MAHAVIR
Mahaveer Vani 15
Fifteenth Discourse from the series of 54 discourses - Mahaveer Vani by Osho. These discourses were given in BOMBAY during AUG 18 - SEP 11 1973.
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धम्म-सूत्र: अंतर-तप-2
धम्मो मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया मणो।।
धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?)अहिंसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
अंतर-तप की दूसरी सीढ़ी है: विनय।
प्रायश्चित्त के बाद ही विनय के पैदा होने की संभावना है। क्योंकि जब तक मन देखता रहता है दूसरे के दोष, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। जब तक मनुष्य सोचता है कि मुझे छोड़ कर शेष सब गलत हैं, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। विनय तो पैदा तभी हो सकती है जब अहंकार दूसरों के दोष देख कर अपने को भरना बंद कर दे। इसे हम ऐसा समझें कि अहंकार का भोजन है दूसरों के दोष देखना। वह अहंकार का भोजन है। इसलिए यह नहीं हो सकता है कि आप दूसरों के दोष देखते चले जाएं और अहंकार विसर्जित हो जाए। क्योंकि एक तरफ आप भोजन दिए चले जाते हैं और दूसरी तरफ अहंकार को विसर्जित करना चाहते हैं, यह न हो सकेगा। इसलिए महावीर ने बहुत वैज्ञानिक क्रम रखा है--प्रायश्चित्त पहले, क्योंकि प्रायश्चित्त के साथ ही अहंकार को भोजन मिलना बंद हो जाता है।
वस्तुतः हम दूसरे के दोष देखते ही क्यों हैं? शायद इसे आपने कभी ठीक से न सोचा होगा कि हमें दूसरों के दोष देखने में इतना रस क्यों है? असल में दूसरों का दोष हम देखते ही इसलिए हैं कि दूसरों का दोष जितना दिखाई पड़े, हम उतने ही निर्दोष मालूम पड़ते हैं। ज्यादा दिखाई पड़े दूसरे का दोष, तो हम ज्यादा निर्दोष मालूम पड़ते हैं। उस पृष्ठभूमि में, जहां दूसरे दोषी होते हैं हम अपने को निर्दोष देख पाते हैं। अगर दूसरे निर्दोष दिखाई पड़ें तो हम दोषी दिखाई पड़ने लगेंगे। तो हम दूसरों की शक्लें जितनी काली रंग सकते हैं, उतनी रंग देते हैं। उनकी काली रंगी शक्लों के बीच हम गौर वर्ण मालूम पड़ते हैं। अगर दूसरों के पास गौर वर्ण हो--सबके पास, तो हम सहज ही काले दिखाई पड़ने लगेंगे।
दूसरे के दोष देखने का जो आंतरिक रस है वह स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने की असफल चेष्टा है; क्योंकि निर्दोष कोई अपने को सिद्ध नहीं कर सकता है। निर्दोष कोई हो सकता है, सिद्ध नहीं कर सकता। सच तो यह है कि सिद्ध करने की कोशिश में ही निर्दोष न होना छिपा है। निर्दोषता--सिद्ध करने की कोशिश भी नहीं है। कोई यदि आपको किसी के संबंध में कोई पुण्य खबर दे तो मानने का मन नहीं होता। कोई आपसे कहे कि दूसरा व्यक्ति बहुत सज्जन, भला, साधु है तो मानने का मन नहीं होता। मन एक भीतरी रेसिस्टेंस, एक भीतरी प्रतिरोध करता है। मन भीतर से कहता है: ऐसा हो नहीं सकता। इस भीतर की लहर पर थोड़ा ध्यान करें, अन्यथा विनय कभी उपलब्ध न होगी।
जब कोई किसी दूसरे की शुभ चर्चा करता है तो मन मानने को नहीं होता। भीतर एक लहर कंपित होती है और कहती है कि प्रमाण क्या है कि दूसरा सज्जन है, साधु है? वह प्रमाण की तलाश इसीलिए है ताकि अप्रमाणित किया जा सके कि दूसरा साधु नहीं, सज्जन नहीं। लेकिन कभी आपने इससे विपरीत बात देखी? अगर कोई किसी के संबंध में निंदा करे तो आपका मन एकदम मानने को आतुर होता है। आप निंदा के लिए प्रमाण नहीं पूछते। अगर कोई आदमी कहे कि फलां आदमी ब्रह्मचारी है; तो आप पूछते हैं: प्रमाण क्या है? लेकिन कोई आदमी कहे फलां आदमी व्यभिचारी है; आपने प्रमाण पूछा है? नहीं, फिर तो कोई जरूरत नहीं रह जाती प्रमाण की। कहना पर्याप्त है। किसी ने कहा तो पर्याप्त है।
और ध्यान रहे, अगर कोई कहे कि दूसरा आदमी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है तो आप बड़े मन को मसोस कर मान सकते हैं, प्रफुल्लता से नहीं। और जब आप दूसरे को कहेंगे, तो जितने जोर से उसने कहा था उस जोर में कमी आ जाएगी। तीन चार आदमियों में यात्रा करते-करते वह ब्रह्मचर्य खो जाएगा। लेकिन अगर किसी ने कहा: फलां आदमी व्यभिचारी है तो जब आप दूसरे से कहते हैं, तो आपने खयाल किया कि आप कितना गुणित करते हैं उसे? कितना मल्टीप्लाइ करते हैं? जितना रस उसने लिया था, उससे दुगुना रस आप दूसरे को सुनाते वक्त लेते हैं। पांच आदमियों तक पहुंचते-पहुंचते पता चलेगा कि उससे ज्यादा व्यभिचारी आदमी दुनिया में कभी पैदा ही नहीं हुआ। पांच आदमियों के बीच पाप इतनी बड़ी यात्रा कर लेगा।
इस मन के आंतरिक रस को देखना, समझना जरूरी है। तो विनय की साधना का पहला सूत्र तो है कि हमारे अहंकार के सहारे क्या हैं? हम किस सहारे से अविनीत बने रहते हैं? वे सहारे न गिरें तो विनय उत्पन्न नहीं होगा। निंदा में रस मालूम होता है, स्तुति में पीड़ा मालूम होती है। और इसलिए अगर आपको किसी मजबूरी में किसी की स्तुति करनी पड़ती है तो आप बहुत शीघ्र उसके सामने से हट कर, तत्काल कहीं जाकर उसकी निंदा करके बैंक-बैलेंस बराबर कर लेते हैं। देर नहीं लगती। संतुलन पर ला देते हैं तराजू को बहुत शीघ्र। जब तक संतुलन न आ जाए तब तक मन को चैन नहीं पड़ता। लेकिन इससे उलटा इतने आसानी से नहीं होता। जब आप किसी को गालियां देकर जाते हैं तो तत्काल आप संतुलन स्थापित नहीं करते कि कहीं जाकर उसके गुणों की भी चर्चा कर लें। मन की सहज इच्छा यह है कि दूसरे निंदित हों। तो दूसरों का दोष तो हम हजारों मील से देख पाते हैं, अपना दोष इतने निकट रह कर भी नहीं देख पाते।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने गांव के मेयर को कई बार फोन किया कि एक स्त्री बहुत अभद्र व्यवहार कर रही है मेरे साथ। अपनी खिड़की में इस भांति खड़ी होती है कि उसकी मुद्राएं आमंत्रण देती हैं, और कभी-कभी अर्धनग्न भी वह खिड़की से दिखाई पड़ती है। इसे रोका जाना चाहिए। यह समाज की नीति पर हमला है। कई बार फोन किया तो मेयर मुल्ला के घर आया।
मुल्ला अपनी चौथी मंजिल पर ले गया, खिड़की के पास कहा: देखिए, वह सामने का मकान, उसी में वह स्त्री रहती है। मकान नदी के उस पार कोई आधा मील दूर था। उस मेयर ने कहा: वह स्त्री उस मकान में रहती है और उस मकान की खिड़कियों से आपको टेम्पटेशंस पैदा करती है? उधर से आपको उकसाती है? यहां से तो खिड़की भी ठीक से नहीं दिखाई पड़ रही, वह स्त्री कैसे दिखाई पड़ती होगी? मुल्ला ने कहा: ठहरो--उसके देखने का ढंग है--स्टूल पर चढ़ो, यह दूरबीन हाथ में लो, तब दिखाई पड़ती है।
लेकिन दोष उस स्त्री का है वह जो आधा मील दूर है!
और फिर एक दिन ऐसा भी हुआ कि मुल्ला अपने गांव के मनोचिकित्सक के दरवाजे को खटखटाया। भीतर गया, पूरा नग्न!
मनोचिकित्सक भी चौंका। नीचे से ऊपर तक देखा।
मुल्ला ने कहा कि मैं यही पूछने आया हूं और वही भूल आप कर रहे हैं। मैं सड़कों पर से निकलता हूं तो लोग न मालूम पागल हो गए हैं, मुझे घूर-घूर कर देखते हैं। ऐसी क्या मुझमें कमी है या ऐसी क्या भूल है जिससेलोग मुझे घूर-घूर कर देखते हैं। मनोवैज्ञानिक खुद ही घूर-घूर कर देख रहा था, क्योंकि मुल्ला निपट नग्न खड़ा था। मुल्ला ने कहा: यह पूरा गांव पागल हो गया मालूम पड़ता है। जहां से भी निकलता हूं, वहीं लोग घूर-घूर कर देखते हैं। आपका विश्लेषण क्या है?
मनोवैज्ञानिक ने कहा: ऐसा मालूम पड़ता है कि आप अदृश्य वस्त्र पहने हुए हैं, दिखाई न पड़ने वाले वस्त्र पहने हुए हैं। शायद उन्हीं वस्त्रों को देखने के लिए लोग घूर-घूर कर देखते होंगे।
मुल्ला ने कहा: बिलकुल ठीक। तुम्हारी फीस क्या है?
मनोवैज्ञानिक ने सोचा कि ऐसा आदमी, इससे फीस ठीक से ले लेनी चाहिए। उसने सौ रुपये फीस के बताए।
मुल्ला ने खीसे में हाथ डाला, नोट गिने, दिए। मनोवैज्ञानिक ने कहा: लेकिन हाथ में कुछ भी नहीं है।
मुल्ला ने कहा: यह अदृश्य नोट हैं। ये दिखाई नहीं पड़ते। घूर-घूर कर देखो, दिखाई पड़ सकते हैं।
आदमी खुद नग्न घूमता हो बाजार में तो भी शक होता है कि दूसरे लोग घूर-घूर कर क्यों देखते हैं? और अपने घर से वह दूरबीन लगा कर आधा मील दूर किसी की खिड़की में देख सकता है और कह सकता है कि वह स्त्री मुझे प्रलोभित कर रही है। हम सब ऐसे ही हैं। हम सबका तालमेल ऐसा ही है व्यक्तित्व का। तो विनय तो कैसे पैदा होगी? विनय के पैदा होने का कोई उपाय नहीं है। अहंकार ही पैदा होगा। जब कोई किसी की हत्या भी कर देता है तो वह यह नहीं मानता कि हत्या में मैं अपराधी हूं। वह मानता है कि उस आदमी ने ऐसा काम ही किया था कि हत्या करनी पड़े। दोषी वही है।
मुल्ला ने तीसरी शादी की थी। तीसरी पत्नी घर में आई तो दो बड़ी-बड़ी तस्वीरें देख कर उसने पूछा: ये तस्वीरें किसकी हैं? मुल्ला ने कहा: मेरी पिछली दो पत्नियों की। मुसलमान घर में तो चार पत्नियां तो हो ही सकती हैं सहज ही। तो उसने पूछा: लेकिन वे हैं कहां? मुल्ला ने कहा: अब वे कहां? पहली मर गई मशरूम पाय़जनिंग से। उसने कुकुरमुत्ते खा लिए जो जहरीले थे। उसने पूछा: और दूसरी कहां है? मुल्ला ने कहा: वह भी मर गई। फ्रैक्चर ऑफ दि स्कल, खोपड़ी के टूट जाने से। बट दि फॉल्ट वा़ज ह़र्ज। शी वुड नॉट ईट मशरूम्स। भूल उसकी ही थी। मैं कितना ही कहूं वह मशरूम खाने को, वह कुकुरमुत्ते खाने को राजी नहीं होती थी। तो खोपड़ी के टूटने से मर गई। खोपड़ी मुल्ला ने तोड़ी, क्योंकि वह मशरूम नहीं खाती थी। मगर दोष उसका ही था, भूल उसकी ही थी।
भूल सदा दूसरे की है। भूल शब्द ही दूसरे की तरफ तीर बन कर चलता है। वह कभी अपनी होती ही नहीं। और जब अपनी नहीं होती तो विनय का कोई भी कारण नहीं है। तो अहंकार, यह दूसरे की तरफ जाते हुए तीरों के बीच में निश्चिंत खड़ा होता है, बलशाली होता है। सघन होता है।
इसलिए महावीर ने प्रायश्चित्त को पहला अंतर-तप कहा कि पहले तो यह जान लेना जरूरी होगा कि न केवल मेरे कृत्य गलत हैं बल्कि मैं ही गलत हूं। तीर सब बदल गए, रुख बदल गया। अब वे दूसरे की तरफ नहीं जाते, अपनी तरफ मुड़ गए। ऐसी स्थिति में हंबलनेस, विनय को साधा जा सकता है। फिर भी महावीर ने निर-अहंकारिता नहीं कही। महावीर कह सकते थे निर-अहंकार, लेकिन महावीर ने ईगोलेसनेस नहीं कही; कहा विनय। क्योंकि निर-अहंकार नकारात्मक है और उसमें अहंकार की स्वीकृति है। अहंकार को इनकार करने के लिए भी उसका स्वीकार है। और जिसे हमें इनकार करने के लिए भी स्वीकार करना पड़े, उसका इनकार किया नहीं जा सकता। जैसे कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं मर गया हूं क्योंकि मैं मर गया हूं, यह कहने के लिए मैं हूं जिंदा, इसे स्वीकार करना पड़ेगा। जैसे कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं घर के भीतर नहीं हूं, क्योंकि मैं घर के भीतर नहीं हूं, यह कहने के लिए भी मुझे घर के भीतर होना पड़ेगा।
निर-अहंकार की साधना में यही भूल होती है कि अहंकारी मैं हूं, यह स्वीकार करना पड़ता है और इस अहंकार को निर-अहंकार में बदलने की कोशिश करनी पड़ती है। बहुत डर तो यही है कि वह अहंकार ही अपने ऊपर निर-अहंकार के वस्त्र ओढ़ लेगा और कहेगा: देखो, मैं निर-अहंकारी हूं। अहंकार है ही कहां मुझमें। अहंकार यह भी कह सकता है कि अहंकार मुझमें नहीं है। तब वह विनय नहीं रह जाती है, वह अहंकार का ही एक रूप है--प्रच्छन्न, छिपा हुआ, गुप्त, और पहले प्रकट रूप से ज्यादा खतरनाक है। इसलिए निर-अहंकार नहीं कहा है जान कर; क्योंकि कोई भी अंतर-तप अगर निषेधात्मक रूप से पकड़ा जाए तो सूक्ष्म हो जाएगी वह बीमारी जिसको आप हटाने चले थे, मिटाना कठिन होगा। हां, विनय आ जाए तो आप निर-अहंकारी हो जाएंगे। लेकिन निर-अहंकारी होने की कोशिश अहंकार को नष्ट नहीं कर पाती। अहंकार इतने विनम्र रूप ले सकता है जिसका हिसाब लगाना कठिन है। अहंकार कह सकता है: मैं तो कुछ भी नहीं, आपके पैरों की धूल हूं। और तब भी इस घोषणा में बच सकता है। इसलिए बहुत बारीक और बहुत सूक्ष्म भेद है।
विनय है पाजिटिव। महावीर विधायक जोर दे रहे हैं कि आपके भीतर वह अवस्था जन्मे जहां दूसरा दोषी नहीं रह जाता। और जिस क्षण मुझे अपने दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं, उस क्षण विनय बहुत-बहुत रूपों में बरसती है। एक तो जो व्यक्ति अपने दोष नहीं देखता वह दूसरे के दोष बहुत कठोरता से देखता है। जिस व्यक्ति को अपने दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं वह दूसरों के दोषों के प्रति बहुत सदय हो जाता है; क्योंकि वह जानता है, मेरे भीतर भी यही हैं।
सच तो यह है कि जिस आदमी ने चोरी न की हो उस आदमी को चोरी के संबंध में निर्णय का अधिकार नहीं होना चाहिए। क्योंकि वह समझ ही नहीं पाएगा कि चोरी मनुष्य कैसी स्थितियों में कर लेता है। लेकिन हम चोर को कभी चोर का निर्णय करने को न बिठाएंगे। हम उसको बिठाएंगे जिसने कभी चोरी नहीं की है। उससे जो भी होगा वह अन्याय होगा। अन्याय इसलिए होगा कि वह अति कठोर होगा। वह जो सदयता आनी चाहिए--अपने भीतर की कमजोरी को जान कर दूसरे की कमजोरी भी स्वाभाविक है--ऐसा जो सहृदय भाव आना चाहिए वह उसके भीतर नहीं होगा। इसलिए जान कर आप हैरान होंगे कि तथाकथित जिन्हें हम पापी कहते हैं वे ज्यादा सहृदय होते हैं। और जिन्हें हम महात्मा कहते हैं, वे इतने सहृदय नहीं होते। महात्माओं में ऐसी दुष्टता का और ऐसी कठोरता का छिपा हुआ जहर मिलेगा, जैसा कि पापियों में खोजना कठिन है।
यह बहुत उलटा दिखाई पड़ता है, लेकिन इसके पीछे कारण है। यह उलटा नहीं है। पापी दूसरे पापियों के प्रति सदय हो जाता है क्योंकि वह जानता है--मैं ही कमजोर हूं तो मैं किसकी कमजोरी की निंदा करने जाऊं! इसलिए किसी पापी ने दूसरे पापी के लिए नरक का आयोजन नहीं किया। पुण्यात्मा करते हैं। उनका मन नहीं मानता कि उनको छोड़ा जा सके। और इस बात की पूरी संभावना है कि उनके पुण्य करने में रस केवल इतना ही हो कि वे पापियों को नीचा दिखा सकते हैं। अहंकार ऐसे रस लेता है।
तो एक तो जैसे ही तीर अपनी तरफ मुड़ जाते हैं चेतना के, और अपनी भूलें, सहज भूलें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं, वैसे ही दूसरे की भूलों के प्रति एक अत्यंत सदय भाव आ जाता है। तब हम जानते हैं कि दूसरे को दोषी कहना व्यर्थ है। इसलिए नहीं कि वह दोषी न होगा या होगा, इसलिए कि दोष इतने स्वाभाविक हैं। मुझमें भी हैं। और जब स्वयं में दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं तो दूसरों से अपने को श्रेष्ठ मानने का कोई कारण नहीं रह जाता।
लेकिन जैन शास्त्र जो परिभाषा करते हैं विनय की वह बड़ी और है। वे कहते हैं: जो अपने से श्रेष्ठ हैं, उनका आदर विनय है। गुरुजनों का आदर, माता-पिता का आदर, श्रेष्ठजनों का आदर, साधुओं का आदर, महाजनों का आदर, लोकमान्य पुरुषों का आदर--इनका आदर विनय है। यह बिलकुल ही गलत है, यह आमूल गलत है। यह जड़ से गलत है। यह बात ठीक नहीं है। यह इसलिए ठीक नहीं है कि जो व्यक्ति दूसरे को श्रेष्ठ देखेगा वह किसी को अपने से निकृष्ट देखता ही रहेगा। यह असंभव है कि आपको कोई व्यक्ति श्रेष्ठ मालूम पड़े और कोई व्यक्ति ऐसा न मालूम पड़े जो आपसे निकृष्ट है क्योंकि तराजू में एक पलड़ा नहीं होता।
आप दूसरे को जब तक श्रेष्ठ देख सकते हैं, यू कैन कंपेयर, आप तुलना कर सकते हैं। आप कहते हैं कि यह आदमी श्रेष्ठ है क्योंकि मैं चोरी करता हूं और यह आदमी चोरी नहीं करता। लेकिन तब आप इस बात को देखने से कैसे बचेंगे कि कोई आदमी आपसे भी ज्यादा चोर है। आप कह सकते हैं: यह आदमी साधु है, लेकिन तब आप यह देखने से कैसे बचेंगे कि दूसरा आदमी असाधु है। जब तक आप साधु को देख सकते हैं, तब तक असाधु को देखना पड़ेगा। और जब तक आप श्रेष्ठ को देख सकते हैं तब तक अश्रेष्ठ आपकी आंखों में मौजूद रहेगा। तुलना के दो पलड़े होते हैं।
इसलिए मैं नहीं मानता हूं कि महावीर का यह अर्थ है कि अपने से श्रेष्ठजनों को आदर, क्योंकि फिर निकृष्टजनों को अनादर देना ही पड़ेगा। यह बहुत मजेदार बात है। यह हमने कभी नहीं सोचा। हम इस तरह सोचते नहीं। और जीवन बहुत जटिल है और हमारा सोचना बहुत बचकाना है। हम कहते हैं: श्रेष्ठजनों को आदर। लेकिन निकृष्टजन फिर दिखाई पड़ेंगे। जब आप सीढ़ियों पर खड़े हो गए तो आप पक्का मानना कि आपको जब आपसे आगे कोई सीढ़ी पर दिखाई पड़ेगा तो जो पीछे है वह कैसे दिखाई न पड़ेगा। और अगर पीछे का दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा तो जो आपके आगे है, वह आपसे आगे है यह आपको कैसे मालूम पड़ेगा? वह पीछे की तुलना में ही आगे मालूम पड़ता है। अगर दो ही आदमी खड़े हैं तो कौन आगे है, कौन है आगे?
मुल्ला के जीवन में बड़ी प्रीतिकर एक घटना है। कुछ विद्यार्थियों ने आकर मुल्ला को कहा कि कभी चल कर हमारे विद्यापीठ में हमें प्रवचन दो।
मुल्ला ने कहा: चलो अभी चलता हूं, क्योंकि कल का क्या भरोसा? और शिष्य बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। मुल्ला ने अपना गधा निकाला, जिस पर वह सवारी करता था, लेकिन गधे पर उलटा बैठ गया। बाजार से यह अदभुत शोभा यात्रा निकली। मुल्ला गधे पर उलटा बैठा, विद्यार्थी पीछे।
थोड़ी देर में विद्यार्थी बेचैन होने लगे। क्योंकि सड़क के लोग उत्सुक होने लगे और मुल्ला के साथ-साथ विद्यार्थी भी फंस गए। लोग कहने लगे: यह क्या मामला है? यह किस पागल के पीछे जा रहे हो? तुम्हारा दिमाग खराब है?
आखिर एक विद्यार्थी ने हिम्मत जुटा कर कहा कि मुल्ला, यह क्या ढंग है बैठने का? आप कृपा करके सीधे बैठ जाएं। तुम्हारे साथ हमारी भी बदनामी हो रही है।
मुल्ला ने कहा: लेकिन मैं सीधा बैठूंगा तो बड़ी अविनय हो जाएगी।
उसने कहा: क्या, कैसी अविनय?
