MAHAVIR
Mahaveer Vani 18
Eighteenth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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धम्म-सूत्र: अंतर-तप-
धम्मो मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया मणो।।
धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
महावीर के साधना-सूत्रों में आज बारहवें और अंतिम तप पर बात करनी है।
अंतिम तप को महावीर ने कहा है: कायोत्सर्ग--शरीर का छूट जाना।
मृत्यु में तो सभी का शरीर छूट जाता है। शरीर तो छूट जाता है मृत्यु में, लेकिन मन की आकांक्षा शरीर को पकड़ रखने की नहीं छूटती है। इसलिए जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह वास्तविक मृत्यु नहीं है, केवल नये जन्म का सूत्रपात है। मरते क्षण में भी मन शरीर को पकड़ रखना चाहता है। मरने की पीड़ा ही यही है कि जिसे हम नहीं छोड़ना चाहते, वह छूट रहा है। बेचैनी यही है कि जिसे हम पकड़ रखना चाहते हैं, उसे नहीं पकड़ रख पा रहे हैं। दुख यही है कि जिसे समझा था कि मैं हूं, वही नष्ट हो रहा है।
मृत्यु में जो घटना सभी को घटती है, वही घटना ध्यान में उनको घटती है जो ग्यारहवें चरण तक की यात्रा कर लिए होते हैं। ठीक मृत्यु जैसी ही घटना घटती है। कायोत्सर्ग का अर्थ है: उस मृत्यु के लिए सहज स्वीकृति का भाव। वह घटेगी। जब ध्यान प्रगाढ़ होगा, तो ठीक मृत्यु जैसी ही घटना घटेगी। लगेगा साधक को कि मिटा, समाप्त हुआ। इस क्षण में शरीर को पकड़ने का भाव न उठे, इसी की साधना का नाम कायोत्सर्ग है। ध्यान के क्षण में जब मृत्यु जैसी प्रतीति होने लगे, तब शरीर को पकड़ने की आकांक्षा, अभीप्सा न उठे, यह शरीर का छूटता हुआ रूप स्वीकृत हो जाए, सहर्ष, शांति से, अहोभाव से, यह शरीर को विदा देने की क्षमता आ जाए, उस तप का नाम कायोत्सर्ग है।
मृत्यु और ध्यान की समानता को समझ लेना जरूरी है, तभी कायोत्सर्ग समझ में आएगा। मृत्यु में यही होता है कि शरीर आपका चुक गया; अब और जीने, और काम करने में असमर्थ हुआ; तो आपकी चेतना शरीर को छोड़ कर हटती है, अपने स्रोत में सिकुड़ती है। लेकिन चेतना सिकुड़ती है स्रोत में, फिर भी चित्त पकड़े रखना चाहता है। जैसे किनारा कोई आपके हाथ से खिसका जाता हो; जैसे नाव कोई आपसे दूर हटी जाती हो। शरीर को हम जोर से पकड़ रखना चाहते हैं, और शरीर व्यर्थ हो गया; चुक गया; तो तनाव पैदा होता है। जो जा रहा है उसे रोकने की कोशिश से तनाव पैदा होता है। उसी तनाव के कारण मृत्यु में मूर्च्छा आ जाती है। क्योंकि नियम है, एक सीमा तक हम तनाव को सह सकते हैं, एक सीमा के बाद तनाव बढ़ जाए तो चित्त मूर्च्छित हो जाता है, बेहोश हो जाता है।
मृत्यु में इसीलिए हर बार हम बेहोश मरते हैं। और इसलिए अनेक बार मर जाने के बाद भी हमें याद नहीं रहता कि हम पीछे भी मर चुके हैं। और इसलिए हर जन्म नया जन्म मालूम होता है। कोई जन्म नया जन्म नहीं है। सभी जन्मों के पीछे मौत की घटना छिपी है। लेकिन हम इतने बेहोश हो गए होते हैं कि हमारी स्मृति में उसका कोई निशान नहीं छूट जाता। और यही कारण है कि हमें पिछले जन्म की स्मृति भी नहीं रह जाती, क्योंकि मृत्यु की घटना में हम इतने बेहोश हो जाते हैं, वही बेहोशी की पर्त हमारे पिछले जन्म की स्मृतियों को हमसे अलग कर देती है। एक दीवाल खड़ी हो जाती है। हमें कुछ भी याद नहीं रह जाता। फिर हम वही शुरू कर देते हैं जो हम बार-बार शुरू कर चुके हैं।
ध्यान में भी यही घटना घटती है, लेकिन शरीर के चुक जाने के कारण नहीं, मन की आकांक्षा के चुक जाने के कारण, यह फर्क होता है। शरीर तो अभी भी ठीक है लेकिन मन की शरीर को पकड़ने की जो वासना है वह चुक गई। अब कोई मन पकड़ने का न रहा। तो शरीर और चेतना अलग हो जाते हैं, बीच का सेतु टूट जाता है। जोड़ने वाला हिस्सा है मन, आकांक्षा, वासना वह टूट जाती है। जैसे कोई सेतु गिर जाए और नदी के दोनों किनारे अलग हो जाएं, ऐसे ही ध्यान में विचार और वासना के गिरते ही चेतना अलग और शरीर अलग हो जाता है। उस क्षण तत्काल हमें लगता है कि मृत्यु घटित हो रही है। और साधक का मन होता है--वापस लौट चलूं, यह तो मौत आ गई। और अगर साधक वापस लौट जाए तो बारहवां चरण घटित नहीं हो पाता। अगर साधक वापस लौट जाए तो ध्यान भी अपनी पूरी परिणति पर नहीं पहुंच पाता। अगर साधक वापस लौट जाए भयभीत होकर इस बारहवें चरण से, तो सारी साधना व्यर्थ हो जाती है। इसलिए महावीर ने ध्यान के बाद कायोत्सर्ग को अंतिम तप कहा है।
जब यह सेतु टूटे तो इसे खड़े हुए देखते रहना कि सेतु टूट रहा है। और जब शरीर और चेतना अलग हो जाएं ध्यान में तो भयभीत न होना। अभय से साक्षी बने रहना। एक क्षण की ही बात है। एक क्षण ही अगर कोई ठहर गया कायोत्सर्ग में, तो फिर तो कोई भय नहीं रह जाता। फिर तो मृत्यु भी नहीं रह जाती। जैसे ही शरीर और चेतना एक क्षण को भी अलग होकर दिखाई पड़ गए, उसी दिन से मृत्यु का सारा भय समाप्त हो गया। क्योंकि अब आप जानते हैं, आप शरीर नहीं हैं, आप कोई और हैं। और जो आप हैं, शरीर नष्ट हो जाए तो भी वह नष्ट नहीं होता है। यह प्रतीति, यह अमृत का अनुभव, यह मृत्यु के जो अतीत है उस जगत में प्रवेश कायोत्सर्ग के बिना नहीं होता है।
लेकिन परंपरा कायोत्सर्ग का कुछ और ही अर्थ करती रही है। परंपरा अर्थ कर रही है कि काया पर दुख आएं, पीड़ाएं आएं, तो उन्हें सहज भाव से सहना। कोई सताए तो उसे सहज भाव से सहना। बीमारी आए तो उसे सहज भाव से सहना। कष्ट आएं, कर्मों के फल आएं तो उन्हें सहज भाव से सहना। यह कायोत्सर्ग का अर्थ नहीं है, क्योंकि यह तो काया-क्लेश में ही समाविष्ट हो जाता है। यह तो बाह्य-तप है। अगर यही कायोत्सर्ग का अर्थ है तो महावीर पुनरुक्ति कर रहे हैं, क्योंकि काया-क्लेश में, बाह्य-तप में इसकी बात हो गई है। महावीर जैसे व्यक्ति पुनरुक्ति नहीं करते। वे कुछ कहते हैं तभी, जब कुछ कहना चाहते हैं। अकारण नहीं कहते हैं। कायोत्सर्ग का यह अर्थ नहीं है। कायोत्सर्ग का तो अर्थ है काया को चढ़ा देने की तैयारी, काया को छोड़ देने की तैयारी, काया से दूर हो जाने की तैयारी, काया से भिन्न हूं, ऐसा जान लेने की तैयारी; काया मरती हो तो भी देखता रहूंगा, ऐसा जान लेने की तैयारी।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को मरघट पर भेजते थे कि वे मरघट पर रहें और लोगों की लाशों को देखें--जलते, गड़ाए जाते, पक्षियों द्वारा चीरे-फाड़े जाते, मिट्टी में मिल जाते। भिक्षु बुद्ध से पूछते कि यह किसलिए? तो बुद्ध कहते: ताकि तुम जान सको कि काया में क्या-क्या घटित हो सकता है। और जो-जो एक की काया मे घटित होता है वही-वही तुम्हारी काया में भी घटित होगा। इसे देख कर तुम तैयार हो सको, मृत्यु को देख कर तुम तैयार हो सको कि मृत्यु घटित होगी। लेकिन कोई भिक्षु कहता कि अभी तो मृत्यु को देर है, मैं युवा हूं। तो बुद्ध कहते: मैं उस मृत्यु की बात नहीं करता; मैं तो उस मृत्यु की तैयारी करवा रहा हूं जो ध्यान में घटित होती है। ध्यान महामृत्यु है--मृत्यु ही नहीं महामृत्यु। क्योंकि ध्यान में अगर मृत्यु घटित हो जाती है तो फिर कोई जन्म नहीं होता। साधारण मृत्यु के बाद जन्म की श्रृंखला जारी रहती है। ध्यान की मृत्यु के बाद जन्म की श्रृंखला नहीं रहती।
इसलिए महावीर इसे कायोत्सर्ग कहते हैं--काया का सदा के लिए बिछुड़ना हो जाता है। फिर दुबारा काया नहीं है, फिर दुबारा काया में लौटना नहीं है। फिर शरीर में पुनरागमन नहीं है, फिर संसार में वापसी नहीं है। कायोत्सर्ग पॉइंट ऑफ नो रिटर्न है, उसके बाद लौटना नहीं है।
लेकिन कायोत्सर्ग तक से हम लौट सकते हैं। जैसे पानी को हम गर्म करते हों, निन्यानबे डिग्री से भी पानी लौट सकता है भाप बने बिना। साढ़े निन्यानबे डिग्री से भी लौट सकता है। सौ डिग्री के पहले जरा सा फासला रह जाए तो पानी वापस लौट सकता है, गर्मी खो जाएगी थोड़ी देर में, पानी फिर ठंडा हो जाएगा। ध्यान से भी वापस लौटा जा सकता है, जब तक कि कायोत्सर्ग घटित न हो जाए। आपने एक शब्द सुना होगा ‘भ्रष्ट योगी;’ पर कभी खयाल न किया होगा कि भ्रष्ट योगी का क्या अर्थ होता है। शायद आप सोचते होंगे कि कोई भ्रष्ट काम करता है, ऐसा योगी। भ्रष्ट योगी का अर्थ होता है: जो कायोत्सर्ग के पहले ध्यान से वापस लौट आया। ध्यान तक चला गया, लेकिन ध्यान के बाद जो मौत की घबड़ाहट पकड़ी तो वापस लौट आया। फिर उसका जन्म होगा। इसे भ्रष्ट योगी कहेंगे।
भ्रष्ट योगी का अर्थ यह है कि निन्यानबे डिग्री तक पहुंच कर जो वापस लौट आया। सौ डिग्री तक पहुंच जाता तो भाप बन जाता, तो रूपांतरण हो जाता। तो नया जीवन शुरू हो जाता, तो नई यात्रा प्रारंभ हो जाती। ध्यान निन्यानबे डिग्री तक ले जाता है। सौवीं डिग्री पर तो आखिरी छलांग पूरी करनी पड़ती है। वह है शरीर को उत्सर्ग कर देने की छलांग।
लेकिन हम अपनी तरफ से समझें, जहां हम खड़े हैं। जहां हम खड़े हैं वहां शरीर मालूम पड़ता है, मेरा है। ऐसा भी नहीं, सच में तो ऐसा मालूम पड़ता है कि मैं शरीर हूं। हमें कभी कोई एहसास नहीं होता कि शरीर से अलग भी हमारा कोई होना है। शरीर ही मैं हूं। तो शरीर पर पीड़ा आती है तो मुझ पर पीड़ा आती है, शरीर को भूख लगती है तो मुझे भूख लगती है, शरीर को थकान होती है तो मैं थक जाता हूं। शरीर और मेरे बीच एक तादात्म्य है, एक आइडेंटिटी है, हम जुड़े हैं, संयुक्त हैं। हम भूल ही गए हैं कि मैं शरीर से पृथक कुछ भी हूं। एक इंच भर भी हमारे भीतर ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जिसे मैंने शरीर से अन्य जाना हो।
इसलिए शरीर के सारे दुख हमारे दुख हो जाते हैं, शरीर के सारे संताप हमारे संताप हो जाते हैं, इसीलिए शरीर का जन्म हमारा जन्म बन जाता है; शरीर का बुढ़ापा हमारा बुढ़ापा बन जाता है; शरीर की मृत्यु हमारी मृत्यु बन जाती है। शरीर पर जो घटित होता है, लगता है वह मुझ पर घटित हो रहा है। इससे बड़ी कोई भ्रांति नहीं हो सकती। लेकिन हम बाहर से ही देखने के आदी हैं, शरीर से ही पहचानने के आदी हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन का पिता अपने जमाने का अच्छा वैद्य था। बूढ़ा हो गया है बाप। तो नसरुद्दीन ने कहा: अपनी कुछ कला मुझे भी सिखा जाओ। कई दफे तो मैं चकित होता हूं देख कर कि नाड़ी तुम बीमार की देखते हो और ऐसी बातें कहते हो जिनका नाड़ी से कोई संबंध नहीं मालूम पड़ता। यह कला थोड़ी मुझे भी बता जाओ।
बाप को कोई आशा तो न थी कि नसरुद्दीन यह सीख पाएगा, लेकिन नसरुद्दीन को लेकर वह अपने मरीजों को देखने गया। एक मरीज को उसने नाड़ी पर हाथ रख कर देखा और फिर कहा कि देखो, केले खाने बंद कर दो। उसी से तुम्हें तकलीफ हो रही है। नसरुद्दीन बहुत हैरान हुआ। और नाड़ी से केले की कोई खबर मिल नहीं सकती। बाहर निकलते ही उसने बाप से पूछा; बाप ने कहा: तुमने खयाल नहीं किया, मरीज को ही नहीं देखना पड़ता, आस-पास भी देखना पड़ता है। खाट के पास नीचे केले के छिलके पड़े थे। उससे अंदाज लगाया।
दूसरी बार नसरुद्दीन गया, बाप ने नाड़ी पकड़ी मरीज की और कहा कि देखो, बहुत ज्यादा श्रम मत उठाओ। मालूम होता है, पैरों से ज्यादा चलते हो। उसी की थकान है। अब तुम्हारी उम्र इतने चलने लायक नहीं रही, थोड़ा कम चलो। नसरुद्दीन हैरान हुआ। चारों तरफ देखा, कहीं कोई छिलके भी नहीं हैं, कहीं कोई बात भी नहीं है। बाहर आकर पूछा कि हद हो गई, नाड़ी से... चलता है आदमी ज्यादा! बाप ने कहा: तुमने देखा नहीं, उसके जूते के तल्ले बिलकुल घिसे हुए थे। उन्हीं को देख कर...। नसरुद्दीन ने कहा: तो अब अगली बार तीसरे मरीज को मैं ही देखता हूं। अगर ऐसे ही पता लगाया जा रहा है तो हम भी कुछ पता लगा लेंगे। तीसरे घर पहुंचे, बीमार स्त्री का हाथ नसरुद्दीन ने अपने हाथ में लिया। चारों तरफ नजर डाली, कुछ दिखाई न पड़ा। खाट के नीचे नजर डाली। फिर मुस्कुराया। फिर स्त्री से कहा कि देखो, तुम्हारी बेचैनी का कुल कारण इतना है कि तुम जरा ज्यादा धार्मिक हो गई हो। वह स्त्री बहुत घबड़ाई। और चर्च जाना थोड़ा कम करो, बंद कर सको तो बहुत अच्छा। बाप भी थोड़ा हैरान हुआ। लेकिन स्त्री राजी हुई। उसने कहा कि क्षमा करें, हद हो गई कि आप नाड़ी से पहचान गए। क्षमा करें, यह भूल अब दोबारा न करूंगी।
तो बाप और हैरान हुआ। बाहर निकल कर बेटे को पूछा, कि हद्द कर दी तूने। तू मुझसे आगे निकल गया। धर्म! थोड़ा धर्म में कम रुचि लो, चर्च जाना कम करो, या बंद कर दो तो अच्छा हो, और स्त्री राजी भी हो गई! बात क्या थी? नसरुद्दीन ने कहा: मैंने चारों तरफ देखा, कहीं कुछ नजर न आया। खाट के नीचे देखा तो पादरी को छिपा हुआ पाया। इस स्त्री की यही बीमारी है। और देखा आपने कि आपके मरीज तो सुनते रहे, मेरा मरीज एकदम बोला कि क्षमा कर दो, अब ऐसी भूल कभी नहीं होगी।
लेकिन नसरुद्दीन वैद्य बन न पाया। बाप के मर जाने के बाद नसरुद्दीन दो चार मरीजों के पास भी गया तो मुसीबत में पड़ा। जो भी मरीज उससे चिकित्सा करवाए, वे जल्दी ही मर गए। निदान तो उसने बहुत किए, लेकिन कोई निदान किसी मरीज को ठीक न कर पाया। तो नसरुद्दीन बुढ़ापे में कहता हुआ सुना गया है कि मेरा बाप मुझे धोखा दे गया। जरूर कोई भीतरी तरकीब रही होगी, वह मुझे सिर्फ बाहर के लक्षण बता गया।
बाप ने बाहर के लक्षण सिर्फ भीतरी लक्षणों की खोज के लिए कहे थे। और सदा ऐसा होता है। महावीर ने बाहर के लक्षण कहे हैं भीतर की पकड़ के लिए। परंपरा बाहर के लक्षण पकड़ लेती है और फिर धीरे-धीरे बाहर के लक्षण ही हाथ में रह जाते हैं। और फिर भीतर के सब सूत्र खो जाते हैं। नाड़ी से कोई मतलब ही नहीं रह जाता आखिर में। तो नसरुद्दीन को यह भी पक्का पता नहीं रहता था कि नाड़ी अंगुलियों के नीचे है भी या नहीं। वह तो आस-पास देख कर निदान कर लेता था। सारी परंपराएं धीरे-धीरे बाह्य हो जाती हैं और नाड़ी से उनका हाथ छूट जाता है। तो कायोत्सर्ग का मतलब केवल इतना ही रह गया कि अपनी काया को जब भी कष्ट आए, तो उसे सह लेना। लेकिन ध्यान रहे, काया अपनी है, यह कायोत्सर्ग की परंपरा में स्वीकृत है। यह जो झूठी बाह्य परंपरा है वह भी कहती है: अपनी काया पर कोई कष्ट आए तो सह लेना। वह यह भी कहती है कि अपनी काया को उत्सर्ग करने की तैयारी रखना, लेकिन अपनी वह काया है, यह बात नहीं छूटती।
महावीर का यह मतलब नहीं है कि अपनी काया को उत्सर्ग कर देना। क्योंकि महावीर कहते हैं: जो अपनी नहीं है उसे तुम कैसे उत्सर्ग करोगे? तुम कैसे चढ़ाओगे? अपने को उत्सर्ग किया जा सकता है; अपने को चढ़ाया जा सकता है; लेकिन जो मेरा नहीं है उसे मैं कैसे चढ़ाऊंगा? महावीर का कायोत्सर्ग से भीतरी अर्थ है कि काया तुम्हारी नहीं है, ऐसा जानना कायोत्सर्ग है। मैं काया को चढ़ा दूंगा, ऐसा भाव कायोत्सर्ग नहीं है क्योंकि तब तो इस उत्सर्ग में भी मेरे की, ममत्व की धारणा मौजूद है। और जब तक काया मेरी है तब तक मैं चाहे उत्सर्ग करूं और चाहे भोग करूं, चाहे बचाऊं और चाहे मिटाऊं।
आत्महत्या करने वाला भी काया को मिटा देता है, लेकिन वह कायोत्सर्ग नहीं है। क्योंकि वह मानता है कि शरीर मेरा है। इसीलिए मिटाता है। एक शहीद सूली पर चढ़ जाता है, लेकिन वह कायोत्सर्ग नहीं है। क्योंकि वह मानता है, शरीर मेरा है। एक तपस्वी आपके शरीर को नहीं सताता, अपने शरीर को सता लेता है, लेकिन मानता है कि शरीर मेरा है। तपस्वी आपके प्रति कठोर न हो, अपने प्रति बहुत कठोर होता है। क्योंकि मानता है, यह शरीर मेरा है। आपको भूखा न मार सके, अपने को भूखा मार सकता है क्योंकि मानता है, यह शरीर मेरा है। लेकिन जहां तक मेरा है वहां तक महावीर के कायोत्सर्ग की जो आंतरिक नाड़ी है, उस पर आपका हाथ नहीं है। महावीर कहते हैं: यह जानना कि शरीर मेरा नहीं है--कायोत्सर्ग है--यह जानना मात्र। यह जानना बहुत कठिन है।
इस कठिनाई से बचने के लिए आस्तिकों ने एक उपाय निकाला है कि वह कहते हैं: शरीर मेरा नहीं है, लेकिन परमात्मा का है। महावीर के लिए तो वह भी उपाय नहीं है, क्योंकि परमात्मा की कोई जगह नहीं है उनकी धारणा में। यह बहुत चक्करदार बात है। आस्तिक, तथाकथित आस्तिक कहता है कि शरीर मेरा नहीं, परमात्मा का है, और परमात्मा मेरा है। ऐसे घूम-फिर कर सब अपना ही हो जाता है। महावीर के लिए परमात्मा भी नहीं है। महावीर की धारणा बहुत अदभुत है और शायद महावीर के अतिरिक्त किसी व्यक्ति ने कभी प्रतिपादित नहीं की। महावीर कहते हैं: तुम तुम्हारे हो, शरीर शरीर का है।
