MAHAVIR

Mahaveer Vani 19

Nineteenth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।
धम्म-सूत्र: 2

जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं।
धम्मो दीवो पइट्‌ठा य, गई सरणमुत्तमं।।


अरस्तू ने कहा है कि ‘यदि मृत्यु न हो, तो जगत में कोई धर्म भी न हो।’ ठीक ही है उसकी बात, क्योंकि अगर मृत्यु न हो, तो जगत में कोई जीवन भी नहीं हो सकता। मृत्यु केवल मनुष्य के लिए है।
इसे थोड़ा समझ लें।
पशु भी मरते हैं, पौधे भी मरते हैं, लेकिन मृत्यु मानवीय घटना है। पौधे मरते हैं, लेकिन उन्हें अपनी मृत्यु का कोई बोध नहीं है। पशु भी मरते हैं, लेकिन अपनी मृत्यु के संबंध में चिंतन करने में असमर्थ हैं।
तो मृत्यु केवल मनुष्य की ही होती है, क्योंकि मनुष्य जान कर मरता है, जानते हुए मरता है। मृत्यु निश्चित है, ऐसा बोध मनुष्य को है। चाहे मनुष्य कितना ही भुलाने की कोशिश करे, चाहे कितना ही अपने को छिपाए, पलायन करे, चाहे कितने ही आयोजन करे सुरक्षा के, भुलावे के; लेकिन हृदय की गहराई में मनुष्य जानता है कि मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं है।
मृत्यु के संबंध में पहली बात तो यह खयाल में ले लेनी चाहिए कि मनुष्य अकेला प्राणी है जो मरता है। मरते तो पौधे और पशु भी हैं, लेकिन उनके मरने का भी बोध मनुष्य को होता है, उन्हें नहीं होता। उनके लिए मृत्यु एक अचेतन घटना है। और इसलिए पौधे और पशु धर्म को जन्म देने में असमर्थ हैं।
जैसे ही मृत्यु चेतन बनती है, वैसे ही धर्म का जन्म होता है। जैसे ही यह प्रतीति साफ हो जाती है कि मृत्यु निश्चित है, वैसे ही जीवन का सारा अर्थ बदल जाता है; क्योंकि अगर मृत्यु निश्चित है तो फिर जीवन की जिन क्षुद्रताओं में हम जीते हैं उनका सारा अर्थ खो जाता है।
मृत्यु के संबंध में दूसरी बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है कि वह निश्चित है। निश्चित का मतलब यह नहीं कि आपकी तारीख, घड़ी निश्चित है। निश्चित का मतलब यह कि मृत्यु की घटना निश्चित है। होगी ही। लेकिन अगर यह भी बिलकुल साफ हो जाए कि मृत्यु निश्चित है, होगी ही, तो भी आदमी निश्चिंत हो सकता है। जो भी निश्चित हो जाता है, उसके बाबत हम निश्चिंत हो जाते हैं, चिंता मिट जाती है।
मृत्यु के संबंध में तीसरी बात महत्वपूर्ण है, और वह यह है कि मृत्यु निश्चित है, लेकिन एक अर्थ में अनिश्चित भी है। होगी तो, लेकिन कब होगी, इसका कोई भी पता नहीं है। होना निश्चित है, लेकिन कब होगी, इसका कोई भी पता नहीं है। निश्चित है और अनिश्चित भी। होगी भी, लेकिन तय नहीं है, कब होगी। इससे चिंता पैदा होती है। जो बात होने वाली है, और फिर भी पता न चलता हो, कब होगी; अगले क्षण हो सकती है, और वर्षों भी टल सकती है, विज्ञान की चेष्टा जारी रही तो शायद सदियों भी टल सकती है, इससे चिंता पैदा होती है।
कीर्कगार्ड ने कहा है: ‘मनुष्य की चिंता तभी पैदा होती है जब एक अर्थ में कोई बात निश्चित भी होती है और एक दूसरे अर्थ में निश्चित नहीं भी होती। तब उन दोनों के बीच में मनुष्य चिंता में पड़ जाते हैं।’
मृत्यु की चिंता से ही धर्म का जन्म हुआ है। लेकिन मृत्यु की चिंता हमें बहुत सालती नहीं है। हमने उपाय कर रखे हैं--जैसे रेलगाड़ी में दो डिब्बों के बीच में बफर होते हैं, उन बफर की वजह से गाड़ी में कितना ही धक्का लगे, डिब्बे के भीतर लोगों को उतना धक्का नहीं लगता। बफर धक्के को झेल लेता है। कार में स्प्रिंग होते हैं, रास्ते के गड्ढों को स्प्रिंग झेल लेते हैं। अंदर बैठे हुए आदमी को पता नहीं चलता।
आदमी ने अपने मन में भी बफर लगा रखे हैं जिनकी वजह से वह मृत्यु का जो धक्का अनुभव होना चाहिए, उतना अनुभव नहीं हो पाता। मृत्यु के और आदमी के बीच में हमने बफर का इंतजाम कर रखा है। वे बफर बड़े अदभुत हैं, उन्हें समझ लें तो फिर मृत्यु में प्रवेश हो सके, और यह सूत्र मृत्यु के संबंध में है।
मृत्यु से ही धर्म की शुरुआत होती है, इसलिए यह सूत्र धर्म के संबंध में है।
कभी आपने खयाल न किया हो, जब भी हम कहते हैं: मृत्यु निश्चित है तो हमारे मन में लगता है, प्रत्येक को मरना पड़ेगा। लेकिन उस प्रत्येक में आप सम्मिलित नहीं होते--यह बफर है, जब भी हम कहते हैं: हरेक को मरना होगा, तब भी हम बाहर होते हैं, संख्या के भीतर नहीं होते। हम गिनने वाले होते हैं, मरने वाले कोई और होते हैं। हम जानने वाले होते हैं, मरने वाले कोई और होते हैं।
जब भी मैं कहता हूं: मृत्यु निश्चित है, तब भी ऐसा नहीं लगता कि मैं मरूंगा। ऐसा लगता है, हर कोई मरेगा, एनानीमस, उसका कोई नाम नहीं है; वह हर आदमी को मरना पड़ेगा। लेकिन मैं उसमें सम्मिलित नहीं होता हूं। मैं बाहर खड़ा हूं, मैं मरते हुए लोगों की कतार देखता हूं। लोगों को मरते हुए देखता हूं, जन्मते देखता हूं। मैं गिनती करता रहता हूं, मैं बाहर खड़ा रहता हूं, मैं सम्मिलित नहीं होता। जिस दिन मैं सम्मिलित हो जाता हूं, बफर टूट जाता है।
बुद्ध ने मरे हुए आदमी को देखा और बुद्ध ने पूछा: क्या सभी लोग मर जाते हैं? सारथी ने कहा: सभी लोग मर जाते हैं। बुद्ध ने तत्काल पूछा: क्या मैं भी मरूंगा? हम नहीं पूछते।
बुद्ध की जगह हम होते, इतने से हम तृप्त हो जाते कि सब लोग मर जाते हैं। बात खत्म हो गई। लेकिन बुद्ध ने तत्काल पूछा: क्या मैं भी मर जाऊंगा?