मुल्ला ने कहा: अगर मैं तुम्हारी तरफ पीठ करके बैठूं तो तुम्हारा अपमान होगा, और अगर मैं तुम्हारी तरफ पीठ करके न बैठूं, तुम मेरे आगे चलो और मेरा गधा पीछे चले तो मेरा अपमान होगा। सो दिस इ़ज दि ओनली वे टु कंप्रोमाइज। कि मैं गधे पर उलटा बैठूं, तुम्हारे आगे चलूं, हम दोनों के मुंह आमने-सामने रहें। इसमें दोनों की इज्जत की रक्षा है। और लोगों को कहने दो जो कह रहे हैं। हम अपनी इज्जत बचा रहे हैं दोनों।
ये जो हमारी विनय की धारणाएं हैं, श्रेष्ठजन कौन है, आगे कौन चल रहा है, यह निश्चित ही निर्भर करेंगी कि पीछे कौन चल रहा है। और जितना आप अपने श्रेष्ठजन को आदर देंगे, उसी मात्रा में आप अपने से निकृष्टजन को अनादर देंगे। मात्रा बराबर होगी, क्योंकि जिंदगी प्रति वक्त संतुलन करती है। अन्यथा बेचैनी पैदा हो जाती है। तो जब आप एक साधु खोजेंगे, तो निश्चित रूप से आप एक असाधु को खोजेंगे, और तुलना बराबर हो जाएगी। जब भी आप एक भगवान खोजेंगे, तब आप एक भगवान खोजेंगे जिसकी निंदा आपको अनिवार्य होगी। जो लोग महावीर को भगवान मानते हैं, वे बुद्ध को भगवान नहीं मान सकते; वे कृष्ण को भगवान नहीं मान सकते। जो लोग कृष्ण को भगवान मानते हैं, वे महावीर को, बुद्ध को भगवान नहीं मान सकते। क्यों नहीं मान सकते? नहीं मान सकते इसलिए कि संतुलन करना पड़ता है जिंदगी में। एक को पल्ले पर भगवान रख दिया तो दूसरे को रखना पड़ेगा जो भगवान नहीं है--दूसरे पल्ले पर। तभी संतुलन पूरा होगा।
तो जैन अगर किताबें भी लिखते हैं बुद्ध के बाबत--क्योंकि बुद्ध और महावीर समकालीन थे और उनकी शिक्षाएं कई अर्थों में समान मालूम पड़ती हैं--तो मैंने अब तक एक हिम्मतवर जैन नहीं देखा जिसने बुद्ध को भगवान लिखने की हिम्मत की हो। अगर साथ-साथ लिखते भी हैं तो वे लिखते हैं--भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध। बड़े मजे की बात है। बहुत हिम्मतवर हैं ये लोगे जो महात्मा बुद्ध लिखते हैं। लेकिन उनकी भी हिम्मत नहीं जुट पाती कि वे भगवान बुद्ध कह सकें। भगवान कृष्ण कहना तो बहुत ही मुश्किल मामला है, क्योंकि शिक्षाएं बहुत विपरीत हैं। तो कृष्ण को तो जैनों ने नरक में डाल रखा है। उनके हिसाब से इस समय कृष्ण नरक में हैं। क्योंकि युद्ध इसी आदमी ने करवाया।
और हिंदुओं ने तो महावीर की कोई गणना ही नहीं की, एक किताब में उल्लेख नहीं किया महावीर का। यानी नरक में डालने योग्य भी नहीं माना। आप यह समझना। कोई हिसाब ही नहीं रखा। अगर बौद्धों के ग्रंथ नष्ट हो जाएं तो जैनों के पास अपने ही ग्रंथों के सिवाय महावीर का हिंदुस्तान में कोई उल्लेख नहीं होगा। हिंदुओं ने तो गणना भी नहीं की कि यह आदमी कभी हुआ भी है। इस भांति महावीर जैसा आदमी पैदा हो, हिंदुस्तान में पैदा हो, चारों तरफ हिंदुओं से भरे समाज में पैदा हो और हिंदुओं का एक भी शास्त्र उल्लेख न करता हो, यह जरा सोचने जैसा मामला है!
इसलिए जब पहली दफा पाश्र्चात्य विद्वानों ने महावीर पर काम शुरू किया तो उन्हें शक हुआ कि यह आदमी कभी हुआ नहीं होगा। क्योंकि हिंदुओं के ग्रंथों में कोई उल्लेख न हो, यह असंभव है। तो उन्होंने सोचा कि शायद यह बुद्ध का ही खयाल है जैनों को। यह बुद्ध को ही मानने वाले दो तरह के लोग हैं, और बुद्ध और महावीर को जो विशेषण दिए गए वे कई जगह समान हैं। जैसे बुद्ध को भी जिन कहा गया है, महावीर को भी जिन--जिसने अपने को जीत लिया। महावीर को भी बुद्धपुरुष कहा गया है, बुद्ध को भी बुद्ध कहा गया है। तो शायद, यह बुद्ध का ही भ्रम है। इसलिए पश्र्चिम के विद्वानों ने तो महावीर को मानने से इनकार कर दिया--कर देने का कारण था कि हिंदू बड़ा समाज है। इसमें कोई कहीं खबर ही नहीं कि महावीर हुए!
ध्यान रहे, जैनों को कृष्ण को स्वीकार करना पड़ा--भला नरक में डालना पड़ा हो। अस्वीकार करना मुश्किल था। इतना बड़ा व्यक्ति था, और इतने बड़े समाज का आदर और सम्मान था। लेकिन हिंदू चाहें तो निगलेक्ट कर सकते हैं, उपेक्षा कर सकते हैं, कोई जरूरत नहीं है उल्लेख करने की। पर आश्र्चर्यजनक है यह कि एक को भगवान कोई मान ले तो फिर दूसरे को मानना बड़ा कठिन हो जाता है। कठिनाई यही हो जाती है कि तौल खड़ी हो गई, अब दूसरे को दूसरे पलड़े पर रखना पड़ेगा और संतुलन बराबर बिठाना होगा।
हम सब संतुलन बिठा रहे हैं। हम सब तुलनाएं कर रहे हैं। इसीलिए यह आश्र्चर्यजनक घटना घटती है कि इस पृथ्वी पर इतने-इतने अदभुत लोग पैदा होते हैं, लेकिन उन अदभुत लोगों में से हम एक का ही फायदा उठा पाते हैं--एक का ही, सबका नहीं उठा पाते। सबके हम हकदार हैं। हम बुद्ध के उतने ही वसीयतदार हैं जितने कृष्ण के, जितने मोहम्मद के, जितने क्राइस्ट के, जितने नानक के या कबीर के। लेकिन नहीं, हम वसीयत छोड़ देंगे। हम तो एक के हकदार होंगे, शेष सबको हम इनकार कर देंगे। हमें इनकार करना पड़ेगा, क्योंकि हम जब स्वीकार करते हैं श्रेष्ठ को, तो हमें किसी को निकृष्ट की जगह रखना पड़ेगा, नहीं तो श्रेष्ठ को तौलने का मापदंड कहां होगा। इससे विनय पैदा नहीं होती।
जो आदमी कहता है: मैं महावीर के प्रति विनयपूर्ण हूं, लेकिन बुद्ध के प्रति नहीं, वह समझ ले कि वह विनीत नहीं है। और यह भी अपने अहंकार को भरने का ही एक ढंग है क्योंकि महावीर से अपने को जोड़ रहा हूं, और महावीर भगवान हैं तो मैं भगवान से जुड़ता हूं। और तब दूसरे जो लोग बुद्ध से अपने को जोड़ कर अहंकार को भर रहे हैं, उनके अहंकार से मेरी टक्कर शुरू हो जाती है। तो मुझे अड़चन होने लगती है कि बुद्ध कैसे भगवान हो सकते हैं। क्योंकि अगर बुद्ध भगवान हैं तो बुद्ध को मानने वाले भी श्रेष्ठ हो जाते हैं। भगवान तो सिर्फ महावीर ही हैं, और उनको मानने वाले श्रेष्ठ हैं, आर्य हैं। वही नमक हैं इस पृथ्वी पर, बाकी तो सब ठीक हैं। सारी दुनिया में यही पागलपन पैदा होता है। यह हमारे अहंकार से पैदा हुआ रोग है। विनय का यह अर्थ नहीं है कि आप अपने से श्रेष्ठ को आदर दें।
दूसरी बात यह भी ध्यान रखने की है कि अगर श्रेष्ठ है वह आदमी, इसलिए आप आदर देते हैं तो आपके आदर देने में कोई गुण कहां रहा? इसे भी थोड़ा खयाल में ले लें। अगर एक व्यक्ति श्रेष्ठ है, तो आदर आपको देना पड़ता है, आप देते नहीं। आपका क्या गुण है? देने में आपका क्या रू
पांतरण हो रहा है? अगर एक व्यक्ति श्रेष्ठ है तो आपको आदर देना पड़ता है। ध्यान रहे, आदर देना पड़ता है। वह मजबूरी बन जाती है। वह आपका गुण नहीं है। आपका गुण न हो अगर, तो आपका अंतर-तप कैसे होगा? अंतर-तप तो आपके भीतरी गुणों को जगाने की बात है।
अगर मुझे कोहिनूर सुंदर लगता है, तो वह कोहिनूर का सौंदर्य होगा। लेकिन जिस दिन मुझे सौंदर्य कंकड़-पत्थर में भी दिखाई पड़ने लगे उतना ही, जितना कोहिनूर में दिखता है--सड़क पर पड़े हुए पत्थर में भी दिखाई पड़ने लगे, उस दिन अब कोहिनूर का गुण न रहा, अब मेरा गुण हुआ। जिस दिन मुझे सबके प्रति विनय मालूम होने लगे, बिना तौल के, उस दिन गुण मेरा है। और जब तक मैं तौल-तौल कर आदर देता हूं, तब तक मेरा गुण नहीं है, मजबूरी है। जो श्रेष्ठ है उसे आदर देना पड़ता है। श्रेष्ठ को आदर देने के लिए आपको कुछ प्रयास, कोई श्रम, कोई परिवर्तन नहीं करना होता। वह आपका तप कैसे हुआ? वह श्रेष्ठ व्यक्ति का भला तप रहा हो कि वह श्रेष्ठ कैसे हुआ, लेकिन आप उसको आदर देते हैं तो वह आपका तप कैसे हुआ, आपकी साधना कैसे हुई? सूरज निकलता है तो आप नमस्कार कर लेते हैं। फूल खिलता है तो आप गीत गा देते हैं। आप इसमें कहां आते हैं! आपके बिना भी फूल खिल जाता और आपके गीत से कुछ फूल ज्यादा नहीं खिलता और आपके बिना भी सूरज निकल जाता, और आपके नमस्कार से सूरज की चमक नहीं बढ़ती। आपका कहां इसमें मूल्य है? आप इसमें कहां आते हैं? आप इसमें कहीं भी नहीं आते।
मुल्ला नसरुद्दीन मनोवैज्ञानिक से सलाह लेता था, निरंतर। क्योंकि उसे निरंतर चिंताएं, तकलीफें, मन में न मालूम कैसे जाल खड़े हो जाते थे। सबके होते हैं। उसने मनोवैज्ञानिक को जाकर कहा कि मैं बहुत परेशान हूं, मुझे इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स है, हीनता की ग्रंथि सताती है। सुल्तान निकलता है रास्ते से तो मुझे लगता है कि मैं हीन हूं। एक महाकवि गांव में आकर गीत गाता है तो मुझे लगता है, हीन हूं। नगर सेठ की हवेली ऊंची उठती चली जाती है तो मुझे लगता है, हीन हूं। एक तार्किक तर्क करने लगता है तो मुझे लगता है, मैं हीन हूं। मैं इस हीनता की ग्रंथि से मुक्त कैसे होऊं? उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: डोंट सफर अननेसेसरिली। यू आर नॉट सफरिंग फ्रॉम इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स, यू आर इनफिरियर। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: आपको हीनता की ग्रंथि से परेशानी नहीं हो रही है, आप हीन हैं। इसमें कोई बीमारी नहीं है, यह तथ्य है।
ध्यान रहे, जब आप किसी के सामने तथ्य की तरह हीन होते हैं, तो आपको आदर देना पड़ता है। यह कोई आप देते नहीं हैं। अब एक कालिदास शाकुंतल पढ़ता हो और आपको आदर देना पड़े, और एक तानसेन सितार बजाता हो और आपका सिर झुक जाए तो आप इस भूल में मत पड़ना कि आपने आदर दिया है। आपको आदर देना पड़ा है। लेकिन हमारा मन, जहां हमें देना पड़ता है वहां भी मानता है कि हमने दिया है, यह भी अपने अहंकार की पुष्टि है, मैंने दिया है आदर।
तो महावीर यह नहीं कह सकते कि श्रेष्ठजनों के प्रति आदर, क्योंकि वह होता ही है। उसका कोई मूल्य ही नहीं है। बिना किसी भेदभाव के आदर, तब विनय पैदा होती है। श्रेष्ठ, अश्रेष्ठ का सवाल नहीं है--जीवन के प्रति आदर, अस्तित्व के प्रति आदर, जो है उसके प्रति आदर। वह है, यही क्या कम है! एक पत्थर है, एक फूल है, एक सूरज है, एक आदमी है, एक चोर है, एक साधु है, एक बेईमान है--ये हैं। इनका होना ही पर्याप्त है। और इनके प्रति जो आदर है, अगर यह आदर संभव हो जाए तो आपका अंतर-तप है। तब यह गुण आपका है। तब आप परिवर्तित होते हैं।
फिर दूसरी बात, यह कैसे तय करेंगे कि कौन श्रेष्ठ है। अगर यह जो शास्त्र कहते हैं कि श्रेष्ठ, महाजन, गुरुजन... कैसे श्रेष्ठ कहेंगे? कौन है गुरु? कौन है गुरु? क्या है उपाय जांचने का आपके पास? कैसे तौलिएगा? क्योंकि अनेक लोग महावीर के पास आकर लौट जाते हैं और कह जाते हैं कि ये गुरु नहीं हैं। अनेक लोग क्राइस्ट को सूली पर लटका देते हैं यह मान कर कि आवारा, लफंगा है। इसको हटाना दुनिया से जरूरी है, यह नुकसान पहुंचा रहा है।
और ध्यान रहे, जिन लोगों ने जीसस को सूली दी थी वे उस समय के भले और श्रेष्ठजन थे--अच्छे लोग थे, न्यायाधीश थे, धर्मगुरु थे, धनपति थे, राजनेता थे। उस समय के जो भले लोग थे उन्होंने ही जीसस को सूली दी थी। और उनकी सूली देना, देने में अगर हम तौलने चले तो वे ठीक ही मालूम पड़ते हैं, क्योंकि जीसस वेश्याओं के घर में ठहर गए थे। अब जो आदमी वेश्याओं के घर में ठहर गया हो वह आदमी श्रेष्ठ कैसे हो सकता है। क्योंकि जीसस शराबघरों में बैठ कर शराबियों से दोस्ती कर लेते थे। अब जो शराबघरों में बैठता हो, उसका क्या भरोसा? क्योंकि जीसस उन लोगों के घर में ठहर जाते थे जो बदनाम थे; तो बदनाम आदमियों से जिसकी दोस्ती हो, आदमी तो अपने संग-साथ से पहचाना जाता है। जो अंत्यज थे, समाज से बाह्य कर दिए गए थे, उनके बीच भी जीसस की मैत्री थी, निकटता थी। तो यह आदमी भला कैसे था? फिर यह आदमी आती हुई परंपरा का विरोध करता था, मंदिर के पुरोहितों का विरोध करता था। यह कहता था कि जो साधु दिखाई पड़ रहे हैं, ये साधु नहीं हैं। तो यह आदमी भला कैसे था? तो उस समाज के भले लोगों ने इस आदमी को सूली पर लटका दिया, और आज हम जानते हैं कि बात कुछ गड़बड़ हो गई।
सुकरात को जिन लोगों ने जहर दिया था वे उस समाज के श्रेष्ठजन थे। कोई बुरे लोगों ने जहर नहीं दिया था। अच्छे लोगों ने जहर दिया था। और इसीलिए दिया था कि सुकरात की मौजूदगी समाज की नैतिकता को नष्ट करने का कारण बन सकती है। क्योंकि सुकरात संदेह पैदा कर रहा था। तो जो भले जन थे वे चिंतित हुए। वे चिंतित हुए कि इससे कहीं नई पीढ़ी नष्ट न हो जाए। तो सुकरात को जहर देने के पहले उन्होंने एक विकल्प दिया था कि सुकरात, अगर तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ और व्रत लो कि अब दुबारा एथेंस में प्रवेश नहीं करोगे तो हम तुम्हें मुक्त छोड़ दे सकते हैं। लेकिन हम तुम्हें एथेंस के समाज को नष्ट नहीं करने दे सकते। या तुम यह वायदा करो कि तुम अब एथेंस में शिक्षा नहीं दोगे, तो हम तुम्हें एथेंस में भी रहने दें। लेकिन तुम अब जबान बंद रखोगे, क्योंकि तुम्हारे शब्द नई पीढ़ी को नष्ट कर रहे हैं। जो लोग थे, वे भले थे। स्वभावतः वे नई पीढ़ी के लिए चिंतित थे। सब भले लोग नई पीढ़ी के लिए चिंतित होते हैं। और उनकी चिंता से नई पीढ़ी रुकती नहीं, बिगड़ती ही चली जाती है।
भला कौन है, श्रेष्ठ कौन है? धन है जिसके पास वह? पांडित्य है जिसके पास वह? यश है जिसके पास वह? तो फिर यश जिन रास्तों से यात्रा करता है उन रास्तों को देखें तो पता चलेगा कि यश बहुत अश्रेष्ठ रास्तों से उपलब्ध होता है। लेकिन सफलता सभी अश्रेष्ठताओं को पोंछ डालती है। धन कोई साधु मार्गों से उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन उपलब्धि पुराने इतिहास को नया रंग दे देती है। कौन है श्रेष्ठ? समाज उसे श्रेष्ठ कहता है जो समाज के रीति-नियम मानता है। लेकिन इस जगत में जिन लोगों को हम पीछे श्रेष्ठ कहते हैं वे वे ही लोग हैं जो समाज के रीति-नियम तोड़ते हैं। बुद्ध आज श्रेष्ठ हैं, महावीर आज श्रेष्ठ हैं, नानक आज श्रेष्ठ हैं, कबीर आज श्रेष्ठ हैं। लेकिन अपने समाज में नहीं थे। क्योंकि वे समाज के रीति-नियम तोड़ रहे थे, वे बगावती थे, वे दुश्मन थे समाज के।
और आज भी जो महावीर को श्रेष्ठ कहता है, अगर कोई बगावती होगा खड़ा तो उसको कहेगा, यह आदमी खतरनाक है। इसलिए मरे हुए तीर्थंकर ही आदृत होते हैं। जीवित तीर्थंकर को आदृत होना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जीवित तीर्थंकर बगावती होता है। मरा हुआ तीर्थंकर मरने की वजह से धीरे-धीरे स्वीकृत हो जाता है। एस्टैब्लिशमेंट का, स्थापित, न्यस्त मूल्यों का, हिस्सा हो जाता है। फिर कोई कठिनाई नहीं रह जाती। अब महावीर से क्या कठिनाई है? महावीर से जरा भी कठिनाई नहीं है।
महावीर नग्न खड़े थे और महावीर के शिष्य कपड़े की दुकानें कर रहे हैं पूरे मुल्क में। कोई कठिनाई नहीं है। महावीर के शिष्य जितना कपड़ा बेचते हैं कोई और नहीं बेचता। मेरे तो एक निकट संबंधी हैं, उनकी दुकान का नाम है, दिगंबर क्लाथ शाप। दिगंबर क्लाथ शॉप! नंगों की कपड़ों की दुकान! महावीर सुनें तो बड़े हैरान हों कि और कोई नाम न मिला तुम्हें? अब कोई दिक्कत नहीं, इससे दिक्कत ही नहीं आती कि दिगंबर में और इस क्लाथ शाप में कहीं कोई विरोध है। लेकिन अगर महावीर नंगे दुकान के सामने खड़े हो जाएं तो विरोध साफ दिखाई पड़ेगा कि यह आदमी नंगा खड़ा है, हम कपड़े बेच रहे हैं। हम इसके शिष्य हैं, बात क्या है? अगर नग्न होना पुण्य है तो कपड़े बेचना पाप हो जाएगा, क्योंकि दूसरों को कपड़े पहनाना अच्छी बात नहीं है फिर। नाहक उनको पाप में ढकेलना है। नहीं, लेकिन मरे हुए महावीर से बाधा नहीं आती। खयाल ही नहीं आता। जब मैंने उन्हें यह याद दिलाया, उन्होंने कहा: आश्र्चर्य, हम तो तीस साल से यह बोर्ड लगाए हुए हैं और हमें कभी खयाल ही नहीं आया कि दिगंबर में और कपड़े में कोई विरोध है।
नहीं, खयाल ही नहीं आता। मुर्दा तीर्थंकर हमारी व्यवस्था में सम्मिलित हो जाता है। हम उसको, उसकी नोकों को झाड़ देते हैं; उसकी बगावत को गिरा देते हैं; शब्दों पर नया रंग पालिश कर देते हैं, फिर वह ठीक हो जाता है। लेकिन जिसको इतिहास पीछे से श्रेष्ठ कहता है उसका अपना समय उसे हमेशा उपद्रवी कहता है। किसको आदर? फिर श्रेष्ठ को जांचने का मार्ग भी तो कोई नहीं है। महाजन कौन है? महाजनों येन गतः स पंथा--जिस मार्ग पर महाजन जाते हैं, वही मार्ग है।
लेकिन महाजन कौन है? मोहम्मद महाजन हैं? महावीर को मानने वाला कभी नहीं मान पाएगा कि आप क्या बात कर रहे हैं। तलवार लिए हुए जो आदमी हाथ में खड़ा है, वह महाजन है? कौन है महाजन? मोहम्मद को मानने वाला कभी न मान पाएगा कि महावीर महाजन हैं। क्योंकि वह कहता है: जो आदमी बुराई के खिलाफ तलवार भी नहीं उठाता, वह आदमी नपुंसक है, क्लीव है। जब इतनी बुराई चलती हो तो तलवार उठनी चाहिए। नहीं तो तुम क्या हो, तुम मुर्दे हो। धर्म तो जीवंत होना चाहिए। धर्म के हाथ में तो तलवार होगी, इसलिए मोहम्मद के हाथ में तलवार है। हालांकि तलवार पर लिखा है: ‘शांति मेरा संदेश है।’ इस्लाम का मतलब शांति होता है। इस्लाम शब्द का मतलब शांति होता है। जैनी कभी सोच ही नहीं सकता कि इस्लाम और शांति, इनका कोई संबंध है? लेकिन मोहम्मद कहते हैं: जो शांति तलवार की धार नहीं बन सकती, वह बच नहीं सकती। वह बचेगी कैसे?
कौन है श्रेष्ठ? कैसे तौलिएगा? इसलिए हमने तौलने का एक सरल रास्ता निकाला है, जिसमें तौलना नहीं पड़ता। हम जन्म से तौलते हैं। अगर मैं जैन घर में पैदा हुआ तो महावीर श्रेष्ठ; मुसलमान घर में पैदा हुआ तो मोहम्मद श्रेष्ठ। यह तौलने से बचने की तरकीब है। यह ऐसा उपाय खोजना है जिसमें मुझे तौलना ही नहीं पड़ता। अब जन्म तो हो गया, वह नियति बन गई। उससे तुल जाती है बात कि श्रेष्ठ कौन है। आप सब इसी तरह तौल रहे हैं--कौन श्रेष्ठ है, किसको आदर देना है! जब आप जैन साधु को आदर देते हैं तो आप यह जान कर आदर देते हैं कि वह साधु है या यह जान कर आदर देते हैं कि वह जैन है?
साधु को तौलने का उपाय कहां है? कैसे तौलिएगा? वह एक मुंहपट्टी निकाल कर अलग कर दे और आदर खत्म हो जाएगा। तो आप किसको आदर दे रहे थे? मुंहपट्टी को या इस आदमी को? मुंहपट्टी वापस लगा ले, पैर आप छूने लगेंगे। मुंहपट्टी नीचे रख दे, आप पछताएंगे कि इस आदमी का पैर क्यों छुआ? मुंहपट्टी नीचे रख दे--अपने मंदिर में, अ
पने स्थानक में ठहरने न देंगे। मुंह पट्टी लगा ले--स्वागत है! आप मुंहपट्टी को देख रहे हैं कि आदमी को? लगता ऐसा है कि मुंहपट्टी ही असली चीज है। यह आदमी तो... यानी ऐसा नहीं कहना चाहिए कि आदमी मुंहपट्टी लगाए हुए है, ऐसा कहना चाहिए कि मुंहपट्टी आदमी को लगाए हुए है। क्योंकि असली चीज मुंहपट्टी है। आखिर में निर्णय वही करती है। आदमी तो निर्णायक है नहीं। अगर बुद्ध भी आ जाएं आपके मंदिर में तो आप उनको उतना आदर नहीं देंगे जितना मुंहपट्टी लगाए हुए एक बुद्धू को देंगे। क्योंकि मुंहपट्टी कहां है?