इसको समझ लें। शरीर परमात्मा का भी नहीं, शरीर शरीर का है। महावीर कहते है: प्रत्येक वस्तु अपनी है, अपने स्वभाव की है, किसी की नहीं है। मालकियत झूठ है इस जगत में। वह परमात्मा की भी मालकियत हो तो झूठ है। ओनरशिप झूठ है। शरीर शरीर का है। इसका अगर हम विश्लेषण करें तो बात पूरी खयाल में आ जाएगी।
शरीर में आप प्रतिपल श्र्वास ले रहे हैं। जो श्र्वास एक क्षण पहले आपकी थी, एक क्षण बाद बाहर हो गई, किसी और की हो गई होगी। जो श्र्वास अभी आपकी है, आपको पक्का है आपकी है? क्षण भर पहले आपके पड़ोसी की थी। और अगर हम श्र्वास से पूछ सकें कि तू किसकी है, तो श्र्वास क्या कहेगी? श्र्वास कहेगी: मैं मेरी हूं। इस मेरे शरीर में--जिसे हम कहते हैं: मेरा शरीर--इस मेरे शरीर में मिट्टी के कण हैं। कल वे जमीन में थे, कभी वे किसी और के शरीर में रहे होंगे। कभी किसी वृक्ष में रहे होंगे, कभी किसी फल में रहे होंगे। न मालूम कितनी उनकी यात्रा है। अगर हम उन कणों से पूछें कि तुम किसके हो, तो वे कहेंगे: हम अपने हैं। हम यात्रा करते हैं। तुम सिर्फ स्टेशंस हो, जिनसे हम गुजरते हैं। हम बहुत स्टेशंस से गुजरते हैं। जब हम कहते हैं: शरीर मेरा है तो हम वैसी ही भूल करते हैं कि आप स्टेशन पर उतरें और स्टेशन कहे कि यह आदमी मेरा है। आप कहेंगे: तुझसे क्या लेना-देना, हम बहुत स्टेशन से गुजर गए और गुजरते रहेंगे। स्टेशंस आते हैं और चले जाते हैं।
शरीर जिन भूतों से मिल कर बना है, प्रत्येक भूत उसी भूत का है। शरीर जिन पदार्थों से बना है, प्रत्येक पदार्थ उसी पदार्थ का है। मेरे भीतर जो आकाश है वह आकाश का है; मेरे भीतर जो वायु है, वह वायु की है; मेरे भीतर जो पृथ्वी है, वह पृथ्वी की है; मेरे भीतर जो अग्नि है वह अग्नि की है; मेरे भीतर जो जल है वह जल का है। यह कायोत्सर्ग है, यह जानना।
और मेरे भीतर जल न रह जाए, वायु न रह जाए, आकाश न रह जाए, पृथ्वी न रह जाए, अग्नि न रह जाए, तब जो शेष रह जाता है वही मैं हूं। तब जो छठवां शेष रह जाता है, जो अतिरिक्त शेष रह जाता है वही मैं हूं। फिर क्या शेष रह जाता है? अगर वायु भी मैं नहीं हूं, अग्नि भी नहीं हूं, आकाश भी नहीं, जल भी नहीं, पृथ्वी भी नहीं; फिर मेरे भीतर शेष क्या रह जाता है? तो महावीर कहते हैं: सिर्फ जानने की क्षमता शेष रह जाती है, दि कैपेसिटी टु नो। सिर्फ जानना शेष रह जाता है। नोइंग शेष रह जाता है।
तो महावीर कहते हैं कि मैं तो सिर्फ ‘जानना’ हूं, जानना मात्र। इस स्थिति को महावीर ने केवलज्ञान कहा है--जस्ट नोइंग, सिर्फ जानना मात्र। मैं सिर्फ ज्ञाता ही रह जाता हूं, द्रष्टा ही रह जाता हूं, दृष्टि रह जाता हूं, ज्ञान रह जाता हूं। अस्तित्व का बोध, अवेयरनेस रह जाता हूं। और तो सब खो जाता है। कायोत्सर्ग का अर्थ है: जो जिसका है वह उसका है, ऐसा जानना। अनाधिकृत मालकियत न करना। लेकिन हम सब अनाधिकृत मालकियत किए हुए हैं और जब हम भीतर अनाधिकृत मालकियत करते हैं तो हम बाहर भी करते हैं। जो आदमी अपने शरीर को मानता है कि मेरा है, वह अपने मकान को कैसे मानेगा कि मेरा नहीं है।
पश्र्चिम में इस समय एक बहुत कीमती विचारक है, मार्शल मैकलुहान। वह कहता है: मकान हमारे शरीर का ही विस्तार है, एक्सटेंशन ऑफ अवर बॉडी़ज। है भी। मकान हमारे शरीर का ही विस्तार है। दूरबीन हमारी आंख का ही विस्तार है। बंदूक हमारे नाखूनों का ही विस्तार है, एक्सटेंशंस हैं ये हमारे। इसलिए जितना वैज्ञानिक युग होता जाता है उतना आपका बड़ा शरीर होता जाता है। अगर आज से पांच हजार साल पहले किसी आदमी को मारना होता तो बिलकुल उसकी छाती के पास छुरा लेकर जाना पड़ता। अब जरूरत नहीं है। अब एक आदमी को यहां से बैठ कर वाशिंगटन में भी सारे लोगों की हत्या कर देनी हो तो एक मिसाईल, एक बम चला जाएगा और सबको नष्ट कर देगा। आपका शरीर अब बहुत बड़ा है। आप बड़े दूर से... अगर मुझे आपको मारना है तो पास आने की जरूरत नहीं है। पांच सौ फीट दूर से बंदूक की गोली से आपको मार दूंगा। लेकिन गोली सिर्फ एक्सटेंशन है।
वैज्ञानिक कहते हैं: आदमी के नाखून कमजोर हैं दूसरे जानवरों से, इसीलिए उसने अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार किया, वे सब्स्टीट्यूट हैं। नहीं तो आदमी जीत नहीं सकता जानवरों से। आपके नाखून बहुत कमजोर हैं जानवरों के मुकाबले। आपके दांत भी बहुत कमजोर हैं जानवरों के मुकाबले। अगर आप जानवर से टक्कर लें तो आप गए! तो आपको जानवर से टक्कर लेने के लिए सब्स्टीट्यूट खोजना पड़े। जानवर से ज्यादा मजबूत नाखून बनाने पड़े। वे नाखून आपके छुरे, तलवारें, खंजर, भाले--वे हैं। उससे ज्यादा मजबूत आपको दांत बनाने पड़े, जिनसे उसको आप पीस डालें।
आदमी ने जो भी विकास किया है, जिसे हम आज प्रगति कहते हैं, वह उसके शरीर का विस्तार है। इसलिए जितना वैज्ञानिक युग सघन होता जाता है, उतना आत्मभाव कम होता जाता है। क्योंकि बड़ा शरीर हमारे पास है जिससे हम अपने को एक कर लेते हैं। आपका मकान, आपके मकान की दीवारें आपके शरीर का हिस्सा हैं। आपकी कार आपके बढ़े हुए पैर हैं। आपका हवाई जहाज आपके बढ़े हुए पैर हैं। आपको पता हो या न पता हो, आपका रेडियो आपका बढ़ा हुआ कान है। आपका टेलीविजन आपकी बढ़ी हुई आंख है। तो आज हमारे पास जितना बड़ा शरीर है, उतना महावीर के वक्त में किसी के पास नहीं था। इसलिए आज हमारी मुसीबत भी ज्यादा है। तो जो आदमी अपने शरीर को अपना मानता है, वह अपने मकान को भी अपना मानेगा। दुख बढ़ जाएंगे। जितना बड़ा शरीर होगा हमारा, उतने हमारे दुख बढ़ जाएंगे क्योंकि उतनी मुसीबतें बढ़ जाएंगी।
कभी आपने खयाल किया है कि आपकी कार को खरोंच लग जाए तो करीब-करीब आपकी चमड़ी को लग जाती है। शायद एक दफे चमड़ी को भी लग जाए तो इतनी तकलीफ नहीं होती जितनी कार को लग जाने से होती है। कार आपकी चमकदार चमड़ी बन गई है। वह आपका आवरण है, आपके बाहर। शरीर, महावीर कहते हैं: इसकी जरा सी भी मालकियत अगर हुई तो मालकियत बढ़ती जाएगी। और मालकियत का कोई अंत नहीं है। आज नहीं कल चांद पर झगड़ा खड़ा होने वाला है कि वह किसका है। अभी तो पहुंचे हैं हम इसलिए इतनी दिक्कत नहीं है। लेकिन आज नहीं कल झगड़ा खड़ा होने वाला है कि चांद किसका है? अगर रूस और अमरीका में इतना संघर्ष था चांद पर पहले पहुंचने के लिए तो वह सिर्फ वैज्ञानिक प्रतियोगिता ही नहीं थी, उसमें गहरे, मालकियत है। पहला झंडा अमरीका का गड़ गया है वहां। आज नहीं कल किसी दिन अंतर्राष्ट्रीय अदालत में यह मुकदमा होगा ही कि चांद किसका है, पहले कौन मालिक बना? इसलिए रूस के वैज्ञानिक चांद की चिंता कम कर रहे हैं और मंगल पर पहुंचने की कोशिश में लग गए हैं। क्योंकि चांद पर किसी भी दिन झगड़ा खड़ा होने ही वाला है, वह मालकियत अब उनकी है नहीं।
इस मालकियत का अंत क्या है? इसका प्रारंभ कहां से होता है? इसका प्रारंभ होता है, शरीर के पास हम जब मालकियत खड़ी करते हैं, तभी विस्तार शुरू हो जाता है। विस्तार का कोई अंत नहीं है। और जितना विस्तार होता है उतने हमारे दुख बढ़ जाते हैं क्योंकि महावीर कहते हैं: आनंद को वही उपलब्ध होता है जो मालिक ही नहीं है। जो अपने शरीर का भी मालिक नहीं है। जो मालकियत करता ही नहीं। कायोत्सर्ग का अर्थ है: मैं उतने पर ही हूं, जितने पर मेरी जानने की क्षमता का फैलाव है--वही मैं हूं, बस जानने की क्षमता मैं हूं। ध्यान के बाद इस चरण को रखने का प्रयोजन है, क्योंकि ध्यान आपके जानने की क्षमता का अनुभव है।
ध्यान का अर्थ ही है: वह जो मेरे भीतर ज्ञान है, उसको जानना। जितना ही मैं परिचित होता हूं कांशसनेस से, चेतना से, उतना ही मेरा जड़ पदार्थों के साथ जो संबंध है वह विच्छिन्न होता जाता है और एक घड़ी आती है कि भीतर मैं सिर्फ ज्ञान की एक ज्योति रह जाता हूं।
लेकिन अभी हमारा जोड़ दीये से है--मिट्टी के दीये से। उस ज्ञान की ज्योति से नहीं जो दीये में जलती है। अभी हम समझते हैं कि मैं मिट्टी का दीया हूं। मिट्टी का दीया फूट जाता है तो हम सोचते हैं--मैं मर गया। ऐसे भी, घर में भी अगर मिट्टी का दीया फूट जाए तो हम कहते हैं: ज्योति नष्ट हो गई। लेकिन ज्योति नष्ट नहीं होती, सिर्फ विराट आकाश में लीन हो जाती है।
कुछ भी नष्ट तो होता नहीं इस जगत में। जिस दिन हमारे शरीर का दीया फूट जाता है, उस दिन भी जो चेतना की ज्योति है, वह फिर अपनी नई यात्रा पर निकल जाती है। निश्चित ही वह अदृश्य हो जाती है, क्योंकि उसके दृश्य होने के लिए माध्यम चाहिए। जैसे रेडियो आप अपने घर में लगाए हुए हैं, जब आप बंद कर देते हैं तब आप सोचते हैं क्या कि रेडियो में जो आवाजें आ रही थीं, उनका आना बंद हो गया? वे अब भी आपके कमरे से गुजर रही हैं, वे बंद नहीं हो गईं हैं। जब आप रेडियो ऑन करते हैं तभी वे आना शुरू नहीं हो जाती हैं। जब आप रेडियो ऑन करते हैं तब आप उनको पकड़ना शुरू करते हैं, वे दृश्य होती हैं। वे मौजूद हैं। जब आपका रेडियो बंद पड़ा है तब आपके कमरे से उनकी ध्वनियां निकल रही हैं, लेकिन आपके पास उन्हें पकड़ने का, दृश्य बनाने का कोई उपाय नहीं है। रेडियो आप जैसे ही लगा देते हैं, रेडियो का यंत्र उन्हें दृश्य कर देता है। श्रवण में आपके वे पकड़ में आ जाती हैं।
जैसे ही किसी व्यक्ति का शरीर छूटता है तो चेतना हमारी पकड़ के बाहर हो जाती है। लेकिन नष्ट नहीं हो जाती। अगर हम फिर से उसे शरीर दे सकें तो वह फिर प्रकट हो सकती है। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि वैज्ञानिक आज नहीं कल मरे हुए आदमी को भी पुनरुज्जीवित कर सकेंगे। इसलिए नहीं कि उन्होंने आत्मा को बनाने की कला पा ली, बल्कि सिर्फ इसलिए कि वे रेडियो को सुधारने की तरकीब सीख गए। इसलिए नहीं कि उन्होंने आदमी की आत्मा को पकड़ लिया, बल्कि इसलिए कि उन्होंने जो यंत्र बिगड़ गया था उसे फिर इस योग्य बना दिया कि आत्मा उससे प्रकट हो सके।
इसमें बहुत कठिनाई नहीं मालूम होती, यह जल्दी ही संभव हो जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे ये चीजें संभव होती जाती हैं, वैसे-वैसे हमारा काया का मोह बढ़ता चला जाता है। अगर आपको मरने से भी बचाया जा सकता है तब तो आप और भी जोर से मानने लगेंगे कि मैं शरीर हूं। क्योंकि शरीर बच जाता है। तो मैं बच जाता हूं। मनुष्य की प्रगति एक तरफ प्रगति है, दूसरी तरफ बड़ा ह्रास है और बड़ा पतन है। एक तरफ हमारी समझ बढ़ती जाती है, दूसरी तरफ हमारी समझ बहुत कम होती चली जाती है। करीक-करीब ऐसा लगता है कि हमारी जो समझ बढ़ रही है वह केवल शरीर को आधार मान कर बढ़ती चली जा रही है, उसमें चेतना का कोई आधार नहीं है। इसलिए आदमी आज दुनिया में सर्वाधिक जानता हुआ मालूम पड़ता है, फिर भी इससे ज्यादा अज्ञानी समाज खोजना कठिन है।
महावीर जैसे व्यक्ति तो इसको पतन ही कहेंगे, इसको विकास नहीं कहेंगे। वे कहेंगे कि यह पतन है क्योंकि इससे दुख बढ़ा है, आंनद नहीं बढ़ा। कसौटी क्या है प्रगति की, कि आनंद बढ़ जाए? साधन बढ़ जाते हैं, दुख बढ़ जाता है। हमारा फैलाव बढ़ गया, मालकियत बढ़ गई, और दुख बढ़ गया। हम अब ज्यादा चीजों पर चिंता करते हैं। महावीर के जमाने में इतनी चीजों पर लोग चिंता नहीं करते थे। अब हमारी चिंताएं बहुत ज्यादा हैं। चिंताएं हमारी बहुत दूर निकल गई हैं। चांद तक के लिए हमारी चिंता है। चिंता हमारी बढ़ गई है, लेकिन वह निश्चिंत चेतना का हमें कोई अनुभव नहीं रहा। कायोत्सर्ग का अर्थ है: चिंता के जगत से अपना संबंध तोड़ लेना।
कैसे तोड़ेंगे? जब तक आप ध्यान में नहीं उतरेंगे तब तक कायोत्सर्ग की बात आपको मैं समझा रहा हूं, वह ठीक-ठीक खयाल में नहीं आ सकेगी। लेकिन समझाता हूं, शायद कभी ध्यान में उतरें और वह खयाल में आ जाए। शरीर से कैसे छूटेंगे? तो एक तो निरंतर स्मरण कि शरीर मैं नहीं हूं, निरंतर स्मरण कि शरीर मैं नहीं हूं। चलते, उठते, बैठते निरंतर स्मरण कि शरीर मैं नहीं हूं। यह निषेधात्मक है, निगेटिव है। लेकिन किसी भी प्रतीति को तोड़ना हो तो जरूरी है। और हम जो भी मान कर बैठते हैं वह हमें प्रतीत होने लगता है। दो में से कुछ एक छोड़ना पड़ेगा। या तो आत्मा मैं नहीं हूं, इस प्रतीति में हमें उतर जाना पड़ेगा, अगर हम--शरीर मैं हूं--इसको गहरा करते हैं; या शरीर मैं नहीं हूं, इसको हम प्रगाढ़ करते हैं तो मैं आत्मा हूं इसका बोध धीरे-धीरे जगना शुरू हो जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने शराब घर में बहुत उदास बैठा है। मित्रों ने पूछा कि इतने परेशान क्यों हो? तो मुल्ला ने कहा: परेशानी यह है कि पत्नी ने आज अल्टीमेटम दे दिया है, आखिरी, और कह दिया है कि अगर आज रात तक शराब पीना बंद नहीं किया तो वह मुझे छोड़ कर अपनी मां के घर चली जाएगी। तो मित्र ने कहा: यह तो बड़ी कठिनाई हुई, यह तो बड़ी मुश्किल हुई। इससे तो तुम बड़ी कठिनाई में पड़ोगे। क्योंकि मित्र ने सोचा कि शराब छोड़ना मुल्ला नसरुद्दीन को भारी कठिनाई होगी।
मुल्ला ने कहा कि तुम समझ नहीं पा रहे। कठिनाई तो होगी, आइ विल मिस हर वेरी मच, मैं पत्नी की बहुत ज्यादा कमी अनुभव करूंगा उसके जाने से। मित्र ने कहा: मैं तो समझता था कि तुम शराब छोड़ दोगे और कठिनाई अनुभव करोगे। नसरुद्दीन ने कहा: मैंने बहुत सोचा, दो में से कुछ एक ही हो सकता है। या तो शराब छोड़ कर मैं कठिनाई अनुभव करूं, या पत्नी को छोड़ कर, कठिनाई अनुभव करूं। फिर मैंने तय किया कि पत्नी को छोड़ कर ही कठिनाई अनुभव करना ठीक है, क्योंकि पत्नी को छोड़ कर कठिनाई को शराब में तो भुलाया जा सकता है, लेकिन शराब छोड़ कर पत्नी के साथ कुछ भुलावा नहीं, और शराब की ही याद आती। तो दो में से कुछ एक तय करना ही है।
और एक घटना उसके जीवन में है कि अंततः एक बार पत्नी उसे छोड़ कर ही चली गई। मुल्ला शराब सामने लिए अपने घर मे बैठा है, अकेला है। एक मित्र आया। न तो शराब पीता है, ढाल कर गिलास में रखी है--बैठा है। मित्र ने कहा: क्या पत्नी के चले जाने का दुख भुलाने की कोशिश कर रहे हो? मुल्ला ने कहा: मैं बड़ी परेशानी में हूं। दुख ही न बचा, भुलाऊं क्या! इसलिए शराब सामने रखे बैठा हूं, पीऊं भी तो क्यों! दुख ही न बचा तो भुलाऊं क्या, यही परेशानी में हूं।
विकल्प हैं, ऑल्टरनेटिव्स हैं। जिंदगी में प्रतिपल, प्रति कदम विकल्प हैं। क्योंकि जिंदगी द्वंद्व है। हमने एक विकल्प चुना हुआ है--शरीर मैं हूं, तो आत्मा को भूलना ही पड़ेगा। अगर आत्मा को स्मरण करना हो तो शरीर मैं हूं, यह विकल्प तोड़ना जरूरी है। और तोड़ने में जरा भी कठिनाई नहीं हैं, सिर्फ स्मृति को गहरा करने की बात है। आप वही हो जाते हैं जो आप मानते हैं। बुद्ध ने कहा है: विचार ही वस्तुएं बन जाते हैं। विचार ही सघन होकर वस्तुएं बन जाते हैं। शायद आपको कई बार ऐसा अनुभव हुआ हो कि जरा से विचार के परिवर्तन से आपके भीतर सब परिवर्तित हो जाता है।
अमरीका की एक बहुत बड़ी अभिनेत्री थी, ग्रेटा गारबो। उसने अपने जीवन संस्मरणों में लिखा है कि एक छोटे से विचार ने मेरे सारे तादात्म्य को, मेरी इमेज को तोड़ दिया। ग्रेटा गारबो एक छोटे से नाईबाड़े में, सैलून में, लोगों की दाढ़ी पर साबुन लगाने का काम ही करती थी--जब तक वह बाईस साल की हो गई तब तक। उसे पता ही नहीं था कि वह कुछ और भी हो सकती है और यह तो वह सोच भी नहीं सकती थी कि अमरीका की श्रेष्ठतम अभिनेत्री हो सकती है। और बाईस साल की उम्र तक जिस लड़की को अपने सौंदर्य का पता न चला हो, अब माना जा सकता है कि कभी पता न चलेगा।
उसने अपनी आत्म-कथा में लिखा है--लेकिन एक दिन क्रांति घटित हो गई। एक आदमी आया और मैं उसकी दाढ़ी पर साबुन लगा रही थी। उसे दो-चार पैसे दाढ़ी पर साबुन लगाने के मिल जाते थे। दिन भर वह लोगों की दाढ़ी पर साबुन लगाती रहती थी। उस आदमी ने आईने में देख कर कहा: कितनी सुंदर! और ग्रेटा गारबो ने लिखा है कि मैंने पहली दफा जिंदगी में किसी को कहते सुना--कितनी सुंदर! वह तो किसी ने कहा ही नहीं था, नाईबाड़े में दाढ़ी पर साबुन लगाने वाली लड़की की कौन फिकर करता है!