जब तक आप कहते हैं: सब लोग मर जाते हैं, जब तक आप बफर के साथ जी रहे हैं। जिस दिन आप पूछते हैं: क्या मैं भी मर जाऊंगा? यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि सब मरेंगे कि नहीं मरेंगे। सब न भी मरते हों और मैं मरता होऊं, तो भी मृत्यु मेरे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है।
क्या मैं भी मर जाऊंगा? लेकिन यह प्रश्र्न भी दार्शनिक की तरह पूछा जा सकता है और धार्मिक की तरह पूछा जा सकता है। जब हम दार्शनिक की तरह पूछते हैं, तब फिर बफर खड़ा हो जाता है। तब हम मृत्यु के संबंध में सोचने लगते हैं, ‘मैं’ के संबंध में नहीं। जब धार्मिक की तरह पूछते हैं, तो मृत्यु महत्वपूर्ण नहीं रह जाती, मैं महत्वपूर्ण हो जाता हूं।
सारथी ने कहा कि किस मुंह से मैं आपसे कहूं कि आप भी मरेंगे। क्योंकि यह कहना अशुभ है। लेकिन झूठ भी नहीं बोल सकता हूं, मरना तो पड़ेगा ही, आपको भी। तो बुद्ध ने कहा: रथ वापस लौटा लो, क्योंकि मैं मर ही गया। जो बात होने ही वाली है वह हो ही गई। अगर यह निश्चित ही है तो तीस, चालीस, पचास साल बाद क्या फर्क पड़ता है! बीच के पचास साल... मृत्यु जब निश्चित ही है तो आज हो गई, वापस लौटा लो।
वे जाते थे एक युवक महोत्सव में भाग लेने, यूथ फेस्टिवल में भाग लेने। रथ बीच से वापस लौटा लिया। उन्होंने कहा: अब मैं बूढ़ा हो ही गया। अब युवक महोत्सव में भाग लेने का कोई अर्थ न रहा। युवक महोत्सव में तो वे ही लोग भाग ले सकते हैं, जिन्हें मृत्यु का कोई पता नहीं है। और फिर मैं मर ही गया। सारथी ने कहा: अभी तो आप जीवित हैं, मृत्यु तो बहुत दूर है। यह बफर है। बुद्ध को बफर टूट गया, सारथी को नहीं टूटा। सारथी कहता है: मृत्यु तो बहुत दूर है।
हम सभी सोचते हैं, मृत्यु होगी, लेकिन सदा बहुत दूर, कभी--ध्यान रहे, आदमी के मन की क्षमता है--जैसे हम एक दीये का प्रकाश लेकर चलें, तो दो, तीन, चार कदम तक प्रकाश पड़ता है ऐसे ही मन की क्षमता है। बहुत दूर रख दें किसी चीज को तो फिर मन की पकड़ के बाहर हो जाता है। मृत्यु को हम सदा बहुत दूर रखते हैं। उसे पास नहीं रखते। मन की क्षमता बहुत कम है। इतने दूर की बात व्यर्थ हो जाती है। एक सीमा है हमारे चिंतन की। दूर जिसे रख देते हैं, वह बफर बन जाता है।
हम सब सोचते हैं, मृत्यु तो होगी; लेकिन बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी यह नहीं सोचता कि मृत्यु आसन्न है। कोई ऐसा नहीं सोचता कि मृत्यु अभी होगी; सभी सोचते हैं, कभी होगी। जो भी कहता है, कभी होगी, उसने बफर निर्मित कर लिया। वह मरने के क्षण तक भी सोचता रहेगा कभी, कभी, और मृत्यु को दूर हटाता रहेगा। अगर बफर तोड़ना हो तो सोचना पड़ेगा, मृत्यु अभी, इसी क्षण हो सकती है।
यह बड़े मजे की बात है कि बच्चा पैदा हुआ और इतना बूढ़ा हो जाता है कि उसी वक्त मर सकता है। हर बच्चा पैदा होते ही काफी बूढ़ा हो जाता है कि उसी वक्त चाहे तो मर सकता है। बूढ़े होने के लिए कोई सत्तर-अस्सी साल रुकने की जरूरत नहीं है। जन्मते ही हम मृत्यु के हकदार हो जाते हैं। जन्म के क्षण के साथ ही हम मृत्यु में प्रविष्ट हो जाते हैं।
जन्म के बाद मृत्यु समस्या है और किसी भी क्षण हो सकती है। जो आदमी सोचता है, कभी होगी, वह अधार्मिक बना रहेगा। जो सोचता है, अभी हो सकती है, इसी क्षण हो सकती है, उसके बफर टूट जाएंगे। क्योंकि अगर मृत्यु अभी हो सकती है तो आपकी जिंदगी का पूरा पर्सपेक्टिव, देखने का परिप्रेक्ष्य बदल जाएगा। किसी को गाली देने जा रहे थे, किसी की हत्या करने जा रहे थे, किसी का नुकसान करने जा रहे थे, किसी से झूठ बोलने जा रहे थे, किसी की चोरी कर रहे थे, किसी की बेईमानी कर रहे थे; मृत्यु अभी हो सकती है तो फिर नये ढंग से सोचना पड़ेगा कि झूठ का कितना मूल्य है अब, बेईमानी का कितना मूल्य है अब। अगर मृत्यु अभी हो सकती है, तो जीवन का पूरा का पूरा ढांचा दूसरा हो जाएगा।
बफर हमने खड़े किए हैं। पहला कि मृत्यु सदा दूसरे की होती है, इट इ़ज आलवेज दि अदर हू डाइ़ज। कभी भी आप नहीं मरते, कोई और मरता है। दूसरा, मृत्यु बहुत दूर है, चिंतनीय नहीं है। लोग कहते हैं: अभी तो जवान हो, अभी धर्म के संबंध में चिंतन की क्या जरूरत है? उनका मतलब आप समझते हैं? वे यह कह रहे हैं: अभी जवान हो, अभी मृत्यु के संबंध में चिंतन की क्या जरूरत है?
धर्म और मृत्यु पर्यायवाची हैं। ऐसा कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता, जो मृत्यु को प्रत्यक्ष अनुभव न कर रहा हो, और ऐसा कोई व्यक्ति, जो मृत्यु को प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हो, धार्मिक होने से नहीं बच सकता।
तो दूर रखते हैं हम मृत्यु को। फिर अगर मृत्यु न दूर रखी जा सके, और कभी-कभी मृत्यु बहुत निकट आ जाती है, जब आपका कोई निकटजन मरता है तो मृत्यु बहुत निकट आ जाती है। करीब-करीब आपको मार ही डालती है। कुछ न कुछ तो आपके भीतर भी मर जाता है। क्योंकि हमारा जीवन बड़ा सामूहिक है। मैं जिससे प्रेम करता हूं, उसकी मृत्यु में मैं भी थोड़ा तो मरूंगा ही। क्योंकि उसके प्रेम ने जितना मुझे जीवन दिया था, वह तो टूट ही जाएगा, उतना हिस्सा तो मेरे भीतर खंडित हो ही जाएगा, उतना तो भवन गिर ही जाएगा।
आपको खयाल में नहीं है। अगर सारी दुनिया मर जाए और आप अकेले रह जाएं तो आप जिंदा नहीं होंगे; क्योंकि सारी दुनिया ने आपके जीवन को जो दान दिया था वह तिरोहित हो जाएगा। आप प्रेत हो जाएंगे जीते-जीते, भूत-प्रेत की स्थिति हो जाएगी।
तो जब मृत्यु बहुत निकट आ जाती है तो ये बफर काम नहीं करते और धक्का भीतर तक पहुंचता है। तब हमने सिद्धांतों के बफर तय किए हैं। तब हम कहते हैं, आत्मा अमर है। ऐसा हमें पता नहीं है। पता हो, तो मृत्यु तिरोहित हो जाती है; लेकिन पता उसी को होता है, जो इस तरह के सिद्धांत बना कर बफर निर्मित नहीं करता। यह जटिलता है। वही जान पाता है कि आत्मा अमर है, जो मृत्यु का साक्षात्कार करता है। और हम बड़े कुशल हैं, हम मृत्यु का साक्षात्कार न हो, इसलिए आत्मा अमर है; ऐसे सिद्धांत को बीच में खड़ा कर लेते हैं।
यह हमारे मन की समझावन है। यह हम अपने मन को कह रहे हैं कि घबड़ाओ मत, शरीर ही मरता है, आत्मा नहीं मरती; तुम तो रहोगे ही, तुम्हारे मरने का कोई कारण नहीं है। महावीर ने कहा है, बुद्ध ने कहा है, कृष्ण ने कहा है--सबने कहा है कि आत्मा अमर है। बुद्ध कहें, महावीर कहें, कृष्ण कहें, सारी दुनिया कहे, जब तक आप मृत्यु का साक्षात्कार नहीं करते हैं, आत्मा अमर नहीं है। तब तक आपको भलीभांति पता है कि आप मरेंगे, लेकिन धक्के को रोकने के लिए बफर खड़ा कर रहे हैं।
शास्त्र, सिद्धांत, सब बफर बन जाते हैं। ये बफर न टूटें तो मौत का साक्षात्कार नहीं होता। और जिसने मृत्यु का साक्षात्कार नहीं किया, वह अभी ठीक अर्थों में मनुष्य नहीं है, वह अभी पशु के तल पर जी रहा है।
महावीर का यह सूत्र कहता है: ‘जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।’
इसके एक-एक शब्द को हम समझें।
‘जरा और मरण के तेज प्रवाह में।’
इस जगत में कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है, परिवर्तित हो रही है--प्रतिपल। और इस प्रतिपल परिवर्तन में क्षीण हो रही है, जरा-जीर्ण हो रही है। आप जो महल बनाए हैं, वह कोई हजार साल बाद खंडहर होगा, ऐसा नहीं है, वह अभी खंडहर होना शुरू हो गया है। नहीं तो हजार साल बाद भी खंडहर हो नहीं पाएगा। वह अभी जीर्ण हो रहा है, अभी जरा को उपलब्ध हो रहा है।
इसे हम ठीक से समझ लें। क्योंकि यह भी हमारी मानसिक तरकीबों का एक हिस्सा है कि हम प्रक्रियाओं को नहीं देखते, केवल छोरों को देखते हैं।
एक बच्चा पैदा हुआ, तो हम एक छोर देखते हैं कि बच्चा पैदा हुआ। एक बूढ़ा मरा, तो हम एक छोर देखते हैं कि एक बूढ़ा मरा। लेकिन मरना और जन्मना एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं; यह हम कभी नहीं देखते। हम छोर देखते हैं, प्रोसेस नहीं, प्रक्रिया नहीं। जब कि वास्तविक चीज प्रक्रिया है। छोर तो प्रक्रिया के अंग मात्र हैं। हमारी आंख केवल छोर को देखती है--शुरू देखती है, अंत देखती है, मध्य नहीं देखती। और मध्य ही महत्वपूर्ण है। मध्य से ही दोनों जुड़े हैं। बच्चा पैदा हुआ, यह एक प्रक्रिया है--पैदा होना। मरना एक प्रक्रिया है, जीना एक प्रक्रिया है। ये तीनों प्रक्रियाएं एक ही धारा के हिस्से हैं।