ये तरकीबें हमने क्यों खोजी हैं? इसका कारण है। क्योंकि कोई मापदंड का उपाय नहीं है। तो इनसे हम रास्ता बना लेते हैं। तौलने का कोई उपाय नहीं है, यह आपकी मजबूरी है। यह आदमी की मजबूरी है कि श्रेष्ठ कौन है, इसके लिए कोई तराजू नहीं है। तो हम फिर ऊपरी चिह्न बना लेते हैं, उनसे तौलने में आसानी हो जाती है। पीछे के आदमी की हम बकवास छोड़ देते हैं। हमारे लिए तो निपटारा हो गया कि यह आदमी साधु है, पैर छुओ, घर जाओ, विनय करो।
लेकिन, महावीर इस तरह की बचकानी बात नहीं कह सकते हैं। यह चाइल्डिश है। महावीर यह नहीं कह सकते हैं कि तुम श्रेष्ठ को आदर देना, क्योंकि श्रेष्ठ को आदर कैसे दोगे? श्रेष्ठ कौन है, तुम कैसे जानोगे? और जब तुम श्रेष्ठ को जानने जाओगे तो तुम्हें निकृष्ट को जानना पड़ेगा। और जब तुम श्रेष्ठ की परीक्षा करोगे तो तुम कैसे परीक्षा करोगे? उसके सब पापों का हिसाब-किताब रखना पड़ेगा कि रात में पानी तो नहीं पी लेता; कि छिपा कर कुछ खा तो नहीं लेता; साबुन की बटिया तो नहीं अपने झोले में दबाए हुए है; टूथपेस्ट तो नहीं करता है; यह सब रखना पड़ेगा पता! यह सब पता रखना पड़ेगा और यह सब पता वही रख सकता है जिसका निंदा में रस हो, जो दूसरे को निकृष्ट सिद्ध करने चला हो। यह वह आदमी नहीं कर सकता जो विनयपूर्ण है। इससे क्या प्रयोजन है उसे कि कौन आदमी टूथपेस्ट रखता है कि नहीं रखता है। इसका चिंतन ही बताता है कि यह जो आदमी सोच रहा है उसमें विनय नहीं है। महावीर यह नहीं कहते।
महावीर यह कहते हैं कि विनय एक आंतरिक गुण है। बाहर से उसका कोई संबंध नहीं है। अनकंडीशनल है, बेशर्त है। वह यह नहीं कहता कि तुम ऐसे होओगे तो मैं आदर दूंगा। वह यह कहता है कि तुम हो, पर्याप्त है। मैं तुम्हें आदर दूंगा क्योंकि आदर आंतरिक गुण है और आदर मनुष्य को अंतरात्मा की तरफ ले जाता है। मैं तुम्हें आदर दूंगा बेशर्त। तुम शराब पीते हो कि नहीं पीते हो, यह सवाल नहीं; तुम जीवन हो, यह काफी है। और यह पूरा अस्तित्व तुम्हें जिला रहा है। सूरज तुम्हें रोशनी दे रहा है, वह इनकार नहीं करता कि तुम शराब पीते हो। हवाएं ऑक्सीजन देने से मुकरती नहीं कि तुम बेईमान हो। आकाश कहता नहीं कि हम तुम्हें जगह न देंगे, क्योंकि तुम आदमी अच्छे नहीं हो। जब यह पूरा अस्तित्व तुम्हें स्वीकार करता है तो मैं कौन हूं जो तुम्हें अस्वीकार करूं! तुम हो, इतना काफी है। मैं तुम्हें आदर देता हूं। मैं तुम्हें सम्मान देता हूं।
यह जीवन के प्रति सहज सम्मान का नाम विनय है--अकारण, खोज-बीन के बिना, क्योंकि खोज-बीन हो नहीं सकती। वह जो करता है, वह आदमी विनीत नहीं होता--बेशर्त। अगर मैं कहूं कि तुम मेरी शर्तें पूरी करो इतनी, तब मैं तुम्हें आदर दूंगा; तो मैं उस आदमी को आदर नहीं दे रहा हूं। मैं अपनी शर्तों को आदर दे रहा हूं। और जो आदमी मेरी शर्तें पूरी करने को राजी हो जाता है वह आदर योग्य नहीं है, वह गुलाम है। वह आदर पाने के लिए ही बेचारा शर्तें पूरी करने को राजी है। हम अपने साधुओं से कहते हैं कि तुम ऐसा करो, पैदल चलो, इधर मत जाओ, उधर मत जाओ तो हम तुम्हें आदर देंगे--ये सब अनकही शर्तें हैं। अगर वह इनमें गड़बड़ करता है, आदर विलीन हो जाता है। अगर इनको मान कर चलता है, आदर जारी रहता है। और इसलिए एक दुर्घटना घटती है कि साधुओं में जो प्रतिभा होनी चाहिए वह धीरे-धीरे खो जाती है। और साधुओं की तरफ सिर्फ जड़बुद्धि लोग उत्सुक हो पाते हैं। क्योंकि जड़ बुद्धि ही आपके इतने नियमों को मान सकते हैं, बुद्धिमान आपके इतने नियमों को नहीं मान सकता।
इसीलिए यह दुर्घटना घटती है कि जब भी सच में कोई साधु पुरुष पैदा होता है तो उसे नया धर्म खड़ा करना पड़ता है, क्योंकि कोई पुराने धर्म में उसके लिए जगह नहीं होती। इसका कारण है। अब एक नानक पैदा हो जाए तो उसका नया धर्म अनिवार्यतया खड़ा हो जाता है, क्योंकि कोई पुराना धर्म उसको जगह न देगा; क्योंकि वह कोई के नियम जबरदस्ती इसलिए मानने को राजी न होगा कि आप आदर देंगे। वह कहता है: आदर की क्या जरूरत है? मैं अपने ढंग से जीऊंगा जो मुझे ठीक लगता है। तब उसका ठीक लगना किसी पुराने धर्म को ठीक नहीं लगेगा, क्योंकि पुराने धर्म किन्हीं और लोगों के आस-पास निर्मित हुए हैं, उनके ठीक होने का ढंग और था।
अब मुसलमान सोच ही नहीं सकते कि नानक में भी कोई समझ हो सकती है। मरदाना को बगल में लिए गांव-गांव गीत गाते फिरते हैं। अब संगीत की दुश्मनी है इस्लाम की। मस्जिद में संगीत प्रवेश नहीं कर सकता। मस्जिद के सामने से नहीं निकल सकता। और यह आदमी मरदाना को लिए हुए है--और जगह-जगह। मरदाना मुसलमान था जो नानक के साथ सा़ज बजाता था तो मुसलमानों ने उसको भी डिसओन कर दिया कि यह आदमी कैसा मुसलमान! यह मुसलमान हो ही नहीं सकता। संगीत से तो दुश्मनी है।
मोहम्मद के लिए संगीत में कोई रस न रहा होगा। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। और यह भी हो सकता है कि मोहम्मद को संगीत के माध्यम से निम्न वासनाएं जगती हुई मालूम हुई होंगी, उन्होंने इनकार कर दिया। लेकिन सभी को ऐसा होता है, यह जरूरी नहीं है। किन्हीं के भीतर संगीत से श्रेष्ठतम का जन्म होना शुरू होता है।
पर मोहम्मद का अपना अनुभव आधार बनेगा। मोहम्मद को सुगंध बहुत पसंद थी। इसलिए मुसलमान अभी भी ईद के दिन बेचारे इत्र एक-दूसरे को लगाते देखे जाते हैं। अभी भी सुगंध से मुसलमानों को प्रेम है। वह प्रेम सिर्फ परंपरा है। मोहम्मद को बहुत पसंद थी। असल में मोहम्मद, ऐसा मालूम पड़ता है कि सुगंध मोहम्मद को वहीं ले जाती थी, जहां कुछ लोगों को संगीत ले जाता है। सुगंध भी एक इंद्रिय है; जैसा संगीत कान का रस है, वैसे सुगंध नाक का रस है। लेकिन मालूम होता है कि मोहम्मद सुगंध से बड़ी ऊंचाइयों पर उड़ जाते थे। और उनके लिए सुगंध का कोई एसोसिएशन गहरा बन गया होगा।
संभव है, जब उन्हें पहली दफा इलहाम हुआ, जब उन्हें पहली दफा प्रभु की प्रतीति हुई, या प्रभु का संदेश उतरा तब पहाड़ के आस-पास फूल खिले होंगे। सुगंध उसके साथ जुड़ गई होगी। जरूर कोई ऐसी घटना--फिर सुगंध उनके लिए द्वार बन गई। जब भी वे सुगंध में होंगे, तब वह द्वार खुल जाएगा।
लेकिन यही बात संगीत में हो सकती है, लेकिन यही बात नृत्य में हो सकती है, यही बात अनेक-अनेक रूपों में हो सकती है, पर, मोहम्मद हों तो शायद समझ भी जाएं, मोहम्मद तो हैं नहीं, वह जो पीछे चलने वाला आदमी है, वह कहता है कि संगीत नहीं बजने देंगे, क्योंकि संगीत इनकार है।
तो फिर नानक को मुसलमान कैसे स्वीकार करें? हिंदू भी स्वीकार नहीं कर सकते नानक को। क्योंकि नानक गृहस्थ हैं। वे संन्यासी नहीं हैं। पत्नी है, घर है, कपड़े भी वे साधारण पहनते हैं--गृहस्थ के। तो गृहस्थ को हिंदू कैसे स्वीकार करें? ज्ञानी तो संन्यासी होता है।
फिर नानक और भी गड़बड़ करते हैं। सभी जानने वाले लोग एक अर्थ में डिस्टर्बिंग होते हैं, क्योंकि पुरानी सब व्यवस्था से वे फिर नये होते हैं। वे गड़बड़ यह करते हैं कि वे काबा भी चले जाते हैं, वे मस्जिद में भी ठहर जाते हैं। तो हिंदू कैसे मानें कि जो आदमी मस्जिद में भी ठहर जाता है, वह आदमी धार्मिक हो सकता है! मंदिर में ही ठहरना चाहिए।
जो विनय श्रेष्ठ की किन्हीं धारणाओं को मान कर चलती है वह सिर्फ अंधी होगी, परंपरागत होगी, रूढ़िगत होगी, वह क्रांतिकारी नहीं होती। उससे अंतर-आविर्भाव नहीं होता। अंतर-आविर्भाव जब होता है तो आदर सहज होता है--वह पत्थर के प्रति भी होता है, पौधे के प्रति भी होता है, अस्तित्व के प्रति भी होता है। इससे कोई संबंध नहीं कि वह कौन है और क्या है, कोई शर्त नहीं है। वह है, बस इतना काफी है।
ऐसी विनय की जो स्थिति है वह प्रायश्चित्त के बाद ही सध सकती है। और सध जाए तो जीवन में आनंद का हिसाब नहीं रह जाता। क्यों? क्योंकि जितना दूसरों का दोष देखते हैं, मन को उतना ही दुख होता है। और जितने दूसरों के दोष दिखते हैं उतने ही अपने दोष नहीं दिखते और नहीं दिखने वाले दुश्मन भीतर छिप कर काम तो चौबीस घंटे करते हैं, बहुत दुख पैदा करवाते हैं। जब दूसरे में कोई दोष नहीं दिखता तो दूसरे से तो दुख आना बंद हो जाता है। जब कोई आदमी मुझ पर क्रोध करता है तो अगर मैं यह नहीं मानता कि यह उसका दोष है, या बुराई है; इतना मानता हूं कि ऐसा उससे घटित हो रहा है, तो मैं फिर उसके क्रोध से दुखी नहीं होता। अगर मैं जा रहा हूं और एक वृक्ष की शाखा मेरे ऊपर गिर जाए तो मैं खड़े होकर वृक्ष को गाली नहीं देता--हालांकि कुछ लोग देते हैं। बिना गाली दिए वे मान ही नहीं सकते, वृक्ष को भी गाली दे देते हैं। पर वे भी मानेंगे गाली देने के बाद कि बेकार थी बात, सिर्फ आदतवश थी। क्योंकि वृक्ष को क्या पता कि मैं निकल रहा हूं, क्या प्रयोजन मुझे मारने का; चोट पहुंचाने का क्या अर्थ है!
वृक्ष को हम गाली नहीं देते क्योंकि हम मान लेते हैं कि वृक्ष को हमसे कोई प्रयोजन नहीं है। शाखा टूटनी थी, हवा का झोंका भारी था, तूफान तेज था, वृक्ष जरा-जीर्ण था, गिर गया, संयोग की बात कि हम नीचे थे। जो आदमी विनयपूर्ण होता है, जब आप उसको गाली देते हैं तब भी वह ऐसा ही मानता है कि मन में उसके क्रोध भरा होगा, परेशान होगा चित्त, जरा-जीर्ण होगा, गाली निकल गई; संयोग की बात कि हम पास थे। और कोई पास होता, किसी और पर निकलती। मगर इससे विनय में कोई बाधा नहीं पड़ती। इससे दुख भी नहीं आता। इससे यह भी नहीं होता कि ऐसा उसने क्यों किया? ऐसा तो तभी होता है जब हम मानते हैं कि उसे कुछ और करना चाहिए था जो उसने नहीं किया।
विनीत आदमी मानता है, वही होता है जो हो रहा है। वही हो सकता है जो हो रहा है--स्वीकार है उसे। पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। जीसस जुदास के पैर पड़ लेते हैं उसी रात, जिस रात पकड़े जाते हैं। जुदास के पैर पड़ना, जुदास का हाथ लेकर चूमना। कोई पूछता है कि आप यह क्या कर रहे हैं? और आपको पता है और हमें भी थोड़ी-थोड़ी खबर है कि यह आदमी दुश्मनों के साथ मिला है। जीसस कहते हैं: इससे क्या फर्क पड़ता है! यह क्या करेगा और क्या करता है, यह सवाल नहीं है। यह है, यही काफी आनंद है। फिर शायद दुबारा इससे मिलने का मौका न भी मिले। मैं बच जाऊं तो भी न मिले क्योंकि यह आदमी शायद फिर निकट आने का साहस न जुटा पाए। मैं न बचूं, तब तो सवाल नहीं। मैं कल मर जाऊं तो मेरा यह चुंबन, और मेरा इसका पैर को छूना इसे याद रहेगा। वह शायद इसके किसी काम पड़ जाए। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह क्या करेगा। वह इररिलेवेंट है।
विनय के लिए यह बात असंगत है कि आप क्या करते हैं, आप हैं, इतना काफी है। विनय बेशर्त सम्मान है। श्र्वीत्जर ने ठीक शब्द उपयोग किया है महावीर के विनय का। अगर ठीक शब्द हम पकड़ें इस सदी में तो श्र्वीत्जर से मिलेगा। श्र्वीत्जर ने एक किताब लिखी है: ‘रेवरेंस फॉर लाइफ। जीवन के प्रति सम्मान।’ तो यह नहीं है कि एक तितली को बचा लेंगे और एक बिच्छू को न बचाएंगे। श्र्वीत्जर दोनों को बचाने की कोशिश करेगा। माना कि बिच्छू को बचाने में बिच्छू डंक मार सकता है, यह उसका स्वभाव है। इसके कारण सम्मान में कोई अंतर नहीं पड़ता। हम बिच्छू से यह नहीं कहते कि तुम डंक न मारोगे तो ही हम सम्मान देंगे। हम जानते हैं कि बिच्छू का डंक मारना स्वभाव है। वह डंक मार सकता है। श्र्वीत्जर उसको भी बचाने की कोशिश करेगा; क्योंकि जीवन के प्रति एक सम्मान का भाव है। और जीवन के प्रति सम्मान हो तो आपके दुख असंभव हैं, क्योंकि सब दुख आप शर्तों के कारण लेते हैं। ध्यान रहे, सब दुख सशर्त हैं। आपकी कोई शर्त है इसलिए दुख पाते हैं। जिसकी कोई शर्त नहीं है वह दुख नहीं पाता। दुख का कोई कारण नहीं रह जाता। और जब आप दुख नहीं पाते तो जो आप पाते हैं वही आनंद है।
जीसस ने कहा है: अपने शत्रुओं को भी प्रेम करो। नीत्शे ने जीसस के इस वक्तव्य पर आलोचना करते हुए लिखा है कि इसका तो मतलब यह हुआ कि आप शत्रु में शत्रुत्व तो देखते ही हैं। शत्रु को प्रेम करो! शत्रुता तो दिखाई ही पड़ती है शत्रु में। और जब शत्रुता दिखाई पड़ती है तो प्रेम कैसे करोगे? उसका वक्तव्य तर्कपूर्ण है, लेकिन सम्यक नहीं है। नीत्शे जो कह रहा है वह तर्कयुक्त है, फिर भी सत्य नहीं। जीसस अगर उत्तर दे सकें तो वे यही कहेंगे कि माना कि शत्रुता दिखती है, लेकिन फिर भी प्रेम करो क्योंकि शत्रुता जहां दिखती है वह उसका व्यवहार है और जो उसके भीतर छिपा है, वह उसका अस्तित्व है। हमारा सम्मान अस्तित्व के लिए है। वह बेशर्त है। माना कि वह गाली दे रहा है, पत्थर मार रहा है, हत्या करने की कोशिश कर रहा है, वह ठीक है। यह वह कर रहा है, यह वह जाने।
इस संबंध में यह भी आपको याद दिला दूं, उपयोगी होगा कि महावीर, बुद्ध या कृष्ण इन सबकी चिंतना में बहुत-बहुत फासले हैं, बहुत भेद हैं--होंगे ही। जब भी किसी व्यक्ति से सत्य उतरेगा तो वह नये आकार लेता है, वह उस व्यक्ति के आकार लेता है। निराकार सत्य तो उतर नहीं सकता। जब किसी से उतरता है तो उस व्यक्ति का आकार ले लेता है। लेकिन एक बहुत अदभुत बात है कि इस पृथ्वी पर भारत में पैदा हुए समस्त धर्म एक सिद्धांत के मामले में सहमत हैं, वह है कर्म। बाकी सब मामले में भेद है। बड़े-बड़े मामलों में भेद है। परमात्मा है या नहीं? तो हिंदू कहेंगे: है; जैन कहेंगे: नहीं है। आत्मा है या नहीं? तो जैन और हिंदू कहते हैं: है; बुद्ध कहते हैं: नहीं है। इतने बड़े मामलों में फासला है। लेकिन एक मामले में, जो हमारी नजर में भी नहीं आता और जो इन सबसे ज्यादा कीमती है, इसीलिए उसमें फासला नहीं है। वह सेंट्रल है, केंद्रीय है। परिधि पर झगड़े हो सकते हैं। वह है कर्म का विचार। उसमें कोई फर्क नहीं है। ये सारे धर्म इस देश में पैदा हुए हैं, कर्म के विचार से राजी हैं। बुद्ध जो आत्मा को नहीं मानते, परमात्मा को नहीं मानते, वे भी कहते हैं, कर्म है। महावीर परमात्मा को नहीं मानते, वे भी कहते हैं, कर्म है। हिंदू परमात्मा को भी मानते हैं, आत्मा को भी मानते हैं, वे कहते हैं, कर्म है।
यह कर्म की, इस विनय के संदर्भ में एक बात आपको याद दिला देनी जरूरी है कि जब भी कोई कुछ कर रहा है तो वह अपने कर्मों के कारण कर रहा है, आपके कारण नहीं। और जो आप कर रहे हैं वह अपने कर्मों के कारण कर रहे हैं, उसके कारण नहीं। अगर यह खयाल में आ जाए तो वह विनय सहज ही उतर आएगी। एक आदमी गाली दे रहा है, तो दो वजह हो सकती हैं इसके विश्लेषण में। एक आदमी मेरे पास आता है और मुझे गाली देता है तो इसे मैं दो तरह से जोड़ सकता हूं। या तो वह इसलिए गाली देता है कि वह मुझे गाली देने योग्य आदमी मानता है। गाली को मैं अपने से जोडूं--एक तो रास्ता यह है, और एक रास्ता यह है कि वह आदमी इसलिए गाली देता है कि उसके अतीत के सब कर्मों ने वह स्थिति पैदा कर दी कि उसमें गाली पैदा होती है। तब मैं अपने से नहीं जोड़ता, उसके कर्मों से जोड़ता हूं।
अगर मैं अपने से जोड़ता हूं तो बहुत मुश्किल है विनय को साधना। कैसे सधेगी? यह आदमी सामने गाली दे रहा है, इसके प्रति मैं कैसे आदर करूं? मन यह कहेगा कि अगर कोई गाली दे, तुम आदर करो, तुम उसको गाली देने के लिए और निमंत्रण दे रहे हो। अगर कोई गाली दे और हम उसे आदर करें तो हम उसको और प्रोत्साहन दे रहे हैं। तर्क निरंतर यह कहता है कि हम प्रोत्साहन दे रहे हैं। इससे तो वह और गाली देगा। और यह भी हम मान लें कि हमें गाली देगा तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन हमारे प्रोत्साहन से वह दूसरों को भी गाली देगा। क्योंकि आदमी को रस लग जाए और उसे पता चल जाए कि गाली देने से आदर मिलता है तो हमें दे, तब तक भी ठीक, लेकिन वह दूसरों को भी देगा। अगर किसी आदमी को यह पता चल जाए कि यहां मार-पीट करने से लोग सम्मान देते हैं, साष्टांग दंडवत करते हैं तो वह औरों को भी मारेगा, तो वह अगर औरों को मारेगा तो उसका जिम्मा भी हम पर आएगा, क्योंकि हम न आदर देते उसे, न वह मारने के लिए उत्सुक होता।
इसलिए तो मोहम्मद कहते हैं कि उसको वहीं ठीक कर दो जो गड़बड़ करे। नहीं तो अगर तुमने उसको आदर दिया, दूसरा चांटा--गाल उसके सामने कर दिया, वह अपना चांटा कहीं भी घुमाने लगेगा, किसी को भी लगाने लगेगा इसी आशा में कि अब दूसरा चांटा और मिलने का मौका मिलेगा। दूसरा गाल सामने आता होगा। लेकिन कर्म दूसरी तरह से भी जोड़ा जा सकता है; जो न इस्लाम जोड़ सका, न ईसाइयत जोड़ सकी। इसलिए इस्लाम और ईसाइयत में एक बहुत मौलिक आधार की कमी है। बहुत मौलिक आधार की कमी है। और वह कमी है, कर्म के विचार की।
इसलिए जीसस ने इतने प्रेम की बातें कहीं, और इतना अहिंसात्मक उपदेश दिया, लेकिन ईसाइयत ने सिर्फ तलवार चलाई और खून बहाया। खैर, मोहम्मद के मामले में तो यह भी हम कह सकते हैं कि तलवार उनके खुद के हाथ में थी, इसलिए अगर मुसलमानों ने तलवार उठाई तो इसमें एक संगति है। लेकिन जीसस के मामले में तो यह भी नहीं कहा जा सकता। उस आदमी के हाथ में तो कोई तलवार न थी। लेकिन ईसाइयत ने इस्लाम से कम हत्याएं नहीं कीं। इस सारी दुनिया को, पृथ्वी को रंग देने वाले लोग खून से, ईसाइयत और इस्लाम से आए।
बात क्या होगी? भूल क्या होगी? क्या कारण होगा? जीसस जैसा आदमी जिसने इतने प्रेम की बातें कहीं, उसकी भी परंपरा इतनी उपद्रवी सिद्ध हुई, इसका कारण क्या है? इसका कारण है, न तो जीसस और न मोहम्मद, दोनों में से कोई भी कर्म को व्यक्ति की स्वयं की अंतर-श्रृंखला से नहीं जोड़ पाए। वहीं भूल हो गई। वह भूल गहरी हो गई। और जितनी दुनिया वैज्ञानिक होती जाएगी उतनी वह भूल साफ दिखाई पड़ेगी।
इसे ऐसा सोचें कि जब भी आप क्रोध करते हैं, असल में आप दूसरे पर क्रोध नहीं करते। दूसरा सिर्फ निमित्त होता है। आप क्रोध को संगृहीत किए होते हैं अपने ही कर्मों से, अपने ही कल की यात्रा से। वह क्रोध आपके भीतर भरा होता है जैसे कि कुएं में पानी भरा होता है और कोई बाल्टी डाल कर खींच लेता है। कोई गाली डाल कर आपके क्रोध को बाहर निकाल लेता है, बस। वह निमित्त ही बनता है। तो निमित्त पर इतना क्या क्रोध? कुआं क्यों बाल्टी को गाली दे कि तुझमें पानी है। पानी तो कुएं से ही आता है, बाल्टी सिर्फ लेकर बाहर दिखा देती है। तो विनयपूर्ण आदमी धन्यवाद देगा उसको जिसने गाली दी। क्योंकि अगर वह गाली न देता तो अपने भीतर के क्रोध का दर्शन न होता। वह बाल्टी बन गया। उसने क्रोध बाहर निकाल कर बता दिया।