और ग्रेटा गारबो ने लिखा है कि मैने पहली दफा आईने में गौर से देखा, और मेरे भीतर सब बदल गया। मैंने उस आदमी से कहा कि तुम्हारा धन्यवाद, क्योंकि मुझे मेरे सौंदर्य का कोई पता ही न था। तुमने स्मृति दिली दी। उस आदमी ने दुबारा आईने में देखा और उस ग्रेटा गारबो की तरफ देखा और कहा कि लेकिन, क्या हुआ! जब मैंने कहा तो तू इतनी सुंदर न थी, मैंने तो सिर्फ एक औपचारिक शिष्टाचार के वश कहा, लेकिन अब मैं देखता हूं, तू सुंदर हो गई है। वह आदमी एक फिल्म डायरेक्टर था और ग्रेटा गारबो को अपने साथ ले गया। ग्रेटा गारबो श्रेष्ठतम सुंदरियों में एक बन गई।
हो सकता था, जिंदगी भर दाढ़ी पर साबुन लगाने का काम ही करती रहती। एक छोटा सा विचार, इमेज, वह जो प्रतिमा थी उसकी अपने मन में, वह बदल गई। असली सवाल आपके भीतर आपके तादात्म्य और आपकी प्रतिमा के बदलने का है। आप जन्मों-जन्मों से मान कर बैठे हैं कि शरीर हैं। बचपन से आपको सिखाया जा रहा है कि आप शरीर हैं। सब तरह से आपको भरोसा और विश्वास दिलाया जा रहा है कि आप शरीर हैं। यह ऑटो-हिप्नोसिस है, यह सिर्फ सम्मोहन है। आप कहेंगे कि सम्मोहन से कहीं इतनी बड़ी घटना घट सकती है? तो मैं आपको एक-दो घटनाएं कहूं तो शायद खयाल में आ जाए।
अमेजान में एक कबीला है आदिवासियों का। जो बहुत अनूठा है। जैसा मैंने आपसे पीछे कहा है कि फ्रेंच डॉक्टर लोरेंजो स्त्रियों को बिना दर्द के प्रसव करवा देता है सिर्फ धारणा बदलने से, सिर्फ यह कहने से कि दर्द तुम्हारा पैदा किया हुआ है। तुम शिथिल हो जाओ और बच्चा पैदा हो जाएगा बिना पीड़ा के। हम यह मान भी सकते हैं कि शायद समझाने बुझाने से स्त्री के मन पर ऐसा भाव पड़ जाता होगा, लेकिन दर्द तो होता ही है। लेकिन क्या आपको कभी कल्पना हो सकती है कि पत्नी को जब बच्चा पैदा होता हो तो पति के पेट में भी दर्द होता है? अमेजान में होता है और अमेजान में जब पत्नी को बच्चा होता है तो एक कोठरी में पत्नी बंद होती है, दूसरी कोठरी में पति बंद होता है। पत्नी नहीं रोती-चिल्लाती, पति रोता-चिल्लाता है। पत्नी को बच्चा होता है, पति को दर्द होता है! यह हजारों साल से हो रहा है। और जब पहली दफा अमेजान के कबीले में दूसरी जाति के लोग पहुंचे तो वे चकित हो गए कि यह क्या हो रहा है। यह क्या, हो क्या रहा है! यह तो भरोसे की बात ही नहीं मालूम पड़ती। लेकिन पता चला कि उनके कबीलों में स्त्रियों को कभी दर्द हुआ ही नहीं। जब दर्द होता है, पति को ही होता है, और डॉक्टरों ने परीक्षा की और पाया कि वह काल्पनिक नहीं है, दर्द पेट में हो रहा है। सारी अंतड़ियां सिकुड़ी जा रही हैं। जैसा पत्नी के पेट में होता है बच्चे के पैदा होते वक्त, वैसा पति को हो रहा है।
ये सब सम्मोहन हैं, जाति का सम्मोहन। जाति हजारों साल से ऐसा मानती रही, वही हो रहा है। वही हो रहा है, जो हम मानते हैं वही हो जाता है। पति को दर्द हो सकता है अगर जाति की यह धारणा हो। इसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि हम जीते सम्मोहन में हैं। हम जो मान कर जीते हैं वही सक्रिय हो जाता है। और हमारी चेतना की मानने की क्षमता अनंत है। यही हमारी स्वतंत्रता है, यही मनुष्य की गरिमा है। यही उसका गौरव है कि उसकी चेतना की क्षमता इतनी है कि वह जो मान ले वही घटित हो जाता है। अगर आपने मान लिया है कि आप शरीर हैं तो आप शरीर हो गए, और यह सिर्फ आपकी मान्यता है, जस्ट ए बिलीफ।यह सिर्फ आपका भरोसा है। यह सिर्फ आपका विश्र्वास है।
क्या आपको पता है कि ऐसे कबीले हैं जिनमें स्त्रियां ताकतवर हैं और पुरुष कमजोर हैं! क्योंकि वे कबीले सदा से ऐसे मानते रहे हैं कि स्त्री ताकतवर है, पुरुष कमजोर है। तो जैसे अगर कोई आदमी यहां कमजोरी दिखाए तो आप कहते हैं: कैसा नामर्द है। ऐसा उस कबीले में कोई नहीं कह सकता। क्योंकि मर्द का लक्षण ही यह है कि वह कमजोरी दिखाए। उस कबीले में अगर स्त्रियां कभी कमजोरी दिखाती हैं तो लोग कहते हैं कि कैसा मर्दों जैसा व्यवहार कर रही है! कमजोरी दिखाती हैं तो! मान्यता है।
आदमी मान्यता से जीने वाला प्राणी है। और हमारी मान्यता गहरी है कि हम शरीर हैं। यह इतनी गहरी है कि नींद में भी हमें खयाल रहता है कि हम शरीर हैं। बेहोशी में भी हमें पता रहता है कि हम शरीर हैं। इस मान्यता को तोड़ना कायोत्सर्ग की साधना का पहला चरण है। जो लोग ध्यान तक आए हैं उन्हें तो कठिनाई नहीं पड़ेगी, लेकिन आपको तो बिना ध्यान के समझना पड़ रहा है, इसलिए थोड़ी कठिनाई पड़ सकती है। लेकिन फिर भी पहला सूत्र यह है कि मैं शरीर नहीं हूं। इस सूत्र को अगर गहरा कर लें तो अदभुत परिणाम होने शरू हो जाते हैं।
उन्नीस सौ आठ में काशी के नरेश के अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ। और नरेश ने कह दिया कि मैं किसी तरह की बेहोशी की दवा नहीं लूंगा। क्योंकि मैं होश की साधना कर रहा हूं, इसलिए मैं कोई बेहोशी की दवा नहीं ले सकता हूं। ऑपरेशन जरूरी था, उसके बिना नरेश बच नहीं सकता था। चिकित्सक मुश्किल में थे। बिना बेहोशी के इतना बड़ा ऑपरेशन करना उचित न था। लेकिन किसी भी हालत में मौत होनी थी। नरेश मरेगा अगर ऑपरेशन न होगा, इसलिए एक जोखिम उठाना ठीक है कि होश में ही ऑपरेशन किया जाए। नरेश ने कहा कि सिर्फ मुझे आज्ञा दी जाए कि जब आप ऑपरेशन करें, तब मैं गीता का पाठ करता रहूं। नरेश गीता का पाठ करता रहा। बड़ा ऑपरेशन था, ऑपरेशन पूरा हो गया। नरेश हिला भी नहीं। दर्द का तो उसके चेहरे पर कोई पता न चला।
जिन छह डॉक्टरों ने वह ऑपरेशन किया, वे चकित हो गए। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि हम हैरान हो गए। और हमने नरेश से पूछा कि हुआ क्या? तुम्हें दर्द पता नहीं चला! नरेश ने कहा कि जब मैं गीता पढ़ता हूं और जब मैं पढ़ता हूं: ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे। शरीर के मरने से तू नहीं मरता। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। जब शस्त्र तुझे छेद दिए जाएं तो तू नहीं छिदता।’ तब मेरे भीतर ऐसा भाव जग जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं। बस इतना काफी है। जब मैं गीता नहीं पढ़ रहा होता हूं, तब मुझे शक पैदा होने लगता है। वह मेरी मान्यता कि मैं शरीर हूं, पीछे से लौटने लगती है। लेकिन जब मैं गीता पढ़ता होता हूं तब मुझे पक्का ही भरोसा हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं। उस वक्त तुम मुझे काट डालो, पीट डालो! मुझे पता भी नहीं चला। तुमने क्या किया है, मुझे पता नहीं। क्योंकि मैं उस भाव में डूबा था, जहां मैं जानता हूं कि शरीर छेद डाला जाए तो मैं नहीं छिदता, शरीर जला डाला जाए तो मैं नहीं जलता।
आपके भीतर भी भाव की स्थितियां हैं। आपका मन कोई एक फिक्स्ड, एक थिर चीज नहीं है। उसमें फ्लक्चुएशंस हैं, उसमें नीचे-ऊपर ज्योति होती रहती है। किसी क्षण में आप बहुत ज्यादा शरीर होते हैं, किसी क्षण में बहुत कम शरीर होते हैं। आप चौबीस घंटे आपके मन की भाव-दशा एक नहीं रहती। जब आप किसी एक सुंदर स्त्री को या सुंदर पुरुष को देख कर उसके पीछे चलने लगते हैं तब आप बहुत ज्यादा शरीर हो जाते हैं। तब आपका फ्लक्चुएशन भारी होता है। आप बिलकुल नीचे उतर आते हैं, जहां ‘मैं शरीर हूं।’
लेकिन जब आप मरघट पर किसी की लाश जलते देखते हैं तब आपका फ्लक्चुएशन बदल जाता है। अचानक मन के किसी कोने में शरीर को जलते देख कर शरीर की प्रतिमा खंडित होती है, टूटती है। उन क्षणों को पकड़ना जरूरी है, जब आप बहुत कम शरीर होते हैं। उन क्षणों में यह स्मरण करना बहुत कीमती है कि मैं शरीर नहीं हूं। क्योंकि जब आप बहुत ज्यादा शरीर होते हैं तब यह स्मरण करना बहुत काम नहीं करेगा, क्योंकि पर्त इतनी मोटी होती है कि आपके भीतर प्रवेश नहीं कर पाएगी। यह आपको ही जांचना पड़ेगा कि किन क्षणों में आप सबसे कम शरीर होते हैं--यद्यपि कुछ निश्र्चित क्षण हैं जिनमें सभी कम शरीर होते हैं। वह क्षण आपको कहूं तो वह कायोत्सर्ग में आपके लिए उपयोगी होंगे।
जब भी सूर्य डूबता है या उगता है तब आपके भीतर भी रूपांतरण होते हैं। अब तो वैज्ञानिक इस पर बहुत ज्यादा राजी हो गए हैं कि सुबह जब सूर्य उगता है तब सारी प्रकृति में ही रूपांतरण नहीं होता, आपके शरीर में भी... क्योंकि आपका शरीर प्रकृति का एक हिस्सा है। तब आकाश ही नहीं बदलता; आपके भीतर का आकाश भी बदलता है। तब पक्षी ही गीत नहीं गाते, तब पृथ्वी ही प्रफुल्लित नहीं हो जाती, तब वृक्ष ही फूल नहीं खिलाते; आपके भीतर भी वह जो मिट्टी है वह भी प्रफुल्लित हो जाती है। क्योंकि वह उस मिट्टी का हिस्सा है, वह कोई अलग चीज नहीं है। तब सागर में ही फर्क नहीं पड़ते; आपके भीतर भी जो जल है, उसमें भी फर्क पड़ते हैं।
और आप जान कर हैरान होंगे कि आपके भीतर जो जल है वह ठीक वैसा है जैसा सागर में है। उसमें नमक की उतनी ही मात्रा है जितनी सागर के जल में है। और आपके शरीर में थोड़ा बहुत जल नहीं है कोई पच्चासी प्रतिशत पानी है। वैज्ञानिक अब कहते हैं: जब सागर के पास आपको अच्छा लगता है तो अच्छा लगने का कारण आपके भीतर पच्चासी प्रतिशत सागर का होना है। और वह जो पच्चासी प्रतिशत सागर है आपके भीतर, वह बाहर के विराट सागर से आंदोलित हो जाता है। एक हॉर्मनी, एक रेजोनेंस, एक प्रतिध्वनि उसमें होनी शुरू हो जाती है। जब आपको जंगल में जाकर हरियाली को देख कर बहुत अच्छा लगता है, तो उसका कारण आप नहीं है, आपके शरीर का कण-कण जंगल की हरियाली रह चुका है। वह रेजोनेट होता है। वह हरे वृक्ष के नीचे जाकर कंपित होने लगता है। वह उससे संबंधित है, वह उसका हिस्सा है। इसलिए प्रकृति के पास जाकर आपको जितना अच्छा लगता है, उतनी आदमी की बनाई हुई चीजों के पास जाकर अच्छा नहीं लगता। क्योंकि वहां कोई रेजोनेंस पैदा नहीं होता। बम्बई की एक सीमेंट की सड़क पर उतना अच्छा नहीं लग सकता, जितना सोंधी मिट्टी की गंध आ रही हो और आप मिट्टी पर चल रहे हों और आपके पैर धूल को छू रहे हों। तब आपके शरीर और मिट्टी के बीच एक संगीत प्रवाहित होना शुरू हो जाता है।
जब सुबह सूरज निकलता है तो आपके भीतर भी बहुत कुछ घटित होता है, संक्रमण की बेला है। उसको भारत के लोगों ने संध्या कहा है। संध्या का अर्थ होता है: दि पीरियड ऑफ ट्रांजीशन, बदलाहट का वक्त। बदलाहट के वक्त में आपके भीतर आपकी जो व्यवस्थित धारणाएं हैं उनको बदलना आसान है। बदलाहट के वक्त में व्यवस्थित धारणाओं को बदलना आसान है क्योंकि सब अराजक हो जाता है। भीतर सब बदलाहट हो गई होती है, सब अस्त-व्यस्त हो गया होता है। इसलिए हमने संध्या को स्मरण का क्षण बनाया है।
संध्या--प्रार्थना, भजन, धुन, स्मरण, ध्यान का क्षण है। उस क्षण में आसानी से आप स्मरण कर सकते हैं। सुबह और सांझ कीमती वक्त है। रात्रि बारह बजे, जब रात्रि पूरी तरह सघन हो जाती है और सूर्य हमसे सर्वाधिक दूर होता है, तब भी एक बहुत उपयोगी क्षण है। तांत्रिकों ने उसका बहुत उपयोग किया है। महावीर रात-रातभर जाग कर खड़े रहे। महावीर ने उसका बहुत उपयोग किया। आधी रात जब सूरज आपसे सर्वाधिक दूर होता है तब भी आपकी स्थिति बहुत अनूठी होती है। आपके भीतर सब शांत हो गया होता है, जैसे प्रकृति में सब शांत हो गया होता है। वृक्ष झुक कर सो गए होते हैं, जमीन भी सो गई होती है--सब सो गया होता है, आपके शरीर में भी सब सो गया होता है। इस सोए हुए क्षण का भी आप उपयोग कर सकते हैं। शरीर जिद नहीं करेगा, आपके विरोध में, राजी हो जाएगा। जैसे आप कहेंगे: मैं शरीर नहीं हूं तो शरीर नहीं कहेगा कि हूं। शरीर सोया हुआ है। इस क्षण में आप कहेंगे कि मैं शरीर नहीं हूं तो शरीर कोई रेसिस्टेंस, कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं करेगा। इसलिए आधी रात का क्षण कीमती रहा है।
या फिर आपके--जब आप रात सोते हैं--जागने से जब आप सोने में जाते हैं, तब आपके भीतर गियर बदलता है। आपने कभी खयाल किया कार में गियर बदलते हुए, जब आप एक गियर से दूसरे गियर में गाड़ी को डालते हैं तो बीच में न्यूट्रल से गुजरते हैं, उस जगह से गुजरते हैं जहां कोई गियर नहीं होता, क्योंकि उसके बिना गुजरे आप दूसरे गियर में गाड़ी को डाल नहीं सकते।
तो जब रात आप सोते हैं, और जागने से नींद में जाते हैं तो आपकी चेतना का पूरा गियर बदलता है और एक क्षण को आप न्यूट्रल में, तटस्थ गियर में होते हैं। जहां न आप शरीर होते हैं, न आत्मा। जहां आपकी कोई मान्यता काम नहीं करती। उस क्षण में आप जो भी मान्यता दोहरा लेंगे वह आपमें गहरे प्रवेश कर जाएगी। इसलिए रात सोते वक्त दोहराते हुए सोना कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं शरीर नहीं हूं, मैं शरीर नहीं हूं। आप दोहराते रहें, आपको पता न चले कि कब नींद आ गई। आपका दोहराना तभी बंद हो जब अपने से बंद हो जाए। तो शायद उस क्षण के साथ संबंध बैठ जाए, और उस क्षण में और वह क्षण बहुत छोटा है--उस क्षण में अगर यह भाव प्रवेश कर जाए कि मैं शरीर नहीं हूं, जब आप चेतना रूपांतरित कर रहे हैं तो आपके गहरे अचेतन में चला जाएगा।
अभी रूस में उन्होंने एक शिक्षा की नई पद्धति है--हिप्नोपीडिया, नींद में शिक्षा देना--उसमें वे इस बात का प्रयोग कर रहे हैं। इसलिए बहुत पुराने दिनों से लोग प्रभु-स्मरण करते हुए, आत्म-स्मरण करते हुए सोते थे। मैं समझता हूं, आप नहीं सोते, आप शायद फिल्म की जो कहानी देख आए हैं, उसको दोहराते हुए सोते हैं। उस क्षण जो भी आप दोहरा रहे हैं वह आपके भीतर गहरा चला जाएगा। तो अगर आप गलत दोहरा रहे हैं तो आप आत्महत्या कर रहे हैं अपनी। आपको पता नहीं कि आप क्या कर रहे हैं।
हिप्नोपीडिया में रूस में आज कोई लाखों विद्यार्थी शिक्षा पा रहे हैं। रेडियो स्टेशन से ठीक वक्त पर उन सबको सूचना मिलती है कि वे दस बजे सो जाएं। जैसे ही वे दस बजे सो जाते हैं, दस बज कर पंद्रह मिनट पर उनके कान के पास तकिए में लगा हुआ यंत्र उन्हें सूचनाएं देना शुरू कर देता है। जो भी उन्हें सिखाना है--अगर उन्हें फ्रेंच भाषा सीखनी है तो फ्रेंच भाषा की सूचनाएं शुरू हो जाती हैं। और वैज्ञानिक चकित हुए हैं कि जागने में हम जो चीज तीन साल में सिखा सकते हैं वह सोने में हम तीन सप्ताह में सिखा सकते हैं।
और बहुत जल्द दुनिया में क्रांति घटित हो जाएगी और बच्चे स्कूल में दिन में न पढ़ कर रात में ही जाकर सो जाया करेंगे। दिन भर खेल सकते हैं, एक अर्थ में अच्छा होगा क्योंकि बच्चों का खेल छिन जाने से भारी नुकसान हुए हैं। वे उनको वापस मिल जाएंगे। या रात आपके घर में भी वे सो सकते हैं, स्कूल भी जाने की कोई जरूरत नहीं होगी। उनको वहां भी शिक्षा दी जा सकती है, वह कभी-कभी परीक्षा देने स्कूल जा सकते हैं। अभी तक नींद में परीक्षा लेने का कोई उपाय नहीं है, परीक्षा जागने में लेनी पड़ेगी शायद। लेकिन नींद के क्षण बहुत ज्यादा सूक्ष्म रूप से ग्राहक और रिसेप्टिव हैं, इस बात को वैज्ञानिकों ने स्वीकार कर लिया है।
इसमें भी सर्वाधिक ग्राहक क्षण वह है, जब आप जागने से नींद में बदलते हैं। ठीक इसी तरह सुबह जब आप नींद से जागने में बदलते हैं तब फिर एक ग्राहक क्षण आता है। उस क्षण भी आप स्मरण करते हुए उठें। जब सुबह नींद खुले तब आप स्मरण--पहला स्मरण यह करें कि मैं शरीर नहीं हूं। आंख बाद में खोलें। कुछ और बाद में सोचें। जैसे ही पता चले कि नींद टूट गई, पहला स्मरण कि मैं शरीर नहीं हूं। और ध्यान रहे, अगर आप रात आखिरी स्मरण यही किए हैं कि मैं शरीर नहीं हूं, तो सुबह अपने-आप यह पहला स्मरण बन जाएगा कि मैं शरीर नहीं हूं।