इसे हम ऐसा समझें कि बच्चा जिस दिन पैदा हुआ, उसी दिन मरना भी शुरू हो गया। उसी दिन जरा ने उसको पकड़ लिया, उसी दिन जीर्ण होना शुरू हो गया, उसी दिन बूढ़ा होना शुरू हो गया। फूल खिला और कुम्हलाना शुरू हो गया। खिलना और कुम्हलाना हमारे लिए दो चीजें हैं, फूल के लिए एक ही प्रक्रिया है।
अगर हम जीवन को देखें, तो वहां चीजें टूटी हुई नहीं हैं, सब जुड़ा हुआ है, सब संयुक्त है। जब आप सुखी हुए, तभी दुख आना शुरू हो गया। जब आप दुखी हुए, तभी सुख आना शुरू हो गया। जब आप बीमार हुए, तभी स्वास्थ्य की शुरुआत; जब आप स्वस्थ हुए, तभी बीमारी की शुरुआत। लेकिन हम तोड़ कर देखते हैं। तोड़ कर देखने में आसानी होती है। क्यों आसानी होती है? क्योंकि तोड़ कर देखने में बड़ी जो आसानी होती है वह यह कि अगर हम स्वास्थ्य और बीमारी को एक ही प्रक्रिया समझें, तो वासना के लिए बड़ी कठिनाई हो जाएगी। अगर हम जन्म और मृत्यु को एक ही बात समझें, तो कामना किसकी करेंगे, चाहेंगे किसे? हम तोड़ लेते हैं दो में। जो सुखद है, उसे अलग कर लेते हैं; जो दुखद है, उसे अलग कर लेते हैं, मन में। जगत में तो अलग नहीं हो सकता। अस्तित्व तो एक है। विचार में अलग कर लेते हैं। फिर हमें आसानी हो जाती है।
जीवन को हम चाहते हैं, मृत्यु को हम नहीं चाहते। सुख को हम चाहते हैं, दुख को हम नहीं चाहते। और यही मनुष्य की बड़ी से बड़ी भूल है। क्योंकि जिसे हम चाहते हैं और जिसे हम नहीं चाहते, वे एक ही चीज के दो हिस्से हैं। इसलिए हम जिसे चाहते हैं उसके कारण ही हम उसको निमंत्रण देते हैं, जिसे हम नहीं चाहते हैं। और जिसे हम नहीं चाहते हैं उसे हटाते हैं मकान के बाहर। और हम उसके साथ उसे भी विदा कर देते हैं, जिसे हम चाहते हैं।
आदमी की वासना टिक पाती है चीजों को खंड-खंड बांट लेने से।
अगर हम जगत की समग्र प्रक्रिया को देखें, तो वासना को खड़े होने का कोई उपाय नहीं है। तब अंधेरा और प्रकाश, दुख और सुख, शांति और अशांति, जीवन और मृत्यु एक ही चीज के हिस्से हो जाते हैं।
महावीर कहते हैं: ‘जरा और मरण के तेज प्रवाह में।’
जरा का अर्थ है: प्रत्येक चीज जीर्ण हो रही है। एक क्षण भी कोई चीज बिना जीर्ण हुए नहीं रह सकती। होने का अर्थ ही जीर्ण होना है। अस्तित्व का अर्थ ही परिवर्तन है। तो बच्चा भी क्षीण हो रहा है, जीर्ण हो रहा है। महल भी जीर्ण हो रहा है। यह पृथ्वी भी जीर्ण हो रही है। यह सौर परिवार भी जीर्ण हो रहा है। यह हमारा जगत भी जीर्ण हो रहा है। और एक दिन प्रलय में लीन हो जाएगा, जो भी है।
महावीर ने बड़ी अदभुत बात कही है--महावीर कहते हैं: जो भी है उसे हम अधूरा देखते हैं। इसलिए कहते हैं: ‘है।’ अगर हम ठीक से देखें तो हम कहेंगे, जो भी है, वह साथ में हो रहा है, साथ में नहीं भी हो रहा है। दोनों चीजें एक साथ चल रही हैं। जैसे जन्म और मौत दो पैर हों और जीवन दोनों पैरों पर चल रहा हो। जो भी है वह हो भी रहा है और साथ ही नहीं भी हो रहा है। जीर्ण भी हो रहा है।
इसलिए महावीर की बात थोड़ी जटिल मालूम पड़ेगी, क्योंकि थिर भाषा में हमें आसानी पड़ती है। यह कहना आसान होता है कि फलां आदमी बच्चा है, फलां आदमी जवान है, फलां आदमी बूढ़ा है। लेकिन यह हमारा विभाजन ऐसे ही है जैसे हम कहें, यह गंगा हिमालय की, यह गंगा मैदानों की, यह गंगा सागर की; लेकिन गंगा एक है। वह जो पहाड़ पर बहती है, वही मैदान में बहती है। वह जो मैदान में बहती है, वही सागर में गिरती है।
बच्चा, जवान, बूढ़ा, एक धारा है; एक गंगा है। बांट कर हमें आसानी होती है। हमारी आसानी के कारण हम असत्य को पकड़ लेते हैं। ध्यान रखें, हमारे अधिक असत्य आसानियों के कारण, कनवीनिएंस के कारण पैदा होते हैं। सुविधापूर्ण हैं, इसलिए असत्य को पकड़ लेते हैं। सत्य असुविधापूर्ण मालूम होता है। सत्य कई बार तो इतना इनकनवीनिएंट, इतना असुविधापूर्ण मालूम होता है कि उसके साथ जीना मुश्किल हो जाए, हमें अपने को बदलना ही पड़े।
अगर आप बच्चे में बूढ़े को देख सकें और जन्म में मृत्यु को देख सकें तो बड़ा असुविधापूर्ण होगा। कब मनाएंगे खुशी और कब मनाएंगे दुख? कब बजाएंगे बैंड-बाजे, और कब करेंगे मातम? बहुत मुश्किल हो जाएगा। बहुत कठिन हो जाएगा। सभी चीजें अगर संयुक्त दिखाई पड़ें तो हमारे जीने की पूरी व्यवस्था हमें बदलनी पड़ेगी। जीने की जैसी हमारी व्यवस्था है, वह बंटी हुई कैटेगरीज में, कोटियों में है।
तो हम जरा को नहीं देखते जन्म में। न देखने का एक कारण यह भी है कि यह तेज है प्रवाह। यह जो प्रक्रिया है, बहुत तेज है। इसको देखने की बड़ी सूक्ष्म आंख चाहिए, उसको महावीर तत्व-दृष्टि कहते हैं। अगर गति बहुत तेज हो तो हमें दिखाई नहीं पड़ती। अगर पंखा बहुत तेज चले तो फिर उसकी पंखुड़ियां दिखाई नहीं पड़तीं। इतना तेज भी चल सकता है पंखा कि हमें यह दिखाई ही न पड़े कि वह चल रहा है। बहुत तेज चले तो हमें मालूम पड़े कि ठहरा हुआ है। जितनी चीजें हमें ठहरी हुई मालूम पड़ती हैं, वैज्ञानिक कहते हैं: उनकी तेज गति के कारण--गति इतनी तेज है कि हम उसे अनुभव नहीं कर पाते। जिस कुर्सी पर आप बैठे हैं, उसका एक-एक अणु बड़ी तेज गति से घूम रहा है; लेकिन वह हमें पता नहीं चलता, क्योंकि गति इतनी तेज है कि हम उसे पकड़ नहीं पाते। हमारी गति को समझने की सीमा है। अणु की गति हम नहीं पकड़ पाते, वह बहुत सूक्ष्म है। जरा की गति और भी सूक्ष्म और तीव्र है।
जरा का अर्थ है: हमारे भीतर वह जो जीवन-धारा है, वह प्रतिपल क्षीण हो रही है। हम जिसे जीवन कहते हैं, वह प्रतिपल बुझ रहा है। हम जिसे जीवन का दीया कहते हैं, उसका तेल प्रतिपल चुक रहा है।
ध्यान की सारी प्रक्रियाएं इस चुकते हुए तेल को देखने की प्रक्रियाएं हैं। यह जरा में प्रवेश है।
अभी जो आदमी मुस्कुरा रहा है, उसे पता भी नहीं कि उसकी मुस्कुराहट जो उसके ओंठों तक आई है--हृदय से ओंठ तक उसने यात्रा की है--जब ओंठ पर मुस्कुराहट आ गई है, उसे पता भी नहीं कि हृदय में शायद दुख और आंसू घने हो गए हों। इतनी तीव्र है गति कि जब आप मुस्कुराते हैं, तब तक शायद मुस्कुराहट का कारण भी जा चुका होता है। इतनी तीव्र है गति कि जब आपको अनुभव होता है कि आप सुख में हैं, तब तक सुख तिरोहित हो चुका होता है। वक्त लगता है आपको अनुभव करने में। और जीवन की जो धारा है--जिसको महावीर कहते हैं: सब चीज जरा को उपलब्ध हो रही है, वह इतनी त्वरित है कि उसके बीच के हमें गैप, अंतराल दिखाई नहीं पड़ते।
एक दीया जल रहा है। कभी आपने खयाल किया कि आपको दीये की लौ में कभी अंतराल दिखाई पड़ते हैं? लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं कि दीये की लौ प्रतिपल धुआं बन रही है। नया तेल नई लौ पैदा कर रहा है। पुरानी लौ मिट रही है, नई लौ पैदा हो रही है। पुरानी लौ विलीन हो रही है, नई लौ जन्म रही है। दोनों के बीच में अंतराल है। खाली जगह है। जरूरी है, नहीं तो पुरानी मिट न सकेगी; नई पैदा न हो सकेगी। जब पुरानी मिटती है और नई पैदा होती है, उन दोनों के बीच जो खाली जगह है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती। वह इतनी तेजी से चल रहा है कि हमें लगता है कि लौ--वही लौ जल रही है।
बुद्ध ने कहा है कि सांझ हम दीया जलाते हैं तो सुबह हम कहते हैं: उसी दीये को हम बुझा रहे हैं, जिसे सांझ जलाया था। उस दीये को हम कभी नहीं बुझा सकते सुबह, जिसे हमने सांझ जलाया था। वह लौ तो लाख दफा बुझ चुकी जिसको हमने सांझ जलाया था। करोड़ दफा बुझ चुकी। जिस लौ को हम सुबह बुझाते हैं, उससे तो हमारी कोई पहचान ही न थी; सांझ तो वह थी ही नहीं।
तो बुद्ध ने कहा है कि हम उसी लौ को नहीं बुझाते। उसी लौ की धारा में आई हुई लौ को बुझाते हैं। संतति को बुझाते हैं। वह लौ अगर पिता थी, तो हजार, करोड़ पीढ़ियां बीत गईं रात भर में। उसकी अब जो संतति है सुबह, इन बारह घंटे के बाद, उसको हम बुझाते हैं।
लेकिन इसे अगर हम फैला कर देखें तो बड़ी हैरानी होगी।
मैंने आपको गाली दी। जब तक आप मुझे गाली लौटाते हैं, यह गाली उसी आदमी को नहीं लौटती, जिसने आपको गाली दी थी। लौ को तो समझना आसान है कि सांझ जलाई थी और सुबह... लेकिन यह जो जरा की धारा है, इसको समझना मुश्किल है। आप उसी को गाली वापस नहीं लौटा सकते, जिसने आपको गाली दी थी। वहां भी जीवन क्षीण हो रहा है, वहां भी लौ बदलती जा रही है। जिसने आपको गाली दी थी, वह आदमी अब नहीं है, उसकी संतति है। उसी धारा में एक नई लौ है। हम कुछ भी लौटा नहीं सकते। लौटाने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जिसको लौटाना है, वह वही नहीं है, बदल गया।