इसलिए कबीर कहते हैं: ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।’ वह जो तुम्हारी निंदा करता हो, उसको तो अपने घर के बगल में ही ठहरा लेना; क्योंकि वह बाल्टी डालता रहेगा और तुम्हारे भीतर की चीजें निकाल कर तुम्हें बताता रहेगा। अकेले पड़ गए, पता नहीं कुएं में पानी भरा रहे और भूल जाए कुआं कि मुझमें पानी है क्योंकि कुएं को भी पता तभी चलता है जब बाल्टी कुएं से पानी खींचती है। और अगर फूटी बाल्टी हो तो और ज्यादा पता चलता है। और निंदक, सब फूटी बाल्टियों जैसे होते हैं। भयंकर पानी की बौछार कुएं में होने लगती है। तो कुएं को पहली दफा नींद टूटती है और पता चलता है, यह क्या हो रहा है। कुआं खुद सोया रहेगा अगर बाल्टी न हो, पता भी न चलेगा।
इसलिए लोग जंगल भागते रहे हैं। वह बाल्टियों से बचने की कोशिश है। लेकिन उससे पानी नष्ट नहीं हो जाएगा, जंगल आप कितना ही भाग जाएं। जंगल के कुएं को कम पता चलता होगा क्योंकि कभी-कभी कोई यात्री बाल्टी डालता होगा। या अगर रास्ता निर्जन हो और कोई न चलता हो तो कुएं को पता ही नहीं चलता होगा कि मेरे भीतर पानी है। ऐसे ही जंगल में बैठे साधु को हो जाता है। कभी कोई निकलने वाला कुछ गलत-सही बातें कर दे, तो शायद बाल्टी पड़ती है। अगर रास्ता बिलकुल निर्जन हो... इसलिए साधु निर्जन रास्ता खोजता है, निर्जन स्थान खोज लेता है। अगर इसीलिए खोज रहा है तो गलती कर रहा है। अगर यही कारण है कि मेरे भीतर जो भरा है वह दिखाई न पड़े किसी के कारण, तो गलती कर रहा है, भयंकर गलती कर रहा है।
महावीर कहते हैं कि दूसरा अपने कर्मों की श्रृंखला में नया कर्म करता है। तुमसे उसका कोई भी संबंध नहीं है। इतना ही संबंध है कि तुम मौके पर उपस्थित थे और उसके भीतर विस्फोट के लिए निमित्त बने। इस बात को दूसरी तरह भी सोच लेना है कि तुम भी जब किसी के लिए विस्फोट करते हो तब वह भी निमित्त ही है। तुम ही अपनी श्रृंखला में जीते और चलते हो।
इसे हम ऐसा समझें तो शायद समझना आसान पड़ जाए।
दस आदमी एक ही मकान में हैं, एक आदमी बीमार पड़ जाता है, उसे फ्लू पकड़ लेता है। चिकित्सक उससे कहता है: वायरस है। लेकिन दस आदमी भी घर में हैं, उनमें से नौ को नहीं पकड़ा है। तो चिकित्सक की कहीं बुनियादी भूल तो मालूम पड़ती है। वायरस इसी आदमी को खोजता है, इसका मतलब केवल इतना है कि वायरस निमित्त बन सके, लेकिन इस आदमी के भीतर बीमारी संगृहीत है। नहीं तो बाकी नौ लोगों को क्यों वायरस नहीं पकड़ रहा है? कोई दोस्ती है, कोई दुश्मनी है! बाकी नौ लोग नहीं, इस आदमी को क्यों पकड़ लिया? इस आदमी को इसलिए पकड़ लिया है कि इस आदमी के भीतर वह स्थिति है जिसमें वायरस निमित्त बन कर और फ्लू को पैदा कर सकता है। बाकी नौ के भीतर वह स्थिति नहीं है। तो वायरस आता है, चला जाता है। वह उनके भीतर फ्लू पैदा नहीं कर पाता।
तो अब सवाल यह है--फ्लू वायरस पैदा करता है? अगर ऐसा आप देखते हैं तो आप महावीर को कभी न समझ पाएंगे। महावीर कहते हैं: फ्लू की तैयारी आप करते हैं, वायरस केवल मैनिफेस्ट करता है, प्रकट करता है। तैयारी आप करते हैं, जिम्मेवार आप हैं। जिम्मेवारी सदा मेरी है। आस-पास जो घटित होकर प्रकट होता है वह सिर्फ निमित्त है, पर उन पर क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। धन्यवाद दिया भी जा सकता है; अनुग्रह माना भी जा सकता है; क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। और तब, तब आपमें अहंकार के खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती।
ध्यान रहे, जहां क्रोध है, वहां भीतर अहंकार है। और जहां क्रोध नहीं, वहां भीतर अहंकार नहीं है। क्योंकि क्रोध सिर्फ अहंकार के बीच डाली गई बाधाओं से पैदा होता है, और किसी कारण पैदा नहीं होता। अगर आपके अहंकार को तृप्ति मिलती जाए, आप कभी क्रोधी नहीं होते। अगर सारी दुनिया आपके अहंकार को तृप्त करने को राजी हो जाए तो आप कभी क्रोधी न होंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा कि क्रोध भी कोई चीज थी। लेकिन अभी कोई आपके मार्ग में बाधा डालने को खड़ा हो जाए, और आपको क्रोध प्रकट होने लगेगा। क्रोध जो है, अहंकार अवरुद्ध जब होता है तब पैदा होता है।
लेकिन अब तो क्रोध का कोई कारण ही न रहा। अगर मैं यह मानता हूं कि आप अपने कर्मों से चलते हैं, मैं अपने कर्मों से चलता हूं, हम राह पर कहीं-कहीं मिलते हैं--क्रिसक्रॉस, किसी चौरस्ते पर मुलाकात हो जाती है, लेकिन फिर भी आप अपने से ही बोलते हैं, मैं अपने से ही बोलता हूं। मैं अपने से ही व्यवहार करता हूं, आप अपने से ही व्यवहार करते हैं। कहीं प्रकट जगत में हमारे व्यवहार एक-दूसरे से तालमेल खा जाते हैं। पर वह सिर्फ निमित्त है। उसके लिए किसी को जिम्मेवार ठहराने का कोई कारण नहीं, तो फिर क्रोध का भी कोई कारण नहीं। और क्रोध का कोई कारण न हो तो अहंकार बिखर जाता है, सघन नहीं रह पाता।
विनय बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। दोष दूसरे में नहीं है, दूसरा मेरे दुख का कारण नहीं है। दूसरा श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ नहीं है। दूसरे से मैं कोई तुलना नहीं करता। दूसरे पर मैं कोई शर्त नहीं बांधता कि इस शर्त को पूरा करोगे तो मेरा आदर, मेरा प्रेम तुम्हें मिलेगा, सम्मान मिलेगा। मैं बेशर्त जीवन को सम्मान देता हूं। और प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से चल रहा है। तो अगर मुझसे कोई भूल होती है तो मैं अपने भीतर अपनी कर्म की श्रृंखला में खोजूं। अगर दूसरे से कोई भूल होती है तो यह उसका काम है इससे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। अगर एक आदमी मेरी छाती में आकर छुरा भोंक जाता है, तो भी यह कर्म उसका है, इससे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। छाती में छुरा जरूर मेरे भुंक जाता है लेकिन इससे मेरा फिर भी कोई संबंध नहीं है। यह काम उसका ही है, वही जाने। वही इसके फल पाएगा, नहीं पाएगा, यह उसकी बात है। यह मेरा काम ही नहीं है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है।
महावीर इतना जरूर कहते हैं कि अगर यह मेरी छाती में छुरा भुंकता है, तो इससे मेरा इतना ही संबंध हो सकता है कि मेरी पिछली यात्रा में मैंने यह तैयारी करवाई हो कि यह छाती में छुरा भुंके। इसका मेरी छाती में जाना मेरे पिछले कर्मों की कुछ तैयारी होगी। बस, उससे मेरा संबंध है। लेकिन उस आदमी का मेरी छाती में भोंकना, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। इससे उसकी अपनी अंतर्यात्रा का संबंध है। यह बात साफ-साफ दिखाई पड़ जाए तो हम पैरेलल अंतर्धाराएं हैं कर्मों की, समानांतर दौड़ रहे हैं। और प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर से जी रहा है। लेकिन जब-जब हम जोड़ लेते हैं अपने से दूसरे की धारा को, तभी कष्ट शुरू होता है।
विनय केवल इस बात की सूचना है कि मैं अपने से अब किसी को जोड़ता नहीं। इसलिए विनय को महावीर ने अंतर-तप कहा है। क्योंकि वह स्वयं को दूसरों से तोड़ लेना है। बिना पता चले चीजें टूट जाती हैं। और जब मेरे और आपके बीच कोई भी संबंध नहीं रह जाता--प्रेम का नहीं, घृणा का नहीं--संबंध ही नहीं रह जाता, सिर्फ निमित्त के संबंध रह जाते हैं; तब न कोई श्रेष्ठ है, न कोई अश्रेष्ठ है। न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है। न कोई मेरा बुरा करने की कोशिश कर रहा है, न कोई मेरा भला करने की कोशिश कर रहा है।
महावीर कहते हैं कि जो कुछ मैं अपने लिए कर रहा हूं, मैं ही कर रहा हूं--भला तो भला, बुरा तो बुरा; मैं ही अपना नरक हूं, मैं ही अपना स्वर्ग हूं, मैं ही अपनी मुक्ति हूं। मेरे अतिरिक्त कोई भी निर्णायक नहीं है, मेरे लिए। तब एक हंबलनेस, एक विनम्र भाव पैदा होता है जो अहंकार का रूप नहीं है, अहंकार का अभाव है। जो अहंकार का डाइल्यूटेड फॉर्म नहीं है, जो अहंकार का तरल, बिखरा हुआ, फैला हुआ आकार नहीं है--अहंकार का अभाव है।
तो यह आखिरी बात खयाल में ले लें। विनम्रता यदि साधी जाएगी--जैसा हम साधते हैं कि इसको आदर दो, उसको आदर दो; इसको मत दो, उसको मत दो; आदर का भाव जन्माओ; विनम्र रहो; अहंकारी मत बनो, निर-अहंकारी रहो--तो जो विनम्रता पैदा होगी, इट विल बी ए फॉर्म ऑफ ईगो, वह अहंकार का ही एक रूप होगी। उससे समाज को थोड़ा फायदा होगा। क्योंकि आपका अहंकार कम प्रकट होगा, दबा हुआ प्रकट होगा, ढंग से प्रकट होगा, सुसंस्कृत होगा, कल्चर्ड होगा। लेकिन आपको कोई फायदा नहीं होगा।
इसलिए समाज की उत्सुकता इतनी ही है कि आप विनम्रता का आवरण ओढ़े रहें। बस समाज को इससे कोई मतलब नहीं है। समाज की औपचारिक व्यवस्था इतने से चल जाती है कि आप विनम्रता ओढ़े रहें। रहें भीतर अहंकारी, समाज को कोई मतलब नहीं है। लेकिन धर्म को इससे कोई प्रयोजन नहीं है कि आप बाहर क्या ओढ़े हुए हैं। धर्म को प्रयोजन है, आप भीतर क्या हैं? वॉट यू आर?
तो महावीर की जो विनय है वह समाज की व्यवस्था की विनय नहीं है--कि पिता को, कि गुरु को, कि शिक्षक को, कि वृद्ध को आदर दो। महावीर यह भी नहीं कहते कि मत दो। मैं भी नहीं कह रहा हूं कि आप मत दो, बराबर दो। वह एक समाज का खेल है, बट जस्ट ए गेम, और जितना समझदार आदमी, उसको उतना ही खेल है।
एक मित्र अभी परसों ही आए और कहने लगे: लड़के का यज्ञोपवीत होना है। और जब से आपको सुना तो लगता है यह तो बिलकुल बेकार है। लेकिन पत्नी जिद पर है, पिता जिद पर हैं, पूरा परिवार जिद पर है कि यह होकर रहेगा। तो मैं बाधा डालूं कि न डालूं?
तो मैंने कहा कि अगर बिलकुल बेकार है तो बाधा क्या डालनी! अगर कुछ थोड़ा सार्थक लगता है तो बाधा डालो। अगर तुम्हें लगता है कि यज्ञोपवीत का यह जो संस्कार-विधि होगी, यह बिलकुल बेकार है, इतनी बेकार अगर लगने लगी है तो ठीक है। जैसे घर के लोग सिनेमा देखने चले जाते हैं वैसे ही यज्ञोपवीत का समारोह हो जाने दो। जस्ट मेक इट ए गेम। है भी वह खेल। अब अगर पिता को मजा आ रहा है, मां को मजा आ रहा है, पत्नी मजा ले रही है, तो हर्जा क्या है इस खेल को चलने में? चलने दो। इस खेल को खेलो। अगर तुम जिद करते हो कि नहीं चलने देंगे, तुम भी इसको खेल नहीं मानते, तुम भी समझते हो, बड़ी कीमती चीज है। तुम भी सीरियस हो, तुम भी गंभीर हो कि अगर नहीं होगा तो कुछ फायदा होगा। जिस चीज के होने से फायदा नहीं हो रहा है, उसके न होने से क्या खाक फायदा होगा। जिसके होने तक से फायदा नहीं हो रहा है, उसके न होने से क्या फायदा हो सकता है? तो मैंने उनसे कहा, चीज इतनी बेकार है कि तुम बाधा मत डालना।
बोले: आप और यह कहते हैं! मैं तो यही समझा कि आप कहेंगे कि टूट पड़ो, बिलकुल होने ही मत देना।
मैं क्यों कहूंगा, ऐसा फिजूल काम, और इसमें इतना रस आ रहा हो घर के लोगों को तो--सो इनोसेंट ए गेम--इतना सरल और सीधा खेल कि एक लड़के के गले में माला-वाला डालनी है, सिर घुटाना--तो खेलने दो; इसमें क्या हर्ज है? और आदमी बच्चों जैसे हैं, उनको खेल चाहिए। अगर खेल न हो तो जिंदगी उदास हो जाती है। इसलिए हम जन्म को भी खेल बनाते; फिर यज्ञोपवीत का खेल खेलते; फिर शादी आती है, उसका खेल चलता। मर जाता है आदमी, तब भी हम खेल बंद नहीं करते। अरथी निकालते, वह भी उत्सव है, समारोह है, बैंड-बाजा आदमी को आखिर तक पहुंचा आता है। बस एक लंबा खेल है। पर आदमी बिना खेल के नहीं जी सकता। इसलिए जिन समाजों में खेल कम हो गए हैं वहां जीना मुश्किल हो गया है, क्योंकि आदमी तो वही का वही है। तो महावीर जैसा आदमी बिना खेल के जी सकता है। लेकिन बिना खेल के कोई तभी जी सकता है जब उसे वास्तविक जीवन का पता चल जाए। वास्तविक जीवन का पता न हो तो इस जीवन को, जिसे हम जीवन कह रहे हैं, यह तो बिना खेल के नहीं जीया जा सकता है। इसमें खेल रखने ही पड़ेंगे।
पश्र्चिम में यह दिक्कत खड़ी हो गई, तीन सौ साल में पश्र्चिम के विचारक लोगों ने, जिनको मैं बहुत विचारशील नहीं कहूंगा, चाहे वाल्तेयर हों और चाहे बर्ट्रेंड रसल, उन सबने पश्चिम के सब खेल निंदित कर दिए और कहा कि ये सब खेल बेकार हैं। यह क्या कर रहे हो? यह सब गड़बड़ है। इसमें क्या फायदा है? फायदा कोई बता न सका। अगर आप बच्चों से पूछें कि तुम यह जो खेल खेल रहे हो, इसमें क्या फायदा है? अगर आप बच्चों से पूछें कि यह तुम गेंद इस कोने से उस कोने फेंकते हो, उस कोने से इस कोने में फेंकते हो, इसमें क्या फायदा है? क्या फायदा है? तो बच्चे मुश्किल में पड़ जाएंगे, फायदा तो बता नहीं सकेंगे। फायदा नहीं बता सकेंगे तो आप कहेंगे, बंद करो। क्योंकि जब फायदा ही नहीं तो क्यों खेलना।
बच्चे बंद कर देंगे, लेकिन मुश्किल में पड़ जाएंगे, क्योंकि बच्चे क्या करेंगे? वह जो शक्ति बचेगी, उसका क्या होगा? वह जो खेलने में निकल जाता था, वह अब उपद्रव में निकलेगा। सारी दुनिया में बच्चों ने जितने खेल कम कर दिए हैं--और सब स्कूलों ने बच्चों के खेल छीन लिए। अब बच्चों ने नये खेल निकाले हैं। आप समझते हैं, वह उपद्रव है। वे सिर्फ खेल हैं। वे गेंद फेंक कर मजा ले लेते हैं, अब नहीं फेंकने देते, वे पत्थर फेंक कर खिड़कियां तोड़ रहे हैं। वह मामला वही है। आपने सब खेल छीन लिए तो उनको नये खेल ईजाद करने पड़ रहे हैं और वे नये खेल महंगे पड़ रहे हैं। वे बच्चों के खेल अच्छे थे। बच्चे एक-दूसरे को मार डालते थे, मुकदमा चला देते थे, कोई न्यायाधीश बन जाता था। वे सब खेल हमने छीन लिए। सब बच्चे हमारे, बच्चे होने के समय ही गंभीर और बूढ़े होने लगे। अब उनको... लेकिन खेल तो उनके भीतर की जो ऊर्जा है, वह खेल मांगती है।
तो पश्चिम में यह दिक्कत खड़ी हुई, सारी फेस्टिविटी नष्ट कर दी है। वाल्तेयर से लेकर बर्ट्रेंड रसल के बीच पश्चिम में सारे उत्सव का भाव चला गया है। सब चीज बेकार--यह भी नहीं हो सकता, यह भी नहीं हो सकता, और जिंदगी वही की वही। अब बड़ी मुश्किल हो गई, शादी का उत्सव बेकार। इसमें क्या फायदा है, यह तो रिजिस्ट्री के आफिस में हो सकता है, यह बैंड-बाजा क्यों बजाना? लेकिन आपको पता नहीं कि वह जो आदमी बैंड-बाजा बजा रहा था, उसे खेल में रस था। अब यह आदमी जब रिजिस्ट्री के ऑफिस में जाकर शादी करवाएगा, घर आकर पाएगा--कुछ भी नहीं हुआ। तो बिलकुल बेकार निकल गया मामला। सिर्फ दस्तखत ही करके आ गए रिजिस्टर पर, यही शादी है! तो जो शादी सिर्फ दस्तखत करने से बन सकती है वह दस्तखत करने से किसी दिन टूट जाएगी। उसमें कोई मूल्य नहीं है।
वह शादी एक खेल था जिसमें हम बच्चों को दिखाते थे कि भारी मामला है। कोई छोटा मामला नहीं, तोड़ा नहीं जा सकता। इतना बड़ा मामला है। उसमें इतना शोरगुल मचाते थे, उसको घोड़े पर बिठाते, उसको राजा बना देते, छुरी लटका देते, बैंड-बाजा बजा देते, भारी उत्सव मचता। उसको भी लगता कि कुछ हो रहा है। कुछ ऐसा हो रहा है जिसको वापस लौटाना मुश्किल है। फिर इस सबके पीछे होता तो वही जो रिजिस्ट्री के ऑफिस में होता है। लेकिन इस सबके पहले जो हो गया है वह एक रूप, एक खेल--वह खेल इतना भारी था कि उसको लौटाना मुश्किल था। और उसकी जिंदगी में याद रहता। शादी चाहे दुख भी बन जाए बाद में, लेकिन वह जो शादी के पहले हुआ था वह उसे याद रहता। वह बार-बार सपने उसके देखता, वही घोड़े पर बैठना, वही राजा की पोशाक। और अब आज वह लड़का कहता कि इससे क्या होगा? यह पगड़ी मैं क्यों बांधूं? मत बांधो, लेकिन पत्नी जो हाथ लगेगी, वह छोटी लगेगी, क्योंकि खेल उसके पहले का पूरा नहीं हो पाया, बिना खेल के मिल गई है।
नसरुद्दीन की जब पहली दफा शादी हुई, वह सुहागरात को गया। रात आ गई, चांद निकल आया, पूर्णिमा का चांद। नसरुद्दीन खिड़की पर बैठा है। दस बज गए, ग्यारह बज गए, बारह बज गए। पत्नी बिस्तर में लेट गई। उसने एक दफे कहा: अब सो भी जाओ, अब सो भी जाओ।
नसरुद्दीन ने बारह बजे कहा कि बकवास बंद। मेरी मां कहा करती थी कि सुहागरात की रात इतनी आनंद की रात है, चूकना मत, तो मैं तो इधर खिड़की पर बैठ कर एक क्षण भी चूकना नहीं चाहता हूं। तू सो जा। कहीं नींद लग गई और चूक गए! तो मैं तो पूरी रात जगूंगा इसी खिड़की पर बैठा हुआ। मुझे तो वह पता लगाना है जो मां ने कहा कि सुहागरात की रात बड़ी आनंद की होती है। तो आज की रात मैं फालतू बातों में नहीं खो सकता। तू सो जा। तुझे अगर बातचीत करनी है तो कल।
इसके मन में सुहागरात की एक धारणा थी। आज ठीक उलटी हालत है। आज सुहागरात जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती।
मैंने सुना है, एक युवक अपनी सुहागरात से, हनीमून से वापस लौटा। मित्रों ने पूछा कि कैसी थी सुहागरात? उसने कहा: जस्ट लाइक बिफोर। अब तो सुहागरात का अनुभव पहले ही उपलब्ध है। उसने कहा: जस्ट लाइक बिफोर, नथिंग न्यू! कुछ नया नहीं।
पुरानी बुद्धिमत्ता महत्वपूर्ण थी। वह बच्चों जैसे आदमियों के लिए बनाए गए खेलों का इंतजाम था। उन खेलों के बीच आदमी जी लेता था। मैं नहीं कहता: खेल तोड़ दें। खेल जारी रखें। बड़े-बूढ़ों को आदर देना जारी रखें, गुरुजनों को आदर दें, साधुओं को आदर दें। खेल जारी रखें। उससे कुछ नुकसान नहीं हो रहा है किसी का। लेकिन उसको विनय मत समझ लें। वह विनय नहीं है। मैं नहीं कहता नसरुद्दीन से कि तू खिड़की पर मत बैठ और चांद को मत देख। लेकिन मैं उससे यह कहता हूं: इसे सुहागरात मत समझ। सुहागरात नहीं है। तू चांद देख।
विनय बहुत और बात है।
लेकिन हम ऐसे जिद्दी हैं जिसका कोई हिसाब नहीं, जैसा नसरुद्दीन था। दूसरी शादी की उसने। गया सुहागरात पर। बड़ा इठला कर, अकड़ कर चल रहा है। फिर पूर्णिमा है। बड़ा आनंदित है। रास्ते पर कोई मित्र मिल गया, उसने कहा कि बड़े आनंदित हो। नसरुद्दीन ने कहा कि मेरी सुहागरात है। उस आदमी ने चारों तरफ देखा। लेकिन हमें तुम्हारी पत्नी दिखाई नहीं पड़ती। उसने कहा: आर यू मैड? पहली दफे उसको लेकर आया, उसने सब रात खराब कर दी। इस बार उसको घर ही छोड़ आया हूं। रात भर बकवास करती रही: सो जाओ, यह करो, वह करो। पता नहीं रात कब चुक गई। और मेरी मां कहती थी कि सुहागरात...। इस बार तो उसको घर ही छोड़ आया हूं, अकेले ही आया हूं। सुहागरात चूकनी नहीं है।
कभी-कभी शब्द... मां ने जरूर कहा था और ठीक ही कहा था। लेकिन नसरुद्दीन जो समझे हैं, वह नहीं कहा था। परंपरा जो समझती है, शब्द वही हैं जो महावीर ने कहे थे, लेकिन परंपरा जो समझ लेती है, वह नहीं कहा था। विनय आविर्भाव होता है अंतस का और उसकी मैंने यह वैज्ञानिक प्रक्रिया आपसे कही। यह पूरी हो तो ही आविर्भाव होता है। हां, आप अपने को विनीत करने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह जारी रखें। वह एक खेल है, वह अच्छा खेल है। उससे जिंदगी सुविधा से चलती है, कनवीनियंटली। बाकी उससे कोई आप जीवन के सत्य को उपलब्ध नहीं होते हैं।
आज इतना ही।
फिर कल आगे के सूत्र पर बात करेंगे।
लेकिन पांच मिनट बैठें। आप भी दोहराएं साथ में...!