क्योंकि चित्त का जो लोग अध्ययन करते हैं वे कहते हैं: रात का आखिरी विचार सुबह का पहला विचार होता है। आप अपनी जांच करेंगे तो आपको पक्का पता चल जाएगा कि रात का आखिरी विचार सुबह का पहला विचार होता है। क्योंकि जहां से आप विचार को छोड़ कर सो जाते हैं, विचार वहीं प्रतीक्षा करता रहता है। सुबह जब आप जागते हैं वह फिर आप पर सवारी कर लेता है। जिस विचार को आप रात छोड़ कर सो गए हैं वह सुबह आपका पहला विचार बनेगा। अब अक्सर आप क्रोध, काम, लोभ के किसी विचार को रात छोड़ कर सो जाते हैं; सुबह से वह फिर आप पर सवारी कर लेता है।
यह बहुत ज्यादा सेंसिटिव, संवेदनशील क्षण है--सूर्य की बदलाहट या आपकी चेतना की बदलाहट। बीमारी से जब आप स्वस्थ हो रहे हों या स्वास्थ्य से जब आप अचानक बीमार हो गए हों, अगर रास्ते पर आप जा रहे हों और कार का एकदम से एक्सीडेंट हो जाए तो आप उस क्षण का उपयोग कर सकते हैं। अगर कार आपकी एकदम टकरा गई हो अचानक, तो उस वक्त आपके भीतर इतना परिवर्तन होता है, चेतना इतने जोर से, झटके से बदलती है कि अगर आप उस वक्त स्मरण कर लें कि मैं शरीर नहीं हूं, तो वर्षों स्मरण करने से जो नहीं होगा, वह एक स्मरण करने से हो जाएगा। लेकिन जब आपकी कार टकराती है तब आपको एकदम खयाल आता है कि मरा, मैं शरीर हूं, मरे, गए। एक्सीडेंट्स का, दुर्घटनाओं का उपयोग किया जा सकता है। मैं शरीर नहीं हूं, यह आपके भीतर गहरा जिस भांति भी बैठ सके, वह सब प्रयोग करने जैसे हैं। तो कायोत्सर्ग की पहली घटना घटती है। लेकिन वह नकारात्मक है। इतना काफी नहीं है कि मैं शरीर नहीं हूं।
दूसरा विधायक अनुभव भी जरूरी है कि मैं आत्मा हूं। इस विधायक अनुभव को भी स्मरण रखना कीमती है। इसको स्मरण रखने के भी क्षण हैं। इस स्मरण को रखने के भी संक्रमण काल हैं। इस स्मरण को गहरा करने का भी आपके भीतर अवसर और मौका है। कब? जैसे आप संभोग के बाद वापस लौट रहे हैं। जब आप संभोग के बाद वापस लौट रहे होते हैं--तो आप जान कर हैरान होंगे--उस वक्त आप सबसे कम शरीर हो जाते हैं। और कामवासना के बाद वापस लौटते हैं, तब आप सिर्फ फ्रस्ट्रेशन और विषाद में होते हैं। और ऐसा लगता है--व्यर्थ, भूल, गलती, अपराध में गए। न जाते तो बेहतर। यह ज्यादा देर नहीं टिकेगी बात। घड़ी दो घड़ी में आप अपनी जगह वापस आ जाएंगे। लेकिन संभोग के क्षण के बाद शरीर को इतने झटके लगते हैं कि उसके बाद आपको, शरीर नहीं हूं यह प्रतीति, और मैं आत्मा हूं यह प्रतीति करने का अदभुत मौका है।
तंत्र ने इसका पूरा उपयोग किया है। इसलिए आप... अगर कोई तंत्र से थोड़ा भी परिचित रहा है तो वह जान कर हैरान होगा कि तंत्र ने संभोग का भी उपयोग किया ध्यान के लिए। क्योंकि संभोग के बाद जितने गहरे में यह बात मन में उठाई जा सकती है कि मैं आत्मा हूं, उतनी किसी और क्षण में उठानी बहुत मुश्किल है। क्योंकि उस वक्त शरीर टूट गया होता है, शरीर की आकांक्षा बुझ गई होती है, शरीर के साथ तादात्म्य जोड़ने का भाव मर गया होता है। यह ज्यादा देर नहीं टिकेगा। और अगर आपकी आदत मजबूत हो गई है, तो आपको पता ही नहीं चलेगा। तो अक्सर लोग संभोग के बाद चुपचाप सो जाएंगे। सोने के सिवाय उन्हें कुछ भी नहीं सूझेगा। लेकिन संभोग के बाद का क्षण बहुत कीमती हो सकता है। लेकिन हमें तो खयाल भी नहीं रहता कि हम भूल करते हैं, अपराध करते हैं।
मैंने सुना है कि वेटिकन के पोप ने अपने एक वक्तव्य में कहा कि ईसाइयत में एक सौ तैंतालीस पाप हैं--निंदित पाप--ऐसा माना है। हजारों पत्र वेटिकन के पोप के पास पहुंचे कि हमें पता ही नहीं था कि इतने पाप हैं, कृपा करके पूरी सूची भेजें। वेटिकन का पोप बहुत हैरान हुआ कि इतने लोग क्यों उत्सुक हैं सूची के लिए? मुल्ला नसरुद्दीन ने भी उसको पत्र लिखा। उसने सच्ची बात लिख दी। उसने लिखा कि जब से तुम्हारा वक्तव्य पढ़ा है, तब से मुझे ऐसा लग रहा है कि कितना हम चूकते रहे। इतने पाप हैं, हमने किए ही नहीं। दो-चार पाप करके ही अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। जल्दी से भेजो, जिंदगी बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ रही है, जब से यह सुना कि एक सौ तैंतालीस पाप हैं। कितना हम मिस कर गए, कितना हम चूक गए, और जिंदगी थोड़ी बची है।
आदमी का जो मन है, वह ऐसा ही है। आपको खबर लगे कि एक सौ तैंतालीस पाप हैं तो आप भी घर जाकर सोचेंगे, गिनती करेंगे। कितने... दो-चार ही पांच गिनती में आते हैं। बहुत बड़े पापी हुए तो दस अंगुलियां काफी पड़ेंगी। एक सौ तैंतालीस! चूक गए, जिंदगी बेकार गई, खो गया मौका। इतने हो सकते थे और नहीं किए।
मुल्ला जिस दिन मर रहा था, पुरोहित ने उससे कहा कि अब क्षमा मांग ले परमात्मा से, पश्र्चात्ताप कर। मुल्ला ने कहा: क्या खाक पश्र्चात्ताप करूं! मैं पश्र्चात्ताप यह कर रहा हूं कि जो पाप मैंने नहीं किए, कर ही लिए होते तो अच्छा था। क्योंकि जब माफी ही मांगनी थी तो एक के लिए मांगी कि दस के लिए मांगी, क्या फर्क पड़ता है! और तुम कह रहे हो: परमात्मा दयालु है। अगर वह दयालु है तो एक भी माफ कर देता, दस भी माफ कर देता। हम नाहक परेशान हुए। माफी मांगनी ही पड़ेगी। वह दयालु भी है, निश्चित दयालु है। हम नाहक चूके।पूरे ही कर लेते। तो मैं पछता रहा हूं--मुल्ला ने कहा: जरूर पछता रहा हूं, लेकिन उन पापों के लिए, जो मैंने नहीं किए, उन पापों के लिए नहीं, जो मैंने किए।
मरते वक्त आदमी पछताता है उन पापों के लिए जो उसने नहीं किए। लेकिन किसी भी पाप को करने के बाद का जो क्षण है वह बड़ा उपयोगी है। अगर आपने क्रोध किया है, तो क्रोध के बाद का जो क्षण है उसका उपयोग करें कायोत्सर्ग के लिए। उस वक्त आसान होगा आपको मानना कि मैं आत्मा हूं। उस क्षण शरीर से दूर हटना आसान होगा। अगर शराब पी ली है और सुबह हैंगओवर चल रहा है, तो उस वक्त आसान होगा मानना कि मैं आत्मा हूं। उस वक्त शरीर के प्रति एक तरह की ग्लानि का भाव और शरीर अपराधों में ले जाता है, इस तरह का भाव सहज, सरलता से पैदा हो जाता है। जब बीमारी से उठ रहे हैं तब बहुत आसान होगा मानना। अस्पताल में जाकर खड़े हो जाएं, वहां मानना बहुत आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। जाएं, वहां विचित्र-विचित्र प्रकार से लोग लटके हुए हैं, किसी की टांगें बंधी हुई हैं, किसी की गर्दन बंधी हुई है। वहां खड़े होकर पूछें कि मैं शरीर हूं? तो शरीर हूं तो वह जो सामने लटके हुए रूप दिखाई पड़ेंगे वही हूं। वहां आसान होगा। मरघट पर जाकर आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। जिन क्षणों में भी आसानी लगे स्मरण करने की मैं आत्मा हूं, उनको चूकें मत, स्मरण करें। दो स्मरण जारी रखें--निषेध रूप से--मैं शरीर नहीं हूं; विधेय रूप से--मैं आत्मा हूं।
और तीसरी आखिरी बात--शरीर का जो तत्व है, वह उसी तत्व से संबंधित है जो हमारे बाहर फैला हुआ है। मेरी आंख में जो प्रकाश है, वह सूरज का; मेरे हाथों में जो मिट्टी है, वह पृथ्वी की; मेरे शरीर में जो पानी है, वह पानी का; इसको स्मरण रखें। और निरंतर समर्पित करते रहें जो जिसका है उसी का है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे आपके भीतर वह चेतना अलग खड़ी होने लगेगी जो शरीर नहीं है। और वह चेतना खड़ी हो जाए और ध्यान के साथ उस चेतना का प्रयोग हो, तो आप कायोत्सर्ग कर पाएंगे।
जब ध्यान अपनी प्रगाढ़ता में आएगा, परिपूर्णता में, और शरीर लगेगा छूटता है, तब आपका मन पकड़ने का नहीं होगा। आप कहेंगे: छूटता है तो धन्यवाद। जाता है तो धन्यवाद। जाए तो जाए, धन्यवाद! इतनी सरलता से जब आप ध्यान में, शरीर से अपने को छोड़ने में समर्थ हो जाएंगे, उसी दिन आप मृत्यु के पार और अमृत के अनुभव को उपलब्ध हो जाएंगे। उसके बाद फिर कोई मृत्यु नहीं है। मृत्यु शरीर-मोह का परिणाम है। अमृत्व का बोध शरीर-मुक्ति का परिणाम है। इसे महावीर ने बारहवां तप कहा है और अंतिम। क्योंकि इसके बाद कुछ करने को शेष नहीं रह जाता। इसके बाद वह पा लिया जिसे पाने के लिए दौड़ थी; वह जान लिया जिसे जानने के लिए प्राण प्यासे थे। वह जगह मिल गई जिसके लिए इतने रास्तों पर यात्रा की थी। वह फूल खिल गया, वह सुगंध बिखर गई, वह प्रकाश जल गया जिसके लिए अनंत-अनंत जन्मों तक का भटकाव था।
कायोत्सर्ग विस्फोट है, एक्सप्लोजन है। लेकिन उसके लिए भी तैयारी करनी पड़ेगी। उसके लिए यह तैयारी करनी पड़े और ध्यान के साथ उस तैयारी को जोड़ देना पड़ेगा। ध्यान और कायोत्सर्ग जहां मिल जाते हैं, वहीं व्यक्ति अमृत्व को पा लेता है।
ये महावीर के बारह तप मैंने कहे। एक ही सूत्र पूरा हो पाया, कहूं, अभी एक ही पंक्ति पूरी ही पाई, उसकी दूसरी पंक्ति बाकी है। लेकिन उसमें ज्यादा कहने को नहीं है। दूसरी पंक्ति इसकी बाकी है। महावीर ने कहा है: ‘धर्म मंगल है। कौन सा धर्म? अहिंसा, संयम, तप। और जो इस धर्म को उपलब्ध हो जाते हैं, जो इस धर्म में लीन हो जाते हैं, उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं।’ यह दूसरा हिस्सा इस सूत्र का है।
सुनते वक्त आपको खयाल में भी न आया होगा कि महावीर जब यह कह रहे हैं कि उसे देवता भी नमस्कार करते हैं, तो कोई बहुत बड़ी क्रांतिकारी बात कह रहे हैं। महावीर के इस वक्तव्य के पहले आदमी देवताओं को नमस्कार करता रहा था। इसके पहले कभी किसी देवता ने आदमी को नमस्कार नहीं किया था। यह पहला वक्तव्य है संगृहीत, जिसमें महावीर ने कहा है कि ऐसे मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं। सारा वैदिक धर्म देवताओं को नमस्कार करने वाला है। यह आपके सुनते वक्त रोज यह दोहराया गया, आपको खयाल में न आया होगा कि इसमें कोई खास बात है, कोई बड़ा क्रांति का सूत्र है। महावीर जिस समाज में पैदा हुए थे, वह सब देवताओं को नमस्कार करने वाला समाज था। उस समाज में महावीर का यह कहना कि ऐसे मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं, बड़ा क्रांतिकारी वक्तव्य था। हम भी सोचेंगे कि देवता क्यों नमस्कार करेंगे मनुष्य को! देवता तो मनुष्य से ऊपर हैं।
महावीर नहीं कहते। महावीर कहते हैं: मनुष्य से ऊपर कोई भी नहीं है। इसलिए मनुष्य की डिग्निटी और मनुष्य की गरिमा और गौरव का ऐसा वक्तव्य दूसरा नहीं है। महावीर कहते हैं: मनुष्य से ऊपर कुछ भी नहीं है, लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं कि मनुष्य से नीचे जाने वाला भी और कोई नहीं है। मनुष्य इतने नीचे जा सकता है कि पशु उससे ऊपर पड़ जाएं और मनुष्य इतने ऊपर जा सकता है कि देवता उससे नीचे पड़ जाएं। मनुष्य इतना गहरा उतर सकता है पाप में कि कोई पशु न कर सके।सच तो यह है पशु क्या पाप करते हैं! आदमी को देख कर पशु के पाप का कोई अर्थ नहीं रह जाता। तो मनुष्य नरक तक नीचे उतर सकता है और स्वर्ग तक ऊपर जा सकता है। देवता पीछे पड़ जाएं, वह वहां खड़ा हो सकता है; पशु आगे निकल जाएं, वहां वह उतर सकता है। मनुष्य की यह जो संभावना है, यह संभावना विराट है। इस संभावना में पाप भी आ जाते, पुण्य भी आ जाते; नरक भी आ जाता, स्वर्ग भी आ जाता है।
लेकिन देवताओं के ऊपर क्या स्थिति बनती होगी? तो महावीर ने कहा है कि नरक मनुष्य के दुखों का फल है, स्वर्ग मनुष्य के पुण्यों का फल है। लेकिन नरक भी चुक जाता है, पाप का फल भी समाप्त हो जाता है; स्वर्ग भी चुक जाता है, पुण्य का फल भी समाप्त हो जाता है। सिर्फ एक जगह कभी समाप्त नहीं होती, जब कोई आदमी पाप और पुण्य दोनों के पार उठ जाता है। पुण्य भी कर्म है, पाप भी कर्म है। पाप से भी बंधन लगता है--महावीर ने कहा है: वह बंधन लोहे की जंजीरों जैसा है। पुण्य से भी बंधन लगता है, वह सोने के आभूषणों जैसा है। लेकिन दोनों में बंधन है। महावीर कहते हैं: वह मनुष्य जो पाप और पुण्य दोनों के पार उठ जाता है, जो कर्म के ही पार उठ जाता है और स्वभाव में ठहर जाता है, वह देवताओं के भी ऊपर उठ जाता है। वह स्वर्ग के भी ऊपर उठ जाता है।
तो आपने दो शब्द सुने हैं महावीर तक, और अनेक धर्म दो शब्दों का उपयोग करते हैं: स्वर्ग और नरक। महावीर एक नये शब्द का भी उपयोग करते हैं: ‘मोक्ष।’ तीन शब्द उपयोग करते हैं महावीर। ‘नरक’ वे कहते हैं उस चित्त दशा को जहां पाप का फल मिलता; ‘स्वर्ग’ वे कहते हैं उस चित्त दशा को जहां पुण्य का फल मिलता; ‘मोक्ष’ वे कहते हैं उस चेतना की अवस्था को जहां सब कर्म समाप्त हो जाते हैं और चेतना अपने स्वभाव में लीन हो जाती है। निश्चित ही वैसी चित्त दशा में देवता भी प्रणाम करें मनुष्य को, तो आश्र्चर्य नहीं। अभी तो पशु भी हंसते हैं।
मैंने एक मजाक सुनी है। मैंने सुना है कि तीसरा महायुद्ध हो गया, सब समाप्त हो गया। कहीं कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ती। एक घाटी में एक गुफा से एक बंदर बाहर निकला, उसके पीछे उसकी प्रेयसी बाहर निकली। वह बंदर उदास बैठ गया और उसने अपनी प्रेयसी से कहा: क्या सोचती हो, शैल वी स्टार्ट इट ऑल ओवर अगेन? क्या हम आदमी को अब फिर पैदा करें, फिर से दुनिया शुरू करें? डार्विन कहता है: आदमी बंदरों से आया। कभी तीसरा महायुद्ध हो जाए तो बंदरों को चिंता फिर होगी कि क्या करें? लेकिन वह बंदर कहता है, शैल वी स्टार्ट इट ऑल ओवर अगेन? क्या फिर करने जैसा भी है या अब रहने दें?
सुना है मैंने कि जब डार्विन ने कहा कि आदमी बंदरों से पैदा हुआ है तो आदमी ही नाराज नहीं हुए, बंदर भी बहुत नाराज हुए। क्योंकि बंदर आदमी को सदा अपने एक अंश की तरह देखते रहे हैं, जो रास्ते से भटक गया। लेकिन जब डार्विन ने कहा: यह एवोल्यूशन है, विकास है, तो बंदर नाराज हुए। उन्होंने कहा: इसको हम विकास कभी नहीं मानते। यह आदमी हमारा पतन है। लेकिन बंदरों की खबर हम तक नहीं पहुंची। आदमी बहुत नाराज हुए, क्योंकि आदमी मानते थे, हम ईश्र्वर से पैदा हुए हैं और डार्विन ने कहा बंदर से, तो आदमी को बहुत दुख लगा। उसने कहा: यह कैसे हो सकता है, हम ईश्र्वर के बेटे! लेकिन बंदर भी बहुत नाराज हुए।
निश्चित ही आदमी को देख कर बंदर भी हंसते होंगे। आदमी जैसा है वैसा तो पशु भी उसको प्रणाम न करेंगे। महावीर तो आदमी की उस स्थिति की बात कर रहे हैं जैसा वह हो सकता है; जो उसकी अंतिम संभावना है, जो उसमें प्रकट हो सकता है। जब उसका बीज पूरा खिल जाए और फूल बन जाए तो निश्चित ही देवता भी उसे नमस्कार करते हैं।
इतना ही।
दो सौ चौदह सूत्र हैं। एक सूत्र तो पूरा हुआ। लेकिन इस सूत्र को मैंने इस भांति बात की है कि अगर यह एक सूत्र भी आपकी जिंदगी में पूरा हो जाए तो बाकी दो सौ तेरह की कोई जरूरत नहीं है। सागर की एक बूंद भी हाथ में आ जाए तो सागर का सब राज हाथ में आ जाता है और एक बूंद के रहस्य को भी कोई समझ ले तो पूरे सागर का भी रहस्य समझ में आ जाता है। दूसरी बूंद का तो इसलिए समझना पड़ता है कि एक बूंद से नहीं समझ पड़ा तो फिर दूसरी बूंद का समझना पड़ता है, फिर तीसरी बूंद का समझना पड़ता है। लेकिन एक बूंद भी अगर पूरी समझ में आ जाए तो सागर में जो भी है वह एक बूंद में छिपा है।
इस एक सूत्र में मैंने कोशिश की कि धर्म की पूरी बात आपके खयाल में आ जाए। खयाल में शायद आ भी जाए, लेकिन खयाल कितनी देर टिकता है! धुएं की तरह खो जाता है। खयाल से काम नहीं चलेगा। जब बात खयाल में हो, तभी जल्दी करना कि किसी तरह वह कृत्य बन जाए, जीवन बन जाए--जल्दी करना। कहते हैं कि जब लोहा गर्म हो तभी चोट कर देना चाहिए। अगर थोड़ा भी लोहा गर्म हुआ हो, तो उस पर चोट करना शुरू कर देनी चाहिए। समझने से कुछ समझ में न आएगा, इतना ही समझ में आ जाए कि समझने से करने की कोई दिशा खुलती है, तो पर्याप्त है।
अभी रुकेंगे पांच मिनट, आखिरी दिन का कीर्तन करेंगे। फिर हम जाएंगे...!
