे छूने की सोचते हैं। तब सिर्फ हम आंखें बांध कर, बंद करके राम नाम ले सकते हैं।
राम-नाम अधिकतर धोखा है। धोखे का मतलब? राम-नाम में धोखा है, ऐसा नहीं, राम-नाम लेने वाले में धोखा है। धोखा इसलिए है कि अब कुछ नहीं कर सकते, तब तो राम-नाम ही सहारा है। साधु-संन्यासी मुल्क में समझाते रहते हैं कि यह कलयुग है, अब कुछ कर तो सकते नहीं। अब तो बस राम-नाम ही एक सहारा है। लेकिन यह मतलब इसका वही होता है जैसा आमतौर से होता है। किसी बात को आप नहीं जानते तो आप कहते हैं: सिर्फ भगवान ही जानता है। उसका मतलब, कोई नहीं जानता। राम-नाम ही सहारा है, उसका ठीक मतलब कि अब कोई सहारा नहीं है।
महावीर कहते हैं: इसके पहले की शक्तियां खो जाएं, उन्हें रूपांतरित कर लेना। इसके पहले... और बड़े मजे की बात यह है कि जो उन्हें रूपांतरित कर लेता है खोने के पहले, शायद उसे बुढ़ापा कभी नहीं सताता। क्योंकि बुढ़ापा वस्तुतः शारीरिक घटना कम और मानसिक घटना ज्यादा है। महावीर भी शरीर से तो बूढ़े हो जाएंगे, लेकिन मन से उनकी जवानी कभी नहीं खोती।
इसलिए हमने महावीर का कोई चित्र बुढ़ापे का नहीं बनाया, न कोई मूर्ति बुढ़ापे की बनाई। क्योंकि वह बनाना गलत है। महावीर बूढ़े हुए होंगे, और उनके शरीर पर झुर्रियां पड़ी होंगी, क्योंकि शरीर किसी को भी क्षमा नहीं करता।
और शरीर के नियम हैं, वह महावीर की फिकर नहीं करता, किसी की फिकर नहीं करता। उनकी आखें भी कमजोर हो गई होंगी, उनके पैर भी डगमगाने लगे होंगे, शायद उन्हें भी लकड़ी का सहारा लेना पड़ा हो--कुछ पता नहीं। लेकिन हमने कभी उनके बुढ़ापे की कोई मूर्ति नहीं बनाई, क्योंकि वह असत्य है। तथ्य तो हो सकती है, फैक्ट तो हो सकती है, लेकिन वह असत्य होगी।
महावीर के बाबत सच्ची खबर उससे न मिलेगी। वह भीतर से सदा जवान बने रहे, क्योंकि बुढ़ापा वासनाओं में खोई गई शक्तियों का भीतरी परिणाम है। बाहर तो शरीर पर बुढ़ापा आएगा, वह समय की धारा में अपने आप घटित हो जाएगा, लेकिन भीतर जब शरीर की शक्तियां वासना में गवांई जाती हैं, अधर्म में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर जब धुरी टूट जाती है, तब भीतर भी एक बुढ़ापा आता है, एक दीनता।
वासना में बिताए हुए आदमी का जीवन सबसे ज्यादा दुखद बुढ़ापे में हो जाता है। और बहुत कुरूप हो जाता है। क्योंकि धुरी टूट चुकी होती है और हाथ में सिवाय राख के कुछ भी नहीं होता, सिर्फ पापों की थोड़ी सी स्मृतियां होती हैं और वे भी सालती हैं। और समय व्यर्थ गया, उसकी भी पीड़ा कचोटती है।
इसलिए बुढ़ापा हमें सबसे ज्यादा कुरूप मालूम पड़ता है। होना नहीं चाहिए। क्योंकि बुढ़ापा तो शिखर है जीवन का, आखिरी। सर्वाधिक सुंदर होना चाहिए। इसलिए जब कभी कोई बूढ़ा आदमी जिंदगी में गलत रास्तों पर न चल कर सीधे-सरल रास्तों से चला होता है, तो बुढ़ापा बच्चों जैसा निर्दोष, पुनः हो जाता है। और बच्चे इतने निर्दोष नहीं हो सकते। क्योंकि अज्ञानी हैं। बुढ़ापा एक अनुभव से निखरता और गुजरता है। इसलिए बुढ़ापा जितना निर्दोष हो सकता है--और कभी सफेद बालों का सिर पर छा जाना--अगर भीतर जीवन में भी इतनी ही शुभ्रता आती चली गई हो, तो उस सौंदर्य की कोई उपमा नहीं है।
जब तक बूढ़ा आदमी सुंदर न हो, तब तक जानना कि जीवन व्यर्थ गया है। जब तक बुढ़ापा सौंदर्य न बन जाए, लेकिन बुढ़ापा कब सौंदर्य बनता है? जब शरीर तो बूढ़ा हो जाता है, लेकिन भीतर जवानी की ऊर्जा अक्षुण्ण रह जाती है। तब इस बुढ़ापे की झुर्रियों के भीतर से वह जवानी की जो अक्षुण्ण ऊर्जा है, जो वीर्य है, जो शक्ति है, जो बच गई, जो रूपांतरित हो गई, उसकी किरणें इन बुढ़ापे की झुर्रियों से बाहर पड़ने लगती हैं, तब एक अनूठे सौंदर्य का जन्म होता है।
इसलिए हमने महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण किसी का भी बुढ़ापे का कोई चित्र नहीं रखा है। अच्छा किया हमने। हम ऐतिहासिक कौम नहीं हैं। हमें तथ्यों की बहुत चिंता नहीं है, हमें सत्यों की फिकर है जो तथ्यों के भीतर छिपे होते हैं, गहरे में छिपे होते हैं। इसलिए हमने उनको जवान ही चित्रित किया है।
महावीर कहते हैं: जब है शक्ति, तब उसे बदल डालो। पीछे पछताने का कोई भी अर्थ नहीं है।
आज इतना ही।
पांच मिनट रुकें, कीर्तन करें, फिर जाएं...!