धम्मो मंगलमुक्किट्ठं,
अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमंसन्ति,
जस्स धम्मे सया मणो।।
धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। (कौन सा धर्म?)अहिंसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म में सदा संलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
अंतर-तप की दूसरी सीढ़ी है: विनय।
प्रायश्चित्त के बाद ही विनय के पैदा होने की संभावना है। क्योंकि जब तक मन देखता रहता है दूसरे के दोष, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। जब तक मनुष्य सोचता है कि मुझे छोड़ कर शेष सब गलत हैं, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। विनय तो पैदा तभी हो सकती है जब अहंकार दूसरों के दोष देख कर अपने को भरना बंद कर दे। इसे हम ऐसा समझें कि अहंकार का भोजन है दूसरों के दोष देखना। वह अहंकार का भोजन है। इसलिए यह नहीं हो सकता है कि आप दूसरों के दोष देखते चले जाएं और अहंकार विसर्जित हो जाए। क्योंकि एक तरफ आप भोजन दिए चले जाते हैं और दूसरी तरफ अहंकार को विसर्जित करना चाहते हैं, यह न हो सकेगा। इसलिए महावीर ने बहुत वैज्ञानिक क्रम रखा है--प्रायश्चित्त पहले, क्योंकि प्रायश्चित्त के साथ ही अहंकार को भोजन मिलना बंद हो जाता है।
वस्तुतः हम दूसरे के दोष देखते ही क्यों हैं? शायद इसे आपने कभी ठीक से न सोचा होगा कि हमें दूसरों के दोष देखने में इतना रस क्यों है? असल में दूसरों का दोष हम देखते ही इसलिए हैं कि दूसरों का दोष जितना दिखाई पड़े, हम उतने ही निर्दोष मालूम पड़ते हैं। ज्यादा दिखाई पड़े दूसरे का दोष, तो हम ज्यादा निर्दोष मालूम पड़ते हैं। उस पृष्ठभूमि में, जहां दूसरे दोषी होते हैं हम अपने को निर्दोष देख पाते हैं। अगर दूसरे निर्दोष दिखाई पड़ें तो हम दोषी दिखाई पड़ने लगेंगे। तो हम दूसरों की शक्लें जितनी काली रंग सकते हैं, उतनी रंग देते हैं। उनकी काली रंगी शक्लों के बीच हम गौर वर्ण मालूम पड़ते हैं। अगर दूसरों के पास गौर वर्ण हो--सबके पास, तो हम सहज ही काले दिखाई पड़ने लगेंगे।
दूसरे के दोष देखने का जो आंतरिक रस है वह स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने की असफल चेष्टा है; क्योंकि निर्दोष कोई अपने को सिद्ध नहीं कर सकता है। निर्दोष कोई हो सकता है, सिद्ध नहीं कर सकता। सच तो यह है कि सिद्ध करने की कोशिश में ही निर्दोष न होना छिपा है। निर्दोषता--सिद्ध करने की कोशिश भी नहीं है। कोई यदि आपको किसी के संबंध में कोई पुण्य खबर दे तो मानने का मन नहीं होता। कोई आपसे कहे कि दूसरा व्यक्ति बहुत सज्जन, भला, साधु है तो मानने का मन नहीं होता। मन एक भीतरी रेसिस्टेंस, एक भीतरी प्रतिरोध करता है। मन भीतर से कहता है: ऐसा हो नहीं सकता। इस भीतर की लहर पर थोड़ा ध्यान करें, अन्यथा विनय कभी उपलब्ध न होगी।
जब कोई किसी दूसरे की शुभ चर्चा करता है तो मन मानने को नहीं होता। भीतर एक लहर कंपित होती है और कहती है कि प्रमाण क्या है कि दूसरा सज्जन है, साधु है? वह प्रमाण की तलाश इसीलिए है ताकि अप्रमाणित किया जा सके कि दूसरा साधु नहीं, सज्जन नहीं। लेकिन कभी आपने इससे विपरीत बात देखी? अगर कोई किसी के संबंध में निंदा करे तो आपका मन एकदम मानने को आतुर होता है। आप निंदा के लिए प्रमाण नहीं पूछते। अगर कोई आदमी कहे कि फलां आदमी ब्रह्मचारी है; तो आप पूछते हैं: प्रमाण क्या है? लेकिन कोई आदमी कहे फलां आदमी व्यभिचारी है; आपने प्रमाण पूछा है? नहीं, फिर तो कोई जरूरत नहीं रह जाती प्रमाण की। कहना पर्याप्त है। किसी ने कहा तो पर्याप्त है।
और ध्यान रहे, अगर कोई कहे कि दूसरा आदमी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है तो आप बड़े मन को मसोस कर मान सकते हैं, प्रफुल्लता से नहीं। और जब आप दूसरे को कहेंगे, तो जितने जोर से उसने कहा था उस जोर में कमी आ जाएगी। तीन चार आदमियों में यात्रा करते-करते वह ब्रह्मचर्य खो जाएगा। लेकिन अगर किसी ने कहा: फलां आदमी व्यभिचारी है तो जब आप दूसरे से कहते हैं, तो आपने खयाल किया कि आप कितना गुणित करते हैं उसे? कितना मल्टीप्लाइ करते हैं? जितना रस उसने लिया था, उससे दुगुना रस आप दूसरे को सुनाते वक्त लेते हैं। पांच आदमियों तक पहुंचते-पहुंचते पता चलेगा कि उससे ज्यादा व्यभिचारी आदमी दुनिया में कभी पैदा ही नहीं हुआ। पांच आदमियों के बीच पाप इतनी बड़ी यात्रा कर लेगा।
इस मन के आंतरिक रस को देखना, समझना जरूरी है। तो विनय की साधना का पहला सूत्र तो है कि हमारे अहंकार के सहारे क्या हैं? हम किस सहारे से अविनीत बने रहते हैं? वे सहारे न गिरें तो विनय उत्पन्न नहीं होगा। निंदा में रस मालूम होता है, स्तुति में पीड़ा मालूम होती है। और इसलिए अगर आपको किसी मजबूरी में किसी की स्तुति करनी पड़ती है तो आप बहुत शीघ्र उसके सामने से हट कर, तत्काल कहीं जाकर उसकी निंदा करके बैंक-बैलेंस बराबर कर लेते हैं। देर नहीं लगती। संतुलन पर ला देते हैं तराजू को बहुत शीघ्र। जब तक संतुलन न आ जाए तब तक मन को चैन नहीं पड़ता। लेकिन इससे उलटा इतने आसानी से नहीं होता। जब आप किसी को गालियां देकर जाते हैं तो तत्काल आप संतुलन स्थापित नहीं करते कि कहीं जाकर उसके गुणों की भी चर्चा कर लें। मन की सहज इच्छा यह है कि दूसरे निंदित हों। तो दूसरों का दोष तो हम हजारों मील से देख पाते हैं, अपना दोष इतने निकट रह कर भी नहीं देख पाते।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने गांव के मेयर को कई बार फोन किया कि एक स्त्री बहुत अभद्र व्यवहार कर रही है मेरे साथ। अपनी खिड़की में इस भांति खड़ी होती है कि उसकी मुद्राएं आमंत्रण देती हैं, और कभी-कभी अर्धनग्न भी वह खिड़की से दिखाई पड़ती है। इसे रोका जाना चाहिए। यह समाज की नीति पर हमला है। कई बार फोन किया तो मेयर मुल्ला के घर आया।
मुल्ला अपनी चौथी मंजिल पर ले गया, खिड़की के पास कहा: देखिए, वह सामने का मकान, उसी में वह स्त्री रहती है। मकान नदी के उस पार कोई आधा मील दूर था। उस मेयर ने कहा: वह स्त्री उस मकान में रहती है और उस मकान की खिड़कियों से आपको टेम्पटेशंस पैदा करती है? उधर से आपको उकसाती है? यहां से तो खिड़की भी ठीक से नहीं दिखाई पड़ रही, वह स्त्री कैसे दिखाई पड़ती होगी? मुल्ला ने कहा: ठहरो--उसके देखने का ढंग है--स्टूल पर चढ़ो, यह दूरबीन हाथ में लो, तब दिखाई पड़ती है।
लेकिन दोष उस स्त्री का है वह जो आधा मील दूर है!
और फिर एक दिन ऐसा भी हुआ कि मुल्ला अपने गांव के मनोचिकित्सक के दरवाजे को खटखटाया। भीतर गया, पूरा नग्न!
मनोचिकित्सक भी चौंका। नीचे से ऊपर तक देखा।
मुल्ला ने कहा कि मैं यही पूछने आया हूं और वही भूल आप कर रहे हैं। मैं सड़कों पर से निकलता हूं तो लोग न मालूम पागल हो गए हैं, मुझे घूर-घूर कर देखते हैं। ऐसी क्या मुझमें कमी है या ऐसी क्या भूल है जिससेलोग मुझे घूर-घूर कर देखते हैं। मनोवैज्ञानिक खुद ही घूर-घूर कर देख रहा था, क्योंकि मुल्ला निपट नग्न खड़ा था। मुल्ला ने कहा: यह पूरा गांव पागल हो गया मालूम पड़ता है। जहां से भी निकलता हूं, वहीं लोग घूर-घूर कर देखते हैं। आपका विश्लेषण क्या है?
मनोवैज्ञानिक ने कहा: ऐसा मालूम पड़ता है कि आप अदृश्य वस्त्र पहने हुए हैं, दिखाई न पड़ने वाले वस्त्र पहने हुए हैं। शायद उन्हीं वस्त्रों को देखने के लिए लोग घूर-घूर कर देखते होंगे।
मुल्ला ने कहा: बिलकुल ठीक। तुम्हारी फीस क्या है?
मनोवैज्ञानिक ने सोचा कि ऐसा आदमी, इससे फीस ठीक से ले लेनी चाहिए। उसने सौ रुपये फीस के बताए।
मुल्ला ने खीसे में हाथ डाला, नोट गिने, दिए। मनोवैज्ञानिक ने कहा: लेकिन हाथ में कुछ भी नहीं है।
मुल्ला ने कहा: यह अदृश्य नोट हैं। ये दिखाई नहीं पड़ते। घूर-घूर कर देखो, दिखाई पड़ सकते हैं।
आदमी खुद नग्न घूमता हो बाजार में तो भी शक होता है कि दूसरे लोग घूर-घूर कर क्यों देखते हैं? और अपने घर से वह दूरबीन लगा कर आधा मील दूर किसी की खिड़की में देख सकता है और कह सकता है कि वह स्त्री मुझे प्रलोभित कर रही है। हम सब ऐसे ही हैं। हम सबका तालमेल ऐसा ही है व्यक्तित्व का। तो विनय तो कैसे पैदा होगी? विनय के पैदा होने का कोई उपाय नहीं है। अहंकार ही पैदा होगा। जब कोई किसी की हत्या भी कर देता है तो वह यह नहीं मानता कि हत्या में मैं अपराधी हूं। वह मानता है कि उस आदमी ने ऐसा काम ही किया था कि हत्या करनी पड़े। दोषी वही है।
मुल्ला ने तीसरी शादी की थी। तीसरी पत्नी घर में आई तो दो बड़ी-बड़ी तस्वीरें देख कर उसने पूछा: ये तस्वीरें किसकी हैं? मुल्ला ने कहा: मेरी पिछली दो पत्नियों की। मुसलमान घर में तो चार पत्नियां तो हो ही सकती हैं सहज ही। तो उसने पूछा: लेकिन वे हैं कहां? मुल्ला ने कहा: अब वे कहां? पहली मर गई मशरूम पाय़जनिंग से। उसने कुकुरमुत्ते खा लिए जो जहरीले थे। उसने पूछा: और दूसरी कहां है? मुल्ला ने कहा: वह भी मर गई। फ्रैक्चर ऑफ दि स्कल, खोपड़ी के टूट जाने से। बट दि फॉल्ट वा़ज ह़र्ज। शी वुड नॉट ईट मशरूम्स। भूल उसकी ही थी। मैं कितना ही कहूं वह मशरूम खाने को, वह कुकुरमुत्ते खाने को राजी नहीं होती थी। तो खोपड़ी के टूटने से मर गई। खोपड़ी मुल्ला ने तोड़ी, क्योंकि वह मशरूम नहीं खाती थी। मगर दोष उसका ही था, भूल उसकी ही थी।
भूल सदा दूसरे की है। भूल शब्द ही दूसरे की तरफ तीर बन कर चलता है। वह कभी अपनी होती ही नहीं। और जब अपनी नहीं होती तो विनय का कोई भी कारण नहीं है। तो अहंकार, यह दूसरे की तरफ जाते हुए तीरों के बीच में निश्चिंत खड़ा होता है, बलशाली होता है। सघन होता है।
इसलिए महावीर ने प्रायश्चित्त को पहला अंतर-तप कहा कि पहले तो यह जान लेना जरूरी होगा कि न केवल मेरे कृत्य गलत हैं बल्कि मैं ही गलत हूं। तीर सब बदल गए, रुख बदल गया। अब वे दूसरे की तरफ नहीं जाते, अपनी तरफ मुड़ गए। ऐसी स्थिति में हंबलनेस, विनय को साधा जा सकता है। फिर भी महावीर ने निर-अहंकारिता नहीं कही। महावीर कह सकते थे निर-अहंकार, लेकिन महावीर ने ईगोलेसनेस नहीं कही; कहा विनय। क्योंकि निर-अहंकार नकारात्मक है और उसमें अहंकार की स्वीकृति है। अहंकार को इनकार करने के लिए भी उसका स्वीकार है। और जिसे हमें इनकार करने के लिए भी स्वीकार करना पड़े, उसका इनकार किया नहीं जा सकता। जैसे कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं मर गया हूं क्योंकि मैं मर गया हूं, यह कहने के लिए मैं हूं जिंदा, इसे स्वीकार करना पड़ेगा। जैसे कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं घर के भीतर नहीं हूं, क्योंकि मैं घर के भीतर नहीं हूं, यह कहने के लिए भी मुझे घर के भीतर होना पड़ेगा।
निर-अहंकार की साधना में यही भूल होती है कि अहंकारी मैं हूं, यह स्वीकार करना पड़ता है और इस अहंकार को निर-अहंकार में बदलने की कोशिश करनी पड़ती है। बहुत डर तो यही है कि वह अहंकार ही अपने ऊपर निर-अहंकार के वस्त्र ओढ़ लेगा और कहेगा: देखो, मैं निर-अहंकारी हूं। अहंकार है ही कहां मुझमें। अहंकार यह भी कह सकता है कि अहंकार मुझमें नहीं है। तब वह विनय नहीं रह जाती है, वह अहंकार का ही एक रूप है--प्रच्छन्न, छिपा हुआ, गुप्त, और पहले प्रकट रूप से ज्यादा खतरनाक है। इसलिए निर-अहंकार नहीं कहा है जान कर; क्योंकि कोई भी अंतर-तप अगर निषेधात्मक रूप से पकड़ा जाए तो सूक्ष्म हो जाएगी वह बीमारी जिसको आप हटाने चले थे, मिटाना कठिन होगा। हां, विनय आ जाए तो आप निर-अहंकारी हो जाएंगे। लेकिन निर-अहंकारी होने की कोशिश अहंकार को नष्ट नहीं कर पाती। अहंकार इतने विनम्र रूप ले सकता है जिसका हिसाब लगाना कठिन है। अहंकार कह सकता है: मैं तो कुछ भी नहीं, आपके पैरों की धूल हूं। और तब भी इस घोषणा में बच सकता है। इसलिए बहुत बारीक और बहुत सूक्ष्म भेद है।
विनय है पाजिटिव। महावीर विधायक जोर दे रहे हैं कि आपके भीतर वह अवस्था जन्मे जहां दूसरा दोषी नहीं रह जाता। और जिस क्षण मुझे अपने दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं, उस क्षण विनय बहुत-बहुत रूपों में बरसती है। एक तो जो व्यक्ति अपने दोष नहीं देखता वह दूसरे के दोष बहुत कठोरता से देखता है। जिस व्यक्ति को अपने दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं वह दूसरों के दोषों के प्रति बहुत सदय हो जाता है; क्योंकि वह जानता है, मेरे भीतर भी यही हैं।
सच तो यह है कि जिस आदमी ने चोरी न की हो उस आदमी को चोरी के संबंध में निर्णय का अधिकार नहीं होना चाहिए। क्योंकि वह समझ ही नहीं पाएगा कि चोरी मनुष्य कैसी स्थितियों में कर लेता है। लेकिन हम चोर को कभी चोर का निर्णय करने को न बिठाएंगे। हम उसको बिठाएंगे जिसने कभी चोरी नहीं की है। उससे जो भी होगा वह अन्याय होगा। अन्याय इसलिए होगा कि वह अति कठोर होगा। वह जो सदयता आनी चाहिए--अपने भीतर की कमजोरी को जान कर दूसरे की कमजोरी भी स्वाभाविक है--ऐसा जो सहृदय भाव आना चाहिए वह उसके भीतर नहीं होगा। इसलिए जान कर आप हैरान होंगे कि तथाकथित जिन्हें हम पापी कहते हैं वे ज्यादा सहृदय होते हैं। और जिन्हें हम महात्मा कहते हैं, वे इतने सहृदय नहीं होते। महात्माओं में ऐसी दुष्टता का और ऐसी कठोरता का छिपा हुआ जहर मिलेगा, जैसा कि पापियों में खोजना कठिन है।
यह बहुत उलटा दिखाई पड़ता है, लेकिन इसके पीछे कारण है। यह उलटा नहीं है। पापी दूसरे पापियों के प्रति सदय हो जाता है क्योंकि वह जानता है--मैं ही कमजोर हूं तो मैं किसकी कमजोरी की निंदा करने जाऊं! इसलिए किसी पापी ने दूसरे पापी के लिए नरक का आयोजन नहीं किया। पुण्यात्मा करते हैं। उनका मन नहीं मानता कि उनको छोड़ा जा सके। और इस बात की पूरी संभावना है कि उनके पुण्य करने में रस केवल इतना ही हो कि वे पापियों को नीचा दिखा सकते हैं। अहंकार ऐसे रस लेता है।
तो एक तो जैसे ही तीर अपनी तरफ मुड़ जाते हैं चेतना के, और अपनी भूलें, सहज भूलें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं, वैसे ही दूसरे की भूलों के प्रति एक अत्यंत सदय भाव आ जाता है। तब हम जानते हैं कि दूसरे को दोषी कहना व्यर्थ है। इसलिए नहीं कि वह दोषी न होगा या होगा, इसलिए कि दोष इतने स्वाभाविक हैं। मुझमें भी हैं। और जब स्वयं में दोष दिखाई पड़ने शुरू होते हैं तो दूसरों से अपने को श्रेष्ठ मानने का कोई कारण नहीं रह जाता।
लेकिन जैन शास्त्र जो परिभाषा करते हैं विनय की वह बड़ी और है। वे कहते हैं: जो अपने से श्रेष्ठ हैं, उनका आदर विनय है। गुरुजनों का आदर, माता-पिता का आदर, श्रेष्ठजनों का आदर, साधुओं का आदर, महाजनों का आदर, लोकमान्य पुरुषों का आदर--इनका आदर विनय है। यह बिलकुल ही गलत है, यह आमूल गलत है। यह जड़ से गलत है। यह बात ठीक नहीं है। यह इसलिए ठीक नहीं है कि जो व्यक्ति दूसरे को श्रेष्ठ देखेगा वह किसी को अपने से निकृष्ट देखता ही रहेगा। यह असंभव है कि आपको कोई व्यक्ति श्रेष्ठ मालूम पड़े और कोई व्यक्ति ऐसा न मालूम पड़े जो आपसे निकृष्ट है क्योंकि तराजू में एक पलड़ा नहीं होता।
आप दूसरे को जब तक श्रेष्ठ देख सकते हैं, यू कैन कंपेयर, आप तुलना कर सकते हैं। आप कहते हैं कि यह आदमी श्रेष्ठ है क्योंकि मैं चोरी करता हूं और यह आदमी चोरी नहीं करता। लेकिन तब आप इस बात को देखने से कैसे बचेंगे कि कोई आदमी आपसे भी ज्यादा चोर है। आप कह सकते हैं: यह आदमी साधु है, लेकिन तब आप यह देखने से कैसे बचेंगे कि दूसरा आदमी असाधु है। जब तक आप साधु को देख सकते हैं, तब तक असाधु को देखना पड़ेगा। और जब तक आप श्रेष्ठ को देख सकते हैं तब तक अश्रेष्ठ आपकी आंखों में मौजूद रहेगा। तुलना के दो पलड़े होते हैं।
इसलिए मैं नहीं मानता हूं कि महावीर का यह अर्थ है कि अपने से श्रेष्ठजनों को आदर, क्योंकि फिर निकृष्टजनों को अनादर देना ही पड़ेगा। यह बहुत मजेदार बात है। यह हमने कभी नहीं सोचा। हम इस तरह सोचते नहीं। और जीवन बहुत जटिल है और हमारा सोचना बहुत बचकाना है। हम कहते हैं: श्रेष्ठजनों को आदर। लेकिन निकृष्टजन फिर दिखाई पड़ेंगे। जब आप सीढ़ियों पर खड़े हो गए तो आप पक्का मानना कि आपको जब आपसे आगे कोई सीढ़ी पर दिखाई पड़ेगा तो जो पीछे है वह कैसे दिखाई न पड़ेगा। और अगर पीछे का दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा तो जो आपके आगे है, वह आपसे आगे है यह आपको कैसे मालूम पड़ेगा? वह पीछे की तुलना में ही आगे मालूम पड़ता है। अगर दो ही आदमी खड़े हैं तो कौन आगे है, कौन है आगे?
मुल्ला के जीवन में बड़ी प्रीतिकर एक घटना है। कुछ विद्यार्थियों ने आकर मुल्ला को कहा कि कभी चल कर हमारे विद्यापीठ में हमें प्रवचन दो।
मुल्ला ने कहा: चलो अभी चलता हूं, क्योंकि कल का क्या भरोसा? और शिष्य बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। मुल्ला ने अपना गधा निकाला, जिस पर वह सवारी करता था, लेकिन गधे पर उलटा बैठ गया। बाजार से यह अदभुत शोभा यात्रा निकली। मुल्ला गधे पर उलटा बैठा, विद्यार्थी पीछे।
थोड़ी देर में विद्यार्थी बेचैन होने लगे। क्योंकि सड़क के लोग उत्सुक होने लगे और मुल्ला के साथ-साथ विद्यार्थी भी फंस गए। लोग कहने लगे: यह क्या मामला है? यह किस पागल के पीछे जा रहे हो? तुम्हारा दिमाग खराब है?
आखिर एक विद्यार्थी ने हिम्मत जुटा कर कहा कि मुल्ला, यह क्या ढंग है बैठने का? आप कृपा करके सीधे बैठ जाएं। तुम्हारे साथ हमारी भी बदनामी हो रही है।
मुल्ला ने कहा: लेकिन मैं सीधा बैठूंगा तो बड़ी अविनय हो जाएगी।
उसने कहा: क्या, कैसी अविनय?