धम्मो मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया मणो।।
धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?) अहिंसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
महावीर के साधना-सूत्रों में आज बारहवें और अंतिम तप पर बात करनी है।
अंतिम तप को महावीर ने कहा है: कायोत्सर्ग--शरीर का छूट जाना।
मृत्यु में तो सभी का शरीर छूट जाता है। शरीर तो छूट जाता है मृत्यु में, लेकिन मन की आकांक्षा शरीर को पकड़ रखने की नहीं छूटती है। इसलिए जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह वास्तविक मृत्यु नहीं है, केवल नये जन्म का सूत्रपात है। मरते क्षण में भी मन शरीर को पकड़ रखना चाहता है। मरने की पीड़ा ही यही है कि जिसे हम नहीं छोड़ना चाहते, वह छूट रहा है। बेचैनी यही है कि जिसे हम पकड़ रखना चाहते हैं, उसे नहीं पकड़ रख पा रहे हैं। दुख यही है कि जिसे समझा था कि मैं हूं, वही नष्ट हो रहा है।
मृत्यु में जो घटना सभी को घटती है, वही घटना ध्यान में उनको घटती है जो ग्यारहवें चरण तक की यात्रा कर लिए होते हैं। ठीक मृत्यु जैसी ही घटना घटती है। कायोत्सर्ग का अर्थ है: उस मृत्यु के लिए सहज स्वीकृति का भाव। वह घटेगी। जब ध्यान प्रगाढ़ होगा, तो ठीक मृत्यु जैसी ही घटना घटेगी। लगेगा साधक को कि मिटा, समाप्त हुआ। इस क्षण में शरीर को पकड़ने का भाव न उठे, इसी की साधना का नाम कायोत्सर्ग है। ध्यान के क्षण में जब मृत्यु जैसी प्रतीति होने लगे, तब शरीर को पकड़ने की आकांक्षा, अभीप्सा न उठे, यह शरीर का छूटता हुआ रूप स्वीकृत हो जाए, सहर्ष, शांति से, अहोभाव से, यह शरीर को विदा देने की क्षमता आ जाए, उस तप का नाम कायोत्सर्ग है।
मृत्यु और ध्यान की समानता को समझ लेना जरूरी है, तभी कायोत्सर्ग समझ में आएगा। मृत्यु में यही होता है कि शरीर आपका चुक गया; अब और जीने, और काम करने में असमर्थ हुआ; तो आपकी चेतना शरीर को छोड़ कर हटती है, अपने स्रोत में सिकुड़ती है। लेकिन चेतना सिकुड़ती है स्रोत में, फिर भी चित्त पकड़े रखना चाहता है। जैसे किनारा कोई आपके हाथ से खिसका जाता हो; जैसे नाव कोई आपसे दूर हटी जाती हो। शरीर को हम जोर से पकड़ रखना चाहते हैं, और शरीर व्यर्थ हो गया; चुक गया; तो तनाव पैदा होता है। जो जा रहा है उसे रोकने की कोशिश से तनाव पैदा होता है। उसी तनाव के कारण मृत्यु में मूर्च्छा आ जाती है। क्योंकि नियम है, एक सीमा तक हम तनाव को सह सकते हैं, एक सीमा के बाद तनाव बढ़ जाए तो चित्त मूर्च्छित हो जाता है, बेहोश हो जाता है।
मृत्यु में इसीलिए हर बार हम बेहोश मरते हैं। और इसलिए अनेक बार मर जाने के बाद भी हमें याद नहीं रहता कि हम पीछे भी मर चुके हैं। और इसलिए हर जन्म नया जन्म मालूम होता है। कोई जन्म नया जन्म नहीं है। सभी जन्मों के पीछे मौत की घटना छिपी है। लेकिन हम इतने बेहोश हो गए होते हैं कि हमारी स्मृति में उसका कोई निशान नहीं छूट जाता। और यही कारण है कि हमें पिछले जन्म की स्मृति भी नहीं रह जाती, क्योंकि मृत्यु की घटना में हम इतने बेहोश हो जाते हैं, वही बेहोशी की पर्त हमारे पिछले जन्म की स्मृतियों को हमसे अलग कर देती है। एक दीवाल खड़ी हो जाती है। हमें कुछ भी याद नहीं रह जाता। फिर हम वही शुरू कर देते हैं जो हम बार-बार शुरू कर चुके हैं।
ध्यान में भी यही घटना घटती है, लेकिन शरीर के चुक जाने के कारण नहीं, मन की आकांक्षा के चुक जाने के कारण, यह फर्क होता है। शरीर तो अभी भी ठीक है लेकिन मन की शरीर को पकड़ने की जो वासना है वह चुक गई। अब कोई मन पकड़ने का न रहा। तो शरीर और चेतना अलग हो जाते हैं, बीच का सेतु टूट जाता है। जोड़ने वाला हिस्सा है मन, आकांक्षा, वासना वह टूट जाती है। जैसे कोई सेतु गिर जाए और नदी के दोनों किनारे अलग हो जाएं, ऐसे ही ध्यान में विचार और वासना के गिरते ही चेतना अलग और शरीर अलग हो जाता है। उस क्षण तत्काल हमें लगता है कि मृत्यु घटित हो रही है। और साधक का मन होता है--वापस लौट चलूं, यह तो मौत आ गई। और अगर साधक वापस लौट जाए तो बारहवां चरण घटित नहीं हो पाता। अगर साधक वापस लौट जाए तो ध्यान भी अपनी पूरी परिणति पर नहीं पहुंच पाता। अगर साधक वापस लौट जाए भयभीत होकर इस बारहवें चरण से, तो सारी साधना व्यर्थ हो जाती है। इसलिए महावीर ने ध्यान के बाद कायोत्सर्ग को अंतिम तप कहा है।
जब यह सेतु टूटे तो इसे खड़े हुए देखते रहना कि सेतु टूट रहा है। और जब शरीर और चेतना अलग हो जाएं ध्यान में तो भयभीत न होना। अभय से साक्षी बने रहना। एक क्षण की ही बात है। एक क्षण ही अगर कोई ठहर गया कायोत्सर्ग में, तो फिर तो कोई भय नहीं रह जाता। फिर तो मृत्यु भी नहीं रह जाती। जैसे ही शरीर और चेतना एक क्षण को भी अलग होकर दिखाई पड़ गए, उसी दिन से मृत्यु का सारा भय समाप्त हो गया। क्योंकि अब आप जानते हैं, आप शरीर नहीं हैं, आप कोई और हैं। और जो आप हैं, शरीर नष्ट हो जाए तो भी वह नष्ट नहीं होता है। यह प्रतीति, यह अमृत का अनुभव, यह मृत्यु के जो अतीत है उस जगत में प्रवेश कायोत्सर्ग के बिना नहीं होता है।
लेकिन परंपरा कायोत्सर्ग का कुछ और ही अर्थ करती रही है। परंपरा अर्थ कर रही है कि काया पर दुख आएं, पीड़ाएं आएं, तो उन्हें सहज भाव से सहना। कोई सताए तो उसे सहज भाव से सहना। बीमारी आए तो उसे सहज भाव से सहना। कष्ट आएं, कर्मों के फल आएं तो उन्हें सहज भाव से सहना। यह कायोत्सर्ग का अर्थ नहीं है, क्योंकि यह तो काया-क्लेश में ही समाविष्ट हो जाता है। यह तो बाह्य-तप है। अगर यही कायोत्सर्ग का अर्थ है तो महावीर पुनरुक्ति कर रहे हैं, क्योंकि काया-क्लेश में, बाह्य-तप में इसकी बात हो गई है। महावीर जैसे व्यक्ति पुनरुक्ति नहीं करते। वे कुछ कहते हैं तभी, जब कुछ कहना चाहते हैं। अकारण नहीं कहते हैं। कायोत्सर्ग का यह अर्थ नहीं है। कायोत्सर्ग का तो अर्थ है काया को चढ़ा देने की तैयारी, काया को छोड़ देने की तैयारी, काया से दूर हो जाने की तैयारी, काया से भिन्न हूं, ऐसा जान लेने की तैयारी; काया मरती हो तो भी देखता रहूंगा, ऐसा जान लेने की तैयारी।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को मरघट पर भेजते थे कि वे मरघट पर रहें और लोगों की लाशों को देखें--जलते, गड़ाए जाते, पक्षियों द्वारा चीरे-फाड़े जाते, मिट्टी में मिल जाते। भिक्षु बुद्ध से पूछते कि यह किसलिए? तो बुद्ध कहते: ताकि तुम जान सको कि काया में क्या-क्या घटित हो सकता है। और जो-जो एक की काया मे घटित होता है वही-वही तुम्हारी काया में भी घटित होगा। इसे देख कर तुम तैयार हो सको, मृत्यु को देख कर तुम तैयार हो सको कि मृत्यु घटित होगी। लेकिन कोई भिक्षु कहता कि अभी तो मृत्यु को देर है, मैं युवा हूं। तो बुद्ध कहते: मैं उस मृत्यु की बात नहीं करता; मैं तो उस मृत्यु की तैयारी करवा रहा हूं जो ध्यान में घटित होती है। ध्यान महामृत्यु है--मृत्यु ही नहीं महामृत्यु। क्योंकि ध्यान में अगर मृत्यु घटित हो जाती है तो फिर कोई जन्म नहीं होता। साधारण मृत्यु के बाद जन्म की श्रृंखला जारी रहती है। ध्यान की मृत्यु के बाद जन्म की श्रृंखला नहीं रहती।
इसलिए महावीर इसे कायोत्सर्ग कहते हैं--काया का सदा के लिए बिछुड़ना हो जाता है। फिर दुबारा काया नहीं है, फिर दुबारा काया में लौटना नहीं है। फिर शरीर में पुनरागमन नहीं है, फिर संसार में वापसी नहीं है। कायोत्सर्ग पॉइंट ऑफ नो रिटर्न है, उसके बाद लौटना नहीं है।
लेकिन कायोत्सर्ग तक से हम लौट सकते हैं। जैसे पानी को हम गर्म करते हों, निन्यानबे डिग्री से भी पानी लौट सकता है भाप बने बिना। साढ़े निन्यानबे डिग्री से भी लौट सकता है। सौ डिग्री के पहले जरा सा फासला रह जाए तो पानी वापस लौट सकता है, गर्मी खो जाएगी थोड़ी देर में, पानी फिर ठंडा हो जाएगा। ध्यान से भी वापस लौटा जा सकता है, जब तक कि कायोत्सर्ग घटित न हो जाए। आपने एक शब्द सुना होगा ‘भ्रष्ट योगी;’ पर कभी खयाल न किया होगा कि भ्रष्ट योगी का क्या अर्थ होता है। शायद आप सोचते होंगे कि कोई भ्रष्ट काम करता है, ऐसा योगी। भ्रष्ट योगी का अर्थ होता है: जो कायोत्सर्ग के पहले ध्यान से वापस लौट आया। ध्यान तक चला गया, लेकिन ध्यान के बाद जो मौत की घबड़ाहट पकड़ी तो वापस लौट आया। फिर उसका जन्म होगा। इसे भ्रष्ट योगी कहेंगे।
भ्रष्ट योगी का अर्थ यह है कि निन्यानबे डिग्री तक पहुंच कर जो वापस लौट आया। सौ डिग्री तक पहुंच जाता तो भाप बन जाता, तो रूपांतरण हो जाता। तो नया जीवन शुरू हो जाता, तो नई यात्रा प्रारंभ हो जाती। ध्यान निन्यानबे डिग्री तक ले जाता है। सौवीं डिग्री पर तो आखिरी छलांग पूरी करनी पड़ती है। वह है शरीर को उत्सर्ग कर देने की छलांग।
लेकिन हम अपनी तरफ से समझें, जहां हम खड़े हैं। जहां हम खड़े हैं वहां शरीर मालूम पड़ता है, मेरा है। ऐसा भी नहीं, सच में तो ऐसा मालूम पड़ता है कि मैं शरीर हूं। हमें कभी कोई एहसास नहीं होता कि शरीर से अलग भी हमारा कोई होना है। शरीर ही मैं हूं। तो शरीर पर पीड़ा आती है तो मुझ पर पीड़ा आती है, शरीर को भूख लगती है तो मुझे भूख लगती है, शरीर को थकान होती है तो मैं थक जाता हूं। शरीर और मेरे बीच एक तादात्म्य है, एक आइडेंटिटी है, हम जुड़े हैं, संयुक्त हैं। हम भूल ही गए हैं कि मैं शरीर से पृथक कुछ भी हूं। एक इंच भर भी हमारे भीतर ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जिसे मैंने शरीर से अन्य जाना हो।
इसलिए शरीर के सारे दुख हमारे दुख हो जाते हैं, शरीर के सारे संताप हमारे संताप हो जाते हैं, इसीलिए शरीर का जन्म हमारा जन्म बन जाता है; शरीर का बुढ़ापा हमारा बुढ़ापा बन जाता है; शरीर की मृत्यु हमारी मृत्यु बन जाती है। शरीर पर जो घटित होता है, लगता है वह मुझ पर घटित हो रहा है। इससे बड़ी कोई भ्रांति नहीं हो सकती। लेकिन हम बाहर से ही देखने के आदी हैं, शरीर से ही पहचानने के आदी हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन का पिता अपने जमाने का अच्छा वैद्य था। बूढ़ा हो गया है बाप। तो नसरुद्दीन ने कहा: अपनी कुछ कला मुझे भी सिखा जाओ। कई दफे तो मैं चकित होता हूं देख कर कि नाड़ी तुम बीमार की देखते हो और ऐसी बातें कहते हो जिनका नाड़ी से कोई संबंध नहीं मालूम पड़ता। यह कला थोड़ी मुझे भी बता जाओ।
बाप को कोई आशा तो न थी कि नसरुद्दीन यह सीख पाएगा, लेकिन नसरुद्दीन को लेकर वह अपने मरीजों को देखने गया। एक मरीज को उसने नाड़ी पर हाथ रख कर देखा और फिर कहा कि देखो, केले खाने बंद कर दो। उसी से तुम्हें तकलीफ हो रही है। नसरुद्दीन बहुत हैरान हुआ। और नाड़ी से केले की कोई खबर मिल नहीं सकती। बाहर निकलते ही उसने बाप से पूछा; बाप ने कहा: तुमने खयाल नहीं किया, मरीज को ही नहीं देखना पड़ता, आस-पास भी देखना पड़ता है। खाट के पास नीचे केले के छिलके पड़े थे। उससे अंदाज लगाया।
दूसरी बार नसरुद्दीन गया, बाप ने नाड़ी पकड़ी मरीज की और कहा कि देखो, बहुत ज्यादा श्रम मत उठाओ। मालूम होता है, पैरों से ज्यादा चलते हो। उसी की थकान है। अब तुम्हारी उम्र इतने चलने लायक नहीं रही, थोड़ा कम चलो। नसरुद्दीन हैरान हुआ। चारों तरफ देखा, कहीं कोई छिलके भी नहीं हैं, कहीं कोई बात भी नहीं है। बाहर आकर पूछा कि हद हो गई, नाड़ी से... चलता है आदमी ज्यादा! बाप ने कहा: तुमने देखा नहीं, उसके जूते के तल्ले बिलकुल घिसे हुए थे। उन्हीं को देख कर...। नसरुद्दीन ने कहा: तो अब अगली बार तीसरे मरीज को मैं ही देखता हूं। अगर ऐसे ही पता लगाया जा रहा है तो हम भी कुछ पता लगा लेंगे। तीसरे घर पहुंचे, बीमार स्त्री का हाथ नसरुद्दीन ने अपने हाथ में लिया। चारों तरफ नजर डाली, कुछ दिखाई न पड़ा। खाट के नीचे नजर डाली। फिर मुस्कुराया। फिर स्त्री से कहा कि देखो, तुम्हारी बेचैनी का कुल कारण इतना है कि तुम जरा ज्यादा धार्मिक हो गई हो। वह स्त्री बहुत घबड़ाई। और चर्च जाना थोड़ा कम करो, बंद कर सको तो बहुत अच्छा। बाप भी थोड़ा हैरान हुआ। लेकिन स्त्री राजी हुई। उसने कहा कि क्षमा करें, हद हो गई कि आप नाड़ी से पहचान गए। क्षमा करें, यह भूल अब दोबारा न करूंगी।
तो बाप और हैरान हुआ। बाहर निकल कर बेटे को पूछा, कि हद्द कर दी तूने। तू मुझसे आगे निकल गया। धर्म! थोड़ा धर्म में कम रुचि लो, चर्च जाना कम करो, या बंद कर दो तो अच्छा हो, और स्त्री राजी भी हो गई! बात क्या थी? नसरुद्दीन ने कहा: मैंने चारों तरफ देखा, कहीं कुछ नजर न आया। खाट के नीचे देखा तो पादरी को छिपा हुआ पाया। इस स्त्री की यही बीमारी है। और देखा आपने कि आपके मरीज तो सुनते रहे, मेरा मरीज एकदम बोला कि क्षमा कर दो, अब ऐसी भूल कभी नहीं होगी।
लेकिन नसरुद्दीन वैद्य बन न पाया। बाप के मर जाने के बाद नसरुद्दीन दो चार मरीजों के पास भी गया तो मुसीबत में पड़ा। जो भी मरीज उससे चिकित्सा करवाए, वे जल्दी ही मर गए। निदान तो उसने बहुत किए, लेकिन कोई निदान किसी मरीज को ठीक न कर पाया। तो नसरुद्दीन बुढ़ापे में कहता हुआ सुना गया है कि मेरा बाप मुझे धोखा दे गया। जरूर कोई भीतरी तरकीब रही होगी, वह मुझे सिर्फ बाहर के लक्षण बता गया।
बाप ने बाहर के लक्षण सिर्फ भीतरी लक्षणों की खोज के लिए कहे थे। और सदा ऐसा होता है। महावीर ने बाहर के लक्षण कहे हैं भीतर की पकड़ के लिए। परंपरा बाहर के लक्षण पकड़ लेती है और फिर धीरे-धीरे बाहर के लक्षण ही हाथ में रह जाते हैं। और फिर भीतर के सब सूत्र खो जाते हैं। नाड़ी से कोई मतलब ही नहीं रह जाता आखिर में। तो नसरुद्दीन को यह भी पक्का पता नहीं रहता था कि नाड़ी अंगुलियों के नीचे है भी या नहीं। वह तो आस-पास देख कर निदान कर लेता था। सारी परंपराएं धीरे-धीरे बाह्य हो जाती हैं और नाड़ी से उनका हाथ छूट जाता है। तो कायोत्सर्ग का मतलब केवल इतना ही रह गया कि अपनी काया को जब भी कष्ट आए, तो उसे सह लेना। लेकिन ध्यान रहे, काया अपनी है, यह कायोत्सर्ग की परंपरा में स्वीकृत है। यह जो झूठी बाह्य परंपरा है वह भी कहती है: अपनी काया पर कोई कष्ट आए तो सह लेना। वह यह भी कहती है कि अपनी काया को उत्सर्ग करने की तैयारी रखना, लेकिन अपनी वह काया है, यह बात नहीं छूटती।
महावीर का यह मतलब नहीं है कि अपनी काया को उत्सर्ग कर देना। क्योंकि महावीर कहते हैं: जो अपनी नहीं है उसे तुम कैसे उत्सर्ग करोगे? तुम कैसे चढ़ाओगे? अपने को उत्सर्ग किया जा सकता है; अपने को चढ़ाया जा सकता है; लेकिन जो मेरा नहीं है उसे मैं कैसे चढ़ाऊंगा? महावीर का कायोत्सर्ग से भीतरी अर्थ है कि काया तुम्हारी नहीं है, ऐसा जानना कायोत्सर्ग है। मैं काया को चढ़ा दूंगा, ऐसा भाव कायोत्सर्ग नहीं है क्योंकि तब तो इस उत्सर्ग में भी मेरे की, ममत्व की धारणा मौजूद है। और जब तक काया मेरी है तब तक मैं चाहे उत्सर्ग करूं और चाहे भोग करूं, चाहे बचाऊं और चाहे मिटाऊं।
आत्महत्या करने वाला भी काया को मिटा देता है, लेकिन वह कायोत्सर्ग नहीं है। क्योंकि वह मानता है कि शरीर मेरा है। इसीलिए मिटाता है। एक शहीद सूली पर चढ़ जाता है, लेकिन वह कायोत्सर्ग नहीं है। क्योंकि वह मानता है, शरीर मेरा है। एक तपस्वी आपके शरीर को नहीं सताता, अपने शरीर को सता लेता है, लेकिन मानता है कि शरीर मेरा है। तपस्वी आपके प्रति कठोर न हो, अपने प्रति बहुत कठोर होता है। क्योंकि मानता है, यह शरीर मेरा है। आपको भूखा न मार सके, अपने को भूखा मार सकता है क्योंकि मानता है, यह शरीर मेरा है। लेकिन जहां तक मेरा है वहां तक महावीर के कायोत्सर्ग की जो आंतरिक नाड़ी है, उस पर आपका हाथ नहीं है। महावीर कहते हैं: यह जानना कि शरीर मेरा नहीं है--कायोत्सर्ग है--यह जानना मात्र। यह जानना बहुत कठिन है।
इस कठिनाई से बचने के लिए आस्तिकों ने एक उपाय निकाला है कि वह कहते हैं: शरीर मेरा नहीं है, लेकिन परमात्मा का है। महावीर के लिए तो वह भी उपाय नहीं है, क्योंकि परमात्मा की कोई जगह नहीं है उनकी धारणा में। यह बहुत चक्करदार बात है। आस्तिक, तथाकथित आस्तिक कहता है कि शरीर मेरा नहीं, परमात्मा का है, और परमात्मा मेरा है। ऐसे घूम-फिर कर सब अपना ही हो जाता है। महावीर के लिए परमात्मा भी नहीं है। महावीर की धारणा बहुत अदभुत है और शायद महावीर के अतिरिक्त किसी व्यक्ति ने कभी प्रतिपादित नहीं की। महावीर कहते हैं: तुम तुम्हारे हो, शरीर शरीर का है।