हेराक्लाइटस ने कहा है: ‘एक ही नदी में दुबारा उतरना असंभव है।’ निश्चित ही असंभव है। क्योंकि दुबारा जब आप उतरते हैं, वह पानी बह गया जिसमें आप पहली बार उतरे थे। हो सकता है, अब सागर में हो वह पानी। हो सकता है, अब बादलों में पहुंच गया हो। हो सकता है, फिर गंगोत्री पर गिर रहा हो। लेकिन अब उस पानी से मुलाकात आसान नहीं है दुबारा। और अगर हो भी जाए तो आपके भीतर की भी जीवन-धारा बदल रही है। अगर वह पानी दुबारा भी मिल जाए, तो जो उतरा था नदी में, वह दुबारा आदमी नहीं मिलेगा।
दोनों नदी हैं। नदी भी एक नदी है। आप भी एक नदी हैं, आप भी एक प्रवाह हैं--सारा जीवन एक प्रवाह है। इसको महावीर कहते हैं: जरा--इसका एक छोर जन्म है, और दूसरा छोर मृत्यु है। जन्म में ज्योति पैदा होती है, मृत्यु में उसकी संतति समाप्त होती है। इस बीच के हिस्से को हम जीवन कहते हैं, जो कि क्षण-क्षण बदल रहा है। यह प्रवाह तेज है। यह प्रवाह इतना तेज है कि इसमें पैर रोक कर खड़ा होना भी मुश्किल है। हालांकि हम सब खड़े होने की कोशिश करते हैं। जब हम एक बड़ा मकान बनाते हैं, तो हम इस खयाल से नहीं बनाते कि कोई और इसमें रहेगा। या
कभी कोई ऐसा आदमी है, जो मकान बनाता है, कोई और इसमें रहेगा? नहीं, आप अपने लिए मकान बनाते हैं। लेकिन सदा आपके बनाए मकानों में कोई और रहता है। आप अपने लिए धन इकट्ठा करते हैं, लेकिन सदा आपका धन किन्हीं और हाथों में पड़ता है। जीवन भर जो आप चेष्टा करते हैं, उस चेष्टा में कहीं भी पैर थमाने का कोई उपाय नहीं है। कोई और, कोई और जहां हम खड़े होने की चेष्टा कर रहे थे, खड़ा होता है! वह भी खड़ा नहीं रह पाता!
यह बड़े मजे की बात है कि हम सब दूसरों के लिए जीते हैं।
एक मित्र को मैं जानता हूं। बूढ़े आदमी हैं अब तो। पंद्रह वर्ष पहले जब वे मुझे मिले थे, तो उनका लड़का एम.ए. करके युनिवर्सिटी के बाहर आया था। तो उन्होंने मुझे कहा कि अब मेरी और तो कोई महत्वाकांक्षा नहीं है; मेरे लड़के को ठीक से नौकरी मिल जाए, इसकी शादी हो जाए, यह व्यवस्थित हो जाए। उनका लड़का व्यवस्थित हो गया, नौकरी मिल गई। उनके लड़के को अब तीन बच्चे हैं।
अभी कुछ दिन पहले उनका लड़का मेरे पास आया और उसने कहा: मेरी तो कोई ऐसी बड़ी आकांक्षा नहीं है; बस ये मेरे बच्चे ठीक से पढ़-लिख जाएं, इनकी ठीक से नौकरी लग जाए, ये व्यवस्थित हो जाएं।
इसको मैं कहता हूं: उधार जीना। बाप इनके लिए जीए, ये अपने बेटों के लिए जी रहे हैं, इनके बेटे भी अपने बेटों के लिए जीएंगे।
जीना कभी हो ही नहीं पाता। जीना कभी हो ही नहीं पाता, लेकिन तब सारी स्थिति बड़ी असंगत, बेतुकी मालूम पड़ती है। अगर मैं इन सज्जन से कहूं तो उनको दुख लगेगा। मैंने सुन लिया और उनसे कुछ कहा नहीं। अगर मैं इनसे कहूं कि बड़ी अजीब बात है, तुम्हारे बेटे भी यही करेंगे कि अपने बेटों के जीने के लिए।
मगर इस सारे उपद्रव का अर्थ क्या है? कोई आदमी जी नहीं पाता, और सब आदमी उनके लिए चेष्टा करते हैं जो जीएंगे, और वे भी किन्हीं और के जीने के लिए चेष्टा करेंगे। इस सारे... इस सारी कथा का अर्थ क्या है?
कोई अर्थ नहीं मालूम पड़ता। अर्थ मालूम पड़ेगा भी नहीं, क्योंकि जिस प्रवाह में हम खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं, न हम खड़े हो सकते हैं, न हमारे बेटे खड़े हो सकते हैं, न उनके बेटे खड़े हो सकते हैं; न हमारे बाप खड़े हुए, न उनके बाप कभी खड़े हुए। जिस प्रवाह में हम खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें कोई खड़ा हो ही नहीं सकता। इसलिए एक ही उपाय है कि हम सिर्फ आशा कर सकते हैं कि हमारे बेटे खड़े हो जाएंगे, जहां हम खड़े नहीं हुए। इतना तो साफ हो जाता है कि हम खड़े नहीं हो पा रहे हैं, फिर भी आशा नहीं छूटती। चलो, हमारे खून का हिस्सा, हमारे शरीर का टुकड़ा कोई खड़ा हो जाएगा। लेकिन जब आप खड़े नहीं हो पाए, तो ध्यान रखें, कोई भी खड़ा नहीं हो पाएगा। असल में जहां आप खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं, वह जगह खड़े होने की है ही नहीं।
महावीर कहते हैं: ‘जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र शरण है।’
इस प्रवाह में जो शरण खोजेगा, उसे शरण कभी भी नहीं मिलेगी। इस प्रवाह में कोई शरण है ही नहीं। यह सिर्फ प्रवाह है।
तो महावीर के दो हिस्से ठीक से समझ लें।
एक, जिसे हम जीवन कहते हैं, उसे महावीर जरा और मरण का प्रवाह कहते हैं। उसमें अगर खड़े होने की कोशिश की तो आप खड़े होने की कोशिश में ही मिट जाएंगे। खड़े नहीं हो पाएंगे। उसमें खड़े होने का उपाय ही नहीं है। और ऐसा मत सोचना, जैसा कि कुछ नासमझ सोचते चले जाते हैं--जैसा कि नेपोलियन कहता है कि मेरे शब्दकोश में असंभव जैसा कोई शब्द नहीं है। यह बचकानी बात है। यह बहुत बुद्धिमान आदमी नहीं कह सकता। और नेपोलियन बहुत बुद्धिमान हो भी नहीं सकता। क्योंकि वह कहता है कि मेरे शब्दकोश में असंभव जैसी कोई बात नहीं है। लेकिन इस कहने के दो साल बाद ही वह जेलखाने में पड़ा हुआ है--हेलेना के।
सोचता था, सारे जगत को हिला दूं। सोचता था, पहाड़ों को कह दूं कि हट जाओ, तो उन्हें हटना पड़े। लेकिन हेलेना के द्वीप में एक दिन सुबह घूमने निकला है और एक घासवाली औरत पगडंडी से चली आ रही है। नेपोलियन के सहयोगी ने चिल्ला कर कहा कि ओ घसियारिन, रास्ता छोड़ दे। लेकिन घसियारिन ने रास्ता नहीं छोड़ा। क्योंकि हारे हुए नेपोलियन के लिए कौन घसियारिन रास्ता छोड़ने को तैयार हो सकती है? और मजा यह कि अंत में नेपोलियन को ही रास्ता छोड़ कर नीचे उतर जाना पड़ा और घसियारिन रास्ते से गुजर गई।
यह वही नेपोलियन है जिसने कुछ ही दिन पहले कहा था कि मेरे शब्दकोश में असंभव जैसा कोई शब्द नहीं है। अगर मैं आल्प्स पर्वत से कहूं कि हट, तो उसे हटना पड़े। वह एक घसियारिन को भी नहीं कह सकता कि हट।
महावीर कहते हैं कि कुछ असंभव है। बुद्धिमान आदमी वह नहीं है, जो कहता है कि कुछ भी असंभव नहीं है। न ही वह आदमी बुद्धिमान है जो कहता है: सभी कुछ असंभव है। बुद्धिमान आदमी वह है, जो ठीक से परख कर लेता है कि क्या असंभव है और क्या संभव है। बुद्धिमान आदमी वह है, जो जानता है, क्या असंभव है और क्या संभव है।
एक बात निश्चित रूप से असंभव है कि जरा और मरण के तेज प्रवाह में कोई शरण नहीं है। यह असंभव है। इसमें पैर जमा कर खड़े हो जाने का कोई भी उपाय नहीं है। इस असंभव के लिए जो चेष्टा करते हैं, वे मूढ़ हैं।
असंभव का मतलब यह नहीं होता कि थोड़ी कोशिश करेंगे तो हो जाएगा। असंभव का यह मतलब नहीं होता कि संकल्प की कमी है, इसलिए नहीं हो रहा है। असंभव का मतलब यह नहीं होता कि ताकत कम है, इसलिए नहीं हो रहा है। असंभव का मतलब होता है--स्वभावतः जो हो नहीं सकता, स्वभावतः जो नहीं हो सकता, प्रकृति के नियम में जो नहीं हो सकता।
महावीर यह नहीं कहते कि आकाश में उड़ना असंभव है। जो कहते हैं, वे गलत साबित हो गए। और महावीर जैसे आदमी कभी नहीं कहेंगे कि आकाश में उड़ना असंभव है। जब पशु-पक्षी उड़ लेते हैं, तो आदमी उड़ ले; इसमें कोई बहुत असंभावना नहीं है। जब पशु-पक्षी उड़ लेते हैं, तो आदमी भी कोई इंतजाम कर लेगा और उड़ लेगा। चांद पर पहुंच जाना, महावीर नहीं कहेंगे, असंभव है। क्योंकि चांद और जमीन के बीच फासला कितना ही हो, आखिर फासला ही है। फासले पूरे किए जा सकते हैं।
इस संबंध में ईसाइयत कमजोर है; ईसाइयत ने ऐसी बातें असंभव कहीं, जिनको विज्ञान ने संभव करके बता दिया और उसके कारण पश्र्चिम में धर्म की प्रतिष्ठा गिर गई। धर्म की प्रतिष्ठा गिरने का कारण यह बना कि ईसाइयत ने ऐसे दावे किए थे कि यह हो ही नहीं सकता, वह हो गया। जब हो गया तो फिर ईसाइयत मुश्किल में पड़ गई। लेकिन इस मामले में भारतीय धर्म अति वैज्ञानिक हैं।
महावीर ने ऐसा कोई दावा नहीं किया है, जो विज्ञान किसी दिन गलत कर सके। जैसे यह दावा, महावीर कहते हैं: ‘जरा-मरण के तीव्र प्रवाह में कोई शरण नहीं है।’ इसे कभी भी, कोई स्थिति में गलत नहीं किया जा सकता। क्योंकि यह गहरे से गहरा जीवन के नियम का हिस्सा है।
शरण मिल सकती है उसमें, जो स्वयं परिवर्तित न होता हो; जो स्वयं ही परिवर्तित हो रहा है, उसमें शरण कैसी!