मुल्ला ने कहा: अगर मैं तुम्हारी तरफ पीठ करके बैठूं तो तुम्हारा अपमान होगा, और अगर मैं तुम्हारी तरफ पीठ करके न बैठूं, तुम मेरे आगे चलो और मेरा गधा पीछे चले तो मेरा अपमान होगा। सो दिस इ़ज दि ओनली वे टु कंप्रोमाइज। कि मैं गधे पर उलटा बैठूं, तुम्हारे आगे चलूं, हम दोनों के मुंह आमने-सामने रहें। इसमें दोनों की इज्जत की रक्षा है। और लोगों को कहने दो जो कह रहे हैं। हम अपनी इज्जत बचा रहे हैं दोनों।
ये जो हमारी विनय की धारणाएं हैं, श्रेष्ठजन कौन है, आगे कौन चल रहा है, यह निश्चित ही निर्भर करेंगी कि पीछे कौन चल रहा है। और जितना आप अपने श्रेष्ठजन को आदर देंगे, उसी मात्रा में आप अपने से निकृष्टजन को अनादर देंगे। मात्रा बराबर होगी, क्योंकि जिंदगी प्रति वक्त संतुलन करती है। अन्यथा बेचैनी पैदा हो जाती है। तो जब आप एक साधु खोजेंगे, तो निश्चित रूप से आप एक असाधु को खोजेंगे, और तुलना बराबर हो जाएगी। जब भी आप एक भगवान खोजेंगे, तब आप एक भगवान खोजेंगे जिसकी निंदा आपको अनिवार्य होगी। जो लोग महावीर को भगवान मानते हैं, वे बुद्ध को भगवान नहीं मान सकते; वे कृष्ण को भगवान नहीं मान सकते। जो लोग कृष्ण को भगवान मानते हैं, वे महावीर को, बुद्ध को भगवान नहीं मान सकते। क्यों नहीं मान सकते? नहीं मान सकते इसलिए कि संतुलन करना पड़ता है जिंदगी में। एक को पल्ले पर भगवान रख दिया तो दूसरे को रखना पड़ेगा जो भगवान नहीं है--दूसरे पल्ले पर। तभी संतुलन पूरा होगा।
तो जैन अगर किताबें भी लिखते हैं बुद्ध के बाबत--क्योंकि बुद्ध और महावीर समकालीन थे और उनकी शिक्षाएं कई अर्थों में समान मालूम पड़ती हैं--तो मैंने अब तक एक हिम्मतवर जैन नहीं देखा जिसने बुद्ध को भगवान लिखने की हिम्मत की हो। अगर साथ-साथ लिखते भी हैं तो वे लिखते हैं--भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध। बड़े मजे की बात है। बहुत हिम्मतवर हैं ये लोगे जो महात्मा बुद्ध लिखते हैं। लेकिन उनकी भी हिम्मत नहीं जुट पाती कि वे भगवान बुद्ध कह सकें। भगवान कृष्ण कहना तो बहुत ही मुश्किल मामला है, क्योंकि शिक्षाएं बहुत विपरीत हैं। तो कृष्ण को तो जैनों ने नरक में डाल रखा है। उनके हिसाब से इस समय कृष्ण नरक में हैं। क्योंकि युद्ध इसी आदमी ने करवाया।
और हिंदुओं ने तो महावीर की कोई गणना ही नहीं की, एक किताब में उल्लेख नहीं किया महावीर का। यानी नरक में डालने योग्य भी नहीं माना। आप यह समझना। कोई हिसाब ही नहीं रखा। अगर बौद्धों के ग्रंथ नष्ट हो जाएं तो जैनों के पास अपने ही ग्रंथों के सिवाय महावीर का हिंदुस्तान में कोई उल्लेख नहीं होगा। हिंदुओं ने तो गणना भी नहीं की कि यह आदमी कभी हुआ भी है। इस भांति महावीर जैसा आदमी पैदा हो, हिंदुस्तान में पैदा हो, चारों तरफ हिंदुओं से भरे समाज में पैदा हो और हिंदुओं का एक भी शास्त्र उल्लेख न करता हो, यह जरा सोचने जैसा मामला है!
इसलिए जब पहली दफा पाश्र्चात्य विद्वानों ने महावीर पर काम शुरू किया तो उन्हें शक हुआ कि यह आदमी कभी हुआ नहीं होगा। क्योंकि हिंदुओं के ग्रंथों में कोई उल्लेख न हो, यह असंभव है। तो उन्होंने सोचा कि शायद यह बुद्ध का ही खयाल है जैनों को। यह बुद्ध को ही मानने वाले दो तरह के लोग हैं, और बुद्ध और महावीर को जो विशेषण दिए गए वे कई जगह समान हैं। जैसे बुद्ध को भी जिन कहा गया है, महावीर को भी जिन--जिसने अपने को जीत लिया। महावीर को भी बुद्धपुरुष कहा गया है, बुद्ध को भी बुद्ध कहा गया है। तो शायद, यह बुद्ध का ही भ्रम है। इसलिए पश्र्चिम के विद्वानों ने तो महावीर को मानने से इनकार कर दिया--कर देने का कारण था कि हिंदू बड़ा समाज है। इसमें कोई कहीं खबर ही नहीं कि महावीर हुए!
ध्यान रहे, जैनों को कृष्ण को स्वीकार करना पड़ा--भला नरक में डालना पड़ा हो। अस्वीकार करना मुश्किल था। इतना बड़ा व्यक्ति था, और इतने बड़े समाज का आदर और सम्मान था। लेकिन हिंदू चाहें तो निगलेक्ट कर सकते हैं, उपेक्षा कर सकते हैं, कोई जरूरत नहीं है उल्लेख करने की। पर आश्र्चर्यजनक है यह कि एक को भगवान कोई मान ले तो फिर दूसरे को मानना बड़ा कठिन हो जाता है। कठिनाई यही हो जाती है कि तौल खड़ी हो गई, अब दूसरे को दूसरे पलड़े पर रखना पड़ेगा और संतुलन बराबर बिठाना होगा।
हम सब संतुलन बिठा रहे हैं। हम सब तुलनाएं कर रहे हैं। इसीलिए यह आश्र्चर्यजनक घटना घटती है कि इस पृथ्वी पर इतने-इतने अदभुत लोग पैदा होते हैं, लेकिन उन अदभुत लोगों में से हम एक का ही फायदा उठा पाते हैं--एक का ही, सबका नहीं उठा पाते। सबके हम हकदार हैं। हम बुद्ध के उतने ही वसीयतदार हैं जितने कृष्ण के, जितने मोहम्मद के, जितने क्राइस्ट के, जितने नानक के या कबीर के। लेकिन नहीं, हम वसीयत छोड़ देंगे। हम तो एक के हकदार होंगे, शेष सबको हम इनकार कर देंगे। हमें इनकार करना पड़ेगा, क्योंकि हम जब स्वीकार करते हैं श्रेष्ठ को, तो हमें किसी को निकृष्ट की जगह रखना पड़ेगा, नहीं तो श्रेष्ठ को तौलने का मापदंड कहां होगा। इससे विनय पैदा नहीं होती।
जो आदमी कहता है: मैं महावीर के प्रति विनयपूर्ण हूं, लेकिन बुद्ध के प्रति नहीं, वह समझ ले कि वह विनीत नहीं है। और यह भी अपने अहंकार को भरने का ही एक ढंग है क्योंकि महावीर से अपने को जोड़ रहा हूं, और महावीर भगवान हैं तो मैं भगवान से जुड़ता हूं। और तब दूसरे जो लोग बुद्ध से अपने को जोड़ कर अहंकार को भर रहे हैं, उनके अहंकार से मेरी टक्कर शुरू हो जाती है। तो मुझे अड़चन होने लगती है कि बुद्ध कैसे भगवान हो सकते हैं। क्योंकि अगर बुद्ध भगवान हैं तो बुद्ध को मानने वाले भी श्रेष्ठ हो जाते हैं। भगवान तो सिर्फ महावीर ही हैं, और उनको मानने वाले श्रेष्ठ हैं, आर्य हैं। वही नमक हैं इस पृथ्वी पर, बाकी तो सब ठीक हैं। सारी दुनिया में यही पागलपन पैदा होता है। यह हमारे अहंकार से पैदा हुआ रोग है। विनय का यह अर्थ नहीं है कि आप अपने से श्रेष्ठ को आदर दें।
दूसरी बात यह भी ध्यान रखने की है कि अगर श्रेष्ठ है वह आदमी, इसलिए आप आदर देते हैं तो आपके आदर देने में कोई गुण कहां रहा? इसे भी थोड़ा खयाल में ले लें। अगर एक व्यक्ति श्रेष्ठ है, तो आदर आपको देना पड़ता है, आप देते नहीं। आपका क्या गुण है? देने में आपका क्या रू
पांतरण हो रहा है? अगर एक व्यक्ति श्रेष्ठ है तो आपको आदर देना पड़ता है। ध्यान रहे, आदर देना पड़ता है। वह मजबूरी बन जाती है। वह आपका गुण नहीं है। आपका गुण न हो अगर, तो आपका अंतर-तप कैसे होगा? अंतर-तप तो आपके भीतरी गुणों को जगाने की बात है।
अगर मुझे कोहिनूर सुंदर लगता है, तो वह कोहिनूर का सौंदर्य होगा। लेकिन जिस दिन मुझे सौंदर्य कंकड़-पत्थर में भी दिखाई पड़ने लगे उतना ही, जितना कोहिनूर में दिखता है--सड़क पर पड़े हुए पत्थर में भी दिखाई पड़ने लगे, उस दिन अब कोहिनूर का गुण न रहा, अब मेरा गुण हुआ। जिस दिन मुझे सबके प्रति विनय मालूम होने लगे, बिना तौल के, उस दिन गुण मेरा है। और जब तक मैं तौल-तौल कर आदर देता हूं, तब तक मेरा गुण नहीं है, मजबूरी है। जो श्रेष्ठ है उसे आदर देना पड़ता है। श्रेष्ठ को आदर देने के लिए आपको कुछ प्रयास, कोई श्रम, कोई परिवर्तन नहीं करना होता। वह आपका तप कैसे हुआ? वह श्रेष्ठ व्यक्ति का भला तप रहा हो कि वह श्रेष्ठ कैसे हुआ, लेकिन आप उसको आदर देते हैं तो वह आपका तप कैसे हुआ, आपकी साधना कैसे हुई? सूरज निकलता है तो आप नमस्कार कर लेते हैं। फूल खिलता है तो आप गीत गा देते हैं। आप इसमें कहां आते हैं! आपके बिना भी फूल खिल जाता और आपके गीत से कुछ फूल ज्यादा नहीं खिलता और आपके बिना भी सूरज निकल जाता, और आपके नमस्कार से सूरज की चमक नहीं बढ़ती। आपका कहां इसमें मूल्य है? आप इसमें कहां आते हैं? आप इसमें कहीं भी नहीं आते।
मुल्ला नसरुद्दीन मनोवैज्ञानिक से सलाह लेता था, निरंतर। क्योंकि उसे निरंतर चिंताएं, तकलीफें, मन में न मालूम कैसे जाल खड़े हो जाते थे। सबके होते हैं। उसने मनोवैज्ञानिक को जाकर कहा कि मैं बहुत परेशान हूं, मुझे इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स है, हीनता की ग्रंथि सताती है। सुल्तान निकलता है रास्ते से तो मुझे लगता है कि मैं हीन हूं। एक महाकवि गांव में आकर गीत गाता है तो मुझे लगता है, हीन हूं। नगर सेठ की हवेली ऊंची उठती चली जाती है तो मुझे लगता है, हीन हूं। एक तार्किक तर्क करने लगता है तो मुझे लगता है, मैं हीन हूं। मैं इस हीनता की ग्रंथि से मुक्त कैसे होऊं? उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: डोंट सफर अननेसेसरिली। यू आर नॉट सफरिंग फ्रॉम इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स, यू आर इनफिरियर। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा: आपको हीनता की ग्रंथि से परेशानी नहीं हो रही है, आप हीन हैं। इसमें कोई बीमारी नहीं है, यह तथ्य है।
ध्यान रहे, जब आप किसी के सामने तथ्य की तरह हीन होते हैं, तो आपको आदर देना पड़ता है। यह कोई आप देते नहीं हैं। अब एक कालिदास शाकुंतल पढ़ता हो और आपको आदर देना पड़े, और एक तानसेन सितार बजाता हो और आपका सिर झुक जाए तो आप इस भूल में मत पड़ना कि आपने आदर दिया है। आपको आदर देना पड़ा है। लेकिन हमारा मन, जहां हमें देना पड़ता है वहां भी मानता है कि हमने दिया है, यह भी अपने अहंकार की पुष्टि है, मैंने दिया है आदर।
तो महावीर यह नहीं कह सकते कि श्रेष्ठजनों के प्रति आदर, क्योंकि वह होता ही है। उसका कोई मूल्य ही नहीं है। बिना किसी भेदभाव के आदर, तब विनय पैदा होती है। श्रेष्ठ, अश्रेष्ठ का सवाल नहीं है--जीवन के प्रति आदर, अस्तित्व के प्रति आदर, जो है उसके प्रति आदर। वह है, यही क्या कम है! एक पत्थर है, एक फूल है, एक सूरज है, एक आदमी है, एक चोर है, एक साधु है, एक बेईमान है--ये हैं। इनका होना ही पर्याप्त है। और इनके प्रति जो आदर है, अगर यह आदर संभव हो जाए तो आपका अंतर-तप है। तब यह गुण आपका है। तब आप परिवर्तित होते हैं।
फिर दूसरी बात, यह कैसे तय करेंगे कि कौन श्रेष्ठ है। अगर यह जो शास्त्र कहते हैं कि श्रेष्ठ, महाजन, गुरुजन... कैसे श्रेष्ठ कहेंगे? कौन है गुरु? कौन है गुरु? क्या है उपाय जांचने का आपके पास? कैसे तौलिएगा? क्योंकि अनेक लोग महावीर के पास आकर लौट जाते हैं और कह जाते हैं कि ये गुरु नहीं हैं। अनेक लोग क्राइस्ट को सूली पर लटका देते हैं यह मान कर कि आवारा, लफंगा है। इसको हटाना दुनिया से जरूरी है, यह नुकसान पहुंचा रहा है।
और ध्यान रहे, जिन लोगों ने जीसस को सूली दी थी वे उस समय के भले और श्रेष्ठजन थे--अच्छे लोग थे, न्यायाधीश थे, धर्मगुरु थे, धनपति थे, राजनेता थे। उस समय के जो भले लोग थे उन्होंने ही जीसस को सूली दी थी। और उनकी सूली देना, देने में अगर हम तौलने चले तो वे ठीक ही मालूम पड़ते हैं, क्योंकि जीसस वेश्याओं के घर में ठहर गए थे। अब जो आदमी वेश्याओं के घर में ठहर गया हो वह आदमी श्रेष्ठ कैसे हो सकता है। क्योंकि जीसस शराबघरों में बैठ कर शराबियों से दोस्ती कर लेते थे। अब जो शराबघरों में बैठता हो, उसका क्या भरोसा? क्योंकि जीसस उन लोगों के घर में ठहर जाते थे जो बदनाम थे; तो बदनाम आदमियों से जिसकी दोस्ती हो, आदमी तो अपने संग-साथ से पहचाना जाता है। जो अंत्यज थे, समाज से बाह्य कर दिए गए थे, उनके बीच भी जीसस की मैत्री थी, निकटता थी। तो यह आदमी भला कैसे था? फिर यह आदमी आती हुई परंपरा का विरोध करता था, मंदिर के पुरोहितों का विरोध करता था। यह कहता था कि जो साधु दिखाई पड़ रहे हैं, ये साधु नहीं हैं। तो यह आदमी भला कैसे था? तो उस समाज के भले लोगों ने इस आदमी को सूली पर लटका दिया, और आज हम जानते हैं कि बात कुछ गड़बड़ हो गई।
सुकरात को जिन लोगों ने जहर दिया था वे उस समाज के श्रेष्ठजन थे। कोई बुरे लोगों ने जहर नहीं दिया था। अच्छे लोगों ने जहर दिया था। और इसीलिए दिया था कि सुकरात की मौजूदगी समाज की नैतिकता को नष्ट करने का कारण बन सकती है। क्योंकि सुकरात संदेह पैदा कर रहा था। तो जो भले जन थे वे चिंतित हुए। वे चिंतित हुए कि इससे कहीं नई पीढ़ी नष्ट न हो जाए। तो सुकरात को जहर देने के पहले उन्होंने एक विकल्प दिया था कि सुकरात, अगर तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ और व्रत लो कि अब दुबारा एथेंस में प्रवेश नहीं करोगे तो हम तुम्हें मुक्त छोड़ दे सकते हैं। लेकिन हम तुम्हें एथेंस के समाज को नष्ट नहीं करने दे सकते। या तुम यह वायदा करो कि तुम अब एथेंस में शिक्षा नहीं दोगे, तो हम तुम्हें एथेंस में भी रहने दें। लेकिन तुम अब जबान बंद रखोगे, क्योंकि तुम्हारे शब्द नई पीढ़ी को नष्ट कर रहे हैं। जो लोग थे, वे भले थे। स्वभावतः वे नई पीढ़ी के लिए चिंतित थे। सब भले लोग नई पीढ़ी के लिए चिंतित होते हैं। और उनकी चिंता से नई पीढ़ी रुकती नहीं, बिगड़ती ही चली जाती है।
भला कौन है, श्रेष्ठ कौन है? धन है जिसके पास वह? पांडित्य है जिसके पास वह? यश है जिसके पास वह? तो फिर यश जिन रास्तों से यात्रा करता है उन रास्तों को देखें तो पता चलेगा कि यश बहुत अश्रेष्ठ रास्तों से उपलब्ध होता है। लेकिन सफलता सभी अश्रेष्ठताओं को पोंछ डालती है। धन कोई साधु मार्गों से उपलब्ध नहीं होता है। लेकिन उपलब्धि पुराने इतिहास को नया रंग दे देती है। कौन है श्रेष्ठ? समाज उसे श्रेष्ठ कहता है जो समाज के रीति-नियम मानता है। लेकिन इस जगत में जिन लोगों को हम पीछे श्रेष्ठ कहते हैं वे वे ही लोग हैं जो समाज के रीति-नियम तोड़ते हैं। बुद्ध आज श्रेष्ठ हैं, महावीर आज श्रेष्ठ हैं, नानक आज श्रेष्ठ हैं, कबीर आज श्रेष्ठ हैं। लेकिन अपने समाज में नहीं थे। क्योंकि वे समाज के रीति-नियम तोड़ रहे थे, वे बगावती थे, वे दुश्मन थे समाज के।
और आज भी जो महावीर को श्रेष्ठ कहता है, अगर कोई बगावती होगा खड़ा तो उसको कहेगा, यह आदमी खतरनाक है। इसलिए मरे हुए तीर्थंकर ही आदृत होते हैं। जीवित तीर्थंकर को आदृत होना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जीवित तीर्थंकर बगावती होता है। मरा हुआ तीर्थंकर मरने की वजह से धीरे-धीरे स्वीकृत हो जाता है। एस्टैब्लिशमेंट का, स्थापित, न्यस्त मूल्यों का, हिस्सा हो जाता है। फिर कोई कठिनाई नहीं रह जाती। अब महावीर से क्या कठिनाई है? महावीर से जरा भी कठिनाई नहीं है।
महावीर नग्न खड़े थे और महावीर के शिष्य कपड़े की दुकानें कर रहे हैं पूरे मुल्क में। कोई कठिनाई नहीं है। महावीर के शिष्य जितना कपड़ा बेचते हैं कोई और नहीं बेचता। मेरे तो एक निकट संबंधी हैं, उनकी दुकान का नाम है, दिगंबर क्लाथ शाप। दिगंबर क्लाथ शॉप! नंगों की कपड़ों की दुकान! महावीर सुनें तो बड़े हैरान हों कि और कोई नाम न मिला तुम्हें? अब कोई दिक्कत नहीं, इससे दिक्कत ही नहीं आती कि दिगंबर में और इस क्लाथ शाप में कहीं कोई विरोध है। लेकिन अगर महावीर नंगे दुकान के सामने खड़े हो जाएं तो विरोध साफ दिखाई पड़ेगा कि यह आदमी नंगा खड़ा है, हम कपड़े बेच रहे हैं। हम इसके शिष्य हैं, बात क्या है? अगर नग्न होना पुण्य है तो कपड़े बेचना पाप हो जाएगा, क्योंकि दूसरों को कपड़े पहनाना अच्छी बात नहीं है फिर। नाहक उनको पाप में ढकेलना है। नहीं, लेकिन मरे हुए महावीर से बाधा नहीं आती। खयाल ही नहीं आता। जब मैंने उन्हें यह याद दिलाया, उन्होंने कहा: आश्र्चर्य, हम तो तीस साल से यह बोर्ड लगाए हुए हैं और हमें कभी खयाल ही नहीं आया कि दिगंबर में और कपड़े में कोई विरोध है।
नहीं, खयाल ही नहीं आता। मुर्दा तीर्थंकर हमारी व्यवस्था में सम्मिलित हो जाता है। हम उसको, उसकी नोकों को झाड़ देते हैं; उसकी बगावत को गिरा देते हैं; शब्दों पर नया रंग पालिश कर देते हैं, फिर वह ठीक हो जाता है। लेकिन जिसको इतिहास पीछे से श्रेष्ठ कहता है उसका अपना समय उसे हमेशा उपद्रवी कहता है। किसको आदर? फिर श्रेष्ठ को जांचने का मार्ग भी तो कोई नहीं है। महाजन कौन है? महाजनों येन गतः स पंथा--जिस मार्ग पर महाजन जाते हैं, वही मार्ग है।
लेकिन महाजन कौन है? मोहम्मद महाजन हैं? महावीर को मानने वाला कभी नहीं मान पाएगा कि आप क्या बात कर रहे हैं। तलवार लिए हुए जो आदमी हाथ में खड़ा है, वह महाजन है? कौन है महाजन? मोहम्मद को मानने वाला कभी न मान पाएगा कि महावीर महाजन हैं। क्योंकि वह कहता है: जो आदमी बुराई के खिलाफ तलवार भी नहीं उठाता, वह आदमी नपुंसक है, क्लीव है। जब इतनी बुराई चलती हो तो तलवार उठनी चाहिए। नहीं तो तुम क्या हो, तुम मुर्दे हो। धर्म तो जीवंत होना चाहिए। धर्म के हाथ में तो तलवार होगी, इसलिए मोहम्मद के हाथ में तलवार है। हालांकि तलवार पर लिखा है: ‘शांति मेरा संदेश है।’ इस्लाम का मतलब शांति होता है। इस्लाम शब्द का मतलब शांति होता है। जैनी कभी सोच ही नहीं सकता कि इस्लाम और शांति, इनका कोई संबंध है? लेकिन मोहम्मद कहते हैं: जो शांति तलवार की धार नहीं बन सकती, वह बच नहीं सकती। वह बचेगी कैसे?
कौन है श्रेष्ठ? कैसे तौलिएगा? इसलिए हमने तौलने का एक सरल रास्ता निकाला है, जिसमें तौलना नहीं पड़ता। हम जन्म से तौलते हैं। अगर मैं जैन घर में पैदा हुआ तो महावीर श्रेष्ठ; मुसलमान घर में पैदा हुआ तो मोहम्मद श्रेष्ठ। यह तौलने से बचने की तरकीब है। यह ऐसा उपाय खोजना है जिसमें मुझे तौलना ही नहीं पड़ता। अब जन्म तो हो गया, वह नियति बन गई। उससे तुल जाती है बात कि श्रेष्ठ कौन है। आप सब इसी तरह तौल रहे हैं--कौन श्रेष्ठ है, किसको आदर देना है! जब आप जैन साधु को आदर देते हैं तो आप यह जान कर आदर देते हैं कि वह साधु है या यह जान कर आदर देते हैं कि वह जैन है?
साधु को तौलने का उपाय कहां है? कैसे तौलिएगा? वह एक मुंहपट्टी निकाल कर अलग कर दे और आदर खत्म हो जाएगा। तो आप किसको आदर दे रहे थे? मुंहपट्टी को या इस आदमी को? मुंहपट्टी वापस लगा ले, पैर आप छूने लगेंगे। मुंहपट्टी नीचे रख दे, आप पछताएंगे कि इस आदमी का पैर क्यों छुआ? मुंहपट्टी नीचे रख दे--अपने मंदिर में, अ
पने स्थानक में ठहरने न देंगे। मुंह पट्टी लगा ले--स्वागत है! आप मुंहपट्टी को देख रहे हैं कि आदमी को? लगता ऐसा है कि मुंहपट्टी ही असली चीज है। यह आदमी तो... यानी ऐसा नहीं कहना चाहिए कि आदमी मुंहपट्टी लगाए हुए है, ऐसा कहना चाहिए कि मुंहपट्टी आदमी को लगाए हुए है। क्योंकि असली चीज मुंहपट्टी है। आखिर में निर्णय वही करती है। आदमी तो निर्णायक है नहीं। अगर बुद्ध भी आ जाएं आपके मंदिर में तो आप उनको उतना आदर नहीं देंगे जितना मुंहपट्टी लगाए हुए एक बुद्धू को देंगे। क्योंकि मुंहपट्टी कहां है?