इसको समझ लें। शरीर परमात्मा का भी नहीं, शरीर शरीर का है। महावीर कहते है: प्रत्येक वस्तु अपनी है, अपने स्वभाव की है, किसी की नहीं है। मालकियत झूठ है इस जगत में। वह परमात्मा की भी मालकियत हो तो झूठ है। ओनरशिप झूठ है। शरीर शरीर का है। इसका अगर हम विश्लेषण करें तो बात पूरी खयाल में आ जाएगी।
शरीर में आप प्रतिपल श्र्वास ले रहे हैं। जो श्र्वास एक क्षण पहले आपकी थी, एक क्षण बाद बाहर हो गई, किसी और की हो गई होगी। जो श्र्वास अभी आपकी है, आपको पक्का है आपकी है? क्षण भर पहले आपके पड़ोसी की थी। और अगर हम श्र्वास से पूछ सकें कि तू किसकी है, तो श्र्वास क्या कहेगी? श्र्वास कहेगी: मैं मेरी हूं। इस मेरे शरीर में--जिसे हम कहते हैं: मेरा शरीर--इस मेरे शरीर में मिट्टी के कण हैं। कल वे जमीन में थे, कभी वे किसी और के शरीर में रहे होंगे। कभी किसी वृक्ष में रहे होंगे, कभी किसी फल में रहे होंगे। न मालूम कितनी उनकी यात्रा है। अगर हम उन कणों से पूछें कि तुम किसके हो, तो वे कहेंगे: हम अपने हैं। हम यात्रा करते हैं। तुम सिर्फ स्टेशंस हो, जिनसे हम गुजरते हैं। हम बहुत स्टेशंस से गुजरते हैं। जब हम कहते हैं: शरीर मेरा है तो हम वैसी ही भूल करते हैं कि आप स्टेशन पर उतरें और स्टेशन कहे कि यह आदमी मेरा है। आप कहेंगे: तुझसे क्या लेना-देना, हम बहुत स्टेशन से गुजर गए और गुजरते रहेंगे। स्टेशंस आते हैं और चले जाते हैं।
शरीर जिन भूतों से मिल कर बना है, प्रत्येक भूत उसी भूत का है। शरीर जिन पदार्थों से बना है, प्रत्येक पदार्थ उसी पदार्थ का है। मेरे भीतर जो आकाश है वह आकाश का है; मेरे भीतर जो वायु है, वह वायु की है; मेरे भीतर जो पृथ्वी है, वह पृथ्वी की है; मेरे भीतर जो अग्नि है वह अग्नि की है; मेरे भीतर जो जल है वह जल का है। यह कायोत्सर्ग है, यह जानना।
और मेरे भीतर जल न रह जाए, वायु न रह जाए, आकाश न रह जाए, पृथ्वी न रह जाए, अग्नि न रह जाए, तब जो शेष रह जाता है वही मैं हूं। तब जो छठवां शेष रह जाता है, जो अतिरिक्त शेष रह जाता है वही मैं हूं। फिर क्या शेष रह जाता है? अगर वायु भी मैं नहीं हूं, अग्नि भी नहीं हूं, आकाश भी नहीं, जल भी नहीं, पृथ्वी भी नहीं; फिर मेरे भीतर शेष क्या रह जाता है? तो महावीर कहते हैं: सिर्फ जानने की क्षमता शेष रह जाती है, दि कैपेसिटी टु नो। सिर्फ जानना शेष रह जाता है। नोइंग शेष रह जाता है।
तो महावीर कहते हैं कि मैं तो सिर्फ ‘जानना’ हूं, जानना मात्र। इस स्थिति को महावीर ने केवलज्ञान कहा है--जस्ट नोइंग, सिर्फ जानना मात्र। मैं सिर्फ ज्ञाता ही रह जाता हूं, द्रष्टा ही रह जाता हूं, दृष्टि रह जाता हूं, ज्ञान रह जाता हूं। अस्तित्व का बोध, अवेयरनेस रह जाता हूं। और तो सब खो जाता है। कायोत्सर्ग का अर्थ है: जो जिसका है वह उसका है, ऐसा जानना। अनाधिकृत मालकियत न करना। लेकिन हम सब अनाधिकृत मालकियत किए हुए हैं और जब हम भीतर अनाधिकृत मालकियत करते हैं तो हम बाहर भी करते हैं। जो आदमी अपने शरीर को मानता है कि मेरा है, वह अपने मकान को कैसे मानेगा कि मेरा नहीं है।
पश्र्चिम में इस समय एक बहुत कीमती विचारक है, मार्शल मैकलुहान। वह कहता है: मकान हमारे शरीर का ही विस्तार है, एक्सटेंशन ऑफ अवर बॉडी़ज। है भी। मकान हमारे शरीर का ही विस्तार है। दूरबीन हमारी आंख का ही विस्तार है। बंदूक हमारे नाखूनों का ही विस्तार है, एक्सटेंशंस हैं ये हमारे। इसलिए जितना वैज्ञानिक युग होता जाता है उतना आपका बड़ा शरीर होता जाता है। अगर आज से पांच हजार साल पहले किसी आदमी को मारना होता तो बिलकुल उसकी छाती के पास छुरा लेकर जाना पड़ता। अब जरूरत नहीं है। अब एक आदमी को यहां से बैठ कर वाशिंगटन में भी सारे लोगों की हत्या कर देनी हो तो एक मिसाईल, एक बम चला जाएगा और सबको नष्ट कर देगा। आपका शरीर अब बहुत बड़ा है। आप बड़े दूर से... अगर मुझे आपको मारना है तो पास आने की जरूरत नहीं है। पांच सौ फीट दूर से बंदूक की गोली से आपको मार दूंगा। लेकिन गोली सिर्फ एक्सटेंशन है।
वैज्ञानिक कहते हैं: आदमी के नाखून कमजोर हैं दूसरे जानवरों से, इसीलिए उसने अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार किया, वे सब्स्टीट्यूट हैं। नहीं तो आदमी जीत नहीं सकता जानवरों से। आपके नाखून बहुत कमजोर हैं जानवरों के मुकाबले। आपके दांत भी बहुत कमजोर हैं जानवरों के मुकाबले। अगर आप जानवर से टक्कर लें तो आप गए! तो आपको जानवर से टक्कर लेने के लिए सब्स्टीट्यूट खोजना पड़े। जानवर से ज्यादा मजबूत नाखून बनाने पड़े। वे नाखून आपके छुरे, तलवारें, खंजर, भाले--वे हैं। उससे ज्यादा मजबूत आपको दांत बनाने पड़े, जिनसे उसको आप पीस डालें।
आदमी ने जो भी विकास किया है, जिसे हम आज प्रगति कहते हैं, वह उसके शरीर का विस्तार है। इसलिए जितना वैज्ञानिक युग सघन होता जाता है, उतना आत्मभाव कम होता जाता है। क्योंकि बड़ा शरीर हमारे पास है जिससे हम अपने को एक कर लेते हैं। आपका मकान, आपके मकान की दीवारें आपके शरीर का हिस्सा हैं। आपकी कार आपके बढ़े हुए पैर हैं। आपका हवाई जहाज आपके बढ़े हुए पैर हैं। आपको पता हो या न पता हो, आपका रेडियो आपका बढ़ा हुआ कान है। आपका टेलीविजन आपकी बढ़ी हुई आंख है। तो आज हमारे पास जितना बड़ा शरीर है, उतना महावीर के वक्त में किसी के पास नहीं था। इसलिए आज हमारी मुसीबत भी ज्यादा है। तो जो आदमी अपने शरीर को अपना मानता है, वह अपने मकान को भी अपना मानेगा। दुख बढ़ जाएंगे। जितना बड़ा शरीर होगा हमारा, उतने हमारे दुख बढ़ जाएंगे क्योंकि उतनी मुसीबतें बढ़ जाएंगी।
कभी आपने खयाल किया है कि आपकी कार को खरोंच लग जाए तो करीब-करीब आपकी चमड़ी को लग जाती है। शायद एक दफे चमड़ी को भी लग जाए तो इतनी तकलीफ नहीं होती जितनी कार को लग जाने से होती है। कार आपकी चमकदार चमड़ी बन गई है। वह आपका आवरण है, आपके बाहर। शरीर, महावीर कहते हैं: इसकी जरा सी भी मालकियत अगर हुई तो मालकियत बढ़ती जाएगी। और मालकियत का कोई अंत नहीं है। आज नहीं कल चांद पर झगड़ा खड़ा होने वाला है कि वह किसका है। अभी तो पहुंचे हैं हम इसलिए इतनी दिक्कत नहीं है। लेकिन आज नहीं कल झगड़ा खड़ा होने वाला है कि चांद किसका है? अगर रूस और अमरीका में इतना संघर्ष था चांद पर पहले पहुंचने के लिए तो वह सिर्फ वैज्ञानिक प्रतियोगिता ही नहीं थी, उसमें गहरे, मालकियत है। पहला झंडा अमरीका का गड़ गया है वहां। आज नहीं कल किसी दिन अंतर्राष्ट्रीय अदालत में यह मुकदमा होगा ही कि चांद किसका है, पहले कौन मालिक बना? इसलिए रूस के वैज्ञानिक चांद की चिंता कम कर रहे हैं और मंगल पर पहुंचने की कोशिश में लग गए हैं। क्योंकि चांद पर किसी भी दिन झगड़ा खड़ा होने ही वाला है, वह मालकियत अब उनकी है नहीं।
इस मालकियत का अंत क्या है? इसका प्रारंभ कहां से होता है? इसका प्रारंभ होता है, शरीर के पास हम जब मालकियत खड़ी करते हैं, तभी विस्तार शुरू हो जाता है। विस्तार का कोई अंत नहीं है। और जितना विस्तार होता है उतने हमारे दुख बढ़ जाते हैं क्योंकि महावीर कहते हैं: आनंद को वही उपलब्ध होता है जो मालिक ही नहीं है। जो अपने शरीर का भी मालिक नहीं है। जो मालकियत करता ही नहीं। कायोत्सर्ग का अर्थ है: मैं उतने पर ही हूं, जितने पर मेरी जानने की क्षमता का फैलाव है--वही मैं हूं, बस जानने की क्षमता मैं हूं। ध्यान के बाद इस चरण को रखने का प्रयोजन है, क्योंकि ध्यान आपके जानने की क्षमता का अनुभव है।
ध्यान का अर्थ ही है: वह जो मेरे भीतर ज्ञान है, उसको जानना। जितना ही मैं परिचित होता हूं कांशसनेस से, चेतना से, उतना ही मेरा जड़ पदार्थों के साथ जो संबंध है वह विच्छिन्न होता जाता है और एक घड़ी आती है कि भीतर मैं सिर्फ ज्ञान की एक ज्योति रह जाता हूं।
लेकिन अभी हमारा जोड़ दीये से है--मिट्टी के दीये से। उस ज्ञान की ज्योति से नहीं जो दीये में जलती है। अभी हम समझते हैं कि मैं मिट्टी का दीया हूं। मिट्टी का दीया फूट जाता है तो हम सोचते हैं--मैं मर गया। ऐसे भी, घर में भी अगर मिट्टी का दीया फूट जाए तो हम कहते हैं: ज्योति नष्ट हो गई। लेकिन ज्योति नष्ट नहीं होती, सिर्फ विराट आकाश में लीन हो जाती है।
कुछ भी नष्ट तो होता नहीं इस जगत में। जिस दिन हमारे शरीर का दीया फूट जाता है, उस दिन भी जो चेतना की ज्योति है, वह फिर अपनी नई यात्रा पर निकल जाती है। निश्चित ही वह अदृश्य हो जाती है, क्योंकि उसके दृश्य होने के लिए माध्यम चाहिए। जैसे रेडियो आप अपने घर में लगाए हुए हैं, जब आप बंद कर देते हैं तब आप सोचते हैं क्या कि रेडियो में जो आवाजें आ रही थीं, उनका आना बंद हो गया? वे अब भी आपके कमरे से गुजर रही हैं, वे बंद नहीं हो गईं हैं। जब आप रेडियो ऑन करते हैं तभी वे आना शुरू नहीं हो जाती हैं। जब आप रेडियो ऑन करते हैं तब आप उनको पकड़ना शुरू करते हैं, वे दृश्य होती हैं। वे मौजूद हैं। जब आपका रेडियो बंद पड़ा है तब आपके कमरे से उनकी ध्वनियां निकल रही हैं, लेकिन आपके पास उन्हें पकड़ने का, दृश्य बनाने का कोई उपाय नहीं है। रेडियो आप जैसे ही लगा देते हैं, रेडियो का यंत्र उन्हें दृश्य कर देता है। श्रवण में आपके वे पकड़ में आ जाती हैं।
जैसे ही किसी व्यक्ति का शरीर छूटता है तो चेतना हमारी पकड़ के बाहर हो जाती है। लेकिन नष्ट नहीं हो जाती। अगर हम फिर से उसे शरीर दे सकें तो वह फिर प्रकट हो सकती है। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि वैज्ञानिक आज नहीं कल मरे हुए आदमी को भी पुनरुज्जीवित कर सकेंगे। इसलिए नहीं कि उन्होंने आत्मा को बनाने की कला पा ली, बल्कि सिर्फ इसलिए कि वे रेडियो को सुधारने की तरकीब सीख गए। इसलिए नहीं कि उन्होंने आदमी की आत्मा को पकड़ लिया, बल्कि इसलिए कि उन्होंने जो यंत्र बिगड़ गया था उसे फिर इस योग्य बना दिया कि आत्मा उससे प्रकट हो सके।
इसमें बहुत कठिनाई नहीं मालूम होती, यह जल्दी ही संभव हो जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे ये चीजें संभव होती जाती हैं, वैसे-वैसे हमारा काया का मोह बढ़ता चला जाता है। अगर आपको मरने से भी बचाया जा सकता है तब तो आप और भी जोर से मानने लगेंगे कि मैं शरीर हूं। क्योंकि शरीर बच जाता है। तो मैं बच जाता हूं। मनुष्य की प्रगति एक तरफ प्रगति है, दूसरी तरफ बड़ा ह्रास है और बड़ा पतन है। एक तरफ हमारी समझ बढ़ती जाती है, दूसरी तरफ हमारी समझ बहुत कम होती चली जाती है। करीक-करीब ऐसा लगता है कि हमारी जो समझ बढ़ रही है वह केवल शरीर को आधार मान कर बढ़ती चली जा रही है, उसमें चेतना का कोई आधार नहीं है। इसलिए आदमी आज दुनिया में सर्वाधिक जानता हुआ मालूम पड़ता है, फिर भी इससे ज्यादा अज्ञानी समाज खोजना कठिन है।
महावीर जैसे व्यक्ति तो इसको पतन ही कहेंगे, इसको विकास नहीं कहेंगे। वे कहेंगे कि यह पतन है क्योंकि इससे दुख बढ़ा है, आंनद नहीं बढ़ा। कसौटी क्या है प्रगति की, कि आनंद बढ़ जाए? साधन बढ़ जाते हैं, दुख बढ़ जाता है। हमारा फैलाव बढ़ गया, मालकियत बढ़ गई, और दुख बढ़ गया। हम अब ज्यादा चीजों पर चिंता करते हैं। महावीर के जमाने में इतनी चीजों पर लोग चिंता नहीं करते थे। अब हमारी चिंताएं बहुत ज्यादा हैं। चिंताएं हमारी बहुत दूर निकल गई हैं। चांद तक के लिए हमारी चिंता है। चिंता हमारी बढ़ गई है, लेकिन वह निश्चिंत चेतना का हमें कोई अनुभव नहीं रहा। कायोत्सर्ग का अर्थ है: चिंता के जगत से अपना संबंध तोड़ लेना।
कैसे तोड़ेंगे? जब तक आप ध्यान में नहीं उतरेंगे तब तक कायोत्सर्ग की बात आपको मैं समझा रहा हूं, वह ठीक-ठीक खयाल में नहीं आ सकेगी। लेकिन समझाता हूं, शायद कभी ध्यान में उतरें और वह खयाल में आ जाए। शरीर से कैसे छूटेंगे? तो एक तो निरंतर स्मरण कि शरीर मैं नहीं हूं, निरंतर स्मरण कि शरीर मैं नहीं हूं। चलते, उठते, बैठते निरंतर स्मरण कि शरीर मैं नहीं हूं। यह निषेधात्मक है, निगेटिव है। लेकिन किसी भी प्रतीति को तोड़ना हो तो जरूरी है। और हम जो भी मान कर बैठते हैं वह हमें प्रतीत होने लगता है। दो में से कुछ एक छोड़ना पड़ेगा। या तो आत्मा मैं नहीं हूं, इस प्रतीति में हमें उतर जाना पड़ेगा, अगर हम--शरीर मैं हूं--इसको गहरा करते हैं; या शरीर मैं नहीं हूं, इसको हम प्रगाढ़ करते हैं तो मैं आत्मा हूं इसका बोध धीरे-धीरे जगना शुरू हो जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने शराब घर में बहुत उदास बैठा है। मित्रों ने पूछा कि इतने परेशान क्यों हो? तो मुल्ला ने कहा: परेशानी यह है कि पत्नी ने आज अल्टीमेटम दे दिया है, आखिरी, और कह दिया है कि अगर आज रात तक शराब पीना बंद नहीं किया तो वह मुझे छोड़ कर अपनी मां के घर चली जाएगी। तो मित्र ने कहा: यह तो बड़ी कठिनाई हुई, यह तो बड़ी मुश्किल हुई। इससे तो तुम बड़ी कठिनाई में पड़ोगे। क्योंकि मित्र ने सोचा कि शराब छोड़ना मुल्ला नसरुद्दीन को भारी कठिनाई होगी।
मुल्ला ने कहा कि तुम समझ नहीं पा रहे। कठिनाई तो होगी, आइ विल मिस हर वेरी मच, मैं पत्नी की बहुत ज्यादा कमी अनुभव करूंगा उसके जाने से। मित्र ने कहा: मैं तो समझता था कि तुम शराब छोड़ दोगे और कठिनाई अनुभव करोगे। नसरुद्दीन ने कहा: मैंने बहुत सोचा, दो में से कुछ एक ही हो सकता है। या तो शराब छोड़ कर मैं कठिनाई अनुभव करूं, या पत्नी को छोड़ कर, कठिनाई अनुभव करूं। फिर मैंने तय किया कि पत्नी को छोड़ कर ही कठिनाई अनुभव करना ठीक है, क्योंकि पत्नी को छोड़ कर कठिनाई को शराब में तो भुलाया जा सकता है, लेकिन शराब छोड़ कर पत्नी के साथ कुछ भुलावा नहीं, और शराब की ही याद आती। तो दो में से कुछ एक तय करना ही है।
और एक घटना उसके जीवन में है कि अंततः एक बार पत्नी उसे छोड़ कर ही चली गई। मुल्ला शराब सामने लिए अपने घर मे बैठा है, अकेला है। एक मित्र आया। न तो शराब पीता है, ढाल कर गिलास में रखी है--बैठा है। मित्र ने कहा: क्या पत्नी के चले जाने का दुख भुलाने की कोशिश कर रहे हो? मुल्ला ने कहा: मैं बड़ी परेशानी में हूं। दुख ही न बचा, भुलाऊं क्या! इसलिए शराब सामने रखे बैठा हूं, पीऊं भी तो क्यों! दुख ही न बचा तो भुलाऊं क्या, यही परेशानी में हूं।
विकल्प हैं, ऑल्टरनेटिव्स हैं। जिंदगी में प्रतिपल, प्रति कदम विकल्प हैं। क्योंकि जिंदगी द्वंद्व है। हमने एक विकल्प चुना हुआ है--शरीर मैं हूं, तो आत्मा को भूलना ही पड़ेगा। अगर आत्मा को स्मरण करना हो तो शरीर मैं हूं, यह विकल्प तोड़ना जरूरी है। और तोड़ने में जरा भी कठिनाई नहीं हैं, सिर्फ स्मृति को गहरा करने की बात है। आप वही हो जाते हैं जो आप मानते हैं। बुद्ध ने कहा है: विचार ही वस्तुएं बन जाते हैं। विचार ही सघन होकर वस्तुएं बन जाते हैं। शायद आपको कई बार ऐसा अनुभव हुआ हो कि जरा से विचार के परिवर्तन से आपके भीतर सब परिवर्तित हो जाता है।
अमरीका की एक बहुत बड़ी अभिनेत्री थी, ग्रेटा गारबो। उसने अपने जीवन संस्मरणों में लिखा है कि एक छोटे से विचार ने मेरे सारे तादात्म्य को, मेरी इमेज को तोड़ दिया। ग्रेटा गारबो एक छोटे से नाईबाड़े में, सैलून में, लोगों की दाढ़ी पर साबुन लगाने का काम ही करती थी--जब तक वह बाईस साल की हो गई तब तक। उसे पता ही नहीं था कि वह कुछ और भी हो सकती है और यह तो वह सोच भी नहीं सकती थी कि अमरीका की श्रेष्ठतम अभिनेत्री हो सकती है। और बाईस साल की उम्र तक जिस लड़की को अपने सौंदर्य का पता न चला हो, अब माना जा सकता है कि कभी पता न चलेगा।
उसने अपनी आत्म-कथा में लिखा है--लेकिन एक दिन क्रांति घटित हो गई। एक आदमी आया और मैं उसकी दाढ़ी पर साबुन लगा रही थी। उसे दो-चार पैसे दाढ़ी पर साबुन लगाने के मिल जाते थे। दिन भर वह लोगों की दाढ़ी पर साबुन लगाती रहती थी। उस आदमी ने आईने में देख कर कहा: कितनी सुंदर! और ग्रेटा गारबो ने लिखा है कि मैंने पहली दफा जिंदगी में किसी को कहते सुना--कितनी सुंदर! वह तो किसी ने कहा ही नहीं था, नाईबाड़े में दाढ़ी पर साबुन लगाने वाली लड़की की कौन फिकर करता है!