शरण का मतलब होता है: आप मेरे पास आए, और आपने कहा कि मुझे शरण दें, दुश्मन मेरे पीछे लगे हैं, मुझे बचाएं। मैं आपको कहता हूं कि ठीक है, मैं आश्र्वासन देता हूं कि आपको बचाऊंगा। लेकिन मेरे आश्र्वासन का मतलब तभी हो सकता है, जब मैं कल भी मैं ही रहूं। कल जब मैं ही नहीं रहूंगा, तो दिए गए आश्र्वासन का कितना मूल्य है? मैं खुद ही बदल रहा हूं, तो मेरे आश्र्वासन का क्या अर्थ है?
कीर्कगार्ड ने कहा है कि मैं कोई आश्र्वासन नहीं दे सकता--आइ कैन नॉट प्रॉमिस एनीथिंग। इसलिए नहीं दे सकता, कि मैं किस भरोसे आश्र्वासन दूं, कल सुबह मैं ही मैं रह जाऊंगा, इसका कोई पक्का नहीं है। तो जिसने आश्र्वासन दिया था, वह ही जब नहीं रहेगा, तो आश्र्वासन का क्या अर्थ है? जो खुद बदल रहा है, वह क्या आश्र्वासन दे सकता है? जहां परिवर्तन ही परिवर्तन है, वहां शरण कैसी?
करीब-करीब ऐसा है कि दोपहर है और घनी धूप है, और आप एक वृक्ष की छाया में बैठ गए हैं। लेकिन आपको पता है कि वृक्ष की छाया बदल रही है। थोड़ी देर में यह हट जाएगी। यह वृक्ष की छाया शरण नहीं बन सकती, क्योंकि यह छाया है और बदल रही है, यह परिवर्तित हो रही है।
इस जगत में जहां-जहां हम शरण खोजते हैं, वे सभी कुछ परिवर्तित हो रहे हैं। जिसे हम पकड़ते हैं, वह खुद ही बहा जा रहा है। बहाव को हम पकड़ने की कोशिश करते हैं और उस आश्र्वासन में जीते हैं, जो खुद बदल रहा है। उसके साथ कैसी शरण संभव हो सकती है?
इसलिए महावीर कहते हैं: ‘जरा और मरण के तीव्र प्रवाह में कोई भी शरण नहीं है।’
चाहे धन, चाहे यश, चाहे पद, चाहे प्रतिष्ठा, चाहे मित्र, पति-पत्नी, संबंध, पुत्र--सब बहे जा रहे हैं। इस बहाव में, जहां हजार-हजार बहाव हो रहे हैं, जो आदमी सोचता है कि मैं पकड़ कर रुक जाऊं, ठहर जाऊं, पैर जमा लूं, वह आदमी दुख में पड़ेगा। यही दुख हमारे जीवन का नरक है।
किसी के प्रेम को हम सोचते हैं--शरण। सोचते हैं, मिल गई छाया। अब किसी का प्रेम हमें बरगद की छाया की तरह घेरे रहेगा। लेकिन सब चीजें बदल रही हैं। कल छाया बदल जाएगी, सुबह छाया कहीं होगी, दोपहर कहीं होगी, सांझ कहीं होगी। फिर छाया ही नहीं बदल जाएगी, आज घना था वृक्ष, कल पतझड़ आएगा, पत्ते ही गिर जाएंगे। कोई छाया न बनेगी। आज वृक्ष जवान था, कल बूढ़ा हो जाएगा। आज वृक्ष फैला था, छाते की तरह आकाश में, कल सूखेगा। और यह सूखना, सिकुड़ना, यह प्रतिपल चल रहा है। तो जो वृक्ष के नीचे बैठा है यह आशा बांध कर कि ‘मुझे छाया मिल गई, अब मैं एक जगह रह जाऊं।’ उसे आंख नहीं खोलनी चाहिए--पहली शर्त। अगर वह आंख खोलेगा तो कठिनाई में पड़ेगा। उसे अंधा होना चाहिए। और फिर चाहे कितनी ही धूप पड़े, उसे सदा यही व्याख्या करनी चाहिए कि यह छाया है। फिर चाहे कितना ही उलटा हो जाए, वृक्ष में पतझड़ आ जाए, उसे माने ही चलना चाहिए कि फूल खिले हैं, और बसंत की बहार है।
हम सब यही कर रहे हैं। आज जो प्रेम है, कल नहीं होगा। तब हम आंख बंद करके माने चले जाएंगे कि यह प्रेम है। आज जो मित्रता है, कल नहीं होगी, तब भी हम माने चले जाएंगे कि यह मित्रता है। आज जो सुगंध थी, कल दुर्गंध हो जाएगी, तब भी हम माने चले जाएंगे।
आंख बंद करके हमें जीना पड़ता है; क्योंकि जहां हम शरण ले रहे हैं, वहां शरण लेने योग्य कुछ भी नहीं है। और तब आंखें खोलने में डर लगने लगता है। तब हम अपने से ही भयभीत हो जाते हैं। हम किसी चीज को फिर बहुत साफ नहीं देख पाते। क्योंकि डर है कि जो हम मान रहे हैं, कहीं ऐसा न हो कि वहां हो ही नहीं। तो फिर हम आंख बंद करके जीने लगते हैं।
हम सब अंधों की तरह जीते हैं, बहरों की तरह जीते हैं। फिर जो है, उसको हम नहीं देखते। जो था, हम माने चले जाते हैं, वही है और हम उसको मान कर ही व्यवहार किए चले जाते हैं।
यह जो हमारी चित्त-दशा है, विक्षिप्त जैसी है। लेकिन कारण क्या है? कारण यह नहीं है कि मैंने जिसे प्रेम किया वह आदमी ईमानदार न था; नहीं, यह कारण नहीं है। मैंने जिसे प्रेम किया, वह एक प्रवाह था। ईमानदार और बेईमान का कोई भी सवाल नहीं है। इसका यह मतलब नहीं कि मैंने जिस पर मैत्री का भरोसा किया, वह भरोसे योग्य न था। नहीं, वह एक प्रवाह था। मैंने प्रवाह पर भरोसा किया।
चलती हुई, बहती हुई हवाओं पर जो भरोसा करता है, वह कठिनाई में पड़ेगा ही। यह कठिनाई किसी की बेईमानी से पैदा नहीं होती, न किसी के धोखे से पैदा होती है। मेरा तो अनुभव ऐसा है कि इस सारे जगत में निन्यानबे प्रतिशत कठिनाइयां कोई जान कर पैदा नहीं करता, प्रवाह से पैदा होती हैं। आदमी बदल जाते हैं और रोक नहीं सकते अपने को बदलने से।
अब कोई बच्चा कब तक बच्चा रहेगा, जवान होगा ही। निश्चित ही बचपन में उस बच्चे ने मां को जो आश्र्वासन दिए, वे जवान होकर नहीं दे सकता। बच्चे के जवान होने में ही यह बात छिपी है कि मां की तरह पीठ हो जाएगी, जिसकी तरफ मुंह था। यह हो ही जाएगा। यह बच्चा मां की तरफ ऐसे देखता था जैसे उससे सुंदर इस जगत में कोई भी नहीं, लेकिन एक दिन मां की तरफ पीठ हो जाएगी। कोई और सौंदर्य दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा, और तब मां को लगेगा कि धोखा हो गया। सभी मांओं को लगता है कि धोखा हो गया। अपना ही लड़का--लेकिन उनको पता नहीं कि उनको जिस पति ने प्रेम किया था, वह भी किसी का लड़का था। वहां भी धोखा हो गया था। अगर वह भी अपनी मां को ही प्रेम करता चला जाता तो उसका पति होने वाला नहीं था।
लड़का जवान होगा, तो मां से जो प्रेम था, वह बदलेगा। छाया हट जाएगी, किसी और पर पड़ेगी, किसी और को घेर लेगी। तब धोखा नहीं हो रहा, सिर्फ हम प्रवाह को प्रेम कर रहे थे, यह जाने बिना कि वह प्रवाह है। हम मानते थे कि कोई थिर चीज है, इसलिए अड़चन हो रही है, इसलिए कठिनाई हो रही है।
आज दस लोग आपको आदर देते हैं तो आप बड़े आश्र्वस्त हैं। कल ये दस लोग आपको आदर नहीं देंगे, आप बड़े निराश और दुखी हो जाएंगे। ऐसा नहीं कि ये दस लोग बुरे थे। ये दस लोग प्रवाह थे। प्रवाह बदल जाएंगे। हम आदर देते भी... एक ही आदमी को सदा आदर नहीं दे सकते हैं। हम प्रवाह हैं। हम आदर देते-देते भी ऊब जाते हैं। आदर के लिए भी हमें नया आदमी खोजना पड़ता है।