ये तरकीबें हमने क्यों खोजी हैं? इसका कारण है। क्योंकि कोई मापदंड का उपाय नहीं है। तो इनसे हम रास्ता बना लेते हैं। तौलने का कोई उपाय नहीं है, यह आपकी मजबूरी है। यह आदमी की मजबूरी है कि श्रेष्ठ कौन है, इसके लिए कोई तराजू नहीं है। तो हम फिर ऊपरी चिह्न बना लेते हैं, उनसे तौलने में आसानी हो जाती है। पीछे के आदमी की हम बकवास छोड़ देते हैं। हमारे लिए तो निपटारा हो गया कि यह आदमी साधु है, पैर छुओ, घर जाओ, विनय करो।
लेकिन, महावीर इस तरह की बचकानी बात नहीं कह सकते हैं। यह चाइल्डिश है। महावीर यह नहीं कह सकते हैं कि तुम श्रेष्ठ को आदर देना, क्योंकि श्रेष्ठ को आदर कैसे दोगे? श्रेष्ठ कौन है, तुम कैसे जानोगे? और जब तुम श्रेष्ठ को जानने जाओगे तो तुम्हें निकृष्ट को जानना पड़ेगा। और जब तुम श्रेष्ठ की परीक्षा करोगे तो तुम कैसे परीक्षा करोगे? उसके सब पापों का हिसाब-किताब रखना पड़ेगा कि रात में पानी तो नहीं पी लेता; कि छिपा कर कुछ खा तो नहीं लेता; साबुन की बटिया तो नहीं अपने झोले में दबाए हुए है; टूथपेस्ट तो नहीं करता है; यह सब रखना पड़ेगा पता! यह सब पता रखना पड़ेगा और यह सब पता वही रख सकता है जिसका निंदा में रस हो, जो दूसरे को निकृष्ट सिद्ध करने चला हो। यह वह आदमी नहीं कर सकता जो विनयपूर्ण है। इससे क्या प्रयोजन है उसे कि कौन आदमी टूथपेस्ट रखता है कि नहीं रखता है। इसका चिंतन ही बताता है कि यह जो आदमी सोच रहा है उसमें विनय नहीं है। महावीर यह नहीं कहते।
महावीर यह कहते हैं कि विनय एक आंतरिक गुण है। बाहर से उसका कोई संबंध नहीं है। अनकंडीशनल है, बेशर्त है। वह यह नहीं कहता कि तुम ऐसे होओगे तो मैं आदर दूंगा। वह यह कहता है कि तुम हो, पर्याप्त है। मैं तुम्हें आदर दूंगा क्योंकि आदर आंतरिक गुण है और आदर मनुष्य को अंतरात्मा की तरफ ले जाता है। मैं तुम्हें आदर दूंगा बेशर्त। तुम शराब पीते हो कि नहीं पीते हो, यह सवाल नहीं; तुम जीवन हो, यह काफी है। और यह पूरा अस्तित्व तुम्हें जिला रहा है। सूरज तुम्हें रोशनी दे रहा है, वह इनकार नहीं करता कि तुम शराब पीते हो। हवाएं ऑक्सीजन देने से मुकरती नहीं कि तुम बेईमान हो। आकाश कहता नहीं कि हम तुम्हें जगह न देंगे, क्योंकि तुम आदमी अच्छे नहीं हो। जब यह पूरा अस्तित्व तुम्हें स्वीकार करता है तो मैं कौन हूं जो तुम्हें अस्वीकार करूं! तुम हो, इतना काफी है। मैं तुम्हें आदर देता हूं। मैं तुम्हें सम्मान देता हूं।
यह जीवन के प्रति सहज सम्मान का नाम विनय है--अकारण, खोज-बीन के बिना, क्योंकि खोज-बीन हो नहीं सकती। वह जो करता है, वह आदमी विनीत नहीं होता--बेशर्त। अगर मैं कहूं कि तुम मेरी शर्तें पूरी करो इतनी, तब मैं तुम्हें आदर दूंगा; तो मैं उस आदमी को आदर नहीं दे रहा हूं। मैं अपनी शर्तों को आदर दे रहा हूं। और जो आदमी मेरी शर्तें पूरी करने को राजी हो जाता है वह आदर योग्य नहीं है, वह गुलाम है। वह आदर पाने के लिए ही बेचारा शर्तें पूरी करने को राजी है। हम अपने साधुओं से कहते हैं कि तुम ऐसा करो, पैदल चलो, इधर मत जाओ, उधर मत जाओ तो हम तुम्हें आदर देंगे--ये सब अनकही शर्तें हैं। अगर वह इनमें गड़बड़ करता है, आदर विलीन हो जाता है। अगर इनको मान कर चलता है, आदर जारी रहता है। और इसलिए एक दुर्घटना घटती है कि साधुओं में जो प्रतिभा होनी चाहिए वह धीरे-धीरे खो जाती है। और साधुओं की तरफ सिर्फ जड़बुद्धि लोग उत्सुक हो पाते हैं। क्योंकि जड़ बुद्धि ही आपके इतने नियमों को मान सकते हैं, बुद्धिमान आपके इतने नियमों को नहीं मान सकता।
इसीलिए यह दुर्घटना घटती है कि जब भी सच में कोई साधु पुरुष पैदा होता है तो उसे नया धर्म खड़ा करना पड़ता है, क्योंकि कोई पुराने धर्म में उसके लिए जगह नहीं होती। इसका कारण है। अब एक नानक पैदा हो जाए तो उसका नया धर्म अनिवार्यतया खड़ा हो जाता है, क्योंकि कोई पुराना धर्म उसको जगह न देगा; क्योंकि वह कोई के नियम जबरदस्ती इसलिए मानने को राजी न होगा कि आप आदर देंगे। वह कहता है: आदर की क्या जरूरत है? मैं अपने ढंग से जीऊंगा जो मुझे ठीक लगता है। तब उसका ठीक लगना किसी पुराने धर्म को ठीक नहीं लगेगा, क्योंकि पुराने धर्म किन्हीं और लोगों के आस-पास निर्मित हुए हैं, उनके ठीक होने का ढंग और था।
अब मुसलमान सोच ही नहीं सकते कि नानक में भी कोई समझ हो सकती है। मरदाना को बगल में लिए गांव-गांव गीत गाते फिरते हैं। अब संगीत की दुश्मनी है इस्लाम की। मस्जिद में संगीत प्रवेश नहीं कर सकता। मस्जिद के सामने से नहीं निकल सकता। और यह आदमी मरदाना को लिए हुए है--और जगह-जगह। मरदाना मुसलमान था जो नानक के साथ सा़ज बजाता था तो मुसलमानों ने उसको भी डिसओन कर दिया कि यह आदमी कैसा मुसलमान! यह मुसलमान हो ही नहीं सकता। संगीत से तो दुश्मनी है।
मोहम्मद के लिए संगीत में कोई रस न रहा होगा। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। और यह भी हो सकता है कि मोहम्मद को संगीत के माध्यम से निम्न वासनाएं जगती हुई मालूम हुई होंगी, उन्होंने इनकार कर दिया। लेकिन सभी को ऐसा होता है, यह जरूरी नहीं है। किन्हीं के भीतर संगीत से श्रेष्ठतम का जन्म होना शुरू होता है।
पर मोहम्मद का अपना अनुभव आधार बनेगा। मोहम्मद को सुगंध बहुत पसंद थी। इसलिए मुसलमान अभी भी ईद के दिन बेचारे इत्र एक-दूसरे को लगाते देखे जाते हैं। अभी भी सुगंध से मुसलमानों को प्रेम है। वह प्रेम सिर्फ परंपरा है। मोहम्मद को बहुत पसंद थी। असल में मोहम्मद, ऐसा मालूम पड़ता है कि सुगंध मोहम्मद को वहीं ले जाती थी, जहां कुछ लोगों को संगीत ले जाता है। सुगंध भी एक इंद्रिय है; जैसा संगीत कान का रस है, वैसे सुगंध नाक का रस है। लेकिन मालूम होता है कि मोहम्मद सुगंध से बड़ी ऊंचाइयों पर उड़ जाते थे। और उनके लिए सुगंध का कोई एसोसिएशन गहरा बन गया होगा।
संभव है, जब उन्हें पहली दफा इलहाम हुआ, जब उन्हें पहली दफा प्रभु की प्रतीति हुई, या प्रभु का संदेश उतरा तब पहाड़ के आस-पास फूल खिले होंगे। सुगंध उसके साथ जुड़ गई होगी। जरूर कोई ऐसी घटना--फिर सुगंध उनके लिए द्वार बन गई। जब भी वे सुगंध में होंगे, तब वह द्वार खुल जाएगा।
लेकिन यही बात संगीत में हो सकती है, लेकिन यही बात नृत्य में हो सकती है, यही बात अनेक-अनेक रूपों में हो सकती है, पर, मोहम्मद हों तो शायद समझ भी जाएं, मोहम्मद तो हैं नहीं, वह जो पीछे चलने वाला आदमी है, वह कहता है कि संगीत नहीं बजने देंगे, क्योंकि संगीत इनकार है।
तो फिर नानक को मुसलमान कैसे स्वीकार करें? हिंदू भी स्वीकार नहीं कर सकते नानक को। क्योंकि नानक गृहस्थ हैं। वे संन्यासी नहीं हैं। पत्नी है, घर है, कपड़े भी वे साधारण पहनते हैं--गृहस्थ के। तो गृहस्थ को हिंदू कैसे स्वीकार करें? ज्ञानी तो संन्यासी होता है।
फिर नानक और भी गड़बड़ करते हैं। सभी जानने वाले लोग एक अर्थ में डिस्टर्बिंग होते हैं, क्योंकि पुरानी सब व्यवस्था से वे फिर नये होते हैं। वे गड़बड़ यह करते हैं कि वे काबा भी चले जाते हैं, वे मस्जिद में भी ठहर जाते हैं। तो हिंदू कैसे मानें कि जो आदमी मस्जिद में भी ठहर जाता है, वह आदमी धार्मिक हो सकता है! मंदिर में ही ठहरना चाहिए।
जो विनय श्रेष्ठ की किन्हीं धारणाओं को मान कर चलती है वह सिर्फ अंधी होगी, परंपरागत होगी, रूढ़िगत होगी, वह क्रांतिकारी नहीं होती। उससे अंतर-आविर्भाव नहीं होता। अंतर-आविर्भाव जब होता है तो आदर सहज होता है--वह पत्थर के प्रति भी होता है, पौधे के प्रति भी होता है, अस्तित्व के प्रति भी होता है। इससे कोई संबंध नहीं कि वह कौन है और क्या है, कोई शर्त नहीं है। वह है, बस इतना काफी है।
ऐसी विनय की जो स्थिति है वह प्रायश्चित्त के बाद ही सध सकती है। और सध जाए तो जीवन में आनंद का हिसाब नहीं रह जाता। क्यों? क्योंकि जितना दूसरों का दोष देखते हैं, मन को उतना ही दुख होता है। और जितने दूसरों के दोष दिखते हैं उतने ही अपने दोष नहीं दिखते और नहीं दिखने वाले दुश्मन भीतर छिप कर काम तो चौबीस घंटे करते हैं, बहुत दुख पैदा करवाते हैं। जब दूसरे में कोई दोष नहीं दिखता तो दूसरे से तो दुख आना बंद हो जाता है। जब कोई आदमी मुझ पर क्रोध करता है तो अगर मैं यह नहीं मानता कि यह उसका दोष है, या बुराई है; इतना मानता हूं कि ऐसा उससे घटित हो रहा है, तो मैं फिर उसके क्रोध से दुखी नहीं होता। अगर मैं जा रहा हूं और एक वृक्ष की शाखा मेरे ऊपर गिर जाए तो मैं खड़े होकर वृक्ष को गाली नहीं देता--हालांकि कुछ लोग देते हैं। बिना गाली दिए वे मान ही नहीं सकते, वृक्ष को भी गाली दे देते हैं। पर वे भी मानेंगे गाली देने के बाद कि बेकार थी बात, सिर्फ आदतवश थी। क्योंकि वृक्ष को क्या पता कि मैं निकल रहा हूं, क्या प्रयोजन मुझे मारने का; चोट पहुंचाने का क्या अर्थ है!
वृक्ष को हम गाली नहीं देते क्योंकि हम मान लेते हैं कि वृक्ष को हमसे कोई प्रयोजन नहीं है। शाखा टूटनी थी, हवा का झोंका भारी था, तूफान तेज था, वृक्ष जरा-जीर्ण था, गिर गया, संयोग की बात कि हम नीचे थे। जो आदमी विनयपूर्ण होता है, जब आप उसको गाली देते हैं तब भी वह ऐसा ही मानता है कि मन में उसके क्रोध भरा होगा, परेशान होगा चित्त, जरा-जीर्ण होगा, गाली निकल गई; संयोग की बात कि हम पास थे। और कोई पास होता, किसी और पर निकलती। मगर इससे विनय में कोई बाधा नहीं पड़ती। इससे दुख भी नहीं आता। इससे यह भी नहीं होता कि ऐसा उसने क्यों किया? ऐसा तो तभी होता है जब हम मानते हैं कि उसे कुछ और करना चाहिए था जो उसने नहीं किया।
विनीत आदमी मानता है, वही होता है जो हो रहा है। वही हो सकता है जो हो रहा है--स्वीकार है उसे। पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। जीसस जुदास के पैर पड़ लेते हैं उसी रात, जिस रात पकड़े जाते हैं। जुदास के पैर पड़ना, जुदास का हाथ लेकर चूमना। कोई पूछता है कि आप यह क्या कर रहे हैं? और आपको पता है और हमें भी थोड़ी-थोड़ी खबर है कि यह आदमी दुश्मनों के साथ मिला है। जीसस कहते हैं: इससे क्या फर्क पड़ता है! यह क्या करेगा और क्या करता है, यह सवाल नहीं है। यह है, यही काफी आनंद है। फिर शायद दुबारा इससे मिलने का मौका न भी मिले। मैं बच जाऊं तो भी न मिले क्योंकि यह आदमी शायद फिर निकट आने का साहस न जुटा पाए। मैं न बचूं, तब तो सवाल नहीं। मैं कल मर जाऊं तो मेरा यह चुंबन, और मेरा इसका पैर को छूना इसे याद रहेगा। वह शायद इसके किसी काम पड़ जाए। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह क्या करेगा। वह इररिलेवेंट है।
विनय के लिए यह बात असंगत है कि आप क्या करते हैं, आप हैं, इतना काफी है। विनय बेशर्त सम्मान है। श्र्वीत्जर ने ठीक शब्द उपयोग किया है महावीर के विनय का। अगर ठीक शब्द हम पकड़ें इस सदी में तो श्र्वीत्जर से मिलेगा। श्र्वीत्जर ने एक किताब लिखी है: ‘रेवरेंस फॉर लाइफ। जीवन के प्रति सम्मान।’ तो यह नहीं है कि एक तितली को बचा लेंगे और एक बिच्छू को न बचाएंगे। श्र्वीत्जर दोनों को बचाने की कोशिश करेगा। माना कि बिच्छू को बचाने में बिच्छू डंक मार सकता है, यह उसका स्वभाव है। इसके कारण सम्मान में कोई अंतर नहीं पड़ता। हम बिच्छू से यह नहीं कहते कि तुम डंक न मारोगे तो ही हम सम्मान देंगे। हम जानते हैं कि बिच्छू का डंक मारना स्वभाव है। वह डंक मार सकता है। श्र्वीत्जर उसको भी बचाने की कोशिश करेगा; क्योंकि जीवन के प्रति एक सम्मान का भाव है। और जीवन के प्रति सम्मान हो तो आपके दुख असंभव हैं, क्योंकि सब दुख आप शर्तों के कारण लेते हैं। ध्यान रहे, सब दुख सशर्त हैं। आपकी कोई शर्त है इसलिए दुख पाते हैं। जिसकी कोई शर्त नहीं है वह दुख नहीं पाता। दुख का कोई कारण नहीं रह जाता। और जब आप दुख नहीं पाते तो जो आप पाते हैं वही आनंद है।
जीसस ने कहा है: अपने शत्रुओं को भी प्रेम करो। नीत्शे ने जीसस के इस वक्तव्य पर आलोचना करते हुए लिखा है कि इसका तो मतलब यह हुआ कि आप शत्रु में शत्रुत्व तो देखते ही हैं। शत्रु को प्रेम करो! शत्रुता तो दिखाई ही पड़ती है शत्रु में। और जब शत्रुता दिखाई पड़ती है तो प्रेम कैसे करोगे? उसका वक्तव्य तर्कपूर्ण है, लेकिन सम्यक नहीं है। नीत्शे जो कह रहा है वह तर्कयुक्त है, फिर भी सत्य नहीं। जीसस अगर उत्तर दे सकें तो वे यही कहेंगे कि माना कि शत्रुता दिखती है, लेकिन फिर भी प्रेम करो क्योंकि शत्रुता जहां दिखती है वह उसका व्यवहार है और जो उसके भीतर छिपा है, वह उसका अस्तित्व है। हमारा सम्मान अस्तित्व के लिए है। वह बेशर्त है। माना कि वह गाली दे रहा है, पत्थर मार रहा है, हत्या करने की कोशिश कर रहा है, वह ठीक है। यह वह कर रहा है, यह वह जाने।
इस संबंध में यह भी आपको याद दिला दूं, उपयोगी होगा कि महावीर, बुद्ध या कृष्ण इन सबकी चिंतना में बहुत-बहुत फासले हैं, बहुत भेद हैं--होंगे ही। जब भी किसी व्यक्ति से सत्य उतरेगा तो वह नये आकार लेता है, वह उस व्यक्ति के आकार लेता है। निराकार सत्य तो उतर नहीं सकता। जब किसी से उतरता है तो उस व्यक्ति का आकार ले लेता है। लेकिन एक बहुत अदभुत बात है कि इस पृथ्वी पर भारत में पैदा हुए समस्त धर्म एक सिद्धांत के मामले में सहमत हैं, वह है कर्म। बाकी सब मामले में भेद है। बड़े-बड़े मामलों में भेद है। परमात्मा है या नहीं? तो हिंदू कहेंगे: है; जैन कहेंगे: नहीं है। आत्मा है या नहीं? तो जैन और हिंदू कहते हैं: है; बुद्ध कहते हैं: नहीं है। इतने बड़े मामलों में फासला है। लेकिन एक मामले में, जो हमारी नजर में भी नहीं आता और जो इन सबसे ज्यादा कीमती है, इसीलिए उसमें फासला नहीं है। वह सेंट्रल है, केंद्रीय है। परिधि पर झगड़े हो सकते हैं। वह है कर्म का विचार। उसमें कोई फर्क नहीं है। ये सारे धर्म इस देश में पैदा हुए हैं, कर्म के विचार से राजी हैं। बुद्ध जो आत्मा को नहीं मानते, परमात्मा को नहीं मानते, वे भी कहते हैं, कर्म है। महावीर परमात्मा को नहीं मानते, वे भी कहते हैं, कर्म है। हिंदू परमात्मा को भी मानते हैं, आत्मा को भी मानते हैं, वे कहते हैं, कर्म है।
यह कर्म की, इस विनय के संदर्भ में एक बात आपको याद दिला देनी जरूरी है कि जब भी कोई कुछ कर रहा है तो वह अपने कर्मों के कारण कर रहा है, आपके कारण नहीं। और जो आप कर रहे हैं वह अपने कर्मों के कारण कर रहे हैं, उसके कारण नहीं। अगर यह खयाल में आ जाए तो वह विनय सहज ही उतर आएगी। एक आदमी गाली दे रहा है, तो दो वजह हो सकती हैं इसके विश्लेषण में। एक आदमी मेरे पास आता है और मुझे गाली देता है तो इसे मैं दो तरह से जोड़ सकता हूं। या तो वह इसलिए गाली देता है कि वह मुझे गाली देने योग्य आदमी मानता है। गाली को मैं अपने से जोडूं--एक तो रास्ता यह है, और एक रास्ता यह है कि वह आदमी इसलिए गाली देता है कि उसके अतीत के सब कर्मों ने वह स्थिति पैदा कर दी कि उसमें गाली पैदा होती है। तब मैं अपने से नहीं जोड़ता, उसके कर्मों से जोड़ता हूं।
अगर मैं अपने से जोड़ता हूं तो बहुत मुश्किल है विनय को साधना। कैसे सधेगी? यह आदमी सामने गाली दे रहा है, इसके प्रति मैं कैसे आदर करूं? मन यह कहेगा कि अगर कोई गाली दे, तुम आदर करो, तुम उसको गाली देने के लिए और निमंत्रण दे रहे हो। अगर कोई गाली दे और हम उसे आदर करें तो हम उसको और प्रोत्साहन दे रहे हैं। तर्क निरंतर यह कहता है कि हम प्रोत्साहन दे रहे हैं। इससे तो वह और गाली देगा। और यह भी हम मान लें कि हमें गाली देगा तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन हमारे प्रोत्साहन से वह दूसरों को भी गाली देगा। क्योंकि आदमी को रस लग जाए और उसे पता चल जाए कि गाली देने से आदर मिलता है तो हमें दे, तब तक भी ठीक, लेकिन वह दूसरों को भी देगा। अगर किसी आदमी को यह पता चल जाए कि यहां मार-पीट करने से लोग सम्मान देते हैं, साष्टांग दंडवत करते हैं तो वह औरों को भी मारेगा, तो वह अगर औरों को मारेगा तो उसका जिम्मा भी हम पर आएगा, क्योंकि हम न आदर देते उसे, न वह मारने के लिए उत्सुक होता।
इसलिए तो मोहम्मद कहते हैं कि उसको वहीं ठीक कर दो जो गड़बड़ करे। नहीं तो अगर तुमने उसको आदर दिया, दूसरा चांटा--गाल उसके सामने कर दिया, वह अपना चांटा कहीं भी घुमाने लगेगा, किसी को भी लगाने लगेगा इसी आशा में कि अब दूसरा चांटा और मिलने का मौका मिलेगा। दूसरा गाल सामने आता होगा। लेकिन कर्म दूसरी तरह से भी जोड़ा जा सकता है; जो न इस्लाम जोड़ सका, न ईसाइयत जोड़ सकी। इसलिए इस्लाम और ईसाइयत में एक बहुत मौलिक आधार की कमी है। बहुत मौलिक आधार की कमी है। और वह कमी है, कर्म के विचार की।
इसलिए जीसस ने इतने प्रेम की बातें कहीं, और इतना अहिंसात्मक उपदेश दिया, लेकिन ईसाइयत ने सिर्फ तलवार चलाई और खून बहाया। खैर, मोहम्मद के मामले में तो यह भी हम कह सकते हैं कि तलवार उनके खुद के हाथ में थी, इसलिए अगर मुसलमानों ने तलवार उठाई तो इसमें एक संगति है। लेकिन जीसस के मामले में तो यह भी नहीं कहा जा सकता। उस आदमी के हाथ में तो कोई तलवार न थी। लेकिन ईसाइयत ने इस्लाम से कम हत्याएं नहीं कीं। इस सारी दुनिया को, पृथ्वी को रंग देने वाले लोग खून से, ईसाइयत और इस्लाम से आए।
बात क्या होगी? भूल क्या होगी? क्या कारण होगा? जीसस जैसा आदमी जिसने इतने प्रेम की बातें कहीं, उसकी भी परंपरा इतनी उपद्रवी सिद्ध हुई, इसका कारण क्या है? इसका कारण है, न तो जीसस और न मोहम्मद, दोनों में से कोई भी कर्म को व्यक्ति की स्वयं की अंतर-श्रृंखला से नहीं जोड़ पाए। वहीं भूल हो गई। वह भूल गहरी हो गई। और जितनी दुनिया वैज्ञानिक होती जाएगी उतनी वह भूल साफ दिखाई पड़ेगी।
इसे ऐसा सोचें कि जब भी आप क्रोध करते हैं, असल में आप दूसरे पर क्रोध नहीं करते। दूसरा सिर्फ निमित्त होता है। आप क्रोध को संगृहीत किए होते हैं अपने ही कर्मों से, अपने ही कल की यात्रा से। वह क्रोध आपके भीतर भरा होता है जैसे कि कुएं में पानी भरा होता है और कोई बाल्टी डाल कर खींच लेता है। कोई गाली डाल कर आपके क्रोध को बाहर निकाल लेता है, बस। वह निमित्त ही बनता है। तो निमित्त पर इतना क्या क्रोध? कुआं क्यों बाल्टी को गाली दे कि तुझमें पानी है। पानी तो कुएं से ही आता है, बाल्टी सिर्फ लेकर बाहर दिखा देती है। तो विनयपूर्ण आदमी धन्यवाद देगा उसको जिसने गाली दी। क्योंकि अगर वह गाली न देता तो अपने भीतर के क्रोध का दर्शन न होता। वह बाल्टी बन गया। उसने क्रोध बाहर निकाल कर बता दिया।