और ग्रेटा गारबो ने लिखा है कि मैने पहली दफा आईने में गौर से देखा, और मेरे भीतर सब बदल गया। मैंने उस आदमी से कहा कि तुम्हारा धन्यवाद, क्योंकि मुझे मेरे सौंदर्य का कोई पता ही न था। तुमने स्मृति दिली दी। उस आदमी ने दुबारा आईने में देखा और उस ग्रेटा गारबो की तरफ देखा और कहा कि लेकिन, क्या हुआ! जब मैंने कहा तो तू इतनी सुंदर न थी, मैंने तो सिर्फ एक औपचारिक शिष्टाचार के वश कहा, लेकिन अब मैं देखता हूं, तू सुंदर हो गई है। वह आदमी एक फिल्म डायरेक्टर था और ग्रेटा गारबो को अपने साथ ले गया। ग्रेटा गारबो श्रेष्ठतम सुंदरियों में एक बन गई।
हो सकता था, जिंदगी भर दाढ़ी पर साबुन लगाने का काम ही करती रहती। एक छोटा सा विचार, इमेज, वह जो प्रतिमा थी उसकी अपने मन में, वह बदल गई। असली सवाल आपके भीतर आपके तादात्म्य और आपकी प्रतिमा के बदलने का है। आप जन्मों-जन्मों से मान कर बैठे हैं कि शरीर हैं। बचपन से आपको सिखाया जा रहा है कि आप शरीर हैं। सब तरह से आपको भरोसा और विश्वास दिलाया जा रहा है कि आप शरीर हैं। यह ऑटो-हिप्नोसिस है, यह सिर्फ सम्मोहन है। आप कहेंगे कि सम्मोहन से कहीं इतनी बड़ी घटना घट सकती है? तो मैं आपको एक-दो घटनाएं कहूं तो शायद खयाल में आ जाए।
अमेजान में एक कबीला है आदिवासियों का। जो बहुत अनूठा है। जैसा मैंने आपसे पीछे कहा है कि फ्रेंच डॉक्टर लोरेंजो स्त्रियों को बिना दर्द के प्रसव करवा देता है सिर्फ धारणा बदलने से, सिर्फ यह कहने से कि दर्द तुम्हारा पैदा किया हुआ है। तुम शिथिल हो जाओ और बच्चा पैदा हो जाएगा बिना पीड़ा के। हम यह मान भी सकते हैं कि शायद समझाने बुझाने से स्त्री के मन पर ऐसा भाव पड़ जाता होगा, लेकिन दर्द तो होता ही है। लेकिन क्या आपको कभी कल्पना हो सकती है कि पत्नी को जब बच्चा पैदा होता हो तो पति के पेट में भी दर्द होता है? अमेजान में होता है और अमेजान में जब पत्नी को बच्चा होता है तो एक कोठरी में पत्नी बंद होती है, दूसरी कोठरी में पति बंद होता है। पत्नी नहीं रोती-चिल्लाती, पति रोता-चिल्लाता है। पत्नी को बच्चा होता है, पति को दर्द होता है! यह हजारों साल से हो रहा है। और जब पहली दफा अमेजान के कबीले में दूसरी जाति के लोग पहुंचे तो वे चकित हो गए कि यह क्या हो रहा है। यह क्या, हो क्या रहा है! यह तो भरोसे की बात ही नहीं मालूम पड़ती। लेकिन पता चला कि उनके कबीलों में स्त्रियों को कभी दर्द हुआ ही नहीं। जब दर्द होता है, पति को ही होता है, और डॉक्टरों ने परीक्षा की और पाया कि वह काल्पनिक नहीं है, दर्द पेट में हो रहा है। सारी अंतड़ियां सिकुड़ी जा रही हैं। जैसा पत्नी के पेट में होता है बच्चे के पैदा होते वक्त, वैसा पति को हो रहा है।
ये सब सम्मोहन हैं, जाति का सम्मोहन। जाति हजारों साल से ऐसा मानती रही, वही हो रहा है। वही हो रहा है, जो हम मानते हैं वही हो जाता है। पति को दर्द हो सकता है अगर जाति की यह धारणा हो। इसमें कोई अड़चन नहीं है। क्योंकि हम जीते सम्मोहन में हैं। हम जो मान कर जीते हैं वही सक्रिय हो जाता है। और हमारी चेतना की मानने की क्षमता अनंत है। यही हमारी स्वतंत्रता है, यही मनुष्य की गरिमा है। यही उसका गौरव है कि उसकी चेतना की क्षमता इतनी है कि वह जो मान ले वही घटित हो जाता है। अगर आपने मान लिया है कि आप शरीर हैं तो आप शरीर हो गए, और यह सिर्फ आपकी मान्यता है, जस्ट ए बिलीफ।यह सिर्फ आपका भरोसा है। यह सिर्फ आपका विश्र्वास है।
क्या आपको पता है कि ऐसे कबीले हैं जिनमें स्त्रियां ताकतवर हैं और पुरुष कमजोर हैं! क्योंकि वे कबीले सदा से ऐसे मानते रहे हैं कि स्त्री ताकतवर है, पुरुष कमजोर है। तो जैसे अगर कोई आदमी यहां कमजोरी दिखाए तो आप कहते हैं: कैसा नामर्द है। ऐसा उस कबीले में कोई नहीं कह सकता। क्योंकि मर्द का लक्षण ही यह है कि वह कमजोरी दिखाए। उस कबीले में अगर स्त्रियां कभी कमजोरी दिखाती हैं तो लोग कहते हैं कि कैसा मर्दों जैसा व्यवहार कर रही है! कमजोरी दिखाती हैं तो! मान्यता है।
आदमी मान्यता से जीने वाला प्राणी है। और हमारी मान्यता गहरी है कि हम शरीर हैं। यह इतनी गहरी है कि नींद में भी हमें खयाल रहता है कि हम शरीर हैं। बेहोशी में भी हमें पता रहता है कि हम शरीर हैं। इस मान्यता को तोड़ना कायोत्सर्ग की साधना का पहला चरण है। जो लोग ध्यान तक आए हैं उन्हें तो कठिनाई नहीं पड़ेगी, लेकिन आपको तो बिना ध्यान के समझना पड़ रहा है, इसलिए थोड़ी कठिनाई पड़ सकती है। लेकिन फिर भी पहला सूत्र यह है कि मैं शरीर नहीं हूं। इस सूत्र को अगर गहरा कर लें तो अदभुत परिणाम होने शरू हो जाते हैं।
उन्नीस सौ आठ में काशी के नरेश के अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ। और नरेश ने कह दिया कि मैं किसी तरह की बेहोशी की दवा नहीं लूंगा। क्योंकि मैं होश की साधना कर रहा हूं, इसलिए मैं कोई बेहोशी की दवा नहीं ले सकता हूं। ऑपरेशन जरूरी था, उसके बिना नरेश बच नहीं सकता था। चिकित्सक मुश्किल में थे। बिना बेहोशी के इतना बड़ा ऑपरेशन करना उचित न था। लेकिन किसी भी हालत में मौत होनी थी। नरेश मरेगा अगर ऑपरेशन न होगा, इसलिए एक जोखिम उठाना ठीक है कि होश में ही ऑपरेशन किया जाए। नरेश ने कहा कि सिर्फ मुझे आज्ञा दी जाए कि जब आप ऑपरेशन करें, तब मैं गीता का पाठ करता रहूं। नरेश गीता का पाठ करता रहा। बड़ा ऑपरेशन था, ऑपरेशन पूरा हो गया। नरेश हिला भी नहीं। दर्द का तो उसके चेहरे पर कोई पता न चला।
जिन छह डॉक्टरों ने वह ऑपरेशन किया, वे चकित हो गए। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि हम हैरान हो गए। और हमने नरेश से पूछा कि हुआ क्या? तुम्हें दर्द पता नहीं चला! नरेश ने कहा कि जब मैं गीता पढ़ता हूं और जब मैं पढ़ता हूं: ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे। शरीर के मरने से तू नहीं मरता। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि। जब शस्त्र तुझे छेद दिए जाएं तो तू नहीं छिदता।’ तब मेरे भीतर ऐसा भाव जग जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं। बस इतना काफी है। जब मैं गीता नहीं पढ़ रहा होता हूं, तब मुझे शक पैदा होने लगता है। वह मेरी मान्यता कि मैं शरीर हूं, पीछे से लौटने लगती है। लेकिन जब मैं गीता पढ़ता होता हूं तब मुझे पक्का ही भरोसा हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं। उस वक्त तुम मुझे काट डालो, पीट डालो! मुझे पता भी नहीं चला। तुमने क्या किया है, मुझे पता नहीं। क्योंकि मैं उस भाव में डूबा था, जहां मैं जानता हूं कि शरीर छेद डाला जाए तो मैं नहीं छिदता, शरीर जला डाला जाए तो मैं नहीं जलता।
आपके भीतर भी भाव की स्थितियां हैं। आपका मन कोई एक फिक्स्ड, एक थिर चीज नहीं है। उसमें फ्लक्चुएशंस हैं, उसमें नीचे-ऊपर ज्योति होती रहती है। किसी क्षण में आप बहुत ज्यादा शरीर होते हैं, किसी क्षण में बहुत कम शरीर होते हैं। आप चौबीस घंटे आपके मन की भाव-दशा एक नहीं रहती। जब आप किसी एक सुंदर स्त्री को या सुंदर पुरुष को देख कर उसके पीछे चलने लगते हैं तब आप बहुत ज्यादा शरीर हो जाते हैं। तब आपका फ्लक्चुएशन भारी होता है। आप बिलकुल नीचे उतर आते हैं, जहां ‘मैं शरीर हूं।’
लेकिन जब आप मरघट पर किसी की लाश जलते देखते हैं तब आपका फ्लक्चुएशन बदल जाता है। अचानक मन के किसी कोने में शरीर को जलते देख कर शरीर की प्रतिमा खंडित होती है, टूटती है। उन क्षणों को पकड़ना जरूरी है, जब आप बहुत कम शरीर होते हैं। उन क्षणों में यह स्मरण करना बहुत कीमती है कि मैं शरीर नहीं हूं। क्योंकि जब आप बहुत ज्यादा शरीर होते हैं तब यह स्मरण करना बहुत काम नहीं करेगा, क्योंकि पर्त इतनी मोटी होती है कि आपके भीतर प्रवेश नहीं कर पाएगी। यह आपको ही जांचना पड़ेगा कि किन क्षणों में आप सबसे कम शरीर होते हैं--यद्यपि कुछ निश्र्चित क्षण हैं जिनमें सभी कम शरीर होते हैं। वह क्षण आपको कहूं तो वह कायोत्सर्ग में आपके लिए उपयोगी होंगे।
जब भी सूर्य डूबता है या उगता है तब आपके भीतर भी रूपांतरण होते हैं। अब तो वैज्ञानिक इस पर बहुत ज्यादा राजी हो गए हैं कि सुबह जब सूर्य उगता है तब सारी प्रकृति में ही रूपांतरण नहीं होता, आपके शरीर में भी... क्योंकि आपका शरीर प्रकृति का एक हिस्सा है। तब आकाश ही नहीं बदलता; आपके भीतर का आकाश भी बदलता है। तब पक्षी ही गीत नहीं गाते, तब पृथ्वी ही प्रफुल्लित नहीं हो जाती, तब वृक्ष ही फूल नहीं खिलाते; आपके भीतर भी वह जो मिट्टी है वह भी प्रफुल्लित हो जाती है। क्योंकि वह उस मिट्टी का हिस्सा है, वह कोई अलग चीज नहीं है। तब सागर में ही फर्क नहीं पड़ते; आपके भीतर भी जो जल है, उसमें भी फर्क पड़ते हैं।
और आप जान कर हैरान होंगे कि आपके भीतर जो जल है वह ठीक वैसा है जैसा सागर में है। उसमें नमक की उतनी ही मात्रा है जितनी सागर के जल में है। और आपके शरीर में थोड़ा बहुत जल नहीं है कोई पच्चासी प्रतिशत पानी है। वैज्ञानिक अब कहते हैं: जब सागर के पास आपको अच्छा लगता है तो अच्छा लगने का कारण आपके भीतर पच्चासी प्रतिशत सागर का होना है। और वह जो पच्चासी प्रतिशत सागर है आपके भीतर, वह बाहर के विराट सागर से आंदोलित हो जाता है। एक हॉर्मनी, एक रेजोनेंस, एक प्रतिध्वनि उसमें होनी शुरू हो जाती है। जब आपको जंगल में जाकर हरियाली को देख कर बहुत अच्छा लगता है, तो उसका कारण आप नहीं है, आपके शरीर का कण-कण जंगल की हरियाली रह चुका है। वह रेजोनेट होता है। वह हरे वृक्ष के नीचे जाकर कंपित होने लगता है। वह उससे संबंधित है, वह उसका हिस्सा है। इसलिए प्रकृति के पास जाकर आपको जितना अच्छा लगता है, उतनी आदमी की बनाई हुई चीजों के पास जाकर अच्छा नहीं लगता। क्योंकि वहां कोई रेजोनेंस पैदा नहीं होता। बम्बई की एक सीमेंट की सड़क पर उतना अच्छा नहीं लग सकता, जितना सोंधी मिट्टी की गंध आ रही हो और आप मिट्टी पर चल रहे हों और आपके पैर धूल को छू रहे हों। तब आपके शरीर और मिट्टी के बीच एक संगीत प्रवाहित होना शुरू हो जाता है।
जब सुबह सूरज निकलता है तो आपके भीतर भी बहुत कुछ घटित होता है, संक्रमण की बेला है। उसको भारत के लोगों ने संध्या कहा है। संध्या का अर्थ होता है: दि पीरियड ऑफ ट्रांजीशन, बदलाहट का वक्त। बदलाहट के वक्त में आपके भीतर आपकी जो व्यवस्थित धारणाएं हैं उनको बदलना आसान है। बदलाहट के वक्त में व्यवस्थित धारणाओं को बदलना आसान है क्योंकि सब अराजक हो जाता है। भीतर सब बदलाहट हो गई होती है, सब अस्त-व्यस्त हो गया होता है। इसलिए हमने संध्या को स्मरण का क्षण बनाया है।
संध्या--प्रार्थना, भजन, धुन, स्मरण, ध्यान का क्षण है। उस क्षण में आसानी से आप स्मरण कर सकते हैं। सुबह और सांझ कीमती वक्त है। रात्रि बारह बजे, जब रात्रि पूरी तरह सघन हो जाती है और सूर्य हमसे सर्वाधिक दूर होता है, तब भी एक बहुत उपयोगी क्षण है। तांत्रिकों ने उसका बहुत उपयोग किया है। महावीर रात-रातभर जाग कर खड़े रहे। महावीर ने उसका बहुत उपयोग किया। आधी रात जब सूरज आपसे सर्वाधिक दूर होता है तब भी आपकी स्थिति बहुत अनूठी होती है। आपके भीतर सब शांत हो गया होता है, जैसे प्रकृति में सब शांत हो गया होता है। वृक्ष झुक कर सो गए होते हैं, जमीन भी सो गई होती है--सब सो गया होता है, आपके शरीर में भी सब सो गया होता है। इस सोए हुए क्षण का भी आप उपयोग कर सकते हैं। शरीर जिद नहीं करेगा, आपके विरोध में, राजी हो जाएगा। जैसे आप कहेंगे: मैं शरीर नहीं हूं तो शरीर नहीं कहेगा कि हूं। शरीर सोया हुआ है। इस क्षण में आप कहेंगे कि मैं शरीर नहीं हूं तो शरीर कोई रेसिस्टेंस, कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं करेगा। इसलिए आधी रात का क्षण कीमती रहा है।
या फिर आपके--जब आप रात सोते हैं--जागने से जब आप सोने में जाते हैं, तब आपके भीतर गियर बदलता है। आपने कभी खयाल किया कार में गियर बदलते हुए, जब आप एक गियर से दूसरे गियर में गाड़ी को डालते हैं तो बीच में न्यूट्रल से गुजरते हैं, उस जगह से गुजरते हैं जहां कोई गियर नहीं होता, क्योंकि उसके बिना गुजरे आप दूसरे गियर में गाड़ी को डाल नहीं सकते।
तो जब रात आप सोते हैं, और जागने से नींद में जाते हैं तो आपकी चेतना का पूरा गियर बदलता है और एक क्षण को आप न्यूट्रल में, तटस्थ गियर में होते हैं। जहां न आप शरीर होते हैं, न आत्मा। जहां आपकी कोई मान्यता काम नहीं करती। उस क्षण में आप जो भी मान्यता दोहरा लेंगे वह आपमें गहरे प्रवेश कर जाएगी। इसलिए रात सोते वक्त दोहराते हुए सोना कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं शरीर नहीं हूं, मैं शरीर नहीं हूं। आप दोहराते रहें, आपको पता न चले कि कब नींद आ गई। आपका दोहराना तभी बंद हो जब अपने से बंद हो जाए। तो शायद उस क्षण के साथ संबंध बैठ जाए, और उस क्षण में और वह क्षण बहुत छोटा है--उस क्षण में अगर यह भाव प्रवेश कर जाए कि मैं शरीर नहीं हूं, जब आप चेतना रूपांतरित कर रहे हैं तो आपके गहरे अचेतन में चला जाएगा।
अभी रूस में उन्होंने एक शिक्षा की नई पद्धति है--हिप्नोपीडिया, नींद में शिक्षा देना--उसमें वे इस बात का प्रयोग कर रहे हैं। इसलिए बहुत पुराने दिनों से लोग प्रभु-स्मरण करते हुए, आत्म-स्मरण करते हुए सोते थे। मैं समझता हूं, आप नहीं सोते, आप शायद फिल्म की जो कहानी देख आए हैं, उसको दोहराते हुए सोते हैं। उस क्षण जो भी आप दोहरा रहे हैं वह आपके भीतर गहरा चला जाएगा। तो अगर आप गलत दोहरा रहे हैं तो आप आत्महत्या कर रहे हैं अपनी। आपको पता नहीं कि आप क्या कर रहे हैं।
हिप्नोपीडिया में रूस में आज कोई लाखों विद्यार्थी शिक्षा पा रहे हैं। रेडियो स्टेशन से ठीक वक्त पर उन सबको सूचना मिलती है कि वे दस बजे सो जाएं। जैसे ही वे दस बजे सो जाते हैं, दस बज कर पंद्रह मिनट पर उनके कान के पास तकिए में लगा हुआ यंत्र उन्हें सूचनाएं देना शुरू कर देता है। जो भी उन्हें सिखाना है--अगर उन्हें फ्रेंच भाषा सीखनी है तो फ्रेंच भाषा की सूचनाएं शुरू हो जाती हैं। और वैज्ञानिक चकित हुए हैं कि जागने में हम जो चीज तीन साल में सिखा सकते हैं वह सोने में हम तीन सप्ताह में सिखा सकते हैं।
और बहुत जल्द दुनिया में क्रांति घटित हो जाएगी और बच्चे स्कूल में दिन में न पढ़ कर रात में ही जाकर सो जाया करेंगे। दिन भर खेल सकते हैं, एक अर्थ में अच्छा होगा क्योंकि बच्चों का खेल छिन जाने से भारी नुकसान हुए हैं। वे उनको वापस मिल जाएंगे। या रात आपके घर में भी वे सो सकते हैं, स्कूल भी जाने की कोई जरूरत नहीं होगी। उनको वहां भी शिक्षा दी जा सकती है, वह कभी-कभी परीक्षा देने स्कूल जा सकते हैं। अभी तक नींद में परीक्षा लेने का कोई उपाय नहीं है, परीक्षा जागने में लेनी पड़ेगी शायद। लेकिन नींद के क्षण बहुत ज्यादा सूक्ष्म रूप से ग्राहक और रिसेप्टिव हैं, इस बात को वैज्ञानिकों ने स्वीकार कर लिया है।
इसमें भी सर्वाधिक ग्राहक क्षण वह है, जब आप जागने से नींद में बदलते हैं। ठीक इसी तरह सुबह जब आप नींद से जागने में बदलते हैं तब फिर एक ग्राहक क्षण आता है। उस क्षण भी आप स्मरण करते हुए उठें। जब सुबह नींद खुले तब आप स्मरण--पहला स्मरण यह करें कि मैं शरीर नहीं हूं। आंख बाद में खोलें। कुछ और बाद में सोचें। जैसे ही पता चले कि नींद टूट गई, पहला स्मरण कि मैं शरीर नहीं हूं। और ध्यान रहे, अगर आप रात आखिरी स्मरण यही किए हैं कि मैं शरीर नहीं हूं, तो सुबह अपने-आप यह पहला स्मरण बन जाएगा कि मैं शरीर नहीं हूं।