हम प्रेम भी एक ही आदमी को नहीं दे सकते, हम प्रवाह हैं। हम प्रेम देते-देते भी ऊब जाते हैं। हमें प्रेम के लिए भी नये लोग खोजने पड़ते हैं। हम एक सतत बदलाहट हैं और हम ही बदलाहट हैं, ऐसा नहीं। हमारे चारों तरफ जो भी है, सब बदलाहट है। अगर हम इस जगत को इसकी बदलाहट में देख सकें, तो हमारे दुखी होने का कोई भी कारण नहीं है। वृक्ष की छाया बदल जाएगी, वृक्ष भी क्या कर सकता है, सूरज बदल रहा है। और सूरज को क्या मतलब है इस वृक्ष की छाया से, और वृक्ष क्या कर सकता है? वर्षा नहीं आएगी, और वर्षा को क्या मतलब है इस वृक्ष से? और वृक्ष क्या कर सकता है कि भारी ताप हुई, सूर्य की आग बरसी, पत्ते सूख गए और गिर गए। क्या मतलब है धूप को इस वृक्ष से? और जो छाया में नीचे बैठा है, इस वृक्ष को क्या प्रयोजन है उस आदमी से कि वह छाया में नीचे बैठा है।
यह सारा का सारा जगत अनंत प्रवाह है। उस प्रवाह में जो भी पकड़ कर शरण खोजता है वह दुख में पड़ जाता है। लेकिन तब क्या कोई शरण है ही नहीं?
एक संभावना यह है कि शरण है ही नहीं, जैसा कि शॉपनहार ने, जर्मन विचारक ने कहा: कोई शरण नहीं है। दुख अनिवार्य है, यह एक दशा है। अगर आदमी ठीक से सोचेगा तो एक विकल्प यह उठता है कि दुख अनिवार्य है, दुख होगा ही। यह बड़ा निराशाजनक है। लेकिन शॉपनहार कहता है: सत्य यही है, हम कर भी क्या सकते हैं। फ्रायड ने पूरे जीवन चिंतन करने के बाद यही कहा कि आदमी सुखी हो नहीं सकता।
क्यों? क्योंकि जहां भी पकड़ता है, वहीं चीजें बदल जाती हैं। और ऐसी कोई चीज नहीं है जो न बदले और आदमी पकड़ ले। शॉपनहार कहता है कि सब दुख है। सुख सिर्फ आशा है, दुख वास्तविकता है। सुख का एक ही उपयोग है--सुख है तो नहीं, सिर्फ उसकी आशा का एक उपयोग है कि आदमी दुख को झेल लेता है। दुख को झेलने में राहत मिलती है, सुख की आशा से। लगता है, आज नहीं कल मिलेगा, आज नहीं कल मिलेगा; तो आज का दुख झेलने में आसानी हो जाती है! लेकिन सुख है नहीं। क्योंकि सभी कुछ प्रवाह है, सभी कुछ बदला जा रहा है। आपकी आशाएं कभी पूरी नहीं होंगी क्योंकि आपकी आशाएं ऐसे जगत में पूरी हो सकती हैं, जहां चीजें बदलती न हों।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
आप जो भी आशाएं करते हैं, वे एक ऐसे जगत की करते हैं, जहां सब चीजें ठहरी हुई हैं। मैं जिसे प्रेम करता हूं तो प्रेम की क्या आशा है, आप जानते हैं? प्रेम की आशा है--अनंत हो, शाश्र्वत हो, सदा रहे, फिर कभी कुम्हलाए न, कभी मुर्झाए न, कभी बदले न। यह आशा एक ऐसे जगत की है, जहां प्रवाह न हो, चीजें सब थिर, थिर हों--अगर ठीक से समझें, तो एक बिलकुल मरे हुए जगत की। क्योंकि जहां जरा सी भी बदलाहट होगी, वहां सब अस्त-व्यस्त हो जाएगा। तो हम एक ऐसा जगत चाहते हैं, बिलकुल मरा हुआ जगत, जहां सब चीजें ठहरी हैं। सूरज अपनी जगह, छाया अपनी जगह, प्रेम अपनी जगह--सब ठहरा हुआ है। आदर, श्रद्धा अपनी जगह, बेटा अपनी जगह, पति अपनी जगह--सब ठहरा हुआ है। तो हम एक मौम का जगत बना लें, बिलकुल मृत, जहां कोई चीज कभी नहीं बदलती। लेकिन तब भी हम सुखी न होंगे। क्योंकि तब लगेगा, सब मर गया।
फ्रायड कहता है: आदमी की आकांक्षाएं असंभव हैं। वह कभी सुखी नहीं हो सकता। अगर जगत बदलता रहे तो वह दुखी होता है कि जो चाहा था वह नहीं हुआ। अगर जगत बिलकुल थिर हो जाए, जो वह चाहे वही हो जाए, तो भी वह दुखी हो जाएगा। क्योंकि तब उसमें कोई रस न रहेगा।
अगर गुलाब का फूल खिले और खिला ही रहे, कभी न मुर्झाए, तो प्लास्टिक के फूल में और गुलाब के फूल में फर्क क्या होगा? और आप भगवान से प्रार्थना करने लगोगे कि कभी तो यह मुर्झाए। कभी तो ऐसा हो कि यह गिरे और बिखर जाए। अब यह छाती पर भारी पड़ने लगा।
कहते हैं आप, शाश्र्वत प्रेम! आपको पता नहीं। शाश्र्वत प्रेम मिल जाए, तो एक ही प्रार्थना उठेगी, इससे छुटकारा कैसे हो?
हम सब चाहते हैं, ठहरा हुआ जगत। लेकिन चाह सकते हैं क्योकि वह मिलता नहीं। मिल जाए तो कठिनाई खड़ी हो जाए। फ्रायड कहता है: आदमी एक असंभव आकांक्षा है।
ज्यां पाल सार्त्र ने इस बात को अभी एक नया रुख दिया, और वह कहता है: मैन इ़ज एन एब्सर्ड पैशन। वासना ही मूढ़तापूर्ण है। आदमी एक वासना है, जो मूढ़तापूर्ण है। कुछ भी हो जाए, आदमी दुखी होगा। दुख अनिवार्य है।
महावीर के इस विश्लेषण से एक तो रास्ता यह है, जो शॉपनहार या फ्रॉयड या सार्त्र कहते हैं। लेकिन महावीर निराशावादी नहीं हैं। महावीर कहते हैं कि जगत एक प्रवाह है; लेकिन इस जगत में छिपा हुआ एक ऐसा तत्व भी है, जो प्रवाह नहीं है--उसे महावीर धर्म कहते हैं।
‘जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और शरण है।’
यह जो हम देख रहे हैं चारों तरफ बहता हुआ, यही अगर सब-कुछ है, तो निराशा के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। और अगर निराशा के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है, तो सिर्फ मूढ़ ही जी सकते हैं, बुद्धिमान आत्मघात कर लेंगे। कुछ बुद्धिमान तो आत्मघात करते हैं और कहते हैं कि सिर्फ मूढ़ ही जी सकते हैं। थोड़ी दूर तक यह बात सच भी मालूम पड़ती है कि मूढ़ ही जी सकते हैं। जीने के लिए घनी मूढ़ता चाहिए।
अब यह जो बाप कह रहा है कि बेटे को काम पर लगा देने के लिए जी रहा है। यह बेटा अपने बेटे को काम पर लगा देने के लिए जी रहा है। बड़ी घनी मूढ़ता चाहिए, इस सबको चलाए रखने के लिए; अंधापन चाहिए, दिखाई ही न पड़े कि हम क्या कर रहे हैं। अगर यह दिखाई पड़ जाए कि सभी कुछ निराशा है, और कहीं कोई शरण नहीं है, किसी चीज का कोई भरोसा नहीं, कहीं पैर टिक नहीं सकते, धारा प्रतिपल बही जा रही है। और भविष्य अनजान है, और हर घड़ी जीवन की मौत बनती जाती है। हर सुख दुख में बदल जाता और हर जन्म अंततः मृत्यु को लाता है। अगर यह साफ दिखाई पड़ जाए, तो आप तत्काल वहीं के वहीं बैठ जाएंगे। यह तो बहुत घबराने वाला होगा, यह बेचैन करेगा, यह संताप से भर देगा।
और पश्र्चिम में, इधर संताप बढ़ा है। पश्र्चिम में एक विचार-दर्शन है, एक्झिस्टेंशियलिज्म, अस्तित्ववाद। वह महावीर के पहले हिस्से से राजी है। लेकिन महावीर अदभुत आदमी मालूम पड़ते हैं। जीवन में सब दुख देख कर भी महावीर आनंदित हैं। यह बड़ी असंभव घटना मालूम पड़ती है, क्योंकि महावीर और बुद्ध ने जीवन के दुख की जितनी गहरी चर्चा की है, इस जगत में कभी किसी ने नहीं की। फिर भी महावीर से ज्यादा प्रफुल्लित, आनंदित और नाचता हुआ व्यक्तित्व खोजना मुश्किल है। महावीर से ज्यादा खिला हुआ आदमी खोजना मुश्किल है, शायद जमीन ने फिर ऐसा आदमी दुबारा नहीं देखा।
कहानियां हैं महावीर के बाबत, वे बड़ी प्रीतिकर हैं। वे प्रीतिकर हैं कि महावीर अगर रास्ते पर चलें, तो कांटा भी अगर सीधा पड़ा हो तो तत्काल उलटा हो जाता है। कहीं महावीर को गड़ न जाए!