इसलिए कबीर कहते हैं: ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।’ वह जो तुम्हारी निंदा करता हो, उसको तो अपने घर के बगल में ही ठहरा लेना; क्योंकि वह बाल्टी डालता रहेगा और तुम्हारे भीतर की चीजें निकाल कर तुम्हें बताता रहेगा। अकेले पड़ गए, पता नहीं कुएं में पानी भरा रहे और भूल जाए कुआं कि मुझमें पानी है क्योंकि कुएं को भी पता तभी चलता है जब बाल्टी कुएं से पानी खींचती है। और अगर फूटी बाल्टी हो तो और ज्यादा पता चलता है। और निंदक, सब फूटी बाल्टियों जैसे होते हैं। भयंकर पानी की बौछार कुएं में होने लगती है। तो कुएं को पहली दफा नींद टूटती है और पता चलता है, यह क्या हो रहा है। कुआं खुद सोया रहेगा अगर बाल्टी न हो, पता भी न चलेगा।
इसलिए लोग जंगल भागते रहे हैं। वह बाल्टियों से बचने की कोशिश है। लेकिन उससे पानी नष्ट नहीं हो जाएगा, जंगल आप कितना ही भाग जाएं। जंगल के कुएं को कम पता चलता होगा क्योंकि कभी-कभी कोई यात्री बाल्टी डालता होगा। या अगर रास्ता निर्जन हो और कोई न चलता हो तो कुएं को पता ही नहीं चलता होगा कि मेरे भीतर पानी है। ऐसे ही जंगल में बैठे साधु को हो जाता है। कभी कोई निकलने वाला कुछ गलत-सही बातें कर दे, तो शायद बाल्टी पड़ती है। अगर रास्ता बिलकुल निर्जन हो... इसलिए साधु निर्जन रास्ता खोजता है, निर्जन स्थान खोज लेता है। अगर इसीलिए खोज रहा है तो गलती कर रहा है। अगर यही कारण है कि मेरे भीतर जो भरा है वह दिखाई न पड़े किसी के कारण, तो गलती कर रहा है, भयंकर गलती कर रहा है।
महावीर कहते हैं कि दूसरा अपने कर्मों की श्रृंखला में नया कर्म करता है। तुमसे उसका कोई भी संबंध नहीं है। इतना ही संबंध है कि तुम मौके पर उपस्थित थे और उसके भीतर विस्फोट के लिए निमित्त बने। इस बात को दूसरी तरह भी सोच लेना है कि तुम भी जब किसी के लिए विस्फोट करते हो तब वह भी निमित्त ही है। तुम ही अपनी श्रृंखला में जीते और चलते हो।
इसे हम ऐसा समझें तो शायद समझना आसान पड़ जाए।
दस आदमी एक ही मकान में हैं, एक आदमी बीमार पड़ जाता है, उसे फ्लू पकड़ लेता है। चिकित्सक उससे कहता है: वायरस है। लेकिन दस आदमी भी घर में हैं, उनमें से नौ को नहीं पकड़ा है। तो चिकित्सक की कहीं बुनियादी भूल तो मालूम पड़ती है। वायरस इसी आदमी को खोजता है, इसका मतलब केवल इतना है कि वायरस निमित्त बन सके, लेकिन इस आदमी के भीतर बीमारी संगृहीत है। नहीं तो बाकी नौ लोगों को क्यों वायरस नहीं पकड़ रहा है? कोई दोस्ती है, कोई दुश्मनी है! बाकी नौ लोग नहीं, इस आदमी को क्यों पकड़ लिया? इस आदमी को इसलिए पकड़ लिया है कि इस आदमी के भीतर वह स्थिति है जिसमें वायरस निमित्त बन कर और फ्लू को पैदा कर सकता है। बाकी नौ के भीतर वह स्थिति नहीं है। तो वायरस आता है, चला जाता है। वह उनके भीतर फ्लू पैदा नहीं कर पाता।
तो अब सवाल यह है--फ्लू वायरस पैदा करता है? अगर ऐसा आप देखते हैं तो आप महावीर को कभी न समझ पाएंगे। महावीर कहते हैं: फ्लू की तैयारी आप करते हैं, वायरस केवल मैनिफेस्ट करता है, प्रकट करता है। तैयारी आप करते हैं, जिम्मेवार आप हैं। जिम्मेवारी सदा मेरी है। आस-पास जो घटित होकर प्रकट होता है वह सिर्फ निमित्त है, पर उन पर क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। धन्यवाद दिया भी जा सकता है; अनुग्रह माना भी जा सकता है; क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। और तब, तब आपमें अहंकार के खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती।
ध्यान रहे, जहां क्रोध है, वहां भीतर अहंकार है। और जहां क्रोध नहीं, वहां भीतर अहंकार नहीं है। क्योंकि क्रोध सिर्फ अहंकार के बीच डाली गई बाधाओं से पैदा होता है, और किसी कारण पैदा नहीं होता। अगर आपके अहंकार को तृप्ति मिलती जाए, आप कभी क्रोधी नहीं होते। अगर सारी दुनिया आपके अहंकार को तृप्त करने को राजी हो जाए तो आप कभी क्रोधी न होंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा कि क्रोध भी कोई चीज थी। लेकिन अभी कोई आपके मार्ग में बाधा डालने को खड़ा हो जाए, और आपको क्रोध प्रकट होने लगेगा। क्रोध जो है, अहंकार अवरुद्ध जब होता है तब पैदा होता है।
लेकिन अब तो क्रोध का कोई कारण ही न रहा। अगर मैं यह मानता हूं कि आप अपने कर्मों से चलते हैं, मैं अपने कर्मों से चलता हूं, हम राह पर कहीं-कहीं मिलते हैं--क्रिसक्रॉस, किसी चौरस्ते पर मुलाकात हो जाती है, लेकिन फिर भी आप अपने से ही बोलते हैं, मैं अपने से ही बोलता हूं। मैं अपने से ही व्यवहार करता हूं, आप अपने से ही व्यवहार करते हैं। कहीं प्रकट जगत में हमारे व्यवहार एक-दूसरे से तालमेल खा जाते हैं। पर वह सिर्फ निमित्त है। उसके लिए किसी को जिम्मेवार ठहराने का कोई कारण नहीं, तो फिर क्रोध का भी कोई कारण नहीं। और क्रोध का कोई कारण न हो तो अहंकार बिखर जाता है, सघन नहीं रह पाता।
विनय बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया है। दोष दूसरे में नहीं है, दूसरा मेरे दुख का कारण नहीं है। दूसरा श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ नहीं है। दूसरे से मैं कोई तुलना नहीं करता। दूसरे पर मैं कोई शर्त नहीं बांधता कि इस शर्त को पूरा करोगे तो मेरा आदर, मेरा प्रेम तुम्हें मिलेगा, सम्मान मिलेगा। मैं बेशर्त जीवन को सम्मान देता हूं। और प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से चल रहा है। तो अगर मुझसे कोई भूल होती है तो मैं अपने भीतर अपनी कर्म की श्रृंखला में खोजूं। अगर दूसरे से कोई भूल होती है तो यह उसका काम है इससे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। अगर एक आदमी मेरी छाती में आकर छुरा भोंक जाता है, तो भी यह कर्म उसका है, इससे मेरा कोई भी संबंध नहीं है। छाती में छुरा जरूर मेरे भुंक जाता है लेकिन इससे मेरा फिर भी कोई संबंध नहीं है। यह काम उसका ही है, वही जाने। वही इसके फल पाएगा, नहीं पाएगा, यह उसकी बात है। यह मेरा काम ही नहीं है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है।
महावीर इतना जरूर कहते हैं कि अगर यह मेरी छाती में छुरा भुंकता है, तो इससे मेरा इतना ही संबंध हो सकता है कि मेरी पिछली यात्रा में मैंने यह तैयारी करवाई हो कि यह छाती में छुरा भुंके। इसका मेरी छाती में जाना मेरे पिछले कर्मों की कुछ तैयारी होगी। बस, उससे मेरा संबंध है। लेकिन उस आदमी का मेरी छाती में भोंकना, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। इससे उसकी अपनी अंतर्यात्रा का संबंध है। यह बात साफ-साफ दिखाई पड़ जाए तो हम पैरेलल अंतर्धाराएं हैं कर्मों की, समानांतर दौड़ रहे हैं। और प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर से जी रहा है। लेकिन जब-जब हम जोड़ लेते हैं अपने से दूसरे की धारा को, तभी कष्ट शुरू होता है।
विनय केवल इस बात की सूचना है कि मैं अपने से अब किसी को जोड़ता नहीं। इसलिए विनय को महावीर ने अंतर-तप कहा है। क्योंकि वह स्वयं को दूसरों से तोड़ लेना है। बिना पता चले चीजें टूट जाती हैं। और जब मेरे और आपके बीच कोई भी संबंध नहीं रह जाता--प्रेम का नहीं, घृणा का नहीं--संबंध ही नहीं रह जाता, सिर्फ निमित्त के संबंध रह जाते हैं; तब न कोई श्रेष्ठ है, न कोई अश्रेष्ठ है। न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है। न कोई मेरा बुरा करने की कोशिश कर रहा है, न कोई मेरा भला करने की कोशिश कर रहा है।
महावीर कहते हैं कि जो कुछ मैं अपने लिए कर रहा हूं, मैं ही कर रहा हूं--भला तो भला, बुरा तो बुरा; मैं ही अपना नरक हूं, मैं ही अपना स्वर्ग हूं, मैं ही अपनी मुक्ति हूं। मेरे अतिरिक्त कोई भी निर्णायक नहीं है, मेरे लिए। तब एक हंबलनेस, एक विनम्र भाव पैदा होता है जो अहंकार का रूप नहीं है, अहंकार का अभाव है। जो अहंकार का डाइल्यूटेड फॉर्म नहीं है, जो अहंकार का तरल, बिखरा हुआ, फैला हुआ आकार नहीं है--अहंकार का अभाव है।
तो यह आखिरी बात खयाल में ले लें। विनम्रता यदि साधी जाएगी--जैसा हम साधते हैं कि इसको आदर दो, उसको आदर दो; इसको मत दो, उसको मत दो; आदर का भाव जन्माओ; विनम्र रहो; अहंकारी मत बनो, निर-अहंकारी रहो--तो जो विनम्रता पैदा होगी, इट विल बी ए फॉर्म ऑफ ईगो, वह अहंकार का ही एक रूप होगी। उससे समाज को थोड़ा फायदा होगा। क्योंकि आपका अहंकार कम प्रकट होगा, दबा हुआ प्रकट होगा, ढंग से प्रकट होगा, सुसंस्कृत होगा, कल्चर्ड होगा। लेकिन आपको कोई फायदा नहीं होगा।
इसलिए समाज की उत्सुकता इतनी ही है कि आप विनम्रता का आवरण ओढ़े रहें। बस समाज को इससे कोई मतलब नहीं है। समाज की औपचारिक व्यवस्था इतने से चल जाती है कि आप विनम्रता ओढ़े रहें। रहें भीतर अहंकारी, समाज को कोई मतलब नहीं है। लेकिन धर्म को इससे कोई प्रयोजन नहीं है कि आप बाहर क्या ओढ़े हुए हैं। धर्म को प्रयोजन है, आप भीतर क्या हैं? वॉट यू आर?
तो महावीर की जो विनय है वह समाज की व्यवस्था की विनय नहीं है--कि पिता को, कि गुरु को, कि शिक्षक को, कि वृद्ध को आदर दो। महावीर यह भी नहीं कहते कि मत दो। मैं भी नहीं कह रहा हूं कि आप मत दो, बराबर दो। वह एक समाज का खेल है, बट जस्ट ए गेम, और जितना समझदार आदमी, उसको उतना ही खेल है।
एक मित्र अभी परसों ही आए और कहने लगे: लड़के का यज्ञोपवीत होना है। और जब से आपको सुना तो लगता है यह तो बिलकुल बेकार है। लेकिन पत्नी जिद पर है, पिता जिद पर हैं, पूरा परिवार जिद पर है कि यह होकर रहेगा। तो मैं बाधा डालूं कि न डालूं?
तो मैंने कहा कि अगर बिलकुल बेकार है तो बाधा क्या डालनी! अगर कुछ थोड़ा सार्थक लगता है तो बाधा डालो। अगर तुम्हें लगता है कि यज्ञोपवीत का यह जो संस्कार-विधि होगी, यह बिलकुल बेकार है, इतनी बेकार अगर लगने लगी है तो ठीक है। जैसे घर के लोग सिनेमा देखने चले जाते हैं वैसे ही यज्ञोपवीत का समारोह हो जाने दो। जस्ट मेक इट ए गेम। है भी वह खेल। अब अगर पिता को मजा आ रहा है, मां को मजा आ रहा है, पत्नी मजा ले रही है, तो हर्जा क्या है इस खेल को चलने में? चलने दो। इस खेल को खेलो। अगर तुम जिद करते हो कि नहीं चलने देंगे, तुम भी इसको खेल नहीं मानते, तुम भी समझते हो, बड़ी कीमती चीज है। तुम भी सीरियस हो, तुम भी गंभीर हो कि अगर नहीं होगा तो कुछ फायदा होगा। जिस चीज के होने से फायदा नहीं हो रहा है, उसके न होने से क्या खाक फायदा होगा। जिसके होने तक से फायदा नहीं हो रहा है, उसके न होने से क्या फायदा हो सकता है? तो मैंने उनसे कहा, चीज इतनी बेकार है कि तुम बाधा मत डालना।
बोले: आप और यह कहते हैं! मैं तो यही समझा कि आप कहेंगे कि टूट पड़ो, बिलकुल होने ही मत देना।
मैं क्यों कहूंगा, ऐसा फिजूल काम, और इसमें इतना रस आ रहा हो घर के लोगों को तो--सो इनोसेंट ए गेम--इतना सरल और सीधा खेल कि एक लड़के के गले में माला-वाला डालनी है, सिर घुटाना--तो खेलने दो; इसमें क्या हर्ज है? और आदमी बच्चों जैसे हैं, उनको खेल चाहिए। अगर खेल न हो तो जिंदगी उदास हो जाती है। इसलिए हम जन्म को भी खेल बनाते; फिर यज्ञोपवीत का खेल खेलते; फिर शादी आती है, उसका खेल चलता। मर जाता है आदमी, तब भी हम खेल बंद नहीं करते। अरथी निकालते, वह भी उत्सव है, समारोह है, बैंड-बाजा आदमी को आखिर तक पहुंचा आता है। बस एक लंबा खेल है। पर आदमी बिना खेल के नहीं जी सकता। इसलिए जिन समाजों में खेल कम हो गए हैं वहां जीना मुश्किल हो गया है, क्योंकि आदमी तो वही का वही है। तो महावीर जैसा आदमी बिना खेल के जी सकता है। लेकिन बिना खेल के कोई तभी जी सकता है जब उसे वास्तविक जीवन का पता चल जाए। वास्तविक जीवन का पता न हो तो इस जीवन को, जिसे हम जीवन कह रहे हैं, यह तो बिना खेल के नहीं जीया जा सकता है। इसमें खेल रखने ही पड़ेंगे।
पश्र्चिम में यह दिक्कत खड़ी हो गई, तीन सौ साल में पश्र्चिम के विचारक लोगों ने, जिनको मैं बहुत विचारशील नहीं कहूंगा, चाहे वाल्तेयर हों और चाहे बर्ट्रेंड रसल, उन सबने पश्चिम के सब खेल निंदित कर दिए और कहा कि ये सब खेल बेकार हैं। यह क्या कर रहे हो? यह सब गड़बड़ है। इसमें क्या फायदा है? फायदा कोई बता न सका। अगर आप बच्चों से पूछें कि तुम यह जो खेल खेल रहे हो, इसमें क्या फायदा है? अगर आप बच्चों से पूछें कि यह तुम गेंद इस कोने से उस कोने फेंकते हो, उस कोने से इस कोने में फेंकते हो, इसमें क्या फायदा है? क्या फायदा है? तो बच्चे मुश्किल में पड़ जाएंगे, फायदा तो बता नहीं सकेंगे। फायदा नहीं बता सकेंगे तो आप कहेंगे, बंद करो। क्योंकि जब फायदा ही नहीं तो क्यों खेलना।
बच्चे बंद कर देंगे, लेकिन मुश्किल में पड़ जाएंगे, क्योंकि बच्चे क्या करेंगे? वह जो शक्ति बचेगी, उसका क्या होगा? वह जो खेलने में निकल जाता था, वह अब उपद्रव में निकलेगा। सारी दुनिया में बच्चों ने जितने खेल कम कर दिए हैं--और सब स्कूलों ने बच्चों के खेल छीन लिए। अब बच्चों ने नये खेल निकाले हैं। आप समझते हैं, वह उपद्रव है। वे सिर्फ खेल हैं। वे गेंद फेंक कर मजा ले लेते हैं, अब नहीं फेंकने देते, वे पत्थर फेंक कर खिड़कियां तोड़ रहे हैं। वह मामला वही है। आपने सब खेल छीन लिए तो उनको नये खेल ईजाद करने पड़ रहे हैं और वे नये खेल महंगे पड़ रहे हैं। वे बच्चों के खेल अच्छे थे। बच्चे एक-दूसरे को मार डालते थे, मुकदमा चला देते थे, कोई न्यायाधीश बन जाता था। वे सब खेल हमने छीन लिए। सब बच्चे हमारे, बच्चे होने के समय ही गंभीर और बूढ़े होने लगे। अब उनको... लेकिन खेल तो उनके भीतर की जो ऊर्जा है, वह खेल मांगती है।
तो पश्चिम में यह दिक्कत खड़ी हुई, सारी फेस्टिविटी नष्ट कर दी है। वाल्तेयर से लेकर बर्ट्रेंड रसल के बीच पश्चिम में सारे उत्सव का भाव चला गया है। सब चीज बेकार--यह भी नहीं हो सकता, यह भी नहीं हो सकता, और जिंदगी वही की वही। अब बड़ी मुश्किल हो गई, शादी का उत्सव बेकार। इसमें क्या फायदा है, यह तो रिजिस्ट्री के आफिस में हो सकता है, यह बैंड-बाजा क्यों बजाना? लेकिन आपको पता नहीं कि वह जो आदमी बैंड-बाजा बजा रहा था, उसे खेल में रस था। अब यह आदमी जब रिजिस्ट्री के ऑफिस में जाकर शादी करवाएगा, घर आकर पाएगा--कुछ भी नहीं हुआ। तो बिलकुल बेकार निकल गया मामला। सिर्फ दस्तखत ही करके आ गए रिजिस्टर पर, यही शादी है! तो जो शादी सिर्फ दस्तखत करने से बन सकती है वह दस्तखत करने से किसी दिन टूट जाएगी। उसमें कोई मूल्य नहीं है।
वह शादी एक खेल था जिसमें हम बच्चों को दिखाते थे कि भारी मामला है। कोई छोटा मामला नहीं, तोड़ा नहीं जा सकता। इतना बड़ा मामला है। उसमें इतना शोरगुल मचाते थे, उसको घोड़े पर बिठाते, उसको राजा बना देते, छुरी लटका देते, बैंड-बाजा बजा देते, भारी उत्सव मचता। उसको भी लगता कि कुछ हो रहा है। कुछ ऐसा हो रहा है जिसको वापस लौटाना मुश्किल है। फिर इस सबके पीछे होता तो वही जो रिजिस्ट्री के ऑफिस में होता है। लेकिन इस सबके पहले जो हो गया है वह एक रूप, एक खेल--वह खेल इतना भारी था कि उसको लौटाना मुश्किल था। और उसकी जिंदगी में याद रहता। शादी चाहे दुख भी बन जाए बाद में, लेकिन वह जो शादी के पहले हुआ था वह उसे याद रहता। वह बार-बार सपने उसके देखता, वही घोड़े पर बैठना, वही राजा की पोशाक। और अब आज वह लड़का कहता कि इससे क्या होगा? यह पगड़ी मैं क्यों बांधूं? मत बांधो, लेकिन पत्नी जो हाथ लगेगी, वह छोटी लगेगी, क्योंकि खेल उसके पहले का पूरा नहीं हो पाया, बिना खेल के मिल गई है।
नसरुद्दीन की जब पहली दफा शादी हुई, वह सुहागरात को गया। रात आ गई, चांद निकल आया, पूर्णिमा का चांद। नसरुद्दीन खिड़की पर बैठा है। दस बज गए, ग्यारह बज गए, बारह बज गए। पत्नी बिस्तर में लेट गई। उसने एक दफे कहा: अब सो भी जाओ, अब सो भी जाओ।
नसरुद्दीन ने बारह बजे कहा कि बकवास बंद। मेरी मां कहा करती थी कि सुहागरात की रात इतनी आनंद की रात है, चूकना मत, तो मैं तो इधर खिड़की पर बैठ कर एक क्षण भी चूकना नहीं चाहता हूं। तू सो जा। कहीं नींद लग गई और चूक गए! तो मैं तो पूरी रात जगूंगा इसी खिड़की पर बैठा हुआ। मुझे तो वह पता लगाना है जो मां ने कहा कि सुहागरात की रात बड़ी आनंद की होती है। तो आज की रात मैं फालतू बातों में नहीं खो सकता। तू सो जा। तुझे अगर बातचीत करनी है तो कल।
इसके मन में सुहागरात की एक धारणा थी। आज ठीक उलटी हालत है। आज सुहागरात जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती।
मैंने सुना है, एक युवक अपनी सुहागरात से, हनीमून से वापस लौटा। मित्रों ने पूछा कि कैसी थी सुहागरात? उसने कहा: जस्ट लाइक बिफोर। अब तो सुहागरात का अनुभव पहले ही उपलब्ध है। उसने कहा: जस्ट लाइक बिफोर, नथिंग न्यू! कुछ नया नहीं।
पुरानी बुद्धिमत्ता महत्वपूर्ण थी। वह बच्चों जैसे आदमियों के लिए बनाए गए खेलों का इंतजाम था। उन खेलों के बीच आदमी जी लेता था। मैं नहीं कहता: खेल तोड़ दें। खेल जारी रखें। बड़े-बूढ़ों को आदर देना जारी रखें, गुरुजनों को आदर दें, साधुओं को आदर दें। खेल जारी रखें। उससे कुछ नुकसान नहीं हो रहा है किसी का। लेकिन उसको विनय मत समझ लें। वह विनय नहीं है। मैं नहीं कहता नसरुद्दीन से कि तू खिड़की पर मत बैठ और चांद को मत देख। लेकिन मैं उससे यह कहता हूं: इसे सुहागरात मत समझ। सुहागरात नहीं है। तू चांद देख।
विनय बहुत और बात है।
लेकिन हम ऐसे जिद्दी हैं जिसका कोई हिसाब नहीं, जैसा नसरुद्दीन था। दूसरी शादी की उसने। गया सुहागरात पर। बड़ा इठला कर, अकड़ कर चल रहा है। फिर पूर्णिमा है। बड़ा आनंदित है। रास्ते पर कोई मित्र मिल गया, उसने कहा कि बड़े आनंदित हो। नसरुद्दीन ने कहा कि मेरी सुहागरात है। उस आदमी ने चारों तरफ देखा। लेकिन हमें तुम्हारी पत्नी दिखाई नहीं पड़ती। उसने कहा: आर यू मैड? पहली दफे उसको लेकर आया, उसने सब रात खराब कर दी। इस बार उसको घर ही छोड़ आया हूं। रात भर बकवास करती रही: सो जाओ, यह करो, वह करो। पता नहीं रात कब चुक गई। और मेरी मां कहती थी कि सुहागरात...। इस बार तो उसको घर ही छोड़ आया हूं, अकेले ही आया हूं। सुहागरात चूकनी नहीं है।
कभी-कभी शब्द... मां ने जरूर कहा था और ठीक ही कहा था। लेकिन नसरुद्दीन जो समझे हैं, वह नहीं कहा था। परंपरा जो समझती है, शब्द वही हैं जो महावीर ने कहे थे, लेकिन परंपरा जो समझ लेती है, वह नहीं कहा था। विनय आविर्भाव होता है अंतस का और उसकी मैंने यह वैज्ञानिक प्रक्रिया आपसे कही। यह पूरी हो तो ही आविर्भाव होता है। हां, आप अपने को विनीत करने की जो कोशिश कर रहे हैं, वह जारी रखें। वह एक खेल है, वह अच्छा खेल है। उससे जिंदगी सुविधा से चलती है, कनवीनियंटली। बाकी उससे कोई आप जीवन के सत्य को उपलब्ध नहीं होते हैं।
आज इतना ही।
फिर कल आगे के सूत्र पर बात करेंगे।
लेकिन पांच मिनट बैठें। आप भी दोहराएं साथ में...!