क्योंकि चित्त का जो लोग अध्ययन करते हैं वे कहते हैं: रात का आखिरी विचार सुबह का पहला विचार होता है। आप अपनी जांच करेंगे तो आपको पक्का पता चल जाएगा कि रात का आखिरी विचार सुबह का पहला विचार होता है। क्योंकि जहां से आप विचार को छोड़ कर सो जाते हैं, विचार वहीं प्रतीक्षा करता रहता है। सुबह जब आप जागते हैं वह फिर आप पर सवारी कर लेता है। जिस विचार को आप रात छोड़ कर सो गए हैं वह सुबह आपका पहला विचार बनेगा। अब अक्सर आप क्रोध, काम, लोभ के किसी विचार को रात छोड़ कर सो जाते हैं; सुबह से वह फिर आप पर सवारी कर लेता है।
यह बहुत ज्यादा सेंसिटिव, संवेदनशील क्षण है--सूर्य की बदलाहट या आपकी चेतना की बदलाहट। बीमारी से जब आप स्वस्थ हो रहे हों या स्वास्थ्य से जब आप अचानक बीमार हो गए हों, अगर रास्ते पर आप जा रहे हों और कार का एकदम से एक्सीडेंट हो जाए तो आप उस क्षण का उपयोग कर सकते हैं। अगर कार आपकी एकदम टकरा गई हो अचानक, तो उस वक्त आपके भीतर इतना परिवर्तन होता है, चेतना इतने जोर से, झटके से बदलती है कि अगर आप उस वक्त स्मरण कर लें कि मैं शरीर नहीं हूं, तो वर्षों स्मरण करने से जो नहीं होगा, वह एक स्मरण करने से हो जाएगा। लेकिन जब आपकी कार टकराती है तब आपको एकदम खयाल आता है कि मरा, मैं शरीर हूं, मरे, गए। एक्सीडेंट्स का, दुर्घटनाओं का उपयोग किया जा सकता है। मैं शरीर नहीं हूं, यह आपके भीतर गहरा जिस भांति भी बैठ सके, वह सब प्रयोग करने जैसे हैं। तो कायोत्सर्ग की पहली घटना घटती है। लेकिन वह नकारात्मक है। इतना काफी नहीं है कि मैं शरीर नहीं हूं।
दूसरा विधायक अनुभव भी जरूरी है कि मैं आत्मा हूं। इस विधायक अनुभव को भी स्मरण रखना कीमती है। इसको स्मरण रखने के भी क्षण हैं। इस स्मरण को रखने के भी संक्रमण काल हैं। इस स्मरण को गहरा करने का भी आपके भीतर अवसर और मौका है। कब? जैसे आप संभोग के बाद वापस लौट रहे हैं। जब आप संभोग के बाद वापस लौट रहे होते हैं--तो आप जान कर हैरान होंगे--उस वक्त आप सबसे कम शरीर हो जाते हैं। और कामवासना के बाद वापस लौटते हैं, तब आप सिर्फ फ्रस्ट्रेशन और विषाद में होते हैं। और ऐसा लगता है--व्यर्थ, भूल, गलती, अपराध में गए। न जाते तो बेहतर। यह ज्यादा देर नहीं टिकेगी बात। घड़ी दो घड़ी में आप अपनी जगह वापस आ जाएंगे। लेकिन संभोग के क्षण के बाद शरीर को इतने झटके लगते हैं कि उसके बाद आपको, शरीर नहीं हूं यह प्रतीति, और मैं आत्मा हूं यह प्रतीति करने का अदभुत मौका है।
तंत्र ने इसका पूरा उपयोग किया है। इसलिए आप... अगर कोई तंत्र से थोड़ा भी परिचित रहा है तो वह जान कर हैरान होगा कि तंत्र ने संभोग का भी उपयोग किया ध्यान के लिए। क्योंकि संभोग के बाद जितने गहरे में यह बात मन में उठाई जा सकती है कि मैं आत्मा हूं, उतनी किसी और क्षण में उठानी बहुत मुश्किल है। क्योंकि उस वक्त शरीर टूट गया होता है, शरीर की आकांक्षा बुझ गई होती है, शरीर के साथ तादात्म्य जोड़ने का भाव मर गया होता है। यह ज्यादा देर नहीं टिकेगा। और अगर आपकी आदत मजबूत हो गई है, तो आपको पता ही नहीं चलेगा। तो अक्सर लोग संभोग के बाद चुपचाप सो जाएंगे। सोने के सिवाय उन्हें कुछ भी नहीं सूझेगा। लेकिन संभोग के बाद का क्षण बहुत कीमती हो सकता है। लेकिन हमें तो खयाल भी नहीं रहता कि हम भूल करते हैं, अपराध करते हैं।
मैंने सुना है कि वेटिकन के पोप ने अपने एक वक्तव्य में कहा कि ईसाइयत में एक सौ तैंतालीस पाप हैं--निंदित पाप--ऐसा माना है। हजारों पत्र वेटिकन के पोप के पास पहुंचे कि हमें पता ही नहीं था कि इतने पाप हैं, कृपा करके पूरी सूची भेजें। वेटिकन का पोप बहुत हैरान हुआ कि इतने लोग क्यों उत्सुक हैं सूची के लिए? मुल्ला नसरुद्दीन ने भी उसको पत्र लिखा। उसने सच्ची बात लिख दी। उसने लिखा कि जब से तुम्हारा वक्तव्य पढ़ा है, तब से मुझे ऐसा लग रहा है कि कितना हम चूकते रहे। इतने पाप हैं, हमने किए ही नहीं। दो-चार पाप करके ही अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। जल्दी से भेजो, जिंदगी बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ रही है, जब से यह सुना कि एक सौ तैंतालीस पाप हैं। कितना हम मिस कर गए, कितना हम चूक गए, और जिंदगी थोड़ी बची है।
आदमी का जो मन है, वह ऐसा ही है। आपको खबर लगे कि एक सौ तैंतालीस पाप हैं तो आप भी घर जाकर सोचेंगे, गिनती करेंगे। कितने... दो-चार ही पांच गिनती में आते हैं। बहुत बड़े पापी हुए तो दस अंगुलियां काफी पड़ेंगी। एक सौ तैंतालीस! चूक गए, जिंदगी बेकार गई, खो गया मौका। इतने हो सकते थे और नहीं किए।
मुल्ला जिस दिन मर रहा था, पुरोहित ने उससे कहा कि अब क्षमा मांग ले परमात्मा से, पश्र्चात्ताप कर। मुल्ला ने कहा: क्या खाक पश्र्चात्ताप करूं! मैं पश्र्चात्ताप यह कर रहा हूं कि जो पाप मैंने नहीं किए, कर ही लिए होते तो अच्छा था। क्योंकि जब माफी ही मांगनी थी तो एक के लिए मांगी कि दस के लिए मांगी, क्या फर्क पड़ता है! और तुम कह रहे हो: परमात्मा दयालु है। अगर वह दयालु है तो एक भी माफ कर देता, दस भी माफ कर देता। हम नाहक परेशान हुए। माफी मांगनी ही पड़ेगी। वह दयालु भी है, निश्चित दयालु है। हम नाहक चूके।पूरे ही कर लेते। तो मैं पछता रहा हूं--मुल्ला ने कहा: जरूर पछता रहा हूं, लेकिन उन पापों के लिए, जो मैंने नहीं किए, उन पापों के लिए नहीं, जो मैंने किए।
मरते वक्त आदमी पछताता है उन पापों के लिए जो उसने नहीं किए। लेकिन किसी भी पाप को करने के बाद का जो क्षण है वह बड़ा उपयोगी है। अगर आपने क्रोध किया है, तो क्रोध के बाद का जो क्षण है उसका उपयोग करें कायोत्सर्ग के लिए। उस वक्त आसान होगा आपको मानना कि मैं आत्मा हूं। उस क्षण शरीर से दूर हटना आसान होगा। अगर शराब पी ली है और सुबह हैंगओवर चल रहा है, तो उस वक्त आसान होगा मानना कि मैं आत्मा हूं। उस वक्त शरीर के प्रति एक तरह की ग्लानि का भाव और शरीर अपराधों में ले जाता है, इस तरह का भाव सहज, सरलता से पैदा हो जाता है। जब बीमारी से उठ रहे हैं तब बहुत आसान होगा मानना। अस्पताल में जाकर खड़े हो जाएं, वहां मानना बहुत आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। जाएं, वहां विचित्र-विचित्र प्रकार से लोग लटके हुए हैं, किसी की टांगें बंधी हुई हैं, किसी की गर्दन बंधी हुई है। वहां खड़े होकर पूछें कि मैं शरीर हूं? तो शरीर हूं तो वह जो सामने लटके हुए रूप दिखाई पड़ेंगे वही हूं। वहां आसान होगा। मरघट पर जाकर आसान होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। जिन क्षणों में भी आसानी लगे स्मरण करने की मैं आत्मा हूं, उनको चूकें मत, स्मरण करें। दो स्मरण जारी रखें--निषेध रूप से--मैं शरीर नहीं हूं; विधेय रूप से--मैं आत्मा हूं।
और तीसरी आखिरी बात--शरीर का जो तत्व है, वह उसी तत्व से संबंधित है जो हमारे बाहर फैला हुआ है। मेरी आंख में जो प्रकाश है, वह सूरज का; मेरे हाथों में जो मिट्टी है, वह पृथ्वी की; मेरे शरीर में जो पानी है, वह पानी का; इसको स्मरण रखें। और निरंतर समर्पित करते रहें जो जिसका है उसी का है। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे आपके भीतर वह चेतना अलग खड़ी होने लगेगी जो शरीर नहीं है। और वह चेतना खड़ी हो जाए और ध्यान के साथ उस चेतना का प्रयोग हो, तो आप कायोत्सर्ग कर पाएंगे।
जब ध्यान अपनी प्रगाढ़ता में आएगा, परिपूर्णता में, और शरीर लगेगा छूटता है, तब आपका मन पकड़ने का नहीं होगा। आप कहेंगे: छूटता है तो धन्यवाद। जाता है तो धन्यवाद। जाए तो जाए, धन्यवाद! इतनी सरलता से जब आप ध्यान में, शरीर से अपने को छोड़ने में समर्थ हो जाएंगे, उसी दिन आप मृत्यु के पार और अमृत के अनुभव को उपलब्ध हो जाएंगे। उसके बाद फिर कोई मृत्यु नहीं है। मृत्यु शरीर-मोह का परिणाम है। अमृत्व का बोध शरीर-मुक्ति का परिणाम है। इसे महावीर ने बारहवां तप कहा है और अंतिम। क्योंकि इसके बाद कुछ करने को शेष नहीं रह जाता। इसके बाद वह पा लिया जिसे पाने के लिए दौड़ थी; वह जान लिया जिसे जानने के लिए प्राण प्यासे थे। वह जगह मिल गई जिसके लिए इतने रास्तों पर यात्रा की थी। वह फूल खिल गया, वह सुगंध बिखर गई, वह प्रकाश जल गया जिसके लिए अनंत-अनंत जन्मों तक का भटकाव था।
कायोत्सर्ग विस्फोट है, एक्सप्लोजन है। लेकिन उसके लिए भी तैयारी करनी पड़ेगी। उसके लिए यह तैयारी करनी पड़े और ध्यान के साथ उस तैयारी को जोड़ देना पड़ेगा। ध्यान और कायोत्सर्ग जहां मिल जाते हैं, वहीं व्यक्ति अमृत्व को पा लेता है।
ये महावीर के बारह तप मैंने कहे। एक ही सूत्र पूरा हो पाया, कहूं, अभी एक ही पंक्ति पूरी ही पाई, उसकी दूसरी पंक्ति बाकी है। लेकिन उसमें ज्यादा कहने को नहीं है। दूसरी पंक्ति इसकी बाकी है। महावीर ने कहा है: ‘धर्म मंगल है। कौन सा धर्म? अहिंसा, संयम, तप। और जो इस धर्म को उपलब्ध हो जाते हैं, जो इस धर्म में लीन हो जाते हैं, उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं।’ यह दूसरा हिस्सा इस सूत्र का है।
सुनते वक्त आपको खयाल में भी न आया होगा कि महावीर जब यह कह रहे हैं कि उसे देवता भी नमस्कार करते हैं, तो कोई बहुत बड़ी क्रांतिकारी बात कह रहे हैं। महावीर के इस वक्तव्य के पहले आदमी देवताओं को नमस्कार करता रहा था। इसके पहले कभी किसी देवता ने आदमी को नमस्कार नहीं किया था। यह पहला वक्तव्य है संगृहीत, जिसमें महावीर ने कहा है कि ऐसे मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं। सारा वैदिक धर्म देवताओं को नमस्कार करने वाला है। यह आपके सुनते वक्त रोज यह दोहराया गया, आपको खयाल में न आया होगा कि इसमें कोई खास बात है, कोई बड़ा क्रांति का सूत्र है। महावीर जिस समाज में पैदा हुए थे, वह सब देवताओं को नमस्कार करने वाला समाज था। उस समाज में महावीर का यह कहना कि ऐसे मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं, बड़ा क्रांतिकारी वक्तव्य था। हम भी सोचेंगे कि देवता क्यों नमस्कार करेंगे मनुष्य को! देवता तो मनुष्य से ऊपर हैं।
महावीर नहीं कहते। महावीर कहते हैं: मनुष्य से ऊपर कोई भी नहीं है। इसलिए मनुष्य की डिग्निटी और मनुष्य की गरिमा और गौरव का ऐसा वक्तव्य दूसरा नहीं है। महावीर कहते हैं: मनुष्य से ऊपर कुछ भी नहीं है, लेकिन साथ ही वे यह भी कहते हैं कि मनुष्य से नीचे जाने वाला भी और कोई नहीं है। मनुष्य इतने नीचे जा सकता है कि पशु उससे ऊपर पड़ जाएं और मनुष्य इतने ऊपर जा सकता है कि देवता उससे नीचे पड़ जाएं। मनुष्य इतना गहरा उतर सकता है पाप में कि कोई पशु न कर सके।सच तो यह है पशु क्या पाप करते हैं! आदमी को देख कर पशु के पाप का कोई अर्थ नहीं रह जाता। तो मनुष्य नरक तक नीचे उतर सकता है और स्वर्ग तक ऊपर जा सकता है। देवता पीछे पड़ जाएं, वह वहां खड़ा हो सकता है; पशु आगे निकल जाएं, वहां वह उतर सकता है। मनुष्य की यह जो संभावना है, यह संभावना विराट है। इस संभावना में पाप भी आ जाते, पुण्य भी आ जाते; नरक भी आ जाता, स्वर्ग भी आ जाता है।
लेकिन देवताओं के ऊपर क्या स्थिति बनती होगी? तो महावीर ने कहा है कि नरक मनुष्य के दुखों का फल है, स्वर्ग मनुष्य के पुण्यों का फल है। लेकिन नरक भी चुक जाता है, पाप का फल भी समाप्त हो जाता है; स्वर्ग भी चुक जाता है, पुण्य का फल भी समाप्त हो जाता है। सिर्फ एक जगह कभी समाप्त नहीं होती, जब कोई आदमी पाप और पुण्य दोनों के पार उठ जाता है। पुण्य भी कर्म है, पाप भी कर्म है। पाप से भी बंधन लगता है--महावीर ने कहा है: वह बंधन लोहे की जंजीरों जैसा है। पुण्य से भी बंधन लगता है, वह सोने के आभूषणों जैसा है। लेकिन दोनों में बंधन है। महावीर कहते हैं: वह मनुष्य जो पाप और पुण्य दोनों के पार उठ जाता है, जो कर्म के ही पार उठ जाता है और स्वभाव में ठहर जाता है, वह देवताओं के भी ऊपर उठ जाता है। वह स्वर्ग के भी ऊपर उठ जाता है।
तो आपने दो शब्द सुने हैं महावीर तक, और अनेक धर्म दो शब्दों का उपयोग करते हैं: स्वर्ग और नरक। महावीर एक नये शब्द का भी उपयोग करते हैं: ‘मोक्ष।’ तीन शब्द उपयोग करते हैं महावीर। ‘नरक’ वे कहते हैं उस चित्त दशा को जहां पाप का फल मिलता; ‘स्वर्ग’ वे कहते हैं उस चित्त दशा को जहां पुण्य का फल मिलता; ‘मोक्ष’ वे कहते हैं उस चेतना की अवस्था को जहां सब कर्म समाप्त हो जाते हैं और चेतना अपने स्वभाव में लीन हो जाती है। निश्चित ही वैसी चित्त दशा में देवता भी प्रणाम करें मनुष्य को, तो आश्र्चर्य नहीं। अभी तो पशु भी हंसते हैं।
मैंने एक मजाक सुनी है। मैंने सुना है कि तीसरा महायुद्ध हो गया, सब समाप्त हो गया। कहीं कोई आवाज नहीं सुनाई पड़ती। एक घाटी में एक गुफा से एक बंदर बाहर निकला, उसके पीछे उसकी प्रेयसी बाहर निकली। वह बंदर उदास बैठ गया और उसने अपनी प्रेयसी से कहा: क्या सोचती हो, शैल वी स्टार्ट इट ऑल ओवर अगेन? क्या हम आदमी को अब फिर पैदा करें, फिर से दुनिया शुरू करें? डार्विन कहता है: आदमी बंदरों से आया। कभी तीसरा महायुद्ध हो जाए तो बंदरों को चिंता फिर होगी कि क्या करें? लेकिन वह बंदर कहता है, शैल वी स्टार्ट इट ऑल ओवर अगेन? क्या फिर करने जैसा भी है या अब रहने दें?
सुना है मैंने कि जब डार्विन ने कहा कि आदमी बंदरों से पैदा हुआ है तो आदमी ही नाराज नहीं हुए, बंदर भी बहुत नाराज हुए। क्योंकि बंदर आदमी को सदा अपने एक अंश की तरह देखते रहे हैं, जो रास्ते से भटक गया। लेकिन जब डार्विन ने कहा: यह एवोल्यूशन है, विकास है, तो बंदर नाराज हुए। उन्होंने कहा: इसको हम विकास कभी नहीं मानते। यह आदमी हमारा पतन है। लेकिन बंदरों की खबर हम तक नहीं पहुंची। आदमी बहुत नाराज हुए, क्योंकि आदमी मानते थे, हम ईश्र्वर से पैदा हुए हैं और डार्विन ने कहा बंदर से, तो आदमी को बहुत दुख लगा। उसने कहा: यह कैसे हो सकता है, हम ईश्र्वर के बेटे! लेकिन बंदर भी बहुत नाराज हुए।
निश्चित ही आदमी को देख कर बंदर भी हंसते होंगे। आदमी जैसा है वैसा तो पशु भी उसको प्रणाम न करेंगे। महावीर तो आदमी की उस स्थिति की बात कर रहे हैं जैसा वह हो सकता है; जो उसकी अंतिम संभावना है, जो उसमें प्रकट हो सकता है। जब उसका बीज पूरा खिल जाए और फूल बन जाए तो निश्चित ही देवता भी उसे नमस्कार करते हैं।
इतना ही।
दो सौ चौदह सूत्र हैं। एक सूत्र तो पूरा हुआ। लेकिन इस सूत्र को मैंने इस भांति बात की है कि अगर यह एक सूत्र भी आपकी जिंदगी में पूरा हो जाए तो बाकी दो सौ तेरह की कोई जरूरत नहीं है। सागर की एक बूंद भी हाथ में आ जाए तो सागर का सब राज हाथ में आ जाता है और एक बूंद के रहस्य को भी कोई समझ ले तो पूरे सागर का भी रहस्य समझ में आ जाता है। दूसरी बूंद का तो इसलिए समझना पड़ता है कि एक बूंद से नहीं समझ पड़ा तो फिर दूसरी बूंद का समझना पड़ता है, फिर तीसरी बूंद का समझना पड़ता है। लेकिन एक बूंद भी अगर पूरी समझ में आ जाए तो सागर में जो भी है वह एक बूंद में छिपा है।
इस एक सूत्र में मैंने कोशिश की कि धर्म की पूरी बात आपके खयाल में आ जाए। खयाल में शायद आ भी जाए, लेकिन खयाल कितनी देर टिकता है! धुएं की तरह खो जाता है। खयाल से काम नहीं चलेगा। जब बात खयाल में हो, तभी जल्दी करना कि किसी तरह वह कृत्य बन जाए, जीवन बन जाए--जल्दी करना। कहते हैं कि जब लोहा गर्म हो तभी चोट कर देना चाहिए। अगर थोड़ा भी लोहा गर्म हुआ हो, तो उस पर चोट करना शुरू कर देनी चाहिए। समझने से कुछ समझ में न आएगा, इतना ही समझ में आ जाए कि समझने से करने की कोई दिशा खुलती है, तो पर्याप्त है।
अभी रुकेंगे पांच मिनट, आखिरी दिन का कीर्तन करेंगे। फिर हम जाएंगे...!