कोई कांटा उलटा नहीं हुआ होगा। आदमी इतनी चिंता नहीं करते तो कांटे इतनी क्या चिंता करेंगे? आदमी महावीर को पत्थर मार जाते हैं, कान में खीलें ठोंक जाते हैं तो कांटे--अगर कांटे ऐसी चिंता करते हैं तो आदमी से आगे निकल गए। लेकिन जिन्होंने कहा है, किन्हीं कारण से कहा है। वैज्ञानिक तथ्य नहीं है, लेकिन बड़ा गहरा सत्य है और जरूरी नहीं है सत्य के लिए कि वह वैज्ञानिक तथ्य हो ही। सत्य बड़ी और बात है। इस बात में सत्य है--इस बात में इतना सत्य है कि कोई उपाय ही नहीं है महावीर को कांटे के गड़ने का। कैसा ही कांटा हो, महावीर के लिए उलटा ही होगा। और हमारे लिए कांटा कैसा ही हो, सीधा ही होगा, न भी हो, तो भी होगा। हम मखमल की गद्दी पर चलें, तो भी कांटे गड़ने वाले हैं। महावीर कांटों पर भी चलें तो कांटे नहीं गड़ते हैं, यही मतलब है। कांटों की तरफ से नहीं है यह बात। यह बात महावीर की तरफ से है। महावीर के लिए कोई उपाय नहीं है कि कांटा गड़ सके।
जो आदमी दुख की इतनी बात करता है कि सारा जीवन दुख है, उस आदमी को कांटा नहीं गड़ता दुख का! जरूर इसने किसी और जीवन को भी जान लिया। इसका अर्थ हुआ कि यही जीवन सब-कुछ नहीं है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह जीवन की परिपूर्णता नहीं है, केवल परिधि है। जिसे हम जीवन जानते हैं, वह केवल सतह है, उसकी गहराई नहीं। और इस सतह से छूटने का तब तक कोई उपाय नहीं है, जब तक सतह के साथ हमारी आशा बंधी है। इसलिए महावीर इस सतह के सारे दुख को उघाड़ कर रख देते हैं; इस सारे दुख को उघाड़ कर रख देते हैं। इसका सारा हड्डी-मांस-मज्जा खोल कर रख देते हैं कि यह दुख है।
यह इसलिए नहीं कि आदमी दुखी हो जाए। यह इसलिए नहीं कि आदमी आत्मघात कर ले। यह इसलिए कि आदमी रूपांतरित हो जाए, उस नये जीवन में प्रविष्ट हो जाए जहां दुख नहीं है। यह एक नई यात्रा का निमंत्रण है।
इसलिए महावीर निराशावादी नहीं हैं, दुखवादी नहीं हैं, पैसिमिस्ट नहीं हैं। महावीर आनंदवादी हैं। फिर दुख की इतनी बात करते हैं! पश्र्चिम में तो बहुत गलतफहमी पैदा हुई है।
अलबर्ट श्वीत्जर ने भारत के ऊपर बड़ी से बड़ी आलोचना की है, और बहुत समझदार व्यक्तियों में श्वीत्जर एक है। उसने कहा कि भारत जो है वह दुखवादी है। इनका सारा चिंतन, इनका सारा धर्म दुख से भरा है, ओत-प्रोत है, निराशावादी हैं। इन्होंने जीवन की सारी की सारी जड़ों को सुखा डाला है और इन्होंने जीवन को कालिख से पोत दिया है।
श्वीत्जर थोड़ी दूर तक ठीक कहता है। हमने ऐसा किया है। लेकिन फिर भी श्वीत्जर की आलोचना गलत है। अगर महावीर के ऊपर के वचनों को कोई देख कर चले तो लगेगा ही; सब जरा है, सब दुख है, सब पीड़ा है।
अगर महावीर से आप कहें कि देखते हैं, यह स्त्री कितनी सुंदर है! तो महावीर कहेंगे: थोड़ा और गहरा देखो। थोड़ा चमड़ी के भीतर जाओ। थोड़ा झांको, तब तुम्हें असली सौंदर्य का पता चलेगा। तब तुम्हें हड्डी, मांस-मज्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलेगा।
सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन जवान हुआ। एक लड़की के प्रेम में पड़ा। उसके पिता ने उसे समझाने के लिए कहा कि तू बिलकुल पागल है। थोड़ा समझ-बूझ से काम ले। जरा सोच, जिस सौंदर्य के पीछे तू दीवाना है, दैट ब्यूटी इ़ज ओनली स्किन डीप--वह सौंदर्य केवल चमड़ी की गहराई का है--तो मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: दैट इ़ज इनफ फॉर मी, आइ एम नॉट ए कैनिबॉल। मेरे लिए काफी है, अगर चमड़ी पर सौंदर्य है। मैं कोई आदमखोर तो नहीं हूं कि भीतर तक की स्त्री को खा जाऊं। ऊपर-ऊपर काफी है, भीतर का करना क्या है? आइ एम नॉट ए कैनिबॉल।
तो ठीक कहा, हम भी यही, यही मान कर जीते हैं। ऊपर-ऊपर काफी है, भीतर जाने की जरूरत क्या है? लेकिन यह सवाल स्त्री का ही नहीं है, यह सवाल पुरुष का ही नहीं है, यह सवाल हमारे पूरे जीवन को देखने का है। ऊपर ही ऊपर जो मानते हैं, काफी है, वे प्रवाह से कभी छुटकारा न पा सकेंगे। क्योंकि प्रवाह के बाहर जो जगत है, वह ऊपर नहीं है, वह भीतर है। लेकिन बड़ा मजा है, स्त्री के भीतर हड्डी-मांस-मज्जा ही अगर हो तब तो नसरुद्दीन ठीक कहता है कि इस झंझट में पड़ना ही क्यों? लेकिन स्त्री की हड्डी-मांस-मज्जा के भी भीतर जाने का उपाय है। और हड्डी-मांस-मज्जा के भीतर वह जो स्त्री की आत्मा है, वह प्रवाह के बाहर है।
तो तीन बातें हम समझ लें।
एक तो सतह है, फिर सतह के नीचे छिपा हुआ जगत है। और फिर सतह के नीचे की भी गहराई में छिपा हुआ केंद्र है। परिधि है, फिर परिधि और केंद्र के बीच का फासला है और फिर केंद्र है। जब तक कोई केंद्र पर न पहुंच जाए तब तक न तो सत्य का कोई अनुभव है, न सौंदर्य का कोई अनुभव है। सौंदर्य का भी अनुभव तभी होता है जब हम किसी दूसरे व्यक्ति के केंद्र को स्पर्श करते हैं। प्रेम का भी वास्तविक अनुभव तभी होता है, जब हम किसी व्यक्ति के केंद्र को छू लेते हैं, चाहे क्षणभर को ही सही, चाहे एक झलक ही क्यों न हो।
जीवन में जो भी गहन है, जो भी महत्वपूर्ण है, वह केंद्र है। लेकिन परिधि पर हम अगर घूमते रहें, घूमते रहें, तो जन्मों-जन्मों तक घूम सकते हैं। जरूरी नहीं है, हम कितना घूमें, इससे केंद्र पर पहुंच जाएं। एक आदमी एक चाक की परिधि पर बैठ जाए और घूमता रहे, घूमता रहे जन्मों-जन्मों तक, कभी भी केंद्र पर नहीं पहुंचेगा। हम ऐसे ही घूम रहे हैं। इसीलिए हमने इस जगत को संसार कहा है।
संसार का अर्थ है: एक चक्र, जो घूम रहा है। उसमें दो उपाय हैं होने के, संसार में होने के दो ढंग हैं--एक ढंग है परिधि पर होना, एक ढंग है उसके केंद्र पर होना। केंद्र पर होना धर्म है।
महावीर कहते हैं: ‘धर्म स्वभाव है।’ ‘वत्थू सहावो धम्म।’ वह जो प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है, उसका आंतरिक, अंतर्तम, वही धर्म है। महावीर के लिए धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं है, खयाल रखना, मजहब नहीं है। महावीर के लिए धर्म से मतलब--हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्ध, मुसलमान नहीं है।
महावीर कहते हैं, धर्म का अर्थ है: तुम्हारा जो गहनतम स्वभाव है, वही तुम्हारी शरण है। जब तक तुम अपने उस गहनतम स्वभाव को नहीं पकड़ पाते हो, तब तक तुम प्रवाह में भटकते ही रहोगे; और प्रवाह में जरा और मृत्यु के सिवाय कुछ भी नहीं है।
प्रवाह में है मृत्यु। केंद पर है अमृत। प्रवाह में है जरा, दुख। केंद्र पर है आनंद। प्रवाह में है चिंता, संताप, केंद्र पर है शून्य, शांति। प्रवाह है संसार, केंद्र है मोक्ष।
महावीर को अगर ठीक से समझें तो जहां-जहां हम पर्त को पकड़ लेते हैं--परिवर्तनशील पर्त को, वहीं हम संसार में पड़ते हैं। जहां हम परिवर्तनशील पर्त को उघाड़ते हैं, उघाड़ते चले जाते हैं, तब तक, जब तक कि अपरिवर्तित का दर्शन न हो जाए।
यह उघाड़ने की प्रक्रिया ही योग है। और जिस दिन यह उघड़ जाता है और हम उस स्वभाव को जान लेते हैं जो शाश्र्वत है, जिसका कोई जन्म नहीं, फिर ही मृत्यु नहीं होगी। हम सब खोजना चाहते हैं जरूर, अमृत। हम सब चाहते हैं कि ऐसी घड़ी आए, जहां मृत्यु न हो। लेकिन वह घड़ी आएगी, जब हम उसको खोज लेंगे जिसका कोई जन्म नहीं हुआ। जब तक हम उसे न खोज लें जिसका कोई जन्म नहीं हुआ है, तब तक अमृत का कोई पता नहीं चलेगा।
हम सब खोजना चाहते हैं आनंद, लेकिन आनंद से हमारा मतलब है--दुख के विपरीत। महावीर कहते हैं: आनंद से अर्थ है, उसका जो कभी दुखी नहीं हुआ। यह बड़ी अलग बात है। हम चाहते हैं आनंद मिल जाए, लेकिन हम उसी मन से आनंद चाहते है जो सदा दुखी हुआ। जो मन सदा दुखी हुआ, वह कभी आनंदित नहीं हो सकता। उसका स्वभाव दुखी होना है। महावीर कहते हैं: आनंद चाहिए तो खोज लो उसे, तुम्हारे भीतर जो कभी दुखी नहीं हुआ। फिर अगर चाहते हो अमृत, तो खोज लो अपने भीतर उसे, जिसका कभी जन्म नहीं हुआ। इसे वे कहते हैं: धर्म। धर्म का महावीर का वही अर्थ है, जो लाओत्सु का ताओ से है। धर्म से वही मतलब है जो हम इस अस्तित्व की आंतरिक प्रकृति...। मेरे भीतर भी वह है, आपके भीतर भी वह है। आपके भीतर खोजना मुझे आसान न होगा। आपके पास मैं खोजने जाऊंगा तो आपकी परिधि ही मुझे मिलेगी।
इसे थोड़ा देखें।
हम दूसरे आदमी को कभी भी उसके भीतर से नहीं देख सकते, या कि आप देख सकते हैं? आप दूसरे आदमी को सदा उसके बाहर से देख सकते हैं। आप मुस्कुरा रहे हैं, तो मैं आपकी मुस्कुराहट देखता हूं। लेकिन आपके भीतर क्या हो रहा है, यह मैं नहीं देखता। आप दुखी हैं, तो आपके आंसू देखता हूं; आपके भीतर क्या हो रहा है, यह मैं नहीं देखता। अनुमान लगाता हूं मैं कि आसूं हैं, तो भीतर दुख होता होगा; मुस्कुराहट है, तो भीतर खुशी होती होगी। दूसरा आदमी अनुमान है, इनफरेंस है। भीतर तो मैं केवल अपने ही देख सकता हूं। तब हो सकता है, ऊपर आंसू हों और भीतर दुख न हो। ऊपर मुस्कुराहट हो और भीतर दुख हो।
भीतर तो मैं अपने ही देख सकता हूं। एक ही द्वार मेरे लिए स्वभाव में उतरने का खुला है--वह मैं स्वयं हूं। दूसरा मेरे लिए बंद द्वार है, उससे मैं कभी नहीं उतर सकता।
हम सब दूसरे से उतरने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा प्रेम, हमारी मित्रता, हमारे संबंध, सब दूसरे से उतरने की कोशिशें हैं। दूसरे से हम प्रवाह में ही रहेंगे। इसलिए महावीर ने बड़ी हिम्मत की बात कही। महावीर ने ईश्र्वर को भी स्वीकार नहीं किया। क्योंकि महावीर ने कहा, ईश्र्वर भी दूसरा हो जाता है--दि अदर। उससे भी कुछ हल नहीं होगा।
तो महावीर ने कहा कि मैं तो आत्मा को ही परमात्मा कहता हूं और किसी को परमात्मा नहीं कहता। कोई दूसरा परमात्मा नहीं, तुम स्वयं ही परमात्मा हो। एक ही द्वार है तुम्हारे अपने भीतर जाने का, वह तुम स्वयं हो। परिधि को छोड़ो और भीतर की तरफ हटो। क्या है उपाय, कैसे हम छोड़ें परिधि को?
एक आखिरी सूत्र:
‘जो भी बदल जाता हो, समझो कि वह मैं नहीं हूं।’
शरीर बदलता चला जाता है। महावीर कहते हैं: जो बदलता जाता है, समझो कि मैं नहीं हूं। शरीर प्रतिपल बदल रहा है, एक धारा है। अभी आपका मां के पेट में गर्भाधान हुआ था, उस अणु का अगर चित्र आपके सामने रख दिया जाए, तो आप यह पहचान भी न सकेंगे कि आप यह थे। लेकिन एक दिन वही आपका शरीर था, फिर जिस दिन आप जन्मे थे, वह तस्वीर आपके सामने रख दी जाए तो आप पहचान न सकेंगे कि यह मैं ही हूं। एक दिन वही आपका शरीर था। अगर आपके पिछले जन्म की लाश आपके सामने रख दी जाए तो आप पहचान न सकेंगे, एक दिन आप वही थे। अगर आपके भविष्य का कोई चित्र आपके सामने रख दिया जाए तो आप पहचान न सकेंगे, एक दिन आप वह हो सकते हैं। शरीर प्रतिपल बदल रहा है।
महावीर कहते हैं: ‘जो बदल रहा है, वह मैं नहीं हूं।’ इसको धारणा करो, इसको गहन में उतारते चले जाओ। यह तुम्हारे चेतन-अचेतन में पोर-पोर डूब जाए कि जो बदल रहा है, वह मैं नहीं हूं।
मन भी बदल रहा है, प्रतिपल बदल रहा है। शरीर तो थोड़ा धीरे-धीरे बदलता है। मन तो और तेजी से बदल रहा है। तो महावीर कहते हैं: ‘जो बदल रहा है, वह ‘मैं’ नहीं हूं।’ मन भी ‘मैं’ नहीं हूं। प्रतिपल धारणा को गहरा करते जाओ, यही एकाग्र चिंतन रह जाए कि मन भी ‘मैं’ नहीं हूं। अभी यह विचार क्षण भर भी नहीं टिकता, दूसरा विचार, वह भी नहीं टिकता, तीसरा विचार। मन एक धारा है विचारों की। वह भी ‘मैं’ नहीं हूं। ऐसा डूबते जाओ भीतर, डूबते जाओ भीतर, जब तक तुम्हें परिवर्तनशील कुछ भी दिखाई पड़े, तत्काल अपने को तोड़ लो उससे और दूर हो जाओ। एक दिन उस जगह पहुंच जाओगे जहां कुछ परिवर्तनशील नहीं दिखाई पड़ेगा, जिससे तोड़ना हो अपने को। जिस दिन वह घड़ी आ जाए जहां कुछ भी परिवर्तित होता हुआ न दिखाई पड़े, जानना कि धर्म में प्रवेश हुआ। वही स्वभाव है।
और महावीर कहते हैं: यही स्वभाव द्वीप है। यही स्वभाव प्रतिष्ठा है। यही स्वभाव गति है। गति का अर्थ--यही स्वभाव एकमात्र मार्ग है, और कोई गति नहीं है और यही स्वभाव उत्तम शरण है।
अगर जाना ही है किसी की शरण, तो इस स्वभाव की शरण चले आओ। अगर किन्हीं चरणों में सिर रख ही देना है, तो इसी स्वभाव के चरणों में सिर रख दो। और कोई चरण काम नहीं पड़ सकते, और कोई शरण सार्थक नहीं है।
स्वभाव ही शरण है।
और अगर हमने महावीर के चरणों में सिर रखा और अगर हमने कहा कि जिसने जाना है, स्वयं को, उसकी शरण में हम जाते हैं, तो यह केवल अपनी शरण आने के लिए एक माध्यम है। इससे ज्यादा नहीं। जो इस शरण में ही रुक जाए, वह भटक गया।
महावीर की भी शरण अगर कोई जाता है तो सिर्फ इसीलिए कि अपनी शरण आ सके। और महावीर की भी शरण जाता है, इसीलिए कि हम नहीं पहुंच पाए अपने स्वभाव तक, कोई पहुंच गया है। जो हम हो सकते हैं, कोई हो गया है। जो हमारी संभावना है, किसी के लिए वास्तविक हो गई। लेकिन वह भी वस्तुतः हम अपने ही स्वभाव की शरण जा रहे हैं। उसके अतिरिक्त कोई गति, कोई द्वीप, कोई शरण नहीं है।

आज इतना ही।

लेकिन पांच मिनट रुकें। कीर्तन करें, और फिर जाएं...!